General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में परिवहन

परिवहन, सजीव की एक अनिवार्य जीवन प्रक्रिया है, जिसमें सजीव के शरीर के एक अंग में अवशोषित पदार्थ, उसके शरीर के दूसरे अंगों में ले जाया जाता है।

General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में परिवहन

General Competition | Science | Biology (जीव विज्ञान) | पौधों और मानव में परिवहन

  • परिवहन, सजीव की एक अनिवार्य जीवन प्रक्रिया है, जिसमें सजीव के शरीर के एक अंग में अवशोषित पदार्थ, उसके शरीर के दूसरे अंगों में ले जाया जाता है।
  • परिवहन द्वारा सजीवों की प्रत्येक कोशिका में लगातार जल, खनिज लवण, ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थों की आपूर्ति होते रहता है और कोशिका में बने अनुपयोगी तथा हानिकारक पदार्थ का लगातार निष्कासन होते रहता है।
  • एककोशिकीय जीवों (जीवाणु, प्रोटोजोआ, यूग्लिना आदि) में विभिन्न पदार्थों का परिवहन विसरण विधि के द्वारा होता है जबकि बहुकोशिकीय जीवों में परिवहन हेतु परिवहन तंत्र बने होते है।
  • पौधे तथा जन्तु (मानव) का परिवहन तंत्र एक समान नहीं होता है, दोनों में परिवहन - तंत्र अलग-अलग प्रकार के होते हैं।

पौधों में परिवहन (Transport in Plant)

  • पौधों में मुख्य रूप से जल, खनिज लवण तथा प्रकाश संश्लेषण द्वारा बने भोजन, एक भाग से पौधों के अन्य में भागों में परिवहन होता है। पौधों में परिवहन हेतु संवहन तंत्र (Vascular-system) पाये जाते हैं, जिसके अंतर्गत जाइलम तथा फ्लोएम उत्तक आते है।
  • पौधों में परिहवन के जाइलम तथा फ्लोएम उत्तक द्वारा होता है। यह उत्तक पूरे पौधे (जड़, तना एवं पत्तों) में फैले होते है। जाइलम तथा जल खनिज लवणों जल तथा खनिज लवण के परिवहन हेतु उत्तरदायी है तथा फ्लोएम भेजन परिवहन हेतु। 
  • पौधों में जल तथा खनिज लवणों का परिवहन :
    • पौधे जल मिट्टी से ग्रहण करते है। जड़ में मूल रोम (Roothairs) नामक संरचना पायी जाती है, जो विसरण विधि द्वारा मिट्टी में स्थित जल को ग्रहण करते है। मूल रोम द्वारा अवशोषित जल, जड़ के बाह्य त्वचा (Epidermis), कॉर्टेक्स (Cortex) तथा अंतः त्वचा (Endodermis ) से हुआ जड़ में स्थित जाइलम उत्तक में आते हैं।
    • मूलरोम द्वारा अवशोषित जल को बाह्य त्वचा, कॉर्टेक्स तथा अंत: त्ववचा से होते हुए, जाइलम तक पहुँचने हेतु पौधों के जड़ में एक प्रकार का दाब उत्पन्न होता है, इस दाब को मूलदाब (Root Pressure) कहते है।
    • मूल दात्र जड़ के उपापचयी क्रियाओं के कारण उत्पन्न होते है एवं इसके लिए जड़ों का जीवित होना आवश्यक है।
    • जाइलम उत्तक के द्वारा जल जड़ों से तना एवं पत्तीयों तक पहुँचता है। जाइलम उत्तक से जल का तना तथा पत्तियों तक पहुँचने में वाष्पोत्सर्जन (Transpiration) का विशेष महत्व है। वाष्पोत्सर्जन के कारण ही जाइलम से जल ऊपर ही ऊपर (तना, पत्ती की ओर ) खींचाता है। जिसे वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (Transpiration pull) कहते है।
    • पौधे के पत्ती की कोशिकाओं से जल का लगातार वाष्पीकरण के कारण जाइलम के ऊपरी सिरे पर दाब कम हो जाता है जबकि जाइलम के आधार पर दाब अधिक रहता है।
    • दाबों के अंतर के कारण एक प्रकार क चूषण उत्पन्न हाता है जो जाइलम से होकर जल को ऊपर खींचता है।
    • जल के परिवहन हेतु वाष्पोत्सर्जन का होना अनिवार्य है। जल का परिवहन में जाइलम के वाहिकाएँ (Vessels) तथा वाहिनिकाएँ (Tracheids) कोशिका भाग लेती है।
    • पौधों को अपनी समुचित वृद्धि हेतु 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है जिनमें अधिकांश पोषक तत्व पौधा मिट्टी से ही ग्रहण करते हैं तथा इन खनिज लवणों का परिवहन जल में घुलित रूप में जाइलम द्वारा ही होता है।
    • मिट्टी में स्थित खनिज लवणों का अवशोषण जड़ के मूल रोम द्वारा आयन के रूप में होता है, परन्तु उस प्रकार नहीं, जिस प्रकार जल का अवशोषण होता है।
    • खनिज लवणों का अवशोषण हेतु मूलरोम की कोशिकाओं के सतह पर विशेष प्रकार के वाहक प्रोटीन और एंजाइम पाये जाते हैं और इस क्रिया हेतु पौधों को ATP के रूप ऊर्जा खर्च करना पड़ता है।
    • मूलरोम द्वारा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण होने के बाद इनका वितरण पौधे के विभिन्न भागों जैसे- तना, शाखाएँ तथा पत्तियों तक होता है। पौधे में जल तथा घुलनशील लवणों के मूलरोम से पत्तियों तक पहुँचने की क्रिया को रसारोहण (Ascent of sap) कहते है।
  • पौधों में भोजन परिवहन :
    • पौधों के सभी भागों में भोजन का निर्माण अर्थात् प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है। इसलिए पौधों में भोजन का ऐसे स्थानों से, जहाँ उसका निर्माण होता है या वे संचित रहते है, दूसरे भागों में जहाँ उनका निर्माण नहीं होता है, स्थानांतरण जरूरी है।
    • पौधे के एक भाग से दूसरे भागों में भोजन का परिवहन जलीय घोल के रूप होता है। इन भोजन का परिवहन फ्लोएम उत्तक के द्वारा होता है। फ्लोएम में खाद्य-पदार्थ मुख्यतः सुक्रोज के रूप में परिवहित होते है।
    • पौधों में भोजन का परिवहन हमेशा अधिक सांद्रता वाले भागों से कम सांद्रता वाले भागों की ओर होता है। अधिक सांद्रता वाले भाग को संभरण सिरा (Supply end) तथा कम सांद्रता वाले भाग को उपभोग सिरा (Consumption end) कहते हैं।
    • फ्लोएम में भोजन का परिवहन चालनी नालिका तथा सहकोशिकाओं के द्वारा होता है तथा भोजन के परिवहन में पौधों को ऊर्जा खर्च करना पड़ता है।
    • पौधों के जाइलम का परिवहन एकदिशीय होता है लेकिन फ्लोएम से भोजन का परिवहन द्विदिशीय होता है।
    • पौधों को जल परिवहन हेतु ऊर्जा खर्च नहीं करना पड़ता है लेकिन मिट्टी से खनिज लवणों के अवशोषण तथा भोजन परिवहन में ऊर्जा खर्च करना पड़ता है। जिस परिवहन में ऊर्जा खर्च होता है, उसे सक्रिय पारगमण (Active Transport) कहा जाता है।

वाष्पोत्सर्जन (Transpiration)

