संघ एवं इसका क्षेत्र

संघ एवं इसका क्षेत्र

संघ एवं इसका क्षेत्र

संविधान के भाग 1 के अंतर्गत अनुच्छेद 1 से 4 तक में संघ एवं इसके क्षेत्रों की चर्चा की गई है।

राज्यों का संघ

अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि इंडिया यानी भारत बजाय 'राज्यों के समूह' के 'राज्यों का संघ' होगा। यह व्यवस्था दो बातों को स्पष्ट करती है- एक, देश का नाम, और दूसरी, राजपद्धति का प्रकार । संविधान सभा में देश के नाम को लेकर किसी तरह का कोई मतैक्य नहीं था। कुछ सदस्यों ने सलाह दी कि इसके परंपरागत नाम (भारत) को रहने दिया जाए जबकि कुछ ने आधुनिक नाम (इंडिया) की वकालत की, इस तरह संविधान सभा ने दोनों को स्वीकार किया (इंडिया जो कि भारत है) ।
दूसरे देश को संघ बताया गया। यद्यपि संविधान का ढांचा संघीय है। डॉ. बी. आर. अंबेडकर के अनुसार 'राज्यों का संघ' उक्ति को संघीय राज्य के स्थान पर महत्व देने के दो कारण हैं-एक, भारतीय संघ राज्यों के बीच में कोई समझौते का परिणाम नहीं है, जैसेकि- अमेरिकी संघ में और दो, राज्यों को संघ से विभक्त होने का कोई अधिकार नहीं है । यह संघ है, यह विभक्त नहीं हो सकता। पूरा देश एक है जो विभिन्न राज्यों में प्रशासनिक सुविधा के लिए बंटा हुआ है।'
अनुच्छेद 1 के अनुसार भारतीय क्षेत्र को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
  1. राज्यों के क्षेत्र
  2. संघ क्षेत्र
  3. ऐसे क्षेत्र जिन्हें किसी भी समय भारत सरकार द्वारा अधिगृहीत किया जा सकता है।
राज्यों एवं संघ शासित राज्यों के नाम, उनके क्षेत्र विस्तार को संविधान की पहली अनुसूची दर्शाया गया है। इस वक्त 28 राज्य एवं 9 केंद्रशासित क्षेत्र हैं, राज्यों के संदर्भ में संविधान के उपबंध की व्यवस्था सभी राज्यों पर समान रूप से लागू हैं। यद्यपि ( भाग XXI के अंतर्गत) कुछ राज्यों के लिए विशेष उपबंध हैं (इनमें शामिल - महाराष्ट्र, गुजरात, नागालैंड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा एवं कर्नाटकं । इसके अतिरिक्त पांचवीं एवं छठी अनुसूचियों में राज्य के भीतर अनुसूचित एवं जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के लिए विशेष उपबंध हैं।
उल्लेखनीय है कि 'भारत के क्षेत्र' 'भारत का संघ' से ज्यादा व्यापक अर्थ समेटे है क्योंकि बाद वाले में सिर्फ राज्य शामिल हैं, जबकि पहले में न केवल राज्य वरन् बल्कि संघ शासित क्षेत्र एवं वे क्षेत्र, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा भविष्य में कभी भी अधिगृहीत किया जा सकता है, शामिल हैं। संघीय व्यवस्था में राज्य इसके सदस्य हैं और केंद्र के साथ शक्तियों के बंटवारे में हिस्सेदार हैं। दूसरी तरफ संघ शासित क्षेत्र एवं केंद्र द्वारा अधिगृहीत क्षेत्र में सीधे केंद्र सरकार का प्रशासन होता है।
एक संप्रभु राज्य होने के नाते भारत अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत विदेशी क्षेत्र का भी अधिग्रहण कर सकता है। उदाहरण के लिए सत्तांतरण (संधि के अनुसार, खरीद, उपहार या लीज), व्यवसाय (जिसे अभी तक किसी मान्य शासक ने अधिगृहीत न किया हो), जीत या हराकर । उदाहरण के लिए भारत ने संविधान लागू होने के बाद कुछ विदेशी क्षेत्रों का अधिग्रहण किया, जैसे- दादर और नागर हवेली, गोवा, दमन एवं दीव, पुडुचेरी एवं सिक्किम । इन क्षेत्रों के अधिग्रहण की बाद में आगे चर्चा की जाएगी।
