Jaankari Rakho & : Biology https://m.jaankarirakho.com/rss/category/biology-33 Jaankari Rakho & : Biology hin Copyright 2022 & 24. Jaankari Rakho& All Rights Reserved. General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पर्यावरण प्रदूषण https://m.jaankarirakho.com/1012 https://m.jaankarirakho.com/1012 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पर्यावरण प्रदूषण
  • पर्यावरण के अजैव घटक में होने वाला अवांछित परिवर्तन जो मनुष्य तथा अन्य जीवों के लए हानिकारक हो, उसे प्रदूषण कहा जाता है। ऐसे अवांछित परिवर्तन का मुख्य कारण है- मानव का अपना स्वार्थ एवं सुख । बढ़ती हुई जनसंख्या बढ़ती हुई औद्योगिकीकरण, बढ़ता हुआ नगरीकरण से पर्यावरण का स्वाभाविक संतुलन बदल गया है, जिससे मानव का स्वास्थ्य खतरे में पड़ गया है।
  • पर्यावरण या पारिस्थितिकी का संतुलन बिगाड़ने वाले रसायनिक या अन्य पदार्थ जो प्रदूषण के कारण बनते हैं, उसे प्रदूषक (Pollutants) कहते हैं। अपने प्रकृति के अनुसार प्रदूषकों की कई श्रेणी हैं जिसमें प्रमुख है-
    1. प्राथमिक (Primary) प्रदूषक- प्राथमिक प्रदूषक विभिन्न स्त्रोतों से पर्यावरण में पहुँचता हैं तथा अपने मूल स्वरूप में ही रहकर प्रदूषण फैलाते हैं। उदाहरण:- CO, CO2, DDT आदि  
    2. द्वितीयक (Secondary) प्रदूषक- द्वितीयक प्रदूषक, प्राथमिक प्रदूषकों के आपस में होनेवाली रसायनिक प्रतिक्रियाओं के कारण बनते हैं। उदाहरण:- O3, NH3, PAN आदि
    3. जैव निम्नीकरीय (Biodegradable) प्रदूषक - ऐसे प्रदूषक पदार्थ जो पर्यावरण में उपस्थित अपघटक (Decomposers) द्वारा अपघटित हो जाते हैं उसे जैव निम्नीकरणीय प्रदूषक कहते हैं। उदाहरण:- जंतुओं के मल-मूत्र, वाहत मल जल (Sewage), कृषि द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट, कागज, कपास निर्मित वस्तु, जंतु, पेड़-पौधा का मृत शरीर, लकड़ी आदि I
    4. जैव अनिम्नीकरणेय (Non-Biodegradable) प्रदूषक- यह प्रदूषक का जैविक अपघटन (Decompose) नहीं हो पाता है और न ही किसी अन्य प्राकृतिक विधियों द्वारा नष्ट है। जैव निम्नीकरणीय प्रदूषक के तुलना में यह प्रदूषक पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुँचाता है। उदाहरण: - कीटनाशी तथा पीड़कनाशी, DDT, शीशा, आर्सेनिक, ऐलुमिनियम, प्लैस्टीक, पारा, रेडियोधर्मी पदार्थ तथा अन्य रसायन । 

वायु प्रदूषण (Air Pollution)

  • वायु विभिन्न गैसों का मिश्रण है जो पृथ्वी के चारों ओर एक आवरण बनाये हुए है। वायु में 78% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन, 0.9% ऑर्गन, 0.03 कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा अन्य गैस पाये जाते हैं। वर्त्तमान समय में वायु में कई अवांछित पदार्थ (प्रदूषक) मिलकर वायु के अवयवों का संतुलन बिगाड़ दिया है जिसके कारण वायु के गुणवत्ता में निरंतर कमी आ रही है। वायु के अवयवी गैस का संतुलन बना रहना या वायु का शुद्ध रहना मनुष्य ही नहीं वरन् सभी जैविक समुदाय के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है ?
  • वायु प्रदूषण के अनेक कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नांकित है-
1. कार्बन मोनोक्साइड (CO)
  • कार्बन मोनोऑक्साइड सबसे ज्यादा प्रदूषक गैस है। वायु में उपस्थित प्रदूषक गैसों में आधी हिस्सेदारी केवल कार्बन मोनोऑक्साइड का है। वायुमंडल में आने वाले कार्बन मोनोऑक्साइड का मुख्य स्रोत स्वचालित वाहन तथा परिवहन के अन्य साधन हैं जिनमें जैविक ईंधन का प्रयोग होता है। इसके अलावा यह गैस जैविक ईंधन के अपूर्ण दहन से, सिगरेट के धुए से, एलुमिनियम संयंत्र से वायुमंडल में आता है।
  • कार्बन मोनोऑक्साइड एक रंगहीन तथा गंधहीन गैस है तथा सांस द्वारा अंदर जाने पर यह गैस कोई जलन भी उत्पन्न नहीं करता है। इस गैस की रक्त के हीमोग्लोबिन से संयोजन क्षमता ऑक्सीजन के अपेक्षा 300 गुनी अधिक होने के कारण इसकी अल्पमात्रा भी हीमोग्लोबिन की ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता को कम कर देता है जिससे श्वासवरोध (Asphyxiation) मनुष्य की मृत्यु हो जाती है
  • वायु में कार्बन मोनोऑक्साइड की सांद्रता बढ़ने से मनुष्य में शिथिलता तथा चक्कर आने लगता है। बच्चों में कम वजन का होना भी इसका एक अन्य प्रभाव है।
2. कार्बन डाइऑक्साइड (CO2)
  • कार्बन डाईऑक्साइड वायु में 0.03 प्रतिशत है। कार्बन डाइऑक्साइड की इतनी मात्रा (0.03% ) वायु में रहना अत्यंत आवश्यक है परंतु ईंधन के जलने, कारखाने तथा यातायात के साधन बढ़ने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा प्रतिवर्ष बढ़ रही हैं जो मनुष्य एवं अन्य जीवों के लिए बहुत ही हानिकारक है।
  • वायु में बढ़ती हुई कार्बन डाइऑक्साइड के परिणामस्वरुप वायुमंडल के तापक्रम में वृद्धि एवं हरित घर प्रभाव, ध्रुवीय हिमखंडओं का पिघलना समुद्री जल स्तर में वृद्धि, मनुष्य में सिर दर्द, उल्टी आदि उत्पन्न होता है
3. हाइड्रोकार्बन (Hydrocarbon)
  • ईंधनों के दहन एवं मोटरवाहनों से न सिर्फ कार्बन मोनोऑक्साइड तथा कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में आते हैं बल्कि कई प्रकार के हाइड्रोकार्बन जैसे- बेन्जोपायरीन, ईथीलीन, बेंजीन, एसीटिक अम्ल भी वातावरण में प्रवेश कर वायु को प्रदूषित करते हैं।
  • इन हाइड्रोकार्बन की बढ़ती सांद्रता के कारण पौधों में समय से पहले पत्तियों एवं पुष्प कलियों में पीलापन आ जाता है एवं ये झड़ जाती हैं। मनुष्य में ऐसे हाइड्रोकार्बन फेफड़ों के कैंसर के कारण बनते हैं।
4. नाइट्रोजन के ऑक्साइड
  • मोटरवाहन, ,बिजली पैदा करने वाला संयंत्र, खाद्य तथा कीटनाशक उद्योग विभिन्न प्रकार के नाइट्रोजन के ऑक्साइड निष्कासित होकर वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं 
  • नाइट्रोजन के ऑक्साइड में मुख्यत: NO तथा NO2 है जो वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं। NO2 भूरी विषैली गैस है जिससे वायुमंडल में भूरे रंग का धुंध बनता है। 
  • नाइट्रोजन के ऑक्साइड के कारण मानव रक्त में ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता में कमी आती है। अम्ल वर्षा हेतु भी यह गैस उत्तरदाई है।
5. सल्फर के यौगिक
  • बिजली पैदा करने वाले संयंत्र, उद्योग, परिष्करणशाला (Refineries), जीवाश्म ईंधन के जलने से वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड (SO2), सल्फर ट्राईऑक्साइड (SO3) तथा हाइड्रोजन सल्फाइड आते है तथा वायु को प्रदूषित करते है।
  • सल्फर के यौगिक की सांद्रता बढ़ने से मानव तथा वनस्पति दोनों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। SO2 के प्रभाव से मुंह, गला एवं आंखों में रूखापन पैदा हो जाता है। SO2 तेज गंध वाली गैस है जो कफ पैदा करता है एवं श्वासनली को अवरुद्ध कर देता है।
  • SO2 के कारण पौधों के पत्तियों का क्लोरोफिल नष्ट हो जाता है, कोशिकाओं तथा उत्तकों की मृत्यु हो जाती है ।
6. धुआँ (Smoke
  • धुआँ में ठोस एवं तरल दोनों प्रकार के छोटे-छोटे कणों का बना होता है। यह धुआँ घरेलू ईंधन के अपूर्ण दहन, औद्योगिक संयंत्रों से वायुमंडल में मुक्त होता है।
  • धुएँ में, राख, धूलकण, कालिख, हानिकारक गैस, महीन रेशे जैसे कई वायु प्रदूषक मौजूद रहते हैं जो पौधे एवं मनुष्य को विभिन्न प्रकार के नुकसान पहुंचाता है।
  • धुएँ के कारण मनुष्य में दमा (Asthma), फेफड़े का कैंसर, खाती श्वसन संबंधी रोग, आंखों में जलन जैसी बीमारी होती है।
  • धुएँ के प्रभाव से पौधों में पत्तियाँ काली या पीली होकर वृक्ष से झड़ जाती है।
7. धुंध (Smog)
  • धुंध (Smog) दो शब्द धुआँ (Smoke ) तथा कुहरा (Fog) से मिलकर बना है। कोहरा (Fog) बनना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसमें जल के सूक्ष्मकण वायु में निलंबित रहते है। कोहरा में जब धुआँ मिलता है तो धुंध का निर्माण होता है जो शहरों के ऊपर प्राय: छाए रहते है।
  • धुँध (Smog) दो प्रकार के होते हैं- सल्फ्यूरस स्मॉग तथा प्रकाश रासायनिक स्मॉग
  • सल्फ्यूरस स्मॉग धुआँ, कुहरा तथा सल्फर के ऑक्साइड के मिश्रण होने से बनता है। यह स्मॉग अवकारक के तरह व्यवहार करता है तथा यह सूर्योदय के बाद ही प्रभावी होता है। सल्फ्यूरस स्मॉग को लंदन टाइप स्मॉग भी कहा जाता है। 
  • प्रकाश रसायनिक स्मॉग की उत्पत्ति सूर्य की उपस्थिति में नाइट्रोजन के ऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन के विघटन एवं आपसी प्रतिक्रिया के फलस्वरुप उत्पन्न होता है। यह स्मॉग ऑक्सीकारक होता है तथा इसे लॉस एंजेल्स स्मॉग भी कहते हैं।
  • प्रकाश रासायनिक स्मॉग बनने के विभिन्न चरण-

  • प्रकाश रासायनिक स्मॉग का मुख्य अवयव ओजोन, नाइट्रिक ऑक्साइड (NO), फार्मेल्डिहाइड, परऑक्सीएसीटल नाइट्रेट (PAN) है।
  • प्रकाश रसायनिक के प्रभाव से धातु, पत्थर, रबड़, तथा रंगे हुए सतह का क्षय होता है। ओजोन तथा PAN के कारण आंखों में जलन होती है। ओजोन तथा नाइट्रिक ऑक्साइड से नाक तथा गला भी प्रभावित होते हैं।
8. भारी धातु (Heavy Metals)
  • विभिन्न प्रकार के उद्योगों से भारी धातु जैसे निकेल, शीशा, आर्सेनिक, कैडमियम, पारा, जिंक, बेरिलयम आदि के यौगिक वायुमंडल में निष्कासित होते रहते हैं जिनका जीवों के शरीर पर अनेक तरह से प्रभाव पड़ता है।
  • लैड एक विषैली धातु है । लेड धातु युक्त हवा में सांस लेने से लेड हमारे फेफड़े में एकत्र होकर लेड विषाक्तता (Lead poisoning) उत्पन्न करता है। इसके मुख्य लक्षण है- उल्टी, नींद ना आना, कब्जियत, थकावट तथा रक्त की कमी: इसके अतिरिक्त लेट से मानसिक विकृतियाँ पैदा होती है।
  • पारा धातु तथा उसके यौगिक विषाक्त होते हैं। कल कारखानों के कचरे तथा खाद्यान के संरक्षण में उपयोग आने वाले कीटनाशक में पारा का यौगिक मौजूद रहता है। पारा विषाक्तता के कारण मीनामाता रोग होता है जिसमें मांसपेशियाँ कमजोर हो जाती है, दृष्टि और श्रवण क्षमता शिथिल पड़ जाती है, अंतत: दिमाग क्षतिग्रस्त हो जाता है और रोगी की मृत्यु हो जाती है।
  • कैडमियम श्वास जहर का काम करता है एवं उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोगों का जनक होता है।
9. घरेलू अपमार्जक तथा पीड़कनाशी
  • आजकल लोग अपने घरों में मच्छड़, चूहे, खटमल मक्खी, तिलचट्टा और दीमक जैसे कीड़ों को मारने के लिए अनेक प्रकार के कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं। इन कीटनाशकों से में ऐल्ड्रीन, फ्लिट, गैमेक्सीन, डी.डी.टी., फिनाइल जैसे विषैले रसायन होते हैं। ये रसायन खाद्य श्रृंखला के अंग बन जाते हैं जिनका शिकार कुछ समय बाद मनुष्य स्वतः हो जाता है। 
  • इन विषैले रसायन के प्रभाव से तंत्रिका तंत्र उत्तेजित हो जाते हैं, लीवर तथा त्वचा रोग होने लगता है। इसके अलावे ये रासायनिक श्रृंखला का संतुलन बिगाड़ कर पारिस्थितिकी तंत्र को भी हानि पहुँचाते है।
10. फ्लोराइडस (Fluorides)
  • फ्लोराइड युक्त खनिज, मृदा, पत्थर से जहरीली गैस हाइड्रोजन फ्लोराइड उत्सर्जित होता है जो वायुमंडल को प्रदूषित करते रहते हैं I
  • फ्लोराइड की वायु में सांद्रता बढ़ने से पत्तियों के सिरों एवं किनारों पर क्लोरोसिस तथा नेक्रोसिस उत्पन्न होता है। पशु जब ऐसे चारे खाते हैं जिनमें फ्लोरीन के यौगिक मिले तो उनमें फ्लोरोसिस हो जाता है जिससे पशु के वजन में कमी, लँगड़ापन तथा अतिसार जैसे रोग होते हैं I
11. ओजोन (O3)
  • समताप मंडल में उपस्थित ओजोन पाराबैगनी विकिरण को रोककर पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करता है, परंतु वायुमंडल के कम ऊंचाई पर ओजोन का सांद्रता बढना प जीवों दोनों के लिए हानिकारक होता है।
  • ओजोन की सांद्रता जब 0.01 PPM होती है तो बहुत से पौधे जैसे चीड़, सेम, टमाटर, तंबाकू आदि को क्षति पहुँचाती है। ओजोन की मात्रा बढ़ने से जीवो में श्वसन दर, पौधों में वाष्प उत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। जिसके कारण DNA अणु का टूटना, मोतियाबिंद, खाँसी, आँख और छाती में जलन होने लगती है।
12. एरोसॉल (Aerosol)
  • एरोसॉल रसायनों का एक समूह है जो वाष्प के रूप में वायु में मुक्त होता है। वायुमंडल में । माइक्रोन से 10 माइक्रोन तक के सूक्ष्म कणों को भी एरोसॉल कहा जाता है। इनमें मुख्यतः फ्लोरीन युक्त कार्बन यौगिक, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, क्लोरोफ्लोरो मिथेन आदि आते हैं। ऐरोसॉल मुख्यतः वायुयानों, एयर कंडीशनरों, रेफ्रिजरेटरों, सुगंधियों आदि से मुक्त होते हैं।
  • एरोसॉल जब वायुमंडल में कम ऊँचाई पर रहते हैं तो कोई विशेष हानि नहीं पहुंचाती है परंतु जब यह समताप मंडल में फैलते हैं तो ओजोन परत को काफी हानि पहुंचाते हैं जिसके कारण फलस्वरुप पाराबैगनी किरणों की अधिक मात्रा धरती पर पहुँचकर तापमान में वृद्धि, पौधों एवं जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव तथा मनुष्यों में त्वचा कैंसर पैदा करती है। 
13. फ्लाई ऐस ( Flyash)
  • फ्लाई ऐस सूक्ष्म पाउडर है जिसमें मुख्यत ऐल्युमिनियम सिलीकेट, सिलिका (SiO2), कैल्शियम ऑक्साइड होते है। इसके अलावा इस पाउडर में शीशा, आर्सेनिक, कोबाल्ट, कॉपर जैसी धातु के सूक्ष्म कण भी होते हैं। फ्लाई ऐस का उत्सर्जन मुख्य रूप से कोयला से चलने वाले विद्युत गृह से होता है और यह दूर-दूर तक वायु में फैल जाता हैं।
  • फ्लाई ऐस जीवों के श्वसन मार्ग को अवरुद्ध कर देता है। यह पौधे के पत्तियों पर जमा होकर प्रकाश संश्लेषण को बाधित कर देता है।
  • फ्लाई ऐस को वायुमंडल में जाने से रोकने के लिए चिमनीयों में इलेक्ट्रोस्टेटिक अवक्षेपक का इस्तेमाल किया जाता है।
14. निलंबित कनीय पदार्थ (Suspended Particulte Matter)
  • 0.01 μm से 100 μm आकार के ठोस एवं द्रव कण को निलंबित कणीय पदार्थ है, जो विभिन्न औद्योगिक इकाई, ज्वालामुखी विस्फोट आदि से वायुमंडल में आते हैं और वायु को प्रदूषित करते है।
  • 10 μm से छोटे आकार के कण को तथा PM 10 तथा 1.5um से छोटे कण को PM 2.5 कहते है। ये सूक्ष्म कण श्वास के माध्यम से हमारे फेफड़े में पहुंचकर कई प्रकार की परेशानियाँ उत्पन्न करते हैं।
15. प्राकृतिक वायु प्रदूषक
  • प्राकृतिक वायु प्रदूषक के अंतर्गत ज्वालामुखी उद्गार के समय निकले जहरीले गैस, परागकण, बिजाणु (Spore), धूल-कण आदि आते है।

हरित ग्रह प्रभाव और वैश्विक तापन

  • हरित गृह प्रभाव को समझने से पहले हरित गृह (Green House) को जान लेना आवश्यक है। कुछ हरे पौधे गर्म वातावरण में ही विकसित होते है। उनके लिए शीशे की दीवारों से निर्मित घर बनाया जाता है जिसे हरित गृह या पौधा घर कहते है। इस हरित गृह के शीशे के दीवारों द्वारा सूर्य से प्रकाश दृश्य विकिरण एवं छोटी तरंगधैर्य वाली अवरक्त विकिरण प्रवेश करती है तथा पौधा घर की सतह को तप्त कर देती है। पौधा घर की सतह तप्त होने के पश्चात मुख्यतः लंबी तरंगधैर्य वाली अवरक्त विकिरण उत्सर्जित होती है जिन्हें शीशे की दीवारें परावर्तित कर देती और पौधा घर गर्म बना रहता है। पौधा घर (Green House) का गर्म वातावरण हरे पौधों के विकास के लिए अनुकूल होता है।
  • वायुमंडल में अत्यधिक कार्बन डाइऑक्साइड की उपस्थिति के कारण हरितगृह जैसा प्रभाव उत्पन्न होता है। सूर्य के किरण जब वायुमंडल में प्रवेश करती है तो दृश्य विकिरण तथा छोटे तरंगधैर्य वाली अवरक्त विकिरण हवा से होती हुई पृथ्वी की सतह पर पहुँचकर उसे गर्म करती है। पृथ्वी के गर्म सतह से पुनः लंबी तरंगधैर्य वाली अवरक्त विकिरण उत्सर्जित होती है जिसे वायुमंडल में स्थित CO2 पृथ्वी के सतह की ओर ही परिवर्तित कर देती है जिससे पृथ्वी गर्म हो जाती है।
  • पृथ्वी को गर्म करने में जिस गैस का योगदान है उसे ग्रीन हाउस गैस कहते हैं। ग्रीन हाउस गैस के कारण पृथ्वी के तापमान में होने वाली वृद्धि को जब विश्व स्तर पर विचार किया जाता है तो इसे भूमंडलीय तापन (Global Warming) कहते हैं।
  • वैश्विक तापन (Global Warming) में सर्वाधिक योगदान देने वाला ग्रीन हाउस गैस कार्बन डाईऑक्साइड है। इसके बाद प्रमुख ग्रीन हाउस गैस मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) एवं क्लोरोफ्लो कार्बन (CFC) है।
  • ग्लोबल वार्मिंग में ग्रीन हाउस गैस का प्रतिशत योगदान-
    कार्बन डाईऑक्साइड - 60%
    मीथेन - 20%
    नाइट्रस ऑक्साइड - 6% 
    क्लोरोफ्लोरोकार्बन - 14%
  • ग्रीन हाउस प्रभाव प्राकृतिक रूप से होनेवाली क्रिया है जिससे धरती का तापमान एक निश्चित स्तर पर बना रहता है। अगर यह क्रिया धरती पर न हो तो इसके सतह का औसत तापमान 15°C के बजाय - 18°C हो जाएगा। परंतु ग्रीन हाउस गैस की बढ़ती सांद्रता धरती के तापमान को आवश्यकता से अधिक बढ़ा रहा है। ऐसा अनुमान है कि पिछले सौ वर्षों से पृथ्वी का ताप 05°C बढ़ा है। वैज्ञानिकों को अनुमान है कि 2030 तक पृथ्वी के ताप में 2°C की वृद्धि हो सकती है।
  • ग्रीन हाउस गैस के कारण उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्यावरण पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ने की संभावना बढ़ जाती है-
    1. जलवायु में अवांछनीय परिवर्तन जिनसे पूरा जैविक समुदाय प्रभावित होता है।
    2. पृथ्वी का ताप बढ़ने से ध्रुवीय बर्फ या बर्फ के पहाड़ पिघलने लगेंगे। अतः समुद्र स्तर में वृद्धि होगी जिसके कारण तटवर्ती क्षेत्र जल में डूब जाएँगे ।
    3. अत्यधिक गर्मी से कृषि उत्पादन घट सकता है।
  • हरित गृह प्रभाव एवं ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं।
    1. जीवाश्म ईंधन का कम से कम प्रयोग होना चाहिए ।
    2. वृक्षारोपण में वृद्धि करनी चाहिए तथा वनोन्मूलन में कमी लानी चाहिए।
    3. ऊर्जा क्षमता में सुधार लानी चाहिए।
    4. जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रभावी कदम उठानी चाहिए।

ओजोन अपक्षय (Ozone Depletion)

  • सूर्य के किरणों में उपलब्ध पराबैंगनी (Ultraviolet) विकिरण जीवों के लिए हानिकर है। ये पराबैंगनी विकिरण मनुष्य में विभिन्न प्रकार के विमारियों जैसे- त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद आदि को जन्म देती है। इस हानिकर पराबैंगनी से पृथ्वी के जीवों की सुरक्षा ओजोन परत करता है। ओजोन परत समताप मंडल में 16 km से 50km ऊँचाई तक के क्षेत्र में व्याप्त है। ओजोन परत पराबैंगनी विकिरण को पृथ्वी के वायुमंडल में पहुँचने से रोकती है।
  • ओजोन का निर्माण समताप मंडल में ही ऑक्सीजन के अणुओं पर पराबैंगनी विकिरण के प्रभाव से होता है तथा ओजोन का निर्माण के साथ-साथ क्षय भी होते रहता है। समताप मंडल में ओजोन के निर्माण एवं क्षय के बीच एक संतुलन बना रहना आवश्यक है।

  • मानव के आधुनिक जीवनशैली में कुछ रसायन जैसे - क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CCl2F2), या फ्रिऑन, मिथाइल क्लोराइड (CH3.Cl) समताप मंडल में पहुँचकर ओजोन से प्रतिक्रिया कर उन्हें ऑक्सीजन के अणुओं में तोड़ देता है फलस्वरूप दिनोंदिन ओजोन परत अवक्षय हो रहा है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC) के क्लोरीन के एक अणु ओजोन के 1 लाख अणुओं को विखंडित करने की क्षमता रखता है।
  • ओजोन अपक्षय का सर्वाधिक असर अंटार्कटिका (दक्षिणी ध्रुव) क्षेत्र में खासकर देखा गया है। अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत का इतना अधिक क्षय हो गया है उसे ओजोन छिद्र (Ozone hole) की संज्ञा दी जाती है।
  • ओजोन छिद्र वास्तव में कोई छिद्र नहीं है बल्कि यह अंटार्कटिका के ऊपर के ओजोन की बहुत ही पतली परत है। ओजोन का मापन डॉक्सन स्पेक्ट्रोमीटर द्वारा की जाती है। एक डॉबसन यूनिट शुद्ध ओजोन की 0.01 mm मोटाई के बराबर होती है। वायुमंडल में ओजोन का औसत सांद्रण 300 डॉत्रसन यूनिट होनी चाहिए लेकिन जब ओजोन का सांद्रण 220 डॉवसन यूनिट से कम होता है तो उसे ओजोन छिद्र कहा जाता है।
  • सर्वप्रथम 1974 में शेरवुड रॉलैण्ड तथा मारियो मोलिना ने यह पता लगाया की क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC) के कारण समताप मंडल के ओजोन परत का अवक्षय हो रहा है। 1985 में जोसेफ फरमन के नेतृत्व में एक ब्रिटिश टीम यह पता लगाया की अंटार्कटिका के ऊपर के समताप मंडल के ओजोन परत का वृहद स्तर पर क्षय हुआ है। जोसेफ फरमन के प्रमाणों के अनुसार बसंत ऋतु (सितंबर-नवंबर) में अंटार्कटिका के ऊपर के ओजोन परत में 40 प्रतिशत क्षय हो जाता है।
  • ओजोन परत के क्षय का मुख्य कारण CFC गैस है। CFC का व्यापक उपयोग एयर कंडीशनो, रेफ्रिजरेटर, शीतलक, जेट इंजन, अग्निशामक उपकरण, गद्देदार फोम आदि में होता है। ओजोन की इस क्षति को कम करने के लिए विश्व के लगभग देश CFC का उपयोग बंद कर दिया है तथा इसकी जगह पर क्लोरीन सहित अपेक्षाकृत महँगे फ्लोरोकार्बन विकसित किए जा रहे हैं।
  • गौरतलब है कि ओजोन का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा क्षोभ मंडल में व्याप्त है और ओजोन का यह हिस्सा स्मॉग व वायु प्रदूषण का निर्माण कर मानव स्वास्थ्य समेत समस्त जीवों को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। क्षोभ मंडल स्थित ओजोन के इस 10 प्रतिशत हिस्से को बुरा ओजोन कहते है।
  • ओजोन परत की सुरक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर 1985 में वियना कन्वेंशन हुआ जिसे फ्रेमवर्क कन्वेंशन भी कहते हैं क्योंकि यह कन्वेंशन (Convention) वैश्विक ओजोन परत की सुरक्षा हेतु एक फ्रेमवर्क का काम किया। परंतु वियना कन्वेंशन में उत्तरदायी CFC गैस के उपयोग में कमी लाने हेतु कोई बाध्यकारी नियम नहीं था।
  • ओजोन अवक्षय के ओजोन अवक्षय को रोकने हेतु 1987 में मॉन्ट्रियाल (कनाडा) में एक अंतराष्ट्रीय सहमति बनी जिसे मॉन्ट्रियाल प्रोटोकॉल कहा जाता है। यह संधि 1 जनवरी 1989 को प्रभावी हुई। मॉन्ट्रियाल प्रोटोकॉल एक बाध्यकारी समझौता है जिसके तहत विकसित देशों को 2000 तक तथा विकासशील देशों को 2010 तक CFC का उपयोग एवं उत्पादन पूरी तरह से प्रतिबंधित करना है।
  • भारत में ओजोन परत के संरक्षण हेतु 1991 में वियना कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किया तथा मॉन्ट्रियाल प्रोटोकॉल ओजोन क्षयकारी पदार्थों के संबंध में 1992 में हस्ताक्षर किया।

अम्लीय वर्षा (Acid Rain)

  • औद्योगिक इकाई, बिजलीघर, स्वचालित वाहन तथा जैविक ईंधन के दहन से वातावरण में लगातार सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड (NO2) मुक्त होते हैं। वर्षा के समय ये ऑक्साइड H2SO4 तथा HNO3 में परिवर्तित हो जाते हैं।

  • HNO3 तथा H2SO4 जैसे अम्ल जब वर्षा जल के साथ धरती पर आते है तो इसे अम्ल वर्षा कहा जाता है अम्लीय वर्षा में सल्फ्यूरिक अम्ल (H2SO4) की मात्रा नाइट्रिक अम्ल (HNO3) की अपेक्षा अधिक होती है।
  • अम्ल वर्षा के कारण निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-
    1. अम्ल वर्षा से बड़ी-बड़ी इमारतों तथा ऐतिहासिक भवनों को काफी क्षति पहुंचती है। वर्षा जल के अम्ल संगमरमर या चूना पत्थर से क्रिया करके उसे संक्षारित कर देता है। जिसके कारण मकान और इमारते कमजोर हो जाती है।
    2. अम्ल वर्षा के कारण लोहे से बना उपकरण भी संक्षारित होने लगता है।
    3. अम्ल वर्षा नदियों, झीलों, तालाबों आदि को भी अम्ल बना देता है जिसके कारण मछली तथा अन्य जलीय जीव की आबादी घटने लगती है।
    4. अम्लीय वर्षा का जल मिट्टी के उर्वरता को नष्ट कर उसे अनुपजाऊ बना देता है। अम्लीय वर्षा के कारण पेड़-पौधों की पत्तियाँ नष्ट होने लगता है तथा प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है।

वायु प्रदूषण

  • वायु प्रदूषण का नियंत्रण हेतु निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं-

1. हानि रहित गैसों से प्रदूषक का अलग करना :

  • इसके अंतर्गत जो विधि अपनाई जाती है वह प्रदूषण के कारण आकार पर निर्भर करता है ।
  • 50 μm से बड़े मापी वाले प्रदूषक कणों का अलग करने हेतु गुरुत्व निःसादी टंकी (Gravity Settling Chamber) अथवा फैब्रिक फिल्टर का उपयोग किया जाता है।
  • 50 μm से छोटे प्रदूषक कणों की अलग करने हेतु साइक्लोन संग्राहक (Cyclone Collector) तथा स्थिर विद्युत अवक्षेपित्र (Electrostatic Precipitator) का उपयोग किया जाता है।
2. प्रदूषकों को हानिरहित उत्पादों में बदल देना :
  • इस प्रक्रिया में प्रदूषक को हवा में ऑक्सीकृत करवा दिया जाता है। मोटर वाहनों में इसके लिए कैटेलिक कनवर्टर का उपयोग किया जाता है। मोटर वाहनों से निकलने वाला हानिकारक गैस एवं हाइड्रोकार्बन जब कैलिटिक कनवर्टर से गुजरते हैं तो उनका पूर्ण दहन हो जाता है और इसके बाद उत्सर्जित गैस हाइड्रोकार्बन के तुलना में कम हानिकारक होते हैं। 
  • कैटेलिटिक कन्वर्टर ऐसे इंजन में अच्छी तरह काम करते हैं जिसमें शीशा (lead) मुक्त पेट्रोल प्रयोग किया जाता है। पेट्रोल में शीशा रहने से कैटेलिटिक कन्वर्टर में मौजूद उत्प्रेरक कुछ समय बाद कार्य करना बंद कर देते है।
3. वायु प्रदूषण रोकने के लिए सामान्य उपाय :
  • शीशा रहित एवं सल्फर रहित पेट्रोल के उपयोग के साथ-साथ इंजन से कम से कम धुआँ उत्सर्जित हो इसका उपाय करना चाहिए।
  • उद्योगों और औद्योगिक प्रतिष्ठान परिष्करणशाला को आबादी से दूर खोला जाना चाहिए।
  • उद्योगों की चिमनी हवा में काफी ऊपर हो एवं इसमें फिल्टर लगी होनी चाहिए ।
  • डीजल इंजन का कम से कम प्रयोग होना चाहिए।
  • वनारोपण करनी चाहिए तथा वन की कटाई का पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए।
  • जनसंख्या वृद्धि पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि यह एक मुख्य कारण है जिससे कई समस्याएं उत्पन्न हुई है।
4. राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूचकांक
  • इस सूचकांक की शुरुआत 6 अप्रैल 2015 को कुल 10 शहर (वर्तमान में 19 ) में रियल टाइम आधार पर वायु गुणवत्ता की निगरानी करने हेतु की गई।
  • इस सूचकांक में कुल 8 प्रदूषक कारी तत्व पीएम 10, पीएम 2.5, NO2, CO, SO2, NH3, O3 तथा Pb (लेड) को ध्यान में रखकर वायु की उच्च गुणवत्ता सूचकांक बनाए गए हैं। ये 6 गुणवत्ता सूचकांक है- अच्छी (0-50), संतोषजनक (51-100), सामान्य प्रदूषित ( 101-200) खराब (201-300), बहुत खराब (301-400) और गंभीर (401-500)।
  • प्रत्येक शहर में प्रतिदिन 4 pm में सूचक का प्रकाशन किया जाता है।
5. वायु गुणवत्ता वायु प्रदूषण एवं नियंत्रण अधिनियम 1981 :
  • वायु प्रदूषण पर नियंत्रण लाने हेतु यह अधिनियम संसद ने 29 मार्च 1981 को पारित किया तथा 16 मई 1981 को यह पूरे देश में लागू हुआ। अधिनियम में मुख्य रूप से मोटरगाड़ी तथा औद्योगिक इकाई से निकलने वाले धुँए एवं गंदगी के स्थान निर्धारित करने तथा उसे नियंत्रित करने का प्रावधान है। आगे चलकर 1987 में इसी अधिनियम में ध्वनि प्रदूषण को शामिल किया गया।
  • इस अधिनियम को लागू कराने का अधिकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दिया गया है। यह अधिनियम प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को न केवल औद्योगिक इकाइयों की निगरानी की शक्ति देता है बल्कि प्रदूषित इकाइयों को बंद करने का भी अधिकार प्रदान करता है ।
6. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
  • इस बोर्ड की स्थापना जल प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण अधिनियम 1974 के तहत किया गया। 1981 में इसे वायु प्रदूषण से संबंधित कार्य भी सौंप दिया गया। यह बोर्ड जिम्मेदार है- प्रदूषण स्तर का मापन, वर्गीकरण तथा उसके नियंत्रण का उपाय बताना तथा जल, वायु, ध्वनि के गुणवत्ता को तय करना । इसके अलावे यह बोर्ड पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तथा राज्य प्रदूषण बोर्ड को तकनीकी सेवाएं प्रदान करता है।

जल प्रदूषण (Water Pollution)

  • जीवन के लिए जल अनिवार्य है साथ ही यह कृषि उद्योगों के लिए भी परम आवश्यक है। अलवण जल का वितरण असामान्य है तथा इसकी मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में अगर जल प्रदूषित हो जाए तो यह एक गंभीर संकट पैदा करेगा।
  • जब जल की भौतिक रासायनिक तथा जैविक गुणवत्ता में ऐसा परिवर्तन उत्पन्न हो जाए जिससे वह जीवों के लिए हानिकारक तथा प्रयोग हेतु अनुपयुक्त हो जाता है तो यह जल प्रदूषण कहलाता है।
  • जल प्रदूषण के स्रोत दो प्रकार के होते हैं बिंदु स्रोत तथा (Point Sources) और अबिंदु स्रोत (Non-point Sources)।
  • जल स्रोतों के निकट स्थित बिजलीघर, भूमिगत कोयला खदान, तेलकुआँ आदि बिंदु स्रोत के उदाहरण हैं। यह स्रोत प्रदूषक को सीधे ही जल में प्रवाहित कर देते हैं।
  • जल प्रदूषण के अबिंदु स्त्रोत विभिन्न स्थानों पर फैले होते है। इसके अंतर्गत खेत, बगीचा, निर्माण स्थल, जल भराव, सड़क, गलियों से बहने वाला जल आते है।
  • जल प्रदूषण के कारण :
    • जल प्रदूषण के अनेक कारण है जिसमें प्रमुख कारण निम्नलिखित है-
    1. घरेलू अपमार्जक
      • लोग अपने घरों में प्रतिदिन बर्तन मांजने, कपड़ा धोने में अपमार्जक (Detergents) का प्रयोग करते है। इन अपमार्जक में फॉस्फेट, नाइट्रेट, एल्किल, बेंजीन, सल्फोनेट हानिकारक अम्ल होते है जो अंततः नदी तालाबों के जल में पहुंचकर उसे प्रदूषित करता है।
      • अकार्बनिक रसायन जैसे- फॉस्फेट न नाइट्रेट का जलाशय में एकत्र होना सुपोषण (Eutrophication) कहलाता है। सुपोषण के कारण शैवालों में वृद्धि होती है और यह जलाशय के सतह पर फैल जाते है। इन शैवालों से विषैले रसायन उत्पन्न होते है जो जलाशय के अन्य जीवों के लिए बहुत ही खतरनाक होता है। सुपोषण के कारण तेजी से होने वाली शैवालों की वृद्धि को जल-प्रस्फुटन (Water bloom) कहते है ।
    2. वाहित मल जल (Sewage) 
      • आजकल सभी बड़े शहरों की गंदगी, मानव अपशिष्ट नालों के द्वारा नदियों में गिरा दिया जाता है। इतने व्यापक पैमाने पर अपशिष्ट को नदियों में डालने से जल में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है तथा BOD (Biochemical Oxygen Demand) बढ़ जाता है जिसके कारण जलीय जीव खासकर मछली मरने लगता है।
    3. औद्योगिक अपशिष्ट
      • नदियों किनारे बड़े-बड़े व्यावसायिक नगर के कल-कारखानों से निकलने वाला अपशिष्ट सीधे नदियों में ही प्रभावित कर दिया जाता है। इन अपशिष्टों में लोहा, फेनॉल, क्लोरीन, तेल, हाइड्रोजन सल्फाइड, अमोनिया तथा अन्य कई भारी धातु होते है जो नदियों के पानी का न सिर्फ स्वाद खराब करता है बल्कि उनसे तीव्र गंध आने लगती है।
    4. उर्वरक तथा पीड़कनाशी
      • बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि उपज अधिक-से-अधिक प्राप्त करने के लिए आज रसायनिक उर्वरक तथा पीड़कनाशी (Pesticides) का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है। उर्वरक तथा पीड़कनाशी में उपस्थित खतरनाक रसायन, वर्षा जल के नदी तथा अन्य जलाशय में पहुँचकर उसे प्रदूषित कर देती है जो न सिर्फ जलीय जीवों के लिए बल्कि मनुष्य के लिए भी बहुत ही हानिकारक है।
      • पीड़कनाशी में DDT जैसी खतरनाक रसायन पौधों के द्वारा खाद्य श्रृंखला के हर पोषी स्तर में पहुँचते है। इनकी मात्रा पहले स्तर से अगले पोषी स्तर में क्रमशः बढ़ती जाती है। इस क्रिया को जैव आवर्धन कहते है ।
    5. तापीय जल प्रदूषण
      • औद्योगिक इकाई, बिजली संयंत्र, नाभिकीय रिएक्टर में इंजनों को ठंडा रखने हेतु जल का प्रयोग किया जाता है और उपयोग पश्चात् गर्म जल को ही जल स्रोतों में डाल दिया जाता है जिससे पानी का ताप बढ़ जाता है। अचानक ताप वृद्धि होने जलीय जीव एवं वनस्पतियाँ मरने लगता है।
    6. भारी धातुएँ
      • औद्योगिक अपशिष्ट, घरेलू अपशिष्ट में कई भारी धातु जैसे- पारा, लेड, कॉपर, जिंक, कैडमियम आदि पाए जाते है। यह अपशिष्ट पदार्थ जब जल स्रोतों में मिलते है तो जल ना तो मनुष्य के लिए उपयोगी रहता और ना ही जलीय जीवों के लिए। भारी धातुओं का जल में सांद्रता जब लगातार बढ़ती है तो ऐसे जल का उपयोग करके कई तरह के रोग होते है ।
      • पेयजल में शीशा का अधिकतम स्वीकार क्षमता 50 PPM निर्धारित किया गया है। इससे अधिक सांद्रता से शीशा विषाक्तता होती है जिससे मानव के किडनी, यकृत तथा प्रजनन तंत्र प्रभावित होता है।
      • पेयजल में नाइट्रेट की अधिकतम मात्रा 50 PPM निर्धारित की गई है लेकिन 20 PPM से अधिक नाइट्रेट युक्त जल ही बच्चों के लिए हानिकारक होते है क्योंकि इससे बच्चों में मेटाहीमोग्लोबिनीमिया या बच्चों वाला नीला रोग हो जाता है। इस रोग में बच्चों की त्वचा हल्के नीले रंग की हो जाती है।
      • फ्लोराइड की I PPM मात्रा ही दाँतों का इनैमिल को स्वस्थ बनाए रखने के लिए काफी है। फ्लोराइड की सांद्रता 2 PPM हो जाने पर दाँत बदरंग दिखने लगते हैं और अगर फ्लोराइड की मात्रा 10 PPM से अधिक हो जाए तो दाँत तथा हड्डी से संबंधित रोग फ्लोरीसिस हो जाता है।
      • जल में जब सल्फेट की सांद्रता 500 PPM पहुँच जाए तो ऐसे जल में कड़वापन आ जाता है।
      • पेयजल में धातु का WHO द्वारा प्रस्तावित अधिकतम सांद्रता-
        Fe - 10.2 PPM
        Mn - 0.05 PPM
        cd - 0.005 PM
        Cu - 3.0 PPM
        Zn - 5.0 PPM
      • पीने युक्त जल में निम्नलिखित तीन गुणों का होना अनिवार्य है -
        1. जल पारदर्शी, रंगहीन तथा गंधहीन होना चाहिए।
        2. जल में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन घुला हुआ होना चाहिए।
        3. जल हानिकारक रसायन एवं जीवाणुओं से मुक्त होना चाहिए।
      • जलीय जीवों के संदर्भ में जल में घुले ऑक्सीजन (Dissolved Oxyen ) की मात्रा 8.0mg/1 से कम हो जाती है तो ऐसे जल में संदूषित कहा जाता है। जब यह मात्रा 4 mg / l से कम हो जाता है तो इसे अत्यधि क प्रदूषित कहा जाता है।
  • जल प्रदूषण को रोकने के उपाय
    • जल प्रदूषण के कई कमाण है लेकिन मुख्यतः घरेलू एवं औगोलिक पारित मल जल के कारण ही जल प्रदूषित होता है। अगर घरेलू तथा औद्योगिक अपशिष्ट को उपचार करने के बाद जल स्रोतों में प्रवाहित न करें तो काफी हद तक जल प्रदूषण को रोका जा सकता है। 
    • घरेलू तथा औद्योगिक अपशिष्ट या वाहित मल जल का उपचार तीन चरणों में किया जाता है-
      1. प्रथम चरण : इस चरण में अपशिष्ट से बड़े तथा लंबे कणों को अलग किया जाता है। इसके लिए अवसादन (Sedmentation), प्लवन (Floatation ), छानन (Screening ) आदि विधि प्रयोग में लाई जाती है।
      2. द्वितीय चरण: इस चरण में प्रदूषित जल को प्राथमिक उपचार ( प्रथम चरण) के बाद एक ऑक्सीकरण ताल (Oxidation Pond) में जमा किया जाता है जहाँ जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ का सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन करवाया जाता है। द्वितीय चरण में जल में उपस्थित कार्बनिक प्रदूषक नष्ट हो जाते है और अंत में क्लोरीन का उपयोग जीवाणुओं को नष्ट कर दिया जाता है।
      3. तृतीय चरण: प्रदूषित जल का द्वितीयक (द्वितीय उपचार) के बाद जल फास्फेट, नाइट्रेट तथा अन्य अकार्बनिक पदार्थ मौजूद रह जाते है। इन्हें दूर करने हेतु रिवर्स परासरण, ऑक्सीकरण जैसी रासायनिक विधियों का इस्तेमाल किया जाता है। प्रथम तथा द्वितीय चरण की अपेक्षा यह चरण काफी खर्चीला होता है। अतः जल को प्रदूषणरहित बनाने हेतु प्राय: दो चरण का ही उपयोग किया जाता है।
    • जल प्रदूषण को रोकने हेतु सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए है-
      1. गंगा एक्शन प्लान है : गंगा नदी बेसिन में भारत की 35 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है। लेकिन यह नदी अपने अफवाह के आधे भाग में प्रदूषित हो गई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय गंगा प्राधिकरण की स्थापना कर 1985 में गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की थी जिसका मुख्य उद्देश्य था गंगा नदी को प्रदूषण से पूर्णत: मुक्त करना । यह प्लान 1986 से 1993 तक चला I
      2. राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना : केंद्रीय गंगा प्राधिकरण का नाम बदलकर 1995 में राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण कर दिया गया तथा गंगा नदी से संबंधित सभी कार्य योजना राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण के अधीन कर दिया गया। इस प्राधिकरण द्वारा राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना चलाया जा रहा है। वर्तमान में इस योजना के अंतर्गत 19 राज्यों में फैले 121 शहरों की 40 नदियों के प्रदूषित भाग को शामिल किया गया है।
      3. नमामि गंगे कार्यक्रम : इस कार्यक्रम का उद्देश्य गंगा नदी का संरक्षण, जीर्णोद्धार एवं प्रदूषण को खत्म करना है। केंद्र सरकार द्वारा 2014 में 20,000 करोड़ राशि आवंटित कर इस कार्यक्रम की शुरुआत की।
      4. जल प्रदूषण एवं रोकथाम अधिनियम 1974 : यह अधिनियम के तहत केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा राज्य स्तर पर प्रदूषण बोर्ड की स्थापना की गई। यह बोर्ड जल प्रदूषषकों का मानक तय करता है, प्रदूषण से संबंधी आंकड़ों को एकत्रित करता है तथा सरकार को प्रदूषण रोकने के उपाय के संबंध में सलाह देता है।

विकिरण प्रदूषण (Pollution due to Radiations)

  • रेडियोसक्रिय पदार्थ तथा इससे निकलने वाली अल्फा, बीटा तथा गामा किरणें (विकिरण) जब वायुमंडल, जल या अन्य अजैव घटकों में पहुँचते हैं तो इसे विकिरण प्रदूषण कहा जाता है। विकिरण प्रदूषण का स्वरूप एवं प्रभाव अन्य प्रदूषण से बिल्कुल भिन्न है। विकिरण प्रदूषण के प्राकृतिक तथा मानव निर्मित दोनों कारण है। विकिरण प्रदूषण के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-
    1. विकिरण प्रदूषण में अंतरिक्ष से पृथ्वी के वायुमंडल में पहुँचे अंतरिक्ष किरणों (Cosmic rays) का भी है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी पर यूरेनियम - 235, रेडियम- 224, थोरियम-232 जैसे रेडियो सक्रिय पदार्थ पाए जाते है जिनमें लगातार विकिरण निकलकर पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करते है।
    2. नाभिकीय रिएक्टर में प्रयोग होने वाला नाभिकीय ईंधन भी विकिरण प्रदूषण हेतु जिम्मेवार है। नाभिकीय रिएक्टर के अपशिष्ट जहाँ पर भी फेंका जाता है वहाँ लोगों के स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ता है।
    3. बहुत से रेडियो एक्टिव पदार्थ वैज्ञानिक अनुसंधान में प्रयोग किए जाते हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में भी एक्स-रे, सीटी स्कैन तकनीक का इस्तेमाल होता है। यह भी विकिरण प्रदूषण हेतु जिम्मेवार है।
    4. वर्तमान समय विश्व के लगभग सभी समक्ष अस्त्रों का परीक्षण कर रहे है। यह परीक्षण अधिकांशत समुद्र में होता है जिसके फलस्वरूप समुद्री जल में स्ट्राशियम - 90, सीजिएम - 137, कार्बन - 14, ट्रीटियम जैसे घातक रासायनिक पदार्थों की मात्रा बहुत बढ़ गई है।
  • विकिरण प्रदूषण के प्रभाव
    1. अपशिष्ट के रूप में फेंके गए रेडियो सक्रिय पदार्थ खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर स्थलीय एवं जलीय जंतु में पहुँच जाते हैं और अनेक प्रकार के बीमारी फैलाते है। अगर यह पदार्थ के उच्च मात्रा जीवों में पहुँच जाए तो जीव की तुरंत मृत्यु हो जाती है।
    2. अधिक समय तक बार-बार रेडियो सक्रिय पदार्थों के विकिरण से प्रभावित ने पर रक्त कैंसर (ल्यूकेमिया) हो जाता हैं।
    3. विकिरणों के प्रभाव से जीवों में उत्परिवर्तन की दर में वृद्धि हो जाती है जिससे जीवों के जिन एवं गुणसूत्रों में परिवर्तन आ जाता है जिससे शरीर में विकृति तथा असामान्य विकास जैसे लक्षण आ जाते है।
    4. विकिरण प्रदूषण के कारण शारीरिक दुर्बलता, जीवन अवधि में कमी आ जाती है।
    5. पाराचैंगनी विकिरण में अधिक समय तक रहने पर त्वचा संबंधी रोग पिग्मेण्टोसम होता है।
    6. रेडियोधर्मी विकिरण (अल्फा, बीटा, गामा) से दृष्टि दोष, फेफड़ों में ट्यूमर तथा उत्तक का क्षय होता है।
    7. लगातार हानिकारक विकिरण वायुमंडल में अगर पहुँचते है तो इससे ओजोन परत का भी क्षरण होता है।
  • विकिरण प्रदूषण का नियंत्रण
    1. नाभिकीय रिएक्टर, ऊर्जा घर, अनुसंधानशालाओं एवं नाभिकीय ईंधन परिवहन में रेडियो सक्रिय तत्व का रिसाव नहीं होना चाहिए।
    2. उन जगहों पर विकिरण प्रदूषण की जांच की व्यवस्था होनी चाहिए जहाँ इसका खतरा बना हुआ है।
    3. रेडियोधर्मी अपशिष्ट को स्टील एवं कंक्रीट से बने पात्रों में भरकर सील करना चाहिए। इसके बाद इसे पृथ्वी के काफी भीतर गाड़ देनी चाहिए अथवा समुद्र में कम से कम 100 फैदम की गहराई में छोड़ना चाहिए ।
    4. नाभिकीय संयंत्रों में काम करने वाले लोगों की सुरक्षा एवं दुर्घटना होने पर समुचित सहायता का इंतजाम पहले से होना चाहिए।

ध्वनि प्रदूषण (Sound Pollution)

  • अनचाहे ऊँची आवाज को सामान्यतः शोर कहा जाता है। शोर के होने वाले हानिकारक प्रभाव को ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है। ध्वनि प्रदूषण के स्रोत है- यातायात के विभिन्न साधन, लाउडस्पीकर, टेलीविजन, होम थिएटर तथा आर्केस्ट्रा साउंड, कारखानों का मशीन, कई आधुनिक घरेलू उपकरण जैसे- मिक्सी, कूलर, वैक्यूम क्लीनर आदि भी ध्वनि प्रदूषण पैदा करते है ।
  • भारत सरकार ने वर्ष 1987 में "वायु प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण अधिनियम 1981" में संशोधन कर वायु प्रदूषण में ही ध्वनि प्रदूषण को जोड़ दिया है।
  • ध्वनि का इकाई डेसीबल है। साधारणतया 25-30 डेसीबल की ध्वनि सहन की जा सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शहरों में ध्वनि की उच्चता का स्तर 45 डेसीबल निर्धारित किया है। 80 डेसीबल की ध्वनि पर मनुष्य बेचौनी महसूस करने लगता है तथा 130 - 140 डेसीबल पर पीड़ा तथा सिर दर्द होने लगता है।
  • भारत में ध्वनि के संबंध में परिवेशी वायु क्वालिटी मानक निम्नलिखित है-
क्षेत्र दिन का समय (6 AM - 10 PM) रात का समय (10 PM - 6 AM)
1. औद्योगिक क्षेत्र 75 डेसीबल 70 डेसीबल
2. वाणिज्यीक क्षेत्र 65 डेसीबल 55 डेसीबल
3. आवासीय क्षेत्र 55 डेसीबल 45 डेसीबल
4. शांत क्षेत्र (अस्पताल, शिक्षा, न्यायालय) 50 डेसीबल 40 डेसीबल
  • ध्वनि प्रदूषण के कारण मनुष्य पर पड़ने वाले हानिकारक प्रभाव निम्न है-
    1. लंबे समय तक तीव्र ध्वनि के प्रभाव से मनुष्य के संवेदना तथा भावनाएं छिन्न होने लगती है ।
    2. अत्यधिक ध्वनि प्रदूषण ( 150 डेसीबल) मस्तिष्क पर इसका प्रभाव डालता है कि कभी-कभी मनुष्य पागल हो जाता है।
    3. बहुत शोरगुलवाले वातावरण में रहने से मनुष्य में बहरापन की समस्या आ जाती है।
    4. तेज ध्वनि से शरीर में हमेशा दर्द रहता है, रक्तदाब बढ़ जाता है तथा हृदय की कार्यप्रणाली अवरुद्ध होने लगता है।
    5. अत्यधिक तीव्र ध्वनि से मानव स्वभाव में उत्तेजना तथा क्रोध पैदा हो जाता है।
    6. तेज ध्वनि के कारण मानव के एड्रिनल ग्रंथि से एड्रिनल हार्मोन का स्राव बढ़ जाता है।
    7. तेज आवाज से नींद में बाधा उत्पन्न होती है, आंखों की पुतलियाँ चौड़ी हो जाती है तथा किडनी पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
    8. ध्वनि प्रदूषण गर्भ में पल रहे शिशु पर भी प्रतिकूल असर डालता है उनमें तंत्रिकीय दोष होने की संभावना बनी रहती है।
  • ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने हेतु निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
    1. ऑटोमोबाइल तथा मशीनों का उचित रख-रखाव पर ध्यान देना चाहिए उसमें समय-समय पर ग्रीस एवं तेल का उपयोग करना चाहिए।
    2. औद्योगिक इकाई को आबादी से दूर स्थापित की जानी चाहिए।
    3. हवाई जहाजों एवं यातायात के साधनों में ऐसी इंजन का प्रयोग होना चाहिए जो कम ध्वनि पैदा करता हो।
    4. पुलिस अधिनियम 1861 के अंतर्गत पुलिस अधीक्षक को अधिकृत किया गया है कि वह त्योहारों और उत्सवों पर गलियों में बजने वाले संगीत की तीव्रता के स्तर को नियंत्रित कर सकता है। अतः लाटडस्पीकरों एवं तेज आवाज पैदा करने वाले साउंड पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने चाहिए। ध्वनि प्रदूषण के नियंत्रण के लिए बने कानून का कड़ाई से अनुपालन होना चाहिए।
    5. ध्वनि प्रदूषण को अपराध की श्रेणी में मानते हुए इसके नियंत्रण के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 268 तथा धारा 290 का प्रयोग किया जा सकता है।

ठोस अपशिष्ट का निपटारा (Treatment of Solid waste)

  • ठोस अपशिष्ट पदार्थों को कूड़ा करकट भी कहा जाता है। ठोस अपशिष्ट के अंतर्गत घर, पशुशाला के अपशिष्ट, अस्पतालों के अपशिष्ट, प्लास्टिक तथा इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट आदि आते है। अगर इन टोस अपशिष्ट को ठीक तरह से निपटारा नहीं किया गया तो इससे मृदा, वायु, जल सभी प्रदूषित हो जाते है। जिससे अंत: मानव ही प्रभावित होते है। ठोस अपशिष्ट के निपटारे हेतु प्रमुख विधि निम्नलिखित है-
    1. सैनिटरी लैंडफिल्स
      • इस विधि से में ठोस अपशिष्ट को गड्ढा में डाला जाता है एवं प्रतिदिन कुछ मिट्टी से ढक दिया जाता है। सैनिटरी लैंडफिल टोस अ अपशिष्ट के निपटारे हेतु एक सस्ता तथा आसान विधि है परंतु इससे समस्या का समुचित निदान संभव नहीं है क्योंकि बड़े शहरों में अपशिष्टओं की मात्रा इतनी अधिक होती है कि गई तुरंत भर जाते है।
      • सैनिटरी लैंडफिल्स पर्यावरण के लिए हानिकारक भी है क्योंकि अपशिष्ट में उपस्थित रासायनिक पदार्थ रिसकर भौम जल को प्रदूषित कर देते हैं।
    2. भस्मीकरण (Incineration)
      • यह विधि थोड़ी महंगी विधि है इसमें ठोस अपशिष्ट को 1000°C पर जलाया जाता है जिससे टोस अपशिष्ट राख, गैस व ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। खतरनाक कचड़ा तथा अस्पतालों के अपशिष्ट को प्राय: इसी विधि द्वारा निपटाया जाता है।
    3. जैविक पुनर्प्रसंस्करण (Biological Reprocessing)
      • जैव निम्नीकरणीय ठोस अपशिष्ट निपटारे हेतु यह विधि प्रयोग में लाई जाती है। इस प्रक्रिया में अपशिष्ट को एक कंटेनर में तब तक रखा जाता है जब तक कि वह अपघटित ना हो जाए। अपघटित होने के बाद अपशिष्ट कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाते है जिससे जैविक खाद्य का भी निर्माण किया जा सकता है।
    4. समुद्री डंपिंग
      • नाभिकीय कचड़े, खतरनाक रसायन जैसे ठोस अपशिष्ट को इस विधि से निपटाया जाता है। अपशिष्ट को सुरक्षित पैकेट में अच्छी तरह से भरकर सील कर दिया जाता है और समुंद्र में कम से कम 1000 फैदम की गहराई में छोड़ दिया जाता है।
    5. ठोस अपशिष्ट को नियंत्रित करने में 3R (Reduce, Reuse, Recycle) भी एक बेहतर विकल्प है। मानव को कम-से-कम या आवश्यकता अनुसार ही पदार्थ का उपयोग करना चाहिए। पुर्नचक्रण (Recycle) के माध्यम से पदार्थों को नए उत्पाद में बदलने का प्रयास किया जाना चाहिए तथा सामानों को फेंकने के बजाय इन का पुन: उपयोग करना चाहिए।
    6. प्लाज्मा आर्क
      • यह एक महंगी प्रौद्योगिकी है जिसका इस्तेमाल खतरनाक एवं रेडियोसक्रिय वाले कचड़े के निपटान हेतु किया जाता है। इस विधि में कचड़ा पूरी तरह नष्ट हो जाता है तथा प्रदूषण भी बहुत कम हो जाता है। इस विधि में नाइट्रोजन तथा सल्फर ऑक्साइड जैसे हानिकारक गैस नहीं बनते है। 

अभ्यास प्रश्न

1. पर्यावरण के अजैविक घटक ( वायु, जल, मृदा ) के भौतिक, रसायनिक एवं जैविक लक्षणों में होने वाला आवांछनीय परिवर्तन क्या कहलाता है ?
(a) प्रदूषण
(b) प्रदूषक
(c) पर्यावरण संकट
(d) जैव- निम्नीकरण
2.निम्नलिखित में कौन सा एक जैव निनिकिकरणीय प्रदूषक नहीं है ?
(a) घरेलू कचड़ा
(b) सीवेज
(c) मल-मूत्र
(d) प्लास्टिक
3. निम्नलिखित में कौन जैव-अनिम्नी करणीय प्रदूषक है ?
(a) भारी धातुएँ
(b) रेडियो सक्रिय तत्व
(c) सीसा
(d) इनमें से कोई नहीं
4. निम्नलिखित में कौन सा एक प्राथमिक प्रदूषक नहीं है?
(a) PAN
(b) CO2
(c) CO
(d) DDT
5. फ्लाई ऐश (Fly Ash) का मुख्य उत्सर्जन किसके द्वारा होता है:
(a) कोयला के खानो से
(b) कोयला आधारित ताप विद्युत गृह से
(c) रबड़ - उद्योग से
(d) कपड़ा मिल से
6. भोपाल गैस त्रासदी के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए -
1. यह त्रासदी 2-3 दिसम्बर 1985 को हुआ था।
2. यह त्रासदी भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन जो मूल रूप से कीटनाशक दवाओं का उत्पादन करता था, उससे जहरीली गैस रिसने के कारण हुआ था। 
3. रिसाव वाला जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट था जिसका रसायनिक सूत्र CH3CNO है।
उपर्युक्त कथनों कौन-से सही है ?
(a) 1 और 2
(b) 2 और 3
(c) 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
7. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए- 
1. वायुमंडल में पाये जाने वाले 1 माइक्रोन से 10 माइक्रोन तक के सूक्ष्म कणों को एरोसॉल कहा जाता है।
2. एरोसॉल से बड़े आकार वाले ठोस कणों को धूल कहा जाता है।
उपर्युक्त में कौन सा/से सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
8. 6 अप्रैल 2015 को शुरू किया गया राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूचकांक से कितने प्रदूषणकारी तत्वों पर विचार किया जाता है ?
(a) 5
(b) 6
(c) 8
(d) 12
9. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना किस वर्ष हुई?
(a) 1971 
(b) 1972
(c) 1973
(d) 1974
10. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राष्ट्रीय व्यापक वायु गुणवत्ता मापदंड में कितने प्रदूषकों को शामिल किया है?
(a) 5 
(b) 6
(c) 8
(d) 12
11. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. वायुमंडल में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले ग्रीन हाउस गैसे पृथ्वी के सतह को गर्म एवं रहने योग्य बनाती है।
2. मानवजनित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग हेतु जिम्मेदार है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सत्य है/हैं ? 
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों 
(d) न तो 1 न ही 2
12. वैश्विक तापन (Global Warming) के लिये मुख्य रूप से जिम्मेवार है-
(a) CO2
(b) CH4
(c) N2O
(d) CFC
13. कार्बनडाइ ऑक्साइड (CO2), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O), क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC) और मीथेन गैस का ग्लोबल वार्मिंग के प्रति आपेक्षिक योगदान है-
(a) CO2 > CH4 > CFC > N2O
(b) CO2 > CH4 > N2O > CFC
(c) CO2 > CFC > CH4 > N2O
(d) CO2 > N2O > CH4 > CFC
14. निम्नलिखित में कौन एक ग्रीन हाउस गैस नहीं है ?
(a) क्लोरोफ्लोरो कार्बन
(b) जलवाष्प
(c) नाइट्रोजन
(d) मीथेन 
15. वायुमंडलीय कार्बन जब तटीय एवं समुद्री परितंत्रों में जमा हो जाते है तो उस कार्बन को किस नाम से जाना जाता है ?
(a) काला कार्बन 
(b) यूरा कार्बन
(c) ग्रीन कार्बन
(d) ब्लू कार्बन
16. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. कला कार्बन तथा ग्रीन कार्बन प्रकाश का अवशोषण कर वैश्विक तापन में सहयोग देता है।
2. ग्रीन कार्बन तथा ब्लू कार्बन वातावरण से ग्रीन हाउस गैस को कम करने में मदद करता है।
उपर्युक्त में कौन सा/से कथन सही है/हैं ? 
(a) केवल 1 
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों 
(d) न तो 1 न ही 2
17. हरित ग्रह प्रभाव तथा ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के लिये कौन सा उपाय किया जाना चाहिये ?
(a) जीवाश्म ईंधन का कम से कम प्रयोग
(b) वृक्षारोपण में वृद्धि तथा वनोन्मूलन में कमी
(c) ऊर्जा दक्षता में सुधार
(d) इनमें से सभी
18. कार्बन क्रेडिट एक व्यापार योग्य प्रमाण पत्र है जो धारक को कितना कार्बन-डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का अधिकार देता है ?
(a) 1 टन 
(b) 2 टन
(c) 3 टन
(d) 5 टन
19. वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती हुई मात्रा से वायुमंडल का तापमान धीरे-धीरे बढ़ रहा है, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड-
(a) सौर विकिरण के पराबैंगनी अंश को अवशोषित करती है।
(b) वायु में उपस्थित जलवाष्प को अवशोषित कर उसकी उष्मा को संचित करती है।
(c) संपूर्ण सौर विकिरण को अवशोषित करती है।
(d) सौर विकिरण के अवरक्त अंश को अवशोषित करती है।
20. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. लघु तरंगदैर्ध्य के लिये हरित गृह गैस एक आवरण का काम करती है। यह इन तरंगों को नहीं गुजरने देती है।
2. दीर्घ तरंग हरित गृह गैसों से पारगम्य हो जाती है। 
उपर्युक्त में कौन सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
21. किस वर्ष यह प्रकाश में आया कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) समताप मंडल के ओजोन के औसत सांद्रण में कमी ला रहे है ?
(a) 1974
(b) 1982
(c) 1985
(d) 1978
22. अंटार्कटिका के ऊपर बने ओजोन छिद्र का पता लगा था ?
(a) 1974 में
(b) 1982 में
(c) 1985 में
(d) 1978 में
23. वैज्ञानिको की टीमों में किसने सर्वप्रथम अंटार्कटीका के ऊपर ओजोन छिद्र का पता लगाया ?
(a) जर्मन टीम
(b) रूसी टीम
(c) अमेरिकन टीम
(d) ब्रिटिश टीम
24. एक डॉबसन यूनिट शुद्ध ओजोन के कितने मोटाई बराबर होते है ?
(a) 0.01 mm 
(b) 0.1 mm 
(c) 0.05 mm
(d) 0.5 mm
25. वायुमंडल में उपस्थित ओजोन परत सूर्य से आनेवाले किस प्रकार के खतरनाक विकिरण को रोक लेता है ?
(a) पराबैंगनी A 
(b) पराबैंगनी B
(c) पराबैंगनी C
(d) इनमें से कोई नहीं
26. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. ओजोन छिद्र वास्तव में कोई छिद्र (Hole) नही है।
2. अंटार्कटिका के ओजोन परत के क्षरण को ओजोन छिद्र की संज्ञा दी गई है।
उपर्युक्त में कौन सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2 
27. ओजोन विघटनकारी क्षमता के आधार पर पदार्थों का सही क्रम है-
(a) क्लोरोफ्लोरोकार्बन > हाइड्रोफ्लोरोफ्लोरोकार्बन > हैलॉन्स > टेट्राक्लोराइड
(b) क्लोरोफ्लोरोकार्बन > हाइड्रोक्लोरोफ्लो> कार्बन मिथाइल क्लोरोफॉर्म > हैलॉन्स
(c) क्लोरोफ्लोरोकार्बन > हैलॉन्स > मिथाइल ब्रोमोमिथेन > हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन
(d) क्लोरोफ्लोरोकार्बन > मिथाइल क्लोरोफॉर्म > टेट्राक्लोराइड > हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन
28. अंटार्कटिका के ऊपर सर्वाधिक ओजोन क्षरण अथवा ओजोन छिद्र बनने का क्या कारण है ?
(a) ध्रुवीय भँवर
(b) ध्रुवीय समतापमंडलीय बादल
(c) क्लोरीन
(d) इनमें से सभी
29. पदार्थों के उस समूह की पहचान करे जिसमें प्रत्येक में ओजोन विघटनकारी पदार्थ एवं हरितगृह गैसीय पदार्थ दोनों का गुण हो ?
(a) क्लोरोफ्लोरो कार्बन, हैलॉन्स, मिथाइल क्लोरोफॉर्म एवं हाइड्रोफ्लोरो कार्बन
(b) हाइड्रोफ्लोरो कार्बन, हाइड्रो क्लोरोफ्लोरो कार्बन, हैलॉन्स एवं मिथाइल क्लोरोफॉर्म 
(c) क्लोरोफ्लोरो कार्बन, कार्बनडाइऑक्साइड, हाइड्रो क्लोरोफ्लोरो कार्बन एवं हैलॉन्स
(d) क्लोरोफ्लोरो कार्बन, कार्बन टेट्राक्लोराइड हैलॉन्स, एवं मिथाइलब्रोमो मिथेन
30. निम्नलिखित में कौन सा समझौता / संधि ओजोन श्रण को नियंत्रित करने से संबंधित है ?
(a) वियना कन्वेंशन -1985
(b) मॉण्ट्रियाल प्रोटोकॉल-1987
(c) किगाली समझौता - 2016
(d) इनमें से सभी
31. अम्ल वर्षा किनके द्वारा होने वाले पर्यावरण प्रदूषण कारण होती है ?
(a) कार्बन मोनोक्साइड तथा कार्बन डाइऑक्साइड
(b) ओजोन तथा कार्बन डाइऑक्साइड
(c) कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन
(d) नाइट्रस ऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड
32. अम्ल वर्षा हेतु जिम्मेदार गैसे है-
(a) सल्फर डाइऑक्साइड
(b) नाइट्रोजन ऑक्साइड
(c) फार्मिक अम्ल
(d) इनमें से सभी
33. अम्ल वर्षा हेतु जिम्मेदार फॉर्मिक अम्ल का निर्माण किससे होता है ?
(a) जंगल की आग से बायोमास का दहन
(b) अपघटन क्रियाएँ
(c) धूम्रपान
(d) आकाशीय विद्युत
34. वर्षा जल का pH मान कितना से कम होने पर उसे अम्ल वर्षा कहा जाता है ?
(a) 6 से कम
(b) 5.6 से कम
(c) 4 से कम
(d) 5 से कम
35. सल्फर के उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्त्रोत कौन है ?
(a) पेट्रोलियम पदार्थों का दहन
(b) धातुशोध
(c) ज्वालामुखी उद्गार
(d) कोयला दहन
36. निम्नलिखित में किस अम्ल की मात्रा अम्ल वर्षा में सर्वाधिक होती है ?
(a) HNO3
(b) H2CO3
(c) H2SO4
(d) HCL
37. भूमंडलाय जल तापन (Global warming) के कारण समुद्री PH मान में निरंतर कमी हो रही है। इसका क्या कारण है ?
(a) समुद्री जल द्वारा CO2 का अपेक्षाकृत अधिक उदग्रहण है।
(b) समुद्री जल द्वारा CO2 का अपेक्षाकृत कम उदग्रहण है।
(c) समुद्री जल द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन का अपेक्षाकृत कम उदग्रहण है।
(d) समुद्री जल द्वारा CO2 का अपेक्षाकृत कम उदग्रहण है।
38. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. ऐसी वर्षा जिसका pH मान 5.6 से कम हो अम्ल वर्षा कहलाती है।
2. अम्लीय वर्षा, अम्लीय कोहरे और अम्लीय धुंध को सम्मिलित रूप से अम्ल निक्षेप कहते हैं ।
3. भारतीय मृदा सामान्य रूप से क्षारीय होने के चलते इस पर अम्ल वर्षा का प्रभाव कम पड़ता है।
उपर्युक्त में कौन सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 2
(d) उपरोक्त सभी
39. अंतराष्ट्रीय स्तर पर हेलसिंकी प्रोटोकॉल का संबंध किससे है ?
(a) सल्फर उत्सर्जन
(b) नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन
(c) CFC उत्सर्जन
(d) इनमें से सभी
40. अम्ल वर्षा से होने वाले मानवीय बीमारियों एवं समस्याओं में से सही का चयन करें ?
1. कैंसर
2. किडनी समस्या
3. पल्मोनरी एमफीसेया
4. ब्रॉन्काइटिस
5. श्वसन रोग
कूट:
(a) केवल 1, 2 एवं 3
(b) केवल 1, 2, 3 एवं 4
(c) केवल 3, 4 एवं 5
(d) उपरोक्त सभी 
41. निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही है ?
(a) पौधो की पत्तियों पर अम्ल वर्षा गिरने से प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया मंद पड़ जाती है ।
(b) लाइकेन की अम्ल वर्षा का संकेतक माना जाता है।
(c) अम्लीय वर्षा के कारण ताजमहल के संगमरमरों पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। 
(d) इनमें से सभी
42. ओजोन अवक्षय को रोकने हेतु अंतराष्ट्रीय संधि मॉण्ट्रियाल प्रोटोकॉल कब प्रभावी हुआ ?
(a) 1 जनवरी 1987 
(b) 1 जनवरी 1988
(c) 1 जनवरी 1989
(d) 1 जनवरी 2001
43. जैव ऑक्सीजन माँग (BOD) किसके लिये मानक मापदंड है? 
(a) उच्च तुंगता क्षेत्रों में ऑक्सीजन स्तरों के आकलन के लिये
(b) वन पारिस्थितिकी तंत्रो में ऑक्सीजन स्तरों के अभिकलन के लिये
(c) रक्त में ऑक्सीजन स्तर मापने के लिये
(d) जलीय पारिस्थितिकी तंत्रो में प्रदूषण के आमापन के लिये
44. ध्वनि प्रदूषण के संदर्भ में शांत क्षेत्र के अंतर्गत अस्पताल शिक्षा संस्थान, न्यायालय आदि के चारों तरफ कितने दूरी तक का क्षेत्र सम्मिलित है ?
(a) 50 m
(b) 100 m
(c) 200 m
(d) 500 m
45. निम्नलिखित में कौन जैव अपघटनीय प्रदूषक है ? 
(a) पॉलीथीन 
(b) एस्बेस्टस
(c) प्लास्टीक
(d) सीवेज
46. निम्नलिखित में कौन सा रेडिएशन सर्वाधिक नुकसान देह है ?
(a) अल्फा-कण 
(b) बीटा-कण
(c) गामा-कण
(d) न्यूट्रॉन
47. निम्नलिखित में कौन द्वितीयक प्रदूषक नही है ? 
(a) PAN 
(b) ओजोन
(c) स्मॉग
(d) सल्फरडाइऑक्साइड
48. निम्नलिखित ईंधनों को, उनमें से प्रत्येक के एक किलोग्राम के ज्वलन द्वारा कारित वायु प्रदूषण के द्रव्यमान अनुक्रम में व्यवस्थित कीजिए-
(a) डीजल, पेट्रॉल, CNG 
(b) CNG पेट्रॉल, डीजल
(c) डीजल, CNG, पेट्रॉल 
(d) पेट्रॉल, डीजल, CNG 
49. डीजल इंजन के कारण होने वाले वायु प्रदूषण के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है ? 
(a) यह निम्न और उच्च तापमानों पर नाइट्रोजन ऑक्साइडो प्रचुर मात्रा उत्पन्न करता है। 
(b) यह निम्न और उच्च तापमानों पर कार्बन मोनोक्साइड की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करता हैं।
(c) यह निम्न ताप पर कार्बन मोनोक्साइड और उच्च तापमान पर नाइट्रोजन ऑक्साइडो की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करता हैं।
(d) यह निम्न तापमान पर नाइट्रोजन ऑक्साइड और उच्च तापमान पर कार्बन मोनोक्साइड की प्रचुर मात्रा उत्पन्न करता है।
50. किस भारी धातु से प्रदूषित जल को पीने से ब्लैक फुट नामक चर्म रोग हो जाता है ?
(a) आर्सेनिक
(b) सीसा
(c) फ्लोराइड
(d) कैडमियम
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Tue, 23 Apr 2024 06:28:11 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जैव विविधता https://m.jaankarirakho.com/1011 https://m.jaankarirakho.com/1011 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जैव विविधता
  • जैव विविधता शब्द का प्रयोग पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवों के विविधता के संदर्भ में किया जाता है। जैव विविधता में प्राणियों में पाए जाने वाले समस्त जीन, समस्त जातियाँ तथा पारिस्थितिक तंत्र समाहित है।
  • 1992 में रियो डि जेनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन में जैव विविधता को निम्न तरीक से प्ररिभाषित किया गया-
    " जैव विविधता " समस्त (जलीय, सागरीय एवं स्थलीय) पारिस्थितितंत्र के जीवों के मध्य अंतर और साथ ही उन सभी पारिस्थितिकी तंत्र जिनके ये भाग हैं, में पाई जाने वाली विविधता है। जैव विविधता में एक प्रजाति के अन्दर पाई जाने वाली विविधता, विभिन्न जातियों के बीच की विविध ता तथा पारिस्थितिकीय विविधता सम्मिलित है। "
  • जैव विविधता (Biological diversity) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग नार्से तथा मैकमैनस ने किया था। आगे चलकर डब्ल्यू. जी. रोजेने ने 'Biological diversity' शब्द को संक्षिप्त कर 'Biodiversity' शब्द दिया।

जैव विविधता के प्रकार

  • जैव विविधता तीन प्रकार की होती है, अनुवांशिक विविधता, प्रजातीय विविधता तथा पारिस्थितिक विविधता ।
  1. अनुवंशिक विविधता (Genetic Diversity)
    • अनुवंशिक विविधता का आशय एक ही जाति के जीवों के जीन में पाई जाने वाली विविधता से हैं एक जाति के सदस्य लगभग हर दृष्टिकोण से समान होते हैं फिर भी उनमें कुछ अंतर जरूर होता है।
    • जातियों में पाये जाने वाले अनुवंशिक विविधता का बहुत अधिक महत्व है। जिस जाति में अनुवंशिक विविधता अधिक होती है उसके अंदर पर्यावरण में होने वाले बदलाव के लिए अनुकूलन करने की क्षमता अधिक होती है।
    • हमलोग विभिन्न किस्म के आम, चावल, बैंग द खाते हैं यह अनुवंशिक विविधता का ही परिणाम है। भारत में 1000 से भी ज्यादा आम का किस्म पाया जाता वही धान के लगभग 50,000 किस्म का पता लगाया गया है।
    • भारत के हरित क्रांति अनुवंशिक विविधता का ही परिणाम है क्योंकि एक ही जाति की विभिन्न किस्म में पाई जाने वाली विविधता का इस्तेमाल कर एक उन्नत किस्म तैयार की जाती है।
  2. प्रजाति विविधता (Species Diversity)
    • किसी पारिस्थितिकी तंत्र के समुदाय के जातियों में जो विविधता मौजूद है उसे जाति या प्रजाति विविधता कहा जाता है। प्रजाति विविधता से हमें यह पता चलता है कि एक समुदाय में कितने प्रकार की जातियाँ मौजूद है।
    • पृथ्वी पर सर्वाधिक जातिय विविधता उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। इस क्षेत्र में जातीय विविधता सर्वाधिक होने के निम्न कारण हैं-
      1. उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र लाखों वर्षों से अबाधित रहा है, यहाँ कोई विशेष पर्यावरण परिवर्तन नहीं हुआ जिसके कारण जातियों का उद्भव तथा विकास के पर्याप्त समय मिला। 
      2. पृथ्वी पर सर्वाधिक सौर ऊर्जा की प्राप्ति इन्हीं क्षेत्रों को उपलब्ध होती है, जिसके कारण यहाँ कि उत्पादकता अत्यधिक है ओर यह परोक्ष रूप से जातीय विविधता को बढ़ावा दिया है।
      3. उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के मौसमी परिवर्तन भी ज्यादा नहीं होता है जिसके कारण यहाँ का निकेत (Niche) स्थिर रहता है। जिसके कारण अत्यधिक जाति विविधता हुई।
  3. पारिस्थतिकी विविधता (Ecological Diversity)
    • एक पारिस्थितिकी तंत्र या एक प्रकार के आवास में रहने वाले जीवों समुदाय तथा दूसरे पारिस्थितिकी तंत्र या दूसरे प्रकार के आवास में निवास करने वाले जीवों के समुदाय में जो विविधता पायी जाती है, उसे पारिस्थितिकी विविध ता कहते हैं। पारिस्थितिकी विविधता को सामुदाय विविधता भी कहा जाता है।
    • विभिन्न प्रकार के आवास तथा निकेत ही पारिस्थितिकी विविधता के लिये उत्तरदायी होते हैं, इसके अतिरिक्त पोषणचक्र, आहार श्रृंखला तथा ऊर्जा प्रवाह में होने वाला परिवर्तन पारिस्थितिक विविधता को बढ़ावा देता है।
    • पारिस्थितिकी विविधता को तीन प्रकार में विभाजित किया गया है, अल्फा विविधता, बीटा विविधता तथा गामा विविधता ।
    1. अल्फा विविधता (Alpha Diversity)
      • किसी एक समुदाय या परितंत्र में पाये जाने वाले प्रजाति विविधता ही अल्फा विविधता है। अल्फा विविधता का मापन कर किसी परितंत्र के अंदर एक समुदाय की कुल प्रजातियों की संख्या और प्रजातियों की आनुवंशकी के आधार पर उनमें पाई जाने वाली समरूपता का भी आकलन कहा जाता है।
    2. बीटा विविधता (Beta Diversity)
      • एक वास स्थान में विभिन्न समुदाय के बीच पाई जाने वाली विविधता बीटा विविधता कहलाती है। जितनी ज्यादा वास स्थानों में भिन्नता होगी उतनी ही ज्यादा उस क्षेत्र की बीटा विविधता होगी।
    3.  गामा विविधता (Gama Diversity)
      • लैंडस्केप स्तर पर पाई जानी वाली विविधता को गामा विविधता कहा जाता है। गामा विविधता में अल्फा तथा बीटा दोनों ही विविधता समाहित है। गामा विविधता के द्वारा किसी भौगोलिक क्षेत्र के आवासों की भिन्नता या विषमता का पता चलता है।

जैव विविधता की प्रवणता

  • पृथ्वी पर हर जगह जैव विविधता एक समान नहीं है हीं है। उच्च अक्षांश • उच्च अक्षांश से निम्न अक्षांश की ओर अथवा ध्रुव से भूमध्य रेखा की ओर बढ़ने पर जैव विविधता में वृद्धि होती है। इसी प्रकार पर्वतीय क्षेत्रों में जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती है जैव विविधता में कमी आने लगता है।
  • अक्षांशों में प्राय: उच्च अक्षांश से निम्न अक्षांश की ओर तथा पर्वतीय क्षेत्रों में ऊपर से नीचे की ओर आने पर प्रजातियों के संख्या में अंतर ही " जैव विविधता प्रवणता" कहलाता है।
  • जैव विविधता प्रवणता का मुख्य कारण यह है कि कहीं प्रजातियों के लिए विकास की परिस्थितियाँ पर्याप्त है तो कहीं बहुत कठीन परिस्थितियाँ है जहाँ प्रजातियों के जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

भारत में जैव विविधता का वितरण (Distribution of Biodiversity in India)

  • विश्व में अब तक ज्ञात जीवित स्पीशीज (जाति) की संख्या लगभग 1.8 मिलीयन (18 लाख) है, जिनमें 70 प्रतिशत से अधिक ज्ञात स्पीशीज जंतुओं (Animal) की है, जबकि पौधे जिनमें शैवाल, कवक, ब्रायोफाइट्स, टेरिडोफाइट्स, आवृतबीजी तथा अनावृत्तबिजी सम्मिलित है उनका प्रतिशत 22 है। शेष प्रजाति सूक्ष्मजीवों की है।
  • 'रॉबर्ट में' के अनुमान के मुताबिक विश्व के अभी 22 प्रतिशत स्पोशीब का पता लगाया जा सका है, अभी भी अनेकों प्रजाति का पता लगाना बाकी है। रॉबर्ट में के अनुसार विश्व में जातीय विविधता लगभग 7 मिलियन है।
  • भारत विश्व के जैव विविधता बाहुल क्षेत्रों में से एक है। विश्व के 17 बड़े जैव विविधता वाले क्षेत्रों में भारत भी शामिल है। जैव विविधता की दृष्टि से भारत विश्व के 10 तथा एशिया के 4 शीर्ष देशों में शामिल है।
  • IUCN के अनुसार भारत में जीवों की 91.000 प्रजातियाँ पायी जाती है. इसके अलावे भारत में पादपों की लगभग 47,500 प्रजातियाँ पायी जाती है। भारत में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव, पौधा, जन्तु की प्रजाति की अनुमानित संख्या निम्न है -
टैक्सॉन स्पीशीज की संख्या
1. जीवाणु 850
2 शैवाल 12480
3. कवक 23,000
4. लाइकेन 2000
5. ब्राइयोफाइट्स 2850
6. टेरिडोफाइट्स 1100
7. अनावृतबीजी 64
8. आवृत्तबीजी 17500
9. कीट 68389
10. मत्स्व 2546
11. उभयचर 309
12. सरीसृप 456
13. पक्षी 1232
14. स्तनधारी 390
  • भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जैव विविधता का प्रतिशत निम्न है-
भौगोलिक क्षेत्र जैव विविधता का प्रतिशत
1. पश्चिमी हिमालय 10%
2. मध्य भारत तथा गंगा का मैदानी क्षेत्र 9%
3. पश्चिमी मरूस्थलीय भाग 1%
4. पूर्वी घाट 24%
5. पश्चिमी घाट 26%
6. उत्तर-पूर्व 30%
7. शेष भाग 10%
  • भारत के विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु में भिन्नता के कारण जन्तुओं एवं वनस्पतियों की प्रजातियों में विविधता पाई जाती है। जैव विविधता की दृष्टि से भारत के 10 जैव भौगोलिक क्षेत्र हैं जिनमें जलवायु, स्थलाकृति, मृदा आदि में भिन्नता पायी जाती है।

जैव विविधता का महत्व (Importance of Biodiversity)

  • जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन का आधार है जो मनुष्य के लिए अपना अस्तित्व बनाये रखने में अत्यधिक सहायक है। मनुष्य की लगभग सभी आवश्यकता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पृथ्वी पर पायी जाने वाले विशाल जैव विविधता से ही प्राप्त होता है। जैव विविधता का महत्व निम्नलखित है-
    1. जैव विविधता से मनुष्य को अत्यधिक तथा विविध प्रकार के उत्पाद प्राप्त होते हैं, जिससे मनुष्य की अपनी आवश्यकता पूरी होती है तथा वे लाभ का भी अर्जन करते हैं। उच्च पैदावार होने वाले संकरण बीज भी जैव विविधता के बिना तैयार नहीं किया जा सकता है।
    2. पृथ्वी पर फैले विशाल जैव विविधता में कई ऐसे पादप हैं जिनमें चिकित्सा संबंधी गुण पाये जाते हैं। इन पादपों की सहायता से दर्द निवारक दवाई, मलेरिया तथा कैंसर दवाई बनायी जाती है। पृथ्वी पर सबसे ज्यादा औषधीय पौधों की भरमार विषुवत रेखीय प्रदेश तथा उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों में है।
    3. मनुष्य को हमेशा ही प्रकृति का सौन्दर्य काफी प्रभावित करता है। प्रकृति का सौन्दर्य विभिन्न प्रकार के फल तथा फूल वाले पादप, विभिन्न प्रकार में जीव-जन्तु के कारण है। अगर जैव विविधता में क्षरण होगा तो निश्चित ही प्रकृति के सौन्दर्य का जो अद्भूत नजारा हम देखते हैं वो लुप्त हो जाएगा।
    4. जैव विविधता परितंत्र को स्वस्थ तथा स्थिर बनाये रखते हैं। जैव विविधता नष्ट होने से परितंत्र में असंतुलन पैदा हो जाता है। आज पर्यावरण में ग्लोबल वार्मिंग तथा अम्लीय वर्षा जैसी समस्या जो आयी है, यह जैव विविधता के क्षरण का ही परिणाम है।
    5. जैव विविधता, कृषि के अनुवंशिक पदार्थ का स्त्रोत है जो कृषि के भविष्य के लिए अत्यधिक महत्व रखती। कृषि में पायी जाने वाली जैव विविधता हमारे परिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करती है और उत्पादन क्षमता को बढ़ाकर मनुष्य ही नहीं वरण सभी प्रजातियों का पोषण करती है।

जैव विविधता के ह्रास के कारण (Causes of Biodiversity losses)

  • पृथ्वी की जैव विविधता का बहुत ही तीव्रगति से ह्रास हो रहा है। कई जन्तु तथा पादपों की जातियाँ पृथ्वी से विलुप्त हो गये हैं और कई विलुप्त के कगार पर है। जैव विविधता के ह्रास होने कई कारण है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण कारण है मानव की अपनी गतिविधियाँ। मनुष्य अपनी जनसंख्या बेतहाशा तरीके से बढ़ा रहा है और आवश्यकता की पूर्ति के लिए जैव विविधता का अत्यधिक दोहन कर रहा है। जैव विविधता के ह्रास होने का प्रमुख कारण निम्न है-
    1. जैत्र विविधता का क्षरण होने का मुख्य कारण है प्राकृतिक आवासों का नष्ट हो जाना। सड़क निर्माण, भवन निर्माण, कृषि विकास हेतु आज लगातार जगलों को नष्ट कया जा रहा है जिससे कई जीव के प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाते हैं और उसे मजबूरन दूसर आवास में पलायन करना पड़ता है जहाँ उसे अत्यधिक संघर्ष के साथ जीवन यापन करना पड़ता है।
    2. विदेशी जाति का पारिस्थितिकी तंत्र में प्रवेश भी जैव विविधता के लिए खतरा हैं। जब कोई नई जाति किसी क्षेत्र में प्रवेश करती है तो इसे विदेशी जाति कहते हैं। कुछ विदेशी जाति नये पारिस्थितिकी तंत्र में बड़ी तेजी से अपनी संख्या बढ़ाती है जो स्थानीय जाति में कमी या उनकी विलुप्ति के कारण बनती है। जलकुंभी, गाजर घास, अफ्रीकन कैटफीश ये विदेशी जाति हैं जो भारत में आकर यहाँ के स्थानिक जाति के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया है।
    3. जब एक प्रजाति विलुप्त होती है तो उस पर आश्रीत जीव भी विलुप्त हो जाते हैं, इसे सह विलुप्तता (Coextinction) कहते हैं। सहविलुप्तता भी जैव विविधता के ह्रास का एक कारण है।
    4. प्रदूषण के कारण वर्त्तमान समय में पर्यावरण में बढ़ता प्रदूषण भी जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया है। जल तथा वायु दोनों ही दूषित हुआ है जिसके कारण पारिस्थितिकी तंत्र के कई संवेदनशील जातियाँ विलुप्त हो गये हैं या विलुप्ती के कगार पर है।
    5. बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन, वनाग्नि जैसे प्राकृतिक आपदा के कारण भी जैव विविधता के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण जीवों के आवास नष्ट हो जाते हैं जिसे उस क्षेत्र की प्रजातियाँ संकट में आती है। प्राकृतिक आपदा पारिस्थितिकी तंत्र के उत्पादकता को भी कम कर देते हैं।

जैव विविधता का संरक्षण (Conservation of Biodiversity)

  • जैव विविधता संरक्षण वे उपाय है जिनके द्वारा पौधों एवं जंतुओं को लगातार जीवित रखना, उनकी उचित वृद्धि तथा विकास एवं प्रजनन को सुनिश्चित किया जाता है। जैव विविधता संरक्षण के मुख्य उद्देश्य निम्न है-
    1. पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक तथा अजैवक भागों का आपस में संतुलन बनाए रखना ताकि पर्यावरण में भी संतुलन बना रहे।
    2. संकट ग्रस्त तथा दुर्लभ जातियों की रक्षा करना ।
    3. सभी जातियों का पूर्ण जीन पुल (Gene pool) का संरक्षण करना। एक जाति या इसकी एक समष्टि (आवादी) मँ कुल अनुवंशिक विविधता जीन पुल कहलाती है ।
    4. मानव हित में जीव धारियों का उपयोग संतुलित रूप से करना ।
  • जैव विविधता का संरक्षण पेड़-पौधे एवं जन्तु को बचाने या पर्यावरण संतुलन बनाये रखने हेतु परम आवश्यक है तथा मनुष्य की यह नैतिक जिम्मेदारी भी है कि उसे जो जैविक धरोहर मिला है उसको वह आने वाले पीढ़ी के लिए संभाल कर रखे। जैव विविधता के संरक्षण के दो मुख्य विधि है-
    1. स्व स्थानों संरक्षण (In situ Conservation )- जब जीव जन्तु एवं एवं वनस्पतियों का संरक्षण उनके अपने प्राकृतिक आवास में किया जाता है तो इसे स्व स्थानों संरक्षण कहा जाता है। स्व स्थाने संरक्षण काफी सस्ता तथा आसान तरीका है। इसके अंतर्गत 'उद्यान, वन्यजीव अभयारण्य, . जैव मंडल आगार (Biosphere Reserve) आदि आते हैं।
    2. बाह्य स्थाने संरक्षण (Ex situ Conservation)- कभी-कभी स्थितियाँ ऐसी आ जाती है, कि पौधे या जंतु संकटग्रस्त या आपत्तिग्रस्त श्रेणी में आ जाते हैं और उनका विलुप्त होने का खतरा प्रवल हो जाता है। इस स्थिति में जंतु या पौधों को उनके अपने प्राकृतिक आवास से निकालकर अन्यंत्र ले जाकर संरक्षण करना पड़ता है। इस तरह के संरक्षण को बाह्य स्थाने संरक्षण कहा जाता है। इसके अंतर्गत वनस्पतिक उद्यान, जंतु उद्यान, चिड़ियाँघर, वीज बैंक, जीन बैंक, क्रायोप्रिजरवेशन शामिल है।
1. राष्ट्रीय उद्यान (Natioal Park)
  • ऐसे प्राकृतिक पारिस्थति तंत्र जो जैव विविधता से समृद्ध होते हैं और उसका संरक्षण करना अत्यंत आवश्यक होता है, उस क्षेत्र को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के राज्य राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर सकता है।
  • राष्ट्रीय उद्यान घोषित क्षेत्र में जंतुओं का शिकार प्रतिबंधीत रहता है तथा राष्ट्रीय उद्यान के वन्य जीवों के अलावा अन्य जीवों के चारण पर भी प्रतिबंध होता है। इन क्षेत्रों में किसी भी तरह के हथियार का प्रयोग वर्जित रहता है।
  • वर्त्तमान में राष्ट्रीय उद्यानों की संख्या भारत में 94 से बढ़कर 103 हो गई है। जिनमें सर्वाधिक राष्ट्रीय उद्यान मध्य प्रदेश तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में है।
  • भारत का सर्वप्रथम राष्ट्रीय उद्यान हैली नेशनल पार्क है जो 1936 में बनाया गया था। वर्तमान में इसे जिम कार्बेट नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता है।
2. वन्यजीव अभ्यारण्य (Wildlife Sanctuaries)
  • अगर राज्य किसी क्षेत्र को जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता हो तो उसे वन्यजीव संरक्षण अधनियम 1972 के तरह वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित कर सकता है।
  • वन्यजीव अभ्यारण्य में मानव गतिविधि की अनुमति दी जाती है। इन क्षेत्रों में जानवरों को चराने, लकड़ी इकट्ठा करने तथा पर्यटन की अनुमति होती है परंतु मानव का बसना प्रतिबंधित होता है।
  • वन्यजीव अभ्यारण्य का गठन किसी विशेष प्रजाति को संरक्षण देने हेतु किया जाता है। जैसे- एशियाई शेर को संरक्षण देने हेतु गिर वन्य जीव अभ्यारण्य (गुजरात) का गठन, ठीक उसी तरह बाघ को संरक्षण देने हेतु पन्ना (मध्य प्रदेश), सिमलीपाल (ओडिशा) वन्य जीव अभ्यारण्य का गठन किया गया है।
  • सरकार वन्यजीव अभ्यारण्य को राष्ट्रीय उद्यान भी घोषित कर सकती है परंतु राष्ट्रीय उद्यान को वन्यजीव अभ्यारण्य घोषित नहीं किया जा सकता है।
  • भारत में वर्त्तमान समय में 543 वन्यजीव अभ्यारण्य हैं जिनमें टाइगर तथा पक्षी अभ्यारण्य भी शामिल है।
3. जैवमंडल आभार (Biosphere Reserve)
  • बायोस्फीयर रिजर्व अवधारणा का विकास 1975 में यूनेस्को के द्वारा किया गया है। यह क्षेत्र प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक भू-दृश्य का प्रतिनिधि क्षेत्र है जो स्थलीय, जलीय भाग में फैले होते हैं। बायोस्फीयर रिजर्व में न सिर्फ जैव विविधता को संरक्षित किया जाता है बल्कि यह परंपरागत संसाधनों के प्रयोग को बढ़ावा देने के साथ ही परितंत्र के कार्यप्रणाली और प्रारूप को समझने में मदद करता है।
  • जैत्रमंडल आगार की घोषणा तथा नामकरण केंन्द्रीय सरकार द्वारा किया जाता है और यह क्षेत्र जिस देश में रहता है संपूर्ण अधिकार उसी देश के पास रहता है। भारत में कुल 18 बायोस्फीयर रिजर्व है ।
  • एक बायोस्फीयर रिजर्व तीन हिस्सों में बँटा रहता है-
    1. क्रोड क्षेत्र (Core Zone)- बायोस्फीयर रिजर्व का सबसे ज्यादा संरक्षित क्षेत्र क्रोड क्षेत्र होता है। यहाँ मनुष्य को कोई भी क्रियाकलाप की आज्ञा नहीं होती है। बायोस्फीयर रिजर्व का क्रोड क्षेत्र एक राष्ट्रीय उद्यान भी हो सकता है।
    2. बफर क्षेत्र (Buffer Zone)- क्रोड क्षेत्र के चारों ओर का क्षेत्र बफर क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में सीमित गतिविधियाँ की अनुमति होती है। इस क्षेत्र का उपयोग शोध अनुसंधान, शिक्षा, पर्यटन मनोरंजन आदि क्रियाओं के लिए किया जाता है।
    3. पेरिफेरल क्षेत्र (Peripheral Zone)- बफर क्षेत्र के बाहर के क्षेत्र को पेरिफेरल क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र में पारस्थितिकी तंत्र को बिना क्षति पहुँचाये मानव गतिविधि की अनुमति होती है।
  • भारत के प्रमुख जैवमंडल आगार-
    • नीलगिरि, नंदा देवी, नोकरेक, सुन्दरवन, कंचनजंघा, पंचमढ़ी आदि ।
4. वानस्पतिक उद्यान (Botanical Garden)
  • वानस्पतिक उद्यान एक कृत्रिम आवास जहाँ विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के पादप की महत्वपूर्ण तथा विशिष्ट प्रजाति को संग्रह किया जाता है। वानस्पतिक उद्यान में संकटग्रस्त पादपों को भी संरक्षित किया जाता है।
  • वानस्पतिक उद्यान में शोध तथा अनुसंधान के माध्यम से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों के आवासों की वानस्पतिक प्रजातियों का एक स्थानीय आवासीय क्षेत्रों में विकास एवं संरक्षण के लिए तकनीक विकसित की जाती है। इसके अलावे पादप की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, रोगमुक्त रखने हेतु विदेशी प्रजाति या उन्नत प्रजाति से उसका संरक्षण कराकर नये-नये किस्म के पादप तैयार किये जाते हैं।
5. चिड़ियाँघर (Zoo )
  • चिड़ियाँघर एक कृत्रिम आवास है जहाँ जीव-जंतु, पक्षी एवं जीवों की दुर्लभ तथा संकटग्रस्त प्रजाति को रखा जाता है। चिड़ियाँघर का निर्माण जैव विविधता के बाह्य स्थाने संरक्षण हेतु किया जाता है परंतु आजकल यह मानव के प्रमुख मनोरंजन केन्द्र का भी स्थल बन चुका है।
  • भारत में स्थित सभी चिड़ियाँघरों का संचालन हेतु सभी मानकों का निर्धारण केन्द्रीय चिड़ियाँघर प्राधिकरण द्वारा की जाती है, जिसकी स्थापना भारतीय वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत किया गया है।
6. जीन पूल सेंटर (Gene Pool Centre)
  • एक जाति में कुल अनुवंशिक विविधता को जीन पूल कहते हैं। जीन पूल सेंटर के स्थान हैं वहाँ फसलों की महत्वपूर्ण प्रजातियाँ और स्थानिक जंतुओं की प्रजातियाँ पाई जाती है और इन केन्द्रों पर अनुर्वेशिक विविधता को एकत्र करने का प्रयास किया जाता है ताकि भविष्य में प्रयोग में लाया जा सके। जीन पूल केन्द्र के अंतर्गत विश्व के महत्वपूर्ण जैव विविधता वाले क्षेत्र शामिल हैं, इनमें प्रमुख निम्न हैं-
    1. दक्षिण एशिया उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र
    2. दक्षिण-पश्चिम एशिया क्षेत्र
    3. पूर्वी एशिया, चाइना एवं जापान का क्षेत्र
    4. भूमध्य सागरीय क्षेत्र
    5. यूरोप
    6. दक्षिण अमेरिका का एंडीज पर्वत
7. जीन बैंक (Gene Bank)
  • जीन बैंक के अंतर्गत वृक्षों के बीजों, जंतुओं के स्पर्म एवं एवं अण्डा को सामान्य तापक्रम पर एक जैक्कीय फ्रीज में रखा जाता है और आवश्यकता पड़ने पर उसे उपयोग में लाया जाता है।
  • भारत में तीन मुख्य संस्थान है जो जीन बैंक के तरह कार्य करता है, यह निम्न हैं-
    1. राष्ट्रीय पादप अनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, नई दिल्ली केन्द्र पर फसलों, पादपों तथा पादप के अन्य जाति के बीजों को संरक्षित रखा जा सकता है।
    2. राष्ट्रीय पशु अनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, करनाल में पालतू पशुओं के अनुवंशिक पदार्थ (स्पर्म, अंडा आदि) को संरक्षित किया जाता है।
    3. राष्ट्रीय मत्स्य अनुवंशिक संसाधन ब्यूरो, लखनऊ में मछलियों के अनुवंशिक पदार्थों का संरक्षण एवं रख-रखाव किया जाता है।
8. क्रायोप्रिजर्वेशन (Cryo preservation)
  • इस तकनीक के अंतर्गत पादप तथा जंतु के अनुवंशिक पदार्थ (कोशिका, उत्तक, अंग आदि) को द्रव नाइट्रोजन में अत्यंत ही निम्न ताप पर रखा जाता है। बाह्य स्थाने संरक्षण की यह तकनीक काफी आधुनिक तकनीक है जो लम्बे समय तक अनुवंशिक पदार्थों की कार्यक्षमता को बनाए रखता है। 

जैव विविधता हॉट स्पॉट (Biodiversity Hot spots)

  • जैव विविधता हॉट स्पॉट ऐसे क्षेत्र होते हैं जहाँ जैव विविधता प्रचुर मात्रा में उपस्थित रहते तथा वहाँ स्थानीय प्रजाति की प्रचुरता पायी जाती है। हॉट स्पॉट स्व स्थाने संरक्षण का उदाहरण हैं।
  • हॉट स्पॉट के अवधारणा का प्रतिपादन नॉर्मन मायर्स ने किया था। किसी भी क्षेत्र को हॉट स्पॉट घोषित करने हेतु निम्न मापदण्ड बनाये गये हैं-
    1. इस क्षेत्र में 1500 से अधिक स्थानिक पौधों की प्रजाति होनी चाहिये ।
    2. यहाँ कि 70 प्रतिशत प्राथमिक वनस्पतियाँ नष्ट हो चुकी है।
  • वर्त्तमान में विश्व में 36 हॉट स्पॉट है जो पृथ्वी के स्थलीय क्षेत्रों को 2.3 प्रतिशत भाग पर फैले हुए है परंतु इन हॉट स्पॉट क्षेत्रों में विश्व के पौधे, पक्षी, स्तनधारी, सरीसृप, उभयचरों की 60 प्रतिशत प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • हॉट स्पॉट में भी कुछ हॉट स्पॉट ऐसे हैं जहाँ स्थानिक प्रजाति की काफी अधिक प्रचुरता है, ऐसे हॉट स्पॉट को Hottest Hotspots कहा जाता है। Hottest Hotspots की श्रेणी में विश्व के 8 हॉट स्पॉट क्षेत्र को रखा गया है।
  • भारत में कुल 4 हॉट स्पॉट है जिनमें 2 को Hottest Hotspots की श्रेणी में रखा गया है। भारत के 4 हॉट स्पॉट हैं- 1. पूर्वी हिमालय या हिमालय क्षेत्र, 2. इण्डो वर्मा क्षेत्र, 3. पश्चिमी घाट और 4. सुण्डालैण्ड |
  • भारत के 4 हॉट स्पॉट पूरी तरह से भारतीय क्षेत्र में नहीं है। भारत के अंतर्गत आने वाले हॉट स्पॉट क्षेत्रों में पश्चिमी घाट हॉट स्पॉट क्षेत्र में 64.95 प्रतिशत, इंडो- वर्मा में 5.13 प्रतिशत, हिमालय क्षेत्र में 44.37 प्रतिशत और सुंडालैण्ड हॉट स्पॉट में 1.28 प्रतिशत क्षेत्र सम्मिलित है।

रेड डाटा बुक (Red Data Book)

  • आपत्तिग्रस्त प्राणी और पौधों की सूची एवं उनकी जानकारी एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित की गई है, जिसे रेड डाटा बुक नाम दिया गया है। यह रेड डाटा बुक IUCN (International Union for Conservation of Nature) वैश्विक प्रजाति कार्यक्रम तथा प्रजाति उत्तरजीविता आयोग के साथ मिलकर प्रकाशित करता है।
  • IUCN की Red Data Book में प्रजाति को उनकी स्थिति के अनुसार कुल नौ श्रेणी में रखा गया है। यह श्रेणी निम्न है-
    1. विलुप्त (Extinct or Ex)- जिस प्रजाति का कोई सदस्य जीवित न हो तथा विश्व के सभी आवासों में उनकी संख्या है- बिल्कुल समाप्त हो चुकी हो विलुप्त प्रजाति कहलाती है। विगत दशकों में जो प्रजाति विलुप्त हो गई, उनमें मुख्य डोडो (मॉरीशस), स्टीलर्स सी कॉउ (रूस), थाईलैसीन (आस्ट्रेलिया) तथा अफ्रीका के शेर की तीन उपप्रजाति- बाली, नावन, कैस्पियन |
    2. वन से विलुप्त (Extinct in the Wirld or EW)- जिस प्रजाति की समस्त जीव अपने प्राकृतिक आवास से खत्म हो गया हो और अब वह चिड़ियाँघर या अन्य कृत्रिम आवास में ही बचा हो, उसे वन से विलुप्त माना जाता है।
    3.  गंभीर संकट ग्रस्त (Critically Endangered or CR)- गंभीर संकट ग्रस्त प्रजाति विलुप्त के अत्यधिक नजदीक होते हैं। इस श्रेणी में रखने के मापदण्ड निम्न है-
      1. यदि प्रजाति की जनसंख्या 250 से कम हो और 3 वर्षों में 25% की कमी आ रहा हो।
      2. यदि 10 वर्षों में प्रजाति की जनसंख्या में 90% से अधिक की कमी हो ।
      3. केवल 50 या उससे कम परिपक्व सदस्य संख्या शेष हो । 
      4. यदि 10 वर्षों में 50% तक प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा हो ।
        • प्रमुख भारतीय प्रजाति जो गंभीर संकटग्रस्त है- इंडियन बस्टर्ड, जेरडॉन कॉर्सर, गुलाबी सिर वाली बत्तख, सफेद पट वाला बगुला, हिमालयन बटेर, साइबेरियन क्रेन, गंगा शार्क, पग्मी हॉल, घड़ियाल आदि।
    4. संकट ग्रस्त (Endangered or EN )- संकट ग्रस्त प्रजाति का वन से विलुप्त होने का खतरा बना रहता है। इस श्रेणी में रखने के निम्न मापदण्ड है-
      1. यदि 10 वर्षों में प्रजातियों की 70% जनसंख्या में कमी देखी जाती है।
      2. यदि केवल 250 या उससे कम परिपक्व सदस्य शेष हो ।
      3. 20 वर्षों में 20% प्रजाति के विलुप्त होने की आशंका हो ।
      4. प्रजाति की जनसंख्या 2500 से कम हो और 5 वर्षों के अंदर 20% कमी होने की संभावना हो ।
        • भारत के प्रमुख संकटग्रस्त प्रजाति- सॉफिश, संगाई हिरण, शेर जैसी पूँछवाला बंदर, नीलगिरी ताहर, सुनहरा लंगूर, हम तेंदुआ, गंगा डॉल्फिन, लाल पाण्डा, पैंगोलीन आदि ।
    5. सुभेद्य (Vulnerable or VU)- इसमें ऐसे प्रजाति को रखा जाता है जो निकट भविष्य में वनों में संकटग्रस्त हो जाएंगे। इस श्रेणी के मापदण्ड निम्न हैं-
      1. प्रजाति की संख्या में 10 वर्षों में 50% से अधिक की कमी दर्ज की गई हो । 
      2. प्रजातियों की जनसंख्या 10,000 से कम हो और 10 वर्षों में 10% की कमी आ रही हो ।
      3. केवल 1000 या उससे कम परिपक्व सदस्यों की संख्या शेष हो ।
        • प्रमुख भारतीय प्रजाति जो सुभेद्य की श्रेणी में हैं- तेंदुआ, एक सींग वाला गैंडा, चीता, चार सींग वाला मृग, भारतीय बाइसन, Dugong ( समुद्री गाय ), स्लोथ भालू
    6. निकट संकट (Near Threatened or NT)- इसके अंतर्गत वे प्रजाति आते हैं जो निकट भविष्य में संकटग्रस्त (EN) हो सकते है।
    7. संकट मुक्त (Least Concern or LC ) - ऐसे प्रजाति जो विस्तृत क्षेत्र में पाये जाते हैं तथा जिन्हें कोई विशेष खतरा नहीं है, संकट मुक्त श्रेणी में आते हैं।
    8. ऑकड़ों का अभाव (Data Deficient )- जब प्रजाति आवास तथा जनसंख्या का सही आकलन नहीं हो पाता है तो ऐसे प्रजाति IUCN इस श्रेणी में रखता है।
    9. अनाकलित (Not Evaluted)

