भारतीय इतिहास में क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए तथा उनकी प्रमुख विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए.

भारतीय इतिहास में क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए तथा उनकी प्रमुख विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए.
प्रश्न – भारतीय इतिहास में क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया की विवेचना कीजिए तथा उनकी प्रमुख विशिष्टताओं का उल्लेख कीजिए.
उत्तर - भारतीय उपमहाद्वीप कई क्षेत्रों से मिलकर बना है और प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशेषताएँ हैं. देश के ऐतिहासिक उद्भव की प्रक्रिया में क्षेत्रों ने विशेष सांस्कृतिक विशिष्टताएं ग्रहण की तथा कई आधारों पर, जैसे- समान ऐतिहासिक म्परा, भाषा, सामाजिक संगठन, कलाएं आदि. हम एक क्षेत्र से दूसरे की भिन्नताओं को इंगित कर सकते हैं. इस प्रकार भारतीय इतिहास में समान सामाजिक तथा सांस्कृतिक रीतियों एवं संस्थाओं तथा साथ ही क्षेत्रीय विशिष्टताओं की संरचना के स्थायित्व की दोहरी प्रक्रिया देखने को मिलती है.
यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इतिहास में क्षेत्रों के उदय की प्रक्रिया का स्वरूप असमान रहा है, अतः वर्तमान की भाँति भूत में भी विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया में काफी असमानताएं रही हैं. यद्यपि कोई भी क्षेत्र कभी भी पूरी तरह से कटा हुआ नहीं रहा है. स्थान एवं काल के आधार पर भारतीय समाज के उद्भव के विभिन्न चरणों में भिन्नता को समझने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप का गठन करने वाले क्षेत्रों के स्वरूप की जानकारी अत्यावश्यक है.
क्षेत्रों के उद्भव की प्रक्रिया तथा उनकी प्रमुख विशिष्टताएं
क्षेत्रीय परिवर्तन के कारण–क्षेत्रों तथा क्षेत्रीय संस्कृतियों के बीच विभिन्नताओं के चिह्न सम्भवतः खाद्य उत्पादन के रूप में जीवनयापन के नए साधन की शुरूआत के साथ ढूँढ़े जा सकते हैं. उपमहाद्वीप की मुख्य नदियों के क्षेत्रों में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की शुरूआत मात्र एक घटनाएँ नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया थी, जो कई सहस्राब्दियों में फैली हुई थी. कच्ची मैदान (जोकि अब पाकिस्तान में है) के अन्तर्गत मेहरगढ़ में कृषिगत गतिविधियाँ जल्दी अपेक्षाकृत लगभग 6000 ईसा पूर्व से पहले ही आरम्भ हो गयी थीं तथा सिन्धु घाटी में तीसरी-चौथी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में, गंगा की घाटी में कोलडीहवा ( उत्तर प्रदेश) में 5000 ईसा पूर्व में, चिराँद (बिहार) में तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध तथा अतरंजीखेड़ा (दोआब) में दूसरी सहस्राब्दि ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में कृषि की शुरूआत हुई, तथापि गंगा घाटी में पूर्ण रूप से नियोजित कृषि, खेतिहर गाँव तथा अन्य सम्बद्ध लक्षण, जैसे-नगर का उदय, व्यापार तथा राज्य प्रणाली आदि प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में ही दिखायी देते हैं. मध्य एवं प्रायद्वीपीय भारत में ऐसे कई स्थान थे, जहाँ बदलाव की प्रक्रिया प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व की अंतिम शताब्दी में ही आरम्भ हो सकी. इसी प्रकार गंगा, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी के क्षेत्रों में कृषक समुदाय तेजी से फैलता रहा और सभ्यता के चरणों की विभिन्न प्रक्रियाओं को तेजी से तय करता रहा, जबकि असम, बंगाल, गुजरात, उड़ीसा तथा मध्य भारत के काफी क्षेत्र जोकि बाकी क्षेत्रों से अपेक्षाकृत अथवा पूर्णतया कटे हुए थे. काफी लम्बे समय तक इन विकासों से अछूते रहे तथा आदिम अर्थव्यवस्था के चरण से आगे नहीं बढ़ पाए थे. अन्ततः जब कुछ अपेक्षाकृत कटे हुए क्षेत्रों में बदलाव की प्रक्रिया का ऐतिहासिक दौर शुरू हुआ, तो अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा इन विकासों के बीच न केवल समय का लम्बा अन्तराल था, बल्कि क्षेत्रों के गठन के स्वरूप में भी स्पष्ट अन्तर था. पूर्व विकसित क्षेत्रों के मुख्य केन्द्रों का सांस्कृतिक प्रभाव इन कटे हुए क्षेत्रों के विकास की प्रक्रिया पर प्रारम्भ से ही पड़ा. अतः आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक तेजी से विकसित हुए तथा अभी भी कुछ क्षेत्र हैं, जो अन्य की अपेक्षा पिछड़े हुए हैं.
