Jaankari Rakho & : kahaniya https://m.jaankarirakho.com/rss/category/kahaniya Jaankari Rakho & : kahaniya hin Copyright 2022 & 24. Jaankari Rakho& All Rights Reserved. गूंगी : रबीन्द्रनाथ टैगोर https://m.jaankarirakho.com/गूंगी-रबीन्द्रनाथ-टैगोर https://m.jaankarirakho.com/गूंगी-रबीन्द्रनाथ-टैगोर गूंगी
कन्या का नाम जब सुभाषिणी रखा गया था, तब कौन जानता था कि वह गूंगी होगी। इससे पहले, उसकी दो बड़ी बहनों के सुकेसिनी और सुहासिनी नाम रखे जा चुके थे। इसी से तुकबंदी मिलाने हेतु उसके पिता ने छोटी कन्या का नाम रख दिया सुभाषिणी। अब केवल सब उसे 'सुभा' ही कहकर बुलाते हैं ।
बहुत खोज और खर्च के बाद दोनों बड़ी कन्याओं के हाथ पीले हो चुके थे। अब छोटी कन्या सुभा माता-पिता के हृदय के नीरव बोझ की तरह घर की शोभा बढ़ा रही है। जो बोल नहीं सकती, वह सब कुछ अनुभव कर सकती है। यह बात सबकी समझ में नहीं आती और इसी से सुभा के सामने ही सब उसके भविष्य के बारे में तरह-तरह की चिंताफिक्र की बातें किया करते हैं, किंतु स्वयं सुभा इस बात को बचपन से ही समझ चुकी है कि उसने विधाता के शाप के वशीभूत होकर ही इस घर में जन्म लिया है । इसका फल यह निकला कि वह सदैव अपने को सब परिजनों की दृष्टि से बचाए रखने का प्रयत्न करने लगी । वह मन-ही-मन सोचने लगी कि उसे सब भूल जाएं तो अच्छा हो, लेकिन जहां पीड़ा है, उस समय पीड़ा की तरह जीती-जागती बनी रहती है ।
विशेषकर उसकी माता उसे अपनी ही किसी गलती के रूप में देखती है, क्योंकि प्रत्येक माता पुत्र की अपेक्षा पुत्री को कहीं अधिक अपने अंश के रूप में देखती है और पुत्री में किसी प्रकार की कमी होने पर, उसे अपने लिए मानो विशेष रूप से लज्जाजनक बातें समझती है । शुभा के पिता वाणीकंठ तो सुभा को अपनी दोनों बड़ी पुत्रियों की अपेक्षा कुछ अधिक ही स्नेह करते हैं, परंतु माता उसे अपने गर्भ का कलंक समझकर उससे उदासीन ही रहती है ।
सुभा को बोलने की जुबान नहीं है, लेकिन उसकी लम्बी-लम्बी पलकों में दो बड़ी-बड़ी काली आंखें अवश्य हैं और उसके ओष्ठ तो मन के भावों के तनिक से संकेत पर नए पल्लव की तरह कांप-कांप उठते हैं।
वाणी द्वारा हम जो अपने मन के भाव प्रकट करते हैं, उनको हमें बहुत कुछ अपनी चेष्टाओं से गढ़ लेना पड़ता है। बस, कुछ अनुवाद करने के समान ही समझिए और वह हर समय ठीक भी नहीं होता, ताकत की कमी से बहुधा उसमें भूल हो जाती है, लेकिन खंजन जैसी आंखों को कभी कुछ भी अनुवाद नहीं करना पड़ता। मन अपने-आप ही उन पर छाया डालता रहता है। मन के भाव अपने आप ही उस छाया में कभी विस्तृत होते और कभी सिकुड़ते हैं। कभी-कभी आंखें चमक-चमककर जलने लगती हैं और कभी उदासीनता की कालिमा में बुझ-सी जाती हैं, कभी डूबते हुए चंद्रमा की तरह टकटकी लगाए न जाने क्या देखती रहती हैं तो कभी चंचल दामिनी की तरह, ऊपर-नीचे, इधर-उधर चारों ओर बड़ी तेजी से छिटकने लगती हैं और विशेषकर मुंह के भाव के सिवाय जिसके पास जन्म से ही और कोई भाषा नहीं, उसकी आँखों की भाषा तो बहुत उदार और अथाह गहरी होती ही है। करीब-करीब साफ-सुथरे नील-गगन के समान। 
उन आंखों को उदय से अस्त तक, सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक, छवि-लोक की निस्तब्ध रंगभूमि ही मानना चाहिए। जिहाहीन इस कन्या में विशाल प्रकृति के समान एक जनहीन महानता है और यही कारण है कि साधारण लड़के-लड़कियों को उसकी ओर से किसी-न-किसी प्रकार का भय-सा बना रहता है, उसके साथ कोई खेलता नहीं । वह नीरव दुपहरिया के समान शब्दहीन और संगहीन एकांतवासिनी बनी रहती ।
गांव का नाम है चंडीपुर। उसके पार्श्व में बहने वाली सरिता बंगाल की एक छोटी-सी सरिता है। गृहस्थ के घर की छोटी लड़की के समान बहुत दूर तक उसका फैलाव नहीं है। उसको तनिक भी आलस्य नहीं, वह अपनी इकहरी देह लिए अपने दोनों छोरों की रक्षा करती हुई अपना काम करती जाती है। दोनों छोरों के ग्रामवासियों के साथ मानो उसका एक-न-एक संबंध स्थापित हो गया है। दोनों ओर गांव हैं और वृक्षों के छायादार ऊंचे किनारे हैं। जिनके नीचे से गांव की लक्ष्मी सरिता अपने-आपको भूलकर शीघ्रता के साथ कदम बढ़ाती हुई बहुत ही प्रसन्न- चित्त असंख्य शुभ कार्यों के लिए चली जा रही है।
वाणीकंठ का अपना घर नदी के बिल्कुल एक छोर पर है। उसका खपच्चियों का बेड़ा, ऊंचा छप्पर, गाय - घर, भुसे का ढेर, आम, कटहल और केलों का बगीचा हरेक नाविक की दृष्टि अपनी ओर आकर्षित करता है। ऐसे घर में, आसानी से चलने वाली ऐसी सुख की गृहस्थी में, उस गूंगी कन्या पर किसी की दृष्टि पड़ती है या नहीं, मालूम नहीं, किंतु काम-धंधे से ज्योंही उसे तनिक फुरसत मिलती, त्योंही झट से वह उस नदी के किनारे जा बैठती।
प्रकृति अपने पार्श्व में बैठकर उसकी सारी कमी को पूर्ण कर देती है। नदी की स्वर - ध्वनि, मनुष्यों का शोर, नाविकों का सुमधुर गान, चिड़ियों का चहचहाना, पेड़-पौधों की मर्मर ध्वनि, यह सब मिलकर चारों ओर के गमना-गमन आंदोलन और कम्पन के साथ होकर सागर की उत्ताल तरंगों के समान उस बालिका के चिर-स्तब्ध हृदय उपकूल के पार्श्व में आकर मानो टूट-फूट पड़ती हैं। प्रकृति के यह अनोखे शब्द और अनोखे गीत—यह भी तो गूंगी की ही भाषा है, बड़ी बड़ी आंखों और उसमें भी बड़ी पलकों वाली सुभाषिणी की जो भाषा है, उसी का मानो. वह विश्वव्यापी फैलाव है, जिसमें झींगुरों की झिनझिन ध्वनि से गूंजती हुई तृणभूमि से लेकर शब्दातीत नक्षत्र - लोक तक केवल इंगित, संगीत, क्रंदन और उच्छवास भरी पड़ी हैं। 
दोपहर को नाविक और मछुए, खाने के लिए अपने-अपने घर जाते, गृहस्थ और पक्षी आराम करते, पार उतारने वाली नौका बंद पड़ी रहती, जन-समाज अपने सारे काम-धंधों को बीच में रोककर सहसा भयानक निर्जन मूर्ति धारण करते। उस समय रुद्र महाकाल के नीचे एक गूंगी प्रकृति और एक गूंगी कन्या दोनों आमने-सामने चुपचाप बैठी रहतीं । एक दूर तक फैली हुई धूप में और दूसरी एक छोटे-से वृक्ष की छाया में ।
सुभाषिणी की कोई सहेली ही नहीं थी । गोशाला में दो गाएं हैं। एक का नाम है सरस्वती और दूसरी का नाम है पार्वती । ये नाम सुभाषिणी के मुंह से उन गार्यो ने कभी नहीं सुने, परंतु वे उसके पैरों की मंथर गति को भली-भांति पहचानती हैं। सुभाषिणी का बिना बातों का एक ऐसा करुण स्वर है, जिसका अर्थ वे भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक सरलता से समझ जाती हैं। वह कभी उन पर लाड़ करती, कभी डांटती और कभी प्रार्थना का भाव दर्शाकर उन्हें मनाती। इन बातों को उसकी ‘सारो’ और ‘पारो’ इंसान से कहीं अधिक और भली-भांति समझ जाती हैं।
सुभाषिणी गोशाला में घुसकर अपनी दोनों बांहों से जब 'सारो' की गर्दन पकड़कर उसके कान के पास अपनी कनपटी रगड़ती है, तब 'पारो' स्नेह की दृष्टि से उसकी ओर निहारती हुई, उसके शरीर को चाटने लगती है। सुभाषिणी दिन-भर में कम-से-कम दो-तीन बार तो नियम से गोशाला में जाया करती । इसके सिवाय अनियमित आना-जाना भी बना रहता । घर में जिस दिन वह कोई सख्त बात सुनती, उस दिन उसका समय अपनी गूंगी सखियों के पास बीतता । सुभाषिणी के सहनशील और विषाद- शांत चितवन को देखकर वे न जाने कैसी एक अन्य अनुमान-शक्ति में उसकी बांहों पर सींग घिस घिसकर अपनी मौन आकुलता से उसको धैर्य बंधाने का प्रयत्न करतीं। 
इसके सिवाय, एक बकरी और बिल्ली का बच्चा भी था। उनके साथ सुभाषिणी की गहरी मित्रता तो नहीं थी, फिर भी वे उससे बहुत प्यार रखते और कहने के अनुसार चलते। बिल्ली का बच्चा चाहे दिन हो या रात, जब-तब सुभाषिणी की गर्म गोद पर बिना किसी संकोच के अपना हक जमा लेता और सुख की नींद सोने की तैयारी करता। सुभाषिणी जब उसकी गर्दन और पीठ पर अपनी कोमल उंगलियां फेरती, तब तो वह ऐसे आंतरिक भाव दर्शाने लगता, मानो उसको नींद में खास सहायता मिल रही है ।
ऊंची श्रेणी के प्राणियों को और भी एक मित्र मिल गया था, किंतु उसके साथ उसका ठीक कैसा संबंध था, इसकी पक्की खबर बताना मुश्किल है, क्योंकि उसके बोलने की जिह्वा है और वह गूंगी है, अतः दोनों की भाषा एक नहीं है । 
वह था गुसाइयों का छोटा लड़का प्रताप । प्रताप बिल्कुल आलसी और निकम्मा था। उसके माता-पिता ने बड़े प्रयत्नों के उपरांत इस बात की आशा तो बिल्कुल छोड़ दी थी कि वह कोई काम-काज करके घर-गृहस्थी की कुछ सहायता करेगा।
निकम्मों के लिए एक बड़ा सुभीता यह है कि परिजन उन पर बेशक नाराज रहें, पर बाहरी जनों के लिए वे प्रायः स्नेहपात्र होते हैं। इसका कारण किसी विशेष काम में न फंसे रहने से वे सरकारी मिलकियत से बन जाते हैं। नगरों में जैसे घर के पार्श्व में या कुछ दूर पर एक-आध सरकारी बगीचे का रहना आवश्यक है, वैसे ही गांवों में दो-चार निठल्ले- निकम्मे सरकारी इंसानों का रहना आवश्यक है। काम-धंधे में, हास - परिहास में और जहां कहीं भी एक-आध की कमी देखी, वहीं वे चट-से हाथ के पास ही मिल जाते हैं ।
प्रताप की विशेष रुचि एक ही है । वह है मछली पकड़ना। इससे उसका बहुत-सा समय आसानी से कट जाता है। तीसरे पहर सरिता के किनारे पर बहुधा वह इस काम में तल्लीन दिखाई देता और इसी बहाने सुभाषिणी से उसकी भेंट हुआ करती। चाहे किसी भी काम में हो, पार्श्व में एक हमजोली मिलने मात्र से ही प्रताप का हृदय खुशी से नाच उठता। मछली के शिकार में मौन साथी ही सबसे श्रेयस्कर माना जाता है, अतः प्रताप, सुभाषिणी की खूबी को जानता है और कद्र करता है। यही कारण है कि और सब तो सुभाषिणी को ‘सुभा' कहते, किंतु प्रताप उसमें और भी स्नेह भरकर सुभा को ‘सू' कहकर पुकारता । 
सुभाषिणी इमली के वृक्ष के नीचे बैठी रहती और प्रताप पास ही जमीन पर बैठा हुआ सरिता- जल में कांटा डालकर उसकी ओर निहारता रहता। प्रताप के लिए उसकी ओर से हर रोज एक पान का बीड़ा बंधा हुआ था और उसे स्वयं वह अपने हाथ से लगाकर लाती । शायद, बहुत देर तक बैठे-बैठे, देखते-देखते उसकी इच्छा होती कि वह प्रताप की कोई विशेष सहायता करे उसके किसी काम में सहारा दे। उसके मन में ऐसा आता था कि किसी प्रकार वह यह बता दे कि संसार में वह भी एक कम आवश्यक व्यक्ति नहीं है, लेकिन उसके पास न तो कुछ करने को था और न वह कुछ कर ही सकती थी। वह मन-ही-मन भगवान से ऐसी अलौकिक शक्ति के लिए विनती करती कि जिससे वह जादू-मंतर से चट से कोई ऐसा चमत्कार दिखा सके, जिसे देखकर प्रताप दंग रह जाए और कहने लगे — 'अच्छा! 'सू' में यह करामात ! मुझे क्या पता था ?' 
मान लो, सुभाषिणी यदि जल-परी होती और धीरे-धीरे जल में से निकलकर सर्प के माथे की मणि घाट पर रख देती और प्रताप अपने उस छोटे-से धंधे को छोड़कर मणि को पाकर जल में डुबकी लगाता और पाताल में पहुंचकर देखता कि रजत-प्रसाद में स्वर्ण-जड़ित शय्या पर कौन बैठी है? और आश्चर्य से मुंह खोलकर कहता—‘अरे! यह तो अपने वाणीकंठ के घर की वही गूंगी छोटी कन्या है ‘सू’। मेरी ‘सू’ आज मणियों से जटिल, गम्भीर, निस्तब्ध पातालपुरी की एकमात्र जल-परी बनी बैठी है ।'
तो! क्या यह बात हो ही नहीं सकती, क्या यह नितांत असंभव ही है? वास्तव में कुछ भी असंभव नहीं, लेकिन फिर भी, 'सू’ प्रजा- शून्य पातालपुरी के राजघराने में जन्म न लेकर वाणीकंठ के घर पैदा हुई है और इसीलिए वह आज ‘गुसाइयों के घर के लड़के प्रताप को किसी प्रकार के आश्चर्य से अचंभित नहीं कर सकती।'
सुभाषिणी की अवस्था दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी । धीरे-धीरे मानो वह अपने आपको अनुभव कर रही है। मानो किसी एक पूर्णिमा को किसी सागर से एक ज्वर - सा आकर उसके अंतराल को किसी एक नवीन अनिर्वचनीय चेतना शक्ति से भर-भर देता है। अब मानो वह अपने आपको देख रही है। अपने विषय में कुछ सोच रही है, कुछ पूछ रही है, लेकिन कुछ समझ नहीं पाती। 
पूर्णिमा की गाढ़ी रात्रि में उसने एक दिन धीरे-से कक्ष के झरोखे को खोलकर, भय से ग्रस्त अवस्था में मुंह निकालकर बाहर की ओर देखा । देखा कि पूर्णिमा-प्रकृति भी उसके समान सोती हुई दुनिया पर अकेली बैठी हुई जाग रही है। वह भी यौवन के उन्माद से, आनंद से, विषाद से, असीम नीरवता की अंतिम परिधि तक, यहां तक कि उसे भी पार करके चुपचाप स्थिर बैठी है। एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं निकल रहा है। मानो इस स्थिर निस्तब्ध प्रकृति के एक छोर पर उससे भी स्थिर और उससे भी निस्तब्ध एक भोली लड़की खड़ी हो ।
इधर कन्या के विवाह की चिंता में माता-पिता बहुत बेचैन हो उठे हैं और गांव के लोग भी यहां-वहां निंदा कर रहे हैं। यहां तक कि जाति- विच्छेद कर देने की भी अफवाह उड़ी हुई है । वणीकंठ की आर्थिक दशा वैसे अच्छी है, खाते-पीते आराम से हैं और इसी कारण इनके शत्रुओं की भी गिनती नहीं है।
स्त्री-पुरुषों में इस बात पर बहुत कुछ सलाह-मशविरा हुआ। कुछ दिनों के लिए वाणीकंठ गांव से बाहर परदेश चले गए।
अंत में, एक दिन लौटकर पत्नी से बोले – “चलो, कोलकाता चलें?”
कोलकाता जाने की तैयारियां पूरे जोर-शोर से होने लगीं। कोहरे से ढके हुए सवेरे के समान सुभा का सारा अंतःकरण आंसुओं की भाप से ऊपर तक भर आया। भावी आशंका से भयभीत होकर वह कुछ दिनों से मूक पशु की तरह लगातार अपने माता-पिता के साथ रहती और अपने बड़े-बड़े नेत्रों से उनके मुख की ओर देखती मानो कुछ समझने का प्रयत्न किया करती, पर वे उसे, कोई भी बात समझाकर बताते ही नहीं थे ।
इसी बीच में एक दिन, शाम के समय तट के समीप मछली का शिकार करते हुए प्रताप ने हंसते-हंसते पूछा – “क्यों री 'सु' मैंने सुना है कि तेरे लिए वर मिल गया है । तू विवाह करने कोलकाता जा रही है। देखना, कहीं हम लोगों को भूल मत जाना।” इतना कहकर वह जल की ओर निहारने लगा । 
तीर से घायल हिरनी जैसे शिकारी की ओर ताकती और आंखों-ही-आंखों में वेदना प्रकट करती हुई कहती है 'मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ।'
सुभा ने लगभग वैसे ही प्रताप की ओर देखा । उस दिन वह वृक्ष के नीचे नहीं बैठी | वाणीकंठ जब बिस्तर से उठकर धूम्रपान कर रहे थे। सुभा उनके चरणों में पास बैठकर उनके मुख की ओर देखते हुए रोने लगी। अंत में बेटी को दिलासा और सांत्वना देते हुए पिता के सूखे हुए कपोलों पर आंसू की दो बूंदें ढुलक पड़ीं। कल कोलकाता जाने का शुभ मुहूर्त है। सुभा गोशाला में अपनी चिर-संगिनियों से विदा लेने के लिए गई। उन्हें अपने हाथ से सहलाकर गले में बाहें डालकर, वह अपनी दोनों आंखों से खूब जी-भरकर उनसे बातें करने लगी। उसके दोनों नेत्र अश्रुओं के बांध को न रोक सके।
उस दिन शुक्ला- द्वादशी की रात थी । सुभा अपनी कोठरी में से निकलकर उसी जाने-पहचाने सरिता-तट के कच्चे घाट के पास घास पर औंधी लेट गई । मानो वह अपनी और अपनी गूंगी जाति की पृथ्वी माता से अपनी दोनों बांहों को लिपटाकर कहना चाहती है— 'तू मुझे कहीं के लिए मत विदा कर मां ! मेरे समान तू मुझे अपनी बांहों में पकड़े रख, कहीं मत विदा कर ।'
कोलकाता के एक किराए के मकान में एक दिन सुभा की माता ने उसे वस्त्रों से खूब सजा दिया। उसका जूड़ा बांधा, उसमें जरी का फीता लपेट दिया। आभूषणों से लादकर उसके स्वाभाविक सौंदर्य को भरसक मिटा दिया। सुभा के दोनों नेत्र अश्रुओं से गीले थे। नेत्र कहीं सूख न जाएं, इस भय से माता ने उसे समझाया-बुझाया और अंत में फटकारा भी, परंतु अश्रुओं ने फटकार की कोई परवाह न की । 
उस दिन कई मित्रों के साथ वह कन्या को देखने के लिए आया । कन्या के माता-पिता चिंतित, शंकित और भयभीत हो उठे । मानो देवता स्वयं अपनी बलि के पशुओं को देखने आए हों । अंदर से बहुत डांट-फटकार बताकर कन्या के अश्रुओं की धारा को और भी तीव्र रूप देकर उसे निरीक्षकों के सम्मुख भेज दिया।
निरीक्षकों ने बहुत देर के उपरांत कहा – “ऐसी कोई बुरी भी नहीं है । " 
विशेषकर कन्या के अश्रुओं को देखकर वे समझ गए कि इसके हृदय में कुछ दर्द भी है । फिर हिसाब लगाकर देखा गया कि जो हृदय आज माता-पिता के विछोह की बात सोचकर इस प्रकार द्रवित हो रहा है। अंत में कल वह उन्हीं के काम आएगा। सीप के मोती के समान कन्या के आंसुओं की बूंदें उसका मूल्य बढ़ाने लगीं। उसकी ओर से और किसी को कुछ कहना ही नहीं पड़ा।
पात्र देखकर, खूब अच्छे मुहूर्त में सुभा का विवाह संस्कार हो गया। गूंगी कन्या को दूसरों के हाथ सौंपकर माता-पिता अपने घर लौट आए और तब कहीं उनकी जाति और परलोक की रक्षा हो सकी । सुभा का पति पछांह की ओर नौकरी करता है। विवाह के उपरांत शीघ्र ही वह पत्नी को लेकर नौकरी पर चला गया ।
एक सप्ताह के अंदर ही सब लोग समझ गए कि बहू गूंगी है, परंतु इतना किसी ने न समझा कि इसमें उसका अपना कोई दोष नहीं है। उसने किसी के साथ विश्वासघात नहीं किया है। उसके नेत्रों ने सभी बातें कह दी थीं, लेकिन कोई उसे समझ न सका । अब वह चारों ओर निहारती रहती है। उसे अपने मन की बात कहने की भाषा नहीं मिलती। जो गूंगे की भाषा समझते थे । उसके जन्म से परिचित थे। वे चेहरे उसे यहां दिखाई नहीं देते। कन्या के गहरे शांत अंतःकरण में असीम अव्यक्त क्रंदन ध्वनित हो उठा और सृष्टिकर्ता के सिवाय और कोई उसे सुन ही न सका । 
अब की बार उसका पति अपनी आंखों और कानों से ठीक प्रकार परीक्षा लेकर एक बोलने वाली कन्या को ब्याह लाया ।
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Thu, 20 Mar 2025 15:50:34 +0530 Jaankari Rakho
अब्राहम लिंकन : शहादत का सफर https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-शहादत-का-सफर https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-शहादत-का-सफर शहादत का सफर


There was a funeral. It took long to pass its many given points. Many millions of people saw it and personally moved in it and were part of its procession. The line of march ran seventeen hundred miles. As a dead march nothing live it had ever been attempted before.
-Carls Sandburg.
अब्राहम लिंकन के प्रथम राष्ट्रपति काल की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि चार साल की यह अवधि गृहयुद्ध और खून-खराबे में बीती। इस अवधि में दर्जनों जनरल बदले गए। संघीय सेनाओं और कंफेडरेट सेनाओं के बीच युद्धों में कई लाख लोगों की जानें गईं, परंतु फिर भी कोई फैसला नहीं हो पाया।
युद्धों के साए में ही राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन का समय आ गया। राष्ट्रपति लिंकन तथा उनके समर्थक यद्यपि 1864 तक आते-आते यह उम्मीद करने लगे थे कि सैनिक स्तर पर संघीय ताकतों की जीत हो जाएगी, परंतु अभी राजनैतिक विजय तथा संघीय अखंडता की बहाली का काम शेष था।
दास प्रथा से अमेरिका को पूरी तरह मुक्ति दिलाने की योजना राष्ट्रपति के सामने रखकर कई बार दास प्रथा उन्मूलन के हिमायती रेडिकल राष्ट्रपति को घेर चुके थे। डेमोक्रेट्स लिंकन की आलोचना करते हुए यह साबित करने का प्रयास कर रहे थे कि उनका पूरा कार्यकाल असफलता से भरा रहा है। उनके कार्यकाल में अमेरिका बुरी तरह बर्बाद हो गया। संघीय अखंडता अब एक स्वप्न जैसी चीज लगती है। न तो युद्ध में दक्षिणी राज्यों को पूरी तरह जीता जा सका है, न ही उनके साथ समझौते के कोई आसार नजर आते हैं। इस तर्क के साथ ही उन्होंने 1864 के चुनाव के लिए राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में मैकलीलन को मैदान में उतारा। 1864 में कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुईं। 8 मार्च को जनरल ग्रांट वाशिंगटन आया। व्हाइट हाउस में उसका भव्य स्वागत किया गया तथा राष्ट्रपति लिंकन ने उसे संयुक्त राज्य अमेरिका की संघीय सेनाओं का कमांडर इन चीफ नियुक्त किया।
7 जून को अब्राहम लिंकन का रिपब्लिकन प्रत्याशी के रूप में नामांकन भरा गया।
8 नवम्बर को लिंकन के फिर से राष्ट्रपति चुने जाने की घोषणा की गई।
8 जून से लेकर 8 नवम्बर 1864 में जो ऐतिहासिक घटनाएं घटीं, उनमें जनरल ग्रांट तथा मेजर जनरल विलियम टी. शरमन द्वारा विद्रोही राज्यों के सभी महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर जीत हासिल करना तथा अमेरिकी जनता में यह संदेश पहुंचाना बहुत महत्त्वपूर्ण था कि पिछले तीन वर्षों में लिंकन के राष्ट्रपति काल में युद्ध में जो प्रगति हुई वह तो जीत की पृष्ठभूमि मात्र थी, जिसे भाइयों के बीच होने के कारण बड़ी मुश्किल से तैयार किया जा सका। लाखों अमेरिका वासियों की शहादत के बाद इस चौथे वर्ष में अमेरिका राष्ट्रपति लिंकन के संचालन में ही यह साबित कर देगा कि बुरे दिन में सब कुछ अच्छा नहीं होता, परंतु हौसले बुलंद हों और पैर सही जमीन पर अड़े रहें तो विजय सत्य की ही होती है।
23 अगस्त, 1864 को राष्ट्रपति लिंकन ने एक पत्र तैयार किया और अपने केबिनेट मंत्रियों से इस पत्र के दूसरी ओर इसे बिना पढ़े ही अपने हस्ताक्षर करने को कहा। इस पत्र का उद्देश्य केबिनेट मंत्रियों के इस्तीफे प्राप्त करना और सारे अधिकारों को अपने हाथ में लेना था ताकि संघीय अखंडता को बचाने के लिए राष्ट्रपति स्वयं कोई फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हों।
केबिनेट की ओर से सारे अधिकार अपने हाथ में लेकर लिंकन डेमोक्रेटिस की ओर से लाए गए राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी जनरल मैकलीलन से एक अलिखित समझौता करना चाहते थे कि वह मिलिट्री ताकत के जरिए विद्रोही राज्यों को घुटने टिकाने और संघीय अखंडता बहाल करने के लिए राष्ट्रपति के साथ मिलकर एक साझा मुहिम चलाएं। सफलता मिलने पर राष्ट्रपति लिंकन अगले चुनाव के लिए अपनी दावेदारी वापस ले लेंगे और जनरल मैकलीलन को अगला राष्ट्रपति चुने जाने के लिए रास्ता साफ कर देंगे।
राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को अमेरिका का फिर से राष्ट्रपति बनने की इतनी चाह नहीं थी जितनी कि संघीय सेनाओं द्वारा युद्ध में अंतिम जीत हासिल करने तथा संघीय अखंडता फिर से कायम करने की थी।
इसके लिए उन्होंने एड़ी-चोटी तक का बल लगा दिया, परंतु वैसा नहीं हो पाया, जैसा वे चाहते थे। राष्ट्रपति के केबिनेट मंत्रियों ने अपने पदों से इस्तीफे देकर राष्ट्रपति को सारे अधिकार दे दिए कि वे देश की विजय व अखंडता के लिए चाहे जो फैसला लें, परंतु डेमोक्रेट्स तथा उनके प्रत्याशी जनरल मैकलीलन ने राष्ट्रपति लिंकन को सहयोग नहीं दिया। 29 अगस्त, 1864 को हुए शिकागो डेमोक्रेटिक कनवेंशन में डेमोक्रेटिक पार्टी ने एक प्रस्ताव पास कर यह घोषणा कर डाली कि राष्ट्रपति लिंकन की युद्ध नीति पूरी तरह असफल रही है तथा संविधान की मर्यादाओं का हर तरह से हनन हुआ है।
डेमोक्रेटिक पार्टी के असहयोग से, गृहयुद्ध की स्थिति में भी राजनीति करने की चालों से लिंकन को बहुत दुख पहुंचा। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि डेमोक्रेटिक पार्टी के अनुभवी और विद्वान नेता राष्ट्र के संकट की घड़ी में भी सस्ती राजनीति करेंगे और इस जिम्मेदारी को बिल्कुल भुला देंगे कि युद्ध और आपात काल में विपक्षी तथा सत्तारूढ़ दल मिलकर लोकतंत्र में राष्ट्रहित में राजनीति से ऊपर उठकर फैसले लिया करते हैं। लिंकन बहुत उदास हुए। 29 अगस्त की रात को उन्हें बिल्कुल भी नींद नहीं आई। सारी रात वे चहल-कदमी करते रहे, उनकी पत्नी ने बार-बार उन्हें आराम करने की सलाह दी, परंतु उनका एक ही जवाब था- "जब मेरा देश जल रहा है, तब मुझे नींद कैसे आ सकती है। मैं नहीं जानता था कि राजनीति मनुष्य को इतना नीचे गिरा सकती है कि राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित होने की शपथ लेने के बाद राजनेता राष्ट्र के संकट की घड़ी में भी उसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं।"
उन्होंने रात-भर ईश्वर से प्रार्थना की -“यदि मैंने तन-मन से, पूरी निष्ठा से राष्ट्र की सेवा की है, यदि मैं अपनी जगह बिल्कुल ठीक हूं तो हे सर्वशक्तिमान ईश्वर मेरी मदद कर। अमेरिका की संघीय सेनाएं जीत दर्ज करें। अमेरिकी संघ को कोई आंच न आए।
अगले दिन सुबह जब लिंकन सोने और जगने के बीच की स्थिति से गुजर रहे थे तब उन्हें जनरल शरमन का टेलीग्राम मिला। उसमें लिखा था—'Atlanta is ours and fairly won.'
इस टेलीग्राम को पढ़ते ही लिंकन खुशी से उछल पड़े। उनकी प्रार्थना सुन ली गई थी। संघीय सेनाओं की यह जीत इतनी महत्त्वपूर्ण थी कि उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। इसके बाद जनरल ग्रांट और युवा जनरल शेरीडन ने शेनान्डोह घाटी में अपनी सेनाएं उतार दीं और कंफीडरेट सेनाओं को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद एक के बाद एक जीतों का ऐसा सिलसिला चला कि पूरे अमेरिका में लिंकन की जय-जयकार हो गई। अब पासा पलट चुका था। अमेरिका की जनता लिंकन को युद्ध के विजेता के रूप में स्वीकार कर चुकी थी और अगले चुनावों में उसने अपने लोकप्रिय नेता को फिर से राष्ट्रपति चुनकर उसे विजय का उपहार देने का फैसला कर लिया था।
8 नवम्बर, 1864 को लिंकन चुनाव में विजयी हुए। उन्हें 2203831 मत मिले तथा उनके प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक प्रत्याशी जनरल मैकलीलन को 1797019 मत प्राप्त हुए। अब्राहम लिंकन का फिर से अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जाना विजय का इतिहास बनाती संघीय सेनाओं तथा संविधान में परिवर्तन कर दास प्रथा को मुक्ति दिलाने तथा संघीय अखंडता बहाल कराने की उम्मीद रख रही अमेरिकी जनता के लिए आशा और उमंग का प्रतीक था।
दास प्रथा समाप्त
31 जनवरी, 1865 को फिर से निर्वाचित राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि इसी दिन संविधान में परिवर्तन कर दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा कर दी।
दास प्रथा के समाप्त होते ही पूरे अमेरिका में जश्न का माहौल पैदा हो गया। दास प्रथा विरोधियों में अब्राहम लिंकन की जय-जयकार होने लगी।
जब लिंकन ने संविधान में परिवर्तन करने के बाद दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा की तो सदन में ऐसा लगा जैसे कोई विस्फोट हो गया है। कांग्रेस के सदस्यों ने तालियों की गड़गड़ाहट और खुशी की तेज आवाजों के बीच इस घोषणा का स्वागत किया। नोआ ब्रूक्स ने इस घोषणा पर सदन की प्रतिक्रिया को इन शब्दों में व्यक्त किया है-
"There was an explosion, a storm cheers, the like of which probably no congress of the United States ever heard before. Strong men embrassed each other with tears."
दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अब्राहम लिंकन ने यह बात बहुत गहराई से महसूस की कि दास प्रथा अमेरिकी समाज के माथे पर बहुत बड़ा कलंक है। इसी बुराई के कारण, इसको हटाने के विचार मात्र से गृह युद्ध आरंभ हुआ। पिछले चार वर्ष में लाखों लोगों की जानें जा चुकी हैं, युद्ध अब भी जारी है, फिर क्यों न सबसे पहले इस कलंक को ही धोया जाए, जो अमेरिका के विनाश का कारण बन चुका है और उनके राष्ट्रपतित्व के लिए एक चुनौती है।
लिंकन ने कहा—“With malice towards none, with charity for all, with firmness in the right as God gives us to see the right, let us strive on to finish the work we are in, to bind up the nation's wounds, to care for him who shall have won the battle, and for the widow and his orphans to do all which may achieve and charish a just lasting peace, among ourselves and with all nations."
दासता समाप्त करने के बाद लिंकन ने पूरा ध्यान संघ को बचाने पर लगा दिया। यद्यपि इस बात का खतरा चारों ओर मंडरा रहा था कि जो अमेरिकन नागरिक लिंकन के दासता समाप्त करने वाले फैसले से सहमत नहीं हैं, वे राष्ट्रपति के जीवन पर हमला कर सकते हैं। इतना बड़ा ऐतिहासिक कदम उठाने के बाद राष्ट्रपति को अपनी सुरक्षा कड़ी कर लेनी चाहिए, परंतु लिंकन ने यह बात नहीं मानी। उन्होंने कहा- "जब मेरा पूरा देश घायल पड़ा कराह रहा है, जब अमरीकी अमरीकी का खून बहाने पर विवश है, ऐसे में मैं अपनी जान की हिफाजत करने में लग जाऊं, यह घोर कायरता होगी और सच्चाई से पलायन भी। मैंने जो किया है, अमेरिका के हित में किया है, मानवता के हित में किया है। अब यदि कुछ यह मानते हैं कि मैं गलत हूं तो उनके हाथ खुले हैं, इस देश के नागरिक होने के नाते वे अपने राष्ट्रपति को जो चाहें सजा दे सकते हैं, राष्ट्रपति को इससे इंकार नहीं है। "
वो रात-दिन हर मोर्चे पर भाग-भागकर पहुंचते और अपने कमांडरों, जनरलों तथा सैनिकों के हौसले बढ़ाते। कमांडरों से वे यही कहते कि जितने जल्दी हो इस युद्ध को समाप्ति की ओर ले जाओ, परंतु हम यह जानते हैं कि हम सच्चाई के लिए लड़ रहे हैं, सही के लिए लड़ रहे हैं, तुम कहीं भी किसी भी तरह गलत नहीं हो, अत: हमारे लिए जीतना अनिवार्य है ताकि दुनिया में गलत संदेश न जाए और सच्चाई के लिए लड़ने वालों के मनोबल कम न हों।
जनरल मीडी के साथ जब लिंकन पीटसवर्ग में थे युद्ध क्षेत्र का निरीक्षण कर रहे थे तब एक सैनिक अधिकारी ने उन्हें सूचना दी–“एक कंफीडरेट सैनिक ने युद्ध क्षेत्र में दम तोड़ने से पहले अपनी मां को याद किया, इतना अधिक कि वह रो पड़ा और फिर उसने दम तोड़ दिया। "
ये शब्द सुनते ही लिंकन भावुक हो उठे और उनकी आंखों में आंसू आ गए और मुंह से ये शब्द निकले–“Robbing the craddle and the grave" (इस युद्ध ने पालने से लेकर कब तक सब कुछ नष्ट कर दिया है।)
जनरल ग्रांट ने लिंकन से पूछा–“मिस्टर प्रेसिडेंट क्या कभी आपने अपनी विजय पर संदेह भी किया था?"