जैव विविधता से संबंधित प्रमुख कानून

1. रामसर आर्द्रभूमि संधि (1971)
  • आर्द्रभूमि के जैव विविधता को संरक्षण हेतु 1971 में ईरान के रामसर एक सम्मेलन हुआ और शहर के नाम पर ही इस सम्मेलन को रामसर सम्मेलन कहा जाने लगा। इस सम्मेलन के समझौतों को 1975 में लागू किया गया और भारत 1982 में इस समझौते में शामिल हुआ।
  • रामसर समझौता या संधि के कार्यान्वयन हेतु भारत सरकार ने 1985-86 के दौरान राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम चलाया। वर्त्तमान में भारत के 115 आर्द्रभूमि में से 92 आर्द्रभूमि रामसर संधि के अंतर्गत शामिल है।
2. कार्टाजेना जैव सुरक्षा प्रोटोकॉल (2000)
  • जैव विविधता संरक्षण का यह समझौता कोलंबिया के कार्टाजेना शहर में 29 जनवरी 2000 को सम्पन्न हुआ तथा समझौते की शर्तों को 11 सितंबर 2003 को लागू कया गया।
  • इस संधि के तहत ऐसे जैनेटिक बीज या पशु को प्रतिबंधित करना शामिल है जो पर्यावरण को हानि पहुँचा सकता है। 
3. नागोया प्रोटोकॉल (2010)
  • नागोय सम्मेलन वर्ष 2010 में जापान के नगोया शहर में हुआ था। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य था - आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से वाले लाभों के स्वस्थ एवं समान बँटवारा तथा जंगल, कोरलरीफ और जैव विविधता का सुरक्षा । 
  • भारत भी इस सम्मेलन में शामिल है।
4. वन्य जीव संरक्षण अधिनियम (1972)
  • 1972 में स्कॉट होम सम्मेलन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भारत सरकार यह कानून पास किया जिसका मुख्य उद्देश्य था- वन्य जीव की रक्षा, तस्करी तथा अवैध शिकार से बचाव एवं अवैध व्यापार पर रोक लगाना। इसी अधिनियम के तहत सलाहकारी निकाय ‘वन्य जीव सलाहकार बोर्ड' स्थापित किया गया जो राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेशों को राष्ट्रीय उद्यान, अभ्यारण्य की पहचान करने में मदद करता है।
5. राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना (1983)
  • भारत में प्रथम राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना 1983 में अपनाई गई जिसे आगे चलकर संशोधित किया गया। राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना का मुख्य उद्देश्य है-
    1. राष्ट्रीय वन्य जीव कार्यक्रम से अन्य संबंधित कार्यक्रम को एकीकृत करना ।
    2. वन्यजीव के अवैध शिकार तथा व्यापार पर रोक लगाना ।
    3. संकटपन्न जैव विविधता की पहचान कर उसे संरक्षित करना ।
    4. संरक्षित क्षेत्र में वृद्धि कर उसका वैज्ञानिक प्रबंधन करना ।
6. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986)
  • संसद द्वारा 23 मई, 1986 को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। इसका भी संदर्भ 1972 के स्टॉक होम पृथ्वी सम्मेलन से था। पर्यावरण संरक्षण के अलावे प्रदूषण के लिए भी यह एक सशक्त एवं व्यापक अधिनियम है।
7. पशु क्रूरता अधिनियम (1960)
  • पशुओं पर हो रही क्रूरता रोकने के लिए यह अधिनियम पारित किया गया। इस अधनियम के तहत पशुओं के पंजीकरण, जन्मदर नियंत्रण, परिवहन के लिए पशुओं के उपयोग संबंधि प्रावधान, कसाईघर संबंधी प्रावधान की व्याख्या की गई है। इसी अधिनियम में पशुओं को सर्कस से मुक्त कराने का प्रावधान है।
8. जैव विविधता अधिनियम (2002)
  • जैव विविधता के संरक्षण के लिए भारतीय संसद द्वारा वर्ष 2002 में इसे पारित किया गया, जिसके तहत तीन कार्यकारी इकाई का गठन किया गया।
    1. राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (चेन्नई)
    2. राज्य जैव विविधता बोर्ड
    3. जैव विविधता प्रबंधन समितियाँ ।
9. राष्ट्रीय वन नीति (1988)
  • भारत में पहली बार 1894 में ही गया। नये सिरे से राष्ट्रीय वन नीति 1988 में का कम से कम एक तिहाई क्षेत्रफल वनों लागू • किया गया था पुनः आजादी के बाद 1952 में इसमें संशोधन किया बनाई गई। इस नीति में यह लक्ष्य बनाया गया कि देश की कुल क्षेत्रफल एवं वृक्षों से अच्छादित होनी चाहिए जिसमें पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में यह दो तिहाई से कम नहीं होना चाहिए।
  • पर्यावरण, वन, जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 1988 के राष्ट्रीय वन नीति को प्रतिस्थापित कर नई वन नीति (2016) लागू करने हेतु जनता से सुझाव आमंत्रित किये है।

भारत के प्रमुख पर्यावरणीय संगठन

1. पर्यावरण शिक्षा केन्द्र (Centre for Environment Education or CEE)
  • इसकी स्थापना वर्ष 1984 में हुआ था। इसका मुख्यालय अहमदाबाद में स्थित है। यह केन्द्र पर्यावरण के प्रति जागरूकता को बढ़ावा देता है। पर्यावरण शिक्षा केन्द्र भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अन्तर्गत आता है।
2. सलीम अली पक्षी विज्ञान और प्राकृतिक इतिहास केन्द्र (Salim Ali Centre for Ornithology and Natural History)
  • यह केन्द्र पक्षियों के संरक्षण हेतु प्रतिबद्ध है साथ ही यह जैव विविधता संरक्षण के लिए आवश्यक तकनीकी एवं वैज्ञानिक सहायता प्रदान करता है।
  • भारत के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अन्तर्गत इसकी स्थापना 5 जून, 1990 को कोयम्बटूर किया गया।
3. भारतीय वन्य जीव संस्थान (Wildlife Institute of India or WII)
  • यह संस्था भारत के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है। इसकी स्थापना 1982 में हुई तथा इसका मुख्यालय उत्तराखण्ड के देहरादून में स्थित है।
  • यह संस्था वन्यजीव अनुसंधान एवं प्रबंधन के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम तथा अकादमिक कोर्स का संचालन करता है।
4. भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India-FSI)
  • भारत सरकार द्वारा 1965 में शुरू किये गये 'प्री इन्वेस्टमेंट सर्वे ऑफ फॉरेस्ट रिसोर्सेस' के स्थान पर 1981 में भारतीय वन सर्वेक्षण का गठन किया गया। यह संगठन भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत आता है। इसका मुख्यालय उत्तराखंड के देहरादून में स्थित है। यह संस्था नियमित अंतराल में देश के वन संसाधनों के मूल्यांकन का कार्य करता है।
5. भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (Botanical Survey of India or BSI)
  • इसकी स्थापना सर्वप्रथम 1890 में हुई थी । पुनः भारत सरकार द्वारा 29 मार्च, 1954 को इसका नये सिरे से पुर्नगठन किया। इसका मुख्यालय कोलकाता में स्थित है।
  • भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन सर्वेक्षण, प्रलेखन और संरक्षण के माध्यम से देश के वन्य पादप संसाधनों संबंधी वर्गिकी और पुष्पण अध्ययन करने के लिए एक शीर्ष अनुसंधान संगठन है।
6. भारतीय प्राणी सर्वेक्षण (Zoological Survey of India - ZSI )
  • इस संस्था की स्थापना 1 यह संस्था भी पर्यावलाई, 1916 को की गई थी। इसका मुख्यालय अलीनगर (कोलकाता) में स्थित है तथा वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन है।
  • यह संस्था का उद्देश्य, प्राकृतिक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण जानवरों के विषय में सर्वे, अन्वेषण एवं अनुसंधान द्वारा जानकारी इकट्ठा करना है। इस संस्था द्वारा 'भारत की प्राणिजात' नामक पत्रिका का प्रकाशन होता है।
7. CPR - पर्यावरण शिक्षा केन्द्र
  • इसकी स्थापना पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार तथा सी. पी. रामास्वामी अय्यर फाउंडेशन द्वारा संयुक्त रूप से किया गया। यह संस्था दक्षिण भारत में पर्यावरण शिक्षा के लिए किये जा रहे प्रयास में अग्रणी केन्द्र है और अधिक से अधिक लोगों तक जागरूकता एवं पर्यावरण हितों को बताने के लिए कई कार्यक्रम चलाता है।
  • यह संस्था चेन्नई में स्थित है।
8. Centre for Science and Environment (CSE)
  • CSE एक गैर-सरकारी संगठन है जिसकी की स्थापना 1980 अनिल कुमार अग्रवाल द्वारा नई दिल्ली में की गई थी।
  • इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है पर्यावरण और विकास के संबंधों का अध्ययन, अनुसंधान और मूल्यांकन कर सतत् विकास के प्रति लोगों में चेतना जागृत करना । प्रसिद्ध पत्रिका 'डाउन टू अर्थ' का प्रकाशन इसी संस्था द्वारा किया जाता है।
9. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (BNHS)
  • BNHS की स्थापना 15 सितंबर 1883 को बम्बई में आठ प्रकृतिवादियों द्वारा किया गया था। जिनमें आत्माराम पांडुरंग भी शामिल थे।
  • इस संगठन ने भारत में जैव विविधता एवं पर्यावरण संरक्षण के लए अनुसंधान कार्य करने वाला सबसे बड़ा गैर सरकारी संगठन है। यह बॉम्बे नचुरल हिस्ट्री सोसाइटी नाम से एक जर्नल तथा हॉर्नबिल नामक मैग्जीन का प्रकाशन करता है। इस संगठन का लोगों हॉर्नबिल पक्षी है।

अभ्यास प्रश्न

1. जैव विविधता (Biodiversity) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसके द्वारा किया गया था ?
(a) टॉन्सले
(b) रॉबर्ट हुक
(c) वाल्टर जी. रोजेन
(d) एच. रेटर
2. निम्नलिखित में कौन-सा एक सही नहीं है ?
(a) उच्च अक्षांश से निम्न अक्षांश की ओर पर्यावरण अनुकूलन होने के कारण जैव विविधता में वृद्धि होती है।
(b) टुंड्रा एवं टैगा जलवायु क्षेत्र में विषुवतीय रेखीय एवं उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन वाले क्षेत्रों की जैव विविधता पाई जाती है। तुलना में कम
(c) पर्वतीय क्षेत्रों में जैसे-जैसे ऊँचाई बढ़ती है जैव विविधता में कमी आती है।
(d) स्थलीय क्षेत्रों के तुलना में जलीय क्षेत्रों में ज्यादा जैव विविधता पायी जाती है।
3. एक समुदाय के जीव जंतु और वनस्पति एवं दूसरे समुदाय के जीव जंतु और वनस्पति के बीच पाई जाने वाली विविधता को क्या कहते हैं ?
(a) अनुवंशिकता विविधता
(b) प्रजाति विविधता
(c) परितंत्र विविधता
(d) इनमें से कोई नहीं
4. पृथ्वी पर सबसे अधिक प्रजाति विविधता किसमें पाई जाती है ?
(a) ऑथ्रोपोडा
(b) स्तनधारी
(c) मोलस्का
(d) उभयचर
5. जैव विविधता के ह्रास का सबसे प्रमुख कारण क्या है ?
(a) विदेशी जातियों का प्रवेश
(b) आवासों का विनाश
(c) प्रदूषण
(d) प्राकृतिक आपदा
6. जैव विविधता में निरंतर आ रही कमी ( ह्रास ) का क्या कारण है ?
(a) आवासों का विखंडन
(b) प्राकृतिक संपदा का अत्यधिक दोहन
(c) विदेशी जातियों का आक्रमण
(d) इनमें से सभी
7. एक जाति या इसकी एक समष्टि ( आबादी ) में कुल आनुवंशिक विविधता क्या कहलाती है ?
(a) जीनपूल
(b) डीएनए पूल
(c) आनुवंशिक विविधता
(d) अल्फा विविधता
8. किसी एक समुदाय या परितंत्र में प्रजातियों की कुल संख्या का पता चलता है-
(a) अल्फा विविधता से 
(b) बीटा विविधता से
(c) गामा विविधता से
(d) इनमें से कोई नहीं
9. उच्च अक्षांशों से निम्न अक्षांशों की ओर तथा पर्वतीय क्षेत्र में ऊपर से नीचे की ओर आने पर प्रजातियों की संख्या में आने वाले अंतर को, कहते हैं-
(a) जैव विविधता आर्वधन
(b) जैव विविधता प्रवणता
(c) जैव विविधता ह्रास
(d) जैव विविधता ब्लूम
10. जैव विविधता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है ?
(a) औषधि
(b) भोजन
(c) पारिस्थितिक तंत्र का निर्वहन
(d) औद्योगिक उपयोग
11. भारत में हरित क्रांति की सफलता में किस विविधता का सर्वाधिक योगदान है ?
(a) अनुवंशिक विविधता
(b) स्पीशीज विविधता
(c) पारिस्थितिक विविधता
(d) इनमें से कोई नहीं
12. लैंडस्कैप स्तर पर पाई जाने वाली विविधता को क्या कहा जाता है ?
(a) अल्फा विविधता
(b) बीटा विविधता
(c) गामा विविधता
(d) इनमें से सभी
13. इंडोनेशिया में उगने वाली कांस घास (Saccharum Spontaneum) में पाई जानेवाली जीन से किस रोग की रोकथाम की गई ?
(a) धान का खैरा रोग
(b) गन्ना का लाल विगलन (red rot) रोग
(c) बंदागोभी का काला विगलन रोग
(d) बाजरे का हरित बाली रोग
14. उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में जैव विविधता क्यों अधिक पायी जाती है ?
(a) इन क्षेत्रों में जाति उवन अधिक हुआ है।
(b) इस क्षेत्र में सौर ऊर्जा अधिक उपलब्ध है।
(c) इस क्षेत्र में कम मौसमी परिवर्तन होता है
(d) इनमें से सभी
15. किसी क्षेत्र में जैव विविधता की हानि से कौन-से प्रभाव पड़ते हैं ?
(a) पादप उत्पादकता घटती है
(b) पर्यावरणीय समस्याओं ( बाढ़, सूखाड़) के प्रति प्रतिरोध में कमी आती है।
(c) जल - उपयोग तथा रोग चक्रों की परिवर्तनशीलता बढ़ जाती है।
(d) इनमें से सभी
16. निम्नलिखित में कौन-सी विदेशी प्रजाति है ?
(a) लेंटाना कमारा (Lantana Camara)
(b) जलकुंभी (Eichhornia Crassipes)
(c) गाजर घास (Parthenium hysterohorus)
(d) इनमें से सभी
17. किस पर्यावरणविद् ने पारिस्थितिक तंत्र की तुलना एक हवाई जहाज से की तथा पारिस्थितिक तंत्र में पाई जाने वाली स्पीशीज तंत्र में पाई जाने वाली स्पीशीज की तुलना हवाई जहाज की कीलक (rivat) से की ?
(a) पॉल एहरलिक
(b) रॉबर्ट मे
(c) डब्ल्यू. जी. रोजेन
(d) आर. एच. विटेकर
18. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. ग्रासी स्टंट वाइरस धान के ओराइजा सेटाइवा किस्म को नष्ट कर देता है।
2. धान के ओराइजा निवारा किस्म में ग्रासी स्टंट वाइरस को रोकने की क्षमता वाला जीन है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है / हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
19. कीटों की सबसे अधिक प्रजातियाँ कहाँ पायी जाती है ?
(a) मरूस्थल में 
(b) घास मैदान में
(c) वन में
(d) जल में
20. उभयरों के स्थानिक प्रजाति हेतु निम्नलिखित में कौन-सा प्रसिद्ध है ?
(a) सुंदरवन
(b) गहिरमाथा
(c) पश्चिमी घाट
(d) पूर्वी घाट
21. रेड डाटा बुक में संकटग्रस्त प्रजाति वह है, जिसकी जनसंख्या में-
(a) 10 वर्षों में 90% की कमी दर्ज की जाती है
(b) 10 वर्षों में 70% की कमी दर्ज की जाती है।
(c ) 10 वर्षों में 50% की कमी दर्ज की जाती है। 
(d) इनमें से कोई नहीं
22. निम्नलिखित जीवों में कौन-सा / से रेड डाटा बुक के घोर संकटग्रस्त (CR) श्रेणी में शामिल है / हैं ?
1. ग्रेट इंडियन बस्टर्ड  
2. जेरडॉन कॉर्सर
3. हिमालयन बटेर
4. सुनहरा लंगूर
5. साइबेरियन क्रेन
कूट :
(a) 1, 2, 3 और 4
(b) 1, 3 और 5
(c) 1, 2, 4 और 5
(d) 1, 2, 3 और 5
23. अंडमान का सफेद दाँतेदार छछूंदर तथा निकोबार का सफेद पूँछ वाला छछूंदर रेड डाटा के किस श्रेणी में शामिल है ?
(a ) घोर संकटग्रस्त (CR)
(b) संकटग्रस्त (EN)
(c) सुभेद्य (VU)
(d) संकटमुक्त (LC)
24. रेड डाटा बुक के सुभेद्य (VU) श्रेणी में शामिल निम्नलिखित जीव में किसका प्राकृतिक आवास अब anभारत में नहीं है ?
(a) तेंदुआ
(b) चीता
(c) एक सींग वाला गैंडा
(d) संबर हिरण
25. भारत के किस एक मात्र राष्ट्रीय उद्यान में उड़ने वाली गिलहरी पायी जाती है ?
(a) केवलादेव
(b) नामदफा
(c) दाचीगाम
(d) केइबुल लामजाओ
26. निम्नलिखित में कौन-सा स्वस्थाने संरक्षण नहीं है ?
(a) राष्ट्रीय उद्यान
(b) वन्यजीव अभ्यारण्य
(c) जैत्रमंडल आगार
(d) चिड़ियाँघर
27. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों का उनके प्राकृतिक आवास में संरक्षण स्वस्थाने संरक्षण कहलाता है।
2. बाह्य स्थाने संरक्षण विधि में पौधे एवं जन्तु का संरक्षण उनके प्राकृतिक आवास के बाहर किसी विशेष स्थान में किया जाता है।
निम्नलिखित में कौन-सा/से सही है/हैं ?
(a) केवल 1 
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
28. निम्नलिखित में कौन जैव विविधता संरक्षण की बाह्य स्थाने विधि नहीं है ?
(a) वनस्पति उद्यान 
(b) जंतु उद्यान
(c) राष्ट्रीय उद्यान
(d) वृक्ष उद्यान
29. जैव विविधता के अंतर्गत निम्नलिखित में कौन सम्मिलित है ?
(a) जमीनीय विविधता
(b) जलीय विविधता
(c) पारिस्थितिकीय विविधता
(d) इनमें से सभी
30. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. राष्ट्रीय उद्यानों में किसी भी प्रकार की मानव गतिविधि की अनुमति नहीं होती है।
2. राष्ट्रीय उद्यान को अभ्यारण्य में तथा एक अभ्यारण्य को राष्ट्रीय उद्यान में राज्य सरकार परिवर्तित कर सकती है।
3. बायोस्फीयर रिजर्व के बाहरी भाग में मानवों के बसने तथा परंपरागत कार्यों को करने की अनुमति होती है।
उपर्युक्त कथनों में कौन-से सही हैं ?
(a) 1 और 2 
(b) 2 और 3
(c) 1 और 3
(d) 1.2 और 3
31. भू-मंडल का सबसे बड़ा जैव विविधता वाला क्षेत्र कौन है ?
(a) पूर्वी हिमालय
(b) पश्चिमी हिमालय
(c) भारत का पश्चिमी घाट
(d) अमेजन का वर्षा वन
32. भारत ने बाघों को संरक्षित करने के लिए प्रोजेक्ट टाईगर कार्यक्रम की शुरूआत कब की ?
(a) 1973
(b) 1992
(c) 1970
(d) 1975
33. भारत में गैंडों की मुख्य शरणस्थली है ?
(a) मानस अभराण्य 
(b) काजीरंगा उद्यान
(c) जाल्दापाड़ा अभराण्य
(d) इनमें से सभी
34. भारत के किस हॉटस्पॉट वाले क्षेत्र में संकटग्रस्त (EN) श्रेणी में शामिल लाल पांडा का निवास स्थल है ?
(a) पूर्वी हिमालय 
(b) पश्चिमी घाट
(c) इण्डो- वर्मा क्षेत्र
(d) सुण्डा लैंड
35. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. हॉटस्पॉट अवधारणा का संबंध स्थलीय परितंत्र से है।
2. होपस्पॉट अवधारणा का संबंध सागरीय परितंत्र से है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से सही है/है ?
(a) केवल 1 
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
36. पारिस्थितिकी विविधता के अंतर्गत शालि है-
(a) अल्फा विविधता  
(b) बीटा विविधता
(c) गामा विविधता
(d) इनमें से सभी
37. रेड डाटा बुक में किसे सम्मिलित किया जाता है ?
(a) विलुप्त हो रहे पौधे की सूची
(b) दुर्लभ पौधे की सूची
(c) आपत्तिग्रस्त प्राणियों की सूची
(d) इनमें से सभी
38. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. रेड डाटा बुक का प्रकाशन IUCN के द्वारा किया जाता है।
2. IUCN की लाल सूची (Red list) में प्रजातियों को उनकी स्थिति के अनुसार कुल 9 श्रेणियों में रखा गया है।
3. IUCN की स्थापना 1948 में हुई।
उपर्युक्त में कौन-सा/से सही है/है ?
(a) 1 और 2
(b) 2 और 3
(c) 1 और 3
(d) 1,2 और 3
39. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए
1. भारत में आम के लगभग 1000 से भी अधिक प्रजाति पायी जाती है।
2. अमेजन के वनों में पादपों की स्पीशीज की संख्या लगभग 40000 है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से सही है/ है ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
40. निम्नलिखित में कौन-सी प्रजाति विलुप्त है-
(a) डोडो 
(b) स्टीलर्स सी काउ
(c) थाइलैसीन
(d) इनमें से सभी
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Tue, 23 Apr 2024 04:43:52 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी https://m.jaankarirakho.com/1010 https://m.jaankarirakho.com/1010 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी
  • किसी जीव के चारों ओर स्थित एवं फैली जैविक तथा अजैविक घटक, जो जीवो को विकसित, पोषित तथा तथा समाप्त होने में मदद करता है, उन्हें सम्मिलित रूप से पर्यावरण कहते हैं। जीव तथा उसका पर्यावरण एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं, पर्यावरण से अलग जीवन की कल्पना असंभव है।
  • Environment (पर्यावरण) शब्द ग्रीक भाषा के शब्द 'Environ' से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, जीवों के चारों ओर का परिवेश। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में पर्यावरण को इस तरह परिभाषित किया गया है- किसी जीव के चारों तरफ घिरे भौतिक (अजैविक) तथा जैविक दशाएँ, जिसके साथ जीव अंतः क्रिया करते हैं, उसे सम्मिलित रूप से पर्यावरण कहा जाता है।

पर्यावरण की संरचना या घटक

  • पर्यावरण की संरचना काफी जटिल है तथा इसका विस्तार वास्तव में बहुत बड़ा है। पर्यावरण के अंतर्गत समस्त जैव मंडल समाहित है। जैवमंडल के अंतर्गत समस्त जीव तथा उसका भौतिक पर्यावरण (जल, स्थल, वायु) शामिल है।
  • पर्यावरण के मुख्य दो घटक हैं- जैविक तथा अजैविक घटक । वर्तमान समय में पर्यावरणविद पर्यावरण के चार घटकों की बात करते हैं, ये है- जैविक घटक, अजैविक घटक, ऊर्जा घटक तथा सांस्कृतिक घटक ।
अजैविक घटक (Abiotic Component)
  • अजैविक घटक को निर्जीव घटक कहते हैं। इस घटक के अंतर्गत स्थल मंडल, जल मंडल तथा वायुमंडल सम्मिलित है।
  • स्थल मंडल के अंतर्गत मृदा, खनिज, तत्व शैल, स्थलाकृति, वायुमंडल के अंतर्गत पृथ्वी का गैसी आवरण तथा जल मे अंतर्गत समस्त महासागरीय एवं भूमिगत जल को सम्मिलित किया जाता है।
  • अजैविक घटक ही पृथ्वी पर जीवन को संभव बनाता है। इसी घटक के द्वारा जीवों का जीवन चक्र, उनके शरीर का आकार तथा पृथ्वी पर उसके सफलता का निर्धारण होता है। 
जैविक घटक (Biotic Component)
  • पृथ्वी पर के समस्त जीव जैविक घटक के हिस्सा है। जिसमें पौधा (Plant), जन्तु (Animal) तथा सूक्ष्मजीव (Micro Organism) आते है।
  • सभी जैविक घटकों में पौधा सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि पौधा ही उन सभी जैविक पदार्थों का निर्माण करता है जो जीवों के शरीर के निर्माण हेतु तथा उसमें वृद्धि एवं विकास के लिए जरूरी है।
ऊर्जा घटक (Energy Component)
  • ऊर्जा घटक के अंतर्गत प्रकाश तथा तापमान को सम्मिलित किया जाता है, जिसका प्रमुख स्त्रोत सूर्य से प्राप्त ऊर्जा अर्थात् सौर ऊर्जा है जो पृथ्वी को विद्युत चुंबकीय तरंग के रूप में प्राप्त होती है।
  • पृथ्वी की सतह पर प्राप्त सौर ऊर्जा को सूर्यातप या सौर विकिरण कहते हैं। पृथ्वी के क्षैतिज सतह पर पहुँचने वाले सकल सौर विकिरण को भूमण्डलीय विकिरण कहते हैं।
सांस्कृतिक घटक (Cultural Component)
  • सांस्कृतिक घटक मानव निर्मित होते हैं। यह घटक समाज के क्रिया-कलापों को नियंत्रित करते हैं। इस घटक के अंतर्गत राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति एवं सभ्यता को सम्मिलित किया जाता है।
  • पर्यावरण उपर्युक्त चार घटकों से मिलकर निर्मित होता है परंतु ये सभी घटक आपस में सम्बद्ध रहते हैं, इन्हें विभाजित नहीं किया जा सकता है। पर्यावरण अविभाज्य है।

जैव व्यवस्था (Biological Organization)

  • जैव व्यवस्था के भिन्न-भिन्न स्तर होते हैं और सभी स्तर आपस में मिलकर रहती है तथा कार्य करती है। जैव व्यवस्था के हर एक स्तर की अपनी विशिष्ट संरचना तथा कार्य होते हैं जिस आधार पर वे जैव- व्यवस्था के दूसरे स्तर से भिन्न होते हैं।
  • जैव व्यवस्था के कई स्तर होते हैं परंतु सभी स्तर एक-दूसरे से संबंधित होते है, कोई भी अकेली अस्तित्व में नहीं रह सकता है। जैव व्यवस्था के विभिन्न स्तर निम्न प्रकार से व्यवस्थित रहते है-

  • जैव व्यवस्था के उपर्युक्त स्तर में सबसे सुस्पष्ट इकाई जीव है। प्रत्येक जीव की अपनी एक विशिष्ट संरचना होती है, जो किसी अन्य जीव से भिन्न होती है।
  • एक ही प्रकार के जीव जो जीवन विषयक कार्यों में परस्पर सहायक है और लैंगिक / अलैंगिक जनन द्वारा अपनी ही जैसी संतानों की उत्पत्ति करता है, जाति (Species) कहते है। किसी खास समय और क्षेत्र में एक ही प्रकार की जाति के जीवों की संख्या आबादी (Population) कहते हैं।
  • जीवों का वह निश्चित क्षेत्र जहाँ वे निवास करते हैं, भोजन का खोज करते हैं, वह आवास (Habitat ) कहलाता है। जैसे- वन-आवास, जल-आवास आदि। एक आवास में कई तरह की जातियाँ पाई जा सकती है।
  • जीवों के आवास में कई सारे निकेत (Niche) होते हैं। एक आवास में रहने वाले हर जाति का अपना एक विशेष निकेत होता है तथा एक निकेत में कभी भी दो जातियाँ निवास नहीं कर सकता है।
  • किसी विशिष्ट आवास-क्षेत्र में कई जातियों का जीव निवास करते है और जीवन-संबंधित आवश्यकताओं, के पूर्ति के लिए परस्पर आश्रित रहते हैं। किसी विशिष्ट आवास क्षेत्र में रहने वाले सभी जातियों के जीवों का समूह समूदाय (Community) कहलाता है। समुदाय को बायोम (Biome) या जैव  मुदाय भी कहा जाता है। आवास स्थान में भिन्नता आने पर वहाँ के जैविक समुदाय में भी भिन्नता आ जाती है।

महत्त्वपूर्ण प्रजाति (Important Species)

1. आधार प्रजाति (Foundation Species)
आधार प्रजाति उस प्रजाति को कहा जाता है जो अन्य प्रजाति के निर्माण व संरक्षण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। प्रवाल एक आधार प्रजाति के जो प्रवाल भित्ती को निर्मित कर कई जीवों के रहने के आश्रय तैयार करते हैं।
2. अंब्रेला प्रजाति (Umbrella Species)
यह प्रजाति मुख्य रूप से विशालकाय शरीर वाले उच्च काशेरूकी जीव होते हैं जीन पर अन्य प्रजातियों का जीवन एवं संख्या निर्भर करती रहती है। टाइगर रिजर्व के टाईगर (बाघ), गिरवन में शेर एक अंब्रेला प्रजाति है।
3. की स्टोन प्रजाति (Key stone Species)
आवास क्षेत्र या पारिस्थितिकी तंत्र में जिस जाति का अत्यधिक प्रभाव रहता उसे कीस्टोन प्रजाति के रूप में जाना जाता है। कीस्टोन प्रजाति पौधा, जन्तु, सूक्ष्मजीव में कोई भी हो सकता है।
4. संकेतक प्रजाति (Indicator Species)
किसी पौधा या जंतु की ऐसी प्रजाति जो पर्यावरण परिवर्तन के लिए बहुत ही संवेदनशील होता उसे संकेतक प्रजाति कहते हैं। लाइकेन एक संकेतक प्रजाति है जो वायु प्रदूषण के प्रति बहुत ही संवेदनशील है।

पर्यावरणीय अनुकूलन (Environmental Adaptions)

  • अनुकूलन जीवों का ऐसा विशेष गुण है जो उन्हें उनके अपने पर्यावरण में जीवित रहने के योग्य बनाता है। प्रत्येक जीव केवल उसी पर्यावरण में रह सकता है जिसमें वह अनुकूलित है।
  • अनुकूलन दो प्रकार के होते हैं- अस्थायी तथा स्थायी अनुकूलन । तेज एवं मंद प्रकाश में हमारी आँखों की पुतली जिस तरह व्यवहार करती है, वह अस्थायी अनुकूलन है। ऊँट की शारीरिक संरचना कुछ इस प्रकार की है कि वह मरूस्थल में आसानी रह सकते हैं, यह स्थायी अनुकूलन है।
  • जीवों में अनुकूलन अचानक से नहीं आ जाता है, यह अनुलून पृथ्वी पर जीवों के लंबे समय की विकास यात्रा के बाद विकसित होते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी में अग्रसरित रहते है ।
  • पौधों में अनुकूलन के उदाहरण-
    1. Sciophytes Plant- यह पौधे छाया प्रिय होते हैं तथा इन पौधों में प्रकाश संश्लेषण श्वसन की क्रिया प्रायः धीमी होती है।
    2. Heliophytes Plant - ये पौधे उच्च प्रकाश में अपना जीवन चक्र पूरा करते है । इन पौधों में उच्च तापमान में भी प्रकाश संश्लेषण कर सकता है तथा श्वसन की दर भी उच्च होता है।
    3. Xerophytes Plant - ये पौधे रेगिस्तान एवं शुष्क स्थानों पर उगने हेतु अनुकूलित होते हैं। इन पौधों में निम्नलिखित तरह के अनुकूलन पाये जाते हैं-
      • इनकी जड़े बहुत लंबी, मोटी एवं मिट्टी के नीचे अधिक गहराई तक जाती है।
      • इनके तने जल संचय करने के लिए मांसल और मोटे होते हैं।
      • वाष्पोत्सर्जन के द्वारा जल की क्षति को रोकने के लिए तना सामान्यत: क्यूटिकल युक्त तथा घने रोम से भरा होता है।
      • पत्तियाँ छोटी, शल्क पत्र या काँटों में परिवर्तित हो जाती है जिससे कम-से-कम जल की क्षति वाष्पोत्सर्जन द्वारा हो ।
      • पत्तियों में जल संचय करने योग्य उत्तक होते हैं।
      • रंध्र, स्टोमैटल कैविटी में धँसे होते हैं।
    4. Xerophytic Plant, जिनकी जीवन अवधि काफी छोटी होती है उसे Ephemeral plant कहते है ।
    5. Hydrophytes Plant - ये पौधे स्थायी रूप से जल में पाये जाते हैं। पौधा पूरी तरह जलमग्न होता है या आधा जल में तथा पत्तीवाला आधा भाग जल के बाहर रहता है।
    6. Halophytes Plant- यह पौधे लवण की उच्च सांद्रता वाले जल का या मृदा में उगने के लिए अनुकूलित होते हैं। ऐसे पौधे अपने कोशिकाओं, तनों, पत्तों में लवण को संचित करते हैं। मैंग्रोव पौधे Halophytes plant के उदाहरण है।
  • जंतुओं में अनुकूलन के उदाहरण-
    1. प्रवास (Migration)— जीवों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लंबी दूरी या कम दूरी तय करके पहुँचना प्रवास कहलाता है। प्रवास द्वारा जीव उस क्षेत्र में जाते हैं जहाँ के जलवायु (मौसम) के प्रति अनुकूलित है। उदाहरण- आर्कटिक टर्न, पक्षी, व्हेल, टिड्डा आदि ।
    2. छद्मावरण (Comouflage ) - कुछ प्राणियों में अपने परिवेश में घुल मिल जाने की क्षमता होती है, जिसे छद्मावरण कहते है। छद्मावरण एक अस्थायी अनुकूलन है। तितली, गिरगीट, तेंदुआ, कुछ कीड़ों में ये गुण पाया जाता है।
    3. शीत निष्क्रियता (Hibernation ) - अत्यधिक ठंडे या शुष्क वातावरण में जीव जन्तु प्रवसन करने योग्य नहीं रहता है तब उसका शरीर निष्क्रिय हो जाता है। इसे ही शीत निष्क्रियता कहते हैं। इस दौरान जीव के शरीर में केवल श्वसन होता है, अन्य जैविक प्रक्रिया रूक जाती है। उदाहरण- चमगादड़, ध्रुवीय भाल, हेजहॉग, काला भालू, चिपमूंक्स आदि ।
    4. ग्रीष्म निष्क्रियता (Aestivation ) - शीत निष्क्रियता के तरह ही जब जीव अत्यधिक गर्मी में निष्क्रिय अवस्था में चले जाते हैं तो इसे ग्रीष्म निष्क्रियता कहते हैं। उदाहरण- कछुआ, मेढ़क, छिपकली, केंचुआ, घोंघा, अफ्रीकन लंगफीश आदि ।
    5. अनुहरण (Mimicry ) - जब दो जातियाँ एक-दूसरे जैसी दिखती है तो उनमें एक जाति अनुहारक (mimic) कहलाती है। अनुहारक जाति को सुरक्षा संबंधी लाभ प्राप्त होता है जिसमें वे परभक्षियों के आक्रमण से बचे रहते है।
    6. मरूस्थलीय जीवों में अनुकूलन- मरूस्थलीय प्राणी में दो प्रकार के अनुकूलन पाये जाते हैं, पहला जल का जितना कम हो उतना कम उपयोग करना तथा मरूस्थलीय जलवायु के अनुकूल व्यवहार करना ।
      • उत्तरी अमेरिका के मरूस्थल में रहने वाला कंगारू - चूहा मूत्र को ठोस रूप में उत्सर्जित कर जल-हानि कम से कम करता है। यह जन्म से मृत्यु तक बिना पानी पिये रह सकता है क्योंकि यह अपने जल के आवश्यकता की पूर्ति अपनी आंतरिक वसा के ऑक्सीकरण से करता है।
      • मरूस्थलीय अनुकूलन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ऊँट। यह जल का उपयोग बहुत ही मितव्ययता से करता है, शरीर के तापमान में उतार-चढ़ाव के प्रति सहिष्णुता दिखाता है तथा अत्यधिक गर्मी में भी रूधिर धारा की आर्द्रता को बनाये रखने में सक्षम होता है।
      • मरूस्थलीय के छोटे जीव जैसे- चूहा, साँप, केकड़ा दिन के समय बालू के बनाये सुरंग में रहते है तथा रात को जब तापमान घट जाता है तब ये भोजन की खोज में बाहर निकलते हैं।

पारिस्थितिकी (Ecology)

  • पारिस्थितिकी विज्ञान की शाखा है, जिसमें यह अध्ययन किया जाता है, कि जीव जिस पर्यावरण में रहते, उसके साथ उसका पारस्परिक संबंध कैसा है। पर्यावरण तथा उनके सभी घटकों के अंतसंबंधों का अध्ययन पारिस्थितिकी के अंतर्गत ही होता है।
  • Ecology (पारिस्थितिकी) शब्दका सर्वप्रथम प्रयोग एच. रेटर ने किया परिभाषित किया। अर्नस्ट हेकेल के अनुसार, "वातावरण के कार्बनिक पारिस्थितिकी को 1870 में अर्नस्ट हेकेल का अध्ययन पारिस्थितिकी है। "
  • पारिस्थितिकी के दो मुख्य शाखाएँ है- 
    1. स्वपारिस्थितिकी (Autecology) इसके अतगत क इसके अंतर्गत केवल एक जीव या केवल एक जाति का पर्यावरण के साथ पारस्परिक संबंधों का अध्ययन किया जाता है। 
    2. समुदाय पारिस्थितिकी ( Synecology ) - इसके अंतर्गत जीवों के समुदाय तथा उसके पर्यावरण के संबंध का अध्ययन किया जाता है।

पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem)

  • जीवमंडल या पर्यावरण की स्वपोषित, संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई को पारिस्थितिकी तंत्र कहा जाता है। पृथ्वी खुद ही एक विशाल पारिस्थितिकी तंत्र का उदाहरण है।
  • Ecosystem (पारिस्थितिकी) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1935 में आर्थर जॉर्ज टैन्सले ने किया था। एक पारिस्थितिकी तंत्र में निम्न विशेषता पायी जाती है-
    1. पारिस्थितिकी तंत्र एक खुला तंत्र है जिसमें पदार्थों तथा ऊर्जा का का सतत् रूप से अंतर्गमन (Input) तथा बहिर्गमन (Output) होते रहता है।
    2. पारिस्थितिकी तंत्र मुख्य रूप से सूर्य की ऊर्जा के द्वारा संचालित होता है।
    3. पारिस्थितिकी तंत्र संरचित तथा सुसंगठित तंत्र होता है जिसके सभी घटक के बीच लगातार पारस्परिक क्रियाएँ होते रहता है।

पारिस्थितिकी तंत्र के घटक (Component of Ecosystem)

  • पारिस्थितिकी तंत्र के दो मुख्य घटक है जैविक (Biotic) तथा अजैविक (Abiotic) घटक। ये दोनों घटक आपस में अलग नहीं है बल्कि एक-दूसरे से संबंधित है।
  • अजैविक घटक (Abiotic Component) - इसके अंतर्गत सभी निर्जीव अवयव आते हैं। अजैविक घटक को तीन मुख्य भाग में बाँटा जाता है-
    • भौतिक वातावरण- जल, वायु मृदा
    • पोषण - जल, प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट।
    • जलवायु- ताप, दाब, आद्रता, प्रकाश ।
  • जैविक घटक (Biotic Component)- इसके अंतर्गत सभी सजीव अवयव आते हैं। जैविक घटक को तीन मुख्य भागों में बाँटा जाता है-
    1. उत्पादक (Producer)— उत्पादक के अंतर्गत के सभी सजीव शामिल है जो प्रकाश संश्लेषण द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते है, अर्थात् वे जो स्वपोषी होते है। उत्पादक के अंतर्गत मुख्य रूप से हरे पौधे आते है। जैविक घटकों में सबसे ज्यादा महत्त्व उत्पादक या हरे पौधे का है क्योंकि यह निम्नलिखित कार्यों को सम्पन्न करते हैं-
      • ये पारिस्थितिकी तंत्र में रहने वाले जीवों के प्रकार का निर्धारण करता है।
      • यह सौर ऊर्जा को समस्त जीवों के लिए ऊर्जा का स्त्रोत हैं, उसे ग्रहण करता है।
      • यह मिट्टी से प्रमुख तत्वों को अवशोषित करने में समर्थ होता है।
      • यह वायुमंडल में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाई ऑक्साइड के बीच संतुलन बनाए रखता है।
    2. उपभोक्ता (Consumers) - उपभोक्ता के अंतर्गत वे सभी सजीव शामिल है जो पोषण हेतु उत्पादक पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर रहता है। उपभोक्ता के अंतर्गत जन्तु (Animal) आते है। उपभोक्ता के तीन श्रेणी होते हैं।
      • प्राथमिक उपभोक्ता - ये उपभोक्ता अपने पोषण हेतु प्रत्यक्ष रूप से हरे पौधे पर निर्भर रहते हैं तथा शाकाहारी होते हैं। जैसे- बकरी, हिरण, गाय, खरगोश आदि । मनुष्य जब शाकाहारी रहता है तब वह प्राथमिक उपभोक्ता है।
      • द्वितीयक उपभोक्ता- इसके अंतर्गत वे उपभोक्ता आते है जो प्राथमिक उपभोक्ता या शाकाहारी जीव को खाते हैं। जैसे- सांप, मेढ़क, पक्षी, शेर, बाघ आदि ।
      • तृतीयक उपभोक्ता- वे उपभोक्ता जो प्राणिमिक तथा द्वितीयक दोनों उपभोक्ता को खाते हैं परंतु स्वयं दूसरे जंतु द्वारा मारे और खाये नहीं जाते है, उसे तृतीयक उपभोक्ता कहते है। तृतीय उपभोक्ता को सर्वोच्च उपभोक्ता भी कहते है ।
    3. एक ही मांसाहारी जीव भिन्न-भिन्न स्थितियों में द्वितीयक या तृतीयक उपभोक्ता हो सकते हैं। अपघटक (Decomposers) - इसके अंतर्गत सूक्ष्मजीव (जीवाणु, कवक आदि ) आते हैं जो मृत पौधे तथा जन्तु के अवशेष को अपघटित कर पोषण भी प्राप्त करते हैं तथा मृत अवशेष में स्थित कार्बनिक पदार्थों को अकार्बनिक पदार्थ के तोड़कर हवा एवं मिट्टी में मुक्त कर देते हैं।
  • पारिस्थितिकी तंत्र के सभी घटक एवं उसके उप-घटक एक-दूसरे से जुड़े होते है तथा उस पर निर्भर होते हैं जिससे पारिस्थितिक तंत्र में संतुलन बना रहता है। जैसे ही घटकों के बीच असंतुलन पैदा होगा पारिस्थितिक तंत्र असंतुलित होने लगेगा और धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगा।

आहार श्रृंखला (Food-Chain)

  • पारिस्थितिकी तंत्र में प्रत्येक जीव पोषण की दृष्टिकोण से एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। उत्पादक को प्राथमिक उपभोक्ता खाते हैं, प्राथमिक उपभोक्ता को द्वितीयक उपभोक्ता खाते हैं, द्वितीय उपभोक्ता को उच्च श्रेणी के तृतीयक उपभोक्ता खाते है। इस तरह प्रत्येक जीव अन्य जीव का भोजन बन जाता है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र में एक-दूसरे को खाने वाले जीवों में एकदिशीय क्रम को आहार श्रृंखला कहते है। प्रत्येक आहार - श्रृंखला निम्न तरीके से व्यवस्थित होत है- 
              उत्पादक → प्राथमिक उपभोक्ता → द्वितीय उपभोक्ता → तृतीयक उपभोक्त
  • अधिकांश आहार श्रंखला उत्पादक से शुरू होता है तथा उच्च श्रेणी के मांसाहारी जीव (जिसे कोई अन्य जीव नहीं खाता है | ) पर आकर समाप्त हो जाता है।
  • घास स्थल पारिस्थितिकी तंत्र की आहार श्रृंखला-
            घास → टिड्डा → मेढ़क → सर्प → गिद्ध
  • तालाब पारिस्थितिकी तंत्र की आहार श्रृंखला-
           शैवाल → छोटे जंतु → छोटी मछली → बड़ी मछली → मांसाहारी पक्षी
  • वन पारिस्थितिकी तंत्र की आहार श्रृंखला -
                 घास → हिरण → बाघ 
         पौधा → कृमि → चिड़ियाँ → बिल्ली
  • किसी पारिस्थितिकी तंत्र का एक जीव केवलएक आहार भाग नहीं होते है, वे एक से अधिक आहार श्रृंखला के भाग हो सकते हैं क्योंकि एक ही पारिस्थितिकी तंत्र में कई आहार - श्रृंखला मौजूद रहती है।
  • आहार श्रृंखला दो प्रकार के होते हैं-
    1. चारण आहार श्रृंखला (Gazing Food chain ) - यह आहार श्रृंखला उत्पादक (पौधे) से प्रारंभ होता है। जैसे- घास → टिड्डा → पक्षी → बाज
    2. अपरद आहार श्रंखला (Detritus Food chain ) - यह आहार श्रृंखला क्षय होते जन्तु या पादप शरीर के मृत जैविक पदार्थों से आरंभ हाकर सूक्ष्मजीवों में तथा सूक्ष्मजीवों से अन्य जीवों में पहुँचाता है। जैसे- कचरा → कीट → मकड़ियाँ

पोषी स्तर ( Trophic Level)

  • आहार श्रृंखला के प्रत्येक स्तर पर भोजन (ऊर्जा) या स्थानांतरण अगले स्तर में होता है। आहार श्रृंखला के प्रत्येक स्तर को पोषी स्तर कहते हैं जिसमें उत्पादक हमेशा प्रथम पोषी स्तर होता है।
  • सामान्यतः किसी आहार श्रृंखला में चार पोषी स्तर होते हैं लेकिन विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्रों में तीन या पाँच या इससे अधिक पोषी स्तर हो सकते है।

आहार-जाल (Food-Web)

  • किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का एक उपभोक्ता एक ही भोजन स्त्रोत का इस्तेमाल नहीं करता है बल्कि एक से अधिक भोजन स्त्रोत पर वह निर्भर रहता है। इस तरह एक पारिस्थितिकी तंत्र में कई आहार श्रृंखला मौजूद होता है।
  • एक पारिस्थितिकी तंत्र की सभी आहार श्रृंखला एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं रहता है बल्कि सभी आहार- श्रृंखला एक दूसरे से जाल के रूप में जुड़ा रहता है, इसे ही आहार जाल कहा जाता है।
  • वन पारिस्थितिकी तंत्र का आहार जाल-
  • किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का खाद्य जाल जितना विशाल होगा वह पारिस्थितिकी तंत्र उतना ही स्थायी होगा। प्रकृति में जीवों के रहने हेतु एक संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र अति आवश्यक है।
  • आहार-श्रृंखला में ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है लेकिन जब आहार श्रृंखला मिलकर आहार जाल का निर्माण करता है तब ऊर्जा प्रवाह के कई पथ बन जाते हैं परंतु ये सारे पथ एक-दूसरे से जुड़े होते है ।

पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह (Energy Flow in Ecosystem)

  • पारिस्थितिकी तंत्र या जीवमंडल में ऊर्जा का मूल स्त्रोत सौर ऊर्जा है। सौर ऊर्जा को हरे पौधे (उत्पादक) रसायनिक ऊर्जा में बदलते है। यह रसायनिक ऊर्जा का कुछ भाग पौधे स्वयं उपयोग करते हैं, शेष उपभोक्ताओं में स्थानांतरित हो जाते है।
  • किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह निम्नलिखित तरीके से होता है-
    1. ऊर्जा का प्रवाह आहार श्रृंखला के एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर तक लगातार होते रहता है, यह प्रक्रिया कभी रूकती नहीं है।
    2. ऊर्जा का प्रवाह हमेशा एक दिशा में होता है।
    3. पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का प्रवेश एवं रूपांतरण उष्मागति नियम के अनुसार होता है।
    4. आहार श्रृंखला में सर्वाधिक ऊर्जा उत्पादकों के पास पास होता तथा आगे के पोषी स्तर को मिलने वाली ऊर्जा में कमी होती जाती है।
    5. आहार-श्रृंखला के प्रत्येक पोषी स्तर को उपलब्ध होने ऊर्जा में कमी लिंडेमान के 10% नियम के अनुसार होता है। लिंडेमान का नियम इस प्रकार है-
      • 'आहार श्रृंखला के प्रत्येक पोषी स्तर पर कुल ऊर्जा के 10 प्रतिशत ऊर्जा का ही स्थानांतरण अगले पोषी स्तर को हो पाता है तथा शेष 90 प्रतिशत ऊर्जा का उपयोग विभिन्न प्रकार से हो जाता है । "

पारिस्थितिकी पिरामिड (Ecological Pyramid )

  • किसी एक आहार-श्रृंखला में उत्पादक और प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय श्रेणीयों के उपभोक्ताओं की संख्या तथा उनके बीच के संबंध एक निश्चित अनुपात में रहता है। यदि इन संबंधों को चित्रित किया जाए तो एक शंकु के समान रचना बनती है जिसे पारिस्थितिकी पिरामिड कहा जाता है- यह पिरामिड तीन प्रकार के होते हैं- 1. संख्या पिरामिड, 2. जीवभार पिरामिड तथा 3. ऊर्जा पिरामिड |
  1. संख्या पिरामिड (Pyramids of Numers )
    • उत्पादक एवं प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी के उपभोक्ताओं के संख्या बीच जो संबंध स्थापित होता है उसे संख्या पिरामिड कहेत हैं। यह पिरामिड सीधा तथा उल्टा दोनों प्रकार का बनता है।
    • तालाब, घास स्थल, फसल स्थल का संख्या पिरामिड सीधा बनता है तथा किसी एक पेड़ तथा का संख्या पिरामिड सीधा बनता है।
  2. जीवभार का पिरामिड ( Pyramids of Biomas )
    • जीवभार पिरामिड के अंतर्गत जीवों के शुष्क भार (Dry weight) को सम्मिलित किया जाता है। यह पिरामिड भी सीधा तथा उल्टा दानों बनता है।
    • तालाब का जैवभार पिरामिड उल्टा बनता है। घास स्थल तथा वन का जैवभार पिरामिड सीधा बनता है।
  3. ऊर्जा पिरामिड (Energy Pyramids )
    • ऊर्जा पिरामिड में प्रत्येक पोषी स्तर को प्राप्त ऊर्जा के बीच संबंध दर्शाया जाता है। ऊर्जा का पिरामिड हमेशा ही सीधा बनता है, किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का ऊर्जा पिरामिड काफी उल्टा नहीं बनेगा ।

पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता (Productivity of Ecosystem)

  • पारिस्थितिकी तंत्र के किसी पोषी स्तर द्वारा इकाई क्षेत्रफल एवं प्रति इकाई समय में कार्बनिक पदार्थों की संश्लेषण की दर, उस पारिस्थितिकी की उत्पादकता कहलाता है। उत्पादकता दो प्रकार की होती है, प्राथमिक उत्पादकता तथा द्वितीयक उत्पादकता।
  • प्राथमिक उत्पादकता- उत्पादक ( हरे पेड़ पौधे) द्वारा प्रकाश संश्लेषण से सौर ऊर्जा को कार्बनिक यौगिकों में परिवर्तित करने की दर को प्राथमिक उत्पादकता कहते है। इसे Kcalm-2yr-1 (किलो कैलोरी मीटर-2 वर्ष-1 ) में मापा जाता है। प्राथमिक उत्पादकता का मापन दो रूपों में किया जाता है-
    1. सकल प्राथमिक उत्पादन (GPP) तथा
    2. शुद्ध प्राथमिक उत्पादन (NPP
  • प्राथमिक उत्पादक (पेड़-पौधे) द्वारा आत्म सात की गई ऊर्जा को सकल प्राथमिक उत्पादन कहा जाता है जबकि श्वसन के दौरान खर्च हुई ऊर्जा के बाद उत्पादक में जो ऊर्जा संचित रहता शुद्ध प्राथमिक उत्पादन कहते है।
          GPP - श्वसन के दौरान खर्च ऊर्जा = NPP
  • द्वितीयक उत्पादकता- जब ऊर्जा के कहते हैं। यह उत्पादकता सकल एवं संचयन की दर को उपभोक्ताओं मापा जाता है तो इसे द्वितीयक उत्पादकता शुद्ध उत्पादकताओं आम विभाजित नहीं होती है।
  • प्राथमिक उत्पादकता उत्पाद के संख्या पर निर्भर करती है। रेगिस्तान एवं समुद्र की प्राथमिक उत्पादकता बहुत कम होता है जबकि वन पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता बहुत अधिक होती है। पृथ्वी के पूरे जैवमंडल की कुल वार्षिक प्राथमिक उत्पादकता 170 बिलियन टन आँका गया है जिनमें पृथ्वी के लगभग 70 प्रतिशत भाग जो समुद्र से ढँका है उसकी उत्पादकता मात्र 55 बिलियन टन ही है।
  • ई.पी. ओडम ने पृथ्वी के स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र को उत्पादकता के आधार पर तीन स्तरों में बाँटा है-
    1. उच्च पारिस्थितिकी उत्पादकता वाले क्षेत्र - जलोढ़ मैदान वाला क्षेत्र, वन- प्रदेश (आर्द्र), छिछले स्थल स्थित जलीय क्षेत्र, गहन - कृषि वाले क्षेत्र ।
    2. मध्यम पारिस्थितिकी उत्पादकता वालो क्षेत्र- घास मैदान, छिछली झीले गहन कृषि छोड़कर अन्य कृषि क्षेत्र ।
    3. निम्न पारिस्थितिकी उत्पादकता वालो क्षेत्र - गहरे सागरीय भाग, मरूस्थलीय क्षेत्र, बंजर भूमि, हिमाच्छादित क्षेत्र, आर्कटिक क्षेत्र

पारिस्थितिकी अनुक्रमण (Ecological Succession)

  • किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में पाये जाने वाले जैविक समुदाय (पेड़-पौधे तथा जन्तु) में परिवर्तन होते रहता है। वनस्पति तथा जन्तु के प्रजाति के समुदाय समय के साथ बदलते रहते हैं अर्थात् एक जाति का स्थान दूसरे जाति ग्रहण कर लेते है। इसे ही पारिस्थितिकी अनुक्रमण कहा जाता है। पारिस्थितिकी अनुक्रमण को समुदाय गतिकी (Community dynamics) भी कहा जाता है। पारिस्थितिकी अनुक्रमण के दो चरण होते है-
    1. प्राथमिक अनुक्रमण (Primary Succession)
      • प्राथमिक अनुक्रमण उन खाली क्षेत्रों में होता है जहाँ पहले किसी समुदाय का अस्तित्व नहीं था। इस अनुक्रमण में मृदा निर्माण प्रक्रिया चलती रहती है और मृदा निर्माण के उपरांत वनस्पति का विकास होता और फिर जन्तु का।
    2. द्वितीयक अनुक्रमण (Secondary Succession)
      1. किसी क्षेत्र के वर्तमान प्राकृतिक वनस्पति का प्राकृतिक या मानवीय कारको से पूर्ण या आंशिक रूप से नष्ट होने के बाद वनस्पति समुदाय का पुनः विकास होना द्वितीयक अनुक्रमण कहलाता है। द्वितीयक अनुक्रमण में प्राथमिक अनक्रमण के तुलना में बहुत कम समय लगता है।
  • पारिस्थितिकी अनक्रमण के विभिन्न चरण-
    1. वनस्पति रहित - पारिस्थितिकी अनुक्रमण की शुरूआत ऐसे ही विरल / बंजर स्थान से शुरू होता है जहाँ कोई वनस्पति की जाति या समुदाय मौजूद नहीं रहता है।
    2. प्रवास- इस अवस्था के दौरान विरान / बंजर स्थानों पर अनेक नई जाति का आगमन होना शुरू होता है।
    3. आस्थापन (Ecesis)- यह अनुक्रमण का वह दौर है जब बीजों से अंकुरण होता है और पौधे विकसित होते हैं। पहली बार विकसित पौधे में वृद्धि दर तो बहुत अधिक होती है परन्तु उसका जीवन काल बहुत कम होता है ।
    4. स्पर्द्धा (Competition) - विकसित होने वाले पौधे की जातियों में संसाधन तथा स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू होती है और अंत में इस स्पर्धा में वही सफल होते हैं जो पर्यावरण के अनुकूल होते हैं।
    5. प्रतिक्रिया - इस चरण में जैविक तथा अजैविक घटकों के बीच प्रतिक्रिया होता है, साथ ही एक पादप प्रजाति दूसरे प्रजाति की स्थन ले लेती है। पारिस्थितिकी अनुक्रमण में मानव का हस्तक्षेप पहली बार इसी चरण में होता है।
    6. स्थिरीकरण- इस चरण में पर्यावरण के अनुकूल सर्वश्रेष्ठ प्रजाति पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं और उसकी जनसंख्या संतुलन की स्थिति प्राप्त कर लेता है। 

जैविक अन्योन्यक्रिया (Biotic Interaction)

  • किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में जैविक अन्योन्यक्रिया निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं-
    1. असहयोजिता (Amensalism) - दो प्रजाति के के बीच ऐसा संबंध (अन्योन्यक्रिया) जिसें एक प्रजाति नुकसान में रहती है जबकि दूसरी प्रजाति को न हानि होती है, न ही लाभ, असहयोजिता कहलाता है। उदाहरण- पेनिसिलियम कवक तथा जीवाणु ।
    2. परभक्षण (Predation ) - इस अन्योन्यक्रिया में एक प्रजाति शिकार होता है दूसरी प्रजाति शिकारी । उदाहरण- शेर तथा हिरण ।
    3. परजीविता (Parasition ) - इस अन्योन्यक्रिया में एक प्रजाति को लाभ होता है वही दूसरी प्रजाति हानि में रहता हैं। उदाहरण- अमरबेल तथा अन्य वृक्ष
    4. स्पर्द्धा (Compeition ) - इस अन्योन्यक्रिया में दोनों प्रजाति एक-दूसरे को प्रभावित करती है। उदाहरण- चूहा, बिल्ली, सॉप के बीच की स्पर्द्धा ।
    5. सहजीविता (Mutulism) - दो प्रजाति के बीच ऐसा संबंध जिसमें दोनों लाभ की स्थिति में रहता है, सहभोजिता कहलाता है। उदाहरण- शैवाल तथा कवक के बीच का संबंध जिससे लाइकेन अस्तित्व में आता है।
    6. सहभोजिता (Commensalism) - इस अन्योन्यक्रिया में एक प्रजाति लाभ की स्थिति में रहता है जबकि दूसरी प्रजाति को न लाभ होता है और न ही हानि । उदाहरण- शार्क मछली से जुड़ा हुआ चूषक मछली ।
    7. तटस्थता (Nutralism)- जब दो प्रजाति किसी भी दृष्टिकोण से एक-दूसरे का प्रभावित न करे तो इसे तटस्थता कहते है।

संक्रमिका तथा कोर प्रभाव (Ecotone and Edge Efect)

  • दो या इससे अधिक विविध समुदाय के मध्य संक्रमण क्षेत्र को संक्रमिका या इकोटोन कहते हैं। संक्रमिका क्षेत्र में दो पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषता पायी जाती है। जैसे- घास स्थल पारिस्थितिकी तंत्र या वन पारिस्थितिकी तंत्र के मिलन स्थली क्षेत्र इकोटोन होगा। इकोटोन छोटे क्षेत्र भी हो सकता है तथा एक विशाल क्षेत्र भी । इकोटोन तनाव का क्षेत्र होता है क्योंकि यहाँ दो पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न समुदाय आपस में मिलते रहते है।
  • जहाँ भी दो पारिस्थितिकी तंत्र मिलते हैं या एक-दूसरे को ओवरलैप करते है वहाँ जैव-विविधता सर्वाधिक पायी जाती है। इसे ही कोर प्रभाव कहा जाता है। कोर प्रभाव वाले क्षेत्र-
    • पर्वत तथा घाटी का मिलन स्थल
    • नदी तट तथा घास स्थल का मिलन स्थल
    • वह क्षेत्र जहाँ एश्चुरी समुद्र से मिलती है

पारिस्थितिकी तंत्र की सेवाएँ (Services of Ecosystem)

  • पर्यावरणविद् ने पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को चार भागों में वर्गीकृत किया है जो निम्न है-
    1. उपबंधित सेवाएँ (Provisioning Services) – इनमें पारिस्थितिकी तंत्र से प्राप्त होने वाले उत्पाद/कच्चा माल या ऊर्जा, जैसे- पानी, दवाइयाँ, खाद्य सामग्री संसाधन शामिल है। 
    2. विनियमित सेवाएँ (Regulating Services)- इनमें ऐसी सेवाएँ शामिल है जो पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित करने का कार्य करता है। जैसे वन जो कि वायु की गुणवत्ता को शुद्ध और विनियमित करते है।
    3. समर्थकारी सेवाएँ (Supporting Services) – ये विभिन्न जीवों हेतु निवास स्थान प्रदान करते हैं और जैव विविधता, पोषण चक्र तथा अन्य सेवाओं को बनाए रखते है।
    4. सांस्कृतिक सेवाएँ (Cultural Services )- इनमें मनोरंजन, सौंदर्य, सांस्कृतिक और अध्यात्मिक सेवाएँ आदि शामिल है। अधिकांश प्राकृतिक तत्व जैसे- प्रकृति परिदृश्य, पहाड़, गुफाओं आदि का उपयोग सांस्कृतिक और कलात्मक उद्देश्यों के लिए किया जाता है।  

पारिस्थितिकी में पदार्थों का संचरण (Propagation of Matters in Ecosystem)

  • जीवमंडल, वायुमंडल, जलमंडल तथा स्थल मंडल में विभिन्न अजैविक तत्वों का विभिन्न चक्रों के माध्यम से इस तरह संचरण होता है कि इन तत्वों का सकल द्रव्यमान प्रायः एक समान रहता है तथा ये तत्व जैविक समुदाय के लिए हमेशा उपलब्ध रहते है। पारिस्थितिकी तंत्र में पोषक तत्वों का प्रवाह जिन चक्रों के माध्यम से होता है उसे जैव भू-रसायन चक्र (Biogeochemi- cal cycle) कहते है।
  • भू-रसायन चक्र को पोषण चक्र भी कहा जाता है। यह चक्र दो प्रकार के होते हैं-
    1. गैसीय चक्र : गैसीय चक्र अंतर्गत नाइट्रोजन चक्र, ऑक्सीजन चक्र, कार्बन चक्र तथा जल चक्र शामिल है।
    2. अवसादी चक्र : इसके अंतर्गत फॉस्फोरस चक्र, सल्फर चक्र आदि शामिल है।

अभ्यास प्रश्न

1. पर्यावरण से अभिप्राय है-
(a) भूमि, जल, वायु, पौधा एवं पशुओं की प्राकृतिक दुनिया जो इनके चारों ओर अस्तित्व में है ।
(b) भौतिकीय, जैवकीय एवं सांस्कृतिक तत्वो की अंतः क्रियात्मक व्यवस्था जो अन्तः संबंधित होते है।
(c) उन संपूर्ण दशाओं का योग जो व्यक्ति को एक समय बिन्दु पर घेरे हुए होती है। 
(d) उपर्युक्त सभी
2. निम्नलिखित में कौन सा कथन सही है ?
(a) पर्यावरण के अजैविक संघटक के अंतर्गत स्थल मंडल, वायुमंडल तथा जलमंडल आते है।
(b) पादप, जीव, सूक्ष्मजीव पर्यावरण के जैविक संघटक है।
(c) अजैविक तथा जैविक संघटक मिलकर बायोम की रचना करते हैं।
(d) पर्यावरण के सभी घटक हमेशा स्थिर रहते है।
3. पर्यावरण के जैविक संघटक में पादप सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि- 
(a) पादप ही जैविक पदार्थों का निर्माण करते है।
(b) पादप ही पर्यावरण के जैविक संघटको में जैविक पदार्थों तथा पोषक तत्वों के गमण को संभव बनाते है।
(c) पादप अपना आहार स्वंग तैयार करते है।
(d) इनमें से सभी
4. निम्नलिखित में कौन सा एक सही है ?
(a) निकेत में कई तरह की प्रजातियाँ पाई जाती है।
(b) आवास में एक ही तरह की प्रजाति पाई जाती है।
(c) एक आवास में कई निकेत होते है
(d) आवास के द्वारा हमें किसी प्रजाति के पारिस्थितिकी तंत्र में स्थान का पता चलता है।
5. झील परितंत्र का वह क्षेत्र क्या कहलाता है जहाँ पादपप्लवक (Phytoplankton ) की अधिकता होती है?
(a) वेलांचल क्षेत्र 
(b) सरोजाबी क्षेत्र
(c) गहरा क्षेत्र
(d) इनमें से सभी
6. संक्रमिका (Ecotone) के संदर्भ में निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. यह दो या अधिक पारिस्थितिकी तंत्र का संक्रमण क्षेत्र होता है इसलिये यहाँ तनाव पाया जाता है।
2. संक्रमिका का क्षेत्र प्रायः न्यून होता है।
उपर्युक्त में कौन-सा /से सही है / है ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
7. जैवमंडल के अंतर्गत शामिल है-
(a) जलमंड
(b) वायुमंडल
(c) स्थलमंडल
(d) इनमें सभी
8. कोर प्रभाव (Eedge effect) के संदर्भ में निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. कोर प्रभाव एक पारिस्थितिकी अवधारणा है जो कि संक्रमिका से संबंधित है ।
2. कोर प्रभाव वाले क्षेत्र में विशिष्ट प्रजातियाँ पाई जा सकती है जो कि आसन्न परितंत्र में नहीं होती है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से सही है / है ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
9. निम्नलिखित में कौन सी प्रजाति पारिस्थितिकी की हानि से तुरंत प्रभावित होती है ?
(a) फाउंडेशन प्रजाति
(b) की - स्टोन प्रजाति
(c) संकेतक प्रजाति
(d) अंब्रेला प्रजाति
10. निम्नलिखित में कौन सा एक पारिस्थितिकी तंत्र के संदर्भ में सही नहीं है ?
(a) पारिस्थितिकी तंत्र प्राकृतिक संसाधन तंत्र होते है।
(b) पारिस्थितिकी तंत्र विभिन्न प्रकार के ऊर्जा द्वारा संचालित होते है।
(c) पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता उसमे ऊर्जा की सुलभता पर निर्भर करता है।
(d) पारिस्थितिकी तंत्र एक बंद तंत्र है।
11. पारिस्थितिकी कर्मता (Ecological Niche) के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. पारिस्थितिकी कर्मता, किसी विशेष प्रजाति की उसके पर्यावरण में कर्यात्मक भूमिका तथा स्थिति को प्रदर्शित करता है।
2. पारिस्थितिकी कर्मता के अंतर्गत प्रजातियों द्वारा उपयोग किये जाने वाले संसाधनों की प्रकृति, उनके उपयोग के तरीको एवं समय तथा उस प्रजाति की अन्य प्रजाति के साथ अन्तर्क्रिया को भी सम्मिलित किया जाता है।
3. पारिस्थितिकी कर्मता की अवधारणा का विकासी जोसेफ ग्रीनेल ने किया था।
उपर्युक्त में कौन-सा/से सही है/है?
(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) 1, 2 और 3
12. घास स्थल पारिस्थितिकी तंत्र की संख्या पिरामिड होगा-
(a) उल्टा
(b) सीधा
(c) कभी उल्टा कभी सीधा
(d) इनमें से कोई नहीं
13. निम्नलिखित में किसका संख्या पिरामिड उल्टा बनेगा ?
(a ) घास-स्थल
(b) तालाब
(c) आम का पेड़
(d) इनमें से सभी
14. किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र का कौन सा पिरामिड हमेशा सीधा बनता है ?
(a) संख्या पिरामिड
(b) बायोमास पिरामिड
(c) ऊर्जा पिरामिड
(d) इनमें से सभी
15. जलीय पारिस्थितिकी तंत्र का बायोमास पिरामिड कैसा होगा ?
(a) उल्टा
(b) सीधा
(c) कभी उल्टा कभी सीधा
(d) इनमें से कोई नहीं
16. निम्नलिखित में से किस जीव में शीत निष्क्रियता नहीं पाई जाती है ?
(a) चमगादड़
(b) कंगारू
(c) चूहा
(d) गिरगिट
17. निम्नलिखित में किस जीव में ग्रीष्म निष्क्रियता नहीं पाई जाती है ?
(a) मगरमच्छ
(b) सैलामैंडर
(c) चूहा
(d) चमगादड़
18. पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक कौन है ?
(a) सूर्यातप
(b) जल की मात्रा
(c) पोषक तत्वो की आपूर्ति
(d) जलवायु
19. निम्नलिखित में कौन सा क्षेत्र उच्च पारिस्थितिकी उत्पादकता वाला क्षेत्र नहीं है ?
(a) जलोढ़ मैदान
(b) आर्कटिक क्षेत्र
(c) आई वन प्रदेश
(d) गहन कृषि क्षेत्र
20. किसी जलीय वातावरण स्वतंत्र एवं स्थूलदर्शीय प्राणियों को किस प्रकार उल्लिखित किया जाता है ?
(a) प्लवक 
(b) परिपादप (परिजीव)
(c) तरणक
(d) नितल जीवजात
21. समुद्री वातावरण में मुख्य प्राथमिक उत्पादक कौन होते है ?
(a) फाइटोप्लैन्कटॉन्स
(b) जलीय ब्रायोफाइट्स
(c) समुद्री आवृतबीजी
(d) समुद्री अपतॄण
22. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. खाद्य श्रृंखला में ऊर्जा का प्रवाह एकमार्गीय होता है।
2. खाद्य जाल में ऊर्जा का प्रवाह बहुमार्गीय होता है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से सही है/है?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2
23. खाद्य श्रृंखला के समय सर्वाधिक ऊर्जा कहाँ संचित रहती है ?
(a) शाकाहारी
(b) मांसाहारी
(c) उत्पादक
(d) अपघटक
24. निम्न में कौन प्राथमिक उपभोक्ता की श्रेणी में आते है?
(a) जलीय कीट
(b) बाज एवं सर्प
(c) सर्प एवं मेढ़क
(d) कीट एवं मवेशी
25. परितंत्र कैसा होता है ?
(a) बंद 
(b) खुला
(c) दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
26. पारिस्थितिकी तंत्र का कार्य केंद्रित रहता है-
(a) ऊर्जा के प्रवाह में
(b) पदार्थों के चक्रण में
(c) A तथा B दोनों
(d) न तो A में न ही B में
27. फॉस्फोरस किस रूप में मिट्टी में रहता है ?
(a) फॉस्फोरस ऑक्साइड 
(b) फॉस्फोरस सल्फाइड
(c) फॉस्फोरिक एसिड 
(d) आर्थोफॉस्फेट
28. उपभोक्ता के स्तर पर संचित ऊर्जा को क्या कहते है ?
(a) शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता
(b) शुद्ध उत्पादकता
(c) सकल प्राथमिक उत्पादकता
(d) द्वितीयक उत्पादकता
29. शाकाहारी से मांसाहारी स्तर में ऊर्जा स्थानांतरण में कितनी कमी आती है ?
(a) 30%
(b) 20%
(c) 10%
(d) 5%
30. झील परितंत्र का जैवभार पिरामीड कैसा होगा ?
(a) उल्टा
(b) सीधा
(c) उल्टा तथा सीधा दोनों
(d) तिरछा
31. जन्तु जो समुद्र की तली में रहते है, उसे क्या कहा जाता है ?
(a) डायटम
(b) बेन्थोस
(c) प्लेक्टोन्स
(d) नेक्टोन्स
32. जैविक समुदाय में प्राथमिक उपभोक्ता होते है-
(a) सर्वभक्षी
(b) शाकभक्षी
(c) मांसभक्षी
(d) अपरभक्षी
33. पादप अनुक्रमण में अन्तिम स्थिर समुदाय कहलाता है ?
(a) चरम समुदाय
(b) क्रमिक समुदाय
(c) अग्रनी समुदाय
(d) इकोस्फीयर
34. घास स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में ग्रासहॉपर है-
(a) प्राथमिक उपभोक्ता
(b) द्वितीयक उपभोक्ता
(c) तृतीयक उपभोक्ता
(d) उत्पादक
35. परितंत्र के अजैव घटक निम्न में से कौन है ?
(a) जल
(b) वायु
(c) मिट्टी
(d) इनमें से सभी
36. अनुक्रमण सदैव किस ओर होता है-
(a) समोद्भिद
(b) जलोद्भिद
(c) मरूद्भिद
(d) इनमें से कोई नहीं
37. निम्न में किसे जीवन का माना जाता है ?
(a) कार्बन
(b) फॉस्फोरस
(c) ऑक्सीजन
(d) नाइट्रोजन
38. पोषण चक्र कितने प्रकार के होते है ?
(a) एक 
(b) दो
(c) तीन
(d) चार
39. तालाबीय पारिस्थितिकी तंत्र में बड़ी मछली होती है ?
(a) उत्पादक
(b) प्राथमिक उत्पादक
(c) द्वितीयक उत्पादक
(d) तृतीयक उत्पादक
40. निम्नलिखित में कौन प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता है ?
(a) गाय
(b) मेढ़क
(c) शेर
(d) जीवाणु
41. किसी आहार श्रृंखला के प्रथम जीव कौन होते है ?
(a) उत्पादक
(b) उपभोक्ता
(c) अपघटक
(d) इनमें से कोई नहीं
42. सौर विकिरण का कितना प्रतिशत भाग पौधे प्रकाश संश्लेषण हेतु ग्रहण करते है ?
(a) 1-15% 
(b) 2-10%
(c) 50%
(d) 100%
43. परितंत्र के जलवायु संबंधी कारक निम्नलिखित में कौन है ?
(a) प्रकाश
(b) तापक्रम
(c) आर्द्रता
(d) इनमें से सभी
 share आधार (b)
44. उत्तरोत्तर पोषण स्तर पर ऊर्जा की मात्रा-
(a) घटती है
(b) बढ़ती है 
(c) स्थिर रहती है
(d) इनमें से कोई नहीं
45. अपरद खाद्य श्रृंखला प्रारंभ होती है-
(a) पादप से
(b) जन्तु से
(c) मृत कार्बनिक सामग्री से
(d) इनमें से कोई नहीं
46. किसी स्थान में होने वाले अनुक्रमण में सबसे पहले स्थापित होने वाले समुदाय को क्या कहते हैं ?
(a) प्रधान समुदाय
(b) परिवर्ती समुदाय
(c) अग्रगामी समुदाय
(d) इनमें से कोई नहीं
47. दीर्घ उपभोक्ता के अंतर्गत कौन सम्मिलि है ?
(a) सिर्फ प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता
(b) सिर्फ द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता
(c) सिर्फ तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता 
(d) इनमें सभी
48. अगर कर पारिस्थितिकी तंत्र में अपघटको को नष्ट जाए तो इसका क्या परिणाम होगा ?
(a) ऊर्जा का प्रवाह रूक जाएगा
(b) खनिजों का प्रवाह रूक जाएगा 
(c) अपघटन की दर बढ़ जाएगी
(d) प्रकाश संश्लेषण की क्रिया रूक जाएगी
49. निम्नलिखित में कौन वन पारिस्थितिकी तंत्र का एक उपभोक्ता है ?
(a) वैलिसनेरिया
(b) स्पाइरोगाइरा
(c) टेक्टोना
(d) निम्फिया
50. उत्पादक उपभोक्ता के पारस्परिक संबंध के चलते उत्पादक के अबादी में उपभोक्ता की वृद्धि का क्या असर पड़ता है?
(a) वृद्धि होती है
(b) कमी आती है
(c) कोई परिवर्तन नहीं होता है
(d) इनमें कुछ नहीं होता है
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Mon, 22 Apr 2024 09:36:50 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जीवन की उत्पत्ति एवं विकास https://m.jaankarirakho.com/1009 https://m.jaankarirakho.com/1009 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जीवन की उत्पत्ति एवं विकास
  • वर्तमान में पृथ्वी पर पाए जाने वाले जैव विविधता का अस्तित्व प्रारंभिक काल में नहीं था। पृथ्वी अपने निर्माण के शुरुआती वर्ष में एक गैसीय पिंड था तथा इसका तापमान बहुत अधिक था। पृथ्वी को ठंडा होने में तथा इसके सतह पर ठोस परत का निर्माण होने में कई लाख वर्ष लगे। इसके बाद ही पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई होगी।
  • पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न जीव समुदाय की उत्पत्ति कब और कैसे हुई इसका उत्तर आज भी विज्ञान को प्रमाणिक तौर पर पता नहीं चला है परंतु कई ऐसे वैज्ञानिक सिद्धांत को मान्यता मिली है जो कुछ हद तक जीवन की उत्पत्ति के रहस्य को उजागर किया हैं। जीवन की उत्पत्ति के प्रचलित सिद्धांत निम्न है-
  1. स्वतः जन्म का सिद्धांत (Spontaneous Generation theory)
    • जीवन की उत्पत्ति के संबंध में यह सिद्धांत मिस्र की सभ्यता के समय से ही प्रचलित है। इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी पर अधिकांश जीवों की उत्पत्ति स्वतः ही अजीव (निर्जीव) पदार्थों से हुई है।
    • फ्रांसिस्को रेडी तथा लुई पाश्चर ने अपने कई प्रयोगों में सर्वप्रथम इस सिद्धांत को गलत प्रमाणित किया। वर्तमान में यह सिद्धांत पूरी तरह से अतार्किक तथा अवैज्ञानिक बन चुका है।
  2. विशेष सृष्टि का सिद्धांत (Special Creation Theory) 
    • यह सिद्धांत एक धार्मिक सिद्धांत है। सभी देश के धर्मों में ऐसा विश्वास है कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवधारियों की रचना थोड़े-थोड़े समय अंतराल में किसी अलौकिक शक्ति के द्वारा हुई यह अलौकिक शक्ति ईश्वर के पास मौजूद थी और उन्हीं के द्वारा उन्हीं के अनुरूप इस सृष्टि का निर्माण हुआ परंतु इस धार्मिक विचारधारा का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।
  3. हेल्डन का सिद्धांत (Haldane's Opinion)
    • जीव वैज्ञानिक हेल्डेन के मत के अनुसार पृथ्वी के आदि वातावरण (Primitive Atmosphere) के गैसीय पदार्थ में CO2, NH3 तथा जलवाष्प उपस्थित थे। इन गैसीय पदार्थ पर सूर्य के पाराबैगनी प्रकाश का प्रभाव पड़ा जिनसे कई कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण होना शुरू हुआ। 
    • शर्करा (Sugar), वसा, प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्ल जैसे कार्बनिक पदार्थ के संश्लेषण होने पर ये समुंद्र में एकत्रित होते गये तथा समुद्र में ही कार्बनिक पदार्थ के मिलने से कोशिका की उत्पत्ति हुई जिसके बाद जीवन की उत्पत्ति का मार्ग खुला गया।
  4. ओपैरीन का मत (Oparin's Conception)
    • एस. आई. ओपैरिन रूसी जीव वैज्ञानिक थे उन्होंने अपनी पुस्तक 'The Origin of Life' में जीवन की उत्पत्ति के सिद्धांत बतलाए हैं जो अन्य सभी सिद्धांतों में सर्वाधिक मान्य है ।
    • ओपैरिन का भी मानना है कि जीवन की उत्पत्ति से पहले समुद्र में विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थ का संश्लेषण हुआ। कार्बनिक पदार्थ के संश्लेषण हेतु ऊर्जा की प्राप्ति पराबैंगनी प्रकाश, ज्वालामुखी के ताप तथा अन्य किसी स्रोतों से प्राप्त हुआ होगा। । पुनः कार्बनिक पदार्थ आपस में अभिक्रिया कर अधिकाधिक जटिल रचनाओं का निर्माण किया। इसके फलस्वरूप एक ऐसी रचना का निर्माण हुआ जिसे हम 'जीव' कहते हैं।

जीवन की उत्पत्ति का आधुनिक मत (Modern Concept of Origin of Life)

  • जीवन की उत्पत्ति का आधुनिक मत ओपैरिन, हैल्डेन, स्टैनले, मिलर तथा हैराल्ड यूरे और सिडने फॉक्स जैसे जीव वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। जीवन की उत्पत्ति अत्यंत ही धीमी गति से तथा निम्न चरणों में क्रमिक रूप से हुआ:-
  • पृथ्वी के निर्माण के बाद इसके ऊपर का गैसीय वायुमंडल में हाइड्रोजन की बहुलता थी, जिसके कारण आदि वायुमंडल वर्तमान समय की तरह उपचायक (Oxidicing) न होकर अपचायक (Reducing ) था । आदि वायुमंडल में हाइड्रोजन की सर्वाधि क क्रियाशील तत्व थे। हाइड्रोजन ऑक्सीजन से सहयोग कर जल का संश्लेषण किया तथा नाइट्रोजन से अभिक्रिया कर अमोनिया एवं कार्बन से संयोजन का मेथेन का संश्लेषण किया।
  • जल, अमोनिया तथा मेथेन के संश्लेषण होने के बाद भी पृथ्वी इतनी गर्म थी कि इन यौगिक के अणु तरल रूप में नहीं होकर गैसीय रूप में ही वायुमंडल में मौजूद थे।
  • अत्यंत ही धीमी गति से अपचायक वायुमंडल में उपस्थित मेथेन, अमोनिया तथा हाइड्रोजन के गैसीय मिश्रण द्वारा सरल कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण शुरू हुआ।
  • धीरे-धीरे कम-से-कम छह प्रकार के कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण हुआ होगा । यह छह कार्बनिक है- शर्करा (Sugar), ग्लिसरॉल, फैटी अम्ल, ऐमीनो अम्ल, प्यूरिन तथा पिरिमिडिन । इन छह कार्बनिक यौगिक को पूर्वजीवी (Protobionts) यौगिक कहते हैं।
  • कार्बनिक यौगिक के संश्लेषण हेतु ऊर्जा का होना अनिवार्य है। ऐसा माना जाता है कि आदि वातावरण में कार्बनिक यौगिक के संश्लेषण हेतु ऊर्जा की प्राप्ति सूर्य के पराबैंगनी प्रकाश से हुई होगी। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी गतिविधियों से भी काफी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त होती रही होगी।
  • सर्वप्रथम एस. एल. मिलर ने अपने प्रयोग के आधार पर यह तथ्य प्रकट किया कि मेथेन, अमोनिया, हाइड्रोजन एवं जल ( जलवाष्प ) से विद्युत विसर्जन द्वारा कार्बनिक यौगिक का संश्लेषण संभव है।
  • धीरे-धीरे पृथ्वी ठंडी हुई वायुमंडल का जलवाष्प भी ठंडा होकर जमने लगा तथा इसके बाद जलवृष्टि शुरू हो गई। जलवृष्टि होने से जल पृथ्वी के चारों ओर समुद्र के रूप में एकत्र होता गया । समुद्र के निर्माण के साथ इसमें अनेक पदार्थों के साथ कार्बनिक यौगिक भी घुलकर संचित हो गया है। समुद्र का जलीय वातावरण में घुलित कार्बनिक पदार्थों की अभिक्रिया को आसान बना दिया। इसके बाद समुद्र में रासायनिक विकास का क्रम नए सिरे से प्रारंभ हुआ।
  • सरल शर्करा ने आपस में संयोजन कर स्टार्ज तथा ग्लाइकोजेन जैसे जटिल शर्करा में परिवर्तन हुआ। एमिनो अम्ल के संयोजन प्रोटीन का निर्माण हुआ। प्यूरिन एवं पिरिमिडीन ने आपस में अभिक्रिया करके न्यूक्लियोटाइड का निर्माण किया । न्यूक्लियोटाइड के बहुलीकरण के द्वारा न्यूक्लिक अम्ल (RNA, DNA) बना। न्यूक्लिक अम्ल प्रोटीन अणुओं से अभिक्रिया कर न्यूक्लियोप्रोटीन का संश्लेषण किया। न्यूक्लियोप्रोटीन के निर्माण के साथ ही जीवन उत्पत्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
  • न्यूक्लियोप्रोटीन के संश्लेषण बाद आगे की रासायनिक विकास के क्रम में एंजाइम का संश्लेषण हुआ अंततः एक अन्य महत्वपूर्ण कार्बनिक यौगिक ATP (Adenosine Triphosphate) का संश्लेषण हुआ ।
  • प्रथम आदि जीव का उद्धव समुद्र में न्यूक्लियोप्रोटीन के अणु से हुआ । न्यूक्लियोप्रोटीन अपने बाहरी वातावरण से पोषक पदार्थ ग्रहण कर जनन करने में सक्षम हो गया। यह न्यूक्लियोटीन वर्तमान के विषाणु (Virus) के समान थे ।
  • विकास के अगले क्रम में न्यूक्लियोप्रोटीन के चारों और कार्बनिक तथा अकार्बनिक अणु एकत्र हुए जिसके बाद न्यूक्लियोप्रोटीन के चारों झिल्ली का निर्माण हुआ । झिल्ली से घिरा न्यूक्लियोटीन ही प्रथम कोशिका कहलाया । यह प्रथम कोशिका प्रोकैरियोटिक के समान रहा होगा ।
  • धीरे-धीरे कोशिकीय जीव के रूप में जीवाणु एवं नील हरित शैवाल (सायनो बैक्टीरिया) का विकास हुआ।
  • प्रथम विकसित जीव दैनिक क्रियाओं हेतु किण्वन (Fermentation) विधि द्वारा ऊर्जा प्राप्त किया। किण्वन विधि में कार्बनिक पदार्थ का उपयोग हुआ तथा धीरे-धीरे कार्बनिक पदार्थ समाप्त हो गया।
  • इसके बाद प्रकाश संश्लेषण जीव का उदय हुआ। यह जीव प्रकाश संश्लेषण द्वारा ऑक्सीजन को वायु में मुक्त किया । अत्र पृथ्वी का वातावरण स्थल पर जीवन की उत्पत्ति का मार्ग खोल दिया।
  • वातावरण में ऑक्सीजन के आने के साथ ही ओजोन परत का निर्माण होना शुरू हुआ। ओजोन परत के बनते ही पृथ्वी एवं वायु में जीवित रहना संभव हो पाया।
  • समुद्र के जीव पराबैगनी के प्रभाव से इसलिए नहीं आया क्योंकि समुद्री जल घातक पराबैगनी को सोख लेता था।
  • अनुकूल परिस्थिति में प्रारंभिक कोशिकाओं से विकसित कोशिका (Eukaryotics) की उत्पत्ति हुई जिससे पौधे एवं जंतु कोशिका बना । समय के साथ-साथ साधारण जीवधारियों से जटिल जीवधारियों की उत्पत्ति हुई जिससे उत्तक, अंग, अंगतंत्र तथा जटिल शरीर का निर्माण हुआ। अलग-अलग परिस्थितियों और परिवेश में विकास की अलग-अलग दिशाएँ उत्पन्न हुई जिससे जैवविविधता का निर्माण हुआ ।

क्रम विकास या विकासवाद (Evolution)

  • परिवर्तन की लगातार लेकिन धीमी प्रक्रिया जिससे नए-नए लक्षणों और विभिन्नताओं की उत्पत्ति होती है तथा नई प्रजाति और उच्च वर्गों का विकास होता है, क्रम विकास या विकासवाद कहलाता है।
  • क्रम विकास के सिद्धांत के अनुसार वर्तमान में जितने भी जीव जंतु हैं इनकी उत्पत्ति पूर्व उपस्थित अनेक सरल जीव जंतुओं से हुई है। एक जीव जंतु से दूसरे जीव जंतु अथवा एक जाति से नई जाति के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अनुवंशिक त्रिभिन्नता, प्राकृतिक चयन तथा अनुकूलन का होता है।
  • क्रम विकास लगातार होने वाली प्रक्रिया है परंतु इसकी गति अत्यंत धीमी होती है। एक जीव से नई जीव की उत्पत्ति में करोड़ों वर्ष लग जाते हैं। पृथ्वी पर प्रथम कोशिकीय जंतु आज से 2000 मिलियन वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया, तब से क्रम विकास का दौर आज भी जारी है। 
  • क्रम विकास के सभी पहलुओं का अध्ययन करना वैज्ञानिक प्रयोग एवं परीक्षण द्वारा आज भी संभव नहीं हो पाया है लेकिन कई ऐसे प्रमाण है जिससे यह साबित होता है कि "क्रमविकास केवल एक धारणा नहीं बल्कि एक सत्य है ।"
  • क्रम विकास के कुछ प्रमुख प्रमाण निम्न है-
    1. आकारिकीय प्रमाण (Morphological Evidences)
      • आकारिकीय लक्षणों के आधार पर विभिन्न जीवधारियों के बीच के नजदीकी या दूरवर्ती संबंध का पता लगाकर क्रमविकास का अध्ययन किया जाता है।
      • क्रमविकास में मनुष्य का निकटतम संबंधी चिंपैंजी, बंदर, गोरिल्ला है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानव शरीर के कई आकारिकीय लक्षण समान दिखाई पड़ते है।
    2. आंतरिक रचना से प्रमाण (Anatomical Evidence )
      • आंतरिक रचना क्रम विकास के प्रत्यक्ष और बड़े ही सशक्त प्रमाण है। विभिन्न जीवधारियों के आंतरिक अंगों का अध्ययन कर विकास के क्रम का पता लगाना आसान हो जाता है।
      • मछलियों का हृदय दो कक्षों का, उभयचर का हृदय 3 कक्षाओं का, पक्षी तथा स्तनधारी का हृदय 4 कक्षों का होता है। मछली से लेकर स्तनधारी तक हृदय का क्रमिक विकास से इस जीवों के भी विकास क्रम पता लगाया जा सकता है।
    3. समजात अंग (Homologous Organe)
      • ऐसे अंग जो उत्पत्ति ( Origin) तथा संरचना (Structure ) के दृष्टिकोण से समान है परंतु उनके कार्य भिन्न हो समजात अंग कहलाते हैं।
      • पक्षी और चमगादड़ के पंख, मेंढ़क घोड़े और मानव के अग्रपाद (Forelimbs) या पश्चपाद (Hindlimbs) समाजात अंग है क्योंकि इन सब का निर्माण समान हड्डियों से हुआ है तथा इनकी संरचना समान है
      • पेंगुइन के पैड्ल्स एवं ह्वेल के फिलिप्पर समजात अंग है।
      • अलग-अलग जंतुओं के समजात अंग यह बताती है कि यह सभी जंतु एक ही या एक-दूसरे से संबंधित पूर्वज से जुड़े हुए है।
    4. समरूप अंग (Analogous Organe)
      • समरूप अंगों के कार्य समान होते है किंतु इनकी उत्पत्ति एवं आंतरिक संरचना में भिन्नता पाई जाती है। जीवधारियों में समान कार्य हेतु समरूप अंग के विकास को निकटगामी विकास (Convergent Evolution) भी कहा जाता है।
      • कीट, चमगादड़, पक्षी में पाए जाने वाले पंख समरूप अंग है। इनके समरूप अंग यह स्पष्ट होता है कि कीटो, पक्षियों, चमगादड़ों के पूर्वज अलग-अलग जीव थे।
      • समरूप अंग को असमजात अंग भी कहते हैं।
    5. अवशेषी अंग (Vestigial Organe)
      • ऐसे अंग जो कभी पूर्वजों में उपयोगी और क्रियाशील था परंतु वर्तमान पीढ़ी के जंतु में अनुपयोगी एवं निष्क्रिय बन गया है, अवशेषी अंग कहलाते है। कभी-कभी अवशेषी अंग के कारण शरीर में हानिकारक प्रभाव भी पड़ते है।
      • मानव शरीर में सौ की संख्या में अवशेषी अंग पाए जाते है। मानव के बाहरी कान (Pinna ), बाल, नाखून, कॉकिक्स अपेंडिक्स, अक्ल चौआ (Wisdoom Teeth) अवशेषी अंग है।
      • अवशेषी अंग से पता चलता है कि वर्तमान के जंतु पूर्वकाल के जंतुओं से व्युत्पन्न हुए है, अर्थात् जंतुओं का क्रमविकास हुआ है।
    6. भ्रूणों का तुलनात्मक अध्ययन (Embryonic Comparison)
      • जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक ई. एच. हेकेल ने विभिन्न जीवों के भ्रूणों का तुलनात्मक अध्ययन कर एक Biogentic law दिया।
      • हैकेल के नियम के अनुसार 'किसी भी जंतु का भ्रूणीय विकास उसके गति इतिहास की पुनरावृत्ति करता है अर्थात कोई जीव विकास क्रम में उन सभी अवस्थाओं से गुजरता है जिनसे उसके पूर्वज गुजरे थे।' इस नियम को पुनरावृत्ति का सिद्धांत (Recapitulation Theory ) भी कहा जाता है।
      • भ्रूणों के तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह सिद्ध होता है कि इकाइनोडर्माटा समुदाय से कॉर्डेटा की उत्पत्ति हुई ।
    7. योजक कड़ी (Connecting links)
      • जब एक वर्ग के जीव से दूसरे वर्ग के जीव का विकास होता है तो यह अचानक से नहीं होता यह बहुत ही धीमी गति से होता है। इन दो वर्गों के बीच धीमें परिवर्तन के कारण एक ऐसी प्रजाति उत्पन्न हो जाती है जिनमें दोनों वर्गों के थोड़े-थोड़े लक्षण पाए जाते हैं, इन्हें योजक कड़ी कहा जाता है।
      • योजक कड़ी से यह पता चलता है कि क्रमविकास कैसे हुआ। एकिडना एक स्तनधारी जीव है परंतु इनमें सरीसृप के लक्षण भी मौजूद है। इससे यह सिद्ध होता है कि स्तनधारियों का विकास सरीसृप से हुआ है।
      • प्रमुख योजक कड़ी निम्न है-
        विषाणु निर्जीव तथा सजीव के बीच
        युग्लीना पौधे तथा जंतु के बीच
        प्रोटेरोस्पोंजिया प्रोटोजोआ तथा पोरिफेरा के बीच
        नियोपिलीना ऐनेलिडा तथा मोलस्का के बीच
        पेरीपैटस ऐनेलिडा तथा आर्थोपोडा के बीच
        बेलानोग्लॉस इकाइनोडर्माटा तथा कॉडार्टा के बीच
        फेफड़ों वाली मछली मछली तथा उभयचर के बीच
        ऑर्किओप्टेरिक्स सरीसृप तथा पक्षी के बीच
        इकिडना सरीसृप तथा स्तनधारी के बीच
    8. जीवाश्म विज्ञान (Palaeontology)
      • जीवाश्म जंतु या पौधों के वे अवशेष है जो पत्थरों पर चिन्हित हो गए हैं। जीवाश्म प्रायः अवसादी चट्टानों में मिलते है । जीवाश्म के अध्ययन से भूतकाल की अलग-अलग अवस्था से संबंधित जीव की रचना और वातावरण को समझने का अवसर मिलता है और समय के साथ उनमें होनेवाले परिवर्तनों की एक रूपरेखा बनती है जिससे क्रमश: विकास की दिशा का अनुमान होता है।
      • कुछ जीवों का पूरा जीवाश्म रिकॉर्ड उपलब्ध है और उनके क्रमविकास का पूरा ज्ञान प्राप्त हो चुका है। घोड़ा तथा मानव का क्रम विकास निम्न तरह से हुआ है-
      • घोड़ा का क्रम विकास : - Eohippus → Miohippus → Merychyhippus → Plionippus → Equs (Modern Horse)
      • मानव का क्रम विकास :- Dryopithecus → Rampaithecus → Austrilopithecus → Homo Eroctus (जंगली मानव) → Early Homosapiens → Neanderthal → Cromagnon Man → Modern Man 
      • क्रमविकास को समझने हेतु अनेक सिद्धांत प्रतिपादित किए गए है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैमार्क तथा डार्विन का सिद्धांत ही महत्वपूर्ण है।

लैमार्कवाद (Lamarkism)

  • जिन वैप्टिस्ट लैमार्क पहले ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने विकासवाद का सिद्धांत दिया। लैमार्क का विकासवाद का सिद्धांत 1809 में प्रकाशित उनकी पुस्तक Philosophic Zoologigue में प्रकाशित हुआ था। लैमार्क के विकासवाद के सिद्धांत को लैमार्कवाद कहा जाता है-
  • लैमार्कवाद के प्रमुख बातें निम्न है-
    1. जीव आकार में वृद्धि : जीव के अंदर की शक्ति शरीर के विभिन्न अंगों की वृद्धि करती है।
    2. प्रकृति का सीधा प्रभाव : अंगों की वृद्धि से जंतुओं में रचनात्मक परिवर्तन आ जाता है। इन परिवर्तन पर प्रकृति का बहुत ही प्रभाव पड़ता है। वातावरण के परिवर्तन से जंतुओं को नई आवश्यकताएँ होती है। नई आदतें लगती है।
    3. उपयोग और अनुपयोग : जंतुओं में नई आदतें लगने के कारण कुछ अंगों का अधिक उपयोग होता है जिससे वे सुगठित और अधिक विकसित होते है और कुछ अंगों के अनुपयोग के कारण ह्रास हो जाता है। इस तरह जंतु के रचना आदतों और गठन में परिवर्तन आ जाता है। इन लक्षणों लक्षणों को उपार्जित लक्षण कहते हैं।
    4. उपार्जित लाणों की वंशागति : जंतु के जीवनकाल में ये उपार्जित गुण प्रजनन के माध्यम से दूसरी पीढ़ी में चले जाते हैं, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये लक्षण संचित होकर एक नई जीव का निर्माण करता है।
  • लैमार्क के नियम की पुष्टि लंबी गर्दन वाले जिराफ के विकास से होता है। वर्तमान में लंबी गर्दनवाला जिराफ किसी छोटी गर्दन वाला पूर्वज का वंशज समझा जाता है। ये जंतु घास चरते थे, लेकिन जब घास की कमी हो गयी तो ये पेड़ की पत्तियाँ खाने लगे। इस आदत के कारण पेड़ों की पत्तियों तक पहुँचने के लिए गर्दन का अधिक उपयोग करना पड़ा और इस प्रकार के तत् उपयोग से गर्दन लंबी होती गई। इस उपार्जित लक्षण का पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागति होती रही अंततः लंबी गर्दन वाले जिराफ का विकास हुआ।
  • लामार्कवाद का कई वैज्ञानिक आलोचना किये हैं, उन वैज्ञानिकों का मानना है कि उपार्जित लक्षणों की वंशागति नहीं होती है। जर्मन वैज्ञानिक वाईसमान ने 21 पीढ़ियों तक चूहे के पूँछ को काटकर यह यह प्रमाणित किया कि कटे पूँछवाले चूहे की संतानों में हर पीढ़ी में पूँछ उपस्थित रह जाता है।
  • वर्तमान समय में लमार्कवाद में वैज्ञानिकों की पुनः अभिरूचि उत्पन्न हुई तथा लामार्कवाद की पुष्टि हेतु कई प्रायोगिक प्रमाण भी प्रस्तुत किये गये है । लामार्कवाद के पुनर्जागरण को नव-लामार्कवाद कहा जाता है।

डार्विनवाद (Darwinism)

  • चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन ने क्रमविकास की प्रक्रिया की व्याख्या के लिए प्रसिद्ध प्राकृतिक चुनाव (Natural Selection) का सिद्धान्त दिया, जिसे संक्षेप में डार्विनवाद कहा जाता है।
  • चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक चयन का सिद्धान्त अपनी पुस्तक 'The Origin of Species' में व्यक्त किये है। डार्विन ने जब अपना सिद्धान्त प्रतिपादित कर लिए तब उन्होंने देखा कि अल्फ्रेड रसेल वैलेसके क्रमविकास के सिद्धान्त भी वही है। चूँकि वैलेस अपने सिद्धान्त डार्विन से पहले ही प्रतिपादित कर लिए थे जिसेक कारण डार्विन बैलेस के लेख को ही प्रकाशित करने का विचार किया परंतु डार्विन के दोस्त हूकर और लायल ने उन्हें ऐसा करने के लिए मना कर दिया। अंत में डार्विन तथा वैलेस का संयुक्त सिद्धान्त 1859 में 'The Origin of Species' नामक पुस्तक में प्रकाशित हुई। इस सिद्धान्त को स्थापित करने में स्पेंसर नामक वैज्ञानिक ने भी योगदान दिया।
  • डार्विनवाद अथवा प्राकृतिक चुनाव की प्रमुख बातें निम्न है-
    1. विभिन्नता की सर्वव्यापकता : लैंगिक जनन से उत्पन्न संतानों में विभिन्नता (Variation) अवश्य पायी जाती है। संतानों में पाये जाने वाले विभिन्नता उपयोगी और कुछ अनुपयोगी होते हैं। उपयोगी विभिन्नता संतानों को जीवित रहने के लिए अधिक समर्थ बनाता है।
    2. प्रजनन की तेज दर : जीवों में प्रजनन की असीम क्षमता होती है। जीव गुणोत्तर अनुपात में प्रजनन करते हैं।
    3. अस्तित्व के लिए संघर्ष : प्रजनन की अत्यधिक क्षमता होने के कारण जीव की संख्या शीघ्रता से बढ़ते हैं लेकिन पृथ्वी पर भोजन और रहने के लिए स्थान सीमित है। इसलिए जीवों के बीच अस्तित्व के लिए संघर्ष होने लगता है। यह संघर्ष तीन प्रकार से हो सकते हैं-
      1. एक ही जाति के प्राणियों में भोजन और आवास हेतु संघर्ष जाए तो इसे अंतरजातीय संघर्ष कहा जाता है।
      2. विभिन्न जातियों (मनुष्य-सर्प) के बीच होने वलो संघर्ष को अंतरजातीय संघर्ष कहा जाता है।
      3. प्राकृतिक आपदा जैसे- ठंड, भूकंप, बाढ़ ज्वालामुखी उद्गार के कारण जब जीवों के बीच भोजन तथा आवास हेतु संघर्ष होता है तो इसे पर्यावरणीय संघर्ष कहा जाता है।
    4. योग्यतम की जीविता : अस्तित्व के लिए होने वाले संघर्ष में वही योग्यतम होते हैं जो शक्तिशाली होते हैं तथा जिनमें उपयोगी विभिन्नता मौजूद रहते हैं। अनुपयोगी विभिन्नता वाले जीव संघर्ष में मारे जाते हैं। इस बात योग्यतम की जीविता (Survival of fittest) कहते हैं।
    5. उपयोगी विभिन्नता की वंशागति: प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है और उपयोगी विभिन्नताएँ की दूसरी पीढ़ी में वंशागत होती. ताकि दूसरी पीढ़ी भी जीवन संघर्ष में सफल हो सके।
      इस प्रकार डार्विन का प्राकृतिक च एक ऐसी प्रक्रिया है। उपयोगी विभिन्नता होते हैं। उपयोगी विभिन्नता से जीवन- सनम प्रकृति ऐसे जीवों का चयन करती है जिनमें लाभ मिलता है। ये विभिन्नताएँ प्रजनन के माध्यम से दूसरी पीढ़ी में पहुँचा देते हैं और अंत में संतान से नई जाति का उद्भव होता है।
  • डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धान्त को अधिकांश वैज्ञानिकों ने अपनी मान्यता दी है लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त की आलोचना भी किया है। मुख्यतः निम्न बातों को लेकर डार्विन के सिद्धान्त पर आपत्ति उठाई जाती हैं-
    1. डार्विन ने अपने सिद्धान्त में जिस 'उपयोगी विभिन्नता' पर सर्वाधिक बल दिये थे, वे विभिन्नता जीवों में किस प्रकार उत्पन्न होते हैं, यह उत्तर डार्विन नहीं दे पाये। लेकिन मेंडल के वंशागति सिद्धान्त ने आगे चलकर यह बताने में सफल रहा कि विभिन्नता का स्त्रोत जीन तथा जीन में होने वाला उत्परिवर्तन है।
    2. प्राकृतिक चयन और डार्विन के स्पष्टीकरण के संबंध में आलोचकों का कहना था कि यदि प्राकृतिक चयन जीवों को केवल पृथ्वी पर बचाये रखने और छाँट देने में ही सीमित है, तो नये जीव की उत्पत्ति के लिए यह चयन किस प्रकार उत्तरदायी हो सकता है।
    3. डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धान्त जीवों में अवशेषी अंगों की उपस्थिति तथा योजक कड़ी की कोई व्याख्या नहीं करता है।
    4. डार्विन के प्राकृतिक चयन क्रमविकास (Evolution) के जानकारी देता है इससे जीवों की उत्पत्ति (Origin) का पता नहीं चलता है।
  • अनुवंशिकी (Genetics) के क्षेत्र में कई खोज होने के बाद डार्विवाद को अनुवंशिकी शाखा से मिलाकर एक नया रूप दिया गया है, जिसे नव- डार्विनवाद (Neo- Darwinism) कहते हैं। नव- डार्विनवाद के अनुसार जैव विकास ( Organic Evolution) में विभिन्नताएँ, उत्परिवर्तन, अनुकूलन, प्राकृतिक चयन तथा जातियों का पृथक्करण की भूमिका होती है।