अनुच्छेद 2 में संसद को यह शक्ति दी गई है कि संसद, विधि द्वारा, ऐसे निबंधनों और शर्तों पर, जो वह ठीक समझे, संघ में नए राज्यों का प्रवेश या उनकी स्थापना कर सकेगी। इस तरह अनुच्छेद 2 संसद को दो शक्तियां प्रदान करता है- (अ) नये राज्य को भारत के संघ में शामिल करे और (ब) नये राज्यों को गठन करने की शक्ति। पहली शक्ति उन राज्यों के प्रवेश को लेकर है जो पहले से अस्तित्व में हैं, जबकि दूसरी शक्ति नये राज्यों जो अस्तित्व में नहीं हैं के गठन को लेकर है, अर्थात् अनुच्छेद 2 उन राज्यों, जो भारतीय संघ के हिस्से नहीं हैं, के प्रवेश एवं गठन से संबंधित है। दूसरी ओर अनुच्छेद 3 भारतीय संघ के नए राज्यों के निर्माण या वर्तमान राज्यों में परिवर्तन से संबंधित है। दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 3 में भारतीय संघ के राज्यों के पुनर्सीमन की व्यवस्था करता है।

राज्यों के पुनर्गठन संबंधी संसद की शक्ति

अनुच्छेद 3 संसद को अधिकृत करता है:
अ. किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकेगी।
ब. किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकेगी।
स. किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी।
द. किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर
ड़. किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी।
हालांकि इस संबंध में अनुच्छेद 3 में दो शर्तों का उल्लेख किया गया है। एक, उपरोक्त परिवर्तन से संबंधित कोई अध्यादेश राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बाद ही संसद में पेश किया जा सकता है और दो, संस्तुति से पूर्व राष्ट्रपति उस अध्यादेश को संबंधित राज्य के विधानमंडल का मत जानने के लिए भेजता है। यह मत निश्चित समय सीमा के भीतर दिया जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त संसद की नए राज्यों का निर्माण करने की शक्ति में किसी राज्य या संघ क्षेत्र के किसी भाग को किसी अन्य राज्य या संघ क्षेत्र में मिलाकर अथवा नए राज्य या संघ क्षेत्र में मिलाकर अथवा नए राज्य या संघ क्षेत्र का निर्माण सम्मिलित है। उ
राष्ट्रपति (या संसद) राज्य विधानमंडल के मत को मानने के लिए बाध्य नहीं है, और इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है, भले ही उसका मत समय पर आ गया हो। संशोधन संबंधी अध्यादेश के संसद में आने पर हर बार राज्य के विधानमंडल के लिए नया संदर्भ बनाना जरूरी नहीं। संघ क्षेत्र के मामले में संबंधित विधानमंडल के संदर्भ की कोई आवश्यकता नहीं, संसद जब उचित समझे स्वयं कदम उठा सकती है। 4
इस तरह यह स्पष्ट है कि संविधान, संसद को यह अधिकार देता है कि वह नये राज्य बनाने, उसमें परिवर्तन करने, नाम बदलने या सीमा में परिवर्तन के संबंध में बिना राज्यों की अनुमति के, कदम उठा सकती है। दूसरे शब्दों में, संसद अपने अनुसार भारत के राजनीतिक मानचित्र का पुनर्निर्धारण कर सकती है। इस तरह संविधान द्वारा क्षेत्रीय एकता या राज्य के अस्तित्व को गारंटी नहीं दी गई है, इस तरह भारत को सही कहा गया है, विभक्त राज्यों का अविभाज्य संघ संघ सरकार राज्य को समाप्त कर सकती है जबकि राज्य सरकार संघ को समाप्त नहीं कर सकती। दूसरी तरफ अमेरिका में क्षेत्रीय एकता या राज्यों के अस्तित्व को संविधान द्वारा गारंटी दी गई है। अमेरिकी संघीय सरकार नये राज्यों का निर्माण या उनकी सीमाओं में परिवर्तन बिना संबंधित राज्यों की अनुमति के नहीं कर सकती। इसलिए अमेरिका को 'अविभाज्य राज्यों का अविभाज्य संघ' कहा गया है।