  • पौधो में वायवीय भाग (Aerial part). मुख्य रूप से पक्तियों से जल का वाष्प के रूप में बाहर निकलना वाष्पोत्सर्जन कहलाता है। 
  • लगभग 90 प्रतिशत से भी ज्यादा वाष्पोत्सर्जन पौधों में पत्ती के द्वारा होता है। पत्ती में छोटे-छोटे सूक्ष्म छिद्र होते है। इस छिद्र को रंध्र (Stomata) कहते है । वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया में पत्ती में स्थित रंध्र से ही जल वाष्प के रूप में निकलता है।
  • द्विबीजपत्री पौधों में रंध्र पत्ती के नीचले सतह पर होता है। एक बीजपत्री पौधों में रंध्र पत्ती के ऊपरी तथा नीचली दोनों सतह पर पाये जाते है। जलोद्भिद् पौधो में रंध्र नहीं पाये जाते हैं।
  • मरूस्थलीय (Xerophytes ) पौधों में वाष्पोत्सर्जन कम हो इसलिए इन पौधों का पत्ती छोटा होता है तथा रंध्र स्टोमैटल कैविटी (Stomatal Cavity) में धँसे होते है।
  • वाष्पोत्सर्जन का कुछ भाग (3-8 प्रतिशत) पौधे के तना द्वारा होता है। तने में उत्तल लेंस आकार के छिद्र होते हैं, जिसे वातरंध्र (lenticels) कहते है । तने में वातरंध्र के माध्यम से ही वाष्पोत्सर्जन की क्रिया सम्पन्न होती है।
  • वाष्पोत्सर्जन क्रिया से निकले जल की मात्रा सभी पौधों में समन नहीं होते है। छोटे पौधे में वाष्पोत्सर्जन द्वारा कम जल निष्कासित होते हैं, वहीं बड़े वृक्षों में काफी जल निष्कासित होते हैं, औसतन एक पेड़ अपने पूरे जीवन काल में अपने भार के करीब 100 गुणा जल को वाष्पोत्सर्जित करते है।
  • वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया मुख्यतः दिन में होता है, क्योंकि रात में रंध्र बंद हो जाते है। रंध्र को बंद तथा खोलने का कार्य द्वार - कोशिका (Guard cell) द्वारा होता है। द्वार - कोशिका रंध्र को चारों ओर से घेरे रहती है।
  • पौधों मिट्टी से जितने जल को ग्रहण करते हैं उसका 90 प्रतिशत से अधिक भाग वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण में निष्कासित कर देती है। वाष्पोत्सर्जन को पौधा का आवश्यक दुर्गुण माना जाता है क्योंकि वाष्पोत्सर्जन से काफी जल की निरर्थक हानि होती है लेकिन पौधों में जल तथा खनिज लवणों के परिवहन के लिए यह आवश्यक है।
  • पौधों के लिए वाष्पोत्सर्जन के महत्व को हम निम्नलिखित कारणों से समझ सकते है-
    1. पौधों में रसाकर्षण हेतु वाष्पोत्सर्जन का होना अनिवार्य है।
    2. वाष्पोत्सर्जन पौधों को गर्म होन से बचाता है तथा पौधे के तापक्रम को संतुलित रखता है।
    3. वाष्पोत्सर्जन पौधों को खनिज लवणों के अवशोषण तथा परिवहन में सहायक है। वाष्पोत्सर्जन के अभाव में पौधों के सभी भागों में खनिज लवणों का वितरण नहीं हो पायेगा।
    4. विभिन्न पौधों के फलों की उपयुक्त गुणवत्ता (खट्टापन, मीठापन) वाष्पोत्सर्जन के कारण ही आ पाता है ।
    5. वाष्पोत्सर्जन होने से उत्तकों के यांत्रिक शक्ति में वृद्धि होती है तथा पौधा मजबूत बनता है।
  • वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाला कारक :
    1. प्रकाश की उपस्थिति में रंध्र खुले रहते है जिससे वाष्पोत्सर्जन होते रहता है जबकि अंधकार में रंध्र बंद हो जाते है और वाष्पोत्सर्जन की दर बहुत कम हो जाती है।
    2. वायुमंडलीय आर्द्रता के अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन कम तथा आर्द्रता कम होने पर वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है।
    3. तापमान बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती हैं तथा घटने से वाष्पोत्सर्जन कम हो जाता है ।
    4. हवा की बहाव की तीव्रता बढ़ने से वाष्पोत्सर्जन बढ़ जाता है तथा हवा के मंद पड़ने से वाष्पोत्सर्जन की दर घट जाती है।
    5. अगर मृदा में ही जल की कमी हो जाए तो पौधे को जल की प्राप्ति कम होगी जिससे वाष्पोत्सर्जन घट जाएगा।

पौधों के लिए आवश्यक खनिज पोषण (Essential Mineral Elements in plant)

  • अब तक ज्ञात तत्वों में से 60 से भी अधिक तत्व विभिन्न प्रकार के पौधों में पाये जाते है, लेकिन इतने सारे तत्व पौधों के विकास हेतु आवश्यक नहीं होते है। जिन तत्वों के अभाव में पौधों का विकास धीमा पड़ जाए अथवा रूक जाये उसे 'आवश्यक तत्व' कहते है। पौधों के लिए आवश्यक तत्व को दो श्रेणी में विभक्त किया गया है-
    1. वृहतपोषक (Macronutrients) : ऐसे पोषक तत्व जिनकी आवश्यकता पौधों को अधिक मात्रा में होती है उसे वृहद पोषक तत्व कहते है। बृहद ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम एवं सलफर आते है। 
    2. सूक्ष्मपोषक (Micronutrients) : ऐसे खनिज जिनकी जरूरत पौधों को केवल अल्प मात्रा होती है, उसे सूक्ष्मपोषक कहते है। सूक्ष्मपोषक की संख्या 8 है- लोहा, तांबा, जस्ता, मैग्नीज, बोरॉन, मॉलिब्डेनम, निकेल एवं क्लोरीन ।
  • पौधों के लिए कुल 17 पोषक तत्व आवश्यक होते है । 17 पोषक तत्व के अतिरिक्त कुछ पुष्पीय पौधों को, कोबाल्ट, सेलेनियम, सोडियम, सिलिकन जैसे तत्वों की भी आवश्यकता होती है।
  • पौधों के लिए प्रमुख आवश्यक पोषक तत्व एवं उनके कार्य निम्नलिखित है-
    1. नाइट्रोजन-
      • सभी आवश्यक खनिज तत्वों में नाइट्रोजन का उपयोग पौधे सबसे ज्यादा करते है। नाइट्रोजन पौधों को मिट्टी से नाइट्रेट (NO3) नाइट्राइट (NO2) तथा अमोनिया (NH4 ) के लवणों के रूप में प्राप्त होता है।
      • पौधों के सभी भागों को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन प्रोटीन, न्यूक्लिक अम्ल, विटामिन, हॉर्मोन आदि का मुख्य घटक है। नाइट्रोजन पौधे के क्लोरोफिल में भी उपस्थित रहता है।
    2. फॉस्फोरस-
      • फॉस्फोरस पौधों को मिट्टी से आयन (HPO4 या H2PO4) के रूप में प्राप्त होता है। फॉस्फोरस ATP के घटक होने के कारण यह श्वसन तथा प्रकाश-संश्लेषण हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण है।
    3. पोटैशियम-
      • पोटैशियम को पौधा मिट्टी से पोटेशियम आयन [K+] के रूप में मिट्टी से ग्रहण करते है ।
      • पोटैशियम आयन रंत्रों के खुलने एवं बंद होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पोटैशियम कोशिकाओं में ऋणायन-धनायन के बीच संतुलन बनाये रखता है।
    4. कैल्सियम-
      • पौधे मिट्टी से इसका अवशोषण कैल्सियम आयन (Ca2+) के रूप में करता है। केल्सियम की आवश्यकता कोशिका विभाजन के दौरान कोशिका भित्ति के निर्माण में होती है।
    5. मैग्नीशियम-
      • पौधे मैग्नीशियम को मिट्टी से मैग्नीशियम आयन (Mg++) के रूप में ग्रहण करते है।
      • मैग्नीशियम क्लोरोफील का मुख्य घटक है। मैग्नीशियम श्वसन तथा प्रकाश संश्लेषण के एंजाइमों को सक्रिय करता है।
    6. सल्फर-
      • पौधे सलकर को सल्फेट (SO4) के रूप में मिट्टी से ग्रहण करते है। सल्फर क्लोरोफील संश्लेषण एवं लेयुमिनोसी कुल के पौधे के जड़ के ग्रा ग्रोथकाओं (Nodules) के निर्माण में उपयोगी होता है।
    7. आयरन-
      • सभी सूक्ष्मयापकों में पौधे आयरन का उपयोग सबसे ज्यादा करते है। पौधे आयरन को फेरस आयनो (Fe3+) के रूप में ग्रहण करते है।
      • आयरन क्लोरोफिल के निर्माण हेतु एक आवश्यक तत्व है। आयरन इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण में सहायक होते है।
    8. मँगनीज-
      • मैगनीज पौधा मैग्नस आयन (Mn2+) के रूप में अवशोषित करते है। पौधों में प्रकाश संश्लेषण के दौरान जल के विखंडन से ऑक्सीजन के मुक्त में होने में मैंगनीज की खास भूमिका होती है।
    9. जस्ता
      • पौधे जस्ता की जिंक आयनों (Zn2+) के रूप में ग्रहण करते है। जस्ता पौधों की ऑक्सिन हार्मोन तथा प्रोटीन संश्लेषण में मदद करता है I
    10. क्लोरीन-
      • क्लोरानी, पौधे के द्वारा क्लोराइड आयन के रूप में अवशोषित होना है।
      • क्लोरीन सोडियम एवं पोटेशियम के साथ मिलकर कोशिका के भीतर सांद्रता निर्धारित करने एवं ऋणायन- धनायन के संतुलन बनाने में मदद करता है।