लिंकन ने फौलादी दृढ़ता से जवाब दिया– “नहीं, एक क्षण को भी नहीं।
9 अप्रैल की रात को संयुक्त राज्य अमेरिका के कमांडर इन चीफ जनरल ग्रांट का टेलीग्राम राष्ट्रपति को मिला। इसमें लिखा था—'जनरल ली ने आज सुबह उत्तरी वर्जीनिया में मेरी शर्तों के अनुसार अंतिम आत्मसमर्पण कर दिया है। ली पूरी सैनिक शान-शौकत से वर्दी पहनकर मेरे सामने उपस्थित हुआ और मुझे लगा कि वह मेरे साथ बातचीत करने आया है, परंतु मुझे तब बड़ा आश्चर्य हुआ जब उसने कहा–जनरल ग्रांट मुझे यह बताओ कि मुझे किन शर्तों पर तुम्हारे सामने समर्पण करना है। मैंने उसे अपनी पहले से ही तैयार शर्तें सुना दीं— और उसने उन सबको मानते हुए समर्पण कर दिया।'
संघीय सेनाओं की पूरी तरह जीत हो चुकी थी। केवल नेवी जनरल शरमन से जीत की खबर का उसे बेसब्री से इंतजार था। उसे उम्मीद थी कि शरमन भी विजय प्राप्त कर चुका होगा और कंफीडरेट सेनाओं की अंतिम सैन्य टुकड़ी पर विजय प्राप्त कर उसका जहाज तेजी से किनारे की ओर लौट रहा होगा। वह शीघ्र ही सूचना देगा– 'इस मोर्चे पर भी हमारी फतह। अब हम पूरी तरह युद्ध जीत गए।
परंतु इन सबके बावजूद लिंकन के चेहरे पर विजेता की प्रसन्नता का कोई चिन्ह दूर-दूर तक नजर नहीं आता था।
इस युद्ध में दोनों ओर से शहीद हुए लाखों सैनिकों, उनकी विधवाओं तथा अनाथ बच्चों का ख्याल उनके जेहन से एक क्षण को भी नहीं निकल पा रहा था तथा संघीय एकता कैसे स्थापित होगी, यह चिंता भी उन्हें सताए जा रही थी।
आंखों में आई थी खुशी की एक चमक और बुझ गई
शुक्रवार को राष्ट्रपति लिंकन बहुत खुश थे। उनके दिमाग में एक ही बात चल रही थी कि पुरानी बातें भुलाकर दक्षिणी राज्यों तथा अन्य बागी राज्यों को फिर से अमेरिकी संघ में कैसे शामिल किया जाए। दक्षिणी सेनाओं का कमांडर इन चीफ जनरल ली अब उनके कब्जे में था। अन्य अनेक जनरल गिरफ्तार किए जा चुके थे।
राष्ट्रपति लिंकन जनरल ली तथा अन्य सभी जनरलों से मिले। उनके दिल में यह शिकायत लेशमात्र भी नहीं थी कि वे दक्षिण की ओर से क्यों लड़े। वे सारे कंफीडरेट जनरलों को अपना मित्र मान रहे थे और संघीय समझौता हो जाने के बाद उन सबको माफ करने का उन्होंने मन बना लिया था। जनरल ली से मिलकर उन्होंने कहा–“Frighten the hatred and revenge out of country. Enough blood has been shad. Open the gates, let down the bars, scare them off."
अपनी पत्नी के साथ दोपहर बाद गाड़ी में घूमने गए। उन्होंने अपनी पत्नी से रास्ते में कहा – “देखो मैरी! जब से मैं राष्ट्रपति बना हूं, पता ही नहीं चला, पूरे चार साल युद्ध में बीत गए, इस बीच हमारा प्यारा बेटा विली हमें गहरी चोट देकर परलोक सिधार गया। अब लगता है कि हमारा भविष्य अच्छा होगा। युद्ध अब समाप्त है, बस किसी तरह शांतिपूर्ण ढंग से संघीय एकता कायम हो जाए।"
लौटकर व्हाइट हाउस आए तब उनके चेहरे पर मुस्कान थी और पहली बार खुशी के चिन्ह दिखाई पड़े थे।
उन्होंने मन बनाया कि फोर्ड थियेटर में नाटक देखा जाए। थोड़ा मन हल्का हो जाएगा। बहुत दिनों से पीड़ा और घावों की टीस ढोते-ढोते मन बोझिल हो चुका है। आज थोड़ा समय मानसिक सुकून के लिए निकाला जाए। थियेटर में America Cousin नामक नाटक चल रहा था।
रात को साढ़े आठ बजे व्हाइट हाउस की कोच में बैठकर राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन अपनी पत्नी मैरी टॉड तथा मेजर रेंथबोन व मिस हेरिस के साथ थियेटर पहुंचे। थियेटर के सामने कोच रुकते ही राष्ट्र के प्रथम पुरुष राष्ट्रपति लिंकन पत्नी व मेहमानों के साथ कोच से उतरे।
थियेटर के विशेष केबिन में शाही मेहमानों के लिए बैठने की व्यवस्था की गई थी। मेजर रेंथबोन तथा मिस हेरिस को राष्ट्रपति ने बड़े प्यार से सामने की सीट पर बैठाया और स्वयं पीछे की सीट पर अपनी पत्नी के साथ बैठ गए। नाटक शुरू हो गया। मेजर ने मिस हेरिस का हाथ अपने हाथ में ले लिया। राष्ट्रपति ने जब यह देखा तो उन्होंने भी अपना हाथ मैरी के हाथ को पकड़ने के लिए बढ़ाया। तब मैरी ने कहा– "छोड़िए न मेजर रेंथबोन क्या कहेंगे। "
"नहीं। वे कुछ नहीं कहेंगे, वे तो सामने देख रहे हैं।" राष्ट्रपति ने रोमांटिक होते हुए कहा और अपनी पत्नी को खींचकर अपने से सटा लिया।
जॉन विल्कस बूथ नामक युवक पहले थियेटर में काम कर चुका था। वह दक्षिण का रहने वाला था। दक्षिणी राज्यों की हार से और राष्ट्रपति लिंकन की जीत से वह बुरी हर खिसिया गया था। काले नीग्रो लोगों को दासता से मुक्त किए जाने का वह घोर विरोधी था।
उसे जब यह पता लगा कि राष्ट्रपति लिंकन विशेष केबिन में अपनी पत्नी के साथ थियेटर में नाटक देख रहे हैं और उनके साथ वहां कोई सुरक्षा गार्ड नहीं है, न ही कोई हथियार है, तो उसने राष्ट्रपति की हत्या के लिए इसे बहुत उचित अवसर माना। वह कुछ ऐसा कर दिखाने के लिए वर्षों से तड़प रहा था जिससे दक्षिणी राज्यों की दृष्टि में वह ऊंचा उठ जाए, घर-घर उसकी चर्चा हो। अखबार में उसके फोटो छपें।
उसे लगा कि थियेटर में निहत्थे राष्ट्रपति की हत्या करके वह दक्षिण की हार का बदला भी चुका सकता है, दास प्रथा की समाप्ति के विरुद्ध अपनी असहमति भी प्रकट कर सकता है और देश-भर में चर्चित भी हो सकता है।
थियेटर के चप्पे-चप्पे से बूथ परिचित था। जब नाटक का तीसरा दृश्य चल रहा था और लोगों का ध्यान पूरी तरह दृश्य में केंद्रित था, वह दाहिने हाथ में पिस्तौल तथा बाएं हाथ में कटार लिए छिपते-छिपाते केबिन के पिछवाड़े पहुंच गया। जिस स्थान पर लिंकन की कमर थी उसे निशाना बनाते हुए उसने बहुत पास से पिस्तौल से गोली चलाई और नाटकीय ढंग से नारा लगाया – " Sic Sember Tyrannus.
शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक जूलियस सीजर में सीजर की हत्या करते समय ब्रूटस ने ये ही शब्द कहे थे।
गोली राष्ट्रपति के सिर के पिछले हिस्से में लगी और दिमाग में घुस गई। राष्ट्रपति उल्टे गिर गए, मैरी उनके ऊपर गिर पड़ी। मेजर रेंथबोन फुर्ती से हत्यारे पर झपटे, परंतु उसने खुली कटार से वार करते हुए उन्हें घायल किया और तुरंत केबिन की रेलिंग से ग्यारह फुट नीचे सीधा स्टेज पर कूद गया। कूदते समय झंडे में उसका पैर उलझ गया, उसका पैर टूट गया, लेकिन फिर भी पता नहीं कैसे लंगड़ाते-लंगड़ाते गायब हो गया और बाद में पकड़ा गया।
मैरी लिंकन की दर्द-भरी चीखों से थियेटर गूंज उठा। पूरे थियेटर में भगदड़ मच गई। सेना का युवा डॉक्टर केबिन में पहुंचा। मैरी का रोते-रोते बुरा हाल था। राष्ट्रपति का खून केबिन के फर्श पर बह रहा था।
बड़ी मुश्किल से राष्ट्रपति के घायल शरीर को केबिन से निकालकर चिकित्सा के लिए ले जाया गया। डॉक्टरों ने बहुत कोशिश की कि वे अपने महान राष्ट्रपति की जान बचा लें, परंतु गोली दिमाग में ऐसी सम्वेदनशील जगह पर लगी थी कि उन्हें न बचाया जा सका।
राष्ट्रपति लिंकन की अचानक हत्या से पूरे अमेरिका में हड़कम्प मच गया जिसने सुना वही दहल गया। लाखों महिलाएं चीख-चीखकर रो पड़ीं। हजारों सैनिकों और सैन्य अधिकारियों की आंखों में आंसू आ गए। पत्नी मैरी और बेटों का तो रोते-रोते इतना बुरा हाल हो गया कि वे अपने आपको संभाल ही नहीं पा रहे थे। ऐसी अनहोनी हुई थी अमेरिका में वह भी ऐसे महान जन-नायक महा मानवतावादी, राष्ट्रवादी लिंकन के साथ। लोग अपने दिल पर लगी चोटों को सह नहीं पा रहे थे।
दक्षिणी राज्यों के बागी, बगावत के लिए जिम्मेदार लोग, अमेरिकी संघ को नुकसान पहुंचाने वाले लोग कंफीडरेट सेनाओं के गिरफ्तार जनरल तक राष्ट्रपति लिंकन की जघन्य हत्या से सन्न रह गए, लिंकन ने साढ़े चार वर्ष में युद्ध के दौरान अपनी मानवीय भूमिका से विरोधियों के भी दिल जीत लिए ।
संघीय सेनाओं के सारे जनरल जो राष्ट्रपति लिंकन के साथ जीत का जश्न मनाने की प्रतीक्षा कर रहे थे राष्ट्रपति की हत्या से अधकटे वृक्ष की तरह जहां के तहां खड़े रह गए। जनरल ग्रांट तो भावुक होकर रो पड़े। उनसे सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ और शराब पीने बैठे तो पीते ही चले गए और नशे में होश गंवाकर गिर पड़े।
सबसे ज्यादा रोए दक्षिणी राज्यों के चालीस लाख नीग्रो। जिस महान राष्ट्रपति ने उन्हें दासता से मुक्त किया था, वे उसका शुक्रिया अदा करना चाहते थे, उसके चरणों में गिरकर रोना चाहते थे, ताकि अपनी खुशी का इजहार आंसुओं से कर सकें, परंतु क्रूर विधाता ने उनसे वह अवसर छीन लिया। जब उन्हें पता लगा कि किसी 'बूथ' नामक व्यक्ति ने निर्ममता से, राष्ट्रपति को मार डाला है तो रोते-रोते उनकी आंखों में हत्यारे के प्रति खून उतर आया।
लिंकन परिवार तो ढह गया। पत्नी मैरी अपने तीनों बेटों को सीने से लगाकर रोती, पागलों की तरह चीखती और बेहोश हो जाती थीं।
फिर लिंकन का जनाजा निकला। चालीस लाख लोगों का विशाल काफिला। रोते-सिसकते आंसू बहाते लोग ही लोग।
वाशिंगटन से स्प्रिंगफील्ड तक काफी लम्बा काफिला, जनाजे के पीछे चला। रास्ते में जो जहां था वहीं से काफिले में शामिल हो गया और जहां तक वह चल सकता था साथ चला। उनके शरीर को स्प्रिंगफील्ड में दफनाया गया था। यहां लिंकन का अपना घर था। उनके सैकड़ों हितैशी व मित्र थे।
लिंकन के वकालत के साथी हेंडरसन ने डबडबाई आंखों से वकालत स्थल पर लगे उस बड़े बोर्ड को देखा जिस पर लिंकन व हेंडरसन लिखा था। उन्होंने उस बोर्ड को लक्ष्य करके यह कहा- “तू मुझे धोखा दे गया न! तू तो कहता था, राष्ट्रपतिकाल पूरा करके फिर स्प्रिंगफील्ड आएगा और मेरे साथ फिर वकालत करेगा, इसी आशा में यह बोर्ड तेरे कहे अनुसार मैंने नहीं हटाया। अब तू स्प्रिंगफील्ड आया भी है तो इस हालत में... मेरे राष्ट्रपति... मेरे दोस्त बता मैं अब क्या करूं, क्या अब भी यह बोर्ड यूं ही लगा रहने दूं या इसे उखाड़ फेंकूं।" कहते कहते हेंडरसन रो पड़े।
पति की मृत्यु के बाद मैरी लिंकन अपने बेटों के साथ अपने घर में न रह सकीं। वे अपनी बहन के साथ उन्हीं के घर में गईं। जिस पलंग पर मैरी लिंकन अपने राष्ट्रपति पति के साथ सोया करती थीं, उसे वे अपने साथ ले आई थीं। अपनी बहन के घर के एक कमरे में उन्होंने वह पलंग डलवाया था। वे बिल्कुल चुप रहती थीं। रात को जब सोतीं तो पलंग की वह जगह खाली छोड़ देती थीं जिस पर राष्ट्रपति लिंकन सोया करते थे।
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Sun, 11 Jun 2023 02:47:59 +0530 Jaankari Rakho
अब्राहम लिंकन : इस तरह जीती जंग https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-इस-तरह-जीती-जंग https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-इस-तरह-जीती-जंग We have highly resolved that these deads shall not have died in vain that this nation, under God, shall have a new birth of freedom and that government of the people, by the people, for the people shall not perish from earth.
-Abraham Lincoln
अब्राहम लिंकन ने 1860 के अंतिम महीनों में जब अमेरिका का राष्ट्रपति बनने का फैसला लिया, लगभग उसी समय अमेरिका में दास प्रथा को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से दक्षिण के राज्यों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के संघ से अपने आप को अलग करने का मन बना लिया था।
कारण यह था कि दक्षिण के चार राज्यों में नीग्रो निवास करते थे जिनकी 40 लाख की आबादी दक्षिणी राज्यों की खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था का आधार थी। ग्रेट ब्रिटेन मूल के अंग्रेजों ने दक्षिणी राज्यों में जंगलों को काट-काटकर बड़े-बड़े फार्म बनाए थे और वे नीग्रो जाति के काले लोगों को जानवरों की तरह इन फार्मों पर काम करने के लिए इस्तेमाल करते थे।
काले लोगों के प्रति गोरों के नृशंस व्यवहार से अमेरिका के उत्तरी भाग के निवासी बहुत दुखी थे। दुनिया भर में इस बात के लिए अमेरिकन बदनाम हो रहे थे कि वे दास प्रथा के हिमायती हैं और चमड़ी के रंग के आधार पर मनुष्यों के साथ इतना अन्याय करते हैं कि उन्हें भागने के डर से जंजीरों में बांधकर रखते हैं और छोटी-छोटी गलतियों पर उन्हें दर्दनाक यातनाएं देते हैं।
काले लोगों को गोरों के अमानवीय शोषण से बचाने के लिए उन्हें दासता से मुक्त कराकर इंसानों की तरह जीने के अधिकार दिलाने की मांग को लेकर अनेक संगठन सक्रिय हो गए थे। दक्षिण में इन संगठनों ने अधिक सक्रियता दिखाई क्योंकि इन्हीं राज्यों में काले लोग रहते थे। कालों को दासता मुक्त कराने का संकल्प लेकर तीन दशक पहले राजनीति में उतरे लिंकन ने 1854 से लेकर 1860 तक अपने भाषणों तथा प्रचार से पूरे देश में यह संदेश पहुंचा दिया था कि वे दास प्रथा के कट्टर विरोधी हैं और यदि उन्हें कभी अमेरिका की कानून और व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का मौका मिला तो वे ऐसा कानून बनाने से नहीं चूकेंगे जिसके तहत गुलामों को दासता से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाएगा।
जब लिंकन ने राष्ट्रपति पद के लिए अपना नामांकन भरा तो दक्षिण के वे सभी प्रभावशाली लोग चौकन्ने हो गए जो गुलामों की मेहनत से अमीर बने हुए थे और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्हें साधन के रूप में इस्तेमाल करने के रंगी ख्वाबों में खोए रहते थे। उनको लगा कि लिंकन को उत्तर के 23 राज्यों में भारी समर्थन मिलेगा और उसे राष्ट्रपति पद पर पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता। उनमें से कुछ तो लिंकन को रोकने के लिए सक्रिय हो गए और उन्होंने ऐसी नाकेबंदी की कि दक्षिण में लिंकन को एक भी वोट न मिल सके, कुछ इतने हताश हो गए थे कि वे यह मान बैठे कि लिंकन को वोट के हथियार से सत्ता में आने से रोका नहीं जा सकता, अत: भलाई इसी में है कि लिंकन जीतकर अमेरिका पर शासन करे, इससे पहले ही अपने राज्य को अमेरिकी संघ से अलग कर लिया जाए ताकि लिंकन का कानून उन पर लागू न हो सके।
दिसम्बर 1860 में विघटन की प्रक्रिया शुरू हो गई। फरवरी 1861 तक लिंकन के जीतकर आने और चार्ज संभालने से पहले ही दक्षिण के छः तथा पश्चिम के एक राज्य ने संघ से अलग होने की घोषणा कर दी और नए संघ का गठन कर इन राज्यों ने अपनी अंतरिम सरकार के तहत संयुक्त राज्य अमेरिका से अपने आपको हमेशा के लिए अलग कर लिया। तीन और राज्य अमेरिकी संघ से अलग हो गए। इस प्रकार ग्यारह राज्यों ने मिलकर अपने आपको इतनी बड़ी ताकत बना लिया कि वे इस बात पर इतराने लगे कि अब लिंकन उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। कपास की खेती की सम्पन्नता पर खड़ा उनका साम्राज्य नीग्रो गुलामों की मेहनत के भरोसे दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनेगा और शेष अमेरिका को ठेंगा दिखाएगा।
मार्च में सत्ता संभालने के बाद लिंकन ने विद्रोही दक्षिणी राज्यों पर सैनिक कार्यवाही का आदेश दिया, परंतु लिंकन क्योंकि दक्षिणी राज्यों के निवासियों को भी अपना भाई ही मानते थे, अत: वे उनके प्रति अत्यधिक उग्र कार्यवाही से बचते रहे। बड़ी संकट की घड़ी थी उनका अपना गृह राज्य कंटुकी जहां उनका जन्म हुआ था, भी इन्हीं ग्यारह राज्यों में शामिल था। इन राज्यों पर कठोर प्रहार करने में लिंकन का दिल बैठता था। वे केवल यह चाहते थे कि दक्षिण के राज्य अपनी भूल महसूस करें और फिर से अमेरिकी संघ में शामिल हो जाएं। जहां तक दास प्रथा की समाप्ति का तथा नीग्रो लोगों के साथ न्याय करने का सवाल था, लिंकन उसके लिए दूसरे हल तलाशने को तैयार थे। किसी भी हालत में वे अमेरिकी संघ का विघटन नहीं चाहते थे, परंतु हालात ऐसे बिगड़ गए कि उनकी नाक के नीचे अमेरिकी संघ का विघटन हो चुका था और भाई ही भाई के खून का प्यासा बनकर एक-दूसरे की गर्दन पर नंगी तलवार से वार कर रहा था।
होरेस ग्रीली को अपने प्रसिद्ध पत्र में अब्राहम लिंकन ने दास प्रथा और अमेरिकी संघ को लेकर जो धारणा उनके मन में थी, उसे स्पष्ट करते हुए लिखा था–
'मेरे संघर्ष का सबसे पहला उद्देश्य संघ को बचाना है। यदि संघ को बचाने के लिए मुझे दासता को समाप्त करने का अभियान रोकना पड़ा, तो मैं इसे रोक दूंगा। यदि संघ को बचाने के साथ-साथ दास प्रथा समाप्त कर सका तो अवश्य करूंगा, मेरे मन में काले लोगों के साथ न्याय करने तथा दास प्रथा से उन्हें मुक्ति दिलाने की बात भी इसलिए है क्योंकि मैं जानता हूं कि यह बुराई राष्ट्रीय विघटन का कारण बन सकती है, इसका मिटना संघीय अखंडता के हित में होगा। मैं जो कार्यवाही करने में संकोच कर रहा हूं और सहनशीलता व धैर्य का परिचय दे रहा हूं, वह भी इसीलिए है क्योंकि मुझे लगता है कि ऐसा करना संघीय एकता बहाल करने में सहयोगी होगा। जब मुझे लगता है कि धीमा चलने से संघ बचेगा तो मैं धीमा हो जाता हूं और जब मुझे लगता है कि तेजी से वार करने से संघ बचेगा तो मैं तेजी से वार करता हूं।'
सन् 1858 में डगलस के खिलाफ बहस में बोलते हुए दास प्रथा को केंद्र में रखकर अपनी तथा अपनी पार्टी की नीतियों को स्पष्ट करते हुए लिंकन ने कहा था— “जिन लोगों को दास बनाकर अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं वे तथा उनके समर्थक यह मानते हैं कि दास प्रथा गलत है, जबकि गुलामों के साथ अमानवीय व्यवहार करने वाले लोग यह मानते हैं कि दास प्रथा गलत नहीं है, लेकिन मैं और मेरी रिपब्लिकन पार्टी यह साफ-साफ कहती है कि देश में दास प्रथा को बनाए रखने की धारणा ही गलत है। "
लिंकन के ये शब्द दास प्रथा के समर्थकों के लिए भारी चुनौती थे। इन शब्दों को सुनने के बाद वे लिंकन की ओर से बेखबर कैसे रह सकते थे।
लॉर्ड लोंगफोर्ड ने इस पर टिप्पणी करते हुए अपनी पुस्तक 'अब्राहम लिंकन' में कहा है—"The southern slave owners could be forgiven for believing that however inhumane his intention, this man Abraham Lincoln represented the ultimate threat to their system.
सितम्बर 1862 में जब गृह युद्ध अपने चरम पर था लिंकन ने यह फैसला कर लिया था कि वे विद्रोही राज्यों के सारे गुलामों को मुक्त कर देंगे। 1 जनवरी, 1863 को अपने फैसले की घोषणा करने का मन भी उन्होंने बना लिया था, परंतु दो कारणों से यह काम उन्हें रोक देना पड़ा-एक, यह कि ऐसा करने से केवल विद्रोही राज्यों के दास मुक्त हो जाते, सीमावर्ती राज्यों में रहने वाले गुलाम तो फिर भी रह जाते, दूसरे यह कि ऐसा करने से पहले उन्हें दो मोर्चों पर फतह हासिल करना अभी बाकी था—एक विद्रोही राज्यों पर विजय, दूसरे उनमें रहने वाले लोगों के हृदयों पर विजय।
लॉर्ड लोंगफोर्ड के शब्दों में—“Another element in his thought became more and more evident his determination to win a millitary victory indeed, but just as emphatically to win the hearts and minds of the South rather than crush them, degrade them or ruin them.
जब हम अमेरिका के गृहयुद्ध की गहराई में पहुंचते हैं तो पता लगता है कि जिस तरह लिंकन ने डगलस के साथ बहस के दौरान चुनाव प्रचार के समय दास प्रथा का मामला उठाया, उसके कारण ही यह धारणा बनी कि लिंकन दास प्रथा विरोधी कानून अवश्य बनाएंगे और दास प्रथा के समर्थकों ने विरोधियों के विरुद्ध अपनी तलवारें निकाल लीं। दास प्रथा के समर्थक संघ तोड़कर अलग हुए और उन्होंने विरोधियों की दुनिया से अपनी दुनिया अलग बसाने का फैसला ले लिया।
गृहयुद्ध से निबटने के लिए जो कदम लिंकन ने उठाए— प्रहार करने और सहलाते जाने का जो अनोखा तरीका अपनाया, इसके कारण लिंकन राष्ट्रपति पद की पहली बार शपथ लेने से लेकर दूसरी बार शपथ लेने तथा अपने जीवन की अंतिम सांस तक इतने कष्ट में रहे कि एक भी सांस चैन से नहीं ले पाए।
कभी वे विद्रोही राज्यों पर वार करते समय अपने जनरलों को सख्ती बरतने से रोकने की सलाह देते देखे गए तो कभी ताबड़-तोड़ हमले कर जल्दी से युद्ध जीतकर संघ से छूटे राज्यों को संघ में फिर से मिला लेने की बेचैनी से प्रेरित हो उन्हें आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए कहते हुए तथा त्वरित कार्रवाई न करने पर जनरलों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करते हुए देखे गए।
1861 से लेकर 1864 तक, जब तक विद्रोही राज्यों ने घुटने नहीं टेक दिए, तब तक लिंकन कभी चैन की नींद न सो सके। उनका व्यवहार कई बार पहले वाले व्यवहार से विपरीत होता, उनका अगला आदेश कई बार पहले वाले आदेश का उलट होता। अपनी इन हरकतों के कारण अनेक बार वे उपहास का पात्र बने। आलोचना के शिकार भी हुए और अपनी ही सेनाओं की हार के कारण भी बने, परंतु अपने चरित्र में बसी इंसानियत और हमदर्दी का दामन वे कभी छोड़ नहीं पाए। पता नहीं क्यों उन्हें ऐसा लगा करता था कि यह दामन ही भाई के हाथों भाई को लगे घावों की मरहम पट्टी कर सकता है और लड़कर अपनी भड़ास निकाल लेने के बाद उन्हें फिर से एक करने के लिए साझी जमीन प्रदान कर सकता है।
चार मार्च 1861 को राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण करने के बाद अब्राहम लिंकन बुरी तरह घबराए हुए से नजर आए। उन्हें मन ही मन यह चिंता सताए जा रही थी कि जो कांटों का ताज राष्ट्रपति पद के रूप में उनके सिर पर रखा जा रहा है उसने उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारियों में धकेल दिया जितनी बड़ी जिम्मेदारियां राष्ट्रपति वाशिंगटन के कंधों पर भी नहीं थीं।
इसी घबराहट के कारण राष्ट्रपति के रूप में अपना पहला भाषण देने के लिए मंच पर जाते समय वे एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में हैट पकड़े रहे। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे इन दोनों का क्या करें। उनके विरोधी रहे डगलस की निगाह जब नए राष्ट्रपति पर पड़ी तो वे उनकी परेशानी समझ गए। वे दौड़कर मंच पर चढ़े और राष्ट्रपति के हाथों से छड़ी व हैट लेकर एक ओर आ गए। बाद में ये दोनों चीजें उन्होंने उन्हें वापस कर दीं।
लिंकन ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कांग्रेस की मीटिंग बुलाई और कई महत्त्वपूर्ण फैसले लिए। उन्होंने देश में आपात स्थिति की घोषणा की तथा सभी सेनाओं के सुप्रीम कमांडर होने के नाते युद्ध सम्बंधी सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए। उनकी युद्ध नीति का आधार था संघीय सैन्य ताकत के बल पर विद्रोहियों को सबक सिखाना तथा उन्हें संघ में फिर से वापस लाकर क्षमा कर देना। बदले की भावना से दक्षिणी राज्यों के फ्रंट कंफडरेशन' के खिलाफ शत्रुतापूर्ण ढंग से कार्यवाही करने तथा उनके साथ स्थाई शत्रुता पैदा कर लेने से संघीय ताकतों को रोके रखना उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी।
सबसे पहले लिंकन ने दक्षिण की आर्थिक नाकेबंदी का ऐलान किया। अपने जनरलों को बुलाकर उन्होंने साफ कह दिया कि इस नाकेबंदी का उद्देश्य दक्षिणी राज्यों को भूखे मारना नहीं है, अपितु उनके माल की बाहर आवाजाही पर प्रतिबंध लगाना है ताकि वे आर्थिक नुकसान की संभावनाओं से डरकर संघीय ताकतों के खिलाफ लम्बे समय तक लड़ते रहने का इरादा छोड़ दें और जल्दी आत्मसमर्पण कर दें।
उस समय दक्षिणी राज्यों के पास जल सेना नहीं थी। जल सेना की पूरी कमान संघीय सेनाओं के हाथ में थी। लिंकन ने जल सेना के कमांडर इन चीफ को आदेश दिया कि दक्षिणी राज्यों के समुद्री मार्गों की पूरी तरह नाकेबंदी की जाए कि वे समुद्र में कोई गतिविधि न कर सकें। विदेशों के साथ उनका कपास का व्यापार चौपट हो जाए और वे जल्दी घुटने टेक दें।
उन दिनों थल सेना का कमांडर इन चीफ जनरल स्कॉट था। जनरल स्कॉट बूढ़ा हो चुका था और उसके दिल में उत्तरी राज्यों के प्रति भी उतनी ही वफादारी थी जितनी दक्षिणी राज्यों के प्रति थी। अनेक राजनयिकों व सलाहकारों ने राष्ट्रपति को आगाह किया कि वे जनरल स्कॉट पर विश्वास न करें और नए कमांडर इन चीफ की नियुक्ति करें, परंतु लिंकन को जनरल स्कॉट अपनी उसी विशेषता के कारण अच्छा लगा, जिसे दूसरे उसकी बुराई मान रहे थे।
लिंकन ने जनरल स्कॉट को बुलाकर कहा- “जनरल! मैं जानता हूं कि तुम्हारे दिल में भी दक्षिणी राज्यों के निवासियों के प्रति वैसी ही हमदर्दी है जैसी मेरे दिल में है। जैसे तुम नहीं चाहते कि दक्षिणी राज्यों और संघीय सेनाओं के बीच घमासान हो, वैसे ही मैं भी इसके विरुद्ध हूं, परंतु मुझे एक बात बताओ कि क्या कोई ऐसा रास्ता है कि उत्तरी व दक्षिणी सेनाओं के बीच टकराव न हो और गृहयुद्ध समाप्त हो जाए।"
जनरल स्कॉट ने कहा- “सेनाओं के सुप्रीम कमांडर की हैसियत से आप तो मुझे बस आदेश कीजिए, जो आप चाहेंगे मैं वही करूंगा, जो आप नहीं चाहेंगे, उसे मैं नहीं होने दूंगा। टकराव तो अब निश्चित है, बिना बल प्रयोग के कोई और रास्ता नहीं है।"
“तो ठीक है।" अब्राहम लिंकन ने कहा – “तुम अपने जनरलों को बुलाओ और उन्हें इसी तरह काम सौंपो जिस तरह जल्दी से जल्दी स्थिति पर काबू पाया जा सके। मेरे ख्याल में सबसे खराब स्थिति रिचमोंड की है। जनरल 'ली' को सेना लेकर रिचमोंड पर हमला करने के लिए भेजो, अन्य जनरलों को यथा योग्य काम सौंपो और तुम स्वयं मुख्य मोर्चा संभालो।"
स्कॉट ने यूनाइटेड स्टेट्स की आर्मी के सबसे योग्य अफसर जनरल ली को बुलाया और उन्हें रिचमोंड के लिए प्रस्थान करने का आदेश दिया।
जनरल ली ने जवाब दिया— “मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी संभालने से पहले थोड़ा सोचना चाहता हूं, आप इसे आदेश का उल्लंघन न मानें।" इतना कहकर जनरल ली ने अपना सफेद रंग का सबसे अच्छा घोड़ा निकाला और उस पर चढ़कर उसे ऐड़ लगा दी। जंगलों में ओझल होने के बाद वह दक्षिण की ओर चला गया और दक्षिणी राज्यों की सीमा में प्रवेश कर उसने कंफेडरेशन की सेनाओं के कमांडर इन चीफ की जिम्मेदारी संभा ली। उसने बाद में टिप्पणी की थी–“मैं दक्षिण के खिलाफ युद्ध में नहीं उतर सकता था, यह मेरी मजबूरी थी, अतः मैंने फैसला लिया क्यों न दक्षिण की ओर से ही युद्ध में उतरूं।"
जनरल ली का संघीय सेना से चला जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना साबित हुई। इस बात का अंदाजा तब हुआ जब भविष्य में संघीय सेनाओं का हर कमांडर जनरल ली के सामने या तो पड़ा ही नहीं और यदि पड़ा तो उसे हजारों सैनिकों की लाशें बिछवाकर पीछे हटना पड़ा। जनरल ली संघीय सेनाओं के लिए एक चुनौती बन गया। जनरल स्कॉट ने संघीय सेनाओं को जनरल ली की सेना से बहुत पीछे रोके रखा। राष्ट्रपति की ओर से आक्रमण का आदेश मिलने के बावजूद उसने अपनी सेनाओं को जनरल ली पर हमला करने का आदेश नहीं दिया। लिंकन ने 75 हजार सैनिकों की तुरंत भर्ती का ऐलान किया तथा जनरल इर्विन मैकडोवैल को रिचमोंड पर हमला करने के लिए कमान सौंपी। जनरल मैकडोवैल पहले तो आनाकानी करता रहा, उसका तर्क था कि सैनिकों को थोड़ा और तैयार कर लिया जाए तब आगे बढ़ा जाए, परंतु जब वह लिंकन से तुरंत हमला करने का आदेश लेकर रिचमोंड पहुंचा तो 'कंफेडरेशन' की सेनाओं का मुकाबला न कर सका। उसके पैर उखड़ गए।
जनरल मैकडोवैल की असफलता से कांग्रेस की चिंता बढ़ गई। कांग्रेस ने राष्ट्रपति के सामने प्रस्ताव रखा कि संघीय सेना में तुरंत पांच लाख नए सैनिकों की भर्ती की जाए। राष्ट्रपति ने यह सुझाव मान लिया। जनरल मैकलीलन को वाशिंगटन बुलाकर लिंकन ने उसे यह दायित्व सौंपा कि वह सैनिकों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करे तथा जितनी जल्दी हो सके एक बडी सेना लेकर रिचमोंड की ओर प्रस्थान करे। मैकलीलन ने बड़ी फुर्ती दिखाई। उसने सैनिकों के प्रशिक्षण की ठोस व्यवस्था कर दी। मैकलीलन 35 वर्ष का मैक्सिको युद्ध में सफल भूमिका अदा करने वाला तथा पश्चिमी वर्जीनिया में गृह युद्ध को रोकने में सफल रहने वाला सैनिक अधिकारी था। लिंकन ने जनरल मैकलीलन पर बहुत भरोसा किया और नवम्बर 1861 में जब जनरल स्कॉट रिटायर हुआ तो लिंकन ने जनरल मैकलीलन को संघीय सेनाओं का कमांडर इन चीफ बना दिया। जनरल मैकलीलन ने सेना को मजबूत बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी, परंतु जब उसे दक्षिण पर जोरदार हमला करने को कहा गया तो वह बहानेबाजी करने लगा। बहुत दिनों तक उसने राष्ट्रपति लिंकन को धोखे में रखा और कहा कि वह सही समय पर हमला करेगा। जनरल ली पर विजय पाने के लिए सही अवसर का इंतजार कर लेना ठीक रहेगा, लेकिन उसने हमला किया ही नहीं। इससे तंग आकर लिंकन ने एक बार कहा था- “यदि तुम कुछ दिन के लिए विश्राम करना चाहो तो लाओ सेनाओं की कमान मुझे सौंप दो। मैं देखता हूं कैसे बच पाता है यह जनरल ली और उसकी सेनाओं का जमावड़ा । "
लेकिन जनरल मैकलीलन ने राष्ट्रपति को समझा-बुझाकर फिर विश्वास में ले लिया। पश्चिम में मिसीसिपी पर कब्जा करके दक्षिण के फ्रंट को कमजोर करने की रणनीति बनाकर अब्राहम लिंकन ने 1858 में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी रहे जॉन सी फ्रीमोंट को बुलाया और उन्हें पश्चिम की कमान सौंप दी। कांफीडरेट गुरिल्ले मिसीसिपी पर कब्जा जमाए थे, लिंकन ने फ्रीमोंट की संघ के प्रति प्रतिबद्धता पर विश्वास करते हुए उन्हें मिसीसिपी में खुलकर खेलने की छूट दे दी। फ्रीमोंट ने कमान संभालते ही मिसौरी में मार्शल लॉ लागू किया और उन सबकी सम्पत्ति जब्त करने के आदेश जारी कर दिए जिन्होंने सरकार के विरुद्ध हथियार उठाए थे। फ्रीमोंट ने दास प्रथा विरोधियों को भी नहीं बख्शा। संविधान और संघ को केंद्र में रखकर उन्होंने सख्त कार्यवाही की, परंतु फ्रीमोंट अधिक दिन नहीं टिक सके क्योंकि वे इतने ज्यादा सख्त हो गए थे कि उन्होंने राष्ट्रपति को सहयोग करने से भी इंकार कर दिया। लिंकन के सामने कठिनाई एक नहीं थी, अनेक प्रकार की विषमताओं और विसंगतियों से उन्हें जूझना पड़ रहा था। संविधान की मर्यादा, न्यायपालिका का आदर, कांग्रेस के सदस्यों का रुख, दास प्रथा विरोधियों के कड़े तेवर और पारिवारिक दंश आदि सबके साथ तालमेल बैठाकर चलना पड़ रहा था। यह ऐसी स्थिति थी कि कौन दुश्मन है कौन दोस्त है, इसकी पहचान करना मुश्किल था, कौन गलत कह रहा है और कौन सही यह विश्वास करना कठिन था।
पत्नी के कारण शर्मिंदगी और बेटे की मृत्यु
जिस समय लिंकन गृहयुद्ध से निबटने में अपनी पूरी ऊर्जा गंवा रहे थे, उन्हीं दिनों पत्नी मैरी टॉड की फिजूलखर्ची के कारण लिंकन के सामने एक अजीब सी परेशानी आ खड़ी हुई। 'व्हाइट हाउस' में मैरी टॉड के कारण लिंकन के अनेक शत्रु पैदा हो गए थे। कांग्रेस ने व्हाइट हाउस की सज्जा के लिए 20 हजार डॉलर मंजूर किए थे, परंतु श्रीमती लिंकन ने 27 हजार डॉलर खर्च कर डाले। उन्होंने अपने लिए कीमती कपड़े तथा गहने आदि बनवाने पर भी मोटी रकम खर्च कर डाली।
युद्ध की विभीषिका के दिनों में भी श्रीमती लिंकन पर अपने शौक पूरे करने का जुनून सवार हो गया और उन्होंने महारानी की तरह ठाट-बाट से व्हाइट हाउस में रहना तथा खुले हाथों नौकर-चाकरों पर खर्च करना आरंभ कर दिया। इससे नौकर-चाकरों में तथा मिलने आने वालों में उनकी छवि बहुत अच्छी हो गई, सभी तारीफ करते नहीं थकते थे कि श्रीमती लिंकन अत्यधिक उदार और बड़े दिल वाली महिला हैं। लोगों को मान देना तथा उनकी खातिर करना उन्हें खूब आता है। पैसे को वे पानी की तरह बहा देती हैं।
श्रीमती लिंकन के विरुद्ध सीनेट कमेटी गठित हो गई। यह शर्म की बात थी कि लिंकन को अपनी पत्नी की फिजूलखर्ची के कारण सीनेट कमेटी के सामने उपस्थित होना पड़ा। श्रीमती लिंकन पर यह भी आरोप था कि उनकी सहानुभूति दक्षिण के विद्रोहियों के साथ है। लिंकन केवल तीन मिनट पत्नी के विरुद्ध लगे आरोपों पर बोले और उसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि कमेटी ने उनकी पत्नी के विरुद्ध लगे सारे आरोप वापस ले लिए।
सच्चाई यह थी कि श्रीमती लिंकन के अनेक रिश्तेदार कंफेडरेशन की ओर से संघीय सेनाओं के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। उनका परिवार केंटुकी के अत्यधिक अमीर लोगों से सम्बंधित था। उनके तीन भाई कंफेडरेट आर्मी की ओर से लड़ते हुए संघीय सेनाओं के हाथों मारे गए थे, परंतु उनके कुछ रिश्तेदार वाशिंगटन के अमीर परिवारों में से थे जो संघीय सेना की ओर से लड़ रहे थे।
श्रीमती लिंकन के बारे में उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के आधार पर यह कहावत बड़ी चर्चित हो गई थी कि वे दो तिहाई गुलामी विरोधी और एक तिहाई गुलामी समर्थक हैं।
1862 में लिंकन और मैरी लिंकन व्हाइट हाउस में कुछ विशेष मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। श्रीमती लिंकन ने बहुत कीमती और सुंदर ड्रेस पहनी थी। श्रीमती लिंकन सबसे ज्यादा सुंदर लग रही थीं। तब राष्ट्रपति ने अपने बराबर में बैठी महिला से कहा था—“My wife is as handsome as she was a girl, and I, a poor nobody then, fell in love with her, and what is more, Ihave never fallen out.
