नगर निगम

भारत में 'शहरी स्थानीय शासन' का अर्थ शहरी क्षेत्र के लोगों द्वारा चुने प्रतिनिधियों से बनी सरकार से है। शहरी स्थानीय शासन का अधिकार क्षेत्र उन निर्दिष्ट शहरी क्षेत्रों तक सीमित है, जिसे राज्य सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिए निर्धारित किया गया है।

नगर निगम

नगर निगम

भारत में 'शहरी स्थानीय शासन' का अर्थ शहरी क्षेत्र के लोगों द्वारा चुने प्रतिनिधियों से बनी सरकार से है। शहरी स्थानीय शासन का अधिकार क्षेत्र उन निर्दिष्ट शहरी क्षेत्रों तक सीमित है, जिसे राज्य सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिए निर्धारित किया गया है।
भारत में 8 प्रकार के शहरी स्थानीय शासन हैं- नगरपालिका परिषद, नगरपालिका, अधिसूचित क्षेत्र समिति, शहरी क्षेत्र समिति, छावनी बोर्ड, शहरी क्षेत्र समिति, पत्तन न्यास और विशेष उद्देश्य के लिए गठित ऐजेंसी |
नगरीय शासन की प्रणाली को 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा संवैधानिक दर्जा मिल गया। केन्द्र स्तर पर टटनगरीय स्थानीय शासन " का विषय निम्नलिखित तीन मंत्रालयों से संबंधित है :
  1. आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय ।
  2. रक्षा मंत्रालय, कैण्टोनमेण्ट बोर्डों के मामले में
  3. गृह मंत्रालय, संघीय क्षेत्रों के मामले में 

नगर निकायों का विकास

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
आधुनिक भारत में ब्रिटिश काल के दौरान स्थानीय नगर प्रशासन की संस्थाएँ अस्तित्व में आई। इस संदर्भ में प्रमुख घटनाएं निम्नवत हैं:
  1. 1688 में भारत का पहला नगर निगम मद्रास में स्थापित हुआ।
  2. 1726 में बम्बई तथा कलकत्ता में नगर निगम स्थापित हुए। (iii) 1870 का लॉर्ड मेयो का वित्तीय विकेन्द्रीकरण का संकल्प स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के विकास में परिलक्षित हुआ।
  3. लॉर्ड रिपन का 1882 का संकल्प स्थानीय स्वशासन के लिए “मैग्नाकार्टा" की हैसियत रखता है। उन्हें भारत में 'स्थानीय स्वशासन का पिता' कहा जाता है।
  4. 1907 में रॉयल कमीशन ऑन डीसेन्ट्रलाइजेशन की नियुक्ति हुई, जिसने 1909 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस आयोग के अध्यक्ष हॉब हाउस थे।
  5. भारत सरकार अधिनियम, 1919 के द्वारा प्रांतों में लागू की गई द्विशासनिक योजना के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन एक अंतरित विषय बन गया और इसके लिए एक भारतीय मंत्री को प्रभारी बनाया गया।
  6. 1924 में कैण्टोण्मेन्ट एक्ट केन्द्रीय विधायिका द्वारा पारित किया गया।
  7. भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा लागू प्रांतीय स्वायत्तता के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन को प्रांतीय विषय घोषित किया गया।

समितियां एवं आयोग

केन्द्र सरकार द्वारा स्थानीय नगर शासन की कार्य प्रणाली में सुधार के लिए समय समय पर नियुक्त समितियों एवं आयोगों का विवरण तालिका 39.1 में दिया गया है।

संवैधानिकरण अगस्त 1989 में, राजीव गांधी सरकार ने लोकसभा में 65वां संविधान संशोधन विधेयक (नगरपालिका विधेयक) पेश किया। इस विधेयक का उद्देश्य नगरपालिका के ढांचे पर उनकी संवैधानिक स्थिति पर परामर्श कर उन्हें शक्तिशाली बनाना एवं सुधारना था। यद्यपि यह विधेयक लोकसभा में पारित हुआ किंतु अक्तूबर 1989 में यह राज्यसभा में गिर गया और निरस्त हो गया।

वी.पी. सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने सितंबर 1990 में लोकसभा में पुनः संशोधित नगरपालिका विधेयक पुरः स्थापित किया। फिर भी यह विधेयक पास नहीं हुआ और अंत में लोकसभा विघटित होने पर निरस्त हो गया।
