चन्द्रगुप्त प्रथम का जीवन परिचय | Chandragupta 1 Biography in Hindi
चन्द्रगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य के तीसरे राजा थे। इनको महाराजाधिराज के नाम से भी जाना जाता है। इन्होने गुप्त साम्राज्य की शुरुआत 319 से 320 ई. के आसपास की थी। चन्द्रगुप्त प्रथम ने उत्तर भारत पर 320 ई. से 350 ई. तक शासन किया ।चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक भी माना जाता है।

चन्द्रगुप्त प्रथम (Chandragupt Pratham Hindi) गुप्त वंश के द्वितीय शासक घटोत्कच का पुत्र था. यह गुप्त वंश का तृतीय किंतु प्रथम स्वतंत्र एवं शक्तिशाली शासक था. विद्वानों के अनुसार, चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्यारोहण की तिथि 319-320 ई. निश्चित की गयी है. कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि उन्होंने उसी तिथि से आरंभ होनेवाले गुप्त संवत की स्थापना भी की थी।
गुप्तों का आधिपत्य आरंभ में दक्षिण बिहार तथा उत्तर-पश्चिम बंगाल पर था। चंद्रगुप्त प्रथम ने साम्राज्य का विस्तार किया। वायुपुराण में प्रयाग तक के गंगा के तटवर्ती प्रदेश, साकेत तथा मगध को गुप्तों की ‘भोगभूमि’ कहा है। इस उल्लेख के आधार पर विद्वान चंद्रगुप्त प्रथम की राज्यसीमा का निर्धारण करते हैं, यद्यपि इस बात का कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
नाम | चंद्रगुप्त प्रथम (Chandragupta I) |
जन्म | पाटलिपुत्र (वर्तमान बिहार) |
माता | अज्ञात |
पिता | घटोत्कच |
पत्नी | कुमार देवी |
पुत्र | समुद्रगुप्त (कचा) |
पौते | चंद्रगुप्त द्वितीय, राम गुप्त |
धर्म | हिंदू |
साम्राज्य | गुप्त |
पूर्ववर्ती राजा | घटोत्कच |
उत्तराधिकारी राजा | समुद्रगुप्त |
उपाधि | महाराजाधिराज |
मृत्यु | 335 ईस्वी, पाटलिपुत्र |
चन्द्रगुप्त प्रथम का जीवन परिचय :
चन्द्रगुप्त प्रथम इतिहासकारों के अनुसार गुप्त वंश के प्रथम स्वतंत्र शासक थे । गुप्त वंश को एक साम्राज्य के रूप में स्थापित करने का श्रेय चन्द्रगुप्त प्रथम को ही जाता है ।
अभिलेखों में चन्द्रगुप्त प्रथम के लिए महाराजाधिराज पदवी का प्रयोग हुआ है। पूर्ववर्ती दोनों शासकों श्कीरीगुप्त और घटोत्कच की अपेक्षा चन्द्रगुप्त प्रथम की पदवी बड़ी है और उनके बड़े राज्य का शासक होने का प्रतीक लगती है। चन्द्रगुप्त प्रथम के समय के सोने के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर अधिकांश विद्वान चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं।
चन्द्रगुप्त प्रथम ने उत्तर भारत के अधिकांश भागों पर शासन किया। उसके कारण गुप्त साम्राज्य का नाम पूरे भारत में प्रसिद्ध होने लगा।साथ ही साथ गुप्त साम्राज्य का दूसरे राज्यों के साथ पारिवारिक संबंध बनाकर चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य को मजबूत बनाया।
चन्द्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का तीसरा और प्रतापी राजा था जिसने ‘गुप्त सवंत’ (319-320 ईस्वी) की शुरुआत की थी। उसके पिता का नाम घटोत्कच था। सम्राट बनने के बाद उसने लिच्छवी राज्य के साथ पारिवारिक संबंध बनाया और खुद को ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि दी जो प्रायः एक उच्च शासक के लिए प्रयोग की जाती थी।
अभिलेखों में चन्द्रगुप्त प्रथम के लिए महाराजाधिराज पदवी का प्रयोग हुआ है। पूर्ववर्ती दोनों शासकों की अपेक्षा उसकी पदवी बड़ी है और उसके बड़े राज्य का शासक होने का प्रतीक लगती है। उसके सोने के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर अधिकांश विद्वान उसे गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं।
चंद्रगुप्त प्रथम का विवाह (Marriage of Chandragupta I)
चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी कुल की राजकुमारी कुमार देवी से विवाह किया। लिच्छवी वंश का शासन वैशाली (वर्तमान बिहार) में हुआ करता था जिन्होंने लगभग 36 पीढ़ियों तक वहां शासन किया। गुप्त वंश के लोगों ने इस विवाह को एक महत्वपूर्ण कड़ी समझी क्योंकि गुप्त वंश का हाल ही में उदय हुआ था जिसने एक मजबूत वंश के साथ संबंध बनाया था।
