स्वतन्त्रता के बाद भारत में नौकरशाही तथा पुलिस संगठन एवं जनांकिकीय प्रवृत्तियाँ
> नौकरशाही तथा पुलिस संगठन
‘नौकरशाही’ का अंग्रेजी भाषा का पर्यायवाची शब्द ‘ब्यूरोक्रेसी' फ्रांसीसी भाषा के 'ब्यूरो' शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ एक विभागीय उप-सम्भाग अथवा विभाग से है. यह प्रायः सरकारी विभागों का परिचायक है. फ्रांस में इस शब्द का प्रयोग ‘ड्रॉअर वाली मेज' अथवा 'लिखने की डेस्क' के लिए हुआ करता था. इसी के आधार पर निर्मित 'ब्यूरो' शब्द सरकारी कार्यों का प्रतीक समझा जाने लगा.
आधुनिक परिवेश में नौकरशाही का अर्थ शासन की उस पद्धति से लिया जाता है, जिसमें नियन्त्रण पूर्णतः अधिकारियों के हाथ में इतना अधिक होता है कि उनकी शक्ति सामान्य नागरिकों की स्वतन्त्रता के लिए बाधक हो जाती है.
भारतीय सन्दर्भ में नौकरशाही हमें स्वतन्त्रता के समय अंग्रेजों द्वारा विरासत में मिली. अंग्रेजों ने I.C.S. अफसरों की एक संगठित ऐसी फौज तैयार की जो प्रशासन के प्रत्येक भाग में पूर्णतया हावी रही. आजादी के बाद भारत के लोककल्याणकारी राज्य बन जाने के बाद भी भारतीय प्रशासक वर्ग अपनी पुरानी भावना से छुटकारा नहीं पा सका है, उसमें अभी भी अपनी पुरानी विशेषताएँ; जैसे- पद-सोपान, राजनीति से संलग्नता, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, शासन करने की अहं की प्रकृति, विशेषज्ञों की उपेक्षा आदि पायी जाती हैं.
ऊपर वर्णित सभी विशेषताएँ आज के भारतीय पुलिस संगठन में हमें आसानी से देखने को मिल सकती हैं. भारतीय पुलिस-व्यवस्था अपनी उत्पत्ति के समय से ही नौकरशाही के दोषों से ग्रसित रही है, क्योंकि 1861 ई. के एक्ट में ही इसने जिला कलेक्टर को दण्ड सीमा में बाँध दिया था. उपनिवेश-वादी इतिहास में पुलिस का जो महास्तरीय संगठन बनाया गया उसका ध्येय 'नागरिक पुलिस' बनने के बजाय ‘विधि एवं व्यवस्था पुलिस' बनाना ज्यादा रहा है.
भारतीय पुलिस का वर्तमान में बहुत अधिक राजनीतिही सम्मानित क्यों न हों, पुलिस उनका अपमान करने से नहीं करण हो चुका है. सरकार के आलोचकों को चाहे वे कितने हिचकती है. शासकों द्वारा पुलिस का प्रयोग कानून व व्यवस्था की बजाय कई बार अपने विरोधियों पर अंकुश लगाने, नेताओं द्वारा सम्बोधित की जाने वाली जनसभाओं में लोगों की भीड़ जुटाने और यहाँ तक कि धन-संग्रह करने के लिए भी किया जाता है.
पुलिस अपराधियों की रोकथाम के बजाय आधुनिक समय में उनके संरक्षण का कार्य करने लगी है. पुलिस की नाक के नीचे बड़े-बड़े अपराध होते हैं. आम जनता को पुलिस के नाम से ही घबराहट होती है, क्योंकि पुलिसव्यवस्था का स्वरूप अब न्याय दिलाने वाले संगठन के रूप में नहीं रह गया है.
