Jaankari Rakho & : BPSC https://m.jaankarirakho.com/rss/category/bpsc Jaankari Rakho & : BPSC hin Copyright 2022 & 24. Jaankari Rakho& All Rights Reserved. BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | संविधान (Political Science) | सहकारिता और खाद्य सुरक्षा https://m.jaankarirakho.com/649 https://m.jaankarirakho.com/649 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | संविधान (Political Science) | सहकारिता और खाद्य सुरक्षा

सहकारिता और खाद्य सुरक्षा

1. भारतीय संविधान के अनुकोद 24 के अनुसार चिरम उम्र के मच्या से बाल मजबूरी कराना बंजनीय है ?
Ans:- 14 वर्ष से कम
2. भारत में लजको को विवाह की न्यूनतम आयु सीमा किलाना निश्चित है ?
Ans:- 21 वर्ष
3. कानूनन लड़की की विवाह योग्य आयु कितनी निर्धारित की गयी है?
Ans:- 18 वर्ष
4. मानव एक प्राणी है
Ans:- सामाजिक
5. बाल विवाह निवारण अधिकारी के रूप में किसे नियुक्त किया गया है ?
Ans:- प्रखंड विकास पदाधिकारी 
6. अंतर्राष्ट्रीय नशा निरोधक दिवस कब मनाया जाता है ?
Ans:- 26 जून
7. बाल विवाह अधिनियम कब बना? 
Ans:- 2006 ई 
8. यूनिसेफ के अनुसार 2-17 साल तक के कितने बच्चे बाल श्रम में लिप्त हैं ? 
Ans:- 2.5 करोड़
9. बाल श्रम अधिनियम (निषेध एवं नियमन ) कब लागू हुआ ?
Ans:- 1986 ई ०
10. संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार बाल श्रम दंडनीय है ? 
Ans:- अनुच्छेद 24
11. झारखंड में किसकी रोकथाम के लिए AHTU (Anti Human Trafficking unit ) का गठन किया गया है ?
Ans:- मानव तस्करी  
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Wed, 17 Jan 2024 09:07:42 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | संविधान (Political Science) | न्यायिक प्रक्रिया https://m.jaankarirakho.com/648 https://m.jaankarirakho.com/648 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | संविधान (Political Science) | न्यायिक प्रक्रिया

न्यायिक प्रक्रिया

1. सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक है ?
Ans:- निष्पक्षता
2. अस्पृश्यता का अर्थ है ?
Ans:- जो छुने योग्य नहीं है
3. सच्चर समिति का रिपोर्ट संबंधित है?
Ans:- मुस्लिम समुदाय से 
4. आदिवासी कौन लोग हैं ?
Ans:- मूल निवासी 
5. झारखण्ड राज्य में आरक्षण किस वर्ग को नहीं मिलता ?
Ans:- सामान्य वर्ग 
6. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम ( अत्याचार निवारण) पारित हुआ -
Ans:- 1989 में 
7. अधिकांश आदिवासी आबादी कौन-सी भाषा बोलती है ?
Ans:- संथाली 
8. अस्पृश्यता उन्मूलन का प्रावधान संविधान के किस अनुच्छेद में वर्णित है ?
Ans:- 17
9. भारत में आदिवासियों की आबादी कितनी प्रतिशत है ?
Ans:- 8 प्रतिशत 
10. की जनगणना के अनुसार भारत की याबाद मुगलमानी की संख्या कितनी है ?
Ans:- 14.02% 
11. सच्चर समिति रिपोर्ट के आधार पर 6-14 साल के कितने प्रतिशत बच्चे कभी स्कूल नहीं गए ?
Ans:- 25 
12. सच्चर समिति का गठन किस वर्ष हुआ ?
Ans:- 2005 ई.
13. FIR का फुल फार्म क्या है?
Ans:- "First Investigation Report".
14. FiR क्या होता है ?
Ans:- FIR एक दस्तावेज है जो पुलिस द्वारा तैयार किया जाता है। इसमें अपराध की सूचना का वर्णन होता है। यह एक अनिवार्य कदम होता है जो पुलिस द्वारा अनुसंधान शुरू करने के पहला काम होता है।
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Wed, 17 Jan 2024 09:01:21 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | संविधान (Political Science) | कानून की समझ & न्यायपालिका https://m.jaankarirakho.com/647 https://m.jaankarirakho.com/647 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | संविधान (Political Science) | कानून की समझ & न्यायपालिका

कानून की समझ & न्यायपालिका

1. भारत देश का सबसे पुराना उच्च न्यायालय कौन है ?
Ans:- कलकत्ता उच्च न्यायालय
2. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कौन पदमुक्त करता है ?
Ans:- महाभियोग की प्रक्रिया
3. 28 जनवरी, 1950 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना कहाँ की गई ?
Ans:- दिल्ली
4. कौन - सा कार्य भारत में न्यायपालिका का नहीं है ? 
Ans:- चुनाव कराना
5. किस वर्ष जनहित याचिका (PIL) की व्यवस्था लागू की गयी ?
Ans:- 1980 ई. में
6. भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है ?
Ans:- नई दिल्ली
7. बिहार का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है ?
Ans:- पटना 
8. झारखण्ड में उच्च न्यायालय कहाँ स्थित है ?
Ans:- रांची
9. संविधान के संरक्षण का दायित्व किसे दिया गया है ?
Ans:- सर्वोच्च न्यायालय को ( 26 जनवरी 1950)
10. सर्वोच्च न्यायालय का गठन संबंधी प्रावधान संविधान के किस अनुच्छेद में वर्णित है ?
Ans:- अनुच्छेद 145
11. मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है ?
Ans:- राष्ट्रपति
12. 11. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवा निवृति की उम्र कितनी है ?
Ans:- 65 वर्ष
13 वर्तमान में भारत में कितने उच्च न्यायालय है ?
Ans:- 24 
14. अभिलेखीय न्यायालय किसे कहा जाता है ?
Ans:- सर्वोच्च न्यायालय 
15. उच्च न्यायालय का गठन संविधान के किस अनुच्छेद में निहित है ?
Ans:- अनुच्छेद 214 
16. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कौन शपथ दिलाता है ?
Ans:- राज्यपाल 
17. झारखंड उच्च न्यायालय की स्थापना किस वर्ष हुई थी ?
Ans:- 15 नवंबर 2020 
18. प्रथम दृष्टया रिपोर्ट FIR कहाँ दर्ज की जाती है ?
Ans:- संबंधित थाना में 
19. किस वर्ष जनहित याचिका (PIL) की व्यवस्था लागू की गयी ?
Ans:- 1980 में
20. बिहार में प्रेस बील के नाम से राज्य विधानपालिका द्वारा एक कानून पारित किया गया कब ?
Ans:- 1982 में
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Wed, 17 Jan 2024 08:03:44 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | संविधान (Political Science) | संसदीय सरकार (लोग व उनके प्रतिनिधि) https://m.jaankarirakho.com/646 https://m.jaankarirakho.com/646 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | संविधान (Political Science) | संसदीय सरकार (लोग व उनके प्रतिनिधि)

संसदीय सरकार (लोग व उनके प्रतिनिधि)

♦ लोकसभा किसे कहते हैं?
Ans:-भारतीय संसद के निचले सदन को लोकसभा कहते हैं !
♦ राजसभा किसे कहते हैं?
Ans:-भारतीय संसद के उच्च सदन को राज्यसभा करते हैं !
1. संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं। इन विषयों पर कानून कौन बनाता है ?
Ans:- केन्द्र सरकार
2. स्वतंत्र भारत में प्रथम आम चुनाव कब हुआ ?
Ans:- 1952 में
3. निम्नांकित में से कौन-सी संस्था कानून बनाती है ?
Ans:- संसद
4. कार्यपालिका किसके प्रति उत्तरदायी होता है ?
Ans:- विधायिका
5. किस वर्ष चार्टर अधिनियम में पहली बार विधान परिषद् के 1 बीज दिखाई पड़े ?
Ans:- 1833 में
6. भारत में कैसी शासन प्रणाली है ?
Ans:- संसदीय 
7. लोक सभा में सदस्यों की कुल संख्या होती है ?
Ans:-  552
8. लोक सभा में निर्वाचित सदस्यों की संख्या होती है?
Ans:- 543
9. लोकप्रिय सदन किसे कहा जाता है ?
Ans:- लोक सभा 
10. संयुक्त राज्य अमेरिका में कैसी शासन प्रणाली है ?
Ans:- अध्यक्षात्मक
11. लोकसभा में अनुसूचित जाति (SC ) के लिए कितनी सीटें आरक्षित हैं ?
Ans:- 84
12. झारखंड कितने लोकसभा क्षेत्रों में बँटा हुआ है ?
Ans:- 14
13. झारखंड में अनुसूचित जनजाति के लिए लोकसभा की कितनी सीटें आरक्षित हैं ?
Ans:- पांच
14. राज्य सभा में सदस्यों की संख्या होती है?
Ans:- 250
15. लोकसभा में अनुसूचित जनजाति (ST ) के लिए कितनी सीटें आरक्षित हैं ?
Ans:-  47
16. राष्ट्रगान” जन – जण - मन " किसके द्वारा रचित है ?
Ans:- रवीन्द्रनाथ टैगोर
17. स्थायी सदन किसे कहा जाता है ?
Ans:- राज्य सभा को
18. राज्य सभा राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्यों की संख्या होती है?
Ans:- 12
19. भारतीय संसद के कितने अंग है? और कौन सी -
Ans:- तीन (राष्ट्रपति, लोकसभा, और राज्यसभा)
20. राष्ट्रपति का कार्यकाल कितने वर्षों का होता है?
Ans:- 5 वर्षों का
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Wed, 17 Jan 2024 07:57:54 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | संविधान (Political Science) | भारतीय संविधान के आधारभूत मूल्य https://m.jaankarirakho.com/645 https://m.jaankarirakho.com/645 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | संविधान (Political Science) | भारतीय संविधान के आधारभूत मूल्य

भारतीय संविधान के आधारभूत मूल्य

♦ भारत में विश्व के आठ प्रमुख धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं कौन-कौन है ?
Ans:- हिंदू, इस्लाम, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन, और यहूदी
♦ धर्मनिरपेक्षता का क्या अर्थ है ?
Ans:- धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि भारत के संविधान के अनुसार सभी लोगों को अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं एवं तौर तरीकों को अपनाने की पूरी आजादी है
1. भारत एक संप्रभु राष्ट्र बना था?
Ans:- 15 अगस्त 1947 को
2. भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे ?
Ans:- डा ० राजेन्द्र प्रसाद 
3. भारतीय संघ का सर्वोच्च पद है?
Ans:- राष्ट्रपति 
4. भारतीय राष्ट्रपति का चुनाव किस विधि से होता है?
Ans:- अप्रत्यक्ष आनुपातिक 
5. भारत का राष्ट्रीय चिहन क्या है?
Ans:- अशोक स्तंभ
6. समानता के सिद्धांत के आधार पर किसको दंडनीय अपराध घोषित किया गया है ?
Ans:- छुआछूत
7. राष्ट्रपति का कार्यकाल होता है?
Ans:- 5 वर्षों का
8. भारत का विस्मार्क कहा जाता है ?
Ans:- वल्लभ भाई पटेल
9. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे ?
Ans:- पंडित जवाहरलाल नेहरु
10. ' लौह पुरुष ' के नाम से जाना जाता है ?
Ans:- वल्लभ भाई पटेल 
11. किस अनुच्छेद में भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ?
Ans:- अनुच्छेद 19
12. किस अनुच्छेद के अंतर्गत सभी नागरिकों का कर्तव्य है कि भारत की संप्रभुता, एकता व अखंडता की रक्षा करें ?
Ans:- अनुच्छेद 51
13. ” मिसाइल मैन' के नाम से जाना जाता है ? 
Ans:-  डा० ए पी० जे० अब्दुल कलाम
14. भारत के प्रथम गृह मंत्री कौन थे ?
Ans:- सरदार वल्लभ भाई पटेल 
15. संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा संविधान की उद्देश कब शामिल किया गया ?
Ans:- 1976 में
16. भारत में धर्मनिरपेक्षता का प्रचार करने के लिए निरंतर प्रयास कब किया जा रहा था ? 
Ans:- 1948 में
17. भारत के संविधान का एक महत्वपूर्ण मूल्य क्या है ?
Ans:- धर्मनिरपेक्षता
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Wed, 17 Jan 2024 07:46:03 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | संविधान (Political Science) | संविधान https://m.jaankarirakho.com/644 https://m.jaankarirakho.com/644 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | संविधान (Political Science) | संविधान
♦ संविधान किसे कहते हैं?
Ans:- किसी भी देश का संविधान वह मौलिक कानून है जो सरकार के विभिन्न अंगों की रूपरेखा, कार्य निर्धारण तथा नागरिकों के हितों का संरक्षण भी करता है।
1. भारत में शिक्षा का अधिकार कानून कब से लागू हो गया ? 
Ans:- 1 अप्रैल 2010
2. स्वतंत्र भारत का संविधान कब लागू हुआ ?
Ans:- 26 जनवरी, 1950
3. संविधान के निर्माण में कितना समय लगा था ?
Ans:- 2 वर्ष 11 माह 18 दिन
4. शिक्षा अधिकार अधिनियम में अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा बच्चों को दिया जाना है। इसकी अधिकतम उम्र सीमा क्या निश्चित है ?
Ans:- 14 वर्ष
5. हमारे संविधान की मुख्य विशेषता है-
Ans:- समाजवाद, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य
6. संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से कब हटाया गया ?
Ans:- 1948
7. संविधान द्वारा कितने मौलिक कर्तव्य प्रदत्त हैं ?
Ans:- 11
8. विश्व का सबसे बड़ा एवं लिखित संविधान किस देश का है ?
Ans:- भारत
9. शिक्षा किस सूची का विषय है ?
Ans:- समवर्ती
10. मंत्री परिषद के अध्यक्ष को कहते हैं ?
Ans:- प्रधानमंत्री
11. किस समिति की रिपोर्ट के आधार पर संविधान में मूल कर्तव्य शामिल किए गए हैं?
Ans:- स्वर्ण सिंह समिति
12. भारतीय संविधान में नागरिकों को दिये गये अधिकारों को कहते हैं?
Ans:- मौलिक अधिकार 
13. राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रगान का आदर करना कहलाता है?
Ans:- मौलिक कर्त्तव्य 
14. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन कब किया गया ?
Ans:- 1993 
15. मानवाधिकार दिवस किस तिथि को मनाया जाता है ? 
Ans:- 10 दिसम्बर
16. भारतीय संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे ?
Ans:- डॉ० बी० आर० अम्बेडकर ० 
17. 2009 में शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत एक कानून बनाया गया कौन सी कानून है ?
Ans:- बुनियादी कानून
18. 6 से 14 वर्ष की लड़के या लड़कियों को किसी भी विद्यालय में प्रवेश करने का नियम कब लागू हुआ ?
Ans:- 2009
19. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन कब हुआ?
Ans:- 1885 में
20. मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भारत के संविधान को नई रूपरेखा तैयार किया कब?
Ans:- 1928 में
21. स्वतंत्र संविधान सभा की मांग कब की गई ?
Ans:- 1934 में .
22. संविधान सभा का गठन कब किया गया?
Ans:- दिसंबर 1946 में
23. संविधान सभा के अस्थाई अध्यक्ष कौन थे ?
Ans:- डॉ सच्चिदानंद सिन्हा
24. संविधान सभा के स्थाई अध्यक्ष कौन थे ?
Ans:- राजेंद्र प्रसाद
25. भारतीय संविधान सभा बनाने का कार्य कब शुरू किया गया?
Ans:- 9 जनवरी 1946 26.
26. संविधान लिखने का कार्य कब पूरा हो गया?
Ans:- 26 नवंबर 1949
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Wed, 17 Jan 2024 07:43:04 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | एशिया https://m.jaankarirakho.com/643 https://m.jaankarirakho.com/643 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | एशिया

एशिया

1. विशालतम भू-भाग जहां विभिन्न प्रकार के विभिन्नताये भौगोलिक पाई जाती है क्या कहलाती है
Ans:- महादेश
2. विश्व का सबसे बड़ा महादेश कौन सा है ?
Ans:- एशिया महादेश
3. भारत किस महादेश के अंतर्गत आता है ?
Ans:- एशिया
4. एशिया को कितने देशों में विभाजित किया गया है ?
Ans:- लगभग 48 देशों में
5. विश्व की सर्वाधिक आबादी कौन सा महादेश में है ?
Ans:- एशिया
6. पृथ्वी के स्थल भाग का लगभग कितने हिस्से पर एशिया महादेश का विस्तार है ? 
Ans:- 30% लगभग
7. दो नदियों के बीच की भूमि को क्या कहते हैं ?
Ans:- दोआब
8. एशिया के पूरब में क्या है ?
Ans:- प्रशांत महासागर
9. संसार की छत किसे कहा जाता है ? 
Ans:- पामीर की पठार को
10. एशिया के दक्षिणी भाग की जलवायु है? 
Ans:- शीतोष्ण
11. सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश है?
Ans:- ईरान
12. हांगहो नदी घाटी सभ्यता विकसित हुई?
Ans:- चीन में
एशिया महादेश से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
1. सबसे गरम स्थान
Ans:- मित्रावा (कुवैत)
2. सबसे ठंडा स्थान
Ans:- साइबेरिया (रूस)
3. मीठे पानी की झील
Ans:- बैकाल झील (रूस)
4. सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान
Ans:- मानसीराम, मेघालय (भारत)
5. संसार का छत
Ans:- पामीर
6. सभ्यताओं का पालना
Ans:- एशिया
7. उगते सूरज का देश 
Ans:- जापान
8. हाथियों का देश
Ans:- थाईलैंड
9. अंकोरवाट का मंदिर
Ans:- कंबोडिया
10. सबसे लंबी दीवार
Ans:- चीन
11. सबसे ऊंचा सड़क मार्ग
Ans:- खरंदुगला - लेह (भारत)
12. सबसे ऊंची बिल्डिंग
Ans:- बुर्जखलीफा (संयुक्त अरब अमीरात)
13. समुंदर पर सबसे लंबा पुल
Ans:- चीन
14. पूर्व का वेनिस
Ans:- बैंकाक
15. ताजमहल 
Ans:- आगरा (भारत)
16. सबसे ऊंचा रेलमार्ग
Ans:- चीन
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Wed, 17 Jan 2024 07:13:10 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | मानव संसाधन https://m.jaankarirakho.com/642 https://m.jaankarirakho.com/642 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | मानव संसाधन

मानव संसाधन

1. विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 75 प्रतिशत लोग रहते हैं?
Ans:- एशिया और यूरोप में
2. चीन क विश्व की सर्वाधिक आबादी वाला देश कौन सा है?
Ans:- चीन
3. भूपृष्ठ के 70% भाग पर जनसंख्या है मात्र-
Ans:- 5%
4. विश्व की औसत जनसंख्या घनत्य या जनसंख्या घनत्व क्या है ?
Ans:- 14 व्यक्ति / वर्ग किमी°
5. विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है?
Ans:- संयुक्त राज्य अमेरिका
6. भारत का औसत जनसंख्या घनत्व क्या है ?
Ans:- 382 व्यक्ति / वर्ग किमी° 
7. झारखण्ड का औसत जनसंख्या घनत्व क्या है ?
Ans:- 414 व्यक्ति / वर्ग किमी° 21
8. झारखंड की सारक्षता दर 2011 की जनगणना के अनुसार कितनी प्रतिशत है ?
Ans:- 66.4% 
9. प्रत्येक वर्ष किस दिन विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है ?
Ans:- 11 जुलाई 
10. जनसंख्या परिवर्तन का कारक नहीं है ?
Ans:- रोजगार
11. उत्प्रयास के कारण किसी देश या क्षेत्र की जनसंख्या -
Ans:- घटती है
12. प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या को कहते हैं?
Ans:- लिंगानुपात
13. मानव संसाधन विभाग ......... हैं ? 
Ans:- सेवा विभाग
14. मानव कारक क्या है?
Ans:- मानव के अंतःक्रियात्मक शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-नैतिक पहलू 
15. नौकरी विश्लेषण एक ......... को परिभाषित करने वाली सूचना को सुरक्षित करने और रिपोर्ट करने के लिए एक व्यवस्थित प्रक्रिया है।
Ans:-  विशिष्ट कार्य
16. इसके लिए जिम्मेदार कारक क्या हैं HRM का विकास-
Ans:- तकनीकी कारक, श्रमिकों के बीच जागृति, सरकार का रवैया, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रणाली
17. कंपनी के भीतर उपलब्ध कौशल का वर्णन करता है?
Ans:- मानव संसाधन सूची
18. भारत में सर्वप्रथम जनगणना की शुरुआत कब की गई ?
Ans:- 1872 ई. में
19. व्यवस्थित जनगणना की शुरुआत कब की गई ?
Ans:- 1881 ई. में 
20. 2011 के जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या कितनी है?
Ans:- 1.21 करोड़ लगभग 
21. भारत में सर्वाधिक जनसंख्या कहां है? 
Ans:- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र
22. सबसे कम आबादी वाला राज्य कौन सा है?
Ans:- सिक्किम 
23. केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे अधिक आबादी कहां है?
Ans:- चंडीगढ़ (और कम लक्षदीप )
24. विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या कहां है? 
Ans:- चीन 
25. विश्व में पूरे भारत का जनसंख्या में कौन सा स्थान है?
Ans:- दूसरा
26. विश्व की जनसंख्या में लगभग भारत में कितना प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है
Ans:- 17.5 % (2011 के अनुसार)
27. विश्व में पांच सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश हैं
Ans:- चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनेशिया और ब्राजील
28. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में प्रति वर्ग किलोमीटर कितने लोग रहते हैं?
Ans:- 382
29. सबसे कम जनसंख्या घनत्व वाला राज्य है?
Ans:- अरुणाचल प्रदेश (17 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर)
30. सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व वाला राज्य है?
Ans:- बिहार ( 1102 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर)
31. बिहार का सर्वाधिक घनत्व वाला जिला कौन सा है ?
Ans:- शिवहर
32. बिहार का सबसे कम घनत्व वाला जिला कौन सा है ?
Ans:-  कैमूर
33. भारत में जनगणना कितने वर्ष पर होती है?
Ans:- 10 वर्ष
34. बिहार में लिंगानुपात कितना है ?
Ans:- 916
35. भारत में सर्वाधिक साक्षरता वाला राज्य है?
Ans:- केरल
36. बिहार में सर्वाधिक साक्षरता वाला जिला कौन सा है?
Ans:- रोहतास
37. सबसे कम साक्षरता वाला राज्य कौन सा है?
Ans:- बिहार
38. सबसे कम साक्षरता वाला बिहार का कौन सा जिला है ?
Ans:- पूर्णिया
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Wed, 17 Jan 2024 07:02:00 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | परिवहन https://m.jaankarirakho.com/641 https://m.jaankarirakho.com/641 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | परिवहन

परिवहन

1. “ एक स्थान से दूसरे स्थान तक व्यक्तियों या वस्तुओं को पहुंचाना क्या कहलाता है ?
Ans:- परिवहन
2. परिवहन कितने प्रकार के होते हैं ?
Ans:- तीन (स्थल, जल और वायु)
3. स्थल परिवहन कितने होते है और कौन-कौन ?
Ans:- तीन – (i) सड़क परिवहन (ii) रेल परिवहन (iii) पाइप लाइन 
4. देश के किस शहर " स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्ग" के नाम से जानी जाती है ?
Ans:- दिल्ली - कोलकाता - मुंबई - चेन्नई 
5. एक्सप्रेस वे नामक सड़क की शुरुआत कब की गई ?
Ans:- 1974 ई. में
6. सबसे लंबा राष्ट्रीय राजमार्ग कौन सा है ?
Ans:- NH-7 
7. देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक परिवहन है ?
Ans:- रेल परिवहन 
8. देश में रेलवे को प्रशासनिक सुविधा के लिए कितने मंडलों में बांटा गया है ?
Ans:- 16 मंडलों में 
9. भारत में सबसे पहली रेलगाड़ी कब चली ?
Ans:- 16 अप्रैल 1853 को (मुम्बई से थाने लगभग 34 K.M)
10. जल परिवहन कितने प्रकार के होते हैं ?
Ans:- दो
11. बंगाल की खाड़ी और अरब सागर की समुद्र तट की लंबाई कितनी है ?
Ans:- साढ़े सात हजार k.m
12. देश के कुल निर्यात का आधा लौह अयस्क निर्यात कौन सा राज्य करता है ?
Ans:- गोवा
13. सुदूर दक्षिण पश्चिम में कोचिंग का कौन सा बंदरगाह है?
Ans:- प्राकृतिक बंदरगाह
14. भारत का सबसे प्राचीन कृत्रम पतन कहां है ?
Ans:- चेन्नई
15. सरकार ने हवाई परिवहन का राष्ट्रीयकरण कब कर दिया ?
Ans:- 1953 ई. में
16. हेलीकॉप्टर जेट किस परिवहन के अंतर्गत आते हैं ?
Ans:- वायु परिवहन
17. देश के किन-किन शहरों में अंतरराष्ट्रीय उड़ानें हैं ?
Ans:- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, चेन्नई, अमृतसर, गया इत्यादि
18. भारत में कौन परिवहन साधन सबसे अधिक उपयोग में आता है ?
Ans:- सड़क परिवहन
19. स्वर्णिम चतुर्भुज योजना किसके अन्तर्गत आता है ? 
Ans:- सड़क परिवहन
20. स्वर्णिम चतुर्भुज योजना किसके अन्तर्गत आता है ?
Ans:- सड़क परिवहन
21. सीमा सड़क संगठन क्या है ?
Ans:- सीमा पर लोगों की देख-रेख करने वाली संस्था
22. राष्ट्रीय राजमार्ग की देख-रेख कौन-सा विभाग करता है?
Ans:- भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण 
23. भारत में कौन परिवहन साधन सबसे अधिक उपयोग में आता है ?
Ans:- सड़क परिवहन
24. सीमा सड़क संगठन क्या है ? 
Ans:- सीमा पर लोगों की देख-रेख करने वाली संस्था
25. इंडियन एयरलाइंस को अब किस नाम से जाना जाता है ? 
Ans:- भारतीय एयरलाइंस
26. भारत में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण ......... में किया गया । 
Ans:- 1953
27. मार्मगाओ पत्तन .......... राज्य में है। 
Ans:- गोवा
28. पूर्व मध्य रेलवे का मुख्यालय .......... है। 
Ans:- हाजीपुर
29. सदिया से घुबरी जल परिवहन मार्ग .......... नदी में है। 
Ans:- ब्रह्मपुत्र 
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Wed, 17 Jan 2024 06:39:55 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | कृषि https://m.jaankarirakho.com/640 https://m.jaankarirakho.com/640 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | कृषि

कृषि

1. विश्व का सबसे बड़े चावल उत्पादक देशों का नाम कौन कौन है ?
Ans:- चीन, भारत, जापान, श्रीलंका इत्यादि
2. प्रमुख पेय फसल कौन है ?
Ans:- चाय और कहवा
3. प्राथमिक क्रियाओं का उदाहरण नहीं है ?
Ans:- बैंक
4. प्राथमिक क्रियाओं का उदाहरण है?
Ans:- कृषि, खनन, पशुपालन
5. चावल का बड़ा उत्पादक देश है ?
Ans:- चीन
6. मन क्रियाओं से आय बढ़ती है और आर्थिक उन्नति होती उचीन उन्हें कहते हैं
Ans:- आर्थिक क्रिया
7. आर्थिक क्रियाएँ कितने प्रकार की हैं ?
Ans:- तीन.
8. भारत की कुल आबादी का कितना भाग कृषि पर आधारित है ?
Ans:- दो तिहाई
9. जिस कृषि में, किसान मुख्यतः अपने परिवार की आवश्यकता पूर्ति के लिए खेती करता है, उसे कहते हैं
Ans:- निर्वाह कृषि
10. विश्व का सर्वाधिक प्रचलित पेय पदार्थ क्या है ?
Ans:- चाय
11. चलवासी पशुचारण किस प्रकार की खेती करते हैं ? 
Ans:- आदिम निर्वाह कृषि
12. विश्व में मक्का का सबसे बड़ा उत्पादक देश है
Ans:- संयुक्त राज्य अमेरिका
13. चाय की शुरुआत कहाँ से हुई ? 
Ans:- चीन
14. “ रोटी की टोकरी ‘(ब्रेड बास्केट) किसे कहा जाता है ?
Ans:- प्रेगरी प्रदेश (उत्तरी अमेरिका को)
15. " सुनहरा रेशा " किसे कहते हैं ?
Ans:- पटसन को
16. " सफेद सोना" किसे कहा जाता है ?
Ans:- कपास को 
17. विश्व का कॉफी कटोरा ' किस देश को कहा जाता है ?
Ans:- ब्राजील
18. खेती करना जिसे हम कृषि कार्य कहते हैं यह कौन सी क्रिया है ?
Ans:- प्राथमिक क्रिया 
19. हमारे देश में कितने प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर है ?
Ans:- लगभग 60%
20. भारत में प्रमुख उत्पादन किया जाता ?
Ans:- चावल और गेहूं 
21. उत्तर बिहार में वाणिज्य कृषि के उदाहरण है ?
Ans:- मखाना, केला और तम्बाकू 
22. जून - जुलाई में बोई जाने वाली और अक्टूबर-नवंबर में काटी जाने वाली कौन सी फसलें है ?
Ans:- खरीफ फसल 
23. अक्टूबर - नवंबर में बोई जाने वाली और मार्च-अप्रैल में काट ली जाने वाली कौन सी फसलें है ?
Ans:- रबी फसल
24. उपयोगिता के आधार पर फसलों को कितने भागों में बांटा गया है ?
Ans:- पांच
25. सर्वाधिक प्रोटीनयुक्त शाकाहारी खाद पदार्थ कौन सी फसलें है ?
Ans:- दलहन फसल
26. बिहार के किस क्षेत्र में दलहन की फसल खूब होती है ?
Ans:- टालक्षेत्र में
27. धान / चावल उपयुक्त के लिए कौन सी मिट्टी चाहिए ?
Ans:- चिकनी दोमट मिट्टी
28. धान / चावल उत्पादन के लिए वर्षा की मात्रा कितनी होनी चाहिए ?
Ans:- 75-100Cm
29. गेहूं उपयुक्त के लिए कौन सी मिट्टी चाहिए ?
Ans:- दोमट मिट्टी
30. कपास और जुट कौन सी फसलें हैं ?
Ans:- रेशेदार फसल
31. कपास की खेती के लिए कौन सी मिट्टी उपयुक्त चाहिए ?
Ans:- काली मिट्टी (वर्षा 50 - 100cm)
32. बिहार में कपास की खेती कहां होती है ?
Ans:- कहीं भी नहीं
33. गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, इत्यादि मुख्य उत्पादक राज्य है ? 
Ans:- कपास
34. विश्व का सबसे अधिक जूट उत्पादक कौन सा देश करता है ?
Ans:- भारत
35. भारत में सबसे अधिक चाय की खेती कहां होती है ?
Ans:- असम
36. किस के जिला में चाय की खेती की जाती है ?
Ans:- किशनगंज और पूर्णिया
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Wed, 17 Jan 2024 06:07:29 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | खनिज और शक्ति संसाधन https://m.jaankarirakho.com/639 https://m.jaankarirakho.com/639 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | खनिज और शक्ति संसाधन

खनिज और शक्ति संसाधन

1. किस खनिज को काला सोना कहा जाता है ?
Ans:- पेट्रोलियम
2. काल के दो लोह इस्पात केन्द्र कौन है ?
Ans:- जमशेदपुर व बोकारों
3. मणीकरण किस प्रकार के ऊर्जा के लिए जाना जाता है ?
Ans:- भूतापीय ऊर्जा
4. ऊर्जा के गैर परम्परागत स्रोत नहीं है ?
Ans:- कोयला 
5. बायोगैस किनके विघटन से उत्पन्न होता है ? 
Ans:- जैविक सामग्री (मृत पौधे जतुओं के अवशेष ), गोबर, रसोई अवशिष्ट 
6. कौन लौह खनिज नहीं है ?
Ans:- सीसा 
7. पृथ्वी के अन्दर दबी शैलों से खनिजों को बाहर निकालने की प्रक्रिया कहलाती है?
Ans:- खनन 
8. अधिक गहराई में स्थित खनिज निक्षेपों को जिस गहन वेधन प्रक्रिया अपनाई जाती है उसे कहते हैं?
Ans:- कूपकी खनन
9. कितने प्रकार के अयस्कों को ही केवल खनिज समझा जाता ?
Ans:- 100
10. विश्व में लौह - अयस्क का सबसे बड़ा उत्पादक देश है ?
Ans:- ब्राजील
11. धात्विक खनिज पाई जाती है ?
Ans:- आग्नेय एवं कायान्तरित चट्टानों में
12. अयालिक चट्टान कहाँ पाये जाते हैं ?
Ans:- रूपान्तरित चट्टानों में
13. विश्व का सबसे बड़ा बॉक्साइट उत्पादक देश कौन है ?
Ans:- आस्ट्रेलिया
14. नुवा, नोवामुण्डी, किरीबुरू तथा आरि किस खनिज के प्रमुख खनन केंद्र हैं ?
Ans:- लौह अयस्क
15. मुसाबनी, राखा, घाटशिला आदि किस खनिज के लिए प्रसिद्ध हैं ?
Ans:- तांबा
16. भारत में सोने का निक्षेप किस राज्य में पाया जाता है ?
Ans:- कर्नाटक
17. बाक्साइट उत्पादन में भारत में झारखंड का कौन-सा स्थान है ?
Ans:- पहला
18. झरिया किसके उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है ?
Ans:- कोयला 
19. ज्वारीय ऊर्जा किस प्रकार का ऊर्जा स्रोत है ?
Ans:- गैर परंपरागत 
20. विश्व का सबसे बड़ा अभ्रक उत्पादक देश है ?
Ans:- भारत
21. पृथ्वी का अमूल्य संसाधन किसे कहा जाता है ? 
Ans:- खनिज को
22. विश्व में लगभग कितने खनिज पाए जाते हैं ? 
Ans:- 2000 से अधिक
23. खनिज कितने प्रकार के होते हैं ?
Ans:- दो
24. विश्व में लौह अयस्क का कुल अनुमानित भंडार लगभग कितना करोड़ टन है ?
Ans:- 370000 करोड़ टन
25. भारत में लौह अयस्क का कुल अनुमानित भंडार कितना है ? 
Ans:- लगभग 420 अरब मिट्रिक टन
26. भारत में मैगनीज का कुल भंडार लगभग कितना टन है ?
Ans:- 1670 लाख टन है
27. भारत में मैगनीज उत्पादन के लिए कौन सा स्थान प्रसिद्ध है ?
Ans:- छत्तीसगढ़ का बालाघाट एवं छिंदवाड़ा
28. भारत में तांबा उत्पादन में प्रथम तीन राज्य है कौन-कौन ?
Ans:- मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड
29. तांबे उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान किस देश का है ?
Ans:- चिली का
30. अभ्रक के उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान किस देश का है ?
Ans:- भारत का
31. देश में अभ्रक का कुल भंडार लगभग कितना टन है ? 
Ans:- 59000 टन
32. एलमुनियम किस खनिज से प्राप्त किया जाता है ?
Ans:- बॉक्साइट
33. हेमाटाइट किस खनिज का मुख्य अयस्क है ?
Ans:- लोहा का 
34. रोडोनाइट किस खनिज का अयस्क है ?
Ans:- मैग्नीज
35. बायोटाइट किस खनिज का प्रकार है
Ans:- अभ्रक
36. ऊर्जा संसाधन को कितने भागों में बांटा गया है ?
Ans:- दो
37. भारत में कोयला का मुख्य स्रोत है ?
Ans:- ऊर्जा (शक्ति)
38. कोयला कौन सी चटटान है ?
Ans:- अवसादी चट्टान
39. ऐथ्रासाइट कोपले में कार्बन की मात्रा कितनी होती है ?
Ans:- 90% से ऊपर
40. विश्व में कोयले उत्पादन के प्रमुख देश कौन कौन है ?
Ans:- संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन और भारत
41. भारत में कोयले का उत्पादन सबसे अधिक कौन से राज्य करते हैं ?
Ans:- छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा etc
42. भारत में पहली बार पेट्रोलियम का पता कब लगाया गया था ?
Ans:- 1866 ई. में
43. डिगबोई में पहली बार तेल का पता कब चला ?
Ans:- 1890 में
44. विश्व में सबसे अधिक कच्चे तेल का उत्पादन कौन सा देश करता है ?
Ans:- संयुक्त राज्य अमेरिका
45. तेल शोधनशाला बिहार में कहां है ?
Ans:- बरौनी 
46. खाना पकाने और विद्युत उत्पादन में कौन सा गैस का उपयोग किया जाता है ?
Ans:- प्राकृतिक गैस
47. भारत में प्राकृतिक गैस का कुल भंडार कितना है ?
Ans:- 700 अरब टन
48. भारत में सबसे लंबा गैस पाइपलाइन कौन सा है ?
Ans:- विजयपुर - जगदीशपुर ( 1730 K.M )
49. विश्व की सबसे लंबी बांध है ?
Ans:- हीराकुंड बांध
50. भारत की सबसे बड़ी परियोजना है ?
Ans:- भाखड़ा - नंगल (225 मीटर ऊंची )
51. देश के प्रमुख ताप विद्युत केंद्र कहां है ?
Ans:- कहलगांव
52. पहला परमाणु ऊर्जा उत्पादन केंद्र कहां स्थापित किया गया था ?
Ans:- तारापुर (महाराष्ट्र) 1955 में
53. गोंडवाना कालीन चट्टानों में किस खनिज के भंडार मिलते हैं ?
Ans:- कोयला
54. कोयला का सर्वोत्तम किस्म कौन सा है ?
Ans:- ऐंथ्रासाइट
55. सिंगरौली कोयला क्षेत्र किस राज्य में है ?
Ans:- मध्य प्रदेश
56. हुगड़ीजन में किसका उत्पादन होता है ?
Ans:- पेट्रोलियम
57. पवन उर्जा उत्पादन से संबंधित क्षेत्र है ?
Ans:- लाम्बा:
58. पूगा घाटी प्रसिद्ध है-
Ans:- भूताप के लिए
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Wed, 17 Jan 2024 04:39:30 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | भूमि, मृदा, जल, प्राकृतिक वनस्पति और वन्य जीवन संसाधन https://m.jaankarirakho.com/638 https://m.jaankarirakho.com/638 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | भूमि, मृदा, जल, प्राकृतिक वनस्पति और वन्य जीवन संसाधन

भूमि, मृदा, जल, प्राकृतिक वनस्पति और वन्य जीवन संसाधन

1. जलग्रह किसे कहा जाता है ?
Ans:- पृथ्वी
2. विश्व वन दिवस कब मनाया जाता है ?
Ans:-21 मार्च
3. सामुदायिक भूमि पर किसका अधिकार होता है ?
Ans:- समाज का
4. रेगर मृदा किसे कहते हैं ?
Ans:- काली मृदा
5. निम्नांकित में से कौन-सा कारक मृदा निर्माण का नहीं है ?
Ans:- मृदा का गठन
6. तीव्र ढालों पर मृदा अपरदन को रोकने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है ? 
Ans:- समोच्चरेखीय जुताई
7. बैतला राष्ट्रीय उद्यान झारखण्ड का एकमात्र राष्ट्रीय उद्यान है। यह किस जिले में स्थित है ?
Ans:- लातेहार
8. शकुधारी वन की लकड़ियाँ होती है ?
Ans:- कठोर एवं मुलायम
9.. विश्व की कितनी प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है ?
Ans:- 11%
10. भारत की कितनी प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है ?
Ans:- 57%
11. झारखंड में कितनी प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है ?
Ans:- 23%
12. झारखंड में कितनी प्रतिशत भूमि पर वन फैला है ?
Ans:- 29%
13. मृदा निर्माण के कारक है ?
Ans:- जलवायु
14. भारत में मृदा के कितने प्रकार हैं ? 
Ans:- तीन
15. दक्कन पठार पर कौन - सी मृदा पायी जाती है ?
Ans:- काली मृदा
16. कपास की खेती के लिए कौन-सी मृदा उपयुक्त मानी जाती है ?
Ans:- काली मृदा
17. समोच्च रेखीय जुताई कहाँ की जाती है ?
Ans:- पर्वतीय ढाल
18. रक्षक मेखलाएँ कहाँ लगाई जाती है ?
Ans:- शुष्क प्रदेश
19. मैदानी क्षेत्रों में कौन सी जनसंख्या पाई जाती हैं ?
Ans:- सघन जनसंख्या
20. भूमि का उपयोग प्रमुख कितने करको द्वारा प्रभावित होता है ?
Ans:- दो (i) प्राकृतिक कारक (ii) मानवीय कारक
21. दलदली भूमि को सुखाकर ठोस भूमि में बदलकर कौन सी शहर का विकास किया गया है ?
Ans:- मुंबई
22. मिट्टी को ही कौन सा संसाधन कहा जाता है ?
Ans:- मृदा संसाधन
23. मृदा में पेड़-पौधों, जीव एव अन्य सङे- गले पदार्थों के अवशेषों को क्या कहा जाता है
Ans:- ह्यूमस
24. भारत में कौन-कौन से मृदा पाए जाते हैं ?
Ans:- जलोढ़ मृदा, काली मृदा, लाल मृदा, पीली मृदा, लैटराइट मृदा, मरुस्थलीय मृदा एवं पर्वतीय मृदा पाई जाती है
25. नवीन जलोढ़ को क्या कहा जाता है ?
Ans:- खादर
26. पुराने जलोढ़ को क्या कहा जाता है ?
Ans:- बांगर
27. कौन सी मृदा भारत के सभी नदियों घाटियों में पाई जाती है ?
Ans:- जलोढ़ मृदा
28. लाल मृदा का रंग लाल क्यों होता है ? 
Ans:- लोहे के अंश के कारण 
29. जल की कितनी अवस्थाएं होते हैं और कौन-कौन है ?
Ans:- तीन (तरल, गैस एवं ठोस )
30. पृथ्वी के अलावा अभी तक कौन सा ग्रह पर जल मिला है ?
Ans:- कोई भी ग्रह पर नही
31. सबसे बड़ा जल का भंडार कहां है ?
Ans:- महासागरों में 
32. महासागरों का पानी कैसा होता है ?
Ans:- खरा एवं नमकीन 
33. महासागरों में जल का वितरण कितना है ?
Ans:- 97.3 % 
34. पृथ्वी का कितने प्रतिशत भाग पर स्थल है ?
Ans:- 29% ( और जल 71% )
35. विश्व में संगम जनसंख्या कहां मिलती है ? 
Ans:- मैदानों में 
36. भारत में भूमि उपयोग संबंधित आंकड़े कौन रखता है ? 
Ans:- भू राजस्व विभाग
37. भूमि उपयोग को प्रमुख कितने भागों में बाँटा गया हैं ?
Ans:- पांच
38. मृदा में कुल कितने स्तर पाए जाते हैं ?
Ans:-  तीन
39. रासायनिक दृष्टि से जल किसका संयोजन है ?
Ans:-  हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन का 
40. भारत में विश्व की लगभग कितना प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है
Ans:-  16%
41. वाल्मीकि नगर वन्य प्राणी अभ्यारण कहां है ?
Ans:-  पश्चिमी चंपारण (बिहार)
42. महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तथा तमिलनाडु राज्य में कौन सी मृदा पाई जाती है ?
Ans:-  काली मृदा
43. मरुस्थलीय मृदा कैसा रंग का होता है ?
Ans:-  हल्के भूरे रंग के होते हैं
44. राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, पश्चिमी हरियाणा एवं दक्षिणी पंजाब में कौन सी मृदा पाई जाती है ?
Ans:-  मरुस्थलीय मृदा
45. गौतम बुद्ध अभ्यारण बिहार के किस जिला में है ? 
Ans:-  गया में
46. प्रदूषण जल को पीने से कौन-कौन सी बीमारियां होती है-
Ans:-  निम्नलिखित प्रकार की बीमारियां होती है जैसे- उल्टी आना, किडनी का खराब होना, पेट दर्द, सिर दर्द, छाती दर्द, वजन घटना, दिमागी विकृति इत्यादि
47. किसी क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगने वाले पेड़ पौधे, घास झाड़ियां इत्यादि को कहा जाता है ?
Ans:-  प्राकृतिक वनस्पति
48. जब किसी बड़े क्षेत्र पर प्राकृतिक रूप से पेड़ पौधे का विकास होता है तो उसे क्या कहा जाता है ?
Ans:-  वन कहा जाता हैं
49. भारत में सबसे अधिक वन प्रतिशत वाला राज्य कौन सा है ?
Ans:-  मिजोरम (91.27% )
50. भारत में सबसे अधिक वन क्षेत्र वाला राज्य कौन सा है ?
Ans:-  मध्य प्रदेश (77.7 वर्ग K.M )
51. विश्व में लगभग कितने प्रकार के वनस्पतियां पाई जाती है ?
Ans:-  10 लाख
52. पृथ्वी के 20 विषुवतीय प्रदेशों में पाए जाने वाले घने वनों को क्या कहा जाता है ?
Ans:-  पृथ्वी का फेफड़ा
53. बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में किस प्रकार के वन पाए जाते हैं ?
Ans:-  उष्णकटिबंधीय पतझड़ वन
54. विश्व पर्यावरण दिवस कब मनाया जाता है ?
Ans:-  5 जून
55. भारत का राष्ट्रीय पशु
Ans:-  बाघ 
56. भारत का राष्ट्रीय पक्षी
Ans:-  मोर
57. रेड डाटा बुक क्या है ?
Ans:-  विलुप्त हो रहे प्रजातियों की सूची
58. देश में राष्ट्रीय उद्यानों की कुल संख्या कितनी है ?
Ans:-  85
59. देश में राष्ट्रीय अभयारण्यनो की कुल संख्या कितनी है ?
Ans:-  448
60. बिहार में कावर झील पक्षी विहार कहां है ?
Ans:-  बेगूसराय
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Tue, 16 Jan 2024 11:15:25 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | भूगोल (Geography) | संसाधन https://m.jaankarirakho.com/637 https://m.jaankarirakho.com/637 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | भूगोल (Geography) | संसाधन

संसाधन

1. समुद्र तट से दूर 19.2 किलोमीटर क्षेत्र के अंदर पाए जाने वाले संसाधनों को कौन से संसाधन कहते हैं ? 
Ans:- राष्ट्रीय संसाधन
2. थोरियम भारत के किस राज्य में पाए जाते हैं ?
Ans:- केरल में
3. संसाधन निर्माण के लिए क्या आवश्यक है ? 
Ans:- तकनीक, आवश्यकता और ज्ञान 
4. जैव संसाधन होते हैं ?
Ans:- जन्तुओं से व्युत्पन्न
5. अनवीकरणीय संसाधन कौन हैं ?
Ans:- पेट्रोलियम 
6. नवीकरणीय संसाधन का उदाहरण निम्न में से कौन नहीं है ?
Ans:- कोयला
7. वैसे संसाधन जिसका एक ही बार उपयोग संभव हो और भंडार सीमित हो, कहलाता है
Ans:- अनवीकरणीय
8. वैसे संसाधन जो सभी जगह पाए जाते हैं, कहलाते हैं ?
Ans:- सर्वव्यापक
9. वैसे संसाधन, जिसकी मात्रा ज्ञात हो और वर्तमान में उपयोग किया जा रहा हो, कहलाते हैं
Ans:- वास्तविक संसाधन
10. वैसे संसाधन, जिनकी प्रकृति - शीघ्रता से नवीकरण कर लेता है, कहलाता है
Ans:- नवीकरणीय
11. निश्चित स्थानों में पाये जाने वाले संसाधन को कहते हैं?
Ans:- स्थानिक
12. प्रौद्योगिकी संसाधन है ?
Ans:- मानव निर्मित 
13. अजैव संसाधन कहलाते हैं ?
Ans:- निर्जीव वस्तुओं से निर्मित
14. निम्न में कौन स्थानिक संसाधन नहीं है ? 
Ans:- जल 
15. मानव स्वयं में एक है ?
Ans:- संसाधन 
16. संसाधन कितने प्रकार के होते हैं ?
Ans:- तीन
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Tue, 16 Jan 2024 11:03:04 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | कालीकिंकर दत्त 1905&1982 https://m.jaankarirakho.com/636 https://m.jaankarirakho.com/636 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | कालीकिंकर दत्त 1905-1982

कालीकिंकर दत्त 1905-1982 

1. जन-गण-मन (राष्ट्रगान) को कब अपनाया गया था ? 
Ans:- 24 जनवरी 1950 को 
2. पोट्टी श्रीरामलू राजू की मृत्यु कब हुई थी ? 
Ans:- 15 सितंबर 1952 को 
3. आंध्र प्रदेश अलग राज्य का मांग किसने किया था ? 
Ans:- पोट्टी श्रीरामलू राजू 
4. राज्य पुनर्गठन आयोग का अध्यक्ष कौन थे ? 
Ans:- फजल अली 
5. पंजाब से हरियाणा को कब अलग किया गया था ? 
Ans:- 1966 ईस्वी को 
6. उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल उत्तराखंड कब बना गया? 
Ans:- 2001 को 
7. बरौनी तेल रिफाइनरी कहां स्थित है? 
Ans:- बिहार में 
8. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया कितने गुटों में बट गया था ? 
Ans:- दो, पहला पूंजीवादी गुट (अमेरिका) तथा दूसरा साम्यवादी गुट (सोवियत संघ रूस) 
9. पूंजीवादी गुट का नेता कौन था ? 
Ans:- अमेरिका 
10. साम्यवादी गुट का नेतृत्वकर्ता कौन था ? 
Ans:- रूस 
11. छात्र आंदोलन का नेतृत्व किसने किया? 
Ans:- जयप्रकाश नारायण
12. छात्र आंदोलन कब हुआ था ? 
Ans:- 1974 को  
13. ऑपरेशन ब्लू स्टार कब हुआ था ? 
Ans:- 1984 को 
14. बाबरी मस्जिद का विध्वंस कब हुआ था ? 
Ans:- 6 दिसंबर 1992 को 
15. हमने भविष्य को प्रतिज्ञा दी थी और अब वक्त आ गया है या कथन संविधान सभा को संबोधित करते हुए किसने कहा था ? 
Ans:- पंडित जवाहरलाल नेहरू 
16. संविधान की प्रस्तावना को संविधान का क्या कहा जाता है ? 
Ans:- आत्मा या कुंजी 
17. पोखरण वन का परीक्षण श्रीमती इंदिरा गांधी के समय कब हुआ था ? 
Ans:- 18 मई 1974 
18. पोखरण टू का परीक्षण अटल बिहारी वाजपेई के समय कब हुआ था ? 
Ans:- मई 1998 
19. कारीगल की लड़ाई कब हुआ था ? 
Ans:- 26 जुलाई 1999
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Tue, 16 Jan 2024 06:21:50 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | स्वतंत्रता के बाद विभाजित भारत का जन्म https://m.jaankarirakho.com/635 https://m.jaankarirakho.com/635 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | स्वतंत्रता के बाद विभाजित भारत का जन्म

स्वतंत्रता के बाद विभाजित भारत का जन्म 

1. भारत और पाकिस्तान का बंटवारा किस योजना के द्वारा किया गया था ? 
Ans:- माउंटबेटन 
2. पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस कब थी थे नाया जाता है? 
Ans:- 14 अगस्त को 
3. आजादी के पहले हमारे देश में कितने रियासत थी ? 
Ans:- 563
4. पहले वोट देने की उम्र कितनी रियासत थी ?  
Ans:- 21 वर्ष 
5. 61 वा संविधान संशोधन 1979 के अनुसार वोट देने का कितना उम्र कर दिया गया ?
Ans:- 18 वर्ष
6. संविधान सभा का गठन कब हुआ था? 
Ans:-  6 दिसंबर 1946 को
7. भारतीय संविधान कब बनकर तैयार हो गया ? 
Ans:- 26 नवंबर 1949 को
8. संविधान पूर्ण रूप से कब लागू किया गया ? 
Ans:- 26 जनवरी 1950 को
9. संविधान दिवस कब मनाया जाता है 
Ans:- 26 नवंबर को
10. संविधान सभा के अस्थाई अध्यक्ष कौन थे ? 
Ans:- डॉ सच्चिदानंद सिन्हा 
11. संविधान सभा के स्थाई अध्यक्ष कौन थे ? 
Ans:- राजेंद्र प्रसाद 
12. संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष कौन थे? 
Ans:- डॉ. भीमराव अंबेडकर 
13. भारतीय संविधान बनने में कितना समय लगा? 
Ans:- 2 वर्ष 11 माह 18 दिन 
14. राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा के स्थाई अध्यक्षो कब बनाया गया ? 
Ans:- 23 सितंबर 1946 को
15. संघ सरकार किसे कहते हैं?
Ans:- ऐसा देश जहां केंद्र और राज्य के दो तरह की सरकार हो तो उसे हम संघ सरकार कहते हैं ! 
16. भारत की केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन कितने अनुसूचीयों में हुआ है ? 
Ans:- तीन (संघ सूची, राज्य सूची, और समवर्ती सूची) 
17. संघ सूची के विषय पर कानून बनाने का अधिकार किसके पास होता है?
Ans:- केवल केंद्र सरकार के पास
18. राज्य सूची के विषय पर कानून बनाने का अधिकार किसके पास होता है ? 
Ans:- राज्य सरकार के पास
19. समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाने का अधिकार होता है? 
Ans:- केंद्र और राज्य दोनों सरकार के पास
20. भारत का राष्ट्रीय झंडा क्या है ? 
Ans:- तिरंगा
21. वैसे अधिकार जो लोगों के जीवन जीने के लिए काफी महत्वपूर्ण हो उसे क्या कहते हैं? 
Ans:- मौलिक अधिकार
22. वर्तमान समय में भारतीय नागरिकों को कितने प्रकार के मोहित प्राप्त हुईं है? 
Ans:- 6 प्रकार के 
23. तिरंगा को कब अपनाया गया? 
Ans:- 22 जुलाई 1947 को
24. राजेंद्र प्रसाद प्रथम राष्ट्रपति कब बने थे? 
Ans:- 24 जनवरी 1950 को
25. संविधान सभा में कितना महिलाए थी? 
Ans:- 12
26. संविधान सभा में कितने सदस्य थे? 
Ans:- 389
27. भारत में भाषा के आधार पर बनने वाला पहला राज्य कब बना ?
Ans:- आंधप्रदेश 1 अक्टूबर 1953 को
28. पंजाब से हरियाणा कब अलग हुआ ? 
Ans:- 1966 को
29. मध्य प्रदेश को भारत का क्या कहा जाता है? 
Ans:- दिल
30. भारत में योजना आयोग का गठन कब हुआ था? 
Ans:- 15 मार्च 1950 को
31. योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग कब रखा गया? 
Ans:- 1 जनवरी 2015 को
32. आजादी के पहले हमारे देश में कितनी रियासत थी ? 
Ans:- 563
33. संविधान सभा का पहला मीटिंग कब हुआ था? 
Ans:- दिसंबर 1946 को
34. वर्तमान में संघ सूची में कितने विषय हैं ? 
Ans:- 100
35. वर्तमान में राज्य सूची में कितने विषय है? 
Ans:- 61 
36. वर्तमान में समवर्ती सूची में कितने विषय है? 
Ans:- 52
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Tue, 16 Jan 2024 06:18:47 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | राष्ट्रीय आन्दोलन 1885&1947 https://m.jaankarirakho.com/634 https://m.jaankarirakho.com/634 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | राष्ट्रीय आन्दोलन 1885-1947

राष्ट्रीय आन्दोलन 1885-1947

1. भारत का प्रथम स्वतंत्र आंदोलन किसे कहा जाता है? 
Ans:- 1857 की क्रांति को
2. सिपाही विद्रोह कब हुआ था ? 
Ans:- 1857 में
3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब हुआ था? 
Ans:- 28 सितंबर से 1885 ईस्वी में
4. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (I.N.C) का प्रथम अधिवेशन कहां हुआ था?
Ans:- मुंबई का तेजपाल संस्कृत कॉलेज में
5. कांग्रेस का प्रथम अध्यक्ष कौन थे ?
Ans:- W. C बनर्जी (व्योमेश चंद्र)
6. कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष कौन थी ?
Ans:- एनी बेसेंट
7. वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट कितने ईस्वी में लॉर्ड रिपन द्वारा लगाया गया था ? 
Ans:- 1878 ईस्वी में
8. इलबट बिल किसके काल में आया था ? 
Ans:- लॉर्ड रिपन 
9. कांग्रेस पार्टी की स्थापना के समय कितने प्रतिनिधि शामिल थे ? 
Ans:- 72 
10. भारत के प्रथम इंडियन सिविल सर्विस ( I.C.S) कौन थे? 
Ans:- सुरेंद्र नाथ बनर्जी 
11. महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु कौन थे?
Ans:- गोपाल कृष्ण गोखले 
12. भारत का वयोवृद्ध पुरुष किसे कहा है? 
Ans:- दादा भाई नौरोजी  
13. नरम दल के नेता कौन थे?
Ans:- लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, कांग्रेश के नरम दल के नेता थे ! 
14. स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा किसने कहा था ? 
Ans:- बाल गंगाधर तिलक ने
15. बंगाल विभाजन किसके समय में हुआ था और कब ? 
Ans:- लॉर्ड कर्जन 1905 ईस्वी में
16. शोक दिवस कहां मनाया जाता है और कब ? 
Ans:- बंगाल में 16 अक्टूबर 1905 ईस्वी को 
17. बंगाल विभाजन कब वापस लिया गया था ? 
Ans:- 1911 ईस्वी को 
18. बंगाल विभाजन के विरोध में 1905 में कौन सा आंदोलन हुआ था ?
Ans:- स्वदेशी आंदोलन या बंग भंग आंदोलन 
19. बंगाल विभाजन की घोषणा कब की गई थी ? 
Ans:- 19 जुलाई 1905 ईस्वी को
20. बंगाल विभाजन की घोषणा कब लागू किया था? 
Ans:- 16 अक्टूबर 1905 ईस्वी को
21. मुस्लिम लिंग की स्थापना कब हुआ था ?
Ans:- 1906 ईस्वी में
22. हिंदू सभा का गठन कब हुआ था ? 
Ans:- 1915 ईस्वी में 
23. हिंदू सभा का गठन किसने किया था ? 
Ans:- पंडित मदन मोहन मालवीय 
24. मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग कब की गई थी ? 
Ans:- 1909 में 
25. खुदीराम बोस ने किंग्सफोर्ड की जगह पिंगले ने नडी के रथ पर बम कब फेंका था ? 
Ans:- 30 अप्रैल 1908 में जिसमें केनेडी की बेटी घटनास्थल पर मर गई !
26. खूदीराम बोस को कब फांसी दिया गया ? 
Ans:- 11 अगस्त 1908 को 
27. केसरी पत्रिका का संपादन किसके द्वारा किया जाता था ? 
Ans:- बाल गंगाधर तिलक 
28. महात्मा गांधी द्वारा सर्वप्रथम सत्याग्रह का प्रयोग कब किया गया था ? 
Ans:- 1906 ईस्वी को 
29. महात्मा गांधी द्वारा सर्वप्रथम सत्याग्रह का प्रयोग कहां किया गया था ? 
Ans:- दक्षिण अफ्रीका में 
30. गांधी जी सर्वप्रथम जेल कहां गए थे और कब ? 
Ans:- अफ्रीका में 1908 को 
31. गांधीजी अफ्रीका से वापस कंब भारत आए थे ? 
Ans:- 9 जनवरी 1915 ईस्वी को 
32. प्रवासी भारतीय दिवस कब मनाया जाता है ? 
Ans:- 9 जनवरी को 
33. चंपारण सत्याग्रह कब हुआ था ? 
Ans:- 1917 ईस्वी को
34. तीन कठिया प्रसिद्ध बिहार के किस जिला में लागू की गई थी? और किस खेती के लिए!
Ans:- चंपारण जिले में नील की खेती के लिए
35. गुजरात का खेड़ा आंदोलन कब हुआ था ? 
Ans:- 1918 ईस्वी को 
36. वल्लभभाई पटेल को सरदार की उपाधि किसने दी थी ?
Ans:- 1908 ईस्वी को गुजरात के बारदोली में सत्याग्रह के दौरान वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को सरदार की उपाधि दी थी
37. सरदार, लौह पुरुष (iron man) किसे कहा जाता है? 
Ans:- बल्लभ भाई पटेल को
38. रोलट एक्ट (काला कानून) कब पारित हुआ था? 
Ans:- 19 मार्च 1919 को 
39. जलियांवाला बाग हत्याकांड कब हुआ था? 
Ans:- 13 अप्रैल 1919 को 
40. जलियांवाला बाग हत्याकांड कहां हुआ था ? 
Ans:- नर संगार पंजाब के अमृतसर में
41. जलियांवाला बाग में गोली चलाने का आदेश किसने दिया था ? 
Ans:- जनरल ओ डायर 
42. प्रथम विश्व युद्ध कितने सालों तक चला ? 
Ans:- 4 सालों तक
43. द्वितीय विश्व युद्ध कितने सालों तक चला ? 
Ans:- 6 सालों तक 
44. असहयोग आंदोलन महात्मा गांधी जी द्वारा कब शुरू किया गया था ? 
Ans:- 1 अगस्त 1920 को 
45. "दी मदरलैंड नामक अखबार सदकता आश्रम किसने निकाला ? 
Ans:- मजहरूल हक
46. झंडा सत्याग्रह का प्रारंभ कब शुरू हुआ ? 
Ans:- 13 अप्रैल 1923 को
47. स्वराज दल या पार्टी का गठन कब हुआ था? 
Ans:- 1923 को
48. स्वराज दल या पार्टी का गठन किसने किया था? 
Ans:- मोतीलाल नेहरू एंव चितरंजन दास
49. स्वराज दल के अध्यक्ष कौन थे ? 
Ans:-  चितरंजन दास 
50. RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की स्थापना कब किया था ? 
Ans:- 1925 को
51. RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की स्थापना किसने किया था ? 
Ans:- K. B हेडगवार
52. हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी (HSRA) की स्थापना कब हुआ था ?
Ans:- 1928 को
53. हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) की स्थापना किसने किया था ? 
Ans:-  भगत सिंह
54. कांग्रेस के सर्वप्रथम स्वतंत्रता दिवस कब मनाया गया था ? 
Ans:- 26 जनवरी 1930 को 
55. कांग्रेस के दवारा सर्वप्रथम स्वतंत्रता दिवस किस नदी के किनारे मनाया गया था ? 
Ans:- रावी नदी के किनारे
56. सविनय अवज्ञा आंदोलन किसके द्वारा शुरू किया गया था? 
Ans:- महात्मा गांधी के द्वारा 
57. सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत गांधी जी ने किस यात्रा से शुरू की थी ? 
Ans:- दांडी यात्रा से 
58, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को कब फांसी दिया गया ?
Ans:- 23 मार्च 1931 को लाहौर षडयंत्र केस में 
59. शहीद दिवस कब मनाया जाता है ? 
Ans:- 23 मार्च को
60. भारत छोड़ो आंदोलन कब शुरू हुआ? 
Ans:- 8 अगस्त 1942 को
61. करो या मरो का नारा किसने दिया था ? 
Ans:- गांधी जी ने 
62. आजाद हिंद फौज की स्थापना किसने किया था ? 
Ans:- सुभाष चंद्र बोस ने 
63. जय हिंद, दिल्ली चलो और तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा यह सभी नारा किसने दिया था ? 
Ans:- सुभाष चंद्र बोस ने 
64. नेताजी किसे कहा जाता है? 
Ans:-  सुभाष चंद्र बोस को
65. आजाद हिंद सरकार का गठन कब हुआ था ? और किसने किया था ? 
Ans:- 1943 में सुभाष चंद्र बोस ने
66. फूट डालो और शासन करो किसकी नीति थी ? 
Ans:- अंग्रेजों की 
67. कैबिनेट मिशन का गठन कब हुआ था? 
Ans:- 1946 को
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Tue, 16 Jan 2024 06:14:46 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | कला क्षेत्र में परिवर्तन https://m.jaankarirakho.com/633 https://m.jaankarirakho.com/633 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | कला क्षेत्र में परिवर्तन

कला क्षेत्र में परिवर्तन

1. वंदे मातरम और आनंदमठ गीत किसने लिखी थी ?
Ans:- बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने
2. गणदेवता एवं पंचग्राम उपन्यास के लेखक कौन थे?
Ans:- बंगाली उपनियासकार ताराशंकर बंधोपाध्याय
3. भारत दुर्दशा के लेखक कौन थे? 
Ans:- भारततेंदू हरिशचंद्र 
4. अंधेरी नगरी चौपट राजा के लेखक कौन थे? 
Ans:- भारततेंदू हरिशचंद्र 
5. गबन गोदान के लेखक कौन थे? 
Ans:- मुंशी प्रेमचंद 
6. उर्दू भाषा किस लिपि में लिखी जाती है? 
Ans:- फारसी 
7. देहली अखबार कहां से प्रकाशित होता है? 
Ans:- दिल्ली से 
8. तिलिस्मी अखबार कहां से प्रकाशित होता है? 
Ans:- लखनऊ से 
9. लंदन की आर्ट गैलरी में मधुबनी पेंटिंग को कब प्रदर्शनी की गई थी ? 
Ans:- 1942
10. मधुबनी पेंटिंग कहा है ? 
Ans:- बिहार में 
11. इंकलाब जिंदाबाद (क्रांति अमर रहें) किसने कहा था ? 
Ans:- भगत सिंह
12. सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा किसने कहा था ?  
Ans:- राम प्रसाद
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Tue, 16 Jan 2024 06:07:29 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | अंग्रेजी शासन एवं शहरी बदलाव https://m.jaankarirakho.com/632 https://m.jaankarirakho.com/632 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | अंग्रेजी शासन एवं शहरी बदलाव

अंग्रेजी शासन एवं शहरी बदलाव

1. चेन्नई का पुराना नाम क्या था ?
Ans:- मद्रास
2. कोलकाता का पुराना नाम क्या था ?
Ans:- कलकत्ता
3. भागलपुर नगर पालिका की स्थापना कब हुई? 
Ans:- 1864 में
4. मुंबई का पुराना नाम क्या था ? 
Ans:- बंबई
5. प्लासी का युद्ध कब हुआ था ?
Ans:- 1757 को
6. भागलपुर को जिला कब बनाया गया था ? 
Ans:- 1774 ईस्वी में
7. यूरोपीय चित्रकार योहान जोफनी भारत कब आया था ? 
Ans:- 1780 ईस्वी में
8. प्लासी की लड़ाई में किसकी हार हुई? 
Ans:- सिराजुद्दौला
9. प्लासी के युद्ध में अंग्रेजो का सेनापति कौन था ?
Ans:- राबर्ट क्लाइव
10. दीवार पर बनाए गए चित्रों को क्या कहा जाता है? 
Ans:- मिलती
11. मधुबनी पेंटिंग संग्रहालय कहां बनाया गया था ? 
Ans:- जापान के तोकामाची शहर में 
12. मधुबनी पेंटिंग की प्रदर्शनी कहां लगाई गई थी ? 
Ans:- लंदन के आर्ट गैलरी में 
13. भारत में सबसे पहले पेंटिंग प्रेस किसने लगाया था ? 
Ans:- पुर्तगालियों ने 
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Tue, 16 Jan 2024 06:05:16 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | महिलाओं की स्थिति एवं सुधार https://m.jaankarirakho.com/631 https://m.jaankarirakho.com/631 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | महिलाओं की स्थिति एवं सुधार

महिलाओं की स्थिति एवं सुधार 

> प्रेसिडेंसी शहर किसे कहते हैं ? 
Ans:- वे सभी शहर जहां कंपनी ने अपने कारखाने (वाणिजियक कार्यालय) स्थापित किया उसे प्रेसिडंसी शहर कहते हैं ! 
1. कम्पनी सरकार ने भारत में कौन-सा ' समाज सुधार' का कार्य नहीं किया ? 
Ans:- गुलामी बंद करने का कार्य 
2. वर्ण व्यवस्था आधारित था ? 
Ans:- कर्म पर 
3. सत्यशोधक समाज की स्थापना किसने की थी ? 
Ans:- ज्योतिराव फूले
4. ज्योतिराव फूले ने किस प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी ? 
Ans:- गुलामगीरी 
5. ब्रह्म समाज के संस्थापक कौन थे ? 
Ans:- राजा राममोहन राय 
6. प्रथम विश्वधर्म सम्मेलन कब हुआ ? 
Ans:- 1893 ई 。
7. दक्षिण में जाति सुधार आन्दोलन के नायक थे? 
Ans:- ई० वी ० रामास्वामी
8. ई० वी ० रामास्वामी नायकर प्रसिद्ध थे? 
Ans:- पेरियार
9. आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है ? 
Ans:- राजा राम मोहन राय
10. प्रार्थना समाज के संस्थापक कौन थे ? 
Ans:- डॉ ० आत्माराम पाण्डुरंग 
11. अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना किसने की ? 
Ans:- सरसैय्यद अहमद खाँ
12. राम कृष्ण के संस्थापक थे
Ans:- स्वामी विवेकानंद
13. प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन किस शहर में हुआ था ? 
Ans:- शिकागो शहर 
14. दयानंद सरस्वती का जन्म कहाँ हुआ था ? 
Ans:- गुजरात 
15. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का पुराना नाम था
Ans:- मोहम्मडन कॉलेज 
16. दहेज प्रथा के खिलाफ कानून पारित कब किया गया था ? 
Ans:- 1828 ईस्वी में
17. बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री कौन थे ? 
Ans:- डा. बी. सी. राय 
18. बाल विवाह निषेध अधिनियम कब पारित किया गया था ? 
Ans:- 1929 ईस्वी में
19. शिक्षा किस वर्ग की महिलाओं तक सीमिया रहा? 
Ans:- उच्च वर्ग तक
20. कानून के द्वारा सती प्रथा का अंत कब हुआ? 
Ans:- 1829 में
21. ब्राह्म समाज की स्थापना कब की गई ? 
Ans:- 1828 में
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Tue, 16 Jan 2024 06:02:05 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | जातीय व्यवस्था की चुनौतियां https://m.jaankarirakho.com/630 https://m.jaankarirakho.com/630 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | जातीय व्यवस्था की चुनौतियां

जातीय व्यवस्था की चुनौतियां

> अत्यंज किसे कहते हैं ?
Ans:- समाज का वह वर्ग जिसे सभ्य समाज की श्रेणी से बाहर रखा गया उसे अत्यंज कहते हैं 
1. सती प्रथा को दूर करने का श्रेय किन्हें मिला ? 
Ans:- लॉर्ड विलियम बेंटि 
2. हरविलास शारदा के प्रयास से 1929 ई० में शारदा कानून बना । शारदा कानून किससे संबंधित था ?
Ans:- लड़के – लड़कियों की शादी के लिए न्यूनतम उम्र से 
3. पहली बार दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाली महिला कौन थी ? 
Ans:- रजिया सुल्तान
4. किस भारतीय समाज सुधारक के प्रयास से सती प्रथा का अंत किया गया ? 
Ans:- राजा राममोहन राय
5. सती प्रथा पर पहला प्रतिबंध किस राजा ने लगाया था ? 
Ans:- हर्षवर्धन
6. सती प्रथा का प्रथम प्रमाण किस अभिलेख में मिलता है ? 
Ans:- ऐरन
7. हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून कब पारित हुआ ? 
Ans:- 1856 ई० 
8. सती प्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया ? 
Ans:- लार्ड विलियम बेंटिक 
9. विधवा पुनर्विवाह कानून किसने लागू किया ? 
Ans:- लॉर्ड डलहौजी 
10. किसके प्रयासों से 1872 ई० में देशी बाल - वियम पारित हुआ ?  
Ans:- केशवचंद्र सेन
11. स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्थापना की थी ? 
Ans:- आर्य समाज की
12. स्त्री शिक्षा के लिए कलकत्ता के तरुण स्त्री सभा की स्थापना कब हुई ? 
Ans:- 1819 ई 
13. बेगम रुकया सखावत हुसैन ने मस्लिम लड़कियों के लिए कहाँ-कहाँ विद्यालय खोले ? 
Ans:- कलकता और पटना 
14. भोपाल की बेगमों ने लड़कियों की शिक्षा के लिए विद्यालय कहाँ खोली ? 
Ans:- अलीगढ़ 
15. ' स्त्री पुरुष तलना' नामक पुस्तक किसने लिखी ? 
Ans:- ताराबाई शिंदे 
16. किसने दीये की रोशनी में पढ़ना लिखना सीखा ? 
Ans:- राश सुंदरी देवी 
17. हरिजन सेवा संघ महात्मा गांधी के द्वारा किस वर्ष गठित किया गया ? 
Ans:- 1932 में 
18. बाबा भीमराव अंबेडकर के द्वारा किस वर्ष बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना हुई ? 
Ans:- 1924 में
19. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है किसने कहा था ? 
Ans:- अरस्तू 
20. जाति व्यवस्था में कौन सी जाति सबसे बड़ी थी ? 
Ans:- ब्राह्मण जाति 
21. गुलामी नामक पुस्तक किसने लिखी ? 
Ans:- महात्मा ज्योतिराव फूले 
22. गुलामी नामक पुस्तक कब लिखी गई? 
Ans:- 1873 में 
23. नारायण गुरु का जन्म कब हुआ था ? 
Ans:- 1855 में
24. महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता किसने कहा था ? 
Ans:- सुभाष चंद्र बोस 
25. महात्मा गांधी को सर्वप्रथम महात्मा किसने कहा था ? 
Ans:- रविंद्र नाथ टैगोर
26. महात्मा गांधी ने हरिजन नामक सप्ताहिक पत्रिका कब निकाली ? 
Ans:- 1933 में 
27. पूना समझौता कब हुआ था ?
Ans:- 26 सितंबर 1932 को महात्मा गांधी और भीमराव अंबेडकर के बीच
28. महात्मा गांधी कौन से गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने इंग्लैंड गए थे ? 
Ans:- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में 1931
29. भारतीय संविधान का निर्माण के लिए कितने गोलमेज सम्मेलन का निर्माण हुआथा ? 
Ans:- तीन । प्रथम 1930 दूसरा 1931] तीसरा -1932
30. महात्मा गांधी का जन्म कब हुआ था ? 
Ans:- 2 अक्टूबर 1869 में 
31. महात्मा गांधी का जन्म कहां हुआ था ? 
Ans:- गुजरात के पोरबंदर में 
32. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रत्येक वर्ष विश्व अहिंसा दिवस का प्रावधान किया गया कब ? 
Ans:- 2 अक्टूबर 
33. महात्मा गांधी की हत्या किसने किया था ?
Ans:- नाथूराम गोडसे
34. महात्मा गांधी की हत्या कब किया गया था ?
Ans:- 30 जनवरी 1948 को
35. शहीद दिवस कब बनाया जाता है ? 
Ans:- 30 जनवरी को 
36. भारतीय संविधान का निर्माण किसे कहा जाता है? 
Ans:- बाबा साहब भीमराव अंबेडकर
37. अनुसूचित जाति संघ की स्थापना कब किया गया था? और किसके द्वारा ?
Ans:- 1942 में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के द्वारा
38. बाबा साहब भीमराव अंबेडकर हिंदू धर्म की छुआछूत से तंग होकर बौद्ध धर्म को कब अपना लिया था ? 
Ans:- 1950 में
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Tue, 16 Jan 2024 05:57:08 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | ब्रिटिश काल में शिक्षा https://m.jaankarirakho.com/629 https://m.jaankarirakho.com/629 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | ब्रिटिश काल में शिक्षा

ब्रिटिश काल में शिक्षा

> ब्राह्मण किसे कहते हैं ?
Ans:- समाज का वह वर्ग जिसने अपने शिक्षा ज्ञान एवं धार्मिक क्रियाकलापों के आधार पर समाज पर अपना प्रभाव कायम किया उसे ब्राह्मण कहते हैं ! 
1. 1791 ई० में ब्रिटिश जोनाथन डंकन द्वारा हिन्दू कॉलेज कहाँ स्थापित किया गया ?
Ans:- बनारस
2. कलकत्ता में मदरसा की स्थापना किसने की ? 
Ans:- वारेन हेस्टिग्स
3. कौन भारत को असभ्य देश मानता था ? 
Ans:- थॉमस बैविंगटन मैकाले 
4. कौन संस्कृत व फारसी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे थे ? 
Ans:- हैनरी टॉमस कोलबुक 
5. राँची जिला स्कूल की स्थापना कब हुई थी ? 
Ans:- 1839 ई ०
6. एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल का गठन किसने किया ?
Ans:- विलियम जॉन्स
7. राँची जिला स्कूल की स्थापना किसने की ? 
Ans:- जे० आर० ओसले
8. " औपनिवेशिक शिक्षा ने भारतीयों के मस्तिष्क में हीनता का बोध पैदा कर दिया है" यह कथन किसका है? 
Ans:- महत्मा गांधी.
9. एस० पी० जी० मिशन द्वारा ब्लाइंड स्कूल कब खोला गया ? 
Ans:- 1895 ई。 
10. संत कोलम्बा कॉलेज की स्थापना किसके द्वारा की गयी थी ? 
Ans:- डब्लिन मिशन
11. शांति निकेतन की स्थापना कब हुई थी ? 
Ans:- 1901 ई
12. दयानंद एंग्लो स्कूल की स्थापना किस संस्था द्वारा की गई ? 
Ans:- आर्य समाज
13. शांति निकेतन (विश्वभारती) के संस्थापक कौन थे ? 
Ans:- रविन्द्रनाथ टैगोर
14. ब्लाइंड स्कूल में पढ़ाई किससे होती है ? 
Ans:- ब्रेल लिपि 
15. लॉर्ड मैकाले कैसी शिक्षा के पक्षधर थे ? 
Ans:- पाश्चात्य
16. एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना कब किया गया था? 
Ans:- 1784 ईस्वी में 
17. एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना किसने किया था ? 
Ans:- विलियम जोन्स 
18. वेदों की संख्या कितनी है ? 
Ans:- 4
19. पुराणों की संख्या कितनी है?
Ans:- 18
20. शिक्षा की स्थिति जानने के लिए बंगाल और बिहार का दौरा किसने किया ? 
Ans:- स्कॉटलैंड से आए ईसाई प्रचारक विलियम एडम 
21. औपनिवेशिक शिक्षा ने भारतीय की मस्तिष्क में हीनता का भाव पैदा कर दिया यह कथन किसका था ? 
Ans:- महात्मा गांधी
22. L.S कॉलेज लंगट सिंह कॉलेज की स्थापना कब किया गया था? और कहां? 
Ans:- 1899 ईस्वी में मुजफ्फरपुर
23. आधुनिक शिक्षा की भाषा किसको बनाया गया ?
Ans:- अंग्रेजी
24. फूले के द्वारा किस संगठन की स्थापना हुई?
Ans:- सत्यशोधक समाज की
25. गैर बराबरी विरोधी आंदोलन को केरल में किसके द्वारा प्रारंभ किया गया ? 
Ans:- नारायण गुरु 
26. पेरियार के द्वारा कौन सा आंदोलन प्रारंभ किया गया ? 
Ans:- आत्मसम्मान आंदोलन
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Tue, 16 Jan 2024 05:52:05 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | 1857 की क्रांति https://m.jaankarirakho.com/628 https://m.jaankarirakho.com/628 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | 1857 की क्रांति

1857 की क्रांति

1. 1857 ई० के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल कौन था ?
Ans:- लॉर्ड कैनिंग
2. बाबू कुँवर सिंह किस राज्य के रहने वाले थे ? 
Ans:- बिहार
3. लक्ष्मीबाई कहाँ की रानी थी ?
Ans:- झाँसी
4. तात्या टोपे सेनापति थे ?  
Ans:- नाना साहेब 
5. कानपुर में 1857 के विद्रोह की अगुवाई किसने की थी ? 
Ans:- नाना साहेब
6. झांसी में 1857 में सिपाही विद्रोह का नेतृत्व किया था ? 
Ans:- रानी लक्ष्मीबाई
7. पशवा बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र कौन था ? 
Ans:- नाना साहेब
8. बहादुरशाह जफर ने किसके सहयोग से विद्रोह का नेतृत्व किया ? 
Ans:- बख्त खाँ 
9. 1857 के विद्रोह को किस नाम से जाना जाता है ? 
Ans:- सिपाही विद्रोह 
10. भारत के अंतिम मुगल बादशाह था ? 
Ans:- बहादुर शाह द्वितीय 
11. हजारीवाग छावनी में विद्रोह कब हुआ था ? 
Ans:- 30 जुलाई 1857 
12. झारखण्ड में सिपाही विद्रोह की शुरुआत कब हुई? 
Ans:- 12 जून, 1857 
13. चुटुपालु (ओरमांझी) घाटी में विद्रोह कब हुआ ? 
Ans:- 31 जुलाई, 1857 
14. राँची में विद्रोही सैनिकों का नेता (नायक) थे? 
Ans:- ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव 
15. किस अंग्रेज अधिकारी ने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को फॉसी पर लटका दिया ? 
Ans:- कर्नल डाल्टन
16. नीलाम्बर और पीताम्बर कहाँ के महान स्वतंत्रता सेनानी थे ? 
Ans:- पलामू 
17. ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को कब फाँसी दी गई ? 
Ans:- 10 मार्च 1858
18. 1857 की क्रांति को क्या कहा जाता है? 
Ans:- पहला स्वतंत्रता आंदोलन
19. 1857 की क्रांति का सबसे प्रमुख कारण क्या था ? 
Ans:- इनफील्ड राइफल
20. इनफील्ड राइफल का सबसे पहले विरोधी किसने किया था?
Ans:- बैरकपुर छावनी के युवा सिपाही मंगल पांडे
21. जगदीशपुर बिहार से 1857 की क्रांति का नेतृत्व कौन कर रहा था ? 
Ans:- कुंवर सिंह 
22. मांझा प्रवास नामक पुस्तक के लेखक कौन थे ? 
Ans:- विष्णुभट्ट गोडसे 
23. बहादुर शाह ज़फ़र का मृत्यु कब हुआ था और किस जेल में हुआ ? 
Ans:- 1862, रंगून जेल में 
24. सन् 1857 की क्रांति के बाद भारत का प्रमुख प्रशासक भारत के किस नाम से जाना जाने लगा ? 
Ans:- सचिव
25. 1857 की क्रांति के बाद भारत में सैनिकों का अनुपात कितना हो गया ? 
Ans:- 2:5 
26. 1857 का विद्रोह कहां से आरंभ हुआ ?
Ans:- मेरठ
27. मंगल पांडे किस छावनी के युवा सिपाही थे 
Ans:- बैरकपुर
28. कुंवर सिंह कहां के जमीदार थे ? 
Ans:- जगदीशपुर 
29. वहाबी आंदोलन का नेतृत्व बिहार में किसने किया था ? 
Ans:- विलायत अली
30. अभिज्ञान शाकुंतलम् नामक पुस्तक किसने लिखा था ? 
Ans:- कालिदास
31. पंचतंत्र के लेखक कौन थे ? 
Ans:- विष्णु शर्मा
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Tue, 16 Jan 2024 05:47:49 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | शिल्प और उद्योग https://m.jaankarirakho.com/627 https://m.jaankarirakho.com/627 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | शिल्प और उद्योग

शिल्प और उद्योग

> नि: औधोगिकरण किसे कहते हैं?
Ans:- वैसी परिस्थिति जब देश के लोग शिल्प एव उद्योग को छोड़कर एव खेती को अपनी आजीविका बनाने लगे तो उसे नि: औद्योगिकरण कहते है 
1. भारत में पहली कपड़ा मिल 1854 ई० में किस जगह स्थापित हुई ? 
Ans:- बंबई 
2. कलिको अधिनियम किससे संबंधित था ? 
Ans:- सूती कपड़े- छीट के 
3. स्पिनिंग जेनी क्या हैं ? 
Ans:- परंपरागत तकलियों की उत्पादकता बढ़ाने वाला मशीन 
4. भारी अभियंत्रण संयंत्र ( एच ० ई० सी० ) झारखण्ड राज्य के किस शहर में स्थित है ? 
Ans:- रॉची 
5. " सूरत बंदरगाह भारत के किस तट पर स्थित था ? 
Ans:- पश्चिमी तट 
6. 1931 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तिरंगे झंडे के बीच । वाली पट्टी में किसे जगह दी गई ? 
Ans:- चरखा
7. मस्लिन ( मलमल ) क्या है ? 
Ans:- बारीक सूती कपड़ा
8. राजस्थान और गुजरात में किस शैली के कपड़े बनते थे ? 
Ans:- बंडाला
9. टीपू सुल्तान की तलवार किस स्टील से बनी थी ? 
Ans:- बुदज स्टील
10 .' स्पिनिंग जैनी का आविष्कारक था - 
Ans:- जॉन के
11. टिस्को में स्टील का उत्पादन किस वर्ष शुरू हुआ ? 
Ans:- 1912 ई०
12. भारत का मेनचेस्टर किसे कहा जाता है ? 
Ans:- अहमदाबाद
13. सूरत बंदरगाह किस राज्य में स्थित है ? 
Ans:- गुजरात में
14. पुर्तगाली भारत में सबसे पहले कहाँ पहुँचे ? 
Ans:- कालीकट
15. लौह – अयस्क खोदकर लाने और लोहा बनाने का कार्य किस समुदाय के लोग करते थे ? 
Ans:- अगरिया
16. भारी अभियंत्रण संयंत्र (HEC ) की स्थापना कब की गयी 
Ans:- 1958 ई ० 
17. औधोगी क्रान्ति सर्वप्रथम कितने शताब्दी में इंग्लैंड आया ? 
Ans:- 18 वी शताब्दी में 
18. भारत में पहला सूती वस्त्र कारखाना कब लगाया गया ? 
Ans:- 1854 को 
19. भारत में पहला सूती वस्त्र कारखाना किसके द्वारा लगाया गया था ? 
Ans:- कावस जी नाना जी दामर
20. इंग्लैंड की सरकार ने मुक्त व्यापार की निति कब अपनाई ? 
Ans:- 1813 ईस्वी 
21. कै लिको अधिनियम कब पारित किया गया ? 
Ans:- 1720 ईस्वी
22. कैलिको अधिनियम किसने पारित किया ? 
Ans:- अंग्रेजी सरकार 
23. औधोगी क्रान्ति सर्व प्रथम कितने शताब्दी में इंग्लैंड आया ? 
Ans:- 18 वी शताब्दी 
24. भारत में सूती वस्त्र कारखाना कब और कहां लगाया गया था ? 
Ans:- 1854 मुंबई
25. भारत में पहला सूती वस्त्र कारखाना किसके द्वारा लगाया गया था ? 
Ans:- कावस जी नाना जी दामर
26 पहली जूट मिल कब स्थापित किया गया और कहां? 
Ans:- 1855 बंगाल के रिसरा
27. TISCO की स्थापना कब की गई और किसके द्वारा किया गया था ? 
Ans:- 1907 में जमशेद जी
28. प्रथम विश्व युद्ध कब से कब तक चला ? 
Ans:- 1914 - 1918 
29. द्वितीय विश्व युद्ध कब से कब तक चला ? 
Ans:- 1939 1945 
30. 18 वी शताब्दी में भारत का प्रमुख उधोग कौन था ? 
Ans:- वस्त्र उद्योग 
31. फेडरेशन ऑफ इंडियन चैबर्स ऑफ कॉमर्स इंडस्ट्री (FICCI) की स्थापना कब हुई ? 
Ans:- 1927 में 
32. जुट उधोग का प्रमुख केन्द्र कहां था ? 
Ans:- बंगाल
33. ऑल इंडिया ट्रेड यूनिय कांग्रेस (AITUC ) की स्थापना कब हुई ? 
Ans:- 1920 में
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Tue, 16 Jan 2024 05:43:49 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | उपनिवेशवाद और आदिवासी समाज https://m.jaankarirakho.com/626 https://m.jaankarirakho.com/626 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | उपनिवेशवाद और आदिवासी समाज

उपनिवेशवाद और आदिवासी समाज

> झूम खेती किसे कहते हैं ?
Ans:- खेती करने की वह विधि जिसके अंतर्गत जंगलों को साफ कर दो- तीन वर्षों तक खेती की जाती है और पुनः इसके बाद आस्थान बदल लिया जाता है उसे झूम खेती कहते हैं 
> बंधुआ मजदूर क्या है ?
Ans:- वैसा मजदूर जो कर्ज चकाने के लिए बिना वेतन के मालिक के जमीन पर तब तक काम करते
रहते हैं जब तक कर्ज की रकम ब्याज सहित नहीं सध जाए, बधुआ मजदूर कहलाता है l
> ईसाई मिशनरी किसे कहते हैं?
Ans:- ईसाई धर्म के वैसे लोग या पादरी जो अन्य धर्म के लोगों का धर्मातरण कराके उनको तन कराएं के उनको ईसाई बनाते थे, उन्हें ईसाई मिशनरी कहा गाया l
> दीकु क्या है?
Ans:- गैर आदिवासियों सेठ एव महाजन जो अधिक ब्याज पर ऋण देते थे एव आदिवासियों का शोषण करते थे उन्हें दीकु कहां गया ?
> बेगारी क्या है?
Ans:- बिना वेतन या मजदूरी के काम करना बेगारी कहलाता है ?
1. आदिवासी समाज द्वारा प्रयोग किया गया ' दीकु ' शब्द किनके लिए प्रयोग किया जाता था ? 
Ans:- बाहरी लोग के लिए
2. शांति निकेतन की स्थापना किसने की ?
Ans:- रवीन्द्रनाथ टैगोर
3. प्राचीन समय में लेन-देन का साधन था ?
Ans:- वस्तु – विनिमय
4. मुद्धा की सुविधा नहीं होने को कारण कौन-सा प्रचलन था 
Ans:- वस्तु विनिमय
5. बकरवाल जनजाति पालते थे ? 
Ans:- बकरियाँ
6. शूम खेती का दूसरा नाम क्या है ? 
Ans:- घुमंतू खेती 
7 संथाल (हूल) विद्रोह का नेतृत्व किसने किया ? 
Ans:- सिद्धो-कान्हू
8. बिरसा मुंडा का जन्म कब हुआ ? 
Ans:- 15 नवम्बर 1875 ई०
9. पंजाब के पहाडी भाग में रहनेवाली चरवाहा जनजाति को कहते है ?
Ans:- गुज्जर
10. बिरसा की मृत्यु कब हुई ?
Ans:- 2 जून 1900 ईस्वी को
11. किस रंग का झंडा बिरसा राज्य का प्रतीक था ? 
Ans:- सफेद
12. आंध्र प्रदेश के चरवाहा जनजाति का नाम क्या है ? 
Ans:-  लगार्डिया 
13. नीलाम्बर और पीताम्बर किस समाज से आते थे? 
Ans:-  भोक्ता 
14. लुबिया मांझी, बैस मांझी और अर्जुन मांझी ने किस विद्रोह का नेतृत्व किया ?
Ans:-  हजारीबाग
15. सिद्धो, कान, चाँद और भैरव का आपस में क्या संबंध था ? 
Ans:- भाई - भाई
16. पलामू विद्रोह को कुचलने के लिए किसने सेना भेजी ? 
Ans:- कर्नल डाल्टन 
17. खरचार- विद्रोह के प्रणेता कौन थे ?
Ans:-  नीलाम्बर पीताम्बर
18. झूम खेती का दूसरा नाम क्या है ?
Ans:- घुमंतू कृषि
19. पुराने समय में कोलकाता का नाम क्या था ? 
Ans:-  कलकत्ता
20. पुराने समय में मुंबई का नाम क्या था ? 
Ans:- बम्बई
21. पुराने समय में चेन्नई का नाम क्या था ?
Ans:- मद्रास
22. वन विभाग कब पारित किया गया था?
Ans:- 1864
23. वन अधिनियम कब पारित किया गया था ?
Ans:- 1865
24. भारत में सबसे बड़ी संख्या किस जनजाति की हैं ? 
Ans:- भील 
25. बिरसा मुंडा का जन्म कब हुआ था ?
Ans:- 15 नवम्बर 1874 ईस्वी 
26. बिरसा मुंडा के पिता का नाम क्या था ? 
Ans:- सुगना मुंडा
26. बिरसा मुंडा के माता का नाम क्या था ?
Ans:- कदमी
27. बिरसा मुंडा किस क्षेत्र के निवासी थे?
Ans:- छोटानागपुर
28. दीकु किसे कहा जाता था?
Ans:- गैर आदिवासी
29. झारखंड राज्य किस राज्य के विभाजन के परिणाम स्वरूप बना था? 
Ans:- बिहार
30. बिरसा मुंडा के कुल देवता का नाम क्या था?
Ans:- सिंगबोगा
31. बिरसा मुंडा ने ईसाई मिशनरियों पर पहला आक्रमण कब किया था ? 
Ans:- 25 दिसंबर 1899
32. बिरसा मुंडा का मृत्यू किस बीमारी के कारण हुआ था? 
Ans:- हैजा 
33. बिरसा मुंडा का मृत्यू किस जेल में हुआ था? 
Ans:-  रांची
34. नागालैंड राज्य की स्थापना कब हुआ था? 
Ans:- 1 दिसंबर 1963
35. बिहार से अलग झारखंड राज्य कब बनाया गया था ? 
Ans:- नवम्बर 2000 ईस्वी
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Tue, 16 Jan 2024 05:39:38 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | ग्रामीण जीवन एवं समाज https://m.jaankarirakho.com/625 https://m.jaankarirakho.com/625 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | ग्रामीण जीवन एवं समाज

ग्रामीण जीवन एवं समाज 

> पंजाब हरियाणा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में बड़े गांव या कुछ गांव के समूह को क्या कहा जाता था ? 
Ans:- महाल
> नकदी फसल किसे कहते हैं
Ans:- वैसा फसल जिसे खेतों से सीधे व्यापारी को द्वारा खरीद लिया जाता है, नकदी फसल कहलाता है  जैसे - नील तंबाकू, अफीम इत्यादि
1. महात्मा गाँधी ने 1917 ई० में नील बागान मालिकों के विरुद्ध चंपारण में आन्दोलन किया । चंपारण किस राज्य में स्थित था ? 
Ans:- बिहार शुरू
2. धन की निकासी का सिद्धांत किसने दिया ? 
Ans:- दादा भाई नौरोजी
3. महालवाड़ी व्यवस्था में 'महालदार ' किसे कहा जाता था ? 
Ans:- गाँव का मुखिया
4. कंपनी को बंगाल की दीवानी मुगल बादशाह से कब प्राप्त हुई ? 
Ans:- 12 अगस्त 1765
5. ग्रेण्ड ओल्ड मैन ऑफइंडिया किसे कहा जाता है ? 
Ans:- दादाभाई नौरोजी
6. स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था किस गवर्नर जेनरल के समय शुरू हुआ ? 
Ans:- लोर्ड कार्नवालिस 
7. रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू करने का श्रेय जाता है ? 
Ans:- टॉमस मुनरो
8. पहली चाय कंपनी किस नाम से जानी जाती है ? 
Ans:- असम चाय कंपनी
9. महालवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम किसने तैयार की ? 
Ans:- होल्ट मैकेंजी
10. यूरोपियन देशों में कपड़ों की रंगाई के लिए क्या प्रयोग किया जाता था ? 
Ans:- भारतीय नील 
11. नील विद्रोह कब आरम्भ हुआ ? 
Ans:- 1859-60 ई०
12. चाय और चीन पर से कंपनी का एकाधिकार कब समाप्त कर दिया गया ? 
Ans:- 1833 ई
13. नील आयोग किनकी अध्यक्षता में गठित हुआ ? 
Ans:-  सीटोन कार 
14. " नील दर्पण' नामक नाटक के रचनाकार हैं? 
Ans:- दीनबंधु मित्र
15. ” हिन्दू पैट्रियाट ” के सम्पादक थे ? 
Ans:-  हरिश्चन्द्र मुखर्जी 
16.कंपनी को मुगल के बंगाल की दीवानी कब प्राप्त हुई ? 
Ans:- 12 अगस्त 1765 
17. ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया किसे कहा जाता है ? 
Ans:- दादा भाई नौरोजी 
18. दादाभाई नोरोजी ने कौन-सा सिध्दांत प्रस्तुत किया ? 
Ans:-  धन की निकासी 
19. पानीपत की प्रथम लड़ाई कब और किन दो शासकों के बीच हुआ था ? 
Ans:- 1526 ई. में बाबर और इब्राहिम लोदी के बीच,
20. पानीपत की दूसरी लड़ाई कब और किन दो शासकों के बीच हुआ था ? 
Ans:- 1556 ई. में बाबर और हेमचंद्र विक्रमादित्य
21. पानीपत की दूसरी लड़ाई में किसका विजय हुआ था ? 
Ans:-  अकबर का 
22. पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर का सेनापति कौन था ? 
Ans:-  बैरम खां 
23. पानीपत की तीसरी लड़ाई कब और किन दो शासकों के बीच हुआ था ? 
Ans:- 1761 अफगानी शासक अहमदशाह अब्दाली और मराठों के बीच 
24. पानीपत का तीसरा युद्ध में किस विजय हुआ था ? 
Ans:- मराठों का
25. भारत की कुल आबादी का कितना प्रतिशत भाग गांव में रहती है ? 
Ans:-  68%
26. वर्तमान भारत के कौन-कौन राज्य बंगाल का आया था ?
Ans:- बिहार, झारखंड तथा उड़ीसा भी बंगाल का अंक था
27. बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा तथा आंध्र प्रदेश में कैसी व्यवस्था लागू किया गया था ? 
Ans:- स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था
28. प्रिंसिपल्स ऑफ़ पॉलीटिकल इकोनामी के लेखक कौन था ? 
Ans:- रिकॉर्ड 
29. दक्षिण और पश्चिम भारत में अंग्रेजों ने कौन सी व्यवस्था लागू की थी ? 
Ans:-  रैयतवारी
30. रैयत का अर्थ क्या होता है ? 
Ans:-  किसान 
31. पंजाब दिल्ली एवपश्चिमी उत्तर प्रदेश वेइलाकों में कौन सी व्यवस्था लागू की गई थी?
Ans:- महलवारी
32. कुल कृषि योग्य भूमि में स्थाई बंदोबस्त का कितना प्रतिशत था ? 
Ans:- 19%
33 कुल कृषि योग्य भूमि में महलवारी व्यवस्था का कितना प्रतिशत था ? 
Ans:- 29% 
34. कुल कृषि योग्य तिवारी व्यवस्था का कितना प्रतिशत था? 
Ans:-  52%
35. दक्कन विद्रोह कब हुआ था ? 
Ans:-  1875 
36. नील दर्पण का अंग्रेजी में अनुवाद किसने किया था? 
Ans:- माइकल मधुसूदन दत्त 
37. बिहार में नील की खेती कहां की जाती थी ? 
Ans:- बिहार के चंपारण और मुजफ्फरपुर में 
38. जनजातीय समाज के लोगों को आम भाषा में क्या कहा जाता है ? 
Ans:- आदिवासी  
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Tue, 16 Jan 2024 05:34:11 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | व्यापार से साम्राज्य तक https://m.jaankarirakho.com/624 https://m.jaankarirakho.com/624 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | व्यापार से साम्राज्य तक

व्यापार से साम्राज्य तक

> वाणिज्यवाद क्या है ?
Ans:- लाभ कमाने के उद्देश्य से की गई व्यापारिक गतिविधियां वाणिज्यवाद कहलाता है 
> रेजिमेंट किसे कहा जाता है?
Ans:- सहायक संधि के नियमों के तहत भारतीय शासकों को अपने में एक अंग्रेजी अधिकारी रखना
पड़ता है जिसे रेजिमेंट कहा जाता था
1. 22 अक्टूबर, 1764 ई० को बक्सर युद्ध में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व किसने किया I 
Ans:- कैपटन मुनरो
2. टीपू सुल्तान किस राज्य से संबंध रखते थे ? 
Ans:- मैसूर
3. किस कारण से रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों केविरुद्ध हथियार । उताकर आंदोलन शुरू किया ?
Ans:- कित्तूर पर कब्जा
4. ईस्ट इंडिया कंपनी कहाँ की ' व्यापारिक कंपनी थी ? 
Ans:- इंग्लैंड
5. 1757 में प्लासी का युद्ध रॉबर्ट क्लाइव एवं किसके बीच लड़ा गया ? 
Ans:- सिराजुद्दौला 
6. अंग्रेजों को बंगाल में सीमित क्षेत्र में व्यापार की इजाजत किसने दी ? 
Ans:- शाहजहा
7. वास्कोडिगामा किस देश का निवासी था ? 
Ans:- पुर्तगाली
8. 1857 में दिल्ली का सम्राट था 
Ans:- बहादुरशाह जफर
9. ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना किस महारानी के समय
Ans:- एलिजाबेथ प्रथम
10. ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने किसे राजदूत बनाकर जहाँगीर के दरबार मैं भेजा ?
Ans:- कैप्टन हॉकिस 
11. सिराजुद्दौला की हत्या के बाद किसे बंगाल का नवाब बनाया गया ।
Ans:-  मीर जाफर
12. बक्सर युद्ध कब हुआ? 
Ans:- 22 अक्टूबर, 1764 ई०
13. प्लासी का युद्ध कब हुआ ? 
Ans:-  23 जून, 1757 ई०
14. टीपू सुल्तान एवं लार्ड कार्नवालिस के बीच कौन-सी संधि हुई ? 
Ans:- श्रीरंगापट्टनम
15. विलय की नीति किस अंग्रेज की देन थी ?
Ans:- लाई डलहौजी
16. आखिरी शक्तिशाली मुगल बादशाह था
Ans:- औरंगजेब
17. पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा भारत कब पहुँचा ? 
Ans:- 1498 ई० में 
18. वास्को-डी-गामा किस देश का रहने वाला था ? 
Ans:- पुर्तगाल का 
19. औरंगजेब की मृत्यु हुई ? 
Ans:- 1707 ई. में
20. मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु कब हुई थी ? 
Ans:- 1707 ईस्वी में 
21. वास्कोडिगामा भारत से गर्म मसालों को ले जाकर जब वापस लौटा तो उसे बेचकर उसने कितना लाभ कमाया ?
Ans:- 62 गुना
23. ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कब हुई ? 
Ans:- 31 दिसंबर 1600 ईस्वी को
24. मुर्शिद कुली खाँ के बाद बंगाल का नवाब कौन बना ? 
Ans:- अलीवर्दी खां 1740 ईस्वी में
25. अलीवर्दी खां के बाद बंगाल का नवाब कौन बना ? 
Ans:- सिराजुद्दौला
26. बंगाल में पहली अंग्रेजी फैक्ट्री किस नदी के किनारे शुरू की गई थी और कब ?
Ans:-  हवाली नदी के किनारे 1651 ईस्वी में
27. पलासी की लड़ाई कब और कहां हुआ ?
Ans:- जून 1757 मुर्शिदाबाद के पास पलासी
28. फ्लासी वर्तमान में कहां है ? 
Ans:- बंगाल में 
29. प्लासी की लड़ाई किन दो लोगों के बीच हुआ था ?
Ans:-  सिराजुद्दौला और रॉबर्ट क्लाइव के बीच
30. प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला का सेनापति कौन था ?
Ans:-  मिरजाफर 
31. प्लासी की लड़ाई में कौन और क्यों मारा गया था ? 
Ans:-  सिराजुद्दौला क्योंकि उसके सेनापति मीरजाफर अंग्रेजों के साथ मिल गया था 
32. अंग्रेजों ने मीरजाफर को हटाकर किसको बंगाल का नवाब बना दिया गया ? और कब ? 
Ans:-  मीरकाशी 1760 ईस्वी में
33. बक्सर का युद्ध कब हुआ था ? 
Ans:- 30 October 1764 ईस्वी को 
34. बक्सर का युद्ध किन दो सेनाओं के बीच हुआ था ? 
Ans:- अंग्रेजी तथा भारतीयों सेनाओं के बीच 
35. बक्सर के युद्ध में किसके सेनाओं की जीत हुई 
Ans:- अंग्रेजी सेनाओं की 
36. सहायक संधि प्रतिपादक अंग्रेजी गवर्नर जनरल कौन था ? 
Ans:- लॉर्ड वेलेजली 
37. सबसे पहले सहायक संधि को स्वीकार करने वाला पहला शासक कौन था ? 
Ans:-  हैदराबाद का 
38. सहायक संधि को स्वीकार करने वाला दूसरा शासक कौन था ? 
Ans:- अवध का नवाब 
39. हैदर अली का पुत्र कौन था ? 
Ans:- टीपू सुल्तान 
40. हैदर अली और टीपू सुल्तान कहां का शासक था ? 
Ans:- मैसूर (कर्नाटक)
41. हैदर अली का शासन काल कब से कब तक चला ? 
Ans:- 1761-1782
42. टीपू सुल्तान का शासक काल कब से कब तक चला ? 
Ans:- 1782-1799
43. श्रीरंगापट्टनम की लड़ाई कब हुई थी? 
Ans:- 1199 में 
44. टीपू सुल्तान किस लड़ाई में मारा गया था 
  
Ans:- श्रीरंगापट्टनम की लड़ाई में
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Tue, 16 Jan 2024 05:28:42 +0530 Jaankari Rakho
BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE&3 | इतिहास (HISTORY) | आधुनिक काल में भारत का इतिहास https://m.jaankarirakho.com/623 https://m.jaankarirakho.com/623 BPSC शिक्षक बहाली 2024 TRE-3 | इतिहास (HISTORY) | आधुनिक काल में भारत का इतिहास

आधुनिक काल में भारत का इतिहास 

> पूंजीवाद किसे कहते हैं
Ans:- 15वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप में एक नई सामाजिक व्यवस्था का जन्म हुआ जिसे पूंजीवादी कहते हैं
> ऐतिहासिक स्रोत किसे कहते हैं ?
Ans:- इतिहासकार इतिहास को जानने के लिए जिन स्रोतों का प्रयोग करते हैं, उसे ऐतिहासिक स्रोत कहते हैं
> औद्योगिक क्रांति किसे कहते हैं ?
Ans:- मशीनों से वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया को औद्योगिक क्रांति कहते हैं !
> उपनिवेशवाद किसे कहते हैं ?
Ans:- जब एक देश पर किसी दूसरे देश के दबदबे से इस तरह के राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आते हैं तो इसे हम उपनिवेशवाद कहते हैं l
> साम्राज्यवाद क्या है ?
Ans:- सैनिक अथवा अन्य तरीकों से विदेशी भूभाग के प्रदेशों को अपने अधीन कर अपना राजनीतिक स्वामित्व स्थापित करना साम्राज्यवाद कहलाता है
1. अलग - अलग समय पर होने वाले परिवर्तनों के संबंध में बताता है
Ans:- इतिहास
2. जेम्स मिल कहाँ का निवासी था ?
Ans:- स्कॉटलैंड
3. इतिहास में किसका महत्व होता है 
Ans:- तिथियों
4. भारत के पहले गवर्नर जेनरल थे । 
Ans:- वॉरेन हेस्टिंग्स
5. लॉर्ड क्लाइव ने भारत का नक्शा 
Ans:- जेम्स रेने
6. भारत के अंतिम वायसराय कौन थे तैयार करने की जिम्मेदारी किसको सौंपी थी ? 
Ans:- लार्ड माउंटबेटन
7. कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत का विस्तार कितना है ? 
Ans:- 3200 किमी 
8. लोग इतिहास को किससे जोड़कर देखने की कोशिश करते है 
Ans:- तारीखों 
9. इतिहास को सामान्यत: कितने कालखण्डों  में बाँटा गया है ?
Ans:- तीन (प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल का इतिहास) 
10. अंग्रेजों दवारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार स्थित है ? 
Ans:- नई दिल्ली
11. ” ब्रिटिश शासन के माध्यम से ही भारत सभ्यता के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है" यह कथन है 
Ans:- जेम्स मिल का
12. सरकारी दस्तावेज (रिकार्ड्स ) कहाँ रखे जाते हैं ? 
Ans:- अभिलेखागारों
13. भारत में सर्वप्रथम कौन यूरोपिय व्यापारी आया था? 
Ans:- पुर्तगाली
14. इनमें से कौन 'शेर-ए-पंजाब' के नाम से प्रसिद्ध थे
Ans:- लाला लाजपत राय
15. भारत आने वाला पहला पुर्तगाली व्यापारी कौन था ? 
Ans:- वास्कोडिगामा
16. स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर-जनरल- 
Ans:- राजगोपालाचारी
17 ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कब की गई थी ? 
Ans:- 1600 ई. 
18. 1935 के चुनावों के बाद, ग्यारह में से केवल दो प्रांतों में गैर-कांग्रेसी मंत्री थे ? 
Ans:- बंगाल और पंजाब 
19. बंगाल में द्वैध शासन की नींव (Dyarchy Rule) किसने रखी थी ? 
Ans:- राबर्ट क्लाइव 
20. सिक्के जारी करने वाला पहला गुप्त शासक कौन था ? 
Ans:- चंद्रगुप्त प्रथम 
21. पुनजागरण का केंद्र कहां था ? 
Ans:- यूरोप (इटली) 
22. भारत का खोज किसने और कब किया ? 
Ans:- वास्कोडिगामा, 1498 में 
23. अमेरिका महाद्वीप की खोज किसने और कब किया ? 
Ans:- कोलंबस, 1492 में
24. वास्कोडिगामा कहां का रहने वाला था ? 
Ans:- पुर्तगाल 
25. कोलंबस कहां का रहने वाला था ? 
Ans:- स्पेन
26 यूरोप के व्यापारियों ने बहुत ....... कमाया । 
Ans:- लाभ 
27. मुगल वंश का अंतिम सम्राट कौन था ? 
Ans:- बहादुर शाह द्वितीय 
28. भारतीय उपमहाद्वीप में कौन-कौन से देश आते हैं 
Ans:- भारत, बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान, भूटान और मालदीव 
29. झारखंड बिहार से कब अलग हुआ ? 
Ans:- 15 नवंबर 2000 ईस्वी
30. उड़ीसा बिहार से कब अलग हुआ ? 
Ans:- 1936 ईस्वी
31. बंगाल बिहार से कब अलग हुआ? 7
Ans:- 1912 ईस्वी 
32. सरकारी दस्तावेजों को कहां सुरक्षित रखा जाता है ? 
Ans:- अभिलेखागारों
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Tue, 16 Jan 2024 05:05:57 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | उपभोक्ता अधिकार https://m.jaankarirakho.com/515 https://m.jaankarirakho.com/515 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | उपभोक्ता अधिकार

उपभोक्ता अधिकार

सुरक्षा सबका अधिकार है

  • जब हम एक उपभोक्ता के रूप में बहुत सी वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग करते हैं, तो हमें वस्तुओं के बाजारीकरण और सेवाओं की प्राप्ति के खिलाफ सुरक्षित रहने का अधिकार होता है, क्योंकि ये जीवन और संपत्ति के लिए खतरनाक होते हैं।
  • उत्पादकों के लिए आवश्यक है कि वे सुरक्षा नियमों और विनियमों का पालन करें। ऐसी बहुत सी वस्तुएँ और सेवाएँ हैं, जिन्हें हम खरीदते हैं तो सुरक्षा की दृष्टि से खास सावधानी की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए, प्रेशर कूकर में एक सेफ्टी वॉल्व होता है, जो यदि खराब हो तो भयंकर दुर्घटना का कारण हो सकता है।
  • सेफ्टी वॉल्व के निर्माता को इसकी उच्च गुणवत्ता सुनिश्चित करनी चाहिए। आपको सार्वजनिक या सरकारी कार्यवाहियों को देखकर यह सुनिश्चित करना होगा कि गुणवत्ता का पालन किया गया है या नहीं? फिर भी बाजार में निम्न गुणवत्तावाले उत्पाद प्राप्त होते हैं, क्योंकि इन नियमों का पर्यवेक्षण उचित रूप से नहीं हो रहा है और उपभोक्ता आंदोलन भी बहुत ज्यादा मजबूत नहीं है।
वस्तुओं और सेवाओं के बारे में जानकारी
  • जब कोई वस्तु खरीदेंगे तो उसके पैकेट पर कुछ खास जानकारियाँ पाएँगे। ये जानकारियाँ उस वस्तु के अवयवों, मूल्य, वैच संख्या निर्माण की तारीख, खराब होने की अंतिम तिथि और वस्तु बनाने वाले के पते के बारे में होती है।
  • जब कोई दवा खरीदते हैं तो उस दवा के 'उचित प्रयोग के बारे में निर्देश' और उस दवा के प्रयोग के अन्य प्रभावों और खतरों से संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
  • यह इसलिए कि उपभोक्ता जिन वस्तुओं और सेवाओं को खरीदता है, उसके बारे में उसे सूचना पाने का अधिकार है। तब उपभोक्ता वस्तु की किसी भी प्रकार की खराबी होने पर शिकायत कर सकता है, मुआवजे पाने या माँग कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि हम एक उत्पाद खरीदते हैं और उसके खराब होने की अन्तिम तिथि के पहले ही वह खराब हो जाता है, तो हम उसे बदलने के बारे में कह सकते हैं।
  • यदि वस्तु खराब होने की अन्तिम समय-सीमा उस पर नहीं छपी है, तब विनिम दुकानदार पर आरोप लगा देगा और अपनी जिम्मेदारी नहीं मानेगा। यदि लोग अंतिम तिथि समाप्त हो गई दवाओं को बेचते हैं, तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जा सकती है।
  • इसी तरह से यदि कोई व्यक्ति मुद्रित मूल्य सेअधिक मूल्य पर वस्तु बेचता है तो कोई भी उसका विरोध और शिकायत कर सकता है।
  • यह अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) के द्वारा इंगित किया हुआ होता है। वस्तुत: उपभोक्ता, विक्रेता से अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) से कम दाम पर वस्तु देने के लिए मोल-भाव कर सकते हैं।
  • आज सरकार प्रदत्त विविध सेवाओं को उपयोगी बनाने के लिए सूचना पाने के अधिकार को बढ़ा दिया गया है। सन् 2005 के अक्टूबर में भारत सरकार ने एक कानून लागू किया जो RTI (राइट टू इनफॉरमेशन) या सूचना पाने का अधिकार के नाम से जाना जाता है और जो अपने नागरिकों को सरकारी विभागों के कार्य-कलापों की सभी सूचनाएँ पाने के अधि कार को सुनिश्चित करता है। आर.टी.आई. एक्ट के प्रभाव को निम्नलिखित केसों के द्वारा समझा जा सकता है
चयन के अधिकार का उल्लंघन
  • किसी भी उपभोक्ता को जो कि किसी सेवा को प्राप्त करता है, चाहे वह किसी भी आयु या लिंग का हो और किसी भी तरह की सेवा प्राप्त करता हो, उसको सेवा प्राप्त करते हुए हमेशा चुनने का अधिकार होगा।
इन उपभोक्ताओं को न्याय पाने के लिए कहाँ जाना चाहिए?
  • उपभोक्ताओं को अनुचित सौदेबाजी और शोषण के विरुद्ध क्षतिपूर्ति निवारण का अधिकार है। यदि एक उपभोक्ता को कोई क्षति पहुँचाई जाती है, तो क्षति की मात्रा के आधार पर उसे क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार होता है। इस कार्य को पूरा करने के लिए एक आसान और प्रभावी जन-प्रणाली बनाने की आवश्यकता है।
  • भारत में उपभोक्ता आंदोलन ने विभिन्न संगठनों के निर्माण पहल की है, जिन्हें सामान्यतया उपभोक्ता अदालत या उपभोक्ता संरक्षण परिषद् के नाम से जाना जाता है।
  • ये उपभोक्ताओं का मार्गदर्शन करती हैं कि कैसे उपभोक्ता अदालत में मुकदमा दर्ज कराएँ। बहुत से अवसरों पर ये उपभोक्ता अदालत में व्यक्ति विशेष (उपभोक्ता) का प्रतिनिधि त्व भी करते हैं। ये स्वयंसेवी संगठन जनता में जागरूकता पैदा करने के लिए सरकार से वित्तीय सहयोग भी प्राप्त करते हैं। यदि आप एक आवासीय कॉलोनी में रहते हैं तो आपने 'निवासी कल्याण संघ' का नामपट्ट अवश्य देखा होगा।
  • यदि उनके किसी सदस्य के साथ कोई अनुचित व्यावसायिक कार्रवाई होती है, तो उनकी तरफ से संस्था मामले को देखती है।
  • कोपरा के अंतर्गत उपभोक्ता विवादों के निपटारे के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर एक त्रिस्तरीय न्यायिक तंत्र स्थापित किया गया है।
  • जिला स्तर का न्यायालय 20 लाख तक के दावों से संबंधित मुकदमों पर विचार करता है, राज्य स्तरीय अदालतें 20 लाख से एक करोड़ तक और राष्ट्रीय स्तर की अदालतें 1 करोड़ से उपर की दावेदारी से संबंधित मुकदमों को देखती हैं।
  • यदि कोई मुकदमा जिला स्तर के न्यायालय में खारिज कर दिया जाता है, तो उपभोक्ता राज्य स्तर के न्यायालय में और उसके बाद राष्ट्रीय स्तर के न्यायालय में भी अपील कर सकता है। इस प्रकार अधिनियम ने उपभोक्ता के रूप में उपभोक्ता न्यायालय में प्रतिनिधित्व का अधिकार देकर हमें समर्थ बनाया है। 
आई.एस.आई और एगमार्क
  • जब उपभोक्ता कोई वस्तु या सेवाएँ खरीदता है, तो ये शब्दचिह्न (लोगो) और प्रमाणक चिह्न उन्हें अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित कराने में मदद करते हैं।
  • ऐसे संगठन जो कि अनुवीक्षण तथा प्रमाणपत्रों को जारी करते हैं, उत्पादकों को उनके द्वारा श्रेष्ठ गुणवत्ता पालन करने की स्थिति में शब्दचिह्न (लोगो को) प्रयोग करने की अनुमति देते हैं।
  • यद्यपि ये संगठन बहुत से उत्पादों के लिए गुणवत्ता का मानदंड विकसित करते हैं, लेकिन सभी उत्पादकों का इन मानदण्डों का पालन करना जरूरी नहीं होता।
  • फिर भी, कुछ उत्पाद जो उपभोक्ता की सुरक्षा और स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं या जिनका उपयोग बड़े पैमाने पर होता है, जैसे कि, एल. पी. जीसिलिंडर्स, खाद्य रंग एवं उसमें प्रयुक्त सामग्री, सीमेंट, बोतलबंद पेयजल आदि।
  • इनके उत्पादन के लिए यह अनिवार्य होता है कि उत्पादक इन संगठनों से प्रमाण प्राप्त करें।

जागरूक उपभोक्ता बनने के लिए आवश्यक बातें

  • जब हम विभिन्न वस्तुएँ और सेवाएँ खरीदते वक्त, उपभोक्ता के रूप में अपने अधिकारों के प्रति सचेत होंगे, तब हम अच्छे और बुरे में फर्क करने तथा श्रेष्ठ चुनाव करने में सक्षम होंगे।
  • एक जागरूक उपभोक्ता बनने के लिए निपुणता और ज्ञान प्राप्त करने की जरूरत होती है। कोपरा (COPRA) अधिनियम ने केंद्र और राज्य सरकारों में उपभोक्ता मामले के अलग विभागों को स्थापित करने में मुख्य भूमिका अदा की है।
उपभोक्ता आंदोलन को आगे बढ़ाने के संबंध में
  • 24 दिसंबर को भारत में राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। 1986 में इसी दिन भारतीय संसद ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम पारित किया था। भारत उन देशों में से एक है, जहाँ उपभोक्ता संबंधित समस्याओं के निवारण के लिए विशिष्ट न्यायालय हैं।
  • भारत में उपभोक्ता आंदोलन ने संगठित समूहों की संख्या और उनकी कार्य विधियों के मामले में कुछ तरक्की की है। आज देश में 700 से अधिक उपभोक्ता संगठन हैं, जिनमें से केवल 20-25 ही अपने कार्यों के लिए पूर्ण संगठित और मान्यता प्राप्त हैं।
  • फिर भी, उपभोक्ता निवारण प्रक्रिया जटिल खर्चीली और समय साध्य साबित हो रही है। कई बार उपभोक्ताओं को वकीलों का सहारा लेना पड़ता है। ये मुकदमें अदालती कार्यवाहियों में शामिल होने और आगे बढ़ने आदि में काफी समय लेते हैं।
  • अधिकांश खरीददारियों के समय रसीद नहीं दी जाती हैं, ऐसी स्थिति में प्रमाण जुटाना आसान नहीं होता है। इसके अलावा बाज़ार में अधिकांश खरीददारियाँ छोटे फुटकर दुकानों से होती हैं।
  • दोषयुक्त उत्पादों से पीड़ित उपभोक्ताओं की क्षतिपूर्ति के मुद्दे पर मौजूदा कानून भी बहुत स्पष्ट नहीं है। कोपरा के अधिनियम के 20 वर्ष बाद भी भारत में उपभोक्ता ज्ञान बहुत धीरे-धीरे फैल रहा है।
  • श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए कानूनों के लागू होने के बावजूद, खास तौर से असंगठित क्षेत्र में ये कमजोर हैं। इस प्रकार, बाजारों के कार्य करने के लिए नियमों और विनियमों का प्रायः पालन नहीं होता। 
  • फिर भी, उपभोक्ताओं को अपनी भूमिका और अपना महत्त्व समझने की जरूरत है। यह अक्सर कहा जाता है कि उपभोक्ताओं की सक्रिय भागीदारी से ही उपभोक्ता आंदोलन प्रभावी हो सकता है। इसके लिए स्वैच्छिक प्रयास और सबकी साझेदारी से युक्त संघर्ष की जरूरत है।

बाज़ार में उपभोक्ता

  • बाजार में हमारी भागीदारी उत्पादक और उपभोक्ता दोनों रूपों में होती है। वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादक के रूप में, हम पहले वर्णित कृषि, उद्योग या सेवा जैसे क्षेत्रों में कार्यरत हो सकते हैं।
  • उपभोक्ताओं की भागीदारी बाजार में तब होती है, जब वे अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं या सेवाओं को खरीदते हैं। उपभोक्ता के रूप में लोगों द्वारा उपभोग किए जानेवाली ये अंतिम वस्तुएँ होती हैं।
  • हमने विकास को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी नियमों और नियंत्रणों या इसके लिए उठाये गए कदमों की आवश्यकता का वर्णन किया है।
  • इनका महत्त्व असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सुरक्षा के लिए उसी तरह हो सकता है, जिस तरह साहूकारों द्वारा लगाए जाने वाले उच्च ब्याज दर से लोगों को बचाने के लिए नियमों और नियंत्रणों की जरूरत होती है। इसी प्रकार से पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नियमों एवं विनियमों की आवश्यकता है।
  • सामयिक ऋण के कारण वे उत्पादक को उत्पाद निम्न दर पर बेचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। वे स्वप्ना जैसी महिला को ऋण चुकाने के लिए अपनी जमीन बेचने को विवश कर सकते हैं।
  • इसी प्रकार असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले बहुत से लोगों को निम्न वेतन पर कार्य करना पड़ता है और उन परिस्थितियों को झेलना पड़ता है, जो न्यायोचित नहीं होती हैं और प्रायः उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी होती हैं।
  • ऐसे शोषण को रोकने के लिए और उनकी सुरक्षा हेतु हमने नियमों एवं विनियमों की बात की है। ऐसी कई संस्थाएँ हैं जिन्होनें यह सुनिश्चित करने के लिए लम्बा संघर्ष किया है कि इन नियमों का अनुपालन हो ।
  • बाज़ार में भी उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए नियम एवं विनियमों की आवश्यकता होती है क्योंकि अकेला उपभोक्ता प्रायः स्वयं को कमजोर स्थिति में पाता है। 
  • खरीदी गयी वस्तु या सेवा के बारे में जब भी कोई शिकायत होती है, तो विक्रेता सारा उत्तरदायित्व क्रेता पर डालने का प्रयास करता है।
  • उपभोक्ता आंदोलन, जिसके बारे में हम आगे बात करेंगे, इस स्थिति को बदलने का एक प्रयास है। बाजार में शोषण कई रूपों में होता है। उदाहरणार्थ, कभी-कभी व्यापारी अनुचित व्यापार करने लग जाते हैं, जैसे दुकानदार उचित वजन से कम वजन तौलते हैं या व्यापारी उन शुल्कों को जोड़ देते हैं, जिनका वर्णन पहले न किया गया हो या मिलावटी / दोषपूर्ण वस्तुएँ बेची जाती हैं।
  • जब उत्पादक थोड़े और शक्तिशाली होते हैं और उपभोक्ता कम मात्रा में खरीददारी करते हैं और बिखरे हुए होते हैं, तो बाज़ार उचित तरीके से कार्य नहीं करता है।
  • विशेष रूप से यह स्थिति तब होती है, जब इन वस्तुओं का उत्पादन बड़ी कंपनियाँ कर रही हों। अधिक पूँजीवाली, शक्तिशाली और समृद्ध कंपनियाँ विभिन्न प्रकार से चालाकीपूर्वक बाजार को प्रभावित कर सकती हैं।
  • उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए वे समय-समय पर मीडिया और अन्य स्रोतों से गलत सूचना देते हैं। उदाहरण के लिए, एक कंपनी ने यह दावा करते हुए कि माता के दूध से हमारा उत्पाद बेहतर है, सर्वाधिक वैज्ञानिक उत्पाद के रूप में शिशुओं के लिए दूध का पाउडर पूरे विश्व में कई वर्षों तक बेचा।
  • कई वर्षों के लगातार संघर्ष के बाद कंपनी को यह स्वीकार करना पड़ा कि वह झूठे दावे करती आ रही थी। इसी तरह, सिगरेट उत्पादक कंपनियों से यह बात मनवाने के लिए कि उनका उत्पाद कैंसर का कारण हो सकता है, न्यायालय में लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। अतः उपभोक्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नियम और विनियमों की आवश्यकता है।
उपभोक्ता आंदोलन
  • उपभोक्ता आंदोलन का प्रारंभ उपभोक्ताओं के असंतोष के कारण हुआ, क्योंकि विक्रेता कई अनुचित व्यावसायिक व्यवहारों में शामिल होते थे। बाज़ार में उपभोक्ता को शोषण से बचाने के लिए कोई कानूनी व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी।
  • लम्बे समय तक, जब एक उपभोक्ता एक विशेष ब्रांड उत्पाद या दुकान से संतुष्ट नहीं होता था तोसामान्यतः वह उस ब्रांड उत्पाद को खरीदना बंद कर देता था या उस दुकान से खरीददारी करना बंद कर देता था।
  • यह उपभोक्ता की जिम्मेदारी है कि एक वस्तु या सेवा को खरीदते वक्त वह सावधानी बरते । संस्थाओं को लोगों में जागरुकता लाने में, भारत और पूरे विश्व में कई वर्ष लग गए। इसने वस्तुओं और सेवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी विक्रेताओं पर भी डाल दिया।
  • भारत में 'सामाजिक बल' के रूप में उपभोक्ता आंदोलन का जन्म, अनैतिक और अनुचित व्यवसाय कार्यों से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता के साथ हुआ।
  • अत्यधिक खाद्य कमी, जमाखोरी, कालाबाजारी, खाद्य पदार्थों एवं खाद्य तेल में मिलावट की वजह से 1960 के दशक में व्यवस्थित रूप में उपभोक्ता आंदोलन का उदय हुआ।
  • 1970 के दशक तक उपभोक्ता संस्थाएँ वृहत् स्तर पर उपभोक्ता अधिकार से संबंधित आलेखों के लेखन और प्रदर्शनी का आयोजन का कार्य करने लगीं थीं।
  • उन्होंने सड़क यात्री परिवहन में अत्यधिक भीड़-भाड़ और राशन दुकानों में होने वाले अनुचित कार्यों पर नजर रखने के लिए उपभोक्ता दल बनाया। हाल में, भारत में उपभोक्ता दलों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है।
  • इन सभी प्रयासों के परिणामस्वरूप, यह आंदोलन वृहत् स्तर पर उपभोक्ताओं के हितों के खिलाफ और अनुचित व्यवसाय शैली को सुधारने के लिए व्यावसायिक कंपनियों और सरकार दोनों पर दबाव डालने में सफल हुआ।
  • 1986 में भारत सरकार द्वारा एक बड़ा कदम उठाया गया। यह उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम, 1986 कानून का बनना था, जो COPRA के नाम से प्रसिद्ध है।
उपभोक्ता इंटरनेशनल
  • 1985 में संयुक्त राष्ट्र ने उपभोक्ता सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र के दिशा-निर्देशों को अपनाया।
  • यह उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए उपयुक्त तरीके अपनाने राष्ट्रों के लिए और ऐसा करने के लिए अपनी सरकारों को मजबूर करने हेतु 'उपभोक्ता की वकालत करने वाले समूह' के लिए, एक हथियार था।
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह उपभोक्ता आंदोलन का आधार बना। आज उपभोक्ता इंटरनेशनल 100 से भी अधिक देशों के 240 संस्थाओं का एक संरक्षक संस्था बन गया है।
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Thu, 30 Nov 2023 07:14:33 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | वैश्वीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था https://m.jaankarirakho.com/514 https://m.jaankarirakho.com/514 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | वैश्वीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था
  • आज भारतीय विश्व की लगभग सभी शीर्ष कंपनियों द्वारा निर्मित वस्तुएं खरीद रहे हैं। अनेक दूसरी वस्तुओं के ब्रांडों में भी इसी प्रकार की तीव्र वृद्धि देखी जा सकती है-
    • कमीज़ों से लेकर टेलीविज़नों और प्रसंस्करित फलों के रस तक | हमारे बाज़ारों में वस्तुओं के बहुव्यापी विकल्प अपेक्षाकृत नवीन परिघटना है।
    • दो दशक पहले भी भारत के बाजारों में वस्तुओं की ऐसी विविधता नहीं मिलेगी। कुछ ही वर्षों में हमारा बाज़ार पूर्णत: परिवर्तित हो गया है।

न्यायसंगत वैश्वीकरण के लिए संघर्ष

  • उपर्युक्त प्रमाण यह संकेत करते हैं कि वैश्वीकरण सभी के लिए लाभप्रद नहीं रहा है। शिक्षित, कुशल और संपन्न लोगों ने वैश्वीकरण से मिले नये अवसरों का सर्वोत्तम उपयोग किया है। दूसरी ओर, अनेक लोगों को लाभ में हिस्सा नहीं मिला है।
  • न्यायसंगत वैश्वीकरण सभी के लिए अवसर प्रदान करेगा और यह सुनिश्चित भी करेगा कि वैश्वीकरण के लाभों में सबकी बेहतर हिस्सेदारी हो ।
  • सरकार इसे संभव बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसकी नीतियों को केवल धनी और प्रभावशाली लोगों को ही नहीं बल्कि देश के सभी लोगों के हितों का संरक्षण करना चाहिए। सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि श्रमिक कानूनों का उचित कार्यान्वयन हो और श्रमिकों को अपने अधिकार मिले।
  • यह छोटे उत्पादकों को कार्य-निष्पादन में सुधार के लिए उस समय तक मदद कर सकती है, जब तक वे प्रतिस्पर्धा के लिए सक्षम न हो जायें।
  • यदि जरूरी हुआ तो सरकार व्यापार और निवेश अवरोधकों का उपयोग कर सकती है। यह 'न्यायसंगत नियमों के लिए विश्व व्यापार संगठन से समझौते भी कर सकती है।
  • विश्व व्यापार संगठन में विकसित देशों के वर्चस्व के विरुद्ध समान हितों वाले विकासशील देशों को मिलकर लड़ना होगा।
  • विगत कुछ वर्षों में, बड़े अभियानों और जनसंगठनों के प्रतिनिधियों ने विश्व व्यापार संगठन के व्यापार और निवेश से संबंधित महत्त्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित किया है। यह प्रदर्शित करता है कि जनता भी न्यायसंगत वैश्वीकरण के संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ)
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, जिसे संक्षेप में आईएमएफ कहा जाता है, 1944 में ब्रिटेन वुड्स (यू.एस.ए) में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के मौद्रिक और वित्तीय प्रतिनिधिमंडलों में चर्चा के परिणामस्वरूप स्थापित जुड़वा संस्थानों में से एक है।
  • 1 मार्च, 1947 को इसकी स्थापना, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों के इतिहास में विशेष रूप से मौद्रिक क्षेत्र में एक महान मील का पत्थर है। आईएमएफ और इसकी सदस्यता, आईएमएफ के निधि सदस्यों की सदस्यता से मिलकर, जो अपने संबंधित कोटा को सौंपा गया है। 1982 में इसके 146 सदस्य थे तथा वर्तमान में 190 सदस्य देश है। जिनकी कुल सदस्यता पूँजी 60 अरब डॉलर थी।
  • सदस्य देश के 25 प्रतिशत कोटा या आधिकारिक सोने की होल्डिंग्स का 10 प्रतिशत, जो भी कम होता है, सोने में देय होता है, बाकी कोटा सदस्य की राष्ट्रीय मुद्रा के अनुसार भुगतान किया जाता है। हाल ही में सोने के भुगतान की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के लेखों के तहत एक सदस्य देश किसी भी 12 महीने की अवधि में अपने क्वाटा के एक चौथाई से अधिक नहीं विदेशी मुद्रा खरीद सकता है।
  • किसी सदस्य देश द्वारा विदेशी मुद्राओं की कुल संपत्तियाँ हालांकि अपने कोटा का 200 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए जिसका अर्थ है कि आईएमएफ की अल्पकालिक सहायता के लिए ऊपरी सीमा देश के कोटा के बराबर और उसके स्वर्ण योगदान के बराबर है।
  • 2 जनवरी, 1970 से विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) की एक प्रणाली स्थापित की गई थी। एसडीआर सोने और आरक्षित मुद्राओं, जैसे पाउंड और डॉलर के पूरक के लिए तैयार किए गए हैं एसडीआर पूरी तरह से कागज के एक नए रूप को प्रतिनिधित्व करते हैं। जो सोने या अमेरिकी डॉलर की तरह काम करेगा और इसलिए उन्हें पेपर गोल्ड कहा जाता है।

आईएमएफ के मुख्य कार्य

एक्सचेंज के विनियम दर

  • फंड में शामिल होने पर प्रत्येक सदस्य देश को सोने या अमेरिकी डॉलर (अब एसडीआर के संदर्भ में) के अनुसार अपनी मुद्रा के बराबर मूल्य घोषित करना होगा, इस समता को बनाए रखना आवश्यक है। हालांकि आईएमएफ की अनुमति के बिना यह 10 प्रतिशत तक बदल सकता है।
  • 10 प्रतिशत तक अधिक बदलाव के लिए आईएमएफ से परामर्श करना होगा। जिसे 72 घंटों के भीतर प्रस्तावित परिवर्तन के लिए स्वीकृति या इनकार देना होगा।
  • 20 प्रतिशत से अधिक के बदलाव आईएमएफ की सहमति से और केवल भुगतान के संतुलन में 'मौलिक असंतोष' को सुधारने के लिए किया जा सकता है। सदस्य देशों को आंतरिक नीतियों को संतुलन बहाल करने के लिए आईएमएफ द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाता है।
भुगतान की कमी का मीटिंग शेष के लिए सहायता
  • जब एक देश को चालू खाते पर भुगतान के संतुलन में कमी का सामना करना पड़ता है, तो वह आईएमएफ से अपनी मुद्रा के बदले, उस मुद्रा को प्राप्त कर सकता है जिसे इसे अपने घाटे को चुकाना होगा हालांकि उस राशि की एक सीमा है जो इसे प्राप्त कर सकती है।
दुर्लभ मुद्राओं को राशन करना
  • सदस्य देशों और आईएमएफ द्वारा बड़ी माँग वाले मुद्राएँ उन सभी माँगों को पूरा नहीं कर सकती है। जिन्हें दुर्लभ मुद्राओं के रूप में घषित किया गया है और उन देशों में आईएमएफ द्वारा राशन किया गया है। जिनके लिए उन्हें जरूरत है।
  • आईएमएफ ऐसे 'दुर्लभ' मुद्राओं की आपूर्ति को उधार लेने या सोने के खिलाफ उन्हें खरीद कर बढ़ा सकता है। सदस्य देशों को ऐसी दुर्लभ मुद्राओं की नकदी में विनिमय प्रतिबंध लागू करने की अनुमति है।
एक्सचेंज प्रतिबंधों का उन्मूलन
  • आईएमएफ को यह देखना होगा कि सदस्य देश मौजूदा लेनदेन पर विनियम प्रतिबंध लागू नहीं करते हैं। युद्ध के बाद मौजूद असामान्य स्थितियों को देखते हुए आईएमएफने तीन वर्षों के दौरान संक्रमण की अवधि की अनुमति दी जिसके दौरान सदस्यों को इस तरह के प्रतिबंध रह सकते थे।
  • अवधि खत्म हो गई है और कई देशों ने अपने एक्सचेंज प्रतिबंधों को कम किया है। हालांकि निकट भविष्य में उनकी पूरी तरह से हटाने की संभावना नहीं है। आईएमएफ द्वारा अग्रणी तंत्र आईएमएफ अपने सदस्य देशों को विभिन्न कार्यक्रमों के तहत मदद करता है। 
स्टैंड बाय व्यवस्था
  • आईएमएफ द्वारा उधार देने का सबसे व्यापक रूप से उपयोग किया जाने वाला तरीका स्टैंड-बाय व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत एक क्रेडिट किश्त जो देश के 100% सदस्य के कोटा के बराबर है, इसके लिए उधार देने के लिए उपलब्ध है।
  • एक सदस्य देश आईएमएफ से इस क्रेडिट किश्त से भुगतान कर सकता है। ताकि भुगतान संतुलन के संतुलन का पूरा किया जा सके।
  • संसाधनों को जारी किए जाने से पहले विशेष रूप से उच्चतर क्रेडिट सीमाओं में सरकारी व्यय और धन आपूर्ति लक्ष्य के संबंध में एक निश्चित नियमों को पूरा करना होगा। इस व्यवस्था के तहत किसी देश के उधार की सरकार भुगतान संतुलन को हल करने के लिए उपाय करेगी।
  • आमतौर पर स्टेंड-बाय व्यवस्थाएँ 12-18 महीनों की अवधि के लिए होती है। इस व्यवस्था के तहत ऋण का पुनर्भुगतान आईएएम से प्रत्येक आहरण के 3-5 वर्षों के भीतर किए जाते हैं
विस्तारित फंड सुविधा (ईएफएफ)
  • विस्तारित फंड सुविधा 1974 में विकासशील देशों की सहायता से स्टैंडबाई व्यवस्था (12- 18 महीनों) की तुलना में लंबी अवधि (3 साल तक) में सहायता के लिए बनाई गई थी। इसके अलावा, इस सुविधा में विकासशील देश अपने कोटा से अधिक उधार ले सकते हैं। इस सुविधा के तहत ली गई ऋण को 4-10 वर्षों की अवधि में वापस भुगतान किया जा सकता है।
  • विस्तारित फंड सुविधा के तहत चूंकि विकासशील देशों ने भुगतान की लंबी अवधि के संतुलन को पूरा करने के लिए उधार ले सकते हैं इस योजना के तहत उधार लेने की सुविधा पाने के लिए कठोर परिस्थितियाँ पूरी की जानी है।
  • इस कार्यक्रम के तहत एक देश के उधार को हर साल उपायों और नीतियों का एक विस्तृत विवरण दिया गया है जो कि भुगतान संतुलन के अपने संतुलन को हल करने के लिए अपनाया है।
  • आईएमएफ उधार लेने वाले देश द्वारा उठाए जाने वाले विशेष कदमों के संबंध में कथनों में संसाधनों को जारी करता है, इस विस्तारित निधि सुविधा पर टिप्पणी करते हुए थिरॉलल लिखते हैं कि परिस्थिति के बावजूद सुविधा भुगतान के संतुलन को देखने से जोर देने में एक महत्त्वपूर्ण और महत्त्वपूर्ण बदलाव का प्रतिनिधित्व करती हैं एक स्थिरता समस्या जो भुगतान के संतुलन को विकास पर एक मौलिक दीर्घकालिक बाधा के रूप में पहचानती है, जिसे कम समय में सुधार नहीं किया जा सकता है।
  • स्टैंड-बाय व्यवस्था और विस्तारित फंड सुविधा (ईएफआई) विकासशील देशों की भुगतान समस्याओं के संतुलन को पूरा करने के लिए आईएमएफ द्वारा वित्त सहायता के बहुत महत्त्वपूर्ण तरीके हैं।
  • हालांकि हाल के वर्षों में आईएमएफ द्वारा प्रदान की उत्पन्न होने वाली अपनी समस्या का निपटान करने के जाने वाली विशेष सुविधाएँ विकासशील देशों द्वारा भुगतान की शेष राशि से लिए बड़े पैमाने पर उपयोग की जा रही है।
    • महत्त्वपूर्ण विशेष सुविधाएँ है।
    • गरीबी न्यूनीकरण और विकास सुविधा (पीआरजीएफ)
    • पूरक रिजर्व सुविधा (एसआरएफ) और
    • आकस्मिक क्रेडिट लाइन (सीसीएल) 
  • गरीबी कम करना और विकास सुविधा (पीआरजीएफ) गरीबी की कमी के लिए कम आय (अर्थात् विकासशील) देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए इसे 1999 में स्थापित किया गया था।
  • आईएमएफ ने बढ़ी हुई संरचनात्मक समायोजन सुविधा (ईएसएएफ) नामक एक कार्यक्रम के तहत गरीब विकासशील देशों को वित्तीय सहायता प्रदान की ताकि वे संरचनात्मक समायोजन सुधार कर सकें।
  • 1999 में विकासशील देशों में गरीबी कम करने पर अधिक ध्यान देने के लिए महसूस किया गया था। इसलिए, 1999 में बढ़ी हुई संरचनात्मक समायोजन सुविधा क गरबी न्यूनीकरण और विकास सुविधा (पीआरजीएफ) ने बदल दिय था।
  • विश्व बैंक और अन्य विशेषज्ञों के सहयोग से एक गरीब देश द्वार तैयार गरीबी उन्मूलन रणनीति पेपर के आधार पर आईएमएफ द्वारा इस कार्यक्रम के अंतर्गत सहायता प्रदान की जाती है। इस कार्यक्रम के तहत आईएमएफ द्वारा दिए गए ऋणों पर ब्याज का शुल्क केवल 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष है। इसके अलावा, उधार लेने वाले देश 10 वर्षों की लंबी अवधि में इस कार्यक्रम के तहत लिया गया ऋण चुकाना कर सकते
पूरक रिजर्व सुविधा (एसआरएफ)
  • यह पूर्व एशिया और अन्य विकासशील देशों में वित्तीय संकट के जवाब में 1997 में स्थापित किया गया था। इस सुविधा मे तहत आईएमएफ उन देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है। जो अपने मुद्रासओं में अचानक बाजार के आश्वासन से उत्पन्न होने वाली भुगतान समस्याओं के असाधारण संतुलन का सामना कर रहे हैं ।
  • सामान्य कोटा सीमा के अधीन नहीं होने पर एसआरएफ के तहत सहायता बल्कि इसके बजाय देश की आवश्यकाताओं पर निर्भर करता है, इसके लिए ऋण और नीतियों को चुकाने की क्षमता को आत्मविश्वास बहाल करने के लिए उपयोग किया जाता हे ऋण लेने के 2.5 साल के भीतर पुनर्भुगतान करना होगा ।।
आकस्मिक क्रेडिट लाइन (सीसीएल)
  • यह सुविधा उन देशों के समस्या से निपटने के लिए 199 में स्थापित की गई थी। जो वित्तीय संकट की आशंका कर रहे हैं, जो भुगतान के संतुलन के पूँजी खाते पर पूँजी प्रवाह का कारण बनती हैं।
  • यह पूँजी खाते पर आसन्न संकट से उबरने के लिए देश को सहायता प्रदान करने के लिए एक एहतियाती उपाय था। यह ध्यान दिया जा सकता है कि इस सुविधा के अंतर्गत वित्तीय सहायता केवल तब ही तभी भरी गई जब संकट वास्तव में हुआ। लिया ऋण के लिए चुकौती अवधि भी 205 साल की होती है।
विशेष तेल सुविधा
  • 1973 के तेल संकट से अरब तेल उत्पादक देशों ने छुआ, विकसित और विकसित देशों के लिए भुगतान की समस्या का सबसे गंभीर संतुलन बनाया।
  • विकासशील देशों में यदि वित्त की आवयकता में विकासशील देशों द्वारा इन शतों की पूर्ति के संबंध में प्रतिबद्धता आगामी नहीं थी। तो काई वित्तीय सहायता प्रदान नहीं की गई थी।
  • वास्तव में पूँजी बाजार उदारीकरण कई देशों के लिए विनाशकारी साबित हुआ क्योंकि वे पूँजी प्रवाह और बहिर्वाह की भारी अस्थिरता से निपटने में सक्षम नहीं थे। समयपूर्व पूँजी बाजार उदारीकरण की इस नीति ने वास्तव में नब्बे के दशक के अंत में गंभीर पूर्वी एशियाई संकट का परिणाम दिया।
  • निधि में 1997 पूर्वी एशियाई संकट से निस्संदेह हिलाकर रख दिया गया था, हालांकि यह चालू खाता घाटे का एक विशाल निर्माण हुआ था और पूँजी संकट से पहले ही दक्षिण-पूर्वी एशिया से बाहर निकलने लग गई थी।
  • बाजार - आधारित मूल्य निर्धारण के संबंध में जिसमें भोजन और ईधन सब्सिडी को खत्म करना शामिल है। गरीब विकासशील देशों को परेशानी में भी उगल दिया। विकासशील देशों के लोगों द्वारा सब्सिडी का उन्मूलन किया गया है। अभी तक भारत सरकार में भी इस संबंध में बहुत कुछ सफल नहीं हुआ है।
  • 1998 में जब इंडोनेशिया में आईएमएफ के उदाहरणों पर भोजन और ईधन सब्सिडी वापस ले ली गई थी। तब दंगों की शुरुआत हुई।
  • व्यापार उदारीकरण की नीति गरीबी और बेरोजगारी को कम करने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में पूरी तरह सफल नहीं रही हैं।
  • विश्व व्यापार संगठन के प्रायोजित मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों में व्यापार उदारीकरण के मुद्दे पर गहराई से चर्चा की जा रही है।
  • जहाँ यूरोपीय संघ (यूरोपीय संघ) के संयुक्त राष्ट्र और संयुक्त राज्य अमेरिका सब्सिडी को खत्म करने और पर्याप्त शुल्क को कम करने के लिए अनिच्छुक हैं, जो वे अपने कृषि और विनिर्माण उद्योगों की रक्षा के लिए प्रदान कर रहे हैं।
  • 2 परिणाम के रूप में विकासशील देशों के उत्पादों के लिए बाजार पहुँच काफी सीमित है। इसके अलावा व्यापार उदारीकरण का परिणाम (यानी, भारी शुल्क में कमी और मात्रात्मक प्रतिबंधों को हटाने) विकासशील देशों द्वारा उनके में बेरोजगारी में वृद्धि हुई है।
  • आईएमएफ की विचारधारा मानती है कि नई और उत्पादक नौकरियाँ पैदा हो जाएँगी क्योंकि संरक्षक दीवारों के पीछे बनाए गए पुराने अक्षम नौकरियों का सफाया हो गया है। लेकिन यह बस मामला नहीं है ।
  • समें नई नौकरियाँ बनाने और विकास के देशों में पूँजी और उद्यमिता की आवश्यकता होती है। उनमें अक्सर कमी होती है, कई देशों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मामलों को बदतर बना दिया है। क्योंकि इसके तपस्या कार्यक्रमों में अक्सर ऐसी उच्च ब्याज दरों में 20 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि होती है।
विश्व बैंक
  • IBRD (International Bank for Reconstruction and Development) को अन्य सहयोगी संस्थाओं के साथ मिलाकर विश्व बैंक के नाम से जाना जाता है वर्तमान में विश्व बैंक निम्नलिखित संस्थाओं का समूह है :-
    • अन्तर्राष्ट्रीय विकास एवं पुनर्निर्माण बैंक (IBRD) - 188 सदस्य
    • अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ (IDA) 173 सदस्य
    • अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम (IFC) 184 सदस्य
    • बहुपक्षीय निवेश गारण्टी संस्था (MIGA)- 180 सदस्य
    • निवेश विवादों को सुलझाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्र (ICSID) - 150 सदस्य (भारत इसका सदस्य नहीं है )
  • भारत ICSID को छोड़कर अन्य सभी का सदस्य है। द्वितीय विश्वयुद्ध ने न केवल बहुमुखी व्यापार व्यवस्था को ही असन्तुलित कर दिया था, बल्कि अनेक राष्ट्रों में जीवन एवं सम्पत्ति को भी को भी अत्यधिक हानि पहुँचाई थी। युद्ध में सक्रिय भाग लेने वाले देशों (जैसे- जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड आदि) की अर्थव्यवस्था तो बुरी तरह से ध्वस्त हो गई थी।
  • अतः अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व्यवस्था के लिए यह आवश्यक था कि इन युद्ध प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण पर ध्यान दिया जाए। इसके साथ-साथ यह भी सोचा गया कि अल्पविकसित देशों का भी पूर्व योजनानुसार विकास किया जाए।
  • इस विचार के फलस्वरूप ही 'पुनर्निर्माण एवं विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बैंक' (विश्व बैंक) की स्थापना दिसम्बर 1945 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ-साथ हुई। इसने जून 1946 में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया था। विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एक-दूसरे की पूरक संस्थाएँ हैं।
विश्व बैंक के उद्देश्य
  • विश्व बैंक की स्थापना के समय सम्पन्न समझौते की धारा प्रथम में इसके निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित हैं-
  • सदस्य राष्ट्रों के आर्थिक पुनर्निर्माण एवं विकास हेतु उन्हें दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराना । विश्व बैंक द्वारा यह पूँजी निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्रदान की जाती है-
    1. युद्ध - जर्जित अर्थव्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण हेतु (यह उद्देश्य प्राप्त कर लिया गया है) । 
    2. शान्तिकालीन आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पादक शक्तियों को पुनः वित्त उपलब्ध कराना।
    3. अल्पविकसित राष्ट्रों में साधनों एवं उत्पादन की सुविधाएँ विकसित करना ।
  • भुगतान सन्तुलन की साम्यता एवं अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सन्तुलित विकास हेतु दीर्घकालीन पूँजी विनियोग को प्रोत्साहित करना जिससे कि सदस्य राष्ट्रों की उत्पादकता में वृद्धि हो फलतः मानव शक्ति की स्थिति एवं जीवन स्तर और अधिक उन्नत हो सके।
  • सदस्य राष्ट्रों में पूँजी निवेश को निम्नलिखित माध्यमों से प्रोत्साहित करना -
    1. निजी ऋणों अथवा पूँजी निवेश के लिए गारन्टी प्रदान करना । 
    2. निजी पूँजी निवेश को गारन्टी दिए जाने के फलस्वरूप भी, यदि निजी पूँजी उपलब्ध न हो पाए, तो स्वयं के साधनों से उपयुक्त शर्तों पर उत्पादक कार्यों हेतु ऋण उपलब्ध कराना।
  • लघु एवं वृहत् इकाइयों तथा आवश्यक परियोजनाओं के कार्यान्वयन हेतु ऋण प्रदान करना अथवा ऐसे ऋणों के लिए गारन्टी देना ।
  • युद्ध - जर्जित अर्थव्यवस्थाओं को शान्तिकालीन अर्थव्यवस्था के रूप में परिवर्तित करने हेतु उपयुक्त कार्यक्रमों को लागू करना । 
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष बनाम विश्व बैंक
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक दोनों ही ब्रेटनवुड्स सम्मेलन के निर्णयों की व्यावहारिक परिणति हैं। दोनों ही के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग की भावना को बल मिला है ।
  • फिर भी दोनों संस्थाओं द्वारा प्रदान की जाने वाली आर्थिक सहायता में मुख्य अन्तर यह हैं कि विश्व बैंक द्वारा सदस्य राष्ट्रों में संतुलित आर्थिक विकास प्रोत्साहित करने हेतु दीर्घकालीन ऋण उपलब्ध कराया जाता है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा सदस्य राष्ट्रों के भुगतान सन्तुलन में असाम्य को दूर करने के लिए अल्पकालीन ऋण उपलब्ध कराए जाते हैं।
  • इस प्रकार दोनों ही संस्थाओं के कार्य एक-दूसरे के पूरक हैं। इसी तर्क के आधार पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉर्ज शुल्टज (Gerore Schultz), ने जनवरी 1995 में अमरीकी इकोनॉमिक एसोसिएशन के सम्मेलन में प्ड तथा विश्व बैंक के विलय का सुझाव दिया था।
विश्व बैंक की सदस्यता एवं मताधिकार
  • सामान्यतः यदि कोई राष्ट्र, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सदस्यता ग्रहण कर लेता है, तो वह स्वतः ही विश्व बैंक का भी सदस्य बन जाता है। किसी भी सदस्य देश द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सदस्यता का परित्याग करने पर उसकी बैंक की सदस्यता भी समाप्त हो जाती है।
  • यह भी व्यवस्था है कि कोष के 75 प्रतिशत सदस्यों की सहमति से कोई भी सदस्य राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सदस्यता त्यागने पर भी बैंक का सदस्य बना रह सकता है। कोई भी सदस्य राष्ट्र, निम्नलिखित आधार पर भी बैंक की सदस्यता से वंचित किया जा सकता है-
    • कोई भी सदस्य देश सूचना मात्र देकर बैंक की सदस्यता का परित्याग कर सकता है, यहाँ यह दृष्टव्य है कि सदस्यता का त्याग करने पर भी वह अपने ऋणों के पुनः भुगतान के लिए पूर्णरूपेण उत्तरदायी रहेगा।
    • किसी भी सदस्य राष्ट्र द्वारा बैंक के नियमों एवं दायित्वों के प्रतिकूल कार्य करने पर गवर्नर मण्डल के प्रस्ताव द्वारा उसे हटाया जा सकता है। 
  • वर्तमान में विश्व बैंक की कुल सदस्य संख्या 190 है। बैंक की पूँजी सदस्य राष्ट्रों के अंश के अनुरूप ही बैंक के सदस्यों के मताधिकार का निर्धारण किया जाता है प्रत्येक एक अंश पर एक अतिरिक्त मताधिकार सदस्य राष्ट्र को आवंटित किया जाता है। बैंक के कार्य संचालन हेतु एक अध्यक्ष का चयन किया जाता है। बैंक का मुख्यालय वाशिंगटन डी. सी. में है।
  • विश्व बैंक (IBRD) की दो प्रमुख सहायक संस्थाएँ अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ IDA (जो 24 सितम्बर, 1960 को अस्तित्व में आया) तथा अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम - IFC (जिसकी स्थापना जुलाई 1956 में की गई थी ) हैं।
  • ये संस्थाएँ विश्व बैंक के अधीन कार्य करती हैं। मीगा (MIGA) भी विश्व बैंक समूह की ही एक सहयोगी संस्था है। बैंक के समस्त अधिकार प्रशासक मण्डल (Board of Governors) में निहित होते है।
विश्व बैंक के कार्य
  • वर्तमान में विश्व बैंक का प्रधान कार्य, सदस्य राष्ट्रों, विशेषतः अल्पविकसित राष्ट्रों को विकास हेतु आवश्यकतानुसार ऋण उपलब्ध कराना है। बैंक द्वारा ऋण सामान्यतः दीर्घकालीन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए दिए जाते हैं। इनकी अवधि 5 से 20 वर्ष तक होती है। बैंक की ऋण प्रणाली को निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है-
    • बैंक अपनी प्रदत्त पूँजी के बीस प्रतिशत तक अपने कोष से सदस्य देशों को ऋण दे सकता है।
    • बैंक सदस्य राष्ट्रों के निजी विनियोजकों को अपनी व्यक्तिगत गारन्टी पर भी ऋण उपलब्ध कराता है। बैंक द्वारा ऐसे ऋणों के लिए गारन्टी तभी प्रदान की जाती है, जबकि वह पहले उन देशों से स्वीकृति प्राप्त कर ले जिनके बाजारों से कोष एकत्रित किया जाएगा तथा जिस देश की मुद्रा में वह ऋण दिया जाएगा। इस प्रकार से प्रदत्त गारन्टी के लिए बैंक सदस्य राष्ट्र से 1% से 2% तक सेवा शुल्क वसूल करता है।
    • ऋण की मात्रा, ब्याज की दर व अन्य सम्बन्धित शर्तों का निर्धारण बैंक द्वारा किया जाता है।
    • सामान्यतः विश्व बैंक के ऋण किसी परियोजना विशेष के लिए ही स्वीकृत किए जाते हैं।
    • ऋण प्राप्तकर्ता राष्ट्र द्वारा ऋण का पुनर्भुगतान स्वर्ण में अथवा उसी मुद्रा में करना होता है जिसमें ऋण प्राप्त किया गया है।
  • पुनर्निर्माण एवं विकास हेतु ऋण प्रदान करने के अतिरिक्त विश्व बैंक द्वारा सदस्य राष्ट्रों को विभिन्न प्रकार की तकनीकी सेवाएं भी उपलब्ध कराई जाती है।
अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ (International Development Association- IDA)
  • अन्तर्राष्ट्रीय विकास संघ विश्व बैंक की एक अनुषंगी संस्था है। इसे विश्व बैंक की रियायती ऋण देने वाली खिड़की अर्थात् 'उदार ऋण खिड़की' (Soft Loan Window) भी कहते हैं। इसकी स्थापना 24 सितम्बर, 1960 को की गई थी। इसकी सदस्यता बैंक के सभी सदस्यों के लिए खुली हुई है ।
  • वर्तमान में इसकी सदस्य संख्या 173 हो गई है। IDA से प्राप्त ऋणों पर कोई ब्याज नहीं होता है तथा यह ऋण विश्व के निर्धनतम राष्ट्रों को ही उपलब्ध कराए जाते है। इस संघ का कार्य संचालन उन्हीं व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, जो विश्व बैंक का संचालन करते है।
अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम (International Finance Corporation IFCI)
  • विश्व बैंक ने अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम की स्थापना जुलाई 1956 में की थी। यह निगम विकासशील देशों में निजी उद्योग के लिए बिना सरकारी गारन्टी के धन की व्यवस्था करता है तथा अतिरिक्त पूँजी विनियोग द्वारा उन्हें प्रोत्साहित करता है अर्थात् इसका मुख्य कार्य विकासशील देशों के निजी क्षेत्र को समर्थन प्रदान करना है।
उद्देश्य:
  1. निजी क्षेत्र को ऋण उपलब्ध कराना।
  2. पूँजी तथा प्रबन्ध में समन्वय स्थापित करना ।
  3. पूँजी प्रधान देशों को अभाव वाले देशों में पूँजी लगाने को प्रोत्साहित करना ।
बहुपक्षीय निवेश गारंटी एजेंसी (MIGA)
  • MIGA विश्व बैंक समूह की संस्था है जिसके 180 देश सदस्य हैं। MIGA विकासशील देशों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को प्रोत्साहित करती है ताकि वहाँ आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ावा मिले, गरीबी कम हो और लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो ।
  • व्यापार रैंकिंग में आसानी क्या है?
  • वर्ल्ड बैंक हर साल ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग जारी करता है। देशों को रैंकिंग देने के लिए विभिन्न पैरामीटर हैं। यह देखा जाता है कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की रैंकिंग निर्धारित करने के लिए किसी देश में व्यवसाय शुरू करना कितना आसान है।
  • इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि निर्माण परमिट प्रक्रिया क्या है, संपत्ति पंजीकरण और बिजली कनेक्शन प्राप्त करना कितना आसान है। यह भी देखा जाता है कि एक कंपनी के लिए करों और विदेशी व्यापार का भुगतान करना कितना आसान है।
  • इस वर्ष भारत के प्रदर्शन की आवश्यक विशेषताएं हैं:
  • भारत की रैंकिंग में मूल रूप से चार मापदंडों में सुधार हुआ:
    1. एक व्यवसाय शुरू करना
    2. निर्माण परमिट से निपटना
    3. सीमाओं के पार व्यापार
    4. Insolvency
  • विश्व बैंक अब दिल्ली और मुंबई के अलावा कोलकाता और बेंगलुरु को भी शामिल करेगा, ताकि व्यापार रिपोर्ट को आसानी से तैयार किया जा सके, ताकि देश के कारोबारी माहौल की समग्र तस्वीर उपलब्ध कराई जा सके। रिपोर्ट में 10 अलग-अलग मापदंडों पर देशों के प्रदर्शन को मापा गया है-
    • कारोबार शुरू करना,
    • निर्माण अनुमति के साथ लेनदेन,
    • बिजली की उपलब्धता,
    • संपत्ति पंजीकरण,
    • क्रेडिट उपलब्धता,
    • अल्पसंख्यक निवेशकों की सुरक्षा,
    • अदा किए जाने वाले कर,
    • सीमाओं के पार व्यापार,
    • अनुबंध प्रवर्तन, और
    • दिवालिएपन का समाधान करना । 
  • इस बार दो और मापदंडों पर विचार किया गया, श्रमिकों को नियुक्त करना और सरकार के साथ अनुबंध करना।
दोहरा करारोपण परिवर्जन समझौता (Double Taxation Avoidance Agreement) 
  • एक ही घोषित आय, सम्पत्ति या वित्तीय लेन-देन पर दो या दो से अधिक अधिकारिता - क्षेत्र द्वारा कर लगाया जाना दोहरा करारोपण (Double Taxation) कहलाता है।
  • ऐसी स्थिति में करदाताओं को उस देश में भी अपनी आय, वित्तीय लेन-देन या परिसम्पत्ति पर कर देना पड़ता है, जहाँ पर इसे अर्जित किया गया और उस देश में भी, जहाँ का वह नागरिक है। इसी से बचने के लिए दो देश दोहरे करारोपण से परिहार समझौता करते है।
  • इस समझौते के अंतर्गत कुछ मामलों में करदाता को अपने देश में कर अदा करना पड़ता है और जिस देश में वह आय का सृजन करता है, वहाँ उसे कर अदायगी से छूट दी जाती है। 
  • अन्य मामलों में जिस देश में आय का सृजन होता है, वहीं पर स्रोत पर कर की कटौती के रूप में कर की वसूली की जाती है और करदाता को अपने देश में क्षतिपूर्ति विदेशी टैक्स-क्रेडिट प्राप्त होता है।
  • यह प्रतिबिंबित करता है कि कर अदा किया जा चुका है। लेकिन, इसके लिए करदाता को विदेश में खुद को अप्रवासी घोषित करना पड़ता है।
  • इस समझौते का दूसरा पहलू यह है कि दो करारोपण प्राधिकरण इस प्रकार की उद्घोषणा के संदर्भ में सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं, ताकि कर-वंचना से संबंधित किसी भी मामले की जांच करी जा सके।
DTAA से जुड़ी समस्याएँ
  • कर-परिवर्जन (Tax-avoidance) के लिए ऐसे करारों का इस्तेमाल ताथा
  • राउण्ड-ट्रिपिंग
  • विदेशी और भारतीय निवेशकों के लिए करों की अलग-अलग दर घरेलू निवेशकों को मॉरिशस रूट अपनाने के लिए प्रेरित करती है ।
  • यह राउण्ड ट्रिपिंग को संभव बनाता है। इन करारों का उद्देश्य डबल टैक्सेशन से राहत देते हुए सीमापारीय निवेश को प्रोत्साहन देना है, लेकिन भारतीय संदर्भ में इसका ठीक उलटा हो रहा है। इसके जरिए भारतीय लाभ करारोपण से खुद को बचा ले जाता है और विदेशी पूँजी के बदले स्थानीय पूँजी ही विदेशी पूँजी का वेश धारण कर लाभों को प्राप्त करने के लिए भारत आ रही है।
  • ऐसी पूँजी में कालाधन की अहम् भूमिका है, जो हवाला - कारोबार के जरिए पहले भारतीय सीमा से बाहर जाता है और फिर एक बार मातृदेश की सीमा से बाहर जाने के बाद इसे अनुकूल कर-संधि के साथ वाले अधिकार क्षेत्र में ले जाना आसान हो जाता है। फिर उस देश की कंपनियों से संबद्ध होकर वह मातृदेश वापस लौट आती है।
  • इस प्रकार निवेशक अपने लाभ को कर दायरे से बाहर ले जाता है या फिर इसे न्यून कर दर के दायरे में ला पाना संभव हो पाता है।
  • भारतीय वित्त मंत्रालय का अनुमान है कि मॉरिशस के रास्ते ऐसे FDI से 600 मिलियन अमेरिकी डॉलर की राजस्व - हानि भारत सरकार को हो रही है। यही कारण कि पिछले कुछ समय से भारत मॉरिशस DTAA की समीक्षा की माँग जोर-शोर से उठ रही है।
  • इस क्रम में सिंगापुर ने खुद को अधिक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में प्रस्तुत किया है। उसने सिंगापुर में दो लाख सिंगापुरी डॉलर के ऑफिस ऑपरेशनल कॉस्ट की न्यूनतम शर्त को रखते हुए भारत को आवश्स्त करने का प्रयास किया कि उसके जरिए 
  • राउंड-ट्रिपिंग के बजाय वास्तविक निवेश होगा। जून 2011 में भारत और सिंगापुर के बीच ऐसा DTAA सम्पन्न हुआ। यह राउंड-ट्रिपिंग पर अंकुश लगा पाता है या नहीं, यह तो भविष्य की बात है, लेकिन मॉरिशस के साथ करार की तुलना में यह बेहतर अवश्य है।
विश्व बौद्धिक सम्पदा संगठन (WIPO)
  • WIPO का गठन 1967 में हुआ। इसके सदस्य देश बौद्धिक संपदा की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए वैश्विक संगठनों के साथ सहयोग करते हुए इस संगठन में शामिल हुए थे। WIPO संधि पर स्टॉकहोम में व 14 जुलाई, 1967 को हस्ताक्षर हुए।
  • यह 1970 में अस्तित्व में आई तथा 1979 में संशोधन हुए। यही इस WIPO का प्रधान उपकरण थी। इस संगठन का कार्यालय जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में है। WIPO संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अन्त: सरकारी संस्था है जो UNO के सांस्थानिक तंत्र के रूप में 1974 में अस्तित्व में आई।
  • यह संस्था अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा को संतुलित और सुलभ बनाने के प्रति समर्पित है। यह मुख्यतः जनहित में सुरक्षा के लिए रचनात्मकता तथा नवाचार को प्रोत्साहित करती है। 
उद्देश्य
    1. वैश्विक स्तर पर बौद्धिक संपदा की सुरक्षा को बढ़ावा देना।
    2. WIPO की संधियों द्वारा स्थापित बौद्धिक संपदा संघों के बीच प्रशासनिक सहयोग सुनिश्चित करना । 
  • WIPO 24 अन्तर्राष्ट्रीय संधियों को परिचालित करता है। (17 औद्योगिक संपदा और 7 कॉपीराईट पर आधारित हैं।) WIPO अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों पर आधारित शुल्क सेवाओं का प्रशासन करता है। इस संगठन के सदस्य देश कुछ विशेष प्रणाली का उपयोग करते हैं-
    1. ट्रेडमार्क के अंतर्राष्ट्रीय पंजीयन (मैड्रिड प्रणाली व हेग प्रणाली)
    2. पेटेण्ट
    3. उत्पत्ति के लिए दावे (लिस्बन प्रणाली)
  • ट्रेडमार्क हेतु मैड्रिड प्रणाली में WIPO 81 देशों के व्यापारिक संकेतों के स्वामियों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापारिक संकेत पंजीकृत करता है। वहीं हेग प्रणाली सिर्फ औद्योगिक अभिकल्प के लिए है जिसमें औद्योगिक अभिकल्पों का अन्तर्राष्ट्रीय पंजीयन होता है। दोनों प्रणालियाँ बहुत सारे क्षेत्रों में न्याय दिलाने के लिए ट्रेडमार्क व औद्योगिक अभिकल्प को कीमत प्रभावी व उपयोगी बना रही हैं। 
पेटेण्ट सहयोग संधि
  • इसमें वे सभी देश जो पेटेण्ट, मेड्रिड प्रणाली, हेग प्रणाली तथा लिस्बन प्रणाली के तहत सुरक्षा चाहते हैं, आवेदन कर सकते है। WIPO इन पंजीकरण सेवाओं को प्रकाशित कर इन संधियों में सांमजस्य तथा सरलीकृत बनाकर इसमें सक्रिय भूमिका निभाता है।
  • पेटेण्ट कानून संधि जून 2006 में अपनाई गई थी। इसी दौरान मई 2001 में पेटेण्ट कानून संधि के मौलिक प्रारूप पर चर्चा प्रारंभ हुई थी।
WIPO में भारत
  • WIPO ने भारत को इंटरनेशनल सचिंग ऑथोरिटी (ISA) और एक इंटरनेशनल प्रीलीमिनेरी एक्सामिनिंग ऑथोरिटी (IPEA) में केवल 15 देशों की लीग में सम्मिलित किया है। ISA व IPEA की स्थिति भारत के लिए कई मायनों में लाभकारी है।
  • एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिलने के साथ-साथ ही ISA व IPEA के तौर पर काम करने के फलस्वरूप शुल्क भी प्राप्त होगा जिससे राजस्व भी प्राप्त होगा और साथ ही WIPO को प्राप्त होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय आवेदन जो पेटेंट सहयोग संधि के तहत आते हैं, अब भारतीय पेटेंट कार्यालयों में खोज व प्राथमिकता जाँच के लिए भेजे जाएंगें।
WIPO, WTO और TRIPS
  • 1996 में WTO तथा WIPO में TRIPS समझौते के क्रियान्वयन में सहयोग हेतु एक समझौता हुआ। यह कानून तथा नियमों की एक अधिसूचना है। इस समझौतें में कॉपीराईट, तथा इससे संबंधित पेटेंट कानूनों, ट्रेडमार्क, भौगोलिक संकेतकों, औद्योगिक अभिकल्प, आदि का प्रावधान है।
  • TRIPS (Trade Related Aspects: Intellectual Property Rights) के पीछे संकल्पना यह है कि बौद्धिक संपदा भी अंततः व्यापार में मुख्य भूमिका निभाते हैं। बहुत सी वस्तुएं बौद्धिक सम्पदा पर आधारित हैं।
  • बौद्धिक संपदा के क्षेत्र में किसी देश की उपलब्धियाँ उसके तुलनात्मक लाभ का भाग हैं। बौद्धिक संपदा को उपयुक्त संरक्षण नहीं दिया जाता है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विकृति पैदा करेगा।
  • इसी दृष्टिकोण से TRIPS को शामिल किया गया है। विशेषतौर पर यह अनिवार्य किया गया कि तकनीक के सभी क्षेत्रों में Product तथा Process पेटेंट प्रणाली को लागू किया जाए। विकासशील देशों को इसे लागू करने के लिए 10 वर्ष का समय (1995-2005) दिया गया था।
  • Trips की भूमिका - Trips समझौता WTO के तत्वाधान में किया गया। यह बौद्धिक संपदा के क्षेत्र में व्यापक समझौता है। अन्य समझौते के मुकाबले इसकी सदस्य संख्या भी ज्यादा है। ज्यादातर देश ज्तपचे में शामिल हैं। Trips WTO का अनिवार्य अंग है।
  • Trips के कार्यान्वयन में WIPO की भूमिका है, यदि Trips के उल्लंघन से विवाद उत्पन्न होता है तो उसका निपटारा WTO के DSB (Dispute Settlement body) में होगा। यह अर्द्धन्यायिक भाग है।
  • Trips विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा संधियों के अनुपूरक के तौर पर है। Trips के पीछे लक्ष्य यह था कि विकसित देशों के हाथ में बौद्धिक संपदा रहती है।
  • अतः विकसित देशों का प्रयास था कि इसे WTO के दायरे में लाया जाए तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के संबंध में उनको जो लाभ मिलता था उसको संरक्षण प्रदान किया जाए। जैसे- बड़ी व प्रसिद्ध कम्पनियों के उत्पादन।
  • Negative Aspects - बौद्धिक संपदा नियमों के चलते औषधियां काफी महंगी हो गई हैं और पिछडे या गरीब देशों में कम आर्थिक क्षमता वाले लोग आवश्यक औषधियों आदि से वंचित हो जाते हैं तथा पेटेंट जैसे मुद्दों को लेकर देशों के मध्य वैचारिक तनाव भी उत्पन्न होता है।
  • Uniform Product Patent प्रणाली लागू हो जाने पर भारत के जेनेरिक कम्पनियों द्वारा पेटेंट के जीवनकाल में अलग प्रक्रिया से सस्ता उत्पादन करने की संभावना अब नहीं रही। इससे भारत में नवीनतम औषधि कम्पनियों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता भी कम हुई है।
  • भारत में किन चीजों का पेटेंट नहीं प्राप्त किया जा सकता। सुस्थापित प्राकृतिक नियमों के विपरीत किए गए निरर्थक प्रकृति के दावे। ऐसी कोई भी चीज, जो कानून, नैतिकता अथवा सार्वजनिक स्वास्थ्य के विपरीत हो ।
  • ज्ञात उपकरणों का ऐसा संयोजन, पुनर्सयोजन अथवा अनुकृति, अनुसार जिसमें प्रत्येक उपकरण पहले से ही ज्ञात विधियों के एक6-दूसरे से स्वतंत्र ढंग से क्रियाशील हो ।
  • किसी मशीन, उपकरण या साजो-सामान को अधिक क्षमतायुक्त बनाने अथवा उसमें सुधार करने अथवा मौजूदा मशीन, उपकरण या अन्य साजो-सामान की मरम्मत करने अथवा उसमें सुधार करने अथवा उसके उत्पादन पर नियंत्रण के लिए अपनाई जाने वाली निर्माण प्रक्रिया में प्रयुक्त की जाने वाली परीक्षण विधि या क्रिया विधि |
    • कृषि अथवा बागवानी का कोई तरीका।
    • परमाणु ऊर्जा संबंधी आविष्कार ।
    • कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर ।
    • सौंदर्यबोधी कृतियां।
    • खोज, वैज्ञानिक सिद्धांत, गणितीय विधियां।
    • खेल खेलने अथवा व्यापार करने की मानसिक प्रक्रिया से संबंधित योजनाएं, नियम और विधियां |
    • सूचनाओं का प्रस्तुतीकरण
    • शल्य क्रिया अथवा चिकित्सकीय नुस्खों से मनुष्यों अथवा जानवरों के इलाज की विधियां।
    • जंतु, पौधों एवं उनके उत्पादन एवं संवर्धन की जैविक विधियां (लेकिन भारत में सूक्ष्म जीवों के संबंध में पेटेंट अधिकार प्राप्त किया जा सकता है।)
    • रासायनिक संश्लेषण के माध्यम से बनाए जा सकने वाले पदार्थ, जैसे खाद्य पदार्थ एवं औषधियाँ ।
एशियाई विकास बैंक (ADB)
    • यह एक क्षेत्रीय विकास बैंक है।
    • 19 दिसंबर 1966 को स्थापित किया गया।
    • मुख्यालय मनीला, फिलीपींस |
    • आधिकारिक संयुक्त राष्ट्र प्रेक्षक।
  • बैंक एशिया और प्रशांत के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग (UNESCAP, पूर्व में एशिया और सुदूर पूर्व या ECAFE के लिए आर्थिक आयोग) और गैर-क्षेत्रीय विकसित देशों के सदस्यों को स्वीकार करता है। इसमें एक समान भारित मतदान प्रणाली है, जहां सदस्यों की पूंजी भागीदारी के अनुपात में वोट वितरित किए जाते हैं।
  • 31 दिसंबर 2016 तक, जापान के शेयरों का सबसे बड़ा अनुपात 15.677% है, इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका का 15.567% पूंजी शेयर है। चीन का 6.473%, भारत का 6.359% और ऑस्ट्रेलिया का 5.812% है
एशियाई अवसंरचना निवेश बैंक
  • एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) चीन द्वारा प्रस्तावित एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान है। बहुपक्षीय विकास बैंक का उद्देश्य एशिया-प्रशांत क्षेत्र में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को वित्त प्रदान करना है।
  • AIIB संस्थापक सदस्यों के रूप में स्वीकार किए गए देशों में चीन, भारत, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, सऊदी अरब, ब्रुनेई, म्यांमार, फिलीपींस, पाकिस्तान, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन शामिल हैं।
  • वोटिंग शेयर प्रत्येक सदस्य देश की अर्थव्यवस्था (पीपीपी शर्तों में जीडीपी) के आकार पर आधारित होते हैं, न कि बैंक की अधिकृत पूंजी में योगदान के आधार पर। चीन, भारत और रूस तीन सबसे बड़े शेयरधारक हैं। बीजिंग की बैंक में 30.34 प्रतिशत हिस्सेदारी है।
  • इसका मुख्यालय (HEADQUATER)- बीजिंग में स्थित है।
न्यू डेवलपमेंट बैंक 
  • जिसे ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक भी कहा जाता है। यह ब्रिक्स राज्यों द्वारा संचालित एक बहुपक्षीय विकास बैंक है। बैंक के पास 50 बिलियन डॉलर की पूंजी होगी, समय के साथ पूंजी बढ़कर 100 बिलियन डॉलर हो जाएगी।
  • ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका में कुल शुरू मिलाकर +50 बिलियन का योगदान करेंगे। विश्व बैंक के विपरीत, जो पूंजी शेयरों के आधार पर वोट प्रदान करता है, यहां प्रत्येक प्रतिभागी देश को एक वोट दिया जाएगा,
  • ब्रिक्स देशों के अलावा देश भी सदस्य होंगे। बैंक नए सदस्यों को शामिल होने की अनुमति देगा लेकिन ब्रिक्स देशों का हिस्सा 55% से नीचे नहीं जा सकता। इसका मुख्यालय शंघाई, चीन में स्थित है। यह 2015 में गठित किया गया । NDB का पहला क्षेत्रीय कार्यालय दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में खोला जाएगा
  • बैंक के माध्यम से सार्वजनिक या निजी परियोजनाओं को ऋण, गारंटी, इक्विटी भागीदारी और अन्य वित्तीय साधनों को समर्थन देगा।
  • अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और अन्य वित्तीय संस्थाओं के साथ सहयोग - करेंगे, और बैंक द्वारा समर्थित परियोजनाओं के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करेंगे।
पुनर्निर्माण और विकास के लिए यूरोपीय बैंक
  • 1991 में स्थापित किया गया था। बहुपक्षीय विकासात्मक निवेश बैंक के रूप में, ईबीआरडी बाजार अर्थव्यवस्थाओं के निर्माण के लिए एक उपकरण के रूप में निवेश का उपयोग करता है।
  • प्रारंभ में पूर्व पूर्वी ब्लॉक के देशों पर ध्यान केंद्रित किया गया था जो मध्य यूरोप से मध्य एशिया तक 30 से अधिक देशों में विकास का समर्थन करने के लिए विस्तारित हुआ था।
  • यूरोप के अलावा, ईबीआरडी के सदस्य देश पांच महाद्वीपों (उत्तरी अमेरिका, अफ्रीका, एशिया और ऑस्ट्रेलिया) से हैं, जिनमें सबसे बड़ा शेयरधारक संयुक्त राज्य अमेरिका है।
  • लंदन में मुख्यालय, EBRD का स्वामित्व 65 देशों और यूरोपीय संघ के दो संस्थानों के पास है।
  • अपने सार्वजनिक क्षेत्र के शेयरधारकों के बावजूद, यह मुख्य रूप से वाणिज्यिक उद्यमों के साथ मिलकर निजी उद्यमों में निवेश करता है। भारत सरकार ने EBRD की भारत की सदस्यता को मंजूरी दे दी है।
  • यह भारत को ईबीआरडी के संचालन और क्षेत्र ज्ञान के देशों तक पहुंच प्रदान करेगा। इसके अलावा, यह भारत के निवेश के अवसरों को बढ़ावा देगा और देश में निवेश के माहौल में सुधार करेगा।
आर सी ई पी (RCEP)
  • आरसीईपी का मतलब क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी है। यह आसियान ( 10 देशों) और 6 अन्य देशों के बीच एक प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता है, जिसके साथ आसियान के पास मौजूदा एफटीए (भारत सहित) है।
  • 10 आसियान राष्ट्र हैं: ब्रुनेई, बर्मा ( म्यांमार), कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम है।
  • 6 अन्य राष्ट्र हैं: ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड है।
  • आरसीईपी वार्ता नवंबर 2012 में कंबोडिया में आसियान शिखर सम्मेलन में औपचारिक रूप से शुरू की गई थी। RCEP में संभावित रूप से 3 बिलियन से अधिक लोग या दुनिया की 45% आबादी शामिल है, और लगभग 21.3 ट्रिलियन डॉलर की कुल जीडीपी है, जो विश्व व्यापार का लगभग 40 प्रतिशत है।
  • आरसीईपी सदस्यों की संयुक्त जीडीपी की क्षमता ने 2007 में ट्रांस- पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) सदस्यों की संयुक्त जीडीपी को पीछे छोड़ दिया।
  • हाल ही में, भारत ने 16 - देशों की क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) व्यापार समझौते से बाहर निकलने का फैसला किया।

अन्तरदेशीय उत्पादन

  • 20वीं शताब्दी के मध्य तक उत्पादन मुख्यतः देशों की सीमाओं के अंदर ही सीमित था। इन देशों की सीमाओं को लांघने वाली वस्तुओं में केवल कच्चा माल खाद्य पदार्थ और तैयार उत्पाद ही थे। 
  • भारत जैसे उपनिवेशों से कच्चा माल एवं खाद्य पदार्थ निर्यात होते थे और तैयार वस्तुओं का आयात होता था। व्यापार ही दूरस्थ देशों को आपस में जोड़ने का मुख्य जरिया था। यह बड़ी कंपनियों, जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहते हैं, के परिदृश्य पर उभरने से पहले का युग था।
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा उत्पादन का विस्तार
  • औद्योगिक उपकरण बनाने वाली एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनी संयुक्त राज्य अमेरिका के अनुसंधान केन्द्र में अपने उत्पादों का डिजाइन तैयार करती है। उसके पुर्जे चीन में विनिर्मित होते हैं।
  • फिर इन्हें जहाज़ में लादकर मेक्सिको और पूर्वी यूरोप ले जाया जाता है, जहाँ उपकरण के पुर्जों को जोड़ा जाता है और तैयार उत्पाद को विश्व भर में बेचा जाता है। 
  • इस बीच, कंपनी की ग्राहक सेवा का भारत स्थित कॉल सेंटरों के माध्यम से संचालन किया जाता है।
  • एक बहुराष्ट्रीय कंपनी वह है, जो एक से अधिक देशों में उत्पादन पर नियंत्रण अथवा स्वामित्व रखती है।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उन प्रदेशों में कार्यालय तथा उत्पादन के लिए कारखाने स्थापित करती हैं, जहाँ उन्हें सस्ता श्रम एवं अन्य संसाधन मिल सकते हैं।
  • उत्पादन लागत में कमी करने तथा अधिक लाभ कमाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ऐसा करती हैं। निम्न उदाहरण पर विचार करते हैं-
    • इस उदाहरण में, बहुराष्ट्रीय कंपनी केवल वैश्विक स्तर पर ही अपना तैयार उत्पाद नहीं बेच रही है बल्कि अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन विश्व स्तर पर कर रही है।
    • परिणामत: उत्पादन प्रक्रिया क्रमश: जटिल ढंग से संगठित हुई है। उत्पादन-प्रक्रिया छोटे भागों में विभाजित है और विश्व भर में फैली हुई है।
    • भारत में अत्यंत कुशल इंजीनियर उपलब्ध हैं, जो उत्पादन के तकनीकी पक्षों को समझ सकते हैं। यहाँ अंग्रेजी बोलने वाले शिक्षित युवक भी हैं, जो ग्राहक देखभाल सेवायें उपलब्ध करा सकते हैं।
    • ये सभी चीजें बहुराष्ट्रीय कंपनी की लागत का लगभग 50-60 प्रतिशत बचत कर सकती हैं। अतः वास्तव में, सीमाओं के पार बहुराष्ट्रीय उत्पादन प्रक्रिया के प्रसार से असीमित लाभ हो सकता है।
विश्व-भर के उत्पादन को एक-दूसरे से जोड़ना
  • सामान्यत: बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उसी स्थान पर उत्पादन इकाई स्थापित करती हैं जो बाजार के नज़दीक हो, जहाँ कम लागत पर कुशल और अकुशल श्रम उपलब्ध हो और जहाँ उत्पादन के अन्य कारकों की उपलब्धता सुनिश्चित हो।
  • साथ ही, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सरकारी नीतियों पर भी नज़र रखती हैं, जो उनके हितों का देखभाल करती हैं। इन परिस्थितियों को सुनिश्चित करने के बाद ही बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उत्पादन के लिए कार्यालयों और कारखानों की स्थापना करती हैं। परिसंपत्तियों जैसे- भूमि, भवन, मशीन और अन्य उपकरणों की खरीद में व्यय की गई मुद्रा को निवेश कहते हैं।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किए गए निवेश को विदेशी निवेश कहते हैं। कोई भी निवेश इस आशा से किया जाता है कि ये परिसंपत्तियाँ लाभ अर्जित करेंगी।
  • कभी-कभी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इन देशों की स्थानीय कंपनियों के साथ संयुक्त रूप से उत्पादन करती हैं। संयुक्त उत्पादन से स्थानीय कंपनी को दोहरा लाभ होता है।
    • पहला बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अतिरिक्त निवेश के लिए धन प्रदान कर सकती हैं, जैसे कि तीव्र उत्पादन के लिए मशीनें खरीदने के लिए।
    • दूसरा, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उत्पादन की नवीनतम प्रौद्योगिकी अपने साथ ला सकती हैं।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश का सबसे आम रास्ता स्थानीय कंपनियों को खरीदना और उसके बाद उत्पादन का प्रसार करना है।
  • अपार संपदा वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यह आसानी से कर सकती हैं। उदाहरण के लिए,
    • एक बहुत बड़ी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी कारगिल फूड्स ने परख फूड्स जैसी छोटी भारतीय कंपनियों को खरीद लिया है।
    • परख फूड्स ने भारत में एक बड़ा विपणन तंत्र तैयार किया था, जहाँ उसके ब्राण्ड काफी प्रसिद्ध थे।
    • परख फूड्स के चार तेल शोधक केन्द्र भी थे, जिस पर अब कारगिल का नियंत्रण हो गया है।
    • अब कारगिल 50 लाख पैकेट प्रतिदिन निर्माण क्षमता के साथ भारत में खाद्य तेलों की सबसे बड़ी उत्पादक कंपनी है।
  • वास्तव में, कई शीर्षस्थ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संपत्ति विकासशील देशों सरकारों के सम्पूर्ण बजट से भी अधिक है।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ एक अन्य तरीके से उत्पादन नियंत्रित करती हैं। विकसित देशों की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ छोटे उत्पादकों को उत्पादन का ऑर्डर देती हैं।
  • वस्त्र, जूते-चप्पल एवं खेल के सामान ऐसे उद्योग हैं, जहाँ विश्वभर में बड़ी संख्या में छोटे उत्पादकों द्वारा उत्पादन किया जाता है।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इन उत्पादों की आपूर्ति की जाती है। फिर इन्हें अपने ब्राण्ड नाम से ग्राहकों को बेचती हैं। इन बड़ी कंपनियों में दूरस्थ उत्पादकों के मूल्य, गुणवत्ता, आपूर्ति और श्रम-शर्तों का निर्धारण करने की प्रचण्ड क्षमता होती है।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कई तरह से अपने उत्पादन कार्य का प्रसार कर रही हैं और विश्व के कई देशों की स्थानीय कंपनियों के साथ पारस्परिक संबंध स्थापित कर रही हैं।
  • स्थानीय कंपनियों के साथ साझेदारी द्वारा, आपूर्ति के लिए स्थानीय कंपनियों का इस्तेमाल करके और स्थानीय कंपनियों से निकट प्रतिस्पर्धा करके अथवा उन्हें खरीद कर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ दूरस्थ स्थानों के उत्पादन पर अपना प्रभाव जमा रही हैं। परिणामतः दूर-दूर स्थानों पर फैला उत्पादन परस्पर संबंधित हो रहा है।
विदेश व्यापार और बाज़ारों का एकीकरण
  • लम्बे समय से विदेश व्यापार विभिन्न देशों को आपस में जोड़ने का मुख्य माध्यम रहा है। इतिहास में भारत और दक्षिण एशिया को पूर्व और पश्चिम के बाज़ारों से जोड़ने वाले व्यापार मार्गों और इन मार्गों से होने वाले गहन व्यापार के बारे में पढ़ा होगा। व्यापारिक हितों के कारण ही व्यापारिक कंपनियाँ जैसे, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की ओर आकर्षित हुई।
  • विदेश व्यापार घरेलू बाज़ारों अर्थात् अपने देश के बाज़ारों से बाहर के बाज़ारों में पहुँचने के लिए उत्पादकों को एक अवसर प्रदान करता है।
  • उत्पादक केवल अपने देश के बाजारों में ही अपने उत्पाद नहीं बेच सकते हैं, बल्कि विश्व के अन्य देशों के बाज़ारों में भी प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।
  • इसी प्रकार, दूसरे देशों में उत्पादित वस्तुओं के आयात से खरीददारों के समक्ष उन वस्तुओं के घरेलू उत्पादन के अन्य विकल्पों का विस्तार होता है।
भारत में चीन के खिलौन
  • चीन के विनिर्माताओं को भारत में खिलौने निर्यात करने को एक अवसर का पता चलता है, जहाँ खिलौने अधिक मूल्य पर बेचे जा रहे हैं। वे भारत को खिलौने निर्यात करना आरम्भ करते हैं।
  • अब भारत में खरीददारों के पास भारतीय और चीनी खिलौनों के बीच चयन करने का विकल्प है।
  • सस्ते दाम एवं नवीन डिजाइनों के कारण चीनी खिलौने भारतीय बाज़ारों में अधिक लोकप्रिय हैं।
  • एक वर्ष में ही खिलौने की 70-80 प्रतिशत दुकानों में भारतीय खिलौनों का स्थान चीनी खिलौनों ने ले लिया है। अब भारत के बाज़ारों में खिलौने पहले की तुलना में सस्ते हैं।
  • व्यापार के कारण चीनी खिलौने भारत के बाजारों में आए। भारतीय और चीनी खिलौनों की प्रतिस्पर्धा में चीनी खिलौने बेहतर साबित हुए।
  • भारतीय खरीददारों के समक्ष कम कीमत पर खिलौनों के अपेक्षाकृत अधिक विकल्प हैं। इससे चीन के खिलौना निर्माताओं को अपना व्यवसाय फैलाने के लिए एक अवसर प्राप्त होता है। इसके विपरीत, भारतीय खिलौना निर्माताओं को हानि होती है, क्योंकि उनके खिलौने कम बिकते हैं।
  • सामान्यत: व्यापार के खुलने से वस्तुओं का एक बाज़ार से दूसरे बाज़ार में आवागमन होता है। बाज़ार में वस्तुओं के विकल्प बढ़ जाते हैं। दो बाज़ारों में एक ही वस्तु का मूल्य एक समान होने लगता है। अब दो देशों के उत्पादक एक दूसरे से हजारों मील दूर होकर भी एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। इस प्रकार, विदेश व्यापार विभिन्न देशों के बाज़ारों को जोड़ने या एकीकरण में सहायक होता है।
वैश्वीकरण क्या है ?
  • विगत दो तीन दशकों से अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ विश्व में उन स्थानों की तलाश कर रही हैं, जो उनके उत्पादन के लिए सस्ते हों। इन देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश में वृद्धि हो रही है, साथ ही विभिन्न देशों के बीच विदेश व्यापार में भी तीव्र वृद्धि हो रही है ।
  • विदेश व्यापार का एक बड़ा भाग बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नियंत्रित है। जैसे, भारत में फोर्ड मोटर्स का कार संयंत्र, केवल भारत के लिए ही कारों का निर्माण नहीं करता, बल्कि वह अन्य विकासशील देशों को कारें और विश्व भर में अपने कारखानों के लिए कार-पुर्जों का भी निर्यात करता है ।
  • इसी प्रकार, अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के क्रियाकलाप में वस्तुओं और सेवाओं का बड़े पैमाने पर व्यापार शामिल होता है।
  • अधिक विदेश व्यापार और अधिक विदेशी निवेश के परिणामस्वरूप विभिन्न देशों के बाज़ारों एवं उत्पादनों में एकीकरण हो रहा है। विभिन्न देशों के बीच परस्पर संबंध और तीव्र एकीकरण की प्रक्रिया ही वैश्वीकरण है।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वैश्वीकरण की प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभा रही हैं। विभिन्न देशों के बीच अधिक से अधिक वस्तुओं और सेवाओं, निवेश और प्रौद्योगिकी का आदान-प्रदान हो रहा है। विगत कुछ दशकों की तुलना में विश्व के अधिकांश भाग एक-दूसरे के अपेक्षाकृत अधिक सम्पर्क में आए हैं।
  • वस्तुओं, सेवाओं, निवेशों और प्रौद्योगिकी के अतिरिक्त विभिन्न देशों को आपस में जोड़ने का एक और माध्यम हो सकता है । यह माध्यम है विभिन्न देशों के बीच लोगों का आवागमन ।
  • प्रायः लोग बेहतर आय, बेहतर रोज़गार एवं शिक्षा की तलाश में एक देश से दूसरे देश में आवागमन करते हैं किन्तु, विगत कुछ दशकों में अनेक प्रतिबंधों के कारण विभिन्न देशों के बीच लोगों के आवागमन में अधिक वृद्धि नहीं हुई है।
वैश्वीकरण को संभव बनाने वाले कारक
  • प्रौद्योगिकी में तीव्र उन्नति वह मुख्य कारक है जिसने वैश्वीकरण की प्रक्रिया को उत्प्रेरित किया । जैसे, विगत 50 वर्षों में परिवहन प्रौद्योगिकी में बहुत उन्नति हुई है। इसने लम्बी दूरियों तक वस्तुओं की तीव्रतर आपूर्ति को कम लागत पर संभव किया है। इससे भी अधिक उल्लेखनीय है सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का विकास।
  • वर्तमान समय में दूरसंचार कंप्यूटर और इंटरनेट के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी द्रुत गति से परिवर्तित हो रही है । दूरसंचार सुविधाओं (टेलीग्राफ, टेलीफोन, मोबाइल फोन एवं फैक्स) का विश्व भर में एक-दूसरे से सम्पर्क करने, सूचनाओं को तत्काल प्राप्त करने और दूरवर्ती क्षेत्रों से संवाद करने में प्रयोग किया जाता है। ये सुविधाएँ संचार उपग्रहों द्वारा सुगम हुई हैं।
  • जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में कंप्यूटरों का प्रवेश हो गया है। आपने इंटरनेट के चमत्कारिक संसार में भी प्रवेश किया होगा, जहाँ जो कुछ भी आप जानना चाहते हैं, लगभग उसकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और सूचनाओं को आपस में बाँट सकते हैं। इंटरनेट से हम तत्काल इलेक्ट्रॉनिक डाक (ई-मेल) भेज सकते हैं और अत्यंत कम मूल्य पर विश्व भर में बात (वॉयस मेल) कर सकते हैं।
विदेश व्यापार तथा विदेशी निवेश का उदारीकरण
  • भारत सरकार खिलौनों के आयात पर कर लगाती है। इसका अर्थ है कि जो इन खिलौनों का आयात करना चाहते हैं, उन्हें इन पर कर देना होगा। कर के कारण खरीददारों को आयातित खिलौनों की अधिक कीमत चुकानी होगी।
  • चीन के खिलौने अब भारत के बाजारों में इतने सस्ते नहीं रह जाएँगे और चीन से उनका आयात स्वतः कम हो जाएगा। भारत के खिलौना निर्माता अधिक समृद्ध हो जाएँगे।
  • आयात पर कर, व्यापार अवरोधक का एक उदाहरण है। इसे अवरोधक इसलिए कहा गया है, क्योंकि यह कुछ प्रतिबंध लगाता है। सरकारें व्यापार अवरोधक का प्रयोग विदेश व्यापार में वृद्धि या कटौती (नियमित करने) करने और देश में किस प्रकार की वस्तुएँ कितनी मात्रा में आयातित होनी चाहिए, यह निर्णय करने के लिए कर सकती हैं।
  • स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने विदेश व्यापार एवं विदेशी निवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। देश के उत्पादकों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से संरक्षण प्रदान करने के लिए यह अनिवार्य माना गया। 1950 और 1960 के दशकों में उद्योगों का उदय हो रहा था और इस अवस्था में आयात से प्रतिस्पर्धा इन उद्योगों को बढ़ने नहीं देती।
  • इसीलिए, भारत ने केवल अनिवार्य चीजों जैसे, मशीनरी, उर्वरक और पेट्रोलियम के आयात की ही अनुमति दी। सभी विकसित देशों ने विकास के प्रारंभिक चरणों में घरेलू उत्पादकों को विभिन्न तरीकों से संरक्षण दिया है।
  • भारत में करीब सन् 1991 के प्रारंभ से नीतियों में कुछ दूरगामी परिवर्तन किए गए। सरकार ने यह निश्चय किया कि भारतीय उत्पादकों के लिए विश्व के उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा करने का समय आ गया है। यह महसूस किया गया कि प्रतिस्पर्धा से देश में उत्पादकों के प्रदर्शन में सुधार होगा, क्योंकि उन्हें अपनी गुणवत्ता में सुधार करना होगा। इस निर्णय का प्रभावशाली अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने समर्थन किया।
  • अतः विदेश व्यापार एवं विदेशी निवेश पर से अवरोधों को काफी हद तक हटा दिया गया। इसका अर्थ है कि वस्तुओं का आयात-निर्यात सुगमता से किया जा सकता और विदेशी कंपनियों यहाँ अपने कार्यालय और कारखाने स्थापित कर सकती थीं |
  • सरकार द्वारा अकरांचों अथवा प्रतिवों को हटाने की प्रकि उदारीकरण के नाम से जानी जाती है। व्यापार के उपकरण से व्यावसायियों को मुक्त रूप से निर्णय लेने की अनुमति मिली है कि वे क्या आयात वा निर्यात करत चाहते हैं। सा पहले की तुलना में कम नियंत्रण करती है और इसलिए उसे अधिक उदार कहा जाता है।
विश्व व्यापार संगठन
  • कुछ बहुत प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने भारत में विदेश व्यापार एवं विदेशी निवेश के उदारीकरण का समर्थन किय इन संगठनों का मानना है कि विदेश व्यापर और विदेशी निवा पर सभी अवरोधक हानिकारक हैं। कोई अवरोधक नहीं हन चाहिए। देशों के बीच मुक्त व्यापार होना चाहिए |
  • विश्व के सभी देशों को अपनी नीतियाँ उधार बननी चाहिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी. ओ.) एक ऐसा संगठन है. जिसका उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को उदार बनाना है।
  • विकसित देशों की पहल पर शुरू किया गया विश्व व्याप संगठन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से संबंधित नियमों को निर्धारित करता है और यह देखता है कि इन नियमों का पालन हो।
  • यद्यपि विश्व व्यापार संगठन सभी देशों को मुक्त व्यापार श्री सुविधा देता है, परंतु व्यवहार में यह देखा गया है कि विकसित देशों ने अनुचित ढंग से व्यापार अवरोधकों को बरकरार रखा है। दूसरी और विश्व व्यापार संगठन के नियमों में विकासशील देशों के व्यापार अवरोधों को हटाने के लिए विवश किया है। इसका एक उदाहरण कृषि उत्पादों के व्यापार पर वर्तमान बहस है।
विश्व व्यापार संगठन World Trade Organization (WTO)
  • गैट के तहत 1994 में उरुग्वे राउंड की वार्ता मराकेश समझौते के रूप में तार्किक परिणति प्राप्त करती है और इसी के तहत | जनवरी 1995 से गैट का स्थान W.T.O. ले लेता है। लेकिन W.T.O. वहीं नहीं है जो 1995 के पहले GATT था। कारण यह है कि-
  1. GATT जहाँ एक अनौपचारिक संगठन था, वहीं W.T.O. एक औपचारिक संगठन है जिसकी अपनी कानूनी हैसियत है और जिसका अपना व्यापक प्रशासनिक तंत्र है, इसका मुख्यालय जेनवा में है।
  2. जहाँ गैट के फैसले सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी नहीं होते थे वहीं W.T.O. के फैसले सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी होते हैं।
  3. जहाँ गैट विकसित देशों का प्रतिनिधित्व करता था वहीं W.T.O. विकसित, विकासशील और अल्पविकसित, सभी देशों का प्रतिनिधि त्व करता है।
  4. जहाँ गैट की बैठकें अनियमित होती थीं वहीं W.T.O.की बैठकें नियमित अंतराल पर आयोजित की जाती हैं।
  5. जहाँ गैट और W.T.O., दोनों का उद्देश्य व्यापार में विद्यमान अवरोधों को समाप्त करते हुए व्यापारिक उदारीकरण की प्रक्रिया को तेज करना है तथा जहाँ गैट के दायरे में केवल वस्तुओं का व्यापार आता था वहीं W.T.O. के दायरे में वस्तुओं के साथ-साथ सेवाओं का व्यापार भी आता है।
  6. W.T.O. का स्वरूप और इसकी कार्यप्रणाली कहीं अधिक लोकतांत्रिक है क्योंकि यह 'एक देश, एक वोट' की संकल्पना के अनुसार कार्य करता है।
W.T.O. से संबंधित समझौते
  • इसके अंतर्गत 6 व्यापक समझौते (Agreement) आते हैं:-
व्यापारिक अवरोधों को दूर करने से संबंधित समझौता-
  • इसके तहत एक ओर मात्रात्मक प्रतिबंधों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना था दूसरी ओर टैरिफ अवरोध में कटौती के संदर्भ में भी दो प्रावधान किये गए है।
  • बाध्यकारी वचनवद्धता (Binding Committment) के तहत सीमाकर की उच्चदरों को निर्धारित किया गया, जबकि कटौती वचनबद्धता (Reduction Committment) के तहत सीमाकर की दरों में चरणबद्ध तरीके से कटौती की जानी थी।
व्यापारिक बौद्धिक संपदा अधिकार (Trade Related Intellectual Property Rights - TRIPS) -
  • इसके तहत प्रत्येक सदस्य देश को कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, औद्योगिक डिजाइन, पेटेंट आदि के संरक्षण के लिए उपयुक्त कदम उठाना पड़ता है। इसी के तहत भारत में प्रक्रिया पेटेंट (Process Patent) की जगह उत्पाद पेटेंट की अवधारणा को स्वीकार किया गया।
3. व्यापार संबद्ध निवेश उपाय (Trade Related Investment Measures TRIMS) -
  • इसके तहत किसी भी सदस्य देश को विदेशी निवेशकों के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक खोलना होता है और जिन क्षेत्रों में यह संभव नहीं होता उन्हें आंशिक रूप से खोलना होता है।
4. कृषि समझौता (Agreement on Agriculture)-
  • इसके तहत विकासशील देशों के लिए 'मुक्त बाजार पहुँच' को सुनिश्चित करना विकसित देशों की मुख्य जिम्मेवारी होती है साथ ही इसमें कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली उन सब्सिडियों में कटौती का प्रावधान भी है जो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में विकृति उत्पन्न कर रही हैं।
  • यह समझौता कृषि के संदर्भ में विशेषकर बीज और विविध किस्मों के पौधों के पेटेंट की बात करता है। W.T.O. के अंतर्गत कृषि, समझौते का प्रमुख पहलू है। सब्सिडी कटौती फॉर्मूला इसका वर्गीकरण श्रेणियों में किया गया है-
  • ग्रीन बॉक्स सब्सिडी (Green Box Subsidy) :- इस श्रेणी में उन सब्सिडियों को रखा गया है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विकृति नहीं उत्पन्न करती है।
  • ब्लू बॉक्स सब्सिडी (Blue Box Subsidy):- वैसी सब्सिडी जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अपेक्षाकृत कम विकृति उत्पन्न करती है उसे Blue Box Subsidy कहते है। सामान्यतः सरकार उत्पादकों को प्रोत्साहन देने के नाम पर जो सब्सिडी देती है वह Blue Box Subsidy कहलाती है। इसे विकसित देशों में घरेलू समर्थन (Domestic Support) भी कहा जाता है।
  • अंबर बॉक्स सब्सिडी (Amber Box Subsity) :- इसके अंतर्गत उन निर्यात सब्सिडी को रखा गया है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में सर्वाधिक विकृति उत्पन्न करते हैं और जिन्हें W.T.O. के कटौती बचनवद्धता (Reduction Committment) के तहत चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाना है।
  • रेड बॉक्स सब्सिडी (Red Box Subsidy) :- इसे पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किया गया है।
5. मल्टी फाइबर एग्रीमेंट (Multi Fibre Agreement) -
  • इसके तहत विकसित देशों के द्वारा घरेलू टेक्सटाइल उद्योगों को संरक्षण प्रदान करने के लिए कोटा प्रणाली अपनाकर विकासशील देशों के सस्ते वस्त्र निर्यात को प्रभावित करने को कोशिश की गई।
  • इसीलिए 01 जनवरी 2005 से W.T.O. के प्रावधानों के तहत MFA का स्थान एग्रीमेंट ऑन टेक्सटाइल्स एन्ड कॉटन (Agreement on Taxtiles and Cotton) ने ले लिया जिसके तहत कोटा प्रणाली को समाप्त कर दिया गया।
 6. गैट्स (GATS)-
  • जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एन्ड सर्विसेज (General Agreement on Trade and Services )- इसके तहत वस्तुओं और सेवाओं के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के उदारीकरण पर बल दिया गया है और इससे संबंधित मदों का वर्गीकरण चार श्रेणियों में किया गया है-
  • मोड़ - 1 :- इसका सम्बन्ध अपने देश में रहकर विदेशी कम्पनियों को वहाँ की सेवाएँ देने से है। जैसे कॉल सेन्टर ।
  • मोड़ - 2 :- इसका सम्बन्ध विदेशियों द्वारा स्थानीय सेवाओं का उपयोग करने, पर्यटन व यात्रा से है।
  • मोड़ - 3 :- इसका सम्बन्ध विदेशी उपकम्पनियों को देश में प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति देने से है।
  • मोड़ - 4 :- इसका सम्बन्ध सेवा देने के लिए विदेश जाने से है।
  • मोड़ - 1 तथा मोड़-4 में भारत का प्रयास बाध्यकारी वचनबद्धताएँ प्राप्त करना रहा है। भारत के लिए सेवा क्षेत्र कृषि के बाद दूसरा सबसे अधिक महत्वपूर्ण मुद्दा है। सेवाओं में भारत ने अगस्त, 2005 में अपना संशोधित प्रस्ताव प्रस्तुत किया था, जो कि प्रारम्भिक प्रस्ताव पर एक पर्याप्त सुधार है किंतु सेवा व्यापार क्षेत्र में अभी कोई सहमति नहीं बन पा रही है।
ट्रिप्स समझौते को लेकर भारत की आपत्ति
  • स्वयं को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी आरोपी व्यक्ति की है। पेटेंट कारवाये गये आविष्कारों के व्यावसायिक उत्पादन से भारत जैसे विकासशील देशों की यह आशंका है कि विदेशी कम्पनियाँ लाभ की कामना में संभव है कि अपने पेटेंट करवाए गये अविष्कारों को व्यावसायिक उपयोग के लिये लम्बे समय तक देश के बाहर न जाने दे।
  • ऐसी स्थिति में उन उत्पादों के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ेगा। इसका उसके भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
  • ट्रिप्स के संदर्भ में भारत शराब और मदिरा के अलावा भौगोलिक संकेत हेतु संरक्षण बढ़ाने की माँग कर रहा है। पेटेंट आवेदनों के लिए विशिष्ट समापन मानदण्ड को शामिल करते हुए जैव विविधता संबंधी समझौते और ट्रिप्स के बीच स्पष्ट सम्पर्क स्थापित किया जाए।
दोहा दौर की वार्ता
  • वर्ष 2001 में जब दोहा दौर की वार्ता शुरू की जा रही थी, तो उस समय यह कहा गया था कि अब तक की वार्ता के क्रम में विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था और उनके हितों की जो अनदेखी हुई है, उरुग्वे दौर की इन गड़बड़ियों को समाप्त करते हुए विकसित देश विकासशील और गरीब देशों के लिए अपने बाजार खोलेंगें ।
  • इसी के तहत दोहा दौर की वार्ता में कृषि उत्पादों के साथ-साथ गैर-कृषि उत्पादों की बाजार पहुँच में विस्तार के लिए बहुपक्षीय समझौते को प्राथमिकता दी गई। तब से लेकर अब तक कई निर्धारित वार्ताएँ हो चुकी हैं। लेकिन इस दिशा में कोई निर्णायक प्रयास होता नजर नहीं आ रहा है।
  • इसी के तहत 2001 से विकसित और विकासशील देशों के मध्य वार्ता जारी है। आरंभिक दौर में सिंगापुर में विकसित देशों ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिस्पर्धा, सुशासन, पर्यावरण और श्रम मानकों से संबद्ध कराने का प्रयास किया। लेकिन इसके पीछे विकसित देशों का उद्देश्य विकासशील देशों उत्पादों को अपने बाजार में पहुँचने से रोकना था।
  • इसके जरिये विकसित देश विभिन्न परिप्रेक्ष्य में संरक्षणवादी रवैया अपनाकर अपने राष्ट्रीय आर्थिक हितों को विकासशील देशों के हितों की कीमत पर आगे बढ़ाना चाहते थे लेकिन उनकी इस मंशा को विकासशील देशों ने भांप लिया और अंततः उनके विरोध के मद्देनजर विकसित देशों को अपनी मांग छोड़नी पड़ी।
WTO की 9वीं मंत्रिस्तरीय बैठक - बाली ( इंडोनेशिया )
  • बाली में WTO सदस्य देशों के मध्य जो समझौता हुआ है वह एक प्रकार का व्यापार समझौता है जिसका उद्देश्य वैश्विक व्यापार संबंधी बाधाओं को दूर करना है। यह पहला समझौता है जिसका WTO के सभी सदस्यों ने समर्थन किया। बाली पैकेज के 4 क्षेत्र-
    • व्यापारिक सुविधाओं की बहाली ।
    • कृषि उत्पादों पर ड्यूटी फ्री, कोटा फ्री बाजार तक पहुँच |
    • अल्पविकसित देशों हेतु 15 वर्ष का 'वरीयता व्यापार तंत्र' ।
    • विशेष तथा वरीयता व्यवहार के लिए 'मॉनीटरिंग मैकेनिज्य'। |
पैकेज की विशेषताएँ 
  • आयात कर व कृषि सब्सिडी को कम करना । 
  • व्यापार की शर्तों को अधिक सुलभ व आसान बनाना। 
  • विकसित देशों द्वारा कोटा प्रणाली की समाप्ति (कृषि उत्पादों के लिए ) | 
  • व्यापार संबंधी प्रशासन व करारोपण प्रक्रिया को आसान बनाना। 
  • समझौते को सही से क्रियान्वित करने पर वैश्विक व्यापार पर खर्च में 10-15% कटौती और 21 मिलियन जॉब्स का सृजन हो सकता है।
  • बाली में ही WTO फैसले के अनुसार विकसित देश, भारत द्वारा खाद्य सुरक्षा हेतु दी जा रही सब्सिडी व खाद्य सुरक्षा कानून को चुनौती नहीं देंगे। उल्लेखनीय है कि भारत द्वारा प्रदान की जा रही खाद्य सब्सिडी WTO समझौतों का उल्लंघन कर रही थी।
कृषि एवं W.T.O.
  • कृषि व्यापार पहले अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समझौतों के दायरे में नहीं था। उरुग्वे दौर में पहली बार वैश्विक व्यापार समझौते में शामिल किया गया लेकिन इसके संदर्भ में व्यापक उदारीकरण व नियम बनाने की जिम्मेदारी भविष्य की वार्ताओं पर छोड़ दी गई है। यह दोहा दौर में शामिल है। 
कृषि क्षेत्र - कृषि क्षेत्र में विवाद के प्रमुख मुद्दे इस प्रकार हैं:
  • A. Special Product- इस प्रावधान के तहत विकासशील देशों को कृषि क्षेत्र में Special Product दिया जायेगा, जिन पर Import Duty कम करने की आवश्यकता नहीं है। इस संदर्भ में प्रमुख समस्या यह आ रही है कि W.T.O. की Special Product स्पेज व भारत की लिस्ट (सारे विकासशील देशों से संबंधित) में ताल-मेल नहीं है।
  • B. Special Safeguard Mechanism- इसमें विकासशील देशों की प्रमुख माँग यह है कि आपातकालीन स्थिति में कृषि आयात पर रोक लगाई जा सके। विकसित देश इस प्रावधान के लिए तैयार हैं लेकिन इस मुद्दे पर भारत को यह सुविधा प्रदान करने के पक्ष में नही हैं। यह सुविधा सिर्फ उन देशों को ही प्राप्त हो सकेगी जो कि आयात पर आश्रित हैं।
  • C. Export Subsidies- विकसित देशों द्वारा कृषि उत्पादों के निर्यात के संदर्भ में किसानों को व्यापक स्तर पर छूट प्रदान की जाती हैं। विकासशील देशों की माँग है कि इस छूट को पूर्णतया समाप्त होना चाहिए। विकसित देश इसके लिए तैयार हैं परंतु अन्य समझौतों के बाद।
  • D. Import Duty- इसके तहत कृषि क्षेत्र में Import Duty कम करना है। विकासशील देश इसके लिए तैयार हैं लेकिन Special Product की शर्त विकसित देशों द्वारा मानने के पश्चात | भारत पर इसका दुष्प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि भारत द्वारा 300% तक Import Duty लगाई गई हैं।
  • Domestic Subsidy- कृषि क्षेत्र में घरेलू क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिड़ी का विवेचन तीन भागों में किया जा सकता हैं-
    1. Green Box- ऐसी सब्सिड़ी जो जीवन रूपी हैं तथा इनका संबंध पर्यावरण से है। जिसमें कमी करने की कोई आवश्यकता नहीं eg. बायोडीजल खेती
    2. Amber Box- ऐसी सब्सिड़ी जो सरकार द्वारा उत्पादों को बढ़ाने के लिए प्रदान की जाती हैं।
    3. Blue Box- इसे उत्पादन कम करने के लिए प्रदान किया जाता है।
  • घरेलू क्षेत्र में प्रमुख समस्या Amber Box एवं Blue Box को लेकर हैं क्योंकि विकसित देश अपना अधिक से अधिक सब्सिड़ी Green Box में दिखाते हैं।
  • विकासशील देशों की आपत्ति है कि ये छूटें Green Box में नहीं दिखाई जानी चाहिए। विकसित देशों द्वारा दी गई सब्सिड़ी ही प्रमुख समस्या हैं।
  • विश्व में कृषि क्षेत्र का बाजार लगभग 650 मिलियन डॉलर का है। जिसमें 400 मिलियन डॉलर की छूट प्रदान की जाती है।
  • इस छूट में 80% हिस्सेदारी विकसित देशों की हैं। इस 80% का 90% छूट सिर्फ अमेरिका, यूरोप व जापान द्वारा दिया जाता है।
  • छूट के संबंध में मुख्यतः विवाद U.S.A. से ही हैं क्योंकि कपास के क्षेत्र में 150 मिलियन डॉलर की सब्सिड़ी प्रदान की जा रही है। कपास Special Product की सूची में भी नहीं है अतः इतनी सब्सिड़ी के आगे भारत का कपास बाजार में नहीं टिक सकेगा।
  • भारत इसके लिए तटस्थ है कि वह विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के हित में कार्य करेगा तथा विकसित देशों के समक्ष हार नहीं मानेगा।
  • भारत समझौतों के लिए तैयार है लेकिन विकसित देशों को यह समझना होगा कि उनकी अर्थव्यवस्था तथा भारतीय अर्थव्यवस्था (अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ) में काफी अंतर हैं, वो विकास की प्रक्रिया में काफी आगे हैं। साथ ही इस समझौते में आम लोगों की संवृद्धि भी जुड़ी हुई है ।
  • समझौता होगा लेकिन इसमें समय लगेगा क्योंकि विकसित देशों को विकासशील देशो की तथा विकासशील देशों को विकसित देशों की आवश्यकता है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि W.T.O. से समझौते के बाद विश्व व्यापार लगभग-400 बिलियन डालर वार्षिक दर से बढ़ेगा।
  • Special Product- यह ऐसे उत्पादों की सूची है जिन पर आम कृषक आश्रित हैं तथा इसमें Import क्नजल कम नहीं की जा सकती हैं।
कृषि मुद्दों पर WTO में भारत का पक्ष
  • भारत का कृषि तथा संबंद्ध उत्पादों (जिसमें बागान भी शामिल है) का कुल निर्यात वर्ष 2006-07 में 13.03 बिलियन अमरीकी डॉलर था जो इसके निर्यात का 10.3 प्रतिशत है। 
  • भारत के कृषि निर्यातों में विकसित देश के बाजारों का हिस्सा लगभग 35 प्रतिशत रहा है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान । जनसंख्या के एक बड़े वर्ग की जिसमें उत्पादक तथा भूमिहीन श्रमिक शामिल है (जिन्हें निम्न आय तथा संसाधन की दृष्टि से आभावग्रस्त माना गया है) आजीविका को बनाए रखने के संदर्भ महत्वपूर्ण है।
  • जनसंख्या के इस भाग के पास दक्षता (skills) का अभाव है तथा यह किसी सुरक्षा जाल (safety net) के अन्तर्गत शामिल नहीं है जबकि ये बातें श्रम के एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की एक न्यूनतम शर्त के सुनिश्चयन हेतु अनिवार्य है।
  • भारत की तरह ही, अधिकांश विकासशील देश भी इसी प्रकार के हालात में से गुजर रहे है और यह स्थिति विकसित देशों में पाई जाने वाली स्थिति के बिल्कुल विपरीत है।
  • कृषि फसलों की विविध संख्या के अतिरिक्त अन्य कई उत्पाद जिनमें पशुधन उत्पाद भी शामिल है, पहाड़ी पर्वतीय अथवा अन्य असुविधाग्रस्त क्षेत्रों अथवा जनजातीय समुदायों तथा महिलाओं द्वारा उत्पादित किए जाते है।
  • भारत तथा अन्य विकासशील देश बराबर इस बात पर जोर देते रहे हैं कि सभी मुद्दों पर विकासशील देशों के लिए एक विशेष तथा विभेदक दृष्टिकोण (Special and Differential Treatment) की व्यवस्था होनी चाहिए। जिसमें WTO में दोहा दौर के अन्तर्गत कृषि पर बातचीत द्वारा निर्धारित होने वाले परिणाम भी शामिल है।
  • निम्न आय, , संसाधनों में कमी, मूल्य में गिरावट से किसानों की आजीविका पर पड़ने वाला प्रभाव, मूल्य में तेजी और प्रतिस्पर्धा तथा अन्य बाजार कमियां जिसमें कुछ विकसित देशों द्वारा अपने कृषि क्षेत्र को उपलब्ध कराई जा रही व्यापार को विकृत करने वाली सहायता (trade-distorting subsides) भी शामिल है, के जोखिमों को कम करना भी महत्वपूर्ण है।
  • अन्य विकासशील देशों के साथ विशेष रूप से G-20 तथा G-33 में सहभागी भागीदारों के साथ मिलकर, भारत इस बात पर जोर देता रहा हैं कि दोहा कृषि परिणामों को अपने महत्वपूर्ण कार्य (core ) में निम्नलिखित को शामिल करना चाहिए :
    1. विकसित देशों द्वारा विकृति पैदा करने वाली सहायता को समाप्त करना ताकि सबके लिए प्रतिस्पर्धा का समान धरातल हो ।
    2. विकासशील देशों में खाद्य सुरक्षा, आजीवि सुरक्षा लिए तथा ग्रामीण विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त प्रावधान किए जाए।
  • भारत ने विशिष्ट रूप में निम्नलिखित मांगें प्रस्तुत की है :-
    • विकासशील देशों के लिए आबद्ध दरों (bound rates) पर समग्र प्रशुल्क कटौतियाँ 36 प्रतिशत से अधिक न हो।
    • विकासशील देशों की उच्चतम सीमा बंधनों (ceiling bindings) को ध्यान में रखते हुए संरेखीय कटौतियों (linear cuts) सहित चार बैंड शुल्क फार्मूला (four band tariff formula) की अवसीमाओं (threshould) को काफी ऊंचा रखा जाए।
    • विकासशील देशों को खाद्य सुरक्षा, आजीविका सुरक्षा तथा ग्रामीण विकास आवश्यकताओं की तीन मूल कसौटियों को ध्यान में रखकर विशेष उत्पादों को स्व- नामित (self designate) करने की स्वतन्त्रता हो । G -33 के देशों ने विशेष उत्पादों पर 20 प्रतिशत कृषि प्रशुल्क सीमाओं का सुझाव दिया है जिसमें से 40 प्रतिशत को किसी भी प्रकार की प्रशुल्क कटौती से छूट मिलनी चाहिए।
    • विश्व स्तर पर कीमतों के उतार-चढ़ाव तथा आयात - प्रवाहों को रोकने के लिए एक प्रभावी विशेष सुरक्षा व्यवस्था (Special Safeguard Mechanism) का इंतजाम किया जाए, जो अभी तक मुख्यतया विकसित देशों को ही उपलब्ध है। SSM से किसी भी उत्पाद का अपवर्जन (exclusion) खासतौर पर विशेष उत्पादों का अपवर्जन न तो न्यायोचित है और न ही स्वीकार्य ।
    • कुल व्यापार- विरूपण घरेलू सहायता में अमेरिका द्वारा 75 प्रतिशत तथा यूरोपीय यूनियन द्वारा 75-80 प्रतिशत कटौती तथा साथ ही समग्र समर्थन माप (Aggregate Measure of Support) एवं नए बल्यु बॉक्स पर उत्पाद - विशिष्ट सीमा के मुद्दे का निपटान। 
पीस क्लॉज
  • सामान्यतः विश्व व्यापार संगठन के कृषि संबंधित समझौते ( AAO - Agreement ono Agreculture) जो अनुच्छेद-13 में वर्णित है।
  • इस अनुच्छेद के अनुसार किसी भी WTO सदस्य द्वारा अपने देश को कृषि क्षेत्र को दिए जा रहे घरेलू समर्थनों एवं निर्यात अनुदानों की वैधानिकता को किसी अन्य राष्ट्र द्वारा WTO के समझौतों का उल्लंघन बताकर कि इससे व्यापार (distortion) हो रहा है, के आधार पर dispute settlement Machanism में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • यह ‘पीस क्लॉज' 1 जनवरी, 2004 को समाप्त हो रहा था, इससे भारत जैसे विकासशील देशों में अब सब्सिडी देने को वैधानिक चुनौती उभरने लगी किन्तु इसकी सीमा बढ़ाकर 2014 कर दी गयी। 'पीस क्लॉज' के तहत विकासशील देश अपने कुल वार्षिक कृषि उत्पादन मूल्य के 10% तक सब्सिडी दे सकता है। (विकसित देशों के लिए यह सीमा 5% है )
बाली समझौता (TFA - Trade Facilitation Agreement) एवं भारत-अमरिका विवाद 
  • बाली समझोता WTO के नौवे मंत्री स्तरीय सम्मेलन में ( 3-7 दिसम्बर 2013 ) में व्यापार की बाधाओं को दूर करने के लिए समझौता हुआ जिसमें सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान TFA बनकर उभरा।
  • TFA को लागू करने के लिए सभी सदस्य देशों की सहमति आवश्यक थी। अमेरिका किसी भी तरह इसे पारित कराना चाहता था, जबकि भारत पीस- क्लॉज की चिन्ताओं से एक स्थायी हल चाहता था। क्योंकि 2017 में इसकी समय सीमा समाप्त हो रही थी।) 
पीस क्लॉज एवं भारत की खाद्य सुरक्षा संबंधित चिन्ताएं
  • भारत में खाद्य सुरक्षा एक अपरिहार्य मुद्दा है। हाल ही में पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत 850 मिलियन लोगों का 5 किलो अनाज प्रतिमाह देना है।
  • यह अनाज अनुदानिक मूल्यों पर देना है, उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010-2011 के बीच में भारत द्वारा खाद्यान खरीद व उसे अनुदानित । मूल्य पर वितरित करने के लिए 13.8 बिलियन US डॉलर खर्च किया गया। अतः भारत की चिंता स्पष्ट है कि यदि पीस क्लॉज की समय सीमा न बढ़ी तो उसकी सब्सिडी की राशि अल्पधिक मानते हुए व्यापार विरूपण का आरोप लगाकर उसे दण्डित किया जा सकता है।
भारत की मांग
  • पीस क्लॉज की तब तक स्थायी बनाया जाएं या अन्तिम सीमा तय न की जाएं जब तक भारत की खाद्य सुरक्षा संबंधित चिन्ता दूर न हो जाए। पीस क्लॉज में वर्णित प्रतिबन्धित उपायों जैसे- अनाज खरीद पर दी जाने वाली सब्सिडी से व्यापार विरूपण संबंधी प्रमाण-पत्र देने की बाध्यता समाप्त हो ।
  • सब्सिडी निर्धारित करने का आधार वर्ष का नवीनीकरण हो या इसे मुद्रा स्फीति सूचकांक से जोड़ा जाए। स्मरणीय है कि पीस क्लॉज में मूल्य निर्धारण का आधार वर्ष 1986-88 है।
भारत अमेरिकी समझौते का प्रभाव
  • पीस-क्लॉज अपने वर्तमान रूप में बना रहेगा अर्थात् इसकी अन्तिम समय-सीमा निर्धारित नहीं होगी। भारत व्यापार सुविधा समझौते को मंजूरी देगा।
  • TFA होने से विश्व अर्थव्यवस्था में लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर की बढ़ोतरी होगी व लगभग 21 मीलियन रोजगार सृजित होगा जो अमेरिका व यूरोपीय देशों की मंदी की स्थिति से उबारने में महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।
  • अमेरिका-भारत समझौते का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी होगा कि यह WTO का मात्र समझौता होगा जिसे सभी सदस्य राष्ट्र अपनी मंजूरी देंगे।
विश्व व्यापार संगठन में भारत के विवाद
  • 2018 में ऑस्ट्रेलिया ने गन्ना किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पर भारत को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के लिए संदर्भित किया है।
  • 12 नवंबर को अमेरिका ने भारत के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की जिसमें आरोप लगाया गया कि भारत ने विश्व व्यापार संगठन के नियम परमिट की तुलना में कपास सब्सिडी में अधिक भुगतान किया है।
  • सितंबर 2015 और मार्च 2018 के दौरान हॉट-रोल्ड स्टील फ्लैट उत्पादों के आयात पर सुरक्षा शुल्क लगाने की जापान की शिकायत को सही ठहराए जाने के बाद 7 नवंबर को भारत ने विश्व व्यापार संगठन में व्यापार विवाद को हार गया ।
  • भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में एक विवाद निपटान पैनल के साथ अमेरिका के खिलाफ एक बड़ा व्यापार विवाद जीत लिया है।
  • भारत ने दावा किया था कि ऊर्जा क्षेत्र में अमेरिका के आठ राज्यों की सरकारों द्वारा स्थापित घरेलू सामग्री की आवश्यकताओं और सब्सिडी ने व्यापार-संबंधित निवेश उपायों ( TRIMs) समझौते और सब्सिडी और काउंटरवैलिंग मेजर समझौते के कई प्रावधानों का उल्लंघन किया है। भारत ने इस विवाद को 2016 में विश्व व्यापार संगठन में लाया।
भारत में वैश्वीकरण का प्रभाव
  • विगत 15 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण ने एक लम्बी दूरी तय की है। वैश्वीकरण और उत्पादकों - स्थानीय एवं विदेशी दोनों के बीच वृहतर प्रतिस्पर्धा से उपभोक्ताओं, विशेषकर शहरी क्षेत्र में धनी वर्ग के उपभोक्ताओं को लाभ हुआ है। इन उपभोक्ताओं के समक्ष पहले से अधिक विकल्प हैं और वे अब अनेक उत्पादों की उत्कृष्ट गुणवत्ता और कम कीमत से लाभान्वित हो रहे हैं।
  • परिणामत: ये लोग पहले की तुलना में आज अपेक्षाकृत उच्चतर जीवन स्तर का आनन्द ले रहे हैं। उत्पादकों और श्रमिकों पर वैश्वीकरण का एक समान प्रभाव नहीं पड़ा है।
  • पहला, विगत 15 वर्षों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अपने निवेश में वृद्धि की है, जिसका अर्थ है कि भारत में निवेश करना उनके लिए लाभप्रद रहा है।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने शहरी इलाकों के उद्योगों जैसे सेलफोन, मोटर गाड़ियों, इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों, ठंडे पेय पदार्थों और जंक खाद्य पदार्थों एवं बैंकिंग जैसी सेवाओं के निवेश में रुचि दिखाई है। इन उत्पादों के अधिकांश खरीददार संपन्न वर्ग के लोग हैं। इन उद्योगों और सेवाओं में नये रोजगार उत्पन्न हुए हैं। साथ ही, इन उद्योगों को कच्चे माल इत्यादि की आपूर्ति करनेवाली स्थानीय कंपनियाँ समृद्ध हुईं।
  • दूसरा, अनेक शीर्ष भारतीय कंपनियाँ बढ़ी हुई प्रतिस्पर्धा से लाभान्वित हुई हैं। इन कंपनियों ने नवीनतम प्रौद्योगिकी और उत्पादन प्रणाली में निवेश किया और अपने उत्पादन - मानकों को ऊँचा उठाया है।
  • कुछ ने विदेशी कंपनियों के साथ सफलतापूर्वक सहयोग लाभ अर्जित किया। इससे भी आगे, वैश्वीकरण ने कुछ बड़ी भारतीय कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में उभरने के योग्य बनाया है।
  • टाटा मोटर्स (मोटरगाड़ियाँ), इंफोसिस (आई. टी.), रैनबैक्सी ( दवाइयाँ), एशियन पेंट्स (पेंट), सुंदरम फास्नर्स (नट और बोल्ट ) कुछ ऐसी भारतीय कंपनियाँ हैं, जो विश्व स्तर पर अपने क्रियाकलापों का प्रसार कर रही हैं।
  • वैश्वीकरण ने सेवा प्रदाता कंपनियों विशेषकर सूचना और संचार प्रौद्योगिकी वाली कंपनियों के लिए नये अवसरों का सृजन किया है।
विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए उठाए गए कदम
  • हाल के वर्षों में भारत की केन्द्र एवं राज्य सरकारें भारत में निवेश हेतु विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने के लिए विशेष कदम उठा रही हैं। औद्योगिक क्षेत्रों, जिन्हें विशेष आर्थिक क्षेत्र कहा जाता है, की स्थापना की जा रही है।
  • विशेष आर्थिक क्षेत्रों में विश्व स्तरीय सुविधाएँ - बिजली, पानी, सड़क, परिवहन, भण्डारण, मनोरंजन और शैक्षिक सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए।
  • विशेष आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन इकाइयाँ स्थापित करने वाली कंपनियों को आरंभिक पाँच वर्षों तक कोई कर नहीं देना पड़ता है।
  • विदेशी निवेश आकर्षित करने हेतु सरकार ने श्रम कानूनों में लचीलापन लाने की अनुमति दे दी है। संगठित क्षेत्र की कंपनियों को कुछ नियमों का अनुपालन करना पड़ता है।
  • जिसका उद्देश्य श्रमिक अधिकारों का संरक्षण करना है। हाल के वर्षों में सरकार ने कंपनियों को अनेक नियमों से छूट लेने की अनुमति दे दी है।
  • अब नियमित आधार पर श्रमिकों को रोज़गार देने के बजाय कंपनियों में जब काम का अधिक दबाव होता है, तो लोचदार ढंग से छोटी अवधि के लिए श्रमिकों को कार्य पर रखती हैं।
  • कंपनी की श्रम लागत में कटौती करने के लिए ऐसा किया जाता है। फिर भी, विदेशी कंपनियाँ अभी भी संतुष्ट नहीं हैं और श्रम कानूनों में और अधिक लचीलेपन की माँग कर रही हैं।
  • भारतीय कंपनी द्वारा लंदन स्थित कंपनी के लिए पत्रिका का प्रकाशन और कॉल सेंटर इसके उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त आँकड़ा प्रविष्टि (डाटा एन्ट्री), लेखाकरण, प्रशासनिक कार्य, इंजीनियरिंग जैसी कई सेवायें भारत जैसे देशों में अब सस्ते में उपलब्ध हैं और विकसित देशों को निर्यात की जाती है।
  • उपरोक्त कार्य - परिस्थितियाँ और श्रमिकों की कठिनाइयाँ भारत के अनेक औद्योगिक इकाइयों और सेवाओं में सामान्य बात हो गई है।
  • आज अधिकांश श्रमिक असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं। यही नहीं, संगठित क्षेत्र में क्रमशः कार्य परिस्थितियाँ असंगठित क्षेत्र के समान होती जा रही है। संगठित क्षेत्रक के श्रमिकों जैसे सुशीला को अब कोई संरक्षण और लाभ नहीं मिलता है, जिसका वह पहले उपभोग करती थी।
प्रतिस्पर्धा और अनिश्चित रोज़गार
  • वैश्वीकरण और प्रतिस्पर्धा के दबाव ने श्रमिकों के जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है।
  • बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण अधिकांश नियोक्ता इन दिनों श्रमिकों को रोज़गार देने में लचीलापन पसंद करते हैं। इसका अर्थ है। कि श्रमिकों का रोज़गार अब सुनिश्चित नहीं है।
  • अमेरिका और यूरोप में वस्त्र उद्योग की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारतीय निर्यातकों को वस्तुओं की आपूर्ति के लिए आर्डर देती हैं।
  • विश्वव्यापी नेटवर्क से युक्त बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लाभ को अधिकतम करने के लिए सबसे सस्ती वस्तुएँ खोजती हैं।
  • इन बड़े आर्डरों को प्राप्त करने के लिए भारतीय वस्त्र निर्यातक अपनी लागत कम करने की कड़ी कोशिश करते हैं। चूँकि कच्चे माल पर लागत में कटौती नहीं की जा सकती, इसलिए नियोक्ता श्रम लागत में कटौती करने की कोशिश करते हैं।
  • जहाँ पहले कारखाने श्रमिकों को स्थायी आधार पर रोज़गार देते थे, वहीं वे अब अस्थायी रोज़गार देते हैं, ताकि श्रमिकों को वर्ष भर वेतन नहीं देना पड़े। 
  • श्रमिकों को बहुत लम्बे कार्य - घंटों तक काम करना पड़ता है और अत्यधिक माँग की अवधि में नियमित रूप से रात में भी काम करना पड़ता है।
  • मज़दूरी काफी कम होती है और श्रमिक अपनी रोजी-रोटी के लिए अतिरिक्त समय में भी काम करने के लिए विवश हो जाते हैं।
  • हालाँकि वस्त्र निर्यातकों के बीच प्रतिस्पर्धा से बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अधिक लाभ कमाने में मदद मिली है, परन्तु वैश्वीकरण के कारण मिले लाभ में श्रमिकों को न्यायसंगत हिस्सा नहीं दिया गया है ।
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Thu, 30 Nov 2023 05:57:52 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | मुद्रा और साख https://m.jaankarirakho.com/513 https://m.jaankarirakho.com/513 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | मुद्रा और साख

मुद्रा, बचत एवं साख

  • प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य का व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था।
  • विनिमय के दो रूप है - (i) वस्तु विनिमय प्रणाली एवं (ii) मौद्रिक विनिम प्रणाली।
  • वस्तु विनिमय प्रणाली के अंतर्गत किसी वस्तु या सेवा का विनिमय किसी अन्य वस्तु या सेवा के साथ प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
  • वस्तु विनिमय प्रणाली में धन या संपत्ति के संचय का कार्य भी अत्यंत कठिन था।
  • वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयों ने ही मुद्रा को जन्म दिया।
  • वस्तु मुद्राः प्राचीनकाल में जब आधुनिक मुद्रा अर्थात् कागजी मुद्रा, धातु के मुद्रा के आगमन नहीं हुआ था तब पशुओं, खाद्यान्न इत्यादि को विनिमय का माध्यम बनाया जाता था, जिसे वस्तु मुद्रा कहा जाता था।
  • मुद्रा का विकास मानव आविष्कारों में एक महान आविष्कार है।
  • मुद्रा विनिमय का माध्यम है तथा आज सभी वस्तुओं का विनिमय मुद्रा के माध्यम से होता है।
  • मुद्रा के चार कार्य हैं- संचय, माध्यम मापक और भुगतान ।
  • मार्शल के अनुसार, “मुद्रा वह धूरि है जिसके चारों ओर समस्त आर्थिक विज्ञान चक्कर काटता है । "
  • मुद्रा विनिमय का वह माध्यम है जो वस्तुओं के मूल्य चुकाने तथा अन्य व्यावसायिक दायित्वों को निपटाने में इस्तेमाल किया जाता है। यह सर्वमान्य होती है।
  • चूँकि मुद्रा द्वारा किसी देश की राष्ट्रीय आय से प्रति व्यक्ति आय की माप होती है। इस तरह मुद्रा कल्याण में मदद करती है।
  • बचत, आय का वह भाग है जिसका वर्तमान में उपभोग नहीं किया जाता है। बचत को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण तत्व, आय का स्तर होता है। बचत प्राप्त आय में से उपयोग को घटाने पर प्राप्ति होती है। और बचत = आय-खर्च 
  • आय में वृद्धि होने से बचत के अनुपात में भी वृद्धि होता है। 
  • साख का संबंध भरोसा या विश्वास करने से है। साख का शाब्दिक अर्थ विश्वास या भरोसा होता है! शाख एक ऐसा विनिमय कार्य है जो एक निश्चित समय के बाद भुगतान करने से पूरा हो जाता है। 
  • आर्थिक दृष्टि से किसी व्यक्ति या संस्था की साख से उसकी ईमानदारी तथा ऋण लौटाने की क्षमता का बोध होता है।
  • साख पत्र:- साख मुद्रा के रूप में जिन साधनों का प्रयोग किया जाता है। उसे साख पत्र कहा जाते हैं। कुछ प्रमुख साख पत्र इस प्रकार हैं- चेक, ड्राफ्ट, विनिमय बिल, प्रतिज्ञा प्रमाण पत्र इत्यादि ।
  • प्लास्टिक मुद्राः- यह मुद्रा का आधुनिकतम रूप है जिसके माध्यम से खरीददारी की जाती है अथवा ए०टी०एम० से पैसे की निकासी की जाती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि ढेर सारी कागजी मुद्रा ढोने की जरूरत नहीं पड़ती है। जरूरत के हिसाब से इसका प्रयोग कर भुगतान किया जा सकता है एवं वस्तुओं एवं वस्तुओं का क्रय किया जा सकता है। ए०टी०एम० कार्ड, क्रेडिट कार्ड आदि इसी के उदाहरण हैं।
एटीएम क्या है ?
  • एटीएम का शाब्दिक अर्थ स्वचालित टेलर मशीन (Automated Teller Mahcine ) होता है। यह एक प्लास्टिक का कार्ड होता है। इस मशीन में चौबीस घंटे रुपया निकालने की सुविधा होती है। एटीएम के लिए ग्राहक के पास एक गुप्त पिन कोड होता है, जिसे जाने बगैर यह मशीन संचालित नहीं होती है। 
क्रेडिट कार्ड क्या है?
  • क्रेडिट कार्ड एक प्रकार का प्लास्टिक का कार्ड है जिसके अंतर्गत ग्राहक के वित्तीय स्थिति को देखते हुए बैंक उसकी साख की एक राशि निर्धारित कर देती है। जिसके अंतर्गत वह अपने क्रेडिट कार्ड के माध्यम से निर्धारित धनराशि के अंदर वस्तुओं और सेवाओं का उपयोग कर सकता है। वीसा कार्ड, मास्टर कार्ड इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
  • व्यावसायिक बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण को साख - मुद्रा कहते हैं।
  • व्यावसायिक बैंक अपनी नकद जमा राशि के आधार पर हीं साख का निर्माण करते हैं।
  • दो रुपये या इससे अधिक के सभी कागजी मुद्रा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के द्वारा चलाया जाता है।
  • एक रुपया का कागजी मुद्रा तथा सभी प्रकार के सिक्के केन्द्र सरकार के वित्त विभाग द्वारा निर्गत किया जाता है।
  • आय तथा उपभोग का अंतर बचंत कहलाता है।
  • आजकल प्लास्टिक मुद्रा (ए.टी.एम. सह डेबिट कार्ड तथा क्रेडिट कार्ड) का प्रचलन है।
हमारी वित्तीय संस्थाएँ
  • हमारी देश की वे संस्थाएँ जो आर्थिक विकास के लिए उद्यम एवं व्यवसाय के वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है ऐसी संस्थाओं को वित्तीय संस्था कहते हैं ।
  • वित्तीय संस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं- (I) राष्ट्र स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ और (II) राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ ।
  • सरकारी वित्तीय संस्थाएँ: सरकार द्वारा स्थापित एवं संपोषित वित्तीय संस्थाओं को सरकारी वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं। जैसेस्टेट बैंक ऑफ इंडिया, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक, इलाहाबाद बैंक इत्यादि ।
राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ
  • ऐसी वित्तीय संस्थाएं जो देश के लिए वित्तीय और साख नीतियों का निर्धारण एवं निर्देशन करती हैं तथा राष्ट्रीय स्तर पर वित्त प्रबंधन के कार्यों का संपादन करती हैं, उन्हें हम राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएँ कहते हैं।
  • वित्तीय संस्थाएँ किसी भी देश का मेरूदंड माना जाता है।
  • इनके दो महत्वपूर्ण अंग हैं: (I) भारतीय मुद्रा बाजार और (II) भारतीय पूँजी बाजार।
1. भारतीय मुद्रा बाजार :-
  • भारतीय मुद्रा बाजार ऐसा मौद्रिक बाजार है जहाँ उद्योग एवं व्यवसाय के क्षेत्र के लिए अल्पकालीन एवं मध्यकालीन वित्तीय व्यवस्था एवं प्रबंधन किया जाता है।
  • भारतीय मुद्रा बाजार को संगठित और असंगठित क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है। संगठित क्षेत्र में वाणिज्य बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एवं विदेशी बैंक शामिल किये जाते हैं। जबकि असंगठित क्षेत्र में देशी बैंकर जिनमें गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ शामिल की जाती हैं।
2. भारतीय पूंजी बाजार :-
  • भारतीय पूंजी बाजार मुख्यतः दीर्घकालीन पूँजी उपलब्ध कराता है। दीर्घकालीन पूँजी की मांग बड़े-बड़े उद्योग घराने एवं . सार्वजनिक निर्माण कार्यों के लिए होता है। इसका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है - (i) भारतीय पूंजी एवं प्रतिभूति बाजार- इसके अन्तर्गत प्राथमिक बाजार और द्वितीयक बाजार आते हैं। (ii) औद्योगिक बाजार। (iii) विकास वित्त संस्थान (iv) गैर-बैंकिंग वित्त कम्पनियाँ।
  • भारतीय पूंजी बाजार मूलतः इन्हीं चार वित्तीय संस्थानों पर आधारित है, जिसके चलते राष्ट्र-स्तरीय सार्वजनिक विकास जैसे- सड़क, रेलवे, अस्पताल, शिक्षण संस्थान, विद्युत उत्पादन संयंत्र एवं बड़े-बड़े निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग संचालित किये जाते हैं।
  • भारत की वित्तीय राजधानी मुम्बई में एक सुसंगठित बाजार हैं जिसके माध्यम से औद्योगिक क्षेत्रों के लिए वित्त की व्यवस्था होती है। भारत का यह पूंजी बाजार इतना दृढ़ है कि वर्तमान में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का जो दौर चल रहा है उसमें विश्व के अन्य देशों की अपेक्षा भारत कम प्रभावित हुआ है।
  • मुंबई के जिस जगह पर इस पूंजी बाजार का प्रधान क्षेत्र है उसे दलाल स्ट्रीट कहा जाता है।
संगठित बैंकिंग प्रणाली

