स्वातंत्र्योत्तर काल में आर्थिक नीतियाँ एवं योजना प्रक्रिया एवं राज्यों का पुनर्गठन
> आर्थिक नीतियाँ तथा योजना प्रक्रिया
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद देश के चहुँमुखी विकास के लिए जिस आर्थिक नीति को अपनाया उसे ‘नियोजित आर्थिक’ विकास कहा जाता है. इसके अन्तर्गत पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश में आर्थिक समृद्धि और आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का प्रयास देश के द्वारा किया जा रहा है. यद्यपि मूल रूप से नियोजन समाजवादी अर्थ - व्यवस्था का साधन रहा है, परन्तु वर्तमान में पूँजीवादी देश भी इस व्यवस्था को अपनाकर अपने देश के विकास के लिए प्रयासरत् हैं. देश के आर्थिक विकास के लिए योजना निर्माण का कार्य योजना आयोग करता है, परन्तु इससे पूर्व की व्यवस्था के लिए हमें आजादी से पूर्व के परिप्रेक्ष्य को जानना आवश्यक होगा.
आजादी से पूर्व ही अनेक विद्वानों, उद्योगपतियों और नेताओं ने देश के आर्थिक विकास हेतु 1930 ई. के दशक में कई योजनाएँ प्रस्तुत की जो निम्नलिखित
हैं—
(1) विश्वेश्वरैया योजना — 1934 ई. में प्रसिद्ध इंजीनियर विश्वेश्वरैया ने अपने शोध ग्रन्थ 'The Planed Economy of India' में देश के आर्थिक विकास के लिए एक योजना प्रस्तुत की, जिससे कि 10 वर्षों में ही देश की राष्ट्रीय आय दोगुनी हो जाती. इस योजना में कृषि से अतिरिक्त श्रम को स्थानान्तरित कर उसे उद्योगों में लगाने की बात प्रमुखता से थी.
(2) कांग्रेस योजना – 1938 ई. में कांग्रेस शासित राज्यों के उद्योगमन्त्रियों की एक बैठक में देश की गरीबी एवं बेरोजगारी, राष्ट्रीय सुरक्षा एवं आर्थिक विकास हेतु औद्योगीकरण को अनिवार्य मानते हुए इसके लिए एक व्यापक योजना बनाने का प्रस्ताव रखा गया, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष बोस ने नेहरूजी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय समिति (National Planning Committee) की स्थापना की.
(3) गांधी योजना – यह योजना का प्रतिपादन प्रसिद्ध गांधीवादी अर्थशास्त्री एस. एन. अग्रवाल द्वारा प्रतिपादित की गयी. इसमें 3000 करोड़ रुपये के विनियोग का प्रावधान किया गया था. इसकी एक अन्य विशेषता यह थी कि इसमें उद्योगों के स्थान पर कृषि को अधिक महत्त्व दिया गया था. साथ ही आत्मनिर्भर गाँवों पर आधारित विकेन्द्रित आर्थिक संरचना तैयार करने पर बल दिया गया था.
(4) अर्थशास्त्रियों की मुदालियर समिति – 1941 ई. में विभिन्न अर्थशास्त्रियों की एक समिति ने रामास्वामी मुदालियर के नेतृत्व में ट्रान्सपोर्ट, बैंकिंग उद्योग, वाणिज्य, मुद्रा एवं विदेशी मुद्रा के विकास से सम्बन्धित सैद्धान्तिक नीतियों के निर्धारण हेतु सुझाव प्रस्तुत किये.
(5) बोम्बे प्लान – आठ उद्योगपतियों ने देश के आर्थिक विकास हेतु 1944 ई. में एक योजना प्रस्तुत की, जो बोम्बे प्लान (A Plan of Economic Development) के नाम से जानी जाती है. 10,000 करोड़ रुपये की यह योजना कृषि की तुलना में उद्योगों को अधिक महत्त्व देती थी.
(6) पीपुल्स प्लान – एम. एन. रॉय ने 15,000 करोड़ रुपये की एक विस्तृत 10 वर्षीय योजना प्रस्तुत की, जो कृषि एवं उद्योगों का तीव्र विकास करके लोगों के जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति कराने पर बल देता था.
ऊपर वर्णित सभी योजनाएँ केवल ऐतिहासिक महत्व की हैं, क्योंकि इनका कभी भी क्रियान्वयन नहीं हो सका, फिर भी इनका महत्त्व इसलिए है कि इन्होंने नियोजन के महत्त्व को स्पष्टतया रेखांकित किया.
