संसदीय समितियां
संसद इतनी दुर्वह अथवा भारी-भरकम संस्था है कि वह अपने समक्ष • लाए गए विषयों का प्रभावकारी ढंग से स्वयं निष्पादन नहीं कर सकती। संसद के कार्य विविध जटिल और वृहद हैं। साथ ही संसद के पास न तो पर्याप्त समय है, न ही आवश्यक विशेषज्ञता, जिससे कि समस्त विधायी उपायों तथा अन्य मामलों की गहन छानबीन कर सके। यही कारण है कि अनेक समितियां इसे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मदद करती हैं ।
भारत के संविधान में ऐसी समितियों का अलग-अलग स्थानों एवं संदर्भों में उल्लेख आता है, लेकिन इन समितियों के गठन, कार्यकाल तथा कार्यों आदि के सम्बन्ध में कोई प्रावधान नहीं मिलता। इन सभी मामलों के बारे में संसद के दोनों सदनों के नियमन ही प्रभावी होते हैं । इस प्रकार एक संसदीय समिति वह समिति है:
- जो सदन द्वारा नियुक्त अथवा निर्वाचित होती है अथवा जिसे लोकसभा अध्यक्ष/सभापति' नामित करते हैं।
- जो लोकसभा अध्यक्ष/सभापति के निर्देशानुसार कार्य करती है।
- जो अपनी रिपोर्ट (अपना प्रतिवेदन) सदन को अथवा लोकसभा अध्यक्ष/सभापति को सौंपती है।
- जिसका एक सचिवालय होता है, जिसकी व्यवस्था लोकसभा/राज्यसभा सचिवालय करता है।
परामर्शदात्री समिति भी संसद सदस्यों से ही गठित होती है लेकिन यह संसदीय समिति नहीं होती क्योंकि यह उपरोक्त चार शर्तों को पूरा नहीं करती।
मोटे तौर पर संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं-स्थायी समितियां तथा तदर्थ समितियां स्थायी समितियां स्थायी प्रकृति की होती हैं। जो निरंतरता के आधार पर कार्य करती हैं, जिनका गठन प्रत्येक वर्ष अथवा समय-समय पर किया जाता है। तदर्थ समितियों की प्रकृति अस्थायी होती है तथा जिस प्रयोजन से उनका गठन किया जाता है वह समाप्त होते ही इनका कार्यकाल भी समाप्त हो जाता है, ये अस्तित्व में नहीं रह जातीं ।
स्थायी समितियां
कार्य की प्रकृति के आधार पर स्थायी समितियों का निम्नलिखित छह कोटियों में वर्गीकरण किया जा सकता है:
1. वित्त समितियां
क. लोक लेखा समिति
ख. प्राक्कलन समिति
ग. सार्वजनिक उद्यमों के लिए गठित समिति (सार्वजनिक उद्यम समिति)
2. विभागीय स्थायी समितियां ( 24 )
3. जांच के लिए गठित समितियां (जांच समितियां )
क. याचिका अथवा आवेदन के लिए गठित समिति (याचिका समिति)
ख. विशेषाधिकार समिति
ग. आचार समिति
4. परीक्षण एवं नियंत्रण के लिए गठित समितियां
क. सरकारी आश्वासन समिति
ख. अधीनस्थ विधायन समिति
ग. विचारार्थ प्रस्तुत विषयों के लिए गठित समिति
घ. अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति कल्याण समिति च. महिला सशक्तीकरण समिति
छ. लाभ के पदों के लिए गठित संयुक्त समिति'
5. सदन के वैनन्दिन कार्यों से सम्बन्धित समितियां
क. कार्य सलाहकार समिति
ख. सदस्यों के निजी विधेयकों एवं संकल्पों के लिए गठित समिति
ग. विनियम समिति
घ. सदन की बैठकों से सदस्यों की अनुपस्थिति के लिए गठित समिति
6. सदन समितियां अथवा सेवा समितियां ( सदस्यों को सुविधाएं अथवा सेवाएं प्रदान करने वाले प्रावधानों से सम्बन्धित )
क. सामान्य प्रयोजन समिति
ख. सदन समिति
ग. पुस्तकालय समिति
घ. सदस्यों के वेतन-भत्तों के लिए संयुक्त समिति
तदर्थ समितियां
तदर्थ समितियों को दो कोटियों में विभाजित कर सकते हैं- जांच समितियां एवं सलाहकार समितियां |
- जाँच समितियों का गठन समय-समय पर किया जाता है। इसके लिए दोनों सदनों में से किसी के भी द्वारा इस आशय का एक प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है। अथवा इनका गठन विनिर्दिष्ट विषयों पर जांच करने एवं प्रतिवेदन तैयार करने के लिए लोक सभा अध्यक्ष/ सभापति द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए:
