लिंकन स्प्रिंगफील्ड में

अपने ही देश में जिस तरह अब्राहम लिंकन एक जगह से दूसरी जगह मारा-मारा-सा फिर रहा था, उसे देखकर लगता था जैसे वह अमेरिका वासी न होकर बाहर से आया कोई अजनबी व्यक्ति है जिसे अमेरिका में पैर टिकाना मुश्किल हो रहा है।

लिंकन स्प्रिंगफील्ड में

लिंकन स्प्रिंगफील्ड में


When I left Springfield, I asked the people to pray for me, I was not christian. When I burried my son, the severest trial of my life in 1862, I was not a christian. But when I went to Gettysburg and saw the graves of thousands of my soldiers, I then and there consecrated myself to christ.
-Abraham Lincoln
अपने ही देश में जिस तरह अब्राहम लिंकन एक जगह से दूसरी जगह मारा-मारा-सा फिर रहा था, उसे देखकर लगता था जैसे वह अमेरिका वासी न होकर बाहर से आया कोई अजनबी व्यक्ति है जिसे अमेरिका में पैर टिकाना मुश्किल हो रहा है। केंटुकी में जन्मे एबी के पिता को कितनी ही बार घर बदलने पड़े, मुहल्ले, गांव और प्रांत बदलने पड़े। 21 वर्ष की आयु में पिता और सौतेली मां का साथ छूट गया। क्योंकि एबी अपने पिता थॉमस लिंकन का सगा बेटा नहीं था, उसकी पहली पत्नी नेंसी का किसी अन्य पुरुष से पैदा बेटा था, अत: थॉमस लिंकन ने उसकी स्कूली शिक्षा के लिए विधिवत् प्रयास नहीं किया और साथ छूट जाने के बाद कभी एबी को याद नहीं किया। अपने सीने में गरीब घर में जन्म लेने की व्यथा लिए, अनजाने पिता से जन्मने और मातृहीन रहने की पीड़ा लिए एबी जवानी के प्रथम चरण में पहुंचने के बाद, छ: फुट चार इंच लम्बा कद और इकहरा छरहरा व मजबूत शरीर पाने के बाद भी कभी चैन से न रह सका। शिक्षा के अभाव को पूरा करने के लिए प्रयास किए तो धन के अभाव ने कमर तोड़ डाली। धन का अभाव ऐसा कि वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी, राज्य विधान सभा का प्रतिनिधि बनने के बाद भी इतनी हैसियत नहीं बन पाई कि एक कमरे का किराया दे सके। कैसी विडम्बना है बुद्धिजीवी तथा प्रतिभाशाली व्यक्तियों की, विचार की कमाई करते हैं तो धन उनसे दूर भाग जाता है। छोटी-छोटी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी वे दूसरों का मुंह ताकते हैं। दूसरे जो बुद्धिजीवी बनने के चक्कर में नहीं पड़ते तथा विचारों की दुनिया से दूर रहते हुए राष्ट्र व समाज की जिम्मेदारियों से नाता नहीं जोड़ते, वे धन तथा सुविधाएं जुटाने में सफल हो जाते हैं और बुद्धिजीवियों को मुंह चिढ़ाते दिखाई पड़ते हैं।
मेरा बेड शेयर करोगे..
1833 में भिग पार्टी के नेता तथा प्रसिद्ध वकील जॉन टी स्टुआर्ट के कहने पर अब्राहम लिंकन ने 24 वर्ष की आयु में वकालत की पढ़ाई शुरू की थी। स्टोर का कर्ज उतारने की जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए 13 से 20 डालर प्रति माह कमाते हुए रात-दिन मेहनत करके वे कानून की पढ़ाई करते रहे और 1834 में चुनकर विधान सभा में भी पहुंचे।
तीन वर्ष में उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी कर ली और 1836 में वकालत की डिग्री ले ली।
अगले ही वर्ष 1837 में उन्होंने भारी मन से न्यू सलेम छोड़ दिया। न्यू सलेम की एक लड़की एन रूटलैज की मृत्यु ने लिंकन का दिल तोड़ दिया था।
कोई इतनी कम आयु में ऐसे भी मर सकता है, सोचकर उनकी रूह थर्रा जाती थी।
न्यू सलेम में लोग लिंकन को इतना प्यार करने लगे थे कि उन्हें वहां से नहीं जाना चाहिए था, परंतु उनका दिल उखड़ गया, एन की मौत ने उनका सारा चैन खत्म कर दिया। वहां रहते तो एन की याद चैन से नहीं रहने देती। अतः उन्होंने न्यू सलेम छोड़ने का फैसला ले लिया।
कानून की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी..