सितंबर 1991 में पी. वी. नरसिम्हा राव सरकार ने भी लोकसभा में संशोधित नगरपालिका विधेयक पुरः स्थापित किया। अंततः यह 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के रूप में पारित हुआ और 1 जून, 1993 को प्रभाव में आया।

1992 का 74वां संशोधन अधिनियम

इस अधिनिमय ने भारत के संविधान में नया भाग 9क शामिल किया। इसे ' नगरपालिकाएं' नाम दिया गया और अनुच्छेद 243त से 243यह के उपबंध शामिल किए गए। इस अधिनियम के कारण संविधान में एक नई 12वीं सूची को भी जोड़ा। इस सूची में नगरपालिकाओं की 18 कार्यकारी विषय-वस्तुओं का उल्लेख है। यह अनुच्छेद 243-डब्ल्यू से संबंधित हैं।
इस अधिनियम ने नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया। इससे इसे संविधान के न्यायोचित भाग के क्षेत्राधिकार में लाया गया। दूसरे शब्दों में, राज्य सरकार अधिनियम के प्रावधानानुसार नई नगरपालिका पद्धति को अपनाने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य है।
इस अधिनियम का उद्देश्य शहरी शासन को पुनर्जीवित करना एवं शक्तिशाली बनाना है, जिससे कि वे स्थानीय शासन की इकाई के रूप में प्रभावशाली ढंग से कार्य करें।
प्रमुख विशेषताएं
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं:
तीन प्रकार की नगरपालिकाएं: यह अधिनियम प्रत्येक राज्य में निम्न तीन तरह की नगरपालिकाओं की संरचना का उपबंध करता है:
  1. नगर पंचायत (किसी भी नाम से) परिवर्तित क्षेत्र के लिए।
  2. नगरपालिका परिषद छोटे शहरी क्षेत्रों के लिए।
  3. बड़े शहरी क्षेत्रों के लिए नगरपालिका निगम।
लेकिन एक अपवाद है। यदि कोई शहरी क्षेत्र है जहां की शहरी सुविधाएं किसी औद्योगिक प्रतिष्ठान द्वारा मुहैया कराई जा रही हैं, तब राज्यपाल उस क्षेत्र को एक औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विनिर्दिष्ट कर सकते हैं। इस स्थिति में नगरपालिका का गठन नहीं किया जा सकता।
राज्यपाल, किसी क्षेत्र को निम्नलिखित कारकों के आधार पर संक्रमण क्षेत्र, लघु शहरी क्षेत्र अथवा वृहत शहरी क्षेत्र विनिर्दिष्ट कर सकते हैं:
क. क्षेत्र की जनसंख्या
ख. जनसंख्या घनत्व
ग. स्थानीय प्रशासन के लिए उपार्जित राजस्व
घ. गैर-कृषि कार्यों में रोजगार का प्रतिशत
च. आर्थिक महत्व
छ. अन्य कारण जिसे राज्यपाल विचार करने योग्य मानें
संरचना: नगरपालिका के सभी सदस्य सीधे नगरपालिका क्षेत्र के लोगों द्वारा चुने जाएंगे। इस उद्देश्य के लिए प्रत्येक नगरपालिकाओं को निर्वाचन क्षेत्रों (वार्ड) में बांटा जाएगा। राज्य विधानमंडल नगरपालिका के अध्यक्ष के निर्वाचन का तरीका प्रदान कर सकता है। यह नगरपालिका में निम्न व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व की भी व्यवस्था करता है:
  1. वह व्यक्ति जिसे नगरपालिका के प्रशासन का विशेष ज्ञान अथवा अनुभव हो लेकिन उसे नगरपालिका की सभा में वोट डालने का अधिकार नहीं होगा।
  2. निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा या राज्य विधानसभा के सदस्य, जिनमें नगरपालिका का पूर्ण या अंशत: क्षेत्र आता हो।
  3. राज्यसभा और राज्य विधानपरिषद के सदस्य जो नगरपालिका क्षेत्र में मतदाता के रूप पंजीकृत हों।
  4. समिति के अध्यक्ष (वार्ड समितियों के अतिरिक्त ) ।
वार्ड समितियां: तीन लाख या अधिक जनसंख्या वाली नगरपालिका के क्षेत्र के तहत एक या अधिक वार्डों को मिलाकर वार्ड समिति होगी। वार्ड समिति की संरचना, क्षेत्र और वार्ड समिति में पदों को भरने के संबंध में राज्य विधानमंडल उपबंध बना सकता है।