- राष्ट्रपति अभिभाषण के दौरान कतिपय सदस्यों के आचरण की जांच के लिए गठित समिति
- पंचवर्षीय योजना के प्रारूप के लिए गठित समिति
- रेल सभा समिति' (Railway Convention Committee)
- संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (डच्स कै) के लिए गठित समिति
- बोफोर्स संविदा (ठेके) के लिए संयुक्त समिति छ. उर्वरक मूल्य निर्धारण के लिए संयुक्त समिति
- प्रतिभूतियों एवं बैंकों के लेनदेन में हुई अनियमितता की जाँच के लिए संयुक्त समिति
- शेयर बाजार घोटाले पर गठित संयुक्त समिति ट. संसदीय संकुल की सुरक्षा के लिए संयुक्त समिति
- संसद सदस्यों, राजनीतिक दलों के कार्यालयों तथा लोकसभा सचिवालय के अधिकारियों को कम्प्यूटर के प्रावधान के लिए समिति
- संसद भवन संकुल में खाद्य प्रबंधन के लिए समिति
- संसद भवन परिसर में राष्ट्रीय नेताओं तथा सांसदों के चित्र / मूर्तियां स्थापित करने के लिए गठित समिति
- संसद भवन संकुल के विकास तथा विरासत चिह्नों के अनुरक्षण (रख-रखाव) के लिए समिति
- संसद सदस्यों के साथ सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रोटोकॉल (नयाचार) परम्पराओं के उल्लंघन, अवमाननापूर्ण व्यवहार की जांच के लिए समिति
- दूरसंचार अनुज्ञप्तियों (लाइसेंसों) तथा स्पेक्ट्रम के आवंटन तथा मूल्य निर्धारण से सम्बन्धित मामलों की जांच के लिए संयुक्त समिति
- सलाहकार समितियों के अंतर्गत विधेयकों के लिए गठित प्रवर तथा संयुक्त समितियां सम्मिलित होती हैं, जिनका गठन किसी विशेष विधेयक के बारे में विचार करने तथा प्रतिवेदन देने के लिए किया जाता है। ये समितियां अन्य तदर्थ समितियों से इस अर्थ में भिन्न होती हैं कि ये विधेयकों से ही सम्बन्धित होती हैं और इनके द्वारा जो कार्य पद्धति अपनाई जाती है वे 'कार्य पद्धति के नियमों" तथा लोकसभा अध्यक्ष/सभापति के निर्देशों में उल्लिखित होती हैं।
जब किसी सदन में कोई विधेयक सामान्य चर्चा के लिए लाया जाता है, तब सदन चाहे तो उसे सदन की प्रवर समिति को अथवा दोनों सदनों की संयुक्त समिति को संदर्भित कर सकता है। इस आशय का प्रस्ताव सदन में लाया और स्वीकार किया जाता है। यदि विधेयक को संयुक्त समिति को संदर्भित करने के लिए प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो इस निर्णय से दूसरे सदन को भी इस अनुरोध के साथ अवगत करा दिया जाता है कि उक्त समिति के लिए अपने सदस्यों को नामित करे।
प्रवर समिति या संसदीय समिति विधेयक पर उसी प्रकार प्रावधान-दर- प्रावधान विचार करती है जैसे कि दोनों सदन किसी विधेयक पर विचार करते हैं। समिति के सदस्य विभिन्न प्रावधानों पर संशोधन भी प्रस्तावित कर सकते हैं। समिति विधेयक में रुचि रखने वाले विभिन्न संघों, सार्वजनिक निकायों अथवा विशेषज्ञों द्वारा साक्ष्य भी ग्रहण कर सकती है। विधेयक पर इस प्रकार विचार करने के पश्चात् समिति अपना प्रतिवेदन सदन को सौंप देती है। जो सदस्य बहुमत से सहमत नहीं होते वे प्रतिवेदन में अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं।
लोक लेखा समिति
इस समिति का गठन भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अंतर्गत पहली बार 1921 में हुआ और तब से यह अस्तित्व में है। वर्तमान में इसमें 22 सदस्य हैं ( 15 लोकसभा से तथा 7 राज्य सभा से) । प्रतिवर्ष संसद द्वारा इसके सदस्यों में से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के अनुसार एकल हस्तांतरणीय मत के माध्यम से लोक लेखा समिति के सदस्यों का चुनाव किया जाता है। इस प्रकार इसमें सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाता है। सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है। समिति में किसी मंत्री का निर्वाचन नहीं हो सकता। समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लोकसभा सदस्यों में से की जाती है 1967 से एक परम्परा चली आ रही है कि समिति का अध्यक्ष विपक्षी दल से ही चुना जाता है।
