जम्मू-कश्मीर: चुनौतियां
1. आजादी से लेकर वर्तमान समय तक की चुनौतियां
जम्मू-कश्मीर एक ऐसा राज्य है जिसने स्वतंत्रता के समय स्वतंत्र रहने की इच्छा जाहिर की। भारत की सरकार ने इस पर ऐतराज भी नहीं किया था क्योंकि एक तो इसकी संस्कृति अपनी पहचान वाली थी दूसरी मुस्लिम बहुल आबादी वाला राज्य होने के नाते उसे भारत छोड़ना नहीं चाहता था। भारत सरकार की मंशा यह थी कि अगर हैदराबाद के जैसे इस राज्य को मिलाया जाएगा तो हो सकता है कि पाकिस्तान सीमावर्ती राज्य होने के कारण कोई परेशानी खड़ा करे।
जब जम्मू कश्मीर के राजा ने यह कहा कि स्वतंत्र रहना है तो अधिक आपत्ति किसी को नहीं हुई पर पाकिस्तान की जो नियत थी तथा जिस नीयत के साथ उसका निर्माण ही हुआ था, वह नकारात्मक था तथा लोभ से भरा था। यदि 1947 में कश्मीर स्वत: पाकिस्तान में मिला होता तो भारत को इस पर कोई दिक्कत नहीं होती परंतु अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने जो हमला करके जबरदस्ती कश्मीर को अपने देश में मिलाने की कोशिश की वह सर्वथा असभ्य कृति थी। पाकिस्तानी सेना और पठान कबीलाईयों का आक्रमण और शेख अब्दुल्ला जैसे नेताओं के कारण जम्मू कश्मीर के राज्य का भारत में विलय का द्वार निश्चय हुआ तथा स्थिति बदल गयी।
पाकिस्तान ने इस आधार पर कश्मीर पर दावा किया कि वह मुस्लिम बहुल राज्य है। यह धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए अमान्य था जिसने दो राष्ट्र सिद्धांत को कभी स्वीकार नहीं किया था।
अब कश्मीर भारत के लिए सिर्फ जमीनी हिस्सा नहीं रह गया था वरण् समाज के मूलभूत चरित्र पर अतिक्रमण तथा भारतीय राजसत्ता की प्रतिष्ठा का प्रश्न था।
सरदार पटेल का कहना था कि अगर भारत से जम्मू कश्मीर अलग हो गया तो भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक सवाल खड़ा होगा तथा हम द्वि-राष्ट्रवाद के सिद्धांत को मानने वालों की जमात पर आकर खड़े हो जाएंगे।
अक्टूबर 1974 में कश्मीर के भारत में विलय के ठीक बाद भारत ने जम्मू कश्मीर के लोगो के लिए अंतर्राष्ट्रीय तत्वावधान में जनमत संग्रह करने का प्रस्ताव दिया था। जिससे इस पर कोई फैसले तक पहुंचा जा सके। परंतु इसमें एक शर्त थी कि जनमत संग्रह कराए जाने से पहले पाकिस्तानी सेना को कश्मीर के हिस्से जो पाक सेना के कब्जे में है उसे खुली करना होगा।
भारत को भी इस स्थिति में जनमत संग्रह के परिणाम को स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं था। लेकिन जनमत संग्रह नहीं हो पाया क्योंकि पाकिस्तान को न स्वयं पर और न कश्मीर की जनता पर विश्वास था तथा उसने शर्त के आधार को न मानकर अपनी सेना को ष्टच्वज्ञष्ठ से नहीं हटाया तथा भारत के साथ उलझ गया।
अब जम्मू कश्मीर को केन्द्र में रखकर ही पाकिस्तान अपनी नीति बनाने लगा तथा अमेरिका जैसे शक्तिशाली देशों के नजदीक होने लगा। अमेरिका भी भारत को उसके गुटनिरपेक्ष वाली नीति के कारण हतोत्साहित करना चाहता था तथा इसी तर्ज पर अमेरिका पाकिस्तान को एक आक्रामक तथा मूर्खवादी गैर समझौतावाद वाले देश के तौर पर उत्साहित करने लगा।
