सुबन्त पद
जैसा कि कहा जा चुका है, प्रत्येक सुबन्त पद लिंग, वचन, पुरुष और कारक से युक्त रहा करता है। संस्कृत में छह कारक माने गए हैं— कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण सम्बन्ध और सम्बोधन कारक नहीं हैं, क्योंकि इनका क्रिया के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं है।
कर्ता—क्रिया करनेवाला कर्ता कहलाता है। कर्ताकारक में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे—मोहन पढ़ता है— मोहनः पठति । यहाँ 'मोहनः' कर्ताकारक है।
कर्म – क्रिया का फल जिसपर पड़े, उसे 'कर्म' कहते हैं। कर्मकारक में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे- - सः चन्द्रं पश्यति — वह चन्द्रमा देखता है। यहाँ देखना क्रिया का असर ‘चन्द्रं’ पर पड़ रहा है, इसलिए यह कर्मकारक हुआ।
करण - क्रिया करने में जो अत्यंत सहायक हो, उसे करणकारक कहते हैं। करणकारक में तृतीया विभक्ति होती है, जैसे – यन्त्रेण कार्यम् करोति – यन्त्र से काम करता है। इस वाक्य में काम करने का साधन यन्त्र है, इसलिए ‘यन्त्रेण' में करणकारक हुआ।
सम्प्रदान – जिसको कुछ दिया जाए, उसे सम्प्रदानकारक कहते हैं। सम्प्रदानकारक मे चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे— ब्राह्मणाय गां ददाति — ब्राह्मण को गाय देता है। इस वाक्य में गाय देने की बात ब्राह्मण के लिए है, इसलिए ‘ब्राह्मणाय' सम्प्रदानकारक हुआ।
अपादान – जिससे कोई वस्तु अलग हो, उसे अपादानकारक कहते हैं। अपादानकारक में पञ्चमी विभक्ति होती है। जैसे— वृक्षात् पत्रं पतति — पेड़ से पत्ता गिरता है। इस वाक्य में पेड़ से पत्ता का अलग होना प्रतीत होता है, इसलिए ‘वृक्षात्' में अपादानकारक हुआ।
सम्बन्ध–जिससे किसी तरह का सम्बन्ध सूचित हो, उसे सम्बन्धकारक कहते हैं। सम्बन्धकारक में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे— रामस्य अश्वः अस्ति- - राम का घोड़ा है। इस वाक्य में अश्व (घोड़ा) का सम्बन्ध राम से है, इसलिए ‘रामस्य’ में षष्ट् विभक्ति हुई |
अधिकरण — आधार (अवलंब) को अधिकरणकारक कहते हैं। अधिकरणकारक सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे – वृक्षे काकः अस्ति – पेड़ पर कौआ है। इस वाक्य में कौए के रहने का आधार वृक्ष है, इसलिए 'वृक्षे' अधिकरणकारक हुआ।
सम्बोधन – जिससे किसी को पुकारने का भाव सूचित हो, उसे सम्बोधनकारक कहते हैं। सम्बोधनकारक में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे— हे दिनेश ! अयि सीते! अरे दुष्टाः !
यहाँ संक्षेप में कारकों का स्वरूप बतलाया गया है, विशेष जानकारी के लिए कारकप्रकरण' देखना चाहिए।
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