अन्य समितियां: कई समितियों के अतिरिक्त, राज्य विधायिका अन्य समितियों के गठन के लिए प्रावधान बनाने के लिए अधिकृत हैं ऐसी समितियों के अध्यक्ष नगरपालिका के सदस्य हो सकते हैं। पदों का आरक्षण: यह अधिनियम अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को उनकी जनसंख्या और कुल नगरपालिका क्षेत्र की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक नगरपालिका में आरक्षण प्रदान करता है। इसके अलावा यह महिलाओं को कुल सीटों के एक-तिहाई (इसमें अनुसूचित जाति व जनजाति महिलाओं से संबंधित आरक्षित सीटें भी हैं) (इसमें कम नहीं) सीटों पर आरक्षण प्रदान करता है।
राज्य विधानमण्डल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं हेतु नगरपालिकाओं में अध्यक्ष पद के आरक्षण हेतु विधि निर्धारित कर सकता है। यह किसी भी नगरपालिका या अध्यक्ष पद पर पिछड़ी जातियों के आरक्षण के समर्थन में कोई भी उपबंध बना सकता है।
अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए नगरपालिकाओं में सीटों के आरक्षण के साथ-साथ अध्यक्षों के कार्यालयों में आरक्षण की सुविधा अनुच्छेद 334 में विनिर्दिष्ट समापन अवधि (जो कि वर्तमान में सत्तर वर्ष, अर्थात् 2020 तक) के पश्चात् निष्प्रभावी या समाप्त हो जाएगी। नगरपालिकाओं का कार्यकालः यह अधिनियम प्रत्येक नगरपालिका की कार्यकाल अवधि 5 वर्ष निर्धारित करता है । यद्यपि इसे इसकी अवधि से पूर्व समाप्त किया जा सकता है। उसके बाद एक नई नगरपालिका का गठन किया जाएगा:
  1. इसकी 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने से पूर्व या,
  2. विद्यटत होने की दशा में इसे विघटन होने की तिथि से 6 महीने की अवधि तक।
किंतु, जहां इस अवधि (जिसके लिए भंग नगरपालिका को कार्य करते रहना है) छह महीने से कम हो, उस अवधि के लिए नई नगरपालिका के लिए किसी चुनाव की आवश्यकता नहीं होगी। फिर भी किसी नगरपालिका के कार्यकाल की समाप्ति के पूर्व गठित नगरपालिका उस शेष अवधि के लिए बना रहेगा जिस अवधि के लिए भंग की गयी नगरपालिका भंग नहीं किए जाने पर बना रहता ।
दूसरे शब्दों में, समयपूर्व भंग के पश्चात् पुनः गठित नगरपालिका पांच वर्ष की पूर्ण अवधि तक के लिए नहीं बना रहेगा बल्कि केवल बची हुई अवधि के लिए ही कार्य करेगा।
अधिनियम नगरपालिका के भंग होने के सम्बन्ध में दो और प्रावधान करता है- (क) नगरपालिका को भंग होने के पहले उसे अपना पक्ष रखने का अवसर अवश्य दिया जाता है, तथा (ख) किसी भी कानून का कोई भी संशोधन, जो कि वर्तमान में लागू है, पांच वर्ष की अवधि समाप्त होने के पूर्व नगरपालिका को भंग नहीं कर सकता है। निरर्हताएं: चुने जाने पर या नगरपालिका के चुने हुए सदस्य निम्न स्थितियों में निरर्ह घोषित किए जा सकते हैं:
  1. संबंधित राज्य के विधानमण्डल के निर्वाचन के प्रयोजन हेतु प्रचलित किसी विधि के अंतर्गत ।
  2. राज्य विधान द्वारा बनाए गई किसी विधि के अंतर्गत, फिर भी किसी व्यक्ति को 25 वर्ष से कम आयु की शर्त पर निरर्ह घोषित नहीं किया जा सकेगा, यदि वह 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो । इसके बाद निरर्हता संबंधित सारे विवाद, राज्य विधान द्वारा नियुक्त अधिकारियों के समक्ष ही प्रस्तुत किए जा सकेंगे।
राज्य निर्वाचन आयोगः निर्वाचन प्रक्रियाओं की देख-रेख, निर्देशन एवं नियंत्रण और नगरपालिकाओं के सभी चुनावों का प्रबंधन राज्य चुनाव आयोग के अधिकार में होगा।
नगरपालिकाओं के चुनाव संबंधित सभी मामलों पर राज्य विधानमंडल उपबंध बना सकता है।