1. केंद्रिय बैंक- भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) देश का केन्द्रीय बैंक है। यह देश में शीर्ष बैंकिंग संस्था के रूप में कार्यरत है।

भारतीय रिजर्व बैंक
  • भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) देश का केन्द्रीय बैंक है। इसकी स्थापना 1 अप्रैल 1935 को बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1934 के तहत की गई थी। 1 जनवरी 1949 को भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
  • इसका मुख्यालय मुंबई में स्थित है।
  • इसके कई प्रमुख कार्य हैं, जैसे कि मौद्रिक नीति तैयार करके उसको लागू करना, उसकी निगरानी करना, वित्तीय प्रणाली का रेगुलेशन, विदेशी मुद्रा का प्रबन्धन करना, मुद्रा जारी करना, उसका विनिमय करना और इस्तेमाल करने लायक न रहने पर उन्हें नष्ट करना ।
  • इसके अलावा, आरबीआई साख नियन्त्रित करने और मुद्रा के लेन-देन को नियंत्रित करने का कार्य तथा सरकार के बैंकर और बैंकों का बैंक के रूप में भी काम करती है।

2. वाणिज्य बैंक- वाणिज्य बैंक के द्वारा बैंकिंग एवं वित्तीय क्रियाओं का संचालन होता हैं।

3. सहकारी बैंक - आपसी सहयोग एवं सद्भावना के आधार पर जो वित्तीय संस्थाएँ कार्यशील हैं उसे सहकारी बैंक कहते हैं, यद्यपि ये राज्य सरकारों के द्वारा संचालित होती हैं।

राज्य स्तर की वित्तीय संस्थाएँ

राज्य में मुख्यतः दो प्रकार की वित्तीय संस्थाएँ कार्यरत हैं-

  1. राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाएँ: गैर संस्थागत वित्तीय संस्थाओं में निम्नलिखित वर्ग आते हैं- महाजन, सेठ तथा साहुकार, व्यापारी और रिश्तेदार एवं अन्य ।
  2. 2. संस्थागत वित्तीय संस्थाओं: गैर संस्थागत वित्तीय संस्थाओं में निम्नलिखित वर्ग आते हैं- सहकारी बैंक, प्राथमिक सहकारी समिति, भूमि विकास बैंक, व्यवसायिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामिण बैंक और नार्बाड एवं अन्य ।
    1. सहकारी बैंकः इनके माध्यम से बिहार के किसानों को अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन ऋण की सुविधा उप्लब्ध होती हैं। राज्य में 25 केंद्रीय सहकारी बैंक जिला स्तर.. पर तथा राज्य स्तर पर एक बिहार राज्य सहकारी बैंक कार्यरत हैं।
    2. प्राथमिक सहकारी समितियाँ: इनकी स्थापना कृषि क्षेत्र की अल्पकालीन ऋणों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए की गई है। एक गाँव अथवा क्षेत्र के कोई भी कम-से-कम दस व्यक्ति मिलकर एक प्राथमिक शाख समिति का निर्माण कर सकते हैं।
    3. भूमि विकास बैंकः राज्य में किसानों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने के लिए भूमि बंधक बैंक खोला गया था, जिसे अब भूमि विकास बैंक कहा जाता है।
    4. व्यावसायिक बैंकः यह अधिक मात्रा में किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण 1969 ई. में हुआ था।
    5. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकः सीमांत एवं छोटे किसानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक की स्थापना 1975 ई. में किया गया।
    6. नाबार्ड: यह कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए सरकारी संस्थाओं, व्यावसायिक बैंकों तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को वित्त की सुविधा प्रदान करता है, जो प्रत्यक्ष रूप से पुनः किसानों को ऋण सुविधा प्रदान करता है।
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड)
  • यह एक सांविधिक निकाय है जिसकी स्थापना वर्ष 1982 में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक अधिनियम, 1981 के तहत की गई थी।
  • नाबार्ड, एक विकास बैंक है जो प्राथमिक तौर पर देश के ग्रामीण क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है ।
  • यह कृषि एवं ग्रामीण विकास हेतु वित्त प्रदान करने के लिये शीर्ष बैंकिंग संस्थान है।
  • इसका मुख्यालय देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में अवस्थित है।
  • कृषि के अतिरिक्त यह छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगों एवं ग्रामीण • परियोजनाओं के विकास के लिये उत्तरदायी है। 
व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य
  • जमा राशि को स्वीकार करना: व्यावसायिक बैंकों का प्रमुख कार्य अपने ग्राहकों से जमा के रूप में मुद्रा प्राप्त करना है। लोग ब्याज कमाने के उद्देश्य से बैंक में अपना आय का कुछ भाग जमा करते हैं।
  • ऋण प्रदान करनाः व्यावसायिक बैंकों का दूसरा महत्वपूर्ण काम लोगों को ऋण प्रदान करना है।
  • सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य: इसके अलावा व्यावसायिक बैंक अन्य बहुत से कार्य करते हैं, जिन्हें सामान्य उपयोगिता संबंधी कार्य कहा जाता है। जैसे- यात्री चेक एवं साख पत्र जारी करना- साख पत्र या यात्री चेक की मदद से व्यापारी विदेशों से भी आसानी से माल उधार ले सकते हैं।
  • लॉकर की सुविधा: लॉकर की सुविधा से ग्राहक बैंक में अपने सोने-चाँदी के जेवर तथा अन्य आवश्यक दस्तावेज सुरक्षित रख सकते हैं।
  • ATM और क्रेडिट कार्ड की सुविधा: ATM और क्रेडिट कार्ड की मदद से खाता धारक 24 घंटे रूपया निकाल सकते हैं।
  • व्यापारिक सूचनाएँ एवं आँकड़े एकत्रीकरणः बैंक आर्थिक स्थिति से परिचित होने के कारण व्यापार संबंधी सूचनाएं एवं आँकड़े एकत्रित करके अपने ग्राहकों को वित्तीय मामलों पर सलाह देते हैं ।
  • ऐजेंसी संबंधी कार्य : इसके अंतर्गत चेक बिल और ड्राफ्ट का संकलन, ब्याज तथा लाभांश का संकलन तथा वितरण, ब्याज, ॠऋण की किस्त बीमे की किस्त का भुगतान, प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय तथा ड्राफ्ट तथा डाक द्वारा कोष का हस्तांतरण आदि क्रियाएँ करती हैं।
  • स्वयं सहायता समूहः स्वयं सहायता समूह ग्रामीण क्षेत्रों में 15-20 व्यक्तिओं का एक अनौपचारिक समूह होता है जो अपनी बचत तथा बैंकों से लघु ऋण लेकर अपने सदस्यों के पारिवारिक जरूरतों को पूरा करते हैं और गाँवों का विकास करते हैं।
रोजगार एवं सेवाएँ
  • रोजगार एवं सेवाओं से अभिप्राय उन बातों से है, जिनसे कोई व्यक्ति अपने परिश्रम एवं शिक्षा के आधार पर जीविकोपार्जन > के लिए धन एकत्र करता है।
  • एकत्रित धन को जब पूँजी के रूप में व्यवहार करता है और उत्पादन के क्षेत्र में निवेश करता है तो सेवा क्षेत्र उत्पन्न होता है। अतः रोजगार एवं सेवाएँ एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् रोजगार वृद्धि से सेवा क्षेत्र का भी विस्तार होता है।
  • सरकारी सेवा क्षेत्र: सेवा का वह क्षेत्र जिसमें सरकार के द्वारा नियुक्त पदाधिकारी अथवा सरकारी संस्थाएँ कार्य करती हैं; सरकारी सेवा क्षेत्र कहलाती है। उदाहरण- सेना, रेलवे, डाकघर इत्यादि ।
  • गैर-सरकारी सेवा: वे समस्त सेवाएँ जिनका संचालन निजी संगठन या कंपनियों के माध्यम से होता है, गैर-सरकारी सेवाएँ कहलाती हैं। उदाहरणस्वरुप निजी बैंक, दूरसंचार सेवा, यातायात, पर्यटन इत्यादि सेवाएँ।
  • नागरिक सेवाएँ: सामाजिक चेतना, सफाई, सामाजिक मान्यता का सम्मान नागरिक सेवाओं के अन्तर्गत आता है।
  • सेवा क्षेत्र के अंतर्गत बैंकिंग परिवहन, बीमा, संचार अर्थात तृतीयक क्षेत्रों को रखा जाता है।
  • तृतीयक क्षेत्र का विकास 20वीं शताब्दी के आरंभ में शुरू हुआ। इसके अन्तर्गत व्यापार, यातायात, संप्रेषण, वित्त, पर्यटन, सत्कार (हॉस्पिटैलिटी), संस्कृति, मनोरंजन, लोक प्रशासन सूचना, न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि आते हैं।
  • भारत में सेवा क्षेत्र के अंतर्गत 34% लोगों को रोजगार प्राप्त है, जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में भारत में सेवा क्षेत्र का योगदान 60% से अधिक है।
  • सेवा क्षेत्र में शिक्षा की भूमिका सर्वोपरि है। सेवा क्षेत्र में श्रमिकों की कुशलता शिक्षण प्रशिक्षण इत्यादि का सर्वाधिक महत्त्व है जो शिक्षा के प्रसार से हीं संभव है।
  • आर्थिक विकास के मुख्यतः तीन क्षेत्र हैं- (i) कृषि क्षेत्र, (ii) उद्योग क्षेत्र एवं (iii) सेवा क्षेत्र।
भारत में सेवा क्षेत्र
  • भारत में सेवा क्षेत्र की वृद्धि आर्थिक विकास के पारंपरिक मॉडलों में छलांग लगाने का एक अनूठा उदाहरण है।
  • भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है। जहाँ विश्व के अन्य देशों की जनसंख्या बुढ़ापा की ओर बढ़ रही है। भारतीय जनसंख्या युवावस्था की ओर अर्थात् आने वाले समय में भारत हीं सबसे बड़ा सेवा प्रदाता होगा।
  • देश के सकल घरेलू उत्पाद में भारत में सेवा क्षेत्र का योगदान 60% से अधिक है। हालाँकि, यह अभी भी केवल 25% श्रम शक्ति को रोजगार देता है।
  • नतीजतन, कृषि (जो स्थिर है) और विनिर्माण (जो अभी तक अपनी पूरी क्षमता तक नहीं बढ़ी है) हमारी नियोजित आबादी के बहुमत को बनाए रखती है।
  • इन्वेस्ट इंडिया, भारतीय अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र के योगदान, इसकी सफलताओं पर एक नजर डालता है और भविष्य के समान आर्थिक विकास के लिए संभावित समर्थकों की भी खोज करता है।
रोजगार के विभिन्न क्षेत्र एवं जीडीपी में भागीदारी 
क्षेत्र भारत अमेरीका चीन
कृषि से संबद्ध 15.4% 8% 7%
विनिर्माण और उद्योग 23%  12% 40%
सेवाएँ 61.5% 80% 52%
  • सेवा क्षेत्र में सरकारी प्रयास के रूप में किए जा रहे प्रयास:- प्रक्षेपण काम के बदले अनाज कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, समेकित विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना कार्यक्रम और नरेगा कार्यक्रम।
  • सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े पाँच सेवा क्षेत्र:- कॉल सेंटर, कोर बैंकिंग प्रणाली; दूरसंचार, इंटरनेट, बी०पी०ओ० इत्यादि सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े पाँच सेवा क्षेत्र हैं।
  • कंप्यूटर के दो मुख्य अंग होते हैं सॉफ्टवेयर तथा हार्डवेयर।
  • कंप्यूटर सॉफ्टवेयर उद्योग श्रम प्रधान है तथा इसके उत्पादन में भारत विश्व का एक अग्रणी देश माना जाने लगा है। हमारे देश का बेंगलुरु शहर सूचना प्रौद्योगिकी सॉफ्टवेयर का प्रतीक बन गया है।

प्रमुख सेवा क्षेत्र

1. आईटी-बीपीएम / फिनटेक
  • आईटी/आईटीईएस और फिनटेक खंड सकल मूल्य का 155 बिलियन डॉलर से अधिक प्रदान करता है और 10 - 15% प्रति वर्ष बढ़ने की क्षमता रखता है, निर्यात इसका सबसे बड़ा घटक है।
  • भारत में शीर्ष 10 सेवा क्षेत्र की कंपनियां
    1. रिलायंस इंडस्ट्रीज
    2. एचडीएफसी बैंक
    3. आईसीआईसीआई बैंक
    4. एचडीएफसी
    5. टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज
    6. लार्सन एंड टुब्रो
    7. भारतीय स्टेट बैंक
    8. एनटीपीसी
    9. कोटक महिंद्रा बैंक
    10. ऐक्सिस बैंक
2. स्वास्थ्य सेवा और पर्यटन
  • विश्व स्तरीय चिकित्सा सुविधाओं, कुशल डॉक्टरों, तकनीशियनों और फार्मास्यूटिकल्स की उपलब्धता ।
  • इसी प्रकार पर्यटन की दृष्टि से भी भारत अपने प्राकृतिक सौन्दर्य एवं ऐतिहासिक महत्व के स्थानों के लिए प्रसिद्ध है।
  • भारत का पर्यटन सबसे बड़ा सेवा उद्योग है जहां इसका राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में 6.23% और भारत के कुल रोजगार में 8.78% योगदान देता है।
  • चिकित्सा उपचार के लिए भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने हेतु एक नई चिकित्सा वीजा श्रेणी की शुरुआत की गई है।
  • होटल व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए सरकारी योजनायें भी शुरू की गई। जिसमें हेरिटेज होटल योजना महत्वपूर्ण है। इस योजना का उद्देश्य पुराने महल, हवेलियां किलों आदि का संरक्षण कर उसे होटल व्यवसाय के रूप में उपयोगी बनाना है। 
3. अंतरिक्ष
  • अंतरिक्ष क्षेत्र में भारतीय सेवाएं, बहु प्रक्षेपण प्रौद्योगिकियों में सिद्ध विशेषज्ञता के साथ, इसे वैश्विक अंतरिक्ष परिवहन उद्योग में अपने साथियों पर एक महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करती हैं।
  • हमारी प्रक्षेपण क्षमताओं का लगभग 100% ट्रैक रिकॉर्ड है। कई देश सक्रिय रूप से भारत की प्रक्षेपण सुविधाओं का लाभ उठाना चाह रहे हैं। यह बड़ी क्षमता को प्रदर्शित करता है। 
4. अन्य सेवाएं 
  • मीडिया और मनोरंजन ( एनीमेशन, गेमिंग, डबिंग), शिक्षा (एमओओसी जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म), और खेल (आईपीएल, आईएफएल, खेल प्रबंधन), कानूनी / पैरालीगल सेवाएं, जोखिम प्रबंधन और सलाहकार कार्य, आदि ऐसे क्षेत्र हैं जो आगे बढ़ सकते हैं।

मुद्रा विनिमय का एक माध्यम

  • ऐसे कुछ लेन-देन में मुद्रा के बदले सेवाएँ प्रदान की जा रही हैं। लेकिन कुछ मामलों में हो सकता है कि लेन-देन होते वक्त मुद्रा का कोई आदान-प्रदान न हो, केवल बाद में भुगतान करने का वादा हो ।
  • जिस व्यक्ति के पास मुद्रा है, वह इसका विनिमय किसी भी वस्तु या सेवा खरीदने के लिए आसानी से कर सकता है। इसलिए हर कोई मुद्रा के रूप में भुगतान लेना पसंद करता है, फिर उस मुद्रा का इस्तेमाल अपनी जरूरत की चीजें खरीदने के लिए करता है।
    • एक जूता निर्माता का उदाहरण देखते हैं। वह बाज़ार में जूता बेचकर गेहूँ खरीदना चाहता है। जूता बनाने वाला पहले जूतों के बदले मुद्रा प्राप्त करेगा और फिर इस मुद्रा का इस्तेमाल गेहूँ खरीदने के लिए करेगा।
    • जूता निर्माता यदि बिना मुद्रा का इस्तेमाल किए जूते का सीधे गेहूँ से विनिमय करता तो उसे कितनी कठिनाई होती।
    • उसे गेहूँ उगाने वाले ऐसे किसान को खोजना पड़ता जो न केवल गेहूँ बेचना चाहता हो, बल्कि साथ में जूते भी खरीदना चाहता हो । अर्थात् दोनों पक्ष एक दूसरे से चीज़े खरीदने और बेचने पर सहमति रखते हों। इसे आश्यकताओं का दोहरा संयोग कहा जाता है।
    • एक व्यक्ति जो वस्तु बेचने की इच्छा रखता है, वही वस्तु दूसरा व्यक्ति ख़रीदने की इच्छा रखता हो।
    • वस्तु विनिमय प्रणाली में, जहाँ मुद्रा का उपयोग किये बिना वस्तुओं का विनिमय होता है, वहाँ आवश्यकताओं का दोहरा संयोग होना अनिवार्य विशिष्टता है।
    • इसकी तुलना में ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ मुद्रा का प्रयोग होता है, मुद्रा महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती भूमिका प्रदान करके आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की ज़रूरत को खत्म कर देती है।
    • फिर जूता निर्माता के लिए ज़रूरी नहीं रह जाता कि वो ऐसे किसान को ढूँढ़ें, जो न केवल उसके जूते ख़रीदे बल्कि साथ-साथ उसको गेहूँ भी बेचे। उसे केवल अपने जूते के लिए खरीददार ढूँढ़ना है।
    • एक बार उसने जूते, मुद्रा में बदल लिए तो वह बाज़ार में गेहूँ या अन्य कोई वस्तु खरीद सकता है । चूँकि मुद्रा विनिमय प्रक्रिया में मध्यस्थता का काम करती है, इसे विनिमय का माध्यम कहा जाता है।
मुद्रा के आधुनिक रूप
  • मुद्रा ऐसी चीज़ है जो लेन-देन में विनिमय का माध्यम बन सकती है। सिक्कों के चलन से पहले तरह-तरह की चीजें मुद्रा के रूप में इस्तेमाल की जाती थीं। उदाहरण के लिए, बहुत प्रारंभिक काल से ही भारतीय अनाज और पशु का मुद्रा के रूप में इस्तेमाल करते थे। इसके बाद सोना, चाँदी और ताँबे जैसी धातुओं के सिक्कों का चलन हुआ, जिसका चलन पिछली सदी तक रहा।
करेंसी
  • मुद्रा के आधुनिक रूपों में करेंसी-कागज़ के नोट और सिक्के शामिल हैं। वे चीजें जो पहले मुद्रा के रूप में प्रयोग की जाती थीं, उसके विपरीत आधुनिक मुद्रा बहुमूल्य धातुओं जैसे सोना-चाँदी और ताँबे के बने सिक्कों से नहीं बनी है।
  • अनाज और पशुओं की तरह वे रोजमर्रा की चीजें भी नहीं है। आधुनिक मुद्रा का इस प्रकार का अपना कोई इस्तेमाल नहीं है।
  • इसे विनिमय का माध्यम इसलिए स्वीकार किया जाता है. क्योंकि किसी देश की सरकार इसे प्राधिकृत करती है। भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक केंद्रीय सरकार की तरफ से करेंसी नोट जारी करता है।
  • भारतीय कानून के अनुसार, किसी व्यक्ति या संस्था को मुद्रा जारी करने की इजाजत नहीं है। इसके अलावा कानून विनिमय के माध्यम के रूप में रुपये का इस्तेमाल करने की वैधता प्रदान करता है, जिसे भारत में सौदों में अदायगी के लिए मना नहीं किया जा सकता।
  • भारत में कोई व्यक्ति कानूनी तौर पर रुपयों में अदायगी को अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए, रुपया व्यापक स्तर पर विनिमय का माध्यम स्वीकार किया गया है।
बैंकों में निक्षेप
  • लोग मुद्रा बैंकों में निक्षेप के रूप में भी रखते हैं। किसी समय पर, लोगों को रोजमर्रा की आवश्यकताओं के लिए कुछ ही करेंसी की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए, हर महीने के आखिर में वेतन वाले मजदूरों के अतिरिक्त नकद होता है। वे इसे बैंकों में अपने नाम से खाता खोलकर जमा कर देते हैं।
  • बैंक ये जमा स्वीकार करते हैं और इस पर सूद भी देते हैं। इस तरह लोगों का धन बैंकों के पास सुरक्षित रहता है और इस पर सूद मिलता है।
  • लोगों को अपनी आवश्यकता के अनुसार इसमें से धन निकालने की सुविधा उपलब्ध होती है। चूँकि बैंक खातों में जमा धन को माँग के ज़रिए निकाला जा सकता है, इसलिए इस जमा को माँग जमा कहा जाता है।
  • माँग जमा एक अन्य दिलचस्प सुविधा देता है। यह सुविधा इसे मुद्रा का (विनिमय का माध्यम) महत्त्वपूर्ण लक्षण प्रदान करती है। चेक से भुगतान के लिए भुगतानकर्त्ता, जिसका किसी बैंक में खाता है, एक निश्चित रकम के लिए चेक काटता है। चेक एक ऐसा कागज है, जो बैंक को किसी व्यक्ति के खाते से चेक पर लिखे नाम के किसी दूसरे व्यक्ति को एक ख़ास रकम का भुगतान करने का आदेश देता है।
  • माँग जमा में मुद्रा के अनिवार्य लक्षण मिलते हैं। माँग जमा के बदले चेक लिखने की सुविधा से बिना नकद का इस्तेमाल किये सीधा भुगतान करना संभव हो जाता है। चूँकि माँग जमाओं को करेंसी के साथ-साथ व्यापक स्तर पर भुगतान का माध्यम स्वीकार किया जाता है, इसलिए आधुनिक अर्थव्यवस्था में इसे भी मुद्रा समझा जाता है।
  • बैंकों के लिए इन जमा के बदले कोई भी माँग जमा एवं भुगतान नहीं होगा। मुद्रा के आधुनिक रूप-करेंसी और जमा- - आधुनिक बैंक प्रणाली की कार्यप्रणाली से बहुत करीब से जुड़े हुए हैं।
बैंकों की ऋण संबंधी गतिविधियाँ
  • बैंक जमा रकम का एक छोटा हिस्सा अपने पास नकद के रूप में रखते हैं। उदाहरण के लिए, आजकल भारत में बैंक जमा का केवल 15 प्रतिशत हिस्सा नकद के रूप में अपने पास रखते हैं। इसे किसी एक दिन में जमाकर्ताओं द्वारा धन निकालने की संभावना को देखते हुए यह प्रावधान किया जाता है। चूँकि किसी एक विशेष दिन में केवल कुछ जमाकर्ता ही नकद निकालने के लिए आते हैं, इसलिए बैंक का काम इतने नकद से आराम से चल जाता है।
  • बैंक जमा राशि के एक बड़े भाग को ऋण देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के लिए ऋण की बहुत माँग रहती है।
  • बैंक जमा राशि का लोगों की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस तरह, बैंक जिनके पास अतिरिक्त राशि है (जमाकर्ता) एवं जिन्हें राशि की ज़रूरत है (कर्जदार) के बीच मध्यस्थता का काम करते हैं।
  • बैंक जमा पर जो ब्याज देते हैं उससे ज़्यादा ब्याज ऋण पर लेते हैं। कर्जदारों से लिए गए ब्याज और जमाकर्ताओं को दिये गये ब्याज के बीच का अंतर बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत है। 
साख की दो विभिन्न स्थितियाँ
  • हमारी रोज़मर्रा की गतिविधियों में ऐसे बहुत से लेन-देन होते हैं, जहाँ किसी न किसी रूप में ऋण का प्रयोग होता है। ऋण (उधार) से हमारा तात्पर्य एक सहमति से है जहाँ साहूकार कर्जदार को धन, वस्तुएँ या सेवाएँ मुहैया कराता है और बदले में भविष्य में कर्जदार से भुगतान करने का वादा लेता है।
  • कोई भी व्यक्ति उत्पादन के लिए कार्यशील पूँजी की ज़रूरत को ऋण के द्वारा पूरा करता है। ऋण उसे उत्पादन के कार्यशील खर्चों तथा उत्पादन को समय पर पूरा करने में मदद करता है और वह अपनी कमाई बढ़ा पाता है। इस प्रकार ऋण एक महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका अदा करता है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में साख की मुख्य माँग फसल उगाने के लिए होती है। फसल उगाने में बीज, खाद, कीटनाशक दवाओं, पानी, बिजली, उपकरणों की मरम्मत इत्यादि पर काफी खर्च होता है।
  • इन आगतों को खरीदने और फसल की बिक्री होने के बीच कम से कम 3-4 महीने का अंतराल होता है। आमतौर से किसान ऋतु के आरंभ में फसल उगाने के लिए उधार लेते हैं और फसल तैयार होने के बाद वापस कर देते हैं। उधार की अदायगी मुख्यतः फसल की कमाई पर निर्भर है।
  • किसान के मामले में फसल बर्बाद हो जाने से कर्ज़ की अदायगी असंभव हो गई। उसे कर्ज उतारने के लिए अपनी ज़मीन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ा। ऋण ने किसान की कमाई को बढ़ाने के बजाय उसकी स्थिति बदतर कर दी। इसे आम भाषा में कर्ज-ज़ाल कहा जाता है। इस मामले में ऋण कर्जदार को ऐसी परिस्थिति में धकेल देता है, जहाँ से बाहर निकलना काफी कष्टदायक होता है।
  • एक स्थिति में ऋण आय बढ़ाने में सहयोग करता है, जिससे व्यक्ति की स्थिति पहले से बेहतर हो जाती है। दूसरी स्थिति में फसल बर्बाद होने के कारण ऋण व्यक्ति को अपने जाल में फँसा देता है।
  • किसान को कर्ज़ उतारने के लिए अपनी ज़मीन का एक हिस्सा बेचना पड़ता है। स्पष्ट है कि उसकी स्थिति पहले की तुलना में बदतर हुई। ऋण उपयोगी होगा या नहीं, यह परिस्थिति के खतरों और हानि होने पर प्राप्त सहयोग की संभावना पर निर्भर करता है।
ऋण की शर्ते
  • हर ऋण समझौते में ब्याज दर निश्चित कर दी जाती है, जिसे कर्जदार महाजन को मूल रकम के साथ अदा करता है। इसके अलावा, उधारदाता कोई समर्थक ऋणाधार ( गिरवी रखने के लिए) की माँग कर सकता है।
  • समर्थक ऋणाधार ऐसी संपत्ति है, जिसका मालिक कर्जदार है। (जैसे कि भूमि, इमारत, गाड़ी, पशु, बैंकों में पूँजी) और इसका इस्तेमाल वह उधारदाता को गारंटी देने के रूप में करता है, जब तक कि ऋण का भुगतान नहीं हो जाता।
  • यदि कर्जदार उधार वापस नहीं कर पाता, तो उधारदाता को भुगतान प्राप्ति के लिए संपत्ति या समर्थक ऋणाधार बेचने का अधिकार होता है। संपत्ति- जैसे कि ज़मीन, बैंकों में जमा पूँजी, पशु इत्यादि समर्थक ऋणाधार के आम उदाहरण हैं, जिनका उपयोग कर्ज़ लेने के लिए किया जाता है।
  • ब्याज दर, समर्थक ऋणाधार, आवश्यक कागजात और भुगतान के तरीकों को सम्मिलित रूप से ऋण की शर्तें कहा जाता है। ऋण की शर्तों में एक ऋण व्यवस्था से दूसरी ऋण व्यवस्था में काफी फर्क आ जाता है।
  • कर्ज़ की शर्तें उधारदाता और कर्जदार की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। अगले भाग में ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जहाँ विभिन्न ऋण व्यवस्थाओं में ऋण की शर्तें अलग-अलग हैं। .
सहकारी समितियों से ऋण
  • बैकों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते ऋण का एक अन्य स्रोत सहकारी समितियाँ हैं।
  • सहकारी समिति के सदस्य अपने संसाधनों को कुछ क्षेत्रों में सहयोग के लिए एकत्र करते हैं ।
  • कई प्रकार की सहकारी समितियाँ संभव है, जैसे- किसानों, बुनकरों एवं औद्योगिक मज़दूरों इत्यादि की सहकारी समितियाँ।
  • कृषक सहकारी समिति सोनपुर के नज़दीक एक गाँव में काम करती है। इसके 2300 किसान सदस्य हैं।
  • यह अपने सदस्यों से जमा प्राप्त करती हैं। इस जमा पूँजी को ऋणाधार मानते हुए, इस सहकारी समिति ने बैंक से बड़ा ऋण प्राप्त किया है।
  • इस पूँजी का इस्तेमाल सदस्यों को कर्ज देने के लिए किया जाता है। यह ऋण लौटाने के बाद कर्ज का दूसरा दौर शुरू किया जा सकता है।
  • कृषक सहकारी समिति कृषि उपकरण खरीदने, खेती तथा कृषि व्यापार करने, मछली पकड़ने, घर बनाने और अन्य विभिन्न प्रकार के ख़र्चों के लिए ऋण मुहैया कराती है।

भारत में औपचारिक क्षेत्रक में साख

  • विभिन्न प्रकार के ऋणों को दो वर्गों में बांटा जा सकता हैऔपचारिक तथा अनौपचारिक क्षेत्रक ऋण | पहले वर्ग में बैंकों और सहकारी समितियों से लिए कर्ज़ आते हैं। अनौपचारिक उधारदाता में साहूकार, व्यापारी, मालिक, रिश्तेदार, दोस्त इत्यादि आते हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक ऋणों के औपचारिक स्रोतों की कार्यप्रणाली पर नज़र रखता है।
  • आर.बी.आई. नजर रखता है कि बैंक वास्तव में नकद शेष बनाए हुए हैं। आर.बी.आई. इस पर भी नज़र रखता है कि बैंक केवल लाभ अर्जित करने वाले व्यावसायियों और व्यापारियों को ही ऋण मुहैया नहीं करा रहे, बल्कि छोटे किसानों, छोटे उद्योगों, छोटे कर्जदारों इत्यादि को भी ऋण दे रहे हैं।
  • समय-समय पर, बैंकों द्वारा आर.बी.आई. को यह जानकारी देनी पड़ती है कि वे कितना और किनको ऋण दे रहे हैं और उसकी ब्याज की दरें क्या है?
  • अनौपचारिक क्षेत्रक में ऋणदाताओं की गतिविधियों की देखरेख करने वाली कोई संस्था नहीं है। वे ऐच्छिक दरों पर ऋण दे सकते हैं। उन्हें नाजायज़ तरीकों से अपने पैसे वापस लेने से रोकने वाला कोई नहीं है ।
  • औपचारिक ऋणदाताओं की तुलना में अनौपचारिक क्षेत्रक के ज़्यादातर ऋणदाता कहीं अधिक ब्याज वसूल करते हैं। इसलिए, अनौपचारिक ऋण कर्जदाता को अधिक महँगा पड़ता है।
  • ॠण की ऊँची लागत का अर्थ है कर्जदार की आय का अधिकतर हिस्सा ऋण की अदाएगी में ही खर्च हो जाता है। इसलिए, कर्जदारों के पास अपने लिए कम आय बचती है।
  • कुछ मामलों में ऋण की ऊँची ब्याज दरों के कारण कर्ज वापस करने की रकम कर्जदार की आय से भी अधिक हो जाती है। इसके कारण ऋण का बोझ बढ़ जाता है और व्यक्ति ऋण - जाल में फँस जाता है। ऐसा भी संभव है कि जो लोग कर्ज लेकर अपना उद्यम शुरू करना चाहते हैं, वे ऋण की अधिक लागत को देख कर पीछे हट जाएँ।
  • इन सभी कारणों को देखते हुए बैंकों और सहकारी समितियों को ज्यादा कर्ज़ देना चाहिए। इसके जरिए लोगों की आय बढ़ सकती है और बहुत से लोग अपनी विभिन्न ज़रूरतों के लिए सस्ता कर्ज़ ले सकेंगे।
  • वे फसल उगा सकते हैं, कोई कारोबार कर सकते हैं, छोटे उद्योग इत्यादि लगा सकते हैं। वे नया उद्योग लगा सकते हैं या वस्तुओं का व्यापार कर सकते हैं। सस्ता और सामर्थ्य के अनुकूल कर्ज देश के विकास के लिए अति आवश्यक है।
औपचारिक और अनौपचारिक साख- किसे क्या मिलता है? 
  • शहरी क्षेत्रों के निर्धन परिवारों की कर्जों की 85 प्रतिशत ज़रूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं। इस की तुलना आप शहरी इलाकों के अमीर परिवारों से कीजिए। उनके केवल 10 प्रतिशत कर्ज़ अनौपचारिक स्रोतों से जबकि 90 प्रतिशत औपचारिक स्रोतों से हैं। इसी तरह की तस्वीर ग्रामीण क्षेत्रों में भी है।
  • अमीर परिवार औपचारिक ऋणदाताओं से सस्ता ऋण ले रहे हैं, जबकि गरीब परिवारों को कर्ज़ के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
    • पहला, औपचारिक स्रोत अभी भी ग्रामीण परिवारों की कुल ऋण ज़रूरतों का केवल 50 प्रतिशत पूरा कर पाता है। बाकी ज़रूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं।
    • अनौपचारिक ऋणदाताओं से लिए गये उधार पर आमतौर से ब्याज की दरें बहुत अधिक होती हैं और यह उधार कर्जदाताओं की आय बढ़ाने का काम कम ही कर पाता है।
    • इसलिए, बैंकों और सहकारी समितियों को अपनी गतिविधियाँ विशेषकर ग्रामीण इलाकों में बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि कर्जदारों की अनौपचारिक स्रोत पर से निर्भरता घंटे।
    • दूसरा, यदि एक तरफ औपचारिक स्रोत के ऋणों का विस्तार होना चाहिए तो दूसरी ओर यह भी ज़रूरी है कि यह ऋण सभी लोगों को प्राप्त हो सके।
    • वर्तमान समय में, अमीर परिवार ही औपचारिक स्रोतों से ऋण प्राप्त करते हैं जबकि गरीब परिवारों को अनौपचारिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यह ज़रूरी है कि औपचारिक ऋण का अधिक समान वितरण हो, ताकि गरीब परिवार भी सस्ते ऋण का फायदा उठा सकें।
निर्धनों के स्वयं सहायता समूह
  • भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक मौजूद नहीं हैं। जहाँ कहीं मौजूद भी हैं, बैंक से कर्ज़ लेना अनौपचारिक स्रोत से कर्ज़ लेने की तुलना में ज्यादा मुश्किल है।
  • बैंक से कर्ज़ लेने के लिए ऋणाधार और विशेष कागजातों की ज़रूरत पड़ती है। ऋणाधार की अनुपलब्धता एक प्रमुख कारण है, जिससे गरीब बैंकों से ऋण नहीं ले पाते।
  • दूसरी ओर, अनौपचारिक ऋणदाता जैसे साहूकार इन कर्जदारों को व्यक्तिगत स्तर पर जानते हैं और इस कारण अक्सर बिना ऋणाधार के भी ऋण देने के लिए तैयार हो जाते हैं।
  • कर्ज़दार ज़रूरत पड़ने पर पुराना ऋण चुकाये बिना भी, नया कर्ज़ लेने के लिए साहूकार के पास जा सकते हैं। लेकिन, महाजन ब्याज की दरें बहुत ऊँची रखते हैं, लेन-देन की लिखा पढ़ी भी पूरी नहीं करते और निर्धन कर्जदारों को तंग करते हैं ।
  • हाल के वर्षों में, लोगों ने गरीबों को उधार देने के कुछ नए तरीके अपनाने की कोशिश की है। इनमें से एक विचार ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों विशेषकर महिलाओं को छोटे-छोटे स्वयं सहायता समूहों में संगठित करने और उनकी बचत पूँजी को एकत्रित करने पर आधारित है।
  • एक विशेष स्वयं सहायता समूह में एक-दूसरे के पड़ोसी 15-20 सदस्य होते हैं, जो नियमित रूप से मिलते हैं और बचत > हैं। प्रति व्यक्ति बचत 25 रुपये से लेकर 100 रुपये या अधिक हो सकती है। यह परिवारों की बचत करने की क्षमता पर निर्भर करता है। सदस्य अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए छोटे कर्ज़ समूह से ही कर्ज ले सकते हैं ।
  • समूह इन कर्जों पर ब्याज लेता है लेकिन यह साहूकार द्वारा लिए जाने वाले ब्याज से कम होता है। एक या दो वर्षों के बाद, अगर समूह नियमित रूप से बचत करता है, तो समूह बैंक से ऋण लेने के योग्य हो जाता है। ऋण समूह के नाम दिया जाता है और इसका मकसद सदस्यों के लिए स्वरोजगार के अवसरों का सृजन करना है।
    • उदाहरण के लिए, सदस्यों को छोटे-छोटे कर्ज अपनी गिरवी ज़मीन छुड़वाने के लिए, कार्यशील पूँजी की ज़रूरतें ( बीज, खाद, बाँस और कपड़े खरीदने के लिए), घर बनाने, सिलाई की मशीन, हथकरघा, पशु इत्यादि संपत्ति खरीदने के लिए दिए जाते हैं।
  • बचत और ऋण गतिविधियों से संबंधी ज्यादातर महत्त्वपूर्ण निर्णय समूह के सदस्य स्वयं लेते हैं। समूह दिए जाने वाले ऋण - उसका लक्ष्य, उसकी रकम, ब्याज दर, वापस लौटाने की अवधि आदि के बारे में निर्णय करता है। इस ऋण को लौटाने की ज़िम्मेदारी भी समूह की होती है।
  • एक भी सदस्य अन्य सदस्य इस मामले को गंभीरता से लेते हैं। इसी कारण, बैंक निर्धन महिलाओं को ऋण देने के लिए तैयार हो जाते हैं जब वे अपने को स्वयं सहायता समूहों में संगठित कर लेती के अगर ऋण वापस नहीं लौटाता तो समूह हैं, यद्यपि उनके पास कोई ऋणाधार नहीं होता।
  • इस तरह, स्वयं सहायता समूह कर्जदारों को ऋणाधार की कमी की समस्या से उबारने में मदद करते हैं। उन्हें समयानुसार विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के लिए एक उचित ब्याज दर पर ऋण मिल जाता है।
  • इसके अतिरिक्त यह समूह ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों को संगठित > करने में मदद करते हैं।
  • इससे न केवल महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो जाती हैं, बल्कि समूह की नियमित बैठकों के ज़रिए लोगों को एक आम मंच मिलता है, जहाँ वह तरह-तरह के सामाजिक विषयों जैसे, स्वास्थ्य, पोषण और घरेलू हिंसा इत्यादि पर आपस में चर्चा कर पाती हैं।
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Thu, 30 Nov 2023 05:16:57 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक https://m.jaankarirakho.com/512 https://m.jaankarirakho.com/512 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH ECONOMY NOTES | भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक

संगठित और असंगठित के रूप में क्षेत्रकों का विभाजन

  • अब आर्थिक कार्यों को विभाजित करने के एक अन्य तरीके का परीक्षण करते हैं। इसे लोगों के नियोजित होने के आधार पर देखते हैं।
  • संगठित क्षेत्रक में वे उद्यम अथवा कार्य स्थान आते हैं जहाँ रोज़गार की अवधि नियमित होती है और इसलिए लोगों के पास सुनिश्चित काम होता है। वे क्षेत्रक सरकार द्वारा पंजीकृत होते हैं और उन्हें सरकारी नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करना होता है। इन नियमों एवं विनियमों का अनेक विधियों, जैसे, कारखाना अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, सेवानुदान अधिनियम, दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, इत्यादि में उल्लेख किया गया है। इसे संगठित क्षेत्रक कहते हैं क्योंकि इसकी कुछ औपचारिक प्रक्रिया एवं कार्यविधि है।
  • कुछ लोग किसी के द्वारा नियोजित नहीं होते बल्कि वे स्वतः काम कर सकते हैं। परन्तु वे भी अपने को सरकार के समक्ष पंजीकृत कराते हैं और नियमों एवं विनियमों का अनुपालन करते हैं।
  • संगठित क्षेत्रक के कर्मचारियों को रोज़गार - सुरक्षा के लाभ मिलते हैं। उनसे एक निश्चित समय तक ही काम करने की आशा की जाती है। यदि वे अधिक काम करते हैं तो नियोक्ता द्वारा उन्हें अतिरिक्त वेतन दिया जाता है। वे नियोक्ता से कई दूसरे लाभ भी प्राप्त करते हैं ।
  • सवेतन छुट्टी, अवकाश काल में भुगतान, भविष्य निधि, सेवानुदान इत्यादि पाते हैं। वे चिकित्सीय लाभ पाने के हकदार होते हैं और नियमों के अनुसार कारखाना मालिक को पेयजल और सुरक्षित कार्य-पर्यावरण जैसी सुविधाओं को सुनिश्चित करना होता है। जब वे सेवानिवृत होते हैं, तो पेंशन भी प्राप्त करते हैं।
  • इसके विपरीत, कमल असंगठित क्षेत्रक में काम करता है। असंगठित क्षेत्रक छोटी-छोटी और बिखरी इकाइयों, जो अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण से बाहर होती हैं, से निर्मित होता है। इस क्षेत्रक के नियम और विनियम तो होते हैं परंतु उनका अनुपालन नहीं होता है। वे कम वेतन वाले रोजगार हैं और प्राय: नियमित नहीं हैं। यहाँ अतिरिक्त समय में काम करने, सवेतन छुट्टी, अवकाश, बीमारी के कारण छुट्टी इत्यादि का कोई प्रावधान नहीं है। रोजगार सुरक्षित नहीं है ।
  • श्रमिकों को बिना किसी कारण काम से हटाया जा सकता है। कुछ मौसमों में जब काम कम होता है, तो कुछ लोगों को काम से छुट्टी दे दी जाती है। बहुत से लोग नियोक्ता की पसन्द पर निर्भर होते हैं।
  • इस क्षेत्रक में काफी संख्या में लोग अपने-अपने छोटे कार्यों, जैसे- सड़कों पर विक्रय अथवा मरम्मत कार्य में स्वत: नियोजित हैं। इसी प्रकार किसान अपने खेतों में काम करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मज़दूरी पर श्रमिकों को लगाते हैं।
असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों का संरक्षण
  • संगठित क्षेत्रक अत्यधिक माँग पर ही रोज़गार प्रस्तावित करता है। लेकिन संगठित क्षेत्रक में रोज़गार के अवसरों में अत्यंत धीमी गति से वृद्धि हो रही है ।
  • यह भी आम तौर पर पाया जाता है कि संगठित क्षेत्रक, असंगठित क्षेत्रक के रूप में काम करते हैं। वे ऐसी रणनीति, कर वंचन एवं श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने वाली विधियों के अनुपालन से बचने के लिए अपनाते हैं। परिणामत: बहुत अधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्रक में काम करने के लिए विवश हुए हैं, जो बहुत कम वेतन देते हैं।
  • उनका प्रायः शोषण किया जाता है और उन्हें उचित मज़दूरी नहीं दी जाती है। उनकी आय कम है और नियमित नहीं है। इस रोज़गार में संरक्षण नहीं है और न ही इसमें कोई लाभ है। सन् 1990 से यह भी देखा गया है कि संगठित क्षेत्रक के बहुत अधिक श्रमिक अपना रोज़गार खोते जा रहे हैं।
  • ये लोग असंगठित क्षेत्रक में कम वेतन पर काम करने के लिए विवश हैं। अतः असंगठित क्षेत्रक में और अधिक रोज़गार की ज़रूरत के अलावा श्रमिकों को संरक्षण और सहायता की भी आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में, असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः भूमिहीन कृषि श्रमिकों, छोटे और सीमांत किसानों, फसल बँटाईदारों और कारीगरों (जैसे बुनकरों, लुहारों, बढ़ई और सुनार) से रचित होता है।
  • भारत में लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवार छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं। इन किसानों को समय से बीज, कृषि-उपकरणों, साख, भण्डारण सुविधा और विपणन केन्द्र की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध कराने की ज़रूरत है।
  • शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्रक मुख्यतः लघु उद्योगों के श्रमिकों, निर्माण, व्यापार एवं परिवहन में कार्यरत आकस्मिक श्रमिकों और सड़कों पर विक्रेता का काम करने वालों, सिर पर बोझा ढ़ोने वाले श्रमिकों, वस्त्र निर्माण करने वालों और कबाड़ उठाने वालों से रचित है।
  • लघु उद्योगों को भी कच्चे माल की प्राप्ति और उत्पाद के विपणन के लिए सरकारी मदद की आवश्यकता होती है। आकस्मिक श्रमिकों को शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में संरक्षण दिए जाने की ज़रूरत है।
  • बहुसंख्यक श्रमिक अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों से हैं, जो असंगठित क्षेत्रक में रोज़गार करते हैं। ये श्रमिक अनियमित और कम मज़दूरी पर काम करने के अलावा सामाजिक भेदभाव के भी शिकार हैं। अतः आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए असंगठित क्षेत्रक के श्रमिकों को संरक्षण और सहायता अनिवार्य है।
स्वामित्व आधारित क्षेत्रक- सार्वजनिक और निजी क्षेत्रक
  • सार्वजनिक क्षेत्रक में, अधिकांश परिसंपत्तियों पर सरकार का स्वामित्व होता है और सरकार ही सभी सेवाएँ उपलब्ध कराती है।
  • निजी क्षेत्रक में परिसंपत्तियों पर स्वामित्व और सेवाओं के वितरण की ज़िम्मेदारी एकल व्यक्ति या कंपनी के हाथों में होता है।
  • रेलवे अथवा डाकघर सार्वजनिक क्षेत्रक के उदाहरण हैं, जबकि टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड (टिस्को) अथवा रिलायंस इण्डस्ट्रीज लिमिटेड जैसी कम्पनियाँ निजी स्वामित्व में हैं।
  • निजी क्षेत्रक की गतिविधियों का उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। इनकी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए हमें इन एकल स्वामियों और कंपनियों को भुगतान करना पड़ता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्रक का उद्देश्य केवल लाभ कमाना नहीं होता है। सरकार सेवाओं पर किए गए व्यय की भरपाई करों या अन्य तरीकों से करती हैं। आधुनिक दिनों में सरकार सभी तरह की गतिविधियों पर व्यय करती हैं।
  • कई ऐसी चीज़े हैं जिनकी आवश्यकता समाज के सभी सदस्यों को होती है, परन्तु जिन्हें निजी क्षेत्रक उचित कीमत पर उपलब्ध नहीं कराते हैं। क्योंकि इनमें से कुछ चीज़ों पर बहुत अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जो निजी क्षेत्रकों की क्षमता से बाहर होती है। इन चीज़ों का इस्तेमाल करने वाले हज़ारों लोगों से पैसा एकत्र करना भी आसान नहीं है।
  • फिर, यदि वे चीज़ों को उपलब्ध कराते हैं तो वे इसकी ऊँची कीमत वसूलते हैं। जैसे, सड़कों, पूलों, रेलवे, पत्तनों, बिजली आदि का निर्माण और बाँध आदि से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना। इसीलिए सरकार ऐसे भारी व्यय स्वयं उठाती है और सभी लोगों के लिए इन सुविधाओं को सुनिश्चित करती है।
  • कुछ गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें सरकारी समर्थन की ज़रूरत पड़ती है।
  • निजी क्षेत्रक उन उत्पादनों अथवा व्यवसायों को तब तक जारी नहीं रख सकते, जब तक सरकार उन्हें प्रोत्साहित नहीं करती है। जैसे, उत्पादन मूल्य पर बिजली की बिक्री से औद्योगिक उत्पादन लागत में वृद्धि हो सकती है। अनेक इकाइयाँ, विशेषकर लघु इकाइयाँ बन्द हो सकती हैं।
  • यहाँ सरकार उस दर पर बिजली उत्पादन और वितरण के लिए कदम उठाती है जिस पर ये उद्योग बिजली खरीद सकते हैं । सरकार लागत का कुछ अंश वहन करती है।
  • इसी प्रकार, भारत सरकार किसानों से उचित मूल्य परे गेहूँ और चावल खरीदती है। इसे अपने गोदामों में भण्डारित करती है और राशन दुकानों के माध्यम से उपभोक्ताओं को कम मूल्य पर बेचती है।
  • सरकार लागत का कुछ भाग वहन करती है। इस प्रकार, सरकार किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को सहायता पहुँचाती है। अधिकतर आर्थिक गतिविधियाँ ऐसी हैं, जिनकी प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार पर है। इन पर व्यय करना सरकार की अनिवार्यता है। जैसे- सभी के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
  • समुचित ढंग से विद्यालय चलाना और गुणात्मक शिक्षा, विशेषकर प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना सरकार का कर्त्तव्य है। भारत में निरक्षरों की संख्या विश्व में सबसे अधिक है।
  • इसी प्रकार, भारत के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और उनमें से एक चौथाई गंभीर रूप से बीमार हैं। उड़ीसा (87) अथवा मध्य प्रदेश (85) का शिशु मृत्यु दर विश्व के निर्धनतम भागों, जैसे अफ्रीकी देशों से भी अधिक है।
  • सरकार को भी मानव विकास के पक्षों, जैसे सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता, निर्धनों के लिए आवासीय सुविधाएँ और भोजन एवं पोषण पर ध्यान देने की ज़रूरत है ।
  • सरकार का यह भी कर्त्तव्य है कि वह बजट बढ़ाकर अत्यन्त नों की और देश के पूर्णतया उपेक्षित भागों की देखभाल करे।

आर्थिक कार्यों के क्षेत्रक

  • लोग विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में कार्यरत होते है। इनमें से कुछ गतिविधियाँ वस्तुओं का उत्पादन करती हैं। कुछ अन्य सेवाओं का सृजन करती हैं। ये गतिविधियाँ हमारे चारो ओर हर समय सम्पादित होती हैं, यहाँ तक कि हमारे बोलने में भी।
  • इन्हें समझने का एक तरीका यह है कि कुछ महत्त्वपूर्ण मानदंडों के आधार पर इन्हें विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर दिया जाए। इन समूहों को क्षेत्रक भी कहते हैं। उद्देश्य और किसी महत्त्वपूर्ण मानदंड के आधार पर इन्हें अनेक तरीकों से वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक संसाधनों के प्रत्यक्ष उपयोग पर आधारित अनेक गतिविधियाँ हैं। जैसे- कपास की खेती । यह एक मौसमी फसल है। कपास के पौधों की वृद्धि के लिए हम मुख्यतः, न कि पूर्णतया, प्राकृतिक कारकों जैसे-वर्षा, सूर्य का प्रकाश और जलवायु पर निर्भर हैं।
  • अतः कपास एक प्राकृतिक उत्पाद है। इसी प्रकार, डेयरी उत्पादन में पशुओं की जैविक प्रक्रिया एवं चारा आदि की उपलब्धता पर निर्भर होते हैं। अतः इसका उत्पाद दूध भी एक प्राकृतिक उत्पाद है।
  • इसी प्रकार, खनिज और अयस्क भी प्राकृतिक उत्पाद है। जब हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं, तो इसे प्राथमिक क्षेत्रक की गतिविधि कहा जाता है। क्योंकि यह उन सभी उत्पादों का आधार है, जिन्हें हम क्रमशः निर्मित करते हैं। चूँकि हम अधिकांश प्राकृतिक उत्पाद कृषि, डेयरी, मत्स्यन और वनों से प्राप्त करते हैं, इसलिए इस क्षेत्रक को कृषि एवं सहायक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
  • द्वितीयक क्षेत्रक की गतिविधियों के अन्तर्गत प्राकृतिक उत्पादों को विनिर्माण प्रणाली के जरिए अन्य रूपों में परिवर्तित किया जाता है। यह प्राथमिक क्षेत्रक के बाद अगला कदम है। यहाँ वस्तुएँ सीधे प्रकृति से उत्पादित नहीं होती हैं, बल्कि निर्मित की जाती है। इसलिए विनिर्माण की प्रक्रिया अपरिहार्य है।
  • यह प्रक्रिया किसी कारखाना, किसी कार्यशाला या घर में हो सकती है। जैसे, कपास के पौधे से प्राप्त रेशे का उपयोग कर हम सूत कातते और कपड़ा बुनते हैं।
  • गन्ने को कच्चे माल के रूप में उपयोग कर हम चीनी और गुड़ तैयार करते हैं। हम मिट्टी से ईंट बनाते हैं और ईंटों से घर और भवनों का निर्माण करते हैं। चूँकि यह क्षेत्रक क्रमशः संवर्धित विभिन्न प्रकार के उद्योगों से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसे औद्योगिक क्षेत्रक भी कहा जाता है।
  • प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों की एक तीसरी कोटि भी है जो तृतीयक क्षेत्रक के अन्तर्गत आती हैं और उपर्युक्त दो क्षेत्रकों से भिन्न है।
  • ये गतिविधियाँ प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक के विकास में मदद करती हैं। ये गतिविधियाँ स्वतः वस्तुओं का उत्पादन नहीं करती हैं, बल्कि उत्पादन प्रक्रिया में सहयोग या मदद करती हैं। जैसे- प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं को थोक एवं खुदरा विक्रेताओं को बेचने के लिए ट्रकों और ट्रेनों द्वारा परिवहन करने की ज़रूरत पड़ती है।
  • कभी-कभी वस्तुओं को गोदामों में भण्डारित करने की आवश्यकता होती है। हमें उत्पादन और व्यापार में सहूलियत के लिए टेलीफोन पर दूसरों से वार्तालाप करने या पत्राचार (संवाद) या बैंकों से कर्ज लेने की भी आवश्यकता होती है।
  • परिवहन, भण्डारण, संचार, बैंक सेवाएँ और व्यापार तृतीयक गतिविधियों के कुछ उदाहरण हैं। चूँकि ये गतिविधियाँ वस्तुओं के बजाय सेवाओं का सृजन करती हैं, इसलिए तृतीयक क्षेत्रक को सेवा क्षेत्रक भी कहा जाता है।
  • सेवा क्षेत्रक में कुछ ऐसी अपरिहार्य सेवाएँ भी हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं के उत्पादन में सहायता नहीं करती हैं। जैसे, हमें शिक्षकों, डॉक्टरों, धोबी, नाई, मोची एवं वकील जैसे व्यक्तिगत सेवाएँ उपलब्ध कराने वाले और प्रशासनिक एवं लेखाकरण कार्य करने वाले लोगों की आवश्यकता होती है।
  • वर्तमान समय में सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ जैसे- इंटरनेट कैफे, ए.टी.एम. बूथ, कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर कम्पनी इत्यादि भी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।
तीन क्षेत्रकों की तुलना
  • प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्रक के विविध उत्पादन कार्यों से काफी अधिक मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। साथ ही, इन क्षेत्रकों में काफी अधिक संख्या में लोग वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए काम करते हैं। इसलिए, अगले चरण में यह देखना है कि प्रत्येक क्षेत्रक में कितनी वस्तुएँ और सेवाएँ उत्पादित होती हैं और कितने लोग उस क्षेत्रक में काम करते हैं।
  • किसी अर्थव्यवस्था में कुल उत्पादन और रोजगार की दृष्टि से एक या अधिक क्षेत्रक प्रधान होते हैं, जबकि अन्य क्षेत्रक अपेक्षाकृत छोटे आकार के होते हैं।
  • प्रत्येक क्षेत्रक की विविध वस्तुओं और सेवाओं की गणना करना असंभव कार्य है। यह न केवल वृहद् कार्य है, बल्कि आप आश्चर्यचकित भी होंगे कि हम कारों और कम्प्यूटरों, कीलों और फर्नीचरों की संख्या का योगफल कैसे कर सकते हैं। यह अत्यंत बेतुकी बात है।
  • इस समस्या के समाधान के लिए अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि वस्तुओं और सेवाओं की वास्तविक संख्याओं का योग करने के स्थान पर उनके मूल्य का उपयोग किया जाना चाहिए। जैसे, यदि 10,000 किग्रा. गेहूँ 8 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है तो, गेहूँ का मूल्य 80,000 रु. होगा। 10 रु. प्रति नारियल की दर से 5000 नारियल का मूल्य 50,000 रु. होगा। इसी प्रकार, तीनों क्षेत्रकों के वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य की गणना की जाती है और उसके बाद योगफल प्राप्त करते हैं।
  • उत्पादित और बेची गई प्रत्येक वस्तु (या सेवा) की गणना करने की ज़रूरत नहीं है। केवल अंतिम वस्तुओं और सेवाओं की गणना का ही औचित्य है। जैसे, एक किसान किसी आटा- मिल को 8 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से गेहूँ बेचता है। मिल में गेहूँ की पिसाई होती है और बिस्कुट कंपनी को आटा 10 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से बेचा जाता है।
  • बिस्कुट कंपनी आटा के साथ चीनी एवं तेल जैसी चीज़ों का उपयोग करती है और बिस्कुट के चार पैकेट बनाती है। वह बाजार में उपभोक्ताओं को 60 रु. में ( 15 रु. प्रति पैकेट) बिस्कुट बेचती है। अतः बिस्कुट ही अंतिम उत्पाद है, अर्थात् वह वस्तु जो उपभोक्ताओं तक पहुँचती है।
  • दिए गए उदाहरण में अंतिम वस्तु के विपरीत गेहूँ और आटा जैसी वस्तुएँ मध्यवर्ती वस्तुएँ हैं। मध्यवर्ती वस्तुएँ, अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण में इस्तेमाल की जाती है। अंतिम वस्तुओं के मूल्य में मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य पहले से ही शामिल होता है। बिस्कुट (अंतिम वस्तु) के मूल्य 60 रु. में पहले से ही आटा का मूल्य (10 रु.) शामिल है। इसी प्रकार अन्य सभी मध्यवर्ती वस्तुओं का मूल्य भी शामिल होगा।
  • अतः गेहूँ और आटा के मूल्य की अलग-अलग गणना उचित नहीं है, क्योंकि तब हम एक ही वस्तु के मूल्य की गणना हैं। पहले गेहूँ के रूप में, फिर आटा के रूप में और अंततः अंतिम वस्तु बिस्कुट के रूप में मूल्य की कई बार गणना करते हैं।
  • किसी विशेष वर्ष में प्रत्येक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य, उस वर्ष में क्षेत्रक के कुल उत्पादन की जानकारी प्रदान करता है। तीनों क्षेत्रकों के उत्पादनों के योगफल को देश का सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) कहते हैं।
  • यह किसी देश के भीतर किसी विशेष वर्ष में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य है। जी. डी. पी. अर्थव्यवस्था की विशालता प्रदर्शित करता है।
  • भारत में जी. डी. पी. मापन जैसा कठिन कार्य केन्द्र सरकार के मंत्रालय द्वारा किया जाता है। यह मंत्रालय राज्यों एवं केन्द्र शासित क्षेत्रों के विभिन्न सरकारी विभागों की सहायता से वस्तुओं और सेवाओं कुल संख्या और उनके मूल्य से संबंधित सूचनाएँ एकत्र करता है और तब जी. डी. पी. का अनुमान करता है।
क्षेत्रकों में ऐतिहासिक परिवर्तन
  • सामान्यतया, अधिकांश विकसित देशों के इतिहास में यह देखा गया है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्राथमिक क्षेत्रक ही आर्थिक सक्रियता का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रक रहा है। जैसे-जैसे कृषि प्रणाली परिवर्तित होती गई और कृषि क्षेत्रक समृद्ध होता गया, वैसे-वैसे पहले की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन होने लगा। अब अनेक लोग दूसरे कार्य करने लगे।
  • शिल्पियों और व्यापारियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। क्रय-विक्रय की गतिविधियाँ कई गुना बढ़ गई। इसके अतिरिक्त अनेक लोग परिवहन, प्रशासक और सैनिक कार्य इत्यादि से जुड़े थे। फिर भी, इस अवस्था में अधिकांश उत्पादित वस्तुएँ प्राकृतिक उत्पाद थी, जो प्राथमिक क्षेत्रक में आती थीं और अधिकांश लोग इसी क्षेत्रक में रोजगार करते थे।
  • लम्बे समय (100 वर्षों से अधिक) के बाद और विशेषकर विनिर्माण की नवीन प्रणाली के प्रचलन से कारखाने अस्तित्व में आए और उनका प्रसार होने लगा।
  • जो लोग पहले खेतों में काम करते थे, उनमें से बहुत अधिक लोग अब कारखानों में काम करने लगे। कारखानों में सस्ती दरों पर उत्पादित वस्तुओं का लोग इस्तेमाल करने लगे।
  • कुल उत्पादन एवं रोजगार की दृष्टि से द्वितीयक क्षेत्रक सबसे महत्त्वपूर्ण हो गया। इस कारण अतिरिक्त समय में भी काम होने लगा। इसका अर्थ है कि क्षेत्रकों का महत्त्व परिवर्तित हो गया।
  • विगत 100 वर्षों में, विकसित देशों में द्वितीयक क्षेत्रक से तृतीयक क्षेत्रक की ओर पुनः बदलाव हुआ है। कुल उत्पादन की दृष्टि से सेवा क्षेत्रक का महत्त्व बढ़ गया। अधिकांश श्रमजीवी लोग सेवा क्षेत्रक में ही नियोजित हैं। विकसित देशों में यहीं सामान्य लक्षण देखा गया है।
भारत में प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक
  • तीनों क्षेत्रकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं को दिखाता है। यह दो वर्षों 1973 और 2003 के उत्पादन को दिखाता है। इसमें देखा जा सकता हैं कि 30 वर्षों में कुल उत्पादन में कितनी संवृद्धि हुई है।
उत्पादन में तृतीयक क्षेत्रक का बढ़ता महत्त्व
  • वर्ष 1973 और 2003 के बीच 30 वर्षों में यद्यपि सभी क्षेत्रकों में उत्पादन में वृद्धि हुई, परन्तु सबसे अधिक वृद्धि तृतीयक क्षेत्रक के उत्पादन में हुई।
  • परिणामतः वर्ष 2003 में भारत में प्राथमिक क्षेत्रक को प्रतिस्थापित करते हुए तृतीयक क्षेत्रक सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्रक के रूप में उभरा। भारत में तृतीयक क्षेत्रक के महत्त्वपूर्ण होने के कई कारण हो सकते हैं।
    • प्रथम, किसी भी देश में अनेक सेवाओं, जैसे- अस्पताल, शैक्षिक संस्थाएँ, डाक एवं तार सेवा थाना, कचहरी, ग्रामीण प्रशासनिक कार्यालय, नगर निगम, रक्षा, परिवहन, बैंक, बीमा कंपनी इत्यादि की आवश्यकता होती है। इन्हें बुनियादी सेवाएँ माना जाता है। किसी विकासशील देश में इन सेवाओं के प्रबंधन की जिम्मेदारी सरकार उठाती है।
    • द्वितीय, कृषि एवं उद्योग के विकास से परिवहन, व्यापार, 'भण्डारण जैसी सेवाओं का विकास होता है। प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्रक का विकास जितना अधिक होगा, ऐसी सेवाओं की माँग उतनी ही अधिक होगी।
    • तृतीय, जैसे-जैसे आय बढ़ती है, कुछ लोग अन्य कई सेवाओं जैसे- रेस्तरां, पर्यटन, शॉपिंग, निजी अस्पताल, निजी विद्यालय, व्यावसायिक प्रशिक्षण इत्यादि की माँग शुरू कर देते हैं ।
    • चतुर्थ, विगत दशकों में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित कुछ नवीन सेवाएँ महत्त्वपूर्ण एवं अपरिहार्य हो गई हैं। इन सेवाओं के उत्पादन में तीव्र वृद्धि हो रही है। सेवा क्षेत्रक की सभी सेवाओं में समान रूप से संवृद्धि नहीं हो रही है। भारत में सेवा क्षेत्रक कई तरह के लोगों को नियोजित करते हैं। एक ओर, उन सेवाओं की संख्या सीमित है, जिसमें अत्यन्त कुशल और शिक्षित श्रमिकों को रोजगार मिलता है।
    • दूसरी ओर, बहुत अधिक संख्या में लोग छोटी दुकानों, मरम्मत कार्यों, परिवहन जैसी सेवाओं में लगे हुए हैं। वे लोग बड़ी मुश्किल से जीविका निर्वाह कर पाते हैं और वे इन सेवाओं में इसलिए लगे हुए हैं क्योंकि उनके पास कोई अन्य वैकल्पिक अवसर नहीं है। इस कारण सेवा क्षेत्रक के केवल कुछ भागों का ही महत्त्व बढ़ रहा है।
अधिकांश लोग कहाँ नियोजित हैं?
  • भारत के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य है कि यद्यपि जी.डी. पी. में तीनों क्षेत्रकों की हिस्सेदारी में परिवर्तन हुआ है, फिर भी रोजगार में ऐसा ही परिवर्तन नहीं हुआ है।
  • वर्ष 2000 में भी प्राथमिक क्षेत्र सबसे बड़ा नियोक्ता बना रहा। प्राथमिक क्षेत्रक से रोजगार का ऐसा ही क्षेत्रक के स्थानान्तरण का कारण यह है कि द्वितीयक ओर तृतीयक क्षेत्रक में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं हुआ।
  • यद्यपि इस अवधि में वस्तुओं के औद्योगिक उत्पादन में 8 गुना वृद्धि हुई परन्तु औद्योगिक रोजगार में महज 2.5 गुना ही वृद्धि हुई। तृतीयक क्षेत्रक पर भी यही बात लागू होती है। सेवा क्षेत्रक में उत्पादन में 11 गुना वृद्धि हुई, परन्तु रोजगार में 3 गुना से भी कम वृद्धि हुई।
  • परिणामतः, देश में आधे से अधिक श्रमिक प्राथमिक क्षेत्रक, मुख्यत: कृषि क्षेत्र में काम कर रहे हैं जिसका जी.डी.पी. में योगदान केवल एक-चौथाई है। इसकी तुलना में द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रक का जी.डी.पी. में हिस्सा तीन-चौथाई है। परन्तु, ये क्षेत्र आधे भी कम लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। अतएव, यदि आप कुछ लोगों को कृषि क्षेत्र से हटा देते हो, तो भी उत्पादन प्रभावित नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, कृषि क्षेत्रक के श्रमिकों में अल्प बेरोजगारी है।
    • एक छोटे किसान का उदाहरण लेते हैं, जिसके पास दो हेक्टेयर असिंचित भूमि है, जो सिंचाई के लिए केवल वर्षा पर निर्भर है और ज्वार एवं अरहर जैसी फसलें उपजाती हैं।
    • उसके परिवार के सभी पाँच सदस्य उस भूमि पर वर्ष भर काम करते हैं। क्योंकि उन्हें कहीं और रोजगार उपलब्ध नहीं है।
    • प्रत्येक व्यक्ति काम कर रहा है, कोई बेकार नहीं है। परन्तु, वास्तव में उनका श्रम प्रयास विभाजित है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ काम कर रहा है परन्तु किसी को भी पूर्ण रोजगार प्राप्त नहीं है।
    • यह अल्प बेरोजगारी की स्थिति है, जहाँ लोग प्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं, लेकिन सभी अपनी क्षमता से कम काम करते हैं।
    • इस प्रकार की अल्प बेरोजगारी को छिपी हुई कहते हैं क्योंकि यह उन लोगों की बेरोजगारी, जिनके पास कोई रोजगार नहीं है और बेकार बैठे हुए हैं, से अलग है ( खुली बेरोजगारी ) ।
    • इसलिए इसे प्रच्छन्न बेरोजगारी भी कहा जाता है।
  • एक अन्य भूस्वामी अपनी जमीन पर काम करने के लिए पहले किसान के परिवार के एक या दो सदस्यों को भाड़े पर ले जाता है। अब पहले वाले किसान के परिवार को मज़दूरी के द्वारा कुछ अतिरिक्त आय होती है।
  • चूँकि आपको छोटे से भूखंड पर काम करने के लिए 5 लोगों की ज़रूरत नहीं है, अतः दो लोगों के चले जाने से कृषि उत्पादन प्रभावित नहीं होता है। |
  • दिए गए उदाहरण में, दो सदस्य किसी कारखाना में भी काम करने के लिए जा सकते हैं। एक बार फिर परिवार की कमाई में वृद्धि होगी और वे लोग अपनी भूमि से पहले जैसा उत्पादन करते रहेंगे।
  • भारत में पहले वाले किसान की तरह लाखों किसान हैं। इसका अर्थ है कि यदि कुछ लोगों को कृषि क्षेत्रक से हटाकर उन्हें कहीं और समुचित रोजगार उपलब्ध करा दें, तो भी कृषि उत्पादन पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। कोई अन्य रोजगार करने से लोगों की आय से परिवार के कुल आय में वृद्धि होगी।
  • अल्प बेरोजगारी दूसरे क्षेत्रकों में भी हो सकती है। उदाहरण के लिए, शहरों में सेवा क्षेत्रक में हजारों अनियत श्रमिक हैं जो दैनिक रोजगार की तलाश करते हैं। वे प्लम्बर, पेन्टर, मरम्मत कार्य जैसे रोजगार करते हैं और अन्य लोग असुविधाजनक विषम काम करते हैं। उनमें से कई रोजाना काम नहीं पाते हैं।
  • इसी प्रकार हम सेवा क्षेत्रक के कुछ लोगों को सड़कों पर ठेला खींचते अथवा कुछ चीजें बेचते हुए देखते हैं, जहाँ वे पूरा दिन बिता देते हैं, परन्तु बहुत कम कमा पाते हैं। वे यह काम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास कोई बेहतर अवसर नहीं है ।
अतिरिक्त रोजगार का सृजन 
  • कृषि क्षेत्र में अल्प बेरोजगारी की गंभीर स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें बिल्कुल रोजगार नहीं मिला है। हम पहले वाले किसान और उसके दो हेक्टेयर असिंचित भूखंड का उदाहरण लेते हैं। उसके परिवार की भूमि की सिंचाई हेतु एक कुएँ का निर्माण करने के लिए सरकार कुछ मुद्रा व्यय कर सकती है या बैंक ऋण प्रदान कर सकता है। तब वह अपनी भूमि की सिंचाई करने में सक्षम होगी और रबी मौसम में एक दूसरी फसल गेहूँ उपजाती है।
  • मान लेते हैं कि एक हेक्टेयर गेहूँ की फसल दो लोगों को 50 दिनों (बीज डालने, पानी देने, खाद डालने और कटाई में) तक रोजगार प्रदान कर सकती है। अतः परिवार के दो अन्य सदस्यों को अपनी जमीन में रोजगार मिल सकता है।
  • मान लेते हैं कि ऐसे कई खेतों की सिंचाई के लिए एक नये बाँध का निर्माण किया जाता है अथवा एक नहर खोदी जाती है। इससे कृषि क्षेत्र में रोजगार के अनेक अवसर सृजित हो सकेंगे और अल्प बेरोजगारी की समस्या अपने आप कम हो जाएगी। मान लेते हैं कि दूसरे किसान भी पहले की तुलना में अधिक उत्पादन करते हैं। उन्हें कुछ उत्पाद बेचने के लिए अपना उत्पाद नजदीक के शहर में ले जाने की आवश्यकता हो सकती है।
  • यदि सरकार परिवहन और फसलों के भण्डारण पर अथवा बेहतर ग्रामीण सड़कों के निर्माण पर कुछ पैसा करती है तो छोटे ट्रक सब जगह पहुँच जाते हैं।
  • इस तरीके से अनेक किसान, जिन्हें अब पानी की सुविधा उपलब्ध है, फसलों की उपज और विक्रय कर सकते हैं। इस कार्य से केवल किसानों को ही उत्पादक रोजगार उपलब्ध नहीं हो सकता है, बल्कि परिवहन और व्यापार जैसी सेवाओं में लगे लोगों को भी रोजगार प्राप्त हो सकता है।
  • किसानों की ज़रूरत केवल पानी तक ही सीमित नहीं है। खेती करने के लिए उसे बीजों, उर्वरकों, कृषिगत उपकरणों और पानी निकालने के लिए पम्पसेटों की भी ज़रूरत है। एक निर्धन किसान होने के कारण वह सभी चीजों पर खर्च नहीं कर सकता। इसलिए उसे साहूकारों से पैसा उधार लेना होगा और उच्च ब्याज दर पर वापस करना पड़ेगा।
  • यदि स्थानीय बैंक उचित ब्याज दर पर उसे साख प्रदान करता है, तो इन वह सभी चीजों को उचित समय पर खरीदने और अपनी भूमि पर खेती करने में सक्षम होगी। तात्पर्य यह है कि पानी के साथ-साथ कृषि में सुधार के लिए किसानों को सस्ते कृषि साख भी प्रदान करने की ज़रूरत है।
  • एक अन्य तरीके से इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। वह तरीका है अर्द्ध- ग्रामीण क्षेत्रों में उन उद्योगों और सेवाओं की पहचान करना और उन्हें बढ़ावा देना, जहाँ बहुत अधिक लोग नियोजित किए जा सकें। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि अनेक किसान अरहर और मटर (दलहन फसलें) उपजाने का निर्णय करते हैं। इनकी वसूली और प्रसंस्करण के लिए तथा शहरों में विक्रय करने के लिए दाल मिल की स्थापना एक ऐसा ही उदाहरण है।
  • शीत भण्डारण गृहों के खुलने से किसानों को एक अवसर मिलेगा कि वे अपने आलू और प्याज जैसे उत्पादों का भण्डारण कर सके और अच्छी कीमत मिलने पर बेच सकें। वन क्षेत्रों के निकटवर्ती गाँवों में हम शहद संग्रह केन्द्रों की शुरुआत कर सकते हैं, जहाँ किसान वनों से प्राप्त शहद बेच सकें।
  • सब्जियों और कृषिगत उत्पादों, जैसे आलू, शकरकंद, चावल, गेहूँ, टमाटर और फल इत्यादि, जिसे बाहरी बाजारों में बेचा जा सके, के लिए प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना की जा सकती है। यह अर्द्ध- ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित उद्योगों में रोजगार प्रदान करेगा।
  • भारत में विद्यालय जाने के आयु वर्ग में लगभग 20 करोड़ बच्चे हैं। इनमें लगभग दो-तिहाई ही विद्यालय जाते हैं। शेष विद्यालय नहीं जाते हैं- वे या तो घर पर रहते होंगे या उनमें से अधिकतर बाल श्रमिक के रूप में काम कर रहे होंगे। यदि ये बच्चे भी विद्यालय जाने लगें तो और अधिक भवनों, अध्यापकों और अन्य कर्मचारियों की आवश्यकता होगी।
  • योजना आयोग द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, अकेले शिक्षा क्षेत्र में लगभग 20 लाख रोजगारों का सृजन किया जा सकता है। इसी प्रकार, यदि स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार करना है तो ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले और अधिक डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ेगी। ये कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे रोजगार का सृजन होगा और हम विकास के महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विचार कर पाने में भी सक्षम होंगे।
  • प्रत्येक राज्य या प्रदेश में वहाँ के निवासियों की आय और उनके रोजगार में वृद्धि करने की संभावना होती है। यह पर्यटन अथवा क्षेत्रीय शिल्प उद्योग अथवा सूचना प्रौद्योगिकी जैसी नवीन सेवाओं के माध्यम से हो सकता है। इनमें से कुछ के लिए समुचित योजना एवं सरकारी सहायता की आवश्यकता होगी। उदाहर लिए, योजना आयोग के अध्ययन के अनुसार यदि पर्यटन क्षेत्र में सुधार होता है तो हम प्रतिवर्ष 35 लाख से अधिक लोगों को अतिरिक्त रोज़गार प्रदान कर सकते हैं।
  • केन्द्र सरकार ने भारत के 200 जिलों में काम का अधिकार लागू करने के लिए एक कानून बनाया है। इसे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 कहते हैं।
  • राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम-2005 के अन्तर्गत उन सभी लोगों, जो काम करने में सक्षम हैं और जिन्हें काम की ज़रूरत है, को सरकार द्वारा वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी गई है।
  • यदि सरकार रोजगार उपलब्ध कराने में असफल रहती है तो वह लोगों को बेरोजगारी भत्ता देगी। अधिनियम के अन्तर्गत उस तरह के कामों को वरीयता दी जाएगी, जिनसे भविष्य में भूमि से उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी।
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Thu, 30 Nov 2023 04:55:43 +0530 Jaankari Rakho
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राष्ट्रीय विकास

  • यदि लोगों के लक्ष्य भिन्न हैं, तो उनकी राष्ट्रीय विकास के बारे में धारणा भी भिन्न होगी। भारत को विकास के लिए क्या करना चाहिए। यह समझना बहुत आवश्यक है कि देश के विकास के विषय में विभिन्न लोगों की धारणाएँ भिन्न या परस्पर विरोधी हो सकती है।
सार्वजनिक सुविधाएं
  • नागरिक कितनी भौतिक वस्तुएँ और सेवाएँ प्रयोग कर सकते हैं, इसके लिए आय अपने आप में संपूर्ण रूप से पर्याप्त सूचक नहीं है। उदाहरण के लिए सामान्यता आपका द्रव्य आपके लिए प्रदूषण मुक्त वातावरण नहीं खरीद सकता या बिना मिलावट की दवाएँ आपको नहीं दिला सकता, जब तक आप ऐसे समुदाय में ही जाकर नहीं रहने लग जाते जहाँ ये * सुविधाएँ पहले से उपलब्ध हैं।
  • द्रव्य आपको संक्रामक बीमारियों से भी नहीं बचा सकता, जब तक आपका पूरा समुदाय इनसे बचाव के लिए कदम नहीं उठाता । वास्तव में जीवन में बहुत सी महत्त्वपूर्ण चीज़ों के लिए सबसे अच्छा और सस्ता भी तरीका इन वस्तुओं और सेवाओं को सामूहिक रूप से उपलब्ध कराना है।
  • शायद तब तक नहीं जब तक तुम्हारे माता-पिता तुम्हें कहीं रखते हों। आप और निजी स्कूल में पढ़ने भेजने की क्षमता इसलिए पढ़ पा रहे हो क्योंकि बहुत से अन्य बच्चे पढ़ना चाहते हैं और बहुत से लोग ये मानते हैं कि सरकार को स्कूल खोलने चाहिए और अन्य प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए जिससे सभी बच्चों को पढ़ने का अवसर मिले।
  • अभी भी बहुत से क्षेत्रों में बच्चे मुख्य रूप से लड़कियाँ, माध्यमिक स्तर की शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाते क्योंकि सरकार / समाज ने इसके लिए पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं कराई हैं।
  • केरल में शिशु मृत्यु दर कम है क्योंकि यहाँ स्वास्थ्य और शिक्षा की मौलिक सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। इसी प्रकार, कुछ राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठीक प्रकार कार्य करती है।
  • यदि ऐसे स्थानों में राशन की दुकान ठीक से नहीं चलती, तो लोग इस समस्या का हल करवा सकते हैं। ऐसे राज्यों में लोगों के स्वास्थ्य और पोषण स्तर निश्चित रूप से बेहतर होने की संभावना है । 
  • एच.डी.आई के परिकलन के लिए बहुत से सुधारों का सुझाव दिया गया है। मानव विकास रिपोर्ट में बहुत से नए घटक जोड़े गए हैं, लेकिन मानव के विकास से पहले, यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि विकास महत्त्वपूर्ण है- एक देश के नागरिकों के साथ क्या हो रहा है। लोगों का स्वास्थ्य, उनका कल्याण सबसे अधिक ज़रूरी है।
विकास की धारणीयता
  • 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से बहुत से वैज्ञानिक यह चेतावनी देते आ रहे हैं कि विकास का वर्तमान प्रकार और स्तर धारणीय नहीं है।
  • भूमिगत जल नवीकरणीय साधन का उदाहरण हैं। फसल और पौधों की तरह इन साधनों की पुनः पूर्ति प्रकृति करती है, लेकिन यहाँ हम इन साधनों का अति-उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, भूमिगत जल का यदि बरसात द्वारा हो रही पुनः पूर्ति से अधिक प्रयोग करते हैं, तो इस साधन का. अति-उपयोग कर रहे होंगे।
  • गैर नवीकरणीय साधन वो हैं, जो वर्षों से प्रयोग के पश्चात् समाप्त हो जाते हैं। इन संसाधनों का धरती पर एक निश्चित भण्डार हैं और इनकी पुनः पूर्ति नहीं हो सकती।
  • कभी-कभी हमें ऐसे नए साधन मिल जाते हैं, जिनके बारे में हमें पहले कोई जानकारी नहीं थी। नये स्रोत भण्डार में वृद्धि करते हैं, लेकिन समय के साथ यह भी समाप्त हो जाएँगे।
  • पर्यावरण में गिरावट के परिणाम राष्ट्रीय और राज्य सीमाओं का ख्याल नहीं करते; यह एक क्षेत्र या देशगत विषय नहीं रह गया है। हम सब का भविष्य परस्पर जुड़ा हुआ है।
  • विकास की धारणीयता तुलनात्मक स्तर पर ज्ञान का नया क्षेत्र है, जिसमें वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, दार्शनिक और अन्य सामाजिक वैज्ञानिक मिल-जुल कर काम कर रहे हैं। विकास या प्रगति का प्रश्न हमेशा चलने वाला प्रश्न है ।
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Thu, 30 Nov 2023 04:52:51 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | भारत में खाद्य सुरक्षा https://m.jaankarirakho.com/508 https://m.jaankarirakho.com/508 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | भारत में खाद्य सुरक्षा
  • खाद्य सुरक्षा का अर्थ है, सभी लोगों के लिए सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुँच और उसे प्राप्त करने का सामर्थ्य। जब भी अनाज के उत्पादन या उसके वितरण की समस्या आती है, तो सहज ही निर्धन परिवार इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
  • खाद्य सुरक्षा सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शासकीय सतर्कता और खाद्य सुरक्षा के खतरे की स्थिति में सरकार द्वारा की गई कार्यवाही पर निर्भर करती है।

बफर स्टॉक

  • बफर स्टॉक भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.) के माध्यम से सरकार द्वारा अधिप्राप्त अनाज, गेहूँ और चावल का भंडार है। भारतीय खाद्य निगम अधिशेष उत्पादन वाले राज्यों में किसानों से गेहूँ और चावल खरीदता है ।
  • किसानों को उनकी फसल के लिए पहले से घोषित कीमतें दी जाती हैं। इस मूल्य को न्यूनतम समर्थित कीमत कहा जाता है। इन फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से बुआई के मौसम से पहले सरकार न्यूनतम समर्थित कीमत की घोषणा करती है।
  • खरीदे हुए अनाज खाद्य भंडारों में रखे जाते हैं। ऐसा कमी वाले क्षेत्रों में और समाज के गरीब वर्गों में बाज़ार कीमत से कम कीमत पर अनाज के वितरण के लिए किया जाता है।
  • इस कीमत को निर्गम कीमत भी कहते हैं। यह खराब मौसम में या फिर आपदा काल में अनाज की कमी की समस्या हल करने में भी मदद करता है ।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  • भारतीय खाद्य निगम द्वारा अधिप्राप्त अनाज को सरकार विनियमित राशन दुकानों के माध्यम से समाज के गरीब वर्गों में वितरित करती है। इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी. एस.) कहते हैं। अब अधिकांश क्षेत्रों, गाँवों, कस्बों और शहरों में राशन की दुकानें हैं।
  • देश भर में लगभग 4.6 लाख राशन की दुकानें हैं। राशन की दुकानों में, जिन्हें उचित दर वाली दुकानें कहा जाता है, चीनी खाद्यान्न और खाना पकाने के लिए मिली के तेल का भंडार होता है। ये सब बाज़ार कीमत से कम कीमत पर लोगों को बेचा जाता है।
  • राशन कार्ड रखने वाला कोई भी परिवार प्रतिमाह इनकी एक अनुबंधित मात्रा (जैसे- 35 किलोग्राम अनाज, 5 लीटर मिली का तेल, 5 किलोग्राम चीनी आदि) निकटवर्ती राशन की दुकान से खरीद सकता है।
राशन कार्ड तीन प्रकार के होते हैं:
  1. निर्धनों में भी निर्धन लोगों के लिए अंत्योदय कार्ड,
  2. निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के लिए बी पी एल कार्ड और
  3. अन्य लोगों के लिए ए पी एल कार्ड |
  • भारत में राशन व्यवस्था की शुरुआत बंगाल के अकाल की पृष्ठभूमि में 1940 के दशक में हुई। हरित क्रांति से पूर्व भारी खाद्य संकट के कारण 60 के दशक के दौरान राशन प्रणाली पुनर्जीवित की गई।
  • गरीबी के उच्च स्तरों को ध्यान में रखते हुए 70 के दशक के मध्य एन.एस.एस.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार खाद्य संबंधी तीन महत्त्वपूर्ण अंतःक्षेप कार्यक्रम प्रारंभ किए गए: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (जो पहले से ही थी, लेकिन उसे और मज़बूत किया गया), एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (आई.सी.डी.एस., जो प्रायोगिक आधार पर 1975 में शुरू की गई ) और काम के बदले अनाज (एफ. एफ.डब्ल्यू., 1977-78 में प्रारंभ ) ।
  • इन वर्षों में कई नए कार्यक्रम शुरू किए गए हैं और कार्यक्रमों को चलाने के बढ़ते अनुभवों के आधार पर अन्य कार्यक्रमों का पुनर्गठन किया गया।
  • वर्तमान में अनेक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम (पी.ए.पी.) चल रहे हैं जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। इनमें स्पष्ट रूप से घटक खाद्य भी है, जहाँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली, दोपहर का भोजन आदि विशेष रूप से खाद्य की दृष्टि से सुरक्षा के कार्यक्रम हैं।
  • अधिकतर पी.ए.पी. भी खाद्य सुरक्षा बढ़ाते हैं, रोजगार कार्यक्रम गरीबों की आय में बढ़ोतरी कर खाद्य सुरक्षा में करते हैं । बड़ा योगदान
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान स्थिति
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में भारत सरकार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम है। में यह प्रणाली सबके लिए थी और निर्धनों और गैर-निर्धनों के बीच कोई भेद नहीं किया जाता था।
  • बाद के वर्षों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक दक्ष और अधिक लक्षित बनाने के लिए संशोधित किया गया। 1992 में देश के 1700 ब्लॉकों में संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली ( आर. पी.डी.एस.) शुरू की गई। इसका लक्ष्य दूर-दराज़ और पिछड़े क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लाभ पहुँचाना था।
राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम
  • राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम 14 नवंबर 2004 को पूरक श्रम रोज़गार के सृजन को तीव्र करने के उद्देश्य से देश के 150 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में प्रारंभ किया गया था।
  • यह कार्यक्रम उन समस्त ग्रामीण गरीबों के लिए है, जिन्हें वेतन रोजगार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हैं।
  • इसे शत-प्रतिशत केंद्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के रूप में लागू किया गया और राज्यों को निःशुल्क अनाज मुहैया कराया जाता रहा है।
  • जिला स्तर पर कलक्टर शीर्ष अधिकारी है और उन पर इस कार्यक्रम की योजना बनाने कार्यान्वयन, समन्वयन और पर्यवेक्षण की जिम्मेदारी है।
  • वर्ष 2004-05 में इस कार्यक्रम के लिए 20 लाख टन अनाज के अतिरिक्त 2,020 करोड़ रुपये नियत किए गए हैं।
  • जून 1997 से 'सभी क्षेत्रों में गरीबों' को लक्षित करने के सिद्धांत को अपनाने के लिए लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी. पी.डी.एस.) प्रारंभ की गई।
  • यह पहला मौका था जब निर्धनों और गैर-निर्धनों के लिए विभेदक कीमत नीति अपनाई गई। इसके अलावा, 2000 में विशेष योजनाएँ - अंत्योदय अन्न योजना और अन्नपूर्णा योजना प्रारंभ की गईं।
  • ये योजनाएँ क्रमश: 'गरीबों में भी सर्वाधिक गरीब' और 'दीन वरिष्ठ नागरिक' समूहों पर लक्षित हैं। इन दोनों योजनाओं का संचालन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के वर्तमान नेटवर्क से जोड़ दिया गया है।
  • इन वर्षों के दौरान सार्वजनिक वितरण प्रणाली मूल्यों को स्थिर बनाने और सामर्थ्य अनुसार कीमतों पर उपभोक्ताओं को • खाद्यान्न उपलब्ध कराने की सरकार की नीति में सर्वाधिक प्रभावी साधन सिद्ध हुई है।
  • इसने देश के अनाज की अधिशेष क्षेत्र से कमी वाले क्षेत्रों में खाद्य पूर्ति के माध्यम से अकाल और भुखमरी की व्यापकता को रोकने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त, आमतौर पर निर्धन परिवारों के पक्ष में कीमतों का संशोधन होता रहा है।
  • न्यूनतम समर्थित कीमत और अधिप्राप्ति ने खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि में योगदान दिया है तथा कुछ क्षेत्रों में किसानों को आय सुरक्षा प्रदान की है । तथापि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अनेक आधारों पर कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है।
  • अनाजों से भरे अन्न भंडारों के बावजूद भुखमरी की घटनाएँ हो रही हैं। एफ.सी.आई. के भंडार अनाज से भरे हैं। कहीं अनाज सड़ रहा हैं तो कुछ स्थानों पर चूहे अनाज खा रहे हैं।
  • सरकार द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाओं के अधीन खाद्यान्नों के वितरण के द्वारा स्थिति में सुधार हुआ । अनाज वितरण से हालात सुधरे। इस बात पर आम सहमति है कि बफर स्टॉक का उच्च स्तर बेहद अवांछनीय है और यह बर्बादी भी है।
  • विशाल खाद्य स्टॉक का भंडारण बर्बादी और अनाज की गुणवत्ता में ह्रास के अतिरिक्त उच्च रख-रखाव लागत के लिए भी ज़िम्मेदार है। न्यूनतम समर्थित कीमत को कुछ वर्ष के लिए स्थिर रखने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
अंत्योदय अन्न योजना
  • अंत्योदय अन्न योजना दिसंबर 2000 में शुरू की गई थी।
  • इस योजना के अंतर्गत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आने वाले निर्धनता रेखा से नीचे के परिवारों में से एक करोड़ लोगों की पहचान की गई।
  • संबंधित राज्य के ग्रामीण विकास विभागों ने गरीबी रेखा से नीचे के गरीब परिवारों को सर्वेक्षण के द्वारा चुना।
  • 2 रुपये प्रति किलोग्राम गेहूँ और 3 रुपये प्रति किलोग्राम की अत्यधिक आर्थिक सहायता प्राप्त दर पर प्रत्येक पात्र परिवार को 25 किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराया गया।
  • अनाज की यह मात्रा अप्रैल 2002 में 25 किलोग्राम से बढ़ा कर 35 किलोग्राम कर दी गई। 
  • जून 2003 और अगस्त 2004 में इसमें 50-50 लाख अतिरिक्त बी. पी. एल. परिवार दो बार जोड़े गए। इससे इस योजना में आने वाले परिवारों की संख्या 2 करोड़ हो गई।
  • वर्धित न्यूनतम समर्थित कीमत पर अनाज की अधिक खरीदारी प्रमुख अनाज उत्पादक राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश की ओर से डाले गए दबावों का नतीजा है।
  • इसके अलावा, चूँकि खरीदारी कुछ समृद्ध क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कुछ सीमा तक पश्चिम बंगाल) में मुख्यतः दो फसलों- गेहूँ और चावल तक सीमित है, न्यूनतम समर्थित कीमत में वृद्धि ने विशेषतया > खाद्यान्नों के अधिशेष वाले राज्यों के किसानों को अपनी भूमि पर मोटे अनाजों की खेती समाप्त कर धान और गेहूँ उपजाने के लिए प्रेरित किया है, जबकि मोटे अनाज गरीबों का प्रमुख भोजन है।
  • धान की खेती के लिए सघन सिंचाई से पर्यावरण और जल स्तर में गिरावट भी आई है, जिससे इन राज्यों में कृषिगत विकास को बनाए रखने में खतरा पैदा हो गया है।
  • चिंता का एक और प्रमुख कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विफलता रही है, जो इस तथ्य से स्पष्ट है कि अखिल भारतीय स्तर पर पी.डी.एस. खाद्यान्नों की औसत उपभोग मात्रा 1 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह है।
    • न्यूनतम समर्थित कीमतों के बढ़ने से सरकार की खाद्यान्नों की वसूली अनुरक्षण लागत बढ़ गई है।
    • एफ.सी.आई. की बढ़ती परिवहन और भंडारण लागत ने इसे और बढ़ा दिया है।
  • बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में प्रतिव्यक्ति उपभोग का आँकड़ा 300 ग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह से भी कम है। इसके विपरीत केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे- अधिकतर दक्षिणी राज्यों में और हिमाचल प्रदेश में औसत उपभोग 3-4 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के बीच है।
  • फलस्वरूप, निर्धनों को अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए राशन दुकान के बजाय बाज़ार पर निर्भर होना पड़ता है। मध्य प्रदेश में निर्धनों द्वारा गेहूँ और चावल के उपभोग का मात्र 5 प्रतिशत राशन की दुकानों के माध्यम से पूरा होता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यह प्रतिशत और भी कम है।
  • पी.डी.एस. डीलर अधिक लाभ कमाने के लिए अनाज को खुले बाज़ार में बेचना, राशन दुकानों में घटिया अनाज बेचना, दुकान कभी-कभार खोलना जैसे कदाचार करते हैं।
  • राशन दुकानों में घटिया किस्म के अनाज का पड़ा रहना आम बात है, जो बिक नहीं पाता। यह एक बड़ी समस्या साबित हो रही है। जब राशन की दुकानें इन अनाजों को बेच नहीं पातीं, तो एफ.सी.आई. के गोदामों में अनाज का विशाल स्टॉक जमा हो जाता है।
  • हाल के वर्षों में एक और कारण से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गिरावट आई है। पहले प्रत्येक परिवार के पास निर्धन या गैर-निर्धन राशन कार्ड था जिसमें चावल, गेहूँ, चीनी आदि वस्तुओं का एक निश्चित कोटा होता था। ये प्रत्येक परिवार को एक समान निम्न कीमत पर बेचे जाते थे।
  • बड़ी संख्या में परिवार राशन की दुकानों से अनाज खरीद सकते थे। हाँ, उनका कोटा निश्चित था। इनमें निम्न आय वर्ग के परिवार शामिल थे, जिनकी आय निर्धनता रेखा से नीचे के परिवार की आय से थोड़ी ही अधिक थी।
  • अब 3 भिन्न कीमतों वाले टी.पी. डी. एस. की व्यवस्था में निर्धनता रेखा से ऊपर वाले किसी भी परिवार को राशन दुकान पर बहुत कम छूट मिलती है। ए.पी.एल. परिवारों के लिए कीमतें लगभग उतनी ही ऊँची हैं जितनी खुले बाज़ार में, इसलिए राशन की दुकान से इन चीज़ों की खरीदारी के लिए उनको बहुत कम प्रोत्साहन प्राप्त है।
  • सहकारी समितियों की खाद्य सुरक्षा में भूमिका भारत में विशेषकर देश के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में सहकारी समितियाँ भी खाद्य सुरक्षा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
  • सहकारी समितियाँ निर्धन लोगों को खाद्यान्न की बिक्री के लिए कम कीमत वाली दुकानें खोलती हैं। उदाहरणार्थ, तमिलनाडु में जितनी राशन की दुकानें है, उनमें से करीब 94 प्रतिशत सहकारी समितियों के माध्यम से चलाई जा रही हैं।
सब्सिडी क्या है?
  • सरकार द्वारा जरूरी वस्तुओं और सेवाओं के समाज के सभी जरूरतमंद लोगों तक रियायती दर पर पहुँच को सुनिश्चित करने के लिए उस वस्तु या सेवा के आर्थिक लागत और रियायती दर के अंतराल को भरने के लिए जो सहायता (आर्थिकी) दी जाती है, उसे ही सब्सिडी कहा जाता है।
  • OECD के अनुसार “सब्सिडी वह उपाय है जो उपभोक्ताओं के लिए कीमत को बाजार कीमत से नीचे कर देता है और उत्पादको के लिए कीमत को बाजार दर से ऊपर रखता है। " सब्सिडी का अर्थ बहुत सरल होता है। जब किसी वस्तु या सेवा की कीमत उसकी उत्पादन लागत से कम ली जाती है तो उस अंतर को सब्सिडी कहते हैं।
  • सरकार द्वारा जरूरी वस्तुओं और सेवाओं की समाज के वंचितों एवं मुख्यधारा से कटे लोगों तक रियायती दर पर पहुंच सुनिश्चित के करने के लिए उस वस्तु या सेवा के आर्थिक लागत और रियायती दरों के अंतराल को भरने के लिए जो सहायता दी जाती है।
  • सब्सिडी पारंपरिक रूप से कुछ प्रकार के बोझ को हटाने के लिए दी जाती है और इसे अक्सर आम लोगों के समग्र हित | में समझा जाता है, जो किसी सामाजिक भलाई या आर्थिक नीति को बढ़ावा देने के लिए दी जाती है।
  • सब्सिडी व्यक्ति विशेषों या कंपनियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है और आम तौर पर सरकार से नकदी भुगतान या एक लक्षित कर कटौती के रूप में होती है। आर्थिक सिद्धांत में सब्सिडी का उपयोग बाजार की विफलताओं की क्षतिपूर्ति के लिए और बेहतर आर्थिक दक्षता हासिल करने के लिए किया जाता है।
  • बजटरी-सब्सिडी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध की जाने वाली निजी वस्तुओं व सेवाओं के बिना वसूल की जाने वाली लागत होती है, जिस पर साधनों का एक महत्त्वपूर्ण अंश लग जाता है, लेकिन व छिपा ही रह जाता है, क्योंकि उसका एक छोटा सा अंश ही बजट के प्रपत्रों में सब्सिडी के रूप में स्पष्टतया दर्शाया जाता है।
सब्सिडी को समझना
  • सब्सिडी को वित्तीय सहायता के एक विशेषाधिकार प्रकार के रूप में देखा जाता है क्योंकि वे रिसीवर पर पहले लगाए गए लेवी से जुड़े बोझ को कम कर देती है या वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के जरिए एक विशिष्ट कदम को बढ़ावा देती है।
  • सब्सिडी सामान्यत: देश की अर्थव्यवस्था के विशेष सेक्टरों की सहायता करती है। यह संघर्ष कर रहे उद्योगों पर बोझ को कम करने के जरिये उनकी सहायता कर सकती है या उनके प्रयासों के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के माध्यम से नए डेवलपमेंट के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर सकती है।
  • अक्सर इन क्षेत्रों की सामान्य अर्थव्यवस्था द्वारा प्रभावी रूप से सहायता नहीं की जाती है या प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की गतिविधियों द्वारा उनमें कमी की जाती है। प्रत्यक्ष सब्सिडी वह होती है जिनमें किसी विशिष्ट व्यक्ति, समूह या उद्योग की दिशा में फंडों का वास्तविक भुगतान शामिल होता है जबकि अप्रत्यक्ष सब्सिडी में ऐसा नहीं होता।
क्यों दी जाती है सब्सिडी
  • सरकार द्वारा सब्सिडी लोगों पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को कम करने के मकसद से दी जाती है और इसे अक्सर सामाजिक, आर्थिक या आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देने के लिए दिया जाता है।
  • अधिकतर सब्सिडी सरकार द्वारा कमजोर उद्योग के क्षेत्रों की मदद करने के लिए दी जाती है। अगर किसी क्षेत्र में काफी नुकसान हो रहा है, तो सरकार उस क्षेत्र की वित्तीय मदद कर, उसमें सुधार लाने की कोशिश करती है। अगर किसी वस्तु की कीमत अधिक बढ़ जाती है तो सरकार लोगों को सब्सिडी देकर उस वस्तु की कीमत को कम कर देती है।
सब्सिडी देने का औचित्य
  • चाहे खाद्यान्न हो, उर्वरक हो, पेट्रोल व पेट्रोलियक पदार्थ, सिंचाई, बिजली, पेयजल, शिक्षा आदि की उत्पादन लागत अधिक होती है जो जन समाज की पहुंच से बाहर होते है, अतः कल्याण कारी राज्य के सरकार सब्सिडी देकर वस्तु व सेवाओं को जनसामान्य तक पहुंच को सुनिश्चित करती है।
  • गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से निवारण के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से खाद्य पदार्थों पर सरकार द्वारा सब्सिडी दी जाती है।
  • सरकार कृषिगत उत्पादन, औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा देने तथा इनके उत्पादन के लिए अनुकूल माहौल निर्मित करने के लिए सरकार सब्सिडी देती है ताकि खाद्य सुरक्षा एवं रोजगार संवर्धन हो सके। जैसे- KCC
  • सरकार कृषि और संबंधित क्षेत्र में इनपुट कॉस्ट (सिंचाई, उर्वरक, साख आदि) व आउटपुट दोनों पर सब्सिडी देकर कृषकों को राहत पहुंचाती है तथा निर्यात के लिए वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित कर रही है।
  • भारत में केंद्र द्वारा खाद्य, उर्वरक, पेट्रोलियम, आदि पर प्रति वर्ष काफी सब्सिडी दी जाती है। राज्य सरकारें भी सिंचाई, विद्युत, शिक्षा, आदि पर सब्सिडी देती है।
  • कुल मिलाकर सब्सिडी का अर्थव्यवस्था पर काफी भार पड़ता है। भारत में सब्सिडी या अनुदान अथवा आर्थिक सहायता की समस्या काफी पुरानी है, लेकिन इसका उचित समाधान व हल न होने से यह उत्तरोत्तर अधिक गंभीर होती गई है और प्रमुखतया राजनीतिक कारणों से इसका हल भी नहीं हो पा रहा है।
कैसे दी जाती है सब्सिडी
  • सब्सिडी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में दी जाती है। जब भी कोई सब्सिडी नकद भुगतान तौर पर प्रदान की जाती है, तो वो विशेष रूप से प्रत्यक्ष सब्सिडी मानी जाती है। वहीं कोई भी गैर-नकद लाभ की सहायता को अप्रत्यक्ष सब्सिडी माना जाता है, जैसे कि कर में छूट कम ऋण में ब्याज देना और आदि। 
सब्सिडी की गणना कैसे की जाती है?
  • भारत में प्रदान की जाने वाली सब्सिडी काफी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मिलती है। इसमें ऋण की राशि, ब्याज दर, कुल लागत, उत्पाद, एवं सरकारी सम्बन्धी कार्यों में होने वाले व्यय को मिलाकर सरकार एक निश्चित फार्मूले के जरिए सब्सिडी की राशि तय करती है।
उपयोगिता के आधार पर भी सब्सिडी दो प्रकार की होती है
  • 1. Merit Subsidy ऐसी सब्सिडी जिसका लाभ व्यापक पैमाने पर समाज के अधिक से अधिक लोगों को मिलता है। जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा |
  • 2. Non-Merit- ऐसी सब्सिडी जिसका लाभ छोटे वर्ग को मिलता है। या जिसका लाभ समाज के अधिक जरूरतमंद लोगों को कम मिलता हो जैसे:- LPG सब्सिडी
  • दिल्ली में मदर डेयरी उपभोक्ताओं को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित नियंत्रित दरों पर दूध और सब्ज़ियाँ उपलब्ध कराने में तेज़ी से प्रगति कर रही है।
  • गुजरात दूध तथा दुग्ध उत्पादों में अमूल एक और सफल सहकारी समिति का उदाहरण है। इसने देश में श्वेत क्रांति ला दी हैं।
  • देश के विभिन्न भागों में कार्यरत सहकारी समितियों के और अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराई है।
  • इसी तरह, महाराष्ट्र में एकेडमी ऑफ डेवलपमेंट साइंस (ए.डी. एस.) ने विभिन्न क्षेत्रों में अनाज बैंकों की स्थापना के लिए गैर-सरकारी संगठनों के नेटवर्क में सहायता की है।
  • ए.डी.एस. गैर-सरकारी संगठनों के लिए खाद्य सुरक्षा के विषय में प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम संचालित करती है। अनाज बैंक अब धीरे-धीरे महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में खुलते जा रहे हैं।
  • अनाज बैंकों की स्थापना, गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से उन्हें फैलाने और खाद्य सुरक्षा पर सरकार की नीति को प्रभावित करने में ए. डी. एस. की कोशिश रंग ला रही है। ए. डी. एस. अनाज बैंक कार्यक्रम को एक सफल और नए प्रकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली है।
  • किसी देश की खाद्य सुरक्षा तब सुनिश्चित होती है, जब उसके सभी नागरिकों को पोषक भोजन उपलब्ध होता है। सभी व्यक्तियों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य खरीदने की सामर्थ्य होती है और भोजन तक पहुँचने में कोई अवरोध नहीं होता।
  • निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे लोग खाद्य की दृष्टि से सदैव ही असुरक्षित रह सकते हैं, जबकि संपन्न लोग भी आपदाओं के समय खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित हो सकते हैं।
  • यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य और पोषक तत्वों की असुरक्षा से ग्रस्त है, सबसे अधिक प्रभावित समूह ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन और गरीब परिवार, बहुत कम वेतन वाले कार्यों में लगे लोग और शहरी क्षेत्रों में मौसमी कार्यों में लगे अनियत श्रमिक हैं।
  • देश के कुछ क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की बड़ी संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक है जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में जहाँ बहुत अधिक गरीबी है, जनजातियों वाले व दूरस्थ क्षेत्रों में और ऐसे क्षेत्रों में जहाँ प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं।
  • समाज के सभी वर्गों के लिए खाद्य की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने सावधानीपूर्वक खाद्य सुरक्षा प्रणाली तैयार की है, जिसके दो घटक हैं:
    1. बफर स्टॉक और
    2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अतिरिक्त कई निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी शुरू किए गए, जिनमें खाद्य सुरक्षा का घटक भी शामिल था। इनमें से कुछ कार्यक्रम हैं: एकीकृत बाल विकास सेवाएँ, काम के बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अंत्योदय अन्न योजना आदि।
  • खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका के अतिरिक्त अनेक सहकारी समितियाँ और गैर-सरकारी संगठन भी हैं, जो इस दिशा में तेज़ी से काम कर रहे हैं।

अन्य रूप में सब्सिडी के तीन प्रकार

1. उत्पादन पर सब्सिडी-
  • यह सामान्यतः उत्पादन को बढ़ाने अथवा कोई नया प्लांट लगाने के उद्देश्य से दी जाती है ताकि इसका लाभ अंततः उपभोक्ताओं को मिले।
2. निर्यात सब्सिडी -
  • निर्यात को बढ़ावा देने के लिए।
3. सामाजिक सहायता-
  • इसके अंतर्गत विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए सब्सिडी दी जाती है।
  • भारत सरकार की सब्सिडी रिपोर्ट में इसके निम्न रूपों का उल्लेख किया गया था-
1. मेरिट 1 या वांछित श्रेणी 1 की सब्सिडी -
  • इसका संबंध उन वस्तुओं व सेवाओं से होता है जिनसे व्यक्तिगत लाभ के अलावा सामाजिक लाभ, मेरिट 2 क़ी सब्सिडी की तुलना में ज्यादा मात्रा में मिलता है; जैसे प्रारंभिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, गंदे पानी की निकासी, बीमारी पर रोक व नियंत्रण, सामाजिक कल्याण व पोषण भू व जल संरक्षण, पर्यावरण व परिवेश आदि । 
2. मेरिट 2 या वांछित श्रेणी 2 की सब्सिडी -
  • इस श्रेणी की वस्तुओं व सेवाओं में भी व्यक्तिगत लाभ की तुलना में सामाजिक लाभ अधिक मिलता है, लेकिन मेरिट 1 की तुलना में उसकी मात्रा कम होती है। इसलिए ये मेरिट सब्सिडी की श्रेणी में होते हुए भी मेरिट सब्सिडी 1 की तुलना में दूसरी श्रेणी में रखी गई है, जैसे प्रारंभिक शिक्षा के अलावा अन्य शिक्षा (सेकेण्ड्री व अन्य शिक्षा), शहरी विकास, लघु व कुटीर उद्योग, सड़क व पुल आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी ।
  • मेरिट 1 मेरिट 2 की वस्तुओं व सेवाओं पर दोनों में सब्सिडी में व्यक्तिगत लाभ से सामाजिक लाभ तो ज्यादा होता है, लेकिन इनमें सामाजिक लाभ की डिग्री या अंश को लेकर अंतर पा जाता है। स्पष्ट है कि मेरिट 1 की सब्सिडी में सामाजिक लाभ का अंश मेरिट 2 की तुलना में अधिक पाया जाता है।
  • शेष अन्य प्रकार की सब्सिडी गैर-मेरिट (अवांछित श्रेणी) की मानी जाती है। इनसे समस्त समाज लाभान्वित नहीं होता, केवल कुछ व्यक्ति ही लाभान्वित होते हैं। उदाहरण के लिए, उच्चस्तरीय शिक्षा, शहरों में दुग्ध वितरण स्कीम, कृषि व सहायक क्रियाओं, सिंचाई, विद्युत, उद्योग, परिवहन, आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी को इस श्रेणी में लिया जाता है।
  • इस प्रकार की सब्सिडी का लाभ एक वर्ग - विशेष है, इसीलिए इनको यथासंभव समाप्त किया जाना चाहिए और ऐसे वर्गों से चस्तु व सेवा की पूरी लागत वसूल की जानी चाहिए, क्योंकि वे उसको वहन करने में समर्थ या सक्षम होते हैं। लेकिन मेरिट व गैर-मेरिट सब्सिडी में भेद करने की कोई स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं होती, क्योंकि कई कम आय वाले प्रतिभावान छात्र भी उच्च शिक्षा का लाभ उठाते हैं तो उनके लिए सब्सिडी की व्यवस्था अवांछनीय नहीं मानी जा सकती।
  • फिर भी यदि कभी प्राथमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा में सीमित मात्रा में सब्सिडी की राशि को बांटने का सवाल उठे, तो प्राथमिक शिक्षा को ही वरीयता देना उचित माना जाएगा, क्योंकि को ही मिलता उससे समाज को ज्यादा लाभ मिल पाएगा।
  • सब्सिडी का एक भेद सामाजिक सेवाओं पर सब्सिडी तथा आर्थिक सेवाओं पर सब्सिडी के रूप में भी किया जाता है। सामाजिक सेवाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, जलल- आपूर्ति, स्वच्छता, आवास, शहरी विकास, श्रम व रोजगार आदि आते हैं एवं आर्थिक सेवाओं में कृषि, उद्योग, खनन, ऊर्जा, परिवहन ( रेलवे को छोड़कर, जिसे दोनों में शामिल माना जाता है), आदि आते हैं।
सब्सिडी के प्रतिकूल आर्थिक प्रभाव
  1. सब्सिडी के जारी रहने व बढ़ने से सरकार के राजकोषीय घाटे में वृद्धि होती है जिसकी पूर्ति के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है, जिससे ब्याज की देनदारी बढ़ती है और आगे चल कर राजस्व घाटा बढ़ता है।
  2. सब्सिडी का एक दुष्परिणाम यह भी होता है कि इससे अनावश्यक व व्यर्थ के उपभोगों को बढ़ावा मिलता है। जैसे किसान कम कीमत पर बिजली-पानी मिलने पर इनके उपभोग में आवश्यक किफायत नहीं बरतते और अनाप-शनाप पानी का उपयोग करके भूमि को दलदली बनाकर क्षति पहुंचाने लगते हैं। इससे मिट्टी क्षारीय भी हो सकती है।
  3. सब्सिडी पर अधिकांश राशि लग जाने से सरकार के पास इन्फ्रास्ट्रक्चर (सिंचाई, बिजली, सड़क, संचार, शिक्षा, चिकित्सा, आदि) के विकास के लिए साधन कम हो जाते हैं। भारत में अधिकांश अर्थशास्त्रियों का यह मत है कि सब्सिडी पर व्यय को सीमित करके इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर अधिक ध्यान देने से ग्रामीण विकास को अधिक सुदृढ़ किया जा सकता है, और इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दीर्घकालीन दृष्टि से अधिक लाभ पहुंचाया जा सकता है। स्वयं कृषक भी दीर्घकाल में ज्यादा लाभान्वित स्थिति प्राप्त कर सकते हैं।
  • इस प्रकार सब्सिडी की राशि पर नियंत्रण, विशेषतया गैर-मेरिट पर ऐसा करने से, आर्थिक साधनों का बेहतर उपयोग किया जा सकता है, सार्वजनिक वित्त की व्यवस्था को सुधारा जा सकता है और ग्रामीण विकास की प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है। स्मरण रहे कि सब्सिडी एक बार जारी करने से आगे चलकर उसे बंद करना या कम करना कठिन होता है।
  • सब्सिडी की मद का चुनाव बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए, उसे समयबद्ध ढंग से लागू करना चाहिए, उसकी समय-समय पर समीक्षा करते रहना चाहिए, तभी उसका पूरा लाभ मिल सकता है।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि अभी तक हमारे देश में सब्सिडी की व्यवस्था समानता (इक्विटी) व कार्यकुशलता (इफिशियन्सी) जैसे दोनों लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाई है। इसलिए सब्सिडी की संपूर्ण प्रणाली को नए ढंग से व्यवस्थित करना होगा और इसके लिए एक राष्ट्रीय सब्सिडी नीति का निर्माण करना अत्यावश्यक हो गया है।
सब्सिडी को नियंत्रित करने के विशिष्ट उपाय
  • सब्सिडी की समस्या काफी जटिल मानी गई है। इसको हल करने के लिए सर्वप्रथम एक स्पष्ट रणनीति तैयार करनी होगी, जिसके मुख्य तत्त्व इस प्रकार हो सकते हैं-
    1. गैर-सब्सिडी को कम करने पर सर्वाधिक बल देना चाहिए। समाज के हित में मेरिट सब्सिडी जारी रखी जा सकती है।
    2. सब्सिडी का उपयोग परिभाषित व निर्धारित आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही किया जाना चाहिए । 
    3. सब्सिडी अंतिम वस्तुओं व सेवाओं पर ही दी जानी चाहिए, मध्यवर्ती वस्तुओं व सेवाओं पर नहीं ।
    4. सब्सिडी की समय सीमा तय कर देनी चाहिए। 
    5. इनकी समय-समय पर समीक्षा भी की जानी चाहिए और उसमें आवश्यक परिवर्तन करने के लिए प्रशासन को तैयार रहना चाहिए।
प्रत्यक्ष नगद अंतरण
  • सरकार द्वारा जनता के विशेष वर्ग के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रावधान एवं वितरण के अलावा जब एक निश्चित नगद राशि का अंतरण अथवा भुगतान लाभार्थी के बैंक खाते, पोस्ट ऑफिस के खाते में या मोबाइल मनी हस्तांतरण मशीन के माध्यम से किया जाता है। तो इसे प्रत्यक्ष नगद भुगतान कहते हैं।
  • इसमें लाभार्थी को यह चुनाव का अधिकार मिलता है कि वो नगद को स्वयं के चुने हुए समय एवं स्थान पर खर्च कर सकता है। यह योजना सरकारी बजट के माध्यम से मूलभूत वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति एवं वितरण सुनिश्चित करने के बजाए उस वर्ग विशेष द्वारा स्वयं मांग करने की परिकल्पना पर निर्भर करती है।
  • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के लिए लाभार्थी की बायोमीट्रिक पहचान, कोई सर्वमान्य पंजीकरण संख्या, बैंक खाता या वित्तीय हस्तांतरण का माध्यम जैसे- स्मार्ट कार्ड, एटीएम तक लाभार्थी की पहुंच होना अत्यंत आवश्यक है ।
  • इसके साथ ही मूलभूत वस्तुओं वं सेवाओं की उपलब्धता लाभार्थी की पहुंच में होना भी आवश्यक है। ये दोनों ही बातें संभव बनाने के लिए प्रशासनिक मशीनरी व वित्तीय ढांचे को ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में प्रभावी क्रियाशीलता होना भी एक अनिवार्य आवश्यकता है।
  • समस्त विश्व की अधिकांश सरकारें वर्तमान समय में दो समान प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहीं हैं, एक तो बिगड़ते राजकोषीय संतुलन का एवं दूसरे, समाज कल्याण एवं सुरक्षा के लिए ज्यादा से ज्यादा बजटीय सहायता की मांग का।
  • भारत सरकार के लिए उपर्युक्त दबाव इसीलिए अधिक जटिल हो रहा है क्योंकि सामाजिक कल्याण के खर्चों पर भ्रष्टाचार के आरोपों में लगातार वृद्धि हो रही है और जनसंख्या के एक विशेष वर्ग के लिए न्यूनतम जीवन स्तर को कायम रखने में बाजार तंत्र मदद नहीं कर पा रहा है। सभी बातों के मद्देनजर भारत सरकार ने प्रत्यक्ष लाभ अंतरण का प्रावधान करने की पहल की है।
  • वर्ष 2013 का शुभारंभ प्रत्यक्ष लाभ अंतरण योजना के पहले चरण की घोषणा के साथ हुआ, जिसे देश के बीस जिलों में लागू किया गया है। फिलहाल इसमें सात कार्यक्रम शामिल किए गए है। इस कार्यक्रम की घोषणा से देश में एक जोरदार बहस इस योजना के प्रभाव और उसके अनेक आयामों के बारे में छिड़ गई है।
  • विश्व के अनेक देशों में यह योजना विभिन्न रूपों में लागू की जा चुकी है। ब्राजील में 'फैमीलिया बोसला', मेक्सिको में 'अपॉर्म्युनीडेड्स' और श्रीलंका में 'समृद्धि कोष' के नाम से इसी तरह की योजनाएं चल रही है ।
  • बांग्लादेश, ईरान, नामीबिया और एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों में भी मिलती-जुलती योजनाएं चलाई जा रही है। भारत में भी लाभों के नकद अंतरण की योजनाएं छात्रवृत्तियों और वृद्धावस्था पेंशन जैसी योजनाओं के रूप में पहले से ही चल रही है, जिसमें लाभार्थियों को नकद राशि का भुगतान किया जाता है।
  • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के रूप में उठाए गए इस कदम का महत्व इस तथ्य में निहित है कि सरकार ने पहली बार इसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को भ्रष्टाचार तथा अपव्यय से बचाने के इरादे से लागू करने का निर्णय लिया है।
  • भविष्य में लक्षित लोगों को धारणीय लाभ पहुंचाने की दृष्टि से यह एक आमूल परिवर्तन का सूचक है। यह कहना उचित नहीं होगा कि इस कार्यक्रम के कारण देश को अब सब्सिडी अर्थात् अनुदान के रूप में सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था को सहारा देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। समाज के एक बड़े वर्ग को लंबे समय तक सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता पड़ेगी।
  • लगभग 30 करोड़ लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे है जिन्हें विभिन्न रूपों में आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है। परंतु गरीबों की आर्थिक सुरक्षा से जुड़े विभिन्न सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को भ्रष्टाचार के कारण बड़ा खतरा पैदा हो गया है।
  • समावेशी विकास के माध्यम से लक्षित सामाजिक समूहों को स्वास्थ्य और शिक्षा के लाभ पहुंचाना कठिन हो रहा है। कथित भ्रष्टाचार और लीकेज के कारण संबंधित लोगों को लाभ नहीं मिल पा रहा है।
  • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) योजना इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि इसने सामाजिक सुरक्षा संरचना की नयी परिभाषा रचने की चुनौती स्वीकार की है। न केवल इसकी परिकल्पना जोरदार है, बल्कि इसकी नीयत में ईमानदारी है और साथ ही इसमें व्यापक बदलाव की संभावनाएं भी छिपी हुई है।
  • यह मानना गलत होगा कि डीबीटी को अपनाने से लोक सेवाओं में कटौती हो जाएगी। इसके विपरीत, अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध होंगे जिनका उपयोग अन्य और बेहतर गुणवत्तापूर्ण लोक सेवाओं में किया जा सकेगा।
  • राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान (एनआईपीएफपी) का अनुमान है कि आधार को डीबीटी के साथ जोड़ने से मनरेगा, खाद्य और उर्वरक अनुदान, सर्वशिक्षा अभियान आदि जैसे सरकार के प्रमुख कार्यक्रमों में भारी बचत होगी जिसका उपयोग अन्य कार्यक्रमों के लिए किया जा सकेगा।
  • दक्षिणी अमेरिका में सशर्त नकद अंतरण का विद्यालय में विद्यार्थियों की भर्ती और बच्चों के टीकाकरण प्रतिशत जैसे सामाजिक संकेतकों में सुधार पर उल्लेखनीय प्रभाव देखा गया है।
  • ब्राजील में नकद अंतरण योजना से असमानता में उल्लेखनीय कमी आई है। परंतु किसी दूसरे देश को अंधानुकरण नुकसान भी पहुंचा सकता है।
  • प्रत्येक देश को अपनी विशिष्ट परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने कार्यक्रम तैयार करने चाहिए। भारत में इस कार्यक्रम के सतर्कतापूर्ण शुरूआत का यही कारण है।
  • आगे का सफर बहुत चुनौतीपूर्ण और लंबा है। प्रत्यक्ष लाभ अंतरण की सफलता मुख्य रूप से देश में बैंकिंग नेटवर्क के विस्तार पर निर्भर करेगी।
  • इस समस्या के हल के लिए बैंक प्रतिनिधियों की नियुक्ति, छोटी एटीएम मशीनों का उपयोग अथवा सामान्य सेवा केंद्रों के उपयोग की योजना तैयार की गयी है। विशिष्ट पहचान परियोजना अथवा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के अंतर्गत समूची जनसंख्या को तेजी से शामिल करना, इस पहल की सफलता के निर्णायक तत्व सिद्ध होंगे।
  • उर्वरक सब्सिडी के वितरण में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण प्रणाली की भूमिका -
    • रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के अनुसार सरकार सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदशों में उर्वरक सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से लागू कर रही है।
    • सब्सिडी के तर्कसंगत बनाना रिसावों को कम करना प्रशासनिक लागतों को कम करना ।
    • DBT प्रणाली के अंतर्गत खुदरा उर्वरक विक्रेताओं द्वारा लाभार्थियों को की गई वास्तविक बिक्री के आधार पर विभिन्न श्रेणियों के उर्वरक पर उर्वरक कंपनियों को 100 प्रतिशत सब्सिडी जारी की जाती है।
    • किसानों को सभी प्रकार के उर्वरक सब्सिडी दर पर खुदरा दुकानों पर लगें Point of Sell (PoS) उपकरण के माध्यम से दिये जा रहे हैं। लाभार्थियों की पहचान आधार कार्ड KCC, मतदाता पहचान पत्र आदि से की जा रही है।
    • DBT योजना लागू करने हेतु प्रत्येक खुदरा विक्रेता के यहाँ POS उपकरण होना तथा Pos उपकरण संचालन के लिए खुदरा और थोक विक्रेताओं का प्रशिक्षण आवश्यक हो।
    • प्रमुख उर्वरक आपूर्तिकर्ताओं (LFS) ने देश भर में DBT लागू करने के पहले PoS तैनाती के हिस्से के रूप में 4630 प्रशिक्षण सत्र आयोजित किये हैं।
    • प्रमुख उर्वरक आपूर्तिकर्ताओं (LFS) द्वारा आयोजित प्रारंभिक प्रशिक्षण सत्र के दौरान लगभग 1.8 लाख खुदरा विक्रेताओं को संवेदी बनाया गया है।
क्रियान्वयन के समक्ष चुनौतियाँ
  • वर्तमान में LPG की तरह उर्वरक क्षेत्र में लाभार्थियों को सब्सिडी का प्रत्यक्ष अंतरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि लाभार्थी और उनके अधिकार स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है।
  • सब्सिडी वाले विभिन्न उत्पाद, यूरिया, फास्फेटिक तथा पोटाश वाले 21 प्रकार के उर्वरकों की सब्सिडी दरें अलग-अलग हैं।
  • विभिन्न उत्पादन प्रक्रिया, यंत्रों की उर्जा क्षमता, सफलता आदि के कारण यूरिया के मामले में सब्सिडी एक कंपनी से दूसरी कंपनी में अलग-अलग होती है।
  • कुछ उर्वरकों विशेषकर यूरिया के न्यूनतम खुदरा मूल्य से दोगुनी सब्सिडी होती है। इस विषय पर गहराई से विश्लेषण के लिए नीति आयोग ने हाल ही में एक समिति बनाई है, जो एक मॉडल की सिफारिश करेगी। जिसका इस्तेमाल किसानों को सब्सिडी के प्रत्यक्ष अंतरण में किया जाएगा।
एक नयी शुरूआ
  • सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक न्याय तथा सशक्तिकरण, छात्रवृत्ति, महिला तथा बाल कल्याण के लिए दी जाने वाली बजटीय सब्सिडी के बेहतर क्रियान्वयन व असर के लिए भारत सरकार ने 1 जनवरी, 2013 से देश के 6 राज्यों (दिल्ली, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब) तथा 3 केंद्र शासि राज्यों ( पुडुचेरी, चंडीगढ़ तथा दमन दीव) में से चुने हुए 20 जिलों में प्रत्यक्ष नगद भुगतान की शुरूआत की है।
  • अभी शुरूआत में सात केंद्र प्रायोजित योजनाओं को इसके लिए चुना गया है जिसमें लाभार्थी के खाते में सीधे बिना शर्त नगद जमा किया जाएगा। इसके लिए आधार को पहचान का आधार माना जाएगा।
  • इस प्रकार भारत सरकार ने एक सकारात्मक पहल करते हुए आगे की दिशा एवं लक्ष्य तय किए हैं। इस योजना से समाज के निर्धन तथा अक्षम वर्ग का न केवल वित्तीय समावेशन संभव हो सकेगा बल्कि उनके जीवन स्तर में सुधार हेतु उनके वित्तीय सक्षमता एवं सामाजिक सशक्तिकरण के स्तर में वृद्धि होगी।
वर्तमान स्थिति
  • कृषि-क्षेत्र में कुल सार्वजनिक व्यय 1993-94 में सकल घरेलू उत्पाद के 8.6 प्रतिशत के स्तर पर था। 2009-10 तक आते-आते यह कृषि GDP के 20.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गया। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कृषि क्षेत्र में संसाधनों का पर्याप्त प्रवाह हो रहा है।
  • आज समस्या कृषि क्षेत्र में संसाधनों के प्रवाह को लेकर नहीं है, समस्या है व्यय की संरचना को लेकर । भारतीय कृषि सार्वजनिक संसाधनों को सार्वजनिक निवेश की तुलना में सब्सिडी के रूप में कहीं अधिक प्राप्त कर रहा है।
  • आज कुल सार्वजनिक व्यय का 80 प्रतिशत इनपुट सब्सिडी के मद में खर्च हो रहा है, तो 20 प्रतिशत सार्वजनिक निवेश के रूप में। जबकि वास्तविकता यह है कि कृषि क्षेत्र में निवेश पर किया गया खर्च सब्सिडी पर किए जाने वाले खर्च की तुलना में पाँच से दस गुना ज्यादा लाभ (RETURN) देता है।
  • पिछले कुछ वर्षों के दौरान कृषि-सब्सिडी में वृद्धि की दर सार्वजनिक निवेश में वृद्धि दर की तुलना में कहीं अधिक तेज रही है।
  • 10वीं योजना के दौरान इस पर कुछ हद तक अंकुश लगाने की कोशिश की गई, परंतु ग्यारहवीं योजना के दौरान इसमें कहीं अधिक तेज वृद्धि हुई।
  • 10वीं योजना के दौरान कृषि बजट सब्सिडी कृषि GDP के 4.1 प्रतिशत के स्तर पर रही, लेकिन ग्यारहवीं योजना आरंभिक वर्षों के दौरान यह कृषि GDP के 8.2 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई।
  • 11वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के अनुसार कृषि GDP के आलोक में कृषि में सार्वजनिक निवेश वर्ष 1980 और वर्ष 2002 के बीच घटकर आधा रह गया। 10वीं-11वीं योजना के दौरान कृषि में सार्वजनिक निवेश कृषि जीडीपी के तीन प्रतिशत से भी कम के स्तर पर था।
  • इसी आलोक में कृषि लागत और मूल्य आयोग ने एक विशेषज्ञ समिति की स्थापना का सुझाव दिया जो निम्न प्रश्नों पर विचार करते हुए उपयुक्त सुझाव दे :
    1. कैसे इनपुट सब्सिडी का यौक्तीकरण किया जाए।
    2. कैसे इस पर अंकुश लगाया जाए।
    3. इससे होने वाली बचत को कैसे कृषि निवेश को चैनलाइज किया जाए।
  • ध्यातव्य है कि वास्तविक कृषि सब्सिडी की मात्रा उससे कहीं अधिक है जितना इसे आँकड़ों में प्रदर्शित किया जाता है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) घरेलू यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी को औद्योगिक सब्सिडी के अंतर्गत गणना करता है। यह सब्सिडी घरेलू यूरिया उत्पादकों को दी जाती है।
  • कृषि क्षेत्र के द्वारा प्राप्त की गई विद्युत सब्सिडी के एक हिस्से को बजट में प्रदर्शित नहीं किया जाता है। तीसरी बात यह कि CSO के द्वारा खाद्यान्न सब्सिडी को कृषि सब्सिडी के अंतर्गत शामिल किया जाता है, जबकि इसे उपभोक्ता सब्सिडी के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाना चाहिए।
  • वर्तमान में सरकार DBT में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग विधियां प्रयोग में ला रही है। जैसे गैस सिलेंडर की सब्सिडी के लिए ग्राहकों के खातों में पैसा वापस भेजा जाता है। लेकिन अभी कृषि क्षेत्र के लिए सरकार ने आधार कार्ड का उपयोग कर सब्सिडी को दुकानदार के खाते में भेजने का निर्णय लिया है।
सब्सिडी क्षेत्र के दायरे को बढ़ाना
  • योजना के तहत फिलहाल रसोई गैस, केरोसीन तेल, उर्वरक व खाद्यान्न की सब्सिडी को शामिल नहीं किया गया है। लेकिन ये सर्वाधिक जरूरी और महत्त्वपूर्ण संसाधन है।
  • हमें इनके प्रति गंभीरता से सब्सिडी नीति तय करनी होगी। इन्हें सब्सिडी के दायरे में लाने के साथ ही इसकी कार्यकुशलता से क्रियान्वयन करने की जरूरत होगी।
  • इसके अलावा ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन्हें नगद सब्सिडी के दायरे में लाना जरूरी है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा आदि जरूरी चीजों को शामिल करने की जरूरत है।
  • खाद्यान्न सब्सिडी भी बेहद जरूरी है। यह न केवल खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लीकेज को रोकने में भी कारगर है।
  • दूसरी ओर एक अध्ययन के अनुसार खाद्यान्न व उर्वरक सब्सिडी का वित्तीय बोझ वर्तमान परिदृश्य के आधार पर अगले वर्ष तक करीब 2 लाख करोड़ तक होने वाला है।
  • यदि इसे नगद सब्सिडी के दायरे में लाया जाए तो यह बोझ 30 प्रतिशत तक घट सकता है। यह सरकार के राजकोषीय घाटे को कम करने में भी लाभप्रद है।
  • साथ ही इसमें बहुत सीमित योजनाओं का चुनाव किया गया है बल्कि राज्य सरकारें इसे अलग-अलग तरह से लागू करेंगी। उदाहरण के लिए दिल्ली तथा राजस्थान सरकार ने जननी सुरक्षा योजना तथा विधवा पेंशन को भी इसमें शामिल किया है जबकि पुडुचेरी में 15 योजनाओं को शामिल किया गया है।
  • आंध्र प्रदेश में पूरी योजना को 15 जनवरी तक टाल दिया गया जबकि राजस्थान, चंडीगढ़ में यह सिर्फ उन जिलों में शुरू की गयी है जहां बैंक खातों का पंजीयन शत-प्रतिशत पहले से ही हो चुका है।
  • हालांकि सरकार ने जिन सामाजिक कल्याण एवं सुरक्षा की योजनाओं का चयन प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के लिए किया है उसके पीछे अनेक उद्देश्य भी हैं।
  • चयनित योजनाओं में लाभार्थियों का चयन और उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना अपेक्षाकृत सबसे आसान है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से जागरूकता का स्तर और जीवन स्तर में सुधार के लिए मांग में वृद्धि साफ दिखती है ।
  • हालांकि इसके पीछे राजनीतिक लाभ व गणित भी काफी है लेकिन फिर भी यदि 12वीं पंचवर्षीय योजना के साथ केंद्र सरकार, केंद्र प्रायोजित योजनाओं को समाप्त करना चाहती है तो उसकी तरफ सरकार का यह पहला कदम है।
सरकार की कार्यकुशलता एवं भूमिका
  • सरकारी सेवाओं की व्यवस्था कहीं ना कहीं अकुशल रही है, गुणवत्ता लगातार घटती रही है और सर्वत्र राजकाज की जटिल समस्या है, यह एक सर्वमान्य तथ्य है लेकिन ध्यान रखना जरूरी है कि हमें उस प्रणाली की आवश्यकता है जिसमें समावेश व अपवर्जन की त्रुटि कम से कम हो ।
  • सब्सिडी की प्रमुख समस्या यह है कि लाभ अपात्र लोगों को मिल रहा है और सही पात्र न्यूनतम आवश्यकता नहीं पूरी कर पाने के कारण सब्सिडी का लाभ नहीं उठा पाता।
  • नगद हस्तांतरण से सरकार की भूमिका बहुत कम हो जाएगी ऐसी परिकल्पना व्यर्थ है क्योंकि जब तक आधार कार्ड की परियोजना पूरी नहीं हो जाती वर्तमान व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता।
  • जहां बैंकों की शाखाएं नहीं हैं वहीं यदि स्मार्ट कार्ड और एटीएम के लिए निजी बैंकों या वित्तीय संस्थाओं को जिम्मेदारी सौंपी भी जाए तो उसकी निगरानी के बिना गरीबों के शोषण की संभावना बनी रहेगी।
शिक्षा और जागरूकता
  • ग्रामीण भारत की अधिकांश जनता को अपने सामान्य नागरिक अधिकार तक पता नहीं होता जो भारतीय संविधान ने एक नागरिक होने के नाते उन्हें प्रदान किए हैं। तो फिर वित्तीय अधिकार तो दूर की बात है। अतः जरूरी है कि उनमें वित्तीय जागरुकता लाई जाए। इसके लिए उनमें वित्तीय साक्षरता प्रदान की जा सकती है।
  • जब देश के ग्रामीण नागरिक वित्तीय साक्षरता प्राप्त कर लेंगे तो उन्हें अपने वित्तीय निर्णय लेने में आसानी होगी। साथ ही वे संस्थागत ऋण के बारे 'जान सकेंगे और बैंकिंग की आदत देश में आर्थिक विकास दर को बढ़ाने में हमेशा सहयोग करता है।
  • जब लोगों में बैंकिंग की आदत बनी रहती है तो वे बचत करते है। हैं और यह बचत सकल घरेलू उत्पाद की दर को बढ़ाता है |
  • इसके अलावा वित्तीय समावेशन से सरकारी सब्सिडी को बिना किसी लीकेज के सीधे लाभार्थी के खाते में जमा की जा सकेगी। इससे भ्रष्टाचार को रोकने में भी काफी मदद मिल सकेगी।
  • वित्तीय सेवाओं तक पहुंच के अभाव का कारण हैं जागरूकता की कमी। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2005 में सभी बैंकों को निर्देश जारी किया कि वे गरीब जनता का खाता शून्य जमा पर खोलें।
  • देश के कुछ राष्ट्रीयकृत बैंकों के अलावा किसी बैंकों ने इस दिशा में प्रगति नहीं की है।
शांता कुमार समिति
  • शांता कुमार कमेटी का गठन भारतीय खाद्य निगम की कार्यप्रणाली व भूमिका को पुर्नपरिभाषित करने व इसकी संरचना को बेहतर बनाने के लिए किया गया। पैनल ने अपनी रिपोर्ट में निम्न बिन्दुओं को रेखाकिंत किया-
    • खाद्यान्न आपूर्ति श्रृखंला प्रबंधन के खरीद से विवरण तक सभी प्रक्रियाओं को कम्प्यूटरीकरण करने का सुझाव दिया।
    • समिति ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) से यह अपेक्षा की कि वह अपनी भूमिका को पुर्नपरिभाषित करते हुए खरीद से लेकर वितरण तक सभी चरणों में प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दे और साथ में खाद्य प्रबंधन व्यवस्था में नवोन्मेष को सुनिश्चित करें।
    • जिससे समग्र लागत को कम किया जा सके और लीकेज को रोका जा सके। जिससे बड़ी संख्या में किसान और उपभोक्ता को फायदा पहुँचाया जा सके।
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से संबंधित सिफारिशें कमेटी ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) नीति के साथ खरीद नीति कि विसंगतियों को दूर करने की सिफारिश की।
  • इसके अनुसार जहां गेहूँ की न्यूनतम समर्थन मूल्य मात्र 1400 रूपये प्रति क्विंटल है वहीं उच्च दक्षता के अभाव के कारण भारतीय खाद्य निगम (FCI) की आर्थिक लागत 220 रूपये प्रति क्विंटल हो जाती है।
  • यदि किसी राज्य सरकार के द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बोनस घोषणा की जाती है तो भारतीय खाद्य निगम (FCI) उस राज्य से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के आधार पर की गई खरीद को स्वीकार न करें।
  • साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के आधार पर की जाने वाली खरीद की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए। इसके लिए पारदर्शी जांच प्रणाली के विकास को सुनिश्चित किया जाए।
अधिशेष खरीद के स्वतः तरलीकरण की व्यवस्था
  • समिति ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को व्यापार नीति से संबंध करते हुए खुले बाजार में अधिशेष बफर स्टॉक के स्वतः तरलीकरण का सुझाव दिया।
  • इसके अनुसार यदि भारतीय खाद्य निगम (FCI) के द्वारा जरूरत से ज्यादा अनाज की खरीद की जाती है तो खाद्य मंत्रालय उसके निर्यात या फिर स्थानीय बाजार में उसकी बिक्री का तुरंत निर्णय ले।
  • खरीद गतिविधियों से संबंधित सिफारिशें समिति ने यह सुझाव. दिया कि पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा में भारतीय खाद्य निगम (FCI) गेहूं और चावल की खरीद की जिम्मेवारी राज्य सरकारों को सौपें क्योंकि उनके पास पर्याप्त अनुभव है और वहां पर खरीद और अवसंरचना विकसित हो चुकी है।
  • सीमित के अनुसार बेहतर और बेहतर अवसरंचना वाले इन राज्यों में भारतीय खाद्य निगम (FCI) अपनी भूमिका सीमित करते हुए वहां की पीडीएस संबंधी जरूरतों को समायोजित करने के बाद केवल अधिशेष अनाज की खरीद करें।
  • ताकि इन्हें घाटे वाले राज्यों तक पहुंचाया जा सके इसकी जगह पर भारतीय खाद्य निगम (FCI) को पूर्वी भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में खरीद एवं खरीद ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनका कुल खाद्यान्न उत्पादन में 40 प्रतिशत योगदान है।
भंडार क्षमता का विस्तार और निजी क्षेत्र की भूमिका
  • समिति ने खरीद की प्रक्रिया में राज्य एजेंसियों के अलावा निजी क्षेत्र की भूमिका को प्रोत्साहित करने की बात कही । समिति ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) से यह अपेक्षा की वह निजी क्षेत्र एवं अन्य एजेसियों की सहायता से नए बड़े अनाज गोदामों को बनाना पुराने अनाज गोदामों के सिलोज में तब्दील करने जिसकी सामरिक बफर रिर्जव क्षमता 5 मीट्रिक टन हो और अनाज आपूर्ति श्रृंखला के उन्नयन ध्यान केंद्रित करे ताकि खुले में भंडारण पर रोक लगे और स्टोरेज व्यवस्था का आधुनिकीकरण हो ।
  • खाद्यान्नों की ढुलाई इस प्रक्रिया को आधुनिकीकरण एवं मशीनीकरण की आवश्यकताओं पर बल देते हुए इसमें कन्टेन द्वारा ढुलाई और मशीनों द्वारा अपलोडिंग और डाउनलोडिंग का सुझाव दिया।
  • पीडीएस एवं खाद्य सुरक्षा का सन्दर्भ इसने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के अधिनियम के प्रति प्रतिबद्धता एवं क्रियान्वयन पर पुर्नविचार का सुझाव दिया।
भारत की रणनीति:
  • जुलाई, 2017 में भारत ने कृषि-सब्सिडी में कटौती की दिशा में की गई पहलों से अवगत करवाते हुए माँग की कि प्रस्तावित सम्मलेन में कृषि और खाद्य सुरक्षा पर विकृत रियायत के अनसुलझे मसले पर अंतिम निर्णय लिए जाएँ, लेकिन इस क्रम में यह सुनिश्चित किया जाये कि निर्णय प्रक्रिया में ज्यादातर सदस्य- देशों की भागीदारी हो ।
  • इसके मद्देनजर भारत ने नैरोबी सम्मलेन, 2015 से सबक लेते हुए निर्णय प्रक्रिया की पारदर्शिता को सुनिश्चित किये जाने की माँग की, ताकि नैरोबी की उन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो जिसके कारण ज्यादातर देश निर्णय प्रक्रिया से बाहर रह गए थे।
  • साथ ही, सीमा रेखा पर गहरे तनाव के बावजूद इस मसले पर भारत एवं चीन एकजुट हैं और व्यापार एवं सब्सिडी के मसले पर साझे प्रस्ताव को अंतिम रूप देने में लगे हैं।
  • जुलाई, 2017 में भारत और चीन ने कृषि-सब्सिडी के आकलन (AGGREGATE MEASUREMENT SUPPORT) से सम्बंधित इस साझा प्रस्ताव को अंतिम रूप दिया, जिसमें कहा गया है कि कृषि-सब्सिडी के आकलन (AMS) को हटाने के मसले पर कोई समझौता नहीं हो सकता है। इसकी कीमत पर कृषि एवं खाद्य सुरक्षा सब्सिडी पर विद्यमान गतिरोध तोड़ने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए ।
  • ध्यातव्य है कि यह आकलन विकृत सब्सिडी में खाद, बिजली, सिंचाई, कृषि कर्ज और न्यूनतम समर्थन मूल्य से गुणित विश्व बाजार की कीमतों एवं घरेलू बाजार की कीमतों को शामिल करता है।
  • भारत रणनीति के तहत एक कदम पीछे हटकर सब्सिडी - कसौटी की रणनीति के जरिये बड़े बाजार वाले विकसित देशों को सब्सिडी कम करने के लिए बाध्य करना चाहता है, लेकिन डर है कि या रणनीति कहीं आत्मघाती साबित नहीं हो।
वाधवा समिति
  • पीडीएस सुधारों के प्रश्न पर गठित वाधवा समिति ने सरकार की। मंशा पर प्रश्न खडा करते हुए कहा “राज्य सरकारें पीडीएस रिफॉर्म के लिए बिल्कुल ही गंभीर नहीं है। ऐसा लगता है कि केंद्र सरक सब्सिडी बाँटकर खुश है और राज्य सरकारें राशन की दुकानें खोलवाकर । "
  • तमिलनाडु के पीडीएस सुधारों का हवाला देते हुए इसके कहा “तमिलनाडु में सार्वभौम पीडीएस व्यवस्था लागू करने से वहाँ रिसाव को रोकने में कामयाबी मिली है। " इस समिति ने पीडीएस व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए निम्न सुझाव दिए:
1. पीडीएस डीलरों की नियुक्ति :
  • उचित मूल्य के दुकानों (FPS) हेतु समिति ने डीलरों के चयन की प्रक्रिया को स्पष्ट और पारदर्शी बनाने का सुझाव दिया। साथ ही, चयन की प्रक्रिया को 56 दिनों की बजाय 42 दिनों में पूरी करने की भी अनुशंसा की।
  • साथ डीलर के रूप में उसी व्यक्ति को लाइसेंस जारी किया जाना चाहिए। जो तत्संबंधी सर्किल का निवासी है, ही नयी रिक्तियों हेतु आबंटन में सहकारी समितियों एवं महिला स्वयं सहायता समूहों को प्राथमिकता दिए जाने की बात की गई है।
  • विभिन्न उचित मूल्य के दुकानों के बीच संबद्ध कार्डों की संख्या को लेकर विद्यमान विसंगति को दूर करते हुए नये लाइसेंस उसी स्थिति में जारी करने की अनुशंसा की गई जब उस दुकान से संबद्ध करने के लिए 1000 राशन कार्ड उपलब्ध हो ।
2. उचित मूल्य के दुकानों की आर्थिक वहनीयताः
  • लंबे समय से लाइसेंस धारकों के द्वारा कमीशन में वृद्धि की माँग की जा रही है। इस आलोक में समिति ने कमीशन के दर में वृद्धि की बजाए एफपीएस के आर्थिक वहनीयता में सुधार के लिए अन्य उपलब्ध विकल्पों पर गौर किए जाने का सुझाव दिया।
  • इसने निर्दिष्ट खाद्यान्नों की परिवहन लागत को वास्तविक लागत पर आधारित बनाये जाने का सुझाव दिया। इसने यह भी सुझाव दिया कि परिवहन प्रबंधन की जिम्मेवारी राज्य नागरिक आपूर्ति निगम के बाजार विभागों को सौंपी जाए और इसके लिए खुले टेंडर की व्यवस्था अपनाई जाए।
  • इसने पीडीएस स्टोरो से अन्य वस्तुओं की बिक्री को भी प्रोत्साहित करने का सुझाव दिया। साथ ही पीडीएस के दायरे में आने वाली वस्तुओं की डिलवरी में होने वाले विलंब के लिए जिम्मेवारी के निर्धारन की भी बात की। 
  • समिति ने यह भी सुझाव दिया कि पीडीएस स्टोरों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित जगह मामूली किराये पर उपलब्ध करायी जाए।
  • साथ ही विद्यमान दिशा निर्देशों का सुदृढीकरण करते हुए उसे प्रचारित और प्रसारित भा किया जाए ताकि लाभान्वितों की पीडीएस संबंधी सूचनाओं तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सके।
3. शिकायत निवारण तंत्र और प्रभावी निगरानी व्यवस्था:
  • समिति ने स्थानीय स्तर पर विद्यमान निगरानी तंत्र को भंग कर हुए जिलावार निगरानी समिति के गठन का सुझाव दिया।
  • निगर समिति के सदस्यों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने की बात की गई और उनमें आम लोगों, अंशधारकों एवं पारिवारिक महिलाओं की व्यापक भागीदारी पर जोर दिया गया।
  • समिति ने निगरानी समिति में महिला सदस्यों की बहुलता एवं अनपचित जाति एवं जनजाति के प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की मौजदगी को सुनिश्चित किए जाने की बात की।
  • निगरानी समिति की नियमित बैठक पर जोर देते हुए कहा गया कि स्थानीय विधायकों के अनुपलब्धता के कारण निगरानी समिति की बैठक स्थगित न की जाए। ऐसी स्थिति में उस जिला के सहायक आयुक्त के द्वारा बैठक की अध्यक्षता की जा सकती है।
  • पीडीएस संबंधी शिकायतों के मद्देनजर टॉल फ्री हेल्पलाइन नम्बर उपलब्ध कराये जाने की अनुशंसा की गयी। उपभोक्ताओं की शिकायतों के निवारण के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र के विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया।
  • साथ ही राज्य स्तरीय निगरानी समिति में खाद्यान्न आपूर्ति और उपभोक्ता मामले से संबद्ध विभाग के आयुक्त को संयोजक सदस्य के रूप में शामिल करने का सुझाव दिया। यह समिति जिला स्तरीय निगरानी समिति के तिमाही समीक्षा करेगी।
4. स्पष्टता और पारदर्शिताः
  • समिति ने पीडीएस व्यवस्था के पूर्ण कंप्यूटरीकरण पर बल दिया है, ताकि सूचना प्रौद्योगिकी आधारित पूर्णत: स्वचालित प्रणाली को लागू किया जा सके और मानवीय हस्तक्षेप की संभावनाओं को न्यूनीकृत किया जा सके।
  • जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक के लिए कूपन व्यवस्था को लागू किया जाए। फर्जी राशन कार्डों के मद्देनजर वास्तविक लाभान्वितों के डाटाबेस को तैयार करने की आवश्यकता पर बल दिया गया ताकि समावेशन एवं बहिष्करण संबंधी विसंगतियों को दूर किया जा सके। इसके लिए विश्वसनीय स्वतंत्र एजेन्सी के माध्यम से राशन कार्ड धारकों के दरवाजे पर जाकर सत्यापन का सुझाव दिया गया।
  • समिति ने फर्जी राशन कार्ड धारकों के लिए दंडरहित राशन कार्ड सुपुर्दगी योजना का सुझाव दिया ताकि वे स्वेच्छा से अपने फर्जी राशन कार्डों का समर्पण कर सके।
  • इसके द्वारा निर्धारित अवधि के बीत जाने की स्थिति में फर्जी राशन कार्ड पाये जाने पर राशन कार्ड धारकों के साथ-साथ उसे जारी करने वाले आधिकारियों के खिलाफ सख्त कारवाई की अनुशंसा की गयी है।
5. रिसाव और विचलनः
  • समिति ने रिसाव और विचलन के मद्देनजर उचित मूल्य की दुकानों के राष्ट्रीयकरण का सझाव दिया। इसने पीडीएस व्यवसथा के अंतर्गत एफपीएस के नियंत्रण की जिम्मेवारी सरकार के हाथों सौंपे जाने और उसके संचालन की जिम्मेवारी निजी व्यक्ति को सौंपे के बजाए राज्य स्तरीय निगमों, सहकारी समितियों और महिला सहायता समूहों को सौंपे जाने की अनुशंसा की।
  • इसने एपीएल, बीपीएल विभाजन को समाप्त करते हुए एपीएल सब्सिडी की व्यवस्था समाप्त करने की अनुशंसा की । यदि ऐसा करना संभव नहीं है तो खाद्य सब्सिडी के दायरे को एक लाख या इससे कम आय समूह के लोगों तक सीमित किया जाए।
6. अन्य सुझावः
  • समिति ने एफपीएस के द्वारा भुगतान के लिए ई-बैंकिंग की व्यवस्था को अपनाएं जाने का सुझाव दिया साथ ही पीडीएस प्रचालनों को मजबूती प्रदान करने के लिए मोबाइल एफपीएस की व्यवस्था उन क्षेत्रों के लिए सुनिश्चित करने की बात की गयी जहाँ पर्याप्त मात्रा में राशन कार्ड उपलब्ध नहीं है ।
  • इसके लिए योजना आयोग फड उपलब्ध कराये। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ एफपीएस के लिए गोदाम नहीं है वहाँ सरकार या निगमों से अपेक्षा की गयी की वह एटीएम, डेयरी या डाकघर के तर्ज पर उसका निर्माण करें।
पीडीएस सुधार और राज्य
  • पिछले दशक के दौरान राज्यों द्वारा पीडीएस सुधारों की दिशा में की गई विकेन्द्रीकृत पहलों ने पीडीएस व्यवस्था के पुनरोद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • कुछ राज्यों ने बीपीएल परिवारों की पहचान की विश्वसनीय तरीके के अभाव, व्यापक स्तर पर बहिष्करण त्रुटियाँ और विभाजनकारी लक्ष्यीकरण की समस्याओं के मद्देनजर एपीएल और बीपीएल विभाजन को समाप्त करते हुए पीडीएस व्यवस्था के सार्वभौमीकरण की दिशा में पहल की ताकि उसे अधिक समावेशी पीडीएस का रूप दिया जा सके।
  • तमिलनाडु की सरकार ने अपने नागरिकों के लिए प्रतिमाह प्रति परिवार 20 किलोग्राम चावल मुफ्त में उपलब्ध करवाने की दिशा में पहल की।
  • आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, केरल, उड़ीसा और राजस्थान ने भी पीडीएस व्यवस्था के लगभग सार्वभौमीकरण की दिशा में पहल करते हुए एक ओर बहिष्करण त्रुटियों को समाप्त करने की कोशिश की दूसरी ओर पीडीएस व्यवस्था की प्रभावशीलता को भी बढ़ाने का काम किया।
  • आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक केरल, मध्यप्रदेश, उडीसा, राजस्थान और तमिलनाडु ने पीडीएस कीमतों में कमी लाते हुए उसे अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया।
  • आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु ने यदि दलहन को पीडीएस के दायरे में लाया तो छत्तीसगढ़ को छोड़कर इन तीनों राज्यों ने खाद्य तेल को भी।
  • इसके अतिरिक्त पीडीएस व्यवसथा में पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए या तो पीडीएस खाद्यान्नों को एफपीएस दुकानों तक पहुँचाने वाले ट्रकों को ग्लोबल पोजिसनिंग सिस्टम से लैश किया गया या फिर उन ट्रकों को पीले रंग से रंगा गया ताकि आसानी से दूर से ही उनकी पहचान पींडीएस खाद्यान्न ढोने वाले ट्रक के रूप में किया जा सके।
  • सार्वजनिक और निजी स्थलों पर लाभार्थियों के नामों का प्रदर्शन किया गया ताकि फर्जीवाड़े को रोका जा सके।
परीक्षोपयोगी तथ्य
  • किसी देश की खाद्य सुरक्षा तब सुनिश्चित होती है, जब उसके सभी नागरिकों को पोषक भोजन उपलब्ध होता है।
  • सभी व्यक्तियों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य खरीदने की सामर्थ्य होती है और भोजन तक पहुँचने में कोई अवरोध नहीं होता।
  • निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे लोग खाद्य की दृष्टि से सदैव ही असुरक्षित रह सकते हैं, जबकि संपन्न लोग भी आपदाओं के समय खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित हो सकते हैं।
  • यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य और पोषक तत्वों की असुरक्षा से ग्रस्त है, सबसे अधिक प्रभावित समूह ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन और गरीब परिवार, बहुत कम वेतन वाले कार्यों में लगे लोगं और शहरी क्षेत्रों में मौसमी कार्यों में लगे अनियत श्रमिक हैं।
  • देश के कुछ क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की बड़ी संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक है जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में जहाँ बहुत अधिक गरीबी है, जनजातियों वाले व दूरस्थ क्षेत्रों में और ऐसे क्षेत्रों में जहाँ प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं।
  • समाज के सभी वर्गों के लिए खाद्य की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने सावधानीपूर्वक खाद्य सुरक्षा प्रणाली तैयार की है, जिसके दो घटक हैं:
  1. बफर स्टॉक और
  2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अतिरिक्त कई निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी शुरू किए गए, जिनमें खाद्य सुरक्षा का घटक भी शामिल था।
  • इनमें से कुछ कार्यक्रम हैं: एकीकृत बाल विकास सेवाएँ, काम के बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अंत्योदय अन्न योजना आदि।
  • खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका के अतिरिक्त अनेक सहकारी समितियाँ और गैर-सरकारी संगठन भी हैं, जो इस दिशा में तेज़ी से काम कर रहे हैं ।

खाद्य सुरक्षा

  • जीवन के लिए भोजन उतना ही आवश्यक है जितना कि साँस लेने के लिए वायु। खाद्य सुरक्षा मात्र दो जून की रोटी पाना नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है। खाद्य सुरक्षा के निम्नलिखित आयाम हैं:
  1. खाद्य उपलब्धता का तात्पर्य देश में खाद्य उत्पादन, खाद्य आयात और सरकारी अनाज भंडारों में संचित पिछले वर्षों के स्टॉक से है।
  2. पहुँच का अर्थ है कि खाद्य प्रत्येक व्यक्ति को मिलता रहे।
  3. सामर्थ्य का अर्थ है कि लोगों के पास अपनी भोजन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए धन उपलब्ध हो । किसी देश में खाद्य सुरक्षा केवल तभी सुनिश्चित होती है जब
    1. सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाद्य उपलब्ध हो,
    2. सभी लोगों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य-पदार्थ खरीदने की क्षमता हो और
    3. खाद्य की उपलब्धता में कोई बाधा नहीं हो ।
खाद्य सुरक्षा क्यों?
  • समाज का अधिक गरीब वर्ग तो हर समय खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकता है परंतु जब देश भूकंप, सूखा, बाढ़, सुनामी, फसलों के खराब होने से पैदा हुए अकाल आदि राष्ट्रीय आपदाओं से गुज़र रहा हो, तो निर्धनता रेखा से ऊपर के लोग भी खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकते हैं।
  • किसी प्राकृतिक आपदा जैसे, सूखे के कारण खाद्यान्न की कुल उपज में गिरावट आती है। इससे प्रभावित क्षेत्र में खाद्य की कमी हो जाती है। खाद्य की कमी के कारण कीमतें बढ़ जाती हैं।
  • कुछ लोग ऊँची कीमतों पर खाद्य पदार्थ नहीं खरीद सकते । अगर यह आपदा अधिक विस्तृत क्षेत्र में आती है या अधिक लंबे समय तक बनी रहती है, तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है। व्यापक भुखमरी से अकाल की स्थिति बन सकती है ।
  • अकाल के दौरान बड़े पैमाने पर मौतें होती हैं जो भुखमरी तथा विवश होकर दूषित जल या सड़े भोजन के प्रयोग से फैलने वाली महामारियों तथा भुखमरी से उत्पन्न कमज़ोरी से रोगों के प्रति शरीर की प्रतिरोधी क्षमता में गिरावट के कारण होती है।
  • भारत में जो सबसे भयानक अकाल पड़ा था, वह 1943 का बंगाल का अकाल था । इस अकाल में भारत के बंगाल प्रांत में तीस लाख लोग मारे गए थे।
  • भारत में बंगाल जैसा अकाल पुनः कभी नहीं पड़ा। लेकिन यह चिंता का विषय है कि आज भी उड़ीसा में कालाहांडी तथा काशीपुर जैसे स्थान हैं, जहाँ अकाल जैसी दशाएँ अनेक वर्षों से बनी हुई हैं और ऐसी भी सूचना मिली है कि वहाँ भूख के कारण कुछ लोगों की मृत्यु भी हुई है।
  • हाल के कुछ वर्षों में राजस्थान के बारन ज़िले, झारखंड के पालामू ज़िले तथा अन्य सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भूख के कारण लोगों की मृत्यु की सूचना मिली है। अतः किसी भी देश में खाद्य सुरक्षा आवश्यक होती है ताकि सदैव खाद्य की उपलब्ध सुनिश्चित की जा सके।
खाद्य असुरक्षित कौन हैं?
  • यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य एवं पोषण की दृष्टि से असुरक्षित है, परंतु इससे सर्वाधिक प्रभावित वर्गों में निम्नलिखित शामिल हैं: भूमिहीन जो थोड़ी बहुत अथवा नगण्य भूमि पर निर्भर हैं, पारंपरिक दस्तकार, पारंपरिक सेवाएँ प्रदान करने वाले लोग, अपना छोटा-मोटा काम करने वाले कामगार और निराश्रित तथा भिखारी।
  • शहरी क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित वे परिवार हैं जिनके कामकाजी सदस्य प्रायः कम वेतन वाले व्यवसायों और अनियत श्रम - बाज़ार में काम करते हैं। ये कामगार अधिकतर मौसमी कार्यों में लगे हैं और उनको इतनी कम मज़दूरी दी जाती है कि वे मात्र जीवित रह सकते हैं।
  • खाद्य पदार्थ खरीदने में असर्मथता के साथ सामाजिक संरचना भी खांद्य की दृष्टि से असुरक्षा में भूमिका निभाती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ वर्गों (इनमें से निचली जातियाँ) का या तो भूमि का आधार कमज़ोर होता है या फिर उनकी भूमि की उत्पादकता बहुत कम होती है, वे खाद्य की दृष्टि से शीघ्र असुरक्षित हो जाते हैं।
  • वे लोग भी खाद्य की दृष्टि से सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं, जो प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हैं और जिन्हें काम की तलाश में दूसरी जगह जाना पड़ता है।
  • कुपोषण से सबसे अधिक महिलाएँ प्रभावित होती हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि इससे अजन्मे बच्चों को भी कुपोषण का खतरा रहता है ।
  • खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त आबादी का बड़ा भाग र्भवती तथा दूध पिला रही महिलाओं तथा पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का है।
  • देश के कुछ क्षेत्रों, जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य जहाँ गरीबी अधिक है, आदिवासी और सुदूर क्षेत्र, प्राकृतिक आपदाओं से बार-बार प्रभावित होने वाले क्षेत्र आदि में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की संख्या आनुपातिक रूप से बहुत अधिक है।
  • वास्तव में, उत्तर प्रदेश (पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी हिस्से), बिहार, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ भागों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की सर्वाधिक संख्या है।
  • भुखमरी खाद्य की दृष्टि से असुरक्षा को इंगित करने वाला एक दूसरा पहलू है। भुखमरी गरीबी की एक अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, यह गरीबी लाती है। इस तरह खाद्य की दृष्टि से सुरक्षित होने से वर्तमान में भुखमरी समाप्त हो जाती है और भविष्य में भुखमरी का खतरा कम हो जाता है।
  • भुखमरी के दीर्घकालिक और मौसमी आयाम होते हैं। दीर्घकालिक भुखमरी मात्रा एवं/ या गुणवत्ता के आधार पर अपर्याप्त आहार ग्रहण करने के कारण होती है।
  • गरीब लोग अपनी अत्यंत निम्न आय और जीवित रहने के लिए खाद्य पदार्थ खरीदने में अक्षमता के कारण दीर्घकालिक भुखमरी से ग्रस्त होते हैं। मौसमी भुखमरी फसल उपजाने और काटने के चक्र से संबद्ध है।
  • यह ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि क्रियाओं की मौसमी प्रकृति के कारण तथा नगरीय क्षेत्रों में अनियमित श्रम के कारण होती है। जैसे, बरसात के मौसम में अनियत निर्माण श्रमिक को कम काम रहता है। इस तरह की भुखमरी तब होती है। जब कोई व्यक्ति पूरे वर्ष काम पाने में अक्षम रहता है।
स्वतंत्रता के बाद खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर होना भारत का लक्ष्य-
  • स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय नीति-निर्माताओं ने खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के सभी उपाय किए। भारत ने कृषि में एक नयी रणनीति अपनाई, जिसकी परिणति हरित क्रांति में हुई, विशेषकर गेहूँ और चावल के उत्पादन में ।
  • तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जुलाई, 1968 में 'गेहूँ क्रांति' शीर्षक से एक विशेष डाक टिकट जारी कर कृषि के क्षेत्र में हरित क्रांति की प्रभावशाली प्रगति को आधिकारिक रूप से दर्ज किया। गेहूँ की सफलता के बाद चावल के क्षेत्र में इस सफलता की पुनरावृत्ति हुई। बहरहाल, अनाज की उपज में वृद्धि समानुपातिक नहीं थी ।
  • पंजाब और हरियाणा में सर्वाधिक वृद्धि दर दर्ज की गई, जहाँ अनाजों का उत्पादन 1964-65 के 72.3 लाख टन की तुलना में बढ़कर कर 1995-96 में 3.03 करोड़ टन पर पहुँच गया, जो अब तक का सर्वाधिक ऊँचा रिकार्ड था।
  • महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और पूर्वोत्तर राज्यों में उत्पादन का स्तर पिछड़ता रहा। दूसरी तरफ, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में चावल के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
भारत में खाद्य सुरक्षा
  • 70 के दशक के प्रारंभ में हरित क्रांति के आने के बाद से मौसम की विपरीत दशाओं के दौरान भी देश में अकाल नहीं पड़ा है।
  • देश भर में उपजाई जाने वाली विविध फसलों के कारण भारत पिछले 30 वर्षों के दौरान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है।
  • सरकार द्वारा सावधानीपूर्वक तैयार की गई खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के कारण देश में (खराब मौसम स्थितियों के बावजूद अथवा किसी अन्य कारण से) अनाज की उपलब्धता और भी सुनिश्चित हो गई। इस व्यवस्था के दो घटक हैं:
    1. बफर स्टॉक और
    2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
खाद्य अनुदान
  • सरकार द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों जैसे अन्नपूर्णा योजना अन्त्योदय योजना आदि में कम मूल्य पर अनाज उपलब्ध कराये जाते हैं जबकि अनाज का क्रय अधिक मूल्य पर किया जाता है। इस प्रकार इन योजनाओं में जिस लागत (मूल्य) पर अनाज उपलब्ध कराया जाता है उससे इसकी आर्थिक लागत अधिक हो जाती है जिसे सरकार स्वयं वहन करती हैं। इसे Food- Subsidy के नाम से जाना जाता हैं। .
  • वास्तव में, एक उत्तरदायी सरकार की यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वह सभी लोगों के लिए भोजन उपलब्ध करा सके। इसकी तुलना अन्य महत्त्वपूर्ण मदों जैसे- रक्षा-व्यय के साथ करनी चाहिए। यह तब तक उचित है जब तक की सभी लोग बाजार मूल्य पर क्रय करने में सक्षम न हो जायें।
  • देश में खाद्य-सब्सिडी को कम करने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं:-
  1. भारत के खाद्य निगम के घाटों को कम किया जाना चाहिए, इसके लिए खरीद, संग्रहण, वितरण, स्टॉक आदि में कार्य कुशलता बढ़ायी जानी चाहिए।
  2. वसूली मूल्यों में वृद्धि सीमित की जानी चाहिए।
  3. फूड-कूपन (खाद्य - कूपन) जारी किए जा सकते हैं, जिनका उपयोग करके बीपीएल परिवार राशन की दुकान पर एपीएल वालों के समान कीमत देकर, अंशत: नकद व अंशत: कूपन देकर अपनी खरीद कर सकते हैं, इससे भ्रष्टाचार व वितरण के रिसाव मे कमी आएगी। लेकिन यहां भी बीपीएल परिवारों की सही सूची तैयार करने की समस्या तो रहेगी ही। देश में यूनिक पहचान संख्या के जारी हो जाने पर सब्सिडी की प्रत्यक्ष नकद-सहायता प्रणाली को लागू करना संभव हो सकेगा।
  4. लक्षित परिवारों के बैंक खातों में सीधे सब्सिडी की राशि जमा करा दी जाये जिसे जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल कर सकें। इससे बैंकर की उस परिवार पर निगाह भी रहेगी और लोगों को सब्सिडी का अधिक सही लाभ मिल पाएगा। सब्सिडी कम करने के लिए ऐसे कई नए प्रयोग करने का समय आ गया है। लेकिन अन्ततोगत्वा खाद्यान्नों की बाजार प्रणाली व निजी व्यापारियों की सेवाओं के उपयोग पर भी ध्यान देना उचित होगा। इसके लिए कृषिगत लागतों व कीमतों के आयोग (सीएसीपी) के अध्यक्ष डॉ. अशोक गुलाटी ने भी समर्थन किया है, ताकि न्यूनतम समर्थन मूल्यों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए निजी क्षेत्र का सहयोग किया जा सके।
कृषि अनुदान
  • कृषि-क्षेत्र को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए सरकार की ओर से जो वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है, उसे ही कृषि सब्सिडी की संज्ञा दी जाती है। वर्तमान में कृषि-सब्सिडी की नीति कीमतों पर आधारित है। इसके अंतर्गत सरकार सब्सिडी देकर कृषि उत्पादों के लागत मूल्य को नियंत्रित करती है।
  • इससे एक ओर किसानों को उत्पादन हेतु प्रोत्साहन मिलता है, तो दूसरी ओर उपभोक्ताओं के लिए भी अपेक्षाकृत कम और उचित कीमत पर कृषि उत्पादों की उपलब्धता संभव हो पाती है।
  • कृषि-सब्सिडी देने की यह परिपाटी भारत तक सीमित नहीं है, वरन् यह विश्वव्यापी प्रक्रिया रूप में सामने आती है।
  • विशेष रूप से अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों द्वारा भारी मात्रा में कृषि-सब्सिडी प्रदान की जाती है। भारत में कृषि-सब्सिडी प्रत्यक्ष तरीके से भी दी जाती है और अप्रत्यक्ष तरीके से भी। 
प्रत्यक्ष सब्सिडी
  • प्रत्यक्ष सब्सिडी के लिए बजट में अलग से प्रावधान किया जाता है। खाद्यान्न सब्सिडी और उर्वरक सब्सिडी को इसके अंतर्गत रखा जाता है। खाद्यान्न सब्सिडी जहाँ उपभोक्ताओं के लिए दी जाती है, वहीं उर्वरक सब्सिडी उत्पादकों के लिए। लेकिन, उर्वरक सब्सिडी सीधे किसानों को न देकर उर्वरक - उत्पादक कंपनियों को दी जाती है।
  • इसके विपरीत अप्रत्यक्ष सब्सिडी के लिए अलग से बजटीय प्रावधान नहीं होते हैं। परोक्षतः इसके लाभ को किसानों तक पहुँचाया जाता है। इसके अंतर्गत सिंचाई और विद्युत सब्सिडी को रखा जा सकता है। सरकार विद्युत सब्सिडी के संदर्भ में क्रॉस-सब्सिडी का भी सहारा लेती है।
  • इसके तहत् किसानों को रियायती दर पर उपलब्ध करायी जाने वाली बिजली से विद्युत उत्पादकों को नुकसान की भरपाई गैर-कृषक जनसंख्या से अपेक्षाकृत अधिक दरों को वसूल कर की जाती है।
अप्रत्यक्ष सब्सिडी
  • सिंचाई और विद्युत सब्सिडी इसके दायरे में आते हैं। अपनी प्रकृति में इस प्रकार की सब्सिडियाँ प्रतिगामी होती हैं क्योंकि इसका लाभ धनी और समृद्ध किसानों को अधिक मिल रहा है और छोटे व सीमांत किसानों को नहीं के बराबर।
  • इसके परिणामस्वरूप न केवल इनके अति उपयोग को बढ़ावा मिल रहा है, वरन् उपलब्ध सेवाओं की मात्रा और गुणवत्ता पर भी इनका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। जब संसाधनों पर इसके प्रतिकूल प्रभावों की चर्चा पहले ही विस्तार से की जा चुकी है।
  • इस आलोक में यह सुझाव दिया जाता है कि अप्रत्यक्ष सब्सिडी पर रोक लगायी जाये और इसके लिए स्पष्ट बजटीय प्रावधान किया जाए। साथ ही, सार्वभौमिक मीटरिंग प्रणाली को लागू किया जाए।
  • इस संदर्भ में यह भी सुझाव दिया जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उपयोग और गैर-कृषि उपयोग के लिए अलग विद्युत फीडरों की व्यवस्था की जाए और कृषि उपयोग से सम्बद्ध विद्युत फीडरों में एक निश्चित समय पर ही 6 से 8 घंटे विद्युत की आपूर्ति की जाए।
  • इससे विद्युत के अति उपयोग पर भी अंकुश लगाया जा सकना संभव हो सकेगा और भूमिगत जल के अति दोहन की समस्या से निबटते हुए जल संसाधन संरक्षण को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा।
  • इसके अतिरिक्त सब्सिडी का घटता हुआ दबाव ग्रामीण कृषि अवसंरचना (ग्रामीण सड़क, विद्युत, सिंचाई, भंडारण आदि) में सार्वजनिक निवेश को भी बढ़ाया जा सकना संभव हो सकेगा।
  • यद्यपि इनमें सड़क, विद्युत और सिंचाई को भारत निर्माण योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश हेतु अपेक्षाकृत अधिक मात्रा संसाधनों की जरूरत और अपने हिस्से के खर्च को उठा पाने में राज्य सरकार की अक्षमता के कारण अपेक्षित निवेश नहीं हो पा रहा है।
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Wed, 29 Nov 2023 10:40:11 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | निर्धनता : एक चुनौती https://m.jaankarirakho.com/507 https://m.jaankarirakho.com/507 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | निर्धनता : एक चुनौती

सामाजिक वैज्ञानिकों की दृष्टि में निर्धनता

  • चूंकि निर्धनता के अनेक पहलू हैं, सामाजिक वैज्ञानिक उसे अनेक सूचकों के माध्यम से देखते हैं। सामान्यतया प्रयोग किए जाने वाले सूचक वे हैं, जो आय और उपभोग के स्तर से संबंधित हैं, लेकिन अब निर्धनता को निरक्षरता स्तर, कुपोषण के कारण रोग प्रतिरोधी क्षमता की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोज़गार के अवसरों की कमी, सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता तक पहुँच की कमी आदि जैसे अन्य सामाजिक सूचकों के माध्यम से भी देखा जाता है।
  • सामाजिक अपवर्जन और असुरक्षा पर आधारित निर्धनता का विश्लेषण अब बहुत सामान्य होता जा रहा है।
सामाजिक अपवर्जन
  • इस अवधारणा के अनुसार निर्धनता को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि निर्धनों को बेहतर माहौल और अधिक अच्छे वातावरण में रहने वाले संपन्न लोगों की सामाजिक समता से अपवर्जित रहकर केवल निकृष्ट वातावरण में दूसरे निर्धनों के साथ रहना पड़ता है।
  • सामान्य अर्थ में सामाजिक अपवर्जन निर्धनता का एक कारण और परिणाम दोनों हो सकता है। मोटे तौर पर यह एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति या समूह उन सुविधाओं, लाभों और अवसरों से अपवर्जित रहते हैं, जिनका उपभोग दूसरे ( उनसे 'अधिक अच्छे') करते हैं।
  • इसका एक विशिष्ट उदाहरण भारत में जाति व्यवस्था की कार्य-शैली है, जिसमें कुछ जातियों के लोगों को समान अवसरों से अपवर्जित रखा जाता है। इस प्रकार, सामाजिक अपवर्जन लोगों की आय ही बहुत कम नहीं करता बल्कि यह इससे भी कहीं अधिक क्षति पहुँचा सकता है।
असुरक्षा
  • निर्धनता के प्रति असुरक्षा एक माप है जो कुछ विशेष समुदायों (जैसे किसी पिछड़ी जाति के सदस्य) या व्यक्तियों (जैसे कोई विधवा या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति) के भावी वर्षों में निर्धन होने या निर्धन बने रहने की अधिक संभावना जताता है।
  • असुरक्षा का निर्धारण परिसंपत्तियों, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के अवसरों के रूप में जीविका खोजने के लिए विभिन्न समुदायों के पास उपलब्ध विकल्पों से होता है।
  • इसके अलावा, इसका विश्लेषण प्राकृतिक आपदाओं (भूकंप, सुनामी), आतंकवाद आदि मामलों में इन समूहों के समक्ष विद्यमान बड़े जोखिमों के आधार पर किया जाता है। अतिरिक्त विश्लेषण इन जोखिमों से निपटने की उनकी सामाजिक और आर्थिक क्षमता के आधार पर किया जाता है।
  • वास्तव में, जब सभी लोगों के लिए बुरा समय आता है, चाहे कोई बाढ़ हो या भूकंप या फिर नौकरियों की उपलब्धता में कमी, दूसरे लोगों की तुलना में अधिक प्रभावित होने की बड़ी संभावना का निरूपण ही असुरक्षा है।

निर्धनता रेखा

  • निर्धनता पर चर्चा के केंद्र में सामान्यतया 'निर्धनता रेखा' की अवधारणा होती है। निर्धनता के आकलन की एक सर्वमान्य सामान्य विधि आय अथवा उपभोग स्तरों पर आधारित है।
  • यदि उसकी आय या उपभोग स्तर किसी ऐसे 'न्यूनतम स्तर ' से नीचे गिर जाए जो मूल आवश्यकताओं के एक दिए हुए समूह को पूर्ण करने के लिए आवश्यक है।
  • मूल आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में भिन्न हैं। अतः काल एवं स्थान के अनुसार निर्धनता रेखा भिन्न हो सकती है।
  • प्रत्येक देश एक काल्पनिक रेखा का प्रयोग करता है, जिसे विकास एवं उसके स्वीकृत न्यूनतम सामाजिक मानदंडों के • वर्तमान स्तर अनुरूप माना जाता है। 
    • उदाहरण के लिए, अमेरिका में उस आदमी को निर्धन माना जाता है जिसके पास कार नहीं है, जबकि भारत में अब भी कार रखना विलासिता मानी जाती है।
  • भारत में निर्धनता रेखा का निर्धारण करते समय जीवन निर्वाह के लिए खाद्य आवश्यकता, कपड़ों, जूतों, ईंधन और प्रकाश, , शैक्षिक एवं चिकित्सा संबंधी आवश्यकताओं आदि पर विचार किया जाता है। इन भौतिक मात्राओं को रुपयों में उनकी कीमतों से गुणा कर दिया जाता है।
  • निर्धनता रेखा का आकलन करते समय खाद्य आवश्यकता के लिए वर्तमान सूत्र वांछित कैलोरी आवश्यकताओं पर आधारित है।
  • खाद्य वस्तुएँ जैसे- अनाज, दालें, सब्ज़ियाँ, दूध, तेल, चीनी आदि मिलकर इस आवश्यक कैलोरी की पूर्ति करती हैं। आयु, लिंग, काम करने की प्रकृति आदि के आधार पर कैलोरी आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं।
  • भारत में स्वीकृत कैलोरी आवश्यकता ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन एवं नगरीय क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है। चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अधिक शारीरिक कार्य करते हैं, अतः ग्रामीण क्षेत्रों में कैलोरी आवश्यकता शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक मानी गई है।
  • अनाज आदि के रूप में इन कैलोरी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए प्रतिव्यक्ति मौद्रिक व्यय को, कीमतों में वृद्धि को कम कैलोरी की आवश्यकता के बावजूद शहरी क्षेत्रों के लिए उच्च राशि निश्चित की गई, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में अनेक आवश्यक • वस्तुओं की कीमतें अधिक होती हैं।
  • इस प्रकार, वर्ष 2000 में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला 5 सदस्यों का परिवार निर्धनता रेखा के नीचे होगा, यदि उसकी आय •. लगभग 1,640 रुपये प्रतिमाह से कम है।
  • इसी तरह के परिवार को शहरी क्षेत्रों में अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए कम से कम 2,270 रुपये प्रतिमाह की आवश्यकता होगी।
  • निर्धनता रेखा का आकलन समय-समय पर (सामान्यतः हर 5 वर्ष पर) प्रतिदर्श सर्वेक्षण के माध्यम से किया जाता है। यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन अर्थात् नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (एन.एस.एस.ओ.) द्वारा कराए जाते हैं, तथापि विकासशील देशों के बीच तुलना करने के लिए विश्व बैंक जैसे अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठन निर्धनता रेखा के लिए एक समान मानक का प्रयोग करते हैं, जैसे एक डॉलर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के समतुल्य न्यूनतम उपलब्धता के आधार पर।
निर्धनता के अनुमान
  • भारत में निर्धनता अनुपात में वर्ष 1973 में लगभग 55 प्रतिशत से वर्ष 1993 में 36 प्रतिशत तक महत्त्वपूर्ण गिरावट आई है। वर्ष 2000 में निर्धनता रेखा के नीचे के निर्धनों का अनुपात और भी गिर कर 26 प्रतिशत पर आ गया।
  • यदि यही प्रवृत्ति रही तो अगले कुछ वर्षों में निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से भी नीचे आ जाएगी।
  • यद्यपि निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत पूर्व के दो दशकों (1973-93) में गिरा है, निर्धन लोगों की संख्या 32 करोड़ के लगभग काफी समय तक स्थिर रही । नवीनतम अनुमान, निर्धनों की संख्या में कमी, लगभग 26 करोड़ उल्लेखनीय गिरावट का संकेत देते हैं।
असुरक्षित समूह
  • निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों का अनुपात भी भारत में सभी सामाजिक समूहों और आर्थिक वर्गों में एक समान नहीं है। जो सामाजिक समूह निर्धनता के प्रति सर्वाधिक असुरक्षित हैं, वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार हैं। इसी प्रकार, आर्थिक समूहों में सर्वाधिक असुरक्षित समूह, ग्र कृषि श्रमिक परिवार और नगरीय अनियत मज़दूर परिवार हैं। 
  • निर्धनता रेखा के नीचे के लोगों का औसत भारत में सभी समूहों के लिए 26 है, अनुसूचित जनजातियों के 100 में से 51 लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं।
  • इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में 50 प्रतिशत अनियत मज़दूर निर्धनता रेखा के नीचे हैं। लगभग 50 प्रतिशत भूमिहीन कृषि श्रमिक और 43 प्रतिशत अनुसूचित जातियाँ भी निर्धन हैं।
  • अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सामाजिक रूप से सुविधावंचित सामाजिक समूहों का भूमिहीन अनियत दिहाड़ी श्रमिक होना उनकी दोहरी असुविधा की समस्या की गंभीरता को दिखाता है।
  • हाल के अध्ययनों के अनुसार 1990 के दशक के दौरान अनुसूचित जनजाति परिवारों को छोड़ कर अन्य सभी तीनों समूहों (अनुसूचित जाति, ग्रामीण कृषि श्रमिक और शहरी अनियमित मज़दूर परिवार) में निर्धनता में कमी आई है। इन सामाजिक समूहों के अतिरिक्त परिवारों में भी आय असमानता है।
  • निर्धन परिवारों में सभी लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन कुछ लोग दूसरों से अधिक कठिनाइयों का सामना करते हैं ।
  • महिलाओं, वृद्ध लोगों और बच्चियों को सुव्यवस्थित ढंग से परिवार के उपलब्ध संसाधनों तक पहुँच से वंचित किया जाता है। इसलिए महिलाएँ, शिशु (विशेषकर बच्चियाँ) और वृद्ध निर्धनों में भी निर्धन होते है।
अंतर्राज्यीय असमानताएँ
  • भारत में निर्धनता का एक और पहलू या आयाम है। प्रत्येक राज्य में निर्धन लोगों का अनुपात एक समान नहीं है। यद्यपि 1970 के दशक के प्रारंभ से राज्य स्तरीय निर्धनता में सुदीर्घकालिक कमी हुई है, निर्धनता कम करने में सफलता की दर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है।
  • हाल के अनुमान के अनुसार 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में निर्धनता अनुपात राष्ट्रीय औसत से कम है। दूसरी ओर, निर्धनता अब भी उड़ीसा, बिहार, असम, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश में एक गंभीर समस्या है।
  • उड़ीसा और बिहार क्रमशः 47 और 43 प्रतिशत निर्धनता औसत के साथ दो सर्वाधिक निर्धन राज्य बने हुए हैं। उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में ग्रामीण निर्धनता के साथ नगरीय निर्धनता भी अधिक है।
  • इसकी तुलना में केरल, जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और पश्चिम बंगाल में निर्धनता में उल्लेखनीय गिरावट आई है।
  • पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य उच्च कृषि वृद्धि दर से निर्धनता कम करने में पारंपरिक रूप से सफल रहे हैं। केरल ने मानव संसाधन विकास पर अधिक ध्यान दिया है।
  • पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार उपायों से निर्धनता कम करने में सहायता मिली है। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अनाज का सार्वजनिक वितरण इसमें सुधार का कारण हो सकता है।
वैश्विक निर्धनता परिदृश्य
  • विकासशील देशों में अत्यंत आर्थिक निर्धनता (विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार प्रतिदिन 1 डॉलर से कम पर जीवन निर्वाह करना) में रहने वाले लोगों का अनुपात 1990 के 28 प्रतिशत से गिरकर 2001 में 21 प्रतिशत हो गया है।
  • तीव्र आर्थिक प्रगति और मानव संसाधन विकास में वृहत निवेश के कारण चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में निर्धनता में विशेष कमी आई है।
  • चीन में निर्धनों की संख्या 1981 के 60.6 करोड़ से घटकर 2001 में 21.2 करोड़ हो गई है। दक्षिण एशिया के देशों ( भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बाँग्ला देश, भूटान) में निर्धनों की संख्या में गिरावट इतनी तीव्र नहीं है।
  • निर्धनों के प्रतिशत में गिरावट के बावजूद निर्धनों की संख्या में थोड़ी ही कमी जो 1981 में 47.5 करोड़ से घट कर 2001 में 42.8 करोड़ रह गई है ।
  • भिन्न निर्धनता रेखा परिभाषा के कारण भारत में भी निर्धनता राष्ट्रीय अनुमान से अधिक है। सब-सहारा अफ्रीका में निर्धनता वास्तव में 1981 के 41 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 46 प्रतिशत हो गई है।
  • लैटिन अमेरिका में निर्धनता का अनुपात वही रहा है। रूस जैसे पूर्व समाजवादी देशों में भी निर्धनता पुनः व्याप्त हो गई, जहाँ पहले आधिकारिक रूप से कोई निर्धनता थी ही नहीं।
  • अंतर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा (अर्थात् 1 डॉलर प्रतिदिन से नीचे की जनसंख्या) की परिभाषा के अनुसार विभिन्न देशों में निर्धनता के नीचे रहने वाले लोगों का अनुपात दर्शाती है।
  • संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों ने 1 डॉलर प्रतिदिन से कम पर जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या को वर्ष 2015 तक वर्ष 1990 के स्तर के आधे पर ले जाने की घोषणा है।
निर्धनता के कारण
  • भारत में व्यापक निर्धनता के अनेक कारण हैं। एक ऐतिहासिक कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन के दौरान आर्थिक विकास का निम्न स्तर है।
  • औपनिवेशिक सरकार की नीतियों ने पारंपरिक हस्तशिल्पकारी को नष्ट कर दिया और वस्त्र जैसे उद्योगों के विकास को हतोत्साहित किया।
  • विकास की धीमी दर 1980 के दशक तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप रोज़गार के अवसर घटे और आय की वृद्धि दर गिरी। इसके साथ-साथ जनसंख्या में उच्च दर से वृद्धि हुई। इन दोनों ने प्रतिव्यक्ति आय की संवृद्धि दर को बहुत कम कर दिया।
  • आर्थिक प्रगति को बढ़ावा और जनसंख्या नियंत्रण, दोनों मोर्चों पर असफलता के कारण निर्धनता का चक्र बना रहा। सिंचाई और हरित क्रांति के प्रसार से कृषि क्षेत्रक में रोज़गार के अनेक अवसर सृजित हुए। लेकिन इनका प्रभाव भारत के कुछ भागों तक ही सीमित रहा।
  • सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रकों ने कुछ रोज़गार उपलब्ध कराए। लेकिन ये रोज़गार तलाश करने वाले सभी लोगों के लिए पर्याप्त नहीं हो सके।
  • शहरों में उपयुक्त नौकरी पाने में असफल अनेक लोग रिक्शा चालक, विक्रेता, गृह निर्माण श्रमिक, घरेलू नौकर आदि के रूप में कार्य करने लगे।
  • अनियमित और कम आय के कारण ये लोग महँगे मकानों में नहीं रह सकते थे। वे शहरों से बाहर झुग्गियों में रहने लगे और निर्धनता की समस्याएँ जो मुख्य रूप से एक ग्रामीण परिघटना थी, नगरीय क्षेत्र की भी एक विशषेता बन गई।
  • उच्च निर्धनता दर की एक और विशेषता आय असमानता रही है। इसका एक प्रमुख कारण भूमि और अन्य संसाधनों का असमान वितरण है। अनेक नीतियों के बावजूद, हम किसी सार्थक ढंग से इस मुद्दे से नहीं निपट सके हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में परिसंपत्तियों के पुनर्वितरण पर लक्षित भूमि सुधार जैसी प्रमुख नीति- पहल को ज्यादातर राज्य सरकारों ने प्रभावी ढंग से कार्यान्वित नहीं किया। चूँकि भारत में भूमि संसाधनों की कमी निर्धनता का एक प्रमुख कारण रही है, इस नीति का उचित कार्यान्वयन करोड़ों ग्रामीण निर्धनों का जीवन सुधार सकता था।
  • अनेक अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारक भी निर्धनता के लिए उत्तरदायी हैं। अति निर्धनों सहित भारत में लोग सामाजिक दायित्वों और धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन में बहुत पैसा खर्च करते हैं। छोटे किसानों को बीज, उर्वरक, कीटनाशकों जैसे कृषि आगतों की खरीदारी के लिए धनराशि की ज़रूरत होती है।
  • चूँकि निर्धन कठिनाई से ही कोई बचत कर पाते हैं, वे इनके लिए कर्ज़ लेते हैं। निर्धनता के चलते पुनः भुगतान करने में असमर्थता के कारण वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं। अतः अत्यधिक ऋणग्रस्तता निर्धनता का कारण और परिणाम दोनों है।
निर्धनता-निरोधी उपाय
  • निर्धनता उन्मूलन भारत की विकास रणनीति का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है। सरकार की वर्तमान निर्धनता-निरोधी रणनीति मोटे तौर पर दो कारकों
    1. आर्थिक संवृद्धि को प्रोत्साहन और
    2. लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रमों पर निर्भर है।
  • 1980 के दशक के आरंभ तक समाप्त हुए 30 वर्ष की अवधि के दौरान प्रतिव्यक्ति आय में कोई वृद्धि नहीं हुई और निर्धनता में भी अधिक कमी नहीं आई।
  • 1950 के दशक के आरंभ में आधिकारिक निर्धनता अनुमान 45 प्रतिशत का था और 1980 के दशक के आरंभ में भी वही बना रहा। 1980 के दशक से भारत की आर्थिक संवृद्धि दर विश्व में सबसे अधिक रही। 
  • संवृद्धि दर 1970 के दशक के करीब 3.5 प्रतिशत के औसत से बढ़कर 1980 और 1990 के दशक में 6 प्रतिशत के करीब पहुँच गई। विकास की उच्च दर ने निर्धनता को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक संवृद्धि और निर्धनता उन्मूलन के बीच एक घनिष्ठ संबंध है।
  • आर्थिक संवृद्धि अवसरों को व्यापक बना देती है और मानव विकास में निवेश के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराती है।
  • यह शिक्षा में निवेश से अधिक आर्थिक प्रतिफल पाने की आशा में लोगों को अपने बच्चों लड़कियों सहित स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करती है। तथापि, यह संभव है कि आर्थिक विकास से सृजित अवसरों से निर्धन लोग प्रत्यक्ष लाभ नहीं उठा सके। 
  • इसके अतिरिक्त कृषि क्षेत्रक में संवृद्धि अपेक्षा से बहुत कम रही। निर्धनता पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा क्योंकि निर्धन लोगों का एक बड़ा भाग गाँव में रहता है और कृषि पर आश्रित है।
  • इन परिस्थितियों में लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रमों की स्पष्ट आवश्यकता है। यद्यपि ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जिनको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्धनता कम करने के लिए बनाया गया, उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ करना आवश्यक है।
  • राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005 (एन.आरई. जी.ए.) को सितंबर 2005 में पारित किया गया। यह विधेयक प्रत्येक वर्ष देश के 200 जिलों में प्रत्येक ग्रामीण परिवार को 100 दिन के सुनिश्चित रोज़गार का प्रावधान करता है। बाद में इस योजना का विस्तार 600 जिलों में किया जाएगा।
  • प्रस्तावित रोज़गारों का एक तिहाई रोज़गार महिलाओं के लिए आरक्षित है। केंद्र सरकार राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी कोष भी स्थापित करेगी। इसी तरह राज्य सरकारें भी योजना के कार्यान्वयन के लिए राज्य रोज़गार गारंटी कोष की स्थापना करेंगी।
  • कार्यक्रम के अंतर्गत अगर आवेदक को 15 दिन के अंदर रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया गया तो वह दैनिक बेरोज़गार भत्ते का हकदार होगा।
  • एक और महत्त्वपूर्ण योजना राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम है जिसे 2004 में देश के सबसे पिछड़े 150 जिलों में लागू किया गया था। यह कार्यक्रम उन सभी ग्रामीण निर्धनों के लिए है, जिन्हें मज़दूरी पर रोज़गार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक काम करने के इच्छुक हैं।
  • इसका कार्यान्वयन शत-प्रतिशत केंद्रीय वित्तपोषित कार्यक्रम के रूप में किया गया है और राज्यों को खाद्यान्न निःशुल्क उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
  • एक बार एन.आर.ई.जी.ए. लागू हो जाए तो काम के बदले अनाज (एन.एफ.डब्ल्यू.पी.) का राष्ट्रीय कार्यक्रम भी इस कार्यक्रम के अंतर्गत आ जाएगा।
  • प्रधानमंत्री रोज़गार योजना एक अन्य योजना है, जिसे 1993 में आरंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं के लिए स्वरोजगार के अवसर सृजित करना है। उन्हें लघु व्यवसाय और उद्योग स्थापित करने में उनकी सहायता दी जाती है।
  • ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रम का आरंभ 1995 में किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में स्वरोजगार के अवसर सृजित करना है।
  • 10वीं पंचवर्षीय योजना में इस कार्यक्रम के अंतर्गत 25 लाख नए रोज़गार के अवसर सृजित करने का लक्ष्य रखा गया है। स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना का आरंभ 1999 में किया गया।
  • इस कार्यक्रम का उद्देश्य सहायता - प्राप्त निर्धन परिवारों को स्वयंसहायता समूहों में संगठित कर बैंक ऋण और सरकारी > सहायिकी के संयोजन द्वारा निर्धनता रेखा से ऊपर लाना है।
  • प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना ( 2000 में आरंभ) के अंर्तगत प्राथमिक स्वास्थ्य प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण आश्रय ग्रामीण पेयजल और ग्रामीण विद्युतीकरण जैसी मूल सुविधाओं के लिए राज्यों को अतिरिक्त केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है। एक और महत्त्वपूर्ण योजना अंत्योदय अन्न योजना है।
  • इन कार्यक्रमों के मिले-जुले परिणाम हुए हैं। उनके कम प्रभावी होने का एक मुख्य कारण उचित कार्यान्वयन और सही लक्ष्य निश्चित करने की कमी है। इसके अतिरिक्त, कुछ योजनाएँ परस्पर-व्यापी भी हैं।
  • अच्छी नीयत के बावजूद इन योजनाओं के लाभ उनके पात्र, निर्धनों को पूरी तरह नहीं मिल पाए। इसलिए, हाल के वर्षों में निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के उचित परिवीक्षण पर अधिक बल दिया गया है।
भावी चुनौतियाँ
  • भारत में निर्धनता में निश्चित रूप से गिरावट आई है, लेकिन प्रगति के बावजूद निर्धनता उन्मूलन भारत की एक सबसे बाध्यकारी चुनौती है।
  • ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों और विभिन्न राज्यों में निर्धनता में व्यापक असमानता है। कुछ सामाजिक और आर्थिक समूह निर्धनता के प्रति अधिक असुरक्षित हैं।
  • आशा की जा रही है कि निर्धनता उन्मूलन में अगले 10 से 15 वर्षों में अधिक प्रगति होगी।
  • यह मुख्यत: उच्च आर्थिक संवृद्धि, सर्वजनीन निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा पर ज़ोर, जनसंख्या विकास में गिरावट, महिलाओं और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बढ़ते सशक्तीकरण के कारण संभव हो सकेगा।
  • लोगों के लिए निर्धनता की आधिकारिक परिभाषा उनके केवल एक सीमित भाग पर लागू होती है। यह न्यूनतम जीवन निर्वाह के 'उचित' स्तर की अपेक्षा जीवन निर्वाह के 'न्यूनतम स्तर के विषय में है।
  • निर्धनता उन्मूलन हमेशा एक गतिशील लक्ष्य है। आशा है कि अगले दशक के अंत तक सभी लोगों को केवल आय के संदर्भ में, न्यूनतम आवश्यक आय उपलब्ध करा सकेंगे।
  • सभी को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोज़गार सुरक्षा उपलब्ध कराना, लैंगिक समता तथा निर्धनों का सम्मान जैसी बड़ी चुनौतियाँ हमारे लक्ष्य होंगे। ये और भी बड़े काम होंगे।
परिचय
  • गाँवों के भूमिहीन श्रमिक भी हो सकते हैं और शहरों की भीड़ भरी झुग्गियों में रहने वाले लोग भी। वे निर्माण स्थलों के दैनिक वेतनभोगी श्रमिक भी हो सकते हैं और ढाबों में काम करने वाले वास्तव में, देश का हर चौथा व्यक्ति निर्धन है।
  • इसका अर्थ यह है कि भारत में मोटे तौर 26 करोड़ लोग निर्धनता में जीते हैं। इसका यह भी अर्थ है कि विश्व में भारत में सबसे अधिक निर्धनों का संकेंद्रण है। यह इस चुनौती की गंभीरता को दर्शाता है।
  • निर्धनता का अर्थ स्वच्छ जल और सफाई सुविधाओं का अभाव भी है। इसका अर्थ नियमित रोज़गार की कमी भी है तथा न्यूनतम शालीनता स्तर का अभाव भी है। अंततः इसका अर्थ है असहायता की भावना के साथ जीना।
  • निर्धन लोग ऐसी स्थिति में रहते हैं जिसमें उनके साथ खेतों, कारखानों, सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों और लगभग सभी स्थानों पर दुर्व्यवहार होता है। स्पष्ट है कि कोई भी निर्धनता में जीना नहीं चाहता।
  • अपने करोड़ों लोगों को दयनीय निर्धनता से बाहर निकालना स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रही है।
  • महात्मा गांधी हमेशा इस पर बल दिया करते थे कि भारत सही अर्थों में तभी स्वतंत्र होगा, जब यहाँ का सबसे निर्धन व्यक्ति भी मानवीय व्यथा से मुक्त होगा।
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Wed, 29 Nov 2023 10:13:24 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | संसाधन के रूप में लोग https://m.jaankarirakho.com/506 https://m.jaankarirakho.com/506 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | संसाधन के रूप में लोग
  • शिक्षा, प्रशिक्षण और चिकित्सा सेवाओं में निवेश किया जाता है तो जनसंख्या मानव पूँजी में बदल जाती है। वास्तव में, मानव पूँजी कौशल और उनमें निहित उत्पादन के ज्ञान का स्टॉक है।
  • 'संसाधन के रूप में लोग' वर्तमान उत्पादन कौशल और क्षमताओं के संदर्भ में किसी देश के कार्यरत लोगों का वर्णन . करने का एक तरीका है। 
  • उत्पादक पहलू की दृष्टि से जनसंख्या पर विचार करना सकल राष्ट्रीय उत्पाद के सृजन में उनके योगदान की क्षमता पर बल देता है। दूसरे संसाधनों की भाँति ही जनसंख्या भी एक संसाधन है—‘एक मानव संसाधन ' - यह विशाल जनसंख्या का एक सकारात्मक पहलू है, जिसे प्रायः उस वक्त अनदेखा कर दिया जाता है जब हम इसके नकारात्मक पहलू को देखते हैं अर्थात् भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक जनसंख्या की पहुँच की समस्याओं पर विचार करते समय |
  • जब इस विद्यमान मानव संसाधन को और अधिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य द्वारा और विकसित किया जाता है, तब हम इसे मानव पूँजी निर्माण कहते हैं, जो भौतिक पूँजी निर्माण की ही भाँति देश की उत्पादक शक्ति में वृद्धि करता है।
  • मानव पूँजी में निवेश ( शिक्षा, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सेवा के द्वारा) भौतिक पूँजी की ही भाँति प्रतिफल प्रदान करता है।
  • अधिक शिक्षित या बेहतर प्रशिक्षित लोगों की उच्च उत्पादकता कारण होने वाली अधिक आय और साथ ही अधिक स्वस्थ लोगों की उच्च उत्पादकता के रूप में इसे प्रत्यक्षतः देखा जा सकता है।
  • उच्च आय से न केवल अधिक शिक्षित और अधिक स्वस्थ लोगों को लाभ होता है बल्कि समाज को भी अप्रत्यक्ष तरीकों से लाभ होता है, क्योंकि अधिक शिक्षित या अधिक स्वस्थ जनसंख्या का लाभ उन लोगों तक भी पहुँचता है जो स्वयं प्रत्यक्ष रूप से उतने शिक्षित नहीं हैं या उतनी स्वास्थ्य सेवाएँ उन्हें प्रदान नहीं की गई हैं।
  • वास्तव में, मानव पूँजी एक तरह से अन्य संसाधनों जैसे, भूमि और भौतिक पूँजी से श्रेष्ठ है, क्योंकि मानव संसाधन भूमि और पूँजी का उपयोग कर सकता है।
  • भूमि और पूँजी अपने आप उपयोगी नहीं हो सकते। अनेक दशकों से भारत में विशाल जनसंख्या को एक परिसंपत्ति की अपेक्षा एक दायित्व माना जाता रहा है। लेकिन, यह आवश्यक नहीं कि एक विशाल जनसंख्या देश के लिए दायित्व ही हो।
  • मानव पूँजी में निवेश द्वारा इसे एक उत्पादक परिसंपत्ति में बदला जा सकता है (उदाहरण के लिए, सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य, आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग में औद्योगिक और कृषि श्रमिकों के प्रशिक्षण, उपयोगी वैज्ञानिक अनुसंधान आदि पर संसाधनों के व्यय द्वारा ) ।
  • मानव संसाधन में (शिक्षा और चिकित्सा सेवा के द्वारा) निवेश से भविष्य में उच्च प्रतिफल प्राप्त हो सकते हैं। लोगों में यह निवेश भूमि और पूँजी में निवेश की ही तरह है।
  • व्यक्ति शेयरों तथा बांडों में भविष्य में उच्च प्रतिफल की आशा से निवेश करता है। एक बच्चा भी, जिसकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर निवेश किया गया है, भविष्य में उच्च आय और समाज को वृहद योगदान के रूप में अधिक प्रतिफल दे सकता है।
  • यह देखा जाता है कि शिक्षित माँ-बाप अपने बच्चों की शिक्षा पर अधिक निवेश करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्होंने स्वयं भी शिक्षा के महत्त्व को अनुभव किया होता है।
  • वे उचित पोषण और स्वच्छता के प्रति भी सचेत होते हैं। इसी प्रकार वे अपने बच्चों की स्कूली शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते हैं। इस तरह इस मामले में एक अच्छा चक्र बन जाता है।
  • इसके विपरीत, स्वयं भी अशिक्षित और अस्वच्छता तथा सुविधावंचित स्थिति में रहने वाले माँ-बाप एक दुष्चक्र सृजित कर लेते हैं और अपने बच्चों को अपनी ही तरह सुविधाओं से वंचित स्थिति में रखते हैं।
  • जापान जैसे देशों ने मानव संसाधन पर निवेश किया है। उनके पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं था। यह विकसित धनी देश है। वे अपने देश के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों का आयात करते हैं ।
  • उन्होंने लोगों में विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश किया। उन लोगों ने भूमि और पूँजी जैसे अन्य संसाधनों का कुशल उपयोग किया है। इन लोगों ने जो कुशलता और प्रौद्योगिकी विकसित की उसी से ये देश धनी/ विकसित बने । विभिन्न क्रियाकलापों को तीन प्रमुख क्षेत्रकों-प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक में वर्गीकृत किया गया है-
    • प्राथमिक क्षेत्र के अंतर्गत कृषि वानिकी, पशुपालन, मत्स्यपालन, मुर्गीपालन और खनन शामिल हैं।
    • द्वितीयक क्षेत्रक में उत्खनन और विनिर्माण शामिल हैं।
    • तृतीयक क्षेत्रक में व्यापार, परिवहन, संचार, बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन सेवाएँ इत्यादि शामिल किए जाते हैं। 
  • इस क्षेत्र में क्रिया-कलाप के फलस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। ये क्रिया-कलाप राष्ट्रीय आय में मूल्य-वर्धन करते हैं। ये क्रियाएँ आर्थिक क्रियाएँ कहलाती हैं।
  • आर्थिक क्रियाओं के दो भाग होते हैं- बाज़ार क्रियाएँ और गैर-बाज़ार क्रियाएँ ।
  • बाज़ार क्रियाओं में वेतन या लाभ के उद्देश्य से की गई क्रियाओं के लिए पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है। इनमें सरकारी सेवा सहित वस्तु या सेवाओं का उत्पादन शामिल है।
  • गैर-बाज़ार क्रियाओं से अभिप्राय स्व-उपभोग के लिए उत्पादन है। इनमें प्राथमिक उत्पादों का उपभोग और प्रसंस्करण तथा अचल संपत्तियों का स्वलेखा उत्पादन आता है।
  • ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से परिवार में महिलाओं और पुरुषों के बीच श्रम का विभाजन होता है। आमतौर पर महिलाएँ घर के काम-काज देखती हैं और पुरुष खेतों में काम करते हैं।
  • परिवार के लिए दी गई सेवाओं के बदले महिलाओं को भुगतान नहीं किया जाता। उनकी सेवाओं को राष्ट्रीय आय में नहीं जोड़ा जाता, जो कि देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का कुल योग है।
  • महिलाओं को उनकी सेवाओं के लिए तब भुगतान किया जाता है, जब वे श्रम बाज़ार में प्रवेश करती हैं। उनके पुरुष सहयोगी की ही तरह उनकी आय, उनकी शिक्षा और कौशल के आधार पर निर्धारित की जाती है।
  • शिक्षा व्यक्ति के उपलब्ध आर्थिक अवसरों के बेहतर उपयोग में सहायता करती है। शिक्षा और कौशल बाज़ार में किसी व्यक्ति की आय के प्रमुख निर्धारक हैं।
  • अधिकांश महिलाओं के पास बहुत कम शिक्षा और निम्न कौशल स्तर हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को कम पारिश्रमिक दिया जाता है।
  • अधिकतर महिलाएँ वहाँ काम करती हैं, जहाँ नौकरी की सुरक्षा नहीं होती तथा कानूनी सुरक्षा का अभाव है।
  • अनियमित रोज़गार और निम्न आय इस क्षेत्रक की विशेषताएँ हैं। इस क्षेत्रक में प्रसूति अवकाश, शिशु देखभाल और अन्य सामाजिक सुरक्षा तंत्र जैसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं होतीं। तथापि, उच्च शिक्षा और उच्च कौशल वाली महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन मिलता है।
  • संगठित क्षेत्रक में शिक्षण और चिकित्सा उन्हें सबसे अधिक > आकर्षित करती है। कुछ महिलाओं ने प्रशासनिक और अन्य सेवाओं में प्रवेश किया है, जिनमें वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय सेवा के उच्च स्तर की आवश्यकता पड़ती है।
जनसंख्या की गुणवत्ता
  • जनसंख्या की गुणवत्ता साक्षरता दर जीवन प्रत्याशा से निरूपित व्यक्तियों के स्वास्थ्य और देश के लोगों द्वारा प्राप्त कौशल निर्माण पर निर्भर करती है।
  • जनसंख्या की गुणवत्ता अंतत: देश की संवृद्धि दर निर्धारित करती है। निरक्षर और अस्वस्थ जनसंख्या अर्थव्यवस्था पर बोझ होती है। साक्षर और स्वस्थ जनसंख्या परिसंपत्तियाँ होती हैं।
शिक्षा
  • यह राष्ट्रीय आय और सांस्कृतिक समृद्धि में वृद्धि करती है और प्रशासन की कार्य क्षमता बढ़ाती है। प्राथमिक शिक्षा में सार्वजनिक पहुँच, धारण और गुणवत्ता प्रदान करने का प्रावधान किया गया है और इस मामले में लड़कियों पर विशेष जोर दिया गया है। प्रत्येक जिले में नवोदय विद्यालय जैसे प्रगति निर्धारक विद्यालयों की स्थापना की गई है।
  • बड़ी संख्या में हाई स्कूल के विद्यार्थियों को ज्ञान और कौशल से संबंधित व्यवसाय उपलब्ध कराने के लिए व्यावसायिक शाखाएँ विकसित की गई हैं।
  • साक्षरता प्रत्येक नागरिक का न केवल अधिकार है, बल्कि यह नागरिकों द्वारा अपने कर्तव्यों का ठीक प्रकार से पालन करने तथा अपने अधिकारों का ठीक प्रकार से लाभ उठाने के लिए अनिवार्य भी है। तथापि, जनसंख्या के विभिन्न भागों के बीच व्यापक अंतर पाया जाता है।
  • महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में साक्षरता दर करीब 50 प्रतिशत अधिक है और ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में साक्षरता दर करीब 50 प्रतिशत अधिक है।
  • केरल के कुछ जिलों में साक्षरता दर 96 प्रतिशत है जबकि मध्य प्रदेश के कुछ भागों में यह 30 प्रतिशत से नीचे है।
  • प्राथमिक स्कूल प्रणाली भारत के 5,00,000 से भी अधिक गाँवों में फैली है। दुर्भाग्यवश, स्कूल शिक्षा के इस विस्तार को शिक्षा के निम्न स्तर और पढ़ाई बीच में छोड़ने की उच्च दर ने कमज़ोर कर दिया है।
  • 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के सभी स्कूली बच्चों को वर्ष 2010 तक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने की दिशा में सर्वशिक्षा अभियान एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
  • राज्यों, स्थानीय सरकारों और प्राथमिक शिक्षा सार्वभौमिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए समुदाय की सहभागिता के साथ केंद्रीय सरकार की यह एक समयबद्ध पहल है। इसके साथ ही, प्राथमिक शिक्षा में नामांकन बढ़ाने के लिए 'सेतु- पाठ्यक्रम' और 'स्कूल लौटो शिविर' प्रारंभ किए गए हैं।
  • कक्षा में बच्चों की उपस्थिति को बढ़ावा देने, बच्चों के धारण और उनकी पोषण स्थिति में सुधार के लिए दोपहर के भोजन की योजना कार्यान्वित की जा रही है। इन नीतियों से भारत में शिक्षित लोगों की संख्या में वृद्धि हो सकती है।
  • 10वीं योजना में योजना अवधि के अंत तक उच्च शिक्षा में > 18-23 वर्ष आयु वर्ग के नामांकन में वर्तमान 6 प्रतिशत से 9 प्रतिशत तक की वृद्धि करने का प्रयास किया गया है।
  • यह रणनीति पहुँच में वृद्धि, गुणवत्ता, राज्यों के लिए विशेष पाठयक्रम में परिवर्तन को स्वीकार करना, व्यावसायीकरण तथा सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग का जाल बिछाने पर केंद्रित है।
  • योजना दूरस्थ शिक्षा, औपचारिक, अनौपचारिक, दूरस्थ तथा संचार प्रौद्योगिकी की शिक्षा देने वाले शिक्षण के > 'अभिसरण पर भी केंद्रित है। पिछले 50 वर्षों में विशेष क्षेत्रों में उच्च शिक्षा देने वाले शिक्षण संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों की संख्या में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
बेरोजगारी
  • बेरोज़गारी उस समय विद्यमान कही जाती है, जब प्रचलित मज़दूरी की दर पर काम करने के लिए इच्छुक लोग रोज़गार नहीं पा सकें। श्रम बल जनसंख्या में वे लोग शामिल किए है, जिनकी उम्र 15 वर्ष से 59 वर्ष के बीच है।
  • भारत के संदर्भ में ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में बेरोज़गारी है। तथापि, ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में बेरोज़गारी की प्रकृति में अंतर है। ग्रामीण क्षेत्रों में मौसमी और प्रच्छन्न बेरोज़गारी है।
  • नगरीय क्षेत्रों में अधिकांशत: शिक्षित बेरोज़गारी है। मौसमी बेरोज़गारी तब होती है, जब लोग वर्ष के कुछ महीनों में रोज़गार प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
  • कृषि पर आश्रित लोग आमतौर पर इस तरह की समस्या से जूझते हैं। वर्ष में कुछ व्यस्त मौसम होते हैं, जब बुआई, कटाई, निराई और गहाई होती है। कुछ विशेष महीनों में कृषि पर आश्रित लोगों को अधिक काम नहीं मिल पाता।
  • प्रच्छन्न बेरोजगारी के अंतर्गत लोग नियोजित प्रतीत होते हैं, उनके पास भूखंड होता है, जहाँ उन्हें काम मिलता है। ऐसा प्रायः कृषिगत काम में लगे परिजनों में होता है।
  • किसी काम में 5 लोगों की आवश्यकता होती है, लेकिन उसमें 8 लोग लगे होते हैं। इनमें 3 लोग अतिरिक्त हैं। ये तीनों इसी खेत पर काम करते है जिस पर 5 लोग काम करते है।
  • इन तीनों द्वारा किया गया अंशदान 5 लोगों द्वारा किए गए योगदान में कोई बढ़ोतरी नहीं करता। अगर 3 लोगों को हटा दिया जाए, तो खेत की उत्पादकता में कोई कमी नहीं आएगी। खेत में 5 लोगों के काम की आवश्यकता है और 3 अतिरिक्त लोग प्रच्छन्न रूप से नियोजित होते हैं।
  • शहरी क्षेत्रों के मामले में शिक्षित बेरोज़गारी एक सामान्य परिघटना बन गई है। मैट्रिक, स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्रीधारी अनेक युवक रोज़गार पाने में असमर्थ हैं।
  • एक अध्ययन के अनुसार मैट्रिक की तुलना में स्नातक और स्नातकोत्तर युवकों में बेरोज़गारी अधिक तेज़ी से बढ़ी है। एक विरोधाभासी जनशक्ति स्थिति सामने आई है कि कुछ विशेष श्रेणियों में जनशक्ति के आधिक्य के साथ ही कुछ अन्य श्रेणियों में जनशक्ति की कमी विद्यमान है।
  • एक ओर तकनीकी अर्हता प्राप्त लोगों के बीच बेरोज़गारी है, तो दूसरी ओर आर्थिक संवृद्धि के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल की कमी भी है। 
  • बेरोज़गारी से जनशक्ति संसाधन की बर्बादी होती है। जो लोग अर्थव्यवस्था के लिए परिसंपत्ति होते हैं, बेरोज़गारी के कारण दायित्व में बदल जाते हैं।
  • युवकों में निराशा और हताशा की भावना होती है। लोगों के पास अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त मुद्रा नहीं होती।
  • शिक्षित लोगों के साथ, जो कार्य करने के इच्छुक हैं और सार्थक रोजगार प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं, यह एक बड़ा सामाजिक अपव्यय है।
  • बेरोज़गारी से आर्थिक बोझ में वृद्धि होती है। कार्यरत जनसंख्या पर बेरोजगारों की निर्भरता बढ़ती है। किसी व्यक्ति और साथ ही साथ समाज के जीवन की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
बेरोजगारी का आशय
  • अर्थव्यवस्था चाहे विकसित हो अथवा अल्प विकसित बेरोजगारी एक सामान्य बात है। बेरोजगारी कुशल एवं अकुशल दोनो श्रेणी के श्रमिकों के मध्य पाई जाती है।
  • आर्थिक दृष्टि से देखे तो यह उत्पादन के एक महत्वपूर्ण संसाधन की बर्बादी है। बेराजगारी ऐसी स्थिति का निर्माण करती है जहाँ व्यक्ति का सर्वाधिक नैतिक पतन हो जाता है। बेरोजगारी भारत की एक ज्वलन्त समस्या है जिसकी जड़ गहरी पहुंच चुकी है। आज इसका स्परूप दीर्घता की ओर बढ़ता चला जा रहा है।
  • भारत में बेकारी नहीं अपितु बेकारी की समस्या विश्वव्यापी है। सामान्यतया जब एक व्यक्ति को अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई कार्य नहीं मिलता है तो उस व्यक्ति को बेरोजगार और इस समस्या बेराजगारी कहते है।
  • दूसरे शब्दों में जब कोई व्यक्ति कार्य करने का इच्छुक है और वह शारीरिक रूप से कार्य करने में समर्थ भी है लेकिन कोई कार्य नहीं मिलता जिससे की वह अपनी जीविका का निर्वहन कर सके तो इस प्रकार की समस्या बेरोजगारी की समस्या कहलाती है।
  • हम बेरोजगार जनसंख्या के उस बढ़े भाग को नहीं कहते हैं जो काम के लिए नहीं मिलते जैसे विधार्थी बढ़े उम्र के व्यक्ति घरेलू कार्यों में लगी महिलायें आदि। जैसा प्रो. पीगू ने कहा है “एक व्यक्ति तभी ही बेरोजगार कहलाता है। जबकि उसके पास कार्य नहीं हो और वह रोजगार पाने का इच्छुक हो । "
  • अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रकाशन के मुताबिक बेरोजगार शब्द में वे सब व्यक्ति शामिल किये जाने चाहिये जो एक दिये हुए दिन में काम की तलाश में और रोजगार में नहीं लगे हुए हैं किन्तु यदि कोई रोजगार दिया जाय तो काम में लग सकतें है।
  • समस्या को परिभाषित करने के लिए यह आवश्यक है कि आवश्यकता और साधन के बारे में विस्तृत विवेचन किया जाये। 
  • बेरोजगारी के सन्दर्भ में जब हम दृष्टिपात करते है तो पाते है कि रोजगार के अवसरों और रोजगार के साधनों के संख्यात्मक मान में भी बहुत बढ़ा अन्तर है यही अन्तर बेरोजगारी चिन्तन के लिए हमें विवश करता है।
  • बेरोजगारी मूलरुप से गलत आर्थिक नियोजन का परिणाम है। व्यक्ति जहां संसार में एक मुंह के साथ आता है वही श्रम हेतु दो हाथ भी लाता है। जब तक इन हाथों को श्रम के साधन प्राप्त नहीं होते तब तक अर्थव्यवस्था को पूर्ण नियोजित अर्थव्यवस्था नहीं माना जा सकता है।
  • गाँधी जी का इस सन्दर्भ में विचार सम्पत्ति व्यक्तिगत नहीं होनी चाहिए उत्पत्ति के साधनों पर नियंत्रण होना चाहिए समाज में उपस्थित विभिन्न आर्थिक तत्व को नियोजित ढंग कुटीर और लघु उद्योगो को प्रश्रय देना चाहिए।
  • जब किसी परिवार को मात्र जीवन निर्वाह स्तर पर रहना पड़ता है, तो उसके स्वास्थ्य स्तर में एक आम गिरावट आती है और स्कूल प्रणाली से अलगाव में वृद्धि होती है। इसलिए, किसी अर्थव्यवस्था के समग्र विकास पर बेरोज़गारी का अहितकर प्रभाव पड़ता है। बेरोज़गारी में वृद्धि मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था का सूचक है।
  • यह संसाधनों की बर्बादी भी करता है, जिन्हें उपयोगी ढंग से नियोजित किया जा सकता था। अगर लोगों को संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं किया जा सका, तो वे स्वाभाविक रूप से अर्थव्यवस्था के लिए दायित्व बन जाएँगे।
  • सांख्यिकीय रूप से भारत में बेरोज़गारी की दर निम्न है। बड़ी संख्या में निम्न आय और निम्न उत्पादकता वाले लोगों की गिनती नियोजित लोगों में की जाती है। वे पूरे वर्ष काम करते प्रतीत होते हैं, लेकिन उनकी क्षमता और आय के हिसाब से यह उनके लिए पर्याप्त नहीं है।
  • वे काम तो कर रहे हैं, पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये काम उन पर थोपे हुए हैं। इसलिए शायद वे अपनी पसंद का कोई अन्य काम करना पसंद कर सकते हैं। वे किसी भी काम से जुड़ जाना चाहते हैं, चाहे उससे कितनी भी कमाई हो । अपनी इस कमाई से वे किसी तरह जीवन निर्वाह कर पाते हैं। इसके अतिरिक्त, प्राथमिक क्षेत्र में स्वरोज़गार एक विशेषता है।
  • यद्यपि सभी लोगों की आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी पूरा परिवार खेतों में काम करता है। इस तरह कृषि क्षेत्र में प्रच्छन्न बेरोज़गारी होती है। लेकिन, जो भी उत्पादन होता है उसमें पूरे परिवार की हिस्सेदारी होती।
  • खेत के काम में साझेदारी और उत्पादित फसल में हिस्सेदारी की धारणा ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी की कठिनाइयों में कमी लाती है। लेकिन, इससे परिवार की गरीबी कम नहीं होती और प्रत्येक परिवार से अधिशेष श्रमिक रोज़गार की तलाश में गाँवों से शहरों की ओर प्रवास करते हैं ।
  • कृषि का सबसे अधिक अवशोषण करने वाला अर्थव्यवस्था का क्षेत्रक कृषि है। पिछले वर्षों में पूर्व चर्चित प्रच्छन्न बेरोज़गारी के कारण, कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता में कुछ कमी आई है।
  • कृषि अधिशेष श्रम का कुछ भाग द्वितीयक या तृतीयक क्षेत्र में चला गया है। द्वितीयक क्षेत्र में छोटे पैमाने पर होने वाले विनिर्माण में श्रम का सबसे अधिक अभिशोषण है। तृतीयक क्षेत्रक में जैव-प्रौद्योगिकी, सूचना प्रौद्योगिकी आदि सरीखी विभिन्न नयी सेवाएँ सामने आ रही हैं।

स्वास्थ्य

  • किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य उसे अपनी क्षमता को प्राप्त करने और बीमारियों से लड़ने की ताकत देता है। अस्वस्थ लोग किसी संगठन के लिए बोझ बन जाते हैं।
  • वास्तव में, स्वास्थ्य अपना कल्याण करने का एक अपरिहार्य आधार है। इसलिए जनसंख्या की स्वास्थ्य स्थिति को सुधारना किसी भी देश की प्राथमिकता होती है।
  • हमारी राष्ट्रीय नीति का लक्ष्य भी जनसंख्या के अल्प सुविधा प्राप्त वर्गों पर विशेष ध्यान देते हुए स्वास्थ्य सेवाओं, परिवार कल्याण और पौष्टिक सेवा तक इनकी पहुँच को बेहतर बनाना है। पिछले पाँच दशकों में भारत ने सरकारी और निजी क्षेत्रकों में प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक सेवाओं के लिए अपेक्षित एक विस्तृत स्वास्थ्य आधारिक संरचना और जनशक्ति का निर्माण किया है।
  • भारत में ऐसे अनेक स्थान हैं जिनमें ये मौलिक सुविधाएँ भी नहीं हैं। केवल चार राज्यों जैसे- कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में कुल 181 मेडिकल कॉलेजों में से 81 मेडिकल कॉलेज हैं। दूसरी तरफ, बिहार और उत्तर प्रदेश > जैसे राज्यों में निम्न स्वास्थ्य सूचक हैं तथा यहाँ बहुत ही कम मेडिकल कॉलेज हैं।
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Wed, 29 Nov 2023 09:51:34 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतंत्र के परिणाम https://m.jaankarirakho.com/505 https://m.jaankarirakho.com/505 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतंत्र के परिणाम
लोकतंत्र की चुनौतियाँ
  • समकालीन विश्व में लोकतंत्र शासन का एक प्रमुख रूप है। इसे कोई गंभीर चुनौती नहीं है और न कोई दूसरी शासन प्रणाली इसकी प्रतिद्वंद्वी है।
  • लोकतंत्र में जितनी सारी संभावनाएँ हैं दुनिया में अभी कहीं भी उन सबका लाभ नहीं उठाया गया है। लोकतंत्र का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है इसका यह मतलब भी नहीं कि उसके लिए कोई चुनौती ही नहीं है।
  • लोकतंत्र की अपनी इस किताबी यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर हमने देखा है कि दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने गंभीर चुनौतियाँ हैं। ये चुनौतियाँ किसी आम समस्या जैसी नहीं हैं। हम आम तौर पर उन्हीं मुश्किलों को 'चुनौती' कहते हैं जो महत्तवपूर्ण तो हैं, लेकिन जिन पर जीत भी हासिल की जा सकती है।
  • अगर किसी मुश्किल के भीतर ऐसी संभावना है कि उस मुश्किल से छुटकारा मिल सके तो उसे हम चुनौती कहते हैं। एक बार जब हम चुनौती से पार पा लेते हैं तो हम पहले की अपेक्षा कुछ कदम आगे बढ़ जाते हैं। अलग-अलग देशों के सामने अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ होती हैं।
  • अधिकांश स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने अपने विस्तार की चुनौती है। इसमें लोकतांत्रिक शासन के बुनियादी सिद्धांतों को सभी इलाकों, सभी सामाजिक समूहों और विभिन्न संस्थाओं में लागू करना शामिल है।
  • स्थानीय सरकारों को अधिक अधिकार - संपन्न बनाना, संघ की सभी इकाईयों के लिए संघ के सिद्धांतों को व्यावहारिक स्तर पर लागू करना, महिलाओं और अल्पसंख्यक समूहों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना आदि ऐसी ही चुनौतियाँ हैं।
  • इसका यह भी मतलब है कि कम से कम ही चीजें लोकतांत्रिक नियंत्रण के बाहर रहनी चाहिए। भारत और दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में एक अमेरिका जैसे देशों के सामने भी यह चुनौती है।
  • तीसरी चुनौती लोकतंत्र को मज़बूत करने की है। हर लोकतांत्रिक व्यवस्था के सामने किसी न किसी रूप में यह चुनौती है ही। इसमें लोकतांत्रिक संस्थाओं और बरतावों को मजबूत बनाना शामिल है।
  • लेकिन, अलग-अलग समाजों में आम आदमी की लोकतंत्र से अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं इसलिए यह चुनौती दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग अर्थ और अलग स्वरूप ले लेती है।
राजनीतिक सुधारों पर विचार
  • लोकतंत्र की विभिन्न चुनौतियों के बारे में सभी सुझाव या प्रस्ताव ‘लोकतांत्रिक सुधार' या 'राजनीतिक सुधार' कहे जाते हैं।
  • अगर सभी देशों की चुनौतियाँ एक जैसी नहीं हैं तो इसका यह भी मतलब है कि राजनीतिक सुधारों के लिए हर कोई एक फार्मूले का इस्तेमाल नहीं कर सकता।
  • कुछ महत्त्वपूर्ण सवालों के जवाब राज्य या स्थानीय स्तर पर दिए जा सकते हैं। भारत में राजनीतिक सुधारों के लिए तरीका और जरिया ढूँढ़ते समय कुछ दिशा-निर्देशों को ध्यान में रखा जा सकता है।
  • कानून बनाकर राजनीति को सुधारने की बात सोचना बहुत लुभावना लग सकता है। नए कानून सारी अवांछित चीज़ें खत्म कर देंगे यह सोच लेना भले ही सुखद हो लेकिन इस लालच पर लगाम लगाना ही बेहतर है। निश्चित रूप से सुधारों के मामले में कानून की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
  • सावधानी से बनाए गए कानून गलत राजनीतिक आचरणों को हतोत्साहित और अच्छे कामकाज को प्रोत्साहित करेंगे। परंतु विधिक - संवैधानिक बदलावों को ला देने भर से लोकतंत्र की चुनौतियों को हल नहीं किया जा सकता।
  • कानूनी बदलाव करते हुए इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। कई बार परिण म एकदम विपरीत निकलते हैं, जैसे कई राज्यों ने दो से ज्यादा बच्चों वाले लोगों के पंचायत चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। इसके चलते अनेक गरीब लोग और महिलाएँ लोकतांत्रिक अवसर से वंचित हुईं जबकि ऐसा करने के पीछे यह मंशा न थी।
  • आम तौर पर किसी चीज़ की मनाही करने वाले कानून राजनीति में ज्यादा सफल नहीं होते। राजनीतिक कार्यकर्ता को अच्छे काम करने के लिए बढ़ावा देने वाले या लाभ पहुँचाने वाले कानूनों के सफल होने की संभावना ज्यादा होती है। सबसे बढ़िया कानून वे हैं जो लोगों को लोकतांत्रिक सुधार करने की ताकत देते हैं।
  • सूचना का अधिकार कानून लोगों को जानकार बनाने और लोकतंत्र के रखवाले के तौर पर सक्रिय करने का अच्छा उदाहरण है। ऐसा कानून भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाता है और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने तथा कठोर दंड आयद करने वाले मौजूदा कानूनों की मदद करता है।
  • लोकतांत्रिक सुधार तो मुख्यतः राजनीतिक दल ही करते हैं। इसलिए, राजनीतिक सुधारों का ज़ोर मुख्यतः लोकतांत्रिक कामकाज को ज़्यादा मज़बूत बनाने पर होना चाहिए ।
लोकतंत्र की पुनर्परिभाषा
  • लोकतंत्र शासन का वह स्वरूप है जिसमें लोग अपने शासकों का चुनाव खुद करते हैं। लोगों द्वारा चुने गए शासक ही सारे प्रमुख फ़ैसले लें; चुनाव में लोगों को वर्तमान शासकों को बदलने और अपनी पसंद जाहिर करने का पर्याप्त अवसर और विकल्प मिलना चाहिए। ये विकल्प और अवसर हर किसी को बराबरी में उपलब्ध होने चाहिए।
  • विकल्प चुनने के इस तरीके से ऐसी सरकार का गठन होना चाहिए जो संविधान के बुनियादी नियमों और नागरिकों के अधिकारों को मानते हुए काम करे।
  • लोकतांत्रिक अधिकारों की चर्चा की और पाया कि ये अधिकार सिर्फ़ वोट देने, चुनाव लड़ने और राजनीतिक संगठन बनाने भर के नहीं हैं। कुछ ऐसे सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की चर्चा की जिन्हें एक लोकतांत्रिक शासन को अपने नागरिकों को देना ही चाहिए।
  • हमने सत्ता में हिस्सेदारी को लोकतंत्र की भावना के अनुकूल माना था और सरकारों और सामाजिक समूहों के बीच सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है।
  • लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही या क्रूर शासन-व्यवस्था नहीं हो सकती और अल्पसंख्यक आवाज़ों का आदर करना लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। भेदभाव को समाप्त करना भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण काम है।

लोकतंत्र के परिणामों का मूल्यांकन

  • लोकतंत्र शासन की अन्य व्यवस्थाओं से बेहतर है। तानाशाही और अन्य व्यवस्थाएँ ज्यादा दोषपूर्ण हैं। लोकतंत्र को सबसे बेहतर बताया गया था क्योंकि,
    • यह नागरिकों में समानता को बढ़ावा देता है;
    • व्यक्ति की गरिमा को बढ़ाता है;
    • इससे फ़ैसलों में बेहतरी आती है;
    • टकरावों को टालने-सँभालने का तरीका देता है; और
    • इसमें गलतियों को सुधारने की गुंजाइश होती है।
  • अधिकांश लोग अन्य किसी भी वैकल्पिक शासन व्यवस्था की में लोकतंत्र को पसंद करते हैं। लेकिन लोकतांत्रिक शासन तुलना के कामकाज से संतुष्ट होने वालों की संख्या उतनी बड़ी नहीं होती। हम एक दुविधा की स्थिति में आ जाते हैं: सैद्धांतिक रूप में तो लोकतंत्र को अच्छा माना जाता है पर व्यवहार में इसे इतना अच्छा नहीं माना जाता।
  • आज दुनिया के अनेक देश किसी-न-किसी तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था चलाने का दावा करते हैं। इनका औपचारिक संविधान है, इनके यहाँ चुनाव होते हैं और राजनीतिक दल भी हैं। साथ ही, वे अपने नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकारों की गारंटी देते हैं। > लोकतंत्र के ये तत्त्व तो अधिकांश देशों में समान हैं पर सामाजिक स्थिति, अपनी आर्थिक उपलब्धि और अपनी संस्कृतियों के मामले में ये देश एक-दूसरे से काफ़ी अलग-अलग हैं।
  • स्पष्ट है कि इन सबका लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के नतीजों पर भी असर पड़ता है और एक जगह जो उपलब्धि हो वह दूसरी जगह भी उसी तरह दिखे यह ज़रूरी नहीं है ।
  • लोकतंत्र सभी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान कर सकता है और जब हमारी कुछ उम्मी होतीं तो हम लोकतंत्र की अवधारणा को ही दोष देने लगते हैं। लोकतंत्र के परिणामों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने की दिशा में पहला कदम यही है कि हम पहले यह मानें कि लोकतंत्र शासन का एक स्वरूप भर है।
  • यह कुछ चीज़ों को हासिल करने की स्थितियाँ तो बना सकता है पर नागरिकों को ही उन स्थितियों का लाभ लेकर अपने लक्ष्यों को हासिल करना होता है। इतना ही नहीं, लोकतंत्र का उन अनेक चीज़ों से ज़्यादा सरोकार नहीं होता जिनको हम बहुत मूल्यवान मानते हैं।
उत्तरदायी, जिम्मेवार और वैध शासन
  • लोकतंत्र में सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि लोगों का अपना शासक चुनने का अधिकार और शासकों पर नियंत्रण बरकरार रहे।
  • वक्त-ज़रूरत और यथासंभव इन चीज़ों के लिए लोगों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी करने में सक्षम होना चाहिए ताकि लोगों के प्रति ज़िम्मेवार सरकार बन सके और सरकार लोगों की ज़रूरतों और उम्मीदों पर ध्यान दे।
  • ऐसी सरकार की कल्पना कीजिए जो बहुत तेज़ फ़ैसले लेती है। लेकिन यह सरकार ऐसे फ़ैसले भी ले सकती है जिसे लोग स्वीकार न करें और तब ऐसे फैसलों से परेशानी हो सकती है। इसकी तुलना में लोकतांत्रिक सरकार सारी प्रक्रिया को करने पूरा में ज़्यादा समय ले सकती है।
  • इसने पूरी प्रक्रिया को माना है इसलिए इस बात की ज़्यादा संभावना है कि लोग उसके फैसलों को मानेंगे और वे ज्यादा प्रभावी होंगे। इस प्रकार लोकतंत्र में फैसला लेने में जो वक्त लगता है वह बेकार नहीं जाता।
  • दूसरा पहलू : लोकतंत्र में इस बात की व्यवस्था होती है कि फ़ैसले कुछ कायदे-कानून के अनुसार होंगे और अगर कोई नागरिक यह जानना चाहे कि फैसले लेने में नियमों का पालन हुआ है या नहीं तो वह इसका पता कर सकता है। उसे यह न सिर्फ़ जानने का अधिकार है बल्कि उसके पास इसके साधन भी उपलब्ध हैं। इसे पारदर्शिता कहते हैं।
  • यह गैर-लोकतांत्रिक सरकारों में नहीं होती इसलिए जब हम लोकतंत्र के परिणामों पर गौर कर रहे हैं तो यह उम्मीद करना - उचित है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी सरकार का गठन होगा जो नियम-कानून को मानेगी और लोगों के प्रति जवाबदेह होगी।
  • लोकतांत्रिक सरकार नागरिकों को निर्णय प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाने और खुद को उनके प्रति जवाबदेह बनाने वाली कार्यविधि भी विकसित कर लेती है।
  • इन नतीजों के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को तौलना चाहते हैं तो आपको इन संस्थाओं और व्यवहारों पर गौर करना होगा: नियमित और निष्पक्ष चुनाव, प्रमुख नीतियों और नए कानूनों पर खुली सार्वजनिक चर्चा और सरकार तथा इसके कामकाज के बारे में जानकारी पाने का नागरिकों का सूचना का अधिकार ।
  • इन पैमानों पर लोकतांत्रिक शासकों का रिकॉर्ड मिला-जुला रहा है। नियमित और निष्पक्ष चुनाव कराने और खुली सार्वजनिक चर्चा के लिए उपयुक्त स्थितियाँ बनाने के मामले में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ ज्यादा सफल हुई हैं पर ऐसे चुनाव कराने में जिसमें सबको अवसर मिले अथवा हर फ़ैसले पर सार्वजनिक बहस कराने के मामले में उनका रिकॉर्ड ज्यादा अच्छा नहीं रहा है।
  • नागरिकों के साथ सूचनाओं को साझा करने के मामले में भी उनका रिकॉर्ड खराब रहा है। पर इनकी तुलना जब हम गैर-लोकतांत्रिक शासनों से करते हैं तो इन क्षेत्रों का भी उनका प्रदर्शन बेहतर ही रहता है ।
  • एक व्यापक धरातल पर लोकतांत्रिक सरकारों से यह उम्मीद करना उचित ही है कि वे लोगों की ज़रूरतों और माँगों का ध्यान रखने वाली हों और कुल मिलाकर भ्रष्टाचार से मुक्त शासन करें। इन दोनों मामलों में भी लोकतांत्रिक सरकारों का रिकॉर्ड प्रभावशाली नहीं है ।
  • एक मामले में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था निश्चित रूप से अन्य शासनों से बेहतर है : यह वैध शासन व्यवस्था है। यह सुस्त हो सकती है, कम कार्य-कुशल हो सकती है, इसमें भ्रष्टाचार हो सकता है, यह लोगों की ज़रूरतों की कुछ हद तक अनदेखी कर सकती है लेकिन लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था लोगों की अपनी शासन व्यवस्था है।
आर्थिक संवृद्धि और विकास
  • हम 1950 से 2000 के बीच के सभी लोकतांत्रिक शासनों और तानाशाहियों के कामकाज की तुलना करें तो पाएँगे कि आर्थिक संवृद्धि के मामले में तानाशाहियों का रिकॉर्ड थोड़ा बेहतर है।
  • उच्चतर आर्थिक संवृद्धि हासिल करने में लोकतांत्रिक शासन की यह अक्षमता हमारे लिए चिंता का कारण है। पर अकेले इसी कारण से लोकतंत्र को खारिज नहीं किया जा सकता। जैसा कि आपने अर्थशास्त्र में पढ़ा है- आर्थिक विकास कई कारकों मसलन देश की जनसंख्या के आकार, वैश्विक स्थिति, अन्य देशों से सहयोग और देश द्वारा तय की गई आर्थिक प्राथमिकताओं पर भी निर्भर करता है।
  • तानाशाही वाले कम विकसित देशों और लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले कम विकसित देशों के बीच का अंतर नगण्य सा है। तानाशाही और लोकतांत्रिक शासन वाले देशों के आर्थिक विकास दर में अंतर भले ज़्यादा हो लेकिन इसके बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था का चुनाव ही बेहतर है क्योंकि इसके अन्य अनेक सकारात्मक फ़ायदे हैं।
लोकतंत्र की आर्थिक उपलब्धियाँ
  • आर्थिक विकास के मामले में तानाशाहियों का रिकॉर्ड थोड़ा बेहतर है। लेकिन जब हम सिर्फ गरीब मुल्कों के रिकॉर्ड की ही तुलना करते हैं तो अंतर लगभग समाप्त हो जाता है।
  • लोकतांत्रिक शासन के अंदर भी भारी आर्थिक असमानता हो सकती है। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों ऊपरी 20 फ़ीसदी लोगों का ही कुल राष्ट्रीय आय के 60 फ़ीसदी हिस्से पर कब्ज़ा है जबकि सबसे नीचे के 20 फ़ीसदी लोग राष्ट्रीय आय के मात्र 3 फीसदी हिस्से पर जीवन यापन करते हैं। डेनमार्क और हंगरी जैसे मुल्क इस मामले में कहीं ज्यादा बेहतर हैं ।
असमानता और गरीबी में कमी
  • लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं से यह उम्मीद रखना कहीं ज़्यादा तर्कसंगत है कि वे आर्थिक असमानता को कम करेंगी।
  • एरेस- बेस्ट लैटिन अमरीका, केगल कार्टूस लोकतांत्रिक व्यवस्था राजनीतिक समानता पर आधारित होती है। प्रतिनिधियों के चुनाव में हर व्यक्ति का वज़न बराबर होता है।
  • व्यक्तियों को राजनीतिक क्षेत्र में परस्पर बराबरी का दर्जा तो मिल जाता है लेकिन इसके साथ-साथ हम आर्थिक असमानता को भी बढ़ता हुआ पाते हैं ।
  • कुछ धनी लोग आय और संपत्ति में अपने अनुपात से बहुत ज़्यादा हिस्सा पाते हैं। इतना ही नहीं, देश की कुल आय में उनका हिस्सा भी बढ़ता गया है।
  • समाज के सबसे निचले हिस्से के लोगों को जीवन बसर करने के लिए काफ़ी कम साधन मिलते हैं। उनकी आमदनी गिरती गई है। कई बार उन्हें भोजन, कपड़ा, मकान, शिक्षा और इलाज जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने में मुश्किल आती हैं।
  • वास्तविक जीवन में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आर्थिक असमानताओं को कम करने में ज़्यादा सफल नहीं हो पाई हैं। हमारे मतदाताओं में गरीबों की संख्या काफ़ी बड़ी है इसलिए कोई भी पार्टी उनके मतों से हाथ धोना नहीं चाहेगी।
सामाजिक विविधताओं में सामंजस्य
  • लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ अनेक तरह के सामाजिक विभाजनों को सँभालती हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आम तौर पर अपने अंदर की प्रतिद्वंद्विताओं को सँभालने की प्रक्रिया विकसित कर लेती हैं। इससे इन टकरावों के विस्फोटक या हिंसक रूप लेने का अंदेशा कम हो जाता है।
  • कोई भी समाज अपने विभिन्न समूहों के बीच के टकरावों को पूरी तरह और स्थायी रूप से नहीं खत्म कर सकता, पर हम इन अंतरों और विभेदों का आदर करना सीख सकते हैं और इनके बीच बातचीत से सामंजस्य बैठाने का तरीका विकसित कर सकते हैं। इस काम के लिए लोकतंत्र सबसे अच्छा है।
  • गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ आमतौर पर अपने अंदरूनी सामाजिक मतभेदों को नजरअंदाज करती हैं या उन्हें दबाने की कोशिश करती हैं। इस प्रकार सामाजिक अंतर, विभाजन और टकरावों को सँभालना निश्चित रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का एक बड़ा गुण है। श्रीलंका इस बात की याद दिलाता है कि इस परिणाम को हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को स्वयं भी दो शर्तों को पूरा करना होता है:
    • लोकतंत्र का सीधे-सीधे अर्थ बहुमत की राय से शासन करना नहीं है।
    • बहुमत को सदा ही अल्पमत का ध्यान रखना होता है। उसके साथ काम करने की ज़रूरत होती है। तभी, सरकार जन-सामान्य की इच्छा का प्रतिनिधित्व कर पाती है।
    • बहुमत और अल्पमत की राय कोई स्थायी चीज़ नहीं होती। यह भी समझना ज़रूरी है कि बहुमत के शासन का अर्थ धर्म, नस्ल अथवा भाषायी आधार के बहुसंख्यक समूह का शासन नहीं होता।
    • बहुमत के शासन का मतलब होता है कि हर फैसले या चुनाव में अलग-अलग लोग और समूह बहुमत का निर्माण कर सकते हैं या बहुमत में हो सकते हैं।
    • लोकतंत्र तभी तक लोकतंत्र रहता है जब तक, प्रत्येक नागरिक को किसी न किसी अवसर पर बहुमत का हिस्सा बनने का मौका मिलता है।
    • अगर किसी को जन्म के आधार पर बहुसंख्यक समुदाय का हिस्सा बनने से रोका जाता है तब लोकतांत्रिक शासन उस व्यक्ति या समूह के लिए समावेशी नहीं रह जाता ।
नागरिकों की गरिमा और आज़ादी
  • व्यक्ति की गरिमा और आज़ादी के मामले में लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी भी अन्य शासन प्रणाली से काफ़ी आगे है। प्रत्येक व् अपने साथ के लोगों से सम्मान पाना चाहता है। अक्सर, टकराव तभी पैदा होते हैं जब कुछ लोगों को लगता है कि उनके साथ सम्मान का व्यवहार नहीं किया गया।
  • गरिमा और आज़ादी की चाह ही लोकतंत्र का आधार है। दुनिया भर की लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ इस चीज़ को मानती हैं- कम से कम सिद्धांत के तौर पर तो ज़रूर अलग-अलग लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इन बातों पर अलग-अलग स्तर का आचरण होता है।
  • लोकतांत्रिक सरकारें सदा नागरिकों के अधिकारों का सम्मान नहीं करतीं। फिर, जो समाज लंबे समय तक गुलामी में रहे हैं उनके लिए यह एहसास करना आसान नहीं है कि सभी व्यक्ति बराबर हैं।
  • महिलाओं के लंबे संघर्ष के बाद अब जाकर यह माना जाने लगा है कि महिलाओं के साथ गरिमा और समानता का व्यवहार लोकतंत्र की ज़रूरी शर्त है और आज अगर कहीं यह हालत है तो उसका यह मतलब नहीं कि औरतों के साथ सदा से सम्मान का व्यवहार हुआ है।
  • बहरहाल, एक बार जब सिद्धांत रूप में इस बात को स्वीकार कर लिया गया है तो अब औरतों के लिए वैधानिक और नैतिक रूप से अपने प्रति गलत मान्यताओं और व्यवहारों के खिलाफ संघर्ष करना आसान हो गया है।
  • अलोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बात संभव न थी क्योंकि वहाँ व्यक्तिगत आज़ादी और गरिमा न तो वैधानिक रूप से मान्य है, न नैतिक रूप से। यही बात जातिगत असमानता पर भी लागू होती है। 
  • भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था ने कमज़ोर और भेदभाव का शिकार हुई जातियों के लोगों के समान दर्जे और समान अवसर के दावे को बल दिया है। आज भी जातिगत भेदभाव और दमन के उदाहरण देखने को मिलते हैं पर इनके पक्ष में कानूनी या नैतिक बल नहीं होता।
  • लोकतंत्र की एक खासियत है कि इसकी जाँच-परख और परीक्षा कभी खत्म नहीं होती। वह एक जाँच पर खरा उतरे तो अगली जाँच आ जाती है। लोगों को जब लोकतंत्र से थोड़ा लाभ मिल जाता है तो वे और लाभों की माँग करने लगते हैं। वे लोकतंत्र से और अच्छा काम चाहते हैं।
  • यही कारण है कि जब हम उनसे लोकतंत्र के कामकाज के बारे में पूछते हैं तो वे हमेशा लोकतंत्र से जुड़ी अपनी अन्य अपेक्षाओं को देते हैं और शिकायतों का अंबार लगा देते हैं। शिकायतों का बने रहना भी लोकतंत्र की सफलता की गवाही देता है। इससे पता चलता है कि लोग सचेत हो गए हैं और वे सत्ता में बैठे लोगों के कामकाज का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने लगे हैं।
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Wed, 29 Nov 2023 09:40:50 +0530 Jaankari Rakho
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राजनीतिक दल