उत्परिवर्त्तन का सिद्धान्त (Mutation Theory)

  • उत्परिवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन डच वैज्ञानिक ह्यूगो डी ब्रीज ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार उत्परिवर्तन ही विकास का वास्तविक कारण है। ह्यूगो डी ब्रीज ने इवनिंग प्रिमरोज या ईनोथेरा लैमार्कियाना पौधा पर अपने लंबे अध्ययन के पश्चात् उत्परिवर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
  • उत्परिवर्तन सिद्धान्त की मुख्य बातें निम्न हैं-
    1. डी ब्रीज के अनुसार नई जाति का निर्माण छोटी-छोटी विभिन्नताओं के एकत्र होने के कारण नहीं वरन जनकों (Parent) की संतानों में अचानक एवं स्पष्ट परिवर्तन उत्पन्न होने के कारण उत्पन्न होता है। अचानक उत्पन्न परिवर्तन उत्परिवर्त्तन कहलाता है।
    2. अचानक उत्पन्न विभिन्नताएँ या उत्परिवर्तन किसी एक लक्षण के आकार एवं मात्रा में ही नहीं होती वरन अनेक बिल्कुल स्पष्ट भागों में होती है और जब एक पीढ़ी से उत्परिवर्तन उत्पन्न हो जाती है तब इसका प्रजनन वास्तविक रूप से होने लगता है। इस प्रकार एक नवीन जाति का निर्माण हो जाता है। 
    3. नई जातियों का निर्माण धीरे-धीरे सैकड़ों वर्ष से चल रहे प्राकृतिक चयन के परिणामस्वरूप नहीं होता बल्कि अचानक होता है।
    4. उत्परिवर्तन जीवों के लिए हमेशा लाभदायक नहीं होते, इसमें लाभ अथवा हानि दोनों ही संभावना रहती है।

अभ्यास प्रश्न

1. जैव विकास को सर्वप्रथम किसने समझाया ?
(a) लुई पाश्चर 
(b) ए. आई. ओपैरिन
(c) रॉबर्ट डार्विन
(d) जीन बैप्टिस्ट लामार्क
2. लामार्क के क्रम विकास का सिद्धान्त किस पुस्तक में प्रकाशित हुआ था ?
(a) The origin of life
(b) The origin of Species
(c) Philosophic Zoologique
(d) इनमें से सभी
3. लामार्कवाद का मूल सिद्धान्त है-
(a) प्राकृतिक चयन
(b) उपार्जित लक्षणों की वंशागति
(c) जीवन संघर्ष
(d) नये अंगो का अचानक विकास
4. निम्नलिखित में कौन-सा कथन लामार्कवाद से संबंधित नही है ?
(a) जीवन के अंदर की शक्ति शरीर के विभिन्न अंगो की वृद्धि करती है। 
(b) परिवर्तित वातावरण का जंतुओं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और इससे नई आवश्यकता उत्पन्न होती है।
(c) भोजन तथा आवास सीमित होने के कारण जंतुओं से आपस में अस्तित्व के लिये संघर्ष होगा
(d) उपयोग और अनुपयोग के कारण रचनाओं में परिवर्तन होता है, अर्थात् नए लक्षणों का उपार्जन होता है ।
5. जीवों के प्राकृतिक चयन का सिद्धन्त प्रतिपादित किया है-
(a) लामार्क 
(b) डार्विन
(c) ह्यूगो डी व्रीज
(d) ओपैरिन
6. डार्विनवाद या प्राकृतिक चुनाव वाद में निम्नलिखित में कौन- -सा सिद्धान्त इससे संबंधित है ?
1. विभिन्नता की सर्वव्यापकता
2. उपयोग - अनुपयोग
3. अस्तित्व के लिये संघर्ष
4. योग्यतम की अतिजीविता
5. उपार्जित लक्षणों की वंशागति
6. उपयोगी विभिन्नताओं की वंशागति
(a) 1, 2, 3 और 6
(b) 1, 3, 4 और 5
(c) 1, 3, 4 और 6
(d) 1, 3, 4 और 5
7. निम्नलिखित में कौन एक डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धान्त में नहीं है ?
(a) योग्मतम की उत्तरजीविता
(b) अस्तित्व के लिये संघर्ष
(c) अंगों का उपयोग-अनुपयोग
(d) प्रजनन की तेज दर
8. जीवों में आपस में संघर्ष होने के क्या कारण है ?
(a) प्रजनन का दर तेज होना
(b) भोजन की उपलब्धता सीमित होना
(c) आवास के लिये जगह का सीमित होना 
(d) इनमें सभी
9. उत्परिवर्तन के सिद्धान्त के वास्तविक जन्मदाता है-
(a) गाल्टन
(b) बेटसन
(c) डार्विन
(d) डी. ब्रीज
10. 'प्राकृतिक चयन' सिद्धान्त को स्थापित करने में किस वैज्ञानिक ने अपना योगदान दिया ?
(a) अलफ्रैंड रसेल वैलेस 
(b) चार्ल्स राबर्ट डार्विन
(c) स्पेंसर
(d) इनमें से सभी
11. समरूप अंग होते है-
(a) रचना में समान
(b) कार्य में समान
(c) रचना और कार्य दोनों में समान
(d) कार्यविहीन
12. कीट, पक्षी, चमगादड़ के पंख उदाहरण है-
(a) समरूप अंग के
(b) समजात अंग के
(c) समरूप तथा समजात दोनों के
(d) अवशेषी अंग के
13. मेढ़क, घोड़े और मानव के अग्रपाद या पश्चपाद किस प्रकार के अंग है ?
(a) समरूप अंग
(b) समजात अंग
(c) अवशेषी अंग
(d) इनमें से कोई नहीं
14. समजात अंग होते है-
(a) रचना में समान 
(b) कार्य में समान
(c) रचना में असमान
(d) रचना और कार्य दोनों में समान
15. लामार्क के प्रसिद्ध पुस्तक Philosophica Zoologique का प्रकाशन किस वर्ष हुआ था ?
(a) 1809
(b) 1852
(c) 1858
(d) 1859
16. निम्नलिखित में कौन-सा सिद्धान्त उद्विकास की व्याख्या के लिये डार्विन द्वारा प्रतिपादित नही किया 'गया है ?
(a) समर्थ की उत्तरजीविता तथा अयोग्य का विलोपन
(b) अस्तित्व के लिये संघर्ष 
(c) अचानक एवं विच्छिन्न रूप से जीवन की उत्पत्ति
(d) नई जातियों की उत्पत्ति
17. नेचुरल सेलेक्शन द्वारा 'ऑरिजन ऑफ लाइफ' पुस्तक किसने लिखी थी ?
(a) चार्ल्स डार्विन 
(b) ह्यूगो डी ब्रीज
(c) लैमार्क
(d) ओपैरिन
18. 'The Origin of Life' पुस्तक के लेखक है-
(a) चार्ल्स डार्विन
(b) ह्यूगो डीबी
(c) लैमार्क
(d) ओपैरिन
19. विकास की दिशा (Evolution) मुख्यतः किसके द्वारा निश्चित होता है- 
(a) विभिन्नता
(b) प्राकृतिक चयन
(c) अनुकूलन
(d) इनमें से सभी
20. भोजन एवं आवास के लिये जंतुओं में आपस में किस प्रकार का संघर्ष होता है ?
(a) अंतरजातीय 
(b) अंतरजातीय
(c) पर्यावरणीय
(d) इनमें से सभी
21. निम्नलिखित में कौन-सा मनुष्य में अवशेषी अंग है ?
(a) अंधांत्र परिशेषिका (Vermiform appendix )
(b) बाह्र कर्ण की पेशियाँ
(c) निक्टिटेटिंग
(d) इनमें से सभी
22. 'दाहिना फुप्फुस' निम्न में किसमें अवशेषी अंग है ?
(a) शुतुरमुर्ग 
(b) सर्प
(c) मनुष्य
(d) चमगादड़
23. निम्न में से कौन-सा मनुष्य में अवशेषी अंग नहीं है ?
(a) अक्ल चौआ (Wisdom Teeth)
(b) आँखो का प्लिका सेमीलुनेरिस
(c) समाने वाले चपटे दाँत
(d) केश व नाखून
24. किस सिद्धान्त के अनुसार नई जाति का निर्माण छोटी- छाटी विभिन्नताओं का पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचयन से नही बल्कि सामान्य जन को की संतानो में अचानक एवं सुस्पष्ट परिवर्तन उत्पन्न होने के कारण होता है ?
(a) उपार्जित लक्षणों का वंशागति
(b) उपयोगी विभिन्नताओं की वंशागति
(c) प्राकृतिक चयन
(d) उत्परिवर्तन का सिद्धान्त
25. पक्षियों एवं कीटों के पंख है-
(a) समजात अंग
(b) असमजात अंग
(c) अवशेषी अंग
(d) अवशोषी प्राणि
26. पेंगुइन के पैड्स तथा ह्वेल्स के फिलिप्पर है-
(a) समजात 
(b) असमजात
(c) अवशेषी
(d) इनमें से कोई नहीं 
27. ऐसे अंग जो विभिन्न कार्यों में उपयोग होने के कारण काफी असमान हो सकते है, लेकिन उनकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में समानता रहती है, कहलाते है-
(a) अवशेषी अंग
(b) असमजात अंग
(c) समरूप अंग
(d) समजात अंग
28. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त किसने प्रतिपादित किया है ?
(a) रॉबर्ट कोच
(b) चार्ल्स डार्विन
(c) हीकेल
(d) मॉर्गन
29. जैव विकास के संदर्भ में सांपों में अंगों का लोप होने को स्पष्ट किया जाता है-
(a) अंगों के उपयोग तथा अनुपयोग किये जाने से
(b) बिलो में रहने के प्रति अनुकूलन से 
(c) प्राकृतिक चयन से
(d) उपार्जित लक्षणों की वंशागति से
30. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए
1. लामार्क के अनुसार आधुनिक जिराफ की गर्दन की लंबाई बहुत अधिक होने के कारण यह है कि पिछले वंशजो में उसकी लंबाई बराबर ही बढ़ती गई।
2. डार्विन के अनुसार अस्तित्व के संघर्ष के पश्चात केवल लंबी गर्दन वाले जिराफ ही कायम रह गये ।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है / हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2 
31. अफ्रीका मानव का सबसे निकट संबंधी है-
(a) चिंपैंजी
(b) गोरिल्ला
(c) बंदर
(d) गिलहरी
32. विकास का कच्चा माल किसे माना जाता है ?
(a) विभिन्नताओं को 
(b) उत्परिवर्तन को
(c) पुनर्विन्यास को
(d) पारगमण को
33. मनुष्य का सबसे पुराना पूर्वज कौन है ?
(a) रामापिथेकस 
(b) ऑस्ट्रेलियोपिथेकस
(c) होमो इरेक्टस 
(d) होमो सैपियंस
34. घोड़े का सबसे पुरातन पूर्वज कौन है ?
(a) इओहिप्पस
(b) मेजोहिप्पस
(c) इक्कूस
(d) प्ल्एिहिप्पस
35. "प्रकृति योग्यतम तथा अनुकूल विभिन्नता वाले जीव को चुन लेती है तथा अयोग्य एवं प्रतिकूल विभिन्नताओं जीवों को नष्ट कर देती है।" यह कथन है-
(a) लामार्क का 
(b) डार्विन का
(c) वाईसमान का
(d) हैल्डेन का
36. लामार्कवाद का खंडन करने वाले जर्मन वैज्ञानिक जिन्होनें चूहे की पूँछ पर प्रयोग किया था, कौन थे ?
(a) वाईसमान 
(b) ओपैरीन
(c) हैल्डेन
(d) सिडने पॉक्स 
37. आर्कियोप्टेरिक्स के संबंध में निम्नांकित कौन कथन सत्य है ?
(a) यह एक जीवाश्म है
(b) इसके जबड़े में दाँत तथा अँगुलियो में नख थे
(c) इसमें डैने तथा पर या पंख विद्यमान थे
(d) इनमें से सभी
38. एकिडना है-
(a) विलुप्त कड़ी
(b) योजक कड़ी
(c) अवशोषी जीव
(d) अवशेषी अंग
39. निम्नलिखित में कौन एक फुप्फुस मत्स्य है, जो पश्चिम अफ्रिका में मिलता है ? 
(a) लेपिडोसाइस
(b) सिरेटोडस
(c) प्रोटोप्टेरस
(d) सिंघी
40. एक ही प्रजातियों के बीच आपस में प्रजनन क्या कहलाता है ?
(a) अंतः प्रजनन
(b) अंतरप्रजनन
(c) बाह्र प्रजनन
(d) इनमें से कोई नहीं
41. जाति उदभवन (Specification) की संभावना किसमें नही होती ?
(a) लैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न जीवों में
(b) अलैंगिक जनन द्वारा उत्पन्न जीवों में
(c) स्त्र परागण द्वारा उत्पन्न जीवों में
(d) b तथा c दोनों में
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Mon, 22 Apr 2024 08:44:37 +0530 Jaankari Rakho
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गुणसूत्र (Chromosome)

  • गुणसूत्र की खोज 1859 में हॉफमीस्टर ने किया था। उन्होंने इसका नाम न्यूक्लियर फिलामेंट रखा। क्रोमोसोम शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1898 में वाल्डेयर के द्वारा किया गया।
  • गुणसूत्र केन्द्रक (Nucleus) के अंदर पाये जाने वाली पतली-पतली धागेनुमा रचनाएँ है, जिसका निर्माण कोशिका विभाजन के समय क्रोमेटीन जालिका के द्वारा होता है। माइॉसिस कोशिका विभाजन के मेटाफेज एवं ऐनाफेज अवस्थाओं में क्रोमोजोम (गुणसूत्र) स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं।
  • गुणसूत्र की लंबाई सामान्यत: 0.5 μm से 30 μm तथा मोटाई 0.2 μm से 3 μm होती है। पौधों के कोशिका में पाये जानेवाले गुणसूत्र जंतु कोशिका के गुणसूत्र से थोड़ा बड़ा होता है। 
  • प्रत्येक प्राणी एवं पौधों की प्रजाति में गुणसूत्र की एक निश्चित संख्या होती है। ये गुणसूत्र हमेशा जोड़ों में रहते हैं तथा जोड़ा वाला दोनों गुणसूत्र हमेशा एक दूसरे के समान होते हैं, जिस कारण जोड़ों वाले क्रोमोसोम (गुणसूत्र ) समजात क्रोमोसोम कहलाते हैं, कायिक (Somatic) कोशिका में समजात क्रोमोजोम होते हैं ये द्विगुणित (Diploid) कहलाते हैं । परंतु जनन कोशिका (शुक्राणु, अंडाणु) में क्रोमोसोम की संख्या कायिक कोशिका की आधी होती है। ऐसे कोशिका के क्रोमोसोम अगुणित (Haploid) कहलाते हैं।
  • प्रत्येक गुणसूत्र में एक खास स्थान होता है, जहाँ से गुणसूत्र दो भुजाओं में बँटे नजर आते हैं। इस खास स्थान को सेंट्रोमियर (Centromere) कहते है। सेंट्रोमियर के स्थिति के अनुसार गुणसूत्र चार प्रकार के होते है-
    1. Metacentric : इस गुणसूत्र की दोनों भुजाएँ बराबर होता है। तथा इसकी आकृत्ति अंग्रेजी वर्णमाला के 'V' अक्षर के समान होती है। 
    2. Submetacentric : इस गुणसूत्र की एक भुजा दूसरी भुजा के तुलना में थोड़ा छोटा होता है तथा इसकी आकृति अंग्रेजी वर्णमाला के 'L' अक्षर के तरह होता है। 
    3. Acrocentric : इस गुणसूत्र की एक भुजा बहुत बड़ी तथा दूसरी बहुत छोटी होती है। इसकी आकृति छड़ ( rod) के समान होता है।
    4. Telocentric : इस गुणसूत्र केवल एक ही भुजा होता है तथा शीर्ष पर सेंट्रोमियर स्थित होता है।
  • एक पूर्ण विकसित गुणसूत्र के निर्माण में निम्नलिखित रचनाएँ भाग लेती है-
    1. पेलिकल (Pellicle) : गुणसूत्र के सबसे बाहरी आवरण पेलिकल कहलाता है। पेलिकल के से घिरा हुआ भाग को मैट्रिक्स कहा जाता है ।
    2. अर्द्धगुणसूत्र (Chromatids ) : गुणसूत्र के मैट्रिक्स में, गुणसूत्र के पूरे लंबाई तक दो कुंडलित (Coiled) धागे के समान रचनाएँ होती है, जिसे अर्द्धगुणसूत्र कहते हैं।
    3. क्रोमोनिमेटा (Chromonemata) : गुणसूत्र का प्रत्येक अर्द्धगुणसूत्र (Chromatids ) दो या इससे अधिक महीन धागे की रचनाओं से बना होता है, जिसे क्रोमोनिमेटा कहा जाता है। प्रत्येक अर्द्धगुणसूत्र के क्रोमोनिमेटा इतनी अधिक घनिष्ठता से एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं कि वे एक ही दिखाई पड़ते है।
    4. प्राथमिक संकुचन (Primary constriction) : गुणसूत्र के दोनों भुजाओं के मिलन स्थल पर स्थित संकुचन को प्राथमिक संकुचन कहते हैं। प्राथमिक संकुचन के स्थान पर ही एक गोलाकार कण होते हैं जो सेंट्रोमियर कहलाता है। सेंट्रोमियर गुणसूत्र को दो भुजाओं में बाँटता है।
    5. द्वितीयक संकुचन - I (Secondary constriction - I) : गुणसूत्र के शीर्षभाग पर स्थित संकुचन को द्वितीयक संकुचन-I कहते हैं। द्वितीयक संकुचन - I को (Nucleolar Organise) भी कहा जाता है क्योंकि केंद्रिका (Nucleolus) बनने में इसकी जरूरत होती है।
    6. सैटेलाइट (Satellite) : गुणसूत्र के द्वितीयक संकुचन के बाद वाला हिस्सा एक गोलाकार रचना जैसा होता है जिसे सैटेलाइट कहते हैं।
    7. द्वितीयक संकुचन - II ( Secondary Constriction - II) : प्राथमिक संकुचन के अतिरिक्त गुणसूत्र के किसी भी भाग (शीर्ष भाग छोड़कर) में स्थित संकुचन को द्वितीयक संकुचन II कहा जाता है। गुणसूत्र का सेंट्रोमियर केवल प्राथमिक संकुचन पर ही स्थित होता है, अन्य किसी संकुचन पर नही ।
    8. टीलोमियर (Telomere ) : गुणसूत्र के दोनों अंतिम सिरों को टीलोमियर कहा जाता है। टीलोमियर गुणसूत्र के दोनों भुजाओं को आपस में कभी जुटने नहीं देता है। अगर किसी कारणवश गुणसूत्र टूट जाये तो टूटे हुए गुणसूत्र भी टेलोमियर से जुट नहीं सकता है।
  • गुणसूत्र कोशिका का एक महत्वपूर्ण भाग है। ये पैतृक गुणों के संरचरण के लिए उत्तरदायी 'जीन' को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में पहुँचता है । गुणसूत्र में स्थित अर्द्धगुणसूत्र (Chromatids) DNA तथा की पूरी लंबाई में दाने प्रोटीन का बना होता है। DNA के क्रियात्मक समान दिखते हैं। खंड को जीन कहते हैं। यह जीन अद्धत्मक खंड जीन को अनुवंशिक इकाई कहा जाता है।
  • DNA में कोशिका निर्माण DNA को अनुवंशिक पदार्थ तथा इसके एवं संगठन की सभी आवश्यक सूचनाएँ होती है तथा DNA में प्रतिलिपिकरण (Replication) द्वारा अपने समान अणु के संश्लेषण की क्षमता होती है।
  • कोशिका के न्यूक्लियस से DNA का पृथक्कीकरण सर्वप्रथम फ्रेडरिक मेशर ने किया था तथा इसका नाम न्यूक्लिन रखा। DNA अनुवंशिक पदार्थ है यह प्रमाण अल्फ्रेड हर्षे तथा मार्था चेस के प्रयोग से प्राप्त हुआ। ये दोनों अपना प्रयोग बैक्टिरिओफेज विषाणु परकिया था ।
  • कोई भी अणु जो अनुवंशिक पदार्थ के रूप में कार्य कर सकता है उसमें निम्नलिखित गुण का होना जरूरी है-
    1. वह अपना प्रतिकृति बनाने में सक्षम हो ।
    2. उसकी रचना तथा रसायनिक संगठन स्थिर होना चाहिए।
    3. उसमें उत्परिवर्तन (Mutation) की संभावना होनी चाहिए क्योंकि वह विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।
    4. इसे स्वंग मेंडल के लक्षण के अनुरूप अभिव्यक्त होना चाहिए। उपर्युक्त सभी गुण DNA में मौजूद है, इसलिए DNA को अनुवंशिक पदार्थ माना गया है।
  • DNA एक न्यूक्लिक अम्ल है। सजीवों में दो प्रकार के न्यूक्लिक अम्ल पाये जाते है - DNA तथा RNA अधिकांश जीवों में अनुवशिक पदार्थ DNA ही होता है परंतु पृथ्वी पर का पहला अनुवंशिक पदार्थ RNA के रूप में पाये गये हैं।

न्यूक्लिक अम्ल (Nucleic Acid)

  • न्यूक्लिक अम्ल प्रत्येक जीवित कोशिका में पाया जाता है। इसकी प्रकृति अम्लीय तथा केंद्रक (Nucleus) में मिलने के कारण इसे न्यूक्लिक अम्ल कहा गया है। यह दो प्रकार का होता है - DNA (Deoxyribonucleic Acid) तथा RNA (Ribonucleic Acid)।
  • न्यूक्लिक अम्ल, न्यूक्लियोटाइड्स (Nucleotides) मोनोमर इकाई का बना एक बहुलक (Polynur) है जिसे पॉलिन्यूक्लियोटाइड भी कहा जाता है। न्यूक्लियोटाइड तीन प्रकार के यौगिक के बने होते है-
    1. Sugar ( शर्करा ) : न्यूक्लिक अम्ल ( या न्यूक्लियोटाइड्स) में 5 कार्बन परमाणु का बना राइबोस या डीऑक्सीराइबोस पाई जाती है। डीऑक्सीराइबोस (C5H10O4) DNA के निर्माण में भाग लेते हैं तथा राइबोस (C5H10O5) RNA के निर्माण में भाग लेते है।
    2. फॉस्फेट अम्ल : फॉस्फेरिक अम्ल (H3PO4) के उपस्थित के कारण ही न्यूक्लिक अम्ल अम्लीय प्रकृति के होते है।
    3. नाइट्रोजन क्षार (Nitrogen Base) : नाइट्रोजन क्षार दो प्रकार के होते हैं- प्यूरीन्स तथा पीरिमिडीन। प्यूरीन्स के अंतर्गत एडेनीन तथा ग्वानीन तथा पीरिमिडीन के अंतर्गत थाइमीन तथा साइटोसीन आते हैं। DNA में चारों नाइट्रोजन क्षार (एडेनीन, ग्वानीन, थाइमीन, साइटोसीन) पाये जाते हैं परंतु RNA में थाइमीन नहीं पाये जाते हैं। थाइमीन के स्थान पर यूरेसिल पाये जाते हैं।
  • एक फॉस्फेट, एक सुगर और एक क्षार मिलकर एक न्यूक्लियोटाइड (Nucleotides) बनते हैं। इस तरह चार प्रकार के नाइट्रोजन क्षार से चार प्रकार के न्यूक्लियोटाइड्स बनते है । न्यक्लियोटाइड्स के हजारों अणु आपस में जुटकर एक - एक श्रृंखला बनाते है। ऐसी ही दो श्रृंखला आपस में सर्पिल रूप से जुटकर DNA अणु का निर्माण करते हैं लेकिन RNA का निर्माण एक ही श्रृंखला के द्वारा होता है।
  • DNA Double halix Model 
    • सर्वप्रथम विलकिन्स ने एक्स किरण विवर्तन के आधार पर DNA अणु के संरचना का अध्ययन किया था। इसके बाद खानिन तथा साइटोसीन की मात्रा बराबर चारगैफ ने यह पता लगाया कि DNA में एडीनिन एवं थाइमीन की मात्रा होती है।
    • विलकिन्स तथा चारगैफ के खोज को आधार मानकर कैम्ब्रिज विश्लवविद्यया के दो वैज्ञानिक जेम्स वाटसन तथा फ्रान्सिस क्रिक ने 1953 में DNA अणु की रचना का एक सफल मॉडल प्रस्तुत किया और यह मॉडल Double halix Model कहलाया।
    • DNA के Double halix मॉडल में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती है-
      1. DNA अणु में दो पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला होती है जो सर्पिल रूप से कुंडलित (Coiled) होती है।
      2. DNA के प्रत्येक स्ट्रैंड में बाहर की ओर फॉस्फेट तथा डीऑक्सीराइबोस शर्करा पाये जाते हैं।
      3. DNA के स्ट्रैंड में भीतर की ओर नाइट्रोजनी बेस प्यूरीन तथा पीरिमीडीन डॉऑक्सीराइबोस शर्करा से जुड़े होते हैं।
      4. DNA के एक स्टैंड का प्यूरिन हेमशा दूसरी स्ट्रैंड के पीरिमिडीन से हाइड्रोजन बंधन द्वारा जुड़ा रहता है। ऐडीनीन, थाइमीन से दो हाइड्रोजन बंधन के द्वारा जबकि साइटोसीन ग्वानीन से तीन हाइड्रोजन बंधन से जुड़े रहते है।
      5. DNA कुंडली का एक पूर्ण घुमाव 34A° में पूरा होता है तथा इसमें 10 न्यूक्लियोटाइड्स के जोड़े होते हैं यानि प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड्स के बीच 3.4A° की दूरी रहती है।
      6. DNA के दोनों स्ट्रैंडों की बीच की दूरी 20A° होता है या DNA का व्यास 20A° होता है।
  • DNA के कार्य
    1. DNA अनुवंशिक गुणों का भंडार है। यह जीन के रूप में पैतृक गुणों का संचरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते है ।
    2. DNA प्रोटीन संश्लेषण का मुख्य संचालक है क्योंकि प्रोटीन संश्लेषण क्रिया में प्रयुक्त होने वाले RNA तथा एंजाइम का निर्माण DNA से ही होता है। DNA से RNA के निर्माण की क्रिया ट्रांसक्रिप्सन तथा RNA से प्रोटीन निर्माण को ट्रांसलेशन कहा जाता है। 
    3. DNA में उत्परिवर्तन लाकर पौधों की उन्नत रोग-प्रतिरोधी एवं अधिक उपज देने वाली जातियाँ उत्पन्न की गई है।
    4. Genetic Engineering के द्वारा DNA के खंड को एक प्राणि की कोशिका से अलग कर किसी दूसरे प्राणि की कोशिका में प्रतिरोपित करने से अनुवंशिक रोगों के निदान में सफलता मिली है।
  • DNA तथा RNA में अंतर
    1. DNA मुख्यत: केन्द्रक के क्रोमोसोम में पाया जाता है, इसके अतिरिक्त यह माइटोकॉण्ड्रिया तथा लवक में भी पाया जाता है जबकि RNA कोशिकाद्रव्य तथा केंद्रिका में पाया जाता है।
    2. DNA का आकार दोहरी कुंडली (Double halix ) वाला होता है जबकि RNA का आकार एकहरी कुंडली (Single halix) वाला होता है।
    3. DNA में डिऑक्सीराइबोस शर्करा रहता है जबकि RNA मैं राइबोस शर्करा पाया जाता है।
    4. DNA में थाइमीन नाइट्रोजन क्षार पाया जाता है जबकि RNA में में थाइमीन के जगह यूरेसिल नाइट्रोजन क्षार पाया जाता है।
    5. DNA केवल एक प्रकार का होता है जबकि RNA तीन प्रकार का होता है।
    6. DNA सदैव ही अनुवंशिक सूचना देता है जबकि RNA कभी-कभी ही अनुवंशिक सूचना देता है। RNA मुख्यत: प्रोटीन संश्लेषण करता है।
    7. DNA का आण्विक भार RNA के तुलना में बहुत अधिक होता है।
  • RNA तीन प्रकार के होते हैं जो निम्नलिखित है-
    1. mRNA (Mesenger RNA ) : यह RNA कोशिका द्रव्य में राइबोसोम से जुड़ा रहता हैं। यह RNA, DNA के अनुवंशिक सूचनाओं को ढ़ोता है, यही कारण है कि इसे Messenger RNA (mRNA) कहते है। कोशिका में मौजूद कुल RNA का यह 5-10 प्रतिशत होता है।
    2. tRNA (Transfer RNA ) : यह RNA प्रोटीन संश्लेषण के समय विभिन्न प्रकार के अमीनों अम्ल को कोशिकाद्रव्य से राइबोसोम तक स्थानांतरित (Transfer) करता है। एक प्रकार का tRNA एक ही प्रकार के अमीनों अम्ल का स्थानांतरण कर सकता है इसलिए किसी भी कोशिका में अमीनों अम्ल की जो संख्या होती है वही tRNA की भी होती है। कोशिका में स्थित कुल RNA का यह 10 से 15 प्रतिशत होता है।
    3. rRNA (Ribosomal RNA ) : यह RNA राइबोसोम का निर्माण में भाग लेता है। यह कोशिका में स्थित कुल RNA का 80 प्रतिशत होता है। तीनों RNA में यह सबसे स्थिर प्रकृति का तथा सर्वाधिक समय तक क्रियाशील रहता है।

जीन (Gene)

  • सर्वप्रथम 1909 में जोहान्सन ने जीन शब्द का प्रयोग किया था उन्होंने मेंडल के अनुवंशिक 'फैक्टर' को जीन कहा। टी. एच. बोवेरी तथा डल्लू. एस. सटन के प्रयोग से सर्वप्रथम यह प्रामणित हुआ कि जीन गुणसूत्र के अंश है और यह गुणसूत्र के निश्चित स्थान (Chromatids ) पर पाये जाते हैं।
  • शुरूआत में जीन को एक ऐसा कारक माना जाता था जो सजीवों के एक विशेष लक्षण की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी होता है। जीन की आधुनिक परिभाषा है- "जीन DNA की एक ऐसी विशेष लंबाई है जो एक विशेष प्रकार के RNA का निर्माण करती है। " .
  • जीन अनुवंशिकता की इकाई है। जीन अपना कार्य एंजाइम के माध्यम से करता है। बीडल तथा टेटम के 'एक जीन - एक इंजाइम' सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीन एक विशिष्ट इंजाइम का उत्पादन करता है जो विशिष्ट लक्षणों को प्रकट करते हैं।
  • जीन क्रोमोजोम में रैखिक क्रम में एक सिरे से दूसरे सिरे तक व्यवस्थित होते हैं एवं सभी जीवों में वंशागत लक्षणों के निर्धार है। चूँकि गुणों (लक्षणों) की संख्या हजारों में है, लेकिन गुणसूत्रों की संख्या सिर्फ कुछ जोड़े है, इसलिए प्रत्येक गुणसूत्र पर औसतन तीन हजार जीन होते हैं। किसी जीव में एक लक्षण के प्रकट होने के लिए एक ही जीन उत्तरदायी हो सकता है परंतु सामान्यत: बहुत से जीनों की संयुक्त क्रिया से ही कई लक्षण प्रकट होते हैं।
  • जिस तरह गुणसूत्र जोड़े में रहते हैं उसी तरह जीन भी जोड़े में रहते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र में न सिर्फ जीनों के प्रकार निश्चित होते हैं बल्कि उनकी सजावट भी निश्चित होती है। किसी भी प्राणी के गुणसूत्र के एक सेट में पाये जाने वाले जीनों के समूह को जीनोम (Genome ) कहा है तथा प्रत्येक गुण पर बसे जीनों के समूह संलग्न समूह (linkag group) कहलाते हैं। मनुष्य में 23 लिंकेज ग्रुप पाये जाते हैं i
  • एक कोशिका में उपस्थित कुल जीनों में 90 प्रतिशत निष्क्रिय रहते हैं, केवल 10 प्रतिशत जीन ही सक्रिय रहते हैं, जीवों की वृद्धि के अनुसार कुछ जीन सक्रिय होते हैं तथा कुछ निष्क्रिय हो जाते हैं। जैसे- बीजों के अंकुरण के बाद अंकुरण को प्रभावित करने वाले जीन निष्क्रिय हो जाऐंगे तथा पोधों की लंबाई बढ़ाने वाले जीन सक्रिय हो जाऐंगे।
  • एस. बेंजर नामक वैज्ञानिक ने 1962 में जीन की परिभाषा सिस्ट्रॉन (Cistron), रिकॉन (recon) तथा म्यूटॉन (Muton) के रूप में दिया। जीन की क्रियात्मक इकाई जो प्रोटीन संश्लेषण को निर्देशित करती है, उसे सिस्ट्रॉन, जो इकाई पुन: संयोजन (recombination) को निर्देशित करती है, उसे रिकॉन तथा जो इकाई उत्परिवर्तन को निर्देशित करती है उसे म्यूटॉन कहते हैं।

विभिन्नताएँ (Variation)

  • एक ही प्रजाति से उत्पन्न विभिन्न संतानों में पाये जाने वाले सभी गुण समान नहीं होते हैं, उनमें कुछ अंतर अवश्य रहता है इसे ही विभिन्नता कहते हैं।
  • विभिन्नता जीन के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँचते है। विभिन्नता मुख्य रूप से लैंगिक जनन (Sexual Reproduction) से उत्पन्न संतान में ही पाये जाते हैं। अलैंगिक जनन में विभिन्नता का प्रायः अभाव रहता है। 
  • विभिन्नताएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होती है और वंशजों में इसका संचयन होते रहता है एवं कई पीढ़ीयों के बाद ढ़ेर सारी विभिन्नताएँ इकट्ठा होकर नई जातियाँ बनाती है। किसी भी जाति के लिए विविधता का सबसे बड़ा लाभ होता है कि वह परिवर्तनशील वतावरण में उसके जीवित रहने की संभावना बढ़ा देता है।
  • विभिन्नताएँ दो प्रकार के होते हैं-
    1. जननिक विभिन्नता (Germinal Variation) : यह विभिन्नता क्रोमोसोम पर जीन की व्यवस्था में परिवर्तन तथा DNA के निर्माण में संलग्न नाइट्रोजन क्षार के अनुक्रम में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होते हैं। जननिक विभिन्नता को अनुवंशिक विभिन्नता भी कहते हैं।
    2. कायिक विभिन्नता (Somatic Variation) : वातावरणीय दशाओं, भोजन की उपलब्धता, आपसी व्यवहार के कारण उपार्जित किये जाने वाले विभिन्नता कायिक विभिन्नता कहलाता है। कायिक विभिन्नता का संचयरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहीं होता है और न ही जैव विकास में इसका महत्व है।

आनुवंशिकी (Genetics)

  • माता-पिता के गुण जीन के माध्यम से उनके संतानों में पहुँचता है ऐसे गुण को अनुवंशिक गुण कहते हैं। अनुवंशिक गुण का पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होना अनुवंशिकता (Heredity) कहलाता है।
  • जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत अनुवंशिकता तथा विभिन्नता का अध्ययन किया जाता है, उसे नुकी (Genetics) कहते हैं।
  • अनुवंशिकता का अध्ययन सर्वप्रथम ग्रेगर जोहान मेंडल ने किया था। मँडल आस्ट्रिया में ब्रुन नामक स्थान पर एक मठ के पादरी थे लेकिन उन्हें बागवानी में बहुत रूचि थी ।
  • मेंडल ने अपने बागवानी में 1857 ई. से 1865 ई. तक मटर के पोधों पर अनेक प्रयोग किये तथा अपने प्रयोग के आधार पर सांख्यिकीय आँकड़े तैयार किये। इन आँकड़ों को पेंडल ने 1865 में " नैचुरल हिस्टोरिकल सोसाइटी ऑफ वून" के वैठक प्रस्तुत किया, जिसके बाद 1866 में इसी सोसाइटी के पत्रिका में मंडल का अनुसंधान प्रकाशित हुआ ।
  • मेंडल के अनुसंधान प्रकाशित होने के बाद भी उस समय के वैज्ञानिकों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि उस समय वैज्ञानिकों का ध्यान चार्ल्स डार्विन के सिद्धान्तों के अध्ययन में व्यस्त था। 1884 ई. में मंडल का देहांत हो गया और उन्हें अपन जीवनकाल में कोई उपलब्धि हासिल नहीं हो पाई।
  • मेंडल के अनुसंधान प्रकाशित होने के 34 वर्ष बाद 1900 में तीन वैज्ञानिक ह्यूगो डि ब्रीज (हॉलैंड), कार्ल कोरन्स (जर्मनी) तथा इरिक वॉन शेरमाक (आस्ट्रिया) ने मेंडल के अनुसंधान की पुष्टि की तथा उनके अनुसंधान को "मंडल के वंशागत के नियम" के रूप में मान्यता दिलाई। इसके बाद मंडल 'अनुवंशिकता के पिता' या 'अनुवंशिकी के जनक' कहलाये।
  • मेंडल ने अपना प्रयोग मटर के पौधा पर किया था। मंडल ने मटर के पोधों के उन लक्षणों पर विचार किया जो सर्वथा विपरित गुण वाले थे। मेंडल ने सात जोड़ो विपरित लक्षण वाले पौधों के बीच कृत्रिम परागण (Cross pollination) कराया और उनसे उत्पन्न नये पौधों का अध्ययन किया। मंडल द्वारा मटर के पौधों के जिन सात जोड़े विपरित लक्षणों का अध्ययन किया गया वे निम्न है-
    1. तने की ऊँचाई - लंबा / बौना
    2. बीज का रंग - पीला / हरा
    3. बीज का आकार - गोला / झुर्रीदार
    4. फली का रंग - हरा / पीला
    5. फली का आकार - फूला / सिकुड़ा
    6. फूल का रंग - बैंगनी / सफेद
    7. फूल की स्थिति - अक्षीय (Axiliary) / शीर्षस्थ (terminal)
  • मेंडल अपने प्रयोग में सफल रहे। उनके ही किये गये का यह परिणाम है कि जीवविज्ञान क्षेत्र में अनुवंशिकी (Genetics) विषय का प्रार्दुभाव हुआ । मेंडल को अपने प्रयोगों में सफलता मिलने में निम्नलिखित कारण हैं-
    1. वनस्पति जगत में पाये जाने वाले लाखों पौधों में मंडल ने केवल मटर पौधों को ही चुना क्योंकि मटर के पौधों में अनेक प्रकार के विपरित गुण होते हैं।
    2. मटर के पौधे छोटे होने के कारण प्रयोग करने में सुविधाजनक होते है।
    3. मटर का जीवन चक्र कुछ ही महीनों में पूरा हो जाता है जिसके कारण मटर के पैतृक एवं संतति पीढ़ीयों के गुणों का अध्ययन बहुत कम समय में किया जा सकता है।
    4. मटर के पौधों में स्वपरागण होता हैं लेकिन बड़ी आसानी से उसमें कृत्रिम परागण कराया जा सकता है।
    5. मटर के पौधों में सात जोडे गुणसूत्र पाये जाते हैं और संयोग से मंडल द्वारा चयनित गुण अलग-अलग गुणसूत्र पर अवस्थित थे।
    6. मेंडल ने अपने अध्ययन के लिए एक समय में केवल एक ही गुण को लिया तथा अपने अध्ययन में सांख्यिकी का प्रयोग किया।

एकसंकर क्रॉस (Monohybird Cross)

  • जब दो पौधों के एक इकाई लक्षण के आधार पर संकरण (hybridization) कराया जाता है तो उसे एकसंकर क्रॉस कहा जाता है। एकसंकर क्रॉस के तहत मेंडल ने लम्बे तथा बौने मटर के पौधों के बीच संकरण (या प्रजनन) करवाया। इन दोनों विपरित गुण वाले पौधे (लम्बे तथा बौने) को जनक पीढ़ी (Parental genration) कहा गया तथा इसे P अक्षर से सूचित किया जाता है।
  • जनक पौधे के संकरण से जो बीज प्राप्त हुए उससे उत्पन्न पौधों को प्रथम पीढ़ी या F1 पीढ़ी कहा जाता है। F1 पीढ़ी के सभी पौधा लम्बा हुआ अर्थात् जनक पीढ़ी का एक लक्षण (बौना) F1 पीढ़ी के पौधों में प्रकट नहीं हुआ।
  • F1 पीढ़ी के लम्बे पौधों के बीच संकरण कराने पर मेंडल को F2 पीढ़ी या दूसरी पीढ़ी में लंबे तथा बौने दोनों पौधे विकसित हुए। F2 पीढ़ी के कुल पौधों में लंबे - तथा बौने का अनुपात 3:1 पाया गया । F1 पीढ़ी में जनक पौधे का जो लक्षण लुप्त (बौनापन) हो गया था वह दूसरी पीढ़ी में पुनः प्रकट हो गया। अर्थात् बौनापन लक्षण F1पीढ़ी में लुप्त नहीं हुआ था बल्कि वह लंबे के समाने अप्रभावी हो गया था। 
  • यदि F2 पीढ़ी के पौधे से तीसरी पीढ़ी या F3 प्राप्त किया जाए तो F2 पीढ़ी के लम्बे पौधे से सदैव लम्बे तथा बौने पौधे से सदैव बौने ही पौधे प्राप्त होते हैं।
  • मेंडल के एकसंकर क्रॉस का लक्षण प्ररूपी अनुपात (Phenotype ration ) 3 : 1 है तथा जीन प्ररूपी अनुपात (Genotype ratio) 1 : 2 : 1 है।
  • जीन प्ररूप (Genotpe) किसी जीव की अनुवंशिक बनावट है। जीन प्रारूप को हमेशा अक्षरों के जोड़ा में प्रदर्शित किया जाता है जैसे- TT, Tt लंबे पौधे का जीन प्ररूप है वही 11 बौने पौधे का जीन प्ररूप है। T तथा t एक ही जीन के अलग-अलग रूप है। एक ही जीन के अलग-अलग रूपों को ऐलील (Allele) कहा जाता है। 
  • जीवों के ऐसे लक्षण जो स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं जैसे- लम्बा, बौना उसे लक्षण प्ररूप (Phenotype) कहा है।
  • मेंडल ने अपने एकसंकर क्रॉस के आधार पर निम्नलिखित नियम प्रतिपादित किये इन नियम को अनुवंशिकता का नियम भी कहते हैं।
  1. इकाई लक्षणों का वंशागति (Law of Unit Characters)
    • किसी जीव में अनेक लक्षण होते है। प्रत्येक लक्षण स्वतंत्र होता है तथा दूसरे पर आधारित नहीं होता है। एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में यह लक्षण स्वतंत्र रूप से संचरण करता है ।
    • हर एक ऐसे लक्षण को इकाई लक्षण कहा जाता है। यह लक्षण जीन द्वारा निर्धारित होते हैं। मेंडल के प्रयोग में किसी पौधे का लंबा होना या बौना होना इकाई लक्षण है।
    • मेंडल ने बताया कि प्रत्येक लक्षण कारको (Factor ) के एक जोड़ी द्वारा निर्धारित होता है। मटर के शुद्ध लंबे लक्षण हेतु कारकों की जोड़ी TT है तथा बौने लक्षण की करकों की जोड़ी tt है। इसी कारक (Factors) को जोहान्सन ने सर्वप्रथम जीन की संज्ञा दी अर्थात् जीन जोड़ी में कार्य करते है। किसी जीव के प्रत्येक लक्षण के लिए जीनों की एक जोड़ी होती है।
  2. प्रभाविता का नियम (Law of Dominance)
    • इस नियम के अनुसार जब दो विपरित अलील (Tt) किसी जीवधारी में एक साथ आते हैं तब उनमें से केवल एक ही बाह्य रूप से दिखाई देता दूसरा दबा हुआ रहता है। दिखाई देने वाले लक्षण को प्रभावी लक्षण तथा नहीं दिखने वाले लक्षण को अप्रभावी लक्षण कहा जाता है।
    • मेंडल ने शुद्ध लंबा (TT) तथा शुद्ध बौना (tt) के बीच संकरण किया तो F1 में सभी पौधे लंबे थे परंतु उनमें बौनापन जीन मौजूद थे। F1 का जीन प्रारूप Tt था परंतु लंबा (T), बौना (t) पर प्रभावी था।
  3. पृथक्करण का नियम (Law of Segregation)
    • इस नियम के अनुसार अप्रभावी लक्षण, प्रभावी लक्षण के सामने प्रकट नहीं होते हैं परंतु वह प्रभावी लक्षण के साथ रहते हुए भी यथावत् शुद्ध रहता है। अतः जब अगली पीढ़ी में अप्रभावी लक्षण के कारक या जीन प्रभावी लक्षण के कारक से अलग होते है तो वह अपने लक्षण को अभिव्यक्त कर देता है।
    • पृथक्करण के नियम को युग्मकों के शुद्धता का नियम (Law of Purity of Gamits) भी कहा जाता है।

द्विसंकर क्रॉस (Dihybrid Cross)

  • एकसंकर क्रॉस के बाद मेंडल ने अपने प्रयोग में दो विपरित जोड़े के लक्षणों की वंशागति का अध्ययन किया जिसे द्विसंकर क्रॉस कहा जाता है।
  • द्विसंकर क्रॉस में मेंडल ने मटर के ऐसे पौधे का चयन किया जिसमें एक प्रकार के पौधे के बीज पीले तथा गोलाकार थे तथा दूसरे प्रकार के पौधे के बीच हरा तथा झुर्रीदार थे। इन दोनों पौधे के आपस में प्रजनन के पश्चात् F1 पीढ़ी में जितने भी पौधे हुए उन सभी पौधे के बीज पीले तथा गोलाकार हुए। F1 पीढ़ी में पीला तथा गोलाकार लक्षण प्रभावी हुआ वही हरा तथा झुर्रीदार अप्रभावी ।
  • इसके बाद F1 पीढ़ी के पौधे के बीच जब प्रजनन कराया गया तब F2 पीढ़ी में चार प्रकार के पौधे प्राप्त हुए ये थे- पीला तथा गोलाकार, हरा तथा गोलाकार, पीला तथा झुर्रीदार, और हरा तथा झुर्रीदार। इन चार प्रकार के पोधों का अनुपात 9: 3: 3: 1 पाया गया।
  • मेंडल के द्विसंकर क्रॉस का लक्षणप्ररूपी अनुपात (Phenotype ratio) 9: 3 : 3 : 1 रहा तथा जीन प्रारूपी अनुपात 1: 2:2:4:1: 2:1:2 : 1 रहा।
  • मेंडल ने द्विसंकर क्रॉस के प्रयोग के आधार पर अनुवंशिकता से संबंधित 'स्वतंत्र विन्यास का नियम' दिया।
  • स्वतंत्र विन्यास का नियम (Law of Independent Assortment) : इस नियम के अनुसार एक अनुत्रंशिक लक्षण का प्रभावी गुण दूसरे के प्रभावी गुण से ही नहीं बल्कि अप्रभावी गुण से भी मिल सकता है। ठीक इसी प्रकार अप्रभावी गुण दूसरे के अप्रभावी गुण से ही नहीं बल्कि प्रभावी गुण से भी मिल सकता है।
  • स्वतंत्र विन्यास नियम के तहत ही प्रभावी लक्षण 'पीला' अप्रभावी लक्षण 'झुर्रीदार' के साथ मिल गया वहीं अप्रभावी लक्षण 'हरा' प्रभावी लक्षण गोलाकार के साथ मिल गया और F2 पीढ़ी में चार प्रकार के बीच प्राप्त हुए।
  • मेंडल के सभी नियम या मेंडल के अनुवंशिकता का नियम न सिर्फ मटर के पौधे पर लागू होते हैं बल्कि यह पौधे तथा जन्तु सभी पर लागू होते हैं।

मेंडल के नियम के अपवाद (Exceptions of Mendel's Law)

  • मेंडल ने अनुवशिकता से संबंधित जो नियम प्रतिपादित किये हैं, वह नियम कई जगहों पर लागू नहीं होते हैं। मेंडल नियम का अपवाद निम्नलिखित है-
    1. अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete Dominance) :
      • मेंडल का प्रभाविता का नियम जहाँ नहीं लागू होता है, उसे अपूर्ण प्रभाविता कहा जाता है। अपूर्ण प्रभाविता में विपरित लक्षण के जोड़े में एक लक्षण दूसरे लक्षण के ऊपर अपूर्ण रूप से प्रभाव दिखाता है।
      • गुल अब्बास (मिराबिलिस जलापा) के लाल फूल और सफेद पूल वाले पौधे का संकरण कराने पर F1 पीढ़ी में लाल रंग, सफेद रंग पर पूर्ण रूप से प्रभावी नहीं होता है बल्कि F1 पीढ़ी के पौधे का फूल लाल और सफेद का मिश्रण या गुलाबी होता है।
    2. सहप्रभाविता (Codominance) :
      • जब किसी जीव में ऐलील के जोड़े के बीच का संबंध प्रभावी तथा अप्रभावी वाला न हो बल्कि F1 पीढ़ी में दोनों एलील का प्रभाव एक साथ पड़ता तो ऐसी स्थिति को सहप्रभाविता कहा जाता है ।
      • एक ही जीन के विभिन्न रूपों को एलील कहा जाता है। एलील के जोड़े जैसे Tt में T तथा t एक ही जीन के विभिन्न रूप है तथा T तथा t एक दूसरे के एलील है।
      • पशुओं में लाल त्वचा वाले मवेशी एवं सफेद त्वचा वाले मवेशी के बीच क्रॉस कराने पर F1 पीढ़ी में मवेशी का रंग चितकबरा (Roan) हो जाता है। मवेशी चितकबरा होना सहप्रभाविता को दर्शाता है।
      • सहप्रभाविता, अपूर्ण प्रभाविता से इस है कि सहप्रभाविता में F1 पीढ़ी में जनकों का लक्षण का स्वतंत्र समावेश रहता है जबकि अपूर्ण प्रभाविता में F पीढ़ी में जनकों के लक्षणों का प्रभाव मिश्रीत रूप से पड़ता है।
    3. बहुविकल्पता (Multiple allelism) :
      • मेंडल के सिद्धान्त के अनुसार गुणों या लक्षणों को निर्धारित करने वाले जीन्स दो एलीलोमॉर्फिक रूप (जैसे ऊँचाई हेतु T तथा t; रंग हेतु Y तथा y आकार हेतु R तथा r) में पाये जाते हैं परन्तु कई ऐसे लक्षणों का पता लग चुका है, जिन हेतु दो या ज्यादा ऐलील जिम्मवार है।
      • जब किसी खास एक लक्षण हेतु दो से ज्यादा वैकल्पिक ऐलील जिम्मेवार हो तो ऐसे ऐलील को बहुविकल्पीय ऐलील (Multiple allele) कहते हैं तथा इस घटना को बहुविकल्पता कहते हैं।
      • मानव का रक्त-वर्ग (Blood-group) बहुविकल्पता को दर्शाता है। मानव के चार रूधिर वर्ग (AB, A, B, O) का निर्धारण तीन विकल्पी ऐलील ( IA, IB, IO ) द्वारा होता है। मानव के रूधिर-वर्ग में तीन विकल्पी ऐलील में दो ही रहता है जिनसे उसका रूधिर वर्ग का निर्धारण होता है।
      • खरगोश के शरीर के रंग के लिए चार अथवा इससे अधिक ऐलील पाये जाते हैं। ड्रोसोफेलिया के आँख के रंग के लिए 15 ऐलील होते हैं।
    4. सहलग्नता (Linkage):
      • हलग्नता मेंडल "स्वतंत्र विन्यास के नियम" का अपवाद है। मैडल के इस नियम के अनुसार गुग्मक (Gamets) वितरण के समय ऐलील स्वतंत्र रूप से अलग हो जाते हैं।
      • एक ही क्रोमोजोम में स्थित में चीन अपना ऐलील जो अर्द्धसूत्री विभाजन के समय एक-दूसरे से बिना अलग हुए उसी स्थिति में पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होते रहते हैं, इस घटना को सहलग्नता कहते हैं तथा इस जीन को सहलान जीन कहते हैं।
      • थॉमस हंट मॉर्गन ने ड्रोसोफिला पर शोधकार्य के समय सहलानता की खोज की थी जिस हेतु 1933 में उसे नोबेल पुरस्कार दिया गया। इसेक बाद जॉन हचिन्सन ने मकई के पौधों में सफलतापूर्वक सहलग्नता को दर्शाया।
      • सहलग्नता का मुख्य प्रभाव यह पड़ता है कि उत्तरोत्तर पीढ़ी में पैतृक लक्षणों की संख्या अनुमानित संख्या से बहुत अधिक होती है तथा संकर लक्षण की संख्या बहुत कम हो जाती है।
  • विनिमय (Crossing over): क्रॉसिंग ओवर अर्द्धसूत्री कोशिका विभाजन की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । और यह प्रक्रिया अर्द्धसूत्री विभाजन के प्रोफेज 1 की पैकीटीन अवस्था में होता है। क्रॉसिंग ओवर वह प्रक्रिया है जिसमें एक क्रोमोसोम पर स्थित जीनों का एक समूह समजात क्रोमोजोम (Homlogous Chromosome) पर स्थित समान जीनों के समूह से स्थान परिवर्तित करता है।
  • नई जातियों के विकास में क्रॉसिंग ओवर का बहुत महत्व है क्योंकि इसी प्रक्रिया के चलते माता-पिता के लक्षण का विनिमय होता है जिसके फलस्वरूप अच्छे गुणों वाले संतान उत्पन्न होते हैं। क्रॉसिंग ओवर के कारण ही लैंगिक जनन करने वाले जीवों में विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है।
  • क्रॉसिंग ओवर शब्द का नामकरण 1912 में मोर्गन तथा कैसल के द्वारा किया गया।

मानव में लिंग निर्धारण (Sex Determination in Human)

  • मानव में लिंग निर्धारण की प्रक्रिया क्रोमोसोम के द्वारा होता है। मनुष्य में 23 जोड़ा क्रोमोसोम पाया जाता है, जिनमें 22 जोड़ा के द्वारा होता है क्रोमोसोम एक ही प्रकार के होते हैं, जिसे ऑटोसोम (Autosome) कहा जाता है। 23वाँ जोड़ा क्रोमोसोम लिंग क्रोमोसोम कहलाता है यह दो प्रकार के होते हैं X तथा Y
  • हेनकिंग ने 1898 में तथा इसके बाद मैकक्लंग ने 1904 में लिंग निर्धारण करने वाले X क्रोमोसोम का पता लगाया था। इसके बाद 1906 में लिंग निर्धारण करने वाले Y क्रोमोसोम का पता मॉर्गन ने लगाया। X क्रोमोसोम लंबा तथा छड़ आकार का होता है जबकि Y क्रोमोसोम बहुत छोटे आकार का होता है।
  • मानव नर (male) में X तथा Y दोनों लिंग गुणसूत्र पाये जाते है जबकि मादा (Female) में Y गुणसूत्र का अभाव रहता है। इसके स्थान पर एक और X गुणसूत्र ही पाया जाता है। नर का 23वाँ जोड़ा XY होता है तथा मादा में 23वाँ जोड़ा XX होता है। इसी X तथा Y क्रोमोसोम द्वारा मानव में लिंग का निर्धारण होता है।
  • युग्मक ( Gamets) निर्माण होते समय X तथा Y क्रोमोसोम अलग-अलग क्रोमोसोम में चले जाते है। नर युग्मक (sperm) दो प्रकार के अनुवंशिक संरचना वाले होते हैं। आधे शुक्राणु (sperm) की अनुवंशिक संरचना 22 + X तथा आधे की 22 + Y होती है। मादा युग्मक (Ova) की अनुवंशिक संरचना एक ही प्रकार की होती है- 22 + X
  • निषेचन के दौरान अगर अंडाणु (Ova ) X गुणसूत्र वाले शुक्राणु से निषेचित होता है तो मादा संतति (Female offespring) तथा Y गुणसूत्र वाले शुक्राणु से निषेचित होता है तो नर संतति जन्म लेता है। लिंग निर्धारण की यह प्रक्रिया को हेटेरोगैमेसिस का सिद्धान्त कहते हैं।
  • इस तरह पुरूष (Male) के शुक्राणु की अनुवंशिक संरचना ही तय करता है कि होनेवाला बच्चा लड़का होगा या लड़की। समाज में यह गलत धारणा बैठ गई है कि निर्धारण में मादा (Female) का दोष है जबकि यह नर (Male) के शुक्राणु (sperm) पर निर्भर है।

उत्परिवर्त्तन (Mutation)

  • उत्परिवर्तन किसी भी जीव में अचानक होनेवाला विशाल असतत (Random) भिन्नता है जो वंशागत होता है तथा उत्परिवर्त्तन को प्रदर्शित करने वाला संतान उत्परिवर्त्ती (Mutant) कहलाता है।
  • डच वैज्ञानिक ह्यूगो डी ब्रीज ने 1901 में इवनिंग प्राइमरोज के पौधे पर प्रयोग करके उत्परिवर्तन का पता लगाया था।
  • उत्परिवर्तन कायिक (Somatic) तथा जनन दोनों कोशिका में होता है। कायिक कोशिका में होने वाला उत्परिवर्त्तन वंशानुगत नहीं होता है जबकि जनन कोशिका में होनेवाला उत्परिवर्तन पीढ़ी-दर-पीढ़ी वरित होते रहता है।
  • आकार के आधार पर उत्परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-
    1. वृहद् उत्परिवर्त्तन (Macromutation) : वे सभी विभिन्नताएँ जो फीनोटाइप लक्षण में दिखाई देते हैं वृहद् उत्परिवर्तन कहलाते हैं। वृहद् उत्परिवर्तन रवर्तन क्रोमोसोम की संख्या तथा संरचना में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होते हैं।
    2. सूक्ष्म उत्परिवर्त्तन (Micromutation) : ऐसी विभिन्नताएँ जो जीनोटाइप में होती है उसे सूक्ष्म उत्परिवर्तन कहते हैं। सूक्ष्म उत्परिवर्तन DNA में हुए परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होती है ।
  • उत्परिवर्त्तन प्रायः हानिकारक तथा अप्रभावी होता है। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार केवल 0.1 प्रतिशत उत्परिवर्तन ही लाभकारी सिद्ध होता है। हालाँकि उत्परिवर्तन का उपयोग कर कई अच्छे किस्म का पादप तैयार किये गये है।

आनुवंशिक विकार (Genetic Disorders)

  • जीवो का हर लक्षण क्रोमोसोम में अवस्थित जीन द्वारा निर्धारित होते है। सामान्यत: क्रोमोसाम तथा उसमें अवस्थित जीन बिना किसी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्थानांतरित होते रहते हैं। क्रोमोसोम के स्तर पर या जीन के स्तर पर होनेवाले उत्परिवर्त्तन से कई प्रकार के अनुवंशिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक चलती रहती है। अनुवंशिक विकार दो प्रकार के होते हैं-
    1. मेंडलीय विकार (Meridelian Disorders) :
      • ऐसे अनुवंशिक विकार (या रोग) जो मुख्यत: एकल जीन के रूपांतरण (उत्परिवर्तन) से निर्धारित होते हैं, उसे मंडलीय विकार कहा जाता है । मेंडलीय विकार प्रभावी या अप्रभावी भी हो सकता है। प्रमुख मंडलीय विकार निम्न है-
        1. हीमोफिलिया (Haemophilia) :
          • इस रोग में मनुष्यों में रूधिर जमने की क्षमता नहीं के बराबर होती है क्योंकि रूधिर को जमाने वाले प्रोटीन का संश्लेषण इस रोग से ग्रसित लोगों में नहीं हो पाता है।
          • हीमोफिलिया लक्षण हेतु जिम्मेवार जीन X क्रोमोसोम पर पाये जाते हैं जिस कारण इसे लिंग - सहलग्न रोग भी कहा जाता है।
          • अगर सामान्य पुरूष की शादी हीमोफिलिया रोग के वाहक स्त्री से होता है तो इन दोनों से उत्पन्न मादा संतान में 50 प्रतिशत हीमोफिलिया रोग के वाहक होंगे तथा नर संतानों में 50 प्रतिशत सामान्य तथा 50 प्रतिशत हीमोफिलिया रोग से ग्रस्त होंगे।
          • अगर किसी सामान्य स्त्री का विवाह हीमोफिलिया पुरूष के साथ होता है तो इनसे उत्पन्न सभी मादा संतान सामान्य परंतु रोगवाहक होगी तथा सभी पुत्र सामान्य होंगे।
          • हीमोफिलिया से मादा संतानें रोगग्रस्त नहीं होती है, वे सिर्फ वाहक होती है।
        2. वर्णांधता ( Colour Blindness) :
          • इस रोग से ग्रस्त रोगी लाल एवं हरे रंग की पहचान नहीं कर सकता है। इस रोग के भी जिम्मेवार जीन X क्रोमोसोम पर होते हैं अतः हीमोफिलिया के तरह वर्णांधता भी एक लिंग सहलग्न रोग है।
          • ज्ञान जब किसी वर्णांध स्त्री (Colour Blind woman) की शादी सामान्य दृष्टिवाले पुरूष के साथ होती है तो इनसे उत्पन्न मादा संतान सामान्य परंतु वर्णांधता का वाहक होगी जबकि सभी नर संतान वर्णांध होंगे।
          • जब सामान्य दृष्टिवाली स्त्री का विवाह वर्णांध पुरूष के साथ होता हैं तो इनसे उत्पन्न सभी नर संतान समान्य तथा सभी मादा संतान वर्णांध के वाहक होंगे।
        3. दात्र कोशिका अरक्तता (Sickle cell anaemia) :
          • यह रोग में मानव रक्त के लाल रुधिरकण (RBC) के आकार में परिवर्तन आ जाता है। RBC का आकार उभयातल (Biconcave) होता है जबकि इस रोग में RBC का आकार हंसिए की तरह (Sickle-shaped) हो जाता है। इस रोग का होने का मुख्य कारण हिमोग्लोबिन अणु के एक अमीनो अम्ल (ग्लूटैमिक अम्ल) का वैलीन द्वारा प्रतिस्थापन होता है।     
          • यह लिंग - सहलग्न नहीं है तथा यह रोग जनकों से संतति में तभी स्थानांतरित होता है जब दोनों जनक (माता-पिता) इस विकार के लिए जिम्मेवार जीन के वाहक होते हैं।
        4. फीनाइलकीटोन्यूरिया (Phenylketonuria) :
          • इस विकार में मनुष्य में फेनिल ऐलेनीन अमीनो अम्ल को टाइरोसीन अमीनो अम्ल में बदलने के लिए आवश्यक एंजाइम की कमी होती है, जिसके कारण फेनिल ऐलेनीन इकट्ठा हो जाता है तथा इसके एकत्रीकरण से मानसिक दुर्बलता आ जाती है।
        5. थैलेसीमिया (Thalassaemia) :
          • थैलेसीमिया रोग एक तरह का रक्त विकार है। इस रोग में मनुष्य के शरीर में RBC ( लाल रक्त कण ) का उत्पादन सही तरीके से नहीं हो पाता है और इन कोशिका की आयु भी कम होती है।
          • थैलेसीमिया जन्म से ही बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। यह रोग दो प्रकार का होता है माइनर और मेजर । जिन बच्चों में माइनर थैलेसीमिया होता है वे लगभग स्वस्थ जीवन जी लेते हैं लेकिन मेजर थैलेसीमिया वाले बच्चों में लगभग हर महीने 1 यूनिट खून चढ़ानी पड़ती है फिर भी वह सामान्य जीवन नहीं जी पाता है।
    2. क्रोमोसोमीय विकार ( Chromosomal Disorders) :
      • मानव शरीर में पाये जाने वाले 23 जोड़े क्रोमोसोम की संख्या या संरचना में किसी भी प्रकार का परिवर्नन से उत्पन्न विकार क्रोमोसोमीय विकार कहलाते हैं। प्रमुख क्रोमोसोमीय विकार निम्न है -
        1. टर्नर सिंड्रोम (Turner's Syndrome) :
          • जब मनुष्य में द्विगुणीत क्रोमोसोम में से एक ही कमी हो जाती है तब यह सिंड्रोम उत्पन्न होता है। अर्थात् इस सिंड्रोम में क्रोमोसोम की संख्या 45 होती है।
          • यह सिंड्रोम महिलाओं में पाया जाता है। ऐसी महिलाओं के अंडाशय अपरिपक्व होते हैं तथा उनमें बच्चे पैदा करने की क्षमता नहीं होती है।
          • इस सिंड्रोम को मोनोसोफी (2n - 1 ) भी कहा जाता है।
        2. डाउन्स सिंड्रोम (Down's Syndrome) :
          • इस सिंड्रोम में 21वॉ जोड़ा क्रोमोसोम में 1 की वृद्धि होती है जिससे गुणसूत्र की संख्या 47 जाता है। इस सिंड्रोम में ग्रसित रोगी का कद छोटा, सिर गोल, जीभ मोटा तथा मुँह आंशिक रूप से खुला रहता है। रोगी मंदबुद्धि होते हैं तथा श्वास - संबंधि रोग से जल्द प्रभावित हो जाते हैं। 
          • इस रोग की खोज 1866 में लैंगडन डाउन ने किया था जिसके कारण इस रोग का नाम डाउन्स सिंड्रोम पड़ा। इस रोग से ग्रसित बच्चे मंगोलियन के तरह दिखते हैं जिस कारण इस रोग को मंगोलिज्म भी कहा जाता है।
          • डाउन्स सिंड्रोम को ट्राइसोमी (2n + 1) भी कहा जाता है।
        3. क्लाइनफेल्टर्स सिंड्रोम (Klinefelter's Syndrome) :
          • इस सिंड्रोम में भी गुणसूत्र की संख्या में एक की वृद्धि हो जाती है परंतु इसमें लिंग क्रोमोसोम में वृद्धि होती है। यह सिंड्रोम पुरूष में होता है जिसमें एक अतिरिक्त X क्रोमोसोम की वृद्धि हो जाती है। इस तरह इस सिंड्रोम से ग्रसित पुरूष की अनुवंशिक संरचना 44 + XXY होता है।
          • इस सिंड्रोम से ग्रसित जैसे लक्षण आ जाते हैं तथा उनमें स्तन (Mammary gland) का भी विकास हो जाता है। ऐसे पुरूष में शुक्राणु (sperm) बहुत कम बनते हैं अथवा नहीं बनते हैं।
          • यह सिंड्रोम ट्राइसेमी (2n + 1)

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये-
1. क्रोमोसोम शब्द का उपयोग सर्वप्रथम वालडेयर ने किया था।
2. जीन शब्द का उपयोग सर्वप्रथम जोहान्सन के द्वारा किया गया।
3. अनुवंशिकी (Genetics) शब्द डब्ल्यू. एस. सटन के द्वारा दिया गया।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सत्य है / हैं ?
(a) केवल 1
(b) 1 और 2
(c) केवल 3
(d) 1 और 3
2. निम्नलिखित में किस प्रकार के गुणसूत्र की आकृति अंग्रेजी वर्णमाला के V अक्षर के समान होता है ?
(a) Acrocentric 
(b) Submetacentric
(c) Metacentric
(d) Telocentrict
3. निम्नलिखित में कौन-सा कथन गुणसूत्र के संबंध में सही नहीं है ?
(a) गुणसूत्र का निर्माण कोशिका विभाजन के समय केंद्रक में स्थित क्रोमोटीन जालिका द्वारा होता है।
(b) पादप कोशिका का गुणसूत्र जंतु कोशिका से ज्यादा बड़ा होता है।
(c) किसी भी जाति में गुणसूत्र की संख्या निश्चित होती है
(d) किसी भी जीव में गुणसूत्र की संख्या हमेशा एक से अधिक होता है।
4. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. गुणसूत्र के दोनों सिर कभी भी आपस में नहीं मिल सकते हैं।
2. गुणसूत्र कारण वश अगर टूट जाए तो वह पुनः जुट जाता है।
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
5. गुणसूत्र के किस हिस्से में सेंट्रोमियर स्थित रहता है ?
(a) प्राथमिक संकुंचन
(b) द्वितीयक संकुचन I
(c) द्वितीयक संकुंचन II
(d) इनमें से सभी 
6. गुणसूत्र के दोनों अंतिम सिरे को क्या कहते है ?
(a) सैटेलाइट
(b) टीलोमियर
(c) क्रोमैटीड
(d) क्रोमोमियर
7. निम्नलिखित में किस कोशिका में अगुणित गुणसूत्र (Haploid Chromosome) पाये जाते है ?
(a) कायिक कोशिका
(b) जनन कोशिका
(c) मृत कोशिका
(d) इनमें से कोई नहीं
8. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजए-
1. प्रोकैरोयोटिक कोशिका में गुणसूत्र की संख्या 1 होती है।
2. यूकैरोयोटिक कोशिका में गुणसूत्र की संख्या 1 से अधिक होती है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सत्य है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
9. निम्मेंनलिखित में कौन-सा कथन सत्य है ?
(a) किसी भी जाति में पाये जाने वाले सभी गुणसूत्र आकार में समान होते है।
(b) किसी भी जाति में पाये जाने वाले प्रत्येक गुणसूत्र पर जीनों की संख्या समान होती है।
(c) मेंडल जब अपना प्रयोग कर रहे थे तब गुणसूत्र की खोज नहीं हुई थी ।
(d) गुणसूत्र केवल जनन कोशिका में पाया जाता है, कायिक कोशिका में इसका अभाव रहता है।
10. किसी भी प्राणी के गुणसूत्र के एक सेट में पाये जाने वाले जीनों के समूह को क्या कहा जाता है ?
(a) जीनोम
(b) जीन प्ररूप
(c) संलग्न समूह
(d) जीनी - संरचना
11. सर्वप्रथम किस वैज्ञानिक ने न्यूक्लिक अम्ल को केंद्रक से अलग कर उसका नाम न्यूक्लीन रखा ?
(a) एल्फ्रेड कुन
(b) एडोल्फ बूटेनांड
(c) गाइडो पोपटेकोर्वो
(d) जॉन फ्रेडरिक मिशर
12. निम्नलिखित में कौन प्यूरीन नाइट्रोजन बेस नही है ?
(a) एडीनीन
(b) गुएनीन
(c) साइटोसीन
(d) इनमें से सभी
13. निम्नलिखित में कौन पिरिमिडीन नाइट्रोजन बेस है ?
(a) थाइमीन
(b) साइटोसीन
(c) यूरेसील
(d) इनमें से सभी
14. अनुवंशिक विभिन्नता उत्पन्न होने के क्या कारण हैं ?
(a) क्रोमोसोम पर स्थित जीन के व्यवस्था में परिवर्तन
(b) DNA के निर्माण में संलग्न नाइट्रोजन क्षार के अनुक्रम में परिवर्तन
(c) a तथा b दोनों
(d) न तो a न ही b
15. मटर के पौधों के काशिका में गुणसूत्र की कुल संख्या कितनी होती है ?
(a) 12 
(b) 14 
(c) 18
(d) 32
16. निम्नलिखित में किसे अनुवंशिक पदार्थ कहा जाता है ?
(a) क्रोमोसोम
(b) जीन
(c) DNA
(d) क्रोमोटीनजालिका
17. DNA को अनुवंशिक पदार्थ इसलिये कहा जाता है कि-
(a) यह अपना प्रतिकृति बनाने में सक्षम है
(b) इसकी रचना तथा रसायनिक संगठन स्थिर बना रहता है।
(c) इसमें उत्परिवर्तन की सम्भावना बनी रहती है।
(d) इनमें से सभी 
18. जलवायु एवं वातावरण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले विभिन्नता को क्या कहते है ?
(a) जननिक विभिन्नता
(b) अनुवंशिक विभिन्नता
(c) कायिक विभिन्नता
(d) इनमें से कोई नहीं
19. कोशिका में किस प्रकार के RNA की संख्या सर्वाधिक होती है ?
(a) m RNA
(b) t RNA
(c) r RNA
(d) इनमें से कोई नहीं
20. निम्नलिखित में किसे अनुवंशिक इकाई कहा जाता है ?
(a) DNA 
(b) जीन
(c) क्रोमोसोम
(d) क्रोमेटीन जालिका
21. mRNA का निर्माण कहाँ होता है ?
(a) कोशिका द्रव्य में
(b) राइबोसोम में
(c) केंद्रक में
(d) माइट्रोकॉण्ड्रिया में
22. प्रोटीन संश्लेषण में एमीनो अम्ल को सक्रिय करने में किसकी आवश्यकता होती है ?
(a) AMP 
(b) ADP
(c) GTP
(d) ATP
23. एक जीन एक इंजाइम सिद्धान्त किसने दिया है ?
(a) एवेरी एवं मैककार्थी 
(b) बीडल एवं टैटम
(c) टेमिन एवं वैल्टिमोर
(d) मेसेल्सन एवं स्टॉल
24. सर्वप्रथम किसके प्रयोग से यह प्रमाणित हुआ कि जीन गुणसूत्र के ही अंश है ?
(a) टी. एच. बोवेरी तथा डब्ल्यू. एस. सटन
(b) जेम्स वाटसन तथा फ्रांसिस क्रिक
(c) एफ. जैकब तथा जे. मोनोद
(d) एस. बेंजर तथा जोहान्सन
25. जो जीन अपना स्थान बदलते रहते है उसे क्या कहते है ?
(a) ऑपरेटर
(b) रचनात्मक जीन
(c) ट्रांसपोसोन्स जीन
(d) नियंत्रक जीन
26. विभिन्न प्रकार के RNA से प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया क्या कहलाता है ?
(a) ट्रांसलोकेशन
(b) ट्रांसक्रिप्सन
(c) ट्रांसफॉरमेशन
(d) ट्रांसलेशन
27. DNA से mRNA बनने की क्रिया को क्या कहा जाता है?
(a) ट्रांसडक्शन
(b) रूपांतरण
(c) ट्रांसलेशन
(d) ट्रांसक्रिप्सन
28. निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही है ?
(a) जीवों में वंशानुगत गुणो का निर्धारक जीन है।
(b) जीन के माध्यम से ही विभिन्नताएँ एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में संचरित होता है ।
(c) जीन का द्विगुणन (Duplication of gene) ही विभिन्नता का कारण बनता है।
(d) इनमें सभी
29. जीन को सिस्ट्रॉन, रिकॉन तथा म्यूटॉन के रूप में किसने परिभाषित किया है।
(a) ब्रिटेन एवं डेविडसन ने
(b) बेंजर ने
(c) जैकत्र एवं मोनोद ने
(d) वाटसन एवं क्रिक ने
30. मेंडल के प्रयोगों में विकसित लक्षणों की जोड़ी को क्या कहते है ?
(a) फीनोटाइप
(b) जीनोटाइप
(c) जीन
(d) ऐलील
31. मेंडल ने अपने प्रयोग में मटर के कितने जोड़े विपरीत लक्षणों का चयन किया था ?
(a) 5   
(b) 6
(c) 7 
(d) 8
32. मेंडल के अनुवंशिकता नियम को किस वैज्ञानिक ने मान्यता दिलाई ?
(a) ह्यूगो डि ब्रीज
(b) कार्ल कोरेन्स
(c) इरिक वान शेरमाक
(d) इनमें से सभी
33. मेंडल ने एक शुद्ध बैगनी फूल वाले मटर के पौधो को जब सफेद फूल वाले पौधा से क्रॉस करवाया तो पहली पीढ़ी में किस प्रकार के पौधे मिले?
(a) सभी सफेद फूल वाले पौधे
(b) 75% बैंगनी तथा 25% सफेद फूल वाले पौधे
(c) सभी बैंगनी फूल वाले पौधे
(d) 50% बैंगनी एवं 50% सफेद फूल वाले पौधे 
34. मेंडल ने अपने प्रयोग में मटर के पौधे का चयन क्यो किया था ?
(a) मटर के पौधे में अनेक प्रकार के विपरीत गुण होते है।
(b) मटर के पौधे छोटे होते है जिनसे उस पर प्रयोग करना आसान है।
(c) मटर का जीवन चक्र कुछ ही महीनों में पूरा हो जाता है। 
(d) इनमें से सभी
35. मेंडल को अपने प्रयोग में सफलता मिलने के क्या कारण थे ? 
(a) उन्होने मटर के पौधे का चयन किया।
(b) मेंडल ने अपने अध्ययन के लिये एक समय में केवल एक ही गुण को लिया
(c) मेंडल ने अपने अध्ययन में सांख्यिकी का प्रयोग किया
(d) इनमें से सभी
36. F1 पीढ़ी के संकर पौधों को जब समयुग्मजी अप्रभावी जनक से क्रॉस कराया जाता है तो इसे क्या कहते है ?
(a) बैक क्रॉस
(b) टेस्ट क्रॉस
(c) एकसंकर क्रॉस
(d) द्विसंकर क्रॉस
37. निम्नलिखित ऐलील के जोड़ो में कौन समयुग्मजी (Homozygous) है ?
(a) TT 
(b) tt
(c) A तथा B दोनों
(d) Tt
38. मेंडल का कौन सा नियम एकसंकर क्रॉस पर आधारित नही है ?
(a) इकाई लक्षण का नियम
(b) प्रभाविता का नियम
(c) पृथक्करण का नियम
(d) स्वतंत्र विन्यास का नियम
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Mon, 22 Apr 2024 06:44:00 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | मानव शरीर की कंकाल प्रणाली और फूलों के पौधे की आकृति विज्ञान https://m.jaankarirakho.com/1007 https://m.jaankarirakho.com/1007 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | मानव शरीर की कंकाल प्रणाली और फूलों के पौधे की आकृति विज्ञान
  • कंकाल तंत्र, सजीवों को गति करने तथा प्रचलन में सहायता करती है। कंकाल तंत्र दो भाग में बांटा जा सकता है-
    1. बाह्य कंकाल (Exoskeleton )- इसके अंतर्गत बाल, नाखून आते हैं। बाह्य कंकाल मृत कोशिका के बने होते हैं तथा इसमें कोई रक्त संचार नहीं होता है ।
    2. अंतःकंकाल (Endoskeleton ) - इसके अंतर्गत अस्थि (Bone) तथा उपास्थि (Cartilage) आते हैं। अस्थि तथा उपास्थि दोनों ही संयोजी उत्तक है।
  • उपास्थि (Cartilage) कोंड्रियो ब्लास्ट कोशिका से बनी होती है। उपास्थि बाह्कर्ण, नाक, ट्रेकिया, कंठ आदि स्थानों पर पायी जाती है।
  • अस्थि (Bone) ऑस्टियो ब्लास्ट कोशिका की बनी होती है। मानव अस्थि में विशेष प्रकार की प्रोटीन होती है जिसे कोलेजन प्रोटीन कहते हैं।
  • लंबी एवं मोटी अस्थि के बीच में एक खोखली गुहा होती है जिसे Marrow Cavity कहते हैं | Marron Cavity (मज्जा गुहा) में तरल पदार्थ रहता है जिसे Bone Marrow कहते हैं।
  • स्तनधारी वर्ग के जीव के अस्थि में अनेक नली समान रचना पायी जाती है जिसे हैवर्सियन नालिका कहते हैं। सभी हैवर्सियन नलिका मिलकर हैवर्सियन तंत्र बनाती है । हैवर्सियन तंत्र का होना स्तनधारी वर्ग के जीवों के अस्थि का एक विशेष पहचान है ।
  • जन्म के समय शरीर में कुल 300 अस्थि होती है परंतु बाद में अन्य 94 अस्थि आपस में जुड़ जाती है और वयस्क होने तक शरीर में 206 अस्थि होती है।
  • मनुष्य का कंकाल तंत्र दो प्रमुख भागों में विभक्त रहता है- 
    1. Axial Skeleton— इसके अंतर्गत खोपड़ी (Skull) कशेरूक दंड (Verte bral column), स्टनर्म तथा पसलियाँ (Ribs) आते हैं।
    2. Appendicular Skeleton - इसके अंतर्गत Forelimb (अग्रपाद), Hindlimbs (पश्चपाद), Pectroal Gridle (अंस मेखला ), Pelvic Gridle ( श्रेणी मेखला ) शामिल होते हैं ।
      1. Skull (खोपड़ी ) - Skull में कुल 22 अस्थि होती है। खोपड़ी के प्रथम भाग को Cranial region कहते हैं जिनमें 8 अस्थि होती है। ये 8 अस्थि क्रेनियम को आच्छादित करके रखता है । खोपड़ी के दूसरे भाग को Facial region ( आनन क्षेत्र) कहते हैं। आनन क्षेत्र में 14 अस्थि होती है।
        • U-आकार की एक अस्थि मुखगुहा के नीचे रहता है इसका नाम Hyoid Bone है। Hyoid भी खोपड़ी के अंतर्गत ही आता I
        • खोपड़ी से जुड़े कान में तीन अस्थि होती है जिसका नाम - मैलियस, इन्कस एवं स्टेपीस है। दोनों कान मिलाकर कुल 6 अस्थि होती है।
        • खोपड़ी में कुल मिलाकर 29 अस्थि होती है।
      2. कशेरूक दंड (Vertebral Column)
        • मनुष्य के कशेरूक दंड में 26 अस्थि होती है। प्रत्येक अरिब को कशेरूक (Vertebra) कहते हैं। प्रत्येक कशेरूक के मध्य भाग को Neural Canal कहते है जिससे होकर मेरुरज्यु गुजरती है।
        • मेरुदण्ड में निम्न कशेरूक उपस्थित रहते हैं-
          1. गर्दन (Cervical) - 7 अरिथ
          2. वृक्ष (Thoracic) - 12 अस्थि
          3. कटी (Lumber) - 5 अस्थि
          4. सैक्रम (Sacram ) - 1 अस्थि
          5. पुच्छ ( Coccygeal) - 1 अस्थि
      3. पसलियाँ (Ribs)
        • मनुष्य में 12 जोड़ी (कुल 24) पसलियाँ होती है। पसलियाँ पीछे की ओर मेरूदण्ड से तथा आगे की ओर स्टनर्म अस्थि से जुड़ी होती है।
        • 8वाँ, 9वीं एवं 10वीं जोड़ा पसली आगे की ओर स्टर्नम अस्थि से नहीं जुड़ा रहता है। ये सभी जोड़ा पसली हायलीन उपास्थि द्वारा 7वाँ जोड़ा पसली से जुड़ा रहता है।
        • 11वीं एवं 12वाँ जोडा पसली केवल पीछे की ओर होता है। यह आगे की ओर नहीं आ पाता है ।
        • पहले से लेकर 7वाँ जोड़ा पसली को सत्य पसलियाँ (True Ribs), 8वाँ, 9वाँ तथा 10वाँ जोड़ा पसली को False पसली कहते हैं। 11वाँ तथा 12वाँ जोड़ा पसली फ्लोटिंग पसली कहलाती है ।
      4. Pectoral Girdle (अंस मेखला ) - Pectoral Gridle अग्रपाद (Forelimb) को Axial Skeleton से जोड़ता है। Pectoral Gridle के दोनों भाग अलग-अलग होते हैं प्रत्येक भाग में दो अस्थि (1. स्कैपुला, 2. क्लेविकल) पायी जाती है।
      5. अग्रपाद (Forelimb)- दोनों अग्रपाद (हाथ) में कुल 60 ( 30 x 2 60) अस्थि पायी जाती है। अग्रपाद में पायी जाने वाली अस्थि है- ह्युमरस (ऊपरी बाहु) रेडियस तथा अलना (अग्र बाहु) कार्पल्स (कलाई), मेटाकार्पल्स (हथेली) तथा फैलेन्नेज (अंगुली) । ह्यूमस की संख्या 1 रेडियस तथा अलना की संख्या एक–एक। कार्पल्स की संख्या 8, मेटाकाल्पर्स की संख्या 5 तथा फैलेन्जेज की संख्या 14 होती है।
      6. Pelvic Gridle ( श्रेणी मेखला ) - इस भाग में कल 2 अस्थि (2 x 12) पायी जाती है। एक भाग में तीन अस्थि- इलियम, इश्चियम, प्यूबिस होते हैं परन्तु वयस्क में तीनों जुटकर 1 अस्थि बन जाता है ।
      7. Hind limb (पश्चपाद) - दोनों पश्चपाद में स्थित अस्थि है- फीमर (जॉघ), टिबिया, फिबुला, पटेला (घुटना ), टार्सल, मेटाटार्सल तथा फैलैन्जेज ।
        • फीमर की संख्या एक टिबिया, फिबुला की संख्या एक-एक, पटैला की संख्या 1, टार्सल की संख्या 7, मेटाटार्सल की संख्या 5 तथा फैलैन्जेज की संख्या 14 होती है।
        • मानव शरीर में सबसे बड़ी अस्थि फीमर (जाँघ की अस्थि ) है । सामान्य लंबाई के मनुष्य में फीमर की लंबाई लगभग 48 cm होती है। सबसे छोटी अस्थि स्टेप्स (कान की अस्थि ) है ।
        • अस्थि से अस्थि के जोड़ को लिंगोंट्स तथा मांसपेशी एवं अस्थि के जोड़ को टेंडन कहते हैं।
        • कंकाल तंत्र के विभिन्न हिस्से आपस में जोड़ (संधि) द्वारा मिले रहते हैं। ये संधि (Joints) निम्न तरह के होते हैं-
          1. अचल संधि (Immovable Joint )- इस संधि पर हड्डी जरा सी भी हिल-डुल नहीं सकती है। खोपड़ी के अस्थि (हड्डी) के बीच इसी प्रकार की संधि होती है।
          2. अर्धचल संधि (Semimovable Joint)- इस प्रकार के संधि पर दो अस्थि के बीच उपास्थि रहती है, जब हड्डी के दबाव से उपास्थि दबती है तब एक हड्डी दूसरे पर झुक जाती है। कशेरूक के हड्डी के बीच इसी प्रकार की संधि पायी जाती है।
          3. चल संधि (Movable Joint)- इसमें दो या दो से अधिक अस्थि संधि से जुड़े रहे हैं तथा वे सभी संधि स्थल पर हिल-डुल सकती है। कलाई और टखने की संधि इसी प्रकार की होती है।

कंकाल तंत्र से संबंधित रोग

  1. अस्थि के सामान्य रूप से विकास एवं वृद्धि हेतु विटामिन D की आवश्यकता होती है। शरीर में विटामिन D की कमी से बच्चों में रिकेट्स तथा वयस्क में ऑस्टियोमलेसिया रोग होता है ।
  2. अस्थि में स्टैफिलोकोकस जीवाणु के संक्रमण से "ऑसटियो माइलाटिस" रोग होता है। इस रोग में अस्थि में दर्द उत्पन होते रहता है ।
  3. शरीर के रक्त में जब यूरिक अम्ल की मात्रा सामान्य से अधिक होता है तो गठिया (Gout) रोग होता है। गठिया रोग में हड्डी के जोड़ के ऊपर के त्वचा में सूजन एवं दर्द होता है।
    • गठिया के 50 प्रतिशत मामलों में पैर के मेटाटार्सल तथा फैलैन्जेज अस्थि की संधि प्रभावित होती है। पैर के अँगूठे से संबंधित गठिया रोग को पोडेग्रा भी कहा जाता हैं। गठिया को राजाओं अथवा धनी लोगों की बीमारी कहा जाता है।
  4. आर्थराइटिस रोग भी हड्डी के जोड़ों से संबंधित है, इस रोग में अक्सर हड्डी के जोड़ों पर दर्द रहता है ।
  5. बढ़ती उम्र के साथ पर शरीर में कैल्शियम की कमी होती है तब हड्डी कमजोर हो जाती है इस रोग को आस्टियो पोरोसिस कहते हैं ।

पुष्पीय पौधों की आकारिकी (Morphology of Flowering Plant)

  • पौधों के बाहरी आकार का अध्ययन करना आकारिकी (Morphology) कहलाता है तथा पौधों के आंतरिक भागों का अध्ययन शारीरिकी (Anatomy) कहलाता है ।
  • आवृत्तबीजी या पुष्पी पादप के आकारिकी को दो भागों के बाँटा गया है। पौधा का वह भाग जो जमीन के भीतर रहता है, उसे जड़तंत्र (Root system) कहा जाता है तथा जो भाग जमीन के ऊपर रहता है उसे प्ररोह तंत्र (Shoot system) कहते है।
  • सभी पुष्पी पादप के बाह्य संरचना ( आकारिकी) एक समान नहीं होता है, उसमें काफी विविधता पायी जाती है। आकारिकी के अंतर्गत जड़, तना, पत्ती, फूल एवं फलों का अध्ययन किया जाता है।

जड़ या मूल (Root)

  • बीज के मूलांकुर (Radicle) से विकसित भाग जो जमीन के अंदर वृद्धि करता है, उसे जड़ कहते है। जड़ निम्न प्रकार के होते हैं-
    1. मूसला जड़ (Tap root)- मूलांकुर से विकसित होने वाले जड़ को मूसला जड़ कहते है। इस जड़ में कई पार्श्व शाखाएँ निकलती है। इस प्रकार का जड़ द्विबीजपत्री में पाया जाता है।
    2. रेशेदार जड़ (Fibrous root)- जब मूलांकर से विकसित जड़ नष्ट हो जाए तथा उसके स्थान पर पतली जड़ों का गुच्छा तने के आधार से निकल आये, तो इस प्रकार के जड़ को रेशेदार जड़ कहते हैं। रेशेदार जड़ एकबीज पत्री में पाया जाता है।
    3. अपस्थानिक जड़ (Adventitious root)-- जब जड़ का विकास मूलांकुर के अतिरिक्त पौधे के किसी अन्य भाग ( पत्ती, तना आदि) से होता है तो उसे अपस्थानिक जड़ कहते हैं। जैसे- बरगद के तने से निकला जड़।

जड़ प्रदेश (Region of root)

  • जड़ के सबसे नीचले भाग जो टोपीनुमा संरचना से ढँका रहता है उसे मूलगोप (Root cap) कहते हैं। मूल गोप जड़ के कोमल सिरे का मिट्टी में आगे बढ़ते समय सुरक्षित रखता है ।
  • जड़ के मूलगोप के पीछे के भाग को वर्धी प्रदेश (Growing region) कहते हैं वर्धी प्रदेश के सबसे नीचले भाग को कोशिका विभाजन प्रदेश (Regional of cell division) कहते हैं। वर्धी प्रदेश तथा कोशिका विभाजन प्रदेश दोनों ही मूलगोप द्वारा ढँका होता है।
  • वर्धी प्रदेश के ऊपर के भाग को दैर्ध्यवृद्धि प्रदेश (Region of elongation) कहते है । दैर्ध्यवृद्धि प्रदेश की कुल लंबाई 2 से 5 mm तक होता है।
  • वर्धी प्रदेश के ऊपर के भाग को मूलरोम प्रदेश ( Region of root hairs) कहते है।
  • मूलरोम प्रदेश के ऊपर के भाग को परिपक्व प्रदेश ( Region of maturation) कहते है । परिपक्व प्रदेश से ही पार्श्व जड़े निकलती है तथा इस प्रदेश में मूल रोम नहीं पाया जाता है।

जड़ों रूपांतरण (Modification of Root)

  • कुछ पौधों के जड़े भोजन संचय करने हेतु, पौधों का सहारा देने हेतु तथा अन्य कारणों से अपने आकार तथा संरचना को रूपांतरित कर लेते है ।
  • मूसला जड़ रूपांतरित होकर भोज्य पदार्थ का संचय करता है। मूसला जड़ का रूपांतरण निम्न तरह से होता है-
    1. तुर्करूपी (Fusiform ) : मूली
    2. कुम्भीरूपी (Napiform ) : शलजम, चुकन्दर
    3. शंकुरूपी (Conical): गाजर 
    4. न्यूमेटाफोर (Pneumetaphore) : राइजोफोरा, सुन्दरी
  • न्यूमेटाफोर जड़ दलदली स्थानों पर उगने वाले पौधों में पाया जाता है। यह जड़ जमीन ( दलदल) के ऊपर रहता है तथा पौधों को श्वसन में सहायता करता है। 
  • अपस्थानिक जड़ों का रूपांतरण कई तरह से होता है। अपस्थानिक जड़ भोज्य पदार्थों का संचय करने हेतु, पौधों को यांत्रिक सहायता देने हेतु तथा पौधों को कुछ जैविक क्रियाओं में मदद करने हेतु रूपांतरित होते है।
  • भोज्य पदार्थ को संचित करने वाले अपस्थानिक जड़ के प्रकार-
    1. कन्दिल (Tuberous ) : शकरकंद
    2. पुलकित (Fasciculated) : डहेलिया
    3. ग्रन्थिल (Nodulose) : आमहल्दी
    4. मणिकामय (Moniliform ) : अंगूर, करेला
  • यांत्रिक सहायता प्रदान करने वाले अपस्थानिक जड़ों के प्रकार-
    1. स्तम्भ मूल (Proproot): बरगद, रबड़
    2. अवस्तम्भ मूल (Still root) : मक्का, गन्ना, केवड़ा
    3. आरोही मूल (Climbing root) : पान, पीपल
  • यांत्रिक सहायता पहुँचाने वाले अपस्थानिक जड़ों के प्रकार-
    1. चूषण मूल ( Sucking root) : चन्दन, अमरबेल
    2. श्वसनी मूल (Respiratory root) : जूसिया
    3. अधिपादप मूल (Epiphytic root) : ऑर्किड
    4. स्वांगीकारक मूल (Assimilatory root) : सिंघाड़ा, टिनोस्पोरा

तना (Stem )

  • बीज के प्राकुंर (Plumule) से विकसित होने वाला भाग जो जमीन के ऊपर रहता है उसे तना कहते है। तना से ही पत्तियाँ, फूल तथा फल का विकास होता है।
  • तने में पर्वसंधि (node) तथा पर्व (Internode) पाया जाता है। जड़ में पर्वसंधि तथा पर्व का अभाव होता है।
  • सभी पुष्पीय पौधे के तने एक समान नहीं होते है। कुछ पौधों में तने काफी मजबूत होते है जबकि कुछ पौधे के तने इतने कमजोर होते हैं कि वे सीधे खड़े नहीं हो सकते है।

तने का रूपांतरण (Modification of Stem)

  1. भूमिगत तना (Underground stem) : यह तना भूमि के नीचे होते हैं तथा जड़ों के समान ही दिखाई पड़ते है। इन तनों में पर्वसंधि तथा पर्व पाये जाते है।
    • भूमिगत तना भोजन का संचय रखने का कार्य करती है। इन तनों में वर्धी जनन (Vegatative Reproduction) की भी क्षमता होती है।
    • भूमिगत तने के प्रकार-
      कन्दिल (Tuber) : आलू
      प्रकन्द (Rihzome) : हल्दी, अदरख
      शल्ककन्द (Bulb) : प्याज लहसून
      घनकन्द (Corm) : ओल, अरबी
  2. अर्धवायवीय तना (Subaerial stem) : इस प्रकार के तने कमजोर पौधों में पाया जाता है। इस तने के कुछ भाग जमीन के ऊपर तथा कुछ भाग जमीन के नीचे आता है।
    • अर्धवायवीय तने में वर्धी जनन करने की क्षमता पायी जाती है। अर्धवायवीय तने के प्रकार- 
      उपरिभूस्तारी ( Runner ) : दूबघास
      भूस्तारी (Stolon ) : स्ट्राबेरी
      भू-प्रसारिका (Offset ) : जलकुम्भी
      अन्तः भूस्तारी (Suker ) : गुलदाउदी
  3. आकाशी तने (Aerial stem) : इस प्रकार के तने का मुख्य भाग जमीन के ऊपर रहता है।
    • आकाशीय तने के प्रकार-
      पर्णकाय (Phylloclade) : नागफनी
      स्तम्भ प्रतान (Stem tendril) : अंगूर
      स्तंभ काँटा (Stem thron) : बेल, नींबू
      प्रर्णाभपर्व (Cladode) : शतावर, रस्कस
      पत्रकन्द (Bulbil) : रतालू (Dioscorea )

पत्ती (leaf)

  • पत्ती का विकास तने के पर्वसंधि (node) से होता है। पत्तियों का विकास तने के शीर्षस्थ विभाज्योतिकी (Apical Meristematic) उत्तक से होता है तथा यह हमेशा अग्रभिसारी क्रम (Acropetal Succession) में बढ़ता है।
  • पौधों का सबसे महत्वपूर्ण अंग पत्ती को ही माना जाता है, क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा भोज्य पदार्थों का निर्माण करती है।
  • एक साधारण पत्ती के निम्न तीन भाग होते हैं-
    1. पर्णाधार (Leaf base) : पर्णाधार वह भाग है जिसके द्वारा पत्ती तने से जुड़ा रहता है। यह पत्ती का सबसे निचला 'भाग है।
    2. पर्णवृत्त (Petiole) : पत्ती के डंढल वाले भाग को पर्णवृत्त कहते है। सभी पत्तियों में पणवृत्त नहं होता है। जिस पत्ती में पर्णवृत्त नहीं होता है उसे अवृत्त (Sessile) तथा जिन पत्ती में पर्णवृत्त होता है उसे संवृत्त (Petiolate) कहते है ।
    3. पत्रफलक (Leaf blade or leaf lamina) : पत्ती के हरा फैला हुआ भाग को पत्रपलक कहते है । पत्ती के ठीक मध्य की मोटी संरचना को मध्यशिरा (mid vein) कहते हैं, मध्य शिरा, पार्श्व शिरा में बँट जाती है अंतत: पार्श्व द्वारा कई छोटी-छोटी शिराओं में विभक्त हो जाती है।
  • पत्तियों में मौजूद शिरा विन्यास के आधार पर पत्ती प्रकार के होते हैं-
    1. जलिकावत शिरा विन्यास (Reticulate venation)- ऐसे पत्तियों में शिरा जाली रूपी संरचना बनाती है । यह पत्ती मुख्य रूप से द्विबीजपत्री में पाया जाता है। 
    2. समांतर शिरा विन्यास (Parallel Venation) : ऐसे पत्तियों में शिराएँ एक-दूसरे के समांतर होती है। इस प्रकार की पत्ती एक बीजपत्री पौधों में पाया जाता है।
  • पत्रपलक (Leaf Blade) के कटाव के आधार पर पत्ती दो प्रकार के होते है-
    1. सरल पत्ती (Simple leaf) : इस प्रकार के पत्ती में केवल एक पत्रपलक होता है। उदाहरण : आम, पीपल, सरसों की पत्ती
    2. संयुक्त पत्ती (Compound leaf) : संयुक्त पत्ती वह है जिसका पर्णपलक का कटान मध्य शिरा तक होता है। इस पत्ती के पर्णपलक कई खंडों में विभाजित रहता है। उदाहरण : नीम, गुलमोहर, भाँग आदि

पत्तियों का रूपांतर (Modification of Leaf)

  • पत्तियाँ प्रकाशसंश्लेषण के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के कार्य हेतु रूपांतरित हो जाते है। पत्तियों के रूपांतरण के प्रकार-
    1. Leaf tendril (पर्णप्रतान) - मटर
    2. Leaf Spine (पर्ण कंटक) - खजूर, नागफेनी
    3. Phyllode (वृन्तफलक) - ऑस्ट्रेलियन बबूल
    4. Pither (कलश) : घटपर्णी
    5. Bladder (ब्लाडर) : ब्लाडरवर्ट