शक्तियां और कार्य: राज्य विधानमंडल नगरपालिकाओं को आवश्यकतानुसार ऐसी शक्तियां और अधिकार दे सकता है जिसमें कि वे स्वायत्त सरकारी संस्था के रूप में कार्य करने में सक्षम हों। इस तरह की योजना में उपयुक्त स्तर पर नगरपालिकाओं के अंतर्गत शक्तियां और जिम्मेदारी आती हैं, जो निम्न हैं:
  1. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को तैयार करना।
  2. आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को कार्यान्वित करना, , जो उन्हें सौंपे गए हैं, जिसमें 12वीं अनुसूची के 18 मामले भी सम्मिलित हैं।
वित्तः राज्य विधायिकाः
  1. नगरपालिका को वसूली, उपयुक्त कर निर्धारण, चुंगी, यात्री कर, शुल्क लेने का अधिकार।
  2. यह नगरपालिकाओं राज्य सरकार द्वारा करों, चुंगी, पथकर और शुल्क एकत्र करने का काम सौंप सकती है।
  3. राज्य की संचित निधि से नगरपालिकाओं को सहायता के रूप में अनुदान प्रदान है। 
  4. नगरपालिकाओं में जमा होने वाली सभी राशि संग्रहण की विधियां तैयार कर सकती है।
वित्त आयोग: वित्त आयोग (जो पंचायतों के लिए गठित किया गया है) भी प्रत्येक 5 वर्ष में नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति का पुनरावलोकन करेगा और राज्यपाल को निम्न सिफारिशें करेगाः
1. सिद्धांत जो नियंत्रित होंगे:
  1. राज्य और नगरपालिकाओं में राज्य सरकार द्वारा एकत्र किए गए कुल करों, चुंगी, मार्ग कर एवं संगृहीत शुल्कों का बंटवारा और सभी स्तरों पर नगर पालिकाओं के बीच शेयरों का आवंटन।
  2. करों, चुंगी, पथकर और शुल्कों का निर्धारण जो कि नगरपालिकाओं को सौंपे जा सकते हैं।
  3. राज्य की संचित निधि से नगरपालिकाओं को दिए जाने वाले सहायता अनुदान ।
2. नगरपालिका की वित्तीय स्थिति के सुधार के लिए आवश्यक उपाए ।
3. राज्यपाल द्वारा आयोग को दिया जाने वाला कोई भी मामला जो कि पंचायतों के मजबूत वित्त के पक्ष में हो।
राज्यपाल आयोग द्वारा की गई सिफारिशों और कार्यवाही रिपोर्ट को राज्य विधानमंडल के समक्ष प्रस्तुत करेगा।
केंद्रीय वित्त आयोग भी राज्य में नगरपालिकाओं के पूरक स्रोतों की राज्य की संचित निधि में वृद्धि के लिए (राज्य वित्त आयोग द्वारा दी गई सिफारिशों के आधार पर) आवश्यक उपायों के बारे में सलाह देगा। संघीय क्षेत्र में लागू होना: इस भाग के प्रावधान संघीय क्षेत्र पर लागू होते हैं। किन्तु राष्ट्रपति निदेशित कर सकते हैं कि ये प्रावधान ऐसे अपवादों तथा संशोधनों के साथ भी संघीय क्षेत्रों पर लागू किए जाएंगे, जैसा कि वे विनिर्दिष्ट करें।
केंद्रीय शासित राज्यों पर लागू: भारत का राष्ट्रपति इस अधिनियम के उपबंधों को किसी भी केंद्रशासित क्षेत्र में लागू करने के संबंध में निर्देश दे सकता है, सिवाए कुछ छूटों और परिवर्तनों के जिन्हें वे विशिष्टत: बताएं |
छूट प्राप्त क्षेत्रः यह अधिनियम राज्यों के अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों पर लागू नहीं होता। यह अधिनियम प. बंगाल की दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद की शक्तियों और कार्यवाही को प्रभावित नहीं करता। तथापि संसद इस भाग के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों एवं जनजातीय क्षेत्रों तक ऐसे अपवदों एवं संशोधनों के साथ विस्तारित कर सकती है जैसाकि वह विनिर्दिष्ट करें।
जिला योजना समितिः प्रत्येक राज्य जिला स्तर पर एक जिला योजना समिति का गठन करेगा जो जिले की पंचायतों एवं नगरपालिकाओं द्वारा तैयार योजना को संगठित करेगी और जिला स्तर पर एक विकास योजना का प्रारूप तैयार करेगी। राज्य विधानमंडल इस संबंध में निम्न उपबंध बना सकता है:
  1. इस तरह की समितियों की संरचना,
  2. इन समितियों के सदस्यों के निर्वाचन का तरीका,
  3. इन समितियों की जिला योजना के संबंध में कार्य,