राष्ट्रपति को 'जोक' करने की बड़ी आदत थी, गंभीर अवसर पर भी वे अपने 'जोक' से वातावरण को हल्का-फुल्का कर दिया करते थे। ऐसा ही उन्होंने आज भी किया। उनके शब्द सुनते ही सब एक साथ हंस पड़े। श्रीमती लिंकन थोड़ी-सी लजा गईं।
लेकिन उस समय उनके बेटे विली की तबीयत बहुत खराब थी, उसे तेज बुखार था। मेहमानों से निबटने के बाद पति-पत्नी दोनों बच्चे की चिंता करते हुए उसके साथ जागते रहे। डॉक्टर दवा दे रहा था। बहुत कोशिश की जा रही थी, परंतु कोई फायदा नहीं हो रहा था।
अगले दिन सायं 5 बजे विली की मृत्यु हो गई। डॉक्टर निकोले राष्ट्रपति के बराबर में अपराधी की तरह खड़े थे। कोशिश करने के बावजूद वे विली को नहीं बचा पाए थे। इसका अफसोस उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था।
राष्ट्रपति ने बेटे की निर्जीव काया की ओर देखा और रो पड़े। उनके मुंह से ये शब्द निकले–“निकोले! मेरा बेटा चला गया...वह अब नहीं रहा। दुख के आवेग को वे सह नहीं पाए। युद्ध चरम पर था। बाहर उनसे निर्देशन लेने आए सेना के जनरल इंतजार कर रहे थे। वे पछाड़ खाकर गिरी पत्नी को उसी अवस्था में छोड़कर बाहर चले गए। वहां मौजूद लोगों ने श्रीमती लिंकन को संभाला। विली राष्ट्रपति का बहुत प्यारा बेटा था। पति-पत्नी दोनों ही उसे बहुत प्यार करते थे। बेटे के गम में दोनों टूट गए। श्रीमती लिंकन तो इस दुर्घटना के बाद वर्षों तक उबर नहीं पाईं। महीनों ऐसे बीते कि राष्ट्रपति उन्हें सुला देते थे, तब सो जाती थीं, जबरन कुछ खिला देते थे, तब खा लेती थीं अन्यथा उन्हें अपने शरीर की सुधि नहीं थी। इधर युद्ध की स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। कंफेडरेट सेना कमांडर इन चीफ जनरल ली के नेतृत्व में संघीय सेनाओं को भारी नुकसान पहुंचा रही थी। जनरल पर जनरल बदले जा रहे थे, युद्ध नीतियां बदली जा रही थीं, मोर्चे बेहतर बनाए जा रहे थे, लाखों की संख्या में नए सैनिक झोंके जा रहे थे, परंतु संघीय सेनाएं बढ़त की ओर नहीं बढ़ पा रही थीं।
राष्ट्रपति की दक्षिण की घेराबंदी की नीति ने ब्रिटेन को नाराज कर दिया था। दक्षिणी राज्यों से निर्यात होने वाली कपास रुक गई थी। ब्रिटेन की मिलें बंद हो गई थीं। ब्रिटेन ने दक्षिणी राज्यों का पक्ष लेते हुए कंफेडरेट के तहत दक्षिण की अंतरिम सरकार को मान्यता दे दी। इतना ही नहीं संघीय सेना के जहाजों को क्षति पहुंचाने के लिए दक्षिणी राज्यों को जहाजों तथा हथियारों से सहायता करना शुरू कर दिया। ब्रिटेन की मदद से कंफेडरेट सेनाओं के हौसले और बढ़ गए तथा उन्होंने संघीय जल सेना को भारी नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया।
संघीय सेना के अनेक जहाज डुबो दिए गए, जल सेना को बहुत नुकसान पहुंचा। 1862 के अंत तक आते-आते लिंकन हताश होने लगे। जब तक यह लड़ाई केवल गृह युद्ध के दायरे में थी, तब तक तो भरोसा था कि संघीय सेनाएं दक्षिणी सेनाओं को एक दिन मात दे देंगी, परंतु जब विदेशी हस्तक्षेप होने लगा और दक्षिणी सेनाओं को बाहर से मदद मिलने लगी तब तो लिंकन बुरी तरह फंस गए। उन्हें ब्रिटेन तथा अन्य देशों से जो ब्रिटेन के इशारे पर दक्षिण की मदद को आगे बढ़ आए थे, ऐसी उम्मीद नहीं थी, परंतु अब तो बात बहुत आगे बढ़ गई थी। कहीं विदेशी ताकतें दक्षिणी राज्यों के साथ युद्ध में न उतर आएं और संयुक्त राज्य अमेरिका राख का ढेर न बन जाए इस आशंका से लिंकन कांप गए। संघीय सेनाओं का कमांडर इन चीफ मैकलीलन पूरे वर्ष दक्षिणी सेनाओं के कमांडर इन चीफ जनरल ली पर बढ़त हासिल नहीं कर पाया।
अप्रैल 1862 में मैकलीलन ने जल सेना की मदद से रिचमोंड प्रायद्वीप पर कब्जा कर लिया और मध्य अगस्त तक यह कब्जा बना रहा।
मई महीने के मध्य में दक्षिणी सेना के जनरल जौंसटन ने 'फेयर ओक्स' के युद्ध में संघीय सेना को भारी चुनौती दी। वह युद्ध में बुरी तरह घायल हो गया, लेकिन उसका स्थान जनरल ली ने ले लिया। जनरल ली के मुकाबले तो संघीय सेना कभी ठहर ही नहीं पाती थी। जनरल ली ने 26 जून को संघीय सेना पर भारी हमला किया। 7 दिन तक घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में जनरल ली ने जनरल मैकलीलन के छक्के छुड़ा दिए। सात दिन में दक्षिणी सेना के 20 हजार सैनिक मारे गए तथा संघीय सेना के 17 हजार सैनिक शहीद हुए। रिचमोंड पर संघीय सेना की पकड़ ढीली पड़ गई और उसे पीछे हटना पड़ा।
अगले दिन स्टेंट के साथ घोड़े पर सवार हो लिंकन अपने सैनिकों के निरीक्षण के लिए कैंप में पहुंचे। उन्होंने रेजीमेंट के सामने अपना हैट उतारा और उसे सम्मान दिया। एक सैनिक ने राष्ट्रपति की शाब्दिक तस्वीर खींचते हुए लिखा है–
"His benign smile as he passed by was a real reflection of his honest, kindly heart, but deeper under the surface that marked and not all uncomely face were the signs of care nad anxiety. God bless the man and give answer to the prayers for guidance, I am sure he offers."
11 जुलाई को लिंकन ने जनरल हेलेक (General Halleck) को संयुक्त राज्य अमेरिका की सारी सेनाओं की कमान सौंप दी। जनरल मैकलीलन को जनरल ली से निबटने का काम सौंपा गया, परंतु जनरल मैकलीलन ने जनरल ली पर हमला किया ही नहीं। रिचमोंड में जनरल ली से उसका मुकाबला था। जनरल मैकलीलन पक्का डेमोक्रेट था। वह लिंकन के खिलाफ राजनीति कर गया।
उसने 5 नवम्बर, 1862 तक अपनी सेनाओं को जनरल ली की सेनाओं के खिलाफ नहीं उतारा। या तो वह जनरल ली के साथ कोई गुप्त समझौता कर चुका था, या फिर वह लिंकन के राष्ट्रपति काल में संयुक्त राज्य अमेरिका की सेनाओं को जीत दिलाना नहीं चाहता था।
5 नवम्बर को लिंकन ने जनरल मैकलीलन को उसके पद से हटा दिया। इसके बाद जनरल बर्नसाइड ने कमान संभाली।
एक महीने बाद स्थिति को पूरी तरह समझकर लिंकन के दबाव में बर्नसाइड ने जनरल ली की सेना पर सीधा हमला किया। उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि सीधे आगे बढ़ते जाने से दाएं-बाएं से जो हमले होंगे उनका शिकार होकर उसकी सेना नष्ट हो जाएगी।
नतीजा यह हुआ कि रात होने से पहले-पहले 12 हजार संघीय सैनिक माए गए। इस आक्रमण के समय जनरल हूकर सहित अनेक जनरलों ने बर्नसाइड का साथ नहीं दिया।
हूकर को कमान सौंपी
जनरल बर्नसाइड ने अपने जनरलों के असहयोग तथा पहली ही लड़ाई में 12 हजार सैनिकों के मारे जाने के कारण अपने पद से इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रपति ने उसका इस्तीफा स्वीकार कर लिया। इस समय तक संघीय सेना की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। मिसीसिपी नदी पर संघीय सेनाओं ने कब्जा कर लिया था। विक्सवर्ग और पोर्ट हडसन के बीच फैले 250 मील क्षेत्र पर ये सेनाएं कब्जा नहीं कर पाई थीं। इसी समय जनरल ग्रांट को विक्सवर्ग पर कब्जा करने का काम सौंपा गया था। जनरल ग्रांट को अधिक सफलता नहीं मिल पा रही थी। पूर्व में भी स्थिति अच्छी नहीं थी। लिंकन ने उस समय जिन शब्दों में अपने मन की हताशा को उजागर किया उसे हेंडरसन ने लिखा है—“We are on the brink of destruction. It appears to me the Almighty is against us and I can hardly see a ray of hope.
पोटोमेक की सेना के लिए लिंकन को एक और कमांडर की जरूरत थी। उसने जनरल जोसेफ हूकर को पोटोमेक का कमांडर नियुक्त किया। लम्बा इंटरव्यू लेने के बाद राष्ट्रपति लिंकन ने हूकर से कहा – “मैंने तुम्हें कमान सौंप दी है, परंतु दो बातें मैं और साफ करना चाहता हूं। एक यह कि जनरल बर्नसाइड का आदेश न मानकर तुमने जो गलती की थी, उससे देश का बहुत नुकसान हुआ, लेकिन फिर भी तुम्हारी प्रतिभा के कारण मैं तुम्हें एक मौका और दे रहा हूं। मैंने तुम्हें एक बात कहते सुना है। तुम कह रहे थे, इस देश को तथा देश की सेना को एक डिक्टेटर की जरूरत है, यानी मेरे जैसा राष्ट्रपति देश नहीं संभाल सकता, लेकिन तुम जानते हो, केवल वही जनरल डिक्टेटर बनने के ख्वाब देख सकता है, जो युद्ध जीतकर दिखाए। मैं तुम्हें चुनौती देता हूं तुम जाओ और युद्ध जीतकर दिखाओ। इसके बाद जब तुम डिक्टेटर बनने का इरादा पूरा करोगे तो उस खतरे से मैं निबट लूंगा।
जनवरी 1863 में जनरल हूकर ने कमान संभाली।
1 मई से लेकर 5 मई 1863 तक जनरल हूकर का जनरल ली की सेना से युद्ध हुआ। जनरल हूकर की सेना में 80 हजार सैनिक थे और जनरल ली के पास केवल 17 हजार। लेकिन फिर भी जनरल ली ने संघीय सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया। संघीय सेना का भारी नुकसान हुआ। जब लिंकन को इस शर्मनाक हार का पता लगा तो उसके मुंह से निकला – “My God My God, what will the country say...what will the country sayèk'
लेकिन इस युद्ध में जनरल ली का सबसे योग्य जनरल मारा गया। उसका नाम स्टोन वाल जैक्सन था। लिंकन ने जनरल हूकर को हटा दिया और उसके स्थारन पर जनरल मीडे को नियुक्त कर दिया। जनरल मीडे की नियुक्ति के बाद संघीय सेना के सारे जनरलों ने अपने-अपने मोर्चों पर भारी शिकस्त देने का फैसला किया। हर मोर्चे पर घमासान युद्ध शुरू हो गया। 3 जुलाई को जनरल मीडे के सामने जनरल ली की सेना के पैर उखड़ गए। जनरल ली पहली बार मैदान से हटा। जनरल मीडे ने जनरल ली की पीछे हटती सेनाओं का पीछा नहीं किया। यह बात लिंकन को अच्छी नहीं लगी। उसने जनरल मीडे को 12 हजार सैनिक और दिए तथा जनरल ली का पीछा करने को कहा। 7 जुलाई को संघीय सेनाओं ने एक और मोर्चा मारा। जनरल ग्रांट ने विक्सन वर्ग जीत लिया। 9 जुलाई को जनरल ग्रांट ने शत्रु सेना के 38 हजार सैनिकों को गिरफ्तार करके दक्षिणी सेना की कमर तोड़ दी। मिसीसिपी में जनरल बैंक के सामने पोर्ट हडसन ने समर्पण कर दिया। 27 नवम्बर में चेटानूगा पर संघीय सेनाओं ने कब्जा कर लिया।
नीग्रो सैनिकों की भर्ती
युद्ध की विभीषिका के बीच भी नीग्रो समस्या का समाधान निकालने की धुन लिंकन पर सवार थी, क्योंकि वह जानता था कि सारी मुसीबत की जड़ तो यह नीग्रो ही हैं। इनकी समस्या नहीं सुलझाई गई तो लाखों अमेरिकी सैनिकों और नागरिकों का जो रक्त बहा है, वह बेकार चला जाएगा।
1863 में लिंकन के दिमाग में यह विचार आया कि काले लोग गोरों के साथ नहीं रह सकते। गोरे इनसे घृणा करते रहेंगे तथा इनका शोषण जारी रहेगा, क्यों न इन्हें अलग बसा दिया जाए। लिंकन ने काले लोगों के नेताओं से बात की और इस बात पर सहमति प्राप्त कर ली कि काले लोगों को मध्य अमेरिका में बसा दिया जाए। सरकार ने अपने खर्चे पर हेती में चार हजार नीग्रो भेजे, लेकिन वह प्रयोग सफल न हो सका। तब लिंकन ने इसे छोड़ दिया और फैसला लिया– "अब चाहे जो हो काले और गोरे साथ-साथ ही रहेंगे। " उन्होंने नीग्रो को सेना में भर्ती करने का मन बना लिया।
25 दिसम्बर, 1863 को क्रिसमस के दिन सेना में काले लोगों की भर्ती खोल दी गई। जब युद्ध समाप्त हुआ तब संघीय सेना में 1,86,000 नीग्रो सैनिक थे।
गैटिस्वर्ग ने दहला दिया
गैटिस्वर्ग के घमासान युद्ध के बाद संघीय सेनाओं ने पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। पर इस युद्ध में इतनी लाशें गिरीं कि दूर-दूर तक जहां तक नजर जाती थी, मैदान में लाशें ही लाशें नजर आती थीं। सितम्बर 1863 में गैटिस्वर्ग पर कब्जा हुआ था। परंतु लाशें अक्टूबर तक ठिकाने न लगाई जा सकीं। संघीय सैनिकों की लाशों को अक्टूबर के अंत तक दफन करने का काम शुरू किया, परंतु कंफेडरेट सैनिकों की लाशें यूं ही पड़ी रहीं। वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद भी उन्हें दफनाने का काम शुरू नहीं हो सका। पेंसिलवानिया में 17 एकड़ जमीन संघीय सैनिकों को दफनाने के लिए तय की गई थी।
इस अवसर पर राष्ट्रपति को भाषण देने के लिए बुलाया गया। तब प्रैस तथा देश की जनता को यह उम्मीद थी कि राष्ट्रपति जीत की खुशी में एक शानदार भाषण देंगे, परंतु राष्ट्रपति का हृदय तो शोक से भरा हुआ था। उन्होंने बड़े नपे-तुले शब्दों में मृतक सैनिकों के प्रति सम्वेदना प्रकट की। अंत में सम्वेदना से भरे ऐसे शब्द कहे जो इतिहास में अमर हो गए। उन्होंने कहा- "हमारे सामने हजारों बहादुरों की लाशें पड़ी हैं। आओ हम सब अमेरिकावासी मिलकर संकल्प लें कि दोनों ओर से इस गृहयुद्ध में मारे गए लाखों लोगों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। ईश्वर की छत्रछाया में यह राष्ट्र नया जन्म लेगा इसकी स्वाधीनता नई होगी और जनता का जनता पर तथा जनता द्वारा शासन का धरती से कभी अंत नहीं होगा।"
(Under God, this nation shall have a new birth of freedom and that government of the people, by the people for the people, shall not parish from the earth)
3 सितम्बर, 1863 को रिपब्लिकंस ने सभी डेमोक्रेट्स से यह निवेदन किया कि वे मिलकर एक नई पार्टी 'नेशनल यूनियन पार्टी' बना लें। लिंकन इस सभा में सम्मिलित नहीं हुए थे, परंतु उन्होंने अपने पुराने मित्र जेम्स सी कोंकलिंग (कमेटी के चेयरमैन) को अपने पत्र में ये शब्द लिखे थे–“संकेत अच्छे हैं, परंतु पूरी शांति प्राप्त करने के तीन तरीके हैं। इनमें से कोई एक तरीका अपनाना होगा। पहला तरीका यह है कि विद्रोहियों को कुचल दिया जाए जैसा कि सरकार के अधीन जारी है। दूसरा, संघ को भंग कर दिया जाए जो मैं कभी नहीं चाह सकता, तीसरा कोई समझौता किया जाए, जो दक्षिणी राज्यों की आजादी के बिना सम्भव नहीं लगता। यदि दक्षिण की ओर से कोई ऐसा प्रस्ताव आता है जिससे हमारा संघ न टूटे और आपस में समझौता हो जाए तो मैं उसका स्वागत करूंगा। "
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Wed, 07 Jun 2023 22:09:26 +0530 Jaankari Rakho
अब्राहम लिंकन : अमेरिका के राष्ट्रपति बने https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-अमेरिका-के-राष्ट्रपति-बने https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-अमेरिका-के-राष्ट्रपति-बने He had lived to shame me from any sneer. To lame my pencil, and to confute my pen. To make me own this kind of princes, peer. This rail splitter a true born king of men.
-Tom Taylor
1858 में अब्राहम लिंकन सीनेट के सदस्य नहीं चुने गए। लिंकन के साथियों को इस बात से गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने चुनाव जीतने के लिए एड़ी-चोटी का बल लगाया था। लिंकन की हार ने उन्हें निराशा से भर दिया। झटका लिंकन को भी बहुत बड़ा लगा, परंतु उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विशालता में अपने हार के अहसास को आत्मसात कर लिया और अपने साथियों से हार की समीक्षा करने वाली सभा में कहा – “चुनाव में जब दो व्यक्ति आमने-सामने खड़े होते हैं तो एक को तो हारना ही पड़ता है, परंतु यह हार कोई अंतिम हार नहीं होती।" अपनी हार पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा--"It is a slip and not a fall."
"हम चुनाव जरूर हारे हैं, परंतु हमने लोगों के दिलों में अपने लिए एक ऐसी जगह बनाई है जिसे कोई और नहीं ले सकता । वह जगह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है। मेरा मन कह रहा है कि अगले चुनाव तक जनता उस सत्य को अच्छी तरह अवश्य समझ जाएगी जो हमने उसके सामने रखा है। बड़े विचार इतनी जल्दी समझ नहीं आते, उन्हें समझने में थोड़ा समय लगता ही है । "
लिंकन ने अपने सीनेट की सदस्यता के लिए चुनाव अभियान के दौरान दास प्रथा पर जो वक्तव्य दिए थे, उनका पूरे सदन पर ऐसा असर पड़ा कि सदन दो हिस्सों में बंट गया— कुछ लोग लिंकन के विरोध में उठ खड़े हुए और कुछ ने लिंकन के विचारों का जोरदार स्वागत किया। दोनों पक्षों की तनावपूर्ण और गर्मागर्म बहस ने लिंकन को चर्चा में उभार दिया। डगलस ने लिंकन पर आरोप लगाया कि उन्होंने सदन को विभाजित करने का अपराध किया है। डगलस की टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी करते हुए
लिंकन ने जोरदार शब्दों में सदन में कहा-
"दासता के प्रश्न पर पूरा सदन विभाजित हो गया लगता है, परंतु मेरा विश्वास है कि कोई सरकार आधे लोगों को आजाद रखकर और आधों को गुलामी में रखकर देश पर लम्बे समय तक शासन नहीं कर सकती। मैं नहीं चाहता कि मेरे द्वारा गुलामी का प्रश्न उठाए जाने की प्रतिक्रिया इतनी भयानक हो कि सदन भंग हो जाए और संघ टूट जाए। मैं चाहता हूं कि सदन में विभाजन की प्रक्रिया समाप्त हो। मैं चाहता हूं कि यह सदन एक तरफ हो जाए- या तो सब एक स्वर से कहें कि दास प्रथा समाप्त हो या फिर कहें कि पूरी तरह लागू हो या तो दास प्रथा के विरोधी इस बात पर अडिग हो जाएं कि वे इसे आगे नहीं बढ़ने देंगे, जहां तक फैली है, वहीं इसके चारों ओर एक दायरा बना देंगे, इसे घेरकर सीमित दायरे में बंद कर देंगे ताकि यह अपनी मौत मर सके या फिर जो दास प्रथा के समर्थक हैं वे इसे तेजी से आगे बढ़ाएं और दक्षिण, उत्तर, पश्चिम, पूर्व सभी दिशाओं में नए व पुराने सभी राज्यों में इसे विस्तार दे दें और स्थाई रूप से मान्यता दिलाएं। सदन यह फैसला एक तरफा करे कि गुलामी रहेगी या जाएगी, बीच में इस समस्या को लटकाकर उस पर राजनीति करने वाले इस देश के दुश्मन हैं, वे गुलामों को भी गुमराह कर रहे हैं और उनके मालिकों को भी। "
सीनेट का चुनाव तो लिंकन हार गए, परंतु उनके द्वारा उठाए गए दास प्रथा के सवाल ने पूरे देश में हलचल पैदा कर दी। कुछ ही महीनों बाद दक्षिण व उत्तर के बीच भारी तनाव पैदा हो गया। दासता के विरोधी माने जाने वाले नेता जॉन ब्राउन का उत्साह इतना बढ़ गया कि वे दक्षिण के दौरे पर निकल पड़े। उन्होंने अपनी एक पार्टी गठित कर ली और पूरे दक्षिण क्षेत्र को मथ डाला। उनके साथ उनके बेटे भी मैदान में थे। ये लोग दासता के कट्टर समर्थक माने जाने वाले पांच लोगों की निर्मम हत्या कर चुके थे।
जॉन ब्राउन ने दक्षिण के गुलामों को आजाद कराने के लिए अभियान चलाकर उन्हें पूरी तरह अपने पक्ष में कर लिया। इस बात से संघीय ताकतें (Federal Forces) बौखला गईं और उन्होंने जॉन ब्राउन के दल पर जानलेवा हमला किया। उनका एक बेटा मारा गया और दूसरे को फांसी पर लटका गया। जॉन ब्राउन तथा उनके बेटे को जब फांसी दी गई तो उन्होंने अपनी मौत का जश्न मनाते हुए कहा था—“You may dispose off me very easily, but this Negro Question is still to be settled. The end of that is not yet.
(तुम मेरी जान लेकर मेरा जीवन बड़ी आसानी से समाप्त कर सकते हो, परंतु यह नीग्रो की दासता का सवाल है, इसे तुम कभी समाप्त नहीं कर सकते, यह तुम्हारे सिर पर यूं ही झूलता रहेगा।)
लिंकन के दिल पर इस घटना का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने 1859 में अपने भाषण के दौरान जॉन ब्राउन को श्रद्धांजलि देते हुए कहा–"जॉन ब्राउन को जिस तरह मौत की सजा दी गई है, उत्तर में इसका शायद विरोध न हो। दासता का विरोध करने के लिए कानून और व्यवस्था को अपने हाथ में लेने और हिंसा का तांडव करने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। दक्षिण के लोग भी इस बात को अच्छी तरह समझ लें। यदि वे यह इरादा रखते हैं कि वे संघ को नष्ट कर देंगे तो यह संविधान विरोधी माना जाएगा। हम किसी कीमत पर यह बर्दाश्त नहीं करेंगे। यदि किसी ने ऐसी जुर्रत की तो उसका भी वही हस्र होगा जो जॉन ब्राउन का हुआ।"
जाहिर है लिंकन जहां दास प्रथा के उन्मूलन के पक्ष में थे, वहीं देश की संघीय व्यवस्था को बनाए रखने की भी उन्हें भारी चिंता थी। संघीय ढांचे को तोड़कर गुलामी की प्रथा समाप्त की जाए या दास प्रथा उन्मूलन के लिए ऐसे कड़े कदम उठाए जाएं कि पूरा देश ही दो टुकड़ों में बंटकर आमने-सामने खड़ा हो जाए और संघ टूट जाए। यह बात वे नहीं सह सकते थे। उनके लिए संघ की अखंडता दासता उन्मूलन से ज्यादा महत्त्व रखती थी, क्योंकि वे जानते थे कि दासता आज तक खत्म न हो सकी तो कल हो जाएगी, परंतु यदि संघीय ढांचा एक बार टूट गया तो पूरा अमेरिका टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा और वह फिर एक नहीं हो पाएगा। इस मुद्दे पर गृहयुद्ध हो गया तो परिणाम और भी भयानक होंगे। बेकार में लाखों लोगों की जानें जाएंगी और देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी। देश इसे झेल नहीं पाएगा। लिंकन के दिमाग में ये दो सवाल सदा मंडराते रहे। दास प्रथा की समाप्ति और संघीय एकजुटता की गारंटी। वे इन दोनों को एक साथ देखना चाहते थे। उनकी इसी सोच ने उन्हें अमेरिका के शीर्ष पद पर पहुंचा दिया। और यही उनकी शहादत का सबब बना।
27 फरवरी, 1860 को कूपर यूनियन में न्यूयॉर्क में अब्राहम लिंकन का ऐतिहासिक भाषण हुआ। इस भाषण में बुद्धिजीवियों की भारी भीड़ जमा हुई थी। इस भाषण में लिंकन ने फिर दासता का सवाल उठाया। उन्होंने कहा – “दक्षिण के लोग गुलामी उन्मूलन को लेकर बहुत उत्तेजित हैं, शायद वे यह सोचते हैं कि भले ही संघ नष्ट हो जाए, पर गुलामी का कलंक अब मिट जाना चाहिए। वहीं उनके विरोधी उन्हें सबक सिखाने के लिए तैयार खडे हैं। दास प्रथा को लेकर माहौल इतना गर्म है कि यदि ये दोनों पक्ष उग्र हुए तो पूरा देश जल उठेगा। हम नहीं चाहते कि गुलामी उन्मूलन का रास्ता कुछ इस तरह निकाला जाए कि संघ को क्षति पहुंचे और देश बर्बाद हो जाए। हम एक ऐसा रास्ता निकालना चाहते हैं कि अमेरिका के 87% गोरे लोगों के दिलों में अपने 11% काले रंग के भाइयों के प्रति सच्ची सहानुभूति पैदा हो वे उन्हें दासता के चंगुल से मुक्त करके भाइयों की तरह गले से लगाएं और फिर काले और गोरे दोनों नस्लों के लोग मिलकर इस देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए काम करें और अमेरिका विश्व में एक महान देश बनकर उभरे। "
इस भाषण ने बुद्धिजीवियों को यह पैगाम दिया कि यही व्यक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त है, परंतु अभी तक लिंकन ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया था कि वे राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करने जा रहे हैं। उनके साथी हेंडरसन बताते हैं कि राष्ट्रपति पद पर पहुंचने की महत्त्वाकांक्षा लिंकन के दिल में जन्म ले चुकी थी, परंतु क्योंकि वे एक सफल राजनीतिज्ञ नहीं थे, अतः इतने बड़े दायित्व को निभाने से हिचक रहे थे, उनका हृदय मानवता से ओतप्रोत था, वे न्याय के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार बैठे थे, पर राजनीति की पेचीदगियों में हाथ डालने में अब भी झिझकते थे।
अंततः उन्होंने नामांकन भर दिया। लिंकन ने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक दी है। इस खबर से मीडिया में तहलका मच गया। मीडिया अब तक लिंकन से यही उम्मीद करती चली आई थी कि वे दासता उन्मूलन के लिए कोई कारगर रास्ता निकालने में लगे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो राजनीतिक मंचों का उपयोग इसी उद्देश्य के लिए कर रहे हैं। सीनेट का सदस्य बनने की दौड़ में वे रहे, यहां तक तो कोई बात नहीं थी। वे इस दायित्व का निर्वाह करने के लिए उपयुक्त थे, परंतु वे राष्ट्रपति बनकर 'व्हाइट हाउस' में पहुंचने की कामना रखते होंगे, ऐसा नहीं सोचा जा सका था।
लिंकन के नामांकन ने उनके समर्थकों में उत्साह की नई लहर पैदा कर दी। अनेक समर्थक बहुत पहले से ही उनसे कहते आए थे कि वे राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बने, परंतु वे कभी तैयार नहीं हुए थे, इस बार पता नहीं क्या हुआ कि वे 1860 के चुनावों में प्रत्याशी के रूप में सामने आ गए।
प्रचार अभियान शुरू हो गया। लिंकन अपने सधे हुए विचारों के साथ जनता के बीच गए। उनका वही दो सूत्रीय कार्यक्रम था, दास प्रथा को आगे बढ़ने से रोका जाए, उस पर राष्ट्रव्यापी बहस हो और यदि देश यह मानता है कि सचमुच यह मानवता के नाम पर एक कलंक है तो इसे समाप्त कर दिया जाए। दास प्रथा का उन्मूलन संघीय अखंडता की कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थात दासता हमेशा नहीं ढोई जा सकती, इसे जाना तो जरूर है, परंतु झटके के साथ नहीं, बल्कि धीरे-धीरे मानवीय अहसास के उभार के साथ।
लिंकन की नीति ने एक ओर जहां संघीय ताकतों को अपने भरोसे में लिया वहीं दास प्रथा समाप्त करने के लिए संकल्पित लोगों के दिलों में यह विश्वास पैदा किया कि यह व्यक्ति दास प्रथा का समर्थक नहीं है। इसके हाथों शायद कोई ऐसा रास्ता निकल आए कि यह राष्ट्रपति बनकर इस प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त कर दे। इसी उम्मीद के साथ दास प्रथा विरोधियों ने लिंकन को अपना मत दिया।
लिंकन के विरोधी प्रत्याशी के रूप में डगलस सामने था। डगलस सीनेट का सदस्य था और कई वर्ष से लगातार लिंकन के विरोध में अमेरिकी जनता के दिलों पर छाया रहा था। उसे अपनी जीत का पूरा भरोसा था, लेकिन उसने यह गलती की कि लिंकन का विरोध करने के जुनून में लिंकन की नीतियों के ठीक विपरीत बोलना शुरू कर दिया। लिंकन का विरोध करते-करते उसे यह पता ही नहीं रहा कि उसकी मूल नीति दक्षिण व उत्तर दोनों को साथ लेकर चलने की है तथा उसने गुलामी के प्रश्न को हल करने का दायित्व देश की जनता पर छोड़ दिया है। गुलामी का प्रश्न उसे उठाना ही नहीं चाहिए था, परंतु क्योंकि लिंकन के विचार गुलामी के विरुद्ध थे अतः उसने गुलामी के पक्ष में आग उगलना शुरू कर दिया। दक्षिण में इससे गलत संदेश गया और उत्तर की भी समझ में नहीं आया कि डगलस आखिर कहना क्या चाहता है।
डेमोक्रेटिक पार्टी दासता के सवाल पर इतनी बुरी तरह बंट गई कि उसने दो अन्य उम्मीदवार खड़े कर दिए।
अव तो लिंकन के खिलाफ तीन उम्मीदवार मैदान में आ गए। इससे लिंकन का हौसला बढ़ गया। वे समझ गए कि उनका विरोधी वोट बैंक तीन हिस्सों में बंटेगा और जो उन्हें मिलना है, वह केवल उन्हें ही मिलेगा, अत: उनकी जीत सुनिश्चित है। अत: उन्होंने पूरे उत्साह से चुनाव अभियान में अपने आपको झोंक दिया। चुनाव के दौरान अनेक उतार-चढ़ाव आए। कुछ हिस्सों में लिंकन आगे बढ़े तो कुछ में पिछड़ते दिखाई पड़े। पर उन्होंने अपना अभियान जारी रखा। डगलस के विरोध में दक्षिण के अतिवादियों ने जॉन ब्रेकिन रिज को मैदान में उतारा। यह केंटुकी के रहने वाले थे जहां लिंकन का जन्म हुआ था। इनकी एकमात्र नीति थी जिन क्षेत्रों में गुलामी है, उसे किसी हालत में खत्म नहीं होने दिया जाएगा। दूसरा उम्मीदवार उदारवादी भिग पार्टी से जुड़े लोगों द्वारा एक नई पार्टी बनाकर उतारा गया था।
यह पार्टी थी कांस्टीट्यूशनल यूनियन पार्टी, और इसके प्रत्याशी बने मिस्टर बैल। परिणाम आया तो लिंकन को 1,886, 452 वोट मिले, डगलस को 1,376, 957 वोट मिले, ब्रेकिन रिज को 847,781 वोट मिले तथा मिस्टर बैल को 588,879 वोट मिले।
लिंकन को दक्षिण में वोट नहीं मिले, परंतु उत्तरी राज्यों ने उनके पक्ष में भारी मतदान किया। दक्षिण के लोग लम्बे समय से लिंकन के भाषण सुनते आ रहे थे। हर भाषण में इस मानवतावादी नेता ने गुलामी की प्रथा को समाप्त करने की बात उठाई थी। पूरे राष्ट्र की चेतना को झकझोरकर फेंक दिया था इस मुद्दे पर लिंकन ने। दक्षिण के अतिवादी गोरे लोग नीग्रो गुलामों की बदौलत अमीर बने बैठे थे, वे किसी कीमत पर उन्हें गुलामी से मुक्त करने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने दासता का प्रश्न उठाने वाले लिंकन को हराने के लिए पूरा जोर लगा दिया, परंतु फिर भी लिंकन चुनाव जीत गए और अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए।
अमेरिका की चुनाव प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है। राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाला जो प्रत्याशी चुनाव जीत जाता है, उसे भी अपना कार्य-भार संभालने में महीनों लम्बा समय लग जाता है। लिंकन चुनाव जीत तो गए, परंतु अपने पद के लिए शपथ लेने और कार्यभार संभालने के बीच लम्बा अंतराल आ गया।
इस बीच दक्षिण के कुछ राज्यों को अमेरिकी संघ से बगावत करने का अवसर मिल गया। इधर लिंकन स्प्रिंगफील्ड छोड़कर वाशिंगटन जाने की तैयारी कर रहे थे, उधर दक्षिण के राज्य संघ तोड़कर अलग होने के लिए जुट गए।
दाढ़ी वाले लिंकन
लिंकन जब चुनाव प्रचार में जुटे थे तब अति व्यस्तता तथा खान-पान की अनिश्चितता के कारण उनका शरीर एकदम पतला-दुबला लगने लगा था। चेहरा बिल्कुल निचुड़ा हुआ लग रहा था। दोनों गालों में गहरे गड्ढे पड़ गए थे। नन्हीं-सी बच्ची ग्रेस बीडिल ने उन्हें अपने भाइयों के साथ देखा तो उसे उनका चेहरा सुंदर नहीं लगा। घर आने के बाद वह बच्ची देर तक विचार करती रही, फिर उसने लिंकन के नाम एक पत्र लिखा-
'मेरे चार भाई हैं। उनमें से दो आपको वोट देना चाहते हैं और दो किसी और को। यदि आप यह वादा करें कि मेरा पत्र पाते ही आप अपने चेहरे पर दाढ़ी और मूंछें बढ़ा लेंगे तो मैं वादा करती हूं कि मैं अपने उन दोनों भाइयों को भी मना लूंगी और चारों भाइयों से आपको वोट दिलवाऊंगी, फिर आप जरूर जीत जाएंगे। देख लेना आपका चेहरा तब बहुत सुंदर लगेगा। जब आप अमेरिका के राष्ट्रपति बनेंगे तब मैं आपसे मिलने आऊंगी और देखूंगी कि आपने मेरी बात मानी कि नहीं। मेरे अच्छे राष्ट्रपति वादा करो आप दाढ़ी-मूंछें बढ़ाओगे और मुझे अवश्य बुलाओगे। आपकी छोटी-सी बेटी-
-ग्रेस बीडिल!'