अभ्यास प्रश्न

1. मानव कंकाल तंत्र या अस्थि तंत्र के संबंध निम्न में कौन-सा कथन सही है ?
(a) यह गति और प्रचलन में भाग लेता है।
(b) यह शरीर में मौजूद कैल्शियम तथा फॉस्फेट को जमा रखता है एवं जरूरत पड़ने पर उन्हें बाहर निकालता है I
(c) यह शरीर के आंतरिक अंगों को बाहरी आघातों से बचाता है तथा शरीर के भार को नियंत्रित करता है।
(d) उपर्युक्त सभी
2. मानव कंकाल तंत्र मुख्य रूप से किस उत्तक से निर्मित होते हैं ?
(a) उपकला उत्तक
(b) संयोजी उत्तक
(c) पेशी उत्तक
(d) तंत्रिका उत्तक
3. मानव कंकाल तंत्र बना होता है-
(a) अस्थि से
(b) उपास्थि से
(c) टंडन तथा लिगामेंट से
(d) उपर्युक्त
4. एक मनुष्य में कितनी हड्डियाँ होती है ?
(a) 80
(b) 96
(c) 106
(d) 206
5. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. जन्म के समय शिशुओं में लगभग 300 हड्डियाँ पायी जाती है
2. वयस्क मनुष्य में हड्डियों की संख्या 206 होती है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
6. निम्नलिखित में कौन सी हड्डी अग्रपाद (Fore limbs) की नहीं है ?
(a) रेडियस
(b) फिबुला
(c) अल्ना
(d) ह्यूमरस
7. निम्नलिखित में कौन सा कथन सत्य नहीं है ?
(a) अस्थि तथा उपास्थि संयोजी उत्तक है
(b) अस्थि ऑस्टियोब्लास्ट तथा उपास्थि कोंड्रियोब्लास्ट कोशिका से निर्मित होते है
(c) अस्थि के मध्य में एक गुहा होती है, जो अस्थि मज्जा से भरी होती है
(d) मैमोलियन अस्थि तथा उपास्थि में अनेक नलिकाएँ समान संरचना पायी जाती है जिन्हे हैवर्सियन नलिकाएँ कहते है
8. छाती में पसलियो के कितने जोड़े होते है ?
(a) दस
(b) बारह
(c) सोलह
(d) चौदह
9. सत्य पसलियाँ (True ribs) किसे कहते है ?
(a) प्रथम सात जोड़ी पसलियो को
(b) 8 वाँ तथा 9 वाँ जोड़ा पसलियो को
(c) 11 वाँ तथा 12 वाँ जोड़ा पसलियो को
(d) इनमें सभी
10. फल्स पसलियाँ (False ribs) किसे कहते है ?
(a) 8 वाँ जोड़ा को
(b) 9 वाँ जोड़ा को
(c) 10 वाँ जोड़ा का
(d) इनमें से सभी को
11. निम्नलिखित में कौन-सी संरचना पसलियाँ- खाँचा (Rib- cage) बनाती है ?
(a) वक्षीय कशेरूक (Thoracic Vertebra)
(b) पसलियाँ
(c) स्टर्नम
(d) इनमें से सभी
12. मानव खोपड़ी के कंकाल क्षेत्र (cranium region) में कुल कितने हड्डी होते है?
(a) 22
(b) 8
(c) 14
(d) 1
13. मानव खोपड़ी के आनन क्षेत्र (Facial region) में कितने हड्डी उपस्थित रहते है ?
(a) 22
(b) 8
(c) 14
(d) 1
14. मैलियस इन्कल तथा स्टेपिस हड्डियाँ मौजूद हैं-
(a) बाह्य कर्ण में 
(b) मध्य कर्ण में
(c) आंतरिक कर्ण में
(d) इनमें से सभी
15. अंग्रेजी वर्णमाला के U अक्षर के समान (Hyoid Bone) कहाँ पायी जाती है ?
(a) जाँघ
(b) हाथ
(c) मुखगुहा
(d) कर्ण (कान)
16. मनुष्य के सिर (Skull) में कुल हड्डियों की संख्या कितनी होती है ?
(a) 14
(b) 6
(c) 30
(d) 29
17. मनुष्य के मेरूदंड में कितनी अस्थि पायी जाती है ?
(a) 30 
(b) 33
(c) 28
(d) 26 
18. मेरूदंड में पायी जाने वाले अस्थि को कहते है-
(a) कशेरूक (Vertebra)
(b) क्लैविक
(c) स्टर्नम
(d) अंसमेखला (Pectoral girdle)
19. निम्नलिखित में कौन-सा युग्म सुमेलित नहीं है ?
(a) Cervical Vertebra - 7
(b) Thoraic Vertebra - 12
(c) Lumber Vertebra - 5
(d) Sacrum Vertebra - 3 
20. मेरूदंड के प्रथम कशेरूक (First Vertebra) को क्या कहते हैं जो खोपड़ी के अनुकपाल मुण्डिका (Occcipital Condyle) से जुड़ा रहता है ?
(a) सैक्रम 
(b) कॉक्सीजियल
(c) एटलस
(d) फीमर
21. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. मानव की सबसे बड़ी हड्डी फीमर है, जो जाँघ में पायी जाती है
2. मानव की सबसे छोटी हड्डी स्टेपिस है, जो कान में पायी जाती है
उपर्युक्त में कौन-सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों 
(d) न तो 1 न ही 2
22. लिखते समय कुल कितनी अस्थियाँ काम करती है ?
(a) 5 
(b) 8
(c) 12
(d) 14
23. क्लैविकल तथा स्कैपुला नामक अस्थि कहाँ पायी जाती है ?
(a) घुटना में 
(b) अंसमेखला में
(c) श्रोणि मेखला में
(d) A तथा B दोनों मे
24. एक सामान्य मनुष्य के सबसे बड़ी हड्डी फीमर की लंबाई कितनी होती है ?
(a) 32 cm 
(b) 48 cm
(c) 52 cm
(d) 120 cm
25. टिबिया तथा फिबुला अस्थि कहाँ पायी जाती है ?
(a) सिर में
(b) हाथ में (अग्रपाद )
(c) पैर (पश्च पाद) में
(d) कान में 
26. जन्म के समय मानव के किस भाग की हड्डिया पूर्ण विकसित होती है ?
(a) कान के
(b) गला के
(c) मस्तिष्क के
(d) पैर के
27. निम्नलिखित में कौन बाह्यय कंकाल का हिस्सा है ?
(a) मानव का बाल तथा नाखून
(b) पक्षियों के पर एवं पंख
(c) मत्स्य तथा सरीसृप का शल्क
(d) इनमें से सभी
28. फैलेन्जेज (Phalanges) अस्थियाँ पाई जाती है ?
(a) पैर की अंगुली में
(b) हाथ की अँगुली में
(c) हाथ तथा पैर दोनों की अँगुली में
(d) इनमें से कोई नहीं
29. कैप (Cap) के समान हड्डी जो घुटने के औदरिक भाग रहता है, वह है-
(a) क्लै स्टर्नम
(b) स्कैपुला
(c) स्टर्नम
(d) पैटेला
30. ह्यूमरस अस्थि कहाँ पायी जाती है ?
(a) कलाई में 
(b) ऊपरी बाह्य में
(c) अंगुली में
(d) हथेली में
31. अस्थि में कौन-सा लवण सर्वाधिक मात्रा में रहता है ?
(a) सोडियम क्लोराइड  
(b) कैल्शीयम फॉस्फेट
(c) फेरिक नाइट्रेट
(d) मैग्नीशियम कार्बोनेट
32. अक्षीय कंकाल (Axial Skeletal) में कुल अस्थियों की संख्या कितनी है ?
(a) 120 
(b) 80
(c) 40
(d) 56
33. वृद्धावस्था में हड्डियाँ कमजोर होने का मुख्य कारण क्या है ?
(a) लोहे की कमी 
(b) कोबाल्ट की कमी
(c) कैल्सीयम की कमी
(d) आयोडीन की कमी
34. मानव के अग्र (Fore) तथा पश्च ( Hind) पाद (Limb) में कुल अस्थियो की संख्या कितनी होती है ?
(a) 90 
(b) 120
(c) 118
(d) 204
35. मनुष्य के पैर की हड्डियाँ-
(a) खोखली होती है 
(b) संरध्री होती है
(c) ठोस होती है
(d) कीलक होती है
36. मानव के उपांगीय कंकाल (Appendicular Skeleton) में कुल अस्थियो की संख्या कितनी होती है ?
(a) 80 
(b) 120
(c) 126
(d) 206
37. अस्थियो के सामान्य विकास के लिये किस विटामिन की आवश्यकता होती है ?
(a) विटामिन A
(b) विटामिन B
(c) विटामिन C
(d) विटामिन D
38. रक्त में यूरिक अम्ल की अधिकता से होने वाला रोग है -
(a) रिकेट्स
(b) ऑस्टियोमलेसिया 
(c) गठिया
(d) ऑस्टियोमाइलाइटिस
39. अस्थ्यिों से संबंधित निम्न में कौन सा राग जीवाणु संक्रमण के कारण होती है ?
(a) ऑस्टियोमलेसिया
(b) ऑस्टियोमाइलाइटिस
(c) आर्थराइटिस
(d) आस्टियोपोरोसिस
40. मनुष्य गर्दन में कुल कितने अस्थि पाये जाते है ?
(a) 1 
(b) 2
(c) 3
(d) 7 
41. कशेरूक (Vertebra) की संधि किस प्रकार की होती है ? 
(a) अचल संधि
(b) अर्धचल संधि
(c) चल संधि
(d) श्रोणि संधि
42. केहुनी का जोड़ (Elbow Joint) तथा घुटने का जोड़ (Knee Joint) किस प्रकार के संधि है ?
(a) Ball and Socket Joint
(b) Gliding Joints
(c) Hinge Joints
(d) Pivot Joints
43. निम्नलिखित में कौन सा हड्डी अग्रपाद (Forelimbs) की नहीं है ?
(a) ह्यूमस
(b) रेडियस
(c) अलना
(d) फीब्रुला
44. श्रोणि मेखला (Pelvic girdle) में इलियस, इश्चियम तथा प्यूबिस अस्थि मिलकर एक गुहा बनाती है, जिसमें फीमर अस्थि जुड़ा रहता है, इस गुहा को क्या कहते है?
(a) एसेटाबुलम 
(b) एटल्स
(c) ग्लेनॉइड
(d) कॉलर
45. कलाई (Carpus) तथा टखने ( ankle) की हड्डी में किस प्रकार की संधि पायी जाती है ?
(a) Ball and Socket Joint
(b) Gliding Joints
(c) Hinge Joints
(d) Pivot Joints
46. प्रचलन की क्रिया सम्पन्न होती है-
(a) कंकाल तंत्र द्वारा
(b) पेशियों के द्वारा
(c) तंत्रिका तंत्र द्वारा 
(d) इनमें से सभी
47. छाती के पसलियाँ (Ribs) जुड़ा होता है ?
(a) स्टर्नम से 
(b) कशेरूक से 
(c) स्टर्नम तथा कशेरूक से
(d) न ही स्टर्नम से तथा न ही कशेरूक से
48. अग्र (Forelimbs) में कुल अस्थियों की संख्या कितनी होती है ?
(a) 30 
(b) 60
(c) 120
(d) 130
49. किस जोड़े के पसलियाँ को फ्लोटिंग पसलियाँ कहते है?
(a) 8वाँ तथा 9वाँ जोड़ा
(b) 7वाँ तथा 8वाँ जोड़ा
(c) प्रथम 7 जोड़ा
(d) 11वाँ तथा 12वाँ जोड़ा
50. पेड़-पौधे के बाहरी आकार या रूप का अध्ययन क्या कहलाता है ?
(a) Morphology 
(b) Anatomy
(c) Histology
(d) Floriculture 
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Mon, 22 Apr 2024 05:40:09 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पादप तथा मानव में जनन https://m.jaankarirakho.com/1006 https://m.jaankarirakho.com/1006 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पादप तथा मानव में जनन
  • एक ही जाति के जीवों द्वारा नये जीव का उत्पन्न होना प्रजनन (Reproduction) कहलाता है। प्रजनन इस पृथ्वी पर किसी जाति के बने रहने के लिए परम-आवश्यक है ।
  • सजीवों में दो विधि से प्रजनन होते हैं-
    1. अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction)- जब केवल एक जीव से ही नये जीव उत्पन्न होता है तो प्रजनन की ये विधि अलैंगिक कहलाती है।
    2. लैंगिक जनन (Sexual Reproduction )- जब नये जीव की उत्पत्ति दो विपरित लिंग के जीवों के द्वारा होती है तो यह विधि लैंगिक कहलाती है।
अलैंगिक प्रजनन के प्रकार-
  1. विखंडन (Fission)
    • विखंडन द्वारा प्रजनन एक कोशिकीय जीव प्रोटोजोआ, जीवाणु में होता है । विखंडन दो प्रकार के होते हैं-
      1. Binary Fission- इसमें जनक जीव को कोशिका विखंडित होकर दो नये जीव को उत्पन्न करते हैं। Binary Fission में जनक जीव का अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा दो नये जीव आस्तित्व में आ जाते हैं।
        • अमीबा, पैरामीशियम, लीशमैनिया, जीवाणु में Binary Fission द्वारा ही प्रजनन होता है I
      2. Multiple Fission— प्रतिकूल परिस्थिति में एककोशिकीय जीव (प्रोटोजोआ, जीवाणु) के कोशिका के चारों ओर एक मजबूत आवरण बन जाता है, इसे सिस्ट (Cyst) कहते हैं। सिस्ट के भीतर कोशिका का केन्द्रक कई बार विभाजित होकर संतति केन्द्रक । (Dughter Nuclei) का निर्माण होता है । प्रत्येक प्रत्येक संतति के चारों ओर कोशिका द्रव्य एकत्रित होती है और एकजनक कोशिका से कई कोशिका बन जाती है।
        • प्लैज्मोडियम में Multiple Fission द्वारा ही प्रजनन होता है। एक बार में प्लैज्मोडियम के एक कोशिक से 1000 नये प्लाज्मोडियम कोशिका बन जाती है ।
  2. मुकुलन (Budding)- इस प्रकार के प्रजनन में, जनक जीव के शरीर का छोटा सा भाग 'मुकुल' (Bud) के रूप में उभरता है, जो कुछ समय बाद जनक जीव से अलग होकर स्वतंत्र जीव बन जाते हैं ।
    • एक कोशिकीय कवक यीस्ट में तथा बहुकोशिकीय जीव हाइड्रा में मुकुलन द्वारा प्रजनन है।
  3. बिजाणु जनन (Sporulation)- निम्न श्रेणी के सजीव प्रमुख रूप से जीवाणु, शैवाल, कवक में बिजाणु जनन द्वारा प्रजनन होता है।
    • इस प्रजनन में जीव के शरीर में सूक्ष्म थैली में समान रचना बनती है, जिसे बिजाणुधानी (Sporangia) कहते हैं। बिजाणुधानी के अंदर कई छोटे-छोटे गोल बिजाणु (Spore) का निर्माण होता है। उपयुक्त समय होने पर बिजाणुधानी टूट जाता है, जिससे सभी बिजाणु बाहर आ जाते हैं और प्रत्येक बिजाणु से नये जीव का निर्माण होता है ।
  4. Regeneration (पुनरूद्रभवन)- कुछ जीव के शरीर दो या अधिक टुकड़े में खंडित होने पर, प्रत्येक खंडित माग विकास कर नये जीव बन जाते हैं। प्रजनन की यह पुनरुदभवन विधि (Regeneration) कहलाता है।
    • स्पाइरोगाइरा, हाइड्रा, प्लेनेरिया, में इस विधि द्वारा प्रजनन होता है।
  5. Vegetative Reproduction ( कायिक जनन ) - इस प्रकार के प्रजनन केवल पौधा में होता है। पुराने पौधों के किसी भाग (जड़, तना, पत्ती) से नये पौधों का बना कायिक जनन कहलाता है।
    • कायिक जनन द्वारा ही मैदान में उपस्थित घास पौधा के सूखे, पुराने तने से बारिश के बाद मैदानों में हरी घास उग आती है।
    • प्रमुख पौधा जिनमें कायिक जनन द्वारा प्रजनन होते हैं- पत्थरचट्टा, अमरूद, आलू, प्याज, केला, लहसून, जलकुंभी ट्यूलीप, पुदीना, स्ट्राबेरी आदि ।
    • कृत्रिम प्रवर्धन (Artificial Propagation)- मानव निर्मित या कृत्रिम विधियों द्वारा एक पौधा से कई पौधा को उत्पन्न करने की प्रक्रिया कृत्रिम प्रवर्धन कहलाता है। कृषि क्षेत्र एवं बागवानी में इसका व्यापक स्तर पर उपयोग होता है। पौधों में कृत्रिम प्रवर्धन की तीन विधि प्रचलित है-
      1. कर्तन लगाना (Cuttings)— इस विधि से गुलाब, बगैनबेलिया, गुलदाउदी, अंगूर, गन्ना, केला, कैक्ट्स को उत्पन्न किया जाता है।
      2. दाब लगाना (Layering) - इस विधि से चमेली, स्ट्राबेरी, रसभरी, नींबू, अमरूद जैसे पौधों को उत्पन्न किया जाता है।
      3. कलम बाँधना (Grafting) कलम- बाँधना वह विधि है जिसे दो भिन्न-भिन्न पौधे के कटे तने, एक जड़ सहित, दूसरा बिना जड़ वाला को एक साथ इस प्रकार संयुक्त किये जाते हैं कि दोनों तने जुड़कर नये पौधा बन जाते हैं। आम, सेब, नाशपाती, आडू (Peach) जैसे फल के पौधा में कलम बाँधा जाता है ।
  6. Tissue Culture (उत्तक संवर्धन)- इस विधि में जीवों के शरीर से उत्तक का एक छोटा टुकड़ा काटकर उसे पोषक पदार्थ के घोल में रख दिया जाता है। अनुकूल परिस्थिति में उत्तक का टुकड़ा संगठित होकर वृद्धि करने लगता है। उत्तक के संगठित पिंड को कैलस कहते हैं। कैलस को पुनः हार्मोनयुक्त माध्यम से रखकर विकसित किया जाता है और नये जीव की उत्पत्ति होती है ।
  • Tissue Culture द्वारा गुलदाउदी, शतावरी, ऑर्किड के पौधा पैदा किये जाते हैं।
  • Tissue Culture से उत्पन जीव क्लोन कहलाते हैं।
  • Tissue Culture द्वारा किसी अन्य कृत्रिम विधि द्वारा एक पूर्ण प्राणी का अलैंगिक विकास करना क्लोनिंग (Cloning) कहलाता है।
  • स्कॉटलैंड के एडिन बर्ग विश्वविद्यालय के अधीन आने वाले रोस्लिन इंस्टीट्यूट ने सबसे पहले डॉली नामक मेड़ का क्लोनिंग तकनीक से विकास किया। इस क्लोनिंग प्रक्रिया को इयान विलमॉट तथा कीथ कैंपवेल एवं उनके सहयोगी जीव वैज्ञानिकों ने सफलता पूर्वक पूरा किया था ।
  • डॉली नामक पहला क्लोन पशु का जन्म 5 जुलाई 1996 को हुआ था। छह साल की उम्र 14 फरवरी 2003 को डॉली भेड़ की मृत्यु हो गयी। डॉली भेड़ के बाद इस तकनीक द्वारा चूहे, खरगोश, बैल, की उत्पत्ति कराई गई।
  • क्लोनिंग तकनीक का प्रयोग मनुष्य पर करना लगभग समूचे विश्व में वर्जित है।

Sexual Reproduction

  • जनन की वह प्रक्रिया जिसमें नये जीव उत्पन्न करने हेतु एक मादा जीव एवं एक नर जीव भाग लेते हैं, लैंगिक जनन कहलाता है I
    1. एकलिंगी (Unisexual)- जिनमें नर और मादा लिंग अलग-अलग जीवों में पाये जाते हैं एक लिंगी जीव कहलाते हैं। अधिकांश जीव एकलिंगी होते हैं। मनुष्य एकलिंगी जीव है ।
    2. द्विलिंगी (Bisexual)- जिनमें नर और मादा लिंग एक ही जीव में पाये जाते हैं, द्विलिंगी या हर्मोफ्रोडाइट कहलाते हैं। अधिकांश पौधा, केंचुआ, कृमि (Worms) हाइड्रा द्विलिंगी जीव है ।

Sexual Reproduction in Plant

  • पौधा का जनन अंग फूल है। फूल तने से जिस डंढल द्वारा जुड़ा रहता है उसे Pedicel ( वृंत ) कहते हैं। Pedicel के ऊपर का फूला भाग Thalamus (पुष्पासन) कहलाता है | Thalamus के ऊपर फूल के सभी भाग निश्चित क्रम में व्यवस्थित रहते हैं ।
  • एक पूर्ण पुष्प में चार भाग होते हैं-
    1. Calyx (बाह्यदल पुंज) - यह भाग प्रकाश-संश्लेषण द्वारा ग्लूकोज का निर्माण करते हैं तथा कली अवस्था में अंदर के अंगों को सुरक्षा करता है ।
    2. Corolla (दलपुंज) - - पुष्प का यह भाग अक्सर रंगीन या सफेद होता है तथा कीटों को परागण के लिये आकर्षित करता है ।
      • एक बीज पत्री (Monocot) पौधे के फूल में Calyx तथा Corolla के बीज कोई विभेद नहीं रहता है। ऐसे पुष्प के पहले तथा दूसरे भाग परिदल (tepals) कहलाता है और इसके चक्र को परिदलपुंज (Prianth) कहा जाता है।
    3. Androecium (पुंमग ) यह पुष्प का नर भाग है। यह भाग कई लंबी-लंबी रचनाओं से बनी होती है इसे Stamens (पुंकेसर) कहते हैं । प्रत्येक Stamens के दो भाग होते हैं- लंबा भाग तंतु (Filament ) कहलाता है तथा अग्र भाग Anther (पराग कोश) । Anther में Pollen grain (परागकण ) का विकास होता है।
    4. Gynoecium (जायांग) यह पुष्प का मादा भाग है। यह भाग Carpels (स्त्रीकेसर) इकाई से मिलकर बना होता है। प्रत्येक Carpels के तीन भाग होते हैं सबसे नीचे फूले भाग को अंडाशय (Ovary) कहते हैं। मध्यभाग को वर्तिका (Style) तथा अग्रभाग जो थोड़ा फूली हुई तथा चिपचिपा होता है उसे वर्तिकाग्र (Stigma) कहते हैं । 
  • Calyx तथा Corolla को फूल का सहायक भाग कहते हैं तथा Androecium तथा Gynoecium फूल के आवश्यक भाग है। जब फूल में सिर्फ Androecium या Gynoecium रहते हैं तो उन्हें एकलिंगी एवं दोनों की उपस्थिति होने पर उन्हें उभयलिंगी कहते हैं। अधिकांश पौधा के फूल एकलिंगी ही होते हैं।

परागण (Pollination) puel

  • परागकोष (anther) से परागकण का निकलकर वर्तिकाग्र ( Stigma ) पर पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। परागण दो तरह से होता है-
    1. स्व परागण (Self-Pollination ) - जब एक ही पुष्प के परागकण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र ( Stigma ) पर पहुँचते हो या उसी पौधे के अन्य पुष्प के वार्तिकाग्र पर पहुँचते हो, तो उसे स्वपरागण कहा जाता है।
      • स्व परागण केवल उभयलिंगी पौधा में ही होता है। सूर्यमुखी, बालसम पौधों में स्वपरागण होता है ।
    2. पर-परागण (Cross Pollination )- जब एक पुष्प के परागण दूसरे पौधे पर स्थित पुष्प के वार्तिकाग्र (Stigma) तक पहुँचते हो तो इसे पर- परागण कहते हैं ।
      • अधिकांश पौधों में Pollination पर-परागण द्वारा ही होता है। पर-परागण हेतु किसी बाहरी कारक की आवश्यकता होती है जो परागकण को एक फूल के परागकोश से दूसरे फूल के वर्तिकाग्र तक पहुँचा दें। बाह्य कारक जिसके द्वारा प्रायः परपरागण होता है-
        वायु द्वारा Anemophilous
        कीट द्वारा Entomophilous
        जल द्वारा Hydrophilous
        जन्तु द्वारा Zoo philous
        पक्षी द्वारा Ornithophilous
        घोंघा द्वारा Malaecophilous
        चमगादड़ द्वारा Cheraptophilous

निषेचन (Fertilization)

  • परागण होने बाद निषेचन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। परागकण में उपस्थित नर युग्मक (Malegamit) अंडाशय में उपस्थित अंडाणु (Ova) से संयोग करता है तो इसे निषेचन कहते हैं।
  • जब परागकण वर्तिकाग्र (Stigma) पर आता है तो वर्तिकाग्र से अंडाशय तक एक पराग नली का निर्माण होता है। परागनली से होते हुए परागकण अंडाशय तक पहुँचते हैं।
  • अंडाशय के भीतर बीजांड (Ovule) होते हैं। बीजांड के भीतर भ्रूणकोष (Embregosac) होते हैं। भ्रूणकोष में अंडाणु (Ova) पाये जाते हैं।
  • परागकण बीजांड को चीड़कर अंडाणु (Ova) तक पहुँचती है तब निषेचन पूर्ण हो जाता है। निषेचित अंडाणु Zygote (युग्मनज) कहलाते हैं।
  • निषेचन के बाद अण्डाशय (Ovary) फल के रूप में विकसित होता है तथा बीजाणु बीज में परिवर्तित होकर फल के अंदर सुरक्षित रहते हैं। बीज पौधा की जनन ईकाई है ।

मानव प्रजनन (Human Reproduction)

  • मानव सजीव प्रजक (Viviperous) जीव है जो लैंगिक जनन द्वारा अपने जैसे संतानों को उत्पन्न करता है।
  • मानव एकलिंगी (Unisexual or Dioecious ) जीव है। अतः इसमें नर तथा मादा अलग-अलग जीवों में पाया जाता है।
  • प्रजनन हेतु मानव में विकसित तथा जटिल तंत्र (Reproductive system) पाया जाता है। नर तथा मादा का प्रजनन तंत्र एक दूसरे से भिन्न होते हैं। प्रजनन तंत्र के अंतर्गत जनन अंग (Sex organe or Gonad) तथा ग्रंथियाँ आते हैं। 
  • मानव लगभग 12 वर्षों की आयु में जनन के योग्य हो जाते हैं। मानव जब जनन के योग्य होते हैं तब नर एवं मादा दोनों के शरीर में कई परिवर्तन हो हैं। इस परिवर्तन को प्यूबर्टी (Puberty) कहते है। प्यूबर्टी के समय होने वाला परिवर्तन अंतःस्त्रावी ग्रंथि से निकलने वाले हॉर्मोन के द्वारा होता है। 
  • मानव 13 से 19 वर्ष की आयु तक वयस्क होनी की सारी प्रक्रिया को पूरी कर लेता है तथा शारीरिक तथा मानसिक रूप से जनन के योग्य बन जाता है। इस उम्र परिसर (13 से 19 वर्ष) को किशोरावस्था या टीनएज ( Teenage ) कहते हैं। 

नर जनन तंत्र (Male Reproductive System)

  • नर जनन तंत्र पेल्विस क्षेत्र में स्थित रहता है तथा इसके अंतर्गत निम्न अंग तथा ग्रंथि आते हैं-
    1. Testis (वृषण) : यह मुख्य जनन अंग है क्योंकि इसी में शुक्राणु (Sperm) का निर्माण होता है। शुक्राणु को नर युग्मक (Malegamit) कहा जाता है।
      • प्रत्येक नर में एक जोड़ी वृषण पाया जाता है। प्रत्येक वृषण 5 cm लंबा, 2.5 cm चौड़ा तथा 3 cm मोटा होता है। इसका भार लगभग 12 g होता है।
      • वृषण (Testis) का निर्माण तीसरे चौथे महीने में वृक्क (Kidney) के आगे में होता है, जो धीरे-धीरे नीचे उतरकर जांघों के बीज एक थैली समान संरचना में बंद हो जाता है। इस थैली को वृषण कोष (Scrotal Sac) कहते हैं।
      • वृषण कोष का निर्माण बाहर से त्वचा के द्वारा तथा भीतर से पेरीटोनियम झिल्ली द्वारा होता है। दोनों ही वृषण (Testis) वृषण कोष में पहुँचकर पेरीटोनियम मांसपेशी द्वारा आपस में जुट जाते हैं तथा पुनः कभी शरीर के अंदर नहीं जा पाते हैं।
      • वृषण कोष (Scrotal sac) में शुक्राणु निर्माण (Spermatogenesis ) हेतु उपयुक्त तापमान पाया जाता है। वृषण कोष का ताप शरीर के ताप ( 37°C) से 2°C - 3°C कम रहता है।
      • वृषण (Testis) के भीतर ढ़ेर सारी शुक्रजनन नलिकाएँ (Seminiferous Tubules) पाया जाता है, जिसमें शुक्राणु (Sperm) का निर्माण होता है। एक वयस्क नर में प्रतिदिन 1012 से 1013 शुक्राणुओं का निर्माण होता है।
      • वृषण (Testis) का निर्माण संयोजी उत्तक के तीन परतों के द्वारा होता है। सबसे बाहरी परत परत को Tunica Vaginalis, बीच के परत को Tunica albuginae तथा सबसे भीतर परत को Tunica Vasculosa कहा जाता है।
      • कभी-कभी किसी कारणवश मनुष्य का वृषण, वृषणकोष (Scrocal sac ) में नहीं आ पाता है तथा ऊपरी भाग में ही फँस जाता है। ऐसे वृषण अविकसित रह जाते हैं तथा शुक्राणु (Sperm) नहीं बना पाते है। इस रोग को Cryptorchidism कहा जाता है।
    2. Epididymis (अधिवृषण ) : वह मोटी नली समान रचना है जो वृषण के भीतरी भाग से चिपकी रहती है। अधिवृषण का निर्माण सभी शुक्रवाहिकाएँ नलियों (Semiferous tubeles) के आपस में जुटने से निर्मित होता है।
      • अधिवृषण शुक्राणु का प्रमुख संग्रह स्थान है। शुक्राणु अधिवृषण में परिपक्व होकर निषेचन के योग्य बनता है।
    3. Vas Deferens ( शुक्रवाहिका) : दोनों अधिवृषण से निकली नली समान रचना शुक्रवाहिका कहलाती है। शुक्रवाहिका 25 cm लंबी होती है, जो उदरगुहा (Abdominal cavity ) में प्रवेश कर मूत्राशय तक पहुँचती है।
      • शुक्रवाहिका मूत्राशय के पास पहुँकर शुक्राशय (Seminal Vasicle) से जुट जाती है।
      • शुक्रवाहिका शुक्राणुओं ( Sperm) को आगे बढ़ाने का कार्य करती है तथा अतिरिक्त शुक्राणुओं को जमा रखती है।
    4. Seminal Vasicle ( शुक्राशय) : यह खोखली थैली समान एक जनन ग्रंथि है जो ऐसे पदार्थ का स्त्राव करता है जिससे शुक्राणुओं को पोषण प्राप्त हो सके। 
      • इस ग्रंथि से स्त्रावित पदार्थ क्षारीय होते हैं। स्त्रावित पदार्थ में मुख्य रूप से प्रोटीन, फ्रक्टोज, साइट्रेट, इनोसिटोल मैग्नीशियम आदि पाये जाते हैं। 
    5. Ejaculatory duct ( स्खलन नली) : यह एक छोटी नली समान संरचना है जो शुक्रवाहिका (Vas Detrentia) तथा शुक्राशय (Seminal Vasicle) के मिलने से बनता है। 
      • स्खलन नली की संख्या दो होती है दोनों ही स्खलन नली प्रोस्टेट ग्रंथि में प्रवेश कर जाती है। प्रोस्टेट ग्रंथि मूत्राशय से आने वाली मूत्रनली से जूट जाती है। 
      • नर मानव (Male) में प्रजनन मार्ग तथा मूत्रमार्ग एक होत है, परन्तु मादा मानत्र (Female) में यह अलग-अलग होता है। 
    6. Prostate gland ( पुरःस्थ ग्रंथि) : यह ग्रंथि मूत्राशय के आधार पर स्थित रहता है तथा इसकी नली मूत्रमार्ग में खुलती है। यह ग्रंथि बाएँ तथा दाएँ दो लोब में बँटी रहती है, परन्तु दोनों ही लोब आपस में जुड़े रहते हैं। 
      • इस ग्रंथि से अनेकों प्रकार के ऑक्सीकारक एंजाइम, साइट्रिक अम्ल और जिंक उत्पन्न होते है जिसकी प्रकृति अम्लीय होती है। इस ग्रंथि से होने वाला स्त्राव शुक्राणु को सक्रिय बनाता है।
      • मानव वीर्य (Semen) में एक विशेष गंध होती है, यह गंध इसी ग्रंथि द्वारा स्त्रावित पदार्थ के कारण होता है।
    7. Cowper's Gland or Bulbo Urethral gland ( काउपर ग्रंथि) : यह ग्रंथि एक जोड़ा होता है जो प्रोस्टेट ग्रंथि के ठीक नीचे स्थित होता है। इस ग्रंथि की नली भी मूत्रमार्ग में ही खुलती है।
      • इस ग्रंथि से स्त्रावित पदार्थ क्षारीय होता है जिसमें एल्यूमीन प्रोटीन की अधिकता होती है।
      • इस ग्रंथि का स्त्राव मूत्र के अम्ल से शुक्राणुओं का रक्षा करता है तथा संभोग के समय जनन अंगों को चिकनापन प्रदान करता है ।
    8. Penis ( लिंग ) : यह एक मांसल तथा बेलनाकार संरचना है जो वृषणकोष के ठीक बीचो-बीच स्थित रहता है।
      • पेनिस के दोनों किनारे की ओर मोटी-मोटी रक्त नलिकाएँ पायी जाती है, जिसमें उच्च रक्तदाब जब उत्पन्न होता है तो पेनिस लम्बा, मोटा तथा कठोर हो जाता है। पेनिस को उत्तेजित करने में रक्तदाब के अतिरिक्त Nervi erecti नामक तंत्रिका तंतु तथा एडरीनलीन हॉर्मोन भी सहायक है।
      • लिंग (Penis) के अंतिम भाग को शिश्न (glans) कहते है। शिश्न के ऊपर त्वचा का एक ढीला-ढालाआवरण होता है जिसे प्रिप्यूस (Prepuce) कहते हैं।
    9. Semen (वीर्य) : संभोग करते समय अथवा मानसिक भावनाओं के प्रभाव से लिंग के शीर्ष भाग से जो द्रव निकलता है उसे वीर्य कहते हैं।
      • शुक्राणु (Sperm), प्रोस्टेट ग्रंथि का स्त्राव तथा काउपर ग्रंथि का स्त्राव मिलकर सीमेन का निर्माण करते है। सीमने में लगभग 10 प्रतिशत शुक्राणु रहता है तथा शेष भाग को सेमिनल प्लाज्मा कहते हैं। सीमेन क्षारीय होता है जिसका pH मान 7.3 से 7.5 होता है।

मादा जनन तंत्र (Female Reproductive System)

  • मादा (Female) के प्रजनन तंत्र में निम्नलिखित अंग पाये जाते हैं-
    1. अंडाशय (Ovary): प्रत्येक मादा शरीर में एक जोड़ा अंडाशय होता है। अंडाशय अंडाकार आकृति का होता है जो 3 cm लंबा, 1.5 cm चौड़ा तथा 1 cm मोटा होता है।
      • अंडाशय, संयोज उत्तक से बने परत से अच्छादित रहती है, इस परत को ट्यूनिका एल्बुजिनिया कहते हैं । ट्यनिका एल्बुजिनिया के नीचे के परत को जनन - एपिथिलियम (Germinal epithelium) कहते हैं।
      • अंडाशय के जनन-एपिथिलियम को कोशिका से अंडाणु (Ova) विकसित होता है। अंडाणु को मादा - युग्मक (Female gamit) कहा जाता है।
      • अंडाशय में अंडाणु निर्माण की प्रक्रिया को अंडजनन (Oogenesis) कहते हैं । मासिक चक्र के दौरान एक अण्डाशय से एक अंडाणु (Ova) का अण्डोत्सर्जन (Ovulation) बारी-बारी से होता है। एक स्त्री (Female) अपने पूरे प्रजनन काल में 400 से 450 अंडाणु (Ova) का निर्माण करता है।
    2. अंडवाहिनी या फैलोपियन नलिका (Oviduct or fallopiantube ) : प्रत्येक मादा शरीर में दो अंडवाहिनी पाया जाता है। अंडवाहिनी 12 cm लंबा होता है जो दोनों अंडाशय के ऊपरी भाग से शुरू होकर गर्भाशय के ऊपरी भाग तक होती है। 
      • अंडवाहिनी के शीर्ष भाग पर अँगुलियों के समान रचना होती है जिसे फिब्री (Fimbriae) कहते हैं। इस संरचना अंडाशय से निकले अंडाणु (Ova) को है। अणु (Ova) को पकड़ लेता है जिससे अंडाणु फैलोपियन नलिका में आ जाती है ।
    3. गर्भाशय (Uterus) : गर्भाशय की आकृति नाशपाती के समान होता है। यह उदरगुहा के पेल्विक क्षेत्र (Pelvic ) में मलाशय (Rectum) तथा मूत्राशय (Urinary Bladder) के बीच स्थित होता है ।
      • गर्भाशय में ही मानव भ्रूण का पूर्ण विकास होता है। गर्भाशय सामान्य स्थिति में 7-8 cm लंबी होती है परंतु जब इसमें भ्रूण का विकास होता है तब यह 18-20 cm लंबी हो जाती है, पुन: शिशु के जन्म के बाद छोटी हो जाती है।
      • गर्भाशय तीन स्तरों का बना एक पेशीय संरचना है। बाहरी स्तर को पैरीमैट्रियम, मध्य स्तर को मायोमैट्रीयम तथा सबसे भीतरी स्तर को इंडोमैट्रीयम कहते है ।
      • गर्भाशय की ऊपरी भाग चौड़ा होता है जो फैलोपियन नालिका से जुड़ा होता है तथा नीचला भाग सँकरा होता है जिसे सर्विक्स (Cervix) कहते हैं। सर्विक्स, योनि (Vagina) में खुलता है।
    4. योनि (Vagina) : योनि को मैथुन कक्ष (Capulation chamber) भी कहते हैं। यह एक पेशीय नली है जो 7-10 cm लंबी होती है तथा यह फैलने योग्य होती है।
      • योनि बाहर की ओर एक छिद्र के द्वारा खुलता है, इस छिद्र को चलवा (Valva) कहते है। बलवा के ऊपर एक पतली झिल्ली होती है जिसे हाइमेन झिल्ली कहते है। हायमेन झिल्ली एक बार टूट जाने पर पुन: नहीं बनता है।
      • पहली बार संभोग करने पर अथवा शारीरिक परिश्रम जैसे- व्यायाम, खेलकूद के दौरान हायमेन झिल्ली नष्ट हो जाती है।
      • सर्विक्स तथा योनि मिलकर जन्म नाल (Birth canal) का निर्माण करता है। जन्म नाल से ही शिशु अपने माँ के गर्भ से बाहर आते हैं।
    5. बाह्य जननेंद्रिय (External genitalia) : इसे बाह्य जनन अंग भी कहते हैं, इसके अंतर्गत लेबिया मेजोग, लोबिया माइनोरा, बेस्टिब्यूली एवं क्लाइटोरिस आते हैं।
      • लेबिया मेजेरा, एक जोड़ा त्वचा के फोल्ड के रूप में होता है जिसपर बाल पाये जाते हैं। लेबिया मेजोरा के नीचे एक जोड़ा बिना बाल वाले त्वचा के फोल्ड को लोबिया माइनोरा कहते हैं।
      • लोबिया माइनोरा के नीचे बर्थोलियन ग्रंथि पायी जाती है। इस ग्रंथि से स्त्रावित होने वाला तरल पदार्थ योनि (Vagina) की अम्लता को नष्ट करता है और इसे चिकनाहट प्रदान करता है।
    6. स्तन ग्रंथि (Mammary gland) : यह ग्रंथि मादा तथा नर दोनों में पाये जाते हैं, परन्तु नर मानत्र में यह ग्रंथि अक्रिय रहता है। मादा मानव में इस ग्रंथि के चारों ओर वसा का जमाव होने से फूली हुई दिखाई पड़ती है।
      • प्रत्येक स्तन के भीतर संयोजी उत्तकता बना 15-20 पालि (lobes) होता है तथा प्रत्येक पाली वसा उत्तक द्वारा एक दूसरे प्रत्येक पालि में एक लैक्टोफेरस नालिका पायी जाती है जिसमें दूध का निर्माण होता है।
      • सभी पालि (lobes) का लैक्टोफेरस नालिका स्तनग्रंथि के शीर्ष भाग में खुलती है जिसे निपल (Nipple) कहते हैं। निपल नर तथा मादा दोनों ही मानव में पाये जाते हैं। निपल के चारों ओर का क्षेत्र जहाँ के त्वचा का रंग ज्यादा गाढ़ा होता है उसे एरिओला (Areola) कहते हैं।
      • स्तन ग्रंथि द्वारा शिशु के पोषण हेतु दूग्ध का स्त्राव होता है। दूध स्त्राव स्तन ग्रंथि से केवल प्रसव के बाद ही होता है। 

मासिक चक्र (Menstrual cycle)

  • मादा मानव में अण्डाणु (Ova) का निर्माण एक विशेष चक्र के अधीन "दिनों के अधीन होता है जिसे मासिक चक्र या अण्डाशय चक्र (Ovarian cycle) कहते हैं। यह चक्र सामान्य रूप से 28 दिनों का होता है, इसके बाद पुन: इसकी पुनरावृत्ति होती है।
  • मासिक चक्र का प्रारंभ 12 से 15 वर्ष की आयु में प्रारंभ होता है। मादा शरीर में पहली बार मासिक चक्र का प्रारंभ होना मिनार्क (Menarch) कहलाता है। 50 वर्ष की आयु के बाद मासिक चक्र बंद हो जाता है। मासिक चक्र का बंद होना मिनोपॉज कहलाता है।
  • मासिक चक्र के प्रारंभ होते ही अंडाशय में अंडाणु (Ova) परिपक्व होने लगता है तथा मासिक चक्र के मध्य (14वें दिन ) में अंडाणु, अंडाशय से निकल फेलोपियन नलिका में पहुँच जाते हैं। अगर अंडाणु 36 घंटा (16वें से 18वें दिन तक) में शुक्राणु से निषेचित नहीं होता है तो यह नष्ट हो जाता है।
  • अंडाणु जब निषेचित नहीं होता है, तब 28वें दिन रक्त, गर्भाशय के दिवार की टूटी कोशिका तथा नष्ट हुआ अंडाणु योनि (Vagina) के द्वारा बाहर आ जाते हैं इसे मासिक स्त्राव कहते हैं। मासिक स्त्राव 3 से 5 दिन तक चलता है।
  • अगर अंडाणु, शुक्राणु से निषेचित हो गया तब अंडाशय में अंडाणु का निर्माण बंद हो जाता है तथा सम्पूर्ण गर्भावस्था (Pregncy) के दौरान मासिक चक्र बंद रहता है।

निषेचन (Fertilization)

  • शुक्राणु (Sperm) तथा अण्डाणु (Ova) की संलयन की प्रक्रिया निषेचन कहलाता है। निषेचन मादा शरीर के फैलोपियन नलिका में सम्पन्न होता है।
  • निषेचन के बाद शुक्राणु तथा अंडाणु के संलयन से युग्मक (Zygote) बनते हैं। युग्मक एककोशिकीय तथा द्विगुणीत (Deploid) होते है। शिशु के लिंग का निर्धारण निषेचन के समय ही हो जाता है।
  • युग्मक (Zygote) में समसूत्री कोशिका विभाजन शुरू हो जाता है, जिसके बाद भ्रूण (Embreo) का निर्माण होता है। भ्रूण गर्भाशय में पहुँचकर गर्भ (Foetus) बनाता है। गर्भ ही मानव का लघु स्वरूप होता है। गर्भ का निर्माण निषेचन के एक सप्ताह के बाद होता है।
  • गर्भ के बाहरी झिल्ली को जरायु (Chorion) कहते हैं। जरायु में अँगुली के समान संरचनाएँ पायी जाती है जिसे विलाई ( Villi) कहते हैं। विलाई, गर्भाशय के दिवार से सटकर अपरा (Placenta ) का निर्माण करता है। अपरा (Placenta ) का निर्माण भ्रूण रोपण के चार सप्ताह बाद होता है।
  • अपरा (Placenta) द्वारा ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थ भ्रूण में जाते हैं तथा CO, तथा अन्य उत्सर्जनशील पदार्थ बाहर आ जाते है। गर्भ, अपरा से एक मजबूत डोरी जैसी संरचना से जुड़ा रहता है जिसे नाभिरज्जु (Umbilical cord) कहते हैं।

गर्भाशय में गर्भ का विकास (Foetus Development un Uterus)

  • भ्रूण जब गर्भाशय में स्थापित होता है उसके बाद भ्रूण में तीन जनन स्तरों (Germinal layer) का निर्माण होता है- यह है, एक्टोडर्म (बाह्य परत), मिजोडर्म (मध्य परत) तथा एंडोडर्म (आंतरिक परत ) ।
  • भ्रूण अथवा गर्भ के तीन जनन स्तरों से विभिन्न प्रकार के अंगों का निर्माण होता है, जो निम्न है - 
    1. एंडोडर्म, मुख्य रूप से आहारनाल या पाचनतंत्र का निर्माण करता है। इसके अलावे इस स्तर से श्वसनतंत्र, मूत्राशय एवं कान के मध्य भाग का निर्माण होता है। 
    2. मेसोडर्म परत से मांसपेशी, हृदय, रक्त नली, वृक्क तथा जनन अंगों का निर्माण होता है। इस परत की कुछ कोशिकाओं में शरीर के सभी अंगों तथा उत्तकों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है, ऐसे कोशिकाओं को स्टमसेल (Stem cell) कहते हैं।
    3. एक्टोडर्म परत से त्वचा, मस्तिष्क, मेरूरज्जु (Spinal cord) तथा तंत्रिका (Nerves) का निर्माण होता है।
  • मनुष्य में गर्भावस्था की पूर्ण अवधि चालीस सप्ताह अथवा 9 महीने, 10 दिन का होता है। प्रत्येक माह गर्भ के कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते रहता है। यह परिवर्तन निम्न तरह से होता है-
    1. पहला महीना के बाद शिशु के हृदय का विकास होता है। हृदय शिशु में निर्मित होने वाला प्रथम अंग है।
    2. दूसरे महीने के अंत तक हाथ-पैर तथा अँगुलियाँ विकसित हो जाता है।
    3. तीसरे माह के अंत तक शिशु से सभी अंग तंत्र (पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र आदि) का विकास हो जाता है।
    4. पाँचवें महीने के दौरान सिर पर बाल आने लगते हैं। इसी माह के दौरान गर्भ में गतिशीलता आ जाती है तथा माँ को अपने शिशु के गतिविधि का अनुभव होने लगता है।
    5. छठे महीने के अंत तक पूरे शरीर पर बाल आ जाते हैं तथा शिशु के आँखों की पलके अलग-अलग हो जाती है।
    6. नौवें महीने के अंत में शिशु पूर्णरूप से विकसित हो जाते हैं तथा जन्म लेने हेतु तैयार हो जाते हैं।
  • संतान उत्पत्ति की क्रिया को प्रसव (Parturition) कहते हैं। प्रसव एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें तीव्र प्रसव वेदना (Labour pain) उत्पन्न होता है। अपरा (Placenta ) का गर्भाशय से टूटकर अलग होना ही प्रसव वेदना का कारण है। प्रसव के दौरान शिशु के साथ-साथ अपरा भी गर्भाशय के बाहर निकल आते हैं।
  • संतान उत्पत्ति के 24 घंटे के अंदर स्तनग्रंथि (Mammary gland) में दूध बनना प्रारंभ हो जाता है। ऑक्सीटोसीन हॉर्मोन स्त्रावित होकर स्तन ग्रंथि के आंतरिक दाब को बढ़ा देता है जिससे दूध बाहर निकलने लगता है। शिशु जैसे ही दूध पीना प्रारंभ करता है, ऑक्सीटोसीन हॉर्मोन के कारण मातृत्व प्रेम अपने चरम स्तर पर पहुँच जाता है।
  • गर्भावस्था के दौरान प्रायः शिशु की माँ शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से अस्वस्थ महसूस करती है क्योंकि उसे प्राप्त होने वाला पोषण का अधिकांश भाग गर्भ में पल रहे भ्रूण के पोषण में चला जाता है। अतः गर्भावस्था के दौरान विशेष पोषण की आवश्यकता होती है जिसमें शर्करा, प्रोटीन तथा सभी प्रकार के लवण का होना आवश्यक है।

यौन- संचारित रोग (Sexually Transmitted Disease)

  • ऐसे रोग जो लैंगिक सम्पर्क के कारण फैलती है, उसे यौन संचारित रोग (STD) कहते हैं। ये रोग विभिन्न प्रकार सूक्ष्मजीवजीवाणु, विषाणु, प्रोटोजोआ तथा कवक के कारण होता है। प्रमुख रोग है-
रोग रोग के लक्षण कारक सूक्ष्मजीव
1. AIDS शरीर की प्रतिरक्ष प्रणाली कमजोर हो जाती है। विषाणु (Virus)
2. मस्सा (Warts)  मस्सा योनि (Vagina ), वल्वा, शिश्न ( Penis) या गुदाद्वार (Anus) में हो सकता है। Human Papiloma Virus
3. हर्पिस बाह्य जनन अंगों पर जलन युक्त छाले बन जाते हैं। Herps simplex virus
4. कैनडिंडा एलबिकिस पुरुष के शिश्न तथा स्त्रियों के बाह्य जनन अंग में खुलजी यीस्ट (कवक)
5. गोनोरिया ज्ञान पुरुष के मूत्रनली तथा स्त्रियों के गर्भाशय की ग्रीवा प्रभावित होती है। निसेरिया गोनोरी जीवाणु
6. सिफलिस बाह्य जनन अंग पर दाने आकार की फुंसियाँ निकल आती है। ट्रेपोनेमा पैलिडम जीवाणु
7. यूरेथ्राइटिस मूत्रमार्ग में सूजन क्लैमाइडिया ट्रैकोमैटिस जीवाणु
8. सर्विसाइटिस सर्विक्स में सूजन क्लैमाइडिया ट्रैकोमैटिस जीवाणु
9. सैल्पिनजाइटिस फैलोपियन नलिका में सूजन क्लैमाइडिया ट्रैकोमैटिस जीवाणु

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित पर विचार कीजिए-
1. सजीव जिस विधि के द्वारा अपनी संख्या में वृद्धि करते है. उसे जनन कहते है ,
2. पोषण, श्वसन के तरह सजीवो को जीवित रहने के लिये जनन की आवश्यकता नहीं होती है
3. सभी सजीवों में एक ही तरह से जनन सम्पन्न होता है 
उपर्युक्त में कौन-सा /से सही है/हैं ?
(a) 1 और 2
(b) केवल 1
(c) 1 और 3
(d) उपर्युक्त सभी
2. जब संतति की उत्पत्ति एकल व्यष्टि (Single Parent) के द्वारा होता है, तब जनन की इस विधि को कहते है-
(a) लैंगिक
(b) अलैंगिक
(c) निषेचन
(d) आंतरिक निषेचन
3. अलैंगिक जनन में निम्न में कौन सी एक विशेषता नहीं पायी जाती है ?
(a) इसमें जीवों की केवल एक व्यष्टि भाग लेता है
(b) इसमें युग्मक (gamits) भाग नहीं लेते है
(c) इस प्रकार के जनन में समसूत्री (Mitosis) या असमसूत्री (Amitosis) कोशिका विभाजन ही होता है
(d) इस जनन में केवल बाह्य निषेचन ही होता है
4. निषेचन (Fertilization) की प्रक्रिया किस प्रकार के जनन में होता है ? 
(a) लैंगिक
(b) अलैंगिक
(c) A तथा B दोनों में
(d) न तो A में न ही B में
5. निम्नलिखित में कौन-सा अलैंगिक जनन की विधि है ?
(a) विखंडन
(b) मुकुलन
(c) बीजाणुजनन
(d) इनमें से सभी
6. किस प्रकार के जनन में जनक जीव (Parent Organ- ism) का शरीर बिल्कुल गायब हो जाता है ?
(a) मुकुलन
(b) विखंडन
(c) पुनर्जनन
(d) बिजाणुजनन
7. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. अनुकूल परिस्थितियों में एककोशिकीय जीव जनन हेतु द्विखंडन (Binary fission) का सहारा लेते है।
2. प्रतिकूल परिस्थितियों में एककोशिकीय जीव बहुविखंडन (Multiplefission) द्वारा प्रजनन करते हैं।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है / हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
8. विखंडन (Fission) द्वारा अलैंगिक जनन होता है-
(a) मोनेरा में
(b) प्रोटिस्टा में
(c) a तथा b दोनों
(d) पौधा में
9. मुकुलन (Budding) द्वारा प्रजनन किसमें होता है ?
(a) क्लेमाइडोमोनास में
(b) यीस्ट में 
(c) पेनिसिलियम में
(d) इनमें से सभी में
10. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. विखंडन द्वारा केवल एक कोशिकीय जीवों में ही प्रजनन होता है।
2. मुकुलन द्वारा एककोशिकीय तथा बहुकोशिकीय दोनों जीवों में प्रजनन होता है।
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं ? 
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
11. कायिक जनन (Vegatative reproduction) होता है- 
(a) यीस्ट में 
(b) हाइड्रा में
(c) स्पंज में 
(d) पौधे में
12. निम्नलिखित में कौन-सा एक सही नहीं है ?
(a) अलैंगिक जनन से उत्पन्न संतानों में विभिन्नता नहीं पाया जाता है।
(b) विभिन्नता केवल लैंगिक जनन के द्वारा ही उत्पन्न होता है।
(c) लैंगिक जनन में युग्मक (gamits) भाग लेते हैं परन्तु निषेचन की क्रिया नहीं होती है। 
(d) एककोशिकीय जीवों में अलैंगिक जनन ही जनन की मुख्य विधि है।
13. किस प्रकार के जनन में जनक के शरीर से कलिका (Bud) निकलती है ?
(a) बीजाणुजनन
(b) मुकुलन
(c) विखंडन
(d) बहुविखंडन
14. बीजाणु जनन अलैंगिक जनन की मुख्य विधि है-
(a) कवको तथा शैवालों में
(b) यीस्ट में
(c) हाइड्रा में
(d) स्पंज में
15. अलैंगिक जनन के दौरान किस प्रकार का कोशिका विभाजन होता है ?
(a) समसूत्री
(b) असमसूत्री
(c) अर्द्धसूत्री
(d) a तथा b दोनों
16. टोरूलेशन (Torulation) की प्रक्रिया का संबंध किस प्रकार के जनन से है ?
(a) बीजाणुजनन
(b) मुकुलन
(c) कायिक जनन
(d) विखण्डन
17. कोनिडिया (Conidia) द्वारा अलैंगिक जनन मुख्यतः किसमें होता है ?
(a) कवक में
(b) शैवाल में
(c) फर्न
(d) मॉस में
18. कायिक जनन की क्रिया में पौधे के किस भाग से पौधों को उगा सकते हैं ?
(a) जड़
(b) तना
(c) पत्ती
(d) इनमें से सभी
19. निम्नलिखित में से कौन-सा पौधे के तने के माध्यम से -प्रजनन करते हैं ?
(a) ब्रायोफिलम
(b) इमली
(c) गुलाब
(d) ब्रायोफाइटा
20. केले में कायिक जनन होता है-
(a) प्रकन्द से
(b) कन्द से
(c) बल्व से
(d) अत: भूस्तारी से  
21. निम्नलिखित में किस एक को विखण्डन द्वारा पुनः उत्पन्न किये जा सकते हैं ?
(a) स्पाइरोगाइरा 
(b) पलैनेरिया
(c) हाइड्रा
(d) यीस्ट
22. निम्नलिखित में कौन-सा एक अलैंगिक प्रजनन की विधि नहीं है ?
(a) मुकुलन
(b) बीज बोना 
(c) दाब लगाना
(d) लेयरिंग
23. यीस्ट के शरीर से निकलने वाला मुकुल किस प्रकार का होता है ?
(a) एककोशिकीय
(b) बहुकोशिकीय
(c) एककोशिकीय या बहुकोशिकीय
(d) इनमें से सभी
24. कैलस (Callus) का निर्माण किस प्रकार के जनन में होता है ?
(a) बीजाणुजनन
(b) मुकुलन
(c) उत्तक संबर्द्धन
(d) लैंगिक जनन
25. अजूबा पौधा (ब्रायोफिलम) में कायिक जनन किसके द्वारा होता है ?
(a) पत्ती
(b) जड़
(c) तना
(d) पुष्प
26. बैक्टीरिया तथा प्रोटोजोआ जीव अनुकूलन परिस्थिति में किस प्रकार से प्रजनन करते हैं ?
(a) समद्विविखण्डन
(b) लैंगिक जनन
(c) बीजाणुजनन
(d) इनमें से सभी
27. राइजोम (Rhizome) और घकन्द (corm) जैसे भूमिगत तना क्यों विकसित होते हैं ?
(a) भोजन के संचयन के लिए
(b) वर्धी प्रजनन के लिए
(c) बहुवर्षिता के लिए 
(d) इनमें से सभी
28. जीवनचक्र की दृष्टि से पौधे का सबसे महत्वपूर्ण भाग है-
(a) पत्ती
(b) फूल 
(c) तना 
(d) जड़
29. निम्नलिखित में कौन द्विलिंगी जीव (Hermephrodite) के उदाहरण है-
(a) स्पंज
(b) टेपवर्म 
(c) जोंक
(d) इनमें से सभी
30. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. एक पूर्ण पुष्प में चार चक्र होते हैं।
2. पुमंग पुष्प के मादा भाग है।
3. जायांग पुष्प के नर भाग है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) केवल 3
(d) 1, 2 और 3
31. फूल का कार्य है-
(a) परागकण तथा अंडों का उत्पादन करना
(b) परागण तथा निषेचन करवाना
(c) बीज तथा फलों का निर्माण करना
(d) इनमें से सभी
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Sun, 21 Apr 2024 11:22:02 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों तथा मानव शरीर का नियंत्रण एवं समन्वयन https://m.jaankarirakho.com/1005 https://m.jaankarirakho.com/1005 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों तथा मानव शरीर का नियंत्रण एवं समन्वयन
  • बहुकोशिकीय सजीव के शरीर में बहुत से अंग तंत्र होते हैं जो अलग -अलग कार्यों को संपादित करते है। सभी अंग तंत्रों के कार्यों के बीच समन्वयन (Co-ordination) तथा उनपर नियंत्रण करने हेतु बहुकोशिकीय सजीव में जटिल तंत्र बना होता है।
  • पौधों तथा मानव शरीर में नियंत्रण तथा समन्वयन अलग-अलग तरीके से होता है। पौधों में नियंत्रण एवं समन्वयन कुछ गतियाँ (Plant Movement) तथा रसायनिक पदार्थ (Plant Hormone) के द्वारा सम्पन्न होता है। मानव शरीर में नियंत्रण तथा समन्वयन हेतु हॉर्मोन (Hormone) तथा तंत्रिका तंत्र (Narvous system) पाये जाते है।
पौधों में नियंत्रण एवं समन्वयन
  • पौधा में नियंत्रण एवं समन्वयन हेतु तीन प्रकार की गति पायी जाती है। पौधा में पायी जानेवाली गति पौधा में वृद्धि और विकास से संबंधित है, न कि प्रचलन (स्थान से।
    1. अनुवर्ती गति (Tropic Movement)- किसी बाहरी उद्दीपक (प्रकाश, ताप, मानव स्पर्श, जल आदि) के प्रति पौधो के किसी भाग (जड़, तना, पत्ती) में उत्पन्न गति को अनुवर्ती गति कहते हैं। अगर गति उद्दीपक की ओर होता है तो उसे धनात्मक अनुवर्त्तन कहते हैं अगर गति उद्दीपक से दूर हो तो ऋणात्मक अनुवर्त्तन कहलाते हैं।
      • वातावरण में पाँच सामान्य उद्दीपक है। प्रकाश के कारण होनेवाली अनुवर्ती गति को प्रकाशानुवर्त्तन कहते हैं । उसी प्रकार गुरूत्व के कारण उत्पन्न गति को गुरुत्वानुवर्त्तन, रसायन के कारण उत्पन्न गति को रसायनानुवर्त्तन, जल के कारण उत्पन्न गति को जलानुवर्त्तन कहते हैं।
      • पौधा का तना धनात्मक प्रकाशानुवर्त्ती प्रदर्शित करते हैं वही जड़ ऋणात्मक प्रकाशानुवर्त्ती प्रदर्शित करते हैं ।
      • तना ऋणात्मक गुरूत्वानुवर्त्ती प्रदर्शित करते हैं तथा जड़ धनात्मक गुरूत्वानुवर्त्ती प्रदर्शित करते हैं।
      • कमजोर पौधा जैसे - करैला, लौकी, मटर के टेनड्रिल धनात्मक स्पर्शानुवर्त्तन होते हैं जो किसी ठोस भाग के स्पर्श होते ही उनसे लिपट जाते हैं।  
    2. अनुकुंचन गति (Nastic Movement )- किसी बाहरी उद्दीपक के प्रति प्रतिक्रिया में पौधा के अंग की गति जिसमें उद्दीपक की दिशा द्वारा प्रतिक्रिया की दिशा निर्धारित नहीं होती है अनुकुंचन गति कहलाती है।
      • अनुवर्ती तथा अनुकुंचन गति से मुख्य अंतर यह है कि अनुवर्ती गति दिशात्मक होता है परंतु अनुकुंचन गति दिशांत्मक नहीं होता है। अनुकुंचन गति के उदाहरण-
        1. अँगुली से स्पर्श करने पर छूई मुई (मिमोसापुडिका) के पत्ते मुड़कर बंद हो जाते हैं। यह अनुकुंचन गति स्पर्शानुकुंचन कहलाता है।
          • छुई मुई को स्पर्श करने पर पत्तियों के बंद होने की घटना क्यों होती है इस पर सभी जीव वैज्ञानिकों का मत एक नहीं है। छुई मुई पौधा का इस व्यवहार से पौधे को कोई लाभ नहीं पहुँचाता है इस कारण एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है कि जब पौधा को कोई फायदा नहीं हो रहा है तो वे इस प्रकार के व्यवहार को क्यों प्रदर्शित कर रहे हैं।
        2. पौधो के फूल की पंखड़ियाँ तेज प्रकाश में खुलते हैं और शाम को बंद हो जाते हैं। इस प्रकार के अनुकुंचन गति प्रकाशानुकुंचन कहलाता है।
    3. अनुचलन (Tatic or Taxis Movement )- यह गति निम्न कुल के पौधे जैसे- शैवाल, युग्लीना तथा कुछ एककोशीय जीव में भी पाये जाते हैं यह गति भी बाहरी उद्दीपन के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं परंतु इस गति में स्थान परिवर्तन ( locomotion) की क्रिया पायी जाती है।
      • यूग्लीना और क्लेमाइडोमोनास प्रकाश के प्रभाव से प्रकाश की ओर गति करना शुरू कर देते हैं वही कछुआ प्रकाश से दूर भाग जाता है इस प्रकार का अनुचलन गति प्रकाश - अनुचलन कहलाता है।
  • तीन गतियाँ के अलावे पौधों में कुछ रसायनिक पदार्थ बनते हैं जो पौधों में नियंत्रण एवं समन्वयन का काम करते हैं। इन रसायनिक पदार्थ को पादप हॉर्मोन कहते हैं। कुछ जीव वैज्ञानिक पादप हार्मोन को पाराहॉर्मोन तथा वृद्धि नियंत्रक रसायन भी कहते हैं। पौधा में निकलने वाले प्रमुख हॉर्मोन निम्नलिखित हैं-
    1. ऑक्जिन (Auxin)— यह रसायन मुख्य रूप से तने के शीर्ष भाग में बनता है तथा तना, पत्ती, में वृद्धि कराता है। यह जड़ में भी वृद्धि करवाता है तथा यह बीज रहित फल का उत्पादन में सहायक होते हैं।
      • ऑक्जीन रसायनिक रूप से इंडोल एसेटीक अम्ल है । आजकल कई ऐसे रसायन बाजार में उपलब्ध है जिसका प्रयोग पौधा पर इच्छानुसार वृद्धि के लिए किया जाता है।
      • ऑक्जीन के समान प्रमुख रसायनिक पदार्थ हैं- फेनॉक्सी ऐसीटिक अम्ल (2, 4-D), इंडोलाइल ब्यूटाइरिक अम्ल, इंडोलाइल प्रोपायोनिक अम्ल आदि। इस रसायन का प्रयोग खरपतवार नष्ट करने हेतु भी किया जाता है। 
    2. जिबरेलिन्स (Gibberellins)रसायन की खोज सर्वप्रथम जापान के टोकियो विश्वविद्यालय में जिबरैला नामक कवक में हुआ था। बाद में पता लगा कि यह रसायन पौधा में भी बनते हैं।
      • जिबरेलिन्स पौधे के लंबाई तथा मोटाई में वृद्धि करवाता है, बीजों के सुषुप्तावस्था को तोड़कर अंकुरण में मदद करता है, पतझड़ को रोकता है, फलों के पकने की प्रक्रिया को धीमा करता है तथा सेब जैसे फसल को ठंड और पाला से बचाता है।
      • जिबरेलीन्स के इस्तेमाल से बड़े आकार का फल तथा फूल का उत्पादन किया जाता है तथा बीजरहित फल के उत्पादन में यह ऑक्जीन की तरह ही सहायक होता है।
    3. साइटोकाइनिन (Cytokinin)— यह रसायन DNA में पाये जानेवाले नाइट्रोजन युक्त क्षार एडिनिन के समान है। इसका खोज मिलर ने मछली के शुक्राणु में किया था और इसका नाम काइनेटिन रखा, बाद में के समय में स्कूग नामक वैज्ञानिक इसका नाम साइटोकाइनीन रखा i
      • इस रसायन का निर्माण पौधों के जड़ों में तथा फल के भीतर होता है। यह रसायन ऑक्जीन के साथ मिलकर कोशिका - विभाजन की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है । यह पत्तों के विकास को धीमा करता है और क्लोरोफील को जल्दी नष्ट होने नहीं देता है। इस रसायन के प्रभाव से पेड़ की पत्तियाँ अधिक समय तक हरी और ताजी बनी रहती है।
    4. एबसिसिक एसीड (Abscissic acid or ABA)- यह एक प्रकार का वृद्धिरोधक पदार्थ है जो पौधा में होनेवाली वृद्धि को रोकता है। इसका निर्माण पौधे के पत्ते, फल और तना में होता है ।
      • यह रसायन पतझड़ कराने में कलियों की वृद्धि तथा अंकुरण को रोकने में सहायक होता है तथा यह कोशिका विभाजन को भी अवरूद्ध करता है ।
    5. इथाइलीन (Ethene or Ethylene)- यह फलों का पकाने वाला रसायन है जिसकी खोज सबसे पहले केले में हुआ था। कभी-कभी यह रसायन पौधे के वृद्धि को रोकता है, और फल तथा पत्तों को गिराता है।

Note :- पौधों में हॉर्मोन निकालने हेतु जंतुओं के तरह कोई अंतः स्त्रावी ग्रंथि नहीं होती है।

जंतुओं में नियंत्रण एवं समन्वयन

  • जंतुओं में नियंत्रण एवं समन्वयन हेतु अंतस्त्रावी ग्रंथि तथा तंत्रिका तंत्र पाये जाते हैं।
  • ग्रंथि दो प्रकार के होते हैं— अंतःस्त्रावी ग्रंथि तथा बाह्यस्त्रावी ग्रंथि । अंतःस्त्रावी ग्रंथि विभिन्न प्रकार के हॉर्मोन का स्त्राव करते हैं।
  • अंतःस्त्रावी ग्रंथि को नलिका विहीन ग्रंथि भी कहते हैं। क्योंकि इसमें कोई नली नहीं पायी जाती है। इस ग्रंथि से हॉर्मोन निकलकर सीधे रक्त में आ जाते हैं तथा रक्त के द्वारा ही शरीर के विभिन्न भाग में पहुँचते हैं।
मनुष्य के प्रमुख अंतःस्त्रावी ग्रंथि
  1. हाइपोथैलेमस ग्रंथि (Hypothalamus Gland)- यह अग्र मस्तिष्क (Fore Brain) में पाया जाता है। यह ग्रंथि शरीर में होने वलो सभी उपापचय (Metabolism) पर नियंत्रण रखता है। हाइपोथैलेमस ग्रंथि मस्तिष्क में पाये जाने वाले एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथि - पीयूष ग्रंथि की क्रिया को नियंत्रित करने हेतु release factor तथा Inhibitory Factor का निर्माण करता है।
    • हाइपोथैलेमस ग्रंथि से दो हॉर्मोन का स्त्राव हाता है-
      1. ऑक्सीटोसीन ( Oxytocin ) - यह हॉर्मोन आरेखित मांसपेशी (Unstriped Muscles) में संकुचन उत्पन्न करता है। महिलाओं में यह हॉर्मोन बच्चों को दुग्धपान कराते समय तथा संतान उत्पत्ति के समय आंतरिक दबाव बढ़ाता है ।
      2. भासोप्रेसीन (Vasopressin)- इस हॉर्मोन की कमी से शरीर में जल का सक्रिय रूप से परागमण नहीं हो पाता है, जिसके कारण बहुमूत्रता (बार-बार पेशाब लगना) उत्पन्न हो जाती है। इस हॉर्मोन को एंटीडाययूरेटिक हार्मोन भी कहते हैं ।
  2. पीयूष ग्रंथि (Pitutary Gland) - यह ग्रंथि मस्तिष्क में पाया जाता है। सभी अंतःस्त्रावी ग्रंथि के तुलना में यह सबसे छोटी ग्रंथि है। इस ग्रंथि से कुल सात प्रकार के हॉर्मोन का स्त्राव होता है।
    1. ग्रोथ हॉर्मोन (Growth Harmone or GH)- यह हॉर्मोन एक अन्य हॉर्मोन थाइरॉक्सीन के साथ मिलकर शरीर की वृद्धि एवं विकास को नियंत्रित करते हैं ।
      • इस हॉर्मोन की कमी से शरीर की वृद्धि रूक जाती है जिससे मनुष्यों में बौनापन (Dwarfism) हो जाता है।
      • इस हॉर्मोन की अधिक स्त्राव से मनुष्य की लंबाई काफी बढ़ जाती है, हड्डी मोटा एवं भारी हो जाता है, इस अवस्था को Gigantism कहा जाता है।
    2. TSH (Thyroid Stimulating Harmone)-- यह हॉर्मोन थाइरॉइड ग्रंथि के विकास, उसमें बनने वाले हॉर्मोन पर नियंत्रण रखता है I
    3. ACTH (Adreno corticotrophic Hormone)- यह हॉर्मोन एडरीनल ग्रंथि (अववृक्क ग्रंथि) के वृद्धि एवं उसमे बनने वाले हॉर्मोन पर नियंत्रण रखता है।
    4. MSH (Melanocyte Stimulating Hormone) - यह हॉर्मोन त्वचा (Skin) के मेलोनोसाइट कोशिका में बनने वाले मेलालीन रंग पर नियंत्रण रखता । यह हॉर्मोन का हमारे लिए कोई विशेष महत्व नहीं होता है ।
      • सफेद दाग (Vitiligo या ल्यकोडर्मा ) - जब त्वचा की मेलानोसाइट कोशिका किन्हीं कारणों से मेलालीन रंग बनाना बंद कर देती है तो त्वचा पर सफेद दाग हो जाते हैं। दुनिया की 1% तथा भारत का 8% जनसंख्या इस सफेद दाग से प्रभावित है और दुर्भाग्य की बात यह है कि इस सफेद दाग का अभी तक कोई पक्का इलाज विज्ञान को नहीं मिला है।
      • हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए की सफेद दाग कोई रोग अथवा बिमारी नहीं है। सफेद दाग वाले व्यक्ति के सभी अंग तंत्र ठीक उसी प्रकार कार्य करते है जिस प्रकार एक स्वस्थ व्यक्ति के । सफेद दाग न तो खतरनाक है और न ही यह छूत का रोग है। समाज के लोगों के बीच एक मिथक फैल गया है कि दूध एवं मछली एक साथ सेवन करने से सफेद दाग होता है, जो पूर्णतः गलत है।
    5. Prolactin (प्रोलैक्टीन ) - यह हॉर्मोन संतान उत्पत्ति के बाद दूध निर्माण की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यह हॉर्मोन पुरूष में भी निकलता है लेकिन वह बेकार हो जाता है ।
    6. FSH (Folicle Stimulating Hormone ) - यह हॉर्मोन स्त्रियों में अंडा निर्माण प्रक्रिया (Oogenesis) तथा पुरूष में शुक्राणु निर्माण प्रक्रिया ( Spermatogenesis) को नियंत्रित करता है ।
    7. LH (Luteinzing Hormone) - यह वयस्क उम्र का हॉर्मोन है। इस हॉर्मोन के प्रभाव से स्त्रियों में अंडाणु (Ova) तथा पुरूष में शुक्राणु (Sperm) निकलना प्रारंभ हो जाते हैं। इसी हॉर्मोन के प्रभाव से विपरित लिंग एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं।
      • पीयूष ग्रंथि को अंतस्त्रावी ग्रंथि का मालिक कहा जाता है तथा इससे निकलने वाले हॉर्मोन को निश्चित लक्ष्य वाला हॉर्मोन कहा जाता है।
  3. Pineal gland (पीनियल ग्रंथि) - इस ग्रंथि के कार्य के बारे में कुछ भी स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है परंतु हाल के शोध-कार्य से मालूम हुआ है कि यह कोई स्त्राव उत्पन्न करता है। इस ग्रंथि से मिलेटोनिन तथा सिरोटिनिन हॉर्मोन का स्त्राव होता है।
    • मिलेटोनिन महिलाओं के मासिक चक्र की प्रक्रिया को धीमा करता है तथा सिरोटिनिन नींद लाने हेतु उत्तरदायी है |
  4. थाइरॉइड या अवटु ग्रंथि (Thyroid gland) - थाइरॉइड ग्रंथि शरीर का सबसे बड़ी अंतः स्त्रावी ग्रंथि है। यह लगभग 2–2.5 cm लम्बा तथा 1-1.5 cm मोटा होता है। इस ग्रंथि से दो मुख्य हॉर्मोन स्त्रावित होता है।
    1. Thyroxin— यह हार्मोन ग्लूकोज, अमीनो अम्ल और वसा का ऑक्सीकरण करवाता है जिससे हमें ATP के रूप में ऊर्जा की प्राप्ति होती है ।
      • यह हॉर्मोन, हाइपोथैलेमस ग्रंथि तथा TSH के साथ मिलकर शरीर के तापमान को नियंत्रित करता है । शरीर के तापमान नियंत्रण की प्रक्रिया थर्मोरेगुलेशन कहलाता है।
      • थाइरॉक्सीन हॉर्मोन भ्रूण अवस्था से लेकर वयस्क होने तक Growth Hormone का सहायता करता है जिससे शरीर में वृद्धि होती है।
      • थाइरॉक्सीन के कमी से बच्चों में क्रेटिनिज्म रोग तथा बड़ों में इस हॉर्मोन की मात्रा अचानक बढ़ जाती है जिससे ग्रेभ की बिमारी हो जाती है। ग्रेम की बिमारी में एक या दोनों आँखे बड़ी-बड़ी और बाहर निकली दिखाई पड़ती है।
    2. Calcitonin— यह हॉर्मोन रक्त में उपस्थित कैल्शियम को हड्डी से जोड़ता है जिससे हड्डी मजबूत बनती है। इसकी कमी से Osteoporosis रोग होने की संभावना रहती है।
  5. पारा अवटु ग्रंथि (Parathyroid gland)- यह ग्रंथि थॉयरॉइड ग्रंथ ऊपर चिपकी रहती है तथा इसकी संख्या दो होती है। इससे एक मात्र हॉर्मोन पाराथॉर्मोन का स्त्राव होता। यह हॉर्मोन हड्डी के टूटे-फूटे भाग से अतिरिक्त कैल्शियम हटाकर रक्त में डालता है। Parathormone की कमी से गठिया तथा अधिकता से Osteoporosis रोग हो सकता है I
  6. अववृक्क ग्रंथि (Adrenal Gland ) - यह ग्रंथि दोनों वृक्क (Kidney) के उपर चिपके रहता है। यह ग्रंथि की संख्या हमारे शरीर में दो है । किडनी के तरह यह ग्रंथि का आंतरिक भाग दो स्पष्ट भागों में विभक्त रहता है- Medula तथा Cortex | अववृक्क ग्रंथि से निम्न प्रकार के हॉर्मोन स्त्रावित होते हैं।
    1. Mineralo Corticoid– इस हार्मोन का मुख्य कार्य वृक्क नालिकाओं (नेफ्रॉन) द्वारा सोडियम लवण का पुनः अवशोषण करवाना तथा शरीर में अन्य लवणों की मात्रा का नियंत्रण करना है। इसके अलावे यह हॉर्मोन शरीर में जल-संतुलन को नियंत्रण करता है तथा इसके प्रभाव से मूत्र द्वारा पोटैशियम एवं फॉस्फेट का अधिक उत्सर्जन होता है ।
      • इस हॉर्मोन के अधिक स्त्राव से Hypertension तथा कम स्त्राव से कैन्स रोग होता है। कैन्स रोग में तंत्रिका तंत्र में गड़बड़ी उत्पन्न होती है । 
    2. Gluco-corticoid- यह हॉर्मोन कार्बोहाइड्रेट प्रोटीन, एवं वसा के उपापचय (Metabolism) पर नियंत्रण रखते हैं तथा जरूरत पड़ने पर वसा तथा अमीनों अम्ल को कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित करते हैं।
      • शरीर में ग्लूकोज की कमी होने पर वसा अम्ल या अमीनों अम्ल का कार्बोहाइड्रेट (ग्लूकोज) में परिवर्तन gluconeogenesis कहलाता हैं ।
      • यह हॉर्मोन सूजन विरोधी तनाव-विरोधी एवं एलर्जी विरोधी क्रिया भी करते हैं। इस हॉर्मोन के बिना हमलोग जिंदा नहीं रह सकते हैं ।
    3. Cate Cholamine अववृक्क ग्रंथि के मेडुला भाग से दो हॉर्मोन स्त्रावित होते हैं- एड्रीनलीन तथा नॉर-एड्रीनलीन जिन्हें सम्मीलित रूप कैटेकोलामाइन भी कहते हैं।
      • यह हॉर्मोन हृदयगति तथा रक्तचाप को नियंत्रित करता है तथा तनाव वाले परिस्थितियों में (जैसे- भय, मारपीट, आगजनी दंगा ) इस हॉर्मोन की मात्रा अचानक बढ़ जाती है जिससे मांसपेशी में जमा सारा ग्लूकोज रक्त में आ जाता है जिससे एकाएक काफी ऊर्जा हमें प्राप्त होता है और हम विपरित परिस्थिति में अपनी रक्षा कर पाते हैं।
      • इस हॉर्मोन को लड़ो-उड़ो हॉर्मोन या 3F हार्मोन (Fight, Fear, Flight) भी कहते हैं ।
      • अववृक्क ग्रंथि से निकलने वाले तीनों हॉर्मोन को सम्मिलित रूप से 3S (Salt, Sugar, Stress) हॉर्मोन भी कहते हैं ।
  7. Pancreas (अग्न्याशय) - यह हमारे शरीर का मिश्रीत प्रवृत्ति की ग्रंथि है जो एंजाइम तथा हॉर्मोन दोनों को स्त्रावित करता है।
    • अग्न्याशय का पचास प्रतिशत भाग एसीनर कोशिकाओं से बना होता है जिससे एंजाइम निकलता है, शेष भाग एल्फा, बिटा, गामा (डेल्टा) कोशिकाओं से बना है जिसे Islets of Languerhans कहते हैं। लैंगर हैन्स द्वीपीका से ही हॉर्मोन स्त्रावित होता है। प्रमुख हॉर्मोन निम्न है-
      1. Insulin— यह बीटा कोशिका से स्त्रावित होता है। जब रक्त में ग्लूकोज का स्तर सामान्य से अधिक होता है तब यह हॉर्मोन स्त्रावित होकर अधिक ग्लूकोज जो ग्लाइकोजेन में बदल देता है। यह ग्लाइकोजैन हमारे यकृत जमा हो जाता है। इसकी कमी होने पर डायबिटिज मेटीलस (मधुमेह) रोग हो जाता है।
      2. Glucagon - यह अल्फा कोशिका से स्त्रावित होता है तथा Insulin के विपरित कार्य करता है। यह हॉर्मोन, रक्त में ग्लूकोज की मात्रा कमी होने पर ग्लाइकोजेन को ग्लूकोज में परिविर्तत करता है।
      3. Somato Statin- यह गामा या डेल्टा कोशिका से निकलने पाला हॉर्मोन घाव भरने में मदद करता है ।
      4. Gastrin - यह हॉर्मोन 14  स्त्रावित होता है। यह हॉर्मोन अमाशय से HCl का स्त्राव करवाता है। इस हॉर्मोन के अधिक स्त्राव से पेट में अल्सर होने की संभावना बन जाती है।
  8. Testes (वृषण) - यह पुरूषों में पायी जाने वाली अंतस्त्रावी ग्रंथि है। इसके द्वारा स्त्रावित हॉर्मोन ऐंड्रोजेन (पुरूष हॉर्मोन) कहलाता है।
    • प्रमुख एंड्रोजेन Testosteron हार्मोन है जो पुरूष के लैंगिक लक्षण पर नियंत्रण रखते हैं।
  9. Overy (अंडाशय)- यह महिलाओं में पायी जाने वाली अंतस्त्रावी ग्रंथि है। इसके द्वारा निम्न हार्मोन का स्त्राव होता है-
    1. Astrogen इस हॉर्मोन का स्त्राव अंडाशय के ग्रैफियन फॉलिकिल कोशिका द्वारा होता है। यह हॉर्मोन महिलाओं के लैंगिक लक्षण पर नियंत्रण रखता है। 
    2. Progesterone— इस हॉर्मोन का स्त्राव अंडाशय के कॉर्पस ल्यूटियम कोशिकाओं द्वारा होता है। यह हॉर्मोन गर्भावस्था पर नियंत्रण रखता है ।
  10. Placenta (जरायु)- गर्भधारण करने के उसे 4 सप्ताह बाद भ्रूण की कोशिका गर्भाशय (Uretes) की कोशिकाओं के - साथ जुटकर जरायु का निर्माण करता है | Placenta के द्वारा निम्न हॉर्मोन स्त्रावित होते हैं-
    1. Progesterone गर्भधारण के बाद से लेकर पूरे गर्भावस्था ( 9 महिना 10 दिन) तक Progesterone हॉर्मोन जरायु द्वारा ही स्त्रावित होता है। यह Hormone गर्भावस्था पर नियंत्रण रखता है।
    2. Relaxin- यह हॉर्मोन बच्चे के जन्म के ठीक पहले स्त्रावित होता है। यह हॉर्मोन गर्भनली तथा जरायु के मुख्य ढीला करता है ताकि बच्चा माँ के गर्भाशय से आसानी से बाहर आ सकें। 
    3. Prostaglandin यह हॉर्मोन के प्रभाव से जरायु गर्भाशय से टूटकर अलग होने लगता है जिससे संतान के जन्म (Parturition) के समय दर्द उत्पन्न होता है, जिसे Labour Pain (प्रसव वेदना) कहते हैं।
  11. थाइमस ग्रंथि (Thymus gland)- यह ग्रंथि हृदय तथा महाधमनी के ऊपर स्थित होता है। यह ग्रंथि युवाओं में सक्रिय रहता है तथा धीरे-धीरे इसका आकार घटते जाता है। वृद्धावस्था में यह ग्रंथि पूरी तरह से लुप्त हो जाती है। इस ग्रंथि से दो हार्मोन का स्त्राव होता है-
    1. थाइमोसीन - यह हॉर्मोन T-लिम्फोसाइट के निर्माण को बढ़ावा देता है जिससे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत बनता है।
    2. थायमीन- यह हार्मोन थाइमस ग्रंथि के स्त्राव पर नियंत्रण रखता है।
  • थाइमस ग्रंथि जन्म के समय 10-12 ग्राम, युवा अवस्था में 20-30 ग्राम तथा वृद्धावस्था में 3-6 ग्राम वजन का होता है।

मानव का तंत्रिका तंत्र (Narvous System of Human Body)

  • तंत्रिका तंत्र मानव शरीर के अंदर होने वाली सभी क्रियाओं का समन्वयन (Co-ordination) करता है, तथा उन पर नियंत्रण (Control) रखता है। तंत्रिका तंत्र की सहायता से मानव बाहरी तथा भीतरी उद्दीपनों को ग्रहण कर उनके अनुकूल कार्य करने में सक्षम हो पाता है।
  • तंत्रिका तंत्र, तंत्रिका उत्तक (Narvous Tissue) का बना होता है एवं तंत्रिका उत्तक, तंत्रिका कोशिका का बना होता है। तंत्रिका कोशिका को न्यूरॉन (Neurone) कहते है। न्यूरॉन को तंत्रिका तंत्र की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई कहा जाता है।

तंत्रिका कोशिका (Neurone - cell)

  • न्यूरॉन को जब सूक्ष्मदर्शी से देखा जाय तो इसके दो स्पष्ट भाग दिखाई पड़ते हैं। ये हैं- 1. साइटॉन (Cyton or Cell-body) तथा 2. तंत्रिका तंतु (Nerves fibres ) ।
  • न्यूरॉन का मुख्य भाग साइटॉन है। इस कोशिका का केन्द्रक साइटॉन वाले भाग में स्थित रहता है। साइटॉन वाले भाग के कोशिका द्रव्य में अनेक कण समान संरचना पायी जाती है जिसे निसेल ग्रेन्यूल (Nissl's Granules) कहते हैं।
  • साइटॉन के चारों और पतले-पतले तंतु समान संरचना को तंत्रिका तंतु (Nerves-fibres ) या कोशिका प्रवर्ध (Cell Processes) कहते हैं। तंत्रिका तंतु दो प्रकार के होते हैं- डेन्ड्रॉन (Dendrone) तथा एक्सॉन (Axon ) ।
  • साइटॉन से निकलने वाली सूक्ष्म सूक्ष्म तंतु को डेन्ड्रॉन कहते हैं, पुनः डेन्ड्रॉन छोटी-छोटी शाखाओं में बँट जाती है जिसे डेन्ड्राइट्स (Dendrites) कहते है।
  • साइटॉन से निकलने वाले लम्बे आकार के तंतु को एक्सॉन कहते है। एक्सॉन के अंतिम सिरे से कई तंतुएँ निकलती है जिसे सिनेष्टिक नांव (Synaptic Knob) कहते है।
  • न्यूरॉन के एक्सॉन वाले भाग के ऊपर सफेद रंग के चर्बीदार पदार्थ का आवरण रहता है, जिसे मेडुलरी या मायलीन शीथ (Medullary or myelin sheath) कहते हैं। एक्सॉन के जिस जगह पर मायलीन शीथ नहीं रहते हैं, उस जगह को रेनवियर के नोड (nodes of Ranvier) कहते है।
  • एक्सॉन के मायलीन शीथ परत के ऊपर एक पतली झिल्ली होती है जिसे न्यूरिलेमा (Neurilemma) कहते है। न्यूरिलेमा एक खास प्रकार के कोशिका से निर्मित होती है, इन कोशिकाओं को श्वान कोशिका (Schewann cells) कहते है।
  • एक न्यूरॉन का एक्सॉन, दूसरे न्यूरॉन के डेन्ड्राइटस से जुड़ा रहता है। इस जोड़ों को सिनेप्स (Synapse) कहा जाता है।
  • सभी प्रकार के संवेदना का प्रवाह अंगों से मस्तिष्क (Brain) तक तथा मस्तिष्क से विभिन्न अंगों के बीच न्यूरॉन के द्वारा ही होता है। संवेदनाओं के प्रवाह के आधार पर न्यूरॉन दो प्रकार के होते है-
    1. Sensory Neuron- यह न्यूरॉन शरीर के संवेदी अंग (आँख, नाक, कान, त्वचा तथा जीभ) से संवेदना को ग्रहण कर, उसे मस्तिष्क तक पहुँचाते है। मस्तिष्क इन संवेदनाओं को ग्रहण कर उसका विश्लेषण करता है तथा शरीर के अंगों को उचित निर्देश देता है।
    2. Motor Neuron— यह न्यूरॉन मस्तिष्क के निर्देश को शरीर में विभिन्न अंगों तक पहुँचाते है।
  • उपर्युक्त दो प्रकार के न्यूरॉन के अतिरिक्त कुछ ऐसे न्यूरॉन होते हैं जो Sensory Neuron तथा Motor Neuron के कार्यों के बीच सामंजस्य स्थापित कराता है, जिसे Adjustor Neuron कहते हैं।
  • संवेदनाओं तथा मस्तिष्क के निर्देशों का न्यूरॉन से होकर तीव्र गति से प्रवाह कराने हेतु सिनैप्स वाले स्थान पर न्यूरॉन के एक्सॉन के सिनेप्टिक नोव से कुछ पदार्थ स्त्रावित होता है, जिन्हें न्यूरोट्रांसमीटर कहते है। न्यूरोट्रांसमीटर दो प्रकार के होते है-
    1. Acetylcholone— उस पदार्थ की कमी होने पर अलजाईमर रोग हो जाता है, जिसमें मनुष्य की यादाश्त में कमी आने लगती है।
    2. Dopamin- इस रसायनिक पदार्थ की कमी से पर्कीसन रोग होता है, जिसमें मनुष्य के हाथ तथा पैर में थरथराहट होते रहता है।
  • न्यूरॉन में संवेदनाओं का ग्रहण डेन्ड्राइट्स के द्वारा होता है। डेन्ड्राइटस इन संवेदना को साइटोंन को भेज देता है। साइटॉन में संवेदना, विद्युत आवेग ( Impulse) में बदल जाता है। विद्युत आवेग साइटॉन से एक्सॉन में पहुँच जाता है और फिर एक्सॉन से दूसरे न्यूरॉन के डेन्ड्राइट्स में।
  • विद्युत आवेग ( Impulse ) का संचार हमेशा एक न्यूरॉन के एक्सॉन से इससे न्यूरॉन के डेन्ड्राइट्स में होता है, न कि इसके विपरित ।
  • तंत्रिका कोशिका (Neuron) एक विशेष प्रकार के संयोजी उत्तक द्वारा आपस में जुड़ी रहती है। इन संयोजी उत्तक को न्यूरोग्लिया (Neuroglia) कहते है ।
  • मानव के तंत्रिका तंत्र को जीव वैज्ञानिक ने तीन भागों में बाँटा है, ये है- 
    1. Central Narvous system.
    2. Peripheral Narvous system.
    3. Autonomous Narvous system.

1. Central Narvous system ( केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र )

  • केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के अंतर्गत मस्तिष्क (Brain) तथा मेरुरज्जु (Spinal Cord) आते है।
  • मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु के सुरक्षा हेतु इस पर तीन झिल्लियों का एक परत चढ़ा रहता है। तीन झिल्लियों में सबसे आंतरिक झिल्ली को पायमेटर (Piamater), मध्य झिल्ली को अरैकनॉइड (Arachnoid ) तथा बाहरी झिल्ली को डूरामेटर (Duramatter) कहते है। इन तीनों झिल्ली को सम्मिलित रूप से मेनिन्जेज ( Meninges) कहते है।
  • मस्तिष्क के पायमेटर तथा अरैक्नॉइड झिल्ली के बीच एक तरल पदार्थ पाये जाते हैं जिसे सेरीब्रोस्पाइनल द्रव (Cerebrospinal fluid) कहते हैं यह द्रव (Fluid) मस्तिष्क का पोषण, श्वसन गैसों तथा अन्य पदार्थों के परिवहन के लिए माध्यम का कार्य करता है।
  • केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र, सबसे प्रमुख तंत्रिका तंत्र है। अन्य दो तंत्रिका तंत्र, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के नियंत्रण में कार्य करते है।

मस्तिष्क (Brain)

  • मानव मस्तिष्क एक कोमल अंग है जिसकी संरचना अत्यंत ही जटिल होती है। मानव मस्तिष्क का औसत आयतन 1650ml तथा औसत भार 1.5 kg होता है। मस्तिष्क 6 वर्ष की उम्र तक पूर्ण विकसित हो जाता है।
  • मस्तिष्क केन्द्रीय तंत्रिका का अग्र भाग है जो खोपड़ी के मस्तिष्क गुहा (Cranium) के अंदर सुरक्षित रहता है। मस्तिष्क गुहा में हड्डीयों की संख्या आठ होती हैं।
  • मानव मस्तिष्क तीन भागों में बँटे होते हैं- अग्र मस्तिष्क (Fore Brain), मध्य मस्तिष्क (Mid Brain) तथा पश्च मस्तिष्क (Hind Brain)। मध्य तथा पश्च मस्तिष्क को सम्मीलित रूप से मस्तिष्क स्टेम (Brain stem) कहते है।
  • मस्तिष्क के अग्र भाग (Fore Brain)- अग्र मस्तिष्क दो भागों में बँटा होता है। सेरीब्रम तथा डाइएनसफेलॉन।
  1. सेरीब्रम (Cerebrum) :
    • सेरीत्रम मस्तिष्क का सबसे बड़ा तथा सबसे महत्वपूर्ण भाग है। पूरे मस्तिष्क का दो-तिहाई हिस्सा सेरीब्रम ही होता है।
    • सेरीत्रम दो बाएँ तथा दाएँ अर्धगोलों में बँटा रहता है जिसे सेरीब्रम हेमीस्फीयर (Cerebral hemisphere) कहते है। दोनों सेरीब्रल हेमीस्फीयर कॉर्पस कैलोसम नामक संरचना द्वारा आपस में जुड़ा रहता है।
    • सेरीब्रम को अगर बीचो-बीच काटा जाए तो अंदर में धूसर (Gray) तथा सफेद रंग के पदार्थ दिखाई देते हैं। धूसर रंग के पदार्थ को कॉर्टेक्स (Cortex) तथा सफेद रंग के पदार्थ को मेडुला (Medula) कहते है।
    • सेरीब्रम के ऊपरी सतह पर अनेक उभार जैसी संरचना पायी जाती है। इन संरचनाओं को गाइरस (Gyrus) कहते है। दो गाइरस के बीच के खाँचे को सल्कस (Sulcus) कहते है। सल्कस तथा गाइरस सेरीब्रम के कॉर्टेक्स वाले भाग में होते हैं।
    • सेरीब्रम बुद्धि, चतुराई, सोचने-समझने तथा स्मरण शक्ति का केन्द्र है। प्रेरणा, घृणा, प्रेम, भय, हर्ष, कष्ट तथा अनुभव जैसी क्रियाओं का नियंत्रण इसी भाग से होता है।
    • सेरीब्रम सभी प्रकार के चेतना शक्ति का केन्द्र है। अगर भाग ठीक से काम न करे तो जीवित होने के बावजूद मानव की सारी समझ समाप्त हो जाएगी।
  2. डाइएनसफेलॉन (Diencephalon) :
    • यह भाग सेरीब्रल हेमीस्फीयर द्वारा ढकाँ रहता है। इसके दो भाग होते हैं थैलेमस तथा हाइपोथैलेमस ।
    • थैलेमस सेरीब्रल हेमीस्फीयर में लिपटा रहता है। थैलेमस संवेदी तथा प्रेरक संकेतों का मुख्य सम्पर्क स्थल है।
    • हाइपोथैलेमस द्वारा शरीर के तापमान तथा खाने-पीने का नियंत्रण होता है। इस भाग में कुछ हॉर्मोन भी बनते है।
    • सेरीब्रम (Cerebrum) के आंतरिक भाग आंतरिक अंग से जुटकर एक जटिल तंत्र बनाता है, जिसे लिबिंक तंत्र कहते है। हाइपोथैलेमस लिबिंक तंत्र के साथ मिलकर लैंगिक व्यवहार मनोभावनाओं की अभिव्यक्ति जैसे- उत्तेजना, खुशी, गुस्सा और भय आदि का नियंत्रण करता है।
  • मस्तिष्क के मध्य भाग (Mid Brain -
    • मध्य मस्तिष्क का सबसे छोटा हिस्सा है, यह अग्र एवं पश्च मस्तिष्क के बीच में स्थित रहता है।
    • मध्य मस्तिष्क में चार गोलाकार संरचना पायी जाती है। इस गोलाकार संरचनाओं को कॉरपोरा क्वाड्रिगेनिया कहते है ।
    • दोनों ओर (बायीं तथा दावीं) के कॉरपोरा क्वाड्रिगेनिया आपस में क्रूरा सेरेब्री नामक संरचना द्वारा आपस में जुटे होते हैं।
    • मध्य मस्तिष्क आँखों के देखने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं तथा संतुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं।
  • मस्तिष्क के पश्च भाग ( Hind Brain)
    • पश्च मस्तिष्क तीन हिस्सों में बँटा रहता है, सेरीबेलम, पॉन्स तथा मेडुला आब्लांगाटा
      1. सेरीबेलम (Cerebalum)—
        • सेरीबेलम सुनने और शरीर को संतुलित रखने का काम करता है। यह समन्वयन संतुलन, ऐच्छीक पेशियों के गति को नियंत्रित करता है। सेरीबेलम जीभ तथा जबड़े के पेशियों पर भी नियंत्रण रखता है जिसके कारण बोलना संभव हो पाता है।
        • सेरीबेलम पाँच गुच्छों में बँटा रहता है। इस भाग के नष्ट होने अथवा इसमें खराबी आने पर सभी प्रकार के ऐच्छीक गतियाँ जैसे- चलना, बोलना, सुना, असंभव हो जाएगा ।
      2. पॉन्स (Pons)—
        • मस्तिष्क का यह भाग श्वसन प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है।
      3. मेडुला ऑब्लांगेटा (Medula oblongata)—
        • इस भाग की संरचना बेलनाकार होता है। यह हृदय की धड़कन, रक्तचाप (Blood Pressure), तथा श्वसन गति को नियंत्रित करते है।
        • इस भाग द्वारा खाँसना, छींकना, उल्टी करना (Vomiting), पाचक रसों का स्त्राव का भी नियंत्रण होता है।
  • मेडुला ऑब्लांगेटा अनैच्छीक क्रियाओं पर नियंत्रण रखते है। यही भाग मस्तिष्क के पीछे से डण्ठल के रूप में निकल कर रीढ़ के न्यूरल कैनाल में प्रवेश कर मेरूरज्जु का निर्माण करता है।

मेरूरज्जु (Spinal Cord)

  • मस्तिष्क का पीछला भाग (Medula Oblongata) ठण्ढल के रूप में खोपड़ी से बाहर निकलकर रीढ़ के न्यूरल कैनाल में प्रवेश कर जाती है, इसे ही मेरूरज्जु (Spinal Cord) कहते है ।
  • मेरूरज्जु 4 से 5 वर्ष की अवस्था में पूर्ण विकसित हो जाते हैं, उसके बाद इसमें वृद्धि रूक जाती है। मेरूरज्जु मस्तिष्क से निकलते समय मोटी रहती है और रीढ़ में प्रवेश के बाद धीरे-धीरे पतली हाते जाती है तथा रीढ़ की अंतिम हड्डी तक जाते जाते बहुत पतली हो जाती है। मेरूज्जु रीढ़ के सभी हड्डी तक फैला रहता है।
  • मेरूरज्जु के संरचना के प्रमुख भाग-
    1. Central Canal : यह मेरूरज्जु का मध्य भाग है।
    2. Posterior and anterior fissure : यह मेरूरज्जु के मध्य भाग से निकला हुआ संरचना है।
    3. Grey Matter : यह Central Canal के चारों ओर अंग्रेजी वर्णमाला के H अक्षर के तरह फैला रहता है।
    4. White matter : यह Grey matter के चारों तरफ फैला रहता है।
    5. Posterior and anterior horn : Grey matter दो Posterior तथा दो Anterior horn का निर्माण करता है।
  • मेरूरज्जु के दोनों ओर से सभी रीढ़ की हड्डी के जोड़ पर एक-एक जोड़े स्पाइनल तंत्रिकाएँ (Spinal Nerves) उत्पन्न होता है। ये स्पाइनल तंत्रिकाएँ आसपास के अंगों में फैला रहता है तथा उनकी क्रिया को नियंत्रित करता है। मानव में कुल 31 जोड़े स्पाइनल तंत्रिकाएँ होते हैं।
  • प्रत्येक स्पाइनल तंत्रिका के दो हिस्से हो हैं- Dorsal horn (डॉर्सल हॉर्न) तथा Ventral horn ( भेंट्रल हॉर्न) । डॉर्सल हॉर्न से संवदी न्यूट्रॉन (Sensory or Afferent neuron) बनता है तथा भेंट्रल हॉर्न से मोटर न्यूरॉन ( Motor or Efferent nuron) बनता है।
  • मेरूरज्जु, तंत्रिकाओं (Nerves) तथा मस्तिष्क के बीच कड़ी (Connecting link) का काम करता है। यह सभी प्रकार के प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex action) का नियंत्रण केन्द्र है।

प्रत्यावर्ती क्रिया (Reflex action )

  • प्रत्यावर्ती क्रिया वे अनैच्छिक क्रिया है जो किसी उद्दीपन के प्रतिक्रिया क्षणभर में बिना सोचे समझे हमारा शरीर स्वयं कर देता है। उदाहरण-
    • ठोकर खाते ही लड़खड़ा कर अपने-आप शरीर का संभल जाना।
    • आँखों के सामने कीड़ा आने पर आँखों का पलक का स्वयं बंद हो जाना ।
  • प्रत्यावर्ती क्रिया कुछ जन्मजात ही होते है। कुछ प्रत्यावर्ती क्रिया को प्रशिक्षण तथा अभ्यास की सहायता विकसित किया जा सकता है। साइकिल चलाना, नृत्य करना, क्रिकेट खेलना प्रत्यावर्ती क्रिया ही है पर इसे अभ्यास के मदद शरीर में विसित किया गया है।
  • प्रत्यावर्ती क्रियाओं का पता सर्वप्रथम मार्शल हाल नामक वैज्ञानिक ने लगाया था ।

प्रतिवर्ती चाप (Reflex arc )

  • संवेदी अंगों से मस्तिष्क तक संवदेनाओं का संचार तथा मस्तिष्क द्वारा अंगों को निर्गत आदेश का गमण न्यूरॉन के माध्यम से होता है।
  • न्यूरॉन में आवेग का संरचरण एक निश्चित पथ से होता है। इसी पथ को प्रतिवर्ती चाप (Refflex arc ) कहते है। प्रतिवर्ती चाप में निम्नलिखित भाग होते हैं- 
    1. Receptor- यह त्वचा, पेशी तथा अंगों में उपस्थित रहते हैं तथा विभिन्न प्रकार के उद्दीपन को ग्रहण करते है। 
    2. Sensory Path— रिसेप्टर्स द्वारा ग्रहण किया संवेदना (उद्दीपन) का संरचरण संवेदी न्यूरॉन (Sensory neuron) में होता है। संवेदी न्यूरॉन ही Sensory path का निर्माण करता है। 
    3. Nerve Centres— मस्तिष्क तथा मेजरूरज्जु को ही Nerve Centre कहते है। यह Sensory Path से आये संवेदनाओं को प्राप्त कर विश्लेषण करते हैं तथा इसके बाद उचित निर्णय देते है।
    4. Motor Path Nerve Centres से प्राप्त निर्देशों को मोटर न्यूरॉन ग्रहण करता है और Motor Path का निर्माण करता है। 
    5. Effectors— Motor Path से मस्तिष्क का निर्देश Effectors में पहुँचते है और यह निर्देश के अनुसार प्रतिक्रिया करते है। Effectors अभिवाही अंग) पेशियाँ (Muscles) होता है। 

2. Peripharal aral Narvous System ( परिधीय तंत्रिका तंत्र )

  • शरीर के विभिन्न अंगो को केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु) से जोड़ने वाले सभी तंत्रिका (Nerves) को सम्मीलित रूप से परिधीय तंत्रिका तंत्र कहते है।
  • परिधीय तंत्रिका तंत्र के अंतर्गत मुख्य रूप से क्रेनियल तंत्रिकाएँ तथा स्पाइनल तंत्रिकाएँ आते हैं। क्रेनियल तंत्रिकाएँ 12 जोड़े होते हैं तथा स्पाइनल तंत्रिकाएँ 31 जोड़े है।
  • कैनियल तंत्रिकाएँ मस्तिष्क से जुड़े होते है। एक जोड़ी अग्र मस्तिष्क, 1 जोड़ी मध्य मस्तिष्क तथा 10 जोड़ी पश्च मस्तिष्क से जुड़े होते हैं।
  • क्रैनियम तंत्रिकाएँ में पहला दूसरा तथा आठवाँ जोड़ा संवेदी (Sensory ); सातवाँ, नवाँ तथा दसवाँ मिश्रित (Mixed ) तथा शेष मोटर तंत्रिकाएँ होते हैं।
  • परिधीय तंत्रिका के 31 जोड़े स्पाइनल तंत्रिकाएँ मेरूरज्जु से निकलती है तथा प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex action) को नियंत्रित करती है।

3. Autonomous Nervous System (स्वायत्त तंत्रिका तंत्र ) 

  • स्वायत्त तंत्रिका तंत्र शरीर के आंतरिक अंग (किडनी, अमाशय, हृदय आदि) के क्रियाओं का नियंत्रण करता है। इस तंत्र की तंत्रिकाएँ (Nerves) हमेशा बिना किसी बाधा के क्रियाशील रहती है, इसके कार्य पर हमारी सोच या इच्छा का सीधा नियंत्रण नहीं रहता है। 
  • स्वायत्त तंत्रिका तंत्र द्वारा हृदय गति, आँखों के सिलयरी मांसपेशी तथा आइरिस की गति, पसीने का निष्कासन आदि क्रियाओं का नियंत्रण होता है। 
  • स्वायत्त तंत्रिका तंत्र को दो भागों में बाटा गया है, ये हैं- सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र तथा पारा सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र। 
  • सिम्पैथेटिक तथा पारासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र के क्रियाएँ एक दूसरे के परित होती है तथा ये दोनों ही हमेशा क्रियाशील रहते है।

अभ्यास प्रश्न

1. मानव शरीर के तंत्रिका तंत्र तथा हॉर्मोन का मुख्य कार्य क्या है ?
(a) उत्सर्जन
(b) नियंत्रण
(c) समन्वयन
(d) A तथा B दोनों
2. मानव शरीर में विभिन्न जैविक कार्यों का नियंत्रण होता है-
(a) तंत्रिका द्वारा
(b) रसायन द्वारा
(c) तंत्रिका एवं रसायन दोनों के द्वारा
(d) इनमें से कोई नहीं
3. पौधों में निम्नलिखित में किसका अभाव पाया जाता है?
(a) तंत्रिका तंत्र
(b) रसायनिक नियंत्रण
(c) तंत्रिका नियंत्रण
(d) A तथा C दोनों
4. बाह्य उद्दीपनों के प्रभाव से पौधों में होने वाले गति को क्या कहते है ?
(a) उपापचयी गति
(b) रसायनिक गति
(c) अनुवर्तिनी गति
(d) समन्वयन गति
5. जड़ (Root) होता है-
(a) ऋणात्मक प्रकाशानुवर्ती
(b) धनात्मक जलानुवर्ती
(c) धनात्मक गुरूत्वानुवर्ती
(d) इनमें से कभी
6. मटर, कद्दू और कई अन्य पौधें के तंतु किसी ठोस सहारे के सम्पर्क में आते ही तेजी से वृद्धि कर उससे लिपट जाते है। यह किस प्रकार के गति को दर्शाता है ?
(a) प्रकाशानुवर्ती 
(b) गुरूत्वानुवर्ती
(c) जलानुवर्ती
(d) स्पर्शानुवर्ती
7. पौधे के तने में किस प्रकार की वृद्धि होती है -
(a) धनात्मक प्रकाशानुवर्ती
(b) ऋणात्मक गुरूत्वानुक्र्ती
(c) धनात्मक जलानुवर्ती
(d) इनमें से सभी
8. फूलों का प्रकाश की उपस्थिति से खिल जाना और रात में बंद हो जाना किस प्रकार के गति को दर्शाते है ? 
(a) प्रकाशानुवर्ती
(b) प्रकाशानुकुंचन
(c) स्पर्शानुवर्ती
(d) स्पश्शानुकुंचन
9. पौधे में वृद्धि होती है-
(a) कभी-कभार
(b) रूक-रूक कर 
(c) जीवनपर्यन्त
(d) पौधे में वृद्धि होती ही नहीं है
10. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों में वृद्धि निरंतर अनियमित परिवर्तन से होती है
2. पौधे में वृद्धि निरंतर नियमित परिवर्तन से होती है।
3. पौधों के वृद्धि का ग्राफ s आकार का होता है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) 1 और 2
(c) 1 और 3
(d) केवल 3
11. समय और आकार के सन्दर्भ में होने वाले वृद्धि को ग्राफ पर अंकित करने पर 's' आकार का वक्र बनता है, इस वक्र को क्या कहते है ?
(a) वृद्धि वक्र
(b) सिग्माइड वक्र
(c) परासरण वक्र
(d) उत्सर्जन वक्र
12. पौधों की वृद्धि गतियाँ जो प्रकाश उद्दीपन के कारण होती है, उसे कहते है-
(a) हेलियोट्रापिज्म
(b) हाइड्रोट्रॉप्जिम
(c) जियोट्रॉपिज्म
(d) थिग्मोट्रॉपिज्म
13. छुईमुई के पत्तों में किस प्रकार की गति होती है ?
(a) कम्पानुकुंचन
(b) निशानानुकुंचन
(c) प्रकाशानुकुंचन
(d) उपरिकुंचन
14. स्पर्श करने पर छुईमुई पौधे की पत्तियाँ क्यो मुरझा जाती है ?
(a) तंत्रिका समन्वयन के कारण
(b) पत्तियाँ कोमल होती है
(c) पर्णाधार का स्फीति दात्र बदल जाता है
(d) इनमें से सभी
15. सूर्य के प्रकाश की ओर बढ़ते हुए प्ररोह ( तना) का मुड़ना क्या कहलाता है ?
(a) जलानुवर्तन 
(b) दीप्तिकालिता
(c) हीलियोट्रॉपिज्म
(d) प्रकाशानुकुंचन
16. सूर्यमुखी के सौर ट्रेकिंग (सूर्य की दिशा में विचलन ) को कहा जाता है-
(a) प्रकाशानुवर्तन 
(b) स्पर्शानुवर्तन
(c) सूर्यावर्तन
(d) जलानुवर्तन
17. किसी आधार के चारो ओर मटर के प्रतान का लिपटना उदाहरण है-
(a) स्पर्शानुवर्तन 
(b) नैश गति का
(c) प्रकाशानुवर्तन
(d) रसायनुवर्तन
18. बाह्य उद्दीपनों के प्रभाव से पौधों में होना चलन (Loco- motion) को कहते है-
(a) अनुवर्ती 
(b) अनुचलन
(c) अनुकुंचन
(d) इनमें से सभी
19. सनड्यू तथा वीनस फ्लाई ट्रेप कीटभक्षी पौधों में गति होती है-
(a) निशानुकुंचन
(b) स्पर्शानुकुंचन
(c) कम्पानुकुंचन
(d) प्रभाशानुकुंचन
20. जड़े धनात्मक भूम्यानुवर्तन (Positive Geotropism) होती है-
(a) सदैव
(b) अधिकांश
(c) कभी नही
(d) कभी-कभी
21. पौधे के किसी अंग की वृद्धि जब किसी विशिष्ट उद्दीपक की ओर होती है, तो इस प्रक्रिया को कहा जाता है ?
(a) ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन
(b) धनात्मक प्रकाशानुवर्तन
(c) धनात्मक अनुवर्तन
(d) ऋणात्मक अनुवर्तन
22. जियोट्रॉपिज्न (Geotropism) क्या है ?
(a) जल की प्रतिक्रिया के रूप में पौधों में वृद्धि
(b) पोषक तत्वों की प्रतिक्रिया के रूप में पौधों की वृद्धि
(c) सूर्य की रोशनी की प्रतिक्रिया के रूप में पौधों की वृद्धि
(d) गुरूत्वाकषर्ण की प्रतिक्रिया के रूप में पौधों की वृद्धि
23. पौधों में पाये जाने वाले वृद्धि-हॉर्मोन का पता सर्वप्रथम किस वैज्ञानिक ने लगाया ?
(a) फंक
(b) विलियम हार्वे
(c) चार्ल्स डार्विन
(d) एफ. डब्लू. वेण्ट
24. पौधों में होने वाले वृद्धि से तात्पर्य है-
(a) कोशिका विभाजन 
(b) कोशिका दीर्घन
(c) कोशिका विभेदन 
(d) इनमें से सभी
25. ऑक्जिन हॉर्मोन का अत्यधिक निर्माण किस भाग में होता है ?
(a) प्ररोह में
(b) जड़ में
(c) जड़ के विभज्योतिकी क्षेत्र में
(d) प्ररोह के विभज्योतिकी क्षेत्र में
26. ऑक्सीन का वियोजन (Isolation) सबसे पहले किसने किया था ?
(a) हागेन स्मिट 
(b) कोल
(c) थिमान
(d) साल्को वस्की
27. पौधों में उत्पन्न वह हॉर्मोन जिसके कारण पौधे सूर्य के प्रकाश की ओर झुक जाते हैं-
(a) जिबरेलीन
(b) ऑक्सिन
(c) साइटोकाइनीन
(d) एस्कॉविक एसीड
28. ऑक्सीन हॉर्मोन की मात्रा सबसे ज्यादा होती है-
(a) तने के शीर्ष भाग में
(b) मूलशीर्ष में
(c) कैम्बीयम में
(d) संपर्ण पौधा में समान रूप में
29. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. तने के जिस भाग में ऑक्सीन हॉर्मोन अधिक होता है, उधर वृद्धि अधिक होती है
2. जड़ की जिस भाग में ऑक्सीन हॉर्मोन अधिक होता है, उधर वृद्धि कम होती है
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2 
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
30. विशेष प्रकार के जटिल कार्बनिक पदार्थ जो पादपो में वृद्धि तथा विकास को नियंत्रित करते है, कहलाते हैं-'
(a) पादप हॉर्मोन
(b) पाराहॉर्मोन
(c) वृद्धि नियंत्रक पदार्थ
(d) इनमें से सभी
31. ऑक्सीन से सम्बन्धित कौन सा कथन सही है ?
(a) इसके कारण पौधों में शीर्ष प्रमुखता हो जाती है
(b) यह पत्तियों का विगलन रोकता है
(c) यह खर-पतवार को नष्ट कर देता है
(d) उपर्युक्त सभी
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Sun, 21 Apr 2024 09:22:28 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में उत्सर्जन https://m.jaankarirakho.com/1004 https://m.jaankarirakho.com/1004 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में उत्सर्जन
  • सजीवों का जीवन बनाये रखने हेतु इनके शरीर में स्थित सभी कोशिकाएँ निरंतर कार्य करते रहता है। कोशिकाओ का अधिकांश कार्य जैव रसायनिक क्रियाओ (Bio-Chemical Reaction) के रूप में होता है। कोशिकाओ में होने वाले समस्त जैव रसायनिक क्रियाओं को सम्मिलित रूप से उपापचय (Metabolism) कहते हैं
  • सजीवों के शरीर में होने वाले उपापचय के दौरान जहाँ एक ओर कई महत्वपूर्ण पदार्थों का निर्माण होता है, जो सजीव के जीवन बनाये रखने हेतु आवश्यक है वही दूसरी ओर कुछ ऐसे पदार्थ बनते है जो शरीर के लिये अनावश्यक ही नहीं बल्कि हानिकारक भी होते है।
  • उपापचय के दौरान शरीर में निर्मित हानिकारक एवं अनावश्यक पदार्थों का शरीर से निष्कासन ही उत्सर्जन (Excretion) कहलाता है। पोषण तथा श्वसन के तरह ही उत्सर्जन एक अनिवार्य जैविक प्रक्रिया है।
  • शरीर के कोशिकाओ में होने वाले समस्त 1 जैव-रसायनिक प्रक्रिया जलीय माध्यम में ही सम्पन्न होते है, अतः शरीर में जल का संतुलित मात्रा का होना अतिआवश्यक है। सजीवों के शरीर में जिस प्रक्रिया के द्वारा जल का संतुलन बना रहता है, उसे ओस्मोरेगुलेशन (Osmoregulation) कहते है।
  • सजीवो के शरीर में उत्सर्जन तथा ओस्मोरेगुलेशन की प्रक्रिया साथ-साथ सम्पन्न होता है।
  • उत्सर्जन की प्रक्रिया पौधों तथा मानव शरीर दोनों में होता है, परंतु अलग-अलग तरीके से। प्रकृति ने पौधों तथा जंतु (मानव) में इस प्रकार सामंजस्य बिठाया है कि जो जंतुओं के लिये उत्सर्जन योग्य पदार्थ है, वह पौधों के लिये उपयोगी है तथा जो पौधों के लिये उत्सर्जन योग्य है, वह जंतुओं के लिये उपयोगी है।