  4. इन समितियों के अध्यक्ष के निर्वाचन का ढंग।
इस अधिनियम के अनुसार जिला योजना समिति के 4/5 भाग सदस्य जिला पंचायत और नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य द्वारा स्वयं में से चुने जाएंगे। समिति के इन सदस्यों की संख्या जिले की ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या के अनुपात में होनी चाहिए।
इस प्रकार की समितियों का अध्यक्ष विकास योजनाओं को राज्य सरकार को प्रेषित करेगा।
प्रारूप विकास आयोजना को तैयार करते समय जिला आयोजना समिति निम्नलिखित को ध्यान में रखेगी:
  1. इसके संबंध में
    1. पंचायतों एवं नगरपालिकाओं के बीच साझे हितों के मामले, जैसे-जल तथा अन्य भौतिक तथा प्राकृतिक संसाधनों की हिस्सेदारी, आधारभूत सरंचना का समन्वित विकास तथा पर्यावरण संरक्षण।
    2. वित्तीय अथवा अन्य प्रकार के उपलब्ध संसाधनों का परिमाण ।
  2. ऐसी संस्थाओं एवं सगठनों से परामर्श लेगी जैसा कि राज्यपाल निर्दिष्ट करें।
महानगरीय योजना समितिः प्रत्येक महानगर क्षेत्र में विकास योजना के प्रारूप को तैयार करने हेतु एक महानगरीय योजना समिति होगी। राज्य विधानमंडल इस संबंध में निम्न उपबंध बना सकता है:
  1. इस तरह की समितियों की संरचना,
  2. इन समिति के सदस्यों के निर्वाचन का तरीका,
  3. केंद्र सरकार, राज्य सरकार तथा अन्य संस्थाओं का इन समितियों में प्रतिनिधित्व,
  4. महानगरीय क्षेत्रों के लिए योजनाओं तथा समन्वयता के संबंध में इन समितियों के कार्य,
  5. इन समितियों में अध्यक्ष के चुनाव का ढंग।
इस अधिनियम के अंतर्गत महानगरीय योजना समिति के 2/3 सदस्य महानगर क्षेत्र में नगरपालिका के निर्वाचित सदस्यों एवं पंचायतों के अध्यक्षों द्वारा स्वयं में से चुने जाएंगे। समिति के इन सदस्यों की संख्या उस महानगरीय क्षेत्र में नगरपालिकों एवं पंचायतों की जनसंख्या के अनुपात में समानुपाती होनी चाहिये ।
इस तरह की समितियों का अध्यक्ष, विकास योजना राज्य सरकार को भेजेगा।
प्रारूप विकास योजना तैयार करते समय महानगरीय आयोजना समिति निम्नलिखित का ध्यान रखेगी:
  1. इसके संबंध में:
    1. महानगरीय क्षेत्र में नगरपालिकाओं एवं पंचायतों द्वारा तैयार योजनाओं का।
    2. नगरपालिकों एवं पंचायतों के बीच साझे हितों में मामले जैसे- समन्वित आयोजना, जल तथा अन्य भौतिक एवं प्राकृतिक संसाधनों की हिस्सेदारी, आधारभूत सरंचना का समन्वित विकास एवं पर्यावरण संरक्षण |
    3. भारत सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य एवं प्राथमिकताएं |
    4. महानगरीय क्षेत्र में भारत सरकार अथवा राज्य सरकार द्वारा किए जाने वाले निवेश का परिमाण एवं प्रकृति तथा उपलब्ध वित्तीय एवं अन्य संसाधन ।
  2. ऐसी संस्थाओं एवं सगठनों से परामर्श प्राप्त करेगी जैसाकि राज्यपाल निर्दिष्ट करें।
वर्तमान विधियों एवं नगरपालिकाओं की निरंतरताः नगरपालिकाओं से संबंधित सभी विधियां इस अधिनियम के जारी होने के एक वर्ष बाद तक प्रभावी रहेंगी। दूसरे शब्दों में राज्यों को इस अधिनियम पर आधारित नगरपालिकाओं के नए तंत्र को 1 जून, 1993 से अधिकतम एक वर्ष की अवधि के भीतर अपनाना होगा। यद्यपि इस अधिनियम के लागू होने से पूर्व अस्तित्व में सभी नगरपालिकाएं जारी रहेंगी बशर्ते कि राज्य विधानमण्डल उन्हें विघटित न करे।
निर्वाचन सम्बन्धी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप पर रोकः यह अधिनियम नगरपालिकाओं के चुनाव संबंधी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप पर रोक लगाता है। यह घोषित करता है कि चुनाव क्षेत्र और इन चुनाव क्षेत्र में सीटों के विभाजन संबंधी मुद्दों की चुनौती को न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जा सकता। फिर भी राज्य विधानमंडल द्वारा सुझाए तरीकों एवं अधिकारियों को दी गई अर्जी को छोड़कर किसी भी क्षेत्र में चुनाव न होने की स्थिति में न्यायालय में चुनौती पेश नहीं कर सकता है।