मानव शरीर में परिवहन (Transport in Human Body)

  • मानव शरीर का परिवहन तंत्र अतिविकसित होता है जो ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, पोषक तत्व, हॉर्मोन तथा उत्सर्जित हानिकारक पदार्थ को शरीर के एक भाग से दूसरे भाग तक पहुँचाते है।
  • मानव के परिवहन तंत्र को रक्त परिसंचरण तंत्र (Blood circulatory system) भी कहा जाता है क्योंकि परिवहन में रक्त की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण होता है।
  • मानव का परिवहन तंत्र में हृदय, रक्तवाहिनी तथा रक्त आते है।

हृदय (Heart)

  • मानव का हृदय की रचना बंद मुट्ठी के समान या तिकोनी आकृति का होता है। हृदय वक्षगुहा में दोनों फेफड़ों के बीच अवस्थित रहता है तथा थोड़ा सा बाई तरफ झुका रहता है।
  • हृदय अत्यंत कोमल तथा मांसल रचना है जिसका निर्माण हृदय पेशी (Cardiac Muscles) से हुआ है।
  • हृदय को बाहरी अघातों से सुरक्षा देने हेतु इस पर दोहरी झिल्ली की परत चढ़ी रहती है जिसे Paricardial membrane कहा जाता है। Paricardial membrane के दोनों परतों के बीच रंगहीन, गाढ़ा द्रव भरा रहता है जिसे Paricardial fluid कहा जाता है | Paricardial fluid झिल्ली तथा हृदय के परतों के बीच घर्षण होने नहीं देता है।
  • मनुष्य के हृदय चार कक्ष होते है। हृदय के ऊपर के दो कक्ष दायाँ और बायाँ आलिंद (Auricle) तथा नीचे के दो कक्ष दायाँ और बायाँ निलय (Ventricle) कहलाता है। हृदय के ऊपरी दोनों आलिंद वाला कक्ष नीचले दोनों निलय वाले कक्ष के तुलना में अधिक चौड़े होते है।
  • हृदय का दायाँ आलिंद - निलय तथा बायाँ आलिंद निलय सेप्टम (Septum) नामक संरचना द्वारा अलग रहता है।
  • हृदय के दाँये आलिंद तथा निलय के बीच त्रिदली कपाट (tricuspid valve) पाया जाता है। यह कपाट रक्त को हृदय के आलिंद से निलय में आने देते परंतु निलय से आलिंद में जाने नहीं देते है ।
  • हृदय के बाँये आलिंद तथा निलय के बीच द्विदली कपाट (Bicuspid Valve ) या मिट्रल कपाट (Mitral valve) पाया जाता है। यह कपाट रक्त को बाँये आलिंद से बाँये निलय में आने देता है परन्तु बाँये निलय से बाँये आलिंद में जाने में रोक देता है। 
  • हृदय के दाँये आलिंद में दो अग्रमहाशिरा (Precaval Vein) तथा एक पश्च महाशिरा (Postcaval Vein) खुलती है। ये तीनों महाशिराएँ शरीर का अशुद्ध रक्त (ऐसा रक्त जिसमें ऑक्सीजन के तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा है।) दाँये आलिंद में पहुँचता है।
  • दाँये आलिंद से अशुद्ध रक्त दाँये निलय में आ जाता है। दाँये निलेय में एक बड़ी फुफ्फुस चाप (Pulmonary arch) पायी जाती है जो, आगे की ओर दो फुफ्फुस धमनियों में बँटकर दोनों फेफड़ा तक जाती है। फुफ्फुस धमनियों के द्वारा अशुद्ध रक्त साफ होने हेतु फेफड़ा में पहुँचती है।
  • हृदय के बाँये आलिंद में दो फुफ्फुस शिराएँ (Pulmonary vein) खुलती है, जिसके द्वारा फेफड़ा से शुद्ध रक्त (रक्त जिसमें ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड के तुलना में ज्यादा है।) बाँये आलिंद में आती है। शुद्ध रक्त बाँये निलय में आ जाती है।
  • बाँये निलय से महाधमनी ( aorta ) निकलती है। बाँये निलय से शुद्ध रक्त त महाधमनी से होते हुए शरीर के सभी धमनियों में जाती है अततः ये धमनियाँ शरीर के सभी भागों में शुद्ध रक्त को प्रवाहित कर देती है।
  • मानव का हृदय शरीर के सभी भागों का अशुद्ध रक्त ग्रहण करता है फिर उसे साफ करने हेतु फेफड़ा में भेज देता है । पुनः फेफड़ा से शुद्ध रक्त ग्रहण कर शरीर के विभिन्न भागों में पंप कर देता है। हृदय मानव शरीर का केन्द्रीय पंप अंग (Central Pumping Organe ) है जो रक्त पर दाब डालकर उसे पूरे शरीर में प्रवाहित करवाता है।
  • हृदय द्वारा रक्त पर दाब बनाने हेतु, इसमें लगातार संकुचन (Contraction) तथा शिथिलन (Relaxation) होते रहता है। हृदय में होने वाले संकुचन को सिस्टोल (Systole) कहते हैं और शिथिलन को डायस्टोल (Diastole ) कहते है।
  • हृदय के सभी कक्षों में बारी-बारी से संकुचन तथा शिथिलन होता है, एक साथ नहीं। जब हृदय के दोनों आलिंद में संकुचन होता है उसी समय दोनों निलय में शिथिलन होता है तथा जिस समय दोनों निलय में संकुचन होता है उसी समय दोनों आलिंद में शिथिलन होता है।
  • हृदय का एक संकुचन ( Systole ) तथा एक शिथिलन (Diastole ) मिलकर एक धड़कन कहलाता है। मनुष्य में 1 मिनट में 72 से 75 धड़कने होती हैं अर्थात् एक धड़कन में 0.80 से 0.83 सेकंड का समय लगता है।
  • हृदय के एक धड़कन में 70 ml. रक्त पंप होता है एवं हृदय लगभग 5 लीटर रक्त प्रति मीनट पंप करता है ।
  • जब हृदय के सिकुड़ने (systole) से धमनियों में उच्च दबाव के साथ रक्त प्रवाहित होता है, तब इस दाव का मान 120 mmHg के बराबर होता है। हृदय शिथिल (Diastole) होकर जब शिराओं से रक्त खींचता है तब दाव घटकर 80mm Hg हो जाता है। इस दाब को 120/80 रक्त दाब के रूप में लिखा जाता है जो मानव का सामान्य रक्त दाब है। मानव के रक्त दाब को मापने हेतु स्फग्मो मोनोमीटर यंत्र उपयोग किया जाता है।
  • हृदय के प्रत्येक धड़कन के साथ-साथ दो स्पष्ट ध्वनि उत्पन्न होती है। सिस्टोल के समय 'लब' तथा डायस्टोल के समय 'डब' ध्वनि उत्पन्न होती है। यह ध्वनि हृदय के अंदर पाये जाने कपाट (Valve) के बंद होने तथा खुलने के कारण उत्पन्न होती है। हृदय में उत्पन्न ध्वनि को आला (Stethoscope) नामक यंत्र से सुना जाता है। 
  • हृदय के धड़कनों का नियंत्रण हृदय के दाँये आलिंद में पाये जाने वाले एक तंत्रिका उनक की गाँठ, जिसे S-A node (Sinu- auricular node) कहते है के द्वारा होता है। S-A node को हृदय का गति प्रेरक तथा पेसमेकर भी कहा जाता है।
  • धड़कनों के नियंत्रण हेतु S-A node से विद्युतीय तरंग उत्पन्न होता है। S-A node से निकलने वाली विद्युतीय तरंग सीधे आलिंद के दिवारों में फैल जाता है, उसके बाद यह तरंग दोनों निलय के बीच पाये जाने वाले तंत्रिका उत्तक A-Vnode (auriculo - ventricular node) ग्रहण कर लेता है। A-V node से विद्युतीय तरंग की संवेदना तंतुओं का बंडल (Bundle of His) के द्वारा नीचे आती है और निलय के दिवार में स्थित पतले-पतले तंतु जिसे पुरकिंजे का तंतु (Purkinje fibres) कहते हे, में फैल जाती है। S-A द्वारा उत्पन्न विद्युतीय तरंग हृदय के अंदर अत्यंत ही धीमी गति से प्रवाहित होती है।
  • हृदय के धड़कन के विशेष नियंत्रण हेतु S - A node पर सिम्पैथेटिक तथा भैगस नामक दो तंत्रिका तंतु जुड़े रहते है। सिम्पैथेटिक तंतु हृदय गति को बढ़ाता है और भैमस तंतु हृदय गति को घटाता है।
  • S-A node द्वारा उत्पन्न विद्युतीय तरंग के अध्ययन से हृदय की सामान्य क्रिया तथा हृदय रोगों का अनुमान लगाने को जा सकता है। इसके लिए इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (Electrocardiogram-ECG) नामक उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है। 
  • कलाई की धमनियों को अंगुली से हल्का दबा कर रक्त के बढ़ते एवं घटते दवाव का अनुमान लगाने को, नाड़ी दर या स्पंदन दर (Pulse-rate) मापना कहते है । नाड़ी दर का मान हृदय धड़कनों की संख्या के बराबर होता है, क्योंकि नाड़ी की गति हृदय के संकुचन एवं शिथिलन से होता है।