समिति के कार्यों के अंतर्गत नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) के वार्षिक प्रतिवेदनों की जाँच प्रमुख है, जो कि राष्ट्रपति द्वारा संसद में प्रस्तुत किया जाता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक राष्ट्रपति को तीन प्रतिवेदन सौंपता है- विनियोग लेखा पर लेखा-परीक्षा प्रतिवेदन, वित्त लेखा पर लेखा परीक्षा प्रतिवेदन तथा सार्वजनिक उद्यमों पर लेखा परीक्षा प्रतिवेदन |
समिति सार्वजनिक व्यय में तकनीकी अनियमितता की जांच मात्र कानूनी या औपचारिक दृष्टिकोण से ही नहीं करती बल्कि अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखने के अतिरिक्त समझदारी और विवेक तथा उपयुक्तता के दृष्टिकोण से भी करती है, ताकि अपव्यय, क्षति, भ्रष्टाचार, अक्षमता तथा निरर्थक खर्चों के मामले सामने लाए जा सकें।
विस्तार में जाने के लिए समिति के निम्नलिखित कार्य हैं:
- केन्द्र सरकार के विनियोग लेखा तथा वित्त लेखा की जांच करने के साथ ही लोकसभा में प्रस्तुत किसी अन्य लेखा की भी जांच करना। विनियोग लेखा वास्तविक खर्च की तुलना संसद द्वारा स्वीकृत खर्च से करता है, जबकि वित्त लेखा केन्द्र सरकार के भुगतानों तथा प्राप्तियों को दर्शाता है।
- विनियोग लेखा तथा इस पर आधारित नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) के लेखा प्रतिवेदन की संवीक्षा के दौरान समिति को निम्नलिखित मुद्दों पर आश्वस्त हो लेना पड़ता है:
- कि जिसे पैसा भुगतान किया गया वह प्रयुक्त सेवाओं अथवा उद्देश्यों के लिए वैधानिक रूप से उपलब्ध था।
- कि खर्च उस प्राधिकार के समनुरूपता में था जो उसका प्रशासन करता है।
- कि प्रत्येक पुनर्विनियोग सम्बन्धित नियमों के अनुसार ही है।
- राज्य निगमों, व्यापार संस्थानों तथा विनिर्माण परियोजनाओं के लेखा तथा इन पर सी.ए.जी. के लेखा परीक्षा प्रतिवेदन की जांच करना (उन सार्वजनिक उद्यमों को छोड़कर जो कि 'सार्वजनिक उद्यमों पर गठित समिति' को आवंटित हैं)।
- स्वशासी एवं अर्द्ध-स्वशासी निकायों के लेखा की जांच, जिनका लेखा परीक्षण सी.ए.जी. के द्वारा किया जाता है।
- किसी भी प्राप्ति (receipt) से सम्बन्धित सी.ए.जी. के प्रतिवेदन पर विचार करना अथवा भण्डारों एवं प्रतिभूतियों के लेखा की जांच करना।
- किसी वित्तीय वर्ष में किसी भी सेवा के मद में खर्च राशि की जांच करना, यदि वह राशि उस मद में खर्च करने के लिए लोकसभा द्वारा स्वीकृत राशि से अधिक है।
उपरोक्त कार्यों को संचालित करने में समिति को सी ए जी सहयोग करता है। वास्तव में सी ए जी, मित्र, दार्श व पथप्रदर्शक की भूमिका में होता है।
समिति द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के बारे में अशोक चंदा, जो कि स्वयं सी. ए. जी. रह चुके हैं, कहते हैं, “विगत वर्षों में समिति ने यह अपेक्षा भली-भांति पूर्ण की है कि इसे स्वयं को सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण के लिए एक शक्तिशाली बल के रूप में विकसित करना चाहिए। यह दावा किया जा सकता है कि लोक लेखा समिति द्वारा स्थापित परम्पराएं और इसके द्वारा विकसित परिपाटियां संसदीय लोकतंत्र की उच्चतम परम्पराओं के समनुरूपता में हैं।
तथापि समिति की भूमिका की प्रभावकारिता निम्नलिखित कारणों से सीमित हो जाती है:
- यह व्यापक अर्थों में नीतिगत प्रश्नों से अलग रहती है।
- यह लेखा के 'शव-परीक्षण' जैसा कार्य करती है (क्योंकि खर्च तब तक किया जा चुका होता है)।
- यह दैनंदिन के प्रशासन में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