वकील बन चुके थे, परंतु काम जमाने के लिए किसी के सहयोग की जरूरत थी। तब उन्हें उन्हीं की पार्टी के नेता तथा वरिष्ठ एडवोकेट जॉन स्टुआर्ट ने स्प्रिंगफील्ड आकर अपने साथ वकालत करने की सलाह दी।
मन की हालत बदलने के लिए तथा वकालत का काम शुरू करने के लिए नई जगह जाना लिंकन को ठीक लगा। तब तक वे स्टोर के कारण हुआ कर्ज काफी हद तक उतार चुके थे, जो थोड़ा-सा बचा था उसके लिए लोगों ने उन पर भरोसा किया कि वे स्प्रिंगफील्ड जाकर उतारते रहेंगे।
किराए के घोड़े की पीठ पर अपना साधारण-सा सामान लादे लिंकन स्प्रिंगफील्ड के एक वकील जोशुआ स्पीड के निवास के सामने आ खड़े हुए। मिस्टर स्पीड का अपना घर था और अपने बेडरूम में उन्होंने एक बहुत बड़ा खास तरह का बिस्तर बनवाया था। जिसे वे अकेले इस्तेमाल करते थे। बाकी घर किराए पर उठा हुआ था। उसी में वे एक स्टोर भी चलाते थे।
लिंकन ने मिस्टर स्पीड से पूछा – "मुझे अपने बेड के लिए फर्नीचर चाहिए। वह लगभग कितने का पड़ेगा?"
मिस्टर स्पीड ने कहा- कम-से-कम 17 डालर।"
"शायद यह बहुत सस्ता है।" लिंकन ने कहा- "लेकिन क्या करूं मेरे पास तो 17 डॉलर भी नहीं हैं। मैं यहां नया आया हूं। अभी वकालत का काम भी जमाना है। यदि जम गया तो क्रिसमस तक आपका पैसा चुका दूंगा और यदि नहीं जम पाया तो...।"
'तो क्या करोगे?" मिस्टर स्पीड ने पूछा।
"तो शायद न भी चुका सकूं।"
लिंकन की साफगोई ने मिस्टर स्पीड का दिल जीत लिया। वे समझ गए कि यह लम्बी काया वाला, पतली नाक वाला युवक धन के मामले में गरीब जरूर है पर इसके पास एक अच्छा मन और विचारों की दौलत है, इसकी मदद की जानी चाहिए।
उन्होंने पूछा- " और कमरे का क्या करोगे?"
"वह भी किराए पर लेना पड़ेगा?"
"पड़ेगा, या ले लिया है?"
"नहीं, आप देख रहे हैं, मैं तो अभी-अभी आया हूं, अभी तो घोड़े की पीठ से सामान भी नहीं उतारा है। इसका भी किराया चुकाना होगा।"
“मैं तुम्हें मुफ्त में एक सलाह दे सकता हूं और तुम चाहो तो सहयोग भी, बोलो तैयार हो?" मिस्टर स्पीड ने हंसते हुए कहा।
“बताइए...शायद मैं...? "
"मेरे पास एक बहुत बड़ा कमरा है, उसमें बहुत बड़ा बिस्तर भी है। मैं अकेला उस बिस्तर पर सोता हूं। यदि मैं तुम्हें कहूं कि कमरा किराए पर मत लो और बिस्तर के चक्कर में भी मत पड़ो, केवल मेरे बिस्तर को मेरे साथ शेयर कर लो, तो चलेगा? मैं दोस्ती के अलावा बदले में तुमसे कुछ और नहीं लूंगा।"
'मिस्टर स्पीड।” एकाएक अब्राहम लिंकन गद्गद हो गए–“तुमने तो सचमुच मेरा दिल जीत लिया है। मैंने कभी सोचा भी न था कि जीवन में इतना अच्छा मित्र यूं यकायक पा जाऊंगा। लो, मुझे संभालो, मैं तैयार हूं।"
मिस्टर स्पीड ने लिंकन को गले लगा लिया। दोनों ने मिलकर घोड़े की पीठ से लिंकन का सामान उतारा और उसे बेडरूम में पहुंचवाया। उसी दिन से लिंकन मिस्टर स्पीड के न केवल रूम पार्टनर हो गए बल्कि बेड पार्टनर भी बन गए। एक विचित्र दोस्ती थी जो तब तक बरकरार रही जब तक लिंकन स्प्रिंगफील्ड में रहे। स्प्रिंगफील्ड में 1837 में अपनी वकालत शुरू करने के बाद लिंकन ने राजनीति में अपनी पकड़ बढ़ा दी। उस समय इलीनॉइस विधान सभा के प्रतिनिधि थे।
चार वर्ष तक वकालत में वे जॉन टी स्टुआर्ट के सहयोगी रहे। जॉन स्टुआर्ट एक नामी वकील थे। उनके साथ वकालत करने और उन्हीं की पार्टी के माध्यम से राजनीति में आगे बढ़ते जाने का बहुत अच्छा अवसर था।