1956 के बाद भारत सरकार ने अपनी नीति के बारे में पाक को और विश्व समुदाय को बता दिया कि अब भारत में कश्मीर का विलय एक वास्तविकता बन गया है। तथा 1953 के बाद या पहले की स्थिति में काफी अन्तर है। अब 1953 के प्रस्तावित मुद्दे कोई प्रासंगिकता नहीं रखते। उसके बाद भारत के लिए जम्मू-कश्मीर एक अटूट हिस्सा बन गया तथा भारत ने च्ज्ञ की स्थिति को भी अंतर्मन से तत्काल स्वीकार कर लिया।
2. जम्मू-कश्मीर तथा धारा - 370
अक्टूबर 1947 में भारत में विलय के बाद जम्मू-कश्मीर में विलय के जिन दस्तावेज पर हस्ताक्षर हुए उनके द्वारा इस रियासत को भारतीय संविधान की धारा 370 के अन्तर्गत एक विशेष दर्जा प्रदान किया गया। जम्मू-कश्मीर ने भारतीय संघ में विलय सिर्फ प्रतिरक्षा विदेश और संचार मामले में ही किया था तथा अन्य सभी मामले में अपनी स्वायत्रत्ता बनाए रखी थी। इस राज्य को अपनी अलग पहचान बनाए रखने तथा अपना अलग संविधान बनाने, अलग झण्डा रखने तथा अलग राज्य प्रमुख निर्वाचित करने का अधिकार दे दिया गया।
इसका अर्थ यह था कि मौलिक अधिकारों से संबंधित भारतीय संविधान की धाराएं जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती और न ही सर्वोच्च न्यायालय चुनाव आयोग पर और भी सवैधानिक संस्थाओं जैसे महालेखाकार का वहां कोई अधिकार क्षेत्र लागू नहीं होता।
वैसे यह साफ कर देना उचित है कि 370 कोई स्थायी धारा नहीं थी तथा दूसरी तरफ यह विलय से संबंधित नहीं बल्कि केन्द्र राज्य संबंध से संबंधित थी।
1956 में जम्मू कश्मीर की संविधान सभा ने इस राज्य के भारत में विलय की मंजूरी दे दी। सालों के दौरान राज्यों के बीच जम्मू - कश्मीर की पहचान सिर्फ 370 के कारण नहीं रही। धीरे-धीरे व्यावहारिक रूप से धारा 370 के प्रावध नों की जटिलता को कम किया जाता रहा । उदाहरणस्वरूप संघ की संस्थाओं जैसे:- सर्वोच्च न्यायालय, चुनाव आयोग और महालेखा परीक्षक एवम् संविधान की मौलिक अधिकारों से संबंधित धाराओं को भी इस राज्य पर लागू कर दिया गया। इस राज्य के लिए भी कानून बनाने का संसद को अधिकार तथा राज्य सरकार के ऊपर राष्ट्रपति का नियंत्रण तथा राष्ट्रपति शासन लगाने के अधिकार को भी बढ़ा दिया गया।
उपरोक्त प्रावधानों के साथ जम्मू कश्मीर की प्रशासनिक सेवाओं को भी अखिल भारतीय सेवाओं के साथ जोड दिया गया तथा राज्य की प्रशासनिक सेवा को भारतीय प्रशासनिक सेवा के साथ एकीकृत कर दिया गया। इस बदलाव का सबसे बड़ा कदम सद-ए-रिसासत के नाम को बदलकर राज्यपाल कर दिया गया तथा प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्री कर दिया गया।
कश्मीर की आबादी के एक बड़े हिस्से ने राज्य की स्वायत्तता से संबंधित प्रावधानों में से उपरोक्त विकास या बदलाव को गलत बताया।