आज के युग में पुलिस संगठनों में निरन्तर अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है. देश में वर्तमान में कुल 49 पुलिस एसोसिएशन्स कार्यरत् हैं, जिनमें 26 को मान्यता प्राप्त है. इन एसोसिएशनों का निर्माण पुलिसकर्मियों की माँगों एवं दिक्कतों को दूर करने के लिए किया गया है, परन्तु वास्तविकता यह है कि ये एसोसिएशन पुलिसकर्मियों के दुष्कृत्यों को संरक्षण प्रदान करते हैं तथा उन्हें बगावत के लिए उकसाते हैं. इसी कारण से महाराष्ट्र एवं गुजरात में इन एसोसिएशन्स की मान्यताएँ रद्द कर दी गयी हैं.
उपर्युक्त विवचेन पुलिस संगठन के दोषों को स्पष्ट करता है. अतः इसमें सुधार लाने के लिए सर्वप्रथम निचली सीढ़ी से कर्मचारियों की सेवा स्थिति में सुधार की महती आवश्यकता है क्योंकि पुलिस संगठन में सिपाहियों का ही जनता से सीधा सम्पर्क होता है. इनके लिए आवास व्यवस्था बेहतर वेतन, भत्ते तथा अच्छे हथियारों के आवंटन के साथ इनका कुशल प्रशिक्षण भी आवश्यक है.
बेहतर सेवा स्थिति पुलिस दल की कार्यक्षमता में सुधार कर सकती है और अधिक अच्छे लोग इसमें आने के इच्छुक हो सकते हैं.
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में पुलिस सेवाओं में बेहतर सुविधाएँ एवं कुशल प्रशिक्षण देकर पुलिस संगठन को नौकरशाही के दोषों को दूर किया जा सकता है.
> पुलिस का ढाँचा
ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के अनुसार, “ पुलिस शब्द से अभिप्राय है कानून और व्यवस्था को बनाये रखने एवं नियन्त्रित करने वाला संगठन – राज्य की अन्तरंग सरकार. " इस दृष्टि से पुलिस में वह व्यक्ति है, जिसे कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिए सरकारी कोष से वेतन दिया जाता है.
लैटिन भाषा में पुलिस का अर्थ है 'पुलिसिया' जिसका अर्थ होता है 'पोलिस' या 'राज्य' वस्तुतः पुलिस से अभिप्राय है, प्रशासन की व्यवस्था अथवा प्रशासन का नियन्त्रण. आधुनिक समय में पुलिस संगठित नागरिक अधिकारियों का वह समूह है, जिनका प्रमुख कार्य सुव्यवस्था स्थापित करना, अपराधों की रोकथाम करना तथा कानूनों को लागू करना है.
> भारत में पुलिस-व्यवस्था
भारतीय राज्य में विद्यमान पुलिस संगठनों का निर्देशन प्राथमिक रूप में 1861 ई. में बनाए गए उस पुलिस ऐक्ट से होता है, जिसका सृजनहार 1860 ई. का पुलिस कमीशन था. राज्य-स्तर पर कोई भी पुलिस संगठन स्टॉफ तथा लाइन दोनों ही प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करता है. पुलिस को भारत में तीन स्तरों पर कार्य करना पड़ता है—
(1) केन्द्रीय सरकार तथा उसकी इकाइयाँ.
(2) राज्य सरकार का गृह मन्त्रालय.
(3) जिला पुलिस अधिकारियों से सम्बद्ध अन्य निम्न स्तरीय इकाइयाँ.
राज्य पुलिस डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (D.G.P.) के निर्देशन एवं अधीक्षण में कार्य करती है. इनके कार्य में सहायता एवं सलाह देने हेतु अनेक विशेष सहायक तथा अतिरिक्त इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (I.G.P.) होते हैं, जो कि मुख्यालय पर स्थित होते हैं.
आई. जी. को दो प्रकार के उत्तरदायित्वों का वहन करना होता है—
(1) नीति-निर्माण.
(2) नीतियों का क्रियान्वयन
इसे अपने विभाग का प्रमुख कार्मिक अधिकारी होने के कारण वित्तीय प्रबन्ध एवं अनुशासन बनाये रखने के लिए व्यापक अधिकार मिले हुए हैं.
डी. आई. जी. अपनी रेंज का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी होता है. डी. आई. जी. 4 से लेकर 6 तक प्रशासनिक जिलों में पुलिस कार्यों का अधीक्षण करता है.