राजनीतिक दल की ज़रूरत
  • किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की संस्थाओं में राजनीतिक दल अलग से दिखाई देते हैं। अधिकतर आम नागरिकों के लिए लोकतंत्र का मतलब राजनीतिक दल ही है।
  • अगर देश के दूर-दराज के और ग्रामीण इलाकों में जाएँ और कम पढ़े-लिखे लोगों से बात करें तो संभव है कि आपको ऐसे के लोग मिलें जिन्हें संविधान के बारे में या सरकार के स्वरू बारे में कुछ भी मालूम न हो। बहरहाल, राजनीतिक दलों के बारे में उन्हें ज़रूर कुछ न कुछ मालूम होता है, लेकिन पार्टियों के बारे में हर कोई कुछ न कुछ जानता है तो इसका मतलब यह नहीं कि पार्टियाँ बहुत लोकप्रिय हैं।
  • अधिकतर लोग आम तौर पर दलों के बारे में खराब राय रखते हैं। अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीतिक जीवन की हर बुराई के लिए वे दलों को ही ज़िम्मेवार मानते हैं।
  • राजनीतिक दल का अर्थ राजनीतिक दल को लोगों के एक ऐसे संगठित समूह के रूप में समझा जा सकता है जो चुनाव लड़ने और सरकार में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से काम करता है।
  • समाज के सामूहिक हित को ध्यान में रखकर यह समूह कुछ नीतियाँ और कार्यक्रम तय करता है। सामूहिक हित एक विवादास्पद विचार है। इसे लेकर सबकी राय अलग-अलग होती है। इसी आधार पर दल लोगों को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि उनकी नीतियाँ औरों से बेहतर हैं।
  • वे लोगों का समर्थन पाकर चुनाव जीतने के बाद उन नीतियों को लागू करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार दल किसी समाज के बुनियादी राजनीतिक विभाजन को भी दर्शाते हैं।
  • पार्टी समाज के किसी एक हिस्से से संबंधित होती है इसलिए उसका नज़रिया समाज के उस वर्ग/समुदाय विशेष की तरफ झुका होता है। किसी दल की पहचान उसकी नीतियों और उसके सामाजिक आधार से तय होती है।
  • अगर दल न हों तो सारे उम्मीदवार स्वतंत्र या निर्दलीय होंगे। तब, इनमें से कोई भी बड़े नीतिगत बदलाव के बारे में लोगों से चुनावी वायदे करने की स्थिति में नहीं होगा। सरकार बन जाएगी पर उसकी उपयोगिता संदिग्ध होगी।
  • निर्वाचित प्रतिनिधि सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्रों में किए गए कामों के लिए जवाबदेह होंगे। लेकिन देश कैसे चले इसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं होगा।
  • गैर- दलीय आधार पर होने वाले पंचायत चुनावों का उदाहरण सामने रखकर भी इस बात की परख कर सकते हैं। हालाँकि इन चुनावों में दल औपचारिक रूप से अपने उम्मीदवार नहीं खड़े करते लेकिन हम पाते हैं कि चुनाव के अवसर पर पूरा गाँव कई खेमों में बँट जाता है और हर खेमा सभी पदों के लिए अपने उम्मीदवारों का 'पैनल' उतारता है।
  • राजनीतिक दल भी ठीक यही काम करते हैं। यही कारण है कि हमें दुनिया के लगभग सभी देशों में राजनीतिक दल नज़र आते हैं- चाहे वह देश बड़ा हो या छोटा, नया हो या पुराना, विकसित हो या विकासशील ।
  • राजनीतिक दलों का उदय प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के उभार के साथ जुड़ा है। बड़े समाजों के लिए प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र की ज़रूरत होती है। 
  • जब समाज बड़े और जटिल हो जाते हैं तब उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग विचारों को समेटने और सरकार की नजर में लाने के लिए किसी माध्यम या एजेंसी की ज़रूरत होती है।
  • विभिन्न जगहों से आए प्रतिनिधियों को साथ करने की ज़रूरत होती है ताकि एक जिम्मेवार सरकार का गठन हो सके। उन्हें सरकार का समर्थन करने या उस पर अंकुश रखने, नीतियाँ बनवाने और नीतियों का समर्थन अथवा विरोध करने के लिए उपकरणों की ज़रूरत होती है।
  • प्रत्येक प्रतिनिधि- सरकार की ऐसी जो भी ज़रूरतें होती हैं, राजनीतिक दल उनको पूरा करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दल लोकतंत्र की एक अनिवार्य शर्त है।
राजनैतिक दल का अर्थ
  • राजनैतिक दल लोगों का एक समूह है जो शासन में राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने तथा उसे बनाये रखने के लिए कार्य करता है, यह समान विचारधारा वाले लोगों का एक संगठन है।
  • दल शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- विभाजन, अर्थात जब भी समाज में परस्पर विरोधी मतों (विचारों) के व्यक्तियों के मध्य स्वयं की स्वतंत्र पहचान स्थापित करने के लिए संघर्ष होता है तो इस संघर्ष के परिणामस्वरूप राजनैतिक दलों का जन्म होता है।
  • जिस प्रकार विद्यालय में एक समान रूचि वाले छात्र/छात्राएं अपना एक गुट बना लेते हैं, उसी प्रकार राजनीति में एक समान विचारधारा व सिद्धांत में विश्वास रखने वाले लोग अपना एक दल बना लेते हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि देश के व्यवस्था उनके विचारों व सिद्धांतों अनुसार चले।
  • किसी भी राजनैतिक दल के तीन मुख्य तत्त्व होते हैं
  • नेता जो चुनाव लड़ते हैं।
  • सक्रिय सदस्य जो चुनाव नहीं लड़ते हैं लेकिन पार्टी के कार्यों में सक्रियता से भाग लेते हैं।
  • समर्थक, जो पार्टी से बाहर रहकर पार्टी का समर्थन करते हैं और प्रायः पार्टी के स्थायी वोटर होते हैं।
राजनैतिक दलों की परिभाषा
  • विभिन्न लोगों ने राजनैतिक दलों की परिभाषा दी है जिनमे से एडमंड बर्क के अनुसार- राजनैतिक दल व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसके सदस्य सामान्य सिद्धांत पर चलते हुए अपने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा राष्ट्रीय हित का परिवर्तन करने के लिए एकता के सूत्र में बंधे होते है ।
राजनैतिक दलों की आवश्यकता क्यों
  • किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के सफल संचालन के लिए राजनैतिक दलों का होना अनिवार्य है क्योंकि इनके अभाव में प्रत्येक उम्मीदवार स्वतंत्र होगा जिस कारण वह कोई बड़े राजनैतिक बदलाव के लिए वायदे करने की स्थिति में नहीं होगा, लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए राजनैतिक दलों का होना अनिवार्य है।

राजनीतिक दल के कार्य

मूलत: राजनीतिक दल राजनीतिक पदों को भरते हैं और राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हैं। दल इस काम को कई तरीके से करते हैं
  1. चुनाव लड़ना : अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में चुनाव राजनीतिक दलों द्वारा खड़ा किए गए उम्मीदवारों के बीच लड़ा जाता है। राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव कई तरीकों से करते हैं। अमरीका जैसे कुछ देशों में उम्मीदवार का चुनाव दल के सदस्य और समर्थक करते हैं। अब इस तरह से उम्मीदवार चुनने वाले देशों की संख्या बढ़ती जा रही है। अन्य देशों, जैसे भारत में, दलों के नेता ही उम्मीदवार चुनते हैं।
  2. नीतियों एवं कार्यक्रमों को जनता के सम्मुख रखना: देश के लिए कौन-सी नीतियाँ ठीक हैं- इस बारे में हममें से सभी की राय अलग-अलग हो सकती है। पर कोई भी सरकार इतने अलग-अलग विचारों को एक साथ लेकर नहीं चल सकती। लोकतंत्र में समान या मिलते-जुलते विचारों को एक साथ लाना होता है ताकि सरकार की नीतियों को एक दिशा दी जा सके। पार्टियाँ यही काम करती हैं। पार्टियाँ तरह-तरह के विचारों को कुछ बुनियादी राय तक समेट लाती हैं जिनका वे समर्थन करती हैं। सरकार प्राय: शासक दल की राय के अनुरूप अपनी नीतियाँ तय करती है।
  3. कानून बनाना : पार्टियाँ देश के कानून निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। कानूनों पर औपचारिक बहस होती है और उन्हें विधायिका में पास करवाना पड़ता है लेकिन विधायिका के अधिकतर सदस्य किसी न किसी दल के सदस्य होते हैं। इस कारण वे अपने दल के नेता के निर्देश पर फ़ैसला करते हैं।
  4. निर्णयन : नीतियों और बड़े फ़ैसलों के मामले में निर्णय राजनेता ही लेते हैं और ये नेता विभिन्न दलों के होते हैं। पार्टियाँ नेता चुनती हैं, उनको प्रशिक्षित करती हैं और फिर पार्टी के सिद्धांतों और कार्यक्रम के अनुसार फ़ैसले करने के लिए उन्हें मंत्री बनाती हैं ताकि वे पार्टी की इच्छा के अनुसार सरकार चला सकें। 
  5. विरोधी पक्ष की भूमिका सरकार की गलत नीतियों और असफलताओं की आलोचना करने के साथ वह अपनी अलग राय भी रखते हैं। विपक्षी दल सरकार के खिलाफ़ आम जनता को भी लामबंद करते हैं।
  6. जनमत तैयार करना : विभिन्न दलों के लाखों कार्यकर्ता देश-भर में बिखरे होते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में उनके मित्र संगठन या दबाव समूह भी काम करते रहते हैं। दल कई दफ़े लोगों की समस्याओं को लेकर आंदोलन भी करते हैं। अक्सर विभिन्न दलों द्वारा रखी जाने वाली राय के इर्द-गिर्द ही समाज के लोगों की राय बनती जाती है।
  7. कार्यक्रमों का क्रियान्वयन : दल ही सरकारी मशीनरी और सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कल्याण कार्यक्रमों तक लोगों की पहुँच बनाते हैं। एक साधारण नागरिक के लिए किसी सरकारी अधिकारी की तुलना में किसी राजनीतिक कार्यकर्ता से जान-पहचान बनाना, उससे संपर्क साधना आसान होता है।
  8. प्रतिनिधित्व करना : राजनीतिक दलों का उदय प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के उभार के साथ जुड़ा है। बड़े समाजों के लिए प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र की ज़रूरत होती है।
  • जब समाज बड़े और जटिल हो जाते हैं तब उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग विचारों को समेटने और सरकार की नज़र में लाने के लिए किसी माध्यम या एजेंसी की ज़रूरत होती है।
  • विभिन्न जगहों से आए प्रतिनिधियों को साथ करने की ज़रूरत होती है ताकि एक ज़िम्मेदारी सरकार का गठन हो सके। उन्हें सरकार का समर्थन करने या उस पर अंकुश रखने, नीतियाँ बनवाने और नीतियों का समर्थन अथवा विरोध करने के लिए उपकरणों की ज़रूरत होती है ।
  • प्रत्येक प्रतिनिधि- सरकार की ऐसी जो भी ज़रूरतें होती हैं, राजनीतिक दल उनको पूरा करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दल लोकतंत्र की एक अनिवार्य शर्त हैं।
कितने राजनीतिक दल?
  • लोकतंत्र में नागरिकों का कोई भी समूह राजनीतिक दल बना सकता है। इस औपचारिक अर्थ में सभी देशों में बहुत से राजनीतिक दल हैं।
  • भारत में ही चुनाव आयोग में नाम पंजीकृत कराने वाले दलों की संख्या 750 से ज्यादा है। लेकिन, हर दल चुनाव में गंभीर चुनौती देने की स्थिति में नहीं होता।
  • चुनाव जीतने और सरकार बनाने की होड़ में आमतौर पर कुछेक पार्टियाँ ही सक्रिय होती हैं। कई देशों में सिर्फ एक ही दल को सरकार बनाने और चलाने की अनुमति है। इस कारण उन्हें एकदलीय शासन-व्यवस्था कहा जाता है।
  • चीन में सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी को शासन करने की अनुमति है। हालाँकि कानूनी रूप से वहाँ भी लोगों को राजनीतिक दल बनाने की आज़ादी है पर वहाँ की चुनाव प्रणाली सत्ता के लिए स्वतंत्र प्रतिद्वंद्विता की अनुमति नहीं देती इसलिए लोगों को ना राजनीतिक दल बनाने का कोई लाभ नहीं दिखता और इस कोई नया दल नहीं बन पाता ।
  • हम एकदलीय व्यवस्था को अच्छा विकल्प नहीं मान सकते क्योंकि यह लोकतांत्रिक विकल्प नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कम से कम दो दलों को राजनीतिक सत्ता के लिए चुनाव में प्रतिद्वंद्विता करने की अनुमति तो होनी ही चाहिए। साथ ही उन्हें सत्ता में आ सकने का पर्याप्त अवसर भी रहना चाहिए।
  • कुछ देशों में सत्ता आमतौर पर दो मुख्य दलों के बीच ही बदलती रहती है। वहाँ अनेक दूसरी पार्टियाँ हो सकती हैं, वे भी चुनाव लड़कर कुछ सीटें जीत सकती हैं पर सिर्फ दो ही दल बहुमत पाने और सरकार बनाने के प्रबल दावेदार होते हैं। अमरीका और ब्रिटेन में ऐसी ही दो दलीय व्यवस्था है।
  • जब अनेक दल सत्ता के लिए होड़ में हों और दो दलों से ज्यादा के लिए अपने दम पर या दूसरों से गठबंधन करके सत्ता में आने का ठीक-ठाक अवसर हो तो इसे बहुदलीय व्यवस्था कहते हैं। भारत में भी ऐसी ही बहुदलीय व्यवस्था है। इस व्यवस्था में कई दल गठबंधन बनाकर भी सरकार बना सकते हैं।
  • जब किसी बहुदलीय व्यवस्था में अनेक पार्टियाँ चुनाव लड़ने और सत्ता में आने के लिए आपस में हाथ मिला लेती हैं तो इसे गठबंधन या मोर्चा कहा जाता है। जैसे, 2004 के संसदीय चुनाव में भारत में ऐसे तीन प्रमुख गठबंधन थे: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और वाम मोर्चा |
  • अक्सर बहुदलीय व्यवस्था बहुत घालमेल वाली लगती है और देश को राजनीतिक अस्थिरता की तरफ़ ले जाती पर इसके साथ ही इस प्रणाली में विभिन्न हितों और विचारों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
  • दलीय व्यवस्था का चुनाव करना किसी मुल्क के हाथ में नहीं है। यह एक लंबे दौर के कामकाज के बाद खुद विकसित होती है और इसमें समाज की प्रकृति, इसके राजनीतिक विभाजन, राजनीति का इतिहास और इसकी चुनाव प्रणाली सभी चीजें अपनी भूमिका निभाती हैं।
  • इसे बहुत जल्दी बदला नहीं जा सकता। हर देश अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप दलीय व्यवस्था विकसित करता है। जैसे, अगर भारत में बहुदलीय व्यवस्था है तो उसका कारण यह है कि दो-तीन पार्टियाँ इतने बड़े मुल्क की सारी सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं को समेट पाने में अक्षम हैं। हर मुल्क और हर स्थिति में कोई एक ही आदर्श प्रणाली चले यह संभव नहीं है।
राजनीतिक दलों में जन-भागीदारी
  • वर्तमान में राजनीतिक दल संकट से गुज़र रहे हैं क्योंकि जनता उन्हें सम्मान की नज़र से नहीं देखती। उपलब्ध प्रमाण बताते कि यह बात आंशिक रूप से ही सही है।
  • बड़े नमूनों पर आधारित और कई दशकों तक चले सर्वेक्षण के तथ्य बताते हैं कि : दक्षिण एशिया की जनता राजनीतिक दलों पर बहुत भरोसा नहीं करती।
  • जो लोग दलों पर 'एकदम भरोसा नहीं' 'बहुत भरोसा नहीं' के पक्ष में बोले उनका अनुपात 'कुछ भरोसा' या 'पूरा भरोसा' बताने वालों से काफ़ी ज़्यादा था।
  • यही बात ज्यादातर लोकतंत्रों पर लागू होती है। पूरी दुनिया में राजनीतिक दल ही एक ऐसी संस्था है जिस पर लोग सबसे कम भरोसा करते हैं। बहरहाल, राजनीतिक दलों के कामकाज में लोगों की भागीदारी का स्तर काफी ऊँचा है।
  • खुद को किसी राजनीतिक दल का सदस्य बताने वाले भारतीयों का अनुपात कनाडा, जापान, स्पेन और दक्षिण कोरिया जैसे विकसित देशों से भी ज्यादा है। पिछले तीन दशकों के दौरान भारत में राजनीतिक दलों की सदस्यता का अनुपात धीरे-धीरे बढ़ता गया है। खुद को किसी राजनीतिक दल का करीबी बताने वालों का अनुपात भी इस अवधि में बढ़ता गया है।
राष्ट्रीय राजनीतिक दल
  • विश्व के संघीय व्यवस्था वाले लोकतंत्रों में दो तरह के राजनीतिक दल हैं: संघीय इकाईयों में से सिर्फ एक इकाई में अस्तित्व रखने वाले दल और अनेक या संघ की सभी इकाईयों में अस्तित्व रखने वाले दल ।
  • भारत भी यही स्थिति है। कई पार्टियाँ पूरे देश में फैली हुई हैं और उन्हें राष्ट्रीय पार्टी कहा जाता है। इन दलों की विभिन्न राज्यों में इकाइयाँ हैं। पर कुल मिलाकर देखें तो ये सारी इकाइयाँ राष्ट्रीय स्तर पर तय होने वाली नीतियों, कार्यक्रमों और रणनीतियों को ही मानती हैं।
  • देश की हर पार्टी को चुनाव आयोग में अपना पंजीकरण कराना पड़ता है। आयोग सभी दलों को समान मानता है पर यह बड़े और स्थापित दलों को कुछ विशेष सुविधाएँ देता है। इन्हें अलग चुनाव चिह्न दिया जाता है जिसका प्रयोग पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार ही कर सकता है। इस विशेषाधिकार और कुछ अन्य लाभ पाने वाली पार्टियों को 'मान्यता प्राप्त दल कहते हैं ।
  • चुनाव आयोग ने स्पष्ट नियम बनाए हैं कि कोई दल कितने प्रतिशत वोट और सीट जीतकर 'मान्यता प्राप्त ' दल बन सकता है।
  • जब कोई पार्टी राज्य विधानसभा के चुनाव में पड़े कुल मतों का 6 फ़ीसदी या उससे अधिक हासिल करती है और कम से कम दो सीटों पर जीत दर्ज करती है तो उसे अपने राज्य के राजनीतिक दल के रूप में मान्यता मिल जाती है।
  • अगर कोई दल लोकसभा चुनाव में पड़े कुल वोट का अथवा चार राज्यों के विधान सभाई चुनाव में पड़े कुल वोटों का 6 प्रतिशत हासिल करता है और लोकसभा के चुनाव में कम से कम चार सीटों पर जीत दर्ज करता है तो उसे राष्ट्रीय दल की मान्यता मिलती है। देश के राष्ट्रीय दल निम्नलिखित हैं :
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: इसे आमतौर पर कांग्रेस पार्टी कहा जाता है और यह दुनिया के सबसे पुराने दलों में से एक है। 1885 में गठित इस दल में कई बार विभाजन हुए हैं। आज़ादी के बाद राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर अनेक दशकों तक इसने प्रमुख भूमिका निभाई है। जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में इस दल ने भारत को एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का प्रयास किया।
  • 1971 तक लगातार और फिर 1980 से 1989 तक इसने देश पर शासन किया। 1989 के बाद से इस दल के जन-समर्थन में कमी आई पर अभी यह पूरे देश और समाज के सभी वर्गों में अपना आधार बनाए हुए है।
  • अपने वैचारिक रुझान में मध्यमार्गी (न वामपंथी न दक्षिणपंथी ) इस दल ने धर्मनिरपेक्षता और कमज़ोर वर्गों तथा अल्पसंख्यक समुदायों के हितों को अपना मुख्य अजेंडा बनाया है।
  • यह दल नयी आर्थिक नीतियों का समर्थक है पर इस बात को लेकर भी सचेत है कि इन नीतियों का गरीब और कमज़ोर वर्गों पर बुरा असर न पड़े।
  • भारतीय जनता पार्टी : पुराने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित करके 1980 में यह पार्टी बनी। भारत की प्राचीन संस्कृति और मूल्यों से प्रेरणा लेकर मज़बूत और आधुनिक भारत बनाने का लक्ष्य; भारतीय राष्ट्रवाद और राजनीति की इसकी अवधारणा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (या हिंदुत्व ) एक प्रमुख तत्त्व है।
  • बहुजन समाज पार्टी : स्व. कांशीराम के नेतृत्व में 1984 में गठन। बहुजन समाज जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियाँ और धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं, के लिए राजनीतिक सत्ता पाने का प्रयास और उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा ।
  • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी - मार्क्सवादी (सीपीआई-एम ) : 1964 में स्थापित; मार्क्सवाद- लेनिनवाद में आस्था । समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की समर्थक तथा साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता की विरोधी । 
  • यह पार्टी भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय का लक्ष्य साधने में लोकतांत्रिक चुनावों के सहायक और उपयोगी मानती है। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में बहुत मज़बूत आधार । गरीबों, कारखाना मज़दूरों, खेतिहर मज़दूरों और बुद्धिजीवियों के बीच अच्छी पकड़। यह पार्टी देश में पूँजी और सामानों की मुक्त आवाजाही की अनुमति देने वाली नयी आर्थिक नीतियों की आलोचक है।
  • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में गठित। मार्क्सवाद-लेनिनवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र में आस्था । अलगाववादी और सांप्रदायिक ताकतों की विरोधी । यह पार्टी संसदीय लोकतंत्र को मज़दूर वर्ग, किसानों और गरीबों हित को आगे बढ़ाने का एक उपकरण मानती है।
  • 1964 की फूट (जिसमें माकपा इससे अलग हुई ) के बाद इसका जनाधार सिकुड़ता चला गया लेकिन केरल, पश्चिम बंगाल, पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अभी भी स्थिति ठीक है।
  • राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी : कांग्रेस पार्टी में विभाजन के बाद 1999 में यह पार्टी बनी। लोकतंत्र, गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता, समता, सामाजिक न्याय और संघवाद में आस्था ।
  • यह पार्टी सरकार के प्रमुख पदों को सिर्फ भारत में जन्में नागरिकों के लिए आरक्षित करना चाहती है। महाराष्ट्र में प्रमुख ताकत होने के साथ ही यह मेघालय, मणिपुर और असम में भी ताकतवर है ।
राष्ट्रीय राजनैतिक दल : 
भारत में कुल पंजीकृत दल 7 हैं जो निम्न प्रकार हैं
क्र राजनैतिक दल संक्षिप्त नाम प्रतीक स्थापना वर्ष
1. भारतीय जनता पार्टी BJP कमल 1980
2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस INC हाथ 1885
3. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी CPI (M) हसिया और हथौड़ा 1964
4. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी CPI बाली और हसिया 1925
5. बहुजन समाज पार्टी बसपा हाथी 1984
6. राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी NCP घड़ी 1999
7. तृणमूल कांग्रेस TMC फूल व घास 1998
8. नेशनल पीपुल्स पार्टी NPP किताब 2013

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतियाँ

  • आम जनता की नाराज़गी और आलोचना राजनीतिक दलों के कामकाज के चार पहलुओं पर ही केंद्रित रही है। लोकतंत्र का प्रभावी उपकरण बने रहने के लिए राजनीतिक दलों को इन चुनौतियों का सामना करना चाहिए और इन पर जीत हासिल करनी चाहिए।
  • पार्टियों के पास न सदस्यों की खुली सूची होती है, न नियमित रूप से सांगठनिक बैठकें होती हैं। इनके आंतरिक चुनाव भी नहीं होते। कार्यकर्ताओं से वे सूचनाओं का साझा भी नहीं करते ।
  • सामान्य कार्यकर्ता अनजान ही रहता है कि पार्टी के अंदर क्या चल रहा है। उसके पास न तो नेताओं से जुड़कर फ़ैसलों को प्रभावित करने की ताकत होती है न ही कोई और माध्यम ।
  • परिणामस्वरूप पार्टी के नाम पर सारे फैसले लेने का अधिकार उस पार्टी के नेता हथिया लेते हैं। चूँकि कुछेक नेताओं के पास ही असली ताकत होती है इसलिए जो उनसे असहमत होते हैं उनका पार्टी में टिके रह पाना मुश्किल हो जाता है। पार्टी के सिद्धांतों और नीतियों से निष्ठा की जगह नेता से निष्ठा ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन जाती है।
  • दूसरी चुनौती पहली चुनौती से ही जुड़ी है- यह है वंशवाद की चुनौती। चूँकि अधिकांश दल अपना कामकाज पारदर्शी तरीके से नहीं करते इसलिए सामान्य कार्यकर्ता के नेता बनने और ऊपर आने की गुंजाइश काफ़ी कम होती है। जो लोग नेता होते हैं वे अनुचित लाभ लेते हुए अपने नज़दीकी लोगों और यहाँ तक कि अपने ही परिवार के लोगों को आगे बढ़ाते हैं।
  • अनेक दलों में शीर्ष पद पर हमेशा एक ही परिवार के लोग आते हैं। यह दल के अन्य सदस्यों के साथ अन्याय है। यह बात लोकतंत्र के लिए भी अच्छी नहीं है क्योंकि इससे अनुभवहीन और बिना जनाधार वाले लोग ताकत वाले पदों पर पहुँच जाते हैं। यह प्रवृत्ति कुछ प्राचीन लोकतांत्रिक देशों सहित कमोबेश पूरी दुनिया में दिखाई देती है।
  • तीसरी चुनौती दलों में, (खासकर चुनाव के समय) पैसा और अपराधी तत्त्वों की बढ़ती घुसपैठ की है। चूँकि पार्टियों की सारी चिंता चुनाव जीतने की होती है अतः इसके लिए कोई भी जायज - नाजायज तरीका अपनाने से वे परहेज नहीं करतीं। वे ऐसे ही उम्मीदवार उतारती हैं जिनके पास काफ़ी पैसा हो या जो पैसे जुटा सकें।
  • किसी पार्टी को ज़्यादा धन देने वाली कंपनियाँ और अमीर लोग उस पार्टी की नीतियों और फ़ैसलों को भी प्रभावित करते हैं। कई बार पार्टियाँ चुनाव जीत सकने वाले अपराधियों का समर्थन करती हैं या उनकी मदद लेती हैं।
  • दुनिया भर में लोकतंत्र के समर्थक लोकतांत्रिक राजनीति में अमीर लोग और बड़ी कंपनियों की बढ़ती भूमिका को लेकर चिंतित हैं।
  • चौथी चुनौती पार्टियों के बीच विकल्पहीनता की स्थिति की है। सार्थक विकल्प का मतलब होता है कि विभिन्न पार्टियों की नीतियों और कार्यक्रमों में महत्त्वपूर्ण अंतर हो। हाल के वर्षों में दलों के बीच वैचारिक अंतर कम होता गया है और यह प्रवृत्ति दुनिया भर में दिखती है। जैसे, ब्रिटेन की लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के बीच अब बड़ा कम अंतर रह गया है।
  • दोनों दल बुनियादी मसलों पर सहमत हैं और उनके बीच बस ब्यौरों का रह गया है कि नीतियाँ कैसे बनाई जाएँ और उन्हें कैसे लागू किया जाए। देश में भी सभी बड़ी पार्टियों के बीच आर्थिक मसलों पर बड़ा कम अंतर रह गया है। 
  • जो लोग इससे अलग नीतियाँ चाहते हैं उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। कई बार लोगों के पास एकदम नया नेता चुनने का विकल्प भी नहीं होता क्योंकि वही थोड़े से नेता हर दल में आते-जाते रहते हैं ।
प्रांतीय दल
  • उपर्युक्त पार्टियों के अलावा अन्य सभी प्रमुख दलों को चुनाव आयोग ने 'प्रांतीय दल' के रूप में मान्यता दी है। आमतौर पर इन्हें क्षेत्रीय दल कहा जाता है पर यह जरूरी नहीं है कि अपनी विचारधारा या नजरिए में ये पार्टियों क्षेत्रीय ही हों। इनमें से कुछ अखिल भारतीय दल हैं पर उन्हें कुछ प्रांतों में ही सफलता मिल पाई है।
  • समाजवादी पार्टी, समता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संगठन है और इनकी कई राज्यों में इकाइयाँ हैं। बीजू जनता दल, सिक्किम लोकतांत्रिक मोर्चा और मिजो नेशनल फ्रंट जैसी पार्टियाँ अपनी क्षेत्रीय पहचान को लेकर सचेत हैं।
  • परिणामस्वरूप राष्ट्रीय दल प्रांतीय दलों के साथ गठबंधन करने को मजबूर हुए हैं। 1996 के बाद से लगभग प्रत्येक प्रांतीय दल को एक या दूसरी राष्ट्रीय स्तर की गठबंधन सरकार का हिस्सा बनने का अवसर मिला है।
(b) क्षेत्रीय राजनैतिक दल :
  • उपरोक्त राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के अलावा बहुत सारे क्षेत्रीय राजनैतिक दल भी हैं जिनका अलग अलग राज्यों में पूर्ण प्रभाव है, जिनमें से कुछ प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दल निम्न हैं।
राजनैतिक दलों का पंजीकरण:
  • भारत में राजनैतिक दलों को मान्यता देने का कार्य चुनाव आयोग करता है। चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 में की गयी थी। चुनाव आयोग ही राजनैतिक दलों को चुनाव चिन्ह आवंटित करता है।

दलों को कैसे सुधारा जा सकता है?

  • दुनिया भर के नागरिक इन सवालों को लेकर परेशान हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब आसान नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम फैसला राजनेता ही करते हैं जो विभिन्न राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोग उनको बदल सकते हैं पर उनकी जगह फिर नए नेता ही लेते हैं।
  • विधायकों और सांसदों को दल-बदल करने से रोकने के लिए संविधान में संशोधन किया गया। निर्वाचित प्रतिनिधियों के मंत्रीपद या पैसे के लोभ में दल-बदल करने में आई तेजी को देखते हुए ऐसा किया गया।
  • नए कानून के अनुसार अपना दल-बदलने वाले सांसद या विधायक को अपनी सीट भी गँवानी होगी। इस नए कानून से दल-बदल में कमी आई है पर इससे पार्टी में विरोध का कोई स्वर उठाना और भी मुश्किल हो गया है पार्टी नेतृत्व जो कोई फैसला करता है, सांसद और विधायक को उसे मानना ही होता है।
  • दल-बदल कानून 8वें लोकसभा चुनाव के बाद 24 जनवरी, 1985 को 52 वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिये लोकसभा में पेश किया था, यह 30 जनवरी को लोकसभा और 31 जनवरी को राज्य सभा में पारित हुआ और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद अधिनियम अस्तित्व में आया, संविधान की दसवीं अनुसूची को ही दल-बदल कानून के तौर पर जाना जाता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने पैसे और अपराधियों का प्रभाव कम करने के लिए एक आदेश जारी किया है। इस आदेश के द्वारा चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार को अपनी संपत्ति का और अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का ब्यौरा एक शपथपत्र के माध्यम से देना अनिवार्य कर दिया गया है।
  • इस नयी व्यवस्था से लोगों को अपने उम्मीदवारों के बारे में बहुत सी पक्की सूचनाएँ उपलब्ध होने लगी हैं, पर उम्मीदवार द्वारा दी गई सूचनाएँ सही हैं या नहीं, यह जाँच करने की कोई स्वस्था नहीं है।
  • चुनाव आयोग ने एक आदेश के जरिए सभी दलों के लिए सांगठनिक चुनाव कराना और आयकर का रिटर्न भरना जरूरी बना दिया है। दलों ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है, पर कई बार ऐसा सिर्फ दिखावा करने के लिए होता है।
  • यह बात अभी नहीं कही जा सकती कि इससे राजनीतिक दलों में अंदरूनी लोकतंत्र मज़बूत हुआ है। इनके अलावा राजनीतिक दलों में सुधार के लिए अक्सर कई कदम सुझाए जाते हैं:
  • राजनीतिक दलों के आंतरिक कामकाज को व्यवस्थित करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। सभी दल अपने सदस्यों की सूची रखें, अपने संविधान का पालन करें, पार्टी में विवाद की स्थिति में एक स्वतंत्र प्राधिकारी को पंच बनाएँ और सबसे बड़े पदों के लिए खुला चुनाव कराएँ - यह व्यवस्था अनिवार्य की जानी चाहिए।
  • राजनीतिक दल महिलाओं को एक खास न्यूनतम अनुपात में (करीब एक तिहाई) जरूर टिकट दें। इसी प्रकार दल के प्रमुख पदों पर भी औरतों के लिए आरक्षण होना चाहिए।
  • चुनाव का खर्च सरकार उठाए । सरकार दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन दे। यह मदद पेट्रोल, कागज़, फ़ोन वगैरह के रूप में भी हो सकती है या फिर पिछले चुनाव में मिले मतों के अनुपात में नकद पैसा दिया जा सकता है।
  • राजनीतिक दलों ने अभी तक इन सुझावों को नहीं माना है। अगर इन्हें मान लिया गया तो संभव है कि इनसे कुछ सुधार हो, लेकिन हर राजनीतिक समस्या के लिए महज़ कानूनी समाधान की बात करते हुए हमें सावधान रहना चाहिए ।
  • दलों को ज़रूरत से ज्यादा नियमों से जकड़ना नुकसानदेह भी हो सकता है। इससे सभी दल कानून को दरकिनार करने का तरीका ढूँढ़ने लगेंगे। इसके अलावा राजनीतिक दल खुद भी ऐसा कानून पास करने पर सहमत नहीं होंगे जिसे वे पसंद नहीं करते। दो और तरीके हैं जिनसे राजनीतिक दलों को सुधारा जा सकता है।
  • पहला तरीका है राजनीतिक दलों पर लोगों द्वारा दबाव बनाने का। यह काम चिट्ठियाँ लिखने, प्रचार करने और आंदोलनों के जरिये किया जा सकता है।
  • आम नागरिक दबाव समूह, आंदोलन और मीडिया के माध्यम से यह काम किया जा सकता है। अगर दलों को लगे कि सुधार न करने से उनका जनाधार गिरने लगेगा या उनकी छवि खराब होगी तो इसे लेकर वे गंभीर होने लगेंगे।
  • सुधार का दूसरा तरीका है सुधार की इच्छा रखने वालों का खुद राजनीतिक दलों में शामिल होना । लोकतंत्र की गुणवत्ता लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी से तय होती है। अगर आम नागरिक खुद राजनीति में हिस्सा न लें और बाहर से ही बातें करते रहें तो सुधार मुश्किल है।

समानताएँ, असमानताएँ और विभाजन

  • सामाजिक भेदभाव की उत्पत्ति सामाजिक विभाजन अधिकांशतः जन्म पर आधारित होता है। सामान्य तौर पर अपना समुदाय चुनना हमारे वश में नहीं होता। सिर्फ इस आधार पर किसी खास समुदाय के सदस्य हो जाते हैं कि हमारा जन्म उस समुदाय के एक परिवार में हुआ होता है।
  • जन्म पर आधारित सामाजिक विभाजन अपने आस-पास देखते हैं चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष, लंबा हो या छोटा-सबकी चमड़ी का रंग अलग-अलग है, उनकी शारीरिक क्षमताएँ या अक्षमताएँ अलग-अलग हैं।
  • सभी किस्म के सामाजिक विभाजन सिर्फ जन्म पर आधारित नहीं होते। कुछ चीजें हमारी पसंद या चुनाव के आधार पर भी तय होती हैं। कई लोग अपने माँ बाप और परिवार से अलग अपनी पसंद का भी धर्म चुन लेते हैं।
  • प्रत्येक सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती। सामाजिक विभिन्नताएँ लोगों के बीच बँटवारे का एक बड़ा कारण होती ज़रूर हैं लेकिन यही विभिन्नताएँ कई बार अलग-अलग तरह के लोगों के बीच पुल का काम भी करती हैं ।
सामाजिक विभाजनों की राजनीति
  • पहली नज़र में तो राजनीति और सामाजिक विभाजनों का मेल बहुत खतरनाक और विस्फोटक लगता है। लोकतंत्र में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच प्रतिद्वंद्विता का माहौल होता है। इस प्रतिद्वंद्विता के कारण कोई भी समाज फूट का शिकार बन सकता है।
  • अगर राजनीतिक दल समाज में मौजूद विभाजनों के हिसाब से राजनीतिक होड़ करने लगे तो इससे सामाजिक विभाजन राजनीतिक विभाजन में बदल सकता है और ऐसे में देश विखंडन की तरफ़ जा सकता है। ऐसा कई देशों में हो चुका है।

जाति, धर्म और लैंगिक मसल

लैंगिक मसले और राजनीति
  • लैंगिक असमानता को स्वाभाविक या कहें कि प्राकृतिक और अपरिवर्तनीय मान लिया जाता है लेकिन, लैंगिक असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की जैविक बनावट नहीं बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ हैं।
निजी और सार्वजनिक का विभाजन
  • लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता उनके मन में बैठा दी जाती है कि औरतों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने की है। यह चीज अधिकतर परिवारों के श्रम के लैंगिक विभाजन से झलकती है।
  • औरतें घर के अंदर का सारा काम काज, जैसे- खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना और बच्चों की देखरेख करना आदि करती हैं जबकि पुरुष घर के बाहर का काम करते हैं।
  • शहरों में भी कोई गरीब स्त्री किसी मध्यमवर्गीय परिवार में नौकरानी का काम कर रही है और मध्यमवर्गीय स्त्री काम करने के लिए दफ्तर जा रही है ।
  • सच्चाई यह है कि अधिकतर महिलाएँ अपने घरेलू काम के अतिरिक्त अपनी आमदनी के लिए कुछ न कुछ काम करती हैं लेकिन उनके काम को ज्यादा मूल्यवान नहीं माना जाता और उन्हें दिन रात काम करके भी उसका श्रेय नहीं मिलता।
  • श्रम के इस तरह के विभाजन का नतीजा यह हुआ है कि औरत तो घर की चारदीवारी में सिमट के रह गई है और बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्ज़े में आ गया है।
  • मनुष्य जाति की आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में, खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य ही है। यह बात अधिकतर समाजों पर लागू होती है।
  • दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में औरतों ने अपने संगठन बनाए और बराबरी के अधिकार हासिल करने के लिए आंदोलन किए । विभिन्न देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार प्रदान करने के लिए आंदोलन हुए।
  • इन आंदोलनों में महिलाओं के राजनीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने और उनके लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने की माँग की गई मूलगामी बदलाव की माँग करने वाले महिला आंदोलनों ने औरतों के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग उठाई। इन आंदोलनों को नारीवादी आंदोलन कहा जाता है।
  • लैंगिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति और इस सवाल पर राजनीतिक लामबंदी ने सार्वजनिक जीवन में औरत की भूमिका को बढ़ाने में मदद की।
  • आज वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे पेशों में बहुत सी औरतों को पाते हैं जबकि पहले इन कामों को महिलाओं के लायक नहीं माना जाता था। दुनिया के कुछ हिस्सों, जैसे स्वीडन, नार्वे और फिनलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफ़ी ऊँचा है।
  • हमारे देश में आज़ादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है पर वे अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव होते हैं, उनका दमन होता है-
  • महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 54 फीसदी है जबकि पुरुषों में 76 फीसदी । इसी प्रकार स्कूल पास करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती हैं।
  • भारत में औसतन एक स्त्री एक पुरुष इन महापुरुषों के प्रयासों और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के चलते आधुनिक भारत में जाति की संरचना और जाति व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। आर्थिक विकास, शहरीकरण, साक्षरता और शिक्षा के विकास, पेशा चुनने की आज़ादी और गाँवों में ज़मींदारी व्यवस्था के कमज़ोर पड़ने से जाति व्यवस्था के पुराने स्वरूप और वर्ण है। व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में बदलाव आ रहा है।
राजनीति में जाति
  • सांप्रदायिकता की तरह जातिवाद भी इस मान्यता पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है।
  • इस चिंतन पद्धति के अनुसार एक जाति के लोग एक स्वाभाविक सामाजिक समुदाय का निर्माण करते हैं और उनके हित एक जैसे होते हैं तथा दूसरी जाति के लोगों से उनके हितों का कोई मेल नहीं होता।
  • राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है - जब पार्टियाँ चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम तय करती हैं तो चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखती हैं ताकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी वोट मिल जाए। 
  • जब सरकार का गठन किया जाता है तो राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि उसमें विभिन्न जातियों और कबीलों के लोगों को उचित जगह दी जाए।
  • राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं। कुछ दलों को कुछ जातियों के मददगार और प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।
  • सार्वभौम वयस्क मताधिकार और एक व्यक्ति - एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने और लोगों को लामबंद करने के लिए सक्रिय हों। इससे उन जातियों के लोगों में नयी चेतना पैदा हुई जिन्हें अभी तक छोटा और नीच माना जाता था।
  • देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं है इसलिए हर पार्टी और उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए एक जाति और एक समुदाय से ज्यादा लोगों का भरोसा हासिल करना पड़ता है।
  • अगर किसी चुनाव क्षेत्र में एक जाति के लोगों का प्रभुत्व माना जा रहा हो तो अनेक पार्टियों को उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा करने से कोई रोक नहीं सकता।
  • ऐसे में कुछ मतदाताओं के सामने उनकी जाति के एक से ज्यादा उम्मीदवार होते हैं तो किसी-किसी जाति के मतदाताओं के सामने उनकी जाति का एक भी उम्मीदवार नहीं होता।
  • हमारे देश में सत्तारूढ़ दल, वर्तमान सांसदों और विधायकों को अक्सर हार का सामना करना पड़ता है। अगर जातियों और समुदायों की राजनीतिक पसंद एक ही होती तो ऐसा संभव नहीं हो पाता। मतदाता अपनी जातियों से जितना जुड़ाव रखते हैं अक्सर उससे ज्यादा गहरा जुड़ाव राजनीतिक दलों से रखते हैं। एक जाति या समुदाय के भीतर भी अमीर और गरीब लोगों के हित अलग-अलग होते हैं।
  • एक ही समुदाय के अमीर और गरीब लोग अक्सर अलग-अलग पार्टियों को वोट देते हैं। सरकार के कामकाज के बारे में लोगों की राय और नेताओं की लोकप्रियता का चुनावों पर अक्सर निर्णायक असर होता है।
  • जाति के अंदर राजनीति अभी तक हमने इसी चीज पर गौर किया है कि राजनीति में जाति की क्या भूमिका होती है। पर, इसका यह मतलब नहीं है कि जाति और राजनीति के बीच सिर्फ़ एकतरफ़ा संबंध होता है।
  • राजनीति भी जातियों को राजनीति के अखाड़े में लाकर जाति व्यवस्था और जातिगत पहचान को प्रभावित करती है। इस तरह, सिर्फ़ राजनीति ही जातिग्रस्त नहीं होती जाति भी राजनीतिग्रस्त हो जाती है। राजनीति में नए किस्म की जातिगत लामबंदी भी हुई हैं, जैसे 'अगड़ा' और 'पिछड़ा'। इस प्रकार जाति राजनीति में कई तरह की भूमिकाएँ निभाती है और एक तरह से यही चीजें दुनिया भर की राजनीति में चलती हैं। दुनिया भर में राजनीतिक पार्टियाँ वोट पाने के लिए सामाजिक समूहों और समुदायों को लामबंद करने का प्रयास करती हैं।
  • कुछ खास स्थितियों में राजनीति में जातिगत विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमज़ोर समुदायों के लिए अपनी बातें . आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुंजाइश भी पैदा करती हैं।
  • इस अर्थ में जातिगत राजनीति ने दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए सत्ता तक पहुँचने तथा निर्णय प्रक्रिया को बेहतर ढंग से प्रभावित करने की स्थिति भी पैदा की है।
जन-संघर्ष और आंदोलन
  • सत्ताधारी स्वच्छंद नहीं हैं। अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभाव और दबाव से वे मुक्त नहीं रह सकते । लोकतंत्र में अमूमन हितों और नज़रियों का टकराव चलते रहता है ।
  • हितों और नज़रियों के इस द्वंद्व की अभिव्यक्ति संगठित तरीके से होती है। जिनके पास सत्ता होती है उन्हें परस्पर विरोधी माँगों और दबावों में संतुलन बैठाना पड़ता है।
नेपाल में लोकतंत्र का आंदोलन
  • सन् 2006 के अप्रैल माह में नेपाल में एक विलक्षण जन-आंदोलन उठ खड़ा हुआ । नेपाल लोकतंत्र की 'तीसरी लहर' के देशों में एक है जहाँ लोकतंत्र 1990 के दशक में कायम हुआ।
  • नेपाल में राजा औपचारिक रूप से राज्य का प्रधान बना रहा लेकिन वास्तविक सत्ता का प्रयोग जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में था। आत्यंतिक राजतंत्र से संवैधानिक राजतंत्र के इस संक्रमण को राजा वीरेन्द्र ने स्वीकार कर लिया था। नेपाल के नए राजा ज्ञानेंद्र लोकतांत्रिक शासन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार की अलोकप्रियता और कमज़ोरी का उन्होंने फ़ायदा उठाया।
  • सन् 2005 की फ़रवरी में राजा ज्ञानेंद्र ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को अपदस्थ करके जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को भंग कर दिया। 2006 की अप्रैल में जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ उसका लक्ष्य शासन की बागडोर राजा के हाथ से लेकर दोबारा जनता के हाथों में सौंपना था।
  • संसद की सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने एक 'सेवेन पार्टी अलायंस' (सप्तदलीय गठबंधन - एस. पी.ए.) बनाया और नेपाल की राजधानी काठमांडू में चार दिन के 'बंद' का आह्वान किया।
  • संसद फिर बहाल हुई और इसने अपनी बैठक में कानून पारित किए। इन कानूनों के सहारे राजा की अधिकांश शक्तियाँ वापस ले ली गईं ।
  • नयी संविधान सभा के निर्वाचन के तौर-तरीकों पर एस. पी. ए. और माओवादियों के बीच सहमति बनी। इस संघर्ष को नेपाल का 'लोकतंत्र के लिए दूसरा आंदोलन' कहा गया । नेपाल के लोगों का यह संघर्ष पूरे विश्व के लोकतंत्र - प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
बोलिविया का जल युद्ध
  • नेपाल अथवा पोलैंड की कथाएँ लोकतंत्र की स्थापना अथवा उसके पुनरुद्धार की बातें बताती हैं। लेकिन, जन-संघर्ष की भूमिका लोकतंत्र की स्थापना के साथ खत्म नहीं हो जाती ।
  • बोलिविया में लोगों ने पानी के निजीकरण के खिलाफ़ एक सफल संघर्ष चलाया। इससे पता चलता है कि लोकतंत्र की जीवंतता से जन-संघर्ष का अंदरूनी रिश्ता है।
  • बोलिविया लातिनी अमरीका का एक गरीब देश है। विश्व बैंक ने यहाँ की सरकार पर नगरपालिका द्वारा की जा रही जलापूर्ति से अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए दबाव डाला।
  • सरकार ने कोचबंबा शहर में जलापूर्ति के अधिकार एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेच दिए। इस कंपनी ने आनन-फानन में पानी की कीमत में चार गुना इज़ाफ़ा कर दिया।
  • सन् 2000 की जनवरी में श्रमिकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा सामुदायिक नेताओं के बीच एक गठबंधन ने आकार ग्रहण किया और इस गठबंधन ने शहर में चार दिनों की कामयाब आम हड़ताल की।
  • सरकार बातचीत के लिए राजी हुई और हड़ताल वापस ले ली गई। फिर भी, कुछ हाथ नहीं लगा। फ़रवरी में फिर आंदोलन शुरू हुआ लेकिन इस बार पुलिस ने बर्बरतापूर्वक दमन किया। अप्रैल में एक और हड़ताल हुई और सरकार ने 'मार्शल लॉ' लगा दिया।
  • जनता की ताकत के आगे बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारियों को शहर छोड़कर भागना पड़ा। सरकार को आंदोलनकारियों की सारी माँगें माननी पड़ी।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ किया गया करार रद्द कर दिया गया और जलापूर्ति दोबारा नगरपालिका को सौंपकर पुरानी दरें कायम कर दी गईं। इस आंदोलन को 'बोलिविया के जलयुद्ध' के नाम से जाना गया।
लोकतंत्र और जन-संघर्ष
  • नेपाल में चले आंदोलन का लक्ष्य लोकतंत्र को स्थापित करना था जबकि बोलिविया के जन-संघर्ष में एक निर्वाचित और लोकतांत्रिक सरकार को जनता की माँग मानने के लिए बाध्य किया गया। बोलिविया का जन-संघर्ष सरकार की एक विशेष नीति के खिलाफ़ था जबकि नेपाल में चले आंदोलन ने यह तय किया कि देश की राजनीति की नींव क्या होगी। ये दोनों ही संघर्ष सफल रहे लेकिन इनके प्रभाव के स्तर अलग-अलग थे।
  • इन अंतरों के बावजूद दोनों ही कथाओं कुछ ऐसी बातें हैं जो लोकतंत्र के अतीत और भविष्य के लिए प्रासंगिक हैं। ये दो कथाएँ राजनीतिक संघर्ष का उदाहरण हैं।
  • जन- समर्थन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति ने विवाद को उसके परिणाम तक पहुँचाया। इसके साथ-साथ हम यह भी देखते हैं कि दोनों ही घटनाओं में राजनीतिक संगठनों की भूमिका निर्णायक रही। पूरे विश्व में लोकतंत्र का विकास ऐसे ही हुआ है।
  • लोकतंत्र का जन-संघर्ष के जरिए विकास होता है। यह भी संभव है कि कुछ महत्वपूर्ण फैसले आम सहमति से हो जाएँ और ऐसे फ़ैसलों के पीछे किसी तरह का संघर्ष न हो। फिर भी, इसे अपवाद ही कहा जाएगा। लोकतंत्र की निर्णायक घड़ी अमूमन वही होती है जब सत्ताधारियों और सत्ता में हिस्सेदारी चाहने वालों के बीच संघर्ष होता है। लोकतांत्रिक संघर्ष का समाधान जनता की व्यापक लामबंदी के जरिए होता है।
  • कभी-कभी इस संघर्ष का समाधान मौजूदा संस्थाओं मसलन संसद अथवा न्यायपालिका के जरिए हो जाय। लेकिन, जब विवाद ज़्यादा गहन होता है तो ये संस्थाएँ स्वयं उस विवाद का हिस्सा बन जाती है। ऐसे में समाधान इन संस्थाओं के जरिए नहीं बल्कि उनके बाहर यानी जनता के माध्यम से होता है ।
  • ऐसे संघर्ष और लामबंदियों का आधार राजनीतिक संगठन होते हैं। यह बात सच है कि ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं में स्वतः स्फूर्त होने का भाव भी कहीं न कहीं ज़रूर मौजूद होता है लेकिन जनता की स्वतःस्फूर्त सार्वजनिक भागीदारी संगठित राजनीति के ज़रिए कारगर हो पाती है।
  • संगठित राजनीति के कई माध्यम हो सकते हैं। ऐसे माध्यमों में राजनीतिक दल, दबाव-समूह और आंदोलनकारी समूह शामिल हैं।
दबावव-समूह और आंदोलन
  • बतौर संगठन दबाव-समूह सरकार की नीतियों को प्रभावित करने करते हैं। लेकिन, राजनीतिक पार्टियों के समान की कोशिश दबाव समूह का लक्ष्य सत्ता पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करने अथवा उसमें हिस्सेदारी करने का नहीं होता।
  • दबाव-समूह का निर्माण तब होता है जब समान पेशे, हित, आकांक्षा अथवा मत के लोग एक समान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकजुट होते हैं। नेपाल में हुए जन-संघर्ष को 'लोकतंत्र के लिए दूसरा आंदोलन' कहा गया था।
  • हम अक्सर कई तरह की सामूहिक कार्रवाइयों के लिए जन-आंदोलन जैसा शब्द व्यवहार होता सुनते हैं, जैसे-नर्मदा बचाओ आंदोलन, सूचना के अधिकार का आंदोलन, शराब-विरोधी आंदोलन, महिला आंदोलन तथा पर्यावरण आंदोलन।
  • दबाव-समूह के समान आंदोलन भी चुनावी मुकाबले में सीधे भागीदारी करने के बजाय राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन, दबाव-समूहों के विपरीत आंदोलनों में संगठन ढीला-ढाला होता है।
  • आंदोलनों में फ़ैसले अनौपचारिक ढंग से लिए जाते हैं और ये फ़ैसले लचीले भी होते हैं। आंदोलन जनता की स्वतःस्फूर्त भागीदारी पर निर्भर होते हैं न कि दबाव-समूह पर ।
वर्ग विशेष के हित-समूह और जन-सामान्य के हित-समूह
  • हित-समूह अमूमन समाज के किसी ख़ास हिस्से अथवा समूह के हितों को बढ़ावा देना चाहते हैं। 
  • मज़दूर संगठन, व्यावसायिक संघ और पेशेवरों (वकील, डॉक्टर, शिक्षक आदि) के निकाय इस तरह के दबाव समूह के उदाहरण हैं। ये दबाव-समूह वर्ग - विशेषी होते हैं क्योंकि ये समाज के किसी खास तबके मसलन मज़दूर, कर्मचारी, व्यवसायी, उद्योगपति, धर्म-विशेष के अनुयायी अथवा किसी खास जाति आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे दबाव समूह का मुख्य सरोकार पूरे समाज का नहीं बल्कि अपने सदस्यों की बेहतरी और कल्याण करना होता है।
  • कुछ संगठन समाज के किसी एक तबके के ही हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। ये संगठन सर्व सामान्य हितों की नुमाइंदगी करते हैं जिनकी रक्षा ज़रूरी होती है ।
  • संभव है, ऐसा संगठन जिस उद्देश्य को पाना चाहता हो उससे इसके सदस्यों को कोई लाभ न हो। बोलिविया का 'फेडेकोर' (FEDECOR) नाम का संगठन ऐसे ही संगठन का उदाहरण है। नेपाल के मामले में हमने देखा कि वहाँ मानवाधिकार के संगठनों ने भी भागीदारी की थी।
  • इन दूसरे किस्म के संगठनों को जन-सामान्य के हित- समूह अथवा लोक कल्याणकारी समूह कहते हैं। ऐसे संगठन किसी खास हित के बजाय सामूहिक हित का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • कुछ मामलों में संभव है कि जन-सामान्य के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह ऐसे उद्देश्य को साधने के लिए आगे आएँ जिससे बाकियों के साथ-साथ उन्हें भी फायदा होता हो । उदाहरण के लिए ‘बामसेफ' (बैकवर्ड एंड मायनॉरिटी कम्युनिटी एम्पलाइज फेडरेशन-BAMCEF) का नाम लिया जा सकता है। यह मुख्यतया सरकारी कर्मचारियों का सगं ठन है जो जातिगत भदे भाव के खिलाफ अभियान चलाता है।
  • यह संगठन जातिगत भेदभाव के शिकार अपने सदस्यों की समस्याओं को देखता है लेकिन इसका मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय और पूरे समाज के लिए सामाजिक समानता को हासिल करना है।
आंदोलनकारी समूह
  • दबाव-समूह के समान किसी आंदोलन में कई तरह के समूह शामिल रहते हैं। जिससे इनकी एक साधारण विशेषता का संकेत मिलता है। अधिकतर आंदोलन किसी खास मुद्दे पर केंद्रित होते हैं।
  • ऐसे आंदोलन एक सीमित समय-सीमा के भीतर किसी एक लक्ष्य को पाना चाहते हैं। कुछ आंदोलन ज्यादा सार्वभौम प्रकृति के होते हैं और एक व्यापक लक्ष्य को बहुत बड़ी समयावधि में हासिल करना चाहते हैं।
  • नेपाल में उठे लोकतंत्र के आंदोलन का विशिष्ट उद्देश्य था राजा को अपने आदेशों को वापस लेने के लिए बाध्य करना। इन आदेशों के द्वारा राजा ने लोकतंत्र को समाप्त कर दिया था।
  • भारत में नर्मदा बचाओ आंदोलन ऐसे आंदोलन का अच्छा उदाहरण है। नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे सरदार सरोवर बाँध के कारण लोग विस्थापित हुए।
  • यह आंदोलन इसी खास मुद्दे को लेकर शुरू हुआ। इसका उद्देश्य बाँध को बनने से रोकना था। धीरे-धीरे इस आंदोलन ने व्यापक रूप धारण किया। इसने सभी बड़े बाँधों और विकास के उस मॉडल पर सवाल उठाए जिसमें बड़े बाँधों को अनिवार्य साबित किया जाता है। ऐसे आंदोलनों में नेतृत्व बड़ा स्पष्ट होता है और उनका संगठन भी होता है लेकिन ऐसे आंदोलन बहुत थोड़े समय तक ही सक्रिय रह पाते हैं।
  • किसी एक मुद्दे पर आधारित ऐसे आंदोलनों के बरक्स उन आंदोलनों को रखा जा सकता है जो लंबे समय तक चलते हैं और जिनमें एक से ज़्यादा मुद्दे होते हैं। पर्यावरण के आंदोलन तथा महिला आंदोलन ठेठ ऐसे ही आंदोलनों की मिसाल हैं। 
  • ऐसे आंदोलनों के नियंत्रण अथवा दिशा-निर्देश के लिए कोई एक संगठन नहीं होता। पर्यावरण आंदोलन के अंतर्गत अनेक संगठन तथा खास-खास मुद्दे पर आधारित आंदोलन शामिल हैं।
  • इनके सबके संगठन अलग-अलग हैं नेतृत्व भी अलहदा है और नीतिगत मामलों पर अक्सर इनकी राय अलग-अलग होती है। इसके बावजूद एक व्यापक उद्देश्य के ये साझीदार हैं और इनका दृष्टिकोण एक जैसा है। इसी वजह से इन्हें एक आंदोलन यानी पर्यावरण आंदोलन का नाम दिया जाता है।
  • कभी-कभी ऐसे व्यापक आंदोलनों का एक ढीला-ढाला सा सर्व-समावेशी संगठन होता है। मिसाल के लिए नेशनल अलायंस फॉर पीपल्स मूवमेंट (NAPM) ऐसा ही संगठनों का संगठन है।
  • विभिन्न मुद्दों पर संघर्ष कर रहे अनेक आंदोलनकारी समूह इस संगठन के घटक हैं। यह संगठन अपने देश में अनेक जनांदोलनों की गतिविधियों में तालमेल बैठाने का काम करता है।
  • दबाव-समूह और आंदोलन राजनीति पर कई तरह से असर डालते हैं: दबाव-समूह और आंदोलन अपने लक्ष्य तथा गतिविधियों के लिए जनता का समर्थन और सहानुभूति हासिल करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए सूचना अभियान चलाना, बैठक आयोजित करना अथवा अर्जी दायर करने जैसे तरीकों का सहारा लिया जाता है।
  • ऐसे अधिकतर समूह मीडिया को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं ताकि उनके मसलों पर मीडिया ज्यादा ध्यान दे।
  • ऐसे समूह अक्सर हड़ताल अथवा सरकारी कामकाज में बाधा पहुँचाने जैसे उपायों का सहारा लेते हैं। मज़दूर संगठन, कर्मचारी संघ तथा अधिकतर आंदोलनकारी समूह अक्सर ऐसी युक्तियों का इस्तेमाल करते हैं कि सरकार उनकी माँगों की तरफ ध्यान देने के लिए बाध्य हो।
  • व्यवसाय - समूह अक्सर पेशेवर 'लॉबिस्ट' नियुक्त करते हैं अथवा महँगे विज्ञापनों को प्रायोजित करते हैं। दबाव-समूह अथवा आंदोलनकारी समूह के कुछ व्यक्ति सरकार को सलाह देने वाली समितियों और आधिकारिक निकायों में शिरकत कर सकते हैं।
  • हालाँकि दबाव-समूह और आंदोलन दलीय राजनीति में सीधे भाग नहीं लेते लेकिन वे राजनीतिक दलों पर असर डालना चाहते हैं।
  • अधिकतर आंदोलन किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं होते लेकिन उनका एक राजनीतिक पक्ष होता है। आंदोलनों की राजनीतिक विचारधारा होती है और बड़े मुद्दों पर उनका राजनीतिक पक्ष होता है। राजनीतिक दल और दबाव-समूह के बीच का रिश्ता कई रूप धारण कर सकता है जिसमें कुछ प्रत्यक्ष होते हैं तो कुछ अप्रत्यक्ष।
  • कुछ मामलों में दबाव-समूह राजनीतिक दलों द्वारा ही बनाए गए होते हैं अथवा उनका नेतृत्व राजनीतिक दल के नेता करते हैं। कुछ दबाव-समूह राजनीतिक दल की एक शाखा के रूप में काम करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के अधिकतर मज़दूर संगठन और छात्र संगठन या तो बड़े राजनीतिक दलों द्वारा बनाए गए हैं अथवा उनकी संबद्धता राजनीतिक दलों से है।
  • ऐसे दबाव-समूहों के अधिकतर नेता अमूमन किसी न किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता और नेता होते हैं। कभी-कभी आंदोलन राजनीतिक दल का रूप अख्तियार कर लेते हैं। उदाहरण के लिए 'विदेशी' लोगों के विरुद्ध छात्रों ने 'असम आंदोलन' चलाया और जब इस आंदोलन की समाप्ति हुई तो इस आंदोलन ने 'असम गण परिषद्' का रूप ले लिया।
  • सन् 1930 और 1940 के दशक में तमिलनाडु में समाज-सुधार आंदोलन चले थे। अधिकांशतया दबाव-समूह और आंदोलन का राजनीतिक दलों से प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। दोनों परस्पर विरोधी पक्ष लेते हैं। फिर भी, इनके बीच संवाद कायम रहता है और सुलह की बातचीत चलती रहती है।
  • आंदोलनकारी समूहों ने नए-नए मुद्दे उठाए हैं और राजनीतिक दलों ने इन मुद्दों को आगे बढ़ाया है। राजनीतिक दलों के अधिकतर नए नेता दबाव-समूह अथवा आंदोलनकारी समूहों से आते हैं।
क्या दबाव-समूह और आंदोलन के प्रभाव सकारात्मक हैं?
  • शुरुआती तौर पर लग सकता है कि किसी एक ही तबके के हितों की नुमाइंदगी करने वाले दबाव-समूह लोकतंत्र के लिए हितकर नहीं हैं। लोकतंत्र में किसी एक तबके के नहीं बल्कि सबके हितों की रक्षा होनी चाहिए।
  • यह भी लग सकता है कि ऐसे समूह सत्ता का इस्तेमाल तो करना चाहते हैं लेकिन ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं। राजनीतिक दलों को चुनाव के समय जनता का सामना करना पड़ता है लेकिन ये समूह जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होते।
  • संभव है कि दबाव-समूहों और आंदोलनों को जनता से समर्थन अथवा धन न मिले। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि दबाव-समूहों को बहुत कम लोगों का समर्थन प्राप्त हो लेकिन उनके पास धन ज़्यादा हो और इसके बूते अपने संकुचित एजेंडे पर वे सार्वजनिक बहस का रुख मोड़ने में सफल हो जाएँ।
  • लेकिन थोड़ा संतुलित नज़रिया अपनाएँ तो स्पष्ट होगा कि दबाव-समूहों और आंदोलनों के कारण लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत हुई हैं। शासकों के ऊपर दबाव डालना लोकतंत्र में कोई अहितकर गतिविधि नहीं बशर्ते इसका अवसर सबको प्राप्त हो ।
  • सरकारें अक्सर थोड़े से धनी और ताकतवर लोगों के अनुचित दबाव में आ जाती हैं। जन-साधारण के हित-समूह तथा आंदोलन 
  • इस अनुचित दबाव के प्रतिकार में उपयोगी भूमिका निभाते हैं और आम नागरिक की ज़रूरतों तथा सरोकारों से सरकार को अवगत कराते हैं। वर्ग - विशेषी हित-समूह भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब विभिन्न समूह सक्रिय हों तो कोई एक समूह समाज के ऊपर प्रभुत्व कायम नहीं कर सकता।
  • यदि कोई एक समूह सरकार के ऊपर अपने हित में नीति बनाने के लिए दबाव डालता है तो दूसरा समूह इसके प्रतिकार में दबाव डालेगा कि नीतियाँ उस तरह से न बनाई जाएँ ।
  • सरकार को भी ऐसे में पता चलता रहता है कि समाज के विभिन्न तबके क्या चाहते हैं। इससे परस्पर विरोधी हितों के बीच सामंजस्य बैठाना तथा शक्ति संतुलन करना संभव होता है।
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Wed, 29 Nov 2023 09:05:21 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | सत्ता की साझेदारी https://m.jaankarirakho.com/503 https://m.jaankarirakho.com/503 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | सत्ता की साझेदारी
  • सत्ता के बँटवारे के पक्ष में दो तरह के तर्क दिए जा सकते हैं। पहला, सत्ता का बँटवारा ठीक है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा कम हो जाता है।
  • सामाजिक टकराव आगे बढ़कर अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है।
  • बहुसंख्यकों का आतंक सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही परेशानी पैदा नहीं करता अक्सर यह बहुसंख्यकों के लिए भी बर्बादी का कारण बन जाता है।
  • सत्ता का बँटवारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक है - इसके पक्ष में एक और बात कही जा सकती है सत्ता की साझेदारी दरअसल लोकतंत्र की आत्मा है।
  • लोकतंत्र का मतलब ही होता है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत हैं उनके बीच सत्ता को बाँटा जाए। इसलिए, वैध सरकार वही है जिसमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन व्यवस्था से जुड़ते हैं।
सत्ता की साझेदारी के रूप
  • राजनीतिक सत्ता का बँटवारा नहीं किया जा सकता- इसी धारणा के विरुद्ध सत्ता की साझेदारी का विचार सामने आया था। लंबे समय से यही मान्यता चली आ रही थी कि सरकार की सारी शक्तियाँ एक व्यक्ति या किसी खास स्थान पर रहने वाले व्यक्ति समूह के हाथ में रहनी चाहिए।
  • यदि फ़ैसले लेने की शक्ति बिखर गई तो तुरंत फ़ैसले लेना और उन्हें लागू करना संभव नहीं होगा, लेकिन, लोकतंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत है कि जनता ही सारी राजनीतिक शक्ति का स्रोत है। इसमें लोग स्व-शासन की संस्थाओं के माध्यम से अपना शासन चलाते हैं ।
  • एक अच्छे लोकतांत्रिक शासन में समाज के विभिन्न समूहों और उनके विचारों को उचित सम्मान दिया जाता है, और सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में सबकी बातें शामिल होती हैं, इसलिए उसी नाकतांत्रिक शासन को अच्छा माना जाता है जिसमें ज़्यादा से ज्यादा नागरिकों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदार बनाया जाए।
  • सत्ता की साझेदारी के रूप आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं।
1. शासन के विभिन्न अंग
  • शासन के विभिन्न अंग जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का बँटवारा रहता है। इसे हम • सत्ता का क्षैतिज वितरण कहेंगे क्योंकि इसमें सरकार के विभिन्न अंग एक ही स्तर पर रहकर अपनी-अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं।
  • ऐसे बँटवारे से यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी एक अंग सत्ता का असीमित उपयोग नहीं कर सकता। हर अंग दूसरे पर अंकुश रखता है। इससे विभिन्न संस्थाओं के बीच सत्ता का संतुलन बनता है।
  • हमारे देश में कार्यपालिका सत्ता का उपयोग करती ज़रूर है पर यह संसद के अधीन कार्य करती है; न्यायपालिका की नियुक्ति कार्यपालिका करती है पर न्यायपालिका ही कार्यपालिका पर और विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर अंकुश रखती है। इस व्यवस्था को 'नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था' भी कहते हैं।
2. सरकार के बीच भी विभिन्न स्तरों पर सत्ता का बँटवारा
  • पूरे देश के लिए एक सामान्य सरकार हो और फिर प्रांत या क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग सरकार रहे। ऐसी सामान्य सरकार को अक्सर संघ या केंद्र सरकार कहते हैं, प्रांतीय या क्षेत्रीय स्तर की सरकारों को हर जगह अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।
  • कई देशों में प्रांतीय या क्षेत्रीय सरकारें नहीं हैं। लेकिन हमारी तरह, जिन देशों में ऐसी व्यवस्था है, वहाँ के संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा किस तरह होगा।
  • राज्य सरकारों से नीचे के स्तर की सरकारों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था हो सकती है। नगरपालिका और पंचायतें ऐसी ही इकाइयाँ हैं। उच्चतर और निम्नतर स्तर की सरकारों के बीच सत्ता के ऐसे बँटवारे को उर्ध्वाधर वितरण कहा जाता है।
3. सत्ता का बँटवारा
  • सत्ता का बँटवारा विभिन्न सामाजिक समूहों मसलन भाषायी और धार्मिक समूहों के बीच भी हो सकता है। कुछ देशों के संविधान और कानून में इस बात का प्रावधान है कि सामाजिक रूप से कमज़ोर समुदाय और महिलाओं को विधायिका और प्रशासन में हिस्सेदारी दी जाए।
  • प्रचलित आरक्षित चुनाव क्षेत्र वाली व्यवस्था विधायिका और प्रशासन में अलग-अलग सामाजिक समूहों को हिस्सेदारी देने के लिए की जाती है ताकि लोग खुद को शासन से अलग न समझने लगें। अल्पसंख्यक समुदायों को भी इसी तरीके से सत्ता में उचित हिस्सेदारी दी जाती है।
4. दबाव समूह
  • सत्ता के बँटवारे का एक रूप हम विभिन्न प्रकार के दबाव-समूह और आंदोलनों द्वारा शासन को प्रभावित और नियंत्रित करने के तरीके में भी लक्ष्य कर सकते हैं। लोकतंत्र में लोगों के सामने सत्ता के दावेदारों के बीच चुनाव का विकल्प ज़रूर रहना चाहिए।
  • समकालीन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह विकल्प विभिन्न पार्टियों के रूप में उपलब्ध होता है। पार्टियाँ सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं।
  • पार्टियों की यह आपसी प्रतिद्वंद्विता ही इस बात को सुनिश्चित कर देती है कि सत्ता एक व्यक्ति या समूह के हाथ में न रहे।
  • सरकार की विभिन्न समितियों में सीधी भागीदारी करके या नीतियों पर अपने सदस्य-वर्ग के लाभ के लिए दबाव बनाकर ये समूह भी सत्ता में भागीदारी करते हैं।
संघवाद का अर्थ
  • एकाग्रता और शक्तियों के वितरण के आधार पर हम प्रकार की सरकार पाते हैं - सरकार का एकात्मक तथा संघात्मक स्वरूप। सरकार का संघीय स्वरूप एक आधुनिक खोज है जो अमेरिकी संविधान के प्रादुर्भाव से अस्तित्व में आया। तथापि फेडरेशन शब्द लैटिन भाषा के 'फोएडस' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है 'संधि या समझौता'।
  • सामान्यतः एक संघीय सरकार दो प्रकार से उत्पन्न होती है। यह अभिकेंद्री या अपकेंद्री ताकतों के कारण हो सकता है।
  • जब कुछ स्वतंत्र राज्य अपनी भौतिक तथा आर्थिक कमजोरी के कारण एकजुटता पर सहमति जताते हैं तब वे सामान्य संप्रभुता को मानते हुए एक संघ का निर्माण करते हैं।
  • भारत सरकार अधिनियम 1935 अपकेंद्री शक्तियों के माध्यम से संघवाद की व्यवस्था करता है। भारतीय संविधान का स्वरूप एकात्मक लक्षणों के साथ संघात्मक है।
  • अमेरिका, स्विस तथा ऑस्ट्रेलियाई संघ का निर्माण इसी प्रकार से हुआ है। लेकिन यह प्रक्रिया अपकेंद्री कहलाती है जब कोई एकात्मक राज्य संघ राज्य में परिवर्तित होता है। कनाडा जो मूल रूप से एकात्मक राज्य था टूटकर संघ राज्य के रूप में पुनर्गठित हुआ।
  • शक्तियों के प्रादेशिक विभाजन के आधार पर हम राज्यों को दो प्रकार से बांटते हैं- संघीय राज्य तथा एकात्मक राज्य |
  • संघीय राज्य में शक्तियों का बंटवारा केंद्र तथा राज्य इकाईयों के बीच होता है। संघीय सरकार का मुख्य लाभ यह है कि यह छोटे राज्यों को बड़े तथा शक्तिशाली राज्यों के साथ एकजुट होने तथा उससे फायदा उठाने के योग्य बनाता है।
  • संघीय सरकार क्षेत्रीय स्वायत्तता का राष्ट्रीय एकता के साथ मिलाप कराती है। यहां दोनों चीजें एक साथ कार्य करती हैं।
  • संघवाद क्षेत्रीय स्वायत्तता को बरकरार रखता है। दूसरे यह राष्ट्रीय एकता भी प्रदान करता है। शासन सरकार के इस स्वरूप में शक्तियों का बंटवारा संभव है।
  • राष्ट्रीय हितों के मामले जैसे कि रक्षा, विदेश, संचार, आयकर, रेलवे आदि केंद्र सरकार को तथापि क्षेत्रीय महत्त्व के मामले जैसे कि भू-राजस्व, पुलिस, जेल, स्थानीय स्वशासी निकाय आदि राज्य इकाईयों को सौंपे जाते हैं। यह व्यवस्था संपूर्ण देश कानून नीति तथा प्रशासन को एकरूपता प्रदान करती है ।
  • यह व्यवस्था छोटे राज्यों के लिए अधिक लाभप्रद है क्योंकि वे अपनी स्वतंत्र रूप से रक्षा करने तथा अन्य राज्यों से स्वतंत्र राजनयिक संबंध बनाने में सक्षम नहीं होते हैं ।
  • संघवाद राज्य स्तर पर उपयोग की व्यवस्था करता है। संघवाद कुशलता प्रदान करता है। इसमें केंद्र तथा राज्य अपने-अपने निश्चित क्षेत्र या विषयों में कार्य करते हैं तथा एकात्मक राज्यों की तरह केंद्र सरकार अधिक बोझिल नहीं होती है।
  • जहां धर्म, भाषा तथा नस्ल की विविधता विद्यमान होती है। वहां शासन का संघीय रूप ही उपयुक्त होता है । इकाईयों को हम राज्यों या केंटोन आदि के रूप में जानते हैं।
  • शास्त्रीय सिद्धांत का अनुभव ऐसा माध्यम है जो व्यापक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की राजनीतियों को इस प्रकार एकजुट करता है जिससे वे अपनी मौलिक राजनीतिक अखंडता बनाए रख सकें।

संघवाद

  • संघीय व्यवस्था में दो स्तर पर सरकारें होती हैं। इसमें एक सरकार पूरे देश के लिए होती है जिसके जिम्मे राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं। फिर, राज्य या प्रांतों के स्तर की सरकारें होती हैं जो शासन के दैनंदिन कामकाज को देखती हैं।
  • सत्ता के इन दोनों स्तर की सरकारें अपने-अपने स्तर पर स्वतंत्र होकर अपना काम करती हैं। इस अर्थ में संघीय शासन व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था से ठीक उलट है।
  • एकात्मक व्यवस्था में शासन का एक ही स्तर होता है और बाकी इकाइयाँ उसके अधीन होकर काम करती हैं। इसमें केंद्रीय सरकार प्रांतीय या स्थानीय सरकारों को आदेश दे सकती है।
  • संघीय व्यवस्था में केंद्रीय सरकार राज्य सरकार को कुछ खास करने का आदेश नहीं दे सकती। राज्य सरकारों के पास अपनी शक्तियाँ होती हैं और इसके लिए वह केंद्रीय सरकार को जवाबदेह नहीं होती हैं। ये दोनों ही सरकारें अपने-अपने स्तर पर लोगों को जवाबदेह होती हैं। संघीय व्यवस्था की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं:-
    1. यहाँ सरकार दो या अधिक स्तरों वाली होती है।
    2. अलग-अलग स्तर की सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं पर कानून बनाने, कर वसूलने और प्रशासन का उनका अपना-अपना अधिकार क्षेत्र होता है ।
    3. विभिन्न स्तरों की सरकारों के अधिकार क्षेत्र संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित होते हैं इसलिए संविधान सरकार के हर स्तर के अस्तित्व और प्राधिकार की गारंटी और सुरक्षा देता है।
    4. संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। ऐसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं।
    5. अदालतों को संविधान और विभिन्न स्तर की सरकारों के अधिकारों की व्याख्या करने का अधिकार है। विभिन्न स्तर की सरकारों के बीच अधिकारों के विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय निर्णायक की भूमिका निभाता है।
    6. वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित हैं।
    7. इस प्रकार संघीय शासन व्यवस्था के दोहरे उद्देश्य हैं : देश की एकता की सुरक्षा करना और उसे बढ़ावा देना तथा इसके साथ ही क्षेत्रीय विविधताओं का पूरा सम्मान करना। इस कारण संघीय व्यवस्था के गठन और कामकाज के लिए दो चीजें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। विभिन्न स्तरों की सरकारों के बीच सत्ता के बँटवारे के नियमों पर सहमति होनी चाहिए और इनका एक-दूसरे पर भरोसा होना चाहिए कि वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों को मानेंगे। आदर्श संघीय व्यवस्था में ये दोनों पक्ष होते हैं: आपसी भरोसा और साथ रहने पर सहमति ।
  • केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बँटवारा हर संघीय सरकार में अलग-अलग किस्म का होता है। यह बात इस चीज़ निर्भर करती है कि संघ की स्थापना किन ऐतिहासिक संदर्भों में हुई।
  • संघीय शासन व्यवस्थाएँ आमतौर पर दो तरीकों से गठित होती हैं। पहला तरीका है दो या अधिक स्वतंत्र राष्ट्रों को साथ लाकर एक बड़ी इकाई गठित करने का।
  • दोनों स्वतंत्र राष्ट्र अपनी संप्रभुता को साथ करते हैं, अपनी अलग-अलग पहचान को भी बनाए रखते हैं और अपनी सुरक्षा तथा खुशहाली बढ़ाने का रास्ता अख्तियार करते हैं। साथ आकर संघ बनाने के उदाहरण हैं- संयुक्त राज्य अमेरिका, स्विट्जरलैंड और ऑस्ट्रेलिया आदि।
  • संघीय शासन व्यवस्था के गठन का दूसरा तरीका है बड़े देश द्वारा अपनी आंतरिक विविधता को ध्यान में रखते हुए राज्यों का गठन करना और फिर राज्य और राष्ट्रीय सरकार के बीच सत्ता का बँटवारा कर देना। भारत, बेल्जियम और स्पेन इसके उदाहरण हैं। इस दूसरी श्रेणी वाली व्यवस्था में राज्यों के बदले केंद्र सरकार ज्यादा ताकतवर होती है। अक्सर इस व्यवस्था में विभिन्न राज्यों को समान अधिकार दिए जाते हैं पर विशेष स्थिति में किसी-किसी प्रांत को विशेष अधिकार भी दिए जाते हैं।
संघवाद की परिभाषा
  • हैमिल्टन के अनुसार, “संघीय राज्य राज्यों का एक संगठन है तथा यह एक नवीन प्रकार है । "
  • गार्नर के अनुसार, “संघीय राज्य एक व्यवस्था है जिसमें सरकार की संपूर्ण शक्तियां केंद्र सरकार तथा राज्यों या अन्य प्रादेशिक उपखंडों में जिनसे संघ बना है राष्ट्रीय संविधान या जैविक संसदीय अधिनियम के माध्यम से विभाजित तथा वितरित की जाती हैं। "
  • के.सी. व्हेयर के अनुसार, “संघीय सरकार वह है जो मुख्य रूप से सामान्य तथा क्षेत्रीय प्राधिकरणों के बीच शक्तियों को बांटती है तथा वे अपने क्षेत्र में समन्वय करते हुए भी एक-दूसरे से स्वतंत्र रहते हैं । " 
  • डायसी के अनुसार, “यह एक राजनीतिक युक्ति है जिसका उद्देश्य राज्यों के अधिकारों को बरकरार रखते हुए राष्ट्रीय एकता तथा शक्ति का मिलाप है । "
  • संघवाद सरकार का एक ऐसा रूप है जिसमें राजनीतिक शक्ति के संप्रभु प्राधिकरण को विभिन्न इकाईयों के बीच वितरित किया जाता है। सामान्य शब्दों में इस प्रकार के शासन को संघ या संघ राज्य भी कहा जाता है।
  • केंद्र राज्य, पंचायत या निगम इसकी इकाईयां हैं। केंद्र को संघ भी कहा जाता है। संघ की घटक इकाईयों को अमेरिका में राज्य, स्विट्जरलैंड में केंटोन, कनाडा में प्रांत तथा भूतपूर्व सोवियत संघ में रिपब्लिक कहा जाता है।
  • संघ शब्द का शाब्दिक अर्थ है अनुबंध। संघ एक अनुबंधीय संघ है। एक संघीय राज्य का निर्माण संप्रभु राज्यों के अनुबंध के द्वारा होता है।
  • विजय द्वारा प्राप्त राज्यों के संघ को संघीय संघ नहीं कहा जा सकता। राजनीतिक सिद्धांत जो संघीय व्यवस्था को प्रेरित करते हैं वे सौदेबाजी को प्रधानता तथा विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच समझौते पर जोर देते हैं।
  • वे शक्ति केंद्रों के तितर-बितर होने को स्थानीय स्वतंत्रता के बचाव का माध्यम मानते हैं। संघवाद केवल एक संगठनात्मक व्यवस्था नहीं है वरन यह राजनीति तथा सामाजिक व्यवहार का विशेष तरीका समझौते के लिए प्रतिबद्धता व्यक्तिगत तथा संस्थाओं का सक्रिय सहयोग तथा इसके साथ-साथ अपनी गरिमा को संरक्षित करने का गौरव प्रदान करता है।
  • प्रोफेसर सी.एफ. स्ट्रांग के अनुसार, "एक संघ राज्य वह है जिसमें कुछ राज्य एक निश्चित सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एकजुट होते हैं।”
  • केंद्रीय या संघीय प्राधिकरण कुछ शक्तियों में इकाईयों से सीमित होता है जो सामान्य उद्देश्यों के लिए एकजुट हुई हैं।
  • इस शक्ति वितरण के लिए कोई प्राधिकरण आवश्यक है। यह प्राधिकरण स्वयं संविधान है। एक संघीय राज्य में संघ तथा इकाईयां अपनी शक्तियां स्वयं संविधान से प्राप्त करती हैं।
  • उपरोक्त उपागम अनिवार्य रूप से कानूनी है जिसमें कानून या संघवाद के संवैधानिक ढांचे पर जोर दिया गया है। कानूनी ढांचे की पर्याप्त समझ उन विभिन्न सामाजिक शक्तियों की खोज की मांग करती है जो संघवाद को जन्म देती है।
  • लिविंग्स्टोन के अनुसार, “संघवाद का सार इसके संस्थानात्मक या संवैधानिक ढांचे में नहीं बल्कि स्वयं समाज में निहित है। संघीय सरकार एक ऐसी युक्ति 'यंत्र है जिसके द्वारा समाज के संघीय गुणों को स्पष्ट तथा संरक्षित किया जाता है।"

नए राज्यों में संघवाद

  • नव- स्वतंत्र राज्यों में संघवाद का परंपरागत सिद्धांत बदलता हुआ नजर आ रहा है। भारत तथा मलाया इसके उदाहरण हैं जो शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता का प्रावधान करते हैं तथा सहयोगी संघवाद के विस्तृत यंत्र हैं।
  • इन उभरते संघवादों के राजनीतिक समाजों में अधिक विविधता पाई जाती है। अतः संघ की संस्थाएं समाज की संघीय प्रकृति को प्रतिबिंबित करती हैं।
  • इसके साथ-साथ व्यापक सामाजिक सुधारों की आवश्यकता तथा त्वरित आर्थिक वृद्धि की आवश्यकता ने इन राज्यों को व्यापक आर्थिक नियोजन की दिशा की ओर बढ़ाया। नियोजन तथा संघ के बीच किसी प्रकार का गठबंधन संघ के लिए आपदा ही लाता है।
  • योजना केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है जिससे संघवाद बचना चाहता है। इसके अलावा कुछ उभरत में एकदलीय व्यवस्था की वरीयता ने संविधानिक ढांचे सदले से मौजूद केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है।
  • ये राजनीतिक शक्तियां इन देशों में केंद्रीकृत संघवाद को लाई तथा वे देश धीरे- धीरे अपने आप को इसके अनुकूल बना रहे हैं। 
भाषायी राज्य
  • भाषा के आधार पर प्रांतों का गठन हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनीति के लिए पहली और एक कठिन परीक्षा थी। भारत ने सन् 1947 में लोकतंत्र की राह पर अपनी जीवन यात्रा शुरू की।
  • नए राज्यों को बनाने के लिए 1950 के दशक में भारत के कई पुराने राज्यों की सीमाएँ बदलीं। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि एक भाषा बोलने वाले लोग एक राज्य में आ जाएँ।
  • इसके बाद कुछ अन्य राज्यों का गठन भाषा के आधार पर नहीं बल्कि संस्कृति, भूगोल अथवा जातीयताओं (एथनीसिटी) की विभिन्नता को रेखांकित करने और उन्हें आदर देने के लिए भी किया गया।
  • इनमें नगालैंड, उत्तराखंड और झारखंड जैसे राज्य शामिल हैं। जब एक भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की बात उठी तो कई राष्ट्रीय नेताओं को डर था कि इससे देश टूट जाएगा।
  • केंद्र सरकार ने इसी के चलते राज्यों का पुनर्गठन कुछ समय के लिए टाल दिया था पर हमारा अनुभव बताता है कि भाषावार राज्य बनाने से देश ज़्यादा एकीकृत और मज़बूत हुआ। इससे प्रशासन भी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुविधाजनक हो गया है। 
भाषा - नीति
  • भारत के संघीय ढाँचे की दूसरी परीक्षा भाषा- नीति को लेकर हुई। हमारे संविधान में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया। हिंदी को राजभाषा माना गया पर हिंदी सिर्फ़ 40 फ़ीसदी (लगभग) भारतीयों की मातृभाषा है इसलिए अन्य भाषाओं के संरक्षण के अनेक दूसरे उपाय किए गए।
  • संविधान में हिंदी के अलावा अन्य 21 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है। केंद्र सरकार के किसी पद का उम्मीदवार इनमें से किसी भी भाषा में परीक्षा दे सकता है बशर्ते उम्मीदवार इसको विकल्प के रूप में चुने। राज्यों की भी अपनी राजभाषाएँ हैं। राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा में ही होता है।
  • श्रीलंका के ठीक विपरीत हमारे देश के नेताओं ने हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के मामले में बहुत सावधानी भरा व्यवहार किया।
  • संविधान के अनुसार सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग 1965 में बंद हो जाना चाहिए था पर अनेक गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों ने मांग की कि अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जाए। तमिलनाडु में तो इस माँग ने उग्र रूप भी ले लिया था। केंद्र सरकार ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया।
  • राजभाषा के रूप में हिंदी • बढ़ावा देने की भारत सरकार की नीति बनी हुई है पर बढ़ावा देने का मतलब यह नहीं कि केंद्र सरकार उन राज्यों पर भी हिंदी को थोप सकती है जहाँ लोग कोई और भाषा बोलते हैं।
केंद्र-राज्य
  • केंद्र-राज्य संबंधों में लगातार आए बदलाव का यह उदाहरण बताता है कि व्यवहार में संघवाद किस तरह मज़बूत हुआ है। सत्ता की साझेदारी की संवैधानिक व्यवस्था वास्तविकता में कैसा रूप लेगी यह ज़्यादातर इस बात पर निर्भर करता है कि शासक दल और नेता किस तरह इस व्यवस्था का अनुसरण करते हैं।
  • जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें रहीं तो केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने की कोशिश की। उन दिनों केंद्र सरकार अक्सर संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करके विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर देती थी। यह संघवाद की भावना के प्रतिकूल था।
  • सत्ता में साझेदारी और राज्य सरकारों की स्वायत्तता का आदर करने की नई संस्कृति पनपी। इस प्रवृत्ति को सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े फ़ैसले से भी बल मिला। इस फ़ैसले के कारण राज्य सरकार को मनमाने ढंग से भंग करना केंद्र सरकार के लिए मुश्किल हो गया।
भारत में विकेंद्रीकरण
  • संघीय सरकारें दो या अधिक स्तरों वाली होती हैं। भारत में दो स्तरों वाली सरकार की चर्चा की है पर भारत जैसे विशाल देश में सिर्फ दो स्तर की शासन व्यवस्था से ही बढ़िया शासन नहीं चल सकता।
  • भारत के प्रांत यूरोप के स्वतंत्र देशों से भी बड़े हैं। जनसंख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश रूस से बड़ा है। महाराष्ट्र लगभग जर्मनी के बराबर है।
  • भारत के अनेक राज्य खुद भी अंदरूनी तौर पर विविधताओं से भरे हैं। इस प्रकार इन राज्यों में भी सत्ता को बाँटने की ज़रूरत है।
  • भारत में संघीय सत्ता की साझेदारी तीन स्तरों पर करने की ज़रूरत है जिसमें तीसरा स्तर स्थानीय सरकारों का हो और यह प्रांतीय स्तर की सरकार के नीचे हो ।
  • भारत में सत्ता के विकेंद्रीकरण के पीछे यही तर्क दिया गया। इसके फलस्वरूप तीन स्तरों की सरकार का संघीय ढाँचा सामने आया जिसमें तीसरे स्तर को स्थानीय शासन कहा जाता है।
  • जब केंद्र और राज्य सरकार से शक्तियां लेकर स्थानीय सरकारों को दी जाती हैं तो इसे सत्ता का विकेंद्रीकरण कहते हैं। विकेंद्रीकरण के पीछे बुनियादी सोच यह है कि अनेक मुद्दों और समस्याओं का निपटारा स्थानीय स्तर पर ही बढ़िया ढंग से हो सकता है।
  • लोगों को अपने इलाके की समस्याओं की बेहतर समझ होती है। लोगों को इस बात की भी अच्छी जानकारी होती है कि पैसा कहाँ खर्च किया जाए और चीज़ों का अधिक कुशलता से उपयोग किस तरह किया जा सकता है।
  • इसके अलावा स्थानीय स्तर पर लोगों को फ़ैसलों में सीधे भागीदार बनाना भी संभव हो जाता है। इससे लोकतांत्रिक भागीदारी की आदत पड़ती है।
  • स्थानीय सरकारों की स्थापना स्व-शासन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को वास्तविक बनाने का सबसे अच्छा तरीका है। विकेंद्रीकरण. की ज़रूरत हमारे संविधान में भी स्वीकार की गई। इसके बाद से गाँव और शहर के स्तर पर सत्ता के विकेंद्रीकरण की कई कोशिशें हुई हैं।
  • सभी राज्यों में गाँव के स्तर पर ग्राम पंचायतों और शहरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई थी। पर इन्हें राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में रखा गया था।
  • स्थानीय सरकारों के लिए नियमित ढंग से चुनाव भी नहीं कराए जाते थे। इनके पास न तो अपना कोई अधिकार था न संसाधन | इस प्रकार प्रभावी ढंग से सत्ता का विकेंद्रीकरण नाम मात्र का हुआ था।
  • वास्तविक विकेंद्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम 1992 में उठाया गया। संविधान में संशोधन करके लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के इस तीसरे स्तर को ज़्यादा शक्तिशाली और प्रभावी बनाया गया।
  • स्थानीय स्वशासी निकायों के चुनाव नियमित रूप से कराना संवैधानिक बाध्यता है। निर्वाचित स्वशासी निकायों के सदस्य तथा पदाधिकारियों के पदों में अनूसचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं। कम से कम एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
  • प्रत्येक राज्य में पंचायत और नगरपालिका चुनाव कराने के लिए राज्य चुनाव आयोग नामक स्वतंत्र संस्था का गठन किया गया है। राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का कुछ हिस्सा इन स्थानीय स्वशासी निकायों को देना पड़ता है।
  • सत्ता में भागीदारी की प्रकृति हर राज्य में अलग-अलग है। गाँवों के स्तर पर मौजूद स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायती राज के नाम से जाना जाता है।
  • प्रत्येक गाँव में, (और कुछ राज्यों में ग्राम-समूह की) एक ग्राम पंचायत होती है। यह एक तरह की परिषद् है जिसमें कई सदस्य और एक अध्यक्ष होता है। सदस्य वार्डों से चुने जाते हैं और उन्हें सामान्यतया पंच कहा जाता है।
  • अध्यक्ष को प्रधान या सरपंच कहा जाता है। इनका चुनाव गाँव अथवा वार्ड में रहने वाले सभी वयस्क लोग मतदान के जरिए करते हैं। यह पूरे पंचायत के लिए फैसला लेने वाली संस्था है। पंचायतों का काम ग्राम सभा की देखरेख में चलता है।
  • गाँव के सभी मतदाता इसके सदस्य होते हैं। इसे ग्राम पंचायत का बज़ट पास करने और इसके कामकाज की समीक्षा के लिए साल में कम से कम दो या तीन बार बैठक करनी होती है।
  • स्थानीय शासन का ढाँचा ज़िला स्तर तक का है। कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति का गठन होता है। इसे मंडल या प्रखंड स्तरीय पंचायत भी कह सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव उस इलाके के सभी पंचायत सदस्य करते हैं।
  • किसी जिले की सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद् का गठन होता है। जिला परिषद के अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता है।
  • जिला परिषद् में उस जिले से लोक सभा और विधान सभा के लिए चुने गए सांसद और विधायक तथा जिला स्तर की संस्थाओं के 'कुछ अधिकारी भी सदस्य के रूप में होते हैं।
  • जिला परिषद् का प्रमुख इस परिषद् का राजनीतिक प्रधान होता है। इस प्रकार स्थानीय शासन वाली संस्थाएँ शहरों में भी काम करती हैं। शहरों में नगर पालिका होती है। बड़े शहरों में नगरनिगम का गठन होता है।
  • नगरपालिका और नगरनिगम, दोनों का कामकाज निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। नगरपालिका प्रमुख नगरपालिका के राजनीतिक प्रधान होते हैं। नगरनिगम के ऐसे पदाधिकारी को मेयर कहते हैं ।
  • स्थानीय सरकारों की यह नयी व्यवस्था दुनिया में लोकतंत्र का अब तक का सबसे बड़ा प्रयोग है। नगरपालिकाओं और ग्राम पंचायतों के लिए करीब 36 लाख लोगों का चुनाव होता है। यह संख्या ही अपने आप में दुनिया के कई देशों की कुल आबादी से ज्यादा है। 
  • स्थानीय सरकारों को संवैधानिक दर्जा दिए जाने से भारत में लोकतंत्र की जड़ें और मज़बूत हुई हैं। इसने महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के साथ ही हमारे लोकतंत्र में उनकी आवाज़ को मज़बूत किया है। इन सबके बावजूद अभी भी अनेक परेशानियाँ कायम हैं।
  • पंचायतों के चुनाव तो नियमित रूप से होते हैं और लोग बड़े उत्साह से इनमें हिस्सा भी लेते हैं लेकिन ग्राम सभाओं की बैठकें नियमित रूप से नहीं होतीं। अधिकांश राज्य सरकारों ने स्थानीय सरकारों को पर्याप्त अधिकार नहीं दिए हैं। इस प्रकार हम स्वशासन की आदर्श स्थिति से काफ़ी दूर हैं।

भारत में संघीय व्यवस्था

  • भारतीय संविधान ने भारत को राज्यों का संघ घोषित किया। इसमें संघ शब्द नहीं आया पर भारतीय संघ का गठन संघीय शासन व्यवस्था के सिद्धांत पर हुआ है ।
  • संघीय व्यवस्था की सभी बातें भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर लागू होती हैं । संविधान ने मैलिक रूप से दो स्तरीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया था-संघ सरकार और राज्य सरकारें ।
  • केंद्र सरकार को पूरे भारतीय संघ का प्रतिनिधित्व करना था। बाद में पंचायतों और नगरपालिकाओं के रूप में संघीय शासन का एक तीसरा स्तर भी जोड़ा गया। 
  • किसी भी संघीय व्यवस्था की तरह भारत में भी तीनों स्तर की शासन व्यवस्थाओं के अपने अलग-अलग अधिकार क्षेत्र हैं। संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन हिस्से में बाँटा गया है। ये तीन सूचियाँ इस प्रकार हैं:
  • संघ सूची में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले बैंकिंग, संचार और मुद्रा जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय हैं। पूरे देश के लिए इन मामलों में एक तरह की नीतियों की जरूरत है। इसी कारण इन विषयों को संघ सूची में रखा गया है। संघ सूची में वर्णित विषयों के बारे में कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को है।
  • राज्य सूची में पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि और सिंचाई जैसे प्रांतीय और स्थानीय महत्व के विषय हैं। राज्य सूची में वर्णित विषयों के बारे में सिर्फ़ राज्य सरकार ही कानून बना सकती है।
  • समवर्ती सूची में शिक्षा, वन, मजदूर संघ, विवाह, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे वे विषय हैं जो केंद्र के साथ राज्य सरकारों की साझी दिलचस्पी में आते हैं। इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों और केंद्र सरकार, दोनों को ही है। लेकिन जब दोनों के कानूनों में टकराव हो तो केंद्र सरकार द्व द्वारा बनाया कानून ही मान्य होता है।
  • ऐसे क्षेत्र जो अपने आकार के चलते स्वतंत्र प्रांत नहीं बन सकते। इन्हें किसी मौजूदा प्रांत में विलीन करना भी संभव नहीं है। चंडीगढ़ या लक्षद्वीप अथवा देश की राजधानी दिल्ली जैसे इलाके इसी कोटि में आते हैं और इन्हें केंद्र शासित प्रदेश कहा जाता है। इन क्षेत्रों को राज्यों वाले अधिकार नहीं हैं। इन इलाकों का शासन चलाने का विशेष अधिकार केंद्र सरकार को प्राप्त है।
  • केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का यह बँटवारा हमारे संविधान की बुनियादी बात है। अधिकारों के इस बँटवारे में बदलाव करना आसान नहीं है। अकेले संसद इस व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकती।
  • ऐसे किसी भी बदलाव को पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से मंजूर किया जाना होता है। फिर कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं से उसे मंजूर करवाना होता है।
  • संवैधानिक प्रावधानों और कानूनों के क्रियान्वयन की देख-रेख में न्यायपालिका महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शक्तियों के बँटवारे के संबंध में कोई विवाद होने की हालत में फ़ैसला उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में ही होता है।
  • सरकार चलाने और अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह करने के लिए ज़रूरी राजस्व की उगाही के संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों को कर लगाने और संसाधन जमा करने के अधिकार हैं।
संघीय व्यवस्था
  • संघीय व्यवस्था के कारगर कामकाज के लिए संवैधानिक प्रावधान ज़रूरी हैं पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। अगर भारत में संघीय शासन व्यवस्था कारगर हुई है तो इसका कारण सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों भर का होना नहीं है ।
  • भावना, भारत में संघीय व्यवस्था की सफलता का मुख्य श्रेय यहाँ की लोकतांत्रिक राजनीति के चरित्र को जाता है। इसी संघवाद की , विविधता का आदर और संग-साथ रहने की इच्छा का हमारे देश के साझा आदर्श के रूप में स्थापित होना सुनिश्चित हुआ।
संघवाद का ऐतिहासिक संदर्भ 
  • संघवाद की शुरुआत प्राचीन काल के यूनानी नगर राज्यों और दूसरी शताब्दी के डच महासंघ से मान सकते हैं। हालांकि इसका प्रबल उदाहरण 1787 ई. में अमेरिकी संघवाद की स्थापना में मिलता है।
  • 1787 ई. में अमेरिका में तथा 1848 ई. में स्विट्जरलैंड में जन भावनाओं को प्रभाव में लाने के लिए संघवाद अस्तित्व में आया।
  • उल्लेखनीय है कि 1787 ई. में संघीय संविधान आने से पहले अमेरिकी उपनिवेशों ने ग्रेट ब्रिटेन से प्रतिरोध के दौरान 1777 ई. में ही परिसंघ के अनुच्छेद की रूपरेखा तैयार कर ली थी।
  • एक सदनीय कांग्रेस प्रत्येक राज्य से एक वर्ष के लिए प्रतिनिधियों की स्थिर नियुक्ति; जो विदेशी मामलों के निर्धारण के लिए प्राधिकृत किए गए मुद्रा तथा अन्य निश्चित महत्त्वपूर्ण मामले आते हैं। इन सभी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए जैसा कि अलेक्जेडर हैमिल्टन ने अपनी कृति 'दी फेडरलिस्ट' में अभिव्यक्त किया है “तेरह विभिन्न संप्रभु इच्छाओं की सहमति। "
  • दूसरे शब्दों में 1777 के अनुच्छेद ने सामान्य सरकार की अधीनता के सिद्धांत के आधार पर राज्यों का संगठन स्थापित किया अर्थात् कांग्रेस का क्षेत्रीय सरकारों पर ।
  • 1787 ई. के वर्तमान अमेरिकी संविधान के सिद्धांत 1777 ई. के अनुच्छेदों के सिद्धांतों से महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न थे।
  • वेयर के अनुसार वर्तमान संविधान तथा परिसंघ के अनुच्छेदों में अंतर इस तथ्य से स्पष्ट है कि वर्तमान संविधान सामान्य सरकार की क्षेत्रीय सरकारों पर अधीनता तथा निर्भरता को बदलकर सामान्य तथा क्षेत्रीय सरकारों में तालमेल व अपने क्षेत्रों में स्वतंत्रता के सिद्धांत को लागू करता है ।
  • इस प्रकार 1787 ई. के संविधान द्वारा निर्मित राज्यों की समिति को संघ माना गया और यह राज्य की शक्ति का विभाजन सहयोग तथा स्वतंत्र प्राधिकरणों में करता है ।
  • अमेरिका का संविधान पूरे राज्य के लिए सीमित शक्ति देता है और इसी प्रकार राज्य अन्य भागों के लिए भी सीमित शक्ति प्रदान करता है। जैसे ही संविधान ने शक्ति क्षेत्रों का विभाजन कर दिया प्रत्येक सरकार ने अपने दिए गए क्षेत्राधिकार में स्वतंत्र रूप से संचालन शुरू कर दिया।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि एक संघ तभी अस्तित्व में आता है जब कुछ राज्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तालमेल बैठाकर संगठित होते हैं।
  • डायसी के अनुसार संघ का अर्थ संविधान द्वारा संस्थाओं में शक्तियों का बंटवारा है जो संविधान द्वारा निर्मित तथा नियंत्रित हैं। 
  • ऐतिहासिक परिस्थितियों ने संघ के लक्षणों को आकार दिया है। सभी जगह संघवाद का उद्देश्य नागरिकों की दो परस्पर विरोधी भावनाओं में तालमेल बैठाना है- राष्ट्रीय एकता की इच्छा तथा प्रत्येक राज्य या केंटोन के स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रखने की अभिलाषा।
  • लिखित संविधान में इस तालमेल का तरीका प्रतिबिंबित होता है जो राष्ट्र से संबंधित विषयों को सामान्य या राष्ट्रीय सरकार के अधीन रखता है तथा अन्य सभी मामलों को जो सामान्य हित के नहीं है अलग-अलग राज्यों के अधीन रखता है।
  • संघीय संविधानों में शक्ति विभाजन का विवरण भिन्न-भिन्न हो सकता है परंतु इसमें अंतर्निहित सिद्धांत एक ही रहेगा। अर्थव्यवस्था की गतिशील ताकतों कल्याणकारी उद्देश्यों का प्रभाव और राष्ट्रीय दलों के उद्भव से संघवाद की परिस्थित में गहरा परिवर्तन आया।
  • इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक मौजूदा संघ में केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति प्रगाढ़ता से कार्य करने लगी तथा वह अब तक का सबसे गतिशील परिवर्तन था। इस केंद्रीकरण के दो प्रभाव हुए।
  • पहला राज्य की स्वायत्तता कुछ मंद पड़ी। दूसरा केंद्र तथा राज्यों की सीमा कुछ धुंधली पड़ी। अतः आज संघवाद को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है।
यदि किसी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र तथा राज्य दोनों अपनी स्थिति और शक्ति संविधान से प्राप्त करते हैं ना कि किसी केंद्रीय कानून द्वारा तथा वे अपने-अपने क्षेत्रों में पर्याप्त स्वायत्ता का प्रयोग करते हैं तो वह संघवाद का लक्षण होगा।

संघवाद के प्रकार

  • संघीय राजनीतिक व्यवस्था वह है जिसमें एक सामान्य सरकार की स्थापना दो या अधिक सरकारों के समूह से होती है तथा इसमें उनकी शक्तियां पर्याप्त रूप में सुरक्षित तथा संरक्षित होती हैं। 
  • यह निश्चित तौर पर आधुनिक संघों की परिभाषा है। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि संघवाद संवैधानिक तौर पर शक्ति को साझा करता है। इसमें स्वशासन तथा साझा - शासन की व्यवस्था होती है। इसके अंतर्गत संघ, परिसंघ तथा इसी प्रकार के अन्य राजनीतिक तथा संगठनात्मक संबंध शामिल हैं।
  • सामान्यतः संघीय व्यवस्था में परिसंघों को संघों से भिन्न रूप में देखा जाता है। इसमें साझा शासन की संस्थाएं घटक सरकारों पर निर्भर होती हैं इसलिए केवल एक अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा राजकोषीय आधार होता है।
  • संघीय सरकार में नागरिकों पर प्रत्यक्ष शासन चलाया जाता है। इसके विपरीत परिसंघ में साझा संस्थाओं और शासन के सदस्य राज्य में प्रत्यक्ष संबंध होता है। इसके ऐतिहासिक उदाहरणों में स्विट्जरलैंड (1291- 1847) तथा अमेरिका (1776- 1789 ) मिलते हैं।
संघवाद की विशेषताएं
  • संघीय प्रणाली वह व्यवस्था है जिसमें साझा हितों की प्राप्ति के लिए घटक इकाईयों की एकजुटता की मंशा तथा अन्य उद्देश्यों के लिए स्व-शासन की इच्छा की गहरी जड़ें होती हैं।
  • सरकारों के बीच संघीय शक्तियों की विभेदता सभी संघीय व्यवस्थाओं का एक प्रमुख लक्षण है। यद्यपि संघ में अक्सर विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण पाए जाते हैं परंतु दोनों में अंतर है।
  • संघ में न केवल जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण होता है बल्कि घटक सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की संवैधानिक गारंटी भी होती है। यद्यपि संघ की एकात्मक व्यवस्था से पृथक करने के सामान्य लक्षणों में शक्ति की सीमा सरकार के विभिन्न स्तरों पर दी जाने वाली जिम्मेदारी एवं संसाधन आते हैं।
  • बहुल सूचकांक जो गैर-बराबर हैं उनमें विधायी तथा प्रशासनिक क्षेत्राधिकारों का बंटवारा वित्तीय संस्थानों की अवस्थिति गैर-सरकारी संस्थाओं का विकेंद्रीकरण संवैधानिक सीमा तथा संघीय सरकार में घटक सरकारों का निर्णय- निर्माण की सहभागिता का स्तर आदि आते हैं।
  • एक बार स्थापित होने के पश्चात् संघीय व्यवस्थाएं स्थिर ढांचा नहीं रहती हैं वे गतिशील और विकसित इकाईयाँ हैं। यह बात अमेरिका तथा कनाडा की संघीय व्यवस्था के इतिहास से अनेक लेखकों द्वारा स्पष्ट की गई है।
  • सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा जातीय कारकों की पारस्परिक क्रिया ने राजनीतिक प्रक्रिया व संस्थानात्मक ढांचे को बचाया कुछ संघों ने विकेंद्रीकरण की प्रकृति को उत्पन्न किया।
  • एक दूसरी रिपोर्ट 4 फरवरी, 1979 को 'कमिंग टू टर्म्स' शीर्षक से आई जिसमें कनाडाई एकता पर बनी टास्क फोर्स परिसंघ तथा संघ के विभिन्न लक्षणों को प्रकाशमान करती है तथा कनाडा को संघ की श्रेणी में रखती है। इस रिपोर्ट में सात तत्त्व सम्मिलित हैं :
    1. दो स्तर की सरकारों का अस्तित्व जो अपने अधिकार संविधान के अंतर्गत लेती हैं तथा उनमें से प्रत्येक; समान नागरिकों पर प्रत्यक्ष शासन करती हैं।
    2. केंद्र सरकार पूरे संघ के निर्वाचकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनी जाती है विधान द्वारा अपनी सत्ता का प्रयोग करती है तथा पूरे देश पर कर लगाती है।
    3. क्षेत्रीय सरकार क्षेत्र द्वारा चुनी जाती है तथा कानून व करों के द्वारा प्रत्यक्ष भूमिका निभाती है।
    4. दो स्तर की सरकारों के मध्य विधायी तथा कार्यकारी अधिकारों तथा राजस्व के स्रोतों का बंटवारा।
    5. एक लिखित संविधान जो एकतरफा संशोधित नहीं हो सकता।
    6. शक्तियों के बंटवारे से संबंधित विवादों के नियमन के लिए मध्यस्थ ।
    7. सरकारों के मध्य बातचीत के लिए युक्तियां।
  • एक संघ के चार लक्षण होते हैं- एक लिखित संविधान, दोहरी राज व्यवस्था, शक्तियों का विभाजन और एक स्वतंत्र निष्पक्ष न्याय व्यवस्था ।
1. लिखित संविधान
  • भारत में एक लिखित संविधान है। यह सर्वोच्च कानून है तथा केंद्र तथा राज्य दोनों पर लागू होता है। दूसरा यहां दोहरी राज व्यवस्था है क्योंकि यहां दो स्तर पर सरकार पाई जाती है।
  • एक केंद्र या संघ सरकार और दूसरी राज्य सरकारें जो संविधान के अनुच्छेदों से बंधी हुई है और दोनों में से कोई भी इनकी अवहेलना नहीं कर सकता।
2. छोटे राज्यों के लिए उपयोगी
  • संघ छोटे तथा कमजोर राज्यों को एक अवसर देता है। छोटे राज्य स्वतंत्र रूप से अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते। वे विकास कार्यों के लिए पर्याप्त संसाधनों को आबंटित नहीं कर सकते और न ही अन्य राज्यों के साथ राजनयिक संबंध बना सकते हैं।
  • बड़े और शक्तिशाली राज्यों के मध्य छोटे राज्यों का अस्तित्व अस्थिर होता है। छोटे राज्य अपनी पहचान की धारणा के साथ अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक समस्याओं को सुलझाने का लाभ उठाते हैं। 
3. स्थानीय स्वायत्तता का राष्ट्रीय एकता के साथ समन्वयः
  • एक संघ में लोग एक सशक्त राष्ट्र निर्माण के साथ स्थानीय स्वायत्तता के समन्वय के अवसर पाते हैं !
  • ई.बी. शूज के अनुसार, 'संघवाद के पक्ष में मुख्य तर्क है कि स्थानीय स्वायत्तता की संवैधानिक गारंटी अति- केंद्रीकरण के रास्ते में संतुलित प्रभावी गतिरोध है । '
  • संघवाद के अंतर्गत स्थानीय समस्याएं स्थानीय प्रयासों से सुलझ जाती हैं। शक्तियों के बंटवारे के कारण एक क्षेत्र के लोग अपनी समस्या को जानने का अवसर पाते हैं और उसे अच्छे तरीके से सुलझाते हैं।
  • इस प्रकार यह उन देशों के लिए उपयोगी है जहां बड़ी संख्या में नस्लीय सांस्कृतिक और भाषायी विभिन्नताएं होती हैं। यह राष्ट्रीय एकता तथा स्थानीय स्वतंत्रता को मिलाता है।
4. विविधता में एकता
  • संघवाद जहां जरूरत होती है वहां विधायी तथा प्रशासनिक नीतियों में एकरूपता को संभव बनाता है और जहां मांग होती है वहां विविधता लाता है।
  • परिसंघ संप्रभु राज्यों का एक संघ है जो सामान्य सुरक्षा व अन्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त होते हैं। उनके पास एक कार्यकारिणी व एक विधायिका होती है लेकिन उनकी शक्तियां सीमित हैं। यहां परिसंघ की कुछ परिभाषाओं का उल्लेख करना उचित होगा।
  • हॉल के अनुसार- "एक परिसंघ एक संघ होता है जो राज्यों से भिन्न होता है तथा स्थायी तौर पर कुछ विशेष क्षेत्रों में अपनी स्वतंत्रता छोड़ने को सहमत होता है । " ये सब एक सामान्य सरकार के अधीन होते हैं तथा राज्य अपने को अंतर्राष्ट्रीय एकता से अलग करते नजर आते हैं।
  • ओपेनीहिम के अनुसार “एक परिसंघ अंतर्गत कुछ पूर्ण संप्रभु राज्य होते हैं जो अपने बाहरी मामलों तथा स्वतंत्रता के लिए एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय संधि से जुड़े होते हैं । "
  • 1776 से 1787 तक अमेरिका एक परिसंघ था लेकिन संयुक्त राष्ट्र एक परिसंघ नहीं है। उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि कुछ संप्रभु राज्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त केंद्र की स्थापना करते हैं और अपनी इच्छा से कुछ शक्तियों को स्थानांतरित करते हैं ।
  • उनका संघ अपनी इच्छा से होता है। जो संघ बनाता है उस राज्य की संप्रभुता में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न नहीं होती। वे अपनी इच्छा से संघ छोड़ सकते हैं। संघ तथा परिसंघ दोनों ही शब्द लैटिन भाषा के शब्द फोएडस से लिए गए हैं, लेकिन दोनों के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं है।
  • संघ उन राज्यों के नागरिकों पर कोई कर नहीं लगा सकता जो संघ का निर्माण करते हैं। घटक राज्य अपनी इच्छा तथा आवश्यकता होने पर परिसंघ में योगदान कर सकते हैं। वे निर्णयों को भी कार्यान्वित करते हैं।
  • यह रिपोर्ट परिसंघ के प्रमुख लक्षणों का उदाहरण देती है: इन उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि एक परिसंघ संप्रभु राज्यों का संगठन होता है जो किसी समझौते या अंतर्राष्ट्रीय कानून या संविधान द्वारा आपस में जुड़ते हैं। इसमें वे अपने कुछ सीमित अधिकार, विशेषकर विदेशी मामले में एक केंद्रीय एजेंसी को प्रदत्त करते हैं। इसे डाइट, सभा, परिषद या कांग्रेस कह सकते हैं तथा आमतौर पर इसके अनिवार्य प्रतिनिधि सदस्य राष्ट्रों द्वारा नियुक्त होते हैं।
संघवाद की कार्यप्रणाली
  • यद्यपि, संघ में अक्सर विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण पाए जाते हैं, परंतु दोनों में अंतर है। संघ में न केवल जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण होता है बल्कि घटक सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की संवैधानिक गारंटी भी होती है । इलैजर और ओसैग्रा संघों को गैर - विकेंद्रीकृत कहना पसंद करते हैं।
  • विकेंद्रीकरण से तात्पर्य पदानुक्रम के साथ ऊपर से नीचे की ओर सत्ता के स्थानांतरण से है जबकि गैर- केंद्रीकरण संवैधानिक तौर पर सत्ता का ढांचागत बिखराव करता है जो संघ का एक आवश्यक लक्षण है।
  • यद्यपि यह सामान्य लक्षण संघों को एकात्मक व्यवस्था से पृथक करता है जैसा नैथन तथा वाट्स ने कहा है। संघों के मध्य शक्ति की सीमा जिम्मेदारियों सरकार के विभिन्न स्तरों को दिए गए संसाधनों के आधार पर व्यापक विभेदताएं हैं।
  • कोई भी मात्रात्मक सूचकांक प्रभावी क्षेत्रीय गैर-केंद्रीकरण को तथा उसमें निहित निर्णय लेने की स्वायत्तता को व्यापक रूप से माप नहीं सकता। किसी भी संघ में दो स्तर की सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों का बंटवारा दो कारणों से महत्त्वपूर्ण है।
  • पहला, ये संसाधन सरकारों को दी गई विधायी तथा कार्यकारी जिम्मेदारियों की निभाने के लिए सक्षम बनाते हैं या उन्हें विवश करते हैं। दूसरा, कर तथा व्यय शक्ति स्वयं अर्थव्यवस्था को प्रभावित व नियमित करने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
  • यह असंभव सिद्ध हुआ है कि एक संघीय संविधान बनाया जाए जिससे स्वायत्त राजस्व स्रोतों के आबंटन से प्रत्येक स्तर की सरकार के खर्च की जिम्मेदारियां पूरी हो सकें।
  • यदि यह आरंभ में संभव हो भी जाए तो विभिन्न चरणों के सापेक्ष मूल्य लागत और व्यय के क्षेत्रों में समय के साथ बदलाव असंतुलन पैदा करेगा। इसके अतिरिक्त, अधिकांश संघों ने घटक इकाईयों की राजस्व क्षमता की असमानता व असंतुलन को दूर करने का प्रयास किया है।
  • ये राजकोषीय व्यवस्थाएं सरकारों के बीच अत्यधिक विवादास्पद मुद्दों में रही हैं और हाल ही की संघीय राजकोषीय बाधा ने इस तनाव पर जोर दिया है।
  • इन संघों के साझा राजस्व प्रतिबंधित और अप्रतिबंधित अनुदान समकारी व्यवस्था तथा राजकोषीय व्यवस्थाओं के संबंध में इन संघों के तुलनात्मक अध्ययन ने सरकारों के बीच सहयोग तथा संघर्ष की प्रकृति पर प्रकाश डाला है।
  • संघीय राजनीतिक व्यवस्थाओं का मुख्य उद्देश्य अपने क्षेत्र के घटक समुदायों की सुरक्षा करना है। सामान्यतः क्षेत्रीय समानता • तथा साझा संस्थाओं में नागरिकों के समान प्रतिनिधित्व के बीच संघर्ष होता है।
  • अधिकांश संघ इन दो प्रकार की समानताओं में संतुलन के इच्छुक होते हैं। इस प्रकार का संतुलन प्राप्त करने तथा इन संघों की अतिरिक्त राजनीतिक सक्रियता में साझा संस्थाओं के अंतर्गत कार्यकारी - विधायिका संबंध निर्णायक हैं।
  • इस संबंध के विभिन्न रूप अमेरिका के कांग्रेसी ढांच में शक्ति का बंटवारा स्विटजरलैंड में निश्चित काल की कार्यकारिणी कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, बेल्जियम, भारत तथा मलेशिया में संसदीय जिम्मेदारी के साथ कार्यकारिणी विधायिका संयोग में इसके उदाहरण मिलते हैं।
  • इन्होंने न केवल राजनीति व साझा संस्थानों के प्रशासन के चरित्र को रूप दिया बल्कि सरकारों के मध्य संबंधों की प्रकृति व संघों के अंतर्गत सहयोग या संघर्ष की भी उत्पत्ति की है। ।
संघ के निर्माण की शर्ते
  1. भौगोलिक समीपता: संघ के लिए भौगलिक निकटता एक आवश्यकता। यदि इकाईयां भौगोलिक रूप से दूर होंगी तो उनका संघ नहीं बन सकता।
  2. संघ की इच्छा : एक संघ का निर्माण तभी संभव है जब इकाईयों की इच्छा निश्चित सामान्य उद्देश्यों की हो। इसके लिए वे अपनी पहचान खोए बिना कुछ शक्तियां संघ को देते हैं।
  3. संघीय इकाइयों के मध्य विभेद की अनुपस्थितिः राज्यों के मध्य अत्यधिक असमानता नहीं होनी चाहिए। यदि अत्यधिक अंतर होता है तो बड़े राज्य छोटे राज्यों के ऊपर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करेंगे।
  4. पर्याप्त अत्यधिक संसाधन राज्यों के मध्य पर्याप्त आर्थिक संसाधन होना चाहिए। एक दोहरी सरकार में खर्चों पर अधिक जोर होता है। यदि राज्य के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो वह प्रत्येक चीज के लिए केंद्र पर निर्भर रहेगा और केंद्र अपनी शर्तें लगाएगा।
  5. सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं की समानता: एक राज्य में सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं आमने-सामने होनी चाहिए ।
  6. राजनीतिक शिक्षाः संघ एक जटिल संयुक्त संस्था है और यदि इसके नागरिक राजनीतिक तौर से शिक्षित और प्रबुद्ध होंगे तो यह ठीक से कार्य करेगा।
  7. राष्ट्रीय भावना: सभी इकाईयों में केंद्र के प्रति निष्ठा की भावना होनी चाहिए जिससे युद्धकाल और अन्य आपातकाल के समय वे सब एकजुट रह सकें।
संघ तथा परिसंघ
  • सबसे पहले 1982 ई. में किंग द्वारा संघवाद और संघ में विभेद देखा गया। यद्यपि, इस आयातित विचार में कुछ अस्पष्टता देखी गई।
  • किंग जैसों के लिए संघवाद एक नियामक तथा दर्शनात्मक संकल्पना थी जिसमें संघीय सिद्धांतों की वकालत की गई है। वहीं संघ एक विस्तृत शब्द है जो एक विशेष प्रकार के संस्थानिक संबंधों की ओर इशारा करता है।
  • अन्य जैसे इलैजैर, बर्गेस और गैगमैन ने इन दोनों शब्दों को वर्णनात्मक बताया। उनके अनुसार संघवाद राजनीतिक संगठनों की एक कोटि है जिसमें अनेक प्रजातियां जैसे संघ, परिसंघ से जुड़े राज्य, लीग, कोंडोमिनिलम्स संवैधानिक क्षेत्रात्मकता तथा संवैधानिक गृह शासन आते हैं। 
  • संघवाद की व्यापक कोटि के अंतर्गत संघ एक प्रजाति है। वास्तव में, संघवाद और संघ पर बनी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विज्ञान संगठन की शोध कमेटी ने भी यह भेद स्वीकार किया है।
  • नियामक संकल्पना के तौर पर संघवाद में एक या दो सामान्य संकल्पनाएं निहित हैं। एक है साझा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साझा प्रयास जो नागरिकों की वरीयता है और दूसरा अन्य उद्देश्यों के लिए घटक इकाईयों की स्वशासन नियामक संकल्पना । संघवाद इन दोनों तत्त्वों के व्यवहारिक संतुलन की वकालत करता है।
  • यह संकल्पना जे हैमिल्टन की दी फेडरलिस्ट ऑफ मेडीशन (1788) से उत्पन्न हुई है तथा अंग्रेजी भाषी विश्व में इस प्रकार के संघवाद की पैरवी की है। इसके मुख्य उदाहरण हेयर (1963) तथा इलैजैर (1987) हैं।
  • दूसरी संकल्पना विचारात्मक आधार पर उत्पन्न हुई जो विशेषकर अनेक यूरोपीय किंग (1982) तथा बर्गेस और गैगमैन (1993) के संघवाद की पैरवी करते हैं।
  • संघ एक मिश्रित राज्य शासन विधि है जिसमें घटक इकाईयां और सामान्य सरकार नागरिकों द्वारा एक संविधान के जरिए प्रदत्त की गई शक्तियों का प्रयोग करती है। प्रत्येक सरकार नागरिकों से सीधे संबंध रखती है तथा विधायी, प्रशासनिक कराधान शक्ति का प्रयोग करने में सशक्त होती है तथा नागरिकों द्वारा सीधे चुनी जाती है।
  • यद्यपि भारत एक संघ राज्य है संविधान में संघीय शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है, इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ होगा। इसने एक विवाद को जन्म दिया कि संविधान निर्माताओं ने भारतीय शासन व्यवस्था की प्रकृति की व्याख्या के लिए संघीय शब्द की बजाय संघ शब्द की प्रयोग किया गया है।
  • यह संभवतः इस कारण होगा कि संघ शब्द संघीय शब्द की अपेक्षा देश की एकता और अखंडता पर अधिक जोर देता है।
व्यवहार में संघवाद
  • संघवाद अमेरिकी संविधान (जो 1787 ई. से अस्तित्व में आया) जितना ही पुराना है। अंग्रेजों द्वारा शासित 13 उपनिवेशों को अपनी स्वतंत्रता तथा एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए संघ की आवश्यकता थी। इसलिए सबसे पहले उन्होंने संयुक्त राज्यों के नाम से एक परिसंघ बनाया। तथापि वे युद्ध में विजयी हुए तथा 13 उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह महसूस किया जाने लगा कि राज्यों के प्रबंधन के लिए परिसंघ अधिक कारगर नहीं है। अतः वॉशिंगटन, हैमिल्टन, मेडिसन तथा अनेक नए राज्यों ने संघ के निर्माण का प्रयास किया।
  • इस संदर्भ में 1787 की फिलाडेल्फिया सम्मेलन में उन्होंने यह सिद्धांत अपनाया कि केंद्र सरकार के कार्य तथा शक्तियां संविधान द्वारा परिभाषित व प्रगणित होंगी जबकि अवशिष्ट शक्तियां राज्यों से संबंधित होंगी।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य भारत कनाडा तथा अमेरिका की केंद्र सरकार से भी ज्यादा शक्तियों का प्रयोग करते हैं। इस मामले में अमेरिका की केंद्र सरकार भारत तथा कनाडा की सरकार से तुलनात्मक रूप में कमजोर है।
भारतीय संघवाद
  • भारतीय संघवाद 1935 के भारत सरकार अधिनियम से शुरू हुआ 126 जनवरी, 1950 को लागू हुए इंडिया अर्थात् भारत. राज्यों का एक संघ होगा। भारत संघ का एक विशिष्ट उदाहरण है।
  • माइकल स्टेवर्ट नं मॉडर्न फर्म ऑफ गवर्नमंट में दर्शाया है कि भारतीय संघ 'एक एकात्मक राज्य तथा एक संघात्मक राज्य के बीच का रूप है।' प्रो. के. सी. व्हेयर मानते हैं कि भारतीय संविधान अर्ध- संघीय है।
बहु-स्तरीय संघवाद
  • भारत में संघीय सिद्धांतों के संस्थानीकरण को भारत की उत्तर - औपनिवेशिक समाज की विशिष्ट आवश्यकताओं संदर्भ में समझना होगा।
  • यद्यपि, लोकतंत्र और संघवाद पर्यायवाची नहीं हैं लेकिन भारत के संदर्भ में संविधान निर्माताओं ने ऐसा नहीं सोचा शायद वे भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता का ध्यान रख रहे थे ।
  • राज्य निरंतर अपने साथ सौतेला व्यवहार होने की शिकायत करते हैं हिंसा की राजनीति होने तथा संबंध विच्छेद की मांग करते हैं ।
  • लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांत को ठीक से प्रयोग के लिए रूपांतरित नहीं किया गया। केवल प्रादेशिक प्रभुसत्ता को साझा करना तथा संसाधनों का बंटवारा करना अपर्याप्त सिद्ध हुआ।
  • संघवाद अभी भी बहुल समाजों के लिए कारगर संस्थानिक व्यवस्था है। संघ व्यवस्था एकता तथा सामाजिक नृजातीय तथा क्षेत्रीय विविधता के बीच समझौते पर आधारित है।
  • यह केंद्रीय शक्ति की आवश्यकता और शक्ति पर अंकुश या नियंत्रण के बीच प्रभावी है। हालांकि आवश्यकता इस बात की है कि (विविध समूहों और समुदायों के बीच उनके इतिहास और परंपराओं का सम्मान करते हुए, प्रभुसत्ता साझा करने के अधिकार को बढ़ाकर लोकतंत्र और संघवाद के बीच रिश्ते को सशक्त किया जाए।
  • समकालीन पहलुओं के अनुसार ढांचागत संघीय भारत को बदलना होगा। इसके पश्चात् यह भारत में संघवाद की ऐतिहासिक उत्पत्ति की चर्चा करता है।
  • इसके साथ संविधान के उन अनुच्छेदों के नए प्रावधानों की चर्चा करता है जो भारत को एक संघ बनाते हैं।
  • आधुनिक समय में संगठन की राजनीति प्रादेशिक राष्ट्र राज्यों को केंद्रीय स्थान देती है। प्रादेशिक राज्य प्रभुसत्ता की शक्ति के प्रयोग द्वारा नागरिकों पर शासन करता है। इस प्रकार शासन में हमेशा एक प्रादेशिक आयाम है।
  • आधुनिक समय में सभी राष्ट्र राज्य प्रादेशिक आधार पर केंद्रीय और क्षेत्रीय प्रांतीय या स्थानीय संस्थानों में बंटे होते हैं।
  • एक संघीय व्यवस्था निश्चित कार्य के आवंटन के साथ दो स्तर की सरकार की स्थापना करती है। कानूनी तौर पर दोनों में से कोई भी एकक-दूसरे के अधीनस्थ नहीं हैं।
  • कानूनी प्रभुसत्ता संघीय सरकार और घटक राज्यों के बीच साझा होती है। एक संघ से राज्यों का अस्तित्व और कार्य सुरक्षित होते हैं। इसका अर्थ है कि वे केवल संविधान संशोधन द्वारा ही परिवर्तित हो सकते हैं।
  • राज्यों की यह सुरक्षित स्थिति संघों (जैसेकि अमेरिका और कनाडा) को एकात्मक सरकारों (जैसेकि यूनाइडेट किंगडम और फ्रांस) से भिन्न बनाती है।
  • लगभग सभी संघों में राष्ट्रीय नीति-निर्माण में राज्यों के मत की गारंटी ऊपरी सदन (जिसमें राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है) द्वारा होती है। इस प्रकार संघवाद केंद्र और राज्यों के बीच प्रभुसत्ता को साझा करने का सिद्धांत है।
  • यह बहुलवाद की वृहत विचारधारा का एक हिस्सा है। बहुलवाद विविधता या बहुविधता अर्थात् अनेक का अस्तित्व में विश्वास तथा प्रतिबद्धता है। ऐसा माना जाता है कि विविधता स्वस्थ और आवश्यक है क्योंकि यह स्वतंत्रता भागीदारी और जवाबदेही को प्रोत्साहन देती है।
  • यह विश्वास करती है कि शक्ति को समाज में व्यापक तथा समरूप वितरित करना चाहिए न कि एक समूह या संस्था में केंद्रीकरण के आधार पर। परिणामस्वरूप यह लोकतंत्र के स्वस्थ रूप से कार्य करने का आधार प्रदान करती है।
  • प्रभुसत्ता को साझा करना : केंद्रीय और प्रादेशिक प्रांतीय संस्थाएं दो संघ व्यवस्थाएं समान नहीं होतीं। केंद्रीय और क्षेत्रीय प्रांतीय या संस्थाओं के बीच प्रभुसत्ता साझा करना इसका एक मुख्य लक्षण है।
  • कम-से-कम सैद्धांतिक तौर पर यह सुरक्षा देती है कि किसी भी स्तर की सरकार दूसरे की शक्तियों में अतिक्रमण नहीं करेगी। सिद्धांत रूप में यह लोकतांत्रिक मूल्यों जैसे- सहभागिता जवाबदेहिता वैधता आदि का अनुभव कराती है।
  • स्थानीय संस्थाएं लोगों के अधिक समीप होती हैं। इसमें न केवल सरकार को सामाजिक हितों के प्रति बल्कि कुछ समूहों की विशेष आवश्यकताओं के प्रति भी जिम्मेदार बनाया जा सकता है।
  • इसके साथ स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णय अधिक वैधता प्राप्त करते हैं। सरकारी शक्तियों के वितरण और नियंत्रण व संतुलन के नेटवर्क द्वारा यह संघ व्यवस्था व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संस्थाओं की स्वायत्तता की सुरक्षा करने में समर्थ होती है। कुछ एकात्मक राज्यों के विपरीत संघ आवश्यक तौर पर सोच-विचार कर संवैधानिक समझौते द्वारा उत्पन्न होते हैं।
  • सभी संघीय व्यवस्थाएं जिसमें भारत भी शामिल है का अध्ययन अमेरिका के संदर्भ में होता है। अर्ध-संघवाद जो भारतीय संघवाद से जुड़ा आदि के लक्षण इन्हीं अकादमिक अध्ययनों का परिणाम हैं।
  • इसी प्रकार का सम्मेलन कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया में भी हुआ। इस प्रकार संघवाद जैसाकि हम वर्तमान में समझते हैं कुछ सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पृथक इकाईयों के बीच समझौता है।
  • आज के समय में एक संघ के निर्माण के लिए सैन्य तथा आर्थिक कारक एक आधार के रूप में महत्त्व खो चुके हैं। 21वीं सदी में कोई भी ऐसा बड़ा सामान्य खतरा नहीं है जिसकी वजह से प्रभुसत्ता को साझा करने की आवश्यकता पड़े।
  • गठबंधनों का निर्माण इस उद्देश्य को पूरा कर सकता है। इसके अतिरिक्त राजनीतिक प्रभुसत्ता से समझौता किए बिना आर्थिक लाभों की भी मुक्त व्यापार क्षेत्रों के निर्माण से बढ़ाया जा सकता है।
  • इस प्रकार का संघवाद एकता में विविधता की अनुमति देता है। अत: यह विविध राजनीतिक समाजी, जहां पहचान का विवाद रहता है, वहां की स्थितियों के लिए एक आदर्श होगा।

संघवाद के नए संदर्भ

  • भारतीय संघवाद के उद्भव की प्रक्रिया राजनीतिक विकास, क्षेत्रीय पहचान का उदय एक दल के प्रभुत्व काल का अंत, संविधान की न्यायिक व्याख्या आदि से प्रभावित हुई है।
  • तीन दशकों के विचार, जैसे पहले चर्चा की गई है, में भारतीय राष्ट्र को परिभाषित किया गया है कि कैसे राष्ट्र विदेशी कब्जे से मुक्त हुआ तथा स्वतंत्र भारत की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था की रूपरेखा ने राष्ट्रीय नेतृत्व को वे विचार व उद्देश्य दिए जिससे नव-स्वतंत्र राष्ट्र का शासन चलाया जा सके।
  • इन सब उद्देश्यों में सबसे ऊपर राष्ट्रीय एकता व गरिमा को सभी आंतरिक व बाह्य खतरों से हर कीमत पर बचाना था। देश का • विभाजन केवल उनके संकल्पों को मजबूत करता है।
  • असंतुष्ट घरेलू, जातीय, धार्मिक भाषायी और सांस्कृतिक समूह की मांग के साथ निपटने में आजादी के बाद से दो कड़े नियमों का पालन किया गया।
  • पहला किसी भी अलगाववादी आंदोलन को अवैध माना जाएगा तथा यदि आवश्यकता हुई तो उसे सशस्त्र बलों की मदद से कुचला जाएगा। स्वतंत्र भारत में सभी अलगाववादी मांगों को जो मजबूती पकड़ रही थीं, विशेषकर देश के उत्तर-पूर्व के राज्यों और बाद में पंजाब और कश्मीर में इसी प्रकार से निपटा गया।
  • दूसरा किसी धार्मिक समुदाय के किसी रूप में राजनीतिक मान्यता की मांग पर रोक है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के कानूनों व रीतियों को बचाए रखने की स्वतंत्रता होगी (जिन्हें वे उचित समझें) लेकिन वे अपने समुदाय के लिए यहां तक कि भारतीय संघ के अंतर्गत भी पृथक निर्वाचन या सरकारी निकायों में अनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग नहीं रख सकते।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् केंद्रद्र-राज्य तनावों तथा विरोधाभासों में बड़ा परिवर्तन आया। हितों पर विचार पर बड़ा राजनीतिक विवाद था। केंद्र में शासन करने वाले दल और व्यापक प्रकार के विरोधी दलों के बीच की शक्ति किसी भी काल में केंद्रों को विकल्प देती है गठबंधन के रूप में केंद्र में तथा विभिन्न क्षेत्रों में।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति तथा विखंडन के पश्चात् ही केंद्र-राज्य संबंधों में सांस्कृतिक तथा भाषायी मतभेदों ने नए राजनीतिक मुहावरे जोड़ दिए ।
  • जहां राजनीतिक तथा आर्थिक तनाव केंद्र-राज्य तनावों के आयाम का विकास करते हैं वहीं सांस्कृतिक भाषायी तथा यहां तक कि सांप्रदायिक तनाव कुछ निश्चित परिस्थितियों में महत्त्व रखते हैं।
  • भाषा तथा संस्कृति पर गैर हिंदी भाषी राज्यों ( विशेषकर उन प्रदेशों में जो भारत के हिंदी भाषी मूल क्षेत्र - उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान से बाहर थे।) ने जोर दिया तथा यह बहुराष्ट्रीयता जिनसे भारत निर्मित हुआ का विशेष लक्षण है।
  • विवादों की प्रकृति तथा उसके समाधान ने भारत के राजनीतिक विकास के तरीकों का अनुसरण किया। समकालीन समय में दल व्यवस्था में हुए परिवर्तन केंद्र तथा राज्य स्तर पर गठबंधन राजनीति के उदय ने संघ के समीकरणों को पुनः लिखा ।
  • भारतीय संसदीय संघवाद और गठबंधन राजनीति के बीच संबंध थोड़े उदार हैं। राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों में अंतर उनकी स्पर्धा के आधार पर नहीं होता है। उनमें से अधिकतर विधानसभा तथा संसदीय चुनाव दोनों के लिए ही स्पर्धा करते हैं। 
  • भारत में राज्य जनसंख्या तथा आकार के आधार पर भिन्न हैं तथा वे विभिन्न दावों के लिए संसद में कार्य करते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर उनके बढ़ते महत्त्व से वे केंद्रीय दलों की चतुराई तथा विवेक को कम करने में समर्थ हुए हैं। यह भारत में संघीय संबंधों को पुनर्जीवित करने के परिणाम के रूप में आया।
  • एक नया बदलाव आर्थिक क्षेत्र में भी देखने को मिला। स्वतंत्रता पश्चात् लिए गए विकास मार्ग में परिवर्तन आया तथा भारत ने उदारवाद के द्वारा सुधार का रास्ता अपनाया । आर्थिक सुधार तथा भूमंडलीकरण ने भारतीय संघ व्यवस्था के निरीक्षण को आवश्यक बना दिया। विशेषकर जब संघ की सभी परतें साथ-साथ विदेशी सरकारों तथा भूमंडलीय आर्थिक निगमों से रूबरू होती हैं।
  • समकालीन भारत में नियोजित बाजार अर्थव्यवस्था में परिवर्तन राज्य की भूमिका को पुनः परिभाषित करने तथा विकेंद्रीकरण के स्पष्ट लक्षण पाए जाते हैं।
  • परंपरागत मौजूदा व्यवस्था आर्थिक संसाधनों के संवैधानिक बंटवारे पर आधारित थी। सामाजिक इजीनियरिंग के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था में केंद्रीकृत नियोजन को अपनाया गया।
  • आर्थिक तथा सामाजिक नियोजन ने आर्थिक शक्तियों को केंद्र में निहित किया है। समय के साथ विकास जैसे योजना आयोग का निर्माण मुख्य आर्थिक संस्थानों जैसे बैंकिंग, बीमा आदि के राष्ट्रीयकरण ने केंद्र की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया तथा राज्यों पर राजनीतिक नियंत्रण बढ़ा क्योंकि वे वित्तीय क्षेत्र में केंद्र पर निर्भर थे।
  • भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1980 में धीरे-धीरे हुई तथा 1990 के प्रारंभ में बाहरी संकट के दबाव में इसने गति पकड़ी।
संघवाद के राजनीतिक तथा राजस्व आयाम
  • भारत जैसे जटिल और सांस्कृतिक विषम लोकतंत्र ने संघीय संस्थागत व्यवस्था के माध्यम से अपनी विविधता का प्रबंध करने का प्रयास किया, लेकिन भारतीय समाज में समूहों की अधिक-से-अधिक शक्ति संसाधन और स्वायत्तता के लिए मांग बढ़ गई है।
  • कुछ मांगों को केंद्र-राज्य संबंधों के रचनात्मक प्रबंधन के द्वारा राजनीतिज्ञों दलों तथा सरकार ने सफलतापूर्वक शामिल कर लिया। एक संघ में सामान्य सरकार तथा कुछ क्षेत्रीय सरकार होती हैं जिनमें से प्रत्येक एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप में संविधान से प्राप्त सत्ता का प्रयोग करती है ।
  • एक परिसंघ जैसा ओपेनहेम कहते हैं कुछ संप्रभु राज्य अपनी बाहरी तथा अंतर्राष्ट्रीय संधि को बरकरार रखने के लिए आपस में एक संघ से जुड़ते हैं तथा इसके अंगों को कुछ शक्तियां दी जाती हैं, लेकिन इन राज्यों के नागरिकों पर केंद्र शक्तियों का प्रयोग नहीं करता।
  • इस प्रकार परिसंघ संप्रभु राज्यों का एक संगठन है जो सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बना है। इसका निर्माण एक औपचारिक समझौते या सदस्य राज्यों के बीच अनुबंध से होता है।
  • परिसंघ के अनुच्छेदों के अंतर्गत एकल कांग्रेस जिसमें प्रत्येक राज्य से प्रतिनिधियों को एक वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है उनके पास युद्ध तथा शांति राजदूतों को भेजना तथा बुलाना संधि तथा समझौता मुद्रा तथा कुछ अपवादों को छोड़कर स्थल तथा नौसेना का नियमन आदि की अनन्य शक्तियां होती हैं।
  • अपनी इन शक्तियों के प्रयोग के लिए कांग्रेस तेरह संप्रभु सदस्य राज्यों की सहमति पर निर्भर होती है। इस प्रकार 1787 के संविधान से पहले सामान्य सरकार की प्रादेशिक सरकारों पर निर्भरता के लक्षण पाए जाते थे।
  • वर्तमान संघीय संविधान अपने पूर्ववर्ती से भिन्न है। वर्तमान संगठन का सिद्धांत सामान्य तथा प्रादेशिक सरकारों का अपने-अपने क्षेत्र में सहयोग तथा स्वतंत्र स्थिति का है।
  • संघ की भांति ही परिसंघ में सदस्य राज्य कुछ निश्चित सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एकत्र होते हैं तथा इन उद्देश्यों के लिए उपर्युक्त केंद्रीय मशीनरी का निर्माण किया जाता है। इन दोनों में समानता प्रतीत होती है परंतु फिर भी संघ तथा परिसंघ में महत्त्वपूर्ण अंतर है।
  • पहला, राज्यों के इन समागमों में संगठन का एक-दूसरे से भिन्न है। परिसंघ में अधीनस्थता का सिद्धांत है- सामान्य सरकार प्रादेशिक सरकार के अधीन होती है। वही संघ में सामान्य तथा प्रादेशिक सरकारें अपने निश्चित क्षेत्र में स्वतंत्र रहते हुए सहयोग करती हैं ।
  • दूसरा एक मूल अंतर दोनों प्रकार के संघों की संप्रभुता के स्रोत में है। एक परिसंघ संप्रभु राज्यों की एक लीग है वहीं दूसरी ओर संघ एक नए राज्य को शामिल करता है।
  • तीसरा परिसंघ एक अस्थायी संघ है जो सदस्य राज्यों की सहमति से अंतर्राष्ट्रीय संधि में भाग लेता है। दूसरी ओर संघ एक स्था संगठन है तथा इसकी कुछ निश्चित मूल, विधि परायणता है।
  • एक परिसंघ में संप्रभु राज्यों को किसी भी समय परिसंघ से अलग होने की प्राकृतिक रूप से स्वतंत्रता होती है। इस प्रकार अलगाव का कानूनी अधिकार संघ की इकाईयों के पास नहीं ।
  • इस प्रकार यदि परिसंघ में शामिल राज्य आपसी सशस्त्र विद्रोह या तनाव में फंसते हैं तो यह अंतर्राष्ट्रीय युद्ध का रूप ले लेता है।
  • वहीं संघ में इस प्रकार का तनाव गृह युद्ध कहलाता है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि परिसंघ का ढीलाढाला ढांचा इसे अस्थिर संघ बना देता है।
  • सामान्यतः परिसंघ का अंत अलगाव विघटन संघ या एकात्मक राज्य के निर्माण से होता है। इसके विपरीत संघ काफी स्थिर है।
  • अंतिम, एक संघ में केंद्र तथा राज्य सरकारें लोगों पर प्रत्यक्ष कार्य करती हैं, वहीं परिसंघ में केंद्रीय सरकार राज्य सरकारों पर कार्य करती है और राज्य सरकारें अकेले ही लोगों पर प्रत्यक्ष कार्य करती हैं। एक परिसंघ स्थायी संगठन है जो दो या अधिक राज्यों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय कानूनी समझौते पर आधारित होता है।
  • वे राज्य अपनी प्रभुसत्ता तथा कानूनी समानता अपने पास रखते हैं तथा उनका उद्देश्य अपने संगठन के माध्यम से अतिरिक्त तथा बाह्य उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है।
  • नई स्थापित सत्ता राज्यों का अतिक्रमण नहीं करती बल्कि उसका एक अपना स्थायी अंग उसे दूसरे से भिन्न करता है।
  • इस कारण एक परिसंघ के पास अंतर्राष्ट्रीय कानूनी चरित्र | होता है। वहीं दूसरी ओर एक संघ राज्य एक जटिल सत्ता है जिसमें मौजूदा राज्य शामिल है, एक नए प्रकार का राज्य ढांचा है जो संविधान पर आधारित है।

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Wed, 29 Nov 2023 07:23:24 +0530 Jaankari Rakho
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अधिकार

  • अधिकार किसी व्यक्ति का अपने लोगों, अपने समाज और अपनी सरकार से दावा है। हम सभी खुशी से बिना डर भय के और अपमानजनक व्यवहार से बचकर जीना चाहते हैं। इसके लिए हम दूसरों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं जिससे हमें कोई नुकसान न हो, कोई कष्ट न हो।
  • हमारे व्यवहार से भी किसी को नुकसान नहीं होना चाहिए, कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। इसलिए, अधिकार तभी संभव है जब आपका अपने बारे में किया हुआ दावा दूसरे पर भी समान रूप से लागू हो। आप ऐसे अधिकार नहीं रख सकते जो दूसरों को कष्ट दें या नुकसान पहुँचाएँ।
  • समाज जिस चीज को सही मानता है, सबके अधिकार लायक मानता है वही हमारे भी अधिकार होते हैं। इसीलिए समय और स्थान के हिसाब से अधिकारों की अवधारणा भी बदलती रहती है।
  • 200 साल पहले अगर कोई कहता कि औरतों को भी वोट देने का अधिकार होना चाहिए तो उसे अजीब माना जाता। आज सऊदी अरब में उनको वोट का अधिकार न होना ही अजीब लगता है।
  • जब समाज में मान्य कायदों को लिखत पढ़त में ला दिया जाता है तो उनको असली ताकत मिल जाती है। इसके बिना वे प्राकृतिक या नैतिक अधिकार ही रह जाते हैं। 
  • गुआंतानामो बे के कैदियों को अपने दमन का विरोध करने का, उसे गलत बताने का सिर्फ नैतिक अधिकार है। पर वे इसके भरोसे किसी ऐसे व्यक्ति या संस्था के पास नहीं जा सकते जो इन्हें लागू करा दे।
  • जब कानून कुछ दावों को मान्यता देता है तो उनको लागू किया जा सकता है। फिर हम उन्हें लागू करने की माँग कर सकते हैं।
  • अगर अन्य नागरिक या सरकार इन अधिकारों का आदर नहीं करते, इनका उल्लंघन करते हैं तो हम इसे अपने अधिकारों का हनन कहते हैं । 
  • ऐसी स्थिति में कोई भी नागरिक अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है, अपने अधिकारों की रक्षा की माँग कर सकता है। इसलिए हम अगर किसी दावे को अधिकार कहते हैं तो उसमें ये तीन बुनियादी चीजें होनी चाहिए। अधिकार लोगों के तार्किक दावे हैं, इन्हें समाज से स्वीकृति और अदालतों द्वारा मान्यता मिली होती है।

भारतीय संविधान में अधिकार

  • विश्व के अधिकांश दूसरे लोकतंत्रों की तरह भारत में भी ये अधिकार संविधान में दर्ज हैं। हमारे जीवन के लिए बुनियादी रूप से जरूरी अधिकारों को विशेष दर्जा दिया गया है। इन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है।
  • संविधान की प्रस्तावना सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय दिलाने की बात करती है। मौलिक अधिकार इन वायदों को व्यावहारिक रूप देते हैं। ये अधिकार भारत के संविधान की एक महत्त्वपूर्ण बुनियादी विशेषता है। भारतीय संविधान 6 मौलिक अधिकार प्रदान करता है।
समानता का अधिकार
  • भारतीय संविधान कहता है कि सरकार भारत में किसी व्यक्ति को कानून के सामने समानता या कानून से संरक्षण के मामले में समानता के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती। इसका मतलब यह हुआ कि किसी व्यक्ति का दर्जा या पद, चाहे जो हो सब पर कानून समान रूप से लागू होता है। इसे कानून का राज भी कहते हैं।
  • कानून का राज किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद है। इसका अर्थ हुआ कि कोई भी व्यक्ति कानून के ऊपर नहीं है। किसी राजनेता, सरकारी अधिकारी या सामान्य नागरिक में कोई अंतर नहीं किया जा सकता।
  • प्रधानमंत्री हों या दूरदराज के गाँव का कोई खेतिहर मजदूर, सब पर एक ही कानून लागू होता है। कोई भी व्यक्ति वैधानिक रूप से अपने पद या जन्म के आधार पर विशेषाधिकार या खास व्यवहार का दावा नहीं कर सकता।
  • सरकार किसी से भी उसके धर्म, जाति, समुदाय लिंग और जन्म स्थल के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकती। दुकान, होटल और सिनेमाघरों जैसे सार्वजनिक स्थल में किसी के प्रवेश को रोका नहीं जा सकता। इसी प्रकार सार्वजनिक कुएँ, तालाब, स्नानघाट, सड़क, खेल के मैदान और सार्वजनिक भवनों के इस्तेमाल से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता।
  • ये चीजें ऊपर से बहुत सरल लगती हैं पर जाति व्यवस्था वाले हमारे समाज में कुछ समुदायों के लोगों को सार्वजनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करने से रोका जाता है।
  • सरकारी नौकरियों पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। सरकार में किसी पद पर नियुक्ति या रोजगार के मामले में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता है। उपरोक्त आधारों पर किसी भी नागरिक को रोजगार के अयोग्य नहीं करार दिया जा सकता उसके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
  • समानता का मतलब है हर किसी से उसकी जरूरत का खयाल रखते हुए समान व्यवहार करना। प्रत्येक आदमी को उसकी क्षमता के अनुसार काम करने का समान अवसर उपलब्ध कराना है।
  • कई बार अवसर की समानता सुनिश्चित करने भर के लिए ही कुछ लोगों को विशेष अवसर देना जरूरी होता है। आरक्षण यही करता है। इसी बात को साफ करने के लिए संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि इस तरह का आरक्षण समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है।
  • किसी तरह का भेदभाव न होने का सिद्धांत सामाजिक जीवन पर भी इसी तरह लागू होता है । संविधान सामाजिक भेदभाव के एक बहुत ही प्रबल रूप-छुआछूत का जिक्र करता है और सरकार को निर्देश देता है कि वह इसे समाप्त करे।
  • किसी भी तरह के छुआछूत को कानूनी रूप से गलत करार दिया गया है। यहाँ छुआछूत का मतलब कुछ खास जातियों के लोगों के शरीर को छूने से बचना भर नहीं है।
  • यह उन सारी सामाजिक मान्यताओं और आचरणों को भी गलत करार देता है जिसमें किसी खास जाति में जन्म लेने भर से लोगों को नीची नजर से देखा जाता है या उनके साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है। इसीलिए संविधान ने छुआछूत को दंडनीय अपराध घोषित किया है।
स्वतंत्रता का अधिकार
  • स्वतंत्रता का मतलब बाधाओं का न होना है। व्यावहारिक जीवन में इसका मतलब होता है हमारे मामलों में किसी किस्म का दखल न होना-न सरकार का, न व्यक्तियों का।
  • हम समाज में रहना चाहते हैं लेकिन हम स्वतंत्रता भी चाहते हैं। हम मनचाहे ढंग से काम करना चाहते हैं। कोई हमें यह आदेश न दे कि इसे ऐसे करो, वैसे करो। भारतीय संविधान ने प्रत्येक नागरिक को कई तरह की स्वतंत्रताएँ दी हैं-
    • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
    • शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने की स्वतंत्रता,
    • संगठन और संघ बनाने की स्वतंत्रता,
    • देश में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता,
    • देश के किसी भी भाग में रहने बसने की स्वतंत्रता है, और
    • कोई भी काम करने, पेशा चुनने या पेशा करने की स्वतंत्रता ।
  • प्रत्येक नागरिक को ये स्वतंत्रताएँ प्राप्त हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आप अपनी स्वतंत्रता का ऐसा उपयोग नहीं कर सकते जिससे दूसरे की स्वतंत्रता का हनन होता हो।
  • अभिव्यक्ति की आजादी हमारे लोकतंत्र की एक बुनियादी विशेषता है। अभिव्यक्ति की आजादी में बोलने, लिखने और कला के विभिन्न रूपों में स्वयं को व्यक्त करना शामिल है।
  • दूसरों से स्वतंत्र ढंग से विचार-विमर्श और संवाद करके ही हमारे विचारों और व्यक्तित्व का विकास होता है। संभव है कि कई सौ लोग एक ही तरह से सोचते हों, तब भी आपको अलग राय रखने और व्यक्त करने की आजादी है।
  • सरकार की किसी नीति से या किसी संगठन की गतिविधियों से असहमति रख सकते हैं। अपने मां-बाप, दोस्तों या रिश्तेदार से बातचीत करते हुए आप सरकार की किसी नीति या किसी संगठन की गतिविधियों की आलोचना करने को स्वतंत्र हैं।
  • अपने विचारों को परचा छापकर या अखबारों - पत्रिकाओं में लेख लिखकर भी व्यक्त कर सकते हैं। यह काम चित्र बनाकर, कविता या गीत लिखकर भी कर सकते हैं, लेकिन इस स्वतंत्रता का उपयोग करके किसी व्यक्ति या समुदाय के खिलाफ हिंसा को नहीं भड़का सकते। आप इस स्वतंत्रता का उपयोग करके लोगों को सरकार के खिलाफ बगावत के लिए नहीं उकसा सकते।
  • किसी के खिलाफ झूठी बातें कहने या उसकी प्रतिष्ठा गिराने वाली बातें प्रचारित करने में इस स्वतंत्रता का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
  • नागरिकों को किसी मुद्दे पर जमा होने, बैठक करने, प्रदर्शन करने, जुलूस निकालने का अधिकार है। यह सब किसी समस्या पर चर्चा करने, विचारों का आदान-प्रदान करने, किसी उद्देश्य के लिए जनमत तैयार करने या किसी चुनाव में किसी उम्मीदवार या पार्टी के लिए वोट मांगने के लिए कर सकते हैं। 
  • ऐसी बैठकें शांतिपूर्ण होनी चाहिए। इससे सार्वजनिक अव्यवस्था या समाज में अशांति नहीं फैलनी चाहिए। इन बैठकों और गतिविधियों में भाग लेने वालों को अपने पास हथियार नहीं रखने चाहिए।
  • नागरिकों को संगठन बनाने की भी स्वतंत्रता है। जैसे किसी कारखाने के मजदूर अपने हितों की रक्षा के लिए मजदूर संघ बना सकते हैं। किसी शहर के कुछ लोग भ्रष्टाचार या प्रदूषण के खिलाफ अभियान चलाने के लिए संगठन बना सकते हैं।
  • किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाने की स्वतंत्रता है। हम भारत के किसी भी हिस्से में रह और बस सकते हैं। जैसे असम का कोई व्यक्ति हैदराबाद में व्यवसाय करना चाहता है। संभव है कि उसने इस शहर को देखा भी न हो या यहाँ उसका कोई संपर्क न हो।
  • भारत का नागरिक होने के कारण उसे ऐसा करने का अधिकार है। इसी अधिकार के चलते लाखों लोग गाँवों से निकल कर शहरों में और देश के गरीब इलाकों से निकल कर समृद्ध इलाकों में आकर काम करते हैं, बस जाते हैं।
  • संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार और निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता कानून द्व रा स्थापित व्यवस्थाओं को छोड़कर। इसका मतलब यह है कि जब तक अदालत किसी व्यक्ति को मौत की सजा नहीं सुनाती, उसे मारा नहीं जा सकता।
शोषण के खिलाफ अधिकार
  • स्वतंत्रता और बराबरी का अधिकार मिल जाने के बाद स्वाभाविक है कि नागरिक को यह अधिकार भी हो कि कोई उसका शोषण न कर सके। भारतीय संविधान निर्माताओं ने इसे भी संविधान में लिखित रूप से दर्ज करने का फैसला किया ताकि कमजोर वर्गों का शोषण न हो सके।
  • संविधान ने खास तौर से तीन बुराइयों का जिक्र किया है और इन्हें गैर-कानूनी घोषित किया है।
    • पहला, संविधान मनुष्य जाति के अवैध व्यापार का निषेध करता है। आम तौर पर ऐसे धंधे का शिकार महिलाएँ होती हैं जिनका अनैतिक कामों के लिए शोषण होता है।
    • दूसरा, भारतीय संविधान किसी किस्म के बेगार या ज़बरन काम लेने का निषेध करता है। बेगार प्रथा में मजदूरों को अपने मालिक के लिए मुफ्त या बहुत थोड़े से अनाज इत्यादि के लिए जबरन काम करना पड़ता है। जब यही काम मजदूर को जीवन भर करना पड़ जाता है तो उसे बंधुआ मजदूरी कहते हैं।
    • तीसरा, भारतीय संविधान बाल मजदूरी का भी निषेध करता है। किसी कारखाने- खदान या रेलवे और बंदरगाह जैसे खतरनाक काम में कोई भी 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे से काम नहीं करा सकता।
    • इसी को आधार बनाकर बाल मजदूरी रोकने के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं। इसमें बीड़ी बनाने, पटाखे बनाने, दियासलाई बनाने, प्रिंटिंग और रंगरोगन जैसे कामों में बाल मजदूरी रोकने के कानून शामिल हैं।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  • स्वतंत्रता के अधिकार में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है और इस मामले में भी हमारे संविधान निर्माता विशेष रूप से चौकस थे। उन्होंने इस स्वतंत्रता को स्पष्ट रूप से अलग दर्ज किया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। विश्व के अन्य देशों के समान भारत के अधिकांश लोग अलग-अलग धर्म को मानते हैं।
  • भारतीय धर्मनिरपेक्षता में सभी धर्मों के प्रति शासन का समभाव रखना शामिल है। धर्म के मामले में शासन को सभी धर्मों से उदासीन और निरपेक्ष होना चाहिए। प्रत्येक को अपना धर्म मानने, उस पर आचरण करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है।
  • प्रत्येक धार्मिक समूह या पंथ को अपने धार्मिक कामकाज का प्रबंधन करने की आजादी है, लेकिन अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार का मतलब किसी को झांसा देकर, फरेब करके, लालच देकर उससे धर्म परिवर्तन कराना नहीं है।
  • निस्सक व्य को अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन करने की आजादा अपना धर्म मान और उसके अनुसार आचरण का यह अर्थ भी नहीं है कि व्यक्ति अपने मन के अनुसार जो चाहे सो करे। जैसे, कोई आदमी देवता या कथित अदृश्य शक्तियों को संतुष्ट करने के लिए नर बलि या पशु बलि नहीं दे सकता।
  • औरतों को कमतर मानने या औरतों की आजादी का हनन करने वाले धार्मिक रीतिरिवाजों पर आचरण करने की अनुमति नहीं है। जैसे, कोई जबरदस्ती किसी विधवा का मुंडन नहीं करा सकता या उसे सिर्फ सफेद कपड़े पहनने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।
  • धर्मनिरपेक्ष शासन का मतलब किसी एक धर्म का पक्ष लेना या उसे विशेषाधिकार देना भी नहीं है। ना ही ऐसा शासन किसी व्यक्ति को उसकी धार्मिक मान्यताओं के कारण सजा दे सकता है या उसके साथ भेदभाव कर सकता है। 
  • सरकारी शैक्षिक संस्थानों में किसी किस्म का धार्मिक निर्देश नहीं होना चाहिए। अगर किसी शैक्षिक संस्थान का संचालन कोई निजी संस्था करती है तो वहाँ के किसी भी व्यक्ति को प्रार्थना में हिस्सा लेने या किसी धार्मिक निर्देश का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार
  • प्रत्येक संविधान निर्माता अल्पसंख्यकों के अधिकारों की लिखित गारंटी को लेकर सचेत थे। लोकतंत्र की कार्यपद्धति अपने आप बहुसंख्यकों को ज्यादा ताकत दे देती है।
  • अल्पसंख्यकों को ही भाषा, संस्कृति और धर्म के विशेष संरक्षण की जरूरत होती है। अन्यथा वे बहुसंख्यकों की भाषा, धर्म और संस्कृति के प्रभाव में पिछड़ते चले जाएँगे। इसी के चलते • संविधान अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को स्पष्ट करता है:
    • नागरिकों में विशिष्ट भाषा या संस्कृति वाले किसी भी समूह को अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने का अधिकार है।
    • किसी भी सरकारी या सरकारी अनुदान पाने वाले शैक्षिक संस्थान में किसी नागरिक को धर्म या भाषा के आधार पर दाखिला लेने से नहीं रोका जा सकता। 
    • सभी अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद का शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार है।
अधिकार कैसे मिल सकते हैं?
  • यद्यपि अधिकार गारंटी की तरह हैं तब भी ये हमारे किसी काम के नहीं हैं, अगर इन गारंटियों को मानने और लागू करने वाला न हो। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार महत्त्वपूर्ण हैं। इसीलिए इन्हें लागू किया जा सकता है।
  • उपर्युक्त अधिकारों को लागू कराने की माँग करने का अधिकार है, हमारे पास उन्हें लागू कराने के उपाय हैं। इसे संवैधानिक उपचार का अधिकार कहा जाता है। यह भी एक मौलिक अधिकार है।
  • यह अधिकार अन्य अधिकारों को प्रभावी बनाता है। संभव है कि कई बार हमारे अधिकारों का उल्लंघन कोई और नागरिक या कोई संस्था या फिर स्वयं सरकार ही कर रही हो।
  • अगर मौलिक अधिकारों का मामला हो तो हम सीधे सर्वोच्च न्यायालय या किसी राज्य के उच्च न्यायालय में जा सकते हैं। इसी कारण डॉ. अंबेडकर ने संवैधानिक उपचार के अधिकार को हमारे संविधान की आत्मा और हृदय कहा था।
  • मौलिक अधिकार विधायिका, कार्यपालिका और सरकार द्वारा गठित किसी भी अन्य प्राधिकारी की गतिविधियों तथा फैसलों से ऊपर हैं। मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई कानून नहीं बन सकता, कोई फैसला नहीं लिया जा सकता।
  • विधायिका या कार्यपालिका के किसी भी फैसले या काम से मौलिक अधिकारों का हनन हो या उनमें कमी हो तो वह फैसला या काम ही अवैध हो जाएगा।
  • केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए ऐसे कानूनों को उनकी नीतियों और फैसलों को या राष्ट्रीयकृत बैंक या बिजली बोर्ड जैसी उनके द्वारा गठित संस्थाओं की नीतियों और फैसलों को चुनौती दे सकते हैं।
  • वे भी व्यक्तियों या निजी संस्थाओं के खिलाफ मौलिक अधिकार के मामले में दुखल दे सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकार लागू कराने के मामले में निर्देश देने आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है।
  • अदालतें गड़बड़ी का शिकार होने वालों को हर्जाना दिलवा सकती हैं और गड़बड़ी करने वालों को दंडित कर सकती हैं।
  • भारत की न्यायपालिका सरकार और संसद से स्वतंत्र है। न्यायपालिका बहुत शक्तिशाली है और नागरिकों के अधिकारों के लिए जो कुछ जरूरी हो, वह करने में सक्षम है।
  • मौलिक अधिकारों के हनन के मामले में कोई भी पीड़ित व्यक्ति न्याय पाने के लिए तुरंत अदालत में जा सकता है, लेकिन अगर मामला सामाजिक या सार्वजनिक हित का हो तो ऐसे मामलों में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को लेकर कोई भी व्यक्ति अदालत में जा सकता है। ऐसे मामलों को जनहित याचिका के माध्यम से उठाया जाता है।
अधिकारों का बढ़ता दायरा
  • संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार ही नागरिकों को मिलने वाले अधिकार हैं। मौलिक अधिकार बाकी सारे अधिकारों के स्रोत हैं। भारतीय संविधान और कानून हमें और बहुत सारे अधिकार देते हैं और साल दर साल अधिकारों का दायरा बढ़ता गया है।
  • समय-समय पर अदालतों ने ऐसे फैसले दिए हैं जिनसे अधिकारों का दायरा बढ़ा है। प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार जैसी चीजें मौलिक अधिकारों का ही विस्तार हैं, उन्हीं से निकली हैं। स्कूली शिक्षा हर भारतीय का अधिकार बन चुकी है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाना सरकार की जिम्मेदारी है।
  • संसद ने नागरिकों को सूचना का अधिकार देने वाला कानून भी पास कर दिया है। यह अधिकार विचारों और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार के तहत ही है। हमें सरकारी दफ्तरों से सूचना माँगने और पाने का अधिकार है ।
  • हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय ने जीवन के अधिकार को नया विस्तार देते हुए उसमें भोजन के अधिकार को भी शामिल कर दिया है। साथ ही, अधिकारों का दायरा संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों तक ही सीमित नहीं है।
  • अधिकारों का दायरा बढ़ता जा रहा है और हर समय नए अधिकार सामने आ रहे हैं। ये लोगों के संघर्षों से हासिल हुए हैं।

लोकतंत्र में अधिकारों की जरूरत

  • लोकतंत्र की स्थापना के लिए अधिकारों का होना जरूरी है। लोकतंत्र में हर नागरिक को वोट देने और चुनाव लड़कर प्रतिनिधि चुने जाने का अधिकार है।
  • लोकतांत्रिक चुनाव हों इसके लिए लोगों को अपने विचारों को व्यक्त करने की, राजनैतिक पार्टी बनाने और राजनैतिक गतिविधियों की आजादी का होना जरूरी है।
  • लोकतंत्र में अधिकारों की एक खास भूमिका भी है। अधिकार बहुसंख्यकों के दमन से अल्पसंख्यकों की रक्षा करते हैं। ये इस बात की व्यवस्था करते हैं कि बहुसंख्यक किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मनमानी न करें।
  • अधिकार स्थितियों के बिगड़ने पर एक तरह की गारंटी जैसे हैं। अगर कुछ नागरिक दूसरों के अधिकारों को हड़पना चाहें तो स्थिति बिगड़ सकती है।
  • यह स्थिति आम तौर पर तब आती है जब बहुमत के लोग अल्पमत में आ गए लोगों पर प्रभुत्व कायम करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। लेकिन कई बार चुनी हुई सरकार भी अपने ही नागरिकों के अधिकारों पर हमला करती है या संभव है, वह नागरिक के अधिकारों की रक्षा न करे।
  • इसीलिए कुछ अधिकारों को सरकार से भी ऊँचा दर्जा दिए जाने की जरूरत है ताकि सरकार भी उनका उल्लंघन न कर सके। अधिकांश लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में नागरिकों के अधिकार संविधान में लिखित रूप में दर्ज होते हैं।
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Wed, 29 Nov 2023 07:02:44 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | संस्थाओं का कामकाज https://m.jaankarirakho.com/501 https://m.jaankarirakho.com/501 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | संस्थाओं का कामकाज
प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद्
  • इस देश में प्रधानमंत्री सबसे महत्त्वपूर्ण राजनैतिक संस्था है। फिर भी प्रधानमंत्री के लिए कोई प्रत्यक्ष चुनाव नहीं होता। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करते हैं।
  • राष्ट्रपति अपनी मर्जी से किसी को प्रधानमंत्री नियुक्त नहीं कर सकते। राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत वाली पार्टी या पार्टियों के गठबंधन के नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।
  • किसी एक पार्टी या गठबंधन को बहुमत हासिल नहीं होता तो राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त करता है जिसे सदन में बहुमत हासिल होने की संभावना होती है।
  • प्रधानमंत्री का कार्यकाल तय नहीं होता। वह तब तक अपने पद पर रह सकता है जब तक वह पार्टी या गठबंधन का नेता है।
  • प्रधानमंत्री को नियुक्त करने के बाद राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर दूसरे मंत्रियों को नियुक्त करते है। मंत्री अमूमन उसी पार्टी या गठबंधन के होते हैं जिसे लोकसभा में बहुमत हासिल हो ।
  • प्रधानमंत्री मंत्रियों के चयन के लिए स्वतंत्र होता है, बशर्ते वे संसद के सदस्य हों। कभी-कभी ऐसे व्यक्ति को भी मंत्री बनाया जा सकता है जो संसद का सदस्य नहीं हो, लेकिन उस व्यक्ति का, मंत्री बनने के 6 महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य चुना जाना जरूरी है।
  • मंत्रिपरिषद् उस निकाय का सरकारी नाम है जिसमें सारे मंत्री होते हैं। इसमें अमूमन विभिन्न स्तरों के 6 से 8 मंत्री होते हैं।
  • कैबिनेट मंत्री अमूमन सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन की पार्टियों के वरिष्ठ नेता होते हैं ये प्रमुख मंत्रालयों के प्रभारी होते हैं। कैबिनेट मंत्री मंत्रिपरिषद् के नाम पर फैसले करने के लिए बैठक करते हैं। इस तरह कैबिनेट मंत्रिपरिषद् का शीर्ष समूह होता है। इसमें करीब 2 मंत्री होते हैं।
  • स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री अमूमन छोटे मंत्रालयों के प्रभारी होते हैं। वे विशेष रूप से आमंत्रित किए जाने पर ही कैबिनेट की बैठकों में भाग लेते हैं। राज्य मंत्री अपने विभाग के कैबिनेट मंत्रियों से जुड़े होते हैं और उनकी सहायता करते हैं।
  • सारे मंत्रियों के लिए नियमित रूप से मिलकर हर बात पर चर्चा करना व्यावहारिक नहीं है लिहाजा फैसले कैबिनेट बैठकों में ही किए जाते हैं।
  • इसी वजह से अधिकांश देशों में संसदीय लोकतंत्र को सरकार का कैबिनेट रूप कहा जाता है। कैबिनेट टीम के रूप में काम करती है।
  • प्रत्येक मंत्रालय में सचिव होते हैं, जो नौकरशाह होते हैं। ये सचिव फैसला करने के लिए मंत्री को जरूरी सूचना मुहैया कराते हैं।
  • मंत्रियों की राय और विचार अलग हो सकते हैं लेकिन सबको कैबिनेट के फैसले की जिम्मेदारी लेनी होती है। भले ही कोई फैसला किसी दूसरे मंत्रालय या विभाग का हो लेकिन कोई भी मंत्री सरकार के फैसले की खुलेआम आलोचना नहीं कर सकता।
  • टीम के रूप में कैबिनेट की मदद कैबिनेट सचिवालय करता है। उसमें कई वरिष्ठ नौकरशाह शामिल होते हैं जो विभिन्न मंत्रालयों के समन्वय स्थापित करने की कोशिश करते हैं।
प्रधानमंत्री के अधिकार
  • संविधान में प्रधानमंत्री या मंत्रियों के अधिकारों या एक-दूसरे से उनके संबंध के बारे में बहुत कुछ नहीं कहा गया है, लेकिन सरकार के प्रमुख के नाते प्रधानमंत्री के व्यापक अधिकार होते हैं।
  • वह कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करता है। वह विभिन्न विभागों के कार्य का समन्वय करता है। विभागों के विवाद के मामले में उसका निर्णय अंतिम माना जाता है।
  • वह विभिन्न विभागों की सामान्य निगरानी करता है। सारे मंत्री उसी के नेतृत्व में काम करते हैं। जब प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ता है तो पूरा मंत्रिमंडल इस्तीफा दे देता है।
  • इस तरह अगर भारत में कैबिनेट सबसे अधिक प्रभावशाली संस्था है तो कैबिनेट के भीतर सबसे प्रभावशाली व्यक्ति प्रधानमंत्री होता है। विश्व के सभी संसदीय लोकतंत्रों में प्रधानमंत्री के अधिकार हाल के दशकों में इतने बढ़ गए हैं कि संसदीय लोकतंत्र को कभी-कभी सरकार का प्रधानमंत्रीय रूप कहा जाने लगा है।
  • राजनीति में राजनैतिक दलों की भूमिका बढ़ने के साथ ही प्रधानमंत्री पार्टी के जरिए कैबिनेट और संसद को नियंत्रित करने लगा है। मीडिया राजनीति और चुनाव को पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं के बीच प्रतिस्पर्धा के रूप में पेश करके इस रुझान में अपना योगदान करती है। 
  • भारत में भी हमने प्रधानमंत्री के पास ही सारे अधिकार सीमित करने की प्रवृत्ति देखी है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ढेर सारे अधिकारों का इस्तेमाल किया क्योंकि उनका जनता पर बहुत अधिक प्रभाव था।
  • इंदिरा गांधी भी कैबिनेट के अपने सहयोगियों की तुलना में बहुत ज्यादा प्रभावशाली थीं। जाहिर है कि किसी प्रधानमंत्री का अधिकार उस पद पर बैठे व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी निर्भर करता है।
  • हाल के वर्षों में भारत में गठबंधन की राजनीति के उभार से प्रधानमंत्री के अधिकार कुछ हद तक सीमित हुए हैं।
  • गठबंधन सरकार का प्रधानमंत्री अपनी मर्जी से फैसले नहीं कर सकता। उसे अपनी पार्टी के भीतर विभिन्न समूहों और गुटों के साथ गठबंधन के साझीदारों की राय भी माननी होती है।
  • उसे गठबंधन के साझीदारों और दूसरी पार्टियों के विचारों और स्थितियों को भी देखना होता है. आखिर उन्हीं के समर्थन के आधार पर सरकार टिकी होती है।
राष्ट्रपति
  • एक ओर जहाँ प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है, वहीं राष्ट्रपति राष्ट्राध्यक्ष होता है। हमारी राजनैतिक व्यवस्था में राष्ट्राध्यक्ष केवल नाम के अधिकारों का प्रयोग करता है।
  • भारत का राष्ट्रपति ब्रिटेन की महारानी की तरह होता हैं, जिसका काम आलंकारिक अधिक होता है। राष्ट्रपति देश की सभी राजनैतिक संस्थाओं के काम की निगरानी करता है ताकि वे राज्य के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए मिल-जुलकर काम करें।
  • राष्ट्रपति का चयन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जाता। संसद सदस्य और राज्य की विधानसभाओं के सदस्य उसे चुनते हैं। राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी को चुनाव जीतने के लिए बहुमत हासिल करना होता है।
  • राष्ट्रपति पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन राष्ट्रपति उस तरह से प्रत्यक्ष जनादेश का दावा नहीं कर सकता जिस तरह से प्रधानमंत्री। इससे यह तय हो जाता है कि राष्ट्रपति कहने मात्र के लिए कार्यपालक की भूमिका निभाता है।
  • राष्ट्रपति के अधिकारों के मामले में भी यही बात लागू होती है। सारी सरकारी गतिविधियाँ राष्ट्रपति के नाम पर ही होती हैं। सारे कानून और सरकार के प्रमुख नीतिगत फैसले उसी के नाम से जारी होते हैं। सभी प्रमुख नियुक्तियाँ राष्ट्रपति के नाम पर ही होती हैं।
  • वह भारत के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और राज्य के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, राज्यपालों, चुनाव आयुक्तों और दूसरे देशों में राजदूतों आदि को नियुक्त करता है।
  • सभी अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ और समझौते उसी के नाम से होते हैं। भारत के रक्षा बलों का सुप्रीम कमांडर राष्ट्रपति ही होता है।
  • राष्ट्रपति इन अधिकारों का इस्तेमाल मंत्रिपरिषद् की सलाह पर ही करता है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् को अपनी सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन अगर वही सलाह दोबारा मिलती है तो वह उसे मानने के लिए बाध्य होता हैं।
  • इसी प्रकार संसद द्वारा पारित कोई विधेयक राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही कानून बनता है। अगर राष्ट्रपति चाहे तो उसे कुछ समय के लिए रोक सकता है।
  • वह विधेयक पर पुनर्विचार के लिए उसे संसद में वापस भेज सकता है, लेकिन अगर संसद दोबारा विधेयक पारित करती है तो उसे उस पर हस्ताक्षर करने ही पड़ेंगे। प्रधानमंत्री की नियुक्ति स्वविवेक से करनी चाहिए।
  • जब कोई पार्टी या गठबंधन चुनाव में बहुमत हासिल कर लेता है तो राष्ट्रपति पास कोई विकल्प नहीं होता।
  • लोकसभा में बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करना होता है। जब किसी पार्टी या गठबंधन को लोकसभा में बहुमत हासिल नहीं होता तो राष्ट्रपति अपने विवेक से काम लेता है।
  • वह ऐसे नेता को नियुक्त करता है जो उसकी राय में लोकसभा में बहुमत जुटा सकता है। ऐसे मामले में राष्ट्रपति नवनियुक्त प्रधानमंत्री से एक तय समय के भीतर लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहता है ।
न्यायपालिका
  • सर्वोच्च न्यायालय के पास सरकार की कार्रवाइयों को आँकने का अधिकार नहीं होता। मगर सर्वोच्च न्यायालय से कोई निष्पक्ष न्याय की उम्मीद नहीं रखता। भले ही वह निष्पक्ष फैसला सुना देता लेकिन सरकार के आदेश के खिलाफ अपील करने वाले उसके फैसले को नहीं मानते।
  • इसी वजह से लोकतंत्रों के लिए स्वतंत्र और प्रभावशाली न्यायपालिका को जरूरी माना जाता है। देश के विभिन्न स्तरों पर मौजूद अदालतों को सामूहिक रूप से न्यायपालिका कहा जाता है।
  • भारतीय न्यायपालिका में पूरे देश के लिए सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों में उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय और स्थानीय स्तर के न्यायालय होते हैं।
  • भारत में न्यायपालिका एकीकृत है। इसका मतलब यह कि सर्वोच्च न्यायालय देश में न्यायिक प्रशासन को नियंत्रित करता है। देश की सभी अदालतों को उसका फैसला मानना होता है । वह इनमें से किसी भी विवाद की सुनवाई कर सकता है: 
    • देश के नागरिकों के बीच;
    • नागरिकों और सरकार के बीच;
    • दो या उससे अधिक राज्य सरकारों के बीच और ;
    • केंद्र और राज्य सरकार के बीच।
  • यह फौजदारी और दीवानी मामले में अपील के लिए सर्वोच्च संस्था है। यह उच्च न्यायालयों के फैसलों के खिलाफ सुनवाई कर सकता है।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब है कि वह विधायिका या कार्यपालिका के नियंत्रण में नहीं है ।
  • न्यायाधीश सरकार के निर्देश या सत्ताधारी पार्टी की मर्जी के मुताबिक काम नहीं करते। इसी वजह से सभी आधुनिक लोकतंत्रों में अदालतें, विधायिका और कार्यपालिका के अधीन नहीं होतीं।
  • राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को प्रधानमंत्री की सलाह पर और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सलाह से नियुक्त करता है ।
  • व्यावहारिक तौर पर अब इस व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के नए न्यायाधीशों को चुनते हैं। इसमें राजनैतिक कार्यपालिका की दखल की गुंजाइश बेहद कम है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है। एक बार किसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त करने के बाद उसे उसके पद से हटाना लगभग असंभव हो जाता है। उसे हटाना भारत के राष्ट्रपति को हटाने जितना ही मुश्किल है।
  • किसी भी न्यायाधीश को संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग दो-तिहाई बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित करके ही हटाया जा सकता है। भारतीय लोकतंत्र में ऐसा कभी नहीं हुआ।
  • भारत की न्यायपालिका दुनिया की सबसे अधिक प्रभावशाली न्यायपालिकाओं में से एक है।
  • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को देश के संविधान की व्याख्या का अधिकार है। अगर उन्हें लगता है कि विधायिका का कोई कानून या कार्यपालिका की कोई कार्रवाई संविधान के खिलाफ है तो वे केंद्र और राज्य स्तर पर ऐसे कानून या कार्रवाई को अमान्य घोषित कर सकते हैं। इस तरह जब उनके सामने किसी कानून या कार्यपालिका की कार्रवाई को चुनौती मिलती है तो वे उसकी संवैधानिक वैधता तय करते हैं। इसे न्यायिक समीक्षा के रूप में जाना जाता है।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी फैसला दिया है कि संसद, संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को बदल नहीं सकती।
  • भारतीय न्यायपालिका के अधिकार और स्वतंत्रता उसे मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में काम करने की क्षमता प्रदान करते हैं।
  • नागरिकों को संविधान से मिले मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में इंसाफ पाने के लिए अदालतों में जाने का अधिकार है।
  • हाल के वर्षों में अदालतों ने सार्वजनिक हित और मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए विभिन्न फैसले और निर्देश दिए हैं।

संसद की आवश्यकता क्यों

  • प्रत्येक लोकतंत्र में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की सभा, जनता की ओर से सर्वोच्च राजनैतिक अधिकार का प्रयोग करती है। भारत में निर्वाचित प्रतिनिधियों की राष्ट्रीय सभा को संसद कहा जाता है।
  • राज्य स्तर पर इसे विधानसभा कहते हैं। अलग-अलग देशों में इनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं पर हर लोकतंत्र में निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा होती है। यह जनता की ओर से कई तरह से राजनैतिक अधिकार का प्रयोग करती है:
  1. किसी भी देश में कानून बनाने का सबसे बड़ा अधिकार संसद को होता है। कानून बनाने या विधि निर्माण का यह काम इतना महत्त्वपूर्ण होता है कि इन सभाओं को विधायिका कहते हैं। दुनिया भर की संसदें नए कानून बना सकती हैं, मौजूदा कानूनों में संशोधन कर सकती हैं या मौजूदा कानून को खत्म कर उसकी जगह नये कानून बना सकती हैं।
  2. दुनिया भर में संसद सरकार चलाने वालों को नियंत्रित करने के लिए कुछ अधिकारों का प्रयोग करती हैं। भारत जैसे देश में उसे सीधा और पूर्ण नियंत्रण हासिल है। संसद के पूर्ण समर्थन की स्थिति में ही सरकार चलाने वाले फैसले कर सकते हैं।
  3. सरकार के पैसे पर संसद का नियंत्रण होता है। अधिकांश देशों में संसद की मंजूरी के बाद ही सार्वजनिक पैसे को खर्च किया जा सकता है।
  4. सार्वजनिक मसलों और किसी देश की राष्ट्रीय नीति पर चर्चा और बहस के लिए संसद ही सर्वोच्च संघ है। संसद किसी भी मामले में सूचना माँग सकती है।
  • संसद के दो सदन चूँकि आधुनिक लोकतंत्रों में संसद बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लिहाजा अधिकांश बड़े देशों ने संसद की भूमिका और अधिकारों को दो हिस्सों में बाँट दिया है।
  • पहले सदन के सदस्य आम तौर से सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं और जनता की ओर से असली अधिकारों का प्रयोग करते हैं।
  • दूसरे सदन के सदस्य अमूमन परोक्ष रूप से चुने जाते हैं और कुछ विशेष काम करते हैं। दूसरे सदन का सामान्य काम विभिन्न राज्य, क्षेत्र और संघीय इकाइयों के हितों की निगरानी करना होता है।
  • हमारे देश में संसद के दो सदन हैं। दोनों सदनों में एक को राज्यसभा और दूसरे को लोकसभा के नाम से जाना जाता है।
  • भारत का राष्ट्रपति संसद का हिस्सा होता है हालांकि वह दोनों में से किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता। इसीलिए संसद के फैसले राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही लागू होते हैं।
लोकसभा बनाम राज्य सभा
  • राज्यसभा को कभी-कभी अपर हाउस और लोकसभा को लोअर हाउस कहा जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि राज्यसभा लोकसभा से ज्यादा प्रभावशाली होती है।
  • यह महज बोलचाल की पुरानी शैली है और हमारे संविधान में यह भाषा इस्तेमाल नहीं की गई है। हमारे संविधान में राज्यों के संबंध में राज्यसभा को कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं। अधिकतर मामलों पर सर्वोच्च अधिकार लोकसभा के पास ही है।
  1. किसी भी सामान्य कानून को पारित करने के लिए दोनों सदनों की जरूरत होती है। लेकिन अगर दोनों सदनों के बीच कोई मतभेद हो तो अंतिम फैसला दोनों के संयुक्त अधिवेशन में किया जाता है। इसमें दोनों सदनों के सदस्य एक साथ बैठते हैं। सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण इस तरह की बैठक में लोकसभा के विचार को प्राथमिकता मिलने की संभावना रहती है।
  2. लोकसभा पैसे के मामलों में अधिक अधिकारों का प्रयोग करती है। लोकसभा में सरकार का बजट या पैसे से संबंधित कोई कानून पारित हो जाए तो राज्यसभा उसे खारिज नहीं कर सकती। राज्यसभा उसे पारित करने में केवल 14 दिनों की देरी कर सकती है या उसमें संशोधन के सुझाव दे सकती है। यह लोकसभा का अधिकार है कि वह उन सुझावों को माने या न माने। 
  3. लोकसभा मंत्रिपरिषद् को नियंत्रित करती है। सिर्फ वही व्यक्ति प्रधानमंत्री बन सकता है जिसे लोकसभा में बहुमत हासिल हो। अगर आधे से अधिक लोकसभा सदस्य यह कह दें कि उन्हें मंत्रिपरिषद् पर विश्वास नहीं है तो प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्रियों को पद छोड़ना होगा। राज्यसभा को यह अधिकार हासिल नहीं है।
राजनैतिक कार्यपालिका
  • किसी भी सरकार के विभिन्न स्तरों पर हमें ऐसे अधिकारी मिलते हैं जो रोजमर्रा के फैसले करते हैं लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वे जनता के द्वारा दिए गए सबसे बड़े अधिकारों का इस रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इन सभी अधिकारियों को सामूहिक रूप से कार्यपालिका के रूप में जाना जाता है।
  • सरकार की नीतियों को कार्यरूप देने के कारण इन्हें कार्यपालिका कहा जाता है। इस तरह जब हम सरकार के बारे में बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य आम तौर पर कार्यपालिका से ही होता है।
राजनैतिक और स्थायी कार्यपालिका
  • किसी लोकतांत्रिक देश में कार्यपालिका के दो हिस्से होते हैं। जनता द्वारा खास अवधि तक के लिए निर्वाचित लोगों को राजनैतिक कार्यपालिका कहते हैं। ये राजनैतिक व्यक्ति होते हैं जो बड़े फैसले करते हैं। दूसरी ओर जिन्हें लंबे समय के लिए नियुक्त किया जाता है उन्हें स्थायी कार्यपालिका या प्रशासनिक सेवक कहते हैं।
  • लोक सेवाओं में काम करने वाले लोगों को सिविल सर्वेट या नौकरशाह कहते हैं। वे सत्ताधारी पार्टी के बदलने के बावजूद अपने पदों पर बने रहते हैं। ये अधिकारी राजनैतिक कार्यपालिका के तहत काम करते हैं और रोजमर्रा के प्रशासन में उनकी सहायता करते हैं।
  • नौकरशाह अमूमन अधिक शिक्षित होता है और उसे विषय की अधिक महारथ और जानकारी होती है।
  • वित्त मंत्रालय में काम करने वाले सलाहकारों को अर्थशास्त्र की जानकारी वित्त मंत्री से ज्यादा हो सकती है। कभी-कभी मंत्रियों को अपने मंत्रालय के अधीनस्थ मामलों की तकनीकी जानकारी बहुत कम हो सकती है। रक्षा, उद्योग, स्वास्थ्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, खान आदि मंत्रालयों में ऐसा होना आम बात है।
  • इसकी वजह बहुत सीधी है। किसी भी लोकतंत्र में लोगों की इच्छा सर्वोपरि होती है। मंत्री लोगों द्वारा चुना गया होता है और इस तरह उसे जनता की ओर से उनकी इच्छाओं को लागू करने का अधिकार होता है।
  • वह अपने फैसले के नतीजे के लिए लोगों के प्रति जिम्मेदार होता है। इसी वजह से मंत्री ही सारे फैसले करता है। मंत्री ही उस ढाँचे और उद्देश्यों को तय करता है जिसमें नीतिगत फैसले किए जाते हैं। किसी मंत्री से अपने मंत्रालय के मामलों का विशेषज्ञ होने की कतई उम्मीद नहीं की जाती।
  • सभी तकनीकी मामलों पर मंत्री विशेषज्ञों की सलाह लेता है लेकिन विशेषज्ञ अकसर अलग राय रखते हैं या फिर वे एक से अधिक विकल्प मंत्री के सामने पेश करते हैं। मंत्री अपने उद्देश्यों के मुताबिक ही निर्णय लेता है।
  • दरअसल, ऐसा हर बड़े संगठन में होता है। जो पूरे मामले को भली भाँति समझते हैं, वे ही सबसे महत्वपूर्ण फैसले करते हैं विशेषज्ञ नहीं करते।
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Wed, 29 Nov 2023 06:38:07 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | चुनावी राजनीति https://m.jaankarirakho.com/500 https://m.jaankarirakho.com/500 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | चुनावी राजनीति

स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की चुनौतियाँ

  • भारत में चुनाव बुनियादी रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं। जो पार्टी चुनाव जीतकर सरकार बनाती है उसे लोगों का समर्थन प्राप्त होता है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र पर यह बात लागू होती है।
  • कुछ उम्मीदवार पैसों के जोर पर या गलत तरीकों से जीते हो सकते हैं पर चुनाव का कुल नतीजा अभी भी लोगों की इच्छा को ही बताता है। 
  • पिछले 50 वर्षों में हमारे देश में इस सामान्य नियम के थोड़े बहुत अपवाद हैं और यही चीज भारतीय चुनाव प्रणाली को लोकतांत्रिक बनाती है।
    • ज्यादा रुपये-पैसे वाले उम्मीदवार और पार्टियाँ गलत तरीके से चुनाव जीत ही जाएँगे यह कहना मुश्किल है पर उनकी स्थिति दूसरों से ज्यादा मजबूत रहती है।
    • देश के कुछ इलाकों में आपराधिक पृष्ठभूमि और संबंधों वाले उम्मीदवार दूसरों को चुनाव मैदान से बाहर करने और बड़ी पार्टियों के टिकट पाने में सफल होने लगे हैं।
    • अलग-अलग पार्टियों में कुछेक परिवारों का जोर है और उनके रिश्तेदार आसानी से टिकट पा जाते हैं।
    • अकसर आम आदमी के लिए चुनाव में कोई ढंग का विकल्प नहीं होता क्योंकि दोनों प्रमुख पार्टियों की नीतियाँ और हार कमोबेश एक-से होते हैं।
    • बड़ी पार्टियों की तुलना में छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को कई तरह की परेशानियाँ उठानी पड़ती हैं।
  • ये चुनौतियाँ भारत की ही नहीं हैं। कई स्थापित लोकतंत्रों की भी यही स्थिति है। कुछ समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए चुनाव प्रणाली में जरूरी बदलावों की माँग नागरिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों की तरफ से होती रही है।
चुनावी धांधली
  • चुनाव में अपने वोट बढ़ाने के लिए उम्मीदवारों और पार्टियों द्व द्वारा की जाने वाली गड़बड़ या फरेब । इसमें कुछ ही लोगों द्व रा काफी सारे लोगों के वोट डाल देना; एक ही व्यक्ति द्व रा अलग-अलग लोगों के नाम पर वोट डालना और मतदान अधिकारियों को डरा धमकाकर या रिश्वत देकर अपने उम्मीदवार के पक्ष में काम करवाना जैसी बातें शामिल हैं।
मतदान केंद्र पर कब्जा
  • किसी उम्मीदवार या पार्टी के समर्थकों या भाड़े के अपराधियों द्वारा मतदान केंद्र पर कब्जा करना, असली मतदाताओं को मतदान केंद्रों पर आने से रोकना और खुद सारे या ज्यादातर वोट डाल देना ।
निर्वाचन क्षेत्र
  • एक खास भौगोलिक क्षेत्र के मतदाता जो एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं।
आचार संहिता
  • चुनाव के समय पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा माने जाने वाले कायदे-कानून और दिशा-निर्देश।
भारत में चुनाव के प्रकार-
  • भारत में विभिन्न स्तर की नियुक्ति के लिए विभिन्न तरह के चुनाव होते हैं। मुख्य तौर पर दो तरह के चुनाव भारत में अति महत्त्वपूर्ण है। ये दो चुनाव है: लोकसभा तथा विधानसभा। 
लोकसभा चुनाव
  • आम तौर पर प्रत्येक पांच साल के अंतराल पर लोकसभा चुनाव होता है। इस चुनाव के लिए देश को विभिन्न संसदीय क्षेत्रों में विभक्त किया जाता है और प्रत्येक संसदीय क्षेत्र के विभिन्न उम्मीदवारों में से जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है।
  • संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुसार इस निर्वाचन का नियंत्रण और नियमन भारत निर्वाचन आयोग के हाथों होता है। इस निर्वाचन आयोग के कार्यों को करने के लिए भारतीय सिविल सर्विस द्व रा दो उप निर्वाचन अधीक्षकों की नियुक्ति होती है।
  • इस चुनाव में निर्वाचित लोग देश के संसद में हिस्सा लेते हैं। संसद में कुल 552 सांसद होते हैं। इसे 'लोअर हाउस ऑफ पार्लियामेंट' कहा जाता है। लोकसभा में चुने गये प्रतिनिधियों को सांसद अथवा 'मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट (एमपी) कहते हैं।
लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया
  • भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव आयोजित किया जाता है। इसके लिए देश के विभिन्न राज्यों में अलग अलग जगहों को लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में बाँट दिया गया है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से विभिन्न पार्टियाँ अपना उम्मीदवार चुनाव लड़ने के लिए उतारती हैं।
  • विभिन्न पार्टियाँ अपने पार्टी फण्ड का इस्तेमाल करके अपने-अपने उम्मीदवारों का प्रचार करती है। ये प्रचार चुनाव के एक दिन पहले बंद हो जाता है। लोकसभा चुनाव पार्टियों के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी भी लड़ सकते हैं।
लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए योग्यता
  • लोकसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को निम्न शर्तों पर खरा उतरना होता है-
    • उम्मीदवार को भारत का नागरिक होना होता है। 
    • उम्मीदवार की उम्र 25 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
    • साथ ही समय समय पर संसद द्वारा बनाये गये अन्य क्वालिफिकेशन पर खरा उतरना होता है।
    • उम्मीदवार पर किसी तरह का आपराधिक मामला दर्ज नहीं होना चाहिए।
    • उम्मीदवार का नाम देश के किसी भी हिस्से से मतदाता सूची में दर्ज होना चाहिए, यानि उम्मीदवार का मतदाता होना अनिवार्य है।
    • यदि उम्मीदवार किसी भी तरह से निम्नलिखित शर्तों के अंतर्गत आता है, तो उसका आवेदन निर्वाचन आयोग द्वारा रद्द कर दिया जायेगा।
    • यदि उम्मीदवार किसी तरह के 'ऑफिस ऑफ प्रॉफिट' में शामिल है।
    • यदि उम्मीदवार ' अनुन्मुक्त दिवालिया' हो ।
    • यदि उम्मीदवार किसी तरह से 'लोकसभा उम्मीदवार' होने की शर्तों पर काबिल नहीं हो पाता।
लोकसभा सीट खाली होने के कारण
  • कोई निर्वाचित लोकसभा सदस्य की सदस्यता निम्न कारणों से खारिज भी हो सकती है -
    • यदि सांसद लोकसभा स्पीकर को अपना त्यागपत्र दे देता है।
    • यदि सदस्य लगातार 60 दिनों तक बिना स्पीकर की अनुमति से संसद में अनुपस्थित रहता है ।
    • यदि किसी कारणवश लोकसभा सदस्य अयोग्य घोषित हो जाता है।
राज्यसभा
  • इसे 'अपर हाउस ऑफ पार्लियामेंट' भी कहा जाता है। संवैधानिक तौर पर इसमें कुल 250 सीटें होती हैं। भारत के राष्ट्रपति इस हाउस के लिए कला, विज्ञान, साहित्य आदि क्षेत्रों से 12 सदस्यों को चुन सकते हैं।
  • राज्यसभा सांसदों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है, जिसमें प्रत्येक 2 वर्ष में एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त हो जाते हैं। राज्य सभा में शामिल होने के लिए उम्मीदवार की उम्र न्यूनतम 30 वर्ष की होनी चाहिए।
  • राज्यसभा सांसदों के चुनावों में आम नागरिकों की कोई भूमिका नहीं होती। राज्यसभा सांसदों का निर्वाचन विधासनभा से होता है। देश के विभिन्न राज्यों के विधान सभा से 'सिंगल ट्रांसफरेबल वोट' निर्वाचित राज्यसभा सांसद राज्यसभा के बहस में हिस्सा लेते हैं।
विधान सभा चुनाव
  • विधानसभा राज्य सरकार के गठन के लिए होने वाले चुनावों को कहा जाता है। ये भी देश के विभिन्न राज्यों में प्रत्येक पांच वर्षों में संपन्न होता है।
  • राज्य का कोई भी व्यक्ति जो 18 वर्ष या इससे अधिक का हो तथा इलेक्शन कमीशन में अपना नाम एनरोल कराया हो, अपने विधानसभा निर्वाचन से अपने पसंदीदा उम्मीदवार को अपना वोट दे सकता है। विधान सभा में चुने गए जन-प्रतिनिधि को विधायक कहा जाता है।
विधानसभा की चुनाव प्रक्रिया
  • लोकसभा की तरह विधानसभा चुनाव भी निर्वाचन आयोग की देख-रेख में पांच वर्ष के अंतराल पर होता है। राज्य के आकर और जनसंख्या के अनुसार विभिन्न राज्यों के विभिन्न संख्या में विधानसभा सीटें हैं। इन विधान सभा सीटों से कई क्षेत्रीय पार्टी, निर्दलीय और राष्ट्रीय पार्टियों के प्रतिनिधि चुनाव लड़ते हैं।
पद के उम्मीदवारों की योग्यता
  • उम्मीदवार की आयु कम से कम 25 वर्ष की होनी चाहिए।
  • उम्मीदवार के विरुद्ध किसी तरह का कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं होना चाहिए।
  • उम्मीदवार 'मेंटली' स्वस्थ होना चाहिए।
  • उम्मीदवार का भारतीय नागरिक होना अनिवार्य है। साथ ही उम्मीदवार का नाम मतदाता सूची में होना भी अनिवार्य है।

भारत में राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति चुनाव

  • भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा, राज्यसभा तथा विभिन्न राज्यों के विधायकों की प्रतिभागिता रहती है। ये चुनाव तात्कालिक राष्ट्रपति के कार्यकाल समाप्त होने के पहले होता है।
  • संविधान के अधिनियम संख्या 55 के अनुसार 'प्रोपोरशनल रिप्रेजेंटेशन सिस्टम के अंतर्गत राष्ट्रपति चुनाव होता है, जिसम 'सीक्रेट वेट' व्यवस्था का प्रयोग होता है।
  • भारत के उपराष्ट्रपति का चुनाव लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों के सीधे वोटिंग से होता है। यह चुनाव उपराष्ट्रपति के ऑफिस में निर्वाचन आयोग द्वारा कंडकट होता है।
भारत में चुनाव परिणाम और बहुमत
  • चुनाव के बाद मतगणना की प्रक्रिया शुरू होती है. ये प्रक्रिया काफी देख रेख में होती है। यदि वोटिंग रिजल्ट में किसी पार्टी को कुल सीटों की दो तिहाई सीटों पर जीत हासिल होती है, तो उस राजनैतिक पार्टी की जीत होगी और सरकार बनाने का मौका मिलेगा।
  • यदि किसी भी राजनैतिक पार्टी को बहुमत हासिल नहीं हो पाता है, तो गठबंधन की सरकार बनती है। इस तरह की सरकारों में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों हिस्सा लेती है और कैविनेट में दोनों पार्टियों के लोग शामिल होते हैं। विपक्ष में आने के लिए हारी हुई पार्टियों में न्यूनतम कुल सीटों का 10 प्रतिशत प्राप्त करना होता है।
भारत का निर्वाचन आयोग-
  • भारत का निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है, जो भारत के विभिन्न चुनावों की प्रक्रिया पूर्ण करती है। इस संस्था की स्थापना 25 जनवरी, 1950 में हुई थी।
  • इस संस्था की मुख्य भूमिका चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शिता देने में है। देश के लोकतंत्र में निर्वाचन की बहुत अहम् भूमिका है।
भारत में निर्वाचन आयोग की भूमिका-
  • निर्वाचन आयोग का मुख्य कार्य चुनाव के दौरान मॉडल कांड ऑफ कंडक्ट की सहायता से चुनाव को पारदर्शी बनाए रखना है। ये संस्था स्वतंत्र है और किसी सरकार के अधीन कार्य नहीं करती।
  • यदि किसी चुनाव के दौरान कोई उम्मीदवार मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट का पालन नहीं करता है, तो आयोग उसके विरुद्ध नोटिस जारी करती है और कंस न्यायलय में पहुँच जाता है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है। इसके मुख्य चुनाव आयुक्त का चुनाव भारत के राष्ट्रपति करते हैं। चयनित अफसर का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है।
भारत के निर्वाचन आयोग के कार्य-
  • निर्वाचन आयोग को भारत में होने वाले चुनावों की पारदर्शिता का संरक्षक माना जाता है।
  • ये प्रत्येक चुनाव में राजनैतिक पार्टियों तथा उनके उम्मीदवारों के लिए मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट जारी करता है, ताकि लोकतंत्र पर कोई आंच न आये।
  • ये सभी राजनैतिक पार्टियों का पंजीकरण करता है तथा उनके रेगुलेशन का नियमन करता है।
  • ये सभी राजनैतिक पार्टियों तथा उनके उम्मीदवारों के लिए चुनावी प्रचार के अधिकतम खर्च की सीमा तय करती है।
  • सभी राजनैतिक पार्टियों को अपने वार्षिक रिपोर्ट निर्वाचन आयोग में जमा करना होता है। साथ ही साल भर की ऑडिट भी पार्टियों को जमा करना होता है।
भारत के निर्वाचन आयोग के अधिकार-
  • निर्वाचन आयोग आवश्यकता पड़ने पर ओपिनियन पोल के परिणाम दबा सकता है। आयोग यदि चुनाव के बाद भी किसी उम्मीदवार को ऐसी अवस्था में पाता है कि उसने चुनाव के दौरान आवश्यक निर्देशों की अवहेलना की है, तो उसकी सदस्यता को बर्खास्त करने की पहल कर सकता है।
  • यदि किसी उम्मीदवार को चुनाव के दौरान किसी तरह के गैरकानूनी काम में पाया जाता है, तो भारत का सर्वोच्च न्यायालय आयोग से बात कर सकता है।
  • यदि कोई उम्मीदवार समय पर अपने चुनावी खर्च का ब्यौरा नहीं दे पाता तो, आयोग उसकी सदस्यता बर्खास्त कर सकता है।
  • इस तरह भारत के लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए चुनाव बहुत जरूरी कदम है। देश के सभी मतदाताओं का चुनाव में हिस्सा लेना और अपनी सूझ बूझ के साथ बिना किसी के बहकावे में आये मतदान करना बहुत जरूरी है।

चुनावों की जरूरत

  • किसी भी लोकतंत्र में नियमित अंतराल पर चुनाव होते हैं। दुनिया के सौ से अधिक देश ऐसे हैं जहाँ जनप्रतिनिधियों को चुनने के लिए चुनाव होते हैं। अनेक ऐसे देश जो लोकतांत्रिक नहीं हैं, वहाँ भी चुनाव होते हैं।
भारत में सरकार क की संरचना
  • भारत में चयनित सरकार की संरचना को समझना बहुत आवश्यक है। इससे देश के लिए सरकार की भूमिका का पता चलता है, साथ ही इस बात को समझने में आसानी होती है, कि क्या सरकार सही रूप में काम कर रही है।
  • केंद्र सरकार की संरचना: भारत सरकार के मुख्यतः तीन भाग हैं इन तीनों भाग के अपने मुख्य कार्य हैं-
  • एग्जीक्यूटिव इसके अंतर्गत देश के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा कैबिनेट मिनिस्टर आते हैं, जिनका काम संसद में बने कानूनों को पास करना होता है।
  • संसद का विधान मंडल- संसद विधान मंडल के अंतर्गत लोकसभा, राज्यसभा और प्रधानमंत्री आते हैं। सरकार के इस भाग का काम देशवासियों के हित के लिए कानून बनाना है।
  • ज्यूडीशरी इसका काम एग्जीक्यूटिव और लेजिस्लेचर के बीच समन्वय स्थापित करना होता है। इस कार्य के साथ ज्यूडीशरी जन साधारण सम्बंधित अन्य समस्याओं का भी हल निकालती है।
  • राज्य सरकार की संरचना: केंद्र सरकार की ही तरह राज्य सरकार की भी एक व्यवस्थित संरचना है, जिसके अन्तर्गत राज्य सरकार अपना काम करती है। यहाँ पर राज्य सरकार की संरचना का विवरण है। इसके भी तीन मुख्य भाग हैं। केंद्र की तरह इन तीनों भाग के भी अपने मुख्य कार्य हैं।
  • विधानसभा- इसके अंतर्गत वे सभी प्रतिनिधि आते हैं, जिन्हें विधान सभा चुनाव के दौरान निर्वाचित किया जाता है। इस निर्वाचन में आम जनता हिस्सा लेती है।
  • गवर्नर- प्रत्येक राज्य के लिए गवर्नर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाते हैं।
  • विधान परिषद्- इसमें आने वाले सदस्यों को एमएलसी कहा जाता है। फिलहाल देश के 5 राज्यों में एमएलसी नियुक्त किये जाते हैं। ये राज्य हैं: उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक है।
  • केंद्र शासित प्रदेश: भारत देश में कुल 8 केन्द्र शासित प्रदेश मौजूद है।
  • इन केन्द्रशासित प्रदेशों के नाम हैं: दिल्ली, पांडिचेरी, दादरा और नागर दमन और दीव, चंडीगढ़, लक्षद्वीप, अंडमान-निकोबार, जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख है।
  • दिल्ली और पांडिचेरी को आंशिक रूप से राज्य का दर्जा मिला है किन्तु यह अभी भी पूर्ण राज्य घोषित नहीं हुआ है। इन केन्द्रशासित प्रदेशों के निर्वाचित मुख्यमंत्री होते हैं। मुख्यमन्त्री के न होने पर प्रदेश का सारा कार्यभार लेफ्टिनेंट गवर्नर संभालता है। 
  • इन दोनों के अलावा बाकी सभी केन्द्रशासित प्रदेश पूर्ण केंद्र सरकार के अधीन है। इन प्रदेशों को चलाने के लिए भारत के राष्ट्रपति द्वारा किसी आईएएस अथवा सांसद की नियुक्ति होती है।
  • पंचायत राज सरकार द्वारा गाँवों के लिए जारी योजनाओं के नियमन के लिए पंचायत राज का गठन होता है। इसके अंतर्गत तीन मुख्य भाग आते हैं- ग्राम पंचायत, तालुका अथवा तहसील, जिला पंचायत और ग्रामपंचायत के अंतर्गत सरपंच तथा अन्य सदस्य की नियुक्ति होती है।
भारत के चुनाव में ग्राम पंचायत की भूमिका
  • किसी क्षेत्र का ग्राम पंचायत अपने क्षेत्र के विकास के लिए आर्थिक योजनाएँ बनाता है, उसका नियमन करता है तथा समाज में 'सोशल जस्टिस' को बनाए रखता है।
  • ब्लाक पंचायत अथवा पंचायत समिति में क्षेत्र के सांसद, विधायक, एसडीओ तथा गाँव के पिछड़े हिस्सों का प्रतिनिधित्व करते हुए कुछ लोग शामिल होते हैं।
  • ब्लॉक पंचायत किसी तहसील के लिए कार्य करता है और इसे ब्लॉक डेवलपमेंट कहा जाता है। जिला पंचायत के अंतर्गत आईएएस ऑफिसर तथा उसके साथ कुछ निर्वाचित जनप्रतिनिधि शामिल होते हैं।
भारत के चुनाव में महानगर निगम
  • महानगर निगम अथवा म्युनिसिपल देश के शहरों के विकास को नियमित करने के लिए गठित होता है। इसके प्रत्येक वार्ड में सभासद और मेयर होते हैं।
  • सभासद आम लोगों द्वारा निर्वाचित होता है। वैसे शहर जिनकी जनसँख्या एक लाख से ऊपर है, म्युनिसिपल कारपोरेशन के अंतर्गत आते हैं। ये आंकड़ा पहले 20,000 था।
  • जिस नगर की जनसँख्या 11,000 से अधिक तथा 25,000 से कम होता है, वैसे नगरों के लिए नगर पंचायत अथवा नगर परिषद् का गठन होता है।

चुनाव में मतदाता

  • मतदाता अपने लिए कानून बनाने वाले का चुनाव कर सकते हैं। सरकार बनाने और बड़े फैसले करने वाले का चुनाव कर सकते हैं। सरकार और उसके द्वारा बनने वाले कानूनों का दिशा-निर्देश करने वाली पार्टी का चुनाव कर सकते हैं।
  • लोकतांत्रिक देशों में चुनाव कई तरह से होते हैं। यहाँ तक कि अधिकांश गैर- लोकतांत्रिक देशों में भी किसी ना किसी तरह के चुनाव होते हैं।
  • लोकतांत्रिक चुनावों के लिए जरूरी न्यूनतम शर्तें निम्नलिखित है :
    • पहला, हर किसी को चुनाव करने की सुविधा हो । यानि हर किसी को मताधिकार हो और हर किसी के मत का समान मोल हो ।
    • दूसरा, चुनाव में विकल्प उपलब्ध हों। पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव में उतरने की आजादी हो और वे मतदाताओं के लिए विकल्प पेश करें।
    • तीसरा, चुनाव का अवसर नियमित अंतराल पर मिलता रहे। नए चुनाव कुछ वर्षों में जरूर कराए जाने चाहिए।
    • चौथा, लोग जिसे चाहें वास्तव में चुनाव उसी का होना चाहिए।
    • पाँचवा चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से कराए जाने चाहिए जिससे लोग सचमुच अपनी इच्छा से व्यक्ति का चुनाव कर सकें।
  • ये शर्ते बहुत आसान और सरल लग सकती हैं, लेकिन अनेक देश ऐसे हैं जहाँ के चुनावों में इन शर्तों को भी पूरा नहीं किया जाता। 
राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता
  • चुनाव का मतलब राजनैतिक प्रतियोगिता या प्रतिद्वंद्विता है। यह प्रतियोगिता कई तरह का रूप ले सकती है। सबसे स्पष्ट रूप है राजनैतिक पार्टियों के बीच प्रतिद्वंद्विता ।
  • निर्वाचन क्षेत्रों में इसका स्वरूप उम्मीदवारों के बीच प्रतिद्वंद्विता का हो जाता है। अगर प्रतिद्वंद्विता नहीं रहे तो चुनाव बेमानी हो जाएँगे।
  • विभिन्न दलों के लोग और नेता अकसर एक-दूसरे के खिलाफ आरोप लगाते हैं। पार्टियाँ और उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। समाज और देश की सेवा करने की चाह रखने वाले कई अच्छे लोग भी इन्हीं कारणों से चुनावी मुकाबले में नहीं उतरते ।
  • भारतीय संविधान निर्माता इन समस्याओं के प्रति सचेत थे। फिर भी उन्होंने भविष्य के नेताओं के चुनाव के लिए मुक्त चुनावी मुकाबले का ही चयन किया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि दीर्घकालिक रूप से यही व्यवस्था बेहतर काम करती है।
  • एक आदर्श दुनिया में ही सभी राजनैतिक नेताओं को मालूम होता है कि लोगों का हित किन चीजों में है तथा ये सभी नेता लोगों की सेवा की प्रेरणा से ही राजनीति में आते हैं। असल जीवन में ऐसा नहीं होता।
  • दुनिया भर के सभी नेताओं को अन्य पेशों के लोगों के समान आगे बढ़ने की, अपना करियर बनाने की चिंता होती है। वे सत्ता में बने रहना चाहते हैं या अपने लिए बड़ी से बड़ी कुर्सी और ज्यादा से ज्यादा अधिकार पाना चाहते हैं।
  • उनके अंदर लोगों की सेवा करने की भावना भी हो पर सिर्फ इस भावना के भरोसे चीजों को छोड़ना जोखिम का काम है। यह भी संभव है कि उनके अंदर लोगों की मदद करने की भावना हो पर उन्हें यह मालूम न हो कि यह काम कैसे किया जा सकता है। या फिर यह भी हो सकता है कि उनके मन में जो विचार हों उनका लोगों की जरूरत या स्थानीय स्थितियों से मेल ही न बैठे।
  • एक तरीका राजनेताओं के ज्ञान और चरित्र में बदलाव और सुधार लाने का है। दूसरा और ज्यादा व्यावहारिक तरीका यह है कि हम ऐसी व्यवस्था बनाएँ जिसमें लोगों की सेवा करने वाले राजनेताओं को पुरस्कार मिले और ऐसा न करने वालों को दंड मिले ।
चुनाव की प्रणाली
  • भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हर पाँच साल बाद होते हैं। पाँच साल के बाद सभी चुने हुए प्रतिनिधियों का कार्यकाल समाप्त हो जाता है।
  • लोकसभा और विधानसभाएँ भग हो जाती है। फिर सभी चुनाव क्षेत्र में एक ही दिन या एक छोटे अंतराल में अलग-अलग दिन कुतक होते हैं। इसे आम चुनाव कहते हैं।
  • कई बार सिर्फ एक क्षेत्र में चुनाव होता है जो किसी सदस्य की मृत्यु का इस्तीफे से खाली हुआ होता है। इसे उपचुनाव कहते हैं।
चुतव क्षेत्र
  • भारत में क्षेत्र विशेष पर आधारित प्रतिनिधित्व की प्रणाली से काम करते हैं। चुनाव के उद्देश्य से देश को अनेक क्षेत्रों में बाँट लिया गया है। इन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं।
  • एक क्षेत्र में रहने वाले मतदाता अपने एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। लोकसभा चुनाव के लिए देश को 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट गया है। हर क्षेत्र से चुने गए प्रतिनिधियों को संसद सदस्य कहते हैं।
  • लांकतांत्रिक चुनाव की एक विशेषता है हर वोट का बराबर मूल्य इसीलिए हमारे संविधान में यह व्यवस्था है कि हर चुनाव क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या काफी हद तक एक समान ह्यं ।
  • प्रत्येक राज्य को उसकी विधानसभा की सीटों के हिसाब से बाँटा गया है। इन सीटों से निर्वाचित प्रतिनिधियों को विधायक कहते हैं।
  • प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में विधानसभा के कई-कई निर्वाचन क्षेत्र आते हैं। पंचायतों नगरपालिका के चुनावों में भी यही तरीका अपनाया जाता है।
  • प्रत्येक पंचायत को कई वार्डो में बाँटा जाता है जो छोटे-छोटे निर्वाचन क्षेत्र हैं। प्रत्येक वार्ड से पंचायत या नगरपालिका के लिए एक सदस्य का चुनाव होता है। कई बार निर्वाचन क्षेत्रों को सीट भी कहा जाता है क्योंकि हर क्षेत्र संसद या विधानसभा की एक सीट का प्रतिनिधित्व करता है।
आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र
  • भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने और जनप्रतिनिधि के तौर पर चुने जाने का अधिकार देता है।
  • संविधान निर्माताओं को चिंता थी कि खुले चुनावी मुकाबले में कुछ कमजोर समूहों के लोग लोकसभा और विधानसभाओं में पहुँच नहीं पाएँ। संभव है कि चुनाव लड़ने और जीतने लायक जरूरी संसाधन, शिक्षा और संपर्क उनके पास हो ही नहीं।
  • संसाधनों वाले प्रभावशाली लोग उनको चुनाव जीतने से रोक भी सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो संसद और विधानसभाओं में हमारी आबादी के एक बड़े हिस्से की आवाज ही नहीं पहुँच पाएगी। इससे हमारे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का चरित्र कमजोर होगा और यह व्यवस्था कम लोकतांत्रिक होगी।
  • संविधान निर्माताओं ने कमजोर वर्गों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र की विशेष व्यवस्था सोची। इसी कारण कुछ चुनाव क्षेत्र अनुसूचित जातियों के लोगों के लिए आरक्षित हैं तो कुछ क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए।
  • अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट पर केवल अनुसूचित जाति का ही व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है। इसी तरह सिर्फ अनुसूचित जनजाति के ही व्यक्ति अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ सकते हैं।
  • लोकसभा की 79 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए और 41 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। ये सीटें पूरी आबादी में इन समूहों के हिस्से के अनुपात में हैं। इस प्रकार अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटें किसी अन्य समूह के उचित हिस्से में से कुछ नहीं लेतीं ।
  • कमजोर समूहों के लिए आरक्षण की यह व्यवस्था बाद में जिला और स्थानीय स्तर पर भी लागू की गई। अनेक राज्यों में अब ग्रामीण (पंचायतों) और शहरी ( नगरपालिका और नगर निगमों) स्थानीय निकायों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण लागू हो गया है। 
  • हर राज्य में आरक्षित सीटों का अनुपात अलग-अलग है। इसी प्रकार ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं।
मतदाता सूची
  • एक बार जब निर्वाचन क्षेत्र का फैसला हो जाता है तब यह तय किया जाता है कि कौन वोट दे सकता है, कौन नहीं। इस फैसले को अंतिम दिन तक के लिए किसी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
  • लोकतांत्रिक चुनाव में मतदान की योग्यता रखने वालों की सूची चुनाव से काफी पहले तैयार कर ली जाती है और हर किसी को दे दी जाती है। इस सूची को आधिकारिक रूप से मतदाता सूची कहते हैं। आम बोलचाल में इसे वोटर लिस्ट भी कहते हैं ।
  • यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है क्योंकि इसका सीधा संबंध लोकतांत्रिक चुनाव की पहली शर्त अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए हर किसी को समान अवसर मिलने से है।
  • व्यवहार में सार्वभौम वयस्क मताधिकार का मतलब प्रत्येक व्यक्ति को मत देने का अधिकार होना चाहिए और हर एक का मत समान मोल का होना चाहिए।
  • जब तक ठोस कारण न हों किसी को मताधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। अलग-अलग नागरिक अनेक मामलों में एकदूसरे से भिन्न होते हैं: कोई अमीर है, कोई गरीब; कोई बहुत पढ़ा-लिखा है तो कोई कम या एकदम अशिक्षित; कोई बहुत दयालु है तो कोई नहीं। पर हर कोई इंसान तो है, और, अपनी जरूरतों और विचारों के अनुरूप समाज में योगदान करता है। इसलिए सभी को प्रभावित करने वाले निर्णयों में सबकी भागीदारी होनी चाहिए।
  • हमारे देश में 18 वर्ष और उससे ऊपर की उम्र के सभी नागरिक चुनाव में वोट डाल सकते हैं। नागरिक की जाति, धर्म, लिंग चाहे जो हो उसे मत देने का अधिकार है ।
  • अपराधियों और दिमागी असंतुलन वाले कुछ लोगों को वोट देने के अधिकार से वंचित किया जा सकता है लेकिन ऐसा सिर्फ बेहद खास स्थितियों में ही होता है।
  • सभी सक्षम मतदाताओं का नाम मतदाता सूची में हो यह व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी है। चूंकि हर अगले चुनाव में नए लोग मतदाता बनने की उम्र तक आ जाते हैं इसलिए हर चुनाव से पूर्व मतदाता सूची को सुधारा जाता है। जो लोग उस इलाके से बाहर चले जाते हैं या जिनकी मौत हो जाती है उनके नाम इस सूची से काट दिए जाते हैं।
  • हर पाँच वर्ष में मतदाता सूची का पूर्ण नवीनीकरण किया जाता है। ऐसा मतदाता सूची को एकदम ताजा रखने के लिए किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से चुनावों में फोटो पहचान-पत्र की नई व्यवस्था लागू की गई है।
  • सरकार ने मतदाता सूची में दर्ज सभी लोगों को यह कार्ड देने की कोशिश की है। वोट देने जाते समय मतदाता को यह पहचान-पत्र साथ रखना होता है जिससे किसी एक का वोट कोई दूसरा न डाल दे।
  • मतदान के लिए यह कार्ड अभी तक अनिवार्य नहीं हुआ है। वोट देने के लिए मतदाता राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस जैसे पहचान पत्र भी दिखा सकते हैं।
उम्मीदवारों का नामांकन
  • लोकतांत्रिक चुनावों में लोगों के पास वास्तविक विकल्प होना चाहिए। यह तभी होगा जब किसी के भी चुनाव लड़ने पर लगभग किसी किस्म की बंदिश न हो।
  • हमारी चुनाव प्रणाली ऐसा ही करती है। जो कोई व्यक्ति मतदाता है वह उम्मीदवार भी हो सकता है। सिर्फ एक फर्क यह है कि कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की उम्र में ही वोट डालने का · अधिकारी हो जाता है जबकि उम्मीदवार बनने की न्यूनतम आयु 25 वर्ष है।
  • उम्मीदवार बनने में भी अपराधियों पर रोक है लेकिन यह पाबंदी भी बहुत ही कम मामलों में लागू होती है। राजनैतिक दल अपने उम्मीदवार मनोनीत करते हैं जिन्हें पार्टी का चुनाव चिह्न और समर्थन मिलता है।
  • चुनाव लड़ने के इच्छुक हर एक उम्मीदवार को एक नामांकन पत्र भरना पड़ता है और कुछ रकम जमानत के रूप में जमा करानी पड़ती है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उम्मीदवारों से एक घोषणा-पत्र भरवाने की नई प्रणाली भी शुरू हुई है ।
  • अब हर उम्मीदवार को अपने बारे में कुछ ब्यौरे देते हुए वैधानिक घोषणा करनी होती है। प्रत्येक उम्मीदवार को इन मामलों के सारे विवरण देने होते हैं:
    • उम्मीदवार के खिलाफ चल रहे गंभीर आपराधिक मामले ।
    • उम्मीदवार और उसके परिवार के सदस्यों की संपत्ति और देनदारियों का ब्यौरा |
    • उम्मीदवार की शैक्षिक योग्यता ।
  • इन सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाता है, इससे मतदाताओं को उम्मीदवारों द्वारा खुद के बारे में सूचना के आधार पर अपने फैसले करने का मौका मिलता है।
चुनाव अभियान
  • चुनावों का मुख्य उद्देश्य लोगों को अपनी पसंद के प्रतिनिधियों, . सरकार और नीतियों का चुनाव करने का अवसर देना है। इसलिए, कौन प्रतिनिधि बेहतर है, कौन पार्टी अच्छी सरकार देगी या अच्छी नीति कौन-सी है, इस बारे में स्वतंत्र और खुली चर्चा भी बहुत जरूरी है। चुनाव अभियान के दौरान यही होता है।
  • भारत में उम्मीदवारों की अंतिम सूची की घोषणा होने और मतदान की तारीख के बीच आम तौर पर दो सप्ताह का समय चुनाव प्रचार के लिए दिया जाता है।
  • इस अवधि में उम्मीदवार मतदाताओं से संपर्क करते हैं, राजनेता चुनावी सभाओं में भाषण देते हैं और राजनैतिक पार्टियाँ अपने समर्थकों को सक्रिय करती हैं।
  • चुनाव अभियान के दौरान राजनैतिक पार्टियाँ लोगों का ध्यान कुछ बड़े मुद्दों पर केंद्रित कराना चाहती हैं। वे लोगों को इन मद्दों पर आकर्षित करती हैं और अपनी पार्टी के पक्ष में वोट देने को कहती हैं। विभिन्न चुनावों में विभिन्न दलों द्वारा उठाए गए कुछ सफल नारें निम्नलिखित है :
    • इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी ने 1971 के लोकसभा चुनावों में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। पार्टी ने वायदा किया कि वह सरकार की सारी नीतियों में बदलाव करके सबसे पहले देश से गरीबी हटाएगी।
    • 1977 में हुए अगले लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी ने नारा दिया लोकतंत्र बचाओ। पार्टी ने आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों को समाप्त करने और नागरिक आजादी को बहाल करने का वायदा किया।
    • वामपंथी दलों ने 1977 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जमीन-जोतने वाले को का नारा दिया था।
    • 1983 के आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनावों में तेलुगु देशम पार्टी के नेता एन.टी. रामाराव ने तेलुगु स्वाभिमान का नारा दिया था।
  • चुनाव के कानूनों के अनुसार कोई भी उम्मीदवार या पार्टी ये सब काम नहीं कर सकती:
    • मतदाता को प्रलोभन देना, घूस देना या धमकी देना।
    • उनसे जाति या धर्म के नाम पर वोट माँगना ।
    • चुनाव अभियान में सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल करना ।
    • लोकसभा में एक निर्वाचन क्षेत्र में 25 लाख या चुनाव विधानसभा चुनाव में 1 लाख रुपए से ज्यादा खर्च करना ।
  • अगर वे इनमें से किसी भी मामले में दोषी पाए गए तो चुने जाने के बावजूद उनका चुनाव रद्द घोषित हो सकता है। इन कानूनों के अलावा हमारे देश की सभी राजनैतिक पार्टियों ने चुनाव प्रचार की आदर्श आचार संहिता को भी स्वीकार किया है। इसमें उम्मीदवारों और पार्टियों को यह सब करने की मनाही है:
    • चुनाव प्रचार के लिए किसी धर्मस्थल का उपयोग।
    • सरकारी वाहन, विमान या अधिकारियों का चुनाव में उपयोग। 
    • चुनाव की अधिघोषणा हो जाने के बाद मंत्री किसी बड़ी योजना का शिलान्यास, बड़े नीतिगत फैसले या लोगों को सुविधाएँ देने वाले वायदे नहीं कर सकते।
मतदान और मतगणना
  • चुनाव का आखिरी चरण है मतदाताओं द्वारा वोट देना। इस द को आम तौर पर चुनाव का दिन कहते हैं।
  • पहले मतदाता एक मतपत्र पर अलग-अलग छपे उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिह्न में से अपनी पसंद के उम्मीदवार के चुनाव चिह्न पर मोहर लगाकर अपनी पसंद जाहिर करते थे। अब मतदान के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल होने लगा है। मशीन के ऊपर उम्मीदवारों के नाम और उनके चुनाव चिह्न बने होते हैं।
  • किसी चुनाव क्षेत्र में सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीदवार को विजयी घोषित किया जाता है। आम चुनाव में अमूमन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में मतगणना एक ही तारीख पर होती है।
भारत में लोकतांत्रिक चुनाव
  • अखबार और टीवी चैनलों की खबरों में अकसर ऐसी गड़बड़ियों की चर्चा रहती है और आरोप लगाए जाते हैं। अधिकांश खबरों में कुछ इस तरह की गड़बड़ियों की सूचना होती हैं:
    • मतदाता सूची में फर्जी नाम डालने और असली नामों को गायब करने की।
    • शासक दल द्वारा सरकारी सुविधाओं और अधिकारियों के दुरुपयोग की।
    • अमीर उम्मीदवारों और बड़ी पार्टियों द्वारा बड़े पैमाने पर धन खर्च करने की।
    • मतदान के दिन चुनावी धांधली।
    • मतदाताओं को डराना और फर्जी मतदान करना।
स्वतंत्र चुनाव आयोग
  • चुनाव निष्पक्ष हुए हैं या नहीं इसे जाँचने का एक सरल तरीका है यह देखना कि उनका संचालन कौन करता है। भारत में चुनाव एक स्वतंत्र और बहुत ताकतवर चुनाव आयोग द्वारा कराए जाते हैं। इसे न्यायपालिका के समान ही आजादी प्राप्त है।
  • मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति करते हैं। एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद चुनाव आयुक्त राष्ट्रपति या सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं रहता। अगर शासक पार्टी या सरकार को चुनाव आयोग पसंद न हो तब भी मुख्य चुनाव आयुक्त को हटा पाना लगभग असंभव है।
  • विश्व के शायद ही किसी चुनाव आयोग को भारत के चुनाव आयोग जितने अधिकार प्राप्त होंगे। चुनाव आयोग चुनाव की अधिसूचना जारी करने से लेकर चुनावी नतीजों की घोषणा तक, पूरी चुनाव प्रक्रिया के संचालन के हर पहलू पर निर्णय लेता है। यह आदर्श चुनाव संहिता लागू कराता है और इसका उल्लंघन करने वाले उम्मीदवारों और पार्टियों को सजा देता है।
  • चुनाव के दौरान चुनाव आयोग सरकार को दिशा-निर्देश मानने का आदेश दे सकता है। इसमें सरकार द्वारा चुनाव जीतने के लिए चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग रोकना या अधिकारियों का तबादला करना भी शामिल है।
  • चुनाव ड्यूटी पर तैनात अधिकारी सरकार के नियंत्रण में न होकर चुनाव आयोग के अधीन काम करते हैं। चुनाव अधिकारियों को लगता है कि कुछ मतदान केंद्रों पर या पूरे चुनाव क्षेत्र में मतदान ठीक ढंग से नहीं हुआ है तो वे वहाँ फिर से मतदान का आदेश देते हैं। 
  • अकसर शासक दलों को चुनाव आयोग के कामकाज से परेशानी होती है लेकिन उन्हें चुनाव आयोग के आदेश मानने होते हैं। चुनाव आयोग स्वतंत्र और शक्तिशाली नहीं होता तो यह संभव न था।
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Wed, 29 Nov 2023 06:04:51 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | समकालीन विश्व में लोकतंत्र https://m.jaankarirakho.com/499 https://m.jaankarirakho.com/499 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH POLITICAL SCIENCE NOTES | समकालीन विश्व में लोकतंत्र

संविधान निर्माण

  • लोकतंत्र में शासक लोग मनमानी करने के लिए आजाद नहीं हैं। कुछ बुनियादी नियम है जिनका पालन नागरिकों और सरकार, दोनों को करना होता है। ऐसे सभी नियमों का सम्मिलित रूप संविधान कहलाता है।
  • देश का सर्वोच्च कानून होने की हैसियत से संविधान नागरिकों के अधिकार, सरकार की शक्ति और उसके कामकाज के तौरतरीकों का निर्धारण करता है।
नए संविधान की ओर
  • 26 अप्रैल, 1994 की मध्य रात्रि को दक्षिण अफ्रीका गणराज्य का नया झंडा लहराया और यह दुनिया का एक नया लोकतांत्रिक देश बन गया। रंगभेद वाली शासन व्यवस्था समाप्त हुई और सभी नस्ल के लोगों की मिलीजुली सरकार के गठन का रास्ता खुला।
  • नए लोकतांत्रिक दक्षिण अफ्रीका के उदय के साथ ही अश्वेत नेताओं ने अश्वेत समाज से आग्रह किया कि सत्ता में रहते हुए गोरे लोगों ने जो जुल्म किए थे उन्हें वे भूल जाएँ और गोरों को माफ कर दें।
  • सभी नस्लों तथा स्त्री-पुरुष की समानता, लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों पर आधारित नए दक्षिण अफ्रीका का निर्माण करें। एक पार्टी ने दमन और नृशंस हत्याओं के जोर पर शासन किया था और दूसरी पार्टी ने आजादी की लड़ाई की अगुवाई की थी।
  • नए संविधान के निर्माण के लिए दोनों ही साथ-साथ बैठीं। दो वर्षों की चर्चा और बहस के बाद उन्होंने जो संविधान बनाया वैसा अच्छा संविधान दुनिया में कभी नहीं बना था।
  • इस संविधान में नागरिकों को जितने व्यापक अधिकार दिए गए हैं उतने दुनिया के किसी संविधान ने नहीं दिए हैं। साथ ही उन्होंने यह फैसला भी किया कि मुश्किल मामलों के समाधान की कोशिशों में किसी को भी अलग नहीं किया जाएगा और न ही किसी को बुरा या दुष्ट मानकर बर्ताव किया जाएगा।
  • दक्षिण अफ्रीकी संविधान की प्रस्तावना ही इस भावना को बहुत खूबसूरत ढंग से व्यक्त करती है। दक्षिण अफ्रीकी संविधान से दुनिया भर के लोकतांत्रिक लोग प्रेरणा लेते हैं। अभी हाल तक जिस देश की दुनिया भर में अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए निंदा की जाती थी, आज उसे लोकतंत्र के मॉडल के रूप में देखा जाता है।
  • यह काम दक्षिण अफ्रीकी लोगों द्वारा साथ रहने, साथ काम करने के दृढ़ निश्चय और पुराने कड़वे अनुभवों को आगे के इंद्रधनुषी समाज बनाने में एक सबक के रूप में प्रयोग करने की समझदारी दिखाने के कारण संभव हुआ।
संविधान" शब्द की उत्पत्ति
  • संविधान को अंग्रेजी में Constitution कहते हैं। मूलत: इसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द “कॉन्स्टीट्यूटस" (Constitutes) से हुई है, जिसका अर्थ “शासन करने के लिए सिद्धांत" होता है।
  • संविधान एक मौलिक दस्तावेज है, इसे मूल तौर पर हम देश की आधारभूत तथा सर्वोच्च विधि कह सकते हैं। इन विधियों के द्वारा राज्य के तीन प्रमुख अंगों यथा- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को विभिन्न शक्तियाँ प्रदान किया जाता है।
  • किसी भी समूह को अनुशासन तथा सर्वसम्मत रूप में विकास करने के लिए सार्वजनिक रूप से कुछ आधारभूत नियमों की आवश्यकता पड़ती है जो समूह के सभी सदस्यों को बुनियादी तौर पर पता हो ताकि आपस में एक मूल समझ तथा समन्वय कायम रह सके। इसी समझ और समन्वय को लागू करने का कार्य संविधान करता है।
  • संविधान समाज में शक्ति के मूल वितरण को स्पष्ट करता है और निर्णय तथा संशोधन करने की शक्ति को भी स्पष्ट करता है। इसके साथ ही यह सरकार के सृजन तथा उसके द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों का भी रास्ता तय करता है।
  • इसके अलावा संविधान एक मजबूत ढाँचा प्रदान करता है जिसके द्वारा सरकार कुछ सृजनात्मक कार्य कर सके तथा समाज की आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं को न्यायपूर्ण तरीके से फलीभूत कर सके। इसे हम “न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए कुंजी" कह सकते हैं।
  • कोई भी संविधान किसी राष्ट्र विशेष की आधारभूत पहचान का कार्य करता है। इसके ही द्वारा किसी राष्ट्र विशेष का नागरिक अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं, लक्ष्य और विभिन्न स्वतंत्रताओं का उपयोग करता है। संविधान हमें एक नैतिक पहचान भी देता है जिसके द्वारा हम अपने कर्त्तव्य, अधिकार तथा सीमाओं के बारे में जान पाते हैं।
संवैधानिक राज्य से तात्पर्य है
  • कानून का शासन।
  • संविधान के माध्यम से शासकों के अनियंत्रित शक्ति पर नियंत्रण यानी सीमित शासन।
  • शक्ति का विभाजन ।
  • जनता के मौलिक अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को सुनिश्चित करना।
संविधान का उद्देश्य
  • सरकार के प्रमुख अंगों का सृजन करना । उदाहरण:विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका आदि ।
  • सरकार के अंगों की शक्तियों, कर्त्तव्यों तथा दायित्वों का निर्धारण करना।
  • सरकार के सभी अंगों के बीच संबंधों को स्पष्ट करना ।
  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों एवं मौलिक कर्त्तव्यों का उल्लेख करना ।
  • सरकार के विभिन्न तंत्रों के बीच शक्ति विभाजन करना।