लिंकन ने जब यह पत्र पढ़ा तो वे गद्गद हो गए। उन्होंने तुरंत ग्रेस को पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा-
'मेरी नन्ही-सी बेटी ग्रेस! मैंने तुम्हारा कहना मानकर आज से अपनी दाढ़ी बढ़ानी शुरू कर दी है, परंतु मुझे अफसोस है कि तुम्हारी दूसरी मांग पूरी नहीं कर पा रहा हूं। मैं मूंछें नहीं बढ़ा पाऊंगा, क्योंकि मूंछें बढ़ाने से मेरी पहचान बदल जाएगी। फिर मेरे दोस्त भी मुझे नहीं पहचान पाएंगे। मैं वादा करता हूं कि राष्ट्रपति बना, तब भी और न बना तब भी मैं तुमसे मिलने जरूर आऊंगा, फिर तुम देखना मेरा पतला और पिचके गालों वाला चेहरा दाढ़ी बढ़ाने के कारण कैसा लग रहा है।
- तुम्हारा अब्राहम लिंकन!'
ग्रेस की दोनों इच्छाएं पूरी हो गई। अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति भी बन गए और उन्होंने दाढ़ी भी बढ़ा ली। नन्ही-सी लड़की ग्रेस ने अब्राहम लिंकन को इतना प्रभावित किया कि वे अमेरिकी राष्ट्रपतियों की सूची में पहले ऐसे राष्ट्रपति बने जिनके दाढ़ी थी।
चुनाव जीतने के बाद अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद राष्ट्रपति ने ग्रेस से मिलने का समय अवश्य निकाला।
साइनबोर्ड यूं ही लटका रहे
स्प्रिंगफील्ड से वाशिंगटन जाने के लिए खासी तैयारियां कर ली गईं। लिंकन को विदाई देने के लिए स्प्रिंगफील्डवासी उमड़ पड़े थे। उनके लिए यह बड़े गर्व की बात थी कि उनके बीच रहने वाले अब्राहम लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बनकर 'व्हाइट हाउस' में रहने के लिए वाशिंगटन जा रहे थे। उनकी आंखों में भावुकता के कारण जो आंसू छलक आए थे वे जुदाई के अहसास में भी खुशियां समेटे हुए थे।
लिंकन अपने वकालत के साथी तथा लम्बे समय से अभिन्न मित्र रहे हेंडरसन के पास आए और बोले–  “बिली! यह साइन बोर्ड जिस पर 'लाफर्म ऑफ लिंकन एंड हेंडरसन।' लिखा है यूं ही लटका रहना चाहिए। मैं राष्ट्रपति चुन लिया गया हूं, इसलिए अपने दायित्व का निर्वाह करने वाशिंगटन जा रहा हूं। यह बोर्ड मेरे और तुम्हारे मिलकर वकालत करने का साक्षी रहेगा। लोगों का को यह संदेश जाना चाहिए कि हेंडरसन के साथ लिंकन की वकालत में साझेदारी अब भी है। राष्ट्रपति बन जाने से लिंकन बदलेगा नहीं। अपना कार्यकाल पूरा कर यदि सम्भव हुआ, जीवन बचा, तो मैं अवश्य यहीं आऊंगा और तुम्हारे साथ फिर वकालत का काम करूंगा।"
अपने साथी लिंकन पर गर्व करते हुए हेंडरसन ने कहा- "मुझे गर्व है कि मेरा दोस्त राष्ट्रपति बन गया। मुझसे ज्यादा भाग्यशाली कौन हो सकता है। हम दोनों ने कितने वर्ष यहां इस फर्म में साथ-साथ बिताए हैं, पर मुझे तुम्हारी यह नकारात्मक सोच वाली बात तनिक भी पसंद नहीं है, तुमने यह क्यों कहा कि जीवन बचा तो वापस जरूर आऊंगा... तुम्हारे जीवन को क्या होने जा रहा है?"
“तुम नहीं समझोगे हेंडरसन।" अब्राहम लिंकन ने उसी गंभीरता से कहा – “ अमेरिका में ऐसी परिस्थितियां कभी नहीं थीं, जैसी आज हैं। किसी राष्ट्रपति को ऐसे उत्तेजक और विस्फोटक माहौल का सामना नहीं करना पड़ा है, जैसा मैं देख रहा हूं, मुझे करना पड़ सकता है। दक्षिण के राज्यों में बगावत की आवाजें उठने लगी हैं। पूरा देश दास प्रथा को लेकर आपस में टकरा गया तो क्या होगा? मुझे कुछ अच्छे आसार नजर नहीं आ रहे । "
“हम सबकी दुआएं तुम्हारे साथ हैं, तुम साधारण इंसान नहीं हो, ईश्वर ने तुम्हें महान हृदय दिया है, वह अवश्य तुम्हारी मदद करेगा। जाओ देश का काम संभालो।"
दक्षिण में बगावत
20 दिसम्बर, 1860 को साउथ कैरोलिना अमेरिकी संघ से अलग हो गया। उसने तर्क दिया कि उत्तर के राज्य दास प्रथा के कट्टर विरोधी हो चुके हैं, अतः उनके साथ रहना अब संभव नहीं।
उसी की तर्ज पर 9 जनवरी और 1 फरवरी 1861 के बीच दक्षिण में छः अन्य राज्यों ने अपने आपको संयुक्त राज्य अमेरिका से अलग घोषित कर दिया।
18 फरवरी को जेफर्सन डेविस ने संघ से अलग हुए राज्यों पर शासन करने के लिए अंतरिम सरकार का गठन कर लिया और इसके साथ ही 'कांफेडरेट स्टेट्स ऑफ अमेरिका' नाम से नया संघ बन गया।
संघीय कानून लागू नहीं किया
दक्षिण के आठ राज्य संघ से निकल गए। उन्होंने अपना अलग संघ बना लिया। इन राज्यों के गवर्नर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के प्रति जवाब देय नहीं रहे। वे संघ के प्रमुख के प्रति अपने आपको जवाबदेय मानने लगे।
यह तो अजीब स्थिति थी। लिंकन को इस बात की आशंका तो थी कि दास प्रथा को समाप्त करने की बात उठाई तो देश की शांति भंग हो सकती है और संघीय ढांचे को नुकसान हो सकता है, परंतु दक्षिण के राज्य इतनी आसानी से अलग हो जाएंगे और वे देखते रह जाएंगे, ऐसा उन्होंने नहीं सोचा था।
लिंकन ने अनेक बैठक बुलाई। विशेष सलाहकारों से, मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से मशविरा किया, परंतु कोई रास्ता नजर नहीं आया। सब की एक ही राय थी-संघीय कानून लागू किया जाए। जब संयुक्त राज्य अमेरिका का कानून इस बात की इजाजत नहीं देता कि कोई राज्य संघ से अलग हो जाए तो ये राज्य अलग हो कैसे गए? जब राज्य अलग हो गए हैं और वे अपना अलग संघ बनाकर उसके प्रति जवाबदेही की घोषणा कर चुके हैं तब भी देश का राष्ट्रपति मूक दर्शक बना हुआ है, यह कैसी विडम्बना है?
देश के बुद्धिजीवी, मीडिया से जुड़े लोग, राजनैतिक पदों पर बैठे लोग, सब एक स्वर में यही कह रहे थे-  यह कैसा राष्ट्रपति है। राष्ट्र में गृहयुद्ध छिड़ गया है और वह विद्रोही राज्यों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर रहा।
लिंकन के सामने धर्म संकट की स्थिति थी। सदन में इस बात को लेकर हंगामे की स्थिति थी कि राष्ट्रपति स्पष्ट करें—संघीय कानून लागू होगा या नहीं होगा, लेकिन राष्ट्रपति फिर भी चुप। राष्ट्रपति आखिर कहे तो क्या कहे। यदि वह कहता है कि संघीय कानून लागू होगा तब तो दक्षिण के ग्यारह राज्यों तथा उत्तर के तेईस राज्यों के बीच युद्ध की स्थिति बनती है। फिर तो ऐसा घमासान होगा कि अमेरिका दो हिस्सों में बंटकर आपस में लड़कर ही ढेर हो जाएगा और यदि वह यह कहता है कि संघीय कानून लागू नहीं होगा तो वह ग्यारह राज्यों के संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से अलग होने की प्रक्रिया पर सही की मुहर लग जाएगी।
जब राष्ट्रपति को चुने हुए प्रतिनिधियों ने चारों ओर से घेरा और उनसे पूछा कि वे चुप क्यों हैं, बोलते क्यों नहीं कि इन ग्यारह विद्रोही राज्यों के खिलाफ सरकार क्या कार्यवाही करने जा रही है, तब लिंकन ने बड़े धैर्य से चिंता की मुद्रा में जवाब दिया– “देखिए हम और आप सब जानते हैं कि जो आज संघ छोड़कर अलग खड़े हो गए हैं, वे अब भी संघ में शामिल हैं। वे हमारे भाई ही तो हैं जो नाराज होकर अलग जा खड़े हुए हैं। अमेरिका का संघात्मक संविधान किसी राज्य को संघ से अलग हो जाने की इजाजत नहीं देता, फिर ये राज्य अलग हो कैसे सकते हैं, इन्हें हर हालत में संघ के अंदर वापस लाया जाएगा। आप में से जो लोग यह चाहते हैं कि मैं संघीय सेनाओं को आदेश दे दूं कि वे संघ से बाहर गए ग्यारह राज्यों पर हमला करें और उन्हें ताकत के बल पर फिर से घुटने टिकवाकर संघ में वापस लौटने पर विवश कर दूं तो इसमें दो बड़े नुकसान होने का डर है- एक यह कि उन ग्यारह राज्यों में जो 90 लाख लोग निवास करते हैं जिनमें से 40 लाख दास हैं, वे हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठे रहेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन ग्यारह राज्यों के पास मिलिट्री के उच्चकोटि के जनरल हैं। दक्षिण की सैन्य शक्ति किसी भी तरह उत्तर की सैन्य शक्ति से कमतर न समझी जाए। यदि मैं अपनी पूरी मिलिट्री ताकत को दक्षिणी राज्यों के खिलाफ झोंक दूं तो उन राज्यों की सम्मिलित सेना मेरी मिलिट्री पर टूट पड़ेगी, फिर ऐसा घमासान होगा कि दोनों ओर से लाखों सैनिकों की लाशें बिछ जाएंगी और अमेरिका हमेशा के लिए दो टुकड़ों में बंट जाएगा। युद्ध से फैसला होने वाला नहीं। यदि मिलिट्री के बल पर समस्या को सुलझाने का प्रयास किया गया तो दुश्मनी स्थाई हो जाएगी और हो सकता है कि कोई किसी को न झुका पाए और युद्ध तब तक चलता रहे, जब तक दोनों ओर की सेनाएं लड़-लड़कर जमीन पर न बिछ जाएं। कौन है अमेरिका में ऐसा, जो इस नतीजे के लिए तैयार है, उसे मेरे सामने लाया जाए, मैं उसे एक मिनट में समझा दूंगा कि गृहयुद्ध की कगार पर पहुंचे और दो फाड़ हुए राष्ट्र के आपसी मामले कैसे सुलझाए जाते हैं। "
लिंकन का जवाब सुनकर सब प्रतिनिधि चुप हो गए। कोई इस बात के लिए तैयार नहीं था कि अमेरिकी सेनाओं को आपस में लड़ाया जाए और नतीजे में उन्हें दो अमेरिका मिलें। उनके ये शब्द आज भी इतिहास में अपना महत्त्व रखते हैं।
“मेरे देशवासियो! हमारे देश में जो यह गृहयुद्ध छिड़ गया है इसका त्वरित समाधान न मेरे हाथ में है, न आपके हाथों में। जो स्थिति राष्ट्र के सामने उत्पन्न हुई है, उससे मैं सन्न रह गया हूं। हमारा संकट यह है कि हम शत्रु नहीं हैं, हम तो एक ही राष्ट्र के नागरिक हैं, हम दोस्त हैं। दुश्मनी को हमें बढ़ाना भी नहीं है। देश के लोगों की भावनाएं भड़क गई हैं और वे तनकर आमने-सामने खड़े हैं, परंतु ऐसी स्थिति को आने से रोकना है कि हमारा एक-दूसरे पर से भरोसा बिल्कुल टूट जाए और राष्ट्र ऐसा बंटे कि फिर कभी एक न हो सके।"
"Though hassious may have strained, it must not break our bonds of affection. The mystic chords of memory, stretching from every battle field and patriot grave, to every living heart and hearth stone all over this broad land will yet swell of chorus of the UNION when again touched surely they will be, by the better angels of our nature.
लेकिन बहुत संयम बरतने के बावजूद लिंकन इस नतीजे पर पहुंचे कि शक्ति परीक्षण के बिना दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है। दक्षिणी राज्य जब सच्चाई को समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं, जब वहां की 50 लाख की आबादी 40 लाख नीग्रो को गुलाम बनाए रखने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका से अलग हो जाने जैसा फैसला ले चुकी है, तब वह गुलामों को मुक्त करने की सोच रखने वाले शेष 23 राज्यों के साथ कैसे रह सकती है। अपने स्वार्थ के लिए वह टकराव का रास्ता अपना चुकी है। उसे अपनी ताकत पर बहुत ज्यादा भरोसा है, परंतु शायद इन ग्यारह राज्यों में बसने वाले गोरे लोग यह भूल रहे हैं कि 40 लाख गुलामों के दिल उसके साथ नहीं हैं। वे उत्तर की उस जनता के साथ हैं जो उनकी मुक्ति के लिए हथियार उठाने पर विवश हुई है, अत: जीत उत्तर की ही होगी।
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Tue, 06 Jun 2023 21:19:04 +0530 Jaankari Rakho
अब्राहम लिंकन : डगलस को कड़ी चुनौती https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-डगलस-को-कड़ी-चुनौती https://m.jaankarirakho.com/अब्राहम-लिंकन-डगलस-को-कड़ी-चुनौती डगलस को कड़ी चुनौती


I am glad, that I had a good chance to speak openly among mass on the terrible issue the slavery. I am sure it will tell for the cause of civil liberty long after I am gone.
-Abraham Lincoln
1850 आते-आते दक्षिण व उत्तर के बीच तनाव की स्थिति फिर उत्पन्न हो गई। इसी वर्ष भिग नेता हैनरी क्ले ने दूसरे मिसौरी समझौते की नींव रखी। इस समझौते के तहत केलीफोर्निया' एक स्वतंत्र राज्य घोषित किया जाना था। कोलंबिया जिले में दास प्रथा समाप्त की जानी थी। मोरक्को से जीती गई जमीन पर पर दास प्रथा का विस्तार नहीं होने देना था। भगोड़े दासों को वापस बुलाने वाला कानून बनाया जाना था।
दास प्रथा को लेकर पूरा देश बंटने के कगार पर आ गया था। कुछ लोग चाहते थे कि दास प्रथा रहे, कुछ चाहते थे नहीं रहे। ऐसे में राजनीतिक नेताओं को बड़ी परेशानी हो रही थी।
उनका उद्देश्य न गुलामी को समाप्त करना था, न उसे बनाए रखना था, अपितु दोनों में से जो भी हो, उनकी सीट निकल आए और वे चुनकर राजनीति की मुख्य धारा में ऊंचा पद पा जाएं।
ऐसे ही एक सिद्धांतहीन नेता के रूप में डगलस उभकर आया। 5 फुट 2 इंच लम्बा डगलस डेमोक्रेटिक पार्टी का एक ऐसा नेता था जो हर हाल में चुनाव जीतने के उद्देश्य से मैदान में उतरा था, परंतु उसके विचारों से उसकी पार्टी के समर्थकों में ही संदेह और अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो गई। इतना ही नहीं डगलस के विचारों से ऐसा भ्रम फैला कि अमेरिकी संघ के टूटने का खतरा मंडराने लगा।
1852 में डगलस ने दक्षिण को अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से तथा उत्तर वालों के बीच लोकप्रियता पाने के उद्देश्य से केनसास-नेबरास्का विधेयक तैयार किया। इस विधेयक का उद्देश्य आने वाले वर्षों में राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवारी सुनिश्चित करना तथा भारी बहुमत से चुनाव जीतना था।
दक्षिण में डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुत नुकसान हो रहा था। डगलस चाहता था कि पार्टी दक्षिण वालों का फिर से विश्वास जीत ले, कुछ इस तरह कि उत्तर वालों का विश्वास भी न टूटे। इस विधेयक में सबसे बड़ी कमी यह थी कि यह दास प्रथा के मामले में पूरे राष्ट्र को गुमराह कर रहा था। जो दास प्रथा चाहते हैं उनके राज्य में दास प्रथा रहे, फले-फूले और चाहे जितनी फैले डगलस को इस बात की परवाह नहीं थी और जो दास प्रथा नहीं चाहते उनके राज्य में दास प्रथा लागू न की जाए। भिग पार्टी की स्थिति भी दास प्रथा के मामले में स्पष्ट नहीं थी। वह पार्टी भी यही चाहती थी कि दास प्रथा के मामले में कोई ऐसा कदम न उठाया जाए जो दास प्रथा विरोधी अथवा समर्थक हो। ऐसे में दास प्रथा को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए अभियान चला रही ताकतों को किसी पार्टी का खुला समर्थन नहीं मिल पा रहा था। अमेरिका की राजनीति में यह बड़े भ्रम और असमंजस की स्थिति थी, कार्यकर्ता भी यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वे जनता के सामने कौन-सी नीति लेकर जाएं और किस नीति का विरोध करें। पार्टी के वरिष्ठ नेता भी असमंजस की स्थिति से उबर नहीं पा रहे थे। दास प्रथा पर स्पष्ट रणनीति की घोषणा करने की हिम्मत कोई राजनैतिक दल अथवा नेता नहीं जुटा पा रहा था।
जनता के सामने भी भ्रम की स्थिति थी। अमेरिका के 87% गोरे लोग जिनमें से अधिकतर दास प्रथा के समर्थक थे। डेमोक्रेटिक तथा मिग दोनों पार्टियों की नीतियों से पूरी तरह सहमत नहीं थे। उन्हें लगता था मानो ये दोनों राजनीतिक दल केवल राजनैतिक लाभ के लिए काम कर रहे हैं, जनता अथवा देश के सामने जो समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, उन्हें हाथ लगाते इन्हें डर लगता है।
11% नीग्रो जाति के काले लोग स्वतंत्र देश के नागरिक होने के बावजूद यह नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें गुलाम ही बने रहना है या फिर गुलामी से मुक्ति पाकर आम अमेरिकन की तरह अपने अधिकारों का उपयोग करना है। राजनीतिज्ञों से उन्हें कोई उम्मीद दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रही थी, परंतु उनकी अपनी भूमिका राजनीति में प्राय: नगण्य थी। वे सभी राजनैतिक दलों और उनके नेताओं की ओर इस आशा से ताकते रहते थे कि कब वे उनके उद्धार के लिए प्रयास करेंगे और दास प्रथा का कलंक अमेरिका की धरती से मिट जाएगा। वे जानते थे कि गोरे उनका उद्धार नहीं चाहते। उनकी मेहनत की वजह से अमेरिका की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है। उन्होंने पीढ़ी-दर-पीढी अपना पसीना बहाकर खेती को सींचा है और दुनिया में सबसे ऊंचे दर की पैदावार लेने वाले राष्ट्र के रूप में अमेरिका को खड़ा किया है। उद्योग धंधों में भी उनकी अहम भूमिका है। जहां-जहां कठोर परिश्रम की बात आती है, उन्हें भिड़ा दिया जाता है और उनकी भावनाओं का तनिक भी ख्याल नहीं रखा जाता। वे भाग न जाएं इसलिए उन्हें बांधकर रखा जाता है। उनकी उत्पादन क्षमता का लाभ उठाने के लिए मालिक उन्हें ऊंचे दामों पर भी खरीद लेते हैं। एक बार कोई नीग्रो किसी गोरे अमेरिकन को हाथ लग जाए तो वह उसे कभी नहीं छोड़ता। उसे शादी भी नहीं करने देता, उसे उसके परिवार वालों तथा रिश्तेदारों से भी बहुत कम मिलने दिया जाता है। हर शाम गोरों को यही चिंता सताती रहती है कि काले अपने आपको मनुष्य न समझने लग जाएं, यदि ऐसा हुआ तो वे अपनी इच्छाएं और भावनाएं पूरी करने लगेंगे। तब उन्हें गुलाम बनाकर रखना कठिन हो जाएगा। मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाकर रखने की सोच अब्राहम लिंकन को कभी पसंद नहीं आई थी, परंतु अमेरिका की परिस्थितियां ही ऐसी थीं कि राजनैतिक मंच से दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा करना अपनी राजनैतिक मौत आमंत्रित करना था। अतः वे फूंक-फूंककर कदम रख रहे थे। जब उन्होंने यह देखा कि डेमोक्रेटिक पार्टी डगलस के तथाकथित विधेयक के कारण अनिश्चय की स्थिति में आ गई है और यह विधेयक संघीय एकता के लिए भी एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है, तब उन्होंने डगलस की नीतियों का विरोध करने का फैसला कर लिया। अभी भी एक बहुत बड़ी परेशानी यह थी कि उनकी अपनी पार्टी (भिग पार्टी) भी नीतियों के मामले में स्पष्ट नहीं थी। दास प्रथा का क्या हो, इस बात का जबाब भिग पार्टी के पास भी नहीं था। सच्चाई यह थी कि दास प्रथा का अभिशाप एक यक्ष प्रश्न बनकर पूरे देश के सामने खड़ा था और उसका हल निकालने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा था। 1852 से 1854 के बीच अमेरिका की राजनीति की स्थिति असमंजस और ऊहापोह से भरी रही। इसी अवधि में (1852) डगलस के प्रस्ताव की चर्चा गर्म होते ही लिंकन ने वकालत करते-करते अचानक यह फैसला लिया कि वे डगलस जैसे समझौतावादी और सत्ता के भूखे व्यक्ति के हाथों दासों का तथा राष्ट्र का अहित नहीं होने देंगे। वे राजनीति में फिर से सक्रिय हो गए। डगलस की नीतियों को चुनौती देते हुए हुए वे भिग पार्टी के मंच से आलोचना करने लगे, लेकिन दास प्रथा को लेकर खुला बयान देने से बचते रहे। वे अलग-अलग तरह से सुझाव सुझाते रहे और यह जानने का प्रयत्न करते रहे कि उनके सुझावों का अमेरिका की जनता पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसी बीच भिग पार्टी के दो महत्त्वपूर्ण नेता हैनरी क्ले और वेबस्टर की मृत्यु हो गई और भिग पार्टी का नेतृत्व काफी हद तक लिंकन के ऊपर आ गया। यह वह समय था जब डगलस अमेरिका की शीर्ष राजनीति में पांव जमाकर ऊंची उछाल मारने का स्वप्न देख रहा था और लिंकन उसका विरोध करने का निश्चय कर अपनी दास प्रथा सम्बंधी नीतियों की प्रतिक्रिया को समझने का प्रयास कर रहे थे।
डगलस और लिंकन एक-दूसरे के समकालीन थे और समानान्तर राजनीति में और वकालत में आगे बढ़ते हुए 1854 तक आते-आते एक-दूसरे के ठीक विरुद्ध उठकर खड़े हो गए थे।
1834 में लिंकन और डगलस दोनों इलीनॉइस राज्य विधान सभा के सदस्य चुने गए थे। 1838 में एक ही दिन दोनों को इलीनॉइस के सर्वोच्च न्यायालय में वकालत के लिए स्वीकृति मिली थी। 1842 में लिंकन ने मेरी टॉड के साथ विवाह किया। यह वही स्त्री थी जिससे पहले डगलस विवाह करना चाहता था। 1846 में डगलस चुनकर अमेरिका की सीनेट में पहुंचा तथा लिंकन प्रतिनिधि सभा में चुनकर पहुंचे। 1858 में डगलस के विरुद्ध सीनेट की सदस्यता के लिए लिंकन ने नामांकन भरा और चुनाव लड़ा, परंतु वे चुनाव हार गए और डगलस सीनेट का सदस्य बन गया।
1854 में जब डगलस और लिंकन का आमना-सामना हुआ तब लिंकन की राजनैतिक पृष्ठभूमि डगलस की तुलना में बहुत कमजोर थी, क्योंकि वह पिछले 8 वर्षों से लगातार सीनेट का सदस्य था जबकि लिंकन की हैसियत केवल एक वकील की थी जो राजनीति से एक बार बाहर हो चुका था और एक बार फिर अपना भाग्य आजमाने के लिए फिर से राजनीति में उतरा था। 
न्यू रिपब्लिकन पार्टी के नेता
दास प्रथा पर नीतियों में तालमेल न होने तथा कुछ अन्य कारणों से भिग पार्टी फरवरी 1854 में टूटकर बिखर गई। पार्टी के टूटते ही कुछ नेताओं ने इस बात पर विशेष रूप से जोर दिया कि दास प्रथा को और फैलने से रोकने तथा संघीय ढांचे को टूटने से बचाने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का कोई राष्ट्रीय विकल्प तैयार किया जाए।
न्यू रिपब्लिकन पार्टी के रूप में इन नेताओं ने नया विकल्प तैयार कर लिया। शीघ्र ही नई पार्टी का जन्म हो गया। जिन नेताओं ने मिलकर पार्टी की स्थापना की, उनमें अब्राहम लिंकन शामिल नहीं थे। वे उन दिनों अपना पूरा ध्यान डगलस के विधेयक की काट तैयार करने तथा अपने वकालत के काम को समेटने में लगे थे। डगलस के प्रस्ताव तथा भिग पार्टी के विखंडन ने उन्हें यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि राष्ट्रीय राजनीति में अब उनकी भूमिका की जरूरत है।
जिन नेताओं ने न्यू रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया था, उनके विचार लिंकन से अधिक भिन्न नहीं थे। पार्टी ने जिन दो बातों को आधारभूत नीतियों का आधार बनाया था वे ही लिंकन की राजनीति का आधार भी थीं। लिंकन को पार्टी में शामिल करने के लिए बुलावा आया तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। वे स्वयं भी नई पार्टी में शामिल होने का मन बना चुके थे। बुलावे पर पार्टी में गए तो उनके स्वाभिमान की भी तृप्ति हो गई।
1856 में पीट्सवर्ग में पार्टी का महासम्मेलन हुआ। इस अवसर पर अब्राहम लिंकन न्यू रिपब्लिकन पार्टी में शामिल हो गए।
डगलस के विधेयक को चुनौती
न्यू रिपब्लिकन पार्टी में शामिल होने से पहले ही लिंकन ने डगलस को चुनौती देने की तैयारियां शुरू कर दी थीं।
3 अक्टूबर, 1854 को स्प्रिंगफील्ड में डगलस ने एक विशाल सभा को सम्बोधित किया। उस समय लिंकन सभा-स्थल के बाहर खड़े होकर डगलस के भाषण को सुन रहे थे। ज्योंही डगलस का भाषण समाप्त हुआ, लिंकन ने घोषणा की- “कल इसी स्थान पर ऐसी ही एक सभा में डगलस के इस तथाकथित विधेयक को चुनौती दूंगा। सबसे मेरा अनुरोध है कि वे मेरी बात सुनने के लिए इसी स्थान पर इसी समय अवश्य पहुंचें।"
अगले दिन फिर सभा स्थल खचाखच भरा था, पर आज सभा का वक्ता डगलस नहीं था। अब्राहम लिंकन डगलस के द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब दे रहे थे तथा अपने भाषण के दौरान उन्होंने डगलस के विधेयक को भ्रम फैलाने वाला तथा अमेरिकी संघ के ढांचे को कमजोर करने वाला बताया। श्रोताओं ने बड़े ध्यान से लिंकन का भाषण सुना। आरंभ में तो लिंकन अधिक नहीं जम पाए थे। उनकी आवाज लोगों को प्रभावित नहीं कर पा रही थी, परंतु कुछ मिनट के बाद उनके भाषण में परिपक्वता आ गई। उनका आत्मविश्वास बढ़ गया और उन्होंने इतना शानदार भाषण दिया कि लोगों ने लिंकन को एक अच्छे वक्ता के रूप में स्वीकार कर लिया।
अगले दिन जब समाचार-पत्र छपे तो यह देखकर हैरानी हुई कि एक दिन पुराने डगलस के भाषण को जितना स्थान दिया गया था, उतना स्थान आज लिंकन के भाषण को नहीं दिया गया था। इसी विषय पर बिल्कुल इसी तरह का भाषण लिंकन ने पियोरिया में दिया। इस भाषण ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। पत्रकार भी बड़ी संख्या में इस भाषण के समय सभा-भवन में मौजूद थे। भाषण देते-देते लिंकन खासे उत्तेजित हो गए थे। वे पसीने से तर थे, उनके बाल छिटककर बिखर गए थे। भाषण में वे इतने तल्लीन हो गए थे कि उन्हें बाल संवारने की भी सुधि नहीं थी। अगले दिन सारे समाचार-पत्र लिंकन के भाषण से भरे थे। जन-जन की जुबान पर लिंकन की चर्चा थी। लिंकन ने डगलस के प्रभाव को धो दिया था और यह साबित कर दिया था कि डगलस के विचार एक जिम्मेदार तथा सुलझे हुए राजनीतिज्ञ के विचार नहीं हैं, उनमें राजनैतिक स्वार्थ की 'बू' अधिक आ रही है।
लिंकन दास प्रथा पर जमकर बोले थे। पहली बार अमेरिका के इतिहास में किसी नेता ने इस विषय पर खुलकर बोलने की हिम्मत जुटाई थी। अब तक जितने नेताओं ने दास प्रथा पर टिप्पणी की थी, वे सभी अपने विचारों और नीतियों के मामले में स्पष्ट नहीं थे। बड़े बचा-बचाकर वे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते थे कि कहीं जनता के बीच पकड़ न लिए जाएं।
अब्राहम लिंकन के व्यक्तित्व और विचारों में पूरी तरह पारदर्शिता थी। उन्होंने कुछ भी छिपाने का प्रयास नहीं किया, जो उन्हें ठीक लगता था, वही उन्होंने कहा। आरंभ में दास प्रथा के बारे में उनके विकल्प स्पष्ट नहीं थे। उन्होंने खुलकर जनता को बताया कि यह विषय ही ऐसा है कि इसका कोई स्पष्ट हल समझ में नहीं आ रहा, फिर हम कैसे कह सकते हैं कि इसका यह हल निकल आएगा। कुछ समाधान जो दिखाई पड़ रहे हैं, उन पर विचार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। दास प्रथा एक सामाजिक समस्या है अतः इसे सुलझाते समय जनता को साथ लेकर चलना चाहिए। जो विकल्प हमें ठीक लगते हैं उन्हें हम जनता के सामने रखें। जनता उन पर विचार करेगी और अपना मत प्रकट करेगी कि कौन-सा विकल्प अधिक कारगर साबित हो सकता है। उन्होंने कहा—“If all earthly powers were given to me, I would not know what to do as to the existing situation." (यदि मुझे दुनिया की सारी शक्तियां भी प्राप्त हो जाएं तब भी मैं यह साफ-साफ नहीं कह पाऊंगा कि इस समस्या का समाधान क्या हो?)
फिर भी उन्होंने एक बात तो साफ कर दी कि वे गुलामी को बनाए रखने के पक्ष में नहीं हैं। गुलामी के विस्तार के तो वे सख्त विरोधी हैं ही, वे यह भी नहीं चाहते कि गुलामी एक दिन भी ठहरे, परंतु वे कोई ऐसा हल निकालना चाहते हैं, जिससे राष्ट्रीय संघ मजबूत होकर निकले और अमेरिकी समाज जिन्हें आज गुलाम बनाकर रखे हुए हैं उन्हें अपनी ही तरह मनुष्य मानने में गर्व का अनुभव करे। उन्होंने कहा-"I think I would not hold one to slavery at any rate, get the point is not clear to me to be declared openly.
एक विकल्प उन्होंने यह भी दिया था कि सभी दासों को मुक्त कर दिया जाए और उन्हें लाइबेरिया भेज दिया जाए, जहां अमेरिकन कोलोनाइजेंशन सोसाइटी ने नीग्रो गणतंत्र की स्थापना की है।
अपने विचारों को जनता के सामने रखने में लिंकन बहुत ईमानदार थे। वे अमेरिकी जनता पर कुछ भी थोपना नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि अमेरिका की जनता स्वयं इस सत्य को समझे कि आदमी का आदमी द्वारा गुलाम बनाया जाना कितना अमानवीय और गलत है। अतः समाज उसके संभव विकल्प तलाशे। यह तो साफ है कि मानव द्वारा मानव की दासता सदा रहने वाली नहीं। यह क्योंकि गलत है, अतः इसे एक दिन जाना ही होगा। ऐसी कोई भी प्रथा जो दूसरों पर पशुओं जैसे अत्याचारों की सिफारिश करती है, अधिक दिन तक नहीं टिक सकती। मानव सभ्यता विकसित होती रहती है और विकास के इस क्रम में गलत तथा अन्याय पर आधारित परम्पराएं एक दिन अवश्य समाप्त हो जाती हैं।
अपने इसी भाषण में उन्होंने कहा – “अब समय आ गया है कि हम इस बात पर विचार करें कि नीग्रो आदमी है या नहीं। यदि वह मनुष्य है तो वह अपने आप पर उसी तरह शासन क्यों नहीं कर सकता जिस तरह गोरी चमड़ी वाला मनुष्य करता है। उस पर शासन करने का अधिकार फिर गोरे अमेरिकावासी को क्यों है? यदि नीग्रो मनुष्य है तो जहां तक हम सबने पढ़ा और समझा है यह सिद्धांत उस पर भी लागू होना चाहिए कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है। उसकी सृष्टि में रहते हुए हमें यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि हम दूसरों को अपना गुलाम बनाकर रखें और उनके साथ जानवरों जैसा सलूक करें?"