- इसकी अनुशंसाएँ परामर्श के रूप में होती हैं तथा मंत्रालयों पर बाध्यकारी नहीं होती।
- इसमें विभागों द्वारा खर्चों पर रोक की शक्ति निहित नहीं की जाती।
- यह कोई कार्यकारी निकाय नहीं है, इसलिए यह आदेश नहीं कर सकती। इसके निष्कर्षों पर केवल संसद कोई अंतिम निर्णय ले सकती है।
प्राक्कलन समिति
इस समिति का उत्स 1921 में स्थापित स्थाई वित्तीय समिति में देखा जा सकता हैं। स्वतंत्रता - पश्चात पर पहली बार जॉन मथाई की सिफारिश पर 1950 में पहली प्राक्कलन समिति का गठन किया गया। मथाई उस समय वित्त मंत्री थे। मूलत: इसमें 25 सदस्य थे लेकिन 1956 में इसकी सदस्य संख्या बढ़ाकर 30 कर दी गई। ये तीसों सदस्य लोकसभा सदस्य होते हैं। इस समिति में राज्य सभा का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। इसके सदस्यों का चुनाव प्रतिवर्ष लोकसभा द्वारा इसके सदस्यों में से किया जाता है और इसमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का पालन एकल हस्तांतरणीय मत के माध्यम से किया जाता है। समिति का कार्यकाल एक वर्ष होता है। कोई मंत्री समिति का सदस्य नहीं हो सकता। समिति का अध्यक्ष लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लोकसभा सदस्यों में से ही नियुक्त होता है और वह निरपवाद रूप से सत्ताधारी दल का ही होता है।
समिति का कार्य बजट में सम्मिलित प्राक्कलनों की जांच करना तथा सार्वजनिक व्यय में किफायत के लिए सुझाव देना है। इसलिए इसे 'सतत् किफायत समिति' के रूप में वर्णित किया जा सकता है।
विस्तार में समिति के कार्य निम्नलिखित हैं:
- प्राक्कलनों में निहित नीतियों के अनुरूप क्या किफायतें, संगठन में सुधार तथा कार्यकुशलता और प्रशासनिक सुधार प्रभावी बनाए जा सकते हैं, इस बारे में प्रतिवेदन देना।
- प्रशासन में कार्यकुशलता और किफायत लाने के लिए वैकल्पिक नीतियों के बारे में सुझाव देना।
- यह जांच करना कि प्राक्कलन में निहित नीति के अनुसार ही राशि का समुचित प्रावधान किया गया है।
- संसद में प्राक्कलन किस रूप में प्रस्तुत हों, इसके बारे में सुझाव देना।
समिति उन सार्वजनिक उद्यमों को अपने कार्य के दायरे में नहीं लेगी जो कि सार्वजनकि उद्यम समिति को आवंटित हैं। समिति समय-समय पर पूरे वित्तीय वर्ष के दौरान प्राक्कलनों की जांच करती रह सकती है तथा जांच आगे बढ़ते ही सदन को अपना प्रतिवेदन सौंप सकती है। समिति के लिए किसी एक वर्ष के समूचे प्राक्कलनों की जांच अनिवार्य नहीं है। अनुदान की मांग पर मत तब भी दिलवाया जा सकता है, जबकि समिति ने अब तक कोई प्रतिवेदन नहीं सौंपा हो । तथापि समिति की भूमिका निम्न कारकों से सीमित हो जाती है:
- यह बजट प्राक्कलनों की जांच तभी कर सकती है। जबकि इसके लिए संसद में मतदान हो चुका हो, उसके पहले नहीं।
- यह संसद द्वारा निर्धारित नीतियों पर प्रश्न नहीं कर सकती।
- इसकी अनुशंसाए परामर्श के रूप में होती हैं, मंत्रालयों पर बाध्यकारी नहीं होती।
- यह प्रतिवर्ष केवल कुछ चयनित मंत्रालयों तथा विभागों की ही जांच करती है। इस प्रकार चक्रानुक्रम में सभी मंत्रालयों की जांच में वर्षों लग सकते हैं।
- इसे सी.ए.जी. की विशेषज्ञतापूर्ण सहायता नहीं मिल पाती जो कि लोक लेखा समिति को उपलब्ध रहती है।
- इसका कार्य शव परीक्षण की तरह का है।
सार्वजनिक उद्यम समिति