राष्ट्र के विकास के लिए स्वतन्त्रता के बाद सरकार ने मार्च 1950 ई. में प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में 'योजना आयोग' (Planning Commission) का गठन किया गया, जिसे देश के विकास की रणनीति निर्धारित करने का दायित्व दिया गया. इसकी सिफारिश के आधार पर ही देश में प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) लागू की गयी.
> आर्थिक नियोजन के उद्देश्य
भारत में आर्थिक नियोजन के उद्देश्यों का निर्धारण योजना आयोग द्वारा निम्नलिखित बिन्दुओं में किया गया है
1. उत्पादन को अधिकतम करना, ताकि राष्ट्रीय और प्रति
2. व्यक्ति आय के उच्च स्तरों को प्राप्त किया जा सके. पूर्ण रोजगार की प्राप्ति.
3. आय और सम्पत्ति की असमानता को घटाना.
4. समानता और न्याय पर आधारित एक समाजवादी समाज की स्थापना और शोषण का अन्त.
ऊपर वर्णित आदर्श उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है परन्तु अभी भी हम लक्ष्य से बहुत दूर हैं. देश में गरीबी निरन्तर बढ़ती जा रही है तथा धनी वर्ग और अधिक धनी होता जा रहा है.
देश के विकास के लिए बनाई गयी योजनाओं में राष्ट्रीय आय और आर्थिक संवृद्धि पर अधिक जोर दिये जाने से रोजगार के अवसर कम हुए हैं तथा सम्पत्ति का अत्यधिक केन्द्रीयकरण हुआ है, जिसके कारण हम अपने वास्तविक आदर्श उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रहे हैं.
> भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति
जे. एम. कीन्स ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और समाज - वादी अर्थव्यवस्था को मिलाकर एक नवीन मिश्रित अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया, जिसमें कि इन दोनों व्यवस्थाओं का समावेश था.
भारत ने भी इसी व्यवस्था को अपनाया. निजी क्षेत्र की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका के साथ-साथ सरकार ने भी भारी मात्रा में देश में निवेश किया है. वास्तव में भारतीय नीति-नियन्ताओं ने देश के तीव्र आर्थिक विकास के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से ही आर्थिक अधःसंरचना (Inter structure) की स्थापना का समर्थन किया है. इसी उद्देश्य से नियोजन को अपनाया गया. इस निवेश में सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा आधे से भी अधिक रहा. देश में आर्थिक विकास में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की स्पष्ट भागीदारी रही है. कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं, जहाँ ये दोनों क्षेत्र संयुक्त रूप से कार्यरत् हैं.
मिश्रित अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए नियोजन एक आवश्यक तत्व बन जाता है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र जिन महान् आदर्श उद्देश्यों को सामने रखकर क्रियाशील होता है, उनकी आपूर्ति के लिए आवश्यक है कि उसे नियोजित रूप से सही दिशा में क्रियाशील किया जाये. सरकार ने इस हेतु विशालकाय उद्योगों की स्थापना की, गरीबी के निवारण हेतु अनेक कार्यक्रम चलाये, बैंकिंग, बीमा आदि सेवाओं का क्रियान्वयन एवं नियन्त्रण अपने हाथों में रखा. कृषि के विकास हेतु आर्थिक अनुदान प्रदान किया.
सार्वजनिक क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ-साथ भारत में निजी क्षेत्र का महत्व भी अधिकतम है क्योंकि योजनागत व्यय का आधा हिस्सा निजी क्षेत्र के द्वारा ही खर्च होता है. भारी रसायन, ओटोमोबाइल, सीमेण्ट, उर्वरक, वस्त्र आदि उद्योगों में निजी क्षेत्र की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका है.
> योजना प्रक्रिया
योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत विकास के उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु सरकार ने कुछ ऐसी नीतियों का निर्धारण किया, जिससे कि कृषि के विकास के साथ-साथ औद्योगिक आधार को भी मजबूती प्रदान की जा सके और देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सके.
देश के सम्मुख प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह उद्देश्य रखा गया था कि समाजवादी समाज की स्थापना के साथसाथ उत्पादन को भी उच्चतम रखा जाये. अतः इस महत्त्वपूर्ण उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही समस्त नीतियों का निर्धारण किया गया.
देश के विकास के लिए जिस व्यवस्था को अपनाया गया है, वह पंचवर्षीय योजना प्रणाली ही थी, जो कि निम्नलिखित प्रकार से है—
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1950-51-1955-56)
इस योजना के समय देश में खाद्यान्न की समस्या सर्वप्रमुख थी तथा द्वितीय विश्व युद्ध के कारण देश की अर्थव्यवस्था डगमगाई हुई थी. अतः अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के उद्देश्य से सिंचाई, परिवहन, संचार आदि पर विशेष ध्यान दिया गया. इसके साथ ही कृषि के विकास के लिए प्रयास किए गए.