रक्त वाहिनियाँ या रक्त-नली (Blood-Vessels)

  • पूरे शरीर में रक्त के परिसंचरण हेतु निम्न प्रकार के रक्त-नलियाँ पायी जाती है -
1. धमनी (Arterie)
  • वे सभी रक्त नलियों जो हृदय के महाधमनी (Aorta) से उत्पन्न होती है और शुद्ध रक्त को हृदय से शरीर के विभिन्न भागों में ले जाती है, धमनी कहलाती है ।
  • धमनी की आतंरिक भित्ति मोटी होती है जिससे नली का आंतरिक व्यास कम होता है। धमनी में कोई कपाट (Valve) नहीं पाया जाता है जिस कारण इसमें रक्त का बहाव तेज गति से होता है।
  • हृदय के निलय में शिथिलन (Biastole ) के साथ धमनियों में उच्च दबाव के साथ बिना रुके रक्त का प्रवाह होता है।
  • फुफ्फुस धमनी (Pulmonary arterie) ऐसी धमनी है जो अशुद्ध रक्त का परिवहन करती है। यह धमनी अशुद्ध रक्त को हृदय के दाँये निलय से फेफड़ा में ले जाती है, जहाँ इसका शुद्धिकरण होता है।
  • शरीर के विभिन्न भागों में धमनी विभाजित होकर धमनिकाएँ (Arterioles) बनाती है और अंत में धनिकाएँ कोशिकाओं (Capillaries) में विभक्त हो जाती है।
2. केशिकाएँ (Capillaries)
  • ये रक्त नली अत्यंत महीन होती है केशिकाओं का दिवार एपिथीलियम उत्तक का बना होता है।
  • केशकाओं (Capillaries) के दिवार से होकर जल, पोषक पदार्थ तथा ऑक्सीजन कोशिका में प्रवेश कर जाते है तथा उत्सर्जित होने वाले हानिकारक पदार्थ एवं कार्बन डाइऑक्साइड रक्त में आ जाते है।
  • केशिकाएँ आपस में जुटकर शिरिकाएँ (Venules) बनाती है तथा कई शिरिकाएँ आपस में जुटकर शिरा (Vein) नामक एक नई रक्त वाहिनी का निर्माण करती है।
  • केशिकाएँ वे रक्त नली है जिसका संबंध धमनी तथ शिरा दोनों से है।
3. शिराएँ (Veins)
  • वे सभी रक्त नलियाँ जो शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त जमा कर हृदय में लाती है, शिराएँ कहलाती है।
  • शिरा की दिवार धमनी के अपेक्षा पतली होती है इसलिए शिरा का आंतरिक व्यास भी धमनी के अपेक्षा अधिक होती है।
  • शिराओं पर कम दबाव लगाकर हृदय रक्त खींचता है, इसलिए रक्त को वापस लौटने से बचाने हेतु इसमें जगह-जगह कपाट (Valve) लगे होते है। शिराओं में लगा कपाट रक्त को केवल हृदय की ओर ही जाने देता है। पीछे लौटने नहीं देता है।
  • फुफ्फुस शिरा (Pulmonary vein) शुद्ध रक्त का परिवहन करती है । फुफ्फुस शिरा शुद्ध रक्त को फेफड़े से हृदय के बाँये आलिंद में लाता है।
4. कोरोनरी वाहिनी (Coronary Vessels)
  • कोरोनरी वाहिनी केवल हृदय के मांसपेशी को ही रक्त पहुँचाती है। इस वाहिनी का संबंध हृदय के अतिरिक्त अन्य किसी अन्य से नहीं होता है।
  • कोरोनरी वाहिनी की उत्पत्ति हृदय के बाएं निलय से होती है तथा शाखा प्रशाखा में बँटकर हृदय मांसपेशी को रक्त पहुँचाती है और अंत में यह दाँये आलिंद में वापस खुलती है।
  • हृदय के मांसपेशी में शुद्ध रक्त को पहुँचाना तथा अशुद्ध रक्त को गतंव्य स्थान तक लाना, दोनों ही कार्य कोरोनरी वाहिनी के द्वारा ही होती है।
5. पोर्टल वाहिनी (Portal Vessels) 
  • पोर्टल वाहिनी शिरा-तंत्र (Vein-system) का हिस्सा है परंतु इसका हृदय से कोई संबंध नहीं होता है। आहार-नाल के विभिन्न हिस्सों का शिरा आपस में मिलकर पोर्टल वाहिनी का निर्माण करती है जो यकृत के विभिन्न हिस्सों में पहुँचकर समाप्त हो जाती है।
  • पोर्टल वाहिनी आहारनाल के विभिन्न भागों का रूधिर सीधे हृदय में जाने नहीं देता है, बल्कि पहले रक्त को यकृत में लाता है, फिर उसे हृदय जाने देता है। 

रूधिर या रक्त (Blood)