1841 से 1844 तक लिंकन ने स्टीफन टी लोगन के साथ वकालत में साझेदारी की। वे उस समय महान कानूनविद तथा बारहैड थे।
1844 में लिंकन ने अपना अलग कार्यालय खोला तथा अपने से आयु में 9 वर्ष छोटे विलियम एच हैंडरसन को अपना सहयोगी बनाया। उस समय हैंडरसन की आयु 26 वर्ष थी तथा लिंकन 35 के हो चुके थे।
1837 से 1842 तक का समय लिंकन के जीवन में संघर्ष और उन्नति का था।
इस अवधि में लिंकन ने अध्ययन, मनन, विश्लेषण और क्रियान्वयन की प्रक्रिया जारी रखी।
यह उनके जीवन का तीसरा चरण था। कई अर्थों में यह विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण था।
पहला चरण परिवार के साथ लिंकन का साधारण और उपेक्षित जीवन था। उस अवधि में लिंकन को केवल अपनी सौतेली मां का भरपूर प्यार मिला। सौतेली मां ने लिंकन को कभी मां की कमी नहीं महसूस होने दी। नौ वर्ष के लिंकन को पति के भरोसे छोड़ लिंकन की मां नेंसी हेंक्स मृत्यु को प्राप्त हो गई थी। उसके बाद सौतेली मां ने लिंकन को बहुत प्यार दिया। अपनी पूरी ममता वे लिंकन पर इस तरह लुटाया करती थीं कि उसे यह अहसास न हो कि वे सौतेली मां हैं, परंतु पिता का प्यार लिंकन को प्रायः नहीं मिल पाया। पिता लिंकन की शरारतों तथा पढ़ाई में लापरवाही से बहुत क्षुब्ध रहा करते थे। उन्हें लिंकन से सदा शिकायत रही।
परंतु मां तथा सौतेले बहन-भाई लिंकन को बहुत चाहते थे। लिंकन अपने परिवार के साथ 21 वर्ष की आयु तक रहे। उसके बाद परिवार से अलग हो गए।
दूसरा चरण लिंकन के जीवन का उनका न्यू सलेम में निवास है। 21 वर्ष की आयु में 1830 में लिंकन अपनी सौतेली बहन तथा सौतेले भाई के साथ न्यू सलेम में रहने चले आए थे। यह तो पता नहीं चल पाता कि बहन तथा भाई उनके साथ कब तक रहे, परंतु यह जरूर पता लगता है कि वे 1830 से 1837 तक पूरे सात वर्ष न्यू सलेम में रहे।
न्यू सलेम में लिंकन ने जिस तरह अपना समय बिताया उसमें संघर्षों, अभावों और उलझनों की अनेक कहानियां सिमटी हैं, परंतु यह भी सच है कि यह काल लिंकन के भावी जीवन के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए सबसे उपयुक्त साबित हुआ।
इस चरण का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि इसमें लिंकन को परिवार से अलग होकर अपनी पहचान स्वयं बनाने का मौका मिला। उनका पारिवारिक जीवन इतना उलझा हुआ और उपेक्षाओं व झंझावातों से भरा था कि वे परिवार का साथ छोड़कर न्यू सलेम न चले आते तो शायद इतिहास के कालजयी पुरुष बनने का अवसर उन्हें नहीं मिल पाता।
न्यू सलेम ने उन्हें नए सांचे में ढाला। उनके जीवन को नई परिभाषा दी, नई पहचान दी। उन्हें यहां चाहने वालों का, पसंद करने वालों का, मित्रों का नया समाज मिला जिसने उनके दिल में छिपी महत्त्वाकांक्षाओं को उकेरा।
पढ़ा-लिखा आदमी बनने जीवन में कुछ करके दिखाने कुछ बनकर दिखाने की उनकी महत्त्वाकांक्षाएं न्यू सलेम में ही उपजीं और परवान चढ़ीं। पढ़ाई-लिखाई की सारी कमी इन्होंने यहां रहकर पूरी कर ली।
न्यू सलेम ने उन्हें राजनीति में उतरने की प्रेरणा दी तथा राजनीति के सबसे पहले व सबसे अधिक प्रेरक व्यक्तित्व जॉन टी स्टुआर्ट ने उन्हें यह रहस्य समझाया कि वकालत में सफलता पाए बिना राजनीति में कैरियर बनाना संभव नहीं है।