लिंकन के उपर्युक्त विचारों को पढ़कर क्या कोई यह कह सकता है कि लिंकन के दासता सम्बंधी विचार स्पष्ट नहीं थे या लिंकन में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे दासता के बारे में अपने विचार खुलकर प्रकट कर सकें।
जिस दौर में लिंकन ने ये विचार प्रकट किए थे उस दौर में देश के सारे राजनीतिज्ञ दासता के नाम पर बगलें झांकते थे। किसी ने इतनी स्पष्टता से तथा इतने आगे बढ़कर दास प्रथा पर प्रहार नहीं किया। लिंकन की साफगोई और उनका अपनी बात रखने का ढंग श्रोताओं को सीधा प्रभावित करता था। जो उनके विचार सुनते थे उनके दिलों में दासों के प्रति एक सहानुभूति का भाव पैदा होने लगता था। वे बार-बार सोचने पर विवश हो जाते थे कि कहीं दास प्रथा वास्तव में गलत ही तो नहीं है?
लिंकन द्वारा छेड़े गए डगलस विरोधी अभियान ने दासों के प्रति लोगों के दिलों में सहानुभूति पैदा करनी शुरू कर दी और लिंकन के विचारों को सुनने के प्रति उनका रुझान और बढ़ता गया। लिंकन जब अपनी बात कहते थे तब ऐसा नहीं लगता था कि वे ऐसा कहकर वोट मांग रहे हैं या अपनी राजनैतिक पृष्ठभूमि मजबूत कर रहे हैं। सच्चाई यह थी कि लिंकन एक सहृदय मनुष्य की हैसियत से गोरे मनुष्यों द्वारा सताए जा रहे काले लोगों के अधिकारों की बात कह रहे थे। वे अमेरिका की जनता को यह बताना चाह रहे थे कि नीग्रो भी उन सबकी तरह ही मनुष्य हैं। मनुष्यों द्वारा चमड़ी के रंग के आधार पर दूसरे मनुष्यों के साथ दुर्व्यवहार किया जाना, शोषण और अपमान किया जाना कितना सही है, इस बात पर अमेरिकन समाज विचार करे।
वे दासों के प्रति सहानुभूति इसलिए प्रकट नहीं कर रहे थे कि उन्हें अपना राजनैतिक भविष्य संवारना था और सत्ता में पहुंचकर सत्ता का सुख लूटना था, बल्कि वे इसलिए प्रकट कर रहे थे कि अमेरिका के गोरे लोगों में कालों के साथ काम करने की भावना पैदा करना चाहते थे। चुनाव लड़ने और जीतकर सीनेट में पहुंचने के पीछे भी उनका उद्देश्य यही था कि इस बात को और अधिक ऊंचे मंच पर उठा सकें।
गुलामों को अमेरिकी संविधान ने कितने अधिकार दिए थे तथा उनकी स्वतंत्रता की हदें कितनी छोटी थीं, इस बात का खुलासा करता है 1857 में मुख्य न्यायाधीश टेनी द्वारा एक भगोड़ा दास ड्रेस स्कॉट के बारे में दिया गया फैसला। जज ने फैसला दिया—“गुलामों को अमेरिका में उस तरह के अधिकार प्राप्त नहीं हैं जैसे कि अमेरिका के गोरे नागरिकों को हैं। जो दास भगोड़ा घोषित कर दिया जा चुका है वह तो अमेरिका का नागरिक भी नहीं रहा। अतः उसे अमेरिका के किसी न्यायालय में न्याय मांगने का हक अमेरिकी संविधान नहीं देता। इस मामले में मिसौरी समझौता निरर्थक है। गुलाम तो सम्पत्ति मात्र हैं। कांग्रेस को कोई हक नहीं है कि वह उन्हें मुक्त कर सके।"
जज के इस फैसले पर गौर करें तो पता लगता है कि यह पूरी तरह लिंकन के विचारों के विपरीत खड़ा है। इस फैसले से दो वर्ष पहले लिंकन यह विचार प्रकट कर चुके थे कि दास एक व्यक्ति है, वस्तु नहीं और वह सब अमेरिकावासियों से वैसी ही सहानुभूति का हकदार है जैसी कि मनुष्य मनुष्य के साथ करता है।
विचार जीते पर लिंकन हार गए
1858 तक आते-आते लिंकन ने डगलस के मुकाबले अपनी धाक जमा ली थी। लिंकन के विचारों को सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे होते थे। दासों के प्रति लिंकन की सहानुभूति तेजी से चर्चा में आ गई थी, इसलिए उनके पक्ष और विपक्ष में लोग खड़े होने लगे। जो पक्ष में खड़े थे, वे सहृदय और उदार थे। जो तनकर विरोध में खड़े हो गए थे। वे कट्टरपंथी थे।
गोरी चमड़ी वालों के विशेषाधिकार के प्रति उनका रुख इतना सख्त था कि वे काले लोगों को अपनी ही तरह भावनाओं और विचारों वाले मनुष्य मानने को तैयार नहीं थे।
सीनेट की सदस्यता के लिए डगलस ने डेमोक्रेटिक पार्टी के टिकट पर बहुत पहले ही घोषणा कर दी थी। रिपब्लिकन पार्टी ने बहुत सोच-समझकर अब्राहम लिंकन को अपना प्रत्याशी बनाया।
लिंकन को प्रत्याशी बनाए जाने पर खुशी व्यक्त करते हुए डगलस ने कहा – “मेरी जीत सुनिश्चित है। यह ठीक है कि लिंकन अपनी पार्टी में अब चोटी का नेता है, उसके अंदर अच्छी प्रतिभा भी है, उसे तथ्यों की बहुत जानकारी है और आज की तारीख में वह पश्चिमी अमेरिका का सबसे अच्छा वक्ता बनकर उभरा है, परंतु फिर भी वह मुझे नहीं हरा पाएगा।"
डगलस और लिंकन के बीच सात बार धमाकेदार भाषणबाजी हुई। ओटावा में दोनों को सुनने के लिए 10 हजार श्रोता एकत्रित हुए, फ्रीफोर्ट में 15 हजार, चार्ल्स ट्रॉन में 12 हजार। लिंकन के आगे बैंड-बाजे वाले चलते थे। आतिशबाजी के दिलकश नजारे होते थे। छ: घोड़ों की बग्घी पर बैठकर लिंकन ने समर्थकों के जुलूस का नेतृत्व किया। लिंकन के भाषणों को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे। भाषण के बाद उनके विचारों पर ढाबों में, जलपान ग्रहों तथा अन्य जन-स्थलों पर चर्चाएं हुआ करती थीं। अखबार उनके विचारों से भरे रहते थे।
पूरे चुनाव अभियान के दौरान लिंकन ने डगलस को बुरी तरह पछाड़ दिया था। लोग यह मानने लगे थे कि डगलस चुनाव हार जाएगा। लिंकन को कोई नहीं हरा सकता।
परंतु फिर भी इस चुनाव में लिंकन हार गए और डगलस को 8 वर्ष बाद फिर से सीनेट का सदस्य चुन लिया गया।
अपनी हार की समीक्षा करते हुए लिंकन ने कहा था– "यह ठीक है कि मैं सीनेट का चुनाव हार गया हूं। परंतु मुझे बड़ी खुशी है कि चुनाव प्रचार के बहाने मुझे दास प्रथा पर खुलकर बोलने का अवसर मिला। यदि मैं यह चुनाव न लड़ा होता तो शायद दासों के हित में बोलने का इतना अच्छा अवसर मुझे कभी नहीं मिल पाता।
यह हार अंत नहीं है, यह तो एक छोटी-सी शुरुआत है। अपने चुनाव अभियान के दौरान मैंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात समझ ली है। लोगों को, देश को अब मेरी तरह साफ ढंग से बात कहने वालों की जरूरत है। अतः मैंने यह फैसला ले लिया है कि अब मैं वकालत के व्यवसाय को तुरंत समेट दूंगा और पूरी तरह खुलकर राजनीति में सक्रिय हो जाऊंगा।
मैंने जो बातें कही हैं, लोगों को वे बहुत पसंद आई हैं। लोग इतने कठोर हृदय हैं नहीं जितना स्वार्थ की राजनीति करने वालों ने उन्हें बना दिया है। मैंने स्वार्थ से ऊपर उठकर राजनीति में उतरने का संकल्प लिया है। गरीबों, शोषितों और दासता का त्रास झेलते इन असंख्य लोगों की बात को ऊपर तक पहुंचाने के लिए मैं अब पूरे मन से राजनीति करूंगा।"
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Mon, 05 Jun 2023 17:39:23 +0530 Jaankari Rakho
लिंकन : पांच वर्ष वकालत के https://m.jaankarirakho.com/लिंकन-पांच-वर्ष-वकालत-के https://m.jaankarirakho.com/लिंकन-पांच-वर्ष-वकालत-के I may thruthfully say I never knew Lincoln to read through law book of any kind. But he had occasion to investigate or learn any subject he was thorough in his search. He not only went to the root of the question, but dug up the root and separated and analysed every fibre.
-William Henderson
1847 में लिंकन की मैक्सिको युद्ध नीति को लेकर जो हंगामे हुए उनकी गूंज स्प्रिंगफील्ड तक पहुंच गई। स्प्रिंगफील्ड के निवासी सरेआम लिंकन की निंदा करने लगे। कुछ लोग तो लिंकन को देशद्रोही तक कहने लगे। लिंकन के वकालत के सहयोगी बिली हेन्डरसन को यह बात सहन नहीं हुई। उसने अनेक लोगों से बहसें कीं और उन्हें समझाने का प्रयास किया।
बिली ने लिंकन से कहा – “तुमने यह क्या किया लिंकन, अपने-आपको जनता की नजरों में गिरा लिया?"
"मैंने वही किया जो मेरी अंतर्रात्मा ने मुझसे करने को कहा था। "
"लेकिन लिंकन! यह राजनीति है। राजनीति में शब्द देते समय दस बार विचार किया जाता है। केवल उन्हीं बातों को शब्द देते हैं जो जनता को अच्छी लगें। जो जनता की नजरों में गिरा दें, ऐसे शब्द नहीं कहे जाते।"
“मैं इस तरह चालाकी से शब्दों का चयन करने की राजनीति नहीं कर सकता। अपने असली चेहरे पर एक और चेहरा चढ़ाना मुझे नहीं आता। मैं तो केवल एक ही चेहरा रखता हूं और उसी को सबको दिखाता भी हूं, फिर किसी की इच्छा भला माने या बुरा।
लिंकन के यह शब्द सुनकर बिली हेन्डरसन चुप हो गया। उसे लगा कि उसने लिंकन की दुखती रग दुखा दी है। थोड़ी देर को वह यह भूल गया था कि लिंकन दूसरे राजनीतिज्ञों से बिल्कुल अलग है। सच पूछो तो वह राजनीतिज्ञ है ही नहीं। वह एक सीधा और सरल इंसान है। राजनैतिक छल-कपट की चादर वह ओढ़ ही नहीं सकता।
“शायद मैं कुछ अधिक कह गया। " हेंडरसन थोड़ी चुप्पी के बाद बोला –“माफी चाहता हूं।"
"नहीं करूंगा माफ। " लिंकन ने आत्मीयता से कहा – “तूने मुझे समझने में भूल क्यों की। तू मेरा अंतरंग साथी है। मैं उन साथियों को कभी माफ नहीं कर सकता जो मेरे बिल्कुल अपने होकर भी मुझे समझने में भूल कर देते हैं।"
हेंडरसन चुप रहा।
फिर लिंकन ने हेंडरसन का हाथ पकड़ लिया और बोला ."बिली... अमेरिका की जनता मुझे समझे या न समझे मैं अपने आप को अच्छी तरह समझता हूं। मुझे तनिक भी अफसोस नहीं है इस बात का कि लोगों को मेरे विचार समझ में नहीं आए। मेरे विचार कड़वे और चुभने वाले जरूर हैं। उनमें से सच्चाई की लपटें निकलती हैं जिन्हें लोग सह नहीं पाते, इसलिए तिलमिलाकर मेरे बारे में जल्दबाजी में कोई राय बना लेते हैं। मुझे जल्दी नहीं है, मुझे विश्वास है कि मेरे यही विचार लोगों का और देश का भला करेंगे। एक दिन वे लोगों की समझ में भी जरूर आ जाएंगे, भले ही तब तक इतनी देर हो चुकी हो कि मैं लोगों के बीच मौजूद न रहूं।"
"तू सच कह रहा है।" हेंडरसन ने लिंकन के दोनों हाथ अपने दोनों हाथों में पकड़ते हुए कहा- "मैं समझ गया, लोग भी एक दिन समझ लेंगे... पर ये दिल तोड़ने वाली बातें न कर, चल बाहर चलते हैं। बाहर मौसम बहुत सुहावना है।" इस तरह बातें करते हुए बिली हेंडरसन लिंकन को केबिन से बाहर ले आया। बाहर बड़ी सुहावनी हवा चल रही थी, आकाश में बादल थे। दोनों हाथों में हाथ डाले कोर्ट के अहाते से बाहर निकलते देखे गए।
1848 में राष्ट्रपति के चुनाव की घोषणा हो गई। भिग पार्टी के सामने सवाल आया राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी किसे बनाया जाए। लिंकन को हेनरी क्ले बहुत पसंद था। उसके विचार बहुत महत्त्वपूर्ण थे। उसकी सोच में दूरदर्शिता और राष्ट्र के दूरगामी रहने की भावना थी, परंतु जनता की नजरों में वह अब तक चढ़ नहीं पाया था, अतः पार्टी उसे राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी बनाने में हिचक रही थी।
पार्टी ने मैक्सिको युद्ध के हीरो जनरल टेलर को अपना प्रत्याशी बनाने का फैसला लिया। जनरल टेलर ने मैक्सिको के साथ युद्ध के समय बहादुरी का ऐसा परिचय दिया था कि पूरे देश की जनता ने उन्हें अपना हीरो मान लिया था। युद्ध के हीरो को मैदान में उतारकर भिग पार्टी ने अपनी जीत सुनिश्चित कर ली थी। भिग पार्टी के अनुभवी नेता जानते थे कि इस समय लोकप्रियता और ग्लेमर में जनरल टेलर से आगे अमेरिका में कोई भी नहीं है, अतः पार्टी के विचारों से मेल न खाते हुए भी उन्होंने जनरल टेलर के नाम पर अपनी सहमति दे दी। जनरल टेलर में मिग पार्टी का एक भी गुण मौजूद नहीं था। वे राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानते थे। दास प्रथा के वे भारी समर्थक थे।उनके घर में कई नीग्रो दास बनाकर रखे गए थे। जबकि पार्टी सदन में दास प्रथा के बारे में सबसे अलग किस्म के विचार रखती थी। मैक्सिको युद्ध के बारे में तो पार्टी के विचार सरकार विरोधी रहे थे। पार्टी जानती थी कि उसके युवा नेता लिंकन ने मैक्सिको युद्ध के लिए अपने ही देश की सरकार को दोषी ठहराया है और मैक्सिको को निर्दोष माना है। ऐसे में जनता भिग पार्टी खासकर लिंकन से बुरी तहर नाराज थी। शायद इसी नाराजगी को कम करने की दृष्टि से जनरल टेलर को पार्टी ने अपना प्रत्याशी बनाया था।
पार्टी की यह नीति कामयाब रही। लिंकन ने टेलर के चुनाव प्रचार में पूरे देश में दूर-दूर तक जाकर भाषण दिए और लोगों से भिग पार्टी के उम्मीदवार को जिताने की अपील की।
जहां तक लिंकन का सवाल है, जनता ने उन्हें पंसद नहीं किया। अनेक बार ऐसे अवसर आए जब वाशिंगटन, शिकागो, न्यूयॉर्क आदि नगरों में लिंकन को स्टेज पर बोलते समय जनता का कोप झेलना पड़ा, परंतु टेलर को जनता ने हर जगह हाथों-हाथ लिया। जनरल टेलर की छवि युद्ध हीरो होने के कारण जनता की दृष्टि में पहले स्थान पर थी। अत: लिंकन के प्रति विरोध प्रकट करने तथा पार्टी की युद्ध नीति की आलोचना करने के बावजूद जनता ने जनरल टेलर के पक्ष में मतदान किया और जनरल टेलर अमेरिका के राष्ट्रपति चुन लिए गए। लिंकन ने टेलर की जीत को अपने प्रयासों की जीत माना और चैन की सांस ली।
एक दिन तुम बड़े आदमी बनोगे
1849 में जब लिंकन का कांग्रेस का सदस्यता काल पूरा हुआ तो उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें इलीनॉइस के जनरल लेंड ऑफिस का कमिश्नर नियुक्त कर दिया जाएगा। लिंकन ने इलीनॉइस के प्रत्याशी के लिए भागदौड़ की। लिंकन को अगले सत्र के लिए प्रत्याशी नहीं बनाया गया था। अपनी पार्टी के प्रत्याशी को जिताने के लिए उन्होंने अमेरिका के अनेक नगरों का दौरा किया। अपने एक दौरे में वे वाशिंगटन गए। उनके साथ केंटुकी का एक धनी व्यक्ति था। दोनों एक ही कोच में बैठकर वाशिंगटन गए थे।
रास्ते में उस व्यक्ति ने चबाने के लिए तम्बाकू निकाला और लिंकन की ओर बढ़ाया। लिंकन ने विनम्रता से कहा– “नो सर, आई नैवर चीऊ। (नहीं सर, मैं कभी तम्बाकू नहीं खाता।)
लिंकन के साथ बैठे सज्जन ने तम्बाकू का डिब्बा पीछे खींच लिया और थोड़ा-सा तम्बाकू अपने हाथ में लेकर स्वयं चबाने लगे।
काफी समय बाद उन सज्जन ने एक सिगार बड़े प्यार से लिंकन की ओर बढ़ाया। लिंकन ने वह सिगार भी आदरपूर्वक लौटा दिया। अब एक स्थान पर कोच रुकी। कोच का घोड़ा बदला जाना था और थोड़ी देर ठहरकर वहां से चलना था। उन सज्जन ने बड़े प्यार से बरांडी के दो पैग तैयार किए, उन्हें उम्मीद थी कि लिंकन को बरांडी से कोई ऐतराज नहीं हो सकता। बरांडी तो सभी पीते हैं और इस समय मौसम भी बरांडी के लिए सर्वथा अनुकूल था। उन सज्जन को अब तक यह बात बड़ी खल रही थी कि दो बार उन्होंने लिंकन का खाने-पीने की चीजों से स्वागत करना चाहा, परंतु दोनों बार उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अब तीसरी बार वे स्वीकार करेंगे तो बहुत अच्छा लगेगा। साथ-साथ यात्रा करने वाले यात्रियों का यह धर्म है कि साथ-साथ खाएं और पिएं भी। यात्रा का आनंद ऐसा करने से बहुत बढ़ जाता है तथा आपस में आत्मीयता की वृद्धि हो जाती है। उन्होंने बड़ी हसरत से बरांडी का खूबसूरत प्याला अपने हाथ से बनाकर स्वयं लिंकन की ओर बढ़ाया और कहा- "Well stranger, seeing you dont smoke or chew, perhaps you'll like a little of this French Brandy. It is the prime article and a good appetiser besides.” (हे अजनबी! मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि तुम न तम्बाकू खाते हो, न सिगार पीते हो, परंतु यह फ्रांसीसी बरांडी मैंने बड़े प्यार से तुम्हारे लिए भी तैयार की है, मुझे उम्मीद है तुम इसे अवश्य स्वीकार करोगे, यह बहुत अच्छी मेड है, इससे भूख भी बढ़ती है।)
जब लिंकन ने बरांडी के लबालब भरे प्याले को देखा और उन सज्जन की आंखों में उमड़ते प्यार, श्रद्धा व विश्वास को भी, तो उन्हें मना करने में बड़ी कठिनाई हुई। फिर भी उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा- "मुझे इस बार भी आपको क्षमा करना पड़ेगा, यदि मैंने कभी बरांडी पी होती तो आपका कहना नहीं टाल सकता था।" उन सज्जन ने बरांडी के दोनों प्याले एक के बाद एक स्वयं पिए। ऐसा करते समय वे बड़े गद्गद थे।
जब कोच का अंतिम स्टेशन आ गया। तब दोनों जुदा हुए। उन सज्जन ने लिंकन के दाएं हाथ को अपने दोनों हाथों में लेकर कहा–"See here stranger, you are a clever but strange companion. I may never see you again and I dont want to offend you, but I want to say this may experiences have taught me that the man who has no vice damn few virtues, Good day.
(अजनबी! तुम बहुत होशियार हो और विचित्र भी! शायद तुमसे अब इस जिंदगी में कभी मुलाकात न हो, लेकिन चलते-चलते वह बात जरूर कहूंगा जो अनुभव ने मुझे सिखाई है— जो व्यक्ति हर व्यसन से दूर रहता है, उसमें कोई-न-कोई खास बात जरूर होती है.... अलविदा दोस्त!)
लिंकन की यह आदत थी कि वे आगे बढ़कर अपना परिचय तब तक नहीं देते थे, जब तक उसकी आवश्कयता न हो। वे प्राय: चुप रहते थे। यदि अनजबी उनके साथ अपने आपको खोलने के लिए तथा उनके बारे में जानने के लिए प्रयास न करे तो वे अपने पत्ते कभी नहीं खोलते थे।
इस यात्रा में यही हुआ। कंटुकी का रहने वाला वह अमीर व्यक्ति उनकी जन्म स्थली से ताल्लुक रखता था, फिर भी उन्होंने उसे अपना परिचय नहीं दिया, न उनसे उनका परिचय मांगा। उसके द्वारा तीन बार दबाव डालने पर भी उसका आतिथ्य स्वीकार नहीं किया। यह घटना लिंकन के चरित्र की दृढ़ता दर्शाती है। यह घटना बताती है कि आदमी को अपने आत्मसम्मान के साथ, अपने व्यक्तित्व के वजूद के साथ किसी कीमत पर कोई समझौता नहीं करना चाहिए।
दुनिया में सबसे कीमती आदमी स्वयं है और उसका व्यक्तित्व उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। यदि वह अपने आत्मसम्मान को जीवित रखेगा, अपने व्यक्तित्व की गरिमा को बनाए रखेगा तो उसे कभी ग्लानि और आत्मप्रवंचना से नहीं गुजरना पड़ेगा। वह सच कहने में कभी हिचकिचाएगा नहीं और गलत बात का विरोध करते समय कोई झिझक या झेंप उसके आड़े नहीं आएगी।
लिंकन ने इस घटना को अपने जेहन में लिख लिया। वे उस अमीर के लिए अजनबी बने रहे और उसके कहे गए शब्द उनके लिए प्रेरणा के स्रोत और चारित्रिक दृढ़ता के स्तम्भ बन गए।
राज्य की राजनीति में जाने से पत्नी ने रोका
लिंकन की पत्नी मैरी टॉड यद्यपि राजनैतिक मामलों में अधिक दखल नहीं देती थीं, उन्हें अपने पति की गरिमा का बहुत ख्याल रहता था। वे एक ऐसी महिला थीं जो अपने पति की प्रतिभा और क्षमताओं को अच्छी तरह समझ गई थीं।
जो स्त्रियां पति की ऊंचाई से ईर्ष्या नहीं करतीं, अपितु उसे अपनी ऊंचाई मानकर पति को आदर देती हैं और स्वयं को गौरवांवित अनुभव करती हैं, वे पति के लिए बड़ी ताकत बन जाती हैं। मैरी टॉड इसी प्रकार की स्त्री थीं। अपनी सारी प्रतिभाओं को उन्होंने पति की राजनैतिक ऊंचाइयों तथा कानून की गहराइयों में पहुंचने के लिए उपयोगी बनाया। इतना ही नहीं पति के अपने बारे में लिए जाने वाले फैसलों पर इस दृष्टि से नजर रखती थीं कि वे उनके कद और भविष्य की दृष्टि से ठीक है या नहीं।
ऐसा ही एक अवसर 1849 में उस समय आया जब लिंकन को ओरगन का सचिव बनाए जाने का प्रस्ताव रखा गया। ओरगन शीघ्र ही नया राज्य बनने वाला था। राज्य बन जाने पर लिंकन उसके गवर्नर बन जाते। गवर्नर का पद अमेरिका में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
लिंकन की पत्नी ने उन्हें रोक दिया। उन्हें बताया कि उनका कद राष्ट्रीय राजनीति में जाने के योग्य है। उन्हें राज्य स्तर पर कोई पद स्वीकार नहीं करना चाहिए। यदि इस समय राष्ट्रीय राजनीति में जगह नहीं मिल पा रही है तो कोई बात नहीं, कुछ दिन वकालत में अपना मन लगाओ और स्थितियों पर नजर रखो। जब सही वक्त आए और राष्ट्रीय राजनीति में कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका दिखाई पड़े तो उसे आगे बढ़कर निभाओ। एक भी कदम ऐसा नहीं रखना है जो उलझा दे और राष्ट्रीय राजनीति में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर हाथ से निकल जाए।
लिंकन को पत्नी की बात समझ में आ गई। उन्होंने यह जिम्मेदारी लेने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया और पूरा मन लगाकर वकालत के काम में जुट गए।
अब लिंकन ने अपना ध्यान राजनीति से पूरी तरह हटा लिया था। राजनैतिक उठा-पटक और महत्त्वाकांक्षाओं से बहुत दूर पूरा मन लगाकर वे तीन काम करने लगे – एक, वकालत में व्यस्त रहना तथा अच्छी आमदनी करना, दूसरे, अच्छे साहित्य का अध्ययन करना, तीसरे, राष्ट्रहित व मानवहित को केंद्र में रखकर अपनी भावी राजनैतिक सोच का विकास करना।
1849 से 1854 तक पूरे पांच वर्ष तक लिंकन ने राष्ट्रीय राजनीति से संन्यास ले लिया। यह विचित्र अवधि थी जब लिंकन राजनीति से अलग रहकर दूर से उसका निरपेक्ष विश्लेषण कर रहे थे। निरपेक्ष विश्लेषण से व्यक्ति की अपनी सोच का विकास होता है तथा उसके व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार का निखार आ जाता है जो उसके आत्मविश्वास के स्तर को बहुत ऊंचा उठा देता है।
समीक्षकों का विचार है कि यदि लिंकन पांच वर्ष के लिए राजनीति से अलग हटकर तटस्थ दृष्टा की हैसियत से न रहे होते तो शायद वे राजनीति की वास्तविकता को तथा उसमें अपनी भूमिका को ठीक से समझ नहीं पाते और व्यस्तता में कहीं उलझकर रह जाते। केवल सात वर्ष के दूसरी पारी के प्रयासों के बाद वे सीधे राष्ट्रपति पद पर पहुंचे। लिंकन ने अत्यधिक विषम परिस्थितियों में अमेरिकी संघ को टूटने से बचाया और दास प्रथा का अंतिम अध्याय उन परिस्थितियों में लिखा जब कोई और व्यक्ति फैसला लेने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाता। समीक्षक यहां तक कहते हैं कि पांच वर्ष के इस अंतराल ने लिंकन को ऐसी रचनात्मक शक्तियों से भर दिया था कि वे इसके बाद जब राजनीति में उतरे तो तीर की तरह सीधे निशाने की ओर बढ़े। लक्ष्य की प्राप्ति के बाद उन्होंने जो फैसले लिए वे अमेरिका के इतिहास के ऐसे अध्याय हैं, जो आज के महानायक बने अमेरिका के लिए सुदृढ़ पृष्ठभूमि बन गए। एक विचारक ने लिंकन की इस तटस्थ अवस्था के बारे में लिखा है-
"As he put a side all thoughts of political advancement and devoted himself to personal improvements, he grew tremendously in mind and character.
उनके वकालत के सहयोगी (Law Partener) मिस्टर हेंडरसन का कहना है कि लिंकन उनके बहुत करीब रहे, खासकर पांच वर्ष की इस अवधि (1849-1854) में। वे अध्ययन जरूर करते थे, परंतु विद्वान बनने जैसी कोई धुन उन पर सवार नहीं थी। उन्होंने बाइबिल का अध्ययन किया और श्रेष्ठ साहित्यकारों की महत्त्वपूर्ण रचनाएं भी पढ़ीं।
अपनी पुस्तक 'अब्राहम लिंकन' में लिंकन के समीक्षक 'लॉर्ड लोंगफोर्ड' लिखते हैं—'ऐसा कहा जाता है कि लिंकन पढ़ते बहुत कम थे पर विचार बहुत करते थे। उन्होंने अपने अंदर एक विचार शक्ति को जन्म दिया। तर्क शक्ति को विकसित किया। उनकी विचार व तर्क शक्ति का आयाम कानून और राजनीति तक ही सीमित नहीं था, उसका दायरा बहुत बड़ा था।
उनके साथी हेंडरसन से लिंकन की बहुत स्मृतियां जुड़ी हैं। लिंकन की टांगें बहुत लम्बी थीं। सर्किट में हेंडरसन और लिंकन जब साथ-साथ एक ही बिस्तर पर सोते थे तो लिंकन की टांगें बिस्तर के बाहर लटकती रहती थीं। जब हेंडरसन गहरी नींद में डूब जाते थे, तब लिंकन घंटों जागकर अध्ययन करते थे। यद्यपि उन्होंने बहुत नहीं पढ़ा था, परंतु अपने युग की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का उन्होंने पूरी गहराई तक जाकर अवश्य अध्ययन किया था। इससे उनके विचारों में बड़ी प्रखरता आई थी और वकालत में भी वे अधिक सफल होने लगे थे। अपनी स्कूली शिक्षा अधूरी रहने के बावजूद लिंकन ने अपनी पढ़ाई की क्षतिपूर्ति की और जरूरी चीजों को पढ़ा। इससे वे अध्ययन के महत्त्व को पूरी तरह स्वीकार करने लगे थे।
एक बार एक युवक ने पत्र द्वारा उनसे पूछा कि सफल एडवोकेट बनने के लिए क्या करना चाहिए, तब उन्होंने उसे लिखित में उत्तर देते हुए लिखा—'बड़ी-बड़ी किताबों का अध्ययन करो। कानून की दुनिया में सफल होने के लिए कानून की धाराओं की अच्छी जानकारी होना जरूरी है। अतः खूब अध्ययन करो और लगकर काम करो। एक दिन तुम एक सफल वकील बन जाओगे।'
पत्र लिखते हुए हेंडरसन ने देख लिया। उन्होंने लिंकन के लिखे जवाब को पढ़ा तो हंसकर बोला– “यह तुमने क्या लिख दिया। कानून की मोटी-मोटी किताबें पढ़ो। जहां तक मैं जानता हूं, मैंने तुम्हें ये किताबें पढ़ते कभी नहीं देखा। जब तक कि किसी केस में इसकी जरूरत न पड़ जाए, फिर भी तुम केस जीत ही लेते हो। मैं कैसे मान लूं कि तुम्हारी सफलता का राज कानून की मोटी-मोटी किताबों का अध्ययन है।"
लिंकन ने जवाब दिया– "मैं नहीं पढ़ पाया तो क्या हुआ, सच्चाई तो यही है कि कानून अध्ययन और जानकारी की मांग करता है। मेरा तो जीवन ही इतना ऊबड़-खाबड़ और बेतरतीब रहा है जिसमें नियमितता के लिए कोई स्थान नहीं रहा। यदि रहता तो शायद मैं अध्ययन को अवश्य महत्त्व देता, लेकिन युवा पीढ़ी के ये उभरते सितारे अध्ययन कर सकते हैं। इसलिए मैं सलाह देता हूं कि वे खूब अध्ययन करें और खूब मेहनत करें, सफलता उनके कदम चूमेगी।"
हेंडरसन की तरह ही जज, डेविड डेविस ने भी लिंकन की आदतों तथा खूबियों को अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणियों में उजागर किया है।
लिखित रिकॉर्ड नहीं रखते थे
हेंडरसन के साथ लिंकन की व्यावसायिक साझेदारी थी। दोनों ने अपनी कंपनी बनाई हुई थी जिसके तहत होने वाले खर्चे को आधा-आधा भरना होता था तथा आमदनी को आधा-आधा बांटना होता था। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में हर केस को हर खर्चे को लिखित रूप में रखा जाता और जो आमदनी होती या खर्च होता उसे लिखित में ही आधा-आधा किया जाता, परंतु वे ऐसा नहीं कर पाते थे। इतनी बड़ी कंपनी केवल विश्वास के आधार पर चल गई रही थी। हेंडरसन जो खर्च कर देते तथा आमदनी करते उसका बंटवारा कर देते थे, लिंकन जो खर्च तथा आमदनी करते उसका बंटवारा स्वयं कर देते थे। दोनों में से किसी ने कभी एक दूसरे पर से अविश्वास नहीं किया, परंतु जज डेविड डेविस कहते हैं– “व्यवसाय की दृष्टि से यह एक बड़ा दोष था जिसे लिंकन जैसे बड़े कद के व्यक्ति की लापरवाही ही कहा जा सकता है।"
वकालत में हिसाब-किताब नहीं रखना और फिर भी छवि पर दाग नहीं लगना। यह दर्शाता है कि लिंकन का दिल बहुत बड़ा था। वे वकालत से पैसा जरूर कमाते थे, परंतु पैसे के प्रति उनके मन में ऐसा लोभ नहीं था कि यदि उनके साथी के हिस्से में ज्यादा चला गया तो क्या होगा। वे वकालत को आमदनी का साधन मानने के साथ-साथ न्याय दिलाने का माध्यम भी मानते थे। अपने मुवक्किल को न्याय दिलाने के लिए वे पूरी मेहनत से मुकदमे की पैरवी करते थे। इसके लिए फिर चाहे उन्हें रात-रात भर जागना पड़े या मित्रों से सलाह लेनी पड़े या किताबों, समाचार-पत्रों व नजीरों की गहराई में जाना पड़े। मेहनताना जो भी मिलता उसे पूरी ईमानदारी से बांटकर इतने खुश होते थे कि उस समय उनका चेहरा देखते बनता था।
इलीनॉइस के सेंट्रल रेलवे का मुकदमा लिंकन ने बड़ी तत्परता से लड़ा। केस बहुत उलझा हुआ था, परंतु लिंकन ने इसकी परवाह नहीं की। वे केस की तह तक गए और एक दिन उन्होंने यह मुकदमा जीत लिया। उन्हें मेहनताने में 15000 डॉलर मिले। उन दिनों यह बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी।
खुशी से लिंकन के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। वे सीधे केबिन में पहुंचे और हेंडरसन से बोले–“आओ देखो मैं सेंट्रल रेलवे वाला मुकदमा जीत गया हूं, पूरे 15000 डॉलर मिले हैं, जल्दी बैठो मेरे पास और अपना हिस्सा ले लो।”
लिंकन ने तुरंत डालर निकाले और गिनकर पूरे 7500 डॉलर की गड्डी बनाई और हेंडरसन को पकड़ा दी।
इसके बाद वे अपनी इस खुशी को अपनी पत्नी तथा बच्चों में बांटने के लिए अपने घर चले गए। लिंकन जब केबिन से निकलकर अपने घर की ओर जाने लगे तब हेंडरसन खड़े-खड़े उन्हें देख रहे थे, उनकी दी हुई 7500 डॉलर की गड्डी अब भी हेंडरसन के हाथों में उसी तरह लगी थी।
गलत मुकदमा नहीं लड़ते थे
अब्राहम लिंकन भी गांधी जी की तरह इस बात का ध्यान रखते थे कि जिस केस को वे लड़ रहे हैं उसमें उनका मुवक्किल झूठ तो नहीं बोल रहा है। उनके लिए वकालत न्याय दिलाने का माध्यम थी। झूठे मुकदमों में लोगों को जिताकर मोटी रकम कमाने में माहिर आज के प्रभावशाली कहे जाने वाले वकीलों से लिंकन बिल्कुल अलग थे। उन्होंने जितना भी पैसा और नाम वकालत में कमाया वह सही मुकदमे लड़कर ही कमाया था। यही कारण कि इतने लम्बे समय तक वकालत में रहने तथा राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले वकील होने के बावजूद वे दौलत नहीं कमा पाए।
जज डेविड ने अपने संस्मरणों में लिखा है—'लिंकन अपने मुवक्किलों के मुकदमे लड़ते समय उन्हें जीत की गारंटी नहीं दिया करते थे। वे अपनी पूरी ताकत को मुकदमे में तभी झोंकते थे जब उन्हें पता लग जाता था कि यह मुकदमा जीतना सत्य की भारी जीत होगी। जब उन्हें यह पता लगता कि यह मुकदमा जीतने से किसी गलत आदमी को फायदा होने जा रहा है तो वे बीच में ही ढीले पड़ जाते थे और मुकदमे में हार जाने को तैयार हो जाते थे। केस जीतने को उन्होंने प्रतिष्ठा का प्रश्न सामान्य हालातों में कभी नहीं बनाया। हां, जब किसी गरीब के पेट पर लात पड़ने का सवाल होता अथवा किसी विधवा स्त्री को न्याय दिलाने का सवाल होता, तब वे इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लेते थे और अपने आपसे भी। "
झूठे मुकदमे के एक मुवक्किल को उन्होंने पत्र में सीधा-सीधा लिख दिया — “तुम्हारा मुकदमा झूठा है, मुझे ऐसे मुकदमे को जीतने में कोई रुचि नहीं है। तुम बेकार ही इस मुकदमे में पैसा जाया कर रहे हो, बेहतर हो तुम केस जल्दी-से-जल्दी वापस ले लो, अन्यथा तुम्हारा पैसा भी बेकार जाएगा और अंत में तुम मुकदमा भी हार जाओगे।"
ऐसे ही एक बार जब एक मुकदमा जज के यहां था, उन्हें अचानक पता लग गया कि इस मुकदमे के मुवक्किल ने उनसे झूठ बोला है। वे झट बुरा मान गए और उन्होंने ठीक उस समय पैरवी न करने का फैसला ले लिया जब मुकदमा जज के सामने पेश हुआ। जब उनका नाम पुकारा गया और वे कोर्ट में गए ही नहीं तो मुवक्किल दौड़ता हुआ आया और बोला- "सर, जल्दी चलिए हमारा मुकदमा आ गया है। जज ने आपका नाम पुकारा है। "
लिंकन ने अपने हाथ झाड़ते हुए कहा- "कह दो जज से मेरे पास समय नहीं है। मेरे हाथ गंदे हो गए हैं, मैं हाथ धोने जा रहा हूं।" मुवक्किल देखता रह गया। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या करे। अजीब सनकी वकील है, परंतु अब तो बात हाथ से निकल चुकी थी। जज ने मुकदमा खारिज कर दिया। मुवक्किल गुस्सा होकर चला गया।
इस मुवक्किल के साथ ऐसा व्यवहार करने के पीछे उनका उद्देश्य यही था कि वह समझ जाए वकील से झूठ बोलकर गलत मुकदमा लड़वाने का नतीजा क्या होता है, 'हाथ गंदे हैं धोने जा रहा हूं' कहने से उनका तात्पर्य यही था कि तुमने मुझे गलत मुकदमे की पैरवी करने के लिए झूठ बोलकर राजी कर लिया। अब मुझे पता लग गया है कि तुम गलत हो, अतः मैं तुम्हारा मुकदमा लड़ने नहीं जा रहा हूं।
'राइट केस' में विधवा को पेंशन दिलाए जाने का मामला लिंकन ने अपने हाथ में लिया।
जब उन्होंने देखा कि उनका केस हाथ से निकलने लगा है और विश्वास के साथ अन्याय होने जा रहा है तो वे जज डेविड डेविस की अदालत में ही राइट बंधुओं से भिड़ गए।
उन्होंने उन्हें नीच, कपटी और हृदयहीन कहकर अदालत में ही बेइज्जत कर डाला। जज ने जब उन्हें रोका तो बाहर निकल गए और अपने साथी हेंडरसन से अपने क्रोध को प्रकट करते हुए बोले– “मैं इन राइट बंधुओं की खाल खींच लूंगा और उस विधवा की पेंशन का पैसा उनसे निकलवाकर रहूंगा।"
'राइट केस' में समय बीत रहा था और विधवाओं को पेंशन मिलने में देरी हो रही थी। मुकदमे को कानूनी दांव-पेंचों के माध्यम से लम्बा खींचे जाने तथा विधवाओं के साथ अन्याय होने से खीझकर उन्होंने यह वक्तव्य दिया— “कितना लम्बा समय बीत चुका है, 1776 के युद्ध में बहादुर सिपाही अपनी शहादत दे गए। उनकी विधवाएं अनाथ और बेसहारा होकर भटक रही हैं। ये विधवाएं कभी आपके पास आकर गुहार लगाती हैं, कभी मेरे पास। जूरी के सम्मानीय सदस्यो! इनके साथ न्याय क्यों नहीं करते। आज जो स्त्री वीर सैनिक की विधवा के रूप में अपना सब कुछ गंवाकर तुम्हारे सामने खड़ी है, कोई दिन था जब वह इतनी बुरी हालत में नहीं थी। वह बहुत सुंदर थी, जवान थी। उसकी चाल में एक लय थी, उसके चेहरे पर यौवन की लाली थी और जब वह बोलती थी तो चांदी की मधुर घंटियां-सी बजती थीं। इतनी लावण्यमयी और मीठी आवाज वाली घंटियां कि वर्जीनिया की पुरानी पहाड़ियों में भी हचलच मच जाती थी। जिसके पति ने देश की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी, आज वही स्त्री असुरक्षित हालत में यहां खड़ी है। वह कहां पैदा हुई, कहां उसने अपना बचपन और किशोर-काल बिताया, कहां से चलकर कहां पहुंचकर हमसे मदद के लिए गिड़गिड़ा रही है। उसकी आंखों के आंसू सूख चुके हैं, उसकी ऊर्जा की अंतिम बूंद भी जवाब दे गई है। मेरी आप से विनती है जेंटलमैन ऑफ ज्यूरी, इस स्त्री के साथ बिना वक्त गंवाए न्याय किया जाए।"
ऐसी तीव्र अपील वाली दलीलें पेश करते थे एक वकील की हैसियत से अब्राहम लिंकन अदालत में कि जजों के दिल हिल जाते थे।
अदालत में विकसित हुई जन-भावनाओं को उत्तेजित करने वाली यह कला जनता के बीच राजनैतिक सफलता हासिल करने में उसके बहुत काम आई।
रोकर मुकदमा जीता
एक बार लिंकन के सामने उनके न्यू सलेम के एक गरीब दोस्त के लड़के का मुकदमा आया। उनके दोस्त की मृत्यु हो चुकी थी और लड़के विलियम आर्मस्ट्रांग की हत्या हो गई। विधवा मां लिंकन से मिली थी न्यू सलेम में। जैक आर्मस्ट्रॉग ने कुश्ती के समय उस विधवा के लड़के विलियम आर्मस्ट्रांग पर ऐसा वार किया कि उसकी मौत हो गई।
लिंकन ने उस विधवा से कोई फीस नहीं ली। जब मुकदमे की पैरवी करने के लिए वह खड़ा हुआ तो उसने देखा कि विरोधी वकील इस आधार पर मुकदमा जीतने जा रहा है कि अंधेरे में उस पर वार करते हुए जैक आर्मस्ट्रांग को किसी ने देखा नहीं। चश्मदीद गवाह न होने के कारण केस हाथ से छूटा जा रहा था। लिंकन को केस हारने का गम नहीं था, परंतु इस बात से वह बुरी तरह विचलित हो गया कि उसका वह दोस्त जिसने उसकी गरीबी की हालत में मदद की थी, उसकी विधवा स्त्री सामने खड़ी है, उसका बेटा मारा जा चुका है और उसके बेटे के कातिल को सजा दिलवाकर वह उसे न्याय तक नहीं दिलवा पा रहा।
लिंकन का लम्बा शरीर बुरी तरह भावातिरेक से कांपने लगा। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे, उसने जज से कहा– "मिस्टर जस्टिस यह जो सामने खड़ी है, यह स्त्री उस पुरुष की विधवा है जो मुझे आज से 20 वर्ष पहले जब मैं एक गरीब लड़का था, मारा-मारा अनाथ-सा गलियों में भटक रहा था, तब वह व्यक्ति न्यू सलेम में अपने घर ले गया था। इसी स्त्री ने तब मुझे अपने हाथों से खाना खिलाया था। मुझे नहला-धुलाकर अच्छे कपड़े पहनने को दिए थे और मेरे लिए खाने और रहने का इंतजाम किया था। ऐसे सज्जन लोगों के साथ ऐसा क्यों होता है। मैं अपनी आंखों के सामने यह सब क्या दृश्य देख रहा हूं। गवाह की कमी के कारण बेटे को गंवा चुकी मां को न्याय नहीं मिल पा रहा है...।" लिंकन अदालत में रो पड़े। जूरी के जज भी अपने आंसू पोंछते देखे गए।
मुकदमे ने नया मोड़ ले लिया था। उसकी फिर से छान-बीन के आदेश जारी किए गए और बाद में उसे न्याय मिला।
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Sun, 04 Jun 2023 21:40:27 +0530 Jaankari Rakho
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As I would not be a slave, so I would not be a master - This exposes my idea of democracy. What so ever differs, to the extent of the difference, is no democracy.