  • रक्त तरल संयोजी उत्तक है, इसे परिवहन संयोजी उत्तक भी कहा जा सकता है। एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य में 5 से 6 लीटर रक्त पाया जाता है।
  • रक्त एक संयोजी उत्तक है, अतः इसमें कोशिकाओं की संख्या बहुत कम होती है। रक्त में 45 प्रतिशत रक्त कोशिकाएँ पायी जाती है। शेष 55 प्रतिशत भाग रंगहीन जलीय घोल के रूप में पाया जाता है जिसे रक्त प्लाज्मा (Blood Plasma) कहा जाता है। रक्त का सामान्य pH स्तर 7.35 से 7.45 के बीच होता है।
  • रक्त प्लाज्मा (Blood Plasma)
    • प्लाज्मा में 90 प्रतिशत जल पाय जाता है। शेष 10 प्रतिशत में प्रोटीन, वसा, ग्लूकोज तथा अन्य कई कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ पाये जाते है।
    • प्लाज्मा में उपस्थित विभिन्न पकार के कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ की मात्रा हमेशा नियत नहीं रहती है। विभिन्न प्रकार के रोगों में इन पदार्थ की मात्रा परिवर्तित हो जाता है, यही कारण है रक्त की जाँच कर चिकित्सक रोगों का पहचान करते हैं।
    • प्लाज्मा में पाये जाने वाले प्रोटीन - एल्बुमिन, ग्लोब्यूलिन तथा फाइब्रोनोजेन को प्लाज्मा प्रोटीन भी कहा जाता है। इन प्रोटीन का निर्माण मानव - यकृत में होता है।
    • रक्त प्लाज्मा में अत्यधिक मात्रा में एल्बुमिन प्रोटीन घुले होने के कारण ही रक्त गाढ़ा, लसलसा तथा श्यान (Viscous) होता है।
    • रक्त प्लाज्मा कार्बन डाइऑक्साइड, हॉर्मोन तथा कोशिकाओं द्वारा उत्सर्जित अपशिष्ट पदार्थ के परिवहन का कार्य करते है। अगर शरीर के किसी भी अंग में किसी प्रकार की खराबी होती है या कोई नया रसायनिक पदार्थ शरीर में उत्पन्न होता है, तो वह प्लाज्मा में पहुँच जाता है, जिसकी जाँच कर चिकित्सक रोग की पहचान कर लेते है ।
  • रक्त कोशिकाएँ (Blood Corpuscles)
    • रक्त में तीन प्रकार की कोशिकाएँ- लाल रक्त कोशिकाएँ (WBC) तथा प्लेटलेट्स (Platelets) मौजूद रहता है। इन रक्त कोशिकाओं का निर्माण जन्म से लेकर वयस्कों तक में अस्थि मज्जा में होता है।
      1. लाल रक्त कोशिकाएँ (Red Blood Corpuscles or RBC)
        • रक्त में सर्वधिक मात्रा में RBC ही पाये जाते है। इनकी संख्या 40-50 लाख प्रति घन मिली मीटर 45-50 लाख / 1mm3 ) होता है। तुलना में स्त्रियों में RBC की मात्रा थोड़ी कम होती है।
        • इस कोशिका की आकृति उभय अवतल (Bioconcave) होता है, जिसका औसत व्यास 7 um एवं मोटाई 2 um होता है। RBC के जीवद्रव्य में राइबोसोम के अतिरिक्त कोई अन्य कोशिका - अंगक नहीं पाये जाते है अर्थात् इस कोशिका में केन्द्रक तथा माइटोकॉण्ड्रिया का भी अभाव होता है।
        • RBC का निर्माण अस्थि मज्जा में होता है एवं 90 से 120 दिनों के बाद इसका विनाश प्लीहा में होता है। इसके उत्पत्ति एवं विनाश का क्रम जीवनभर चलता रहता है। मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 30 लाख RBC का निर्माण होता है और इतने ही मात्रा में नष्ट होते रहता है।
        • लाल रक्त कोशिकाओं (RBC) के जीवद्रव्य में लौह युक्त प्रोटीन हीमोग्लोबिन पाया जाता है, जिसके कारण इन कोशिकाओं का रंग लाल होता है एवं इनमें O2 (ऑक्सीजन) लेने तथा देने की क्षमता होती है। रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा 12-16 g/100ml होता है।
        • हीमोग्लोबिन कोई एंजाइम नहीं है परन्तु इसकी संरचना एंजाइम से मिलती है। हीमोग्लोबिन दो भागों से मिलकर बना है। इसका प्रथम भाग हीमेटीन या हीम कहलाता है जो एक आयरन फॉरफाइरीन है। हीमोग्लोबिन का 95 प्रतिशत भाग रंगहीन प्रोटीन ग्लोबिन का बना है। हीमोग्लोबिन का एक ग्राम 1.3 मिली लिटर ऑक्सीजन से संयोग करने की क्षमता रखता है।
        • RBC को Erythrocytes भी कहा जाता है।
      2. श्वेत रक्त कोशिकाएँ (White Blood Corpuscles or WBC)
        • WBC रक्त में सबसे कम संख्या में पायी जाने वाली कोशिका है। इनकी संख्या 6000-10000 प्रति घन मिलीमिटर होता है।
        • इस कोशिका का आकार अनियमित होता है। इसमें केन्द्रक उपस्थित रहते है लेकिन इसमें हीमोग्लोबिन नहीं पाया जाता है, जिसके कारण ये कोशिका रंगहीन होता है।
        • रक्त में कुछ WBC के जीवद्रव्य में सूक्ष्म कण पाये जाते हैं, ऐसे WBC ग्रेनुलोसाइट कहलाते है। ये तीन प्रकार के होते है - न्यूट्रोफिल्स ( उदासीन), इओसिनोफिल ( अम्लीय) तथा बेसोफिल (क्षारीय)
        • जिस WBC के जीवद्रव्य में कोई सूक्ष्म कण नहीं पाये जाते हैं उसे एग्रेनुलोसाइट कहा जाता है। यह दो प्रकार के होते है- लिम्फोसाइट तथा मोनोसाइट |
        • शरीर में रोग फैलाने वाला जीवाणुओं को नष्ट करना WBC का प्रधान कार्य है। विभिन्न जीवाणुओं के संक्रमण में पहले न्यूट्रोफिल और बाद में मोनोसाइट जीवाणु को नष्ट करने का कार्य करते है। शरीर में संक्रमण होने पर रक्त में न्यूट्रोफिल तथा मोनोसाइट्स की मात्रा बढ़ जाती है।
        • शरीर में नोचनी - खुजली, दमा तथा खासी जैसे ऐलर्जी का संक्रमण होने पर एसीडोफिल सुरक्षा प्रदान करता है। ऐलर्जी युक्त प्रतिक्रियाओं में एसीडोफिल की मात्रा बढ़ जाती है।
        • लिम्फोसाइट्स, WBC का सबसे महत्वपूर्ण घटक * यह दो प्रकार के होते हैं- B - लिम्फोसाइट तथा T–लिम्फोसाइट। लिम्फोसाइट अलग-अलग रोगों से लड़ने के लिए अलग-अलग प्रकार के एंटीबॉडी (Antibody) का निर्माण करते है और शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
        • ग्रेनुलोसाइट WBC का निर्माण अस्थिमज्जा में होता है जबकि एग्रेनुलोसाइट WBC का निर्माण लिम्पनोड में होता है। लिम्फोसाइट का निर्माण लिम्पनोड के अतिरिक्त प्लीहा, थाइमस ग्रंथि तथा अस्थिमज्जा में भी होता है।
        • सभी प्रकार के WBC में मोनोसाइट सबसे बड़ा तथा लिम्फोसाइट सबसे छोटा कोशिका है। विभिन्न प्रकार के WBC का जीवन काल 1 से 4 दिनों से लेकर 13 से 20 दिनों तक का होता है। WBC कोशिका को Leucocytes भी कहा जाता है।
      3. प्लेटलेट्स (Platelets)
        • रक्त में इनकी संख्या 1.5 से 3 लाख प्रतिघन मिलीमीटर होता है। ये रक्त कोशिकाएँ केवल स्तनधारी के शरीर में ही पाया जाता है।
        • इस कोशिका अनियमित आकृति का होता है, जिसका व्यास 2-4 um का होता है। इसमें केन्द्रक का अभाव होता है।
        • इस कोशिका प्रधान कार्य है रूधिर - स्त्राव के समय रक्त का थक्का बनाना । शरीर के किसी अंग के कट फट जाने से प्लेटलेट्स अधिक संख्या में एकत्र होकर आपस में चिपक जाते हैं तथा रक्त-स्त्राव को बंद कर देते है।
        • प्लेटलेट्स कोशिका को 'Thrombocytes भी कहा जाता है।

रक्त का जमना (Blood Clotting)

  • रक्त स्त्राव के समय रक्त का जमना या थक्का बनना एक जटिल रसायनिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में कुल 12 कारकों का उपयोग होता है जिन्हें I-XII तक अंक दिये गये है। इन 12 कारको में कारक VI का कोई योगदान नहीं होता जबकि कारक VIII के अभाव में किसी भी परिस्थिति में थक्का नहीं बनता ।
  • रक्त का जमाव निम्नलिखित चरणों में क्रमिक रूप से होता है-
    • रक्त स्त्राव होने पर सर्वप्रथम प्लेटलेट्स हवा के संपर्क में आते है तथा थ्रॉम्बोप्लास्टिन नामक पदार्थ का निर्माण करते है। थ्रॉम्बोप्लास्टिन रक्त में पाये जाने वाले हिपैरीन को निष्क्रिय कर देता है। हिपैरीन एक थक्का विरोधी रसायन है जो रक्त को जमने नहीं देता है। शरीर के भीतर रक्त हिपैरीन की उपस्थिति के कारण ही नहीं जमता है।
    • इसके बाद थ्रॉम्बोप्लास्टिन, विटामिन K तथा कैल्शियम आयन के साथ मिलकर रक्त में पाये जाने वलो निष्क्रिय प्रोथॉम्बिन एंजाइम को सक्रिय थ्रॉम्बिन एंजाइम में परिवर्तित कर देता है।
    • थ्रॉम्बिन रूधिर में पाये जाने वाले फाइब्रिनोजेन प्रोटीन को फाइब्रिन में बदल देता है। फाइब्रिन एक प्रकार का जाल है जिसमें रक्त कोशिकाएँ फँस जाता है, जिससे रक्त का थक्का बन जाता है जो रक्त स्त्राव को रोक देता है। कुछ समय बाद फाइब्रीन तंतु के संकुचित होने पर पीला द्रव बाहर आता है। इसे सीरम कहते है।
    • रक्त को थक्का बनने में 5 मिनट से लेकर 10 मिनट तक का समय लगता है।
    • रक्त- चूषक मच्छड़ तथा खटमल के लार में थक्का विरोधी रसायन पाया जाता है, जिसके कारण इन जीवों द्वारा रक्त- - चूषने के समय रक्त का थक्का नहीं बनता है। जोंक में हिरूडीन नामक थक्का विरोधी रसायन पाया जाता है।
    • प्रयोगशाला तथा रक्त बैंक में रक्त का थक्का बनने से रोकने हेतु 0.01 प्रतिशत सोडियम साइट्रेट या सोडियम ऑक्जलेट रक्त में मिला दिया जाता है।