धारा 370 ने राज्य के भारत में संपूर्ण विलय, सरकारी सेवाओं में अधिक हिस्सा और यहां तक कि जम्मू एवम् कश्मीर से अलग करने को लेकर जम्मू में एक महान आंदोलन को जन्म दिया। इस आंदोलन के कारण कई प्रकार की समस्या का सामना करना पड़ा इस आंदोलन की सबसे बड़ी चुनौती थी कि जम्मू-कश्मीर को धर्म के आधार पर बांटने से रोकना। जम्मू-हिन्दू बहुल था तथा कश्मीर मुस्लिम बहुल था । यह राज्य अपने आप में एक धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी भूमि थी।
जम्मू में इस आंदोलन का नेतृत्व जम्मू प्रजा परिषद श्रच्च कर रही थी। अचानक 'JPP' का 'जनसंघ' में विलय हो गया। इसने इस आंदोलन को अखिल भारतीय स्तर तक उठाया। जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस मुद्दे को हर तरीके से उठाया। श्री मुखर्जी ने धारा 370 के खिलाफ तथा जम्मू-कश्मीर में भारत के पूर्ण अधिकार के लिए काफी प्रसास किए। श्री मुखर्जी ने कश्मीर को भारत का मुकुट कहा तथा इस संकल्पना को आगे किया कि कश्मीर भारत के अंग के रूप में है तथा इसे काटा नहीं जा सकता। 23 जून 1951 को श्री नगर जेल में जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्षत की संदेहास्पद स्थिति में मृत्यु हो गई। कहा गया कि उनकी हृदयगति रुक गयी है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी जेल भरो आंदोलन का नेतृत्व कर जेल चले गए थे। अब प्रजा परिषद जनसंघ से अलग हो गई तथा फिर उसकी राजनीति जटिल होती गई।
अब जम्मू कश्मीर की स्थिति तथा उससे संबंधित मुद्दों का केन्द्र बिंदु शेख अब्दुल्लाह हो गए। कश्मीर से संबंधित भारत की आंतरिक समस्याओं की शुरूआत शेख अब्दुल्लाह के साथ हुई। वे एक असाधारण साहस और निष्ठा के ध नी व्यक्ति थे। उनका एक व्यापक जनाधार था जैसा कि विपीन चन्द्रा अपनी पुस्तक में उनका गुणगान करते हैं। पर यह भी वास्तविकता थी कि अब्दुल्लाह अस्थिर दिमाग से कार्य करने वाले थे। तानाशाही प्रवृत्ति के थे तथा मनमतंत्री थे।
कश्मीर घाटी में अब्दुल्लाह की राजनीति एक पेंडुलन (दोलन) वाली हो गई। अब्दुल्लाह भारत सरकार की धर्मनि. रपेक्षता की छवि को नीचा दिखाने तथा साम्प्रादायिक ताकतों को जम्मू-कश्मीर की समस्या की जड़ को रेखांकित करते थे को ऊपर दिखाने के जी तोड कोशिश करने लगे।
शेख अब्दुल्लाह अब पूरी तरह से भारत में पूर्ण विलय करने की वकालत करने वाले राष्ट्रवादी तथा पाकिस्तान के पक्ष में विलय की वकालत करने वाले अलगाववादी के बीच एक 'दोलन बिंदु' बन गए। आखिर उनको यह पता नहीं था कि किधर जाने से कितना लाभ होगा।
शेख अब्दुल्लाह समय बीतने के साथ यह लगने लगा कि अगर स्वायत्तता तथा विलय के सीमा रेखांकन को फोकस किया जाए तो बात बन सकती है। अतः उन्हें पूर्ण स्वायत्तता की याद आयी और वह इस पर अपनी राजनीति करने लगे। धीरे-धीरे शेख अब्दुल्लाह की मांग में आक्रामकता आ गयी तथा उसने विदेशी ताकतों से भी इस स्वयत्तता के लिए मदद मांगना आरम्भ कर दिया। विशेषकर अमेरिका से ।
शेख अब्दुल्लाह ने अब अपनी राजनीति का केन्द्र बिन्दु कश्मीर की आजादी को बनाया तथा यह कहा कि हमें जितनी जल्दी स्वायत्तता मिल जाएगी, भारत के लिए उतना ही अच्छा होगा। देखें तो भारत सरकार में अब्दुल्लाह के साथ डील करने के अधिक विकल्प मौजूद नहीं थे।