पौधों में उत्सर्जन (Excretion in Plant)

  • पौधों में उत्सर्जित पदार्थ बहुत ही कम मात्रा में बनते है, और उसका भी निर्माण धीमे गति से होता है। पौधों में जंतुओं के भाँति उत्सर्जित योग्य पदार्थ को बाहर निकालने हेतु कोई उत्सजन-अंग नहीं पाये जाते है अर्थात् पौधों में उत्सर्जन - तंत्र (Excretory System) नामक कोई रचना नहीं है।
  • पौधों में बनने वाले अपशिष्ट था उत्सर्जन योग्य पदार्थ निम्नलिखित तरीके से बाहर निकल जाते है-
    1. पौधों में बनने वाले गैसीय अपशिष्ट पदार्थ जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन, जलवाष्प को पौधे रंध्र (Stomata) तथा वातरंध्र (Lenticles) के द्वारा विसरण विधि से वायुमंडल में निष्कासित कर देते है।
    2. पौधों में बनने वाले ठोस एवं द्रव अपशिष्ट पदार्थ जैसे- टैनिन, रेजिन, गोंद, लैटेक्स को पौधे पत्तियों, छालों तथा फलों में संचित करते है। पत्तियों को गिराकर, छाल छुड़ाकर और फलो को गिराकर पौधे इन ठोस और द्रव अवशेषो से छुटकारा पा लेते है।
    3. जलीय पौधे उत्सर्जी पदार्थो को विसरण विधी द्वारा सीधे जल में ही निष्कासित करते है तथा कुछ स्थलीय पौधे कुछ उत्सर्जित पदार्थ को मृदा में भी निष्कासित करते है ।
  • पौधों में जंतुओ के भाँति वास्तविक उत्सर्जन नहीं होता है, क्योंकि पौधो में कई ऐसे पदार्थ बनते है जो पौधों के लिये अनुपयोगी होते परंतु ये अनुपयोगी पदार्थ पौधे के लिये हानिकारक नहीं होते है।

जंतुओ में उत्सर्जन (Excretion in Animals)

  • जंतुओ में उत्सर्जित होने वाले पदार्थ में मुख्य रूप से नाइट्रोजन युक्त पदार्थ जैसे- अमोनिया, यूरिया तथा यूरिक अम्ल आते है। इन नाइट्रोजन युक्त पदार्थ में अमोनिया जंतुओ के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक होते है । यह अमोनिया जंतुओं के शरीर में अमीनो अम्ल (प्रोटीन) तथा न्यूक्लिक अम्ल के ऑक्सीकरण से उत्पन्न होता है।
  • जंतुओं में उत्सर्जन योग्य पदार्थ के आधार पर इन्हें निम्न तीन वर्गों में बाँटा गया है-
    1. अमोनियोटेलिक (Ammoniotelic)
      • जब जीवों में नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थ अमोनिया के रूप में उत्सर्जित होता है तो इस प्रकार के जंतु अमोनियोटेलिक कहलाते है।
      • जलीय एककोशिकीय जंतु (प्रोटिस्टा ), जलीय कीट, स्पंज (पोरीफेरा), हाइड्रा (सिलेनटरेटा) मछलियाँ, मेढ़क के टेडपॉल लव अमोनियोटेलिक जीव के उदाहरण है ।
    2. यूरियोटेलिक (Ureotelic)
      • जब जीवों में नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थ यूरिया के रूप में उत्सर्जित होते है तो ऐसे जीव को यूरियोटेलिक कहा जाता है।
      • एम्फीबिया वर्ग के वयस्क जीव, स्तनधारी वर्ग के जीव (जैसे- मनुष्य) यूरियोटेलिक जीव के उदाहरण है।
    3. यूरिकोटेलिक (Uricotelic)
      • जब जीवों में नाइट्रोजन युक्त उत्सर्जी पदार्थ यूरिक अम्ल के रूप में उत्सर्जित होते है तो ऐसे जीव को यूरियोटेलिक कहा जाता है।
      • स्थलीय कीट, सरीसृप तथा पक्षी वर्ग के जीव यूरिकोटेलिक के श्रेणी है में आते है।
  • उपर्युक्त उत्सर्जी पदार्थ के अलावे आर्निथीन तथा गुआनिन नामक उत्सर्जी पदार्थ क्रमश: पक्षियो तथा मकड़ी के शरीर से उत्सर्जित होते है।
  • विभिन्न प्रकार के जंतुओं में उत्सर्जन हेतु अलग-अलग प्रकार के अंग होते है। एक कोशिकीय जीवों में उत्सर्जन की क्रिया कोशिका के सतह से विसरण विधि द्वारा सम्पन्न होता है

मानव का उत्सर्जन (Human Excretion)

  • मानव शरीर में उत्सर्जन हेतु एक विकसित उत्सर्जन- तंत्र (Excretory System) बना होता है। मानव के उत्सर्जन तंत्र के अंतर्गत एक जोड़ा वृक्क (Kidney), एक जोड़ी मूत्रवाहिनी नली (Ureters ), एक मूत्राशय (Urinary bladder) और एक मूत्रनली (Urethra) आते है।
  • नर मानव (male) में उत्सर्जन तथा प्रजनन मार्ग एक ही होता है, परंतु मादा मानव में (Female) उत्सर्जन तथा प्रजनन मार्ग अलग-अलग होते है।

मानव वृक्क (Human Kidney)

  • मानव शरीर में एक जोड़ा किडनी पाया जाता है। प्रत्येक किडनी ठोस, गहरे भूरे लाल रंग की होती है, जिसकी आकृति से के बीज के समान होता है।
  • प्रत्येक किडनी की लम्बाई 10-12 cm, चौड़ाई 5-7 cm तथा मोटाई 2-3 cm होता है। प्रत्येक किडनी का भार 120 से 170 ग्राम के बीच होता है।
  • किडनी की बाहरी सतह उत्तल (Convex) तथा भीतरी सतह अवतल (Concave) होता है। किडनी की भीतरी अवतल सतह को हाइलम (hilum) कहा जाता है। हाइलम के भीतर पाये जाने वलो कीप के समान रचना को पेल्विस (Pelvis) कहते है।
  • किडनी के हाइलम वाले भाग से ही वृक्क - धमनी (Renal artery) किडनी में प्रवेश करती है तथा वृक्क - शिरा (Renal vein) बाहर निकलती है। किडनी के हाइलम वाले भाग से मूत्रवाहिनी नली निकलती है जो मूत्राशय से जुड़ा रहता है।
  • किडनी के बाहरी परत पर संयोजी उत्तक तथा आरेखित पेशी का बना एक परत होता जिसे कैप्सूल ( Capsule) कहते है।
  • किडनी का आंतरिक भाग दो स्पष्ट भागों में बँटा रहता है। जिसमें बाहरी भाग को कॉर्टेक्स (Cortex) तथा भीतरी भाग को मेडुला (Medulla) कहते है। किडनी के मेडुला भाग का निर्माण 15 से 16 पिरामिड जैसी संरचनाओं के द्वारा होता है, इसे वृक्क - शंकु (Pyramid of the Kidney) कहते है । 
  • प्रत्येक किडनी में सूक्ष्म, लंबी तथा कुंडलित नलिका (Coiled shaped) पायी जाती है, जिसे नेफ्रॉन (Nephron ) कहते है। नेफ्रॉन को किडनी की रचनात्मक तथा क्रियात्मक इकाई कहा जाता है।
  • एक किडनी में लगभग 10 लाख नेफ्रॉन पाये जाते है। प्रत्येक नेफ्रॉन का व्यास 20 से 60um तथा लंबाई 3 से 3.5 cm तक होता है।
  • किडनी के प्रत्येक नेफ्रॉन की संरचना को पाँच भागों में विभक्त किया जाता है, ये भाग है- बोमेन्स कैप्सूल, समीपस्थ कुण्डलीत नलिका, हेनले का लूप, दूरस्थ कुण्डलीत नलिका तथा संग्राहक नली।
  • मानव किडनी का मुख्य कार्य है रक्त से यूरिया को अलग करना तथा मूत्र का निर्माण करना । किडनी का यह कार्य नेफ्रॉन के द्वारा ही सम्पन्न होता है।
  • वृक्क - धमनी (Renal artery) किडनी में यूरिया युक्त रक्त को लेकर प्रवेश करता है तथा साफ रक्त पुनः वृक्क शिरा के द्वारा किडनी से बाहर जाता है।
  • नेफ्रॉन के अग्र भाग की संरचना कप ( प्याला) के समान होता है, इसे ही बोमेन केप्सूल कहते है। बोमेन्स कैप्सूल में वृक्क धमनी की शाखाएँ केशनलियों का गुच्छा बनाती है जिसे ग्लोमेररूलस (Glomerulus) कहा जाता है। रक्त छनने की प्रक्रिया नेफ्रॉन के ग्लोमेररूलस में ही होता है।
  • ग्लोमेररूलस का एक सिरा वृक्क धमनी से जुड़ा रहता है, यह शिरा अभिवाही धमनिका ( Afferent arteriole) कहलाता है। ग्लोमेररूलस का दूसरा सिरा को अपवाही धमनिका (Efferent arteriole) कहते है यह वृक्क - शिरा से जुड़ा रहता है।
  • किडनी द्वारा रक्त से यूरिया को अलग करने तथा मूत्र निर्माण का कार्य तीन चरणों में पूर्ण होता है। यह तीन चरण निम्न है-
    1. अल्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultrafiltration)
      • यह कार्य बोमेन्स कैप्सूल के ग्लोमेररूलस में उच्च दाब पर सम्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में रक्त के यूरिया ग्लूकोज, लवण आदि छनकर बोमेन्स कैप्सूल के दिवारों से छनते हुए वृक्क नलिका में आता है। रक्त में स्थित प्रोटीन के लिए बोमेन्स कैप्सूल की दिवार अपारगम्य होता है जिसके कारण रक्त से प्रोटीन नहीं छन पाता है।
      • किडनी द्वारा प्रति मिनट फिल्ट्रेट (रक्त का छनना) की गई मात्रा को ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट रेट (Glomerular filtration rate or GFR ) कहते है । एक स्वस्थ व्यक्ति का GFR 125 ml प्रति मिनट या 180 लीटर प्रतिदिन होता है। परंतु मनुष्य के दोनों किडनी से प्रति मिनट 1200-1500 ml रक्त गुजरता है ।
    2. ट्यूबलर पुनर्वशोषण (Tubular Reabsorption)
      • ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट पदार्थ जब वृक्क नलिकाओं से होकर गुजरता है तो वृक्क नलिकाओं के विभिन्न भाग की कोशिकाएँ उसमें उपस्थित उपयोगी पदार्थ जैसे- ग्लूकोज विभिन्न प्रकार के आयन, अतिरिक्त जल का पुनरावशोषण कर लेता है।
      • वृक्क नलिका ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट पदार्थ का 99 प्रतिशत भाग को अवशोषित कर लेती है शेष 1 प्रतिशत भाग मूत्र के रूप में परिवर्तित हो जाती है। दोनों किडनी द्वारा प्रति मिनट 1 ml मूत्र का निर्माण किया जाता है।
    3. ट्यूबलर स्त्रवण (Tubular Scretion)
      • मूत्र निर्माण के दौरान नेफ़ॉन की नलिकाएँ H+ , K+ तथा अमोनिया जैसे पदार्थों को स्त्रावित करती है जो मूत्र के साथ मिल जाता है।
  • उपर्युक्त तीनों चरण के पूरा होने के बाद रक्त से अतिरिक्त यूरिया निकल जाता है तथा मूत्र का निर्माण हो जाता है। मूत्र मूत्रवाहिनी नली द्वारा मूत्राशय में आ जाते हैं तथा मूत्रमार्ग द्वारा शरीर के बाहर निकल जाते है और इस तरह उत्सर्जन की क्रिया सम्पन्न हो जाती है।
  • वयस्क मनुष्य के मूत्राशय में 250-300 ml मूत्र जमा हो सकता है परंतु 150ml मूत्र के जमा होते ही मूत्र त्याग की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिसे मिक्वुरीसन (Micturition) कहा जाता है।

मानव मूत्र (Human Urine )

  • मूत्र एक विशेष गंध युक्त जलीय तरल जो हल्के पीले रंग का होता है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य प्रतिदिन 1 से 1.5 लीटर मूत्र त्याग करता है। मानव मूत्र का विशिष्ट घनत्व 1.015 से 1.025 तक होता है।
  • मानव मूत्र में 96 प्रतिशत जल तथा शेष 4 प्रतिशत ठोस पदार्थ होता है जिसमें यूरिया की मात्रा 2 प्रतिशत होती है तथा शेष 2 प्रतिशत में यूरिक अम्ल, क्रिटेनिन, अमोनिया, लवण तथा कुछ मिनरल आयन पाये जाते हैं।
  • मानव मूत्र का pH मान 6 होता है अर्थात् यह अम्लीय होता है। मानव मूत्र का pH परिसर 4.5-8.2 तक होता है।
  • रक्त में यूरिक अम्ल की सामान्य मात्रा 2-3mg/100ml होता है। मूत्र के माध्यम से प्रतिदिन 1.5-2 mg यूरिक अम्ल का उत्सर्जन होता है। मूत्र का पीला रंग इसमें उपस्थित विशेष रंजक (Pigment) यूरोक्रोम के कारण होता है।
  • मूत्र-त्याग का मात्रा बढ़ना डाययूरेसिस (Diuresis) कहलाता है तथा जो पदार्थ मूत्र त्याग की मात्र को बढ़ाते हैं उसे डाययूरेटिक (Duretic) कहा जाता है। यूरिया तथा ग्लूकोज डाययूरेटिक पदार्थ है, यह मूत्र स्त्राव को बढ़ा देता है। Dicsresis प्रोटीन युक्त भोजन के अभाव में भी उत्पन्न होता है।

किडनी की अनियमिताएँ (Disorders of Human Kidney)

  • मूत्र की संरचना में जब कोई असमान्य पदार्थ की उपस्थिति हो जाती है तब किडनी के कार्यप्रणाली बाधित हो जाता है। किडनी की कुछ असमान्य अवस्थाएँ निम्नलिखित है-
    1. Gycosuria : जब मूत्र में ग्लूकोज की मात्रा ज्यादा हो जाता है तो इस स्थिति को ग्याइकोसुरिया कहा जाता है। इस बीमारी को डायबिटीज कहा जाता है।
    2. Uraema : मूत्र में यूरिया की मात्रा का बढ़ना यूरेमिया कहलाता है।
    3. Oligurea and Anurea : कभी-कभी संक्रमण या उच्च रक्तचाप के कारण ग्लोमेरूयुलस तथा बोमेन्स कैप्सूल खराब हो जाते हैं, जिससे रक्त छनने की क्रिया धीमी पर जाती है, इस स्थिति को ओलीगुरिया कहते है। जब रक्त छनने की की प्रक्रिया रूक जाये तो इस स्थिति को ऐनुरिया कहते है।
    4. Haematuria : मूत्र में रूधिर कोशिका (RBC, WBC, Platelets) की उपस्थिति हेमादुरिया कहलाता है।
    5. Albuminuria : जब रक्त में एल्ब्यूमीन प्रोटीन की अधिकता हो जाती है तब यह मूत्र के साथ बाहर निकलती है। इस स्थिति को एल्ब्यूमिन्यूरिया कहते है तथा इस बिमारी को नेफ्राइटिस कहते है। 
    6. Haemoglobinuria : जब मूत्र के साथ हिमोग्लोबिन रंजक निकलने लगे तो इसी स्थिति को हीमोग्लोबिन्यूरिया कहते है।
    7. 7. Diabetes insipidus : जब मूत्र के साथ जल अधिक मात्रा में बाहर निकलने लगे तो इस स्थिति को डायबिटीज इंसीपीडस कहते है। यह तब होता है जब हाइपोथैलेमस ग्रंथि के द्वारा भैसोप्रेसिन हॉर्मोन का कम स्त्राव होता है। भैसोप्रेसिन की सूई लेने से यह समस्या दूर हो जाती है, जिस कारण भैसोप्रेसिन हॉर्मोन को एंटीडाययूरेटिक (मूत्र रोकने वाला) हॉर्मोन कहा जाता है।
    8. Renal Calcai : जब किडनी में अघुलनशील लवण के क्रिस्टल (जैसे- कैल्सियम ऑक्सेलेट) जमा होने लगते हैं तो इन्हें रीनल केलकाई कहते है । सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे पथरी कहा जाता है।
  • कुछ विशेष परिस्थिति में अगर किडनी कार्य करना बंद कर दे, तो ऐसी स्थिति में किडनी का कार्य एक अतिविकसित मशीन के द्वारा करवाया जाता है। यह मशीन डायलिसिस मशीन (Dialysis Machine) कहलाता है। इस मशीन में एक टंकी होता है जिसे डायलाइजर (Dialyser) कहा जाता है। यह मशीन एक कृत्रिम किडनी के तरह कार्य करता है। गौरतलब है कि इस मशीन का निर्माण अंतरिक्ष यात्रियों के लिए अंतरिक्ष में पानी साफ करने के लिए हुआ था, परंतु आश्चर्यजनक तरीके से इसका इस्तेमाल चिकित्सा - क्षेत्र में होने लगा ।
  • डायलिसिस के समय रोगी के शरीर का रक्त धमनी से निकालकर 0°C तक ठंडा कर लिया जाता है फिर उसे डायलाइसिस मशीन में भेज दिया जाता है। मशीन द्वारा रक्त शुद्ध होने के बाद उसे शरीर के तापक्रम में लाकर रोगी के शरीर में शिराओं के माध्यम से भेज दिया जाता है।
  • डायलिसिस मशीन द्वारा रक्त शुद्धिकरण की प्रक्रिया हिमोडायलिसिस (Haemodialysis) कहलाता है। यह अत्यंत विकसित तथा खर्चीली विधि है। 

सहायक उत्सर्जी अग (Accessory Excretory Organe)

  1. त्वचा (Skin)— मनुष्य के त्वचा में स्वेद ग्रंथि (Sweat gland) तथा सीबम ग्रंथि पाया जाता है । स्वेद ग्रंथि से पसीना निकलता है जो शरीर के तापमान को नियंत्रित रखता है एवं शरीर में जल एवं लवणों की मात्रा भी नियंत्रित रखता है। मनुष्य के पसीने मे जल, लवण, यूरिया, एमिनो अम्ल आदि पाया जाता है। पसीने की प्रकृति अम्लीय होती है। त्वचा के सीबम ग्रोथ तैलीय पदार्थ या सीबम स्त्रावित होता है जो त्वचा तथा बालों का चिकना और जलरोधी बनाए रखता है।
  2. फेफड़ा (Lungs)– श्वसन के दौरान उत्पन्न होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प का निष्कासन फेफड़ों के द्वारा ही होता है। फेफड़ों के द्वारा प्रतिदिन 18 लीटर कार्बन डाइऑक्साइड तथा 400 जल शरीर से निकलता है।
  3. यकृत (Liver)- शरीर में प्रोटीन के पाचन के उपरांत अमोनिया की उत्पत्ति होती है, यह शरीर के लिए विषैला होता है। यकृत विषैले अमोनिया को यूरिया में बदलता है। यूरिया रक्त में आ जाता अंतत मूत्र के द्वारा शरीर के बाहर आ जाता है।
  4. बड़ी आंत (Large Intestine)- पाचन के दौरान बनने वाले अघुलनशील लवण जैसे- लोहा, कैल्सियम, पोटैशियम, फॉस्फेट आदि तथा अपच भोज्य पदार्थ को बड़ी आंत मल के रूप में शरीर से बाहर निकालने का कार्य करती है।

अभ्यास प्रश्न

1. उत्सर्जन के दौरान शरीर से ऐसे पदार्थ का निष्कासन होता है, जो शरीर के लिये- 
(a) विषाक्त होते है
(b) हानिकारक होते है
(c) अनावश्यक होते है
(d) उपर्युक्त में सभी
2. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. उत्सर्जन, प्राणियों में होने के साथ ही पौधों में भी होता है
2. उत्सर्जी पदार्थ के निष्कासन हेतु प्राणियों के भांति पौधों में कोई विशिष्ट अंग नहीं होते है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
3. श्वसन के दौरान अपशेष के रूप में उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड को पौधों केवल रात में ही उत्सर्जित करते है, क्योंकि-
(a) दिन में श्वसन नहीं होता है
(b) दिन के समय श्वसन के दौरान उत्पन्न सम्पूर्ण कार्बन डाइऑक्साइड स्वंग पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण में प्रयोग कर ली जाती है 
(c) दिन में पौधों के पत्ति में स्थित रंध्र बंद होते है ।
(d) इनमें से कोई नहीं
4. पौधों में सचित ठोस और द्रव अपशेष से, पौधे किस प्रकार छुटकारा पाते हैं ?
(a) पत्तियो को झाड़कर
(b) छाल छुड़ाकर
(c) फलों को गिराकर
(d) उपर्युक्त में सभी
5. कुछ पौधों में उत्सर्जी पदार्थ गाढ़े, दूधिया तरल पदार्थ के रूप में संचित रहते है इसे क्या कहते है ?
(a) लैटेक्स
(b) गोंद 
(c) टैनिन
(d) रेजिन 
6. निम्नलिखित में किस पौधों में लैटेक्स नामक उत्सर्जी पदार्थ पाये जाते है ?
(a) पीपल
(b) बरगद
(c) कनेर फूल का पौधा
(d) इनमें से सभी
7. निम्नलिखित में कौन पौधे के उत्सर्जी पदार्थ है ?
(a) टैनिन
(b) रेजिन
(c) गोंद
(d) इनमें से सभी
8. रेजिन एवं गोंद पौधे के किस भाग में संचित रहते है ?
(a) फ्लोएम में 
(b) जाइलम मे
(c) पुराने जाइलम में
(d) छाल में
9. पौधों के ठोस तथा द्रव जैसे उत्सर्जी पदार्थ पौधे के किस भाग में सचित रहते है ?
(a) कोशिकीय रिक्तिकाओ में
(b) छाल में
(c) पुराने जाइलम उत्तक में
(d) इनमें से सभी
10. टैनिन, पौधे के जिस भाग में संचित रहते है, वह है-
(a) फ्लोएम 
(b) कॉटेक्स
(c) छाल
(d) पुराने जाइलम
11. निम्नलिखित युग्मों पर विचार कीजिए:
1. गोंद : बबूल
2. रेजिन: चीड
3. लैटेक्स : अमरूद
उपर्युक्त युग्मों में कौन-सा / से सही सुमेलित है/हैं ?
(a) केवल 1 
(b) 1 और 2
(c) केवल 3
(d) 2 और 3
12. पौधों में कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन जैसे गैसों का निष्कासन कहाँ से होता है ?
(a) रंध्र से
(b) वातरंध्र से
(c) A तथा B दोनों से
(d) गैसो का उत्सर्जन नहीं होता है
13. पौधों में गैसों के निष्कासन के लिये किस क्रिया का उपयोग होता है ?
(a) परासरण 
(b) विसरण
(c) परिवहन
(d) वाष्पोत्सर्जन
14. पादप अपशेष 'रैफाइड' (Raphides) पौधे के किस भाग में संचित रहते है ?
(a) फल
(b) पत्ति
(c) पुराने जाइलम
(d) छाल
15. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों में वास्तविक उत्सर्जन की क्रिया नहीं होती है।
2. पत्तो का झरना, छाल का उतरना और वाष्पोत्सर्जन वास्तव में उत्सर्जन क्रिया नहीं है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है / हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
16. वृक्क (Kidney) का प्रधान कार्य है-
(a) प्रजनन
(b) उत्सर्जन
(c) पाचन
(d) श्वसन
17. निम्नलिखित में कौन उत्सर्जी अंग है ?
(a) फेफड़ा
(b) वृक्क
(c) त्वचा
(d) इनमें से सभी
18. निम्नलिखित में कौन-सा कार्य मानव वृक्क द्वारा सम्पन्न किया जाता है ?
(a) रूधिर से अतिरिक्त यूरिया को निकालना
(b) मूत्र का निर्माण
(c) रक्त के परासरण दाब का नियंत्रण करना
(d) इनमें से सभी
19. निम्नलिखित में कौन-सा एक अमीनो अम्ल के विखंडन से बनता है ? 
(a) कार्बन डाइऑक्साइड 
(b) कार्बन मोनोक्साइड
(c) अमोनिया
(d) b तथा c दोनों
20. अमोनिया को यूरिया में परिवर्तन करता ?
(a) यकृत
(b) वृक्क
(c) अमाशय
(d) यूटेरस
21. यूरिया का संश्लेषण कहाँ होता हे ?
(a) वृक्क में
(b) यकृत में 
(c) हृदय में
(d) फेफड़ा में
22. निम्नलिखित में यूरिकोटेलिक जंतु है-
(a) कीट
(b) छिपकली
(c) पक्षी
(d) इनमें से सभी
23. यूरिक एसिड के रूप में नाइट्रोजन युक्त पदार्थों का उत्सर्जन होता है-
(a) उभयचर वर्ग में 
(b) मत्स्य वर्ग में
(c) पक्षियों में
(d) स्तनधारी में
24. मानव है-
(a) यूरिओटेलिक 
(b) यूरिकोटेलिक 
(c) एमीनोटेलिक
(d) मानव में उत्सर्जन नहीं होता है।
25. निम्नलिखित में कौन-सा एक अमोनियोटेलिक जंतु है?
(a) उभयचर 
(b) स्तनधारी
(c) सरीसृप
(d) मछली
26. जलीय एककोशिकीय प्रोटोजोआ उत्सर्जन की दृष्टि से होते है-
(a) अमोनोटेलिक 
(b) यूरियोटेलिक
(c) यूरीकोटेलिक
(d) इनमें से सभी
27. निम्नलिखित में किसके उत्सर्जन के लिये जल की आवश्यकता अधिक मात्रा में होती है ?
(a) यूरिया 
(b) अमोनिया
(c) यूरिक एसीड
(d) क्रिटैनिन
28. अगर किसी कारण से किसी मनुष्य का एक किडनी कार्य करना बंद कर दे तो उसका परिणाम क्या होगा ?
(a) उत्सर्जन बंद हो जाएगा
(b) मनुष्य की तुरंत मृत्यु हो जाएगी
(c) दूसरे किडनी से उत्सर्जन होने लगेगा
(d) इनमें से कोई एक हो सकता है
29. सामान्यतः सजीवों के शरीर में उत्सर्जन एवं जल संतुलन की क्रियाएँ संपादित होती है-
(a) अलग-अलग
(b) साथ-साथ
(c) कभी साथ कभी अलग
(d) इनमें से कोई नहीं
30. कोशिका में होने वाले अधिकांश जैव रसायनिक क्रिया माध्यम में सम्पन्न होते है-
(a) ठोस 
(b) द्रव (जलीय)
(c) गैसीय
(d) इनमें से सभी
31. सजीवों के शरीर में प्रोटीन तथा ऐमीनो अम्ल के विखंडन के फलस्वरूप क्या बनता है ?
(a) अमोनिया
(b) यूरिया
(c) यूरिक अम्ल
(d) इनमें से सभी
32. स्थलीय जंतुओं में सामान्यतः नाइट्रोजनी पदार्थों का शरीर से निष्कासन किस रूप में होता है ?
(a) प्रोटीन 
(b) यूरिया
(c) अमोनिया
(d) ऐमीनो अम्ल
33. जंतुओं के शरीर में बनने वाले उत्सर्जी नाइट्रोजनी पदार्थ में सर्वाधिक विषैले होते है-
(a) यूरिक अम्ल 
(b) यूरिया
(c) अमोनिया
(d) इनमें से कोई नहीं
34. निम्नलिखित में किन जीवों में नाइट्रोजनी पदार्थ का निष्कासन यूरिक अम्ल के रूप में होता है?
(a) सरीसृप 
(b) पक्षी
(c) स्थलीय कीट
(d) इनमें से सभी
35. सजीवों के शरीर में उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना क्या कहलाता है ?
(a) निष्कासन 
(b) उत्सर्जन
(c) विसरण
(d) बहिष्करण
36. उत्सर्जन क्रिया में किन पदार्थों का निष्कासन होता है ?
(a) सोडियम और अन्य लवण
(b) यूरिया और नाइट्रोजन
(c) पित्त लवण और पित्त वर्णक
(d) उपर्युक्त में सभी
37. किडनी के भीतरी नतोदर सतह (Concave area) क्या कहलाता है ?
(a) वृक्क शंकु
(b) अंतस्थ भाग
(c) हाइलम
(d) नेफ्रॉन
38. हाइलम वृक्क के किस ओर पायी जाने वाली संरचना है?
(a) वृक्क के भीतर की ओर पायी जाने वाली संरचना
(b) वृक्क के बाहर की ओर पायी जाने वाली संरचना
(c) वृक्क के दोनों ओर पायी जाने वाली संरचना
(d) इनमें से कोई नहीं
39. वृक्क के रचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई को क्या कहते हैं ?
(a) नेफ्रीडियम
(b) नेफ्रॉन
(c) यूरिया
(d) हेनले का लूप
40. नेफ्रॉन के किस भाग में ग्लोमेरूलस अवस्थित रहता है ?
(a) अवरोही चाप में 
(b) हेनले के लूप में
(c) संग्राहक नलिका में 
(d) बोमेन्स केप्सूल में
41. ग्लोमेरूलस उपस्थित होते हैं-
(a) रीनल कॉर्टेक्स में 
(b) रीनल मेडुला में
(c) रीनल पेल्विस में
(d) रीनल पिरामिड में
42. वोमेन्स केप्सूल में उपस्थित कोशिकाओं के गुच्छे को क्या कहते हैं ?
(a) मैलपिगियन बॉडी
(b) ग्लोमेरूलस
(c) मैलपिगियन कार्पल्स
(d) हेनले का लूप
43. बोमेन्स केप्सूल के ग्लोमेरूलस में उच्च दाब पर रक्त छनने की खूक्ष्म क्रिया को कहते है ?
(a) फिल्ट्रेशन
(b) अल्ट्राफिल्ट्रेशन 
(c) डायलिसिस
(d) परासरण
44. निम्नलिखित में क्या ग्लोमेरूलस फिल्ट्रेट रक्त में उपस्थित नहीं होते है ?
(a) ग्लूकोज
(b) अमीनो अम्ल
(c) प्रोटीन
(d) हॉर्मोन
45. रक्त प्लाज्मा छनने का काम नेफ्रॉन का कौन सा भाग करता है ?
(a) ग्लोमेरूलस 
(b) बोमैन केप्सूल
(c) नेफ्रोस्टोम
(d) इनमें से कोई नहीं
46. निम्नलिखित में कौन रक्त प्लाज्मा से नहीं बनता है ?
(a) ग्लूकोज 
(b) अमीनो अम्ल
(c) प्रोटीन
(d) यूरिया
47. ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेट रक्त का कितना प्रतिशत पुर्नअवशोषित हो जाते है ?
(a) 25 प्रतिशत
(b) 50 प्रतिशत
(c) 90 प्रतिशत
(d) 99 प्रतिशत
48. निम्नलिखित में किसका पूर्ण अवशोषण रूधिर द्वारा पूर्णरूपेण हो जाता है ?
(a) ग्लूकोज 
(b) यूरिया
(c) Na+
(d) जल
49. हेनले का लूप का कार्य सम्बन्धित है ?
(a) उत्सर्जन तंत्र से
(b) प्रजनन तंत्र से
(c) मूत्र जनन तंत्र से
(d) तंत्रिका तंत्र से
50. मानव के शरीर में किडनी कहाँ स्थित होता है ? 
(a) वक्षगुहा के पृष्ठीय तल पर कशेरूकदंड के दोनों और
(b) वक्षगुहा के पृष्ठीय तल पर कशेरूकदंड के बाई ओर
(c) उदरगुहा के पृष्ठीय तल पर कशेरूकदंड के दोनों ओर
(d) उदरगुहा के पृष्ठीय तल पर कशेरूकदंड के बाई ओर
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Sun, 21 Apr 2024 08:39:30 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में परिवहन https://m.jaankarirakho.com/1003 https://m.jaankarirakho.com/1003 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में परिवहन
  • परिवहन, सजीव की एक अनिवार्य जीवन प्रक्रिया है, जिसमें सजीव के शरीर के एक अंग में अवशोषित पदार्थ, उसके शरीर के दूसरे अंगों में ले जाया जाता है।
  • परिवहन द्वारा सजीवों की प्रत्येक कोशिका में लगातार जल, खनिज लवण, ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थों की आपूर्ति होते रहता है और कोशिका में बने अनुपयोगी तथा हानिकारक पदार्थ का लगातार निष्कासन होते रहता है।
  • एककोशिकीय जीवों (जीवाणु, प्रोटोजोआ, यूग्लिना आदि) में विभिन्न पदार्थों का परिवहन विसरण विधि के द्वारा होता है जबकि बहुकोशिकीय जीवों में परिवहन हेतु परिवहन तंत्र बने होते है।
  • पौधे तथा जन्तु (मानव) का परिवहन तंत्र एक समान नहीं होता है, दोनों में परिवहन - तंत्र अलग-अलग प्रकार के होते हैं।

पौधों में परिवहन (Transport in Plant)

  • पौधों में मुख्य रूप से जल, खनिज लवण तथा प्रकाश संश्लेषण द्वारा बने भोजन, एक भाग से पौधों के अन्य में भागों में परिवहन होता है। पौधों में परिवहन हेतु संवहन तंत्र (Vascular-system) पाये जाते हैं, जिसके अंतर्गत जाइलम तथा फ्लोएम उत्तक आते है।
  • पौधों में परिहवन के जाइलम तथा फ्लोएम उत्तक द्वारा होता है। यह उत्तक पूरे पौधे (जड़, तना एवं पत्तों) में फैले होते है। जाइलम तथा जल खनिज लवणों जल तथा खनिज लवण के परिवहन हेतु उत्तरदायी है तथा फ्लोएम भेजन परिवहन हेतु। 
  • पौधों में जल तथा खनिज लवणों का परिवहन :
    • पौधे जल मिट्टी से ग्रहण करते है। जड़ में मूल रोम (Roothairs) नामक संरचना पायी जाती है, जो विसरण विधि द्वारा मिट्टी में स्थित जल को ग्रहण करते है। मूल रोम द्वारा अवशोषित जल, जड़ के बाह्य त्वचा (Epidermis), कॉर्टेक्स (Cortex) तथा अंतः त्वचा (Endodermis ) से हुआ जड़ में स्थित जाइलम उत्तक में आते हैं।
    • मूलरोम द्वारा अवशोषित जल को बाह्य त्वचा, कॉर्टेक्स तथा अंत: त्ववचा से होते हुए, जाइलम तक पहुँचने हेतु पौधों के जड़ में एक प्रकार का दाब उत्पन्न होता है, इस दाब को मूलदाब (Root Pressure) कहते है।
    • मूल दात्र जड़ के उपापचयी क्रियाओं के कारण उत्पन्न होते है एवं इसके लिए जड़ों का जीवित होना आवश्यक है।
    • जाइलम उत्तक के द्वारा जल जड़ों से तना एवं पत्तीयों तक पहुँचता है। जाइलम उत्तक से जल का तना तथा पत्तियों तक पहुँचने में वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) का विशेष महत्व है। वाष्पोत्सर्जन के कारण ही जाइलम से जल ऊपर ही ऊपर (तना, पत्ती की ओर ) खींचाता है। जिसे वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (Transpiration pull) कहते है।
    • पौधे के पत्ती की कोशिकाओं से जल का लगातार वाष्पीकरण के कारण जाइलम के ऊपरी सिरे पर दाब कम हो जाता है जबकि जाइलम के आधार पर दाब अधिक रहता है।
    • दाबों के अंतर के कारण एक प्रकार क चूषण उत्पन्न हाता है जो जाइलम से होकर जल को ऊपर खींचता है।
    • जल के परिवहन हेतु वाष्पोत्सर्जन का होना अनिवार्य है। जल का परिवहन में जाइलम के वाहिकाएँ (Vessels) तथा वाहिनिकाएँ (Tracheids) कोशिका भाग लेती है।
    • पौधों को अपनी समुचित वृद्धि हेतु 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है जिनमें अधिकांश पोषक तत्व पौधा मिट्टी से ही ग्रहण करते हैं तथा इन खनिज लवणों का परिवहन जल में घुलित रूप में जाइलम द्वारा ही होता है।
    • मिट्टी में स्थित खनिज लवणों का अवशोषण जड़ के मूल रोम द्वारा आयन के रूप में होता है, परन्तु उस प्रकार नहीं, जिस प्रकार जल का अवशोषण होता है।
    • खनिज लवणों का अवशोषण हेतु मूलरोम की कोशिकाओं के सतह पर विशेष प्रकार के वाहक प्रोटीन और एंजाइम पाये जाते हैं और इस क्रिया हेतु पौधों को ATP के रूप ऊर्जा खर्च करना पड़ता है।
    • मूलरोम द्वारा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण होने के बाद इनका वितरण पौधे के विभिन्न भागों जैसे- तना, शाखाएँ तथा पत्तियों तक होता है। पौधे में जल तथा घुलनशील लवणों के मूलरोम से पत्तियों तक पहुँचने की क्रिया को रसारोहण (Ascent of sap) कहते है।
  • पौधों में भोजन परिवहन :
    • पौधों के सभी भागों में भोजन का निर्माण अर्थात् प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है। इसलिए पौधों में भोजन का ऐसे स्थानों से, जहाँ उसका निर्माण होता है या वे संचित रहते है, दूसरे भागों में जहाँ उनका निर्माण नहीं होता है, स्थानांतरण जरूरी है।
    • पौधे के एक भाग से दूसरे भागों में भोजन का परिवहन जलीय घोल के रूप होता है। इन भोजन का परिवहन फ्लोएम उत्तक के द्वारा होता है। फ्लोएम में खाद्य-पदार्थ मुख्यतः सुक्रोज के रूप में परिवहित होते है।
    • पौधों में भोजन का परिवहन हमेशा अधिक सांद्रता वाले भागों से कम सांद्रता वाले भागों की ओर होता है। अधिक सांद्रता वाले भाग को संभरण सिरा (Supply end) तथा कम सांद्रता वाले भाग को उपभोग सिरा (Consumption end) कहते हैं।
    • फ्लोएम में भोजन का परिवहन चालनी नालिका तथा सहकोशिकाओं के द्वारा होता है तथा भोजन के परिवहन में पौधों को ऊर्जा खर्च करना पड़ता है।
    • पौधों के जाइलम का परिवहन एकदिशीय होता है लेकिन फ्लोएम से भोजन का परिवहन द्विदिशीय होता है।
    • पौधों को जल परिवहन हेतु ऊर्जा खर्च नहीं करना पड़ता है लेकिन मिट्टी से खनिज लवणों के अवशोषण तथा भोजन परिवहन में ऊर्जा खर्च करना पड़ता है। जिस परिवहन में ऊर्जा खर्च होता है, उसे सक्रिय पारगमण (Active Transport) कहा जाता है।

वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)

  • पौधो में वायवीय भाग (Aerial part). मुख्य रूप से पक्तियों से जल का वाष्प के रूप में बाहर निकलना वाष्पोत्सर्जन कहलाता है। 
  • लगभग 90 प्रतिशत से भी ज्यादा वाष्पोत्सर्जन पौधों में पत्ती के द्वारा होता है। पत्ती में छोटे-छोटे सूक्ष्म छिद्र होते है। इस छिद्र को रंध्र (Stomata) कहते है । वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया में पत्ती में स्थित रंध्र से ही जल वाष्प के रूप में निकलता है।
  • द्विबीजपत्री पौधों में रंध्र पत्ती के नीचले सतह पर होता है। एक बीजपत्री पौधों में रंध्र पत्ती के ऊपरी तथा नीचली दोनों सतह पर पाये जाते है। जलोद्भिद् पौधो में रंध्र नहीं पाये जाते हैं।
  • मरूस्थलीय (Xerophytes ) पौधों में वाष्पोत्सर्जन कम हो इसलिए इन पौधों का पत्ती छोटा होता है तथा रंध्र स्टोमैटल कैविटी (Stomatal Cavity) में धँसे होते है।
  • वाष्पोत्सर्जन का कुछ भाग (3-8 प्रतिशत) पौधे के तना द्वारा होता है। तने में उत्तल लेंस आकार के छिद्र होते हैं, जिसे वातरंध्र (lenticels) कहते है । तने में वातरंध्र के माध्यम से ही वाष्पोत्सर्जन की क्रिया सम्पन्न होती है।
  • वाष्पोत्सर्जन क्रिया से निकले जल की मात्रा सभी पौधों में समन नहीं होते है। छोटे पौधे में वाष्पोत्सर्जन द्वारा कम जल निष्कासित होते हैं, वहीं बड़े वृक्षों में काफी जल निष्कासित होते हैं, औसतन एक पेड़ अपने पूरे जीवन काल में अपने भार के करीब 100 गुणा जल को वाष्पोत्सर्जित करते है।
  • वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया मुख्यतः दिन में होता है, क्योंकि रात में रंध्र बंद हो जाते है। रंध्र को बंद तथा खोलने का कार्य द्वार - कोशिका (Guard cell) द्वारा होता है। द्वार - कोशिका रंध्र को चारों ओर से घेरे रहती है।
  • पौधों मिट्टी से जितने जल को ग्रहण करते हैं उसका 90 प्रतिशत से अधिक भाग वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण में निष्कासित कर देती है। वाष्पोत्सर्जन को पौधा का आवश्यक दुर्गुण माना जाता है क्योंकि वाष्पोत्सर्जन से काफी जल की निरर्थक हानि होती है लेकिन पौधों में जल तथा खनिज लवणों के परिवहन के लिए यह आवश्यक है।
  • पौधों के लिए वाष्पोत्सर्जन के महत्व को हम निम्नलिखित कारणों से समझ सकते है-
    1. पौधों में रसाकर्षण हेतु वाष्पोत्सर्जन का होना अनिवार्य है।
    2. वाष्पोत्सर्जन पौधों को गर्म होन से बचाता है तथा पौधे के तापक्रम को संतुलित रखता है।
    3. वाष्पोत्सर्जन पौधों को खनिज लवणों के अवशोषण तथा परिवहन में सहायक है। वाष्पोत्सर्जन के अभाव में पौधों के सभी भागों में खनिज लवणों का वितरण नहीं हो पायेगा।
    4. विभिन्न पौधों के फलों की उपयुक्त गुणवत्ता (खट्टापन, मीठापन) वाष्पोत्सर्जन के कारण ही आ पाता है ।
    5. वाष्पोत्सर्जन होने से उत्तकों के यांत्रिक शक्ति में वृद्धि होती है तथा पौधा मजबूत बनता है।
  • वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाला कारक :
    1. प्रकाश की उपस्थिति में रंध्र खुले रहते है जिससे वाष्पोत्सर्जन होते रहता है जबकि अंधकार में रंध्र बंद हो जाते है और वाष्पोत्सर्जन की दर बहुत कम हो जाती है।
    2. वायुमंडलीय आर्द्रता के अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन कम तथा आर्द्रता कम होने पर वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है।
    3. तापमान बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती हैं तथा घटने से वाष्पोत्सर्जन कम हो जाता है ।
    4. हवा की बहाव की तीव्रता बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन बढ़ जाता है तथा हवा के मंद पड़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर घट जाती है।
    5. अगर मृदा में ही जल की कमी हो जाए तो पौधे को जल की प्राप्ति कम होगी जिससे वाष्पोत्सर्जन घट जाएगा।

पौधों के लिए आवश्यक खनिज पोषण (Essential Mineral Elements in plant)

  • अब तक ज्ञात तत्वों में से 60 से भी अधिक तत्व विभिन्न प्रकार के पौधों में पाये जाते है, लेकिन इतने सारे तत्व पौधों के विकास हेतु आवश्यक नहीं होते है। जिन तत्वों के अभाव में पौधों का विकास धीमा पड़ जाए अथवा रूक जाये उसे 'आवश्यक तत्व' कहते है। पौधों के लिए आवश्यक तत्व को दो श्रेणी में विभक्त किया गया है-
    1. वृहतपोषक (Macronutrients) : ऐसे पोषक तत्व जिनकी आवश्यकता पौधों को अधिक मात्रा में होती है उसे वृहद पोषक तत्व कहते है। बृहद ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम एवं सलफर आते है। 
    2. सूक्ष्मपोषक (Micronutrients) : ऐसे खनिज जिनकी जरूरत पौधों को केवल अल्प मात्रा होती है, उसे सूक्ष्मपोषक कहते है। सूक्ष्मपोषक की संख्या 8 है- लोहा, तांबा, जस्ता, मैग्नीज, बोरॉन, मॉलिब्डेनम, निकेल एवं क्लोरीन ।
  • पौधों के लिए कुल 17 पोषक तत्व आवश्यक होते है । 17 पोषक तत्व के अतिरिक्त कुछ पुष्पीय पौधों को, कोबाल्ट, सेलेनियम, सोडियम, सिलिकन जैसे तत्वों की भी आवश्यकता होती है।
  • पौधों के लिए प्रमुख आवश्यक पोषक तत्व एवं उनके कार्य निम्नलिखित है-
    1. नाइट्रोजन-
      • सभी आवश्यक खनिज तत्वों में नाइट्रोजन का उपयोग पौधे सबसे ज्यादा करते है। नाइट्रोजन पौधों को मिट्टी से नाइट्रेट (NO3) नाइट्राइट (NO2) तथा अमोनिया (NH4 ) के लवणों के रूप में प्राप्त होता है।
      • पौधों के सभी भागों को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्ल, विटामिन, हॉर्मोन आदि का मुख्य घटक है। नाइट्रोजन पौधे के क्लोरोफिल में भी उपस्थित रहता है।
    2. फॉस्फोरस-
      • फॉस्फोरस पौधों को मिट्टी से आयन (HPO4 या H2PO4) के रूप में प्राप्त होता है। फॉस्फोरस ATP के घटक होने के कारण यह श्वसन तथा प्रकाश-संश्लेषण हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण है।
    3. पोटैशियम-
      • पोटैशियम को पौधा मिट्टी से पोटेशियम आयन [K+] के रूप में मिट्टी से ग्रहण करते है ।
      • पोटैशियम आयन रंत्रों के खुलने एवं बंद होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पोटैशियम कोशिकाओं में ऋणायन-धनायन के बीच संतुलन बनाये रखता है।
    4. कैल्सियम-
      • पौधे मिट्टी से इसका अवशोषण कैल्सियम आयन (Ca2+) के रूप में करता है। केल्सियम की आवश्यकता कोशिका विभाजन के दौरान कोशिका भित्ति के निर्माण में होती है।
    5. मैग्नीशियम-
      • पौधे मैग्नीशियम को मिट्टी से मैग्नीशियम आयन (Mg++) के रूप में ग्रहण करते है।
      • मैग्नीशियम क्लोरोफील का मुख्य घटक है। मैग्नीशियम श्वसन तथा प्रकाश संश्लेषण के एंजाइमों को सक्रिय करता है।
    6. सल्फर-
      • पौधे सलकर को सल्फेट (SO4) के रूप में मिट्टी से ग्रहण करते है। सल्फर क्लोरोफील संश्लेषण एवं लेयुमिनोसी कुल के पौधे के जड़ के ग्रा ग्रोथकाओं (Nodules) के निर्माण में उपयोगी होता है।
    7. आयरन-
      • सभी सूक्ष्मयापकों में पौधे आयरन का उपयोग सबसे ज्यादा करते है। पौधे आयरन को फेरस आयनो (Fe3+) के रूप में ग्रहण करते है।
      • आयरन क्लोरोफिल के निर्माण हेतु एक आवश्यक तत्व है। आयरन इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण में सहायक होते है।
    8. मँगनीज-
      • मैगनीज पौधा मैग्नस आयन (Mn2+) के रूप में अवशोषित करते है। पौधों में प्रकाश संश्लेषण के दौरान जल के विखंडन से ऑक्सीजन के मुक्त में होने में मैंगनीज की खास भूमिका होती है।
    9. जस्ता
      • पौधे जस्ता की जिंक आयनों (Zn2+) के रूप में ग्रहण करते है। जस्ता पौधों की ऑक्सिन हार्मोन तथा प्रोटीन संश्लेषण में मदद करता है I
    10. क्लोरीन-
      • क्लोरानी, पौधे के द्वारा क्लोराइड आयन के रूप में अवशोषित होना है।
      • क्लोरीन सोडियम एवं पोटेशियम के साथ मिलकर कोशिका के भीतर सांद्रता निर्धारित करने एवं ऋणायन- धनायन के संतुलन बनाने में मदद करता है।

मानव शरीर में परिवहन (Transport in Human Body)

  • मानव शरीर का परिवहन तंत्र अतिविकसित होता है जो ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, पोषक तत्व, हॉर्मोन तथा उत्सर्जित हानिकारक पदार्थ को शरीर के एक भाग से दूसरे भाग तक पहुँचाते है।
  • मानव के परिवहन तंत्र को रक्त परिसंचरण तंत्र (Blood circulatory system) भी कहा जाता है क्योंकि परिवहन में रक्त की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण होता है।
  • मानव का परिवहन तंत्र में हृदय, रक्तवाहिनी तथा रक्त आते है।

हृदय (Heart)

  • मानव का हृदय की रचना बंद मुट्ठी के समान या तिकोनी आकृति का होता है। हृदय वक्षगुहा में दोनों फेफड़ों के बीच अवस्थित रहता है तथा थोड़ा सा बाई तरफ झुका रहता है।
  • हृदय अत्यंत कोमल तथा मांसल रचना है जिसका निर्माण हृदय पेशी (Cardiac Muscles) से हुआ है।
  • हृदय को बाहरी अघातों से सुरक्षा देने हेतु इस पर दोहरी झिल्ली की परत चढ़ी रहती है जिसे Paricardial membrane कहा जाता है। Paricardial membrane के दोनों परतों के बीच रंगहीन, गाढ़ा द्रव भरा रहता है जिसे Paricardial fluid कहा जाता है | Paricardial fluid झिल्ली तथा हृदय के परतों के बीच घर्षण होने नहीं देता है।
  • मनुष्य के हृदय चार कक्ष होते है। हृदय के ऊपर के दो कक्ष दायाँ और बायाँ आलिंद (Auricle) तथा नीचे के दो कक्ष दायाँ और बायाँ निलय (Ventricle) कहलाता है। हृदय के ऊपरी दोनों आलिंद वाला कक्ष नीचले दोनों निलय वाले कक्ष के तुलना में अधिक चौड़े होते है।
  • हृदय का दायाँ आलिंद - निलय तथा बायाँ आलिंद निलय सेप्टम (Septum) नामक संरचना द्वारा अलग रहता है।
  • हृदय के दाँये आलिंद तथा निलय के बीच त्रिदली कपाट (tricuspid valve) पाया जाता है। यह कपाट रक्त को हृदय के आलिंद से निलय में आने देते परंतु निलय से आलिंद में जाने नहीं देते है ।
  • हृदय के बाँये आलिंद तथा निलय के बीच द्विदली कपाट (Bicuspid Valve ) या मिट्रल कपाट (Mitral valve) पाया जाता है। यह कपाट रक्त को बाँये आलिंद से बाँये निलय में आने देता है परन्तु बाँये निलय से बाँये आलिंद में जाने में रोक देता है। 
  • हृदय के दाँये आलिंद में दो अग्रमहाशिरा (Precaval Vein) तथा एक पश्च महाशिरा (Postcaval Vein) खुलती है। ये तीनों महाशिराएँ शरीर का अशुद्ध रक्त (ऐसा रक्त जिसमें ऑक्सीजन के तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा है।) दाँये आलिंद में पहुँचता है।
  • दाँये आलिंद से अशुद्ध रक्त दाँये निलय में आ जाता है। दाँये निलेय में एक बड़ी फुफ्फुस चाप (Pulmonary arch) पायी जाती है जो, आगे की ओर दो फुफ्फुस धमनियों में बँटकर दोनों फेफड़ा तक जाती है। फुफ्फुस धमनियों के द्वारा अशुद्ध रक्त साफ होने हेतु फेफड़ा में पहुँचती है।
  • हृदय के बाँये आलिंद में दो फुफ्फुस शिराएँ (Pulmonary vein) खुलती है, जिसके द्वारा फेफड़ा से शुद्ध रक्त (रक्त जिसमें ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड के तुलना में ज्यादा है।) बाँये आलिंद में आती है। शुद्ध रक्त बाँये निलय में आ जाती है।
  • बाँये निलय से महाधमनी ( aorta ) निकलती है। बाँये निलय से शुद्ध रक्त त महाधमनी से होते हुए शरीर के सभी धमनियों में जाती है अततः ये धमनियाँ शरीर के सभी भागों में शुद्ध रक्त को प्रवाहित कर देती है।
  • मानव का हृदय शरीर के सभी भागों का अशुद्ध रक्त ग्रहण करता है फिर उसे साफ करने हेतु फेफड़ा में भेज देता है । पुनः फेफड़ा से शुद्ध रक्त ग्रहण कर शरीर के विभिन्न भागों में पंप कर देता है। हृदय मानव शरीर का केन्द्रीय पंप अंग (Central Pumping Organe ) है जो रक्त पर दाब डालकर उसे पूरे शरीर में प्रवाहित करवाता है।
  • हृदय द्वारा रक्त पर दाब बनाने हेतु, इसमें लगातार संकुचन (Contraction) तथा शिथिलन (Relaxation) होते रहता है। हृदय में होने वाले संकुचन को सिस्टोल (Systole) कहते हैं और शिथिलन को डायस्टोल (Diastole ) कहते है।
  • हृदय के सभी कक्षों में बारी-बारी से संकुचन तथा शिथिलन होता है, एक साथ नहीं। जब हृदय के दोनों आलिंद में संकुचन होता है उसी समय दोनों निलय में शिथिलन होता है तथा जिस समय दोनों निलय में संकुचन होता है उसी समय दोनों आलिंद में शिथिलन होता है।
  • हृदय का एक संकुचन ( Systole ) तथा एक शिथिलन (Diastole ) मिलकर एक धड़कन कहलाता है। मनुष्य में 1 मिनट में 72 से 75 धड़कने होती हैं अर्थात् एक धड़कन में 0.80 से 0.83 सेकंड का समय लगता है।
  • हृदय के एक धड़कन में 70 ml. रक्त पंप होता है एवं हृदय लगभग 5 लीटर रक्त प्रति मीनट पंप करता है ।
  • जब हृदय के सिकुड़ने (systole) से धमनियों में उच्च दबाव के साथ रक्त प्रवाहित होता है, तब इस दाव का मान 120 mmHg के बराबर होता है। हृदय शिथिल (Diastole) होकर जब शिराओं से रक्त खींचता है तब दाव घटकर 80mm Hg हो जाता है। इस दाब को 120/80 रक्त दाब के रूप में लिखा जाता है जो मानव का सामान्य रक्त दाब है। मानव के रक्त दाब को मापने हेतु स्फग्मो मोनोमीटर यंत्र उपयोग किया जाता है।
  • हृदय के प्रत्येक धड़कन के साथ-साथ दो स्पष्ट ध्वनि उत्पन्न होती है। सिस्टोल के समय 'लब' तथा डायस्टोल के समय 'डब' ध्वनि उत्पन्न होती है। यह ध्वनि हृदय के अंदर पाये जाने कपाट (Valve) के बंद होने तथा खुलने के कारण उत्पन्न होती है। हृदय में उत्पन्न ध्वनि को आला (Stethoscope) नामक यंत्र से सुना जाता है। 
  • हृदय के धड़कनों का नियंत्रण हृदय के दाँये आलिंद में पाये जाने वाले एक तंत्रिका उनक की गाँठ, जिसे S-A node (Sinu- auricular node) कहते है के द्वारा होता है। S-A node को हृदय का गति प्रेरक तथा पेसमेकर भी कहा जाता है।
  • धड़कनों के नियंत्रण हेतु S-A node से विद्युतीय तरंग उत्पन्न होता है। S-A node से निकलने वाली विद्युतीय तरंग सीधे आलिंद के दिवारों में फैल जाता है, उसके बाद यह तरंग दोनों निलय के बीच पाये जाने वाले तंत्रिका उत्तक A-Vnode (auriculo - ventricular node) ग्रहण कर लेता है। A-V node से विद्युतीय तरंग की संवेदना तंतुओं का बंडल (Bundle of His) के द्वारा नीचे आती है और निलय के दिवार में स्थित पतले-पतले तंतु जिसे पुरकिंजे का तंतु (Purkinje fibres) कहते हे, में फैल जाती है। S-A द्वारा उत्पन्न विद्युतीय तरंग हृदय के अंदर अत्यंत ही धीमी गति से प्रवाहित होती है।
  • हृदय के धड़कन के विशेष नियंत्रण हेतु S - A node पर सिम्पैथेटिक तथा भैगस नामक दो तंत्रिका तंतु जुड़े रहते है। सिम्पैथेटिक तंतु हृदय गति को बढ़ाता है और भैमस तंतु हृदय गति को घटाता है।
  • S-A node द्वारा उत्पन्न विद्युतीय तरंग के अध्ययन से हृदय की सामान्य क्रिया तथा हृदय रोगों का अनुमान लगाने को जा सकता है। इसके लिए इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (Electrocardiogram-ECG) नामक उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है। 
  • कलाई की धमनियों को अंगुली से हल्का दबा कर रक्त के बढ़ते एवं घटते दवाव का अनुमान लगाने को, नाड़ी दर या स्पंदन दर (Pulse-rate) मापना कहते है । नाड़ी दर का मान हृदय धड़कनों की संख्या के बराबर होता है, क्योंकि नाड़ी की गति हृदय के संकुचन एवं शिथिलन से होता है।

रक्त वाहिनियाँ या रक्त-नली (Blood-Vessels)

  • पूरे शरीर में रक्त के परिसंचरण हेतु निम्न प्रकार के रक्त-नलियाँ पायी जाती है -
1. धमनी (Arterie)
  • वे सभी रक्त नलियों जो हृदय के महाधमनी (Aorta) से उत्पन्न होती है और शुद्ध रक्त को हृदय से शरीर के विभिन्न भागों में ले जाती है, धमनी कहलाती है ।
  • धमनी की आतंरिक भित्ति मोटी होती है जिससे नली का आंतरिक व्यास कम होता है। धमनी में कोई कपाट (Valve) नहीं पाया जाता है जिस कारण इसमें रक्त का बहाव तेज गति से होता है।
  • हृदय के निलय में शिथिलन (Biastole ) के साथ धमनियों में उच्च दबाव के साथ बिना रुके रक्त का प्रवाह होता है।
  • फुफ्फुस धमनी (Pulmonary arterie) ऐसी धमनी है जो अशुद्ध रक्त का परिवहन करती है। यह धमनी अशुद्ध रक्त को हृदय के दाँये निलय से फेफड़ा में ले जाती है, जहाँ इसका शुद्धिकरण होता है।
  • शरीर के विभिन्न भागों में धमनी विभाजित होकर धमनिकाएँ (Arterioles) बनाती है और अंत में धनिकाएँ कोशिकाओं (Capillaries) में विभक्त हो जाती है।
2. केशिकाएँ (Capillaries)
  • ये रक्त नली अत्यंत महीन होती है केशिकाओं का दिवार एपिथीलियम उत्तक का बना होता है।
  • केशकाओं (Capillaries) के दिवार से होकर जल, पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन कोशिका में प्रवेश कर जाते है तथा उत्सर्जित होने वाले हानिकारक पदार्थ एवं कार्बन डाइऑक्साइड रक्त में आ जाते है।
  • केशिकाएँ आपस में जुटकर शिरिकाएँ (Venules) बनाती है तथा कई शिरिकाएँ आपस में जुटकर शिरा (Vein) नामक एक नई रक्त वाहिनी का निर्माण करती है।
  • केशिकाएँ वे रक्त नली है जिसका संबंध धमनी तथ शिरा दोनों से है।
3. शिराएँ (Veins)
  • वे सभी रक्त नलियाँ जो शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त जमा कर हृदय में लाती है, शिराएँ कहलाती है।
  • शिरा की दिवार धमनी के अपेक्षा पतली होती है इसलिए शिरा का आंतरिक व्यास भी धमनी के अपेक्षा अधिक होती है।
  • शिराओं पर कम दबाव लगाकर हृदय रक्त खींचता है, इसलिए रक्त को वापस लौटने से बचाने हेतु इसमें जगह-जगह कपाट (Valve) लगे होते है। शिराओं में लगा कपाट रक्त को केवल हृदय की ओर ही जाने देता है। पीछे लौटने नहीं देता है।
  • फुफ्फुस शिरा (Pulmonary vein) शुद्ध रक्त का परिवहन करती है । फुफ्फुस शिरा शुद्ध रक्त को फेफड़े से हृदय के बाँये आलिंद में लाता है।
4. कोरोनरी वाहिनी (Coronary Vessels)
  • कोरोनरी वाहिनी केवल हृदय के मांसपेशी को ही रक्त पहुँचाती है। इस वाहिनी का संबंध हृदय के अतिरिक्त अन्य किसी अन्य से नहीं होता है।
  • कोरोनरी वाहिनी की उत्पत्ति हृदय के बाएं निलय से होती है तथा शाखा प्रशाखा में बँटकर हृदय मांसपेशी को रक्त पहुँचाती है और अंत में यह दाँये आलिंद में वापस खुलती है।
  • हृदय के मांसपेशी में शुद्ध रक्त को पहुँचाना तथा अशुद्ध रक्त को गतंव्य स्थान तक लाना, दोनों ही कार्य कोरोनरी वाहिनी के द्वारा ही होती है।
5. पोर्टल वाहिनी (Portal Vessels) 
  • पोर्टल वाहिनी शिरा-तंत्र (Vein-system) का हिस्सा है परंतु इसका हृदय से कोई संबंध नहीं होता है। आहार-नाल के विभिन्न हिस्सों का शिरा आपस में मिलकर पोर्टल वाहिनी का निर्माण करती है जो यकृत के विभिन्न हिस्सों में पहुँचकर समाप्त हो जाती है।
  • पोर्टल वाहिनी आहारनाल के विभिन्न भागों का रूधिर सीधे हृदय में जाने नहीं देता है, बल्कि पहले रक्त को यकृत में लाता है, फिर उसे हृदय जाने देता है। 

रूधिर या रक्त (Blood)

  • रक्त तरल संयोजी उत्तक है, इसे परिवहन संयोजी उत्तक भी कहा जा सकता है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य में 5 से 6 लीटर रक्त पाया जाता है।
  • रक्त एक संयोजी उत्तक है, अतः इसमें कोशिकाओं की संख्या बहुत कम होती है। रक्त में 45 प्रतिशत रक्त कोशिकाएँ पायी जाती है। शेष 55 प्रतिशत भाग रंगहीन जलीय घोल के रूप में पाया जाता है जिसे रक्त प्लाज्मा (Blood Plasma) कहा जाता है। रक्त का सामान्य pH स्तर 7.35 से 7.45 के बीच होता है।
  • रक्त प्लाज्मा (Blood Plasma)
    • प्लाज्मा में 90 प्रतिशत जल पाय जाता है। शेष 10 प्रतिशत में प्रोटीन, वसा, ग्लूकोज तथा अन्य कई कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ पाये जाते है।
    • प्लाज्मा में उपस्थित विभिन्न पकार के कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ की मात्रा हमेशा नियत नहीं रहती है। विभिन्न प्रकार के रोगों में इन पदार्थ की मात्रा परिवर्तित हो जाता है, यही कारण है रक्त की जाँच कर चिकित्सक रोगों का पहचान करते हैं।
    • प्लाज्मा में पाये जाने वाले प्रोटीन - एल्बुमिन, ग्लोब्यूलिन तथा फाइब्रोनोजेन को प्लाज्मा प्रोटीन भी कहा जाता है। इन प्रोटीन का निर्माण मानव - यकृत में होता है।
    • रक्त प्लाज्मा में अत्यधिक मात्रा में एल्बुमिन प्रोटीन घुले होने के कारण ही रक्त गाढ़ा, लसलसा तथा श्यान (Viscous) होता है।
    • रक्त प्लाज्मा कार्बन डाइऑक्साइड, हॉर्मोन तथा कोशिकाओं द्वारा उत्सर्जित अपशिष्ट पदार्थ के परिवहन का कार्य करते है। अगर शरीर के किसी भी अंग में किसी प्रकार की खराबी होती है या कोई नया रसायनिक पदार्थ शरीर में उत्पन्न होता है, तो वह प्लाज्मा में पहुँच जाता है, जिसकी जाँच कर चिकित्सक रोग की पहचान कर लेते है ।
  • रक्त कोशिकाएँ (Blood Corpuscles)
    • रक्त में तीन प्रकार की कोशिकाएँ- लाल रक्त कोशिकाएँ (WBC) तथा प्लेटलेट्स (Platelets) मौजूद रहता है। इन रक्त कोशिकाओं का निर्माण जन्म से लेकर वयस्कों तक में अस्थि मज्जा में होता है।
      1. लाल रक्त कोशिकाएँ (Red Blood Corpuscles or RBC)
        • रक्त में सर्वधिक मात्रा में RBC ही पाये जाते है। इनकी संख्या 40-50 लाख प्रति घन मिली मीटर 45-50 लाख / 1mm3 ) होता है। तुलना में स्त्रियों में RBC की मात्रा थोड़ी कम होती है।
        • इस कोशिका की आकृति उभय अवतल (Bioconcave) होता है, जिसका औसत व्यास 7 um एवं मोटाई 2 um होता है। RBC के जीवद्रव्य में राइबोसोम के अतिरिक्त कोई अन्य कोशिका - अंगक नहीं पाये जाते है अर्थात् इस कोशिका में केन्द्रक तथा माइटोकॉण्ड्रिया का भी अभाव होता है।
        • RBC का निर्माण अस्थि मज्जा में होता है एवं 90 से 120 दिनों के बाद इसका विनाश प्लीहा में होता है। इसके उत्पत्ति एवं विनाश का क्रम जीवनभर चलता रहता है। मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 30 लाख RBC का निर्माण होता है और इतने ही मात्रा में नष्ट होते रहता है।
        • लाल रक्त कोशिकाओं (RBC) के जीवद्रव्य में लौह युक्त प्रोटीन हीमोग्लोबिन पाया जाता है, जिसके कारण इन कोशिकाओं का रंग लाल होता है एवं इनमें O2 (ऑक्सीजन) लेने तथा देने की क्षमता होती है। रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा 12-16 g/100ml होता है।
        • हीमोग्लोबिन कोई एंजाइम नहीं है परन्तु इसकी संरचना एंजाइम से मिलती है। हीमोग्लोबिन दो भागों से मिलकर बना है। इसका प्रथम भाग हीमेटीन या हीम कहलाता है जो एक आयरन फॉरफाइरीन है। हीमोग्लोबिन का 95 प्रतिशत भाग रंगहीन प्रोटीन ग्लोबिन का बना है। हीमोग्लोबिन का एक ग्राम 1.3 मिली लिटर ऑक्सीजन से संयोग करने की क्षमता रखता है।
        • RBC को Erythrocytes भी कहा जाता है।
      2. श्वेत रक्त कोशिकाएँ (White Blood Corpuscles or WBC)
        • WBC रक्त में सबसे कम संख्या में पायी जाने वाली कोशिका है। इनकी संख्या 6000-10000 प्रति घन मिलीमिटर होता है।
        • इस कोशिका का आकार अनियमित होता है। इसमें केन्द्रक उपस्थित रहते है लेकिन इसमें हीमोग्लोबिन नहीं पाया जाता है, जिसके कारण ये कोशिका रंगहीन होता है।
        • रक्त में कुछ WBC के जीवद्रव्य में सूक्ष्म कण पाये जाते हैं, ऐसे WBC ग्रेनुलोसाइट कहलाते है। ये तीन प्रकार के होते है - न्यूट्रोफिल्स ( उदासीन), इओसिनोफिल ( अम्लीय) तथा बेसोफिल (क्षारीय)
        • जिस WBC के जीवद्रव्य में कोई सूक्ष्म कण नहीं पाये जाते हैं उसे एग्रेनुलोसाइट कहा जाता है। यह दो प्रकार के होते है- लिम्फोसाइट तथा मोनोसाइट |
        • शरीर में रोग फैलाने वाला जीवाणुओं को नष्ट करना WBC का प्रधान कार्य है। विभिन्न जीवाणुओं के संक्रमण में पहले न्यूट्रोफिल और बाद में मोनोसाइट जीवाणु को नष्ट करने का कार्य करते है। शरीर में संक्रमण होने पर रक्त में न्यूट्रोफिल तथा मोनोसाइट्स की मात्रा बढ़ जाती है।
        • शरीर में नोचनी - खुजली, दमा तथा खासी जैसे ऐलर्जी का संक्रमण होने पर एसीडोफिल सुरक्षा प्रदान करता है। ऐलर्जी युक्त प्रतिक्रियाओं में एसीडोफिल की मात्रा बढ़ जाती है।
        • लिम्फोसाइट्स, WBC का सबसे महत्वपूर्ण घटक * यह दो प्रकार के होते हैं- B - लिम्फोसाइट तथा T–लिम्फोसाइट। लिम्फोसाइट अलग-अलग रोगों से लड़ने के लिए अलग-अलग प्रकार के एंटीबॉडी (Antibody) का निर्माण करते है और शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
        • ग्रेनुलोसाइट WBC का निर्माण अस्थिमज्जा में होता है जबकि एग्रेनुलोसाइट WBC का निर्माण लिम्पनोड में होता है। लिम्फोसाइट का निर्माण लिम्पनोड के अतिरिक्त प्लीहा, थाइमस ग्रंथि तथा अस्थिमज्जा में भी होता है।
        • सभी प्रकार के WBC में मोनोसाइट सबसे बड़ा तथा लिम्फोसाइट सबसे छोटा कोशिका है। विभिन्न प्रकार के WBC का जीवन काल 1 से 4 दिनों से लेकर 13 से 20 दिनों तक का होता है। WBC कोशिका को Leucocytes भी कहा जाता है।
      3. प्लेटलेट्स (Platelets)
        • रक्त में इनकी संख्या 1.5 से 3 लाख प्रतिघन मिलीमीटर होता है। ये रक्त कोशिकाएँ केवल स्तनधारी के शरीर में ही पाया जाता है।
        • इस कोशिका अनियमित आकृति का होता है, जिसका व्यास 2-4 um का होता है। इसमें केन्द्रक का अभाव होता है।
        • इस कोशिका प्रधान कार्य है रूधिर - स्त्राव के समय रक्त का थक्का बनाना । शरीर के किसी अंग के कट फट जाने से प्लेटलेट्स अधिक संख्या में एकत्र होकर आपस में चिपक जाते हैं तथा रक्त-स्त्राव को बंद कर देते है।
        • प्लेटलेट्स कोशिका को 'Thrombocytes भी कहा जाता है।

रक्त का जमना (Blood Clotting)

  • रक्त स्त्राव के समय रक्त का जमना या थक्का बनना एक जटिल रसायनिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में कुल 12 कारकों का उपयोग होता है जिन्हें I-XII तक अंक दिये गये है। इन 12 कारको में कारक VI का कोई योगदान नहीं होता जबकि कारक VIII के अभाव में किसी भी परिस्थिति में थक्का नहीं बनता ।
  • रक्त का जमाव निम्नलिखित चरणों में क्रमिक रूप से होता है-
    • रक्त स्त्राव होने पर सर्वप्रथम प्लेटलेट्स हवा के संपर्क में आते है तथा थ्रॉम्बोप्लास्टिन नामक पदार्थ का निर्माण करते है। थ्रॉम्बोप्लास्टिन रक्त में पाये जाने वाले हिपैरीन को निष्क्रिय कर देता है। हिपैरीन एक थक्का विरोधी रसायन है जो रक्त को जमने नहीं देता है। शरीर के भीतर रक्त हिपैरीन की उपस्थिति के कारण ही नहीं जमता है।
    • इसके बाद थ्रॉम्बोप्लास्टिन, विटामिन K तथा कैल्शियम आयन के साथ मिलकर रक्त में पाये जाने वलो निष्क्रिय प्रोथॉम्बिन एंजाइम को सक्रिय थ्रॉम्बिन एंजाइम में परिवर्तित कर देता है।
    • थ्रॉम्बिन रूधिर में पाये जाने वाले फाइब्रिनोजेन प्रोटीन को फाइब्रिन में बदल देता है। फाइब्रिन एक प्रकार का जाल है जिसमें रक्त कोशिकाएँ फँस जाता है, जिससे रक्त का थक्का बन जाता है जो रक्त स्त्राव को रोक देता है। कुछ समय बाद फाइब्रीन तंतु के संकुचित होने पर पीला द्रव बाहर आता है। इसे सीरम कहते है।
    • रक्त को थक्का बनने में 5 मिनट से लेकर 10 मिनट तक का समय लगता है।
    • रक्त- चूषक मच्छड़ तथा खटमल के लार में थक्का विरोधी रसायन पाया जाता है, जिसके कारण इन जीवों द्वारा रक्त- - चूषने के समय रक्त का थक्का नहीं बनता है। जोंक में हिरूडीन नामक थक्का विरोधी रसायन पाया जाता है।
    • प्रयोगशाला तथा रक्त बैंक में रक्त का थक्का बनने से रोकने हेतु 0.01 प्रतिशत सोडियम साइट्रेट या सोडियम ऑक्जलेट रक्त में मिला दिया जाता है।

रक्त-समूह (Blood Group)

  • सर्वप्रथम कार्ल लैंडस्टीनर ने यह पता लगाया कि सभी मनुष्य का रक्त एक समान नहीं है। मनुष्य के रक्त में पाये जाने वाले विभिन्नता का कारण इसमें पाये जाने वाले विशेष प्रकार के प्रोटीन-एंटीजन तथा एंटीबॉडी है।
  • मानव के लाल रक्त कण (RBC) के झिल्ली में दो प्रकार के एंटीजन होते हैं जिन्हें एंटीजन A तथा एंटीजन B कहते है । एंटीजन को ऐग्लुटीनोजेन्स भी कहा जाता है। यह एंटीजन ऐसे पदार्थ है जो हमारे शरीर में एंटीबॉडी निर्माण को बढ़ावा देते है।
  • किसी मनुष्य में केवल एक प्रकार के एंटीजन या दोनों प्रकार के एंटीजन पाये जा सकते हैं या दोनों प्रकार के एंटीजन अनुपस्थित भी रह सकता है।
  • रक्त के प्लाज्मा में दो प्रकार के एंटीबॉडीज होते हैं जिसे Anti A या a तथा Anti B या b कहा जाता है। एंटीबॉडी को ऐग्लूटिनिन्स भी कहा जाता है।
  • रक्त में उपस्थित एंटीजन तथा एंटीबॉडी के आधार पर लैंडस्टीनर ने मानव रक्त को चार समूहों में बाँटा-
Blood Group Atigen Antigody
A A b
B B a
AB A तथा B None
O None a तथा b
  • उपर्युक्त चार रूधिर वर्ग में से A, B तथा O की खोज कार्ल लैडस्टीनर ने 1901 में किया था तथा रूधिर वर्ग AB की खोज डीकैस्टेलो तथा स्टल ने 1902 में किया था।
  • रूधिर वर्ग AB में दोनों एंटीजेन उपस्थित रहता है परंतु कोई एंडीवॉडी नहीं पाये जाते हैं। रूधिर वर्ग 0 में कोई एंटीजेन नहीं पाया जाता है परंतु दोनों एंटीबॉडी पाये जाते हैं।
  • रूधिर-वर्ग का सर्वाधिक महत्व रूधिर - आधान (Blood transfusion) के समय होता है। वर्तमान में मनुष्य के रूधिर वर्ग जाँच कर लैडस्टीनर के नियमानुसार रोगियों को रूधिर चढ़ाया जाता है। रूधिर आधान हेतु लैंडस्टीनर का नियम-
Blood Group किस रक्त वर्ग को रक्त दिया जा सकता है। किस रक्त वर्ग से रक्त से ग्रहण किया जा सकता है।
A A तथा AB  O तथा A
B B तथा AB O तथा B
AB केवल AB सभी रक्त वर्ग
O सभी रक्त वर्ग केवल O
  • अगर रक्त ग्रहण करने वाले व्यक्ति में एंटीजन तथा एंटीबॉडी एक-दूसरे के अनुरूप (Antigen A-Antibody a या AntigenB d-Antibodyb) हो जाता है तो रक्त का अभिश्लेषण (Agglutination) हो जाता है, जिसके कारण रूधिर जम जाता है तथा व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
  • group Blood O वाले व्यक्ति के रक्त में कोई एंटीजन नहीं होने के कारण, इनका रक्त सभी Blood group वाले व्यक्तियों को चढ़ाया जा सकता है। परंतु O वर्ग के व्यक्ति में दोनों एंटीबॉडी के उपस्थिति के कारण किसी अन्य Blood group का रक्त, इस वर्ग के व्यक्ति को नहीं चढ़ाया जा सकता है। इसलिए O Blood group को सर्वदाता (Universal donor) कहा जाता है।
  • Blood group AB वाले मनुष्य में दोनों एंटीजन की उपस्थिति के कारण इनका रक्त अन्य किसी Blood group वाले व्यक्ति को नहीं चढ़ाया जा सकता है। परंतु, Blood group AB में दोनों एंटीबॉडी के अनुपस्थित के कारण इसे सभी Blood group का रक्त चढ़ाया जा सकता है। इस कारण Blood group AB का सर्वग्रही (Universal recipient) कहा जाता है।

रूधिर वर्गों की वंशागति (Heredity of Blood group)

  • मानव को चार प्रकार के रक्त वर्ग का निर्धारण हेतु तीन जीन / ऐलील होते हैं, जिसे IA, IB तथा IO में व्यक्त किय जाता है। IA तथा IB प्रभावी जीन है तथा IO अप्रभावी जीन है।
  • किसी मनुष्य में उपर्युक्त तीन जीन में केवल दो ही उपस्थित रहते है जिससे उसके रक्त वर्ग का निर्धारण होता है।
  • मानव के चारों रक्त वर्ग का जीनोटाइप-
Genotype Blood group
IAIA या IA IO A
IBIB या IB IO B
IAIB AB
IOIO O
  • मानव में रक्त वर्ग की वंशागति- 
Blood group संतानों के संभावित Blood group
A × A A या O
A × B A, B, AB या O
A × AB A, B, AB
A × O A या O
B × B B या O
B × AB A, B, AB
B × O B या O
AB × AB A, B, AB
AB × O A या B
O × O B या O
  •  मानव रक्त वर्ग बहुविकल्पता (Multiple allele) को दर्शाता है तथा रक्त वर्ग AB सहप्रभाविता (Co-dominance) को दर्शाता है।

Rh कारक या Rh रक्त वर्ग (RH-Factor or RH Blood Group)

  • RH Factor एंटीजेन है जिसका खोज सबसे पहले लैंडस्टीनर एवं वीनर ने मकका रीसस बंदर में 1940 किया ।
  • Rh Factor एंटीजन विश्व के लगभग 87 प्रतिशत मनुष्य में पाया जाता है। जिन मनुष्य में RH एंटीजन पाया जाता है उसका रक्त वर्ग RH+ (Positive) तथा जिन मनुष्य में यह एंटीजन नहीं पया जाता है उसका रक्त वर्ग RH- (Negative) कहलाता है।
  • रूधिर आधान के समय अगर RH- व्यक्ति को RH+ व्यक्ति का रक्त चढ़ाया जाता है तो ग्राही व्यक्ति के रक्त में RH+ एंटीजेन के विरूद्ध एंटीबॉडी का निर्माण शुरू हो जाता है, लेकिन पहली बार इस तरह के रक्त आधान में कोई समस्या नहीं आती है। लेकिन प्रथम रूधिर आधान के पश्चात् यदि RH+ व्यक्ति का रक्त RH- व्यक्ति में पुनः दिया जाये तो RH+ एंटीजन के साथ ग्राही व्यक्ति के शरीर में निर्मित एंडीबॉडी प्रतिक्रिया करता है जिससे ग्राही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
  • उपर्युक्त कारणों से RH- व्यक्ति को RH+ व्यक्ति का रक्त पूर जावन नहीं । काल में केवल एक बार चढ़ाया जा सकता है दो बारा नहीं I
  • RH कारक की वंशागति- 
पिता माता उत्पन्न संतान
RH+ RH+ RH+
RH- RH+ RH+
RH- RH- RH-
RH+ RH- RH+

एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस (Erythnblastosis Fetallis)

  • एरिथ्रोब्लास्टासिस Rh कारक से संबंधित रोग है जो केवल गर्भ में पल रहे शिशुओं को होता है। इस रोग के कारण गर्भ में ही शिशु की मृत्यु हो जाती है।
  • अगर Rh+ पुरूष का विवाह Rh- स्त्री के साथ होता है, तो इस जोड़े से उत्पन्न सभी शिशु Rh+ वाले होते है। शिशु अपने माँ के गीशय में Rh+ रूधिर कोशिका बनाने लगता है जो उसके माँ के शरीर में पहुँच जाता है। माँ का रूधिर शिशु के Rh+ एंटीजन के विरूद्ध एंटीबॉडी बनाने लगता है जो शिशु के रक्त में जाकर इसकी रक्त कोशिकाओं को तोड़ने लगता है जिसके कारण गर्भावस्था में ही शिशु की मृत्यु हो जाती है ।
  • प्रथम गर्भावस्था में माँ का रक्त एंटीबॉडी धीरे-धीरे बनाता है जिसके कारण प्रथम गर्भ के शिशु को विशेष हानि नहीं होती है परंतु ऐसे शिशु के जन्म होने से इसमें अनियमित संरचना, बुद्धिहीनता आदि जैसे लक्षण रहते है। लेकिन दूसरे गर्भावस्था में शिशु की मृत्यु पर्याप्त एंटीबॉडी बन जाने से निश्चित ही हो जाएगी ।
  • उपर्युक्त कारणों से Rh+ पुरूष तथा Rh- महिला विवाह करते हैं तो ऐसे जोड़े संतान उत्पन्न नहीं कर सकते है ।
  • इस रोग के उपचार हेतु रक्त प्लाज्मा से तैयार 'इम्यूनोग्लोबिन ( IgG ) ' माता के रक्त में इंजेक्ट की जाती है। यह इम्यूनोग्लोबिन उस Rh+ एंटीजन को नष्ट करता है जो शिशु के रक्त से प्लेसेंटा के माध्यम से माता के रक्त में प्रवेश करता है।

लासिका - तंत्र (Lymphatic system)

  • शरीर के विभिन्न उत्तक तथा मांसपेशीओं के बीच कुछ स्थान खाली रहते है, जिनमें नलीनुमा रचना एवं गाँठे उपस्थित रहते है। इस नलीनुमा रचना एवं गाँठ को लीसका नलियाँ और लिम्फनोड कहा जाता है।
  • रक्त प्लाजा जब रूधिर केशिकाओं (Blood Capillaries) से गुजरता है तब कुछ रक्त प्लाजा कोशिकाओं के पतली दिवार से छनकर लसीका नली तथा लिम्पनोड में जमा हो जाते हैं, जिसका लासिका (lymph) कहा जाता है। 
  • लासिका में कम मात्रा में प्रोटीन, वसा, लवण पाये जाते है तथा इसमें लिम्फोसाइट श्वेत रक्त कोशिका (WBC) भी उपस्थित रहते है। लासिका में ऑक्सीजन तथा ग्लूकोज की बहुत कम मात्रा पायी जाती है परंतु इसमें काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड उपस्थित रहते है।
  • लासीका नली, लिम्पनोड तथा लासिका मिलकर लासीका तंत्र का निर्माण करते है। लासीका तंत्र का हृदय से कोई संबंध नहीं होता है।
  • लासीका, कोशिका तथा उत्तकों से CO2 तथा अन्य हानिकारक पदार्थों लेकर रक्त में पहुँचाता है तथा रक्त इन्हें गंतव्य स्थान तक पहुँचा देते है।
  • लासीका को उत्तक द्रव्य (tissue fluid) भी कहा जाता है। इसमें WBC पाया जाता है परंतु RBC अनुपस्थित रहता है, जिसेक कारण यह रक्त के तरह लाल न होकर रंगहीन होता है। 

अभ्यास प्रश्न

1. सजीवों में पाये जाने वाले परिवहन तंत्र के क्या कार्य है?
(a) उपयोगी पदार्थों का उनके मूल स्त्रोतों से शरीर के प्रत्येक कोशिका तक पहुँचना
(b) अनुपयोगी और हानिकारक पदार्थ को कोशिका से निकाल कर गंतव्य स्थान तक पहुँचना ।
(c) A तथा B दोनों
(d) न तो A न ही B 
2. एककोशिकीय जीवों में परिवहन किस विधि से सम्पन्न होता है ?
(a) विरण 
(b) परासरण
(c) अतः शोषण
(d) जीवद्रव्यकुंचन
3. पानी एवं घुलित लवणों का पौधों में परिवहन होता है-
(a) फ्लोएम के द्वारा
(b) जाइलम के द्वारा
(c) पैरेनकाइमा के द्वारा 
(d) स्क्लेरेनकाइमा के द्वारा
4. पौधों में खाद्य-पदार्थों का परिवहन किसके द्वारा होता है?
(a) जाइलम
(b) फ्लोएम
(c) मृदुतक
(d) दृढ़ोत्तक
5. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-  
1. पौधों में परिवहन का कार्य जाइलम तथा फ्लोएम उत्तक के द्वारा होता है।
2. जाइलम तथा फ्लोएम को संवहन उत्तक भी कहते है।
उपर्युक्त में कौन-सा /से कथन सही है/ हैं ? 
(a) केवल 1
(b) केवल 2 
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही-2
6. पौधों में खाद्य पदार्थों का परिवहन किस रूप में होता है ?
(a) स्टार्च 
(b) ग्लूकोस
(c) प्रोटीन
(d) सुक्रोस
7. निम्नलिखित में किस वर्ग के पौधों में संवहन उत्तक नहीं पाये जाते हैं ?
(a) थैलोफाइटा
(b) ब्रायोफाइटा
(c) टेरिडोफाइटा
(d) A तथा B दोनों
8. पौधों में पानी की आपूर्ति किस क्रिया द्वारा होता है ?
(a) परासरण
(b) विसरण
(c) अंतः शोषण
(d) ससंजन
9. पौधों की जड़ों से पौधों के शीर्ष की ओर जल का परिवहन क्या कहलाता है ?
(a) पृष्ठ तनाव
(b) रसाकर्षण
(c) अवशोषण
(d) विसरण
10. जाइलम में जल का परिवहन किस दिशा में होता है ?
(a) जड़ से तना की ओर
(b) पत्ते से जड़ की ओर
(c) दोनों ओर
(d) उपरोक्त में कोई नहीं
11. फ्लोएम में भोजन का परिवहन किस दिशा में होता है?
(a) पत्ते से जड़ की ओर
(b) जड़ से तना की ओर
(c) दोनों दिशाओं में
(d) उपर्युक्त में कोई नहीं
12. पौधों के 'जाइलम' उत्तक के संबंध में निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. इसकी अधिकांश कोशिकाएँ जीवित होती है।
2. यह खाद्य पदार्थों का स्थानांतरण करता है।
3. इसमें खाद्य पदार्थों का ऊपर एवं नीचे दोनों तरफ परिवहन होता है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1 
(b) 1 और 2
(c) केवल 2
(d) 1 और 3
13. मिट्टी में पाये जाने जल का अवशोषण सर्वप्रथम किसके द्वारा होता है ?
(a) जाइलम
(b) मूलरोम
(c) फ्लोएम
(d) पैरेनकाइमा
14. पौधे मिट्टी से किस प्रकार का जल ग्रहण करते है ?
(a) गुरूत्वीय जल 
(b) आर्द्रताग्राही जल
(c) कोशिका जल
(d) इनमें से सभी
15. विसरण की जिस विधि द्वारा जल जड़ों में प्रवेश करता है, उसे कहते है ?
(a) सक्रिय अवशोषण
(b) निष्क्रिय अवशोषण
(c) परासरण 
(d) एंडो साइटोसिस
16. जड़ के मूलरोमो द्वारा जल का अवशोषण तब होगा, जब-
(a) मृदा में लवणों की सांद्रता अधिक होगी
(b) जब पौधा तेजी से श्वसन करता है।
(c) मूलरोम, मृदा से विभेदक पारगम्य झिल्ली से अलग हो
(d) कोशिका रस में बिलेयो की सांद्रता अधिक हो 
17. निम्न कथनों पर विचार कीजिए -
1. पौधों में परिवहन का कार्य जाइलम फ्लोएम उत्तकों के द्वारा सम्पन्न होता हैं
2. पौधों में होने वाले परिवहन में वाष्पोत्सर्जन की कोई भूमिका नहीं होती है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
18. विभिन्न प्रकार के पोषक पदार्थ का परिवहन पौधे के एक भाग से दूसरे भाग में किस विधि से होता है ?
(a) विसरण 
(b) सक्रिय परागमण (Active Transport)
(c) परासरण
(d) इनमें से कोई नही
19. पौधों में पोटाशियम लवणों का परिवहन किस विधि से होता है ?
(a) विसरण
(b) सक्रिय परागमण
(c) परासरण
(d) इनमें से कोई नहीं
20. पानी के अंदर काटे हुए फूल अधिक समय तक ताजा रहते है, क्योकि-
(a) उनको पानी की उचित आपूर्ति होती है
(b) उसका जाइलम उत्तक क्षतिग्रस्त नहीं होता है
(c) पानी का स्तंभ बुलबुलों के कारण बंद नहीं होता
(d) वह तेजी से वाष्पोत्सर्जन करता है
21. जल तथा घुलनशील लवण का मूलरोम से पत्तियों तक पहुँचने की क्रिया किस उत्तक द्वारा संपन्न होती है ?
(a) मूलरोम 
(b) जाइलम
(c) फ्लोएम
(d) कॉर्टेक्स
22. पौधों के बाहरी वायुवीय भाग से जलवाष्प के निकलने की क्रिया क्या कहलाती है ?
(a) अवशोषण
(b) वाष्पोत्सर्जन
(c) परिवहन
(d) उत्सर्जन
23. एक पेड़ अपने पूरे जीवनकाल में अपने भार के कितना गुणा जल को वाष्पोत्सर्जित करता है ?
(a) दो गुणा
(b) चार गुणा
(c) हजार गुणा
(d) सौ गुणा
24. पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया मुख्य रूप से किस भाग में होता है ?
(a) वातरंध्र 
(b) क्यूटिकल
(c) रंध्र
(d) जड़
25. पौधा में सबसे ज्यादा वाष्पोत्सर्जन किस भाग से होता है?
(a) पत्ती
(b) वायवीय तना
(c) जड़
(d) पूरा पौधा में समान रूप से होता है
26. निम्नलिखित स्थितियो में कौन-सा वाष्पोत्सर्जन को अत्यंत तेज कर देगा ?
(a) अधिक आर्द्रता
(b) मृदा में अत्यधिक जल
(c) कम आर्द्रता तथा उच्च तापमान
(d) वायु का कम वेग
27. रंध्रों खुलने और बंद होने के लिये निम्नांकित में किसकी मुख्य भूमिका रहती है ?
(a) तने की 
(b) फूलो की 
(c) जड़ों की
(d) द्वार कोशिका की 
28. रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन किस समय बिल्कुल रूक जाता है ?
(a) प्रातः काल 
(b) शाम में
(c) रात में
(d) कभी नहीं बंद होता है
29. रंध्र दिन में ही खुलते है, क्योंकि द्वार कोशिका-
(a) पतली भित्तीवाली होती है
(b) गैसों के अदान-प्रदान में मदद करती है
(c) सेम के बीज के आकार की होती है
(d) प्रकाश संश्लेषण करती है और परासरणीय रूप से सक्रिय शर्कराओं का निर्माण करती है
30. निम्नलिखित में किस पौधे में रंध्र नहीं पाया जाता है ?
(a) जलोदभिद् 
(b) मरूदभिद्
(c) स्थलीय
(d) A तथा B दोनों
31. पत्तियों में होने वाला निम्नलिखित में कौन-सा प्रक्रम, उसके तापमान को कम करता है ?
(a) वाष्पोत्सर्जन 
(b) प्रकाश संश्लेषण
(c) श्वसन
(d) जल अपघटन
32. पौधे द्वारा मिट्टी से प्राप्त जल का कितना प्रतिशत उपयोग करते है ?
(a) 10 प्रतिशत
(b) 50 प्रतिशत
(c) 90 प्रतिशत
(d) 100 प्रतिशत
33. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों में होने से वाले वाष्पोत्सर्जन में जल की निरर्थक हानी होता है
2. पौधे में जल तथा लवणों के परिवहन हेतु वाष्पोत्सर्जन अनिवार्य है
3. वाष्पोत्सर्जन को पौधों का आवश्यक दुर्गुण माना जाता है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) 2 तथा 3
(c) केवल 3
(d) उपर्युक्त सभी
34. जल के अवशोष्ण एवं परिवहन में जड़ की जाइलम वाहिकाओं में उत्पन्न होने वाले दाब को क्या कहते है ?
(a) विसरण - दाब
(b) स्फीति दाब 
(c) परासरण दाब
(d) मूल दाब
35. मूलदाब कहाँ उत्पन्न होता है?
(a) मूल रोम में
(b) अंतस्त्वचा में (Hypodermis )
(c) कॉर्टेक्स में
(d) जाइलम वाहिकाओं में 
36. मूल दाब अत्यधिक तब होता है जब-
(a) वाष्पोत्सर्जन एवं अवशोषण दोनों बहुत कम हो
(b) वाष्पोत्सर्जन एवं अवशोषण दोनों बहुत अधिक हो
(c) वाष्पोत्सर्जन अधिक हो एवं अवशोषण अत्यंत कम हो
(d) वाष्पोत्सर्जन बहुत कम हो और अवशोषण बहुत अधिक हो
37. मिट्टी में स्थित खजिन- लवणों (Minerals) का अवशोषण पौधे किस रूप में करते है ? 
(a) आयन
(b) यौगिक
(c) अणु
(d) परमाणु 
38. पौधों को अधिकांश पोषक तत्वों की आपूर्ति कहाँ से होती है ?
(a) वायु
(b) मिट्टी
(c) जल
(d) सूर्य का प्रकाश
39. पौधा के कोशिका भित्ती के लिये कौन-सा तत्व आवश्यक है ?
(a) सल्फर
(b) बोरॉन
(c) जस्ता
(d) कैल्सियम
40. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों में जल तथा घुलित खनिज लवणों के परिवहन में ऊर्जा का उपयोग नहीं होता है
2. पौधों में खाद्य-पदार्थों का फ्लोएम से होने वाले परिवहन में ऊर्जा का उपयोग होता है।
उपर्युक्त में कौन-सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2 
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
41. निम्नलिखित में कौन-सा एक सही नही है ?
(a) परासरण के द्वारा पौधे अपने मूलरोम से भूमि से जल अवशोषित करते है
(b) पौधों की कोशिकाओं में परासरण द्वारा जल का गमण होता है
(c) पत्तियों के रंध्रों के खुलने तथा बंद होने में परासरण की कोई भूमिका नहीं होती है
(d) परासरण पौधे को मजबूती प्रदान करता है, जिससे वह अपने आकार को बनाए रखता है।
42. पौधे के कोशिकाओं की स्फीति (turgid) बनाए रखने में किस तत्व की आवश्यकता होती है ?
(a) कैल्सियम
(b) फॉस्फोरस
(c) पोटैशियम
(d) मॉलिब्डेनम
43. निम्नलिखित में कौन पौधे के वृहतपोषक के अंतर्गत नहीं आते है ?
(a) फॉस्फोरस 
(b) पोटैशियम
(c) मैग्नीशियम
(d) लोहा
44. रंध्रों (Stomata) के खुलने एवं बंद होने में किस आयन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ?
(a) सोडियम
(b) पोटैशियम
(c) सल्फर
(d) फॉस्फोरस
45. वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (Transpiration Pull) का संबंध है-
(a) सक्रिय पारगमण से 
(b) जीवद्रव्यकुंचन से
(c) रसाकर्षण से
(d) अंतः शोषण से
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Sun, 21 Apr 2024 06:15:40 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव' में श्वसन https://m.jaankarirakho.com/1002 https://m.jaankarirakho.com/1002 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव' में श्वसन
  • सजीवों के शरीर की विभिन्न क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए अनवरत ऊर्जा की आवश्यकता होती है। यह ऊर्जा शरीर में श्वसन प्रक्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होता है।
  • श्वसन वह प्रक्रिया है जिसमें कोशिका के भीतर भोजन (glucose) का ऑक्सीजन तथा एंजाइम के मदद से ऑक्सीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होती है।
  • श्वसन की प्रक्रिया शरीर के कोशिकाओं में होता है, जिसे निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
      भोजन (glucose) + ऑक्सीजन → कार्बन डाइऑक्साइड + जल + ऊर्जा
  • श्वसन की प्रक्रिया में ऑक्सीजन का उपयोग होता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड श्वसन अपशिष्ट के रूप बनते हैं जिसे शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। श्वसन के उपरांत जल भी बनते हैं परंतु जल को श्वसन-अपशिष्ट नहीं कहा जाता है क्योंकि जल शरीर के लिए हानिकारक नहीं होते है।
  • श्वसन के दौरान उत्पन्न ऊर्जा का कोशिकाओं द्वारा तुरन्त उपयोग नहीं होता है, बल्कि यह ऊर्जा कोशिका में ही ATP अणुओं के रूप में संचित हो जाता है और जब ऊर्जा की आवश्यकता होती है, ATP अणु टूटकर ऊर्जा निर्मुक्त कर देते है।
  • श्वसन के दौरान बने समस्त ऊर्जा ATP अणु के रूप में परिवर्तित हो जाते है। कोशिकाओं के भीतर ATP का निर्माण हेतु ADP तथा फॉस्फेट अणुओं की आवश्यकता होती है, जो कोशिका में मौजूद रहता है।
      ADP + फॉस्फेट + ऊर्जा (श्वसन से बना ) → ATP
  • कोशिका के भीतर जब ऊर्जा की जरूरत होती है, जल के सहायता से ATP अणु को विखंडित कर दिया जाता है-
      ATP → ADP + फॉस्फेट + ऊर्जा
  • श्वसन में इस्तेमाल होने वाले भोजन (glucose) को कोशिकीय ईंधन कहते तथा श्वसन के दौरान बने ATP (Adenosine Di-Phosphate) को ऊर्जा-करेंसी कहते है।

श्वसन के प्रकार (Types of Respiration)

  • कोशिकाओं में होने वाला श्वसन दो प्रकार के होते हैं- वायवयी (ऑक्सी) श्वसन तथा अवायवीय (अनॉक्सी) श्वसन ।
1. अवायवीय श्वसन (Anaerobic Respiration)
  • यदि कोशिका में ऑक्सीजन के अनुपस्थिति में ग्लूकोज का ऑक्सीकरण होकर ATP बनता है तो इसे अवायवीय श्वसन कहते है।
  • अगर कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया नहीं हो तो उस स्थिति में भी अवायवीय श्वसन ही होते है। प्रोकैरोयोटीक कोशिका से बने जीव जैसे- जीवाणु में माइटोकॉण्ड्रिया नहीं होते हैं, उन जीवों में अवायवीय श्वसन ही होती है।
  • जीवाणु तथा पौधे के कोशिका में अवायवीय श्वसन होने पर इथाइल अल्कोहल, कार्बन डाइऑक्साइड तथा 2ATP अणु का निर्माण होता है। 
  • जीवाणु के कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया नहीं होते हैं, अतः इसमें हमेशा अवायवीय श्वसन ही होता है। पौधे के कोशिका में अवायवीय श्वसन उस स्थिति में होता है जब पौधों के कोशिका में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है।
  • जंतुओं तथा मानव के कोशिका में भी जब कभी ऑक्सीजन की कमी पड़ जाती है, तब कोशिका में अवायवीय श्वसन शुरू हो जाता है। जंतुओं तथा मानव में अवायवीय श्वसन होने पर लैक्टीक अम्ल तथा 2ATP ऊर्जा उत्पन्न होते है।

  • जब व्यक्ति अत्यधिक शारीरिक परिश्रम करता है अथवा जल्दी-जल्दी कार्य करता है, इस स्थिति में पेशी कोशिकाओं में पर्याप्त ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं हो पाती है, जिसके कारण पेशी कोशिकाओं में अवायवीय श्वसन शुरू के कारण पेशी कोशिका में लैक्टिक अम्ल बनता है जो पेशीय जकड़न या ऐंठन उत्पन्न करता है।
2. वायवीय श्वसन (Aerobic Respiration)
  • वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है, इसके अतिरिक्त वायवीय श्वसन हेतु कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया का होना अनिवार्य है।
  • वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में माइटोकॉण्ड्रिया के मदद से सम्पन्न होता है। वायवीय श्वसन के दौरान ग्लूकोज का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा 38ATP अणु का निर्माण होता है।

श्वसन अभिक्रिया (Respiration Reactions)

  • कोशिका में दो महत्वपूर्ण अभिक्रिया के बाद श्वसन सम्पन्न होता है। सर्वप्रथम ग्लाइकोलाइसिस अभिक्रिया होती है उसके बाद क्रेब्स चक्र अभिक्रिया होता है।
1. ग्लाइकोलाइसिस (Glycolysis) 
  • श्वसन के दौरान सर्वप्रथम गलाइकोलाइसिस होता है। यह अभिक्रिया कोशिका के कोशिका द्रव में सम्पन्न होता है।
  • ग्लाइकोसिस में ग्लूकोज अणु का अपूर्ण ऑक्सीकरण होता है जिसके फलस्वरूप पायरूत्रिक अम्ल तथा 2ATP ऊर्जा बनता है।
          C6H12O6 →2C3H4O3 +4[H] + 2ATP
  • ग्लाइकोलाइसिस में चार हाइड्रोजन परमाणु भी बनते है। यह H - परमाणु माइटोकॉण्ड्रिया में जाकर GATP ऊर्जा बनाने में सक्षम होता है परन्तु माइटोकॉण्ड्रिया कोशिका में नहीं रहने पर यह H - परमाणु इथाइल ऐल्कोहॉल या लैक्टिक अम्ल बनने में खर्च हो जाता है।
2. क्रेब्स - साइकिल (Krebs-cycle)
  • इस अभिक्रिया की खोज हेन्स क्रेब्स ने किया था जिसके कारण इसे क्रेव्स साइकिल कहा जाता है। यह अभिक्रिया या साइकिल कोशिका के माइटोकॉण्ड्रिया में होता है। माइटोकॉण्ड्रिया की अनुपस्थिति में क्रेब्स - साइकिल नहीं हो सकता है।
  • क्रेब्स साइकिल में ग्लाइकोलाइसिस के दौरान बने पायरूवेट अम्ल का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है तथा प्रत्येक पायरूविक अम्ल से 15ATP ऊर्जा की प्राप्ति होती है।
  • एक ग्लूकोज अणु से दो अणु पायरूविक अम्ल ग्लाइकोसिस के दौरान बना है था । अतः क्रेब्स - साइकिल में दो पायरूत्रिक अम्ल से 30ATP ऊर्जा का निर्माण होता है।
  • ग्लाइकोलाइसिस तथा क्रेव्स साइकिल के उपरांत श्वसन सम्पन्न हो जाता है और 1-glucose अणु से 38ATP ऊर्जा का निर्माण होता है।
Note: ग्लाइकोसिस तथा क्रेब्स साइकिल का चर्चा यहाँ संक्षिप्त रूप से की गई है। विस्तारपूर्वक जानने हेतु NCERT Class-11th का जीवविज्ञान पुस्तक देखें।

वायवीय तथा अवायवीय श्वसन में अंतर

(Difference between Aerobic and Anaerobic Respiration)

  • वायवीय श्वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में ही संभव है जबकि अवायवीय श्वसन में ऑक्सीजन की कोई आवश्यकता नहीं है।
  • वायवीय श्वसन हेतु कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया का होना अनिवार्य है जबकि अवायवीय श्वसन कोशिका के कोशिकाद्रव्य में ही सम्पन्न हो जाती है।
  • वायवीय श्वसन में ग्लूकोज का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है जबकि अवायवीय श्वसन में ग्लूकोज का अपूर्ण ऑक्सीकरण होता है।
  • वायवीय श्वसन में ग्लूकोज ऑक्सीकृत होकर कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल बनाते हैं जबकि अवायवीय श्वसन में ग्लूकोज इथाइल ऐल्कोहॉल या लैक्टिक अम्ल बनाते है।
  • वायवीय श्वसन में एक ग्लूकोज अणु 38ATP ऊर्जा निर्माण कर सकता है जबकि अवायवीय श्वसन में एक ग्लूकोज अणु से केवल 2ATP ऊर्जा का ही निर्माण होता है। 
  • वायवीय श्वसन में ग्लाइकोलाइसिस एवं क्रेब्स साइकिल दोनों होते हैं जबकि अवायवीय श्वसन में केवल ग्लाइकोलाइसिस होता है।

श्वसन- भागफल (Respiratory Quotient)

  • श्वसन क्रिया में निष्कासित कार्बन डाइऑक्साइड का आयतन तथा अवशोषित ऑक्सीजन के अनुपात को श्वसन भागफल या श्वसन गुणांक कहते है।
    श्वसन गुणांक = निष्कासित CO2 का आयतन / अवशोषित O2 का आयतन
  • श्वसन प्रक्रिया में जब कार्बोहाइड्रेट का इस्तेमाल होता है तब श्वसन भागलफल का मान 1 होता है लेकिन जब प्रोटीन तथा वसा का इस्तेमाल होता है तब श्वसन भागलफल 1 से कम होता है। श्वसन प्रक्रिया में कभी भी शुद्ध वसा तथा प्रोटीन का इस्तेमाल नहीं होता है।