रक्त-समूह (Blood Group)

  • सर्वप्रथम कार्ल लैंडस्टीनर ने यह पता लगाया कि सभी मनुष्य का रक्त एक समान नहीं है। मनुष्य के रक्त में पाये जाने वाले विभिन्नता का कारण इसमें पाये जाने वाले विशेष प्रकार के प्रोटीन-एंटीजन तथा एंटीबॉडी है।
  • मानव के लाल रक्त कण (RBC) के झिल्ली में दो प्रकार के एंटीजन होते हैं जिन्हें एंटीजन A तथा एंटीजन B कहते है । एंटीजन को ऐग्लुटीनोजेन्स भी कहा जाता है। यह एंटीजन ऐसे पदार्थ है जो हमारे शरीर में एंटीबॉडी निर्माण को बढ़ावा देते है।
  • किसी मनुष्य में केवल एक प्रकार के एंटीजन या दोनों प्रकार के एंटीजन पाये जा सकते हैं या दोनों प्रकार के एंटीजन अनुपस्थित भी रह सकता है।
  • रक्त के प्लाज्मा में दो प्रकार के एंटीबॉडीज होते हैं जिसे Anti A या a तथा Anti B या b कहा जाता है। एंटीबॉडी को ऐग्लूटिनिन्स भी कहा जाता है।
  • रक्त में उपस्थित एंटीजन तथा एंटीबॉडी के आधार पर लैंडस्टीनर ने मानव रक्त को चार समूहों में बाँटा-
Blood Group Atigen Antigody
A A b
B B a
AB A तथा B None
O None a तथा b
  • उपर्युक्त चार रूधिर वर्ग में से A, B तथा O की खोज कार्ल लैडस्टीनर ने 1901 में किया था तथा रूधिर वर्ग AB की खोज डीकैस्टेलो तथा स्टल ने 1902 में किया था।
  • रूधिर वर्ग AB में दोनों एंटीजेन उपस्थित रहता है परंतु कोई एंडीवॉडी नहीं पाये जाते हैं। रूधिर वर्ग 0 में कोई एंटीजेन नहीं पाया जाता है परंतु दोनों एंटीबॉडी पाये जाते हैं।
  • रूधिर-वर्ग का सर्वाधिक महत्व रूधिर - आधान (Blood transfusion) के समय होता है। वर्तमान में मनुष्य के रूधिर वर्ग जाँच कर लैडस्टीनर के नियमानुसार रोगियों को रूधिर चढ़ाया जाता है। रूधिर आधान हेतु लैंडस्टीनर का नियम-
Blood Group किस रक्त वर्ग को रक्त दिया जा सकता है। किस रक्त वर्ग से रक्त से ग्रहण किया जा सकता है।
A A तथा AB  O तथा A
B B तथा AB O तथा B
AB केवल AB सभी रक्त वर्ग
O सभी रक्त वर्ग केवल O
  • अगर रक्त ग्रहण करने वाले व्यक्ति में एंटीजन तथा एंटीबॉडी एक-दूसरे के अनुरूप (Antigen A-Antibody a या AntigenB d-Antibodyb) हो जाता है तो रक्त का अभिश्लेषण (Agglutination) हो जाता है, जिसके कारण रूधिर जम जाता है तथा व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
  • group Blood O वाले व्यक्ति के रक्त में कोई एंटीजन नहीं होने के कारण, इनका रक्त सभी Blood group वाले व्यक्तियों को चढ़ाया जा सकता है। परंतु O वर्ग के व्यक्ति में दोनों एंटीबॉडी के उपस्थिति के कारण किसी अन्य Blood group का रक्त, इस वर्ग के व्यक्ति को नहीं चढ़ाया जा सकता है। इसलिए O Blood group को सर्वदाता (Universal donor) कहा जाता है।
  • Blood group AB वाले मनुष्य में दोनों एंटीजन की उपस्थिति के कारण इनका रक्त अन्य किसी Blood group वाले व्यक्ति को नहीं चढ़ाया जा सकता है। परंतु, Blood group AB में दोनों एंटीबॉडी के अनुपस्थित के कारण इसे सभी Blood group का रक्त चढ़ाया जा सकता है। इस कारण Blood group AB का सर्वग्रही (Universal recipient) कहा जाता है।

रूधिर वर्गों की वंशागति (Heredity of Blood group)

  • मानव को चार प्रकार के रक्त वर्ग का निर्धारण हेतु तीन जीन / ऐलील होते हैं, जिसे IA, IB तथा IO में व्यक्त किय जाता है। IA तथा IB प्रभावी जीन है तथा IO अप्रभावी जीन है।
  • किसी मनुष्य में उपर्युक्त तीन जीन में केवल दो ही उपस्थित रहते है जिससे उसके रक्त वर्ग का निर्धारण होता है।
  • मानव के चारों रक्त वर्ग का जीनोटाइप-
Genotype Blood group
IAIA या IA IO A
IBIB या IB IO B
IAIB AB
IOIO O
  • मानव में रक्त वर्ग की वंशागति- 
Blood group संतानों के संभावित Blood group
A × A A या O
A × B A, B, AB या O
A × AB A, B, AB
A × O A या O
B × B B या O
B × AB A, B, AB
B × O B या O
AB × AB A, B, AB
AB × O A या B
O × O B या O
  •  मानव रक्त वर्ग बहुविकल्पता (Multiple allele) को दर्शाता है तथा रक्त वर्ग AB सहप्रभाविता (Co-dominance) को दर्शाता है।

Rh कारक या Rh रक्त वर्ग (RH-Factor or RH Blood Group)

  • RH Factor एंटीजेन है जिसका खोज सबसे पहले लैंडस्टीनर एवं वीनर ने मकका रीसस बंदर में 1940 किया ।
  • Rh Factor एंटीजन विश्व के लगभग 87 प्रतिशत मनुष्य में पाया जाता है। जिन मनुष्य में RH एंटीजन पाया जाता है उसका रक्त वर्ग RH+ (Positive) तथा जिन मनुष्य में यह एंटीजन नहीं पया जाता है उसका रक्त वर्ग RH- (Negative) कहलाता है।
  • रूधिर आधान के समय अगर RH- व्यक्ति को RH+ व्यक्ति का रक्त चढ़ाया जाता है तो ग्राही व्यक्ति के रक्त में RH+ एंटीजेन के विरूद्ध एंटीबॉडी का निर्माण शुरू हो जाता है, लेकिन पहली बार इस तरह के रक्त आधान में कोई समस्या नहीं आती है। लेकिन प्रथम रूधिर आधान के पश्चात् यदि RH+ व्यक्ति का रक्त RH- व्यक्ति में पुनः दिया जाये तो RH+ एंटीजन के साथ ग्राही व्यक्ति के शरीर में निर्मित एंडीबॉडी प्रतिक्रिया करता है जिससे ग्राही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
  • उपर्युक्त कारणों से RH- व्यक्ति को RH+ व्यक्ति का रक्त पूर जावन नहीं । काल में केवल एक बार चढ़ाया जा सकता है दो बारा नहीं I
  • RH कारक की वंशागति- 
पिता माता उत्पन्न संतान
RH+ RH+ RH+
RH- RH+ RH+
RH- RH- RH-
RH+ RH- RH+

एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस (Erythnblastosis Fetallis)

  • एरिथ्रोब्लास्टासिस Rh कारक से संबंधित रोग है जो केवल गर्भ में पल रहे शिशुओं को होता है। इस रोग के कारण गर्भ में ही शिशु की मृत्यु हो जाती है।
  • अगर Rh+ पुरूष का विवाह Rh- स्त्री के साथ होता है, तो इस जोड़े से उत्पन्न सभी शिशु Rh+ वाले होते है। शिशु अपने माँ के गीशय में Rh+ रूधिर कोशिका बनाने लगता है जो उसके माँ के शरीर में पहुँच जाता है। माँ का रूधिर शिशु के Rh+ एंटीजन के विरूद्ध एंटीबॉडी बनाने लगता है जो शिशु के रक्त में जाकर इसकी रक्त कोशिकाओं को तोड़ने लगता है जिसके कारण गर्भावस्था में ही शिशु की मृत्यु हो जाती है ।
  • प्रथम गर्भावस्था में माँ का रक्त एंटीबॉडी धीरे-धीरे बनाता है जिसके कारण प्रथम गर्भ के शिशु को विशेष हानि नहीं होती है परंतु ऐसे शिशु के जन्म होने से इसमें अनियमित संरचना, बुद्धिहीनता आदि जैसे लक्षण रहते है। लेकिन दूसरे गर्भावस्था में शिशु की मृत्यु पर्याप्त एंटीबॉडी बन जाने से निश्चित ही हो जाएगी ।
  • उपर्युक्त कारणों से Rh+ पुरूष तथा Rh- महिला विवाह करते हैं तो ऐसे जोड़े संतान उत्पन्न नहीं कर सकते है ।
  • इस रोग के उपचार हेतु रक्त प्लाज्मा से तैयार 'इम्यूनोग्लोबिन ( IgG ) ' माता के रक्त में इंजेक्ट की जाती है। यह इम्यूनोग्लोबिन उस Rh+ एंटीजन को नष्ट करता है जो शिशु के रक्त से प्लेसेंटा के माध्यम से माता के रक्त में प्रवेश करता है।

लासिका - तंत्र (Lymphatic system)

  • शरीर के विभिन्न उत्तक तथा मांसपेशीओं के बीच कुछ स्थान खाली रहते है, जिनमें नलीनुमा रचना एवं गाँठे उपस्थित रहते है। इस नलीनुमा रचना एवं गाँठ को लीसका नलियाँ और लिम्फनोड कहा जाता है।
  • रक्त प्लाजा जब रूधिर केशिकाओं (Blood Capillaries) से गुजरता है तब कुछ रक्त प्लाजा कोशिकाओं के पतली दिवार से छनकर लसीका नली तथा लिम्पनोड में जमा हो जाते हैं, जिसका लासिका (lymph) कहा जाता है। 
  • लासिका में कम मात्रा में प्रोटीन, वसा, लवण पाये जाते है तथा इसमें लिम्फोसाइट श्वेत रक्त कोशिका (WBC) भी उपस्थित रहते है। लासिका में ऑक्सीजन तथा ग्लूकोज की बहुत कम मात्रा पायी जाती है परंतु इसमें काफी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड उपस्थित रहते है।
  • लासीका नली, लिम्पनोड तथा लासिका मिलकर लासीका तंत्र का निर्माण करते है। लासीका तंत्र का हृदय से कोई संबंध नहीं होता है।
  • लासीका, कोशिका तथा उत्तकों से CO2 तथा अन्य हानिकारक पदार्थों लेकर रक्त में पहुँचाता है तथा रक्त इन्हें गंतव्य स्थान तक पहुँचा देते है।
  • लासीका को उत्तक द्रव्य (tissue fluid) भी कहा जाता है। इसमें WBC पाया जाता है परंतु RBC अनुपस्थित रहता है, जिसेक कारण यह रक्त के तरह लाल न होकर रंगहीन होता है। 