नेहरू ने अब्दुल्लाह को बार-बार यही कहा कि धैर्य रखें तथा भारत पर तथा हमारी सरकार पर विश्वास रखें पर अब्दुल्लाह को कोई असर नहीं हुआ। वह कश्मीरी मुसलमानों को साम्प्रदायिक तौर पर भड़काने लगे तथा जुलाई 1953 में उन्होंने औपचारिक रूप से यह मांग की कि "कश्मीर को आजाद होना चाहिए।"
वास्तविक रूप में अब्दुल्लाह की मांग को सिर्फ इसी मुहावरे में रेखांकित किया जा सकता था कि “बेगाने की शादी में अब्दुल्लाह दीवाना" क्योंकि वह अपनी पार्टी के बहुमत के भी खिलाफ थे तथा भारत की ओर विश्वसनीय रूप से जुड़े भी नहीं थे।
उनकी पार्टी ने उनके इस विघटनात्मक व्यवहार तथा गलत रवैये का विरोध किया तथा यहां तक कि उनके मंत्रिमंडल के साथियों ने भी उन पर भ्रष्टाचार, खतरनाक रवैया तथा तानाशाही का आरोप लगाया तथा उनकी बर्खास्तगी की मांग करने लगे। उस समय अब्दुल्लाह को कश्मीर का प्रधानमंत्री कहा जाता था तथा कश्मीर में एक सद्र - ए - रियाशत भी होते थे। उन्हें ही प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी की शक्ति प्राप्त थी। इस मांग में सत्यता को देखते ही तत्कालीन सद्र - ए - रियाशत ने अब्दुल्लाह को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया तथा बख्शी गुलाम मुहम्मद को प्रधानमंत्री बना दिया। गुलाम मुहम्मद की सरकार ने अब्दुल्लाह को गिरफ्तार कर लिया। अब्दुल्लाह अब कश्मीर के लोगों के लिए हीरो बनने की कोशिश करने लगे। भारत सरकार कतई नहीं चाहती थी कि ऐसा हो । वह सदा के लिए अपनी गतिशीलता को कश्मीर में सकारात्मक रूप में दिखाना चाहती थी।
अब नेहरू को लगा कि अगर अब्दुल्लाह को रिहा करवा दिया जाए तो भारत की सरकार की प्रासंगिकता बढेगी तथा अब्दुल्लाह को भी अपनी राजनीति सकारात्मक रूप में आरम्भ करने में मदद मिलेगी। शेख नेहरू के मित्र थे तथा नेहरू को कश्मीर के लोगों के भी नजर में सकारात्मक भाव पेश करने की चाहत थी।
8 जनवरी 1958 को नेहरू की सहायता से शेख अब्दुल्लाह को रिहा कर दिया गया। हालांकि नेहरू कभी नहीं चाहते थे कि राज्य सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप किया जाए। शेख अब्दुल्लाह जेल से निकलने के बाद तीन महीने तक निष्क्रिय रहे। फिर उन्होंने अपनी साम्प्रदायिक राजनीति शुरू कर दी तथा आजादी के गीत अलापने लगे। 1 अप्रैल 1958 में उन्हें फिर गिरफतार कर लिया गया। अब्दुल्लाह को इतिहास बनाने का अवसर मिला था पर उन्होंने साम्प्रदायिक्ता तथा अवसरवाद को अपनी राजनीति का केन्द्र बिंदु मानकर इस अवसर को खो दिया।
अप्रैल 1964 में नेहरू ने अब्दुल्लाह को फिर से रिहा करवा दिया। वैसे यहां पर यह साफ कर देना आवश्यक है कि अब्दुल्लाह की नीति अभी तक नहीं बदली थी और अभी भी उसने अपने अवसरवाद तथा साम्प्रदायिक्ता को नहीं छोड़ा था पर अब इन सभी नीतियों के बीच में वह कश्मीर की जनता की आत्मा को स्वच्छन्द करने के लिए आत्म निर्णय के अधिकार को देने की बात को ले आए थे। उन्होंने कहा कि कश्मीर के लोगों को आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाए तथा इसके लिए हम संघर्ष करते रहेंगे ।