-Abraham Lincoln
1846 से 1849 तक का समय अब्राहम लिंकन के लिए राजनीति में उभरकर आने का नहीं रहा। लिंकन ने इस इरादे के साथ 1846 में कांग्रेस में प्रवेश किया था कि राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में उन्हें पहचान मिलेगी, परंतु ऐसा हो नहीं पाया।
न्यू सलेम में रहते हुए विधान सभा के सदस्य के रूप में लिंकन जिस तरह चर्चा में आ गए थे, राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में जाने के बाद उस तरह चर्चा में नहीं आए, अपितु उनकी अपनी पहचान भीड़ में गुम हो गई ।
वकालत का काम छोड़कर, आमदनी का काम छोड़कर लिंकन राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में काम करने के लिए वाशिंगटन आए थे, परंतु अमेरिका की राजधानी का मूड इतना अजीब-सा था कि वह उन्हें समझ ही नहीं पाई।
उन दिनों राष्ट्रीय राजधानी पर एक सवाल अपना कद बढ़ाकर इस तरह हावी हो गया था कि बाकी सारे सवाल उसकी आड़ में छिप गए से लगते थे। यह
सवाल था दास प्रथा का।
दास प्रथा अमेरिकी समाज के मुंह लग चुकी थी। जो बड़े-बड़े फार्मों के मालिक थे, बड़े कारखाने चला रहे थे, बड़े ठाठ के साथ रह रहे थे, उन सबको अपने लिए गुलामों की जरूरत महसूस होती थी।
दक्षिण अफ्रीका से अंग्रेजों द्वारा गुलाम बनाकर लाए गए लोगों को अमेरिका के दक्षिण भाग में बसा दिया गया था। पहले ये राज्य ब्रिटेन की कॉलोनी हुआ करते थे। 1776 में यह आजाद हो गए और अमेरिकी संघ में शामिल होकर संयुक्त राज्य अमेरिका के अंग बन गए परंतु नीग्रो जाति के इन काले लोगों से जानवरों की तरह काम लेने तथा इन्हें अमेरिका के दोयम दर्जे का नागरिक समझने की मनोवृत्ति समाप्त होने की बजाय और मजबूत होने लगी। अब अमेरिका के गोरे लोग इन्हें इसीलिए गुलाम बनाए रखना चाहते थे क्योंकि वे शरीर से बहुत मजबूत होते थे और जिन कामों को गोरे लोग नहीं कर सकते थे इन्हें वे अंजाम देते थे। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को समाज अब अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था।
1776 में ब्रिटेन से आजाद होने के साथ ही सारे नीग्रो अमेरिका के विधिवत् नागरिक बन गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि स्वाधीनता की लड़ाई के बाद जब अमेरिका का दक्षिणी हिस्सा ब्रिटेन से आजाद करा लिया जाएगा तो आजादी का असली लाभ उन्हें ही मिलेगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ। अमेरिकी क्षेत्र ब्रिटेन से तो आजाद करा लिया गया परंतु उस क्षेत्र के विकास में जिन काले लोगों ने अपने घर परिवार से दूर रहकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी कठोर और यातनाओं भरा जीवन जिया था, उन्हें आजादी नहीं मिली। सिद्धांत: वे आजाद थे, क्योंकि आजाद देश के नागरिक थे, परंतु रंगभेद की नीति को कानूनी जामा पहनाकर कालों को गोरे अमेरिकी समाज ने फिर से गुलाम बना लिया था और अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने तथा अपने लिए सुविधाएं जुटाने की खातिर वह इनका पूरी तरह इस्तेमाल कर रहा था।
अब्राहम लिंकन का हृदय मानवता से लबालब भरा था। वे गरीबी और अभावों के उस नर्क से निकलकर आए थे जो इन काले लोगों के जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था। अमेरिकी उनका इस्तेमाल अपनी माली हालत मजबूत बनाने के लिए कर रहे थे और जानवरों से भी बदतर जीवन बिताने पर विवश थे। लिंकन नहीं चाहते थे कि मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण हो और उसे इतना अपमानित जीवन जीना पड़े कि वह अपनी पहचान ही भूल जाए, परंतु उनके साथ सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि वे गुलामी की प्रथा का खुला विरोध नहीं कर सकते थे।
सारी दुनिया के लोग जानते हैं कि अब्राहम लिंकन ने दास प्रथा का अंत करके अमेरिका के 11% कालों के साथ न्याय किया और उन्हें फिर से मानव की गरिमा प्रदान कर, सहज मानवीय जीवनशैली में जीवन बिताने की आजादी देकर गोरों से दुश्मनी मोल ली और इसी कारण उन्हें गोली से उड़ा दिया गया।
दुनिया जो मानती है वह बिल्कुल ठीक है, परंतु इस बिंदु तक पहुंचने में, दास प्रथा उन्मूलन की घोषणा करने की हैसियत प्राप्त करने में लिंकन को पूरे 33 वर्ष लगे।
गरीबों, पिछड़ों, शोषितों और पीड़ितों की पीड़ा और कराहों की आवाजों से विचलित होकर अब्राहम लिंकन ने अमेरिकी राजनीति में प्रवेश किया था। उन दिनों दास प्रथा को समाप्त करने के लिए संघर्ष करने वाले 'रेडिकल ग्रुप' ने लिंकन को बहुत प्रभावित किया था।
21 वर्ष का युवक एबी (तब अब्राहम लिंकन को प्यार से एबी कहा जाता था) जब अपनी पहचान परिवार से अलग तलाशने के संकल्प के साथ न्यू सलेम में आया था, तब उसका इरादा न राजनीति में जाने का था, न कानून की पढ़ाई करने का। परिवार में क्योंकि गरीबी और उपेक्षा के कारण गुजारा करना संभव नहीं हो पा रहा था, अत: उसने परिवार छोड़ दिया।
1830 में वह युवक अपने सौतेले भाई व सौतेली बहन के साथ न्यू सलेम में इसलिए आया था कि यहां आजीविका का कोई साधन हाथ आ जाएगा और वह अपने बहन-भाई दोनों को पढ़ा-लिखाकर किसी काबिल बनाएगा तथा बड़े भाई के दायित्व का निर्वाह करेगा। इस दायित्व के निर्वाह में ही उसे अपना भविष्य भी दिखाई दे रहा था, परंतु यहां आकर उसे दो बड़ी महत्त्वपूर्ण जमीनें हाथ लग गईं – एक यह कि पढ़ाई-लिखाई छोड़कर उसने जीवन में बड़ी भूल की है, मौका है यह भूल तुरंत सुधारी जानी चाहिए।
15 डालर प्रति माह की नौकरी करते हुए उसने अपनी पढ़ाई की क्षति पूर्ति करने तथा बहन-भाई के प्रति दायित्व निभाने का रास्ता तलाशा था।
जब वह स्टोर में बैठकर पढ़ाई करने लगा, चार पैसे बचाने लगा, तभी उसकी मुलाकात समाज के प्रति जागरूक लोगों से हो गई, ये लोग लिंकन में छिपी प्रतिभा को पहचान गए और उन्होंने उसके अंदर समाज के काम के प्रति रुचि पैदा करनी शुरू कर दी। इसी दौरान लिंकन की मुलाकात रेडिकल ग्रुप के लोगों से भी हुई, जिनसे उसे पता लगा कि अमेरिका के गोरे लोगों द्वारा काले लोगों का शोषण एक बहुत बड़ा मानवीय अन्याय है। यह अन्याय यदि नहीं मिटाया गया तो एक दिन अमेरिका में गृह युद्ध होगा और संयुक्त राज्य अमेरिका जिसे वाशिंगटन जैसे महान राष्ट्रपति ने बड़ी मेहनत और लगन से बनाया था, अपनी जड़ें मजबूती से जमाने से पहले ही टूटकर छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
22 वर्षीय युवक लिंकन जब-जब रेडिकल ग्रुप के लोगों के बीच बैठता, उनकी बातें सुनकर वह दहल जाता था। फिर वह समाज को जागरूक बनाने वाले लोगों के बीच बैठता तो उसे पता लगता कि वे रेडिकल ग्रुप को पसंद नहीं करते। इन्हें सिरफिरा और विद्रोही समझते हैं। कुछ लोग जो गरीब हैं, वे इसलिए गरीब नहीं हैं कि उन्हें गुलाम बनाकर रखा गया है बल्कि इसलिए गरीब हैं कि उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने की आदत ही नहीं पड़ी है। वे दूसरों का सहारा लेकर खड़े होते हैं और वे उनका दोहन करते हैं। यदि वे अपने पैरों पर स्वयं खड़े होने के लिए आत्मविश्वास जुटा लें तो अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बना लेंगे और तब उन्हें न कोई गुलाम बना सकेगा, न उनका शोषण कर सकेगा।
इसी बीच लिंकन की मुलाकात भिग पार्टी के नेताओं से हुई। भिग पार्टी के नेताओं के भाषण सुनने का लिंकन को चस्का लग गया था। जब भी किसी मित्र नेता का भाषण न्यू सलेम में होता तो लिंकन पहले से ही वहां पहुंच जाता और अपनी सीट से चिपककर बैठ जाता। वह उसकी एक-एक बात को ध्यान से सुनता और उस पर विचार करता।
धीरे-धीरे लिंकन की समझ में यह बात आ गई कि भिग पार्टी के नेता जो बात कहते हैं, वही ठीक है। वे कहते हैं कि दास प्रथा अमेरिकी समाज पर कलंक जरूर है, परंतु रेडिकल ग्रुप की तरह दास प्रथा के उन्मूलन का नारा लगाकर अमेरिकी संघ के टुकड़े-टुकड़े कर डालना समझदारी नहीं होगी। आज देश की हालत यह है कि वह विकास की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा है। विकास की प्रक्रिया में भूमि के मालिकों, कारखानों के स्वामियों को तथा अन्य धंधों का विकास करने में लगे लोगों को अपने-अपने कामों में अधिक उत्पादन के लिए काले लोगों की आवश्यकता है। काले लोगों की मेहनत से अमेरिका तरक्की कर रहा है, यदि दास प्रथा समाप्त कर दी गई तो ये काम नहीं करेंगे और अमेरिका की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी।
कुछ लोग तो यह मानते हैं कि अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए दूसरों को गुलाम बनाकर रखना मानवता के सिद्धांत के विरुद्ध है, परंतु कुछ बड़ी संख्या उन लोगों की है जो यह विश्वास रखते हैं कि अमेरिका को आर्थिक महाशक्ति बनाना है तो दास प्रथा को बरकरार रखना होगा। दासों की कॉलोनियां दक्षिणी भाग में हैं, परंतु अब पश्चिमी क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया तेज हो रही है। वहां बड़े-बड़े फार्मों पर दासों को ले जाकर उनसे काम कराए जाने की मांग तेजी से उठ रही है। ऐसे में यदि दास प्रथा की मुक्ति की बात उठी तो वे दक्षिणी व पश्चिमी सीमा के प्रांत में विद्रोह कर देंगे और वे अमेरिकी संघ से अलग हो जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका विघटित हो जाएगा।
भिग पार्टी के लोग बीच का रास्ता निकाल कर लाए थे। वे दास प्रथा की समाप्ति के लिए सही अवसर आने तक प्रतीक्षा करने तथा देश की अन्य समस्याओं के लिए कंजरवेटिव के विरुद्ध लड़ने की नीति पर काम कर रहे थे। गरीबी और शोषण तो शेष समाज में भी है। 87% गोरी आबादी में जो अन्याय और अत्याचार है उससे निपटने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और दास प्रथा उन्मूलन के लिए अनुकूल जमीन तैयार करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
युवा लिंकन को भिग पार्टी की नीतियां भा गईं। वे पार्टी में शामिल हो गए और 23 वर्ष की आयु में उन्होंने 1832 में न्यू सलेम से विधान सभा का चुनाव लड़ा। जिसमें वे सफल न हो पाए, परंतु राजनैतिक विचार अब उनके मस्तिष्क में जन्म ले चुका था और वे उस पर दृढ़ थे। अपने इसी विचार को पोषित करते हुए वे भिग पार्टी की राजनीति में जम गए और साथ ही शिक्षा की कमी पूरी करने लगे।
1833 में उन्होंने कानून की पढ़ाई शुरू कर दी और अगले ही वर्ष 1834 में विधान सभा का फिर चुनाव लड़ा जिसमें उन्हें जीत हासिल हुई। 25 वर्ष की आयु में अब्राहम लिंकन न्यू सलेम से इलीनॉइस विधान सभा के सदस्य बने जो उनके तथा उनके परिवार के लिए गौरव की बात थी।
भिग पार्टी के मंच से राजनीति में उतरने वाले अब्राहम लिंकन के विचारों के केंद्र में दास प्रथा आ चुकी थी, परंतु वे संयुक्त राज्य के विघटन की कीमत पर दास प्रथा के उन्मूलन के लिए तैयार नहीं थे। अतः दास प्रथा से जुड़ी स्थितियों का समग्रता से अध्ययन करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि–'देखो और प्रतीक्षा करो तब तक जब तक स्थितियां अनुकूल न हो जाएं।'
उन्हें पता लगा कि 1820 में मिसौरी समझौता हुआ था जिसके तहत यह फैसला लिया गया था कि दास प्रथा को दक्षिण से बाहर नहीं निकलने दिया जाएगा। मिसौरी की सीमा से आगे वह कभी नहीं बढ़ने दी जाएगी तथा यह भी कि दास प्रथा की राजनीति करने की इजाजत किसी राजनैतिक दल को नहीं होगी। यह समस्या राजनीति से बाहर रखी जाएगी।
कुछ लोग यह तर्क दिया करते थे कि यदि समझौते का उल्लंघन किया गया तो गृहयुद्ध हो जाएगा। संघीय व्यवस्था को कायम रखने के लिए इस समझौते का अक्षरशः पालन किया जाना जरूरी है।
लेकिन लिंकन शुरू से ही इस बात से इंकार करते थे। समझौते का सच दिखाकर पूरे देश के लोगों को गुमराह करना उनकी दृष्टि में गलत था। इतने बड़े देश में विचारधाराओं की बहुलता तो थी ही, लोग अपने-अपने ढंग से सोचते थे, सोचने के लिए सब स्वतंत्र थे।
दक्षिणी राज्यों के लोगों का सदा यह तर्क रहता था कि दास प्रथा पर प्रतिबंध लगाने की बजाय उसका दूसरे राज्यों में विस्तार किया जाना चाहिए यदि उसका विस्तार नहीं किया गया तो अमेरिका विकास की दौड़ में पिछड़ जाएगा।
दास प्रथा के विस्तार पर जोर देने वाले लोगों ने दास प्रथा विरोधियों की भावनाओं को इतनी चोट पहुंचाई थी कि वे भड़क उठे थे और इस बात पर जोर देने लगे थे कि सरकार कानूनन दास प्रथा समाप्त करे।
1837 में इलीनॉइस विधान सभा ने दास प्रथा समाप्त करने के लिए क्रांति पर उतारू लोगों के इरादों को गलत बताया तथा उनके द्वारा सदन के पटल पर लाए गए प्रस्ताव को यह कहकर निरस्त कर दिया कि कांग्रेस को संविधान यह अधिकार नहीं देता कि वह दक्षिणी राज्यों से दास प्रथा को समाप्त कर सके।
लिंकन इस समय राज्य की विधान सभा के सदस्य थे। उनका मत दास प्रथा समाप्त कराने वालों के पक्ष में था, परंतु देश के हालात की उन्हें इतनी गहरी समझ थी कि उन्होंने हृदय के स्थान पर बुद्धि से काम लिया और दास प्रथा के उन्मूलन के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगा रहे लोगों का साथ देने की जल्दबाजी नहीं की। उस समय कोई बड़ी राजनैतिक पार्टी दास प्रथा के उन्मूलन का खतरा उठाने को तैयार नहीं थी। लिंकन की भिग पार्टी भी नहीं। लिंकन यथास्थिति के पक्ष में थे। उनकी पार्टी दास प्रथा के साथ छेड़छाड़ करने के पक्ष में नहीं थी। लिंकन की पूरी सहानुभूति दासों के साथ थी। वे नहीं चाहते थे कि मनुष्यों द्वारा मनुष्यों की गुलामी एक दिन भी कायम रहे, परंतु साथ ही यह भी जानते थे कि दास प्रथा के साथ की गई छेड़छाड़ पूरे राष्ट्र को विघटन के कगार पर पहुंचा सकती है, अत: दिल पर पत्थर रखकर वे इस आघात को सह गए कि उनकी पार्टी ने दास प्रथा उन्मूलन के प्रयासों को संविधान विरोधी करार दिया और वे चुपचाप पार्टी के कदम का समर्थन करते रहे।
1844 में लिंकन ने दास प्रथा पर अपना नजरिया स्पष्ट करते हुए वक्तव्य जारी किया जिसमें कहा गया था—“हम सब अमेरिका वासियों का कर्तव्य है कि हम संघीय एकता बनाए रखने के लिए दासता को उन्हीं राज्यों में रहने दें, जहां वह है। उसका विस्तार होने से रोकें। एक दिन दास प्रथा अपनी मौत मर जाएगी। इस प्रक्रिया में समय लग सकता है, परंतु देश के संघीय ढांचे को कोई आंच नहीं आएगी।"
इसी वक्तव्य में उन्होंने यह भी मत व्यक्त किया कि जो लोग गुलामों को अपनी सम्पत्ति मानते हैं, उनके मालिक हैं और यह कहकर उन्हें मुक्त नहीं करना चाहते कि उन पर उन्होंने अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च किया है तो उन्हें इस बात के लिए राजी किया जाना चाहिए कि वे क्षति पूर्ति की रकम लेकर इन गुलामों को मुक्त कर दें। सरकार ऐसा फंड बनाए जिससे गुलामों के मालिकों को रकम देकर गुलामों की मुक्ति कराई जा सके।
कांग्रेस के सदस्य
1846 में अब्राहम लिंकन ने कांग्रेस की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ा। वे चुनाव जीत गए।
अब उनके सामने समस्या आई वाशिंगटन जाने की। उनकी पत्नी अब तक दो बच्चों को जन्म दे चुकी थी। दोनों ही लड़के थे। सबसे बड़ा बेटा रॉबर्ट लिंकन 3 वर्ष का हो चुका था।
लिंकन की पत्नी इस बात से बहुत खुश थी कि उन्हें कांग्रेस की सदस्यता मिल गई है, परंतु इस बात से उन्हें बड़ी परेशानी हुई कि लिंकन को वाशिंगटन जाना पड़ेगा, वकालत का काम बंद करना पड़ेगा और परिवार को स्प्रिंगफील्ड में छोड़ अकेले ही वाशिंगटन जाकर रहना पड़ेगा।
लिंकन ने पत्नी को समझाया कि राष्ट्र की सेवा के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ेगा। अभी बच्चे क्योंकि ज्यादा बड़े नहीं हुए हैं, उनकी शिक्षा की समस्या सामने नहीं है, अतः दोनों जगह रहा जा सकता है। कुछ दिन पत्नी बच्चों के साथ स्प्रिंगफील्ड में रहे और कुछ दिन वाशिंगटन में मिले कांग्रेस सदस्यों के आवास में।
1847 में लिंकन स्प्रिंगफील्ड छोड़कर वाशिंगटन आ गए। वाशिंगटन के साथ उनकी एक कल्पना जुड़ी थी। वे सोचा करते थे कि जब राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करने के बाद वाशिंगटन जाकर रहेंगे तो उनके परिचय का दायरा बहुत बढ़ जाएगा। दोस्तों की संख्या बहुत बढ़ जाएगी तथा जीवन का आनंद कई गुना हो जाएगा, परंतु यहां आने के बाद उन्हें पता लगा कि राष्ट्रीय राजनीति तो सीमाहीन महासागर की तरह है। यहां बहुत लोग हैं। बड़े-बड़े विद्वान और महान विचारक हैं, परंतु सब अपने आप में व्यस्त हैं। जीवन का जैसा आनंद न्यू सलेम और स्प्रिंगफील्ड में था, वैसा वाशिंगटन में नहीं मिल पाया।
हां, एक बात जरूर थी, लिंकन की पत्नी मैरी टॉड के इरादे बहुत ऊंचे हो गए थे। उनकी कल्पनाएं बहुत बढ़ गई थीं। उन्होंने सोचा था कि अब जीवन की उन तमाम इच्छाओं को पूरा करने का अवसर मिलेगा जो उन्होंने राजनैतिक ऊंचाइयों वाले पति के साथ जोड़ी थीं। अब वे कीमती कपड़े पहनेंगी, अच्छी-अच्छी चीजों से अपना आवास सजाएंगी, बच्चों पर खुले हाथ खर्च करेंगी और अपनी सहेलियों तथा रिश्ते की अन्य स्त्रियों के साथ अपनी उपलब्धियों की डींग हांकेंगी, परंतु थोड़े दिन खुलकर खर्च करने के बाद ही उनकी समझ में आ गया था कि जो उन्होंने सोचा था, वह गलत था।
लिंकन का जीवन तो ईमानदारी और सत्य का एक अनूठा आदर्श था। उनसे ऐसी उम्मीदें रखना व्यर्थ था कि वे अपनी पत्नी और बच्चों को अधिक सुविधाएं जुटाने के लिए विशेष प्रयास करेंगे और सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल अपने हित में करेंगे। जनता की मेहनत की कमाई से सरकारें चलती हैं और सरकारी धन पर जनता का हक होता है नेताओं का नहीं, लिंकन इस सिद्धांत को मानने वाले थे।
पत्नी को जल्दी ही समझ आ गया कि उनका पति दूसरों से पूरी तरह अलग है और वह अलग ही रहेगा। उसे इतना पारिवारिक नहीं बनाया जा सकता कि वह जनता की कमाई में से हिस्सा मारकर अपने घर ले आए। उन्होंने अपने आपको बदलने का निश्चय कर लिया। पति के विचारों से उन्हें तनिक भी ऐतराज नहीं था। उनके विचारों की महानता का वे आदर करती थीं, अतः उन्होंने अपने इरादों को समेट लिया। लिंकन के सामने कामों की इतनी व्यस्तता रहती थी कि वे रात को देर तक जुटे रहते थे और प्रायः रात को देर से आ पाते थे और बच्चे इंतजार करते-करते सो जाते थे। रॉबर्ट को अधिक इंतजार रहता था। विली तो अभी बहुत छोटा था। वह तो मां की गोद में रहता था या पालने में सोता रहता था।
मैरी टॉड को घर में बच्चों की देखभाल करने, घर के काम संभालने और समय मिलने पर कुछ पुस्तकें पढ़ लेने के अलावा कोई और काम नहीं था।
1847 से 1849 तक लिंकन वाशिंगटन में रहे। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति मिस्टर पोक थे। उन्होंने 1846 में मैक्सिको पर आक्रमण किया था। अमेरिका मैक्सिको के कब्जे से कैलीफोर्निया, नवादा, ऊटा, एरीजोना, न्यू मैक्सिको तथा कोलोराडो व वियोमिंग आदि भाग खाली कराना चाहता था।
युद्ध में काफी खून-खराबा हुआ। युद्ध के बाद जो प्रतिक्रिया आई उसमें दो धाराएं साफ दिखाई दे रही थीं। एक धारा का मानना था कि अमेरिका ने मैक्सिको के साथ युद्ध छेड़कर अच्छा किया। किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र के लिए यह जरूरी है कि वह उसे नुकसान पहुंचाने वाले देश को सबक सिखाए तथा जो उसे ठीक लगता है उसे हासिल करे।
दूसरी धारा युद्ध विरोधियों की थी। इसी धारा में भिग पार्टी ने स्वर में स्वर मिलाया और सदन में इस बात को लेकर भारी हंगामा खड़ा किया। लिंकन युवा नेता के रूप में उभरकर सामने आए थे। वे अपनी पार्टी में अपनी शीर्ष पहचान बनाने के लिए बहुत उत्सुक थे। उन्होंने पार्टी की युद्ध के बारे में नीति को स्पष्ट करने का दायित्व संभाला और सदन में सत्तारूढ़ दल को धार पर रखते हुए उसकी घोर आलोचना की। मैक्सिको के विरुद्ध युद्ध को गैर-जरूरी बताते हुए उन्होंने राष्ट्रपति पोक की इस बात के लिए कटु आलोचना की कि उन्होंने मैक्सिको के विरुद्ध युद्ध छेड़कर व्यर्थ ही अमेरिकी सैनिकों का खून बहाया है।
स्पॉटी लिंकन
सरकार ने कांग्रेस के सामने बहस करके उसे पारित करने के लिए युद्ध सम्बंधी एक प्रस्ताव रखा था। जिसका उद्देश्य युद्ध के लिए मैक्सिको को पूरी तरह दोषी ठहराना तथा उससे युद्ध की कीमत वसूल करना था।
भिग पार्टी ने इस प्रस्ताव की कटु आलोचना की और इसके विरुद्ध मतदान किया। भिग पार्टी के बहुत प्रयत्नों के बावजूद यह प्रस्ताव गिर नहीं पाया, परंतु पार्टी की देश में भारी किरकिरी हो गई।
युद्ध के समय अमेरिकी जनता पूरी तरह अमेरिका के साथ थी तथा उसे यह बात बर्दाश्त नहीं थी कि युद्ध के लिए उसके देश को जिम्मेदार ठहराया जाए। जनता के रुख की परवाह न करते हुए भिग पार्टी के उभरते नेता लिंकन ने राष्ट्रपति और उनकी पार्टी की नीतियों को बेनकाब करने का संकल्प ले लिया और उन्होंने सदन में इस आशय के अनेक प्रस्ताव पारित किए कि जिस 'स्पॉट' (स्थान) पर युद्ध हुआ, सैनिकों का रक्त बहाया गया, उस स्थान को युद्ध के लिए चुनना और ऊपर से मैक्सिको को युद्ध के लिए दोषी ठहराना, सरासर गलत है। इसके लिए राष्ट्रपति पोक दोषी हैं, वे अमेरिका की जनता के सामने अपनी गलती स्वीकार करें।
लिंकन के इन प्रस्तावों से कांग्रेस में बार-बार हंगामे हुए और बहसें चलीं, परंतु जनता में यह संदेश गया कि भिग पार्टी का युवा नेता अब्राहम लिंकन एक दम सिरफिरा है जो अपने ही देश पर युद्ध का दोष मढ़ रहा है।
अनेक संगठन सक्रिय हो गए। उन्होंने सड़कों पर प्रदर्शन किए और 'स्पॉटी लिंकन गो बैक' के नारे लगाए। लिंकन पर इन नारों का कोई असर नहीं हुआ, उन्होंने अपना सरकार विरोधी अभियान जारी रखा। परंतु मीडिया में इसकी भारी प्रतिक्रिया हुई।
अनेक समाचार पत्रों ने लिंकन को 'स्पॉटी लिंकन' शीर्षक से छापा और अपने ही देश के राष्ट्रपति को कठघरे में खड़े करने के लिए उन्हें आड़े हाथों लिया। मीडिया ने लिंकन के इस रुख की इतनी आलोचना की कि वे पूरे देश में बदनाम हो गए।
उनके चुनाव क्षेत्र की जनता ने लिंकन की इस भूमिका को राष्ट्र विरोधी माना और फैसला कर लिया वे इस व्यक्ति को दोबारा चुनकर कांग्रेस में नहीं भेजेंगे।
1847 गुजर गया, 48 गुजर गया, 1849 में फिर से चुनावों की घोषणा हो गई। पार्टी ने लिंकन को फिर चुनाव में प्रत्याशी के रूप में खड़ा किया, लेकिन जनता ने ऐसा खुला विरोध किया कि पार्टी हैरान रह गई। स्वयं लिंकन को भी ऐसी उम्मीद नहीं थी। क्षेत्र की जनता उनसे इतनी नाराज हो जाएगी। उन्होंने क्षेत्र के लिए बड़े काम किए थे, परंतु युद्ध पर लिंकन की गलत नीति के कारण जनता इतने विरोध पर उतर आई कि इस बार उसने लिंकन को नहीं चुना।
1849 में झख मारकर लिंकन वाशिंगटन से स्प्रिंगफील्ड वापस आ गए और राजनीति का विचार दिमाग से निकालकर वकालत के काम में जुट गए।
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Thu, 01 Jun 2023 18:39:01 +0530 Jaankari Rakho
लिंकन का विवाह और परिवार https://m.jaankarirakho.com/लिंकन-का-विवाह-और-परिवार https://m.jaankarirakho.com/लिंकन-का-विवाह-और-परिवार लिंकन का विवाह और परिवार


Lincoln was so unlike all the men that I have ever known before or known since, that there is no one with whom I can compare him. But Merry Tod liked him, and got married with him.