यह समिति 1964 में कृष्ण मेनन समिति की सिफारिश पर पहली बार गठित हुई थी। शुरुआत में इसमें 15 सदस्य थे (10 लोकसभा तथा 5 राज्य सभा से)। हालांकि 1974 में इसकी सदस्यता संख्या बढ़ाकर 22 कर दी गई (15 लोकसभा और 7 राज्यसभा से)। समिति के सदस्य संसद द्वारा इसके सदस्यों में से एकल हस्तांतरणीय मत के माध्यम से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के आधार पर निर्वाचित होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दल का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाता है। कार्यकाल एक वर्ष का होता है। कोई मंत्री समिति का सदस्य नहीं बन सकता। लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा सदस्यों में से किसी एक को समिति का अध्यक्ष नियुक्त करते हैं। इस प्रकार राज्य सभा सदस्य इस समिति के अध्यक्ष नहीं बन सकते ।
समिति के निम्नलिखित कार्य हैं:
- सार्वजनिक उद्यमों के प्रतिवेदनों एवं लेखा की जांच करना।
- सार्वजनिक उद्यमों पर सी. ए. जी. के प्रतिवेदन की जांच करना।
- यह जांच करना कि सार्वजनिक उद्यमों का प्रबंधन (सार्वजनिक उद्यमों की स्वायत्तता तथा कार्यकुशलता के संदर्भ में) ठोस व्यावसायिक सिद्धांतों तथा युक्तिसंगत व्यापारिक प्रचलनों के अनुसार दिया जा रहा है।
- सार्वजनिक उद्यमों से संबंधित ऐसे अन्य कार्यों का संचालन जो लोक लेखा समिति तथा प्राक्कलन समिति के जिम्मे भी होता है जो कि लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समय-समय पर इसके सुपुर्द किया जाता है।
समिति निम्नलिखित के सम्बन्ध में कोई जांच या अनुसंधान नहीं कर सकती:
- प्रमुख सरकारी नीतियों से जुड़े मामले जो कि सार्वजनिक उद्यमों के व्यावसायिक अथवा व्यापारिक प्रकार्यों से जुड़े नहीं हों;
- दैनंदिन के प्रशासन से जुड़े मामले;
- ऐसे मामले जिन पर विचार के लिए किसी विशेष वैद्यानिक प्रावधान के तहत कोई मशीनरी स्थापित की गई है, जिसके अंतर्गत कोई सार्वजनिक उद्यम विशेष की स्थापना हुई है।
समिति की भूमिका की प्रभावकारिता की निम्नलिखित सीमाएं हैं:
- यह एक वर्ष के अंदर दस से बारह से अधिक सार्वजनिक उद्यमों की जांच के मामले नहीं ले सकती।
- इसका कार्य शव- परिक्षण की तरह का है।
- यह तकनीकी मामलों की जांच नहीं कर सकती क्योंकि इसके सदस्य तकनीकी विशेषज्ञ नहीं होते।
- इसकी अनुशंसाएं परामर्श के लिए होती हैं, मंत्रालयों के लिए बाध्यकारी नहीं।
लोकसभा की नियम समिति की अनुशंसाओं पर संसद में 1993 में 17 विभाग- सम्बन्धी स्थाई समितियां गठित की गई। 2004 में ऐसी 7 और समितियों का गठन हुआ। इस प्रकार इन समितियों की संख्या बढ़कर 24 हो गई।
स्थाई समितियों का मुख्य उद्देश्य संसद के प्रति कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद को) को अधिक उत्तरदायी बनाना है, विशेषकर वित्तीय दायित्व को। ये समितियां संसद की बजट पर अधिक सार्थक चर्चा में सहायक होती हैं।'
इन 24 स्थाई समितियों के कार्यक्षेत्र में केन्द्र सरकार के सभी मंत्रालय और विभाग आते हैं।
प्रत्येक स्थाई समिति में 31 सदस्य (21 लोकसभा तथा 10 राज्य सभा से) होते हैं। लोकसभा के सदस्यों का चुनाव लोकसभा अध्यक्ष सदस्यों में से करते हैं जबकि राज्य सभा के सदस्य सभापति द्वारा चुने जाते हैं।
किसी भी स्थाई समिति में कोई मंत्री सदस्य नहीं बन सकता। यदि समिति सदस्यों में से कोई सदस्य मंत्री के रूप में नियुक्त हो जाता है तब उसकी समिति की सदस्यता जाती रहती है।
गठन के समय से लेकर समिति का कार्यकाल एक वर्ष का होता है।
24 स्थायी समितियों में 8 समितियां राज्य सभा तथा 16 समितियां लोकसभा के अंतर्गत कार्य करती हैं।'
24 स्थाई समितियां तथा इनके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत आने वाले मंत्रालय एवं विभाग तालिका 23.1 में दर्शाये गए हैं:
प्रत्येक स्थाई समिति के निम्नलिखित कार्य हैं:
- सम्बन्धित मंत्रालय, विभाग के अनुदान मांगों पर लोकसभा में चर्चा एवं पूर्व सम्यक् विचार समिति का प्रतिवेदन ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह कटौती प्रस्ताव की तरह लगे।
- सम्बन्धित मंत्रालय/विभाग के विधेयकों की जांच परख करना।