उन्हें पाकिस्तान समर्थक राजनीतिक समूहों जिसका नेतृत्व मौलवी फारूख और आवामी एक्शन कमिटी कर रही थी का भी विरोध का सामना करना पड़ रहा था। अब्दुल्लाह की कारिस्तानी के कारण उन्हें फिर 1965 में नजरबंद कर दिया गया तथा 1968 में जाकर ही उन पर से यह उठाया गया।
अब्दुल्लाह के बाद गुलाम बख्शी की सत्ता आयी। वह एक कठोर तथा निरंकुश शासक निकला। उसने व्यापक तरीके से अपने पद का दुरूपयोग किया तथा उसके शासन में भ्रष्टाचार काफी मात्रा में बढ़ गया। गुलाम बख्शी के बाद मी०एम०सादिक और फिर मीर कासिम उत्तराधिकारी बने जो इमानदार थे । परन्तु सादिक और कासिम की पहुंच दिल्ली तक कम ही थी तथा अब्दुल्लाह की तरह इसके Background भी न के बराबर थे।
कासिम और सादिक के समय एक बहुत अच्छी बात यह रही कि जहां भ्रष्टाचार कम हुआ वहीं पाकिस्तान परस्त समूहों की स्थिति ठीक नहीं रही, इसका मतलब था कि इन्हें किसी बडे निर्णय में भागीदार बनाया जाए। 1971 आते ही कुछ राजनीतिक फिजाएं परिवर्तित हो गयीं तथा यह पूर्ण रूप से परिलक्षित हो गया कि बांग्लादेश के निर्माण के बाद अब कश्मीर की प्राथमिकताएँ बदल जाएंगी। इसका असर भी हुआ। पाकिस्तान परस्त आवामी एक्शन लीग तथा अलगाववादी 'प्लेबी साइट फ्रंट' को गहरा झटका लगा तथा यह लगने लगा कि अब परिवर्तन होकर रहेगा।
अब्दुल्लाह को आंशिक तौर पर भारतीय दर्शन का बोध हो गया था तथा भारत की प्रक्रियाओं तथा कानूनों में उन्होंने विश्वास जताने की इच्छा जाहिर की। अब्दुल्लाह को यह आत्मज्ञान हो गया था कि भारत सरकार के सामने जनमत संग्रह की मांग करना बेमानी है क्योंकि जनमत संग्रह के लिए सबसे अधिक फायदे में दिखने वाले पाकिस्तान की स्थिति ऐसे ही एक हारे हुए देश की थी।
अब्दुल्लाह ने अनौपचारिक रूप से इंदिरा गाँधी को यह कहा कि 'जनमत संग्रह की मांग नहीं की जाएगी तथा इस परिस्थिति में सिर्फ कश्मीर को अधिक अधिकार देने की मांग पर वह अपनी बात रखेंगे। "
अतः लगातार 1953 से 1975 तक भटकने वाले अब्दुल्लाह को फिर कश्मीर-जम्मू का मुख्यमंत्री बना दिया गया वे तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता भी चुने गए। जुलाई 1977 में विधान समय के चुनाव हुए तथा उनकी जीत हुई। उन्होंने काफी कुछ बदलाव देखे तथा स्वयं भी बदलाव की रथ पर सवार होकर भारतीय संघ का एक अंग बनकर कार्य करने की सोच ली।
1982 में शेख अब्दुल्लाह की मृत्यु हो गई तथा उनके बेटे फारूख अब्दुल्लाह को मुख्यमंत्री बनाया गया फारूख अब्दुल्लाह के मुख्यमंत्री बनने के बाद तुरंत कोई ऐसा मुद्दा सामने नहीं आया जिसमें कोई अशांति फैले। 1983 में जून में मध्यावधि चुनाव कश्मीर में कराए गए तथा फिर एक बार नेशनल कांफ्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। परन्तु शीघ्र ही फिर एक बार फारूख अब्दुल्लाह और केन्द्र सरकार के बीच विवाद उत्पन्न हो गया।