संविधान (अनुच्छेद 4) में स्वयं यह घोषित किया गया है कि नए राज्यों का प्रवेश या गठन (अनुच्छेद 2 के अंतर्गत), नये राज्यों के निर्माण, सीमाओं, क्षेत्रों और नामों में परिवर्तन (अनुच्छेद 3 के अंतर्गत) को संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन नहीं माना जाएगा। अर्थात इस तरह का कानून एक सामान्य बहुमत और साधारण विधायी प्रक्रिया के जरिए पारित किया जा सकता है।
क्या संसद को यह भी अधिकार है कि वो किसी राज्य के क्षेत्र को समाप्त कर (अनुच्छेद 3 के अंतर्गत) भारतीय क्षेत्र को किसी अन्य देश को दे दे? यह प्रश्न उच्चतम न्यायालय के सामने तब आया, जब 1960 राष्ट्रपति द्वारा एक संदर्भ के जरिये उससे इस बारे में पूछा गया। केंद्र सरकार के एक निर्णय कि बेरूबाड़ी संघ (पश्चिम बंगाल) पर पाकिस्तान का नेतृत्व हो, ने राजनीतिक विद्रोह और विवाद को जन्म दिया, जिस कारण राष्ट्रपति से संदर्भ लिया गया। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद की शक्ति राज्यों की सीमा समाप्त करने और (अनुच्छेद 3 के अंतर्गत) भारतीय क्षेत्र को अन्य देश को देने की नहीं है। यह कार्य अनुच्छेद 368 में ही संशोधन कर किया जा सकता है। इस तरह 9वें संविधान संशोधन अधिनियम (1960) के प्रभावी होने पर उक्त क्षेत्र को पाकिस्तान को स्थानांतरित कर दिया गया।
दूसरी तरफ 1969 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि भारत और अन्य देश के बीच सीमा निर्धारण विवाद को हल करने के लिए संवैधानिक संशोधन की जरूरत नहीं है। यह कार्य कार्यपालिका द्वारा किया जा सकता है। इसमें भारतीय क्षेत्र को विदेश को सौंपना शामिल नहीं है।

बांग्लादेश के साथ क्षेत्रों का आदान-प्रदान

100वां संविधान संशोधन अधिनियम 2015 को इसलिए अधिनियमित किया गया कि भारत द्वारा कुछ भूभाग का अधिग्रहण किया जाए जबकि कुछ अन्य भूभाग को बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिया जाए। उस समझौते के तहत जो भारत और बांग्लादेश की सरकारों के बीच हुआ। इस लेन-देन में भारत ने 111 विदेशी अंतःक्षेत्रों (enclaves) को बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिया जबकि बांग्लादेश ने 51 अंतःक्षेत्रों को भारत को हस्तांतरित किया। इसके साथ ही इस लेन-देन में प्रतिकूल दखलों का हस्तांतरण तथा 6.1 कि.मी. असीमाकित सीमाई क्षेत्र का सीमांकन भी शामिल था। इन तीन उद्देश्यों के लिए संशोधन ने चार राज्यों (असम, पश्चिम बंगाल, मेघालय तथा त्रिपुरा) के भूभाग से जुड़े पहली अनुसूची के प्रावधानों को भी संशोधित कर दिया। इस संशोधन की निम्नलिखित पृष्ठभूमि है:
  1. भारत और बांग्लादेश की लगभग 4096.7 किमी लंबी साझी जमीनी सीमा है। भारत-पूर्वी पाकिस्तान जमीनी सीमा का निर्धारण 1947 के रैडक्लिफ अवॉर्ड के अनुसार हुआ था। विवाद रैडक्लिफ अवॉर्ड के कुछ प्रावधानों को लेकर हुआ जिनका समाधान 1950 के बग्गे अवार्ड (Bagge Award ) के अनुसार किया जाना था। पुनः एक कोशिश इन विवादों के समाधान के लिए 1958 में नेहरू-नून समझौते के द्वारा की गई। हालांकि बेरुबाड़ी यूनियन के विभाजन को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती की गई। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन में संविधान (9वां संशोधन) अधिनियम 1960 पारित किया गया। लगातार मुकदमेबाजी तथा अन्य राजनीतिक घटनाक्रमों के चलते यह अधिनियम अधिसूचित नहीं किया जा सका भूतपूर्व पूर्वी पाकिस्तान ( वर्तमान बांग्लादेश) के भूभागों को लेकर। 
  2. 16 मई, 1974 को भारत-बांग्लादेश की जमीनी सीमा के सीमांकन एवं सम्बन्धित मामलों के लिए दोनों देशों के साथ एक समझौता हुआ ताकि इस जटिल मुद्दे को हल किया जा सके। इस समझौते की भी अभिपुष्टि नहीं की जा सकी क्योंकि यह जमीन के स्थानांतरण का मामला था जिसके लिए संविधान संशोधन की जरूरत थी। इस सम्बन्ध में जमीन पर उस क्षेत्र विशेष को चिन्हित करने की जरूरत थी जिसे हस्तांतरित किया जाना था। इसके पश्चात असीमांकित जमीनी सीमा प्रतिकूल कब्जे वाले भूभागों तथा अंतःक्षेत्रों के आदान-प्रदान को विकसित कर 6 सितंबर, 2011 को एक प्रोटोकॉल पर दस्तखत कर इस मुद्दे को हल करने का प्रयास किया गया जो कि भारत-बांग्लादेश के बीच जमीनी सीमा समझौता 1974 का अभिन्न हिस्सा है। इस प्रोटोकॉल को असम, मेघालय, त्रिपुरा एवं पश्चिमी बंगाल राज्य सरकारों के सहयोग एवं सहमति से तैयार किया गया। 

केंद्रशासित प्रदेशों एवं राज्यों का उद्भव

देशी रियासतों का एकीकरण
आजादी के समय भारत में राजनीतिक इकाइयों की दो श्रेणियां थीं- ब्रिटिश प्रांत (ब्रिटिश सरकार के शासन के अधीन) और देशी रियासतें ( राजा के शासन के अधीन लेकिन ब्रिटिश राजशाही से संबद्ध) । भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (1947) के अंतर्गत दो स्वतंत्र एवं पृथक् प्रभुत्व वाले देश भारत और पाकिस्तान का निर्माण किया गया और देशी रियासतों को तीन विकल्प दिए गए- भारत में शामिल हों, पाकिस्तान में शामिल हों या स्वतंत्र रहे। 552 देशी रियासतें, भारत की भौगोलिक सीमा में थीं। 549 भारत में शामिल हो गयीं और बची हुयी तीन रियासतों (हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर) ने भारत में शामिल होने से इंकार कर दिया। यद्यपि कुछ समय बाद इन्हें भी भारत में मिला लिया गया हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही के द्वारा, जूनागढ़ को जनमत के द्वारा एवं कश्मीर को विलय पत्र के द्वारा भारत में शामिल कर लिया गया। 
1950 में संविधान ने भारतीय संघ के राज्यों को चार प्रकार से वर्गीकृत किया - भाग क, भाग ख और भाग ग राज्य एवं भाग घ क्षेत्र । ये सभी संख्या में 29 थे। भाग क में वे राज्य थे, जहां ब्रिटिश भारत में गर्वनर का शासन था। भाग ख में 9 राज्य विधानमंडल के साथ शाही शासन, भाग ग में ब्रिटिश भारत के मुख्य आयुक्त का शासन एवं कुछ में शाही शासन था। भाग ग में राज्य ( कुल 10 ) का केंद्रीकृत प्रशासन था। अंडमान एवं निकोबार द्वीप को अकेले भाग घ क्षेत्र में रखा गया था।