- सम्बन्धित मंत्रालय/विभाग के वार्षिक प्रतिवेदन पर विचार करना।
- सदन में प्रस्तुत / समर्पित राष्ट्रीय मूलभूत दीर्घकालीन नीतिगत दस्तावेजों पर विचार करना।
इन स्थाई समितियों की निम्नलिखित सीमाएं हैं:
- मंत्रालयों/विभागों के दैनंदिन के प्रशासन से जुड़े मामलों पर विचार नहीं।
- सामान्यतः उन मामलों पर विचार नहीं होता जो कि अन्य संसदीय समितियों के विचाराधीन हैं।
यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि इन समितियों की अनुशंसाएं परामर्श के रूप में होती हैं और इसीलिए संसद के लिए बाध्यकारी नहीं होतीं।
प्रत्येक स्थाई समिति को अनुदान मांगों पर विचार के लिए तथा तद्नुसार सदन में प्रतिवेदन तैयार करने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया का पालन करना पड़ता है:
- जब सदन में बजट पर आम चर्चा समाप्त हो जाती है, तब सदन एक निश्चित अवधि के लिए स्थगित कर दिया जाता है।
- इसी अवधि में समितियां सम्बन्धित मंत्रालयों/विभागों के अनुदान मांगों पर विचार करती हैं।
- समितियां इसी अवधि में अपना प्रतिवेदन तैयार करती हैं और इसके लिए और समय नहीं मांगतीं हैं ।
- समितियों के प्रतिवेदन के आलोक में सदन अनुदान मांगों पर चर्चा करता है ।
- प्रत्येक मंत्रालय के अनुदान मांगों पर अलग-अलग प्रतिवेदन तैयार किए जाएंगे।
विधेयकों की जांच करने और इस पर रिपोर्ट तैयार करने में प्रत्येक स्थायी समिति द्वारा निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाएगी:
- समिति प्रेषित विधेयकों के सामान्य सिद्धांतों और खंडों पर विचार करेगी ।
- समिति केवल सदनों में पेश किए गए और उसे प्रेषित किए गए विधेयकों पर ही विचार करेगी।
- समिति दिए गए समय में विधेयकों पर रिपोर्ट तैयार करेगी ।
संसद में स्थाई समितियों की व्यवस्था के निम्नलिखित गुण हैं:
- उनकी कार्यवाही दलगत पूर्वाग्रहों से मुक्त होती है।
- उनकी कार्य पद्धति लोकसभा की तुलना में अधिक लचीली होती है।
- यह व्यवस्था कार्यपालिका पर विद्यायिका के नियंत्रण को और अधिक विस्तारित, निकटस्थ, सातत्यपूर्ण, गहरा तथा व्यापक बनाती है।
- यह व्यवस्था सार्वजनिक खर्च और कुशलता सुनिश्चित करती है क्योंकि मंत्रालय/विभाग अपनी मांगों को सावधानीपूर्वक सूत्रित करते हैं।
- समितियां संसद सदस्यों को सरकार की कार्यप्रणाली समझने में मदद करती हैं और उनमें उनका योगदान सुनिश्चित करती है।
- समितियां विशेषज्ञों की राय अथवा जनमत के आधार पर प्रतिवेदन बना सकती हैं।
- समितियों के माध्यम से विपक्षी दल और राज्यसभा कार्यपालिका के ऊपर वित्तीय नियंत्रण स्थापित रखने में कहीं बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
याचिका/आवेदन समिति
यह समिति विधेयकों पर आम सार्वजनिक महत्व के मामलों पर दायर याचिकाओं एवं आवेदनों पर विचार करती है। यह संघ (Union) से सम्बन्धित मामलों पर व्यक्तियों एवं संघों/संगठनों के आवेदनों पर भी विचार करती है। लोकसभा समिति में 15 सदस्य जबकि राज्यसभा समिति में 10 सदस्य होते हैं।
विशेषाधिकार समिति
इस समिति का कार्य अर्द्ध-न्यायिक प्रकृति का होता है। यह सदन और इसके सदस्यों के विशेषाधिकार हनन सम्बन्धी मामलों की जाँच करती है तथा उपयुक्त कार्यवाही की अनुशंसा करती है। लोकसभा समिति में 15 सदस्य जबकि राज्यसभा समिति में 10 सदस्य होते हैं।
आचार समिति
राज्य सभा में इस समिति का गठन 1997 तथा लोकसभा में सन् 2000 में हुआ था। यह समिति संसद सदस्यों के लिए आचार संहिता लागू करवाती है। यह दुराचरण के मामलों की जांच करती है तथा समुचित कार्यवाही की सिफारिश करती है।
जाँच एवं नियंत्रण के लिए समितियाँ
सरकारी आश्वासन समिति