अभ्यास प्रश्न

1. सजीवों में पाये जाने वाले परिवहन तंत्र के क्या कार्य है?
(a) उपयोगी पदार्थों का उनके मूल स्त्रोतों से शरीर के प्रत्येक कोशिका तक पहुँचना
(b) अनुपयोगी और हानिकारक पदार्थ को कोशिका से निकाल कर गंतव्य स्थान तक पहुँचना ।
(c) A तथा B दोनों
(d) न तो A न ही B 
2. एककोशिकीय जीवों में परिवहन किस विधि से सम्पन्न होता है ?
(a) विरण 
(b) परासरण
(c) अतः शोषण
(d) जीवद्रव्यकुंचन
3. पानी एवं घुलित लवणों का पौधों में परिवहन होता है-
(a) फ्लोएम के द्वारा
(b) जाइलम के द्वारा
(c) पैरेनकाइमा के द्वारा 
(d) स्क्लेरेनकाइमा के द्वारा
4. पौधों में खाद्य-पदार्थों का परिवहन किसके द्वारा होता है?
(a) जाइलम
(b) फ्लोएम
(c) मृदुतक
(d) दृढ़ोत्तक
5. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-  
1. पौधों में परिवहन का कार्य जाइलम तथा फ्लोएम उत्तक के द्वारा होता है।
2. जाइलम तथा फ्लोएम को संवहन उत्तक भी कहते है।
उपर्युक्त में कौन-सा /से कथन सही है/ हैं ? 
(a) केवल 1
(b) केवल 2 
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही-2
6. पौधों में खाद्य पदार्थों का परिवहन किस रूप में होता है ?
(a) स्टार्च 
(b) ग्लूकोस
(c) प्रोटीन
(d) सुक्रोस
7. निम्नलिखित में किस वर्ग के पौधों में संवहन उत्तक नहीं पाये जाते हैं ?
(a) थैलोफाइटा
(b) ब्रायोफाइटा
(c) टेरिडोफाइटा
(d) A तथा B दोनों
8. पौधों में पानी की आपूर्ति किस क्रिया द्वारा होता है ?
(a) परासरण
(b) विसरण
(c) अंतः शोषण
(d) ससंजन
9. पौधों की जड़ों से पौधों के शीर्ष की ओर जल का परिवहन क्या कहलाता है ?
(a) पृष्ठ तनाव
(b) रसाकर्षण
(c) अवशोषण
(d) विसरण
10. जाइलम में जल का परिवहन किस दिशा में होता है ?
(a) जड़ से तना की ओर
(b) पत्ते से जड़ की ओर
(c) दोनों ओर
(d) उपरोक्त में कोई नहीं
11. फ्लोएम में भोजन का परिवहन किस दिशा में होता है?
(a) पत्ते से जड़ की ओर
(b) जड़ से तना की ओर
(c) दोनों दिशाओं में
(d) उपर्युक्त में कोई नहीं
12. पौधों के 'जाइलम' उत्तक के संबंध में निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. इसकी अधिकांश कोशिकाएँ जीवित होती है।
2. यह खाद्य पदार्थों का स्थानांतरण करता है।
3. इसमें खाद्य पदार्थों का ऊपर एवं नीचे दोनों तरफ परिवहन होता है।
उपर्युक्त में कौन - सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1 
(b) 1 और 2
(c) केवल 2
(d) 1 और 3
13. मिट्टी में पाये जाने जल का अवशोषण सर्वप्रथम किसके द्वारा होता है ?
(a) जाइलम
(b) मूलरोम
(c) फ्लोएम
(d) पैरेनकाइमा
14. पौधे मिट्टी से किस प्रकार का जल ग्रहण करते है ?
(a) गुरूत्वीय जल 
(b) आर्द्रताग्राही जल
(c) कोशिका जल
(d) इनमें से सभी
15. विसरण की जिस विधि द्वारा जल जड़ों में प्रवेश करता है, उसे कहते है ?
(a) सक्रिय अवशोषण
(b) निष्क्रिय अवशोषण
(c) परासरण 
(d) एंडो साइटोसिस
16. जड़ के मूलरोमो द्वारा जल का अवशोषण तब होगा, जब-
(a) मृदा में लवणों की सांद्रता अधिक होगी
(b) जब पौधा तेजी से श्वसन करता है।
(c) मूलरोम, मृदा से विभेदक पारगम्य झिल्ली से अलग हो
(d) कोशिका रस में बिलेयो की सांद्रता अधिक हो 
17. निम्न कथनों पर विचार कीजिए -
1. पौधों में परिवहन का कार्य जाइलम फ्लोएम उत्तकों के द्वारा सम्पन्न होता हैं
2. पौधों में होने वाले परिवहन में वाष्पोत्सर्जन की कोई भूमिका नहीं होती है
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
18. विभिन्न प्रकार के पोषक पदार्थ का परिवहन पौधे के एक भाग से दूसरे भाग में किस विधि से होता है ?
(a) विसरण 
(b) सक्रिय परागमण (Active Transport)
(c) परासरण
(d) इनमें से कोई नही
19. पौधों में पोटाशियम लवणों का परिवहन किस विधि से होता है ?
(a) विसरण
(b) सक्रिय परागमण
(c) परासरण
(d) इनमें से कोई नहीं
20. पानी के अंदर काटे हुए फूल अधिक समय तक ताजा रहते है, क्योकि-
(a) उनको पानी की उचित आपूर्ति होती है
(b) उसका जाइलम उत्तक क्षतिग्रस्त नहीं होता है
(c) पानी का स्तंभ बुलबुलों के कारण बंद नहीं होता
(d) वह तेजी से वाष्पोत्सर्जन करता है
21. जल तथा घुलनशील लवण का मूलरोम से पत्तियों तक पहुँचने की क्रिया किस उत्तक द्वारा संपन्न होती है ?
(a) मूलरोम 
(b) जाइलम
(c) फ्लोएम
(d) कॉर्टेक्स
22. पौधों के बाहरी वायुवीय भाग से जलवाष्प के निकलने की क्रिया क्या कहलाती है ?
(a) अवशोषण
(b) वाष्पोत्सर्जन
(c) परिवहन
(d) उत्सर्जन
23. एक पेड़ अपने पूरे जीवनकाल में अपने भार के कितना गुणा जल को वाष्पोत्सर्जित करता है ?
(a) दो गुणा
(b) चार गुणा
(c) हजार गुणा
(d) सौ गुणा
24. पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया मुख्य रूप से किस भाग में होता है ?
(a) वातरंध्र 
(b) क्यूटिकल
(c) रंध्र
(d) जड़
25. पौधा में सबसे ज्यादा वाष्पोत्सर्जन किस भाग से होता है?
(a) पत्ती
(b) वायवीय तना
(c) जड़
(d) पूरा पौधा में समान रूप से होता है
26. निम्नलिखित स्थितियो में कौन-सा वाष्पोत्सर्जन को अत्यंत तेज कर देगा ?
(a) अधिक आर्द्रता
(b) मृदा में अत्यधिक जल
(c) कम आर्द्रता तथा उच्च तापमान
(d) वायु का कम वेग
27. रंध्रों खुलने और बंद होने के लिये निम्नांकित में किसकी मुख्य भूमिका रहती है ?
(a) तने की 
(b) फूलो की 
(c) जड़ों की
(d) द्वार कोशिका की 
28. रंध्रीय वाष्पोत्सर्जन किस समय बिल्कुल रूक जाता है ?
(a) प्रातः काल 
(b) शाम में
(c) रात में
(d) कभी नहीं बंद होता है
29. रंध्र दिन में ही खुलते है, क्योंकि द्वार कोशिका-
(a) पतली भित्तीवाली होती है
(b) गैसों के अदान-प्रदान में मदद करती है
(c) सेम के बीज के आकार की होती है
(d) प्रकाश संश्लेषण करती है और परासरणीय रूप से सक्रिय शर्कराओं का निर्माण करती है
30. निम्नलिखित में किस पौधे में रंध्र नहीं पाया जाता है ?
(a) जलोदभिद् 
(b) मरूदभिद्
(c) स्थलीय
(d) A तथा B दोनों
31. पत्तियों में होने वाला निम्नलिखित में कौन-सा प्रक्रम, उसके तापमान को कम करता है ?
(a) वाष्पोत्सर्जन 
(b) प्रकाश संश्लेषण
(c) श्वसन
(d) जल अपघटन
32. पौधे द्वारा मिट्टी से प्राप्त जल का कितना प्रतिशत उपयोग करते है ?
(a) 10 प्रतिशत
(b) 50 प्रतिशत
(c) 90 प्रतिशत
(d) 100 प्रतिशत
33. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों में होने से वाले वाष्पोत्सर्जन में जल की निरर्थक हानी होता है
2. पौधे में जल तथा लवणों के परिवहन हेतु वाष्पोत्सर्जन अनिवार्य है
3. वाष्पोत्सर्जन को पौधों का आवश्यक दुर्गुण माना जाता है।
उपर्युक्त में कौन-सा/से कथन सही है/ हैं ?
(a) केवल 1
(b) 2 तथा 3
(c) केवल 3
(d) उपर्युक्त सभी
34. जल के अवशोष्ण एवं परिवहन में जड़ की जाइलम वाहिकाओं में उत्पन्न होने वाले दाब को क्या कहते है ?
(a) विसरण - दाब
(b) स्फीति दाब 
(c) परासरण दाब
(d) मूल दाब
35. मूलदाब कहाँ उत्पन्न होता है?
(a) मूल रोम में
(b) अंतस्त्वचा में (Hypodermis )
(c) कॉर्टेक्स में
(d) जाइलम वाहिकाओं में 
36. मूल दाब अत्यधिक तब होता है जब-
(a) वाष्पोत्सर्जन एवं अवशोषण दोनों बहुत कम हो
(b) वाष्पोत्सर्जन एवं अवशोषण दोनों बहुत अधिक हो
(c) वाष्पोत्सर्जन अधिक हो एवं अवशोषण अत्यंत कम हो
(d) वाष्पोत्सर्जन बहुत कम हो और अवशोषण बहुत अधिक हो
37. मिट्टी में स्थित खजिन- लवणों (Minerals) का अवशोषण पौधे किस रूप में करते है ? 
(a) आयन
(b) यौगिक
(c) अणु
(d) परमाणु 
38. पौधों को अधिकांश पोषक तत्वों की आपूर्ति कहाँ से होती है ?
(a) वायु
(b) मिट्टी
(c) जल
(d) सूर्य का प्रकाश
39. पौधा के कोशिका भित्ती के लिये कौन-सा तत्व आवश्यक है ?
(a) सल्फर
(b) बोरॉन
(c) जस्ता
(d) कैल्सियम
40. निम्न कथनों पर विचार कीजिए-
1. पौधों में जल तथा घुलित खनिज लवणों के परिवहन में ऊर्जा का उपयोग नहीं होता है
2. पौधों में खाद्य-पदार्थों का फ्लोएम से होने वाले परिवहन में ऊर्जा का उपयोग होता है।
उपर्युक्त में कौन-सा /से कथन सही है/हैं ?
(a) केवल 1
(b) केवल 2 
(c) 1 तथा 2 दोनों
(d) न तो 1 न ही 2
41. निम्नलिखित में कौन-सा एक सही नही है ?
(a) परासरण के द्वारा पौधे अपने मूलरोम से भूमि से जल अवशोषित करते है
(b) पौधों की कोशिकाओं में परासरण द्वारा जल का गमण होता है
(c) पत्तियों के रंध्रों के खुलने तथा बंद होने में परासरण की कोई भूमिका नहीं होती है
(d) परासरण पौधे को मजबूती प्रदान करता है, जिससे वह अपने आकार को बनाए रखता है।
42. पौधे के कोशिकाओं की स्फीति (turgid) बनाए रखने में किस तत्व की आवश्यकता होती है ?
(a) कैल्सियम
(b) फॉस्फोरस
(c) पोटैशियम
(d) मॉलिब्डेनम
43. निम्नलिखित में कौन पौधे के वृहतपोषक के अंतर्गत नहीं आते है ?
(a) फॉस्फोरस 
(b) पोटैशियम
(c) मैग्नीशियम
(d) लोहा
44. रंध्रों (Stomata) के खुलने एवं बंद होने में किस आयन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ?
(a) सोडियम
(b) पोटैशियम
(c) सल्फर
(d) फॉस्फोरस
45. वाष्पोत्सर्जन खिंचाव (Transpiration Pull) का संबंध है-
(a) सक्रिय पारगमण से 
(b) जीवद्रव्यकुंचन से
(c) रसाकर्षण से
(d) अंतः शोषण से
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