घर आयोग और जेवीपी समिति
देशी रियासतों का शेष भारत में एकीकरण विशुद्ध रूप से अस्थायी व्यवस्था थी। इस देश के विभिन्न भागों, विशेष रूप से दक्षिण से मांग उठने लगी कि राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन हो। जून 1948 में भारत सरकार ने एस. के. धर की अध्यक्षता में भाषायी प्रांत आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने अपनी रिपोर्ट दिसंबर 1948 में पेश की। आयोग ने सिफारिश की कि राज्यों का पुनर्गठन भाषायी कारक की बजाय प्रशासनिक सुविधा के अनुसार होना चाहिए। इससे अत्यधिक असंतोष फैल गया, परिणामस्वरूप कांग्रेस द्वारा दिसंबर 1948 में एक अन्य भाषायी प्रांत समिति का गठन किया गया। इसमें जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और पट्टाभिसीतारमैया शामिल थे, जिसे जेवीपी समिति' के रूप में जाना गया। इसने अपनी रिपोर्ट अप्रैल 1949 में पेश की और इस बात को औपचारिक रूप से अस्वीकार किया कि राज्यों के पुनर्गठन का आधार भाषा होनी चाहिए।
हालांकि अक्तूबर, 1953 में भारत सरकार को भाषा के आधार पर पहले राज्य के गठन के लिए मजबूर होना पड़ा, जब मद्रास से तेलुगू भाषी क्षेत्रों को पृथक् कर आंध्र प्रदेश का गठन किया गया। इसके लिए एक लंबा विरोध आंदोलन हुआ, जिसके अंतर्गत 56 दिनों की भूख हड़ताल के बाद एक कांग्रेसी कार्यकर्ता पोट्टी श्रीरामुलु का निधन हो गया।
फज़ल अली आयोग
आंध्र प्रदेश के निर्माण से अन्य क्षेत्रों से भी भाषा के आधार पर राज्य बनाने की मांग उठने लगी। इसके कारण भारत सरकार को (दिसंबर 1953 में) एक तीन सदस्यीय राज्य पुनर्गठन आयोग, फज़ल अली की अध्यक्षता में गठित करने के लिए विवश होना पड़ा। इसके अन्य दो सदस्य थे- के. एम. पणिक्कर और एच. एन. कुंजरू । इसने अपनी रिपोर्ट 1955 में पेश की और इस बात को व्यापक रूप से स्वीकार किया कि राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को मुख्य आधार बनाया जाना चाहिये। लेकिन इसने 'एक राज्य एक भाषा' के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया। इसका मत था कि किसी भी राजनीतिक इकाई के पुनर्निर्धारण में भारत की एकता को प्रमुखता दी जानी चाहिए। समिति ने किसी राज्य पुनर्गठन योजना के लिए चार बड़े कारकों की पहचान की:
अ. देश की एकता एवं सुरक्षा की अनुरक्षण एवं संरक्षण।
ब. भाषायी व सांस्कृतिक एकरूपता |
स. वित्तीय आर्थिक एवं प्रशासनिक तर्क।
द. प्रत्येक राज्य एवं पूरे देश में लोगों के कल्याण की योजना और इसका संवर्द्धन ।
आयोग ने सलाह दी कि मूल संविधान के अंतर्गत चार आयामी
राज्यों और क्षेत्रों के वर्गीकरण को समाप्त किया जाए और 16 राज्यों एवं 3 केंद्रीय प्रशासित क्षेत्रों का निर्माण किया जाए। भारत सरकार ने बहुत कम परिवर्तनों के साथ इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956) और 7वें संविधान संशोधन अधिनियम (1956) के द्वारा भाग क और भाग ख के बीच की दूरी को समाप्त कर दिया गया और भाग ग को खत्म कर दिया गया। इनमें से कुछ को पड़ोसी राज्यों के साथ मिला दिया गया था तो कुछ को संघशासित क्षेत्रों के तौर पर पुनः स्थापित किया गया। परिणामस्वरूप 1 नवंबर, 1956 को 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेशों का गठन किया गया।
राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा कोचीन राज्य के त्रावणकोर तथा मद्रास राज्य के मालाबार तथा दक्षिण कन्नड़ के कसरगोड़े को मिलाकर एक नया राज्य केरल स्थापित किया गया। इस अधिनियम ने हैदराबाद राज्य के तेलुगू भाषी क्षेत्रों को आन्ध्र राज्य में मिलाकर एक नये राज्य आन्ध्र प्रदेश की स्थापना की। उसी प्रकार मध्य भारत राज्य, विंध्य प्रदेश राज्य तथा भोपाल राज्य को मिलाकर मध्य प्रदेश राज्य का सृजन हुआ। पुन: इसने सौराष्ट्र और कच्छ राज्य को बॉम्बे राज्य में, कुर्ग राज्य को मैसूर राज्य में, पटियाला एवं पूर्वी पंजाब को पंजाब राज्य तथा अजमेर राज्य को राजस्थान राज्य में विलयित कर दिया। इसके अलावा इस अधिनियम द्वारा नये संघशासित प्रदेश-लक्षद्वीप, मिनीकॉय तथा अमिनदिवी द्वीपों का सृजन मद्रास राज्य से काटकर किया।
1956 के बाद बनाए गए नए राज्य एवं संघ शासित क्षेत्र
1956 में व्यापक स्तर पर राज्यों के पुनर्गठन के बावजूद भारत के राजनीतिक मानचित्र में व्यापक विभेदता व राजनीतिक दबाव के चलते परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। भाषा या सांस्कृतिक एकरूपता एवं अन्य कारणों के चलते दूसरे राज्यों से अन्य राज्यों के निर्माण की मांग उठी।
महाराष्ट्र और गुजरात : 1960 में द्विभाषी राज्य बंबई को दो पृथक् राज्यों में विभक्त किया गया - महाराष्ट्र मराठी भाषी लोगों के लिए एवं गुजरात गुजराती भाषी लोगों के लिए गुजरात भारतीय संघ का 15वां राज्य था।
दादरा एवं नागर हवेली : 1954 में इसके स्वतंत्र होने से पूर्व यहां पुर्तगाल का शासन था। 1961 तक यहां लोगों द्वारा स्वयं चुना गया प्रशासन चलता रहा। 10वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1961 द्वारा इसे संघ शासित क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया गया।
गोवा, दमन एवं दीव: 1961 में पुलिस कार्यवाही के माध्यम से भारत में इन तीन क्षेत्रों को अधिगृहीत किया गया, 12वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1962 के द्वारा इन्हें संघ शासित क्षेत्र के रूप में स्थापित किया गया। बाद में 1987 में गोवा को एक पूर्ण राज्य बना दिया गया । इसी तरह दमन और दीव को पृथक् केंद्रशासित प्रदेश बना दिया गया।
' पुड्डुचेरी : पुडुचेरी का क्षेत्र पूर्व फ्रांसीसी गठन का स्वरूप था, जिसे भारत में पुडुचेरी, कराइकल, माहे और यनम के रूप में जाना गया। 1954 में फ्रांस ने इसे भारत के सुपुर्द कर दिया। इस तरह 1962 तक इसका प्रशासन अधिगृहीत क्षेत्र' की तरह चलता रहा। फिर इसे 14 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संघ शासित प्रदेश बनाया गया। नागालैंड : 1963 में नागा पहाडियों और असम के बाहर के त्वेनसांग क्षेत्रों को मिलाकर नागालैंड राज्य का गठन किया गया।" ऐसा नागा आंदोलनकारियों की संतुष्टि के लिए किया गया था। तथापि, नागालैंड को भारतीय संघ के 16वें राज्य का दर्जा देने से पूर्व 1961 में असम के राज्यपाल के नियंत्रण में रखा गया था।