ऐतिहासिक क्षेत्रों के उदय की असमान प्रक्रियाएं
अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक विकास की असमान प्रक्रिया तथा ऐतिहासिक शक्तियों का असमान विन्यास भूगोल से अत्यधिक प्रभावित रहा. क्षेत्रों के असामान्य विकास को ऐतिहासिक स्थितियों द्वारा दर्शाया जा सकता है, उदाहरण के लिए, तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध में गुजरात में में मध्य पाषाणयुगीन संस्कृति मौजूद थी. ध्यान देने योग्य तथ्य जैसी विकसित सभ्यता विद्यमान थी. फलतः विकास के यह है कि अन्य क्षेत्रों के इन संस्कृतियों के युग में ही हड़प्पा विभिन्न चरणों में क्षेत्रों एवं संस्कृतियों के एक-दूसरे से प्रभावित होने के प्रमाण मिलते हैं. यह प्रक्रिया भारतीय इतिहास के हर दौर में दिखायी देती है. दूसरे शब्दों में, जहाँ तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में बसने लगे थे वहीं दूसरी ओर एक ओर सिन्धु एवं सरस्वती के क्षेत्रों में घुमक्कड़ लोग दक्कन, आंध्र, तमिलनाडु, उड़ीसा एवं गुजरात में बड़े पैमाने जोकि प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व का उत्तरार्द्ध अनुमानित पर खेतिहर समुदाय बुनियादी रूप में लौह युग में गठित हुए, किया जा सकता है.
लोहे के प्रादुर्भाव के साथ ही स्थायी कृषिगत गतिविधि पर आधारित भौतिक संस्कृति का प्रसार आरम्भ हुआ. तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में आरम्भ से गांगेय उत्तरी भारत तथा मध्य भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों की भौतिक संस्कृति में काफी कुछ समानता दिखायी देती है. यद्यपि अशोक के शिलालेखों के भौगोलिक वितरण जोकि उत्तर से दक्षिण तक मिलते हैं, के कारण पूरे उपमहाद्वीप में कुछ हद तक सांस्कृतिक समानता स्वीकार की जाती है. विंध्याचल के दक्षिण के क्षेत्रों में जटिल सामाजिक संरचना वाले आरम्भिक ऐतिहासिक युग के उदय की प्रक्रिया मौर्य युग में तथा उसके उपरान्त तेज हुई.
वास्तव में उत्तर मौर्य युग दक्षिण भारत तथा दक्कन के अधिकतर क्षेत्रों की संस्कृति के विकास का आरम्भिक चरण था. इन क्षेत्रों की ऐतिहासिक बस्तियों की खुदाई से प्राप्त पुरातात्विक आँकड़ों से इस तर्क को बल मिलता है. यहाँ यह बताना आवश्यक है कि बीच के काफी क्षेत्र अथवा मध्य भारत की जंगली पहाड़ियाँ कभी भी पूरी तरह नहीं बसीं और आदिमयुगीन अर्थव्यवस्था के विभिन्न चरणों में आदिवासियों को शेष मानव समाज से अलग रहने का अवसर देती रहीं. इस उपमहाद्वीप में सभ्यता तथा पारम्परिक सामाजिक संगठन के रूप में अधिक जटिल संस्कृति विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न कालों में पहुँची तथा अपेक्षाकृत अधिक विकसित भौतिक संस्कृति का क्षेत्रीय प्रसार काफी असमान रहा.