1984 के जुलाई महीने में फारूख अब्दुल्लाह के खिलाफ एक तख्तापलट की कारवाई में उनके बहनोई जी. एम. शाह ने नेशनल कांफ्रेस को विभाजित कर दिया। केंद्र सरकार के पास अब्दुल्लाह को हटाने का एक अवसर हाथ लग गया। इंदिरा गांधी जी ने राज्यपाल जगमोहन की रिपोर्ट को गंभीरता से लेते हुए वहां पर राष्ट्रपति शासन की बात की पर राज्यपाल जगमोहन ने अब्दुल्लाह को बर्खास्त करके जी. एम. शाह को गद्दी पर बैठा दिया।
जी. एम. शाह के कार्यकाल को दुर्भाग्यपूर्ण काल माना जाता है। उनके कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों पर हमले आरम्भ हो गये तथा शाह ने कुछ ऐसा नहीं किया जिससे इस पर रोक लग सके। जी. एम. शाह एक भ्रष्ट तथा अपरिपक्व शासक निकले। मार्च 1986 में उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया बाद में 1987 में परिस्थिति में परिवर्तन आया। 1987 में फारूख अब्दुल्लाह ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव के लिए गठबंधन किया। अब कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस की सरकार बनाने की मांग जनता से की गई। सरकार बन भी गयी लेकिन जी. एम. शाह के शासन काल में आरंभ हुए हमले और हिंसा नहीं रुकी। घाटी में अलगाववादी आंदोलन जोर पकड़ने लगा।
अब घाटी में अलगाववादी समूहों जिसमें 'हिजबुल मुजाहिद्दीन', 'जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रंट' जैसों ने हिंसक विद्रोह आरंभ कर दिया इन समूहों को पाकिस्तान से नैतिक, वित्तीय तथा प्रशिक्षण सहायता दिया जाने लगा। इनकी शक्ति बढ़तो गयी तथा धीरे-धीरे इन्होंने कश्मीरी पंडितों को घाटी से निकाल दिया इन्होंने लगातार पुलिस थाने, घर तथा नागरिक प्रतिष्ठानों पर हमले आरंभ कर दिए। वी. पी. सिंह सरकार जब केंद्र में बनी तो उन्होंने अब्दुल्लाह सरकार को बर्खास्त कर दिया तथा यह एक अच्छा कदम माना गया क्योंकि राजीव गांधी के साथ फारूख अब्दुल्लाह के गठबंधन की सरकार के समय कश्मीर की हालत एकदम खराब हो गयी थी तथा दिनों दिन आतकंवादी घटनाएँ घटती जा रहीं थीं। अब वी.पी. सिहं न' 1990 म राष्टपू ति शासन कश्मीर में लगा दिया। फिर भी लगातार आतंकी घटनाएँ घटती ही गई।
वी.पी. सरकार के गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद के परिवार के एक सदस्य को आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया तथा इसके बदले सरकार को कई आतंकी को छोड़ना पड़ा। 1990 से 1996 तक लगातार कश्मीर में राष्ट्रपति शासन रहा तथा संयुक्त मोर्चा सरकार में 1996 में जम्मू-कश्मीर में विधान सभा चुनाव हुए तथा नेशनल कांफ्रेस के नेता फारूख अब्दुल्लाह को मुख्यमंत्री बनाया गया। फिर भी हुर्रियत कांफ्रेस तथा जे. के. एल. एफ. की तरफ से आजादी की मांग की जाती रही तथा इसके नेताओं को नजरबंद या जेल में डाला जाता रहा हिजबुल को आतंकी संगठन घोषित किया गया तथा स्थिति बहुत ही अप्रिय होती गयी।