वकालत और राजनीति एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों साथ-साथ साधे जाएं तो प्रतिष्ठा खूब मिलती है तथा जीवन का आनंद बढ़ जाता है।
1833 में लिंकन ने भिग पार्टी के राष्ट्रीय नेता जॉन स्टुआर्ट से प्रेरित होकर वकालत में दाखिला लिया और तीन वर्ष तक लगातार वकालत का गहन अध्ययन करते हुए वकालत की डिग्री प्राप्त कर ली।
अगले ही वर्ष 1834 में न्यू सलेम की जनता ने लिंकन को इलीनॉइस विधान सभा के लिए चुन लिया और राजनीति में सक्रिय भागीदारी आरंभ हो गई।
न्यू सलेम में ही लिंकन ने व्यापार में 1120 डॉलर का घाटा उठाया जिसे अगले 6 वर्षों में बड़ी मुश्किल से भर पाए।
न्यू सलेम में ही 24 वर्षीय लिंकन का दिल दो खूबसूरत लड़कियों पर आया। जिनमें से एक से वे आसानी से छूट गए, परंतु दूसरी ने उनके दिल की गहराइयों तक उतरकर अपनी शहादत देकर उनको जीवन भर के लिए गहरा घाव दे दिया। एन रूटलैज नामक यह लड़की 1835 में लिंकन की आंखों के सामने ही दम तोड़ गई। लिंकन आजीवन उसे न भुला सके।
तीसरा चरण लिंकन के जीवन में तब शुरू हुआ जब उन्होंने एन के गम में दुखी होकर तथा वकालत में अपना कैरियर बनाने के उद्देश्य से न्यू सलेम छोड़ स्प्रिंगफील्ड में कदम रखा।
स्प्रिंगफील्ड में लिंकन को जान स्टुआर्ट जैसे मंजे हुए एडवोकेट के साथ वकालत का अभ्यास करने का अवसर मिला। जॉन स्टुआर्ट से लिंकन ने बहुत कुछ सीखा। राजनीति और वकालत दोनों क्षेत्रों में लिंकन को आत्मविश्वास से भर देने वालों में से जॉन स्टुआर्ट सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे और वे बड़े ठीक समय पर लिंकन के जीवन में आए थे।
1837 से 1841 तक वकालत काल लिंकन ने जॉन स्टुआर्ट के साथ साझेदारी में वकालत करते हुए बिताया। यह वह समय था जब अमेरिका की राजनीति में, तेजी से वैचारिक उतार-चढ़ाव आ रहे थे।
सबसे बड़ा वैचारिक संघर्ष गुलामी को लेकर चल रहा था। 18वीं शताब्दी में दक्षिण अफ्रीका से गुलाम बनाकर अमेरिका लाए गए काले नीग्रो की आबादी अमेरिका में 11% हो चुकी थी। वे अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों में बसे थे तथा खेतों में काम कराने के लिए गुलामों के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे।
अमेरिका के उत्तरी प्रांत औद्योगिक विकास की राह पर थे जबकि दक्षिणी प्रांत केवल खेती से गुजारा करते थे। दक्षिणी प्रांतों में कपास के उत्पादन का काम बहुत आगे था, लेकिन दक्षिण के राज्यों में गुलामी की प्रथा पूरी तरह स्वीकृत थी। दक्षिण से उसे पश्चिमी राज्यों में भी स्वीकृत किए जाने की आवाज उठ रही थी और कोशिश यह की जा रही थी कि पूरे अमेरिका में जहां कहीं अमेरिका वासी गुलामों की सेवाएं लेने की आवश्यकता महसूस करते हैं वे उनकी सेवाएं लेने के लिए स्वतंत्र हैं। सरकार और कानून उनके बीच न आए।
दूसरी ओर 'अंकल टॉम्स केबिन' जैसी किताब का लिखा जाना जो गुलामों की व्यथा-कथा से मनुष्यों का हृदय विदीर्ण कर देने वाली थी। यद्यपि यह पुस्तक 1852 तक प्रकाशित नहीं हो पाई, परंतु देश में मनुष्यों का मनुष्यों द्वारा गुलाम बनाकर रखने, उन्हें बाजार में वस्तुओं व जानवरों की तरह बेचने व खरीदने की प्रथा के विरुद्ध आवाजें तेज होने लगी थीं।