बाह्य श्वसन (External Respiration)

  • पौधों तथा जन्तु में मुख्य रूप से वायवीय श्वसन पाये जाते है। वायवीय श्वसन में साँस लेने तथा साँस छोड़ने की प्रक्रिया होती है, जिसे बाह्य श्वसन कहा जाता है। बाह्य श्वसन पौधे तथा जन्तुओं में अलग-अलग तरीके से होते है ।
  • पौधो में बाह्य श्वसन-
    • पौधों में श्वसन गैसों का आदान-प्रदान शरीर के सतह द्वारा विसरण क्रिया द्वारा होता है। पौधे विसरण विधि द्वारा वायुमंडल से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासित करते है। पौधों का सभी भाग अलग-अलग श्वसन करते है।
    • पौधे की जड़े में पाया जाने वाला मूलरोम मिट्टी के कणों से बीच फँसे वायु से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड मिट्टी में ही छोड़ देते है।
    • जलीय पौधे जल में घुले ऑक्सीजन को विसरण विधि द्वारा प्राप्त करते है तथा जल में ही कार्बन डाइऑक्साइड का त्याग कर देते है।
    • बड़े पौधे के तना या शाकीय पौधे के पाये जाते है। श्वसन गैस (O2 तथा CO2) का आदान-प्रदान हेतु वातरन्ध्र (lenticels) पाये जाते है। छोटे तना में वातरंध्र का अभाव होता है, इन पौधों के तना में गैसीय आदान-प्रदान हेतु रंध्र (Stomata) पाये जाते है।
    • पौधों की पत्तियों में श्वसन गैसों का आदान-प्रदान रंध्र (Stomata) के द्वारा होता है । 
    • पौधा की पत्तियाँ दिन में श्वसन हेतु वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण नहीं करता है क्योंकि दिन में पत्तियों में प्रकाश संश्लेषण दौरान ऑक्सीजन का निर्माण होते रहता है, लेकिन पत्तियाँ रात में श्वसन हेतु वातवरण से ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं क्योंकि रात में प्रकाश संश्लेषण नहीं होने ऑक्सीजन का निर्माण नहीं होता है।
    • पौधों में होने वाले बाह्य श्वसन की तीन प्रमुख विशेषताएँ-
      1. पौधों के सभी भाग, जड़, तना, पत्ती अलग-अलग श्वसन करते है।
      2. पौधों में श्वसन गैसों का विसरण नहीं होता है, इसके विपरित जंतुओं या मानव में श्वसन गैसों का विसरण होता है।
      3. पौधों को जीवन-यापन हेतु कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है इसलिए पौधों में जंतुओं की अपेक्षा श्वसन की गति धीमी होती है।

विभिन्न प्रकार के जंतुओं में बाह्य श्वसन

  • मोनेरा तथा प्रोटिस्टा समुदाय के एक कोशिकृति जीवों में इस गम (O2 तथा CO2) का आदान-प्रदान कोशिका झिल्ली से श्वसन 2 विसरण विधि द्वारा होता है। मोनेरा समुदाय के जीवों में केवल अवायवीय श्वसन होता है, जिसके कारण उन्हें ऑक्सीजन की जरूरत नहीं होती है।
  • पोरीफेरा (स्पंज) तथा सीलेंटेरेटा / निडेरिया (हाइड्रा) संघ के जीवों में भी श्वसन गैसों का आदान-प्रदान शरीर के सतह से विसरण विधि द्वारा होता है।
  • कीट तथा मकड़ी वर्ग के जीवों में श्वसन गैसों का आदान-प्रदान हेतु विशेष अंग पाये जाते हैं जिसे ट्रेकिया (Trachea) कहते है। ट्रेकिया एक नली (Tube) समान रचना होती है जिसका एक सिरा शरीर के अंदर सीधे उत्तकों से जुड़ा रहता है तथा दूसरा सिरा शरीर के सतह पर एक छिद्र आकार के संरचना के रूप में खुलती है। इस छिद्र को श्वासरंध्र (spiracle) कहते है। श्वासरंध्र छिद्र से ही वायुमंडलीय गैस ट्रेकिया में प्रवेश करते हैं तथा सीधे उत्तकों की कोशिका में पहुँचते है।
  • मछली जैसे जलीय जीवों में बाह्य - श्वसन हेतु क्लोम (gills) नामक संरचना होती है। गिल्स, जल में घुले हुए ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन हेतु करत है। गिल्स केवल जलीय श्वसन हेतु उपयुक्त है, इस  संरचना द्वारा जीव वायुमंडलीय गैसों का उपयोग नहीं कर सकते है।
  • कीचड़ युक्त तलाबो में रहने वाले कुछ मछलियाँ, जैसे- गरई, सिंधी, कवई, मांगुर आदि में गिल्स के अतिरिक्त, सहायक श्वसन अंग पाये जाते है। सहायक श्वसन अंग से ये मछली वायुमंडल ऑक्सीजन को ग्रहण करने में सक्षम होता है और यही कारण है ये मछलियाँ ज्यादा समय तक पानी के बाहर जिंदा रहती है।
  • स्तनधारी (Human) में बाह्य श्वसन को सम्पन्न कराने हेतु एक विकसित श्वसन तंत्र (Respiratory system) पाये जाते हैं, जिससे फेफड़े (lungs) की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है।

मनुष्य का श्वसन - तंत्र (Respiratory system of Human Body)

  • मानव के श्वसन तंत्र का प्रारंभ एक जोड़े नासिक रंध्र (Nostril or Nares) से होता है। नारिक रंध्र मुख के ठीक ऊपर लगभग गोलाकार आकृति की होती है ।
  • दोनों ही नासिका रंध्र भीतर की ओर अलग-अलग नासिका वेश्म (Nasal chamber) में खुलती है। दो नासिका वेश्म के बीच एक लंबी अस्थि होती है जिसे नासा - अस्थि (Nasal septum) कहते है ।
  • नासिका वेश्म (Nasal chamber) के अग्र भाग में रोमयुक्त त्वचा ( hariy skin) पाये जाते हैं जिसमें श्लेषा (mucous) लगे होते है। नासिका वेश्म की यह रोम युक्त त्वचा हवा के धूलकण को हवा से छानकर अलग कर देती है।
  • नासिका वेश्म के पीछले भाग में संवेदी कोशिका पाये जाते हैं जिनके द्वारा हवा के सुगंध द्वारा दुर्गंध का पता चलता है। इस क्षेत्र को घ्राण क्षेत्र (Olfactory region) तथा श्वसन क्षेत्र (Respiratory region) भी कहा जाता है।
  • नासिका वेश्म मुखगुहा के पीछे ग्रसनी (Pharynx) में खुलता है। ग्रसनी से श्वसन मार्ग का प्रारंभ कंठ द्वारा (glottis) से शुरू होता है। ग्लोटिस के ऊपर एपीग्लाटिस नाम का ढ़क्कन पाया जाता है। जैसे ही हवा ग्रसनी में पहुँचता है, एपीग्लाटिस, ग्लोटिस के ऊपर से हट जाता है तथा हवा ग्लांटिस से होकर श्वसन मार्ग के अगले हिस्से में पहुँच जाती है।
  • ग्लोटिस, उपास्थि (Cartilage) की बनी संरचना हैं जो गले पर उभार की तरह दिखती है। गले के इस उभार को एडम्स ऐपल (Adma's (apple) कहा जाता है। एडम्स ऐपल नर मानव (Male Human) में ही वयस्क होने के बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देते है ।
  • ग्लोटिस के पीछे स्वर तंत्र (Larynx) पाया जाता है, जिसमें ध्वनि की उत्पत्ति हेतु कंपनशील स्वर झिल्ली (Vocal card) पाया जाता है। मनुष्य का आवाज लैरिंक्स से ही निकलता है। इस संरचना को मानव का Sound Box कहा जाता है ।
  • लैरिक्स पीछे की ओर श्वासनली ( Trachea ) में खुलता है। मानव का ट्रैकिया लगभग 12 cm लंबी होती है और इसका व्यास लगभग 16 mm होता है।
  • ट्रेकिया नली की दिवार पतली तथा कमजोर होती है, इसे मजबूती देने हेतु ट्रेकिया की पूरी लंबाई में उपास्थि के बने अर्धवलय संरचना पायी जाती है।
  • ट्रेकिया, गर्दन को पार कर छाती वाले हिस्से में पहुँचकर दो भागों में विभक्त हो जाती है, इन दोनों भाग को ब्रॉकाई (Bronchi) कहते है। ब्रॉकाई के ऊपर उपास्थि के बने पूर्ण वलय उपस्थित रहते है। दोनों ही ब्रोकाई बाएँ - दाँय हिस्सों में बँटकर फेफड़ा (lungs) में प्रवेश कर जाती है।
  • फेफड़ा मनुष्य के बक्षगुहा (Thoracic cavity) में स्थित स्पंजी, गुलाबी तथा थैलीनुमा संरचना है। फेफड़ों की संख्या दो होती है, बायीं ओर की ओर फेफड़ा दो थैलियों से युक्त और दायी ओर एक बड़ी और दो छोटी थैली युक्त संरचना में बँटी रहती है।
  • फेफड़ा वक्षगुहा के जिस भाग में स्थित होती उसे प्लूरल गुहा (Plural cavity) कहते हैं। प्लूरल गुहा के चारों ओर झिल्लीयों का पतला आवरण रहता है जिसे पेराइटल प्लूरा (Parietal pleura) कहा जाता है।
  • ब्रोंकाई (Bronchi) फेफड़ों में प्रवेश कर अनेक छोटी नलियों में विभक्त हो जाती है जिसे ब्रौंकिओल्स (Bronchiloes) कहते है । पुनः बौंकिओल्स कई शाखाओं में विभक्त होती है जिन्हें वायुकोष्ठ वाहिनी (Alveolar duct) कहते है । प्रत्येक वायुकोष्ठ वाहिनी वायुकोष (airsac or Alveoli) पर आकर समाप्त हो जाती है।
  • श्वसन मार्ग के प्रारंभ नासिका रंध्र से होता है तथा वायुकोष्ठ पर आकर समाप्त जाता है। दोनों फेफड़ों में 3x108 वायुकोष पाये जाते हैं तथा फेफड़ों में 400 से 800 वर्गफीट सतह श्वसन गैसों (O2 तथा CO2) के आदान-प्रदान के लिए उपलब्ध रहता है।
  • फेफड़ों के प्रत्येक वायुकोष्ठ के चारों ओर बहुत ही महीन रक्त वाहिकाओं (Blood Capillaries) मौजूद रहती है, जिनमें रक्त भरा रहता है। वायुकोष्ठ में ही हवा का ऑक्सीजन रक्त में प्रवेश करते हैं तथा रक्त का कार्बनडाइऑक्साइड, रक्त से बाहर निकल आते है।
  • वायुकोष्ठ तथा अशुद्ध रक्त (CO2 युक्त रक्त) के बीच श्वसन गैसों का आदान-प्रदान विसरण विधि द्वारा होती है। विसरण क्रिया श्वसन गैसों के दावों में अंतर होने के कारण सम्पन्न होता है-

श्वसन की क्रियाविधि (Mechanism of Respiration)

  • श्वसन या बाह्य श्वसन की पूरी प्रक्रिया दो अवस्थाओ में सम्पन्न होती है। यह दो अवस्थाएँ है- प्रश्वास ( Inspiration) तथा उच्छ्वास (Expiration)
1. प्रश्वास (Inspiration) या सॉस लेना 
  • इस प्रक्रिया में हवा नासिका रंध्र से वायु-मार्ग होते हुए वायुकोष्ठ में पहुँचती है।
  • साँस लेत समय डायफ्राम पीछे की ओर खिसकता है तथा पसलियों के बीच पाये जाने वाले अन्तर्कोशी मांसपेशी (Intercostal Muscles) में संकुचन होता है जिससे सभी पसलियाँ फैल जाती है।
  • डायफ्राम के पीछे खिसकने तथा पसलियों के फैलने के कारण फेफड़ा भी फैल जाता है जिससे फेफड़ों में मौजूद वायु का दाब वायुमंडल में मौजूद वायु के दाब से कम हो जाता है। फलस्वरूप वायुमंडल की ऑक्सीजन युक्त वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है।
2. उच्छ्वास (Expiration) या साँस छोड़ना
  • इस अवस्था में श्वसन के पश्चात् वायु उसी पथ के द्वारा बाहर निकल कर वायुमंडल में आती है, जिस पथ से वह फेफड़ों में प्रवेश किया था।
  • उच्छृवास के दौरान डायफ्राम तथा पसलियाँ पुनः अपने स्थान पर आ जाती है जिससे फेफड़ा सिकुड़ जाती है।
  • फेफड़ों में स्वयं फैलने तथा सिकुड़ने का गुण नहीं होता है। फेफड़ों के ऊपर स्थित पसलियाँ एवं डायफ्राम के फैलने-सिकुड़ने से ही फेफड़ा फैलता - सिकुड़ता है।
  • बाह्य - श्वसन की दो अवस्था प्रश्वास तथा उच्छ्वास को सम्मिलित रूप से 'Breathing' कहते है।
प्रश्वासित, उच्छ्वासित तथा वायुकोष्ठ में हवा का रसायनिक संघटन

फेफड़े में की मात्रा (Volume of Air in the lungs)

  • सामान्य श्वसन के दौरान आधा लीटर हवा साँस के द्वारा खींची एवं छोड़ी जाती हैं हवा के इस आयतन को लहरी आयतन (Tidal volume) कहते है। सामान्य स्थितियों में वयस्क मानव 15 से 18 बार प्रति मिनट सॉस लेता और छोड़ता है।
  • टायडल आयतन (500ml) का दो-तिहाई हिस्सा ही फेफड़ों के वायु कोष्ठ तक पहुँच पाता है। शेष एक-तिहाई हिस्सा वायु-मार्ग में ही रह जाते हैं।
  • यदि खूब दम लगाकर साँस ली जाए तो दो लीटर अतिरिक्त हवा खींची जा सकती है, हवा के इस आयतन को प्रश्वसन का संरक्षित आयतन (Inspiratory reserve volume) कहा जाता है। अगर खूब दम लगा कर साँस छोड़ा जाता है तो 1½ लीटर अतिरिक्त हवा छोड़ी जा सकती है, हवा के इस आयतन को उच्छश्वसन का संरक्षित आयतन (Expiratory reserve Volume) कहते हैं।
  • इस तरह खूब दम लगाकर साँस खींचने और साँस छोड़ने पर लगभग 4 लीटर हवा खींची और छोड़ी जा सकती है। इसे श्वसन की जैविक क्षमता (Vital capacity of Respiration) कहते है।
  • फेफड़े में अधिकतम 5.4 लीटर से 6 लीटर हवा भर सकता है, लेकिन सामान्यतः फेफड़े के अंदर लगभग तीन लीटर हवा भरी रहती है, जिसे क्रियाशील अपशिष्ट आयतन (Functional Residual Volume) कहते है।
  • अगर पूरे दम लगाकर भी साँस को छोड़ा जाए, तो भी फेफड़ों में मौजूद संपूर्ण हवा को बाहर नहीं निकाला जा सकता है। खूब दम लगाकर साँस छोड़ने पर भी 1½ लीटर फेफड़ों में मौजूद ही रहता है, इसे अपशिष्ट आयतन (Residual Volume) कहते है।

मानव शरीर में गैसों का परिवहन (Transport of Gases)

  • फेफड़े के वायु कोष्ठ (Alveoli) में पहुँचा हवा से ऑक्सीजन निकलकर रक्त में आ जाता है। ऑक्सीजन रक्त के लाल रुधिर कोशिकाओं में स्थित हीमोग्लोबिन से जुटकर ऑक्सी- हीमोग्लोबिन में परिवर्तित हो जाते है तथा रुधिर - परिसंचरण के द्वारा शरीर के सभी कोशिकाओं में पहुँच जाते है।
  • रुधिर के लाल रक्त कोशिका (RBC) में स्थित हीमोग्लोबिन एक अद्वितीय जटिल रसायनिक यौगिक है, इसके अभाव में श्वसन-क्रिया नहीं हो सकती है, यही कारण हीमोग्लोबिन को श्वसन - वर्णक (Respiratory Pigment) कहा जाता है।
  • हीमोग्लोबिन की रचना दो भागों से मिलकर होती है। हीमोग्लोबिन का 5 प्रतिशत भाग हीमेटीन अथवा हीम कहलाता है, इसी भाग में लौह (Fe) परमाणु पाया जाता है जो रुधिर को लाल रंग प्रदान करता है। हीमोग्लोबिन का 95 प्रतिशत भाग ग्लोबिन प्रोटीन का बना होता है। 1 ग्राम हीमोग्लोबिन 13 ml ऑक्सीजन का परिवहन करने में सक्षम होता तथा प्रति 100 ml रुधिर में 19-20 ml ऑक्सीजन उपस्थित रहते है।
  • कोशिकीय श्वसन के उपरांत बने कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन भी रुधिर - संरचरण के माध्यम से होता है, परन्तु केवल 10- 20 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड का ही परिवहन हीमोग्लोबिन के द्वारा होता है। हीमोग्लोबिन कार्बन डाइऑक्साइड से जुटकर कार्बोक्सीहिमोग्लोबिन बनाते है तथा इसी रूप में कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन करते है।
  • लगभग 85 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड रक्त प्लाज्मा के जल में घुलकर बाइकार्बोनेट आयन बनाते हैं तथा इसी रूप में फेफड़े के वायुकोष्ठ में पहुँच कर पुनः रक्त से अलग हो जाते हैं, अंतत: शरीर के बाहर निकल जाते है।

अभ्यास प्रश्न

1. भोजन से ऊर्जा निर्मुक्त करने की प्रक्रिया है-
(a) श्वसन
(b) पोषण
(c) उत्सर्जन
(d) इनमें से सभी
2. श्वसन के दौरान कोशिका में उत्पन्न ऊर्जा किस रूप में संचित होती है ?
(a) ADP
(b) ATP
(c) अकार्बनिक फॉस्फेट
(d) इनमें से सभी
3. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. जीवन के लिये श्वसन परमावश्यक होता है।
2. विषाणु (Virus) में श्वसन नहीं होता है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
4. निम्नलिखित में कौन-सा एक सही नहीं है ?
(a) श्वसन प्रक्रिया के अंतर्गत शरीर में ऊर्जा का उत्पादन होता है।
(b) श्वसन अनिवार्य जैविक क्रिया है जो शरीर के प्रत्येक कोशिकाओं में सम्पन्न होता है।
(c) श्वसन, ऑक्सीजन की उपस्थिति में ही संभव है।
(d) श्वसन के दौरान उत्पन्न ऊर्जा ATP अणु के रूप में कोशिकाओं में संचित रहती है।
5. श्वसन किस प्रकार की अभिक्रिया है ?
(a) संश्लेषण 
(b) पाचन
(c) ऑक्सीकरण
(d) इनमें से कोई नहीं
6. सूर्य प्रकाश का रूपांतरण किस रासायनिक ऊर्जा के रूप में होता है, जो हमारे उपापचय में सीधे उपयोग होते है ?
(a) अमीनो अम्ल
(b) ग्लूकोज
(c) वसा
(d) ए. टी. पी
7. सभी जीवित कोशिकाओं में रसायनिक ऊर्जा का सार्वजनिक वाहक (Universal Carrier) है-
(a) ग्लूकोज
(b) ए. टी. पी.
(c) ए. डी. पी.
(d) अमीनो अम्ल
8. निम्नलिखित में किसका उपयोग मुख्यतः कोशिका द्वारा ऊर्जा उत्पादन के लिये होता है ?
(a) ग्लूकोज
(b) अमीनो अम्ल 
(c) वसा अम्ल
(d) सुक्रोज
9. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. श्वसन जो बिना ऑक्सीजन के होता है, अवायवीय श्वसन कहलाता है
2. अवायवीय श्वसन में माइटोकॉण्ड्रिया की कोई भूमिका नहीं होती है।
3. अवायवीय श्वसन केवल सूक्ष्मजीवों में ही होता है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) 1 और 2
(b) 2 और 3
(c) केवल 2
(d) केवल 3
10. ग्लाइकोलाइसिस कहाँ सम्पन्न होता है ?
(a) राइबोसोम में
(b) क्लोरोप्लास्ट में
(c) कोशिका द्रव्य में
(d) माइटोकॉण्ड्रिया में
11. क्रेब्स चक्र कहाँ होता है?
(a) कोशिका द्रव्य में 
(b) केंद्रक में
(c) क्लोरोप्लास्ट में
(d) माइटोकॉण्ड्रिया में
12. अनॉक्सी या अवायवीय श्वसन में ग्लूकोज के अपूर्ण विघटन के फलस्वरूप क्या बनता है ?
(a) H2O एवं CO2
(b) फ्रक्टोज एवं H2
(c) ऐल्कोहॉल एवं CO2
(d) ग्लूकोज एवं CO2
13. अनॉक्सी या अवायवीय श्वसन में ग्लूकोज के अपूर्ण विघटन के कारण क्या बनता है ?
(a) H2O
(b) CO2
(c) लैक्टिक अम्ल
(d) पायरूवेट अम्ल
14. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. सभी कोशिकाएँ ऊर्जा उत्पन्न करने के लिये ऑक्सीजन प्रयोग नहीं करती है।
2. कोशिकाओं में, ऊर्जा ऑक्सीजन के बिना भी उत्पन्न हो सकती है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है / हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
15. कार्बन डाइऑक्साइड जल और ऊर्जा प्रदान करने के लिये पायरूवेट का विखण्डन निम्नलिखित में किसमे होता है ?
(a) साइटोप्लाज्म
(b) माइटोकॉण्ड्रिया
(c) न्यूक्लियस
(d) क्लोरोप्लास्ट
16. वायवीय या ऑक्सी श्वसन के संबंध में निम्नलिखित में कौन सा एक सही नहीं है ?
(a) वायवीय श्वसन ऑक्सीजन के उपस्थिति में ही होता है।
(b) वायवीय श्वसन हेतु कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया होना अनिवार्य है।
(c) वायवीय श्वसन एककोशिकीय जीवों में नहीं होता है।
(d) वायवीय श्वसन में अत्यधिक ऊर्जा निर्मुक्त होता है।
17. वायवीय श्वसन में होता है-
(a) ग्लाइकोलाइसिस
(b) क्रेब्स - चक्र
(c) ग्लाइकोलाइसिस तथा क्रेब्स - चक्र
(d) इनमें से कोई नहीं
18. ऑक्सीजन के उपलब्ध नहीं होने से पायरूवेट का परिवर्तन जंतुओं में किस यौगिक में होता है ?
(a) इथाइल एल्कोहॉल 
(b) ग्लूको
(c) साइट्रिक अम्ल
(d) लैक्टिक अम्ल 
19. श्वसन प्रक्रिया में खाद्य पदार्थ का क्या होता है ?
(a) दहन 
(b) परिवर्तन
(c) विघटन
(d) संश्लेषण
20. श्वसन किस प्रकार की अभिक्रिया है ?
(a) ऑकसीकरण
(b) उष्माक्षेपी
(c) जैव-रसायनिक अभिक्रिया
(d) इनमें से सभी
21. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. ATPएक प्रकार का जैव ऊर्जा (Bio energy) है।
2. ग्लूकोज को कोशिकीय ईंधन कहा जाता है ?
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ? 
(a) केवल 1 
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
22. निम्नलिखित में किस प्रकार के श्वसन में अधिक ऊर्जा उत्पन्न होती हैं ?
(a) वायवीय श्वसन
(b) अवायवीय श्वसन
(c) वायवीय तथा अवायवीय दोनों में समान रूप में
(d) इनमें से कोई नहीं
23. ग्लाइकोलाइसिस का अन्तिम उत्पाद होता है ?
(a) ग्लूकोज 
(b) पारूविक अम्ल
(c) इथाइल ऐल्कोहॉल
(d) CO2
24. क्रेब्स चक्र के अन्तिम में बनता है ?
(a) ATP
(b) CO2
(c) CO2 + H2O
(d) पायरुवेट
25. क्रेब्स चक्र को अन्य किस नाम से जाना जाता है ?
(a) साइट्रिक अम्ल चक्र 
(b) ट्राइकार्बोक्सिलिक अम्ल चक्र
(c) TCA चक्र
(d) उपर्युक्त सभी
26. यीस्ट द्वारा निम्नलिखित प्रक्रिया सम्पन्न होती है ?
(a) फरमेण्टेशन
(b) वायवीय श्वसन
(c) इलेक्ट्रॉन विघटन
(d) प्रोट्रॉन विघटन
27. कोशिका के अंदर वायवीय श्वसन का केंद्र है-
(a) राइबोसोम
(b) कोशिका द्रव्य
(c) गॉल्जीकाय
(d) माइटोकॉण्ड्रिया
28. अवायवीय श्वसन के दौरान एक ग्लूकोज अणु से कितने ATP अणुओं का निर्माण होता है ?
(a) 2ATP
(b) 36ATP
(c) 38ATP
(d) 46ATP
29. तीव्र शारीरिक क्रिया के दौरान पेशियों में उत्पन्न होने वाले ऐंठन का क्या कारण है ?
(a) कार्बनडाइ ऑक्साइड
(b) इथाइल ऐल्कोहॉल
(c) लैक्टिक अम्ल
(d) इनमें से कोई नहीं
30. गर्म पानी से स्नान करने अथवा शरीर का मालिश करवाने से पेशीय ऐंठन से आराम मिलता है, क्यों ?
(a) रक्त का संचार बढ़ जाता है
(b) पेशी कोशिकाओं में ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ जाती है
(c) लैक्टीक अम्ल का CO2 तथा H2O में विखंडन हो जाता है
(d) इनमें से सभी
31. निम्नलिखित कथनों में कौन-सा एक सत्य नहीं है ?
(a) वतीय श्वसन का प्रथम चरण कोशिकाद्रव्य में तथा द्वितीय चरण मादीका में पूरा होता है।
(b) अवायवीय श्वसन की पूरी प्रक्रिया कोशिका द्रव्य में ही सम्पन्न होता है।
(c) पावट अम्त का कोशिका में की श्वसन में होता है।
(d) अवायवीयसन के दौरान कोशिका द्रव्य में पाय अमत नहीं बनते है।
32. जीवाणुओं में श्वसन से क्या उत्पन्न होते है ?
(a) पारूविक अत तथा ATP
(b) लैक्टिक अम्ल तथा ATP
(c) CO2, जल तथा ATP
(d) अल्कोहॉल, CO2 तथा ATP
33. जन्तुओं में अनक्सी श्वसन से क्या-क्या उत्पन्न होता है?
(a) पावरुविक अम्ल तथा ATP
(b) अल्कोहॉल, CO2 तथा ATP
(c) लैक्टिक अम्ल तथा ATP
(d) CO2, बल तथा ATP
34. ग्लूकोज के एक-अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण के फलस्वरूप कितने अणु ATP का निर्माण होता है ?
(a) 2 
(b) 28
(c) 38
(d) 48
35. बाह्य श्वसन के अंतर्गत शामिल है-
(a) साँस लेना (Inhalation)
(b) साँस छोड़ना (Exhalation)
(c) A तथा B दोनों
(d) न तो A न ही B
36. पौधों में श्वसन किस भाग के द्वारा होता है ?
(a) जड़ 
(b) तना
(c) पत्नी
(d) इनमें से सभी
37. वायुमंडलीय ऑक्सीजन, पौधों में किस अंगो द्वारा प्रवेश करती है ?
(a) रंध्र
(b) वातरंध्र
(c) अंतराकोशिकीय स्थान
(d) इनमें से सभी
38. पौधों में श्वसन-गैसों का आदान-प्रदान किस क्रिया के द्वारा होता है ?
(a) विसरण
(b) परासरण 
(c) अवशोषण
(d) इनमें से कोई नहीं
39. निम्नलिखित में कौन-सा एक सही नहीं है ?
(a) कोशिका में होने वाला वायवीय श्वसन की प्रक्रिया पौधा तथा जन्तु में एक समान से होता है।
(b) पौधा के प्रत्येक भाग के अलग-अलग श्वसन करता है।
(c) पौधों में गैसों का परिवहन संवहन उत्तक के माध्यम से होता है।
(d) पौधों में जंतुओं की अपेक्षा श्वसन की गति धीमी होती है।
40. पौधों में गैसों के आदान-प्रदान के लिये रहते है-
(a) तंत्र
(b) जड़ 
(c) तना
(d) टहनी
41. पौधों में गैसीय विनिमय हेतु पाये जाते है-
(a) स्टीमटा 
(b) लैटीसेल
(c) मूलराम
(d) इनमें से सभी
42. पौधे दिन में श्वसन हेतु वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण नहीं करते है। क्यों ? 
(a) पौधे दिन में श्वसन नहीं करते है।
(b) पौधे दिन में प्रकाश संश्लेषण के दौरान बने ऑक्सीजन का उपयोग श्वसन हेतु करते हैं।
(c) पौधे दिन में जाइलम में स्थित ऑक्सीजन का प्रयोग श्वसन हेतु करते है। 
(d) पौधे दिन में अनॉक्सी श्वसन करते है।
43. वातरंध्र (lenticek) पौधे के किस भाग में पाये जाते है?
(a) जड़ 
(b) तना
(c) पत्ती
(d) संपूर्ण पौधा
44. एक कोशिकीय जीवों में श्वसन गैसों का आदान-प्रदान किस प्रकार होता है ?
(a) कोशिका झिल्ली से विसरण द्वारा
(b) माइटोकॉण्ड्रिया द्वारा
(c) RBC कोशिका द्वारा
(d) नहीं होता है.
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Sun, 21 Apr 2024 05:01:51 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जैव अणु : भोजन के अवयव https://m.jaankarirakho.com/1001 https://m.jaankarirakho.com/1001 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जैव अणु : भोजन के अवयव
  • जीवित तंत्र में पाये जाने वाले समस्त अणु जैसे- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, लिपिड (वसा), मिन चैत्र अणु (Biomolecules) कहलाते हैं। जैत्र अणु जीवित प्राणी के शरीर के निर्माण तथा उनकी वृद्धि एवं पोषण के लिए उत्तरदायी है।
  • जैव अणु कार्बनिक पदार्थ है जिन्हें हम अपने भोजन के माध्यम से प्राप्त करते हैं। पौधों में ये क्षमता है कि वह अपने लिए जैव अणु का निर्माण स्वयं कर सकते हैं।
  • प्रमुख जैव अणु का विवरण इस प्रकार है-

कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate)

  • कार्बोहाइड्रेट कार्बन, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन का पुच यौगिक है, जिसका सामान्य सूत्र Cx (H,ON होता है। कार्बोहाइड्रेट को कार्बन का हाइड्रेट भी कहते हैं। कार्बोहाइड्रेट में हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन का अनुपात 2:1 होता है।
  • वर्त्तमान में कई ऐसे कार्बोहाइड्रेट प्राप्त हुए हैं जिनमें कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन के अलावे अतिरिक्त तत्व भी होते है और उनमें हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन का अनुपात 2: 1 नहीं होता है। अत: कार्बोहाइड्रेट की नवीनतम परिभाषा इस प्रकार दी जाती है-
  • कार्बोहाइड्रेट एक ऐसा यौगिक है जिसमें कम से कम एक हाइड्रॉक्सिल ग्रुप (OH) एवं एक कीटोन ग्रुप होता है अथवा ऐल्डिहाइड (CHO) ग्रुप होता है।
  • कार्बोहाइड्रेट प्राकृतिक यौगिक है जो मुख्यतः पौधों में पाये जाते हैं। प्राकृतिक कार्बोहाइड्रेट जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकता-भोजन (glucose), वस्त्र तथा आवास (Cellulose) को पूरा करते है।
  • कार्बोहाइड्रेट को तीन मुख्य भागों में बाँटा गया है- मोनोसैकेराइड, ओलिगोसैकेराइड तथा पॉलीसेकेराइड
1. मोनोसैकेराइड (Monosaccharide)
  • यह सबसे सरलतम कार्बोहाइड्रेट जिसमें कार्बन परमाणु की संख्या 2 से 7 तक होती है।
  • प्रमुख मोनोसेकैराइड कार्बोहाइड्रेट- ग्लिसरेल्डिहाइड (C3H6O3). इरिथ्रोज (C4H8O2). राइबोज (C5H10O5). ग्लूकोज (C6H12O6), प्रक्टोज (C6H12O6), गैलेक्टोज (C6H12O6), मोनोहेप्टुलोज (C7H14O7)
2. ओलिगोसैकेराइड (Oligosaccharide)
  • ओलिगोसैकेराइड वे कार्बोहाइड्रेट हैं जिसका जल अपघटन (Hydrolysis) करने पर 2-10 मानोसैकराइड कार्बोहाइड्रेट के अणु प्राप्त होत हैं।
  • जल अपघटन द्वारा प्राप्त मोनोसैकंराइड अणु की संख्या के आधार पर यह निम्न प्रकार के हो सकते हैं।
    1. Disaccharide— वे कार्बोहाइड्रेट जिसका जल अपघटन करने पर 2 मोनोसैराइड के अणु प्राप्त होते हैं डाईसैकेराइड कहलाते हैं। उदाहरण- सुक्रोज, माल्टोज, लैक्टोज
      • सुक्रोज को Cane-Sugar, माल्टोज को Malt-Sugar तथा लैक्टोज को Milk sugar कहा जाता है।
    2. Trisaccharide- इस कार्बोहाइड्रेट का जल अपघटन करने पर तीन मोनोसैकेराइड की अणु प्राप्त हो हैं। उदाहरण- रैफीनोज (C18H32O16)
      • रैफिनोज कपास की रूई में पाया जाता है इसका जल अपघटन करने पर गैलेक्टोज, फ्रक्टोज तथा ग्लूकोज की प्राप्ति होती है।
3. पॉलीसेकेराइड (Polysaccharide)
  • ये कई मोनोसैकेराइड अणु के संयोजन से पॉलीसैकेराइड कार्बोहाइड्रेट बनता है।
  • पॉलीसैकेराइड को जटिल कार्बोहाइड्रेट या उच्च अणुभार वाले कार्बोहाइड्रेट कहते है। ये कार्बोहाइड्रेट न तो स्वाद में मीठे होत हैं न ही जल में घुलते है।
  • मोनोसैकेराइड तथा ओलिगोसैकेराइड स्वाद में मीठे होते हैं तथा जल में घुलनशील होते हैं।
  • प्रमुख पॉलीसेकेराइड कार्बोहाइड्रेट निम्न है-
    1. सेल्युलोज - यह पौधे के कोशिकाभित्ति का मुख्य घटक है। प्रकृति में सबसे ज्यादा पाये जाने वाले कार्बोहाइड्रेट सेल्युलोज है।
    2. ग्लाइकोजेन - यह जंतु के शरीर में अतिरिक्त भोजन के रूप में संचित होता हैं यह जल में घुलनशील होता है।
    3. स्टार्च - यह सभी प्रकार के अनाजों (गेहूँ, मक्का) तथा आलू में पाया जाता है।
    4. हैपेरीन- यह संयोजी उत्तक के मास्ट कोशिकाओं में पाया जाता है तथा यह रूधिर को जमने से रोकता है।
    5. काइटीन- यह कीटो (Arthropoda) का बाह्य कंकाल का निर्माण करता है। 
  • जंतु (Human and Animal) के शरीर में कार्बोहाइड्रेट के कार्य-
    1. श्वसन के दौरान ऊर्जा उत्पन्न करने में मुख्य रूप कार्बोहाइड्रेट (Glucose) का उपयोग किया जाता है।
    2. यह शरीर के टूट-फूट तथा मरम्मत में सहायक होते है।
    3. यह ग्लाइकोजेन में परिवर्त्तित होकर यकृत में संचित रहता है। इसके अलावे ये पेशीय ग्लाइकोजेन के रूप में पेशीयों में संचित रहता है। 
    4. यह वसा में भी रूपांतरित हो सकता है। 

प्रोटीन (Protein)

  • प्रोटीन ग्रीक भाषा के प्रोटीओस (Proteious) शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है- 'सर्वोच्च महत्व' । प्रोटीन का नामकरण मूल्डर ( Mulder) ने किया था।
  • प्रोटीन उच्च अणुभार वाले नाइट्रोजन युक्त कार्बनिक पदार्थ है। प्रोटीन मुख्य रूप से कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन से बना होता है। इसके अलावे प्रोटीन में सल्फर, फॉस्फोरस, आयोडिन तथा धातु में आयरन, कॉपर, जिंक तथा मैंगनीज पाये जा सकते है।
  • प्रोटीन ऐमीनो अम्ल का बहुलक है। प्रोटीन में ऐमीनो अम्ल जिस बंधन से जुड़े रहते हैं उसे पेप्टाइड बंधन कहते है। प्रोटीन का जब आंशिक जल-अपघटन किया जाता हे तो पेप्टाइड प्राप्त होता है तथा पूर्ण जल अपघटन होने पर ऐमीनो अम्ल बनता है।
  • गुणों के आधार पर तीन प्रकार के प्रोटीन होते हैं- सरल प्रोटीन, संयुग्मी प्रोटीन तथा व्युत्पन्न प्रोटीन ।
    1. सरल प्रोटीन (Simple Protein ) - यह प्रोटीन केवल अमीनो अम्ल के ही बने होते हैं। प्रमुख सरल प्रोटीन निम्न है-
      1. ग्लोब्युलीन : यह प्रोटीन जंतु तथा पौधा दोनों में पाया जाता है। अंडपीत (अंडा के पीले भाग) में यही प्रोटीन होता है। यह प्रोटीन जल में अघुलनशील परंतु अम्ल में घुलनशील होता है।
      2. हिस्टोन : यह प्रोटीन हिमोग्लोबिन के ग्लोबीन में तथा थाइमस ग्रंथि में पाया जाता है। यह प्रोटीन जल में घुलनशील होता है।
      3. एल्ब्युमीन : यह प्रोटीन अंडे के उजले भाग में पाया जाता है। इसकी थोड़ी सी मात्रा दूध में भी पाया जाता है।
      4. प्रोटामीन : यह प्रोटीन सालमन तथा हेरिंग मछलियों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
    2. युग्मित प्रोटीन (Conjugaed Protein)
      • इस प्रोटीन में ऐमीनो अम्ल के अतिरिक्त अन्य तत्व के अणु भी उपस्थित रहते है।
      • प्रमुख युग्मित प्रोटीन-
        1. क्रोमोप्रोटीन: इस प्रोटीन में ऐमीनो अम्ल के अतिरिक्त Fe, Cu, Mg या Co के अणु उपस्थित रहते है। यह प्रोटीन रक्त के हिमोग्लोबीन तथा नेत्र के रेटीना में पाये जाते हैं।
        2. न्यूक्लिओप्रोटीन : यह ऐमीनो अम्ल तथा न्यूक्लिक अम्ल (DNA, RNA) अणु का बना प्रोटीन है जो मुख्य रूप से कोशिका के केन्द्रक में पाया जाता है।
        3. ग्लाइकोप्रोटीन: यह कार्बोहाइड्रेट तथा ऐमीनो अम्ल का बना प्रोटीन है। लार में पाये जाने वाला म्यूसिन एक ग्लाइकोप्रोटीन है।
        4. फॉस्फोप्रोटीन : इस प्रोटीन में ऐमीनो अम्ल के अतिरिक्त फॉस्फोरिक अम्ल पाया जाता है। दूध में पाया जानेवाला कंसीन प्रोटीन एक फॉस्फोप्रोटीन है।
    3. युग्मित प्रोटीन (Dervied Protein)
      • साधारण तथा युग्मित प्रोटीन का जल अपघटन करने पर जो प्रोटीन प्राप्त होता है उसे व्युत्पन्न प्रोटीन कहते है।
      • प्रोटिन्स, पेप्टोन्स, पेप्टाइड्स, प्रोटिओसेस आदि व्युत्पन्न प्रोटीन है।
  • आण्विक संरचना का आकृति (अणु का) के आधार पर प्रोटीन दो प्रकार के होते हैं, रेशेदार प्रोटीन तथा गोलीय प्रोटीन ।
    1. रेशेदार प्रोटीन (Fibrous Protein)- इस प्रोटीन में कई पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाएँ मजबूत अंतराण्विक बल द्वारा जुड़कर रेशेदार संरचना में रहती है। ये जल में अविलेय होते है। 
      • बाल, त्वचा, ऊन में पाया जाने वाला किरेटीन तथा मांसपेशी में पाये जाने वाला मायोसीन रेशेदार प्रोटीन है।
    2. गोलीय प्रोटीन (Globular Protein) - इस प्रोटीन में पॉलीपेप्टाइड अणु गोलाकार संरचना से जुड़े रहते है । हीमोग्लोबिन, इंसुलीन गोलीय प्रोटीन के उदाहरण है।
  • ऐमीनों अम्ल (Amino Acid)
    • ऐमीनो अम्ल वे पदार्थ है जिसें एमीनो ग्रुप (-NH2) तथा कार्बोक्सिलिक ग्रुप (-COOH) उपस्थित रहता है।
    • प्रोटीन बनने की मूल इकाई अमीनो अम्ल है। ऐमीनो अम्ल के अणु आपस में संयोजित होकर पॉलीपेप्टाइड बनाता है। पॉलीपेप्टाइड के अणु संयोजित होकर प्रोटीन बनाते है।
    • ग्रोटीन बनने में न्यूनतम 20 ऐमीनो अम्ल भाग लेते है। ये ऐमीनो अम्ल पौधो खुद तैयार कर सकते हैं परंतु जंतु में कुछ ही ऐमीनो अम्ल तैयार हो सकते हैं सभी नहीं ।
    • ऐमीनो अम्ल को दो मुख्य भागों में वर्गीकृत किया गया है-
      1. आवश्यक ऐमीनो अम्ल : ये वो अमीनो अम्ल है जो जंतु के कोशिकाओं द्वारा संश्लेषित नहीं हो सकते है अतः भोजन के माध्यम से इसे लेना जरूरी होता है।
        • आवश्यक ऐमीनो अम्ल की संख्या 10 है, ये है- वेलीन, ल्यूसीन, आइसोल्यूसीन, फिनाइल एलेनीन, ट्रिप्टोफेन, थ्रियोनीन, मिथियोनीन, लाइसीन, आर्जीनीन, हिस्टिडीन ।
      2. अनावश्यक ऐमीनो अम्ल : ये ऐमीनो अम्ल वे है जो जंतु के कोशिकाओं में संश्लेषित हो सकते है। इस प्रकार के ऐमीनो अम्ल मुख्यतः यकृत में बनते है ।
        • अनावश्यक ऐमीनो अम्ल की संख्या भी 10 हैं, ये है- ग्लाइसीन, एलेनीन, टाइरोसीन, सीरीन, प्रोलीन, हाइड्रॉक्सीप्रोलीन, सिस्टीन, सिस्टाईन, ऐस्पार्टिक एसिड, ग्लूटानिक एसिड |
  • प्रोटीन के स्त्रोत
    पादप स्त्रोत : मटर, सोयाबीन, राजमा, चना, मूंग आदि ।
    जंतु स्त्रोत: पनीर, दूध, मछली, मांस, अंडा
    • जंतु स्त्रोत से प्राप्त प्रोटीन में सभी आवश्यक ऐमीनो अम्ल होते हैं। सोयाबीन एक मात्र गैर- पशु प्रोटीन स्त्रोत है जिसमें भी आवश्यक ऐमीनो अम्ल पाये जाते हैं।
  • प्रोटीन के कार्य
    1. प्रोटीन मानव शरीर की सामान्य क्रियाविधि एवं वृद्धि हेतु जरूरी होते हैं।
    2. कोशिका जीवद्रव्य बनने के लिये, टूटी-फूटी कोशिका के मरम्मत के लिए प्रोटीन आवश्यक है।
    3. प्रोटीन कार्बोहाइड्रेट की तरह ऊर्जा को भी उत्पन्न कर सकता है।
    4. प्रोटीन जंतु के शरीर में हॉर्मोन तथा एंजाइम बनने हेतु भी जरूरी है।
  • प्रोटीन का विकृतिकरण (Denaturation)
    ताप, दाब, pH - परिवर्तन या अन्य किसी भौतिक या रसायनिक परिवर्तन के कारण जब प्रोटीन की संरचना बिखर जाती है और प्रोटीन की सक्रियता समाप्त हो जाती है तो इसे ही प्रोटीन का विकृतिकरण कहते है। 

लिपिड (Lipids)

  • लिपिड के अंतर्गत वसा (Fats), तेल, घी, जैसे- यौगिक आते है । लिपिड भी कार्बोहाइड्रेट की तरह हाइड्रोजन, कार्बन, आक्सीजन से मिलकर बना होता है परंतु दोनों में इन तत्वों का अनुपात अलग-अलग होता है।
  • लिपिड या वसा ग्लिसरॉल तथा फैटी अम्ल से मिलकर बना होता है। इसका सामान्य सूत्र CH3(CH2)n-COOH है।
  • लिपिड को तीनों भागों में बाँटा गया है- साधारण लिपिड, संयुक्त लिपिड तथा व्युत्पन्न लिपिड।
  • सभी प्रकार के लिपिड जल में अघुलनशील तथा कार्बनिक विलायक में घुलनशील होता है। 
1. साधारण लिपिड (Simple lipid)
  • साधारण लिपिड फैटी अम्ल तथा ऐल्कोहॉल का एस्टर है। वसा (Fats), तेल (Oil) तथा मोम (Wax) साधारण लिपिड है।
  • कमरे के ताप पर जो लिपिड ठोस होते हैं वह वसा (Fats) कहलाते हैं एवं जो कमरे के ताप पर तरल रहते हैं उसे तेल (Oil) कहा जाता है ।
  • वसा या तेल की विशेषता उसमें उपस्थित फैटी अम्ल पर निर्भर करता है। फैटी अम्ल के आधार पर दो प्रकार के वसा होते हैं-
  1. संतृप्त वसा (Saturated Fats ) - यह संतृप्त वसा अम्ल द्वारा बना होता है। संतृप्त वसा अम्ल (Fatty Acid) के सभी C-परमाणु, हाइड्रोजन के द्वारा संतृप्त रहते हैं तथा कमरे के ताप पर ठोस होते हैं। 
    • प्रमुख संतृप्त वसा-
      (क) ब्यूटिरिक अम्ल - यह मक्खन में पाया जाता है।
      (ख) कैपरिलिक अम्ल - यह नारियल के तेल तथा ताड़ के तेल में पाया जाता है।
      (ग) पैलमिटिक अम्ल - यह ताड़ के तेल तथा जंतु से प्राप्त वसा में पाये जाते हैं।
      (घ) ऐराकिडिक अम्ल - यह मटर (Peanut) के तेल में पाया जाता है।
  2. असंतृप्त वसा (Unsaturated Fats )- यह वसा असंतृप्त वसा अम्ल (Fatty acid) से बना होता है। इस वसा अम्ल के सभी C- परमाणु, हाइड्रोजन द्वारा संतृप्त नहीं रहते है। असंतृप्त वसा ही तेल (Oil) है और यह कमरे के ताप पर तरल रहता है।
    • प्रमुख असंतृप्त वसा-
      (क) पालमिटोलेईक अम्ल - दूध तथा सारडाइन में यह पाया जाता है।
      (ख) उलेइक अम्ल - यह जैतून (Oilve) के तेल में पाया जाता है।
      (ग) इरूसिक अम्ल - यह सरसों के तेल में पाया जाता है। 
  • अधिकांश जंतु से प्राप्त वसा संतृप्त वसा होता है तथा पौधों से प्राप्त असंतृप्त वसा होता है। भोजन में असंतृप्त वसा को प्राथमिकता देनी चाहिये क्योंकि संतृप्त वसा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
2. संयुक्त लिपिड (Compound lipid)
  • वह लिपिड में फैटी अम्ल तथा ऐल्कोहॉल के अतिरिक्त फोस्फोरस, नाइट्रोजन, सल्फर या प्रोटीन पाये जा सकते है।
  • प्रमुख संयुक्त लिपिड है- फॉस्फोलिपिड, ग्लाइकोलिपिड, सल्फोलिपिड, लिपोप्रोटीन ।
3. व्युत्पन्न लिपिड (Dervied lipid)
  • यह वसा साधारण तथा संयुक्त वसा के जल-अपघटन (Hydrolysis) से प्राप्त होता है।
  • जंतु में पाया जाने वाला कोलेस्टेरॉल, पौधे में पाया जाने वाला - एरगोस्टेरॉल जंतुओं के लिंग हॉर्मोन (Sexhormone) में उपस्थित स्टेरॉयड्स (Steroids) व्युत्पन्न लिपिड है।
लिपिड के कार्य-
  1. जंतु इसे ऊर्जा स्त्रोत के रूप में प्रयोग होता है।
  2. जंतु में कई पकार के विटामिन तथा हॉर्मोन बनने हेतु लिपिड आवश्यक है।
  3. इसका इस्तेमाल परिरक्षक तथा रौशनी उत्पन्न करने में किया जाता है।
  4. लिपिड भोजन में अच्छे स्वाद और गंध उत्पन्न करता है।
  5. कोशिका झिल्ली बनने हेतु लिपिड एक अनिवार्य घटक है। 

विटामिन (Vitamins)

  • विटामिन जटिल कार्बनिक यौगिक है जिसकी थोड़ी मात्रा मानव एवं जंतुओं के अच्छे स्वास्थ्य तथा वृद्धि हेतु अनिवार्य होता है।
  • विटामिन को सहायक आहार कहा जाता है। विटामिन मनुष्य तथा जंतुओं के शरीर में नहीं बनता है परंतु पौधों में इसका निर्माण हो सकता यही कारण है कि पौधे का उत्पाद विटामिन के अच्छे स्त्रोते होते हैं।
  • मनुष्य के शरीर में विटामिन निर्मित नहीं हो सकते हैं परंतु दो विटामिन A तथा K का संश्लेषण मनुष्य के शरीर में हो सकता है। शरीर में विटामिन A का संश्लेषण कैरोटीन से जबकि विटामिन K का संश्लेषण शरीर के आहारनाल में उपस्थित जीवाणु के माध्यम से होता है।
  • विटामिन की थोड़ी मात्रा मनुष्य का जन्तु के लिए अनिवार्य है। इसी कमी से शारीरिक तंत्र में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है जिससे कई, रोग शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। हाँलाकि, कमी वाले विटामिन को लेने से विटामिन के अभाव में होने वाले रोग दूर हो जाते हैं। शरीर में होन वाले विटामिन की कमी को 'हाइपोविटामिनांसिस' कहा जाता है। 

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित में कौन साधारणतः शरीर द्वारा नहीं बनाये जाते है ?
(a) विटामीन
(b) एंजाइम
(c) प्रोटीन
(d) हॉर्मोन
2. जीवन- तंत्र में एंजाइम का क्या कार्य है?
(a) ऑकसीजन का परिवहन
(b) ऊर्जा प्रदान करना बिन्दु
(c) जैविक क्रियाओं का उत्प्रेरित करना
(d) हॉर्मोन के प्रभाव को कम करना
3. एक कार्बोहाइड्रेट होने के लिये एक यौगिक में कम-स-कम कितने कार्बन होने चाहिये ?
(a) 4 
(b) 6
(c) 3
(d) 2
4. निम्नलिखित में कौन सा कार्बोहाइड्रेट वनस्पति कोशिका का आवश्यक घटक हैं ?
(a) स्टार्च 
(b) सेल्युलोज
(c) विटामीन
(d) सुक्रोज
5. मोल्टोस के जल अपघटन से क्या प्राप्त होता है ?
(a) ग्लूकोज तथा सूक्रोज
(b) गैलेक्टोज तथा ग्लूकोज
(c) ग्लूकोज
(d) सुक्रोज 
6. निम्नलिखित में कौन सर्वाधिक मीठी शर्करा (Sugar) है?
(a) माल्टोज 
(b) लैक्टोज
(c) फ्रक्टोज
(d) सुक्रोज
7. सुक्रोज के जल अपघटन क्या कहलाता है ?
(a) साबुनीकरण 
(b) जलयोजन
(c) इनवर्सन
(d) एस्टरीकरण
8. निम्नलिखित में कौन सा कार्बोहाइड्रेट टॉलेन्स अभिकर्मक के साथ रजत दर्पण (Silver mirror) देता है ?
(a) सुक्रोज 
(b) फ्रक्टोज
(c) ग्लूकोज
(d) स्टार्च
9. ऐमीनो अम्ल में पाया जाने वाला क्रियात्मक समूह है-
(a) -COOH 
(b) -NH2
(c) A तथा B दोनों
(d) C = O
10. निम्नलिखित में कैन सा विकल्प सही सुमेलित है ?
(a) बेरीबेरी : विटामीन B
(b) रतौंधी : विटामीन D
(c) रिकेट्स : विटामीन A 
(d) स्कर्वी : विद्यामीन P
11. निम्नलिखित में कौन सा विटामिन वसा में घुलनशील नहीं है ?
(a) विटामीन A
(b) विटामीन D
(c) विटामीन K
(d) विटामीन C
12. विटामीन - A का प्रमुख स्त्रोत है-
(a) तेल एवं वसा
(b) पालक तथा धनिया
(c) दूध तथा गाजर
(d) चना तथा मटर
13. निम्नलिखित में कौन पॉलीसैकेराइड का उदाहरण है ?
(a) स्टार्ज एवं सेलुलोज 
(b) ग्लूकोज एवं फ्रक्टोज
(c) लेक्टोज एवं ग्लेक्टोज 
(d) इनमें से कोई नहीं
14. प्रोटीन के विघटन से क्या बनता है- 
(a) कार्बोहाइड्रेट 
(b) ऐमीनो अम्ल
(c) वसा
(d) न्यूक्लीक अम्ल
15. केनसुगर का सामान्य सूत्र क्या है ?
(a) C6H12O11
(b) C12H22O11
(c) Cn(H2n)n
(d) (C6H10O5)n
16. ऐमीनो एसिड की कुल संख्या कितनी है ?
(a) 10
(b) 20
(c) 30
(d) 40
17. स्टार्ज या सेलुलोज के जल अपघटन से क्या प्राप्त होता है ?
(a) ग्लूकोज
(b) फ्रक्टोज
(c) सुक्रोज
(d) मैनोज
18. गरम करने पर प्रोटीन का विघटित होना क्या कहलाता है ?
(a) संगुणन
(b) संयुग्मन
(c) उत्फुल्लन
(d) विनेचुरीकरण
19. साइनोकोबाल्ट ऐमीन नाम दिया गया है ?
(a) विटामीन B-6 को
(b) विटामीन A को
(c) विटामीन B-1 को
(d) विटामीन B-12 को
20. उपापचय की क्रिया के दो मुख्य भाग होते है- 
(a) जल अपघटन तथा दहन
(b) कैटाबोलिज्म तथा जल अपघटन
(c) CO2 तथा O2
(d) कैटाबोलिज्म तथा ऐनाबोलिज्म
21. विटामीन - C का मुख्य स्त्रोत क्या है-
(a) नींबू तथा सन्तरा 
(b) केला तथा अनन्नास
(c) सेब तथा पपीता
(d) धान तथा गेहूं
22. विटामीन की खोज किस वैज्ञानिक ने की थी?
(a) फन्क ने
(b) हॉवर ने
(c) अरस्तू ने
(d) स्टैनले ने
23. एन्जाइमो की क्रिया हेतु सबसे उपयुक्त तापमान है-
(a) 50-100ºC 
(b) 30 से 60°C
(c) 35 से 70°C
(d) 20 से 45°C
24. ऐमीनो एसीड की श्रेणी का सबसे छोटा एवं प्रथम सदस्य का उदाहरण है-
(a) ऐलेनीन
(b) सीरीन
(c) वैलीन
(d) ग्लाइसी
25. हेलर परीक्षण द्वारा क्या ज्ञात किया जाता है ?
(a) प्रोटीन 
(b) कार्बोहाइड्रेट
(c) वसा
(d) अकार्बनिक एसीड
26. प्रोटीन का सबसे प्रमाणित परीक्षण है-
(a) जैन्थ्रोप्रोटीक परीक्षण
(b) विलहैल्मी परीक्षण
(c) फीगल्स परीक्षण
(d) मॉलिस परीक्षण
27. कार्बोहाइड्रेट का परीक्षण किया जाता है-
(a) मॉलिस परीक्षण
(b) हाइड्रीन परीक्षण
(c) बाइयूरेट परीक्षण
(d) जैन्थोप्रोटीक परीक्षण
28. प्रोटीन अणु पर विद्युत आवेश होता है, क्योंकि वे-
(a) ध्रुवीय होते है
(b) जटिल अणु होते है
(c) उच्च अणु भार रखते है
(d) उच्च घनत्व रखते है
29. विकृत गंध ( Rancidity) का मुख्य कारण है- 
(a) अपचयन
(b) वियोजन
(c) आशिक जल अपघटन
(d) दहन
30. फलो में पाया जाने वाला शर्करा हैं-
(a) ग्लूकोज 
(b) फ्रक्टोज
(c) गैलेक्टोज
(d) स्टार्ज
31. नाइट्रोजन आवश्यक घटक है-
(a) लिपिड का
(b) पॉलिसेकेराइड का 
(c) प्रोटीन का
(d) कार्बोहाइड्रेट का
32. कौन सा सबसे प्रबल एंटीऑक्सीडेण्ट है ?
(a) मैग्नीशियम
(b) जिंक
(c) सिलिकन
(d) सेलेनियम
33. ग्लाइकोजेन किस का बहुलक है-
(a) ग्लूकोज
(b) सुक्रोज
(c) स्टार्ज
(d) गैलेक्टोज
34. स्टेरॉल एवं स्टेरॉइड है-
(a) साधारण लिपिड 
(b) संयुक्त लिपिड
(c) व्युत्पल लिपिड
(d) कॉम्प्लिकेटेड लिपिड
35. निम्नलिखित में कौन मोनोसेकेराइड है-
(a) राइबोज 
(b) फ्रक्टोज
(c) लैक्टोज 
(d) ग्लिसरेल्डिहाइड
36. गन्ने का शक्कर है-
(a) केवल ग्लूकोज
(b) केवल फ्रक्टोज
(c) ग्लूकोज एवं फ्रक्टोज
(d) ग्लूकोज एवं लैक्टोज
37. विटामीन K की शरीर के किस कार्य हेतु जरूरत होती है ?
(a) हेपारिन संश्लेषण में
(b) प्रोथ्रोम्बीन संश्लेषण में 
(c) फाइब्रिनोजेन को फाइब्रिन के बदलने में
(d) इन सभी के लिए
38. हेपारिन क्या है-
(a) म्यूकोपॉलिसैकेराइड
(b) ग्लूकोज का पॉलीमर
(c) प्रोटीन
(d) लिपिड
39. निम्नलिखित में किस विटामीन के कारण Ca की कमी होती है ?
(a) विटामीन B9
(b) विटामीन D
(c) विटामीन K
(d) विटामीन E
40. निम्नलिखित में किसके अणु के बारंबारता से सेल्यूलोज बनता है?
(a) फैटी अम्ल
(b) ऐमीनो अम्ल
(c) ग्लूकोज 
(d) सुक्रोज
41. निम्नलिखित में कौन ऐमीनो अम्ल ऐमीनो ग्रुप का सर्वाधिक दानकर्त्ता है ?
(a) सिस्टीन
(b) ग्लूटामीन
(c) एस्पार्टिक अम्ल
(d) ग्लूटामीक अम्ल
42. निम्नलिखित में किस की कमी से पेलेग्रा रोग होता है ?
(a) कैल्सिफेरल 
(b) बायोटीन
(c) रिबोफ्लेविन
(d) नियासीन
43. ग्लाइसीन क्या है-
(a) साधारण लिपिड 
(b) ऐमीनो अम्ल 
(c) कोर्बोहाइड्रेट
(d) फैटी अम्ल
44. मायोसीन क्या है-
(a) सरल प्रोटीन 
(b) युग्मित प्रोटीन
(c) फाइब्रस प्रोटीन
(d) प्रोटीन नहीं है
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Sat, 20 Apr 2024 11:10:35 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में पोषण https://m.jaankarirakho.com/1000 https://m.jaankarirakho.com/1000 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में पोषण
  • सजीवों को अपने जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जीवनपर्यंत भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन शरीर में ऊर्जा की आपूर्ति करते हैं, जिससे जीवन की सभी उपापचयी (Metabolic) क्रिया संचालित होती है। इसके अतिरिक्त भोजन से प्राप्त ऊर्जा सजीवों के शरीर के निर्माण, वृद्धि और विकास के लिए भी आवश्यक है।
  • पोषण, ऐसा जैव प्रक्रम (Life Process) है जिसमें सजीव भोजन को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं तथा उनसे ऊर्जा प्राप्त करते है।
  • विभिन्न प्रकार के सजीवों में पोषण दो प्रकार से होता है-
    1. स्वपोषण (Autotrophic Nutrition ) : पोषण की वह विधि जिसमें सजीव भोजन के लिए किसी अन्य सजीव पर निर्भर नहीं रहे, स्वपोषण कहलाता है तथा जिस सजीव में स्वपोषण होता है उसे स्वपोषी (Autotrophs) कहते है।
      • 'Autotrophs' दो ग्रीक शब्द Auto तथा troph के मेल से बना है। Auto शब्द का अर्थ स्वतः (Salf) होता है तथा troph का अर्थ पोषण (Nutrition) होता है।
      • स्वपोषण के भी दो प्रकार होते हैं-
        1. प्रकाशीय स्वपोषण (Photo-autotrophism): एक कोशिकीय जीव तथा सभी हरे पौधे सूर्य की प्रकाश की सहायता से ग्लूकोज (भोजन) का निर्माण करते है। यह प्रकाशीय स्वपोषण है जो प्रकाश-संश्लेषण भी कहलाता है।
        2. रसायनिक स्वपोषण : इस प्रकार का स्वपोषण कुछ जीवाणु जैसे- फेरोमोनास, सल्फोमोनास, बिगियाटोआ आदि में पाया जाता है। यह लौह--योगिकों तथा हाइड्रोजन सल्फाइड का ऑक्सीकरण कर ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
    2. परपोषण या विषम पोषण otrophic : पोषण की वह विधि जिसमें सजीव अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते एवं पोषण के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं, पर पोषण कहलाता है। ऐसे जीव जिनमें परपोषण होता वं परपोषी (Heterotrophs) कहलाते है।
      • 'Heterotroph' 'भी दो ग्रीक शब्द Hetero तथा troph से मिलकर बना है। Hetero का अर्थ विषम या भिन्न होता है तथा troph का अर्थ पोषण होता है।
      • परपोषण के तीन प्रकार है-
        1. मृतजीवी पोषण (Saprophytic Nutrition) : मृतजीवी पोषण में जीव अपना भोजन, मृत जंतु और पौधे के शरीर से प्राप्त करते हैं। मृतजीवी, मृत जन्तु तथा पौधों में उपस्थित जटिल कार्बनिक यौगिक को अपने शरीर में उपस्थित एंजाइम की मदद से तरल (घुलित) कार्बनिक पदार्थ में परिवर्तित कर उसे अवशोषित कर लेते है। भोजन को तरल रूप से अवशोषित करने के कारण मृतजीवी पोषण को अवशोषक पोषण (Absorptive Nutrition ) भी कहा जाता है।
          • यह पोषण कवक, जीवाणु तथा कुछ प्रोटोजोआ में होता है। ये मृतजीवी (Saprophytes ) अपघटक भी कहलाते है।
        2. परजीवी पोषण (Parasitic Nutrition ) : परजीवी पोषण वह पोषण होता है जिसमें एक जीव अपना भोजन दूसरे जीवित जीव के शरीर से बिना उसे मारे, प्राप्त करता है। जीव जो भोजन प्राप्त करता है परजीवी (Parasite) कहलाता है और जीवधारी जिसके शरीर से भोजन प्राप्त किया जाता है परपोषी (Host) कहलाता है।
          • परजीवी, परपोषी (Host ) से भोजन तो प्राप्त करता है परन्तु परपोषी को कोई लाभ नहीं पहुचाता है बल्कि परपोषी को प्रायः हानि ही पहुँचाता है। परपोषी पौधा और जन्तु हो सकता है। परजीवी का भोजन भी प्रायः तरल ही होता है।
          • रोग फैलाने वाले सभी सूक्ष्मजीव, कवक कुछ पौधे (अमरबेल ) में परजीवी पोषण होता है।
        3. प्राणिसम पोषण (Holozoic Nutrition ) : इस प्रकार के पोषण में जीव ठोस या तरल के रूप में भोजन का अन्तर्ग्रहण करता है, फिर भोजन को पचाता है इसके बाद पचित भोजन जीव के कोशिकाओं के द्वारा अवशोषित किया जाता है।
          • प्राणिसम पोषण सामान्यतः जंतुओं का लक्षण है। मनुष्य, बिल्ली, कुत्ता, मेढ़क, मछली, अमीबा आदि में इसी प्रकार का पोषण होता है।

पौधों में पोषण (Nutrition in Plant)

  • पौधे स्वपोषी होते हैं। प्रकाश की उपस्थिति में पौधे, जिनमें क्लोरोफील पाया जाता है, मृदा से जल तथा वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड लेकर कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण करते हैं एवं ऑक्सीजन को वायुमंडल में उप-उत्पाद (By Product) के रूप में निकालते हैं। पौधों में स्वपोषण की यह प्रक्रिया 'प्रकाश संश्लेषण' कहलाता है।
  • प्रकाश संश्लेषण के द्वारा पौधे अपने लिए भोजन तैयार करते हैं लेकिन इसी प्रक्रिया के द्वारा प्राणिजगत (Animal kingdom) को भी भोजन की प्राप्ति होती है।

प्रकाश संश्लेषण (Photo Synthesis)

  • प्रकाश संश्लेषण एक जटिल रसायनिक प्रतिक्रियाओं का श्रृंखला है जो कोशिका के हरितलवक में स्थित क्लोरोफील सूर्य के विकिरण ऊर्जा के कोशिका के अंदर सम्पन्न होता है। पादप अवशोषित करता है तथा इस ऊर्जा द्वारा पत्तियों में स्थित जल दो भाग ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन में विभक्त हो जाता है। ऑक्सीजन पत्तियों के रंध्र से बाहर वायुमंडल में आ जातें हैं तथा हाइड्रोजन कार्बन डाइऑक्साइड से मिलकर ग्लूकोज बनाते है।
  • अतः “प्रकाश संश्लेषण वह प्रक्रिया है जिसमें हरे पौधे क्लोरोफील की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश ऊर्जा का प्रयोग करके, कार्बन डाइआक्साइड और जल से अपना भोजन (ग्लूकोज) बनाते हैं।"

  • प्रकाश संश्लेषण एक प्रकाश रसायनिक अभिक्रिया है जिसमें सूर्य प्रकाश के विकिरण ऊर्जा, रसायनिक ऊर्जा में रूपांतरित होते हैं। यह रसायनिक ऊर्जा ग्लूकोज के अणुओं में संचित रहते है।
  • प्रकाश संश्लेषण के दौरान ग्लूकोज के 1 अणु बनने में कार्बन डाइऑक्साइड के 6 अणु भाग लेते हैं तथा इसी दौरान ऑक्सीजन के भी 6 अणु मुक्त होते है, जिस कारण पहले यह अनुमान लगाया गया कि प्रकाश संश्लेषण के दौरान जो ऑक्सीजन बाहर निकलता है वह कार्बन डाइऑक्साइड के विभक्त होने से बनता है। लेकिन, अब यह प्रमाणित हो चुका है कि बाहर मुक्त होने वाले ऑक्सीजन का स्त्रोत जल (H2O) है न कि कार्बन डाइऑक्साइड।

प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया से संबंधित वैज्ञानिक

  • सर्वप्रथम जोसेफ प्रीस्टले ने यह सिद्ध किया था कि पौधा कार्बन डाइऑक्साइड को ऑक्सीजन बनाने में सक्षम है।
  • प्रीस्टले के बाद जॉन इंगेन हौज ने यह सिद्ध किया कि हरे पौधे सूर्य की उपस्थिति में ही कार्बन डाइऑक्साइड को शुद्ध (ऑक्सीजन) बना सकता है। जॉन इंगेज हॉज के प्रयोग से पता चला कि प्रकाश संश्लेषण के लिए क्लोरोफील तथा सूर्य का प्रकाश दोनों जरूरी है।
  • एण्टनी लेवांजियर (Antony Lavoisier) यह साबित किया कि पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहाण करते हैं और ऑक्सीजन का त्याग करते हैं।
  • रॉबर्ट मायर ने प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को और अधिक स्पष्ट किया, वे अपने प्रयोगों से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी पोधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर, प्रकाश संश्लेषण में क्लोरोफील द्वारा प्रकाश ऊर्जा को रसायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते है।
  • प्रोफेसर ब्लैकमैन ने यह बताया कि प्रकाश संश्लेषण न केवल प्रकाश रसायनिक क्रिया है, बल्कि यह जीव रसायनिक (Biochemical) क्रिया भी है।

प्रकाश संश्लेषण के लिए अनिवार्य पदार्थ

  • प्रकाश संश्लेषण हेतु चार पदार्थों की आवश्यकता होती है। इनमें किसी एक के अभाव में प्रकाश संश्लेषण संभव नहीं है। यह चार पदार्थ निम्नलिखित हैं-
    1. कार्बन डाइऑक्साइड : प्रकाश संश्लेषण हेतु पौधे CO2 वायुमंडल से ग्रहण करते हैं। पोधे के पत्तियों में पाये जानेवाले रंध्र (Stomata) के द्वारा CO2 वायुमंडल से ग्रहण किया जाता है। जलीय पौधे वायुमंडल से CO2 ग्रहण न कर जल में घुले बाइकार्बोनेट से CO2 ग्रहण करते है।
    2. जल : जल प्रकाश संश्लेषण हेतु अनिवार्य है परंतु प्रकाश संश्लेषण के अतिरिक्त अन्य क्रियाओं में भी पौधों को जल की आवश्यकता होती है। जल, पौधा मृदा से जड़ों के द्वारा ग्रहण करते हैं। जड़ों द्वारा सोखा गया जल जाइलम उत्तक के द्वारा पौधों के पत्तियों तक पहुँचता है।
    3. सूर्य का प्रकाश : प्रकाश संश्लेषण हेतु आवश्यक ऊर्जा सूर्य के प्रकाश से प्राप्त होती है। सूर्य के प्रकाश के अभाव में अथवा अंधरे में प्रकाश संश्लेषण नहीं हो सकता है। कोई भी कृत्रिम प्रकाश जिससे विकिरण ऊर्जा निकलती है, उस प्रकाश से भी प्रकाश संश्लेषण हो सकता है।
    4. क्लोरोफील : प्रकाश संश्लेषण हेतु क्लोरोफील एक महत्वपूर्ण तथा अनिवार्य घटक है जो हरितलवक में पाया जाता है। क्लोरोफील ही सूर्य के प्रकाश ऊर्जा (या विकिरण ऊर्जा) की टैप कर उसे रसायनिक ऊर्जा में बदलते हैं।

प्रकाश संश्लेषण की अवस्थाएँ (Phases of Photosynthesis)

  • प्रकाश संश्लेषण एक जटिल प्रक्रिया है, जो दो चरणों (Phase) में सम्पन्न होता है-
    1. प्रकाश अभिक्रिया (Light Reaction )
      • यह अभिक्रिया प्रकाश की उपस्थिति में हरितलवक के ग्राना वाले भाग में होता है। इस अभिक्रिया की खोज हिल (Hill) नामक वैज्ञानिक ने की थी जिसके कारण इसे हिल अभिक्रिया भी कहते हैं। प्रकाश अभिक्रिया में निम्नलिखित क्रियाएँ क्रमिक रूप से होती है-
        1. सर्वप्रथम क्लोरोफील, सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा ग्रहण करते है। क्लोरोफील एक अणु है जो परमाणुओं से बना है। सूर्य प्रकाश के फोटॉन द्वारा क्लोरोफील परमाणु के इलेक्ट्रॉन उत्तेजित हो जाते है।
        2. इसके बाद जल का प्रकाशिक अपघटन होता है। जल के प्रकाशिक अपघटन से H तथा OH आयन बनते है। OH आयन से पुन: O2 तथा H2O का निर्माण होता है। O2 वातावरण में मुक्त हो जाता है।

        3. जल के प्रकाशिक अपघटन से निकले Ht को विशेष प्रकार के हाइड्रोजन ग्राही विटामिन NADP+ (Nicotinamide Adeuine Dinucleotide Phosphate) ग्रहण कर लेता है।
          4H+ + 4e- + 2NADP → 2NADH2
        4. इसके बाद पौधे में पाये जाने वाले ADP (Adenosine diphosphate) तथा फॉस्फोरस आपस में मिलकर ATP नामक यौगिक का निर्माण करते है। ATP बनने की प्रक्रिया को प्रकाश फॉस्फेटीकरण (Photophosphorylation) कहा जाता है।
      • प्रकाश संश्लेषण के प्रकाश अभिक्रिया में NADPH, एवं ATP का निर्माण होता है। NADPH 2 तथा ATP का प्रयोग प्रकाश संश्लेषण की दूसरी अवस्था या अप्रकाशिय अभिक्रिया (Dark Reaction) में होता है।
    2. अप्रकाशिक अभिक्रिया (Dark Reaction)
      • इसे अप्रकाशिक (Dark) अभिक्रिया इसलिए नहीं कहते हैं कि यह अँधेरे ( प्रकाश की अनुपस्थिति) में होता है, बल्कि इसलिए कहते हैं कि इस अभिक्रिया हेतु प्रकाश की जरूरत नहीं है।
      • अप्रकाशीय अभिक्रिया हरितलवक के स्ट्रोमा वाले भाग में प्रकाश अभिक्रिया में बने NADPH2 तथा ATP की सहायता से सम्पन्न होता है।
      • अप्रकाशिक अभिक्रिया का पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन मेल्विन कालविन नामक वैज्ञानिक ने किया था। इस कार्य के लिए 1961 में कालविन को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अप्रकाशिक अभिक्रिया को Calvin-cycle भी कहा जाता है। Calvin-cycle तीन चरणों में पूर्ण होता है-
        1. कार्बोक्सिलीकरण : Calvin-cycle के दौरान हरित लवक के स्ट्रोमा में दो रसायन RuBP (Ribolose biphosphate) तथा रूबिस्को एंजाइम मौजूद रहता है। रूबिस्को एंजाइम उत्प्रेरक की उपस्थिति में CO2 का RuBP से संयोजन कार्बोकिसलीकरण कहा जाता है। CO2 तथा RuBP के संयोजन से PGA (Phosphoglyceric Acid) का निर्माण होता है। PGA प्रकार संश्लेषण के कालविन चक्र का प्रथम स्थायी यौगिक है।
        2. अपचयन (Reduction ) : यह अभिक्रियाओं अणुओं से मिलकर फॉस्फोग्लीसेरलडीहाइड की एक श्रृंखला है। इस क्रिया में PGA, ATP है। बनाता है, जो ग्लूकोज का निर्माण करता है।
        3. पुनर्जनन ( Regneration) : इस क्रिया RuBP के अणु का निर्माण पुनः हो जाता है जिसका उपयोग कार्बोक्सिलीकरण में हुआ था । RuBP के पुनः निर्माण होने से Calvin-cycle बिना किसी बाधा के निरंतर जारी रहता है।
      • Calvin-cycle में CO2 के प्रत्येक अणु के स्थिरिकरण के लिए ATP के तीन अणु तथा NADPH2 के दो अणु की आवश्यकता होती है। ग्लूकोज के एक अणु के निर्माण हेतु Calvin-cycle से 6 चक्कर की आवश्यकता होती हैं जिससे 6 अणु CO2 के स्थिरिकरण या ग्लूकोज में बदलने हेतु 18 ATP तथा 12 NADPH2 का जरूरत पड़ती है । सम्पूर्ण अप्रकाशिक अभिक्रिया या Calvin-cycle को निम्न समीकरण द्वारा दर्शाया जाता है-
        6RuBP + 6CO2 + 18ATP + 12 NADPH2
        → 6 RuBP + C6H12O6 + 18 ADP + 18P + 12 NADP

प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारक

  • प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करने वाले कारक को दो भागों में विभाजित किया जाता है। बाह्य कारक तथा आंतरिक कारक । ताप, प्रकाश, CO2 तथा जल बाह्य कारक है तथा क्लोरोफील की मात्रा, जीवद्रव्य, कोशिका में संचित भोजन की मात्रा और पत्ती की आंतरिक संरचना आंतरिक है।
    1. ताप : लगभग 30°C से 35°C ताप पर प्रकाश संश्लेषण की दर सबसे अधिक होती है। इससे अधिक ताप पर प्रकाश संश्लेषण की दर घट जाती है। गर्म प्रदेशों में 5°C से नीचे ताप पर प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है।
    2. प्रकाश : पत्तियों तक जो प्रकाश पहुँचता है उसका 80 प्रतिशत पत्तियों द्वारा अवशोषित हो जाता है, शेष प्रकाश परावर्तित हो जाते है। लेकिन पत्तियों द्वारा अवशोषित प्रकाश का मात्र 0.5 से 3.5 प्रतिशत ही प्रकाश संश्लेषण में उपयोग होता है।
    3. प्रकाश की तीव्रता : प्रकाश की तीव्रता बढ़ने से प्रकाश संश्लेषण की दर बढ़ जाती है परंतु प्रकाश की तीव्रता बहुत अधिक बढ़ने से प्रकाश-संश्लेषण रूक जाती है।
    4. प्रकाश के गुण: प्रकाश संश्लेषण केवल दृश्य स्पेक्ट्रम के तरंगदैर्ध्य में होती है। पौधे लाल तरंगदैर्ध्य में सबसे अधिक प्रकाश संश्लेषण करते हैं जबकि नीली तरंगदैर्ध्य दूसरे स्थान पर रहती है। पीली और हरी तरंगदैर्ध्य में प्रकाश संश्लेषण की दर सबसे कम होती है।
    5. प्रकाश का अवधि : प्रकाश संश्लेषण हेतु प्रतिदिन 10 से 12 घंटे का प्रकाश पर्याप्त होता है। इससे अधिक देर तक प्रकाश की उपलब्धता पर प्रकाश संश्लेषण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
    6. कार्बन डाइऑक्साइड : कार्बन डाइऑक्साइड को प्रकाश संश्लेषण का नियंत्रक कारक या सीमांतक कारक (limiting factor) कहा जाता है। CO2 की 0.03% मात्रा प्रकाश संश्लेषण हेतु पर्याप्त है। इसकी मात्रा में वृद्धि होने से प्रकाश संश्लेषण उसी दर से बढ़ जाती है परंतु CO2 की मात्रा लगातार बढ़ने से प्रकाश संश्लेषण के दर में कमी आती है।
    7. जल : पौधे द्वारा अवशोषित जल का मात्र 1 प्रतिशत ही प्रकाश संश्लेषण में उपयोग होता है। पौधे को अगर जल की कमी हो जाए तो प्रकाश संश्लेषण की दर में कमी आ जाती है।

मानव शरीर में पोषण Nutrition in Human Body

  • मनुष्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतु में प्राणिसम पोषण (Holozoic क्रियाओं-अन्तर्ग्रहण (Ingestion), पाचन (Digestion), अवश अवशोषण utrition) होता है। प्राणिसम जीवों में पोषण पांच (Absorption), स्वांगीकरण (Assimilation) तथा बहिष्करण या मल त्याग (Egestion) द्वारा सम्पन्न होती है। मनुष्य में भी ये सभी क्रियाएँ होती है।
  • पोषण के पाँच क्रियाओं में पाचन सबसे महत्वपूर्ण है। पाचन की क्रिया में ठोस, जटिल बड़े-बड़े अघुलनशील भोजन- अणु विभिन्न एंजाइम की सहायता से तरल सरल, छोटे-छोटे अणुओं में विभक्त हो जाते है।
  • मनुष्य में पाचन हेतु एक विकसित पाचन तंत्र (Digestive system) पाया जाता है। यह पाचन तंत्र आहारनाल (Alimentary Canal) एवं इससे संबंधित विभिन्न पाचक ग्रंथि से मिलकर बना है। मनुष्य का आहारनाल 8 से 10 मीटर तक की होती है।
  • मनुष्य के आहारनाल के विभिन्न भागों की संरचना तथा उनके कार्य निम्नलिखित है-
    1. मुख गुहा (Buccal Cavity )
      • मुख गुहा की संरचना एक बंद कमरे के समान है जो मुँह के रास्ते से खुलता है तथा जबड़े तथा होठो के माध्यम से बंद होता है। मनुष्य के दो जबड़े में निचला जबड़ा गतिशील होते हैं। मुखगुहा के अंदर के ऊपर वाले हिस्से तालु (Palate) कहलाता है तथा पार्श्व (lateral) के मांसल भाग को गाल कहते है।
      • मुखगुहा के भीतर तीन प्रमुख संरचनाएँ- दाँत (Teeth), जीभ (Tongue) तथा लार ग्रंथि (Salivary gland) मौजूद है जो पाचन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
        1. दाँत (Teeth)
          • मनुष्य के दाँत को तीन हिस्सों में बाँटा गया है। दाँत का वह भाग जो मसूढ़े के ऊपर निकला रहता है, सिर (Crown) कहलाता है तथा मसूढ़े के अंदर रहने वाले भाग को जड़ (Root) कहे हैं। सिर तथा जड़ के बीच दाँतों के पतले भाग को ग्रीवा (Neck) कहते है।
          • दाँतों के संरचना में मज्जा गुहा (Pulp cavity) दंतास्थि (Dentine ) तथा इनामेल आते है। दाँतों के सबसे भीतरी संरचना मज्जा गुहा से बना होता है, इस भाग में रू रवाहिनी तथा तंत्रिका - सूत्र भरे होते हैं। मज्जा गुहा के ऊपर दंतास्थित आते है। दंतास्थि ही दाँतों के अधिकांश भाग को तैयार करते है। दंतास्थि एक उत्तक है जो हड्डी से भी ज्यादा कड़ा तथा हल्के पले रंग का होता है । दाँत के सिर (Crown) वाले भाग के ऊपर इनामेल (Enamel) का परत चढ़ा रहता है । दाँत इनामेल के कारण ही देखने में श्वेत प्रतीत होते है।
          • दाँतों का इनामेल कैल्सियम फॉस्फेट से बनता है जो जल में अविलेय है, किन्तु मुँह का pH 5.5 से कम हो जाने पर इनामेल का क्षय होने लगता है। दाँतों का यह इनामेल मानव शरीर का सबसे कड़ा भाग है।
          • मनुष्य के पूरे जीवन काल में दाँत दो बार निकलते हैं। जन्म के बाद जो दाँत निकलते हैं उसे दूध दाँत (Milk Teeth) कहते है। दूध दाँत की संख्या 20 होती है 10 ऊपरी जबड़े में और 10 नीचले जबड़े में। 6 से 7 वर्ष उम्र के बाद दूध दाँत एक-एक करके टूटने लगते हैं तथा तथा उसके स्थान नये दाँत आ जाते है। इस नये दाँत को स्थायी दाँत कहते है। स्थायी दाँत 32 होते हैं, 16 ऊपरी जबड़े तथा 16 निचले जबड़े में।
          • स्थायी दाँत (Permanent Teeth) चार प्रकार के होते है-
            Incisor ( कर्तनक) : यह दाँत पकड़ने तथा काटने के काम आते है। ऊपरी तथा # नीचले जबड़े में इसकी संख्या 4-4 होती है।
            Canine (भेदक) : यह दाँत फाड़ने के काम आते है। ऊपरी तथा नीचले जबड़ में इसकी संख्या 2-2 होते है ।
            Premolar : यह कुचलने वाले दाँत है। ऊपरी तथा नीचले जबड़े में इसकी संख्या 4-4 होती है।
            Molar : यह चबाने वाले दाँत हैं। ऊपरी तथा नीचले जबड़े में इसकी संख्या 6-6 होती है।
          • बच्चों के दूध दाँत में प्रीमोलर तथा अंतिम मोलर दाँत का अभाव रहता है। मनुष्य के पूरे जीवनकाल में कुल 52 दाँत निकलते है।
          • जन्म के बाद मनुष्य में दो बार दाँत निकलते है, इस अवस्था को Diphyodont कहा जाता है। मनुष्य में चार प्रकार के दाँत पाये जाते हैं, ऐसे दाँत वाले प्राणी Heterodont कहलाते हैं।
        2. जीभ (Tongue)
          • जीभ एक मांसल सांचना है, निम्नलिखित कार्य सम्पन्न किये जाते हैं- 
            • यह लार ग्रंथि से स्त्रावित होने वाले लार (Saliva) को भोजन के साथ मिलाता है।
            • जीभ के द्वारा भोजन का स्वाद ग्रहण किया जाता है, जिसके बाद हमें स्वाद की अनुभूति होती है।
            • यह दाँत की भीतरी सतहों को साफ एवं चिकना रखती है।
            • भोजन निगलने में जीभ मदद देती है।
            • जीभ हमें बोलने में मदद करती है।
          • जीभ की सतह पर तीन प्रकार रोएंदार रचनाएँ पाई जाती है, जिन्हें पैपिला (Papilla) कहा जाता है। पैपिला में स्वाद कलिकाएँ (Taste Bud) पाये जाते है जो स्वाद ग्रहण का कार्य करती है।
          • जीभ के ऊपरी बीच वाली सतह पर जो पैपिला होते हैं, उसे फिलीफॉर्म पैपिला कहा जाता है। इस पैपिला में कोई स्वाद कलिकाएँ मौजूद नहीं रहता है।
          • जीभ के दाँये तथा बाएँ किनारे-किनारे फैले पैपिला को फंगीफॉर्म पैपिला कहते हैं। इस पैपिला में नमकीन मीठा तथा खट्टा स्वाद ग्रहण करने वाली स्वाद नलिकाएँ पायी जाती है।
          • जीभ के पिछले सतह पर सरकमभैलेट पैपिला पाया जाता है जिसमें तीखा स्वाद ग्रहण करने वाला स्वाद कलिका पायी जाती है।
        3. लार ग्रंथियाँ (Salivary glands) -
          • मनुष्य के मुख-गुहा में कुल तीन जोड़ी लार ग्रंथि पायी जाती है। इस ग्रंथि में नली (Duct ) पायी जाती है, अतः यह बाह्य स्त्रावी ग्रंथि है।
          • तीन जोड़ी लार-ग्रंथि में पैरोटिड ग्रंथि सबसे बड़ी होती है जो दोनों कान के पास पायी जाती है। एक जोड़ी सबलिंगुल ग्रंथि जीभ के दोनों बगल में तथा एक जोड़ी सबमेडिबुलर थि जबड़े के नीचे पाये जाते है।
          • सभी लार ग्रंथियाँ लार को स्त्रवित करता है। प्रतिदिन मानव में 1-11/2 लीटर लार (Saliva) स्त्रावित होता है। लार एक क्षारीय तरल पदार्थ है। लार में 99.2 प्रतिशत जल पाये जाते है। जल के अतिरिक्त लार में Na+, K+, Cl- म्यूकस तथा दो प्रकार के एंजाइम टायलिन (Ptylin) तथा लाइसोजाइम ( Lysozyme) पाये जाते है। 
          • लार में उपस्थित टायलीन एंजाइम भोजन में उपस्थित मंड ( Starch) को डेक्सट्रीन तथा माल्टोजम में परिवर्तित कर देता है।

          • इस तरह भोजन का पाचन मुख गुहा से ही शरू हो जाता है तथा सर्वप्रथम भोजन के कार्बोहाइड्रेट (Starch) का पाचन होता है। भोजन में उपस्थित लगभग 30 प्रतिशत स्टार्च का ही पाचन मुखगुहा में हो पाता है।
          • लार भोजन को नरम तथा लसदार बनाता है एवं घुलनशील पदार्थ को घुलाकर स्वाद का बोध कराता है। लार का लाइसोजाइम एंजाइम के प्रभाव से भोजन के साथ मुखगुहा में आये जीवाणु नष्ट हो जाते है।
    2. ग्रसनी (Pharynx)
      • मुखगुहा के पीछले हिस्से को ग्रसनी कहते है । ग्रसनी में दो छिद्र होते है - Gullet तथा Glottis / Gullet आहार नाल के अगले भाग ग्रासनली में खुलता है। भोजन Gullet छिद्र से होकर ग्रासनली में आ जाता है।
      • Glottis छिद्र श्वासनली ( Trachea ) में खुलता है। भोजन तथा पानी Glottis छिद्र में प्रवेश न करे, इस हेतु Glottis के ऊपर एक ढक्कन लगा होता है जिसे Epiglottis कहते है । ग्रसनी में जब भोजन तथा पानी आते है Epiglottis, glottis को बंद कर देता है, पुनः उसे खोल देता है। इस तरह Glottis से होकर कंवल हवा ही प्रवेश कर पाता है।
    3. ग्रासनली (Oesophagus)
      • ग्रसनी के बाद आहार नाल का अगला भाग ग्रासनली है। भोजन ग्रसनी से gullet छिद्र द्वारा ग्रासनली में आ जाता है। भोजन का ग्रसनी से ग्रासनली में आना निगलना कहलाता है।
      • भोजन जैसे ही ग्रासनली में पहुँचता है वैसे ही इसकी भित्ति में एक गति उत्पन्न होती है। इस गति को क्रमानुकुंचन गति (Peristaltic Waves) कहते है। इस गति के कारण भोजन ग्रासनली से अमाशय में आ जाते है।
      • ग्रासनली की लंबाई लगभग 10-12 इंच होता है तथा इसमें भोजन का कोई भी पाचन नहीं होता है।
    4. अमाशय (Stomach)
      • अमाशय एक चौड़ी थैली के समान संरचना है जो उदर गुहा (Abdominal cavity) के बाएँ भाग में मौजूद रहता है। मनुष्य का अमाशय तीन हिस्सों में बँटी रहती है। अमाशय के अग्र भाग कार्डिएक तथा पिछला भाग पाइलोरिक कहलाता है। कार्डिएक तथा पाइलोरिक भाग के बीच वाले भाग को फुण्डिक भाग कहते है।
      • अमाशय के भीतरी दिवारों पर स्तंभाकार एपीथीलिक उत्तक के कोशिकाएँ धँसकर जठर ग्रथि (Gastric gland) का निर्माण करता है।
      • जठर ग्रंथि में तीन प्रकार के कोशिकाएँ मौजूद रहती है। ये कोशिकाएँ है- म्यूकस कोशिकाएँ, अम्लजन कोशिकाएँ (Parital cell) तथा जाइमोजेन कोशिकाएँ। जठर ग्रंथि की तीनों कोशिकाएँ से प्रतिदिन 3 लीटर जठर रस (Gastric Juice) का स्त्रावण होता है।
      • जठर रस में जल 0.4 प्रतिशत हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, पेप्सिनोजन एंजाइम तथा म्यूकस मौजूद रहते है।
      • जठर रस का हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) टायलीन एंजाइम की क्रिया को रोक देता है, भोजन को अम्लीय बनाता है तथा भोजन के साथ प्रवेश करने वाले जीवाणुओं को मार डालता है।
      • हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के प्रभाव से जठर रस में मौजूद पेप्सिनोजेन एंजाइम सक्रिय पेप्सिन में बदलकर प्रोटीन का पाचन करते है। पेप्सिन, प्रोटीन को पेप्टोन, पॉलीपेप्टाइड तथा प्रोटीओजेज में परिवर्तित कर देता है।

      • अमाशय प्रोटीन पांचन का प्रमुख स्थान है। सर्वप्रथम प्रोटीन का पाचन इसी भाग में होता है। परंतु अमाशय में प्रोटीन का पूर्ण पाचन नहा बालक आशक पाचन ही होता है।
      • जठर रस के साथ स्त्रावित होने वाला म्यूकस अमाशय की दिवार तथा जठर ग्रंथियों को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा पेप्सिन एंजाइम के प्रभाव से बचाये रखता है।
      • कभी-कभी जठर ग्रंथि से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्त्राव अधिक हो जाता है जिससे म्यूकस का स्त्राव घट जाता है। ऐसी स्थिति में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल अमाशय के दिवारों को क्षतिग्रस्त कर उसमें घाव उत्पन्न कर देता है। इस घाव को अल्सर कहते है ।
      • ऐसे व्यक्ति को अल्सर ( Peptic Ulcer) होने की संभावना ज्यादा रहता है जो लंबे समय तक भूखे ही रह जाते है।
      • अमाशय के प्रोटीन के अतिरिक्त वसा का भी आंशिक रूप से पाचन शुरू हो जाता है। वसा पचाने हेतु अमाशय से गैस्ट्रिक लाइपेज एंजाइम स्त्रावित होता है जो वसा को वसा अम्ल (Fatty Acid) तथा ग्लिसरॉल (Glycerol) से परिवर्तित कर देता है।

      • शिशु के अमाशय के जठर ग्रंथि से प्रोरेनिन एंजाइम का स्त्राव होता है। प्रोरेनिन, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के प्रभाव से सक्रिय रेनिन में बदल जाता है। रेनिन एंजाइम दूध में उपस्थित कैसिनोजन प्रोटीन को कैसीन में बदल देता है।
      • अमाशय में भोजन चार से पाँच घंटे तक रहता है जिससे भोजन का स्वरूप गाढ़े लेई के समान हो जाता है, भोजन के इस स्वरूप को काइम (Chyme) कहते हैं। काइम आहारनाल के अगले भाग छोटी आँत में प्रवेश कर जाता है।
      • जिस रास्ते से भोजन ग्रासनली से अमाशय में प्रवेश करता है उसे कार्डिएक ऑरिफिश कहते है तथा जिस रास्ते से भोजन अमाशय से छोटी आँत में प्रवेश करता है उसे पायलोरिक ऑरिफिश कहते है।
    5. छोटी आँत ( Small Intestine)
      • छोटी आँत आहार नाल का सबसे बड़ा हिस्सा है। यह 6 मीटर लम्बी तथा 2.5 सेंटीमीटर इसकी चौड़ाई होती है। शाकाहारी जीवों का छोटी आँत मांसाहारी जीवों के तुलना में अपेक्षाकृत बड़ी होती है।
      • मनुष्य का छोटी आँत के तीन भाग होते है। छोटी आँत का अग्रभाग ग्रहणी (Duodenum) कहलाता है। ग्रहणी के बाद छोटी आंत के दो भाग क्रमशः जेजुनम तथा इलियम होता है।
      • छोटी आँत का सबसे बड़ा तथा प्रधान भाग इलियम है। इसी भाग में अधिकतर भोजन का पाचन होता है। ग्रहणी छोटी आँत का सबसे छोटा भाग है।
      • छोटी आँत के ग्रहणी वाले भाग में आहारनाल के प्रमुख पाचक ग्रंथि यकृत तथा अग्न्याशय की नली आकर खुलती है। भोजन जैसे ही ग्रहणी में पहुँचता है, सबसे पहले यकृत का पित्त रस तथा उसके बाद अग्न्याशय के अग्न्याशयी रस भोजन में आकर मिलते है तथा भोजन का पाचन करते हैं।
        1. यकृत (Liver)
          • यकृत मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जिसका द्रव्यमान 1.5 किलोग्राम होता है। यकृत के कोशिकाओं द्वारा पित्त रस (Biole Juice) तैयार होता है जो यकृत के नीचे स्थित पित्ताशय (Gall bladder) में जमा रहते हैं ।
          • पित्त रस गाढा तथा हरे रंग का क्षारीय द्रव है जिसमें 86 प्रतिशत जल शेष पित्त लवण तथा पित्त कणिकाएँ पाये जाते हैं। पित्त रस में भोजन को पचाने वाला कोई एंजाइम नहीं होता है।
          • भोजन जैसे ही छोटी आँत के ग्रहणी में आता है, पित्ताशय से पित्त रस निकलकर नली द्वारा ग्रहणी में आ जाते हैं। पित्त रस के दो प्रमुख कार्य होते हैं-
            1. यह अमाशय से आये अम्लीय भोजन (Chyme) को क्षारीय बनाता है ताकि अग्न्याश्य का अग्न्याशयी रस भोजन को पचा सके।
            2. यह वसा अणुओं को तोड़कर, उसका पायसीकरण (Emulsification) करते हैं ताकि वसा का पाचन हो सके। बिना पायसीकरण का आहारनाल में वसा का पाचन संभव नहीं है।
          • यकृत का प्रमुख कार्य है- पित्त रस का निर्माण करना। इसके अतिरिक्त यकृत अन्य कई महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, जो निम्न है-
            1. यह विटामिन A का संश्लेषण करता है तथा उसे संचित रखता है।
            2. विटामिन A के अतिरिक्त यकृत कई कार्बनिक यौगिकों का संग्रह करता है। यह लाल रक्त कण (RBC) के निर्माण हेतु लोहे (Fe) का भी संचय करता है।
            3. यकृत शरीर में उपस्थित अतिरिक्त ग्लूकोज को ग्लाइकोजेन के रूप में संचित रखता है।
            4. यकृत में बड़ी मात्रा में प्रोटीन का निर्माण होता है। रक्त स्कंदन में काम आने वाला फाइब्रिनोजेन प्रोटीन का निर्माण यकृत में ही होता है।
            5. यकृत में प्रोटीन के अतिरिक्त वसा से कॉलेस्टेरॉल का भी निर्माण होता है।
            6. यकृत शरीर में बनने वाले विषैले अमोनिया को यूरिया में बदलता है।
        2. अग्न्याश्य (Pancreas)
          • अग्न्याशय अमाशय के ठीक नीचे स्थित होता है। अग्न्याशय बाह्य स्त्रावी तथा अत:स्त्रावी दोनों ग्रंथि के समान कार्य करता है, जिस कारण इसे मिश्रीत ग्रंथि भी कहा जाता है।
          • अग्न्याशय मुख्य रूप से एसीनर कोशिकाएँ का बना होता है। इन कोशिकाओं से अग्न्याशयी रस (Pancreatic Juice) स्त्रावित होता है जिसमें कई प्रकार के पाचन एंजाइम होते है। एसीनर कोशिकाओं के बीच-बीच में a, B तथा y नाम की छोटी-छोटी कोशिकाओं के गुच्छे होते हैं, जिसे लैंगरहैंस द्वीपिका (Islet's of Langerhens) कहते है। लैंगर हैंस द्वीपिका से हार्मोन का स्त्राव होता है।
          • अग्न्याशय मानव शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है। इसके द्वारा स्त्रावित अग्न्याशयी रस में भोजन के सभी अवयवों का पाचन करने वाला एंजाइम मौजूद होता है, जिस कारण अग्न्याशयी रस को पूर्ण पाचक एंजाइम (Complete Digestive Enzyme) कहते है ।
          • ग्रहणी में पित्त रस तथा अग्न्याशयी रस की क्रिया होने के बाद भोजन जेजुनम और अंततः इलियम में आ जाता है। इलियम में भोजन के आते ही छोटी आंत की दिवारों पर स्थित ग्रंथि से क्षारीय आंत्र रस या सक्कस एंटेरीकस का स्त्राव होता है।, जो भोजन को पूर्ण रूप से पचा देता है।
          • आंत्र-रस (Succus entericus) में पाये जाने वाले एंजाइम तथा उनके द्वारा होने वाले प्रतिक्रिया निम्न है-
            1. पेप्टाइडेज एंजाइम पेप्टोन को एमीनो अम्ल में बदल देते हैं।
            2. लाइपेस एंजाइम बचा हुआ वसा को वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदल देते है।
            3. माल्टेज एंजाइम माल्टोज को ग्लूकोस में परिवर्तित कर देते है।
            4. लैक्टेज एंजाइम लेक्टोज को ग्लूकोज तथा ग्लैक्टोज में बदल देते है।
            5. इनवर्टेस एंजाइम सुक्रोज को ग्लूकोज तथा प्रक्टोज में परिवर्तित करते है।
            6. इरेप्सिन एंजाइम पेप्टाइड (प्रोटीन के भाग) को एमीनो अम्ल में बदल देता है।
          • मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 2 से 3 लीटर आंत्र रस स्त्रावित होता है। आंत्र रस के प्रतिक्रिया के बाद भोजन का पूर्ण पाचन छोटी आंत में सम्पन्न हो जाता है।
          • भोजन के पूर्ण पाचन होने के बाद प्रोटीन से अमीनो अम्ल, वसा से वसीय अम्ल और ग्लिसरॉल तथा जटिल कार्बोहाइड्रेट (स्टार्च, ग्लाइकोजेन) से सरल कार्बोहाइड्रेट (ग्लूकोज, फ्रक्टोज, गैलेक्टोज) बनते है।
          • छोटी आँत के इलियम वाले भाग में न सिर्फ भोजन का पूर्ण पाचन होता है बल्कि पचे हुए भोजन का अवशोषण भी होता है। अवशोषण एक जटिल प्रक्रिया है जो इलियम के कोशिकाओं में मौजूद रसाकुर ( Villi) द्वारा विसरण विधि से होता है।
          • अवशोषण के उपरांत भोजन इलियम के रसाकुर में स्थित रूधिर वाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं तथा रूधिर - संचार द्वारा शरीर के समस्त अंगों के कोशिकाओं में वितरित हो जाते है।
          • छोटी आंत में पचन के उपरांत भोजन तरल रूप में परिवर्तित हो जाते है। भोजन के इस स्वरूप को चाइल (Chyle) कहते है ।
    6. बड़ी आँत (Large Intestine)
      • छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है। बड़ी आँत आहारनाल का अंतिम भाग है। बड़ी आंत छोटी आँत के तुलना में अधिक चौड़ी, परंतु लंबाई में छोटी होती है।
      • बड़ी आँत के दो भाग होते हैं- कोलन (Colon) तथा मलाशय (Rectum)। छोटी आँत में पाचन तथा अवशोषण के उपरांत बचे अपचा तथा अवशिष्ट भोजन बड़ी आँत के कोलन में आ जाता है। कोलन में अवशिष्ट भोजन का जल अवशोषित हो जाता है। अंत में अपचा भोजन रेक्टम में संचित हो जाता है, जहाँ से यह समय-समय पर मलद्वार (Anus) के रास्ते शरीर से बाहर निकल जाता है।
      • छोटी आँत तथा बड़ी आँत के जोड़ पर एक छोटी नली होती है, जिसे सीकम (Caecum) कहते है। सीकम के शीर्ष पर एक अँगुली जैसी रचना होती है जिसे ऐपेंडिक्स (Appendix ) कहते है। सीकम तथा ऐपेंडिक्स दोनों ही मानव शरीर के अवशेषी अंग है।
      • बड़ी आँत में किसी प्रकार का एंजाइम स्त्राव नहीं होता है। इस भाग में बिना पचे हुए भोजन का कुछ समय के लिए संग्रह होता है।

आहारनाल में स्त्रावित होने वाला हॉर्मोन

  • आहारनाल के विभिन्न भागों में कुछ हॉर्मोन का भी स्त्राव होता है जो भोजन के पाचन पर नियंत्रण रखता हैं आहारनाल में स्त्रावित होने वाला प्रमुख हॉर्मोन निम्न है-
    1. गैस्ट्रीन (Gastrin ) : यह हॉर्मोन अमाशय के दिवार से स्त्रावित होता है। यह हॉर्मोन अमाशय के जठर-ग्रंथि से जठर रस का स्त्राव करवाता है।
    2. कोलीसिस्टोकाइनीन (Cholecystokinin ) : यह हॉर्मोन पित्ताशय को उत्तेजित करता है जिससे पित्ताशय से पित्त रस निकलकर ग्रहणी में प्रवेश करते है ।
    3. सेक्रेटिन (Secretin): यह अग्न्याशय को उत्तेजित करता है, जिसके फलस्वरूप अग्न्याशय से अग्न्याशयी रस निकलकर ग्रहणी में आते है।
    4. इंटेरोगेस्टेरोन (Enterogesterone) : यह हॉर्मोन गैस्ट्रीन हॉर्मोन की सक्रियता को रोकता है ताकि अमाशय के जठर ग्रोथ से ज्यादा जठर रस नहीं स्त्रावित हो ।