फारूख अब्दुल्लाह ने अपने 6 साल का कार्यकाल पूरा किया तथा 2002 में विषम परिस्थितियों में अटल बिहारी बाजपेयी की छक्। सरकार ने जम्मू-कश्मीर में विधान सभा चुनाव कराए। 2002 का चुनाव एक अच्छा कदम माना जाता है। 2002 में परिस्थिति को देखते हुए अधिकतर कयास लगाते जा रहे थे कि चुनाव असफल हो जाएंगे परंतु ऐसा नहीं हो सका। चुनाव हुए और जमकर जनता ने मत भी दिया। जी. डी. पी. और कांग्रेस के गठबंधन को भारी-जीत मिली तथा कांग्रेस और जी.डी.पी. में 3-3 साल नेतृत्व करने के समझौते का रूप दिया गया। यह गठबंधन मुफ्ती सईद और कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के बीच का था।
2002-2005 के बीच मुफ्ती मुहम्मद सईद को मुख्यमंत्री बनाया गया तथा 2005 से 2008 तक गुलाम नवी आजाद कांग्रेस के मुख्यमंत्री बने। इनका कार्य काल खत्म होने के बाद जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर चुनाव करवाए गए तथा 2009 में नेशलन कांफ्रेस के नेता ओमर अब्दुल्लाह मुख्यमंत्री बने। 2009 के बाद जम्मू-कश्मीर में कई नये प्रयोग हुए तथा यह कहा जा सकता है कि जनता की सहभागिता लोकतंत्र में बढ़ी परंतु आतंक घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सका।
2015 में जब केंद्र में भाजपा सरकार आ गयी थी तो चुनाव कराए गए। इस 2015 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को सबसे अधिक सीटें मिली पर घाटी में सईद की पार्टी को बहुमत की सीटें मिली तथा जम्मू में भाजपा को। भाजपा और जी.डी.पी. के बीच एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार बनी तथा सईद बहुत ही अनुभवी मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्य करने लगे। 2016 में अचानक मुफ्ती मुहम्मई सईद की मृत्यु हो गई तथा कुछ दिनों तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा।
सईद के कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर की स्थिति पहले से अधिक संवेदनशील हो गयी। सईद के जाने के बाद उनकी पुत्री यानी मेंहबूबा मुफ्ती ने कार्यभार संभाला तथा भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने लगी। परंतु इनका वैचारिक आधार भाजपा के विचार से कार्य अलग था। यह पूरी तरह से दो ध्रुवों के बीच की स्थिति थी जिससे कहीं से दो पार्टी के बीच कोई समन्वयन नहीं दिख सकता था।
यह कहा जा सकता है कि कश्मीर समस्या के पीछे कहीं न कहीं विचार बिखराव भरी संकल्पना ही रही है। दिसम्बर 2017 में भाजपा ने मेहबूबा मुफ्ती से अपना समर्थन वापस ले लिया इसके अलावा भाजपा ने कभी भी कोई प्रयास नहीं किया कि उसकी जोड़-तोड की सरकार बन जाए। 1950 के दशक से ही कश्मीर राज्य की समस्या लगातार चलती आ रही है। कुछ ऐसे कारणों से भारतीय जनता की दूरी अपने ही राज्य कश्मीर में रही है। कश्मीर में मजबूत प्रशासन का सख्त अभाव रहा है। 1996 तक केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति को तत्काल रूप से कुछ दिनों के लिए ही ठीक करने का प्रयास किया तथा यह कभी कोई योजना नहीं बनायी कि इसका स्थायी समाधान कैसे निकालेगा? 2002 के समय कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अटल बिहारी बाजपेयी ने मन से प्रयास आरंभ किया।