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1955-56-1960-61)
यह योजना प्रो. पी. सी. महालनोबिस की 'ऑपरेशनल अनुसन्धान पद्धति' पर आधारित थी. इसमें औद्योगीकरण को तीव्र करने के लिए आधारभूत उद्योगों के विकास पर अधिक बल दिया गया. अतः भारी उद्योगों की स्थापना की गयी; जैसे – लोहा, इस्पात, रसायन आदि.
तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-62-1965-66)
यह योजना जॉन सैण्डी तथा प्रो. चक्रवर्ती द्वारा निर्मित संवृद्धि के आधार पर बनाई गयी थी. इस योजना में कृषि और उद्योग का विकास, आर्थिक एवं सामाजिक विकास, राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक विकास, घरेलू एवं विदेशी साधनों की उपलब्धता आदि के लिए सन्तुलित रूप से प्रयास करने पर बल दिया गया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि देश के विकास के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद योजना आयोग के माध्यम से नीतियों का निर्माण कर पंचवर्षीय योजना के रूप में सरकार निरन्तर प्रयास कर रही है. हालांकि अभी तक हम अपनी समस्याओं पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त नहीं कर सके हैं, फिर भी हमें काफी उत्साहजनक सफलता मिली है.
राज्यों का भाषा वैज्ञानिक पुनर्गठन
> भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की समीक्षा
देश के स्वतन्त्र हो जाने के बाद ब्रिटिश भारत एवं देशी राज्यों को मिलाकर सरदार पटेल ने संघीय भारत के निर्माण का महान् कार्य किया, परन्तु नवगठित राज्यों द्वारा यह माँग बार-बार उठायी जाती थी कि अंग्रेजों ने जैसे-जैसे भारत को जीता वैसे-वैसे ही नये राज्यों का गठन किया. इसके लिए उन्होंने किसी सिद्धान्त या नियम को नहीं अपनाया. अतः राज्यों का नये सिरे से पुनर्गठन आवश्यक है.
> भाषा के आधार पर प्रान्तों के गठन की माँग
आजादी से बहुत पूर्व 1920 ई. में कांग्रेस ने किसी एक आधार पर राज्यों के गठन की माँग को स्वीकार कर लिया था. परन्तु स्वतन्त्रता के बाद जब कांग्रेस सरकार ने इस तरफ ध्यान न देकर अंग्रेजों की भाँति नई इकाइयों का गठन करना जारी रखा तो लोगों में भाषा व संस्कृति के आधार पर प्रान्तों के पुनर्गठन की माँग उठने लगी. प्रारम्भिक तीन-चार वर्षों में कांग्रेस ने इस माँग की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया. उसे यह आशंका उत्पन्न हो गयी थी कि भाषा व संस्कृति के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने से विघटनकारी प्रवृत्तियों को बल मिलेगा, जिससे देश की राजनैतिक व सांस्कृतिक एकता के लिए खतरा उत्पन्न हो जायेगा परन्तु इस समस्या ने व्यापक आन्दोलन का रूप धारण कर लिया. आन्ध्र में भाषा के आधार पर राज्य की स्थापना को लेकर उग्र आन्दोलन हुए तथा साथ में मद्रास प्रान्त दंगों की लपेट में आ गया. जब स्थिति अनियन्त्रित हो गयी तब विवश होकर भारत सरकार को अक्टूबर 1953 ई. में मद्रास प्रान्त के 'तेलुगू भाषी' लोगों को अलग-अलग कर एक नये आन्ध्र राज्य की स्थापना करनी पड़ी. इस प्रकार भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग को लेकर जन-आन्दोलन को यह पहली सफलता मिली.
> राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति
आन्ध्र राज्य की स्थापना ने इस आन्दोलन को शक्ति एवं गति प्रदान की, जिससे अन्य राज्यों में भी भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की माँग जोर पकड़ने लगी. सरकार दंगे-फसाद का दृश्य दोहराना नहीं चाहती थी. अतः दिसम्बर 1953 ई. में प्रधानमन्त्री नेहरूजी ने घोषणा की कि भारत सरकार राज्यों के पुनर्गठन के विषय में शीघ्र ही एक आयोग नियुक्त करेगी सरकार ने तीन सदस्यों वाला एक आयोग गठित कर दिया, जो 'राज्य पुनर्गठन आयोग' कहलाया. फजल अली को इसका अध्यक्ष तथा पं. हृदयनाथ कुंजरू और सरदार पाणिक्कर को इसका सदस्य नियुक्त किया गया. आयोग ने देशभर का दौरा कर प्रत्येक क्षेत्र के नेताओं, अधिकारियों, गणराज्य के नागरिकों आदि से व्यापक विचार-विमर्श करने के बाद अक्टूबर 1955 ई. में अपना एक विस्तृत प्रतिवेदन (Report) प्रस्तुत किया.