संविधान क्यों

  • नए लोकतंत्र में दमन करने वाले और दमन सहने वाले, दोनों ही साथ- साथ समान हैसियत से रहने की योजना बना रहे थे। दोनों के लिए ही एक-दूसरे पर भरोसा कर पाना आसान नहीं था। उनके अंदर अपने- अपने किस्म के डर थे। वे अपने हितों की रखवाली भी चाहते थे।
  • बहुसंख्यक अश्वेत इस बात पर चौकस थे कि लोकतंत्र में बहुमत के शासन वाले मूल सिद्धांत से कोई समझौता न हो। उन्हें बहुत सारे सामाजिक और आर्थिक अधिकार चाहिए थे | अल्पसंख्यक गोरों को अपनी संपत्ति और अपने विशेषाधिकारों की चिंता थी।
  • गोरे लोग बहुमत के शासन का सिद्धांत और एक व्यक्ति एक वोट को मान गए। वे गरीब लोगों और मजदूरों के कुछ बुनियादी . अधिकारों पर भी सहमत हुए।
  • भविष्य में शासकों का चुनाव कैसे होगा, इसके बारे में नियम तय होकर लिखित रूप में आ जाते हैं। चुनी हुई सरकार क्या-क्या कर सकती है और क्या-क्या नहीं कर सकती यह भी लिखित रूप में मौजूद होना है। इन्हीं लिखित नियमों में नागरिकों के अधिकार भी होते हैं। पर ये नियम तभी काम करेंगे जब जीतकर आने वाले लोग इन्हें आसानी से और मनमाने ढंग से नहीं बदलें।
  • दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने इन्हीं चीजों का इंतजाम किया। वे कुछ बुनियादी नियमों पर सहमत हुए। वे इस बात पर भी सहमत हुए कि ये नियम सबसे ऊपर होंगे और कोई भी सरकार इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती। इन्हीं बुनियादी नियमों के लिखित रूप को संविधान कहते हैं ।
  • संविधान रचना सिर्फ दक्षिण अफ्रीका की ही खासियत नहीं है। हर देश में अलग-अलग समूहों के लोग रहते हैं ।
  • लोकतांत्रिक शासन प्रणाली हो या न हो पर दुनिया के सभी देशों को ऐसे बुनियादी नियमों की जरूरत होती है। यह बात सिर्फ सरकारों पर ही लागू नहीं होती । संविधान लिखित नियमों की ऐसी किताब है जिसे किसी देश में रहने वाले सभी लोग सामूहिक रूप से मानते हैं।
  • संविधान सर्वोच्च कानून है जिससे किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों (जिन्हें नागरिक कहा जाता है) के बीच के आपसी संबंध तय होने के साथ-साथ लोगों और सरकार के बीच के संबंध भी तय होते हैं। संविधान अनेक काम करता है जिनमें ये प्रमुख हैं: 
    • पहला यह साथ रह रहे विभिन्न तरह के लोगों के बीच जरूरी भरोसा और सहयोग विकसित करता है।
    • दूसरा यह स्पष्ट करता है कि सरकार का गठन कैसे होगा और किसे फैसले लेने का अधिकार होगा।
    • तीसरा यह सरकार के अधिकारों की सीमा तय करता है और हमें बताता है कि नागरिकों के क्या अधिकार हैं, और
    • चौथा, यह अच्छे समाज के गठन के लिए लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्त करता है।
  • जिन देशों में संविधान है, वे सभी लोकतांत्रिक शासन वाले हों यह जरूरी नहीं है। लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक शासन है वहाँ संविधान का होना जरूरी है। ब्रिटेन के खिलाफ आजादी की लड़ाई के बाद अमेरिकी लोगों ने अपने लिए संविधान का निर्माण किया।
  • फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांसीसी लोगों ने एक लोकतांत्रिक संविधान को मान्यता दी। इसके बाद से यह चलन हो गया कि हर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में एक लिखित संविधान हो ।
भारतीय संविधान का निर्माण
  • दक्षिण अफ्रीका की ही तरह भारत का संविधान भी बहुत कठिन परिस्थितियों के बीच बना। भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश के लिए संविधान बनाना आसान काम नहीं था ।
  • विभाजन से जुड़ी हिंसा में सीमा के दोनों तरफ कम-से-कम दस लाख लोग मारे जा चुके थे। एक बड़ी समस्या और भी थी।
  • अंग्रेजों ने देसी रियासतों के शासकों को यह आजादी दे दी थी कि वे भारत या पाकिस्तान जिसमें इच्छा हो अपनी रियासत का विलय कर दें या स्वतंत्र रहें। इन रियासतों का विलय मुश्किल और अनिश्चय भरा काम था। जब संविधान लिखा जा रहा था
  • तब देश का भविष्य इतना सुरक्षित और चैन भरा नहीं लगता था जितना आज है संविधान निर्माताओं को देश के वर्तमान और भविष्य की चिंता थी।
संविधान निर्माण का रास्ता
  • सारी मुश्किलों के बावजूद भारतीय संविधान निर्माताओं को एक बड़ा लाभ था। दक्षिण अफ्रीका में जिस तरह संविधान निर्माण के दौर में ही सारी बातों पर सहमति बनानी पड़ी वैसी स्थिति उस समय के भारत में नहीं थी।
  • भारत में आजादी की लड़ाई के दौरान ही लोकतंत्र समेत अधिकांश बुनियादी बातों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का काम हो चुका था। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन सिर्फ एक विदेशी सत्ता के खिलाफ संघर्ष भर नहीं था। यह न केवल अपने समाज को फिर से जगाने का. वरन् अपने समाज और राजनीति को बदलने और नए सिरे से गढ़ने का आंदोलन भी था।
  • आजादी के बाद भारत को किस रास्ते पर चलना चाहिए इसे लेकर आजादी के संघर्ष के दौरान भी तीखे मतभेद थे। ऐसे कुछ मतभेद अब तक भी बने हुए हैं। पर कुछ बुनियादी विचारों पर लगभग सभी लोगों की सहमति कायम हो चुकी थी।
  • 1928 में ही मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के आठ अन्य नेताओं ने भारत का एक संविधान लिखा था। 1931 में कराची में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह रूपरेखा रखी गई थी कि आजाद भारत का संविधान कैसा होगा ।
  • दोनों दस्तावेजों में स्वतंत्र भारत के संविधान में सार्वभौम वयस्क मताधिकार, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गई थी। संविधान की रचना करने के लिए बैठने से पहले ही कुछ बुनियादी मूल्यों पर सभी नेताओं की सहमति बन चुकी थी।
  • औपनिवेशिक शासन की राजनैतिक संस्थाओं को जानने-समझने से भी नई राजनैतिक संस्थाओं का स्वरूप तय करने में मदद मिली। अंग्रेजी हुकूमत ने बहुत कम लोगों को वोट का अधिकार दिया था।
  • इसके आधार पर अंग्रेजों ने जिस विधायिका का गठन किया था वह बहुत कमजोर थी। 1937 के बाद पूरे ब्रिटिश शासन वाले भारत में प्रादेशिक असेंबलियों के लिए चुनाव कराए गए थे। इनमें बनी सरकारें पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं थीं।
  • विधानसभाओं में जाने और काम करने का अनुभव तब बहुत लाभदायक हुआ क्योंकि इन्हीं भारतीय लोगों को अपनी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ बनानी थीं और चलाना था।
  • भारतीय संविधान में कई संस्थाओं और व्यवस्थाओं को पुरानी •व्यवस्था से लगभग जस का तस अपना लिया गया जैसे कि 1935 का भारत सरकार कानून।
  • आजादी के बाद भारत के स्वरूप को लेकर वर्षों पहले से चले चिंतन और बहसों ने भी काफी लाभ पहुंचाया। हमारे नेताओं में इतना आत्मविश्वास आ गया था कि उन्हें बाहर के विचार और अनुभवों को अपनी जरूरत के अनुसार अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई।
  • नेता फ्रांसीसी क्रांति के आदर्शों, ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र के कामकाज और अमेरिका के अधिकारों की सूची से काफी प्रभावित थे। रूस में हुई समाजवादी क्रांति ने भी अनेक भारतीयों को प्रभावित किया और वे सामाजिक और आर्थिक समता पर आधारित व्यवस्था बनाने की कल्पना करने लगे थे।
  • वे दूसरों की सिर्फ नकल नहीं कर रहे थे। हर कदम पर वे यह सवाल जरूर पूछते थे कि क्या ये चीजें भारत के लिए उपयुक्त होंगी। इन सभी चीजों ने हमारे संविधान के निर्माण में मदद की।
संविधान सभा
  • चुने गए जनप्रतिनिधियों की जो सभा संविधान नामक विशाल दस्तावेज को लिखने का काम करती है उसे संविधान सभा कहते हैं। भारतीय संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए थे।
  • संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर, 1946 को हुई थी। इसके तत्काल बाद देश दो हिस्सों- भारत और पाकिस्तान में बँट गया।
  • संविधान सभा भी दो हिस्सों में बँट गई भारत की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा । संविधान सिर्फ संविधान सभा के सदस्यों के विचारों को ही व्यक्त नहीं करता है। यह अपने समय की व्यापक सहमतियों को व्यक्त करता है।
  • दुनिया के कई देशों में संविधान को फिर से लिखना पड़ा क्योंकि संविधान में दर्ज बुनियादी बातों पर ही वहाँ के सभी सामाजिक समूहों या राजनैतिक दलों की सहमति नहीं थी।
  • कई देशों में संविधान है पर वह कागज का टुकड़ा या किसी भी अन्य किताब की तरह का दस्तावेज भर है। कोई भी उस पर आचरण नहीं करता। पर हमारे संविधान का अनुभव एकदम अलग है।
  • पिछली आधी सदी से ज्यादा की अवधि में अनेक सामाजिक समूहों ने संविधान के कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए। किसी भी बड़े सामाजिक समूह या राजनैतिक दल ने खुद संविधान की वैधता पर सवाल नहीं उठाया। यह हमारे संविधान की एक असाधारण उपलब्धि है।
  • संविधान को मानने का दूसरा कारण यह है कि संविधान सभा भी भारत के लोगों का ही प्रतिनिधित्व कर रही थी। उस समय सार्वभौम वयस्क मताधिकार नहीं था। इसलिए संविधान सभा का चुनाव देश के लोग प्रत्यक्ष ढंग से नहीं कर सकते थे।
  • तीन वर्षों में कुल 114 दिनों की गंभीर चर्चा हुई। सभा में पेश हर प्रस्ताव, हर शब्द और वहाँ कही गई हर बात को रिकॉर्ड किया गया और संभाला गया। इन्हें कांस्टीट्यूएंट असेम्बली डिबेट्स नाम से 12 खंडों में प्रकाशित किया गया। →
संविधान सभा
  • कैबिनेट मिशन की संस्तुतियों के आधार पर भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन जुलाई, 1946 में हुआ। 9 दिसम्बर 1946 को आहूत संविधान सभा की बैठक में कांग्रेस भी सम्मिलित हुई यद्यपि वह उसकी कई धाराओं से असहमत थी।
  • संविधान सभा का पहला अधिवेशन डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में 9 दिसम्बर, 1946 को आरम्भ हुआ। सभा के सदस्यों में कांग्रेस पांच भूतपूर्व सदस्य प्रांतीय कांग्रेस समितियों के ग्यारह अध्यक्ष, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग कार्य समिति के आठ सदस्य, मुस्लिम लीग की प्रान्तीय समितियों के दो अध्यक्ष, प्रांतों के आठ मुख्यमंत्री, दस मंत्री, 155 विधान सभा सदस्य हिंदू महासभा के तीन भूतपूर्व अध्यक्ष तथा उद्योगपति, कुलपति, पत्रकार एवं लेखक थे।
  • 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष बनाये गये। 22 दिसम्बर, 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा प्रस्तुत 'उद्देश्य प्रस्ताव के साथ ही संविधान निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ।
  • साढ़े तीन वर्ष की अवधि में संविधान सभा की बैठक मात्र 161 दिन हुई। कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार गठित संविधान सभा की कई सीमाएं थी। सभा का गठन ब्रिटिश सम्राट के निर्देशानुसार गवर्नर जनरल द्वारा किया गया था।
  • इस प्रक्रिया में संविधान सभा जो संविधान बनाती उसे ब्रिटिश संसद के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाना था। इधर ब्रिटेन द्वारा भारत में स्वशासन के विकास की कल्पना स्पष्ट रूप से ब्रिटिश डोमिनियन के रूप में ही की गयी थी। लेकिन 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने पर ये सभी सीमायें स्वतः समाप्त हो गयी।
  • भारत और पाकिस्तान के दो राष्ट्रों में विभाजित हो जाने के कारण भारतीय संविधान सभा की संरचना को पुनः गठित करना पड़ा।
  • प्रथमतः इसकी सदस्य संख्या में कमी की गयी क्योंकि सिंध, बलूचिस्तान, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बंगाल, पंजाब तथा असम के सिलहट जिले के प्रतिनिधि भारत की संविधान सभा के सदस्य नहीं रह गये।
  • पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब के प्रांतों में नये निर्वाचन हुए। संविधान सभा की बैठक जब पुनः 31 अक्टूबर, 1947 को आहूत की गयी तो सदन की सदस्यता घटकर 299 (पूर्व में 389 ) ही रह गयी। इनमें से 284 सदस्य ही 26 नवम्बर, 1949 को उपस्थिति थे। जिन्होंने अंतिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए।
  • संविधान निर्माण प्रक्रिया में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रारूप समिति' द्वारा किया गया जिसकी स्थापना 29 अगस्त, 1947 को की गयी प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीम राव अम्बेडकर थे।
  • प्रस्तावों को शामिल करते हुए भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया जिसे फरवरी, 1948 में प्रकाशित किया गया। संविधान के प्रारूप पर संविधान सभा द्वारा विचार करने की प्रक्रिया 17 अक्टूबर 1949 को पूर्ण हुई।
  • तृतीय वाचन हेतु संविधान सभा की बैठक 14 नवम्बर, 1949 को आरम्भ हुई और यह वाचन 26 नवम्बर, 1949 को समाप्त हुआ।
  • सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इसी तिथि को संविधान पर हस्ताक्षर करके उसे पारित घोषित कर दिया। लेकिन कोई भी संविधान केवल अपनी संविधान सभा के बूते नहीं बनता। 
  • भारत की संविधान सभा इतनी विविधतापूर्ण थी कि वह सामान्य ढंग से काम ही नहीं कर सकती थी यदि उसके पीछे उन सिद्धांतों पर आम सहमति न होती जिन्हें संविधान में रखा जाना था। 
  • इन सिद्धांतों पर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सहमति बनी। एक तरह से संविधान सभा केवल उन सिद्धांतों को मूर्त रूप और आकार दे रही थी जो उसने राष्ट्रीय आंदोलन से विरासत में प्राप्त किए थे।
  • इस तरह संविधान सभा द्वारा संविधान बना दिया गया। जिसे 26 नवंबर, 1949 को अंगीकृत किया गया। 26 जनवरी, 1950 को औपचारिक रूप से इस संविधान को लागू किया गया।
  • यह संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता और दूर दृष्टि का प्रमाण है कि वे देश को ऐसा संविधान दे सके जिसमें जनता द्वारा मान्य आधारभूत मूल्यों और सर्वोच्च आकांक्षाओं को स्थान दिया गया था।
  • यद्यपि कि भारतीय संविधान में समय, स्थान एवं परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक गतिशीलता को समायोजित करने हेतु 100 से अधिक संशोधन भी किए गए और अन्य संशोधन अपनी संसदीय संवैधानिक प्रक्रिया की कतार में भी है।

भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्य

  • भेदभाव और गैर-बराबरी मुक्त भारत का सपना डॉ. अंबेडकर के मन में भी था जिन्होंने संविधान निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
  • असमानता कैसे दूर की जा सकती है इस बारे में उनके विचार आप में से कुछ को भारतीय संविधान निर्माताओं की सूची में एक बड़ा नाम न होने पर हैरानी हुई होगी यानि महात्मा गांधी का नाम। वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे। संविधान सभा के अनेक सदस्य उनके विचारों के अनुयायी थे।
  • 1931 में अपनी पत्रिका यंग इंडिया में उन्होंने संविधान से अपनी अपेक्षा के बारे में लिखा था दूसरों से अलग थे। अक्सर गांधी और उनके नजरिए की कटु आलोचना की। संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में उन्होंने अपनी चिंताओं को बहुत स्पष्ट ढंग से रखा था।
संविधान का दर्शन
  • जिन मूल्यों ने स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा दी और उसे दिशा-निर्देश दिए तथा जो इस क्रम में जाँच परख लिए गए वे ही भारतीय लोकतंत्र का आधार बने। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इन्हें शामिल किया गया। भारतीय संविधान की सारी धाराएँ इन्हीं के अनुरूप बनी हैं।
  • संविधान की शुरुआत बुनियादी मूल्यों की एक छोटी-सी उद्देश्यिका के साथ होती है। इसे संविधान की प्रस्तावना या उद्देशिका कहते हैं।
  • अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से प्रेरणा लेकर समकालीन दुनिया के अधिकांश देश अपने संविधान की शुरुआत एक प्रस्तावना के साथ करते हैं।
    • संविधान की प्रस्तावना लोकतंत्र पर एक खूबसूरत कविता - सी लगती है। इसमें वह दर्शन शामिल है जिस पर पूरे संविधान का निर्माण हुआ है।
    • यह दर्शन सरकार के किसी भी कानून और फैसले के मूल्यांकन और परीक्षण का मानक तय करता है - इसके सहारे परखा जा सकता है कि कौन कानून, कौन फैसला अच्छा या बुरा है। इसमें भारतीय संविधान की आत्मा बसती है।

लोकतंत्र का फैलाव बहुत सरलता से और एक जैसे रूप में नहीं हुआ है। विभिन्न देशों में इसने काफी सारे उतार-चढ़ाव देखे हैं। आज भी लोकतंत्र की स्थिरता और उसके टिकाऊपन को लेकर संदेह बना रहता है।

लोकतंत्र के विस्तार के विभिन्न चरण

  • आधुनिक लोकतंत्र की कहानी कम-से-कम दो सदी पहले शुरु हुई। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के इस जनविद्रोह ने फ्रांस में टिकाऊ और पक्के लोकतंत्र की स्थापना नहीं की थी।
  • 19वीं सदी में फ्रांस में बार-बार लोकतंत्र को उखाड़ फेंका गया और बार-बार इसे बहाल किया गया, लेकिन फ्रांसीसी क्रांति ने पूरे यूरोप में जगह-जगह पर लोकतंत्र के लिए संघर्षों की प्रेरणा दी।
  • ब्रिटेन में लोकतंत्र की तरफ कदम उठाने की शुरूआत फ्रांसीसी क्रांति से काफी पहले ही हो गई थी, लेकिन वहाँ प्रगति की रफ्तार काफी कम थी।
  • 18वीं और 19वीं सदी में हुए राजनैतिक घटनाक्रमों ने राजशाही 'और सामंत वर्ग की शक्ति में कमी कर दी थी। फ्रांसीसी क्रांति के आसपास ही उत्तर अमेरिका में स्थित ब्रिटिश उपनिवेशों ने 1776 में खुद को आजाद घोषित कर दिया था।
  • 1787 में इन उपनिवेशों ने साथ मिलकर संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन किया। 1787 में एक लोकतांत्रिक संविधान को मंजूर किया, लेकिन इस व्यवस्था में भी मतदान का अधिकार पुरूषों तक सीमित था।
  • 19वीं सदी में लोकतंत्र के लिए होने वाले संघर्ष अकसर राजनैतिक समानता, आजादी और न्याय जैसे मूल्यों को लेकर ही होते थे। एक मुख्य माँग यह रही कि सभी वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार हो ।
  • यूरोप के जो देश तब लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाते जा रहे थे वे भी सभी लोगों को वोट देने की अनुमति नहीं देते थे। कुछ देशों में केवल उन्हीं लोगों को वोट का अधिकार था, जिनके पास सम्पत्ति थी। अकसर महिलाओं को तो वोट का अधिकार मिलता ही नहीं था। संयुक्त राज्य अमेरिका में पूरे देश में अश्वेतों को 1965 तक मतदान का अधिकार नहीं था।
  • लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने वाले लोग सभी वयस्कों औरत या मर्द, अमीर या गरीब, श्वेत या अश्वेत - को मतदान का अधिकार देने की माँग कर रहे थे। इसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार या सार्वभौम मताधिकार कहा जाता है। यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के यही देश आधुनिक लोकतंत्र का पहला समूह बनाते हैं। उपनिवेशवाद का अंत काफी लंबे समय तक एशिया और अफ्रीका के अधिकांश देश यूरोपीय राष्ट्रों के उपनिवेश बने रहे।
  • परतंत्र देशों के लोगों को आजादी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। यह लड़ाई अपने औपनिवेशिक शासकों से आजादी की ही नहीं थी, इसमें अपना नेता खुद चुनने की इच्छा भी शामिल थी।
  • भारत ने औपनिवेशिक से मुक्ति के लिए राष्ट्रीय संघर्ष किया। इनमें से अनेक देशों ने दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था अपना ली। भारत ने 1947 में आजादी हासिल की और एक गुलाम देश से लोकतांत्रिक देश बनने की राह पर चल पड़ा। उपनिवेश रहे अधिकांश दूसरे देशों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है।
हाल का दौर
  • 1989-90 के दौर में पोलैंड और अनेक दूसरे देश सोवियत नियंत्रण के बाहर हो गए। उन्होंने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई। 1991 में सोवियत संघ खुद भी बिखर गया। सोवियत संघ में कुल 15 गणराज्य थे। ये सभी स्वतंत्र देशों के रूप में सामने आए। इनमें से अधिकांश ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही अपनाई।
  • पूर्वी यूरोप पर से सोवियत नियंत्रण की समाप्ति और सोवियत संघ के टूटने का दुनिया के राजनैतिक नक्शे पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। इस समय भारत के पड़ोस में भी काफी बड़े बदलाव हुए।
संयुक्त राष्ट्र संघ
  • संयुक्त राष्ट्र के सभी 192 सदस्य देशों को संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक-एक वोट मिला हुआ है। संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक सदस्य देश के प्रतिनिधियों द्वारा चुने गए अध्यक्ष की अगुवाई में हर साल चलती है।
  • महासभा का स्वरूप काफी कुछ संसद की तरह है जिसमें सभी तरह की चर्चाएँ होती हैं। विभिन्न देशों के बीच टकराव की स्थिति में महासभा कोई कार्रवाई नहीं कर सकती।
  • संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् ऐसे महत्त्वपूर्ण फैसले लेती है। इसके कुल पंद्रह सदस्य होते हैं। परिषद् के पाँच स्थायी सदस्य हैं- अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन । बाकी दस सदस्यों का चुनाव आम सभा दो वर्ष के लिए करती है। पर असली ताकत पाँच स्थायी सदस्यों के हाथ में ही होती है। स्थायी सदस्यों को वीटो अधिकार मिला है। अगर कोई भी स्थायी सदस्य देश इस अधिकार का प्रयोग करता है तो सुरक्षा परिषद् उसकी मर्जी के खिलाफ फैसला नहीं कर सकती।
  • संयुक्त राष्ट्र को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की माँग करने वाले लोगों और देशों की संख्या बढ़ती जा रही है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष दुनिया के किसी भी देश को उधार और ऋण देने वाली सबसे बड़ी संस्था है। इसके सभी 190 सदस्य देशों को समान मताधिकार प्राप्त नहीं है। कोई देश इस कोष में जितने धन का योगदान करता है उसी अनुपात में उसके वोट का वजन भी तय होता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के करीब आधे वोटों पर सिर्फ त (अमेरिका, जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, सऊदी अरब, चीन और रूस) का अधिकार है। 166 सदस्य इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन के फैसलों को ज्यादा प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं। विश्व बैंक में भी वोटिंग की ऐसी ही प्रणाली है।
  • राष्ट्रीय सरकारों के लोकतांत्रिक होने न होने के लिए हम जिस सरल कसौटी का प्रयोग करते हैं, अधिकांश वैश्विक संस्थाएँ उस पर खरी नहीं उतरतीं । विभिन्न राष्ट्र तो पहले की तुलना में ज्यादा लोकतांत्रिक हो रहे हैं पर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के लोकतांत्रिक चरित्र में कमी आती जा रही है।
  • 20 साल पहले दुनिया में दो महाशक्तियाँ थीं - अमेरिका और सोवियत संघ | इन दो महाशक्तियों और उनके पीछे रहने वाले देशों के समूहों की प्रतिद्वंद्विता और टकराव से इन सभी वैश्विक संगठनों का शक्ति संतुलन ज्यादा बेहतर रहा करता था।
  • सोवियत संघ के पतन के बाद अमेरिका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति लगता है। यह अमेरिकी प्रभुत्व अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के कामकाज को प्रभावित करता है।
  • पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न देशों के लोग अपनी सरकारों की मदद के बिना एक-दूसरे के ज्यादा संपर्क में आए हैं। उन्होंने युद्ध और दुनिया पर कुछ देशों या व्यापारिक कंपनियों के प्रभुत्व के खिलाफ वैश्विक संगठन बनाए हैं।
  • किसी भी देश में लोकतंत्र जिस तरह लोगों के संघर्षों और पहल से मजबूत हुआ है वैसे ही वैश्विक मामलों में यह पहल भी लोगों के संघर्षों से ही आगे बढ़ी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को नगर में 1 जनवरी, 1942 को ब्रिटेन, सोवियत संघ, चीन तथा अन्य 26 मित्र राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें यह निर्णय हुआ कि ये राष्ट्र सम्मिलित होकर धुरी राष्ट्रों का सामना करेंगे।
  • इस संगठन को 'संयुक्त राष्ट्र' अथवा 'यूनाइटेड नेशन्स' का नाम अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट द्वारा प्रदान किया गया।
  • 30 अक्टूबर, 1943 को संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा सोवियत संघ की सरकारों ने अपने-अपने विदेश मंत्रियों के माध्यम से एक संयुक्त घोषणा की।
  • इस घोषणा में कहा गया कि “जितनी जल्दी संभव हो सके, एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की जाए। यह संगठन सभी शांतिप्रिय राष्ट्रों की सम्प्रभुता पर आधारित होगा। ऐसे सभी छोटे-बड़े राज्य इसके सदस्य बन सकेंगे। इसका उद्देश्य होगा अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा कायम रखना।''
  • संयुक्त राष्ट्र की रूपरेखा का निर्माण करने के लिए बड़े राष्ट्रों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन 21 अगस्त, 1944 को वाशिंगटन में आयोजित किया गया जो 7 अक्टूबर, 1944 तक चला।
  • इस सम्मेलन में यह स्वीकार कर लिया गया कि संयुक्त राष्ट्र का कार्यक्षेत्र केवल अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने तक ही सीमित न रखा जाए बल्कि उसका कार्य आर्थिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना भी होना चाहिए।
  • इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख अंगों- महासभा, सुरक्षा परिषद्, सचिवालय एवं अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के संबंध में निर्णय लिया गया।
  • इस सम्मेलन के प्रस्तावों में महासभा एवं सुरक्षा परिषद् की कार्य-प्रणाली पर तो सहमति हो गई, परन्तु सुरक्षा परिषद् | में मतदान प्रणाली के संबंध में सोवियत संघ एवं पश्चिमी शक्तियों के मध्य मतभेद बने ही रहे।
  • सोवियत संघ के क्रीमिया प्रदेश के याल्टा नगर में 4 फरवरी, 1944 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल, सोवियत राष्ट्रपति स्टालिन तथा अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट का एक शिखर सम्मेलन प्रारम्भ हुआ।
  • सुरक्षा परिषद् में मतदान प्रणाली पर महत्त्वपूर्ण निर्णय याल्टा सम्मेलन में लिए गए। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को नगर में 1 जून, 1945 को जब संयुक्त राष्ट्र का सम्मेलन हुआ तो इसके सदस्यों की संख्या 50 हो चुकी थी। सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में भाग लेने वाला भारत भी संयुक्त राष्ट्र के मूल सदस्यों में गिना जाता है।
  • सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व ए, रामास्वामी मुदालियर के द्वारा किया गया था। इस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र' के घोषणा पत्र को अंतिम रूप दिया गया।
  • अधिकार पत्र पर 50 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा 26 जून, 1945 को हस्ताक्षर किए गए, पोलैण्ड का प्रतिनिधित्व अधिवेशन में नहीं हुआ था। उसने बाद में इस पर हस्ताक्षर किए और 51 मूल सदस्यों में सम्मिलित हो गया। सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में एक नया अधिकार पत्र (Charter) स्वीकार किया गया जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर कहा जाता है।
  • चार्टर के अनुच्छेद 110 में यह कहा गया था कि सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्राँस, अमेरिका, चीन गणराज्य तथा शेष अधिकांश राज्यों की सरकारों द्वारा स्वीकृति प्रदान करने के उपरान्त चार्टर लागू माना जाएगा।
  • 24 अक्टूबर, 1945 तक को संयुक्त राष्ट्र का प्रादुर्भाव हुआ।
  • इसके सदस्य देशों की वर्तमान संख्या 193 है।
  • संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय न्यूयॉर्क में है। इस मुख्यालय में महासभा भवन (1951 में स्थापित), महासम्मेलन भवन तथा पुस्तकालय भवन स्थित हैं। संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में संयुक्त राष्ट्र का एक पोस्ट ऑफिस भी कार्यरत है, जो संयुक्त राष्ट्र के ही टिकट का प्रयोग करता है।
  • 24 अक्टूबर को प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

लोकतंत्र

परिभाषा

  • लोकतंत्र शासन का एक ऐसा रूप है जिसमें शासकों का चुनाव लोग करते हैं। यह एक उपयोगी शुरुआत है। यह परिभाषा बहुत स्पष्ट ढंग से लोकतांत्रिक और गैर-लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाओं में अंतर कर देती है। म्यांमार के सैनिक शासकों का चुनाव लोगों ने नहीं किया है।
  • जिन लोगों का सेना पर नियंत्रण था वे देश के शासक बन गए। शासक के फैसलों में लोगों की कोई भागीदारी नहीं है, लेकिन यह सरल परिभाषा पूर्ण या पर्याप्त नहीं है। इससे हमें यह समझ में आता है कि लोकतंत्र का मतलब लोगों का शासन है।
  • इस परिभाषा का प्रयोग यदि हमने बिना सोचे-समझे किया तो फिर उन सभी सरकारों को लोकतांत्रिक कहना पड़ेगा जो चुनाव करवाती हैं और फिर हम सही नतीजे पर नहीं पहुँच पाएँगे।
लोकतंत्र की विशेषताएँ
  • लोकतंत्र शासन का एक रूप है जिसमें जनता शासकों का चुनाव करती है। इससे अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं:
    • किसी सरकार को लोकतांत्रिक कहे जाने के लिए उसके किन अधिकारियों का चुना हुआ होना आवश्यक है।
प्रमुख फैसले निर्वाचित नेताओं के हाथ
  • पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ ने अक्तूबर 1999 में सैनिक तख्तापलट की अगुवाई की। लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका और खुद को देश का मुख्य कार्यकारी घोषित किया।
  • बाद में खुद को राष्ट्रपति घोषित किया और बाद में एक जनमत संग्रह कराके अपना कार्यकाल पाँच साल के लिए बढ़वा लिया।
  • पाकिस्तानी मीडिया, मानवाधिकार संगठनों और लोकतंत्र के लिए काम करने वालों ने आरोप लगाया कि जनमत संग्रह एक धोखाधड़ी है और इसमें बड़े पैमाने पर गड़बड़ियाँ की गई हैं।
  • अगस्त में लीगल फ्रेमवर्क आर्डर के जरिए पाकिस्तान के संविधान को बदल डाला। इस आर्डर के अनुसार राष्ट्रपति, राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों को भंग कर सकता है।
  • मंत्रिपरिषद् के कामकाज पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की निगरानी रहती है जिसके ज्यादातर सदस्य फौजी अधिकारी हैं।
  • इस कानून के पास हो जाने के बाद राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों के लिए चुनाव कराए गए। इस प्रकार पाकिस्तान में चुनाव भी हुए, चुने हुए प्रतिनिधियों को कुछ अधिकार भी मिले, लेकिन सर्वोच्च सत्ता सेना के अधिकारियों और जनरल मुशर्रफ के पास है। जनरल मुशर्रफ के शासन वाले पाकिस्तान को लोकतंत्र न कहने के अनेक ठोस कारण हैं।
  • लोगों ने राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव किया है, लेकिन चुने हुए प्रतिनिधि वास्तविक शासक नहीं हैं। वे अंतिम फैसला नहीं कर सकते।
  • अंतिम फैसला सेना के अधिकारियों और जनरल मुशर्रफ के हाथ में है जो जनता द्वारा नहीं चुने गए हैं। ऐसा तानाशाही और राजशाही वाली अनेक शासन व्यवस्थाओं में होता है। वहाँ औपचारिक रूप से चुनी हुई संसद और सरकार तो होती है पर असली सत्ता उन लोगों के हाथ में होती है जिन्हें जनता नहीं चुनती ।
  • ऐसे मामलों में असली ताकत विदेशी शक्तियों के हाथ में रहती है न कि चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में। इसे लोगों का शासन नहीं कहा जा सकता। इससे हम लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की पहली विशेषता पर पहुँचते हैं। लोकतंत्र में अंतिम निर्णय लेने की शक्ति लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के पास ही होनी चाहिए। 
एक व्यक्ति एक वोट- एक मोल
  • जिस तरह लोकतंत्र के लिए होने वाला संघर्ष सार्वभौम वयस्क मताधिकार के साथ जुड़ा था। इस सिद्धांत को लगभग पूरी दुनिया में मान लिया गया है।
  • किसी व्यक्ति को मतदान के समान अधिकार से वंचित करने के उदाहरण भी कम नहीं हैं। सऊदी अरब में औरतों को वोट देने का अधिकार नहीं है। 
  • एस्टोनिया ने अपने यहाँ नागरिकता के नियम कुछ इस तरह से बनाए हैं कि रूसी अल्पसंख्यक समाज के लोगों को मतदान का अधिकार हासिल करने में मुश्किल होती है।
  • फिजी की चुनाव प्रणाली में वहाँ के मूल वासियों के वोट का महत्त्व भारतीय मूल के फिजी नागरिक के वोट से ज्यादा है।
  • लोकतंत्र राजनैतिक समानता के बुनियादी सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रकार हम लोकतंत्र की तीसरी विशेषता को जान लेते हैं: लोकतंत्र में हर वयस्क नागरिक का एक वोट होना चाहिए और हर वोट का एक समान मूल्य होना चाहिए।
लोकतंत्र के विपक्ष में तर्क
  • लोकतंत्र के खिलाफ वे अधिकांश तर्क सामने आए जिन्हें हम आम तौर पर सुनते हैं। ये तर्क कुछ इस प्रकार के होते हैं:-
    • लोकतंत्र में नेता बदलते रहते हैं। इससे अस्थिरता पैदा होती है।
    • लोकतंत्र का मतलब सिर्फ राजनैतिक लड़ाई और सत्ता का खेल है। यहाँ नैतिकता की कोई जगह नहीं होती।
    • लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतने सारे लोगों से बहस और चर्चा करनी पड़ती है कि हर फैसले में देरी होती है। 
    • चुने हुए नेताओं को लोगों के हितों का पता ही नहीं होता। इसके चलते खराब फैसले होते हैं।
    • लोकतंत्र में चुनावी लड़ाई महत्त्वपूर्ण और खर्चीली होती है, इसीलिए इसमें भ्रष्टाचार होता है।
    • सामान्य लोगों को पता नहीं होता कि उनके लिए क्या चीज अच्छी है और क्या चीज बुरी; इसलिए उन्हें किसी चीज का फैसला नहीं करना चाहिए।
  • निश्चित रूप से लोकतंत्र सभी समस्याओं को खत्म करने वाली जादू की छड़ी नहीं है। लोकतंत्र ने हमारे देश में या दुनिया के अन्य हिस्सों में भी गरीबी नहीं मिटाई है।
  • सरकार के स्वरूप के तौर पर लोकतंत्र सिर्फ इसी बुनियादी चीज को देखता है कि लोग अपने बारे में खुद फैसले करें। इन फैसलों में लोगों को भागीदार बनाने से फैसलों में देरी होती है। यह भी सही है कि लोकतंत्र में जल्दी-जल्दी नेतृत्व परिवर्तन होता है। कई बार बड़े फैसलों और सरकार की कार्यकुशलता पर भी इसका बुरा असर होता है।
  • इन तर्कों से यह लगता है कि हम लोकतंत्र का जो रूप हैं वह सरकार का आदर्श स्वरूप नहीं हो सकता है। वास्तविक जीवन में हमारे सामने यह सवाल नहीं होता।
लोकतंत्र के पक्ष में तर्क
  • चीन में 1958-61 के दौरान पड़ा अकाल विश्व इतिहास का अब तक ज्ञात सबसे भयावह अकाल था। इसमें करीब तीन करोड़ लोग भूख से मरे। उस समय भारत की आर्थिक स्थिति चीन से बहुत अच्छी नहीं थी। फिर भी भारत में चीन के समान अकाल और भुखमरी की स्थिति नहीं आई।
  • अर्थशास्त्रियों का मानना है कि ऐसा दोनों देशों की सरकारी नीतियों के अंतर के कारण हुआ। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने से भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा के मामले में जिस तरह से काम किया है वैसा करने की जरूरत चीनी सकार ने महसूस नहीं की।
  • अर्थशास्त्रियों का यह भी कहना है कि किसी भी स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में कभी भी बड़ा अकाल और बड़ी संख्या में भुखमरी नहीं हुई है।
  • यदि चीन में बहुदलीय चुनावी व्यवस्था होती, विपक्षी दल होता और सरकार की आलोचना कर सकने वाली स्वतंत्र मीडिया होती तो इतने सारे लोग भूख से नहीं मर सकते थे। यह उदाहरण लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ शासन पद्धति बताने वाली विशेषताओं में से एक को बहुत स्पष्ट ढंग से सामने लाता है।
  • लोगों की जरूरत के अनुरूप आचरण करने के मामले में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली किसी भी अन्य प्रणाली से बेहतर है।
  • गैर-लोकतांत्रिक सरकार लोगों की जरूरतों पर ध्यान दे भी सकती है और नहीं भी, और यह सब सरकार चलाने वालों की मर्जी पर निर्भर करेगा।
  • अगर शासकों को कुछ करने की जरूरत नहीं लगती तो उनको लोगों की इच्छा के अनुरूप काम करने की जरूरत नहीं है। पर लोकतंत्र में यह जरूरी है कि शासन करने वाले आम लोगों की जरूरतों पर तत्काल ध्यान दें। लोकतांत्रिक शासन पद्धति दूसरों से बेहतर है क्योंकि यह शासन का अधिक जवाबदेही वाला स्वरूप है।
  • गैर - लोकतांत्रिक सरकारों की तुलना में लोकतांत्रिक सरकारों के बेहतर फैसले करने का एक अन्य कारण भी है।
  • लोकतंत्र का आधार व्यापक चर्चा और बहसें हैं। लोकतांत्रिक फैसले में हरदम ज्यादा लोग शामिल होते हैं, चर्चा करके फैसले होते हैं, बैठकें होती हैं। अगर किसी एक मसले पर अनेक लोगों की सोच लगी हो तो उसमें गलतियों की गुंजाइश कम से कम हो जाती है।
  • इसमें कुछ ज्यादा समय जरूर लगता है लेकिन महत्त्वपूर्ण मामलों पर थोड़ा समय लेकर फैसले करने के अपने लाभ भी हैं। इससे ज्यादा उग्र या गैर-जिम्मेवार फैसले लेने की संभावना घटती है। इस प्रकार लोकतंत्र बेहतर निर्णय लेने की संभावना बढ़ाता है।
  • लोकतंत्र मतभेदों और टकरावों को संभालने का तरीका उपलब्ध कराता है। किसी भी समाज में लोगों के हितों और विचारों में अंतर होगा।
  • भारत की तरह भारी सामाजिक विविधता वाले देश में इस तरह का अंतर और भी ज्यादा होता है। अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग समूहों के लोग रहते हैं, विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं, उनकी धार्मिक मान्यताएँ अलग-अलग हैं और जातियाँ भी अलग-अलग।
  • दुनिया को ये सभी अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं और उनकी पसंद में भी अंतर है। एक समूह की पसंद और दूसरे समूह की पसंद में टकराव भी होता है।
  • इसे ताकत के बल पर सुलझाया जा सकता है। जिस समूह के पास ज्यादा ताकत होगी वह दूसरे को दबा देगा और कमजोर समूह को इसे मानना होगा, लेकिन इससे नाराजगी और असंतोष पैदा होगा। ऐसी स्थिति में विभिन्न समूह ज्यादा समय तक साथ नहीं रह सकते।
  • लोकतंत्र इस समस्या का एकमात्र शांतिपूर्ण समाधान उपलब्ध कराता है। लोकतंत्र में कोई भी स्थायी विजेता नहीं होता और कोई स्थायी रूप से पराजित नहीं होता। विभिन्न समूह एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्ण ढंग से रह सकते हैं। भारत की तरह विविधता वाले देश को लोकतंत्र ही एकजुट बनाए हुए ।
  • बेहतर सरकार और सामाजिक जीवन पर प्रभाव के हिसाब से ये तीन तर्क लोकतंत्र को काफी मजबूत साबित करते हैं। लेकिन लोकतंत्र के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क उससे बनने वाली सरकार के कामकाज से जुड़ा नहीं है।
  • यह तर्क लोकतंत्र और नागरिकों के रिश्ते का है- लोकतंत्र में नागरिकों की जो हैसियत होती है वह किसी और व्यवस्था में नहीं होती। अगर इस व्यवस्था में बेहतर फैसले लेने और उत्तरदायी सरकार चलाने की काम न भी हो तब भी यह दूसरों से बेहतर है ।
  • लोकतंत्र नागरिकों का सम्मान बढ़ाता है। लोकतंत्र राजनीतिक समानता के सिद्धांत पर आधारित है, यहाँ सबसे गरीब और अनपढ़ को भी वही दर्जा प्राप्त है जो अमीर और पढ़े-लिखे लोगों को है।
  • लोग किसी शासक की प्रजा न होकर खुद अपने शासक हैं। अगर वे गलतियाँ करते हैं तब भी वे खुद इसके लिए जवाबदेह होते हैं।
  • लोकतंत्र के पक्ष में आखिरी तर्क यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था दूसरों से बेहतर है क्योंकि इसमें हमें अपनी गलती ठीक करने का अवसर भी मिलता है।
लोकतंत्र का वृहतर अर्थ
  • लोकतंत्र की इस प्रकार की व्याख्या हमें उन न्यूनतम विशेषताओं या गुणों की पहचान कराती है जो लोकतंत्र की जरूरत है। हमारे समय में लोकतंत्र का सबसे आम रूप है प्रतिनिधित्व वाला लोकतंत्र ।
  • हम जिन देशों में लोकतंत्र होने की बात करते हैं वहाँ सभी लोग शासन नहीं चलाते। सभी लोगों की तरफ से बहुमत को फैसले लेने का अधिकार होता है और यह बहुमत भी स्वयं शासन नहीं चलाता। बहुमत का शासन भी चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होता है।
  • यह जरूरी हो जाता है क्योंकि:
    • आधुनिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में इतने अधिक लोग होते हैं कि हर बात लिए सबको साथ बैठाकर सामूहिक फैसला कर पाना संभव ही नहीं हो सकता।
    • अगर यह संभव हो तब भी हर एक नागरिक के पास हर फैसले में भाग लेने का समय, इच्छा या योग्यता और कौशल नहीं होता।
  • हमें लोकतंत्र की स्पष्ट लेकिन न्यूनतम जरूरी समझ मिलती है। इस स्पष्टता से हमें लोकतांत्रिक और अलोकतांत्रिक सरकारों में अंतर करने में मदद मिलती है। लेकिन इससे हमें एक सामान्य लोकतंत्र और एक अच्छे लोकतंत्र के बीच अंतर करने की क्षमता नहीं मिल जाती। इससे हम लोकतंत्र को सरकार से परं जाकर नहीं समझ पाते। इसके लिए हमें लोकतंत्र के वृहत्तर अर्थ को समझना होगा।
  • कई बार हम लोकतंत्र का प्रयोग सरकार से अलग संगठनों के लिए करते हैं। लोकतंत्र शब्द का प्रयोग फैसले लेने के उसके बुनियादी तरीके को उजागर करता है।
  • लोकतांत्रिक फैसले का मतलब होता है, उस फैसले से प्रभावित होने वाले सभी लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद और उनकी स्वीकृति से फैसले लेना यानि जो बहुत शक्तिशाली न हो उसका भी किसी फैसले में उतना ही महत्त्व होना जितना किसी बहुत शक्तिशाली का।
  • इस प्रकार लोकतंत्र एक ऐसा सिद्धांत है जिसका प्रयोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकता है। कई बार हम लोकतंत्र शब्द का प्रयोग किसी मौजूदा सरकार के लिए नहीं करके कुछ आदर्शों के लिए करते हैं। इन्हें पाने का प्रयास सभी लोकतांत्रिक शासनों को जरूर करना चाहिए:-
    • इस देश में वास्तविक लोकतंत्र तभी आएगा जब किसी को भी भूखे पेट सोने की जरूरत नहीं रहेगी।
    • लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को फैसला लेने में समान भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए वोट के समान अधिकार भर की जरूरत नहीं है।
    • हर नागरिक को इसके लिए सूचना की समान उपलब्धता, बुनियादी शिक्षा, बुनियादी संसाधन और पक्की निष्ठा होनी चाहिए।
  • अगर इन आदर्श पैमानों के आधार पर आज की शासन व्यवस्थाओं को परखें तो लगेगा कि दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र नहीं है। फिर भी आदर्श के रूप में लोकतंत्र की हमारी समझदारी हमें बार-बार यह याद दिलाती है कि हम लोकतंत्र को इतना महत्त्व क्यों देते हैं। इससे हमें मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को परखने और उनकी कमजोरियों की पहचान करने में मदद मिलती है। इससे हमें न्यूनतम या कामचलाऊ लोकतंत्र और अच्छे लोकतंत्र के बीच का अंतर समझने में मदद मिलती है।
  • समानता के आधार पर चर्चा और विचार-विमर्श के बुनियादी सिद्धांत को माना जाए तो लोकतांत्रिक ढंग का फैसला भी कई तरह का हो सकता है। आज की दुनिया में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का सबसे आम रूप है लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाना।
  • किसी भी देश में आदर्श लोकतंत्र नहीं है। एक आदर्श लोकतंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक होनी चाहिए। हर लोकतंत्र को इस आदर्श को पाने का प्रयास करना चाहिए। यह स्थिति एक बार में और एक साथ सभी के लिए हासिल नहीं की जा सकती।
  • इसके लिए लोकतांत्रिक फैसले लेने की प्रक्रिया को बचाए रखने और मजबूत करते जाने की जरूरत होती है। नागरिक के तौर पर हम जो भी काम करते हैं वह भी हमारे देश के लोकतंत्र को अच्छा या खराब बनाने में मदद करता है।
  • यहीं लोकतंत्र की ताकत है और यही कमजोरी भी। देश का भविष्य शासकों के कामकाज से भी ज्यादा नागरिकों के कामकाज पर निर्भर करता है। यही चीज लोकतंत्र को अन्य शासन व्यवस्थाओं अलग करती है।
  • राजशाही, तानाशाही या एक दल के शासन जैसी अन्य व्यवस्थाओं में सभी नागरिकों को राजनीति में हिस्सेदारी करने की जरूरत नहीं रहती।
  • दरअसल, अधिकांश गैर लोकतांत्रिक सरकारें चाहती ही नहीं कि लोग राजनीति में हिस्सा लें, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था सभी नागरिकों की सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है।
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Wed, 29 Nov 2023 05:08:23 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | मानचित्र अध्ययन उच्चावच निरूपण https://m.jaankarirakho.com/498 https://m.jaankarirakho.com/498 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | मानचित्र अध्ययन उच्चावच निरूपण
मानचित्रण की वह विधि जिसके द्वारा धरातल पर पाई जाने वाली त्रिविमिय आकृति का समतल सतह पर प्रदर्शन किया जाता है।

समोच्च रेखाएँ:

  • समोच्च रेखाओं की सहायता से उच्चावच प्रदर्शन की विधि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। यह एक मानक विधि है। वस्तुतः समोच्च रेखाएँ भूतल पर समुद्र जल-तल से एक समान ऊंचाई वाले बिंदुओं/ स्थानों को मिलाकर मानचित्र पर खींची जाने वाली काल्पनिक रेखाएँ हैं।
  • मानचित्र में प्रत्येक समोच्च रेखा के साथ उसकी ऊँचाई का मान लिख दिया जाता है।
  • मानचित्र पर इन समोच्च रेखाओं को बादामी रंग से दिखाया जाता है।
  • एक समान ढ़ाल को दिखाने के लिए समोच्च रेखाओं को समान दूरी पर खींचा जाता है।
  • खड़ी ढ़ाल को दिखाने के लिए समोच्च रेखाओं के पास-पास • बनाया जाता है, जबकि मंद ढ़ाल के लिए इन रेखाओं को दूर-दूर बनाया जाता है।
  • जब किसी मानचित्र में अधिक ऊँचाई (मान) की समोच्च रेखाएँ पास-पास तथा कम ऊंचाई की समोच्च रेखाएँ दूर दूर बनी होती है तब यह समझना चाहिए कि इन समोच्च रेखाओं का समुह अवतल ढ़ाल का प्रदर्शन कर रहा है। 
  • इसके विपरित स्थिति उत्तल ढाल का प्रतिनिधित्व करती है। सीढ़ीनुमा ढ़ाल के लिए दो-दो समोच्च रेखा अंतराल खींची जाती है।
समोच्च रेखाओं पर विभिन्न भू-आकृतियों का निरूपणः
  1. पर्वतः पर्वत स्थल पर पाई जाने वाली वह आकृति है, जिसका आधार काफी चौड़ा एवं शिखर काफी पतला अथवा नुकीला होता है। इसका रूप शंक्वाकार या शंकुनुमा होता है।
    • ज्वालामुखी से निर्मित पहाड़ी, शंकु आकृति की होती है।
    • शंक्वाकार पहाड़ी की समोच्च रेखाओं को लगभग वृत्तीय रूप में बनाया जाता है। बाहर से अन्दर की ओर वृतों का आकार छोटा होता जाता है। बीच में सर्वाधिक ऊँचाई वाला वृत्त होता है। बाहर से अंदर की ओर सर्वोच्च रेखाओं का मान क्रमशः बढ़ता जाता है।
  2. पठारः पठारों को प्रदर्शित करने के लिए समोच्च रेखा किनारों पर पास-पास तथा भीतर की ओर दूर दूर होती हैं। प्रत्येक समोच्च रेखा लंबाकार तथा बंद आकृति में बनायी जाती है। मध्यवर्ती समोच्च रेखा भी चौड़ी होती है।
  3. जलप्रपातः जब किसी नदी का जल अपनी घाटी से गुजरने के दौरान ऊपर से नीचे की ओर तीव्र ढाल पर अकस्मात गिरती है तब इसे जलप्रपात कहा जाता है। इस आकृति को दिखाने के लिए खड़ी ढ़ाल के पास कई समोच्च रेखाओं को एक स्थान पर मिला दिया जाता है तथा शेष रेखाओं को ढाल के अनुरूप बनाया जाता है।
  4. वी (V) आकार की घाटी: इसके लिए समोच्च रेखाओं को अंग्रेजी के "V" अक्षर की उलटी आकृति बनाई जाती है। इसमें समोच्च रेखाओं का मान बाहर से अंदर की ओर क्रमशः घटता जाता है।
  5. 'ट' (T) आकार की घाटी: इस प्रकार की घाटी का निर्माण नदी द्वारा किया जाता है। खड़ी 'ट' आकार की घाटी का निर्माण नदी द्वारा उसके युवावस्था में किया जाता है। इस आकृति को प्रदर्शित करने के लिए समोच्च रेखाओं को अंग्रेजी के ट अक्षर की उल्टी आकृति बनाई जाती है, जिसमें समोच्च रेखाओं का मान बाहर से अंदर की ओर क्रमशः घटता जाता है।

उच्चावच प्रदर्शन की विधियाँ:

1. हैश्यूर विधिः
  • इस विधि का विकास ऑस्ट्रिया के एक सैन्य अधिकारी लेहमान ने किया था। उच्चावच निरूपण के लिए इस विधि के अंतर्गत मानचित्र में लघु, महीन एवं खंडित रेखाएँ खींची जाती हैं।
  • ये रेखाएँ ढ़ाल की दिशा अथवा जल बहने की दिशा में खींची जाती हैं। फलतः अधिक या तीव्र ढाल वाले भागों के पास-पास इन रेखाओं को मोटी एवं गहरी कर दिया जाता है। जबकि, मंद ढालों के लिए ये रेखाएँ पतली एवं दूर-दूर बनाई जाती है। समतल क्षेत्र को खाली छोड़ दिया जाता है।  
  • ऐसी स्थति में धरातल का जो भाग जितना अधिक ढलान होता है, हैश्यर विधि के अंतर्गत मानचित्र पर वह भाग उतना ही अधिक काला दिखाई देता है।
  • इस विधि से ढ़ाल का सही-सही ज्ञान हो पाता है।
2. पर्वतीय छायाकरण:
  • इस विधि के अंतर्गत उच्चावच-प्रदर्शन के लिए भू-आकृतियों पर उत्तर पश्चिम कोने पर ऊपर से प्रकाश पड़ने की कल्पना की जाती है।
  • इसके कारण अंधेरे में पड़ने वाले हिस्से को या ढ़ाल को गहरी आभा से भर देते हैं जबकि प्रकाश वाले हिस्से या कम ढ़ाल को हल्की आभा से (या छोड़) भर देते हैं ।
  • इस विधि से पर्वतीय देशों के उच्चावच को प्रभावशाली ढंग से दिखाना संभव हेता है।
3. तल चिह्नः
  • वास्तविक सर्वेक्षण के द्वारा भवनों, पुलों, खंभों, पत्थरों जैसे स्थाई वस्तुओं पर समुद्र तल से मापी गई ऊँचाई को प्रदर्शित करने वाले चिह्न को तल चिह्न (Bench Mark) कहा जाता है।
  • स्थानिक ऊँचाई: तल चिह्न की सहायता से किसी स्थान विशेष की मापी गई ऊँचाई को स्थानिक ऊँचाई कहा जाता है। इस विधि  में बिंदुओं के द्वारा मानचित्र में विभिन्न स्थानों की ऊँचाई संख्या में लिख दिया जाता है।
  • त्रिकोणमितीय स्टेशन: त्रिकोणमितीय स्टेशन का संबंध उन बिंदुओं से है जिनका उपयोग त्रिभूजन विधि (एक प्रकार का सर्वेक्षण) द्वारा सर्वेक्षण करते समय स्टेशन के रूप में हुआ था। मानचित्र पर त्रिभुज बनाकर उसके बगल में धरातल की समुद्र तल से ऊँचाई . लिख दी जाती है।
  • स्तर रंजन: रंगीन मानचित्रों में रंगों के विभिन्न आभाओं के द्वारा उच्चावच प्रदर्शन का एक मानक निश्चित किया जाता है। ऊँचाई में वृद्धि के अनुसार रंगों की आभाएँ हल्की होती जाती है।
  • इनमें समुद्र या जलीय भाग को नीले रंग से दिखाया जाता है। मैदान को हरा रंग से तथा पर्वतों को बादामी (हल्का कत्थई) रंग से दिखाया जाता है। जबकि बर्फीले क्षेत्र को सफेद रंग से दिखाया जाता है।
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Wed, 29 Nov 2023 05:01:16 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखाएँ https://m.jaankarirakho.com/496 https://m.jaankarirakho.com/496 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखाएँ
  • वस्तुओं तथा सेवाओं के आपूर्ति स्थानों से माँग स्थानों तक ले जाने हेतु परिवहन की आवश्यकता होती है।
  • एक देश के विकास की गति वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के साथ उनके एक स्थान से दूसरे स्थान तक वहन (movement) की सुविधा पर भी निर्भर करना पड़ता है। इसलिए सक्षम परिवहन के साधन तीव्र विकास हेतु पूर्व अपेक्षित हैं।
  • वस्तुओं तथा सेवाओं का परिवहन तीन माध्यमों द्वारा होता है- स्थल, जल तथा वायु इन्हीं के आधार पर परिवहन को स्थल, जल व वायु परिवहन में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास के साथ व्यापार व परिवहन के प्रभाव क्षेत्र में विस्तृत वृद्धि हुई है। सक्षम व तीव्र गति वाले परिवहन से आज संसार एक बड़े गाँव में परिवर्तित हो गया है।
  • परिवहन का यह विकास संचार साधनों के विकास की सहायता से ही संभव हो सका है। इसीलिए परिवहन, संचार व व्यापार एक दूसरे के पूरक हैं।
  • रेल, वायु एवं जल परिवहन, समाचारपत्र, रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा तथा इंटरनेट आदि इसके सामाजिक-आर्थिक विकास में अनेक प्रकार से सहायक हैं।

पाइपलाइन
  • भारत के परिवहन मानचित्र पर पाइपलाइन एक नया परिवहन का साधन है। पहले पाइपलाइन का उपयोग शहरों व उद्योगों में पानी पहुँचाने हेतु होता था।
  • आज इसका प्रयोग कच्चा तेल, पेट्रोल उत्पाद तथा तेल से प्राप्त प्राकृतिक तथा गैस क्षेत्र से उपलब्ध गैस शोधनशालाओं, उर्वरक कारखानों व बड़े ताप विद्युत गृहों तक पहुँचाने में किया जाता है।
  • ठोस पदार्थों को तरल अवस्था (Slurry) में परिवर्तित कर पाइपलाइनों द्वारा ले जाया जाता है।
  • सुदूर आंतरिक भागों में स्थित शोधनशालाएँ जैसे बरौनी, मथुरा, पानीपत तथा गैस पर आधारित उर्वरक कारखानों की स्थापना पाइपलाइनों के जाल के कारण ही संभव हो पाई है।
  • पाइपलाइन बिछाने की प्रारंभिक लागत अधिक है। लेकिन इसको चलाने की (Running) लागत न्यूनतम है। वाहनांतरण देरी तथा हानियाँ इसमें लगभग नहीं के बराबर है।
  • देश में पाइपलाइन परिवहन के तीन प्रमुख जाल हैं-
    • ऊपरी असम के तेल क्षेत्रों से गुवाहाटी, बरौनी व इलाहाबाद के रास्ते कानपुर ( उत्तर प्रदेश) तक ।
    • इसकी एक शाखा बरौनी से राजबंध होकर हल्दिया तक है दूसरी राजबंध से मौरी ग्राम तक तथा गुवाहाटी से सिलिगुड़ी तक है।
    • गुजरात में सलाया से वीरमगाँव, मथुरा, दिल्ली व सोनीपत के रास्ते पंजाब में जालंधर तक। इसकी अन्य शाखा वड़ोदरा के निकट कोयली को चक्शु व अन्य स्थानों से जोड़ती है।
    • गैस पाइपलाइन गुजरात में हजीरा को उत्तर प्रदेश में जगदीशपुर से मिलाती है।
    • यह मध्य प्रदेश के विजयपुर के रास्ते होकर जाती है। इसकी शाखाएँ राजस्थान में कोटा तथा उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर, बबराला व अन्य स्थानों पर हैं।
जल परिवहन
  • भारत के लोग अनंतकाल से समुद्री यात्राएँ करते रहे हैं। इसके नाविकों ने दूर तथा पास के क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति व व्यापार को फैलाया है।
  • जल परिवहन, परिवहन का सबसे सस्ता साधन है। यह भारी व स्थूलकाय वस्तुएँ ढोने में अनुकूल है। यह परिवहन साधनों में ऊर्जा सक्षम तथा पर्यावरण अनुकूल हैं।
  • भारत में अंतः स्थलीय नौसंचालन जलमार्ग 14,500 किमी. लंबा है। इसमें केवल 5,685 किमी. मार्ग ही मशीनीकृत नौकाओं द्वारा तय किया जाता है।
  • निम्न जलमार्गों को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया गया है-
    • हल्दिया तथा इलाहाबाद के मध्य गंगा जलमार्ग जो 1620 किमी. लंबा है - नौगम्य जलमार्ग संख्या - 1
    • सदिया व धुबरी के मध्य 891 किमी. लंबा ब्रह्मपुत्र नदी जल मार्ग - नौगम्य जलमार्ग संख्या - 2
    • केरल में पश्चिम-तटीय नहर ( कोट्टापुरम कोल्लम तक, उद्योगमंडल तथा चंपक्कारा नहरें -205 किमी.) नौगम्य जलमार्ग संख्या - 3
    • काकीनाडा और पुदुच्चेरी नहर स्ट्रेच के साथ-साथ गोदावरी और कृष्णा नदी का विशेष विस्तार (1078 किमी.)- राष्ट्रीय जलमार्ग-4.
    • मातई नदी, महानदी के डेल्टा चैनल, ब्राह्मणी नदी और पूर्वी तटीय नहर के साथ- ब्रह्माणी नदी का विशेष विस्तार (588 किमी.) - राष्ट्रीय जलमार्ग-5.
  • कुछ अन्य अंतर जलमार्ग भी हैं जिन पर परिवहन होता है इसमें माण्डवी, जुआरी और कम्बरजुआ, सुन्दरवन, बराक, केरल का पश्चजल और कुछ नदियों का ज्वारीय विस्तार सम्मिलित है।
  • इन सबके अतिरिक्त, विदेशी व्यापार भारतीय तट पर स्थित पत्तनों द्वारा किया जाता है। देश का 95 प्रतिशत व्यापार (मुद्रा रूप में 68 प्रतिशत) समुद्रों द्वारा ही होता है।
प्रमुख समुद्री पत्तन
  1. भारत की 7516.6 किमी. लंबी समुद्री तट रेखा के साथ 12 प्रमुख तथा 187 मध्यम व छोटे पत्तन हैं। ये प्रमुख पत्तन देश का 95 प्रतिशत विदेशी व्यापार संचालित करते हैं।
  2. स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कच्छ में कांडला पत्तन पहले पत्तन के रूप में विकसित किया गया। ऐसा देश विभाजन से कराची पत्तन की कमी को पूरा करने तथा मुंबई से होने वाले व्यापारिक दबाव को कम करने के लिए था।
  3. कांडला एक ज्वारीय पत्तन है। यह जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व गुजरात के औद्योगिक तथा खाद्यान्नों के आयात-निर्यात को संचालित करता है।
  4. मुंबई वृहत्तम पत्तन है जिसके प्राकृतिक खुले, विस्तृत व सुचारु पोताश्रय हैं।
  5. मुंबई पत्तन के अधिक परिवहन को ध्यान में रखकर इसके सामने जवाहरलाल नेहरू पत्तन विकसित किया गया जो इस पूरे क्षेत्र को एक समूह पत्तन की सुविधा भी प्रदान कर सके। लौह-अयस्क के निर्यात के संदर्भ में मारमागाओ पत्तन देश का महत्वपूर्ण यत्तन है।

  • यहाँ से देश के कुल निर्यात का आधा (50 प्रतिशत) लौह अयस्क निर्यात किया जाता है। कर्नाटक में स्थित न्यू- मैंगलोर पत्तन कुद्रेमुख खानों से निकले लौह-अयस्क का निर्यात करता है।

  • सुदूर दक्षिण-पश्चिम में कोची पत्तन है। यह एक लैगून के मुहाने पर स्थित एक प्राकृतिक पोताश्रय है।
  • पूर्वी तट के साथ तमिलनाडु में दक्षिण-पूर्वी छोर पर तूतीकोरीन पत्तन है। यह एक प्राकृतिक पोताश्रय है तथा इसकी पृष्ठभूमि भी अत्यंत समृद्ध है।
  • अतः यह पत्तन हमारे पड़ोसी देशों जैसे- श्रीलंका, मालदीव आदि तथा भारत के तटीय क्षेत्रों की भिन्न वस्तुओं के व्यापार को संचालित करता है।
  • चेन्नई हमारे देश का प्राचीनतम कृत्रिम पत्तन है। व्यापार की मात्रा तथा लदे सामान के संदर्भ में इसका मुंबई के बाद दूसरा स्थान है।
  • विशाखापट्नम स्थल से घिरा, गहरा व सुरक्षित पत्तन है। प्रारम्भ में यह पत्तन लौह अयस्क निर्यातक के रूप में विकसित किया गया था।
  • ओडिशा में स्थित पारादीप पत्तन विशेषत: लौह अयस्क का निर्यात करता है। 
  • कोलकाता एक अंतः स्थलीय नदीय (Riverine) पत्तन है। यह पत्तन गंगा - ब्रह्मपुत्र बेसिन के वृहत् व समृद्ध पृष्ठभूमि को सेवाएँ प्रदान करता है।
  • ज्वारीय (Tidal) पत्तन होने के कारण तथा हुगली के तलछट जमाव से इसे नियमित रूप से साफ करना पड़ता है।

  • कोलकाता पत्तन पर बढ़ते व्यापार को कम करने हेतु हल्विया सहायक पत्तन के रूप में विकसित किया गया है।
वायु परिवहन
  • आज वायु परिवहन तीव्रतम, आरामदायक व प्रतिष्ठित परिवहन का साधन है। इसके द्वारा अति दुर्गम स्थानों जैसे-ऊँचे पर्वत, मरुस्थलों, घने जंगलों व लंबे समुद्री रास्तों को सुगमता से पार किया जा सकता है।
  • वायु परिवहन के अभाव में देश के उत्तरी पूर्वी राज्यों के संदर्भ में जहाँ बड़ी नदियाँ, विच्छिन्न धरातल, घने जंगल, निरंतर बाढ़ आदि एक सामान्य बात है। हवाई यात्रा ने अधिक अभिगम्य बना दिया है।
  • सन् 1953 में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण किया गया। व्यवहारिक तौर पर इंडियन एयर लाइंस, एलाइंस एयर (इंडियन एयरलाइंस की अनुषंगी), तथा कई निजी एयरलाइंस घरेलू विमान सेवाएँ उपलब्ध कराती है।
  • एयर इंडिया अंतर्राष्ट्रीय वायु सेवाएँ प्रदान करती है। पवन हंस हेलीकाप्टर लिमिटेड, तेल व प्राकृतिक गैस आयोग को इसकी अपतटीय संक्रियाओं में तथा अगम्य व दुर्लभ भू-भागों जैसे उत्तरी-पूर्वी राज्यों तथा जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखण्ड के आंतरिक क्षेत्रों में हेलीकॉप्टर सेवाएँ उपलब्ध करवाता है।
  • इंडियन एयरलाइंस की संक्रियाएँ पड़ोसी देशों- दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्वी एशिया और मध्य एशिया तक विस्तृत हैं।
  • हवाई यात्रा सभी व्यक्तियों की पहुँच में नहीं है। केवल उत्तरी-पूर्वी राज्यों में इन सेवाओं को आम आदमी तक उपलब्ध करवाने हेतु विशेष प्रबंध किये गए हैं।
संचार सेवाएँ
  • जब से मानव पृथ्वी पर अवतरित हुआ है, उसने विभिन्न संचार माध्यमों का प्रयोग किया है। लेकिन आधुनिक समय में बदलाव की गति तीव्र है।
  • निजी दूरसंचार तथा जनसंचार में दूरदर्शन, रेडियो, समाचार-पत्र समूह, प्रेस तथा सिनेमा, आदि देश के प्रमुख संचार साधन हैं।
  • भारत का डाक- संचार तंत्र विश्व का वृहत्तम है। यह पार्सल, निजी पत्र व्यवहार तथा तार आदि को संचालित करता है। कार्ड व लिफाफा बंद चिट्ठी, पहली श्रेणी की डाक समझी जाती है तथा विभिन्न स्थानों पर वायुयान द्वारा पहुँचाए जाते हैं।
  • द्वितीय श्रेणी की डाक में रजिस्टर्ड पैकेट, किताबें, अखबार तथा मैंगजीन शामिल हैं।
  • ये धरातलीय डाक द्वारा पहुँचाए जाते हैं तथा इनके लिए स्थल व जल परिवहन का प्रयोग किया जाता है। बड़े शहरों व नगरों में डाक - संचार में शीघ्रता हेतु, हाल ही में छः डाक मार्ग बनाए गए हैं।
  • इन्हें राजधानी मार्ग, मेट्रो चैनल, ग्रीन चैनल, व्यापार ( Business) चैनल, भारी चैनल तथा दस्तावेज चैनल के नाम से जाना जाता है।
  • दूर संचार तंत्र में भारत एशिया महाद्वीप में अग्रणी है। नगरीय क्षेत्रों के अतिरिक्त, भारत के दो तिहाई से अधिक गाँव एस टी डी दूरभाष सेवा से जुड़े हैं। 
  • सूचनाओं के प्रसार को आधार स्तर से उच्च स्तर तक समृद्ध करने हेतु भारत सरकार ने देश के प्रत्येक गाँव में चौबीस घंटे एस टी डी सुविधा के विशेष प्रबंध किये हैं।
  • पूरे देश भर में एस टी डी की दरों को भी नियमित किया है। यह सब सूचना, संचार व अंतरिक्ष प्रोद्यौगिकी के समन्वित विकास से ही संभव हो पाया है।
  • जन-संचार, मानव को मनोरंजन के साथ बहुत से राष्ट्रीय कार्यक्रमों व नीतियों के विषय में जागरूक करता है। इसमें रेडियो, दूरदर्शन, समाचार पत्र पत्रिकाएँ, किताबें तथा चलचित्र सम्मिलित हैं।
  • आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) राष्ट्रीय, क्षेत्रीय तथा स्थानीय भाषा में देश के विभिन्न भागों में अनेक वर्गों के व्यक्तियों के लिए विविध कार्यक्रम प्रसारित करता है।
  • दूरदर्शन, देश का राष्ट्रीय समाचार व संदेश माध्यम है तथा विश्व के बृहत्तम संचार तंत्र में एक है। यह विभिन्न आयु वर्ग के व्यक्तियों हेतु मनोरंजक, ज्ञानवर्धक, व खेल-जगत संबंधी कार्यक्रम प्रसारित करता है।
  • भारत में वर्ष भर अनेक समाचार पत्र तथा सामयिक पत्रिकाएँ प्रकाशित की जाती हैं। ये पत्रिकाएँ सामयिक होने के नाते (जैसे मासिक, साप्ताहिक आदि) कई प्रकार की हैं।
  • समाचार पत्र लगभग 100 भाषाओं तथा बोलियों में प्रकाशित होते हैं। देश में सर्वाधिक समाचार पत्र हिंदी भाषा में प्रकाशित होते हैं तथा इसके बाद अंग्रेजी व उर्दू के समाचार पत्र आते हैं।
  • भारत विश्व में सर्वाधिक चलचित्रों का उत्पादक भी है। यह कम अवधि वाली फिल्में, वीडियो फीचर फिल्म तथा छोटी वीडियो फिल्में बनाता है।
  • भारतीय व विदेशी सभी फिल्मों को प्रमाणित करने का अधिकार केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (Central Board of Film Certification) को है।

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार
  • राज्यों व देशों में व्यक्तियों के मध्य वस्तुओं का आदान-प्रदान व्यापार कहलाता है। बाजार एक ऐसी जगह है जहाँ इसका विनिमय होता है।
  • दो देशों के मध्य यह व्यापार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कहलाता है। यह समुद्री, हवाई व स्थलीय मार्गों द्वारा हो सकता है। यद्यपि स्थानीय व्यापार शहरों, कस्बों व गाँवों में होता है, राज्यस्तरीय व्यापार दो या अधिक राज्यों के मध्य होता है।
  • एक देश के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रगति उसके आर्थिक वैभव का सूचक है। इसीलिए इसे राष्ट्र का आर्थिक बैरोमीटर भी कहा जाता है।
  • सभी देश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर है क्योंकि संसाधनों की उपलब्धता क्षेत्रीय है अर्थात् इनका वितरण असमान है। आयात तथा निर्यात व्यापार के घटक हैं।
  • आयात व निर्यात का अंतर ही देश के व्यापार संतुलन को निर्धारित करता है। अगर निर्यात मूल्य आयात मूल्य से अधिक हो तो उसे अनुकूल व्यापार संतुलन कहते हैं।
  • इसके विपरीत निर्यात की अपेक्षा अधिक आयात असंतुलित व्यापार कहलाता है।
  • विश्व के सभी भौगोलिक प्रदेशों तथा सभी व्यापारिक खंडों के साथ भारत के व्यापारिक संबंध हैं।
  • पिछले कुछ वर्षों से वर्ष 2016-17 तक, निर्यात वृद्धि वाली वस्तुएँ थी - कृषि वर्षों से संबंधित उत्पाद ( वृद्धि 8.64% ), खनिज व अयस्क (4.0%), रत्न व जवाहरातं ( 17.2% ), तथा पेट्रोलियम उत्पाद ( कोयला सहित) (16.8% ) आदि ।
  • भारत में आयातित वस्तुओं में पेट्रोलियम तथा पेट्रोलियम उत्पाद (वृद्धि 22.4%), मोती व बहुमूल्य रत्न (12.8%), कोयला, कोक तथा कोयले का गोला (briquettes) (2.7%), मशीनरी (8.9%) आदि शामिल थे।
  • एक समूह के रूप में भारी वस्तुओं के आयात में 28.2% प्रतिशत (कुल आयात का) वृद्धि हुई है।
  • इस समूह में उर्वरक (3.4%), खाद्यान्न ( 14.3%), वनस्पति तेल ( 17.4%) व न्यूज प्रिंट ( 40.3% ) छपाई मशीनें भी शामिल है।
  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में पिछले 15 वर्षों में भारी बदलाव आया है। वस्तुओं के आदान-प्रदान की अपेक्षा सूचनाओं, ज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का आदान-प्रदान बढ़ा है।
  • भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सॉफ्टवेयर महाशक्ति के रूप में उभरा है तथा सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से अत्यधिक विदेशी मुद्रा अर्जित कर रहा है।
पर्यटन एक व्यापार के रूप में 
  • पिछले तीन दशकों में भारत में पर्यटन उद्योग में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है। वर्ष 2014 की अपेक्षा 2015 के दौरान, देश में विदेशी पर्यटकों के आगमन में 4.5 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई, जिससे 135,193 करोड़ विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई।
  • वर्ष 2015 में भारत में 80.3 लाख से अधिक विदेशी पर्यटक आए 150 लाख से अधिक व्यक्ति पर्यटन उद्योग में प्रत्यक्ष रूप से संलग्न हैं। पर्यटन राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहित करता है तथा स्थानीय हस्तकला व सांस्कृतिक उद्यमों को प्रश्रय देता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह हमें संस्कृति तथा विरासत की समझ विकसित करने में सहायक है।
  • विदेशी पर्यटक भारत में विरासत पर्यटन, पारि- पर्यटन (eco&tourism), रोमांचकारी पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन, चिकित्सा पर्यटन तथा व्यापारिक पर्यटन के लिए आते हैं।
  • देश के विभिन्न भागों में पर्यटन की अपार संभावनाएँ हैं। पर्यटन उद्योग के विकास हेतु विभिन्न प्रकार के पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रयास किए जा रहे है।
राष्ट्रीय राजमार्ग (National Highways)
  • राष्ट्रीय राजमार्ग देश के दूरस्थ भागों को जोड़ते हैं। ये प्राथमिक सड़क तंत्र हैं जिनका निर्माण व रखरखाव केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (CPWD) के अधिकार क्षेत्र में है।
  • अनेक प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम दिशाओं में फैले हैं। दिल्ली व अमृतसर के मध्य ऐतिहासिक शेरशाह सूरी मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या - 1, के नाम से जाना जाता है।

स्थल परिवहन
  • भारत विश्व के सर्वाधिक सड़क जाल वाले देशों में से एक है, भारत सड़क परिवहन, रेल परिवहन से पहले प्रारंभ हुआ। निर्माण तथा व्यवस्था में सड़क परिवहन, रेल परिवहन की अपेक्षा अधिक सुविधाजनक है।
  • रेल परिवहन की अपेक्षा सड़क परिवहन की बढ़ती महत्ता निम्न कारणों से है -
    • रेलवे लाइन की अपेक्षा सड़कों की निर्माण लागत बहुत कम है।
    • अपेक्षाकृत ऊबड़-खाबड़ व विच्छिन्न भू-भागों पर सड़कें बनाई जा सकती हैं।
    • अधिक ढाल प्रवणता तथा पहाड़ी क्षेत्रों में भी सड़कें निर्मित की जा सकती हैं।
    • अपेक्षाकृत कम व्यक्तियों, कम दूरी व कम वस्तुओं के परिवहन में सड़क मितव्ययी है। यह घर-घर सेवाएँ उपलब्ध करवाती हैं तथा सामान चढ़ाने व उतारने की लागत भी अपेक्षाकृत कम है।
    • सड़क परिवहन, अन्य परिवहन साधनों के उपयोग में एक कड़ी के रूप में भी कार्य करता है, जैसे सड़कें, रेलवे स्टेशन, वायु व समुद्री पत्तनों को जोड़ती हैं।
  • भारत में सड़कों की सक्षमता के आधार पर इन्हें निम्न छः वर्गों में वर्गीकृत किया गया है।
राज्य राजमार्ग (State Highways)
  • राज्यों की राजधानियों को जिला मुख्यालयों से जोड़ने वाली सड़कें राज्य राजमार्ग कहलाती हैं।
  • राज्य तथा केंद्रशासित क्षेत्रों में इनकी व्यवस्था तथा निर्माण का दायित्व राज्य के सार्वजनिक निर्माण विभाग (PWD) का होता है। 
जिला मार्ग
  • ये सड़कें जिले के विभिन्न प्रशासनिक केंद्रों को जिला मुख्यालय जोड़ती हैं। इन सड़कों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व जिला परिषद् का है। 
अन्य सड़कें
  • इस वर्ग के अंतर्गत वे सड़कें आती हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों तथा गाँवों को शहरों से जोड़ती हैं।
  • प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना के तहत इन सड़कों के विकास को विशेष प्रोत्साहन मिला है।
  • इस परियोजना के कुछ विशेष प्रावधान हैं जिसमें देश के प्रत्येक गाँव को प्रमुख शहरों से पक्की सड़कों (वे सड़कें जिन पर वर्ष भर वाहन चल सकें) द्वारा जोड़ना प्रस्तावित है।
सीमांत सड़कें
  • उपर्युक्त सड़कों के अतिरिक्त, भारत सरकार प्राधिकरण के अधीन सीमा सड़क संगठन है जो देश के सीमांत क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण व उनको देख-रेख करता है।
  • यह संगठन 1960 में बनाया गया जिसका कार्य उत्तर तथा उतरी-पूर्वी क्षेत्रों में सामरिक महत्त्व की सड़कों का विकास करना था।
  • इन सड़कों के विकास से दुर्गम क्षेत्रों में अभिगम्यता बढ़ी है तथा ये इन क्षेत्रों के आर्थिक विकास में भी सहायक हुई हैं।
  • सड़क निर्माण में प्रयुक्त पदार्थ के आधार पर भी। सड़कों को कच्ची व पक्की सड़कों में वर्गीकृत किया जाता है।
  • पक्की सड़कें, सीमेंट, कंक्रीट व तारकोल द्वारा निर्मित होती है, अतः ये बारहमासी सड़कें हैं। कच्ची सड़कें वर्षा ऋतु में अनुपयोगी हो जाती है।
स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्ग
  • भारत सरकार ने दिल्ली- कोलकाता, चेन्नई - मुंबई व दिल्ली को जोड़ने वाली 6 लेन वाली महा राजमार्गों की सड़क परियोजना प्रारंभ की है।
  • इस परियोजना के तहत दो गलियारे प्रस्तावित हैं प्रथम उत्तर-दक्षिण गलियारा जो श्रीनगर को कन्याकुमारी से जोड़ता है तथा द्वितीय जो पूर्व-पश्चिम गलियारा जो सिलचर (असम) तथा पोरबंदर (गुजरात) को जोड़ता है।
  • इस महा राजमार्ग का प्रमुख उद्देश्य भारत के मेगासिटी (Mega cities) के मध्य की दूरी व परिवहन समय को न्यूनतम करना है।
  • यह राजमार्ग परियोजना- भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) के अधिकार क्षेत्र में है।
सड़क परिवहन की समस्याएं
  • भारत में सड़क परिवहन अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। यातायात (traffic) व यात्रियों की संख्या को देखते हुए सड़कों का जाल अपर्याप्त है।
  • लगभग आधी सड़कें कच्ची हैं तथा वर्षा ऋतु के दौरान इनका उपयोग सीमित हो जाता है। राष्ट्रीय राजमार्ग भी अपर्याप्त हैं।
  • इसके साथ ही शहरों में भी सड़कें अत्यंत तंग तथा भीड़ भरी हैं तथा इन पर बने पुल व पुलिया (culverts) पुराने तथा तंग हैं। परंतु हाल के वर्षों में देश के विभिन्न भागों में सड़क मार्गों का तेजी से विकास हुआ है।
रेल परिवहन
  • भारत में रेल परिवहन, वस्तुओं तथा यात्रियों के परिवहन का प्रमुख साधन है।
  • रेल परिवहन अनेक कार्यों में सहायक है जैसे - व्यापार, भ्रमण, तीर्थ यात्राएँ व लंबी दूरी तक सामान का परिवहन आदि ।
  • एक प्रमुख परिवहन के साधन के अतिरिक्त, पिछले 150 वर्षों से भी अधिक समय से भारतीय रेल एक महत्त्वपूर्ण समन्वयक के रूप में भी जानी जाती है।
  • भारतीय रेल परिवहन देश का सर्वाधिक बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र का प्राधिकरण है।
  • देश की पहली रेलगाड़ी 1853 में मुंबई और थाणे के मध्य चलाई गई जो 34 किमी. की दूरी तय करती थी।
  • भारतीय रेलवे देश की अर्थव्यवस्था, उद्योगों व कृषि के तीव्र गति से विकास के लिए उत्तरदायी है।
  • भारतीय रेल परिवहन को 17 रेल प्रखंडों में पुन: संकलित किया गया है।

  • देश में रेल परिवहन के वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों में भू-आकृतिक, आर्थिक व प्रशासकीय कारक प्रमुख हैं।
  • उत्तरी मैदान अपनी विस्तृत समतल भूमि, सघन जनसंख्या घनत्व, संपन्न कृषि व प्रचुर संसाध नों के कारण रेल परिवहन के विकास व वृद्धि में सहायक रहा है, यद्यपि असंख्य नदियों के विस्तृत जलमार्गों पर पुलों के निर्माण में कुछ बाधाएँ आई है।
  • प्रायद्वीप भारत में रेलमार्ग ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्रों, छोटी पहाड़ियों और सुरंगों आदि से होकर गुजरते हैं।
  • हिमालय पर्वतीय क्षेत्र भी दुर्लभ उच्चावच, विरल जनसंख्या तथा आर्थिक अवसरों की कमी के कारण रेलवे लाइन के निर्माण में प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।
  • पश्चिमी राजस्थान, गुजरात के दलदली भाग, मध्य प्रदेश के वन क्षेत्र, छत्तीसगढ़, ओड़िशा व झारखंड में रेल लाइन निर्माण करना कठिन है।
  • सह्याद्रि तथा उससे सन्निध क्षेत्र को भी घाट या दरों के द्वारा ही पार कर पाना संभव है। कुछ वर्ष पहले भारत के महत्त्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्र में पश्चिमी तट के साथ कोंकण रेलवे के विकास ने यात्री व वस्तुओं के आवागमन को सुविधाजनक बनाया है।
  • यद्यपि यहाँ असंख्य समस्याएँ भी हैं, जैसे- भूस्खलन तथा किसी-किसी भाग में रेलवे ट्रैक का फँसना आदि।
  • आज राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में परिवहन के अन्य सभी साधनों की अपेक्षा रेल परिवहन प्रमुख हो गया है। यद्यपि रेल परिवहन समस्याओं से मुक्त नहीं है। बहुत से यात्री बिना टिकट यात्रा करते हैं।
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Tue, 28 Nov 2023 10:56:42 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | विनिर्माण उद्योग https://m.jaankarirakho.com/495 https://m.jaankarirakho.com/495 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | विनिर्माण उद्योग
  • कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में परिवर्तित कर अधिक मात्रा में वस्तुओं के उत्पादन को विनिर्माण या वस्तु निर्माण कहा जाता है।
  • द्वितीयक कार्यों में लगे व्यक्ति कच्चे माल को परिष्कृत वस्तुओं में परिवर्तित करते हैं। स्टील, कार, कपड़ा उद्योग, बेकरी तथा पेय पदार्थों संबंधी उद्योगों में लगे श्रमिक इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं। कुछ व्यक्ति सेवाएँ प्रदान करने में रोजगार पाते हैं।
विनिर्माण का महत्त्व
  • विनिर्माण उद्योग सामान्यतः विकास की तथा विशेषतः आर्थिक विकास की रीढ़ समझे जाते हैं, क्योंकि-
    • विनिर्माण उद्योग न केवल कृषि के आधुनिकीकरण में सहायक हैं वरन् द्वितीयक व तृतीयक सेवाओं में रोजगार उपलब्ध कराकर कृषि पर हमारी निर्भरता को कम करते हैं।
    • देश में औद्योगिक विकास बेरोजगारी तथा गरीबी उन्मूलन की एक आवश्यक शर्त है। भारत में सार्वजनिक तथा संयुक्त क्षेत्र में लगे उद्योग इसी विचार पर आधारित थे। जनजातीय तथा पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना का उद्देश्य क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना था।
    • निर्मित वस्तुओं का निर्यात वाणिज्य व्यापार को बढ़ाता है जिससे अपेक्षित विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है।
    • वे देश ही विकसित हैं जो कच्चेमाल को विभिन्न तथा अधिक मूल्यवान तैयार माल में विनिर्मित करते हैं। भारत का विकास विविध व शीघ्र औद्योगिक विकास में निहित हैं।
  • कृषि तथा उद्योग एक दूसरे से पृथक नहीं हैं ये एक दूसरे के पूरक हैं। उदाहरणार्थ, भारत में कृषि पर आधारित उद्योगों ने कृषि पैदावार बढ़ोतरी को प्रोत्साहित किया है।
  • ये उद्योग कच्चेमाल के लिए कृषि पर निर्भर हैं तथा इनके द्वारा निर्मित उत्पाद जैसे सिंचाई के लिए पंप, उर्वरक, कीटनाशक दवाएँ, प्लास्टिक पाइष, मशीनें व कृषि औजार आदि पर किसान निर्भर हैं। इसलिए विनिर्माण उद्योग के विकास तथा स्पर्धा से न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिला है, अपितु उत्पादन प्रक्रिया भी सक्षम हुई है।
  • आज वैश्वीकरण के युग में हमारे उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धी तथा सक्षम होने की आवश्यकता है।
  • केवल आत्मनिर्भरता ही काफी नहीं है। हमारी वस्तुएँ गुणवत्ता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हों तभी हम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा कर पाएँगे।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उद्योगों का योगदान
  • पिछले दो दशकों से सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण उद्योग का योगदान 27 प्रतिशत में से 17 प्रतिशत ही है। क्योंकि 10 प्रतिशत भाग खनिज खनन, गैस तथा विद्युत ऊर्जा का योगदान है।
  • भारत की अपेक्षा अन्य पूर्वी एशियाई देशों में विनिर्माण का योगदान सकल घरेलू उत्पाद का 25 से 35 प्रतिशत है। पिछले एक दशक भारतीय विनिर्माण क्षेत्र 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ोतरी हुई है।
  • बढ़ोतरी की यह दर अगले दशक में 12 प्रतिशत अपेक्षित है। वर्ष 2003 विनिर्माण क्षेत्र का विकास 9 से 10 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर हुआ है।
  • उपयुक्त सरकारी नीतियों तथा औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी के नए प्रयासों से अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि विनिर्माण उद्योग अगले एक दशक में अपना लक्ष्य पूरा कर सकता है।
  • इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय विनिर्माण प्रतिस्पर्धा परिषद् (National Manufacturing Competitiveness Council) की स्थापना की गयी है।
औद्योगिक अवस्थिति
  • उद्योगों की स्थापना स्वभावतः जटिल है। इनकी स्थापना कच्चे माल की उपलब्धता, श्रमिक, पूँजी, शक्ति के साधन तथा बाजार आदि की उपलब्धता से प्रभावित होती है।
  • इन सभी कारकों का एक स्थान पर पाया जाना लगभग असंभव है। फलस्वरूप विनिर्माण उद्योग की स्थापना के लिए वही स्थान उपयुक्त हैं जहाँ ये कारक उपलब्ध हों अथवा जहाँ इन्हें कम कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है।
  • औद्योगिक प्रक्रिया के प्रारंभ होने के साथ-साथ नगरीकरण प्रारंभ होता है। कभी-कभी उद्योग शहरों में या उनके निकट लगाए जाते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण तथा नगरीकरण साथ-साथ चलते हैं।
  • नगर उद्योगों को बाजार तथा सेवाएँ जैसे- बैंकिग, बीमा, परिवहन, श्रमिक तथा वित्तीय सलाह आदि उपलब्ध कराते हैं।
  • नगर केंद्रों द्वारा दी गई सुविधाओं से लाभान्वित, कई बार बहुत से उद्योग नगरों के आस पास ही केंद्रित हो जाते हैं जिसे 'समूहन बचत' (Agglomeration economies) कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर धीरे-धीरे बड़ा औद्योगिक समूहन स्थापित हो जाता है।
  • स्वतंत्रता से पहले अधिकतर विनिर्माण उद्योगों की स्थापना दूरस्थ देशों से व्यापार पर आधारित थी जैसे मुंबई कोलकाता व चेन्नई आदि । परिणामस्वरूप कुछ एक नगर औद्योगिक केंद्र के रूप में उभरे जो ग्रामीण कृषि पृष्ठप्रदेश (hinterland) घिरे थे।

औद्योगिक प्रदूषण तथा पर्यावरण निम्नीकरण
  • यद्यपि उद्योगों की भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि व विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है, तथापि इनके द्वारा बढ़ते भूमि, वायु, जल तथा पर्यावरण प्रदूषण को भी नकारा नहीं जा सकता। उद्योग चार प्रकार के प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं -
    (क) वायु (ख) जल (ग) भूमि
    (घ) ध्वनि प्रदूषण करने वाले उद्योगों में ताप विद्युतगृह भी सम्मिलित हैं।
वायु प्रदूषण
  • अधिक अनुपात में अनचाही गैसों की उपस्थिति जैसे सल्फर डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड वायु प्रदूषण का कारण है।
  • वायु में निलंबित कणनुमा पदार्थों में ठोस व द्रवीय दोनों ही प्रकार के कण होते हैं जैसे- धूल, स्प्रे, कुहासा तथा धुआँ ।
  • रसायन व कागज उद्योग, ईंटों के भट्टों, तेल शोधनशालाएँ, प्रगलन उद्योग, जीवाश्म ईंधन दहन तथा छोटे-बड़े कारखाने प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन करते हुए धुआँ निष्कासित करते हैं।
  • जहरीली गैसों का रिसाव बहुत भयानक तथा दूरगामी प्रभावों वाला हो सकता है। वायु प्रदूषण, मानव स्वास्थ्य, पशुओं, पौधों, इमारतों तथा पूरे पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डालते हैं।
जल प्रदूषण
  • उद्योगों द्वारा कार्बनिक तथा अकार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों के नदी में छोड़ने से जल प्रदूषण फैलता हैं।
  • जल प्रदूषण के प्रमुख कारक - कागज, लुग्दी, रसायन, वस्त्र, तथा रंगाई उद्योग, तेल शोधन शालाएँ, चमड़ा उद्योग तथा इलेक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग हैं जो रंग, अपमार्जक, अम्ल, लवण तथा भारी धातुएँ जैसे सीसा, पारा, कीटनाशक, उर्वरक, कार्बन, प्लास्टिक और रबर सहित कृत्रिम रसायन आदि जल में वाहित करते हैं।
  • भारत के मुख्य अपशिष्ट पदार्थों में फ्लाई एश, फोस्फो-जिप्सम तथा लोहा-इस्पात की अशुद्धियाँ (Slag) हैं।
तापीय प्रदूषण
  • जब कारखानों तथा तापवरों से गर्म जल को बिना ठंडा किए ही नदियों तथा तालाबों में छोड़ दिया जाता है, तो जल में तापीय प्रदूषण होता है।
  • परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के अपशिष्ट व परमाणु शस्त्र उत्पादक कारखानों से कैंसर, जन्मजात विकार तथा अकाल प्रसव जैसी बीमारियाँ होती हैं।
  • मृदा व जल प्रदूषण आपस में संबंधित हैं। मलबे का ढेर विशेषकर काँच, हानिकारक रसायन, औद्योगिक बहाव, पैकिंग, लवण तथा कूड़ा-कर्कट मृदा को अनुपजाऊ बनाता है। वर्षा जल के साथ ये प्रदूषक जमीन से रिसते हुए भूमिगत जल तक पहुँच कर उसे भी प्रदूषित कर देते हैं।
ध्वनि प्रदूषण
  • ध्वनि प्रदूषण से खिन्नता तथा उत्तेजना ही नहीं वरन् श्रवण असक्षमता, हृदय गति, रक्त चाप तथा अन्य कायिक व्यथाएँ भी बढ़ती हैं।
  • अनचाही ध्वनि, उत्तेजना व मानसिक चिंता का स्रोत है। औद्योगिक तथा निर्माण कार्य, कारखानों के उपकरण, जेनरेटर, लकड़ी चीरने के कारखाने, गैस यांत्रिकी तथा विद्युत ड्रिल (Drill) भी अधिक ध्वनि उत्पन्न करते हैं।
पर्यावरणीय निम्नीकरण की रोकथाम
  • कारखानों द्वारा निष्कासित एक लिटर अपशिष्ट से लगभग आठ गुणा स्वच्छ जल दूषित होता है।
  • औद्योगिक प्रदूषण से स्वच्छ जल को कैसे बचाया जा सकता है, इसके कुछ निम्न सुझाव हैं-
    (क) विभिन्न प्रक्रियाओं में जल का न्यूनतम उपयोग तथा जल का दो या अधिक उत्तरोत्तर अवस्थाओं में पुनर्चक्रण द्वारा पुन: उपयोग।
    (ख) जल की आवश्यकता पूर्ति हेतु वर्षा जल संग्रहण |
    (ग) नदियों व तालाबों में गर्म जल तथा अपशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित करने से पहले उनका शोधन करना। औद्योगिक अपशिष्ट का शोधन तीन चरणों में किया जा सकता है-
    (अ) यांत्रिक साधनों द्वारा प्राथमिक शोधन- इसमें अपशिष्ट पदार्थों की छंटाई, उनके छोटे-छोटे टुकड़े करना, ढकना तथा तलछट जमाव आदि सम्मिलित हैं।
    (ब) जैविक प्रक्रियाओं द्वारा द्वितयीक शोधन।
  • जैविक, रासायनिक तथा भौतिक प्रक्रियाओं द्वारा तृतीयक शोधन- इसमें अपशिष्ट जल को पुनर्चक्रण द्वारा पुनः प्रयोग योग्य बनाया जाता है।
  • जहाँ भूमिगत जल का स्तर कम है, वहाँ उद्योगों द्वारा इसके अधिक निष्कासन पर कानूनी प्रतिबंध होना चाहिये।
  • वायु में निलंबित प्रदूषण को कम करने के लिए कारखानों में ऊँची चिमनियाँ, चिमनियों में इलेक्ट्रोस्टैटिक अवक्षेपण (eletrostatic precipitators), स्क्रबर उपकरण तथा गैसीय प्रदूषक पदार्थों को जड़त्वीय रूप से पृथक करने के लिए उपकरण होना चाहिये। कारखानों में कोयले की अपेक्षा तेल व गैस के प्रयोग से धुएँ के निष्कासन में कमी लायी जा सकती है।
  • मशीनों व उपकरणों का उपयोग किया जा सकता है तथा जेनरेटरों में साइलेंसर (Silencers) लगाया जा सकता है। ऐसी मशीनरी का प्रयोग किया जाए जो ऊर्जा सक्षम हों तथा कम ध्वनि प्रदूषण करे।
  • भारत में राष्ट्रीय ताप विद्युतगृह कॉर्पोरेशन विद्युत प्रदान करने वाली मुख्य निगम है। इसके पास पर्यावरण प्रबंधन तंत्र (EMS) 14001 के लिए आई एस ओ (ISO) प्रमाण पत्र है।
राष्ट्रीय ताप विद्युतग्रह (एनटीपीसी) द्वारा दिखाया गया मार्ग
  • भारत में राष्ट्रीय ताप विद्युतगृह कारपोरेशन विद्युत प्रदान करने वाली मुख्य निगम इसके पास पर्यावरण प्रबंधनतंत्र (EMS) 14001 के लिए आई एस ओ (ISO) प्रमाण पत्र है।
  • यह निगम प्राकृतिक पर्यावरण और संसाधन जैसे जल, खनिज तेल, गैस तथा ईंधन संरक्षण नीति का हिमायती है तथा इन्हें ध्यान में रखकर ही विद्युत संयंत्रों की स्थापना करता है। ऐसा निम्न उपायों द्वारा संभव है-
  • आधुनिक तकनीकों पर आधारित उपकरणों का सही उपयोग करके तथा विद्यमान उपकरणों में सुधार।
  • अधिकतम राख का इस्तेमाल कर अपशिष्ट पदार्थों का न्यून उत्पादन।
  • पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए हरित क्षेत्र की सुरक्षा तथा वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करना ।
  • तरल अपशिष्ट प्रबंधन, राख युक्त जलीय पुनर्चक्रण तथा राख-संग्रह प्रबंधन द्वारा पर्यावरण प्रदूषण को कम करना ।
  • सभी ऊर्जा संयंत्रों का पारिस्थितिकीय रूप से मॉनीटर तथा समीक्षा करना एवं ऑनलाइन आंकड़ों का प्रबंधन करना ।
  • यह निगम प्राकृतिक पर्यावरण और संसाधन जैसे जल, खनिज तेल, गैस तथा ईंधन संरक्षण नीति का हिमायती है तथा इन्हें ध्यान में रखकर ही विद्युत संयंत्रों की स्थापना करता है। ऐसा निम्न उपायों द्वारा संभव है-
    1. आधुनिकतम तकनीकों पर आधारित उपकरणों का सही उपयोग करके तथा विद्यमान उपकरणों में सुधार।
    2. अधिकतम राख का इस्तेमाल कर अपशिष्ट पदार्थों का न्यून उत्पादन।
    3. पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए हरित क्षेत्र की सुरक्षा तथा वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करना ।
    4. तरल अपशिष्ट प्रबंधन, राख युक्त जलीय पुनर्चक्रण तथा राख- संग्रह (Ash pond) प्रबंधन द्वारा पर्यावरण प्रदूषण को कम करना।
उद्योगों का वर्गीकरण
  • रोजमर्रा के इस्तेमाल की विभिन्न औद्योगिक उत्पादों की सूची बनाएं जैसे- ट्रांजिस्टर, बिजली का बल्ब, वनस्पति तेल, सीमेंट, कांच का सामान, पैट्रोल, माचिस, स्कूटर, वाहन, दवाईयां आदि ।
  • यदि हम विशेष मापदंडों के आधार पर विभिन्न उद्योगों का वर्गीकरण करते हैं जो निम्न हैं-
प्रयुक्त कच्चे माल के स्रोत के आधार पर
  • कृषि आधारित सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, पटसन, रेशम वस्त्र, रबर, चीनी, चाय, काफी तथा वनस्पति तेल उद्योग |
  • खनिज आधारित लोहा तथा इस्पात, सीमेंट, एल्यूमिनियम, मशीन, औजार तथा पेट्रोरासायन उद्योग ।
प्रमुख भूमिका के आधार
  • आधारभूत उद्योग- जिनके उत्पादन या कच्चे माल पर दूसरे उद्योग निर्भर हैं जैसे-लोहा इस्पात, ताँबा प्रगलन व एल्यूमिनियम प्रगलन उद्योग।
  • उपभोक्ता उद्योग - जो उत्पादन उपभोक्ताओं के सीधे उपयोग हेतु करते हैं जैसे - चीनी, दंतमंजन, कागज, पंखे, सिलाई मशीन आदि ।  
पूँजी निवेश के आधार पर
  • एक लघु उद्योग को परिसंपत्ति की एक इकाई पर अधिकतम निवेश मूल्य के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया जाता है।
  • यह निवेश सीमा, समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। अधिकतम स्वीकार्य निवेश के आधार पर की जाती है।
स्वामित्व के आधार पर
  • सार्वजनिक क्षेत्र में लगी, सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रबंधित तथा सरकार द्वारा संचालित उद्योग जैसे भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (BHEL) तथा स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) आदि।
  • निजी क्षेत्र के उद्योग जिनका एक व्यक्ति के स्वामित्व में और उसके द्वारा संचालित अथवा लोगों के स्वामित्व में या उनके द्वारा संचालित है। टिस्को, बजाज ऑटो लिमिटेड, डाबर उद्योग आदि।
  • संयुक्त उद्योग - वैसे उद्योग जो राज्य सरकार और निजी क्षेत्र के संयुक्त प्रयास से चलाये जाते हैं। जैसे ऑयल इंडिया लिमिटेड (OIL)।
  • सहकारी उद्योग- जिनका स्वामित्व कच्चे माल की पूर्ति करने वाले उत्पादकों, श्रमिकों या दोनों के हाथों में होता है।
  • संसाधनों का कोष संयुक्त होता है तथा लाभ-हानि का विभाजन भी अनुपातिक होता है जैसे महाराष्ट्र के चीनी उद्योग, केरल के नारियल पर आधारित उद्योग।
कच्चे तथा तैयार माल की मात्रा व भार के आधार पर
  • भारी उद्योग जैसे लोहा तथा इस्पात आदि। हल्के उद्योग जो कम भार वाले कच्चे काल का प्रयोग कर हल्के तैयार माल का उत्पादन करते हें जैसे- विद्युतीय उद्योग |
कृषि आधारित उद्योग
  • सूती वस्त्र, पटसन, रेशम, ऊनी वस्त्र, चीनी तथा वनस्पति तेल आदि उद्योग कृषि से प्राप्त कच्चे माल पर आधारित है। 
वस्त्र उद्योग
  • भारतीय अर्थव्यवस्था में वस्त्र उद्योग का अपना अलग महत्व है। यह कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा, रोजगार प्रदान करने वाला उद्योग है जो देश के औद्योगिक उत्पादन का 14%, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4%, कुल विनिर्मित औद्योगिक उत्पाद के 20% व कुल निर्यातों के 24.6% की आपूर्ति करता है।
  • देश का यह अकेला उद्योग है जो कच्चे माल से उच्चतम अतिरिक्त मूल्य उत्पाद तक की श्रृंखला में परिपूर्ण तथा आत्मनिर्भर है।

सूती वस्त्र उद्योग
  • प्राचीन भारत में सूती वस्त्र हाथ से कताई और हथकरघा बुनाई तकनीकों से बनाये जाते थे। अठारहवीं शताब्दी के बाद विद्युतीय करघों का उपयोग होने लगा।
  • औपनिवेशिक काल के दौरान हमारे परंपरागत उद्योगों को बहुत हानि हुई क्योंकि हमारे उद्योग इंग्लैंड के मशीन निर्मित वस्त्रों से स्पर्धा नहीं कर पाये।
  • भारत में आधुनिक स्तर की प्रथम सूती कपड़ा मिल सन् 1818 में कोलकाता के निकट फोर्ट ग्लोस्टर में लगाई गई थी।
  • पहला सफल सूती वस्त्र उद्योग 1854 में मुंबई में लगाया गया। 
  • यूरोप दो विश्व युद्धों से जूझ रहा था तथा भारत इंग्लैंड के अधीन था। ऐसे में इंग्लैंड में कपड़ों की मांग आपूर्ति हेतु भारतीय सूती वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहित मिला।
  • आरंभिक वर्षों में सूती वस्त्र उद्योग महाराष्ट्र तथा गुजरात के कपास उत्पादन क्षेत्रों तक ही सीमित थे।
  • कपास की उपलब्धता, बाजार, परिवहन, पत्तनों की समीपता, श्रम, नमीयुक्त जलवायु आदि कारकों ने इसके स्थानीयकरण को बढ़ावा दिया।
  • इस उद्योग का कृषि से निकट का संबंध है और कृषकों, कपास चुनने वालों, गाँठ बनाने वालों, कताई करने वालों, रंगाई करने वालों, डिजाइन बनाने वालों, पैकेट बनाने वालों और सिलाई करने वालों को यह जीविका प्रदान करता है।
  • इस उद्योग के कारण रसायन रंजक मिल-स्टोर तथा पैकेजिंग सामग्री और इंजीनियरिंग उद्योग की माँग बढ़ती है। फलस्वरूप इन उद्योगों का विकास होता है।
  • यद्यपि कताई कार्य महाराष्ट्र, गुजरात तथा तमिलनाडु में केंद्रित है लेकिन सूती रेशम, जरी कशीदाकारी आदि में बुनाई के परंपरागत कौशल और डिजाइन देने के लिए बुनाई अत्यधिक विकेंद्रीकृत है।
  • भारत में कताई उत्पादन विश्व स्तर का है लेकिन बुना वस्त्र कम गुणवत्ता वाला है क्योंकि यह देश में उत्पादित उच्च स्तरीय धागे का अधिक प्रयोग नहीं कर पाता। बुनाई का कार्य हथकरघों, विद्युतकरघों व मिलों में होता है।

  • हाथ से बुनी खादी कुटीर उद्योग के रूप में बुनकरों को उनके घरों में बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान कराता है।
  • भारत जापान को सूत का निर्यात करता है। भारत में बने सूती वस्त्र के अन्य आयातक देश संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, फ्रांस, पूर्वी यूरोपीय देश, नेपाल, सिंगापुर, श्रीलंका तथा अफ्रीका के देश हैं।
  • इस क्षेत्र में कुछ ही बड़े और आधुनिक कारखाने हैं तथा अधिकतर छोटी व बिखरी हुई इकाइयाँ ही है जिसका उत्पादन स्थानीय बाजार की माँग को ही पूरा कर पाता है।
  • यह इस उद्योग की एक बड़ी कमी है जिसके परिणामस्वरूप हमारे बहुत से कताई करने वाले सूती धागे का निर्यात करते हैं जबकि परिधान निर्माताओं को कपड़ा आयात करना पड़ता है।
  • विशेषतः बुनाई व अन्य संबंधित क्षेत्रों में अनियमित विद्युत आपूर्ति को दूर करने तथा नई मशीनरी के उपयोग की आवश्यकता है। अन्य समस्याओं में कम श्रमिक उत्पादकता तथा कृत्रिम वस्त्र उद्योग से प्रतिस्पर्धा आदि हैं।
पटसन उद्योग
  • अधिकांश उद्योग पश्चिम बंगाल में हुगली नदी तट पर 98 किमी. लंबी तथा 3 किमी. चौड़ी - एक संकरी मेखला में स्थित है।
  • हुगली नदी तट पर इनके स्थित होने के निम्न कारण हैं पटसन उत्पादक क्षेत्रों की निकटता, सस्ता जल परिवहन, सड़क, रेल व जल परिवहन का जाल, कच्चे माल का मिलों तक जाने में सहायक → होना, कच्चे पटसन को संसाधित करने में प्रचुर जल, पश्चिम बंगाल तथा समीपवर्ती राज्य उड़ीसा, बिहार व उत्तर प्रदेश से सस्ता श्रमिक उपलब्ध होना, कोलकाता का एक बड़े नगरीय केंद्र के रूप बैंकिंग, बीमा और जूट के सामान के निर्यात के लिए पत्तन की सुविधाएँ प्रदान करना आदि सम्मिलित हैं।
  • पहला पटसन उद्योग कोलकाता के निकट रिशरा में 1855 में लगाया गया। 
  • 1947 में देश के विभाजन के बाद पटसन मिलें तो भारत में रह गईं लेकिन तीन-चौथाई जूट उत्पादक क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान अर्थात् बांग्लादेश में चले गए।
  • यद्यपि पटसन पैकिंग की अनिवार्य प्रयोग की सरकारी नीति के कारण इसकी घरेलू माँग बढ़ी है तथापि माँग बढ़ाने हेतु उत्पाद में विविध ता भी आवश्यक है। 
  • सन् 2005 में राष्ट्रीय पटसन नीति अपनाई गई जिसका मुख्य उद्देश्य पटसन का उत्पादन बढ़ाना, गुणवत्ता में सुधार, पटसन उत्पादक किसानों को अच्छा मूल्य दिलाना तथा प्रति हैक्टेयर उत्पादकता को बढ़ाना था।
  • पटसन के प्रमुख खरीददार अमेरिका, कनाडा, रूस, अरब देश, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया हैं। बढ़ते वैश्विक पर्यावरण अनुकूलन, जैव-निम्नीकरणीय पदार्थों के लिए विश्व की बढ़ती जागरूकता पुनः जूट उत्पादों के लिए अवसर प्रदान किया है।
चीनी उद्योग
  • भारत का चीनी उत्पादन में विश्व दूसरा स्थान है जबकि चीनी की खपत में पहला स्थान है। भारत का चीनी उत्पादन में महाराष्ट्र का प्रथम स्थान है।
  • इस उद्योग में प्रयुक्त कच्चा माल भारी होता है तथा ढुलाई में इसके सूक्रोस की मात्रा घट जाती है।
  • पिछले कुछ वर्षों से इन मिलों की संख्या दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में विशेषकर महाराष्ट्र में बढ़ी है। इसका मुख्य कारण यहाँ के गन्ने में अधिक सूक्रोस की मात्रा है। अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु भी गुणकारी है। इसके अतिरिक्त इन राज्यों में सहकारी समितियाँ भी सफल रही हैं।
  • इस उद्योग की प्रमुख चुनौतियाँ इस प्रकार हैं- इस उद्योग का अल्पकालिक होना, पुरानी व असक्षम तकनीक का इस्तेमाल, परिवहन असक्षमता से गन्ने का समय पर कारखानों में न पहुँचना तथा खोई (Baggasse) का अधिकतम इस्तेमाल न कर पाना।
खनिज आधारित उद्योग
  • वे उद्योग जो खनिज व धातुओं को कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं, खनिज आधारित उद्योग कहलाते हैं।
लोहा तथा इस्पात उद्योग
  • लोहा तथा इस्पात उद्योग एक आधारभूत (basic) उद्योग है। क्योंकि अन्य सभी भारी, हल्के और मध्यम उद्योग इनसे बनी मशीनरी पर निर्भर हैं। विविध प्रकार के इंजीनियरिंग सामान, निर्माण सामग्री, रक्षा, चिकित्सा, टेलीफोन वैज्ञानिक उपकरण और विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के लिए इस्पात की आवश्यकता होती है।
  • इस्पात के उत्पादन तथा खपत को प्राय: एक देश के विकास का पैमाना माना जाता है।
  • लोहा तथा इस्पात एक भारी उद्योग है क्योंकि इसमें प्रयुक्त कच्चा तथा तैयार माल दोनों ही भारी और स्थूल होते हैं और इसके लिए अधिक परिवहन लागत की आवश्यकता होती है।
  • इस उद्योग के लिए लौह अयस्क, कोकिंग कोल तथा चूना पत्थर का अनुपात लगभग 4:2:1 का है।

  • इस्पात को कठोर बनाने के लिए इसमें मैंगनीज की कुछ मात्रा की भी आवश्यकता होती है।
  • वर्ष 2007 भारत 101.4 मिलियन तट कच्चे इस्पात का उत्पादन कर भारत विश्व में इस्पात उत्पादन के मामले में तीसरे स्थान पर है। यह उद्योग 5 लाख से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग सभी उपक्रम अपने इस्पात को स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL) के माध्यम से बेचते हैं।
  • 1950 के दशक में भारत तथा चीन ने लगभग एक समान मात्रा में इस्पात उत्पादित किया था।
  • आज चीन इस्पात का सबसे बड़ा उत्पादक है। वर्ष 2017 में 831.7 मिलियन टन कच्चे इस्पात का उत्पादन हुआ।
  • छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्र में अधिकांश लोहा तथा इस्पात उद्योग संकेंद्रित हैं। इस प्रदेश में इस उद्योग के विकास के लिए अधिक अनुकूल सापेक्षिक परिस्थितियाँ हैं।
  • इनमें लौह अयस्क की कम लागत, उच्च कोटि के कच्चे माल की निकटता, सस्ते श्रमिक और स्थानीय बाजार में इनके माँग की विशाल संभाव्यता सम्मिलित है।
  • यद्यपि भारत संसार का एक महत्त्वपूर्ण लौह-इस्पात उत्पादक देश है तथापि हम इनके पूर्ण संभाव्य का विकास नहीं कर पाए हैं। इसके निम्न कारण हैं
    (क) उच्च लागत तथा कोकिंग कोयले की सीमित उपलब्धता,
    (ख) कम श्रमिक उत्पादकता,
    (ग) ऊर्जा की अनियमित पूर्ति तथा
    (घ) अविकसित अवसंरचना आदि ।
  • निजी क्षेत्र में उद्यमियों के प्रयत्न से तथा उदारीकरण व प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने इस उद्योग को प्रोत्साहन दिया है।
  • इस्पात उद्योग को अधिक स्पर्धावान बनाने के लिए अनुसंधान और विकास के संसाधनों को नियत करने की आवश्यकता है।

एल्यूमिनियम प्रगलन (Smelting)
  • भारत में एल्यूमिनियम प्रगलन दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धातु शोधन उद्योग है। यह हल्का, जंग अवरोधी ऊष्मा का सुचालक, लचीला तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से अधिक कठोर बनाया जा सकता है।
  • हवाई जहाज बनाने में बर्तन तथा तार बनाने में इसका प्रयोग किया जाता है। कई उद्योगों में इसका महत्त्व इस्पात, ताँबा, जस्ता व सोसे के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होने से बढ़ा है।
  • देश के एल्यूमिनियम प्रगलन संयंत्र ओडिशा, पश्चिम बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र व तमिलनाडु राज्यों में स्थित है। वर्ष 2008-09 में भारत में 15.24 लाख टन से अधिक एल्यूमिनियम का उत्पादन किया गया।
  • प्रगालकों (Smelters) में बॉक्साइट का कच्चे पदार्थ के रूप में (जो भारी, गहरे लाल रंग की चट्टान जैसा होता है) प्रयोग किया जाता है। इस उद्योग की स्थापना की दो महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं- नियमित ऊर्जा की पूर्ति तथा कम कीमत पर कच्चे माल की सुनिश्चित उपलब्धता ।
एल्यूमिनियम तथा अयस्क का अनुपात
4 से 6 टन बॉक्साइट →2 टन एल्यूमिना → 1 टन एल्यूमिनियम

मिल रसायन उद्योग
  • भारत में रसायन उद्योग तेजी से विकसित हो रहा तथा फैल रहा है।
  • इसमें लघु तथा बृहत् दोनों प्रकार की विनिर्माण इकाइयाँ सम्मिलित हैं। अकार्बनिक और कार्बनिक दोनों क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई है।
  • अकार्बनिक रसायनों में सलफ्यूरिक अम्ल (उर्वरक, कृत्रिम वस्त्र, प्लास्टिक, गोंद, रंग-रोगन, डाई आदि के निर्माण में प्रयुक्त), नाइट्रिक अम्ल, क्षार, सोडा ऐश (soda ash), (काँच, साबुन, शोधक या अपमार्जक, कागज में प्रयुक्त होने वाले रसायन) तथा कास्टिक सोडा आदि शामिल हैं।
  • कार्बनिक रसायनों में पेट्रोरसायन शामिल हैं जो कृत्रिम वस्त्र, कृत्रिम रबर, प्लास्टिक, रंजक पदार्थ, दवाईयाँ, औषध रसायनों के बनाने में प्रयोग किये जाते हैं। ये उद्योग तेल शोधन शालाओं या पेट्रोरसायन संयंत्रों के समीप स्थापित हैं।
  • रसायन उद्योग अपने आप में एक बड़ा उपभोक्ता भी है। आधारभूत रसायन एक प्रक्रिया द्वारा अन्य रसायन उत्पन्न करते हैं जिनका उपयोग औद्योगिक अनुप्रयोग, कृषि अथवा उपभोक्ता बाजारों के लिए किया जाता है।
उर्वरक उद्योग
  • उर्वरक उद्योग नाइट्रोजनी उर्वरक (मुख्यत: यूरिया), फास्फेटिक उर्वरक (DAP) तथा अमोनियम फास्फेट और मिश्रित उर्वरक जिसमें तीन मुख्य पोषक उर्वरक-नाइट्रोजन, फास्फेट व पोटाश शामिल हैं, के उत्पादन क्षेत्रों के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं।
  • पोटाश पूर्णत: आयात किया जाता है क्योंकि हमारे देश में वाणिज्यिक रूप से या किसी भी रूप में प्रयुक्त होने वाला पोटाश या पोटाशियम यौगिकों के भंडार नहीं है।
  • हरित क्रांति के पश्चात् यह उद्योग देश के अन्य अनेक भागों में भी फैल गया।
  • गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, पंजाब और केरल राज्य कुल उर्वरक उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक राज्य आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गोआ, दिल्ली, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक हैं। असम,
सीमेंट उद्योग
  • निर्माण कार्यों जैसे- घर, कारखाने, पुल, सड़कें, हवाई अड्डा, बाँध तथा अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठानों के निर्माण में सीमेंट आवश्यक है।
  • इस उद्योग को भारी व स्थूल कच्चे माल जैसे चूनापलिका, एल्यूमिना और जिप्सम की आवश्यकता होती है। रेल परिवहन के अतिरिक्त इसमें कोयला तथा विद्युत ऊर्जा भी आवश्यक है।
  • पहला सीमेंट उद्योग सन् 1904 में चेन्नई में लगाया गया था। स्वतंत्रता के पश्चात् इस उद्योग का प्रसार हुआ। सन् 1989 से मूल्य व वितरण में नियंत्रण समाप्ति तथा अन्य नीतिगत सुधारों से सीमेंट उद्योग ने क्षमता, प्रक्रिया व प्रौद्योगिकी व उत्पादन में अत्यधिक तरक्की की है।
  • गुणवत्ता में सुधार के कारण, भारत की बड़ी घरेलू माँग के अतिरिक्त, पूर्वी एशिया, मध्यपूर्व, अफ्रीका तथा दक्षिण एशिया के बाजारों में माँग बढ़ी है।
  • यह उद्योग उत्पादन तथा निर्यात दोनों ही रूपों में प्रगति पर है। इस उद्योग को बनाये रखने के लिए पर्याप्त घरेलू माँग और पूर्ति में वृद्धि करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
मोटरगाड़ी उद्योग
  • मोटरगाड़ी यात्रियों तथा सामान के तीव्र परिवहन के साधन हैं। भारत में विभिन्न केंद्रों पर ट्रक, बसें, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर, तिपहिया तथा बहुउपयोगी वाहन निर्मित किये जाते हैं।
  • उदारीकरण के पश्चात्, नए और आधुनिक मॉडल के वाहनों का बाजार तथा वाहनों की माँग बढ़ी है, जिससे इस उद्योग में विशेषकर कार, दोपहिया तथा तिपहिया वाहनों में अपार वृद्धि हुई है।
  • यह उद्योग दिल्ली, गुरुग्राम, मुंबई, पुणे, चेन्नई, कोलकाता, लखनऊ, इंदौर, हैदराबाद, जमशेदपुर तथा बेंगलुरु के आस पास स्थित हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी तथा इलेक्ट्रॉनिक उद्योग
  • इलेक्ट्रॉनिक उद्योग के अंतर्गत आने वाले उत्पादों में ट्रांजिस्टर से लेकर टेलीविजन, टेलीफोन, सेल्यूलर टेलीकॉम, टेलीफोन एक्सचेंज, पेजर, राडार, कंप्यूटर तथा दूरसंचार उद्योग के लिए उपयोगी अनेक अन्य उपकरण तक बनाये जाते हैं।
  • बेंगलुरु भारत की इलेक्ट्रॉनिक राजधानी के रूप में उभरा है। इलेक्ट्रॉनिक सामान के अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक केंद्र मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई, कोलकाता तथा लखनऊ हैं।
  • वर्ष 2010-11 तक सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इंडिया (STPI) देश के 46 स्थानों पर स्थापित हो चुके थे यद्यपि इस उद्योग का सर्वाधिक संकेंद्रण बेंगलुरु, नोएडा, मुम्बई, चेन्नई, हैदारबाद और पुणे में है।

  • इस क्षेत्र में रोजगार पाए व्यक्तियों में लगभग 30 प्रतिशत महिलाएँ हैं।
  • पिछले दो या तीन वर्षों से यह उद्योग विदेशी मुद्रा प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है ।
  • जिसका कारण तेजी से बढ़ता व्यवसाय प्रक्रिया बाह्यस्रोतीकरण (Business Processes Outsourcing - BPO) है। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के सफल होने का कारण हार्डवेयर व साफ्टवेयर का निरंतर विकास है।
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Tue, 28 Nov 2023 10:14:23 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | खनिज तथा ऊर्जा संसाधन https://m.jaankarirakho.com/494 https://m.jaankarirakho.com/494 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | खनिज तथा ऊर्जा संसाधन
  • भू-पर्पटी (पृथ्वी की ऊपरी परत) विभिन्न खनिजों के योग से बनी चट्टानों से निर्मित है। इन खनिजों का उपयुक्त शोधन करके ही ये धातुएँ निकाली जाती हैं।
  • खनिज हमारे जीवन के अति अनिवार्य भाग हैं। लगभग हर चीज जो हम इस्तेमाल करते हैं। एक छोटी सूई से लेकर एक बड़ी इमारत तक या फिर एक बड़ा जहाज आदि सभी खनिजों से बने हैं।
खनिज व वंतमंजन
  • दंतमंजन आपके दाँत साफ करते हैं। कुछ अपघर्षक खनिज जैसे सिलिका (silica ), चूना पत्थर (limestone), एल्यूमिनियम ऑक्साइड व विभिन्न फॉस्फेट खनिज स्वच्छता में मदद करते हैं। फ्लूराइड (fluoride) जो दाँतों को गलने से रोकता है, फ्लूओराइट नामक खनिज से प्राप्त होता है।
  • अधिकतर दंतमंजन टिटेनियम ऑक्साइड (Titanium Oxide ) सफेद बनाए जाते हैं जोकि (Rutile] ilmenite) रयूटाइल, इल्मेनाइट तथा एनाटेज़ नामक खनिजों से प्राप्त होते हैं। कुछ दंतमंजन जो चमक प्रदान करते हैं, उनका कारण अभ्रक है। टूथब्रश व पेस्ट की ट्यूब पेट्रोलियम से प्राप्त प्लास्टिक की बनी होती है।

ऊर्जा संसाधन

  • ऊर्जा सभी क्रियाकलापों के लिए आवश्यक है। खाना पकाने में रोशनी व ताप के लिए, गाड़ियों के संचालन तथा उद्योगों में मशीनों के संचालन में ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
  • ऊर्जा का उत्पादन ईंधन खनिजों जैसे कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम तथा विद्युत से किया है। ऊर्जा संसाधनों को परंपरागत तथा गैर-परंपरागत साधनों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • परंपरागत साधनों में लकड़ी, उपले, कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस तथा विद्युत (दोनों जल विद्युत व ताप विद्युत) सम्मिलित हैं।
  • गैर-परंपरागत साधनों में सौर, पवन, ज्वारीय, भू-तापीय बायोगैस तथा परमाणु ऊर्जा शामिल किये जाते हैं।
  • ग्रामीण भारत में लकड़ी व उपले बहुतायत में प्रयोग किये जाते हैं। ग्रामीण घरों में आवश्यक ऊर्जा का 70 प्रतिशत से अधिक इन्हीं दो साधनों से प्राप्त होता है। लेकिन अब घटते वन क्षेत्र के कारण इनका उपयोग करते रहना कठिन होता जा रहा है।
  • इसके अतिरिक्त उपलों का उपभोग भी हतोत्साहित किया जा रहा है क्योंकि इससे सर्वाधिक मूल्यवान खाद्य का उपभोग होता हैं जिसे कृषि में प्रयोग किया जा सकता है।

परंपरागत ऊर्जा के स्रोत

कोयला
  • भारत में कोयला बहुतायात में पाया जाने वाला जीवाश्म ईंधन है। यह देश की ऊर्जा आवश्यकताओं का महत्त्वपूर्ण भाग प्रदान करता है।
  • इसका उपयोग ऊर्जा उत्पादन तथा उद्योगों और घरेलू जरूरतों लिए ऊर्जा की आपूर्ति के लिए किया जाता है। भारत अपनी वाणिज्यिक ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मुख्यतः कोयले पर निर्भर है।

  • कोयले का निर्माण पादप पदार्थों के लाखों वर्षों तक संपीडन से हुआ है। इसीलिए संपीडन की मात्रा, गहराई और दबने के समय के आधार पर कोयला अनेक रूपों में पाया जाता है।
  • दलदलों में क्षय होते पादपों से पीट उत्पन्न होता है, जिसमें कम कार्बन, नमी की उच्च मात्रा व निम्न ताप क्षमता होती है।
  • लिग्नाइट एक निम्न कोटि का भूरा कोयला होता है। यह मुलायम होने के साथ अधिक नमीयुक्त होता है।
  • लिग्नाइट के प्रमुख भंडार तमिलनाडु के नैवेली में मिलते हैं और विद्युत उत्पादन में प्रयोग किए जाते हैं। गहराई में दबे तथा अधिक तापमान से प्रभावित कोयले को बिटुमिनस कोयला कहा जाता है।
  • वाणिज्यिक प्रयोग में यह सर्वाधिक लोकप्रिय है। धातुशोधन में उच्च श्रेणी के बिटुमिनस कोयले का प्रयोग किया जाता है जिसका लोहे के प्रगलन में विशेष महत्त्व है। एंग्रेसाइट सर्वोत्तम गुण वाला कठोर कोयला है।
  • भारत में कोयला दो प्रमुख भूगर्भिक युगों के शैल क्रम में पाया जाता है- एक गोंडवाना जिसकी आयु 200 लाख वर्ष से कुछ अधिक है और दूसरा टर्शियरी निक्षेप जो लगभग 55 लाख वर्ष पुराने हैं।
  • गोंडवाना कोयले जो धातुशोधन कोयला है, के प्रमुख संसाधन दामोदर घाटी (पश्चिमी बंगाल तथा झारखंड), झरिया, रानीगंज, बोकारो में स्थित हैं जो महत्त्वपूर्ण कोयला क्षेत्र हैं।
  • गोदावरी, महानदी, सोन व वर्धा नदी घाटियों में भी कोयले के जमाव पाए जाते हैं।
  • टर्शियरी कोयला क्षेत्र उत्तर पूर्वी राज्यों मेघालयं, असम, अरुणाचल प्रदेश व नागालैंड में पाया जाता है।
  • कोयला स्थूल पदार्थ है। जिसका प्रयोग करने पर भार घटता है क्योंकि यह राख में परिवर्तित हो जाता है। इसी कारण भारी उद्योग तथा ताप विद्युत गृह कोयला क्षेत्रों अथवा उनके निकट ही स्थापित किये जाते हैं।
पेट्रोलियम
  • भारत में कोयले के पश्चात् ऊर्जा का दूसरा प्रमुख साधन पेट्रोलियम या खनिज तेल है। यह ताप व प्रकाश के लिए ईंधन, मशीनों को स्नेहक और अनेक विनिर्माण उद्योगों को कच्चा माल प्रदान करता है।
  • तेलशोधन शालाएँ - संश्लेषित वस्त्र, उर्वरक तथा असंख्य रासायन उद्योगों में एक नोडीय बिंदु का काम करती हैं।
  • भारत में अधिकांश पेट्रोलियम की उपस्थिति टर्शियरी युग की शैल संरचनाओं के अपनति व भ्रंश ट्रैप में पाई जाती है।
  • वलन, अपनति और गुंबदों वाले प्रदेशों में यह वहाँ पाया जाता है जहाँ उद्ववलन के शीर्ष में तेल ट्रैप हुआ होता है।
  • तेलधारक परत संरध्र चूना पत्थर या बालुपत्थर होता है जिसमें से तेल प्रवाहित हो सकता है। मध्यवर्ती असरंध्र परतें तेल को ऊपर उठने व नीचे रिसने से रोकती हैं।
  • पेट्रोलियम संरध्र और असरंध्र चट्टानों के बीच भ्रंश ट्रैप में भी पाया जाता है। प्राकृतिक गैस हल्की होने के कारण खनिज तेल के ऊपर पाई जाती है।
  • भारत में कुल पेट्रोलियम उत्पादन का 63 प्रतिशत भाग मुंबई हाई से, 18 प्रतिशत गुजरात और 16 प्रतिशत असम से प्राप्त होता है। अंकलेश्वर गुजरात का सबसे महत्त्वपूर्ण तेल क्षेत्र है।
  • असम भारत का सबसे पुराना तेल उत्पादक राज्य है। डिगबोई, नहरकटिया मोरन-हुगरीजन इस राज्य के महत्त्वपूर्ण तेल उत्पादक क्षेत्र हैं।
प्राकृतिक गैस 
  • प्राकृतिक गैस एक महत्त्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा संसाधन है जो पेट्रोलियम के साथ अथवा अलग भी पाई जाती है। इसे ऊर्जा के एक साधन के रूप तथा पेट्रो रासायन उद्योग के एक औद्योगिक कच्चे माल के रूप में प्रयोग किया जाता है।
  • कार्बनडाई ऑक्साइड के कम उत्सर्जन के कारण प्राकृतिक गैस को पर्यावरण अनुकूल माना जाता है। इसलिए यह वर्तमान शताब्दी का ईंधन है।
  • कृष्णा गोदावरी नदी बेसिन में प्राकृतिक गैस के विशाल भंडार खोजे गए हैं।
  • पश्चिमी तट के साथ मुम्बई हाई और सन्निध क्षेत्रों को खंभात की खाड़ी में पाए जाने वाले तेल क्षेत्र संपूरित करते हैं। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहाँ प्राकृतिक गैस के विशाल भंडार पाए जाते हैं।
  • 1700 किलोमीटर लंबी हजीरा - विजयपुरजगदीशपुर (HVJ) गैस पाइपलाइन मुम्बई हाई और बसीन (Bassien) को पश्चिमी व उत्तरी भारत के उर्वरक, विद्युत व अन्य औद्योगिक क्षेत्रों से जोड़ती है। इस धमनी से भारत के गैस उत्पादन को संवेग मिला है।
  • ऊर्जा व उर्वरक उद्योग प्राकृतिक गैस के प्रमुख प्रयोक्ता हैं। गाड़ियों में तरल ईंधन का संपीड़ित प्राकृतिक गैस (CNG) से प्रतिस्थापन देश में लोकप्रिय हो रहा है।
विद्युत
  • आधुनिक विश्व में विद्युत के अनुप्रयोग इतने ज्यादा विस्तृत हैं कि इसके प्रति व्यक्ति उपभोग को विकास का सूचकांक माना जाता है।
  • विद्युत मुख्यतः दो प्रकार से उत्पन्न की जाती है
  • (क) प्रवाही जल से जो हाइड्रो टरबाइन चलाकर जल विद्युत उत्पन्न करता है;
  • (ख) अन्य ईंधन जैसे कोयला पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस को जलाने से टरबाइन चलाकर ताप विद्युत उत्पन्न की जाती है। एक बार उत्पन्न हो जाने के बाद विद्युत एक जैसी ही होती है।
  • तेज बहते जल से जल विद्युत उत्पन्न की जाती है जो एक नवीकरण योग्य संसाधन है। भारत में अनेक बहुउद्देशीय परियोजनाएँ हैं जो विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करती हैं। जैसे- भाखड़ा नांगल, दामोदर घाटी कॉर्पोरेशन और कोपिली हाइडल परियोजना आदि।
  • ताप विद्युत कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस के प्रयोग से उत्पन्न की जाती है। ताप विद्युत गृह अनवीकरण योग्य जीवाश्म ईंधन का प्रयोग कर विद्युत उत्पन्न करते हैं।

गैर-परंपरागत ऊर्जा के साधन
  • ऊर्जा के बढ़ते उपभोग ने देश को कोयला, तेल और गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों पर अत्यधिक निर्भर कर दिया है।
  • गैस व तेल की बढ़ती कीमतों तथा इनकी संभाव्य कमी ने भविष्य में ऊर्जा आपूर्ति की सुरक्षा के प्रति अनिश्चितताएँ उत्पन्न कर दी हैं।
  • इसके राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त जीवाश्मी ईंध नों का प्रयोग गंभीर पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न करता है।
  • अतः नवीकरण योग्य ऊर्जा संसाधनों जैसे- सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, जैविक ऊर्जा तथा अवशिष्ट पदार्थ जनित ऊर्जा के उपयोग की बहुत जरूरत है। ये ऊर्जा के गैर-परंपरागत साधन कहलाते हैं।
  • भारत धूप, जल तथा जीवभार साधनों में समृद्ध है। भारत में नवीकरण योग्य ऊर्जा संसाधनों के विकास हेतु बृहत् कार्यक्रम भी बनाए गए हैं।
परमाणु अथवा आणविक ऊर्जा
  • अणुओं की संरचना को बदलने से प्राप्त की जाती है। जब ऐसा परिवर्तन किया जाता है तो ऊष्मा के रूप में काफी ऊर्जा विमुक्त होती है और इसका उपयोग विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने में किया जाता है।
  • यूरेनियम और थोरियम जो झारखंड और राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला में पाए जाते हैं, का प्रयोग परमाणु अथवा आणविक ऊर्जा के उत्पादन में किया जाता है। केरल में मिलने वाली मोनाजाइट रेत में भी थोरियम की मात्रा पाई जाती है। 
सौर ऊर्जा
  • भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है। यहाँ सौर ऊर्जा के दोहन की असीम संभावनाएँ हैं। फोटोवोल्टाइक प्रौद्योगिकी द्वारा धूप को सीधे विद्युत में परिवर्तित किया जाता है। भारत के ग्रामीण तथा सुदूर क्षेत्रों में सौर ऊर्जा तेजी से लोकप्रिय हो रही है।
  • कुछ बड़े सौर ऊर्जा संयंत्र देश के विभिन्न भागों में स्थापित किए जा रहे हैं ऐसी अपेक्षा है कि सौर ऊर्जा के प्रयोग से ग्रामीण घरों में उपलों तथा लकड़ी पर निर्भरता को न्यूनतम किया जा सकेगा।
पवन ऊर्जा
  • भारत में पवन ऊर्जा के उत्पादन की महान संभावनाएँ हैं। भारत में पवन ऊर्जा फार्म के विशालतम पेटी तमिलनाडु में नागरकोइल से मदुरई तक अवस्थित है।
  • इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, केरल, महाराष्ट्र तथा लक्षद्वीप में भी महत्त्वपूर्ण पवन ऊर्जा फार्म हैं। नागरकोइल और जैसलमेर देश में पवन ऊर्जा के प्रभावी प्रयोग के लिए जाने जाते हैं।
बायोगैस
  • ग्रामीण इलाकों में झाड़ियों, कृषि अपशिष्ट, पशुओं और मानव जनित अपशिष्ट के उपयोग से घरेलू उपभोग हेतु बायोगैस उत्पन्न की जाती है।
  • जैविक पदार्थों के अपघटन से गैस उत्पन्न होती है, जिसकी तापीय सक्षमता मिट्टी के तेल, उपलों व चारकोल की अपेक्षा अधिक होती है।

  • बायोगैस संयंत्र नगरपालिका, सहकारिता तथा निजी स्तर पर लगाए जाते हैं। पशुओं का गोबर प्रयोग करने वाले संयंत्र ग्रामीण भारत में गोबर गैस प्लांट के नाम से जाने जाते हैं ।
  • ये किसानों को दो प्रकार से लाभांवित करते हैं एक ऊर्जा के रूप में और दूसरा उन्नत प्रकार के उर्वरक के रूप में बायोगैस अब तक पशुओं के गोबर का प्रयोग करने में सबसे दक्ष है।
  • यह उर्वरक की गुणवत्ता को बढ़ाता है और उपलों तथा लकड़ी को जलाने से होने वाले वृक्षों के नुकसान को रोकता है।
ज्वारीय ऊर्जा
  • महासागरीय तरंगों का प्रयोग विद्युत उत्पादन के लिए किया जा सकता है। सँकरी खाड़ी के आर-पार बाढ़ द्वार बना कर बाँध बनाए जाते हैं |
  • उच्च ज्वार में इस सँकरी खाड़ीनुमा प्रवेश द्वार से पानी भीतर पर जाता है और द्वार बन्द होने पर बाँध में ही रह जाता है।
  • बाढ़ द्वार के बाहर ज्वार उतरने पर बाँध के पानी को इसी रास्ते पाइप द्वारा समुद्र की तरफ बहाया जाता है जो इसे ऊर्जा उत्पादक टरबाइन की ओर ले जाता है।
  • भारत में खम्भात की खाड़ी, कच्छ की खाड़ी तथा पश्चिमी तट पर गुजरात में और पश्चिम बंगाल में सुंदर वन क्षेत्र में गंगा के डेल्टा में ज्वारीय तरंगों द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करने की आदर्श दशाएँ उपस्थित हैं।
भू-तापीय ऊर्जा
  • पृथ्वी के आंतरिक भागों से ताप का प्रयोग कर उत्पन्न की जाने वाली विद्युत को भू-तापीय ऊर्जा कहते हैं।
  • भू-तापीय ऊर्जा इसलिए अस्तित्व में होती है क्योंकि बढ़ती गहराई के साथ पृथ्वी प्रगामी ढंग से तप्त होती जाती है। जहाँ भी भू-तापीय प्रवणता अधिक होती है वहाँ उथली गहराइयों पर भी अधिक तापमान पाया जाता है।
  • ऐसे क्षेत्रों में भूमिगत जल चट्टानों से ऊष्मा का अवशोषण कर तप्त हो जाता है। यह इतना तप्त हो जाता है कि यह पृथ्वी की सतह की ओर उठता है तो यह भाप में परिवर्तित हो जाता है। इसी भाप का उपयोग टरबाइन को चलाने और विद्युत उत्पन्न करने के लिए किया जाता है।
  • भारत में सैंकड़ों गर्म पानी के चश्मे हैं, जिनका विद्युत उत्पादन में प्रयोग किया जा सकता है।
  • भू-तापीय ऊर्जा के दोहन के लिए भारत में दो प्रायोगिक परियोजनाएँ शुरू की गई हैं। एक हिमाचल प्रदेश में मणिकरण के निकट पार्वती घाटी में स्थित है तथा दूसरी लद्दाख में पूगा घाटी में स्थित है।
खनिज
  • भू-वैज्ञानिकों के अनुसार खनिज एक प्राकृतिक रूप से विद्यमान समरूप तत्त्व है जिसकी एक निश्चित आंतरिक संरचना है।
  • खनिज प्रकृति में अनेक रूपों में पाए जाते हैं, जिसमें कठोर हीरा व नरम चूना तक सम्मिलित हैं।
  • चट्टानें खनिजों के समरूप तत्वों के यौगिक हैं। कुछ चट्टाने जैसे चूना पत्थर केवल एक ही खनिज से बनी हैं; लेकिन अधिकतर चट्टानें विभिन्न अनुपातों के अनेक खनिजों का योग हैं।
  • यद्यपि 2000 से अधिक खनिजों की पहचान की जा चुकी है, लेकिन अधिकतर चट्टानों में केवल कुछ ही खनिजों की बहुतायत है।
  • एक खनिज विशेष जो निश्चित तत्त्वों का योग है, उन तत्त्वों का निर्माण उस समय के भौतिक व रासायनिक परिस्थितियों का परिणाम है।
  • इसके फलस्वरूप ही खनिजों में विविध रंग, कठोरता, चमक, घनत्व तथा विविध क्रिस्टल पाए जाते हैं। भू-वैज्ञानिक इन्हीं विशेषताओं के आधार पर खनिजों का वर्गीकरण करते हैं।

खनिजों की उपलब्धता
  • सामान्यतः खनिज अयस्कों में पाए जाते हैं। किसी भी खनिज में अन्य अवयवों या तत्त्वों के मिश्रण या संचयन हेतु 'अयस्क' शब्द का प्रयोग किया जाता है।
  • खनन का आर्थिक महत्त्व तभी है जब अयस्क में खनिजों का संचयन पर्याप्त मात्रा में हो। खनिजों के खनन की सुविधा इनके निर्माण व संरचना पर निर्भर हैं।
  • खनन सुविधा इसके मूल्य को निर्धारित करती है। अतः हमारे लिए मुख्य शैल समूहों को समझना अत्यंत आवश्यक है जिनमें ये खनिज पाये जाते हैं। खनिज प्रायः निम्न शैल समूहों से प्राप्त होते हैं।
(क) आग्नेय तथा कायांतरित चट्टानों में खनिज दरारों, जोड़ों, भ्रंशों व विदरों में मिलते हैं।
  • छोटे जमाव शिराओं के रूप में और बृहत् जमाव परत के रूप में पाए जाते हैं।
  • इनका निर्माण भी अधिकतर उस समय होता है जब ये तरल अथवा गैसीय अवस्था में दरारों के सहारे भू-पृष्ठ की ओर धकेले जाते हैं।
  • ऊपर आते हुए ये ठंडे होकर जम जाते हैं। मुख्य धात्विक खनिज जैसे - जस्ता, ताँबा, जिंक और सीसा आदि इसी तरह शिराओं व जमावों के रूप में प्राप्त होते हैं।
(ख) अनेक खनिज अवसादी चट्टानों के अनेक खनिज संस्तरों या परतों में पाए जाते हैं। इनका निर्माण क्षैतिज परतों में निक्षेपण, संचयन व जमाव का परिणाम है।
  • कोयला तथा कुछ अन्य प्रकार के लौह अयस्कों का निर्माण लंबी अवधि तक अत्यधिक ऊष्मा व दबाव का परिणाम है।
  • अवसादी चट्टानों में दूसरी श्रेणी के खनिजों में जिप्सम, पोटाश, नमक व सोडियम सम्मिलित हैं। इनका निर्माण विशेषकर शुष्क प्रदेशों में वाष्पीकरण के फलस्वरूप होता है।
(ग) खनिजों के निर्माण की एक अन्य विधि धरातलीय चट्टानों का अपघटन है।
  • चट्टानों के घुलनशील तत्त्वों के अपरदन के पश्चात् अयस्क वाली अवशिष्ट चट्टानें रह जाती है। बॉक्साइट का निर्माण इसी ID प्रकार होता है।
(घ) पहाड़ियों के आधार तथा घाटी तल की रेत में जलोढ़ जमाव के रूप में भी कुछ खनिज पाए जाते हैं।
  • ये निक्षेप 'प्लेसर निक्षेप' के नाम से जाने जाते हैं। इनमें प्राय: ऐसे खनिज होते हैं जो जल द्वारा घर्षित नहीं होते। इन खनिजों में सोना, चाँदी, टिन व प्लेटिनम प्रमुख हैं।
(ङ) महासागरीय जल में भी विशाल मात्रा में खनिज पाए जाते हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश के व्यापक रूप से विसरित होने के कारण इनकी आर्थिक सार्थकता कम है। फिर भी सामान्य नमक, मैगनीशियम तथा ब्रोमाइन ज्यादातर समुद्री जल से ही प्रग्रहित (derived) होते हैं। महासागरीय तली भी मैंगनीज ग्रंथिकाओं (nodules) में धनी हैं।
रैट होल खनन
  • भारत में अधिकांश खनिज राष्ट्रीयकृत हैं और इनका निष्कर्षण सरकारी अनुमति के पश्चात् ही सम्भव है, किन्तु उत्तर पूर्वी भारत के अधिकांश जनजातीय क्षेत्रों में खनिजों का स्वामित्व व्यक्तिगत व समुदायों को प्राप्त है।
  • मेघालय में कोयला, लौह अयस्क, चूना पत्थर व डोलोमाइट के विशाल निक्षेप पाए जाते हैं। जोवाई व चेरापूँजी में कोयले का खनन परिवार के सदस्य द्वारा लंबी संकीर्ण सुरंग के रूप में किया जाता है, जिसे रैट होल खनन कहते हैं।
  • मोटे तौर पर प्रायद्वीपीय चट्टानों में कोयले, धात्विक खनिज, अभ्रक व अन्य अनेक अधात्विक खनिजों के अधिकांश भंडार संचित हैं।
  • प्रायद्वीप के पश्चिमी और पूर्वी पाश्र्वों पर गुजरात और असम की तलछटी चट्टानों में अधिकांश खनिज तेल निक्षेप पाए जाते हैं।
  • प्रायद्वीपीय शैल क्रम के साथ राजस्थान में अनेक अलौह खनिज पाए जाते हैं। उत्तरी भारत के विस्तृत जलोढ़ मैदान आर्थिक महत्त्व के खनिजों से लगभग विहीन है।
  • ये विभिन्नताएँ खनिजों की रचना में अंतरग्रस्त भू-गर्भिक संरचना, प्रक्रियाओं और समय के कारण हैं।
  • अयस्क में खनिज का सांद्रण उत्खनन की सुगमता और बाजार की निकटता, किसी संचय (reserve) की आर्थिक जीव्यता (Viability) को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • अतः माँग की पूर्ति के लिए अनेक संभव विकल्पों में से चयन करना पड़ता है। ऐसा हो जाने के बाद एक खनिज निक्षेप अथवा 'भंडार' खदान में परिवर्तित हो जाता है।
लौह खनिज
  • लौह खनिज धात्विक खनिजों के कुल उत्पादन मूल्य के तीन-चौथाई भाग का योगदान करते हैं। ये धातु शोधन उद्योगों के विकास को मजबूत आधार प्रदान करते हैं।
  • भारत अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के पश्चात् बड़ी मात्रा में धात्विक खनिजों का निर्यात करता है।
लौह अयस्क
  • लौह अयस्क एक आधारभूत खनिज है तथा औद्योगिक विकास की रीढ़ है। भारत में लौह अयस्क के विपुल संसाधन विद्यमान हैं।
  • कन्नड़ भाषा में 'कुदरे' शब्द का अर्थ है घोड़ा। कर्नाटक के पश्चिमी घाट की सबसे ऊंची चोटी घोड़े के मुख से मिलती-जुलती है। बेलाडीला की पहाड़ियां, बैल के डील से मिलती-जुलती है, जिसके कारण इसका नाम पड़ा।

  • भारत उच्च कोटि के लोहांशयुक्त लौह अयस्क में धनी है। मैग्नेटाइट सर्वोत्तम प्रकार का लौह अयस्क है जिसमें 70 प्रतिशत लोहांश पाया जाता है।

  • इसमें सर्वश्रेष्ठ चुंबकीय गुण होते हैं, जो विद्युत उद्योगों में विशेष रूप से उपयोगी हैं। हेमेटाइट सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक लौह अयस्क है जिसका अधिकतम मात्रा में उपभोग हुआ है। किंतु इसमें लोहांश की मात्रा मैग्नेटाइट की अपेक्षा थोड़ी-सी कम होती है। (इसमें लोहांश 50 से 60 प्रतिशत तक पाया जाता है।)
  • भारत में लौह अयस्क की पेटियाँ निम्नवत् हैं-
  • ओडिशा-झारखंड पेटी ओडिशा में उच्च कोटि का हेमेटाइट किस्म का लौह अयस्क मयूरभंज व केंदूझर जिलों में बादाम पहाड़ खदानों से निकाला जाता है।
  • इसी से सन्निद्ध झारखंड के सिंहभूम जिले में गुआ तथा नोआमुंडी से. हेमेटाइट अयस्क का खनन किया जाता है।
  • दुर्ग- बस्तर - चन्द्रपुर पेटी यह पेटी महाराष्ट्र व छत्तीसगढ़ राज्यों के अंतर्गत पाई जाती है।
  • छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में बेलाडिला पहाड़ी शृंखलाओं में अति उत्तम कोटि का हेमेटाइट पाया जाता है जिसमें इस गुणवत्ता के लौह के 14 जमाव मिलते हैं।
  • इसमें इस्पात बनाने में आवश्यक सर्वश्रेष्ठ भौतिक गुण विद्यमान हैं। इन खदानों का लौह अयस्क विशाखापट्टनम् पत्तन से जापान तथा दक्षिण कोरिया को निर्यात किया जाता है।
  • बेल्लारि- चित्रदुर्ग, चिक्कमंगलूरु - तुमकूरु पेटी कर्नाटक की इस पेटी में लौह अयस्क की बृहत् राशि संचित है।
  • कर्नाटक में पश्चिमी घाट में अवस्थित कुद्रेमुख की खानें शत् प्रतिशत निर्यात इकाई हैं। कुद्रेमुख निक्षेप संसार के सबसे बड़े निक्षेपों में से एक माने जाते हैं।
  • लौह अयस्क कर्दम (Slurry) रूप में पाइपलाइन द्वारा मंगलूरु के निकट एक पत्तन पर भेजा जाता है।
  • महाराष्ट्र - गोआ पेटी यह पेटी गोआ तथा महाराष्ट्र राज्य के रत्नागिरी जिले में स्थित है। यद्यपि यहाँ का लोहा उत्तम प्रकार का नहीं है तथापि इसका दक्षता से दोहन किया जाता है। मरमागाओ पत्तन से इसका निर्यात किया जाता है। 

मैंगनीज

  • मैंगनीज मुख्य रूप से इस्पात के विनिर्माण में प्रयोग किया जाता है। एक टन इस्पात बनाने में लगभग 10 किग्रा, मैंगनीज की आवश्यकता होती है। इसका उपयोग ब्लीचिंग पाउडर, कीटनाशक दवाएँ व पेंट बनाने में किया जाता है।

  • भारत में उड़ीसा मैंगनीज का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। वर्ष 2000-01 में देश के कुल उत्पादन का एक तिहाई भाग यहाँ से प्राप्त हुआ। 
अलौह खनिज
  • भारत में अलौह खनिजों की संचित राशि व उत्पादन अधिक संतोषजनक नहीं है।
  • यद्यपि ये खनिज जिनमें ताँबा, बॉक्साइट, सीसा और सोना आते हैं, धातु शोधन, इंजीनियरिंग व विद्युत उद्योगों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
ताँबा
  • भारत में ताँबे के भंडार व उत्पादन क्रांतिक रूप से न्यून हैं। घातवर्ध्य (malleable), तन्य और ताप सुचालक होने के कारण ताँबे का उपयोग मुख्यतः बिजली के तार बनाने, इलेक्ट्रॉनिक्स और रसायन उद्योगों में किया जाता है।
  • मध्य प्रदेश की बालाघाट खदानें देश के लगभग 52 प्रतिशत ताँबा उत्पन्न करती हैं। झारखंड का सिंहभूमि जिला भी ताँबे का मुख्य उत्पादक है। राजस्थान की खेतड़ी खदानें भी ताँबे के लिए प्रसिद्ध थीं।

बॉक्साइट

  • यद्यपि अनेक अयस्कों में एल्यूमिनियम पाया जाता है। परंतु सबसे अधिक एल्यूमिना क्ले (Clay) जैसे दिखने वाले पदार्थ बॉक्साइट से ही प्राप्त किया जाता है बॉक्साइट निक्षेपों की रचना एल्यूमिनियम सिलिकेटों से समृद्ध व्यापक भिन्नता वाली चट्टानों के विघटन से होती है।
  • एल्यूमिनियम एक महत्त्वपूर्ण धातु है क्योंकि यह लोहे जैसी शक्ति के साथ-साथ अत्यधिक हल्का एवं सुचालक भी होता है। इसमें अत्यधिक घातवर्ध्यता (malleability) भी पाई जाती है।
  • भारत में बॉक्साइट के निक्षेप मुख्यतः अमरकंटक पठार, मैकाल पहाड़ियों तथा बिलासपुर कटनी के पठारी प्रदेश में पाए जाते हैं।
  • ओड़िशा भारत का सबसे बड़ा बॉक्साइट उत्पादक राज्य है, जहाँ वर्ष 2017-18 में देश के 5.13 प्रतिशत बॉक्साइट का उत्पादन हुआ। यहाँ कोरापुट जिले में 'पंचपतमाली निक्षेप' राज्य के सबसे महत्त्वपूर्ण बॉक्साइट निक्षेप हैं।
  • एल्यूमिनियम की खोज के बाद सम्राट नेपोलियन तृतीय अपने कपड़ों पर एल्यूमिनियम से बने हुक व बटन पहनता था तथा अपने खास मेहमानों को एल्यूमिनियम से बने बर्तनों में भोजन कराता, तथा आम मेहमानों को सोने व चाँदी के बर्तनों में भोजन परोसा जाता।
  • इस घटना के तीस वर्ष बाद पेरिस में भिखारियों के पास एल्यूमिनियम के बर्तन होना एक आम बात थी।
अधात्विक खनिज
  • अम्रक अभ्रक एक ऐसा खनिज है जो प्लेटों अथवा पत्रण क्रम में पाया जाता है। इसका चादरों में विपाटन (split) आसानी से हो सकता है।
  • ये परतें इतनी महीन हो सकती हैं कि इसकी एक हजार परतें कुछ सेंटीमीटर ऊँचाई में समाहित हो सकती हैं। अभ्रक पारदर्शी, काले, हरे, लाल, पीले अथवा भूरे रंग का हो सकता है।
  • इसकी सर्वोच्च परावैद्युत शक्ति, ऊर्जा हास का निम्न गुणांक, विंसवाहन के गुण और उच्च वोल्टेज की प्रतिरोधिता के कारण अभ्रक विद्युत व इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले अपरिहार्य खनिजों में से एक है।
  • अभ्रक के निक्षेप छोटानागपुर पठार के उत्तरी पठारी किनारों पर पाए जाते हैं। बिहार-झारखंड की कोडरमा-गया-हजारीबाग पेटी अग्रणी उत्पादक हैं।
  • राजस्थान के मुख्य अभ्रक उत्पादक क्षेत्र अजमेर के आस पास हैं। आंध्र प्रदेश की नेल्लोर अभ्रक पेटी भी देश की महत्त्वपूर्ण उत्पादक पेटी है। 
चट्टानी खनिज
  • चूना पत्थर (Limestone) चूना पत्थर कैल्शियम या कैल्शियम कार्बोनेट तथा मैगनीशियम कार्बोनेट से बनी चट्टानों में पाया जाता है।
  • यह अधिकांशत: अवसादी चट्टानों में पाया जाता है। चूना पत्थर सीमेंट उद्योग का एक आधारभूत कच्चा माल होता है, और लौह-प्रगलन की भट्टियों के लिए अनिवार्य है।
  • इस खदानों में काम करने वाले श्रमिक लगातार धूल व हानिकारक धुएँ में साँस लेते हुए फेफड़ों संबंधी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। खदानों की छतों के गिरने, सैलाब आने (जलप्लावित होना), कोयले की खदानों में आग लगने आदि, खतरे खदान श्रमिकों के लिए स्थाई हैं।

  • खदान क्षेत्रों में खनन के कारण जल स्रोत संदूषित हो जाते हैं। अवशिष्ट पदार्थों तथा खनिज तरल के मलबे के खत्ता लगाने से भूमि व मिट्टी का अवक्षय होता है और सरिताओं तथा नदियों का प्रदूषण बढ़ता है।
  • खनन को घातक उद्योग (Killer Industry) बनने से रोकने के लिए दृढ़ सुरक्षा विनियम और पर्यावरणीय कानूनों का क्रियान्वयन अनिवार्य है।
खनिजों का संरक्षण
  • हम सभी को उद्योग और कृषि की खनिज निक्षेपों और उनसे विनिर्मित पदार्थों पर भारी निर्भरता सुप्रेक्षित है।
  • खनन योग्य निक्षेप की कुल राशि असार्थक अंश है, अर्थात् भू-पर्पटी का एक प्रतिशत जिन खनिज संसाधनों के निर्माण व सांद्रण में लाखो वर्ष लगे हैं, हम उनका शीघ्रता से उपभोग कर रहे हैं।
  • खनिज निर्माण की भूगर्भिक प्रक्रियाएँ इतनी धीमी है कि उनके वर्तमान उपभोग की दर की तुलना में उनके पुनर्भरण की दर अपरिमित रूप से थोड़ी है। इसीलिए खनिज संसाधन सीमित तथा अनवीकरण योग्य हैं।
  • समृद्ध खनिज निक्षेप हमारे देश की अत्यधिक मूल्यवान संपत्ति हैं, लेकिन ये अल्पजीवी हैं। अयस्कों के सतत् उत्खनन से लागत बढ़ती है क्योंकि खनिजों के उत्खनन की गहराई बढ़ने के साथ उनकी गुणवत्ता घटती जाती है।
  • खनिज संसाधनों को सुनियोजित एवं सतत् पोषणीय ढंग से प्रयोग करने के लिए एक तालमेल युक्त प्रयास करना होगा।
  • निम्न कोटि के अयस्कों का कम लागतों पर प्रयोग करने के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों का सतत् विकास करते रहना होगा।
  • धातुओं का पुनः चक्रण, रद्दी धातुओं का प्रयोग तथा अन्य प्रतिस्थापनों का उपयोग भविष्य में हमारे खनिज संसाधनों के संरक्षण के उपाय हैं।
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Tue, 28 Nov 2023 09:25:05 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | कृषि https://m.jaankarirakho.com/493 https://m.jaankarirakho.com/493 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | कृषि
  • कृषि की दृष्टि से भारत एक महत्त्वपूर्ण देश है। इसकी दो-तिहाई जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न है। कृषि एक प्राथमिक क्रिया है जो हमारे लिए अधिकांश खाद्यान्न उत्पन्न करती है।
  • खाद्यान्नों के अतिरिक्त यह विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल भी पैदा करती है। इसके अतिरिक्त, कुछ उत्पादों जैसे चाय, कॉफी, मसाले इत्यादि का भी निर्यात किया जाता है।

कृषि की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और उत्पादन योगदान

  • कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी रही है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि के योगदान का अनुपात 1951 से लगातार घटने के उपरांत भी यह 2010-11 में देश की लगभग 52 प्रतिशत जनसंख्या के लिए रोजगार और आजीविका का साधन थी।
  • कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में घटता अंश गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि कृषि में किसी भी प्रकार की गिरावट और प्रगतिरोध अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में गिरावट लाएँगे जो समाज के लिए व्यापक निहितार्थ है।
  • कृषि के महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार ने इसके आधुनिकीकरण के लिए भरसक प्रयास किए हैं।
  • भारतीय कृषि में सुधार के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद व कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना, पशु चिकित्सा सेवाएँ और पशु प्रजनन केंद्र की स्थापना, बागवानी विकास, मौसम विज्ञान और मौसम के पूर्वानुमान के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास को वरीयता दी गई ।
  • विगत वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि हुई है परंतु इससे देश में पर्याप्त मात्रा में रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। कृषि में विकास दर कम हो रही है जो कि एक चिंताजनक स्थिति है।
  • वर्तमान में भारतीय किसान को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से एक बड़ी चुनौती का सामना कृषि सेक्टर में विशेष रूप से करना पड़ रहा है और हमारी सरकार कृषि सेक्टर में विशेष रूप से सिंचाई, ऊर्जा, ग्रामीण सड़कों, मंडियों और यंत्रीकरण में सार्वजनिक पूँजी के निवेश को कम करती जा रही है।
  • रासायनिक उर्वरकों पर सहायिकी कम करने से उत्पादन लागत बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त कृषि उत्पादों पर आयात कर घटाने से भी देश में कृषि पर हानिकारक प्रभाव पड़ा है। किसान कृषि में पूँजी निवेश कम कर रहे हैं जिसके कारण कृषि में रोजगार घट रहे हैं। 
खाद्य सुरक्षा
  • भोजन एक आधारभूत आवश्यकता है और देश के प्रत्येक नागरिक को न्यूनतम पोषण युक्त भोजन मिलना चाहिए।
  • यदि हमारी जनसंख्या के किसी भाग को यह उपलब्ध नहीं होता तो वह खंड खाद्य सुरक्षा से वंचित है। हमारे देश के कुछ प्रदेशों, विशेषत: आर्थिक दृष्टि से कम विकसित राज्यों, जहाँ अधिक निर्धनता व्याप्त है, वहाँ उन लोगों का अनुपात अधिक है जिन्हें खाद्य सुरक्षा प्राप्त नहीं है।
  • देश के सुदूर क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं और अनिश्चित खाद्य आपूर्ति की अधिक संभावना होती है।
  • समाज के सभी वर्गों को खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित कराने के लिए हमारी सरकार ने सावधानीपूर्वक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली की रचना की है।
  • इसके दो घटक हैं; (क) बफर स्टॉक (ख) सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) ।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक कार्यक्रम है। जो ग्रामीण और नगरीय क्षेत्रों में खाद्य पदार्थ और अन्य आवश्यक वस्तुएँ सस्ती दरों पर उपलब्ध कराती है।
  • भारत की खाद्य सुरक्षा नीति का प्राथमिक उद्देश्य सामान्य लोगों में को खरीद सकने योग्य कीमतों पर खाद्यान्नों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना है।
  • इस नीति का केन्द्र कृषि उत्पादन में वृद्धि और भंडारों को बनाए रखने के लिए चावल और गेहूँ की अधिक प्राप्ति के लिए समर्थन मूल्य को निर्धारित करना है।
  • खाद्यान्नों की अधिक प्राप्ति और भंडारण की व्यवस्था फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (एफसीआई) करती है। जबकि इसके वितरण को सार्वजनिक वितरण प्रणाली सुनिश्चित करती है।
  • भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर किसानों से खाद्यान्न प्राप्त करती है। सरकार उर्वरक, ऊर्जा और जल जैसे कृषि निवेशों पर सहायिकी (Subsidies) उपलब्ध कराती थी।
  • जल और उर्वरकों के अधिक और अविवेकपूर्ण प्रयोग से जलाक्रांतता, लवणता और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी की समस्याएँ पैदा हो गई हैं।
  • उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य निवेशों में सहायिकी और एफ सीआई द्वारा शर्तिया खरीद ने शस्य प्रारूप को असंतुलित दिया है। जो न्यूनतम समर्थन मूल्य उन्हें मिलता है उसके लिए गेहूँ और चावल की अधिक फसलें उगाई जा रही हैं। पंजाब और हरियाणा इसके अग्रणी उदाहरण है।
  • उपभोक्ताओं को दो वर्गों में बाँट दिया गया है - गरीबी रेखा से नीचे (Below Poverty Line BPL) और गरीबी रेखा से ऊपर (Above Poverty Line - APL) और प्रत्येक वर्ग के लिए कीमतें अलग-अलग हैं। परंतु यह वर्गीकरण पूर्ण नहीं है क्योंकि इससे अनेक हकदार गरीब लोग बीपीएल वर्ग से बाहर हो गए हैं।
  • कई एपीएल श्रेणी के लोग एक फसल खराब होने से ही बीपीएल श्रेणी में आ जाते हैं और प्रशासकीय दृष्टि से ऐसे परिवर्तनों को समायोजित करना कठिन हो जाता है।
  • यदि सरकार उपयुक्त कृषि अवसंरचना ऋणों की सुविधा उपलब्ध कराती है और नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देती है तो प्रत्येक जिला और ब्लॉक को खाद्यान्नों के पैदावार में आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।
  • केवल गेहूँ और चावल पर ध्यान देने की अपेक्षा उस क्षेत्र में उगने वाली खाद्य फसलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिसमें वृद्धि की बेहतर संभावनाएँ हों ।
  • सिंचाई सुविधाओं और विद्युत उपलब्ध करवाने जैसे आवश्यक अवसंरचना को बढ़ावा देने से कृषि में निजी पूँजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा।
  • सतत् पोषणीय आधार पर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि और अनाजों के व्यापार को बंधन से मुक्ति से भारी मात्रा में रोजगार पैदा होंगे और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी भी घटेगी।
  • धीरे-धीरे खाद्य फसलों की कृषि का स्थान फलों, सब्जियों, तिलहनों और औद्योगिक फसलों की कृषि लेती जा रही है। इससे अनाजों और दालों के अंतर्गत निवल बोया गया क्षेत्र कम होता जा रहा है।
  • भारत की बढ़ती जनसंख्या के साथ घटता खाद्य उत्पादन देश की भविष्य की खाद्य सुरक्षा पर प्रश्न चिह्न लगाता है। भूमि के आवासन (Housing) इत्यादि जैसे गैर-कृषि भू-उपयोगों और कृषि के बीच बढ़ती भूमि की प्रतिस्पर्धा के कारण बोए गए निवल क्षेत्र में कमी आई है।
  • भूमि की उत्पादकता ने घटती प्रवृतित्त दर्शानी आरम्भ कर दी है। उर्वरक, पीड़कनाशी और कीटनाशी, जिन्होंने कभी नाटकीय परिणाम प्रस्तुत किए थे, को अब मिट्टी के निम्नीकरण का दोषी माना जा रहा है।
  • जल की कालिक कमी के कारण सिंचित क्षेत्र में कमी आई है। असक्षम जल प्रबंधन से जलाक्रांतता और लवणता की समस्याएँ खड़ी हो गई हैं ।
  • इसका एक मुख्य कारण भूमि निम्नीकरण है। किसानों को मुफ्त बिजली उपलब्ध करवाने के कारण जल-सघन फसलें उगाने के लिए कुछ क्षेत्र के किसानों को सिंचाई के लिए अधिकाधिक भूमिगत जल को पंपों के द्वारा निकालने का प्रोत्साहन मिला।
  • कम वर्षा वाले क्षेत्रों जैसे पंजाब में चावल तथा महाराष्ट्र में गन्ने की खेती इसके उदाहरण हैं। इससे भूमिगत जलभृत (Aquifer) में जल का भंडारण कम होता जा रहा है।
  • परिणामस्वरूप कई कुएँ और नलकूप सूख गए हैं। इससे सीमांत और छोटे किसान कृषि छोड़ने पर मजबूर हो गए हैं।
  • बड़े किसानों को उनके गहरे नलकूपों से अभी भी पानी उपलब्ध है परंतु बहुत से दूसरे किसान जल की कमी की समस्या का सामना कर रहे हैं। अपर्याप्त भंडारण सुविधाएँ और बाजार के अभाव से भी किसान हतोत्साहित होते हैं।
  • इस प्रकार किसान उत्पादन और बाजार की अनियमितता से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। उनको दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है। एक तो उन्हें कृषि लागतों जैसे उच्च पैदावार वाले बीजों, उर्वरकों इत्यादि के लिए अधिक दाम देने पड़ते हैं वहीं दूसरी ओर खरीद मूल्य बढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
  • किसानों की पैदावार एक साथ मंडी में पहुँचती है जिसके कारण खरीद मूल्य कम मिलता है परंतु उन्हें मजबूरी में अपने उत्पाद बेचने पड़ते हैं। इसलिए, छोटे किसानों की सुरक्षा बिना खाद्य सुरक्षा संभव नहीं है।
वैश्वीकरण का कृषि पर प्रभाव
  • वैश्वीकरण कोई नई घटना नहीं है। उपनिवेश काल में भी यही स्थिति मौजूद थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जब यूरोपीय व्यापारी भारत आए तो उस समय भी भारतीय मसाले विश्व के विभिन्न देशों में निर्यात किए जाते थे और दक्षिण भारत में किसानों को इन फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। आज भी गर्म मसाले भारत से निर्यात किए जाने वाली मुख्य वस्तुओं में शामिल हैं।
  • ब्रिटिश काल में अंग्रेज व्यापारी भारत के कपास क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए और भारतीय कपास को ब्रिटेन में सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चे माल के रूप में निर्यात किया गया।
  • मैनचेस्टर और लिवरपूल में सूती वस्त्र उद्योग भारत में पैदा होने वाली उत्तम किस्म की कपास की उपलब्धता पर फली - फूली ।
  • 1917 में बिहार में हुए चम्पारण आंदोलन की शुरुआत इसीलिए हुई क्योंकि इस क्षेत्र के किसानों पर नील की खेती करने के लिए दबाव डाला गया था।

  • नील ब्रिटेन के सूती वस्त्र उद्योग के लिए कच्चा माल था। ये किसान इसलिए भड़के क्योंकि उन्हें अपने उपभोग के लिए अनाज उगाने से मना कर दिया गया था।
  • 1990 के बाद, वैश्वीकरण के तहत भारतीय किसानों को कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
  • चावल, कपास, रबड़, चाय, कॉफी, जूट और मसालों का मुख्य उत्पादक होने के बावजूद भारतीय कृषि विश्व के विकसित देशों से स्पर्धा करने में असमर्थ है क्योंकि उन देशों में कृषि को अत्यधिक सहायिकी दी जाती है।
  • आज भारतीय कृषि दोराहे पर है। भारतीय कृषि को सक्षम और लाभदायक बनाना है तो सीमांत और छोटे किसानों की स्थिति सुधारने पर जोर देना होगा।
  • हरित क्रांति ने लंबा-चौड़ा वायदा किया परंतु आज यह कई विवादों से घिरी है। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि हरित क्रांति के दौरान रसायनों के अधिक प्रयोग, जलभृतों के सूखने और जैव विविधता विलुप्त होने के कारण भूमि का निम्नीकरण हुआ है।
  • वास्तव में कार्बनिक (organic) कृषि का आज अधिक प्रचलन है क्योंकि यह उर्वरकों तथा कीटनाशकों जैसे कारखानों में निर्मित रसायनों के बिना की जाती है। इसीलिए पर्यावरण पर इसका नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। 
  • कुछ अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण घटते आकार के जोतों पर यदि खाद्यान्नों की खेती ही होती रही तो भारतीय किसानों का भविष्य अंधकारमय है।
  • भारत में लगभग 60 करोड़ लोग लगभग 25 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर निर्भर हैं। इस प्रकार एक व्यक्ति के हिस्से में औसतन आधा हैक्टेयर से भी कम कृषि भूमि आती है।
  • भारतीय किसानों को शस्यावर्तन करना चाहिए और खाद्यान्नों के स्थान पर कीमती फसलें उगानी चाहिए।
  • इससे आमदनी अधिक होगी और इसके साथ पर्यावरण निम्नीकरण में कमी आएगी।
  • फलों, औषधीय पौधों, बायो-डीजल फसलों (जट्रोफा और जोजोबा), फूलों और सब्जियों को उगाने के लिए चावल या गन्ने से बहुत कम सिंचाई की आवश्यकता है।
  • भारत में जलवायु विविधता का विभिन्न प्रकार की कीमती फसलें उगाकर उपयोग किया जा सकता है।
कृषि के प्रकार
  • कृषि हमारे देश की प्राचीन आर्थिक क्रिया है। पिछले हजारों वर्षों के दौरान भौतिक पर्यावरण, प्रौद्योगिकी और सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के अनुसार खेती करने की विधियों में सार्थक परिवर्तन हुआ है |
  • जीवन निर्वाह खेती से लेकर वाणिज्य खेती तक कृषि के अनेक प्रकार हैं। वर्तमान समय में भारत के विभिन्न भागों में निम्नलिखित प्रकार के कृषि तंत्र अपनाए गए हैं।
प्रारंभिक जीविका निर्वाह कृषि
  • इस प्रकार की कृषि भारत के कुछ भागों में अभी भी की जाती है। प्रारंभिक जीवन निर्वाह कृषि भूमि के छोटे टुकड़ों पर आदिम कृषि औजारों जैसे लकड़ी के हल, डाओ (dao) और खुदाई करने वाली छड़ी तथा परिवार अथवा समुदाय श्रम की मदद से की जाती है।
  • इस प्रकार की कृषि प्रायः मानसून, मृदा की प्राकृतिक उर्वरता और फसल उगाने के लिए अन्य पर्यावरणीय परिस्थितियों की उपयुक्तता पर निर्भर करती है।
  • यह 'कर्तन वहन प्रणाली' (slash and burn) कृषि है। किसान जमीन के टुकड़े साफ करके उन पर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए अनाज व अन्य खाद्य फसलें उगाते हैं।
  • जब मृदा की उर्वरता कम हो जाती है तो किसान उस भूमि के टुकड़े से स्थानांतरित हो जाते हैं और कृषि के लिए भूमि का दूसरा टुकड़ा साफ करते हैं।
  • कृषि के इस प्रकार के स्थानांतरण से प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा मिट्टी की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है। चूँकि किसान उर्वरक अथवा अन्य आधुनिक तकनीकों का प्रयोग नहीं करते, इसीलिए इस प्रकार की कृषि में उत्पादकता कम होती है।
  • देश के विभिन्न भागों में इस प्रकार की कृषि को विभिन्न नामों से जाना जाता है।
  • मध्य प्रदेश में 'बेबर या दहिया', आंध्र प्रदेश में 'पोडु' अथवा 'पेंडा', ओडिशा में 'पामाडाबी' या 'कोमान' या 'बरीगां', पश्चिमी घाट में 'कुमारी', दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में 'वालरे' या 'वाल्टरे', हिमालयन क्षेत्र में 'खिल', झारखंड में 'कुरुवा' और उत्तर पूर्वी प्रदेशों में 'झूम' आदि।
  • उत्तर-पूर्वी राज्यों असम, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड में इसे 'झूम' कहा जाता है; मणिपुर में पामलू (pamlou) और छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में इसे 'दीपा' कहा जाता है।
  • मैक्सिको और मध्य अमेरिका में 'मिल्पा', वेनेजुएला में 'कोनुको', ब्राजील में 'रोका', मध्य अफ्रीका में 'मसाले'. इंडोनेशिया में 'लदाग' और वियतनाम में 'रे' के नाम से जाना जाता है।
  • 'झूम' 'कर्तन दहन प्रणाली' (Slash and burm) कृषि को मैक्सिको और मध्य अमेरिका में 'मिल्पा', वेनेजुएला में 'कोनुको', ब्राजील में 'रोका', मध्य अफ्रीका में 'मसोले', इंडोनेशिया में 'लदाग' और वियतनाम में 'रे' के नाम से जाना जाता है।

गहन जीविका कृषि

  • इस प्रकार की कृषि उन क्षेत्रों में की जाती है जहाँ भूमि पर जनसंख्या का दबाव अधिक होता है।
  • यह श्रम-गहन खेती है जहाँ अधिक उत्पादन के लिए अधिक मात्रा में जैव- रासायनिक निवेशों और सिंचाई का प्रयोग किया जाता है।
  • भूस्वामित्व में विरासत के अधिकार के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी जोतों का आकार छोटा और लाभप्रद होता जा रहा है और किसान वैकल्पिक रोजगार न होने के कारण सीमित भूमि से अधिकतम पैदावार लेने की कोशिश करते हैं। अतः कृषि भूमि पर बहुत अधिक दबाव है। 
वाणिज्यिक कृषि
  • इस प्रकार की कृषि के मुख्य लक्षण आधुनिक निवेशों जैसे अधिक पैदावार देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से उच्च पैदावार प्राप्त करना है।
  • कृषि के वाणिज्यीकरण का स्तर विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए हरियाणा और पंजाब में चावल वाणिज्य की एक फसल है परंतु ओडिशा में यह एक जीविका फसल है।
  • रोपण कृषि भी एक प्रकार की वाणिज्यिक खेती है। इस प्रकार की खेती में लंबे-चौड़े क्षेत्र में एकल फसल बोई जाती है। 
  • रोपण कृषि, उद्योग और कृषि के बीच एक अंतरापृष्ठ (interface) है। रोपण कृषि व्यापक क्षेत्र में की जाती है जो अत्यधिक पूँजी और श्रमिकों की सहायता से की जाती है।
  • इससे प्राप्त सारा उत्पादन उद्योग में कच्चे माल के रूप प्रयोग होता है।
  • भारत में चाय, कॉफी, रबड़, गन्ना, केला इत्यादि महत्त्वपूर्ण रोपण फसले है। असम और उत्तरी बंगाल में चाय, कर्नाटक में कॉफी वहाँ की मुख्य रोपण फसलें हैं।
  • चूँकि रोपण कृषि में उत्पादन बिक्री के लिए होता है इसलिए इसके विकास में परिवहन और संचार साधन से संबंधित उद्योग और बाजार महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
शस्य प्रारूप
  • देश में कृषि पद्धतियों और शस्य प्रारूपों में प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए, देश में बोई जाने वाली फसलों में अनेक प्रकार के खाद्यान्न और रेशे वाली फसलें, सब्जियाँ, फल, मसाले इत्यादि शामिल हैं।
  • भारत में तीन शस्य ऋतुएँ हैं, जो इस प्रकार हैं- रबी, खरीफ और जायद ।
  • रबी फसलों को शीत ऋतु में अक्टूबर से दिसंबर के मध्य बोया जाता है और ग्रीष्म ऋतु में अप्रैल से जून के मध्य काटा जाता है।
  • गेहूँ, जौ, मटर, चना और सरसों कुछ मुख्य रबी फसलें हैं। यद्यपि ये फसलें देश के विस्तृत भाग में बोई जाती हैं उत्तर और उत्तरी पश्चिमी राज्य जैसे - पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश गेहूँ और अन्य रबी फसलों के उत्पादन के लिए महत्त्वपूर्ण राज्य हैं । 
  • शीत ऋतु में शीतोष्ण पश्चिमी विक्षोभों से होने वाली वर्षा इन फसलों के अधिक उत्पादन में सहायक होती है।
  • पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ भागों में हरित क्रांति की सफलता भी उपर्युक्त रबी फसलों की वृद्धि में एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
  • खरीफ फसलें देश के विभिन्न क्षेत्रों में मानसून के आगमन के साथ बोई जाती हैं और सितंबर-अक्टूबर में काट ली जाती हैं।
  • इस ऋतु में बोई जाने वाली मुख्य फसलों में चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, तर (अरहर), मूंग, उड़द, कपास, जूट, मूंगफली और सोयाबीन शामिल हैं।
  • चावल की खेती मुख्य रूप से असम, पश्चिमी बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल और महाराष्ट्र विशेषकर कोंकण तटीय क्षेत्रों, उत्तर प्रदेश और बिहार में की जाती है।
  • पिछले कुछ वर्षों में चावल पंजाब और हरियाणा में बोई जाने वाली महत्त्वपूर्ण फसल बन गई है।
  • असम, पश्चिमी बंगाल और ओड़िशा में धान की तीन फसलें ऑस, अमन और बोरो बोई जाती हैं। 
  • रबी और खरीफ फसल ऋतुओं के बीच ग्रीष्म ऋतु में बोई जाने वाली फसल को जायद कहा जाता है।
  • जायद ऋतु में मुख्यतः तरबूज, खरबूजे, खीरे, सब्जियों और चारे की फसलों की खेती की जाती है। गन्ने की फसल को तैयार होने में लगभग एक वर्ष लगता है।
  • मुख्य फसलें मिट्टी, जलवायु और कृषि पद्धति में अंतर के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की खाद्य और अखाद्य फसलें उगाई जाती हैं।
  • भारत में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें चावल, गेहूँ, मोटे अनाज, दालें, चाय, कॉफी, गन्ना, तिलहन, कपास और जूट इत्यादि हैं।
चावल
  • भारत में अधिकांश लोगों का खाद्यान्न चावल है। हमारा देश चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है।
  • यह एक खरीफ की फसल है जिसे उगाने के लिए उच्च तापमान (25 सेल्सियस से ऊपर ) और अधिक आर्द्रता (100 सेमी. से अधिक वर्षा ) की आवश्यकता होती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे सिंचाई करके उगाया जाता है।
  • चावल उत्तर और उत्तर पूर्वी मैदानों, तटीय क्षेत्रों और डेल्टाई प्रदेशों में उगाया जाता है।

  • नहरों के जाल और नलकूपों की सघनता के कारण पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ कम वर्षा वाले क्षेत्रों में चावल की फसल उगाना संभव हो पाया है। 
गेहूँ
  • गेहूँ भारत की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। जो देश के उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भागों में पैदा की जाती है।
  • रबी की फसल को उगाने के लिए शीत ऋतु और पकने के समय खिली धूप की आवश्यकता होती है। इसे उगाने के लिए समान रूप से वितरित 50 से 75 सेमी. वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है ।
  • देश में गेहूँ उगाने वाले दो मुख्य क्षेत्र हैं - उत्तर-पश्चिम में गंगा-सतलुज का मैदान और दक्कन का काली मिट्टी वाला प्रदेश।

  • पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ भाग गेहूँ पैदा करने वाले मुख्य राज्य हैं।
मोटे अनाज
  • ज्वार, बाजरा और रागी भारत में उगाए जाने वाले मुख्य मोटे अनाज हैं। यद्यपि इन्हें मोटा अनाज कहा जाता है परंतु इनमें पोषक तत्त्वों की मात्रा अत्यधिक होती है।
  • उदाहरणतया, रागी में प्रचुर मात्रा में लोहा, कैल्शियम, सूक्ष्म पोषक और भूसी मिलती है।
  • क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टि से ज्वार देश की तीसरी महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। यह फसल वर्षा पर निर्भर होती है।
  • अधिकतर आर्द्र क्षेत्रों में उगाए जाने के कारण इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। 2016-17 में इसके प्रमुख उत्पादक राज्य राजस्थान महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश थे।
बाजरा
  • यह बलुआ और उथली काली मिट्टी पर उगाया जाता है। सन् 2016-17 में गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा इसके मुख्य उत्पादक राज्य थे।
  • रागी शुष्क प्रदेशों की फसल है और यह लाल, काली, बलुआ, दोमट और उथली काली मिट्टी पर अच्छी तरह उगायी जाती है। 
  • रागी के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, झारखंड और अरुणाचल प्रदेश हैं।
मक्का
  • यह एक ऐसी फसल है जो खाद्यान्न व चारा दोनों रूप में प्रयोग होती है। यह एक खरीफ फसल है।
  • यह 210° सेल्सियस से 279° सेल्सियस तापमान में और पुरानी जलोढ़ मिट्टी पर अच्छी प्रकार से उगायी जाती है।
  • बिहार जैसे कुछ राज्यों में मक्का रबी की ऋतु में भी उगाई जाती है। आधुनिक प्रौद्योगिक निवेशों जैसे उच्च पैदावार देने वाले बीजों, उर्वरकों और सिंचाई के उपयोग मक्का का उत्पादन बढ़ा है।
  • कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश मक्का के मुख्य उत्पादक राज्य है।
दालें
  • भारत विश्व में दालों का सबसे बड़ा उत्पादक तथा उपभोक्ता देश है। शाकाहारी खाने में दालें सबसे अधिक प्रोटीनदायक होती हैं। तूर (अरहर), उड़द, मूंग, मसूर, मटर और चना भारत की मुख्य दलहनी फसलें हैं।
  • दालों को कम नमी की आवश्यकता होती है और इन्हें शुष्क परिस्थितियों में भी उगाया जा सकता है।
  • फलीदार फसलें होने के नाते अरहर को छोड़कर अन्य सभी दालें वायु से नाइट्रोजन लेकर भूमि की उर्वरता को बनाए रखती है।
  • अतः इन फसलों को आमतौर पर अन्य फसलों के आवर्तन (rotating) में बोया जाता है। भारत में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक दाल के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।

खाद्यान्नों के अलावा अन्य खाद्य फसलें

गन्ना 
  • गन्ना एक उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय फसल है। यह फसल 219 सेल्सियस से 270 सेल्सियस तापमान और 75 सेमी. से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाली उष्ण और आर्द्र जलवायु में बोयी जाती है।
  • कम वर्षा वाले प्रदेशों में सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसे अनेक मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा इसके लिए बुआई से लेकर कटाई तक काफी शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है।
  • ब्राजील के बाद भारत गन्ने का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यह चीनी , गुड़, खांडसारी और शीरा बनाने के काम आता है। 
  • उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, पंजाब और हरियाणा गन्ना के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
तिलहन
  • 2016-17 में भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा बड़ा तिलहन उत्पादक देश था। सन् 2016-17 में तोरिया के उत्पादन में भारत का विश्व में कनाडा और चीन के बाद तीसरा स्थान था।
  • देश में कुल बोए गए क्षेत्र के 12 प्रतिशत भाग पर कई तिलहन की फसलें उगाई जाती हैं। मूंगफली, सरसों, नारियल, तिल, सोयाबीन, अरंडी, बिनौला, अलसी और सूरजमुखी भारत उगाई जाने वाली मुख्य तिलहन फसलें हैं।
  • इनमें से अधिकतर खाद्य है और खाना बनाने में प्रयोग किए जाते हैं। परंतु इनमें से कुछ तेल के बीजों को साबुन, प्रसाधन (श्रृंगार का सामान) और उबटन उद्योग में कच्चे माल के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
  • मूंगफली खरीफ की फसल है तथा देश में मुख्य तिलहनों के कुल उत्पादन का आधा भाग इसी फसल से प्राप्त होता है।
  • गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र मूंगफली के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
  • अलसी और सरसों रबी की फसलें हैं। तिल उत्तरी भारत में खरीफ की फसल है और दक्षिणी भारत में रबी की।
  • अरंडी, खरीफ और रबी दोनों ही फसल ऋतुओं में बोया जाता है। 
चाय
  • चाय की खेती रोपण कृषि का एक उदाहरण है। यह एक महत्त्वपूर्ण पेय पदार्थ की फसल है जिसे शुरुआत में अंग्रेज भारत में लाए थे।
  • आज अधिकतर चाय बागानों के मालिक भारतीय हैं। चाय का पौधा उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु, ह्यूमस और जीवांश युक्त गहरी मिट्टी तथा सुगम जल निकास वाले ढलवाँ क्षेत्रों में भलीभाँति उगाया जाता है।
  • चाय की झाड़ियों को उगाने के लिए वर्ष भर कोष्ण, नम और पालारहित जलवायु की आवश्यकता होती है। वर्ष भर समान रूप से होने वाली वर्षा की बौछारें इसकी कोमल पत्तियों के विकास में सहायक होती हैं।
  • चाय एक श्रम-सघन उद्योग है। इसके लिए प्रचुर मात्रा में सस्ता और कुशल श्रम चाहिए। इसकी ताजगी बनाए रखने के लिए चाय की पत्तियाँ बागान में ही संसाधित की जाती है।
  • चाय के मुख्य उत्पादक क्षेत्रों में असम, पश्चिमी बंगाल में दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी जिलों की पहाड़ियाँ, तमिलनाडु और केरल हैं।
  • इनके अलावा हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, मेघालय, आंध्र प्रदेश और त्रिपुरा आदि राज्यों में भी चाय उगाई जाती है। सन् 2014 के बाद से अब तक भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश था।
कॉफी
  • सन् 2016-17 में भारत ने विश्व की लगभग 4.0 प्रतिशत कॉफी का उत्पादन किया और भारत का विश्व में छठा स्थान है।
  • भारतीय कॉफी अपनी गुणवत्ता के लिए विश्वविख्यात है। हमारे देश में अरेबिका किस्म की कॉफी पैदा की जाती है जो आरम्भ में यमन से लाई गई थी।
  • इस किस्म की कॉफी की विश्व भर में अधिक माँग है। इसकी कृषि की शुरूआत 'बाबा बूदन पहाड़ियों' से हुई और आज भी इसकी खेती नीलगिरि की पहाड़ियों के आस पास कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में की जाती है।
बागवानी फसलें
  • सन् 2014 के बाद से अब तक भारत का विश्व में फलों और सब्जियों के उत्पादन में चीन के बाद दूसरा स्थान था। यह स्थान अभी भी यथावत बना है। यह भारत उष्ण और शीतोष्ण कटिबंधीय दोनों ही प्रकार के फलों का उत्पादक है।
  • भारतीय फलों जिनमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल के आम नागपुर और चेरापूँजी (मेघालय) के संतरे, केरल, मिजोरम, महाराष्ट्र, और तमिलनाडु के केले, उत्तर प्रदेश और बिहार की लीची, मेघालय के अनन्नास, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र के अंगूर तथा हिमाचल प्रदेश और जम्मू व कश्मीर सेब, नाशपाती, खूबानी और अखरोट की विश्वभर में बहुत माँग है।
  • > भारत विश्व की लगभग 13 प्रतिशत सब्जियों का उत्पादन करता है। भारत का मटर फूलगोभी, प्याज, बंदगोभी, टमाटर, बैंगन और आलू उत्पादन में प्रमुख स्थान है। 
अखाद्य फसलें
रबड़
  • रबड़ भूमध्यरेखीय क्षेत्र की फसल है परंतु विशेष परिस्थितियों में उष्ण और उपोष्ण क्षेत्रों में भी उगाई जाती है।
  • इसको 200 सेमी. से अधिक वर्षा और 25° सेल्सियस से अधिक तापमान वाली नम और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है।
  • रबड़ एक महत्त्वपूर्ण कच्चा माल है जो उद्योगों में प्रयुक्त होता है।
  • इसे मुख्य रूप से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, अंडमान निकोबार द्वीप समूह और मेघालय में गारो पहाड़ियों में उगाया जाता है।
  • विश्व में प्राकृतिक रबड़ के उत्पादन में 8.2 प्रतिशत हिस्से के साथ भारत का विश्व में चौथा स्थान था। 
रेशेदार फसलें
  • कपास, जूट, सन और प्राकृतिक रेशम भारत में उगाई जाने वाली चार मुख्य रेशेदार फसलें हैं।
  • इनमें से पहली तीन मिट्टी में फसल उगाने से प्राप्त होती हैं और चौथा रेशम के कीड़े के कोकून से प्राप्त होता है जो मलबरी पेड़ की हरी पत्तियों पर पलता है ।
  • रेशम उत्पादन के लिए रेशम के कीड़ों का पालन 'रेशम उत्पादन' (Sericulture) कहलाता है।
कपास
  • भारत को कपास के पौधे का मूल स्थान माना जाता है। सूती कपडा उद्योग में कपास एक मुख्य कच्चा माल है।
  • कपास उत्पादन में भारत का विश्व में द्वितीय स्थान है। दक्कन पठार के शुष्कतर भागों में काली मिट्टी कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त मानी जाती है।
  • इस फसल को उगाने के लिए उच्च तापमान, हल्की वर्षा या सिंचाई, 210 दिन पाला रहित और खिली धूप की आवश्यकता होती है। यह खरीफ की फसल है और इसे पककर तैयार होने में 6 से 8 महीने लगते हैं।
  • महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश कपास के मुख्य उत्पादक राज्य हैं।
जूट
  • जूट को सुनहरा रेशा कहा जाता है। जूट की फसल बाढ़ के मैदानों में जलनिकास वाली उर्वरक मिट्टी में उगाई जाती है।
  • जहाँ हर वर्ष बाढ़ से आई नई मिट्टी जमा होती रहती है। इसकी वृद्धि के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है।
  • पश्चिम बंगाल, बिहार, असम, ओडिशा तथा मेघालय जूट के मुख्य उत्पादक राज्य है।
  • इसका प्रयोग बोरियाँ, चटाई, रस्सी, तंतु व धागे, गलीचे और दूसरी दस्तकारी की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है।
  • इसकी उच्च लागत के कारण और कृत्रिम रेशों और पैकिंग सामग्री, विशेषकर नाइलोन की कीमत कम होने के कारण, बाजार में इसकी माँग कम हो रही है।
प्रौद्योगिकीय और संस्थागत सुधार
  • भारत में कृषि हजारों वर्षों से की जा रही है। परंतु प्रौद्योगिकी और संस्थागत परिवर्तन के अभाव में लगातार भूमि संसाधन के प्रयोग से कृषि का विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा इसकी गति मंद हो जाती है।
  • सिंचाई के साधनों का विकास होने के उपरांत भी देश के एक बहुत बड़े भाग में अभी भी किसान खेती-बाड़ी के लिए मानसून और भूमि की प्राकृतिक उर्वरता पर निर्भर हैं।

  • बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। 60 प्रतिशत से भी अधिक लोगों को आजीविका प्रदान करने वाली कृषि में कुछ गंभीर तकनीकी एवं संस्थागत सुधार लाने की आवश्यकता है।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् देश में संस्थागत सुधार करने के लिए जोतों की चकबंदी, सहकारिता तथा जमींदारी आदि समाप्त करने को प्राथमिकता गयी।
  • प्रथम पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार मुख्य लक्ष्य था। भूमि पर पुश्तैनी अधिकार के कारण यह टुकड़ों में बँटती जा रही थी जिसकी चकबंदी करना अनिवार्य था।
  • भूमि सुधार के कानून तो बने परंतु इनको लागू करने में ढील की गई। 1960 और 1970 के दशक में भारत सरकार ने कई प्रकार के कृषि सुधारों की शुरुआत की।
  • पैकंज टेक्नोलॉजी पर आधारित हरित क्रांति तथा श्वेत क्रांति (ऑपरेशन फ्लड) जैसी कृषि सुधार के लिए कुछ रणनीतियाँ आरंभ की गई थी। परंतु इसके कारण विकास कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया।
  • इसलिए 1980 तथा 1990 के दशकों में व्यापक भूमि विकास कार्यक्रम शुरू किया गया जो संस्थागत और तकनीकी सुधारों पर आधारित था।
  • इस दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदमों में सूखा, बाढ़, चक्रवात, आग तथा बीमारी के लिए फसल बीमा के प्रावधान और किसानों को कम दर पर ऋण सुविधाएँ प्रदान करने के लिए ग्रामीण बैंकों, सहकारी समितियों और बैंकों की स्थापना सम्मिलित थे। 
  • किसानों के लाभ के लिए भारत सरकार ने किसान क्रेडिट कार्ड और व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना (पीएआईएस) भी शुरू की।
  • इसके अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर किसानों के लिए मौसम की जानकारी के बुलेटिन और कृषि कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।
  • किसानों को बिचौलियों और दलालों के शोषण से बचाने के लिए न्यूनतम सहायता मूल्य और कुछ महत्त्वपूर्ण फसलों के लाभदायक खरीद मूल्यों की सरकार घोषणा करती है।
भूदान- ग्रामदान
  • महात्मा गाँधी ने विनोबा भावे, जिन्होंने उनके सत्याग्रह में सबसे निष्ठावान सत्याग्रही की तरह भाग लिया था, को अपना अध्यात्मिक उत्तराधिकारी घोषित किया था।
  • उनकी गाँधी जी के ग्राम स्वराज अवधारणा में भी गहरी आस्था थी। गांधी जी की शहादत के बाद उनके संदेश को लोगों तक पहुँचाने के लिए विनोबा भावे ने लगभग पूरे देश की पदयात्रा की।
  • एक बार जब वे आंध्र प्रदेश के एक गाँव पोचमपल्ली में बोल रहे थे तो कुछ भूमिहीन गरीब ग्रामीणों ने उनसे अपने आर्थिक भरण-पोषण के लिए, कुछ भूमि माँगी।
  • विनोबा भावे ने उनसे तुरंत कोई वायदा तो नहीं किया परंतु उनको आश्वासन दिया कि यदि वे सहकारी खेती करें तो वे भारत सरकार से बात करके उनके लिए जमीन मुहैया करवाएँगे। अचानक राम चन्द्र रेड्डी उठ खड़े हुए और उन्होंने 80 भूमिहीन ग्रामीणों को 80 एकड़ भूमि बाँटने की पेशकश की।
  • इसे 'भूदान' के नाम से जाना गया। बाद में विनोबा भावे ने यात्राएँ की और अपना यह विचार पूरे भारत में फैलाया। कुछ जमींदारों ने, जो अनेक गाँवों के मालिक थे, भूमिहीनों को पूरा गाँव देने की पेशकश भी की।
  • इसे 'ग्रामदान' कहा गया। परंतु कुछ जमींदारों ने तो भूमि सीमा कानून से बचने के लिए अपनी भूमि का एक हिस्सा दान किया था। विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए इस भूदान - ग्रामदान आंदोलन को 'रक्तहीन क्रांति' का भी नाम दिया गया।
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Tue, 28 Nov 2023 08:35:43 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | जल संसाधन https://m.jaankarirakho.com/492 https://m.jaankarirakho.com/492 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | जल संसाधन
  • तीन-चौथाई धरातल जल से ढका हुआ है, परंतु इसमें प्रयोग में लाने योग्य अलवणीय जल का अनुपात बहुत कम है।
  • यह अलवणीय जल हमें सतही अपवाह और भौमजल स्रोत से प्राप्त होता है। जिनका लगातार नवीकरण और पुनर्भरण जलीय चक्र द्वारा होता रहता है। सारा जल जलीय चक्र में गतिशील रहता है जिससे जल नवीकरण सुनिश्चित होता है।
  • पृथ्वी तीन-चौथाई भाग जल से घिरा है और जल एक नवीकरण योग्य संसाधन है।
  • विश्व में जल के कुल आयतन का 96-5 प्रतिशत भाग महासागरों में पाया जाता है और केवल 2-5 प्रतिशत अलवणीय जल है।
  • विश्व में अलवणीय जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड और पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादरों और हिमनदों के रूप में मिलता है, जबकि 30 प्रतिशत से थोड़ा-सा कम भौमजल के जलभृत (aquifer) के रूप में पाया जाता है।
  • भारत विश्व की वृष्टि का 4 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त करता है और • प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष जल उपलब्धता के संदर्भ में विश्व में इसका 133 वाँ स्थान है।
  • भारत में कुल नवीकरण योग्य जल संसाधन 1,897 वर्ग किमीप्रति वर्ष अनुमानित है। भविष्यवाणी है कि 2025 तक भारत का एक बड़ा हिस्सा विश्व के अन्य देशों और क्षेत्रों की तरह जल की नितांत कमी महसूस करेगा।

वर्षा जल संग्रहण

  • बहुउद्देशीय परियोजनाओं के अलाभप्रद असर और उन पर उठे विवादों के चलते वर्षा जल संग्रहण तंत्र इनके सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक तौर पर व्यवहार्थ विकल्प हो सकते हैं।
  • प्राचीन भारत में उत्कृष्ट जलीय निर्माणों के साथ-साथ जल संग्रहण ढाँचे भी पाए जाते थे। लोगों को वर्षा पद्धति और मृदा के गुणों के बारे में गहरा ज्ञान था। उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियों और उनकी जल आवश्यकतानुसार वर्षाजलं, भौमजल, नदी जल और बाढ़ जल संग्रहण के अनेक तरीके विकसित कर लिए थे।
  • पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों ने 'गुल' अथवा 'कुल' (पश्चिमी हिमालय) जैसी वाहिकाएँ, नदी की धारा का रास्ता बदलकर खेतों में सिंचाई के लिए बॅनाई हैं।
  • पश्चिमी भारत, विशेषकर राजस्थान में पीने का जल एकत्रित करने के लिए छत वर्षा जल संग्रहण का तरीका आम था।
  • पश्चिम बंगाल में बाढ़ के मैदान में लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए बाढ़ जल वाहिकाएँ बनाते थे।
  • शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में खेतों में वर्षा जल एकत्रित करने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे ताकि मृदा को सिंचित किया जा सके और संरक्षित जल को खेती के लिए उपयोग में लाया जा सके।
  • राजस्थान के जिले जैसलमेर में खादीन और अन्य क्षेत्रों में जोहड़ इसके उदाहरण हैं।
    • पी वी सी पाइप का इस्तेमाल करके छत का वर्षाजल एकत्रित किया जाता है।
    • रेत और ईंट प्रयोग करके जल का छनन (filter) किया जाता है।
    • भूमिगत पाइप के द्वारा जल हौज तक ले जाया जाता है जहाँ से इसे तुरंत प्रयोग किया जा सकता है।
    • हौज से अतिरिक्त जल कुएँ तक ले जाया जाता है।
    • कुएँ का जल भूमिगत जल का पुनर्भरण करता है।
    • बाद में इस जल का उपयोग किया जा सकता है।

  • राजस्थान के अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों विशेषकर बीकानेर, फलोदी और बाड़मेर में लगभग हर घर में पीने का पानी संग्रहित करने के लिए भूमिगत टैक अधवा 'टौका' हुआ करता था। इसका आकार एक बड़े कमरे जितना हो सकता है।
  • फलोदी में एक घर में 6.1 मीटर गहरा, 4.27 मीटर लंबा और 2.44 मीटर चौड़ा टाँका था। टांका यहाँ सुविकसित छत वर्षाजल संग्रहण तंत्र का अभिन्न हिस्सा होता है जिसे मुख्य घर या आँगन में बनाया जाता था।

  • मेघालय की राजधानी शिलाग में छत वर्षाजल संग्रहण प्रचलित है। यह रोचक इसलिए है क्योंकि चेरापूँजी और मॉसिनराम जहाँ विश्व की सबसे अधिक वर्षा होती है, शिलांग से 55 किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित है और यह शहर पीने के जल की कमी की गंभीर समस्या का सामना करता है।
  • शहर के लगभग हर घर छत वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था है। घरेलू जल आवश्यकता की कुल माँग के लगभग 15-25 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति छत जल संग्रहण व्यवस्था से ही होती है।
  • वे घरों की ढलवाँ छतों से पाइप द्वारा जुड़े हुए थे। छत से वर्षा का पानी इन नलों से होकर भूमिगत टाँका तक पहुँचता था जहाँ इसे एकत्रित किया जाता था।
  • वर्षा का पहला जल छत और नलों को साफ करने में प्रयोग होता था और उसे संग्रहित नहीं किया जाता था। इसके बाद होने वाली वर्षा का जल संग्रह किया जाता था।
  • टाँका में वर्षा जल अगली वर्षा ऋतु तक संग्रहित किया जा सकता है। यह इसे जल की कमी वाली ग्रीष्म ऋतु तक पीने का जल उपलब्ध करवाने वाला जल स्त्रोत बनाता है।
  • वर्षाजल अथवा 'पालर पानी' जैसा कि इसे इन क्षेत्रों में पुकारा जाता है, प्राकृतिक जल का शुद्धतम रूप समझा जाता है। कुछ घरों में तो टाँकों के साथ भूमिगत कमरे भी बनाए जाते हैं क्योंकि जल का यह स्त्रोत इन कमरों को भी ठंडा रखता था जिससे ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से राहत मिलती है।
  • आज पश्चिमी राजस्थान में छत वर्षाजल संग्रहण की रीति इंदिरा गांधी नहर से उपलब्ध बारहमासी पेयजल के कारण कम होती जा रही है।
  • हालांकि कुछ घरों में टौकों की सुविधा अभी भी है। क्योंकि उन्हें नल के पानी का स्वाद पसन्द नहीं है।
  • छतजल संग्रहण धार के सभी शहरों और ग्रामों में प्रचलित था। वर्षा जल जो कि घरों की ढालू छतों पर गिरता है, उसे पाइप द्वारा भूमिगत टाँका के अंदर ले जाते हैं ( भूमि में गोल छिद्र) जो मुख्य घर अथवा आँगन में बना होता है। ऊपर दिखाया गया चित्र दर्शाता है कि जल पड़ोसी की छत से एक लम्बे पाइप के द्वारा लाया जाता है।
  • यहाँ पड़ोसी की छत का उपयोग वर्षा जल को एकत्र करने के लिए किया गया है। चित्र में एक छेद दिखाया गया है जिसके द्वारा वर्षा जल भूमिगत टाँका में चला जाता है।
  • सौभाग्य से आज भी भारत के कई ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जल संरक्षण और संग्रहण का यह तरीका प्रयोग में लाया जा रहा है।
  • कर्नाटक के मैसूरु जिले में स्थित एक सूदूर गाँव गंडाथूर में ग्रामीणों ने अपने घर में जल आवश्यकता पूर्ति छत वर्षाजल संग्रहण की व्यवस्था की हुई है।
बाँस ड्रिप सिंचाई प्रणाली
  • मेघालय में नदियों व झरनों के जल को बाँस द्वारा बने पाइप द्वारा एकत्रित करके 200 वर्ष पुरानी विधि प्रचलित है। लगभग 18 से 20 लीटर सिंचाई पानी बाँस पाइप में आ जाता है तथा उसे सैकड़ों मीटर की दूरी तक ले जाया जाता है। अंत में पानी का बहाव 20 से 80 बूँद प्रति मिनट तक घटाकर पौधे पर छोड़ दिया जाता है। 
  • चित्र - 1: पहाड़ी शिखरों पर सदानीरा झरनों की दिशा परिवर्तित करने के लिए बाँस के पाइपों का उपयोग किया जाता है। इन पाइपों के माध्यम से गुरुत्वाकर्षण द्वारा जल पहाड़ के निचले स्थानों तक पहुँचाया जाता है।

  • चित्र - 2 तथा 3 बाँस से निर्मित चैनल से पौधे के स्थान तक जल का बहाव परिवर्तित किया जाता है। पौधे तक बाँस पाइप से बनाई व बिछाई गई विभिन्न जल शाखाओं में जल वितरित किया जाता है। पाइपों में जल प्रवाह इनकी स्थितियों में परिवर्तन करके नियंत्रित किया जाता है।

  • चित्र - 4: यदि पाइपों को सड़क पार ले जाना हो तो उन्हें भूमि पर ऊंचाई से ले जाया जाता है।

  • चित्र - 5 व 6: संकुचित किये हुए चैनल सेक्शन और पथांतरण इकाई जल सिंचाई के अंतिम चरण में प्रयुक्त की जाती है। अंतिम चैनल सेक्शन से पौधे की जड़ों के निकट जल गिराया जाता है।
  • गाँव के लगभग 200 घरों में यह व्यवस्था है और इस गाँव ने वर्षा जल संपन्न गाँव की ख्याति अर्जित की है।
  • तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जहां पूरे राज्य में हर घर में छत वर्षाजल संग्रहण ढांचों का बनाना आवश्यक कर दिया गया है। इस संदर्भ में दोषी व्यक्तियों पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है।

जल दुर्लभता और जल संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्यकता

  • वर्षा में वार्षिक और मौसमी परिवर्तन के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता में समय और स्थान के अनुसार विभिन्नता है।
  • परंतु अधिकतया जल की कमी इसके अतिशोषण, अत्यधिक प्रयोग और समाज के विभिन्न वर्गों में जल के असमान वितरण के कारण होती है।
  • अतः जल दुर्लभता अत्यधिक और बढ़ती जनसंख्या और उसके परिण मस्वरूप जल की बढ़ती माँग और उसके असमान वितरण का परिण नाम भी हो सकता है।
  • जल, अधिक जनसंख्या के लिए घरेलू उपयोग में ही नहीं बल्कि अधिक अनाज उगाने के लिए भी चाहिए।
  • स्वीडेन के एक विशेषज्ञ, फाल्कनमार्क के अनुसार जल की कमी तब होती है जब प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिवर्ष 1000 से 1600 घन मीटर के बीच जल उपलब्ध होता है।
  • अतः अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए जल संसाधनों का अतिशोषण करके ही सिंचित क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है और शुष्क ऋतु में भी खेती की जा सकती है।
  • स्वतंत्रता के बाद भारत में तेजी से औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ और विकास के अवसर प्राप्त हुए। आजकल हर जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ (MNCs) बड़े औद्योगिक घरानों के रूप में फैली हुई हैं।
  • उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। उद्योगों को अत्यधिक जल के अलावा उनको चलाने के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है और इसकी काफी हद तक पूर्ति जल विद्युत से होती है।
  • वर्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22 प्रतिशत भाग जल विद्युत से प्राप्त होता है।
  • इसके अलावा शहरों की बढ़ती संख्या और जनसंख्या तथा शहरी जीवन शैली के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में बढ़ोत्तरी हुई है अपितु इनसे संबंधित समस्याएँ और भी गहरी हुई हैं।
  • शहरी आवास समितियों या कालोनियों अंदर जल पूर्ति के लिए नलकूप स्थापित किए गए हैं। किन्तु फिर भी शहरों में जल संसाधनों का अति शोषण हो रहा है और इनकी कमी होती जा रही है।
  • भारत की नदियां विशेषकर छोटी सरिताएं, जहरीली धाराओं में परिवर्तित हो गई हैं और बड़ी नदियां जैसे गंगा और यमुना कोई भी शुद्ध नहीं है।
  • बढ़ती जनसंख्या, कृषि आधुनिकीकरण, नगरीकरण और औद्योगीकरण का भारत की नदियों पर अत्यधिक दुष्प्रभाव है और हर दिन गहराता जा रहा है, इससे संपूर्ण जीवन खतरे में है।
  • यह जल दुर्लभता के मात्रात्मक पहलू का विषय है। जो जल की खराब गुणवत्ता के कारण हो सकती है। लोगों की आवश्यकता के लिए प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध होने के बावजूद यह घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों, रसायनों, कीटनाशकों और कृषि में प्रयुक्त उर्वरकों द्वारा प्रदूषित है और मानव उपयोग के लिए खतरनाक है।
  • समय की माँग है कि हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करें, स्वयं को स्वास्थ्य संबंधी खतरों से बचाएँ, खाद्यान्न सुरक्षा, अपनी आजीविका और उत्पादक क्रियाओं की निरंतरता को सुनिश्चित करें, और हमारे प्राकृतिक पारितंत्रों को निम्नीकृत ( degradation) होने से बचाएँ ।
  • जल संसाधनों के अतिशोषण और कुप्रबंधन से इन संसाधनों का ह्रास हो सकता है और पारिस्थितिकी संकट की समस्या पैदा हो सकती है जिसका हमारे जीवन पर गंभीर प्रभाव हो सकता है।
बहु-उद्देशीय नदी परियोजनाएँ और समन्वित जल संसाधन प्रबंधन
  • पुरातत्त्व वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अभिलेख/दस्तावेज (record) बताते हैं कि हमने प्राचीन काल से सिंचाई के लिए पत्थरों और मलबे से बाँध, जलाशय अथवा झीलों के तटबंध और नहरों जैसी उत्कृष्ट जलीय कृतियाँ बनाई हैं।
  • हमने यह परिपाटी आधुनिक भारत में भी जारी रखी है और अधि कतर नदियों के बेसिनों में बाँध बनाए हैं।
प्राचीन भारत में जलीय कृतियाँ
  • ईसा से एक शताब्दी पहले इलाहाबाद के नजदीक भिगवेरा में गंगा नदी की बाढ़ के जल को संरक्षित करने के लिए एक उत्कृष्ट जल संग्रहण तंत्र बनाया गया था।
  • चन्द्रगुप्त मौर्य के समय बृहत् स्तर पर बाँध झील और सिंचाई तंत्रों का निर्माण करवाया गया।
  • कलिंग (ओडिशा), नागार्जुनकोंडा (आंध्र प्रदेश) बेन्नूर (कर्नाटक) और कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में उत्कृष्ट सिचाई तंत्र होने के सबूत मिलते हैं।
  • अपने समय की सबसे बड़ी कृत्रिम झीलों में से एक. भोपाल झील, 11वीं शताब्दी में बनाई गई। 
  • 14वीं शताब्दी में इल्तुतमिश ने दिल्ली में सिरी फोर्ट क्षेत्र में जल की सप्लाई के लिए हौज खास (एक विशिष्ट तालाब) बनवाया।
  • स्रोत - डाईंग विजडम, सी एस ई. 1997
  • परम्परागत बाँध, नदियों और वर्षा जल को इकट्ठा करके बाद में उसे खेतों की सिंचाई के लिए उपलब्ध करवाते थे।
  • आज कल बाँध सिर्फ सिंचाई के लिए नहीं बनाए जाते अपितु उनका उद्देश्य विद्युत उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, जल आपूर्ति, बाढ़ नियंत्रण, मनोरंजन, आंतरिक नौचालन और मछली पालन भी है।
  • इसलिए बाँधों को बहुउद्देशीय परियोजनाएँ भी कहा जाता है जहाँ एकत्रित जल के अनेकों उपयोग समन्वित होते हैं। उदाहरण के तौर पर सतलुज-ब्यास बेसिन में भाखड़ा-नांगल परियोजना जल विद्युत उत्पादन और सिंचाई दोनों के काम में आती है।
  • बाँध बहते जल को रोकने, दिशा देने या बहाव कम करने के लिए खड़ी की गई बाधा है जो आमतौर पर जलाशय, झील अथवा जलभरण बनाती हैं। बाँध का अर्थ जलाशय से लिया जाता है न कि इसके ढाँचे से |
  • अधिकतर बाँधों में एक ढलवाँ हिस्सा होता है जिसके ऊपर से या अन्दर से जल रुक-रुक कर या लगातार बहता है।
  • बाँधों का वर्गीकरण उनकी संरचना और उद्देश्य या ऊँचाई अनुसार किया जाता है।
  • संरचना और उनमें प्रयुक्त पदार्थों के आधार पर बाँधों को लकड़ी के बाँध, तटबंध बाँध या पक्का बाँध के अलावा कई उपवर्गों में बाँटा जा सकता है।
  • ऊँचाई के अनुसार बाँधों को बड़े बाँध और मुख्य बाँध या नीचे बाँध, मध्यम बाँध और उच्च बाँधों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • इसी प्रकार महानदी बेसिन में हीराकुंड परियोजना जलसंरक्षण और बाढ़ नियंत्रण का समन्वय है।
  • स्वतंत्रता के बाद शुरू की गई समन्वित जल संसाधन प्रबंधन उपागम पर आधारित बहुउद्देशीय परियोजनाओं को उपनिवेशन काल में बनी बाधाओं को पार करते हुए देश को विकास और समृद्धि के रास्ते पर ले जाने वाले वाहन के रूप में देखा गया।
  • जवाहरलाल नेहरू गर्व से बाँधों को 'आधुनिक भारत के मंदिर' कहा करते थे। उनका मानना था कि इन परियोजनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, औद्योगीकरण और नगरीय अर्थव्यवस्था समन्वित रूप से विकास करेगी।
  • पिछले कुछ वर्षों में बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध कई कारणों से परिनिरीक्षण और विरोध के विषय बन गए हैं।
  • नदियों पर बाँध बनाने और उनका बहाव नियंत्रित करने से उनका प्राकृतिक बहाव अवरुद्ध होता है, जिसके कारण तलछट बहाव कम हो जाता है और अत्यधिक तलछट जलाशय की तली पर जमा होता रहता है जिससे का तल अधिक चट्टानी हो जाता है और नदी जलीय जीव-आवासों में भोजन की कमी हो जाती है।
  • बाँध नदियों को टुकड़ों में बाँट देते हैं जिससे विशेषकर अंडे देने की ऋतु में जलीय जीवों का नदियों में स्थानांतरण अवरुद्ध हो जाता है।
  • बाढ़ के मैदान में बनाए जाने वाले जलाशयों द्वारा वहाँ मौजूद वनस्पति और मिट्टियाँ जल में डूब जाती हैं जो कालांतर में अपघटित हो जाती है।
  • बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध नए सामाजिक आंदोलनों जैसे- नर्मदा बचाओ आंदोलन और टिहरी बाँध आंदोलन के कारण भी बन गए हैं। 
  • इन परियोजनाओं का विरोध मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों के वृहद स्तर पर विस्थापन के कारण है।
  • आमतौर पर स्थानीय लोगों को उनकी जमीन, आजीविका और संसाधनों से लगाव एवं नियंत्रण देश की बेहतरी के लिए कुर्बान करना पड़ता है।
  • सिंचाई ने कई क्षेत्रों में फसल प्रारूप परिवर्तित कर दिया है जहाँ किसान जलगहन और वाणिज्य फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इससे मृदाओं के लवणीकरण जैसे गंभीर पारिस्थितिकीय परिणाम हो सकते हैं।
  • गुजरात में साबरमती बेसिन में सूखे के दौरान नगरीय क्षेत्रों में अधिक जल आपूर्ति देने पर परेशान किसान उपद्रव पर उतारू हो गए।
  • बहुद्देशीय परियोजनाओं के लागत और लाभ के बँटवारे को लेकर अंतर्राज्यीय झगड़े आम होते जा रहे हैं। नदी परियोजनाओं पर उठी अधिकतर आपत्तियाँ उनके उद्देश्यों में विफल हो जाने पर हैं।
  • यह एक विडंबना ही है कि जो बाँध बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं उनके जलाशयों में तलछट जमा होने से वे बाढ़ आने का कारण बन जाते हैं।
  • अत्यधिक वर्षा होने की दशा में तो बड़े बाँध भी कई बार बाढ़ नियंत्रण में असफल रहते हैं। वर्ष 2006 में महाराष्ट्र और गुजरात में भारी वर्षा के दौरान बाँधों से छोड़े गए जल की वजह बाढ़ की स्थिति और भी विकट हो गई।
  • इन बाढ़ों से न केवल जान और माल का नुकसान हुआ अपितु बृहद स्तर पर मृदा अपरदन भी हुआ।
  • बाँध के जलाशय पर तलछट जमा होने का अर्थ यह भी है कि यह तलछट जो कि एक प्राकृतिक उर्वरक है बाढ़ के मैदानों तक नहीं पहुँचती जिसके कारण भूमि निम्नीकरण की समस्याएँ बढ़ती हैं।
  • बहुउद्देशीय योजनाओं के कारण भूकंप आने की संभावना भी बढ़ जाती है और अत्यधिक जल के उपयोग से जल-जनित बीमारियाँ, फसलों में कीटाणु-जनित बीमारियाँ और प्रदूषण फैलते हैं।

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Tue, 28 Nov 2023 07:14:52 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | वन एवं वन्य जीव संसाधन https://m.jaankarirakho.com/491 https://m.jaankarirakho.com/491 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | वन एवं वन्य जीव संसाधन
  • मानव और दूसरे जीवधारी एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसका हम मात्र एक हिस्सा हैं और अपने अस्तित्व के लिए इसके विभिन्न तत्त्वों पर निर्भर करते हैं। उदाहरणतया, वायु जिसमें हम साँस लेते हैं, जल जिसे हम पीते हैं और मृदा जो अनाज पैदा करती है, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते; पौधे, पशु और सूक्ष्मजीवी इनका पुनः सृजन करते हैं।
  • वन पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि ये प्राथमिक उत्पादक हैं जिन पर दूसरे सभी जीव निर्भर करते हैं।
  • वन्य जीवन और कृषि फसल उपजातियों में अत्यधिक जैव विविध ताएं पाई जाती हैं यह आकार और कार्य में विभिन्न हैं परंतु अंतर्भिरताओं के ज़टिल जाल द्वारा एक तंत्र में गुंथी हुई है।

वन एवं वन्यजीव

  • भारत में वनों को सबसे बड़ा नुकसान उपनिवेश काल में रेल लाइन, कृषि, व्यवसाय, वाणिज्य वानिकी और खनन क्रियाओं में वृद्धि से हुआ।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वन संसाधनों के सिकुड़ने से कृषि का फैलाव महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक रहा है।
  • अधिकतर जनजातीय क्षेत्रों, विशेषकर पूर्वोत्तर और मध्य भारत में स्थानांतरी (झूम) खेती अथवा 'स्लैश और बर्न' खेती के चलते वनों की कटाई या निम्नीकरण हुआ है।
  • बड़ी विकास परियोजनाओं ने भी वनों को बहुत नुकसान पहुँचाया है। 1952 से नदी घाटी परियोजनाओं के कारण 5000 वर्ग कि.मी. से अधिक वन क्षेत्रों को साफ करना पड़ा है।
  • यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और मध्य प्रदेश में 4,00,000 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र नर्मदा सागर परियोजना के पूर्ण हो जाने से जलमग्न हो जाएगा।
  • वनों की बर्बादी में खनन ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पश्चिम बंगाल में बक्सा टाईगर रिजर्व (reserve), डोलोमाइट के खनन के कारण गंभीर खतरे में है।
  • इसने कई प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुँचाया है और कई जातियों जिसमें भारतीय हाथी भी शामिल हैं, के आवागमन मार्ग को बाधित किया है।
  • बहुत से वन अधिकारी और पर्यावरणविद् यह मानते हैं कि वन संसाधनों की बर्बादी में पशुचारण और ईंधन के लिए लकड़ी कटाई मुख्य भूमिका निभाते हैं।
  • वन पारिस्थिकी तंत्र देश के मूल्यवान वन पदार्थों, खनिजों और अन्य संसाधनों के संचय कोष हैं जो तेजी से विकसित होती औद्योगिक शहरी अर्थव्यवस्था की माँग की पूर्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
  • ये आरक्षित क्षेत्र अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखते हैं और विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष के लिए कूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं।
हिमालय यव (Yew) संकट में
  • हिमालयन यव (चीड़ के प्रकार का सदाबहार वृक्ष) एक औषधीय पौधा है जो हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में पाया जाता है।
  • पेड़ की छाल, पत्तियों, टहनियों और जड़ों से टकसोल (taxol) नामक रसायन निकाला जाता है तथा इसे कुछ कैंसर रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • इससे बनाई गई दवाई विश्व में सबसे अधिक बिकने वाली कैंसर औषधि हैं। इसके अत्याधिक निष्कासन से इस वनस्पति जाति को खतरा पैदा हो गया है।
  • पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में विभिन्न क्षेत्रों में यव के हजारों पेड़ सूख गए हैं।
  • भारत में जैव-विविधता को कम करने वाले कारकों में वन्य जीव के आवास का विनाश, जंगली जानवरों को मारना व आखेटन, पर्यावरण गीय प्रदूषण व विषाक्तिकरण और दावानल आदि शामिल हैं।
  • पर्यावरण विनाश के अन्य मुख्य कारकों में संसाधनों का असमान बंटवारा व उनका असमान उपभोग और पर्यावरण के रख-रखाव की जिम्मेदारी में असमानता शामिल हैं।
  • भारत के आधे अधिक प्राकृतिक वन लगभग खत्म हो चुके हैं? एक-तिहाई जलमग्न भूमि (wetland) सूख चुकी है, 70 प्रतिशत धरातलीय जल क्षेत्र (water bodies) प्रदूषित हैं, 40 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्र लुप्त हो चुका है और जंगली जानवरों के शिकार और व्यापार तथा वाणिज्य की दृष्टि से कीमती पेड़-पौधों की कटाई के कारण हजारों वनस्पति और वन्य जीव जातियाँ लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं।
  • आमतौर पर विकासशील देशों में पर्यावरण विनाश का मुख्य दोषी अत्यधिक जनसंख्या को माना जाता है।
  • वनों और वन्य जीवन का विनाश मात्र जीव विज्ञान का विषय ही नहीं है। जैव संसाधनों का विनाश सांस्कृतिक विविधता के विनाश से जुड़ा हुआ है। 
  • जैव विनाश के कारण कई मूल जातियाँ और वनों पर आधारित समुदाय निर्धन होते जा रहे हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर पहुँच गए हैं। यह समुदाय खाने, पीने, औषधि, संस्कृति, अध्यात्म इत्यादि के लिए वनों और वन्य जीवों पर निर्भर हैं। गरीब वर्ग में भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित हैं।
  • कई समाजों में खाना, चारा, जल और अन्य आवश्यकता की वस्तुओं को इकट्ठा करने की मुख्य जिम्मेदारी महिलाओं की ही होती है। जैसे ही इन संसाधनों की कमी होती जा रही है, महिलाओं पर कार्य भार बढ़ता जा रहा है।
  • इससे उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ झेलनी पड़ती हैं, काम का समय बढ़ने के कारण घर और बच्चों की उपेक्षा होती है जिसके गंभीर सामाजिक दुष्परिणाम हो सकते हैं।
  • वन कटाई के परोक्ष परिणाम जैसे सूखा और बाढ़ भी गरीब तबके को सबसे अधिक प्रभावित करता है। इस स्थिति में गरीबी, पर्यावरण निम्नीकरण का सीधा परिणाम होता है।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में वन और वन्य जीवन मानव जीवन के लिए बहुत कल्याणकारी है। अतः यह आवश्यक है वन और वन्य जीवन के संरक्षण के लिए सही नीति अपनाई जाए।
भारत में वन और वन्य जीवन का संरक्षण
  • वन्य जीवन और वनों में तेज गति से हो रहे ह्रास के कारण इनका संरक्षण बहुत आवश्यक हो गया है।
  • यह विभिन्न जातियों में बेहतर जनन के लिए वनस्पति और पशुओं में जींस (genetic) विविधता को संरक्षित करती है। उदाहरण के तौर पर हम कृषि में अभी भी पारंपरिक फसलों पर निर्भर हैं। जलीय जैव विविधता मोटे तौर पर मछली पालन बनाए रखने पर निर्भर है।
  • 1960 और 1970 के दशकों के दौरान, पर्यावरण संरक्षकों ने राष्ट्रीय वन्यजीवन सुरक्षा कार्यक्रम की पुरजोर माँग की। भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम, 1972 में लागू किया गया जिसमें वन्य जीवों के आवास रक्षण के अनेक प्रावधान थे।
  • सारे भारत में रक्षित जातियों की सूची भी प्रकाशित की गई। इस कार्यक्रम के तहत बची हुई संकटग्रस्त जातियों के बचाव पर, शिकार प्रतिबंधन पर, वन्यजीव आवासों का कानूनी रक्षण तथा जंगली जीवों के व्यापार पर रोक लगाने आदि पर प्रबल जोर दिया गया है।

  • केंद्रीय सरकार व कई राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय उद्यान और वन्य जीव पशुविहार ( sanctuary) स्थापित किए ।
  • केंद्रीय सरकार ने कई परियोजनाओं की भी घोषणा की जिनका उद्देश्य गंभीर खतरे में पड़े कुछ विशेष वन प्राणियों को रक्षण प्रदान करना था।
  • इन प्राणियों में बाघ, एक सींग वाला गैंडा, कश्मीरी हिरण अथवा हंगुल (hangul), तीन प्रकार के मगरमच्छ-स्वच्छ जल मगरमच्छ, लवणीय जल मगरमच्छ और घड़ियाल, एशियाई शेर और अन्य प्राणी शामिल हैं।
  • इसके अतिरिक्त, कुछ समय पहले भारतीय हाथी, काला हिरण, चिंकारा, भारतीय गोडावन (bustard) और हिम तेंदुओं आदि के शिकार और व्यापार पर संपूर्ण अथवा आंशिक प्रतिबंध लगाकर कानूनी रक्षण दिया है।
  • वन्य जीव अधिनियम, 1980 और 1986 के तहत् सैकड़ों तितलियों, पतंगों, भृगों और एक ड्रैगनफ्लाई को भी संरक्षित जातियों में शामिल किया गया है। 1991 में पौधों की भी 6 जातियाँ पहली बार इस सूची में रखी गई।
बाघ परियोजना
  • वन्यजीवन संरचना में बाघ (टाईगर) एक महत्त्वपूर्ण जंगली जाति है। 1973 में अधिकारियों ने पाया कि देश में 20वीं शताब्दी के आरंभ में बाघों की संख्या अनुमानित संख्या 55,000 से घटकर मात्र 1,827 रह गई है।
  • बाघों को मारकर उनको व्यापार के लिए, चोरी करना, आवासीय स्थलों का सिकुड़ना, भोजन के लिए आवश्यक जंगली उपजातियों की संख्या कम होना और जनसंख्या में वृद्धि बाघों की घटती संख्या के मुख्य कारण हैं।
  • बाघों की खाल का व्यापार और उनकी हड्डियों का एशियाई देशों में परंपरागत औषधियों में प्रयोग के कारण यह जाति विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई है। वर्ष 2018 के अनुसार यह संख्या 2967 है।
  • भारत और नेपाल दुनिया की दो-तिहाई बाघों को आवास उपलब्ध करवाते हैं, अतः ये देश ही शिकार, चोरी और गैर-कानूनी व्यापार करने वालों के मुख्य निशाने पर हैं।
  • 'प्रोजेक्ट टाईगर' विश्व की बेहतरीन वन्य जीव परियोजनाओं में से एक है और इसकी शुरुआत 1973 में हुई।
  • भारत में 32137.14 वर्ग किमी पर फैले हुए 39 बाघ रिजर्व (Tiger reserves) । * बाघ संरक्षण मात्र एक संकटग्रस्त जाति को बचाने का प्रयास नहीं है, अपितु इसका उद्देश्य बहुत बड़े आकार के जैवजाति को भी बचाना है।
  • उत्तराखण्ड में कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान, पश्चिम बंगाल में सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान, मध्य प्रदेश में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, राजस्थान में सरिस्का वन्य जीव पशुविहार (sanctuary), असम में मानस बाघ रिजर्व (reserve) और केरल में पेरियार बाघ रिजर्व (reserve) भारत में बाघ संरक्षण परियोजनाओं के उदाहरण हैं।
  • वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण यदि हम वन और वन्य जीव संसाधनों को संरक्षित करना चाहें, तो उनका प्रबंधन, नियंत्रण और विनियमन अपेक्षाकृत कठिन है।
  • भारत में अधिकतर वन और वन्य जीवन या तो प्रत्यक्ष रूप में सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं या वन विभाग अथवा अन्य विभागों के जरिये सरकार के प्रबंधन में है।
  • इन्हें निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है
( क ) आरक्षित वन
  • देश में आधे से अधिक वन क्षेत्र आरक्षित वन घोषित किए गए हैं। जहाँ तक वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण की बात है, आरक्षित वनों को सर्वाधिक मूल्यवान माना जाता है।
( ख ) रक्षित वन
  • वन विभाग के अनुसार देश के कुल वन क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा रक्षित है। इन वनों को और अधिक नष्ट होने से बचाने के लिए इनकी सुरक्षा की जाती है।
(ग) अवर्गीकृत वन 
  • अन्य सभी प्रकार के वन और बंजर भूमि जो सरकार, व्यक्तियों और समुदायों के स्वामित्व में होते हैं, अवर्गीकृत वन कहे जाते हैं।
  • आरक्षित और रक्षित वन ऐसे स्थायी वन क्षेत्र हैं जिनका रख-रखाव इमारती लकड़ी, अन्य वन पदार्थों और उनके बचाव के लिए किया जाता है।
  • मध्य प्रदेश में स्थायी वनों के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र है जोकि प्रदेश के कुल वन क्षेत्र का भी 75 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर, आंध्र प्रदेश, उत्तराखण्ड, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी कुल वनों में एक बड़ा अनुपात आरक्षित वनों का है। जबकि बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान में कुल वनों में रक्षित वनों का एक बड़ा अनुपात है।
  • पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में और गुजरात में अधिकतर वन क्षेत्र अवर्गीकृत वन हैं तथा स्थानीय समुदायों के प्रबंधन में हैं। 
समुदाय और वन संरक्षण
  • भारत के कुछ क्षेत्रों में तो स्थानीय समुदाय सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर अपने आवास स्थलों के संरक्षण में जुटे हैं। क्योंकि इसी से ही दीर्घकाल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है।
  • सरिस्का बाघ रिजर्व में राजस्थान के गाँवों के लोग वन्य जीव रक्षण अधिनियम के तहत वहाँ से खनन कार्य बन्द करवाने के लिए संघर्षरत हैं।
  • कई क्षेत्रों में तो लोग स्वयं वन्य जीव आवासों की रक्षा कर रहे हैं और सरकार की ओर से हस्तक्षेप भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं।
  • राजस्थान के अलवर जिले में 5 गाँवों के लोगों ने 1,200 हेक्टेयर वन भूमि भैरोंदेव डाकव 'सेंचुरी' घोषित कर दी जिसके अपने ही नियम कानून हैं; जो शिकार वर्जित करते हैं तथा बाहरी लोगों की घुसपैठ से यहाँ के वन्य जीवन को बचाते हैं।
  • पवित्र पेड़ों के झुरमट: विविंध और दुर्लभ जातियों की संपत्ति
  • प्रकृति की पूजा सदियों पुराना जनजातीय विश्वास है, जिसका आधार प्रकृति के हर रूप की रक्षा करना है। इन्हीं विश्वासों ने विभिन्न वनों को मूल एवं कौमार्य रूप में बचाकर रखा है, जिन्हें पवित्र पेड़ों के झुरमुट ( देवी-देवताओं के वन) कहते हैं। 
  • वनों के इन भागों में या तो वनों के ऐसे बड़े भागों में स्थानीय लोग ही घुसते है न ही किसी और को छेड़छाड़ करने देते है।
  • छोटानागपुर क्षेत्र में मुंडा और संथाल जनजातियाँ महुआ और कदंब के पेड़ों की पूजा करते हैं। ओडिशा और बिहार की जनजातियाँ शादी के दौरान इमली और आम के पेड़ की पूजा करती हैं।
  • बहुत से व्यक्ति पीपल और वटवृक्ष को पवित्र मानते हैं। भारतीय समाज में अनेकों संस्कृतियाँ हैं और प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति और इसकी कृतियों को संरक्षित करने के अपने पारंपरिक तरीके हैं।
  • आमतौर पर झरनों, पहाड़ी चोटियों, पेड़ों और पशुओं को पवित्र मानकर उनका संरक्षण किया जाता है। आप अनेक मंदिरों के आस पास बंदर और लंगूर पाएँगे। उपासक उन्हें खिलाते-पिलाते हैं और मंदिर के भक्तों में गिनते हैं।
  • राजस्थान में बिश्नोई गाँवों के आस पास आप काले हिरण, चिंकारा, नीलगाय और मोरों के झुंड देख सकते हैं जो यहां के समुदाय का अभिन्न हिस्सा हैं और कोई उनको नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
  • हिमालय में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन कई क्षेत्रों में वन कटाई रोकने में ही कामयाब नहीं रहा अपितु यह भी दिखाया कि स्थानीय पौधों की जातियों को प्रयोग करके सामुदायिक वनीकरण अभियान को सफल बनाया जा सकता है।
  • पारंपरिक संरक्षण तरीकों को पुनर्जीवित अथवा परिस्थिकी कृषि के नए तरीकों का विकास अब व्यापक हो गया है।
  • टिहरी में किसानों का बीज बचाओ आंदोलन ने दिखा दिया है कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के बिना भी विविध फसल उत्पादन द्वारा आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि उत्पादन संभव है।
  • भारत में संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम क्षरित वनों के प्रबंध और पुनर्निर्माण में स्थानीय समुदायों की भूमिका के महत्त्व को उजागर करते हैं ।
  • औपचारिक रूप में इन कार्यक्रमों की शुरुआत सन् 1988 में हुई जब ओड़िशा राज्य ने संयुक्त वन प्रबंधन का पहला प्रस्ताव पास किया।
  • वन विभाग के अंतर्गत संयुक्त वन प्रबंधन क्षरित वनों के बचाव के लिए कार्य करता है और इसमें गाँव के स्तर पर संस्थाएँ बनाई जाती हैं जिसमें ग्रामीण और वन विभाग के अधिकारी संयुक्त रूप में कार्य करते हैं।
  • इसके बदले ये समुदाय मध्य स्तरीय लाभ जैसे गैर-इमारती वन उत्पादों के हकदारी होते हैं तथा सफल संरक्षण से प्राप्त इमारती लकड़ी लाभ में भी भागीदार होते हैं।
  • भारत में पर्यावरण के विनाश और पुनर्निर्माण की क्रियाशीलताओं से सीख मिलती है कि स्थानीय समुदायों को हर जगह प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में शामिल करना चाहिए।
भारत में वनस्पतिजात और प्राणिजात
  • भारत, जैव विविधता के संदर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है।
  • यहाँ विश्व की सारी जैव उपजातियों की 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है। ये अभी खोजी जाने वाली उपजातियों से दो या तीन गुणा हैं।
  • भारत में 10 प्रतिशत वन्य वनस्पतिजात और 20 प्रतिशत स्तनधारियों को लुप्त होने का खतरा है। इनमें से कई उपजातियाँ तो नाजुक अवस्था में हैं और कई लुप्त होने के कगार पर हैं।
  • इनमें चीता, गुलाबी सिर वाली बत्तख, पहाड़ी कोयल (Guail) और जंगली चित्तीदार उल्लू और मधुका इनसिगनिस (महुआ की जंगली किस्म) और हुबरड़िया हेप्टान्यूरोन (घास की प्रजाति) जैसे पौधे शामिल हैं।
  • आज हमारा ध्यान अधिक बड़े और दिखाई देने वाले प्राणियों और पौधे के लुप्त होने पर अधिक केंद्रित है परंतु छोटे प्राणी जैसे कीट और पौधे भी महत्त्वपूर्ण होते हैं।
  • भारत में बड़े प्राणियों में से स्तनधारियों की 79 जातियाँ, पक्षियों की 44 जातियाँ, सरीसृपों की 15 जातियाँ और जलस्थलचरों की। 3 जातियाँ लुप्त होने का खतरा बना हुआ है। लगभग 1500 पादप जातियों के भी लुप्त होने का खतरा है।
  • फूलदार वनस्पति और रीढ़धारी प्राणियों के लुप्त होने की दर लुप्त होने की प्राकृतिक दर से 50 से 100 गुणा ज्यादा है।
वन रिपोर्ट- 2019 से अद्यतन करें।
लुप्त वन
  • भारत में जिस पैमाने पर वन कटाई हो रही है, वह विचलित कर देने वाली बात है। देश में वन आवरण के अंतर्गत अनुमानित 78-92 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल है।
  • यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24-01 प्रतिशत हिस्सा है। (सघन वन 12-24 प्रतिशत, खुला वन 8-99 प्रतिशत और मैंग्रोव 0-14 प्रतिशत) ।
  • स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट (2013) के अनुसार वर्ष 2013 से सघन वनों के क्षेत्र में 3,775 वर्ग कि.मी. की वृद्धि हुई है। परंतु वन क्षेत्र में यह वृद्धि वन संरक्षण उपायों, प्रबंधन की भागीदारी तथा वृक्षारोपण से हुई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण और प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (IUCN) के अनुसार इनको निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
सामान्य जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती है, जैसे पशु, साल, चीड़ और कृन्तक (रोडेंट्स) इत्यादि। -
संकटग्रस्त जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जिनके लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है, यदि वे जारी रहती हैं तो इन जातियों का जीवित रहना कठिन है।
  • काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गैंडा, शेर-पूंछ वाला बंदर, संगाई ( मणिपुरी हिरण) इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।
सुभेद्य (Vulnerable) जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या घट रही है। यदि इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डालने वाली परिस्थितियाँ नहीं बदली जाती और इनकी संख्या घटती रहती है तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगी। नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा नदी की डॉल्फिन इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।
दुर्लभ जातियाँ
  • इन जातियों की संख्या बहुत कम या सुभेद्य हैं और यदि इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं परिवर्तित होती तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।
स्थानिक जातियाँ
  • प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियाँ अंडमानी टील (teal), निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरुणाचल के मिथुन इन जातियों के उदाहरण हैं।
लुप्त जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गई हैं। ये उपजातियाँ स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश, देश, महाद्वीप या पूरी पृथ्वी से ही लुप्त हो गई हैं।
  • ऐसी उपजातियों में एशियाई चीता और गुलाबी सिरवाली बत्तख शामिल हैं।
एशियाई चीता
  • भूमि पर रहने वाला दुनिया का सबसे तेज स्तनधारी प्राणी, चीता, बिल्ली परिवार का एक अजूबा और विशिष्ट सदस्य है जो 112 कि.मी. प्रति घंटा की गति से दौड़ सकता है। लोगों को आमतौर पर भ्रम रहता है कि चीता एक तेंदुआ होता है।
  • चीते की विशेष पहचान उसकी आँख के कोने से मुँह तक नाक के दोनों ओर फैली आँसुओं के लकीरनुमा निशान हैं।
  • 20वीं शताब्दी से पहले चीते अफ्रीका और एशिया में दूर-दूर तक फैले हुए थे। परंतु इसके आवासीय क्षेत्र और शिकार की उपलब्धता कम होने से लगभग लुप्त हो चुके हैं।
  • भारत में तो यह जाति बहुत पहले, 1952 में लुप्त घोषित कर दी गई थी।
  • हमारे कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में ‘संवर्द्धन (enrichment) वृक्षारोपण' अर्थात् वाणिज्य की दृष्टि से कुछ या एकल वृक्ष जातियों के बड़े पैमाने पर रोपण करने से पेड़ों को दूसरी जातििायाँ खत्म हो गई।
  • उदाहरण के तौर पर सागवान एकल रोपण से दक्षिण भारत में अन्य प्राकृतिक वन बर्बाद हो गए और हिमालय में चीड़ पाईन के रोपण से हिमालयन ओक और रोडोडेंड्रोन (rhododendron) वनों का नुकसान हुआ।
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Tue, 28 Nov 2023 06:53:32 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | संसाधन एवं विकास https://m.jaankarirakho.com/490 https://m.jaankarirakho.com/490 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | संसाधन एवं विकास
  • हमारे पर्यावरण में उपलब्ध प्रत्येक वस्तु जो हमारी आवश्कताओं को पूरा करने में प्रयुक्त की जा सकती और जिसको बनाने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, जो आर्थिक रूप से संभाव्य और सांस्कृतिक रूप से मान्य है, एक 'संसाधन' है।