अभ्यास प्रश्न

1. स्वपोषी पोषण हेतु आवश्यक है-
(a) क्लोरोफील
(b) H2O तथा CO2
(c) सूर्य का प्रकाश
(d) इनमें से सभी
2. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. स्वपोषण में जीव सरल अकार्बनिक अणुओ से जटिल कार्बनिक अणुओं का निर्माण करते है।
2. परपोषण में जंतु द्वारा ग्रहण किये गये कार्बनिक यौगिक पाचन के दौरान सरल कार्बनिक यौगिको में रूपांतरित हो जाते है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
3. मृतजीवी तथा परजीवी पोषण में जीव किस रूप में भोजन ग्रहण करते है ?
(a) ठोस
(b) तरल
(c) ठोस तथा तरल
(d) इनमें से कोई नहीं
4. निम्नलिखित में किसमें प्राणी समपोषण नहीं होता है ?
(a) कवक
(b) अमीबा
(c) मेढक
(d) मनुष्य
5. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधे प्रकाश संश्लेषण करते है तथा स्वपोषी होते है।
2. कोई भी पौधा परजीवी नहीं होता है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
6. अवशोषक पोषण के अंतर्गत शामिल है-
(a) मृतजीवी पोषण
(b) परजीवी पोषण
(c) A तथा B दोनों
(d) प्राणिसम पोषण
7. निम्नलिखित में कौन परजीवी है ?
(a) मधुमक्खी 
(b) मनुष्य
(c) अमीबा
(d) जोंक
8. प्रकाश ऊर्जा का कितना प्रतिशत उच्चतर पौधो द्वारा प्रकाश संश्लेषण में उपयोग होता है ? 
(a) 1-2% 
(b) 10%
(c) 50%
(d) 100%
9. निम्नलिखित में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ? उत्तर कूट की सहायता से दीजिए ।
1. प्रकाश संश्लेषण हेतु सूर्य का प्रकाश का होना अनिवार्य है।
2. कृत्रिम प्रकाश में प्रकाश संश्लेषण संभव नहीं है। 
कूट:
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
10. निम्नलिखित में कौन सा कथन असत्य है ? 
(a) प्रकाश संश्लेषण में ऑक्सीजन उत्पन्न होता है
(b) प्रकाश संश्लेषण में ATP का निर्माण होता है।
(c) प्रकाश संश्लेषण में उत्पन्न ऑक्सीजन कार्बन डाईऑक्साइड के विघटन से प्राप्त होता हैं।
(d) प्रकाश संश्लेषण का अंतिम उत्पाद ग्लूकोज है।
11. प्रकाश संश्लेषण में ऑक्सीजन कहाँ से मुक्त होती है ? 
(a) CO2 से 
(b) जल से
(c) पर्णहरित से
(d) फॉस्फोग्लीसरिक अम्ल से
12. प्रकाश संश्लेषण का नियंत्रक कारक या सीमांतक कारक है- 
(a) CO
(b) जल
(c) पर्णहरित
(d) सूर्य का प्रकाश 
13. पौधे द्वारा मिट्टी से अवशोषित जल का कितना प्रतिशत भाग प्रकाश संश्लेषण में उपयोग होता है ? 
(a) लगभग 1% 
(b) 10%
(c) 50%
(d) 90%
14. पृथ्वी पर अधिकांश ऑक्सीजन किसके द्वारा उत्पादित किया जाता है ?
(a) शैवालों द्वारा
(b) लाइकेन द्वारा
(c) अनावृतबीजी पौधों द्वारा
(d) आवृतबीजी पौधों द्वारा
15. प्रकाश संश्लेषण की प्रकाशीय प्रतिक्रिया हरित लवक के किस हिस्से में होती है ? 
(a) स्ट्रोमा  
(b) ग्राना
(c) आंतरिक झिल्ली
(d) बाह्य झिल्ली
16. प्रकाश संश्लेषण की अप्रकाशीय प्रतिक्रिया हरित लवक के किस हिस्से में होती है ? 
(a) ग्राना
(b) स्ट्रोमा
(c) बाह्य झिल्ली
(d) आंतरिक झिल्ली
17. प्रकृति में ऑक्सीजन का संतुलन कैसे बना रहता है ? 
(a) संयोजन क्रिया द्वारा
(b) अपघटन द्वारा
(c) प्रकाश संश्लेषण द्वारा
(d) इनमें से सभी
18. प्रकाश संश्लेषण की अंध प्रतिक्रिया कब होती है ?
(a) सिर्फ दिन में 
(b) सिर्फ रात में
(c) सिर्फ अंधेरे में
(d) रात और दिन दोनों में जब तक NADPH2+ उपलब्ध रहे
19. प्रकाश संश्लेषण में O2 की उत्पत्ति किससे होती है ?
(a) CO2 से
(b) जल से
(c) CO2 तथा जल दोनों से
(d) उपरोक्त में कोई नहीं
20. कवको में किस प्रकार का पोषण पाया जाता है ? 
(a) स्वपोषण
(b) प्रकाश संश्लेषण
(c) अवशोषक पोषण
(d) इनमें से कोई नहीं
21. प्रकाश संश्लेषण के दौरान ग्लूकोज का निर्माण हरित लवक के किस भाग में होते हैं ? 
(a) ग्राना
(b) स्ट्रामा
(c) A तथा B दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
22. प्रकाश संश्लेषण द्वारा हरे पौधा पैदा करते हैं ?
(a) कार्बनिक द्रव्य 
(b) अकार्बनिक द्रव्य
(c) खनिज
(d) पोषक तत्व
23. प्रकाश संश्लेषण में निम्नांकित में क्या नहीं होता है ? 
(a) पानी का टूटना
(b) CO2 का मुक्त होना
(c) O2 का मुक्त होना
(d) CO2 का उपयोग होना
24. प्रकाश संश्लेषण विधि में गैसों (CO2 तथा O2) का आदान-प्रदान किन अंगो द्वारा होता है ?
(a) जड़ द्वारा
(b) तना द्वारा
(c) पत्तियों में स्थित रंध्र द्वारा
(d) फूलों द्वारा
25. हरे पादपो में क्लोरोफिल के बनने के लिये निम्नलिखित में कौन सा तत्व अनिवार्य है ? 
(a) कैल्शियम 
(b) मैग्नीशियम
(c) लौट
(d) पोटेशियम
26. निम्नलिखित में कौन सा एक प्रक्रम प्रकाश-संश्लेषण में सम्मिलित है ?
(a) स्थितिज ऊर्जा मुक्त होकर प्राप्यतम (free) ऊर्जा बनती है।
(b) प्राप्यतम ऊर्जा, स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती हैं और संचित हो जाती है।
(c) भोजन ऑक्सीकृत होकर कार्बन डाइऑक्साइड और जल मुक्त करता है।
(d) ऑक्सीजन ली जाती है तथा कार्बन डाइऑक्साइड और जलवाष्प बाहर निकलते है।
27. निम्नलिखित में किसे 'पादप की खाद्य फैक्ट्रियाँ' कहा जाता है ?
(a) पत्ता
(b) तना
(c) जड़
(d) शाखा
28. प्रकाश संश्लेषण प्रक्रम द्वारा पौधे कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण करते है। यह कार्बोहाइड्रेट किससे मिलकर बना होता है ? 
(a) कार्बन 
(b) हाइड्रोजन
(c) ऑक्सीजन
(d) इनमें से सभी
29. प्रकाश संश्लेषण के अप्रकाशिक अभिक्रिया का पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन सर्वप्रथम किस जीव वैज्ञानिक के द्वारा किया गया ?
(a) मेल्विन कालवीन
(b) ब्लैक मैन
(c) जोसेफ प्रीस्टले
(d) रॉबर्ट मेयर
30. प्रकाश संश्लेषण प्रक्रम के दौरान सर्वप्रथम होता है- 
(a) क्लोरोफिल के इलेक्ट्रॉन का प्रकाश के फोटॉन द्वारा उत्तेजन
(b) जल का प्रकाशिक अपघटन
(c) ऑक्सीजन का उपोत्पाद के रूप में बाहर निकलना
(d) NADPH2 का बनना
31. प्रकाश संश्लेषण के दौरान किसका ऑक्सीकरण होता है? 
(a) जल 
(b) क्लोरोफिल
(c) सूर्य - प्रकाश
(d) CO2
32. निम्न में किस वैज्ञानिक ने प्रकाश संश्लेषण में अपने योगदान हेतु नोबेल पुरस्कार जीता ? 
(a) हेन्स ए क्रेस 
(b) पीटर मिशेल
(c) साइनस पॉलिन
(d) मेल्विन कैल्वीन
33. निम्नलिखित में कौन सा एक कारक प्रकाश संश्लेषण में सीमाकारी नहीं होगा ?
(a) प्रकाश
(b) ऑक्सीजन
(c) कार्बन डाइऑक्साइड
(d) क्लोरोफिल
34. प्रकाश संश्लेषण का प्रथम स्थिर यौगिक है-
(a) स्टार्च
(b) ग्लूकोज
(c) फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल
(d) डाइफॉस्फो ग्लिसरिक अम्ल
35. प्रकाश संश्लेषण क्रिया में बाहर निकलता है ?
(a) हाइड्रोजन
(b) कार्बन डाइऑक्साइड
(c) क्लोरीन
(d) ऑक्सीजन
36. किस क्रिया के फल-स्वरूप पौधों में ऑक्सीजन का निकास एवं कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण होता है?
(a) परासरण
(b) विसरण
(c) वाष्पोत्सर्जन
(d) प्रकाश संश्लेषण
37. प्रकाश संश्लेषण में पौधा किस गैस का अवचूषण करते हैं? 
(a) डाइऑक्साइड
(b) ऑक्सीजन
(c) नाइट्रोजन 
(d) हाइड्रोजन
38. प्रकाश संश्लेषण में पर्णहरित की क्या भूमिका है ?
(a) जल का अवशोषण
(b) प्रकाश का अवशोषण
(c) CO2 का अवशोषण
(d) इनमें से कोई नहीं
39. प्रकाश संश्लेषण का अन्तिम उत्पाद क्या है ?
(a) कार्बनडाइऑक्साइड
(b) जल
(c) कार्बोहाइड्रेट
(d) ऑक्सीजन
40. सर्वाधिक प्रकाश संश्लेषी क्रियाकलाप कहाँ चलता है ?
(a) प्रकाश के नीले व लाल क्षेत्र में
(b) प्रकाश के बैंगनी व नारंगी क्षेत्र में
(c) प्रकाश के हरे व पीले क्षेत्र में
(d) प्रकाश के नीले व नारंगी क्षेत्र में
41. क्लोरोफिल में कौन सा तत्व उपस्थित रहता है ? 
(a) मैग्नीशियम 
(b) कैल्सियम
(c) लौह
(d) टिन
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Sat, 20 Apr 2024 09:36:13 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जन्तु जगत https://m.jaankarirakho.com/999 https://m.jaankarirakho.com/999 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | जन्तु जगत
  • जंतु जगत (animal kingdom) के जीवों की प्रमुख विशेषताएँ-
    1. सभी जीव बहुकोशिकीय होते हैं तथा यूकैरोयोटीक कोशिका के बने होते हैं।
    2. सभी जीव परपोषी या विषमपोषी (hetrotrophic) होते हैं ।
    3. इन जीवों का शरीर द्विस्तरीय (Diploblastic) अथवा त्रिस्तरीय (Triploblastic ) हो सकता है।
      • द्विस्तरीय जीवों का शरीर दो स्तर (germinal layer) का बना होता है। बाहरी स्तर Ectoderm तथा भीतरी स्तर Endoderm कहलाता है।
      • त्रिस्तरीय जीवों का शरीर तीन स्तर का बना होता है। बाहरी स्तर Ectoderm, मध्यस्तर Mesoderm तथा भीतरी स्तर Endoderm कहलाता है।
    4. जीवों का शरीर का आकार तीन तरह के हो सकते हैं-
      • द्विपार्श्व सममित (Bilateral Symmetry)- ऐसा शरीर जिनके बॉये तथा दॉये भाग में समान संरचना रहती है द्विपार्श्व सममित कहलाते हैं। उदा० - मेढ़क
      • अरीय सममित (Radial Symmetry)- जब जंतु का शरीर को केंद्र स्थान से काट लगाने पर एक से अधिक समान भाग में बाँटा जा सके तो वह अरीय सममित कहलाता है । उदा०-- हाइड्रा ।
      • असममित (Asymmetrical)- जब जीवों का शरीर किसी भी तरह से दो समान भाग में नहीं बॉटा जा सके तो वह शरीर असममित कहलाता है । उदा०-- घोंघा ।
    5. जीवों के शरीर में वास्तविक देहगुहा (Coelom) हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है।
      • शरीर के दीवार और आहारनाल के बीच खाली जगह को देहगुहा (Coleom) कहते हैं ।
    6. जीवों में खुला रूधिर परिवहन तंत्र या बंद रूधिर परिवहन तंत्र होते हैं।
      • जब रूधिर का प्रवाह शरीर में बंद नली (जैसे- धमनी, शिरा) द्वारा होता है तब इसे बंद रूधिर परिवहन तंत्र कहते हैं। उदा० मानव ।
      • जब रूधिर का प्रवाह शरीर में बंद नली के माध्यम से न होकर देहगुहा (haemocoel) द्वारा हो, तब इसे खुला परिवहन तंत्र कहते हैं। उदा० - तिलचट्टा ।
जंतु जगत में आने वाले प्रमुख संघ

1. Porifera ( पोस्फेिरा)

  • पोरिफेरा जीव जलीय है। अधिकांश समुद्र में रहते हैं तथा कुछ मीठे जल में । यह जल में स्थित किसी ठोस अथवा चट्टानों से चिपके रहते हैं।
  • इनका शरीर बहुकोशिकीय होते हैं परन्तु उत्तक नहीं बनते हैं। शरीर द्विस्तरीय (Diploblastic) होते हैं तथा शरीर की आकृति अंडाकार, बेलनाकार या अनियमित तरह के होते हैं ।
  • इनका पूरा शरीर छिद्रयुक्त (holes ) रहता है । इस छिद्र को Ostia (ऑस्टीया ) कहते हैं। शरीर में एक बड़ा छिद्र होते हैं। जिसे Osculum (अपवाही रंध्र) कहते हैं ।
  • पोरीफेरा जीव का शरीर कठोर बाह्य कंकाल (Exoskelton) से ढँका रहता है जिसपर काँटे के समान रचना होती है। इन काँटों को Spicules (स्पिकूल्सा) कहते हैं। बाह्य कंकाल कैल्शियम कार्बोनेट के बने होते हैं।
  • इन जीवों में प्रजनन लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों विधि से होता है। अलैंगिक जनन मुकुलन ( Budding) द्वारा या Regeneration (पुनरूद्भवन) द्वारा होता है ।
  • फोरीफेरा उभयलिंगी (hermaphrodite) होते हैं तथा इनमें निषेचन आंतरिक होते हैं।
  • प्रमुख जीव- साइकन, स्पंज, स्पंजिला युस्पांजिया, यूप्लेक्टेला, हायलोनेमा
2. Coelenterata or Nideria (सीलेंटरेटा या नाइडेरिया)
  • इस संघ के अधिकांश जीव समुद्र में रहते हैं। कुछ मीठे जल में भी पाये जाते हैं। इनका शरीर उत्तक तक विकसित रहता है। इसमें कोई अंग या अंग-तंत्र नहीं पाये जाते हैं।
  • जीव के शरीर दो स्तर का बना होता है।
  • जीव के मुख के चारों ओर लंबे-लंबे संस्पर्शक (tentacels) रहते हैं। जीव के शरीर में सुरक्षा हेतु शिकार पकड़ने हेतु दंश कोशिकाएँ (nematocysts) पाये जाते हैं।
  • इनमें लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों प्रकार से प्रजनन होता है। अलैंगिक प्रजनन मुकुलन द्वारा होता है।
  • प्रमुख जीव- फाइसेलिया (पुर्तगाली युद्धपोत), ऑरिलिया (जेलीफीश) हाइड्रा, सीएनीमोन, फँजिया (कोरल बनाता है ।)
3. Platyhelminthes (प्लेटीहेल्मिन्थीज)
  • इस संघ के जीवन को चपटा कृमि और फीता कृमि कहते हैं क्योंकि जीव का शरीर चपटा या फीते के समान होता है। शरीर तीन स्तर का बना होता तथा इनमें अंग का विकास होना शुरू हो जाता है।
  • इस संघ के अधिकांश जीव परजीवी हैं जिनके कारण यह मनुष्य, पालतू तथा जंगली जानवर में विभिन्न प्रकार के रोग फैलाते हैं। परजीवी शरीर से जुड़ने एवं भोजन ग्रहण करने हेतु इन जीवों के शरीर में काँटे ( Suckers) पाये जाते हैं।
  • इस जीव में पाचन तंत्र पाये जाते हैं। पाचन तंत्र में मुँह पाया जाता है परंतु मलद्वार (Anus) नहीं पाया जाता है। अन्य तंत्र (श्वसन - तंत्र, परिवहन तंत्र कंकाल तंत्र आदि) का इस जीवों में अभाव रहता है ।
  • इस संघ के शरीर में विशेष प्रकार की कोशिका पाये जाते हैं जिसे फ्लेम कोशिका (Flame cells) कहते हैं । फ्लेम कोशिका द्वारा इन जीवों में जल संतुलन तथा उत्सर्जन का कार्य होता है।
  • ये जीव उभयलिंगी होते हैं तथा इसमें निषेचन आंतरिक होता है।
  • प्रमुख जीव- फैसिओला हेपेटीका, टीनियासोलियम, प्लैनेरिया ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. फैसिओला हैपेटीका को Liver Fluke कहा जाता है। यह लीवर में रोग फैलाता है ।
    2. टीनिया सोलियम को फीता कृमि कहते हैं। फीता कृमि का पोषक सुअर होता है। सुअर का अधपका मांस खाने से यह मनुष्य के आंत में पहुँचकर घाव उत्पन्न करता है।
    3. प्लैनेरिया परजीवी न होकर स्वतंत्र रूप से रहते हैं ।
4. Aschelminthes (ऐस्केल्मिन्थीज)
  • एस्केल्मिन्थीज जीव को निमेटोडा तथा गोलकृमि कहते हैं। इसका शरीर पतले धागे की तरह होते है तथा दोनों सिरा नुकीला होता है।
  • ये जीव जलीय, स्थलीय या परजीवी होते हैं।
  • इस जीव का आहारनाल (पाचनतंत्र) पूर्ण विकसित होता है परंतु अन्य अंग - तंत्र का अभाव होता है।
  • नर तथा मादा जीव अलग-अलग होते हैं तथा निषेचन इसमें आंतरिक होता है।
  • प्रमुख जीव- एस्केरिस, एंकाइलोस्टोमा, वुचेरेरिया, हुकवर्म, पीनवर्म आदि ।
  • प्रमुख तथ्य- 
    1. एस्केरिस मनुष्य के आंत में पाया जाता है तथा स्केरिएसिस रोग को फैलाता है।
    2. वुचेरिया कृमि द्वारा मनुष्य में फाइलेरिया (हाथी पॉव) रोग होता है।
5. Annelida (ऐनेलिडा)
  • जंतु जगत में वास्तविक देह गुहा की उपस्थिति ऐनेलिडा संघ से ही शुरू हुआ है। इस जीव का शरीर खंडित (Segments), द्विपार्श्व सममित तथा त्रिस्तरीय होते है ।
  • ऐनेलिडा जीव प्रायः स्वतंत्र जीवी जीवन व्यतीत करते हैं ।
  • इस जीव में बंद रक्त परिवहन तंत्र पाया जाता है, उत्सर्जन वृक्कक (Nephridia) द्वारा होता है, श्वसन त्वचा या क्लोम (gills) द्वारा होता है ।
  • इस जीवों में तंत्रिका तंत्र का भी विकास हुआ है।
  • इस संघ के कुछ जीव एकलिंगी तथा कुल उभयलिंगी होता है।
  • प्रमुख जीव- नेरीस, हिरुडिनेरिया, केंचुआ, समुद्री चूहा, जोंक आदि ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. नेरीस को सीपी कृमि के नाम से भी जाना जाता है ।
    2. समुद्री चूहा का वास्तविक नाम एप्रोडाइट है।
    3. केंचुआ का वैज्ञानिक नामक फेरीटिमा पोस्थमा है यह मिट्टी को भुराभुरा कर उसकी उर्वराशक्ति को बढ़ाते हैं। केंचुआ को किसान का मित्र कहा जाता है ।
6. Arthropoda ( आथ्रोपोडा )
  • यह संघ एनीमल किंगडम का सबसे बड़ा संघ जिनमें कीट, मकड़ी अन्य जीव आते हैं। ये जीव परजीवी एवं स्वतंत्र जीवी दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
  • आथ्रोपोडा सभी प्रकार के वासस्थान (जल, स्थल, वायु) में पाये जाते हैं। कई आथ्रोपोडा जीव मनुष्य द्वारा खाये जाते हैं।
  • आथ्रोपोडा का शरीर द्विपार्श्व सममित त्रिस्तरीय तथा खंडित रहता है। शरीर के ऊपर बाह्य कंकाल रहता है जिसे क्यूटिकल कहते हैं।
  • इन जीवों में श्वसन गिल्स, ट्रैकिया या बुक लंग (Book lungs) द्वारा होता है। उत्सर्जन हेतु इसमें विशेष अंग होते हैं जिसे- मैलपीगियन नालिकाएँ कहते हैं।
  • इस जीव में खुला रक्त परिवहन तंत्र पाये जाते हैं।
  • आथ्रोपोडा एकलिंगी होते हैं।
  • प्रमुख जीव - झींगा, केकड़ा, तिलचट्टा, बिच्छू, मकड़ी आदि ।
  • कीट वर्ग तथा मकड़ी में प्रमुख अंतर-
    1. कीट में 3 जोड़े टांग होते हैं और मकड़ी में चार जोड़े टांग होते हैं।
    2. मकड़ी स्थलीय होते हैं और कीट स्थलीय और जलीय दोनों होते हैं।
    3. मकड़ी में उड़ने हेतु प्रायः पंख नहीं होते हैं जबकि कीट में पंख होते हैं ।
    4. कीट में ट्रैकिया द्वारा श्वसन होता है और मकड़ी में ट्रैकिया एवं बुकलंग दोनों के द्वारा श्वसन होता है ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. सिल्वर फीश एक कीट है इसमें पंख नहीं पाये जाते हैं।
    2. तिलचट्टा के हृदय में 13 कक्ष होते हैं।
    3. मकड़ी में विशेष अंग पाये जाते हैं। जिसे स्पिनटेट्स कहते हैं। स्पिनटेट्स के मदद से मकड़ी जाला बुनती है।
    4. कीट का जीवन चक्र में चार अवस्था होती है।
      अंडा → लार्वा → प्यूपा → कीट
  • मनुष्य के लिये उपयोगी प्रमुख कीट- एपीस इंडिका ( मधुमक्खी), बांबिक्स (रेशम कीट), लैसीफर ( लाख कीट) ।
  • प्रमुख हानिकारक कीट जो रोग फैलाते हैं-
    1. घरेलू मक्खी - यह टायफाइड, हैजा तथा डायरिया जैसे रोग फैलाते हैं।
    2. सैण्ड फ्लाई- यह कालाजार रोग का वाहक है ।
    3. एडीज मच्छड़- यह डेंगु, चिकुनगुनिया तथा जापानी इंसैफैलाइटिस रोग का वाहक है ।
    4. सी-सी मक्खी यह स्पिलिंग सिनकेस रोग का वाहक है ।
7. Mollusca ( मोलस्का)
  • मोलस्क जीव स्थल पर मीठे पानी या समुद्र में पाये जाते हैं। इस जीव का शरीर कोमल होता है जिनमें अधिकांश मंद गति से चलनेवाले जीव हैं।
  • जीव के शरीर पर पाये जाने वाले कोमल झिल्ली को प्रचार (Mantle) कहते हैं। कोमल झिल्ली को सुरक्षा देने हेतु शरीर पर कैल्शियम कार्बोनेट का बना एक कवच रहता है।
  • आहारनाल इस जीव का पूर्ण विकसित होता है। श्वसन क्लोम (gills) या फुफ्फुस ( Pulmonarysac) द्वारा होता है।
  • इनका हृदय, हृदयावरण (Pericardium) में बंद रहता है तथा रक्त परिसंचरण तंत्र खुला होता है।
  • यह एकलिंगी होते हैं तथा इसमें आंतरिक निषेचन होता है।
  • प्रमुख जीव- काइटन घोंघा (Pila), सीप, सिपिया, ऑक्टोपस
  • प्रमुख तथ्य-
    1. सीपिया समुद्री जीव है जिसे कटलफीश भी कहते हैं।
    2. ऑक्टोपस समुद्री जीव है इससे आठ लम्बी-लम्बी भुजाये होते हैं। इसे डेविलफीश, श्रृंगमीन भी कहते हैं ।
    3. पाइला (Pila) को घोघा भी कहा जाता है। 
8. Echinodermata ( इकाइनोडमेटा)
  • इस संघ के जीव में समुद्र में रहते हैं तथा इनके त्वचा पर कोटे (Spires) पाये जाते हैं।
  • इस जीव में जल परिवहन तंत्र (water Vascular System) पाया जाता है जो प्रचलन, भोजन ग्रहण तथा श्वसन में जीवों के सहायक होते हैं।
  • इस जीव में उत्सर्जन अंग नहीं पाये जाते हैं।
  • नर और मदा- अलग होते हैं तथा निषेचन आंतरिक होता है।
  • प्रमुख जीव- तारा मछली ( Star Fish), समुद्री खीरा, सी अर्चिन, ब्रिटल स्टार एंटीडॉन आदि ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. स्टारफीश का वैज्ञानिक नाम एस्टेरियस है। इसकी आकृति तारों के समान होता है।
    2. एण्टीडॉन को Father Fish कहा जाता है।
9. Hemichordata ( हेमीकॉर्डेटा)
  • इस संघ के जीव छोटा तथा कृमि (Worm) की तरह होता है। यह जीव समुद्र के किनारे सुरंग बनाकर रहता है।
  • इसमें नोटोकॉर्ड पाये जाते हैं, जो शरीर के केवल अगले भाग में ही रहते हैं।
  • नर तथा मादा अलग-अलग होते हैं तथा निषेचन बाह्य (External) होता है।
  • प्रमुख जीव- बैलैनोग्लोसस, हार्डमैनिया, एम्फीऑक्सस, बैंकिओस्टोमा
10. Chordata (कॉर्डेटा)
  • यह जल तथा स्थल पर पाये जाने वाले जीव है। इसमें नोटोकॉर्ड पाये जाते हैं। 
  • इसमें बंद रक्त परिवहन तंत्र पाये जाते हैं।
  • संघ कॉर्डेटा को तीन उपसंघ ( Sub - Phylum) में बाँटा गया है- 1. यूरोकॉर्डेटा, 2. सिफैलोकॉर्डेटा, 3. वर्टिब्रेटा ।
  • सब फाइलम बर्टिब्रेटा का प्रमुख विशेषताएँ-
    1. इस जीव के नोटोकॉर्ड मेरूदंड रज्जु (Vetebral Column) में परिवर्तित हो जाता है।
    2. इन जीवों के मस्तिष्क क्रेनियल नामक खोल में बंद रहता है।
    3. इन जीवों में विकसित संवेदी अंग पाये जाते हैं।
    4. कॉर्डेटा सब फाइलम को पांच प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है, ये है- मत्स्य (Pisces), एम्फीबिया ( Amphibia), रेप्टीलिया ( Reptilia ), एवीज (Aves), स्तनी (Mammalia)
11. मत्स्य (Class-Pisces)
  • इस वर्ग के अंतर्गत सभी समुद्री एवं भीठे जल में रहने वाले मछली आते हैं।
  • मछलियों का शरीर धारा रेखीय होता है, त्वचा शल्कों (Scales ) से टॅकी होती है तथा तैरने हेतु पंख (Fins) तथा मांसल पूँछ पाये जाते हैं।
  • मछली में श्वरान क्लोम (Gills) द्वारा होता है। क्लोम के मदद से मछली जल में घुली ऑक्सीजन का प्रयोग श्वसन हेतु करता है।
  • मछली अनियततापी (Cold blooded) होते हैं तथा ये जल में अंडे देते हैं।
  • कुछ मछलियों का अंतः कंकाल केवल उपास्थि का बना होता है (जैसे- शार्क) तथा कई मछलियाँ का कंकाल अस्थि का बना होता है (जैसे- रेहु)
  • प्रमुख जीव- सिनकिरोपस स्पलेंड्डिस (मँडारिनफिश), टेरोइस वोलिटंस (लॉयनफीश), स्टिंगरे (दशरे), स्कॉलियोडॉन (डॉगफिश), एक्सोसीटस ( उड़न मछली), एनाबास (क्लाईविंग पर्च), हिप्पोकैम्पस (समुद्री घोड़ा) ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. डारिन फिश, लॉयन फिश, ऐंग्लर फिश, डॉग फिश, फ्लाइंग फिश, समुद्री घोड़ा वास्तविक मछली है जबकि हेल फिश, क्रेफिश, सिल्वर फिश, कटल फिश, स्टारफिश, जेलीफिश मछली वर्ग के जीव नहीं है।
    2. गेम्बूसिया मछली मच्छड़ों के नियंत्रण में सहायक होते हैं क्योंकि यह मच्छड़ के लार्वा को खा जाते हैं ।
    3. मछली के हृदय में केवल अशुद्ध रक्त रहता है।
    4. पाषाण मछली (Stone Fish) सर्वाधिक विषैली मछली है। 
12. एम्फिबिया (Class- Amphibia)
  • ये जल तथा स्थल दोनों जगह रहने हेतु अनुकूलित होता है। इनके त्वचा ग्रंथिमय होता है।
  • ये जीव श्वसन - त्वचा, गिल्स, फेफड़ा तीनों माध्यम से कर सकते हैं।
  • एम्फीबिया अनियततापी (Cold blooded) जंतु है इनका हृदय में तीन कक्ष होते हैं I
  • इसका अंतः कंकाल अस्थित का बना होता है । 
  • इसमें बाह्य निषेचन होता है। एम्फिबिया के लार्वा को टैडपोल कहते हैं।
  • प्रमुख जीव- मेढ़क, टोड, दादुर, हायला सैलामेंडर आदि ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. इन जीवों में शीत एवं ग्रीष्म निष्क्रियता पायी जाती है।
    2. मेढ़क की टर्रटाराहट वास्तव में मैथुन की पुकार है जो केवल नर मेढ़क उत्पन्न करते हैं । मादा मेढ़क में वाककोश (Vocal cord) नहीं होते हैं जिसके कारण मादा मेढ़क टर्रटराहत उत्पन्न नहीं करते हैं।
    3. हायला वृक्ष पर रहता है इसे वृक्ष मेढ़क कहते हैं।
13. सरीसृप (Class - Reptilia )
  • सरीसृप जीव अधिकांश स्थल पर रहते हैं तथा जल में रहते हैं। ये जीव रैंगकर चलते हैं।
  • सरीसृप अनियततापी (Cold blooded) जीव है, इन जीवों का त्वचा शल्कों से ढँका रहता है। त्वचा में कोई ग्रंथि नहीं पायी जाती है।
  • सरीसृप का हृदय तीन कक्षीय है परंतु मगरमच्छ का हृदय चार कक्षों में बँटा होता हैं। इनमें श्वसन फेफड़ा के द्वारा होता है।
  • इन जीवों में निषेचन आंतरिक होते हैं तथा ये जीव जल में अंडे न देकर स्थल पर अंडे देते हैं।
  • प्रमुख जीव- कछुआ, सभी प्रकार के सॉप, छिपकली, आदि ।
  • प्रमुख तथ्य-
    1. डायनासोर करोड़ों वर्ष तक पृथ्वी के सबसे प्रमुख जीव था । यह सरीसृप वर्ग के जीव था, जो ट्राइएसिक काल में पैदा हुए तथा क्रिटेशियस युग में विलुप्त हो गये ।
    2. बोआ, पायथन (अजगर), बुलस्नेक, किंगस्नेक, हाइड्रोफिश (जलीय सॉप) जहरीले नहीं होते हैं। बंगेरस (करैत) सबसे विषैला सॉप है।
    3. जहरीले साप की विष ग्रंथियाँ मानव के लारग्रंथि के समांग है। इनके जहरीले दांत मैक्सिलरी दंत के रूपांतरित रूप है।
    4. हैमीडेक्टीलस घरेलू छिपकली है, हिलोडर्मा विषैली छिपकली है तथा ड्रेको उड़ने वाला छिपकली है ।
    5. गिरगिट के त्वचा में एक विशेष प्रकार Colour Pigment पाये जाते है जिसके कारण इसके त्वचा का रंग बदल जाता है।
    6. किंग कोबरा एक मात्र साँप है जो घोंसला बना कर रहता है। कोबरा भोजन हेतु दूसरे सॉप को भी आहार बना लेता है।
14. पक्षी (Class - Aves) 
  • पक्षी नियततापी (Warm blooded) तथा उड़ने वाले जीव हैं। इनका शरीर परो (Feathers) से ढँके होते हैं तथा अग्रपाद पंखों में रूपांतरित हो जाते हैं।
  • पक्षी के जबड़ों में दांत नहीं होते हैं। इनमें श्वसन फेफड़ा के माध्यम से होता है तथा हृदय चार कक्षों में बंटा होता है।
  • पक्षी के अस्थि खोखली होती है तथा इनमें वायुकोष (Air Cavity) भरे होते हैं ।
  • पक्षियों में शब्दिनी (Syrynx) नामक बाद्य अंग होते हैं । पक्षियों की चहचहाहट यही से उत्पन्न होता है।
  • पक्षियों में एक अंडाशय होता है । मलाशय तथा मूत्राशय के जगह एक ही अंग पाये जाते हैं ।
  • प्रमुख जीव- समस्त पक्षी
  • पक्षियों के संबंध में प्रमुख तथ्य-
    1. शुतुरमुर्ग पृथ्वी का सबसे ऊँचा एवं विशालतम पक्षी है। यह अफ्रीका में पाया जाता है। ऐमु दूसरा विशालतम पक्षी है यह आस्ट्रेलिया में पाया जाता है। शुतुरमुर्ग तथा एम दोनों उड़ने में असमर्थ है।
    2. पेंग्विन जलीय पक्षी है जो उड़ने में असमर्थ है। यह पक्षी दक्षिणी गोलार्द्ध में पाया जाता है।
    3. सबसे छोटा पक्षी गुंजन पक्षी (हर्मिंग बर्ड) है। यह पक्षी आगे-पीछे दोनों तरफ उड़ान भर सकता है।
    4. कबूतर में विशेष प्रकार के श्वेत पोषक द्रव बनता है जिसे कपोत दूध ( Pigeon's milk) कहते हैं ।
    5. उड्नहीन पक्षी किवी न्यूजीलैंड में पाया जाता है।
    6. उड्नहीन पक्षी जैसे शुतुरमुर्ग, किवी, ऐमु मे कूटक (Kell) नहीं पाये जाते हैं। कूटक एक प्रकार की हड्डी है जो पक्षियों को उड़ने में मदद करता है।
15. स्तनधानी (Class - Mammalia)
  • स्तनधारी वर्ग के जीवों का प्रमुख लक्षण है- डायफ्रॉम की उपस्थिति, मादा में दुग्ध ग्रंथि (स्तन ग्रंथि) का पाया जाना, त्वचा पर रोम का पाया जाना तथा बाह्य कर्णपल्लव की उपस्थिति।
  • स्तनधारी नियततापी (Warm Blooded) होते हैं इनका हृदय चार कक्षों में बँटा होता है । श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है I
  • इन जीवों में अंतः निषेचन पाया जाता को भी है तथा मादा शिशुओं को जन्म देती है। कुछ स्तनधारी अंडा तथा अपरिपक्व बच्चे जन्म देते हैं ।
  • स्तनधारी के तीन उपवर्ग है-
    1. (i) प्रोटोथेरिया- ये अंडे देने वाले स्तनधारी है। प्रोटोथेरिया के लक्षण सरीसृप से मिलते-जुलते हैं । उदा०- एकिडना (मोनोट्रिम), प्लैटीपस (बत्तख चोंचा) आदि ।
      • एकिडना को कँटिला चींटीखोर भी कहते हैं ।
    2. मेटाथिरिया - ये अपरिपक्व बच्चे को जन्म देने वाला स्तनधारी है। अपरिपक्व बच्चे विकसित होने तक मादाजीव में उपस्थित मार्सुपियन थैली में होता है । उदा० - कंगारू, कोएला
    3. यूथेरिया - ये पूर्ण परिपक्व बच्चे को जन्म देने वाला स्तनधारी है। उदा०- मानव, बंदर, हाथी, कुत्ता आदि ।

अभ्यास प्रश्न

1. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. ये जीव बहुकोशिकीय तो है परंतु इनकी कोशिका उत्तक नहीं बना पाते हैं ।
2. ये जीवों का पूरा शरीर छिद्रित रहता है । शरीर पर स्थित छिद्र को ऑस्टिया कहते हैं । 
3. ये जीव प्रायः समुद्र में रहते हैं और उन्हें स्पंज (Sponge ) कहते हैं ।
उपर्युक्त विशेषताएँ किस संघ के जीव के बारे में है- 
(a) एस्केल्मिन्थीज 
(b) प्लेटल्मिन्थीज 
(c) नाइडेरिया
(d) पॉरिफेरा
2. निम्नलिखित में कौन-सा जीव पॉरिफेरा समूह का नहीं है ?
(a) हाइड्रा
(b) साइकन
(c) यूप्लेकटेला
(d) स्पंजिला
3. किस पॉरिफेरा जीव को वीनस की पुष्प मंजूषा कहते हैं तथा इसे जापान देश में लोगों को उपहार के रूप में दिये जाते हैं ?
(a) यूप्लेक्टेला
(b) हायलोमा
(c) यूस्पोंजिया
(d) स्पंजिला
4. किस जीव को बाथस्पंज (Bath Sponge) कहते हैं क्योंकि इसका इस्तेमाल स्नान के समय गंदगी साफ करने में किया जाता है ?
(a) स्पंजिला 
(b) यूस्पंजिया
(c) हायलोनेमा
(d) साइकन
5. निम्न में कौन सा पॉरिफेरा संघ के जीव मीठे जल (Fresh water) में पाये जाते हैं ?
(a) साइकन
(b) हायलोनेमा
(c) यूप्लेकटेला
(d) स्पंजिला
6. निम्न में कौन सा कथन पॉरिफेरा संघ के जीवों के संबंध में असत्य है ?
(a) इस जीवों में अलैंगिक तथा लैंगिक दोनों प्रजनन होते हैं ।
(b) ये जीव द्विलिंगी (hermaphrodite) होते हैं ।
(c) इन जीवों में पुनरूद्भवन (Regeneration) की क्षमता नहीं होती है।
(d) जीव के शरीर बने काँटे के समान संरचना को स्पिकूल्स कहते हैं।
7. ऑस्टिया (Ostia) तथा ऑसकुलम (Osculum) की उपस्थिति किस संघ के जीवी का विशेष लक्षण है ? 
(a) पॉरिफेर
(b) कॉर्डेटा
(c) आथ्रोपोडा
(d) मोलस्का
8. हाइड्रा किस संघ के जीव हैं ?
(a) सीलेंटरेटा
(b) नाइडेरिया
(c) प्लेटीहेल्मिन्थीज
(d) मोलस्क
9. निम्न में कौन से जीव नाइडेरिया संघ के नहीं हैं ?
(a) हाइड्रा
(b) फायसेलिया
(c) सिस्टोसोमा
(d) कोरल
10. निम्न कथनों पर विचार कीजिए -
1. हाइड्रा का प्रचलन अंग कूटपाद है।
2. हाइड्रा में अमरत्व का गुण पाया जाता है।
3. हाइड्रा में श्वसन अंग तथा रक्त अनुपस्थित होते हैं तथा श्वसन विसरण के माध्यम से होता है।
4. हाइड्रा में मुकुलन द्वारा अलैंगिक प्रजनन होता है
उपर्युक्त में कौन-कौन सा / से कथन सत्य है / हैं
(a) 1, 2 तथा 4 
(b) 2, 3 तथा 4
(c) सभी कथन सत्य है
(d) सभी कथन गलत है
11. निडेरिया संघ के जीवों के वैज्ञानिक नाम तथा उनके प्रचलित नामों के जोड़े में कौन-सा जोड़ा सुमेलित नहीं है ?
(a) ऑटेलिया - जेलीफिश
(b) मेट्रीडियम - सी एनीमोन 
(c) फाइसेलिया - समुद्रीकलम
(d) पेनाटुला - समुद्री कलम
12. किस संघ के जीवों के लार्वा को प्लेनुला (Planula) कहते हैं ?
(a) आथ्रोपोडा
(b) निडेरिया
(c) मोलस्क
(d) पोरीफेरा
13. चपटे, फीतानुमा, परजीवी कृमि किस संघ के सदस्य होते हैं ?
(a) मोलस्का
(b) पोरिफेरा
(c) प्लेटीहेल्मिन्थीज
(d) कॉर्डेटा
14. कथन I - फैसिओला हिपेटिका को Liver Fluke ( यकृत पर्णाभ) कहते हैं ।
कथन II सिस्टोसोमा को Blood Fluke (रक्त पर्णाभ) कहते हैं।
(a) कथन I सत्य है कथन II असत्य है ।
(b) कथन II सत्य है कथन I असत्य है ।
(c) कथन I तथा कथन II दोनों सत्य है ।
(d) कथन I तथा कथन II दोनों असत्य है ।
15. फिता कृमि कहते हैं- 
(a) फसिओला हिपेटिका 
(b) टीनिया सोलियम
(c) सिस्टोसोमा
(d) प्लेनेरिया
16. निम्न में कैन-सी विशेषताएँ प्लेटील्हिम्थीज जीवों की नहीं है ?
(a) अधिकांश जीव परजीवी होते हैं।
(b) फीताकृमि में आहारनाल अनुपस्थित रहता है।
(c) श्वसन अंग, कंकाल तंत्र, रूधिर परिवहन तंत्र पूर्ण विकसित होती है।
(d) ये उभयलिंगी जन्तु है ।
17. ऐस्केरिएसिस तथा फाइलेरिया रोग होता है ?
(a) ऐस्केरिस तथा वूचेरिया
(b) ऐस्के रिस ट्राइकिनेला
(c) वूचेरिया तथा एस्केरिस
(d) ट्राइकिनेला तथा ऐनकाइलोस्टोमा
18. जन्तु जगत में वास्तविक देहगुहा की उपस्थिति किस संघ के जीवों से प्रारंभ हुई है ? 
(a) पॉपीफेरा 
(b) सिलेन्ट्रेटा (निडेरिया)
(c) आथ्रोपोडा
(d) एनीलिडा
19. जोंक ( leech) तथा केंचुआ किस संघ के जीव है- 
(a) एस्केल्मिन्थीज 
(b) एनीलिडा
(c) मोलस्क
(d) आथ्रोपोडा
20. निम्न में से कौन-सा विकल्प में दिये गये कथन असत्य है ?
(a) केंचुआ का वैज्ञानिक नाम फेरीटिमा पोस्थमा है
(b) जोंक का वैज्ञानिक नाम हिरुडिनेरिया है
(c) केंचुआ खेत की मिट्टी को छिद्रयुक्त बनाकर मृद्रा में O2 की मात्रा बढ़ाते हैं ।
(d) केंचुआ को किसानों का शत्रु कहा जाता है।
21. जंतु जगत का सबसे बड़ा संघ कौन है ? 
(a) एनेलिडा 
(b) आथ्रोपोडा
(c) मोलस्क
(d) इकाइनोडर्मेटा
22. सिल्वर फिश किस संघ के जीव है ?
(a) एनेलीडा
(b) पॉरिफेरा
(c) कॉर्डेटा
(d) आथ्रोपोडा
23. तिलचट्टा का हृदय में कितने कक्ष होते हैं ?
(a) 3
(b) 13
(c) 11
(d) 4
24. किस कीट के शरीर से स्त्रावित पदार्थ से लाह उत्पन्न होता है?
(a ) ऐपिस
(b) बांबिक्स
(c) लैसिफर
(d) घरेलू मक्खी
25. रेशम का उत्पादन किससे होता है-
(a) रेशम कीट के लार्वा से
(b) रेशम कीट के प्यूपा से
(c) स्वंग कीट से
(d) रेशम कीट के अंडे से
26. बिच्छू का विष कहाँ पर होता है ? 
(a) पैरों में
(b) हाथ में
(c) मुँह में
(d) डंक में
27. तितली की आँखे रात में क्यों चमकती है ?
(a) विशेष लेंस के कारण 
(b) जीन प्रभाव के कारण
(c) टेपीटम लुसीडम के कारण
(d) कोई स्पष्ट कारण ज्ञात नहीं है
28. झींगा (Prawn ) तथा केंकड़ा (Carb) जीव, जिसे मनुष्य द्वारा भोजन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, किस संघ के हैं ?
(a ) ऐनेलिडा
(b) आथ्रोपोडा
(c) मोलस्क
(d) इकानोडर्मेटा
29. निम्नलिखित जीवों में कौन मोलस्क संघ के नहीं हैं ?
(a ) घोंघा
(b) कटल फिश
(c) क्रेफिश
(d) डेविल फिश
30. निम्नलिखित में से किस संघ के सभी जंतु समुद्री होते हैं ? 
(a) प्रोटोजोआ
(b) पोरीफेरा
(c) एकाइनोडर्मेटा
(d) नाइडेरिया
31. ऑक्टोपस (Octopus) हैं? 
(a) संधिपाद
(b) शूलचर्मी
(c) हेमीकॉर्डा
(d) मृदुकवची
32. जल संवहन तंत्र की उपस्थिति किस संघ के जीवों के लक्षण है ?
(a) आथ्रोपोडा
(b) प्रोटोकॉर्डेटा
(c) इकाइनोडर्मेटा
(d) मोलस्का
33. कौन-सा जीव इकाइनोडर्मेटा संघ का नहीं है ?
(a) तारामछली ( Star Fish )
(b) ब्रिटॅलस्टार
(c) सी अर्चिन
(d) बिच्छू
34. निम्न में कौन मत्स्य वर्ग के जीव है ?
(a) डॉगफिश
(b) समुद्री घोड़ा
(c) फ्लाइंग फिश
(d) इनमें से सभी
35. मच्छरों के नियंत्रण हेतु प्रयोग होनेवाली कीटभक्षी मछली है ?
(a) हिलसा
(b) लेबियो
(c) गेम्बूसिया
(d) मिस्टस
36. जल से बाहर निकाले जाने पर मछलियाँ मर जाती है, क्योंकि-
(a) उन्हें ऑक्सीजन अधिक मात्रा में प्राप्त होती है
(b) उनका शारीरिक ताप बढ़ जाता है
(c0 वे श्वांस नहीं ले पाती है
(d) वे जल में नहीं चल पाती है
37. शार्क मछली में कितनी हड्डियाँ होती हैं ?
(a) 100
(b) 0
(c) 200
(d) 300
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Sat, 20 Apr 2024 08:02:13 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों का जैविक वर्गीकरण https://m.jaankarirakho.com/998 https://m.jaankarirakho.com/998 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों का जैविक वर्गीकरण
  • बीते हुए 3.5 अरब वर्ष के दौरान पृथ्वी पर लाखों सजीवों की जातियों विकसित हुई है। इतनी बड़ी संख्या में पाये जाने वाले सजीवों की जातियों को एक-एक करके अध्ययन करना संभव नहीं है ।
  • जीवों की विविधता के अध्ययन को आसान बनाने हेतु उसे समानताओं एवं असमानताओं के आधार पर विभिन्न समूह में बाँटते हैं। यह प्रक्रिया वर्गीकरण (classification) कहलाता है। 
  • जीवविज्ञान की वह शाखा जिनमें जीवों का व्यवस्थित तरीके से वर्गीकरण किया जाता है, उसे वर्गिकी (Taxonomy) कहा जाता है।
  • जीवविज्ञान में वर्गिकी के स्थापना का श्रेय कैरोलस लिन्नियस को है। उन्हें हम वर्गिकी के जनक कहते हैं। लिन्नियस ने अपनी पुस्तक सिस्टेमा नेचुरे में सर्वप्रथम वर्गीकरण की रूप रेखा प्रस्तुत की थी।
  • कैरोलस लिन्नियस समस्त जीवों को दो समूहों में बाँटा था। ये समूह थे- पौधा जगत (Plant Kingdom) तथा जन्तु जगत (Animal Kingdom) I
  • लिन्नियस का द्विजगत वर्गीकरण कुछ ही समय तक अपनायी जाती रही परंतु जैसे ही जीवाणु प्रोटोजोआ, कवक आदि जीवों का पता चला लिन्नियस का वर्गीकरण अपर्याप्त सिद्ध हुई ।
  • वर्त्तमान में सबसे मान्य वर्गीकरण आर. एच विटेकर का पाँच जगत वर्गीकरण है। आर. एच. विटेकर का पाँच जगत वर्गीकरण निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है-
    1. पोषण की विधि : क्या जीव में स्वपोषण होता है या विषमपोषण । 
    2. कोशिका के प्रकार : क्या जीव में प्रोकैरियोटिक कोशिका है या यूकैरियोटिक कोशिका ।
    3. कोशिका की संख्या : क्या जीव एककोशिकीय है या बहुकोशिकीय है।
    4. विकासीय संबंध : विकास के क्रम में विभिन्न जीव आपस किस प्रकार जुड़े हैं।
  • आर. एच. विटेकर के वर्गीकरण के पाँच जगत (Five Kingdom) तथा उनकी विशेषताएँ निम्न हैं-
    1. Monera Kingdom : इस जगत के जीव सूक्ष्मदर्शी होते है तथा प्रोकैरियोटिक कोशिका के बने होते हैं। इन जीवों में अलैंगिक प्रजनन होता है। पोषण के दृष्टि से इस जगत के विभिन्न सूक्ष्मजीवों में स्वपोषण तथा पर-पोषण होता है। इस जगत में बैक्टीरिया, सायनोबैक्टीरिया तथा एक्टीनोमाइसिटिज को रखा गया है।
    2. Protista Kingdom : इस जगत एककोशिकीय तथा यूकैरियोटिक कोशिका वाले सूक्ष्मजीवों को रखा गया 1 मोनेरा जगत के समान इस जगत के विभिन्न सूक्ष्मजीवों में स्वपोषण तथा पर- पोषण विधि द्वारा पोषण होता है। इस जगत के जीवों में लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों ही प्रकार के प्रजनन पाये जाते हैं। प्रोटोजोआ, यूग्लिना, एककोशिकीय शैवाल तथा स्लाइम मोल्ड इस जगत के प्रमुख जीव है। 
    3. Fungi Kingdom : इस जगत में कवक या फूफूंद को रखा गया है। ये एककोशिकीय भी होते हैं तथा बहुकोशिकीय भी। कवक में क्लोरोफील नहीं होने के कारण इसमें स्वपोषण नहीं होता है। इस जगत में जीवों में प्रजनन कायिक, अलैंगिक तथा लैंगिक तीनों तरह से होता है। सभी कवक यूकैरियोटिक कोशिका के बने होते हैं।
    4. Plantae Kingdom : इस जगत में सभी बहुकोशिकीय पौधों को रखा गया है। सभी पौधे यूकैरियोटिक कोशिका के बने होते हैं तथा इनमें प्रकाशसंश्लेषण द्वारा स्वपोषण की विधि सम्पन्न होती है। 
    5. Animalia Kingdom: इस जगत के अंतर्गत प्रोटोजोआ वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर के समस्त जंतु आते हैं। सभी जंतु यूकैरियोटिक कोशिका के बने होते हैं जिनमें पर-पोषण होता है।
  • जीवों का वर्गीकरण में जगत (Kingdom) सबसे बड़ी कोटि (Category ) है । वर्गीकरण में जीवों को समानता तथा असमानता के आधार पर विभिन्न कोटि में विभक्त करते है। सभी कोटि क्रमबद्ध तरीके से एक-दूसरे से संबंधित होते हैं, जिसे टैक्सोनॉमिक अनुक्रम (Taxonomic hierarchy) कहते है । जो निम्न है-
    Species जाति → Genus वंश → Famly कुल → Order → गण → Division या Phylum → Kingdom जगत
  • कुल पाँच जगत में लगभग 1.8 मिलीयन से अधिक पौधा और जंतु की जातियाँ (Species) समाहित है। वर्गीकरण की आधारभूत एवं मूल इकाई जाति है।

द्विपद-नाम पद्धति (Binomial Nomenelature)

  • एक ही जन्तु या पौधा का नाम, विभिन्न भाषा में, विभिन्न देश में अलग-अलग है, जिसके कारण जन्तु या पौधा को विश्व के सभी भागों में पहचानना मुश्किल होता है।
  • नामों में विविधता की स्थिति से बचने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रत्येक जीव का एक मानक नाम दिया है, जिसे वैज्ञानिक नाम कहा जाता है। एक जीव का वैज्ञानिक नाम पूरे विश्व में एक समान रहता है।
  • जीवों के वैज्ञानिक नाम लिखने हेतु जिस पद्धति का उपयोग होता है, उसे द्विनाम पद्धति कहते है ।
  • द्विनाम पद्धति में किसी जीव का वैज्ञानिक न क नाम दो शब्दों से मिलकर बना होता है, जिसमें पहला शब्द वंशीय नाम (Generic name) तथा दूसरा शब्द जातीय नाम (Specific name) कहलाता है। वैज्ञानिक नाम में, वंश का नाम बड़े अक्षर से तथा जाति का नाम छोटे अक्षर से शुरू होता है।
  • सर्वप्रथम स्वीडेन के वनस्पति विज्ञानी कैरोलस लिन्नियस ने द्वि-नाम पद्धति को उपयोग में लाना प्रारंभ किया। उन्होंने लैटिन तथा ग्रीक शब्दों का उपयोग कर वैज्ञानिक नाम लिखने की परंपरा की शुरूआत की थी । कैरोलस लिन्नियस को आधुनिक वनस्पति शास्त्र के पिता भी कहते है ।
प्रमुख पौधा का वानस्पतिक नाम या वैज्ञानिक नाम
  • प्रमुख पौधा का वानस्पतिक नाम-
    सरसो - Brassica campestris
    धान - Oryza sativa
    गेहूँ - Triticum aestivum
    गुलाब - Rosa chinesis
    मनुष्य - Homo sapieus
    आम - Mangifera indica
    लीची - Litchi chinensis
    सूर्यमुखी - Helianthus annuus
    आलू - Solanum tuberosum
    अमरूद - सोडियम गुआजावा
  • प्रमुख कीटभक्षी पौधा उसके वानस्पतिक नाम-
    घटपर्णी (Pitcher) - नेपन्थिस खासियाना
    सन्ड्यू (Sundew) - ड्रोसेरा
    ब्लैडरवर्ट (Bladderwort) - यूट्रीकुलेरिया
    वीनस फ्लाईट्रेप (Venus Fly Trap) - डायोनिया मसीपुला
    सारासीनिया (Sarracenia) - नेपन्थिस खासियाना
    बटरवर्ट्स (Butter worts) - पिंगुइकुला
    कोबरा लिली (Cobra lily) - डार्लिंग टोनिया
  • प्रमुख मोटा अनाज एवं उनके वैज्ञानिक नाम-
    मक्का - जीमेज
    कडुआ (रागी) - ऐल्यूसाइन कोराकाना
    ज्वार - सोरघम वल्गेयर
    बाजरा - पेनिसेटम ग्लॉकम
  • प्रमुख औषधिय पौधा उनके वैज्ञानिक नाम-
    भटकटैया (कंटेली) - सोलेनम जेन्थोकार्पम
    अश्वगंधा - क्लीओम विस्कोसा
    बज्रदंती - बार्लेरिया प्रायोनाइटिस
पादप जगत का वर्गीकरण (Classification of Plant kingdom)
  • सर्वप्रथम आइकलर ने पादप जगत को दो उपजगत में बॉटा था-
    1. क्रिप्टोगैम्स (Cryptogams)- इसके अंतर्गत वे पौधा आते हैं जिनमें फूल तथा बीज नहीं होते हैं। इस उपजगत को तीन फाइलम में विभाजित किया गया है ये है- थैलोफाइटा, ब्रायोफाइटा तथा टेरिडोफाइटा ।
    2. फैनरोगैम्स (Phanerogams)- इसके अंतर्गत वे पौधा आते हैं जिसमें फूल तथा बीज पाये जाते हैं। इस उपजगत को दो भागों में बांटा गया है ये है जिम्नोस्पर्म तथा एंजियोस्पर्म |
Thallophyta (थैलोफाइटा)
  • थैलोफाइटा के अंतर्गत वैसे पौधों आते हैं जिनमें जड़, तना, पत्ती का अभाव रहता है तथा इनमें संवहन उत्तक ( जाईलम, फ्लोएम) नहीं पाये जाते हैं। 
  • थैलोफाइटा समूह के प्रमुख पौधा हैं- शैवाल तथा लाइकेन ।
  • सभी पौधा क्लोफील युक्त स्वपोषी और प्रायः जलीय (मीठाजल, समुद्री जल) और नम स्थानों में उगते हैं। प्रजनन इसमें प्रायः अलैंगिक विधि द्वारा बिजाणुओं (Sporangia) के माध्यम से होता है।
  • शैवाल एककोशिकीय होते हैं और बहुकोशिकीय भी । एककोशिकीय शैवाल मोनेरा जगत में है या प्रोटिस्टा जगत में। बहुकोशिकीय शैवाल के तीन वर्ग हैं- क्लोरोफाइसी (हराशैवाल), फियोफाइसी (भूरा शैवाल) तथा रोडोफाइसी (लाल शैवाल) ।
  • शैवाल के आर्थिक महत्व-
    1. क्लोरेला शैवाल का प्रयोग अंतरिक्ष यात्री भोजन एवं ऑक्सीजन प्राप्त करने हेतु करता है। क्लोरेला में 50% तक प्रोटीन होता है। क्लोरेला शैवाल से क्लोरेलिन नामक एंटीबायोटिक भी तैयार होता है।
    2. ग्रेसिलेरिया, जेलिडियम, कांड्रस जैसे लाल शैवाल से अगर-अगर प्राप्त होता है। अगर-अगर का प्रयोग बेकरी व्यावसाय, मिठाई, दंतमंजन, दवा निर्माण तथा कृत्रिम वृद्धि माध्यम बनाने में किया जाता है ।
    3. लैमिनेरिया शैवाल से आयोडिन निकाला जाता है। शैवाल में आयोडिन आयोडाईड रूप में रहता है। लेमिनेरिया शैवाल से सोडियम लैमिनेरिन सल्फेट प्राप्त होता है जो खून को जमने से रोकता है।
    4. जापान, मलेशिया, चीन, इंडोनेशिया में पोरफाइरा शैवाल अत्यधिक प्रिय भोजन है।
    5. भूरे शैवाल को समुद्री घास कहा जाता है। समुद्री घास का उपयोग पशु चारे में, मुर्गियों के चारे में किया जाता है।
    6. एल्जिनिक एसीड समुद्री शैवाल से निकाला जाता है, इसका उपयोग रबड़ उद्योग में लैटेक्स के उपचार में होता है ।
  • शैवाल तालाबों, जलाशय में इतने तेजी से वृद्धि करने लगता है कि अन्य जीवों के अस्तित्व के समक्ष खतरा उत्पन्न हो जाता है। बरसात के समय जमीन पर फिसलन वाला हरा परत शैवाल ही बनाता है ।
  • प्रसिद्ध लाल सागर का रंग लाल, लाल शैवाल के कारण है। लाल शैवाल इस सागर के ऊपरी भागों को अच्छादित करके रखा है।
  • नील हरित शैवाल- सायनो बैक्टीरिया का नया नाम नील हरित शैवाल है । इस शैवाल का इस्तेमाल जैव उर्वरक बनाने में होता है। यह मोनेरा जगत के प्रोकैरोयोटीक जीव है।
लाइकेन (Lichen )
  • लाइकेन दो जीवों के बीच के सहजीवी (Symbiosis) संबंध के कारण अस्तित्व में आया है। ये दो जीव है कवक तथा शैवाल । कवक तथा शैवाल के बीच के सहजीवी संबंध को, हेलोटिज्म (Helotism) कहते हैं ।
  • लाइकेन चट्टानों पर पेड़ के तने पर, तथा जमीन पर धब्बों के रूप में रहते हैं तथा अत्यंत कड़े होते हैं ।
  • लाइकेन के कवक अवयव (Mycobiont) जल तथा खनिज पदार्थ अवशोषित कर शैवाल को देता है तथा बदले में शैवाल प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन तैयार कर कवक को देते हैं।
    • आर्थिक महत्व के लाइकेन-
      1. लाइकेन विपरित परिस्थितियों वाले वातावरण में उगकर पारिस्थितिकी तंत्र को प्रारंभ करता है। लाइकेन वायु प्रदूषक के सूचक के तौर पर काम करता है ।
      2. परमेलिया लाइकेन से मिर्गी रोग के उपचार हेतु औषधि तैयार किये जाते हैं।
      3. रोसेला लाइकेन से लिटमस पत्र तैयार किये जाते हैं।
      4. इण्डोकार्पन लाइकेन का प्रयोग जापान के लोग सब्जी के रूप में करते हैं।
ब्रायोफाइटा (Bryophyta)
  • ब्रायोफाइटा के अंतर्गत आने वाले पौधा को पादप जगत का उभयचर कहा जाता है। क्योंकि इस समुदाय के पौधे जमीन पर पाये जाते हैं परंतु निषेचन हेतु पानी की आवश्यकता होती है।
  • पौधा का आकार थैलस के समान होता है, परंतु वास्तविक तना तथा पत्ती जैसी संरचना होती है, परंतु वास्तविक जड़ का अभाव रहता है। पौधे में जड़ जैसी संरचना होती है जिसे मूलाभास (Rhizoids) कहते हैं।
  • पौधे में संवहन उत्तक (जाईलम, फ्लोएम) का अभाव होता है। पौधा का लैंगिक अंग बहुकोशिकीय होते हैं। नर जनन अंग को पुंधानी (Anthridium) तथा स्त्रीजनन अंग को स्त्रीधानी (Archegonium) कहते हैं।
  • प्रमुख पौधा - मॉस (फ्यूनेरिया) मार्केशिया, रिक्सिया, बारब्यूला, ऐन्थोसीरस आदि ।
  • मॉस तथा लिवरवर्ट ब्रायोफाइटा समुदाय के चर्चित पौधा समूह है।
  • ब्रायोफाइटा के आर्थिक महत्व -
    1. मॉस स्तनधारी, चिड़ियाँ तथा अन्य जानवरों के भोजन के रूप में काम आते हैं।
    2. स्फैग्नम मॉस जिसे पीट मॉस भी कहा जाता है, में जल अवशोषण तथा अवशोषित जल को संग्रह करने की अधिक क्षमता होती है, इसलिये इन्हें नर्सरी में पैकिंग मैटेरियल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। |
    3. सूखे मॉस का इस्तेमाल ईंधन के रूप में होता है।
    4. मॉस जमीन में चटाई की तरह बीछे होते हैं तथा बर्षा ऋतु में मिट्टी का क्षरण नहीं होने देते हैं।
टेरिडोफाइटा (Pteridophyta)
  • टेरीडोफाइटा समुदाय पृथ्वी पर का पहला विकसित पौधा है। इस समुदाय के पौधों में जड़, तना, पत्ती विकसित होते हैं तथा संवहन ( जाइलम, फ्लोएम) तंत्र पाये जाते हैं।
  • इस समुदाय के पौधा प्रायः छायादार एवं नम स्थानों पर उगते हैं। पौधा में फूल तथा बीच उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती है।
  • इस समुदाय के पौधा के जनन अंग, बहुकोशिकीय होते हैं। नर जनन अंग पुंधानियाँ (antheridia ) तथा मादा जनन अंग स्त्रीधानियाँ (Archegonia) होते हैं। निषेचन हेतु जल की आवश्यकता होती I
  • हेटोरोस्पोरस टेरिडोफाइटा में जाइगोट मातृ पौधा पर ही लगा होता है । जाइगोट विभाजित होकर भ्रूण बनाता है। इस घटना को पौधा में बीज स्वभाव की उत्पत्ति माना जाता है।
  • प्रमुख पौधा - मर्सीलिया, फर्न, हॉर्सटेल सिनैजिनेला, इक्वींजीटम आदि ।
  • टैरीडोफाइटा के आर्थिक महत्व-
    1. लाइकोपोडियम बिजाणु (Spore) का उपयोग दवाई बनाने में होता है ।
    2. मर्सीलिया का प्रयोग सब्जी के रूप में होता है । टेरिडीयम का उपयोग पशु चारे के रूप में होता है।
    3. एजोला जिसे जलीय फर्न कहते हैं इसका इस्तेमाल जैव उर्वरक रूप में होता है।
    4. सिनैजिनेला में पुर्नजीवन का गुण होता है इसका प्रयोग सजावटी पौधों के रूप होता है।
    5. आफियोग्लोसम (Ophioglosum) टेरिडोफाइटा समुदाय के ऐसे पौधा हैं जिनमें सर्वाधिक गुणसूत्र पाये जाते हैं। इनमें गुणसूत्र की संख्या 630 जोड़ा (1260) होता है।
जिन्मोस्पर्म (Gymnosperm)
  • जिम्नोस्पर्म को को अनावृत्तबीजी या नग्नबीजी कहते हैं। क्योंकि इनके बीजों पर कोई आवरण नहीं होता है। जिन्मोस्पर्म पौधों काष्ठीय (Woody) बहुबर्षी, वृक्ष, झाड़ी के रूप में लगभग हर जगह पाये जाते हैं।
  • जिम्नोस्पर्म के पौधों में पूर्ण विकसित मूसला जड़ (Tap root) होते हैं। इनके कुछ पौधों के जड़ों में शैवाल तथा कवक सहजीवी संबंध बना कर रहते हैं। उदा०—
    1. साइकस पौधों के जड़ों में शैवाल सहजीवी के रूप में रहते हैं। ऐसे जड़ को कोरोलॉयड जड़ कहते हैं।
    2. पाइनस पौधों के जड़ों में कवक सहजीवी के रूप में रहते हैं। ऐसे जड़ को माइकोराइजल जड़ भी कहते हैं।
  • जिम्नोस्पर्म में परांगण (Pollination) वायु के माध्यम से होता है ।
  • जिम्नोस्पर्म के प्रमुख आर्थिक महत्व-
    1. साइकस, थूजा जैसे पौधा बगीचे में सुंदरता हेतु लगाया जाता है। साइकस के कुछ पौधों के तने में संचित स्टार्च को निकालकर सबूदाना तैयार किया जाता है।
    2. चीड़ से ताड़पीन का तेल, रेजिन तथा बहुमूल्य लकड़ी की प्राप्ति होती है।
    3. इफ्रेड्रा वृक्ष के तने से इफेड्रीन औषधि तैयार हो । इस औषधि को खाँसी तथा दमा जैसे रोग के उपचार में प्रयोग लाया जाता है।
    4. पाइनस वृक्ष के बीज से चिलगोजा (Chilgoza) प्राप्त होता है। चिलगोजा को जिम्नोस्पर्म का मेवा कहा जाता है।
    5. चीड़, सिकोया, देवदाड़, स्प्रूस पौधों के लकड़ी से फर्नीचर बनाये जाते हैं। 
एंजियोस्पर्म (Angiosperm)
  • एंजियोस्पर्म पौधों का सबसे बड़ा समूह है इसके अंतर्गत कुल पौधा का 2.5 लाख स्पीशीज शामिल है। इन पौधा का बीज आवरण से ढँके होते हैं। 
  • जिम्नोस्पर्म तथा टेरिडोफाइट्स समुदाय के पौधा अनेक स्थानों पर जाते हैं, किंतु ये पौधे इतनी अधिक भिन्न जलवायु में नहीं पाये जाते हैं जितने की एजियोस्पर्म। ऐजियोस्पर्म पौधा टुण्ड्रा जलवायु से लेकर गर्म उष्णकटिबंधीय क्षेत्र रेगिस्तान, एंटाकर्टिका तक पाये जाते हैं।
  • सबसे छोटा इंजियोस्पर्म पौधा वुल्फीया है। वुल्फीया इतना छोटा होता है इसे सूक्ष्मदर्शी से देखना पड़ता हैं वुल्फीया जलीय पौधा है। सबसे लंबा एंजियोस्पर्म पौधा यूकेलिप्टस है।
  • मनुष्य के अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति एंजियोस्पर्म (आवृत्तबिजी) पौधा ही करता है। समस्त अनाज, दालें, खाने में काम आनेवाला तेल, समस्त फल एवं सब्जी, सभी रेशेवाला फसल, इमारती लकड़ी सभी एंजियोस्पर्म पौधा से प्राप्त होता है। एंजियोस्पर्म को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-
    1. द्विबीजपत्री (Dicotyledous) - उदा०– चना, मटर, सूर्यमुखी, गेंदा, कद्दू, आलू, नीम ।
    2. एकबीज पत्री (Monocotylendous) - उदा०- बॉस, केला, खंजूर, गेहूँ, घास ।
  • एकबीजपत्री पौधा तथा द्विबीजपत्री पौधा में प्रमुख अंतर-
    1. एकबीजपत्री पौधा के बीच में केवल एक बीजपत्र (Seed leaves) होते हैं, द्विबीजपत्री के बीज में दो बीजपत्र होते हैं।
    2. एक बीजपत्री के रेशेदार जड़ (Fibreous root) होते हैं जबकि द्विबीजपत्री में मूसला जड़ (Tap root) होते हैं।
    3. एकबीजपत्री के तना प्रायः खोखला (उदा०- बॉस) डिस्क के तरह (प्याज, लहसून), छदम (Falase) होता है, द्विबीजपत्री के तने काफी मजबूत तथा सुदृढ़ होते हैं।
    4. एक बीजपत्री पौधों के पत्ती समान्तर शिराविन्यास वाले होते हैं जबकि द्विबीजी के पत्ती जालिकावत शिराविन्यास वाले होते हैं।
    5. एक बीजपत्री पौधों के फूल में तीन चक्र होते हैं जबकि द्विबीजपत्री पौधों के फूल में सभी चारों चक्र होते हैं।
  • एक बीजपत्री के अंतर्गत शामिल प्रमुख वर्ग-
    1. लिलिएसी उदा० - प्याज, लहसून, सतावर, घृतकुमारी (Aloevera)
    2. ग्रैमनी या पोएसी उदा० – गेहूँ, मक्का, धान, जौ, बॉस, दूबघास, गन्ना ।
    3. प्लामी उदा० - नारियल, सुपारी
    4. म्यूजेसी उदा०- केला
  • द्विबीजपत्री में शामिल प्रमुख वर्ग
    1. क्रूसोफेरी या ब्रैसिकेसी उदा० - राई, मूली, फूलगोभी, बंदगोभी, सरसो ।
    2. मालवेसी उदा० - भिंडी, कपास, पटसन, पटुआ
    3. लेग्यूमिनीसी उदा०- सभी दलहन फसलें, छूइमूई, कत्था, इमली ।
    4. सोलेनेसी उदा०– आलू, मिर्च, टमाटर, तंबाकू, बैगन, ऐट्रोपा बेलाडेना ।
    5. कम्पोजिटी या एस्टेरेसी
      • यह द्विबीजपत्री का सबसे बड़ा कुल है। उदा०— सूर्यमुखी, गेंदा, गुलदाउदी, डहेलिया, कुसुम, धतूरा 
    6. रूटेसी उदा०- नींबू, संतरा, मौसमी, बेल
    7. कुकुरबिटेसी उदा०- तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी, परवल, करैला, लौकी
    8. मिरटेसी उदा० - अमरूद, यूकेलिप्टस, जामुन, मेंहदी
    9. अम्बलीफेरी उदा०- धनिया, जीरा, सौंप, गाजर
    10. रेनन कुलेसी उदा०- बटरकप, काला जीरा
    11. रोजेसी उदा० - सेब, नाशपाती, गुलाब

याद रखने योग्य तथ्य

  • कपास (Gossypium) के बीजों के सतह पर रेशे होते हैं जिनसे रूईया प्राप्त होता है। पटसन के तंतु से प्राप्त रेशों से रस्सी, बोरे बनाये जाते हैं।
  • मेथी के बीज मसाले के रूप में उपयोग होते हैं। कसूरी मेथी की पत्तियाँ मसाले के रूप में उपयोग होता है।
  • नील Indigofera tinctoria पौधों से प्राप्त किया जाता है।
  • बेलाडोना के पत्ती से ऐट्रोपीन निकाला जाता है। यह दर्दनाशक औषधि में काम आता है।
  • अश्वगंधा का प्रयोग खॉसी के उपचार में किया जाता है।
  • क्रिकेट खेलने वाला बल्ला सैलिक्स परप्यूरिया पौधों से तैयार होता है।
  • पोस्ता के पौधा (Papaver Somniferum) के कच्चे फसल से लेटेक्स निकालकर अफीम तैयार किया जाता है। अफीम से ही मार्फिन, हेरोइन जैसे मादक द्रव्य तैयार किये जाते हैं।
  • हशीश, चरस, गांजा, भाँग कैनाबिस पौधा से प्राप्त किया जाता है। हशीश एवं चरस कैनाबिस पौधा के फूल से प्राप्त किया जाता है। गांजा कैनाबिस पौधा के फूलदार एवं फलदार शाखाओं को सूखाकर तैयार किया जाता है। भाँग कैनाबिस के पत्ती को सूखाकर तैयार किया जाता है।

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
1. जीवों की संरचना, प्रजनन, स्वभाव, पोषण आदि गुणों के आधार पर विभिन्न श्रेणियो में बाँटना वर्गीकरण कहलाता है
2. वर्गीकरण के सिद्धान्तो का अध्ययन वर्गिकी कहलाता है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ है
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
2. निम्नलिखित में किन्हे वर्गिकी के जनक कहा जाता है ?
(a) मेण्डल
(b) लीनियस
(c) एंग्लर
(d) खुराना
3. सिस्टेमा नेचुरे पुस्तक किसने लिखी है ?
(a) लैमार्क
(b) डार्विन
(c) मेंडल
(d) लिन्नियस
4. जीवो के वर्गीकरण की मूल इकाई इकाई अथवा सबसे छोटी इकाई अथवा अधारीय इकाई है-
(a) जीनस
(b) स्पीशीज
(c) वैराइटी
(d) सब-स्पीशीज
5. स्पीशीज (जाति) है-
(a) फाइलम के नीचे
(b) समान जीनस की वर्गिकी विभाजन
(c) अन्तर प्रजनन करने वाली जनसंख्या
(d) नजदीकी सम्बन्धित आपस में प्रजनन करने वाली जनसंख्या
6. द्विपद नामकरण पद्धति सर्वप्रथम किसने प्रारंभ किया था ?
(a) कैरोल्स लिन्नियस 
(b) हक्सले
(c) जी. सिम्प्सन
(d) थीयोफ्रेक्टस
7. पाँज जगत वर्गीकरण (Five Kingdom classifica- tion) किसके द्वारा किया गया है ?
(a) आर. एच. ह्विटेकर
(b) कार्ल वोस 
(c) ह्रीकेल
(d) लिन्नियस
8. ह्विटेकर के पाँच जगत वर्गीकरण में प्रोकैरियोट्स को रखा गया है ?
(a) प्रोटिस्टा
(b) मोनेरा
(c) फंजाई
(d) प्लाण्टी
9. द्विपद नाम पद्धति में दो शब्द सूचित करते है-
(a) क्रमश: जीनस तथा स्पीशीज को
(b) क्रमशः स्पीशीज तथा जीनस को
(c) क्रमश: जीनस तथा वेरायटी को
(d) क्रमश: फेमली तथा जीनस को
10. द्विनाम पद्धति का अभिप्राय है पौधों के नामो को दो शब्दो में लिखना, जो बताते है, उनके-
(a) कुल व वंश
(b) जाति व किस्म
(c) वंश व जाति
(d) गण व कुल
11. वर्गीकरण की प्राकृतिक सिस्टम किस वनस्पति वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया था ?
(a) ब्रिटिश
(b) भारतीय
(c) जर्मन
(d) स्वीडिश
12. पौधों का नाम देने वाला विज्ञान कहलाता है-
(a) पहचान 
(b) वर्गीकरण
(c) नामकरण
(d) वर्गिकी
13. पाँच जगत में कुल कितने जगत में केवल एककोशिकीय जीव ही शामिल है ?
(a) 1
(b) 2
(c) 3
(d) 4
14. 'स्पीशीज प्लैटेरम' पुस्तक किसके द्वारा लिखी गयी है ?
(a) कैरोलस लिन्नियस 
(b) जॉन रे
(c) थीयोफ्रेस्टस
(d) एल्डर
15. मोनेरा जगत के जीवो में किस प्रकार का पोषण होता है ?
(a) स्वपोशी 
(b) विषमपोषी
(c) सहजीविता
(d) स्वपोषी तथा विषमपोशी
16. प्रोटिस्टा जगत के अंतर्गत आने वाले जीव होते है-
(a) कीमोऑटोट्रॉप्स 
(b) हेट्रोट्रॉफ्स
(c) ऑटोट्रॉप्स
(d) इनमें से सभी
17. निम्नलिखित में सही क्रम हो पहचाने ?
(a) स्पीशीज - आर्डर - जीनस किंगडम 
(b) स्पीशीज - जीनस - ऑर्डर- किंगडम
(c) जीनस - स्पीशीज - आर्डर - किंगडम 
(d) किंगडम - जीनस - स्पीशीज - आर्डर 
18. किस टैक्सोनॉमिक शब्द को वर्गीकरण के किसी भी पायदान पर प्रयोग में ला सकते है ?
(a) जीनस
(b) क्लास
(c) टैक्सान
(d) स्पीशीज
19. निम्नलिखित में कौन प्रोकैरियोट जीव है ?
(a) मैक्रोफाइट्स
(b) यूलोथ्रिक्स
(c) बैक्टीरिया
(d) इनमें से सभी
20. किस वर्गिकी अनुक्रम के जीव आपस में अंतर प्रजनन में भाग लेते है ? 
(a) जीनस 
(b) फाइलम
(c) क्लास
(d) स्पीशीज
21. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए:
1. जीवो के बाह्य लक्षणों के आधार पर विभिन्न समूहो में वर्गीकृत करने की विधि को कृत्रिम वर्गीकरण पद्धति करते है
2. कृत्रिम वर्गीकरण पद्धति की शुरूआत जॉर्ज बेन्थम तथा डॉल्टन हुकर ने शुरू की थी
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ है ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो ] न ही 2
22. सभी जीव (पौधे तथा जन्तु) बने होते है-
(a) रसायनिक अणुओ द्वारा
(b) जैव अणुओं द्वारा 
(c) कोशिका द्वारा
(d) इनमें से सभी
23. ह्विटेकर के पाँच जगत वर्गीकरण में यूकैरिओट्स को निम्नलिखित में किस वर्ग में रखा गया है ?
(a) सभी पाँच किंगडम में
(b) पाँच में से चार किंगडम में
(c) पाँच में से तीन किंगडम में
(d) पाँच में से दो किंगडम में
24. 'जेनेरा प्लैंटेरम' किसने लिखा था ?
(a) हचिंसन ने 
(b) एंगलर और प्रांटल ने
(c) बेसे ने
(d) बेन्थम तथा हूकर ने
25. जीवों का वर्गीकरण जब क्रोमोसोम के आधार पर किया जाता है, तो उसे क्या कहते है-
(a) फेनेटिक्स 
(b) साइटोटैक्सोनॉमी
(c) कीमोटैक्सोनॉमी
(d) क्लैडिस्टिक्स
26. समान गुणो वाले कुलो को किसमें शामिल किया जाता है -
(a) ऑर्डर में
(b) क्लास में
(c) फाइलम में
(d) किंगडम में
27. जीवों के वर्गीकरण की तीन जगत पद्धति किसने दी थी ?
(a) लिनियस
(b) हेकल
(c) ह्विटेकर
(d) कॉपलैण्ड
28. नाम पद्धति कोड के अनुसार जीवों के वैज्ञानिक नाम लिखने का कौन सा तरीका सही है ?
(a) Amoeba Proteus
(b) Amoeba Proteus
(c) amoeba proteus
(d) amoeba proteus
29. निम्नलिखित में से किसने वर्गीकरण - विज्ञान में भ्रौणिकीय लक्षणों (Embreyonic Charecters) के प्रयोग को लोकप्रिय बनाया ?
(a) पंचानन माहेश्वरी
(b) कैरोलस लीनियस
(c) बीरबल साहनी
(d) बेन्थम तथा हूकर
30. पुष्पी पादप को किसमें रखा गया है-
(a) क्रिप्टोगैम्स
(b) फैनरोगैम्स
(c) एंजियोस्पर्म
(d) ब्रायोफाइट्स
31. अपुष्पी पादप को किसमें रखा गया है-
(a) फैनरोगैम्स
(b) टेरिडो फाइटस
(c) क्रिप्टोगैम्स
(d) ब्रायो फाइट्स
32. क्रिप्टोगैम्स में सम्मिलित है-
(a) थैलोफाइटा
(b) ब्रायोफाइटा
(c) टेरिडोफाइटा
(d) इनमें से सभी
33. फैनरोगैम्स में शामिल है-
(a) आवृतबीजी
(b) अनावृत बीजी
(c) A तथा B दोनों
(d) न तो A न ही B
34. थैलोफाइटा समूह के पादपो में निम्नलिखित में कौन लक्षण पाये जाते है ?
(a) पादप शरीर वास्तविक जड़, तना तथा पत्ती में विभेदित नहीं होता है
(b) इनका शरीर सुकाय सदृश (Thallus ) कहलाता है
(c) अधिकांश पादप या तो जलीय है या नम स्थानों पर उगते है
(d) इनमें से सभी
35. थैलोफाइटा समूह के पौधे अनुकुल परिस्थिति में किस प्रकार से प्रजनन करते है ?
(a) मुकुलन
(b) बीजाणुजनन
(c) विखण्डन
(d) इनमें से सभी
36. निम्नलिखित में कौन सा एक थैलोफाइटा समूह का पौधा है ?
(a) शैवाल
(b) कवक
(c) मॉस
(d) फर्न
37. शैवालो के अध्ययन को क्या कहते है ?
(a) फाइकोलॉजी 
(b) माइकोलॉजी चन्दु
(c) टेरिडोलॉजी
(d) ब्रायोलॉजी 
38. निम्नलिखित में कौन-सा एक शैवालो के विशिष्ट लक्षण नहीं है ?
(a) इनका शरीर थैलस के समान होता है 
(b) इसमें क्लोरोफील पाया जाता है
(c) अधिकांश शैवाल जलीय होते है 
(d) शैवाल के थैलस सदृश्य शरीर वास्तविक उत्तक से बने होते है 
39. हाइड्रा की कोशिकाओ में पाया जाने वाला शैवाल है- 
(a) जूक्लोरेला 
(b) प्रोटोडर्मा
(c) क्लेमाइडोमोनास
(d) वाउचेरिया
40. निम्नलिखित में कौन सा शैवाल बर्फ की सतह पर उग सकते है ?
(a) जूक्लोरेला
(b) प्रोटोडर्मा
(c) क्लेमाइडोमोनास
(d) वाउचेरिया
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Sat, 20 Apr 2024 07:11:06 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | सूक्ष्मजीव https://m.jaankarirakho.com/997 https://m.jaankarirakho.com/997 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | सूक्ष्मजीव
  • वे जीव जिन्हें हम खुली आँख से नहीं देख सकते हैं, जिसे देखने हेतु सूक्ष्मदर्शी (Microscope) की आवश्यकता होती है, सूक्ष्मजीव कहलाते हैं । सूक्ष्मजीव का अध्ययन विज्ञान के Microbiology शाखा के अंतर्गत किया जाता है।

प्रमुख सूक्ष्मजीव

1. Viroids (वाइरॉयड्स)

  • सर्वप्रथम Viroids की खोज अमेरिकी जीव वैज्ञानिक थियोडोर डायनर ने किया था । वायरॉयड्स केवल न्यूक्लीक अम्ल के बने होते है ।
  • वायरॉयड्स विषाणु से सभी छोटे होते. । यह विषाणु के एक हजारवें भाग के बराबर होते हैं। वायरॉयड्स में केवल न्यूक्लीक अम्ल के रूप में RNA ही रहता है।
  • वायरॉयड्स केवल परपोषी (host) के शरीर में ही वृद्धि कर सकता है तथा यह पौधों के कई प्रकार के रोग को फैलाते हैं। वायरॉयड्स केवल पौधे में पाये जाते हैं।
2. Prion (प्रियॉन)
  • यह एक असमान्य प्रकार के सूक्ष्मजीव जो केवल प्रोटीन का अणु बना होता है। प्रियॉन का व्यास मात्र 4-5 nm होता है। इसका निर्माण केवल मस्तिष्क कोशिका में ही होता है ।
  • प्रियॉन के कारण बकरी और भेड़ में स्क्रापी (Scrapie) नामक रोग होता है जिससे उसका तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है।
  • प्रियॉन के कारण मनुष्य में क्रोयुट सल्फेट (याकोब) रोग होता है। इस रोग में मनुष्य की यादाश्त में कमी या पागलपन हो सकता है ।
3. Virus (विषाणु)
  • लैटिन भाषा में वाइरस शब्द का की खोज सर्वप्रथम रूसी वैज्ञानिक आइवेनोस्की ने किया था। आइवेनोस्की ने वायरस की खोज एक रोगग्रस्त तंबाकू के पौधे में किया था तथा उस वायरस का नाम उन्होंने Tobacco Mosaic Virus (TMV) रखा ।
  • विषाणु प्रोटीन और न्यूक्लीक एसीड के बने होते हैं। न्यूक्लीक एसीड या तो RNA या DNA के रूप में होता है। पौधा तथा कुछ जंतुओं के वायरस का न्यूक्लीक एसीड RNA होता है, जबकि अन्य जंतु वायरस में यह DNA के रूप में रहता है।
  • अधिकांश विषाणु का आकार गोलाकार होता है तथा कुछ विषाणु दंडाकार (छड़ के समान) भी होता है।
  • विषाणु की प्रकृति के विषय में सभी जीव वैज्ञानिकों का एक मत नहीं है। कुछ जीव वैज्ञानिक इसे सजीव मानते हैं तथा कुछ निर्जीव I
  • विषाणु को निम्न आधार पर निर्जीव माना जाता है-
    1. वायरस केवल जीवित परपोषी में ही वृद्धि कर सकता है।
    2. वायरस को क्रिस्टल के रूप में प्राप्त किया जा सकता है।
    3. वायरस में श्वसन नहीं होता है।
    4. जीवित कोशिका के बाहर वायरस में उपापचय (Metabolism) की क्रियाएँ नहीं होती है।
  • विषाणु को निम्न आधार पर सजीव माना जाता है-
    1. भिन्न-भिन्न वायरस का आकार और संरचना भिन्न होता है ।
    2. वायरस जनन करता है।
    3. वायरस संवदेनशील होता है तथा वातावरण के प्रति उनमें अनुकूलन पायी जाती है।
  • पादप वायरस पौधों के कोशिका में रहते हैं और उनमें कई प्रकार के रोग को फैलाते हैं।
  • वायरस द्वारा पौधों में होनेवाले प्रमुख रोग-
    1. तंबाकू, गन्ना, ककड़ी, टमाटर, गोभी, मिर्च में होने वाला मोजैक रोग ।
    2. आलू का लीफ रोल
    3. भिंडी का पीत शिरा मोजैक
    4. टमाटर का लीफ कर्ल
  • जन्तु वायरस, पादप वायरस से अलग होते है, क्योंकि इनमें DNA न्यूक्लीक एसीड पाये जाते हैं। वायरस मनुष्य में भी घातक रोग फैलाते हैं। वायरस के कारण मनुष्य में होने वाला प्रमुख रोग -
    1. इंफ्लूएंजा या फ्लू ( Influenza )
      • यह रोग मिक्सो वायरस के कारण होता है जो विश्व के लगभग सभी देशों में पाया जाता है। रोग के विषाणु वायु द्वारा रोगी के छींक के साथ फैलता है ।
      • विषाणु संक्रमित व्यक्ति के फेफड़ों में तेजी से वृद्धि करता है एवं 1 से 4 दिन बाद संक्रमित व्यक्ति को बुखार, पूरे शरीर में कंपन कमजोरी, नाक से पानी निकलना जैसे लक्षण प्रकट होते हैं ।
      • इस रोग के नियंत्रण हेतु कई प्रभावी दवा उपलब्ध नहीं है। फिर भी एस्पिरिन, प्रचुर मात्रा में आराम से कुछ राहत मिलती है। 
    2. पोलियो (Polio)
      • पोलिया या Polimyelitis रोग पोलियो वायरस के कारण होता है। यह वायरस संक्रमित भोजन, दूध तथा पेयजल के माध्यम से पहले आहारनाल में प्रवेश करता है I
      • आहारनाल से होते हुये यह वायरस रक्त कोशिकाओं में पहुँचाता है। अंत में यह वायरस केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में प्रवेश कर जाता है।
      • केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में प्रवेश कर यह वायरस तंत्रिका तंत्र की ऐसी कोशिका को, जो शरीर के पेशियों की क्रिया को नियंत्रित करते है, नष्ट कर देता है। इसके कारण पेशियों पर तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण हट जाता है और वे कार्य करना बंद कर देते हैं।  
      • यह रोग बच्चों में सबसे ज्यादा प्रभावी है खासकर 6 महीने से लेकर 3 वर्ष के उम्र तक । एकबार पोलियो रोग हो जाने पर फिर प्रभावित अंग का इलाज संभव नहीं है सिर्फ फिजियोथेरापी द्वारा रोग की तीव्रता कम किया जा सकता है ।
      • इस रोग से बचाव हेतु पूर्ण रूप से सुरक्षित टीक उपलब्ध है ।
    3. खसरा
      • यह मोर्बेली विषाणु के कारण होने वाला रोग है । यह विषाणु वायु के माध्यम से तेजी से फैलता है।
      • संक्रमित व्यक्ति को आरंभ में नाक, आँख से पानी बहता है, बुखार होता है तथा 3-4 दिनों बाद शरीर पर लाल दाने हो जाते हैं ।
      • इस रोग में रोगी को पर्याप्त आराम तथा उबला हुआ भोजन करना चाहिए ।
    4. चेचक
      • यह वैरिओला विषाणु के कारण होता है। यह बहुत ही संक्रामक रोग है इसके विषाणु वायु के माध्यम से फैलाता है ।
      • संक्रमित व्यक्ति को प्रारंभ में बुखार, सिर में दर्द, उल्टी होता है और उसे 4 दिन के बाद मुँह पर लाल दाने निकल आते हैं जो धीरे-धीरे पूरे शरीर में फैल जाता है।
      • इस रोग का टीका उपलब्ध है।
    5. छोटी माता ( Small Pox)
      • यह रोग वैरिसेला जोस्टर विषाणु के कारण होता है। यह भी संक्रामक रोग है, परंतु चेचक से कम ।
      • इस रोग में रोगी के शरीर पर छोटे-छोटे दाने निकल आते हैं । हल्का बुखार रहता है तथा जोड़ों पर दर्द होते रहता है।
      • इस रोग का कोई स्पष्ट इलाज नहीं है। रोगी को स्वच्छ वातावरण में रखने और पर्याप्त आराम करने से स्वतः ठीक हो जाता है।
    6. रेबीज (Rabies)
      • यह रोग रैब्डी वायरस के कारण होता है। इस वायरस को पहली बार फ्रांस के वैज्ञानिक पाश्चर ने देखा था तथा इस रोग के टीके का विकास भी उन्होंने ही किया ।
      • रैब्डीवायरस कुत्ते, चमगादड़, गीदड़ जैसे जीव में पाया जाता है। जब यह जीव मनुष्य को काटता है तब वायरस मनुष्य में प्रवेश करके सीधे मस्तिष्क में चला जाता है।
      • इस रोग के प्रारंभिक लक्षण है- सिरदर्द, हल्का बुखार तथा गर्दन में दर्द । धीरे-धीरे रोगी पागल के तरह व्यवहार करने लगता है।
      • रेबिज में संक्रमित व्यक्ति का गले की पेशी में संकुचन होना बंद हो जाता है जिससे वे पानी पीने में असमर्थ हो जाता है और पानी को देखते ही काफी डरने लगता है । इस कारण इस रोग को हाइड्रोफोबिया कहते हैं।
      • मनुष्य अधिकांशतः कुत्ते के काटने से रेबीज से प्रभावित होते हैं। कुत्ते अगर रेबीज से संक्रमित हो गये तो वे कुत्ते का व्यवहार बदल जाता है-
        • संक्रमित कुत्ता अत्यंत क्रोधी एवं उग्र हो जाते हैं और व्यक्ति को काटने दौड़ता है। या
        • संक्रमित कुत्ता सुस्त या मौन होकर एकांत स्थान पर पड़ा रहता है ।
        • कुत्ता मनुष्य को काटने के 3-5 दिनों के अंदर मर जाता है तो यह मान लेना चाहिये कि, निश्चित वह कुत्ता रेबीज से संक्रमित था ।
      • रेबीज वायरस से अगर मस्तिष्क प्रभावित हो गया तो फिर उसका कोई उपचार नहीं है अतः पालतू कुत्ता या रेबिज संक्रमित पशु के काटने के तुरंद बाद ऐंटिरेबीज सूई दिया जाता है।
    7. हेपेटाइटिस (Hepatitis)
      • यकृत में वायरस के संक्रमण से यह रोग होता है । अत्यधिक मात्रा में शराब के सेवन करने से भी यह बिमारी होती है।
      • हेपेटाइटिस कई टाईप के होते हैं। जिसमें टाइप - A तथा टाईप - B कॉमन है। हेपेटाइटिस - A दूषित भोजन या पानी द्वारा संक्रमित होता है तथा टाईप - B रूधिर, लार आदि के संक्रमण से होता है ।
      • इस रोग में यकृत सामान्य से अधिक बड़ा हो जाता है। हेपेटाइटिस का सबसे प्रधान लक्षण है त्वचा एवं आँखों के सफेद भाग का पीला पर जाना, जिसे आम भाषा में जॉण्डिस कहते हैं ।
      • इस रोग का टीका उपलब्ध है ।
4. Bacteriophage (बैक्टीरियोफेज)
  • वैसे विषाणु जो जीवाणु पर आक्रमण करते हैं बैक्टीरियोफेज कहलाते हैं। बैक्टीरियोफेज एक प्रकार का वाइरस है।
  • बैक्टरियोफेज का सर्वप्रथम खोज ट्वार्ट तथा डी हेरेल ने 1917 में किया था । यह विषाणु प्रोटीन एवं DNA के बने होते हैं। विषाणु की आकृति मनुष्य के शुक्राणु कोशिका की तरह होता है।
  • बैक्टरियोफेज केवल जीवाणु पर ही आश्रीत रहता है तथा उन सभी स्थानों पर पाये जाते हैं जहाँ जीवाणु की उपस्थिति होती है ।
  • गंगा जल में बैक्टीरियोफेज विषाणु पाये जाते हैं ये पानी को सड़ाने वाले जीवाणु का भक्षण करते रहता है यही कारण गंगा-जल काफी अधिक दिन होने पर भी खराब नहीं होता है।
5. Bacteria (जीवाणु)
  • जीवाणु सर्वव्यापी सूक्ष्मजीव है यह वायु, जल, भूमि- - हर जगह मौजूद है। जीवाणु की खोज सर्वप्रथम ल्यूवेनहॉक ने किया था उन्होंने इसका नाम animalcule रखा था । एहरनबर्ग द्वारा जीवाणु (Bacteria) नाम दिया गया।
  • सर्वप्रथम लूई पाश्चर उसके बाद कोच ने पता लगाया की जीवाणु द्वारा मनुष्य में रोग फैलते हैं। जीवाणु में पाये जाने वाला सामन्य लक्षण-
    1. जीवाणु प्रोकैरोटीक कोशिका है जिसमें कोशिका भित्ती पायी जाती है। जीवाणु की कोशिका भित्त सेलुलोज से न बनकर पेप्टीडोग्लाइकन की बनी होती है।
    2. जीवाणु अधिकांसतः परपोषी होते है। कुछ जीवाणु स्वपोषी भी होते हैं। स्वपोषी जीवाणु सायनोबैक्टीरिया कहलाते हैं। सायनोबैक्टीरिया में क्लोरोफील पाया जाता है जिससे वे प्रकाश-संश्लेषण कर पाते हैं ।
    3. विभिन्न जीवाणु का औसत आकार 1 μm से लेकर 5 μm तक होता है।
    4. जीवाणु के अनेक रूप होते हैं। जीवाणु के रूप के आधार पर विभिन्न नाम दिया गया है-
      • गोल आकार के जीवाणु को - कोकाई (Cocci) कहते हैं।
      • घन आकार के गोल जीवाणु को - सारसीना (Sarcina) कहते हैं।
      • छड़ आकार के जीवाणु को - बैसीलस (Bacillus ) कहते हैं ।
      • सर्पिल आकार जीवाणु को - स्पाइरिला (Spirilla) कहते हैं।
      • कॉमा आकार जीवाणु को - वाइब्रियो (Vibrio) कहते हैं।
    5. जीवाणु में जनन प्रायः विखंडन (Fission) द्वारा अलैंगिक जनन होता है।
  • जीवाणु से होने वाला आर्थिक लाभ-
    1.  जीवाणु पारिस्थितिकी तंत्र में अपघटक का कार्य करते हैं। ये मृत जीव शरीर में फँसे कार्बनिक एवं अकार्बनिक तत्व को मिट्टी एवं वातावरण में मुक्त करते हैं।
    2. कुछ जीवाणु जैसे- एजोटोबैक्टर, क्लोरास्ट्रीडियम, राइजोबीयम (लेग्यूमिनोसीकुल के पौधा) पौधों के जड़ों में सहजीवी के रूप में तथा ये जीवाणु हवा में उपस्थित स्वतंत्र नाइट्रोजन ग्रहण करके नाइट्रोजन यौगिक में बदलते हैं जो खेती के लिए बहुत लाभप्रद होते हैं।
      • ऐसे जीवाणु जो स्वतंत्र नाइट्रोजन को नाइट्रोजन के यौगिक में बदलते हैं उसे नाइट्रोजन स्थितिकारक जीवाणु कहते हैं ।
    3. ई. कोलाई जीवाणु मानव के पाचनतंत्र में पाये जाते हैं तथा पाचन क्रिया में सहायक है। ये जीवाणु भोजन के साथ आये हानिकारक जीवाणु को खाकर हमारी रक्षा करते हैं।
    4. रोमन्थी जीव (जुगाली करने वाला जीव ) के अमाशय में सेलुलोज पचाने वाला बैक्टीरिया होता है। इन प्राणियों द्वारा खाए गये घास के सेल्युलोज को केवल उनके अमाशय में मौजूद जीवाणु ही पचा सकते हैं ।
    5. दूध को दही में परिवर्तित जीवाणु ही करते हैं लैक्टोबैसिलस जीवाणु दूध के लैक्टोस शर्करा को लैक्टीक अम्ल में बदलता है, जिससे दही बनता है ।
    6. जीवाणु द्वारा मक्खन तथा पनीर में विशेष सुगंधी लायी जाती है। इस क्रिया को राइपेंनिग कहते हैं ।
    7. बेसीलस मेगाथीरियम, माइक्रो कोक्कस जीवाणु द्वारा क्रमशः चाय तथा तंबाकू के पत्तों में सुगंध पैदा किया जाता है। इस जीवाणु का उपयोग नील के निर्माण, में चमड़े के शोधन में तथा जूट के रेशों को अलग करने में होता है।
    8. आजकल अधिकांस एंटीबायोटीक औषधि जीवाणु से तैयार किये जाते हैं। जीवाणु के बहुत सी जातियों द्वारा रोग-प्रतिरोधक टीका भी तैयार किये जाते हैं।
जीवाणु के प्रमुख हानिकारक क्रियाएँ
  1. बहुत से जीवाणु बिषैले पदार्थों को स्रावित कर खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना देते हैं। जैसे- स्ट्रेप्टोकोक्कस, क्लोस्ट्रिडियम बोटुलिनियम आदि ।
  2. कुछ जीवाणु मिट्टी में अवस्थित नाइट्रोजन यौगिक को स्वतंत्र नाइट्रोजन में बदल देते हैं जिससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती है।
    • ऐसे जीवाणु जो नाइट्रोजन यौगिक को स्वतंत्र नाइट्रोजन में तोड़ते हैं। विनाइट्रीकारी (Dentrification) जीवाणु कहलाते हैं। जैसे- स्यूडोमोनस, थायोबसिलस
  3. स्पाइरोकीट साइटीफाज जीवाणु रूई के रेशों को नष्ट कर देते हैं ।
  4. कुछ जीवाणु पेनिसिलेज नामक एंजाइम का निर्माण करते हैं जिसके प्रभाव से पेनीसीलिन एंटीबायोटीक का प्रभाव नष्ट हो जाते हैं।
  5. जीवाणु पौधों में रोग फैलाते हैं। प्रमुख रोग जो जीवाणु द्वारा पौधों में होता है।
    • आलू का विल्ट रोग या शैथिल रोग
    • गन्ना में लालधारी रोग
    • चावल का अंगमारी रोग
    • नींबू तथा टमाटर का कैंकर रोग
    • सेब और नाशपाती का निरजा रोग या अग्निनीरजा रोग
    • बंदगोभी का काला विलगन रोग
    • गेहूँ का विलगन रोग
    • गेहूँ का टुन्डु रोग
  6. जीवाणु द्वारा मानव में होने वाला प्रमुख रोग-
    • क्षयरोग या टी.वी. (Tuberculosis)
      • यह रोग माइकोबैक्टीरियम टिउबरकुलोसिस जीणु के कारण होता है। यह जीवाणु शरीर में जहरीला पदार्थ टिउबरकुलीन स्त्रावित करता है जो मुख्य रूप से फेफड़ा के कोशिका को नष्ट करने लगता है।
      • इस रोग के लक्षण धीरे-धीरे प्रकट होते हैं। करीब 3 महीने से ज्यादा खांसी के साथ-साथ हल्का बुखार इस रोग के प्रारंभिक लक्षण हैं।
      • इस रोग के जीवाणु प्रायः रोगी के थूक, कफ, तथा खाँसी से फैलता है। टी. वी. हमारे देश का एक प्रमुख बिमारी है। भारत की 10 प्रतिशत जनसंख्या इसकी चपेट में है तथा प्रतिवर्ष 5 प्रतिशत लोगों की मृत्यु टी. वी. के कारण होता है।
      • इस रोग का उपचार संभव है परंतु दबाई का सेवन बहुत ही लंबी अवधि तक अनिवार्य रूप से लेना होता है। बच्चों को टी. वी. से बचाव हेतु जन्म के समय ही BCG (Bascills Calmette Guerin) का टीका दिया जाता है ।
      • प्रतिवर्ष 24 मार्च को विश्व टी. वी. दिवस मनाया जाता है।
    • टाइफॉइड (Typhoid)
      • यह रोग सलमोनेला टाइफी नाम बैक्टीरिया से होने वाल संक्रामक रोग है । यह बैक्टीरिया पेयजल, भोजन, दूध, कच्चेफल, सब्जी के माध्यम से स्वस्थ शरीर में प्रवेश करता है ।
      • यह रोग बच्चों को प्रायः होता है। इस बिमारी का प्रारंभिक लक्षण है कमजोरी, सिरदर्द, तेज बुखार । टाइफॉइड बुखार संक्रमित व्यक्ति को तीन सप्ताह तक लगा रहता है।
      • टाइफाइड बचाव हेतु प्रत्येक व्यक्ति को हर 3 वर्ष के बाद TAB (typhoid antibacterial) टीका लगवानी चाहिए।
    • न्यूमोनिया (Pneumonia)
      • इस रोग स्ट्रेप्टोकोकस न्यूमोनी जीवाणु के कारण होता है। इस रोग में फेफड़ा में स्थित वायुकोष्ठ (Alveoli) का तरल सूख जाते हैं। जिससे सॉस लेने में कठिनाई होती है।
      • ज्वर, खाँसी, सिरदर्द इस रोग के सामान्य लक्षण है।
    • हैजा (Cholera)
      • यह बिब्रियो कॉलेरी नामक जीवाणु के कारण होने वाला संक्रामक रोग है I
      • इस रोग के जीवाणु आंत में पहुँचकर विषाक्त पदार्थ स्त्रावित करता है जिससे रोगी को बार-बार पानी जैसा पाखाना (दस्त), उल्टी, होते रहता है।
      • इस रोग से बचाव हेतु टीका उपलब्ध है।
    • एंथ्रेक्स (Anthrax)
      • यह रोग बैसिलस एंथेसिस जीवाणु के कारण प्रायः पालतू पशु गाय, भैंस, बकरी को होता है फिर पालतू पशु के संपर्क में आने पर मनुष्य को भी हो जाता है।
      • इस जीवाणु का संक्रमण होने से प्रारंभिक लक्षण है- सर्दी, सॉस लेने में दिक्कत, भूख में कमी आदि ।
  7. मनुष्य में जीवाणु द्वारा होने वाला अन्य रोग है- डिप्थीरिया, प्लेग, टिटनस, कालीखाँसी, कोढ़ (Leprosy)
    • Germ Theory of Disease:
      • रॉबर्ट कोच ने सर्वप्रथम यह प्रमाणित किया कि सूक्ष्मजीव मानवों में रोग फैलाते हैं। उन्होंने एंथ्रेक्स रोग के जीवाणु का पता लगाकर इसे प्रमाणित किया था। रॉबर्ट कोच का यही मत Germ Theory of Disease कहलाता है।
प्रोटिस्टा जगत प्रमुख सूक्ष्मजीव
  • प्रोटिस्टा वर्ग में जलीय, एककोशकीय तथा यूकैरेओटिक कोशिका का बना होता है। इस जगत के जीवों में प्रचलन अंग के रूप में सीलिया, फ्लैजिला, तथा कूट पाद पाये जाते हैं। 
  • प्रोटिस्ट जगत के सूक्ष्मजीव स्वपोषी तथा परपोषी दोनों स्वभाव के होते हैं। स्वपोषी प्रोटिस्ट के अंतर्गत मुख रूप से एककोशिकीय शैवाल आते हैं। परपोषी के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के प्रोटोजोआ आते हैं-
  1. यूग्लीना (Euglina)
    • यह एककोशकीय मुक्तजीवी जीव है। इसमें प्रचलन अंग के रूप में फ्लेजिला पाये जाते हैं। यूग्लीना स्वपोषी तथा परपोषी दोनों प्रकार का जीवन व्यतीत करता । इसमें पौधे के समान क्लोरोफील पिंगमेट पाये जाते हैं। जिससे यह प्रकाश-संश्लेषण करने में समर्थ है।
    • यूग्लीना को हरा प्रोटोजोआ भी कहते हैं। इसे पौधा तथा जंतु के बीच का योजक कड़ी माना जाता है । यूग्लीना के कोशिका में कोशिका भित्ती नहीं पायी जाती है।
  2. पैरामीशियम (Paramoecium)
    • यह एक प्रोटोजोआ है जिसमें सिलिया के द्वारा प्रचलन होता है। इस प्रोटोजोआ का आकार चप्पल से मिलता है जिसके कारण इसे चप्पल जंतु भी कहते हैं ।
  3. प्लाज्मोडियम (Plasmodium)
    • यह एक परजीवी प्रोटोजोआ है जिससे मलेरिया रोग फैलता है। प्लाज्मोडियम को जीवनचक्र पूरा करने हेतु दो पोषक (host) की जरूरत होती है। इसका प्रधान पोषक मनुष्य है। दूसरा पोषक मादा एनोफीलीज मच्छड़ है।
    • यह प्रोटोजोआ एनोफीलीज मच्छड से मनुष्य में पहुँचता है। इसके जीवन चक्र की कई अवस्थाएँ होती हैं। जब यह मनुष्य के रक्त के RBC में मेरोज्वाइट (Merezvite) अवस्था में आता है तब RBC के हिमोग्लोबीन नष्ट होने लगता है।
    • मलेरिया रोग में कंपन के साथ बुखार रक्त में RBC कोशिका की कमी, प्लीहा का आकार काफी बढ़ जाता है।
    • इस रोग हेतु कोई टीका नहीं बना है। इस रोग की मशहुर दवा है- कुनैन जो सिनकोना की छाल से प्राप्त होता है।
    • सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीच्यूट लखनऊ के वैज्ञानिक द्वारा अंटेमिसिया नामक पौधा से आर्टीथिर नामक पदार्थ निकाला है, जो कुनैन के तरह ही प्रभावी है।
    • इस रोग का नाम मेकुलॉक द्वारा प्रस्तावित किया गया था। सी. एल. ए. लैवेरान नामक प्रांसिसि डॉक्टर ने मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम की खोज की इसके लिए लैवेरान को 1907 में नोबेल पुरस्कार मिला था। सर रोनैल्ड रॉस जो एक ब्रिटिश डॉक्टर थे उन्होंने यह पता लगाया मलेरिया, मलेरिया परजीवी के कारण होता है । रौनैल्ड रॉस की इस कार्य हेतु 1902 में नोबेल पुरस्कार मिला ।
  4. लीशमैनिया डोनोवानी (Leishmena Donovan)
    • इस प्रोटोजोआ के कारण मनुष्य में कालाजार रोग होता है। कालाजार रोग को Black fever भी कहते हैं। कालाजार का संक्रमण बालू मक्खी द्वारा होता है।
    • बालू मक्खी नम मिट्टी मिट्टी के दरारों के बीच चूहे के बिल में रहती है। यह मक्खी कम रौशनी वाले जगह पर ही रहता है।
    • कालाजार के मुख्य लक्षण है दो हफ्ते से ज्यादा समय बुखार, खून की कमी (एनीमिया) जिगर और तिल्ली का बढ़ना, भूख न लगना ।
    • इस रोग का उपचार उपलब्ध है।
  5. ट्रिपैनोसोमा गैम्बीयेन्स (Tryponosema Gambiens)
    • यह प्रोटोजोआ मनुष्य के रक्त में पाये जाते हैं और Sleeping sickness रोग फैलाता है।
    • इस रोग को Human African trypanosomiasis रोग भी कहा जाता है। ट्रिपैनोसोमा प्रोटोजोआ मनुष्य में सी-सी मक्खी ( Tse Tese fly) द्वारा पहुँचता है।
    • प्रारंभिक लक्षण देखने पर ही इसका उपचार नहीं हुआ तो यह प्रोटोजोआ केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर उसे नष्ट करने लगता है तब यह रोग जानलेवा साबित होता है।
  6. एण्ट अमीबा जिन जिवैलिस (Antamoeba Gingavalis)
    • यह अमीबा समूह का प्रोटोजोआ है जिसके द्वारा मनुष्य में पायरिया रोग होता है ।
    • पायरिया रोग दाँत तथा मसूढ़ा खराब हो जाते हैं। यह दाँतों का सामान्य रोग है जिसका उपचार आसानी से हो जाता है ।
  7. एण्ट अमीबा हिस्टोलिटिका (Antamoeba histolytica)
    • यह अमीबा श्रेणी का प्रोटोजोआ है जिसके द्वारा मनुष्य में अमीबीय पेचिश (Amoebic Dysentery) रोग होता है।
    • यह प्रोटोजोआ मनुष्य के आंत में प्रवेश कर कोशिका को नष्ट करने लगता है जिससे संक्रमित व्यक्ति को पेट में दर्द तथा मल के साथ रूधिर निकलते रहते हैं। यह पेचिश रोग का सामान्य लक्षण है ।
    • इस रोग का उपचार उपलब्ध है। इस रोग में काम आने वाले प्रमुख एंटीबायोटीक है- टेरामाइसीन, एरिथ्रोमाइसिन आदि ।
  8. एण्ट अमीबा कोलाई
    • यह प्रोटोजोआ मनुष्य के बड़ी आंत के कोलेन में उपस्थित रहता है। यह मनुष्य के लिए हानिकारक नहीं होता है क्योंकि यह प्रोटोजोआ स्वस्थ कोशिका को क्षति नहीं पहुंचाती है।
    • यह प्रोटोजोआ कोलेन में पहुँचे अपच भोजन में उपस्थित जीवाणु का भक्षण करता है।
  9. अमीबा (Amoeba)
    • अमीबा एक साधारण प्रोटोजोआ है जो समुद्री जल, सादे जल तथा नम भूमि पर पाये जाते हैं। अमीबा में प्रचलन अंग के रूप में कूटपाद (Pseudopodia) पाये जाते हैं जिसका उपयोग यह भोजन ग्रहण करने में भी करता है ।
    • अमीबा का आकार निश्चित नहीं रहता है इसका आकार हमेशा बदलते रहता है।
    • किसी भी प्रोटोजोआ में कोशिका भित्ती (Cell wall) नहीं होती है। प्रोटोजोआ यूकैरियोट है।
कवक जगत Fungi kingdom
  • इस जगत में बहुकोशिकीय पौधों को रखा गया है। जिसमें कोशिका भित्ती तो है परन्तु क्लोरोफील इसमें नहीं पाये जाते हैं। कोशिका भित्ती की उपस्थिति के कारण कवक को पौधा ही माना गया है ।
  • कवक को कोशिका भित्ती सेलुलोज से न बनकर काइटीन की बनी होती है। इसमें जीवों की तरह ग्लाइकोजेन संचित भोजन के रूप में जमा रहते हैं।
  • अधिकांश कवक बहुकोशिकीय होते हैं। कुछ कवक एककोशिकीय भी होते है, यीस्ट एककोशिकीय कवक है ।
  • कवक परजीवी, सहजीवी और मृतजीवी हो सकते हैं, ये हर जगह तथा सभी परिस्थितियों में पाये जाते हैं। कुछ कवक स्थान विशेष पर ही उगते हैं जिन्हें विशेष नाम से संबोधित करते हैं जैसे- पेड़ की छाल पर उगने वाले कवक को-कोकोलस, गोबर पर उगने वाले कवक को-कोप्रोफीलस, चट्टान पर उगने वाले कवक को सेक्सीकोल्स कहते हैं ।
  • कवक के शरीर की संरचना धागे के जाल समान होते हैं। इस जाल को कवक जाल या माइसीलीयम कहते हैं। प्रत्येक कवक जाल से तंतु के समान संरचना निकलती है जिसे हाइफा कहते हाइफा के द्वारा ही कवक पोषी जीव के शरीर से पोषक पदार्थ ग्रहण करते हैं। 
  • प्रमुख लाभदायक कवक- 
    1. कवक का उपयोग भोजन के रूप में होता है। रोमेरिया, कलेवेसिया, एगेरिकस कवक को मशरूम के रूप में खाया जाता है। मशरूम को खाद्यछत्रक भी कहा जाता है ।
    2. यीस्ट कवक की प्रजाति सेकरोमाइसीज सेरेवेसी का उपयोग, शराब, बियर उद्योग तथा डबल रोटी को नरम तथा स्पंजी बनाने के में किया जाता है
    3. क्लेवीसेप्स परप्यूरिया कवक से Ergot प्राप्त होता है जिससे नशीले ड्रग तैयार होते हैं।
    4. प्रथम प्रतिजैविक पेनीसीलीन का निर्माण पेनीसीलीयम नोटेटम कवक से हुआ था ।
    5. कवक पारिस्थितिकी तंत्र में अपघटक की भूमिका अदा करते हैं ।
  • प्रमुख हानिकारक कवक
    1. कवक से एल्फाटॉक्सीन बिष स्त्रावित होता है जो पालतु पशु को हानि पहुँचाता है।
    2. कवक से विभ्रमी पदार्थ LSD (Lysergic acid diethylamide) प्राप्त होता है |
    3. कवक पौधों में कई भयंकर बिमारी को फैलाता है। कवक द्वारा पौधा में होने वाला रोग-
      1. आलू का लेट ब्लाइंट (Late Bliglet) रोग फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेन्स कवक के कारण होता है।
      2. मूँगफली का टिक्का रोग साकोस्पोरा पर्सीनेटा कवक के कारण होता है।
      3. गन्ने का लाल सडन रोग
      4. चने का विल्ट रोग
      5. बाजरे का ऑगर्ट रोग
      6. धान का प्रध्वंस रोग (Blast of rice) आदि ।
      7. आलू का अंगभारी रोग
      8. अंगूर का पाउडरी मिल्डयू
      9. गेहूँ का लाल रस्ट
      10. सरसों का सफेद किट्ट रोग
    4. कवक मनुष्य में कई रोगों को फैलाते हैं प्रमुख रोग-
      1. एथलीट फुट - ट्राइकोफाइटॉन कवक से
      2. खाज - सरकॉप्टस स्केबीज कवक से 
      3. दाद - ट्राइकोफाइटॉन कवक से
      4. गंजापन – टिनिया केपेटिस कवक से
      5. एस्पर्जिलेसिस (फेफड़ा रोग)