गुलामी प्रथा को अपनी सुविधाओं की खातिर बनाए रखने वाले बहुत क्रूर हो गए थे और वे उन लोगों की हत्याएं करने पर आमादा थे जो गुलामी प्रथा के विरोध में खड़े हुए थे। विलियम लियोड गैरिसन तथा अन्य अनेक लोगों को अमेरिका में भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। ये लोग दास प्रथा को जड़ से समाप्त करना चाहते थे।
राजनीतिक खेमों में स्थिति बड़ी जटिल थी। 97% गोरों की आबादी का वोट हासिल करने के लिए यह जरूरी था कि उनकी भावनाओं को प्राथमिकता दी जाए। वे तो प्रायः दास प्रथा के पक्षधर थे, इसलिए राजनैतिक नेताओं में से बहुत कम ऐसे थे जो दास प्रथा के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद कर सकते थे, शेष सब तो चुपचाप अपनी राजनीति कर रहे थे या फिर बहुसंख्यकों के स्वर में स्वर मिला रहे थे।
1837 में जिस वर्ष लिंकन न्यू सलेम से स्प्रिंगफील्ड आए इलीनॉइस विधान पालिका ने दास प्रथा विरोधी प्रयासों की आलोचना करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया जिसका अर्थ यह स्पष्ट करता था कि कांग्रेस तथा संविधान दक्षिण राज्यों में दास प्रथा के मामलों में दखल नहीं दे सकते। वे विवश हैं।
लिंकन उस समय स्थिति का अध्ययन कर रहे थे। यद्यपि वे दास प्रथा के विरोधी थे, परंतु विधान सभा सदस्य की हैसियत से उसका विरोध नहीं कर पा रहे थे। अमेरिकन राजनीति का तत्कालीन तकाजा था कि इस अत्यंत सम्वेदनशील विषय को राजनीति से दूर रखा जाए।
अपने राजनैतिक साथियों तथा कानूनविदों के बीच बैठकर वे चर्चाएं किया करते थे। उनका मन उन्हें दास प्रथा का विरोध करने के लिए उकसा रहा था, परंतु देश के हालात तथा राजनीति में उनकी स्थिति उन्हें ऐसा कोई कदम उठाने से रोक रही थी। कसमकस की स्थिति बनी हुई थी। इस स्थिति में लिंकन ने हालात और समस्या पर और अधिक गंभीरता से विचार करने का मन बनाया।
इन दिनों अनेक गोष्ठियों और सभाओं में दास प्रथा तथा राष्ट्रीय समस्याओं पर खूब चर्चाएं हुआ करती थीं। लिंकन इन चर्चाओं में आगे बढ़कर भाग लेते थे। कुछ लोगों का यह विचार था कि दास प्रथा को धीरे-धीरे समाप्त होने दिया जाए जो आज गुलाम बने हुए हैं वे स्वयं समय के साथ सचेत होंगे और मुक्त होने के लिए छटपटाने लगेंगे। संविधान में उनके अधिकारों के लिए मांग की बात उठेगी और उन्हें भी उसी तरह अधिकार मिल जाएंगे जिस तरह अन्य अमेरिकी नागरिकों को मिले हुए हैं।
कुछ लोगों का विचार था कि दासों के मालिकों को उन्हें मुक्त करने के लिए राजी किया जाए तथा इसके बदले उन्हें क्षतिपूर्ति राशि प्रदान की जाए। लिंकन भी शुरू में इन विचारों के समर्थक थे। वे गुलामी की प्रथा के धीरे-धीरे समाप्त होने तथा क्षतिपूर्ति नीति दोनों के समर्थक थे।
परंतु कहीं-न-कहीं उनके अंदर दासों के प्रति मानवता की भावना छिपी थी जो अन्य अमेरिकियों में प्रायः लुप्त हो चुकी थी। पूरी अंग्रेज कौम काली चमड़ी वालों को हेय मानती थी। उन्हें पूरी तरह मनुष्य मानने तथा उनकी भावनाओं को चोट पहुंचने की बात स्वीकार करने के लिए अंग्रेज प्राय: तैयार नहीं थे।
19वीं शताब्दी में जब अमेरिका में गुलामों से भारी काम लेकर उत्पादन में क्रांति लाने के सपने देखे जा रहे थे, तभी भारत तथा दक्षिण अफ्रीकी देशों में काले लोगों का शोषण किया जा रहा था। जहां-जहां अंग्रेज थे, वहीं दास प्रथा थी।
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