अटल बिहारी बाजपेयी ने कश्मीर के हाल के लिए नारा दिया। 'जम्हूव्यित इंसानियत' तथा ‘कश्मीरियत', इन्हीं प.रप्रेक्षण में इन्होंने कई कदम उठाए। अटल जी की सरकार की तरफ से कई ऐसे फैसले किए गए जो सकारात्मक प्रयास का द्योतक बने। इसमें रमजान में रोजे के कारण सीजफायर करने, हुर्रियत के नेताओं के साथ बैठकों की प्रक्रिया तथा जम्मू-कश्मीर में संचार की सुविधा जैसे महत्वपूर्ण कदम शामिल थे।
2004 में अटल जी की सरकार के जाने के बाद कोई बड़ा फैसला नहीं किया गया 2014 में नरेन्द्र मोदी जी की सरकार आने के बाद सेना को स्वतंत्रता का स्तर अधिक दिया गया। क्योंकि कश्मीर में उग्रवादियों की स्थिति में क्षेत्रों की विस्तारित प्रक्रिया कम हो गई पर घनत्व अधिक हो गया।
सेनाओं पर पत्थर फेंकने तथा उपद्रव करने की प्रवृत्ति लगातार चलती रही है। सेना को अपने सफाये की कारवाई में सफलता भी मिली है। जहाँ 2014 में 6 जिले आतंकवाद से ग्रस्त थे, अब लगभग देढ़ जिले ही ऐसे हैं। मोदी सरकार की रणनीति 2017 दिसम्बर के बाद बदल सी गयी है। तबसे सरकार उग्रवादी संगठनों के साथ कड़े तरीके पेश करने की नीति पर कार्य करती रही है।
भाजपा सरकार का स्पष्ट मानना है कि कश्मीर समस्या को जड़ में धारा 370 है। महबूबा मुफ्ती की सरकार में रहने के कारण भाजपा 370 की बात को गौण की हुई थी। उससे हट जाने की स्थिति में भाजपा को लगा कि उसकी विश्वसनीयता कम हो रही है। अब फिर से भाजपा 370 हटाने की बात कह रही है।
भाजपा सरकार की उपलब्धि हमारे कश्मीर में चुनाव पंचायत करवाने की रही है। इसमें कोई हिंसा भी नहीं हुई है। परंतु आतंकी घटनाओं को रोका नहीं जा सका है। 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में हुए आत्मघाती कार विस्फोट में 40 जवानों का शहीद होना दुर्भाग्यपूर्ण रहा है।
परंतु संतोष इस बात का है कि मोदी सरकार ने अब आक्रामक नीति अपना ली है। इस सरकार के द्वारा हुर्रियत के नेताओं पर से सुरक्षा हटा दी गई है। श्रज्ञस्थ पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। हुर्रियत के सभी बैंक खाते सीज कर दिये गए है सरकार ने कश्मीर में आतंक को फंडिंग करने वालों पर कड़ी नजर रख रही है ।
इन कठोर कारवाईयों से तथा पाकिस्तान के साथ इस सरकार के कठोर व्यवहार से आशा की किरण जगी है कि कश्मीर में आतंकवाद खत्म हो जाएगा। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अपना अंग है। पाक को अगर कश्मीर पर बात करनी है तो वह च्व्ज्ञ पर बात कर ले । ऐसी भावना भारत की जनता की रही है।
जहां तक कश्मीर के लोगों की बात है, हमारी सरकार को अटल बिहारी बाजपेयी के बताए रास्ते पर चलने की अवश्यकता है।
आज जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल की सरकार जरूर है पर सरकार का प्रयास यह होना चाहिए कि एक अच्छी सरकार बने तथा जनता के भले का काम हो। सबसे अधिक प्राथमिकता इस बात की है कि शेष भारत के लोगों को जम्मू-कश्मीर अपना घर लगे तथा अपनी स्थिति में रचने बसने जैसा माहौल बने और यह एक महान राजनीति इच्छा शक्ति के बिना संभव नहीं है।
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