अभ्यास प्रश्न

1. ऐसे जीव जिन्हें सामान्यतः खुले आँखो से नही देखा जा सकता है, जिन्हें देखने के लिये सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता पड़ती है, उसे कहते है-
(a) सूक्ष्मजीव
(b) सूक्ष्मअणु
(c) परमाणु
(d) कैलोज
2. मनुष्य के आँखों की रिजॉल्विंग पावर कितनी होती हैं ?
(a) 10 μ
(b) 100 μ
(c) 0.01 μ
(d) 0.001 μ
3. सूक्ष्मदर्शी (Microscope) का आविष्कार किसने किया था ?
(a) रॉबर्ट हुक
(b) नॉल तथा रस्का
(c) जेन्सेन तथा जेन्सेन
(d) ल्यूवेनहाँक
4. संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (compound Microscope) का आविष्कार किसने किया था ?
(a) अरस्तू
(b) ल्यूवेनहाँक
(c) रॉबर्ट हुक
(d) नॉल तथा रस्का
5. इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का आविष्कार किसने किया था?
(a) रॉबर्ट हुक
(b) नॉल तथा रस्का
(c) जेन्सेन तथा जेन्सन
(d) ल्यूवेनहॉक
6. वाइरॉयड्स (Viroids) का खोज किसने किया ?
(a) थियोडोर डायनर 
(b) एडॉल्फ मायर
(c) स्टैनले
(d) एफ. सी. वॉर्डन
7. निम्नलिखित में कौन सा कथन वाइरॉयड्स के विषय में सही नहीं है ?
(a) यह सिंगल स्ट्रेण्डेड RNA के मॉलिक्यूल है।
(b) यह केवल पौधों में पाये जाते है तथा कई प्रकार के बीमारियाँ पैदा करते है।
(c) वाइरॉइड्स के अणु एक पौधे से दूसरे पौधे में स्थानांतरित नहीं हो सकते है :
(d) वाइरॉयड्स परपोषी (Host) के एंजाइम के मदद से गुणन (Replication) करते है
8. प्रियॉन (Prion) है-
(a) न्यूक्लिक एसीड से बना अणु
(b) असामान्य प्रोटीन अणु जो मस्तिष्क की कोशिकाओ द्वारा निर्मित होते है
(c) एक प्रकार का विषाणु
(d) एक प्रकार का जीवाणु
9. बकरी तथा भेड़ में तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करने वाला रोग स्क्रापी (Scrapie) किसके कारण होता है ?
(a) वाइरस
(b) बैक्टीरिया
(c) प्रोटोजोआ
(d) प्रियॉन
10. मनुष्य में क्रोयुटसल्फेट - याकोब (Creutzfellt-yakob) बिमारी किसने कारण होता हे ?
(a) विषाणु
(b) प्रियॉन
(c) जीवाणु
(d) प्रोटोजोआ
11. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. PrPc प्रियॉन रोग उत्पन्न नहीं करते है
2. PrPsc प्रियॉन रोग उत्पन्न करने के योग्य हो जाते हैं।
उपर्युक्त में कौन-सा /से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
12. असामान्य प्रोटीन अणु 'प्रियॉन' कितने अमीनो अम्ल के बने होते है?
(a) 20
(b) 200
(c) 250
(d) 254
13. गाय-बैल में होने वाला मेड-कॉउ बिमारी या BSE का कारण है-
(a) प्रियॉन
(b) जीवाणु
(c) प्रोटोजोआ
(d) त्रिषाणु
14. सूक्ष्मजीवो की खोज सर्वप्रथम किसने की ?
(a) ल्यूवेनहॉक 
(b) फले मिंग
(c) लुइस पाश्चर
(d) जेनर
15. “माइक्रोबायलोजी के जनक" किसे कहा जाता है ? 
(a) लुइस पाश्चर को
(b) ल्यूवेनहॉक को
(c) एडवर्ड जेनर को
(d) रॉबर्ट हुक को
16. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. सूक्ष्मजीवों की श्रेणी मे सभी एक कोशिकीय सजीव को रखा गया है।
2. कुछ बहुकोशिकीय सजीव जैसे- कवक एवं कुछ शैवाल भी सूक्ष्मजीव के श्रेणी में आते है।
3. सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते है, सभी प्रकार के जलवायु और परिस्थितियों में पाये जाते है।
उपर्युक्त कथनों में कौन-कौन से कथन सही है ?
(a) 1 और 2 
(b) 2 और 3
(c) 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
17. निम्नलिखित में से कौन सा कथन सही नहीं है?
(a) सभी वाइरस परजीवी होते है
(b) वाइरस भोज्य पदार्थों के लिये परपोषी (host) पर निर्भर होते है
(c) वाइरस प्रोटीन और न्यूक्लिक एसिड से मिलकर बने होते हैं
(d) वाइरस में श्वसन की क्रिया होती है।
18. होस्ट कोशिका के बाहर वाइरस जब कण के रूप में रहता है, तब उसे क्या कहते है ?
(a) विरियॉन 
(b) प्रियॉन 
(c) रेयॉन
(d) मोजैक
19. पौधों में विषाणु (Virus) द्वारा उत्पन्न बिमारी का अध्ययसर्वप्रथम किस पौधों में किया गया था ?
(a) धान 
(b) तम्बाकू
(c) आलू
(d) नीम
20. तंबाकू में मोजैक बिमारी वाइरस द्वारा होता है, इसका पता सर्वप्रथम किसने लगाया था ?
(a) ऐल्डोफ मायर 
(b) आइवेनोस्की
(c) स्टैनले
(d) वेजरइंक
21. सर्वप्रथम रोगी पौधे से वायरस को रवेदार रूप (Crystelline form) में प्राप्त करने वाला वैज्ञानिक था-
(a) मायर
(b) आइवेनोस्की
(c) स्टैनले
(d) बेजरइंक
22. वाइरस -
(a) प्रोकैरियोट जीव है
(b) यूकैरियोट जीव है
(c) न तो प्रोकैरियोट है और न ही यूकैरियोट
(d) इनमें से सभी
23. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. वाइरस में श्वसन नहीं होता है
2. वाइरस केवल जीवित कोशिकाओं में ही जनन कर सकते है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
24. टोबैको मोजैक वाइरस में न्यूक्लिक एसीड होता है ?
(a) RNA
(b) DNA
(c) RNA तथा DNA दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
25. निम्नलिखित में कौन-सी बीमारी वाइरस द्वारा नहीं होती है ?
(a) चेचक
(b) इंफ्लूएन्जा
(c) हर्पिस
(d) डिप्थीरिया
26. सर्वप्रथम विषाणु की खोज किसके द्वारा किया गया ?
(a) इवानोवस्की द्वारा
(b) स्टैनले द्वारा
(c) स्मिथ द्वारा
(d) स्टाकमैन द्वारा
27. विषाणु माने जाते है-
(a) निर्जीव पदार्थ
(b) सजीव पदार्थ
(c) सजीव और निर्जीव के बीच का ट्रान्जीशनल ग्रुप
(d) सजीव गुणन की शक्ति खो चुके है
28. H.I.V (Human Immuno Deficiency Virus) द्वारा होने वाला रोग है-
(a) क्षयरोग
(b) कैंसर 
(c) एड्स
(d) चेचक
29. एड्स का कारण है-
(a) T-4 लिम्फोसाइट्स की कमी
(b) उच्च रक्त दाब
(c) राइबोफ्लेविन की कमी
(d) जीवाणु संक्रमण
30. A.I.D.S फैलता है-
(a) हाथ मिलाने से 
(b) श्वास सम्पर्क से
(c) कीटो से
(d) शरीरिक सम्पर्क से
31. एड्स देने वाले वायरस की पहचान किस वर्ष हुई थी ?
(a) 1980
(b) 1981
(c) 1983
(d) 1986
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Sat, 20 Apr 2024 05:57:22 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | ऊतक विज्ञान https://m.jaankarirakho.com/996 https://m.jaankarirakho.com/996 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | ऊतक विज्ञान
  • समान आकार के कोशिकाओं का समूह जो आपस में मिलकर एक सामान्य कार्य करते हैं, उत्तक कहलाते हैं। उत्तक कोशिका का समूह है, एक उत्तक की सभी कोशिका आकार, कार्य और उत्पत्ति में समान होती है ।
  • पौधा तथा जंतु की कोशिका लगभग समान होते हैं परंतु पौधा तथा जंतु के उत्तक अलग-अलग होते हैं।
पादप उत्तक (Plant Tissue)
  • पौधों को उत्तक के कोशिकाओं की विभाजन क्षमता के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है-
  1. विभज्योतकी उत्तक (Meristematic Tissue) तथा 2. स्थायी उत्तक ( Parmanent Tissue)
  1. विभज्योतकी उत्तक-
    • यह उत्तक ऐसी कोशिका की बनी होती है जिनमें विभाजन की क्षमता होती है । उत्तक की कोशिकाएँ गोल, अंडाकार या बहुभुजी होता है।
    • इस उत्तक के कोशिका के बीच खाली जगह (Intercellular Space) नहीं होता है। कोशिका में कोशिका द्रव्य प्रचुर मात्रा में भरी रहती है परन्तु इन कोशिका में रिक्तिता (Vacuoles) छोटी होती है अथवा नहीं होती है।
    • स्थिति के आधार पर विभाज्योतिकी उत्तक को तीन भागों में बाँटा गया है।
      1. Apical Meristem ( शीर्षस्थ विभाज्योतिकी) - यह उत्तक तने के अग्र भाग में रहते हैं। इस उत्तक में विभाजन के फलस्वरूप ही पौधा लंबाई में बढ़ते हैं। पौधा की लंबाई बढ़ना प्राथमिक वृद्धि (Primary Growth) कहलाता है।
      2. Lateral Meristem (पार्श्व विभाज्योतिकी) — ये उत्तक तने और जड़ों के किनारे में होते है। इस उत्तक में विभाजन के फलस्वरूप पौधा का मोटाई बढ़ता है। पौधा का मोटाई बढ़ना द्वितीयक वृद्धि कहलाता है। पार्श्व विभाज्योतिकी उत्तक को कैम्बियम (Cambium) भी कहते हैं । 
      3. Intercalary Meristem (अंतर्वेशी विभाज्योतिकी)- ये शीर्षस्थ विभाज्योतिकी उत्तक के ही भाग है जो वृद्धि होने के कारण अग्रभाग से हट जाता है। यह उत्तक प्रायः पत्तियों के आध र पर तनों के पर्व (Inter Node) तथा पर्वसंधि (Node) के पास पाये जाते हैं। यह उत्तक शीघ्र ही स्थायी उत्तक में बदल जाते हैं ।
  2. Parmanent Tissue (स्थायी उत्तक)
    • विभाज्योतिकी उत्तक की कोशिकाएँ लगातार विभाजित होकर स्थायी उत्तक बनाता है ।
    • स्थायी उत्तक दो प्रकार के होते हैं- (i) साधारण स्थायी उत्तक (Simple parmanent Tissue) तथा -(ii) जटिल स्थायी उत्तक (Complex Parmant Tissue)

(i) साधारण उत्तक (Simple Tissue)

      • इस उत्तक में समान आकार के कोशिका पाये जाते हैं तथा सभी कोशिका मिलकर समान कार्य करती है ।
      • साधारण स्थायी उत्तक तीन प्रकार के होते हैं।
A. Parenchyma ( मृदुतक)
  • पेरेनकाइमा उत्तक जीवित कोशिका का बना होता है। इस उत्तक की कोशिका प्रायः गोलाकार, अंडाकार या बहुभुजी होता है। इन उत्तक के कोशिका के बीच खाली स्थान (Intercellular Space) पाये जाते हैं।
  • यह उत्तक पौधों के सभी कोमल भाग में पाये जाते हैं। यह उत्तक जाइलम और फ्लोएम के मिर्माण में भी भाग लेते हैं।
  • इस उत्तक का प्रधान कार्य भोज्य पदार्थों को जमा करके रखना है।
  • कुछ पेरेनकाइमा उत्तक में क्लोरोप्लास्ट भी पाये जाते हैं जिसके कारण यह उत्तक पौधों में प्रकाश संश्लेषण भी करते हैं। जिस पेरेनकाइमा उत्तक में क्लोरोप्लास्ट रहता है, उसे हरित उत्तक (Chlorenchyma) कहते हैं ।
  • जलीय पौधा का पेरेनकाइमा उत्तक वायुतक (arenchyma) में बदल जाता है । वायुतक जलीय पौधा को तैरने में मदद करता है।
B. Collenchyma (स्थूल कोण उत्तक)
  • यह उत्तक भी जीवित कोशिकाओं का बना होता है लेकिन कोशिकाओं के बीच खाली स्थान बहुत कम होते हैं I
  • इस उत्तक की कोशिका लंबी, गोल अनियमित ढंग से कोणों पर मोटी होती है। सेलुलोज के अधिकता के कारण इस कोशिका की कोशिका मित्ती (Cellwall) मोटी होती है।
  • यह उत्तक केवल कमजोर पौधों में ही पाये जाते हैं तथा पौधों को प्रत्यास्थता प्रदान करते हैं। बड़े वृक्षों में इस उत्तक का अभाव रहता है।
  • कभी-कभी इस उत्तक में हरित लवक (Chloroplast) भी पाये जाते हैं। जिससे कुछ मात्रा में यह प्रकाशसंश्लेषण द्वारा भोजन तैयार करते हैं।
C. Sclerenchyama (दृढ़ उत्तक) 
  • यह उत्तक मृत कोशिका के बने होते हैं। इस उत्तक की कोशिका लम्बी, सँकरी तथा मोटी कोशिका भित्ती वाले होते हैं।
  • इस उत्तक के कोशिका के बीच कोई खाली जगह नहीं होता है। इस उत्तक के कोशिकाओं में लिग्निन नामक रसायन पाया जाता है, यह रसायन कोशिका को काफी मजबूत बना देता है।
  • यह उत्तक बीज तथा फलों के ऊपर मजबूत आवरण बनाते हैं। पौधों से प्राप्त जूट, सनई, पटवा, दृढ़उत्तक है।
  • यह उत्तक पौधा को यांत्रिकी सहायता पहुँचाते हैं तथा पौधा के आंतरिक भाग को सुरक्षा देते हैं।

(ii) जटिल उत्तक (Coplex Parmanent Tissue)

  • जटिल उत्तक विभिन्न आकार की कोशिका के बने होते हैं परन्तु सभी कोशिका एक इकाई के रूप में कार्य करते हैं।
  • जटिल उत्तक दो प्रकार के हैं- A. Xylem तथा B. Phloem. Am
A. Xylem ( दारू)
  • जाईलम उत्तक चार प्रकार के कोशिकाओं का बना होता जाइलम उत्तक पूरे पौधे में पाया जाता है जिसका सर्वप्रमुख काम है जल का संवहन करना। इसके अलावे जाइलम पौधों को यांत्रिक सहायता देता है तथा भोजन संग्रह भी करता है ।
  • जाइलम जिस चार प्रकार के कोशिकाओं के बने हैं वे है- वाहिनीकाएँ ( Tracheids), वाहिकाएँ (Vessels), जाइलम तंतु (Xylem Fibres) तथा जलाइम मृदुतक (Xylem Parenchyma).
  • वाहिनिकाएँ का मुख्य काम है जल तथा घुलित खनिज पदार्थों को जड़ से पत्ती तक पहुँचाना। वाहिकाएँ तथा जाइलम तंतु पौधों का यांत्रिकी सहायता देता है तथा जाइलम मृदुतक भोजन संग्रह करता है ।
  • जाइलम उत्तक के जाइलम मृदुतक कोशिका ही जीवित रहता है बाकी सभी कोशिका मृत होती है।
B. Phloem (पोषवाह)
  • जाइलम के तरह फ्लोएम भी चार कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। ये चार कोशिकाएँ हैं- चालनी नालिका (Sieve Tubes), सहकोशिका (Campanion Cells), फ्लोएम तंतु ( Phloem Fibres), फ्लोएम मृदुतक (Phloemparchchyma).
  • फ्लोएम में फ्लोएम तंतु ही केवल मृत कोशिका है बाकी सभी जीवित कोशिका है।
  • फ्लोएम उत्तक जाइलम के साथ-साथ पौधे के सम्पूर्ण भाग में पाये जाते हैं। इसका मुख्य कार्य है पत्तियों द्वारा तैयार भोजन पौधों के सभी भागों में पहुँचाना।
पौधा का रक्षीउत्तक (Protective Tissue)
  • रक्षी उत्तक के अंतर्गत बाह्य त्वचा (Epidermis ) तथा कॉर्क (Cork) आते हैं।

A. बाह्य त्वचा ( Epidermis )

  • एपिडर्मिस की कोशिका पौधा के सभी भाग (जड़, तना, पत्ती) की रक्षा करता है। यह उत्तक पौधों को जल हानि, परजीवी कवकों के प्रवेश तथा विभिन्न प्रकार के अघातों से बचाता है।
  • मरूस्थलीय पौधों के एपिडर्मीस में क्यूटिन नामक जल अवरोधक रासायनिक पदार्थ बनता है, जो पौधों में जल-हानि को रोकता है।
  • जड़ों के एपीडर्मिस के मूलरोम ( Root hairs) पाये जाते हैं जो भूमि से जल एवं खनिज लवण को अवशोषित करते हैं।
B. कॉर्क (Cork)
  • समय के साथ-साथ जब जड़ तथा तना पुराने होते जाते हैं, तब तने के एपीडर्मिस का स्थान पर कॉर्क कैंबियम आ जाता हैं यही कॉर्क कैंबियम (पार्श्व विभाज्योतिकी) की कोशिका विभाजित होकर कॉर्क (छाल) का निर्माण करता है।
  • कॉर्क के सभी कोशिका मृत होती है। कॉर्क का मुख्य काम है- पौधों को सुरक्षा देना ।
  • कॉर्क में सुबेरीन नामक रसायन रहता है जिसके कारण कॉर्क से होकर जल एवं गैस नहीं जा सकता है।
  • कॉर्क का इस्तेमाल बोतल के कॉर्क बनाने, में खेल का समान बनाने में होता है। व्यापारिक कॉर्क क्वेकर्स सुबेर नामक पौधा से प्राप्त होता है ।
    • वार्षिक वलय (Annual rings)
      • विभिन्न ऋतुओं में मौसम बदलने के कारण कैम्बीयम (पार्श्व विभाज्योजिकी) की सक्रियता में परिवर्तन होता है। इस कारण पौधो में स्पष्ट वार्षिक वलय का निर्माण होता है ।
      • वार्षिक वलय पौधा के एक वर्ष के वृद्धि को दर्शाता है। पौधा में जितने वार्षिक वलय होते हैं पौधा की आयु उतनी ही मानी जाती है।
      • ऐसा क्षेत्र जहाँ सालोभर मौसम के समान होता है, वहाँ के पौधा में वार्षिक वलय नहीं बनते । समुद्र के आस-पास उगने वाले पौधा में वार्षिक वलय नहीं होते हैं क्योंकि समुद्र के आस-पास सालोभर मौसम समान रहता है।
जन्तु उत्तक (Animal Tissue)
  • जंतु में चार प्रकार के उत्तक पाये जाते हैं।
  1. Epithelium Tissue (उपकला उत्तक)
  2. Connective Tissue (संयोजी उत्तक)
  3. Muscular Tissue (पेशी उत्तक)
  4. Narvous Tissue (तंत्रिका उत्तक)
  1. Epithelium Tissue ( उपकला उत्तक)
    • एपीथीलीयम उत्तक अंगों के बाहरी भाग तथा आंतरिक भाग का निर्माण करती है। इस उत्तक के कोशिकाओं के बीच कोई रिक्त स्थान नहीं होता है।
    • एपीथीलीयम उत्तक का मुख्य कार्य अंगों का सुरक्षा प्रदान करना है। यह उत्तक शरीर के विभिन्न अंगों में पदार्थ के विसरण, स्त्रवण (Secretion) तथा अवशोषण में सहायता करते हैं ।
    • एपीथीलीयम उत्तक को चार भागों में बाँटा गया है-
      1. शल्की एपीथीलीयम ( Squamous epithelium)
        • यह उत्तक की आकृति फर्श या दिवार पर लगी चपटी ईट की तरह होती है।
        • त्वचा के बाहरी परत का निर्माण इसी उत्तक से होता है। इसके अलावे यह उत्तक रक्तवाहिनियों तथा अंगों के भीतरी स्तर का निर्माण करते हैं ।
      2. स्तंभाकार एपीथीलीयम (Columnar epithelium)
        • इस उत्तक की कोशिका लंबे होते हैं तथा कोशिका के मुक्त सिरे पर माइक्रो विलाई होते हैं।
        • यह उत्तक ऐसे अंगों के आंतरिक भाग का निर्माण करते हैं जहाँ अवशोषण या स्त्रवण का काम होते हैं। जैसे- आंत, अमाशय, पित्ताशय ।
      3. घनाकार एपीथीलीयम (Cuboidal epithelium)
        • इस उत्तक के कोशिका का आकार घन के समान होता है। यह उत्तक के द्वारा शरीर में ग्रंथि (glands) का निर्माण होता है।
        • प्रमुख ग्रंथि-
          1. स्वेद ग्रंथि (Sudoriferous Gland )- यह ग्रंथि स्तनधारी त्वचा के ऊपरी परत (Epidermis) में पाये जाते हैं। इनके द्वारा पसीने का स्त्राव होता है ।
          2. लैक्राइमल ग्रंथि (Lachrymal Glands)- यह ग्रंथि आँख में पायी जाती है, जिससे आँसू का स्त्राव होता है। आँसू में लाइसोजाम नामक विशेष इंजाइम पाये जाते हैं जिससे प्रभाव से आँख में आये हानिकारक सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं।
          3. मिस ग्रंथि (Ceruminous Glands) - यह स्तनधारी वर्ग के जीव के कान में पाया जाता है। इस ग्रंथि मोम के समान पदार्थ स्त्रावित होता है ।
          4. सीबम ग्रंथि (Sebum gland)- यह ग्रंथि त्वचा के डर्मिस (मीतरी परत ) में पायी जाती है। यह ग्रंथि एक प्रकार का तैलीय पदार्थ स्त्रावित करती है जिसे सीबम कहते हैं जो त्वचा एवं बालों को चिकना और जलरोधी बनाए रखता है।
      4. पक्ष्माभी उपकला (Ciliated epithelium)-
        • इस उत्तक की कोशिका लम्बी होती है तथा इसमें सिलिया (Cilia) पाये जाते हैं। यह उत्तक ट्रैकिया के भितरी सतह में, अंडवाहिनी (oviduct) गर्भाशय में पाये जाते हैं ।
        • यह उत्तक अंगों द्वारा स्त्रावित पदार्थ को सिलिया के द्वारा गति प्रदान करते हैं तथा पदार्थों को एक ही दिशा में जाने मदद करता है I
  2. Connective Tissue (संयोजी उत्तक) 
    • संयोजी उत्तक विभिन्न अंगों तथा उत्तकों को जोड़ने का काम करता है।
    • संयोजी उत्तक में कोशिकाओं की संख्या कम होती है तथा कोशिकाओं के बीच रिक्त स्थान ज्यादा होता है ।
    • उत्तक के कोशिकाओं के बीच खाली जगह में एक प्रकार के पदार्थ भरे रहते हैं इसे मैट्रीक्स कहते हैं । विभिन्न संयोजी उत्तक के मैट्रीक ठोस, जेली के समान, सघन, कठोर या तरल हो सकते हैं।
    • संयोजी उत्तक के प्रमुख प्रकार-
      1. अवकाशी उत्तक (Areolar Tissue)
        • यह उत्तक रक्तवाहिनीयों (Blood Vessels) तथा तंत्रिकाओं (Nerves Cells) के चारों तरफ घेरा बनाता है।
        • एरियोलर उत्तक त्वचा एवं मांसपेशी या दो मांसपेशी को आपस में जोड़ता है।
        • मास्ट कोशिका - यह एरियोलर उत्तक में पाई जाने वाले कोशिका है। यह कोशिका रूधिर वाहिनी के चारों तरफ पायी जाती है। इस कोशिका द्वारा हिस्टामिन (प्रोटीन), हिपैटीन (कार्बोहाइड्रेट) तथा सीरोटोनीन (प्रोटीन) स्त्रावित होता है।
        • हिस्टामिन रूधिर वाहिनी को फैलाता है। हिपैरीन शरीर के अंदर रक्त को जमने नहीं देता है तथा सिरोटोनीन रूधिर वाहिनी में सिकुड़न लाता है।
        • एरियोलर उत्तक के श्वेत तंतु कोशिका (White Fibres cells) द्वारा कॉलेजन प्रोटीन तथा पीला तंतु कोशिका (Yellow Fibres Cells) द्वारा एलास्टीन प्रोटीन स्त्रावित होता है।
      2. वसा संयोजी उत्तक (Adipose Connective Tissue)
        • यह उत्तक वसा कोशिका (Fat cells) से बनी होती है, इन कोशिका में वसा छोटी-छोटी बूँदी के रूप में भरी रहती है।
        • यह उत्तक वसा को संचित करके रखता है। यह शरीर के ताप को बनाये रखता है ।
        • शरीर के वसा कोशिका के अधिकता से मोटापा का सामना करना पड़ता है।
      3. कंडरा (Tendon)
        • यह संयोजी उत्तक मांसपेशी को अस्थि से या दूसरी मांसपेशी से जोड़ता है। यह उत्तक अत्यधिक मजबूत तथा आंशिक लीचीले होते हैं ।
      4. स्नायु (Ligament)
        • यह उत्त हड्डीयों (अस्थि) को दूसरे हड्डी से जोड़ता है। यह उत्तक अत्यधिक मजबूत एवं लचीले होते हैं।
      5. उपास्थि उत्तक (Cartilage)
        • यह उत्तक कोंड्रियो ब्लास्ट कोशिका के बने होते तथा इन कोशिकाओं के बीच रिक्त स्थान में कोंड्रीन प्रोटीन पाया जाता है।
        • उपास्थि अस्थियों के जोड़ को चिकना बनाता है। ये उत्तक बाह्यकर्ण, नाक, श्वासनली (ट्रेकिया), स्टरनम जैसे अंगों में पाये जाते हैं।
      6. अस्थि (Bone)
        • यह काफी मजबूत संयोजी उत्तक हैं क्योंकि इस उत्तक के मैट्रीक्स कैल्शियम तथा फॉस्फोरस लवण से बना होता है। अस्थि के मैट्रीक्स में ओसीन नामक प्रोटीन होता है।
        • लंबी तथा मोटी अस्थि के बीच गुहा होता है जिसे मज्जा गुहा (Marrow cavity) कहते हैं। मज्जा गुहा में जब एडीपोज उत्तक (वसा उत्तक) भरा रहता है तो उस मज्जा गुहा को अस्थिमज्जा (Bone Marrow) कहते हैं ।
        • अस्थिमज्जा दो तरह के होते (अस्थि के शीर्ष भाग में लाल अस्थि मज्जा तथा बीच वाले भाग में पीली अस्थि मज्जा पायी जाती है।
        • लाल अस्थि मज्जा में RBC ( लाल रक्त कण ) तथा पीली अस्थि मज्जा में WBC (श्वेत रक्त कण ) का निर्माण होता है।
        • स्तनधारी वर्ग के जीवों के अस्थि में अनेक नली समान रचना होता है जिसे हैवर्सियन नलिका कहते हैं । हैवर्सियन नलिका की उपस्थिति स्तनधारी वर्ग के विशेष लक्षण है।
      7. रक्त (Blood)
        • रक्त तरल संयोजी उत्तक है क्योंकि इस उत्तक के मैट्रीक्स ठोस न होकर तरल रूप में रहते हैं ।
        • रक्त के तरल भाग या मैट्रीक्स को प्लाज्मा कहते हैं तथा प्लाज्मा रक्त कोशिका में तैरती रहती है।
        • रक्त का 50% भाग प्लाज्मा का बना होता है शेष 45% रूधिर कोशिका होता है।
        • प्लाज्मा का 90% भाग जल से बना होता है शेष में 7% प्रोटीन तथा कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।
        • रक्त में तीन प्रकार की कोशिका होती है-
          (i) लाल रक्त कण (RBC), (ii) श्वेत रक्त कण (WBC) तथा (iii) प्लेटलेट्स (Platelets)
      8. लसीका (Lymph)
        • लसीका, रक्त के समान ही तरल संयोजी उत्तक है । लसीका में केवल श्वेत रक्त कण (WBC) होते हैं। इसमें लाल रक्त कण तथा प्लेटलेट्स का अभाव होता है।
        • लसीका की कोशिका एंडीबॉडी बनाते हैं जो जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीवों के संक्रमण को रोकता है।
        • लसीका द्वारा कम मात्रा में पोषक पदार्थों का भी परिवहन होता है।
  3. Muscular Tissue ( पेशी उत्तक)
    • इस उत्तक की कोशिका लंबी-लंबी होती है तथा इन कोशिका में एक प्रकार के तरल पदार्थ भरे रहते हैं, इस तरल पदार्थ को सार्कोप्लाज्म कहते हैं ।
    • यह उत्तक का मुख्य काम जीवों को प्रचलन में मदद करना है।
    • पेशी उत्तक तीन प्रकार के होते हैं-
      1. आरेखित या अनैच्छीक पेशी (Unstriped Muscles)
        • इस पेशी में होनेवाला संकुचन एवं प्रसार जंतु के इच्छा के अधीन नहीं होता है, यही कारण है कि इस पेशी को अनैच्छीक पेशी कहते हैं।
        • यह पेशी मुख्य रूप से नेत्र के आइरीस में, वृषण (Testes ) में, मूत्र वाहिनी तथा मूत्राशय में, रक्तवाहिनीयों में पायी जाती है।
      2. रेखित पेशी या ऐच्छीक पेशी (Striped Muscles)
        • यह पेशी जीव के कंकाल (हड्डी) से जुड़ी होती है तथा इनमें प्रसार तथा संकुचन जीवों के इच्छा के अनुरूप होता है।
        • यह पेशी शरीर के बाहु पैर, गर्दन आदि में पायी जाती है एवं इस पेशी का कुल भार शरीर कुल भार का 50 प्रतिशत होता है।
      3. हृदय पैशी (Cardiac Muscles)
        • हृदय का निर्माण करने वाले पेशी को कार्डियक पेशी कहते हैं । हृदय पेशी की रचना रेखित पेशी के समान होता है। 
        • यह पेशी स्वभाव से अनैच्छीक होती है तथा जीवनभर इसमें प्रसार तथा संकुचन होते रहता है।
  4. Narvous Tissue (तंत्रिका उत्तक)
    • जीवों के मस्तिष्क, मेरूरज्जु (Spinal cord) तथा सभी तंत्रिकाएँ (Nerves) इसी उत्तक के बने होते हैं।
    • तंत्रिका उत्तक की कोशिका को न्यूरॉन कहते हैं। न्यूरॉन कोशिका को तंत्रिका तंत्र की इकाई भी कहते हैं।
    • यह उत्तक संवेदना को शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में भेजने का कार्य करती है। इन उत्तक की कोशिका में विभाजन की क्षमता नहीं होती है।

अभ्यास प्रश्न

1. कोशिकाओं का ऐसा समूह जो रूप, कार्य और उत्पत्ति में समान होता है, उसे क्या कहते है-
(a) बहुकोशिका 
(b) उत्तक
(c) अंग
(d) अंग तंत्र
2. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. समान उत्पत्ति तथा समान कार्य को संपादित वाली कोशिकाओ के समूह को उत्तक कहते है
2. उत्तक एक कोशिकीय तथा बहुकोशिकीय दोनों जीवों में पाया जाता है
3. पादप तथा जंतु दोनों में ही उत्तक पाये जाते है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) 1 और 2
(c) केवल 3
(d) 1 और 3
3. पौधों तथा जंतु दोनों की कोशिका लगभग एक समान ही होती है, फिर दोनों के उत्तको एक-दूसरे में बिल्कुल अलग होते हैं, क्योंकि-
(a) पौधों में कोई गति (प्रचलन ) नहीं होता है, जबकि जंतु  एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर विचरण करते है I
(b) पौधों में वृद्धि कुछ क्षेत्रों में ही सिमित रहती है जबकि  जंतुओं में वृद्धि एक रूप में होती है
(c) जंतु तथा पौधों के अंगतंत्र की बनावट पूर्णत: एक-दूसरे से भिन्न होते है
(d) उपर्युक्त में सभी
4. हिस्टोलॉजी (Histology) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था ?
(a) मेयर
(b) ल्यूवेनहक 
(c) रॉबर्ट कुक
(d) चार्ल्स मैमन
5. एक विशेष कार्य करने वाले समान कोशिकाओं के समूह को क्या कहते है ?
(a) अंग
(b) उत्तक
(c) बहुकोशिका
(d) कोशिकीय संरचना
6. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. किसी एक उत्तक में एक ही आकार एवं विशेषताओं की कोशिका पाये जाते है।
2. कुछ उत्तको में विभिन्न आकार एवं बनावट की कोशिकाएँ होती है
उपर्युक्त में कौन सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों 
(d) न तो 1 न ही 2 
7. पादपो में विभाज्योतिकी (Meristematic) उत्तको के बारे में निम्नलिखित में कौनसा कथन सही है ?
(a) ये मृत उत्तक है और काष्ठ में परिवर्तित होते है
(b) अपनी मोटी हो चुकी भित्तियो के कारण ये पादप को नम्यता ( लचीलापन) प्रदान करते है
(c) ये केवल किसी वृक्ष की छाल में होते है
(d) इन उत्तको की कोशिकाओं के विभाजन के कारण पादपों में होती है।
8. निम्नलिखित कौन सा एक पौधों के विभाज्योतिकी उत्तक के संदर्भ में सही नहीं है ?
(a) यह जीवित कोशिकाओं का बना उत्तक होता है, जिनमें विभाजन की क्षमता होती है
(b) इस उत्तक के कोशिकाओं की रसधानियाँ बहुत बड़ी-बड़ी होती है
(c) इसके कोशिका का केंद्रक बड़े-बड़े होते हैं।
(d) इसके कोशिकाओं में कोशिका रस की मात्रा काफी अधिक होती है
9. शीर्षस्थ विभाज्योतिकी उत्तरदायी होता है-
(a) लंबाई में वृद्धि के लिये
(b) मोटाई में वृद्धि के लिये
(c) मृदुतक में वृद्धि के लिये
(d) वल्कुट में वृद्धि के लिये
10. वह उत्तक जो प्राथमिक वृद्धि के लिये उत्तरदायी हैं-
(a) लंबाई में वृद्धि के लिये
(b) मोटाई में वृद्धि के लिये
(c) मृदुतक में वृद्धि के लिये
(d) वल्कुट में वृद्धि के लिये
11. वह उत्तक जो प्राथमिक वृद्धि के लिये उत्तरदायी है-
(a ) शीर्षस्थ विभाज्योतिकी
(b) पार्श्व विभाज्योतिकी
(c) अंतर्वेशी विभाज्योतिकी
(d) इनमें से कोई नहीं
12. संवहन उत्तक में अवस्थित कैंबियम एवं वृक्ष के छाल के नीचे का कैबियम उदारण है-
(a ) शीर्षस्थ विभज्योतिकी का
(b) पार्श्व विभज्योतिकी का
(c) अंतर्वेशी विभज्योतिकी का
(d) इनमें से सभी
13. वह उत्तक जो द्वितीयक वृद्धि के लिये उत्तरदायी है-
(a) जाइलम 
(b) फ्लोएम
(c) कैम्ब्रियम
(d) कॉटेक्स
14. किसी पौधे के तने के घेरे को बढ़ाने के लिये निम्नलिखिती 23/ में कौन सा उत्तक उत्तरदायी होता है ? 
(a) वाहिनिका 
(b) परिरम्भ
(c) अन्तर्वेशी विभाज्योतिकी
(d) पार्श्व विभाज्योतिकी
15. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों के स्थायी उत्तक के कोशिकाओं में विभाजन की क्षमता नहीं होती है
2. विभाज्योतिकी उत्तक की वृद्धि के फलस्वरूप पौधें में स्थायी उत्तक बनता है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
16. एकबीजपत्री तने में द्वितीयक वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि इनमें नहीं होता हैं ?
(a) फ्लोएम
(b) कैम्बियम
(c) जाइलम
(d) हॉर्मोन
17. निम्नलिखित में किसे प्राथमिक विभाज्योतिकी कहते है, क्योंकि यह पौधो के जीवन चक्र के प्रारंभ में बनते है और प्राथमिक पादप शरीर बनाते है ?
(a ) शीर्षस्थ विभाज्योतिकी
(b) पार्श्व विभाज्योतिकी
(c) अंतर्वेशी विभाज्योतिकी
(d) A तथा C दोनों
18. संवहन उत्तक का निर्माण किस विभाज्योतिकी (Mer- istematic) द्वारा होता है ?
(a ) शीर्षस्थ
(b) अंतर्वेशी
(c) पार्श्व
(d) इनमें से कोई नहीं
19. मृदु उत्तक (Parenchyma) किस प्रकार के उत्तक है ?
(a) सरल उत्तक (Simple Tissue)
(b) जटिल उत्तक (Complex Tissue)
(c) विभाज्योतिकी
(d) इनमें से सभी
20. निम्नलिखित में किस उत्तक में जीवित कोशिका पायी जाती है ?
(a) मृदु उत्तक
(b) स्थूलकोण उत्तक
(c) दृढ़ उत्तक
(d) A तथा B दोनों
21. मृदु उत्तक का मुख्य कार्य है-
(a) भोज्य पदार्थ का संग्रह करना
(b) पौधों को लचीलापन प्रदान करना
(c) पौधों को यांत्रिक दृढ़ता प्रदान करना
(d) हॉर्मोन के स्त्रावित करना
22. वायुतक (Arenchyma) किन पौधों में पाया जाता है ?
(a) जीरोफाइटस 
(b) हाइड्रोफाइटस
(c) मीसोफाइटस
(d) लिथोफाइटस
23. जलोद्भिद निम्न में किसकी उपस्थिति के कारण जल में तैरते है ?
(a) वायुतक की
(b) मृदुतक की
(c) हरित उत्तक की
(d) दृढ़ोतक की
24. वह कौन सा उत्तक है, जिसकी कोशिकाएँ जीवित होती है, भित्ती सेल्युलोज था पेक्टिन की बनी होती है और कोणो पर अलिग्निनी स्थूलन मिलते है ?
(a) मृदुतक
(b) क्लोरेनकाइमा
(c) कोलेनकाइमा
(d) स्क्लेरेनकाइमा
25. निम्नलिखित में कौन एक उत्तक केवल तरूण पौधों में पाया जाता है, बड़े-बड़े वृक्षों में नहीं ?
(a) मृदुउत्तक
(b) स्थूलकोण उत्तक
(c) दृढ़ उत्तक
(d) हरित उत्तक
26. शाकीय द्विबीजपत्री पौधे जैसे- सूर्यमुखी, कद्दू को लचीलापन तथा दृढ़ता प्रदान करने वाला उत्तक है-
(a) मृदुउत्तक
(b) हरित उत्तक
(c) स्थूलकोण उत्तक
(d) दृढ़ उत्तक
27. निम्नलिखित में कौन सा एक उत्तक जड़ में उपस्थित नहीं रहते है ?
(a) मृदु उत्तक
(b) वायुत्तक
(c) दृढ़ उत्तक
(d) स्थूलकोण उत्तक
28. निम्नलिखित में किस उत्तक के कोशिकाओं की भित्ति लिग्निन के कारण मोटी हो जाती है ?
(a) मृदु उत्तक
(b) स्थूलकोण उत्तक
(c) दृढ़ उत्तक
(d) विभाज्योतिकी
29. पौधों के कुछ भाग मोड़ने पर बिना टूटे आसानी से मोड़े जा सकते है। कुछ भाग जैसे पत्ते और तने की इस नम्यता का कारण किसकी बहुतायत को माना जा सकता है ?
(a) मृदुतक
(b) श्लोषोतक
(c) दृढ़ोत
(d) दारू और पोषवाह
30. रेशे उत्पन्न करने वाले पौधे जैसे पटुआ (Tute) में किस उत्तक की प्रचुरता होती है ?
(a) मृदुतक 
(b) वायुतक
(c) विभाज्योतिकी
(d) दृढ़ उत्तक
31. फलो तथा बीजो का कठोर आवरण किस उत्तक के द्वारा तैयार होता है ?
(a) दृढ़ उत्तक 
(b) स्थूलकोण उत्तक
(c) मृदु उत्तक
(d) इनमें से सभी
32. सुबेरिन नामक कार्बनिक पदार्थ जमा रहता है ?
(a) मृदु उत्तक में 
(b) स्थूलकोण उत्तक में
(c) दृढ़ उत्तक में
(d) कॉर्क कोशिका में
33. व्यापारिक कॉर्क किससे प्राप्त होता है ?
(a) जाइलम से 
(b) फ्लोएम से 
(c) संवहन कैम्बीयम से
(d) कॉर्क कैम्बीयम
34. वाणिज्यिक मूल्य वाला कॉर्क किससे प्राप्त होता है ?
(a) साइकस 
(b) सीड्स देवदार
(c) क्वेकर्स सुबेर
(d) फाइकस
35. मृदु उत्तक (Parenchyma) की कोशिकाएँ होती है-
(a) गोलाकार 
(b) वर्गाकार
(c) रेशे के समान
(d) स्थूलकोणीय
36. दृढ़ कोशिका (Sclerenchyma) में कौन सा गुण नहीं पाया जाता है ?
(a) ये मृदुतक कोशिकाओं से निर्मित होती है,
(b) इनकी भित्तियो में लिग्निन विद्यमान होता है 
(c) ये कोशिकाएँ मृत और संकीर्ण अवकाशवाली होती है
(d) इनकी कोशिकाएँ बहुत लम्बी और उनके सिरे नुकीले होते है 
37. निम्नलिखित में किस उत्तक की कोशिकाओ में अंतरा कोशिकीय स्थान (Intercellular Space) नहीं पाया जाता है ?
(a) विभाज्योतिकी
(b) मृदुतक
(c) दृढ़ उत्तक
(d) A तथा C दोनों
38. पौधों से प्राप्त होने वाला कॉर्क में कौन सी विशेषताएँ नहीं होती है ?
(a) यह विघुतरोधी तथा उष्मारोधी होता है
(b) इसके कोशिकाओ में पर्याप्त मात्रा में जीवद्रव्य पाये जाते है
(c) इनकी भित्ती से जल एवं गैस नहीं जा सकता है 
(d) यह हलका होता हे एवं जल्द इसमें आग नही लगती है
39. विलामेन (Vellamen) की आवश्यकता होती है ?
(a) पौधों में श्वसन के लिये
(b) उत्तको की सुरक्षा के लिये
(c) नमी के अवशोषण के लिये
(d) इनमें से कोई नहीं
40. किस प्रकार के जड़ में विलामेन नामक आर्द्रताग्राही स्पंजी उत्तक पाया जाता है ?
(a) चूषण मूल
(b) श्वसनी मूल
(c) स्वांगीकारक मूल
(d) अधिपादप मूल
41. आर्किड विलोमन उत्तक पाया जाता है।
(a) प्ररोहो में 
(b) मूलो में
(c) पत्तियों में
(d) पुष्पो में
42. पौधों का सबसे बाहरी स्तर या छिलका को क्या कहते है ?
(a) अधिचर्म (Epidermis) 
(b) कॉर्टेक्स
(c) परिरंभ 
(d) मज्जा या पिथ
43. शुष्क स्थानो पर पाये जाने वाले पौधो के एपिडर्मिस में कौन सी परत होती हे जो पौधो में जलहानि को रोकता है ?
(a) लिग्निन
(b) क्यूटिकल
(c) सुबेरीन
(d) इनमें से कोई नहीं
44. त्वचाजन (Dermatogen) उत्तक शीर्षस्थ विभाज्योतिकी बनता है। यह निम्नांकित में किसमें विकसित होता है?
(a) बाह्य त्वचा (Epidermis )
(b) कॉर्टेक्
(c) संवहन बंडल
(d) मज्जा
45. निम्नलिखित में कौन सा उत्तक तंत्र पौधों के सम्पूर्ण मध्य भाग का निर्माण करते है ? 
(a) Epidermal Tissue system
(b) Ground or Fundamental Tissue System 
(c) Vascular Tissue System 
(d) इनमें से कोई नहीं
46. रंध्र तथा मूल रोम पाये जाते है-
(a) बाह्य त्वचा (Epidermis )
(b) अधस्त्वचा में (Hypodermis )
(c) अंतस्त्वचा में (Endodermis )
(d) परिरंभ में (Pericycle)
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Sat, 20 Apr 2024 04:35:24 +0530 Jaankari Rakho
General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | कोशिका विज्ञान https://m.jaankarirakho.com/995 https://m.jaankarirakho.com/995 General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | कोशिका विज्ञान
  • कोशिका (Cell) सभी सजीवों अथवा जीवन की आधारभूत संरचना एवं क्रियात्मक इकाई (Basic Structural and Functional Unit) है।
  • कोशिका जीवद्रव्य (Protoplsm) से बनी संरचना होती है और इस जीवद्रव्य में कई कार्बनिक तथा अकार्बनिक यौगिक उपस्थित रहते हैं।
  • सभी सजीवों की कोशिका एक समान नहीं होती है। अलग-अलग सजीवों की कोशिका आकार, स्वरूप (Shape) तथा संख्या में एक-दूसरे से काफी भिन्न होते हैं।
    • संसार की सबसे छोटी कोशिका - माइक्रोप्लाज्मा गैलिसेप्टिकम
    • संसार की सबसे बड़ी कोशिका- शुतुरमुर्ग का अंडा
    • संसार शरीर की सबसे छोटी कोशिका - मस्तिष्क के सेरीबेलम का ग्रेन्यूल कोशिका
    • मानव शरीर की सबसे बड़ी कोशिका - अंडाणु (Ova)
    • मानव शरीर की सबसे लम्बी कोशिका - न्यूरॉन
  • कोशिका का आकार एवं आकृति कैसी होगी, यह कोशिका के कार्यों पर निर्भर करता है अर्थात अलग-अलग कार्य करने वाले कोशिका का आकार एवं आकृति एक-दूसरे से भिन्न होती है।
  • कुछ कोशिका अपना आकार पल-पल बदलते भी रहते हैं। अमीवा तथा मनुष्य का WBC कोशिका का आकार निश्चित नहीं रहता है। ये दोनों ही कोशिका अपना आकार बदलते रहती है।
  • सभी सजीवों में कोशिका की संख्या भी एक समान नहीं होती है। कोशिका के संख्या के आधार पर सजीवों को दो समूहों में रखा गया है- 
    1. Unicellular ( एककोशिकीय ) जब जीवों के शरीर केवल एक ही कोशिका से निर्मित होता है वह एक कोशिकीय जीव कहलाते हैं। ये जीव आँखों से दिखाई नहीं पड़ते हैं, इन्हें देखने हेतु सूक्ष्मदर्शी की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण:- सूक्ष्मजीव ( Micro Organism)
    2. Multicellular (बहुकोशिकीय)- इन जीवों का शरीर अनेक कोशिका से मिलकर बना होता है। उदाहरण:- सभी दिखने वाले सजीव
  • विभिन्न सजीवों में कोशिका की संख्या कितनी होगी, यह सजीवों के शरीर के आकार पर निर्भर करता है। शरीर का आकार जितना बड़ा होगा उसमें कोशिका की संख्या उतनी ही अधिक होगी।

कोशिका का विकासक्रम

  • 1590 : जैड जैनसेन तथा एच. जैनसेन ने माइक्रोस्कोप की खोज की और इसके साथ ही कोशिका अध्ययन का मार्ग खुल गया ।
  • 1665 : रॉबर्ट हुक ने अपनी द्वारा बनाये गये माइक्रोस्कोप से कोशिका की खोज की। कोशिका का नामांकरण भी रॉबर्ट हुक के द्वारा किया गया।
    • कोशिका (Cell) लैटिन शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- छोटा कमरा ।
    • रॉबर्ट हुक ने कोशिका की खोज कॉर्क ( पेड़ की छाल) के टुकड़े में किया था।
    • रॉबर्ट हुक द्वारा खोजा गया कोशिका का मृत कोशिका था ।
  • 1683 : ल्यूवेनहॉक द्वारा सर्वप्रथम जीवित कोशिका की खोज की गई। ल्यूवेनहाक ने पहले की तुलना में उन्नत माइक्रोस्कोप द्वारा जीवित कोशिका के रूप में जीवाणु, प्रोटोजोआ, RBC कोशिकाओं को देखा।
  • 1831 : रॉबर्ट ब्राउन ने कोशिका के मध्य एक गोल संरचना देखी, जिसका नाम उन्होंने केन्द्रक (Nucleus) नाम दिया ।
  • 1838-39 : जैकब श्लाइडेन तथा श्वान ने कोशिका मतवाद (Cenn theory) प्रस्तुत कि, जिसके बाद यह स्पष्ट हो पाया कि प्रत्येक सजीव का शरीर कोशिकाओं से निर्मित हैं।
    : श्लाइडेन तथा श्वान के द्वारा प्रस्तुत कोशिका मतवाद की प्रमुख बातें-
    1. प्रत्येक जीव का शरीर एक अथवा अनेक कोशिकाओं से निर्मित होता है।
    2. प्रत्येक जीव की उत्पत्ति एक कोशिका से ही होती है।
    3. प्रत्येक कोशिका अपने आप में एक स्वाधीन इकाई है परंतु सब कोशिका मिलकर काम करते हैं, परिणामस्वरूप एक जीव का निर्माण होता है।
    4. कोशिका की उत्पत्ति जिस भी प्रक्रिया से हो उसमें कोशिका का केन्द्रक मुख्य भूमिका अदा करता हैं।
  • 1839 : पुरकिंजे ने कोशिका में पाये जाने वाले अर्धतरल एवं दानेदार पदार्थ को जीवद्रव्य (Proplasm) नाम दिया।
  • 1846 : पुरकिंजे के बाद वॉन मोल ने कोशिका में पाये जाने वाले जीवद्रव्य की खोज की।
  • 1855 : रूडॉल्फ विरचॉव ने यह पता लगाया कि नये कोशिका का निर्माण पहले मौजूद कोशिकाओं के विभाजन के फलस्वरूप होता है।
  • 1861 : मैक्स शुल्ज ने कोशिका को जीवद्रव्य (Protoplsm) का एक पिंड बताया। उनका यह मत Protoplasm Theory कहलाया ।
  • 1831 : एम. नॉल तथा ई. रस्का ने इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का आविष्कार किया। इसके बाद कोशिका के क्षेत्र में काफी तीव्र गति से अनुसंधान होने लगा।

कोशिका की संरचना

  • कोशिका को मुख्य रूप से दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है- कोशिका झिल्ली (पौधे में कोशिका झिल्ली के अतिरिक्त कोशिका भित्ति भी) और जीवद्रव्य ।
  • जीवद्रव्य को पुनः दो हिस्सों में विभक्त किया जाता है। कोशिकाद्रव्य तथा केन्द्रक I
  • कोशिका द्रव्य (Cytoplasm) में ढेर सारी रचनायें (Structure) पायी जाती है। जो दो प्रकार के होते हैं-
    1. जीवद्रवीय रचनायें (Organoids) - इसके अंतर्गत जीवित रचनायें आते हैं जिनमें बढ़ने तथा विभाजन करने की क्षमता होती है। ये रचनायें हैं-
      1. सेंट्रोसोम
      2. आंतरद्रव्य जालिका
      3. राइबोसोम
      4. माइटोकॉण्ड्रिया
      5. लवक
      6. गॉल्जीकाय
      7. लाइसोसोम
    2. मेटाप्लास्ट्स (Metaplast) - ये निर्जीव रचनायें हैं जिनमें न तो बढ़ने की क्षमता होती है और न ही विभाजन करने की।
      • मेटाप्लास्ट के अंतर्गत रसधानी, वसा-कण, प्रोटीन, ग्लाइकोजेन, पीत आदि आते हैं।

कोशिका झिल्ली (Cell Membrane)

  • प्रत्येक कोशिका के चारों ओर बहुत ही पतली, जीवित मुलायम तथा लचीली झिल्ली होती है जो कोशिका झिल्ली कहलाता है। यह लगभग 75A° मोटा होता है।
  • कोशिका झिल्ली कोशिका को दूसरी कोशिका तथा बाहरी वातावरण से अलग करती है।
  • कोशिका झिल्ली अर्द्धपारन्य (Semipermeable) या चयनात्मक पारगम्य (Selective premable) होती है क्योंकि इस झिल्ली से होकर कुछ ही पदार्थ कोशिका के अंदर बाहर आ जा सकते है, सभी पदार्थ नहीं।
  • कोशिका झिल्ली लीपीड और प्रोटीन की बनी होती है। इस झिल्ली में दो परत प्रोटीन की तथा इनके बीच एक परत वसा की होती है। कोशिका झिल्ली के संबंध में तरल मोजाइक मॉडल सिंगर तथा निकॉलसन ने दिया था।
  • कोशिका झिल्ली के प्रमुख कार्य-
    • यह कोशिका को निश्चित आकृति देता है तथा कोशिका के भीतरी संरनाओं को बाहरी आघात से बचाता है।
    • यह कोशिका के अंदर जाने तथा बाहर आने वाले पदार्थ पर नियंत्रण रखता है।
    • एक कोशिकीय जीवों में कोशिका झिल्ली द्वारा ही सीलिया, फ्लेजिला तथा कूटपाद का निर्माण होता है ।
    • कोशिका द्वारा होने वाले परासरण तथा त्रिसरण की क्रिया कोशिका झिल्ली द्वारा ही सम्पन्न होता है।

कोशिका भित्ती

  • पौधा तथा कवक में कोशिका झिल्ली के बाहर एक ओर परत होती है जो कोशिका भित्ती कहलाती है। कोशिका भित्ती कोशिका झिल्ली के तरह न तो जीवित झिल्ली है और न ही अर्द्धपरागम्य ।
  • कोशिका भित्ती तीन परतों का बना एक मोटी भित्ती है। पौधों को कोशिका भित्ती सेल्युलोज तथा हेमी सेल्यूलोज की बनी होती है तथा कवकों की कोशिका भित्ती काइटीन तथा हेमीसेल्यूलोज की बनी होती है। 
  • कोशिका भित्ती के प्रमुख कार्य-
    • यह भित्ती पौधे के कोशिका की रक्षात्मक परत है जो कोशिका को निश्चित आकार, मजबूती तथा सुरक्षा प्रदान करती है।
    • यह कोशिका को सूखने से बचाता है एवं विभिन्न कोशिकाओं को जोड़ने का कार्य करता है।
    • कोशिका भित्ती एक निर्जीव संरचना है जो पारगम्य होता है और ह कोशिका झिल्ली को भी सुरक्षा देता है।

कोशिका द्रव्य

  • जीवद्रव्य का वह भाग जो केन्द्रक (Nucleus) तथा कोशिका झिल्ली के मध्य होता है उसे ही कोशिका द्रव्य कहा जाता है।
  • कोशिका द्रव्य ( या जीवद्रव्य) रंगहीन अर्द्धपारदर्शक तथा अर्द्धतरल पदार्थ है । यह एक प्रकार का कोलाइड है जिसमें 80 प्रतिशत तक जल होता है।
  • जल के अलावे जीवद्रव्य ( कोशिका द्रव्य) में लगभग 30 तत्व पाये जाते हैं जिनमें ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन मुख्य है।
  • कोशिका द्रव्य में कई जीवित तथा कार्य करने वाले रचनायें मौजूद रहती है जिसे कोशिका अंगक (Cell Organelle) कहते हैं।

आंतरद्रव्य जालिका (Endoplasmic Reticulum)

  • यह महीन नलिकाओं का एक जाल जैसी संरचना के रूप में कोशिका द्रव्य में पायी जाती है।
  • यह संरचना कहीं-कहीं पर काशिका झिल्ली से मिली होती है तो कहीं-कहीं पर केन्द्रक के केन्द्रक झिल्ली से मिली होती है।
  • यह संरचना लिपोप्रोटीन (लीपीड और प्रोटीन) की बनी होती है। कोशिका द्रव्य में ER (Endoplasmic Reticulum) दो प्रकार के होते है-
    1. चिकनी अंतरद्रव्य जालिका ( Smooth ER)
    2. खुरदुरी अंतरद्रव्य जालिका (Rough ER)
  • Rough ER के झिल्ली पर राइबोसोम के सूक्ष्म कण पाये जाते हैं जबकि Smooth ER पर राइबोसोम उपस्थित नहीं होते है।
  • अपनी विशेष संरचना के कारण अंतरव्य जालिका को कोशिका (या कोशिका द्रव्य) का कंकाल तंत्र कहा जाता है।
  • इस संरचना की खोज सर्वप्रथम पोर्टर, क्लाउडे तथा फूलम ने किया था जबकि इसका प्रथम बार नामकरण पोर्टर तथा कलमैन के द्वारा किया गया ।
  • अंतरद्रव्यजालिका को वर्त्तमान समय में एरगैस्टोप्लाज्मा (Ergastoplasm) भी कहा जाता है।
  • अंतरद्रव्य जालिका के प्रमुख कार्य-
    • यह अतः कोशिकीय परिवहन का कार्य करती है। अंतरद्रव्य जालिका के नली में तरल द्रव्य भरा रहता है जिसे यह कोशिका द्रव्य के विभिन्न हिस्सों में वितरित करते रहती है।
    • कोशिका द्रव्य के अंदर प्रोटीन का परिवहन मुख्यतः अंतर द्रव्य जालिका द्वारा किया जाता है।
    • चिकनी अंतरद्रव्य जालिका वसा तथा कोलेस्ट्रॉल के संश्लेषण में भाग लेती है तथा खुरदुरी अंतरद्रव्य जालिका प्रोटीन संश्लेषण में मदद करता है ।
    • अंतरद्रव्य जालिका उन कोशिकाओं में अधिक पायी जाती है जिनमें प्रोटीन, वसा, हॉर्मोन का संश्लेषण होता है। जैसे- मनुष्य के यकृत, अग्न्याशय के कोशिका में अंतरद्रव्य जालिका की संख्या अधिक होता है।
    • मानव यकृत में पाये जाने वाले चिकनी अंतरद्रव्य जालिका यकृत को विष के प्रभाव को नष्ट करने में मदद करता है।

राइबोसोम (Ribosome)

  • राइबोसोम एक दानेदार संरचना है जो आंतरद्रव्यजालिका के ऊपर (RER में), या अकेले या गुच्छों के रूप में कोशिका द्रव्य में बिखड़े रहते हैं। यह झिल्ली विहीन तथा सबसे छोटा कोशिका अंगक है।
  • कोशिका द्रव्य में जो राइबोसोम गुच्छों के रूप में पाये जाते हैं उसे पॉलीराइबोसोम या पॉलीसोम कहते हैं। पॉलीसोम में सभी राइबोसोम मेसेंजर RNA (mRNA) के धागे समान रचना से बँधे होते हैं।
  • राइबोसोम प्रोटीन तथा आर. एन. ए. (RNA) से मिलकर बना होता है।
  • राइबोसोम दो प्रकार के होते हैं 70S तथा 80S राइबोसोम । 70S राइबोसोम के दो सब यूनिट होते है 30S तथा 50S, ठीक इसी प्रकार 80S राइबोसोम के भी दो सबयूनिट होते है 40S तथा 60S
  • राइबोसोम की खोज सर्वप्रथम रॉबिन्सन तथा ब्राउन ने पादप कोशिका में किया था। जन्तु कोशिका में राइबोसोम का खोज जी. ई. पैलाडे द्वारा किया गया था। राइबोसोम का नामकरण रॉबर्ट के द्वारा किया गया।
  • राइबोसोम के कार्य-
    • यह प्रोटीन संश्लेषण का काम करता है। इसके अभाव में कोशिका में प्रोटीन संश्लेषण हो पाना संभव नहीं है। राइबोसोम को कोशिका का प्रोटीन फैक्ट्री कहा जाता है।

गॉल्जीकाय (Golgi body)

  • कोशिका द्रव्य में यह मुड़े हुए छड़ के गुच्छे के समान दिखाई पड़ते है। पादप कोशिका में गॉल्जी काय मुड़े हुए छड़ की रचना बनाकर बिखड़े रहते हैं जिसे डिक्टियोसोम (Dictysome) कहा जाता है।
  • डॉल्टन तथा फेलिक्स नामक वैज्ञानिक ने पूरे गॉल्जीकाय के संरचना को तीन भागों में बाँटा है- सिस्टर्नी (Cisternae), छोटे ट्यूब्यूल्स एवं वेसिकल्स (Small tubules and Vesicles) तथा बड़ी रसधानी (large vaculoes)। 
  • सर्वप्रथम इसकी खोज कैमिली गॉल्जी ने किया था। कैमिलो गॉल्जी इटली के न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर थे उन्होंने इस संरचना की खोज तंत्रिका कोशिका में की थी।
  • कैमिलो गॉल्जी ने इस संरचना का नाम आंतरिक जालिका वत उपकरण (Internal retricular apertus) रखा था परंतु बाद के समय इसका नाम गॉल्जीकाय (Golgi body) पड़ गया ।
  • गॉल्जीकाय के प्रमुख कार्य-
    • यह अंगक कार्बोहाइड्रेट, लिपिड प्रोटीन, न्यूक्लिक एसीड जेसे पदार्थों का पैकेजिंग, संग्रह तथा स्रवण (Secretion) करता है। यह कोशिका का मुख्य Secretion Organelle ( स्रवण अंगक) है।
    • यह लाइसोसोम (Lysosome) जैसे महत्वपूर्ण कोशिका अंगक के निर्माण में मदद करते है।
    • कोशिका के अंदर ग्लाइकोलिपीड तथा ग्लाइकोप्रोटीन का निर्माण गॉल्जीकाय में ही होता है।

लाइसोसोम (Lysosome)

  • यह कोशिकाद्रव्य की झिल्लीदार थैलियों जैसी संरचना है । इस थैलियों की आकृति हमेशा एक जैसी बनी रहती है, यह बहुरूपता (Polymorphism) को दर्शाते है।
  • लाइसोसोम पौधे के कोशिका के तुलना में जंतु कोशिका में प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
  • लाइसोसोम थैली के अंदर हर प्रकार के हाइड्रोलाइटिक एंजाइम पाये जाते हैं। इन इंजाइमों में इतनी क्षमता है कि यह कोशिका द्रव्य एवं उसमें उपस्थित सभी जीवित संरचनाओं को नष्ट कर सकता है। लाइसोसोम को आत्महत्या की थैली कहा जाता है।
  • लाइसोसोम की खोज सर्वप्रथम 1958 में डि डवे के द्वारा किया गया। डि डवे को इस कार्य हेतु 1974 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
  • लाइसोसोम के प्रमुख कार्य-
    • यह कोशिका अंगकों के टूटे-फूटे भाग को पाचित (Digestion) कर कोशिका द्रव्य को साफ रखता है। यह आवश्यकता के अनुरूप कोशिका को भी नष्ट करता है।
    • यह कोशिका को विषाणु, जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्मजीवों के संक्रमण से बचाता है।

लवक (Plastid)

  • लवक केवल पौधों के कोशिका में पाया जाता है। यह कोशिका में पाये जाने वाले सभी कोशिकांगों में बड़ा होता है।
  • लवक में खास वर्णक (Pigment) पाये जाते है। वर्णकों के आधार पर लवक तीन प्रकार के होते है- हरित लक्क (Chloroplast), वर्णलत्रक ( Chromoplast) तथा अवर्णीलक्क (Leucoplast)
  • हरित लवक (Chloroplast)
    • यह सबसे महत्वपूर्ण लवक है, इस लवक में क्लोरोफील वर्णक (Chlorophyll Pigment) पाये जाते हैं जिसके चलते प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पौधों में सम्पन्न हो जाती है।
    • हरित लवक मुख्यतः हरी पत्तियों के मेसोफिल कोशिका में पाया जाता है। सभी कोशिकाओं के हरित लवक प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से देखने पर समान नहीं दिखाई पड़ते है। एक कोशिका में 1 से लेकर 80 तक हरित लवक हो सकते हैं, जिसकी व्यास 4-10pm तथा मोटाई 3-4 pm तक होती है।
    • हरित लवक का जब प्रकाश सूक्ष्मदर्शी द्वारा अध्ययन हुआ तो इसकी संरचना कुछ इस प्रकार निर्धारित हुई-
    • हरित लवक दुहरी चिकनी झिल्ली से घिरी होती है। यह दुहरी झिल्ली पारगम्य होती है तथा प्रोटीन से बनी होती है। दुहरी झिल्ली से घिरा हुआ तरलयुक्त गुहा (Cavity) की Stroma (स्ट्रोमा) कहते हैं। Stroma में महीन झिल्लीदार संरचनाओं को Stroma lamelle कहते हैं। Stroma lamelle के बीच-बीच चपटी एवं वृत्ताकार थैली एक समूह में व्यवस्थित रहते हैं जिसे Thylakoid कहते है। Thylakoid प्रोटीन एवं लिपिड का बना होता है। Thylakoid के समूह को Granum कहा जाता है Thylakoid नामक थैली में ही क्लोरोफील पाया जाता है। क्लोरोफील अणुओं के समूह को Quantasome भी कहा जाता है।
    • हरित लवक प्रकाश संश्लेषण क्रिया के केन्द्र है और यह सिर्फ प्रकाश-संश्लेषी पौधों में ही पाया जाता है।
  • वर्णी लवक ( Chromoplast)
    • इसे रंगीन लवक कहा जाता है, पौधों में हरे रंग के अतिरिक्त अन्य सभी रंगों के लिए वर्णी लवक ही उत्तरदायी होते है।
    • विभिन्न प्रकार के वर्णी लवक-
      गाजर का नारंगी रंग - कैरोटीन
      हल्दी का पीला रंग - जैन्थोफील
      पपीते का पीला रंग - कैरिका जैन्थिन
      टमाटर का लाल रंग - लाइकोपीन
      सेब का लाल रंग - एन्थोसाइनीन
    • सभी रंगों के लिए उत्तरदायी वर्णी वलक वसा में घुलनशील होते हैं तथा मुख्य रूप से फूलों तथा फलों में ही पाये जाते है।
    • गौरतलब है कि हरित लवक वर्णी लवक के रूप में परिवर्तित हो सकते है तथा वर्णी लवक हरित लवक में। तीनों प्रकार के लवक आपस में परिवर्तित हो सकते है।
  • अवर्णी लवक (Leucoplast)
    • यह लवक पौधों के उन भागों के कोशिका में पाये जात हैं जो सूर्य के प्रकाश से वंचित रहते है। जड़, भूमिगत तना (आलू, प्याज) में यह लवक मुख्य रूप से पायी जाते है।
    • यह लवक विभिन्न प्रकार के पोषक पदार्थों का संग्रह करती है। यह लवक कई प्रकार के होते हैं-
      Amyloplast - स्टार्च संग्रह करने वाला 
      Proteinoplast - प्रोटीन संग्रह करने वाला 
      Aleuroplast - प्रोटीन संग्रह करने वाला 
      Elaioplast - वसा संग्रह करने वाला

तारककाय (Centrosome)

  • यह संरचना केवल जंतु कोशिका मे ही पायी जाती है। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से देखने पर यह बेलन जैसा दिखता है और इसके चारों ओर वृत्तीय क्रम में व्यवस्थित, धागे जैसी संरचना होती है, इस संरचना को Astral rays कहते है।
  • प्रत्येक सेन्ट्रोसोम के अंदर एक या दो कण जैसी संरचना पायी जाती है जिसे Centriol कहते है।
  • Centrosome का नामकरण टी. बोभेरी के द्वारा किया गया। Centrosome जंतु कोशिका को कोशिका विभाजन में मदद करता है।

रसधानियाँ (Vacuole)

  • रसधानी कोशिका की निर्जीव रचनाएँ (Metaplast) है। रसधानी मुख्य रूप से पौधों की कोशिका में पायी है। जंतु कोशिका में काफी छोटे आकार की रसधानी पायी जाती है या नहीं पायी जाती है।
  • रसधानी थैली समान आकृति है जो चारों ओर से झिल्ली द्वारा घिरी रहती है । इस झिल्ली को Tonoplast कहते है। Tonoplast (टोनोप्लास्ट) एक अर्द्धपारगम्य झिल्ली है।
  • पौधों की रसधानियाँ में कोशिका रस (Cellsap) भरा रहता है। कोशिका रस पौधों की कोशिका में जीवद्रव्य का निर्माण करता है।
  • रसधानी जंतु कोशिका में जल संतुलन बनाये रखने का कार्य करती है।
  • कुछ एककोशिकीय जीवों (प्रोटोजोआ ) की रसधानियाँ संकुचनशील (Contractile) होती है और वह रसधानी शरीर से अपशिष्ट तरल पदार्थ का संग्रह कर बाहर निकालने में मदद करती है।
  • कोशिका द्रव्य में पाये जाने वाले कुछ नवीन संरचनाओं का पता जीव वैज्ञानिकों ने लगाया है, जो इस प्रकार है-
    1. स्फीरोसोम्स (Sphaerosome) : इसे पौधों की कोशिका का लाइसोसोम कहा जाता है। यह वसा का संश्लेषण तथा संग्रहण का कार्य करता है।
    2. कोशिकीय पंजर (Cytoskeleton) : यह प्रोटीन का बना सूक्ष्म तंतु या जाल है जो पूरे कोशिकाद्रव्य में फैला रहता है। यह एक रचनात्मक ढाँचा बनाकर कोशिका की आकृत्ति बनाये रखते है ।
    3. परॉक्सीसोम (Peroxisome) : यह संरचना पौधों में प्रकाशीय श्वसन में मदद करता है। इसके द्वारा कोशिका में हाइड्रोजनपरऑक्साइड (H2O2) का भी उत्पादन होता है।
    4. Microtubules : यह छोटी-छोटी नलिकाकार संरचना है जो पूरे काशिकाद्रव्य में फैली रहती है। यह संरचना कोशिका को गति कराने में सहायक होती है। 

केन्द्रक (Nucleus)

  • सभी जीवित कोशिका के कोशिका द्रव्य के मध्य में गोलाकार तथा अंडाकार आकृति होती है जिसे केन्द्रक कहते है। केन्द्रक गोलाकार या अंडाकार आकृति के अलावे वृक्क (Kidney) आकृति जैसा, घोड़े के पैर आकृति जैसा भी हो सकता है।
  • कुछ जीवित कोशिका में केन्द्रक नहीं भी पाये जाते हैं, कुछ कोशिका में दो केन्द्रक भी पाये जाते हैं जबकि कुछ ऐसे भी कोशिका है जिनमें कई केन्द्रक पाये जाते है।
  • सभी जीवित कोशिका का केन्द्रक एक समान नहीं होता है। केन्द्रक की आकृति कोशिका के क्रिया (कार्य) पर निर्भर करता है।
  • एक केन्द्रक के संरचना में निम्नलिखित भाग पाये जाते है-
    1. केन्द्रक झिल्ली (Nuclear membrane or Nuclear evelope)- यह दोहरी परत की बनी झिल्ली होती है जो केन्द्रक के चारों ओर रहता है। दोहरी परत वाली झिल्ली के बीच के जगह को Perinuclear space कहते है। केन्द्रक झिल्ली की बाहरी परत अंतरद्रव्यजालिका से जबकि भीतरी परत क्रोमेटीन नेटवर्क से जुड़ा रहता है। केन्द्रक झिल्ली में कई छिद्र होते हैं, जिन छिद्रों से कोशिका द्रव्य तथा केन्द्रकद्रव्य के बीच पोषक पदार्थों का आदान-प्रदान होता है।
    2. केन्द्रक द्रव्य (Nucleoplasm or Nucleosap) केन्द्रक के भीतर पाये जाने वाले जीवद्रव्य को ही केन्द्रकद्रव्य कहते है। इस द्रव्य में मुख्य रूप से प्रोटीन, फॉस्फोरस और न्यूक्लिक अम्ल (DNA तथा RNA ) पाये जाते है।
    3. क्रोमैटीन जाल (Chromatin Network ) केन्द्रक द्रव्य में महीन धागों का बना जाल क्रोमैटीन जालिका कहलाता है, यह जालिका कोशिका विभाजन के समय काफी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते है । क्रोमैटीन जालिका हिस्टोन प्रोटीन, ननहिस्टोन प्रोटीन, DNA तथा RNA से मिलकर बना होता है ।
      • केन्द्रक द्रव्य में क्रोमैटीन जालिका दो तरह के होते है। एक जालिका विखड़ा हुआ रहता है जिसे यूक्रोमैटीन कहते है तथा एक जालिका बहुत ही सघन और सख्त रहता है जिसे हेटरोक्रोमैटीन कहते है। यूक्रोमैटीन सक्रिय रहते है जबकि हैटरोक्रोमैटीन निष्क्रिय रहते है।
      • कोशिका विभाजन के समय क्रोमैटीन जालिका एक नई छड़ जैसी संरचना में बदल जाती है तब इसे गुणसूत्र (Chromosome) कहा जाता है।
    4. केंद्रिका (Nucleolus)— केन्द्रक द्रव्य में एक छोटी गोलाकार संरचना रहती है जिसे केंद्रिका कहते है । इसकी खोज 'फॉण्टाना' के द्वारा की गई थी। केंद्रिका में RNA का संश्लेषण होता है, राइबोसोम का निर्माण होता है और यह कोशिका विभाजन के समय केन्द्रक को सहायता प्रदान करता है।
  • कोशिका के भीतर होने वाले समस्त कार्य एवं गतिविधियों का नियंत्रण केन्द्रक द्वारा ही किया जाता है। केन्द्रक को कोशिका का मस्तिष्क कहा जाता है।

Prokaryotic तथा Eukaryotic कोशिका

  • अब तक कोशिका के बारे में जितनी जानकारी हमलोग प्राप्त किये है वे विकसित कोशिका है। विकसित कोशिका ही Eukaryotic कोशिका है जो सभी पौधा तथा जन्तु में पाये जाते हैं। 
  • पृथ्वी पर जो जीव पहली बार अवतरित हुए उनकी कोशिका Eukaryotic की तरह नहीं थे उनमें कई कोशिकीय संरचना का अभाव था। इस तरह के कम विकसित कोशिका को Prokaryotic कोशिका कहा जाता है। जीवाणु में इसी तरह की कोशिका पायी जाती है।
  • Prokaryotic तथा Eukaryotic कोशिका में मुख्य अंतर-
    1. प्रोकैयीटिक प्राचीन तथा कम विकसित कोशिका है, इसका आकार भी छोटा होता है जबकि यूकैरोयोटीक विकसित कोशिका है, इसका आकार प्रोकैरोयोटीक से बड़ा होता है।
    2. प्रोकैरोटीक में वास्तविक केन्द्रक नहीं पाये जाते हैं जबकि यूकैरोयोटीक वास्तविक केन्द्रक युक्त कोशिका है।
    3. प्रोकैरोटीक में क्लोरोप्लास्ट, गॉल्जीकाय माइटोकॉण्डिया आंतरप्रद्रव्यजालिका का अभाव रहता है जबकि यूकैरोयोटीक में ये सभी संरचनायें मौजूद रहती है।
    4. प्रोकैरोयोटीक में केवल एक गुणसूत्र रहते हैं तथा DNA मं रहते हैं तथा इसके हिस्टोन प्रोटीन नहीं रहते है जबकि यूकैरोटीक में एक से अधिक क्रोमोजोम (गुणसूत्र ) पायें जाते हैं और इसका DNA हिस्टोन प्रोटीन युक्त होते है।
    5. प्रोकैरोयोटीक में 70S राइबोसोम पाये जाते हैं जबकि यूकैरोयोटीक में 80S राइबोसोम पाये जाते है।
    6. प्रोकैरोयोटीक में केंद्रिका नहीं होते है जबकि यूकैरोयोटीक में यह उपस्थित रहता है।
    7. प्रोकैरोयोटीक में कोशिका भित्ती होती है, परंतु वह सेलुलोज की नहीं बनी होती है जबकि यूकैरोयोटीक की कोशिका भी सेलुलोज की बनी होती है।

Plant और Animal कोशिका

  • पादप तथा जन्तु दोनों की कोशिका यूकैरोयोटीक है और लगभग इन दोनों की कोशिका समान होती है।
  • कुछ कोशिकीय संरचनाओं के दृष्टिकोण से पादप तथा जन्तु कोशिका में अंतर होते है। पादप तथा जन्तु कोशिका में पाये जाने वाले मुख्य अंतर-
    1. पादप कोशिका में कोशिका भित्ती पायी जाती है। इसके काशिका के बाहरी परत कोशिका भित्ती होती है। जन्तु कोशिका में कोशिका भित्ती का अभाव होता है । जन्तु कोशिका के बाहरी परत कोशिका झिल्ली होती है।
    2. पादप कोशिका का आकार जंतु कोशिका के तुलना में थोड़ा बड़ा होता है।
    3. पादप कोशिका में वृद्धि कोशिकाओं के आकार बढ़ने से होता है जबकि जन्तु कोशिका में वृद्धि कोशिका की संख्या बढ़ने से होता है।
    4. कठोर कोशिका भित्ती होने के कारण पादप कोशिका नियमित आकार का होता है जबकि जन्तु कोशिका की आकृत्ति अनियमित रहती हैं।
    5. पादप कोशिका में लवक पाये जाते हैं जबकि जन्तु कोशिका में लवक नहीं पाये जाते है।
    6. पादप कोशिका में सेन्ट्रोसोम का अभाव रहता है जबकि जन्तु कोशिका में सेन्ट्रोसोम पाया जाता है।
    7. पादप कोशिका की रसधानी काफी बड़ी होती हैं जबकि जन्तु कोशिका की रसधानी काफी छोटी होती है।
    8. पादप कोशिका में ऊर्जा (भोजन) का संग्रह स्टार्च के रूप में होता है जबकि जन्तु कोशिका में ऊर्जा का संग्रह ग्लाइकोजेन के रूप में होता है।
    9. पादप काशिका में सीलिया जैसे प्रचलन अंगक का निर्माण नहीं होता है। सीलिया केवल जंतु कोशिका में ही पाया जाता है।

विसरण (Diffusion ) और परासरण (Osmosis)

  • पोषक पदार्थों का सजीवों के प्रत्येक कोशिका में पहुँचाना तथा कोशिका में अनुपयोगी या हानिकारक पदार्थ का बाहर निकलना अत्यंत आवश्यक है। इस कार्य हेतु सजीवों में परिवहन तंत्र (Transporting sytem) बने होते हैं।
  • पदार्थों के परिवहन में विसरण तथा परासरण की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है। विसरण तथा परासरण के द्वारा बिना ऊर्जा खर्च किये परिवहन का कार्य सम्पन्न होती है। 
  • विसरण (Diffusion)
    • द्रव, गैस तथा विलेय के अणुओं का उनके अधिक सांद्रता वाले क्षेत्र से कम सांद्रता वाले क्षेत्र की ओर गति विसरण कहलाता है। विसरण की यह क्रिया तब तक होती रहती है जब तक पदार्थ के अणु प्राप्त स्थान में समान रूप से नहीं फैल जाए।
    • विसरण करने वाले प्रत्येक अणु उन सभी दिशाओं में अनियमित रूप से फैलते रहते है जहाँ उस अणु की सांद्रता कम होती है।
    • प्रत्येक पदार्थ का विसरण, उसी तंत्र (System) में होने वाले अन्य पदार्थों के विसरण पर निर्भर नहीं करता है अर्थात् एक पदार्थ का विसरण दूसरे पदार्थ से स्वतंत्र होता है।
    • विसरण के उदाहरण-
      1. विसरण द्वारा गैसों (O2 तथा CO2) का आदान-प्रदान कोशिका तथा बाहरी वातावरण बीच होता है।
      2. पौधों में वाष्पोत्सर्जन में विसरण द्वारा जलवाष्प बाहर निकलते है। 
      3. विभिन्न पोषक पदार्थों को बाहरी वातावरण से कोशिका विसरण द्वारा ही ग्रहण करता है । 
      4. इत्र की शीशी कमरे में खोलने पर उसकी सुगंध विसरण द्वारा ही पूरे कमरे में फैलती है। 
      5. स्वच्छ जल से भरे बर्तन में इंक डालने पर इंक जल के संपूर्ण भागों में समान रूप से फैल जाता है। यह विसरण द्वारा ही होता है।
  • विसरण की क्रिया धीमी गति से होती है तथा इसके लिए कोशिका का जीवित होना जरूरी है। विसरण द्वारा स्थानांतरण एक कोशिका से दूसरी कोशिका में या कम दूरी तक ही होता है।
  • विसरण की दर पदार्थों के आकार पर निर्भर करता है। छोटे आकार के पदार्थ का विसरण तेज गति से होता है और बड़े आकार का धीमी गति है।
  • परासरण (Osmosis)
    • परासरण की प्रक्रिया में जल (विलायक ) के अणु अर्द्धपारगम्य झिल्ली के द्वारा जल के अधिक सांद्रता वाले क्षेत्र से जल के कम सांद्रता वाले क्षेत्र की और गमण करता है।
    • परासरण की प्रक्रिया बिना अर्द्धपारगम्य झिल्ली के संभव नहीं है।
    • परासरण द्वारा जल अर्द्धपारगम्य झिल्ली से होकर तब तक गमण करते रहते हैं जब तक अर्द्धपारगम्य झिल्ली के दोनों तरफ जल की मात्रा संतुलित न हो जाए।
    • परासरण दाब (Osmotic Pressue )- परासरणी दाब विलयन उत्पन्न वह दाब है जो अर्द्धपारगम्य झिल्ली से होने वाले जल या विलायक के गमण को रोक देता है। परासरण दाब विलयन में उपस्थित विलेय (Solute) के अणुओं का सीधा समानुपाती होता है ।
  • परासरण के उदाहरण-
    1. परासरण द्वारा पौधे अपने मूल रोम से भूमि से जल अवशोषित करते है।
    2. पौधे के कोशिका में जल का संचलन परासरण द्वारा ही होता है।
    3. परासरण द्वारा पौधे के विभिन्न अंग स्फीत (Turgid) रहते हैं, जिससे वह अंग अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकते हैं।
    4. पौधे के पत्तियों से पौधे के विभिन्न भागों में खाद्य-पदार्थों का वितरण परासरण के द्वारा ही होता है।
    5. पत्तियों में पाये जाने वाले रंध्र के खुलने तथा बंद होने में परासरण की मुख्य भूमिका होती है।

परासरण का कोशिका के साथ संबंध

  • प्रत्येक कोशिका में कोशिकाद्रव्य होता है जिसकी अपनी एक निश्चित परासरणी दात्र होता है। कोशिका में पाये जाने वाले विलयन (कोशिकाद्रव्य) की तुलना तीन प्रकार के विलयनों से करने पर जो परिणाम निकल कर सामने आते हैं, वह इस प्रकार है-
    1. समपरासरी विलयन (Isotonic Solution) - ऐसे विलयन जिसकी सांद्रता तथा परासरण दाब कोशिका रस की सांद्रता और दाब के समान होती है, उसे समपरासरी विलयन कहा जाता है।
      • समपरासरी विलयन में कोशिका को रखने पर जल का कोई आदान-प्रदान नहीं होता है। फलस्वरूप कोशिका के आकार तथा वजन में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
    2. अल्पपरासरी विलयन (Hypotonic Solution)— ऐसा विलयन जिसकी सांद्रता तथा परासरण दाब कोशिका रस से कम होती है उसे अल्पपरासरी विलयन कहते है।
      • अल्पपरासरी विलयन में कोशिका को रखने पर जल बाहरी विलयन से कोशिका में प्रवेश करने लगता है। जिसके कारण कोशिका का आकार और वजन बढ़ जाता है।
      • अल्पपरासरी विलयन से जल का कोशिका में प्रवेश करना अंत: परासरण (Endoosmosis) कहलाता है।
    3. अविकासरी विलय (Hpertonic Solution)— ऐसा विलास जिसकी सांद्रता एवं पामरण दाब कोशिका से अधिक होता है उसे अतिपरासरी विलयन कहते हैं।
      • अतिपरासरी विलयन में कोशिका को रखने पर कोशिका के अंदर का जल निकलकर बाहर आ जाते हैं जिसके कारण कोशिका का आकार और वजन घट जाता है।
      • अतिपरासरी विलयन में कोशिका को रखने से कोशिका का जल बाहर निकलना बाह्य परासरण (Exousmosis)  कहलाता है।
      • बाह्य परासरण के कारण कोशिका का जीवद्रव्य सिकुड़ने लगता है और कुछ समय बाद जीवद्रव्य संकुचित होकर कोशिका के एक कोने में कोशिका झिल्ली द्वारा घिरी हुई नजर आती है। इस प्रक्रिया को जीवद्रव्यकुंचन (Plasmolysis) कहते है।
  • कुछ अन्य महत्वपूर्ण पद-
    1. अंतः शोषण (Imbibition )- अंत: शोषण एक विशेष प्रकार का विसरण है जिसमें गोंद, स्टार्च, जिलेटीन, लकड़ी, सूखे बीज जल अधिशोषित कर फूल जाते है।
    2. सक्रिय परिवहन (Active Transport)-- जब पदार्थों के स्थानांतरण में ऊर्जा खर्च होता है तो इस परिवहन को सक्रिय परिवहन कहते है।
    3. निष्क्रिय परिवहन (Passive Transport )- जब पदार्थों का परिवहन बिना ऊर्जा खर्च किये होता है तो इसे निष्क्रिय परिवहन कहते है।
    4. एंडोसाइटोसिस (Endocytosis)- एक कोशिकीय जीव (अमीबा ) की कोशिका झिल्ली का लचीलापन कोशिका को इस योग्य बना देता है कि वह बाहरी वतावरण से भोजन को ग्रहण कर सके। कोशिका झिल्ली द्वारा सम्पन्न इसी कार्य को एंडोसाइटोसिस कहते है।
    5. जीवद्रव्यविकुंचन (Deplasmolysis)- जीवद्रव्यकुंचित कोशिका को अगर अल्पपरासरी विलयन में रख दें तो अत: परासरण के कारण जीवद्रव्य पुनः अपने पहले वाले स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रक्रिया को जीवद्रव्य त्रिकुंचन कहते हैं।

कोशिका विभाजन (Cell Division)

  • सर्वप्रथम कोशिका सिद्धान्त से यह स्पष्ट हुआ था कि नये कोशिका का निर्माण पहले से मौजूद कोशिकाओं के द्वारा होता है और इसमें केन्द्रक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।
  • पुराने अथवा पैतृक कोशिका (Parent cell) से नये अथवा संतति कोशिका (Daughter cell) का निर्माण होना ही कोशिका विभाजन कहलाता है।
  • जीवन की निरंतरता कोशिका विभाजन पर ही निर्भर करता है क्योंकि कोशिका विभाजन के द्वारा ही नये कोशिका बनता है पुन: कोशिका का समूह बनता है अंततः जीव का निर्माण होता है।
  • कोशिका विभाजन तीन प्रकार से होता है- (Amitosis), समसूत्री (Mitosis) तथा अर्धसूत्री (Meiosis)
  • असूत्री विभाजन (Amitosis cell Division)
    • इस विभाजन में सबसे पहले केन्द्रक (Nucleus) लंबा होता और फिर बीच से टूटकर दो भागों में बँट जाता है। इस तरह एक केन्द्रक से दो केन्द्रक बन जाते है।
    • इसके बाद कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) का दो भागों में विभाजन होता है और प्रत्येक भाग एक-एक केन्द्रक को घेरकर दो कोशिकाएँ बना लेती है।
    • असूत्री कोशिका विभाजन में क्रोमोजोम का निर्माण नहीं होता है और न ही केन्द्रक झिल्ली (Cell membrane) का लोप होता है।
    • जीवाणु तथा रोगग्रस्त कोशिका में असूत्री विभाजन होता है।
  • समसूत्री विभाजन (Mitosis cell Division)
    • इस कोशिका विभाजन की खोज वाल्टर फ्लेमिंग ने किया था। यह कोशिका विभाजन जन्तु तथा पौधे के कायिक कोशिका (Somatic cell) में होता है।
    • समसूत्री कोशिका विभाजन के दो अवस्था हैं-
      1. कैरियोकिनेसिस (Karyokinesis) इस अवस्था में कोशिका के केन्द्रक का विभाजन होता है। कैरियोकिनेसिस अवस्था चार अवस्थाओं (Stag) से गुजरकर समाप्त है। यह चार अवस्था क्रमिक रूप इस प्रकार है- प्रोफेज → मेटाफेज → ऐनाफेज → टेलोफेज
      2.  साइटोकिनेसिस - इस अवस्था में कोशिकाद्रव्य का विभाजन होता है। यह अवस्था कैरियोकिनेसिस के समाप्त होने के बाद शुरू होता है। यह अवस्था पौधों तथा जन्तु में एक समान रूप से नहीं होती है।
    • जंतु कोशिका में टेलीफेज अवस्था के बाद कोशिकाद्रव्य (Cytoplasm) बोचो - बीज अंदर धँसकर दो भागों में बँट जाता है।
    • पादप के कोशिकाद्रव्य अंदर की ओर धँसकर विभाजित नहीं होती है। पादप के कोशिकाद्रव्य के मध्य एक कोशिका पट्टी (cell plate) का निर्माण होता है। इसके बाद cell plate के दोनों ओर सेल्युलोज की दीवार बन जाती है और अंततः कोशिकाद्रव्य दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है।
    • इस तरह कैरियोकिनेसिस तथा साइटोकिनेसिस अवस्था के बाद एक कोशिका से दो कोशिका बनते हैं और प्रत्येक में क्रोमोजोम की संख्या बराबर होती है। नये बने कोशिका में क्रोमोजोम की संख्या उतनी ही होती है जितनी जनक कोशिका (Parentcell) में होती है।
    • जीवों में पुनरूदभवन (Regeneration) तथा घावों का भराव इसी कोशिका का विभाजन के फलस्वरूप होता है।
  • अर्द्धसूत्री विभाजन (Meisosi cell Division)
    • यह विभाजन जनन कोशिका के परिपक्व हो जाने पर होता है। यह विभाजन जनन कोशिका में होता है जिसके फलस्वरूप अगुणित युग्मक (Haploid Gamit) जैसे- शुक्राणु कोशिका (Sperm cell) अंडाणु कोशिका (Ova cell) बनते हैं जो जनन की प्रक्रिया में होनेवाले निषेचन में भाग लेते है।
    • अर्द्धसूत्री विभाजन दो चरण में सम्पन्न होता है। पहला चरण को Reduction Division या Meiosis-I कहा जाता है। दूसरा चरण को Homotypic Division या Meiosis-II कहा जाता है।
    • अर्द्धसूत्री विभाजन का Reduction Division या प्रथम विभाजन निम्न अवस्थाओं से गुजरकर पूर्ण होती है- Prophase-I → Metaphase-I → Anaphase-I → Telophage-I
  • अर्द्धसूत्री विभाजन के Reduction Division ( प्रथम चरण) के Prophase-I अवस्था निम्नलिखित चरणों में पूर्ण होती है- Leptotene → Zygotene → Pachytene → Piplotene → Diakinesis
  • Reduction Division समाप्त होने पर कोशिकाद्रव्य विभाजित होकर दो अनुजात कोशिका बनाता है। दो कोशिका में गुणसूत्र की संख्या समान होती है परंतु अगुणित (Hyploid) होती है।
  • Meiosis-II अवस्था Mitosis Division के तरह ही सम्पन्न होती है। इस द्वितीय चरण में निम्नलिखित अवस्थाएँ होती है- Prophase-II → Metaphase-II  → Anaphase-II → Telophase-II
  • Meiosis- II सम्पन्न होने पर श्री श्री नव कोशिका बनाती है जिनमें गुणसूत्रों की की संख्या समान परंतु अगुणित होती है।
  • Meiosis Division के दोनों चरण समाप्त होने पर एक कोशिका से चार कोशिकाओं का निर्माण होता है।
  • Meiosis Division से बने अगुणित कोशिका (Haploid cell) निषेचन के दौरान आपस में मिलकर Zygote (युग्मनज) या द्विगुणीत कोशिका (Deloid cell) में बदल जाता है। इस तरह गुणसूत्रों का आपस में मिलने से उसमें नवीनता आती है जो सजीवों में विभिन्नताएँ (Variation) उत्पन्न करते है। यही विभिन्नताएँ पृथ्वी पर विकासवाद (Evolution) का कच्चा पदार्थ है।

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. कोशिका सजीवो की रचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई है।
2. कोशिका के अभाव में सजीव के शरीर का निर्माण संभव नहीं है। 
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
2. कोशिका के किस भाग को सम्मलित रूप से साइटोसोम कहा जाता है ?
(a) कोशिका झिल्ली
(b) कोशिका द्रव्य
(c) कोशिका द्रव्य स्थित कोशिकांग
(d) इनमें से सभी
3. साइटोसोम के अंतर्गत निम्नलिखित में कौन एक शामिल नही है ?
(a) केंद्रक
(b) कोशिका झिल्ली
(c) कोशिका द्रव्य स्थित कोशिकांग
(d) कोशिका द्रव्य स्थित कोशिकांग
4. कोशिका द्रव्य में स्थित जीवित रचनाएँ, जिनमें बढ़ने तथा विभाजन की क्षमता होती है, उसे क्या कहते है ?
(a) ऑर्गेन्वॉइड्स
(b) मेटाप्लास्ट्स
(c) एरगैस्टोप्लाज्म
(d) जीवद्रव्यतंतु
5. निम्नलिखित में कौन सी कोशिकीय रचना ऑर्गेन्वॉइड्स नही है ?
(a) सेन्ट्रोसोम
(b) राइबोसोम
(c) माइक्रोट्यूव्यूल्स
(d) रसधानियाँ
6. निम्नलिखित में कौन सा एक सही नही है ?
(a) कोशिका का आकार एवं आकृति उसके कार्यों के अनुरूप होती है।
(b) कोशिकाओं की संख्या जीव के शरीर के आकार पर निर्भर करता है।
(c) अलग-अलग रचना और अलग-अलग कार्य करने वाले कोशिकाओं का समूह को उत्तक कहा जाता है।
(d) कोशिकाएँ अलग-अलग आकार की होती है।
7. तरल मोजाएक मॉडल के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. यह मॉडल कोशिका झिल्ली के संरचना को बताता है।
2. यह मॉडल 1972 में सिंगर और निकॉलसन ने प्रस्तुत किया था।
3. इस मॉडल के अनुसार कोशिका झिल्ली के संरचना में दो फॉस्फोलिपिड अणुओ के परतो के बीच-बीच में गोलाकार प्रोटीन रहता है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) 1 और 2
(c) केवल 2
(d) 1, 2 और 3
8. कोशिका का कौन सा भाग माइक्रोविलाई, सीलिया तथा फ्लैजिला जैसी संरचना का निर्माण करती है ?
(a) कोशिका झिल्ली
(b) कोशिका भित्ती
(c) अंतरद्रव्यजालिका
(d) राइबोसोम
9. परासरण की क्रिया किसके द्वारा सम्पन्न होता है ?
(a) कोशिका झिल्ली
(b) कोशिका भित्ती
(c) केंद्रक
(d) A तथा B दोनों
10. कोशिका अंगक 'राइबोसोम' के संबंध में कौन सा एक सही नही है ?
(a) राइबोसोम दो प्रकार के होते है, 70s तथा 80s
(b) 70s राइबोसोम प्राकैरोयोटीक में होते है तथा इसके दो सबयूनिट है - 30s तथा 50s
(c) 80s राबोसोम यूकैरोयोटीक होते है तथा इसके भी दो सबयूनिट है 40s तथा 60s
(d) राइबोसोम प्रोटीन तथा लिपीड के बने होते है।
11. प्रोकैरोयोटीक कोशिका में माइटोकॉण्ड्रिया के सदृश्य कौन सी रचना पायी जाती है जो श्वसन तथा कोशिका विभाजन का कार्य करती है ?
(a) मीसोसोम
(b) स्फीरोसोम
(c) ग्लाइऑक्सीसोम
(d) परॉक्सीसोम
12. कोशिका के अंदर ग्लाइकोलिपिड व ग्लाइकोप्रोटीन निर्माण का सक्रिय स्थल कौन है ?
(a) अंतरद्रव्य जालिका 
(b) राइबोसोम
(c) गॉल्जीकाय
(d) लवक
13. निम्नलिखित में कौन सी कोशिकीय संरचना कोशिकीय परिवहन तंत्र का निर्माण करती है तथा केंद्रक से कोशिका द्रव्य में अनुवंशिक पदार्थों को ले जाने का पथ बनाती है ?
(a) राइबोसोम
(b) गॉल्जीकाय
(c) केंद्रक
(d) अंतरद्रव्यबालिका
14. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. चिकनी अंतरद्रव्यजालिका (SER) प्रोटीन के संश्लेषण तथा स्त्रवण में भाग लेती है।
2. खुरदुरी अंतरद्रव्यजालिका (RER) लिपिड तथा स्टीरॉइड के संश्लेषण में सहायक होती हैं।
उपर्युक्त में कौन-सा/से सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
15. कोशिका का अचल संपत्ति किसे कहा जाता है ?
(a) लिपिड
(b) सेलुलोज
(c) न्यूक्लिक अम्ल
(d) प्रोटीन 
16. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए-
1. माइटोकॉण्ड्रिया कोशिका में पाये जाने वाले बड़े अंगक होते है।
2. हरित लवक को कोशिका का रसोई घर कहा जाता है।
3. गॉल्जीकाय को कोशिका के अणुओ का ट्रैफिक कंट्रोलर कहा जाता है।
उपर्युक्त में सही कथन है-
(a) 1 और 2 
(b) 2 और 3
(c) 1 और 3
(d) 1, 2 और 3
17. निम्नलिखित कथनो पर विचार कीजिए-
1. DNA को अनुवंशिक पदार्थ कहा जाता है।
2. जीन को अनुवंशिक इकाई कहा जाता है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल | 
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो । न ही 2
18. कोशिका के अंदर निम्नलिखित में कौन सा कार्य गॉल्जीकाय द्वारा नहीं किया जाता है ?
(a) संवेष्टन (Packaging)
(b) संग्रहण ( storage)
(c) स्त्रवण ( Secretion)
(d) अंत: कोशिकीय पाचन
19. निम्नलिखित में कौन सा विकल्प सही सुमेलित नही हैं-
(a) कोशिका का पावर हॉउस - माइटोकॉण्ड्रिया
(b) सबसे बड़ा अंगक - लवक
(c) आत्महत्या की थैली - लाइसोसोम
(d) पैलेड कण - स्फीरोसोम
20. निम्नलिखित में कौन सा अर्द्धस्वयात् कोशिकांग है ?
(a) हरित लवक
(b) माइटोकॉण्ड्रिया
(c) A तथा B दोनों 
(d) कोई नहीं
21. प्रोकैरियोटीक कोशिका में किस कोशिका अंगक का अभाव रहता है ?   
1. गॉल्जीकाय
2. माइटोकॉण्ड्रिया
3. अंतरद्रव्यजालिका
4. हरित लवक
5. DNA
कूट:
(a) 1, 2 और 3
(b) 1, 2, 3 और 4
(c) 1, 2, 3 और 5
(d) उपर्युक्त सभी
22. निम्नलिखित में कौन सी रचनाएँ पादप कोशिका में पाये जाते है, परन्तु जन्तु कोशिका में नही-
(a) लवक
(b) कोशिकाभित्ती
(c) बड़ी रिक्तिका
(d) इनमें से सभी
23. निम्नलिखित में कौन सी रचना जन्तु कोशिका में पाये जाते है परन्तु पौधे की कोशिका में नहीं-
(a) माइटोकॉण्ड्रिया 
(b) लाइसोसोम
(c) सेन्ट्रोसोम
(d) कोशिका झिल्ली 
24. काशिका सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया था-
(a) श्लाइडेन तथा श्वान
(b) रॉबर्ट हुक तथा रॉबर्ट ब्राउन
(c) जेड जैनसन तथा एच जैनसन
(d) वाल्डेयर तथा विल्सन
25. कोशिका सिद्धान्त के अनुसार कोशिका विभाजन में मुख्य सृष्टिकर्त्ता (Creator) की भूमिका कौन निभाता है ?
(a) सेन्ट्रोसोम 
(b) केंद्रक
(c) राइबोसोम
(d) गॉल्जीकाय
26. निम्नलिखित में से किस कोशिका अंगक से लाइसोसोम बनता है ?
(a) गॉल्जीकाय
(b) राइबोसोम
(c) माइटोकॉण्ड्रिया
(d) अंतरद्रव्यजालिका
27. निम्नलिखित में से कौन सा कोशिका अंगक अपने DNA में उपस्थित जीन को सम्मिलित करते हुए इसके स्वंग के प्रोटीनो का संश्लेषण करता है ?
(a) माइटोकॉण्ड्रिया
(b) लवक
(c) A तथा B दोनों
(d) अंतरद्रव्यजालिका
28. निम्नलिखित में कौन सा कोशिका अंगक अपने आकृति को तुरंत परिस्थितियों के अनुसार बदल सकता है ?
(a) राइबोसोम
(b) लाइसोसोम
(c) माइटोकॉण्ड्रिया
(d) सेन्ट्रोसोम
29. मनुष्य के शरीर में तंत्रिका कोशिका है-
(a) सबसे छोटी कोशिका
(b) अनियमित कोशिका
(c) सबसे बड़ी कोशिका
(d) एक गोल कोशिका
30. एक प्रारूपिक कोशिक के अंतर्गत है- 
(a) केवल साइटोसोम
(b) कोशिकाद्रव्य एवं केन्द्रक
(c) कोशिका झिल्ली एवं केन्द्रक
(d) साइटोसोम एवं केन्द्रक
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Thu, 18 Apr 2024 09:45:39 +0530 Jaankari Rakho