अपने अनश्वर गुण के कारण मृद्भाण्ड किसी संस्कृति की पहचान का विश्वसनीय चिह्न होते हैं तथा पुरातात्विक श्रेणीबद्धता का महत्वपूर्ण साधन होते हैं. विभिन्न संस्कृतियाँ अपने विशिष्ट मृद्भाण्ड के आधार पर पहचानी जाती हैं. गेरू चित्रित मृद्भाण्ड जोकि 1000 ईसा पूर्व से पहले के हैं, चित्रित भूरे मृद्भाण्ड जो 800-400 ईसा पूर्व के बीच के हैं, काले एवं लाल मृद्भाण्ड जोकि 500-100 ईसा पूर्व के हैं. मृद्भाण्ड की प्रथम तीन श्रेणियाँ मुख्यतः भारत-गांगेय विभाजन तथा दोआब सहित ऊपरी गंगा घाटी में मिलते हैं. काली पॉलिश वाले मृद्भाण्ड उत्तरी मैदान से आरम्भ होकर मौर्यकाल के दौरान मध्य भारत तथा दक्कन तक फैल गए.
विभिन्न प्रकार के मृद्भाण्डों के वितरण से हमें संस्कृतियों की सीमाओं तथा उनके विस्तार के चरण के विषय में जानकारी प्राप्त होती है - भारत-गांगेय विभाजन तथा ऊपरी गंगा क्षेत्र में एक नई संस्कृति का उदय सर्वप्रथम दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध में हुआ, जोकि धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैली, जो मौर्यकाल में सम्भवतः मुख्य गांगेय क्षेत्र से भी आगे बढ़ गई.
प्राचीन भारतीय साहित्य से हमें सांस्कृतिक स्वरूप के भौगोलिक प्रसार के प्रमाण भी मिलते हैं. ऋग्वैदिक काल का भौगोलिक केन्द्र बिन्दु सप्तसिन्धु (सिन्धु तथा इसकी सहायक नदियों की भूमि) तथा भारत-गांगेय विभाजन था. उत्तरवैदिक काल में दोआब ने यह स्थान ले लिया तथा बुद्ध के युग में मध्य गांगेय घाटी (कौशल एवं मगध) को यह गौरव प्राप्त रहा. यहाँ यह कह देना उपयुक्त होगा कि भौतिक संस्कृति के विकास के साथ ही भौगोलिक विस्तार के चरणों का विकास होता रहा. राज्य सीमा के अर्थों में राष्ट्र शब्द का प्रयोग उत्तर - वैदिक काल में आरम्भ हुआ और इसी काल में कुरू और पांचाल जैसे क्षेत्रों में छोटे-छोटे राजवंशों एवं राज्यों का उदय हुआ. बुद्ध के युग में (छठवीं शती ईसा पूर्व ) सोलह महाजनपदों (बड़े क्षेत्रीय राज्य) का उदय हुआ. यहाँ रुचिकर तथ्य यह है कि उत्तर-पश्चिम में गांधार, मालवा में अवन्ति तथा दक्कन में अस्सक को छोड़कर अधिकतर महाजनपद ऊपरी एवं मध्य गांगेय घाटी में स्थित थे. कलिंग ( प्राचीन तटवर्ती उड़ीसा) आन्ध्र, बंग (प्राचीन बंगाल), राजस्थान एवं गुजरात जैसे क्षेत्रों को इस युग पर प्रकाश डालने वाले साहित्य में स्थान नहीं मिला, जिसका अर्थ यह है कि इन राज्यों का तब तक ऐतिहासिक रंग मंच पर प्रादुर्भाव नहीं हुआ था.
विन्ध्याचल के दक्षिणी राज्यों, जैसे- कलिंग का उल्लेख सर्वप्रथम पाणिनि ने पाँचवीं शती ईसा पूर्व में किया, सुदूर दक्षिण में तमिल भू-भाग का ऐतिहासिक काल में प्रवेश तक नहीं हुआ था. अतः विभिन्न क्षेत्रों का उदय और गठन एक दीर्घकालीन प्रक्रिया थी, अतः आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विभिन्न क्षेत्रों की तकनीकी एवं सामाजिक-आर्थिक विकास का यह अन्तर बाद में पनपने वाली सांस्कृतिक विभिन्नता के मूल में रहा.
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