विवाह के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम कचा रखा गया था। कचा ने अपने राज्य की सीमाओं को समुद्र तट फैलाने के बाद अपना नाम बदलकर ;समुद्रगुप्त’ रख लिया। जिससे पता चलता है कि कचा ही समुद्रगुप्त था परंतु इस तथ्य के कोई ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं।
कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, चंद्रगुप्त ने लिच्छवी वंश पर आक्रमण कर के हरा दिया था। वापस शांति बनाने के लिए उन्होंने एक संधि की जिसके अनुसार लिच्छवी वंश के राजा ने राजकुमारी कुमार देवी का विवाह चंद्रगुप्त के साथ कर दिया। परंतु ऐसा तथ्य भी इतिहास के पन्नों पर उद्धृत नहीं है जो इसकी सत्यता को प्रमाणित करता हो।
इस विवाह ने चंद्रगुप्त को राजनीतिक व सैन्य ताकत दी, जिसके बाद उसने खुद को महाराजाधिराज की उपाधि दी। कहा जाता है कि उसके सिक्कों पर लिच्छवी नाम लिखा हुआ था जो दर्शाता है कि लिच्छवी वंश से उसे सहायता मिली थी। विवाह के बाद उसने (Chandragupta I) लिच्छवी राज्य को अपने राज्य में मिला लिया था।
चन्द्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य विस्तार
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.) भारतीय इतिहास के सर्वाधिक प्रसिद्ध राजाओं में से एक था। वह गुप्त शासक घटोत्कच का पुत्र था। चन्द्रगुप्त ने एक ‘गुप्त संवत’ (319-320 ई.) चलाया, कदाचित इसी तिथि को चंद्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक हुआ था। चंद्रगुप्त ने, जिसका शासन पहले मगध के कुछ भागों तक सीमित था, अपने राज्य का विस्तार इलाहाबाद तक किया। ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण करके इसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया था।
नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य को स्थापित किया । इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है। गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ। उसका लड़का घटोत्कच हुआ, जिसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम 320 ई. में पाटलिपुत्र का शासक हुआ। घटोत्कच के उत्तराधिकारी के रूप में सिंहासनारूढ़ चन्द्रगुप्त प्रथम एक प्रतापी राजा था। उसने ‘महाराजधिराज’ उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई। इसकी पुष्टि दो प्रमाणों से होती है। Chandragupt Pratham Hindi
- स्वर्ण सिक्के जिसमें ‘चन्द्रगुप्त कुमार देवी प्रकार’, ‘लिच्छवि प्रकार’, ‘राजारानी प्रकार’, ‘विवाह प्रकार’ आदि हैं।
- दूसरा प्रमाण समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख हैं जिसमें उसे ‘लिच्छविदौहित्र’ कहा गया है।
कुमार देवी के साथ विवाह कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार के सिक्के के पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी दुर्गा की आकृति बनी है। वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण बिहार से लेकर अयोध्या तक था. इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी।
चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत चलाया ,जिसे गुप्त संवत कहा जाता है। यह संवत गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा बाद में उस का चलन नहीं रहा। चन्द्रगुप्त प्रथम ने एक संवत ‘गुप्त संवत’ (319-320 ई.) के नाम से चलाया। गुप्त संवत[2] तथा शक संवत (78 ई.) के बीच 240 वर्षों का अन्तर है। Chandragupt Pratham Hindi
घटोत्कच के बाद महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम हुए। गुप्त वंश के पहले दो राजा केवल महाराज कहे गए हैं। पर चंद्रगुप्त को ‘महाराजाधिराज’ कहा गया है। इससे प्रतीत होता है, कि उसके समय में गुप्त वंश की शक्ति बहुत बढ़ गई थी।