  • हमारे पर्यावरण में उपलब्ध वस्तुओं की रूपांतरण प्रक्रिया प्रकृति, प्रौद्योगिकी और संस्थाओं के पारस्परिक क्रियात्मक संबंध में निहित है।
  • मानव प्रौद्योगिकी द्वारा प्रकृति के साथ क्रिया करते हैं और अपने आर्थिक विकास की गति को तेज करने के लिए संस्थाओं का निर्माण करते हैं।
  • मानव स्वयं संसाधनों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे पर्यावरण में पाए जाने वाले पदार्थों को संसाधनों में परिवर्तित करते हैं तथा उन्हें प्रयोग करते हैं। इन संसाधनों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
    (क) उत्पत्ति के आधार पर जैव और अजैव
    (ख) समाप्यता के आधार पर योग्य नवीकरण योग्य और अनवीकरण -
    (ग) स्वामित्व के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय - व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय और
    (घ) विकास के स्तर के आधार पर संभावी विकसित भंडार और संचित कोष 

संसाधनों का वर्गीकरण

संसाधनों के प्रकार
  • उत्पत्ति के आधार पर जैव संसाधन- इन संसाधनों की प्राप्ति जीवमंडल से होती है और इनमें जीवन व्याप्त है, जैसे- मनुष्य, वनस्पतिजात, प्राणिजात, मत्स्य जीवन, पशुधन आदि ।
  • अजैव संसाधन - वे सारे संसाधन जो निर्जीव वस्तुओं से बने हैं, अजैव संसाधन कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, चट्टानें और धातुएँ।
विकास के स्तर के आधार पर
  • संभावी संसाधन - यह वे संसाधन हैं जो किसी प्रदेश में विद्यमान होते हैं परंतु इनका उपयोग नहीं किया गया है। उदाहरण के तौर पर भारत के पश्चिमी भाग, विशेषकर राजस्थान और गुजरात में पवन और सौर ऊर्जा संसाधनों की अपार संभावना है, परंतु इनका सही ढंग से विकास नहीं हुआ है।
  • विकसित संसाधन वे संसाधन जिनका सर्वेक्षण किया जा चुका है और उनके उपयोग की गुणवत्ता और मात्रा निर्धारित की जा चुकी है, विकसित संसाधन कहलाते हैं।
  • संसाधनों का विकास प्रौद्योगिकी और उनकी संभाव्यता के स्तर पर निर्भर करता है।
  • भंडार • पर्यावरण में उपलब्ध वे पदार्थ जो मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं परंतु उपयुक्त प्रौद्योगिकी के अभाव में उसकी पहुँच से बाहर हैं, भंडार में शामिल हैं। उदाहरण के लिए. जल दो ज्वलनशील गैसों, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है तथा यह ऊर्जा का मुख्य स्रोत बन सकता है।
  • इस उद्देश्य से, इनका प्रयोग करने के लिए हमारे पास आवश्यक तकनीकी ज्ञान नहीं है।
  • संचित कोष - यह संसाधन भंडार का ही हिस्सा है, जिन्हें उपलब्ध तकनीकी ज्ञान की सहायता से प्रयोग में लाया जा सकता है, परंतु इनका उपयोग अभी आरंभ नहीं हुआ है। इनका उपयोग भविष्य में आवश्यकता पूर्ति के लिए किया जा सकता है।
  • नदियों के जल को विद्युत पैदा करने में प्रयुक्त किया जा सकता है, परंतु वर्तमान समय में इसका उपयोग सीमित पैमाने पर ही हो रहा है। इस प्रकार बाँधों में जल, वन आदि संचित कोष हैं जिनका उपयोग 'भविष्य में किया जा सकता है।
संसाधनों का विकास
  • संसाधन जिस प्रकार, मनुष्य के जीवन यापन के लिए अति आवश्यक हैं, उसी प्रकार जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए भी महत्त्वपूर्ण हैं।
  • संसाधनों के अंधाधुंध शोषण से वैश्विक पारिस्थितिकी संकट पैदा हो गया है जैसे भूमंडलीय तापन, ओजोन परत अवक्षय, पर्यावरण प्रदूषण और भूमि निम्नीकरण आदि हैं।
  • मानव जीवन की गुणवत्ता और विश्व शांति बनाए रखने के लिए संसाधनों का समाज में न्यायसंगत बँटवारा आवश्यक हो गया है।
  • यदि कुछ ही व्यक्तियों तथा देशों द्वारा संसाधनों का वर्तमान दोहन जारी रहता है, तो हमारी पृथ्वी का भविष्य खतरे में पड़ सकता है।
  • इसलिए, हर तरह के जीवन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए संसाध नों के उपयोग की योजना बनाना अति आवश्यक है। सतत् अस्तित्व सही अर्थ में सतत् पोषणीय विकास का ही एक हिस्सा है। 
संसाधन नियोजन
  • संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए नियोजन एक सर्वमान्य रणनीति है। इसलिए भारत जैसे देश में जहाँ संसाधनों की उपलब्धता में बहुत अधिक विविधता है, यह और भी महत्त्वपूर्ण है।
  • यहाँ ऐसे प्रदेश भी हैं जहाँ एक तरह के संसाधनों की प्रचुरता है, परंतु दूसरे तरह के संसाधनों की कमी है। 
  • कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जो संसाधनों की उपलब्धता के संदर्भ में आत्मनिर्भर हैं और कुछ ऐसे भी प्रदेश हैं जहाँ महत्त्वपूर्ण संसाधनों की अत्यधिक कमी है। उदाहरणार्थ, झारखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि प्रांतों में खनिजों और कोयले के प्रचुर भंडार हैं।
  • अरुणाचल प्रदेश में जल संसाधन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, परंतु मूल विकास की कमी है। राजस्थान में पवन और सौर ऊर्जा संसाधनों की बहुतायत है, लेकिन जल संसाधनों की कमी है।
  • लद्दाख का शीत मरुस्थल देश के अन्य भागों से अलग-थलग पड़ता है। यह प्रदेश सांस्कृतिक विरासत का धनी है। परंतु यहाँ जल, आधारभूत अवसंरचना तथा कुछ महत्त्वपूर्ण खनिजों की कमी है।
  • इसलिए राष्ट्रीय, प्रांतीय, प्रादेशिक और स्थानीय स्तर पर संतुलित संसाधन नियोजन की आवश्यकता है।
भारत में संसाधन नियोजन
  • स्वाधीनता के बाद भारत में संसाधन नियोजन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही प्रयास किए गए।
  • किसी क्षेत्र के विकास के लिए संसाधनों की उपलब्धता एक आवश्यक शर्त है। परंतु प्रौद्योगिकी और संस्थाओं में तदनरूपी परिवर्तनों के अभाव में मात्र संसाधनों की उपलब्धता से ही विकास संभव नहीं है ।
  • देश में बहुत से क्षेत्र हैं जो संसाधन समृद्ध होते हुए भी आर्थिक रूप से पिछड़े प्रदेशों की गिनती में आते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जो संसाधनों की कमी होते हुए भी आर्थिक रूप से विकसित हैं।
  • उपनिवेशों में संसाधन संपन्न प्रदेश, विदेशी आक्रमणकारियों के लिए मुख्य आकर्षण रहे हैं।
  • उपनिवेशकारी देशों ने बेहतर प्रौद्योगिकी के सहारे उपनिवेशों के संसाध नों का शोषण किया तथा उन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
  • अतः संसाधन किसी प्रदेश के विकास में तभी योगदान दे सकते हैं, जब वहाँ उपयुक्त प्रौद्योगिकी विकास और संस्थागत परिवर्तन किए जाएँ। उपनिवेशन के विभिन्न चरणों में भारत ने इन सबका अनुभव किया है।
  • अतः भारत में विकास सामान्यतः तथा संसाधन विकास लोगों के मुख्यतः संसाधनों की उपलब्धता पर ही आधारित नहीं था बल्कि इसमें प्रौद्योगिकी, मानव संसाधन की गुणवत्ता और ऐतिहासिक अनुभव का भी योगदान रहा है।
  • संसाधनों का संरक्षण - संसाधन किसी भी तरह के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु संसाधनों का विवेकहीन उपभोग और अति उपयोग के कारण कई सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
  • इन समस्याओं से बचाव के लिए विभिन्न स्तरों पर संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है। भूतकाल से ही संसाधनों का संरक्षण बहुत नेताओं और चिंतकों के लिए चिंता का विषय रहा है।
  • गांधी जी ने संसाधनों के संरक्षण पर अपनी चिंता इन शब्दों में व्यक्त की है - प्रकृति के पास हर व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन किसी के लालच की संतुष्टि के लिए नहीं। अर्थात् प्रकृति पास पेट भरने के लिए बहुत है लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं ।
भू-संसाधन
  • हम भूमि पर रहते हैं, इसी पर अनेकों आर्थिक क्रियाकलाप करते हैं और विभिन्न रूपों में इसका उपयोग करते हैं। अतः भूमि एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है।
  • प्राकृतिक वनस्पति, वन्य जीवन, मानव जीवन, आर्थिक क्रियाएँ, परिवहन तथा संचार व्यवस्थाएँ भूमि पर ही आधारित हैं। परंतु भूमि एक सीमित संसाधन है, इसलिए उपलब्ध भूमि का विभिन्न उद्देश्यों के लिए उपयोग सावधानी और योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिए।
  • भारत में भूमि पर विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियाँ जैसे पर्वत, पठार, मैदान और द्वीप पाए जाते हैं। लगभग 43 प्रतिशत भू-क्षेत्र मैदान हैं जो कृषि और उद्योग के विकास के लिए सुविधाजनक हैं।
  • पर्वत पूरे भू-क्षेत्र के 30 प्रतिशत भाग पर विस्तृत हैं। वे कुछ बारहमासी नदियों के प्रवाह को सुनिश्चित करते है, पर्यटन विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करता है और पारिस्थितिकी के लिए महत्त्वपूर्ण है।
  • देश के क्षेत्रफल का लगभग 27 प्रतिशत हिस्सा पठारी क्षेत्र है। इस क्षेत्र में खनिजों, जीवाश्म ईंधन और वनों का अपार संचय कोष है।

भू-उपयोग

भू-संसाधनों का उपयोग निम्नलिखित उद्देश्यों से किया जाता है

1. वन 
2. कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि
  • बंजर तथा कृषि अयोग्य भूमि
  • गैर-कृषि प्रयोजनों में लगाई गई भूमि - जैसे इमारतें, सड़क, उद्योग इत्यादि ।
3. परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि
  • स्थायी चरागाहें तथा अन्य गोचर भूमि
  • विविध वृक्षों, वृक्ष फसलों, तथा उपवनों के अधीन भूमि (जो शुद्ध बोए गए क्षेत्र में शामिल नहीं है)
  • कृषि योग्य बंजर भूमि जहाँ पाँच से अधिक वर्षों से खेती न की गई हो।
4. परती भूमि
  • वर्तमान परती (जहाँ एक कृषि वर्ष या उससे कम समय से खेती न की गई हो)
  • वर्तमान परती भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि या पुरातन परती (जहाँ 1 से 5 कृषि वर्ष से खेती न की गई हो)
5. शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र
  • एक कृषि वर्ष में एक बार से अधिक बोए गए क्षेत्र को शुद्ध (निवल) बोए गए क्षेत्र में जोड़ दिया जाए तो वह सकल कृषि क्षेत्र कहलाता है।
भारत में भू-उपयोग प्रारूप
  • भू-उपयोग को निर्धारित करने वाले तत्वों में भौतिक कारक जैसे भू-आकृति, जलवायु और मृदा के प्रकार तथा मानवीय कारक जैसे जनसंख्या घनत्व, प्रौद्योगिक क्षमता, संस्कृति और परंपराएँ इत्यादि शामिल हैं।
  • भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग कि.मी. है। परंतु इसके 93 प्रतिशत भाग के ही भू-उपयोग आँकड़े उपलब्ध हैं क्योंकि पूर्वोत्तर प्रांतों में असम को छोड़कर अन्य प्रांतों के सूचित क्षेत्र के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।
  • इसके अलावा जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान और चीन अधिकृत क्षेत्रों के भूमि उपयोग का सर्वेक्षण भी नहीं हुआ है।
  • वर्तमान परती भूमि के अतिरिक्त अन्य परती भूमि अनुपजाऊ हैं और इन पर फसलें उगाने के लिए कृषि लागत बहुत ज्यादा है।
  • अतः इस भूमि में दो या तीन वर्षों में इनको एक या दो बार बोया जाता और यदि इसे शुद्ध (निवल) बोये गए क्षेत्र में शामिल कर लिया जाता है तब भी भारत के कुल सूचित क्षेत्र के लगभग 54 प्रतिशत हिस्से पर ही खेती हो सकती है।
  • शुद्ध (निवल) बोये गये क्षेत्र का प्रतिशत भी विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है। पंजाब और हरियाणा में 80 प्रतिशत भूमि पर खेती होती है, परंतु अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंडमान निकोबार द्वीप समूह 10 प्रतिशत से भी कम क्षेत्र बोया जाता है।
  • हमारे देश में राष्ट्रीय वन नीति (1952) द्वारा निर्धारित वनों के अंतर्गत 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र वांछित हैं। जिसकी तुलना वन क्षेत्र काफी कम है।
  • वन नीति द्वारा निर्धारित यह सीमा पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है। वन क्षेत्रों के आस पास रहने वाले लाखों लोगों की आजीविका इस निर्भर करती है।
  • भू-उपयोग का एक भाग बंजर भूमि और दूसरा गैर-कृषि प्रयोजनों में लगाई गई भूमि कहलाता है।
  • बंजर भूमि में पहाड़ी चट्टानें, सूखी और मरुस्थलीय भूमि शामिल हैं। गैर-कृषि प्रयोजनों में लगाई भूमि में बस्तियाँ, सड़कें, रेल लाइन, उद्योग इत्यादि आते हैं।
भूमि निम्नीकरण और संरक्षण उपाय
  • भूमि एक ऐसा संसाधन है जिसका उपयोग हमारे पूर्वज करते आए हैं तथा भावी पीढ़ी भी इसी भूमि का उपयोग करेगी।
  • हम भोजन, मकान और कपड़े की अपनी मूल आवश्यकताओं का 95 प्रतिशत भाग भूमि से प्राप्त करते हैं।
  • इस समय भारत में लगभग 13 करोड़ हेक्टेयर भूमि निम्नीकृत है। इसमें से लगभग 28 प्रतिशत भूमि निम्नीकृत वनों के अंतर्गत है, 56 प्रतिशत क्षेत्र जल अपरदित है और शेष क्षेत्र लवणीय और क्षारीय है।
  • कुछ मानव क्रियाओं जैसे वनोन्मूलन, अति पशुचारण, खनन ने भी भूमि के निम्नीकरण में मुख्य भूमिका निभाई है।
  • खनन के उपरांत खदानों वाले स्थानों को गहरी खाइयों और मलबे के साथ खुला छोड़ दिया जाता है। खनन के कारण झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों में वनोन्मूलन भूमि निम्नीकरण का कारण बना है।
  • गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में अति पशुचारण भूमि निम्नीकरण का मुख्य कारण है।
  • पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अधिक सिंचाई भूमि निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है।
  • अति सिंचन से उत्पन्न जलाक्रांतता भी भूमि निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी है जिससे मृदा में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ जाती है।
  • खनिज प्रक्रियाएँ जैसे सीमेंट उद्योग में चूना पत्थर को पीसना और मृदा बर्तन उद्योग में चूना (खंड़िया मृदा) और सेलखड़ी के प्रयोग से बहुत अधिक मात्रा में वायुमंडल में धूल विसर्जित होती है।
  • जब इसकी परत भूमि पर जम जाती है तो मृदा की जल सोखने की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है। पिछले कुछ वर्षों से देश के विभिन्न भागों में औद्योगिक जल निकास से बाहर आने वाला अपशिष्ट पदार्थ भूमि और जल प्रदूषण का मुख्य स्रोत है।
  • भूमि निम्नीकरण की समस्याओं को सुलझाने के कई तरीके हैं। वनारोपण और चरागाहों का उचित प्रबंधन इसमें कुछ हद तक मदद कर सकते हैं।
  • पेड़ों की रक्षक मेखला (shelter belt), पशुचारण नियंत्रण और रेतीले टीलों को काँटेदार झाड़ियाँ लगाकर स्थिर बनाने की प्रक्रिया से भी भूमि कटाव की रोकथाम की जा सकती है।
  • बंजर भूमि के उचित प्रबंधन, खनन नियंत्रण और औद्योगिक जल को परिष्करण के पश्चात् विसर्जित करके जल और भूमि प्रदूषण को कम किया जा सकता है। I

मृदा संसाधन

  • मृदा संसाधन मिट्टी अथवा मृदा सबसे महत्त्वपूर्ण नवीकरण योग्य प्राकृतिक संसाधन है। यह पौधों के विकास का माध्यम है जो पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के जीवों का पोषण करती है। मृदा एक जीवंत तंत्र है।
  • कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं। मृदा बनने की प्रक्रिया में उच्चावच, जनक शैल अथवा संस्तर शैल, जलवायु, वनस्पति और अन्य जैव पदार्थ और समय मुख्य कारक हैं।
  • प्रकृति के अनेकों तत्त्व जैसे तापमान परिवर्तन, बहते जल की क्रिया, पवन, हिमनदी और अपघटन क्रियाएँ आदि मृदा बनने की प्रक्रिया में योगदान देती हैं।
  • मृदा में होने वाले रासायनिक और जैविक परिवर्तन भी महत्त्वपूर्ण हैं। मृदा जैव (ह्यूमस) और अजैव दोनों प्रकार के पदार्थों से बनती है।
  • मृदा बनने की प्रक्रिया को निर्धारित करने वाले तत्वों, उनके रंग, गहराई, गठन, आयु, व रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत की मृदाओं को निम्नलिखित प्रकारों में बाँटा जा सकता है।
मृदाओं का वर्गीकरण
  • भारत में अनेक प्रकार के उच्चावच, भू-आकृतियाँ, जलवायु और वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। इस कारण अनेक प्रकार की मृदाएँ विकसित हुई हैं।
    1. जलोढ़ मृदा
    2. काली मृदा
    3. लाल एवं पीली मृदा
    4. लेटेराइट मृदा
    5. मरुस्थली मृदा
    6. वन मृदा

समाप्यता के आधार पर

  • नवीकरण योग्य संसाधन वे संसाधन जिन्हें भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रियाओं द्वारा नवीकृत या पुनः उत्पन्न किया जा सकता है, उन्हें नवीकरण योग्य अथवा पुनः पूर्ति योग्य संसाधन कहा जाता है। उदाहरणार्थ, सौर तथा पवन ऊर्जा, जल, वन व वन्य जीवन | इन संसाधनों को सतत् अथवा प्रवाह संसाधनों में विभाजित किया गया है।
  • अनवीकरण योग्य संसाधन इन संसाधनों का विकास एक लंबे भू-वैज्ञानिक अंतराल में होता है।
  • खनिज और जीवाश्म ईंधन इस प्रकार के संसाधनों के उदाहरण हैं। इनके बनने में लाखों वर्ष लग जाते हैं। इनमें से कुछ जै धातुएँ पुनः चक्रीय हैं और कुछ संसाधन जैसे जीवाश्म ईंधन अचक्रीय हैं व एक बार के प्रयोग के साथ ही खत्म हो जाते हैं।
  • स्वामित्व के आधार पर व्यक्तिगत संसाधन संसाधन निजी व्यक्तियों के स्वामित्व में भी होते हैं।
  • बहुत से किसानों के पास सरकार द्वारा आवंटित भूमि होती है जिसके बदले में वे सरकार को लगान चुकाते हैं। गाँव में बहुत से लोग भूमि के स्वामी भी होते हैं और बहुत से लोग भूमिहीन होते हैं।
  • शहरों में लोग भूखंड, घरों व अन्य जायदाद के मालिक होते हैं। बाग, चारागाह, तालाब और कुओं का जल आदि संसाधनों के निजी स्वामित्व के कुछ उदाहरण हैं।
  • सामुदायिक स्वामित्व वाले संसाधन ये संसाधन समुदाय के सभी सदस्यों को उपलब्ध होते हैं।
  • गाँव की शामिलात भूमि (चारण भूमि, श्मशान भूमि, तालाब इत्यादि) और नगरीय क्षेत्रों के सार्वजनिक पार्क, पिकनिक स्थल और खेल के मैदान, वहाँ रहने वाले सभी लोगों के लिए उपलब्ध हैं।
  • राष्ट्रीय संसाधन तकनीकी तौर पर देश में पाये जाने वाले सारे संसाधन राष्ट्रीय हैं। देश की सरकार को कानूनी अधिकार है कि वह व्यक्तिगत संसाधनों को भी आम जनता के हित में अधिग्रहित कर सकती है।
  • शहरी विकास प्राधिकरणों को सरकार ने भूमि अधिग्रहण का अधिकार दिया हुआ है। सारे खनिज पदार्थ, जल संसाधन, वन, वन्य जीवन, राजनीतिक सीमाओं के अंदर सारी भूमि और 12 समुद्री मील (22.2 किमी.) तक महासागरीय क्षेत्र (भू-भागीय समुद्र) व इसमें पाए जाने वाले संसाधन राष्ट्र की संपदा हैं। अंतर्राष्ट्रीय संसाधन कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ संसाधनों को नियंत्रित करती हैं। तट रेखा से 200 समुद्री मील की दूरी (अपवर्जक आर्थिक क्षेत्र) से परे खुले महासागरीय संसाधनों पर किसी देश का अधिकार नहीं है। इन संसाधनों को अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहमति के बिना उपयोग नहीं किया जा सकता।
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Tue, 28 Nov 2023 06:22:46 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ https://m.jaankarirakho.com/489 https://m.jaankarirakho.com/489 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ
  • परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, जो विभिन्न तत्वों में, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, पदार्थ हो या अपदार्थ, अनवरत चलती रहती है तथा हमारे प्राकृतिक और सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण को प्रभावित करती है। यह प्रक्रिया हर जगह व्याप्त है परंतु इसके परिमाण, सघनता और पैमाने में अंतर होता है।
  • ये बदलाव धीमी गति से भी आ सकते हैं, जैसे- स्थलाकृतियों और जीवों में ये बदलाव तेज गति से भी आ सकते हैं, जैसे- ज्वालामुखी 'विस्फोट, सुनामी, भूकंप और तूफान इत्यादि।
  • इसी प्रकार इसका प्रभाव छोटे क्षेत्र तक सीमित हो सकता है, जैसेआँधी, करकापात और टॉरनेडो और इतना व्यापक हो सकता है, जैसे- भूमंडलीय उष्णीकरण और ओजोन परत का ह्रास।
  • कुछ परिवर्तन अपेक्षित और अच्छे होते हैं, जैसे- ऋतुओं में परिवर्तन, फलों का पकना आदि जबकि कुछ परिवर्तन अनपेक्षित और बुरे होते हैं, जैसे- भूकंप, बाढ़ और युद्ध ।
  • प्राकृतिक बल ही आपदाओं के एकमात्र कारक नहीं हैं। आपदाओं की उत्पत्ति का संबंध मानव क्रियाकलापों से भी है। कुछ मानवीय गतिविधियाँ तो सीधे रूप से इन आपदाओं के लिए उत्तरदायी हैं।
  • भोपाल गैस त्रासदी, चेरनोबिल नाभिकीय आपदा, युद्ध, सी एफ सी (क्लोरोफलोरो कार्बन) गैसें वायुमंडल में छोड़ना तथा ग्रीन हाउस गैसें, ध्वनि, वायु, जल तथा मिट्टी संबंधी पर्यावरण प्रदूषण आदि आपदाएँ इसके उदाहरण हैं।
  • कुछ मानवीय गतिविधियाँ परोक्ष रूप से भी आपदाओं को बढ़ावा देती हैं। वनों को काटने की वजह से भू-स्खलन और बाढ़, भंगुर जमीन पर निर्माण कार्य और अवैज्ञानिक भूमि उपयोग कुछ उदाहरण हैं जिनकी वजह से आपदा परोक्ष रूप में प्रभावित होती है।
  • कुछ सालों से मानवकृत आपदाओं की संख्या और परिमाण, दोनों में ही वृद्धि हुई है और कई स्तर पर ऐसी घटनाओं से बचने के भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं। परंतु इन मानवकृत आपदाओं में से कुछ का निवारण संभव है।
  • इसके विपरीत प्राकृतिक आपदाओं पर रोक लगाने की संभावना बहुत कम है इसलिए सबसे अच्छा तरीका है इनके असर को कम करना और इनका प्रबंध करना।
  • इस दिशा में विभिन्न स्तरों पर कई प्रकार के ठोस कदम उठाए गए 'हैं जिनमें भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना 1993 में रियो डि जेनेरो, ब्राजील में भू-शिखर सम्मेलन (Earth Summit) और मई 1994 में यॉकोहामा जापान में आपदा प्रबंध पर विश्व संगोष्ठी आदि विभिन्न स्तरों पर इस दिशा में उठाए जाने वाले ठोस कदम हैं।
  • प्राकृतिक संकट, प्राकृतिक पर्यावरण में हालात के वे तत्त्व हैं जिनसे धन-जन या दोनों को नुकसान पहुँचने की संभावना होती है।
  • ये बहुत तीव्र हो सकते हैं या पर्यावरण विशेष के स्थायी पक्ष भी हो सकते हैं, जैसे- महासागरीय धाराएँ, हिमालय में तीव्र ढाल तथा अस्थिर संरचनात्मक आकृतियाँ अथवा रेगिस्तानों तथा हिमाच्छादित क्षेत्रों में विषम जलवायु दशाएँ आदि।
  • प्राकृतिक संकट की तुलना में प्राकृतिक आपदाएँ अपेक्षाकृत तीव्रता से घटित होती हैं तथा बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि तथा सामाजिक तंत्र एवं जीवन को छिन्न-भिन्न कर देती हैं तथा उन पर लोगों का बहुत कम या कुछ भी नियंत्रण नहीं होता।
  • सामान्यतः प्राकृतिक आपदाएँ संसार भर के लोगों के व्यापकीकृत (generalised) अनुभव होते हैं और ये आपदाएँ न तो समान होती हैं और न उनमें आपस में तुलना की जा सकती है।
  • प्रत्येक आपदा, अपने नियंत्रणकारी सामाजिक पर्यावरणीय घटकों, सामाजिक अनुक्रिया, यह उत्पन्न करते हैं तथा जिस ढंग से प्रत्येक सामाजिक वर्ग इससे निपटता है, अद्वितीय होती है।
  • ऊपर व्यक्त विचार तीन महत्त्वपूर्ण चीजों को इंगित करता है। पहला, प्राकृतिक आपदा के परिमाण, गहनता एवं बारंबारता तथा इसके द्व द्वारा किए गए नुकसान समयांतर पर बढ़ते जा रहे हैं।
  • दूसरे, संसार के लोगों में इन आपदाओं द्वारा पैदा किए हुए भय के प्रति चिंता बढ़ रही है तथा इनसे जान-माल की क्षति को कम करने का रास्ता ढूँढ़ने का प्रयत्न कर रहे हैं और अंततः प्राकृतिक आपदा के प्रारूप में समयांतर पर महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है।
  • प्राकृतिक आपदाओं एवं संकटों के अवगम में परिवर्तन भी आया है। पहले प्राकृतिक आपदाएँ एवं संकट, दो परस्पर अंतसंबंधी परिघटनाएं समझी जाती थी अर्थात् जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक संकट आते थे, वे आपदाओं के द्वारा भी सुभेद्य थे।
  • अतः उस समय मानव पारिस्थितिक तंत्र के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करता था। इसलिए इन आपदाओं से नुकसान कम होता था।
  • तकनीकी विकास ने मानव को, पर्यावरण को प्रभावित करने की बहुत क्षमता प्रदान कर है।
  • परिणामतः मनुष्य ने आपदा के खतरे वाले क्षेत्रों में गहन क्रियाकलाप शुरू कर दिया है और इस प्रकार आपदाओं की सुभेद्यता को बढ़ा दिया है।
  • अधिकांश नदियों के बाढ़ - मैदानों में भू-उपयोग तथा भूमि की कीमतों के कारण तथा तटों पर बड़े नगरों एवं बंदरगाहों, जैसे- मुंबई तथा चेन्नई आदि के विकास ने इन क्षेत्रों को चक्रवातों, प्रभंजनों तथा सुनामी आदि के लिए सुभेद्य बना दिया है।
प्राकृतिक आपदाओं का वर्गीकरण
  • प्राकृतिक आपदा को मोटे तौर पर चार प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
प्राकृतिक आपदाओं का वर्गीकरण
वायुमंडलीय भौमिक जलीय जैविक
बर्फानी तूफान
तड़ितझंझा
तड़ित
टॉरनेडो
उष्ण कटिबंधीय
चक्रवात
सूखा करकापात
पाला, लू,
शीतलहर
भूकंप
ज्वालामुखी
भू-स्खलन
हिमघाव
अवतलन
मृदा 
अपरदन
बाढ़
ज्वार
महासागरीय
धाराएँ 
तूफान महोर्मि
सुनामी
पौधे व जानवर उपनिवेशक के रूप में (टिड्डीयाँ इत्यादि) । कीट ग्रसन-फफूंद, बैक्टीरिया और वायरल संक्रमण बर्ड फ्लू, डेंगू इत्यादि ।

भारत में प्राकृतिक आपदाएँ

  • भारत एक प्राकृतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश है। बृहत भौगोलिक आकार, पर्यावरणीय विविधताओं और सांस्कृतिक बहुलता के कारण भारत को 'भारतीय उपमहाद्वीप' और 'अनेकता में एकता वाली धरती' के नाम से जाना जाता है।
  • बृहत आकार, प्राकृतिक परिस्थितियों में विभिन्नता, लंबे समय तक उपनिवेशन, अभी भी जारी सामाजिक भेदमूलन तथा बहुत अधिक जनसंख्या के कारण भारत की प्राकृतिक आपदाओं द्वारा सुभेद्यता (vulnerability) को बढ़ा दिया है। 
सूखा
सूखा एक जटिल परिघटना है जिसमें कई प्रकार के मौसम विज्ञान संबंधी तथा अन्य तत्त्व, जैसे- वृष्टि, वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, भौम जल, मृदा में नमी, जल भंडारण व भरण, कृषि पद्धतियाँ, विशेषतः उगाई जाने वाली फसलें, सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ और पारिस्थितिकी शामिल हैं।
  • सूखा ऐसी स्थिति को कहा जाता है जब लंबे समय तक कम वर्षा, अत्यधिक वाष्पीकरण और जलाशयों तथा भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग से भूतल पर जल की कमी हो जाए।
सूखे के प्रकार

मौसमविज्ञान संबंधी सूखा

  • यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें लंबे समय तक अपर्याप्त वर्षा होती है और इसका सामयिक और स्थानिक वितरण भी असंतुलित होता है।
कृषि सूखा
  • इसे भूमि-आर्द्रता सूखा भी कहा जाता है। मिट्टी में आर्द्रता की कमी के कारण फसलें मुरझा जाती हैं। जिन क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से अधिक कुल बोये गए क्षेत्र में सिंचाई होती है, उन्हें भी सूखा प्रभावित क्षेत्र नहीं माना जाता।
जलविज्ञान संबंधी सूखा
  • यह स्थिति तब पैदा होती है जब विभिन्न जल संग्रहण, जलाशय, जलभूत और झीलों इत्यादि का स्तर वृष्टि द्वारा की जाने वाली जलापूर्ति के बाद भी नीचे गिर जाए।
पारिस्थितिक सूखा
  • जब प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में जल की कमी से उत्पादकता में कमी हो जाती है और परिणामस्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में तनाव आ जाता है तथा यह क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो परिस्थितिक सूखा कहलाता है।
भारत में सूखा ग्रस्त क्षेत्र
  • भारतीय कृषि काफी हद तक मानसून वर्षा पर निर्भर करती रही है। भारतीय जलवायु तंत्र में सूखा और बाढ़ महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं।
  • कुछ अनुमानों के अनुसार भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र का 19 प्रतिशत भाग और जनसंख्या का 12 प्रतिशत हिस्सा हर वर्ष सूखे से प्रभावित होता है।
  • देश का लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र सूखे से प्रभावित हो सकता है जिससे 5 करोड़ लोग इससे प्रभावित होते हैं।
  • यह प्राय: देखा गया है कि जब देश के कुछ भागों में बाढ़ कहर ढा रही होती है, उसी समय दूसरे भाग सूखे से जूझ रहे होते हैं। यह मानसून में परिवर्तनशीलता और इसके व्यवहार में अनिश्चितता का परिणाम है।
  • सूखे का प्रभाव भारत में बहुत व्यापक है, परंतु कुछ क्षेत्र जहाँ ये बार-बार पड़ते हैं और जहाँ उनका असर अधिक है सूखे की तीव्रता के आधार पर निम्नलिखित क्षेत्रों में बाँटा गया है।
अत्यधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र
  • राजस्थान में ज़्यादातर भाग, विशेषकर अरावली के पश्चिम में स्थित मरुस्थली और गुजरात का कच्छ क्षेत्र अत्यधिक सूखा प्रभावित है। इसमें राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर जिले भी शामिल हैं, जहाँ 90 मिलीलीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा होती है।
अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र
  • इसमें राजस्थान के पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश के ज्यादातर भाग, महाराष्ट्र के पूर्वी भाग, आंध्र प्रदेश के अंदरूनी भाग, कर्नाटक का पठार, तमिलनाडु के उत्तरी भाग, झारखंड का दक्षिणी भाग और ओडिशा का आंतरिक भाग शामिल है।
मध्यम सूखा प्रभावित क्षेत्र
  • इस वर्ग में राजस्थान के उत्तरी भाग, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिले, गुजरात के बचे हुए जिले, कोंकण को छोड़कर महाराष्ट्र, झारखंड, तमिलनाडु में कोयंबटूर पठार और आंतरिक कर्नाटक शामिल हैं। भारत के बचे हुए भाग बहुत कम या न के बराबर सूखे से प्रभावित हैं।
सूखे के परिणाम
  • पर्यावरण और समाज पर सूखे का सोपानी प्रभाव पड़ता है। फसलें बर्बाद होने से अन्न की कमी हो जाती है, जिसे अकाल कहा जाता है। चारा कम होने की स्थिति को तृण अकाल कहा जाता है। जल आपूर्ति की कमी जल अकाल कहलाती है, तीनों परिस्थितियाँ मिल जाएँ तो त्रि- अकाल कहलाती है जो सबसे अधिक विध्वंसक है।
  • सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वृहत् पैमाने पर मवेशियों और अन्य पशुओं की मौत, मानव प्रवास तथा पशु पलायन एक सामान्य परिवेश है।
  • पानी की कमी के कारण लोग दूषित जल पीने को बाध्य होते हैं।
  • इसके परिणामस्वरूप पेयजल संबंधी बीमारियों जैसे आंत्रशोथ, हैजा और हेपेटाईटिस हो जाती है।
  • सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण पर सूखे का प्रभाव तात्कालिक एवं दीर्घकालिक होता है। इसलिए सूखे से निपटने के लिए तैयार की जा रही योजनाओं को उन्हें ध्यान में रखकर बनाना चाहिए।
  • सूखे की स्थिति में तात्कालिक सहायता में सुरक्षित पेयजल वितरण, दवाइयाँ, पशुओं के लिए चारे और जल की उपलब्धता तथा लोगों और पशुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना शामिल है।
  • सूखे से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजनाओं में विभिन्न कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे भूमिगत जल के भंडारण का पता लगाना जल आधिक्य क्षेत्रों से अल्पजल क्षेत्रों में पानी पहुँचाना, नदियों को जोड़ना और बाँध व जलाशयों का निर्माण इत्यादि।
  • नदियाँ जोड़ने के लिए द्रोणियों की पहचान तथा भूमिगत जल भंडारण की संभावना का पता लगाने के लिए सुदूर संवेदन और उपग्रहों से प्राप्त चित्रों का प्रयोग करना चाहिए।
  • सूखा प्रतिरोधी फसलों के बारे में प्रचार-प्रसार सूखे से लड़ने के लिए एक दीर्घकालिक उपाय है।
  • वर्षा जल संलवन (Rain water harvesting) सूखे का प्रभाव कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भूस्खलन
  • भूस्खलन के द्वारा समूह खिसककर ढाल से नीचे गिरता है। सामान्यतः भूस्खलन भूकंप, ज्वालामुखी फटने, सुनामी और चक्रवात की तुलना में कोई बड़ी घटना नहीं है, परन्तु इसका प्राकृतिक पर्यावरण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
  • अन्य आपदाओं के विपरीत, जो आकस्मिक, अननुमेय तथा बृहत स्तर पर दीर्घ एवं प्रादेशिक कारकों से नियंत्रित हैं, भूस्खलन मुख्य रूप से स्थानीय कारणों से उत्पन्न होते हैं।
  • भूस्खलन की बारंबारता और इसके घटने को प्रभावित करने वाले कारकों में भूविज्ञान, भूआकृतिक कारक, ढाल, भूमि उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के आधार पर भारत को विभिन्न भूस्खलन क्षेत्रों में बाँटा गया है।
अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्र
  • ज्यादा अस्थिर हिमालय की युवा पर्वत श्रृंखलाएँ, अंडमान और निकोबार, पश्चिमी घाट और नीलगिरी में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकंप प्रभावी क्षेत्र और अत्यधिक मानव क्रियाकलापों वाले क्षेत्र, जिसमें सड़क और बाँध निर्माण इत्यादि आते हैं, अत्यधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में रखे जाते हैं।
अधिक सुभेद्यता क्षेत्र
  • अधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में भी अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्रों से मिलती-जुलती परिस्थितियाँ हैं। दोनों में अंतर है, भूस्खलन को नियंत्रण करने वाले कारकों के संयोजन, गहनता और बारंबारता का। हिमालय क्षेत्र के सारे राज्य और उत्तर-पूर्वी भाग (असम को छोड़कर) इस क्षेत्र में शामिल हैं।
मध्यम और कम सुभेद्यता क्षेत्र
  • पार हिमालय के कम वृष्टि वाले क्षेत्र लद्दाख और हिमाचल प्रदेश में स्फिती, अरावली पहाड़ियों में कम वर्षा वाला क्षेत्र, पश्चिमी व पूर्वी घाट के व दक्कन पठार के वृष्टि छाया क्षेत्र ऐसे इलाके हैं, जहाँ कभी-कभी भूस्खलन होता है। 
  • इसके अलावा झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा और केरल में खादानों और भूमि धँसने से भूस्खलन होता रहता है।
अन्य क्षेत्र
  • भारत के अन्य क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग जिले को छोड़कर) असम (कार्बी आंगलोंग को छोड़कर) और दक्षिण प्रांतों के तटीय क्षेत्र भूस्खलन युक्त हैं।
भूस्खलनों के परिणाम
  • भूस्खलनों का प्रभाव अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में पाया जाता है तथा स्थानीय होता है। परन्तु सड़क मार्ग में अवरोध, रेलपटरियों का टूटना और जल वाहिकाओं में चट्टानें गिरने से पैदा हुई रुकावटों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
  • भूस्खलन की वजह से हुए नदी रास्तों में बदलाव बाढ़ ला सकते हैं और जान माल का नुकसान हो सकता है। इससे इन क्षेत्रों में आवागमन मुश्किल हो जाता है और विकास कार्यों की रफ्तार धीमी पड़ जाती है।
निवारण
  • अधिक भूस्खलन संभावी क्षेत्रों में सड़क और बड़े बाँध बनाने जैसे निर्माण कार्य तथा विकास कार्य पर प्रतिबंध होना चाहिए। इन क्षेत्रों में कृषि नदी घाटी तथा कम ढाल वाले क्षेत्रों तक सीमित होनी चाहिए तथा बड़ी विकास परियोजनाओं पर नियंत्रण होना चाहिए।
  • सकारात्मक कार्य जैसे- बृहत स्तर पर वनीकरण को बढ़ावा और जल बहाव को कम करने के लिए बाँध का निर्माण भूस्खलन के उपायों के पूरक हैं।
  • स्थानांतरी कृषि वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जानी चाहिए।
आपदा प्रबंधन
  • भूकंप, सुनामी और ज्वालामुखी की तुलना में चक्रवात के आने के समय एवं स्थान की भविष्यवाणी संभव है। इसके अतिरिक्त आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके चक्रवात की गहनता, दिशा और परिमाण आदि को मॉनीटर करके इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।
  • इससे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए चक्रवात शेल्टर, तटबंध, डाइक, जलाशय निर्माण तथा वायु वेग को कम करने के लिए वनीकरण जैसे कदम उठाए जा सकते हैं, फिर भी भारत, बांग्लादेश, म्यांमार इत्यादि देशों के तटीय क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या की सुभेद्यता अधिक है, इसीलिए यहाँ जान-माल का नुकसान बढ़ रहा है।
आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005
  • इस अधिनियम में आपदा को किसी क्षेत्र में घटित एक महाविपत्ति, दुर्घटना, संकट या गंभीर घटना के रूप में परिभाषित किया गया है, जो प्राकृतिक या मानवकृत कारणों या दुर्घटना या लापरवाही का परिणाम हो और जिससे बड़े स्तर पर जान की क्षति या मानव पीड़ा, पर्यावरण की हानि एवं विनाश हो और जिसकी प्रकृति या परिमाण प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले मानव समुदाय की सहन | क्षमता से परे हो ।

भूकंप

  • भूकंप सबसे ज्यादा अपूर्वसूचनीय और विध्वंसक प्राकृतिक आपदा है। भूकंपों की उत्पत्ति विवर्तनिकी से संबंधित है। ये विध्वंसक है और विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।
  • भूकंप पृथ्वी की ऊपरी सतह में विवर्तनिक गतिविधियों से निकली ऊर्जा से पैदा होते हैं।
  • इसकी तुलना में ज्वालामुखी विस्फोट, चट्टान गिरने, भू-स्खलन, जमीन के अवतलन (धँसने) (विशेषकर खदानों वाले क्षेत्र में), बाँध व जलाशयों के बैठने इत्यादि से आने वाला भूकंप कम क्षेत्र को प्रभावित करता है और नुकसान भी कम पहुँचाता है।
  • इंडियन प्लेट प्रति वर्ष उत्तर व उत्तर-पूर्व दिशा में एक सेंटीमीटर खिसक रही है। परंतु उत्तर में स्थित यूरेशियन प्लेट इसके लिए अवरोध पैदा करती है।
  • परिणामस्वरूप इन प्लेटों के किनारे लॉक हो जाते हैं और कई स्थानों पर लगातार ऊर्जा संग्रह होता रहता है।
  • अधिक मात्रा में ऊर्जा संग्रह से तनाव बढ़ता रहता हैं और दोनों प्लेटों के बीच लॉक टूट जाता है और एकाएक ऊर्जा मोचन से हिमालय के चाप के साथ भूकंप आ जाता है।
  • इससे प्रभावित मुख्य राज्यों में जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग उपमंडल तथा उत्तर-पूर्व के सात राज्य शामिल हैं।
  • इन क्षेत्रों के अतिरिक्त, मध्य पश्चिमी क्षेत्र विशेषकर गुजरात (1819, 1956 और 2001) और महाराष्ट्र (1967 और 1993) में कुछ प्रचंड भूकंप आए हैं।
  • कुछ समय पहले भूवैज्ञानिकों ने एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया है जिसके अनुसार लातूर और ओसमानाबाद (महाराष्ट्र) के नजदीक भीमा (कृष्णा) नदी के साथ-साथ एक भ्रंश रेखा विकसित हुई है। इसके साथ ऊर्जा संग्रह होता है तथा इसकी विमुक्ति भूकंप का कारण बनती है। इस सिद्धांत के अनुसार संभवत: इंडियन प्लेट टूट रही है। 
  • राष्ट्रीय भूभौतिकी प्रयोगशाला, भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण, मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार और इनके साथ कुछ समय पूर्व बने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने भारत में आए 1200 भूकंपों का गहन विश्लेषण किया और भारत को निम्नलिखित 5 भूकंपीय क्षेत्रों (zones) में बाँटा है।
    (i) अति अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र
    (ii) अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र
    (iii) मध्यम क्षति जोखिम क्षेत्र
    (iv) निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र
    (v) अति निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र
  • इनमें से पहले दो क्षेत्रों में भारत के सबसे प्रचंड भूकंप अनुभव किए गए हैं। भूकंप सुभेद्य क्षेत्रों में उत्तरी-पूर्वी प्रांत, दरभंगा से उत्तर में स्थित क्षेत्र तथा अररिया (बिहार में भारत-नेपाल सीमा के साथ), उत्तराखण्ड, पश्चिमी हिमाचल प्रदेश (धर्मशाला के चारों ओर ), कश्मीर घाटी और कच्छ (गुजरात) शामिल हैं। ये अति अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र का हिस्सा है।
  • कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के बचे हुए भाग, उत्तरी पंजाब, हरियाणा का पूर्वी भाग, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र में आते हैं।
  • देश के बचे हुए भाग मध्य तथा निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र में हैं। भूकंप से सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्रों का एक बड़ा हिस्सा दक्कन पठार के स्थिर भू-भाग में पड़ता है।
भूकंप के सामाजिक पर्यावरणीय परिणाम
  • भूकंप के साथ भय जुड़ा है क्योंकि इससे बड़े पैमाने पर और बहुत तीव्रता के साथ भूतल पर विनाश होता है। अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों तो यह आपदा कहर बरसाती है। ये न सिर्फ बस्तियों, बुनियादी ढाँचे, परिवहन व संचार व्यवस्था, उद्योग और अन्य विकासशील क्रियाओं को ध्वस्त करता है, अपितु लोगों के पीढ़ियों से संचित पदार्थ और सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत भी नष्ट कर देता है।
भूकंप के प्रभाव
  • भूकंप जिन क्षेत्रों में आते हैं उनमें सम्मिलित विनाशकारी प्रभाव पाए जाते हैं।
भूकंप के प्रभाव
भूतल पर मानवकृत ढाँचों पर जल पर
दरारें
बस्तियाँ
भू-स्खलन 
द्रवीकरण
भू-दबाव
संभावित श्रृंखला
प्रतिक्रिया
दरारें पड़ना
खिसकना
उलटना
आकुंचन
निपात
संभावित श्रृंखला
प्रतिक्रिया
लहरें 
जल- गतिशीलता
दबाव
सुनामी
संभावित श्रृंखला
प्रतिक्रिया
  • इसके अतिरिक्त भूकंप के कुछ गंभीर और दूरगामी पर्यावरणीय परिणाम हो सकते हैं।
  • पृथ्वी की पर्पटी पर धरातलीय भूकंपी तरंगें दरारें डाल देती हैं जिसमें से पानी और दूसरा ज्वलनशील पदार्थ बाहर निकल आता है और आस-पड़ोस को डुबो देता है।
  • भूकंप के कारण भू-स्खलन भी होता है, जो नदी वाहिकाओं को अवरुद्ध कर जलाशयों में बदल देता है। कई बार नदियाँ अपना रास्ता बदल लेती हैं जिससे प्रभावित क्षेत्र में बाढ़ और दूसरी आपदाएँ आ जाती हैं।
भूकंप न्यूनीकरण
  • दूसरी आपदाओं की तुलना में भूकंप अधिक विध्वंसकारी हैं। चूँकि यह परिवहन और संचार व्यवस्था भी नष्ट कर देते हैं इसलिए लोगों तक राहत पहुँचाना कठिन होता है।
  • इस आपदा से निपटने की तैयारी रखी जाए और इससे होने वाले नुकसान को कम किया जाए। इसके निम्नलिखित तरीके हैं। 
    1. भूकंप नियंत्रण केंद्रों की स्थापना, जिससे भूकंप संभावित क्षेत्रों में लोगों को सूचना पहुँचाई जा सके। जी. पी. एस ( Geographical Positioning System) की मदद से प्लेट हलचल का पता लगाया जा सकता है।
    2. देश में भूकंप संभावित क्षेत्रों का सुभेद्यता मानचित्र तैयार करना और संभावित जोखिम की सूचना लोगों तक पहुँचाना तथा उन्हें इसके प्रभाव को कम करने के बारे में शिक्षित करना ।
    3. भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में घरों के प्रकार और भवन डिज़ाइन में सुधार लाना। ऐसे क्षेत्रों में ऊँची इमारतें, बड़े औद्योगिक संस्थान और शहरीकरण को बढ़ावा न देना।
    4. अंततः भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में भूकंप प्रतिरोधी (resistant) इमारतें बनाना और सुभेद्य क्षेत्रों में हल्के निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करना।
सुनामी
  • भूकंप और ज्वालामुखी से महासागरीय धरातल में अचानक हलचल पैदा होती है और महासागरीय जल का अचानक विस्थापन होता है।
  • परिणामस्वरूप ऊर्ध्वाधर ऊँची तरंगें पैदा होती हैं जिन्हें सुनामी (बंदरगाह लहरें) या भूकंपीय समुद्री लहरें कहा जाता है।
  • सामान्यतः शुरू में सिर्फ एक ऊर्ध्वाधर तरंग ही पैदा होती है, परंतु कालांतर में जल तरंगों की एक श्रृंखला बन जाती है क्योंकि प्रारंभिक तरंग की ऊँची शिखर और नीची गर्त के बीच जल अपना स्तर बनाए रखने की कोशिश करता है।
  • महासागर में जल तरंग की गति जल की गहराई पर निर्भर करती है । इसकी गति उथले समुद्र में ज्यादा और गहरे समुद्र में कम होती है।
  • परिणामस्वरूप महासागरों के अंदरुनी भाग इससे कम प्रभावित होते हैं।
  • तटीय क्षेत्रों में ये तरंगे ज्यादा प्रभावी होती हैं और व्यापक नुकसान पहुँचाती हैं। इसलिए समुद्र जलपोत पर, सुनामी का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। समुद्र के आंतरिक गहरे भाग में तो सुनामी महसूस भी नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गहरे समुद्र में सुनामी की लहरों की लंबाई अधिक होती है और ऊँचाई कम होती है। इसलिए, के इस भाग में सुनामी जलपोत को एक या दो मीटर तक ही समुद्र ऊपर उठा सकती है और वह भी कई मिनट में।
  • इसके विपरीत, जब सुनामी उथले समुद्र में प्रवेश करती है, इसकी तरंग लंबाई कम होती चली जाती है, समय वही रहता है और तरंग की ऊँचाई बढ़ती जाती है।
  • कई बार तो इसकी ऊँचाई 15 मीटर या इससे भी अधिक हो सकती है जिससे तटीय क्षेत्र में भीषण विध्वंस होता है। इसलिए इन्हें उथले जल की तरंगें भी कहते हैं।
  • सुनामी आमतौर पर प्रशांत महासागरीय तट पर, जिसमें अलास्का, जापान, फिलीपींस, दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे द्वीप, इंडोनेशिया और मलेशिया तथा हिंद महासागर में म्यांमार, श्रीलंका और भारत के तटीय भागों में आती है।
  • तंट पर पहुँचने पर सुनामी तरंगें बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा निर्मुक्त करती हैं और समुद्र का जल तेजी से तटीय क्षेत्रों में घुस जाता है और बंदरगाह शहरों, कस्बों, अनेक प्रकार के ढाँचों, इमारतों और बस्तियों को तबाह करता है।
  • विश्वभर में तटीय क्षेत्रों में जनसंख्या सघन होती हैं और ये क्षेत्र बहुत-सी मानव गतिविधियों के केंद्र होते हैं, अतः यहाँ दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सुनामी अधिक जान-माल का नुकसान पहुँचाती है।
  • दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सुनामी के प्रभाव को कम कठिन है क्योंकि इससे होने वाले नुकसान का पैमाना बहुत बृहत् है ।
  • किसी अकेले देश या सरकार के लिए सुनामी जैसी आपदा से निपटना संभव नहीं है। अतः इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रयास आवश्यक हैं। जैसा कि 26 दिसंबर, 2004 को आयी सुनामी के समय किया गया था। जिसके कारण 3 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई थी। इस सुनामी आपदा के बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सुनामी चेतावनी तंत्र में शामिल होने का फैसला किया है।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कम दबाव वाले उग्र मौसम तंत्र हैं और 30° उत्तर तथा 30° दक्षिण अक्षांशों के बीच पाए जाते हैं। ये आमतौर पर 500 से 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला होता है और इसकी ऊर्ध्वाधर ऊँचाई 12 से 14 किलोमीटर हो सकती है।
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात या प्रभंजन एक ऊष्मा इंजन की तरह होते हैं, जिसे ऊर्जा प्राप्ति, समुद्र सतह से प्राप्त जलवाष्प की संघनन प्रक्रिया में छोड़ी गई गुप्त ऊष्मा से होती है।
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। इनकी उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित प्रारंभिक परिस्थितियों का होना आवश्यक है।
    1. लगातार और पर्याप्त मात्रा में उष्ण व आर्द्र वायु की सतत् उपलब्धता जिससे बहुत बड़ी मात्रा में गुप्त ऊष्मा निर्मुक्त हो ।
    2. तीव्र कोरियोलिस बल जो केंद्र के निम्न वायु दाब को भरने न दे। (भूमध्य रेखा के आस पास 0° से 5° कोरियोलिस बल कम होता है और परिणामस्वरूप यहाँ ये चक्रवात उत्पन्न नहीं होते ) ।
    3. क्षोभमंडल में अस्थिरता, जिससे स्थानीय स्तर पर निम्न वायु दाब क्षेत्र बन जाते हैं। इन्हीं के चारों ओर चक्रवात भी विकसित हो सकते हैं।
    4. मजबूत ऊर्ध्वाधर वायु फान (wedge) की अनुपस्थिति, जो नम और गुप्त ऊष्मा युक्त वायु के ऊर्ध्वाधर बहाव को अवरुद्ध करे।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की संरचना
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात में वायुदाब प्रवणता बहुत अधिक होती है। चक्रवात का केंद्र गर्म वायु तथा निम्न वायुदाब और मेघरहित क्रोड होता है। इसे 'तूफान की आँख' कहा जाता है।
  • सामान्यतः समदाब रेखाएँ एक-दूसरे के नजदीक होती हैं जो उच्च वायुदाब प्रवणता का प्रतीक है।
  • वायुदाब प्रवणता 14 से 17 मिलीबार/ 100 किलोमीटर के आसपास होता है। कई बार यह 60 मिलीबार/ 100 किलोमीटर तक हो सकता है। केंद्र से पवन पट्टी का विस्तार 10 से 150 किलोमीटर तक होता है।
भारत में चक्रवातों का क्षेत्रीय और समयानुसार वितरण
  • भारत की आकृति प्रायद्वीपीय है और इसके पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में अरब सागर है। अतः यहाँ आने वाले चक्रवात इन्हीं दो जलीय क्षेत्रों में पैदा होते हैं।
  • मानसूनी मौसम के दौरान चक्रवात 10° से 15° उत्तर अक्षांशों के बीच पैदा होते हैं।
  • बंगाल की खाड़ी में चक्रवात ज्यादातर अक्टूबर और नवम्बर में बनते हैं। यहाँ ये चक्रवात 16° से 21° उत्तर तथा 92° पूर्व देशांतर से पश्चिम में पैदा होते हैं, परंतु जुलाई में ये सुंदर वन डेल्टा के करीब 18° उत्तर और 90° पूर्व देशांतर से पश्चिम में उत्पन्न होते हैं।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के परिणाम
  • प्राप्त उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की ऊर्जा का स्रोत उष्ण आर्द्र वायु होने वाली गुप्त ऊष्मा है। अतः समुद्र से दूरी बढ़ने पर चक्रवात का बल कमजोर हो जाता है।
  • भारत में, चक्रवात जैसे-जैसे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से दूर जाता है उसका बल कमजोर हो जाता है। तटीय क्षेत्रों में अक्सर उष्ण कटिबंधीय चक्रवात 180 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से टकराते हैं। इससे तूफानी क्षेत्र में समुद्र तल भी असाधारण रूप से ऊपर उठा होता है जिसे 'तूफान महोर्मि' (storm surge) कहा जाता है।
समुद्र तल में महोर्मि वायु, समुद्र और जमीन की अंतःक्रिया से उत्पन्न होता है। तूफान में अत्यधिक वायुदाब प्रवणता और अत्यधिक तेज सतही पवनें उफान को उठाने वाले बल हैं। इससे समुद्री जल तटीय क्षेत्रों में घुस जाता है, वायु की गति तेज होती है और भारी वर्षा होती है।
  • इससे तटीय क्षेत्र की बस्तियाँ, खेत पानी में डूब जाते हैं तथा फसलों और कई प्रकार के मानवकृत ढाँचों का विनाश होता है। 
  • नदी का जल उफान के समय जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्तियों और आस-पास की जमीन पर खड़ा हो जाता है और बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है।
  • दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में बाढ़ आने के कारण जाने-पहचाने हैं। बाढ़ आमतौर पर अचानक नहीं आती और कुछ विशेष क्षेत्रों और ऋतु में ही आती है।
  • बाढ़ तब आती है जब नदी जल-वाहिकाओं में इनकी क्षमता से अधिक जल बहाव होता है और जल, बाढ़ के रूप में मैदान के निचले हिस्सों में भर जाता है।
  • कई बार तो झीलें और आंतरिक जल क्षेत्रों में भी क्षमता से अधिक जल भर जाता है। बाढ़ आने के और भी कई कारण हो सकते हैं, जैसे- तटीय क्षेत्रों में तूफानी महोर्मि, लंबे समय तक होने वाली तेज बारिश, हिम का पिघलना, जमीन की अंत: स्पंदन (infiltration) दर में कमी आना और अधिक मृदा अपरदन के कारण नदी जल में जलोढ़ की मात्रा में वृद्धि होना।
  • हालाँकि बाढ़ विश्व में विस्तृत क्षेत्र में आती है तथा काफी तबाही लाती है, परंतु दक्षिण, दक्षिण-पूर्व और पूर्व एशिया के देशों, विशेषकर चीन, भारत और बांग्लादेश में इसकी बारंबारता और होने वाले नुकसान अधिक हैं।
  • दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में बाढ़ की उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में मानव एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
  • मानवीय क्रियाकलापों, अँधाधुंध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी तल और बाढ़कृत मैदानों पर मानव बसाव की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ जाती है। 
  • भारत के विभिन्न राज्यों में बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण जान-माल का भारी नुकसान होता है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश में 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया है।
  • असम, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्य सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत की ज्यादातर नदियाँ, विशेषकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ लाती रहती हैं।
  • राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब, आकस्मिक बाढ़ से पिछले कुछ दशकों में जलमग्न होते रहे हैं। इसका कारण मानसून वर्षा की तीव्रता तथा मानव कार्यकलापों द्वारा प्राकृतिक अपवाह तंत्र का अवरुद्ध होना है। 
  • कई बार तमिलनाडु में बाढ़ नवंबर से जनवरी माह के बीच वापस लौटती मानसून द्वारा आती है।
बाढ़ परिणाम और नियंत्रण
  • असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश ( मैदानी क्षेत्र) और उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात के तटीय क्षेत्र तथा पंजाब, राजस्थान, उत्तर गुजरात और हरियाणा में बार-बार बाढ़ आने और कृषि भूमि तथा मानव बस्तियों के डूबने से देश की आर्थिक व्यवस्था तथा समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
  • बाढ़ न सिर्फ फसलों को बर्बाद करती है बल्कि आधारभूत ढाँचा, जैसेसड़कें, रेल पटरी, पुल और मानव बस्तियों को भी नुकसान पहुँचाती है।
  • बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में कई तरह की बीमारियाँ, जैसे- हैजा, आंत्रशोथ, हेपेटाइटिस और दूसरी दूषित जल जनित बीमारियाँ फैल जाती हैं।
  • दूसरी ओर बाढ़ से कुछ लाभ भी हैं। हर वर्ष बाढ़ खेतों में उपजाऊ मिट्टी लाकर जमा करती है जो फसलों के लिए बहुत लाभदायक है।
  • बह्मपुत्र नदी में स्थित माजुली (असम) जो सबसे बड़ा नदीय द्वीप है, हर वर्ष बाढ़ ग्रस्त होता है। परंतु यहाँ चावल की फसल बहुत अच्छी होती है। लेकिन ये लाभ भीषण नुकसान के सामने गौण मात्र है।
  • बाढ़ की स्थिति से निपटने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम:- बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में तटबंध बनाना, नदियों पर बाँध बनाना, वनीकरण और आमतौर पर बाढ़ लाने वाली नदियों के ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्र निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाना।
  • नदी वाहिकाओं पर बसे लोगों को कहीं और बसाना और बाढ़ के मैदानों में जनसंख्या के जमाव पर नियंत्रण रखना, इस दिशा में कुछ और कदम हो सकते हैं। 
  • आकस्मिक बाढ़ प्रभावित देश के पश्चिमी और उत्तरी भागों में यह ज्यादा उपयुक्त कदम होंगे। तटीय क्षेत्रों में चक्रवात सूचना केंद्र तूफान के उफान से होने वाले प्रभाव को कम कर सकते हैं।
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Tue, 28 Nov 2023 05:24:12 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | मृदा https://m.jaankarirakho.com/488 https://m.jaankarirakho.com/488 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | मृदा
  • मृदा भू-पर्पटी की सबसे महत्त्वपूर्ण परत है। यह एक मूल्यवान संसाधन है। हमारा अधिकतर भोजन और वस्त्र, मिट्टी में उगने वाली भूमि-आधारित फसलों से प्राप्त होता है।
  • मृदा शैल, मलवा और जैव सामग्री का सम्मिश्रण होती है जो पृथ्वी की सतह पर विकसित होते हैं। मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं- उच्चावच, जनक सामग्री, जलवायु, वनस्पति तथा अन्य जीव जन्तु और समय |
  • इनके अतिरिक्त मानवीय क्रियाएँ भी पर्याप्त सीमा तक इसे प्रभावित करती हैं। मृदा के घटक खनिज कण, ह्यूमस, जल तथा वायु होते हैं।
  • पृथ्वी की ऊपरी सतह जिसे भूपर्पटी के नाम जाना जाता है उसमें मृदा की भौतिक अवस्थाएं अपने ऊपर के स्तर से सामान्यतः अलग होती है और हर तरह के स्तर का एक क्षेत्र होता है जो कई खंडों में विभाजित होती है।
  • विभिन्न स्तरों वाली मृदा का यह क्षैतिज खंडन (विभाजन) ही मृदा संस्तर कहलाता है।
  • 'क' संस्तर सबसे ऊपरी खंड होता है, जहाँ पौधों की वृद्धि के लिए अनिवार्य जैव पदार्थों का खनिज पदार्थ, पोषक तत्त्वों तथा जल से संयोग होता है।
  • 'ख' संस्तर 'क' संस्तर तथा 'ग' संस्तर के बीच संक्रमण खंड होता है जिसे नीचे व ऊपर दोनों से पदार्थ प्राप्त होते हैं। इसमें कुछ जैव पदार्थ होते हैं तथापि खनिज पदार्थ का अपक्षय स्पष्ट नजर आता है।
  • 'ग' संस्तर की रचना ढीली जनक सामग्री से होता है। यह परत मृदा निर्माण की प्रक्रिया में प्रथम अवस्था होती है और अंततः ऊपर की दो परतें इसी से बनती हैं।
  • परतों की इस व्यवस्था को मृदा परिच्छेदिका कहा जाता है। इन तीन संस्तरों के नीचे एक चट्टान होती है जिसे जनक चट्टान अथवा आधारी चट्टान कहा जाता है ।
काली मृदाएँ
  • काली मृदाएँ दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं। इसमें महाराष्ट्र के कुछ भाग, गुजरात, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं।
  • गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों और दक्कन के पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पाई जाती है। इन मृदाओं को 'रेगुर' तथा 'कपास वाली काली मिट्टी' भी कहा जाता है।
  • आमतौर पर काली मृदाएँ मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं। ये मृदाएँ गीले होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। इस कारण इसे स्वतः जुताई वाली मृदा कहते हैं।
लाल और पीली मृदाएँ
  • लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानें पाई जाती हैं।
  • पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दुमटी मृदा पाई जाती है। पीली और लाल मृदाएँ ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती है।
  • इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है।
  • महीन कणों वाली लाल और पीली मृदाएँ सामान्यतः उर्वर होती हैं। इसके विपरीत मोटे कणों वाली उच्च भूमियों की मृदाएँ अनुर्वर होती हैं। इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।
लैटेराइट मृदाएँ
  • लैटेराइट एक लैटिन शब्द 'लेटर' से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ईंट होता है। लैटेराइट मृदाएँ उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं।
  • ये मृदाएँ उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं। वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्यूमीनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएँ शेष रह जाती हैं।
  • उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु ह्यूमस की मात्रा को तेंजी से नष्ट कर देते हैं। इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन फॉस्फेट और कैल्सियम की कमी होती है तथा लौह-ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है।
  • परिणामस्वरूप लैटेराइट मृदाएँ कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं । फसलों के लिए उपजाऊ बनाने के लिए इन मृदाओं में खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है।
  • तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लैटेराइट मृदाएँ अधिक उपयुक्त हैं।
  • इन मृदाओं का विकास मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय पठार के ऊँचे क्षेत्रों में हुआ है। लैटराइट मृदाएँ सामान्यतः कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। 
शुष्क मृदाएँ
  • शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है। ये सामान्यतः संरचना से बलुई और प्रकृती से लवणीय होती हैं। कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है।
  • शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्रगति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस कम होते हैं। इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होती है। नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ो की परतें पाई जाती हैं।
  • मृदा के तली संस्तर में कंकड़ों की परत के बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है। इसलिए सिंचाई किए जाने पर इन मृदाओं में पौधों की सतत् वृद्धि के लिए नमी सदा उपलब्ध रहती है।
  • ये मृदाएँ विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलक्षणिक रूप से विकसित हुई हैं। ये मृदाएँ अनुर्वर हैं क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं। 
लवण मृदाएँ
  • ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं। लवण मृदाओं में सोडियम, पौटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। अतः ये अनुर्वर होती हैं और इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती।
  • मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती जाती है। ये मृदाएँ शुष्क और अर्ध-शुष्क तथा जलाक्रांत क्षेत्रों और अनूपों में पाई जाती हैं। 
  • इनकी संरचना बलुई से लेकर दुमटी तक होती है। इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है। लवण मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्रों में है।
  • अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में, विशेष रूप से हरित क्राँति वाले क्षेत्रों में उपजाऊ जलोढ़ मृदाएँ भी लवणीय होती जा रही हैं। शुष्क जलवायु वाली दशाओं में अत्यधिक सिंचाई केशिका क्रिया को बढ़ावा देती है।
  • इसके परिणामस्वरूप नमक ऊपर की ओर बढ़ता है और मृदा की सबसे ऊपरी परत में नमक जमा हो जाता है। इस प्रकार के क्षेत्रों में, विशेष रूप में पंजाब और हरियाणा में मृदा की लवणता की समस्या से निबटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है।
पीटमय मृदाएँ
  • ये मृदाएँ भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो । अतः इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं, जो मृदा को ह्यूमस और पर्याप्त मात्रा में जैव तत्त्व प्रदान करते हैं।
  • इन मृदाओं में जैव पदार्थों की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती है। ये मृदाएँ सामान्यतः गाढ़े और काले रंग की होती हैं। अनेक स्थानों पर ये क्षारीय भी हैं। ये मृदाएँ अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराचंल के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों, उड़ीसा और तमिलनाडु में पाई जाती हैं।
वन मृदाएँ
  • अपने नाम के अनुरूप ये मृदाएँ पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में ही बनती हैं। इन मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है।
  • इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती हैं। घाटियों में ये दुमटी और पांशु होती हैं तथा ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती हैं।
  • हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का अनाच्छादन होता रहता है और ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली होती हैं। निचली घाटियों में पाई जाने वाली मृदाएँ उर्वर होती हैं।
मृदा अवकर्षण
  • मोटे तौर पर मृदा अवकर्षण को मृदा की उर्वरता के हास रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है तथा अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहराई कम हो जाती है।
  • भारत में मृदा संसाधनों के क्षय का मुख्य कारक मृदा अवकर्षण है। मृदा अवकर्षण की दर भूआकृति, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा • के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न होती है।
मृदा अपरदन
  • मृदा के आवरण का विनाश, मृदा अपरदन कहलाता है। बहते जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएँ तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित हो रही होती हैं।
  • सामान्यतः इन दोनों प्रक्रियाओं में एक संतुलन बना रहता है। धरातल से सूक्ष्म कणों के हटने की दर वही होती है जो मिट्टी की परत में कणों के जुड़ने की होती है।
  • कई बार प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे मृदा के अपरदन की दर बढ़ जाती है।
  • मृदा अपरदन के लिए मानवीय गतिविधियाँ भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं। जनसंख्या बढ़ने के साथ भूमि की माँग भी बढ़ने लगती हैं।
  • मानव बस्तियों, कृषि, पशुचारण तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति लिए वन तथा अन्य प्राकृतिक वनस्पति साफ कर दी जाती हैं।
  • मृदा को हटाने और उसका परिवहन कर सकने के गुण के कारण पवन और जल मृदा अपरदन के दो शक्तिशाली कारक हैं। 
  • पवन द्वारा अपरदन शुष्क और अर्ध-शुष्क प्रदेशों में महत्त्वपूर्ण होता है।
  • भारी वर्षा और खड़ी ढालों वाले प्रदेशों में बहते जल द्वारा किया गया अपरदन महत्त्वपूर्ण होता है। जल-अपरदन अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है और यह भारत के विस्तृत क्षेत्रों में हो रहा है।
  • जल-अपरदन दो रूपों में होता है- परत अपरदन और अवनालिका अपरदन। परत अपरदन समतल भूमियों पर मूसलाधार वर्षा के बाद होता है और इसमें मृदा का हटना आसानी से दिखाई भी नहीं देता, किंतु यह अधिक हानिकारक है क्योंकि इससे मिट्टी की सूक्ष्म और अधिक उर्वर ऊपरी परत हट जाती है।
  • चंबल नदी की द्रोणी में बीहड़ बहुत विस्तृत है। इसके अतिरिक्त ये तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल में भी पाए जाते हैं।
  • मृदा अपरदन भारतीय कृषि के लिए एक गंभीर समस्या बन गई है। इसके दुष्प्रभाव अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ते हैं।
  • नदी की घाटियों में अपरदित पदार्थों के जमा से उनकी जल प्रवाह क्षमता घट जाती है। इससे प्रायः बाढ़े आती हैं तथा कृषि भूमि को क्षति पहुँचती है।
  • वनोन्मूलन, मृदा अपरदन के प्रमुख कारणों में से एक है। पौधों की जड़े मृदा को बाँधे रखकर अपरदन को रोकती हैं। पत्तियाँ और टहनियाँ गिराकर वे मृदा में ह्यूमस की मात्रा में वृद्धि करते हैं।
  • भारत के सिंचित क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि का काफी बड़ा भाग सिंचाई के प्रभाव से लवणीय होता जा रहा है।
  • मृदा के निचले संस्तरों में जमा हुआ नमक धरातल के ऊपर आकर उर्वरता को नष्ट कर देता है।
  • रासायनिक उर्वरक भी मृदा के लिए हानिकारक हैं। जब तक मृदा को पर्याप्त ह्यूमस नहीं मिलता, रसायन इसे कठोर बना देते हैं और दीर्घकाल में इसकी उर्वरता घट जाती है।
  • यह समस्या नदी घाटी परियोजनाओं के उन सभी समादेशी क्षेत्रों (command area) में अधिक है, जो हरित क्रांति के आरंभिक लाभ भोगी थे।
  • अनुमानों के अनुसार भारत की कुल भूमि का लगभग आधा भाग किसी न किसी मात्रा में अवकर्षण से प्रभावित है।
मृदा संरक्षण
  • यदि मृदा अपरदन और मृदा क्षय मानव द्वारा किया जाता है, तो स्पष्टतः मानवों द्वारा इसे रोका भी जा सकता है। संतुलन बनाए रखने के प्रकृति के लिए अपने नियम हैं।
  • बिना संतुलन बिगाड़े भी प्रकृति मानवों को अपनी अर्थव्यवस्था का विकास करने के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है।
  • मृदा संरक्षण एक विधि है, जिसमें मिट्टी की उर्वरता बनाए रखी जाती है, मिट्टी के अपरदन और क्षय को रोका जाता है और मिट्टी की निम्नीकृत दशाओं को सुधारा जाता है।
  • 15 से 25 प्रतिशत ढाल प्रवणता वाली भूमि का उपयोग कृषि के लिए नहीं होना चाहिए। यदि ऐसी भूमि पर खेती करना जरूरी भी • जाए तो इस पर सावधानी से सीढ़ीदार खेत बना लेने चाहिए ।
  • भारत के विभिन्न भागों में अति चराई और स्थानांतरी कृषि ने भूमि के प्राकृतिक आवरण को दुष्प्रभावित किया है, जिससे विस्तृत क्षेत्र अपरदन की चपेट में आ गए हैं।
  • ग्रामवासियों को इनके दुष्परिणामों से अवगत करवा कर इन्हें (अति चराई और स्थानांतरी कृषि) नियमित और नियंत्रित करना चाहिए ।
  • समोच्च रेखा के अनुसार मेढ़बंदी, समोच्च रेखीय सीढ़ीदार खेत बनाना, नियमित वानिकी, नियंत्रित चराई, आवरण फसलें उगाना, मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन आदि उपचार के कुछ ऐसे तरीके हैं जिनका उपयोग मृदा अपरदन को कम करने के लिए प्रायः किया जाता है।
  • अवनालिका अपरदन को रोकने तथा उनके बनने पर नियंत्रण के प्रयत्न किए जाने चाहिए। अगुंल्याकार अवनालिकाओं को सीढ़ीदार खेत बनाकर समाप्त किया जा सकता है।
  • बड़ी अवनालिकाओं में जल की अपरदनात्मक तीव्रता को कम करने के लिए रोक बाँधों की एक श्रृंखला बनानी चाहिए।
  • अवनालिकाओं के शीर्ष की ओर फैलाव को नियंत्रित करने पर . विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यह कार्य अवनालिकाओं को बंद करके, सीढ़ीदार खेत बनाकर अथवा आवरण वनस्पति का रोपण करके किया जा सकता है।
  • शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि पर बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षों की रक्षक मेखला बनाकर तथा वन्य-कृषि करके रोकने के प्रयास करने चाहिए। केंद्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान (सीएजेडआरआई) ने पश्चिमी राजस्थान में बालू के टीलों को स्थिर करने के प्रयोग किए हैं।
  • भारत सरकार द्वारा स्थापित केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड ने देश के विभिन्न भागों में मृदा संरक्षण के लिए अनेक योजनाएँ बनाई हैं। ये योजनाएँ जलवायु की दशाओं, भूमि संरूपण तथा लोगों के सामाजिक व्यवहार पर आधारित हैं।
मृदा का वर्गीकरण
  • भारत में भिन्न-भिन्न प्रकार के उच्चावच, भू-आकृति, जलवायु परिमंडल तथा वनस्पतियाँ पाई जातीं हैं।
  • प्राचीन काल में मृदा को दो मुख्य वर्गों में बाँटा जाता था - उर्वर, जो . उपजाऊ थी और ऊसर, जो अनुर्वर थी ।
  • 16वीं शताब्दी में मृदा का वर्गीकरण उनकी सहज विशेषताओं तथा बाह्य लक्षणों, जैसे- गठन, रंग, भूमि का ढाल और मिट्टी में नमी की मात्रा के आधार पर किया गया था।
  • गठन के आधार पर मृदाओं के मुख्य प्रकार थे- बलुई, मृण्मय, पांशु तथा दुमट इत्यादि । रंग के आधार पर वे लाल, पीली, काली इत्यादि थीं।
भारत की मिट्टियों को निम्नलिखित क्रम में वर्गीकृत
क्रम क्षेत्र ( हजार हेक्टेयरों में ) प्रतिशत
1 इंसेप्टीसोल्स 130372.90 39.74
2 एंटीसोल्स 92131.71 28.08
3 एल्फीसोल्स 44448.68 13.55
4 वर्टीसोल्स 27960.00 8.52
5 एरीडीसोल्स 14069.00 4.28
6 अल्टीसोल्स 8250.00 2.51
7 मॉलीसोल्स 1320.00 0.40
8 अन्य 9503.10 2.92
योग 100
  • मृदा के अध्ययन तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे तुलनात्मक बनाने के प्रयासों अंतर्गत आई.सी.ए.आर ने भारतीय मृदाओं को उनकी प्रकृति और उन के गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग (यू.एस.डी.ए.) मृदा वर्गीकरण पद्धति पर आधारित है।
  • उत्पत्ति, रंग, संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर भारत की मिट्टियों को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
    (i) जलोढ़ मृदाएँ
    (ii) काली मृदाएँ
    (iii) लाल और पीली मृदाएँ
    (iv) लैटेराइट मृदाएँ
    (v) शुष्क मृदाएँ
    (vi) लवण मृदाएँ
    (vii) पीटमय मृदाएँ
    (viii) वन मृदाएँ
जलोढ़ मृदाएँ
  • जलोढ़ मृदाएँ उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पाई जाती हैं। ये मृदाएँ देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40 प्रतिशत भाग को ढके हुए हैं। ये निक्षेपण मृदाएँ हैं जिन्हें नदियों और सरिताओं ने वाहित तथा निक्षेपित किया है। राजस्थान के एक संकीर्ण गलियारे से होती हुई ये मृदाएँ गुजरात के मैदान में फैली मिलती हैं। प्रायद्वीपीय प्रदेश में ये पूर्वी तट की नदियों के डेल्टाओं और नदियों की घाटियों में पाई जाती हैं ।

  • जलोढ़ मृदाएँ गठन में बलुई दुमट से चिकनी मिट्टी की प्रकृति की पाई जाती हैं। सामान्यतः इनमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है। गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मै में ‘खादर’ और ‘बांगर' नाम की दो भिन्न मृदाएँ विकसित हुई हैं।
  • खादर प्रतिवर्ष बाढ़ों के द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढ़ है, जो महीन गाद होने के कारण मृदा की उर्वरता बढ़ा देता है।
  • बांगर पुराना जलोढ़क होता है जिसका जमाव बाढ़कृत मैदानों से दूर होता है। खादर और बांगर मृदाओं में कैल्सियमी संग्रथन अर्थात् कंकड़ पाए जाते हैं। 
  • निम्न तथा मध्य गंगा के मैदान और ब्रह्मपुत्र घाटी में ये मृदाएँ अधिक दुमटी और मृण्मय हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर इनमें बालू की मात्रा घटती जाती है।
  • जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। इसका रंग निक्षेपण की गहराई, जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है। जलोढ़ मृदाओं पर गहन कृषि की जाती है।
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Tue, 28 Nov 2023 04:51:37 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | प्राकृतिक वनस्पति https://m.jaankarirakho.com/486 https://m.jaankarirakho.com/486 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | प्राकृतिक वनस्पति
  • प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय उसी पौधा समुदाय से है, जो लंबे समय तक बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के उगता है और इसकी विभिन्न प्रजातियाँ वहाँ पाई जाने वाली मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों में यथासंभव स्वयं को ढाल लेती हैं।

  • हमारा देश भारत विश्व के मुख्य 12 जैव विविधता वाले देशों में से एक है। लगभग 47,000 विभिन्न जातियों के पौधे पाए जाने के कारण यह देश विश्व में दसवें स्थान पर और एशिया के देशों में चौथे स्थान पर है। 
  • भारत में लगभग 15,000 फूलों के पौधे हैं जो कि विश्व में फूलों के पौधों का 6 प्रतिशत है।
  • इस देश में बहुत से बिना फूलों के पौधे हैं जैसे कि फर्न, शैवाल (एलेगी) तथा कवक (फंजाई) भी पाए जाते हैं। भारत में लगभग 90,000 जातियों के जानवर तथा विभिन्न प्रकार की मछलियाँ, ताजे तथा समुद्री पानी की पाई जाती हैं। 

भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021

  • भारत सरकार के वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने भारतीय वन सर्वेक्षण की भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021 जारी की।
  • भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI), देहरादून को देश के वन और वृक्ष संसाधनों का आकलन करने का काम सौंपा गया था। देश में वनों की स्थिति के बारे में रिपोर्ट तैयार करने का चलन वर्ष 1987 से शुरू हुआ था। इस प्रकार से 2021 में जारी हुई यह रिपोर्ट अपनी तरह की 17वीं रिपोर्ट है।
  • भारत उन कुछ चुनिन्दा देशों में है जो अपने वन क्षेत्र की स्थिति पर एक वैज्ञानिक अध्ययन करते आया है। जिसके तहत भारत में वन क्षेत्र का आकार, घनत्व, आरक्षित और संरक्षित वनों की श्रेणी में वनाच्छादित भू-भाग की स्थिति और इनके बाहर वनाच्छादित भू-भाग की स्थिति पर भी एक आंकलन प्रस्तुत करता है।
क्षेत्र में वृद्धि 
  • देश का कुल वन और वृक्षों से भरा क्षेत्र 80.9 मिलियन हेक्टेयर हैं जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24.62 प्रतिशत है।
  • 2019 के आकलन की तुलना में देश के कुल वन और वृक्षों से भरे क्षेत्र में 2,261 वर्ग किमी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसमें से वनावरण में 1,540 वर्ग किमी और वृक्षों से भरे क्षेत्र में 721 वर्ग किमी की वृद्धि पाई गई है।
वनों में वृद्धि / कमी
  • वन आवरण में सबसे ज्यादा वृद्धि खुले जंगल में देखी गई है, उसके बाद यह बहुत घने जंगल में देखी गई है। वन क्षेत्र में वृद्धि दिखाने वाले शीर्ष तीन राज्य आंध्र प्रदेश (647 वर्ग किमी), इसके बाद तेलंगाना (632 वर्ग किमी) और ओडिशा (537 वर्ग किमी) हैं।
वन क्षेत्र में बढ़ोतरी के मामले में पांच शीर्ष राज्य
1- आंध्र प्रदेश 647 वर्ग किलोमीटर,
2. तेलंगाना 632 वर्ग किलोमीटर,
3. ओडिशा 537 वर्ग किलोमीटर,
4. कर्नाटक 155 वर्ग किलोमीटर
5. झारखंड 110 वर्ग किलोमीटर

अधिकतम वन क्षेत्र / आच्छादन वाले राज्य

  • क्षेत्रफल के हिसाब से, मध्य प्रदेश में देश का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र हैं।
भौगोलिक क्षेत्र के हिसाब से यहां सबसे ज्यादा वन
राज्य वन क्षेत्र
मिजोरम 84.53%
अरुणाचल 79.33%
मेघालय 76.00%
मणिपुर 74.34%
नागालैंड 73.90%

इन राज्यों में 75 फीसदी से ज्यादा वन क्षेत्र

  • पांच राज्यों/ केंद्र शासित प्रदेशों जैसे लक्षद्वीप, मिजोरम, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय में 75 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र हैं।
33-75 फीसदी से ज्यादा वन क्षेत्र वाले राज्य
  • 12 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों अर्थात् मणिपुर, नगालैंड, त्रिपुरा, गोवा, केरल, सिक्किम, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव, असम, ओडिशा में वन क्षेत्र 33 प्रतिशत से 75 प्रतिशत के बीच है।
मैंग्रोव
  • भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021 में देश में कुल मैंग्रोव क्षेत्र 4,992 वर्ग किमी है। 2019 के पिछले आकलन की तुलना में मैंग्रोव क्षेत्र में 17 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि पाई गई है।
  • मैंग्रोव क्षेत्र में वृद्धि दिखाने वाले शीर्ष तीन राज्य ओडिशा (8 वर्ग किमी), इसके बाद महाराष्ट्र (4 वर्ग किमी) और कर्नाटक (3 वर्ग किमी) हैं।
79.4 मिलियन टन कार्बन स्टॉक
  • देश के जंगल में कुल कार्बन स्टॉक 7,204 मिलियन टन होने का अनुमान है और 2019 के अंतिम आकलन की तुलना में देश के कार्बन स्टॉक में 79.4 मिलियन टन की वृद्धि हुई है। कार्बन स्टॉक में वार्षिक वृद्धि 39.7 मिलियन टन है।
काष्ठ भंडार
  • भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021 में काष्ठ भंडार को लेकर भी आंकड़े मुहैया कराये गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार देश में काष्ठभंडार की क्षमता 6,167.50 मिलियन क्यूबिक मीटर है।
  • जिसमें 4388.50 मिलियन क्यूबिक मीटर वन क्षेत्र के अंदर और 1779.35 मिलियन क्यूबिक मीटर वन क्षेत्र की सीमा से बहार मौजूद वन क्षेत्र में मौजूद है।
बांस उत्पादन
  • बांस उत्पादन को लेकर इस रिपोर्ट में दिये गए आंकड़े भारत सरकार की महत्वाकांक्षी बांस उत्पादन परियोजना के लिए निराशाजनक हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में बांस उत्पादन का कुल क्षेत्रफल 1,49,443 वर्ग किलोमीटर है जिसमें 10,594 वर्ग किलोमीटर की गिरावट 2019 की तुलना में दर्ज की गयी है।
कार्बन भंडार
  • कार्बन भंडार जो एक नयी आर्थिक परियोजना के रूप में भी आकार ले रहा है उसके आंकड़े हालांकि थोड़ा उत्साहजनक हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार कुल वन क्षेत्र में कार्बन का भंडार 1204 मिलियन टन आँका गया है। यहाँ 79.4 मिलियन टन की वृद्धि पिछली रिपोर्ट की तुलना में दर्ज की गयी है।
  • लगभग 39.7 मिलियन टन की वृद्धि हुई है जो 146.6 मिलियन टन कार्बन डाई आक्साइड के समतुल्य है। 
जंगल में आग लगने की आशंका
  • आग से प्रभावित या आग लाग्ने के मामले में संवेदनशील वनों की शिनाख्त भी इस रिपोर्ट में की गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल वन क्षेत्रों का 22.77 प्रतिशत जंगल ऐसे हैं जो आग की परिस्थितियों को लेकर अति संवेदनशील हैं।
क्लाइमेट हॉट-स्पॉट्स आंकलन
  • क्लाइमेट हॉट-स्पॉट्स आंकलन के निष्कर्ष भी इस रिपोर्ट में शामिल किए गए हैं जो भविष्य में आसन्न परिस्थितियों के बारे में बताते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सन 2030, 2050 और 2085 के लिए किए गए दूरगामी आंकलन से यह तस्वीर सामने आती है कि इन वर्षों में लद्दाख, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सामान्य तापमान में वृद्धि होगी।
  • इसके साथ ही अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, पश्चिम बंगाल, गोवा, तमिलनाडू और आंध्र प्रदेश में बहुत कम या न के बराबर तापमान वृद्धि हो सकती है।
  • पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में इसके संदर्भ में बात करें तो इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों और ऊपरी मालाबार समुद्री तटों में बेतहाशा बारिश बढ़ेगी जबकि पूर्वोत्तर के ही अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और पूर्व-पश्चिम के लद्दाख, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में बारिश की गति में मामूली या न के बराबर परिवर्तन देखने को मिलेंगे।
पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति
  • भारत वन स्थिति रिपोर्ट- 2021 पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं जो हिंदुस्तान में जैव विविध तता के लिए जाने जाते हैं और इसी रूप में वर्गीकृत भी किए जाते है।
  • रिपोर्ट के अनुसार पूर्वोत्तर क्षेत्रों में कुल 169521 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र है जो इस क्षेत्र के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 66 प्रतिशत है। रिपोर्ट के अनुसार इसमें 0.60 प्रतिशत यानी 1,020 वर्ग किलोमीटर की कमी दर्ज की गयी है।
पहाड़ी जिलों की स्थिति
  • 140 पहाड़ी जिलों में कुल 283,104 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल दर्ज किया गया है जो इन जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब 17 प्रतिशत है। मौजूदा आंकलन के मुताबिक इसमें भी 902 वर्ग किलोमीटर (0.32 प्रतिशत) की कमी दर्ज की गयी है।
आदिवासी बाहुल्य जिलों की स्थिति
  • आदिवासी बाहुल्य जिलों को जिन्हें इस रिपोर्ट में ट्राइबल डिस्ट्रिक्ट्स या आदिवासी जिले कहा गया है और जिनकी संख्या 218 है, वहाँ कुल वन क्षेत्र 422296 वर्ग किलोमीटर है जो इन जिलों के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 37.53 प्रतिशत है।
  • इस रिपोर्ट के मुताबिक यहाँ भी 622 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में गिरावट आयी है। हालांकि ये गिरावट अभिलेखों में दर्ज वन क्षेत्र (रिकोर्डेड फॉरेस्ट एरिया) और हरित क्षेत्र (ग्रीन वाश) के दायरे में मौजूद वन क्षेत्र के लिए है। लेकिन अगर इन्हीं 218 जिलों में इन दो श्रेणियों से बाहर पैदा हुए वन क्षेत्र की बात करें तो यहाँ 600 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गयी है।

टाइगर रिजर्व, कॉरिडोर और शेर संरक्षण क्षेत्र में वन आवरण

  • वर्तमान ISFR 2021 में, है ने भारत के टाइगर रिजर्व, कॉरिडोर और शेर संरक्षण क्षेत्र में वन आवरण के आकलन से संबंधित एक नया अध्याय शामिल किया है। इस संदर्भ में, टाइगर रिजर्व, कॉरिडोर और शेर संरक्षण क्षेत्र में वन आवरण में बदलाव पर यह दशकीय मूल्यांकन वर्षों से लागू किए गए संरक्षण उपायों और प्रबंधन के प्रभाव का आकलन करने में मदद करेगा।
  • इस दशकीय मूल्यांकन के लिए प्रत्येक टाइगर रिजर्व क्षेत्र में ISFR 2011 (डेटा अवधि 2008 से 2009) और वर्तमान चक्र (ISFR 2021, डेटा अवधि 2019-2020) के बीच की अवधि के दौरान वन आवरण में परिवर्तन का विश्लेषण किया गया है।
जमीन से ऊपर बायोमास (AGB) का आकलन
  • इसमें FSI की नई पहल के तहत एक नया अध्याय जोड़ा गया है जिसमें 'जमीन से ऊपर बायोमास' का अनुमान लगाया गया है।
  • FSI ने अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (SAC), इसरो, अहमदाबाद के सहयोग से सिंथेटिक एपर्चर रडार (SAR) डेटा के एल-बैंड का उपयोग करते हुए अखिल भारतीय स्तर पर जमीन से ऊपर बायोमास ( AGB) के आकलन के लिए एक विशेष अध्ययन शुरू किया। असम और ओडिशा राज्यों ( साथ ही AGB मानचित्र) के परिणाम पहले ISFR 2019 में प्रस्तुत किए गए थे।
भारतीय वनों में जलवायु परिवर्तन हॉटस्पॉट की मैपिंग
  • FSI ने बिड़ला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस (बिट्स) पिलानी के गोवा कैंपस के सहयोग से 'भारतीय वनों में जलवायु परिवर्तन हॉटस्पॉट की मैपिंग' पर आधारित एक अध्ययन किया है।
  • यह सहयोगात्मक अध्ययन भविष्य की तीन समय अवधियों यानी वर्ष 2030, 2050 और 2085 के लिए तापमान और वर्षा डेटा पर कंप्यूटर मॉडल-आधारित अनुमान का उपयोग करते हुए भारत में वनावरण पर जलवायु हॉटस्पॉट का मानचित्रण करने के उद्देश्य से सहयोगात्मक अध्ययन किया गया था।
  • रिपोर्ट में राज्य/केंद्र शासित क्षेत्र के अनुसार विभिन्न मापदंडों पर भी जानकारी शामिल है। रिपोर्ट में पहाड़ी, आदिवासी जिलों और उत्तर पूर्वी क्षेत्र में वनावरण पर विशेष विषयगत जानकारी भी अलग से दी गई है। 

धरातल

भू-भाग

भूमि का वनस्पति पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। धरातल के स्वभाव का वनस्पति पर बहुत प्रभाव पड़ता है। उपजाऊ भूमि पर प्रायः कृषि की जाती है। ऊबड़ तथा असमतल भू-भाग पर, जंगल तथा घास के मैदान हैं, जिन में वन्य प्राणियों को आश्रय मिलता है। 

मृदा

विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग प्रकार की मृदा पाई जाती है, जो विविध प्रकार की वनस्पति का आधार है। मरुस्थल की बलुई मृदा में कंटीली झाड़ियाँ तथा नदियों के डेल्टा । क्षेत्र में पर्णपाती वन पाए जाते हैं। पर्वतों की ढलानों में जहाँ मृदा की परत गहरी है वहाँ शंकु धारी वन पाए जाते हैं।

जलवायु

तापमान

वनस्पति की विविधता तथा विशेषताएँ तापमान और वायु की नमी पर भी निर्भर करती हैं। हिमालय पर्वत की ढलानों तथा प्रायद्वीप के पहाड़ियों पर 915 मी० की ऊँचाई से ऊपर तापमान में गिरावट वनस्पति के पनपने और बढ़ने को प्रभावित करती है और उसे उष्ण कटिबंधीय से उपोष्ण, शीतोष्ण तथा अल्पाइन वनस्पतियों परिवर्तित करती है।

सूर्य का प्रकाश

किसी भी स्थान पर सूर्य के प्रकाश का समय, उस स्थान के अक्षांश समुद्र तल से ऊंचाई एवं ऋतु पर निर्भर करता है। प्रकाश अधिक समय तक मिलने के कारण वृक्ष जल्दी बढ़ते हैं।

वर्षण

भारत में लगभग सम्पूर्ण वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून (जून से सितंबर तक) एवं उत्तर-पूर्वी मानसून (लौटता हुआ मानसून) से होती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में कम वर्षा वाले क्षेत्रों की अपेक्षा सघन वन पाए जाते हैं।

वन नवीकरण योग्य संसाधन हैं और वातारण की गुणवत्ता बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ये स्थानीय जलवायु, मृदा अपरदन तथा नदियों की धारा नियंत्रित करते हैं। ये बहुत सारे उद्योगों के आधार हैं तथा कई समुदायों को जीविका प्रदान करते हैं ये मनोरम प्राकृतिक दृश्यों के कारण पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। ये पवन तथा तापमान को नियंत्रित करते हैं और वर्षा लाने में भी सहायता करते हैं। इनसे मृदा को जीवाश्म मिलता है और वन्य प्राणियों को आश्रय ।

भारतीय प्राकृतिक वनस्पति में कई कारणों से बहुत बदलाव आया है जैसे कि कृषि के लिए अधिक क्षेत्र की माँग, उद्योगों का विकास, शहरीकरण की परियोजनाएँ और पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था के कारण वन्य क्षेत्र कम हो रहा है।

भारत के बहुत से भाग में वन क्षेत्र सही मायने में प्राकृतिक नहीं है।

पारिस्थितिक तंत्र

कुछ अगम्य क्षेत्रों को छोड़कर जैसे हिमालय और मध्य भारत के कुछ भाग मरुस्थल, जहाँ प्राकृतिक वनस्पति है, शेष भागों में मनुष्य के हस्तक्षेप प्राकृतिक वनस्पति आंशिक या संपूर्ण रूप से परिवर्तित हो चुकी है या फिर बिल्कुल निम्न कोटि की हो गई है।

किसी भी क्षेत्र के पादप तथा प्राणी आपस में तथा अपने भौतिक पर्यावरण से अंतर्संबंधित होते हैं और एक पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं। मनुष्य भी इस पारिस्थितिक तंत्र का अविच्छिन्न भाग है।

वनस्पति खंडों के तापमान की विशेषताएँ 
वनस्पति खंड औसत वार्षिक तापमान जनवरी में औसत तापमान टिप्पणी
उष्ण 24° से० से अधिक 18° से० से अधिक कोई पाला नहीं
उपोष्ण 17° से० से 24° से० 10° से० से 18° से० पाला कभी-कभी
शीतोष्ण 7° से० से 17° से० - 1° से० से ( -10 )° से० कभी पाला कभी बर्फ
अल्पाइन 7° से० से कम - 1° से० से कम बर्फ

धरातल पर एक विशिष्ट प्रकार की वनस्पति या प्राणी जीवन वाले विशाल पारिस्थितिक तंत्र को 'जीवोम' (Biome) कहते हैं। जीवोम की पहचान पादप पर आधारित होती है।

भारत में विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। हिमालय पर्वतों पर शीतोष्ण कटिबंधीय वनस्पति उगती है पश्चिमी घाट तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन पाए जाते हैं।

डेल्टा क्षेत्रों में उष्ण कटिबंधीय वन व मैंग्रोव तथा राजस्थान के मरुस्थलीय और अर्ध-मरुस्थलीय क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की झाड़ियाँ, कैक्टस और कांटेदार वनस्पति पाई जाती है।

मिट्टी और जलवायु में विभिन्नता के कारण भारत में वनस्पति में क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।

प्रमुख वनस्पति प्रकार तथा जलवायु परिस्थिति के आधार पर भारतीय वनों को निम्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है:

वनों के प्रकार 

(i) उष्ण कटिबंधीय सदाबहार एवं अर्ध-सदाबहार वन
(ii) उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन
(iii) उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन
(iv) पर्वतीय वन
(v) वेलांचली व अनूप वन

उष्ण कटिबंधीय सदाबहार एवं अर्ध-सदाबहार वन

ये वन पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढाल पर उत्तर पूर्वी क्षेत्र की पहाड़ियों पर और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाए जाते हैं।

ये उन उष्ण और आर्द्र प्रदेशों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है और औसत वार्षिक तापमान 22° सेल्सियस से अधिक रहता है ।

उष्ण कटिबंधीय वन सघन और पर्तों वाले होते हैं, जहाँ भूमि के नजदीक झाड़ियाँ और बेलें होती हैं, इनके ऊपर छोटे कद वाले पेड़ और सबसे ऊपर लंबे पेड़ होते हैं। इन वनों में वृक्षों की लंबाई 60 मीटर या उससे भी अधिक हो सकती है।

चूँकि इन पेड़ों के पत्ते झड़ने, फूल आने और फल लगने का समय अलग-अलग है, इसलिए ये वर्ष भर हरे-भरे दिखाई देते हैं। इसमें पाई जाने वाले मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ रोजवुड, महोगनी, ऐनी और एबनी हैं।

इन वनों में सामान्य रूप से पाए जाने वाले जानवर हाथी, बंदर लैमूर और हिरण हैं। एक सींग वाले गैंडे, असम और पश्चिमी बंगाल के दलदली क्षेत्र में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इन जंगलों में कई प्रकार के पक्षी, चमगादड़ तथा कई रेंगने वाले जीव भी पाए जाते हैं।

अर्ध-सदाबहार वन, इन्हीं क्षेत्रों में, अपेक्षाकृत कम वर्षा वाले भागों में पाए जाते हैं। ये वन सदाबहार और आर्द्र पर्णपाती वनों के मिश्रित रूप हैं। इनमें मुख्य वृक्ष प्रजातियाँ साइडर, होलक और कैल हैं। 

उष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन

भारतवर्ष में, ये वन बहुतायत में पाए जाते हैं। इन्हें मानसून वन भी कहा जाता है। ये वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से 200 सेंटीमीटर होती है।

जल उपलब्धता के आधार पर इन वनों को आर्द्र और शुष्क पर्णपाती वनों में विभाजित किया जाता है।

आर्द्र पर्णपाती वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 100 से 200 सेंटीमीटर होती है। ये वन उत्तर-पूर्वी राज्यों और हिमालय के गिरीपद, पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों और ओडिशा में उगते हैं।

सागवान, साल, शीशम, हुर्रा, महुआ, आँवला, सेमल, कुसुम और चंदन आदि प्रजातियों के वृक्ष इन वनों में पाए जाते हैं।

इन क्षेत्रों के बहुत बड़े भाग कृषि कार्य में प्रयोग हेतु साफ कर लिए गए हैं और कुछ भागों में पशुचारण भी होता है। इन जंगलों में पाए जाने वाले जानवर प्राय: सिंह, शेर, सूअर, हिरण और हाथी हैं। विविध प्रकार के पक्षी, छिपकली, साँप और कछुए भी यहाँ पाए जाते हैं।

शुष्क पर्णपाती वन, देश के उन विस्तृत भागों में मिलते हैं, जहाँ वर्षा 70 से 100 सेंटीमीटर होती है। आर्द्र क्षेत्रों की ओर ये वन आर्द्र पर्णपाती और शुष्क क्षेत्रों की ओर काँटेदार वनों में मिल जाते हैं। ये वन प्रायद्वीप में अधिक वर्षा वाले भागों और उत्तर प्रदेश व बिहार के मैदानी भागों में पाए जाते हैं।

अधिक वर्षा वाले प्रायद्वीपीय पठार और उत्तर भारत के मैदानों में ये. वन पार्कनुमा भू-दृश्य बनाते हैं, जहाँ सागवान और अन्य पेड़ों के बीच हरी-भरी घास होती है।

शुष्क ऋतु शुरू होते ही इन पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं और घास के मैदान में नग्न पेड़ खड़े रह जाते हैं। इन वनों में पाए जाने वाले मुख्य पेड़ों में तेंदुए पलास, अमलतास, बेल, खैर और अक्सलवूड (Axlewood) इत्यादि हैं।

राजस्थान के पश्चिमी और दक्षिणी भागों में कम वर्षा और अत्यधिक पशु चारण के कारण प्राकृतिक वनस्पति बहुत विरल है। 

उष्ण कटिबंधीय कांटेदार वन

उष्ण कटिबंधीय काँटेदार वन उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा 50 सेंटीमीटर से कम होती है। इन वनों में कई प्रकार के घास और झाड़ियाँ शामिल हैं।

इसमें दक्षिण-पश्चिमी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अर्ध-शुष्क क्षेत्र शामिल हैं। इन वनों में पौधे लगभग पूरे वर्ष पर्णरहित रहते हैं और झाड़ियों जैसे लगते हैं।

इनमें पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियाँ बबूल, बेर, खजूर, खैर, नीम, खेजड़ी और पलास इत्यादि हैं। इन वृक्षों के नीचे लगभग 2 मीटर लंबी गुच्छ घास उगती है।

जंगलों में प्राय: चूहे, खरगोश, लोमड़ी, भेड़िए, शेर, सिंह, जंगली गधा, घोड़े तथा ऊँट पाए जाते हैं।  

पर्वतीय वन

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई के साथ तापमान घटने के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति में भी बदलाव आता है ।

इन वनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है - उत्तरी पर्वतीय वन और दक्षिणी पर्वतीय वन ।

ऊँचाई बढ़ने के साथ हिमालय पर्वतश्रृंखला में उष्ण कटिबंधीय वनों से टुण्ड्रा में पाई जाने वाली प्राकृतिक वनस्पति पायी जाती है।

हिमालय के गिरीपद पर पर्णपाती वन पाए जाते हैं। इसके बाद 1,000 से 2,000 मीटर की ऊँचाई पर आर्द्र शीतोष्ण कटिबंधीय प्रकार के वन पाए जाते हैं।

उत्तर पूर्वी भारत की उच्चतर पहाड़ी श्रृंखलाओं और पश्चिम बंगाल और उत्तरांचल के पहाड़ी इलाकों में चौड़े पत्तों वाले ओक और चेस्टनट जैसे सदाबहार वन पाए जाते हैं ।

इस क्षेत्र में 1,500 से 1, 750 मीटर की ऊँचाई पर व्यापारिक महत्त्व वाले चीड़ के वन पाए जाते हैं।

हिमालय के पश्चिमी भाग में बहुमूल्य वृक्ष प्रजाति देवदार के वन पाए जाते हैं। देवदार की लकड़ी अधिक मजबूत होती है और निर्माण कार्य में प्रयुक्त होती है।

इसी तरह चिनार और वालन जिसकी लकड़ी कश्मीर हस्तशिल्प के लिए इस्तेमाल होती है, पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। बल्यूपाइन और स्प्रूस 2, 225 से 3,048 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इस ऊँचाई पर कई स्थानों पर शीतोष्ण कटिबंधीय घास भी उगती है।

इससे अधिक ऊँचाई पर एल्पाईन वन और चारागाह पाए जाते हैं। 3,000 से 4,000 मीटर की ऊँचाई पर सिल्वर फर, जूनिपर, पाइन, बर्च और रोडोडेन्ड्रॉन आदि वृक्ष मिलते हैं।

ऋतु - प्रवास करने वाले समुदाय जैसे गुज्जर, बकरवाल, गड्ढी और भुटिया, इन चरागाहों का पशु चारण के लिए भरपूर प्रयोग करते हैं। शुष्क उत्तरी ढालों की तुलना में अधिक वर्षा वाले हिमालय के दक्षिणी ढालों पर अधिक वनस्पति पाई जाती है। अधिक ऊँचाई वाले भागों में टुण्ड्रा वनस्पति जैसे मॉस व लाइकेन आदि पाई जाती है।

इन वनों में प्रायः कश्मीरी महामृग, चितरा हिरण, जंगली भेड़, खरगोश, तिब्बतीय बारहसिंघा, याक, हिम तेंदुआ, गिलहरी, रीछ, आइबैक्स, कहीं-कहीं लाल पांडा, घने बालों वाली भेड़ तथा बकरियाँ पाई जाती हैं।

दक्षिणी पर्वतीय वन मुख्यतः प्रायद्वीप के तीन भागों में मिलते हैं : पश्चिमी घाट, विंध्याचल और नीलगिरी पर्वत श्रृंखलाएँ। चूँकि, ये शृंखलाएँ उष्ण कटिबंध में पड़ती हैं और इनकी समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1, 500 मीटर ही है, इसलिए यहाँ ऊँचाई वाले क्षेत्र में शीतोष्ण कटिबंधीय और निचले क्षेत्रों में उपोष्ण कटिबंधीय प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक प्रांतों में पश्चिमी घाट में इस तरह की वनस्पति विशेषकर पाई जाती है।

नीलगिरी, अनामलाई और पालनी पहाड़ियों पर पाए जाने वाले शीतोष्ण कटिबंधीय वनों को 'शोलास' के नाम से जाना जाता है। इन बनों में पाए जाने वाले वृक्षों मगनोलिया, लैरेल, सिनकोना और बैटल का आधिक महत्व है। ये वन सतपुड़ा और मैकाल श्रेणियों में भी पाए जाते हैं।

औषधीय पातप

भारत प्राचीन समय से अपने मसालों तथा जड़ी बूटियों के लिए विख्यात रहा है। आयुर्वेद में लगभग 2,000 पादपों का वर्णन है और कम से कम 500 तो निरंतर प्रयोग में आते रहे हैं।

'विश्व संरक्षण संघ' ने लाल सूची के अंतर्गत 352 पादपों की गणना की है जिसमें से 52 पादप अति संकटग्रस्त हैं और 49 पादपों को विनष्ट होने का खतरा है।

भारत में प्रायः औषधि के लिए प्रयोग होने वाले कुछ निम्नलिखित पादप हैं-

सर्पगंधा यह रक्तचाप के निदान के लिए प्रयोग होता है और केवल भारत में ही पाया जाता है।

जामुन : पके हुए फल से सिरका बनाया जाता जो कि वायुसारी और मूत्रवर्धक है और इसमें पाचन शक्ति के भी गुण हैं। बीज का बनाया हुआ पाउडर मधुमेह (Diabetes) रोग में सहायता करता है।

अर्जुन: ताजे पत्तों का निकाला हुआ रस कान के दर्द के इलाज में सहायता करता है। यह रक्तचाप की नियमिता के लिए भी लाभदायक है।

बबूल इसके पत्ते आँख की फुंसी के लिए लाभदायक हैं। इससे प्राप्त गोंद का प्रयोग शारीरिक शक्ति की वृद्धि के लिए होता है।

नीम : जैव और जीवाणु प्रतिरोधक है।

तुलसी पावप: जुकाम और खाँसी की दवा में इसका प्रयोग होता है।

कचनार फोड़ा (अल्सर) व दमा रोगों के लिए प्रयोग होता है। इस पौधे की जड़ और कली पाचन शक्ति में सहायता करती है।

वेलांचली व अनूप वन

भारत में विभिन्न प्रकार के आर्द्र व अनूप आवास पाए जाते हैं। इसके 70 प्रतिशत भाग पर चावल की खेती की जाती है। भारत में लगभग 39 लाख हेक्टेयर भूमि आर्द्र है।

ओडिशा में चिल्का और भरतपुर में केवलादेव राष्ट्रीय पार्क, अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्र भूमियों के अधिवेशन (रामसर अधिवेशन) के अंतर्गत रक्षित जलकुक्कुट आवास हैं।

हमारे देश की आर्द्र भूमि को आठ वर्गों में रखा गया है, जो इस प्रकार हैं:

दक्षिण में दक्कन पठार के जलाशय और दक्षिण-पश्चिमी तटीय क्षेत्र की लैगून व पर्वतीय वन अन्य आर्द्र भूमि;

राजस्थान, गुजरात और कच्छ की खारे जल वाली भूमि;

गुजरात-राजस्थान से पूर्व (केवलादेव राष्ट्रीय पार्क) और मध्य प्रदेश की ताजा जल वाली झीलें व जलाशय;

भारत के पूर्वी तट पर डेल्टाई आर्द्र भूमि व लैगून ( चिलका झील आदि);

गंगा के मैदान में ताज़ा जल वाले कच्छ क्षेत्र;

ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ के मैदान व उत्तर पूर्वी भारत और हिमालय गिरीपद के कच्छ एवं अनूप क्षेत्र;

कश्मीर और लद्दाख की पर्वतीय झीलें और नदियाँ

(viii) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के द्वीप चापों के मैंग्रोव वन और दूसरे आर्द्र क्षेत्र।

मैग्रोव लवण कच्छ, ज्वारीय सँकरी खाड़ी, पंक मैदानों और ज्वारनदमुख के तटीय क्षेत्रों पर उगते हैं। इसमें बहुत से लवण से न प्रभावित होने वाले पेड़-पौधे होते हैं।

बंधे जल व ज्वारीय प्रवाह की सँकरी खाड़ियों से आड़े-तिरछे ये वन विभिन्न किस्म के पक्षियों को आश्रय प्रदान करते हैं।

यह वनस्पति तटवर्तीय क्षेत्रों में जहाँ ज्वार-भाटा आते हैं, की सबसे महत्त्वपूर्ण वनस्पति है। मिट्टी और बालू इन तटों पर एकत्रित हो जाती है।

वन और जीवन

असंख्य जनजातीय लोगों के लिए वन एक आवास, रोजी-रोटी और अस्तित्त्व है।

ये उन्हें भोजन, फल, खाने लायक वनस्पति, शहद पौष्टिक जड़ें और शिकार के लिए वन्य जानवर प्रदान करते हैं। ये उन्हें घर बनाने का सामान और कलाकारी की वस्तुएँ देते हैं।

जनजातीय समुदायों के लिए वनों की महत्ता सभी जानते हैं, क्योंकि ये उनके जीवन और आर्थिक क्रियाओं के आधार हैं।

भारत के 593 जिलों में से 188 जनजातीय जिलें हैं। ये जनजातीय जिले भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 33. 63 प्रतिशत हिस्सा है, परन्तु देश का 59.61 प्रतिशत वन आवरण इन्हीं जिलों में पाया जाता है। इससे पता चलता है कि जनजातीय जिले वन संपदा के धनी हैं।

वनों और जनजाति समुदायों में घनिष्ठ संबंध है और इनमें से एक का विकास दूसरे के बिना असंभव है।

वनों के विषय में इनके प्राचीन व्यावहारिक ज्ञान को वन विकास में प्रयोग किया जा सकता है।

जनजातियों को वनों से गौण उत्पाद संग्रह करने वाले न समझ कर उन्हें वन संरक्षण में भागीदार बनाया जाना चाहिए।

घने मैंग्रोव एक प्रकार की वनस्पति है जिसमें पौधों की जड़ें पानी में डूबी रहती हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टा भाग में यह वनस्पति मिलती है।

गंगा - ब्रह्मपुत्र डेल्टा में सुंदरी वृक्ष पाए जाते हैं जिनसे मजबूत लकड़ी प्राप्त होती है। नारियल, ताडु, क्योड़ा एवं ऐंगार के वृक्ष भी इन भागों में पाए जाते हैं।

इस क्षेत्र का रॉयल बंगाल टाइगर प्रसिद्ध जानवर है। इसके अतिरिक्त कछुए, मगरमच्छ, घड़ियाल एवं कई प्रकार के साँप भी इन जंगलों में मिलते हैं।

भारत में मैंग्रोव वन 6, 740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं, जो विश्व के मैंग्रोव क्षेत्र का 7 प्रतिशत है। ये अंडमान और निकोबार द्वीप समूह व पश्चिम बंगाल के सुंदर वन डेल्टा में अत्यधिक विकसित हैं। इसके अलावा ये महानदी, गोदावरी और कृष्णा नदियों के डेल्टाई भाग में पाए जाते हैं। इन वनों में बढ़ते अतिक्रमण के कारण इनका संरक्षण आवश्यक हो गया है।

वन संरक्षण

वनों का जीवन और पर्यावरण के साथ जटिल संबंध है। वन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हमें बहुत आर्थिक व सामाजिक लाभ पहुँचाते हैं। अतः वनों के संरक्षण की मानवीय विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

फलस्वरूप भारत सरकार ने पूरे देश के लिए वन संरक्षण नीति 1952 में लागू की जिसे 1988 में संशोधित किया गया।

इस नई वन नीति के अनुसार सरकार सतत् पोषणीय वन प्रबंध पर बल देगी जिससे एक ओर वन संसाधनों का संरक्षण व विकास किया जाएगा और दूसरी तरफ स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाएगा।

इस वन नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हैं :

देश में 33 प्रतिशत भाग पर वन लगाना, जो वर्तमान राष्ट्रीय स्तर से 6 प्रतिशत अधिक है।

पर्यावरण संतुलन बनाए रखना तथा पारिस्थितिक असंतुलित क्षेत्रों में वन लगाना;

देश की प्राकृतिक धरोहर, जैव विविधता तथा आनुवांशिक पूल का संरक्षण;

मृदा अपरदन और मरुस्थलीकरण रोकना तथा बाढ़ व सूखा नियंत्रण;

निम्नीकृत भूमि पर सामाजिक वानिकी एवं वनरोपण द्वारा वन आवरण का विस्तार;

वनों की उत्पादकता बढ़ाकर वनों पर निर्भर ग्रामीण जनजातियों को इमारती लकड़ी, ईंधन, चारा और भोजन उपलब्ध करवाना और लकड़ी के स्थान पर अन्य वस्तुओं को प्रयोग में लाना;

पेड़ लगाने को बढ़ावा देने के लिए, पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन चलाना, जिसमें महिलाएँ भी शामिल हों, ताकि वनों पर दबाव कम हो ।

इस वन संरक्षण नीति के अंतर्गत निम्न कदम उठाए गए हैं:

सामाजिक वानिकी

सामाजिक वानिकी का अर्थ है पर्यावरणीय सामाजिक व ग्रामीण विकास में मदद के उद्देश्य से वनों का प्रबंध और सुरक्षा तथा ऊसर भूमि पर वनरोपण | 

राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976-79) ने सामाजिक वानिकी को तीन वर्गों में बाँटा है शहरी वानिकी, ग्रामीण वानिकी और फार्म वानिकी।

शहरों और उनके इर्द-गिर्द निजी व सार्वजनिक भूमि, जैसे- हरित पट्टी, पार्क, सड़कों के साथ जगह, औद्योगिक व व्यापारिक स्थलों पर वृक्ष लगाना और उनका प्रबंध शहरी वानिकी के अंतर्गत आता है।

ग्रामीण वानिकी में कृषि वानिकी और समुदाय कृषि वानिकी को बढ़ावा दिया जाता है।

कृषि वानिकी का अर्थ है कृषि योग्य तथा बंजर भूमि पर पेड़ और फसलें एक साथ लगाना। इसका अभिप्राय है वानिकी और खेती एक साथ करना, जिससे खाद्यान्न, चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी और फलों का उत्पादन एक साथ किया जाए।

समुदाय वानिकी में सार्वजनिक भूमि, जैसे- गाँव-चरागाह, मंदिर-भूमि, सड़कों के दोनों ओर, नहर किनारे, रेल पट्टी के साथ पटरी और विद्यालयों में पेड़ लगाना शामिल है।

इसका उद्देश्य पूरे समुदाय को लाभ पहुँचाना है। इस योजना का एक उद्देश्य, भूमिविहीन लोगों को वानिकीकरण से जोड़ना तथा इससे उन्हें वे लाभ पहुँचाना जो केवल भूस्वामियों को ही प्राप्त होते हैं।

फार्म वानिकी

फार्म वानिकी के अंतर्गत किसान अपने खेतों में व्यापारिक महत्त्व वाले या दूसरे पेड़ लगाते हैं। वन विभाग, इसके लिए छोटे और मध्यम किसानों को निःशुल्क पौधे उपलब्ध कराता है।

इस योजना के तहत कई तरह की भूमि, जैसे खेतों की मेड़ें, चरागाह, घासस्थल, घर के पास पड़ी खाली जमीन और पशुओं के बाड़ों में भी पेड़ लगाए जाते हैं। -

वन्य प्राणी

भारत में वन्य प्राणी एक महान प्राकृतिक धरोहर है। विश्व के ज्ञात पौधों और प्राणियों की किस्मों में से 4-5 प्रतिशत किस्में भारत में पाई जाती हैं।

हमारे देश में इतने बड़े पैमाने पर जैव विविधता पाए जाने का कारण यहाँ पर पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र हैं, जिन्हें हमने युगों से संरक्षित रखा है।

वन्य प्राणियों की संख्या कम होने के मुख्य कारण इस प्रकार हैं :

औद्योगिकी और तकनीकी विकास के कारण वनों के दोहन की गति तेज हुई;

खेती, मानवीय बस्ती, सड़कों, खदानों, जलाशयों इत्यादि के लिए जमीन से वनों को साफ किया गया;

स्थानीय लोगों ने चारे, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए वनों से पेड़ काटे और वनों पर दबाव बढ़ाया;

पालतू पशुओं के लिए नए चरागाहों की खोज में मानव ने वन्य जीवों और उनके आवासों को नष्ट किया;

जंगलों में आग लगने से भी वन और वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ नष्ट हुई।

राष्ट्रीय व विश्व प्राकृतिक धरोहर को बचाने और पारिस्थितिक पर्यटन (Eco-tourism) को बढ़ावा देने के लिए वन्य प्राणियों का संरक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है।

भारत में वन्य प्राणी संरक्षण

भारत में वन्य प्राणियों के बचाव की परिपाटी बहुत पुरानी है। पंचतंत्र और जंगल बुक इत्यादि की कहानियाँ हमारे वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इनका युवाओं पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव है।

वन्य प्राणी अधिनियम, 1972 में पास हुआ, जो वन्य प्राणियों के संरक्षण और रक्षण की कानूनी रूपरेखा तैयार करता है। उस अधिनियम के दो मुख्य उद्देश्य हैं अधिनियम के तहत अनुसूची में सूचीबद्ध संकटापन्न प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा नेशनल पार्क, पशु विहार जैसे संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी सहायता प्रदान करना ।

इस अधिनियम को 1991 में पूर्णतया संशोधित कर दिया गया जिसके तहत कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें कुछ पौधों की प्रजातियों को बचाने तथा संकटापन्न प्रजातियों के संरक्षण का प्रावधान है। देश में 102 नेशनल पार्क और 515 वन्य प्राणी अभ्यारण्य हैं और ये 1.57 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर फैले हैं।

वन्य प्राणी संरक्षण का दायरा काफी बड़ा है और इसमें मानव कल्याण की असीम संभावनाएँ निहित हैं। यद्यपि इस लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब हर व्यक्ति इसका महत्त्व समझे और अपना योगदान दे।

यूनेस्को के 'मानव और जीवमंडल योजना' (Man and Biosphere Programme) के तहत भारत सरकार ने वनस्पति जात और प्राणि जात के संरक्षण के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।

प्रोजेक्ट टाईगर (1973) इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बाघों की • जनसंख्या का स्तर बनाए रखना है, जिससे वैज्ञानिक, सौन्दर्यात्मक सांस्कृतिक और पारिस्थितिक मूल्य बनाए रखे जा सकें। जिससे प्राकृतिक धरोहर को भी संरक्षण मिलेगा जिसका लोगों को शिक्षा और मनोरंजन के रूप में फायदा होगा।

शुरू में यह योजना नौ बाघ निचयों (आरक्षित क्षेत्रों) में शुरू की गई थी और ये 16,339 वर्ग किलोमीटर पर फैली थी। अब यह योजना क्रोड बाघ निचयों में चल रही है और इनका क्षेत्रफल 36,988.28 वर्ग किलोमीटर है और 17 राज्यों में व्याप्त है। किन्तु वर्ष 2014 की गणना के अनुसार देश में कुल बाघों की संख्या, 2, 226 है।

यह योजना मुख्य रूप से बाघ केंद्रित है, परन्तु फिर भी पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता पर जोर दिया जाता है। इसके अलावा भारत सरकार द्वारा कुछ और परियोजनाएँ, जैसे मगरमच्छ प्रजनन परियोजना, हगुंल परियोजना और हिमालय कस्तूरी मृग परियोजना भी चलाई जा रही है।

प्रवासी पक्षी

भारत के कुछ दलदली भाग प्रवासी पक्षियों के लिए प्रसिद्ध है। शीत ऋतु में साइबेरियन सारस बहुत संख्या में यहाँ आते हैं।

इन पक्षियों का एक मनपसंद स्थान कच्छ का रन है। जिस स्थान पर मरुभूमि समुद्र से मिलती है वहाँ लाल सुंदर कलंगी वाली फ्लैमिंगो, हजारों की संख्या में आती हैं और खारे कीचड़ के ढेर बनाकर उनमें घोंसले बनाती है और बच्चों को पालती है।

जीव मंडल निचय

जीव मंडल निचय (आरक्षित क्षेत्र) विशेष प्रकार के भौमिक और तटीय पारिस्थितिक तंत्र हैं, जिन्हें यूनेस्को के मानव और जीव मंडल प्रोग्राम (MAB) के अंतर्गत मान्यता प्राप्त है। भारत में 14 जीव मंडल निचय हैं।

इनमें से 4 जीव मंडल निचय - नीलगिरी; नंदादेवी; सुंदर वन और मन्नार की खाड़ी ।

यूनेस्को द्वारा जीव मंडल निचय विश्व नेटवर्क पर मान्यता प्राप्त हैं।

नीलगिरी जीव मंडल निचय

इसकी स्थापना 1986 में हुई थी और यह भारत का पहला जीव मंडल निचय है। इस निचय में वायनाड वन्य जीवन सुरक्षित क्षेत्र, नगरहोल, बांदीपुर और मदुमलाई, ऊपरी नीलगिरी पठार, सायलेंट वैली और सिदुवानी पहाड़ियां शामिल हैं। इस जीव मंडल निचय का कुल क्षेत्र 5520 वर्ग किलोमीटर है।

नीलगिरी जीव मंडल निचय में विभिन्न प्रकार के आवास और मानव क्रिया द्वारा कम प्रभावित प्राकृतिक वनस्पति व सूखी झाड़ियां, जैसेशुष्क और आर्द्र पर्णपाती वन, अर्ध-सदाबहार और आर्द्र सदाबहार वन, सदाबहार शोलास, घास के मैदान और दलदल शामिल हैं।

यहां दो संकटापन्न प्राणी प्रजातियों, नीलगिरी ताहर और शेर जैसी दुम वाले बंदर की सबसे अधिक संख्या पाई जाती है। 

नीलगिरी निचय में हाथी, बाघ, सांभर और चीतल जानवरों की दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा संख्या तथा कुछ संकटापन्न और क्षेत्रीय विशेष पौधे पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में कुछ ऐसी जनजातियों के आवास भी स्थित हैं, जो पर्यावरण के साथ सामंजस्य करके रहने के लिए विख्यात हैं।

इस जीव मंडल की स्थलाकृति उबड़-खाबड़ है और समुद्र तल की ऊँचाई 250 मीटर से 2650 मीटर तक है। पश्चिम घाट में पाए जाने वाले 80% फूलदार पौधे इसी निचय में मिलते हैं।

नंदा देवी जीव मंडल निचय

नंदा देवी जीव मंडल निचय उत्तराखण्ड में स्थित है जिसमें चमोली, अल्मोड़ा, पिथौड़ागढ़ और बागेश्वर जिलों के भाग शामिल हैं। यहां पर मुख्यतः शीतोष्ण कटिबंधीय वन पाए जाते हैं।

यहां पाई जाने वाली प्रजातियों में सिल्वर वुड तथा लैटीफोली जैसे ओरचिड और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं।

इस जीव मंडल निचय में कई प्रकार के वन्य जीव, जैसे- हिम तेंदुआ, काला भालू, भूरा भालू, कस्तूरी मृग, हिम- मुर्गा, सुनहरा बाज और काला बाज पाए जाते हैं।

यहां पारिस्थितिक तंत्रों को मुख्य खतरा संकटापन्न पौध प्रजातियों को दवा के लिए इकट्ठा करना, दावानल और पशुओं का व्यापारिक उद्देश्य के लिए शिकार से है।

सुंदर वन जीव मंडल निचय

यह पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के दलदली डेल्टा पर स्थित हैं। यह एक विशाल क्षेत्र (9630 वर्ग किलोमीटर) पर फैला हुआ है और यहां मैंग्रोव वन, अनूप और वनाच्छादित द्वीप पाए जाते हैं।

मैंग्रोव वृक्षों की उलझी हुई विशाल जड़ समूह मछली से श्रिम्प तक को आश्रय प्रदान करती है। 

इन मैंग्रोव वनों में 170 से ज्यादा पक्षी प्रजातियां पाई जाती है। स्वयं को लवणीय और ताजा जल पर्यावरण के अनुरूप ढालते हुए, बाघ पानी में तैरते हैं और चीतल, भौंकने वाले मृग, जंगली सुअर और यहां तक कि लंगूरों जैसे दुर्लभ शिकार भी कर लेते हैं।

सुंदर वन के मैंग्रोव वनों में हेरिशिएरा फोमीज, जो बेशकीमती इमारती लकड़ी है, भी पाई जाती है।

मन्नार की खाड़ी की जीवमंडल निचय

मन्नार की खाड़ी का जीवमंडल निचय लगभग एक लाख पांच हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है और भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है।

समुद्रीय जीव विविधता के मामले में यह क्षेत्र विश्व के सबसे ध नी क्षेत्रों में से एक है।

इस जीवमंडल निचय में 21 द्वीप हैं और इन पर अनेक ज्वारनदमुख, पुलिन, तटीय पर्यावरण के जंगल, समुद्री घासें, प्रवाल द्वीप, लवणीय अनूप और मैंग्रोव पाए जाते हैं।

यहां पर लगभग 3600 पौधों और जीवों की संकटापन्न प्रजातियां पाई जाती हैं, जैसे- समुद्री गाय इसके अतिरिक्त भारतीय प्रायद्वीप क्षेत्रीय विशेष की 6 मैंग्रोव प्रजातियां भी संकटापन्न हैं।

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Mon, 27 Nov 2023 10:25:20 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | जलवायु https://m.jaankarirakho.com/485 https://m.jaankarirakho.com/485 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | जलवायु
  • मानसून से अभिप्राय ऐसी जलवायु से है, जिसमें ऋतु के अनुसार पवनों की दिशा में उत्क्रमण हो जाता है। भारत की जलवायु उष्ण मानसूनी है, जो दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी एशिया में पायी जाती है।
  • मानसून शब्द की व्युत्पत्ति अरबी शब्द है- 'मौसिम' से हुई है।
  • मानसून का अर्थ, एक वर्ष के दौरान वायु की दिशा में ऋतु के अनुसार परिवर्तन है। 
  • गर्मियों में, राजस्थान के मरुस्थल में कुछ स्थानों का तापमान लगभग 50° से० तक पहुँच जाता है, जबकि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में तापमान लगभग 20° से रहता है। सर्दी की रात में, जम्मू-कश्मीर में द्रास का तापमान 45° से० तक हो सकता है, जबकि तिरुवनंतपुरम में यह 22° से० हो सकता है।
  • वर्षण के रूप तथा प्रकार में ही नहीं, बल्कि इसकी मात्रा एवं ऋतु के अनुसार वितरण में भी भिन्नता होती है। हिमालय में वर्षण अधिकतर हिम के रूप में होता है तथा देश के शेष भाग में यह वर्षा के रूप में होता है।
  • वार्षिक वर्षण में भिन्नता मेघालय में 400 सेमी. से लेकर लद्दाख एवं पश्चिमी राजस्थान में यह 10 सेमी. से भी कम होती है।
  • देश के अधिकतर भागों में जून से सितंबर तक वर्षा होती है, लेकिन कुछ क्षेत्रों जैसे तमिलनाडु तट पर अधिकतर वर्षा अक्टूबर एवं नवंबर में होती है।
  • सामान्य रूप से तटीय क्षेत्रों के तापमान में अंतर कम होता है। देश के आंतरिक भागों में मौसमी या ऋतुनिष्ठ अंतर अधिक होता है। उत्तरी मैदान में वर्षा की मात्रा सामान्यतः पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है।
मानसून जलवायु में एकरूपता एवं विविधता
  • मानसून पवनों की व्यवस्था भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच एकता को बल प्रदान करती है।
  • यह भिन्नता भारत के विभिन्न प्रदेशों के मौसम और जलवायु को एक-दूसरे से अलग करती है। उदाहरण के लिए दक्षिण में केरल तथा तमिलनाडु की जलवायु उत्तर में उत्तर प्रदेश तथा बिहार की जलवायु से अलग है। फिर भी इन सभी राज्यों की जलवायु मानसून प्रकार की है।
  • भारत की जलवायु में अनेक प्रादेशिक भिन्नताएँ हैं जिन्हें पवनों के प्रतिरूप, तापक्रम और वर्षा ऋतुओं की लय तथा आर्द्रता एवं शुष्कता की मात्रा में भिन्नता के रूप में देखा जा सकता है। इन प्रादेशिक विविधताओं का जलवायु के उपवर्गों के रूप में वर्णन किया जा सकता है।
  • मेघालय की गारो पहाड़ियों में स्थित तुरा एक ही दिन में उतनी वर्षा होती है जितनी जैसलमेर में दस वर्षों में।
  • उत्तरी-पश्चिमी हिमालय तथा पश्चिमी मरुस्थल में वार्षिक वर्षा 10 से.मी. से भी कम होती है, जबकि उत्तर पूर्व में स्थित मेघालय में वार्षिक वर्षा 400 से.मी. से भी ज्यादा होती है।
  • जुलाई या अगस्त में गंगा के डेल्टा तथा उड़ीसा के तटीय भागों में हर तीसरे या पाँचवें दिन प्रचंड तूफान मूसलाधार वर्षा करते हैं। जबकि इन्हीं महीनों में मात्र एक हजार किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित तमिलनाडु का कोरोमंडल तट शांत एवं शुष्क रहता है।
  • देश के अधिकांश भागों में वर्षा जून और सितंबर के बीच होती है, किंतु तमिलनाडु के तटीय प्रदेशों में वर्षा शरद ऋतु अथवा जाड़ों के आरंभ में होती है। 
जलवायवी नियंत्रण
  • किसी भी क्षेत्र की जलवायु को नियंत्रित करने वाले छः प्रमुख कारक हैं अक्षांश, तुंगता (ऊँचाई), वायु दाब एवं पवन तंत्र, • समुद्र से दूरी, महासागरीय धाराएँ तथा उच्चावच लक्षण ।
  • पृथ्वी की गोलाई के कारण, इसे प्राप्त सौर ऊर्जा की मात्रा अक्षांशों के अनुसार अलग-अलग होती है। इसके परिणामस्वरूप तापमान विषुवत वृत्त से ध्रुवों की ओर सामान्यतः घटता जाता है। जब कोई व्यक्ति पृथ्वी की सतह से ऊँचाई की ओर जाता है, तो वायुमंडल की सघनता कम हो जाती है तथा तापमान घट जाता है।
  • पहाड़ गर्मी के मौसम में भी ठंडे होते हैं। किसी भी क्षेत्र का वायु दाब एवं पवन तंत्र उस स्थान के अक्षांश तथा ऊँचाई पर निर्भर करती है। इस प्रकार यह तापमान एवं वर्षा के वितरण को प्रभावित करता है।
  • समुद्र का जलवायु पर समकारी प्रभाव पड़ता है, जैसे-जैसे समुद्र से दूरी बढ़ती है यह प्रभाव कम होता जाता है एवं लोग विषम मौसमी अवस्थाओं को महसूस करते हैं। इसे महाद्वीपीय अवस्था कहते हैं। महासागरीय धाराएँ समुद्र से तट की ओर चलने वाली हवाओं के साथ तटीय क्षेत्रों की जलवायु को प्रभावित करती हैं।
  • अंत में, किसी स्थान की जलवायु को निर्धारित करने में उच्चावच की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ऊँचे पर्वत ठंडी अथवा गर्म वायु को अवरोधित करते हैं। यदि उनकी ऊँचाई इतनी हो कि वे वर्षा लाने वाली वायु के रास्तों को रोकने में सक्षम होते हैं, तो ये उस क्षेत्र में वर्षा का कारण भी बन सकते हैं। पर्वतों के पवनविमुख ढाल अपेक्षाकृत सूखे रहते हैं।
भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक
  • भारत की जलवायु को नियंत्रित करने वाले अनेक कारक हैं, जिन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-
    1. स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक तथा 
    2. वायुदाब एवं पवन संबंधी कारक ।
स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक
अक्षांश
  • भारत की मुख्य भूमि का अक्षांशीय एवं देशांतरीय विस्तार तथा कर्क रेखा पूर्व-पश्चिम दिशा में देश के लगभग मध्य भाग से गुजरती है।
  • इस प्रकार भारत का उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में और कर्क रेखा के दक्षिण में स्थित भाग उष्ण कटिबंध में पड़ता है।
  • उष्ण कटिबंध भूमध्य रेखा के अधिक निकट होनें के कारण वर्ष भर ऊँचे तापमान तथा कम दैनिक और वार्षिक तापांतर का अनुभव करता है।
  • कर्क रेखा से उत्तर में स्थित भाग में भूमध्य रेखा से दूर होने के कारण उच्च दैनिक तथा वार्षिक तापांतर के साथ विषम जलवायु पायी जाती है।
हिमालय पर्वत की उपस्थिति
  • उत्तर में ऊँचा हिमालय अपने सभी विस्तारों के साथ एक प्रभावी जलवायु विभाजक की भूमिका निभाता है।
  • यह ऊँची पर्वत श्रृंखला उपमहाद्वीप को उत्तरी पवनों से अभेद्य सुरक्षा प्रदान करती है।
  • जमा देने वाली ये ठंडी पवनें उत्तरी ध्रुव रेखा के निकट पैदा होती हैं और मध्य तथा पूर्वी एशिया में आर-पार बहती हैं।
  • इसी प्रकार हिमालय पर्वत मानसूनी पवनों को रोककर उपमहाद्वीप में वर्षा का कारण बनता है।
जल और स्थल का वितरण
  • भारत के दक्षिण में तीन ओर हिंद महासागर व उत्तर की ओर ऊँची व अविच्छिन्न पर्वत श्रेणी है। स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म होता है और देर से ठंडा होता है।
  • जल और स्थल के इस विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब प्रदेश विकसित हो जाते हैं।
  • वायुदाब में भिन्नता मानसून पवनों के परिसंचरण का कारण बनती है।
समुद्र तट से दूरी
  • लंबी तटीय रेखा के कारण भारत के विस्तृत तटीय प्रदेशों में समकारी जलवायु पायी जाती है। भारत के अंदरूनी भाग समुद्र के समकारी प्रभाव से वंचित रह जाते हैं।
  • ऐसे क्षेत्रों में विषम जलवायु पायी जाती है। यही कारण है कि मुंबई तथा कोंकण तट के निवासी तापमान की विषमता और ऋतु परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पाते। दूसरी ओर समुद्र तट से दूर देश के आंतरिक भागों में स्थित दिल्ली, कानपुर और अमृतसर में मौसमी परिवर्तन पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं।
समुद्र तल से ऊँचाई
  • ऊँचाई के साथ तापमान घटता है। विरल वायु के कारण पर्वतीय प्रदेश मैदानों की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं।
  • उदाहरणत: आगरा और दार्जिलिंग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं किंतु जनवरी में आगरा का तापमान 16° सेल्सियस जबकि दार्जिलिंग में यह 4° सेल्सियस होता है।
उच्चावच
  • भारत का भौतिक स्वरूप अथवा उच्चावच तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा तथा ढाल की मात्रा और वितरण को प्रभावित करता है।
  • जून और जुलाई के मध्य पश्चिमी घाट तथा असम के पवनाभिमुखी ढाल अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। जबकि इसी दौरान पश्चिमी घाट के साथ लगा दक्षिणी पठार पवनविमुखी स्थिति के कारण कम वर्षा प्राप्त करता है।
वायुदाब एवं पवनों से जुड़े कारक
  • भारत की स्थानीय जलवायुओं में पायी जाने वाली विविधता को समझने के लिए निम्नलिखित तीन कारकों की क्रिया-विधि को जानना आवश्यक है।
    • वायुदाब एवं पवनों का धरातल पर वितरण।
    • भूमंडलीय मौसम को नियंत्रित करने वाले कारकों एवं विभिन्न वायु संहतियों एवं जेट प्रवाह के अंतर्वाह द्वारा उत्पन्न ऊपरी वायुसंचरण ।
    • शीतकाल में पश्चिमी विक्षोभों तथा दक्षिण-पश्चिमी मानसून काल उष्ण कटिबंधीय अवदाबों के भारत में अंतर्वहन के कारण उत्पन्न वर्षा की अनुकूल दशाएँ ।

ये दक्षिण की ओर बहती, भारीऑलिख बल के
  • कारण दाहिनी ओर विक्षेपित होकर विषुवतीय निम्न दाब वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ती हैं।
  • सामान्यत: इन पवनों में नमी की मात्रा बहुत कम होती है, क्योंकि ये स्थलीय भागों पर उत्पन्न होती हैं एवं बहती हैं। इसीलिए इन पवनों के द्वारा वर्षा कम या नहीं होती है। इस प्रकार भारत को शुष्क क्षेत्र होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है।
  • भारत का वायु दाब एवं पवन तंत्र अद्वितीय है। शीत ऋतु में, हिमालय के उत्तर में उच्च दाब होता है। इस क्षेत्र की ठंडी शुष्क हवाएं दक्षिण में निम्न दाब वाले महासागरीय क्षेत्र के ऊपर बहती हैं।
  • ग्रीष्म ऋतु में, आंतरिक एशिया एवं उत्तर पूर्वी भारत के ऊपर निम्न दांब का क्षेत्र उत्पनन हो जाता है। 
  • इसके कारण गर्मी के दिनों में वायु की दिशा पूरी तरह से परिवर्तित हो जाती है। वायु दक्षिण में स्थित हिंद महासागर के उच्च दाब वाले क्षेत्र से दक्षिण-पूर्वी दिशा में बहते हुए भारतीय उपमहाद्वीप पर स्थित . निम्न दाब की ओर बहने लगती हैं।
  • इन्हें दक्षिण-पश्चिम मानसून पवनों के नाम से जाना जाता है। ये पवनें कोष्ण महासागरों के ऊपर से बहती हैं, नमी ग्रहण करती हैं तथा भारत की मुख्य भूमि पर वर्षा करती हैं। इस प्रदेश में ऊपरी वायु परिसंचरण पश्चिमी प्रवाह के प्रभाव में रहता है। इस प्रवाह का एक मुख्य घटक जेटधारा है। जेट धाराएँ लगभग 27° से 30° उत्तरी अक्षांशों के बीच स्थित होती हैं, इसलिए इन्हें उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट धाराएँ कहा जाता है।
  • भारत में, ये जेट धाराएँ ग्रीष्म ऋतु को छोड़कर पूरे वर्ष हिमालय के दक्षिण में प्रवाहित होती हैं। इस पश्चिमी प्रवाह के द्वारा देश के उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी भाग में पश्चिमी चक्रवाती विक्षोभ आते हैं।
  • गर्मियों में सूर्य की आभासी गति के साथ ही उपोष्ण कटिबंधीय पश्चिमी जेट धारा हिमालय के उत्तर में चली जाती है।
  • एक पूर्वी जेट धारा जिसे उपोष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट धारा कहा जाता है गर्मी के महीनों में प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर लगभग 14° उत्तरी अक्षांश में प्रवाहित होती है।
दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु (वर्षा ऋतु)
  • मई के महीने में उत्तर-पश्चिमी मैदानों में तापमान के तेजी से बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब की दशाएँ और अधिक गहराने लगती हैं।
  • जून के आरंभ में ये दशाएँ इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वे हिंद महासागर से आने वाली दक्षिणी गोलाई की व्यापारिक पवनों को आकर्षित कर लेती हैं।
  • ये दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करके बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में प्रवेश कर जाती है, जहाँ ये भारत के ऊपर विद्यमान वायु परिसंचरण में मिल जाती हैं।
  • भूमध्यरेखीय समुद्री धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये पवनें अपने साथ पर्याप्त मात्रा में आर्द्रता लाती हैं।
  • भूमध्यरेखा को पार करके इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिमी हो जाती है। इसी कारण इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।
  • दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में वर्षा अचानक आरंभ हो जाती है। पहली बारिश का असर यह होता है कि तापमान में काफी गिरावट आ जाती है।
  • प्रचंड गर्जन और बिजली की कड़क के साथ इन आता भरी पवनों का अचानक चलना प्राय: मानसून का प्रस्फोट' कहलाता है।
  • जून के पहले सप्ताह में केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के तटीय भागों में मानसून फट पड़ता है, जबकि देश के आंतरिक भागों में यह जुलाई के पहले सप्ताह तक हो पाता है।
  • मध्य जून से मध्य जुलाई के बीच दिन के तापमान में 50 से 8 सेल्सियस की गिरावट आ जाती है।
  • जैसही, ये पवने स्थल पर पहुंचती हैं उच्चावच और उत्तर-पश्चिमी भारत पर स्थित तापीय निम्न वायुदाब उनकी दक्षिण-पश्चिमी दिशा को संशोधित कर देते हैं। भूखंड पर मानसून दो शाखाओं में पहुंचती है।
    (i) अरब सागर की शाखा और 
    (ii) बंगाल की खाड़ी की शाखा
अरब सागर की मानसून पवनें

अरब सागर से उत्पन्न होने वाली मानसून पवने आगे तीन शाखाओं में बैठती हैं :

  1. इसकी एक शाखा को पश्चिमी घाट रोकते हैं। ये पवनें पश्चिमी घाट की ढलानों पर 900 से 1200 मीटर की ऊँचाई तक चढ़ हैं। अतः ये पवने तत्काल ठंडी होकर सह्याद्रि की पवनाभिमुखी ढाल तथा पश्चिमी तटीय मैदान पर 250 से 400 सेंटीमीटर के वीच भारी वर्षा करती हैं। पश्चिमी घाट को पार करने के बाद ये पवने नीचे उतरती हैं और गरम होने लगती हैं। इससे इन पवनों की आर्द्रता में कमी आ जाती है। परिणामस्वरूप पश्चिमी घाट के पूर्व में इन पवनों से नाममात्र की वर्षा होती है। कम वर्षा का यह क्षेत्र वृष्टि-छाया क्षेत्र कहलाता है।
  2. अरब सागर से उठने वाली मानसून की दूसरी शाखा मुंबई के उत्तर में नर्मदा और तापी नदियों की घाटियों से होकर मध्य भारत में दूर तक वर्षा करती है। छोटा नागपुर पठार इस शाखा से 15 सेंटीमीटर वर्षा होती है। यहाँ यह गंगा के मैदान में प्रवेश कर जाती है और बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है।
  3. इस मानसून की तीसरी शाखा सौराष्ट्र प्रायद्वीप और कच्छ से टकराती है। वहाँ से यह अरावली के साथ-साथ पश्चिमी राजस्थान को लाँचती है और बहुत ही कम वर्षा करती है। पंजाब और हरियाणा में भी यह बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है। ये दोनों शाखाएँ एक दूसरे के सहारे प्रवलित होकर पश्चिमी हिमालय विशेष रूप से धर्मशाला में वर्षा करती हैं।
बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनें
  • बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों की शाखा म्यांमार के तट तथा दक्षिण-पूर्वी बांग्लादेश के एक थोड़े से भाग से टकराती है। किंतु म्यांमार के तट पर स्थित अराकान पहाड़ियाँ इस शाखा के एक बड़े हिस्से को भारतीय उपमहाद्वीप की ओर विशेषित कर देती है।
  • मानसून पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में दक्षिण-पश्चिमी दिशा की अपेक्षा दक्षिणी व दक्षिण-पूर्वी दिशा से प्रवेश करती है।
  • यहाँ से यह शाखा हिमालय पर्वत तथा भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित तापीय निम्नदाब के प्रभावाधीन दो भागों में बंट जाती है इसकी एक शाखा गंगा के मैदान के साथ-साथ पश्चिम की ओर बढ़ती है और पंजाब के मैदान तक पहुँचती है। इसकी दूसरी शाखा उत्तर व उत्तर-पूर्व में ब्रह्मपुत्र घाटी में बढ़ती है ।
  • यह शाखा वहाँ विस्तृत क्षेत्रों में वर्षा करती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय में स्थित गारो और खासी की पहाड़ियों से टकराती है। खासी पहाड़ियों के शिखर पर स्थित 'मॉसिनराम' विश्व की सर्वाधिक औसत वार्षिक वर्षा प्राप्त करता है।
  • तमिलनाडु तट वर्षा ऋतु में शुष्क रह जाता है, इसके लिए दो कारक उत्तरदायी हैं।
    1. तमिलनाडु तट बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों के समानांतर पड़ता है।
    2. यह दक्षिण-पश्चिमी मानसून की अरब सागर शाखा के वृष्टि क्षेत्र में स्थित है।
मानसून वर्षा की विशेषताएँ
  1. दक्षिण-पश्चिमी मानसून से प्राप्त होने वाली वर्षा मौसमी है, जो जून से सितंबर के दौरान होती है।
  2. मानसून वर्षा मुख्य रूप से उच्चावच अथवा भूआकृति द्व द्वारा नियंत्रित होती है। उदाहरण के पर पश्चिमी घाट की पवनाभिमुखी ढाल 250 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा दर्ज करती है। इसी प्रकार उत्तर पूर्वी राज्यों में होने वाली भारी वर्षा के लिए भी वहाँ की पहाड़ियाँ और पूर्वी हिमालय जिम्मेदार है।
  3. समुद्र से बढ़ती दूरी के साथ मानसून वर्षा में घटने की प्रवृत्ति पायी जाती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून अवधि में कोलकाता में 119 से.मी., पटना में 105 से.मी., इलाहाबाद में 76 से.मी. तथा दिल्ली में 56 से.मी. वर्षा होती है।
  4. किसी एक समय में मानसून वर्षा कुछ दिनों के आर्द्र दौरों में आती है। इन गीले दौरों में कुछ सूखे अंतराल भी आते हैं, जिन्हें विभंग या विच्छेद कहा जाता है। वर्षा के इन विच्छेदों का संबंध उन चक्रवातीय अवदाबों से है, जो बंगाल की खाड़ी के शीर्ष पर बनते हैं और मुख्य भूमि में प्रवेश कर जाते हैं। इन अवदाबों की बारंबारता और गहनता के अतिरिक्त इनके द्वारा अपनाए गए मार्ग भी वर्षा के स्थानिक विवरण को निर्धारित करते हैं।
  5. ग्रीष्मकालीन वर्षा मूसलाधार होती है, जिससे बहुत सा पानी बह जाता है और मिट्टी का अपरदन होता है।
  6. भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में मानसून का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि देश में होने वाली कुल वर्षा का तीन-चौथाई भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में प्राप्त होता है।
  7. मानसून वर्षा का स्थानिक वितरण भी असमान है, जो 12 से. मी. से 250 से.मी. से अधिक वर्षा के रूप में पाया जाता है।
  8. कई बार पूरे देश में या इसके एक भाग में वर्षा का आरंभ काफी देर से होता है।
  9. कई बार वर्षा सामान्य समय से पहले समाप्त हो जाती है। इससे खड़ी फसलों को तो नुकसान पहुँचता ही है शीतकालीन फंसलों. को बोने में भी कठिनाई आती है।
  • मानसून से संबंधित एक अन्य परिघटना है, 'वर्षा में विराम'। इस प्रकार, इसमें आर्द्र एवं शुष्क दोनों तरह के अंतराल होते हैं। दूसरे शब्दों में, मानसूनी वर्षा एक समय में कुछ दिनों तक ही होती है। इनमें वर्षा रहित अंतराल भी होते हैं। मानसून में आने वाले ये विराम मानसूनी गर्त की गति से संबंधित होते हैं।
  • विभिन्न कारणों से गर्त एवं इसका अक्ष उत्तर या दक्षिण की ओर खिसकता रहता है, जिसके कारण वर्षा का स्थानिक वितरण सुनिश्चित होता है।
  • जब मानसून के गर्त का अक्ष मैदान के ऊपर होता है तब इन भागों में वर्षा अच्छी होती है। दूसरी ओर जब अक्ष हिमालय के समीप चला जाता है तब मैदानों में लंबे समय तक शुष्क अवस्था रहती है तथा हिमालय की नदियों के पर्वतीय जलग्रहण क्षेत्रों में विस्तृत वर्षा होती है।
  • इस भारी वर्षा के कारण मैदानी क्षेत्रों में विनाशकारी बाढ़ें आती हैं एवं जान एवं माल की भारी क्षति होती है। उष्ण कटिबंधीय निम्न दाब की तीव्रता एवं आवृत्ति भी मानसूनी वर्षा की मात्रा एवं समय को निर्धारित करती है।
  • यह निम्न दाब का क्षेत्र बंगाल की खाड़ी के ऊपर बनता है तथा मुख्य स्थलीय भाग को पार कर जाता है।
  • यह गर्त निम्न दाब के मानसून गर्त के अक्ष के अनुसार होता है। मानसून को इसकी अनिश्चितता के लिए जाना जाता है। शुष्क एवं आर्द्र स्थितियों की तीव्रता, आवृत्ति एवं समय काल में भिन्नता होती है।
  • इसके कारण यदि एक भाग में बाढ़ आती है तो दूसरे भाग में सूखा पड़ता है। इसका आगमन एवं वापसी प्रायः अव्यवस्थित होता है। इसलिए यह कभी-कभी देश के किसानों की कृषि कार्यों को अव्यवस्थित कर देता है।
मानसून के निवर्तन की ऋतु
  • अक्तूबर और नवंबर के महीनों को मानसून के निवर्तन की ऋतु कहा जाता है। सितंबर के अंत में सूर्य के दक्षिणायन होने की स्थिति में गंगा के मैदान पर स्थित निम्न वायुदाब की द्रोणी भी दक्षिण की ओर खिसकना आरंभ कर देती है।
  • इससे दक्षिण-पश्चिमी मानसून कमजोर पड़ने लगता है। मानसून सितंबर के पहले सप्ताह में पश्चिमी राजस्थान से लौटता है।
  • इस महीने के अंत तक मानसून राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी गंगा मैदान तथा मध्यवर्ती उच्चभूमियों से लौट चुकी होती है। अक्टूबर के आरंभ बंगाल की खाड़ी के उत्तरी भागों में स्थित हो जाता है तथा नवंबर के शुरू में यह कर्नाटक और तमिलनाडु की ओर बढ़ जाता है। दिसंबर के मध्य तक निम्न वायुदाब का केंद्र प्रायद्वीप से पूरी तरह से हट चुका होता है।
  • मानसून के निवर्तन की ऋतु में आकाश स्वच्छ हो जाता है और तापमान बढ़ने लगता है। जमीन में अभी भी नमी होती है। उच्च तापमान और आर्द्रता की दशाओं से मौसम कष्टकारी हो जाता है। आमतौर पर इसे 'कार्तिक मास की ऊष्मा' कहा जाता है।
  • अक्तूबर माह के उत्तरार्ध में तापमान तेजी से गिरने लगता है। तापमान में यह गिरावट उत्तरी भारत में विशेष तौर पर देखी जाती है।
  • मानसून के निवर्तन की ऋतु में मौसम उत्तरी भारत में सूखा होता है, जबकि प्रायद्वीप के पूर्वी भागों में वर्षा होती है। यहाँ अक्तूबर और नवंबर वर्ष के सबसे अधिक वर्षा वाले महीने होते हैं।

  • इस ऋतु की व्यापक वर्षा का संबंध चक्रवातीय अवदाबों के मार्गों से है, जो अंडमान समुद्र में पैदा होते हैं और दक्षिणी प्रायद्वीप के पूर्वी तट को पार करते हैं। ये उष्ण कटिबंधीय चक्रवात अत्यंत विनाशकारी होते हैं। 
  • गोदावरी, कृष्णा और अन्य नदियों के घने बसे डेल्टाई प्रदेश इन तूफानों के शिकार बनते हैं। हर साल चक्रवातों से यहाँ आपदा आती है।
  • कुछ चक्रवातीय तूफान पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्यांमार के तट से भी टकराते हैं। कोरोमंडल तट पर होने वाली अधिकांश वर्षा इन्हीं अवदाबों और चक्रवातों से प्राप्त होती है। ऐसे चक्रवातीय तूफान अरब सागर में कम उठते हैं।
  • हिमालय अत्यंत ठंडी पवनों से भारतीय उपमहाद्वीप की रक्षा करता है। इसके कारण अपेक्षाकृत उच्च अक्षांशों के बावजूद उत्तरी भारत में निरंतर ऊँचा तापमान बना रहता है। इसी प्रकार प्रायद्वीपीय पठार में तीनों ओर से समुद्रों के प्रभाव के कारण न तो अधिक गर्मी पड़ती है और न अधिक सर्दी ।
  • इस समकारी प्रभाव के कारण तापमान की दिशाओं में बहुत कम अंतर पाए जाते हैं। परंतु फिर भी भारतीय प्रायद्वीप पर मानसून की एकता का प्रभाव बहुत ही स्पष्ट है।
  • पवन की दिशाओं का ऋतुओं के अनुसार परिवर्तन तथा उनसे संबंधित ऋतु की दशाएँ ऋतु-चक्रों को एक लय प्रदान करती हैं।
  • वर्षा की अनिश्चितताएँ तथा उसका असमान वितरण मानसून का एक विशिष्ट लक्षण है। इसका कृषि-चक्र, मानव जीवन तथा उनके त्यौहार- उत्सव, सभी इस मानसूनी लय के चारों ओर घूम रहे हैं।
  • उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक संपूर्ण भारतवासी प्रति वर्ष मानसून के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं।
  • ये मानसूनी पवनें हमें जल प्रदान कर कृषि की प्रक्रिया में तेजी लाती हैं एवं संपूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधती हैं। नदी घाटियाँ जो इन जलों का संवहन करती हैं, उन्हें भी एक नदी घाटी इकाई का नाम दिया जाता है।

भारत की परंपरागत ऋतुएँ

भारतीय परंपरा के अनुसार वर्ष को द्विमासिक छः ऋतुओं में बाँटा जाता है।
ऋतु भारतीय कैलेंडर के अनुसार महीने अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार महीने
बसंत चैत्र - बैसाख मार्च-अप्रैल
ग्रीष्म ज्येष्ठ-आषाढ़ मई-जून
वर्षा श्रावण-भाद्र जुलाई-अगस्त
शरद आश्विन-कार्तिक सितंबर-अक्टूबर
हेमंत मार्गशीर्ष - पौष नवंबर-दिसंबर
शिशिर  माघ-फाल्गुन जनवरी-फरवरी
  • उत्तरी और मध्य भारत में लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले इस ऋतु चक्र का आधार उनका अपना अनुभव और मौसम के घटक का प्राचीन काल से चला आया ज्ञान है, लेकिन ऋतुओं की यह व्यवस्था दक्षिण भारत की ऋतुओं से मेल नहीं खाती, जहाँ ऋतुओं में थोड़ी भिन्नता पाई जाती है।

भारतीय वर्षा के रूप

पर्वतीय वर्षा
  • जब संतृप्त वायु की संहति पर्वतीय ढाल पर आती है, तब यह ऊपर उठने के लिए बाध्य हो जाती है तथा जैसे ही यह ऊपर उठती है, यह फैलती है, तापमान गिर जाता है तथा आर्द्रता संघनित हो जाती है।
  • इस प्रकार की वर्षा का मुख्य गुण है कि पवनाभिमुख ढाल पर सबसे अधिक वर्षा होती है।
  • इस भाग में वर्षा होने के बाद ये हवाएँ दूसरे ढाल पर पहुँचती हैं, वे नीचे की ओर उतरती हैं तथा उनका तापमान बढ़ जाता है। तब उनकी आर्द्रता धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है एवं इस कार, प्रतिपवन ढाल सूखे तथा वर्षा विहीन रहते हैं।
  • प्रतिपवन भाग में स्थित क्षेत्र, जिनमें कम वर्षा होती है उसे 'वृष्टि छाया क्षेत्र' कहा जाता है। यह पर्वतीय वर्षा या स्थलकृत वर्षा के नाम से जानी जाती है।
चक्रवाती वर्षा
  • वे चक्रवातीय वायु प्रणालियाँ, जो उष्ण कटिबंध से दूर, मध्य व उच्च अक्षांशों में विकसित होती हैं, उन्हें बहिरूष्ण या शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात कहते हैं।
  • मध्य तथा उच्च अक्षांशों में जिस क्षेत्र से ये गुजरते हैं वहाँ मौसम संबंधी अवस्थाओं में अचानक तेजी से बदलाव आते हैं।
  • बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात ध्रुवीय वाताग्र के साथ-साथ बनते हैं। आरंभ में वाताग्र अचर होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में वाताग्र के दक्षिण में कोष्ण व उत्तर दिशा से ठंडी हवा प्रवाहित होती है।
  • जब वाताग्र के साथ वायुदाब कम हो जाता है, कोष्ण वायु उत्तर दिशा की ओर तथा ठंडी वायु दक्षिण दिशा में घड़ी की सुइयों के विपरीत चक्रवातीय परिसंचरण करती है।
  • इस चक्रवातीय प्रवाह से बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात विकसित होता है जिसमें एक उष्ण वाताग्र तथा एक शीत वाताग्र होता है। 
  • कोष्ण वायु आक्रामक रूप में ठंडी वायु के ऊपर चढ़ती है और उष्ण वाताग्र के पहले भाग में स्तरी मेघ दिखाई देते हैं और वर्षा होती है। 
  • पीछे से आता शीत वाताग्र उष्ण वायु को ऊपर धकेलता है, जिसके परिणामस्वरूप शीत वाताग्र के साथ कपासी मेघ बनते हैं। शीत वाताग्र उष्ण वाताग्र की अपेक्षा तीव्र गति से चलते हैं और अंततः उष्ण वाताग्रों को पूरी तरह ढँक लेते हैं। 
  • यह कोष्ण वायु ऊपर उठती हैं और इसका भूतल से कोई संपर्क नहीं रहता तथा अधिविष्ट वाताग्र बनता है एवं चक्रवात धीरे-धीरे . क्षीण हो जाता है।
  • धरातल तथा ऊँचाई पर वायु परिसंचरण की प्रक्रियाओं में निकट का अंतर्संबंध होता है। बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्णकटिबंधीय चक्रवातों से कई प्रकार भिन्न है।
  • बहिरूष्ण कटिबंधी चक्रवातों में स्पष्ट वाताग्र प्रणालियाँ होती हैं, जो उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में नहीं होती। ये विस्तृत क्षेत्रफल पर फैले होते हैं तथा इनकी उत्पत्ति जल व स्थल दोनों पर होती है, जबकि उष्ण कटिबंधीय चक्रवात केवल समुद्रों में उत्पन्न होते हैं और स्थलीय भागों में पहुँचने पर नष्ट हो जाते हैं। 
  • बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की अपेक्षा विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में पवनों का वेग अपेक्षाकृत तीव्र होता है और ये विनाशकारी होते हैं।
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात पूर्व से पश्चिम को चलते हैं जबकि बहिरूष्ण कटिबंधीय चक्रवात पश्चिम से पूर्व दिशा में चलते हैं।
संवहनीय वर्षा
  • हवा गर्म हो जाने पर हल्की होकर संवहन धाराओं के रूप में ऊपर की ओर उठती है, वायुमंडल की ऊपरी परत में पहुँचने के बाद यह फैलती है तथा तापमान के कम होने से ठंडी होती है।
  • परिणामस्वरूप संघनन की क्रिया होती है तथा कपासी मेघों का निर्माण होता है। 
  • गरज तथा बिजली कड़कने के साथ मूसलाधार वर्षा होती है, लेकिन यह बहुत लंबे समय तक नहीं रहती है। इस प्रकार की वर्षा गर्मियों में या दिन के गर्म समय में प्रायः होती है।
  • यह विषुवतीय क्षेत्र खासकर उत्तरी गोलार्द्ध के महाद्वीपों के भीतरी भागों में प्रायः होती है।
वर्षा का वितरण
  • भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 125 सेंटीमीटर है, लेकिन इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं।
  • अधिक वर्षा वाले क्षेत्र अधिक वर्षा पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्व के उप- हिमालयी क्षेत्र तथा मेघालय की पहाड़ियों पर होती है। यहाँ वर्षा 200 सेंटीमीटर से अधिक होती है।
  • खासी और जयंतिया पहाड़ियों के कुछ भागों में वर्षा 100 सेंटीमीटर से भी अधिक होती है। ब्रह्मपुत्र घाटी तथा निकटवर्ती पहाड़ियों पर वर्षा 200 सेंटीमीटर से भी कम होती है।
  • मध्यम वर्षा के क्षेत्र: गुजरात के दक्षिणी भाग, पूर्वी तमिलनाडु, ओडिशा सहित उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप, झारखंड, बिहार, पूर्वी मध्य प्रदेश, उपहिमालय के साथ संलग्न गंगा का उत्तरी मैदान, कछार घाटी और मणिपुर में वर्षा 100 से 200 सेंटीमीटर के बीच होती है।
  • न्यून वर्षा के क्षेत्र: पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू व कश्मीर, पूर्वी राजस्थान, गुजरात तथा दक्कन के पठार पर वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होती है।
  • अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्रः प्रायद्वीप के कुछ भागों विशेष रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में, लद्दाख और पश्चिमी राजस्थान के अधिकतर भागों में 50 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है।

वर्षा की परिवर्तिता
  • भारत की वर्षा का एक विशिष्ट लक्षण उसकी परिवर्तिता है। वर्षा की परिवर्तिता को अभिकलित निम्नलिखित सूत्र से किया जाता है :

  • विचरण गुणांक का मान वर्षा के माध्य मान से हुए विचलन को दिखाता है।
  • कुछ स्थानों की वार्षिक वर्षा में 20 से 50 प्रतिशत तक विचलन हो जाता है। विचरण गुणांक के मान भारत में वर्षा की परिवर्तिता को प्रदर्शित करते हैं।
  • 25 प्रतिशत से कम परिवर्तिता पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप, गंगा के पूर्वी मैदान, उत्तर-पूर्वी भारत, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू और कश्मीर के दक्षिण-पश्चिमी भाग में पाई जाती है।
  • इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 100 सेंटीमीटर से अधिक होती है। 50 प्रतिशत से अधिक परिवर्तिता राजस्थान के पश्चिमी भाग, जम्मू और कश्मीर के उत्तरी भागों तथा दक्कन के पठार के आंतरिक भागों में पाई जाती है।
  • इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 50 सेंटीमीटर से कम होती है। भारत के शेष भागों में परिवर्तिता 25 से 50 प्रतिशत तक है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होती है।
भारत के जलवायु प्रदेश
  • भारत की जलवायु मानसून प्रकार की है तथापि मौसम के तत्त्वों के मेल से अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ प्रदर्शित होती हैं।
  • यही विभिन्नताएँ जलवायु के उप-प्रकारों में देखी जा सकती हैं। इसी आधार पर जलवायु प्रदेश पहचाने जा सकते हैं।
  • एक जलवायु प्रदेश में जलवायवी दशाओं की समरूपता होती है, जो जलवायु के कारकों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न होती है।
  • तापमान और वर्षा जलवायु के दो महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, जिन्हें जलवायु वर्गीकरण की सभी पद्धतियों में निर्णायक माना जाता है। तथापि जलवायु का वर्गीकरण एक जटिल प्रक्रिया है।
  • जलवायु के वर्गीकरण की अनेक पद्धतियाँ हैं। कोपेन की पद्धति पर आधारित भारत की जलवायु के प्रमुख प्रकारों का वर्णन अग्रलिखित है।
  • कोपेन ने अपने जलवायु वर्गीकरण का आधार 'तापमान तथा वर्षण' के मासिक मानों को रखा है। उन्होंने जलवायु के 'पाँच' प्रकार माने हैं, जिनके नाम :
    1. उष्ण कटिबंधीय जलवायु, जहाँ सारा साल औसत मासिक तापमान 18° सेल्सियस से अधिक रहता है;
    2. शुष्क जलवायु, जहाँ तापमान की तुलना में वर्षण बहुत कम होता है और इसलिए शुष्क है। शुष्कता कम होने पर यह अर्ध-शुष्क मरुस्थल (S) कहलाता है; शुष्कता अधिक है तो यह मरुस्थल (W) होता है।
    3. गर्म जलवायु, जहाँ सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान 18° सेल्सियस और -3° सेल्सियस के बीच रहता है।
    4. हिम जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का औसत तापमान 100 सेल्सियस से अधिक और सबसे ठंडे महीने का औसत तापमान - 3° सेल्सियस से कम रहता है।
    5. बर्फीली जलवायु, जहाँ सबसे गर्म महीने का तापमान 10° सेल्सियस से कम रहता है।
  • वर्षा तथा तापमान के वितरण प्रतिरूप में मौसमी भिन्नता के आधार पर प्रत्येक प्रकार को उप-प्रकारों में बाँटा गया है। कोपेन ने अंग्रेजी के बड़े वर्णों S को अर्ध-मरुस्थल के लिए और W को मरुस्थल के लिए प्रयोग किया है।
  • इसी प्रकार उप-विभागों को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी के निम्नलिखित छोटे वर्णों का प्रयोग किया गया है। जैसे f (पर्याप्त वर्षण), m (शुष्क मानसून होते हुए भी वर्षा वन), w (शुष्क शीत ऋतु), h (शुष्क और गर्म), c (चार महीनों से कम अवधि में औसत तापमान 100 सेल्सियस से अधिक) और (गंगा का मैदान ) । भारत को आठ जलवायु प्रदेशों में बाँटा जा सकता है। जीवन
मानसून और भारत का आर्थिक
  1. मानसून वह धुरी है जिस पर समस्त भारत का जीवन-चक्र घूमता है, क्योंकि भारत की 64 प्रतिशत जनता भरण- पोषण के लिए खेती पर निर्भर करती है, जो मुख्यतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर आधारित है।
  2. हिमालयी प्रदेशों के अतिरिक्त शेष भारत वर्ष भर यथेष्ट गर्मी रहती है, जिससे सारा साल खेती की जा सकती है।
  3. मानसून जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता नाना प्रकार की फसलों को उगाने में सहायक है।
  4. वर्षा की परिवर्तनीयता देश के कुछ भागों में सूखा अथवा बाढ़ का कारण बनती है।
  5. मानसून का अचानक प्रस्फोट देश के व्यापक क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न कर देता है।
कोपेन की योजना के अनुसार भारत के जलवायु प्रदेश
जलवायु के प्रकार क्षेत्र
Amw - लघु शुष्क ऋतु वाला मानसून प्रकार गोवा के दक्षिण में भारत का पश्चिमी तट
As - शुष्क ग्रीष्म ऋतु वाला मानसून प्रकार तमिलनाडु का कोरोमंडल तट
 Aw- उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार कर्क वृत्त के दक्षिण में प्रायद्वीरपीय पठार का अधिकतर भाग
BShw- अर्ध शुष्क स्टेपी जलवायु उत्तर-पश्चिमी गुजरात, पश्चिमी राजस्थान और पंजाब के कुछ भाग
BWhw- गर्म मरुस्थल राजस्थान का सबसे पश्चिमी भाग
Cwg - शुष्क शीत ऋतु वाला मानसून प्रकार गंगा का मैदान, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर पूर्वी भारत का अधिकतर प्रदेश
 Dfc - लघु ग्रीष्म तथा ठंडी आर्द्र शीत ऋतु वाला जलवायु प्रदेश अरुणाचल प्रदेश
E-ध्रुवीय प्रकार जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड

भूमंडलीय तापन

  • परिवर्तन प्रकृति का नियम है। भूतकाल में जलवायु में भी भूमंडलीय एवं स्थानीय स्तर पर परिवर्तन जलवायु में परिवर्तन आज भी हो रहे हैं, किंतु से परिवर्तन अगोचर हैं। अनेक भूवैज्ञानिक साक्ष्य बताते हैं कि एक समय पृथ्वी के विशाल भाग बर्फ से ढके थे। प्राकृतिक कारकों के अतिरिक्त भूमंडलीय तापन के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण तथा वायुमंडल में प्रदूषणकारी गैसों की वृद्धि जैसी मानवी क्रियाएँ भी महत्त्वपूर्ण उत्तरदायी कारक हैं।
  • विश्व के तापमान में काफी वृद्धि हो रही है। मानवीय क्रियाओं द्वारा उत्पन्न कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि चिंता का मुख्य कारण है। जीवाश्म ईंधनों के जलने से वायुमंडल में इस गैस की मात्रा क्रमश: बढ़ रही है। कुछ अन्य गैसें जैसे: मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो- कार्बन, ओजोन और नाइट्रस ऑक्साइड वायुमंडल में अल्प मात्रा में विद्यमान हैं। इन्हें तथा कार्बन डाईऑक्साइड को हरितगृह गैसे कहते हैं।
  • कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में अन्य चार गैसें दीर्घ तरंगी विकिरण का ज्यादा अच्छी तरह से अवशोषण करती हैं, इसीलिए हरितगृह प्रभाव को बढ़ाने में उनका अधिक योगदान है। इन्हीं के प्रभाव से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
  • विगत 150 वर्षों में पृथ्वी की सतह का औसत वार्षिक तापमान बढ़ा है। है। तापमान की इस वृद्धि से कई अन्य परिवर्तन भी होंगे। इनमें से एक है गर्मी के कारण हिमानियों और समुद्री बर्फ के पिघलने से समुद्र तल का ऊँचा होना।
  • प्रचलित पूर्वानुमान के अनुसार औसत समुद्र तल 21वीं शताब्दी के अंत तक 48 से.मी. ऊँचा हो जाएगा। इसके कारण प्राकृतिक बाढ़ों की संख्या बढ़ जाएगी।
  • जलवायु परिवर्तन से मलेरिया जैसी कीटजन्य बीमारियाँ बढ़ जाएँगी। साथ ही वर्तमान जलवायु सीमाएँ भी बदल जाएँगी, जिसके कारण कुछ भाग कुछ अधिक जलसिक्त (Wet) और अधिक शुष्क हो जाएँगे। कृषि के प्रतिरूप बदल जाएँगे, जनसंख्या और पारितंत्र में भी परिवर्तन होंगे। लाफ

शीतऋतु में मौसम की क्रियाविधि

धरातलीय वायुदाब तथा पवनें:
  • शीत ऋतु में भारत का मौसम मध्य एवं पश्चिम एशिया में वायुदाब के वितरण से प्रभावित होता है। इस समय हिमालय के उत्तर में तिब्बत पर उच्च वायुदाब केंद्र स्थापित हो जाता है।
  • इस उच्च वायुदाब केंद्र के दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप की ओर निम्न स्तर पर धरातल के साथ-साथ पवनों का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है।
  • मध्य एशिया के उच्च वायुदाब केंद्र से बाहर की ओर चलने वाली धरातलीय पवनें भारत में शुष्क महाद्वीपीय पवनों के रूप में पहुँचती हैं।
  • ये महाद्वीपीय पवनें उत्तर पश्चिमी भारत में व्यापारिक पवनों के संपर्क में आती हैं। लेकिन इस संपर्क क्षेत्र की स्थिति स्थायी नहीं है। कई बार तो इसकी स्थिति खिसककर पूर्व में मध्य गंगा घाटी के ऊपर पहुँच जाती है। परिणामस्वरूप मध्य गंगा घाटी तक संपूर्ण उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी भारत इन शुष्क उत्तर-पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है।
  • जेट प्रवाह और ऊपरी वायु परिसंचरण: उपरोक्त वर्णित पवनें वे धरातल के निकट या वायुमंडल की निचली सतहों में चलती हैं। निचले वायुमंडल के क्षोभमंडल पर धरातल से लगभग तीन किलोमीटर ऊपर बिल्कुल भिन्न प्रकार का वायु संचरण होता है।
  • ऊपरी वायु संचरण के निर्माण में पृथ्वी के धरातल के निकट वायुमंडलीय दाब की भिन्नताओं की कोई भूमिका नहीं होती।
  • 9 से 13 कि.मी. की ऊँचाई पर समस्त मध्य एवं पश्चिमी एशिया पश्चिम से पूर्व बहने वाली पछुआ पवनों के प्रभावाधीन होता है। ये पवनें तिब्बत के पठार के सामानांतर हिमालय के उत्तर में एशिया महाद्व प पर चलती हैं। इन्हें जेट प्रवाह कहा जाता है।
  • तिब्बत उच्चभूमि इन जेट प्रवाहों के मार्ग में अवरोधक का काम करती है, जिसके परिणामस्वरूप जेट प्रवाह दो भागों में बँट जाता है। इसकी एक शाखा तिब्बत के पठार के उत्तर में बहती है। जेट प्रवाह की दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण में पूर्व की ओर बहती है।
  • दक्षिणी शाखा की औसत स्थिति फरवरी में लगभग 25° उत्तरी अक्षांश रेखा के ऊपर होती है तथा इसका दाब स्तर 200 से 300 मिलीबार होता है। ऐसा माना जाता है कि जेट प्रवाह की यही दक्षिणी शाखा भारत में जाड़े के मौसम पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है।

पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ तथा उष्ण कटिबंधीय चक्रवातः
  • पश्चिमी विक्षोभ, जो भारतीय उपमहाद्वीप में जाड़े के मौसम में पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम से प्रवेश करते हैं, भूमध्य सागर पर उत्पन्न होते हैं। भारत में इनका प्रवेश पश्चिमी जेट प्रवाह द्वारा होता है। शीतकाल में रात्रि के तापमान में वृद्धि इन विक्षोभों के आने का पूर्व संकेत माना जाता है।
  • उष्ण कटिबंधीय चक्रवात बंगाल की खाड़ी तथा हिंद महासागर में उत्पन्न होते हैं। इन उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों से तेज गति की हवाएँ चलती हैं और भारी बारिश होती है। ये चक्रवात तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा के तटीय भागों पर टकराते हैं। मूसलाधार वर्षा और पवनों की तीव्र गति के कारण ऐसे अधिकतर चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी होते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में मौसम की क्रियाविधि

घरातलीय वायुदाब तथा पवनें :
  • गर्मी का मौसम शुरू होने पर जब सूर्य उत्तरायण स्थिति में आता है, उपमहाद्वीप के निम्न तथा उच्च दोनों ही स्तरों पर वायु परिसंचरण में उत्क्रमण हो जाता है।
  • जुलाई के मध्य तक धरातल के निकट निम्न वायुदाब पेटी जिसे अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आई.टी.सी.जेड.) कहा जाता है, उत्तर की ओर खिसक कर हिमालय के लगभग समानांतर 20° से 25° उत्तरी अक्षांश पर स्थित हो जाती है। इस समय तक पश्चिमी जेट प्रवाह भारतीय क्षेत्र से लौट चुका होता है।
  • वास्तव में मौसम विज्ञानियों ने पाया है कि भूमध्यरेखीय दोणी (आई.टी.सी.जेड़) के उत्तर की ओर खिसकने तथा पश्चिमी जेट प्रवाह के भारत के उत्तरी मैदान से लौटने के बीच एक अतसंबंध है।
  • आई.टी.सी.जेड. निम्न वायुदाब का क्षेत्र होने के कारण विभिन्न दिशाओं से पवनों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दक्षिणी गोलार्द्ध से उष्णकटिबंधीय सामुद्रिक वायु संहति (एम.टी.) विषुवत वृत्त को पार करके सामान्यतः दक्षिण-पश्चिमी दिशा में इसी कम दाब वाली पेटी की ओर अग्रसर होती है। यही आर्द्र वायुधारा दक्षिण-पश्चिम मानसून कहलाती है।
जेट प्रवाह एवं ऊपरी वायु संचरण:
  • वायुदाब एवं पवनों का उपर्युक्त प्रतिरूप केवल क्षोभमंडल के निम्न स्तर पर पाया जाता है। जून में प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग पर पूर्वी जेट- प्रवाह 90 कि.मी. प्रति घंटा की गति से चलता है।
  • यह जेट प्रवाह अगस्त में 15° उत्तर अक्षांश पर तथा सितंबर में 22° उत्तर अक्षांश पर स्थित हो जाता है। ऊपरी वायुमंडल में पूर्वी जेट- प्रवाह सामान्यत: 30° उत्तर अक्षांश से परे नहीं जाता।

पूर्वी जेट-प्रवाह तथा उष्णकटिबंधीय चक्रवात :
  • पूर्वी जेट-प्रवाह उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को भारत में लाता है। ये चक्रवात भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा के वितरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन चक्रवातों के मार्ग भारत में सर्वाधिक वर्षा वाले भाग हैं। इन चक्रवातों की बारंबारता, दिशा, गहनता एवं प्रवाह एक लंबे दौर में भारत की ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा के प्रतिरूप निर्धारण पर पड़ता है।
अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (आई.टी.सी.जेड.) 
  • विषुवत वृत्त पर स्थित अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र एक निम्न वायुदाब वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनें मिलती हैं।
  • अतः इस क्षेत्र में वायु ऊपर उठने लगती है। जुलाई के महीने में आई.टी. सी.जेड. 20° से 25°3. अक्षांशों के आस-पास गंगा के मैदान में स्थित हो जाता है। इसे कभी-कभी मानसूनी गर्त भी कहते हैं। यह मानसूनी गर्त, उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत पर तापीय निम्न वायुदाब के विकास को प्रोत्साहित करता है।
  • आई.टी.सी.जेड. के उत्तर की ओर खिसकने के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें 40° और 60° पूर्वी देशांतरों के बीच विषुवत वृत्त को पार कर जाती हैं।
  • कोरियोलिस बल के प्रभाव से विषुवत वृत्त को पार करने वाली इन व्यापारिक पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर हो जाती है।
  • यही दक्षिण पश्चिम मानसून है। शीत ऋतु में आई.टी.सी.जेड. दक्षिण की ओर खिसक जाता है। इसी के अनुसार पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से बदलकर उत्तर-पूर्व हो जाती है, यही उत्तर-पूर्व मानसून है।
भारतीय मानसून की प्रकृति
  • मानसून एक सुपरिचित जलवायुवीय घटक है. पिछले कुछ दिनों में इसका 'तोड़' तब सामने आया जब मानसून का अध्ययन क्षेत्रीय स्तर की बजाय भूमंडलीय स्तर पर किया गया।
  • मानसून का प्रभाव उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में लगभग 20° उत्तर एवं 20° दक्षिण के बीच रहता है।
  • मानसून की प्रक्रिया को समझने के लिए निम्नलिखित तथ्य महत्त्वपूर्ण हैं -
    • स्थल तथा जल के गर्म एवं ठंडे होने की विभेदी प्रक्रिया के कारण भारत के स्थल भाग पर निम्न दाब का क्षेत्र उत्पन्न होता है, जबकि इसके आस-पास के समुद्रों ऊपर उच्च दाब का क्षेत्र बनता है।
    • ग्रीष्म ऋतु के दिनों में अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति गंगा के मैदान की ओर खिसक जाती है
    • हिंद महासागर में मेडागास्कर के पूर्व लगभग 20° दक्षिण अक्षांश के ऊपर उच्च दाब वाला क्षेत्र होता है। इस उच्च दाब वाले क्षेत्र की स्थिति एवं तीव्रता भारतीय मानसून को प्रभावित करती है।
    • ग्रीष्म ऋतु में, तिब्बत का पठार बहुत अधिक गर्म हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप पठार के ऊपर समुद्र तल से लगभग 9 किमी० की ऊँचाई पर तीव्र ऊर्ध्वाधर वायु धाराओं एवं उच्च दाब का निर्माण होता है।
    • ग्रीष्म ऋतु में हिमालय के उत्तर-पश्चिमी जेट धाराओं का तथा भारतीय प्रायद्वीप के ऊपर उष्ण कटिबंधीय पूर्वी जेट धाराओं का प्रभाव होता है।
  • इसके अतिरिक्त, दक्षिणी महासागरों के ऊपर दाब की अवस्थाओं में परिवर्तन भी मानसून को प्रभावित करता है। जैसे-
    1. मानसून का आरंभ तथा उसका स्थल की ओर बढ़ावा ।
    2. वर्षा लाने वाले यंत्र ( उदाहरण उष्ण कटिबंधीय चक्रवात) तथा मानसूनी वर्षा की आवृति एवं वितरण के बीच संबंध |
    3. मानसून में विच्छेद।
  • सामान्यत: जब दक्षिण प्रशांत महासागर के उष्ण कटिबंधीय पूर्वी भाग में उच्च दाब होता है तब हिंद महासागर के उष्ण कटिबंधीय पूर्वी भाग में निम्न दाब होता है, लेकिन कुछ विशेष वर्षों में वायु दाब की स्थिति विपरीत हो जाती है तथा पूर्वी प्रशांत महासागर के ऊपर हिंद महासागर की तुलना में निम्न दाब का क्षेत्र बन जाता है।
  • दाब की अवस्था में इस नियतकालिक परिवर्तन को दक्षिणी दोलन के नाम से जाना जाता है। डार्विन, उत्तरी आस्ट्रेलिया ( हिंद महासागर ) तथा ताहिती (प्रशांत महासागर 18° दक्षिण / 149° पश्चिम) के दाब के अंतर की गणना मानसून की तीव्रता के पूर्वानुमान के लिए की जाती है। अगर दाब का अंतर ऋणात्मक है तो इसका अर्थ होगा औसत से कम तथा विलंब आने वाला मानसून । एलनीनो, दक्षिणी दोलन से जुड़ा हुआ एक लक्षण है।
  • यह एक गर्म समुद्री जल धारा है, जो पेरू की ठंडी धारा के स्थान पर प्रत्येक 2 या 5 वर्ष के अंतराल में पेरू तट से होकर बहती है। दाब की अवस्था में परिवर्तन का संबंध एलनीनो से है। इसलिए इस परिघटना को इसो (ENSO) (एलनीनो दक्षिणी दोलन) कहा जाता है।
एल निनो और भारतीय मानसून
  • एल-निनो एक जटिल मौसम तंत्र है, जो हर पाँच या दस साल बाद प्रकट होता रहता है। इस के कारण संसार के विभिन्न भागों में सूखा, बाढ़ और मौसम की चरम अवस्थाएँ आती हैं।
  • इस तंत्र में महासागरीय और वायुमंडलीय परिघटनाएँ शामिल होती हैं। पूर्वी प्रशांत महासागर में, यह पेरू के तट के निकट उष्ण समुद्री धारा के रूप में प्रकट होता है। इससे भारत सहित अनेक स्थानों का मौसम प्रभावित होता है।
  • एल-निनो भूमध्यरेखीय उष्ण समुद्री धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थायी रूप से ठंडी पेरूवियन अथवा हम्बोल्ट धारा पर प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू तट के जल का तापमान 10° सेल्सियस तक बढ़ा देती है। इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं
    1. भूमध्यरेखीय वायुमंडलीय परिसंचरण में विकृति;
    2. समुद्री जल के वाष्पन में अनियमितता;
    3. प्लवक की मात्रा में कमी, जिससे समुद्र में मछलियों की संख्या का घट जाना।
  • एल-निनो का शाब्दिक अर्थ 'बालक ईसा' है, क्योंकि यह धारा दिसंबर के महीने में क्रिसमस के आस-पास नज़र आती है। पेरू (दक्षिणी गोलार्द्ध) में दिसंबर गर्मी का महीना होता है।
  • भारत में की लंबी अवधि के पूर्वानुमान के लिए एल-निनो मानसून का उपयोग होता है।
मानसून का आरंभ
  • गर्मी के महीनों में स्थल और समुद्र का विभेदी तापन ही मानसून पवनों के उपमहाद्वीप की ओर चलने के लिए मंच तैयार करता है।
  • अप्रैल और मई के महीनों में, जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है, तो हिंद महासागर के उत्तर में स्थित विशाल भूखंड अत्यधिक गर्म हो जाता है, इसके परिणामस्वरूप उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग पर एक गहन न्यून दाब क्षेत्र विकसित हो जाता है, क्योंकि भूखंड के दक्षिण में हिंद महासागर अपेक्षतया धीरे-धीरे गर्म होता है, निम्न वायुदाब केंद्र विषुवत रेखा के उस पार से दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनों को आकर्षित कर लेता है।
  • इन दशाओं में अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है। इस प्रकार दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनों को दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनों के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है, जो भूमध्य रेखा को पार करके भारतीय उपमहाद्वीप की ओर विक्षेपित जाती हैं। ये पवनें भूमध्यरेखा को 40° पूर्वी तथा 60° पूर्वी देशांतर रेखाओं के बीच पार करती हैं।

मानसून का आगमन

  • व्यापारिक पवनों के विपरीत मानसूनी पवनें नियमित नहीं हैं, लेकिन ये स्पंदमान प्रकृति की होती हैं।
  • उष्ण कटिबंधीय समुद्रों के ऊपर प्रवाह के दौरान ये विभिन्न वायुमंडलीय अवस्थाओं से प्रभावित होती हैं। मानसून का समय जून के आरंभ से लेकर मध्य सितंबर तक 100 से 120 दिनों के बीच होता है।
  • इसके आगमन के समय सामान्य वर्षा में अचानक वृद्धि हो जाती है तथा लगातार कई दिनों तक यह जारी रहती है। इसे मानसून प्रस्फोट (फटना) कहते हैं तथा इसे मानसून पूर्व बौछारों से अलग किया जा सकता है।
  • सामान्यतः जून के प्रथम सप्ताह में मानसून भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी छोर से प्रवेश करता है।
  • इसके बाद यह दो भागों में बँट जाता है अरब सागर शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा। अरब सागर शाखा लगभग दस दिन बाद, 10 जून के आस पास मुंबई पहुँचती है।
  • यह एक तीव्र प्रगति है। बंगाल की खाड़ी शाखा भी तीव्रता से आगे की ओर बढ़ती है तथा जून के प्रथम सप्ताह में असम पहुँच जाती है। ऊँचे पर्वतों के कारण मानसून पवनें पश्चिम में गंगा के मैदान की ओर मुड़ जाती है।
  • मध्य जून तक अरब सागर शाखा सौराष्ट्र, कच्छ एवं देश के मध्य भागों में पहुँच जाती है। अरब सागर शाखा एवं बंगाल की खाड़ी शाखा, दोनों गंगा के मैदान के उत्तर-पश्चिम भाग में आपस में मिल जाती हैं।
  • दिल्ली में सामान्यत: मानसूनी वर्षा बंगाल की खाड़ी शाखा से जून के अंतिम सप्ताह में (लगभग 29 जून तक) होती है। 
  • जुलाई के प्रथम सप्ताह तक मानसून पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा पूर्वी राजस्थान में पहुँच जाता है। मध्य जुलाई तक मानसून हिमाचल प्रदेश एवं देश के शेष हिस्सों में पहुँच जाता है |
  • मानसून की वापसी अपेक्षाकृत एक क्रमिक प्रक्रिया है जो भारत के उत्तर-पश्चिमी राज्यों से सितंबर में प्रारंभ हो जाती है। 
  • मध्य अक्तूबर तक मानसून प्रायद्वीप के उत्तरी भाग से पूरी तरह पीछे हट जाता है। प्रायद्वीप के दक्षिणी आधे भाग में वापसी की गति तीव्र होती है।
  • दिसंबर के प्रारंभ तक देश के शेष भाग से मानसून की वापसी हो जाती है।
  • द्वीपों पर मानसून की सबसे पहली वर्षा होती है। यह क्रमश: दक्षिण से उत्तर की ओर अप्रैल के अंतिम सप्ताह से लेकर मई के प्रथम सप्ताह तक होती है।
  • मानसून की वापसी भी क्रमशः दिसंबर के प्रथम सप्ताह से जनवरी के प्रथम सप्ताह तक उत्तर से दक्षिण की ओर होती है। इस समय देश का शेष भाग शीत ऋतु के प्रभाव में होता है।
  • अंत:उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति में परिवर्तन का संबंध हिमालय के दक्षिण में उत्तरी मैदान के ऊपर से पश्चिमी जेट-प्रवाह द्व रा अपनी स्थिति के प्रत्यावर्तन से भी है, क्योंकि पश्चिमी जेट-प्रवाह के इस क्षेत्र से खिसकते ही दक्षिणी भारत में 15° उत्तर अक्षांश पर पूर्वी जेट-प्रवाह विकसित हो जाता है। इसी पूर्वी जेट प्रवाह को भारत में मानसून के प्रस्फोट (Burst) के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
  • मानसून का भारत में प्रवेश: दक्षिण-पश्चिमी मानसून केरल तट पर 1 जून को पहुँचता है और शीघ्र ही 10 और 13 जून के बीच ये आर्द्र पवनें मुंबई व कोलकाता तक पहुँच जाती हैं। मध्य जुलाई तक, संपूर्ण उपमहाद्वीप दक्षिण-पश्चिम मानसून के प्रभावाधीन हो जाता है। 
वर्षावाही तंत्र तथा मानसूनी वर्षा का वितरण
  • भारत में वर्षा लाने वाले दो तंत्र प्रतीत होते हैं। पहला तंत्र उष्ण कटिबंधीय अवदाब है, जो बंगाल की खाड़ी या उससे भी आगे पूर्व में दक्षिणी चीन सागर में पैदा होता है तथा उत्तरी भारत के मैदानी भागों में वर्षा करता है।
  • दूसरा तंत्र अरब सागर से उठने वाली दक्षिण-पश्चिम मानसून धारा है, जो भारत के पश्चिमी तट पर वर्षा करती है। पश्चिमी घाट के साथ-साथ होने वाली अधिकतर वर्षा पर्वतीय है, क्योंकि यह आर्द्र हवाओं से अवरुद्ध होकर घाट के सहारे जबरदस्ती ऊपर उठने से होती है। भारत के पश्चिमी तट पर होने वाली वर्षा की तीव्रता दो कारकों से संबंधित है।
    (i) समुद्र तट से दूर घटित होने वाली मौसमी दशाएँ तथा
    (ii) अफ्रीका के पूर्वी तट के साथ भूमध्यरेखीय जेट प्रवाह की स्थिति।
  • बंगाल की खाड़ी में उत्पन्न होने वाले उष्णकटिबंधीय अवदाबों की बारंबारता हर साल बदलती रहती है। भारत के ऊपर उनके मार्ग का निर्धारण भी मुख्यतः अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र, जिसे मानसून श्रेणी भी कहा जाता है, की स्थिति द्वारा होता है।
  • जब भी मानसून द्रोणी का अक्ष दोलायमान होता है, विभिन्न वर्षों में इन अवदाबों के मार्ग, दिशा, वर्षा की गहनता और वितरण में भी पर्याप्त उतार-चढ़ाव आते हैं।
  • वर्षा कुछ दिनों के अंतराल में आती है। भारत के पश्चिमी तट पर पश्चिम से पूर्व उत्तर-पूर्व की ओर तथा उत्तरी भारतीय मैदान एवं प्रायद्वीप के उत्तरी भाग में पूर्व-दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर वर्षा की मात्रा में घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
मानसून में विच्छेद
  • दक्षिण-पश्चिम मानसून काल में एक बार कुछ दिनों तक वर्षा होने के बाद यदि एक-दो या कई सप्ताह तक वर्षा न हो तो इसे मानसून विच्छेद कहा जाता है। ये विच्छेद विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से होते हैं, जो निम्नलिखित हैं :
    1. उत्तरी भारत के विशाल मैदान में मानसून का विच्छेद उष्ण कटिबंधी चक्रवातों की संख्या कम हो जाने से और अंत:उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति बदलाव आने होता है। .
    2. पश्चिमी तट पर मानसून विच्छेद तब होता है जब आर्द्र पवनें तट के समानांतर बहने लगें।
    3. राजस्थान में मानसून विच्छेद तब होता है, जब वायुमंडल के निम्न स्तरों पर तापमान की विलोमता वर्षा करने वाली आर्द्र पवनों को ऊपर उठने से रोक देती है।
मानसून का निर्वतन
  • मानसून के पीछे हटने या लौट जाने को मानसून का निवर्तन कहा जाता है। सितंबर के आरंभ से उत्तर-पश्चिमी भारत से मानसून पीछे हटने लगती है और मध्य अक्टूबर तक यह दक्षिणी भारत को छोड़ शेष समस्त भारत से निवर्तित हो जाती है।
  • लौटती हुई मानसून पवनें बंगाल की खाड़ी से जल वाष्प ग्रहण करके उत्तर-पूर्वी मानसून के रूप में तमिलनाडु में वर्षा करती हैं।
ऋतुओं की लय
  • भारत की जलवायवी दशाओं को उसके वार्षिक ऋतु चक्र के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ ढंग से व्यक्त किया जा सकता है। मौसम वैज्ञानिक वर्ष को निम्नलिखित चार ऋतुओं में बाँटते हैं:
    (i) शीत ऋतु
    (ii) ग्रीष्म ऋतु
    (iii) दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु और
    (iv) मानसून के निवर्तन की ऋतु
शीत ऋतु 
  • तापमान : आम तौर पर उत्तरी भारत में शीत ऋतु नवंबर के मध्य से आरंभ होती है। उत्तरी मैदान में जनवरी और फरवरी सर्वाधिक ठंडे महीने होते हैं।
  • इस समय उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत दैनिक तापमान 21° सेल्सियस से कम रहता है। रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है, जो पंजाब और राजस्थान में हिमांक (0° सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है।
  • इस ऋतु में, उत्तरी भारत में अधिक ठंड पड़ने के मुख्य रूप से तीन कारण हैं :
    1. पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य समुद्र के समकारी प्रभाव से दूर स्थित होने के कारण महाद्वीपीय जलवायु का अनुभव करते हैं।
    2. निकटवर्ती हिमालय की श्रेणियों में हिमपात के कारण शीत लहर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और
    3. फरवरी के आस-पास कैस्पियन सागर और तर्कुमेनिस्तान की ठंडी पवनें उत्तरी भारत में शीत लहर ला देती हैं। ऐसे अवसरों पर देश के उत्तर-पश्चिम भागों में पाला व कोहरा भी पड़ता है।
मानसून को समझना
  • मानसून का स्वभाव एवं रचनातंत्र संसार के विभिन्न भागों में स्थल, महासागरों तथा ऊपरी वायुमंडल से एकत्रित मौसम संबंधी आँकड़ों के आधार पर समझा जाता है।
  • पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित फ्रेंच पोलिनेशिया के ताहिती (लगभग 18° द. तथा 149° पू.) तथा हिंद महासागर में आस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग में स्थित पोर्ट डार्विन (12°30' द. तथा 131° पू.) के बीच पाए जाने वाले वायुदाब का अंतर मापकर मानसून की तीव्रता के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
  • भारत का मौसम विभाग 16 कारकों (मापदंडों) के आधार पर मानसून के संभावित व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगाता है।
  • उत्तरी भारत में शीत ऋतु मध्य नवंबर से आरंभ होकर फरवरी तक रहती है। भारत के उत्तरी भाग में दिसंबर एवं जनवरी सबसे ठंडे महीने होते हैं।
  • तापमान दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ने पर घटता जाता है। पूर्वी तट पर चेन्नई का औसत तापमान 24° सेल्सियस से 25° सेल्सियस के बीच होता है, जबकि उत्तरी मैदान में यह 10° सेल्सियस से 15° सेल्सियस बीच होता है।
  • दिन गर्म तथा रातें ठंडी होती हैं। उत्तर में तुषारापात सामान्य है तथा हिमालय के ऊपरी ढालों पर हिमपात होता है।
  • इस ऋतु में देश में उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें प्रवाहित होती हैं। ये स्थल से समुद्र की ओर बहती हैं। इसलिए देश के अधिकतर भाग में शुष्क मौसम होता है।
  • इन पवनों के कारण कुछ मात्रा में वर्षा तमिलनाडु के तट पर होती है, क्योंकि वहाँ ये पवनें समुद्र से स्थल की ओर बहती हैं।
  • देश के उत्तरी भाग में, एक कमजोर उच्च दाब का क्षेत्र बन जाता है, जिसमें हल्की पवनें इस क्षेत्र से बाहर की ओर प्रवाहित होती हैं। उच्चावच से प्रभावित होकर ये पवन पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम से गंगा घाटी में बहती हैं।
  • सामान्यतः इस मौसम में आसमान साफ, तापमान तथा आर्द्रता कम एवं पवनें शिथिल तथा परिवर्तित होती हैं। शीत ऋतु में उत्तरी मैदानों में पश्चिम एवं उत्तर पश्चिम से चक्रवाती विक्षोभ का अंतवाड विशेष लक्षण है।
  • यह कम दाब वाली प्रणाली भूमध्यसागर एवं पश्चिमी एशिया के ऊप उत्पन्न होती है तथा पश्चिमी पवनों के साथ भारत में प्रवेश करती है। इसके कारण शीतकाल में मैदानों में वर्षा होती है तथा पर्वत पर हिमपात, जिसकी उस समय बहुत अधिक आवश्यकता होती है।
  • यद्यपि शीतकाल में वर्षा, जिसे स्थानीय तौर पर 'महावट' कहा जाता है, की कुल मात्रा कम होती है, लेकिन ये रबी फसलों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होती है।
  • प्रायद्वीपीय भारत में कोई निश्चित शीत ऋतु नहीं होती। तटीय भागों में भी समुद्र के समकारी प्रभाव तथा भूमध्यरेखा की निकटता के कारण ऋतु के अनुसार तापमान के वितरण प्रतिरूप में शायद ही कोई बदलाव आता हो। उदाहणत: तिरूवनंतपुरम् में जनवरी का माध्य अधिकतम तापमान 31° सेल्सियस तक रहता है, जबकि जून में यह 29.5° सेल्सियस पाया जाता है। पश्चिमी घाट की पहाड़ियों पर तापमान अपेक्षाकृत कम पाया जाता है।
वायुदाब तथा पवनें:
  • दिसंबर के अंत तक (22 दिसंबर) सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है। इस ऋतु में मौसम की विशेषता उत्तरी मैदान में एक क्षीण उच्च वायुदाब का विकसित होना है।
  • दक्षिणी भारत में वायुदाब उतना अधिक नहीं होता। 1,019 मिलीबार तथा 1,013 मिलीबार की समभार रेखाएँ उत्तर-पश्चिमी भारत तथा सुदूर दक्षिण से होकर गुजरती हैं। 
  • परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी उच्च वायुदाब क्षेत्र से दक्षिण में हिंद महासागर पर स्थित निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवनें चलना आरंभ कर देती हैं।
  • कम दाब प्रवणता के कारण 3 से 5 कि.मी. प्रति घंटा की दर से मंद गति की पवनें चलने लगती हैं। मोटे तौर पर क्षेत्र की भू-आकृति भी पवनों की दिशा को प्रभावित करती है। गंगा घाटी में इनकी दिशा पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी होती है। गंगा - ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तरी हो जाती है।
  • भूआकृति के प्रभाव से मुक्त इन पवनों की दिशा बंगाल की खाड़ी में स्पष्ट तौर पर उत्तर पूर्वी होती है।
  • सर्दियों में भारत का मौसम सुहावना होता है। फिर भी यह सुहावना मौसम कभी-कभार हल्के चक्रवातीय अवदाबों से बाधित होता रहता है।
  • पश्चिमी विक्षोभ कहे जाने वाले ये चक्रवात पूर्वी भूमध्यसागर पर उत्पन्न होते हैं और पूर्व की ओर चलते हुए पश्चिमी एशिया, ईरान - अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान को पार करके भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में पहुँचते हैं।
  • मार्ग में उत्तर में कैस्पियन सागर तथा दक्षिण में ईरान की खाड़ी से गुजरते समय इन चक्रवातों की आर्द्रता में संवर्धन हो जाता है। पश्चिमी जेट-प्रवाह इन अवदाबों को भारत की ओर उन्मुख करने में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं।

  • वर्षा : शीतकालीन मानसून पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलने के कारण वर्षा नहीं करतीं, क्योंकि एक तो इनमें नमी केवल नाममात्र की होती है, दूसरे, स्थल पर घर्षण के कारण इन पवनों का तापमान बढ़ जाता है, जिससे वर्षा होने की संभावना निरस्त हो जाती है। 
  • अतः शीत ऋतु में अधिकांश भारत में वर्षा नहीं होती। अपवादस्वरूप कुछ क्षेत्रों में शीत ऋतु में वर्षा होती है।
भारतः दिन का माध्य मासिक तापमान (जुलाई)
  1. उत्तर पश्चिमी भारत में भूमध्य सागर से आने वाले कुछ क्षीण शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ वर्षा करते हैं। कम मात्रा में होते हुए भी यह शीतकालीन वर्षा भारत में रबी की फसल के लिए उपयोगी होती है। लघु हिमालय में वर्षा हिमपात के रूप में होती है। यह वही हिम है, जो गर्मियों के महीनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों में जल के प्रवाह को निरंतर बनाए रखती है। वर्षा की मात्रा मैदानों में पश्चिम से पूर्व की ओर तथा पर्वतों में उत्तर से दक्षिण की ओर घटती जाती है। दिल्ली में सर्दियों की औसत वर्षा 53 मिलीमीटर होती है। पंजाब और बिहार के बीच में यह वर्षा 18 से 25 मिलीमीटर के बीच रहती है। 
  2.  कभी-कभी देश के मध्य भागों एवं दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी भागों में भी कुछ शीतकालीन वर्षा हो जाती है।
  3. जाड़े के महीनों में भारत के उत्तरी - पूर्वी भाग में स्थित अरुणाचल प्रदेश तथा असम में भी 25 से 50 मिलीमीटर तक वर्षा हो जाती है।
  4. उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें अक्तूबर से नवंबर के बीच बंगाल की खाड़ी को पार करते समय नमी ग्रहण कर लेती हैं और तमिलनाडु, दक्षिण आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्वी कर्नाटक तथा दक्षिण-पूर्वी केरल में झंझावाती वर्षा करती हैं ।
ग्रीष्म ऋतु तापमान
  • तापमान : मार्च में सूर्य के कर्क रेखा की ओर आभासी बढ़त के साथ ही उत्तरी भारत में तापमान बढ़ने लगता है। अप्रैल, मई व जून में उत्तरी भारत में स्पष्ट रूप से ग्रीष्म ऋतु होती है। भारत के अधिकांश भागों में तापमान 30° से 32° सेल्सियस तक पाया जाता है।
  • मार्च में दक्कन पठार पर दिन का अधिकतम तापमान 38° सेल्सियस हो जाता है, जबकि अप्रैल में गुजरात और मध्य प्रदेश में यह तापमान 38 से 43° सेल्सियस के बीच पाया जाता है।
  • मई में ताप की यह पेटी और अधिक उत्तर में खिसक जाती है। जिससे देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में 48° सेल्सियस के आसपास तापमान का होना असामान्य बात नहीं है।

  • दक्षिणी भारत में ग्रीष्म ऋतु मृदु होती है तथा उत्तरी भारत जैसी प्रखर नहीं होती। दक्षिणी भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति समुद्र के समकारी प्रभाव के कारण यहाँ के तापमान को उत्तरी भारत में प्रचलित तापमानों से नीचे रखती है। अतः दक्षिण में तापमान 26° से 32° सेल्सियस के बीच रहता है।
  • पश्चिमी घाट की पहाड़ियों के कुछ क्षेत्रों में ऊँचाई के कारण तापमान 25° सेल्सियम से कम रहता है। तटीय भागों में समताप रेखाएँ तट के समानांतर उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हैं, जो प्रमाणित करती हैं कि तापमान उत्तरी भारत से दक्षिणी भारत की ओर न बढ़कर तटों से भीतर की ओर बढ़ता है।
  • गर्मी के महीनों में औसत न्यूनतम दैनिक तापमान भी काफी ऊँचा रहता है और यह 26° सेल्सियस से शायद ही कभी नीचे जाता हो।
  • वायुदाब और पवनें: देश के आधे उत्तरी भाग में ग्रीष्म ऋतु में अधिक गर्मी और गिरता हुआ वायुदाब पाया जाता है। उपमहाद्वीप के गर्म हो जाने के कारण जुलाई में अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र उत्तर की ओर खिसककर लगभग 25° उत्तरी अक्षांश रेखा पर स्थित हो जाता है।
  • यह निम्न दाब की लंबायमान मानसून द्रोणी उत्तर पश्चिम में थार मरुस्थल से पूर्व और दक्षिण-पूर्व में पटना और छत्तीसगढ़ पठार तक विस्तृत होती है।
  • अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र की स्थिति पवनों के धरातलीय संचरण को आकर्षित करती है, जिनकी दिशा पश्चिमी तट, पश्चिम बंगाल के तट तथा बांग्लादेश के साथ दक्षिण-पश्चिमी होती है।
  • उत्तरी बंगाल और बिहार में इन पवनों की दिशा पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी होती है। दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ये धाराएँ वास्तव में विस्थापित भूमध्यरेखीय पछुवा पवनें हैं। मध्य जून तक इन पवनों का अंतः प्रवेश मौसम का वर्षा ऋतु की ओर बदलाव करता है।
  • उत्तर-पश्चिम में अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र के केंद्र में दोपहर बाद 'लू' के नाम से विख्यात शुष्क एवं तप्त हवाएँ चलती हैं, जो कई बार आधी रात तक चलती रहती हैं।
  • मई शाम के समय पंजाब, हरियाणा, पूर्वी राजस्थान और उत्तर प्रदेश में धूल भरी आँधियों का चलना एक आम बात है।
  • ये अस्थायी तूफान पीड़ादायक गर्मी से कुछ राहत दिलाते हैं, क्योंकि ये अपने साथ हल्की बारिश और सुखद व शीतल हवाएँ, लाते हैं। कई बार ये आर्द्रता भरी पवनें द्रोणी की परिधि की ओर आकर्षित होती हैं।
  • शुष्क एवं आर्द्र वायुसंहतियों के अचानक संपर्क से स्थानीय स्तर पर तेज तूफान पैदा होते हैं। इन स्थानीय तूफानों के साथ तेज हवाएँ मूसलाधार वर्षा और यहाँ तक कि ओले भी आते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में आने वाले कुछ प्रसिद्ध स्थानीय में तूफान
  1. आम्र वर्षा: ग्रीष्म ऋतु के खत्म होते-होते पूर्व मानसून बौछारें पड़ती हैं, जो केरल व तटीय कर्नाटक में यह एक आम बात है। स्थानीय तौर पर इस तूफानी वर्षा को आम्र वर्षा कहा जाता है, क्योंकि यह आमों को जल्दी पकने में सहायता देती है।
  2. फूलों वाली बौछारः इस वर्षा से केरल व निकटवर्ती कहवा उत्पादक क्षेत्रों में कहवा के फूल खिलने लगते हैं।
  3. काल बैसाखी: असम और पश्चिम बंगाल में वैसाख के महीने में शाम को चलने वाली ये भयंकर व विनाशकारी वर्षायुक्त पवने हैं। इनकी कुख्यात प्रकृति का अंदाजा इनके स्थानीय नाम काल बैसाखी से लगाया जा सकता है। जिसका अर्थ है- बैसाख के महीने में आने वाली तबाही चाय, पटसन व चावल के लिए ये पवनें अच्छी हैं। असम में इन तूफानों को 'बारदोली छीटा' कहा जाता है।
  4. लू: उत्तरी मैदान में पंजाब से बिहार तक चलने वाली ये शुष्क, गर्म व पीड़ादायक पवने हैं। दिल्ली और पटना के बीच इनकी तीव्रता अधिक होती है।
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Mon, 27 Nov 2023 09:13:47 +0530 Jaankari Rakho
BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | अपवाह तंत्र https://m.jaankarirakho.com/484 https://m.jaankarirakho.com/484 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | अपवाह तंत्र
  • अपवाह तंत्र एक नदी क्षेत्र के नदी तंत्र की व्याख्या करता है। एक नदी विशिष्ट क्षेत्र से अपना जल बहाकर लाती है जिसे 'जलग्रहण' (Catchment) क्षेत्र कहा जाता है।
  • जब विभिन्न दिशाओं से छोटी-छोटी धाराएँ आकर एक साथ मिल जाती है तथा एक मुख्य नदी का निर्माण करता है, अंततः इनका निकास किसी बड़े जलाशय, जैसे झील या समुद्र या महासागर में होता है।
  • निश्चित वाहिकाओं के माध्यम से हो रहे जलप्रवाह को 'अपवाह' कहते हैं। इन वाहिकाओं के जाल को 'अपवाह तंत्र' कहा जाता है।
  • किसी क्षेत्र का अपवाह तंत्र वहाँ के भूवैज्ञानिक समयावधि, चट्टानों की प्रकृति एवं संरचना, स्थलाकृति, ढाल, बहते जल की मात्रा और बहाव की अवधि का परिणाम है।

    • एक नदी एवं उस की सहायक नदियों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को 'अपवाह द्रोणी' कहते हैं।
    • एक अपवाह द्रोणी को दूसरे से अलग करने वाली सीमा को 'जल विभाजक' या 'जल-संघर' (Watershed) कहते हैं। बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र को नदी द्रोणी जबकि छोटी नदियों व नालों द्वारा अपवाहित क्षेत्र को 'जल-संभर' ही कहा जाता है। नदी द्रोणी का आकार बड़ा होता है, जबकि बल-संभर का आकार छोटा होता है।
    • नदी द्रोणी एवं जल-संभर एकता के परिचायक हैं। इनके एक भाग में परिवर्तन का प्रभाव अन्य भागों व पूर्ण क्षेत्र में देखा जा सकता है। इसीलिए इन्हें सूक्ष्म मध्यम व बृहत नियोजन इकाइयों व क्षेत्रों के रूप में लिया जा सकता है।
    • भारतीय अपवाह तंत्र को विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। समुद्र में जल विसर्जन के आधार पर इसे दो समूहों में बाँटा जा सकता है।
      (i) अरब सागर का अपवाह तंत्र व
      (ii) बंगाल की खाड़ी का अपवाह तंत्र।
    • भारत के दो मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों से उत्पन्न होने के कारण हिमालय तथा प्रायद्वीपीय नदियाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिमालय की अधिकतर नदियाँ बारहमासी नदियाँ होती हैं। इनमें वर्ष भर जल रहता है, क्योंकि इन्हें वर्षा के अतिरिक्त ऊँचे पर्वतों से पिघलने वाले हिम द्वारा भी जल प्राप्त होता है।
    • हिमालय की दो मुख्य नदियाँ सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र इस पर्वतीय श्रृंखला के उत्तरी भाग से निकलती हैं। इन नदियों ने पर्वतों को काटकर गॉर्ज का निर्माण किया है।
    • हिमालय की नदियाँ अपने उत्पत्ति के स्थान से लेकर समुद्र तक के लंबे रास्ते को तय करती हैं। ये अपने मार्ग के ऊपरी भागों में तीव्र अपरदन क्रिया करती हैं तथा अपने साथ भारी मात्रा में सिल्ट एवं बालू का संवहन करती हैं।
    • मध्य एवं निचले भागों में ये नदियाँ विसर्प, गोखुर झील तथा अपने बाढ़ वाले मैदानों में बहुत-सी अन्य निक्षेपण आकृतियों का निर्माण करती हैं। ये पूर्ण विकसित डेल्टाओं का भी निर्माण करती हैं। अधिकतर प्रायद्वीपीय नदियाँ मौसमी होती हैं, क्योंकि इनका प्रवाह वर्षा पर निर्भर करता है। शुष्क मौसम में बड़ी नदियों का जल भी घटकर छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगता है।
    • हिमालय की नदियों की तुलना में प्रायद्वीपीय नदियों की लंबाई कम तथा छिछली हैं। फिर भी इनमें से कुछ केंद्रीय उच्चभूमि से निकलती हैं तथा पश्चिम की तरफ बहती हैं। प्रायद्वीपीय भारत की अधिकतर नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलती हैं तथा बंगाल की खाड़ी की तरफ बहती हैं।

    अपवाह प्रतिरूप

    • एक अपवाह प्रतिरूप में धाराएँ एक निश्चित प्रतिरूप का निर्माण करती हैं, जो कि उस क्षेत्र की भूमि की ढाल, जलवायु संबंधी अवस्थाओं तथा अधःस्थल शैल संरचना पर आधारित है।
    • यह द्रुमाकृतिक, जालीनुमा आयताकार तथा अरीय अपवाह प्रतिरूप है।
    • द्रुमाकृतिक प्रतिरूप तब बनता है जब धाराएँ उस स्थान के भूस्थल की ढाल के अनुसार बहती हैं। इस प्रतिरूप में मुख्य धारा तथा उसकी सहायक नदियाँ एक वृक्ष की 'शाखाओं की भाँति प्रतीत होती हैं।
    • जब सहायक नदियाँ मुख्य नदी से समकोण पर मिलती हैं तब जालीनुमा प्रतिरूप का निर्माण करती है। जालीनुमा प्रतिरूप वहाँ विकसित होता है जहाँ कठोर और मुलायम चट्टानें समानांतर पायी जाती हैं।
    • आयताकार अपवाह प्रतिरूप प्रबल संधित शैलीय भूभाग पर विकसित करता है।
    • अरीय प्रतिरूप तब विकसित होता है जब केंद्रीय शिखर या गुम्बद जैसी संरचना धारायें विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं ।
    • विभिन्न प्रकार के अपवाह प्रतिरूप का संयोजन एक ही अपवाह द्रोणी में भी पाया जा सकता है।
    • ये अपवाह तंत्र दिल्ली कटक अरावली एवं सहयाद्रि द्वारा अलग किए गए हैं। कुल अपवाह क्षेत्र का लगभग 77 प्रतिशत भाग, जिसमें गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा आदि नदियाँ शामिल बंगाल की खाड़ी में जल विसर्जित करती हैं, जबकि 23 प्रतिशत क्षेत्र, जिसमें सिंधु, नर्मदा, तापी, माही व पेरियार नदियाँ हैं, अपना जल अरब सागर में गिराती हैं।

    जल-संभर क्षेत्र के आकार के आधार पर भारतीय अपवाह द्रोणियों को तीन भागों में बाँटा गया है : 
    1. प्रमुख नदी द्रोणी, जिनका अपवाह क्षेत्र 20,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक है। इसमें 14 नदी द्रोणियाँ शामिल हैं, जैसे- गंगा, बह्मपुत्र, कृष्णा, तापी, नर्मदा, माही, पेन्नार, साबरमती, बराक आदि।
    2. मध्यम नदी द्रोणी जिनका अपवाह क्षेत्र 2,000 से 20,000 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 44 नदी द्रोणियाँ हैं, जैसे- कालिंदी, पेरियार, मेघना आदि।
    3. लघु नदी द्रोणी, जिनका अपवाह क्षेत्र 2,000 वर्ग किलोमीटर से कम है। इसमें न्यून वर्षा के क्षेत्रों में बहने वाली बहुत-सी नदियाँ शामिल हैं।

    अनेक नदियों का उद्गम स्रोत हिमालय पर्वत है और वे अपना जल बंगाल की खाड़ी या अरब सागर में विसर्जित करती हैं। प्रायद्वीपीय पठार की बड़ी नदियों का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट है और नदियाँ बंगाल की खाड़ी जल विसर्जन करती हैं।

    नर्मदा और तापी दो बड़ी नदियाँ इसका अपवाद हैं। ये और अनेक छोटी नदियाँ अपना जल अरब सागर में विसर्जित करती हैं।

    नदियों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जाता है। प्रवाह की प्रकृति के आधार पर इसके निम्नलिखित रूप हैं-

    1. अनुगामी नदी - जिन नदियों का बहाव ढाल के अनुरूप होता है, उन्हें अनुगामी नदी कहते हैं। भारत की अधिकांश नदियाँ अनुगामी हैं।
    2. अननुगामी नदी - जिन नदियों का बहाव ढाल के अनुरूप ना होकर इससे असंबद्ध होता है, उन्हें अननुगामी कहते हैं। इनके दो रूप हैं।
      • अध्यारोपित नदी- ये नदियाँ घाटियों का निर्माण कर पुरानी चट्टानों पर बहती हैं और उसे निरंतर काटती रहती हैं, जैसे- चंबल नदी ।
      • पूर्वगामी नदी- ये बहुत पुरानी नदियाँ हैं। ये पहाड़ों के निर्माण के पहले से ही बहती आ रही है और पहाड़ों के बीच आर-पार बहती है, जैसे-सिंधु, सतलज, कोसी इत्यादि ।
    अनुगामी नदियों के प्रारूप
    1. वृक्षाकार प्रारूप- इसमें मुख्य नदियों की अनेक सहायक नदियाँ वृक्ष की शाखाओं के रूप में बहती हुई उससे मिलती है, उदाहरण गोदावरी, कृष्णा इत्यादि ।
    2. जालीनुमा प्रारूप- इसमें दो मुख्य नदियाँ एक-दूसरे के समांतर प्रवाहित होते हैं और उनकी सहायक नदी समकोण पर मिलती हो तब जालिनुमा प्रतिरूप निर्मित होता है।
    3. अरीय या केंद्रत्यागी प्रारूप किसी ऊँची भूमि से निस्सृत होकर बहने वाली नदियाँ सभी दिशाओं में बहती है तो उन्हें केंद्रत्यागी नदियाँ कहते हैं।
    जलसंग्रहण क्षेत्र या नदी द्रोणी या नदी का बेसिन
    • कोई नदी अपनी सहायक नदियों सहित जिस क्षेत्र का जल ग्रहण कर आगे बहती है वह उसका प्रवाह क्षेत्र होता है।
    • इस क्षेत्र को नदी द्रोणी, नदी का बेसिन या नदी का जल संग्रहण क्षेत्र कहा जाता है।
    जलसंग्रहण क्षेत्र के आधार पर
    • जलसंग्रहण क्षेत्र के आधार पर भारत का जल प्रवाह तंत्र तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
    प्रमुख नदी द्रोणी
    • जिन नदियों के जलसंग्रहण क्षेत्र का विस्तार 20,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक होता है उन्हें प्रमुख नदी कहते हैं।
    • भारत की 14 नदियाँ इस वर्ग में सम्मिलित है, सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, बराक, माही साबरमती नर्मदा, ताप्ती, महानदी, सुवर्णरख गोदावरी, कृष्णा, कावेरी और पेनार ।
    मध्यम नदी द्रोणी
    • जिन नदियों के जलसंग्रहण क्षेत्र का विस्तार 20,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक नहीं होता है उन्हें मध्यम कोटि की नदी कहते हैं।
    • भारत की 44 नदियाँ इस वर्ग में रखी जा सकती है। उनमें प्रमुख है - कालिंदी, पेरियार, मेघना इत्यादि ।
    लघु नदी द्रोणी
    • जिन नदियों के जलसंग्रहण क्षेत्र का विस्तार 2,000 वर्ग किलोमीटर से कम होता है उन्हें लघु नदी कहते हैं। भारत के विभिन्न भागों और कम वर्षा वाले भागों में बहने वाली अनेक नदियाँ इस कोटि में आती है।
    भारत के अपवाह तंत्र
    • भारतीय अपवाह तंत्र में अनेक छोटी-बड़ी नदियाँ शामिल हैं। ये तीन बड़ी भू-आकृतिक इकाइयों की उद्-विकास प्रक्रिया तथा वर्षण की प्रकृति व लक्षणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई हैं।
    हिमालयी अपवाह
    • हिमालयी अपवाह तंत्र भूगर्भिक इतिहास के एक लंबे दौर में विकसित हुआ है। इसमें मुख्यतः गंगा, सिंधु व बह्मपुत्र नदी द्रोणियां शामिल हैं। यहाँ की नदियाँ बारहमासी हैं, क्योंकि ये बर्फ पिघलने व वर्षण दोनों पर निर्भर हैं।
    • ये नदियाँ गहरे महाखड्डों (Gorges) से गुजरती हैं, जो हिमालय के उत्थान के साथ-साथ अपरदन क्रिया द्वारा निर्मित हैं। महाखड्डों के अतिरिक्त ये नदियाँ अपने पर्वतीय मार्ग में V-आकार की घाटियाँ क्षिप्रिकाएँ व जलप्रपात भी बनाती हैं।
    • जब ये मैदान में प्रवेश करती हैं, तो निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियाँ जैसेसमतल घाटियों, गोखुर झीलें, बाढ़कृत मैदान, गुफित वाहिकाएँ और नदी के मुहाने पर डेल्टा का निर्माण करती हैं।
    • हिमालय क्षेत्र इन नदियों का रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा है, परंतु मैदानी क्षेत्र में इनमें सर्पाकार मार्ग में बहने की प्रवृत्ति पाई जाती है और अपना रास्ता बदलती रहती हैं। 
    • कोसी नदी, जिसे 'बिहार का शोक' (Sorrow of Bihar) कहते हैं, अपना मार्ग बदलने के लिए कुख्यात रही है। यह नदी पर्वतों के ऊपरी क्षेत्रों से भारी मात्रा में अवसाद लाकर मैदानी भाग में जमा करती है। इससे नदी मार्ग अवरुद्ध हो जाता है व परिणामस्वरूप नदी अपना मार्ग बदल लेती है।
    मुख्य अपवाह प्रतिरूप
    • जो अपवाह प्रतिरूप पेड़ की शाखाओं के अनुरूप हो, उसे वृश्वाकार (Dendritic) प्रतिरूप कहा जाता है. उत्तरी मैदान की नदियाँ |
    • जब नदियाँ किसी पर्वत से निकलकर सभी दिशाओं में बहती हैं, तो इसे अरीय (Radial) प्रतिरूप कहा जाता है। अमरकंटक पर्वत शृंखला से निकलने वाली नदियाँ इस अपवाह प्रतिरूप के अच्छे उदाहरण हैं।
    • जब मुख्य नदियाँ एक-दूसरे के समांतर बहती हों तथा सहायक नदियाँ उनसे समकोण पर मिलती हों, तो ऐसे प्रतिरूप को जालीनुमा (Trellis) अपवाह प्रतिरूप कहते हैं।
    • जब सभी दिशाओं से नदियाँ बहकर किसी झील या गर्त में विसर्जित होती हैं, तो ऐसे अपवाह प्रतिरूप को अभिकेंद्री प्रतिरूप कहते हैं।
    हिमालय पर्वतीय अपवाह तंत्र का विकास
    • इस तंत्र का विकास मायोसीन कल्प में एक विशाल नदी, जिसे शिवालिक या इंडो-ब्रह्म कहा गया है, से हुआ है।
    • कालांतर में इंडो-ब्रह्म नदी तीन मुख्य अपवाह तंत्रों में बँट गई: 1. पश्चिम में सिंध और इसकी पाँच सहायक नदियाँ, 2. मध्य में गंगा और हिमालय से निकलने वाली इसकी सहायक नदियाँ और 3. पूर्व में बह्मपुत्र का भाग व हिमालय से निकलने वाली इसकी सहायक नदियाँ।
    • विशाल नदी का इस तरह विभाजन संभवतः प्लिस्टोसीन काल में हिमालय के पश्चिमी भाग में व पोटवार पठार के उत्थान के कारण हुआ। यह क्षेत्र सिंधु व गंगा अपवाह तंत्रों के जल विभाजक बन गया।
    • इसी प्रकार मध्य प्लिस्टोसीन काल में राजमहल पहाड़ियों और मेघालय पठार के मध्य स्थित माल्दा गैप का अधोक्षेपण हुआ जिसमें गंगा और बह्मपुत्र नदी तंत्रों का दिक्परिवर्तन हुआ और वे बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवाहित हुई।
    हिमालयी अपवाह तंत्र की नवियाँ
    • हिमालयी अपवाह में अनेक नदी तंत्र हैं
    सिंधु नदी प्रणाली
    • सिंधु नदी प्रणाली विश्व की सबसे बड़ी नदी प्रणालियों में शामिल है। इसकी लंबाई 2,900 किलोमीटर है जिसका लगभग तिहाई भाग 1.114 किलोमीटर भारत की सीमा में है।
    • इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 11 लाख 65 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला है। इसका 3,21,289 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भारत में है।
    उद्गम
    • कैलास की बोखर-चू के निकट एक हिमनद है जो 31°15' N और 80°40'E पर स्थित है। इसी हिमनद से सिंधु नदी निकलती है। तिब्बत में इसे शेरमुख या सिंगी खंबान कहते हैं।
    • सिंधु नदी पश्चिमी हिमालय की लद्दाख और जास्कर श्रेणियों के मध्य उत्तर-पश्चिम की दिशा में बहती है।
    • लद्दाख और बालतिस्तान से गुजरने के बाद यह जम्मू और कश्मीर के गिलगिट के पास एक महाखड्ड बनाती है। 5,100 मीटर गहरा यह महाखड्ड एक मनोरम एवं दर्शनीय दृश्य उपस्थित करता है।
    • इसके बाद यह पाकिस्तान के चिल्लड़ के समीप दरदिस्तान प्रदेश में बहती है। हिमालय की नदियों में यह सबसे पश्चिमी नदी है।
    • श्योक, गिलगिट, जास्कर, हुजा, नुवरा, शिगार, गॉस्टिंग और ट्राय नाम की छोटी नदियाँ हिमालय से निकलकर सिंधु में मिल जाती है।
    • सभी नदियों का जल लेकर यह अटक के पास की पहाड़ियों से बाहर निकलती है। इसके बाद सुलेमान पहाड़ियों से निकलकर काबुल, खुर्रम, तोची, गोमल, विबोआ, और संगर नामक नदियाँ सिंधु में मिलती है।
    • इसके आगे इसका प्रवाह दक्षिण की ओर होने लगता है। पंचनद की पाँचों नदियाँ सतलुज, व्यास, रावी, चेनाब और झेलम का जल मीथनकोट के पास सिंधु में विसर्जित होता है। यह पाँचों पंजाब की प्रमुख नदियाँ हैं। 
    • भारत में सिंधु नदी जम्मू और कश्मीर के लेह जिले में बहती है और अंततः कराँची के पूर्वी भाग में यह अरब सागर में अपना जल विसर्जित करती है।
    झेलम
    • यह नदी श्रीनगर तथा वूलर झील से होकर बहने के बाद एक पतले, सँकरे और गहरे महाखड्ड से होकर गुजरती है तथा पीर पंजाल के गिरिपद स्थित बेरीनाग झरने से निकलकर पाकिस्तान में प्रवेश करती है।
    • पाकिस्तान में झंग के पास यह चेनाब नदी से मिल जाती है। झेलम का प्राचीन नाम 'वितस्ता' है। सिंधु की सहायक नदियों में यह महत्त्वपूर्ण है।
    चेनाब
    • यह सिंधु की सबसे बड़ी सहायक नदी है। वस्तुतः चंद्रा और भागा नाम की दो नदियाँ हिमाचल प्रदेश में केलांग के पास तांडी स्थान में मिल जाती है और संयुक्त नदी को 'चंद्रभागा' या 'चेनाब' कहते हैं।
    • भारत में 1,180 किलोमीटर बहने के बाद यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है और सिंधु में मिल जाती है।
    रावी
    • यह नदी हिमालय प्रदेश के कुल्लू पहाड़ियों में स्थित रोहतांग दरें के पश्चिम से निकलती है।
    • चंबा घाटी में यह पीर पंजाल के दक्षिण-पूर्वी भाग और धौलाधार के बीच से बहती हुई पाकिस्तान में प्रवेश करती है और सराय सिंधु के निकट यह चेनाब में मिल जाती है। इसका प्राचीन नाम 'इरावती' है।
    व्यास
    • यह समुद्रतल से 4 किलोमीटर ऊँचाई पर स्थित रोहतांग दर्रे के पास व्यास कुंड से निकलती है।
    • कुल्लू और धौलाधार में बहते समय यह काती और लारगी में महाखड्ड बनाती है।
    • इसके बाद यह पंजाब के मैदानी भाग में बहती है और हरीके के पास सतलुज में मिल जाती है।
    • सिंधु प्रणाली की यही नदी वस्तुतः पूर्ण रूप से भारत में ही बहती है। इसका प्राचीन नाम 'विपाशा' है।
    सतलज
    • यह नदी मानसरोवर के पास 4555 मीटर की ऊँचाई पर स्थित राकस ताल से निकलती है। स्थानीय भाषा में इसका नाम 'लॉगचेन खंबाब' है।
    • यह 400 किलोमीटर तक सिंधु के समांतर ही बहती है। इसके बाद रोपड़ में एक महाखड्ड से निकलकर भारत में प्रवेश करती है।
    • हिमालय के एक दरें 'शिपकीला' से बहने के बाद यह पंजाब के मैदानी भाग में बहती है। भाखड़ा-नांगल बांध इसी नदी पर बना है। इसका प्राचीन 'नाम - शत्रुद्रि' है।
    गंगा नदीप्रणाली
    • गंगा नदी उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 3,900 मीटर ऊँचाई पर स्थित गोमुख के पास गंगोत्री नामक हिमनद से निकलती है।
    • इसका स्थानीय नाम भागीरथी है। मध्य और लघु हिमालय श्रेणियों को काटती हुई और तंग महाखड्डों से गुजरती हुई यह आगे बढ़ती है।
    • देवप्रयाग में एक नदी अलकनंदा इसमें मिल जाती है। इसके बाद ही इसका नाम गंगा कहलाता है।
    • अलकनंदा बद्रीनाथ के ऊपर अलकापुरी के 'सतोपंथ' हिमनद से निकलती है। वस्तुत: अलकनंदा धौली और विष्णु गंगा नामक दो धाराओं के मिलने से बनती है। ये धाराएँ जोशीमठ या विष्णुप्रयाग में मिलती है।
    • इसके बाद गंगा हरिद्वार में मैदानी भाग में प्रवेश करती है। प्रारंभ में यह दक्षिण की ओर बहती है और बाद में दक्षिण पूर्व की ओर बहने लगती है और अंत में सीधे पूर्व दिशा की ओर बहती है।
    • बंगाल की खाड़ी में विसर्जित होने के पूर्व फरक्का के पास दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण की ओर बहती है।
    • गंगा नदी की लंबाई 2525 किलोमीटर (कुछ स्रोतों के अनुसार 2,640 किलोमीटर) है। इसका 110 किलोमीटर उत्तराखंड, 1,450 किलोमीटर उत्तर प्रदेश, 445 किलोमीटर बिहार और 520 किलोमीटर पश्चिम बंगाल में पड़ता है।
    • इसके जलसंग्रहण क्षेत्र का विस्तार 8.6 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारत के पूरे जल प्रवाह का बहुत बड़ा भाग इसी के द्वारा प्रवाहित होता है।
    • दक्षिणी प्रायद्वीप पठार की कई नदियाँ भी गंगा-प्रणाली में ही अपना जल विसर्जित करती है। इनमें सोन एक प्रमुख नदी है।
    • दूसरी ओर हिमालय की अनेक नदियाँ, जैसे- रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, कोसी, महानंदा इत्यादि भी इसी में अपना जल विसर्जित करती है।
    • गंगा के पश्चिम में बहनेवाली यमुना इसकी प्रमुख सहायक नदी है। यमुना नदी 6,316 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यमुनोत्री हिमनद से निकलती है जो हिमालय में 'बंदरपूँछ' श्रेणी की पश्चिमी ढाल पर स्थित है।
    • प्रयागराज (इलाहाबाद) में यमुना गंगा से मिल जाती है। हिण्डन, रिंद, सेंगर, वरुणा इत्यादि उत्तर की ओर से तथा प्रायद्वीपीय पठार की नदियाँ चंबल, सिंध, बेतवा और केन दक्षिण की ओर से यमुना में मिलती हैं।
    • प्रसिद्ध यमुना नहर प्रणाली पूर्वी और पश्चिमी भाग में सिंचाई के लिए महत्त्वपूर्ण है। दिल्ली और आगरा यमुना तट के प्रसिद्ध
    गंगा प्रणाली की कुछ प्रमुख नदियाँ
    यमुना
    • यमुना, गंगा की सबसे पश्चिमी और सबसे लंबी सहायक नदी है।
    • इसका स्रोत यमुनोत्री हिमनद है, जो हिमालय में बंदरपूंछ श्रेणी की पश्चिमी ढाल पर 6.316 मीटर ऊँचाई पर स्थित है।
    • प्रयाग (इलाहाबाद) में इसका गंगा से संगम होता है।
    • प्रायद्वीप पठार से निकलने वाली चंबल, सिंध, बेतवा व केन इसके दाहिने तट पर मिलती है।
    • जबकि हिंडन, रिंद, सेंगर, वरूणा आदि नदियां इसके बांये तट पर मिलती है।
    • इसका अधिकांश जल सिंचाई उद्देश्यों के लिए पश्चिमी और पूर्वी यमुना नहरों तथा आगरा नहर में आता है।
    चंबल
    • यह नदी मालवा पठार के महु के पास से निकलती है। उत्तर की ओर बहते हुए यह एक महाखड्ड से गुजरती है।
    • राजस्थान में कोटा में इस पर गाँधी सागर बाँध बनाया गया है। कोटा के बाद बूंदी, सवाई माधोपुर और धौलपुर से होते हुए यह यमुना नदी में मिल जाती है।
    • इस नदी में बड़े और गहरे खड्ड हैं जिन्हें चंबल खड्ड कहते हैं। इसकी कुल लंबाई 965 किलोमीटर है।
    सोन
    • यह अमरंकटक पठार से निकलती है। आरा-पटना के बीच यह गंगा से मिल जाती है। इसमें अप्रत्याशित बाढ़ आती है।
    मोद
    • छोटानागपुर पठार की यह एक प्रमुख नदी है जो अपनी भ्रंश - घाटी के लिए प्रसिद्ध है। इसे दामोदर नदी भी कहा जाता है।
    • पठारी नदी होने के कारण वर्षा होने पर पहले यह अधिक भयंकर हो जाती थी और इससे बंगाल में भयानक बाढ़ आती थी।
    • इसीलिए, इसे 'बंगाल का शोक' भी कहा जाता था। परंतु, स्वाधीनता के बाद इस पर कई जगह बाँध बनाकर एक बहुउद्देशीय योजना चालू की गई ।
    • इसे 'दामोदर घाटी परियोजना' कहते हैं। 'बराकर' इसकी एक सहायक नदी है।
    • अति प्राचीन चट्टानों में स्थित खनिजों और कोयले का अपार भंडार इस नदी की घाटी में पाया जाता है। यह हुगली में मिलती है।
    गंडक
    • हिमालय की दो धाराएँ 'काली गंडक' और त्रिशूलगंगा नेपाल में स्थित धौलागिरि और एवरेस्ट पहाड़ियों से निकलकर आपस में मिल जाती है।
    • नेपाल के बीच से बहकर बिहार के चंपारण जिले में भारत के मैदानी भाग में प्रवेश करती है। पटना के पास गंडक गंगा में मिल जाती है । 
    कोसी
    • यह एक पूर्ववर्ती नदी है। इसका उद्गम एवरेस्ट चोटी के उत्तर में है। यहाँ इसकी मुख्य धारा अरुण निकलती है जो नेपाल के मध्य से प्रवाहित होती है।
    • पश्चिम से एक नदी सोन और पूर्व से एक नदी तमुर इससे मिल जाती है। अरुण से मिलने के बाद इसे सप्तकोसी भी कहते हैं।
    • वस्तुतः छोटी-बड़ी सात नदियों का जल इसमें बहता है। नेपाल में वर्षा होने पर विस्तृत क्षेत्र का जल इसमें तीव्र गति से बहता है, जिससे उत्तरी बिहार में भयानक बाढ़ आ जाती है।
    • इसीलिए इसे 'बिहार का शोक' कहते हैं। इस पर एक बहुत ऊँचा बाँध बनाया गया है।
    घाघरा
    • यह 'मापचाचुँगों' नामक हिमनद से निकलती है। तिला, सेती और बेरी नामक छोटी नदियाँ इसमें मिल जाती है।
    • शीशापानी में यह एक गहरा महाखड्ड बनाती है। पहाड़ से निकलकर मैदानी भाग में आने पर एक नदी शारदा या काली गंगा इससे मिल जाती है।
    • यह नदी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर देवरिया से होकर बहती है और छपरा में गंगा से मिल जाती है।
    शारदा
    • यह नदी हिमालय के 'मिलाम' नामक हिमनद से निकलती है। यहाँ इसका स्थानीय नाम गौरी गंगा है।
    • भारत और नेपाल की सीमा रेखा पर बहते समय इसका नाम 'चाइक' या काली गंगा है। आगे चलकर यह घाघरा से मिल जाती है।
    • इसके बाद घाघरा नदी के सरयू नदी भी कहते हैं। प्राचीन अयोध्या नगर इसी नदी के किनारे बसा है, जो उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में है।
    रामगंगा
    • यह नदी गैरसेन के निकट गढ़वाल की पहाड़ियों से निकलती है। शिवालिक पार करने के बाद यह दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती है।
    • उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद में यह मैदानी भाग में प्रवेश करती है और कन्नौज के पास गंगा में मिल जाती है।
    महानंदा
    • यह नदी दार्जिलिंग की पहाड़ियों से निकलकर पश्चिम बंगाल में गंगा से मिल जाती है। उत्तरी भाग से गंगा में मिलने वाली यह अंतिम नदी है।
    ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली
    • ब्रह्मपुत्र नदी कैलास पर्वतमाला में स्थित प्रसिद्ध मानसरोवर झील के निकट स्थित एक हिमनद से निकलती है जिसका नाम 'चेमायुगडुग' है।
    • यह तिब्बत के शुष्क समतल मैदान में सीधे पूर्व दिशा में 1200 किलोमीटर तक धीमी गति से बहती है। इसका स्थानीय नाम सांग्यो या साङ्पो है। साङ्पों का शाब्दिक अर्थ 'शोधक' है। तिब्बत में इसकी दाहिनी ओर से एक और नदी मिल जाती है जिसका नाम रागोंसाङ्पो है।
    • हिमालय के 'नामचा बरवा' के निकट समुद्रतल से 7,755 मीटर की ऊँचाई पर यह डिहंग नाम का एक महाखड्ड बनाती है जो 5,500 मीटर गहरा है। इसके बाद इस नदी का वेग बढ़ जाता है।
    • गिरिपद में इसका स्थानीय नाम दिशंग ( या सिशंग) है। आगे चलकर यह अरुणाचल प्रदेश में सादिया के पश्चिम ग्वालपाड़ा के पास भारत में प्रवेश करती है। यहाँ इसकी दिशा बदल जाती है और यह दक्षिण-पश्चिम की ओर बहने लगती है।
    • इसके बाद सिकांग और लोहित नाम की दो नदियाँ इसकी बायीं ओर से इसमें मिल जाती है। इसी के बाद यह ब्रह्मपुत्र नाम से पुकारी जाती है।
    • असम क्षेत्र में यह 750 किलोमीटर की दूरी तय करती है। इसी बीच अनेक छोटी-छोटी नदियाँ इसमें मिल जाती है। बायीं ओर से मिलनेवाली कुछ प्रमुख नदियाँ बूढ़ी, दिहांग, धनसरी (धनश्री) और कालाग हैं तथा दाहिनी ओर से मिलने वाली कुछ प्रमुख नदियाँ कामेग, भरेली, मानस संकोश और सुबनसिरी है।
    • सुबनसिरी ( या स्वर्णश्री) एक पूर्ववर्ती नदी है जो तिब्बत से निकलती है। इसके बाद धुबरी के पश्चिम में बांग्लादेश से प्रवेश करती है।
    • इसके आगे इसमें तीस्ता नदी मिल जाती है। आगे चलकर इसमें गंगा की एक धारा मिलती है। अब इसका स्थानीय नाम पद्मा हो जाता है।
    • यह बांग्लादेश में कई धाराओं में विभक्त होकर बंगाल की खाड़ी में अपना जल विसर्जित करती है और इसके तट पर विस्तृत डेल्टा बनाती है।
    • भारी वर्षा के क्षेत्र से गुजरने और अपेक्षाकृत अधिक जल वाली नदियों के मिलने के कारण वर्षाकाल में इसकी बाढ़ एक भयानक प्राकृतिक आपदा है।
    • मार्ग परिवर्तन और अपरदन इसकी प्रमुख विशेषता है और प्रमुख लक्षण भी है। कीचड़-बालू लेकर जब यह असम में बहती है तो इसमें कई शाखाएँ बन जाती हैं और इनके बीच असंख्य टापू बन गए हैं।
    • पुनः ये शाखाएँ एक में मिल जाती हैं। इसे नदी का गुफित होना कहते हैं। इन्हीं नदी-द्वीपों में माजुली नाम का विश्व का सबसे बड़ा प्रमुख नदी - द्वीप है। तीस्ता पहले गंगा की सहायक नदी थी।
    • परंतु, 1787 की बाढ़ में इसकी धारा पूरब की ओर मुड़ गई और यह ब्रह्मपुत्र में मिल गई।
    प्रायद्वीपीय पठार का जल प्रवाह तंत्र
    • यह विश्व का प्राचीनतम नदी तंत्र है। इसका निर्माण कई भूगर्भीय परिवर्तनों से हुआ है। हिमालयी जल-प्रवाह तंत्र से यह करोड़ों वर्ष पुराना है।
    • लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व टर्शियरी कल्प में इसका पश्चिमी भाग नीचे धँसकर समुद्रतल के नीचे चला गया और इसके मूल जल संग्रहण क्षेत्र और प्रवाह तंत्र में विसंगति उत्पन्न हो गई।
    • भारतीय प्लेट के लगातार उत्तर की ओर खिसकने और यूरेशियन प्लेट के दबाव के कारण हिमालय की ऊँचाई ज्यों-ज्यों बढ़ने लगी, प्रायद्व प का उत्तरी मध्य भाग जहाँ-तहाँ टूट गया और इसमें भ्रंश-द्रोणियों का निर्माण हुआ। कई दरारें भी बन गई।
    • नर्मदा और ताप्ती नदियाँ इन्हीं भ्रंश-द्रोणियाँ में बहती है और अपरदन द्वारा दरारों को भरती रहती है। इन नदियों में जलोढ़ और डेल्टा प्रायः नहीं है।
    • इसी काल में एक और घटना घटित हुई। दक्षिणी प्रायद्वीप का उत्तरी-पश्चिमी भाग ऊपर की ओर उठ गया। दक्षिणी पूर्वी भाग कुछ नीचे की ओर झुक गया।
    • फलस्वरूप, अधिकतर नदियाँ पूरब की ओर बहने लगी और बंगाल की खाड़ी में जल विसर्जित करने लगी।
    प्रायद्वीपीय पठार की नदियों की विशेषताएँ 
    इनकी गहराई अधिक नहीं है।
    ये अपना मार्ग नहीं बदलती है।
    ये वर्षाजल पर ही निर्भर करती है। प्रायद्वीपीय पठार की कोई भी नदी ग्लेशियर से नहीं निकलती है। वस्तुत: दक्षिण में कोई ग्लेशियर नहीं
    अतः, ग्रीष्मकाल में इनका जल बहुत कम हो जाता है और नदियाँ प्राय: सूख जाती है। 
    नर्मदा और ताप्ती इसका अपवाद है, क्योंकि इनमें बहुत जल रहता है और ग्रीष्मकाल में भी सूखती नहीं है।
    कावेरी नदी में भी वर्षभर जल रहता है, क्योंकि ग्रीष्मकालीन मानसून और शीतकालीन मानसून दोनों से सुदूर दक्षिण भारत में वर्षा होती है। 
    पश्चिमी घाट के पश्चिम की सभी नदियाँ अरब सागर में और पूरब की सभी नदियाँ बंगाल की खाड़ी में अपना जल विसर्जित करती है।
    प्रायद्वीपीय पठार में दक्षिण की प्रायः सभी बड़ी नदियाँ पूरब की ओर, मध्यभाग की नर्मदा एवं ताप्ती पश्चिम की ओर तथा उत्तरी सिरे की नदियाँ उत्तर दिशा में बहती है।
    उत्तर की नदियों का जल गंगा प्रणाली में मिलता है।