12वीं अनुसूचीः इसमें नगरपालिकाओं के कार्य क्षेत्र के साथ 18 क्रियाशील विषय-वस्तु समाहित हैं:
  1. नगरीय योजना जिसमें नगर की योजना भी है।
  2. भूमि उपयोग का विनियमन और भवनों का निर्माण
  3. आर्थिक एवं सामाजिक विकास योजना ।
  4. सड़कें एवं पुल ।
  5. घरेलू, औद्योगिक एवं वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए जल प्रदाय ।
  6. लोक स्वास्थ्य स्वच्छता, सफाई और कूड़ा करकट प्रबंधन।
  7. अग्निशमन सेवाएं।
  8. नगर वानिकी, पर्यावरण संरक्षण एवं पारिस्थितकी आयोगों की अभिवृद्धि ।
  9. समाज के कमजोर वर्गों के हितों का संरक्षण, जिनमें मानसिक रोगी व विकलांग शामिल हैं।
  10. गंदी - बहती सुधार और प्रोन्नयन।
  11. नगरीय निर्धनता उन्मूलन।
  12. नगरीय सुख-सुविधाओं और सुविधाओं, जैसे- पार्क, उद्यान, खेल के मैदानों की व्यवस्था ।
  13. सांस्कृतिक, शैक्षिक व सौंदर्य पक्ष आयामों की अभिवृद्धि।
  14. शव गाड़ना तथा शवदाह, दाहक्रिया व श्मशान और विद्युत शवदाह गृह ।
  15. कांजी हाउस: पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण
  16. जन्म व मृत्यु से संबंधित महत्वपूर्ण सांख्यिकी।
  17. जन सुविधाएं जिनमें मार्गों पर विद्युत व्यवस्था, पार्किंग स्थल, बस स्टैंड तथा जन सुविधाएं सम्मिलित हैं।
  18. वधशालाओं और चर्म शोधनशालाओं का विनियमन ।

शहरी शासनों के प्रकार

भारत में निम्नलिखित आठ प्रकार के स्थानीय निकाय नगर क्षेत्रों के प्रकाशन के लिए सृजित किए गए हैं:
  • नगर निगम
  • नगरपालिका
  • अधिसूचित क्षेत्र समिति
  • नगरीय क्षेत्र समिति
  • छावनी बोर्ड
  • टाऊनशिप
  • बन्दरगाह न्याय
  • विशेष उद्देश्य ऐजेन्सी
1. नगर निगम
नगर निगम का निर्माण बड़े शहरों, जैसे- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद, बंगलुरु तथा अन्य शहरों के लिए है। यह संबंधित राज्य विधानमंडल की विधि द्वारा राज्यों में स्थापित हुईं तथा भारत की संसद के अधिनियम द्वारा केंद्रशासित क्षेत्र में, राज्य के सभी नगर निगमों के लिए एक समान अधिनियम हो सकता है या प्रत्येक नगर निगम के लिए पृथक् अधिनियम भी हो सकता है।
नगर निगम में तीन प्राधिकरण हैं, जिनमें परिषद, स्थायी समिति तथा आयुक्त आते हैं।
परिषद निगम की विचारात्मक एवं विधायी शाखा है। इसमें जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित पार्षद होता हैं तथा कुछ नामित व्यक्ति भी होते हैं जिनका नगर प्रशासन में ऊंचा ज्ञान तथा अनुभव होता है। संक्षेप में, परिषद की सरंचना अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं का आरक्षण सहित 74वें संविधान अधिनियम द्वारा शासित होती है।
परिषद का प्रमुख महापौर (मेयर) होता है। उसकी सहायता के लिए उप-महापौर (डिप्टी मेयर) होता है। ज्यादातर राज्यों में उसका चुनाव एक साल के नवीकरणीय कार्यकाल के लिए होता है। वास्तव में वह एक अलंकारिक व्यक्ति होता है तथा निगम का औपचारिक प्रधान होता है। उसका प्रमुख कार्य परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
स्थायी समिति परिषद् के कार्य को सुगम बनाने के लिए गठित की जाती है, जो कि आकार में बहुत बड़ी है। वह लोक कार्य, शिक्षा, स्वास्थ्य कर निर्धारण, वित्त व अन्य को देखती है। वह अपने क्षेत्रों में निर्णय लेती है।