प्राचीन समय में महाराज विशेषण तो अधीनस्थ सामन्त राजाओं के लिए भी प्रयुक्त होता था। पर ‘महाराजाधिराज’ केवल ऐसे ही राजाओं के लिए प्रयोग किया जाता था, जो पूर्णतया स्वाधीन व शक्तिशाली हों। प्रतीत होता है, कि अपने पूर्वजों के पूर्वी भारत में स्थित छोटे से राज्य को चंद्रगुप्त ने बहुत बढ़ा लिया था, और महाराजाधिराज की पदवी ग्रहण कर ली थी। पाटलिपुत्र निश्चय ही चंद्रगुप्त के अधिकार में आ गया था, और मगध तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था। इन्हीं विजयों और राज्य विस्तार की स्मृति में चंद्रगुप्त ने एक नया सम्वत चलाया था, जो गुप्त सम्वत के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है।
मगध के उत्तर में लिच्छवियों का जो शक्तिशाली साम्राज्य था, चंद्रगुप्त ने उसके साथ मैत्री और सहयोग का सम्बन्ध स्थापित किया। कुषाण काल के पश्चात् इस प्रदेश में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी। कुछ समय तक पाटलिपुत्र भी उनके अधिकार में रहा था। लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किए बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार कर सकना सम्भव नहीं था। इस सहयोग और मैत्रीभाव को स्थिर करने के लिए चंद्रगुप्त ने लिच्छविकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया, और अन्य रानियों के अनेक पुत्र होते हुए भी ‘लिच्छवि-दौहित्र’ (कुमारदेवी के पुत्र) समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियत किया। Chandragupt Pratham Hindi
ऐसा प्रतीत होता है, कि इस काल में लिच्छवि गण के राजा वंशक्रमानुगत होने लगे थे। गणराज्यों के इतिहास में यह कोई अनहोनी बात नहीं है। कुमारदेवी लिच्छवि राजा की पुत्री और उत्तराधिकारी थी। इसीलिए चंद्रगुप्त के साथ विवाह हो जाने के बाद गुप्त राज्य और लिच्छवि गण मिलकर एक हो गए थे।
चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका अपना और कुमारदेवी दोनों का नाम भी एक साथ दिया गया है। सिक्के के दूसरी ओर ‘लिच्छवयः’ शब्द भी उत्कीर्ण है। इससे यह भली-भाँति सूचित होता है कि, लिच्छवि गण और गुप्त वंश का पारस्परिक विवाह सम्बन्ध बड़े महत्त्व का था। इसके कारण इन दोनों के राज्य मिलकर एक हो गए थे, और चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का सम्मिलित शासन इन प्रदेशों पर माना जाता था।
श्रीगुप्त के वंशजों का शासन किन प्रदेशों पर स्थापित हो गया था, इस सम्बन्ध में पुराणों में लिखा है, कि ‘गंगा के साथ-साथ प्रयाग तक व मगध तथा अयोध्या में इन्होंने राज्य किया।
समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बनाने के बाद चन्द्रगुप्त प्रथम ने सन्न्यास ग्रहण किया। 330 ई. चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु हो गई।
चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य को बहुत बढ़ा लिया था। अतः पुराणों का यह निर्देश उसके पूर्वजों के विषय में ही है। सम्भवतः महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम बंगाल से प्रारम्भ कर पश्चिम में अयोध्या और प्रयाग तक के विशाल प्रदेश का स्वामी था, और लिच्छवियों के सहयोग से ही इस पर अबाधित रूप से शासन करता था। इस प्रतापी गुप्त सम्राट का सम्भावित शासन काल 315 या 319 से 328 से 335 ई. तक था। Chandragupt Pratham Hindi
चंद्रगुप्त प्रथम की विजय-
चंद्रगुप्त प्रथम की विजयों के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती। वायुपुराण में किसी गुप्त राजा की साम्राज्य सीमा का वर्णन करते हुए बताया गया है, कि गुप्तवंश के लोग गंगा के किनारे प्रयाग तक तथा साकेत और मगध के प्रदेशों पर शासन करेंगे। जिस साम्राज्य सीमा का उल्लेख यहाँ हुआ है, उसका विस्तार पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में प्रयाग तक था। स्पष्ट है कि यह साम्राज्य सीमा चंद्रगुप्त प्रथम के समय की ही है, क्योंकि उसके पूर्ववर्ती दोनों शासक अत्यंत साधारण स्थिति के थे तथा उसके बाद के शासक समुद्रगुप्त का साम्राज्य इससे कहीं अधिक विस्तृत था।