यह समिति मंत्रियों द्वारा सदन में समय-समय पर दिए गए आश्वासनों, वचनों एवं प्रतिज्ञाओं की जांच करती है और किस सीमा तक उनका कार्यान्वयन हुआ है, इस पर प्रतिवेदन देती है ।
अधीनस्थ विधायन समिति
विनियम, नियम, उपनियम तथा नियमावली बनाने के लिए संसद द्वारा कार्यपालिका को प्रतिनिधित्व अथवा संविधान द्वारा प्रदत्त शक्ि का उपयोग भली-भांति हो रहा है या नहीं, यह समिति इस पर विचार करती है और प्रतिवेदन देती है। दोनों सदनों में समिति की सदस्य संख्या 15 होती है। इसका गठन 1953 में किया गया था।
सदन के पटल पुरः स्थापित दस्तावेजों की समिति
यह समिति 1975 में गठित की गई थी। लोकसभा समिति में 15 सदस्य होते हैं, जबकि राज्य सभा समिति में 10 सदस्य। यह समिति सदन के पटल पर रखे गए सभी दस्तावेजों का अध्ययन करके यह देखती है कि वे संविधान के प्रावधान, अधिनियम अथवा नियम के अनुरूप हैं या नहीं। यह उन वैधानिक अधिसूचनाओं और आदेशों की जांच नहीं करती जो अधीनस्थ विधायन समिति के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
अनु, जाति तथा अनु, जनजाति कल्याण समिति
इस समिति के 30 सदस्य होते हैं -20 लोकसभा तथा 10 राज्य सभा से। इसके कार्य हैं-(I) अनु.जाति राष्ट्रीय आयोग तथा अनु. जनजाति राष्ट्रीय आयोग के प्रतिवेदनों पर विचार करना (II) अनु. जाति तथा अनु. जनजाति के कल्याण से सम्बन्धित सभी मामलों की जांच करना, जैसे संवैधानिक एवं वैधानिक सुरक्षा तथा कल्याण कार्यक्रमों का संचालन आदि।
महिला सशक्तीकरण समिति
यह समिति 1997 में गठित हुई थी और इसमें 30 सदस्य होते हैं-20 लोकसभा तथा 10 राज्यसभा से। यह राष्ट्रीय महिला आयोग के प्रतिवेदन पर विचार करती है तथा केन्द्र सरकार द्वारा महिलाओं की स्थिति, गरिमा तथा सभी क्षेत्रों में समानता के लिए क्या कदम उठाए गए हैं, इसकी जांच करती हैं।
लाभ के पदों पर संयुक्त समिति
यह समिति विभिन्न समितियों तथा निकायों के गठन तथा चरित्र की जांच करती है जिनका गठन केन्द्र, राज्य, केन्द्रशासित प्रदेशों की सरकारों द्वारा किया गया है और जो लोग इनमें पदधारक हैं उनके बारे में अनुशंसा करती है कि उन्हें संसद सदस्य के रूप में निर्वाचन के लिए अयोग्य ठहराया जाए अथवा नहीं। इस समिति में 15 सदस्य होते में हैं (10 लोकसभा तथा 5 राज्यसभा से)।
सदन के दैनंदिन के कामकाज से संबंधित समितियां
कार्य सलाहकार समिति
यह समिति सदन के कार्यक्रम तथा समय सारिणी को नियमित रखती है। यह सदन के समक्ष सरकार द्वारा लाए गए विधायी तथा अन्य कार्यों पर चर्चा के लिए समय निर्धारित करती है। लोकसभा समिति के 15 सदस्य होते हैं तथा लोकसभा अध्यक्ष इसके अध्यक्ष होते हैं। राज्य सभा समिति में 10 सदस्य होते हैं तथा सभापति इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं।
निजी सदस्यों के विधेयक तथा संकल्पों के लिए समिति
यह विधेयकों का वर्गीकरण करती है तथा निजी / वैयक्तिक सदस्यों (मंत्रियों के अलावा) द्वारा प्रस्तुत विधेयकों और संकल्पों पर चर्चा के लिए समय निर्धारित करती है। यह लोकसभा की विशेष समिति है और इसमें 15 सदस्य होते हैं। इसके अध्यक्ष उप-लोकसभाध्यक्ष होते हैं। राज्य सभा में ऐसी कोई समिति नहीं होती। इस समिति का कार्य राज्य सभा में कार्य सलाहकार समिति के जिम्मे होता है।
नियम समिति
यह समिति सदन में कार्य पद्धति तथा संचालन से सम्बन्धित मामलों पर विचार करती है। साथ ही सदन के नियमों में आवश्यक संशोधन अथवा योग सुझाती है। लोकसभा समिति में 15 सदस्य होते हैं तथा लोकसभाध्यक्ष इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं। राज्यसभा समिति में 16 सदस्य होते हैं और सभापति इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं।
सदस्यों की अनुपस्थिति सम्बन्धी समिति