    भारत के मुख्य जल प्रपात

    वट्टापराई जल प्रपात
    • तमिलनाडु राज्य के कन्याकुमारी जिले में पाझयार नदी पर स्थित यह जल प्रपात पर्यटकों के लिए एक मुख्य आकर्षण केन्द्र है।
    • इस घेरे हुए क्षेत्र को एक वन्य जीव अभ्यारण्य बनाने का प्रस्ताव किया गया है। 
    बाराकाना जल प्रपात
    • कर्नाटक के शिमोगा जिले में स्थित यह देश का एक अधिक ऊंचाई वाला जलप्रपात है। यह कर्नाटक में एक जल-बिजली सयंत्र का मूल स्रोत है।
    दूधसागर (गोवा)
    • दूधसागर ( दूध का सागर) एक पंक्तिबद्ध जलप्रपात है जो गोवा राज्य में माण्डवी नदी के ऊपरी खण्ड में स्थित है।
    • यह राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केन्द्र है।
    थलईयार जल प्रपात (रैट-टेल)
    • इस जल प्रपात को रैट-टेल' भी कहते हैं तथा यह तमिलनाडु के निकट स्थित है।
    • 297 मीटर ऊंचा यह प्रपात तमिलनाडु राज्य में सबसे ऊंचा जल प्रपात है। यह जल प्रपात सड़क से नहीं जुड़ा हुआ है।
    भारत जल प्रपात 
    जलप्रपात स्थिति ऊंचाई (मी.)
    जोग या गरसोप्पा (महात्मा गांधी जलप्रपात ) शरावती नदी 255
    शिवसमुद्रम् जलप्रपात (कर्नाटक) कावेरी नदी 90
    गोकक जलप्रपात (कर्नाटक) कृष्णा की सहायक गोकक नदी 55
    पायकारा जलप्रपात (तमिलनाडू) नीलगिरी क्षेत्र -
    चूलिया जलप्रपात चम्बल नदी 18
    पुनासा (मध्य प्रदेश) चम्बल नदी 12
    मंधार जलप्रपात (मध्य प्रदेश) चम्बल नदी 12
    धुंआधार जलप्रपात (मध्य प्रदेश) नर्मदा नदी 50
    हुंडरू जलप्रपात (झारखंड) स्वर्ण रेखा नदी 98
    चित्रकूट जलप्रपात ( भारत का नियाग्रा, छत्तीसगढ़)
    इन्द्रावती

    अगाया गंगई जल प्रपात

    • यह कोल्ली पहाड़ियों (पूर्वीघाट, तमिलनाडु) में स्थित है। यह एक मनोरम एकान्त वातावरण प्रदान करता है तथा तमिलनाडु पर्यटन में एक आकर्षण केन्द्र है।
    अय्यानार जल प्रपात
    • यह पश्चिमी घाट में तमिलनाडु के विरुवुनगर जिले में स्थित है। यह मुख्यतः शीत मानसून वर्षा से जल प्राप्त करता है ।
    • राजापालायम के लोगों द्वारा इस जल प्रपात का पानी पीने के उपयोग में लाया जाता है। यह निकटवर्ती जिलों के लोगों के लिए एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है।
    वझाचल प्रपात
    • केरल के थ्रिसूर जिले में स्थित यह भारत का एक प्रसिद्ध जलप्रपात है। यह राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के लिए एक आकर्षण केन्द्र है।
    जोग प्रपात ( 253 मीटर)
    • कर्नाटक के शिमोगा जिले के शरावती नदी पर स्थित यह भारत में सबसे ऊंचा गैर-पंक्तिबद्ध जल प्रपात है।
    • यह कर्नाटक के पर्यटन में एक प्रमुख आकर्षण है। इस जलप्रपात को अनेक वैकल्पिक नामों से जाना जाता है, जैसे-गरसोप्पा जलप्रपात तथा जोगाड़ा गुंडी |
    किलीयूर प्रपात
    • यह जलप्रपात पूर्वी घाट (तमिलनाडु) के सर्वारायन पहाड़ियों में स्थित है। लगभग 100 मीटर की ऊँचाई वाला यह प्रपात तमिलनाडु पर्यटन में एक प्रमुख आकर्षण है।
    कुर्तालाम प्रपात
    • तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में स्थित यह जलप्रपात देशी एवं विदेशी पर्यटकों में काफी प्रसिद्ध है।
    लोध जलप्रपात ( बुद्ध जल प्रपात )
    • बुद्ध जलप्रपात रांची (झारखण्ड) से 40 किमी. दूर बुद्ध नदी पर स्थित है।
    • इस प्रपात का नाम गौतम बुद्ध के नाम पर रखा गया है, यहां एक बौद्ध धर्म का मंदिर भी है।
    शिवसमुद्रम प्रपात
    • शिवसमुद्रम प्रपात को पहले कावेरी प्रपात के नाम से जाना जाता है तथा यह भारत में दूसरा सबसे ऊँचा प्रपात है।
    • यह मैसूर से 80 किमी. तथा बंगलौर से 120 कि०मी० की दूरी पर स्थित है। यह कर्नाटक पर्यटन में एक प्रमुख आकर्षण है। 
    सीरूवानी जलप्रपात
    • यह पश्चिमी घाट में कोयम्बटूर शहर के जलापूर्ति का एक मुख्य स्रोत है।
    • यहाँ बाँध तथा प्रपात का दृश्यपटल सौन्दर्य से भरा हुआ है।
    डुड्डुमा जल प्रपात (158 मीटर)
    • ओडिश राज्य में कोरापुट जिले से 92 किमी. दूर यह मच्छकुण्ड नवी पर स्थित है। इस जलप्रपात पर एक बड़े जल, बिजली संयंत्र का निर्माण किया गया है।
    गोकेक जल प्रपात ( 53 मीटर)
    • यह कर्नाटक के बेलगांव जिले में घाटप्रभा नदी के ऊपरी खण्ड में स्थित है।
    • यह जलप्रपात निकटवर्ती शहर गोकेक से लगभग 6 किमी दूर है। यह नियाग्रा प्रपात के सदृश है। 
    भारत - जल प्रपात
    जलप्रपात स्थिति ऊंचाई (मी. )
    जोग या गरसोप्पा (महात्मा गांधी जलप्रपात ) शरावती नदी 255
    येना जलप्रपात महाबलेश्वर के समीप नर्मदा नदी 183
    शिवसमुद्रम् जलप्रपात कावेरी नदी 90
    गोकक जलप्रपात कृष्णा की सहायक गोकक नदी 55
    पायकारा जलप्रपात नीलगिरी क्षेत्र -
    चूलिया जलप्रपात चम्बल नदी 18
    पुनासा चम्बल नदी 12
    मंधार जलप्रपात चम्बल नदी 12
    बिहार जलप्रपात टोंस नदी 100
    धुंआधार जलप्रपात नर्मदा नदी 50
    हुंडरू जलप्रपात स्वर्ण रेखा नदी 98

    झीलें

    • पृथ्वी की सतह के गर्त वाले भागों में जहाँ जल जमा हो जाता है, उसे झील कहते हैं।
    • बड़े आकार वाली झीलों को समुद्र कहा जाता है, जैसे- केस्पियन, मृत तथा अरल सागर
    • भारत में भी बहुत-सी झीलें हैं। ये एक दूसरे से आकार तथा अन्य लक्षणों में भिन्न हैं।
    • अधिकतर झीलें स्थायी होती हैं तथा कुछ में केवल वर्षा ऋतु में ही पानी होता है, जैसे- अंतर्देशीय अपवाह वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों की द्रोणी वाली झीलें ।
    • यहाँ कुछ ऐसी झीलें हैं, जिनका निर्माण हिमानियों एवं बर्फ चादर की क्रिया के फलस्वरूप हुआ है। जबकि कुछ अन्य झीलों का निर्माण वायु, नदियों एवं मानवीय क्रियाकलापों के कारण हुआ है।
    • एक विसर्प नदी बाढ़ वाले क्षेत्रों में कटकर गौखुर झील का निर्माण करती है। स्पिट तथा बार (रोधिका) तटीय क्षेत्रों में लैगून का निर्माण करते हैं, जैसे- चिल्का झील, पुलीकट झील तथा कोलेरू झील |
    • अंतर्देशीय भागों वाली झीलें कभी-कभी मौसमी होती हैं, उदाहरण के लिए राजस्थान की सांभर झील, जो एक लवण जल वाली झील है। इसके जल का उपयोग नमक के निर्माण के लिए किया जाता है।
    • मीठे पानी की अधिकांश झीलें हिमालय क्षेत्र में हैं। ये मुख्यतः हिमानी द्वारा बनी हैं। दूसरे शब्दों में, ये तब बनीं जब हिमानियों ने या कोई द्रोणी गहरी बनायी, जो बाद में हिम पिघलने से भर गयी, या किसी क्षेत्र में शिलाओं अथवा मिट्टी से हिमानी मार्ग बँध गये।
    • जम्मू तथा कश्मीर की वूलर झील भूगर्भीय क्रियाओं से बनी है। यह भारत की सबसे बड़ी मीठे पानी वाली प्राकृतिक झील है। डल झील, भीमताल, नैनीताल, लोकताक तथा बड़ापानी कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मीठे पानी की झीलें हैं ।
    • इसके अतिरिक्त, जलविद्युत उत्पादन के लिए नदियों पर बाँध बनाने से भी झील का निर्माण हो जाता है, जैसे- गुरु गोविंद सागर ( भाखड़ा नांगल परियोजना ) ।
    • झीलें मानव के लिए अत्यधिक लाभदायक होती हैं। एक झील नदी के बहाव को सुचारु बनाने में सहायक होती है।
    • अत्यधिक वर्षा के समय यह बाढ़ को रोकती है तथा सूखे के मौसम में यह पानी के बहाव को संतुलित करने में सहायता करती है।
    • जल से भरे हुए एक प्राकृतिक गर्त को झील कहते हैं। बढ़ती आबादी तथा जल के अभाव में झील लोगों के लिए जल का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
    • झीलों को निम्नलिखित प्रकार में वर्गीकृत किया जाता है।
    विवर्तनिक झीलें
    • इन झीलों का निर्माण पृथ्वी के भूपटल में हुए दरार तथा भ्रंश के लैगून कारण होता है। कश्मीर तथा कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्रों में पायी जाने वाली ज्यादातर झीलें इस प्रकार की होती है।
    • त्सोमोरीरी एवं पाँगाँगसो (जद्दाख ) ऐसी झीलों के उदाहरण हैं।
    क्रेटर / ज्वालामुखी झीलें
    • क्रेटर झीलों का निर्माण तब होता है जब ज्वालामुखीय विवर तथा ज्वालामुखी कुण्ड जल से भर जाते हैं।
    • वे भारत में अल्प संख्या में पाए जाते हैं। बुलदाना (महाराष्ट्र) का लोनार झील क्रेटर झील का उदाहरण है।
    हिमानी झीलें (गिरिताल )
    • ये झीलें हिमानी अपरदन का परिणाम है। गिरिताल (टार्न) एक लघु पर्वतीय झील है, विशेषकर जो एक हिम गहर बेसिन में जमा होता है तथा जो ऊंचे चट्टानों के पीछे स्थित होता है।
    • भारत ज्यादातर हिमानी झीलें लघु आकार की होती है। गंगाजल झील जो कश्मीर के वृहत हिमालय में स्थित है इसका एक उदाहरण है।
    • हिमानी झीलें लद्दाख (जम्मू और कश्मीर), हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड के कुमाऊं क्षेत्र में पाई जाती हैं।
    नदीय झीलें
    • नदियाँ अपने अपरदन तथा निक्षेपण की क्रिया के कारण विभिन्न प्रकार के झीलों का निर्माण करती है। सामान्य रूप से नदियाँ झीलों की विध्वंसक है।
    • वास्तव में झीलों का अभिलोपन प्रायः अवसादों के भरने से तथा नदियों के अभिशीर्ष अपरदन के कारण होता है। नदीय झीलें सामान्यतः अस्थायी होती है तथा शीघ्र ही अभिलोपित हो जाती है।
    • नदीय झीलों में प्रपात कुण्ड झीलें (प्रपात के सामने), गोखुर झीलें, जलोढ़ पंख झीलें, डेल्टा झीलें, बाढ़ मैदानी झीलें तथा राफ्ट (तरापा) अवरुद्ध झीलें (Raft dammed lakes) शामिल है।
    • ये सभी झीलें गंगा तथा ब्रह्मपुत्र नदियों के ऊपरी, मध्य तथा निचले मार्ग में देखी जा सकती है।
    • हल्के ढाल वाले मैदानों में नदियों के विसर्पण के कारण बने हुए झील जलोढ़ झीलें कहलाती है।
    वायूढ़ झीलें
    • ये छोटे अस्थायी अवतल अथवा गर्त होते हैं, जो उस स्थान पर स्थित होते हैं, जहाँ पवन रेतीली सतह पर बहती है। पश्चिमी राजस्थान में इस प्रकार की अनेक झीलें हैं।
    • मरुस्थली झीलों में सामान्यतः लवण की मात्रा अधिक होती है तथा अक्सर उन्हें लवणीय झील कहा जाता है। पश्चिमी राजस्थान के धाण्ड इसके उदाहरण हैं।
    द्रवण झीलें
    • इन झीलों का निर्माण सतह में एक गर्त के कारण होता है, जो चूना पत्थर तथा जिप्सम जैसे विलयशील शैल के भूमिगत विलयन के कारण बनता है।
    • ऐसी झीलें चेरापूंजी में तथा उसके आस-पास, शिलांग (मेघालय), भीमताल, कुमाऊँ तथा गढ़वाल (उत्तराखण्ड) में पायी जाती है।
    लैगून
    • इनका निर्माण समुद्र तट के किनारे बालू- भित्ति के निक्षेपण के कारण होता है।
    • ओडिशा की चिल्का झील, पुलीकट (आंध्र प्रदेश), वेम्बनाद तथा अष्टमुदी - केरल, कयाल लैगून के कुछ उदाहरण हैं।
    भू-स्खलन झील
    • इन झीलों का निर्माण भू-स्खलन तथा शैलपात के कारण होता है, जो नदी के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं।
    • गढ़वाल की गोहना झील का निर्माण गंगा की एक सहायक नदी पर एक बड़े भू-स्खलन के कारण हुआ है।

    प्रमुख झीलें

    भोज आर्द्र भूमि
    • भोपाल (मध्य प्रदेश) में स्थित, इसमें दो झीलें हैं-ऊपरी झील तथा निचली झील |
    • राजधानी नगर के समीप में स्थित यह भारत में एक प्रदूषित झील है।
    चंद्रा ताल
    • यह हिमाचल प्रदेश के लाहौल तथा स्पीति जिले में एक अधिक ऊँचाई वाली झील है।
    • यह समुद्री सतह से लगभग 4300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।
    • लाहूल तथा स्पीति को जोड़ने वाला कुंजम दर्रा इस झील से लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
    भीमताल
    • उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल में भीमताल शहर के निकट स्थित यह एक रमणीय झील है, जिसके केन्द्र में एक द्वीप है।
    • वर्तमान में यह शहर अनेक राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करता है।
    अष्टमुडी झील (अष्टमुडी कयाल )
    • यह केरल के कोल्लम जिले में एक लैगून है । अष्टमुडी का अर्थ “आठ शाखाएँ” हैं। वास्तव में इस झील की अनेक शाखाएँ हैं।
    • रामसर समझौते के तहत यह अंतर्राष्ट्रीय महत्व की एक आर्द्रभूमि के रूप में दर्ज है। 
    चेम्बरमबक्कम झील
    • यह तमिलनाडु के चेंगपट्टू जिले में चेन्नई से 40 कि.मी. दक्षिण में स्थित है। इस झील से ही अड्यार नदी का उद्गम होता है। चेन्नई महानगर की जलापूर्ति इस झील से होती है।
    डल झील
    • डल झील श्रीनगर की एक प्रसिद्ध झील है। 18 वर्ग कि.मी. के क्षेत्रफल में फैली हुयी यह झील सेतुकों (Canseways) द्वारा चार बेसिनों में विभाजित है–गगरीबल, लोकुत डल, बोद डल तथा नागिन। यह लगभग 500 शिकारे (House) के लिए प्रसिद्ध है।
    • शिकारे के अलावा, यह झील नौकायन (Canoeing), 'वाटर-सर्फिंग' तथा 'किथाकिंग' की सुविधा भी पर्यटकों को प्रदान करता है।
    • अत्यधिक प्रदूषित होने के कारण यह झील घटती जा रही है। इस झील में विविध वनस्पति, जैसे-कमल के फूल, कुमुद तथा पानीफल (सिंघाड़ा) पाए जाते हैं।
    चिल्का झील
    • ओडिश राज्य में स्थित यह एक खारे पानी की तटीय झील है। भारत में यह सबसे बड़ी तटीय झील है। यह झील महानदी द्वारा गाद - भरने की क्रिया से निर्मित हुई है।
    • इस झील का क्षेत्र परिवर्तनशील है, यह मानसून के समय में 1175 वर्ग कि.मी. होता है तथा शुष्क मौसम में 900 वर्ग कि.मी. होता है।
    खज्जीयार झील
    • यह हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में स्थित है, यह डलहौजी से मात्र 24 कि.मी. दूर है।
    • देवदार वृक्षों से घिरे होने के कारण यह पर्यटकों के लिए एक रमणीय दृश्य प्रदर्शित करती है।
    खेचियोपालरी झील
    • यह पश्चिमी सिक्किम में स्थित है। यह हिन्दुओं तथा बौद्ध धर्मियों द्वारा एक पवित्र झील मानी जाती है।
    • यह झील बाँस के घने वनों से घिरी है। इस झील को देखने अनेक तीर्थयात्री तथा पर्यटक आते हैं।
    ढेबर झील 
    • राजस्थान राज्य में उदयपुर लगभग 45 कि.मी. पूर्व में स्थित यह झील भारत की सबसे बड़ी कृत्रिम झील है। यह 87 वर्ग कि. मी. के क्षेत्र में फैली हुई है। 
    • यह 17वीं सदी में उदयपुर के राणा जय सिंह द्वारा बनायी गयी, जब उन्होंने गोमती नदी पर एक संगमरमर का बाँध बनवाया था। इस झील में तीन द्वीप हैं, जैसमंद सैरगाह (Resort) इनमें से सबसे बड़े द्वीप पर स्थित है।
    हिमायत सागर
    • यह हैदराबाद शहर से लगभग 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस झील का नाम निजाम (VII) के सबसे छोटे बेटे हिमायत अली खान के नाम पर रखा गया है।
    • यह एक कृत्रिम झील है, जो मूसी नदी पर 1927 में निर्मित की गई है।
    हुसैन सागर
    • यह हैदराबाद शहर में स्थित है। यह हुसैन शाह वली द्वारा 1562 में मूसी नदी के एक सहायक नदी पर बनाया गया। यह हैदराबाद शहर को जलापूर्ति करती है।
    कालीवेली झील
    • यह एक तटीय झील है, जो तमिलनाडु के विलुप्पुरम जिले में स्थित है।
    • यह पुदुचेरी से लगभग 10 कि.मी. उत्तर की ओर स्थित है। यह झील प्रायद्वीपीय भारत के बड़े आर्द्र भूमि में से एक है।
    • यह कृषीय भूमि द्वारा अधिकृत किया जा रहा है। इस झील का क्षेत्रफल घटता जा रहा है।
    कोलेरू झील
    • आंध्र प्रदेश में स्थित यह झील भारत में मीठे पानी की ( अलवण गीय) सबसे बड़ी झील है। यह कृष्णा तथा गोदावरी जिले में कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के डेल्टाओं के बीच स्थित है।
    • यह झील इन दोनों नदियों के लिए एक प्राकृतिक बाढ़ संतुलन जलाशय का काम करती है। यह झील लगभग 20 मिलियन आवासीय तथा प्रवासी पक्षियों का प्राकृतिक वास है।
    • प्रतिवर्ष अक्टूबर-मार्च के मध्य यहाँ साइबेरिया तथा पूर्वी यूरोप से आए पक्षियों का वास होता है।
    • इस झील को भारतीय वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत 1999 में एक वन्य जीव विहार (Sanctuary) शरण - क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया गया।
    • बढ़ते प्रदूषण के कारण इसकी जैव-विविधता का ह्रास हुआ है।
    लोकटक झील
    • यह उत्तर-पूर्वी भारत में मीठे (अलवणीय) पानी की सबसे बड़ी झील है।
    • यह झील विश्व में 'तैरती द्वीपीय झील' के रूप में प्रसिद्ध है क्योंकि इसमें तैरते हुए फुम्डीज (तैरते हुए घास ) होते हैं।
    • 1990 में रामसर समझौते के तहत यह अंतर्राष्ट्रीय महत्व की एक आर्द्र भूमि मानी गयी।
    • यह झील जल- बिजली संयंत्र, सिंचाई तथा पीने के पानी के लिए एक जल स्रोत है।
    • यह झील ग्रामीण मछुआरों के लिए भी जीविका का साधन है, जो फुम्डीज (तैरते हुए घास) तथा निकट क्षेत्रों में रहते हैं।
    • फुम्डीज वास्तव में वनस्पति, मृदा तथा जैव-पदार्थों के विजातीय ढेर हैं।
    नाको झील
    • हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित यह एक अधिक ऊँचाई वाली झील है।
    • यह झील भिसा (Willow) तथा पहाड़ी पीपल (Popal) वृक्षों से घिरी हुयी है। इस झील के निकट बौद्ध धर्म के चार मंदिर हैं। यह एक पवित्र झील मानी जाती है।
    पोनगोंग सो
    • लद्दाख में स्थित यह झील लेह शहर से लगभग पाँच घंटे की दूरी पर है। यह मार्ग विश्व के तीसरे सबसे बड़े दर्रे ( चांगला दर्रा ) से होकर गुजरता है।
    • झील को देखने के लिए एक विशेष अनुमति पत्र की जरूरत होती है। सुरक्षा कारणों से यहाँ नौका-विहार की इजाजत नहीं दी जाती है।
    ओसमान सागर
    • यह हैदराबाद में एक कृत्रिम झील है। हैदराबाद के अंतिम निजाम (ओसमान अली खान) के द्वारा 1920 में मूसी नदी पर बाँध बनाकर इस झील को निर्मित किया गया तथा यह हैदराबाद शहर के लिए पीने के पानी का स्रोत है।
    • 'सागर महल' नाम का एक गेस्ट हाउस जो इस झील का ऊपरी नजारा दिखाता है पूर्व में निज़ाम का ग्रीष्मकालीन सैरगाह था तथा अब यह ऐतिहासिक धरोहर है।
    पुलिकट झील
    • यह कोरोमण्डल तट पर दूसरी सबसे बड़ी खारे पानी की झील है। यह आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु की सीमा पर स्थित है।
    • श्रीहरिकोटा का परिध द्वीप इस झील को बंगाल की खाड़ी से अलग करता है।
    • लगभग 15,000 हंसावर इस झील में प्रतिवर्ष आते हैं। यहाँ जलसिंह, कौडिल्ला, बगुला, चिंगारा, स्पूनबिल तथा बत्तख भी पाए जाते हैं।
    पुष्कर झील
    • अजमेर जिले में स्थित यह एक कृत्रिम झील है। इस झील का निर्माण 12वीं सदी में हुआ जब लूनी नदी के नदी शीर्ष पर एक बाँध बनाया गया।
    रेणुका झील
    • हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में स्थित इस झील का नाम देवी रेणुका के नाम पर है।
    • इस जगह एक चिड़ियाघर तथा “लायन सफारी" ( कारवाँ) भी है। नवम्बर के महीने में यहाँ वार्षिक मेला लगता है।
    सूरज ताल
    • बारालाचा दरें के शिखर के नीचे स्थित यह एक अधिक ऊँचाई वाली झील है। यह समुद्री सतह से लगभग 4980 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।
    सांभर झील
    • यह जयपुर शहर से लगभग 70 कि.मी. दूर पश्चिम की ओर स्थित है तथा भारत की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है।
    • पूर्वी किनारे की ओर यह झील 5 कि.मी. लम्बे बाँध से विभाजित है जो पत्थरों से बनी हुयी है। 
    • बाँध के पूर्व में लवण वाष्पन कुण्ड है, जहाँ लगभग एक हजार वर्ष पहले से ही नमक का उत्पादन होता आया है।
    • इस झील में जल की गहराई शुष्क मौसम में कुछ से.मी. से लेकर मानसून में 3 मीटर तक रहती है।
    • सांभर झील को रामसर सूची में अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की आर्द्रभूमि के रूप में शामिल किया गया है।
    • हजारों साइबेरियाई पक्षी सर्दी के मौसम में इस झील में आते हैं।
    सास्थम कोट्टा झील
    • यह केरल राज्य में मीठे पानी की एक बड़ी झील हैं। यह झील कोल्लम जिले में सास्थमकोट्टा में स्थित है तथा यह कोल्लम शहर से लगभग 30 कि.मी. दूर है।
    • यह पर्यटकों के लिए एक बड़े आकर्षण का केन्द्र है।
    वूलर झील
    • सोपोर तथा बाँदीपुर के मध्य कश्मीर घाटी में स्थित यह भारत में सबसे बड़ी मीठे पानी की झील है।
    • इस झील का निर्माण अभिनूतन (प्लीस्टोसीन) काल के दौरान विवर्तनिक क्रियाओं के कारण हुआ।
    • मौसम के अनुसार इस झील का आकार बढ़ता-घटता है।
    • यह झील झेलम नदी से जलग्रहण करती तथा एक प्राकृतिक जलाशय के रूप में काम करती है।
    • तुलबुल परियोजना - एक 'नौसंचालन' बाँध तथा नियंत्रण संरचना, वूलर झील के मुहाने (मुख) पर है।
    वीरानम झील
    • यह तमिलनाडु के कुडुलौर जिले में स्थित है। यह चेन्नई से लगभग 235 किमी. दूर है।
    • यह उन जलाशयों में से एक है, जिससे चेन्नई शहर की जलापूर्ति की जाती है।
    वेंबनाद झील ( वेंबनाद कयाल अथवा वेंबनाद कोल )
    • लगभग 200 वर्ग किमी. के क्षेत्रफल में फैली हुई यह झील केरल की सबसे बड़ी झील है। 
    • यह झील समुद्री सतह पर है तथा अरब सागर से एक संकीर्ण परिध द्वीप द्वारा अलग की गयी है।
    • अनेक नदियाँ इस झील में प्रवाहित होती है, जैसे- पम्बा तथा पेरियार । यह झील पल्लीपुरम तथा पेरूम्बलम जैसे द्वीपों को घेरे हुए हैं।
    वीरनपुझा झील
    • कोच्चि स्थित यह झील वेंबनाद झील का उत्तरी विस्तार है। यह देश के विभिन्न भागों तथा विदेश से अनेक पर्यटकों को आकर्षित करती है।
    वेम्बानट्टु झील
    • कोट्टायम से लगभग 16 किमी. दूर यह नदियों तथा नहरों का एक विस्तृत जालक्रम (नेटवर्क) है।
    • एक मनोहर पिकनिक स्थल तथा तेजी से विकसित होता यह स्थान पश्च जल पर्यटन, नौकाविहार और मत्स्ययन के लिए प्रसिद्ध है।
    • कुमाराकोम पक्षी अभ्यारण्य वेम्बानट्टु झील के तट पर स्थित है।
    सतताल अथवा सत्ता
    • यह उत्तराखण्ड के कुमाऊं प्रखण्ड में भीमताल शहर के नजदीक सात शाँत झीलों का समूह है। ये झीलें औसत समुद्री सतह से लगभग 1370 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। ये झीलें प्रवासी पक्षियों के लिए स्वर्ग है।
    सोंगमो झील
    • सिक्किम राज्य में गंगटोक से लगभग 40 किमी दूर यह एक हिमानी टार्न ( गिरिताल) झील है। यह झील अण्डे के आकार (अण्डाकार) की है।
    • लगभग 3780 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह झील सर्दी के मौसम में जम जाती है। यह बौद्धों तथा हिंदुओं के लिए एक पवित्र झील है।
    प्रायद्वीपीय प्रवाह तंत्र की प्रमुख नदियाँ
    महानदी

    इस नदी का उद्गम छत्तीसगढ़ के रायपुर में सिंहावा के निकट है। यह छत्तीसगढ़ में बहने के बाद ओडिशा में बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

    इसकी लंबाई 851 किलोमीटर है और इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 1.40 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है जिसका 53 प्रतिशत भाग मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में और शेष भाग ओडिशा में पड़ता है।

    इस नदी पर हीराकुंड बाँध बना है। इसके मुहाने पर चिल्का नामक प्रसिद्ध और विशाल झील है।

    गोदावरी

    यह दक्षिण की सबसे बड़ी नदी है। इसे 'दक्षिणी गंगा' भी कहा जाता है। इसका उद्गम महाराष्ट्र के नासिक में है।

    इसकी लंबाई 1,465 किलोमीटर तथा जलसंग्रहण क्षेत्र 3.13 लाख वर्ग किलोमीटर है जिसका आधा भाग महाराष्ट्र में, चौथाई से कुछ कम मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तथा शेष आंध्र प्रदेश में पड़ता हैं।

    इन राज्यों की कई छोटी-छोटी नदियाँ भी इसमें मिलती है जिनमें पेनगंगा, वैनगंगा, इंद्रावती, वर्धा, प्राणहिता और मंजरा, प्रमुख हैं।

    राजमुंद्री के बाद यह कई शाखाओं में विभक्त होकर बहती है और विस्तृत डेल्टा बनाती है। अंततः यह बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

    कृष्णा

    गोदावरी के बाद यह दूसरी सबसे लंबी नदी है। इसकी लंबाई 1,400 किलोमीटर है। इसके जलसंग्रहण क्षेत्र का आधे से कुछ कम कर्नाटक में और लगभग चौथाई भाग महाराष्ट्र में और शेष भाग आंध्र प्रदेश में पड़ता है।

    मूसी, कोयना, तुंगभद्रा और भीमा इसकी सहायक नदियाँ है। 

    कावेरी

    यह नदी कर्नाटक के कोडागु में ब्रह्मगिरि पहाड़ियों से निकलती हैं। यह स्थान समुद्रतल से 1341 मीटर ऊँचा है।

    इसकी लंबाई 800 किलोमीटर तथा जलसंग्रहण क्षेत्र 81,155 हजार वर्ग किलोमीटर है।

    ग्रीष्मकाल में दक्षिण-पश्चिम मानसून एवं शीतऋतु में उत्तर-पूर्वी मानसून की वर्षा होने के कारण इसमें वर्ष भर पानी रहता है।

    कई इसके जलसंग्रहण क्षेत्र का 56 प्रतिशत तमिलनाडु, 41% कर्नाटक और शेष केरल में पड़ता है। इसकी सहायक नदियों में कबिनी, भवानी और अमरावती प्रमुख है।

    इस नदी में उतार-चढ़ाव बहुत कम है। इसी नदी पर कृष्णा राजसागर बाँध बना है।

    नर्मदा 

    यह नदी अमरकंटक के पश्चिमी भाग में 1,057 मीटर की ऊँचाई से निकलती है। इसकी लंबाई 1312 किलोमीटर है।

    यह विंध्याचल और सतपुड़ा के मध्य भ्रंश-घाटी में बहती है। इसके मार्ग में भी कई महाखड्ड हैं।

    जबलपुर के पास 'धुआँधार' नाम का प्रसिद्ध झरना भी इसी नदी पर है। यह अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिए प्रसिद्ध है। इसके तट पर संगमरमर की चट्टानें हैं।

    संगमरमर की मूर्तियों और कलाकृतियों के लिए इसका तट महत्त्वपूर्ण fहै। सरदार सरोवर परियोजना इसी नदी पर निर्मित है।

    भड़ौच में अरब सागर में इसके मुहाने पर 27 किलोमीटर लंबा एक ज्वारनदमुख है।

    ताप्ती

    यह नदी मध्य प्रदेश के सतपुड़ा श्रेणी में स्थित बैतूल से निकलती है। इसकी लंबाई किलोमीटर तथा जलसंग्रहण क्षेत्र 65,145 वर्ग किलोमीटर है जिसका 79% महाराष्ट्र 15% मध्य प्रदेश और शेष गुजरात में है।

    लूनी

    पुष्कर के समीप सरस्वती और सागरमती नाम की दो नदियाँ निकलती हैं जो गोबिंदगढ़ के पास एक-दूसरे से मिल जाती हैं और अरावली की पहाड़ियों में बहती है।

    इसके बाद इस नदी को लूनी कहते हैं। तलवाड़ा में यह पश्चिम की ओर बहती है।

    इसके बाद दक्षिण-पश्चिम में राजस्थान की यह सबसे बड़ी नदी है। यह कच्छ के रन में स्थित साँभर झील में गिरती है।

    गर्मी में साँभर झील प्राय: सूख जाती है और इसमें बहुत नमक जमा होता रहता है जिसे सूखने पर निकाला जाता है। 

    सुवर्णरेखा

    यह नदी रांची के पश्चिम से निकलती है। झारखंड में बहने के बाद पश्चिम बंगाल और ओडिशा की सीमा रेखा के साथ बहते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

    इसका जलग्रहण क्षेत्र 19296 वर्ग किलोमीटर में फैला है। एच.ई. सी. जमशेदपुर के दो बड़े उद्योग इसके तट पर हैं।

    बंगाल की खाड़ी में इसकी धारा गंगा की धारा को लंबवत काटती है जिससे उसका वेग प्रभावित होता है।

    गति रुकने के कारण उसकी गाद जमा होती रहती है जिससे एक टापू जैसा क्षेत्र बन गया है। इसे गंगासागर कहते हैं।

    समुद्र के बीच नदियों का यह संगम प्रयाग तीर्थ की तरह पवित्र माना जाता है। सुवर्णरेखा को 'छोटानागपुर की गंगा' भी कहते हैं।

    हिमालयी नदी प्रायद्वीपीय नदी
    हिमालयी नदियां भारत की नदियाँ युवा नूतन नदियाँ है केवल कुछ पूर्ववर्ती नदियो, जैसे सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र इत्यादि को छोड़कर। प्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ अधिक पुरानी हैं। इनमें से कुछ कैम्ब्रियन काल के पहले की है।
    इनमें से कई नदियाँ, जैसे-सिन्धु, प्र सतलज, काली, कोसी, ब्रम्हपुत्र, तीरता प्रत्यानुवर्ती नदियाँ हैं। अधिकांश नदियाँ अनुवर्ती अथवा पुनयुक्ति नदियाँ है।
    इन नदियों का बेसिन सामान्यतः बड़ा होता है। गोदावरी को छोड़कर इन नदियों का बेसिन तुलनात्मक रूप से छोटा होता है।
    इन नदियों का नदी तल ऊपरी धारा में महाखड्डों तथा क्षिप्रिकाओं का निर्माण करती है। इन नदियों का नदीतल चौड़ा है।
    दोनों, ऊर्ध्वाधर तथा पार्श्विक अपरदन महत्त्वपूर्ण है। ऊर्ध्वाधर अपरदन नगण्य है।
    ये नदियाँ दोनों, तीव्र तथा मंद गति से बहने वाली है। ये नदियाँ धीमी गति से बहने वाली नदियाँ हैं।
    वे नदियाँ अधिक मात्रा में अवसादों का वहन करती हैं। इन नदियों की वहन क्षमता निम्न है।
    ये नदियाँ सक्रिय रूप से अपरदन तथा निक्षेपण का कारक (एजेन्ट) है। ये नदियाँ मुख्यत: निक्षेपण के कारक (एजेन्ट) नहीं हैं।
    मैदानी क्षेत्र में ये नदियाँ अनेक गोखुर झील (Ox bow lake) बनाती है। ये नदियाँ छिछला विसर्पण बनाती है।
    अधिकांश नदियाँ मैदानों में नौगम्य होती है। ये नदियाँ सामान्यतः नौगम्य नहीं है।
    ये नदियाँ चिरस्थायी है। ये नदियाँ मौसमी होती है।
    अधिकांश नदियाँ हिमालय में हिमनदों से निकलती है। अधिकांश नदियों का उद्गम पश्चिमी घाट तथा पठारी-क्षेत्र से होता है।
    अधिकांश नदियाँ परवर्ती तरूणावस्था में है। अधिकांश नदियाँ जीर्ण नदियाँ हैं।
    इन नदियों पर अनेक बहुद्देशीय योजनाएँ हैं, उदाहरण के लिए भाखड़ा टिहरी, सलाल | इन नदियों का उपयोग जल-बिजली संयंत्रों के लिए किया जाता है, उदाहरण के लिए हीराकुंड, कोयना तथा नागार्जुन सागर।
    ये नदियाँ सिर्फ डेल्टा का निर्माण करती है। सुन्दरबन् डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा है। ये नदियाँ डेल्टा (जैसे गोदावरी, कृष्णा, कावेरी) तथा मुहाना (नर्मदा, तापी) का निर्माण करती है।
    पूरब की ओर बहने वाली कुछ अन्य नदियाँ और उनका जलग्रहण क्षेत्र
    वैतरणी 12,789 वर्ग किलोमीटर
    ब्राह्मणी 39,033 वर्ग किलोमीटर
    पेन्नार 55,213 वर्ग किलोमीटर
    पलार 17870 वर्ग किलोमीटर
    पश्चिमी घाट पर पश्चिम की ओर बहने वाली कुछ नदियाँ
    शेतरुनीजी यह नदी अमरावती में डलकाहवा से निकलती है।
    भद्रावती यह नदी राजकोट में अनियाली के पास से निकलती है।
    ढाढर यह नदी पंचमहल के घंटार से निकलती है।
    साबरमती यह नदी गुजरात की प्रमुख नदी है।
    माही यह भी गुजरात की प्रमुख नदी है।
    वैतरणी यह नदी नासिक की पहाड़ियों में 670 मीटर की ऊँचाई से निकलती है।
    कालिंदी यह नदी कर्नाटक के बेलगाँव से निकलकर कारवाड़ की खाड़ी में गिरती है।
    बेदति यह नदी धानवाड़ से निकलती है। इसकी लंबाई 161 किलोमीटर है।
    शरावती यह नदी कर्नाटक के शिमोगा से निकलती है। इस पर 271 मीटर ऊँचा जलप्रपात है, जिसका नाम गरसोप्पा या 'जोग' है।
    मांडवी यह नदी गोवा में है।
    जुआरी यह भी गोवा में है।
    भरतपूझा यह केरल की सबसे लंबी नदी है। यह (पोंनानी) अनयमलय पहाड़ियों से निकलती है। इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 5,397 वर्ग किलोमीटर है।
    पेरियार यह केरल की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 5,243 वर्ग किलोमीटर में फैला है।
    पांबा यह केरल की एक छोटी नदी है, जो 177 किलोमीटर लंबी है। उत्तरी भाग में बहकर यह वेम्बानद झील में गिरती है।
    पोन्ना यह नदी भी केरल में है।
    पश्चिम की ओर बहने वाली छोटी नदियाँ

    अमरावती जिले में डलकाहवा से निकलती है। भद्रा नदी राजकोट जिले के अनियाली गाँव के निकट से निकलती है। ढाढ़र नदी पंचमहल जिले के घंटार गाँव से निकलती है। साबरमती और माही गुजरात की दो प्रसिद्ध नदियाँ हैं।

    गोवा में दो महत्त्वपूर्ण नदियाँ हैं, जिनका यहाँ उल्लेख किया जा सकता है। एक का नाम मांडवी है और दूसरी जुआरी है। केरल की तट रेखा छोटी है।

    केरल की सब से बड़ी नदी भरतपूझा अन्नामलाई पहाड़ियों निकलती है। इसे पोंनानी के नाम से भी जाना जाता है। यह लगभग 5,397 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को अपवाहित करती है।

    पेरियार केरल की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। इसका जलग्रहण क्षेत्र लगभग 5,243 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। भरतपूझा और पेरियार नदियों के जलग्रहण क्षेत्र में बहुत कम अंतर है।

    केरल की अन्य उल्लेखनीय नदी पांबा है, जो उत्तरी केरल में 177 किलोमीटर लंबा मार्ग तय करती हुई वेंबानाद झील में जा गिरती है।

    पश्चिमी घाट पर पश्चिम की ओर बहनेवाली कुछ नदियाँ 
    शेतरुनीजी यह नदी अमरावती में डलकाहवा से निकलती है।
    भद्रावती यह नदी राजकोट में अनियाली के पास से निकलती है।
    ढाढर यह नदी पंचमहल के घंटार से निकलती है।
    साबरमती यह नदी गुजरात की प्रमुख नदी है।
    माही यह भी गुजरात की प्रमुख नदी है।
    वैतरणी यह नदी नासिक की पहाड़ियों में 670 मीटर की ऊँचाई से निकलती है।
    कालिंदी यह नदी कर्नाटक के बेलगाँव से निकलकर कारवाड़ की खाड़ी में गिरती है।
    बेदति यह नदी धानवाड़ से निकलती है। इसकी लंबाई 161 किलोमीटर है।
    शरावती यह नदी कर्नाटक के शिमोगा से निकलती है। इस पर 271 मीटर ऊँचा जलप्रपात है, जिसका नाम गरसोया या 'जोग' है।
    मांडवी यह नदी गोवा में है।
    जुआरी यह भी गोवा में है।
    भरतपूझा यह केरल की सबसे लंबी नदी है। यह (पोंनानी ) अनयमलय पहाड़ियों से निकलती है। इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 5,397 वर्ग किलोमीटर है।
    पेरियार यह केरल की दूसरी सबसे बड़ी नदी है। इसका जलसंग्रहण क्षेत्र 5,243 वर्ग किलोमीटर में फैला है।
    पांबा यह केरल की एक छोटी नदी है, 177 किलोमीटर लंबी है। उत्तरी भाग में बहकर यह वेम्बानद झील में गिरती है।
    पोन्ना यह नदी भी केरल में है।
    पूर्व की ओर बहने वाली छोटी नदियाँ

    स्वर्णरेखा, वैतरणी, ब्रह्मणी, वामसाधारा, पेंनर, पालार और वैगाई पूर्व की ओर बहने वाली महत्त्वपूर्ण नदियाँ हैं।

    पूरब की ओर बहनेवाली कुछ अन्य नदियाँ और उनका जलग्रहण क्षेत्र
    वैतरणी 12,789 वर्ग किलोमीटर
    ब्राह्मणी 39,033 वर्ग किलोमीटर
    पेन्नार 55,213 वर्ग किलोमीटर
    पलार 17,870 वर्ग किलोमीटर
    नदी बहाव प्रवृत्ति

    उत्तर भारत की हिमालय से निकलने वाली नदियाँ बारहमासी हैं, क्योंकि ये अपना जल बर्फ पिघलने तथा वर्षा होने से प्राप्त करती हैं।

    दक्षिण भारत नदियाँ हिमनदों से नहीं निकलती जिससे इनकी बहाव प्रवृत्ति में उतार-चढ़ाव देखा जा सकता है। इनका बहाव मानसून ऋतु में काफी ज्यादा बढ़ जाता है।

    इस प्रकार दक्षिण भारत की नदियों के बहाव की प्रवृत्ति वर्षा द्वारा नियंत्रित होती है, जो प्रायद्वीपीय पठार के एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न होती है।

    जल विसर्जन नदी में समयानुसार जल प्रवाह के आयतन का माप है। इसे क्यूसेक्स (क्यूबिक फुट प्रति सैकेंड) या क्यूमैक्स (क्यूबिक मीटर प्रति सैकेंड) में मापा जाता है।

    गंगा नदी में न्यूनतम जल प्रवाह जनवरी से जून की अवधि के दौरान से होता है। अधिकतम प्रवाह अगस्त या सितंबर में प्राप्त होता है।

    सितंबर के बाद प्रवाह में लगातार कमी होती चली जाती है। इस प्रकार इस नदी की वर्षा ऋतु में जल प्रवाह की प्रवृत्ति मानसूनी होती है।

    गंगा द्रोणी के पूर्वी व पश्चिमी भागों की जल बहाव प्रवृत्ति में चौंकाने वाले अंतर नज़र आते हैं। बर्फ पिघलने के कारण गंगा नदी का प्रवाह मानसून आने से पहले भी काफी बड़ा होता है।

    फरक्का में गंगा नदी का औसत अधिकतम जल प्रवाह लगभग 55,000 क्यूसेक्स है, जबकि न्यूनतम औसत केवल 1,300 क्यूसेक्स है।

    प्रायद्वीप की दो नदियों की प्रवाह प्रवृत्ति हिमालय के नदियों की तुलना में रोचक अंतर प्रस्तुत करती हैं ।

    नर्मदा नदी में जल विसर्जन का स्तर जनवरी से जुलाई माह तक बहुत कम रहता है, लेकिन अगस्त में इस नदी का जल प्रवाह अधिकतम हो जाता है, तो यह अचानक उफान पर आ जाती है।

    अक्तूबर महीने में बहाव की गिरावट उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितना अगस्त में उफ़ान ।

    भारत की प्रमुख नदियाँ
    नाम उदगम  अंत लंबाई (किमी.) विशेषताएँ
    सिंधु कैलास (तिब्बत) अरब सागर 2,900 भारत में 1,114 तिब्बत में उत्तर-पश्चिम, पाकिस्तान, भारत में दक्षिण पश्चिम बाद में दक्षिण
    गंगा गंगोत्री (हिमनद ) बंगाल की खाड़ी 2,525 प्रारंभ में दक्षिण, फिर पूरब की ओर, बंगाल में दक्षिण
    ब्रह्मपुत्र मानसरोवर (पं. तिब्बत) बंगाल की खाड़ी 2,900 भारत में 916 हिमालय में दक्षिण -पश्चिम, फिर दक्षिण में गंगा और पद्मा से मिलकर बहती है। यह गंगा से लंबी नदी है, परन्तु भारत में इसका तिहाई भाग ही है।

    दक्षिण भारत की प्रमुख नदियाँ

    नाम उदगम  अंत लंबाई (किमी.) विशेषताएँ
    गोदावरी पश्चिमी घाट नासिक बंगाल की खाड़ी 1465 पूरब और दक्षिण पूर्व, भारत में दूसरा सबसे बड़ा बेसिन, भारत में कुल बेसिन का 10%
    कृष्णा पश्चिमी घाट बंगाल की खाड़ी 1400 पूरब की ओर, भारत का तीसरा सबसे बड़ा बेसिन
    कावेरी पश्चिमी घाट कर्नाटक ब्रह्मगिरी बंगाल की खाड़ी 800 पूरब की ओर
    महानदी दक्षिणी पठार का पश्चिमोत्तर बंगाल की खाड़ी 851 पूरब की ओर इसका बेसिन चौथे नंबर पर आता है।
    दामोदर रांची बंगाल की खाड़ी 541 झारखंड में की पूरब ओर, इसकी घाटी में खनिज और कोयले का अपार भंडार है।
    सुवर्णरेखा अमरकंटक बंगाल की खाड़ी 395 यह छोटानागपुर की गंगा कहलाती है।
    सोन अमरकंटक गंगा में 780
    नर्मदा सतपुड़ा (बेतुल) अरब सागर 1312 पश्चिम की ओर, इसका बेसिन बहुत बड़ा है। संगमरमर की चट्टानों के लिए प्रसिद्ध है।
    ताप्ती पश्चिमी घाट अरब सागर 724 पश्चिम की ओर
    शरावती, नेमावती, पेरियार, पांबा, पोन्नर, भद्रावती, साबरमती, माही, जुआरी अरब सागर ये सभी छोटी नदियां हैं जो पश्चिमी घाट से निकलकर अरब सागर में गिरती है।

    नदी जल उपयोग की सीमा 

    भारत की नदियाँ प्रतिवर्ष जल की विशाल मात्रा का वहन करती हैं, लेकिन समय व स्थान की दृष्टि से इसका वितरण समान नहीं है। बारहमासी नदियाँ वर्ष भर जल का वहन करती हैं, परंतु अनित्यवाही नदियों में शुष्क ऋतु में बहुत कम जल होता है। वर्षा ऋतु में, अधिकांश जल बाढ़ में व्यर्थ हो जाता है और समुद्र में बह जाता है। इसी प्रकार, जब देश के एक भाग में बाढ़ होती है तो दूसरा सूखाग्रस्त होता है।

    पृथ्वी के धरातल का लगभग 71% भाग जल से ढका है, लेकिन इसका 97% जल लवणीय है।

    केवल 3% ही स्वच्छ जल के रूप में उपलब्ध है, जिसका तीन-चौथाई भाग हिमानी के रूप में है।

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    Mon, 27 Nov 2023 05:51:19 +0530 Jaankari Rakho
    BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | भारत की भौतिक स्थिति https://m.jaankarirakho.com/483 https://m.jaankarirakho.com/483 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | भारत की भौतिक स्थिति

    हिमालय और अन्य अतिरिक्त प्रायद्वीपीय

    पर्वतमालाएँ
    • कठोर एवं स्थिर प्रायद्वीपीय खंड के विपरीत हिमालय और अतिरिक्त-प्रायद्वीपीय पर्वतमालाओं की भूवैज्ञानिक संरचना तरूण, दुर्बल और लचीली है।

    • इन पर्वतों की उत्पत्ति विवर्तनिक हलचलों से जुड़ी हैं। तेज बहाव वाली नदियों से अपरदित ये पर्वत अभी भी युवा अवस्था में हैं।
    • गॉर्ज, V-आकार घाटियाँ, क्षिप्रिकाएँ व जल प्रपात इत्यादि इसका प्रमाण हैं।
    सिंधु - गंगा - बह्मपुत्र मैदान
    • भारत का तृतीय भूवैज्ञानिक खंड सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र नदियों का मैदान है। मूलत: यह एक भू-अभिनति गर्त है जिसका निर्माण मुख्य रूप से हिमालय पर्वतमाला निर्माण प्रक्रिया के तीसरे चरण में लगभग 6.4 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। तब से इसे हिमालय और प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ लाए हुए अवसादों से पाट रही हैं। इन मैदानों में जलोढ़ की औसत गहराई 1000 से 2000 मीटर है।
    • भारतीय उपमहाद्वीप में भूवैज्ञानिक और भूआकृतिक प्रक्रियाओं का यहाँ की भूआकृति एवं उच्चावच पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पाया जाता है।
    भू-आकृति
    • किसी स्थान की भू-आकृति, उसकी संरचना, प्रक्रिया और विकास की अवस्था का परिणाम है। भारत में धरातलीय विभिन्नताएँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं |
    • इसके उत्तर में एक बड़े क्षेत्र में ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृति है। इसमें हिमालय पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, जिसमें अनेकों चोटियाँ, सुंदर घाटियाँ व महाखड्ड हैं।
    • दक्षिण भारत एक स्थिर परंतु कटा-फटा पठार है जहाँ अपरदित चट्टान खंड और कगारों की भरमार है। इन दोनों के बीच उत्तर भारत का विशाल मैदान है।
    • भारत को निम्नलिखित भू-आकृतिक खंडों में बाँटा जा सकता है।
      (1) उत्तर तथा उत्तरी - पूर्वी पर्वतमाला;
      (2) उत्तरी भारत का मैदान;
      (3) प्रायद्वीपीय पठार;
      (4) भारतीय मरुस्थल;
      (5) तटीय मैदान;
      (6) द्वीप समूह
    उत्तर तथा उत्तरी पूर्वी पर्वतमाला
    • उत्तर तथा उत्तरी-पूर्वी पर्वतमाला में हिमालय पर्वत और उत्तरी-पूर्वी पहाड़ियाँ शामिल हैं। हिमालय में कई समानांतर पर्वत श्रृंखलाएँ हैं।
    • भारत की उत्तरी सीमा पर विस्तृत हिमालय भूगर्भीय रूप से युवा एवं बनावट के दृष्टिकोण से वलित पर्वत श्रृंखला है। ये पर्वत श्रृंखलाएं पश्चिम पूर्व दिशा में सिंधु से लेकर बह्मपुत्र तक फैली है।
    • हिमालय विश्व की सबसे ऊँची पर्वत श्रेणी है और एक अत्यधिक असम अवरोधों में से एक है। ये 2400 किमी. की लंबाई में फैले एक अर्द्धवृत का निर्माण करते हैं। इसमें पार हिमालय बृहत हिमालय, शृंखलाएँ, मध्य हिमालय और शिवालिक प्रमुख श्रेणियाँ हैं।
    • भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में हिमालय की ये श्रेणियाँ उत्तर-पश्चिम दिशा से दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर फैली हैं।
    • दार्जिलिंग और सिक्किम क्षेत्रों में ये श्रेणियाँ पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली हैं जबकि अरुणाचल प्रदेश में ये दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पश्चिम की ओर घूम जाती हैं। मिजोरम, नागालैंड और मणिपुर में ये पहाड़ियाँ उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हैं।
    • बृहत हिमालय श्रृंखला, जिसे केंद्रीय अक्षीय श्रेणी भी कहा जाता है, की पूर्व-पश्चिम लंबाई लगभग 2,500 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण इसकी चौड़ाई 160 से 400 किलोमीटर है।
    • हिमाद्रि के दक्षिण में स्थित श्रृंखला सबसे अधिक असम है एवं हिमाचल या निम्न हिमालय के नाम से जानी जाती है।
    • इनश्रृंखलाओं का निर्माण मुख्यतः अत्याधिक संपीडित तथा परिवर्तित शैलों से हुआ हैं। इनकी ऊँचाई 3,700 मीटर से 4,500 मीटर के बीच तथा औसत चौड़ाई 50 किलोमीटर है।
    • मध्य हिमालय में पीर पंजाल शृंखला सबसे लंबी तथा सबसे महत्त्वपूर्ण श्रृंखला है, धौलाधर एवं महाभारत शृंखलाएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इसी शृंखला में कश्मीर की घाटी तथा हिमाचल के कांगड़ा एवं कुल्लू की घाटियाँ स्थित हैं। इस क्षेत्र को पहाड़ी नगरों के लिए जाना जाता है।
    • हिमालय की सबसे बाहरी श्रृंखला को शिवालिक कहा जाता है। इनकी चौड़ाई 10 से 50 किमी. तथा ऊँचाई 900 से 1,100 मीटर के बीच है। ये श्रृंखलाएँ, उत्तर में स्थित मुख्य हिमालय की शृंखलाओं से नदियों द्वारा लायी गयी असंपीडित अवसादों से बनी है।
    • ये घाटियाँ बजरी तथा जलोढ़ की मोटी परत से ढंकी हुई हैं। निम्न हिमाचल तथा शिवालिक के बीच में स्थित लंबवत् घाटी को दून के नाम से जाना जाता है। कुछ प्रसिद्ध दून हैं- देहरादून, कोटलीदून एवं पाटलीदून।
    • हिमालय, भारतीय उपमहाद्वीप तथा मध्य एवं पूर्वी एशिया के देशों के बीच एक मजबूत लंबी दीवार के रूप खड़ा है।
    • उत्तर-दक्षिण के अतिरिक्त हिमालय को पश्चिम से पूर्व तक स्थित क्षेत्रों के आधार पर भी विभाजित किया गया है। इन वर्गीकरणों का आधार नदी घाटियों की सीमाएं उदाहरण के लिए, सतलुज एवं सिंधु के बीच स्थित हिमालय के भाग को 'पंजाब हिमालय' के नाम से जाना जाता है। पश्चिम से पूर्व तक क्रमश: इसे 'कश्मीर तथा हिमाचल हिमालय' के नाम से भी जाना जाता है।
    • सतलुज तथा काली नदियों के बीच स्थित हिमालय के भाग को 'कुमाँऊ हिमालय' के नाम से भी जाना जाता है। काली तथा तीस्ता नदियाँ, नेपाल हिमालय का एवं तीस्ता तथा दिहांग नदियाँ असम हिमालय का सीमांकन करती है।
    • ब्रह्मपुत्र हिमालय की सबसे पूर्वी सीमा बनाती है। दिहांग महाखड्ड (गार्ज) के बाद हिमालय दक्षिण की ओर एक तीखा मोड़ बनाते हुए भारत की पूर्वी सीमा के साथ फैल जाता है। इन्हें पूर्वांचल या पूर्वी पहाड़ियों की पर्वत श्रृंखलाओं के नाम से जाना जाता है।
    • ये पहाड़ियाँ उत्तर-पूर्वी राज्यों से होकर गुजरती हैं तथा मजबूत बलुआ पत्थरों, जो अवसादी शैल है, से बनी है। ये घने जंगलों से ढकी हैं। तथा अधिकतर समानांतर शृंखलाओं एवं घाटियों के रूप में फैली हैं। पूर्वांचल में पटकाई, नागा, मिजो तथा मणिपुर पहाड़ियाँ शामिल हैं।
    • हिमालय एक प्राकृतिक रोधक ही नहीं अपितु जलवायु, अपवाह और सांस्कृतिक विभाजक भी है।
    • हिमालय पर्वतमाला में भी अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ हैं। उच्चावच, पर्वत श्रेणियों के संरेखण और दूसरी भू-आकृतियों के आधार पर हिमालय को निम्नलिखित उपखंडों में विभाजित किया जा सकता है।
      (i) कश्मीर या उत्तरी - पश्चिमी हिमालय;
      (ii) हिमाचल और उत्तरांचल हिमालय;
      (iii) दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय;
      (iv) अरुणाचल हिमालय;
      (v) पूर्वी पहाड़ियाँ और पर्वत
    कश्मीर या उत्तरी - पश्चिमी हिमालय
    • कश्मीर हिमालय में अनेक पर्वत श्रेणियाँ हैं, जैसे- कराकोरम लद्दाख, जास्कर और पीरपंजाल। कश्मीर हिमालय का उत्तरी-पूर्वी भाग, जो बृहत हिमालय और कराकोरम श्रेणियों के बीच स्थित है, एक ठंडा मरुस्थल है।
    • बृहत हिमालय और पीरपंजाल के बीच विश्व प्रसिद्ध कश्मीर घाटी और डल झील हैं। दक्षिण एशिया की महत्त्वपूर्ण हिमानी नदियाँ बलटोरो और सियाचिन इसी प्रदेश में हैं।
    • कश्मीर हिमालय करेवा (karewa) के लिए भी प्रसिद्ध है, जहाँ जाफरान (केसर) की खेती की जाती है। बृहत हिमालय में जोजीला, पीर पंजाल में बानिहाल, जास्कर श्रेणी में फोटुला और लद्दाख श्रेणी में खर्दुगला जैसे महत्त्वपूर्ण दरें स्थित हैं। महत्त्वपूर्ण अलवण जल की झीलें, जैसे- डल और वुलर तथा लवणजल झीलें, जैसे- पाँगाँग सो (Pangongtso) और सोमुरीरी ( Tsomuriri) भी इसी क्षेत्र में पाई जाती हैं। सिंधु तथा इसकी सहायक नदियाँ, झेलम और चेनाब, इस क्षेत्र को अपवाहित करती हैं।
    • कश्मीर और उत्तर-पश्चिमी हिमालय विलक्षण सौंदर्य और खूबसूरत दृश्य स्थलों के लिए जाना जाता है। वैष्णो देवी, अमरनाथ गुफा और चरार-ए-शरीफ भी यहीं स्थित है।
    • जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर झेलम नदी के किनारे स्थित है। श्रीनगर में डल झील एक रोचक प्राकृतिक स्थल है। कश्मीर घाटी में झेलम नदी युवा अवस्था में बहती है तथापि नदीय स्थलरूप के विकास में प्रौढ़ावस्था में निर्मित होने वाली विशिष्ट आकृति विसप का निर्माण करती है।
    • प्रदेश के दक्षिणी भाग में अनुदैर्ध्य (longitudinal) घाटियाँ पाई जाती है जिन्हें दून कहा जाता है। इनमें जम्मू-दून और पठानकोट- दून प्रमुख हैं।
    हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय
    • हिमालय का यह हिस्सा पश्चिम में रावी नदी और पूर्व में काली (घाघरा की सहायक नदी) के बीच स्थित है। यह भारत की दो मुख्य नदी तंत्रों, सिंधु और गंगा द्वारा अपवाहित है। इस प्रदेश के अंदर बहने वाली नदियाँ रावी, ब्यास और सतलुज और और घाघरा हैं। 
    • हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्तार है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है।

    • हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत शृंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय (जिन्हें हिमाचल में धौलाधर और उत्तराखण्ड में नागटीब्बा कहा जाता है) और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं।
    • लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण पर्वत नगर, जैसेधर्मशाला, मसूरी, कासौली, अलमोड़ा, लैंसडाउन और रानीखेत इसी क्षेत्र में स्थित हैं।
    • इस क्षेत्र की दो महत्त्वपूर्ण स्थलाकृतियाँ शिवालिक और दून हैं। यहाँ स्थित कुछ महत्त्वपूर्ण दून, चंडीगढ़ - कालका का दून, नालागढ़ दून, देहरादून, हरीके दून तथा कोटा दून शामिल हैं। इनमें देहरादून सबसे बड़ी घाटी है, जिसकी लंबाई 35 से 45 किलोमीटर और चौड़ाई 22 से 25 किलोमीटर है।
    • बृहत हिमालय की घाटियों में भोटिया प्रजाति के लोग रहते हैं। ये खानाबदोश लोग हैं जो ग्रीष्म ऋतु में बुगयाल में चले जाते हैं और शरद ऋतु में घाटियों में लौट आते हैं। प्रसिद्ध 'फूलों की घाटी' भी इसी पर्वतीय क्षेत्र में स्थित है। गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब भी इसी इलाके में स्थित हैं।
    • शिवालिक शिवालिक शब्द की उत्पत्ति देहरादून के नजदीक शिवावाला में पाए जाने वाले भूगर्भिक रचनाओं से हुई है।
    दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय
    • इसके पश्चिम में नेपाल हिमालय और पूर्व में भूटान हिमालय है। यह एक छोटा परंतु हिमालय का बहुत महत्त्वपूर्ण भाग है। यहाँ तेज बहाव वाली तीस्ता नदी बहती है और कंचनजंगा जैसी ऊँची चोटियाँ और गहरी घाटियाँ पाई जाती हैं। इन पर्वतों के ऊँचे शिखरों पर लेपचा जनजाति और दक्षिणी भाग में मिश्रित जनसंख्या, जिसमें नेपाली, बंगाली और मध्य भारत की जन-जातियाँ शामिल हैं, पाई जाती है।
    अरुणाचल हिमालय
    • यह पर्वत क्षेत्र भूटान हिमालय से लेकर पूर्व में दिफू दरें तक फैला है। इस पर्वत श्रेणी की सामान्य दिशा दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पूर्व है। इस क्षेत्र की मुख्य चोटियों में काँगतु और नामचा बरवा शामिल है। ये पर्वत श्रेणियाँ उत्तर से दक्षिण दिशा में तेज बहती हुई और गहरे गॉर्ज बनाने वाली नदियों द्वारा विच्छेदित होती हैं। नामचा बरवा को पार करने के बाद बह्मपुत्र नदी एक गहरी गॉर्ज बनाती हैं।
    • कामँग, सुबनसरी, दिहांग, दिबांग और लोहित यहाँ को प्रमुख नदियाँ हैं। ये बारहमासी नदियाँ हैं और बहुत से जल-प्रपात बनाती हैं। इसलिए, यहाँ जल विद्युत उत्पादन को क्षमता काफी है। अरुणाचल हिमालय की एक मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ बहुत-सी जनजातियाँ निवास करती हैं।
    • इस क्षेत्र में पश्चिम से पूर्व में बसी कुछ जनजातियाँ इस प्रकार हैं- मोनपा, अबोर, मिशमी, निशी और नागा। इनमें से ज्यादातर जनजातियाँ झूम खेती करती हैं, जिसे स्थानांतरी कृषि या स्लैश और बर्न कृषि भी कहा जाता है। यह क्षेत्र जैव विविधता में धनी है जिसका संरक्षण देशज समुदायों ने किया।

    पूर्वी पहाड़ियाँ और पर्वत

    • हिमालय पर्वत के इस भाग में पहाड़ियों की दिशा उत्तर से दक्षिण है। ये पहाड़ियाँ विभिन्न स्थानीय नामों से जानी जाती है। उत्तर ये पटकाई बूम, नागा पहाड़ियाँ, मणिपुर पहाड़ियाँ और दक्षिण में मिजो या लुसाई पहाड़ियों के नाम से जानी जाती है।
    • यह एक नीची पहाड़ियों का क्षेत्र है जहाँ अनेक जनजातियाँ ‘झूम' या स्थानांतरी खेती करती हैं यहाँ ज्यादातर पहाड़ियाँ, छोटे-बड़े नदी-नालों द्वारा अलग होती हैं। बराक मणिपुर और मिजोरम की एक मुख्य नदी है।
    • मणिपुर घाटी के मध्य एक झील स्थित है जिसे 'लोकाटक' झोल कहा जाता है और यह चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी है।
    • मिज़ोरम जिसे 'मोलेसिस बेसिन' भी कहा जाता है मृदुल और असंगठित चट्टानों से बना है। 

    • नागालैंड में बहने वाली ज्यादातर नदियाँ बह्मपुत्र नदी की सहायक नदियाँ हैं। मिज़ोरम और मणिपुर की दो नदियाँ बराक नदी की सहायक नदियाँ हैं, जो मेघना नदी की एक सहायक नदी है ।
    • मणिपुर के पूर्वी भाग में बहने वाली नदियाँ चिंदविन नदी की सहायक नदियाँ है जो कि म्यांमार में बहने वाली इरावदी नदी की एक सहायक नदी है।
    उत्तरी भारत का मैदान
    • उत्तरी भारत का मैदान सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा बहाकर लाए गए जलोढ़ निक्षेप से बना है। लाखों वर्षों में हिमालय के गिरिपाद में स्थित बहुत बड़े बेसिन में जलोढ़ों का निक्षेप हुआ, जिससे उस उपजाऊ मैदान का निर्माण हुआ है।
    • इस मैदान की पूर्व से पश्चिम लंबाई लगभग 3200 किमी. है। इसकी औसत चौड़ाई 150 से 300 किलोमीटर है। जलोढ़ निक्षेप की अधिकतम गहराई 1000 से 2000 मीटर है।
    • समृद्ध मृदा आवरण, पर्याप्त पानी की उपलब्धता एवं अनुकूल जलवायु के कारण कृषि की दृष्टि से यह भारत का अत्यधिक उत्पादक क्षेत्र है।
    • ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित मांजुली विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है। जहां लोगों का निवास है।
    • उत्तरी पर्वतों से आने वाली नदियाँ निक्षेपण कार्य में लगी हैं। नदी के निचले भागों में ढाल कम होने के कारण नदी की गति कम हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप नदी द्वीपों का निर्माण होता है।
    • 'दोआब' का अर्थ है, दो नदियों के बीच का भाग। 'दोआब' दो शब्दों से मिलकर बना है- दो तथा आब अर्थात् पानी। इसी प्रकार 'पंजाब' भी दो शब्दों से मिलकर बना है- पंज का अर्थ है पांच तथा आब का अर्थ है पानी ।
    • ये नदियाँ अपने निचले भाग में गाद एकत्र हो जाने के कारण बहुत-सी धाराओं में बँट जाती हैं। इन धाराओं को वितरिकाएँ कहा जाता है।
    • उत्तरी मैदान को मोटे तौर पर तीन उपवर्गों में विभाजित किया गया है। उत्तरी मैदान के पश्चिमी भाग को 'पंजाब का मैदान' कहा जाता है।
    • सिंधु तथा इसकी सहायक नदियों के द्वारा बनाये गए इस मैदान का बहुत बड़ा भाग पाकिस्तान में स्थित है।
    • सिंधु तथा इसकी सहायक नदियाँ झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास तथा सतलुज हिमालय से निकलती हैं।
    • मैदान के इस भाग में दोआबों की संख्या बहुत अधिक है। गंगा के मैदान का विस्तार घग्घर तथा तीस्ता नदियों के बीच है।
    • यह उत्तरी भारत के राज्यों हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड के कुछ भाग तथा पश्चिम बंगाल में फैला है। ब्रह्मपुत्र का मैदान इसके पश्चिम विशेषकर असम में स्थित है।
    • उत्तरी मैदानों की व्याख्या सामान्यत: इसके उच्चावचों में बिना किसी विविधता वाले समतल स्थल के रूप में की जाती है। यह सही नहीं है। इन विस्तृत मैदानों की भौगोलिक आकृतियों में भी विविधता है।
    • उत्तर से दक्षिण दिशा में इन मैदानों को तीन भागों में बाँट सकते हैं भाभर, तराई और जलोढ़ मैदान। जलोढ़ मैदान को आगे दो भागों में बाँटा जाता है - खादर और बाँगर । 
    • भाबर 8 से 10 किलोमीटर चौड़ाई की पतली पट्टी है जो शिवालिक गिरिपाद के समानांतर फैली हुई है। उसके परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत श्रेणियों से बाहर निकलती नदियाँ यहाँ पर भारी जल-भार, जैसे- बड़े शैल और गोलाश्म जमा कर देती हैं और कभी-कभी स्वयं इसी में लुप्त हो जाती हैं।
    • भाबर के दक्षिण में तराई क्षेत्र है जिसकी चौड़ाई 10 से 20 किलोमीटर है। भाभर क्षेत्र में लुप्त नदियाँ इस प्रदेश में धरातल पर निकल कर प्रकट होती हैं और क्योंकि इनकी निश्चित वाहिकाएँ नहीं होती. ये क्षेत्र अनूप बन जाता है, जिसे तराई कहते हैं।
    • यह क्षेत्र प्राकृतिक वनस्पति से ढका रहता है और विभिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों का घर है।
    • तराई से दक्षिण में मैदान है जो पुराने और नए जलोढ़ से बना होने के कारण बांगर और खादर कहलाता है।
    • उत्तरी मैदान का सबसे विशालतम भाग पुराने जलोढ़ का बना है। वे नदियों के बाढ़ वाले मैदान के ऊपर स्थित हैं तथा वेदिका जैसी आकृति प्रदर्शित करते हैं। इस भाग को 'बांगर' के नाम से जाना जाता है।
    • इस क्षेत्र की मृदा में चूनेदार निक्षेप पाए जाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में कंकडू कहा जाता है। बाढ़ वाले मैदानों के नये तथा युवा निक्षेपों को खादर कहा जाता है। इनका लगभग प्रत्येक वर्ष पुननिर्माण होता है, इसलिए ये उपजाऊ होते हैं तथा गहन खेती के लिए आदर्श होते हैं।
    • इस मैदान में नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाली अपरदनी और निक्षेपण स्थलाकृतियाँ, जैसे- बालू- रोधिका, विसर्प, गोखुर झीलें और गुफित नदियाँ पाई जाती हैं।
    • ब्रह्मपुत्र घाटी का मैदान नदीय द्वीप और बालू-रोधिकाओं की उपस्थिति के लिए जाना जाता है। यहाँ ज़्यादातर क्षेत्र में समय-समय पर बाढ़ आती रहती है और नदियाँ अपना रास्ता बदल कर गुंफित वाहिकाएँ बनाती रहती हैं।
    • उत्तर भारत के मैदान में बहने वाली विशाल नदियाँ अपने मुहाने पर विश्व के बड़े-बड़े डेल्टाओं का निर्माण करती हैं, जैसे- सुंदर वन डेल्टा।
    • सामान्य तौर पर यह एक सपाट मैदान है जिसकी समुद्र तल से औसत ऊंचाई 50 से 100 मीटर है। हरियाणा और दिल्ली राज्य सिंधु और गंगा नदी तंत्रों के बीच जल-विभाजक है।
    • ब्रह्मपुत्र नदी अपनी घाटी में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती है। परंतु बांग्लादेश में प्रवेश करने से पहले धुबरी के समीप यह नदी दक्षिण की ओर 90° मुड़ जाती है। ये मैदान उपजाऊं जलोढ़ मिट्टी से बने हैं। जहाँ कई प्रकार की फसलें, जैसे- गेहूँ, चावल, गन्ना और जूट उगाई जाती हैं। अतः यहाँ जनसंख्या का घनत्व ज्यादा है।
    प्रायद्वीपीय पठार
    • प्रायद्वीपीय पठार पुराने क्रिस्टलीय, आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों से बना है। यह गोंडवाना भूमि के टूटने एवं अपवाह के कारण बना था तथा यही कारण है कि यह प्राचीनतम भू-भाग का एक हिस्सा है।
    • इस पठारी भाग में चौड़ी तथा छिछली घाटियाँ एवं गोलाकार पहाड़ियाँ हैं। इस पठार के दो मुख्य भाग हैं- 'मध्य उच्चभूमि' तथा 'दक्कन का पठार'।
    • नर्मदा नदी के उत्तर में प्रायद्वीपीय पठार का वह भाग जो कि मालवा के पठार के अधिकतर भागों पर फैला है उसे मध्य उच्चभूमि के नाम से जाना जाता है।
    • विंध्य श्रृंखला दक्षिण में मध्य उच्चभूमि तथा उत्तर पश्चिम में अरावली से घिरी है। पश्चिम में यह धीरे-धीरे राजस्थान के बलुई तथा पथरीले मरुस्थल से मिल जाता है।
    • इस क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ, चंबल, सिंध, बेतवा तथा केन दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की तरफ बहती हैं, इस प्रकार वे इस क्षेत्र के ढाल को दर्शाती हैं।
    • मध्य उच्च भूमि पश्चिम में चौड़ी लेकिन पूर्व में संकीर्ण है। इस पठार के पूर्वी विस्तार को स्थानीय रूप से बुंदेलखंड तथा बघेलखंड के नाम जाना जाता है। इसके और पूर्व के विस्तार को दामोदर नदी द्वारा अपवाहित छोटा नागपुर पठार दर्शाता है।
    • दक्षिण का पठार एक त्रिभुजाकार भू-भाग है, जो नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित है। उत्तर में इसके चौड़े आधार पर सतपुड़ा की शृंखला है, जबकि महादेव, कैमूर की पहाड़ी तथा मैकाल शृंखला इसके पूर्वी विस्तार हैं। दक्षिण का पठार पश्चिम में ऊँचा एवं पूर्व की ओर कम ढाल वाला है।
    • इस पठार का एक भाग उत्तर-पूर्व में भी देखा जाता है, जिसे स्थानीय रूप से 'मेघालय', 'कार्बी एंगलौंग पठार' तथा 'उत्तर कछार पहाड़ी' के नाम से जाना जाता है। यह एक भ्रंश के द्वारा छोटा नागपुर पठार से अलग हो गया है।
    • पश्चिम से पूर्व की ओर तीन महत्त्वपूर्ण श्रृंखलाएँ गारो, खासी तथ जयंतिया हैं।
    • दक्षिण के पठार के पूर्वी एवं पश्चिमी सिरे पर क्रमश: पूर्वी तथा पश्चिमी घाट स्थित हैं।
    • पश्चिमी घाट, पश्चिमी तट के समानांतर स्थित है।
    • वह सतत् हैं तथा उन्हें केवल दरों के द्वारा ही पार किया जा सकता है।
    • पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट की अपेक्षा ऊँचे हैं। पूर्वी घाट के 600 मीटर की औसत ऊँचाई की तुलना में पश्चिमी घाट की ऊँचाई 900 से 1,600 मीटर है।
    • पूर्वी घाट का विस्तार महानदी घाटी से दक्षिण में नीलगिरी तक है। पूर्वी घाट का विस्तार सतत् नहीं है। ये अनियमित हैं। तथा बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियों ने इसे काट दिया है।
    • पश्चिमी घाट में पर्वतीय वर्षा होती है। यह वर्षा घाट के पश्चिमी ढाल पर आर्द्र हवा के टकराकर ऊपर उठने के कारण होती है। पश्चिमी घाट को विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है।
    • पश्चिमी घाट की ऊँचाई उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती है। इस भाग से शिखर ऊँचे हैं, जैसे- अनाईमुडी (2,695 मी) तथा दोडाबेट्टा बेटा (2,633 मी ) ।
    • पूर्वी घाट का सबसे ऊँचा शिखर महेंद्रगिरी (1,500 मी) है। पूर्वी घाट के दक्षिण-पश्चिम में शेवराय तथा जावेदी की पहाड़ियाँ स्थित हैं।
    • प्रायद्वीपीय पठार की एक विशेषता यहाँ पायी जाने वाली काली मृदा है, जिसे 'दक्कन टैप' के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी से हुई है, इसलिए इसके शैल आग्नेय हैं।
    • वास्तव में इन शैलों का समय के साथ अपरदन हुआ है, जिनसे काली मृदा का निर्माण हुआ है।
    • अरावली की पहाड़ियाँ प्रायद्वीपीय पठार के पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी किनारे पर स्थित है।
    • यह बहुत अधिक अपरदित एवं खंडित पहाड़ियाँ हैं।
    • यह गुजरात से लेकर दिल्ली तक दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व दिशा में फैली हैं।
    • नदियों के मैदान से 150 मीटर ऊँचाई से ऊपर उठता हुआ प्रायद्वीपीय पठार तिकोने आकार वाला कटा-फटा भूखंड है, जिसकी ऊँचाई 600 से 900 मीटर है।
    • उत्तर पश्चिम में दिल्ली, कटक (अरावली विस्तार), पूर्व में राजमहल पहाड़ियाँ, पश्चिम में गिर पहाड़ियाँ और दक्षिण में इलायची (कार्डामम) पहाड़ियाँ, प्रायद्वीप पठार की सीमाएँ निर्धारित करती हैं। उत्तर-पूर्व में शिलांग तथा कार्बी-ऐंगलोंग पठार भी इसी भूखंड का विस्तार है।
    • प्रायद्वीपीय भारत अनेक पठारों से मिलकर बना है, जैसे- हजारीबाग पठार, पालामू पठार, रांची पठार, मालवा पठार, कोयम्बटूर पठार और कर्नाटक पठार। यह भारत के प्राचीनतम और स्थिर भू-भागों में से एक है।
    • सामान्य तौर पर प्रायद्वीप की ऊँचाई पश्चिम से पूर्व की ओर कम होती चली जाती है, जिसका प्रमाण यहाँ की नदियों के बहाव की दिशा से भी मिलता है।
    • प्रायद्वीपीय पठार के अनेक हिस्से भू-उत्थान व निमज्जन, भ्रंश तथा विभंग निर्माण प्रक्रिया के अनेक पुनरावर्ती दौर से गुजरे हैं। अपनी पुनरावर्ती भूकंपीय क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नता के कारण ही प्रायद्वीपीय पठार पर धरातलीय विविधताएँ पाई जाती हैं। इस पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग नदी खड्ड और महाखड्ड इसके धरातल को जटिल बनाते हैं। चंबल, भिंड और मुरैना खड्ड इसके उदाहरण हैं।
    • मुख्य उच्चावच लक्षणों के अनुसार प्रायद्वीपीय पठार को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
      (i) दक्कन का पठार;
      (ii) मध्य उच्च भू-भाग;
      (iii) उत्तरी-पूर्वी पठार
    दक्कन का पठार
    • इसके पश्चिम में पश्चिमी घाट, पूर्व में पूर्वी घाट और उत्तर में सतपुड़ा, मैकाल और महादेव पहाड़ियाँ हैं।
    • पश्चिमी घाट को स्थानीय तौर पर अनेक नाम दिए गए हैं, जैसेमहाराष्ट्र में सहयाद्रि, कर्नाटक और तमिलनाडु में नीलगिरि और केरल में अनामलाई और इलायची (कार्डामम) पहाड़ियाँ |
    • पूर्वी घाट की तुलना में पश्चिमी घाट ऊँचे और अविरत हैं। इनकी औसत ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है, जो कि उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ती चली जाती है।
    • प्रायद्वीपीय पठार की सबसे ऊँची चोटी 'अनाईमुडी' (2695 मीटर) है, जो पश्चिमी घाट की अनामलाई पहाड़ियों में स्थित है। दूसरी सबसे ऊँची चोटी 'डोडाबेटा' है और यह नीलगिरी पहाड़ियों में है। ज़्यादातर प्रायद्वीपीय नदियों की उत्पत्ति पश्चिमी घाट से है।
    • पूर्वी घाट अविरत नहीं है और महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों द्वारा अपरदित हैं। यहाँ की कुछ मुख्य श्रेणियाँ जावादी पहाड़ियाँ, पालकोण्डा श्रेणी, नल्लामाला पहाड़ियाँ और महेंद्रगिरि पहाड़ियाँ हैं।
    • पूर्वी और पश्चिमी घाट नीलगिरी पहाड़ियों में आपस में मिलते हैं।
    मध्य उच्च भू-भ भाग
    • पश्चिम में अरावली पर्वत इसकी सीमा बनाते हैं। इसके दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत उच्छिष्ट पठार की श्रेणियों से बना हैं जिनकी समुद्रतल से ऊँचाई 600 से 900 मीटर है।
    • यह दक्कन पठार की उत्तरी सीमा बनाते हैं। ये अवशिष्ट पर्वतों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो कि काफी हद तक अपरदित हैं और इनकी श्रृंखला टूटी हुई है।
    • प्रायद्वीपीय पठार के इस भाग का विस्तार जैसलमेर तक है जहाँ यह अनुदैर्ध्य रेत के टिब्बों और चापाकार (बरखान) रेतीले टिब्बों से ढके हैं। अपने भूगर्भीय इतिहास में यह क्षेत्र कायांतरित प्रक्रियाओं से गुजर चुका है और कायांतरित चट्टानों, जैसे- संगमरमर, स्लेट और नाइस की उपस्थिति इसका प्रमाण है।
    • समुद्र तल से मध्य उच्च भू-भाग की ऊँचाई 700 से 1000 मीटर के बीच है और उत्तर तथा उत्तर-पूर्व दिशा में इसकी ऊँचाई कम होती चली जाती है।
    • यमुना की अधिकतर सहायक नदियाँ विंध्याचल और कैमूर श्रेणियों से निकलती हैं। बनास, चंबल की एकमात्र मुख्य सहायक नदी है, जो पश्चिम में अरावली से निकलती है।
    • मध्य उच्च भू-भाग का पूर्वी विस्तार राजमहल की पहाड़ियों तक है जिसके दक्षिण में स्थित छोटा नागपुर पठार खनिज पदार्थों का भंडार है।
    उत्तर-पूर्व पठार 
    • वास्तव यह प्रायद्वीपीय पठार का ही एक विस्तारित भाग है। हिमालय उत्पत्ति के समय इंडियन प्लेट के उत्तर-पूर्व दिशा में खिसकने के कारण, राजमहल पहाड़ियों और मेघालय के पठार के बीच भ्रंश घाटी बनने यह अलग हो गया था।
    • आज मेघालय और कार्बी ऐंगलोंग पठार इसी कारण से मुख्य प्रायद्वीपीय पठार से अलग-थलग हैं।
    • इसमें आवास करने वाली जनजातियों के नाम के आधार पर मेघालय के पठार को तीन भागों में बाँटा गया है-
      (i) गारो पहाड़ियाँ
      (ii) खासी पहाड़ियाँ
      (iii) जयंतिया पहाड़ियाँ। असम की कार्बी ऐंगलोंग पहाड़ियाँ भी इसी का विस्तार है।
    • इस क्षेत्र में अधिकतर वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होती है। परिणामस्वरूप, मेघालय का पठार एक अति अपरदित भूतल है ।
    भारतीय मरुस्थल
    • विशाल भारतीय मरुस्थल अरावली पहाड़ियों से उत्तर-पूर्व में स्थित है। यह एक ऊबड़-खाबड़ भूतल है जिस पर बहुत से अनुदैर्ध्य रेतीले टीले और बरखान (अर्धचंद्राकार बालू का टीला) पाए जाते हैं। यह बालू के टिब्बों से ढका एक तरंगित मैदान है।
    • यहाँ पर वार्षिक वर्षा 150 मिलीमीटर से कम होती है और परिणामस्वरूप यह एक शुष्क और वनस्पति रहित क्षेत्र है। इन्ही स्थलाकृतिक गुणों के कारण इसे 'मरुस्थली' के नाम से जाना जाता है। यहां वर्षा ऋतु में कुछ सरिताएं दिखती हैं और उसके बाद वे बालू में विलीन हो जाती है।
    • पर्याप्त जल न मिलने के कारण वे समुद्र तक नहीं पहुँच पाती है। लूनी इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है ।
    • यद्यपि इस क्षेत्र की भूगर्भिक चट्टान संरचना प्रायद्वीपीय पठार का विस्तार है, तथापि अत्यंत शुष्क दशाओं के कारण इसकी धरातलीय आकृतियाँ भौतिक अपक्षय और पवन क्रिया द्वारा निर्मित हैं। यहाँ की प्रमुख स्थलाकृतियाँ स्थानांतरी रेतीले टीले, छत्रक चट्टानें और मरुउद्यान हैं।
    • ढाल के आधार पर मरुस्थल को दो भागों में बाँटा जा सकता हैसिंध की ओर ढाल वाला उत्तरी भाग और कच्छ के रन की ओर ढाल वाला दक्षिणी भाग । यहाँ की अधिकतर नदियाँ अल्पकालिक हैं।
    • मरुस्थल के दक्षिणी भाग में बहने वाली लूनी नदी महत्त्वपूर्ण है। अल्प वृष्टि और बहुत अधिक वाष्पीकरण की वजह से इस प्रदेश में हमेशा जल की कमी रहती है।
    • कुछ नदियाँ तो थोड़ी दूरी तय करने के बाद ही मरुस्थल में लुप्त हो जाती हैं। यह अंत: स्थलीय अपवाह का उदाहरण है जहाँ नदियाँ झील या प्लाया में मिल जाती हैं। इन प्लाया झीलों का जल खारा होता है जिससे नमक बनाया जाता है।
    तटीय मैदान
    • प्रायद्वीपीय पठार के किनारों संकीर्ण तटीय पट्टियों का विस्तार है। यह पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत है।
    • पश्चिमी तट पश्चिमी घाट तथा अरब सागर के बीच स्थित एक संकीर्ण मैदान है। इस मैदान तीन भाग हैं। तट के उत्तरी भाग को कोंकण (मुंबई तथा गोवा), मध्य भाग को कन्नड़ मैदान एवं दक्षिणी भाग को मालाबार तट कहा जाता हैं।
    • बंगाल की खाड़ी के साथ विस्तृत मैदान चौड़ा एवं समतल है। उत्तरी भाग में इसे 'उत्तरी सरकार' कहा जाता है। जबकि दक्षिणी भाग 'कोरोमंडल' तट के नाम से जाना जाता है।
    • बड़ी नदियाँ, जैसे- महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी इस तट पर विशाल डेल्टा का निर्माण करती हैं। चिल्का झील पूर्वी तट पर स्थित एक महत्त्वपूर्ण भू-लक्षण है।
      • चिल्का झील भारत में खारे पानी की सबसे बड़ी झील है। यह उड़ीसा में महानदी डेल्टा के दक्षिण में स्थित है।
    • स्थिति और सक्रिय भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के आधार पर तटीय मैदानों को भागों में बाँटा जा सकता है (i) पश्चिमी तटीय मैदान (ii) पूर्वी तटीय मैदान।
    • पश्चिमी तटीय मैदान जलमग्न तटीय मैदानों के उदाहरण हैं। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक शहर द्वारका, जो किसी समय पश्चिमी तट पर मुख्य भूमि पर स्थित था, अब पानी में डूबा हुआ है।
    • जलमग्न होने के कारण पश्चिमी तटीय मैदान एक संकीर्ण पट्टी मात्र है और पत्तनों एवं बंदरगाह विकास के लिए प्राकृतिक परिस्थितियाँ प्रदान करता है। यहाँ पर स्थित प्राकृतिक बंदरगाहों में कांडला, मझगाँव, जे एल एन न्हावा शेवा, मर्मागाओ, मैंगलौर, कोचीन शामिल हैं।
    • उत्तर में गुजरात तट से, दक्षिण में केरल तट तक फैले पश्चिमी तटीय मैदान को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है- गुजरात का कच्छ और काठियावाड़ तट, महाराष्ट्र का कोंकण तट और गोवा तट, कर्नाटक तथा केरल के क्रमश: मालाबार तट ।
    • पश्चिमी तटीय मैदान मध्य में संकीर्ण है परंतु उत्तर और दक्षिण में चौड़े हो जाते हैं। इस तटीय मैदान में बहने वाली नदियाँ डेल्टा नहीं बनाती हैं।
    • मालाबार तट की विशेष स्थलाकृति 'कयाल' जिसे मछली पकड़ने और अंतःस्थलीय नौकायन के लिए प्रयोग किया जाता है और पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है।
    • केरल में हर वर्ष प्रसिद्ध 'नेहरू ट्राफी वलामकाली' (नौका दौड़) का आयोजन 'पुन्नामदा कयाल' में किया जाता है।
    • भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह के बैरेन द्वीग' पर स्थित है।
    • पश्चिमी तटीय मैदान की तुलना में पूर्वी तटीय मैदान चौड़ा है और उभरे हुए तट का उदाहरण है। पूर्व की ओर बहने वाली और बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ यहाँ लम्बे चौड़े डेल्टा बनाती है। इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी का डेल्टा शामिल है।
    द्वीप समूह
    • भारत में दो प्रमुख द्वीप समूह है एक बंगाल की खाड़ी में और दूसरा अरब सागर में।
    • बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूह में लगभग 572 द्वीप हैं। ये द्वीप 6° उत्तर से 14° उत्तर और 92° पूर्व से 94° पूर्व के बीच स्थित हैं। रीची द्वीप समूह और लबरीन्थ द्वीप, यहाँ के दो प्रमुख द्व प समूह हैं।
    • बंगाल की खाड़ी के द्वीपों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता हैउत्तर में अंडमान और दक्षिण में निकोबार ये द्वीप समुद्र में जलमग्न पवर्ती का हिस्सा है।
    • कुछ छोटे द्वीपों की उत्पत्ति ज्वालामुखी से भी जुड़ी है। बैरन आइलैंड नामक भारत का एकमात्र जीवंत ज्वालामुखी भी निकोबार द्वीपसमूह में स्थित है। यह द्वीप असंगठित कंकड़, पत्थरों और गोलाश्मों से बना हुआ है।
    • यह द्वीप समूह देश की सुरक्षा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन द्वीप समूहों में पाए जाने वाले पादप एवं जंतुओं में बहुत अधिक विविधता है। ये द्वीप विषुवत् वृत समीप स्थित हैं एवं यहाँ की जलवायु विषुवतीय है तथा यह घने जंगलों से आच्छादित है।
    • पश्चिमी तट साथ कुछ प्रवाल निक्षेप तथा खूबसूरत पुलिन हैं। यहाँ स्थित द्वीपों पर संवहनी वर्षा होती है और भूमध्यरेखीय प्रकार की वनस्पति उगती है।
    इस द्वीप समूह की सबसे ऊंची चोटी में सैडल चोटी (उत्तरी अंडमान- 738 मीटर)
    • अरब सागर के द्वीपों में लक्षद्वीप और मिनिकॉय शामिल हैं। पहले इनको लकाद्वीव, मिनिकॉय तथा एमीनदीव के नाम से जाना जाता है। 1973 में इनका नाम लक्षद्वीप रखा गया यह 32 वर्ग किमी. छोटे क्षेत्र में फैला है।
    • कावारती द्वीप लक्षद्वीप का प्रशासनिक मुख्यालय है। ये द्वीप 80° उत्तर से 12° उत्तर और 71° पूर्व से 74° पूर्व के बीच बिखरे हुए हैं। ये केरल तट से 280 किलोमीटर से 480 किलोमीटर दूर स्थित है। पूरा द्वीप समूह प्रवाल निक्षेप से बना है। यहाँ 36 द्वीप हैं और इनमें से 11 पर मानव आवास है। पिटली द्वीप पर मानव निवास नहीं है यहां पर एक पक्षी अभयारण्य है। मिनिकॉय सबसे बड़ा द्वीप है जिसका क्षेत्रफल 453 वर्ग किलोमीटर है।
    • पूरा द्वीप समूह 11 डिग्री चैनल द्वारा दो भागों में बाँटा गया है, उत्तर में अमीनी द्वीप और दक्षिण में कनानोरे द्वीप।

    संरचना तथा भूआकृति विज्ञान

    • पृथ्वी के धरातल पर चट्टानों व मिट्टियों में भिन्नता धरातलीय स्वरूप के अनुसार पाई जाती है।
    • पृथ्वी की आयु लगभग 46 करोड़ वर्ष है। इतने लम्बे समय में अंतर्जात व बहिर्जात बलों से अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन बलों की पृथ्वी की धरातलीय व अधःस्थलीय आकृतियों की रूपरेखा निर्धारण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

    • यहाँ विभिन्न प्रकार की शैलें पायी जाती हैं, जिनमें से कुछ संगमरमर की तरह कठोर होती हैं, जिसका प्रयोग ताजमहल के निर्माण में हुआ है एवं कुछ सेलखड़ी की तरह मुलायम होती हैं, जिसका प्रयोग टेल्कम पाउडर बनाने होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर मृदा के रंगों में भिन्नता पायी जाती है क्योंकि मृदा विभिन्न प्रकार की शैलों से बनी होती हैं।
    • भारत एक विशाल भू-भाग वाला देश है। इसका निर्माण विभिन्न भूगर्भीय कालों के दौरान हुआ है, जिसने इसके उच्चावचों को प्रभावित किया है।
    • भूगर्भीय निर्माणों के अतिरिक्त कई अन्य प्रक्रियाओं, जैसे-अपक्षय, अपरदन तथा निक्षेपण के द्वारा वर्तमान उच्चावचों का निर्माण तथा संशोधन हुआ है।
    • करोड़ों वर्ष पहले ‘इंडियन प्लेट' भूमध्य रेखा के दक्षिण में स्थित थी। यह आकार में काफी विशाल थी और 'आस्ट्रेलियन प्लेट' इसी का हिस्सा थी । कालांतर में यह प्लेट काफी हिस्सों में टूट गई और आस्ट्रेलियन प्लेट दक्षिण-पूर्व तथा इंडियन प्लेट उत्तर दिशा में खिसकने लगी।
    • प्लेटों की गति के कारण प्लेटों के अंदर एवं ऊपर की ओर स्थित महाद्वीपीय शैलों में दबाव उत्पन्न होता है। इसके परिणामस्वरूप वलन, भ्रंशीकरण तथा ज्वालामुखीय क्रियाएँ होती हैं।
    • सामान्य तौर पर इन प्लेटों की गतियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। कुछ प्लेटें एक-दूसरे के करीब आती हैं और अभिसारित परिसीमा का निर्माण करती हैं। जबकि कुछ प्लेट एक दूसरे से दूर जाती हैं और अपसारित परिसीमा का निर्माण करती हैं।

    • जब दो प्लेट एक-दूसरे के करीब आती हैं, तब या तो वे टकराकर टूट सकती हैं या एक प्लेट फिसल कर दूसरी प्लेट के नीचे जा सकती है। कभी-कभी वे एक-दूसरे के साथ क्षैतिज दिशा में भी गति कर सकती हैं और रूपांतर परिसीमा का निर्माण करती हैं।
    • इन प्लेटों में लाखों वर्षों से हो रही गति के कारण महाद्वीपों की स्थिति तथा आकार में परिवर्तन आया है।
    • भारत की वर्तमान स्थलाकृति का विकास भी इस प्रकार की गतियों से प्रभावित हुआ है।
    • विश्व के अधिकतर ज्वालामुखी एवं भूकंप संभावी क्षेत्र, प्लेट के किनारों पर स्थित है।
    • लेकिन कुछ प्लेट के अंदर भी पाये जाते हैं।
    • भारत का सबसे प्राचीन भू-भाग (अर्थात् प्रायद्वीपीय भाग) गोंडवाना भूमि का एक हिस्सा था। गोंडवाना भू-भाग के विशाल क्षेत्र में भारत आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका तथा अंटार्कटिक के क्षेत्र शामिल थे।
    • संवहनीय धाराओं ने भू-पर्पटी को अनेक टुकड़ों में विभाजित कर दिया और इस प्रकार भारत-आस्ट्रेलिया की प्लेट गोंडवाना भूमि से अलग होने के बाद उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होने लगी।
    • गोंडवाना भूमि: ये प्राचीन विशाल महाद्वीप पैंजिया का दक्षिणतम भाग है, जिसके उत्तर में अंगारा भूमि है।
    • उत्तर दिशा की ओर प्रवाह के परिणामस्वरूप ये प्लेट अपने से अधिक विशाल प्लेट, यूरेशियन प्लेट से टकरायी। इस टकराव के कारण इन दोनो प्लेटों के बीच स्थित 'टेथिस' भू-सन्नति के अवसादी चट्टान, वलित होकर हिमालय तथा पश्चिम एशिया की पर्वतीय श्रृंखला के रूप में विकसित हो गये।
    • 'टेथिस' के हिमालय के रूप में ऊपर उठने तथा प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी किनारे के नीचे धँसने के परिणामस्वरूप एक बहुत बड़ी द्रोणी का निर्माण हुआ।
    • समय के साथ-साथ यह बेसिन उत्तर के पर्वतों एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय पठारों से बहने वाली नदियों के अवसादी निक्षेपों द्वारा धीरे-धीरे भर गया।
    • इस प्रकार जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित एक विस्तृत समतल भू-भाग भारत के उत्तरी मैदान के रूप में विकसित हो गया।
    • भारत की भूमि बहुत अधिक भौतिक विभिन्नताओं को दर्शाती है। भूगर्भीय तौर पर प्रायद्वीपीय पठार पृथ्वी की सतह का प्राचीनतम भाग है। इसे भूमि का एक बहुत ही स्थिर भाग माना जाता था।

    • हिमालय की पूरी पर्वत श्रृंखला एक युवा स्थलाकृति को दर्शाती है, जिसमें ऊँचे शिखर, गहरी घाटियाँ तथा तेज बहने वाली नदियाँ हैं। उत्तरी मैदान जलोढ़ निक्षेपों से बने हैं।
    • प्रायद्वीपीय पठार आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों वाली कम ऊँची पहाड़ियों एवं चौड़ी घाटियों से बना है।
    • भूवैज्ञानिक संरचना व शैल समूह की भिन्नता के आधार पर भारत को तीन भूवैज्ञानिक खंडों में विभाजित किया जाता है जो भौतिक लक्षणों पर आधारित हैं -
      (क) प्रायद्वीपीय खंड
      (ख) हिमालय और अन्य अतिरिक्त प्रायद्वीपीय पर्वत मालाएँ
      (ग) सिंधु-गंगा - ब्रह्मपुत्र मैदान
    प्रायद्वीपीय खंड
    • प्रायद्वीप खंड की उत्तरी सीमा कटी-फटी है, जो कच्छ से आरंभ होकर अरावली पहाड़ियों के पश्चिम से गुजरती हुई दिल्ली तक और फिर यमुना व गंगा नदी के समानांतर राजमहल की पहाड़ियों व गंगा डेल्टा तक जाती है।
    • उत्तर-पूर्व में कर्बी ऐंगलॉग (Karbi Anglong ) व मेघालय का पठार तथा पश्चिम में राजस्थान भी इसी खंड के विस्तार हैं ।
    • पश्चिम बंगाल में मालदा भ्रंश उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित मेघालय व कर्बी ऐंगलॉग पठार को छोटा नागपुर पठार से अलग करता है।
    • राजस्थान में यह प्रायद्वीपीय खंड मरुस्थल व मरुस्थल सदृश्य स्थलाकृतियों से ढका हुआ है। प्रायद्वीप मुख्यतः प्राचीन नाइस व ग्रेनाइट से बना है।
    • इंडो-आस्ट्रेलियन प्लेट का हिस्सा होने के कारण यह उर्ध्वाधर हलचलों व खंड भ्रंश से प्रभावित है। नर्मदा, तापी और महानदी की रिफ्ट घाटियाँ और सतपुड़ा ब्लॉक पर्वत इसके उदाहरण हैं।
    • प्रायद्वीप में मुख्यतः अवशिष्ट पहाड़ियाँ शामिल हैं, जैसे- अरावली, नल्लामलाई, जावादी, वेलीकोण्डा, पालकोण्डा श्रेणी और महेंद्रगिरी पहाड़ियाँ आदि । यहाँ की नदी घाटियाँ उथली और उनकी प्रवणता कम होती है।
    • पूर्व की ओर बहने वाली अधिकांश नदियाँ बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले डेल्टा निर्माण करती हैं। महानदी, गोदावरी और कृष्णा द्वारा निर्मित डेल्टा इसके उदाहरण हैं।
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    Mon, 27 Nov 2023 04:40:52 +0530 Jaankari Rakho
    BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | औद्योगिक क्रांति से पहले https://m.jaankarirakho.com/481 https://m.jaankarirakho.com/481 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | औद्योगिक क्रांति से पहले
    • औद्योगीकरण को अकसर हम कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखते हैं। दरअसल, इंग्लैंड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से भी पहले ही अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था।
    • यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। बहुत सारे इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को आदि-औद्योगीकरण (protoindustrialisation) का नाम देते हैं।
    • 17वीं और 18वीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों की तरफ रुख़ करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे। उस समय विश्व व्यापार के विस्तार और दुनिया के विभिन्न भागों में उपनिवेशों की स्थापना के कारण चीजों की माँग बढ़ने लगी थी।
    • इस माँग को पूरा करने के लिए केवल शहरों में रहते हुए। उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता था। वजह यह थी कि शहरों में शहरी दस्तकारी और व्यापारिक गिल्ड्स काफी ताकतवर थे। ये गिल्ड्स उत्पादकों के संगठन होते थे।
    • गिल्ड्स से जुड़े उत्पादक कारीगरों को प्रशिक्षण देते थे, उत्पादकों पर नियंत्रण रखते थे, प्रतिस्पर्धा और मूल्य तय करते थे तथा व्यवसाय में नए लोगों को आने से रोकते थे। शासकों ने भी विभिन्न गिल्ड्स को खास उत्पादों के उत्पादन और व्यापार का एकाधिकार दिया हुआ था।
    • फलस्वरूप, नए व्यापारी शहरों में कारोबार नहीं कर सकते थे। इसलिए वे गाँवों की तरफ जाने लगे।
    • सौदागरों के लिए काम करते हुए वे गाँव में ही रहते हुए अपने छोटे-छोटे खेतों को भी सँभाल सकते थे। इस आदि-औद्योगिक उत्पादन से होने वाली आमदनी ने खेती के कारण सिमटती आय में बड़ा सहारा दिया। अब उन्हें पूरे परिवार के श्रम संसाधनों के इस्तेमाल का मौका भी मिल गया।
    • इस व्यवस्था से शहरों और गाँवों के बीच एक घनिष्ठ संबंध विकसित हुआ। सौदागर रहते तो शहरों में थे लेकिन उनके लिए काम ज्यादातर देहात में चलता था।
    • इंग्लैंड के कपड़ा व्यवसायी स्टेप्लर्स (Staplers) से ऊन खरीदते थे और उसे सूत कातने वालों के पास पहुँचा देते थे। इससे जो धागा मिलता था उसे बुनकरों, फुलर्ज (Fullers), और रंगसाजों के पास ले जाया जाता था।
    • लंदन में कपड़ों की फिनिशिंग होती थी। इसके बाद निर्यातक व्यापारी कपड़े को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेच देते थे। इसीलिए लंदन को तो फ़िनिशिंग सेंटर के रूप में ही जाना जाने लगा था।
    • यह आदि- औद्योगिक व्यवस्था व्यवसायिक आदान-प्रदान के नेटवर्क का हिस्सा थी। इस पर सौदागरों का नियंत्रण था और ' चीजों का उत्पादन कारखानों की बजाय घरों में होता था।
    • उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 मजदूरों से काम करवाता था। इसका मतलब यह था कि कपड़ों के हर सौदागर के पास सैकड़ों मजदूर काम करते थे।
    उपनिवेशों में औद्योगीकरण
    भारतीय कपड़े का युग
    • मशीन उद्योगों के युग से पहले अंतर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था। बहुत सारे देशों में मोटा कपास पैदा होता था लेकिन भारत में पैदा होने वाला कपास महीन किस्म का था।
    • आर्मीनियन और फ़ारसी सौदागर पंजाब से अफ़गानिस्तान, पूर्वी फारस और मध्य एशिया के रास्ते यहाँ की चीजें लेकर जाते थे। यहाँ के बने महीन कपड़ों के धान ऊँटों की पीठ पर लाद कर पश्चिमोत्तर सीमा से पहाड़ी दरों और रेगिस्तानों के पार ले जाए जाते थे। मुख्य पूर्व औपनिवेशिक बंदरगाहों से फलता-फूलता समुद्री व्यापार चलता था।
    • गुजरात के तट पर स्थित सूरत बंदरगाह के जरिए भारत खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों से जुड़ा हुआ था। कोरोमंडल तट पर मछलीपटनम और बंगाल में हुगली के माध्यम से भी दक्षिण-पूर्वी एशियाई बंदरगाहों के साथ खूब व्यापार चलता था।
    • निर्यात व्यापार के इस नेटवर्क में बहुत सारे भारतीय व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे। वे उत्पादन में पैसा लगाते थे, चीजों को लेकर जाते थे और निर्यातकों को पहुँचाते थे। माल भेजने वाले आपूर्ति सौदागरों के जरिये बंदरगाह नगर देश के भीतरी इलाकों से जुड़े हुए थे।
    • सौदागर बुनकरों को पेशगी देते थे, बुनकरों से तैयार कपड़ा खरीदते थे और उसे बंदरगाहों तक पहुँचाते थे। बंदरगाह पर बड़े जहाज मालिक और निर्यात व्यापारियों के दलाल कीमत पर मोल-भाव करते थे और आपूर्ति सौदागरों से माल खरीद लेते थे।
    • यूरोपीय कंपनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल की और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इजारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत व हुगली, दोनों पुराने बंदरगाह कमजोर पड़ गए।
    • इन बंदरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आई। पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। 17वीं सदी के आखिरी सालों में सूरत बंदरगाह से होने वाले व्यापार का कुल मूल्य 1.6 करोड़ रुपये था। 1740 के दशक तक यह गिर कर केवल 30 लाख रुपये रह गया था।
    • सूरत व हुगली कमजोर पड़ रहे थे और बंबई व कलकत्ता की स्थिति सुधर रही थी। पुराने बंदरगाहों की जगह नए बंदरगाहों का बढ़ता महत्त्व औपनिवेशिक सत्ता की बढ़ती ताक़त का संकेत था।
    • नए बंदरगाहों के जरिए होने वाला व्यापार यूरोपीय कंपनियों के नियंत्रण में था और यूरोपीय जहाजों के जरिए होता था। बहुत सारे पुराने व्यापारिक घराने ढह चुके थे। जो बचे रहना चाहते थे उनके पास भी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों के नियंत्रण वाले नेटवर्क में काम करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
    बुनकरों की स्थिति
    • 1760 के दशक के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता के सुदृढीकरण की शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट नहीं आई।
    • ब्रिटिश कपास उद्योग अभी फैलना शुरू नहीं हुआ था और यूरोप में बारीक भारतीय कपड़ों की भारी माँग थी। इसलिए कंपनी भी भारत से होने वाले कपड़े के निर्यात को ही और फैलाना चाहती थी।
    • 1760 और 1770 के दशकों में बंगाल और कर्नाटक में राजनीतिक सत्ता स्थापित करने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी को निर्यात के लिए लगातार सप्लाई आसानी से नहीं मिल पाती थी।
    • बुने हुए कपड़े को हासिल करने के लिए फ्रांसीसी, डच और पुर्तगालियों के साथ-साथ स्थानीय व्यापारी भी होड़ में रहते थे। इस प्रकार बुनकर और आपूर्ति सौदागर खूब मोल-भाव करते थे और अपना माल सबसे ऊँची बोली लगाने वाले खरीदार को ही बेचते थे। लंदन भेजे गए अपने पत्र में कंपनी के अफसरों ने आपूर्ति में मुश्किल और ऊँचे दामों का बार-बार जिक्र किया है।
    • एक बार ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कंपनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी। फलस्वरूप उसने प्रतिस्पर्धा खत्म करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास व रेशम से बनी चीजों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन और नियंत्रण की एक नयी व्यवस्था लागू कर दी। यह काम कई चरणों में किया गया।
    • पहला: कंपनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों और दलालों को खत्म करने तथा बुनकरों पर ज्यादा प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की। कंपनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कंपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें गुमाश्ता कहा जाता था।
    • दूसरा: कंपनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीदारों के साथ कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए क़र्ज़ा दे दिया जाता था। जो कर्ज़ा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे। जैसे-जैसे कर्जे मिलते गए और महीन कपड़े की माँग बढ़ने लगी, ज्यादा कमाई की आस में बुनकर पेशगी स्वीकार करने लगे। बहुत सारे बुनकरों के पास जमीन के छोटे-छोटे पट्टे थे जिन पर वे खेती करते थे और अपने परिवार की ज़रूरतें पूरी कर लेते थे। अब वे इस जमीन को भाड़े पर देकर पूरा समय बुनकरी में लगाने लगे। अब पूरा परिवार यही काम करने लगा। बच्चे व औरतें, सभी कुछ न कुछ काम करते थे।
    • जल्दी ही बहुत सारे बुनकर गाँवों में बुनकरों और गुमाश्तों के बीच टकराव की खबरें आने लगीं। इससे पहले आपूर्ति सौदागर अकसर बुनकर गाँवों में ही रहते थे और बुनकरों से उनके नज़दीकी ताल्लुकात होते थे। वे बुनकरों की ज़रूरतों का खयाल रखते थे और संकट के समय उनकी मदद करते थे।
    • नए गुमाश्ता बाहर के लोग थे। उनका गाँवों से पुराना सामाजिक संबंध नहीं था। वे दंभपूर्ण व्यवहार करते थे, सिपाहियों व चपरासियों को लेकर आते थे और माल समय पर तैयार न होने की स्थिति में बुनकरों को सज़ा देते थे।
    • सज़ा के तौर पर बुनकरों को अकसर पीटा जाता था और कोड़े बरसाए जाते थे। अब बुनकर न तो दाम पर मोलभाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कंपनी से जो कीमत मिलती थी वह बहुत कम थी पर वे कर्जों की वजह से कंपनी से बँधे हुए थे।
    • कर्नाटक और बंगाल में बहुत सारे स्थानों पर बुनकर गाँव छोड़ कर चले गए। वे अपने रिश्तेदारों के यहाँ किसी और गाँव में करघा लगा लेते थे। कई स्थानों पर कंपनी और उसके अफसरों का विरोध करते हुए गाँव के व्यापारियों के साथ मिलकर बुनकरों ने बगावत कर दी।
    • कुछ समय बाद बहुत सारे बुनकर क़र्ज़ा लौटाने से इनकार करने लगे। उन्होंने करघे बंद कर दिए और खेतों में मजदूरी करने लगे।
    • 19वीं सदी आते-आते कपास बुनकरों के सामने नयी समस्याएँ पैदा हो गईं।
    भारत में मैनचेस्टर का आना
    • 1772 में ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सर हेनरी पतूलो ने कहा था कि भारतीय कपड़े की माँग कभी कम नहीं हो सकती क्योंकि दुनिया के किसी और देश में इतना अच्छा माल नहीं बनता।
    • 19वीं सदी की शुरुआत में भारत के कपड़ा निर्यात में गिरावट आने लगी जो लंबे समय तक जारी रही। 1811-12 में सूती माल का हिस्सा कुल निर्यात में 33 प्रतिशत था। 1850-51 में यह मात्र 3 प्रतिशत रह गया था।
    • जब इंग्लैंड में कपास उद्योग विकसित हुआ तो वहाँ के उद्योगपति दूसरे देशों से आने वाले आयात को लेकर परेशान दिखाई देने लगे। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करे जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के बिना इंग्लैंड में आराम से बिक सकें।
    • दूसरी तरफ़ उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजारों में भी बेचे। 19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन के वस्त्र उत्पादों के निर्यात में नाटकीय वृद्धि हुई। 18वीं सदी के आखिर में भारत में उत्पादों का न के बराबर निर्यात होता था।
    • 1850 तक आते-आते सूती का आयात भारतीय आयात में 31 प्रतिशत हो चुका था। 1870 तक यह आँकड़ा 50 प्रतिशत से ऊपर चला गया।
    • भारत में कपड़ा बुनकरों के सामने एक साथ दो समस्याएँ थीं। उनका निर्यात बाज़ार ढह रहा था और स्थानीय बाज़ार सिकुड़ने लगा था। स्थानीय बाज़ार में मैनचेस्टर के आयातित मालों की भरमार थी।
    • कम लागत पर मशीनों से बनने वाले आयातित कपास उत्पाद इतने सस्ते थे कि बुनकर उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। 1850 के दशक तक देश के ज्यादातर बुनकर इलाकों में गिरावट और बेकारी के ही किस्सों की भरमार थी।
    • 1860 के दशक में बुनकरों के सामने नयी समस्या खड़ी हो गई। उन्हें अच्छी कपास नहीं मिल पा रही थी। जब अमेरिकी गृहयुद्ध शुरू हुआ और अमेरिका से कपास की आमद बंद हो गई तो ब्रिटेन भारत से कच्चा माल मँगाने लगा।
    • भारत से कच्चे कपास के निर्यात में इस वृद्धि से उसकी कीमत आसमान छूने लगी। भारतीय बुनकरों को कच्चे माल के लाले पड़ गए। उन्हें मनमानी कीमत पर कच्ची कपास खरीदनी पड़ती थी। ऐसी सूरत में बुनकरी के सहारे पेट पालना संभव नहीं था।
    • 19वीं सदी के आखिर में बुनकरों और कारीगरों के सामने एक और समस्या आ गई। अब भारतीय कारखानों में उत्पादन होने लगा और बाज़ार मशीनों की बनी चीज़ों से पट गया था।
    फैक्ट्रियों का आना
    • बंबई में पहली कपड़ा मिल 1854 में लगी और दो साल बाद उसमें उत्पादन होने लगा। 1862 तक वहाँ ऐसी चार मिलें काम कर रही थीं। उनमें 94,000 तकलियाँ और 2,150 करघे थे। उसी समय बंगाल में जूट मिलें खुलने लगीं। वहाँ देश की पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी 7 साल बाद 1862 में चालू हुई।
    • उत्तरी भारत में एल्गिन मिल 1860 के दशक में कानपुर में खुली। इसके साल भर बाद अहमदाबाद की पहली कपड़ा मिल भी चालू हो गई। 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और • बुनाई मिल खुल गई।
    प्रारंभिक उद्यमी
    • बहुत सारे व्यावसायिक समूहों का इतिहास चीन के साथ व्यापार के ज़माने से चला आ रहा था। 18वीं सदी के आखिर से ही अंग्रेज़ भारतीय अफीम का चीन को निर्यात करने लगे थे। उसके बदले में वे चीन से चाय खरीदते थे जो इंग्लैंड जाती थी।
    • इस व्यापार में बहुत सारे भारतीय कारोबारी सहायक की हैसियत में पहुँच गए थे। वे पैसा उपलब्ध कराते थे, आपूर्ति सुनिश्चित करते थे और माल को जहाजों में लाद कर रवाना करते थे। व्यापार से पैसा कमाने के बाद उनमें से कुछ व्यवसायी भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित करना चाहते थे।
    • बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने चीन के साथ व्यापार में खूब पैसा कमाया और वे उद्योगों में निवेश करने लगे। 1830-1840 के दशकों में उन्होंने 6 संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगा ली थीं।
    • 1840 के दशक में आए व्यापक व्यावसायिक संकटों में औरों के साथ-साथ टैगोर के उद्यम भी बैठ गए। लेकिन 19वीं सदी में चीन के साथ व्यापार करने वाले बहुत सारे व्यवसायी सफल उद्योगपति भी साबित हुए।
    • बंबई में डिनशॉ पेटिट और आगे चलकर देश में विशाल औद्योगिक साम्राज्य स्थापित करने वाले जमशेदजी नुसरवानजी टाटा जैसे पारसियों ने आंशिक रूप से चीन को निर्यात करके और आंशिक रूप से इंग्लैंड को कच्ची कपास निर्यात करके पैसा कमा लिया था।
    • 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी सेठ हुकुमचंद ने भी चीन के साथ व्यापार किया था। यही काम प्रसिद्ध उद्योगपति जी.डी. बिड़ला के पिता और दादा ने किया।
    • पूँजी इकट्ठा करने के लिए अन्य व्यापारिक नेटवर्कों का सहारा लिया गया। मद्रास के कुछ सौदागर बर्मा से व्यापार करते थे जबकि कुछ के मध्य-पूर्व व पूर्वी अफ्रीका में संबंध थे। इनके अलावा भी कुछ वाणिज्यिक समूह थे लेकिन वे विदेश व्यापार से सीधे जुड़े हुए नहीं थे।
    • वे भारत में ही व्यवसाय करते थे। वे एक जगह से दूसरी जगह माल ले जाते थे, सूद पर पैसा चलाते थे, एक शहर से दूसरे शहर में पैसा पहुँचाते थे और व्यापारियों को पैसा देते थे। जब उद्योगों में निवेश के अवसर आए तो उनमें से बहुतों ने फैक्ट्रियाँ लगा लीं।
    • जैसे भारतीय व्यापार पर औपनिवेशिक शिकंजा कसता गया, वैसे-वैसे भारतीय व्यावसायियों के लिए जगह सिकुड़ती गई। उन्हें अपना तैयार माल यूरोप में बेचने से रोक दिया गया।
    • वे मुख्य रूप से कच्चे माल और अनाज- कच्ची कपास, अफीम, गेहूँ और नील का ही निर्यात कर सकते थे जिनकी अंग्रेज़ों को ज़रूरत थी। धीरे-धीरे उन्हें जहाजरानी व्यवसाय से भी बाहर धकेल दिया गया।
    • पहले विश्वयुद्ध तक यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल क्षेत्र का नियंत्रण करती थीं। इनमें बर्ड हीगलर्स एंड कंपनी, एंड्रयू यूल, और जाडर्डीन स्किनर एंड कंपनी सबसे बड़ी कंपनियाँ थीं।
    • ये एजेंसियाँ पूँजी जुटाती थीं, संयुक्त उद्यम कंपनियाँ लगाती थीं और उनका प्रबंधन सँभालती थीं। ज्यादातर मामलों में भारतीय वित्तपोषक (फाइनेंसर) पूँजी उपलब्ध कराते थे जबकि निवेश और व्यवसाय से संबंधित फैसले यूरोपीय एजेंसियाँ लेती थीं।
    • यूरोपीय व्यापारियों-उद्योगपतियों के अपने वाणिज्यिक परिसंघ थे जिनमें भारतीय व्यवसायियों को शामिल नहीं किया जाता था।
    मजदूर कहाँ से आए?
    • फैक्टियाँ होंगी तो मजदूर भी होगें। फैक्ट्रियों के विस्तार से मजदूरों की माँग बढ़ने लगी। 1901 में भारतीय फैक्ट्रियों में 5,84,000 मजदूर काम करते थे। 1946 तक यह संख्या बढ़कर 24,36,000 हो चुकी थी।
    • ज्यादातर औद्योगिक इलाकों में मजदूर आसपास के जिलों से आते थे। जिन किसानों कारीगरों को गाँव में काम नहीं मिलता था वे औद्योगिक केंद्रों की तरफ जाने लगते थे।
    • 1911 में बंबई के सूती कपड़ा उद्योग में काम करने वाले 50 प्रतिशत से ज्यादा मजदूर पास के रत्नागिरी जिले से आए थे।
    • नौकरी पाना हमेशा मुश्किल था। हालाँकि मिलों की संख्या बढ़ती जा रही थी और मजदूरों की माँग भी बढ़ रही थी लेकिन रोज़गार चाहने वालों की संख्या रोज़गारों के मुक़ाबले हमेशा ज्यादा रहती थी।
    • मिलों में प्रवेश भी निषिद्ध था। उद्योगपति नए मजदूरों की भर्ती के लिए प्रायः एक जॉबर रखते थे। जॉबर कोई पुराना और विश्वस्त कर्मचारी होता था। वह अपने गाँव से लोगों को लाता था, उन्हें काम का भरोसा देता था, उन्हें शहर में जमने के लिए मदद देता था और मुसीबत में पैसे से मदद करता था।
    • इस प्रकार जॉबर ताक़तवर और मज़बूत व्यक्ति बन गया था। बाद में जॉबर मदद के बदले पैसे व तोहफों की माँग करने लगे और मजदूरों की जिंदगी को नियंत्रित करने लगे।
    • समय के साथ फैक्ट्री मजदूरों की संख्या बढ़ने लगी। लेकिन कुल औद्योगिक श्रम शक्ति में उनका अनुपात बहुत छोटा था।
    औद्योगिक विकास का अनूठापन
    • भारत में औद्योगिक उत्पादन पर वर्चस्व रखने वाली यूरोपीय प्रबंधकीय एजेंसियों की कुछ खास तरह के उत्पादों में ही दिलचस्पी थी। उन्होंने औपनिवेशिक सरकार से सस्ती कीमत पर ज़मीन लेकर चाय व कॉफी के बागान लगाए और खनन, नील व जूट व्यवसाय में पैसे का निवेश किया। इनमें से ज्यादातर ऐसे उत्पाद थे जिनकी भारत में बिक्री के लिए नहीं बल्कि मुख्य रूप से निर्यात के लिए आवश्यकता थी।
    • 19वीं सदी के आखिर में जब भारतीय व्यवसायी उद्योग लगाने लगे तो उन्होंने भारतीय बाज़ार में मैनचेस्टर की बनी चीज़ों से प्रतिस्पर्धा नहीं की।
    • भारत आने वाले ब्रिटिश मालों में धागा बहुत अच्छा नहीं था इसलिए भारत के शुरुआती सूती मिलों में कपड़े की बजाय मोटे सूती धागे ही बनाए जाते थे।
    • जब धागे का आयात किया जाता था तो वह हमेशा बेहतर क़िस्म का होता था। भारतीय कताई मिलों में बनने वाले धागे का भारत के हथकरघा बुनकर इस्तेमाल करते थे या उन्हें चीन को निर्यात कर दिया जाता था।
    • 20वीं सदी के पहले दशक तक भारत में औद्योगीकरण का ढर्रा कई बदलावों की चपेट में आ चुका था।
    • स्वदेशी आंदोलन को गति मिलने से राष्ट्रवादियों ने लोगों को विदेशी कपड़े के बहिष्कार के लिए प्रेरित किया।
    • औद्योगिक समूह अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए संगठित हो गए और उन्होंने आयात शुल्क बढ़ाने तथा अन्य रियायतें देने के लिए सरकार पर दबाव डाला। 
    • 1906 के बाद चीन भेजे जाने वाले भारतीय धागे के निर्यात में भी कमी आने लगी थी। चीनी बाज़ारों में चीन और जापान की मिलों के उत्पाद छा गए थे।
    • फलस्वरूप, भारत के उद्योगपति धागे की बजाय कपड़ा बनाने लगे। 1900 से 1912 के भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दोगुना हो गया।
    • भारतीय बाज़ारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाज़ार मिल गया। युद्ध लंबा खिंचा तो भारतीय कारखानों में भी फ़ौज के लिए जूट की बोरियाँ, फ़ौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए।
    • युद्ध के बाद भारतीय बाज़ार में मैनचेस्टर को पहले वाली हैसियत कभी हासिल नहीं हो पायी । आधुनिकीकरण न कर पाने और . अमेरिका, जर्मनी व जापान के मुकाबले कमजोर पड़ जाने के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी।

    वस्तुओं के लिए बाज़ार
    • जब नयी चीजें बनती हैं तो लोगों को उन्हें खरीदने के लिए प्रेरित भी करना पड़ता है। लोगों को लगना चाहिए कि उन्हें उस उत्पाद की ज़रूरत है।
    • नए उपभोक्ता पैदा करने का एक तरीका विज्ञापनों का है। विज्ञापन विभिन्न उत्पादों को जरूरी और वांछनीय बना लेते हैं। वे लोगों की सोच बदल देते हैं और नयी ज़रूरतें पैदा कर देते हैं। आज हम एक ऐसी दुनिया में हैं जहाँ चारों तरफ विज्ञापन छाए हुए हैं।
    • अखबारों, पत्रिकाओं, होर्डिंग्स, दीवारों, टेलीविज़न के परदे पर, सब जगह विज्ञापन छाए हुए हैं। औद्योगीकरण की शुरुआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाज़ार को फैलाने में और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई है।
    • जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े के बंडलों पर लेबल लगाते थे। लेबल का फायदा यह होता था कि खरीदारों को कंपनी का नाम व उत्पादन की जगह पता चल जाती थी।
    • लेबल ही चीज़ों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। जब किसी लेबल पर मोटे अक्षरों में 'मेड इन मैनचेस्टर' लिखा दिखाई देता तो खरीदारों को कपड़ा खरीदने में किसी तरह का डर नहीं रहता था।
    • लेबलों पर सिर्फ़ शब्द और अक्षर ही नहीं होते थे। उन पर तस्वीरें भी बनी होती थीं जो अकसर बहुत सुंदर होती थीं। लेबलों पर भारतीय देवी-देवताओं की तसवीरें प्रायः होती थीं। देवी-देवताओं की तसवीर के बहाने निर्माता ये दिखाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर भी चाहता है कि लोग उस चीज़ को खरीदें।
    • 19वीं सदी के आखिर में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेंडर छपवाने लगे थे। अखबारों और पत्रिकाओं को तो पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते थे लेकिन कैलेंडर उनको भी समझ में आ जाते थे जो पढ़ नहीं सकते थे।
    • चाय की दुकानों, दफ्तरों व मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेंडर लटके रहते थे। जो इन कैलेंडरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे साल देखते थे। इन कैलेंडरों में भी नए उत्पादों को बेचने के लिए देवताओं की तसवीर होती थी।
    कारखानों का उदय
    • इंग्लैंड में सबसे पहले 1730 के दशक में कारखाने खुले लेकिन उनकी संख्या में तेजी से इजाफा 18वीं सदी के आखिर में ही हुआ।
    • कपास (कॉटन) नए युग का पहला प्रतीक थी। 19वीं सदी के आखिर में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी हुई। 1760 में ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की जरूरतों को पूरा करने के लिए 25 लाख पौंड कच्चे कपास का आयात करता था।
    • 1787 में यह आयात बढ़कर 220 लाख पौंड तक पहुँच गया। यह इजाफा उत्पादन की प्रक्रिया में बहुत सारे बदलावों का परिणाम था।
    • 18वीं सदी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया (कार्डिंग, ऐंठना व कताई, और लपेटने) के हर चरण की कुशलता बढ़ा दी। प्रति मजदूर उत्पादन बढ़ गया और पहले से ज्यादा मजबूत धागों व रेशों का उत्पादन होने लगा।
    • इसके बाद रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा सामने रखी। अभी तक कपड़ा उत्पादन पूरे देहात में फैला हुआ था। यह काम लोग अपने-अपने घर पर ही करते थे। लेकिन अब मँहगी नयी मशीनें खरीदकर उन्हें कारखानों में लगाया जा सकता था।
    • कारखाने में सारी प्रक्रियाएँ एक छत के नीचे और एक मालिक के हाथों में आ गई थीं। इसके चलते उत्पादन प्रक्रिया पर निगरानी, गुणवत्ता का ध्यान रखना और मजदूरों पर नजर रखना संभव हो गया था। जब तक उत्पादन गाँवों में हो रहा था तब तक ये सारे काम संभव नहीं थे।
    • 19वीं सदी की शुरुआत में कारखाने इंग्लैंड के भूदृश्य का अभिन्न अंग बन गए थे। ये नए कारखाने इतने विशाल, और नयी प्रौद्योगिकी की ताक़त इतनी जादुई दिखाई देती थी कि उस समय के लोगों की आँखें चौंधिया जाती थीं। लोगों का ध्यान कारखानों पर टिका रह जाता था। वे इस बात को मानो भूल ही जाते थे कि उनकी आँखों से ओझल गलियों और वर्कशॉप्स में अभी भी उत्पादन चालू है।
    औद्योगिक परिवर्तन की रफ्तार
    पहला
    • सूती उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे फलते-फूलते उद्योग थे। तेज़ी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था। इसके बाद लोहा और स्टील उद्योग आगे निकल गए।
    • 1840 के दशक से इंग्लैंड में और 1860 के दशक से उसके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार होने लगा था । फलस्वरूप लोहे और स्टील की ज़रूरत तेजी से बढ़ी।
    • 1873 तक ब्रिटेन के लोहा और स्टील निर्यात का मूल्य लगभग 7.7 करोड़ पौंड हो गया था। यह राशि इंग्लैंड के कपास निर्यात के मूल्य से दोगुनी थी। से
    दूसरा
    • नए उद्योग परंपरागत उद्योगों को इतनी आसानी से हाशिए पर नहीं ढकेल सकते थे। 19वीं सदी के आखिर में भी तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की संख्या कुल मजदूरों में 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी ।
    • कपड़ा उद्योग एक गतिशील उद्योग था लेकिन उसके उत्पादन का बड़ा हिस्सा कारखानों में नहीं बल्कि घरेलू इकाइयों में होता था। 
    तीसरा
    • यद्यपि 'परंपरागत' उद्योगों में परिवर्तन की गति भाप से चलने वाले सूती और धातु उद्योगों से तय नहीं हो रही थी लेकिन ये परंपरागत उद्योग पूरी तरह ठहराव की अवस्था में भी नहीं थे।
    • खाद्य प्रसंस्करण, निर्माण, पॉटरी, काँच के काम, चर्मशोधन, फर्नीचर और औज़ारों के उत्पादन जैसे बहुत सारे ग़ैर-मशीनी क्षेत्रों में जो तरक्की हो रही थी वह मुख्य रूप से साधारण और छोटे-छोटे आविष्कारों का ही परिणाम थी ।
    चौथा
    • प्रौद्योगिकीय बदलावों की गति धीमी थी। औद्योगिक भूदृश्य पर ये बदलाव नाटकीय तेज़ी से नहीं फैले। नयी तकनीक महँगी थी। सौदागर व व्यापारी उनके इस्तेमाल के सवाल पर फूँक - फूँक कर कदम बढ़ाते थे।
    • मशीनें अकसर खराब हो जाती थीं और उनकी मरम्मत पर काफी खर्चा आता था। वे उतनी अच्छी भी नहीं थीं जितना उनके आविष्कारकों और निर्माताओं का दावा था ।
    • जेम्स वॉट ने न्यूकॉमेन द्वारा बनाए गए भाप के इंजन में सुधार किए और 1871 में नए इंजन को पेटेंट करा लिया। इस मॉडल का उत्पादन उनके दोस्त उद्योगपति मैथ्यू बूल्टन ने किया।
    • 19वीं सदी की शुरुआत तक पूरे इंग्लैंड में भाप के सिर्फ़ 321 इंजन थे। इनमें से 80 इंजन सूती उद्योगों में, 9 ऊन उद्योगों में और बाकी खनन, नहर निर्माण और लौह कार्यों में इस्तेमाल हो रहे थे और किसी उद्योग में भाप के इंजनों का इस्तेमाल काफी समय बाद तक भी नहीं हुआ।
    • यानी मजदूरों की उत्पादन क्षमता को कई गुना बढ़ाने की संभावना वाली सबसे शक्तिशाली प्रौद्योगिकी को अपनाने में भी उद्योगपति बहुत हिचकिचा रहे थे।
    हाथ का श्रम और वाष्प शक्ति
    • ग़रीब किसान और बेकार लोग कामकाज की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते थे। उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी या वेतन के मद में भारी लागत जैसी कोई परेशानी नहीं थी । उन्हें ऐसी मशीनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी जिनके कारण मजदूरों से छुटकारा मिल जाए और जिन पर बहुत ज्यादा खर्चा आने वाला हो।
    • क्रिसमस के समय बुक बाइंडरों और प्रिंटरों को भी दिसंबर से पहले अतिरिक्त मजदूरों की दरकार रहती थी। बंदरगाहों पर जहाजों की मरम्मत और साफ़-सफाई व सजावट का काम भी जाड़ों में ही किया जाता था।
    • जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय मजदूरों को ही काम पर रखना पसंद करते थे।
    • बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। लेकिन बाज़ार में अकसर बारीक डिज़ाइन और खास आकारों वाली चीज़ों की काफी माँग रहती थी। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में 19वीं सदी के मध्य में 500 तरह के हथौड़े और 45 तरह की कुल्हाड़ियाँ बनाई जा रही थीं। इन्हें बनाने के लिए यांत्रिक प्रौद्योगिकी की नहीं बल्कि इनसानी निपुणता की ज़रूरत थी।
    • विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोगकुलीन और पूँजीपति वर्ग- हाथों से बनी चीज़ों को तरजीह देते थे। हाथ से बनी चीज़ों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फ़िनिश अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिज़ाइन अच्छा होता था। मशीनों से बनने वाले उत्पादों को उपनिवेशों में निर्यात कर दिया जाता था।
    • जिन देशों में मजदूरों की कमी होती है वहाँ उद्योगपति मशीनों का इस्तेमाल करना ज्यादा पसंद करते हैं ताकि कम से कम मजदूरों का इस्तेमाल करके वे अपना काम चला सकें। 19वीं सदी के अमेरिका में यही स्थिति थी। लेकिन ब्रिटेन में कामगारों की कोई कमी नहीं थी । 
    मजदूरों की जिंदगी
    • बाज़ार में श्रम की बहुतायत से मजदूरों की जिंदगी भी प्रभावित हुई। जैसे ही नौकरियों की खबर गाँवों में पहुँची सैकड़ों की तादाद में लोगों के हुजूम शहरा की तरफ चल पड़े।
    • रोज़गार चाहने वाले बहुत सारे लोगों को हफ्तों इंतज़ार करना पड़ता था। वे पुलों के नीचे या रैन बसेरों में राते काटते थे। कुछ बेरोज़गार शहर में बने निजी रैनबसेरों में रहते थे। बहुत सारे निर्धन कानून विभाग द्वारा चलाए जाने वाले अस्थायी बसेरों में रुकते थे।
    • बहुत सारे उद्योगों में मौसमी काम की वजह से कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था। काम का सीज़न गुजर जाने के बाद गरीब दोबारा सड़क पर आ जाते थे ।
    • 19वीं सदी की शुरुआत में वेतन में कुछ सुधार आया। लेकिन इससे मजदूरों की हालत में बेहतरी का पता नहीं चलता। औसत आँकड़ों से अलग-अलग व्यवसायों के बीच आने वाले फर्क और साल-दर-साल होने वाले उतार-चढ़ाव छिपे रह जाते थे। मजदूरों की आमदनी भी सिर्फ वेतन दर पर ही निर्भर नहीं होती थी।
    • रोजगार की अवधि भी बहुत महत्त्वपूर्ण थी: मजदूरों की औसत दैनिक आय इससे तय होती थी कि उन्होंने कितने दिन काम किया है। 19वीं सदी के मध्य में सबसे अच्छे हालात में भी लगभग 10 प्रतिशत शहरी आबादी निहायत गरीब थी।
    • 1830 के दशक में आई आर्थिक मंदी जैसे दौरों में बेरोजगारों की संख्या विभिन्न क्षेत्रों में 35 से 75 प्रतिशत तक पहुँच जाती थी।
    • 1840 के दशक के बाद शहरों में निर्माण की गतिविधियाँ तेजी से बड़ीं। लोगों के लिए नए रोजगार पैदा हुए। सड़कों को चौड़ा किया गया, नए रेलवे स्टेशन बने. रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया. सुरंगें बनाई गई. निकासी और सोवर व्यवस्था बिछाई गई. नदियों के तटबंध बनाए गए।
    • परिवहन उद्योग में काम करने वालों की संख्या 1840 के दशक में दोगुना और अगले 30 सालों में एक बार फिर दोगुना हो गई।
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    Sun, 26 Nov 2023 10:56:44 +0530 Jaankari Rakho
    BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भूमंडलीकृत, विश्वजीविकाए अर्थव्यवस्था एवं समाज https://m.jaankarirakho.com/480 https://m.jaankarirakho.com/480 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भूमंडलीकृत, विश्वजीविकाए अर्थव्यवस्था एवं समाज
    • भूमंडलीकृत विश्व के बनने की प्रक्रिया - व्यापार का काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते लोगों का, पूँजी व बहुत सारी चीजों की वैश्विक आवाजाही का - एक लंबा इतिहास रहा है। 
    • प्राचीन काल से ही यात्री, व्यापारी, पुजारी और तीर्थयात्री ज्ञान, अवसरों और आध्यात्मिक शांति के लिए या उत्पीड़न / यातनापूर्ण जीवन से बचने के लिए दूर-दूर की यात्राओं पर जाते रहे हैं।
    • अपनी यात्राओं में ये लोग तरह-तरह की चीजें, पैसा, मूल्य मान्यताएँ, हुनर, विचार, आविष्कार और यहाँ तक कि कीटाणु और बीमारियाँ भी साथ लेकर चलते रहे हैं।
    • 3,000 ईसा पूर्व में समुद्री तटों पर होने वाले व्यापार के माध्यम से सिंधु घाटी की सभ्यता उस इलाके से भी जुड़ी हुई थी जिसे आज हम पश्चिमी एशिया के नाम से जानते हैं।
    महायुद्धों के बीच अर्थव्यवस्था
    • पहला महायुद्ध मुख्य रूप से यूरोप में ही लड़ा गया। लेकिन उसके असर सारी दुनिया में महसूस किए गए। इस युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था को एक ऐसे संकट में ढकेल दिया जिससे उबरने में दुनिया को तीन दशक से भी ज्यादा समय लग गया।
    • इस दौरान पुरी दुनिया में चौतरफा आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता बनी रही और अंत में मानवता एक और विनाशकारी महायुद्ध के नीचे कराहने लगी।
    युद्धकालीन रूपांतरण
    • पहला विश्वयुद्ध दो खेमों के बीच लड़ा गया था। एक पाले में मित्र राष्ट्र यानी ब्रिटेन, फ्रांस और रूस थे तो दूसरे पाले में केंद्रीय शक्तियाँ यानी जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन तुर्की थे।
    • अगस्त 1914 में जब युद्ध शुरू हुआ तो उस समय बहुत सारी सरकारों को यही लगता था कि यह युद्ध ज्यादा से ज्यादा क्रिसमस तक खत्म हो जाएगा। पर यह युद्ध चार साल से भी ज्यादा समय तक चलता रहा।
    • मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा भीषण युद्ध पहले कभी नहीं हुआ था। इस युद्ध में दुनिया के सबसे अगुआ औद्योगिक राष्ट्र एक-दूसरे से जूझ रहे थे और शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए उनके पास बेहिसाब आधुनिक औद्योगिक शक्ति इकट्ठा हो चुकी थी।
    • यह पहला आधुनिक औद्योगिक युद्ध था। इस युद्ध में मशीनगनों, टैंकों, हवाई जहाज़ों और रासायनिक हथियारों का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया।
    • ये सभी चीजें आधुनिक विशाल उद्योगों की देन थीं। युद्ध के लिए दुनिया भर से असंख्य सिपाहियों की भर्ती की जानी थी और उन्हें विशाल जलपोतों व रेलगाड़ियों में भर कर युद्ध के मोर्चों पर ले जाया जाना था।
    • इस युद्ध ने मौत और विनाश की जैसी विभिषिका रची उसकी औद्योगिक युग से पहले और औद्योगिक शक्ति के बिना कल्पना नहीं की जा सकती थी। युद्ध में 90 लाख से ज्यादा लोग मारे गए और 2 करोड़ घायल हुए। 
    • युद्ध के कारण दुनिया की कुछ सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के बीच आर्थिक संबंध टूट गए। अब वे देश एक-दूसरे से बदला लेने पर उतारू थे। इस युद्ध के लिए ब्रिटेन को अमेरिकी बैंकों और अमेरिकी जनता से भारी कर्ज़ा लेना पड़ा।
    युद्धोत्तर सुधार
    • युद्ध के बाद आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने का रास्ता काफी मुश्किल साबित हुआ। युद्ध से पहले ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था।
    • युद्ध के बाद सबसे लंबा संकट उसे ही झेलना पड़ा। जिस समय ब्रिटेन युद्ध से जूझ रहा था, उसी समय भारत और जापान में उद्योग विकसित होने लगे थे।
    • युद्ध के बाद भारतीय बाजार में पहले वाली वर्चस्वशाली स्थिति प्राप्त करना ब्रिटेन के लिए बहुत मुश्किल हो गया था। अब उसे जापान से भी मुकाबला करना था, सो अलग।
    • युद्ध के खर्चे की भरपाई करने के लिए ब्रिटेन ने अमेरिका से जम कर कर्ज़े लिए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि युद्ध खत्म होने तक ब्रिटेन भारी विदेशी कर्जों में दब चुका था।
    • युद्ध के कारण आर्थिक उत्साह का माहौल पैदा हो गया था क्योंकि माँग, उत्पादन और रोजगारों में भारी इजाफा हुआ था। पर जब युद्ध के कारण पैदा हुआ उत्साह शांत होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी।
    • दूसरी ओर सरकार ने भारी-भ -भरकम युद्ध संबंधी व्यय में भी कटौती शुरू कर दी ताकि शांतिकालीन करों के सहारे ही उनकी भरपाई की जा सके।
    • इन सारे प्रयासों से रोज़गार भारी तादाद में खत्म हुए। 1921 में हर पाँच में से एक ब्रिटिश मजदूर के पास काम नहीं था। रोज़गार के बारे में बेचैनी और अनिश्चितता युद्धोत्तर वातावरण का अंग बन गई थी।
    बड़े पैमाने पर उत्पादन और उपभोग
    • अमेरिका में सुधार की गति तेज रही। युद्ध से अमेरिका की अर्थव्यवस्था को कितना फायदा पहुँचा था। युद्ध के बाद कुछ समय के लिए तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी झटका लगा लेकिन बीस के दशक के शुरुआती सालों से ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था तेजी से तरक्की के रास्ते पर बढ़ने लगी।
    • 1920 के दशक की अमेरिकी अर्थव्यवस्था की एक बड़ी खासियत थी बृहत उत्पादन (Mass Production) का चलन । बृहत उत्पादन की ओर बढ़ने का सिलसिला तो 19वीं सदी के आखिर में ही शुरू हो चुका था लेकिन 1920 के दशक में तो यह अमेरिकी औद्योगिक उत्पादन की विशेषता ही बन गया था।
    • कार निर्माता हेनरी फोर्ड बृहत उत्पादन के विख्यात प्रणेता थे। उन्होंने शिकागो के एक बूचड़खाने की असेंबली लाइन की तर्ज़ पर डेट्रॉयट के अपने कार कारखाने में भी आधुनिक असेंबली लाइन स्थापित की थी।
    • शिकागो के बूचड़खाने में मरे हुए जानवरों को एक कन्वेयर बेल्ट पर रख दिया जाता था और उसके दूसरे सिरे पर खड़े मांस विक्रेता अपने हिस्से का मांस उठा कर निकलते जाते थे।
    • असेंबली लाइन पर मजदूरों को एक ही काम- जैसे, कार के किसी खास पुर्जे को ही लगाते रहना- मशीनी ढंग से बार-बार करते रहना होता था।
    • काम की रफ्तार इस बात से तय होती थी कि कन्वेयर बेल्ट किस रफ्तार से चलती है। यह काम की गति बढ़ाकर प्रत्येक मजदूर की उत्पादकता बढ़ाने वाला तरीका था।
    • कन्वेयर बेल्ट के साथ खड़े होने के बाद कोई मजदूर अपने काम में ढील करने या कुछ पल के लिए भी अवकाश लेने का जोखिम नहीं उठा सकता था और तो और, इस व्यवस्था में मजदूर अपने साथियों के साथ बातचीत भी नहीं कर सकते थे।
    • हेनरी फोर्ड के कारखाने की असेंबली लाइन से हर तीन मिनट में एक कार तैयार होकर निकलने लगी। इससे पहले की पद्धतियों के मुकाबले यह रफ्तार कई गुना ज्यादा थी। टी-मॉडल नामक कार बृहत उत्पादन पद्धति से बनी पहली कार थी।
    • शुरुआत में फोर्ड फैक्ट्री के मजदूरों को असेंबली लाइन पर पैदा होने वाली थकान झेलने में काफी मुश्किल महसूस हुई क्योंकि वे उसकी रफ्तार को किसी भी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते थे। बहुत सारे मजदूरों ने काम छोड़ दिया।
    • इस चुनौती से निपटने के लिए फोर्ड ने हताश होकर जनवरी 1914 से वेतन दोगुना यानी 5 डॉलर प्रतिदिन कर दिया। साथ ही उन्होंने अपने कारखानों में ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर भी पाबंदी लगा दी।
    • तनख्वाह बढ़ाने से हेनरी फोर्ड के मुनाफे में जो कमी आई थी उसकी भरपाई करने के लिए वे अपनी असेंबली लाइन की रफ्तार बार-बार बढ़ाने लगे। उनके मजदूरों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता रहता था।
    • अपने इस फ़ैसले से फोर्ड बहुत संतुष्ट थे। कुछ समय बाद उन्होंने कहा था कि ‘लागत कम करने के लिए अपनी जिंदगी में उन्होंने इससे अच्छा फैसला कभी नहीं लिया।
    • 1919 में अमेरिका में 20 लाख कारों का उत्पादन होता था, जो 1929 में बढ़कर 50 लाख कार प्रतिवर्ष से भी ऊपर जा पहुँचा।
    • इसके साथ ही बहुत सारे लोग फ्रिज, वॉशिंग मशीन, रेडियो, ग्रामोफोन प्लेयर्स आदि भी खरीदने लगे। ये सब चीजें ‘हायर-परचेज़’ व्यवस्था के तहत खरीदी जाती थीं। यानी लोग ये सारी चीजें कर्जे पर खरीदते थे और उनकी कीमत साप्ताहिक या मासिक किस्तों में चुकाई जाती थी।
    • 1920 के दशक में आवास एवं निर्माण क्षेत्र में आए उछाल से अमेरिकी संपन्नता का आधार पैदा हो चुका था। मकानों के निर्माण और घरेलू जरूरत की चीजों में निवेश से रोजगार और माँग बढ़ती थी तो दूसरी और उपभोग भी बढ़ता था। बढ़ते उपभोग के लिए ओर ज्यादा निवेश की जरूरत थी जिससे और नए रोजगार व आमदनी में वृद्धि होने लगती थी।
    • 1923 में अमेरिका शेष विश्व को पूँजी का निर्यात दोबारा करने लगा और वह दुनिया में सबसे बड़ा कर्जदाता देश बन गया। अमेरिका द्वारा आयात और पूँजी निर्यात ने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को भी संकट से उबरने में मदद दी। अगले छह साल में विश्व व्यापार व आय वृद्धि दर में काफी सुधार आया।
    • यह स्थिति लंबे समय तक कायम नहीं रह पाई। 1929 तक आते-आते दुनिया एक ऐसे आर्थिक संकट में फँस गई जिसका दुनिया ने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
    महामंदी
    • आर्थिक महामंदी की शुरुआत 1929 से हुई और यह संकट तीस के दशक के मध्य तक बना रहा। इस दौरान दुनिया के ज्यादातर हिस्सों के उत्पादन, रोजगार, आय और व्यापार में भयानक गिरावट दर्ज की गई।
    • इस मंदी का समय और असर सब देशों में एक जैसा नहीं था लेकिन आमतौर पर ऐसा माना जा सकता है कि कृषि क्षेत्रों और समुदायों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि औद्योगिक उत्पादों की तुलना में खेतिहर उत्पादों की कीमतों में ज्यादा भारी और ज्यादा समय तक कमी बनी रही।
    • इस महामंदी के कई कारण थे। पहला कारण: यह कृषि क्षेत्र में अति उत्पादन की समस्या बनी हुई थी । कृषि उत्पादों की गिरती कीमतों के कारण स्थिति और खराब हो गई थी ।
    • कीमतें गिरीं और किसानों की आय घटने लगी तो आमदनी बढ़ाने के लिए किसान उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करने लगे ताकि कम कीमत पर ही सही लेकिन ज्यादा माल पैदा करके वे अपना आय स्तर बनाए रख सकें।
    • फलस्वरूप, बाज़ार में कृषि उत्पादों की आमद और भी बढ़ गई। जाहिर है, कीमतें और नीचे चली गई। खरीदारों के अभाव में कृषि उपज पड़ी पड़ी सड़ने लगी ।
    • दूसरा कारण: 1920 के दशक के मध्य बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्ज़े लेकर अपनी निवेश संबंधी ज़रूरतों को पूरा किया था। जब हालात अच्छे थे तो अमेरिका से कर्ज़ा जुटाना बहुत आसान था लेकिन संकट का संकेत मिलते ही अमेरिकी उद्यमियों के होश उड़ गए।
    • 1928 के पहले छह माह तक विदेशों में अमेरिका का कर्जा एक अरब डॉलर था। साल भर के भीतर यह कर्ज़ा घटकर केवल चौथाई रह गया था। जो देश अमेरिकी कर्ज़े पर सबसे ज्यादा निर्भर थे उनके सामने गहरा संकट आ खड़ा हुआ।
    • यूरोप में कई बड़े बैंक धराशायी हो गए। कई देशों की मुद्रा की कीमत बुरी तरह गिर गई। 
    • इस झटके से ब्रिटिश पाउंड भी नहीं बच पाया। लैटिन अमेरिका और अन्य स्थानों पर कृषि एवं कच्चे मालों की कीमतें तेज़ी से लुढ़कने लगीं।
    • अमेरिकी सरकार इस महामंदी से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आयातित पदार्थों पर दो गुना सीमा शुल्क वसूल करने लगी। इस फैसले ने तो विश्व व्यापार की कमर ही तोड़ दी।
    • औद्योगिक देशों में भी मंदी का सबसे बुरा असर अमेरिका को ही झेलना पड़ा। कीमतों में कमी और मंदी की आशंका को देखते हुए, अमेरिकी बैंकों ने घरेलू कर्जे देना बंद कर दिया। जो कर्जे दिए जा चुके थे, उनकी वसूली तेज़ कर दी गई ।
    • किसान उपज नहीं बेच पा रहे थे, परिवार तबाह हो गए, कारोबार ठप पड़ गए। आमदनी में गिरावट आने पर अमेरिका के बहुत सारे परिवार कर्ज़ चुकाने में नाकामयाब हो गए, जिसके चलते उनके मकान, कार और सारी ज़रूरी चीजें कुर्क कर ली गईं।
    • बीस के दशक में जो उपभोक्तावादी संपन्नता दिखाई दे रही थी, वह धूल के गुबार की तरह रातोंरात काफूर हो गई थी।
    • बेरोजगारी बढ़ी तो लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे। आखिरकार अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था भी धराशायी हो गई।
    • निवेश से अपेक्षित लाभ न पा सकने, कर्जे वसूल न कर पाने और जमाकर्ताओं की जमा पूँजी न लौटा पाने के कारण हज़ारों बैंक दिवालिया हो गए और बंद कर दिए गए।
    • इस परिघटना से जुड़े आँकड़े सकते में डाल देने वाले हैं : 1933 तक 4,000 से ज्यादा बैंक बंद हो चुके थे और 1929 से 1932 के बीच तकरीबन 1,10,000 कंपनियाँ चौपट हो चुकी थीं।
    • यद्यपि 1935 तक ज्यादातर औद्योगिक देशों में आर्थिक संकट से उबरने के संकेत दिखाई देने लगे थे लेकिन समाजों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और राजनीति तथा लोगों के दिलो-दिमाग़ पर उसकी जो छाप पड़ी वह जल्दी मिटने वाली नहीं थी।
    भारत और महामंदी
    • महामंदी से भारत पर क्या असर पड़ा तो इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि 20वीं सदी की शुरुआत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था कितनी एकीकृत हो चुकी थी। दुनिया के एक हिस्से में पैदा होने वाले संकट की कँपकँपाहट बाकी हिस्सों तक भी पहुँच जाती थी और उससे दुनिया भर में लोगों की जिंदगी, अर्थव्यवस्थाएँ और समाज प्रभावित हो उठते थे।
    • औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक और तैयार मालों का आयातक बन चुका था। महामंदी ने भारतीय व्यापार को फौरन प्रभावित किया।
    • 1928 से 1934 के बीच देश के आयात-निर्यात घट कर लगभग आधे रह गए थे। जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें गिरने लगीं तो यहाँ भी कीमतें नीचे आ गई। 1928 से 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत गिर गई।
    • शहरी निवासियों के मुकाबले किसानों और काश्तकारों को ज्यादा नुकसान हुआ। यद्यपि कृषि उत्पादों की कीमत तेज़ी से नीचे गिरी लेकिन सरकार ने लगान वसूली में छूट देने से साफ़ इनकार कर दिया। सबसे बुरी मार उन काश्तकारों पर पड़ी जो विश्व बाज़ार के लिए उपज पैदा करते थे।
    • बंगाल के जूट/पटसन उत्पादक जो कच्चा पटसन उगाते थे, जिससे कारखानों में टाट की बोरियाँ बनाई जाती थीं। जब टाट का निर्यात बंद हो गया तो कच्चे पटसन की कीमतों में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरावट आ गई।
    • जिन काश्तकारों ने दिन फिरने की उम्मीद में या बेहतर आमदनी के लिए उपज बढ़ाने के वास्ते कर्ज़े ले लिए थे, उनकी हालत भी उपज का सही मोल न मिलने के कारण खराब थी। वे दिनों-दिन और क़र्ज़ में डूबते जा रहे थे।
    • पूरे देश में काश्तकार पहले से भी ज्यादा कर्ज़ में डूब गए। खर्चे पूरे करने के चक्कर में उनकी बचत खत्म हो चुकी थी, ज़मीन सूदखोरों के पास गिरवी पड़ी थी, घर में जो भी गहने- ज़ेवर थे, बिक चुके थे।
    • मंदी के इन्हीं सालों में भारत कीमती धातुओं, खासतौर सोने का निर्यात करने लगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स का मानना था कि भारतीय सोने के निर्यात से भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में काफी मदद मिली।
    • इस निर्यात ने ब्रिटेन की आर्थिक दशा सुधारने में तो निश्चय ही मदद दी लेकिन भारतीय किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ।
    • 1931 में मंदी अपने चरम पर थी और ग्रामीण भारत असंतोष व उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। उसी समस महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा (सिविल नाफरमानी) आंदोलन शुरू किया।
    • यह मंदी शहरी भारत के लिए इतनी दुखदाई नहीं रही । कीमतें गिरते जाने के बावजूद शहरों में रहने वाले ऐसे लोगों की हालत ठीक रही जिनकी आय निश्चित थी। जैसे शहर में रहने वाले जमींदार जिन्हें अपनी जमीन पर बँधा-बँधाया भाड़ा मिलता था, या मध्यवर्गीय वेतनभोगी कर्मचारी राष्ट्रवादी खेमे के दबाव में उद्योगों की रक्षा के लिए सीमा शुल्क बढ़ा दिए गए थे, जिससे औद्योगिक क्षेत्र में भी निवेश में तेजी आई। 
    विश्व अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण
    • पहला विश्व युद्ध खत्म होने के केवल दो दशक बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। यह युद्ध भी दो बड़े खेमों के बीच था। एक गुट में धुरी शक्तियाँ (मुख्य रूप से नात्सी जर्मनी, जापान और इटली) थीं, तो दूसरा खेमा मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और अमेरिका) के नाम से जाना जाता था। छह साल तक चला यह युद्ध जमीन, हवा और पानी में असंख्य मोर्चों पर लड़ा गया।
    • इस युद्ध में मौत और तबाही की कोई हद बाकी नहीं बची थी। इस जंग के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 6 करोड़ लोग मारे गए। यह 1939 की वैश्विक जनसंख्या का लगभग 3 प्रतिशत था। करोड़ों लोग घायल हुए।
    • अब तक के युद्धों में मोर्चे पर मरने वालों की संख्या ज्यादा होती थी। इस युद्ध में ऐसे लोग ज्यादा मरे जो किसी मोर्चे पर लड़ नहीं रहे थे।
    • यूरोप और एशिया के विशाल भू-भाग तबाह हुए। कई शहर हवाई बमबारी या लगातार गोलाबारी के कारण मिट्टी में मिल गए। इस युद्ध ने बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक तबाही को जन्म दिया। ऐसे हालात में पुनर्निर्माण का काम कठिन और लंबा साबित होने वाला था।
    • युद्धोत्तर काल में पुनर्निर्माण का काम दो बड़े प्रभावों के साये में आगे बढ़ा। पश्चिमी विश्व में अमेरिका आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से एक वर्चस्वशाली ताकत बन चुका था। दूसरी ओर सोवियत संघ भी एक वर्चस्वशाली शक्ति के रूप में सामने आया।
    • नात्सी जर्मनी को हराने के लिए सोवियत संघ की जनता ने भारी कुर्बानियाँ दी थीं। जिस समय पूँजीवादी दुनिया महामंदी से जूझ रही थी, उसी दौरान सोवियत संघ के लोगों ने अपने देश को एक पिछड़े खेतिहर देश की जगह एक विश्व शक्ति की हैसियत में ला खड़ा किया था।
    युद्धोत्तर बंदोबस्त और ब्रेटन-वुड्स संस्थान
    • दो महायुद्धों के बीच मिले आर्थिक अनुभवों से अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों ने दो अहम सबक निकाले। पहला, बृहत उत्पादन पर आधारित किसी औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना कायम नहीं रखा जा सकता।
    • व्यापक उपभोग को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि आमदनी काफी ज्यादा और स्थिर हो । यदि रोज़गार अस्थिर होंगे तो आय स्थिर नहीं हो सकती थी। स्थिर आय के लिए पूर्ण रोज़गार भी ज़रूरी था।
    • बाज़ार पूर्ण रोजगार की गारंटी नहीं दे सकता। कीमत, उपज और रोज़गार में आने वाले उतार-चढ़ावों को नियंत्रित करने के लिए सरकार का दखल ज़रूरी था। आर्थिक स्थिरता केवल सरकारी हस्तक्षेप के ज़रिये ही सुनिश्चित की जा सकती थी।
    • दूसरा सबक बाहरी दुनिया के साथ आर्थिक संबंधों के बारे में था। पूर्ण रोज़गार का लक्ष्य केवल तभी हासिल किया जा सकता है, जब सरकार के पास वस्तुओं, पूँजी और श्रम की आवाजाही को नियंत्रित करने की ताकत उपलब्ध हो ।
    • संक्षेप में, युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह था कि औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोज़गार बनाए रखा जाए।
    • इस फ़्रेमवर्क पर जुलाई 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी।
    • सदस्य देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई. एम.एफ.) की स्थापना की गई ।
    • युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए पैसे का इंतजाम करने के वास्ते अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (जिसे आम बोलचाल में विश्व बैंक कहा जाता है) का गठन किया गया।
    • इसी लिए विश्व बैंक और आई.एम.एफ. को ब्रेटन वुड्स संस्थान या ब्रेटन वुड्स ट्विन (ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ संतान) भी कहा जाता है। इसी आधार पर युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को अकसर ब्रेटन वुड्स व्यवस्था भी कहा जाता है।
    • विश्व बैंक और आई.एम.एफ. ने 1947 में औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया। इन संस्थानों की निर्णय प्रक्रिया पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियंत्रण रहता है। अमेरिका विश्व बैंक और आई.एम.एफ. के किसी भी फ़ैसले को वीटो कर सकता है।
    • अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने वाली व्यवस्था है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधरित होती थी। इस व्यवस्था में राष्ट्रीय मुद्राएँ, जैसे भारतीय मुद्रा- रुपया - डॉलर के साथ एक निश्चित विनिमय दर से बँधा हुआ था।
    • एक डॉलर के बदले में कितने रुपये देने होगें, यह स्थिर रहता था। डॉलर का मूल्य भी सोने से बँधा हुआ था। एक डॉलर की कीमत 35 औंस सोने के बराबर निर्धारित की गई थी। 
    प्रारंभिक युद्धोत्तर वर्ष
    • ब्रेटन वुड्स व्यवस्था ने पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों और जापान के लिए व्यापार तथा आय में वृद्धि के एक अप्रतिम युग का सूत्रपात किया। 1950 से 1970 के बीच विश्व व्यापार की विकास दर सालाना 8 प्रतिशत से भी ज्यादा रही। इस दौरान वैश्विक आय में लगभग 5 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही थी।
    • विकास दर भी कमोबेश स्थिर ही थी। उसमें ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं आए। इस दौरान ज्यादातर समय अधिकांश औद्योगिक देशों में बेरोज़गारी औसतन 5 प्रतिशत से भी कम ही रही। इन दशकों में तकनीक और उद्यम का विश्वव्यापी प्रसार हुआ।
    अनौपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता
    • दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी दुनिया का एक बहुत बड़ा भाग यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अगले दो दशकों में एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर उपनिवेश स्वतंत्र, स्वाधीन राष्ट्र बन चुके थे।
    • ये सभी देश गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। उनकी अर्थव्यवस्थाएँ और समाज लंबे समय तक चले औपनिवेशिक शासन के कारण अस्त-व्यस्त हो चुके थे।
    • आई.एम.एफ. और विश्व बैंक का गठन तो औद्योगिक देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही किया गया था। ये संस्थान भूतपूर्व उपनिवेशों में गरीबी की समस्या और विकास की कमी से निपटने में दक्ष नहीं थे।
    • जिस प्रकार यूरोप और जापान ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्गठन किया था उसके कारण ये देश आई. एम. एफ. और विश्व बैंक पर बहुत निर्भर भी नहीं थे। इसी कारण पचास के दशक के आखिरी सालों में आकर ब्रेटन वुड्स संस्थान विकासशील देशों पर भी पहले से ज्यादा ध्यान देने लगे।
    • दुनिया के अल्पविकसित भाग उपनिवेशों के रूप में पश्चिमी साम्राज्यों के अधीन रहे थे। विडंबना यह थी कि नवस्वाधीन राष्ट्रों के रूप में भी अपनी जनता को गरीबी और पिछड़ेपन की गर्त से बाहर निकालने के लिए उन्हें ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की मदद लेनी पड़ी जिन पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही वर्चस्व था।
    • दूसरी ओर ज्यादातर विकासशील देशों को पचास और स के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तेज प्रगति से कोई लाभ नहीं हुआ।
    • इस समस्या को देखते हुए उन्होंने एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली (New International Economic Order - NIEO) के लिए आवाज़ उठाई और समूह 77 (जी-77) के रूप में संगठित हो गए।
    • एन.आई.ई.ओ. से उनका आशय एक ऐसी व्यवस्था से था जिसमें उन्हें अपने संसाधनों पर सही मायनों में नियंत्रण मिल सके, जिसमें उन्हें विकास के लिए अधिक सहायता मिले, कच्चे माल के सही दाम मिलें, और अपने तैयार मालों को विकसित देशों के बाजारों में बेचने के लिए बेहतर पहुँच मिले।
    ब्रेटन वुड्स का समापन और 'वैश्वीकरण' की शुरुआत
    • वर्षो की स्थिर और तेज़ वृद्धि के बावजूद युद्धोत्तर दुनिया में सब कुछ सही नहीं चल रहा था। साठ के दशक से ही विदेशों में अपनी गतिविधियों की भारी लागत ने अमेरिका की वित्तीय और प्रतिस्पर्धी क्षमता को कमज़ोर कर दिया था।
    • अमेरिकी डॉलर अब दुनिया की प्रधान मुद्रा के रूप में पहले जितना सम्मानित और निर्विवाद नहीं रह गया था। सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी। अंततः स्थिर विनिमय दर की व्यवस्था विफल हो गई और प्रवाहमयी या अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई ।
    • 70 के दशक के मध्य से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में भी भारी बदलाव आ चुके थे। अब तक विकासशील देश कर्जे और विकास संबंधी सहायता के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की शरण ले सकते थे लेकिन अब उन्हें पश्चिम के व्यावसायिक बैंकों और निजी ऋणदाता संस्थानों से कर्ज़ न लेने के लिए बाध्य किया जाने लगा।
    • औद्योगिक विश्व भी बेरोज़गारी की समस्या में फँसने लगा था। 70 के दशक के मध्य से बेरोज़गारी बढने लगी। 90 के दशक के प्रारंभिक वर्षों तक वहाँ काफी बेरोज़गारी रही।
    • 70 के दशक के अंतिम वर्षो से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी एशिया के ऐसे देशों में उत्पादन केंद्रित करने लगीं जहाँ वेतन कम थे।
    • चीन 1949 की क्रांति के बाद विश्व अर्थव्यवस्था से अलग-थलग ही था। परंतु चीन में नयी आर्थिक नीतियों और सोवियत खेमे के बिखराव तथा पूर्वी यूरोप में सोवियत शैली की व्यवस्था समाप्त हो जाने के पश्चात बहुत सारे देश दोबारा विश्व अर्थव्यवस्था का अंग बन गए।
    रेशम मार्ग (सिल्क रूट ) से जुड़ती दुनिया
    • आधुनिक काल से पहले के युग में दुनिया के दूर-दूर स्थित भागों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्कों का सबसे जीवंत उदाहरण सिल्क मार्गों के रूप में दिखाई देता है।
    • 'सिल्क मार्ग' नाम से पता चलता है कि इस मार्ग से पश्चिम को भेजे जाने वाले चीनी रेशम (सिल्क) का कितना महत्त्व था।
    • इतिहासकारों ने बहुत सारे सिल्क मार्गों के बारे में बताया है। ज़मीन या समुद्र से होकर गुज़रने वाले ये रास्ते न केवल एशिया के विशाल क्षेत्रों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करते थे बल्कि एशिया को यूरोप और उत्तरी अफ्रीका से भी जोड़ेते थे।
    • ऐसे मार्ग ईसा पूर्व के समय में ही सामने आ चुके थे और लगभग 15वीं शताब्दी तक अस्तित्व में थे। इसी रास्ते से चीनी पॉटरी जाती थी और इसी रास्ते से भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के कपड़े व मसाले दुनिया के दूसरे भागों में पहुचँते थे। वापसी में सोने - चाँदी जैसी कीमती धातुएँ यूरोप से एशिया पहुँचती थीं।
    • व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान, दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती थीं। शुरुआती काल के ईसाई मिशनरी निश्चय ही इसी मार्ग से एशिया में आते होंगे।
    • कुछ सदी बाद मुस्लिम धर्मोपदेशक भी इसी रास्ते से दुनिया में फैले। इससे भी बहुत पहले पूर्वी भारत में उपजा बौद्ध धर्म सिल्क मार्ग की विविध शाखाओं से ही कई दिशाओं में फैल चुका था।
    विजय, बीमारी और व्यापार
    • 16वीं सदी में जब यूरोपीय जहाज़ियों ने एशिया तक का समुद्री · रास्ता ढूँढ़ लिया और वे पश्चिमी सागर को पार करते हुए अमेरिका तक जा पहुँचे तो पूर्व- आधुनिक विश्व बहुत छोटा सा दिखाई देने लगा।
    • कई सदियों से हिंद महासागर के पानी में फलता-फूलता व्यापार, तरह-तरह के सामान, लोग, ज्ञान और परंपराएँ एक जगह से दूसरी जगह आ-जा रही थीं।
    • भारतीय उपमहाद्वीप इन प्रवाहों के रास्ते में एक अहम बिंदु था। पूरे नेटवर्क में इस इलाके का भारी महत्त्व था । यूरोपीयों के दाखिले से यह आवाजाही और बढ़ने लगी और इन प्रवाहों की दिशा यूरोप की तरफ़ भी मुड़ने लगी ।
    • आज के पेरू और मैक्सिको में मौजूद खानों से निकलने वाली कीमती धातुओं, खासतौर से चाँदी ने भी यूरोप की संपदा को बढ़ाया और पश्चिम एशिया के साथ होने वाले उसके व्यापार को गति प्रदान की।
    • 17वीं सदी के आते-आते पूरे यूरोप में दक्षिणी अमेरिका की धन-संपदा के बारे में तरह-तरह के क़िस्से बनने लगे थे। इन्हीं किंवदतियों की बदौलत वहाँ के लोग एल डोराडो को सोने का शहर मानने लगे और उसकी खोज में बहुत सारे खोजी अभियान शुरू किए गए।
    • 16वीं सदी के मध्य तक आते-आते पुर्तगाली और स्पेनिश सेनाओं की विजय का सिलसिला शुरू हो चुका था। उन्होंने अमेरिका को उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया था।
    • यूरोपीय सेनाएँ केवल अपनी सैनिक ताकत के दम पर नहीं जीतती थीं। स्पेनिश विजेताओं के सबसे शक्तिशाली हथियारों में परंपरागत किस्म का सैनिक हथियार तो कोई था ही नहीं।
    • यह हथियार तो चेचक जैसे कीटाणु थे जो स्पेनिश सैनिकों और अफ़सरों के साथ वहाँ जा पहुँचे थे। लाखों साल से दुनिया से अलग-थलग रहने के कारण अमेरिका के लोगों के शरीर में यूरोप से आने वाली इन बीमारियों से बचने की रोग प्रतिरोधी क्षमता नहीं थी।
    • फलस्वरूप, इस नए स्थान पर चेचक बहुत मारक साबित हुई। एक बार संक्रमण शुरू होने के बाद तो यह बीमारी पूरे महाद्व प में फैल गई। जहाँ यूरोपीय लागे नहीं पहुँचे थे वहाँ के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे। इसने पूरे के पूरे समुदायों को खत्म कर डाला। इस तरह घुसपैठियों की जीत का रास्ता आसान होता चला गया।
    • 19वीं सदी तक यूरोप में गरीबी और भूख का ही साम्राज्य था। शहरों में बेहिसाब भीड़ थी और बीमारियों का बोलबाला था। धार्मिक टकराव आम थे। धार्मिक असंतुष्टों को कड़ा दंड दिया जाता था।
    • 18वीं सदी तक अमेरिका में अफ्रीका से पकड़ कर लाए गए गुलामों को काम में झोंक कर यूरोपीय बाज़ारों के लिए कपास और चीनी का उत्पादन किया जाने लगा था.
    • 18वीं शताब्दी का काफी समय बीत जाने के बाद भी चीन और भारत को दुनिया के सबसे धनी देशों में गिना जाता था। एशियाई व्यापार में भी उन्हीं का दबदबा था। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि 15वीं सदी से चीन ने दूसरे देशों के साथ अपने संबंध कम करना शुरू कर दिए और वह दुनिया से अलग-थलग पड़ने लगा।
    • चीन की घटती भूमिका और अमेरिका के बढ़ते महत्त्व के चलते विश्व व्यापार को केंद्र पश्चिम की ओर खिसकने लगा। अब यूरोप ही विश्व व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र बन गया।
    19वीं शताब्दी (1815-1914 )
    • 19वीं सदी में दुनिया तेजी से बदलने लगी। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारकों ने पूरे के पूरे समाजों की कायापलट कर दी और विदेश संबंधों को नए ढरें में ढ़ाल दिया।
    • अर्थशास्त्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन तरह की गतियों या 'प्रवाहों' का उल्लेख किया है। इनमें पहला प्रवाह व्यापार का होता है जो 19वीं सदी में मुख्य रूप से वस्तुओं (जैसे कपड़ा या गेहूँ आदि) के व्यापार तक ही सीमित था।
    • दूसरा, श्रम का प्रवाह होता है। इसमें लोग काम या रोजगार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। तीसरा प्रवाह पूँजी का होता है जिसे अल्प या दीर्घ अवधि के लिए दूर-दराज के इलाकों में निवेश कर दिया जाता है।
    • ये तीनों तरह के प्रवाह एक-दूसरे से जुड़े हुए थे और लोगों के जीवन को प्रभावित करते थे। कभी-कभी इन कारकों के बीच मौजूद संबंध टूट भी जाते थे। उदाहरण के लिए, वस्तुओं या पूँजी की आवाजाही के मुकाबले श्रमिकों की आवाजाही पर प्रायः ज्यादा शर्तें और बंदिशें लगाई जाती थीं।
    विश्व अर्थव्यवस्था का उदय
    • सामान्य रूप से सभी देश भोजन के मामले में आत्मनिर्भर होने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन 19वीं सदी के ब्रिटेन की बात अलग थी।
    • 18वीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटेन की आबादी तेज़ी से बढ़ने लगी थी। नतीजा, देश में भोजन की माँग भी बढ़ी। जैसे-जैसे शहर फैले और उद्योग बढ़ने लगे, कृषि उत्पादों की माँग भी बढ़ने लगी।
    • कृषि उत्पाद मँहगे होने लगे। दूसरी तरफ बड़े भूस्वामियों के दबाव में सरकार ने मक्का के आयात पर भी पाबंदी लगा दी थी। जिन कानूनों के सहारे सरकार ने यह पाबंदी लागू की थी उन्हें 'कॉर्न लॉ' कहा जाता था।
    • खाद्य पदार्थों की ऊँची कीमतों से परेशान उद्योगपतियों और शहरी बाशिंदों ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह कॉर्न लॉ को फौरन समाप्त कर दे।
    • कॉर्न लॉ के निरस्त हो जाने के बाद बहुत कम कीमत पर खाद्य पदार्थों का आयात किया जाने लगा। आयातित खाद्य पदार्थों की लागत ब्रिटेन में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों से भी कम थी।
    • फलस्वरूप, ब्रिटिश किसानों की हालत बिगड़ने लगी क्योंकि वे आयातित माल की कीमत का मुक़ाबला नहीं कर सकते थे। विशाल भूभागों पर खेती बंद हो गई। हजारों लोग बेरोज़गार हो गए। गाँवों से उजड़ कर वे या तो शहरों में या दूसरे देशों में जाने लगे।
    • जब खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट आई तो ब्रिटेन में उपभोग का स्तर बढ़ गया। 19वीं सदी के मध्य ब्रिटेन की औद्योगिक प्रगति काफी तेज रही जिससे लोगों की आय में वृद्धि हुई। इससे लोगों की जरूरतें बढ़ीं।
    • खाद्य पदार्थों का और भी ज्यादा मात्रा में आयात होने लगा। पूर्वी यूरोप, रूस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, दुनिया के हर हिस्से में ब्रिटेन का पेट भरने के लिए जमीनों को साफ़ करके खेती की जाने लगी।
    • खेती के लिए जमीन को साफ़ कर देना ही काफी नहीं था। खेतिहर इलाकों को बंदरगाहों से जोड़ने के लिए रेलवे की भी जरूरत थी। ज्यादा तादाद में माल ढुलाई के लिए नयी गोदियाँ बनाना और पुरानी गोदियों को फैलाना जरूरी था।
    • नयी जमीनों पर खेती करने के लिए यह आवश्यक था कि दूसरे इलाकों के लोग वहाँ आकर बसें ।
    • 19वीं सदी में यूरोप के लगभग पाँच करोड़ लोग अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में जाकर बस गए। माना जाता है कि पूरी दुनिया में लगभग पंद्रह करोड़ लोग बेहतर भविष्य की चाह में अपने घर-बार छोड़कर दूर-दूर के देशों में जाकर काम करने लगे थे।
    • 1890 तक एक वैश्विक कृषि अर्थव्यवस्था सामने आ चुकी थी। इस घटनाक्रम के साथ श्रम विस्थापन रुझानों, पूँजी प्रवाह, पारिस्थितिकी और तकनीक में गहरे बदलाव आ चुके थे।
    • भोजन किसी आसपास के गांव या क़स्बे से नहीं बल्कि हजारों मील दूर से आने लगा था। अब अपने खेतों पर खुद काम करने वाले किसान ही खाद्य पदार्थ पैदा नहीं कर रहे थे।
    • खाद्य पदार्थों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने के लिए रेलवे का इस्तेमाल किया जाता था। रेल का नेटवर्क इसी काम के लिए बिछाया गया था।
    • पानी के जहाजों से इसे दूसरे देशों में पहुँचाया जाता था। इन जहाजों पर दक्षिण यूरोप, एशिया, अफ्रीका और कैरीबियाई द्वीपसमूह के मजदूरों से बहुत कम वेतन पर काम करवाया जाता था।
    • बहुत छोटे पैमाने पर ही सही लेकिन इसी तरह के नाटकीय बदलाव हम अपने यहाँ पंजाब में भी देख सकते हैं। यहाँ ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अर्द्ध- रेगिस्तानी परती जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए नहरों का जाल बिछा दिया ताकि निर्यात के लिए गेहूँ और कपास की खेती की जा सके।
    • नयी नहरों की सिंचाई वाले इलाकों में पंजाब के अन्य स्थानों के लोगों को लाकर बसाया गया। उनकी बस्तियों को केनाल कॉलोनी (नहर बस्ती) कहा जाता था। 
    • रबड़ की कहानी भी इससे अलग नहीं है। विभिन्न चीजों के उत्पादन में विभिन्न इलाकों ने इतनी महारत हासिल कर ली थी कि 1820 से 1914 के बीच विश्व व्यापार में 25 से 40 गुना वृद्धि हो चुकी थी। 
    • व्यापार में लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा 'प्राथमिक उत्पादों' यानी गेहूँ और कपास जैसे कृषि उत्पादों तथा कोयले जैसे खनिज पदार्थों का था।
    19वीं सदी के आखिर में उपनिवेशवाद
    • 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में व्यापार बढ़ा और बाज़ार तेज़ी से फैलने लगे। यह केवल फैलते व्यापार और संपन्नता का ही दौर नहीं था।
    • व्यापार में इज़ाफ़े और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ निकटता का एक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के बहुत सारे भागों में स्वतंत्रता और आजीविका के साधन छिनने लगे।
    • 19वीं सदी के आखिरी दशकों में यूरोपीयों की विजयों से बहुत सारे कष्टदायक आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय परिवर्तन आए और औपनिवेशिक समाजों को विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित कर लिया गया।
    • अफ्रीका पर क़ब्ज़े की कोशिश में लगी प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय ताकतों ने अपने-अपने इलाके बाँटने के लिए प्रायः इसी तरीके का सहारा लिया था।
    • 1885 में यूरोप के ताकतवर देशों की बर्लिन में एक बैठक हुई जिसमें अफ्रीका के नक्शे पर इसी तरह लकीरें खींचकर उसको आपस में बाँट लिया गया था।
    • 19वीं सदी के आखिर में ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने शासन वाले विदेशी क्षेत्रफल में भारी वृद्धि कर ली थी। बेल्जियम और जर्मनी नयी औपनिवेशिक ताकतों के रूप में सामने आए।
    • पहले स्पेन के कब्ज़े में रह चुके कुछ उपनिवेशों पर कब्ज़ा करके 1890 के दशक के आखिरी वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी औपनिवेशिक ताक़त बन गया।
    रिंडरपेस्ट या मवेशी प्लेग
    • अफ्रीका में 1890 के दशक में रिंडरपेस्ट नामक बीमारी बहुत तेज़ी से फैल गई। मवेशियों में प्लेग की तरह फैलने वाली इस बीमारी से लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा।
    • औपनिवेशिक समाजों पर यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों के प्रभाव से बड़े पैमाने पर क्या असर पड़े।
    • प्राचीन काल से ही अफ्रीका में ज़मीन की कभी कोई कमी नहीं रही जबकि वहाँ की आबादी बहुत कम थी। सदियों तक अफ़्रीकियों की ज़िंदगी व कामकाज ज़मीन और पालतू पशुओं के सहारे ही चलता रहा है। वहाँ पैसे या वेतन पर काम करने का चलन नहीं था।
    • 19वीं सदी के आखिर में अफ्रीका में ऐसे उपभोक्ता सामान बहुत कम थे जिन्हें वेतन के पैसे से खरीदा जा सकता था।
    • 19वीं सदी के आखिर में यूरोपीय ताक़तें अफ्रीका के विशाल भूक्षेत्र और खनिज भंडारों को देखकर इस महाद्वीप की ओर. आकर्षित हुई थीं।
    • यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करने और खदानों का दोहन करना चाहते थे ताकि उन्हें वापस यूरोप भेजा जा सके। लेकिन वहाँ एक ऐसी समस्या पेश आई जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी । वहाँ के लोग तनख्वाह पर काम नहीं करना चाहते थे।
    • मजदूरों की भर्ती और उन्हें अपने पास रोके रखने के लिए मालिकों ने बहुत सारे हथकंडे आज़मा कर देख लिए लेकिन बात नहीं बनी। उन पर भारी भरकम कर लाद दिए गए जिनका भुगतान केवल तभी किया जा सकता था जब करदाता बागानों या खदानों में काम करता हो ।
    • काश्तकारों को उनकी ज़मीन से हटाने के लिए उत्तराधिकार कानून भी बदल दिए गए। नए कानून में यह व्यवस्था कर दी गई कि अब परिवार के केवल एक ही सदस्य को पैतृक संपत्ति मिलेगी । 
    • इस कानून के ज़रिए परिवार के बाकी लोगों को बाज़ार में ढकेलने का प्रयास किया जाने लगा। खानकर्मियों को बाड़ों में बंद कर दिया गया। उनके खुलेआम घूमने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई। (विषाणु जनित संक्रामक रोग) तभी वहाँ रिंडरपेस्ट नामक विनाशकारी पशु रोग फैल गया।
    • अफ्रीका में रिंडरपेस्ट नाम की बीमारी सबसे पहले 1880 के दशक के आखिरी सालों में दिखाई दी। उस समय पूर्वी अफ्रीका में एरिट्रिया पर हमला कर रहे इतालवी सैनिकों का पेट भरने के लिए एशियाई देशों से जानवर लाए जाते थे।
    • यह बीमारी ब्रिटिश अधिपत्य वाले एशियाई देशों से आए उन्हीं जानवरों के ज़रिए यहाँ पहुँची थी। अफ्रीका के पूर्वी हिस्से से महाद्वीप में दाखिल होने वाली यह बीमारी 'जंगल की आग' की तरह पश्चिमी अफ्रीका की तरफ बढ़ने लगी।
    • 1892 में यह अफ्रीका के अटलांटिक तट तक जा पहुँची। पाँच साल बाद यह केप ( अफ्रीका का धुर दक्षिणी हिस्सा) तक भी पहुँच गई। रिंडरपेस्ट ने अपने रास्ते में आने वाले 90 प्रतिशत मवेशियों को मौत की नींद सुला दिया।
    • पशुओं के खत्म हो जाने से तो अफ़्रीकियों के रोज़ी-रोटी के साधन ही खत्म हो गए। अपनी सत्ता को और मज़बूत करने तथा अफ़्रीकियों को श्रम बाज़ार में ढकेलने के लिए वहाँ के बागान मालिकों, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने बचे-खुचे पशु भी अपने कब्जे में ले लिए। बचे-खुचे पशु संसाधनों पर क़ब्ज़े से यूरोपीय उपनिवेशकारों को पूरे अफ्रीका को जीतने व गुलाम बना लेने का बेहतरीन मौका हाथ लग गया था।
    भारत से अनुबंधित श्रमिकों का जाना
    • भारत से अनुबंधित (गिरमिटिया) श्रमिकों को ले जाया जाना भी 19वीं सदी की दुनिया की विविधता को प्रतिबिंबित करता है।
    • 19वीं सदी में भारत और चीन के लाखों मजदूरों को बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया जाता था।
    • भारत के ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक मौजूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे इलाकों से जाते थे।
    • 19वीं सदी के मध्य में इन इलाकों में भारी बदलाव आने लगे थे।
    • कुटीर उद्योग खत्म हो रहे थे, ज़मीन का भाड़ा बढ़ गया था, खानों और बागानों के लिए ज़मीनों को साफ़ किया जा रहा था। इन परिवर्तनों से गरीबों के जीवन पर गहरा असर पड़ा।
    • भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को मुख्य रूप से कैरीबियाई द्वीप समूह (मुख्यतः त्रिनिदाद, गुयाना और सुरीनाम), मॉरिशस व फ़िजी जाया जाता था।
    • तमिल आप्रवासी सीलोन और मलाया जाकर काम करते थे। बहुत सारे अनुबंधित श्रमिकों को असम के चाय बागानों में काम करवाने के लिए भी ले जाया जाता था।
    • मजदूरों की भर्ती का काम मालिकों के एजेंट किया करते थे। एजेंटों को कमीशन मिलता था। बहुत सारे आप्रवासी अपने गाँव में होने वाले उत्पीड़न और गरीबी से बचने के लिए भी इन अनुबंधों को मान लेते थे।
    • 19वीं सदी की इस अनुबंध व्यवस्था को बहुत सारे लोगों ने नयी दास प्रथा' का भी नाम दिया है। बागानों में या कार्यस्थल पर पहुँचने के बाद मजदूरों को पता चलता था कि वे जैसी उम्मीद कर रहे थे यहाँ वैसे हालात नहीं हैं।
    • नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थीं और मजदूरों के पास कानूनी अधिकार कहने भर को भी नहीं थे। इसके बावजूद मजदूरों ने भी जिंदगी बसर करने के अपने तरीके ढूँढ़ निकाले ।
    • बहुतों ने अपनी पुरानी और नयी संस्कृतियों का सम्मिश्रण करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माभिव्यक्ति के नए रूप खोज लिए । त्रिनिदाद में मुहर्रम के सालाना जुलूस को एक विशाल उत्सवी मेले का रूप दे दिया गया। इस मेले को 'हासे' (इमाम हुसैन के नाम पर) नाम दिया गया। उसमें सभी धर्मों व नस्लों के मजदूर हिस्सा लेते थे।
    • इसी प्रकार रास्ताफारियानवाद (Rastafarianism) नामक विद्रोही धर्म (जिसे जमैका के रैगे गायक बॉब मार्ले ने ख्याति के शिखर पर पहुँचा दिया) में भी भारतीय आप्रवासियों और कैरीबियाई द्वीपसमूह के बीच इन संबंधों की झलक देखी जा सकती है।
    • त्रिनिदाद और गुयाना में मशहूर 'चटनी म्यूज़िक भारतीय आप्रवासियों के वहाँ पहुँचने के बाद सामने आई रचनात्मक अभिव्यक्तियों का ही उदाहरण है।
    • सांस्कृतिक समागम के ये स्वरूप एक नयी वैश्विक दुनिया के उदय की प्रक्रिया का अंग़ थे। यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें अलग-अलग स्थानों की चीजें आपस में घुल-मिल जाती थीं, उनकी मूल पहचान और विशिष्टताएँ गुम हो जाती थीं और बिलकुल नया रूप सामने आता था। ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक अनुबंध समाप्त हो जाने के बाद भी वापस नहीं लौटे। जो वापस लौटे उनमें से भी अधिकांश केवल कुछ समय यहाँ बिता कर फिर अपने नए ठिकानों पर वापस चले गए।
    • 20वीं सदी के शुरुआती सालों से ही हमारे देश के राष्ट्रवादी नेता इस प्रथा का विरोध करने लगे थे। उनकी राय में यह बहुत अपमानजनक और क्रूर व्यवस्था थी। इसी दबाव के कारण 1921 में इसे खत्म कर दिया गया। लेकिन इसके बाद भी कई दशक तक भारतीय अनुबंधित मजदूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में बेचैन अल्पसंख्यकों का जीवन जीते रहे।
    • वहाँ के लोग उन्हें 'कुली' मानते थे और उनके साथ कुलियों जैसा बर्ताव करते थे। नायपॉल के कुछ प्रारंभिक उपन्यासों में विछोह और परायेपन के इस अहसास को खूब देखा जा सकता है।
    विदेश में भारतीय उद्यमी
    • विश्व बाज़ार के लिए खाद्य पदार्थ व फ़सलें उगाने के वास्ते पूँजी की आवश्यकता थी। बड़े बागानों के लिए तो बाज़ार और बैंकों से पैसा लिया जा सकता था।
    • यहीं से देशी साहूकार और महाजन दृश्य में आते हैं। ये उन बहुत सारे बैंकरों और व्यापारियों में से थे जो मध्य एवं दक्षिण पूर्व एशिया में निर्यातोन्मुखी खेती के लिए कर्जे देते थे।
    • इसके लिए वे या तो अपनी जेब से पैसा लगाते थे या यूरोपीय बैंकों से कर्ज़े लेते थे। उनके पास दूर-दूर तक पैसे पहुँचाने की एक व्यवस्थित पद्धति होती थी। यहाँ तक कि उन्होंने व्यावसायिक संगठनों और क्रियाकलापों के देशी स्वरूप भी विकसित कर लिए थे।
    • अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशकारों के पीछे-पीछे भारतीय व्यापारी और महाजन भी जा पहुँचे । हैदराबादी सिंधी व्यापारी तो यूरोपीय उपनिवेशों से भी आगे तक जा निकले।
    • 1860 के दशक से उन्होंने दुनिया भर के बंदरगाहों पर अपने बड़े-बड़े एम्पोरियम खोल दिए। इन दुकानों में सैलानियों को आकर्षक स्थानीय और विदेशी चीजें मिलती थीं।
    भारतीय व्यापार, उपनिवेशवाद और वैश्विक व्यवस्था
    • भारत में पैदा होने वाली महीन कपास का यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता था। औद्योगीकरण के बाद ब्रिटेन में भी कपास का उत्पादन बढ़ने लगा था। इसी कारण वहाँ के उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह कपास के आयात पर रोक लगाए और स्थानीय उद्योगों की रक्षा करे।
    • फलस्वरूप, ब्रिटेन में आयातित कपड़ों पर सीमा शुल्क थोप दिए गए। वहाँ महीन भारतीय कपास का आयात कम होने लगा।
    • 19वीं शताब्दी की शुरुआत से ही ब्रिटिश कपड़ा उत्पादक दूसरे देशों में भी अपने कपड़े के लिए नए-नए बाज़ार ढूँढ़ने लगे थे।
    • सीमा शुल्क की व्यवस्था के कारण ब्रिटिश बाज़ारों से बेदखल हो जाने के बाद भारतीय कपड़ों को दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
    • यदि भारतीय निर्यात के आँकड़ों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि सूती कपड़े के निर्यात में लगातार गिरावट का ही रुझान दिखाई देता है।
    • सन् 1800 के आसपास निर्यात में सूती कपड़े का प्रतिशत 30 था जो 1815 में घट कर 15 प्रतिशत रह गया। 1870 तक तो यह अनुपात केवल 3 प्रतिशत रह गया था।
    • तो फिर भारत ने किन चीज़ों का निर्यात किया? आँकड़ों के माध्यम से फिर एक नाटकीय कहानी सामने आती है। निर्मित वस्तुओं का निर्यात घटता जा रहा था और उतनी ही तेज़ी से कच्चे मालों का निर्यात बढ़ता जा रहा था।
    • 1812 से 1871 के बीच कच्चे कपास का निर्यात 5 प्रतिशत से बढ़ कर 35 प्रतिशत तक पहुँच गया था।
    • कपड़ों की रँगाई के लिए इस्तेमाल होने वाले नील का भी कई दशक तक बड़े पैमाने पर निर्यात होता रहा। 
    • कुछ समय तक तो भारतीय निर्यात में अफीम का हिस्सा ही सबसे ज्यादा रहा। ब्रिटेन की सरकार भारत में अफीम की खेती करवाती थी और उसे चीन को निर्यात कर देती थी। अफीम के निर्यात से जो पैसा मिलता था उसके बदले चीन से ही चाय और दूसरे पदार्थों का आयात किया जाता था।
    • 19वीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ ही आ गई थी।
    • भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को भेजे जाने वाले खाद्यान्न व कच्चे मालों के नियार्त में इज़ाफ़ा हुआ।
    • ब्रिटेने से जो माल भारत भेजा जाता था उसकी कीमत भारत से ब्रिटेन भेजे जाने वाले माल की कीमत से बहुत ज्यादा होती थी।
    • भारत के साथ ब्रिटेन हमेशा 'व्यापार अधिशेष' की अवस्था में रहता था। इसका मतलब है कि आपसी व्यापार में हमेशा ब्रिटेन को ही फायदा रहता था। ब्रिटेन इस मुनाफ़े के सहारे दूसरे देशों के साथ होने वाले व्यापारिक घाटे की भरपाई कर लेता था।
    • बहुपक्षीय बंदोबस्त ऐसे ही काम करता है। इसमें एक देश के मुकाबले दूसरे देश को होने वाले घाटे की भरपाई किसी तीसरे देश के साथ व्यापार में मुनाफा कमा कर की जाती है।
    • ब्रिटेन के घाटे की भरपाई में मदद देते हुए भारत ने 19वीं · सदी की विश्व अर्थव्यवस्था का रूप तय करने में एक अहम भूमिका अदा की थी।

    • ब्रिटेन के व्यापार से जो अधिशेष हासिल होता था उससे तथाकथित 'होम चार्जेज' (देसी खर्चे) का निबटारा होता था।
    • इसके तहत ब्रितानी अफसरों और व्यापारियों द्वारा अपने घर में भेजी गई निजी रकम, भारतीय बाहरी कर्जे पर ब्याज आरै भारत में काम कर चुके ब्रितानी अफसरों की पेंशन शामिल थी।
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    Sun, 26 Nov 2023 10:28:58 +0530 Jaankari Rakho
    BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भारत में राष्ट्रवाद https://m.jaankarirakho.com/479 https://m.jaankarirakho.com/479 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भारत में राष्ट्रवाद
    • यूरोप में आधुनिक राष्ट्रवाद के साथ ही, राष्ट्र राज्यों का भी उदय हुआ। नए प्रतीकों और चिह्नों ने नए गीतों और विचारों ने नए संपर्क स्थापित किए और समुदायों की सीमाओं को दोबारा परिभाषित कर दिया।
    • वियतनाम और दूसरे उपनिवेशों की तरह भारत में भी आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय की परिघटना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। औपनिवेशिक शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान लोग आपसी एकता को पहचानने लगे थे।
    • उत्पीड़न और दमन के साझा भाव ने विभिन्न समूहों को एक-दूसरे से बाँध दिया था, लेकिन हर वर्ग और समूह पर उपनिवेशवाद का असर एक जैसा नहीं था। उनके अनुभव भी अलग थे और स्वतंत्रता के मायने भी भिन्न थे।
    सविनय अवज्ञा की ओर
    • फ़रवरी 1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला कर लिया। उनको लगता था कि आंदोलन हिंसक होता जा रहा है और सत्याग्रहियों को व्यापक प्रशिक्षण की जरूरत है। कांग्रेस कुछ नेता इस तरह के जनसंघर्षो से थक चुके थे। वे 1919 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत गठित की गई प्रांतीय परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना चाहते थे।
    • परिषदों में रहते हुए ब्रिटिश नीतियों का विरोध करना, सुधारों की वकालत करना और यह दिखाना भी महत्त्वपूर्ण है कि ये परिषदें लोकतांत्रिक संस्था नहीं हैं।
    • सी. आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने परिषद् राजनीति में वापस लौटने के लिए कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी का गठन कर डाला।
    • जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे युवा नेता ज्यादा उग्र जनांदोलन और पूर्ण स्वतंत्रता के लिए दबाव बनाए हुए थे।
    • साइमन कमीशन के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने लाला लाजपत राय पर हमला किया। प्रदर्शन के दौरान मिले गहरे ज़ख्मों के कारण उन्होंने दम तोड़ दिया।
    • 1926 से कृषि उत्पादों की क़ीमतें गिरने लगी थीं और 1930 के बाद तो पूरी तरह धराशायी हो गई। कृषि उत्पादों की माँग गिरी और निर्यात कम होने लगा तो किसानों को अपनी उपज बेचना और लगान चुकाना भी भारी पड़ने लगा। 1930 तक ग्रामीण इलाक़े भारी उथल-पुथल से गुजरने लगे थे। इसी पृष्ठभूमि में ब्रिटेन की नयी टोरी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक वैधानिक आयोग का गठन कर दिया।
    • राष्ट्रवादी आंदोलन के जवाब में गठित किए गए इस आयोग को भारत में संवैधानिक व्यवस्था की कार्यशैली का अध्ययन करना था और उसके बारे में सुझाव देने थे। इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था सारे अंग्रेज़ थे।
    • 1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुँचा उसका स्वागत 'साइमन कमीशन वापस जाओ' (साइमन कमीशन गो बैक) के नारों से किया गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग, सभी पार्टियों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।
    • इस विरोध को शांत करने के लिए वायसराय लॉर्ड इरविन ने अक्टूबर 1929 में भारत के लिए 'डोमीनियन स्टेटस' का गोलमोल सा ऐलान कर दिया। उन्होंने इस बारे में कोई समय सीमा भी नहीं बताई।
    • दिसंबर 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज' की माँग को औपचारिक रूप से मान लिया गया। 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा और उस दिन लोग पूर्ण स्वराज के लिए संघर्ष की शपथ लेंगे।
    नमक यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन
    • 31 जनवरी 1930 को महात्मा गांधी ने वायसराय इरविन को एक खत लिखा। इस खत में उन्होंने 11 माँगों का उल्लेख किया था। गांधीजी इन माँगों के ज़रिए समाज के सभी वर्गों को अपने साथ जोड़ना चाहते थे ताकि सभी उनके अभियान में शामिल हो सकें।
    • सबसे महत्त्वपूर्ण माँग नमक कर को खत्म करने के बारे में थी। नमक का अमीर-गरीब, सभी इस्तेमाल करते थे। यह भोजन का एक अभिन्न हिस्सा था। इसीलिए नमक पर कर और उसके उत्पादन पर सरकारी इज़ारेदारी को महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन का सबसे दमनकारी पहलू बताया था।
    • महात्मा गांधी का यह पत्र एक अल्टीमेटम (चेतावनी) की तरह था। उन्होंने लिखा था कि अगर 11 मार्च तक उनकी माँगें नहीं मानी गई तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देगी । इरविन झुकने को तैयार नहीं थे।
    • फलस्वरूप, महात्मा गांधी ने अपने 78 विश्वस्त वॉलंटियरों के साथ नमक यात्रा शुरू कर दी। यह यात्रा साबरमती में गांध जी के आश्रम से 240 किलोमीटर दूर दांडी नामक गुजराती तटीय क़स्बे में जाकर खत्म होनी थी। गांधीजी की टोली ने 24 दिन तक हर रोज़ लगभग 10 मील का सफ़र तय किया।
    • गांधीजी जहाँ भी रुकते हज़ारों लोग उन्हें सुनने आते। इन सभाओं में गांधीजी ने स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया और आह्वान किया कि लोग अंग्रेजों की शांतिपूर्वक अवज्ञा करें यानी अंग्रेज़ों का कहा न मानें।
    • 6 अप्रैल को वह दांडी पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाना शुरू कर दिया। यह कानून का उल्लंघन था। यहीं से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होता है।
    • इस बार लोगों को न केवल अंग्रेज़ों का सहयोग न करने के लिए बल्कि औपनिवेशिक कानूनों का उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया जाने लगा। देश के विभिन्न भागों में हज़ारों लोगों ने नमक कानून तोड़ा, और सरकारी नमक कारखानों के सामने प्रदर्शन किए।
    • आंदोलन फैला तो विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाने लगा। शराब की दुकानों की पिकेटिंग होने लगी। किसानों ने लगान और चौकीदारी कर चुकाने से इनकार कर दिया। गाँवों में तैनात कर्मचारी इस्तीफ़े देने लगे।
    • बहुत सारे स्थानों पर जंगलों में रहने वाले वन क़ानूनों का उल्लंघन करने लगे। वे लकड़ी बीनने और मवेशियों को चराने के लिए आरक्षित वनों में घुसने लगे।
    • इन घटनाओं से चिंतित औपनिवेशिक सरकार कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करने लगी। बहुत सारे स्थानों पर हिंसक टकराव हुए।
    • अप्रैल 1930 में जब महात्मा गांधी के समर्पित साथी अब्दुल गफ्फार खान को गिरफ्तार किया गया तो गुस्साई भीड़ सशस्त्र बख़्तरबंद गाड़ियों और पुलिस की गोलियों का सामना करते हुए सड़कों पर उतर आई । बहुत सारे लोग मारे गए।
    • महात्मा गांधी ने एक बार फिर आंदोलन वापस ले लिया। 5 मार्च 1931 को उन्होंने इरविन के साथ एक समझौते पर दस्तखत कर दिए।
    • गांधी-इरविन समझौते के ज़रिए गांधीजी ने लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी ( पहले गोलमेज़ सम्मेलन का कांग्रेस बहिष्कार कर चुकी थी ) । इसके बदले सरकार राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई।
    • दिसंबर 1931 में सम्मेलन के लिए गांधीजी लंदन गए। यह वार्ता बीच में ही टूट गई और उन्हें निराश वापस लौटना पड़ा। यहाँ आकर उन्होंने पाया कि सरकार ने नए सिरे से दमन शुरू कर दिया है। गफ्फ़ार ख़ान और जवाहरलाल नेहरू, दोनों जेल में थे। कांग्रेस को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।
    • सभाओं, प्रदर्शनों और बहिष्कार जैसी गतिविधियों को रोकने. के लिए सख्त कदम उठाए जा रहे थे। भारी आशंकाओं के बीच महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन दोबारा शुरू कर दिया। साल भर तक आंदोलन चला लेकिन 1934 तक आते-आते उसकी गति मंद पड़ने लगी थी।
    लोगों ने आंदोलन को कैसे लिया
    • गाँवों में संपन्न किसान समुदाय - जैसे गुजरात के पटीदार और उत्तर प्रदेश के जाट आंदोलन में सक्रिय थे । व्यावसायिक फसलों की खेती करने के कारण व्यापार में मंदी और गिरती क़ीमतों से वे बहुत परेशान थे।
    • जब उनकी नकद आय खत्म होने लगी तो उनके लिए सरकारी लगान चुकाना नामुमकिन हो गया। सरकार लगान कम करने को तैयार नहीं थी। चारों तरफ़ असंतोष था।
    • संपन्न किसानों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का बढ़-चढ़ कर समर्थन किया। उन्होंने अपने समुदायों को एकजुट किया और कई बार अनिच्छुक सदस्यों को बहिष्कार के लिए मजबूर किया।
    • उनके लिए स्वराज की लड़ाई भारी लगान के ख़िलाफ़ लड़ाई थी। लेकिन जब 1931 में लगानों के घटे बिना आंदोलन वापस ले लिया गया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। फलस्वरूप, जब 1932 में आंदोलन दुबारा शुरू हुआ तो उनमें से बहुतों ने उसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया।
    • गरीब किसान केवल लगान में कमी नहीं चाहते थे। उनमें से बहुत सारे किसान जमींदारों से पट्टे पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे ।
    • महामंदी लंबी खिंची और नकद आमदनी गिरने लगी तो छोटे पट्टेदारों के लिए ज़मीन का किराया चुकाना भी मुश्किल हो गया। वे चाहते थे कि उन्हें ज़मींदारों को जो भाड़ा चुकाना था उसे माफ़ कर दिया जाए।
    • अमीर किसानों और ज़मींदारों की नाराज़गी के भय से कांग्रेस 'भाड़ा विरोधी' आंदोलनों को समर्थन देने में प्रायः हिचकिचाती थी। इसी कारण ग़रीब किसानों और कांग्रेस के बीच संबंध अनिश्चित बने रहे।
    • व्यापारियों ने अपने कारोबार को फैलाने के लिए औपनिवेशिक नीतियों का विरोध किया जिनके कारण उनकी व्यावसायिक गतिविधियों में रुकावट आती थी। वे विदेशी वस्तुओं के आयात से सुरक्षा चाहते थे और रुपया- स्टर्लिंग विदेशी विनिमय अनुपात में बदलाव चाहते थे जिससे आयात में कमी आ जाए।
    • व्यावसायिक हितों को संगठित करने के लिए उन्होंने 1920 में भारतीय औद्योगिक एवं व्यावसायिक कांग्रेस (इंडियन इंडस्ट्रियल एंड कमर्शियल कांग्रेस) और 1927 में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग परिसंघ (फेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री-फिक्की) का गठन किया।
    • पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और जी. डी. बिड़ला जैसे जाने-माने उद्योगपतियों के नेतृत्व में उद्योगपतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक नियंत्रण का विरोध किया और पहले सिविल नाफरमानी आंदोलन का समर्थन किया।
    • गोलमेज़ सम्मेलन की विफलता के बाद व्यावसायिक संगठनों का उत्साह भी मंद पड़ गया था। उन्हें उग्र गतिविधियों का भय था। वे लंबी अशांति की आशंका और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से डरे हुए थे।
    • औद्योगिक श्रमिक वर्ग ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में नागपुर के अलावा और कहीं भी बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा नहीं लिया। जैसे-जैसे उद्योगपति कांग्रेस के नज़दीक आ रहे थे, मजदूर कांग्रेस से छिटकने लगे थे।
    • कुछ मजदूरों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार जैसे कुछ गांधीवादी विचारों को कम वेतन व खराब कार्यस्थितियों के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई से जोड़ लिया था।
    • 1930 में रेलवे कामगारों की और 1932 में गोदी कामगारों की हड़ताल हुई। 1930 में छोटा नागपुर की टिन खानों के हज़ारों मजदूरों ने गांधी टोपी पहनकर रैलियों और बहिष्कार अभियानों में हिस्सा लिया।
    • कांग्रेस अपने कार्यक्रम में मजदूरों की माँगों को समाहित करने में हिचकिचा रही थी। कांग्रेस को लगता था कि इससे उद्योगपति आंदोलन से दूर चले जाएँगे और साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों फूट पड़ेगी।
    • सिविल नाफरमानी आंदोलन में औरतों ने बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया। गांधीजी के नमक सत्याग्रह के दौरान हज़ारों औरतें उनकी बात सुनने के लिए घर से बाहर आ जाती थीं। उन्होंने जुलूसों में हिस्सा लिया, नमक बनाया, विदेशी कपड़ों व शराब की दुकानों की पिकेटिंग की । बहुत सारी महिलाएँ जेल भी गई।
    • शहरी इलाकों में ज्यादातर ऊँची जातियों की महिलाएँ सक्रिय थीं जबकि ग्रामीण इलाकों में संपन्न किसान परिवारों की महिलाएँ आंदोलन में हिस्सा ले रही थीं।
    • गांधीजी के आह्वान बाद औरतों को राष्ट्र की सेवा करना अपना पवित्र दायित्व दिखाई देने लगा था। लेकिन सार्वजनिक भूमिका में इस इजाफ़े का मतलब यह नहीं था कि औरतों की स्थिति में कोई भारी बदलाव आने वाला था।
    • गांधीजी का मानना था कि घर चलाना, चूल्हा-चौका सँभालना. अच्छी माँ व अच्छी पत्नी की भूमिकाओं का निर्वाह करना हो औरत का असली कर्त्तव्य है। इसीलिए लंबे समय तक कांग्रेस संगठन में किसी भी महत्त्वपूर्ण पद पर औरतों को जगह देने से हिचकिचाती रही। कांग्रेस को उनकी प्रतीकात्मक उपस्थिति में ही दिलचस्पी थी।

    कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ

    1918-19 बाबा रामचंद्र उत्तर प्रदेश के किसानों को संगठित करना।
    अप्रैल 1919 रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ गांधीवादी हड़ताल; जलियाँवाला बाग हत्याकांड।
    जनवरी 1920 असहयोग और खिलाफत आंदोलन शुरू।
    फरवरी 1922 चौरी चौरा; गांधीजी असहयोग आंदोलन वापस ले लेते हैं।
    मई 1924 अल्लूरी सीताराम राजू की गिरफ्तारी; दो वर्ष से चला आ रहा हथियारबंद आदिवासी संघर्ष समाप्त।
    दिसंबर 1929 लाहौर अधिवेशन; कांग्रेस 'पूर्ण स्वराज' की माँग को स्वीकार कर लेती है।
    1930 अंबेडकर दमित वर्ग एसोसिएशन की स्थापना करते हैं।
    मार्च 1930 गांधीजी दांडी में नमक कानून का उल्लंघन करके सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करते हैं।
    मार्च 1931 गांधीजी सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लेते हैं।
    दिसंबर 1931  दूसरा गोलमेज़ सम्मेलन ।
    1932  सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः प्रारंभ ।
    सविनय अवज्ञा की सीमाएँ
    • सभी सामाजिक समूह स्वराज की अमूर्त अवधारणा से प्रभावित नहीं थे। ऐसा ही एक समूह राष्ट्र के 'अछूतों' का था। वे 1930 के बाद खुद को दलित या उत्पीड़ित कहने लगे थे।
    • कांग्रेस ने लंबे समय तक दलितों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि कांग्रेस रूढ़िवादी सवर्ण हिंदू सनातनपंथियों से डरी हुई थी। लेकिन महात्मा गांधी ने ऐलान किया कि अस्पृश्यता (छुआछूत) को खत्म किए बिना सौ साल तक भी स्वराज की स्थापना नहीं की जा सकती।
    • उन्होंने 'अछूतों' को हरिजन यानी ईश्वर की संतान बताया। उन्हें मंदिरों, सार्वजनिक तालाबों, सड़कों और कुओं पर समान अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह किया।
    • मैला ढोनेवालों के काम को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वे खुद शौचालय साफ़ करने लगे। उन्होंने ऊँची जातियों का आह्वान किया कि वे अपना हृदय परिवर्तन करें और अस्पृश्यता के पाप' को छोड़ें। 
    • बहुत सारे दलित नेता अपने समुदाय की समस्याओं का अलग राजनीतिक हल ढूँढ़ना चाहते थे। वे खुद को संगठित करने लगे।
    • उन्होंने शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के लिए आवाज़ उठाई और अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बात कही ताकि वहाँ से विधायी परिषदों के लिए केवल दलितों को ही चुनकर भेजा जा सके।
    • उनकी सामाजिक अपंगता केवल राजनीतिक सशक्तीकरण से ही दूर हो सकती है। इसलिए सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलितों की हिस्सेदारी काफी सीमित थी।
    • महाराष्ट्र और नागपुर क्षेत्र में यह बात खासतौर से दिखाई देती थी जहाँ उनके संगठन काफी मज़बूत थे ।
    • डॉ. अंबेडकर ने 1930 में दलितों को दमित वर्ग एसोसिएशन (Depressed Classes Association) में संगठित किया। दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के सवाल पर दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में महात्मा गांधी के साथ उनका काफी विवाद हुआ।
    • जब ब्रिटिश सरकार ने अंबेडकर की माँग मान ली तो गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए। उनका मत था कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था से समाज में उनके एकीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाएगी।
    • आखिरकार अंबेडकर ने गांधीजी की राय मान ली और सितंबर 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए। इससे दमित वर्गों (जिन्हें बाद में अनुसूचित जाति के नाम से जाना गया) को प्रांतीय एवं केंद्रीय विधायी परिषदों में आरक्षित सीटें मिल गई हालाँकि उनके लिए मतदान सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में ही होता था। फिर भी, दलित आंदोलन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को शंका की दृष्टि से ही देखता रहा।
    • भारत के कुछ मुस्लिम राजनीतिक संगठनों ने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। असहयोग - खिलाफत आंदोलन के शांत पड़ जाने के बाद मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबका कांग्रेस से कटा हुआ महसूस करने लगा था।
    • 1920 के दशक के मध्य से कांग्रेस हिंदू महासभा जैसे हिंदू धार्मिक राष्ट्रवादी संगठनों के काफी करीब दिखने लगी थी। जैसे-जैसे हिंदू-मुसलमानों के बीच संबंध खराब होते गए, दोनों समुदाय उग्र धार्मिक जुलूस निकालने लगे। इससे कई शहरों में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक टकराव व दंगे हुए। हर दंगे के साथ दोनों समुदायों के बीच फ़ासला बढ़ता गया।
    • कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक बार फिर गठबंधन का प्रयास किया | 1927 में ऐसा लगा भी कि अब एकता स्थापित हो ही जाएगी। सबसे महत्त्वपूर्ण मतभेद भावी विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व के सवाल पर थे।
    • मुस्लिम लीग के नेताओं में से एक, मोहम्मद अली जिन्ना का कहना था कि अगर मुसलमानों को केंद्रीय सभा में आरक्षित सीटें दी जाएँ और मुस्लिम बहुल प्रांतों (बंगाल और पंजाब) में , मुसलमानों को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए तो वे मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचिका की माँग छोड़ने के लिए तैयार हैं।
    • प्रतिनिधित्व के सवाल पर यह बहस चल ही रहा था कि 1928 में आयोजित किए गए सर्वदलीय सम्मेलन में हिंदू महासभा के एम. आर. जयकर ने इस समझौते के लिए किए जा रहे प्रयासों की खुलेआम निंदा शुरू कर दी जिससे इस मुद्दे के समाधान की सारी संभावनाएँ समाप्त हो गईं।
    • जब सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ उस समय समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास का माहौल बना हुआ था। कांग्रेस से कटे हुए मुसलमानों का बड़ा तबका किसी संयुक्त संघर्ष के लिए तैयार नहीं था।
    • बहुत सारे मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी भारत में अल्पसंख्यकों के रूप में मुसलमानों की हैसियत को लेकर चिंता जता रहे थे। उनको भय था कि हिंदू बहुसंख्या के वर्चस्व की स्थिति में अल्पसंख्यकों की संस्कृति और पहचान खो जाएगी।
    • 1930 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सर मोहम्मद इकबाल ने मुसलमानों के लिए अल्पसंख्यक राजनीतिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से पृथक निर्वाचिका की ज़रूरत पर एक बार फिर जोर दिया।
    • बाद के सालों में पाकिस्तान की माँग के लिए जो आवाज़ उठी उसका बौद्धिक औचित्य उनके इसी बयान से उपजा था। उन्होंने कहा -
    • 'मुझे यह कहने में ज़रा सी भी हिचकिचाहट नहीं है कि अगर स्थायी सांप्रदायिक बंदोबस्त के तौर पर भारतीय मुसलमान को उसके अपने भारतीय होमलैंड में अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पूर्ण एवं स्वतंत्र विकास का अधिकार दिया जाए तो वह भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाएगा।
    • प्रत्येक समूह को अपने तरीके से स्वतंत्र विकास का अधिकार है। यह सिद्धांत किसी संकुचित सांप्रदायिकता की भावना से नहीं उपजा है। जो समुदाय अन्य समुदायों के प्रति दुर्भावना रखता है वह नीच और अधम है। मैं अन्य समुदायों के रीति-रिवाजों, धर्मों और सामाजिक संस्थानों का अगाध * सम्मान करता हूँ।
    • कुरान की हिदायतों के अनुसार यह मेरा दायित्व है कि अगर जरूरत हो तो मैं उनके उपासना स्थलों की भी रक्षा करूंगा। लेकिन मैं उस सांप्रदायिक समूह को प्रेम करता जो मेरे लिए जीवन और आचरण का स्रोत है, जिसने मुझे अपना धर्म अपना साहित्य अपने विचार अपनी संस्कृति देकर मुझे ऐसा बनाया है और इस प्रकार मेरी मौजूदा चेतना में अपने पूरे अतीत को एक सजीव कार्यात्मक तत्व के रूप में सम दिया है।
    • 'ऐसे में अपने उच्चतर आयाम में सांप्रदायिकता भारत जैसे देश के भीतर एक लयात्मक समुच्चय के निर्माण के लिए | अपरिहार्य है। यूरोपीय देशों की तरह भारतीय समाज की इकाइयाँ भूभागों में बँटी हुई नहीं हैं।
    • भारत के सामुदायिक समूहों को मान्यता दिए बिना यहाँ यूरोपीय लोकतंत्र के सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सकता। भारत के भीतर एक मुस्लिम भारत की स्थापना के लिए मुसलमानों की ओर से उठ रही माँग बिलकुल सही है।
    • हिंदू सोचता है कि पृथक निर्वाचिका का प्रस्ताव सच्चे राष्ट्रवाद की भावना के विपरीत है क्योंकि वह मानता है कि राष्ट्र शब्द का मतलब एक ऐसे सार्वभौमिक सम्मिश्रण से है जिसमें किसी भी सामुदायिक इकाई को अपनी निजी विशिष्टता बनाए रखने का अधिकार नहीं हो सकता। लेकिन हालात ऐसे नहीं हैं।
    • भारत नस्ली और धार्मिक विशिष्टताओं वाला देश है। इसी में आप यह तथ्य भी जोड़ दीजिए कि मुसलमान आर्थिक रूप से सामान्यतः कमजोर हैं, उन पर भारी कर्जे हैं, खासतौर से पंजाब में और कई प्रांतों में उनकी संख्या कम है।
    सामूहिक अपनेपन का भाव
    • राष्ट्रवाद की भावना तब पनपती है जब लोग ये महसूस करने लगते हैं कि वे एक ही राष्ट्र के अंग हैं जब वे एक-दूसरे को एकता के सूत्र में बाँधने वाली कोई साझा बात ढूँढ़ लेते हैं। लेकिन सामूहिक अपनेपन की भावना आंशिक रूप से संयुक्त संघर्षों के चलते पैदा होती है।
    • राष्ट्र की पहचान सबसे ज्यादा किसी तसवीर में अंकित की जाती है। इससे लोगों को एक ऐसी छवि गढ़ने में मदद मिलती है जिसके जरिए वे राष्ट्र को पहचान सकते हैं।
    • 20वीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के साथ भारत की पहचान भी भारत माता की छवि का रूप लेने लगी। यह तसवीर पहली बार बकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने बनाई थी।
    • 1870 के दशक में उन्होंने मातृभूमि की स्तुति के रूप में 'वन्दे मातरम्' गीत लिखा था। बाद में इसे उन्होंने अपने उपन्यास आनन्दमठ में शामिल कर लिया। यह गीत बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन में खूब गाया गया।
    • स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणा से अबनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत माता की विख्यात छवि को चित्रित किया। इस पेंटिंग में भारत माता को एक संन्यासिनी के रूप में दर्शाया गया है। वह शांत, गंभीर, दैवी और अध्यात्मिक गुणों से युक्त दिखाई देती है।
    • राष्ट्रवाद का विचार भारतीय लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने के आंदोलन से भी मजबूत हुआ। 19वीं सदी के आखिर में राष्ट्रवादियों ने भाटों व चारणों द्वारा गाई सुनाई जाने वाली लोक कथाओं को दर्ज करना शुरू कर दिया।
    • वे लोक गीतों व जनश्रुतियों को इकट्ठा करने के लिए गाँव-गाँव घूमने लगे। उनका मानना था कि यही कहानियाँ हमारी उस परंपरागत संस्कृति की सही तसवीर पेश करती हैं जो बाहरी ताकतों के प्रभाव से भ्रष्ट और दूषित हो चुकी है।
    • अपनी राष्ट्रीय पहचान को ढूंढ़ने और अपने अतीत में गौरव का भाव पैदा करने के लिए इस लोक परंपरा को बचाकर रखना जरूरी था।
    • बगांल में खुद रबीन्द्रनाथ टैगोर भी लोक गाथा गीत, बाल गीत और मिथकों को इकट्ठा करने निकल पड़े। उन्होंने लोक परंपराओं को पुनर्जीवित करने वाले आंदोलन का नेतृत्व किया।
    • मद्रास में नटेसा शास्त्री ने द फोकलोर्स ऑफ़ सदर्न इंडिया के नाम से तमिल लोक कथाओं का विशाल संकलन चार खंडों में प्रकाशित किया। उनका मानना था कि लोक कथाएँ राष्ट्रीय साहित्य होती हैं यह 'लोगों के असली विचारों और विशिष्टताओं की सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति' है। जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलन आगे बढ़ा, राष्ट्रवादी नेता लोगों को एकजुट करने और उनमें राष्ट्रवाद की भावना भरने के लिए इस तरह के चिह्नों और प्रतीकों के बारे में और ज्यादा जागरूक होते गए।
    • बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के दौरान एक तिरंगा झंडा (हरा, पीला, लाल) तैयार किया गया। इसमें ब्रिटिश भारत के आठ प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते कमल के आठ फूल और हिंदुओं व मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता एक अर्धचंद्र दर्शाया गया था।
    • 1921 तक गांधीजी ने भी स्वराज का झंडा तैयार कर लिया। था। यह भी तिरंगा (सफ़ेद, हरा और लाल) था। इसके मध्य में गांधीवादी प्रतीक चरखे को जगह दी गई थी जो स्वावलंबन का प्रतीक था। जुलूसों में यह झंडा थामे चलना शासन प्रति अवज्ञा का संकेत था।
    • इतिहास की पुनर्व्याख्या राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने का एक और साधन थी। 19वीं सदी के अंत तक आते-आते बहुत सारे भारतीय यह महसूस करने लगे थे कि राष्ट्र के प्रति गर्व का भाव जगाने के लिए भारतीय इतिहास को अलग ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए।
    पहला विश्वयुद्ध, खिलाफत और असहयोग
    • 1919 के पश्चात् राष्ट्रीय आंदोलन नए इलाकों तक फैल गया था, उसमें नए सामाजिक समूह शामिल हो गए थे और संघर्ष की नयी पद्धतियाँ सामने आ रही थीं।
    • विश्वयुद्ध ने एक नयी आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी थी। इसके कारण रक्षा व्यय में भारी इजाफा हुआ।
    • इस खर्चे की भरपाई करने के लिए युद्ध के नाम पर कर्जे लिए गए और करों में वृद्धि की गई। सीमा शुल्क बढ़ा दिया गया और आयकर शुरू किया गया। युद्ध के दौरान कीमतें तेज़ी से बढ़ रही थीं।
    • 1913 से 1918 के बीच कीमतें दोगुना हो चुकी थीं जिसके कारण आम लोगों की मुश्किलें बढ़ गई थीं। गाँवों में सिपाहियों को जबरन भर्ती किया गया जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में व्यापक गुस्सा था।
    • 1918-19 और 1920-21 में देश के बहुत सारे हिस्सों में फसल खराब हो गई जिसके कारण खाद्य पदार्थों का भारी अभाव पैदा हो गया। उसी समय फ्लू की महामारी फैल गई। 1921 की जनगणना के मुताबिक दुर्भिक्ष और महामारी के कारण 120-130 लाख लोग मारे गए।
    सत्याग्रह का विचार
    • महात्मा गांधी जनवरी 1915 में भारत लौटे। इससे पहले वे दक्षिण अफ्रीका में थे। उन्होंने एक नए तरह के जनांदोलन के रास्ते पर चलते हुए वहाँ की नस्लभेदी सरकार से सफलतापूर्वक • लोहा लिया था। इस पद्धति को वे सत्याग्रह कहते थे ।
    • सत्याग्रह के विचार में सत्य की शक्ति पर आग्रह और सत्य की खोज पर ज़ोर दिया जाता था। इस अर्थ यह था कि अगर आपका उद्देश्य सच्चा है, यदि आपका संघर्ष अन्याय के खिलाफ है तो उत्पीड़क से मुक़ाबला करने के लिए आपको • किसी शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं है।
    • प्रतिशोध की भावना या आक्रामकता का सहारा लिए बिना सत्याग्रही केवल अहिंसा के सहारे भी अपने संघर्ष में सफल हो सकता है।
    • दमनकारी शत्रु की चेतना को परिवर्तित चाहिए। उत्पीड़क शत्रु को ही नहीं बल्कि सभी लोगों को हिंसा के ज़रिए सत्य को स्वीकार करने पर विवश करने की बजाय सच्चाई को देखने और सहज भाव से स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इस संघर्ष में अंततः सत्य की ही जीत होती है।
    • गांधीजी का विश्वास था की अहिंसा का यह धर्म सभी भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँध सकता है।
    • भारत आने के बाद गांधीजी ने कई स्थानों पर सत्याग्रह आंदोलन चलाया। 1916 में उन्होंने बिहार के चंपारन इलाके का दौरा किया और दमनकारी बागान व्यवस्था के खिलाफ किसानों को संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
    • 1917 में उन्होंने गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की मदद के लिए सत्याग्रह का आयोजन किया। 1918 में गांधीजी सूती कपड़ा कारखानों के मजदूरों के बीच सत्याग्रह आंदोलन चलाने अहमदाबाद जा पहुँचे।
    रॉलेट एक्ट
    • गांधीजी ने 1919 में प्रस्तावित रॉलेट एक्ट (1919) के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह आंदोलन चलाने का फ़ैसला लिया। भारतीय सदस्यों के भारी विरोध के बावजूद इस क़ानून को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ने बहुत जल्दबाजी में पारित कर दिया था।
    • इस कानून के ज़रिए सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को कुचलने और राजनीतिक कैदियों को दो साल तक बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद रखने का अधिकार मिल गया था।
    • महात्मा गांधी ऐसे अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ अहिंसक ढंग से नागरिक अवज्ञा चाहते थे । इसे 6 अप्रैल को एक हड़ताल से शुरू होना था।
    • अमृतसर में बहुत सारे स्थानीय नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। गांधीजी के दिल्ली में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी गई। 10 अप्रैल को पुलिस ने अमृतसर में एक शांतिपूर्ण जुलूस ने पर गोली चला दी।
    • मार्शल लॉ लागू कर दिया गया और जनरल डायर ने कमान सँभाल ली। 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ। उस दिन अमृतसर में बहुत सारे गाँव वाले सालाना वैसाखी मेले में शिरकत करने के लिए जलियाँवाला बाग मैदान में जमा हुए थे।
    • जनरल डायर हथियारबंद सैनिकों के साथ वहाँ पहुँचा और जाते ही उसने मैदान से बाहर निकलने के सारे रास्तों को बंद कर दिया। इसके बाद उसके सिपाहियों ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चला दीं। सैंकड़ों लोग मारे गए। जैसे-जैसे जलियाँवाला बाग की खबर फैली, उत्तर भारत के बहुत सारे शहरों में लोग सड़कों पर उतरने लगे।
    • महात्मा गांधी पूरे भारत में और भी ज्यादा जनाधार वाला आंदोलन खड़ा करना चाहते थे। लेकिन उनका मानना था कि हिंदू-मुसलमानों को एक-दूसरे के नज़दीक लाए बिना ऐसा कोई आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। उन्हें लगता था कि खिलाफत का मुद्दा उठाकर वे दोनों समुदायों को नज़दीक ला सकते हैं।
    • प्रथम विश्वयुद्ध में ऑटोमन तुर्की की हार हो चुकी थी। इस आशय की अफवाहें फैली हुई थीं कि इस्लामिक विश्व के आध्यात्मिक नेता (ख़लीफ़ा) ऑटोमन सम्राट पर एक बहुत सख्त शांति संधि थोपी जाएगी। ख़लीफ़ा की तात्कालिक शक्तियों की रक्षा के लिए मार्च 1919 में बंबई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था।
    • सितंबर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी दूसरे नेताओं को इस बात पर राजी कर लिया कि खिलाफत आंदोलन के समर्थन और स्वराज के लिए एक असहयोग आंदोलन शुरू किया जाना चाहिए।
    असहयोग
    • अपनी प्रसिद्ध पुस्तक हिंद स्वराज (1909) में महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग से ही स्थापित हुआ था और यह शासन इसी सहयोग के कारण चल पा रहा है। अगर भारत के लोग अपना सहयोग वापस ले लें तो साल भर के भीतर ब्रिटिश शासन ढह जाएगा और स्वराज की स्थापना हो जाएगी।
    • गांधीजी का सुझाव था कि यह आंदोलन चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ना चाहिए। सबसे पहले लोगों को सरकार द्वारा दी गई पदवियाँ लौटा देनी चाहिए और सरकारी नौकरियों, सेना, पुलिस, अदालतों, विधायी परिषदों, स्कूलों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए। अगर सरकार दमन का रास्ता अपनाती है तो व्यापक सविनय अवज्ञा अभियान भी शुरू किया जाए। 1920 में गांधीजी और शौकत अली आंदोलन के लिए समर्थन जुटाते हुए देश भर में यात्राएँ करते रहे। 
    • कांग्रेस में बहुत सारे लोग इन प्रस्तावों पर सशंकित थे। वे नवंबर 1920 में विधायी परिषद के लिए होने वाले चुनावों का बहिष्कार करने में हिचकिचा रहे थे। उन्हें भय था कि इस आंदोलन में लोग हिंसा कर सकते हैं। सितंबर से दिसंबर तक कांग्रेस में भारी खींचतान चलती रही।
    बहिष्कार : किसी के साथ संपर्क रखने और जुड़ने से इनकार करना या गतिविधियों में हिस्सेदारी, चीजों की खरीद व इस्तेमाल से इनकार करना। आमतौर पर यह विरोध का एक रूप होता है।

    आंदोलन के भीतर अलग-अलग धाराएँ

    • असहयोग - खिलाफत आंदोलन 1920 में शुरू हुआ। इस आंदोलन में विभिन्न सामाजिक समूहों ने हिस्सा लिया लेकिन प्रत्येक की अपनी-अपनी आकांक्षाएँ थीं। सभी ने स्वराज के आह्वान को स्वीकार तो किया लेकिन उनके लिए उसके अर्थ अलग-अलग थे।
    शहरों में आंदोलन
    • आंदोलन की शुरुआत शहरी मध्यवर्ग की हिस्सेदारी के साथ हुई। हज़ारों विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए । हेडमास्टरों और शिक्षकों ने इस्तीफे सौंप दिए। वकीलों ने मुक़दमे लड़ना बंद कर दिया। मद्रास के अलावा ज्यादातर प्रांतों में परिषद् चुनावों का बहिष्कार किया गया।
    • मद्रास में गैर-ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई जस्टिस पार्टी का मानना था कि काउंसिल में प्रवेश के ज़रिए उन्हें वे अधिकार मिल सकते हैं जो सामान्य रूप से केवल ब्राह्मणों को मिल पाते हैं इसलिए इस पार्टी ने चुनावों का बहिष्कार नहीं किया।
    • आर्थिक मोर्चे पर असहयोग का असर और भी ज्यादा नाटकीय रहा। विदेशी सामानों का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों की धरना प्रदर्शन की गई, और विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाने लगी। 1921 से 1922 के बीच विदेशी कपड़ों का आयात आधा रह गया था।
    • बहुत सारे स्थानों पर व्यापारियों ने विदेशी चीजों का व्यापार करने या विदेशी व्यापार में पैसा लगाने से इनकार कर दिया। जब बहिष्कार आंदोलन फैला और लोग आयातित कपड़े को छोड़कर केवल भारतीय कपड़े पहनने लगे तो भारतीय कपड़ा मिलों और हथकरघों का उत्पादन भी बढ़ने लगा।
    • कुछ समय बाद शहरों में यह आंदोलन धीमा पड़ने लगा। इसके कई कारण थे। खादी का कपड़ा मिलों में भारी पैमाने पर बनने वाले कपड़ों के मुक़ाबले प्रायः मँहगा होता था और ग़रीब उसे नहीं खरीद सकते थे।
    • आंदोलन की कामयाबी के लिए वैकल्पिक भारतीय संस्थानों की स्थापना ज़रूरी थी ताकि ब्रिटिश संस्थानों के स्थान पर उनका प्रयोग किया जा सके। लेकिन वैकल्पिक संस्थानों की स्थापना की प्रक्रिया बहुत धीमी थी।
    ग्रामीण इलाकों में विद्रोह
    • शहरों से बढ़कर असहयोग आंदोलन देहात में भी फैल गया था। युद्ध के बाद देश के विभिन्न भागों में चले किसानों व आदिवासियों के संघर्ष भी इस आंदोलन में समा गए।
    • अवध में संन्यासी बाबा रामचंद्र किसानों का नेतृत्व कर रहे थे। बाबा रामचंद्र इससे पहले फिजी में गिरमिटिया मजदूर के तौर पर काम कर चुके थे। उनका आंदोलन तालुक़दारों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ था जो किसानों से भारी-भरकम लगान और तरह-तरह के कर वसूल कर रहे थे ।
    • किसानों को बेगार करनी पड़ती थी। पट्टेदार के तौर पर उनके पट्टे निश्चित नहीं होते थे। उन्हें बार-बार पट्टे की जमीन से हटा दिया जाता था ताकि जमीन पर उनका कोई अधिकार स्थापित न हो सके।
    • बेगार ख़त्म किसानों की माँग थी कि लगान कम किया जाए, हो और दमनकारी ज़मींदारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए। बहुत सारे स्थानों पर ज़मींदारों को नाई- धोबी की सुविधाओं से भी वंचित करने के लिए पंचायतों ने नाई- धोबी बंद का फैसला लिया।
    • जून 1920 में जवाहर लाल नेहरू ने अवध के गाँवों का दौरा किया, गाँववालों से बातचीत की और उनकी व्यथा समझने का प्रयास किया। अक्टूबर तक जवाहर लाल नेहरू, बाबा रामचंद्र तथा कुछ अन्य लोगों के नेतृत्व में अवध किसान सभा का गठन कर लिया गया।
    • महीने भर में इस पूरे इलाके के गाँवों में संगठन की 300 से ज्यादा शाखाएँ बन चुकी थीं। अगले साल जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो कांग्रेस ने अवध के किसान संघर्ष को इस आंदोलन में शामिल करने का प्रयास किया लेकिन किसानों के आंदोलन में ऐसे स्वरूप विकसित हो चुके थे जिनसे कांग्रेस का नेतृत्व खुश नहीं था।
    • 1921 में जब आंदोलन फैला तो तालुक़दारों और व्यापारियों के मकानों पर हमले होने लगे, बाज़ारों में लूटपाट होने लगी और अनाज के गोदामों पर कब्ज़ा कर लिया गया।
    • आदिवासी किसानों ने महात्मा गांधी के संदेश और स्वराज के विचार का कुछ और ही मतलब निकाला । उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश की गूडेम पहाड़ियों में 1920 के दशक की शुरुआत में एक उग्र गुरिल्ला आंदोलन फैल गया।
    • कांग्रेस इस तरह के संघर्ष को कभी स्वीकार नहीं कर सकती थी। अन्य वन क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अंग्रेजी सरकार ने बड़े-बड़े जंगलों में लोगों के दाखिल होने पर पाबंदी लगा दी थी।
    • जब सरकार ने उन्हें सड़कों के निर्माण के लिए बेगार करने पर मजबूर किया तो लोगों ने बगावत कर दी । उनका नेतृत्व करने वाले अल्लूरी सीताराम राजू एक दिलचस्प व्यक्ति थे।
    • राजू महात्मा गांधी की महानता के गुण गाते थे। उनका कहना था कि वह असहयोग आंदोलन से प्रेरित हैं। उन्होंने लोगों को खादी पहनने तथा शराब छोड़ने के लिए प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने यह दावा भी किया कि भारत अहिंसा के बल पर नहीं बल्कि केवल बलप्रयोग के ज़रिए ही आजाद हो सकता है।
    • गूडेम विद्रोहियों ने पुलिस थानों पर हमले किए, ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की कोशिश की और स्वराज प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध चलाते रहे। 1924 में राजू को फाँसी दे दी गई। राजू अपने लोगों के बीच लोकनायक बन चुके ।
    बागानों में स्वराज
    • महात्मा गांधी के विचारों और स्वराज की अवधारणा के बारे में मजदूरों की अपनी समझ थी। असम के बागानी मजदूरों के लिए आज़ादी का मतलब यह था कि वे उन चारदीवारियों से जब चाहे आ-जा सकते हैं जिनमें उनको बंद करके रखा गया था। उनके लिए आज़ादी का मतलब था कि वे अपने गाँवों से संपर्क रख पाएँगे।
    • 1859 के 'इनलैंड इमिग्रेशन एक्ट के तहत बागानों में काम करने वाले मजदूरों को बिना इजाज़त बागान से बाहर जाने की छूट नहीं होती थी और यह इजाज़त उन्हें विरले ही कभी मिलती थी। उन्होंने बागान छोड़ दिए और अपने घर को चल दिए। उनको लगता था कि अब गांधी राज आ रहा है इसलिए अब तो हरेक को गाँव में ज़मीन मिल जाएगी। लेकिन वे अपनी मंज़िल पर नहीं पहुँच पाए। रेलवे और स्टीमरों की हड़ताल के कारण वे रास्ते में ही फँसे रह गए।
    • इन स्थानीय आंदोलनों की अपेक्षाओं और दृष्टियों को कांग्रेस के कार्यक्रम में परिभाषित नहीं किया गया था। उन्होंने तो स्वराज शब्द का अपने-अपने हिसाब से अर्थ निकाल लिया था। उनके लिए यह एक ऐसे युग का द्योतक था जब सारे कष्ट और सारी मुसीबतें खत्म हो जाएँगी ।
    • फिर भी, जब आदिवासियों ने गांधीजी के नाम का नारा लगाया और 'स्वतंत्र भारत' की हुंकार भरी वे एक अखिल भारतीय आंदोलन से भी भावनात्मक स्तर पर जुड़े हुए थे।
    • जब वे महात्मा गांधी का नाम लेकर काम करते थे या अपने आंदोलन को कांग्रेस के आंदोलन से जोड़कर देखते थे तो वास्तव में एक ऐसे आंदोलन का अंग बन जाते थे जो उनके इलाके तक ही सीमित नहीं था।
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    Sun, 26 Nov 2023 09:59:43 +0530 Jaankari Rakho
    BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | इंडो&चाइना में राष्ट्रवादी आंदोलन https://m.jaankarirakho.com/478 https://m.jaankarirakho.com/478 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | इंडो-चाइना में राष्ट्रवादी आंदोलन
    • वियतनाम को औपचारिक रूप से 1945 में यानी भारत से भी पहले आज़ादी मिल गई थी लेकिन वियतनाम गणराज्य की स्थापना के लिए वहाँ के लोगों को तीस साल और संघर्ष करना पड़ा।
    • वियतनाम में राष्ट्रवाद का उदय उस प्रकार नहीं हुआ था जिस तरह यूरोप में हुआ था।
    • वियतनामी राष्ट्रवाद औपनिवेशिक परिस्थितियों में विकसित हुआ था। वियतनाम के विभिन्न समुदायों को मिला कर आधुनिक वियतनामी राष्ट्र की स्थापना में आशिक रूप से उपनिवेशवाद का योगदान रहा तो दूसरी तरफ यह भी सच है कि इस राष्ट्र का रूप-स्वरूप औपनिवेशिक वर्चस्व के खिलाफ़ चले संघर्षों से ही तय हुआ था।