प्रयाग प्रशस्ति आर्यावर्त तथा दक्षिणापथ में समुद्रगुप्त की विजयों का तो उल्लेख करती हैं, किन्तु पश्चिम की ओर प्रयाग के पूर्व में गंगा नदी तक के भू-भाग की विजयों की चर्चा इसमें नहीं मिलती। इससे स्पष्ट होता है, कि यह भाग चंद्रगुप्त के अधिकार में था। कौशांबी तथा कोशल के मघ राजाओं को चंद्रगुप्त ने जीतकर उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया था।
गुप्त संवत् का प्रवर्त्तन
चंद्रगुप्त प्रथम को इतिहास में एक नये संवत् के प्रवर्त्तन का श्रेय भी दिया जाता है। जिसे बाद के लेखों में गुप्त संवत् (गुप्त – प्रकाल) कहा गया है। फ्लीट की गणना के अनुसार इस संवत् का प्रचलन 319-20 में किया गया था। इसके विपरीत शाम शास्त्री जैसे विद्वानों ने इस तिथि को 200 अथवा 272 ईस्वी माना है।
चंद्रगुप्त प्रथम ने लगभग 319 ईस्वी से 350 ईस्वी तक शासन किया । उसने अपने जीवन-काल में ही अपने सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी निर्वाचित कर दिया। निःसंदेह वह अपने वंश का प्रथम महान् शासक था। हम चंद्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मान सकते हैं।
चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु (Death of Chandragupta I)
इतिहास की किताबों के अनुसार, चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु 335 ईस्वी को पाटलिपुत्र में ही हुई थी। परंतु, उसकी मृत्यु के बारे में कोई ठोस सबूत नहीं है।
अपनी मृत्यु के समय वह एक वृद्ध इंसान था तथा गुप्त साम्राज्य के पूर्ववर्ती राजाओं की तुलना में शासन को अधिक लंबे समय तक संभाला और सफलतापूर्वक चलाया भी।
उत्तराधिकारी – समुद्रगुप्त (Successor of Gupta dynasty)
इलाहाबाद शिलालेख पर उलेखित है कि चंद्रगुप्त प्रथम ने अपनी वृद्धावस्था में पुत्र समुद्रगुप्त को सम्राट बनाया। समुद्रगुप्त ने गुप्त वंश का पाशा ही पलट दिया। उसने पूरे भारत पर गुप्त वंश का झंडा लहराया।
कुछ जगहों से प्राप्त सोने के सिक्के से पता चला है कि चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद कचा नाम का इंसान गुप्त साम्राज्य का सम्राट बना था। संभवतया कचा, समुद्रगुप्त का बड़ा भाई था।
परंतु कुछ स्रोतों के अनुसार, कचा, समुद्रगुप्त का ही दूसरा नाम था। इस तरह चंद्रगुप्त (Chandragupta I) के बाद समुद्रगुप्त ने गुप्त वंश की राजगद्दी संभाली और उसने भारत के लगभग सभी राज्यों पर विजय प्राप्त करके देश को एकता के धागे में पिरोया। वी ए स्मिथ ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन भी कहा है।
चन्द्रगुप्त प्रथम से सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
- गुप्त वंश के संस्थापक तथा प्रथम शासक का नाम श्रीगुप्त था.
- चन्द्रगुप्त प्रथम, गुप्त वंश के द्वितीय शासक घटोत्कच का पुत्र था. इस प्रकार चन्द्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का तृतीय शासक था.
- चन्द्रगुप्त प्रथम का कार्यकाल (319 ई० – 324 ई०) तक रहा.
- गुप्त अभिलेखों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त प्रथम ही गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था, जिसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की.
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने ‘गुप्त संवत्’ की स्थापना ३१९-२० ई० में की थी.
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी राजकुमारी ‘कुमार देवी’ के साथ विवाह किया था. इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे: वैशाली का राज्य तथा नेपाल का राज्य
- ‘कुमार देवी’ से विवाह करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त कर लिया था.
- गुप्त वंश में चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही सर्वप्रथम रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया था.
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