डी. आई. जी. एक ऐसे नए स्तर का निर्माण करता है, जो कि प्रशासन की पद-सोपान व्यवस्था में राज्य स्तर से निम्न तथा जिला स्तर से उच्च होता है. राज्य स्तर पर कार्यात्मक भूमि का नायक डी. आई. जी. अनेक आनुषांगिक कार्यों का सम्पादन करता है. उदाहरणार्थ – सी. आई. डी., विशिष्ट जानकारी, पुलिस मुख्यालयों की देखभाल तथा राज्यस्तरीय सैनिक टुकड़ियों का व्यवस्थापन इत्यादि.
> जिला पुलिस संगठन
हमारे देश में राज्य पुलिस संगठनों में जिला स्तर के पुलिस थानों का नियन्त्रण एवं नियमन करता है. इस स्तर पर सर्वोच्च अधिकारी पुलिस अधीक्षक होता है. पुलिस अधीक्षक के माध्यम से ही राज्य सरकार अपनी भूमिकाका सभी निर्वहन करती है तथा थाने इससे आदेश प्राप्त करते हैं.
उपखण्ड में पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी डिप्टी सुपरिन्टेण्डेट (Dy. S.P.) होता है, जिसका कार्य एक सर्किल में पड़ने वाले सभी थानों का अधीक्षण एवं नियन्त्रण होता है.
जिला पुलिस का कार्य क्षेत्र लगभग 3,600 वर्ग मील भूमि अथवा 12,50,000 व्यक्तियों का विस्तीर्ण होता है. इसके अलावा उसके पास एक जेल, हथियार के लिए आगार तथा कपड़े रखने का एक अन्य निवास होता है.
'पुलिस स्टेशन' अथवा 'पुलिस थाना' पुलिस संगठन की भारत में आधारभूत इकाई है. यह सभी प्रकार के अपराधों की जाँच-पड़ताल एवं प्रारम्भिक सूचनाएँ अंकित करते हैं. यह सब-इंस्पेक्टर, असिस्टेण्ट सब इंस्पेक्टर, हैड काँस्टेबल तथा काँस्टेबल के जरिये कार्य करता है. वर्तमान में देश में 5 प्रकार के पुलिस स्टेशन प्रचलन में हैं—
(1) ग्रामीण, (2) शहरी, (3) अर्द्ध-नगरीय, (4) मेट्रोपोलिटन, तथा (5) रेलवे पुलिस स्टेशन.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत में जो पुलिस संगठन का स्वरूप हमारे सामने आया है, वह शीर्ष स्तर पर डी. जी. से प्रारम्भ होकर थाने के सिपाही तक क्रमबद्ध रूप से चलता है.
> जनांकिकीय प्रवृत्तियाँ
भारत की जनांकिकीय प्रवृत्तियों का यदि इस सदी के प्रारम्भ से अध्ययन करें, तो उसमें अनेक मोड़ दिखाई पड़ते हैं. 19वीं तथा 20वीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में देश अनेक अकालों एवं महामारियों से ग्रस्त रहा, परन्तु धीरे-धीरे स्वास्थ्य सुविधाओं एवं खाद्यान्न आपूर्ति में वृद्धि हुई, जिससे जनांकिकीय बढ़ोत्तरी हुई.
1891 से 1991 ई. तक के जनगणना के आँकड़ों का अध्ययन करने पर भारत की जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्तियों में तीन अवस्थाएँ दृष्टिगत होती हैं –
1891 से 1921 तक के 30 वर्षों की प्रथम अवस्था.
1921 से 1951 तक के 30 वर्षों की द्वितीय अवस्था.
1951 से 2001 तक
1891 से 1921 तक की प्रथम अवस्था में भारत की जनसंख्या लगभग स्थिर थी.
1891 ई. में देश की कुल जनसंख्या 23.6 करोड़ थी, जो 1921 ई. में 25.1 करोड़ के स्तर तक पहुँची. जनसंख्या में केवल 1.5 करोड़ अर्थात् 0.19% प्रति वर्ष की वृद्धि हुई. इसका कारण जन्म-दर एवं मृत्यु दर दोनों का उच्च होना है.