यह समिति सदन की बैठकों से सदस्यों की अनुपस्थिति के अवकाश सम्बन्धी सभी आवेदनों पर विचार करती है और ऐसे सदस्यों के मामलों की जांच करती है जो बिना अनुमति 60 या अधिक दिन तक सदन से अनुपस्थित रहे हों। यह समिति लोकसभा की एक विशेष समिति होती है जिसके 15 सदस्य होते हैं। राज्य सभा में ऐसी कोई समिति नहीं होती तथा ऐसे मामलों को स्वयं सदन ही देखता है।
सामान्य प्रयोजन समिति
यह समिति सदन से सम्बन्धित ऐसे मामलों को देखती है जो अन्य संसदीय समितियों के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते। प्रत्येक सदन में समिति में अधिष्ठाता अधिकारी (लोकसभाध्यक्ष/सभापति) इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं। साथ ही उप-लोकसभाध्यक्ष (राज्य सभा के लिए 'उप-सभापति), अध्यक्षों की नाम सूची (पैनल) के सदस्य ( राज्य सभा के लिए उप-अध्यक्षों की नाम सूची), सदन के सभी विभागीय संसदीय समितियों के अध्यक्ष, मान्यता प्राप्त दलों के नेता तथा ऐसे अन्य सदस्य जो अधिष्ठाता अधिकारी द्वारा नामित हों।
आवास समिति
यह समिति सदस्यों को आवासीय तथा अन्य सुविधाएं देने से सम्बन्धित है, जैसे भोजन, चिकित्सकीय सहायता इत्यादि जो कि उन्हें उनके आवासों अथवा होस्टलों में प्रदान की जाती है। लोकसभा में इस समिति के 12 सदस्य होते हैं।
पुस्तकालय समिति
यह समिति संसद के पुस्तकालय से सम्बन्धित मामलों को देखती है तथा सदस्यों को पुस्तकालय सेवा का लाभ उठाने में सहायता करती है। इस समिति में 9 सदस्य (6 लोकसभा तथा 3 राज्य सभा से) होते हैं।
सदस्यों के वेतन-भत्ते से सम्बन्धित संयुक्त समिति
संसद सदस्यों का वेतन, भत्ते तथा पेंशन अधिनियम, 1954 के अंतर्गत इस समिति का गठन हुआ। इसके 15 सदस्य (10 लोकसभा तथा 5 राज्य सभा) होते हैं। यह सदस्यों के वेतन, भत्ते तथा पेंशन नियमित करने के सम्बन्ध में नियमावली बनाती है।
सलाहकार समितियां केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों से जुड़ी रहती हैं। इनमें दोनों सदनों के सदस्य होते है। एक मंत्रालय की सलाहकार समिति का अध्यक्ष उस मंत्रालय का मंत्री अथवा प्रभारी राज्य मंत्री होता है।
ये समितियां एक ऐसा मंच प्रदान करती हैं जहां मंत्रियों एवं संसद सदस्यों के बीच सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों तथा उनके कार्यान्वयन के तौर-तरीकों के बारे में अनौपचारिक चर्चा होती है।
ये समितियां संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा गठित की जाती हैं। इन समितियों के गठन, कार्य तथा कार्य पद्धतियों के बारे में दिशा-निर्देश सम्बन्धित मंत्रालय द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। मंत्रालय ही चालू सत्र अथवा अंतर-सत्र अवधि के दौरान समिति की बैठकों की व्यवस्था करता है।
इन समितियों की सदस्यता स्वैच्छिक होती है और इसे संसद सदस्यों तथा नेताओं की रुचि पर छोड़ दिया जाता है। समिति की अधिकतम सदस्य संख्या 30 होती है तथा न्यूनतम 101
इन समितियों का गठन सामान्यत: लोकसभा चुनाव के बाद नई लोकसभा के गठन के उपरांत होता है। दूसरे शब्दों में, ये समितियों लोकसभा भंग होने के साथ ही स्वतः भंग हो जाती है और पुन: नई लोकसभा के गठन के पश्चात् इनका भी गठन किया जाता है।
इसके अतिरिक्त सभी रेलवे प्रक्षेत्रों के लिए संसद सदस्यों की अलग-अलग अनौपचारिक सलाहकार समितियां गठित की जाती हैं। एक विशेष रेलवे प्रक्षेत्र के अंतर्गत पड़ने वाले क्षेत्र के संसद सदस्य को उस रेलवे प्रक्षेत्र के अनौपचारिक सलाहकार समिति का सदस्य बनाया जाता है।
मंत्रालयों/ विभागों से जुड़ी सलाहकार समितियों से अलग, अनौपचारिक सलाहकार समितियों की बैठक केवल सत्रावधि के दौरान ही बुलाई जाती है।
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