नगर निगम आयुक्त परिषद और स्थायी समिति द्वारा लिए निर्णयों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है अत: वह नगरपालिका का मुख्य कार्यकारी अधिकारी है। वह राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है और साधारणत: आई.ए.एस. समूह का एक सदस्य होता है।
2. नगरपालिका
नगरपालिकाएं कस्बों और छोटे शहरों के प्रशासन के लिए स्थापित की जाती हैं। निगमों की तरह, यह भी राज्य में राज्य विधानमंडल से संबंधित अधिनियम द्वारा गठित की गई हैं और केंद्रशासित राज्यों में भारत की संसद के द्वारा गठित की गई है। यह अन्य नामों, जैसे-नगरपालिका परिषद, नगरपालिका समिति, नगरपालिका बोर्ड, उपनगरीय नगरपालिका, शहरी नगरपालिका तथा अन्य से भी जानी जाती हैं।
नगर निगम की तरह, नगरपालिका के पास भी परिषद, स्थायी समिति तथा मुख्य कार्यकारी अधिकारी नामक अधिकार क्षेत्र आते हैं।
परिषद निगम की वैचारिक व विधायी शाखा है। इसमें लोगों द्वारा सीधे निर्वाचित (काउंसलर) शामिल है।
परिषद का प्रधान अध्यक्ष होता है। उपाध्यक्ष उसका सलाहकार है। वह परिषद की सभा की अध्यक्षता करता है। नगर निगम के महापौर के विपरीत नगर प्रशासन में उसकी महत्वपूर्ण एवं प्रमुख भूमिका होती है। परिषद की बैठकों की अध्यक्षता के अलावा यह कार्यकारी शक्तियों का भी उपयोग करना है।
स्थायी समिति परिषद के कार्य को सुगम बनाने के लिए गठित की जाती है। वह लोक कार्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, कर निर्धारण, वित्त तथा अन्य को देखती है।
मुख्य कार्यकारी अधिकारी नगरपालिका के दैनिक प्रशासन का जिम्मेदार होता है। वह राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है।
3. अधिसूचित क्षेत्र समिति
अधिसूचित क्षेत्र समिति का गठन दो प्रकार के क्षेत्र के प्रशासन के लिए किया जाता है-औद्योगीकरण के कारण विकासशील कस्बा और वह कस्बा जिसने अभी तक नगरपालिका के गठन की आवश्यक शर्तें पूरी नहीं की हों लेकिन राज्य सरकार द्वारा वह महत्वपूर्ण माना जाए। चूंकि इसे सरकारी राजपत्र में प्रकाशित कर अधिसूचित किया जाता है, इसलिए इसे अधिसूचित क्षेत्र समिति के रूप में जाना जाता है। यद्यपि यह राज्य नगरपालिका अधिनियम के ढांचे के अंतर्गत कार्य करता है। अधिनियम के केवल वहीं प्रावधान इसमें लागू होते हैं, जिन्हें सरकारी राजपत्र में अधिसूचित किया गया है। इसे किसी अन्य अधिनियम के तहत शक्ति प्रयोग के लिए भी उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है। इसकी शक्तियां लगभग नगरपालिका की शक्तियों के समान हैं। यह पूरी तरह नामित इकाई है, जिसमें राज्य सरकार द्वारा मनोनीत अध्यक्ष के साथ अधिसूचित क्षेत्र समिति के सदस्य हैं। अत: न तो यह निर्वाचित इकाई है और न ही संविधिक निकाय है।
4. नगर क्षेत्रीय समिति
नगर क्षेत्रीय समिति छोटे कस्बों में प्रशासन के लिए गठित की जाती है। यह एक उपनगरपालिका आधिकारिक इकाई है और इसे सीमित नागरिक सेवाएं, जैसे-जल निकासी, सड़कें, मार्गों में प्रकाश व्यवस्था और सरक्षणता की जिम्मेदारी दी जाती है। यह राज्य विधानमंडल के एक अलग अधिनियम द्वारा गठित किया जाता है। इसका गठन, कार्य और अन्य मामले अधिनियम द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। इसे पूर्ण या आशिक रूप से राज्य सरकार द्वारा निर्वाचित या नामित किया जा सकता है।'
5. छावनी परिषद
छावनी क्षेत्र में सिविल जनसंख्या के प्रशासन के लिए छावनी परिषद की स्थापना की जाती है। इसे 2006 के छावनी अधिनियम के उपबंधों के तहत गठित किया गया है, यह विधान केन्द्र सरकार द्वारा निर्मित किया गया है। यह केंद्रीय सरकार के रक्षा मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के अधीन कार्य करता है। अतः ऊपर दी गई स्थानीय शहरी इकाइयों के विपरीत जो कि राज्य द्वारा प्रशासित और गठित की गई हैं, छावनी परिषद केंद्र सरकार द्वारा गठित और प्रशासित की जाती है।