राज्य पुनर्गठन आयोग ने निम्नलिखित 16 राज्यों की सिफारिश की –
(1) पंजाब (हिमाचल प्रदेश और पंजाब)
(2) उत्तर प्रदेश
(3) बिहार
(4) बंगाल
(5) असम
(6) उड़ीसा
(7) आन्ध्र
(8) तमिलनाडु
(9) कर्नाटक
(10) केरल
(11) हैदराबाद
(12) बम्बई
(13) विदर्भ
(14) मध्य प्रदेश
(15) राजस्थान
(16) जम्मू-कश्मीर
इन राज्यों के अतिरिक्त आयोग ने तीन केन्द्रीय क्षेत्रों की सिफारिश की
(1) दिल्ली
(2) मणिपुर
(3) अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह.
> राज्य पुनर्गठन अधिनियम (1956 जुलाई)
इस समय आयोग ने अलग महाराष्ट्र और अलग गुजरात राज्य की माँग को अस्वीकार कर लिया तथा उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, असम आदि राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया, जिसके कारण इन क्षेत्रों में व्यापक आगजनी तथा दंगे हुए. तत्कालीन केन्द्रीय वित्तमन्त्री देशमुख जब पृथक् महाराष्ट्र की स्थापना के लिए नेहरूजी को नहीं मना पाये तो इस प्रश्न पर मन्त्रिपद से त्यागपत्र दे दिया. संसद के दोनों सदनों में इस विषय पर जोरदार बहस होती रही और अन्त में जुलाई 1956 ई. में संसद ने इस अधिनियम को पारित कर दिया. आयोग की रिपार्ट में कुछ परिवर्तन किये गये पंजाब व पेप्सु को मिलाकर एक राज्य बना दिया गया, परन्तु हिमाचल को केन्द्रीय क्षेत्र बना दिया गया. बम्बई राज्य का आकार बढ़ा दिया गया. हैदराबाद के कुछ भागों को मैसूर में मिला दिया गया बदले में तेलंगाना क्षेत्र को आन्ध्र में मिलाया गया. मध्य प्रदेश व केरल दो राज्य बना दिये गये.
इस अधिनिमय के द्वारा राजप्रमुखों के पद को समाप्त कर दिया गया. राज्यों में राज्यपाल के पद का सृजन किया गया. इस अधिनियम द्वारा राज्यों की 'क, ख, ग, घ' श्रेणी को समाप्त कर दिया गया तथा केवल दो इकाइयाँ राज्य तथा केन्द्रीय क्षेत्र रखी गयीं.
1956 ई. के इस अधिनियम के अनुसार कुल राज्यों की संख्या 14 निर्धारित की गयी थी तथा 6 केन्द्रीय प्रदेश थे.
इस अधिनियम द्वारा नई व्यवस्था करने के बाद भी महाराष्ट्र एवं गुजरात में आन्दोलन जारी रहे. फलतः मई 1960 ई. में बम्बई राज्य के दो टुकड़े महाराष्ट्र (राजधानी बम्बई), (2) गुजरात ( राजधानी अहमदाबाद) कर दिये गये,
असम राज्य में अब भाषा के आधार पर नागा जातियों ने पृथक् राज्य के निर्माण के लिए आन्दोलन किया, जिसके कारण इन राज्यों का गठन अगस्त 1962 ई. में एक संशोधन विधेयक पारित कर नगालैण्ड का निर्माण किया गया.
नगालैण्ड के निर्माण के बाद हरियाणा, पंजाब से अलग होने के लिए आन्दोलनरत् हो गया, परिणामस्वरूप नवम्बर 1966 को पंजाब से हरियाणा पृथक् हो गया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में स्वतन्त्रता के बाद से विभिन्न कारणों; जैसे- भाषा, भौगोलिक क्षेत्र आदि के कारण पृथक् राज्यों के निर्माण की माँग समय-समय पर उठती रही है और नये राज्यों का निर्माण अभी भी जारी है. अभी हाल ही में तीन नये राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवं उत्तरांचल प्रकाश में आये हैं तथा इसके अतिरिक्त भी अन्य राज्यों के गठन की माँग को लेकर लोग आन्दोलनरत् हैं.
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..