    राष्ट्र और उसके नायक
    विद्रोही औरतें
    • पारंपरिक रूप से चीन के मुकाबले वियतनाम में औरतों को ज्यादा बराबरी वाला दर्जा मिलता था, खासतौर से निचले तबके में। फिर भी औरतों की स्थिति पुरुषों के मुकाबले कमज़ोर तो थी ही। वे अपने भविष्य के बारे में अहम फैसले नहीं ले सकती थीं। न ही सार्वजनिक जीवन में उनका कोई खास दखल होता था।
    • वियतनाम में राष्ट्रवादी आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा समाज में महिलाओं की हैसियत व स्थिति पर भी सवाल उठने लगे और स्त्रीत्व की एक नयी छवि सामने आने लगी।
    • साहित्यकार और राजनीतिक विचारक विद्रोहों में हिस्सा लेने वाली महिलाओं को आदर्श के रूप में पेश करने लगे।
    राष्ट्रवादी नेता फान बोई चाऊ
    • 1913 में राष्ट्रवादी नेता फान बोई चाऊ ने 39-43 ईस्वी में चीनी कब्ज़े के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाली ट्रंग बहनों के जीवन पर एक नाटक लिखा। इस नाटक में उन्होंने दिखाया कि इन बहनों ने वियतनामी राष्ट्र को चीनियों से मुक्त कराने लिए देशभक्ति के भाव से कैसे-कैसे कारनामे किए थे।
    • वियतनामियों की अपराजेय इच्छाशक्ति और देशभक्ति के प्रतीक के रूप में पेंटिंग्स, नाटकों और उपन्यासों में उनका महिमामंडन होने लगा।
    • ट्रंग बहनों ने 30,000 सैनिकों की फ़ौज जुटा ली थी, उन्होंने चीनियों का दो साल तक मुक़ाबला किया और अंत में जब उन्हें अपनी पराजय निश्चित दिखाई देने लगी तो शत्रु के सामने आत्मसमर्पण करने की बजाय उन्होंने खुदकुशी कर ली।
    • अतीत की अन्य विद्रोहिणियाँ भी व्यापक राष्ट्रवादी आख्यान का हिस्सा थीं। इनमें त्रियू अयू सबसे महत्त्वपूर्ण और सम्मानित रही हैं।
    • बड़ी होने पर उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और जंगलों में चली गई। वहाँ रहकर उन्होंने एक विशाल सेना का गठन किया और चीनियों के वर्चस्व को चुनौती दी।
    • इस संघर्ष के अंत में जब उनकी सेना हार गई तो उन्होंने पानी में डूब कर अपनी जान दे दी थी। वियतनामियों के लिए वह देश के मान की रक्षा करते हुए जान देने वाली शहीद ही नहीं बल्कि एक देवी बन गई थीं।
    योद्धा औरतें
    • न्यूयेन थी शुआन नामक महिला के बारे में बताया जाता था कि उसके पास केवल 20 गोलियाँ थीं लेकिन इन्हीं के सहारे उसने एक जेट विमान को मार गिराया था।
    • औरतों को सिर्फ योद्धा के रूप में ही नहीं बल्कि कामगारों के रूप में भी पेश किया जा रहा था।
    • जब साठ के दशक में बड़ी संख्या में सैनिक मारे जाने लगे तो औरतों से भी ज्यादा से ज्यादा तादाद में सेना में भर्ती होने का आह्वान किया गया।
    • बहुत सारी औरतों ने इस आह्वान को गंभीरता से लिया और वे प्रतिरोध आंदोलन में शामिल हो गईं। वे घायलों की मरहम-पट्टी करने, भूमिगत कमरे व सुरंगें बनाने और दुश्मन से मोर्चा लेने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगीं।
    • 1965 से 1975 के बीच हो ची चिन्ह मार्ग पर काम करने वाले युवाओं में से 70-80 प्रतिशत लड़कियाँ थीं। एक सैनिक इतिहासकार का कहना है कि वियतनाम की सेना मिलीशिया (नागरिक सेना), स्थानीय दस्तों और पेशेवर टोलियों में 15 लाख औरतें काम करती थीं।
    शांति के समय औरतें
    • 70 के दशक तक आते-आते शांति प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। युद्ध समाप्त होने के आसार दिखाई देने लगे थे। इसके बाद औरतों को योद्धाओं के रूप में पेश करने का चलन खत्म होने लगा। अब औरतों को मजदूरों के रूप में ही ज्यादा पेश किया जाने लगा। उन्हें सैनिकों के रूप में नहीं बल्कि कृषि कोऑपरेटिवों, कारखानों और उत्पादन इकाइयों में काम करते हुए दर्शाया जाने लगा।
    युद्ध की समाप्ति
    • अमेरिका न तो वियतनामियों के प्रतिरोध को कुचल पाया था और न ही अमेरिकी कार्रवाई के लिए वियतनामी जनता का समर्थन प्राप्त कर पाया। इस दौरान हज़ारों नौजवान अमेरिकी सिपाही अपनी जान गँवा चुके थे और असंख्य वियतनामी नागरिक मारे जा चुके थे।
    • इस युद्ध को पहला टेलीविज़न युद्ध कहा जाता है। युद्ध के दृश्य हर रोज़ समाचार कार्याक्रमों में टेलीविज़न के पर्दे पर प्रसारित किए जाते थे।
    • अमेरिकी कुकृत्यों को देखकर बहुत सारे लोगों का अमेरिका से मोहभंग हो चुका था। मैरी मैक्कार्थी जैसे लेखक या जेन फोंडा जैसे कलाकारों ने तो उत्तरी वियतनाम का दौरा भी किया और अपने देश की रक्षा के लिए वियतनामियों द्वारा दिए गए बलिदानों की प्रशंसा की।
    • राजनीतिक सिद्धांतकार नोम चॉम्स्की ने इस युद्ध को 'शांति के लिए राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए भारी खतरा' बताया।
    • सरकारी नीति के ख़िलाफ़ व्यापक प्रतिक्रियाओं ने युद्ध खत्म करने के प्रयासों को और बल प्रदान किया। जनवरी 1974 में पेरिस में एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए।
    • इस समझौते से अमेरिका के साथ चला आ रहा टकराव तो खत्म हो गया लेकिन साइगॉन शासन और एनएलएफ के बीच टकराव जारी रहा।
    • आखिरकार 30 अप्रैल 1975 को एनएलएफ ने राष्ट्रपति के महल पर कब्जा कर लिया और वियतनाम के दोनों हिस्सों को मिला कर एक राष्ट्र की स्थापना कर दी गई।
    हिन्द - चीन में राष्ट्रवादी आंदोलन
    • हिन्द-चीन दक्षिण-पूर्व एशिया में फैला एक प्रायद्वीपीय क्षेत्र है, जिसका क्षेत्रफल 2.80 लाख वर्ग कि.मी. है, जिसमें आज का वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के क्षेत्र आते हैं।
    • वियतनाम के तोंकिन एवं अन्नाम कई शताब्दीयों तक चीन के कब्जे में रहा तथा दूसरी तरफ लाओस-कम्बोडिया पर भारतीय संस्कृति का प्रभाव था।
    • चौथी शताब्दी में कम्बुज भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र था। 12वीं शताब्दी में राजा सुर्यवर्मा द्वितीय (II) ने अंकोरवाट का मंदिर का निर्माण करवाया था।
    • हिन्द- चीन में पहुँचने वाले प्रथम व्यापारी पूर्तगाली थे। उसके बाद डच, इंगलैंड तथा फ्रांस आया।
    • 20वीं शताब्दी तक सम्पूर्ण हिन्द-चीन पर फ्रांस का अधिकार हो गया।
    • फ्रांस द्वारा हिन्द - चीन को अपना उपनिवेश बनाने का उद्देश्य डच एवं ब्रिटिश कंपनियों के व्यापारिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना था।
    • एक तरफा अनुबंध व्यवस्था एक तरह की बंधुआ मजदूरी थी। हिन्द - चीन में बसने वाले फ्रांसीसी को कोलोन कहा जाता था। 
    हिन्दचीन में राष्ट्रीयता का विकास
    • 1930 ई. में फान-बोई-चाऊ ने 'दुई-तान होई' नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की जिसके नेता कुआंग दे थे।
    • फान-बोई-चाऊ ने 'द हिस्ट्री ऑफ लॉस ऑफ वियतनाम' लिखकर हलचल पैदा कर दी।
    • सन यात सेन के नेतृत्व में चीन में सत्ता परिवर्तन के साथ हीं हिन्द-चीन के छात्रों ने प्रेरित होकर वियेतनाम कुवान फुक होई (वियतनाम मुक्ति एशोसिएशन) की स्थापना की।
    • 1914 ई. में वियतनामी देशभक्तों ने 'वियतनामी राष्ट्रवादी दल' नामक संगठन बनाया, लेकिन फ्रांसीसी सरकार ने इसे कुचल डाला।
    • 1917 में 'न्यूगन आई क्वोक' (हो- ची मिन्ह ) नामक एक वियतनामी छात्र ने पेरिस मे ही साम्यवादियों का एक गुट बनाया।
    • हो ची मिन्ह शिक्षा प्राप्त करने मास्को गए और साम्यवाद से प्रेरित होकर 1925 में 'वियतनामी क्रांतिकारी दल' की गठन किया।
    • 1930 के दशक की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने भी राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया।
    माई-ली- गाँव
    • दक्षिणी वियतनाम में एक गाँव था, जहाँ के लोगों को वियतनामी समर्थक मान अमेरिकी सेना ने पूरे गांव को घेर कर पुरूषों को मार दिया, औरतों बच्चियों को बंधक बनाकर कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया, फिर उन्हें भी मार कर पूरे गांव में आग लगा दिया।
    • लाशों के बीच दबा एक बूढ़ा जिन्दा बच गया था, जिसने इस घटना को उजागर किया। 
    द्वितीय विश्व युद्ध और वियतनामी स्वतंत्रता
    • जून 1940 ई० में फ्रांस, जर्मनी से हार गया और फ्रांस में जर्मन समर्थित सत्ता कायम हो गयी। उसके बाद जापान ने पूरे हिन्द - चीन पर अपना राजनीतिक प्रभुत्व जमा लिया।
    • हो ची मिन्ह के नेतृत्व में देश भर के कार्यकर्ताओं ने 'वियतमिन्ह' (वियतनाम स्वतंत्रता लीग) की स्थापना कर पीड़ित किसानों, बुद्धिजीवियों, आतंकित व्यापारियों सभी को शामिल कर छापामार युद्ध नीति का अवलंबन (अपनाना) किया।
    • 1944 में फ्रांस, जर्मनी के अधिपत्य से निकल गया तथा जापान पर परमाणु हमला के पश्चात् जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसका लाभ उठाते हुए वियतनाम के राष्ट्रवादियों ने वियतमिन्ह के नेतृत्व में लोकतंत्रीय गणराज्य की स्थापना 2 सितम्बर 1945 ई. को करते हुए वियतनाम की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी, इस सरकार का प्रधान हो ची मिन्ह को बनाया गया।
    हिन्द चीन के प्रति फ्रांसीसी नीति
    • जापानी सेनाओ के हटते हीं, फ्रांसीसी सेना जैसे ही सैगान पहुँची वियतनामी छापामारों ने भयंकर युद्ध किया और फ्रांसीसी सेना सैगान में ही फंसी रही।
    • अंतत: 6 मार्च 1946 को हनोई समझौता, फ्रांस एवं वियतनाम के बीच हुआ जिसके तहत फ्रांस ने वियतनाम को गणराज्य के रूप में स्वतंत्र इकाई माना।
    • फ्रांस ने कोचीन-चीन में एक पृथक सरकार स्थापित कर लिया जिससे हनोई समझौता टूट गया।
    • अब तक हो ची मिन्ह की ताकत इतनी नहीं हुई थी कि फ्रांसीसी सेना का प्रत्यक्ष मुकाबला कर सके। अतः पुनः गुरिल्ला युद्ध शुरू हो गया।
    • इसी क्रम में गुरिल्ला सैनिकों ने दिएन - विएन-फु पर भयंकर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में फ्रांस बुरी तरह हार गया। इस तरह दिएन - विएन-फु पर साम्यवादियों का अधिकार हो गया।
    अमेरकी हस्तक्षेप
    • अमेरिका ने हिन्द - चीन में हस्तक्षेप की नीति अपनायी। 1954 में हिन्द-चीन समस्या पर एक वार्ता बुलाया गया, जिसे जेनेवा समझौता के नाम से जाना जाता है।
    • जेनेवा समझौता ने पूरे वियतनाम को दो हिस्सों में बाँट दिया। हनोई नदी से सटे उत्तर के क्षेत्र उत्तरी वियतनाम को हो ची मिन्ह को और उससे दक्षिण में दक्षिणी वियतनाम अमेरिका समर्थित सरकार को दे दिया।
    • जेनेवा समझौता के तहत लाओस और कम्बोडिया को वैध राजतंत्र के रूप में स्वीकार किया गया।
    होआ-होआ आंदोलन
    • होआ-होआ एक बौद्धिक धार्मिक क्रांतिकारी आंदोलन था जो 1939 में शुरू हुआ था, , जिसके नेता हुईन्ह फु-सो था । क्रांतिकारी उग्रवादी घटनाओं को भी अंजाम देते थे, जिसमें आत्मदाह तक भी शामिल होता था।
    लाओस में गृह युद्ध
    • 25 दिसम्बर 1955 को लाओस में चुनाव के बाद राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ और सुवन्न फूमा के नेतृत्व में सरकार बनीं।
    • लाओस में तीन भाईयों के बीच सत्ता को लेकर संघर्ष चालू हो गया तथा भयंकर गृह युद्ध शुरू हो गया।
    • मई 1961 में इस समस्या पर 14 राष्ट्रों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें सभी राजकुमारों ने संयुक्त मंत्रिमण्डल के गठन पर सहमति प्रदान की और मंत्रिमण्डल भी बना, परन्तु अमेरिकी षड्यंत्र के कारण लाओस के विदेश मंत्री की हत्या हो गयी और गृह युद्ध पुनः शुरू हो गया।
    • अमेरिका लाओस में साम्यवादी प्रसार नहीं चाहता था, अतः चुनाव द्वारा सुवन्न फुमा को प्रधानमंत्री बनाया गया और सुफन्न बोंग उप प्रधानमंत्री बना। इससे असंतुष्ट पाथेट लाओ ने सन् 1970 में लाओस पर आक्रमण कर जार्स के मैदान पर कब्जा कर लिया।
    • 1971 में हजारों दक्षिणी वियतनामी सैनिकों ने लाओस में प्रवेश किया उनके साथ अमेरिकी सैनिक भी थे। इनका उद्देश्य हो - ची मिन्ह मार्ग पर कब्जा करना था।
    • लाओस के प्रबल प्रतिरोध के कारण उसके लिए वापस लौटना हीं एक मात्र विकल्प था। इस तरह अमेरिका अपने आक्रमण में वामपंथ के प्रसार को रोक नहीं पाया।
    कंबोडियायी संकट:
    • सन् 1954 ई० में स्वतंत्र राज्य बनने के बाद कम्बोडिया में संवैधानिक राजतंत्र को स्वीकार कर राजकुमार नरोत्तम सिंहानुक को शासक माना गया।
    • मई 1965 में अमेरिका ने वियतनाम के साथ कम्बोडिया के . सीमावर्ती गांवो पर आक्रमण कर दिया।
    • आगे चलकर सन् 1969 में अमेरिका ने कम्बोडिया सीमा क्षेत्र में जहर की वर्षा हवाई जहाज से करवा दी, जिससे लगभग 40 हजार एकड़ भूमि की रबर की फसल नष्ट हो गयी।
    • सिहानुक ने मुआवजे की मांग अमेरिका से की एवं रूस की ओर झुकाव दिखाते हुए पूर्वी जर्मनी से राजनयिक सम्बंध बढ़ाने शुरू किये।
    • तत्कालीन दो गुटिय विश्व व्यवस्था में पूंजीवादी अमेरिका यह नहीं चाहता था कि कम्बोडिया साम्यवादी देशों के प्रति सहानुभूति रखें।
    • अमेरिकी षड्यंत्र के कारण नरोत्तम सिंहानुक को पद से हटा दिया गया तथा अमेरिका समर्थित जेनरल लोन नोल के नेतृत्व में सरकार बना।
    • अप्रैल 1970 से सिंहानुक ने नयी सरकार के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। नरोत्तम सिंहानुक की सेना विजयी होते हुए राजधानी नामपेन्ह की ओर बढ़ रही थी।
    • अमेरिका ने तुरंत इसमें हस्तक्षेप किया। दक्षिणी वियतनाम से अमेरिकी फौज कम्बोडिया में प्रवेश कर गयी और व्यापक संघर्ष शुरू हो गया।
    • कम्बोडियायी छापामारों, अमेरिकी सेना के बीच युद्धों, बमबारी नृशंश हत्याओं के इस दौर में 9 अक्टूबर, 1970 को कम्बोडिया को गणराज्य घोषित किया गया। परन्तु सिंहानुक एव लोन नोल की सेनाओं में संघर्ष चलता रहा।
    • पांच वर्ष बाद सिंहानुक ने निर्णायक युद्ध का ऐलान किया और उनकी लाल खुमेरी सेना विजयी होते हुए आगे बढ़ती गयी। अंततः लोन नोल को भागना पड़ा।
    • अप्रैल 1975 में कम्बोडियायी गृह युद्ध समाप्त हो गया। नरोत्तम सिंहानुक पुनः राष्ट्राध्यक्ष बने परन्तु 1978 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। अब कम्बोडिया का नाम बदल कर कम्पुचिया कर दिया गया।
    एजेंट-ओरेंज
    • यह एक ऐसा जहर था जिससे पेड़ों की पत्तियाँ झुलस जाती थी तथा पेड़ मर जाते थे। इसका इस्तेमाल जंगलों को खत्म करने के लिए किया जाता था।
    वियतनामी गृह युद्ध और अमेरिका:
    • जेनेवा समझौता के तहत वियतनाम को दो भागों उत्तरी वियतनाम तथा दक्षिणी वियतनाम में बाँट दिया गया था। उत्तरी वियतनाम में साम्यवाद समर्थित हो ची मिन्ह और दक्षिणी वियतनाम में अमेरिका समर्थित बाओदायी की सरकार थी।
    • 1960 में 'वियतकांग (राष्ट्रीय मुक्ति सेना) का गठन कर अपने सरकार के विरुद्ध हिंसात्मक संघर्ष जारी हो गया।
    • अमेरिका ने 1961 में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए 'शांति के खतरे' नाम से श्वेत पत्र जारी कर दिया और अपने 4000 सैनिकों को दक्षिणी वियतनाम में भेज दिया।
    • अमेरिका उत्तरी वियतनाम पर आक्रमण कर उसके सैनिक अड्डे को तबाह कर दिया। अमेरिका हो ची मिन्ह मार्ग पर सैकड़ों आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया।
    • इस मार्ग पर नियंत्रण करने के लिए अमेरिका ने लाओस और कंबोडिया पर भी आक्रमण किया।
    • तीन तरफा युद्ध में पड़कर अमेरिका फंस गया और उसे वापस होना पड़ा।
    • अमेरिका, शांति वार्ता चाहता था, लेकिन अपनी शर्तों पर, जिसके कारण 1968 में पेरिस का शांति वार्ता सफल नहीं हो सका।
    दक्षिण वियतनाम की स्वतंत्रता
    • अमेरिकी राष्ट्रपति निकसन ने शांति के लिए पाँच सूत्री योजना की घोषणा की। परन्तु पाँच सूत्री शांति प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। अमेरिकी सेना ने पुनः बमबारी शुरू कर दी ।
    • 24 अक्टूबर 1972 को वियतकांग, उतरी वियतनाम, अमेरिका एवं दक्षिणी वियतनाम में समझौता तय हो गया, परन्तु दक्षिणी वियतनाम ने आपत्ति जताई और पुनः वार्ता के लिए आग्रह किया।
    • अंततः 27 फरवरी 1973 को पेरिस में वियतनाम युद्ध के समाप्ती के समझौते पर हस्ताक्षर हो गया।
    • इस तरह से अमेरिका के साथ चला आ रहा युद्ध समाप्त हो गया एवं अप्रैल, 1975 में उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम का एकीकरण हो गया।
    शहरीकरण एवं शहरी जीवन
    • समाजशास्त्रीयों के अनुसार नगरीय जीवन तथा आधुनिकता एक दूसरे के पूरक हैं और शहर को आधुनिक व्यक्ति का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है।
    • तीन ऐतिहासिक प्रक्रियाओं ने आधुनिक शहरों की स्थापना में निर्णायक भूमिका निभाई।
      • पहला- औद्योगिक पूँजीवाद का उदय,
      • दूसरा - विश्व के विशाल भू-भाग पर औपनिवेशिक शासन की स्थापना, और
      • तीसरा- लोकतांत्रिक आदर्शों का विकास।
    • कस्बा - ग्रामीण अंचल में एक छोटे नगर को माना जाता है। जो अधिकांशतः स्थानीय विशिष्ट व्यक्ति का केन्द्र होता है।
    • गंज- एक छोटे स्थायी बाजार को कहा जाता है। क़स्बा और गंज दोनों कपड़ा, फूल, सब्जी तथा दूध उत्पादों से संबंधित था।
    • महानगर- किसी प्रांत या देश का विशाल घनी आबादी वाला शहर जो प्रायः वहाँ की राजधानी भी होता है। 10 लाख से ऊपर की आबादी को महानगर कहा जाता है।
    • टेनमेंट्स- कामचलाऊ और अक्सर बेहिसाब भीड़ वाले अपार्टमेंट मकान। ऐसे मकान बड़े शहरों के गरीब इलाके में अधिक पाए जाते हैं।
    • 3000 वर्ष पूर्व नदी घाटी की सभ्यताओं से शहर का विकास प्रारंभ हुआ। सिन्धु घाटी में मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा प्रसिद्ध शहर थे।
    • आर्थिक तथा प्रशासनिक संदर्भ में ग्रामीण तथा नगरीय बनावट के दो प्रमुख आधार हैं- (i) जनसंख्या का घनत्व तथा (ii) कृषि आधारित क्रियाओं का अनुपात ।
    • किसी भी नगर में विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग अल्पसंख्यक होता है। ऐसी मान्यता का मुख्य कारण है पूँजी का असमान वितरण ।
    • व्यावसायिक पूँजीवाद ने नगरों के उद्भव में काफी महत्वपूर्ण योगदान दिया, क्योंकि इनके कारण ही नगरों में शिक्षा, यातायात, स्वास्थ्य सुविधाएँ आदि का विकास हुआ। व्यापार एवं धर्म शहरों की स्थापना के मुख्य आधार थे।
    • आधुनिक काल में औद्योगीकरण ने शहरीकरण स्वरूप को गहन रूप से प्रभावित किया। 
    • शहरों में फैक्टरी प्रणाली की स्थापना के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के भूमिहीन कृषक वर्ग रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने लगा।
    • मध्यम वर्ग एक नए शिक्षित वर्ग के रूप में उभरा, जो विभिन्न पेशों में रहकर भी औसतन एक समान आय प्राप्त करने वाले वर्ग के रूप में उभर कर आया एवं बुद्धिजीवी वर्ग के रूप में स्वीकार किए गए।
    • रोजगार के साधनों की अधिकता के कारण शहर में लोगों का स्तर ऊपर उठने लगा, जिससे क्षा का प्रसार सामाजिक जीवन में एक नया बदलाव लेकर आया।
    • जनसंख्या का घनत्व सबसे अधिक महानगर में होता है ।
    • औद्योगिक क्रांति इंगलैंड में सबसे पहले हुई इसलिए आधुनिक शहरों का विकास भी इंगलैंड में हीं शुरू हुआ ।
    • 1815 में मैनचेस्टर में रहने वाले तीन चौथाई से अधिक लोग गाँव से आये प्रवासी मजदूर थे ।
    • दुनिया की सबसे पहली भूमिगत रेल के पहले खंड का उद्घाटन 10 जनवरी, 1863 ई. को किया गया। यह रेल लाइन लंदन की पैडिंग्ल और कैरिंगटन के बीच स्थित थी।
    • वे दो कानून ने इंगलैंड में बाल श्रमिकों को कारखानों में काम करने से रोक दिया था (I) अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा तथा (II) 1902 का फैक्ट्री कानून।
    • घेटा सामान्यतः यह शब्द मध्य यूरोपीय शहरों में यहूदियों की बस्ती के लिए प्रयोग किया जाता है। आज के संदर्भ में यह एक विशिष्ट धर्म, नृजाति, या समान पहचान वाले लोगों के साथ रहने को इंगित करता है ।
    गाँव और शहर में अंतर
    गाँव
    1. गाँव की आबादी कम होती है। 
    2. गाँव में खेती और पशुपालन उत्पादन मुख्य आजीविका होती है।
    3. गाँव की वातावरण स्वच्छ होता है।
    4. गाँव में शिक्षा, यातायात, स्वास्थ्य सुविधाओं का आभाव होता है।
    शहर
    1. शहर की आबादी अधिक होती है।
    2. शहर में व्यापार और मुख्य आजीविका है।
    3. शहर की वातावरण प्रदूषित होता है।
    4. शहर में शिक्षा, यातायात, स्वास्थ्य सुविधाएँ उन्नत अवस्था में होती है।

    पेरिस का हॉस्मानीकरण

    • 1852 में फ्रांस के सम्राट लुई तृतीय (नेपोलियन बोनापार्ट के भतीजे) ने फ्रांस की सत्ता संभालने के बाद अपनी राजधानी पेरिस शहर का पुनर्निर्माण कार्य बड़े पैमाने पर शुरू किया।
    • नये पेरिस के निर्माण कार्य बैरॉन हॉस्मान जो एक विख्यात और कुशल वास्तुकार तथा सियाँ का प्रिफेक्त था, उसे सौंपा गया।
    • हॉस्मान ने 17 वर्ष में यह कार्य पूरा किया। यह काम हॉस्मान ने शहर को खूबसूरत बनाने तथा किसी प्रकार की विद्रोह की आशंका को दूर करने के उद्देश्य से पेरिस के मध्य से गरीबों की बस्तियों को साफ करवा दिया।
    • पेरिस नगर सौंदर्य की दृष्टि से यूरोप के सभी नगरों से सर्वश्रेष्ठ बन गया। इससे पेरिस पूरे यूरोप के लिए ईर्ष्या का विषय बन गया।
    सिंगापुर शहर का विकास:
    • सिंगापुर एक सुनियोजित शहर है। 1965 तक सिंगापुर एक बन्दरगाह था। यहाँ अंग्रेजों का शासन था।
    • यहाँ के ज्यादातर लोग भीड़ भरी गंदे मकानों और गंदगी में जीते थे।
    • 1965 में पीपुल्स एक्शन पार्टी के अध्यक्ष ली कुआन येव के नेतृत्व में सिंगापुर को आजादी मिली। उसने एक विशाल आवास एवं विकास कार्यक्रम शुरू किया। सरकार के द्वारा 86 प्रतिशत जनता को अच्छे मकान दिए गए।
    • ऊंची आवासीय खंडों में हवा निकासी और सभी प्रकार की सेवाओं का इंतजाम किया गया। बाहरी गलियारों के कारण अपराध कम हुए।
    • भारतीय, चीनी और मलय समुदायों के बीच टकराव को रोकने के लिए सामाजिक संबंधों पर भी लागातार सचेत रहने के उपाय किए गए।
    बंबई (मुंबई)
    • 17वीं शताब्दी में बंबई सात टापुओं का समूह था, उस पर पुर्तगालियों का नियंत्रण था।
    • 1661 में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय (II) का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन से हुआ। फलस्वरुप पुर्तगालियों ने चार्ल्स द्वितीय (II) को दहेज में बंबई दे दिया।
    • चार्ल्स द्वितीय (II) ने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने पश्चिमी भारत के अपने सबसे मुख्य बंदरगाह सूरत से अपना मुख्यालय बंबई में कायम कर लिया तथा इसका विकास कर इसे महानगर में परिवर्तित कर दिया।
    • 1784 ई. में बंबई के गवर्नर विलियम हॉर्नबी ने विशाल तटीय दीवार का निर्माण समुद्रों के किनारे-किनारे बनवाया ताकि शहर के निचले इलाके को समुद्र के पानी की चपेट में आने से रोका जा सके।
    • 1854 ई. में यहाँ पहला कपड़ा मिल खुला। 1921 ई० तक यहाँ 85 कपड़ा मिलें खुल चुकी थीं । 1931 तक बंबई के निवासी सिर्फ एक चौथाई हीं थे, बाकी निवासी बाहर से आकर यहाँ बसे थे।
    • बम्बई के सुनियोजित विकास के लिए 1898 में सिटी ऑफ बंबई इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट की स्थापना की गयी।
    • चॉल- 1901 की जनगणना के अनुसार बम्बई की लगभग 80 प्रतिशत आबांदी चॉलों में रहती थी।
    • 1918 में बम्बई के मकानों के महंगे किराए को सीमित करने के लिए किराया कानून पारित किया गया।
    • बंबई की भूमि विकास योजना |
    • 'बंबई पोर्ट ट्रस्ट' ने 1914 से 1918 के बीच एक सूखी गोदी का भी निर्माण किया और खुदाई से निकली मिट्टी से 22 एकड़ का 'बांलार्ड एस्टेट' बनाया। इसके बाद 20वीं शताब्दी में बंबई का मशहूर 'मरीन ड्राइव' बना।
    पाटलिपुत्र (पटना) का इतिहास
    • पाटलिपुत्र यानी पटना शहरीकरण की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण उदहारण है। पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र, कुसुमपुर अथवा पुष्पपुर था। यह नगर चारों ओर से गंगा, गंडक, सोन तथा पुनपुन से घिरा हुआ था। 
    • पाटलिपुत्र नगर की स्थापना छठीं शताब्दी ई० पू० में मगध के शासक अजातशत्रु के द्वारा एक सैनिक शिविर के रूप में की गई थी। बाद में यह मगध साम्राज्य की राजधानी बना।
    • 457 ई० पू० में अजातशत्रु के पुत्र ने मगध की राजधानी राजगीर से बदलकर पाटलिपुत्र में स्थापित कर दिया।
    • मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त के दरबार में राजदूत के रूप में आया था। गुप्त काल में भी इस नगर का वैभव बना रहा। इसके विशाल भवनों के वैभव और सौन्दर्य की चर्चा चीनी यात्री फाहियान  द्वारा की गई है।
    • पूर्व मध्यकाल में इस नगर का पतन हो गया। पुन: इस नगर के गौरव को सुप्रसिद्ध अफगान शासक शेरशाह सूरी ने स्थापित किया। उसने 1541 ई. के लगभग गंगा और गंडक नदी के संगम के पास एक दुर्ग बनवाया क्योंकि उस स्थान के सैनिक महत्व को उसे आभास था।
    • अकबर के शासनकाल तक यह नगर एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बन चुका था।
    • 1856 ई. में अंग्रेज यात्री राल्फ फिच ने इस नगर का भ्रमण किया। मुगलकाल में यहाँ अनेक सुंदर भवनों का निर्माण हुआ।
    • इस नगर में 1666 ई० में सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी का जन्म हुआ जिसके कारण सिख धर्म का तीर्थस्थल बन गया। वर्तमान में यह स्थल 'पटना साहिब' के नाम से जाना जाता है ।
    • 18वीं सदी में पूर्वी भारत में जब ब्रिटिश शासन की स्थपाना हुई तो आधुनिक पटना नगर का विकास हुआ।
    • 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में मुगल राजकुमार अजीमुशान ने इस नगर का नव निर्माण कराया और इसे अजीमाबाद नाम दिया।
    • यहाँ से लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर अनाज के भंडारण के लिए विशाल गोदाम का निर्माण 1786 ई० में किया गया जो आज गोलघर के नाम से जाना जाता है।
    • 1774 ई. के रेगुलेटिंग एक्ट के अंतर्गत बिहार के प्रशासन के लिए कई व्यवस्थाएँ लागू की गई।
    • 1911 में दिल्ली दरबार ने बिहार को बंगाल से अलग कर पृथक राज्य का दर्जा देने का निर्णय लिया गया।
    • 1912 में बिहार एवं उड़ीसा को बंगाल से पृथक राज्य का दर्जा मिला तथा पटना को बिहार की राजधानी बनाया गया।
    चीन के साये से आज़ादी
    • इंडो-चाइना तीन देशों से मिल कर बना है। ये तीन देश हैं- वियतनाम, लाओस और कंबोडिया । इस पूरे इलाके के शुरुआती इतिहास को देखने पर पता चलता है कि पहले यहाँ बहुत सारे समाज रहते, थे और पूरे इलाक़े पर शक्तिशाली चीनी साम्राज्य का वर्चस्व था।
    • वियतनाम के एक स्वतंत्र देश की स्थापना करने के बाद भी वहाँ के शासकों ने न केवल चीनी शासन व्यवस्था को बल्कि चीनी संस्कृति को भी अपनाए रखा।
    • वियतनाम उस रास्ते से भी जुड़ा रहा है जिसे समुद्री सिल्क रूट कहा जाता था। इस रास्ते से वस्तुओं, लोगों और विचारों की खूब आवाजाही चलती थी। व्यापार के अन्य रास्तों के माध्यम से वियतनाम उन दूरवर्ती इलाकों से भी जुड़ा रहता था जहाँ गैर - वियतनामी समुदाय - जैसे खमेर और कंबोडियाई समुदाय रहते थे।
    औपनिवेशिक वर्चस्व और उसका प्रतिरोध
    • वियतनाम पर फ्रांसीसियों के क़ब्ज़े के बाद वियतनामियों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई। जीवन के हर मोर्चे पर जनता का औपनिवेशिक शासकों के साथ टकराव होने लगा।
    • फ्रांसीसियों का नियंत्रण सबसे ज्यादा तो सैनिक और आर्थिक मामलों में ही दिखाई देता था लेकिन वियतनामी संस्कृति को तहस-नहस करने के लिए भी उन्होंने सुनियोजित प्रयास किए।
    • फ्रांसीसियों और उनके वर्चस्व का अहसास कराने वाली हर चीज के खिलाफ वियतनामी समाज के हर तबके ने जमकर संघर्ष किया और यहीं से वियतनाम में राष्ट्रवाद के बीज पड़े ।
    • फ्रांसीसी सेना ने पहली बार 1858 वियतनाम की धरती पर डेरा डाला। के दशक के मध्य तक आते-आते उन्होंने देश के उत्तरी इलाक़े पर मज़बूती से कब्ज़ा जमा लिया। फ्रांस-चीन युद्ध के बाद उन्होंने टोंकिन और अनाम पर भी कब्ज़ा कर लिया।
    • 1887 में फ्रेंच इंडो-चाइना का गठन किया गया। बाद के दशकों में एक ओर फ्रांसीसी शासक वियतनाम पर अपना कब्ज़ा जमाते गए और दूसरी तरफ वियतनामियों को यह बात समझ में आने लगी कि फ्रांसीसियों के हाथों वे क्या-क्या गँवा चुके हैं।
    फ्रांसीसियों को उपनिवेशों की जरूरत
    • एक जमाने में प्राकृतिक संसाधन हासिल करने और ज़रूरी साजो-सामान जुटाने के लिए उपनिवेश बनाना ज़रूरी माना जाता था। इसके अलावा, दूसरे पश्चिमी राष्ट्रों की तरह फ्रांसीसियों को भी लगता था कि दुनिया के पिछड़े समाजों तक सभ्यता की रोशनी पहुँचाना 'विकसित' यूरोपीय राष्ट्रों का दायित्व है।
    • फ्रांसीसियों ने वियतनाम के 'मेकांग डेल्टा' इलाके में खेती बढ़ाने के लिए सबसे पहले वहाँ नहरें बनाईं और जल निकासी का प्रबंध शुरू किया।
    • सिंचाई की विशाल व्यवस्था बनाई गई । बहुत सारी नयी नहरें और भूमिगत जलधाराएँ बनाई गईं। ज्यादातर लोगों को ज़बरदस्ती काम पर लगा कर निर्मित की गई इस व्यवस्था से चावल के उत्पादन में वृद्धि हुई।
    • 1931 तक वियतनाम दुनिया में चावल का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक बन चुका था। इसी दौरान व्यापारिक वस्तुओं के आवागमन, फ़ौजी टुकड़ियों की आवाजाही और पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण कायम करने के लिए संरचनागत परियोजनाओं का निर्माण शुरू कर दिया गया।
    • पूरे इंडो-चाइना से गुजरने वाला एक विशाल रेल नेटवर्क बनाया गया। इसके माध्यम से वियतनाम के उत्तरी व दक्षिणी भाग चीन से जुड़ गए।
    • यह रेल नेटवर्क चीन में स्थित येनान प्रांत तक जाता था। यह नेटवर्क 1910 में बन कर पूरा हुआ। उसी समय एक और लाइन बिछाई गई जिसके ज़रिए कंबोडिया की राजधानी नोम पेन्ह के रास्ते होते हुए वियतनाम को स्याम देश ( उस समय थाईलैंड का यही नाम हुआ करता था) से जोड़ दिया गया।
    • 1920 के दशक तक आते-आते फ्रांसीसी व्यवसायी अपने कारोबार में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए वियतनाम सरकार पर इस बात के लिए और दबाव डालने लगे कि संरचनागत परियोजनाओं को और भी तेज़ी से आगे बढ़ाया जाए।
    उपनिवेशों का विकास
    • स्वामी राष्ट्रों के हितों को पूरा करने के लिए ही उपनिवेश बनाए जाते थे। प्रभावशाली लेखक और नीति निर्माता पॉल बर्नार्ड जैसे कुछ लोगों का मानना था कि उपनिवेशों की अर्थव्यवस्था का विकास करना ज़रूरी है। उनका कहना था कि उपनिवेश मुनाफा कमाने के लिए ही बनाए जाते हैं इसलिए अगर गुलाम देश की अर्थव्यवस्था मज़बूत होगी और लोगों का जीवनस्तर बेहतर होगा तो वे ज्यादा चीजें खरीदेंगे जिससे बाज़ार फैलेगा और फ्रांसीसी व्यवसायों को फायदा होगा।
    • बर्नार्ड ने वियतनाम की आर्थिक प्रगति को बाधित करने वाली कई बातें गिनवाई हैं। जैसे, देश की आबादी ज्यादा थी, खेती का उत्पादन स्तर कम था और किसान भारी कर्जे में डूबे हुए थे।
    • ग्रामीण गरीबी कम करने और खेतिहर उत्पादन बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी था कि वियतनाम में भी उसी तरह के भूमि सुधार किए जाएँ, जिस तरह के सुधार जापान में 1890 के दशक में किए गए थे। लेकिन इस रास्ते पर चलते हुए यह गारंटी नहीं दी जा सकती थी कि सबको रोज़गार भी मिल जाएगा। जैसा कि जापान के अनुभवों से स्पष्ट हो चुका था, नए रोज़गार पैदा करने के लिए अर्थव्यवस्था का औद्योगीकरण करना ज़रूरी था। 
    • वियतनाम की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से चावल की खेती और रबड़ के बागानों पर आश्रित थी। इन पर फ्रांस और वियतनाम के मुट्ठी भर धनी तबके का स्वामित्व था।
    एकतरफा अनुबंध व्यवस्था
    • वियतनाम के बागानों में इस तरह की मजदूरी व्यवस्था काफी प्रचलित थी। 
    • इस व्यवस्था में मजदूर ऐसे अनुबंधों के तहत काम करते थे जिनमें मजदूरों को कोई अधिकार नहीं दिए जाते थे जबकि मालिकों को बेहिसाब अधिकार मिलते थे।
    • अगर मजदूर अनुबंध की शर्तों के हिसाब से अपना काम पूरा न कर पाएँ तो मालिक उनके खिलाफ मुकदमे दायर कर देते थे, उन्हें सज़ा देते थे, जेलों में डाल देते थे।
    औपनिवेशिक शिक्षा की दुविधा
    • फ्रांसीसी उपनिवेशवाद सिर्फ आर्थिक शोषण पर केंद्रित नहीं था। इसके पीछे 'सभ्य' बनाने का विचार भी काम कर रहा था। जिस तरह भारत में अंग्रेज़ दावा करते थे उसी तरह फ्रांसीसियों का दावा था कि वे वियतनाम के लोगों को आधुनिक सभ्यता से परिचित करा रहे हैं।
    • उनका विश्वास था कि यूरोप में सबसे विकसित सभ्यता कायम हो चुकी है। इसीलिए वे मानते थे कि उपनिवेशों में आधुनिक विचारों का प्रसार करना यूरोपियों का दायित्व है और इस दायित्व की पूर्ति करने के लिए अगर उन्हें स्थानीय संस्कृतियों, धर्मों व परंपराओं को भी नष्ट करना पड़े तो इसमें कोई बुराई नहीं है।
    • 'देशी' जनता को सभ्य बनाने के लिए शिक्षा को काफी अहम माना जाता था। लेकिन वियतनाम में शिक्षा का प्रसार करने से पहले फ्रांसीसियों को एक और दुविधा हल करनी थी। दुविधा इस बात को लेकर थी कि वियतनामियों को किस हद तक या कितनी शिक्षा दी जाए? फ्रांसीसियों को शिक्षित कामगारों की ज़रूरत तो थी लेकिन गुलामों को पढ़ाने-लिखाने से समस्याएँ, भी पैदा हो सकती थीं।
    • शिक्षा प्राप्त करने के बाद वियतनाम के लोग औपनिवेशिक शासन पर सवाल भी उठा सकते थे। इतना ही नहीं, वियतनाम में रहने वाले फ्रांसीसी नागरिकों (जिन्हें कोलोन कहा जाता था) को तो यह भी भय था कि स्थानीय लोगों में शिक्षा के प्रसार से कहीं उनके काम-धंधे और नौकरियाँ भी हाथ से न जाती रहें।
    आधुनिक सोच : शिक्षा की भाषा
    • शिक्षा के क्षेत्र में फ्रांसीसियों को एक और समस्या का सामना करना पड़ा। वियतनाम के धनी और अभिजात्य तबके के लोग चीनी संस्कृति से गहरे तौर पर प्रभावित थे। फ्रांसीसियों की सत्ता को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिए इस प्रभाव को समाप्त करना ज़रूरी था।
    • फलस्वरूप, पहले उन्होंने परंपरागत शिक्षा व्यवस्था को सुनियोजित ढंग से तहस-नहस किया और फिर वियतनामियों के लिए फ्रांसीसी किस्म के स्कूल खोल दिए |
    • अब तक समाज के खाते-पीते तबके के लोग चीनी भाषा का इस्तेमाल करते थे जिसे हटाना ज़रूरी था। लेकिन उसकी जगह लेने वाली भाषा कौन सी हो ? चीनी भाषा को हटा कर लोगों को वियतनामी भाषा पढ़ायी जाए या उन्हें फ्रांसीसी भाषा में शिक्षा दी जाए?
    • इस सवाल पर लोगों के बीच दो मत थे। कुछ नीति-निर्माता मानते थे कि फ्रांसीसी भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।
    • फ्रांसीसी भाषा सीखने से वियतनाम के लोग फ्रांस की संस्कृति और सभ्यता से परिचित हो जाएँगे। इस प्रकार 'यूरोपीय फ्रांस के साथ मज़बूती से बँधे एक एशियाई फ्रांस' की रचना करने में मदद मिलेगी।
    • वियतनाम के शिक्षा प्राप्त लोग फ्रांसीसी भावनाओं व आदर्शों का सम्मान करने लगेंगे, फ्रांसीसी संस्कृति की श्रेष्ठता का प्रभुत्व हो जायेगा और फ्रांसीसियों के लिए लगन से काम करने लगेंगे।
    • बहुत सारे लोग इस बात के खिलाफ थे कि पढ़ाई के लिए केवल फ्रांसीसी भाषा को ही माध्यम बनाया जाए। उनका विचार था कि अगर छोटी कक्षाओं में वियतनामी और बड़ी कक्षाओं में फ्रांसीसी भाषा में शिक्षा दी जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।
    • स्कूलों में दाखिला लेने की ताकत तो वियतनाम के धनी वर्ग के पास ही थी। यह देश की आबादी का एक बहुत छोटा हिस्सा था। जो स्कूल में दाखिला ले पाते थे उनमें से भी बहुत थोड़े से विद्यार्थी ही ऐसे होते थे जो सफलतापूर्वक स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाते थे।
    • बहुत सारे बच्चों को तो आखिरी साल की परीक्षा में जानबूझ कर फेल कर दिया जाता था ताकि वे अच्छी नौकरियों के लिए योग्यता प्राप्त न कर सकें।
    • आमतौर पर दो तिहाई विद्यार्थियों को इसी तरह फेल कर दिया जाता था। 1925 में 1.7 करोड़ की आबादी में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने वालों की संख्या 400 से भी कम थी।
    आधुनिक दिखने की चाह
    • पश्चिमी ढंग की शिक्षा देने के लिए 1907 में टोंकिन फ्री स्कूल खोला गया था। इस शिक्षा में विज्ञान, स्वच्छता और फ्रांसीसी भाषा की कक्षाएँ भी शामिल थीं।
    • स्कूल की नज़र में 'आधुनिक' के क्या मायने थे स्कूल की राय में, सिर्फ विज्ञान और पश्चिमी विचारों की शिक्षा प्राप्त कर लेना ही काफी नहीं था : आधुनिक बनने के लिए वियतनामियों को पश्चिम के लोगों जैसा दिखना भी पड़ेगा।
    स्कूलों में विरोध के स्वर
    • शिक्षकों और विद्यार्थियों ने इन पुस्तकों और पाठ्यक्रमों का आँख बंद कर अनुसरण नहीं किया। कहीं इनका खुलकर विरोध हुआ तो कहीं लोगों ने खामोशी से प्रतिरोध दर्ज कराया।
    • 1926 में साइगॉन नेटिव गर्ल्स स्कूल में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। वियतनामी लड़की को स्कूल से निकाल दिया।
    • हालात बेकाबू होने लगे तो सरकार ने आदेश दिया कि लड़की को दोबारा स्कूल में वापस ले लिया जाए। प्रिंसिपल ने लड़की को वापस दाखिला तो दे दिया लेकिन साथ ही यह ऐलान भी कर दिया कि 'मैं सारे वियतनामियों को पाँव तले कुचल कर रख दूँगा।
    • दूसरे इलाकों में भी छात्र-छात्राओं ने सरकार की इस चाल का जमकर विरोध किया कि वियतनामी बच्चों को सफ़ेदपोश नौकरियों के लायक योग्यता न मिले।
    • ये विद्यार्थी देशभक्ति की भावानाओं से प्रेरित थे । उनको विश्वास था कि शिक्षितों को समाज के भले के लिए काम करना चाहिए।
    • उनकी इसी सोच के कारण न केवल फ्रांसीसियों के साथ बल्कि स्थानीय अभिजात्य वर्ग के साथ भी उनका टकराव बढ़ने लगा क्योंकि दोनों को ही लगता था कि इस तरह तो उनकी हैसियत और सत्ता खतरे में पड़ जाएगी।
    • 1920 के दशक तक आते-आते छात्र-छात्राएँ राजनीतिक पार्टियों बनाने लगे थे। उन्होंने यंग अन्नान जैसी पार्टियों बना ली थीं और वे अन्नानीज स्टूडेंट (अन्नान के विद्यार्थी) जैसी पत्रिकाएँ निकालने लगे थे।
    • पाठशालाएँ राजनीतिक सांस्कृतिक संघर्ष के अखाड़ों में तब्दील होने लगीं। शिक्षा पर नियंत्रण के माध्यम से फ्रांसीसी वियतनाम पर अपना कब्जा और मजबूत करने की फिराक में थे।
    • वे जनता की मूल्य मान्यताओं, तौर-तरीकों और रवैयों को > बदलने का प्रयास करने लगे ताकि लोग फ्रांसीसी सभ्यता को श्रेष्ठ और वियतनामियों को कमतर मानने लगें।
    • दूसरी तरफ़, वियतनामी बुद्धिजीवियों को लगता था कि फ्रांसीसियों के शासन में वियतनाम न केवल अपने भूभाग पर अपना नियंत्रण खोता जा रहा है बल्कि अपनी पहचान भी गँवाता जा रहा है।
    • उसकी संस्कृति और मूल्यों का अपमान किया जा रहा था और लोगों में राजा- वाल भाव पैदा हो रहा था। फ्रांसीसी औपनिवेशिक शिक्षा के खिलाफ चल रहा संघर्ष उपनिवेशवाद के विरोध और स्वतंत्रता के हक में चलने वाले व्यापक संघर्ष का हिस्सा बन गया था।
    कुछ महत्त्वपूर्ण तारीखं
    1802 न्यूयेन राजवंश के अंतर्गत राष्ट्रीय एकीकरण के प्रतीक न्यूयेन आन्ह की सम्राट के रूप में ताजपोशी होती है।
    1867 कोचिनचाइना (दक्षिण) फ्रांस का उपनिवेश बन जाता है।
    1887 कोचिनचाइना, अन्नम, टोकिन, कंबोडिया और बाद में। लाओस को मिला कर इंडो-चाइना यूनियन की स्थापना की जाती है।
    1930 हो ची मिन्ह वियतनामी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करते हैं।
    1945 वियेतमिन्ह जनविद्रोह शुरू करते हैं। बाओ दाई को गद्दी से हटा दिया जाता है। हो ची मिन्ह हनोई में स्वतंत्रता की घोषणा करते हैं (23 सितम्बर ) ।
    1954 दिएन बिएन फू के मोर्चे पर फ्रांसीसी सेना घुटने टेक देती है।
    1961 कैनेडी दक्षिणी वियतनाम के लिए अमेरिकी सैनिक सहायता बढ़ाने का निर्णय लेते हैं।
    1974 पेरिस शांति संधि |
    1975 (30 अप्रैल) एन.एल.एफ. की सैनिक टुकड़ियाँ साइगॉन में दाखिल होती हैं।
    1976 वियतनाम समाजवादी गणराज्य की स्थापना होती है।
    हनोई पर प्लेग का हमला
    • जब फ़्रांसीसियों ने एक आधुनिक वियतनाम की स्थापना का काम शुरू किया तो उन्होंने फैसला लिया कि वे हनोई का भी पुनर्निर्माण करेंगे।
    • एक नए 'आधुनिक' शहर का निर्माण करने के लिए वास्तुकला के क्षेत्र में सामने आ रहे नवीनतम विचारों और आधुनिक इंजीनियरिंग निपुणता का इस्तेमाल किया गया।
    • 1903 में हनोई के नवनिर्मित आधुनिक भाग में ब्यूबॉनिक प्लेग की महामारी फैल गई। बहुत सारे औपनिवेशिक देशों में इस बीमारी को फैलने से रोकने के लिए जो क़दम उठाए गए उनके कारण भारी सामाजिक तनाव पैदा हुए। परंतु हनोई के हालात तो कुछ ख़ास ही थे।
    • हनोई के फ़्रांसीसी आबादी वाले हिस्से को एक खूबसूरत और साफ़-सुथरे शहर के रूप में बनाया गया था। वहाँ चौड़ी सड़कें थीं और निकासी का बढ़िया इंतज़ाम था । 'देशी' बस्ती में ऐसी कोई आधुनिक सुविधाएँ नहीं थीं।
    • पुराने शहर का सारा कचरा और गंदा पानी सीधे नदी में बहा दिया जाता था। भारी बरसात या बाढ़ के समय तो सारी गंदगी सड़कों पर ही तैरने लगती थी।
    • प्लेग की शुरुआत ही उन चीजों से हुई थी जिनको शहर के फ़्रांसीसी भाग में स्वच्छ परिवेश बनाए रखने के लिए लगाया गया था। शहर के आधुनिक भाग में लगे विशाल सीवर आधुनिकता का प्रतीक थे। यही सीवर चूहों के पनपने के लिए भी आदर्श साबित हुए। ये सीवर चूहों की निर्बाध आवाजाही के लिए भी उचित थे। इनमें चलते हुए चूहे पूरे शहर में बेखटके घूमते थे। और इन्हीं पाइपों के रास्ते चूहे फ़्रांसीसियों के चाक- -चौबंद घरों में घुसने लगे।
    • इस घुसपैठ को रोकने के लिए 1902 ई. में चूहों को पकड़ने की मुहिम शुरू की गई। इस काम के लिए वियतनामियों को काम पर रखा गया और उन्हें हर चूहे के बदले ईनाम दिया जाने लगा।
    • वियतनामियों को चूहों के शिकार की इस मुहिम के ज़रिए सामूहिक सौदेबाज़ी का महत्त्व समझ में आने लगा था।
    • जो लोग सीवरों की गंदगी में घुस कर काम करते थे उन्होंने पाया कि अगर वे एकजुट हो जाएँ तो बेहतर मेहनताने के लिए सौदेबाजी कर सकते हैं।
    • इस स्थिति से फायदा उठाने के एक से एक नायाब तरीक़े भी ढूँढ़ निकाले । मज़दूरों को पैसा तब मिलता था जब वे यह साबित कर देते थे कि उन्होंने चूहे को पकड़ कर मार डाला है। सबूत के तौर पर उन्हें चूहे की पूँछ लाकर दिखानी पड़ती थी। इस प्रावधान का फायदा उठाते हुए मज़दूर ज्यादा पैसा कमाने के लिए चूहे को पकड़ कर उसकी पूँछ तो काट लेते थे पर चूहे को जिंदा छोड़ देते थे ताकि वे कभी खत्म न हों और उनको पकड़ने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहे। कुछ लोगों ने तो पैसे कमाने के लिए बाकायदा चूहे पालना शुरू कर दिया था।
    • निर्बलों के इस प्रतिरोध और असहयोग से तंग आकर आखिरकार फ्रांसीसियों ने चूहे के बदले पैसे देने की योजना ही बंद कर दी। लिहाजा, ब्यूबॉनिक प्लेग खत्म नहीं हुआ। न केवल 1903 में बल्कि अगले कुछ सालों तक यह बीमारी पूरे इलाके में फैल गई।
    • चूहों के आतंक की यह कहानी कई मायनों में फ़्रांसीसी सत्ता की सीमा और सभ्यता प्रसार के उनके मिशन में निहित अंतर्विरोधों को सामने ला देती है।
    धर्म और उपनिवेशवाद-विरोध
    • औपनिवेशिक वर्चस्व निजी और सार्वजनिक जीवन के तमाम पहलुओं पर नियंत्रण के रूप में सामने आता था। फ्रांसीसियों ने न केवल सैनिक ताक़त के सहारे वियतनाम पर कब्जा कर लिया था बल्कि वे वहाँ के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को भी पूरी तरह बदल देना चाहते थे। 
    • धर्म ने औपनिवेशिक शासन को मज़बूती प्रदान करने में अहम भूमिका अदा की लेकिन दूसरी ओर उसने प्रतिरोध के नए-नए रास्ते भी खोल दिए थे।
    • कन्फ्यूशियस ( 551-479 ईसा पूर्व) एक चीनी विचारक थे जिन्होंने सदाचार, व्यवहार बुद्धि और उचित सामाजिक संबंधों को आधार बनाते हुए एक दार्शनिक व्यवस्था विकसित की थी।
    • उनके सिद्धांतों के आधार पर लोगों को बड़े-बुजुर्गों व माता-पिता का आदर करने और उनका कहना मानने का पाठ पढ़ाया जाता था।
    • उन्हें सिखाया जाता था कि राजा और प्रजा का संबंध वैसा ही होना चाहिए जैसा माता-पिता का अपने बच्चों के साथ होता है।
    • वियतनामियों के धार्मिक विश्वास बौद्ध धर्म, कन्फ्यूशियसवाद और स्थानीय रीति-रिवाजों पर आधारित थे। फ्रांसीसी मिशनरी वियतनाम में ईसाई धर्म के बीज बोने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें वियतनामियों के धर्मिक जीवन में इस तरह का घालमेल पसंद नहीं था।
    • 18वीं सदी से ही बहुत सारे धार्मिक आंदोलन पश्चिमी शक्तियों के प्रभाव और उपस्थिति के खिलाफ जागृति फैलाने का प्रयास कर रहे थे।
    • 1868 का स्कॉलर्स रिवोल्ट (विद्वानों का विद्रोह) फ्रांसीसी क़ब्ज़े और ईसाई धर्म के प्रसार के खिलाफ शुरुआती आंदोलनों में से था।
    • इस आंदोलन की बागडोर शाही दरबार के अफसरों के हाथों में थी। ये अफ़सर कैथलिक धर्म और फ्रांसीसी सत्ता के प्रसार से नाराज़ थे। उन्होंने न्यू अन और हा तिएन प्रांतों में बगावतों का नेतृत्व किया और एक हज़ार से ज्यादा ईसाइयों का क़त्ल कर डाला।
    • कैथोलिक मिशनरी 17वीं सदी की शुरुआत से ही स्थानीय लोगों को ईसाई धर्म से जोड़ने में लगे हुए थे और 18वीं सदी के अंत तक आते-आते उन्होंने लगभग 3,00,000 लोगों को ईसाई बना लिया था।
    • फ्रांसीसियों ने 1868 के आंदोलन को तो कुचल डाला लेकिन इस बग़ावत ने फ्रांसीसियों के खिलाफ अन्य देशभक्तों में उत्साह का संचार जरूर कर दिया।
    • वियतनाम के अभिजात्य चीनी भाषा और कन्फ्यूशियसवाद की शिक्षा लेते थे। लेकिन किसानों के धार्मिक विश्वास बहुत सारी समन्वयवादी परंपराओं से जन्मे थे जिनमें बौद्ध धर्म और स्थानीय मूल्य-मान्यताओं, दोनों का सम्मिश्रण था।
    • वियतनाम में बहुत सारे पंथ ऐसे लोगों के ज़रिए फैले थे जिनका दावा था कि उन्होंने ईश्वर की आभा देखी है। इनमें से कुछ धार्मिक आंदोलन फ्रांसीसियों का समर्थन करते थे जबकि कुछ औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चलने वाले आंदोलनों के पक्षधर थे।
    • होआ हाओ ऐसा ही एक आंदोलन था। यह आंदोलन 1939 में शुरू हुआ था। हरे-भरे मेकांग डेल्टा इलाके में इसे भारी लोकप्रियता मिली। यह आंदोलन 19वीं सदी के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों में उपजे विचारों से प्रेरित था।
    • होआ हाओ आंदोलन के संस्थापक हुइन्ह फू सो थे। वह जादू-टोना और ग़रीबों की मदद किया करते थे। व्यर्थ खर्चे के खिलाफ उनके उपदेशों का लोगों में काफी असर था। वह बालिका वधुओं की खरीद-फरोख्त, शराब व अफीम के प्रखर विरोधी थे।
    • फ्रांसीसियों ने हुइन्ह फू सो के विचारों पर आधारित आंदोलन को कुचलने का कई तरह से प्रयास किया। उन्होंने फू सो को पागल घोषित कर दिया।
    • आखिरकार 1941 ई. में फ्रांसीसी डॉक्टरों ने भी मान लिया कि वह पागल नहीं हैं। इसके बाद फ्रांसीसी सरकार ने उन्हें वियतनाम से निष्कासित करके लाओस भेज दिया। उनके बहुत सारे समर्थकों और अनुयायियों को यातना शिविर (Concentration Camp) में डाल दिया गया।
    • इस तरह के आंदोलनों का राष्ट्रवाद की मुख्यधारा के साथ अंतर्विरोधी संबंध रहता था। राजनीतिक दल ऐसे आंदोलनों से जुड़े जनसमर्थन का फ़ायदा उठाने की तो कोशिश करते थे लेकिन उनकी गतिविधियों से बेचैन भी रहते थे।
    • राजनीतिक दलों को ऐसे समूहों पर नियंत्रण और अपना अनुशासन कायम करने में काफी परेशानी महसूस होती थी; न ही वे उनके रीति-रिवाजों और व्यवहारों का समर्थन कर पाते थे।
    आधुनिकीकरण की संकल्पना
    • 19वीं सदी के आखिर में फ्रांसीसियों के विरोध का नेतृत्व प्रायः कन्फ्यूशियन विद्वानों कार्यकर्ताओं के हाथों में होता था जिन्हें अपनी दुनिया बिखरती दिखाई दे रही थी।
    • कन्फ्यूशियन परंपरा में शिक्षित फान बोई चाऊ (1867-1940) · ऐसे ही एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी थे। 1903 में उन्होंने 'रेवोल्यूशनरी सोसायटी' (दुई तान होई) नामक पार्टी का गठन किया और तभी से वह उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के एक अहम नेता बन गए थे। राजकुमार कुआंग दे इस पार्टी के मुखिया थे।
    • फान बोई चाऊ ने 1905 में चीनी सुधारक लियाँग किचाओ (1873-1929) से योकोहामा में भेंट की। फान की सबसे प्रभावशाली पुस्तक, द हिस्ट्री ऑफ द लॉस ऑफ़ वियतनाम, लियाँग की सलाह और प्रभाव में ही लिखी गई थी।
    • यह किताब एक-दूसरे से जुड़े दो विचारों पर केंद्रित हैं : एक, देश की संप्रभुता का नाश, और दूसरा, दोनों देशों के अभिजात्य वर्ग को एक संस्कृति में बाँधने वाले वियतनाम - चीन संबंधों का टूटना।
    • फान अपनी पुस्तक में इसी दोहरे नाश का विलाप करते हैं। उनके शोक का अंदाज़ वैसा ही था जैसा परंपरागत अभिजात्य तबके से निकले सुधारकों का दिखाई देता था।
    • अन्य राष्ट्रवादी फान बोई चाऊ के विचारों से गहरे तौर पर असहमत थे। फान चू त्रिन्ह (1871-1926) ऐसे नेताओं में प्रमुख थे। वे राजशाही / राजतंत्र के कट्टर विरोधी थे। वह एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करना चाहते थे।
    • पश्चिम के लोकतांत्रिक आदर्शों से प्रभावित त्रिन्ह पश्चिमी सभ्यता को पूरी तरह खारिज करने के खिलाफ थे। उन्हें मुक्ति के फ्रांसीसी क्रांतिकारी आदर्श तो पसंद थे लेकिन उनका आरोप था कि खुद फ्रांसीसी ही उन आदर्शों का अनुसरण नहीं कर रहे हैं।
    • उनकी माँग थी कि फ्रांसीसी शासक वियतनाम में वैधानिक एवं शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना करें और कृषि व उद्योगों का विकास करें।
    आधुनिक बनने के अन्य तरीके
    • प्रारंभिक वियतनामी राष्ट्रवादियों के जापान और चीन के साथ काफी घनिष्ठ संबंध थे। जापान और चीन न केवल बदलाव का प्रतीक थे बल्कि फ्रांसीसी पुलिस से बच निकलने वालों के लिए शरणस्थली भी थे। इन देशों में एशियाई क्रांतिकारियों के नेटवर्क बने हुए थे।
    • 20वीं सदी के पहले दशक में 'पूरब की ओर चलो' आंदोलन काफी तेज था। 1907-1908 में लगभग 300 वियतनामी विद्यार्थी आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए जापान गए थे। उनमें से बहुतों का सबसे बड़ा लक्ष्य यही था कि फ्रांसीसियों को वियतनाम से निकाल बाहर किया जाए, कठपुतली सम्राट को गद्दी से हटा दिया जाए और फ्रांसीसियों द्वारा अपमानित करके गद्दी से हटा दिए गए न्यूयेन राजवंश को दोबारा गद्दी पर बिठाया जाए।
    • इन राष्ट्रवादियों को विदेशी हथियार और मदद लेने से कोई परहेज़ नहीं था। इसके लिए उन्होंने एशियाई होने के नाते जापानियों से मदद माँगी। जापान आधुनिकीकरण के रास्ते पर काफी आगे बढ़ चुका था।
    • जापानियों ने पश्चिम द्वारा गुलाम बनाए जाने की कोशिशों का भी सफलतापूर्वक विरोध किया था। 1907 में रूस पर विजय प्राप्त करके जापान अपनी सैनिक ताक़त का भी लोहा मनवा चुका था।
    • वियतनामी विद्यार्थियों ने टोक्यो में भी 'रेस्टोरेशन सोसायटी' की स्थापना कर ली थी लेकिन 1908 में जापानी गृह मंत्रालय ने ऐसी गतिविधियों का दमन शुरू कर दिया ।
    • फान बोई चाऊ सहित बहुत सारे लोगों को जापान से निकाला जाने लगा और उन्हें मजबूरन चीन व थाईलैंड में शरण लेनी पड़ी।
    • चीन के घटनाक्रम ने भी वियतनामी राष्ट्रवादियों के हौसले बढ़ा दिए थे। सुन यात सेन के नेतृत्व में चले आंदोलन के ज़रिए जनता ने लंबे समय से चीन पर शासन करते आ रहे राजवंश को 1911 में गद्दी छोड़ने पर विवश कर दिया और वहाँ गणराज्य की स्थापना की गई।
    • इन घटनाओं से प्रेरणा लेते हुए वियतनामी विद्यार्थियों ने भी वियतनाम मुक्ति एसोसिएशन (वीयेत- नाम कुवान फुक होई) की स्थापना कर डाली । अब फ्रांस-विरोधी स्वतंत्रता आंदोलन का स्वरूप बदल चुका था।
    कम्युनिस्ट आंदोलन और वियतनामी राष्ट्रवाद
    • 1930 के दशक में आई महामंदी का वियतनाम पर भी गहरा असर पड़ा। रबड़ और चावल के दाम गिर गए और क़र्ज़ा बढ़ने लगा। चारों तरफ़ बेरोजगारी और ग्रामीण विद्रोहों का बोलबाला था। न्पे अन और हा तिन्ह प्रांतों में भी ऐसे ही आंदोलन हुए।
    • फरवरी 1930 में हो ची मिन्ह ने राष्ट्रवादियों के अलग-थलग समूहों और गुटों को एकजुट करके वियतनामी कम्युनिस्ट (वियतनाम काँग सान देंग) पार्टी की स्थापना की जिसे बाद में इंडो-चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया गया। हो ची मिन्ह यूरोपीय कम्युनिस्ट पार्टियों के उग्र आंदोलनों से काफी प्रभावित थे।
    • 1940 में जापान ने वियतनाम पर कब्ज़ा कर लिया। जापान पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया पर कब्ज़ा करना चाहता था। ऐसे में अब राष्ट्रवादियों को फ्रांसीसियों के साथ-साथ जापानियों से भी लोहा लेना था। बाद में वियेतमिन्ह के नाम से जानी गई लीग फॉर द इंडिपेंडेस ऑफ वियतनाम (वियतनाम स्वतंत्रता लीग) ने जापानी कब्ज़े का मुँहतोड़ जवाब दिया और सितंबर 1945 में हनोई को आज़ाद करा लिया।
    • इसके बाद वियतनाम लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की गई और हो ची मिन्ह को उसका अध्यक्ष चुना गया।
    वियतनाम गणराज्य
    • नए गणराज्य के सामने बहुत सारी चुनौतियाँ थीं। फ्रांसीसी शासक सम्राट बाओ दाई को कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते हुए देश पर कब्जा जमाए रखने की कोशिश कर रहे थे।
    • फ्रांसीसी हमले को देखते हुए वियेतमिन्ह के सदस्यों को पहाड़ी इलाकों में शरण लेनी पड़ी। आठ साल तक चली लड़ाई में आखिरकार फ्रांसीसियों को दिएन बिएन फू के मोर्चे पर मुँह की खानी पड़ी।
    • फ्रांसीसी सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर जनरल हेनरी नावारे ने 1953 में ऐलान किया था कि उनकी सेना जल्दी ही विजयी होगी। लेकिन 7 मई 1954 को वियेतमिन्ह ने फ्रांसीसी एक्सपीडिशनिरी कोर के बहुत सारे सैनिकों को मार गिराया और 16,000 से ज्यादा को क़ैद कर लिया।
    • एक जनरल, 16 कर्नलों और 1,749 अफ़सरों सहित पूरे कमांडिंग दस्ते को पकड़ लिया गया।
    • फ्रांसीसियों की पराजय के बाद जिनेवा में चली शांति वार्ताओं में वियतनामियों को देश विभाजन का प्रस्ताव मानने के लिए बाध्य कर दिया गया।
    • उत्तरी और दक्षिणी वियतनाम, दो अलग-अलग देश बन गए। उत्तरी भाग में हो ची मिन्ह और कम्युनिस्टों की सत्ता स्थापित हुई जबकि दक्षिणी वियतनाम में बाओ डाई की सत्ता बनी रही।
    • इस बँटवारे से पूरा वियतनाम युद्ध के मोर्चे में तब्दील होकर रह गया। देश के अपने ही लोगों और पर्यावरण की तबाही होने लगी। कुछ समय बाद दिएम के नेतृत्व में हुए तख्तापलट में बाओ डाई को गद्दी से हटा दिया गया।
    • दिएम की अगुवाई में एक और दमनकारी व निरंकुश शासन की स्थापना हुई। उसका विरोध करने वालों को कम्युनिस्ट कहकर जेल में डाल दिया जाता था या मार दिया जाता था।
    • दिएम ने अध्यादेश 10 को भी नहीं हटाया जिसमें ईसाई धर्म को तो मान्यता दी गई थी लेकिन बौद्ध धर्म को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। उसके तानाशाही शासन के ख़िलाफ़ नेशनल लिबरेशन फ्रंट (एन.एल.एफ.) के नाम से एक व्यापक मोर्चा बनाया गया।
    • उत्तरी वियतनाम में हो ची मिन्ह के नेतृत्व वाली सरकार की सहायता से एन.एल.एफ. ने देश के एकीकरण के लिए आवाज उठाई। अमेरिका इस गठबंधन की बढ़ती ताकत और उसके प्रस्तावों से भयभीत था।
    • पूरे वियतनाम पर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा होने के भय से अमेरिका ने अपनी फौजें और गोला-बारूद वियतनाम में तैनात करना शुरू कर दिया। अमेरिका इस खतरे से सख्ती निपटना चाहता था।
    हो ची मिन्ह ( 1890-1969 )
    • हो ची मिन्ह की शुरुआती जिंदगी के बारे में ज्यादा जानकारियाँ | उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि वह अपनी निजी पृष्ठभूमि के बारे में बहुत बात नहीं करते थे। उन्होंने खुद को वियतनाम की आज़ादी के लिए झोंक दिया था।
    • उनका जन्म मध्य वियतनाम में हुआ और उनका असली नाम संभवतः न्यूयेन वान थान्ह था। हो न भी उन्हीं फ्रांसीसी स्कूलों में शिक्षा पाई थी न्गो दिन्ह दिएम, वो न्यूयेन ग्याप, और फान वान देंग जैसे नेता निकले थे। 
    • 1910 में कुछ समय के लिए उन्होंने बच्चों को पढ़ाया। 1911 में उन्होंने बेकिंग सीखी और साइगॉन से मार्सेई जाने वाले फ्रांसीसी जहाज़ पर नौकरी कर ली ।
    • बाद में हो कॉमिन्टर्न के सक्रिय सदस्य बन गए और लेनिन व अन्य नेताओं से मिले। यूरोप, थाईलैंड और चीन में 30 साल बिताने के बाद मई 1941 में वह वियतनाम लौट आए। 1943 में उन्होंने अपना नाम बदल कर हो ची मिन्ह (पथप्रदर्शक) रख लिया।
    • जब वियतनाम लोक गणराज्य की स्थापना हुई तो उन्हें राष्ट्रपति चुना गया। 3 सितंबर 1969 को हो ची मिन्ह की मृत्यु हो गई। उन्होंने वियतनाम की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करते हुए 40 साल से भी ज्यादा समय तक पार्टी का नेतृत्व किया।
    युद्ध में अमेरिका का प्रवेश
    • अमेरिका के भी युद्ध में कूद पड़ने से वियतनाम में एक नया दौर शुरू हुआ। 1965 से 1972 के बीच अमेरिका के 34,03,100 सैनिकों ने वियतनाम में काम किया जिनमें से 7. .484 महिलाएँ थीं।
    • अमेरिका के साथ संघर्ष का यह दौर काफी यातनापूर्ण और निर्मम रहा। इस युद्ध में बड़े-बड़े हथियारों और टैंकों से लैस हज़ारों अमेरिकी सैनिक वियतनाम में झोंक दिए गए थे। उनके पास बी 52 बमवर्षक विमान भी मौजूद थे जिन्हें उस समय दुनिया का सबसे खतरनाक युद्धक विमान माना जाता था।
    • चौतरफा हमलों और रासायनिक हथियारों के बेतहाशा इस्तेमाल से असंख्य गाँव नष्ट हो गए और विशाल जंगल तहस-नहस कर दिए गए।
    • अमेरिकी फ़ौजों ने नापाम, एजेंट ऑरेंज और फ़ॉस्फोरस बम जैसे घातक रासायनिक हथियारों का जमकर इस्तेमाल किया। इन हमलों में असंख्य साधारण नागरिक मारे गए।
    एजेंट ऑरेंज : घातक ज़हर
    • एजेंट ऑरेंज एक ऐसा ज़हर है जिसके छिड़काव से पेड़ों की पत्तियाँ झड़ जाती हैं और पौधे मर जाते हैं। उसे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उसे जिन ड्रमों में रखा जाता था उन पर नारंगी (यानी ऑरेंज) रंग की पट्टियाँ बनी होती थीं।
    • 1961 से 1971 के बीच अमेरिकी फ़ौज़ों के मालवाही विमानों ने वियतनाम पर लगभग 1.1 करोड़ गैलन एजेंट ऑरेंज का छिड़काव किया था।
    • युद्ध का असर अमेरिका में भी साफ महसूस किया जा सकता था। वहाँ के बहुत सारे लोग इस बात के लिए सरकार का विरोध कर रहे थे कि उसने देश की फौजों को एक ऐसे युद्ध में झोंक दिया है जिसे किसी भी हालत में जीता नहीं जा सकता।
    नापाम
    • अग्नि बमों के लिए गैसोलीन को फुलाने में इस्तेमाल होने वाला एक ऑर्गेनिक कंपाउंड।
    • यह मिश्रण धीरे-धीरे जलता है और मानव त्वचा जैसी किसी भी सतह के संपर्क में आने पर उससे चिपक जाता है और जलता रहता है।
    • अमेरिका में विकसित किए गए इस रसायन का दूसरे विश्व युद्ध में प्रयोग किया गया था।
    • भारी अंतर्राष्ट्रीय विरोध के बावजूद इसका वियतनाम में भी। बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया।
    वियतनाम युद्ध
    • वियतनाम युद्ध अमेरिकी सैनिकों के लिए मौत का फंदा बन चुका था। अमेरिका को इस युद्ध में अपने करीब 58,000सैनिकों को गंवाना पड़ा।
    • अमेरिका ने कई जंगें लड़ी हैं और कई जीती हैं लेकिन कुछ युद्ध उसके लिए गले की हड्डी बन गए थे, न निगलते बन रहा था और न उगलते बन रहा था। ऐसा ही एक युद्ध वियतनाम का युद्ध है।
    • वियतनाम पर 19वीं सदी से फ्रांस का कब्जा रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान ने वियतनाम पर हमला किया। अब वियतनाम को एक साथ दो मोर्चे पर लड़ना था।
    • एक तरफ उसे जापान की फौज से लड़ना था तो दूसरी तरफ उसे फ्रांस के औपनिवेशिक शासन को भी उखाड़ फेंकना था। दोनों काम को एक साथ अंजाम देने के लिए हो चो मिन्ह ने वियत मिन्ह या वियतनाम की आजादी के लिए लीग की स्थापना की।
    • हो चो मिन्ह वियतनाम के राजनेता थे जो चीनी और सोवियत साम्यवाद से काफी प्रभावित थे। दूसरे विश्व युद्ध में अपनी हार के बाद जापान की सेना वियतनाम से निकल गई।
    • जापान के निकलने से वियतनाम पर सम्राट बाओ डाई का कब्जा हो गया जिन्होंने फ्रांस से पढ़ाई की थी और उनको फ्रांस का समर्थन प्राप्त था। यानी वियतनाम पर फ्रांस की कठपुतली सरकार का शासन था।
    • हो को वियतनाम पर कब्जा करने का मौका दिखा। उनकी वियत मिन्ह सेना ने हनोई के उत्तरी शहर पर कब्जा कर लिया और उसे लोकतांत्रिक गणराज्य वियतनाम (डीआरवी) करार दिया। हो चो मिन्ह को उसका राष्ट्रपति बनाया गया।
    • फ्रांस की मदद से सम्राट बाओ ने उस क्षेत्र को फिर से अपने कब्जे में करने के लिए मुहिम छेड़ा। जुलाई 1949 में उन्होंने वियतनाम राज्य का गठन किया।
    • साइगोन को उसकी राजधानी बनाई गई। दोनों चाहते थे कि वियतनाम का एकीकरण हो। लेकिन सिस्टम को लेकर उनके बीच मतभेद था।
    • हो और उनके समर्थक चाहते थे कि उनके देश को अन्य कम्यूनिस्ट देशों के मॉडल पर विकसित किया जाए। वहीं बाओ और अन्य लोगों की चाहत थी कि वियतनाम पश्चिमी देशों का मॉडल अपनाए।
    वियतनाम का युद्ध का प्रारम्भ
    • वियतनाम युद्ध में अमेरिका की सक्रिय भागीदारी 1954 में शुरू हुई। हो की साम्यवादी सेना का उत्तरी वियतनाम पर कब्जा होने के बाद उत्तरी और दक्षिणी भाग की सेनाओं के बीच युद्ध शुरू हो गया।
    • मई 1954 में उनके बीच निर्णायक युद्ध हुआ। उसमें वियत मिन्ह सेना जीत गई। युद्ध में फ्रांस की हार के साथ ही वियतनाम में फ्रांस के औपनिवेशिक शासन का अंत हुआ।
    • जुलाई 1954 में जेनेवा कॉन्फ्रेंस में एक संधि हुई जिसमें वियतनाम को दो भागों में बांट दिया गया।
    • हो के कब्जे में उत्तरी वियतनाम रहा जबकि बाओ के कब्जे में दक्षिणी वियतनाम । संधि में प्रावधान था कि देश का फिर से एकीकरण के लिए 1956 में चुनाव होगा।
    • 1955 में न्गो दिन्ह दिएम नाम के राजनीतिज्ञ ने सम्राट बाओ का तख्तापलट कर दिया।
    • वह वियतनाम गणराज्य की सरकार (जीवीएन) के राष्ट्रपति बन गए। उस दौरान जीवीएन को दक्षिण वियतनाम के नाम से जाना जाता था।
    • इसी बीच दुनिया भर में शीत युद्ध जोर पकड़ने लगा था। अमेरिका ने शीत युद्ध के मद्देनजर सोवियत संघ के सहयोगियों के खिलाफ अपनी पॉलिसी को काफी सख्त कर दिया था।
    • 1955 में अमेरिकी राष्ट्रपति ड्विट डी. आइजन हावर ने डिएम और दक्षिण वियतनाम को पुरजोर सहायता करने की कसम खाई।
    • दक्षिण वियतनाम की सरकार को अमेरिकी सेना और सीआईए ने हथियार मुहैया कराए। दक्षिण वियतनाम की सेना को भी प्रशिक्षण दिया गया।
    • अमेरिका ने वहां अपने सैनिक भेज दिए। इसके बाद दिएम की सेना ने दक्षिण वियतनाम में वियत मिन्ह के समर्थकों पर शिकंजा कसना शुरू किया।
    • करीब 1 लाख लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें से कई को बुरी तरह टॉर्चर किया गया और प्रताड़ना दी गई ।
    • दक्षिण वियतनाम की सरकार वियत मिन्ह के समर्थकों को वियत कॉन्ग या वियतनाम का कम्यूनिस्ट कहती थी। 1957 के बाद वियत कॉन्ग और दिएम के अन्य विरोधियों ने सरकारी अधिकारियों एवं अन्य लक्ष्यों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। 1959 तक दक्षिणी वियतनाम की सेना के साथ उनकी सशस्त्र लड़ाई शुरू हो गई। 
    • दिसंबर 1960 में दिएम के विरोधियों ने उसके दमनकारी शासन का विरोध करने के लिए राष्ट्रीय मुक्ति मोर्च (एनएलएफ) का गठन किया। उसमें दिएम के विरोधी कम्यूनिस्ट और गैर कम्यूनिस्ट दोनों शामिल थे।
    • एनएलएफ ने खुद को स्वायत्त घोषित किया लेकिन वॉशिंगटन को लगता था कि एनएलएफ उत्तरी वियतनाम की कठपुतली है। वॉशिंगटन ने इसके लिए दक्षिण वियतनाम का सर्वे कराया।
    • रिपोर्ट में वियत कॉन्ग के खतरे से निपटने के लिए डिएम को सैन्य, आर्थिक और तकनीकी सहायता देने का सुझाव दिया गया। वैसे तो 1954 में ही अमेरिकी सैनिक वियतनम में पहुंच गए थे लेकिन उस समय उनकी तादाद 800 से कम ही थी। 1962 तक उनकी तादाद 9,000 हो गई । 
    टोंकिन की खाड़ी में अमेरिकी पोतों पर हमला
    • नवंबर 1963 में दिएम के जनरलों ने बगावत कर दी। दिएम की सरकार गिरा दी गई। उसकी और उसके भाई की हत्या कर दी गई। ऊधर उससे तीन हफ्ते पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी की हत्या कर दी गई ।
    • दक्षिण वियतनाम में बदल रही परिस्थिति ने केनेडी के उत्तराधि कारी लिंडन बी. जॉनसन को वियतनम में अमेरिकी सैन्य और आर्थिक सहयोग बढ़ाने की जरूरत महसूस हुई।
    • अगस्त 1964 में अमेरिका के दो जहाजों पर टोंकिन की खाड़ी में हमला हुआ। इसके बाद अमेरिका ने उत्तरी वियतनाम में बदले की कार्रवाई के तौर पर बमबारी का आदेश दिया।
    • अगले साल अमेरिकी जहाजों ने वियतनाम में बमबारी शुरू कर दी। वियतनाम में अमेरिका अपने इस ऑपरेशन का नाम ऑपरेशन थंडर रखा।
    • मार्च 1965 में जॉनसन ने वियतनाम के युद्ध में और सैनिकों को भेजने का फैसला लिया। जॉनसन ने वियतनाम में सैनिकों की संख्या बढ़ाकर करीब 4.5 लाख कर दी।
    • वियतनाम में अमेरिका की ओर से खूब बमबारी होने लगी। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान में जितने बम गिराए थे, उससे चार गुना ज्यादा वियतनाम में गिराए गए।
    अपने वादे से मुकरा अमेरिका
    • जेनेवा संधि के समय अमेरिका ने वियतनाम में 1956 चुनाव का वादा किया था। लेकिन बाद में उससे मुकर गया जिससे जॉनसन की विश्वसनीयता घटी।
    • ऊधर चीन और सोवियत संघ ने उत्तरी वियतनाम की मदद नाटकीय तौर पर बढ़ा दी। वियतनाम के लोग अपनी सरकार के साथ खड़े थे।
    • वह देश के लिए मरने-मारने को तैयार थे। वियतनाम की सेना के साथ मिलकर वहां के नागरिक भी अमेरिकी सैनिकों को चुन-चुनकर मारने लगे।
    • साल 1968 तक अमेरिकी सैनिकों का हौसला जवाब दे चुका था। वे जीत की उम्मीद छोड़ चुके थे। वे किसी तरह अपनी जान बचाने में जुट गए थे।
    • अमेरिका ने उत्तरो वियतनाम के साथ बातचीत शुरू की लेकिन 1972 ई. तक वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे। कम्यूनिस्टों ने एक बार फिर जोरदार हमला किया। फिर अमेरिका ने मई और जून 1972 ई. में उत्तरी वियतनाम में खूब बमबारी की।
    • उत्तरी वियतनाम की ओर से भी बराबर बदले की कार्रवाई की गई। अमेरिका ने भले ही खूब बमबारी की लेकिन जमीनी स्तर उनके सैनिकों का हौसला टूट चुका था।
    • बड़ी संख्या में सैनिकों के मारे जाने से अमेरिका पर अपने सैनिकों को वापस बुलाने का दबाव था।
    युद्ध का अंत
    • आखिरकार जनवरी 1973 में अमेरिका और उत्तरी वियतनाम के बीच एक शांति संधि हुई।
    • इस संधि के साथ ही अमेरिका और वियतनाम के बीच युद्ध का अंत हो गया। लेकिन उत्तरी और दक्षिण वियतनाम के बीच लड़ाई जारी रहो।
    • 30 अप्रैल, 1975 को डीआरवी सेना ने साइगोन पर कब्जा कर लिया और उसका नाम हो चो मिन्ह शहर कर दिया।
    • 1976 में डीआरवी ने वियतनाम का एकीकरण किया और उसका नाम समाजवादी गणराज्य वियतनाम हो गया।
    अमेरिका और वियतनाम का नुकसान
    • युद्ध में दोनों पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। वियतनाम के करीब 20 लाख लोगों को मारे जाने और 30 लाख के करीब लोगों को घायल होने का अनुमान है।
    • करीब 1.2 करोड़ लोगों ने दूसरे देशों में शरण लिया। अमेरिका को अरबों डॉलर पैसा खर्च करना पड़ा और उसके करीब 58,000 सैनिक मारे गए।
    हो ची मिन्ह भूलभुलैया मार्ग
    • हो ची मिन्ह मार्ग को देखने पर इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि वियतनामियों ने अमेरिका के विरुद्ध किस तरह लोहा लिया। इससे पता चलता है कि वियतनाम के लोग अपने सीमित संसाधनों का भी कितनी सूझबूझ से इस्तेमाल करना जानते थे।
    • फुटपाथों और सड़कों के इस विशाल नेटवर्क जरिए देश के उत्तर से दक्षिण की ओर सैनिक व रसद भेजी जाती थी।
    • 50 के दशक के आखिर में इस मार्ग को काफी बेहतर बना दिया गया था और 1967 के बाद हर महीने लगभग 20, 000 उत्तरी वियतनामी सैनिक इसी रास्ते से होते हुए दक्षिणी वियतनाम पहुँचने लगे थे।
    • इस मार्ग का ज्यादातर हिस्सा वियतनाम के बाहर लाओस और कंबोडिया में पड़ता था और उसके कई सिरे दक्षिणी वियतनाम में पहुँच जाते थे।
    • अमेरिकी टुकड़ियों ने वियतनामी सैनिकों के लिए रसद की आपूर्ति को बंद करने के लिए इस मार्ग पर कई बार बम बरसाए। पर बेहिसाब बमबारी के बावजूद वे इस सप्लाई लाइन को ध्वस्त नहीं कर पाए।
    • अमेरिकी इस मार्ग को इसलिए नहीं तोड़ पाए क्योंकि वहाँ के लोग हर हमले के बाद उसकी फौरन मरम्मत कर लेते थे।
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    Sun, 26 Nov 2023 08:44:55 +0530 Jaankari Rakho
    BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय https://m.jaankarirakho.com/477 https://m.jaankarirakho.com/477 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय

    यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय

    फ्रांसीसी क्रांति और राष्ट्र का विचार
    • राष्ट्रवाद की पहली स्पष्ट अभिव्यक्ति 1789 ई. में फ्रांसीसी क्रांति के साथ हुई।
    • 1789 में फ्रांस एक ऐसा राज्य था जिसके संपूर्ण भू-भाग पर एक निरंकुश राजा का आधिपत्य था।
    • फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने ऐसे अनेक क़दम उठाए जिनसे फ्रांसीसी लोगों में एक सामूहिक पहचान की भावना पैदा हो सकती थी।
    • पितृभूमि (la patrie) और नागरिक (le citoyen) जैसे विचारों ने एक संयुक्त समुदाय के विचार पर बल दिया, जिसे एक संविधान के अंतर्गत समान अधिकार प्राप्त थे। अतः एक नया फ्रांसीसी झंडा-तिरंगा ( the tricolour) चुना गया जिसने पहले के राजध्वज की जगह ले ली।
    • इस्टेट जेनरल का चुनाव सक्रिय नागरिकों के समूह द्वारा किया जाने लगा और उसका नाम बदल कर 'नेशनल एसेंबली' कर दिया गया।
    • एक केंद्रीय प्रशासनिक व्यवस्था लागू की गई जिसने अपने भू-भाग में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनाए ।
    • आंतरिक आयात-निर्यात शुल्क समाप्त कर दिए गए और भार तथा नापने की एकसमान व्यवस्था लागू की गई। क्षेत्रीय बोलियों को 'हतोत्साहित किया गया और पेरिस में फ्रेंच जैसी बोली और लिखी जाती थी, वही राष्ट्र की साझा भाषा बन गई।
    • क्रांतिकारियों ने यह भी घोषणा की कि फ्रांसीसी राष्ट्र का यह भाग्य और लक्ष्य था कि वह यूरोप के लोगों को निरंकुश शासकों से मुक्त कराए। दूसरे शब्दों में, फ़्रांस यूरोप के अन्य लोगों को राष्ट्रों में गठित होने में मदद देगा।
    • फ्रांस की घटनाओं की ख़बर यूरोप के विभिन्न शहरों में पहुँची तो छात्र तथा • शिक्षित मध्य वर्गों के अन्य सदस्य जैकोबिन क्लबों की स्थापना करने लगे।
    • क्रांतिकारी युद्धों के शुरू होने के साथ ही फ्रांसीसी सेनाएँ राष्ट्रवाद के विचार को विदेशों में ले जाने लगीं।
    • नेपोलियन के नियंत्रण में जो विशाल क्षेत्र आया वहाँ उसने ऐसे अनेक सुधारों की शुरुआत की जिन्हें फ़्रांस में पहले ही आरंभ किया जा चुका था।
    • फ्रांस में राजतंत्र वापस लाकर नेपोलियन ने नि:संदेह वहाँ प्रजातंत्र को नष्ट किया था। मगर प्रशासनिक क्षेत्र में उसने क्रांतिकारी सिद्धांतों का समावेश किया ताकि पूरी व्यवस्था अधिक तर्कसंगत और कुशल बन सके।
    • 1804 ई. की नागरिक संहिता जिसे आमतौर पर नेपोलियन की संहिता के नाम से जाना जाता है, ने जन्म के आधार पर विशेषाधिकार समाप्त कर दिए। उसने क़ानून के समक्ष बराबरी और संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया। इस संहिता को फ्रांसीसी नियंत्रण के अधीन क्षेत्रों में भी लागू किया गया।

    • डच गणतंत्र, स्विट्जरलैंड, इटली और जर्मनी में नेपोलियन ने प्रशासनिक विभाजनों को सरल बनाया, सामंती व्यवस्था को खत्म कर किसानों को भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलाई।
    • शहरों में कारीगरों के श्रेणी-संघों के नियंत्रणों को हटा दिया गया। यातायात और संचार व्यवस्थाओं को सुधारा गया।
    फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम
    • निरंकुश शासन का अंत कर प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणाली की नींव डाली गई।
    • प्रशासन के साथ-साथ सामजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
    • फ्रांस की क्रांति ने निरंकुश शासन का अंत कर लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया।
    • क्रांति के पूर्व फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों के शासक निरंकुश थे। उनपर किसी प्रकार का वैधानिक अंकुश नहीं था ।
    • क्रांति ने राजा के विशेषाधिकारों और दैवी अधिकार सिद्धांत पर आघात किया। इस क्रांति के फलस्वरूप सामंती प्रथा (Feudal System) का अंत हो गया।
    • कुलीनों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए। किसानों को सामंती कर से मुक्त कर दिया गया। कुलीनों और पादरियों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गये।
    • लोगों को भाषण-लेखन तथा विचार-अभीव्यक्ति का अधिकार दिया गया। फ्रांस की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कर प्रणाली ( tax system) सुधार लाया गया।
    • कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका को एक-दूसरे से पृथक् कर दिया गया। अब राजा को संसद के परामर्श से काम करना पड़ता था।
    • न्याय को सुलभ बनाने के लिए न्यायालय का पुनर्गठन किया गया। सरकार के द्वारा सार्वजनिक शिक्षा की स्था की। गई। फ्रांस में एक एक प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित की गई, एक प्रकार के आर्थिक नियम बने और नाप-तौल की नयी व्यवस्था चालू की गई।
    • लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली। उन्हें किसी भी धर्म के पालन और प्रचार का अधिकार मिला। पादरियों को संविधान के प्रति वफादारी की शपथ लेनी पड़ती थी । French Revolution ने लोगों को विश्वास दिलाया कि राजा एक अनुबंध के अंतर्गत प्रजा के प्रति उत्तरदायी है।
    • यदि राजा अनुबंध को भंग करता है तो प्रजा का अधिकार है कि वह राजा को पदच्युत कर दे। यूरोप के अनेक देशों में निरंकुश राजतंत्र को समाप्त कर प्रजातंत्र की स्थापना की गयी।
    कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ
    1797 नेपोलियन का इटली पर हमला; नेपोलियाई युद्धों की शुरूआत
    1814-1815 नेपोलियन का पतन; वियना शांति संधि
    1821 यूनानी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष प्रारंभ
    1848 फ्रांस में क्रांति; आर्थिक परेशानियों से ग्रस्त कारीगर, औद्योगिक मजदूरों और किसानों की बगावत; मध्यवर्ग संविधान और प्रतिनिध्यात्मक सरकार के गठन की माँग; इतालवी, जर्मन, मैग्यार, पोलिश, चेक आदि के द्वारा राष्ट्र राज्यों की मांग।
    1859-1870 इटली का एकीकरण
    1866-1871 जर्मनी का एकीकरण
    1905 हैब्सबर्ग और ऑटोमन साम्राज्यों में स्लाव राष्ट्रवाद मज़बूत हुआ
    यूरोप में राष्ट्रवाद का निर्माण में
    • जर्मनी, इटली और स्विट्ज़रलैंड पहले राजशाहियों, डचियों (duchies) और कैंटनों (cantons) में बँटे हुए थे, जिनमें शासकों के स्वायत्त क्षेत्र थे।
    • पूर्वी और मध्य यूरोप निरंकुश राजतंत्रों के अधीन थे और इन इलाकों में तरह-तरह के लोग रहते थे। वे अपने आप को एक सामूहिक पहचान या किसी समान संस्कृति का भागीदार नहीं मानते थे।
    • अकसर वे अलग-अलग भाषाएँ बोलते थे और विभिन्न जातीय समूहों के सदस्य थे। उदाहरण के तौर पर, ऑस्ट्रिया-हंगरी पर शासन करने वाला हैब्सबर्ग साम्राज्य कई अलग-अलग क्षेत्रों और जनसमूहों को मिलाकर बना था। ऐल्प्स के टिरॉल, ऑस्ट्रिया और सुडेटेनलैंड जैसे इलाकों के साथ-साथ बोहेमिया भी शामिल था जहाँ के कुलीन वर्ग में जर्मन भाषा बोलने वाले ज्यादा थे।
    • हैब्सबर्ग साम्राज्य में लॉम्बार्डी और वेनेशिया जैसे इतालवी-भाषी प्रांत भी शामिल थे।
    • हंगरी में आधे लोग मैग्यार भाषा बोलते थे जबकि बाकी लोग विभिन्न बोलियों का इस्तेमाल करते थे। गालीसिया में कुलीन वर्ग पोलिश भाषा बोलता था।
    • इन प्रभावशाली समूहों के अलावा, हैब्सबर्ग साम्राज्य की सीमा में भारी संख्या में खेती करने वाले लोग अधीन अवस्था में रहते थे- जैसे उत्तर में बोहेमियन और स्लोवाक, कार्निओला में स्लोवेन्स, दक्षिण में क्रोएट तथा पूरब की तरफ़ ट्रांसिल्वेनिया में रहने वाले राउमन लोग।
    यूरोप में राष्ट्रवाद
    • वस्तुत: "राष्ट्र" शब्द का इस्तेमाल अंग्रेजी भाषा के शब्द “नेशन" के पर्यायवाची के रूप में किया जाता रहा है लेकिन दोनों में एक बुनियादी फर्क है।
    • 'राष्ट्र' से हमारा अभिप्राय किसी विशेष भूभाग, क्षेत्र या इलाके से रहा है लेकिन 'नेशन' से हमारा अभिप्राय किसी भूभाग से न होकर किसी समुदाय या मानव - सामूहिकता से है।
    • भूभाग या मानव समुदाय का फर्क राष्ट्र और राष्ट्रवाद की परिभाषा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

    राष्ट्रवाद का उदय

    • यूरोप में राजनीतिक इकाइयों और सांस्कृतिक इकाइयों का आगमन तो विकसित कृषक दौर तक हो चुका था लेकिन इनके बीच का संबंध वह नहीं था जो राष्ट्रवादी सिद्धांत के अनुसार होना था।
    • अक्सर एक राजनीतिक इकाई राज्य के अन्तर्गत कई सांस्कृतिक इकाइयाँ संभावित राष्ट्र में मौजूद रहती थीं, या फिर एक विशाल सांस्कृतिक इकाई कई राज्यों में बिखरी हुई थी ।
    • यह एक राज्य और एक राष्ट्र वाले राष्ट्रवादी सिद्धांत का स्पष्ट उल्लंघन था। इन राजनीतिक और सांस्कृतिक इकाइयों का राष्ट्रवादी सिद्धांत के अनुसार एक-दूसरे के साथ समेकित होने का कार्य मानव इतिहास के औद्योगिक दौर में हुआ।
    • व्यापक साक्षरता के बगैर औद्योगिक अर्थव्यवस्था का चल पाना संभव नहीं। अपने संचालन के लिए औद्योगिक अर्थव्यवस्था 41888 को ऐसे बहुत सारे लोगों की जरूरत पड़ती है जो परस्पर अजनबी और दूर-दूर होते हुए भी एक-दूसरे के साथ सम्प्रेषण • और संवाद जारी रख सकें। ऐसे संवाद के लिए उन्हें एक साझे भाषायी माधयम की आवश्यकता पड़ती है।
    • परस्पर संवाद की इस आवयकता को न तो पुरानी क्लासिकी भाषाएँ लैटिन और ग्रीक पूरा कर सकती है और न ही सांस्कृतिक समूहों की अपनी स्थानीय बोलियाँ।
    • औद्योगिक अर्थव्यवस्था की इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए कुछ ऐसी भाषाओं की जरूरत थी जो स्थानीय बोलियों के ऊपर तथा क्लासिकीय भाषाओं के नीचे पैदा हुए रिक्त स्थान को भर सकें।
    • इस आवश्यकता को पूरा किया विभिन्न यूरोपीय समाजों में अंग्रेजी, पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, हंगेरियन इत्यादि भाषाओं ने।
    • इन भाषाओं का विकास और मानकीकरण तो औद्योगिक क्रांति से पहले पुनर्जारण के बाद से ही शुरू हो गया था लेकिन 18वीं - 19वीं शताब्दियों में इनका अधिक प्रसार हुआ और अपने समाजों में ये राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में स्थापित और प्रतिष्ठित हुई।
    • विशाल और संस्कृतिक रूप से समरूपी राष्ट्रीय इकाइयों को राष्ट्र ही सुरक्षित और संरक्षित नहीं रख सकता। महज राष्ट्र ही अपनी अस्मिता के संरक्षण के लिए काफी नहीं है। इन इकाइयों की सुरक्षा के लिए राजनीतिक छत्रछाया की जरूरत पड़ती है।
    • राष्ट्रवादी विचारधारा यह सुनिश्चित करती है कि राज्य के नागरिक राज्य के निर्देशों के अनुसार ही समाज को चलाने में राज्य की मदद करें। इस तरह से हम आधुनिक परिस्थितियों के अन्तर्गत राष्ट्रवाद को एक अपरिहार्य तत्व के रूप में पाते हैं।
    • अपनी रक्षा के लिए यह राज्य पर निर्भर होता है (या कहें कि सुरक्षा और संरक्षा की गारंटी के लिए इसे राज्य की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि राष्ट्र और राज्य एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। उनकी यह परस्पर निर्भरता ही राष्ट्रवाद के उदय का मूल सार है। जर्मनी और इटली का एकीकरण इन्हीं संदर्भों की देन रहे ।
    उदारवादी राष्ट्रवाद
    • यूरोप में 19वीं सदी के शुरुआती दशकों में राष्ट्रीय एकता से संबंधित विचार उदारवाद से करीब से जुड़े थे। उदारवाद यानी liberalism शब्द लातिन भाषा के मूल liber पर आधारित है जिसका अर्थ है 'आज़ाद'।
    • नए मध्य वर्गों के लिए उदारवाद का मतलब था 'व्यक्ति के लिए आजादी और कानून के समक्ष सबकी बराबरी'।
    • राजनीतिक रूप से उदारवाद एक ऐसी सरकार पर जोर देता था जो सहमति से बनी हो ।
    • फ्रांसीसी क्रांति के बाद से उदारवाद निरंकुश शासक और पादरीवर्ग के विशेषाधिकारों की समाप्ति, संविधान तथा संसदीय प्रतिनिधि सरकार का पक्षधर था।
    • 19वीं सदी के उदारवादी निजी संपत्ति के स्वामित्व की अनिवार्यता पर भी बल देते थे। लेकिन यह जरूरी नहीं था कि कानून के समक्ष बराबरी का विचार सबके लिए मताधिकार के पक्ष में था।
    • संपूर्ण 19वीं सदी तथा 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में महिलाओं और संपत्ति-विहीन पुरुषों ने समान राजनीतिक अधिकारों की माँग करते हुए विरोध-आंदोलन चलाए।
    • महिलाएँ एवं संपत्ति विहिह्न पुरूष आर्थिक क्षेत्र में, उदारवाद, बाजारों की मुक्ति और चीजों तथा पूँजी के आवागमन पर राज्य द्वारा लगाए गए नियंत्रणों को खत्म करने के पक्ष में थे। 19वीं सदी के दौरान, उभरते हुए मध्य वर्गों की यह जोरदार माँग थी ।
    • नेपोलियन के प्रशासनिक कदमों से अनगिनत छोटे प्रदेशों से 39 राज्यों का एक महासंघ बना। इनमें से प्रत्येक की अपनी मुद्रा और नाप-तौल प्रणाली थी।
    • 1833 ई. में हैम्बर्ग से न्यूरेम्बर्ग जा कर अपना माल बेचने वाले किसी व्यापारी को ग्यारह सीमाशुल्क नाकों से गुजरना पड़ता था और हर बार लगभग 5% सीमा शुल्क देना पड़ता था।
    • नए वाणिज्यिक वर्ग ऐसी परिस्थितियों को आर्थिक विनिमय और विकास में बाधक मानते हुए एक ऐसे एकीकृत आर्थिक क्षेत्र के निर्माण के पक्ष में तर्क दे रहा था जहाँ वस्तुओं, लोग और पूँजी का आवागमन बाधारहित हो ।
    • 1834 ई. में प्रशा की पहल पर एक शुल्क संघ जॉलवेराइन (Zollverein) स्थापित किया गया जिसमें अधिकांश जर्मन राज्य शामिल हो गए।
    1815 के बाद एक नया रूढ़िवाद
    • 1815 ई. में नेपोलियन की हार के बाद यूरोपीय सरकारें रूढ़िवाद की भावना से प्रेरित थीं। रूढ़िवादी मानते थे कि राज्य और समाज की स्थापित पारंपरिक संस्थाएँ जैसे- राजतंत्र, चर्च, सामाजिक ऊँच-नीच, संपत्ति और परिवार को बनाए रखना चाहिए। फिर भी अधिकतर रूढ़िवादी लोग क्रांति से पहले के दौर में वापसी नहीं चाहते थे।
    • नेपोलियन द्वारा शुरू किए गए परिवर्तनों से यह जान लिया था कि आधुनिकीकरण, राजतंत्र जैसी पारंपरिक संस्थाओं को मजबूत बनाने में सक्षम था। वह राज्य की ताकत को ज्यादा कारगर और मजबूत बना सकता था।
    • एक आधुनिक सेना, कुशल नौकरशाही, गतिशील अर्थव्यवस्था. सामंतवाद और भूदासत्व की समाप्ति-यूरोप के निरंकुश राजतंत्रों को शक्ति प्रदान कर सकते थे।
    • 1815 में. ब्रिटेन, रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया जैसी यूरोपीय शक्तियों जिन्होंने मिलकर नेपोलियन को हराया था के प्रतिनिधि यूरोप के लिए एक समझौता तैयार करने के लिए वियना में मिले।
    • सम्मेलन (Congress) की मेजबानी ऑस्ट्रिया के चांसलर ड्यूक मैटरनिख ने की। इसमें प्रतिनिधियों ने 1815 की वियना संधि (Treaty of Vienna) तैयार की जिसका उद्देश्य उन कई सारे बदलावों को खत्म करना था जो नेपोलियाई युद्धों के दौरान हुए थे।
    • फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हटाए गए बूब वंश को सत्ता में बहाल किया गया और फ्रांस ने उन इलाकों को खो दिया जिन पर कब्जा उसने नेपोलियन के अधीन किया गया था।
    • फ़्रांस की सीमाओं पर कई राज्य कायम कर दिए गए ताकि भविष्य में फ्रांस विस्तार न कर सके।
    • उत्तर में नीदरलैंड्स का राज्य स्थापित किया। जिसमें बेल्जियम शामिल था और दक्षिण में पीडमॉण्ट में जेनोआ जोड़ दिया गया।
    • प्रशा को उसकी पश्चिमी सीमाओं पर महत्त्वपूर्ण नए इलाके दिए गए जबकि ऑस्ट्रिया को उत्तरी इटली का नियंत्रण सौंपा गया। मगर नेपोलियन ने 39 राज्यों का जो जर्मन महासंघ स्थापित किया था, उसे बरकरार रखा गया।
    • पूर्व में रूस को पोलैंड का एक हिस्सा दिया गया जबकि प्रशा को सैक्सनी का एक हिस्सा प्रदान किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य उन राजतंत्रों की बहाली था जिन्हें नेपोलियन ने बर्खास्त कर दिया था। साथ ही यूरोप में एक नयी रूढ़िवादी व्यवस्था क़ायम करने का लक्ष्य भी था।
    • 1815 में स्थापित रूढ़िवादी शासन व्यवस्थाएँ निरंकुश थीं। वे आलोचना और असहमति बरदाश्त नहीं करती थीं और उन्होंने उन गतिविधियों को दबाना चाहा जो निरंकुश सरकारों की वैधता पर सवाल उठाती थीं।
    • ज्यादातर सरकारों ने सेंसरशिप के नियम बनाए जिनका उद्देश्य अखबारों, किताबों, नाटकों और गीतों में व्यक्त उन बातों पर नियंत्रण लगाना था जिनसे फ्रांसीसी क्रांति से जुड़े स्वतंत्रता और मुक्ति के विचार झलकते थे।
    • फ्रांसीसी क्रांति की स्मृति उदारवादियों को लगातार प्रेरित कर रही थी। नयी रूढ़िवादी व्यवस्था के आलोचक उदारवादी राष्ट्रवादियों द्वारा उठाया गया एक मुख्य मुद्दा था- प्रेस की आजादी।
    वियना सम्मेलन (1815)
    • नेपोलियन बोनापार्ट ने अपनी विजयों के द्वारा यूरोप के मानचित्र में जो परिवर्तन किए थे, उसका पुनर्निर्माण करने के लिए ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में यूरोप के प्रमुख राजनीतिज्ञों एवं प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुलाया गया। इस सम्मेलन को वियना कांग्रेस कहा जाता है।
    • वियना कांग्रेस सितम्बर, 1814 में प्रारम्भ हुई थी, किन्तु इससे पूर्व कि इसमें कुछ निर्णय लिए जाते, नेपोलियन बोनापार्ट एल्बा द्वीप से भाग निकलने में सफल हो गया।
    • कुछ समय के लिए इस सम्मेलन को स्थगित करना पड़ा। यह कांग्रेस पुनः नवम्बर, 1814 में प्रारम्भ हुई।
    • 18 जून, 1815 को वाटरलू के युद्ध में पराजित होने के पश्चात् नेपोलियन बोनापार्ट को बन्दी बनाकर सेण्ट हेलेना द्वीप भेज दिया गया।
    • नेपोलियन बोनापार्ट के वाटरलू के युद्ध में परास्त होने के कुछ दिन पूर्व ही (9 जून, 1815 को) इस सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने अन्तिम निर्णयों पर हस्ताक्षर किए।
    वियना सम्मेलन के उद्देश्य -
    वियना सम्मेलन बुलाने के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित-
    1. नेपोलियन बोनापार्ट का पतन हो जाने से फ्रांस का सैनिक महत्त्व नष्ट हो गया था, किन्तु फ्रांस की राज्यक्रान्ति (1789 ई.) का प्रभाव सम्पूर्ण महाद्वीप में फैल चुका था। मित्र राष्ट्र इन क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों को नष्ट करके यूरोप में पुरातन व्यवस्था को पुनः लागू करना चाहते थे। 
    2. नेपोलियन बोनापार्ट ने स्पेन, हॉलैण्ड, इटली, स्वीडन, ऑस्ट्रिया, पुर्तगाल तथा अन्य देशों को पराजित करके यूरोप की राजनीतिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया था। नेपोलियन बोनापार्ट के पतन के पश्चात् इन सभी राज्यों की राजनीतिक स्थिति को ठीक करने के साथ-साथ यूरोप के मानचित्र को बनाने की समस्या भी उपस्थित हो गई थी।
    3. क्रान्ति काल में क्रान्तिकारियों ने रोमन कैथोलिक चर्च के अधिकारों और उसकी सम्पत्ति पर अधिकार करके उसके महत्त्व को समाप्त कर दिया था। मित्र राष्ट्र चर्च की प्राचीन महत्ता को पुनर्स्थापित करना चाहते थे।
    4. लगभग सभी देश नेपोलियन बोनापार्ट के युद्धों से प्रभावित हो चुके थे। इन युद्धों में अपार जन-धन की क्षति हुई थी। अब वह शान्ति चाहते थे। इस सम्मेलन में उन उपायों पर विचार-विमर्श होना था जिनके द्वारा यूरोप में स्थायी शान्ति स्थापित हो सके।
    वियना सम्मेलन के मुख्य प्रतिनिधि 
    • ऑस्ट्रिया का चांसलर मैटरनिख इस सम्मेलन का संचालक था। मैटरनिख पुरातन एवं प्रतिक्रियावादी व्यवस्था का समर्थक तथा क्रान्तिकारी विचारों का कट्टर शत्रु था। नेपोलियन बोनापार्ट को पराजित करने में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। 
    • वियना सम्मेलन के निर्णयों पर मैटरनिख के विचारों का पूरा प्रभाव पड़ा था। इसके अतिरिक्त इस सम्मेलन में रूस के जार अलेक्जेण्डर प्रथम, इंग्लैण्ड के विदेश मन्त्री कैसलरे, फ्रांस के विदेश मन्त्री तैलीरौं तथा प्रशा के सम्राट् फ्रेड्रिक विलियम तृतीय की उपस्थिति ने सम्मेलन को आकर्षक बना दिया था।
    वियना सम्मेलन के सिद्धान्त -
    • सम्मेलन के प्रतिनिधियों के पारस्परिक मतभेदों के कारण सम्मेलन की असफलता की सम्भावनाएँ बढ़ गई थीं, फिर भी समस्याओं के समाधान हेतु अग्रलिखित सिद्धान्त पारित किए गए थे
    1. न्यायोचित राजसत्ता का सिद्धान्त
    • सभी सदस्यों ने यह स्वीकार किया कि पिछले 25 वर्षों में राजनीतिक उथल-पुथल का कारण 1789 ई. की क्रान्ति का विस्फोट था।
    • यह निश्चित किया गया कि 1789 ई. की क्रान्ति से पूर्व सभी देशों में प्रचलित शासन व्यवस्था को पुनः स्थापित किया जाए अर्थात् उन प्राचीन राजवंशों को शासन करने का अधि कार पुनः प्रदान कर दिया जाए जो 1789 ई. की क्रान्ति से पूर्व सत्तारूढ़ थे।
    2. शक्ति सन्तुलन का सिद्धान्त
    • निर्णय लिया गया कि यूरोप का मानचित्र बनाते समय सभी देशों में शक्ति सन्तुलन स्थापित किया जाए। इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा गया था कि फ्रांस तथा अन्य ऐसे देशों की सीमा पर शक्तिशाली राज्य स्थापित किए जाएँ, जहाँ पर क्रान्तिकारी विचारों के पुनः फैलने का भय था।
    3. पुरस्कार एवं दण्ड का सिद्धान्त
    • सभी सदस्यों ने यह निश्चित किया कि नेपोलियन बोनापार्ट को पराजित करने में जिन देशों ने मित्र राष्ट्रों की सहायता की थी, उन्हें पुरस्कार स्वरूप राजनीतिक सीमा बढ़ाने का अवसर प्रदान किया जाए।
    • इसके विपरीत नेपोलियन बोनापार्ट का साथ देने वाले देशों को दण्डित करने के उद्देश्य से उनकी राजनीतिक सीमा में | कटौती की जाए
    वियना सम्मेलन के महत्त्वपूर्ण
    वियना सम्मेलन में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गए
    1. न्यायोचित राजसत्ता के सिद्धान्त के आधार पर फ्रांस में बूब राजवंश की पुनर्स्थापना की गई। सम्राट् लुई सोलहवें के छोटे भाई लुई अठारहवें को फ्रांस का राजा बनाया गया। पिछले युद्धों के लिए फ्रांस को जिम्मेदार ठहराते हुए क्षतिपूर्ति के रूप में 70 करोड़ फ्रैंक की धनराशि फ्रांस पर लाद दी गई । इस रकम का भुगतान होने तक फ्रांस के खर्चे पर फ्रांस की सीमा पर मित्र राष्ट्रों के 15 लाख सैनिक नियुक्त कर दिए गए। फ्रांस की राजनीतिक सीमा को 1791 ई. की स्थिति में स्वीकार कर लिया गया।
    2. फ्रांस के पड़ोसी देश हॉलैण्ड को शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से बेल्जियम का प्रदेश ऑस्ट्रिया से लेकर हॉलैण्ड को दे दिया गया।
    3. इटली की राष्ट्रीय एकता को समाप्त करके उसको आठ भागों में विभक्त कर दिया। रोम में पोप का शासन पुनः स्थापित कर दिया गया।
    4. जर्मनी के छोटे-छोटे 39 राज्यों को मिलाकर जर्मन परिसंघ बनाया गया, जिसके अध्यक्ष पद पर ऑस्ट्रिया के सम्राट को नियुक्त किया गया। परन्तु परिसंघ को सुदृढ़ बनाने के लिए कुछ नहीं किया गया। इस प्रकार राज्यों के पारस्परिक सम्बन्ध बड़े शिथिल रहे।
    5. ऑस्ट्रिया को बेल्जियम के बदले में इटली के लोम्बार्डी तथा वेनेशिया के प्रदेश दिए गए।
    6. सबसे अधिक लाभ ग्रेट ब्रिटेन को हुआ। उसे हेलिगोलैण्ड, माल्टा, आयोनियन द्वीप समूह, केप कॉलोनी, टोबैगो, सेण्ट लूसिया, त्रिनिदाद आदि क्षेत्र प्राप्त हो गए, जो औद्योगिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थे। 
    7. नार्वे तथा स्वीडन को मिला दिया गया। स्वीडन से फिनलैण्ड का प्रदेश लेकर रूस को दे दिया गया।
    8. प्रशा को शक्तिशाली बनाने के लिए उसे सेक्सनी राज्य का 40% भाग प्रदान किया गया।
    9. पोलैण्ड को तीन भागों में विभक्त करके अधिकांश भाग रूस को दे दिया गया।
    10. भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय जहाजों के आवागमन, समुद्रों के उपयोग तथा विभिन्न राष्ट्रों के मध्य व्यापार व वाणिज्य के विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून बनाया गया।
    11. वियना समझौते को प्रभावी ढंग से लागू करने तथा महाद्वीप में शान्ति बनाए रखने के उद्देश्य से इंग्लैण्ड, रूस, प्रशा व ऑस्ट्रिया ने यूरोप की संयुक्त व्यवस्था (Concert of Europe) की स्थापना की।
    वियना सम्मेलन की आलोचना
    वियना सम्मेलन का प्रारम्भ अनेक ऊँचे आदर्शों और घोषणाओं के साथ किया गया था, किन्तु इसके निर्णय एवं सिद्धान्तों का अध्ययन करने के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि सम्मेलन अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सका। इसके निर्णयों में निम्नलिखित दोष थे
    1. इस सम्मेलन में किसी भी देश की जनता का कोई प्रतिनिधि नहीं बुलाया गया था। वस्तुतः यह शासकों का सम्मेलन था. जनता का नहीं। इसमें सभी अधिकार शासकों को सौंप दिए। गए। किसी ने जनता की भावनाओं को जानने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि जनता ने वियना व्यवस्था को कभी हृदय से स्वीकार नहीं किया । इतिहासकार हेजन ने लिखा है 'इस सम्मेलन में राजनीतिज्ञों द्वारा जनता की भावनाओं की अवहेलना करते हुए यूरोप का मानचित्र बनाया गया, जिसके कारण यह समझौता स्थायी नहीं हो सका।'
    2. राष्ट्रीयता एवं प्रजातन्त्र तत्कालीन इतिहास की मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं, किन्तु वियना सम्मेलन में इन प्रवृत्तियों की अवहेलना की गई। केवल शक्ति सन्तुलन का ध्यान रखते हुए यूरोपीय राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन किया गया। इस महान् गलती के कारण 1815 ई. के बाद के वर्षों में निरन्तर आन्दोलन व क्रान्तियाँ होती रहीं। इसीलिए एक इतिहासकार ने कहा है, '1815 ई. के बाद के यूरोप का इतिहास वियना व्यवस्था की त्रुटियों को सुधारने का इतिहास है। '
    3. क्रान्ति के सिद्धान्तों का उस समय इतना व्यापक प्रभाव था कि इन सिद्धान्तों के विपरीत कोई भी व्यवस्था सफल नहीं | हो सकती थी। वियना सम्मेलन में भी क्रान्ति के सिद्धान्तों की अवहेलना की गई तथा सभी देशों में शासन के अधिकार प्राचीन राजवंशों को प्रदान करके पुरातन व्यवस्था को पुनः . लागू कर दिया गया। इसलिए सभी देशों की जनता ने इसके निर्णयों को ठुकराना प्रारम्भ कर दिया।
    वियना सम्मेलन का महत्त्व -
    यद्यपि कुछ दोषों के कारण वियना समझौते की आलोचना की जाती है, तथापि निम्न तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वियना सम्मेलन यूरोप के इतिहास की महत्त्वपूर्ण एवं युगान्तकारी घटना थी -
    1. उस समय मित्र राष्ट्रों के सामने शान्ति की स्थापना एक मुख्य समस्या थी। उनके कन्धों पर महाद्वीप को युद्ध के ताण्डव से बचाने की जिम्मेदारी थी। निःसन्देह उन्होंने अपने दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वहन किया था। उन्होंने वियना व्यवस्था के माध्यम से लगभग 40 वर्षों तक महाद्वीप को युद्ध की आग से सुरक्षित रखा।
    2. यद्यपि सम्मेलन के निर्णयों में राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों की अवहेलना की गई थी, तथापि पीडमॉण्ट, प्रशा आदि राज्यों को शक्तिशाली बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से इटली व जर्मनी के राष्ट्रीय आन्दोलनों की सशक्त पृष्ठभूमि का निर्माण भी किया था।
    3. इस सम्मेलन ने भविष्य में परस्पर बातचीत के द्वारा समस्याओं को हल करने की नवीन परिपाटी को जन्म दिया। इस सम्मेलन को भविष्य के यूरोप का आधार माना जाता है। एक इतिहासकार ने लिखा है, 'वियना सम्मेलन के प्रतिनिधि ईश्वर के अवतार नहीं थे। अपनी शक्ति के द्वारा उन्होंने शान्ति स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया था ।'
    कुलीन वर्ग और नया मध्यवर्ग
    • सामाजिक और राजनीतिक रूप से ज़मीन का मालिक कुलीन वर्ग यूरोपीय महाद्वीप का सबसे प्रभुत्वशाली वर्ग था।
    • इस वर्ग के सदस्य एक साझा जीवन शैली से बँधे हुए थे जो क्षेत्रीय विभाजनों के आर-पार व्याप्त थी। वे ग्रामीण इलाकों में जायदाद भूसंपत्तियों और शहरी - हवेलियों के मालिक थे।
    • राजनीतिक कार्यों के लिए तथा उच्च वर्गों के बीच वे फ्रेंच भाषा का प्रयोग करते थे। उनके परिवार अकसर वैवाहिक बंधनों से आपस में जुड़े होते थे।
    • मगर यह शक्तिशाली कुलीन वर्ग संख्या के लिहाज़ से एक छोटा समूह था। जनसंख्या के दृष्टि अधिकांश लोग कृषक थे।
    • पश्चिम में ज्यादातर ज़मीन पर किराएदार और छोटे काश्तकार खेती करते थे जबकि पूर्वी और मध्य यूरोप में भूमि विशाल जागीरों में बँटी थी जिस पर भूदास खेती करते थे।
    • पश्चिमी और मध्य यूरोप के हिस्सों में औद्योगिक उत्पादन और व्यापार में वृद्धि से शहरों का विकास और वाणिज्यिक वर्गों का उदय हुआ जिनका अस्तित्व बाज़ार के लिए उत्पादन पर टिका था।
    • इंग्लैंड में औद्योगीकरण 18वीं सदी के दूसरे भाग में आरंभ हुआ लेकिन फ़्रांस और जर्मनी के राज्यों के कुछ हिस्सों में यह 19वीं शताब्दी के दौरान ही हुआ। 
    • नए सामाजिक समूह अस्तित्व में आए श्रमिक वर्ग के लोग और मध्य वर्ग जो उद्योगपतियों, व्यापारियों और सेवा क्षेत्र के लोगों से बने।
    • मध्य और पूर्वी यूरोप में इन समूहों का आकार 19वीं सदी के अंतिम दशकों तक छोटा था। कुलीन विशेषाधिकारों की समाप्ति के बाद शिक्षित और उदारवादी मध्य वर्गों के बीच ही राष्ट्रीय एकता के विचार लोकप्रिय हुए।
    क्रांतिकारी
    • 1815 ई. के बाद के वर्षों में दमन के भय ने अनेक उदारवादीराष्ट्रवादियों को भूमिगत कर दिया। बहुत सारे यूरोपीय राज्यों में क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने और विचारों का प्रसार करने के लिए गुप्त संगठन उभर आए ।
    • उस समय क्रांतिकारी होने का मतलब उन राजतंत्रीय व्यवस्थाओं का विरोध करने से था जो वियना कांग्रेस के बाद स्थापित की गई थीं।
    • साथ ही स्वतंत्रता और मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध होना और संघर्ष करना क्रांतिकारी होने के लिए ज़रूरी था। ज्यादातर क्रांतिकारी राष्ट्र-राज्यों की स्थापना को आज़ादी के इस संघर्ष का अनिवार्य हिस्सा मानते थे।
    • ऐसा ही वह व्यक्ति था इटली का क्रांतिकारी 'जोसेफ मेजिनी' उनका जन्म 1807 में जेनोआ में हुआ था और वह कार्बोनारी के गुप्त संगठन का सदस्य बन गया।
    • चौबीस साल की युवावस्था में लिगुरिया में क्रांति करने के लिए उसे बहिष्कृत कर दिया गया। तत्पश्चात उसने दो और भूमिगत संगठनों की स्थापना की।
    • भूमिगत संगठनों में पहला था मार्सेई में यंग इटली दूसरा बर्न में यंग यूरोप, जिसके सदस्य पोलैंड, फ्रांस, इटली और जर्मन राज्यों में समान विचार रखने वाले युवा थे ।
    • मेजिनी का विश्वास था कि ईश्वर की मर्जी के अनुसार राष्ट्र ही मनुष्यों की प्राकृतिक इकाई थी। अतः इटली छोटे राज्यों और प्रदेशों के पैबंदों की तरह नहीं रह सकता था।
    • उसे जोड़ कर राष्ट्रों के व्यापक गठबंधन के अंदर एकीकृत गणतंत्र बनाना ही था । यह एकीकरण ही इटली की मुक्ति का आधार हो सकता था।
    • इस मॉडल की देखा-देखी जर्मनी, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड और पोलैंड में गुप्त संगठन कायम किए गए। मेत्सिनी द्वारा राजतंत्र का घोर विरोध करके और प्रजातांत्रिक गणतंत्रों के अपने स्वप्न से मेत्सिनी ने रूढ़िवादियों को हरा दिया।
    • मैटरनिख ने उसे 'हमारी सामाजिक व्यवस्था का सबसे खतरनाक दुश्मन' बताया। मैटर्रानस्त्र प्रतिक्रियावादी विचाराधारा का सूत्र वाक्य था - " शासन करो और कोई परिवर्तन न होने दो । "
    मेटरनिख
    • 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मैटरनिख यूरोप की प्रतिक्रियावादी शक्तियों का नेतृत्वकर्ता था। 1815 से 1848 ई. तक ऑस्ट्रिया के चांसलर के रूप में वह यूरोप का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति था। 34 वर्ष की इस अवधि को यूरोप के इतिहास में 'मैटरनिख युग' कहा जाता है।
    • मैटरनिख का जन्म 15 मई, 1773 को कॉब्लेंज नामक नगर में हुआ था। नेपोलियन बोनापार्ट ने उसके पिता की जागीर को जर्मनी के पुनर्गठन के समय जब्त कर लिया था।
    • कुलीनों एवं सामन्तों पर क्रान्तिकारियों के अत्याचारों की कहानी सुनकर मैटरनिख का हृदय सदैव के लिए क्रान्ति विरोधी हो गया था। 1795 ई. में उसकी शादी ऑस्ट्रिया के तत्कालीन चांसलर कानिज की पौत्री के साथ हुई। इस घटना के पश्चात् उसके राजनीतिक जीवन का प्रारम्भ हुआ।
    • 1801 से 1806 तक वह यूरोप के अनेक देशों में राजदूत के पद पर नियुक्त हुआ। उसकी योग्यता से प्रभावित होकर ऑस्ट्रिया के सम्राट् फ्रांसिस प्रथम ने 1809 ई. में उसे ऑस्ट्रिया का चांसलर नियुक्त किया तथा 1848 ई. तक वह निरन्तर इस पद पर बना रहा।
    मैटरनिख की राजनीतिक विचारधारा
    1. मैटरनिख को अपनी शक्ति पर अत्यधिक विश्वास था । वह समझता था कि उसका जन्म यूरोप महाद्वीप के बिगड़े हुए राजनीतिक ढाँचे को ठीक करने के लिए हुआ है। 
    2. मैटरनिख क्रान्ति का कट्टर शत्रु था । वह क्रान्ति को सड़ा हुआ मांस का टुकड़ा, संक्रामक रोग, ज्वालामुखी आदि नामों से पुकारता था।
    3. वह सुधारों का विरोधी तथा यथास्थिति का समर्थक था। 
    उपर्युक्त विचारों के आधार पर मैटरनिख ने ऑस्ट्रिया साम्राज्य की गृह तथा विदेश नीति में नई व्यवस्था का सूत्रपात किया था। इस व्यवस्था को 'मैटरनिख व्यवस्था' कहा जाता है। इस व्यवस्था का मूल मन्त्र 'यथास्थिति' को कायम रखना था।

    मैटरनिख की गृह नीति

    • मैटरनिख कार्यकाल में ऑस्ट्रिया साम्राज्य में विभिन्न जातियों का निवास था, देश का सामाजिक ढाँचा सामन्तवादी था |
    • देश की अधिकांश भूमि व सम्पत्ति पर विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का अधिकार था। दूसरी ओर साधारण वर्ग की दशा अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें कृषि उपज का अधिकांश भाग कर के रूप में देना पड़ता था।
    इस प्रकार धन के असमान वितरण के कारण साम्राज्य की सामाजिक व आर्थिक स्थिति असन्तोषजनक थी। इस तरह के वातावरण में मैटरनिख ने साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए
    1. साम्राज्य को कई प्रान्तों में बाँट दिया गया। प्रत्येक प्रान्त पर एक गवर्नर नियुक्त किया गया।
    2. विद्यालयों पर कठोर सरकारी नियन्त्रण स्थापित किया गया। सभी पाठ्यक्रमों को बदल दिया गया। इतिहास व दर्शन के अध्ययन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
    3. अभिव्यक्ति, लेखन आदि पर नियन्त्रण के लिए समाचार पत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिए गए।
    4. साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया।
    5. विदेशी यात्राओं पर रोक लगा दी गई। 
    6. ऑस्ट्रिया की सीमा पर निरीक्षकों को नियुक्त किया गया। उनका कार्य राष्ट्रीयता के समर्थक व्यक्तियों एवं साहित्य के प्रवेश पर रोक लगाना था।
    7. व्यापारिक क्षेत्र में मैटरनिख ने संरक्षित शुल्क व्यवस्था को अपनाया, ताकि विदेशों में व्यापारिक सम्पर्क न बढ़ सके।
    मैटरनिख की विदेश नीति

    वैदेशिक नीति के क्षेत्र में मैटरनिख के महत्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित थे

    1. वियना समझौता (1815 ई.)

    • वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन के पतन के पश्चात् 1815 ई. में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में यूरोप के सभी देशों के राजनीतिज्ञों का सम्मेलन बुलाया गया।
    • मैटरनिख इस सम्मेलन का संयोजक था। इस सम्मेलन में हुए समझौते की शर्तों पर मैटरनिख के विचारों को स्पष्ट प्रभाव पड़ा।
    • ऑस्ट्रिया साम्राज्य की सीमा में वृद्धि करने के साथ-साथ इटली व जर्मनी में भी अपना प्रभाव स्थापित करने में मैटरनिख को सफलता प्राप्त हुई थी।
    2. पवित्र संघ
    • रूस के जार अलेक्जेण्डर प्रथम ने यूरोप महाद्वीप में स्थायी शान्ति की स्थापना के लिए ईसाई धर्म पर आधारित 'पवित्र संघ' की योजना को प्रस्तुत किया।
    • मैटरनिख ने इस योजना का कड़ा विरोध किया और इसे 'ढोल की पोल' तथा 'नैतिकता का कोरा प्रदर्शन बतया । उसके विरोध के कारण यह योजना असफल हो गई।
    3. चतुर्मुख संघ
    • मित्र राष्ट्रों ने वियना समझौते को स्थायी बनाने के लिए चतुर्मुख संघ की स्थापना की थी।
    • ऑस्ट्रिया भी इस संघ का सदस्य था, किन्तु शीघ्र ही हस्तक्षेप के प्रश्न पर मैटरनिख का इंग्लैण्ड से मतभेद हो गया।
    • मैटरनिख संयुक्त व्यवस्था का प्रयोग यूरा में राष्ट्रीयता एवं उदारवाद के दमन के लिए करना चाहता था, जबकि इंग्लैण्ड के विदेश मन्त्री कैसलरे तथा कैनिंग ने इस हस्तक्षेप को अनुचित बतलाते हुए मैटरनिख की नीति का कड़ा विरोध किया। इस पारस्परिक फूट के कारण यह व्यवस्था 1825 ई. में समाप्त हो गई। 
    4. जर्मनी
    • वियना समझौते के अनुसार जर्मनी को 39 राज्यों का एक संघ बनाकर ऑस्ट्रिया को इस संघ का अध्यक्ष बनाया गया था।
    • मैटरनिख का उद्देश्य जर्मनी में राष्ट्रवादी व क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना था, किन्तु जर्मनी की जनता ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
    • मैटरनिख ने 1819 ई. में 'कार्ल्सबाद अध्यादेश' (Carlsbad | Decrees) पारित करके जर्मनी के विद्यालयों, शिक्षकों, छात्रों, समाचार पत्रों एवं पत्रकारों पर कठोर नियन्त्रण लगा दिया। यह व्यवस्था 1848 ई. तक चलती रही।
    5. इटली
    • इटली को छोटे-छोटे राज्यों में बाँटकर वहाँ पर पुनः निरंकुश शासकों को सत्तारूढ़ करने में मैटरनिख की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
    • इस व्यवस्था के विरुद्ध नेपल्स व पीडमॉण्ट राज्यों की जनता ने विद्रोह कर दिया।
    • मैटरनिख ने ट्रोपो (1820 ई.) तथा लाईबेख (1821 ई.) की कॉन्फ्रेंस द्वारा अधिकार प्राप्त करके अपनी सेना भेजकर इन दोनों राज्यों के विद्रोहों का दमन कर दिया। इस प्रकार 1848 ई. तक इटली में भी यथास्थिति बनी रहीं।
    • शक्ति सन्तुलन बनाए रखने के लिए उसने यूरोप और ऑस्ट्रिया में पाए जाने वाले विरोधों एवं मतभेदों को बनाए रखा।
    • इटली और जर्मनी को विभाजित रखा तथा ऑस्ट्रिया में बसने वाली विभिन्न जातियों का एक-दूसरे के विरुद्ध उपयोग किया।
    • मैटरनिख की असफलता के कारण तथा मैटरनिख का पतन
    • 1848 ई. में फ्रांस की जनता ने सम्राट् लुई फिलिप के विरुद्ध क्रान्ति कर दी । लुई फिलिप भाग गया और फ्रांस में गणतन्त्र की घोषणा कर दी गई। इस समाचार को सुनकर ऑस्ट्रिया की जनता का उत्साह बढ़ गया।
    • 13 मार्च, 1848 को मैटरनिख के विरुद्ध वियना में क्रान्ति हो गई। क्रान्तिकारियों ने मैटरनिख के महल को घेर लिया। भीड़ नारे लगा रही थी, 'मैटरनिख त्याग-पत्र दो, मैटरनिख का नाश हो' मैटरनिख ने परिस्थितियों की नाजुकता को पहचान लिया और कहा, 'मैं एक बूढ़ा हकीम हूँ, मैं साध्य और असाध्य बीमारियों के अन्तर को जानता हूँ, यह बीमारी प्राणघातक है।' उसने तुरन्त चांसलर पद से त्याग-पत्र दे दिया और इंग्लैण्ड भाग गया।
    मैटरनिख के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
    1. मैटरनिख की शासन प्रणाली पूर्णतया प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिजनित विचारों की विरोधी थी। परिणामस्वरूप उसका शासन विचारशील लोगों और देशभक्तों के लिए असहनीय हो गया।
    2. मैटरनिख की दमनकारी नीति के कारण समस्त यूरोप में आतंक छा गया। मैटरनिख को जो भी सहयोग मिला, | वह भय के कारण मिला, स्वेच्छा से नहीं। ऐसी स्थिति में उसका पतन अवश्यम्भावी था।
    3. यूरोप में समाजवाद की भावना का जन्म होने से श्रमिकों एवं पूँजीपतियों का विरोध बढ़ गया और उसका भी मैटरनिख के शासन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
    4. मैटरनिख शासन प्रगति का विरोधी था । वह यथास्थिति बनाए रखने का पक्षपाती था। उसने समाजवादी, उदारवादी और राष्ट्रवादी- इन तीनों आन्दोलनों को कुचलने का प्रयास किया और इसलिए उसे प्रबल जनमत का विरोध सहन करना पड़ा।
    5. शिक्षा के क्षेत्र में कठोर प्रतिबन्धों के लगने के फलस्वरूप शिक्षक और बौद्धिक वर्ग मैटरनिख का विरोधी बन गया।
    6. औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी आदि में इंग्लैण्ड की भाँति कल-कारखाने स्थापित हुए। फलस्वरूप यूरोप के अनेक राज्यों में नवयुग का प्रादुर्भाव हुआ। पुरातन व्यवस्था को अव्यावहारिक माना जाने लगा और इस स्थिति में प्रतिक्रियावादी शक्तियों का पतन होना स्वाभाविक था।
    मैटरनिख का मूल्यांकन
    • मैटरनिख तत्कालीन यूरोप का महानतम राजनीतिज्ञ था। उसने नेपोलियन के युद्धों से लहूलुहान यूरोप में काफी समय तक शान्ति बनाए रखी और उसने ऑस्ट्रिया के गौरव को बढ़ाया।
    • अपने प्रतिक्रियावाद में मैटरनिख एक लम्बे समय तक सफल रहा। वह कहता था, 'यूरोप में शान्ति की स्थापना के लिए मेरी नीति आवश्यक और अनिवार्य साधन है। '
    • यह ठीक है कि नेपोलियन के युद्धों से जर्जर अवस्था में यूरोप में शान्ति की स्थापना में मैटरनिख को सफलता मिली, परन्तु फिर भी मैटरनिख लगभग सभी इतिहासकारों की आलोचना का पात्र रहा। इसका कारण यह था कि वह अपने युग का महान् प्रतिक्रियावादी नेता था।
    • वह क्रान्ति, राष्ट्रीयता, उदारवाद, प्रजातन्त्र आदि विचारों का कट्टर विरोधी तथा यथास्थितिवाद व पुरातनवाद का सफल पुजारी था। उसके चरित्र का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसमें समय के अनुसार समायोजित होने की योग्यता का अभाव था। वह प्रायः कहता था 'मैं इस संसार में या बहुत जल्दी आया हूँ अथवा देर से आया हूँ। पहले आने पर युग का आनन्द लेता और बाद में आने पर युग की पुनर्रचना में सहायता करता । किन्तु इस समय मुझे अपना जीवन बिगड़े हुए समाज को ठीक करने में लगाना पड़ा है।'
    क्रांतियों का युग: 1830-1848
    • इटली और जर्मनी के राज्य, ऑटोमन साम्राज्य के सूबे, आयरलैंड और पोलैंड ऐसे ही कुछ क्षेत्र थे। इन क्रांतियों का नेतृत्व उदारवादी-राष्ट्रवादियों ने किया जो शिक्षित मध्यवर्गीय विशिष्ट लोग थे। इनमें प्रोफेसर, स्कूली - अध्यापक, क्लर्क और वाणिज्य व्यापार में लगे मध्य वर्गों के लोग शामिल थे।
    • प्रथम विद्रोह फ़्रांस में जुलाई, 1830 में हुआ। बूर्बो राजा, जिन्हें 1815 के बाद हुई रूढ़िवादी प्रतिक्रिया के दौरान सत्ता में बहाल किया गया था, उन्हें अब उदारवादी क्रांतिकारियों ने उखाड़ फेंका। उनकी जगह एक संवैधानिक राजतंत्र स्थापित किया गया जिसका अध्यक्ष लुई फ़िलिप था।
    • मैटरनिख ने एक बार यह टिप्पणी की थी कि 'जब फ़्रांस छींकता है तो बाकी यूरोप को सर्दी-जुकाम हो जाता है।' जुलाई क्रांति से ब्रूसेल्स में भी विद्रोह भड़क गया जिसके फलस्वरूप यूनाइटेड किंगडम ऑफ़ द नीदरलैंड्स से अलग हो गया।
    • एक घटना जिसने पूरे यूरोप के शिक्षित अभिजात वर्ग में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार किया, वह थी, यूनान का स्वतंत्रता संग्राम | पंद्रहवीं सदी से यूनान ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था।
    • यूरोप में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की प्रगति से यूनानियों का आज़ादी के लिए संघर्ष 1821 में आरंभ हो गया।
    • यूनान में राष्ट्रवादियों को निर्वासन में रह रहे यूनानियों के साथ पश्चिमी यूरोप के अनेक लोगों का भी समर्थन मिला जो प्राचीन यूनानी संस्कृति (Hellenism) के प्रति सहानुभूति रखते थे। 
    • कवियों और कलाकारों ने यूनान को यूरोपीय सभ्यता का पालना बता कर प्रशंसा की और एक मुस्लिम साम्राज्य के विरुद्ध यूनान के संघर्ष के लिए जनमत जुटाया। अंततः 1832 की कुस्तुनतुनिया की संधि ने यूनान को एक स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता दी ।
    1830 की फ्रांसीसी क्रांति
    • 1830 ई. में फ्रांस की जनता ने बूर्बो वंश के सम्राट् चार्ल्स Xth के विरुद्ध एक सफल क्रान्ति की थी। चार्ल्स Xth सिंहासन छोड़कर भाग गया। यूरोप के इतिहास में इसे 'जुलाई क्रान्ति' के नाम से जाना जाता है।
    फ्रांस की जुलाई क्रान्ति (1830 ई.) के कारण
    1. बूब वंश की पुनर्स्थापना
    • 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति बूर्बो वंश के सम्राट् लुई सोलहवें के निरंकुश शासन के विरुद्ध की थी।
    • फ्रांस की जनता बूर्बो वंश की निरंकुशता से घृणा करती थी। किन्तु वियना सम्मेलन के राजनीतिज्ञों ने उसी वंश को 1815 ई. में पुनः सत्तारूढ़ करके जन- असन्तोष को जन्म दिया।
    • फ्रांस में एक वर्ग ऐसा भी था जो किसी भी दशा में बूब | वंश की अधीनता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। 
    2. संवैधानिक चार्टर के दोष
    • लुई 18वें द्वारा लागू किया गया संवैधानिक चार्टर दोषपूर्ण तथा जनता के लिए अहितकर था। मताधिकार योग्यता सम्पत्ति पर आधारित थी। सामन्तों की सभा (Chamber of Peers) के सदस्यों का मनोनयन केवल राजा द्वारा किया जाता था।
    • राजा के अधिकार असीमित थे। मन्त्रिमण्डल संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं था। इस प्रकार संविधान जन-भावनाओं के प्रतिकूल व अहितकर था।
    3. राजनीतिक दलों के उद्देश्यों में एकता
    • यद्यपि फ्रांस के विभिन्न राजनीतिक दलों के विचारों में विभिन्नता थी, तथापि बूर्बो वंश की निरंकुश नीति के विरोध में वे सभी एकमत थे। उन्होंने सामूहिक रूप से चार्ल्स दशम को हटाने का संकल्प लिया था। राजनीतिक दलों की एकता की भावना ने बूब वंश की जड़ों को कमजोर बना दिया। ने
    4. चार्ल्स दशम की निरंकुश नीति
    • चार्ल्स Xth महान् प्रतिक्रियावादी शासक तथा कट्टर राजसत्तावादी दल का नेता था। सम्राट् बनने के पश्चात् उसने लोगों के भाषण, लेखन व प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
    • मताधिकार योग्यता को अत्यधिक कठोर बना दिया। उसने चर्च को विशेष महत्त्व दिया।
    • प्रधानमन्त्री पद पर प्रतिक्रियावादी व्यक्तियों को नियुक्त किया। इनमें पॉलिगनेक (Polignac) का नाम उल्लेखनीय है ।
    • जब प्रतिनिधि सभा ने पॉलिगनेक के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया, तो चार्ल्स Xth ने प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया। इस प्रकार चार्ल्स Xth की प्रतिक्रियावादी व दमन नीति को फ्रांस की जनता ने स्वीकार नहीं किया। 
    5. जुलाई अध्यादेश
    • 1830 ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति का मुख्य कारण चार्ल्स दसम के 'सेण्ट क्लाउड के अध्यादेश' (Ordinances of St-Cloud) थे।
    • चार्ल्स दसम की दमन नीति उस समय पराकाष्ठा पर पहुँच गई जब 26 जुलाई, 1830 को उसने अध्यादेश पारित करके प्रेस की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
    • एक नये निर्वाचन कानून की घोषणा की गई, जिसके द्वारा मतदाताओं की संख्या को सीमित कर दिया गया। नवीन चुनावों की घोषणा कर दी गई।
    क्रान्ति का विस्फोट
    • जुलाई अध्यादेशों की घोषणा के विरोध में 27 जुलाई को पेरिस में चार्ल्स दसम के विरुद्ध जुलूस निकाला गया। तीन दिन तक सेना तथा क्रान्तिकारियों में भयंकर युद्ध हुआ।
    • अन्त में क्रान्तिकारियों की विजय हुई। स्थिति बिगड़ जाने पर चार्ल्स दसम ने जुलाई अध्यादेशों को वापस लेने की घोषणा की, किन्तु क्रान्तिकारियों को सन्तोष नहीं हुआ । अन्ततः 31 जुलाई, 1830 को चार्ल्स दशम सिंहासन छोड़कर भाग गया।
    जुलाई क्रान्ति (1830 ई.) का महत्त्व
    फ्रांस के इतिहास में इस क्रान्ति को महत्त्वपूर्ण घटना माना जाता है, क्योंकि
    1. इसके फलस्वरूप न्यायोचित राजसत्ता के सिद्धान्त को समाप्त कर दिया गया। बूर्बो वंश की निरंकुश सत्ता के स्थान पर लुई फिलिप के नेतृत्व में संवैधानिक राजतन्त्र की स्थापना की गई।
    2. 1789 ई. की क्रान्ति के अधूरे कार्य को इस क्रान्ति ने पूरा कर दिया। 
    3. इस क्रान्ति के फलस्वरूप सामन्तों, पादरियों व कुलीनों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए।
    4. यह क्रान्ति मैटरनिख व्यवस्था के पतन का संकेत थी।
    5. इस क्रान्ति से बेल्जियम पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो गया।
    6. इस क्रान्ति का प्रभाव लगभग सम्पूर्ण यूरोप पर पड़ा । 
    यूरोप के देशों पर जुलाई क्रान्ति का प्रभाव
    1. स्पेन
    • स्पेन की जनता ने फर्डिनेण्ड सप्तम के निरंकुश शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
    • यह विद्रोह कुचल दिया गया, तथापि 1834 ई. के चुनावों में राष्ट्रवादियों को सफलता मिल जाने के कारण राजा को 1837 ई. में उदार संविधान स्वीकार करना पड़ा।
    • इसके फलस्वरूप स्पेन में वैध राजसत्ता की स्थापना हुई और लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया।
    2. पुर्तगाल 
    • पुर्तगाल की शासिका डोना मारिया के चाचा डॉन मिगुएल ने. डोना मारिया से सिंहासन छीनकर अपना निरंकुश शासन स्थापित कर लिया था।
    • राष्ट्रवादियों ने फ्रांस की क्रान्ति से प्रेरणा पाकर क्रान्ति कर दी । फलस्वरूप डोना मारिया की सरकार पुनः सत्तारूढ़ हो गई।
    3. बेल्जियम
    • बेल्जियम की जनता ने हॉलैण्ड की सरकार के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। ब्रुसेल्स में हॉलैण्ड की सेना तथा बेल्जियम की जनता में युद्ध हुआ। सेना बुरी तरह पराजित हो गई। 
    • इंग्लैण्ड, रूस व ऑस्ट्रिया ने बेल्जियम की स्वतन्त्रता को मान्यता दे दी। राजकुमार लियोपोल्ड को वहाँ का राजा बनाया गया।
    4. स्विट्जरलैण्ड
    • जुलाई क्रान्ति से प्रेरित होकर स्विट्जरलैण्ड की जनता ने सरकार के समक्ष संविधान में संशोधन तथा प्रशासनिक सुधारों माँग प्रस्तुत की। सरकार ने जनता की प्रायः सभी माँगों को स्वीकार कर लिया।
    5. इंग्लैण्ड
    • इंग्लैण्ड में टोरी दल की सरकार कार्य कर रही थी। 1820 ई. के आम चुनावों में जनता ने संसदीय सुधारों के समर्थन में बिग ( उदार) दल को अपना समर्थन दिया। फलस्वरूप बिग दल सत्तारूढ़ हो गया।
    • 1832 ई. में प्रथम संसदीय सुधार अधिनियम पारित किया, जिसके फलस्वरूप जनता के संवैधानिक अधिकारों में वृद्धि हो गई।
    6. जर्मनी
    • 1830 ई. में जर्मनी के देशभक्तों ने राष्ट्रीय एकता के उद्देश्यों से कई जर्मन राज्यों में विद्रोह किए।
    • मैटरनिख ने हस्तक्षेप करके इन विद्रोहों का दमन कर दिया तथा यथास्थिति को कायम कर दिया। फिर भी राष्ट्रीयता की भावना को समूल नष्ट नहीं किया जा सका।
    7. इटली
    • 1815 ई. में जर्मनी की भाँति इटली को भी छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित करके उसकी राष्ट्रीय एकता को समाप्त कर दिया गया।
    • अतः असन्तुष्ट राष्ट्रवादियों ने जुलाई क्रान्ति की सफलता से प्रेरित होकर इटली के राज्यों में भी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिए।
    • कई स्थानों पर क्रान्तियाँ सफल रहीं, किन्तु मैटरनिख ने तुरन्त हस्तक्षेप करके उन क्रान्तियों का दमन कर दिया। →
    8. पोलैण्ड
    • 1830 ई. में पोलैण्ड की जनता ने रूस की अधीनता के विरुद्ध क्रान्ति कर दी।
    • क्रान्तिकारियों ने इंग्लैण्ड, फ्रांस व जर्मनी के राष्ट्रवादियों से सहायता माँगी, किन्तु उन्हें सहायता नहीं मिली। फलस्वरूप रूस की सेना ने पोलैण्ड की क्रान्ति का दमन कर दिया।
    • इस प्रकार 1830 ई. की जुलाई क्रान्ति का यूरोप के प्रत्येक देश पर प्रभाव पड़ा । यद्यपि कुछ देशों की क्रान्तियाँ असफल हो गई, तथापि प्रतिक्रियावादी व निरंकुश शक्तियों के विरुद्ध राष्ट्रीयता के सिद्धान्त की यह प्रथम विजय थी।
    • लिप्सन के अनुसार, 61688 तथा 1830 ई. की क्रान्ति में भी प्रजातन्त्र की दिशा में विशेष उन्नति नहीं की गई थी। लेकिन इंग्लैण्ड और फ्रांस, दोनों देशों में राजा के दैवी अधिकार के सिद्धान्त की स्थापना हुई।
    रूमानी कल्पना और राष्ट्रीय भावना
    • राष्ट्रवाद का विकास केवल युद्धों और क्षेत्रीय विस्तार से नहीं हुआ । राष्ट्र के विचार के निर्माण में संस्कृति ने एक अहम भूमिका निभाई।
    • कला, काव्य, कहानियों-क़िस्सों और संगीत ने राष्ट्रवादी भावनाओं को गढ़ने और व्यक्त करने में सहयोग दिया।
    • रूमानीवाद एक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन था, जो एक खास तरह की राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहता था। आमतौर पर रूमानी कलाकारों और कवियों ने तर्क-वितर्क और विज्ञान के महिमामंडन की आलोचना की और उसकी जगह भावनाओं, अंतर्दृष्टि और रहस्यवादी भावनाओं पर ज़ोर दिया।
    • उनका प्रयास था कि एक साझा - सामूहिक विरासत की अनुभूति और एक साझा सांस्कृतिक अतीत को राष्ट्र का आधार बनाया जाए।
    • जर्मन दार्शनिक योहान गॉटफ्रीड जैसे रूमानी चिंतकों ने दावा किया कि सच्ची जर्मनी संस्कृति उसके आम लोगों में निहित थी ।
    • राष्ट्र की सच्ची आत्मा लोकगीतों, जन-काव्य और लोकनृत्यों से प्रकट होती थी। इसलिए लोक संस्कृति के इन स्वरूपों को एकत्र और अंकित करना राष्ट्र के निर्माण की परियोजना के लिए आवश्यक था।
    • स्थानीय बोलियों पर बल और स्थानीय लोक-साहित्य को एकत्र करने का उद्देश्य केवल प्राचीन राष्ट्रीय भावना को वापस लाना नहीं था बल्कि आधुनिक राष्ट्रीय संदेश को ज्यादा लोगों तक पहुँचाना था जिनमें से अधिकांश निरक्षर थे।
    • यह पर पोलैंड पर लागू होता था, जिसका 18वीं सदी के अंत में रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया जैसी बड़ी शक्तियों (Great Powers) ने विभाजन कर दिया था।
    • पोलैंड अब स्वतंत्र भू-क्षेत्र नहीं था किंतु संगीत और भाषा के ज़रिये राष्ट्रीय भावना जीवित रखी। मसलन, कैरोल कुर्पिस्की ने राष्ट्रीय संघर्ष का अपने ऑपेरा और संगीत से गुणगान किया और पोलेनेस और माजुरका जैसे लोकनृत्यों को राष्ट्रीय प्रतीकों में बदल दिया।
    • भाषा ने भी राष्ट्रीय भावनाओं के विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रूसी कब्ज़े बाद, पोलिश भाषा को स्कूलों से बलपूर्वक हटा कर रूसी भाषा को हर जगह जबरन लादा गया।
    • 1831 में, रूस के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह हुआ जिसे आखिरकार कुचल दिया गया। इसके अनेक सदस्यों ने राष्ट्रवादी विरोध के लिए भाषा को एक हथियार बनाया।
    • चर्च के आयोजनों और संपूर्ण धार्मिक शिक्षा में पोलिश का इस्तेमाल हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में पादरियों और बिशपों को जेल में डाल दिया गया।
    • रूसी अधिकारियों ने उन्हें सज़ा देते हुए साइबेरिया भेज दिया क्योंकि उन्होंने रूसी भाषा का प्रचार करने से इनकार कर दिया था। पोलिश भाषा रूसी प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखी जाने लगी।
    1848: उदारवादियों की क्रांति
    • 1848 में जब अनेक यूरोपीय देशों में गरीबी, बेरोज़गारी और भुखमरी से ग्रस्त किसान-मजदूर विद्रोह कर रहे थे तब उसके समानांतर पढ़े-लिखे मध्यवर्गों की एक क्रांति भी हो रही थी।
    • फरवरी, 1848 की घटनाओं से राजा को गद्दी छोड़नी पड़ी थी और एक गणतंत्र की घोषणा की गई जो सभी पुरुषों के सार्विक मताधिकार पर आधारित था।
    • यूरोप के अन्य भागों में, जहाँ अभी तक स्वतंत्र राष्ट्र राज्य अस्तित्व में नहीं आए थे- जैसे जर्मनी, इटली, पोलैंड, ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य- वहाँ के उदारवादी मध्यवर्गों के स्त्री-पुरुषों ने संविधानवाद की माँग को राष्ट्रीय एकीकरण की माँग से जोड़ दिया।
    • बढ़ते जन असंतोष का फायदा उठाया और एक राष्ट्र राज्य के निर्माण की माँगों को आगे बढ़ाया।
    • यह राष्ट्र राज्य संविधान, प्रेस की स्वतंत्रता और संगठन बनाने की आज़ादी जैसे संसदीय सिद्धांतों पर आधारित था।
    • जर्मन इलाकों में बड़ी संख्या में राजनीतिक संगठनों ने फ्रैंकफर्ट शहर में मिल कर एक सर्व-जर्मन नेशनल एसेंबली के पक्ष में मतदान का फैसला लिया।
    • 18 मई, 1848 को 831 निर्वाचित प्रतिनिधियों ने एक सजे-धजे जुलूस में जा कर फ्रैंकफर्ट संसद में अपना स्थान ग्रहण किया।
    • यह संसद सेंट पॉल चर्च में आयोजित हुई। उन्होंने एक जर्मन राष्ट्र के लिए एक संविधान का प्रारूप तैयार किया। इस राष्ट्र की अध्यक्षता एक ऐसे राजा को सौंपी गई जिसे संसद के अधीन रहना था ।
    • जब प्रतिनिधियों ने प्रशा के राजा फ्रेडरीख विल्हेम चतुर्थ को ताज पहनाने की पेशकश की तो उसने उसे अस्वीकार कर उन राजाओं का साथ दिया जो निर्वाचित सभा के विरोधी थे। जहाँ कुलीन वर्ग और सेना का विरोध बढ़ गया, वहीं संसद का सामाजिक आधार कमज़ोर हो गया।
    • संसद में मध्य वर्गों का प्रभाव अधिक था जिन्होंने मजदूरों और कारीगरों की माँगों का विरोध किया जिससे वे उनका समर्थन खो बैठे।
    • उदारवादी आंदोलन के अंदर महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्रदान करने का मुद्दा विवादास्पद था हालाँकि आंदोलन में वर्षों से बड़ी संख्या में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया था।
    • महिलाओं ने अपने राजनीतिक संगठन स्थापित किए, अखबार शुरू किए और राजनीतिक बैठकों और प्रदर्शनों में शिरकत की।
    • एसेंबली के चुनाव के दौरान मताधिकार से वंचित रखा गया था। जब सेंट पॉल चर्च में फ़्रैंकफर्ट संसद की सभा आयोजित की गई थी तब महिलाओं को केवल प्रेक्षकों की हैसियत से दर्शक-दीर्घा में खड़े होने दिया गया।
    • रूढ़िवादी ताकतें 1848 में उदारवादी आंदोलनों को दबा पाने में कामयाब हुईं किंतु वे पुरानी व्यवस्था बहाल नहीं कर पाईं।
    • 1848 के बाद के वर्षों में मध्य और पूर्वी यूरोप की निरंकुश राजशाहियों ने उन परिवर्तनों को आरंभ किया जो पश्चिमी यूरोप में 1815 से पहले हो चुके थे। इस प्रकार हैब्सबर्ग अधिकार वाले क्षेत्रों और रूस में भूदासत्व और बंधुआ मजदूरी समाप्त कर दी गई।
    • हैब्सबर्ग शासकों ने हंगरी के लोगों को ज्यादा स्वायत्तता प्रदान की हालाँकि इससे निरंकुश मैग्यारों के प्रभुत्व का रास्ता ही साफ़ हुआ।
    1848 ई. की फ्रांस की क्रान्ति
    • 1848 ई. की क्रान्ति का मुख्य कारण लुई फिलिप की | आन्तरिक और बाह्य नीतियाँ थीं, जिनके कारण फ्रांस में उसका शासन अलोकप्रिय हो गया।
    • 1848 ई. में फ्रांस में जो क्रान्ति हुई, वह केवल फ्रांस तक ही सीमित नहीं रही, वरन् इस क्रान्ति की चपेट में सम्पूर्ण यूरोप आ गया।
    • इस प्रकार क्रान्ति को नष्ट कर पुरातन व्यवस्था को लादने का मैटरनिख का स्वप्न चकनाचूर हो गया और हर जगह नवीन शासन की स्थापना हुई।

    1848 ई. की क्रान्ति के कारण

    1848 ई. में यूरोप में एक-दो नहीं, वरन् छोटी-बड़ी 17 क्रान्तियाँ हुई। इसीलिए यूरोप के इतिहास में 1848 ई. का वर्ष क्रान्तियों का वर्ष माना जाता है। इन क्रान्तियों के कारण निम्नलिखित थे

    1. 1830-1848 ई. के बीच हुए आर्थिक परिवर्तन

    • इस काल में औद्योगीकरण तीव्रता से हो रहा था। यातायात के साधनों के विस्तार ने बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन को बढ़ा दिया था और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एक नवीन पूँजीवादी व्यवस्था को जन्म दे चुका था।
    • मजदूरों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ उनकी समस्याएँ और आवश्यकताएँ भी बढ़ती जा रही थीं। 1838-1839 ई. तथा 1846-47 ई. में यूरोप में आर्थिक संकट आए, जिनसे जनता के कष्टों में मूल्य वृद्धि के कारण और अधिक बढ़ोत्तरी होती रही।
    2. बुद्धिजीवी और श्रमिकों का शक्तिशाली होना
    • औद्योगीकरण ने समाज के नये प्रभावशाली तत्त्वों, बुद्धिजीवियों व श्रमिक वर्ग को और अधिक विकसित किया प्रथम वर्ग ने उदारवादी शक्तियों को आत्मबल प्रदान किया, तो दूसरे वर्ग के आर्थिक शोषण के कारण सामाजिक एवं आर्थिक असन्तोष को तीव्रता मिली। परिणामस्वरूप 1848.ई. की क्रान्ति का विस्फोट हुआ। 
    3. समाजवाद का प्रसार
    • 1848 ई. की क्रान्ति का एक अन्य प्रमुख कारण इस समय तक समाजवाद का व्यापक प्रसार था।
    • औद्योगीकरण ने पूँजीवाद को जन्म दिया और पूँजीवाद के परिणामस्वरूप समाजवाद नामक विचारधारा ने जन्म लिया। श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए आन्दोलन होने लगे।
    • समाजवादियों ने देश के कल-कारखानों का राष्ट्रीयकरण करने की जबरदस्त माँग करनी प्रारम्भ कर दी। जगह-जगह मजदूर संघों की स्थापना होने लगी। श्रमिक नेता मताधिकार विस्तृत करने की मांग करने लगे।
    4. खिजों की नीतियाँ
    • लुई फिलिप का मन्त्री खिजों भी रूढ़िवादी और अपरिवर्तनशील विचारधारा का कट्टर समर्थक था । वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन एवं सुधार को खतरनाक समझता था।
    • फ्रांस के प्रत्येक आन्दोलन को स्वार्थ का साधन बताकर उसकी अवहेलना ही नहीं की, बल्कि दमन भी किया। उसकी इन अपरिवर्तनशील निषेधात्मक नीतियों से फ्रांस के क्रान्तिकारी बड़े असन्तुष्ट हुए।
    5. लुई फिलिप की दुर्बल नीतियाँ
    • लुई फिलिप की आन्तरिक और बाह्य, दोनों ही नीतियाँ क्रान्ति का महत्त्वपूर्ण कारण बनीं। उसने केवल मध्यम वर्ग को महत्त्व दिया और अन्य वर्गों की पूर्ण उपेक्षा की।
    • इसी प्रकार आवश्यकता से अधिक शान्तिप्रिय विदेश नीति ने उसे फ्रांस में दब्बू शासक के रूप में स्थापित किया, जिसे फ्रांसीसी कभी स्वीकार नहीं कर सकते थे।
    • बेल्जियम के मामले में तो वह बहुत अधिक झुका ही नहीं, बल्कि दब गया था।
    • नेपोलियन के गौरवपूर्ण काल को देखने के पश्चात् फ्रांस की जनता दुर्बल शासक को अपना स्वामी स्वीकार नहीं कर सकी और उसने शासन को उखाड़ फेंका।
    6. गौरवशाली विदेश नीति का परित्याग
    • फ्रांसीसी गौरव से सदा पूर्ण रहे हैं। उन्हें लुई फिलिप की तुष्टीकरण और शान्ति की विदेश नीति बिल्कुल पसन्द नहीं आई।
    • फ्रांस के क्रान्तिकारी चाहते थे कि फ्रांस विदेशों के क्रान्तिकारियों की मदद करे। परन्तु लुई फिलिप ने यूरोप के क्रान्तिकारियों की मदद तो की ही नहीं, बल्कि अपने देश तक में क्रान्तिकारियों की बातों पर ध्यान नहीं दिया।
    7. शासन पर मध्यम वर्ग का प्रभाव
    • लुई फिलिप के शासन पर मध्यम वर्ग का ही विशेष प्रभाव था और यह भी लुई फिलिप के भाग्य की विडम्बना थी कि इसी प्रभावशाली वर्ग ने उसे सत्ता से अलग कर दिया।
    • मतदान की प्रणाली इस प्रकार रखी गई थी कि राष्ट्र की प्रतिनिधि सभा में मध्यम वर्ग के धनवान व्यक्तियों का ही बहुमत रहा। फलत: अन्य वर्गों की उपेक्षा होती रही, जिसका परिणाम क्रान्ति के रूप में सामने आया।

    1848 ई. क्रान्ति का अन्य देशों पर प्रभाव-

    वास्तव में 1848 ई. का वर्ष एक चमत्कारी वर्ष था। इस वर्ष यूरोप के विभिन्न राज्यों में क्रान्तियाँ प्रारम्भ हुई।
    ऑस्ट्रिया, जर्मनी, इटली, इंग्लैण्ड तथा स्विट्जरलैण्ड आदि सभी देश इस क्रान्ति से प्रभावित हुए।

    1. ऑस्ट्रिया पर प्रभाव

    • 1848 ई. की क्रान्ति की सफलता का समाचार जब ऑस्ट्रिया की राजधानी पहुंचा, तो वहाँ के देशभक्त नवीन उत्साह से भर गए ।
    • 18 मार्च को उन्होंने संगठित होकर एक विशाल जुलूस निकाला, जिसमें विद्यार्थी, अध्यापक, कारीगर, दुकानदार तथा मजदूर आदि सभी सम्मिलित थे। 
    • जुलूस की भीड़ ने मैटरनिख के घर को घेर लिया और उसके विरुद्ध नारे लगाए।
    • मैटरनिख ने विवश होकर अपने पद से त्याग पत्र दे दिया और इंग्लैण्ड भाग गया । वास्तव में 1848 ई. की क्रान्ति ने मैटरनिख के प्रतिक्रियावादी शासन का अन्त कर दिया।
    2. बोहमिया पर प्रभाव
    • बोहमिया ऑस्ट्रिया का एक अंग था। वहाँ पर भी क्रान्ति का प्रभाव पड़ा। राजा ने क्रान्तिकारियों की माँगें स्वीकार कर लीं, परन्तु बाद में क्रान्ति का दमन कर दिया गया।
    3. हंगरी पर प्रभाव
    • हंगरी की अधिकांश जनता मग्यार जाति की थी। वे ऑस्ट्रिया की अधीनता से मुक्त होना चाहते थे। जब उन्हें वियना की क्रान्ति का समाचार मिला, तो उन्होंने भी क्रान्ति का झण्डा खड़ा कर दिया। 
    • सम्राट को भयभीत होकर क्रान्तिकारियों से समझौता करना पड़ा। परन्तु आगे चलकर ऑस्ट्रिया ने रूस का सहारा लेकर क्रान्ति को विफल कर दिया।
    4. प्रशा पर प्रभाव
    • जब जर्मनवासियों को मैटरनिख के पतन का ज्ञान हुआ, तो वे बड़े प्रसन्न हुए। क्रान्तिकारियों ने जुलूस निकालकर राजा के महल को घेर लिया।
    • अंगरक्षकों द्वारा गोलियाँ चलाने पर क्रान्तिकारी भड़क उठे। राजा को विवश होकर संविधान सभा बुलानी पड़ी और नया लोकतान्त्रिक संविधान बनाया गया।
    5. स्विट्जरलैण्ड पर प्रभाव
    • फ्रांस की क्रान्ति से प्रेरित होकर स्विस लोगों ने धनवानों की प्रभुता के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने संगठित होकर प्रतिक्रियावादी कैथोलिक संघ पर आक्रमण कर उसे परास्त किया एवं स्विट्जरलैण्ड के लिए नया संविधान बनाकर उदारवादी शासन की स्थापना की।
    6. इंग्लैण्ड पर क्रान्ति का प्रभाव
    • फ्रांस की 1848 ई. की क्रान्ति के प्रभाव से इंग्लैण्ड भी अछूता नहीं रहा।
    • 1832 ई. का सुधार अधिनियम केवल मध्यम वर्ग के लोगों को ही सन्तुष्ट कर सका था, मजदूर किसानों को नहीं।
    • 1848 ई. की क्रान्ति के फलस्वरूप इंग्लैण्ड में चार्टिस्ट आन्दोलन ने जोर पकड़ा।
    7. आयरलैण्ड पर प्रभाव
    • फ्रांस की क्रान्ति से प्रेरणा लेकर आयरलैण्ड की जनता ने इंग्लैण्ड के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया। यद्यपि यह आन्दोलन सफल नहीं हो सका, क्योंकि आयरलैण्ड की जनता को फ्रांस की सहायता की उम्मीद थी, जो नहीं मिल सकी।
    क्रान्ति के परिणाम
    • मध्य यूरोप में क्रान्ति, जिसका प्रारम्भ बड़े उत्साहपूर्ण एवं | आशाजनक ढंग से हुआ था, थोड़े ही दिनों में शान्त हो गई। किन्तु यह आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि क्रान्ति मुख्यतः नगरों तथा मध्यम वर्ग तक ही सीमित थी।
    • गाँवों की जनता अमूर्त भावात्मक स्वतन्त्रता की अपेक्षा अपने परम्परागत रीति-रिवाजों के प्रति अधिक आसक्त थी। 1850 ई. में उदारवाद तथा राष्ट्रीयता की प्रगतिशील शक्तियाँ मध्य यूरोप में प्रतिक्रिया की शक्ति के सामने पराजित हुई और प्रतिक्रिया की पूर्ण रूप से विजय हुई।
    • स्लाव मैटरनिख के स्थान पर वार्जेनबर्ग चांसलर बना| ऑस्ट्रिया का संविधान रद्द हो गया, हंगरी का गणतन्त्र नष्ट हो गया, राष्ट्रीयता कुचल दी गई और समस्त साम्राज्य पर फिर से हात्सबुर्ग वंश का एकछत्र निरंकुश शासन स्थापित हो गया • तथा लोम्बार्डी एवं वेनेशिया फिर से ऑस्ट्रिया की अधीनता में पहुँच गए।
    • सार्जीनिया के राजा के राष्ट्रीय एकीकरण के प्रयत्न निष्फल हुए और फ्रांसीसी तलवार के बल पर पोप फिर निरंकुश हो गया। जर्मनी फिर 1815 ई. की स्थिति में पहुँच गया।
    • फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि क्रान्ति पूर्णतया असफल रही। प्रतिक्रियावादियों की अनेक सफलताओं के बीच भी कुछ लाभ बचे रहे।
    • ऑस्ट्रिया के साम्राज्य में अर्द्ध-दास व्यवस्था, जिसे क्रान्ति ने नष्ट कर दिया था, पुनः जीवित नहीं की गई।
    • सार्जीनिया, स्विट्जरलैण्ड, हॉलैण्ड, डेनमार्क तथा प्रशा में किसी-न-किसी रूप में संवैधानिक शासन बना रहा। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उदारवाद एवं राष्ट्रीयता की जिन भावनाओं का परिणाम यह क्रान्ति थी, उनका अस्तित्व नष्ट नहीं किया जा सका था।
    राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद
    • राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है, जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास परम्परा भाषा जातियता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते है ।
    • 19वीं सदी की अंतिम चौथाई तक राष्ट्रवाद का वह आदर्शवादी उदारवादी-जनतांत्रिक स्वभाव नहीं रहा जो सदी के प्रथम भाग में था। अब राष्ट्रवाद सीमित लक्ष्यों वाला संकीर्ण सिद्धांत बन गया।
    • इस बीच के दौर में राष्ट्रवादी समूह एक-दूसरे के प्रति अनुदार होते चले गए और लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। साथ ही प्रमुख यूरोपीय शक्तियों ने भी अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अधीन लोगों की राष्ट्रवादी आकांक्षाओं का इस्तेमाल किया।
    • 1871 के बाद यूरोप में गंभीर राष्ट्रवादी तनाव का स्रोत बाल्कन क्षेत्र था। इस क्षेत्र में भौगोलिक और जातीय भिन्नता थी। इसमें आधुनिक रोमानिया, बुल्गा, अल्बेनिया, यूनान, मेसिडोनिया, क्रोएशिया, बोस्निया हर्जेगोविना, स्लोवेनिया, सर्बिया और मॉन्टिनिग्रो शामिल थे। क्षेत्र के निवासियों को आमतौर पर स्लाव पुकारा जाता था।
    • बाल्कन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ऑटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में था। बाल्कन क्षेत्र में रूमानी राष्ट्रवाद के विचारों के फैलने और ऑटोमन साम्राज्य के विघटन से स्थिति काफी विस्फोटक हो गई।
    • 19वीं सदी में ऑटोमन साम्राज्य ने आधुनिकीकरण और आंतरिक सुधारों के ज़रिए मज़बूत बनना चाहा था किंतु इसमें इसे बहुत कम सफलता मिली।
    • बाल्कन लोगों ने आज़ादी या राजनीतिक अधिकारों के अपने दावों को राष्ट्रीयता का आधार दिया। उन्होंने इतिहास का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए किया कि वे कभी स्वतंत्र थे किंतु तत्पश्चात विदेशी शक्तियों ने उन्हें अधीन कर लिया।
    • बाल्कन क्षेत्र के विद्रोही राष्ट्रीय समूहों ने अपने संघर्षों को लंबे समय से खोई आज़ादी को वापस पाने के प्रयासों के रूप में देखा। जैसे-जैसे विभिन्न स्लाव राष्ट्रीय समूहों ने अपनी पहचान और स्वतंत्रता की परिभाषा तय करने की कोशिश की, बाल्कन क्षेत्र गहरे टकराव का क्षेत्र बनता गया।
    • बाल्कन राज्य एक-दूसरे से ईर्ष्या करते थे और हर एक राज्य अपने लिए ज्यादा से ज्यादा इलाका हथियाने की उम्मीद रखता था। परिस्थितियाँ और अधिक जटिल इसलिए हो गईं क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा होने लगी।
    • इस समय यूरोपीय शक्तियों के बीच व्यापार, और उपनिवेशों के साथ नौसैनिक और सैन्य ताकत के लिए गहरी प्रतिस्पर्धा थी। जिस तरह बाल्कन समस्या आगे बढ़ी उसमें यह प्रतिस्पर्धाएँ खुल कर सामने आईं। 
    • रूस, जर्मनी, इंग्लैंड, ऑस्ट्रो-हंगरी की हर ताकत बाल्कन पर अन्य शक्तियों की पकड़ को कमज़ोर करके क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहती थीं। इससे इस इलाके में कई युद्ध हुए और अंततः प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) हुआ।
    • साम्राज्यवाद से जुड़ कर राष्ट्रवाद 1914 में यूरोप को महाविपदा की ओर ले गया। लेकिन इस बीच विश्व के अनेक देशों ने जिनका 19वीं सदी में यूरोपीय शक्तियों ने औपनिवेशीकरण किया था, साम्राज्यवादी प्रभुत्व का विरोध करने लगे।
    • वे सभी एक सामूहिक राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित थे जो साम्राज्यवाद विरोध की प्रक्रिया में उभरी। राष्ट्रवाद के यूरोपीय विचार कहीं और नहीं दोहराए गए क्योंकि हर जगह लोगों ने अपनी तरह का विशिष्ट राष्ट्रवाद विकसित किया।
    आदर्श ग्रेट ब्रिटेन
    • ब्रिटेन में राष्ट्र-राज्य का निर्माण अचानक हुई कोई उथल-पुथल या क्रांति का परिणाम नहीं था। यह एक लंबी चलने वाली प्रक्रिया का नतीजा था।
    • 18वीं सदी के पहले ब्रितानी राष्ट्र था ही नहीं। ब्रितानी द्वीपसमूह में रहने वाले लोगों - अंग्रेज़, वेल्श, स्कॉट या आयरिश - की मुख्य पहचान नृजातीय (Ethnic ) थी ।
    • सभी जातीय समूहों की अपनी सांस्कृतिक और राजनीतिक परंपराएँ थीं। जैसे-जैसे आंग्ल राष्ट्र की धन-दौलत, अहमियत और सत्ता में वृद्धि हुई वह द्वीपसमूह के अन्य राष्ट्रों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने में सफल हुआ। एक लंबे टकराव और संघर्ष के बाद आंग्ल संसद ने 1688 में राजतंत्र से ताक़त छीन ली थी।
    • संसद के माध्यम से एक राष्ट्र राज्य का निर्माण हुआ जिसके केंद्र में इंग्लैंड था। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के बीच ऐक्ट ऑफ़ यूनियन (1707) से 'यूनाइटेड किंग्डम ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन' का गठन हुआ। इससे इंग्लैंड, व्यवहार में स्कॉटलैंड पर अपना प्रभुत्व जमा पाया।
    • ब्रितानी संसद में आंग्ल सदस्यों का दबदबा रहा। एक ब्रितानी . पहचान के विकास का अर्थ यह हुआ कि स्कॉटलैंड की खास संस्कृति और राजनीतिक संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से दबाया गया।
    • स्कॉटिश हाइलैंड्स के निवासी जिन कैथलिक कुलों ने जब भी अपनी आज़ादी को व्यक्त करने का प्रयास किया उन्हें ज़बरदस्त दमन का सामना करना पड़ा।
    • स्कॉटिश हाइलैंड्स के लोगों को अपनी गेलिक भाषा बोलने या अपनी राष्ट्रीय पोशाक पहनने की मनाही थी। उनमें से बहुत . सारे लोगों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर किया गया।
    • आयरलैंड का भी कुछ ऐसा ही हुआ। वह देश कैथलिक और प्रोटेस्टेंट धार्मिक गुटों में बँटा हुआ था। अंग्रेजों ने आयरलैंड में प्रोटेस्टेंट धर्म मानने वालों को बहुसंख्यक कैथलिक देश पर प्रभुत्व बढ़ाने में सहायता की।
    • ब्रितानी प्रभाव के विरुद्ध हुए कैथलिक विद्रोहों को निर्ममता से कुचल दिया गया। वोल्फ़ टोन और उसकी यूनाइटेड आयरिशमेन (1798) की अगुवाई में हुए असफल विद्रोह के बाद 1801 में आयरलैंड को बलपूर्वक यूनाइटेड किंग्डम में शामिल कर लिया गया।
    • एक नए 'ब्रितानी राष्ट्र' का निर्माण किया गया जिस पर हावी आंग्ल संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया गया। नए ब्रिटेन के प्रतीक चिह्नों, ब्रितानी झंडा (यूनियन जैक) और राष्ट्रीय गान (गॉड सेव अवर नोबल किंग) को खूब बढ़ावा दिया गया और पुराने राष्ट्र इस संघ में मातहत सहयोगी के रूप में ही रह पाए।
    ब्रिटेन की लॉर्ड सभा
    • ब्रिटेन की संसद विश्व की सबसे प्राचीन संसद है।
    • यह द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है। ब्रिटिश संसद के दो सदन हैं। संसद के उच्च सदन को लॉर्ड सभा तथा निचले सदन को कॉमन सभा कहते हैं।
    • लॉर्ड सभा के सदस्य धनी तथा उच्च वर्ग के व्यक्ति होते हैं। यह एक प्रकार का वंशानुगत सदन है। इसे ब्रिटेन के निवासियों की रूढ़िवादी प्रवृत्ति का प्रतीक कहा जाता है।
    लॉर्ड सभा का संगठन
    लॉर्ड सभा की सदस्य संख्या निश्चित नहीं है। चूंकि यह एक वंशानुगत सदन है, अतः इसके सदस्यों की संख्या जन्म व मृत्यु से घटती-बढ़ती रहती है ।
    लॉर्ड सभा के सदस्यों को निम्न तीन वर्गों में विभक्त कियाजा सकता है-
    1. आध्यात्मिक लॉर्ड
    • इस श्रेणी में 26 सदस्य होते हैं। आध्यात्मिक लॉर्ड बड़े गिरजाघरों के पादरी तथा बिशप होते हैं। ये सभा की कार्यवाही में प्रायः कम ही भाग लेते हैं।
    2. वंशानुगत या पैतृक पीयर
    दिसम्बर, 1999 में पारित अधिनियम के अनुसार वंशानुगत • पीयरों की तीन श्रेणियाँ हैं
    i. दलीय साथी पीयरों से निर्वाचित किए जाने वाले सदस्य,
    ii. ऐसे पदाधिकारी जिन्हें सम्पूर्ण सदन निर्वाचित करता है,
    iii. वर्तमान में राजघराने के सदस्य के रूप में ये 75 निर्वाचित दलीय सदस्य तथा 16 पदाधिकारी सदस्य हैं
    3. आजीवन पीयर :
    • इस श्रेणी के पीयर सन् 1958 के 'आजीवन पीयरेज अधि नियम' के अन्तर्गत बनाए जाते हैं।
    • ये सदस्य ख्याति प्राप्त तथा अनुभवी व्यक्ति होते हैं। इन व्यक्तियों को आजीवन सदस्य बनाया जाता है। इस श्रेणी में स्त्रियाँ भी सदस्य बन सकती हैं।
    लॉर्ड सभा का स्पीकर
    • वर्ष 2005 तक इंग्लैण्ड में यह व्यवस्था थी कि सम्राट् द्वारा नियुक्त लॉर्ड चांसलर लॉर्ड सभा की अध्यक्षता करता था। लेकिन A Constitutional Reform Act, 2005 के अनुसार अब लॉर्ड चांसलर लॉर्ड सभा की अध्यक्षता नहीं करता।
    • लॉर्ड सभा की अध्यक्षता के लिए अब स्पीकर पद की व्यवस्था की गई है। कॉमन सभा के अध्यक्ष समान ही लॉर्ड सभा का अध्यक्ष (स्पीकर) निर्वाचित होता है, मनोनीत नहीं।
    लॉर्ड चांसलर
    • Constitutional Reform Act, 2005 के बाद भी लॉर्ड चांसलर का पद बना हुआ है, लेकिन अब वह ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य मात्र है। अब वह लॉर्ड सभा की अध्यक्षता नहीं करता।
    लॉर्ड सभा के कार्य तथा शक्तियाँ
    लॉर्ड सभा के कार्य तथा शक्तियों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट कर सकते हैं
    1 विधायी शक्तियाँ तथा कार्य
    • सन् 1911 से पूर्व लॉर्ड सभा को अवित्तीय शक्तियाँ प्राप्त थीं। किसी भी साधारण विधेयक के लिए यह आवश्यक था कि वह दोनों सदनों के द्वारा पारित किया जाए। परन्तु सन् 1911 तथा सन् 1949 के अधिनियमों ने इस स्थिति को बदल दिया है।
    • सन् 1911 के अधिनियम के अनुसार कॉमन सभा के द्वारा पारित साधारण विधेयकों को लॉर्ड सभा केवल 2 वर्ष की देरी लगा सकती है।
    • सन् 1949 अधिनियम के द्वारा यह अवधि 1 वर्ष कर दी गई है। एक वर्ष की अवधि के पश्चात् लॉर्ड सभा द्वारा अस्वीकृत विधेयक पारित माना जाएगा।
    2. परामर्श सम्बन्धी कार्य
    • 18वीं शताब्दी से पूर्व लॉर्ड सभा राजा को परामर्श देने का कार्य करती थी। परन्तु अब राजा कैविनेट के परामर्श के अनुसार कार्य करता है।
    • जब कॉमन सभा का विघटन हो जाता है तथा कैबिनेट अपना त्याग-पत्र दे देती है, तो राजा को परामर्श की आवश्यकता होती है। यदि ऐसी स्थिति आ जाती है, तो राजा लॉर्ड सभा से परामर्श ले सकता है।
    3. वित्तीय कार्य तथा शक्तियाँ
    • धन विधेयक पहले कॉमन सभा में ही प्रस्तुत किए जाते हैं। कॉमन सभा से पारित हो जाने के पश्चात् उनको लॉर्ड सभा में प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार वित्तीय क्षेत्र में लॉर्ड सभा की शक्तियाँ नहीं के समान हैं।
    • लॉर्ड सभा में न तो धन विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता है और न ही उसमें संशोधन किया जा सकता है।
    • एक माह की अवधि समाप्त हो जाने पर विधेयक कानून बन जाता है। एक माह से अधिक देरी करने पर विधेयक को राजा की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।
    4. कार्यपालिका शक्तियों
    • लॉर्ड सभा मन्त्रिमण्डल को भंग नहीं कर सकती है। मन्त्रिमण डल को केवल कॉमन सभा ही अपदस्थ कर सकती है।
    • मन्त्रिमण्डल कॉमन सभा के प्रति ही उत्तरदायी होता है, परन्तु लॉर्ड सभा के सदस्यों को मन्त्रियों में प्रश्न पूछने का अधि कार है।
    5. न्यायिक कार्य एवं शक्तियाँ
    • इस क्षेत्र में लॉर्ड सभा को महत्त्वपूर्ण शक्तियां मिली हुई हैं। ये शक्तियाँ कॉमन सभा को प्राप्त नहीं हैं।
    • लॉर्ड सभा सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है, परन्तु समस्त लॉर्ड यह कार्य नहीं करते।
    • यह कार्य केवल 9 न्यायिक लॉर्ड द्वारा किया जाता है। जब लॉर्ड सभा सर्वोच्च न्यायालय की तरह कार्य करती है, तो इसका अध्यक्ष लॉर्ड चांसलर होता है।
    लॉर्ड सभा की उपयोगिता
    1. कॉमन समा की निरंकुशता पर नियन्त्रण
    • प्रजातन्त्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि व्यवस्थापिका पर किसी एक संस्था का एकाधिकार न होने पाए। वह मनमाने ढंग से या निरंकुश होकर कार्य न करे।
    • अतः प्रथम सदन की निरंकुशता पर नियन्त्रण रखने के लिए द्वितीय सदन आवश्यक है। वास्तव में ब्रिटेन की लॉर्ड सभा इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है।
    2. प्रजातान्त्रिक राज्य व्यवस्था
    • आज विश्व के अधिकांश प्रजातान्त्रिक देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका है। यही कारण है कि ब्रिटेन में लॉर्ड सभा को बनाए रखने की आवश्यकता अनुभव की जाती रही है।
    3. विधेयकों पर पुनर्विचार
    • लॉर्ड सभा कॉमन सभा के द्वारा पारित विधेयकों पर पुनर्विचार करती है। ऐसा किए जाने के पीछे कारण यह है कि कॉमन सभा के पास काम अधिक रहता है और समय कम।
    • लॉर्ड सभा की इस उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए लॉर्ड सैलिसबरी का कथन है. “आज तक जब भी कोई विधेयक पिछले तीन वर्षों में इस सदन में विचारार्थ आया है, तो हमने सदैव ही उसको सुधारा है और उस पर पुनर्विचार किया है । "
    4. उच्च स्तरीय वाद
    • विवाद- लॉर्ड सभा में उच्च स्तरीय विचार-विमर्श किया जाता है। इसका कारण यह है कि इस सभा के लिए जो सदस्य मनोनीत किए जाते हैं, वे योग्य तथा विद्वान व्यक्ति होते हैं।
    • लॉर्ड सभा की बैठकों में भाग लेने वाले व्यक्तियों को राजनीति में विशेष रुचि होती है। उनको जिस विषय पर बोलना होता है, वे उस विषय पर पूरी तैयारी करके बोलते हैं। 
    • इसी कारण वे अपने प्रामाणिक तर्क प्रस्तुत करते हैं। इस सभा के सदस्य प्रशासक, राजदूत, व्यापारी, मन्त्री तथा किसी विशेष क्षेत्र के अनुभवी व्यक्ति होते हैं।
    • इस तथ्य को फाइनर ने अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है, 'लॉर्ड सभा सार्वजनिक वाद-विवाद के लिए विश्व के विशिष्टतम स्थलों में से एक है। '
    5. कॉमन सभा के कार्य
    • भार को कम करना वर्तमान समय में कॉमन सभा का कार्य-भार अत्यधिक बढ़ गया है। इसी कारण अकेले कॉमन सभा के लिए समस्त कार्य करना सम्भव नहीं है।
    • प्रतिवर्ष अनेक ऐसे विधेयक प्रस्तुत किए जाते हैं जिनसे विधेयक में कोई परिवर्तन नहीं होता।
    • कुछ ऐसे विधेयक भी होते हैं जो लॉर्ड सभा में विरोधी दलों के लिए किसी प्रकार की चुनौती नहीं होते।
    • लॉर्ड सभा में ऐसे विधेयकों को आसानी से पारित किया। जा सकता है।
    • स्पष्ट है कि लॉर्ड सभा के कारण कॉमन सभा का बहुमूल्य समय बच जाता है।
    6. व्यापक प्रतिनिधित्व
    • लॉर्ड सभा में जिन सदस्यों का चयन किया जाता है, वे ख्यातिप्राप्त राजनीतिज्ञ, व्यापारी, वकील, न्यायवेत्ता, समाजसेवी तथा धर्माधिकारी होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी सेवाओं से देश को विशेष लाभ पहुँचाते हैं। यही कारण है कि लॉर्ड सभा को श्योग्यता का भण्डारश कहा जाता है।
    7. जनमत को प्रभावित करना
    • लॉर्ड सभा गम्भीर विषयों पर निष्पक्ष होकर विचार करती है। इसके फलस्वरूप जनमत प्रभावित होता है । ऐपड़े मैथिओट का कथन है, लॉर्ड सभा जनमत को निर्धारित करने में प्रभाव रखती है।
    8. ब्रिटिश परम्पराओं के अनुकूल
    • लॉर्ड सभा ब्रिटिश रूढ़िवादी प्रवृत्ति की परिचायक है। ब्रिटिश जनता परम्परागत संस्थाओं के प्रति आस्था रखती है। इसी कारण वहाँ की जनता लॉर्ड सभा को बनाए रखने के पक्ष में है।
    9. स्वतन्त्रतापूर्वक विचार प्रकट करना
    • लॉर्ड सभा के सदस्य किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं होते हैं। चूँकि उन पर किसी दल का अंकुश नहीं रहता है, अतः वे स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचार प्रकट करते हैं।
    10. विधेयक पास कराने में विलम्ब करना
    • लॉर्ड सभा 'विलम्बकारी सदन' के रूप में विख्यात है। राजनीतिज्ञों का यह विश्वास है कि द्वितीय सदन को यह अधिकार होना चाहिए कि वह किसी विधेयक के पारित होने में विलम्ब कर सके। ऐसा इसलिए कि कोई सदन जल्दबाजी में कोई विधेयक पास न कर दे।
    • सैलिसबरी का कथन है, 'लॉर्ड सभा द्वारा विलम्ब से विधेयक पारित करने में सदस्यों को किसी विधेयक पर ठण्डे दिल और मस्तिष्क से सोचने का समय मिल सकेगा।'
    जर्मनी और इटली का निर्माण
    जर्मनी -सेना राष्ट्र की निर्माता
    • 1848 के बाद यूरोप में राष्ट्रवाद का जनतंत्र और क्रांति से अलगाव होने लगा। राज्य की सत्ता को बढ़ाने और पूरे यूरोप पर राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करने के लिए रूढ़िवादियों ने अकसर राष्ट्रवादी भावनाओं का इस्तेमाल किया।
    • इस प्रक्रिया से जर्मनी और इटली एकीकृत होकर राष्ट्र राज्य बने। राष्ट्रवादी भावनाएँ मध्यवर्गीय जर्मन लोगों में काफी व्याप्त थीं और 1848 में जर्मन महासंघ के विभिन्न इलाकों को जोड़ कर एक निर्वाचित संसद द्वारा शासित राष्ट्र राज्य बनाने का प्रयास किया था।
    • राष्ट्र निर्माण की यह उदारवादी पहल राजशाही और फ़ौज की ताक़त ने मिलकर दबा दी। उनका प्रशा के बड़े भूस्वामियों (Junkers) ने भी समर्थन किया।
    • प्रशा ने राष्ट्रीय एकीकरण के आंदोलन का नेतृत्व सँभाल लिया। उसका प्रमुख मंत्री, ऑटो वॉन बिस्मार्क इस प्रक्रिया का जनक था जिसने प्रशा की सेना और नौकरशाही की मदद ली।
    • सात वर्ष के दौरान ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और फ्रांस से तीन युद्धों में प्रशा को जीत हुई और एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई ।
    • जनवरी 1871 में, वर्साय में हुए एक समारोह में प्रशा के राजा विलियम प्रथम को जर्मनी का सम्राट घोषित किया गया।
    • 18 जनवरी 1871 को जर्मन राज्यों के राजकुमारों, सेना के प्रतिनिधियों और प्रमुख मंत्री ऑटोवॉन बिस्मार्क समेत प्रशा के महत्त्वपूर्ण मंत्रियों की एक बैठक वर्साय के महल शीशमहल (हॉल ऑफ़ मिरर्स) में हुई।
    • सभा ने प्रशा के काइज़र विलियम प्रथम के नेतृत्व में नए जर्मन साम्राज्य की घोषणा की। जर्मनी में राष्ट्र निर्माण प्रक्रिया ने प्रशा राज्य की शक्ति के प्रभुत्व को दर्शाता था।
    • नए राज्य ने जर्मनी की मुद्रा, बैकिंग और कानूनी तथा न्यायिक व्यवस्थाओं के आधुनिकीकरण पर काफी ज़ोर दिया और प्रशा द्वारा उठाए क़दम और उसकी कार्रवाइयाँ बाकी जर्मनी के लिए अकसर एक मॉडल बना।
    जर्मनी के एकीकरण की प्रकिया
    • 1870 ई. में सीडान के युद्ध में फ्रांस के सम्राट् नेपोलियन तृतीय की पराजय हुई। उसे प्रशा की सेना के समक्ष आत्म-समर्पण करना पड़ा।
    • युद्ध के बाद 1871 ई. में फ्रांस व जर्मनी के मध्य फ्रैंकफर्ट की सन्धि हुई। सन्धि के अनुसार फ्रांस से अल्सास व लोरेन के प्रदेश छीन लिए गए।
    • युद्ध के हर्जाने के रूप में 20 करोड़ पौण्ड की धनराशि के भुगतान का भार फ्रांस पर लाद दिया गया तथा इस धनराशि | का भुगतान न होने तक जर्मनी की एक सैनिक टुकड़ी फ्रांस में तैनात कर दी गई, जिसका खर्च वहन करने का दायित्व फ्रांस को सौंपा गया।
    • इस प्रकार फ्रैंकफर्ट की सन्धि की सभी शर्ते फ्रांस के लिए अपमानजनक थीं। यह सन्धि 1871 ई. के पश्चात् जर्मनी की विदेश नीति का आधार बनी।
    बिस्मार्क की विदेश नीति की पृष्ठभूमि

    1871 से 1890 ई. तक बिस्मार्क की विदेश नीति निम्नलिखित विचारों पर आधारित थी-

    1. जर्मनी का एकीकरण हो जाने के बाद बिस्मार्क यूरोप महाद्वीप में शान्ति चाहता था। अतः उसने सीमा विस्तार की नीति को छोड़कर घोषणा की कि जर्मनी एक सन्तुष्ट राष्ट्र है।
    2. बिस्मार्क महाद्वीपीय दृष्टिकोण का समर्थक था। वह जर्मनी को साम्राज्यवादी नीति से दूर रखना चाहता था । वह इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रिया, रूस और इटली, इन प्रमुख राज्यों से घनिष्ठता स्थापित करना चाहता था, ताकि यूरोप में शान्ति स्थापित हो सके।
    3. बिस्मार्क को सबसे बड़ा खतरा फ्रांस से था। अतः वह फ्रांस को यूरोप की राजनीति में मित्रहीन व एकाकी बनाना चाहता था । फ्रांस को आन्तरिक रूप से भी निर्बल बनाए रखा जाए, इस दृष्टि से भी फ्रांस में गणतन्त्रीय व्यवस्था का समर्थन किया जाए, ताकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत फ्रांस अपने मतभेदों का शिकार बना रहे।
    4. बिस्मार्क की दृष्टि में रूस का सर्वाधिक महत्त्व था। उसने ' कहा था, 'रूस मेरी विदेश नीति की धुरी है। 
    5. उस समय इंग्लैण्ड शानदार अलगाव की नीति का पालन कर रहा था। बिस्मार्क ने ऐसी विदेश नीति का पालन करना उचित समझा जिसका इंग्लैण्ड की विदेश नीति पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। अतः उसने जर्मनी की जल सेना का विस्तार करने का विचार छोड़कर थल सेना का ही विस्तार किया। उसने कहा था, 'जर्मनी स्थल चूहा है, जबकि इंग्लैण्ड जल चूहा है। स्थल चूहा व जल चूहा में संघर्ष नहीं हो सकता।'
    6. पूर्वी समस्या में बिस्मार्क की कोई रुचि नहीं थी। वह इसे तनावपूर्ण समस्या मानता था। इसलिए वह कहता था- 'कुस्तुन तुनिया से आने वाली डाक को मैं कभी नहीं खोलता।'
    बिस्मार्क की विदेश नीति के सिद्धान्त

    बिस्मार्क की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित थे

    1. अपनी विजयों को सुरक्षित रखना,
    2. यूरोप महाद्वीप में शान्ति स्थापित करना;
    3. फ्रांस को मित्रहीन बनाना, तथा
    4. फ्रांस के विरुद्ध व जर्मनी के पक्ष में गुटबन्दी करना ।
    • एक इतिहासकार ने लिखा है, 'बिस्मार्क यूरोप महाद्वीप में जर्मनी को सन्तुष्ट साम्राज्य बनाना चाहता था।
    • उसकी विशेष इच्छा थी कि जर्मनी की राजधानी बर्लिन यूरोप की राजधानी का केन्द्र बने।'
    बिस्मार्क की विदेश नीति की सफलताएँ

    उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर बिस्मार्क ने अपने बीस वर्ष के कार्यकाल में वैदेशिक क्षेत्र में निम्नलिखित कार्य किए

    1. त्रिसम्राट् संघ की स्थापना
    • रूस व ऑस्ट्रिया की मित्रता प्राप्त करने के उद्देश्य से बिस्मार्क ने इन राष्ट्रों को 1872 ई. में बर्लिन में आमन्त्रित किया। तीनों देशों के सम्राटों ने एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर किए।
    • इसके आधार पर ऑस्ट्रिया, जर्मनी व रूस के मध्य 1872 ई. में 'त्रिसम्राट् संघ' की स्थापना हुई। तीन राष्ट्रों के संघ के द्वारा यह निश्चय किया गया
      1. 1871 ई. की प्रादेशिक व्यवस्था को बनाए रखा जाएगा।
      2. बाल्कन समस्या का तीनों के लिए मान्य हल निकाला जाएगा।
      3. अपने-अपने देश में क्रान्तिकारी भावनाओं का दमन किया जाएगा।
    • तीन सम्राटों की यह मित्रता आगे चलकर और भी मजबूत हो गई। 
    2. द्विगुट निर्माण
    • 1878 ई. की बर्लिन सन्धि के फलस्वरूप रूस व जर्मनी के सम्बन्ध खराब हो गए। अतः बिस्मार्क को रूस व फ्रांस की मित्रता के प्रति आशंका प्रतीत हुई।
    • इस संकट को टालने तथा उसका मुकाबला करने के लिए बिस्मार्क ने 1879 ई. में ऑस्ट्रिया व जर्मनी के मध्य द्विराज्य सन्धि को सम्पन्न किया।
    • सन्धि के फलस्वरूप रूस व फ्रांस के संयुक्त आक्रमण के विरुद्ध जर्मनी व ऑस्ट्रिया द्वारा मिलकर प्रतिरोध करने का निश्चय किया गया।
    3. त्रिगुट या त्रिराज्य सन्धि
    • बिस्मार्क यूरोप की राजनीति में जर्मनी की स्थिति को त्रिकोणात्मक बनाना चाहता था। त्रिसम्राट् संघ के भंग हो जाने के कारण बिस्मार्क की विदेश नीति का सन्तुलन बिगड़ गया था।
    • वह हरसम्भव तरीके से जर्मनी के पक्ष में तीन राष्ट्रों की मित्रता को आवश्यक समझता था।
    • 1882 ई. में उसने द्विराज्य सन्धि में इटली को सम्मिलित करके त्रिराज्य संघ की स्थापना की और जर्मनी की स्थिति को मजबूत कर लिया। इस त्रिगुट या त्रिराष्ट्र समझौते के अनुसार यह तय किया गया
      1. इटली ऑस्ट्रिया के विरुद्ध कोई प्रचार नहीं करेगा।
      2. फ्रांस के आक्रमण से इटली की रक्षा की जाएगी।
      3. इटली भी अन्य देशों की ऐसे अवसर पर सहायता करेगा।
      4. यदि दोनों देशों पर कोई भी देश आक्रमण करेगा, तो तीनों देश मिलकर उसका मुकाबला करेंगे।
    • यह सन्धि भी गुप्त और रक्षात्मक थी और 5 वर्ष के लिए की गई थी।
    4. रूस के साथ पुनराश्वासन सन्धि
    • सर्वाधिक महत्त्व बिस्मार्क अपनी विदेश नीति में रूस देता था।
    • 1878 ई. में रूस जर्मनी से नाराज हो गया था, फिर भी विस्मार्क रूस की मित्रता को जर्मनी के हित में आवश्यक समझता था।
    • अतः उसने 1887 ई. में रूस के साथ गोपनीय ढंग से पुनराश्वासन सन्धि की, जिसकी शर्त गुप्त रखी गई। इन शर्तों। का नवीनीकरण प्रति तीन वर्ष बाद होना था।
    बिस्मार्क की विदेश नीति की समीक्षा
    • बिस्मार्क ने अपने बीस वर्ष के कार्यकाल में जर्मनी की सुरक्षा व यूरोपीय शान्ति के लिए गुटबन्दी का सहारा लिया। उसकी विदेश नीति मुख्य रूप से रूस के क्रियाकलापों तथा फ्रांस की मित्रहीनता पर आधारित थी।
    • अपनी कूटनीतिक योग्यता के द्वारा बिस्मार्क ने रूस व ऑस्ट्रिया तथा इटली व ऑस्ट्रिया जैसे प्रतिद्वन्द्वी देशों को जर्मनी का मित्र बनाने में सफलता प्राप्त की।
    • ऑस्ट्रिया के आक्रमण के विरुद्ध रूस की तटस्थता, रूस के आक्रमण के विरुद्ध ऑस्ट्रिया की तटस्थता, फ्रांस के आक्रमण के विरुद्ध इटली की सहायता तथा रूस व फ्रांस के संयुक्त आक्रमण के विरुद्ध ऑस्ट्रिया व इटली की सहायता के रूप में बिस्मार्क ने ऐसा कूटनीतिक जाल बिछाया, जिसे बिस्मार्क के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं समझ सका। इन्हीं विशेषताओं के कारण बिस्मार्क को 'पाँच गेंदों से खेलने वाले कुशल बाजीगर' की संज्ञा दी गई हैं।
    इटली
    • जर्मनी की तरह इटली में भी राजनीतिक विखंडन का एक लंबा इतिहास था। इटली अनेक वंशानुगत राज्यों तथा बहु-राष्ट्रीय 'हैव्सवर्ग साम्राज्य' में बिखरा हुआ था।
    • 19वीं सदी के मध्य में इटली सात राज्यों में बँटा हुआ था जिनमें से केवल एक सार्डिनिया-पीडमॉण्ट में एक इतालवी राजघराने का शासन था।
    • उत्तरी भाग ऑस्ट्रियाई हैव्सबर्गों के अधीन था, मध्य इलाकों पर पोष का शासन था और दक्षिणी क्षेत्र स्पेन के बूब राजाओं के अधीन थे।
    • 1830 के दशक में ज्युसेपे मेत्सिनी ने एकीकृत इतालवी गणराज्य के लिए एक सुविचारित कार्यक्रम प्रस्तुत करने की कोशिश की थी।
    • ज्युसेपे मेत्सिनी ने अपने उद्देश्यों के प्रसार के लिए 'यंग इटली' नामक एक गुप्त संगठन भी बनाया था।
    • 1831 और 1848 में क्रांतिकारी विद्रोहों की असफलता से युद्ध के ज़रिये इतालवी राज्यों को जोड़ने की ज़िम्मेदारी सार्डिनिया-पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमेनुएल द्वितीय पर आ गई। इस क्षेत्र के शासक अभिजात वर्ग की नज़रों में एकीकृत इटली उनके लिए आर्थिक विकास और राजनीतिक प्रभुत्व की संभावनाएँ उत्पन्न करता था।
    • कावूर ने इटली के प्रदेशों को एकीकृत करने वाले आंदोलन का नेतृत्व किया, वह न तो एक क्रांतिकारी था और न ही जनतंत्र में विश्वास रखने वाला।
    • इतालवी अभिजात वर्ग के तमाम अमीर और शिक्षित सदस्यों की तरह वह इतालवी भाषा से कहीं बेहतर फ्रेंच बोलता था। फ्रांस से सार्डिनिया-पीडमॉण्ट की एक चतुर कूटनीतिक संधि, जिसके पीछे कावूर का हाथ था, से सार्डिनिया-पीडमॉण्ट 1859 में ऑस्ट्रियाई बलों को हरा पाने में कामयाब हुआ।
    • नियमित सैनिकों के अलावा ज्युसेपे गैरीबॉल्डी के नेतृत्व में भारी संख्या में सशस्त्र स्वयंसेवकों ने इस युद्ध में हिस्सा लिया।
    • 1860 में वे दक्षिण इटली और दो सिसिलियों के राज्य में प्रवेश कर गए और स्पेनी शासकों को हटाने के लिए स्थानीय किसानों का समर्थन पाने में सफल रहे।
    • 1861 में इमेनुएल द्वितीय को एकीकृत इटली का राजा घोषित किया गया। मगर, इटली के अधिकांश निवासी जिनमें निरक्षरता की दर काफी ऊँची थी, अभी भी उदारवादी - राष्ट्रवादी विचारधारा से अनजान थे।
    • दक्षिणी इटली में जिन आम किसानों ने गैरीबॉल्डी को समर्थन दिया था, उन्होंने इटालिया (Italia) के बारे में कभी सुना ही नहीं था और वे मानते थे कि ला टालिया (La Talia) विक्टर इमेनुएल की पत्नी थी।
    इटली के एकीकरण की प्रकिया
    • इटली की स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय एकीकरण के पावन यज्ञ में असंख्य देशभक्तों ने अपने अमूल्य जीवन की आहुति दी थी।
    • इटालियन देशभक्तों में चार महान् विभूतियों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उनके महत्त्व का दिग्दर्शन इस वाक्य में भलीभाँति हो जाता है, ‘मेजिनी ने इटली की आत्मा, कैवूर ने मस्तिष्क, गैरीबाल्डी तथा विक्टर इमैनुअल द्वितीय ने शरीर बनकर अपनी मातृभूमि इटली की पराधीनता की जंजीरें काट डाली और देश के एकीकरण के कार्य को सम्पूर्ण किया। ' 
    इटली के एकीकरण की दिशा में प्रमुख कार्य
    • इटली के एकीकरण का कार्य अनेक प्रयासों के माध्यम से पूरा हुआ था। इटली के राष्ट्रवादियों ने स्थान-स्थान पर 'कार्बोनरी ' नामक गुप्त समितियाँ स्थापित की थीं।
    • समितियों की बैठक रात में होती थी। देश के सभी मुख्य नेता इन समितियों के सदस्य बन गए थे।
    • कार्बोनरी का मुख्य उद्देश्य विदेशियों को इटली से बाहर निकालना तथा वैधानिक स्वतन्त्रता की स्थापना करना था। इटली के एकीकरण के इतिहास में किए गए प्रारम्भिक प्रयासों में कार्बोनरी का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था।
    मेजिनी का योगदान
    • जिस समय कार्बोनरी समितियाँ राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में प्रयासरत थीं, उसी समय इटली की राजनीति में मेजिनी नामक देशभक्त का उदय हुआ, जिसने इटली के एकीकरण के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।
    • वह कार्बोनरी का सदस्य रह चुका था। 1830 ई. में उसने इटली के राज्यों में होने वाली क्रान्तियों का नेतृत्व किया। उसने इटली की जनता को सन्देश दिया तथा राष्ट्रीय जीवन में चेतना जाग्रत की।
    • 1830 ई. तक की असफलताओं से मेजिनी ने दो निष्कर्ष निकाले
      1. इटली का सबसे प्रबल शत्रु ऑस्ट्रिया है।
      2. एकीकरण को पूरा करने के लिए कार्बोनरी अपर्याप्त है।
    • इस आधार पर मेजिनी ने 'युवा इटली' नामक दल का गठन किया। इसकी सहायता से उसने देश में जन-जागरण का कार्य प्रारम्भ किया और इटली की जनता को समझाया कि बनावटी राजनीतिक सीमाओं के द्वारा हमारे देश के टुकड़े कर दिए गए हैं, किन्तु इटली एक राष्ट्र है और उसमें एकता है। उस एकता को जीवित रखना इटली के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
    • मेजिनी का कथन था, जब तक कार्य और उद्देश्य अलग-अलग हैं, तब तक सफलता अनिश्चित है।'
    • 1848 ई. की प्रसिद्ध क्रान्ति से सम्पूर्ण यूरोप महाद्वीप प्रभावित हुआ था। मैटरनिख के पतन का समाचार सुनकर मार्च, 1848 में इटलीवासियों ने मेजिनी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।
    • मेजिनी ने पोप की राजधानी रोम में गणतन्त्र की घोषणा कर दी, किन्तु फ्रांस के राष्ट्रपति लुई नेपोलियन ने सेना भेजकर पोप की सहायता की।
    • मेजिनी पराजित हो गया और पोप को पुनः सत्तारूढ़ कर दिया गया। मेजिनी पराजित होकर स्विट्जरलैण्ड भाग गया। 
    कावूर का योगदान

    इटली के राज्य पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमैनुअल काण्ट की यह इच्छा थी कि इटली का एकीकरण पीडमॉण्ट के नेतृत्व में पूरा होना चाहिए। उसके प्रधानमन्त्री कावूर का भी यही विचार था।

    कावूर राजतन्त्र का समर्थक, कूटनीतिज्ञ तथा दूरदर्शी नेता था । इटली के एकीकरण की दिशा में उसने निम्नलिखित कार्य किए थे

    1. सर्वप्रथम कैवूर का ध्यान इटली की समस्या को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए आकर्षित हुआ। क्रीमिया के युद्ध में उसे यह अवसर प्राप्त हो गया। क्रीमिया का युद्ध टर्की की समस्या और चर्च के प्रश्न से सम्बन्धित था । इटली न तो रूस का शत्रु था और न ही इंग्लैण्ड व फ्रांस का । फिर भी कैवूर ने इस युद्ध में इंग्लैण्ड, फ्रांस व टर्की के समर्थन में अपनी सेना भेजकर महान् दूरदर्शिता का परिचय दिया। इससे कैवर को इटली की समस्या के प्रति इंग्लैण्ड व फ्रांस जैसे बड़े देशों की सहानुभूति प्राप्त हो गई। यही कैवूर का उद्देश्य था।
    2. कावूर ने ऑस्ट्रिया के विरुद्ध 31 जुलाई, 1858 को फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय के साथ एक समझौता किया, जिसमें नेपोलियन तृतीय ने इटली को ऑस्ट्रिया के विरुद्ध सैनिक सहयोग का वचन दिया । कैवूर की यह महान् सफलता थी।
    3. सन् 1858 में ऑस्ट्रिया व पीडमॉण्ट के मध्य युद्ध प्रारम्भ हुआ। नेपोलियन तृतीय ने अपनी सेना को पीडमॉण्ट की सहायता के लिए भेज दिया। युद्ध में ऑस्ट्रिया की पराजय हुई और लोम्बार्डी का प्रदेश ऑस्ट्रिया से छीन लिया गया।
    4. मध्य इटली के परमा, मोडिना, टुस्कने राज्यों की जनता ने पीडमॉण्ट के साथ रहने की इच्छा प्रकट की । कैवूर के प्रयासों | के फलस्वरूप मार्च, 1860 में इन प्रदेशों में जनमत कराया गया। बहुमत के आधार पर राज्यों का एकीकरण करके उत्तर- मध्य इटली का निर्माण किया गया।
    5. दुर्भाग्यवश 6 जून, 1861 को कैवूर की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के समय वेनेशिया और रोम को छोड़कर शेष सम्पूर्ण इटली का एकीकरण हो चुका था। मरते समय कैवूर ने कहा था, 'अब सब सुरक्षित है, इटली का निर्माण हो चुका है। '
    गैरीबाल्डी का योगदान
    • इटली, सिसली व नेपल्स राज्यों की जनता ने भी विद्रोह कर दिया। गैरीबाल्डी नामक नाविक योद्धा ने अपनी लालकुर्ती सेना के साथ वहाँ की जनता का पूरा सहयोग किया। फलस्वरूप उक्त दोनों राज्यों को भी इटली में मिला दिया गया।
    • इटली का पूर्ण एकीकरण- इस समय बिस्मार्क के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण का अभियान चल रहा था। 1866 ई. में सेडोवा के युद्ध में प्रशा तथा पीडमॉण्ट की सेनाओं ने ऑस्ट्रिया को पराजित कर दिया और वेनेशिया का प्रदेश पीडमॉण्ट को प्राप्त हो गया। 
    • 1870 ई. में फ्रांस व प्रशा का युद्ध प्रारम्भ हो गया। अवसर का लाभ उठाकर इटली की सेनाओं ने रोम पर अधिकार कर लिया। इसके साथ ही इटली का एकीकरण पूरा हो गया।
    • रोम को इटली की राजधानी बनाया गया। 1856 ई. में कावूर ने कहा था 'मुझे विश्वास है कि एक दिन इटली स्वतन्त्र राष्ट्र बनेगा और रोम उसकी राजधानी । '
    • इटली के राष्ट्रीय एकीकरण का कार्य निम्नलिखित चार चरणों में पूरा हो सका था। इनका विवरण निम्न प्रकार है
    प्रथम चरण
    • मई, 1858 में कैवूर ने प्लोम्बियर्स समझौते के द्वारा फ्रांस के सम्राट् नेपोलियन तृतीय को नीस एवं सेवॉय के प्रदेश देने का आश्वासन प्रदान करके उससे लाखों फ्रांसीसी सैनिकों की सहायता प्राप्त की।
    • इसके उपरान्त ऑस्ट्रिया के साथ पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमैनुअल का युद्ध हुआ, जिसमें फ्रांसीसी सैनिक सहायता के बल पर उसको ऑस्ट्रियन सेना को दो युद्धों में पराजित करने का अवसर प्राप्त हुआ।
    • इस प्रकार लोम्बार्डी के प्रान्त से ऑस्ट्रिया का अधिकार जाता रहा और वह पीडमॉण्ट संघ में सम्मिलित कर लिया गया। लोम्बार्डी पर अधिकार किया जाना इटली के एकीकरण की प्रथम सीढ़ी थी ।
    द्वितीय चरण
    • मध्य इटली के छोटे-छोटे प्रान्तों पर्मा, मोडेना, टस्कनी तथा पोप के राज्य के रामागना एवं बोलोगना आदि प्रान्तों की जनता ने देशभक्ति एवं स्वतन्त्रता की भावनाओं के प्रवाह में बहकर अपने यहाँ के निरंकुश शासकों के अत्याचारपूर्ण शासन का अन्त कर दिया और पीडमॉण्ट संघ में सम्मिलित होने के लिए पीडमॉण्ट के शासक से निवेदन किया।
    • ऑस्ट्रिया ने इसका भारी विरोध किया। परन्तु कैवूर की राजनीतिक पटुता के कारण नेपोलियन तृतीय की इस सम्बन्ध में सहमति प्राप्त कर ली गई ।
    • जनता के मतदान से ज्ञात हुआ कि बहुमत उन राज्यों को पीडमॉण्ट संघ में मिलाए जाने का पक्षपाती है। अतः उत्तरी इटली के उन छोटे-छोटे राज्यों को भी पीडमॉण्ट संघ का सदस्य बना लिया गया। इस प्रकार इटली के राष्ट्रीय एकीकरण का द्वितीय चरण पूर्ण हुआ।
    तृतीय चरण
    • 1860 ई. में सिसली की जनता ने नेपल्स के निरंकुश शासक के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
    • प्रसिद्ध देशभक्त गैरीबाल्डी अपने लालकुर्ती दल के लगभग सहस्त्र सैनिकों सहित जन-आन्दोलन की सहायतार्थ सिसली पहुँच गया। उसने नेपल्स के राजा को दो युद्धों में बुरी तरह पराजित करके सिसली पर अधिकार कर लिया।
    • इसके उपरान्त उसने नेपल्स के राज्य पर आक्रमण कर दिया।
    • राजा बिना युद्ध किए ही नेपल्स छोड़कर गेटा (Gaeta ) भाग गया। इस प्रकार सिसली और नेपल्स का विशाल राज्य गैरीबाल्डी के अधीन हो गया।
    चतुर्थ चरण
    • 1866 ई. में प्रशा का ऑस्ट्रिया के साथ भीषण युद्ध हुआ, जिसमें प्रशा को अपूर्व विजय प्राप्त हुई। इस विजय का प्रमुख कारण प्रशा के चांसलर बिस्मार्क के संकेत पर विक्टर इमैनुअल द्वितीय द्वारा वेनेशिया और टायरील पर किया आक्रमण था।
    • इस आक्रमण के कारण ऑस्ट्रिया प्रशा के विरुद्ध युद्ध में अपना सम्पूर्ण सैन्य दल नहीं उतार सका। अतः उनकी सैनिक शक्ति प्रशा के समक्ष कमजोर पड़ गई और उसे पराजित होना पड़ा।
    • अन्त में सन्धि की गई, जिसमें बिस्मार्क ने अपने वचन का पालन करते हुए ऑस्ट्रिया के अधीन वेनेशिया प्रदेश को पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमैनुअल द्वितीय को अर्पित करने के लिए विवश किया।
    • 1870 ई. में फ्रांस का प्रशा के साथ युद्ध छिड़ गया। अतः नेपोलियन तृतीय को रोम से फ्रांसीसी सेना वापस बुलानी पड़ी। इस प्रकार रोम की सुरक्षा जाती रही ।
    • नेपोलियन का पतन होते ही विक्टर इमैनुअल द्वितीय ने अपनी सेना भेजकर रोम पर अधिकार जमा लिया।
    • इस प्रकार इटली के राष्ट्रीय एकीकरण का स्वप्न पूरा हुआ और संगठित इटली राष्ट्र की राजधानी रोम को बनाया गया।
    • यही इटली के राष्ट्रीय एकीकरण की अन्तिम सीढ़ी थी, जिसे पार करके इटली ने यूरोप के शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में अपनी स्थापना की। मेजिनी ने लिखा भी था, 'इटली एक राष्ट्र होना चाहता है और कुछ भी हो, वह एक राष्ट्र अवश्य बन जाएगा।'
    क्रीमिया का युद्ध
    • यूनान के स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात् बाल्कन प्रायद्वीप में रूस का प्रभाव बढ़ गया, किन्तु रूस अपनी स्थिति से पूर्ण सन्तुष्ट नहीं था।
    • रूस का जार निकोलस अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी था। उसकी प्रबल इच्छाओं ने पूर्वी समस्या के क्षेत्र में एक नये युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की, जिसे क्रीमिया का युद्ध कहते हैं।
    क्रीमिया युद्ध के कारण
    क्रीमिया युद्ध के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे

    1. फ्रांस का दृष्टिकोण

    • फ्रांस का सम्राट् नेपोलियन तृतीय विदेशों में फ्रांस की प्रतिष्ठा को बढ़ाना चाहता था । वह टर्की के मामलों में गहरी रुचि लेता था। उसके तथा रूस के जार के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे।
    • इसके अलावा नेपोलियन तृतीय अपने देश की रोमन कैथोलिक जनता को खुश रखने के लिए सैनिक विजय प्राप्त करना चाहता था।
    • इतिहासकार हेज ने लिखा है, 'रूस व फ्रांस की पुरानी शत्रुता का बदला लेने, नेपोलियन बोनापार्ट की मॉस्को पराजय का हिसाब चुकाने, वाटरलू की पराजय एवं वियना सन्धि का बदला लेने के लिए नेपोलियन तृतीय ने क्रोमियाँ युद्ध में भाग लिया था। '
      2. रूस का दृष्टिकोण
      • रूस आरम्भ से ही टर्की साम्राज्य का विघटन चाहता था । वह टर्की की आन्तरिक दुर्बलता का लाभ उठाकर उस पर अधि कार करना चाहता था।
      • 1853 ई. में रूस के जार ने कहा था, 'हमारे सामने एक अत्यन्त बीमार आदमी है। उसकी मौत से पूर्व यदि हमने उसकी सम्पत्ति का बँटवारा नहीं किया, तो यह हमारा महान् दुर्भाग्य होगा।'
      • वास्तव में रूस अपने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विकास करने हेतु भूमध्य सागर तथा काला सागर पर अधिकार करना चाहता था।
      3. इंग्लैण्ड का दृष्टिकोण
      • इंग्लैण्ड टर्की साम्राज्य के विघटन के पक्ष में नहीं था, क्योंकि भूमध्य सागर पर रूस का अधिकार हो जाने से इंग्लैण्ड के पूर्वी साम्राज्य को खतरा हो सकता था।
      • इंग्लैण्ड की इच्छा थी कि पूर्वी समस्या का सम्बन्ध यूरोप के बड़े देशों से होने के कारण उसका समाधान भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए।
      4. तत्कालीन कारण
      • टर्की साम्राज्य के अन्तर्गत जेरूसलम नामक स्थान ईसाइयों का पवित्र तीर्थस्थल था। वहाँ पर यूनानी व रोमन कैथोलिक, दोनों प्रकार के पादरी रहते थे। इनकी आपसी कटुता का लाभ रूस व फ्रांस ने उठाया।
      • ये दोनों देश अपनी सैनिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करना चाहते थे। जेरूसलम की समस्याओं का लाभ दोनों देशों ने एक-दूसरे के विरुद्ध उठाया।
      क्रीमिया युद्ध
      • रूस ने विपत्ति के दिनों में टर्की की सहायता की थी। फलस्वरूप रूस के प्रस्ताव पर 1833 ई. में उनकियर स्केलेसी (Unkier Skellessi) की सन्धि पर टर्की ने हस्ताक्षर कर दिए और वह रूस के प्रभाव में आ गया। इससे इंग्लैण्ड को चिन्ता हुई।
      • पामर्स्टन ने इस सन्धि को नष्ट करने का निश्चय किया। उसने पूर्वी समस्या पर व्यापक समझौता करने के लिए 1840 ई. में यूरोपीय राज्यों का लन्दन में एक सम्मेलन बुलाया।
      • इस सम्मेलन में बड़े राष्ट्रों द्वारा सन्धि पर हस्ताक्षर करने से टर्की साम्राज्य पर रूस का प्रभाव कम हो गया। सभी शक्तियों ने स्वीकार किया कि टर्की का अस्तित्व रहना चाहिए।
      • इसके पश्चात् लगभग 10 वर्षों तक पूर्वी समस्या शान्त रही। इसी दौरान फ्रांस में लुई नेपोलियन का शासन आया, जिसने जेरूसलम के ईसाई पादरियों का पक्ष लेकर पूर्वी समस्या को उभारा। क्रीमिया युद्ध इसी का परिणाम था।
      • क्रीमिया युद्ध 2 वर्षों तक चला, जिसमें दोनों पक्षों की अपार जन-धन की हानि हुई।
      • रूस अकेले फ्रांस; इंग्लैण्ड, टर्की और सार्जीनिया की सामूहिक शक्ति का सामना नहीं कर सकता था।
      • उल्लेखनीय है कि पीडमॉण्ट- सार्डिनिया इटली का राज्य था, जिसके प्रधानमन्त्री कैवूर ने फ्रांस का साथ देने और उसकी सहानुभूति लेने के लिए रूस के विरुद्ध 15 हजार सैनिक भेजे थे। प्रशा इस युद्ध में तटस्थ रहा। ऑस्ट्रिया ने भी अपनी • तटस्थता की घोषणा की थी, परन्तु युद्ध के दौरान उसने रूस को धमकाया भी था।
      • मार्च, 1855 में रूस के जार निकोलस प्रथम की मृत्यु हो गई और उसके स्थान पर अलेक्जेण्डर द्वितीय जार बना। इस नये सम्राट ने युद्ध को समाप्त करना ठीक समझा।
      • ऑस्ट्रिया की मध्यस्थता से युद्ध समाप्त हो गया और सन्धि के लिए पेरिस में तैयारी होने लगी ।
      पेरिस की सन्धि 