द्वितीय अवस्था अर्थात् 1981-51 ई. की अवधि का विश्लेषण किया जाये, तो देश की कुल जनसंख्या 25-1 करोड़, से बढ़कर 36.1 करोड़ हो गयी, अर्थात् इसमें 11 करोड़ की या 1.22% प्रतिवर्ष की वृद्धि हुई. इस अवधि में मृत्यु दर में तीव्र दर से गिरावट आयी, जिसका कारण अकाल तथा महामारियों पर व्यापक नियन्त्रण लगाने में सफलता थी.
तृतीय अवस्था में 1951 ई. से वर्तमान काल तक जनसंख्या का सर्वाधिक कष्टदायक काल रहा, क्योंकि इस अवधि में जनसंख्या वृद्धि दर विस्फोटक थी, जिसमें जनसंख्या 36-1 करोड़ से उछलकर लगभग 1-2 अरब हो गयी है. इस काल में जनसंख्या वृद्धि दर सर्वाधिक (लगभग 2.13% ) रही है, क्योंकि इस काल में मृत्यु दर में अत्यधिक गिरावट तथा जन्म-दर की वृद्धि रही है. इसका कारण सरकार द्वारा नियोजित विकास की रणनीति के तहत् परिवार कल्याण कार्यक्रम को चलाना था, जिसके अन्तर्गत सीमित परिवार के साथ-साथ जनता के स्वास्थ्य सुधार पर भी ध्यान दिया गया. यद्यपि सीमित परिवार की अवधारणा को अच्छी सफलता नहीं मिली, परन्तु स्वास्थ्य सुधारों पर बल देने के कारण लोगों की जीवन - प्रत्याशा बढ़ी और मृत्यु दर में कमी आयी.
> भारत की जनसंख्या नीति (Population Policy) 1952
देश की तीव्रगति से बढ़ती जनसंख्या को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने 1952 में एक जनसंख्या नीति निर्धारित की, जिसका उद्देश्य जनसंख्या पर रोक लगाने के विभिन्न उपायों को अपनाकर उसे निर्धारित स्तर पर रोकना है. इसी उद्देश्य से सरकार ने जनसंख्या नियन्त्रण के उपायों के क्रियान्वयन हेतु पंचवर्षीय योजना में धन की विशेष व्यवस्था की और पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से अनेक कार्यक्रम चलाये गये, जिनमें से अग्रलिखित प्रमुख हैं –
1. लोगों को परिवार नियोजन के तरीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करना. इसके लिए सभी प्रसार माध्यमों अखबार, रेडियो, टी. वी. आदि का सहारा लेना.
2. ग्रामीण तथा नागरिक क्षेत्र के सभी वर्गों को गर्भनिरोधक सामग्रियों की आपूर्ति.
3. नसबन्दी कराने हेतु नकद प्रोत्साहन.
4. पुरुष तथा महिला नसबन्दी हेतु व्यापक प्रयास.
वास्तव में भारत में जिस परिवार नियोजन तकनीक को अपनाया गया है, वह किसी एक उपाय पर आधारित न होकर अनेक उपायों का समूह रहा है. इसीलिए इस कार्यक्रम को 'कैकेटेरिया उपागम' भी कहा गया.
इन उपायों के अतिरिक्त सरकार ने शिक्षा का प्रसार तथा आर्थिक समृद्धि लाने के प्रयास किये, ताकि लोग छोटे परिवार के महत्व को समझ सकें.
इस महत्त्वपूर्ण नीति के बाद 1976-77 ई. में आपातकाल के दौरान एक नई जनसंख्या नीति लागू की गयी, परन्तु सरकार के गिर जाने के बाद तुरन्त एक और नई नीति बनाई गयी. अलग-अलग पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भी नीतियाँ बनती रही हैं, परन्तु अभी तक भारतीय जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए कोई कारगर नीति नहीं बन सकी है तथा तीव्रगति से जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, जिसके कारण देश के संसाधन मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं. गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, भुखमरी, भ्रष्टाचार एवं अल्पविकास जैसी समस्याएँ देश के सम्मुख बढ़ती ही जा रही हैं.
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