हरियाणा, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश : 1966 में पंजाब राज्य से भारतीय संघ के 17वें राज्य हरियाणा और केन्द्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ का गठन किया गया। इसके बाद सिखों के लिए पृथक् 'सिंह गृह राज्य' (पंजाब सूबा) की मांग उठने लगी। यह मांग अकाली दल नेता मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व में उठी। शाह आयोग (1966) की सिफारिश पर पंजाबी भाषी क्षेत्र को पंजाब राज्य एवं हिंदी भाषी क्षेत्र को हरियाणा राज्य के रूप में स्थापित किया गया एवं इससे लगे पहाड़ी क्षेत्र को केंद्र शासित राज्य हिमाचल प्रदेश का रूप दिया गया। 1971 में संघ शासित क्षेत्र हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया (भारतीय संघ का 18वां राज्य)। 
मणिपुर, त्रिपुरा एवं मेघालय: 1972 में पूर्वोत्तर भारत के राजनीतिक मानचित्र में व्यापक परिवर्तन आए। इस तरह दो केंद्र शासित प्रदेश मणिपुर व त्रिपुरा एवं उपराज्य मेघालय को राज्य का दर्जा मिला। इसके अलावा दो संघ शासित प्रदेशों मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश (मूलत: जिसे पूर्वोत्तर सीमांत ऐजेंसी NEFA के नाम से जाना जाता है) भी अस्तित्व में आए। इसके साथ ही भारतीय संघ में राज्यों की संख्या 21 हो गई (मणिपुर 19वां, त्रिपुरा 20वां और मेघालय 21वां ) 1 22वें संविधान संशोधन अधिनियम (1969) के द्वारा मेघालय को 'स्वायत्तशासी राज्य' बनाया गया। यह असम में उपराज्य के रूप में भी जाना जाता था, जिसका अपना मंत्रिपरिषद था। यद्यपि यह मेघालय के लोगों की महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं कर पाया। मिजोरम एवं अरुणाचल प्रदेश संघ शासित प्रदेशों को असम क्षेत्र से पृथक् किया गया।
सिक्किम : 1947 तक सिक्किम भारत का एक शाही राज्य था, जहां चोग्याल का शासन था। 1947 में ब्रिटिश शासन के समाप्त होने पर सिक्किम को भारत द्वारा रक्षित किया गया। भारत सरकार ने इसके रक्षा, विदेश मामले एवं संचार का उत्तरदायित्व लिया। 1974 में सिक्किम ने भारत के प्रति अपनी इच्छा दर्शायी। तद्नुसार, संसद द्वारा 35वां संविधान संशोधन अधिनियम (1974) लागू किया गया। इसके द्वारा सिक्किम को एक 'संबद्ध राज्य' का दर्जा दिया गया। इस उद्देश्य के लिए एक नये अनुच्छेद 2क एवं नयी अनुसूची (दसवीं अनुसूची, जिसमें संबद्धता की शर्तें एवं नियम उल्लिखित किए गए) को संविधान में जोड़ा गया। हालांकि यह प्रयोग अधिक नहीं चला। इससे सिक्किम के लोगों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हुई। 1975 में एक जनमत के दौरान उन्होंने चोग्याल के शासन को समाप्त करने के लिए मत दिया। इस तरह सिक्किम भारत का एक अभिन्न हिस्सा बन गया। इसी तरह 36वें संविधान संशोधन अधिनियम (1975) के प्रभावी होने के बाद सिक्किम को भारतीय संघ का पूर्ण राज्य बना दिया गया (22वां राज्य) । इस संशोधन के माध्यम से संविधान की पहली व चौथी अनुसूची को संशोधित कर नया अनुच्छेद 371 च को जोड़ा गया। इसमें सिक्किम के प्रशासन के लिए कुछ विशेष प्रावधानों की व्यवस्था की गई। इसने अनुच्छेद 2क और दसवीं अनुसूची को भी निरसित कर दिया, जिन्हें 1974 के 35वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था।
मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और गोवा : 1987 में भारतीय संघ में तीन नये राज्य मिजोरम", अरुणाचल प्रदेश " और गोवा " 23वें, 24वें एवं 25वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आये। संघशासित प्रदेश मिजोरम को पूर्ण राज्य बनाया गया। यह निर्माण 1986 में एक समझौते के आधार पर हुआ, जिस पर भारत सरकार एवं मिजो नेशनल फ्रंट ने हस्ताक्षर किये, जिसने दो दशक से चले आ रहे राजद्रोह को समाप्त किया। अरुणाचल प्रदेश भी 1972 में संघशासित प्रदेश बना। संघशासित प्रदेश गोवा, दमन और दीव से गोवा को पृथक कर अलग राज्य बनाया गया।
छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड और झारखंड : सन 2000 में छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड और झारखंड को क्रमश: मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से पृथक् कर नये राज्यों के रूप में मान्यता दी गयी। ये तीनों राज्य, भारतीय संघ के 26वें, 27वें व 28वें राज्य बने।
तेलंगाना : वर्ष 2014 में तेलंगाना राज्य आन्ध्र प्रदेश राज्य के भूभाग को काटकर भारत के 29वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
आन्ध्र प्रदेश राज्य अधिनियम 1953 ने भारत में भाषा के आधार पर पहले राज्य का निर्माण किया आन्ध्र प्रदेश, जिसमें मद्रास राज्य (तमिलनाडु) के तेलुगू भाषी क्षेत्र शामिल किए गए। कुर्नूल आन्ध्र प्रदेश राज्य की राजधानी थी जबकि गुंटुर में राज्य का उच्च न्यायालय स्थापित था।
राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा हैदराबाद राज्य के तेलुगू भाषी क्षेत्रों को आन्ध्र राज्य में मिलाकर वह बृहतर आन्ध्र प्रदेश राज्य की स्थापना की गई। राज्य की राजधानी हैदराबाद स्थांतरित की गई।
पुनः आन्ध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2014 ने आन्ध्र प्रदेश को अलग राज्यों में बांट दिया - आन्ध्र प्रदेश (शेष) तथा तेलंगाना। जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख: जम्मू एवं कश्मीर संघीय क्षेत्र में पूर्व के जम्मू एवं कश्मीर राज्य के सभी जिले शामिल हैं, कारगिल और लेह जिलों को छोड़कर जो लद्दाख संघीय क्षेत्र में शामिल कर लिए गए हैं।
इस प्रकार राज्यों की और संघीय क्षेत्रों की संख्या जो 1956 में क्रमश: 14 और 6 थी, अब बढ़कर 25 और 9 हो गयी है।
नामों में परिवर्तन : कुछ राज्यों एवं संघशासित क्षेत्रों के नामों में भी परिवर्तन किया गया। संयुक्त प्रांत पहला राज्य था जिसका नाम परिवर्तित किया गया। इसका नया नाम 1950 में उत्तर प्रदेश किया गया। 1969 में मद्रास का नया नाम तमिलनाडु" रखा गया। इसी तरह 1973 में मैसूर का नया नाम कर्नाटक ” रखा गया। इसी वर्ष लकादीव मिनिकॉय एवं अमीनदीवी का नया नाम लक्षद्वीप रखा गया। 1992 में संघशासित प्रदेश दिल्ली का नया नाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली रखा गया (इसे बिना पूर्ण राज्य का दर्जा दिए)। यह बदलाव 69वें संविधान संशोधन अधिनियम 1991 के द्वारा हुआ। वर्ष 2006 में उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। इसी वर्ष पांडिचेरी का नाम बदलकर पुडुचेरी किया गया। वर्ष 2011 में उड़ीसा का पुनः नामकरण' 'ओडिशा' के रूप में हुआ।
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