-Joshua Speed
अब्राहम लिंकन का विवाह मैरी टॉड नामक लड़की से 1842 में हुआ था। मैरी टॉड श्रीमती एडवार्ड की बहन थी। श्रीमती एडवार्ड के पति इलीनॉइस के एटॉर्नी जनरल थे। वे विधान सभा में लिंकन के साथी थे।
मैरी टॉड के दादा मिलिट्री के जनरल रह चुके थे। मैरी टॉड की शिक्षा विशेष स्कूल में हुई थी, वह फ्रांसीसी बहुत अच्छी बोलती थी। वह एक अच्छी संगीतकार भी थी। नृत्य तथा कला में भी वह बहुत प्रवीण थी, परंतु लिंकन की तुलना में उसकी लम्बाई बहुत कम थी। वह केवल 5 फुट दो इंच लम्बी थी। उसकी नाक बहुत छोटी थी। चौड़ा माथा, गुलाबी त्वचा तथा भूरे बालों वाली मैरी टॉड अत्यधिक विदूषी तथा व्यवहार कुशल थी।
इससे पहले 1833 में लिंकन न्यू सलेम में एक लड़की के सम्पर्क में आए थे, इत्तफाक से इस लड़की का नाम भी मैरी था— पूरा नाम मैरी ओविंस । मैरी ओविंस लम्बी, सुंदर तथा बड़ी-बड़ी नीली आंखों वाली लड़की थी। वह बहुत ही लचीले स्वभाव की हंसमुख लड़की थी। उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। वह एक धनी परिवार की लड़की थी।
लिंकन को मैरी ओविंस से प्यार हो गया। 1836 में जब लिंकन एन रूटलैज के गम पर थोड़ा-थोड़ा काबू कर पाया था, तब मैरी ओविंस ने लिंकन के दिल को अपने काबू में कर लिया। मुलाकातें हुईं। धीरे-धीरे लिंकन के मन पर पड़ी एन के प्यार की धुंध छंट रही थी और मैरी ओविंस के प्यार का रंग चढ़ रहा था, परंतु 1837 में लिंकन ने न्यू सलेम को त्यागकर स्प्रिंगफील्ड जाने का मन बना लिया। जाने से ठीक पहले लिंकन ने मैरी ओविंस को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह उसे भूल जाए। लिंकन ने उसे समझाया कि उसका रास्ता मुसीबतों और चुनौतियों से भरा है। नाजों में पली वह खूबसूरत लड़की उसके साथ राजनीति के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर नहीं चल पाएगी। दिल पर पत्थर रखकर मैरी ओविंस लिंकन से अलग होने पर राजी हो गई। लिंकन के प्यार के बारे में टिप्पणी करते हुए
मैरी ओविंस ने कहा था—“ I thought him deficient in those little links which make up the chain of woman's happpiness...at least it was so in my case.
जब उसकी मृत्यु हुई तो मरने से ठीक पहले उसने लिंकन की प्रशंसा करते हुए कहा था— “Aman with a heart full of human kindness and a head full of common sense."
मैरी टॉड इस लड़की की तुलना में अधिक आकर्षक तथा ऊर्जावान थी। मैरी टॉड का मुंह थोड़ा पतला था और ठोड़ी चौड़ी थी। उसे देखने से लगता था जैसे वह बहुत कम बोलती है, परंतु उसकी आंखें बहुत बोलती थीं। वह बीच-बीच में मुस्कराती थी तो बहुत अच्छी लगती थी। उसकी बांहें लचीली और सुंदर थीं, उसकी नजरें बहुत तेज तथा अर्थपूर्ण थीं। वह बुद्धिमान और भावुक थी, लेकिन उसे जब गुस्सा आता था तो वह काबू से बाहर हो जाती थी।
1839 का वह दृश्य अब भी आंखों के सामने साकार हो उठता है जब मैरी टॉड ने पहली बार लिंकन को देखा। वह अपने चचेरे भाई मेजर जॉन स्टुआर्ट के साथ एक पार्टी में आई थी जो स्प्रिंगफील्ड में विधान सभा के सदस्य लिंकन के सम्मान में आयोजित की गई थी। उस दिन मैरी टॉड खूब सज संवरकर आई थी। कोने में बैठे कुछ लोगों की ओर इशारा करते हुए मेजर जॉन स्टुआर्ट ने मैरी टॉड से कहा था—“देखो सामने जो लोगों का समूह बैठा ठहाके लगा रहा है, उसके ठीक बीच में बैठा व्यक्ति आज का विशेष मेहमान है। उसी के सम्मान में यह महफिल सजी है। उसका नाम अब्राहम लिंकन है। हम दोनों साथ-साथ वकालत करते हैं। तुम इस व्यक्ति से मिलोगी तो हैरान रह जाओगी। इसकी लम्बाई पूरी 6 फुट 4 इंच है। जब यह बोलता है तब सबकी बोलती बंद हो जाती है। कहानियां सुनाने में यह बहुत माहिर है और जानकारी में तो इसका जवाब नहीं। पूरे अमेरिका की एक भी बात ऐसी नहीं जो इसे मालूम न हो। "
मैरी टॉड उस समय तो लिंकन के पास नहीं गई। कनखियों से उसे देख-देखकर मन ही मन मोहित होती रही, परंतु पार्टी के दौरान एक ऐसा मौका आया जब मैरी टॉड लिंकन के ठीक बराबर में आकर बैठ गई। यह मौका था एक कविता पढ़ने का। मैरी टॉड को मेजर जॉन स्टुआर्ट ने तैयार किया था कि वह लिंकन के साथ वही कविता पढ़े जो वह पढ़ने वाला है। यह वही कविता थी जो मैरी टॉड को अच्छी तरह आती थी. लिंकन को उसे सस्वर पढ़ना था।
मैरी टॉड जब लिंकन के बराबर में आकर बैठी तो वह उसे देखकर हैरान रह गया। उसे मैरी ओविंस की याद आ गई, परंतु यह तो सुंदरता में उससे बहुत आगे थी– सांचे में ढली अप्सरा सी मैरी टॉड ने यकायक
कहा- "मेरा नाम मैरी है। मैं आपके साथ कविता पढ़ तो आपको कोई ऐतराज तो नहीं होगा। "
"श्योर... आप पढ़िए...लीजिए।" कहते हुए लिंकन ने कविता की प्रति मैरी टॉड की ओर बढ़ाई।
"यह कविता मुझे आती है...मैं बिना देखे पढूंगी, आप देखकर पढ़िए।"
"लेकिन...आप... आपको यह कैसे मालूम?" लिंकन ने हैरानी से कहा।
“मैं मेजर जॉन स्टुआर्ट की कजिन हूं। उन्होंने ही...।"
"ओह! थैंक गॉड।” लिंकन अब समझ गए कि मेजर ने ही यह बात मैरी को बताई है कि मैं यह कविता पढ़ने वाला हूं।
दोनों ने एक साथ कविता पढ़ी। मैरी की आवाज और कविता पढ़ने की शैली दोनों ही इतने सधे हुए और सुंदर थे कि लिंकन का मन प्रफुल्लित हो उठा। मैरी के साथ कविता की पंक्तियां गाकर लिंकन को सबसे बड़ी हैरानी इस बात की हो रही थी कि दोनों की गायिकी शैली में इतना तारतम्य कैसे है, जबकि आज उनकी पहली ही मुलाकात है। ऐसी ही कुछ हैरानी मैरी को
भी थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह लिंकन के लिए ही बनी है और उसे ऐसे ही किसी पुरुष का अपने लिए इंतजार था।
स्रोता हैरान थे कि दो अजनबियों के एक साथ गाने में जो स्वर ताल का मेल दिखा था और उससे उपजी मिठास उनके मन की गहराइयों में उतर गई थी, वह सब कैसे संभव हुआ।
लिंकन और मैरी टॉड के बीच हुई इस पहली मुलाकात ने दोनों को बेचैन कर दिया। इस भेंट के बाद दोनों के दिलों में खलबली मच गई। वे एक दूसरे की ओर खिंचने लगे थे। मैरी टॉड अमीर घराने की लड़की थी। उसके घर में काम करने के लिए नौकर-चाकर थे तथा साधनों की कोई कमी नहीं थी। जीवन की कठोरता और अभावों से मैरी टॉड का परिचय तनिक भी नहीं था। उसे जिंदगी सुंदरता और सुख का एक मोहक गुलदस्ता लगती थी।
अब्राहम लिंकन बिल्कुल विपरीत जमीन पर खड़े थे। आयु के 30 साल पूरे कर चुके लिंकन ने अभी तक यह नहीं जाना था कि जिंदगी खूबसूरत और खुशियों से भरी एक सौगात है। उन्होंने तो यही जाना था कि जिंदगी जीवन-यापन के लिए तथा कुछ कर दिखाने के लिए किया जाने वाला सतत् संघर्ष है जिसमें से खुशियों के अंकुर तो यद कदा ही फूटते हैं, देखो तब दुखों और अभावों के काले बादल छाए रहते हैं तथा सहमाते हैं, आशा की किरणें यदा-कदा ही छिटकती हैं, निराशा के साए पीछा नहीं छोड़ते।
स्त्री के साथ का सुख अभी तक लिंकन ने भावना के स्तर पर ही देखा था, वह भी आधा-अधूरा और दुख व त्रासदी के चौखटे में मढ़ा हुआ। ऐसा सुख जो उनके चेहरे पर से दुख, अभाव तथा निराशा की परछाइयां हटा दे और उन्हें आनंद के अनंत सागर में डुबोकर आनंदमय कर दे, अभी तक वे महसूस नहीं कर पाए थे।
मैरी टॉड को पहली बार देखने के बाद ही पता नहीं क्यों लिंकन को लगा कि सीमाहीन आनंद का झोंका-सा उनके जीवन में आया है और उनके तन और मन में सुखद अनुभूति की तरंग बनकर समाता चला गया है। जी करता है कि वे गाएं, नाचें और दोस्तों के साथ जोर-जोर से बातें करें, बात-बात पर खुलकर हंसें और नए-नए इरादे, बुलंद करें। ऐसा उत्साह तो उन्होंने जीवन में पहले कभी महसूस नहीं किया था। क्या सचमुच मैरी टॉड के व्यक्तित्व में कोई ऐसा जादू है या फिर यह स्त्री को देखकर पुरुष के मन में होने वाली एक रोमांटिक प्रतिक्रिया मात्र है?
जब-जब वे अपने आपसे यह प्रश्न पूछने, उन्हें जवाब मिलता –'मैरी टॉड के व्यक्तित्व में एक ऐसा जादू है जो तन और मन के अस्तित्व की परतों में प्रवेश करके दोनों को पुलकायमान कर रहा है। यही वह लड़की है जिसकी उन्हें तलाश है। जो लड़कियां अब तक उनके जीवन में आईं वे हवा के खूबसूरत झोंके की तरह थीं जो आते हैं तो मन उनकी महक में पागल हो जाता है और जब हमें पीछे छोड़ते हुए आगे... और आगे चले जाते हैं तो मन एक दर्द-भरी टीस से कसक उठता है।'
लिंकन के जीवन में ऐसे झोंके आए थे और उनके गुजर जाने की दर्द भरी टीस अब भी उनके सीने में मौजूद थी, परंतु मैरी टॉड ऐसा कोई झोंका नहीं है जो गुजर जाए और एक और कसक छोड़ जाए जीवन-भर तड़पाने को मैरी टॉड तो जीवन की ऊर्जा से सराबोर एक सरस और सुंदर व्यक्तित्व है जो एक बार आकर फिर कभी जाएगा ही नहीं, ऐसा संदेश दे गया गया है। उसकी खुशबू तन-मन के पोर-पोर को बेधती हुई समूचे अस्तित्व में समा गई है, बस प्रतीक्षा है कि वह व्यक्तित्व कब पूरी तरह अपना हो जाए और जीवन खुशियों से भर जाए।
कुछ ऐसी ही दशा मैरी टॉड के मन की भी थी। मैरी टॉड ने जब से लिंकन को देखा था उसे लगा कि लम्बाई में उससे एक फुट दो इंच बड़ा यह लड़का उसी के लिए बनाया गया है। लम्बाई बेशक अलग-अलग हो पर दिल अलग-अलग नहीं रह गए हैं। मैरी टॉड का दिल लिंकन के लम्बे छरहरे व्यक्तित्त्व में समाकर वहीं रह गया था। अब वह उससे अगली मुलाकात का बहाना तलाशती रहती थी।
मैरी टॉड को अपना बनाने की कल्पना मात्र से लिंकन का सीना सवाया हो जाता था, परंतु साथ ही उसे यह डर सताने लगता था कि वह लड़की एक कंगाल तथा बौद्धिक संपदा में निमग्न व्यक्ति के साथ कैसे सुखी रह पाएगी। मैरी टॉड क्या जाने कि गरीबी और जीवन संघर्ष के दिए कितने घावों से उसका तन और मन घायल है। वह क्या जाने कि किस तरह अभावों में बच्चे पैदा होते हैं और उपेक्षाओं में पलकर बड़े होते हैं, जिंदगी उनकी कैसी-कैसी परीक्षाएं लेती है। किसी में सफल होते और किसी में असफल रह जाते वे कैसे अपने पैरों पर खड़े हो पाते हैं। ऐसे ही तो खड़ा था लिंकन। विधायक और वकील बनने के बाद भी उसे अभी तक विश्वास नहीं हो पा रहा था कि वह अपने जीवन में आने वाली किसी लड़की को जिसे वह बहुत चाहता है, न्याय दे पाएगा।
लिंकन के सबसे करीबी दोस्त स्पीड से यह बात छिपी न रह सकी कि लिंकन मैरी टॉड को लेकर बहुत परेशान है। वह उसे चाहता भी है और उसे पाने, अपनी जिंदगी में लाने की कल्पना से डरता भी है। अब भी लिंकन स्पीड के साथ उसी के बिस्तर पर सोता था और उसी के घर में रह रहा था। जिस आदमी के पास किराए पर घर लेने तक की गुंजाइश न हो वह विवाह करेगा तो पत्नी को कहां और कैसे रखेगा, यह बात बेहद उलझी हुई थी।
स्पीड ने लिंकन की कठिनाई को सहानुभूति के साथ समझा तथा आश्वासन दिया कि वह चिंता न करे, सब कुछ ठीक हो जाएगा।
लिंकन के एक अन्य मित्र डॉक्टर एनान जी हैनरी तथा साइमन फेंकिस को जब लिंकन की कठिनाई का पता लगा तो वे गंभीर हो गए।
डॉक्टर हैनरी चिकित्सक थे और साइमन फ्रेंकिस स्प्रिंगफील्ड में भिग पार्टी के समाचार पत्र के सम्पादक थे। डॉक्टर हैनरी की मदद से साइमन फ्रेंकिस आगे बढ़ा। उसने अपने घर पर लिंकन तथा मैरी टॉड को एक साथ मिलाने का फैसला कर लिया। एक ही दिन और एक ही समय दोनों को साइमन फ्रेंकिस ने अपने घर आमंत्रित किया। दोनों को यह नहीं बताया गया था कि यह बुलावा उन्हें आपस में मिलाने के लिए है।
पहले लिंकन साइमन के घर पहुंचा। वह आकर बैठा ही था कि मैरी टॉड आ गई। मैरी टॉड ने जब यह देखा कि लिंकन वहां पहले से ही मौजूद है तो उसे आश्चर्य हुआ, परंतु लिंकन को वहां देख उसका मन इतना गदगद हो गया था कि उसने आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। दोनों ने ईश्वर द्वारा उन्हें दिया गया यह एक अवसर माना।
दोनों चहककर मिले और बहुत देर तक बातें करते रहे। बातों ही बातों में दोनों ने अपने मन की बातें भी कह लीं और यह समझ भी लिया कि वे एक-दूसरे के लिए ही पैदा हुए हैं। दोनों ने विवाह करने का फैसला कर लिया।
4 नवम्बर, 1842 को दोनों विवाह के बंधन में बंध गए। दोनों इस विवाह से बहुत खुश थे। लिंकन के रिश्तेदार विवाह में शामिल न हो सके, परंतु मैरी टॉड के माता-पिता तथा रिश्तेदार इस रिश्ते से बहुत खुश थे।
मैरी जानती थी कि उसने एक ऐसे आदमी को अपना पति चुना है जो बन संवरकर रहने की बजाय बड़े-बड़े काम करने में ज्यादा विश्वास रखता है। विवाहित जीवन की खुशियों में मस्त होकर घूमने की बजाय देश और समाज की समस्याओं से जूझते रहना ही जिस व्यक्ति का मिशन है, ऐसे व्यक्ति को जान-बूझकर अपना पति बनाने के बाद मैरी टॉड को कोई मलाल नहीं था। उनके व्यवहार तथा विचारों से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
उन्होंने अपनी एक सहेली के पत्र के जवाब में लिखा – "He deems me unwrorthy of notice, as I have not met him in the gay world for months with the usual comfort of misery, I imagine that others were as seldom gladdened by his presence as my humbleself"
हरवर्ट अगर ने एक स्थान पर विवाह के कई वर्ष बाद, मैरी टॉड और लिंकन के बारे में विचार व्यक्त करते हुए लिखा—'मैरी के लिए लिंकन एक सही चॉइस नहीं था। मैरी सदा बन ठनकर रहने वाली सुंदर और खुशनुमा स्त्री थी, जबकि लिंकन अपने बारे में अत्यधिक लापरवाह अस्त-व्यस्त, अव्यवहारिक और मूडी व्यक्ति था। यद्यपि लिंकन के व्यक्तित्त्व के ये गुण बहुत कीमती थे, परंतु एक स्त्री के साथ वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए यह गुण उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।'
लिंकन के न खाने का कोई निश्चित समय होता था, न सोने का, न उठने का जबकि पत्नी को सामाजिक प्रतिष्ठा का सदा ख्याल रहता था और अपने परिवार के स्तर को सजाने-संवारने पर वह पूरा ध्यान देती थी।
लिंकन का ध्यान पूरी तरह उसके 'कैरियर' पर था। वह अपने देश में अपने लिए ऐसी जगह बनाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता था जहां खड़े होकर उसे वे सब फैसले लेने का अवसर मिल सके जिन्हें वह ठीक समझता था। अर्थात लिंकन एक खास विचार एक खास उद्देश्य के लिए जी रहा था, जबकि मैरी टॉड को सुख-सुविधाओं, प्यार और समर्पण की जरूरत थी।
विवाह के ठीक पहले लिंकन ने ग्लोब टावर्न में दो कमरों का एक मकान लिया था उसी में वे दोनों पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे। विवाह के बाद मैरी टॉड को घर के सारे काम स्वयं ही करने पड़ते थे, जबकि विवाह से पहले उसने कभी घर के किसी काम को हाथ नहीं लगाया था। उसकी मां ने भी कभी घर का काम नहीं किया था। लेकिन लिंकन की आमदनी इतनी नहीं थी कि घर में कोई नौकर रखा जा सके, मैरी टॉड ने अगस्त 1843 में अपने पहले बच्चे को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया रॉबर्ट लिंकन। विवाह के नौ महीने 10 दिन बाद पैदा होने वाले इस बच्चे के जन्म के समय भी मदद के लिए मैरी टॉड एक नर्स का इंतजाम नहीं कर पाई थी।
1844 में, विवाह के दो वर्ष बाद लिंकन ने अपना घर तो खरीद लिया था, परंतु उसे सजाने-संवारने के लिए उपयुक्त फर्नीचर तक की व्यवस्था करना मुश्किल था। बच्चा छोटा था, उसकी देखभाल करने के साथ-साथ मैरी टॉड को खाना बनाने, कपड़ों की सिलाई करने, कपड़ों की धुलाई करने आदि सभी काम स्वयं करने पड़ते थे।
1843 से लेकर 1853 के बीच दस वर्ष के अंतराल में मैरी टॉड ने चार बच्चों को जन्म दिया। लिंकन के दूसरे बेटे का नाम विली लिंकन तथा तीसरे का टैड लिंकन था। एक लड़के एडी की 1850 में 4 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई थी जिसे सहन करना लिंकन व मैरी दोनों को बहुत मुश्किल हुआ।
मैरी ने अपने तीनों बेटों को अच्छी शिक्षा दिलाने तथा उनकी अच्छी तरह परवरिश करने पर पूरा ध्यान दिया। वह जानती थी कि उसके पति के पास तनिक भी समय नहीं है कि वह बच्चों का ध्यान रख सकें, अतः घर और बच्चों की सारी जिम्मेदारियों को उन्होंने सदा स्वयं निभाया।
लिंकन का पूरा ध्यान इस बात पर रहता था कि देश की एकता और विकास की गतिविधियों में कहां अवरोध आ रहा है, इसके लिए कौन जिम्मेदार है और उनसे कैसे निबटा जा सकता है।
राष्ट्रीय राजनीति में आने की उनकी तमन्ना 1846 में पूरी हो गई थी जब वे कांग्रेस के सदस्य चुन लिए गए। उसके बाद उनके काम करने और राष्ट्रीय जिम्मेदारियों को निभाने के तरीकों में और गंभीरता आ गई थी।
लिंकन परिवार 1844 से 1861 तक पूरे सत्रह वर्ष तक इसी घर में रहा। 1861 में राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद लिंकन को वाशिंगटन में रहने के लिए जाना पड़ा था। सत्रह वर्ष की यह अवधि पति-पत्नी को एक-दूसरे को पूरी तरह समझने, एक-दूसरे की भावनाओं तथा विचारों का आदर करना सीखने के लिए काफी थी।
इस बीच बच्चे बड़े हो गए थे। पहला बच्चा रॉबर्ट लिंकन तो पूरे 18 वर्ष का हो गया था।
कर्तव्य और आदर भाव
लिंकन की पत्नी और लिंकन के बीच रोमांटिक जीवन की चर्चाएं सुनने को नहीं मिलतीं। जो लोग इस दम्पती के नजदीक रहे उन्होंने केवल एक ही बात देखी कि मैरी टॉड को जिस तरह का जीवन पसंद था, उस तरह के जीवन के लिए लिंकन जैसा व्यक्ति तनिक भी उपयुक्त नहीं था, परंतु लिंकन का व्यक्तित्त्व, पत्नी के प्रति उनका व्यवहार और उनके विचार मैरी टॉड के लिए आकर्षण का केंद्र थे।
मैरी ने विचार के स्तर पर लिंकन का सदा आदर किया। इस बात का सदा ख्याल रखा कि उनके विचारों के प्रवाह में कोई व्यवधान न आए, उनकी भावनाओं को कोई चोट न पहुंचे।
विवाह करने से पहले ही मैरी ने यह समझ लिया था कि जिस व्यक्ति को वे अपना जीवन साथी बनाने जा रही हैं, वह साधारण गृहस्थ बनकर नहीं रह सकता है। गरीबी की ऊबड़-खाबड़ जमीन से संघर्ष करते हुए ऊपर उठा वह व्यक्ति अपने जीवन का कोई उद्देश्य रखता है जिसे पूरा किए बिना उसके लिए जीवन का कोई अर्थ नहीं है। पत्नी, बच्चे और गृहस्थ जीवन तो जिंदगी के हिस्से हैं जिन्हें निभाया जाएगा, परंतु उसकी दृष्टि कहीं और है, उसके बिना वह नहीं रह सकता।
अतः मैरी ने अपनी जरूरतों व इच्छाओं की वेदी पर लिंकन को कसने की कभी कोशिश नहीं की। वे एक तरह से लिंकन की जीवन-साधना में पूरे समर्पण भाव से सहयोगिनी बन गईं। लिंकन के जीवन पथ में कोई व्यवधान न आए, इस ध्रुव-धारणा के साथ उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया।
मैरी टॉड की अब्राहम लिंकन के साथ निभाई भूमिका पर नजर डालें तो पता लगता है कि भारत में स्त्री से जो अपेक्षाएं की जाती हैं और भारतीय स्त्री जिस तरह पति की सफलता के लिए अपने आपको पूरे समर्पण भाव से अर्पित कर देती है, उसी तरह मैरी टॉड ने अपने आपको लिंकन की सफलता के लिए अर्पित कर दिया।
यदि मैरी टॉड अपनी इच्छाओं को प्राथमिकता देतीं तथा लिंकन पर उनकी पूर्ति के लिए दबाव डालतीं जैसा कि पश्चिमी स्त्रियों में देखने को मिलता है तो शायद लिंकन सफलता की सर्वोच्च ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाते।
क्या था लिंकन के पास- -एक बिखरा हुआ बेतरतीब जीवन, जीवन संघर्ष के घात-प्रतिघातों में चोट खाया हुआ तन और मन। यदि मैरी टॉड ने पति के सामने अंग्रेज आधुनिकाओं की तरह अपनी शर्तें रखी होतीं तो वे या तो रोकर भाग जाते या फिर अपना रास्ता बदल देते। यदि वे पत्नी से अलग हो जाते तो उनका जीवन इस तरह नहीं संभल पाता जिस तरह उसे मैरी टॉड ने संभाला था। उन्हें एक ऐसे साथी की बेहद जरूरत थी जो उनके जीवन के अंतरंग क्षणों में उनके साथ रहे और अपनी कोमलता तथा मानवता से बाहर की दुनिया से मिलने वाले उनके घावों की मरहम पट्टी करे, ताकि वे स्वस्थ होकर फिर से उनसे लड़ सकें और जीतकर आएं। मैरी टॉड ने यह भूमिका बखूबी निभाई। यदि किसी कारण वश लिंकन और मैरी टॉड का तलाक हो जाता तो ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो मैरी टॉड को चाहते थे, वे उसे अपनी जीवन सहचरी बना लेते और वह सब सुख देते जिसकी उसे दरकार थी, परंतु उस स्थिति में लिंकन का जीवन वृक्ष ढह जाता। वे अपने एक या दो बच्चों के साथ पत्नी की जुदाई नहीं सह पाते और टूटकर रास्ते में कहीं बिखर जाते।
यदि मैरी टॉड ने लिंकन पर इतना दबाव डाला होता कि वे अपनी वैचारिक संघर्ष की दुनिया को छोड़कर पत्नी की भावनाओं को सहलाने में लग जाते और उसके खूबसूरत जिस्म से चिपके रहना ही अपनी नियति बना बैठते, तब वे अमेरिका के राष्ट्रपति पद तक नहीं पहुंच पाते और जो शानदार अध्याय अपने खून और पसीने से उन्होंने अमेरिका के इतिहास में लिखा, उससे अमेरिका वंचित रह जाता। तब शायद अमेरिका टूटकर बिखर गया होता। टुकड़े-टुकड़े हो गया होता और आज 2005 में विश्व की सबसे बड़ी निर्णायक ताकत के रूप में हम अमेरिका को देख रहे हैं, शायद अमेरिका वैसा नहीं बन पाता।
इतिहासकार लिंकन पर लिखते समय उनकी पत्नी मैरी टॉड की उनके जीवन में सहयोगी भूमिका का चाहे जितना बखान कर लें, परंतु फिर भी उनके उस आभार से मुक्त नहीं हो पाएंगे जो लिंकन जैसे महापुरुष को तराशने और बनाने में उन्होंने किया।
बताते हैं कि उनके मन में खूब खर्च करने और खूब बन-ठनकर रहने की जो इच्छा थी, उसे उन्होंने तब पूरा किया जब लिंकन अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए थे। अर्थात वह महान स्त्री समय और परिस्थिति के महत्त्व को भली भांति समझती थी। अपने मन की युवा इच्छाओं को उसने पूरे सत्रह वर्ष तक अपने मन के किसी कोने में संभालकर रखा और उन्हें तब परवान चढ़ाया जब उनका परिवार खुलकर खर्च करने की स्थिति में आ गया।
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Thu, 01 Jun 2023 18:33:47 +0530 Jaankari Rakho
लिंकन स्प्रिंगफील्ड में https://m.jaankarirakho.com/लिंकन-स्प्रिंगफील्ड-में https://m.jaankarirakho.com/लिंकन-स्प्रिंगफील्ड-में लिंकन स्प्रिंगफील्ड में


When I left Springfield, I asked the people to pray for me, I was not christian. When I burried my son, the severest trial of my life in 1862, I was not a christian. But when I went to Gettysburg and saw the graves of thousands of my soldiers, I then and there consecrated myself to christ.
-Abraham Lincoln
अपने ही देश में जिस तरह अब्राहम लिंकन एक जगह से दूसरी जगह मारा-मारा-सा फिर रहा था, उसे देखकर लगता था जैसे वह अमेरिका वासी न होकर बाहर से आया कोई अजनबी व्यक्ति है जिसे अमेरिका में पैर टिकाना मुश्किल हो रहा है। केंटुकी में जन्मे एबी के पिता को कितनी ही बार घर बदलने पड़े, मुहल्ले, गांव और प्रांत बदलने पड़े। 21 वर्ष की आयु में पिता और सौतेली मां का साथ छूट गया। क्योंकि एबी अपने पिता थॉमस लिंकन का सगा बेटा नहीं था, उसकी पहली पत्नी नेंसी का किसी अन्य पुरुष से पैदा बेटा था, अत: थॉमस लिंकन ने उसकी स्कूली शिक्षा के लिए विधिवत् प्रयास नहीं किया और साथ छूट जाने के बाद कभी एबी को याद नहीं किया। अपने सीने में गरीब घर में जन्म लेने की व्यथा लिए, अनजाने पिता से जन्मने और मातृहीन रहने की पीड़ा लिए एबी जवानी के प्रथम चरण में पहुंचने के बाद, छ: फुट चार इंच लम्बा कद और इकहरा छरहरा व मजबूत शरीर पाने के बाद भी कभी चैन से न रह सका। शिक्षा के अभाव को पूरा करने के लिए प्रयास किए तो धन के अभाव ने कमर तोड़ डाली। धन का अभाव ऐसा कि वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी, राज्य विधान सभा का प्रतिनिधि बनने के बाद भी इतनी हैसियत नहीं बन पाई कि एक कमरे का किराया दे सके। कैसी विडम्बना है बुद्धिजीवी तथा प्रतिभाशाली व्यक्तियों की, विचार की कमाई करते हैं तो धन उनसे दूर भाग जाता है। छोटी-छोटी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी वे दूसरों का मुंह ताकते हैं। दूसरे जो बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में नहीं पड़ते तथा विचारों की दुनिया से दूर रहते हुए राष्ट्र व समाज की जिम्मेदारियों से नाता नहीं जोड़ते, वे धन तथा सुविधाएं जुटाने में सफल हो जाते हैं और बुद्धिजीवियों को मुंह चिढ़ाते दिखाई पड़ते हैं।
मेरा बेड शेयर करोगे..
1833 में भिग पार्टी के नेता तथा प्रसिद्ध वकील जॉन टी स्टुआर्ट के कहने पर अब्राहम लिंकन ने 24 वर्ष की आयु में वकालत की पढ़ाई शुरू की थी। स्टोर का कर्ज उतारने की जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए 13 से 20 डालर प्रति माह कमाते हुए रात-दिन मेहनत करके वे कानून की पढ़ाई करते रहे और 1834 में चुनकर विधान सभा में भी पहुंचे।
तीन वर्ष में उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी कर ली और 1836 में वकालत की डिग्री ले ली।
अगले ही वर्ष 1837 में उन्होंने भारी मन से न्यू सलेम छोड़ दिया। न्यू सलेम की एक लड़की एन रूटलैज की मृत्यु ने लिंकन का दिल तोड़ दिया था।
कोई इतनी कम आयु में ऐसे भी मर सकता है, सोचकर उनकी रूह थर्रा जाती थी।
न्यू सलेम में लोग लिंकन को इतना प्यार करने लगे थे कि उन्हें वहां से नहीं जाना चाहिए था, परंतु उनका दिल उखड़ गया, एन की मौत ने उनका सारा चैन खत्म कर दिया। वहां रहते तो एन की याद चैन से नहीं रहने देती। अतः उन्होंने न्यू सलेम छोड़ने का फैसला ले लिया।
कानून की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी..
वकील बन चुके थे, परंतु काम जमाने के लिए किसी के सहयोग की जरूरत थी। तब उन्हें उन्हीं की पार्टी के नेता तथा वरिष्ठ एडवोकेट जॉन स्टुआर्ट ने स्प्रिंगफील्ड आकर अपने साथ वकालत करने की सलाह दी।
मन की हालत बदलने के लिए तथा वकालत का काम शुरू करने के लिए नई जगह जाना लिंकन को ठीक लगा। तब तक वे स्टोर के कारण हुआ कर्ज काफी हद तक उतार चुके थे, जो थोड़ा-सा बचा था उसके लिए लोगों ने उन पर भरोसा किया कि वे स्प्रिंगफील्ड जाकर उतारते रहेंगे।
किराए के घोड़े की पीठ पर अपना साधारण-सा सामान लादे लिंकन स्प्रिंगफील्ड के एक वकील जोशुआ स्पीड के निवास के सामने आ खड़े हुए। मिस्टर स्पीड का अपना घर था और अपने बेडरूम में उन्होंने एक बहुत बड़ा खास तरह का बिस्तर बनवाया था। जिसे वे अकेले इस्तेमाल करते थे। बाकी घर किराए पर उठा हुआ था। उसी में वे एक स्टोर भी चलाते थे।
लिंकन ने मिस्टर स्पीड से पूछा – "मुझे अपने बेड के लिए फर्नीचर चाहिए। वह लगभग कितने का पड़ेगा?"
मिस्टर स्पीड ने कहा- कम-से-कम 17 डालर।"
"शायद यह बहुत सस्ता है।" लिंकन ने कहा- "लेकिन क्या करूं मेरे पास तो 17 डॉलर भी नहीं हैं। मैं यहां नया आया हूं। अभी वकालत का काम भी जमाना है। यदि जम गया तो क्रिसमस तक आपका पैसा चुका दूंगा और यदि नहीं जम पाया तो...।"
'तो क्या करोगे?" मिस्टर स्पीड ने पूछा।
"तो शायद न भी चुका सकूं।"
लिंकन की साफगोई ने मिस्टर स्पीड का दिल जीत लिया। वे समझ गए कि यह लम्बी काया वाला, पतली नाक वाला युवक धन के मामले में गरीब जरूर है पर इसके पास एक अच्छा मन और विचारों की दौलत है, इसकी मदद की जानी चाहिए।
उन्होंने पूछा- " और कमरे का क्या करोगे?"
"वह भी किराए पर लेना पड़ेगा?"
"पड़ेगा, या ले लिया है?"