      क्रीमिय युद्ध का अन्त पेरिस की सन्धि से हुआ।

      30 मार्च, 1856 को पेरिस की सन्धि हुई, जिसकी मुख्य बातें निम्न प्रकार थीं

      1. टर्की की प्रादेशिक अखण्डता और राजनीतिक स्वतन्त्रता बनाए रखी जाए।
      2. टर्की का सुल्तान ईसाई प्रजा की स्थिति को सुधारेगा।
      3. रूस ने टर्की की ईसाई प्रजा के संरक्षण का अधिकार त्याग दिया।
      4. मोल्डेविया और बेलेशिया पर से रूस का संरक्षण समाप्त हो गया।
      5. कार्स का प्रदेश टर्की को और क्रीमिया रूस को वापस मिल गया।
      6. सर्बिया की स्वतन्त्रता को स्वीकार किया गया।
      7. डेन्यूब नदी व्यापार के लिए यूरोपीय राष्ट्रों के लिए खुल गई ।
      8. काला सागर को तटस्थ घोषित कर दिया गया।
      क्रीमिया युद्ध का परिणाम : नवीन इटली का जन्म
      • यूरोपीय इतिहास के दृष्टिकोण से वियना कांग्रेस के बाद क्रीमिया युद्ध एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस युद्ध से रूस का प्रसार रुक गया और टर्की में एक नये जीवन का संचार हुआ।
      • इस प्रकार यूरोपीय राज्यों ने पूर्वी समस्या को अकेले ही सुलझाने के रूसी दावे को ठुकरा दिया।
      • रूस को कमजोर बना दिया गया और उसे अपमानित भी किया गया। यद्यपि रूस चुप नहीं बैठा और 14 वर्ष बाद उसने अपने अपमान का बदला लिया।
      • युद्ध का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से इटली पर पड़ा तथा उसे फ्रांस का सहयोग प्राप्त हो गया।
      • क्रीमिया युद्ध सामान्य अर्थ में यूरोपीय इतिहास का एक युगान्तकारी युद्ध था।
      • क्रीमिया युद्ध के परोक्ष परिणाम बहुत ही दूरगामी और व्यापक निकले। इटली व जर्मनी के एकीकरण, रूस की राजनीति, बाल्कन प्रायद्वीप के पुनर्निर्माण और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
      • 1852 ई. में कैवूर पीडमॉण्ट राज्य का प्रधानमन्त्री था। जब क्रीमिया युद्ध हुआ, तो उसने पीडमॉण्ट को इसमें सम्मिलित करने का निश्चय किया।
      • युद्ध में वह इसलिए सम्मिलित हुआ था कि दिखा सके कि इटली के लोग व उसकी शक्ति किसी से कम नहीं और उसे भी स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए।
      • क्रीमिया युद्ध में सम्मिलित होने से पीडमॉण्ट की प्रतिष्ठा बढ़ गई और युद्ध में शामिल राष्ट्र उसके ऋणी हो गए। इन राष्ट्रों की इटली के प्रति सहानुभूति जाग्रत हुई और वे इटली के एकीकरण के लिए प्रयत्नशील हुए।
      • उल्लेखनीय है कि पेरिस के शान्ति सम्मेलन में कैवूर ही इटली का प्रतिनिधि बनकर आया था और वह ऑस्ट्रिया के साथ समानता के स्तर पर सम्मेलन में बैठा।
      • इस सम्मेलन में कैवूर ने इटली की दुर्दशा का चित्रण प्रभावशाली ढंग से किया और ऑस्ट्रिया की नीति का विरोध किया।
      • इसके फलस्वरूप कावूर को इंग्लैण्ड की सहानुभूति और नेपोलियन का सक्रिय समर्थन मिला, जिसके कारण इटली के एकीकरण को बल मिला। इन्हीं कारणो से कहा गया है कि ‘क्रीमिया की कीचड़ से नवीन इटली का जन्म हुआ।' 
      क्रीमिया युद्ध के परिणाम एवं महत्त्व
      1. इस युद्ध ने इटली के एकीकरण हेतु उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया। कैवूर ने इस युद्ध में अपनी सेना भेजकर बड़े देशों की सहानुभूति प्राप्त की।
      2. क्रीमिया युद्ध में रूस की पराजय के फलस्वरूप वहाँ की जनता जार के निरंकुश व एकतन्त्रात्मक शासन की कमजोरियों पर विचार करने लगी । 
      3. इस युद्ध की पराजय से निराश होकर रूस बाल्कन प्रायद्वीप से अपना ध्यान हटाकर चीन, जापान व पूर्वी एशिया में लगाने लगा।
      4. क्रीमिया युद्ध के महत्त्व के सम्बन्ध में डेविस थॉम्पसन ने लिखा है, 'युद्ध में पहली बार इंग्लैण्ड व फ्रांस साथ-साथ लड़े थे। इस युद्ध में स्त्रियों ने पहली बार फ्लोरेंस नाइटेंगिल के नेतृत्व में भाग लिया था तथा पहली बार विज्ञान के नये आविष्कारों का प्रयोग हुआ था। ' 
      क्रीमिया युद्ध का औचित्य
      • अनेक विद्वानों ने क्रीमिया युद्ध की आलोचना करते हुए इसे 'बेकार का युद्ध' बताया है। उनका विचार है कि इस युद्ध में अपार जन-धन एवं समय का विनाश होने पर भी पूर्वी समस्या का स्थायी हल नहीं निकाला जा सका।
      • पेरिस की सन्धि की धाराएँ स्थायी सिद्ध न हो सकी। इस युद्ध का उद्देश्य रूस की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाना था, किन्तु इस उद्देश्य में भी सफलता न मिल सकी।
      • रूस द्वारा पेरिस की सन्धि में हुए अपने अपमान को भुलाया नहीं जा सका। मित्र राष्ट्रों के लिए भी इस युद्ध के परिणाम विनाशकारी सिद्ध हुए।
      • क्रीमिया युद्ध ने यथास्थिति की जड़े शान्ति को नष्ट कर दिया और उसके स्थान पर रचनात्मक युद्धों के युग का प्रारम्भ किया। इस प्रकार शान्ति से युद्ध के क्षेत्र में तथा मध्ययुगीन से आधुनिक व्यवस्था में अवतरण का समय यदि किसी घटना द्वारा निर्धारित करना हो, तो यह घटना निःसन्देह रूप से क्रीमिया युद्ध ही है ।
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      Sun, 26 Nov 2023 06:01:23 +0530 Jaankari Rakho
      BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | वनावरण https://m.jaankarirakho.com/476 https://m.jaankarirakho.com/476 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | वनावरण
      व्यावसायिक वानिकी
      • जहाज़ और रेल की पटरियाँ बिछाने के लिए अंग्रेज़ों को जंगलों की ज़रूरत थी। अंग्रेज़ों को इस बात की चिंता थी कि स्थानीय लोगों द्वारा जंगलों का उपयोग व व्यापारियों द्वारा पेड़ों की अधुंध कटाई से जंगल नष्ट हो जाएँगे।
      • इसलिए उन्होंने डायट्रिच बैंडिस नामक जर्मन विशेषज्ञ को इस विषय पर मशविरे के लिए बुलाया और उसे देश का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया गया।
      • बैंडिस ने महसूस किया कि लोगों को संरक्षण विज्ञान में प्रशिक्षित करना और जंगलों के प्रबंधन के लिए एक व्यवस्थित तंत्र विकसित करना होगा। इसके लिए कानूनी मंजूरी की ज़रूरत पड़ेगी।
      • वन संपदा के उपयोग संबंधी नियम तय करने पड़ेंगे। पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबंदी लगा कर ही जंगलों को लकड़ी उत्पादन के लिए आरक्षित किया जा सकेगा।
      • इस तंत्र की अवमानना करके पेड़ काटने वाले, किसी भी व्यक्ति को सज़ा का भागी बनना होगा। इस तरह ब्रैंडिस ने 1864 ई. में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया।
      • इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1906 में देहरादून में हुई। यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे 'वैज्ञानिक वानिकी' (साइंटिफिक फ़ॉरेस्ट्री) कहा गया। लेकिन आज पारिस्थितिकी विशेषज्ञों सहित ज़्यादातर लोग मानते हैं कि यह पद्धति कतई वैज्ञानिक नहीं है।
      • वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया। इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए।
      • वन विभाग के अधिकारियों ने जंगलों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्र की नाप-जोख की और वन प्रबंधन के लिए योजनाएँ बनायीं। 
      • उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाएगा। कटाई के बाद खाली ज़मीन पर पुन: पेड़ लगाए जाने थे ताकि कुछ ही वर्षों में यह क्षेत्र पुनः कटाई के लिए तैयार हो जाए।
      • 1865 ई. में वन अधिनियम के लागू होने के बाद इसमें दो बार संशोधन किए गए पहले 1878 ई. में और फिर 1927 ई. में। 1878 ई. वाले अधिनियम में जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया : आरक्षित, सुरक्षित व ग्रामीण।
      • सबसे अच्छे जंगलों को 'आरक्षित वन' कहा गया। गाँव वाले इन जंगलों से अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे। वे घर बनाने या ईंधन के लिए केवल सुरक्षित या ग्रामीण वनों से ही लकड़ी ले सकते थे।
      लोगों पर प्रभाव
      • एक अच्छा जंगल कैसा होना चाहिए इसके बारे में वनपालों और ग्रामीणों के विचार बहुत अलग थे। जहाँ एक तरफ ग्रामीण अपनी अलग-अलग ज़रूरतों, जैसे ईंधन, चारे व पत्तों की पूर्ति के लिए वन में विभिन्न प्रजातियों का मेल चाहते थे, वहीं वन विभाग को ऐसे पेड़ों की ज़रूरत थी जो जहाजों और रेलवे के लिए इमारती लकड़ी मुहैया करा सकें, ऐसी लकड़ियाँ जो सख्त, लंबी और सीधी हों।
      • इसलिए सागौन और साल जैसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया गया और दूसरी किस्में काट डाली गईं।
      • वन्य इलाकों में लोग कंद-मूल-फल, पत्ते आदि वन- उत्पादों का विभिन्न ज़रूरतों के लिए उपयोग करते हैं। फल और कंद अत्यंत पोषक खाद्य हैं, विशेषकर मॉनसून के दौरान जब फ़सल कट कर घर न आयी हो ।
      • दवाओं के लिए जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल होता है, लकड़ी का प्रयोग हल जैसे खेती के औज़ार बनाने में किया जाता है। बाँस से बेहतरीन बाड़ें बनायी जा सकती हैं और इसका उपयोग छतरी तथा टोकरी बनाने के लिए भी किया जा सकता है।
      • सूखे हुए कुम्हड़े के खोल का प्रयोग पानी की बोतल के रूप में किया जा सकता है। जंगलों में लगभग सब कुछ उपलब्ध है- पत्तों को जोड़- जोड़ कर 'खाओ-फेंको' किस्म के पत्तल और दोने बनाए जा सकते हैं, सियादी (Bauhiria vahili) की लताओं से रस्सी बनायी जा सकती है, सेमूर (सूती रेशम) की काँटेदार छाल पर सब्ज़ियाँ छीली जा सकती हैं, महुए के पेड़ से खाना पकाने और रोशनी के लिए तेल निकाला जा सकता है।
      • वन अधिनियम के करण देश भर में गाँव वालों की मुश्किलें बढ़ गईं। इस कानून के बाद घर के लिए लकड़ी काटना, पशुओं को चराना, कंद-मूल-फल इकट्ठा करना आदि रोज़मर्रा की गतिविधियाँ गैरकानूनी बन गई।
      • अब उनके पास जंगलों से लकड़ी चुराने के अलावा कोई चारा नहीं बचा और पकड़े जाने की स्थिति में वे वन रक्षकों की दया पर होते जो उनसे घूस ऐंठते थे।
      • जलावनी लकड़ी एकत्र करने वाली औरतें विशेष तौर से परेशान रहने लगीं। मुफ्त खाने-पीने की मांग करके लोगों को तंग करना पुलिस और जंगल के चौकीदारों के लिए सामान्य बात थी।
      वनों के नियमन से खेती प्रभावित
      • यूरोपीय उपनिवेशवाद का सबसे गहरा प्रभाव झूम या घुमंतू खेती की प्रथा पर दिखायी पड़ता है। एशिया, अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका के अनेक भागों में यह खेती का एक परंपरागत तरीका है।
      • इसके कई स्थानीय नाम हैं जैसे दक्षिण-पूर्व एशिया में लादिगं, मध्य अमेरिका में मिला, अफ़्रीका में चितमेन या तावी व श्रीलंका में चेना। हिंदुस्तान में घुमंतू खेती के लिए धया, पेंदा, बेवर, नवेड़, झमू, पाडू खंदाद और कुमरी ऐसे ही कुछ स्थानीय नाम हैं।
      • घुमंतू कृषि के लिए जंगल के कुछ भागों को बारी-बारी से काटा और जलाया जाता है। मॉनसून की पहली बारिश के बाद इस राख में बीज बो दिए जाते हैं और अक्तूबर-नवंबर में फ़सल काटी जाती है।
      • इन खेतों पर दो-एक साल खेती करने के बाद इन्हें 12 से 18 साल तक के लिए परती छोड़ दिया जाता है जिससे वहाँ फिर से जंगल पनप जाए।
      • इन भूखंडों में मिश्रित फ़सलें उगायी जाती हैं जैसे मध्य भारत और अफ्रीका में ज्वार-बाजरा, ब्राज़ील में कसावा और लैटिन अमेरिका के अन्य भागों में मक्का व फलियाँ |
      • यूरोपीय वन रक्षकों की नज़र में यह तरीका जंगलों के लिए नुकसानदेह था। उन्होंने महसूस किया कि जहाँ कुछेक सालों के अंतर पर खेती की जा रही हो ऐसी
      • ज़मीन पर रेलवे के लिए इमारती लकड़ी वाले पेड़ नहीं उगाए जा सकते। साथ ही, जंगल जलाते समय बाकी बेशकीमती पेड़ों के भी फैलती लपटों की चपेट में आ जाने का खतरा बना रहता है। घुमंतू खेती के कारण सरकार के लिए लगान का हिसाब रखना भी मुश्किल था।
      • इसलिए सरकार ने घुमंतू खेती पर रोक लगाने का फैसला किया। इसके परिणामस्वरूप अनेक समुदायों को जंगलों में उनके घरों से जबरन विस्थापित कर दिया गया। कुछ को अपना पेशा बदलना पड़ा तो कुछ ने छोटे-बड़े विद्रोहों के ज़रिए प्रतिरोध किया।
      शिकार की आज़ादी
      • जंगल संबंधी नए कानूनों ने वनवासियों के जीवन को एक और तरह से प्रभावित किया। वन कानूनों के पहले जंगलों में या उनके आसपास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरन, तीतर जैसे छोटे-मोटे शिकार करके जीवनयापन करते थे।
      • अनेक मुगल कलाकृतियों में शहजादों और सम्राटों को शिकार का मज़ा लेते हुए दिखाया गया है। किंतु औपनिवेशिक शासन के दौरान शिकार का चलन इस पैमाने तक बढ़ा कि कई प्रजातियाँ लगभग पूरी तरह लुप्त हो गईं।
      • अंग्रेज़ों की नज़र में बड़े जानवर जंगली, बर्बर और आदि समाज के प्रतीक चिह्न थे। उनका मानना था कि खतरनाक जानवरों को मार कर वे हिन्दुस्तान को सभ्य बनाएँगे । बाघ, भेड़िये और दूसरे बड़े जानवरों के शिकार पर यह कह कर इनाम दिए गए कि इनसे किसानों को खतरा है।
      • 1875 से 1925 के बीच इनाम के लालच में 80,000 से ज्यादा बाघ, 1, 50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िये मार गिराए गए ।
      • धीरे-धीरे बाघ के शिकार को एक खेल की ट्रॉफी के रूप में देखा जाने लगा। अकेले जॉर्ज यूल नामक अंग्रेज़ अफ़सर ने 400 बाघों को मारा था।
      नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ
      • जंगलों पर वन विभाग का नियंत्रण स्थापित हो जाने से लोगों को कई तरह के नुकसान हुए, लेकिन कुछ लोगों को व्यापार के नए अवसरों का लाभ भी मिला। कई समुदाय अपने परंपरागत पेशे छोड़ कर वन-उत्पादों का व्यापार करने लगे।
      • महज़ हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कुछ ऐसा ही नज़ारा दिखता है। उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं सदी के मध्य में ऊँची जगहों पर रह कर मैनियोक उगाने वाले ब्राज़ीली ऐमेज़ॉन के मुनदुरुकुं समुदाय के लोगों ने व्यापारियों को रबड़ की आपूर्ति के लिए जंगली रबड़ के वृक्षों से 'लेटेक्स' एकत्र करना प्रारंभ कर दिया।
      • कालांतर में वे व्यापार चौकियों की ओर नीचे उतर आए और . पूरी तरह व्यापारियों पर निर्भर हो गए।
      • हिंदुस्तान में वन-उत्पादों का कोई अनोखी बात नहीं थी। ' मध्यकाल से ही आदिवासी समुदायों द्वारा बंजारा आदि घुमंतू समुदायों के माध्यम से हाथियों और दूसरे सामान जैसे खाल, • सींग, रेशम के कोये, हाथी- दाँत, बाँस, मसाले, रेशे, घास, गोंद और राल के व्यापार के सबूत मिलते हैं।
      • अंग्रेज़ों के आने के बाद व्यापार पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में चला गया। ब्रिटिश सरकार ने कई बड़ी यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों को विशेष इलाकों में वन-उत्पादों के व्यापार की इजारेदारी सौंप दी। स्थानीय लोगों द्वारा शिकार करने और पशुओं को चराने पर बंदिशें लगा दी गईं ।
      • इस प्रक्रिया में मद्रास प्रेसीडेंसी के कोरावा, कराचा व येरुकुला जैसे अनेक चरवाहे और घुमंतू समुदाय अपनी जीविका से हाथ धो बैठे। इनमें से कुछ को 'अपराधी कबीले' कहा जाने लगा और ये सरकार की निगरानी में फैक्ट्रियों, खदानों व बागानों में काम करने को मजबूर हो गए।
      • काम के नए अवसरों का मतलब यह नहीं था कि उनकी जीवन स्थिति में हमेशा सुधार ही हुआ हो। असम के चाय बागानों में काम करने के लिए झारखंड के संथाल और उराँव व छत्तीसगढ़ के गोंड जैसे आदिवासी मर्द व औरतों, दोनों की भर्ती की गयी।
      • उनकी मज़दूरी बहुत कम थी और कार्यपरिस्थितियाँ उतनी ही खराब। उन्हें उनके गाँवों से उठा कर भर्ती तो कर लिया गया था लेकिन उनकी वापसी आसान नहीं थी। 
      वन-विद्रोह
      • हिंदुस्तान और दुनिया भर में वन्य समुदायों ने अपने ऊपर थोपे गए बदलावों के खिलाफ़ बगावत की। संथाल परगना में सीधू और कानू, छोटा नागपुर में बिरसा मुंडा और आंध्र प्रदेश में अल्लूरी सीताराम राजू को लोकगीतों और कथाओं में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ उभरे आंदोलनों के नायक के रूप में आज भी याद किया जाता है।
      • बस्तर छत्तीसगढ़ के सबसे दक्षिणी छोर पर आंध्र प्रदेश, उड़ीसा व महाराष्ट्र की सीमाओं से लगा हुआ क्षेत्र है। बस्तर का केंद्रीय भाग पठारी है। इस पठार के उत्तर में छत्तीसगढ़ का मैदान और दक्षिण में गोदावरी का मैदान है।
      • इन्द्रावती नदी बस्तर के आर-पार पूरब से पश्चिम की तरफ़ बहती है। बस्तर में मरिया और मुरिया गोंड, धुरवा, भतरा, हलबा आदि अनेक आदिवासी समुदाय रहते हैं।
      • अलग-अलग भाषा बोलने के बावजूद इनके रीति-रिवाज और - विश्वास एक जैसे हैं। बस्तर के लोग मानते हैं कि प्रत्येक गाँव को उसकी ज़मीन 'धरती माँ' से मिली है और बदले में वे प्रत्येक खेतिहर त्योहार पर धरती को चढ़ावा चढ़ाते हैं।
      • धरती के अलावा वे नदी, जंगल व पहाड़ों की आत्मा को भी उतना ही मानते हैं। चूँकि हर गाँव को अपनी चौहद्दी पता होती. है इसलिए ये लोग इन सीमाओं के भीतर समस्त प्राकृतिक संपदाओं की देखभाल करते हैं।
      • यदि एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से थोड़ी लकड़ी लेना चाहते हैं तो इसके बदले में वे एक छोटा शुल्क अदा करते हैं जिसे देवसारी, दांड़ या मान कहा जाता है। कुछ गाँव अपने जंगलों की हिफ़ाज़त के लिए चौकीदार रखते हैं जिन्हें वेतन के रूप में हर घर से थोड़ा-थोड़ा अनाज दिया जाता है।
      • हर वर्ष एक बड़ी सभा का आयोजन होता है जहाँ एक परगने (गाँवों का समूह) के गाँवों के मुखिया जुटते हैं और जंगल सहित तमाम दूसरे अहम मुद्दों पर चर्चा करते हैं।
      • औपनिवेशिक सरकार ने 1905 में जब जंगल के दो-तिहाई हिस्से को आरक्षित करने, घुमंतू खेती को रोकने और शिकार व वन्य उत्पादों के संग्रह पर पाबंदी लगाने जैसे प्रस्ताव रखे तो बस्तर के लोग बहुत परेशान हो गए।
      • कुछ गाँवों को आरक्षित वनों में इस शर्त पर रहने दिया गया कि वे वन-विभाग के लिए पेड़ों की कटाई और ढुलाई का काम मुफ्त करेंगे और जंगल को आग से बचाए रखेंगे।
      • बाद में इन्हीं गाँवों को 'वन ग्राम' कहा जाने लगा। बाकी गाँवों के लोग बगैर किसी सूचना या मुआवजे के हटा दिए गए। काफी समय से गाँव वाले ज़मीन के बढ़े हुए लगान तथा औपनिवेशिक अफसरों के हाथों बेगार और चीज़ों की निरंतर माँग से त्रस्त थे।
      • इसके बाद भयानक अकाल का दौर आया: पहले 1899-1900 में और फिर 1907-1908 में। वन आरक्षण ने चिंगारी का काम किया।
      • लोगों ने बाज़ारों में, त्योहारों के मौके पर और जहाँ कहीं भी कई गाँवों के मुखिया और पुजारी इकट्ठा होते थे वहाँ जमा होकर इन मुद्दों पर चर्चा करना प्रारंभ कर दिया। काँगेर वनों के धुरवा समुदाय के लोग इस मुहिम में सबसे आगे थे क्योंकि आरक्षण सबसे पहले यहीं लागू हुआ था।
      • हालाँकि कोई एक व्यक्ति इनका नेता नहीं था लेकिन बहुत सारे लोग नेथानार गाँव के गुंडा धूर को इस आंदोलन की एक अहम शख्सियत मानते हैं।
      • 1910 में आम की टहनियाँ, मिट्टी के ढेले, मिर्च और तीर गाँव-गाँव चक्कर काटने लगे। यह गाँवों में अंग्रेजों के खिलाफ़ बगावत का संदेश था।
      • प्रत्येक गाँव ने इस बगावत के खर्चे में कुछ न कुछ मदद दी। बाज़ार लूटे गए, अफ़सरों और व्यापारियों के घर, स्कूल और पुलिस थानों को लूटा व जलाया गया तथा अनाज का पुनर्वितरण किया गया।
      • जिन पर हमले हुए उनमें से ज्यादातर लोग औपनिवेशिक राज्य और इसके दमनकारी कानूनों से किसी न किसी तरह जुड़े थे। इन घटनाओं के एक चश्मदीद गवाह, मिशनरी विलियम वार्ड ने लिखा : ‘पुलिसवालों, व्यापारियों, जंगल के अर्दलियों, स्कूल मास्टरों और प्रवासियों का हुजूम चारों तरफ़ से जगदलपुर में चला आ रहा था।'
      • अंग्रेज़ों ने बगावत को कुचल देने के लिए सैनिक भेजे। आदिवासी नेताओं ने बातचीत करनी चाही लेकिन अंग्रेज़ फ़ौज ने उनके तंबुओं को घेर कर उन पर गोलियाँ चला दीं।
      • इसके बाद बगावत में शरीक लोगों पर कोड़े बरसाते और उन्हें सजा देते सैनिक गाँव-गाँव घूमने लगे। ज्यादातर गाँव खाली हो गए क्योंकि लोग भाग कर जंगलों में चले गए थे।
      • अंग्रेज़ों को फिर से नियंत्रण पाने में तीन महीने (फ़रवरी-मई) लग गए। फिर भी वे गुंडा धूर को कभी नहीं पकड़ सके। विद्रोहियों की सबसे बड़ी जीत यह रही कि आरक्षण का काम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया और आरक्षित क्षेत्र को भी 1910 से पहले की योजना से लगभग आधा कर दिया गया।
      • बस्तर के जंगलों और लोगों की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। आज़ादी के बाद भी लोगों को जंगलों से बाहर रखने और जंगलों को औद्योगिक उपयोग के लिए आरक्षित रखने की नीति कायम रही।
      • 1970 के दशक में, विश्व बैंक ने प्रस्ताव रखा कि कागज उद्योग को लुगदी उपलब्ध कराने के लिए 4,600 हेक्टेयर प्राकृतिक साल वनों की जगह देवदार के पेड़ लगाए जाएँ । लेकिन, स्थानीय पर्यावरणविदों के विरोध के फलस्वरूप इस परियोजना को रोक दिया गया। 000
      वनों का विनाश
      • वनों के लुप्त होने को सामान्यतः वन-विनाश कहते हैं। वन-विनाश कोई नयी समस्या नहीं है। वैसे तो यह प्रक्रिया कई सदियों से चली आ रही थी लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान इसने कहीं अधिक व्यवस्थित और व्यापक रूप ग्रहण कर लिया। भारत में वन-विनाश के कुछ कारणों पर गौर करें । 
      ज़मीन की बेहतरी
      • सन् 1600 में हिंदुस्तान के कुल भू-भाग के लगभग छठे हिस्से पर खेती होती थी। आज यह आँकड़ा बढ़ कर आधे तक पहुँच गया है।
      • इन सदियों के दौरान जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गयी और खाद्य पदार्थों की माँग में भी वृद्धि हुई, वैसे-वैसे किसान भी जंगलों को साफ करके खेती की सीमाओं को विस्तार देते गए।
      • औपनिवेशिक काल में खेती में तेजी से फैलाव आया। इसकी कई वजहें थीं। पहली, अंग्रेज़ों ने व्यावसायिक फसलों जैसे पटसन, गन्ना, गेहूँ व कपास के उत्पादन को जम कर प्रोत्साहित किया।
      • उन्नीसवीं सदी के यूरोप में बढ़ती शहरी आबादी का पेट भरने के लिए खाद्यान्न और औद्योगिक उत्पादन के लिए कच्चे माल की ज़रूरत थी।
      • लिहाजा इन फसलों की माँग में इजाफा हुआ। दूसरी वजह यह थी कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अनुत्पादक समझा। 
      • उनके हिसाब से इस व्यर्थ के बियाबान पर खेती करके उससे राजस्व और कृषि उत्पादों को पैदा किया जा सकता था और इस तरह राज्य की आय में बढ़ोतरी की जा सकती थी। 
      • यही वजह थी कि 1880 से 1920 के बीच खेती योग्य ज़मीन के क्षेत्रफल में 67 लाख हेक्टेयर की बढ़त हुई।
      • खेती के विस्तार को हम विकास का सूचक मानते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ज़मीन को जोतने के पहले जंगलों की कटाई करनी पड़ती है।
      • किसी स्थान पर खेती न होने का मतलब उस जगह का गैर-आबाद होना नहीं है।
      • जब गोरे आबादकार ऑस्ट्रेलिया पहुँचे तो उन्होंने दावा किया कि यह महाद्वीप खाली था। वास्तव में, ये आदिवासी पथ-प्रदर्शकों के नेतृत्व में, पुरातन रास्तों से इस भू-भाग में प्रविष्ट हुए थे।
      • ऑस्ट्रेलिया के विभिन्न आदिवासी समुदायों के अपने स्पष्ट विभाजित इलाके थे।
      • ऑस्ट्रेलिया के नगारिंन्दज़ेरियों ( Ngarrindjeri) की अपनी ज़मीन की आकृति इनके पहले पूर्वज, नगुरूनदेरी (Ngurunderi) के प्रतीकात्मक शरीर जैसी थी ।
      • यह ज़मीन पाँच अलग-अलग प्राकृतिक प्रदेशों : खारे पानी, झीलों, झाड़ियों, रेगिस्तानी मैदानों, नदीतटीय मैदानों को अपने में समेटे हुए थी, जो अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक ज़रूरतों को पूरा किया करते थे।
      पटरी पर स्लीपर
      • उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैंड में बलूत (ओक) के जंगल लुप्त होने लगे थे। इसकी वजह से शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में मुश्किल आ खड़ी हुई।
      • 1820 ई. के दशक में खोजी दस्ते हिंदुस्तान की वन-संपदा का अन्वेषण करने के लिए भेजे गए। एक दशक के भीतर बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाने लगे और भारी मात्रा में लकड़ी का हिंदुस्तान से निर्यात होने लगा।
      • 1858 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नई तरह की माँग पैदा कर दी। शाही सेना के आवागमन और औपनिवेशिक व्यापार के लिए रेल लाइनें अनिवार्य थीं।
      • इंजनों को चलाने के लिए ईंधन के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए 'स्लीपरों' के रूप में लकड़ी की भारी ज़रूरत थी। एक मील लंबी रेल की पटरी के लिए 1760-2000 स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती थी।
      • भारत में रेल लाइनों का जाल 1860 के दशक से तेज़ी फैला। 1890 तक लगभग 25,500 कि.मी. लंबी लाइनें बिछायी जा चुकी थीं।
      • 1946 में इन लाइनों की लंबाई 7,65,000 कि.मी. तक बढ़ चुकी थी। रेल लाइनों के प्रसार के साथ-साथ बड़ी तादाद में पेड़ भी काटे गए।
      • अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में 1850 के दशक में प्रतिवर्ष 35, 000 पेड़ स्लीपरों के लिए काटे गए। सरकार ने आवश्यक मात्रा की आपूर्ति के लिए निजी ठेके दिए। इन ठेकेदारों ने बिना सोचे-समझे पेड़ काटना शुरू कर दिया। रेल लाइनों के इर्द-गिर्द जंगल तज़ी से होने लगे।
      बागान
      • यूरोप में चाय, कॉफ़ी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ़ किया गया।
      • औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अपने कब्जे में लेकर उनके विशाल हिस्सों को बहुत सस्ती दरों पर यूरोपीय बागान मालिकों को सौंप दिया। इन इलाकों की बाड़ाबंदी करके जंगलों को साफ़ कर दिया गया और चाय-कॉफ़ी की खेती की जाने लगी।
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      Sun, 26 Nov 2023 05:00:49 +0530 Jaankari Rakho
      BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | नात्सीवाद और हिटलर का उदय https://m.jaankarirakho.com/475 https://m.jaankarirakho.com/475 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | नात्सीवाद और हिटलर का उदय
      • नात्सीवाद सिर्फ इन इक्का-दुक्का घटनाओं का नाम नहीं है। यह दुनिया और राजनीति के बारे में एक संपूर्ण व्यवस्था, विचारों की एक पूरी संरचना का नाम है।
      • मई 1945 में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने समर्पण कर दिया। हिटलर को अंदाज़ा हो चुका था कि अब उसकी लड़ाई का क्या हश्र होने वाला है।
      • हिटलर और उसके प्रचार मंत्री ग्योबल्स ने बर्लिन के एक बंकर में पूरे परिवार के साथ अप्रैल में ही आत्महत्या कर ली थी ।
      • युद्ध खत्म होने के बाद न्यूरेम्बर्ग में एक अंतर्राष्ट्रीय सैनिक अदालत स्थापित की गई। इस अदालत को शांति के विरुद्ध किए गए अपराधों, मानवता के खिलाफ़ किए गए अपराधों और युद्ध अपराधों के लिए नात्सी युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाने का जिम्मा सौंपा गया था।
      • युद्ध के दौरान जर्मनी के व्यवहार, खासतौर से इंसानियत के खिलाफ किए गए उसके अपराधों की वजह से कई गंभीर नैतिक सवाल खड़े हुए और उसके कृत्यों की दुनिया भर में निंदा की गई।
      • दूसरे विश्वयुद्ध के साए में जर्मनी ने जनसंहार शुरू कर दिया जिसके तहत यूरोप में रहने वाले कुछ खास नस्ल के लोगों को सामूहिक रूप मारा जाने लगा। इस युद्ध में मारे गए लोगों में 60 लाख यहूदी, 2 लाख जिप्सी और 10 लाख पोलैंड के नागरिक थे।
      • साथ ही मानसिक व शारीरिक रूप से अपंग घोषित किए गए 70,000 जर्मन नागरिक भी मार डाले गए। इनके अलावा न जाने कितने ही राजनीतिक विरोधियों को भी मौत की नींद सुला दिया गया।
      • इतनी बड़ी तादाद में लोगों को मारने के लिए औषवित्स जैसे कत्लखाने बनाए गए जहाँ जहरीली गैस से हजारों लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार दिया जाता था।
      • न्यूरेम्बर्ग अदालत ने केवल 11 मुख्य नात्सियों को ही मौत की सजा दी। बाकी आरोपियों से बहुतों को उम्र कैद को सजा सुनाई गई।
      • सजा तो मिली लेकिन नात्सियों को जो सजा दी गई वह उनकी बर्बरता और उनके जुल्मों के मुकाबले बहुत छोटी थी।
      • मित्र राष्ट्र पराजित जर्मनी पर इस बार वैसा कठोर दंड नहीं थोपना चाहते थे जिस तरह का दंड पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर थोपा गया था।
      • बहुत सारे लोगों का मानना था कि पहले विश्वयुद्ध के आखिर में जर्मनी के लोग जिस तरह के अनुभव से गुजरे उसने भी नात्सी जर्मनी के उदय में योगदान दिया था।
      नात्सियों का विश्व दृष्टिकोण
      • नात्सियों ने जो अपराध किए वे खास तरह की मूल्य मान्यताओं, एक खास तरह के व्यवहार से संबंधित थे। नात्सी विचारधारा हिटलर के विश्व दृष्टिकोण का पर्यायवाची थी। इस विश्व दृष्टिकोण में सभी समाजों को बराबरी का हक नहीं था, वे नस्ली आधार पर या तो बेहतर थे या कमतर थे।
      • इस नज़रिये में ब्लॉन्ड, नीली आँखों वाले, नॉर्डिक जर्मन आर्य सबसे ऊपरी और यहूदी सबसे निचली पायदान पर आते थे। यहूदियों को नस्ल विरोधी, यानी आर्यों का क्रूर शत्रु माना जाता था। बाकी तमाम समाजों को उनके बाहरी रंग-रूप के हिसाब से जर्मन आर्यों और यहूदियों के बीच में रखा गया था।
      • हिटलर की नस्ली सोच चार्ल्स डार्विन और हर्बर्ट स्पेंसर जैसे विचारकों के सिद्धांतों पर आधारित थी। डार्विन प्रकृति विज्ञानी थे जिन्होंने विकास और प्राकृतिक चयन की अवधारणा के ज़रिए पौधों और पशुओं की उत्पत्ति की व्याख्या का प्रयास किया था। बाद में हर्बर्ट स्पेंसर ने 'अति जीविता का सिद्धांत' (सरवाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट) - जो सबसे योग्य है, वही जिंदा बचेगा- यह विचार दिया।
      • डार्विन ने चयन के सिद्धांत को एक विशुद्ध प्राकृतिक प्रक्रिया कहा था और उसमें इंसानी हस्तक्षेप की वकालत कभी नहीं की। लेकिन नस्लवादी विचारकों और राजनेताओं ने पराजित समाजों पर अपने साम्राज्यवादी शासन को सही ठहराने के लिए डार्विन के विचारों का सहारा लिया।
      • नात्सियों की दलील बहुत सरल थी : जो नस्ल सबसे ताकतवर है वह जिंदा रहेगी; कमज़ोर नस्लें खत्म हो जाएँगी । आर्य नस्ल सर्वश्रेष्ठ है। उसे अपनी शुद्धता बनाए रखनी है, ताकत हासिल करनी है और दुनिया पर वर्चस्व कायम करना है।
      • हिटलर की विचारधारा का दूसरा पहलू या जीवन-परिधि की भू-राजनीतिक अवधारणा से संबंधित था। वह मानता था कि अपने लोगों को बसाने के लिए ज्यादा से ज्यादा इलाकों पर कब्जा करना जरूरी है।
      • इससे मातृ देश का क्षेत्रफल भी बढ़ेगा और नए इलाकों में जाकर बसने वालों को अपने जन्मस्थान के साथ गहरे संबंध बनाए रखने में मुश्किल भी पेश नहीं आएगी।
      • हिटलर की नजर में इस तरह जर्मन राष्ट्र के लिए संसाधन और बेहिसाब शक्ति इकट्ठा की जा सकती थी।
      • पूरब में हिटलर जर्मन सीमाओं को और फैलाना चाहता था ताकि सारे जर्मनों को भौगोलिक दृष्टि से एक ही जगह इकट्ठा किया जा सके। पोलैंड इस धारणा की पहली प्रयोगशाला बना।
      नस्लवादी राज्य की स्थापना
      • सत्ता में पहुँचते ही नात्सियों ने 'शुद्ध' जर्मनों के विशिष्ट नस्ली समुदाय की स्थापना के सपने को लागू करना शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने विस्तारित जर्मन साम्राज्य में मौजूद उन समाजों या नस्लों को खत्म करना शुरू किया जिन्हें वे 'अवांछित' मानते थे।
      • नात्सी 'शुद्ध और स्वस्थ नॉर्डिक आर्यों का समाज बनाना चाहते थे। उनकी नज़र में केवल ऐसे लोग ही 'वाछित' थे।। केवल ये ही लोग थे जिन्हें तरक्की और वंश - विस्तार के योग्य माना जा सकता था।
      • बाकी सब 'अवांछित' थे। इसका मतलब यह निकला कि ऐसे जर्मनों को भी जिंदा रहने का कोई हक नहीं है जिन्हें नात्सी अशुद्ध या असामान्य मानते थे।
      • यूथनेसिया (दया मृत्यु) कार्यक्रम के तहत बाकी नात्सी अफ़सरों के साथ-साथ हेलमुट के पिता ने भी असंख्य ऐसे जर्मनों को मौत के घाट उतारा था जिन्हें वह मानसिक या शारीरिक रूप से अयोग्य मानते थे।
      • केवल यहूदी ही नहीं थे जिन्हें 'अवाछितों' की श्रेणी में रखा गया था। इनके अलावा भी कई नस्लें थीं जो इसी नियति के लिए अभिशप्त थीं।
      • जर्मनी में रहने वाले जिप्सियों और अश्वेतों की पहले तो जर्मन नागरिकता छीन ली गई और बाद में उन्हें मार दिया गया।
      • रूसी और पोलिश मूल के लोगों को भी मनुष्य से कमतर माना गया।
      • जब जर्मनी ने पोलैंड और रूस के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया तो स्थानीय लोगों को भयानक परिस्थितियों में . गुलामों की तरह काम पर झोंक दिया गया। उन्हें इंसानी बर्ताव के लायक नहीं माना जाता था। उनमें से बहुत सारे बेहिसाब काम के बोझ और भूख से ही मर गए ।
      • नात्सी जर्मनी में सबसे बुरा हाल यहूदियों का हुआ यहूदियों के प्रति नात्सियों की दुश्मनी का एक आधार यहूदियों के प्रति ईसाई धर्म में मौजूद परंपरागत घृणा भी थी।
      • ईसाइयों का आरोप था कि ईसा मसीह को यहूदियों ने ही मारा था।
      • ईसाइयों की नज़र में यहूदी आदतन हत्यारे और सूदखोर थे । मध्यकाल तक यहूदियों को ज़मीन का मालिक बनने की मनाही थी।
      • ये लोग मुख्य रूप से व्यापार और धन उधार देने का धंधा करके अपना गुजारा चलाते थे। वे बाकी समाज से अलग बस्तियों में रहते थे जिन्हें घेटो (Ghettoes) यानी दड़बा कहा जाता था।
      • नस्ल-संहार के ज़रिए ईसाई बार - बार उनका सप या करते रहते थे। उनके खिलाफ़ जब-तब संगठित हिंसा की जाती थी और उन्हें उनकी बस्तियों से खदेड़ दिया जाता था। लेकिन ईसाइयत ने उन्हें बचने का एक रास्ता फिर भी दिया हुआ था।
      • यह धर्म परिवर्तन का रास्ता था । आधुनिक काल में बहुत सारे यहूदियों ने ईसाई धर्म अपना लिया और जानते-बूझते हुए जर्मन संस्कृति में ढल गए।
      • लेकिन यहूदियों के प्रति हिटलर की घृणा तो नस्ल के छद्म वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी।
      • इस नफ़रत में 'यहूदी समस्या का हल धर्मांतरण से नहीं निकल सकता था।
      • हिटलर की 'दृष्टि' में इस समस्या का सिर्फ एक ही हल था कि यहूदियों को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।
      • सन् 1933 से 1938 तक नात्सियों ने यहूदियों को तरह-तरह से आतंकित किया, उन्हें दरिद्र कर आजीविका के साधनों से हीन कर दिया और उन्हें शेष समाज से अलग-थलग कर डाला। यहूदी देश छोड़कर जाने लगे।
      • 1939-45 के दूसरे दौर में यहूदियों को कुछ खास इलाकों में करने और अंतत: पोलैंड में बनाए गए गैस चेंबरों इकट्ठा में ले जाकर मार देने की रणनीति अपनाई गई।
      नस्ली कल्पनालोक ( यूटोपिया)
      • युद्ध के साए में नात्सी अपने नस्लवादी कल्पनालोक या आदर्श विश्व के निर्माण में लग गए। जनसंहार और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए। पराजित पोलैंड को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया।
      • उत्तर-पश्चिमी पोलैंड का ज्यादातर हिस्सा जर्मनी में मिला लिया गया। पोलैंड के लोगों को अपने घर और माल - असबाब छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया ताकि जर्मनी के कब्ज़े वाले यूरोप में रहने वाले जर्मनों को वहाँ लाकर बसाया जा सके।
      • इसके बाद पोलैंडवासियों को मवेशियों की तरह खदेड़ कर जनरल गवर्नमेंट नामक दूसरे हिस्से में पहुँचा दिया गया। जर्मन साम्राज्य में मौजूद तमाम अवांछित तत्त्वों को जनरल गवर्नमेंट नामक इसी इलाके में लाकर रखा जाता था। पोलैंड के बुद्धिजीवियों को बड़े पैमाने पर मौत के घाट उतारा गया।
      • यह पूरे पोलैंड के समाज को बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर २. पर गुलाम बना लेने की चाल थी। आर्य जैसे लगने वाले पोलैंड के बच्चों को उनके माँ-बाप से छीन कर जाँच के लिए 'नस्ल विशेषज्ञों' के पास पहुँचा दिया गया।
      • अगर वे नस्ली जाँच में कामयाब हो जाते तो उन्हें जर्मन परिवारों में पाला जाता और अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें अनाथाश्रमों में डाल दिया जाता जहाँ उनमें से ज्यादातर मर जाते थे।
      • जनरल गवर्नमेंट में कुछ विशालतम घेटो और गैस चेंबर भी थे इसलिए यहाँ यहूदियों को बड़े पैमाने पर मारा जाता था।
      नात्सी जर्मनी में युवाओं की स्थिति
      • युवाओं में हिटलर की दिलचस्पी जुनून की हद तक पहुँच चुकी थी। उसका मानना था कि एक शक्तिशाली नात्सी समाज की स्थापना के लिए बच्चों को नात्सी विचारधारा की घुट्टी पिलाना बहुत ज़रूरी है। इसके लिए स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगह बच्चों पर पूरा नियंत्रण आवश्यक था।
      • तमाम स्कूलों में सफ़ाए और शुद्धीकरण की मुहिम चलाई गई। यहूदी या 'राजनीतिक रूप से अविश्वसनीय' दिखाई देने वाले शिक्षकों को पहले नौकरी से हटाया गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया गया।
      • बच्चों को अलग-अलग बिठाया जाने लगा। जर्मन और यहूदी बच्चे एक साथ न तो बैठ सकते थे और न खेल-कूद सकते थे।
      • बाद में 'अवांछित बच्चों को यानी यहूदियों, जिप्सियों के बच्चों और विकलांग बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया। चालीस के दशक में तो उन्हें भी गैस चेंबरों में झोंक दिया गया।
      • 'अच्छे जर्मन' बच्चों को नात्सी शिक्षा प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। यह विचारधारात्मक प्रशिक्षण की एक लंबी प्रक्रिया थी । स्कूली पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखा गया।
      • बच्चों को सिखाया गया कि वे वफ़ादार व आज्ञाकारी बनें, यहूदियों से नफ़रत और हिटलर की पूजा करें। खेल-कूद के ज़रिए भी बच्चों में हिंसा और आक्रामकता की भावना पैदा की जाती थी।
      • हिटलर का मानना था कि मुक्केबाज़ी का प्रशिक्षण बच्चों को फ़ौलादी दिल वाला, ताकतवर और मर्दाना बना सकता है।
      • जर्मन बच्चों और युवाओं को 'राष्ट्रीय समाजवाद की भावना' से लैस करने की ज़िम्मेदारी युवा संगठनों को सौंपी गई। 10 साल की उम्र के बच्चों को युंगफ़ोक में दाखिल करा दिया जाता था। 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को नात्सियों के युवा संगठन - हिटलर यूथ की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
      • इस संगठन में वे युद्ध की उपासना, आक्रामकता व हिंसा, लोकतंत्र की निंदा और यहूदियों, कम्युनिस्टों, जिप्सियों व अन्य ‘अवांछितों' से घृणा का सबक सीखते थे।
      • गहन विचारधारात्मक और शारीरिक प्रशिक्षण के बाद लगभग 18 साल की उम्र में वे लेबर सर्विस ( श्रम सेवा) में शामिल हो जाते थे। इसके बाद उन्हें सेना में काम करना पड़ता था और किसी नात्सी संगठन की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
      मातृत्व की नात्सी सोच
      • नात्सी जर्मनी में प्रत्येक बच्चे को बार-बार यह बताया जाता था कि औरतें बुनियादी तौर पर मर्दों से भिन्न होती हैं। उन्हें समझाया जाता था कि औरत-मर्द के लिए समान अधिकारों का संघर्ष गलत है। यह समाज को नष्ट कर देगा।
      • इसी आधार पर लड़कों को आक्रामक, मर्दाना और पत्थरदिल होना सिखाया जाता था जबकि लड़कियों को यह कहा जाता था कि उनका फ़र्ज़ एक अच्छी माँ बनना और शुद्ध आर्य रक्त वाले बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना है।
      • नस्ल की शुद्धता बनाए रखने, यहूदियों से दूर रहने, घर संभालने और बच्चों को नात्सी मूल्य मान्यताओं की शिक्षा देने का दायित्व उन्हें ही सौंपा गया था। आर्य संस्कृति और नस्ल की ध्वजवाहक वही थीं।
      • 1933 में हिटलर ने कहा था : 'मेरे राज्य की सबसे महत्त्वपूर्ण नागरिक माँ है।' लेकिन नात्सी जर्मनी में सारी माताओं के साथ भी एक जैसा बर्ताव नहीं होता था।
      • जो औरतें नस्ली तौर पर अवांछित बच्चों को जन्म देती थीं उन्हें दंडित किया जाता था जबकि नस्ली तौर पर वांछित दिखने वाले बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को इनाम दिए जाते थे।
      • ऐसी माताओं को अस्पताल में विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं, दुकानों में उन्हें ज़्यादा छूट मिलती थी और थियेटर व रेलगाड़ी के टिकट उन्हें सस्ते में मिलते थे।
      • हिटलर ने खूब सारे बच्चों को जन्म देने वाली माताओं के लिए वैसे ही तमगे देने का इंतज़ाम किया था जिस तरह के तमगे सिपाहियों को दिए जाते थे।
      • चार बच्चे पैदा करने वाली माँ को काँसे का, छः बच्चे पैदा करने वाली माँ को चाँदी का और आठ या उससे ज्यादा बच्चे पैदा करने वाली माँ को सोने का तमगा दिया जाता था। 
      • निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करने वाली 'आर्य' औरतों की सार्वजनिक रूप से निंदा की जाती थी और उन्हें कड़ा दंड दिया जाता था।
      • बहुत सारी औरतों को गंजा करके, मुँह पर कालिख पोत कर और उनके गले में तख्ती लटका कर पूरे शहर में घुमाया जाता था। उनके गले में लटकी तख्ती पर लिखा होता था 'मैंने राष्ट्र के सम्मान को मलिन किया है। '
      • इस आपराधिक कृत्य के लिए बहुत सारी औरतों को न केवल जेल की सज़ा दी गई बल्कि उनसे तमाम नागरिक सम्मान और उनके पति व परिवार भी छीन लिए गए।
      प्रचार की कला
      • नात्सी शासन ने भाषा और मीडिया का बड़ी होशियारी से इस्तेमाल किया और उसका ज़बर्दस्त फायदा उठाया। उन्होंने अपने तौर-तरीकों को बयान करने के लिए जो शब्द ईजाद किए थे वे न केवल भ्रामक बल्कि दिल दहला देने वाले शब्द थे ।
      • नात्सियों ने अपने अधिकृत दस्तावेजों में 'हत्या' या 'मौत' जैसे शब्दों का कभी इस्तेमाल नहीं किया। सामूहिक हत्याओं को विशेष व्यवहार, अंतिम समाधान (यहूदियों के संदर्भ में), यूथनेजिया (विकलांगों के लिए), चयन और संक्रमण मुक्ति आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता था।
      • शासन के लिए समर्थन हासिल करने और नात्सी विश्व दृष्टिकोण को फैलाने के लिए मीडिया का बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल किया गया। नात्सी विचारों को फैलाने के लिए तस्वीरों, फ़िल्मों, रेडियो, पोस्टरों, आकर्षक नारों और इश्तहारी पर्चों का खूब सहारा लिया जाता था।
      • पोस्टरों में जर्मनों के 'दुश्मनों' की रटी-रटाई छवियाँ दिखाई जाती थीं, उनका मजाक उड़ाया जाता था, उन्हें अपमानित किया जाता था, उन्हें शैतान के रूप में पेश किया जाता था।
      • समाजवादियों और उदारवादियों को कमज़ोर और पथभ्रष्ट तत्त्वों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। उन्हें विदेशी एजेंट कहकर बदनाम किया जाता था।
      • प्रचार फ़िल्मों में यहूदियों के प्रति नफ़रत फैलाने पर जोर दिया जाता था। 'द एटर्नल ज्यू' (अक्षय यहूदी) इस सूची की सबसे कुख्यात फ़िल्म थी।
      • परंपराप्रिय यहूदियों को खास तरह की छवियों में पेश किया जाता था। उन्हें दाढ़ी बढ़ाए और काफ्तान (चोगा) पहने दिखाया जाता था, जबकि वास्तव में जर्मन यहूदियों और बाकी जर्मनों के बीच कोई फ़र्क करना असंभव था क्योंकि दोनों समुदाय एक-दूसरे में काफ़ी घुले-मिले हुए थे।
      • उन्हें केंचुआ, चूहा और कीड़ा जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता था। उनकी चाल-ढाल की तुलना कुतरने वाले छछूंदरी जीवों से की जाती थी।
      • नात्सीवाद ने लोगों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला, उनकी भावनाओं को भड़का कर उनके गुस्से और नफ़रत को 'अवांछितों' पर केंद्रित कर दिया। इसी अभियान से नात्सीवाद का सामाजिक आधार पैदा हुआ।
      • नात्सियों ने आबादी के सभी हिस्सों को आकर्षित करने के लिए प्रयास किए। पूरे समाज को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए उन्होंने लोगों को इस बात का अहसास कराया कि उनकी समस्याओं को सिर्फ नात्सी ही हल कर सकते हैं।
      महाध्वंस (होलोकॉस्ट)
      • नात्सी तौर-तरीकों की जानकारी नात्सी शासन के आखिरी सालों में रिस-रिस कर जर्मनी से बाहर जाने लगी थी। लेकिन, वहाँ कितना भीषण रक्तपात और बर्बर दमन हुआ था, इसका असली अंदाज़ा तो दुनिया को युद्ध खत्म होने और जर्मनी के हार जाने के बाद ही लग पाया।
      • जर्मन समाज तो मलबे में दबे एक पराजित राष्ट्र के रूप में अपनी दुर्दशा से दुखी था ही, लेकिन यहूदी भी चाहते थे कि दुनिया उन भीषण अत्याचारों और पीड़ाओं को याद रखे जो उन्होंने नात्सी कत्लेआम में झेली थीं।
      • इन्हीं कत्लेआमों को महाध्वंस (होलोकॉस्ट) भी कहा जाता है। जब दमनचक्र अपने शिखर पर था उन्हीं दिनों एक यहूदी टोले में रहने वाले एक आदमी ने अपने साथी से कहा था कि वह युद्ध के बाद सिर्फ आधा घंटा और जीना चाहता है।
      • शायद वह दुनिया को यह बता कर जाना चाहता था कि नात्सी जर्मनी में क्या-क्या हो रहा था। जो कुछ हुआ उसकी गवाही देने और जो भी दस्तावेज़ हाथ आए उन्हें बचाए रखने की यह अदम्य चाह घेरों और कैंपों में नारकीय जीवन भोगने वालों में बहुत गहरे तौर पर देखी जा सकती है।
      • उनमें से बहुतों ने डायरियाँ लिखीं, नोटबुक लिखीं और दस्तावेजों के संग्रह बनाए। इसके विपरीत, जब यह दिखाई देने लगा कि अब युद्ध में नात्सियों की पराजय तय ही है तो नात्सी नेतृत्व ने दफ्तरों में मौजूद तमाम सबूतों को नष्ट करने के लिए अपने कर्मचारियों को पेट्रोल बाँटना शुरू कर दिया।
      • दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में स्मृति लेखों, साहित्य, वृत्तचित्रों, शायरी, स्मारकों और संग्रहालयों में इस महाध्वंस का इतिहास और स्मृति आज भी जिंदा है।
      • ये सारी चीज़ें उन लोगों के लिए एक श्रद्धांजलि हैं जिन्होंने उन स्याह दिनों में भी प्रतिरोध का साहस दिखाया।
      वाइमर गणराज्य का जन्म
      • बीसवीं शताब्दी के शुरुआती सालों में जर्मनी एक ताकतवर साम्राज्य था। उसने ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ्रांस और रूस) के खिलाफ पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) लड़ा था।
      • दुनिया की सभी बड़ी शक्तियाँ यह सोच कर इस युद्ध में कूद पड़ी थीं कि उन्हें जल्दी ही विजय मिल जाएगी। सभी को किसी-न-किसी फ़ायदे की उम्मीद थी। उन्हें अंदाजा नहीं था कि यह युद्ध इतना लंबा खिंच जाएगा और पूरे यूरोप को आर्थिक दृष्टि से निचोड़ कर रख देगा।
      • फ्रांस और बेल्जियम पर कब्जा करके जर्मनी ने शुरुआत में सफलताएँ हासिल कीं लेकिन 1917 में जब अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया तो इस खेमे को काफ़ी ताकत मिली और आखिरकार, नवंबर 1918 में उन्होंने केंद्रीय शक्तियों को हराने के बाद जर्मनी को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
      • साम्राज्यवादी जर्मनी की पराजय और सम्राट के पदत्याग ने वहाँ की संसदीय पार्टियों को जर्मन राजनीतिक व्यवस्था को एक नए साँचे में ढालने का अच्छा मौका उपलब्ध कराया। इसी सिलसिले में वाइमर में एक राष्ट्रीय सभा की बैठक बुलाई गई और संघीय आधार पर एक लोकतांत्रिक संविधान पारित किया गया।
      • नई व्यवस्था में जर्मन संसद यानी राइख़स्टाम के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाने लगा। प्रतिनिधियों के निर्वाचन के लिए औरतों सहित सभी वयस्क नागरिकों को समान और सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया।
      • यह नया गणराज्य खुद जर्मनी के ही बहुत सारे लोगों को रास नहीं आ रहा था। इसकी एक वजह तो यही थी कि पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की भाजय के बाद विजयी देशों ने उस पर बहुत कठोर शर्तें घोप दी थी।
      • मित्र राष्ट्रों के साथ वसांय (Versailles) में हुई शांति-संधि जर्मनी की जनता के लिए बहुत कठोर और अपमानजनक थी।
      • इस संधि की वजह से जर्मनी को अपने सारे उपनिवेश, तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी 13 प्रतिशत भूभाग 75 प्रतिशत लौह भंडार और 26 प्रतिशत कोयला भंडार फ्रांस, पोलैंड, डेनमार्क और लिथुआनिया के हवाले करने पड़े।
      • जर्मनी की रही-सही ताकत खत्म करने के लिए मित्र राष्ट्रों ने उसकी सेना भी भंग कर दी। युद्ध अपराधबोध अनुच्छेद (War Guilt Clause) के तहत युद्ध के कारण हुई सारी तबाही के लिए जर्मनी को जिम्मेदार ठहराया गया। इसके एवज में उस पर छ: अरब पौंड का जुर्माना लगाया गया।
      • खनिज संसाधनों वाले राईनलैंड पर भी बीस के दशक में ज्यादातर मित्र राष्ट्रों का ही कृष्णा रहा। बहुत सारे जर्मनों ने न केवल इस हार के लिए बल्कि क्सय में हुए इस अपमान के लिए भी वाइमर गणराज्य को ही जिम्मेदार ठहराया।
      युद्ध का असर
      • इस बुद्ध ने पूरे महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और आर्थिक, दोनों ही स्तरों पर तोड़ कर रख दिया। यूरोप कल तक कर्ज देने वालों का महाद्वीप कहलाता था जो युद्ध खत्म होते-होते कर्जदारों का महाद्वीप बन गया।
      • विडंबना यह थी कि पुराने साम्राज्य द्वारा किए गए अपराधों का हर्जाना नवजात वाइमर गणराज्य से वसूल किया जा रहा था।
      • इस गणराज्य को युद्ध में पराजय के अपराधबोध और राष्ट्रीय अपमान का बोझ तो होना ही पड़ा, हर्जाना चुकाने की वजह से आर्थिक स्तर पर भी वह अपंग हो चुका था।
      • वाइमर गणराज्य के हिमायतियों में मुख्य रूप से समाजवादी, कैथलिक और डेमोक्रेट खेमे के लोग थे। रूढ़िवादी पुरातनपंथी राष्ट्रवादी मिथकों की आहु में उन्हें तरह-तरह के हमलों का निशाना बनाया जाने लगा।
      • ‘नवंबर के अपराधी' कहकर उनका खुलेआम मजाक उड़ाया गया। इस मनोदशा का तीस के दशक के शुरुआती राजनीतिक घटनाक्रम पर गहरा असर पड़ा।
      • पहले महायुद्ध ने यूरोपीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी। सिपाहियों को आम नागरिकों के मुकाबले ज्यादा सम्मान दिया जाने लगा।
      • राजनेता और प्रचारक इस बात पर जोर देने लगे कि पुरुषों को आक्रामक ताकतवर और मर्दाना गुणों वाला होना चाहिए।
      • मीडिया में खंदकों की जिंदगी का महिमामंडन किया जा रहा था। लेकिन सच्चाई यह थी कि सिपाही इन खंदकों में बड़ी दयनीय जिंदगी जी रहे थे।
      • वे लाशों को खाने वाले चूहों से घिरे रहते। वे जहरीली गैस और दुश्मनों की गोलाबारी का बहादुरी से सामना करते हुए भी अपने साथियों को पल-पल मस्ते देखते थे।
      • सार्वजनिक जीवन में आक्रामक फ़ौजी प्रचार और राष्ट्रीय सम्मान व प्रतिष्ठा की चाह के सामने बाकी सारी चीजें गौण हो गई जबकि हाल ही में सत्ता में आए रूढ़िवादी तानाशाहों को व्यापक जनसमर्थन मिलने लगा।
      • उस वक्त लोकतंत्र एक नया और बहुत नाजुक विचार था जो दोनों महायुद्धों के बीच पूरे यूरोप में फैली अस्थिरता का सामना नहीं कर सकता था।
      राजनीतिक रैडिकलवाद ( आमूल परिवर्तनवाद) और आर्थिक संकट
      • जिस समय वाइमर गणराज्य की स्थापना हुई उसी समय रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति की तर्ज पर जर्मनी में भी स्पार्टकिस्ट लीग अपने क्रांतिकारी विद्रोह की योजनाओं को अंजाम देने लगी। बहुत सारे शहरों में मज़दूरों और नाविकों की सोवियतें बनाई गईं।
      • बर्लिन के राजनीतिक माहौल में सोवियत किस्म की शासन व्यवस्था की हिमायत के नारे गँजू रहे थे। इसीलिए समाजवादियों, डेमोक्रैट्स और कैथलिक गुटों ने वाइमर में इकट्ठा होकर इस प्रकार की शासन व्यवस्था के विरोध में एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना का फ़ैसला लिया और आखिरकार वाइमर गणराज्य ने पुराने सैनिकों के फ्री कोर नामक संगठन की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया।
      • इस पूरे घटनाक्रम के बाद स्पार्टकिस्टों ने जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव डाली। इसके बाद कम्युनिस्ट (साम्यवादी) और समाजवादी एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए और हिटलर के खिलाफ़ कभी भी साझा मोर्चा नहीं खोल सके। क्रांतिकारी और उग्र राष्ट्रवादी, दोनों ही खेमे रैडिकल समाधानों के लिए आवाज़ें उठाने लगे।
      • राजनीतिक रैडिकलवादी विचारों को 1923 ई. के आर्थिक संकट से और बल मिला । जर्मनी ने पहला विश्वयुद्ध मोटे तौर पर कर्ज़ लेकर लड़ा था और युद्ध के बाद तो उसे स्वर्ण मुद्रा में हर्जाना भी भरना पड़ा। इस दोहरे बोझ से जर्मनी के स्वर्ण भंडार लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुँच गए थे।
      • आखिरकार 1923 ई. में जर्मनी ने कर्ज़ और हर्जाना चुकाने से इनकार कर दिया। इसके जवाब में फ्रांसीसियों ने जर्मनी के मुख्य औद्योगिक इलाके रूर पर कब्ज़ा कर लिया। यह जर्मनी के विशाल कोयला भंडारों वाला इलाका था।
      • जर्मनी ने फ्रांस के विरुद्ध निष्क्रिय प्रतिरोध के रूप में बड़े पैमाने पर कागज़ी मुद्रा छापना शुरू कर दिया। जर्मन सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर मुद्रा छाप दी कि उसकी मुद्रा मार्क का मूल्य तेज़ी से गिरने लगा।
      • अप्रैल में एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 24,000 मार्क के बराबर थी जो जुलाई में 353,000 मार्क, अगस्त में 46,21,000 मार्क तथा दिसंबर में 9,88,60,000 मार्क हो गई।
      • इस तरह एक डॉलर में खरबों मार्क मिलने लगे। जैसे-जैसे मार्क की कीमत गिरती गई, ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छूने लगीं।
      • जर्मन समाज दुनिया भर में हमदर्दी का पात्र बन कर रह गया। इस संकट को बाद में अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया गया। जब कीमतें बेहिसाब बढ़ जाती हैं तो उस स्थिति को अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया जाता है।
      • जर्मनी को इस संकट से निकालने के लिए अमेरिकी सरकार ने हस्तक्षेप किया। इसके लिए अमेरिका ने डॉव्स योजना बनाई। इस योजना में जर्मनी के आर्थिक संकट को दूर करने के लिए हर्जाने की शर्तों को दोबारा तय किया गया।
      मंदी के सा
      • सन् 1924 से 1928 तक जर्मनी कुछ स्थिरता रही। लेकिन यह स्थिरता मानो रेत के ढेर पर खड़ी थी। जर्मन निवेश और औद्योगिक गतिविधियों में सुधार मुख्यतः अमेरिका से लिए गए अल्पकालिक कर्जों पर आश्रित था।
      • जब 1929 में वॉल स्ट्रीट एक्सचेंज (शेयर बाजार) धराशायी हो गया तो जर्मनी को मिल रही यह मदद भी रातों-रात बंद हो गई।
      • कीमतों में गिरावट की आशंका को देखते हुए लोग धड़ाधड़ अपने शेयर बेचने लगे। 24 अक्तूबर को केवल एक दिन में 1.3 करोड़ शेयर बेच दिए गए।
      • यह आर्थिक महामंदी की शुरुआत थी। 1929 से 1932 तक के अगले तीन सालों में अमेरिका की राष्ट्रीय आय केवल आधी रह गई।
      • फैक्ट्रियाँ बंद हो गई थीं, निर्यात गिरता जा रहा था, किसानों की हालत खराब थी और निवेशक बाजार से पैसा खींचते जा रहे थे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई इस मंदी का असर दुनिया भर में महसूस किया गया।
      • इस मंदी का सबसे बुरा प्रभाव जर्मन अर्थव्यवस्था पर पड़ा। 1932 में जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन 1929 के मुकाबले केवल चालीस प्रतिशत रह गया था।
      • मज़दूर या तो बेरोज़गार होते जा रहे थे या उनके वेतन काफ़ी गिर चुके थे। बेरोजगारों की संख्या 60 लाख तक जा पहुँची।
      • जर्मनी की सड़कों पर ऐसे लोग बड़ी तादाद में दिखाई देने लगे जो–‘मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ'- लिखी तख्ती गले में लटकाये खड़े रहते थे।
      • बेरोज़गार नौजवान या तो ताश खेलते पाए जाते थे, नुक्कड़ों पर झुंड लगाए रहते थे या फिर रोज़गार दफ्तरों के बाहर लंबी-लंबी कतार में खड़े पाए जाते थे। जैसे-जैसे रोज़गार खत्म हो रहे थे, युवा वर्ग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होता जा रहा था। चारों तरफ़ गहरी हताशा का माहौल था।
      • आर्थिक संकट ने लोगों में गहरी बेचैनी और डर पैदा कर दिया था। जैसे-जैसे मुद्रा का अवमूल्यन होता जा रहा था; मध्यवर्ग, खासतौर से वेतनभोगी कर्मचारी और पेंशनधारियों की बचत भी सिकुड़ती जा रही थी।
      • कारोबार ठप्प हो जाने से छोटे-मोटे व्यवसायी, स्वरोजगार में लगे लोग और खुदरा व्यापारियों की हालत भी खराब होती जा रही थी।
      • समाज के इन तबकों को सर्वहाराकरण का भय सता रहा था। उन्हें डर था कि अगर यही ढर्रा रहा तो वे भी एक दिन मज़दूर बनकर रह जाएँगे या हो सकता है कि उनके पास कोई रोज़गार ही न रह जाए।
      • अब सिर्फ संगठित मजदूर ही थे जिनकी हिम्मत टूटी नहीं थी । लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती फ़ौज उनकी मोल-भाव क्षमता को भी चोट पहुँचा रही थी। बड़े व्यवसाय संकट में थे।
      • किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि उत्पादों की कीमतों में बेहिसाब गिरावट की वजह से परेशान था।
      • युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा था। अपने बच्चों का पेट भर पाने में असफल औरतों के दिल भी डूब रहे थे।
      • राजनीतिक स्तर पर वाइमर गणराज्य एक नाजुक दौर से गुज़र रहा था। वाइमर संविधान में कुछ ऐसी कमियाँ थीं जिनकी वजह से गणराज्य कभी भी अस्थिरता और तानाशाही का शिकार बन सकता था। इनमें से एक कमी आनुपातिक प्रतिनिधित्व से संबंधित थी।
      • दूसरी समस्या अनुच्छेद 48 की वजह से थी जिसमें राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने, नागरिक अधिकार रद्द करने और अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का अधिकार दिया गया था।
      • अपने छोटे से जीवन काल में वाइमर गणराज्य का शासन 20 मंत्रिमंडलों के हाथों में रहा और उनकी औसत अवधि 239 दिन से ज्यादा नहीं रही। इस दौरान अनुच्छेद 48 का भी जमकर इस्तेमाल किया गया। पर इन सारे नुस्खों के बावजूद संकट दूर नहीं हो पाया।
      • लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में लोगों का विश्वास खत्म होने लगा क्योंकि वह उनके लिए कोई समाधान नहीं खोज पा रही थी ।
      हिटलर का उदय
      • अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज में गहराते जा रहे इस संकट ने हिटलर के सत्ता में पहुँचने का रास्ता साफ़ कर दिया। 1889 में ऑस्ट्रिया में जन्में हिटलर की युवावस्था बेहद गरीबी में गुजरी थी।
      • रोज़ी-रोटी का कोई ज़रिया न होने के कारण पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत में उसने भी अपना नाम फ़ौजी भर्ती के लिए लिखवा दिया था।
      • भर्ती के बाद उसने अग्रिम मोर्चे पर संदेशवाहक का काम किया, कॉर्पोरल बना और बहादुरी के लिए उसने कुछ तमगे भी हासिल किए। जर्मन सेना की पराजय ने तो उसे हिला दिया था, लेकिन वर्साय की संधि ने तो उसे आग-बबूला ही कर दिया।
      • 1919 ई. में उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी नामक एक छोटे से समूह की सदस्यता ले ली। धीरे-धीरे उसने इस संगठन पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया और उसे नेशनल सोशलिस्ट पार्टी का नया नाम दिया। इसी पार्टी को बाद में नात्सी पार्टी के नाम से जाना गया।
      • 1923 ई. में ही हिटलर ने बवेरिया पर कब्ज़ा करने, बर्लिन पर चढ़ाई करने और सत्ता पर कब्ज़ा करने की योजना बना ली थी। इन दुस्साहसिक योजनाओं में वह असफल रहा। उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर देशद्रोह का मुकदमा भी चला लेकिन कुछ समय बाद उसे रिहा कर दिया गया।
      • नात्सी राजनीतिक खेमा 1930 के दशक के शुरुआती सालों तक जनता को बड़े पैमाने पर अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पाया। लेकिन महामंदी के दौरान नात्सीवाद ने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया।
      • नात्सी प्रोपेगैंडा में लोगों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थी। 1929 में नात्सी पार्टी को जर्मन संसद - राइख़स्टाग- के लिए हुए चुनावों में महज़ 2.6 फ़ीसदी वोट मिले थे। 1932 तक आते-आते यह देश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी और उसे 37 फ़ीसदी वोट मिले।
      • हिटलर ज़बर्दस्त वक्ता था। उसका जोश और उसके शब्द लोगों को हिलाकर रख देते थे। वह अपने भाषणों में एक शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना, वर्साय संधि में हुई नाइंसाफ़ी के प्रतिशोध और जर्मन समाज को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का आश्वासन देता था।
      • उसका वादा था कि वह बेरोज़गारों को रोज़गार और नौजवानों को एक सुरक्षित भविष्य देगा। उसने आश्वासन दिया कि वह देश को विदेशी प्रभाव से मुक्त कराएगा और तमाम विदेशी 'साज़िशों' का मुँहतोड़ जवाब देगा।
      • हिटलर ने राजनीति की एक नई शैली रची थी । वह लोगों को गोलबंद करने के लिए आडंबर और प्रदर्शन की अहमियत समझता था।
      • हिटलर के प्रति भारी समर्थन दर्शाने और लोगों में परस्पर एकता का भाव पैदा करने के लिए नात्सियों ने बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जनसभाएँ आयोजित कीं।
      • स्वस्तिक छपे लाल झंडे, नात्सी सैल्यूट और भाषणों के बाद खास अंदाज़ में तालियों की गड़गड़ाहटये सारी चीजें शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा थीं।
      लोकतंत्र का ध्वंस
      • 30 जनवरी 1933 को राष्ट्रपति हिंडनबर्ग ने हिटलर को चां का पद - भार संभालने का न्यौता दिया। यह मंत्रिमंडल में सबसे शक्तिशाली पद था। तब तक नात्सी पार्टी रूढ़िवादियों को भी अपने उद्देश्यों से जोड़ चुकी थी ।
      • सत्ता हासिल करने के बाद हिटलर ने लोकतांत्रिक शासन की संरचना और संस्थानों को भंग करना शुरू कर दिया।
      • फरवरी माह में जर्मन संसद भवन में हुए रहस्यमय अग्निकांड से उसका रास्ता और आसान हो गया।
      • 28 फरवरी 1933 को जारी किए गए अग्नि अध्यादेश (फायर डिक्री) के ज़रिए अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभा करने की आज़ादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया गया।
      • वाइमर संविधान में इन अधिकारों को काफी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसके बाद हिटलर ने अपने कर शत्रु कम्युनिस्टों पर निशाना साधा। ज्यादातर कम्युनिस्टों को रातों-रात कंसन्ट्रेशन कैंपों में बंद कर दिया गया।
      • कम्युनिस्टों का बर्बर दमन किया गया। लगभग पाँच लाख की आबादी वाले ड्युस्सलडॉर्फ शहर में गिरफ्तार किए गए लोगों की बची-खुची 6,808 फ़ाइलों में से 1,440 सिर्फ कम्युनिस्टों की थीं ।
      • नात्सियों ने सिर्फ कम्युनिस्टों का ही सफ़ाया नहीं किया। नात्सी शासन ने कुल 52 किस्म के लोगों को अपने दमन का निशाना बनाया था।
      • 3 मार्च 1933 को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम (इनेबलिंग ऐक्ट) पारित किया गया। इस कानून के ज़रिए जर्मनी में बाकायदा तानाशाही स्थापित कर दी गई।
      • इस कानून ने हिटलर को संसद को हाशिए पर धकेलने और केवल अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का निरंकुश अधिकार प्रदान कर दिया।
      • नात्सी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों के अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर पाबंदी लगा दी गई । अर्थव्यवस्था, मीडिया, सेना और न्यायपालिका पर राज्य का पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया।
      • पूरे समाज को नात्सियों के हिसाब से नियंत्रित और व्यवस्थित करने के लिए विशेष निगरानी और सुरक्षा दस्ते गठित किए गए।
      • पहले से मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टॉर्म ट्र्पर्स (एसए) के अलावा गेस्तापो ( गुप्तचर राज्य पुलिस), एसएस (अपराध नियंत्रण पुलिस) और सुरक्षा सेवा (एसडी) का भी गठन किया गया।
      • इन नवगठित दस्तों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार दिए गए और इन्हीं की वजह से नात्सी राज्य को एक खूंखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई ।
      • गेस्तापो के यंत्रणा गृहों में किसी को भी बंद किया जा सकता था। ये नए दस्ते किसी को भी यातना गृहों में भेज सकते थे, किसी को भी बिना कानूनी कार्रवाई के देश निकाला दिया जा सकता था या गिरफ्तार किया जा सकता था।
      • दंड की आशंका से मुक्त पुलिस बलों ने निरंकुश और निरपेक्ष शासन का अधिकार प्राप्त कर लिया था। 
      पुनर्निर्माण
      • हिटलर ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की ज़िम्मेदारी अर्थशास्त्री ह्यालमार शाख़्त को सौंपी। शाख़्त ने सबसे पहले सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले रोज़गार संवर्धन कार्यक्रम के ज़रिए सौ फीसदी उत्पादन और सौ फीसदी रोज़गार उपलब्ध कराने का लक्ष्य तय किया। मशहूर जर्मन सुपर हाइवे और जनता की कार-फ़ॉक्सवैगन-इस परियोजना की देन थी।
      • विदेश नीति के मोर्चे पर भी हिटलर को फ़ौरन कामयाबियाँ मिलीं। 1933 में उसने 'लीग ऑफ नेशंस' से पल्ला झाड़ लिया।
      • 1936 में राईनलैंड पर दोबारा कब्ज़ा किया और एक जन, एक साम्राज्य, एक नेता के नारे की आड़ में 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया।
      • इसके बाद उसने चेकोस्लोवाकिया के क़ब्ज़े वाले जर्मनभाषी सुडेंटनलैंड प्रांत पर कब्ज़ा किया और फिर पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया।
      • इस दौरान उसे इंग्लैंड का भी खामोश समर्थन मिल रहा था क्योंकि इंग्लैंड की नज़र में वर्साय की संधि के नाम पर जर्मनी के साथ बड़ी नाइंसाफ़ी हुई थी।
      • घरेलू और विदेशी मोर्चे पर त्वरित मिली इन कामयाबियों से ऐसा लगा कि देश की नियति अब पलटने वाली है। लेकिन हिटलर यहीं नहीं रुका । शाख़्त ने हिटलर को सलाह दी थी कि सेना और हथियारों पर ज्यादा पैसा खर्च न किया जाए क्योंकि सरकारी बजट अभी भी घाटे में ही चल रहा था। लेकिन नात्सी जर्मनी में एहतियात पसंद लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी।
      • शाख़्त को उनके पद से हटा दिया गया। हिटलर ने आर्थिक संकट से निकलने के लिए युद्ध का विकल्प चुना। वह राष्ट्रीय सीमाओं का विस्तार करते हुए ज्यादा से ज्यादा संसाधन इकट्ठा करना चाहता था। 
      • इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सितंबर 1939 में उसने पोलैंड पर हमला कर दिया। इसकी वजह से फ्रांस और इंग्लैंड के साथ भी उसका युद्ध शुरू हो गया ।
      • सितंबर 1940 में जर्मनी ने इटली और जापान के साथ एक त्रिपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हिटलर का दावा और मज़बूत हो गया।
      • यूरोप के ज़्यादातर देशों में नात्सी जर्मनी का समर्थन करने वाली कठपुतली सरकारें बिठा दी गईं। 1940 के अंत में हिटलर अपनी ताकत के शिखर पर था ।
      • अब हिटलर ने अपना सारा ध्यान पूर्वी यूरोप को जीतने के दीर्घकालिक सपने पर केंद्रित कर दिया। वह जर्मन जनता के लिए संसाधन और रहने की जगह (Living Space) का इंतज़ाम करना चाहता था। जून 1941 में उसने सोवियत संघ पर हमला किया।
      • यह हिटलर की एक ऐतिहासिक भूल थी । इस आक्रमण से जर्मन पश्चिमी मोर्चा ब्रिटिश वायुसैनिकों के बमबारी की चपेट में आ गया जबकि पूर्वी मोर्चे पर सोवियत सेनाएँ जर्मनों को नाकों चने चबवा रही थीं।
      • सोवियत लाल सेना ने स्तालिनग्राद में जर्मन सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। सोवियत लाल सैनिकों ने पीछे हटते जर्मन सिपाहियों का आखिर तक पीछा किया और अंत में वे बलिर्न के बीचोंबीच जा पहुँचे।
      • इस घटनाक्रम ने अगली आधी सदी के लिए समूचे पूर्वी यूरोप पर सोवियत वर्चस्व स्थापित कर दिया।
      • अमेरिका इस युद्ध में फँसने से लगातार बचता रहा। अमेरिका पहले विश्वयुद्ध की वजह से पैदा हुई आर्थिक समस्याओं को दोबारा नहीं झेलना चाहता था। लेकिन वह लंबे समय तक युद्ध से दूर भी नहीं रह सकता था।
      • पूरब में जापान की ताकत फैलती जा रही थी। उसने फ्रेंच-इंडो-चाइना पर कब्ज़ा कर लिया था और प्रशांत महासागर में अमेरिकी नौसैनिक ठिकानों पर हमले की पूरी योजना बना ली थी।
      • जब जापान ने हिटलर को समर्थन दिया और पर्ल हार्बर पर अमेरिकी ठिकानों को बमबारी का निशाना बनाया तो अमेरिका भी दूसरे विश्वयुद्ध में कूद पड़ा।
      • यह युद्ध मई 1945 में हिटलर की पराजय और जापान के हिरोशिमा शहर पर अमेरिकी परमाणु बम गिराने के साथ खत्म हुआ।
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      Sun, 26 Nov 2023 04:36:57 +0530 Jaankari Rakho
      BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | रूसी क्रांति https://m.jaankarirakho.com/474 https://m.jaankarirakho.com/474 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | रूसी क्रांति
      • यूरोप के सबसे पिछड़े औद्योगिक देशों में से एक, रूस में यह समीकरण उलट गया। 1917 की अक्तूबर क्रांति के ज़रिए रूस की सत्ता पर समाजवादियों ने कब्जा कर लिया। फरवरी 1917 में राजशाही के पतन और अक्तूबर की घटनाओं को ही अक्तूबर क्रांति कहा जाता है।
      रूसी साम्राज्य, 1914
      • 1914 में रूस और उसके पूरे साम्राज्य पर ज़ार निकोलस II का शासन था। मास्को के आसपास पड़ने वाले भूक्षेत्र के अलावा आज का फिनलैंड, लातविया, लिथुआनिया एस्तोनिया तथा पोलैंड, यूक्रेन व बेलारूस के कुछ हिस्से रूसी साम्राज्य के अंग थे।
      • यह साम्राज्य प्रशांत महासागर तक फैला हुआ था और आज के मध्य एशियाई राज्यों के साथ-साथ जॉर्जिया, आर्मेनिया व अज़रबैजान भी इसी साम्राज्य के अंतर्गत आते थे।
      • रूस में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च से उपजी शाखा रूसी ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियैनिटी को मानने वाले बहुमत में थे। लेकिन इस साम्राज्य के तहत रहने वालों में कैथलिक, प्रोटेस्टेंट, मुस्लिम और बौद्ध भी शामिल थे।
      रूस में समाजवाद
      • 1914 से पहले रूस में सभी राजनीतिक पार्टियाँ गैरकानूनी "थीं। मार्क्स के विचारों को मानने वाले समाजवादियों ने 1898 में रशियन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी (रूसी सामाजिक लोकतांत्रिक श्रमिक पार्टी) का गठन किया था।
      • सरकारी आतंक के कारण इस पार्टी को गैरकानूनी संगठन के रूप में काम करना पड़ता था। इस पार्टी का एक अखबार निकलता था, उसने मज़दूरों को संगठित किया था और हड़ताल आदि कार्यक्रम आयोजित किए थे।
      • कुछ रूसी समाजवादियों को लगता था कि रूसी किसान जिस तरह समय-समय पर ज़मीन बाँटते हैं उससे पता चलता है कि वह स्वाभाविक रूप से समाजवादी भावना वाले लोग हैं।
      • रूस में मजदूर नहीं बल्कि किसान ही क्रांति की मुख्य शक्ति बनेंगे। वे क्रांति का नेतृत्व करेंगे और रूस बाकी देशों के मुकाबले ज्यादा जल्दी समाजवादी देश बन जाएगा।
      • उन्नीसवीं सदी के आखिर में रूस के ग्रामीण इलाकों में समाजवादी काफी सक्रिय थे। सन् 1900 में उन्होंने सोशलिस्ट रेवलूशनरी पार्टी (समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी) का गठन कर लिया।
      • इस पार्टी ने किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और माँग की कि सामंतों के कब्ज़े वाली ज़मीन फौरन किसानों को सौंपी जाए। किसानों के सवाल पर सामाजिक लोकतंत्रवादी (Social Democrats) खेमा समाजवादी क्रांतिकारियों से सहमत नहीं था ।
      • लेनिन का मानना था कि किसानों में एकजुटता नहीं है वे बँटे हुए हैं। कुछ किसान गरीब थे तो कुछ अमीर, कुछ मज़दूरी करते थे तो कुछ पूँजीपति थे जो नौकरों से खेती करवाते थे। इन आपसी 'विभेदों' के चलते वे सभी समाजवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं हो सकते थे।
      • सांगठनिक रणनीति के सवाल पर पार्टी में गहरे मतभेद थे। व्लादिमीर लेनिन (बोल्शेविक खेमे के मुखिया) सोचते थे कि ज़ार (राजा) शासित रूस जैसे दमनकारी समाज में पार्टी अत्यंत अनुशासित होनी चाहिए और अपने सदस्यों की संख्या व स्तर पर उसका पूरा नियंत्रण होना चाहिए ।
      • दूसरा खेमा ( मेन्शेविक) मानता था कि पार्टी में सभी को सदस्यता दी जानी चाहिए।
      अर्थव्यवस्था और समाज
      • बीसवीं सदी की शुरुआत में रूस की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा खेती-बाड़ी से जुड़ा हुआ था। रूसी साम्राज्य की लगभग 85 प्रतिशत जनता आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थी।
      • यूरोप के किसी भी देश में खेती पर आश्रित जनता का प्रतिशत इतना नहीं था । उदाहरण के तौर पर, फ़्रांस और जर्मनी में खेती पर निर्भर आबादी 40-50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी।
      • रूसी साम्राज्य के किसान अपनी ज़रूरतों के साथ-साथ बाज़ार के लिए भी पैदावार करते थे। रूस अनाज का एक बड़ा निर्यातक था।
      • सेंट पीटर्सबर्ग और मास्को प्रमुख औद्योगिक इलाके थे। हालाँकि ज्यादातर उत्पादन कारीगर ही करते थे लेकिन कारीगरों की वर्कशॉपों के साथ-साथ बड़े-बड़े कल-कारखाने भी मौजूद थे।
      • बहुत सारे कारखाने 1890 के दशक में चालू हुए थे जब रूस के रेल नेटवर्क को फैलाया जा रहा था। उसी समय रूसी उद्योगों में विदेशी निवेश भी तेजी से बढ़ा था।
      • इन कारकों के चलते कुछ ही सालों में रूस के कोयला उत्पादन में दोगुना और स्टील उत्पादन में चार गुना वृद्धि हुई थी। सन् 1900 तक कुछ इलाकों में तो कारीगरों और कारखाना मज़दूरों की संख्या लगभग बराबर हो चुकी थी।
      • ज्यादातर कारखाने उद्योगपतियों की निजी संपत्ति थे। मज़दूरों को न्यूनतम वेतन मिलता रहे और काम की पाली के घंटे निश्चित हों- इस बात का ध्यान रखने के लिए सरकारी विभाग बड़ी फैक्ट्रियों पर नज़र रखते थे। लेकिन फैक्ट्री इंस्पेक्टर भी नियमों के उल्लंघन को रोक पाने में नाकामयाब थे।
      • कारीगरों की इकाइयों और वर्कशॉपों में काम की पाली प्राय: 15 घंटे तक खिंच जाती थी जबकि कारखानों में मज़दूर आमतौर पर 10-12 घंटे की पालियों में काम करते थे। मज़दूरों के रहने के लिए भी कमरों से लेकर डॉर्मिटरी तक तरह-तरह की व्यवस्था मौजूद थी।
      • सामाजिक स्तर पर मज़दूर बँटे हुए थे। कुछ मज़दूर अपने मूल गाँवों के साथ अभी भी गहरे संबंध बनाए हुए थे। बहुत सारे मजदूर स्थायी रूप से शहरों में ही बस चुके थे। उनके बीच योग्यता और दक्षता के स्तर पर भी काफी फ़र्क था।
      • 1914 में फ़ैक्ट्री मजदूरों में औरतों की संख्या 31 प्रतिशत थी लेकिन उन्हें पुरुष मज़दूरों के मुकाबले कम वेतन मिलता था मजदूरों के बीच मौजूद फ़ासला उनके पहनावे और व्यवहार में भी साफ़ दिखाई देता था।
      • यद्यपि कुछ मज़दूरों ने बेरोज़गारी या आर्थिक संकट के समय एक-दूसरे की मदद करने के लिए संगठन बना लिए थे लेकिन ऐसे संगठन बहुत कम थे।
      • इन विभेदों के बावजूद, जब किसी को नौकरी से निकाल दिया जाता था स्रोत या उन्हें मालिकों से कोई शिकायत होती थी तो मजदूर एकजुट होकर हड़ताल भी कर देते थे।
      • 1896-1897 के बीच कपड़ा उद्योग में और 1902 में धातु उद्योग में ऐसी हड़तालें काफ़ी बड़ी संख्या में आयोजित की गई।
      • देहात की ज़्यादातर ज़मीन पर किसान खेती करते थे। लेकिन विशाल संपत्तियों पर सामंतों, राजशाही और ऑर्थोडॉक्स चर्च का कब्ज़ा था। मज़दूरों की तरह किसान भी बँटे हुए थे। 
      • किसान बहुत धार्मिक स्वभाव के थे । इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वे सामंतों और नवाबों का बिल्कुल सम्मान नहीं करते थे।
      • नवाबों और सामंतों को जो सत्ता और हैसियत मिली हुई थी वह लोकप्रियता की वजह से नहीं बल्कि ज़ार के प्रति उनकी निष्ठा और सेवाओं के बदले में मिली थी।
      • यहाँ की स्थिति फ्रांस जैसी नहीं थी। मिसाल के तौर पर, फ़ासीसी क्रांति के दौरान ब्रिटनी के किसान न केवल नवाबों का सम्मान करते थे बल्कि उन्होंने नवाबों को बचाने के लिए बाकायदा लड़ाइयाँ भी लड़ीं।
      • इसके विपरीत, रूस के किसान चाहते थे कि नवाबों की ज़मीन छीनकर किसानों के बीच बाँट दी जाए। बहुधा वह लगान भी नहीं चुकाते थे ।
      • कई जगह तो ज़मींदारों की हत्या भी की जा चुकी थी। 1902 में दक्षिणी रूस में ऐसी घटनाएँ बड़े पैमाने पर घटीं। 1905 में तो पूरे रूस में ही ऐसी घटनाएँ घटने लगीं।
      • रूसी किसान यूरोप के बाकी किसानों के मुकाबले एक और लिहाज़ से भी भिन्न थे। यहाँ के किसान समय-समय पर सारी ज़मीन को अपने कम्यून (मीर) को सौंप देते थे और फिर कम्यून ही प्रत्येक परिवार की ज़रूरत के हिसाब से किसानों को ज़मीन बाँटता था।

      1905 की क्रांति

      • रूस एक निरंकुश राजशाही था । अन्य यूरोपीय शासकों के विपरीत बीसवीं सदी की शुरुआत में भी ज़ार राष्ट्रीय संसद के अधीन नहीं था। उदारवादियों ने इस स्थिति को खत्म करने के लिए बड़े पैमाने पर मुहिम चलाई।
      • 1905 की क्रांति के दौरान उन्होंने संविधान की रचना के लिए सोशल डेमोक्रेट और समाजवादी क्रांतिकारियों को साथ लेकर किसानों और मज़दूरों के बीच काफी काम किया।
      • रूसी साम्राज्य के तहत उन्हें राष्ट्रवादियों (जैसे पोलैंड में) और इस्लाम के आधुनिकीकरण के समर्थक जदीदियों ( मुस्लिम बहुल इलाकों में) का भी समर्थन मिला।
      • रूसी मज़दूरों के लिए 1904 का साल बहुत बुरा रहा। ज़रूरी चीज़ों की कीमतें इतनी तेजी से बढ़ीं कि वास्तविक वेतन में 20 प्रतिशत तक की गिरावट आ गई। उसी समय मज़दूर संगठनों की सदस्यता में भी तेजी से वृद्धि हुई।
      • जब 1904 में ही गठित की गई असेंबली ऑफ़ रशियन वर्कर्स (रूसी श्रमिक सभा) के चार सदस्यों को प्युतिलोव आयरन वर्क्स में उनकी नौकरी से हटा दिया गया तो मज़दूरों ने आंदोलन छेड़ने का एलान कर दिया।
      • अगले कुछ दिनों के भीतर सेंट पीटर्सबर्ग के 110,000 से ज्यादा मज़दूर काम के घंटे घटाकर आठ घंटे किए जाने, वेतन में वृद्धि और कार्यस्थितियों में सुधार की माँग करते हुए हड़ताल पर चले गए।
      • इसी दौरान जब पादरी गैपॉन के नेतृत्व में मज़दूरों का एक जुलूस विंटर पैलेस (ज़ार का महल) के सामने पहुँचा तो पुलिस और कोसैक्स ने मज़दूरों पर हमला बोल दिया।
      • इस घटना में 100 से ज्यादा मज़दूर मारे गए और लगभग 300 घायल हुए । इतिहास में इस घटना को खूनी रविवार के नाम से याद किया जाता है।
      • 1905 की क्रांति की शुरुआत इसी घटना से हुई थी। सारे देश में हड़तालें होने लगीं। जब नागरिक स्वतंत्रता के अभाव का विरोध करते हुए विद्यार्थी अपनी कक्षाओं का बहिष्कार करने लगे तो विश्वविद्यालय भी बंद कर दिए गए।
      • वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और अन्य मध्यवर्गीय कामगारों ने संविधान सभा के गठन की माँग करते हुए यूनियन ऑफ़ यूनियंस की स्थापना कर दी।
      • 1905 की क्रांति के दौरान ज़ार ने एक निर्वाचित परामर्शदाता संसद या ड्यूमा के गठन पर अपनी सहमति दे दी। क्रांति के समय कुछ दिन तक फैक्ट्री मज़दूरों की बहुत सारी ट्रेड यूनियनें और फैक्ट्री कमेटियाँ भी अस्तित्व में रहीं।
      • 1905 के बाद ऐसी ज़्यादातर कमेटियाँ और यूनियनें अनधिकृत रूप से काम करने लगीं क्योंकि उन्हें गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। राजनीतिक गतिविधियों पर भारी पाबंदियाँ लगा दी गईं।
      • ज़ार ने पहली ड्यूमा को मात्र 75 दिन के भीतर और पुनर्निर्वाचित दूसरी ड्यूमा को 3 महीने के भीतर बर्खास्त कर दिया। वह किसी तरह की जवाबदेही या अपनी सत्ता पर किसी तरह का अंकुश नहीं चाहता था।
      • उसने मतदान कानूनों में फेरबदल करके तीसरी ड्यूमा में रुढ़िवादी राजनेताओं को भर डाला। उदारवादियों और क्रांतिकारियों को बाहर रखा गया।
      रूस की क्रांति 1917
      • 1917 की रूसी क्रांति बीसवीं शताब्दी के विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना रही है।
      • 1789 की फ्रांस की क्रांति में जहां स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व की भावना का प्रचार कर यूरोपीय जीवन को प्रभावित किया।
      • वहां रूसी क्रांति ने ना केवल रूस और यूरोप को बल्कि पूरे विश्व पर गहरा प्रभाव डाला।
      • इस क्रांति में ना केवल निरंकुश एकतंत्री, स्वेच्छाचारी, जार शाही शासन का अंत किया
      • बल्कि कुलीन जमींदारों सामंती पूंजीपतियों आदि की आर्थिक और सामाजिक सत्ता को समाप्त करते हुए विश्व में पहली बार मजदूरों और किसानों की सत्ता स्थापित की मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद को मूर्त रूप रूसी क्रांति ने ही दिया।
      • इस क्रांति ने समाजवादी व्यवस्था को स्थापित किया यह विचारधारा 1977 के बाद शक्तिशाली हो गई 1950 तक लगभग आधा विश्व इसके अंतर्गत पा चुका था।
      • 1905 में जापान द्वारा रूस पर आक्रमण रूसी की हार जनता द्वारा शासन वर्ग का विरोध जन असंतोष तथा मजदूर वर्ग का विरोध जन असंतोष तथा मजदूर वर्ग की दयनीय स्थिति में क्रांति को आवश्यक बना दिया ।
      • देश को क्रांति की ज्वाला में गिरने से बचाने के लिए स्वायत्त संस्थाओं के उदारवादी नेताओं ने शासन के समक्ष कुछ मांगे रखी जिनको जार ने ना मानकर प्रशासकीय सुधार को आवश्यक दिया। ऐसे समय में हड़ताल मजदूरों ने अपनी मांगों के समर्थन में रूस के शासक जार को एक ज्ञापन सौंपा।
      • जार ने निहत्थे व अनुशासन लोगों पर गोलियों की बौछार करा दी जिसे खूनी रविवार 22 जनवरी 1905 के नाम से जाना जाता है। यहां से क्रांति का आगाज हुआ मजदूरों के साथ कृषकों रेलवे कर्मचारियों ने भी विद्रोह कर दिया।
      • जनता के आक्रोश की बाढ़ को जार (रूसी शासक) सहन नहीं कर पाया और मजबूर होकर उसने जनता को मूल अधिकार व स्वतंत्रता लेने का निर्णय लिया तथा मताधिकार के आधार पर निर्वाचित विधायक शक्ति प्राप्त संसद ड्यूमा स्थापित करने का वचन दिया जो कि इस क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम था।
      रूसी क्रांति के प्रमुख कारण
      • निरंकुश और स्वेच्छाचारी जार का शासन रूस में लंबे समय से निरंकुश राजशाही का शासन था जो राजस्व की देवीय सिद्धांत में विश्वास करते थे तथा मानते थे कि जार उसका एक ही पति है और किसी के प्रति उत्तरदाई नहीं है।
      • क्रांति के समय जार निकोलस द्वितीय था इसके समय प्रेस की स्वतंत्रता नहीं थी नागरिकों को किसी प्रकार की अधिकार प्राप्त नहीं थी तथा बौद्धिक गतिविधियों पर कठोर नियंत्रण था ।
      • निरंकुश शासक उस समय मौजूद था। यूरोप में राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे तथा संवैधानिक राजतंत्र और गणतंत्र की स्थापना हो रही थी। ऐसी स्थिति में जार की निरंकुशता जनता के लिए असहनीय हो गए और वह जार शाही के विरुद्ध संगठित हो गए।
      • अयोग्य व भ्रष्ट नौकरशाह ख्र रूस में जारो ने जो नौकरशाही की स्थापना की थी वह और अकुशल थी।
      • शासन के उच्च पदों पर कुलीन वर्ग को नियुक्त किया जाता था जो स्वयं भी निरंकुश और स्वेच्छाचारी थे।
      • यह नौकरशाह वंशानुगत रूप लिए हुए थे इस प्रकार शासन में योग्यता और भ्रष्टाचारी नौकरशाही का बोला था | इसमें जनता को और भी क्रोधित किया।
      किसानों की दयनीय दशा
      • 18 वीं सदी में यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई जिस कारण वह कृषि उत्पादन में वृद्धि नए उद्योग में काम करने के लिए यातायात के साधनों का प्रयोग हुआ। किंतु रूस एक कृषि प्रधान देश होने के बावजूद पिछड़ा रहा यहां कृषकों को दशा अत्यंत दयनीय थी।
      • 1861 में कृषक दास की मुक्ति की व्यवस्था की गई थी इसके कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया अभी भी 68% भूमि जमींदारों के पास 13% भूमि चर्च के अधिकार में थी।
      • जमीदार किसानों से बेगार लेते थे जिसे कोरवी कहा जाता था।
      • इसने किसानों की स्थिति को और भी दयनीय बना दिया किसान खेती के उन्नत तरीके अपनाने के असमर्थ थे क्योंकि स्वयं के भरण पोषण और जमींदारों का कर निकालते हुए उनके पास पूंजी का अभाव था।
      • अतः पुरातन तरीके से की जाने वाली खेती में उनकी दशा और भी दयनीय हो गई उन्होंने करो की कमी तथा विशेष अधिकारो की समाप्ति की मांग की।
      • असंतोष कृषक वर्ग की दशा का लाभ उठाकर क्रांतिकारी समाजवादी दल ने इन्हें शासन के विरुद्ध खड़ा कर दिया।
      श्रमिकों की हीन दशा
      • रूस में औद्योगिकरण की स्थिति बहुत देर से आई ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त भुखमरी और बेरोजगारी से मुक्ति की तलाश में लोग शहरों की ओर उद्योगों में काम करने पहुंचे श्रमिकों की भीड़ में उनके परिश्रम का मूल्य कम कर दिया गया।
      • इससे न्यूनतम मजदूरी के बदले अधिकतम काम लेने की प्रवृत्ति उद्योगपतियों में बढ़ गई श्रमिकों के घंटे निश्चित नहीं थे मजदूरी भी निश्चित नहीं थी शारिरिक क्षतिपूर्ति का कोई प्रावधान नहीं था। 
      • श्रमिकों के आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा मनोरंजन आदि की कोई व्यवस्था नहीं थी यह मजदूर संघ स्थापित नहीं कर सकते थे। उनकी दशा अत्यंत दयनीय थी।
      • 1898 में गठित सोशियल डेमोक्रेटिक पार्टी ने श्रमिकों में असंतोष को समाजवादी क्रांति में तब्दील कर दिया।
      सामाजिक और आर्थिक असमानता
      • असमानता रूसी समाज दो आसमान वर्गों में बंटा था-
      • प्रथम विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग इसमें कुलीन, सामन्त, जार के कृपा पात्र तथा बड़े पूंजीपति थे।
      • दूसरा अधिकार विहीन श्रमिक वर्ग था जिसमें किसान मजदूर मध्यम वर्ग शिक्षक आदि शामिल थे। प्रथम वर्ग निरंकुश और स्वेच्छाचारी था तथा उत्पादन के सभी साधन उनके हाथों में थे तथा अधिकार विहीन वर्ग उत्पादन के साधनों का सामाजिकरण करने के पक्ष में था।
      • इसी आर्थिक और सामाजिक विषमता के कारण उत्पन्न वर्ग संघर्ष की क्रांति का आधार बना।
      समाजवादी विचारधारा का विकास 
      • यूरोप में औद्योगिक क्रांति के परिणाम स्वरूप समाजवादी विचारधारा अस्तित्व में आई। समाजवादियों का उद्देश्य मजदूरों की कार्य एवं आवासीय दशा में सुधार करना था और रूस में भी समाजवादी विचारधारा का तीव्रता से विकास होने लगा।
      • फलस्वरूप 1898 में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी तथा 1902 में सोशियल रिवॉल्यूशनरी पार्टी की स्थापना हुई।
      • सोशलिस्ट रिवॉल्यूशनरी पार्टी किसानों को संगठित कर क्रांति लाना चाहती थी जबकि सोशियल डेमोक्रेटिक पार्टी सर्वहारा वर्ग की क्रांति को आधार मानते थे।
      • सोशियल डेमोक्रेटिक पार्टी 1903 में दो वर्गों में विभाजित हो गई। बोल्शेविक जो बहुमत में था तथा दूसरा मैनशेविक्स जो अल्पमत में था इन समाजवादी दलों ने किसानों और मजदूरों को संगठित कर उनके असंतोष को दूर करके क्रांति के लिए आधार तैयार किया।
      • जार की रूसीकरण की नीति ख्र रूस में रूसी यहूदी, उजबेक , पोल, तातर आदि विभिन्न जातियां रहती थी।
      • जिनकी अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक परंपरा थी जार इनको अपनी संस्कृति छोड़ कर रूसी करन हेतु मजबूर कर रहा था जार अलेक्जेंडर 3 ने नारा भी दिया था।
      • एक चर्च और एक रूस इससे गेर रुसी जातियां जार शाही की कट्टर विरोधी बन गई
      प्रगतिशील चेतना का विकास
      • उपन्यासों और नाटकों के माध्यम से रूस की राजनीतिक सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक सरंचना पर तीखी टिप्पणी होने लगी इससे रूस में एक नई चेतना का विकास हुआ।
      • इस समय टॉलस्टॉय, गोरकी आदि उच्च कोटि के उपन्यास कहानी व नाट्य लेखक ने बोद्धिक चेतना को बढ़ाने में महत्वपूर्ण कार्य किया। इन सब के प्रभाव में एक सशक्त बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हुआ
      रूस जापान युद्ध
      • 1905 में रूस जापान युद्ध में रूस बुरी तरह हारा । इस पराजय ने उसकी महानता को मिथ्या साबित किया । एशिया के एक छोटे देश जापान से पराजित हो गया था।
      • रूसी जनता देश की व्यवस्था के लिए जार के शासन व्यवस्था को दोषी ठहराने लगी।
      • जिसके प्रमुख मांग एक प्रतिनिधि सभा की स्थापना और शासन को उदार बनाना था।
      1905 की क्रांति
      • 9 जनवरी 1905 रविवार के दिन सेंट पीटर्स वर्ग की सड़कों पर मजदूरों का शांतिपूर्वक जुलूस जार के राज महल की ओर प्रस्थान कर रहा था तभी शाही सेना ने मजदुरो पर गोलियों की बौछार कर दी जिसमें हजारों मजदूर मारे गए यह दिन इतिहास में खूनी रविवार के नाम से जाना जाता है।
      • इस घटना से देश भर में जार जारशाही के विरुद्ध असंतोष की लहर फैल गई जिससे जार निकोलस को मजबूर होकर उनकी मांगें मानी पड़ी तथा प्रशासकीय सुधारों की घोषणा करनी पड़ी।
      • इससे पहली बार संसद की स्थापना हुई जिसे ड्यूमा कहा जाता है।
      • 1905 की क्रांति को एक वास्तविक क्रांति नहीं कहा जा सकता यह सफलता का एक पड़ाव कहा जा सकता है ।
      तात्कालिक कारण
      • प्रथम विश्व युद्ध में रूस की भागीदारी जार की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा ने उसको 1914 के प्रथम विश्व युद्ध में ध केल दिया।
      • उसने मित्र राष्ट्रों की ओर से भागीदारी निभाई युद्ध में जर्मनी ने रूसी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया रूस में किसानों को • जबरन सेना में भर्ती किया गया।
      • उचित प्रशिक्षण अस्त्र शस्त्रों का अभाव तथा लोहे और कोयले की कमी के कारण कारखाने बंद होने लगे तथा परिणाम स्वरूप आर्थिक रूप से जर्जर रूस पतन की ओर पहुंच गया।
      • रूसी सेनाओ की निरंतर पराजय से सैनिकों तथा जनता भी इसे राष्ट्रीय अपमान के रूप में देखने लगी।
      • जारशाही और उसका दरबार बिखरने की कगार पर आ गया सभी को अपने कष्टों का कारण शासन की योग्यता मैं नजर आ रहा था
      • इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध में रूस में क्रांति की प्रक्रिया को तेज कर दिया।
      प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18)
      • प्रथम विश्वयुद्ध, विश्व स्तर पर लड़ा जाने वाला प्रथम प्रलयंकारी युद्ध था। इसमें विश्व के लगभग सभी प्रभावशाली राष्ट्रों ने भाग लिया।
      • यह युद्ध मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ्रांस, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, इटली, रूमानिया तथा उनके सहयोगी राष्ट्रों) और केंद्रीय शक्तियों (जर्मनी, ऑस्ट्रिया - हंगरी, तुर्की, बुल्गारिया इत्यादि) के बीच हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय और केंद्रीय शक्तियों की पराजय हुई।
      प्रथम विश्व युद्ध के कारण
      • प्रथम विश्व युद्ध को ग्रेट वार अथवा ग्लोबल वार भी कहा जाता है। उस समय ऐसा माना गया कि इस युद्ध के बाद सारे युद्ध खत्म जायेंगे, अत: इसे 'वॉर टू एंड आल वार्स' भी कहा गया। किन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं और इस युद्ध के कुछ सालों बाद द्वितीय विश्व युद्ध भी हुआ।
      • इसे ग्रेट वार इसलिए कहा गया है कि इस समय तक इससे बड़ा युद्ध नहीं हुआ था। यह लड़ाई 28 जुलाई 1914 से लेकर 11 नवम्बर 1918 तक चली थी, जिसमे मरने वालों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख थी।
      • इस आंकड़े में एक करोड़ दस लाख सिपाही और लगभग 60 लाख आम नागरिक मारे गये। इस युद्ध में जख्मी लोगों की संख्या 2 करोड़ थी।
      प्रथम विश्व युद्ध में दो योद्धा दल
      • इस युद्ध में एक तरफ अलाइड शक्ति और दूसरी तरफ सेंट्रल शक्ति थे। अलाइड शक्ति रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और जापान था।
      • संयुक्त राष्ट्र अमेरिका इस युद्ध में साल 1917-18 के दौरान संलग्न रहा। सेंट्रल शक्ति में केवल 3 देश मौजूद थे। ये तीन देश ऑस्ट्रो- हंगेरियन, जर्मनी और ओटोमन एम्पायर था।
      • इस समय ऑस्ट्रो- हंगरी में हब्स्बर्ग नामक वंश का शासन था। ओटोमन आज के समय में ओटोमन तुर्की का इलाका है।
      यूरोपीय शक्ति- संतुलन का बिगड़ना
      • 1871 में जर्मनी के एकीकरण के पूर्व युरोपीय राजनीती में जर्मनी की महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी, परन्तु बिस्मार्क के नेतृत्व में एक शक्तिशाली जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ।
      • इससे युरोपीय शक्ति ख्र संतुलन गड़बड़ा गया। इंग्लैंड और फ्रांस के लिए जर्मनी एक चुनौती बन गया। इससे युरोपीय राष्ट्रों में प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ी।
      गुप्त संधिया एवं गुटों का निर्माण
      • जर्मनी के एकीकरण के पश्चात वहां के चांसलर बिस्मार्क ने अपने देश को युरोपीय राजनीती में प्रभावशाली बनाने के लिए तथा फ्रांस को यूरोप की राजनीती में मित्रविहीन बनाए रखने के लिए गुप्त संधियों की नीतियाँ अपनायीं।
      • उसने ऑस्ट्रिया - हंगरी (1879) के साथ द्वैत संधि (Dual Alliance) की।
      • रूस (1881 और 1887) के साथ भी मैत्री संधि की गयी. इंग्लैंड के साथ भी बिस्मार्क ने मैत्रीवत सम्बन्ध बनाये। 1882 में उसने इटली और ऑस्ट्रिया के साथ मैत्री संधि की।
      • फलस्वरूप, यूरोप में एक नए गुट का निर्माण हुआ जिसे त्रिगुट संधि (Triple Alliance) कहा जाता है।
      • इसमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया- हंगरी एवं इटली सम्मिलित इंगलैंड और फ्रांस इस गुट से अलग रहे ।
      जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता
      • जर्मनी एवं फ्रांस के मध्य पुरानी दुश्मनी थी। जर्मनी के एकीकरण के दौरान बिस्मार्क ने फ्रांस के धनी प्रदेश अल्सेस- लौरेन पर अधिकार कर लिया था।
      • मोरक्को में भी फ्रांसीसी हितो को क्षति पहुचाई गयी थी। इसलिए फ्रांस का जनमत जर्मनी के विरुद्ध था। फ्रांस सदैव जर्मनी को नीचा दिखलाने के प्रयास में लगा रहता था।
      • दूसरी ओर जर्मनी भी फ्रांस को शक्तिहीन बनाये रखना चाहता था। इसलिए जर्मनी ने फ्रांस को मित्रविहीन बनाये रखने के लिए त्रिगुट समझौते कियाद्य बदले में फ्रांस ने भी जर्मनी के विरुद्ध अपने सहयोगी राष्ट्रों का गुट बना लिया।
      • प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक जर्मनी और फ्रांस की शत्रुता इतनी बढ़ गयी की इसने युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया।
      प्रथम विश्व युद्ध के चार मुख्य कारण
      • इन कारणों को MAIN के रूप में याद रखा जाता है । इस शब्द में M मिलिट्रीज्म, A अलायन्स, सिस्टम, I इम्पेरिअलिस्म और N नेशनलिज्म के लिए आया है।
      मिलिट्रीज्म :
      • मिलिट्रीज्म में हर देश ने खुद को हर तरह के आधुनिक हथियारों से लैस करने का प्रयास किया। इस प्रयास के अंतर्गत सभी देशों ने अपने अपने देश में इस समय आविष्कार होने वाले मशीन गन, टैंक, बन्दुक लगे 3 बड़े जहाज, बड़ी आर्मी का कांसेप्ट आदि का आविर्भाव हुआ।
      • कई देशों ने भविष्य के युद्धों की तैयारी में बड़े बड़े आर्मी तैयार कर दिए। इन सभी चीजों में ब्रिटेन और जर्मनी दोनों काफी आगे थे।
      • इनके आगे होने की वजह इन देशों बढ़ना था। औद्योगिक क्रान्ति की वजह से यह देश बहुत अधिक विकसित हुए और अपनी सैन्य क्षमता को बढाया।
      • इन दोनों देशों ने अपने इंडस्ट्रियल कोम्प्लेक्सेस का इस्तेमाल अपनी सैन्य क्षमता को बढाने के लिए किया, जैसे बड़ी बड़ी विभिन्न कम्पनियों में मशीन गन का, टैंक आदि के निर्माण कार्य चलने लगे।
      • इस समय विश्व के अन्य देश चाहते थे कि वे ब्रिटेन और ' जर्मनी की बराबरी कर लें किन्तु ऐसा होना बहुत मुश्किल था। मिलिट्रीज्म की वजह से कुछ देशों में ये अवधारणा बन गयी कि उनकी सैन्य क्षमता अति उत्कृष्ट है और उन्हें कोई किसी भी तरह से हरा नहीं सकता है।
      • ये एक गलत अवधारणा थी और इसी अवधारणा के पीछे कई लोगों ने अपनी मिलिट्री का आकार बड़ा किया। अतः मॉडर्न आर्मी का कांसेप्ट यहीं से शुरू हुआ।
      • विभिन्न संधीयाँ यानि गठबंधन प्रणाली : यूरोप में 19वीं शताब्दी के दौरान शक्ति में संतुलन स्थापित करने के लिए विभिन्न देशों ने अलायन्स अथवा संधियाँ बनानी शुरू की।
      • इस समय कई तरह की संधियाँ गुप्त रूप से हो रही थी। जैसे किसी तीसरे देश को ये पता नहीं चलता था कि उनके सामने के दो देशों के मध्य क्या संधि हुई है।
      • इस समय में मुख्य तौर पर दो संधियाँ हुई, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। इन दोनों संधि के विषय में दिया जा रहा है, साल 1882 का ट्रिपल अलायन्स : साल 1882 में जर्मनी ऑस्ट्रिया- हंगरी और इटली के बीच संधि हुई थी।
      साल 1907 का ट्रिपल इंटेंट :
      • साल 1907 में फ्रांस, ब्रिटेन और रूस के बीच ट्रिपल इंटेंट हुआ। साल 1904 में ब्रिटेन और रूस के बीच कोर्दिअल इंटेंट नामक संधि हुई। इसके साथ रूस जुड़ने के बाद ट्रिपल इंटेंट के नाम से जाना गया।
      • यद्यपि इटली, जर्मनी और ऑस्ट्रिया- हंगरी के साथ था किन्तु युद्ध के दौरान इसने अपना पाला बदल लिया था और फ्रांस एवं ब्रिटेन के साथ लड़ाई लड़नी शुरू की।
      साम्राज्यवाद :
      • इस समय जितने भी पश्चिमी यूरोप के देश हैं वो चाहते थे, कि उनके कॉलोनिस या विस्तार अफ्रीका और एशिया में भी फैले। इस घटना को 'स्क्रेम्बल ऑफ अफ्रीका' यानि अफ्रीका की दौड़ भी कहा गया, इसका मतलब ये था कि अफ्रिका अपने जितने अधिक क्षेत्र बचा सकता है बचा ले, क्योंकि इस समय अफ्रीका का क्षेत्र बहुत बड़ा था।
      • यह समय 1880 के बाद का था जब सभी बड़े देश अफ्रीका पर कब्जा कर रहे थे। इन देशों में फ्रांस, जर्मनी, होलैंड बेल्जियम आदि थे. इन सभी देशों का नेतृत्व ब्रिटेन कर रहा था।
      • इस नेतृत्व की वजह ये थी कि ब्रिटेन इस समय काफी सफल देश था और बाकी देश इसके विकास मॉडल को कॉपी करना चाहते थे। पूरी दुनिया के 25% हिस्से पर एक समय ब्रिटिश शासन का राजस्व था।
      • इस 25% क्षेत्र की वजह से इनके पास बहुत अधिक संसाधन आ गये थे। इसकी वजह से इनकी सैन्य क्षमता में भी खूब वृद्धि हुई।
      • इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत से 13 लाख सैनिकों ने प्रथम विश्व युद्ध में लड़ाई लड़ने के लिए भेजे गये। ब्रिटेन आर्मी में जितनी भारतीय सेना थी, उतनी ब्रिटेन सेना नहीं थी।
      राष्ट्रवाद:
      • उन्नसवीं शताब्दी मे देश भक्ति की भावना ने पूरे यूरोप को • अपने कब्जे में कर लिया. जर्मनी, इटली, अन्य बोल्टिक देश आदि जगह पर राष्ट्रवाद पूरी तरह से फैल चूका था।
      • इस वजह से ये लड़ाई एक ग्लोरिअस लड़ाई के रूप मे भी सामने आई और ये लड़ाई 'ग्लोरी ऑफ वार' कहलाई।
      • इन देशों को लगने लगा कि कोई भी देश लड़ाई लड़ के और जीत के ही महान बन सकता है।
      • इस तरह से देश की महानता को उसके क्षेत्रफल से जोड़ के देखा जाने लगा।
      • प्रथम विश्वयुद्ध के पहले एक पोस्टर बना था, जिसमे कई देश एक दुसरे के पीछे से प्रहार करते हुए नजर आये। इसमें साइबेरिया को सबसे छोते बच्चे के रूप में दिखाया गया।
      • इस पोस्टर में साइबेरिया अपने पीछे खड़े ऑस्ट्रिया को कह रहा था यदि तुम मुझे मारोगे तो रूस तुम्हे मारेगा।
      • इसी तरह यदि रूस ऑस्ट्रिया को मरता है तो जर्मनी रूस को मारेगा। इस तरह सभी एक दुसरे के दुश्मन हो गये, जबकि झगड़ा सिर्फ साइबेरिया और ऑस्ट्रिया के बीच में था।
      प्रथम विश्व युद्ध सम्बंधित धारणाये
      • इस समय यूरोप में युद्ध संबंधित धारणाएँ बनी कि तकनीकी विकास होने की वजह से जिस तरह शस्त्र वगैरह तैयार हुए हैं, उनकी वजह से अब यदि युद्ध हुए तो बहुत कम समय में युद्ध खत्म हो जाएगा, किन्तु ऐसा हुआ नहीं।
      • इस समय युद्ध को अलग अलग अखबारों, लेखकों ने गौरव से जोड़ना शुरू किया।
      • उनके अनुसार युद्ध किसी भी देश के निर्माण के लिए बहुत जरूरी है, बिना किसी युद्ध के न तो कोई देश बन सकता है और न ही किसी तरह से भी महान हो सकता है और न ही तरक्की कर सकता है। अतः युद्ध अनिवार्य है।
      तत्कालीन कारण
      • प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बना ऑस्ट्रिया की युवराज आर्क ड्यूक फ्रांसिस फर्डिनेंड की बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में हत्या ।
      • 28 जून 1914 को एक आतंकवादी संगठन काला हाथ से संबंध सर्व प्रजाति के एक बोस्नियाई युवक ने राजकुमार और उनकी पत्नी की गोली मारकर हत्या कर दी।
      • इससे सारा यूरोप स्तब्ध हो गया। ऑस्ट्रिया ने इस घटना के लिए सर्विया को उत्तरदाई माना। ऑस्ट्रिया ने सर्बिया को धमकी दी कि वह 48 घंटे के अंदर इस संबंध में स्थिति स्पष्ट करें तथा आतंकवादियों का दमन करे।
      • सर्बिया ने ऑस्ट्रिया की मांगों को ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप 28 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
      • इसके साथ ही अन्य राष्ट्र भी अपने अपने गुटों के समर्थन में युद्ध में सम्मिलित हो गए. इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हुआ।
      प्रथम विश्व युद्ध में यूरोप का पाउडर केग 
      • बाल्कन को यूरोप का पाउडर कंग कहा जाता है। पाठहर केग का मतलब बारूद से भरा कंटेनर होता है, जिसमे कभी भी आग लग सकती है।
      • बाल्कन देशों के बीच साल 1890 से 1912 के बीच वर्चास्व की लड़ाईयां चलीं। इन युद्ध में साइबेरिया, बोस्निया, क्रोएसिया, मॉन्टेंगरो, अल्बानिया, रोमानिया और बल्गारिया आदि देश दिखे थे।
      • ये सभी देश पहले ओटोमन एम्पायर के अंतर्गत आता था, किन्तु उन्नीसवीं सदी के दौरान इन देशों के अन्दर भी स्वतंत्र होने की भावना जागी और इन्होंने खुद को बल्गेरिया से आजाद कर लिया। इस वजह से बाल्कन में हमेशा लड़ाइयाँ जारी रहीं। इस 22 वर्षों में तीन अलग अलग लड़ाईयां लड़ी गयीं।

      प्रथम विश्व युद्ध के मुख्य वजह और जुलाई क्राइसिस

      • ऑस्ट्रिया ने इस हत्या के बाद साइबेरिया को अल्टीमेटम दिया कि वे जल्द ही आत्मसमर्पण कर दें और साइबेरिया ऑस्ट्रिया के अधीन हो जाए।
      • इस मसले पर साइबेरिया ने रूस से मदद माँगी और रूस को बाल्टिक्स में हस्तक्षेप करने का एक और मौका मिल गया। रूस का साइबेरिया को मदद करने का एक कारण स्लाविक साइबेरिया को सपोर्ट करना भी था।
      • रूस और साइबेरिया दोनों में रहने वाले लोग को स्लाविक कहा जाता है। इसी समय ऑस्ट्रिया हंगरी ने जर्मनी से मदद मांगनी शुरू की।
      • इस पर जर्मनी ने ऑस्ट्रिया हंगरी को एक 'ब्लॅक चेक' देने की बात कही और कहा कि आप जो करना चाहते हों करें जर्मनी आपको पूरा सहयोग देगा।
      • जर्मनी का समर्थन पा कर ऑस्ट्रिया हंगरी ने साइबेरिया पर हमला करना शुरू किया।
      • इसके बाद रूस ने जर्मनी से लड़ाई की घोषणा की। फिर कुछ दिन बाद फ्रांस ने भी जर्मनी से लड़ाई की घोषणा कर दी।
      • फ्रांस के लड़ने की वजह ट्रिपल इंटेंट संधि थी. इस समय तक ब्रिटेन इस युद्ध में शामिल नहीं हुआ था तब इटली ने भी युद्ध करने से मना कर दिया था। 
      • इटली का कहना था कि ट्रिपल इंटेंट के तहत यदि कोई और हम तीनों में से किसी पर हमला करता है तब हम इकट्ठे होंगे न कि किसी दुसरे देश के लिए।
      प्रथम विश्व युद्ध का समय
      • जुलाई क्राइसिस के बाद अगस्त में युद्ध शुरू हो गया. इस समय जर्मनी ने एक योजना बनायी, जिसके तहत उसने पहले 4 फ्रांस को हराने की सोची।
      • इसके लिए उन्होंने बेल्जियम का रास्ता चुना. जैसे ही जर्मनी की मिलिट्री ने बेल्जियम में प्रवेश किया, उधर से ब्रिटेन ने जर्मनी पर हमला कर दिया।
      • इसकी वजह ये थी कि बेल्जियम और ब्रिटेन के बीच सन 1839 में एक समझौता हुआ था।
      • जर्मनी इस समय फ्रांस में घुसने में सफल रहे हालाँकि पेरिस तक नहीं पहुँच पाए।
      • इसके बाद जर्मनी की सेनाओं ने ईस्ट फ्रंट पर रूस को हरा दिया। यहाँ पर लगभग 3 लाख रूसी सैनिक शहीद हुए। इस दौरान ओटोमन एम्पायर ने भी रूस पर हमला कर दिया।
      • इसकी एक वजह ये भी थी कि ओटोमन और रूस दोनों लम्बे समय से एक दुसरे के दुश्मन रहे थे। 
      • इसी के साथ ओटोमन ने सुएज कैनाल पर भी हमला कर दिया. इसकी वजह ये थी कि ब्रिटेन आइलैंड को भारत से जोड़ने के लिए एक बहुत बड़ी कड़ी थी।
      • यदि इस सुरंग पर ओटोमन का अधिपत्य हो जाता तो ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध हार भी सकता था। हालाँकि सुएज कैनाल बचा लिया गया।
      प्रथम विश्व युद्ध के समय के ट्रेंच
      • ट्रेंच युद्ध में वो जगह होती है, जहाँ पर सैनिक रहते हैं, जहाँ से लड़ाई लड़ते हैं, खाना पीना और सोना भी इसी जगह पर होता है। प्रथम विश्व युद्ध में पहली बार इतने लम्बे ट्रेंच बनाए गये।
      • फ्रांस और जर्मनी फ्रंट 3 साल तक ऐसे ही आमने सामने रहे। न तो फ्रांस को आगे बढ़ने का मौका मिला और न ही जर्मनी को। ट्रेंच बनाने का मुख्य कारण आर्टिलरी शेल्लिंग से बचना था।
      • इसकी सहायता से आर्टिलरी गोलों से बचने में मदद मिलती थी, किन्तु बारिश और अन्य मौसमी मार की वजह से कई सारे सैनिक सिर्फ बीमारी से मारे गये।
      • जिस भी समय कोई सैनिक ट्रेंच से बाहर निकलता था, उसी समय दुसरी तरफ से मशीन गन से गोलीबारी शुरू हो जाती और सैनिक मारे जाते।
      • सन 1916 में एक सोम की लड़ाई हुई थी जिसमे एक दिन में 80,000 सैनिक मारे गये।
      • इसमें अधिकतर ब्रिटेन और कनाडा के सैनिक मौजूद थे। कुल मिलाकर इस युद्ध में 3 लाख सैनिक मारे गये।
      प्रथम विश्व युद्ध ग्लोबल वार
      • इस समय लगभग पूरी दुनिया में लड़ाई छिड़ी हुई थी। इस वहज से इसे ग्लोबल वर कहा जाता है।
      • अफ्रीका स्थित जर्मनी की कॉलोनिस जैसे टोगो, तंजानिया और कैमरून आदि जगहों पर फ्रांस ने हमला कर दिया।
      • इसके अलावा माइक्रोनेशिया और चीनी जर्मन कॉलोनिस पर जापान ने हमला कर दिया।
      • इस युद्ध में जापान के शामिल होने की वजह ब्रिटेन और जापान के बीच का समझौता था। इसके साथ ही ओटोमन जहाजों ने ब्लैक सागर के रूसी बंदरगाहों पर हमले करना शुरू कर दिया।
      • ब्लैक सी में स्थित सेवास्तापोल रूस का सबसे महत्वपूर्ण नेवल बेस है।
      • यहाँ पर ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के सैन्य बल लड़ रहे थे। इस आर्मी को अन्जक आर्मी कहा जाता था।
      • हालाँकि यहाँ पर इस आर्मी को किसी तरह की सफलता नहीं मिली। इस युद्ध की याद में आज भी ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के बीच अन्जक डे मनाया जाता है।
      • इसी के साथ कई बड़े महासागरों में भी नेवी युद्ध शुरू हुए, इसके बाद जर्मनी ने एक पनडुब्बी तैयार किया था जिसका नाम था यू बोट। इस यू बोट ने सभी अलाइड जहाजों पर हमला करना शुरू कर दिया।
      • शुरू में जर्मन के इस यू बोट ने सिर्फ नेवी जहाजों पर हमले किये किन्तु बाद में इस जहाज ने आम नागरिकों के जहाजों पर भी हमला करना शुरू कर दिया।
      • ऐसा ही एक हमला लूसीतानिया नामक एक जहाज जो कि अमेरिका से यूरोप के बीच आम लोगों को लाने ले जाने का काम करती थी, उस पर हमला हुआ और लगभग 1200 लोग मारे गये। ये घटना अटलांटिक महासागर में हुई थी ।
      • इस हमले के बाद ही अमेरिका साल 1917 में प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हो गया और अलाइड शक्तियों का साथ देने लगा। इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन थे ।
      • हालाँकि शुरू में अमेरिका किसी भी तरह से यूरोप की इस .लड़ाई में शामिल नहीं होना चाहता था, किन्तु अंततः इसे भी इस युद्ध में शामिल होना पड़ा।
      प्रथम विश्वयुद्ध की प्रमुख घटनाएं
      युद्ध का आरंभिक चरण
      • 28 जुलाई, 1914 को ऑस्ट्रिया द्वारा सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा होते ही युद्ध का बिगुल बज गया। रूस ने सर्बिया के समर्थन में और जर्मनी ने ऑस्ट्रिया के समर्थन में सैनिक कारवाई आरंभ कर दी।
      • रूस के समर्थन में इंग्लैंड और फ्रांस आ गए. जापान ने भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जर्मन सेना बेल्जियम को रौंदते हुए फ्रांस की राजधानी पेरिस के निकट पहुंच गई।
      • इसी समय जर्मनी और ऑस्ट्रिया पर रूसी आक्रमण हुआ। इससे जर्मनी ने अपनी सेना की एक टुकड़ी पूर्वी मोर्चे पर रूस के प्रसार को रोकने के लिए भेज दिया।
      • इससे फ्रांससुरक्षित हो गया और पेरिस नगरी बच गई | पश्चिम एशिया में फिलिस्तीन, मेसोपोटामिया और अरब राष्ट्रों में तुर्की और जर्मनी के विरुद्ध अभियान हुए।
      • सुदूरपूर्व में जापान ने जर्मनी अधिकृत क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इंग्लैंड तथा फ्रांस ने अफ्रीका के अधिकांश जर्मन उपनिवेशों पर अधिकार कर लिया।
      संयुक्त राज्य अमेरिका का युद्ध में सम्मिलित होना
      • 1917 तक संयुक्त राज्य अमेरिका मित्र राष्ट्रों से सहानुभूति रखते हुए भी युद्ध में तटस्थ रहा। 1915 में जर्मनी के एक ब्रिटिश जहाज लुसितानिया को डुबो दिया जिससे अमेरिकी यात्री भी सवार थे. इस घटना के बाद अमेरिका शांत नहीं रह सका।
      • उसने 6 अप्रैल 1917 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अमेरिका द्वारा युद्ध में शामिल होने से युद्ध का पासा पलट गया।
      सोवियत संघ का युद्ध से अलग होना
      • 1917 में जहां अमेरिका युद्ध में शामिल हुआ, वहीं सोवियत संघ युद्ध से अलग हो गया।
      • 1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनिन के नेतृत्व वाली सरकार ने युद्ध से अलग होने का निर्णय ले लिया। सोवियत संघ ने जर्मनी से संधि कर ली और युद्ध से अलग हो गया।
      युद्ध का निर्णायक चरण
      • अप्रैल 1917 में अमेरिका प्रथम विश्व युद्ध में सम्मिलित हुआ। इसके साथ ही घटनाचक्र तेजी से चला। केंद्रीय शक्तियों की पराजय और मित्र राष्ट्रों की विजय की श्रृंखला आरंभ हुई।
      • बाध्य होकर अक्टूबर-नवंबर 1918 में क्रमश: तुर्की और ऑस्ट्रिया ने आत्मसमर्पण कर दिया। जर्मनी अकेला पड़ गया। युद्ध में पराजय और आर्थिक संकट से जर्मनी में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस स्थिति में जर्मन सम्राट कैजर विलियम द्वितीय को गद्दी त्यागनी पड़ी।
      • वह भाग कर हालैंड चला गया. जर्मनी में वेमर गणतंत्र की स्थापना हुई। नई सरकार ने 11 नवंबर 1918 को युद्धविराम के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर किया। इसके साथ ही प्रलयंकारी प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुआ।
      प्रथम विश्वयुद्ध की विशेषताएं
      • 1914-18 के युद्ध को अनेक कारणों से प्रथम विश्वयुद्ध कहा जाता है। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित थी-
      • यह प्रथम युद्ध था जिसमें विश्व के लगभग सभी शक्तिशाली राष्ट्रों ने भाग लिया। यह यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि एशिया अफ्रीका और सुदूर पूर्व में भी लड़ा गया ऐसा व्यापक युद्ध पहली बार हुआ था। इसलिए 1914 -18 का युद्ध प्रथम विश्वयुद्ध कहलाया। यह युद्ध जमीन के अतिरिक्त आकाश और समुद्र में भी लड़ा गया।
      • इस युद्ध में नय मारक और विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों एवं युद्ध के अन्य साधनों का उपयोग किया गया थाद्य इसमें मशीन गन तथा तरल अग्नि का पहली बार व्यवहार किया गया बम बरसाने के लिए हवाई जहाज का उपयोग किया गया इंग्लैंड में टैंक और जर्मनी ने यू बोट पनडुब्बियों का बड़े स्तर पर व्यवहार कियाद्य
      • प्रथम विश्वयुद्ध में सैनिकों के अतिरिक्त सामान्य जनता ने भी सहायक सेना के रूप में युद्ध में भाग लिया।
      • इस युद्ध में सैनिकों और नागरिकों का जितने बड़े स्तर पर संहार हुआ वैसा पहले के किसी युद्ध में नहीं हुआ था।
      • इस युद्ध में स्पष्ट रूप से यह दिखा दिया कि वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरुपयोग मानवता के लिए कितना घातक हो सकता है।
      • इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध को विश्व इतिहास में एक युगांतकारी में घटना माना जा सकता है।
      पेरिस शांति सम्मेलन
      • 18 में विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात विजित राष्ट्रों ने पेरिस में एक शांति सम्मेलन का आयोजन जनवरी 1919 में किया।
      • इसके पूर्व जनवरी 1918 में अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने अपना 14 सूत्री योजना प्रस्तुत किया। इसमें विश्वशांति स्थापना के तत्व निहित थे।
      • इसमें गुप्त संधियों को समाप्त करने,
      • समुद्र की स्वतंत्रता को बनाए रखने,
      • आर्थिक प्रतिबंधों को समाप्त करने,
      • अस्त्र-शस्त्रों को कम करने,
      • शांति स्थापना के लिए विभिन्न राष्ट्रों का संगठन बनाने,
      • रूसी क्षेत्र को मुक्त करने फ्रांस को अल्सेस- लॉरेन देने,
      • सर्बिया को समुद्र तक मार्ग देने,
      • तुर्की साम्राज्य के गैर तुर्कों को स्वायत्त शासन का अधि कार देने,
      • स्वतंत्र पोलैंड का निर्माण करने जैसे सुझाव दिए गए।
      • पेरिस शांति सम्मेलन में इन्हें स्थान दिया गया। पेरिस शांति सम्मेलन में सभी विजय राष्ट्रों के राजनयिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया रूस और पराजित राष्ट्रों को इस सम्मेलन में आमंत्रित नहीं किया गया।
      • सम्मेलन में 27 देशों ने भाग लिया सम्मेलन के निर्णयों पर अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज तथा फ्रांस के प्रधानमंत्री जॉर्ज क्लिमेंसू का प्रभाव था।
      • इस सम्मेलन में पराजित राष्ट्रों के साथ अलग-अलग पांच संधियाँ की गई। यह संधियाँ थी-
      • (1) सेंट जर्मन की संधि
      • (2) त्रियानो की संधि
      • (3) निऊली की संधि
      • (4) वर्साय की संधि तथा
      • (5) सेवर्स की संधि
      • पहली संधि ऑस्ट्रिया के साथ दूसरी हंगरी के साथ तीसरी बुल्गेरिया के साथ चौथी जर्मनी और अंतिम तुर्की के साथ की गई इन संधियों ने यूरोप का मानचित्र बदल दिया।
      सेंट जर्मेन की संधि
      • 1919 के द्वारा ऑस्ट्रिया को अपना औद्योगिक क्षेत्र बोहेमिया तथा मोराविया चेकोस्लोवाकिया को बोस्निया और हर्जेगोविना सर्बिया को देना पड़ा।
      • इसके साथ मांटिनिग्रो को मिलांकर युगों स्लोवाकिया का निर्माण किया गया। पोलैंड का पुनर्गठन हुआ। ऑस्ट्रिया का कुछ क्षेत्र इटली को भी दिया गया।
      • त्रियांनो की संधि 1920 के अनुसार स्लोवाकिया तथा रुथेनिया, चेकोस्लोवाकिया को दिया गया। युगोस्लाविया तथा रोमानिया को भी अनेक क्षेत्र दिए गए।
      • इन संधियों के परिणामस्वरुप ऑस्ट्रिया हंगरी की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति अत्यंत दुर्बल हो गई।
      • निऊली की संधि 1919 ने बुल्गेरिया का अनेक क्षेत्र यूनान, युगोस्लाविया और रोमानिया को दे दिया।
      • सेवर्स की संधि 1920 के द्वारा ऑटोमन साम्राज्य विखंडित कर दिया गया। इसके अनेक क्षेत्र यूनान और इटली को दे दिए गए। फ्रांस को सीरिया तथा पैलेस्तीन, इराक और ट्रांसजॉर्डन को ब्रिटिश मैंडेट के अंतर्गत कर दिया गया।
      • इससे तुर्की में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। इन सभी संधियों में सबसे अधिक व्यापक और प्रभावशाली वर्साय की संधि 1919 थी जो जर्मनी के साथ की गई।
      वर्साय की संधि
      • इस संधि में 440 धाराएं थी। इसने जर्मनी को राजनीतिक सैनिक और आर्थिक दृष्टिकोण से पंगु बना दिया। संधि के मुख्य प्रावधान अग्रलिखित थे-
      • जर्मनी और उसके सहयोगी राष्ट्रों को युद्ध के लिए दोषी मानकर उनकी घोर निंदा की गई। साथ ही, मित्र राष्ट्रों को युद्ध में जो क्षति उठानी पड़ी थी उसके लिए हर्जाना देने का भार जर्मनी पर थोपा गया।
      • 1870 में जर्मनी द्वारा फ्रांस के विजित अलसेस और लॉरेन प्रांत फ्रांस को वापस दे दिए गए. इसके अतिरिक्त जर्मनी का - सार प्रदेश जो लोहे और कोयले की खानों से भरा था, 15 वर्षों के लिए फ्रांस को दिया गया।
      • जर्मनी की पूर्वी सीमा पर का अधिकांश भाग पोलैंड को दे दिया गया। समुद्र तट तक पोलैंड को पहुंचने के लिए जर्मनी के बीचोबीच एक विस्तृत भू भाग निकालकर पोलैंड को दिया गया। यह क्षेत्र पोलिस गलियारा कहलाया।
      • डाजिंग और मेमेल बंदरगाह राष्ट्र संघ के अधीन कर दिए गए. कुल मिलाकर जर्मनी को अपने 13 प्रतिशत भू-भाग और 10% आबादी से हाथ धोना पड़ा।
      • जर्मनी के निरस्त्रीकरण की व्यवस्था की गई। जर्मन सेना की अधिकतम सीमा एक लाख निश्चित की गई। युद्ध उपयोगी सामानों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
      • जर्मनी के सभी नौसैनिक जहाज जप्त कर उसे सिर्फ छह युद्ध पोत रखने का अधिकार दिया गया। पनडुब्बियों और वायुयान रखने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।
      • राइन नदी के बाएं किनारे पर 31 मिल तक के भू भाग का पूर्ण असैनिकीकरण कर इसे 15 वर्षों के लिए मित्र राष्ट्रों के नियंत्रण में दे दिया गया।
      • जर्मनी के सारे उपनिवेश मित्र राष्ट्रों ने आपस में बांट लिए. दक्षिण पश्चिम अफ्रीका और पूर्वी अफ्रीका की उपनिवेशों को इंग्लैंड, बेल्जियम, पुर्तगाल और दक्षिण अफ्रीका को दे दिया गया। तोगोलैंड और कैमरून पर फ्रांस में अधिकार कर लिया। प्रशांत महासागर क्षेत्र तथा चीन के जर्मन अधिकृत क्षेत्र जापान को मिले।
      • वर्साय की संधि जर्मनी के लिए अत्यंत कठोर और अपमानजनक थी। इसकी शर्तें विजय राष्ट्रों द्वारा एक विजित राष्ट्र पर जबरदस्ती और धमकी देकर लादी गई थी।
      • जर्मनी ने इसे विवशता में स्वीकार किया उसने इस संधि को अन्यायपूर्ण कहा जर्मनी को संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश किया गया। चूँकि उसने स्वेच्छा से इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया।
      • इसलिए वर्साय की संधि को आरोपित संधि कहते हैं जर्मन नागरिक इसे कभी स्वीकार नहीं कर सके। संधि के विरुद्ध जर्मनी में प्रबल जनमत बन गया।
      • हिटलर और नाजी दल ने वर्साय की संधि के विरुद्ध जनमत को अपने पक्ष में कर सत्ता हथिया ली। शासन में आते ही उसने संधि की व्यवस्था को नकार कर अपनी शक्ति बढ़ानी आरंभ कर दी इसकी परिणति द्वितीय विश्व युद्ध में हुई इसलिए कहा जाता है कि वर्साय की संधि में द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज निहित थे।
      प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम
      • परिणामों के दृष्टिकोण से प्रथम विश्वयुद्ध को विश्व इतिहास ' का एक परिवर्तन बिंदु माना गया है। इसके अनेक तत्कालीन और दूरगामी परिणाम हुए. इस युद्ध का प्रभाव राजनीतिक, सैनिक, सामाजिक और अर्थव्यवस्था पर पड़ा
      राजनीतिक परिणाम
      साम्राज्य का अंत
      • प्रथम विश्वयुद्ध में जिन बड़े साम्राज्य में केंद्रीय शक्तियों के साथ भाग लिया था उनका युद्ध के बाद पतन हो गया।
      • पेरिस शांति सम्मेलन के परिणाम स्वरुप ऑस्ट्रिया हंगरी सम्राज्य बिखर गया। 
      • जर्मनी में होहेंज्जोर्लन और ऑस्ट्रिया हंगरी में हेप्स्वर्ग राजवंश का शासन समाप्त हो गया। वहां गणतंत्र की स्थापना हुई।
      • इसी प्रकार 1917 में रूसी क्रांति के परिणाम स्वरुप रूस में रोमोनोव राजवंश की सत्ता समाप्त हो गई एवं गणतंत्र की स्थापना हुई।
      • तुर्की का ऑटोमन साम्राज्य भी समाप्त हो गया उसका अधि कांश भाग यूनान और इटली को दे दिया गया।
      विश्व मानचित्र में परिवर्तन
      • प्रथम विश्वयुद्ध के बाद विश्व मानचित्र में परिवर्तन आया. साम्राज्यों के विघटन के साथ ही पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया जैसे नए राष्ट्रों का उदय हुआ।
      • ऑस्ट्रिया, जर्मनी, फ्रांस और रूस की सीमाएं बदल गई।
      • बाल्टिक साम्राज्य, रूसी साम्राज्य से स्वतंत्र कर दिए गए।
      • एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों का अधिकार करने से वहां भी परिस्थिति बदली। इसी प्रकार जापान को भी अनेक नए क्षेत्र प्राप्त हुए. इराक को ब्रिटिश एवं सीरिया को फ्रांसीसी संरक्षण में रख दिया गया।
      • फिलिस्तीन, इंग्लैंड को दे दिया गया।
      सोवियत संघ का उदय
      • प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रूस में 1917 में बोल्शेविक क्रांति हुई. इसके परिणाम स्वरुप रूसी साम्राज्य के स्थान पर सोवियत संघ का उदय हुआ। जारशाही का स्थान समाजवादी सरकार ने ले लिया।
      उपनिवेशों में जागरण
      • युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की थी की युद्ध समाप्त होने पर अंतिम निर्णय के सिद्धांत को लागू किया जाएगा। इससे अनेक उपनिवेशों और पराधीन देशों में स्वतंत्रता प्राप्त करने की भावना बलवती हुई।
      • प्रत्येक उपनिवेश में राष्ट्रवादी आंदोलन आरंभ हो गए. भारत में भी महात्मा गांधी के नेतृत्व में 1917 से स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक चरण आरंभ हुआ।
      विश्व राजनीति पर से यूरोप का प्रभाव कमजोर पड़ना
      • युद्ध के पूर्व तक विश्व राजनीति में यूरोप का अग्रणी भूमिका थी, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड और रूस के इर्द-गिर्द विश्व राजनीति घूमती थी। परंतु 1918 के बाद यह स्थिति बदल गई योधोत्तर काल में अमेरिका का दबदबा बढ़ गया।
      अधिनायकवाद का उदय
      • प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम स्वरुप अधिनायकवाद का उदय हुआ।
      • वर्साय की संधि का सहारा लेकर जर्मनी में हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने सत्ता हथिया ली।
      • नाजीवाद ने एक नया राजनीतिक दर्शन दिया इससे सारी सत्ता एक शक्तिशाली नेता के हाथों में केंद्रित कर दी गई ।
      • जर्मनी के समान इटली में भी मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवाद का उदय हुआ। इटली भी पेरिस सम्मेलन से असंतुष्ट था।
      • अतः मित्र राष्ट्रों के प्रति इटली की कटुता बढ़ती गई। हिटलर के सामान और मुसोलिनी में भी सारी सत्ता अपने हाथों में केंद्रित कर ली।
      द्वितीय विश्वयुद्ध का बीजारोपण
      • प्रथम विश्वयुद्ध ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच भी बो दिए। पराजित राष्ट्रों के साथ जिस प्रकार का व्यवहार किया गया इससे वह अपने को अपमानित समझने लगे।
      • उन राष्ट्रों में पुन: उग्र राष्ट्रीयता प्रभावी बन गई प्रत्येक राष्ट्र एक बार फिर से अपने को संगठित कर अपनी शक्ति बढ़ाने लगा एक एक कर संधि की शर्तों को जोड़ा जाने लगा।
      • इससे विश्व एक बार फिर से बारूद के ढेर पर बैठ गया इसकी अंतिम परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध में हुई।
      विश्व शांति की स्थापना का प्रयास प्रथम
      • विश्वयुद्ध में जन्मदिन की भारी क्षति को देखकर भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने प्रयास आरंभ कर दिए अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन कि इसमें प्रमुख भूमिका थी।
      • फलतः 1919 में राष्ट्र संघ की स्थापना की गई इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्ण ढंग से समाधान कर युद्ध की विभीषिका को रोकने का प्रयास करना था दुर्भाग्यवश राष्ट्र संघ अपने उद्देश्यों में विफल रहा।
      सैन्य परिणाम
      • पेरिस सम्मेलन में पराजित राष्ट्र की सैन्य शक्ति को कमजोर करने के लिए निरस्त्रीकरण की व्यवस्था की गई। इस नीति का सबसे बड़ा शिकार जर्मनी हुआ।
      • विजित राष्ट्रों ने अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि करनी आरंभ कर दी इस से पराजित राष्ट्रों में भय की भावना जगी। अतः वे भी अपने को मजबूत करने के प्रयास में लग गए इससे हथियारबंदी की होड़ आरंभ हो गई जिसका विश्व शांति पर बुरा प्रभाव पड़ा।

      आर्थिक परिणाम

      जन धन की अपार क्षति
      • प्रथम विश्वयुद्ध एक प्रलयंकारी युद्ध था। इसमें लाखों व्यक्ति मारे गए। अरबों की संपत्ति नष्ट हुई। इसका सामाजिक आर्थिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा।
      • हजारों कल कारखाने बंद हो गए. कृषि उद्योग और व्यापार नष्ट प्राय हो गए। बेकारी और भुखमरी की समस्या उठ खड़ी हुई ।
      आर्थिक संकट
      • प्रथम विश्वयुद्ध ने विश्व में आर्थिक संकट उत्पन्न कर दिया। वस्तुओं के मूल्य बढ़ गए मुद्रा स्थिति की समस्या उठ खड़ी हुई। फलतः संपूर्ण विश्व में आर्थिक अव्यवस्था व्याप्त गई ऋण का भाड़ बढ़ने से जनता पर करो का बोझ बढ़ गया।
      सरकारी आर्थिक नीतियों में परिवर्तन
      • तत्कालीन परिस्थितियों के वशीभूत होकर प्रत्येक राष्ट्र ने अपनी आर्थिक नीति में परिवर्तन किया। नियोजित अर्थव्यवस्था लागू की गई। सरकारी अनुमति के बिना कोई नया व्यवसाय आरंभ नहीं किया जा सकता था।
      • घाटे में चल रहे उद्योगों विशेषता युद्ध उपयोगी सामान बनाने वाले उद्योगों को राजकीय संरक्षण देने की नीति अपनाई गई। विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार स्थापित किया गया।
      • प्रत्येक राष्ट्र को विशेषतः जर्मनी को आर्थिक आत्मनिर्भरता की नीति अपनानी पड़ी। गैर-यूरोपीय राष्ट्र में लगाई जाने वाली पूजी में भारी कमी की गई।

      सामाजिक परिणाम

      नस्लों की समानता
      • युद्ध के पूर्व यूरोपियन नस्लभेद अथवा काला गोरा के विभेद पर अधिक बल देते थे। वह एशिया अफ्रीका के काले लोगों को अपने से ही मानते थे। परंतु युद्ध में उनकी वीरता देखकर उन्हें अपनी धारणा बदलनी पड़ी। धीरे धीरे काला गोरा का भेद कम होने लगा।
      जनसंख्या की क्षति
      • युद्ध में लाखों लोग मरे तथा घायल हुए। इनमे ज्यादा संख्या पुरुषों की थी। इसलिए पुरुष स्त्री लिंग अनुपात में भारी कमी आई । युद्ध के दौरान जनसंख्या की बढ़ोतरी दर में कमी आई। परंतु युद्ध के बाद इस में तेजी से वृद्धि हुई।
      स्त्रियों की स्थिति में सुधार
      • विश्वयुद्ध के दौरान अधिकांश पुरुषों के सेना में भर्ती होने से स्त्रियों को घर से बाहर आकर काम करने का अवसर मिला। वह कारखानों, दुकानों, अस्पतालों, स्कूलों और दफ्तर में काम करने लगी।
      • अतः उन में नवजागरण आया। वे अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गई। अपने अधिकारों के लिए महिलाओं ने आंदोलन चलाए, फलतः उन्हें सीमित मताधिकार मिला। 1918 में इंग्लैंड ने पहली बार महिलाओं को सीमित मताधिकार दिया ।
      मजदूरों की स्थिति में सुधार
      • युद्ध काल में युद्ध सामग्री के उत्पादन में मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसलिए उनका महत्व बढ़ गया. उन्हें उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएं देने की व्यवस्था की गई।
      • इससे मजदूरों की स्थिति में सुधार हुआ अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना की गई।
      सामाजिक मान्यताओं में बदलाव
      • प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम स्वरुप प्रचलित सामाजिक मान्यताओं में भी परिवर्तन आया। वर्ग और संपत्ति का विभेद कमजोर हुआ। मुनाफा खोर और चोर बाजारी करने वाले घृणा और तिरस्कार के पात्र बने। उच्च मध्यम वर्ग के लिए अपनी सुविधाओं को प्रदर्शित करना लज्जाजनक माना गया। कम खाना और पुराने कपड़े पहनना देशभक्ति का प्रतीक बन गया। इसी प्रकार आयुध कारखानों में काम करना भी देशभक्ति माना गया।
      वैज्ञानिक प्रगति
      • प्रथम विश्वयुद्ध ने वैज्ञानिक खोजों को गति दी। युद्ध के दौरान नए अस्त्र-शस्त्र बनाए गए विशाल जलयानों पनडुब्बियों और वायुयानों के निर्माण का युद्ध और विश्व पर गहरा प्रभाव पड़ा।
      पहला विश्वयुद्ध और रूसी साम्राज्य
      • 1914 में दो यूरोपीय गठबंधनों के बीच युद्ध छिड़ गया। एक खेमे में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और तुर्की (केंद्रीय शक्तियाँ) थे तो दूसरे खेमे में फ्रांस, ब्रिटेन व रूस (बाद में इटली और रूमानिया भी इस खेमे में शमिल हो गए) थे।
      • इन सभी देशों के पास विशाल वैश्विक साम्राज्य थे इसलिए यूरोप के साथ-साथ यह युद्ध यूरोप के बाहर भी फैल गया था। इसी युद्ध को पहला विश्वयुद्ध कहा जाता है।
      • इस युद्ध को शुरू-शुरू में रूसियों का काफ़ी समर्थन मिला। जनता ने जार का साथ दिया। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध लंबा खिंचता गया, जार ने ड्यूमा में मौजूद मुख्य पार्टियों से सलाह लेना छोड़ दिया। उसके प्रति जनसमर्थन कम होने लगा।
      • जर्मनी-विरोधी भावनाएँ दिनोंदिन बलवती होने लगीं। जर्मनी-विरोधी भावनाओं के कारण ही लोगों ने सेंट पीटर्सबर्ग का नाम बदल कर पेट्रोगाड रख दिया क्योंकि सेंट पीटर्सबर्ग जर्मन नाम था।
      • जारीना (ज़ार की पत्नी - महारानी) अलेक्सांद्रा के जर्मन मूल का होने और उसके घटिया सलाहकारों, खास तौर से रासपुतिन नामक एक संन्यासी ने राजशाही को और अलोकप्रिय बना दिया।
      • प्रथम विश्वयुद्ध के 'पूर्वी मोर्चे' पर चल रही लड़ाई 'पश्चिमी मोर्चे' की लड़ाई से भिन्न थी। पश्चिम में सैनिक पूर्वी फांस की सीमा पर बनी खाइयों से लड़ाई लड़ रहे थे जबकि पूर्वी मोर्चे पर सेना ने काफ़ी बड़ा फ़ासला तय कर लिया था।
      • सेना की पराजय ने रूसियों का मनोबल तोड़ दिया। 1914 से 1916 के बीच जर्मनी और ऑस्ट्रिया में रूसी सेनाओं को भारी पराजय झेलनी पड़ी।
      • 1917 तक 70 लाख लोग मारे जा चुके थे। पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में पड़ने वाली फ़सलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि दुश्मन की सेना वहाँ टिक ही न सके। फ़सलों और इमारतों के विनाश से रूस में 30 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थी हो गए।
      • इन हालात ने सरकार और ज़ार, दोनों को अलोकप्रिय बना दिया। सिपाही भी युद्ध से तंग आ चुके थे। अब वे लड़ना नहीं चाहते थे।
      • युद्ध से उद्योगों पर भी बुरा असर पड़ा। रूस के अपने उद्योग तो वैसे भी बहुत कम थे, अब तो बाहर से मिलने वाली आपूर्ति भी बंद हो गई क्योंकि बाल्टिक समुद्र में जिस रास्ते से विदेशी औद्योगिक सामान आते थे उस पर जर्मनी का कब्ज़ा हो चुका था।
      • यूरोप के बाकी देशों के मुकाबले रूस के औद्योगिक उपकरण ज़्यादा तेजी से बेकार होने लगे। 1916 तक रेलवे लाइनें टूटने लगीं। 
      • देश भर में मज़दूरों की कमी पड़ने लगी और ज़रूरी सामान बनाने वाली छोटी-छोटी वर्कशॉप्स ठप्प होने लगीं।
      • ज़्यादातर अनाज सैनिकों का पेट भरने के लिए मोर्चे पर भेजा जाने लगा। शहरों में रहने वालों के लिए रोटी और आटे की 1 किल्लत पैदा हो गई। 1916 की सर्दियों में रोटी की दुकानों पर अकसर दंगे होने लगे।
      पेट्रोगाड में फरवरी क्रांति
      • सन् 1917 की सर्दियों में राजधानी पेत्रोग्राद की हालत बहुत ख़राब थी। ऐसा लगता था मानो जनता में मौजूद भिन्नताओं को ध्यान में रखकर ही शहर की बनावट तय की गई थी।
      • मज़दूरों के क्वार्टर और कारखाने नेवा नदी के दाएँ तट पर थे। बाएँ किनारे पर फैशनेबल इलाके, विंटर पैलेस और सरकारी इमारतें थीं। जिस महल में ड्यूमा की बैठक होती थी वह भी इसी तरफ़ था।
      • फरवरी में मज़दूरों के इलाके में खाद्य पदार्थों की भारी कमी पैदा हो गई। उस साल ठंड भी कुछ ज्यादा पड़ी थी । भीषण कोहरा और बर्फबारी हुई थी।
      • संसदीय प्रतिनिधि चाहते थे कि निर्वाचित सरकार बची रहे इसलिए वह जार द्वारा ड्यूमा को भंग करने के लिए की जा रही कोशिशों का विरोध कर रहे थे।
      • 22 फरवरी को दाएँ तट पर स्थित एक फैक्ट्री में तालाबंदी घोषित कर दी गई। अगले दिन इस फैक्ट्री के मज़दूरों के समर्थन में पचास फैक्ट्रियों के मज़दूरों ने भी हड़ताल का एलान कर दिया।
      • बहुत सारे कारखानों में हड़ताल का नेतृत्व औरतें कर रही थीं। इसी दिन को बाद में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का नाम दिया गया। आंदोलनकारी जनता बस्ती पार करके राजधानी के बीचोंबीच नेस्की प्रोस्पेक्ट तक आ गई।
      • इस समय तक कोई राजनीतिक पार्टी आंदोलन को सक्रिय रूप से संगठित और संचालित नहीं कर रही थी। जब फ़ैशनेबल रिहायशी इलाकों और सरकारी इमारतों को मज़दूरों ने घेर लिया तो सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया।
      • शाम तक प्रदर्शनकारी तितर-बितर हो गए लेकिन 24 और 25 तारीख को वह फिर इकट्ठा होने लगे। सरकार ने उन पर नज़र रखने के लिए घुड़सवार सैनिकों और पुलिस को तैनात कर दिया।
      • रविवार, 25 फरवरी को सरकार ने ड्यूमा को बर्खास्त कर दिया। सरकार के इस फ़ैसले के खिलाफ़ राजनीतिज्ञ बयान देने लगे।
      • रोटी, तनख्वाह, काम के घंटों में कमी और लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में नारे लगाते असंख्य लोग सड़कों पर जमा हो गए।
      • सरकार ने स्थिति पर नियंत्रण कायम करने के लिए एक बार फिर घुड़सवार सैनिकों को तैनात कर दिया। लेकिन घुड़सवार सैनिकों की टुकड़ियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। गुस्साए सिपाहियों ने एक रेजीमेंट की बैरक में अपने ही एक अफ़सर पर गोली चला दी।
      • तीन दूसरी रेज़ीमेंटों ने भी बगावत कर दी और हड़ताली मज़दूरों के साथ आ मिले। उस शाम को सिपाही और मज़दूर एक सोवियत या 'परिषद्' का गठन करने के लिए उसी इमारत में जमा हुए जहाँ अब तक ड्यूमा की बैठक हुआ करती थी। यहीं से पेत्रोग्राद सोवियत का जन्म हुआ।
      • अगले दिन एक प्रतिनिधिमंडल ज़ार से मिलने गया। सैनिक कमांडरों ने उसे सलाह दी कि वह राजगद्दी छोड़ दे। उसने कमांडरों की बात मान ली और 2 मार्च को गद्दी छोड़ दी। सोवियत और ड्यूमा के नेताओं ने देश का शासन चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार बना ली।
      • चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाए। फरवरी 1917 में राजशाही को गद्दी से हटाने वाली क्रांति का झंडा पेत्रोग्राद की जनता के हाथों में था।
      फरवरी के बाद
      • अंतरिम सरकार में सैनिक अधिकारी, भूस्वामी और उद्योगपति प्रभावशाली थे। उनमें उदारवादी और समाजवादी जल्दी से जल्दी निर्वाचित सरकार का गठन चाहते थे।
      • जन सभा करने और संगठन बनाने पर लगी पाबंदी हटा ली गई। हालाँकि निर्वाचन का तरीका सब जगह एक जैसा नहीं था लेकिन पेत्रोग्राद सोवियत की तर्ज़ पर सब जगह 'सोवियतें ' बना ली गईं।
      • अप्रैल 1917 में बोल्शेविकों के निर्वासित नेता व्लादिमीर लेनिन रूस लौट आए। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक 1914 से ही युद्ध का विरोध कर रहे थे ।
      • अब सोवियतों को सत्ता अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। लेनिन ने बयान दिया कि युद्ध समाप्त किया जाए, सारी ज़मीन किसानों के हवाले की जाए और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए ।
      • इन तीन माँगों को लेनिन की 'अप्रैल थीसिस' के नाम से जाना जाता है। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि अब अपने रैडिकल उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए बोल्शेविक पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी रख दिया जाए।
      • बोल्शेविक पार्टी के ज़्यादातर लोगों को अप्रैल थीसिस के बारे में सुनकर काफ़ी हैरानी हुई। उन्हें लगता था कि अभी समाजवादी क्रांति के लिए सही वक्त नहीं आया है इसलिए फ़िलहाल अंतरिम सरकार को ही समर्थन दिया जाना चाहिए । लेकिन अगले कुछ महीनों की घटनाओं ने उनकी सोच बदल दी।
      • गर्मियों में मज़दूर आंदोलन और फैल गया। औद्योगिक इलाकों में फैक्ट्री कमेटियाँ बनाई गईं। इन कमेटियों के माध्यम से मज़दूर फैक्ट्री चलाने के मालिकों के तौर-तरीकों पर सवाल खड़ा करने लगे। ट्रेड यूनियनों की तादाद बढ़ने लगी। सेना में सिपाहियों की समितियाँ बनने लगीं।
      • जून में लगभग 500 सोवियतों ने अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में अपने प्रतिनिधि भेजे। जैसे-जैसे अंतरिम सरकार की ताकत कमज़ोर होने लगी और बोल्शेविकों का प्रभाव बढ़ने लगा, सरकार असंतोष को दबाने के लिए सख्त कदम उठाने लगी।
      • सरकार ने फैक्ट्रियाँ चलाने की मज़दूरों द्वारा की जा रही कोशिशों को रोकना और मज़दूरों के नेताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया।
      • जुलाई 1917 में बोल्शेविकों द्वारा आयोजित किए गए विशाल प्रदर्शनों का भारी दमन किया गया। बहुत सारे बोल्शेविक नेताओं को छिपना या भागना पड़ा।
      • गांवों में किसान और उनके समाजवादी क्रांतिकारी नेता भूमि पुनर्वितरण के लिए दबाव डालने लगे थे। इस काम के लिए भूमि समितियाँ बना दी गई थीं।
      • सामाजिक क्रांतिकारियों से प्रेरणा और प्रोत्साहन लेते हुए जुलाई से सितंबर के बीच किसानों ने बहुत सारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया।
      अक्टूबर 1917 की क्रांति
      • जैसे-जैसे अंतरिम सरकार और बोल्शेविकों के बीच टकराव बढ़ता गया, लेनिन को अंतरिम सरकार द्वारा तानाशाही थोप देने की आशंका दिखाई देने लगी।
      • सितंबर में उन्होंने सरकार के खिलाफ विद्रोह के बारे में चर्चा शुरू कर दी। सेना और फैक्ट्री सोवियतों में मौजूद बोल्शेविकों को इकट्ठा किया गया।
      • 16 अक्तूबर 1917 को लेनिन ने पेत्रोग्राद सोवियत और बोल्शेविक पार्टी को सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए राजी कर लिया। सत्ता पर कब्ज़े के लिए लियॉन ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में सोवियत की ओर से एक सैनिक क्रांतिकारी समिति का गठन किया गया। इस बात का खुलासा नहीं किया गया कि योजना को किस दिन लागू किया जाएगा।
      • 24 अक्तूबर को विद्रोह शुरू हो गया। संकट की आशंका को देखते हुए प्रधानमंत्री केरेंस्की सैनिक टुकड़ियों को इकट्ठा करने शहर से बाहर चले गए।
      • तड़के ही सरकार के वफ़ादार सैनिकों ने दो बोल्शेविक अखबारों के दफ्तरों पर घेरा डाल दिया। टेलीफ़ोन और टेलीग्राफ़ दफ्तरों पर नियंत्रण प्राप्त करने और विंटर पैलेस की रक्षा करने के लिए सरकार समर्थक सैनिकों को रवाना कर दिया गया।
      • पलक झपकते क्रांतिकारी समिति ने भी अपने समर्थकों को आदेश दे दिया कि सरकारी कार्यालयों पर कब्ज़ा कर लें और मंत्रियों को गिरफ्तार कर लें। 
      • उसी दिन ऑरोरा नामक युद्धपोत ने विंटर पैलेस पर बमबारी शुरू कर दी। अन्य युद्धपोतों ने नेवा के रास्ते से आगे बढ़ते हुए विभिन्न सैनिक ठिकानों को अपने नियंत्रण में ले लिया।
      • शाम ढलते-ढलते पूरा शहर क्रांतिकारी समिति के नियंत्रण में आ चुका था और मंत्रियों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। पेत्रोग्राद में अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस की बैठक हुई जिसमें बहुमत ने बोल्शेविकों की कार्रवाई का समर्थन किया।
      • अन्य शहरों में भी बगावतें होने लगीं। दोनों तरफ से जमकर गोलीबारी हुई, खास तौर से मास्को में, लेकिन दिसंबर तक मास्को- पेत्रोग्राद इलाके पर बोल्शेविकों का नियंत्रण स्थापित हो चुका था।
      अक्तूबर के बाद परिवर्तन
      • बोल्शेविक निजी संपत्ति की व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ थे। ज्यादातर उद्योगों और बैंकों का नवंबर 1917 में ही राष्ट्रीयकरण किया जा चुका था। उनका स्वामित्व और प्रबंधन सरकार के नियंत्रण में आ चुका था। ज़मीन को सामाजिक संपत्ति घोषित कर दिया गया।
      • किसानों को सामंतों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करने की खुली छूट दे दी गई। शहरों में बोल्शेविकों ने मकान मालिकों के लिए पर्याप्त हिस्सा छोड़कर उनके बड़े मकानों के छोटे-छोटे हिस्से कर दिए ताकि बेघरबार या ज़रूरतमंद लोगों को भी रहने की जगह दी जा सके। उन्होंने अभिजात्य वर्ग द्वारा पुरानी पदवियों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी।
      • परिवर्तन को स्पष्ट रूप से सामने लाने के लिए सेना और सरकारी अफ़सरों की वर्दियाँ बदल दी गई। इसके लिए 1918 में एक परिधान प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसमें सोवियत टोपी (बुदियोनोव्का) का चुनाव किया गया।
      • बोल्शेविक पार्टी का नाम बदल कर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) रख दिया गया। नवंबर 1917 में बोल्शेविकों ने संविधान सभा के लिए चुनाव कराए लेकिन इन चुनावों में उन्हें बहुमत नहीं मिल पाया।
      • जनवरी 1918 में असेंबली ने बोल्शेविकों के प्रस्तावों को खारिज कर दिया और लेनिन ने असेंबली बर्खास्त कर दी। उनका मत था कि अनिश्चित परिस्थितियों में चुनी गई असेंबली के मुकाबले अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक संस्था है |
      • मार्च 1918 में अन्य राजनीतिक सहयोगियों की असहमति के बावजूद बोल्शेविकों ने ब्रेस्ट लिटोव्स्क में जर्मनी से संधि कर ली। आने वाले सालों में बोल्शेविक पार्टी अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस के लिए होने वाले चुनावों में हिस्सा लेने वाली एकमात्र पार्टी रह गई।
      • अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस को अब देश की संसद का दर्जा दे दिया गया था। रूस एक दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाला देश बन गया।
      • ट्रेड यूनियनों पर पार्टी का नियंत्रण रहता था। गुप्तचर पुलिस (जिसे पहले चेका और बाद में ओजीपीयू तथा एनकेवीडी का नाम दिया गया) बोल्शेविकों की आलोचना करने वालों को दंडित करती थी।
      • बहुत सारे युवा लेखक और कलाकार भी पार्टी की तरफ़ हुए क्योंकि वह समाजवाद और परिवर्तन के प्रति समर्पित थी। अक्तूबर 1917 के बाद ऐसे कलाकारों और लेखकों ने कला और वास्तुशिल्प के क्षेत्र में नए प्रयोग शुरू किए। लेकिन पार्टी द्वारा थोपी गई सेंसरशिप के कारण बहुत सारे लोगों का पार्टी से मोह भंग भी होने लगा था।
      गृह युद्ध
      • जब बोल्शेविकों ने ज़मीन के पुनर्वितरण का आदेश दिया तो रूसी सेना टूटने लगी। ज्यादातर सिपाही किसान थे। वे भूमि पुनर्वितरण के लिए घर लौटना चाहते थे इसलिए सेना छोड़कर जाने लगे।
      • गैर-बोल्शेविक समाजवादियों, उदारवादियों और राजशाही के समर्थकों ने बोल्शेविक विद्रोह की निंदा की। उनके नेता दक्षिणी रूस में इकट्ठा होकर बोल्शेविकों ('रेड्स') से लड़ने के लिए टुकड़ियाँ संगठित करने लगे।
      • 1918 और 1919 में रूसी साम्राज्य के ज़्यादातर हिस्सों पर सामाजिक क्रांतिकारियों ('ग्रीन्स') और ज़ार- समर्थकों ('व्हाइट्स') का ही नियंत्रण रहा। उन्हें फ्रांसीसी, अमेरिकी. ब्रिटिश और जापानी टुकड़ियों का भी समर्थन मिल रहा था।
      • ये सभी शक्तियाँ रूस में समाजवाद को फलते-फूलते नहीं देखना चाहती थीं। इन टुकड़ियों और बोल्शेविकों के बीच चले गृह युद्ध के दौरान लूटमार, डकैती और भुखमरी जैसी समस्याएँ बड़े पैमाने पर फैल गई।
      • 'व्हाइट्स' में जो निजी संपत्ति के हिमायती थे उन्होंने ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले किसानों के खिलाफ़ काफ़ी सख्त रवैया अपनाया। उनकी इन हरकतों के कारण तो गैर-बोल्शेविकों के प्रति जनसमर्थन और भी तेजी से घटने लगा।
      • जनवरी 1920 तक भूतपूर्व रूसी साम्राज्य के ज़्यादातर हिस्सों पर बोल्शेविकों का नियंत्रण कायम हो चुका था। उन्हें गैर-रूसी राष्ट्रवादियों और मुस्लिम जदीदियों की मदद से यह कामयाबी मिली थी।
      • जहाँ रूसी उपनिवेशवादी ही बोल्शेविक विचारधारा के अनुयायी बन गए थे, वहाँ यह मदद काम नहीं आ सकी। मध्य एशिया स्थित खीवा में बोल्शेविक उपनिवेशकों ने समाजवाद की रक्षा के नाम पर स्थानीय राष्ट्रवादियों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया। ऐसे हालात में बहुत सारे लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि बोल्शेविक सरकार क्या चाहती है।
      • आंशिक रूप से इसी समस्या से निपटने के लिए ज्यादातर गैर-रूसी राष्ट्रीयताओं को सोवियत संघ (यूएसएसआर) - दिसंबर 1922 में रूसी साम्राज्य में से बोल्शेविकों द्वारा स्थापित किया गया राज्य के अंतर्गत राजनीतिक स्वायत्तता दें दी गई ।
      • बोल्शेविकों ने स्थानीय सरकारों पर कई अलोकप्रिय और सख्त नीतियाँ - जैसे, घुमंतूवाद की रोकथाम की कड़ी कोशिशें थोप दी थीं इसलिए विभिन्न राष्ट्रीयताओं का विश्वास जीतने के प्रयास आंशिक रूप से ही सफल हो पाए।
      समाजवादी समाज का निर्माण
      • गृह युद्ध के दौरान बोल्शेविकों ने उद्योगों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण को जारी रखा। उन्होंने किसानों को उस ज़मीन पर खेती की छूट दे दी जिसका समाजीकरण किया जा चुका था। ज़ब्त किए गए खेतों का इस्तेमाल बोल्शेविक यह दिखाने के लिए करते थे कि सामूहिकता क्या होती है।
      • शासन के लिए केंद्रीकृत नियोजन की व्यवस्था लागू की गई। अधिकारी इस बात का हिसाब लगाते थे कि अर्थव्यवस्था किस तरह काम कर सकती है। इस आधार पर वे पाँच साल के लिए लक्ष्य तय कर देते थे।
      • इसी आधार पर उन्होंने पंचवर्षीय योजनाएँ बनानी शुरू कीं। पहली दो 'योजनाओं' (1927-1932 और 1933-1938) के दौरान औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सभी तरह की कीमतें स्थिर कर दीं।
      • केंद्रीकृत नियोजन से आर्थिक विकास को काफी गति मिली। औद्योगिक उत्पादन बढ़ने लगा (1929 से 1933 के बीच तेल, कोयले और स्टील के उत्पादन में 100 प्रतिशत वृद्धि हुई ) । नए-नए औद्योगिक शहर अस्तित्व में आए।
      • मगर, तेज निर्माण कार्यों के दबाव में कार्यस्थितियाँ खराब होने लगीं। मैग्नीटोगोर्स्क शहर में एक स्टील संयंत्र का निर्माण कार्य तीन साल के भीतर पूरा कर लिया गया। इस दौरान मज़दूरों को बड़ी सख्त जिंदगी गुजारनी पड़ी।
      स्तालिनवाद और सामूहिकीकरण
      • नियोजित अर्थव्यवस्था का शुरुआती दौर खेती के सामूहिकीकरण • से पैदा हुई तबाही से जुड़ा हुआ था। 1927-1928 के आसपास रूस के शहरों में अनाज का भारी संकट पैदा हो गया था।
      • सरकार ने अनाज की कीमत तय कर दी थी। उससे ज्यादा कीमत पर कोई अनाज नहीं बेच सकता था। लेकिन किसान उस कीमत पर सरकार को अनाज बेचने के लिए तैयार नहीं थे।
      • लेनिन के बाद पार्टी की कमान संभाल रहे स्तालिन ने स्थिति से निपटने के लिए कड़े कदम उठाए। उन्हें लगता था कि अमीर किसान और व्यापारी कीमत बढ़ने की उम्मीद में अनाज नहीं बेच रहे हैं।
      • स्थिति पर काबू पाने के लिए सट्टेबाज़ी पर अंकुश लगाना और व्यापारियों के पास जमा अनाज को जब्त करना ज़रूरी था। 1928 में पार्टी के सदस्यों ने अनाज उत्पादक इलाकों का दौरा किया।
      • किसानों से जबरन अनाज खरीदा और 'कुलकों' के ठिकानों पर छापे मारे। रूस में संपन्न किसानों को कुलक कहा जाता था। जब इसके बाद भी अनाज की कमी बनी रही तो खेतों के सामूहिकीकरण का फैसला लिया गया।
      • 1917 के बाद ज़मीन किसानों को सौंप दी गई थी। फलस्वरूप ज़्यादातर किसानों के पास छोटे खेत थे जिनका आधुनिकीकरण नहीं किया जा सकता था।
      • आधुनिक खेत विकसित करने और उन पर मशीनों की सहायता से औद्योगिक खेती करने के लिए 'कुलकों का सफाया' करना, *किसानों से ज़मीन छीनना और राज्य नियंत्रित यानी सरकारी नियंत्रण वाले विशालकाय खेत बनाना ज़रूरी माना गया।
      • इसी के बाद स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम शुरू हुआ। 1929 से पार्टी ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों (कोलखोज) में काम करने का आदेश जारी कर दिया। ज़्यादातर ज़मीन और साजो-सामान सामूहिक खेतों के स्वामित्व में सौंप दिए गए।
      • सभी किसान सामूहिक खेतों पर काम करते थे और कोलखोज़ के मुनाफ़े को सभी किसानों के बीच बाँट दिया जाता था।
      • इस फैसले से गुस्साए किसानों ने सरकार का विरोध किया और वे अपने जानवरों को खत्म करने लगे।
      • 1929 से 1931 के बीच मवेशियों की संख्या में एक-तिहाई कमी आ गई। सामूहिकीकरण का विरोध करने वालों को सख्त सज़ा दी जाती थी। बहुत सारे लोगों को निर्वासन या देश निकाला दे दिया गया।
      • सामूहिकीकरण का विरोध करने वाले किसानों का कहना था कि वे न तो अमीर हैं और न ही समाजवाद के विरोधी हैं। वे बस विभिन्न कारणों से सामूहिक खेतों पर काम नहीं करना चाहते थे।
      • स्तालिन सरकार ने सीमित स्तर पर स्वतंत्र किसानी की व्यवस्था भी जारी रहने दी लेकिन ऐसे किसानों को कोई खास मदद नहीं दी जाती थी।
      • सामूहिकीकरण के बावजूद उत्पादन में नाटकीय वृद्धि नहीं हुई। बल्कि 1930-1933 की खराब फसल के बाद तो सोवियत • इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा जिसमें 40 लाख से ज्यादा लोग मारे गए।
      • पार्टी में भी बहुत सारे लोग नियोजित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत औद्योगिक उत्पादन में पैदा हो रहे भ्रम और सामूहिकीकरण के परिणामों की आलोचना करने लगे थे। स्तालिन और उनके सहयोगियों ने ऐसे आलोचकों पर समाजवाद के खिलाफ़ साजिश रचने का आरोप लगाया।
      • देश भर में बहुत सारे लोगों पर इसी तरह के आरोप लगाए गए और 1939 तक आते-आते 20 लाख से ज्यादा लोगों को या तो जेलों में या श्रम शिविरों में भेज दिया गया था। ज़्यादातर लोगों ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया था लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं था।
      • बहुत सारे लोगों को यातनाएँ दे-देकर उनसे इस आशय के बयान लिखवा लिए गए कि उन्होंने समाजवाद के विरुद्ध साजिश में हिस्सा लिया है और इसी आधार पर उन्हें मार दिया गया। इनमें कई प्रतिभावान पेशेवर लोग थे।
      रूसी क्रांति के परिणाम / प्रभाव:-
      • 1917 की रूसी क्रांति 20 वी सदी पूर्वार्ध की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना जिसका प्रभाव ना केवल रूस बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दूरगामी प्रभाव पड़ा।
      जारशाही की समाप्ति
      • रूसी क्रांति ने निरंकुश और प्रतिक्रियावादी जारशाही को समाप्त कर दिया किसानों के नेतृत्व में समाजवादी शासन व्यवस्था की स्थापना की।
      अनेक राजवंश का अंत
      • रूस में चले आ रहे पिछले 300 वर्षों से स्थापित रोमानोव राजवंश का अंत कर दिया इस क्रांति की सफलता ने यूरोप में जो राजनीतिक चेतना उत्पन्न कि उसे राजतंत्र विरोधी भावनाएं और अधिक प्रबल हुई।
      • जिसमें विश्व के अनेक देशों में कई राज्यों का अंत हुआ जैसे ऑस्ट्रिया हंगरी में हेप्सवर्ग राज वंश का अंत तुर्की में युवा तुर्क आंदोलन जिसने खलीफा के सत्ता की समाप्ति ।
      • प्रथम विश्व युद्ध में रूस का हटना ख्र प्रथम विश्व युद्ध रूसी क्रांति का तत्कालीन कारण सिद्ध हुआ था। जारशाही का अंत कर जो बोल्शेविक सरकार सत्ता में आई उसने 1918 मैं जर्मनी के साथ बेस्टलितोवस्की की संधि की और रूस को युद्ध से अलग किया।
      • समाजवादी विचारधारा का प्रचार ख्र 1917 की बोल्शेविक क्रांति की सफलता ने मार्क्सवादी विचारधारा को साकार रूप दिया जिसमें साम्राज्यवाद का व्यवहारिक रूप सामने आया है।
      • यह विचारधारा किसानों मजदूरों तथा दलितों में बहुत लोकप्रिय हुई। रूस में सफलता के बाद यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित होने लगी इसी के लिए 1919 में प्रथम कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना की गई। चीन में माओ तसे तुंग तथा वियतनाम के होम ची मिन्ह के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है।
      उपनिवेशवाद से मुक्ति
      • ऑप्नेवेशिक साम्रज्यवाद का मुख्य उद्देश्य अपने अधीन राष्ट्रों का शोषण करना था तथा इस ने उपनिवेश के निवासियों को प्रजातात्रिक व नागरिक अधिकारों से वंचित किया हुआ था।
      • बोल्शेविक क्रांति ने समाजवादी शक्तियों के विरुद्ध ना केवल स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया बल्कि उनका समर्थन भी किया भारत सहित एशिया और अफ्रीका के सभी देशों में सोवियत संघ को अपना मित्र और समर्थक समझा जाने लगा ।
      • विश्व का दो वैचारिक गुटों में बंटना ख्र बोल्शेविक क्रांति से पूर्व विश्व में राष्ट्रवाद तथा उपनिवेशवाद का बोलबाला था किंतु क्रांति के बाद रूस में समाजवादी सरकार की स्थापना से पूंजीवाद विचारधारा को ठेस लगी और विश्व दो गुटों में विभाजित हो गया ।
      आर्थिक समानता
      • आर्थिक समानता का जन्म क्रांति के बाद उत्पादन के साधनों कारखानों भूमि आदि का समाजीकरण हो गया जमींदारों कुलीनो सामंतों पूजी पतियों का विशेषाधिकार समाप्त हो गया।
      • रूस का आर्थिक व औद्योगिक विकास क्रांति के बाद निजी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण बिना मुवावजे के किया गया और कारखानों पर श्रमिकों के स्वामित्व को लागू किया गया।
      • इससे ना केवल कामगारों और मजदूरों का मनोबल बढ़ा बल्कि उत्पादन की प्रक्रिया पर सार्वजनिक नियंत्रण स्थापित किया जा सका। इससे रूस का स्वतंत्र औद्योगिक आर्थिक विकास हुआ।
      नियोजित अर्थव्यवस्था का विकास
      • रूस ने नियोजित अर्थव्यवस्था को अपनाया जिससे उनके आर्थिक विकास में तीव्र वृद्धि हुई और इसी के बल पर वह 1929 की आर्थिक मंदी के दुष्प्रभाव से आगे चलकर भारत सहित अनेक देशों ने अपने आर्थिक विकास के लिए नियोजित अर्थव्यवस्था को अपनाया।
      • किसान और मजदूरों के जीवन स्तर में सुधार क्रांति के बाद श्रमिकों की बिचौलियों के चंगुल से मुक्त कर के श्रम के अनुपात में वेतन की सुविधा उपलब्ध कराई गई प्रत्येक व्यक्ति को काम देना राज्य का कर्तव्य बन गया शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार की सुनिश्चितता ने मेहनतकश वर्ग को नई स्फूर्ति प्रदान की।
      • वर्ग भेद की समाप्ति क्रांति के बाद विशेषाधिकार समाप्त किए गए कुल, वंश, लिंग, नस्ल, धर्म और जाति भेद किए बिना रूस के सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले इससे समानता का लाभ सामाजिक आर्थिक राजनीतिक शैक्षणिक आदि क्षेत्रों में समान अवसर के रूप में संपूर्ण समाज को मिलने लगा।
      • धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा क्रांति के बाद रूस में सभी ध र्मों को समानता का दर्जा दिया गया राज्य का धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं रहा नागरिकों को पूरी स्वतंत्रता दी गई किसी भी धर्म के पालन की।
      • महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन रूसी महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आया अधिक संतान पैदा करने वाली महिलाओं को सम्मानित किया जाने लगा।
      • खेत खलियान में ही नहीं कारखानों व प्रयोगशालाओं में भी रूसी महिला पुरुषों के समक्ष कार्य करने लगी। मताधि कार शिक्षा तथा रोजगार में उन्हें पुरुषों के समान अधि कार दिए गए।
      बोल्शेविक मैनशेविक में अंतर
      • सोशियल डेमोक्रेटिक पार्टी 1898 तथा सोशल रिवॉल्यूशनरी पार्टी 1902 में स्थापना हुई। सोशल रिवॉल्यूशनरी पार्टी किसानों को संगठित कर क्रांति लाना चाहती थी, जबकि सोशियल डेमोक्रेटिक पार्टी सर्वहारा वर्ग को संगठित कर क्रांति कर सुधार मानते थे। कृषको को नहीं। सोशियल डेमोक्रेटिक पार्टी 1903 में दो वर्गों में विभाजित हो गई
      • बोल्शेविक जो बहुमत में था और क्रांति का रास्ता अपनाकर मजदूरों का शासन स्थापित करना चाहता था बोल्शेविक का प्रमुख नेता लेनिन था।
      • मेनशेविक जो अल्पमत में था यह मार्क्स के सिद्धांतों में तो विश्वास करते थे लेकिन उनके साधनों में नहीं । यह परिवर्तन चाहते थे और देश के क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे।
      • शिक्षा से धर्म का नियंत्रण समाप्त हुआ तथा उसमें वैज्ञानिक मूल्य समाहित हुए समाजोपयोगी शिक्षा का विस्तार प्राथमिक माध्यमिक उच्च स्तर पर तीव्र गति से हुआ 8 वीं तक शिक्षा निशुल्क व अनिवार्य कर दी गई ।
      रूसी क्रांति और सोवियत संघ का वैश्विक प्रभाव
      • बोल्शेविकों ने जिस तरह सत्ता पर कब्ज़ा किया था और जिस तरह उन्होंने शासन चलाया उसके बारे में यूरोप की समाजवादी पार्टियाँ बहुत सहमत नहीं थीं। लेकिन मेहनतकशों के राज्य की स्थापना की संभावना ने दुनिया भर के लोगों में एक नई उम्मीद जगा दी थी।
      • बहुत सारे देशों कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया जैसे, इंग्लैंड में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन की स्थापना की गई। बोल्शेविकों ने उपनिवेशों की जनता को भी उनके रास्ते का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया।
      • सोवियत संघ के अलावा भी बहुत सारे देशों के प्रतिनिधियों ने कॉन्फ्रेस आफ़ेद पीपुल ऑफ़ दि ईस्ट (1920) और बोल्शेविकों द्वारा बनाए गए कॉमिन्टर्न (बोल्शेविक समर्थक समाजवादी पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय महासंघ) में हिस्सा लिया था।
      • कुछ विदेशियों को सोवियत संघ की कम्युनिस्ट युनिवर्सिटी ऑफ़ द वर्कर्स ऑफ़ दि ईस्ट में शिक्षा दी गई।
      • जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ तब तक सोवियत संघ की वजह से समाजवाद को एक वैश्विक पहचान और हैसियत मिल चुकी थी। पचास के दशक तक देश के भीतर भी लोग यह समझने लगे थे कि सोवियत संघ की शासन शैली रूसी क्रांति के आदर्शों के अनुरूप नहीं है।
      • विश्व समाजवादी आंदोलन में भी इस बात को मान लिया गया था कि सोवियत संघ में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। एक पिछड़ा हुआ देश महाशक्ति बन चुका था।
      विश्व पर प्रभाव
      • विश्व में साम्य वादी विचारों का प्रसार हुआ अनेक देशों में साम्यवादी सरकार स्थापित हुई।
      • श्रमिकों के प्रति नया दृष्टिकोण श्रम की महता तथा उसके पारिश्रमिक के न्याय पूर्ण वितरण का प्रयास |
      • अनेक देशों में श्रमिक संगठनों की स्थापना व आंदोलनों का विकास जैसे आईएलओ की स्थापना ।
      • अर्थव्यवस्था में आर्थिक नियोजन प्रणाली की शुरुआत।
      • विश्व का दो गुटों में विभाजन जो शीत युद्ध का कारण बना।
      • रूसी क्रांति से प्रेरित होने वालों में बहुत सारे भारतीय भी थे। उनमें से कई ने कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की।
      • 1920 के दशक में भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर लिया गया। इस पार्टी के सदस्य सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में रहते थे।
      • कई महत्त्वपूर्ण भारतीय राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तियों ने सोवियत प्रयोग में दिलचस्पी ली और वहाँ का दौरा किया।
      • रूस जाने वाले भारतीयों में जवाहर लाल नेहरू और रबीन्द्रनाथ टैगोर भी थे जिन्होंने सोवियत समाजवाद के बारे में लिखा भी।
      • भारतीय लेखन में सोवियत रूस की अलग-अलग छवियाँ दिखाई देती थीं ।
      रूसी क्रांति से जुड़े तथ्य और जानकारियां 
      • 1917 में दो क्रांतियों ने रूस को पूरी तरह से बदल दिया है। सबसे पहले, फरवरी हुई रूसी क्रांति ने रूसी राजशाही को गिरा दिया और एक अस्थायी सरकार की स्थापना की।
      • फिर अक्टूबर में, एक दूसरे रूसी क्रांति में नेताओं के रूप में बोल्शेविक रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप दुनिया के पहले कम्युनिस्ट देश के निर्माण हुआ।
      • 1917 में दो क्रांतियों ने रूस को पूरी तरह से बदल दिया है। सबसे पहले, फरवरी में हुई रूसी क्रांति ने रूसी राजशाही को गिरा दिया और एक अस्थायी सरकार की स्थापना की।
      • फिर अक्टूबर में एक दूसरे रूसी क्रांति में नेताओं के रूप में बोल्शेविक रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप दुनिया के पहले कम्युनिस्ट देश के निर्माण हुआ। रूसी क्रांति से जुड़े तथ्य इस प्रकार हैं:
      • समाजवादी शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले रोबर्ट ओवेन ने किया।
      • आदर्शवादी समाजवाद का प्रवक्ता रॉबर्ट ओवेन को माना जाता है।
      • वैज्ञानिक समाजवाद का संस्थापक कार्ल मार्क्स (जर्मनी) था।
      • दास कैपिटल और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो नामक पुस्तक काल मार्क्स ने लिखी थी।
      • फ्रांसीसी साम्यवाद का जनक सेंट साइमन को माना जाता है।
      • फेबियन सोशसलिज्म का नेतृत्व जॉर्ज बर्नाड शॉ ने किया।
      • लंदन में फेबियन सोसाइटी की स्थापना 1884 ई. में हुई।
      • दुनिया के मजदूरों एक हों- ये नारा कार्ल मार्क्स ने दिया।
      • रूस के शासक को जार कहा जाता था।
      • जाराशाही व्यकवस्था 1917 ई. में समाप्त हुई।
      • जार मुक्तिदाता के नाम से एलेक्सजेंडर द्वितीय को माना जाता है।
      • रूस का अंतिम जार जार निकोलस द्वितीय था। 
      • रूस की क्रांति 1917 ई. में हुई। 
      • 1917 की क्रांति का तात्कालिक कारण प्रथम विश्वयुद्ध में रूस की पराजय था। 
      • वोल्शेविक की क्रांति 7 नवंबर 1917 ई. में हुई थी। 
      • वोल्शेविक क्रांति का नेता लेनिन था। 
      • लेनिन ने चेका का संगठन किया था। 
      • लाल सेना का संगठन ट्राटस्की ने किया। 
      • एक जार, एक चर्च और रूस का नारा जार निकोलस द्वि तीय ने दिया।
      • रूस के जार शासक एलेक्स जेंडर द्वितीय की हत्या बम विस्फोट से हुई।
      • रूस में सबसे अधिक जनसंख्या स्लाव लोगों की थी ।
      • अन्ना कैरेनिना के लेखक लीयो टाल्सटॉय थे।
      • शून्यवाद का जनक इवान को माना जाता है।
      • रूसी साम्यवाद का जनक प्लेखानोवा को माना जाता है।
      • सोशल डेमोक्रेटिक दल की स्थापना 1903 ई. में रूस में हुई।
      • लेनिन ने रूस में 16 अप्रैल 1917 ई. में क्रांतिकारी योजना प्रकाशित की।
      • इस योजना को अप्रैल थीसिस के नाम से जाना गया। 
      • रूस में नई आर्थिक नीति लेनिन ने 1921 ई. में लागू किया। 
      • आधुनिक रूस का निर्माता स्टालिन को माना जाता है। 
      • लेनिन की मृत्युं 1924 ई. में हुई। 
      • राइट्स ऑफ मैन के लेखक टामस पेन है। 
      • मदर की रचना मैक्सिम गोर्की ने की। 
      • स्थायी क्रांति के सिद्धांत का प्रवर्तक ट्राटस्की था। 
      • प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लेनिन का नारा युद्ध का अंत करो था। 
      • कार्ल मार्क्स का आजीवन साथी फ्रेडरिक एंजेल्स रहा।
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      Sat, 25 Nov 2023 10:17:28 +0530 Jaankari Rakho
      BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में फ्रांसीसी समाज https://m.jaankarirakho.com/473 https://m.jaankarirakho.com/473 BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में फ्रांसीसी समाज
      • सन् 1774 में बूब राजवंश का लुई XVI फ्रांस की राजगद्दी पर आसीन हुआ। उस समय उसकी उम्र केवल बीस साल थी और उसका विवाह ऑस्ट्रिया की राजकुमारी मेरी एन्तोएनेत से हुआ था।
      • राज्यारोहण के समय उसने राजकोष खाली पाया। लंबे समय तक चले युद्धों के कारण फ्रांस के वित्तीय संसाधन नष्ट हो चुके थे।
      • लुई XVI के शासनकाल में फ्रांस ने अमेरिका के 13 उपनिवेशों को साझा शत्रु ब्रिटेन से आज़ाद कराने में सहायता दी थी। युद्ध के चलते फ़्रांस पर दस अरब लिव्रे से भी अधिक का कर्ज और जुड़ गया
      • सरकार से कर्जदाता अब 10 प्रतिशत ब्याज की माँग करने लगे थे। फलस्वरूप फ्रांसीसी सरकार अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा दिनोंदिन बढ़ते जा रहे कर्ज को चुकाने पर मजबूर थी ।
      • अपने नियमित खर्चों जैसे, सेना के रख-रखाव, राजदरबार, सरकारी कार्यालयों या विश्वविद्यालयों को चलाने के लिए फ्रांसीसी सरकार करों में वृद्धि के लिए बाध्य हो गई पर यह कदम भी नाकाफ़ी था।
      • अठारहवीं सदी में फ्रांसीसी समाज तीन एस्टेट्स में बँटा था और केवल तीसरे एस्टेट के लोग (जनसाधारण) ही कर अदा करते थे।
      • प्राचीन राजतंत्र पद का प्रयोग सामान्यतः सन् 1789 से पहले के फ्रांसीसी समाज एवं संस्थाओं के लिए होता है।
      • पूरी आबादी में लगभग 90 प्रतिशत किसान थे। लेकिन, ज़मीन के मालिक किसानों की संख्या बहुत कम थी। लगभग 60 प्रतिशत ज़मीन पर कुलीनों, चर्च और तीसरे एस्टेट्स के अमीरों का अधिकार था।
      • प्रथम दो एस्टेट्स, कुलीन वर्ग एवं पादरी वर्ग के लोगों को कुछ विशेषाधिकार जन्मना प्राप्त थे। इनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषाधिकार था -राज्य को दिए जाने वाले करों से छूट।
      • कुलीन वर्ग को कुछ अन्य सामंती विशेषाधिकार भी हासिल थे। वह किसानों से सामंती कर वसूल करता था।
      • किसान अपने स्वामी की सेवा - स्वामी के घर एवं खेतों में काम करना, सैन्य सेवाएँ देना अथवा सड़कों के निर्माण में सहयोग आदि करने के लिए बाध्य थे।
      • चर्च भी किसानों से करों का एक हिस्सा, टाइद (धार्मिक कर) के रूप में वसूलता था। तीसरे एस्टेट के तमाम लोगों को सरकार को तो कर चुकाना ही होता था।
      • करों में टाइल जैसे प्रत्यक्ष कर सहित और अनेक अप्रत्यक्ष कर शामिल थे। अप्रत्यक्ष कर नमक और तम्बाकू जैसी रोज़ाना उपभोग की वस्तुओं पर लगाया जाता था।
      • राज्य के वित्तीय कामकाज का सारा बोझ करों के माध्यम से जनता वहन करती थी।
      उभरते मध्य वर्ग ने विशेषाधिकारों के अंत की कल्पना की
      • अठारहवीं सदी में एक नए सामाजिक समूह का उदय हुआ जिसे मध्य वर्ग कहा गया, जिसने फैलते समुद्रपारीय व्यापार और ऊनी तथा रेशमी वस्त्रों के उत्पादन के बल पर संपत्ति अर्जित की थी। ऊनी और रेशमी कपड़ों का या तो निर्यात किया जाता था या समाज के समृद्ध लोग उसे खरीद लेते थे।
      • तीसरे एस्टेट में इन सौदागरों एवं निर्माताओं के अलावा प्रशासनिक सेवा व वकील जैसे पेशेवर लोग भी शामिल थे। ये सभी पढ़े-लिखे थे और इनका मानना था कि समाज के किसी भी समूह के पास जन्मना विशेषाधिकार नहीं होने चाहिए। किसी भी व्यक्ति की सामाजिक हैसियत का आधार उसकी योग्यता ही होनी चाहिए।
      • स्वतंत्रता, समान नियमों तथा समान अवसरों के विचार पर आधारित समाज की यह परिकल्पना जॉन लॉक और ज्याँ ज़ाक रूसो जैसे दार्शनिकों ने प्रस्तुत की थी।
      • अपने टू ट्रीटाइज़ेज़ ऑफ़ गवर्नमेंट में लॉक ने राजा के दैवी और निरंकुश अधिकारों के सिद्धांत का खंडन किया था।
      • रूसो ने जनता और उसके प्रतिनिधियों के बीच एक सामाजिक अनुबंध पर आधारित सरकार का प्रस्ताव रखा।
      • मॉन्टेस्क्यू ने द स्पिरिट ऑफ़ द लॉज़ नामक रचना में सरकार के अंदर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता विभाजन की बात कही।
      • संयुक्त राज्य अमेरिका में 13 उपनिवेशों ने ब्रिटेन से खुद को आज़ाद घोषित कर दिया तो वहाँ इसी मॉडल की सरकार बनी।
      • फ्रांस के राजनीतिक चिंतकों के लिए अमेरिकी संविधान और उसमें दी गई व्यक्तिगत अधिकारों की गारंटी प्रेरणा का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत थी।
      • लुई XVI द्वारा राज्य के खर्चों को पूरा करने के लिए फिर से कर लगाये जाने की खबर से विशेषाधिकार वाली व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा भड़क उठा।
      क्रांति की शुरुआत
      • प्राचीन राजतंत्र के तहत फ्रांसीसी सम्राट अपनी मर्जी से कर नहीं लगा सकता था। इसके लिए उसे एस्टेट्स जेनराल (प्रतिनिधि सभा) की बैठक बुला कर नए करों के अपने प्रस्तावों पर मंजूरी लेनी पड़ती थी।
      • एस्टेट्स जेनराल एक राजनीतिक संस्था थी जिसमें तीनों अपने-अपने प्रतिनिधि भेजते थे। लेकिन सम्राट ही यह निर्णय करता था कि इस संस्था की बैठक कब बुलाई जाए। इसकी अंतिम बैठक सन् 1614 में बुलाई गई थी।
      • फ्रांसीसी सम्राट लुई सोलहवें ने 5 मई 1789 को नये करों के प्रस्ताव के अनुमोदन के लिए एस्टेट्स जेनराल की बैठक बुलाई।
      • पहले और दूसरे एस्टेट ने इस बैठक में अपने 300-300 प्रतिनिधि भेजे जो आमने-सामने की कतारों में बिठाए गए।
      • तीसरे एस्टेट के 600 प्रतिनिधि उनके पीछे खड़े किए गए। तीसरे एस्टेट का प्रतिनिधित्व इसके अपेक्षाकृत समृद्ध एवं शिक्षित वर्ग कर रहे थे।
      • किसानों, औरतों एवं कारीगरों का सभा में प्रवेश वर्जित था। फिर भी लगभग 40,000 पत्रों के माध्यम से उनकी शिकायतों एवं माँगों की सूची बनाई गई, जिसे प्रतिनिधि अपने साथ लेकर आए थे।
      • एस्टेट्स जनरल के नियमों के अनुसार प्रत्येक वर्ग को एक मत देने का अधिकार था। इस बार भी लुई सोलहवाँ इसी प्रथा का पालन करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ था।
      • तीसरे वर्ग के प्रतिनिधियों ने माँग रखी कि अबकी बार पूरी सभा द्वारा मतदान कराया जाना चाहिए, जिसमें प्रत्येक सदस्य को एक मत देने का अधिकार होगा।
      • यह एक लोकतांत्रिक सिद्धांत था जिसे मिसाल के तौर पर रूसो ने अपनी पुस्तक द सोशल कॉन्ट्रैक्ट में प्रस्तुत किया था।
      • सम्राट ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। तीसरे एस्टेट के प्रतिनिधि विरोध जताते हुए सभा से बाहर चले गए।
      • तीसरे एस्टेट के प्रतिनिधि खुद को संपूर्ण फ्रांसीसी राष्ट्र का प्रवक्ता मानते थे। 20 जून को ये प्रतिनिधि वर्साय के इन्डोर टेनिस कोर्ट में जमा हुए। अपने आप को नैशनल असेंबली घोषित कर दिया और शपथ ली कि जब तक सम्राट की शक्तियों को कम करने वाला संविधान तैयार नहीं किया जाएगा तब तक असेंबली भंग नहीं होगी।

      राजनैतिक कारण

      i. निरंकुश राजतंत्र
      • राजतंत्र की निरंकुशता फ्रांसीसी क्रांति का एक प्रमुख कारण था। राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह अपनी इच्छानुसार काम करता था। वह अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि बतलाता था।
      • राजा के कार्यों के आलोचकों को बिना कारण बताए जेल में डाल दिया जाता था।
      • राजा के अन्यायों और अत्याचारों से आम जनता तबाह थी। वह निरंकुश से छुटकारा पाने के लिए कोशिश करने लगी।
      ii. स्वतंत्रता का अभाव
      • फ्रांस में शासन का अति केन्द्रीकरण था। शासन के सभी सूत्र राजा के हाथों में थे। भाषण, लेखन और प्रकाशन पर कड़ा प्रतिबंध लगा हुआ था।
      • राजनैतिक स्वतंत्रता का पूर्ण अभाव था। लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता भी नहीं थी।
      • बंदी प्रत्यक्षीकरण नियम की व्यवस्था नहीं थी। न्याय और स्वतंत्रता की इस नग्न अवहेलना के कारण लोगों का रोष · धीरे-धीरे क्रांति का रूप ले रहा था।
      iii. राजप्रसाद का विलासी जीवन और धन का अपव्यय
      • राष्ट्र की सम्पूर्ण आय पर राजा का निजी अधिकार था। सम्पूर्ण आमदनी राजा-रानी और दरबारियों के भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद पर खर्च हुआ होता था।
      • रानी बहुमूल्य वस्तुएँ खरीदने में अपार धन खर्च करती थी। एक ओर किसानों, श्रमिकों को भरपेट भोजन नहीं मिलता था तो दूसरी ओर सामंत, कुलीन और राजपरिवार के सदस्य विलासिता का जीवन बिताते थे।
      (iv) प्रशासनिक अव्यवस्था
      • फ्रांस का शासन में सरकारी पदों पर नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं होती थी। राजा के कृपापात्रों की नियुक्ति राज्य के उच्च पदों पर होती थी।
      • भिन्न-भिन्न प्रान्तों में अलग-अलग कानून थे। कानून की विविधता के चलते स्वच्छ न्याय की आशा करना बेकार था ।

      सामजिक कारण

      i. पादरी वर्ग
      • फ्रांस में रोमन कैथोलिक चर्च की प्रधानता थी। चर्च एक स्वतंत्र संस्था के रूप में काम कर रहा था। इसका अपना अलग संगठन था, अपना न्यायालय था और धन प्राप्ति का स्रोत था।
      • देश की भूमि का पाँचवा भाग चर्च के पास था। चर्च की वार्षिक आमदनी करीब तीस करोड़ रुपये थी।
      • चर्च स्वयं करमुक्त था, लेकिन उसे लोगों पर कर लगाने का विशेष अधिकार प्राप्त था।
      • चर्च की अपार संपत्ति से बड़े-बड़े पादरी भोग-विलास का जीवन बिताते थे।
      • धर्म के कार्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं था। वे पूर्णतया सांसारिक जीवन व्यतीत करते थे।
      ii. कुलीन वर्ग
      • फ्रांस का कुलीन वर्ग सुविधायुक्त एवं सम्पन्न वर्ग था। कुलीनों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। वे राजकीय कर से मुक्त थे।
      • राज्य, धर्म और सेना के उच्च पदों पर कुलीनों की नियुक्ति होती थी। वे किसानों से कर वसूल करते थे।
      • वे वर्साय के राजमहल में जमे रहते और राजा को अपने प्रभाव में बनाए रखने की पूरी कोशिश करते थे ।
      • कुलीनों के विशेषाधिकार और उत्पीड़न ने साधारण लोगों को क्रांतिकारी बनाया था।
      iii. कृषक वर्ग
      • किसानों का वर्ग सबसे अधिक शोषित और पीड़ित था. उन्हें कर का बोझ उठाना पड़ता था। उन्हें राज्य, चर्च और जमींदारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे।
      • कृषक वर्ग अपनी दशा में सुधार लान चाहते थे और सुधार सिर्फ एक क्रांति द्वारा ही आ सकती थी।
      iv. मजदूर वर्ग
      • मजदूरों और कारीगरों की दशा अत्यंत दयनीय थी। औद्योगिक क्रान्ति के कारण घरेलू उद्योग-धंधों का विनाश हो चुका था और मजदूर वर्ग बेरोजगार हो गए थे।
      • देहात के मजदूर रोजगार की तलाश में पेरिस भाग रहे थे।
      • क्रांति के समय मजदूर वर्ग का एक बड़ा गिरोह तैयार हो चुका था।
      v. मध्यम वर्ग
      • माध्यम वर्ग के लोग सामजिक असमानता को समाप्त करना चाहते थे। चूँकि तत्कालीन शासन के प्रति सबसे अधिक असंतोष मध्यम वर्ग में था, इसलिए क्रांति का संचालन और नेतृत्व इसी वर्ग ने किया। 
      आर्थिक कारण
      • विदेशी युद्ध और राजमहल के अपव्यय के कारण फ्रांस की आर्थिक स्थिति लचर हो गयी थी। आय से अधिक व्यय हो चुका था।
      • खर्च पूरा करने के लिए सरकार को कर्ज लेना पड़ रहा था। कर की असंतोषजनक व्यवस्था के साथ-साथ शासकों की फिजूलखर्ची से फ्रांसकी हालत और भी खराब हो गई थी।
      बौधिक जागरण
      • विचारकों और दार्शनिकों ने फ्रांसकी राजनैतिक एवं सामाजिक बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया और तत्कालीन व्यवस्था के प्रति असंतोष, घृणा और विद्रोह की भावना को उभरा।
      • Montesquieu, Voltaire, Jean-Jacques Rousseam के विचारों से मध्यम वर्ग सबसे अधिक प्रभावित था। Montesquieu ने समाज और शासन-व्यवस्था की प्रसंशा Power-Separation Theory का प्रतिपादन किया।
      • वाल्टेयर ने सामाजिक एवं धार्मिक कुप्रथाओं पर प्रहार किया। रूसो ने राजतंत्र का विरोध किया और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बल दिया।
      • वाल्टेयर ने जनता की सार्वभौमिकता के सिद्धांत (Principles) of Rational and Just Civic Association) का प्रतिपादन किया। इन लेखकों ने लोगों को मानसिक रूप से क्रान्ति के लिए तैयार किया।
      • 4 अगस्त, 1789 की रात को असेंबली ने करों, कर्तव्यों और बंधनों वाली सामंती व्यवस्था के उन्मूलन का आदेश पारित किया।
      • पादरी वर्ग के लोगों को भी अपने विशेषाधिकारों को छोड़ देने के लिए विवश किया गया।
      • धार्मिक कर समाप्त कर दिया गया और चर्च के स्वामित्व वाली भूमि जब्त कर ली गई। इस प्रकार कम से कम 20 अरब लिव्रे की संपत्ति सरकार के हाथ में आ गई।
      फ्रांस संवैधानिक राजतंत्र बन गया
      • नैशनल असेंबली ने सन् 1791 में संविधान का प्रारूप पूरा कर लिया। इसका मुख्य उद्देश्य था-सम्राट की शक्तियों को सीमित करना।
      • एक व्यक्ति के हाथ में केंद्रीकृत होने के बजाय अब इन शक्तियों को विभिन्न संस्थाओं-विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका - में विभाजित एवं हस्तांतरित कर दिया गया इस प्रकार फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र की नींव पड़ी।
      • सन् 1791 के संविधान ने कानून बनाने का अधिकार नैशनल असेंबली को सौंप दिया। नैशनल असेंबली अप्रत्यक्ष रूप से चुनी जाती थी। सर्वप्रथम नागरिक एक निर्वाचक समूह का चुनाव करते थे, जो पुनः असेंबली के सदस्यों को चुनते थे।
      • सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार नहीं था। 25 वर्ष से अधिक उम्र वाले केवल ऐसे पुरुषों को ही सक्रिय नागरिक (जिन्हें मत देने का अधिकार था) का दर्जा दे दिया गया था, जो कम-से-कम तीन दिन की मजदूरी के बराबर कर चुकाते थे। शेष पुरुषों और महिलाओं को निष्क्रिय नागरिक के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
      • निर्वाचक की योग्यता प्राप्त करने तथा असेंबली का सदस्य होने के लिए लोगों का करदाताओं की उच्चतम श्रेणी में होना जरूरी था।
      • संविधान 'पुरुष एवं नागरिक अधिकार घोषणापत्र' के साथ शुरू हुआ था। जीवन के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और कानूनी बराबरी के अधिकार को 'नैसर्गिक एवं अहरणीय' अधिकार के रूप में स्थापित किया गया अर्थात् ये अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को जन्मना प्राप्त थे और इन अधिकारों को छीना नहीं जा सकता।
      • राज्य का यह कर्त्तव्य माना गया कि वह प्रत्येक नागरिक के नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा करे ।

      फ्रांस की क्रांतिः भूमिका

      • 18वीं शताब्दी के 70-80 के दशकों में विभिन्न कारणों से राजा और तत्कालीन राजव्यवस्था के प्रति फ्रांस के नागरिकों में विद्रोह की भावना पनप रही थी। यह विरोध धीरे-धीरे तीव्र होता चला गया।
      • 1789 । राजा लुई 16वाँ (Louis XVI) को एक सभा बुलानी पड़ी। इस सभा का नाम General State था। यह सभा कई वर्षों से बुलाई नहीं गयी थी। इसमें सामंतों के अतिरिक्त सामान्य वर्ग के भी प्रतिनिधि होते थे।
      • सभा में जनता की माँगों पर जोरदार बहस हुई। लोगों में व्यवस्था को बदलने की बैचौनी थी।
      • सभा के आयोजन के कुछ ही दिनों के बाद सामान्य नागरिकों का एक जुलूस बास्तिल नामक जेल पहुँच गया और उसके दरवाजे तोड़ डाले गए। सभी कैदी बाहर निकल गए।
      • नागरिक इस जेल को जनता के दमन का प्रतीक मानते थे। कुछ दिनों के बाद महिलाओं का एक दल राजा के वर्साय स्थित दरबार को घेरने निकल गया जिसके फलस्वरूप राजा को पेरिस चले जाना पड़ा।
      • इसी बीच General State ने कई क्रांतिकारी कदम भी उठाना शुरू किए. यथा-
      • मानव के अधिकारों की घोषणा.
      • मेट्रिक प्रणाली का आरम्भ,
      • चर्च के प्रभाव का समापन,
      • सामंतवाद की समाप्ति की घोषणा, 
      • दास प्रथा के अंत की घोषणा आदि ।
      • General State के सदस्यों में मतभेद भी हुए। कुछ लोग क्रांति के गति को धीमी रखना चाहते थे। कुछ अन्य प्रखर क्रान्ति के पोषक थे।
      • लोगो में आपसी झगड़े भी होने लगे, इनका नेतृत्व कट्टर क्रांतिकारियों के हाथ में रहा। इनके नेता Maximilian Robeseजसने हजारों को मौत के घाट उतार दिया। उसके एक वर्ष के नेतृत्व को आज भी आतंक का राज (Reign of terror) कहते हैं। इसकी परिणति स्वयं Louis 16th और उसकी रानी की हत्या से हुई।
      • राजपरिवार के हत्या के पश्चात् यूरोप के अन्य राजाओं में क्रोध उत्पन्न हुआ और वे लोग संयुक्त सेना बना बना कर क्रांतिकारियों के विरुद्ध लड़ने लगे।
      • क्रांतिकारियों ने भी एक सेना बना ली जिसमें सामान्य वर्ग के लोग भी सम्मिलित हुए।
      • क्रान्ति के नए-नए उत्साह के कारण क्रांतिकारियों की सेना बार-बार सफल हुई और उसका उत्साह बढ़ता चला गया।
      • यह सेना फ्रांस के बाहर भी भूमि जीतने लगी। इसी बीच इस सेना का एक सेनापति जिसका नाम नेपोलियन बोनापार्ट था, अपनी विजयों के कारण बहुत लोकप्रिय हुआ।
      • नेपोलियन ने सम्राट की उपाधि धारण कर सत्ता पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार फ्रांस में राजतंत्र दुबारा लौट आया।
      • फ्रांस के अन्दर कट्टर क्रांति से लोग ऊब चुके थे। इसका लाभ उठाते हुए और अपनी लोकप्रियता को भुनाते हुए नेपोलियन ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और एक Consulate बना कर शासन चालने लगा। यह शासन क्रांतिकारी सिद्धांतों पर चलता रहा।
      • 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी।
      • यह क्रांति निरंकुश राजतंत्र, सामंती शोषण, वर्गीय विशेषाधि कार तथा प्रजा की भलाई के प्रति शासकों की उदासीनता के विरुद्ध प्रारंभ हुई थी ।
      • उस समय फ्रांस में न केवल शोषित और असंतुष्ट वर्ग की विद्यमान थे, बल्कि वहाँ के आर्थिक और राजनैतिक ढाँचा में भी विरोधाभास देखा जा सकता था।
      • राजनैतिक शक्ति का केन्द्रीकरण हो चुका था। सम्पूर्ण देश की धुरी एकमात्र राज्य था। समाज का नेतृत्व शनैः शनैः बुद्धिजीवी वर्ग के हाथ में आ रहा था ।
      • राजा शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। राजा की इच्छाएँ ही राज्य का कानून था। लोगों को किसी प्रकार का नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं था। राजा के अन्यायों और अत्याचारों से आम जनता परेशान थी।
      • भाषण, लेखन और प्रकाशन पर कड़ा प्रतिबंध लगा हुआ था। लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता भी नहीं दी गयी थी। राष्ट्र की सम्पूर्ण आय पर राजा का निजी अधिकार था।
      • सम्पूर्ण आमदनी राजा-रानी और दरबारियों के भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद पर खर्च हो जाती थी। राज्य के उच्च पदों पर राजा के कृपापात्रों की नियुक्ति होती थी।
      • स्थानीय स्वशासन का अभाव था। फ्रांसीसी समाज दो टुकड़ों में बँट कर रह गया था - एक सुविधा प्राप्त वर्ग और दूसरा सुविधाहीन वर्ग।
      • फ्रांस की क्रांति का प्रभाव विश्वव्यापी हुआ। इसके फलस्वरूप निरंकुश शासन तथा सामंती व्यवस्था का अंत हुआ।
      • प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणाली की नींव डाली गई। सामजिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सुधार लाये गए।

      पुरुष एवं नागरिक अधिकार घोषणापत्र

      1. आदमी स्वतंत्र पैदा होते हैं, स्वतंत्र रहते हैं और उनके अधिकार समान होते हैं।
      2. हरेक राजनीतिक संगठन का लक्ष्य आदमी के नैसर्गिक एवं अहरणीय अधिकारों को संरक्षित रखना है। ये अधिकार हैं स्वतंत्रता, सम्पत्ति, सुरक्षा एवं शोषण के प्रतिरोध का अधिकार। 
      3. समग्र संप्रभुता का स्रोत राज्य में निहित है कोई भी समूह या व्यक्ति ऐसा अनाधिकार प्रयोग नहीं करेगा जिसे जनता की सत्ता की स्वीकृति न मिली हो ।
      4. स्वतंत्रता का आशय ऐसे काम करने की शक्ति से है जो औरों के लिए नुकसानदेह न हो।
      5. समाज के लिए किसी भी हानिकारक कृत्य पर पाबंदी लगाने का अधिकार कानून के पास है।
      6. कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति है। सभी नागरिकों को व्यक्तिगत रूप से या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से इसके निर्माण में भाग लेने का अधिकार है। कानून की नज़र में सभी नागरिक समान हैं।
      7. कानूनसम्मत प्रक्रिया के बाहर किसी भी व्यक्ति को न तो दोषी ठहराया जा सकता है और न ही गिरफ्तार अथवा नज़रबंद किया जा सकता है।
      8. प्रत्येक नागरिक बोलने, लिखने और छापने के लिए आज़ाद है। लेकिन कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के तहत ऐसी स्वतंत्रता के दुरुपयोग की ज़िम्मेदारी भी उसी की होगी।
      9. सार्वजनिक सेना तथा प्रशासन के खर्चे चलाने के लिए एक सामान्य कर लगाना अपरिहार्य है। सभी नागरिकों पर उनकी आय के अनुसार समान रूप से कर लगाया जाना चाहिए।
      10. चूँकि संपत्ति का अधिकार एक पावन एवं अनुलंघनीय अधिकार है, अतः किसी भी व्यक्ति को इससे वंचित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत सार्वजनिक आवश्यकता के लिए संपत्ति का अधिग्रहण करना आवश्यक न हो। ऐसे मामले में अग्रिम मुआवज़ा ज़रूर दिया जाना चाहिए।
      फ़्रांस में राजतंत्र का उन्मूलन और गणतंत्र
      • लुई XVI ने संविधान पर हस्ताक्षर कर दिए थे, परन्तु प्रशा के राजा से उसकी गुप्त वार्ता भी चल रही थी। फ्रांस की घटनाओं से अन्य पड़ोसी देशों के शासक भी चिंतित थे।
      • इसलिए 1789 की गर्मियों के बाद होने वाली ऐसी घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए इन शासकों ने सेना भेजने की योजना बना ली थी। लेकिन जब तक इस योजना पर अमल होता, अप्रैल 1792 में नैशनल असेंबली ने प्रशा एवं ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा का प्रस्ताव पारित कर दिया।
      • प्रांतों से हजारों स्वयंसेवी सेना में भर्ती होने के लिए जमा होने लगे। उन्होंने इस युद्ध को यूरोपीय राजाओं एवं कुलीनों के विरुद्ध जनता की जंग के रूप में लिया। उनके होठों पर देशभक्ति के जो तराने थे उनमें कवि रॉजेट दि लाइल द्वारा रचित मार्सिले भी था।
      • यह गीत पहली बार मार्सिलेस के स्वयंसेवियों ने पेरिस की ओर कूच करते हुए गाया था। इसलिए इस गाने का नाम मार्सिले हो गया जो अब फ़्रांस का राष्ट्रगान है।
      • क्रांतिकारी युद्धों से जनता को भारी क्षति एवं आर्थिक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं। पुरुषों के मोर्चे पर चले जाने के बाद घर परिवार और रोज़ी-रोटी की ज़िम्मेवारी औरतों के कंधों पर आ पड़ी।
      • देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को ऐसा लगता था कि क्रांति के सिलसिले को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है क्योंकि 1791 के संविधान से सिर्फ़ अमीरों को ही राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुए थे।
      • लोग राजनीतिक क्लबों में जमा होकर सरकारी नीतियों और अपनी कार्ययोजना पर बहस करते थे। इनमें से जैकोबिन क्लब सबसे सफल था, जिसका नाम पेरिस के भूतपूर्व कॉन्वेंट ऑफ़ सेंट जेकब के नाम पर पड़ा, जो अब इस राजनीतिक समूह का प्रमुख बन गया था। इस पूरी अवधि में महिलाएँ भी सक्रिय थीं और उन्होंने भी अपने क्लब बना लिए।
      • जैकोबिन क्लब के सदस्य मुख्यतः समाज के कम समृद्ध हिस्से से आते थे। इनमें छोटे दुकानदार और कारीगर--जैसे जूता बनाने वाले, पेस्ट्री बनाने वाले, घड़ीसाज़, छपाई करने वाले और नौकर व दिहाड़ी मजदूर शामिल थे। उनका नेता मैक्समिलियन रोबेस्प्येर था। जैकोबिनों के एक बड़े वर्ग ने गोदी कामगारों की तरह धारीदार लंबी पतलून पहनने का निर्णय किया।
      • सन् 1792 की गर्मियों में जैकोबिनों ने खाद्य पदार्थों की महँगाई एवं अभाव से नाराज़ पेरिसवासियों को लेकर एक विशाल हिंसक विद्रोह की योजना बनायी। 10 अगस्त की सुबह उन्होंने ट्यूलेरिए के महल पर धावा बोल दिया, राजा के रक्षकों को मार डाला और खुद राजा को कई घंटों तक बंधक बनाये रखा।
      • बाद में असेंबली ने शाही परिवार को जेल में डाल देने का प्रस्ताव पारित किया। नये चुनाव कराये गए। 21 वर्ष से अधिक उम्र वाले सभी पुरुषों चाहे उनके पास संपत्ति हो या नहीं - को मतदान का अधिकार दिया गया।
      • नवनिर्वाचित असेंबली को कन्वेंशन का नाम दिया गया। 21 सितंबर 1792 को इसने राजतंत्र का अंत कर दिया और फ्रांस को एक गणतंत्र घोषित किया।
      • लुई XVI को न्यायालय द्वारा देशद्रोह के आरोप में मौत की सजा सुना दी गई। 21 जनवरी 1793 को प्लेस डी लॉ कॉन्कॉर्ड में उसे सार्वजनिक रूप से फाँसी दे दी गई। जल्द ही रानी मेरी एन्तोएनेत का भी वही हश्र हुआ।

      रॉबेस्पियर

      • रॉबेस्पियर 1758 में फ्रांस के अरास में पैदा हुए थे। वह बचपन से पढ़ने में कुशाग्र थे, इसलिए उन्हें पढ़ने के लिए पेरिस भेज दिया गया। 
      • वहां उन्होंने लाइकी सुई ले ग्रांड से स्नातक किया। चूंकि उनकी रुचि कानून की पढ़ाई में थी इसलिए उन्होंने आगे की पढ़ाई कानून में की। 1781 में वह कानून की उपाधि प्राप्त करने में सफल रहे।

      30 की उम्र में एस्टेट जनरल

      • रॉबेस्पियर महज 30 साल की उम्र में विधिमंडल के एस्टेट जनरल के लिए चुना गया।
      • रॉबेस्पियर ने फ्रांसीसी राजशाही पर अपने हमले तेज कर दिए। वह लोकतांत्रिक सुधार चाहते थे।
      • रॉबेस्पियर ने हर मंच से इसकी वकालत शुरु कर दी। उनकी इस पहल ने उनको लोगों का मसीहा बना दिया।
      • रॉबेस्पियर ने मौत की सजा और गुलामी का भी विरोध किया। हर हाल में वह लोगों का हित चाहते थे।
      • बाद में वह फ्रांस की राष्ट्रीय संविधान सभा, और शक्तिशाली जैकबिन राजनीतिक गुट के अध्यक्ष बनने में भी सफल रहे थे।

      फ्रांसीसी संविधान में महत्वपूर्ण भूमिका

      • 1792 में विधान सभा में गिरोडीवादी नेताओं ने फ्रांस को ऑस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध घोषित करने की आवाज उठाई, तो रॉबेस्पियर ने उनका विरोध किया।
      • रॉबेस्पियर का मत था कि यह युद्ध आम लोगों के हित में नहीं है। इससे फ्रांस को बड़ा नुकसान हो सकता था।
      • रॉबेस्पियर ने कहा कि युद्ध हमारी क्रांति के आदर्शों को फैलाने का उचित तरीका नहीं है। कोई भी सशस्त्र मिशनरियों को प्यार नहीं करता है।
      • फ्रांसीसी संविधान की नींव रखने में रॉबेस्पियर की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
      • इसमें उन्होंने मानव अधिकारों और उनके हितों का ख्याल रखा। वह फ्रांस में रिपब्लिक ऑफ वर्च्यू स्थापित करना चाहते थे।
      • फ्रांस की क्रान्ति के समय लुई सोलहवें के मृत्युदण्ड की व्यवस्था कराने में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा था।
      • उन्होंने राजा को दण्ड देने के लिए सफलतापूर्वक तर्क दिए और लोगों को दमन के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित किया।

      आतंक का शासनकाल

      • राजशाही के पतन के बाद फ्रेंच क्रांतिकारी राजनेताओं का मानना था कि अराजकता को दबाने के लिए एक स्थिर सरकार की आवश्यकता थी।
      • इसी के तहत 1793 के कन्वेंशन में जेकोबिन्स ने एक क्रांतिकारी ट्रिब्यूनल स्थापित किया। इसी के तहत आम सुरक्षा के लिए एक 9 सदस्यीय समिति का निर्माण किया। रॉबेस्पियर इस समिति के हिस्सा बने।
      • सामान्य सुरक्षा समिति ने देश में आंतरिक पुलिस का प्रबंधन करना शुरू कर दिया। यह ऐसा दौर था जिसे आतंक का शासनकाल कहा जाता है।
      • इसमें वह सभी गुटों के साथ सख्ती से पेश आए, जो क्रांतिकारी सरकार के खिलाफ थे।
      • रॉबेस्पियर की समिति ने तय किया कि हेबर्टिस्ट पार्टी का नाश करना होगा। इसी के तहत उन पर चढ़ाई कर दी गई ।
      • इस संघर्ष में लगभग 3,00,000 संदिग्ध दुश्मनों को गिरफ्तार किया गया और 17,000 से अधिक लोगों को मार डाला गया। रक्तपात के इस तांडव में रॉबेस्पियर अपने कई राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने में सफल रहा था।
      • बाद में उस पर सवाल उठे तो उसने कहा कि, यह जरुरी था। रॉबेस्पियर का मत था कि समिति का यह फैसला बिल्कुल सही था।
      • रॉबेस्पियर के मुताबिक 'बिना आतंक के सद्गुण और बिना सद्गुण के आतंक निरर्थक होते हैं। हालांकि, उसके इस तर्क को खारिज कर दिया गया था।

      पहले जेल फिर मौत

      • रॉबेस्पियर और उनके अनुयायियों के विरोध में कुछ नए संगठनों ने आकार लेना शुरु कर दिया। उन्हीं के प्रयासों के चलते रॉबेस्पियर को उनके सहयोगियों के साथ गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
      • हालांकि, वह जेलर की मदद से जेल से भाग निकलने में सफल रहा और पेरिस के सिटी हॉल में छिप गए थे। जहां पकड़े जाने के डर से उसने आत्महत्या का प्रयास भी किया, लेकिन वह असफल रहे।
      • राष्ट्रीय कन्वेंशन के सैनिकों ने इमारत पर हमला किया और उन्हें दुबारा से गिरफ्तार करते हुए मौत दे दी गई ।
      • वैसे तो मैक्समिलियन रॉबेस्पियर हिंसक नहीं था। वह तो फ्रांसीसी क्रान्ति से जुड़े प्रभावशाली लोगों में गिना जाता था, लेकिन उसने हिंसा का सहारा लिया था।
      • वह अपने विरोधियों को तो खत्म करने में सफल रहा, लेकिन खुद को भी नहीं बचा सका।
      डिरेक्ट्री शासित फ्रांस
      • जैकोबिन सरकार के पतन के बाद मध्य वर्ग के संपन्न तबके के पास सत्ता आ गई। नए संविधान के तहत सम्पत्तिहीन तबके को मताधिकार से वंचित कर दिया गया।
      • इस संविधान में दो चुनी गई विधान परिषदों का प्रावधान था। इन परिषदों ने पाँच सदस्यों वाली एक कार्यपालिका- डिरेक्ट्री को नियुक्त किया। इस प्रावधान के जरिए जैकोबिनों के शासनकाल वाली एक व्यक्ति केंद्रित कार्यपालिका से बचने की कोशिश की गई। 
      • डिरेक्टरों का झगड़ा अकसर विधान परिषदों से होता और तब परिषद् उन्हें बर्खास्त करने की चेष्टा करती। डिरेक्ट्री की राजनीतिक अस्थिरता ने सैनिक तानाशाह - नेपोलियन बोनापार्ट के उदय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। -
      महिलाओं की स्थिति
      • महिलाएँ शुरू से ही फ़ासीसी समाज में इतने अहम परिवतर्न लाने वाली गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल थीं। उन्हें उम्मीद थी कि उनकी भागीदारी क्रांतिकारी सरकार को उनका जीवन सुधारने हेतु ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित करेगी।
      • तीसरे एस्टेट की अधिकांश महिलाएँ जीविका निर्वाह के लिए काम करती थीं। वे सिलाई बुनाई, कपड़ों की धुलाई करती थीं, बाजारों में फल-फूल-सब्जियाँ बेचती थीं अथवा संपन्न घरों में घरेलू काम करती थीं ।
      • अधिकांश महिलाओं के पास पढ़ाई-लिखाई तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण के मौके नहीं थे। केवल कुलीनों की लड़कियाँ अथवा तीसरे एस्टेट के धनी परिवारों की लड़कियाँ ही कॉन्वेंट में पढ़ पाती थीं, इसके बाद उनकी शादी कर दी जाती थी।
      • कामकाजी महिलाओं को अपने परिवार का पालन-पोषण भी करना पड़ता था--जैसे खाना पकाना, पानी लाना, लाइन लगा कर पावरोटी लाना और बच्चों की देख-रेख आदि करना। उनकी मज़दूरी पुरुषों की तुलना में कम थी।
      • महिलाओं ने अपने हितों की हिमायत करने और उन पर चर्चा करने के लिए खुद के राजनीतिक क्लब शुरू किए और अखबार निकाले। फ़्रांस के विभिन्न नगरों में महिलाओं के लगभग 60 क्लब अस्तित्व में आए। उनमें 'द सोसाइटी ऑफ़ रेवलूशनरी एंड रिपब्लिकन विमेन' सबसे मशहूर क्लब था।
      • प्रमुख माँग यह थी कि महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए। महिलाएँ इस बात से निराश हुईं कि 1791 के संविधान में उन्हें निष्क्रिय नागरिक का दर्जा दिया गया था।
      • महिलाओं ने मताधिकार असेंबली के लिए चुने जाने तथा राजनीतिक पदों की माँग रखी। उनका मानना था कि तभी नई सरकार में उनके हितों का प्रतिनिधित्व हो पाएगा।
      • प्रारंभिक वर्षों में क्रांतिकारी सरकार ने महिलाओं के जीवन में सुधार लाने वाले कुछ कानून लागू किए।
      • सरकारी विद्यालयों की स्थापना के साथ ही सभी लड़कियों के लिए स्कूली शिक्षा को अनिवार्य बना दिया गया। अब पिता उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ शादी के लिए बाध्य नहीं कर सकते थे। शादी को स्वैच्छिक अनुबंध माना गया और नागरिक 'कानूनों के तहत उनका पंजीकरण किया जाने लगा।
      • तलाक को कानूनी रूप दे दिया गया और मर्द औरत दोनों को ही इसकी अर्जी देने का अधिकार दिया गया। अब महिलाएँ व्यावसायिक प्रशिक्षण ले सकती थीं, कलाकार बन सकती थीं और छोटे-मोटे व्यवसाय चला सकती थीं।
      • राजनीतिक अधिकारों के लिए महिलाओं का संघर्ष जारी रहा। आतंक राज के दौरान सरकार ने महिला क्लबों को बंद करने और उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून लागू किया। कई जानी-मानी महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उनमें से कुछ को फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
      • मताधिकार और समान वेतन के लिए महिलाओं का आंदोलन अगली सदी में भी अनेक देशों में चलता रहा। मताधिकार का संघर्ष उन्नीसवीं सदी के अंत एवं बीसवीं सदी के प्रारंभ तक अंतर्राष्ट्रीय मताधिकार आंदोलन के जरिए जारी रहा।
      • क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान फ्रांसीसी महिलाओं की राजनीतिक सरगर्मियों को प्रेरक स्मृति के रूप में जिंदा रखा गया। अंततः सन् 1946 में फ्रांस की महिलाओं ने मताधिकार हासिल कर लिया।
      दास प्रथा का उन्मूलन
      • फ्रांसीसी उपनिवेशों में दास प्रथा का उन्मूलन जैकोबिन शासन के क्रांतिकारी सामाजिक सुधारों में से एक था। कैरिबिआई उपनिवेश मार्टिनिक, गॉडेलोप और सैन डोमिंगों तम्बाकू, नील, चीनी एवं कॉफ़ी जैसी वस्तुओं के महत्त्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता थे।
      • अपरिचित एवं दूर देश जाने और काम करने के प्रति यूरोपियों की अनिच्छा का मतलब था बागानों में श्रम की कमी। इस कमी को यूरोप, अफ्रीका एवं अमेरिका के बीच त्रिकोणीय दास - व्यापार द्वारा पूरा किया गया।
      • दास - व्यापार सत्रहवीं शताब्दी में शुरू हुआ। फ्रांसीसी सौदागर बोर्दे या नान्ते बन्दरगाह से अफ्रीका तट पर जहाज़ ले जाते थे, जहाँ वे स्थानीय सरदारों से दास खरीदते थे।
      • दासों को दाग कर एवं हथकड़ियाँ डाल कर अटलांटिक महासागर के पार कैरिबिआई देशों तक तीन माह की लंबी समुद्री यात्रा के लिए जहाजों में बैँस दिया जाता था। वहाँ उन्हें बागान मालिकों को बेच दिया जाता था।
      • दास - श्रम के बल पर यूरोपीय बाजारों में चीनी, कॉफ़ी एवं नील की बढ़ती माँग को पूरा करना संभव हुआ। बोदें और नान्ते जैसे बंदरगाह फलते-फूलते दास - व्यापार के कारण ही समृद्ध नगर बन गए।
      • अठारहवीं सदी में फ्रांस में दास प्रथा की ज्यादा निंदा नहीं हुई । नैशनल असेंबली में लंबी बहस हुई कि व्यक्ति के मूलभूत अधिकार उपनिवेशों में रहने वाली प्रजा सहित समस्त फ्रांसीसी प्रजा को प्रदान किए जाएँ या नहीं। परन्तु दास - व्यापार पर निर्भर व्यापारियों के विरोध के भय से नैशनल असेंबली में कोई कानून पारित नहीं किया गया।
      • अंततः सन् 1794 के कन्वेंशन ने फ्रांसीसी उपनिवेशों में सभी दासों की मुक्ति का कानून पारित कर दिया। पर यह कानून एक छोटी-सी अवधि तक ही लागू रहा। दस वर्ष बाद नेपोलियन ने दास प्रथा पुनः शुरू कर दी।
      • बागान मालिकों को अपने आर्थिक हित साधने के लिए अफ़्रीकी नीग्रो लोगों को गुलाम बनाने की स्वतंत्रता मिल गयी । फ्रांसीसी उपनिवेशों से अंतिम रूप से दास प्रथा का उन्मूलन 1848 में किया गया।
      प्रेस की स्वतंत्रता
      • सन् 1789 से बाद के वर्षों में फ़्रांस के पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों के जीवन में ऐसे अनेक परिवर्तन आए।
      • क्रांतिकारी सरकारों ने कानून बना कर स्वतंत्रता एवं समानता के आदर्शों को रोज़ाना की जिंदगी में उतारने का प्रयास किया। बास्तील के विध्वंस के बाद सन् 1789 की गर्मियों में जो सबसे महत्त्वपूर्ण कानून अस्तित्व में आया, वह था - सेंसरशिप की समाप्ति।
      • प्राचीन राजतंत्र के अंतर्गत तमाम लिखित सामग्री और सांस्कृतिक गतिविधियों किताब, अखबार, नाटक को राजा के सेंसर अधिकारियों द्वारा पास किए जाने के बाद ही प्रकाशित या मंचित किया जा सकता था।
      • अधिकारों के घोषणापत्र ने भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नैसर्गिक अधिकार घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप फ्रांस के शहरों में अखबारों, पर्चों, पुस्तकों एवं छपी हुई तस्वीरों की बाढ़ आ गई जहाँ से वह तेज़ी से गाँव-देहात तक जा पहुँची। उनमें फ्रांस में घट रही घटनाओं एवं परिवर्तनों का ब्यौरा और उन पर टिप्पणी होती थी।
      • 1804 में नेपोलियन बोनापार्ट ने खुद को फांस का सम्राट घोषित कर दिया। उसने पड़ोस के यूरोपीय देशों की विजय यात्रा शुरू की। पुराने राजवंशों को हटा कर उसने नए साम्राज्य बनाए और उनकी बागडोर अपने खानदान के लोगों के हाथ में दे दी। नेपोलियन खुद को यूरोप के आधुनिकीकरण का अग्रदूत मानता था। उसने निजी संपत्ति की सुरक्षा के कानून बनाए और दशमलव पद्धति पर आधारित नाप-तौल की एक समान प्रणाली चलायी।
      • शुरू-शुरू बहुत सारे लोगों को नेपालियन मुक्तिदाता लगता था और उससे जनता को स्वतंत्रता दिलाने की उम्मीद थी। पर जल्दी ही उसकी सेनाओं को लोग हमलावर मानने लगे।
      • आखिरकार 1815 में वॉटरलू में उसकी हार हुई। यूरोप के बाकी हिस्सों में मुक्ति और आधुनिक कानूनों को फैलाने वाले उसके क्रांतिकारी उपायों का असर उसकी मृत्यु के काफ़ी समय बाद सामने आया।
      • स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों के विचार फ्रांसीसी क्रांति की • सबसे महत्त्वपूर्ण विरासत थे। ये विचार उन्नीसवीं सदी में फ्रांस से निकल कर बाकी यूरोप में फैले और इनके कारण वहाँ सामंती व्यवस्था का नाश हुआ।
      • औपनिवेशिक समाजों ने संप्रभु राष्ट्र राज्य की स्थापना के अपने आंदोलनों में दासता से मुक्ति के विचार को नयी परिभाषा दी। टीपू सुल्तान और राजा राममोहन रॉय क्रांतिकारी फ़्रांस में उपजे विचारों से प्रेरणा लेने वाले दो ठोस उदाहरण थे।
      सामाजिक परिवर्तन का युग
      • फ्रांसीसी क्रांति ने सामाजिक संरचना के क्षेत्र में आमूल परिवर्तन की संभावनाओं का सूत्रपात कर दिया था। अठारहवीं सदी से. पहले फ्रांस का समाज मोटे तौर पर एस्टेट्स और श्रेणियों में बँटा हुआ था।
      • समाज की आर्थिक और सामाजिक सत्ता पर कुलीन वर्ग और चर्च का नियंत्रण था। लेकिन क्रांति के बाद इस संरचना को बदलना संभव दिखाई देने लगा।
      • यूरोप और एशिया सहित दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में व्यक्तिगत अधिकारों के स्वरूप और सामाजिक सत्ता पर किसका नियंत्रण हो- इस पर चर्चा छिड़ गई।
      • भारत में भी राजा राममोहन रॉय और डेरोजियो ने फ्रांसीसी क्रांति के महत्त्व का उल्लेख किया और भी बहुत सारे लोग क्रांति पश्चात यूरोप की स्थितियों के बारे में चल रही बहस में कूद पड़े। आगे चलकर उपनिवेशों में घटी घटनाओं ने भी इन विचारों को एक नया रूप प्रदान करने में योगदान दिया।
      • यूरोप में भी सभी लोग आमूल समाज परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे। इस सवाल पर सबकी अलग-अलग राय थी। बहुत सारे लोग बदलाव के लिए तो तैयार थे लेकिन वह चाहते थे कि यह बदलाव धीरे-धीरे हो ।
      • समाज का आमूल पुनर्गठन ज़रूरी है। कुछ ‘रुढ़िवादी' (Conservatives) थे तो कुछ 'उदारवादी' (Liberals) या 'आमूल परिवर्तनवादी' (Radical, रैडिकल) समाधानों के पक्ष में थे।
      उदारवादी, रैडिकल और रुढ़िवादी
      • समाज परिवर्तन के समर्थकों में एक समूह उदारवादियों का था। उदारवादी ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिसमें सभी धर्मों को बराबर का सम्मान और जगह मिले।
      • उस समय यूरोप के देशों में प्रायः किसी एक धर्म को ही ज्यादा महत्व दिया जाता था (ब्रिटेन की सरकार चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का समर्थन करती थी, ऑस्ट्रिया और स्पेन, कैथलिक चर्च के समर्थक थे ) ।
      • उदारवादी समूह वंश - आधारित शासकों की अनियंत्रित सत्ता के भी विरोधी थे। वे सरकार के समक्ष व्यक्ति मात्र के अधिकारों की रक्षा के पक्षधर थे। उनका कहना था कि सरकार को किसी के अधिकारों का हनन करने या उन्हें छीनने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।
      • यह समूह प्रतिनिधित्व पर आधारित एक ऐसी निर्वाचित सरकार के पक्ष में था जो शासकों और अफसरों के प्रभाव से मुक्त और सुप्रशिक्षित न्यायपालिका द्वारा स्थापित किए गए कानूनों के अनुसार शासन - कार्य चलाए। पर यह समूह 'लोकतंत्रवादी' (Democrat) नहीं था।
      • ये लोग सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार यानी सभी नागरिकों को वोट का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि वोट का अधिकार केवल संपत्तिधारियों को ही मिलना चाहिए।
      • उदारवादियों के विपरीत ये लोग बड़े जमींदारों और संपन्न उद्योगपतियों को प्राप्त किसी भी तरह के विशेषाधिकारों के खिलाफ़ थे। वे निजी संपत्ति के विरोधी नहीं थे लेकिन केवल कुछ लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण का विरोध जरूर करते थे ।
      • रुढ़िवादी तबका रैडिकल और उदारवादी, दोनों के खिलाफ़ था। मगर फ्रांसीसी क्रांति के बाद तो रूढ़िवादी भी बदलाव की जरूरत को स्वीकार करने लगे थे। पुराने समय में, यानी अठारहवीं शताब्दी में रुढ़िवादी आमतौर पर परिवर्तन के विचारों का विरोध करते थे।
      • उन्नीसवीं सदी तक आते-आते वे भी मानने लगे थे कि कुछ परिवर्तन आवश्यक हो गया है परंतु वह चाहते थे कि अतीत का सम्मान किया जाए अर्थात् अतीत को पूरी तरह ठुकराया न जाए और बदलाव की प्रक्रिया धीमी हो ।
      • फ़ासीसी क्रांति के बाद पैदा हुई राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान सामाजिक परिवर्तन पर केंद्रित इन विविध विचारों बीच काफ़ी टकराव हुए।
      • उन्नीसवीं सदी में क्रांति और राष्ट्रीय कायांतरण की विभिन्न कोशिशों ने इन सभी राजनीतिक धाराओं की सीमाओं और संभावनाओं को स्पष्ट कर दिया।
      औद्योगिक समाज और सामाजिक परिवर्तन
      • ये राजनीतिक रुझान एक नए युग का द्योतक थे । यह दौर गहन सामाजिक एवं आर्थिक बदलावों का था। यह ऐसा समय था जब नए शहर बस रहे थे, नए-नए औद्योगिक क्षेत्र विकसित हो रहे थे, रेलवे का काफी विस्तार हो चुका था और औद्योगिक क्रांति संपन्न हो चुकी थी।
      • औद्योगीकरण ने औरतों-आदमियों और बच्चों, सबको कारखानों में ला दिया। काम के घंटे यानी पाली बहुत लंबी होती थी और मजदूरी बहुत कम थी। बेरोज़गारी आम समस्या थी । औद्योगिक वस्तुओं की माँग में गिरावट आ जाने पर तो बेरोज़गारी और बढ़ जाती थी।
      • शहर तेजी से बसते और फैलते जा रहे थे इसलिए आवास और साफ़-सफाई का काम भी मुश्किल होता जा रहा था । उदारवादी और रैडिकल, दोनों ही इन समस्याओं का हल खोजने की कोशिश कर रहे थे।
      • लगभग सभी उद्योग व्यक्तिगत स्वामित्व में थे। बहुत सारे रैडिकल और उदारवादियों के पास भी काफी संपत्ति थी और उनके यहाँ बहुत सारे लोग नौकरी करते थे। उन्होंने व्यापार या औद्योगिक व्यवसायों के ज़रिए धन-दौलत इकट्ठा की थी इसलिए वह चाहते थे कि इस तरह के प्रयासों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए।
      • ये लोग जन्मजात मिलने वाले विशेषाधिकारों के विरुद्ध थे। व्यक्तिगत प्रयास, श्रम और उद्यमशीलता में उनका गहरा विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि यदि हरेक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता दी जाए, गरीबों को रोजगार मिले, और जिनके पास पूँजी है उन्हें बिना रोक-टोक काम करने का मौका दिया जाए तो समाज तरक्की कर सकता है।
      • इसी कारण उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में समाज परिवर्तन के इच्छुक बहुत सारे कामकाजी स्त्री-पुरुष उदारवादी और रैडिकल समूहों व पार्टियों के इर्द-गिर्द गोलबंद हो गए थे।
      • यूरोप में 1815 में जिस तरह की सरकारें बनीं उनसे छुटकारा पाने के लिए कुछ राष्ट्रवादी, उदारवादी और रैडिकल आंदोलनकारी क्रांति के पक्ष में थे।
      • फ्रांस, इटली, जर्मनी और रूस में ऐसे लोग क्रांतिकारी हो गए और राजाओं के तख्तापलट का प्रयास करने लगे। राष्ट्रवादी कार्यकर्ता क्रांति के ज़रिए ऐसे 'राष्ट्रों' की स्थापना करना चाहते थे जिनमें सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों ।
      • 1815 के बाद इटली के राष्ट्रवादी गिसेप्पे मेजिनी ने यही लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने समर्थकों के साथ मिलकर राजा के खिलाफ़ साजिश रची थी। भारत सहित दुनिया भर के राष्ट्रवादी उसकी रचनाओं को पढ़ते थे।
      यूरोप में समाजवाद
      • समाज के पुनर्गठन की संभवत: सबसे दूरगामी दृष्टि प्रदान करने वाली विचारधारा समाजवाद ही थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यूरोप में समाजवाद एक जाना-पहचाना विचार था । उसकी तरफ़ बहुत सारे लोगों का ध्यान आकर्षित हो रहा था।
      • समाजवादी निजी संपत्ति के विरोधी थे। यानी, वे संपत्ति पर निजी स्वामित्व को सही नहीं मानते थे। उनका कहना था कि संपत्ति के निजी स्वामित्व की व्यवस्था ही सारी समस्याओं की जड़ है।
      • उनका तर्क था कि बहुत सारे लोगों के पास संपत्ति तो है जिससे दूसरों को रोज़गार भी मिलता है लेकिन समस्या यह है कि संपत्तिधारी व्यक्ति को सिर्फ अपने फ़ायदे से ही मतलब रहता है वह उनके बारे में नहीं सोचता जो उसकी संपत्ति को उत्पादनशील बनाते हैं।
      • इसलिए, अगर संपत्ति पर किसी एक व्यक्ति के बजाय पूरे समाज का नियंत्रण हो तो साझा सामाजिक हितों पर ज्यादा अच्छी तरह ध्यान दिया जा सकता है। समाजवादी इस तरह का बदलाव चाहते थे और इसके लिए उन्होंने बड़े पैमाने पर अभियान चलाया।
      • समाजवादियों के पास भविष्य की एक बिल्कुल भिन्न दृष्टि थी। कुछ समाजवादियों को कोऑपरेटिव यानी सामूहिक उद्यम के विचार में दिलचस्पी थी।
      • इंग्लैंड के जाने-माने उद्योगपति रॉबर्ट ओवेन (1771-1858) ने इंडियाना (अमेरिका) में नया समन्वय (New Harmony) के नाम से एक नये तरह के समुदाय की रचना का प्रयास किया।
      • कुछ समाजवादी मानते थे कि केवल व्यक्तिगत पहलकदमी से बहुत बड़े सामूहिक खेत नहीं बनाए जा सकते । वह चाहते थे कि सरकार अपनी तरफ़ से सामूहिक खेती को बढ़ावा दे। उदाहरण के लिए, फ्रांस में लुई ब्लांक (1813-1882) चाहते थे कि सरकार पूँजीवादी उद्यमों की जगह सामूहिक उद्यमों को बढ़ावा दे।
      • कोऑपरेटिव ऐसे लोगों के समूह थे जो मिल कर चीजें बनाते थे और मुनाफ़े को प्रत्येक सदस्य द्वारा किए गए काम के हिसाब से आपस में बाँट लेते थे।
      • कार्ल मार्क्स (1818-1882) और फ़्रे डरिक एंगेल्स (18201895) ने इस दिशा में कई नए तर्क पेश किए। मार्क्स का विचार था कि औद्योगिक समाज 'पूँजीवादी' समाज है। फैक्ट्रियों में लगी पूँजी पर पूँजीपतियों का स्वामित्व है और पूँजीपतियों का मुनाफ़ा मज़दूरों की मेहनत से पैदा होता है।
      • मार्क्स का निष्कर्ष था कि जब तक निजी पूँजीपति इसी तरह मुनाफे का संचय करते जाएँगे तब तक मज़दूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता।
      • अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए मज़दूरों को पूँजीवाद व निजी संपत्ति पर आधारित शासन को उखाड़ फेंकना होगा।
      • मार्क्स का विश्वास था कि खुद को पूँजीवादी शोषण से मुक्त कराने के लिए मज़दूरों को एक अत्यंत भिन्न किस्म का समाज बनाना होगा जिसमें सारी संपत्ति पर पूरे समाज का यानी सामाजिक नियंत्रण और स्वामित्व रहेगा। उन्होंने भविष्य के इस समाज को साम्यवादी (कम्युनिस्ट) समाज का नाम दिया।
      • मार्क्स को विश्वास था कि पूँजीपतियों के साथ होने वाले संघर्ष में जीत अंततः मज़दूरों की ही होगी। उनकी राय में कम्युनिस्ट समाज ही भविष्य का समाज होगा।
      समाजवाद के लिए समर्थन
      • 1870 का दशक आते-आते समाजवादी विचार पूरे यूरोप में फैल चुके थे। अपने प्रयासों में समन्वय लाने के लिए समाजवादियों ने द्वितीय इंटरनैशनल के नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी बना ली थी।
      • इंग्लैंड और जर्मनी के मज़दूरों ने अपनी जीवन और कार्यस्थितियों में सुधार लाने के लिए संगठन बनाना शुरू कर दिया था।
      • संकट के समय अपने सदस्यों को मदद पहुँचाने के लिए इन संगठनों ने कोष स्थापित किए और काम के घंटों में कमी तथा मताधिकार के लिए आवाज़ उठाना शुरू कर दिया।
      • जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) के साथ इन संगठनों के काफी गहरे रिश्ते थे और संसदीय चुनावों में वे पार्टी की मदद भी करते थे।
      • 1905 तक ब्रिटेन के समाजवादियों और ट्रेड यूनियन आंदोलनकारियों ने लेबर पार्टी के नाम से अपनी एक अलग * पार्टी बना ली थी।
      • फ्रांस में भी सोशलिस्ट पार्टी के नाम से ऐसी ही एक पार्टी का गठन किया गया।
      • 1914 तक यूरोप में समाजवादी कहीं भी सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाए। संसदीय राजनीति में उनके प्रतिनिधि बड़ी संख्या में जीतते रहे, उन्होंने कानून बनवाने में भी अहम भूमिका निभायी, मगर सरकारों में रुढ़िवादियों, उदारवादियों और रैडिकलों का ही दबदबा बना रहा।

      सैनिकों में असंतोष

      • फ्रांस की सेना भी तत्कालीन शासन व्यवस्था से असंतुष्ट थी। सेना में असंतोष फैलते ही शासन का पतन अवश्यम्भावी हो जाता है।
      • सैनिकों को समय पर वेतन नहीं मिलता था। उनके खाने-पीने तथा रहने की उचित व्यवस्था नहीं थी। उन्हें युद्ध के समय पुराने अस्त्र-शस्त्र दिए जाते थे। ऐसी स्थिति में सेना में रोष का उत्पन्न होना स्वाभाविक था।

      फ्रांस की क्रांति से जुड़े तथ्य

      • फ्रांस की राज्यक्रांति 1789 ई. में लूई सोलहवां के शासनकाल में हुई।
      • फ्रांस की राज्यक्रांति के समय फ्रांस में सामंती व्यवस्था थी ।
      • 14 जुलाई, 1789 ई. को क्रांतिकारियों ने बास्तील के कारागृह फाटक को तोड़कर बंदियों को मुक्त कर दिया।
      • तब से 14 जुलाई को फ्रांस में राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है।
      • समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का नारा फ्रांस की राज्यक्रांति की देन है।
      • मैं ही राज्य हूं और मेरे ही शब्द कानून हैं- ये कथन लुई चौदहवां का है।
      • वर्साय के शीश महल का निमार्ण लुई चौदहवां ने करवाया ।
      • लुई चौदहवां ने वर्साय को फ्रांस की राजधानी घोषित किया।
      • लुई सोलहवां फ्रांस की गद्दी पर 1774 ई. में बैठा।
      • लुई सोलहवां की पत्नी मेरी एंत्वा नेता अस्ट्रिया की राजकुमारी थी।
      • लुई सोलहवां को देशद्रोह के अपराध फांसी की सजा दी गई ।
      • टैले एक प्रकार का भूमिकर था।
      • फ्रांसीसी क्रांति में सबसे अहम योगदान वाल्टेयर, मौटेस्यू एवं रूसो का था।
      • वाल्टेयर चर्च का विरोधी था।
      • रूसो फ्रांस में लोकतंत्र शासन पद्धति का समर्थक था।
      • सौ चूहों की अपेक्षा एक सिंह का शासन उत्तम है- ये कथन वाल्टेयर के थे।
      • सोशल कांट्रेक्ट रूसो की रचना है।
      • कानून की आत्मा की रचना मौटेस्यू ने की।
      • मापतौल की दशमलव प्रणाली फ्रांस की देन है।
      • सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का जनक हर्डर को कहा जाता है।
      • नेपोलियन का जन्म 15 अगस्त 1769 ई. में हुआ। नेपोलियन का जन्म कोर्सिका द्वीप की राजधानी अजासियो में हुआ।
      • नेपोलियन के पिता का नाम कार्लो बोनापार्ट था।
      • नेपोलियन ने ब्रिटेन की सैनिक अकादमी में शिक्षा प्राप्ता की।
      • नेपोलियन ने इटली में ऑस्ट्रिया (1796 ई.) के प्रमुख को समाप्त किया।
      • फ्रांस में डायरेक्टरी के शासन का अंत 1799 ई. में हुआ।
      • पहली बार नेपोलियन 1799 ई. में कॉन्सल बना।
      • जीवनभर के लिए नेपोलियन 1802 ई. में कॉन्सल बना।
      • नेपोलियन फ्रांस का सम्राट 1804 ई. में बना।
      • आधुनिक फ्रांस का निमार्ता नेपोलियन को माना गया है।
      • इंग्लैंड को बनियों का देश सबसे पहले नेपोलियन ने कहा था।
      • स्ट्राल्फकगर का युद्ध 21 अक्टूबर 1805 ई. में इंगलैंड और नेपोलियन के बीच हुआ।
      • बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना 1800 ई. में नेपोलियन ने की।
      • नेपोलियन का कोड नेपोलियन द्वारा तैयार कानूनों का संग्रह कहा गया।
      • एल्बा के टापू पर नेपोलियन को बंदी बनाकर रखा गया था।
      • मित्र राष्ट्रों की सेना ने नेपोलियन को वॉटर लू युद्ध में (18 जून 1815 ई.) में पराजित किया।
      • नेपोलियन की मृत्यु 1821 ई. में हुई।
      • नेपोलियन को लिट्ल कारपोरल के नाम से जाना जाता था।
      • नेपोलियन के पतन का कारण रूस पर आक्रमण करना था।
      • इंगलैंड के कारोबार का बहिष्कार करने के लिए नेपोलियन ने महाद्विपीय व्योवस्था का सूत्रपात किया।
      • विएना समझौते के तहत यूरोप के देशों ने फ्रांस के प्रभुत्व को 1815 ई. में खत्म किया।
      • नेपोलियन को नील नदी के युद्ध में अंग्रेजी जहाजी बेड़े के नायक नेल्सन के हाथों बुरी तरह पराजित होना पड़ा।

      फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम

      • निरंकुश शासन का अंत कर प्रजातंत्रात्मक शासन प्रणाली की नींव डाली गई। प्रशासन के साथ-साथ सामजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
      • फ्रांस की क्रांति ने निरंकुश शासन का अंत कर लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। 
      • क्रांति के पूर्व फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों के शासक निरंकुश थे। उन पर किसी प्रकार का वैधानिक अंकुश नहीं था।
      • क्रांति ने राजा के विशेषाधिकारों और दैवी अधिकार सिद्धांत पर आघात किया। इस क्रांति के फलस्वरूप सामंती प्रथा (Feudal System) का अंत हो गया।
      • कुलीनों के विदेषाधिकार समाप्त कर दिए गए किसानों को सामंती कर से मुक्त कर दिया गया। कुलीनों और पादरियों के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गये।
      • लोगों को भाषण-लेखन तथा विचार - अभिव्यक्ति का अधिकार दिया गया। फ्रांस की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए कर प्रणाली ( tax system) में सुधार लाया गया।
      • कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका को एक-दूसरे से पृथक् कर दिया गया। अब राजा को संसद के परामर्श से काम करना पड़ता था।
      • न्याय को सुलभ बनाने के लिए न्यायालय का पुनर्गठन किया गया। सरकार के द्वारा सार्वजनिक शिक्षा की व्यवस्था की गई।
      • फ्रांस में एक एक प्रकार की शासन व्यवस्था स्थापित की गई, एक प्रकार के आर्थिक नियम बने और नाप-तौल की नयी व्यवस्था चालू की गई।
      • लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता मिली। उन्हें किसी भी धर्म के पालन और प्रचार का अधिकार मिला। पादरियों को संविधान के प्रति वफादारी की शपथ लेनी पड़ती थी।
      • फ्रांसीसी क्रांति ने लोगों को विश्वास दिलाया कि राजा एक अनुबंध के अंतर्गत प्रजा के प्रति उत्तरदायी है।
      • यदि राजा अनुबंध को भंग करता है तो प्रजा का अधिकार है कि वह राजा को पदच्युत कर दे।
      • यूरोप के अनेक देशों में निरंकुश राजतंत्र को समाप्त कर प्रजातंत्र की स्थापना की गयी ।
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      Sat, 25 Nov 2023 08:56:58 +0530 Jaankari Rakho