"नहीं, आप देख रहे हैं, मैं तो अभी-अभी आया हूं, अभी तो घोड़े की पीठ से सामान भी नहीं उतारा है। इसका भी किराया चुकाना होगा।"
“मैं तुम्हें मुफ्त में एक सलाह दे सकता हूं और तुम चाहो तो सहयोग भी, बोलो तैयार हो?" मिस्टर स्पीड ने हंसते हुए कहा।
“बताइए...शायद मैं...? "
"मेरे पास एक बहुत बड़ा कमरा है, उसमें बहुत बड़ा बिस्तर भी है। मैं अकेला उस बिस्तर पर सोता हूं। यदि मैं तुम्हें कहूं कि कमरा किराए पर मत लो और बिस्तर के चक्कर में भी मत पड़ो, केवल मेरे बिस्तर को मेरे साथ शेयर कर लो, तो चलेगा? मैं दोस्ती के अलावा बदले में तुमसे कुछ और नहीं लूंगा।"
'मिस्टर स्पीड।” एकाएक अब्राहम लिंकन गद्गद हो गए–“तुमने तो सचमुच मेरा दिल जीत लिया है। मैंने कभी सोचा भी न था कि जीवन में इतना अच्छा मित्र यूं यकायक पा जाऊंगा। लो, मुझे संभालो, मैं तैयार हूं।"
मिस्टर स्पीड ने लिंकन को गले लगा लिया। दोनों ने मिलकर घोड़े की पीठ से लिंकन का सामान उतारा और उसे बेडरूम में पहुंचवाया। उसी दिन से लिंकन मिस्टर स्पीड के न केवल रूम पार्टनर हो गए बल्कि बेड पार्टनर भी बन गए। एक विचित्र दोस्ती थी जो तब तक बरकरार रही जब तक लिंकन स्प्रिंगफील्ड में रहे। स्प्रिंगफील्ड में 1837 में अपनी वकालत शुरू करने के बाद लिंकन ने राजनीति में अपनी पकड़ बढ़ा दी। उस समय इलीनॉइस विधान सभा के प्रतिनिधि थे।
चार वर्ष तक वकालत में वे जॉन टी स्टुआर्ट के सहयोगी रहे। जॉन स्टुआर्ट एक नामी वकील थे। उनके साथ वकालत करने और उन्हीं की पार्टी के माध्यम से राजनीति में आगे बढ़ते जाने का बहुत अच्छा अवसर था।
1841 से 1844 तक लिंकन ने स्टीफन टी लोगन के साथ वकालत में साझेदारी की। वे उस समय महान कानूनविद तथा बारहैड थे।
1844 में लिंकन ने अपना अलग कार्यालय खोला तथा अपने से आयु में 9 वर्ष छोटे विलियम एच हैंडरसन को अपना सहयोगी बनाया। उस समय हैंडरसन की आयु 26 वर्ष थी तथा लिंकन 35 के हो चुके थे।
1837 से 1842 तक का समय लिंकन के जीवन में संघर्ष और उन्नति का था।
इस अवधि में लिंकन ने अध्ययन, मनन, विश्लेषण और क्रियान्वयन की प्रक्रिया जारी रखी।
यह उनके जीवन का तीसरा चरण था। कई अर्थों में यह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण था।
पहला चरण परिवार के साथ लिंकन का साधारण और उपेक्षित जीवन था। उस अवधि में लिंकन को केवल अपनी सौतेली मां का भरपूर प्यार मिला। सौतेली मां ने लिंकन को कभी मां की कमी नहीं महसूस होने दी। नौ वर्ष के लिंकन को पति के भरोसे छोड़ लिंकन की मां नेंसी हेंक्स मृत्यु को प्राप्त हो गई थी। उसके बाद सौतेली मां ने लिंकन को बहुत प्यार दिया। अपनी पूरी ममता वे लिंकन पर इस तरह लुटाया करती थीं कि उसे यह अहसास न हो कि वे सौतेली मां हैं, परंतु पिता का प्यार लिंकन को प्रायः नहीं मिल पाया। पिता लिंकन की शरारतों तथा पढ़ाई में लापरवाही से बहुत क्षुब्ध रहा करते थे। उन्हें लिंकन से सदा शिकायत रही।
परंतु मां तथा सौतेले बहन-भाई लिंकन को बहुत चाहते थे। लिंकन अपने परिवार के साथ 21 वर्ष की आयु तक रहे। उसके बाद परिवार से अलग हो गए।
दूसरा चरण लिंकन के जीवन का उनका न्यू सलेम में निवास है। 21 वर्ष की आयु में 1830 में लिंकन अपनी सौतेली बहन तथा सौतेले भाई के साथ न्यू सलेम में रहने चले आए थे। यह तो पता नहीं चल पाता कि बहन तथा भाई उनके साथ कब तक रहे, परंतु यह जरूर पता लगता है कि वे 1830 से 1837 तक पूरे सात वर्ष न्यू सलेम में रहे।
न्यू सलेम में लिंकन ने जिस तरह अपना समय बिताया उसमें संघर्षों, अभावों और उलझनों की अनेक कहानियां सिमटी हैं, परंतु यह भी सच है कि यह काल लिंकन के भावी जीवन के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए सबसे उपयुक्त साबित हुआ।
इस चरण का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि इसमें लिंकन को परिवार से अलग होकर अपनी पहचान स्वयं बनाने का मौका मिला। उनका पारिवारिक जीवन इतना उलझा हुआ और उपेक्षाओं व झंझावातों से भरा था कि वे परिवार का साथ छोड़कर न्यू सलेम न चले आते तो शायद इतिहास के कालजयी पुरुष बनने का अवसर उन्हें नहीं मिल पाता।
न्यू सलेम ने उन्हें नए सांचे में ढाला। उनके जीवन को नई परिभाषा दी, नई पहचान दी। उन्हें यहां चाहने वालों का, पसंद करने वालों का, मित्रों का नया समाज मिला जिसने उनके दिल में छिपी महत्त्वाकांक्षाओं को उकेरा।
पढ़ा-लिखा आदमी बनने जीवन में कुछ करके दिखाने कुछ बनकर दिखाने की उनकी महत्त्वाकांक्षाएं न्यू सलेम में ही उपजीं और परवान चढ़ीं। पढ़ाई-लिखाई की सारी कमी इन्होंने यहां रहकर पूरी कर ली।
न्यू सलेम ने उन्हें राजनीति में उतरने की प्रेरणा दी तथा राजनीति के सबसे पहले व सबसे अधिक प्रेरक व्यक्तित्व जॉन टी स्टुआर्ट ने उन्हें यह रहस्य समझाया कि वकालत में सफलता पाए बिना राजनीति में कैरियर बनाना संभव नहीं है।
वकालत और राजनीति एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों साथ-साथ साधे जाएं तो प्रतिष्ठा खूब मिलती है तथा जीवन का आनंद बढ़ जाता है।
1833 में लिंकन ने भिग पार्टी के राष्ट्रीय नेता जॉन स्टुआर्ट से प्रेरित होकर वकालत में दाखिला लिया और तीन वर्ष तक लगातार वकालत का गहन अध्ययन करते हुए वकालत की डिग्री प्राप्त कर ली।
अगले ही वर्ष 1834 में न्यू सलेम की जनता ने लिंकन को इलीनॉइस विधान सभा के लिए चुन लिया और राजनीति में सक्रिय भागीदारी आरंभ हो गई।
न्यू सलेम में ही लिंकन ने व्यापार में 1120 डॉलर का घाटा उठाया जिसे अगले 6 वर्षों में बड़ी मुश्किल से भर पाए।
न्यू सलेम में ही 24 वर्षीय लिंकन का दिल दो खूबसूरत लड़कियों पर आया। जिनमें से एक से वे आसानी से छूट गए, परंतु दूसरी ने उनके दिल की गहराइयों तक उतरकर अपनी शहादत देकर उनको जीवन भर के लिए गहरा घाव दे दिया। एन रूटलैज नामक यह लड़की 1835 में लिंकन की आंखों के सामने ही दम तोड़ गई। लिंकन आजीवन उसे न भुला सके।
तीसरा चरण लिंकन के जीवन में तब शुरू हुआ जब उन्होंने एन के गम में दुखी होकर तथा वकालत में अपना कैरियर बनाने के उद्देश्य से न्यू सलेम छोड़ स्प्रिंगफील्ड में कदम रखा।
स्प्रिंगफील्ड में लिंकन को जान स्टुआर्ट जैसे मंजे हुए एडवोकेट के साथ वकालत का अभ्यास करने का अवसर मिला। जॉन स्टुआर्ट से लिंकन ने बहुत कुछ सीखा। राजनीति और वकालत दोनों क्षेत्रों में लिंकन को आत्मविश्वास से भर देने वालों में से जॉन स्टुआर्ट सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे और वे बड़े ठीक समय पर लिंकन के जीवन में आए थे।
1837 से 1841 तक वकालत काल लिंकन ने जॉन स्टुआर्ट के साथ साझेदारी में वकालत करते हुए बिताया। यह वह समय था जब अमेरिका की राजनीति में, तेजी से वैचारिक उतार-चढ़ाव आ रहे थे।
सबसे बड़ा वैचारिक संघर्ष गुलामी को लेकर चल रहा था। 18वीं शताब्दी में दक्षिण अफ्रीका से गुलाम बनाकर अमेरिका लाए गए काले नीग्रो की आबादी अमेरिका में 11% हो चुकी थी। वे अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में बसे थे तथा खेतों में काम कराने के लिए गुलामों के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे।
अमेरिका के उत्तरी प्रांत औद्योगिक विकास की राह पर थे जबकि दक्षिणी प्रांत केवल खेती से गुजारा करते थे। दक्षिणी प्रांतों में कपास के उत्पादन का काम बहुत आगे था, लेकिन दक्षिण के राज्यों में गुलामी की प्रथा पूरी तरह स्वीकृत थी। दक्षिण से उसे पश्चिमी राज्यों में भी स्वीकृत किए जाने की आवाज उठ रही थी और कोशिश यह की जा रही थी कि पूरे अमेरिका में जहां कहीं अमेरिका वासी गुलामों की सेवाएं लेने की आवश्यकता महसूस करते हैं वे उनकी सेवाएं लेने के लिए स्वतंत्र हैं। सरकार और कानून उनके बीच न आए।
दूसरी ओर 'अंकल टॉम्स केबिन' जैसी किताब का लिखा जाना जो गुलामों की व्यथा-कथा से मनुष्यों का हृदय विदीर्ण कर देने वाली थी। यद्यपि यह पुस्तक 1852 तक प्रकाशित नहीं हो पाई, परंतु देश में मनुष्यों का मनुष्यों द्वारा गुलाम बनाकर रखने, उन्हें बाजार में वस्तुओं व जानवरों की तरह बेचने व खरीदने की प्रथा के विरुद्ध आवाजें तेज होने लगी थीं।
गुलामी प्रथा को अपनी सुविधाओं की खातिर बनाए रखने वाले बहुत क्रूर हो गए थे और वे उन लोगों की हत्याएं करने पर आमादा थे जो गुलामी प्रथा के विरोध में खड़े हुए थे। विलियम लियोड गैरिसन तथा अन्य अनेक लोगों को अमेरिका में भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। ये लोग दास प्रथा को जड़ से समाप्त करना चाहते थे।
राजनीतिक खेमों में स्थिति बड़ी जटिल थी। 97% गोरों की आबादी का वोट हासिल करने के लिए यह जरूरी था कि उनकी भावनाओं को प्राथमिकता दी जाए। वे तो प्रायः दास प्रथा के पक्षधर थे, इसलिए राजनैतिक नेताओं में से बहुत कम ऐसे थे जो दास प्रथा के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद कर सकते थे, शेष सब तो चुपचाप अपनी राजनीति कर रहे थे या फिर बहुसंख्यकों के स्वर में स्वर मिला रहे थे।
1837 में जिस वर्ष लिंकन न्यू सलेम से स्प्रिंगफील्ड आए इलीनॉइस विधान पालिका ने दास प्रथा विरोधी प्रयासों की आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया जिसका अर्थ यह स्पष्ट करता था कि कांग्रेस तथा संविधान दक्षिण राज्यों में दास प्रथा के मामलों में दखल नहीं दे सकते। वे विवश हैं।
लिंकन उस समय स्थिति का अध्ययन कर रहे थे। यद्यपि वे दास प्रथा के विरोधी थे, परंतु विधान सभा सदस्य की हैसियत से उसका विरोध नहीं कर पा रहे थे। अमेरिकन राजनीति का तत्कालीन तकाजा था कि इस अत्यंत सम्वेदनशील विषय को राजनीति से दूर रखा जाए।
अपने राजनैतिक साथियों तथा कानूनविदों के बीच बैठकर वे चर्चाएं किया करते थे। उनका मन उन्हें दास प्रथा का विरोध करने के लिए उकसा रहा था, परंतु देश के हालात तथा राजनीति में उनकी स्थिति उन्हें ऐसा कोई कदम उठाने से रोक रही थी। कसमकस की स्थिति बनी हुई थी। इस स्थिति में लिंकन ने हालात और समस्या पर और अधिक गंभीरता से विचार करने का मन बनाया।
इन दिनों अनेक गोष्ठियों और सभाओं में दास प्रथा तथा राष्ट्रीय समस्याओं पर खूब चर्चाएं हुआ करती थीं। लिंकन इन चर्चाओं में आगे बढ़कर भाग लेते थे। कुछ लोगों का यह विचार था कि दास प्रथा को धीरे-धीरे समाप्त होने दिया जाए जो आज गुलाम बने हुए हैं वे स्वयं समय के साथ सचेत होंगे और मुक्त होने के लिए छटपटाने लगेंगे। संविधान में उनके अधिकारों के लिए मांग की बात उठेगी और उन्हें भी उसी तरह अधिकार मिल जाएंगे जिस तरह अन्य अमेरिकी नागरिकों को मिले हुए हैं।
कुछ लोगों का विचार था कि दासों के मालिकों को उन्हें मुक्त करने के लिए राजी किया जाए तथा इसके बदले उन्हें क्षतिपूर्ति राशि प्रदान की जाए। लिंकन भी शुरू में इन विचारों के समर्थक थे। वे गुलामी की प्रथा के धीरे-धीरे समाप्त होने तथा क्षतिपूर्ति नीति दोनों के समर्थक थे।
परंतु कहीं-न-कहीं उनके अंदर दासों के प्रति मानवता की भावना छिपी थी जो अन्य अमेरिकियों में प्रायः लुप्त हो चुकी थी। पूरी अंग्रेज कौम काली चमड़ी वालों को हेय मानती थी। उन्हें पूरी तरह मनुष्य मानने तथा उनकी भावनाओं को चोट पहुंचने की बात स्वीकार करने के लिए अंग्रेज प्राय: तैयार नहीं थे।
19वीं शताब्दी में जब अमेरिका में गुलामों से भारी काम लेकर उत्पादन में क्रांति लाने के सपने देखे जा रहे थे, तभी भारत तथा दक्षिण अफ्रीकी देशों में काले लोगों का शोषण किया जा रहा था। जहां-जहां अंग्रेज थे, वहीं दास प्रथा थी।
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Wed, 31 May 2023 19:27:43 +0530 Jaankari Rakho
पहली नौकरी और मनुष्य के प्रति अन्याय समाप्त करने की सौगंध : अब्राहम लिंकन https://m.jaankarirakho.com/पहली-नौकरी-और-मनुष्य-के-प्रति-अन्याय-समाप्त-करने-की-सौगंध-अब्राहम-लिंकन https://m.jaankarirakho.com/पहली-नौकरी-और-मनुष्य-के-प्रति-अन्याय-समाप्त-करने-की-सौगंध-अब्राहम-लिंकन Abraham, though very young, was large for his age and had an axe put into his hands at once, and from that until his twenty third year he was almost constantly handling that instrument.
-Lord Longford
अब्राहम लिंकन ने ऑफेट नामक व्यक्ति के साथ अपना जीवन संवारने के उद्देश्य से माता-पिता तथा परिवार को छोड़ा था और वह अपने सौतेले तथा चचेरे भाइयों के साथ न्यू सलेम में रहने लगा था। न्यू सलेम में सबसे लम्बे तथा हंसमुख लड़के के रूप में अब्राहम लिंकन खूब चर्चित हो गया था परंतु एक बात उसे बुरी तरह खलती थी कि वह अभी तक एक घुमक्कड़ की जिंदगी जी रहा था। उसके हाथ में लकड़ी चीरने की कला थी। एक मजदूर की तरह वह किसी की भी लकड़ी चीरने का काम करता था और उससे मिली मामूली-सी मजदूरी से गुजारा कर लेता था।
ऑफेट ने न्यू सलेम में एक स्टोर खोल लिया था और वह अच्छी कमाई कर रहा था। एक दिन ऑफेट अब्राहम लिंकन के पास आया और बोला–"एबी यार, तू कब तक यूं लकड़ियां चीरकर गुजारा करता रहेगा। यार, तू अच्छा पढ़ा-लिखा है। तेरे पास डिग्री नहीं तो क्या हुआ, अच्छा दिमाग तो है। जन-सम्पर्क की कला भी बहुत अच्छी है और मैं एक चीज देख रहा हूं अब तेरे में नेता के गुण भी उदय हो रहे हैं। "
क्या बात करता है। मैं और नेता? मुझे तो नफरत है इस गंदे धंधे से। इस धंधे से जुड़े लोग आम आदमी को मूर्ख ही नहीं बनाते बल्कि उसके पैरों के नीचे की जमीन छीनकर उसे गुमराह भी करते हैं। आदमी को आदमी से लड़ाते हैं और पूरे देश को कमजोर करते हैं। अमेरिका में ही देख रहे हो किस तरह 'रेड इंडियन' को मार-पीटकर गुलाम बनाया जाता है, उन्हें बाजारों में बेचा जाता है, रिश्तेदारों को गिफ्ट के तौर पर गुलाम बनाकर भेंट किया जाता है। इस धरती के मूल निवासी हैं ये, इनकी इज्जत की बात तो छोड़िए, एक घड़ी चैन की जिंदगी नहीं जी सकते। जो गुलाम बनकर वस्तु की तरह बिकने तथा जानवरों की तरह पिटने को तैयार नहीं हैं, वे जंगलों में मारे-मारे घूम रहे हैं।"
"बस...बस!" ऑफेट ने कहा – “तूने जो बातें कही हैं, वे यह साबित करने के लिए काफी हैं कि तेरे अंदर नेतृत्व के गुण हैं। जानकारी के साथ-साथ मनुष्यों के प्रति हमदर्दी भी तेरे दिल में मौजूद है। अरे, ऐसे नेताओं की ही तो इस देश को जरूरत है। हृदयहीन और उल्टी खोपड़ी के नेता तो बहुत हैं जो केवल चुनाव जीतते हैं, कुर्सियों से चिपक जाते हैं और बड़े नेताओं की हां में हां मिलाने लगते हैं। जमीन से जुड़े लोगों की समस्याएं और तकलीफें वे जानते तक नहीं। मैं तुझे एक राय देता हूं।'
"बोल।"
“तू यह लकड़ी चीरने का मजदूरों वाला काम छोड़ दे और कहीं नौकरी कर ले। नौकरी के साथ-साथ कानून की पढ़ाई शुरू कर और नेतागिरी में उतर। अभी तेरी लम्बाई और बढ़ेगी। तू पूरा साढ़े छ: फुट का जवान हो जाएगा। भीड़ में दूर से ही दिखाई पड़ेगा। नेता ऐसा ही होना चाहिए जो दूर से दिखे। पांच फुटे डगलस जैसे लड़के जब राजनीति में उतर सकते हैं तो साढ़े छ: फुट लम्बा जवान तू क्यों नहीं उतर सकता?"
"लेकिन।" लिंकन बोला- नौकरी है कहां?"
"आ मेरे साथ! मैं देता हूं तुझे नौकरी।" ऑफेट बोला।
"क्या कह रहा है?”
"सच कह रहा हूं, तू मेरे स्टोर का हिसाब-किताब देख। मैं तुझे 15 डालर मासिक दूंगा। इससे तू अपना खर्च चला, कानून की पढ़ाई कर और राजनीति में भाग्य आजमा । "
"सच।
“सच और केवल सच।" ऑफेट और लिंकन ने एक दूसरे से हथेलियां चटखाईं और हवा में हाथ उठाते हुए चिल्लाए – "हिप हिप हुर्रे । ”
बस, यहीं से लिंकन के जीवन की धारा बदल गई। एक साथ तीन फैसले लिए लिंकन ने। खर्च चलाने के लिए नौकरी करना–कानून की पढ़ाई करना और राजनीति में उतरना। ऑफेट ने लिंकन को आधार दिया था और लिंकन ने उसे वचन दिया कि वह वही करेगा जो वह चाहता है। ऑफेट ने लिंकन की मुलाकात न्यू सलेम डिबेटिंग सोसाइटी के सदस्यों से करवाई। इस सोसाइटी के सदस्य लिंकन के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लिंकन को बहुत जल्दी अपना नेता मान लिया। अब तो लिंकन से मिलने वालों का तांता लगने लगा। लिंकन स्टोर का हिसाब-किताब देखता और इन लोगों से बातचीत भी करता था। कुछ ही महीनों में लिंकन का नाम पूरे न्यू सलेम में चर्चित हो गया। जब वह गलियों में, सड़कों पर निकलता तो लोग हाथ हिलाकर उससे आत्मीयता दर्शाते और आदर देते।
राज्य विधानसभा के लिए प्रत्याशी
न्यू सलेम में आए लिंकन को अभी मुश्किल से एक वर्ष हुआ था कि ऑफेट तथा डिबेटिंग सोसाइटी के सदस्यों ने उसे इली नॉइस राज्य विधान सभा की सदस्यता के लिए चुनावों में खड़ा कर दिया। 1832 के चुनावों के लिए लिंकन ने नामांकन पत्र भरा और क्षेत्र में अपना परिचय देने के लिए चुनाव प्रचार आरंभ कर दिया। चुनाव की एक सभा को संबोधित करते हुए अब्राहम लिंकन ने कहा-
"I am young and unknown to many of you. I was born and have ever remained in the most humble walks of life, if the good people in their wisdom see fit to keep me in the background, I have been too familiar with disappointments to be very much chagrined.
इस चुनाव प्रचार में लिंकन तथा उसके साथियों ने जमकर काम किया। इसका नतीजा यह हुआ कि न्यू सलेम में लोग लिंकन को अच्छी तरह जान गए, परंतु फिर भी यह प्रचार लिंकन को जीत न दिला सका। लिंकन को अपने क्षेत्र में 304 में से 277 मत प्राप्त हुए। क्षेत्र में नए होने के बावजूद लोगों के दिलों में जगह बनाने में वह पूरी तरह कामयाब हुआ था।
चुनाव की हार ने लिंकन के हौसले को तोड़ा नहीं। वह जानता था कि राजनीति में पहला ही कदम प्राय: इतनी बड़ी सफलता नहीं देता कि कोई चुनाव जीत जाए, परंतु चुनाव लड़ने से व्यक्ति जन-सम्पर्क में आ जाता है और आगे के लिए यहां से रास्ता बनाना सरल हो जाता है।
लिंकन ने इस अवसर को अपने लिए राजनीति में उतरने के प्रथम अध्याय के रूप में लिया और अगले अध्यायों को लिखने की तैयारी में जुट गया।
न्यू सलेम में लिंकन का प्रवास काल छ: वर्ष लम्बा रहा। इस अवधि में से एक वर्ष चुनाव के पहले बीत चुका था और पांच वर्ष उसके बाद बीते। इस पूरी अवधि का इस्तेमाल लिंकन ने अपनी शैक्षिक पृष्ठभूमि को मजबूत बनाने, शेक्सपीयर, बर्न आदि महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों के साहित्य का अध्ययन करने, कानून की पढ़ाई करने तथा राजनीति में अपने कदम जमाने के रूप में किया।
इसी बीच ऑफेट का स्टोर लड़खड़ाने लगा। ऑफेट ने उसे बंद करने का मन बना लिया, तब लिंकन ने अपने एक मित्र के साथ मिलकर स्टोर चलाने की योजना बना ली। ऑफेट ने स्टोर लिंकन को सौंप दिया, परंतु वह इतने घाटे में जा चुका था कि फिर संभल ही नहीं पाया। फिर एक दिन लिंकन के बिजनेस पार्टनर की मृत्यु हो गई और सारा दायित्व लिंकन के ही कंधों पर आ गया। लिंकन ने उसे निभाने के अनेकों प्रयास किए, परंतु वह निभा नहीं पाया और स्टोर 1100 डॉलर का कर्ज लिंकन के सिर डालकर बंद हो गया। इस कर्ज को उतारने का दायित्व लिंकन ने खुशी-खुशी अपने ऊपर ले लिया। जीवन में यह एक बड़ी आर्थिक चोट थी।
बिना पैसे के व्यापार में उतरने वाले बुद्धिजीवियों के साथ ऐसी तनाव में डालने वाली घटनाओं का घट जाना आम बात है। जब वे बाजार में खड़े होते हैं तो मन हो आता है कि वे भी व्यापार करें और मुनाफा कमाएं, परंतु बुद्धिजीवी प्रायः व्यापार में सफल नहीं हो पाते और यदि पूंजी उधार की हुई तो वह व्यापार उनके लिए गले का फंदा बन जाता है जो जीवन-भर उन्हें तकलीफ देता रहता है। ऐसा ही लिंकन के साथ हुआ। लिंकन की आर्थिक स्थिति शून्य थी जब वह 1831 में न्यू सलेम आया। 1832 में चुनाव हार जाने के बाद उसने स्टोर संभाला और कल्पना की थी कि यह स्टोर उसे इतना आर्थिक आधार देगा कि वह अपनी आर्थिक समस्या का समाधान कर लेगा, परंतु यह तो उसके लिए गले की हड्डी बन गया। 1832 से 1837 तक पूरे पांच वर्ष तक प्रयास करने के बावजूद लिंकन स्टोर के कारण सिर पर हुए कर्ज को उतार नहीं पाया।
1833 में आर्थिक विकल्प तलाशते-तलाशते लिंकन इतना तंग आ गया कि उसने लोहारगिरी का काम करके आजीविका कमाने का फैसला कर लिया। बढ़ईगिरी से जीवन शुरू करके लोहारगिरी पर आने का लिंकन का फैसला बड़ा विचित्र था, परंतु सिर पर स्टोर के कारण लदे कर्जे को उतारने तथा अपनी आजीविका कमाने का उसे कोई कारगर विकल्प मिल ही नहीं पा रहा था।
पोस्टमास्टर बन गया
लोहारगीरी का काम हाथ में लेने की बात जब उसने अपने दोस्तों को बताई तो उन्होंने उसे मना कर दिया। दोस्त जानते थे कि लिंकन में जन-सम्पर्क की गजब की प्रतिभा है। वह एक अच्छे दिल वाला और शानदार दिमाग वाला इंसान है। ऐसे व्यक्ति को कानून की पढ़ाई करनी चाहिए और राजनीति में जाना चाहिए। ये दोनों विकल्प एक-दूसरे के सहयोगी तथा पूरक हैं।
लिंकन को बात समझ में आ गई। उसने लोहारगीरी करके अपना भविष्य बिगाड़ने वाला विचार छोड़ दिया। उन्हीं दिनों न्यू सलेम में पोस्टमास्टर का स्थान रिक्त हुआ। लिंकन ने उसके लिए आवेदन किया और वह न्यू सलेम का पोस्टमास्टर बन गया। उसे प्रति वर्ष 155 डॉलर के वेतन पर नियुक्ति मिली थी। इस प्रकार उसका वेतन केवल 13 डॉलर प्रति माह से भी कम था।
इतने कम वेतन में गुजारा करना और फिर स्टोर का कर्जा उतारना सम्भव नहीं था, अतः लिंकन ने अतिरिक्त मेहनत करके पैसा जुटाने का फैसला ले लिया। उसने अनेक छोटे-छोटे काम अपने हाथ में ले लिए। कभी वह रेल की पटरियों को अलग करने के काम में जुटा पाया जाता, कभी किसी के खेत में फसल उगाने अथवा काटने का काम करते देखा जाता, कभी किसी कारखाने में रात की ड्यूटी करता और साथ ही क्षेत्रीय अखबारों के कार्यालयों में जाकर काम करता।
जिस आदमी को कल अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर बैठना था, वह आज जीविका चलाने के लिए और कर्जा उतारने के लिए वे सब काम कर रहा था, जिन्हें करते हुए आम आदमी भी झिझकता है, परंतु लिंकन के मन में कोई हीनता का भाव नहीं था। वह जानता था कि वह गरीब है और गरीब की ऐसी कोई प्रतिष्ठा नहीं होती जो छोटे कामों को हाथ लगाने से खराब हो जाए, दूसरे, कामों को छोटे या बड़े वर्गों में बांटने की अब्राहम लिंकन की आदत भी नहीं थी। वह काम को अपना धर्म मानता था। काम कोई भी हो, सब आजीविका के साधन हैं और मनुष्यों द्वारा ही सम्पन्न किए जाते हैं, ऐसी उसकी मान्यता थी।
राज्य विधान-सभा का सदस्य बना
उन दिनों भिग पार्टी एक वैचारिक दल के रूप में उभर रही थी। उसके नेता जॉन टी स्टुआर्ट थे।
एक दिन लिंकन जॉन स्टुआर्ट से मिलने पार्टी के कार्यालय गया। वे पार्टी के राष्ट्रीय नेता थे और 1834 में होने वाले चुनावों के लिए न्यू सलेम से अच्छे प्रत्याशी की तलाश में आए थे।
एक वर्ष पहले चुनाव हार चुके लिंकन की छवि साफ-सुथरी और अच्छी थी।
न्यू सलेम में उन्होंने लिंकन की बड़ी तारीफ सुनी थी। जब एक सबसे लम्बे 24 वर्षीय नवयुवक के रूप में अब्राहम लिंकन ने जॉन स्टुआर्ट से हाथ मिलाते हुए उन्हें अपना परिचय दिया तो वे लिंकन से इतने प्रभावित हुए कि उसे देखते रह गए। परंतु जब उन्हें पता चला कि लिंकन की शैक्षिक पृष्ठभूमि उतनी मजबूत नहीं है जितना कि उसका इरादा और व्यक्तित्व तब उन्हें थोड़ी-सी निराशा हुई, परंतु लिंकन के हौसले, विचारों की साफगोई तथा राजनीति के प्रति समर्पण भाव देखकर उन्हें बहुत अच्छा लगा। उन्होंने कहा- "अब्राहम, तुम कानून की पढ़ाई तुरंत शुरू कर दो। वक्त जाया मत करो, मैं देख रहा हूं कि एक अच्छे नेता बनने के गुण तुममें मौजूद हैं, परंतु राजनैतिक दांव-पेंचों को समझने तथा जनता की दृष्टि में विश्वसनीय बनने के लिए कानून की जानकारी और डिग्री दोनों का होना जरूरी है।"
लिंकन ने जॉन स्टुआर्ट की बात मान ली और कानून के पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया।
अब तो उसे कानून के अध्ययन की ऐसी लगन जाग गई कि उसने रात-दिन अध्ययन शुरू कर दिया। यद्यपि स्टोर के घाटे का कर्ज अब भी उसका चैन भंग किए हुए था, परंतु धीरे-धीरे उसे उतारते रहने के संकल्प के साथ लिंकन ने कानून की पढ़ाई पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया।
न्यू सलेम के कार्यालय अधिकारी ने अब्राहम लिंकन की कानून सीखने की लगन और मेहनत पर टिप्पणी करते हुए कहा था— “He was the most uncouth looking young man I ever saw. He seemed to have but little to say; seemed to feel timid, with a tinge of sadness visible in his countenance, but when he did talk all this disappeared for the time he demonstrated that he was both strong and acute. He surprised us more and more at every visit.
लिंकन के चेहरे पर दुख के चिन्ह दिखाई देना, एक बेचारगी-सी झलकना, एक झिझक और निराशा की पर्त का कभी-कभी आ जाना यह दर्शाता है कि उसके अंदर पता नहीं किस कारण से आत्मविश्वास की कमी थी। यह कमी लम्बे समय तक उसका पीछा करती रही। लार्ड लांग फोर्ड जिन्होंने लिंकन को बहुत नजदीकी से देखा था और जो मेरी टॉड नामक उसी लड़की से विवाह करना चाहते थे जिससे 1842 में लिंकन ने शादी की, तो यहां तक मानते हैं कि लिंकन के अंदर आत्मविश्वास की कमी तब तक देखी गई, जब तक वे अमेरिका के राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति बनने के बाद ही यह कमी उनके व्यक्तित्व से बाहर निकल सकी।
1834 में अब्राहम लिंकन को भिग पार्टी ने राज्य विधानसभा की सदस्यता के लिए अपना प्रत्याशी बनाया। अब्राहम लिंकन ने न्यू सलेम में अनेक सभाएं कीं और अपने व्यक्तित्व व विचारों के प्रभाव का जादू फैलाया। जादू काम कर गया।
लिंकन को इस बार न्यू सलेम से इलीनॉइस विधान सभा का सदस्य चुन लिया गया।
राजनीति में अब्राहम लिंकन की यह पहली जीत थी। इस जीत के साथ ही, अब्राहम का आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया। अब उसने पूरी लगन और मेहनत से कानून की पढ़ाई करने और राजनैतिक दायित्वों का निर्वाह करने का संकल्प लिया।
यह सच है कि अब्राहम लिंकन मनुष्यों द्वारा मनुष्यों के शोषण की राजनीति का करारा जवाब देने के लिए राजनीति में आए थे। गरीब घर में जन्म लेने तथा एक-एक पैसे के लिए संघर्ष करने के कारण वे अच्छी तरह जानते थे कि इस बड़े और सम्पन्न देश में गरीब आदमी को जीवन में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
सबसे बड़ी चुनौती तो दास प्रथा थी जो 1776 से पहले, दक्षिण अफ्रीका के नीग्रो लोगों को खेतों पर काम करने के लिए अमेरिका लाने से शुरू हुई थी। देश में लगभग 11% आबादी नीग्रो आदिवासियों की थी। काली चमड़ी वाले ये अफ्रीकावासी अमेरिका के दक्षिणी भाग में बसाए गए थे। 1776 तक इन पर ब्रिटेन का शासन था। 1776 में इन्हें आजादी मिली और काले तथा गोरे दोनों प्रकार के निवासियों को मिलाकर अमेरिकी संघ का निर्माण किया गया, परंतु संविधान का निर्माण करते समय भी इनके साथ भेदभाव बरता गया। गोरे लोग चाहते थे कि कालों को समान नागरिक का दर्जा न दिया जाए और उन्हें गुलाम बनाकर रखने की अमेरिकियों को छूट दी जाए।
अमेरिकी संघ के सदस्य होने के बावजूद ये काले लोग गोरों के शोषण से अपने-आपको मुक्त न रख सके और गोरों द्वारा गुलाम बनाकर रखे जाने की परंपरा और मजबूत होने लगी। इस प्रथा का विरोध तो यहां-वहां देखने को मिल रहा था, परंतु कोई भी इसके उन्मूलन के लिए कठोर कदम उठाने के पक्ष में नहीं था। ऐसे में अब्राहम लिंकन इनके हितों के लिए देवदूत बनकर अमेरिका की राजनीति में उतरे।
1834 में राज्य विधान सभा में पहुंचने के साथ ही उन्होंने घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी आदमी के द्वारा आदमी को गुलाम बनाया जाना और उसका किसी तरह के शोषण का विरोध करेगी। अमेरिका की 87% गोरी आबादी में बहुत कम लोग ऐसे थे जो गुलामी प्रथा का उन्मूलन चाहते थे, अधिकतर लोग तो यही मानते थे कि काले लोगों का जन्म गोरों की सेवा करने के लिए हुआ है, अतः उन्हें अधिकारों की मांग नहीं उठानी चाहिए। यदि दास प्रथा समाप्त हो गई तो अमेरिका का कृषि उत्पादन क्षेत्र ढह जाएगा। उन दिनों अमेरिका औद्योगिक शक्ति नहीं बना था। कृषि उत्पादन का काम चुनौतीपूर्ण था। गोरे मालिक काली जाति के लोगों को गुलाम बनाकर उनके पसीने की कमाई पर अपनी सम्पन्नता का महल खड़ा करना चाहते थे।
लिंकन ने गोरों के इन घृणित इरादों को चुनौती देते हुए विधान सभा में कदम रखा।
यद्यपि भिग पार्टी अल्पमत में थी और डेमोक्रेटिक पार्टी बहुमत में। डेमोक्रेटिक वाले भिग पार्टी के प्रतिनिधियों को सदन में टिकने नहीं देते थे। फिर भी लिंकन ने हार नहीं मानी। लिंकन की समझ में यह बात आ गई थी कि अमेरिका की गोरी आबादी कालों का शोषण करने के लिए एकजुट है अतः उनके मतों से जीत कर आए प्रतिनिधि भिग पार्टी वालों को सिर नहीं उठाने देंगे, परंतु सत्य को जीत दिलाना अपना फर्ज मानकर वे मैदान में डट गए।
एन रूटलैज से प्यार
21 वर्ष की आयु में जब अब्राहम लिंकन ने न्यू सलेम में पहला कदम रखा था तब वे एन रूटलैज नामक सुंदर लड़की के पिता के घर में किराए पर रहे। रूटलैज को लिंकन के व्यक्तित्व से लगाव हो गया और वह मन-ही-मन उसे चाहने लगी।
एन रूटलैज लिंकन से विवाह करना चाहती थी, परंतु लिंकन की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी। अतः उसके पिता ने उसे लिंकन से विवाह करने की अनुमति नहीं दी। पिता ने उसका विवाह मेकनामर नामक युवक के साथ तय कर दिया। उसकी आदमनी अच्छी थी। विवाह करने के बाद मेकनामर अपने परिवार के पास न्यूयॉर्क चला गया।
इसके बाद वह नहीं लौटा। एन के पिता बीमार रहते थे। वे भी एक दिन चल बसे। अब एन अकेली रह गई। वह बहुत दुखी रहने लगी। लिंकन को जब-जब वक्त मिलता तो एन को मिलते और उसका दुख कम करते। एक दिन एन ने कहा– "मुझे पूरा विश्वास है कि जिस लड़के के साथ मेरी शादी तय की गई थी, वह अब नहीं लौटेगा। वह इस शादी से खुश नहीं है। पिता की जिद के कारण शादी तय तो हो गई, परंतु वह अब मुझसे शादी करने नहीं आएगा। शायद ईश्वर हम दोनों को मिलाना चाहता है। मैं अब अपना रिश्ता उससे तोड़ती हूं, बोलो तुम मुझसे शादी करोगे?"
लिंकन तो पहले से ही यही चाहता था, परंतु क्योंकि विधान सभा का सदस्य बन जाने के बावजूद उसकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी थी, अतः थोड़ा संकोच था, परंतु जब एन ने उसकी ओर अपना हाथ बढ़ाया तो लिंकन ने उसे थाम लिया।
परंतु पता नहीं, ऐसी क्या बात हो गई कि एन उसी दिन बीमार पड़ गई। पिता द्वारा तय की गई सगाई को तोड़कर अपनी मर्जी से लिंकन के साथ शादी करने का फैसला लेते ही उसके मन में एक बड़ा द्वंद्व उत्पन्न हो गया। उसका कोमल मन दो हिस्सों में बंट गया, एक मन कहता था कि वह पिता को दिए गए अपने वचन का पालन करे क्योंकि पिता अब नहीं रहे, दूसरा मन कहता था कि हालात ने लिंकन को फिर से उससे मिला दिया है, अतः वह अपने मंगेतर की प्रतीक्षा करना बंद करे, उससे सगाई तोड़ दे और लिंकन के साथ विवाह कर ले। अपने प्यार को मरने से रोक ले।
बेचारी कोमल हृदया लड़की मन में पैदा हुए उस दो-फाड़ करने वाले द्वंद्व को न सह सकी और उसकी मानसिक हालत बिगड़ गई। लिंकन ने उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया। वह उसे रोज देखने जाता था। उसे देखकर वह बुरी तरह रोती थी। लिंकन उसका सिर अपनी गोद में रख लेता था और उसे बहुत प्यार करता था, परंतु फिर भी पता नहीं क्यों वह अपने आपको संभाल नहीं पाई और 25 अगस्त, 1835 को एन की मृत्यु हो गई।
1890 में अब्राहम लिंकन की शहादत के 25 वर्ष बाद एन की कब्र से उसके शरीर के अवशेष निकाले गए और उन्हें लिंकन की प्रेमिका के रूप में सम्मान देते हुए एक महत्त्वपूर्ण स्थल पर दफनाया गया जहां पर्यटकों का आना जाना रहता है। उसकी कब्र पर प्रसिद्ध कवि एडगर ली मास्टर्स की ये पंक्तियां खुदवाई गईं—“I am An Rutledge who sleep beneath these weeds. Beloved of Abraham Lincoln. wedded to him, not through Union. But through separation. Bloom forever 'O' Republic from the dust of my bosom. '
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Mon, 29 May 2023 02:15:04 +0530 Jaankari Rakho