2006 का छावनी अधिनियम इस आशय से अधिनियमित किया गया था कि छावनी प्रशासन से संबंधित नियमों को संशोधित कर अधिक लोकतांत्रिक बनाया जा सके तथा छावनी क्षेत्र में विकासात्मक गतिविधियों के लिए वित्तीय आधार को और उन्नत किया जा सके। इस अधिनियम द्वारा छावनी अधिनियम 1924 को निरस्त कर दिया गया।
वर्तमान में (2019) देश भर में 62 छावनी बोर्ड हैं। उन्हें चार कोटियों में नागरिक जनसंख्या के आधार पर बांटा गया है, जो कि तालिका 39.2 से स्पष्ट है।
एक छावनी परिषद में आंशिक रूप से निर्वाचित या नामित सदस्य शामिल होते हैं। निर्वाचित सदस्य 3 वर्ष की अवधि के लिए, जबकि नामित सदस्य (पदेन सदस्य) उस स्थान पर लंबे समय तक रहते है। सेना अधिकारी जिसके प्रभाव में वह स्टेशन हो, परिषद का अध्यक्ष होता है और सभा की अध्यक्षता करता है। परिषद के उपाध्यक्ष का चुनाव उन्हीं में से निर्वाचित सदस्यों द्वारा 3 वर्ष की अवधि के लिए होता है।
पहली कोटि के छावनी बोर्ड में निम्नलिखित सदस्य होते हैं:
  1. केन्द्र का नेतृत्व करने वाला सैन्य अधिकारी
  2. छावनी में कार्यरत एक कार्यपालिक अभियंता
  3. छावनी में कार्यरत एक स्वास्थ्य अधिकारी
  4. जिलाधिकारी द्वारा नामित एक प्रथम श्रेणी दंडाधिकारी
  5. केन्द्र का नेतृत्व करने वाले सैन्य अधिकारी द्वारा नामित तीन सैन्य अधिकारी
  6. छावनी क्षेत्र के लोगों द्वारा निर्वाचित आठ सदस्य
  7. छावनी बोर्ड का मुख्य कार्यकारी अधिकारी
छावनी परिषद द्वारा किए गए कार्य नगरपालिका के समान होते हैं। यह अनिवार्य कार्यों एवं वैचारिक कार्यों में वैधानिक रूप से श्रेणीबद्ध है। आय के साधनों में दोनों, कर एवं गैर-कर राजस्व शामिल हैं।
छावनी परिषद के कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा होती है। यह परिषद और इसकी समिति के सारे प्रस्तावों एवं निर्णयों को लागू करता है और इस प्रयोजन हेतु गठित केन्द्रीय कैडर से संबद्ध होता है।
6. नगरीय क्षेत्र
इस तरह का शहरी प्रशासन वृहत सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा स्थापित किया जाता है। जो उद्योगों के निकट बनी आवासीय कॉलोनियों में रहने वाले अपने कर्मचारियों को सुविधाएं प्रदान करती है। यह उपक्रम नगर के प्रशासन की देखरेख के लिए एक नगर प्रशासक नियुक्त करता है। उसे कुछ इंजीनियर एवं अन्य तकनीकी और गैर तकनीकी कर्मचारियों की सहायता प्राप्त होती है। अतः शहरी प्रशासन के नगरीय रूप में कोई निर्वाचित सदस्य नहीं होते हैं। वास्तव में, यह की नौकरशाही संरचना का विस्तार है।
7. न्यास पत्तन
न्यास पत्तन की स्थापना बंदरगाह क्षेत्रों जैसे- मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और अन्य में मुख्य रूप से दो उद्देश्यों के लिए की जाती है:
  1. बंदरगाहों की सुरक्षा व व्यवस्था ।
  2. नागरिक सुविधाएं प्रदान करना ।
न्यास पत्तन का गठन संसद के एक अधिनियम द्वारा किया गया है। इसमें निर्वाचित और गैर-निर्वाचित दोनों प्रकार के सदस्य सम्मिलित हैं। इसका एक आधिकारिक अध्यक्ष होता है। इसके नागरिक कार्य काफी हद तक नगरपालिका की तरह होते हैं।
8. विशेष उद्देश्य हेतु अभिकरण
इन 7 क्षेत्रीय आधार वाली शहरी इकाइयों (या बहुउद्देशीय इकाइया) के साथ, राज्यों ने विशेष कार्यों के नियंत्रण हेतु विशेष प्रकार की अभिकरणयों का गठन किया है जो नगर निगमों या नगरपालिकाओं या अन्य स्थानीय शासनों के समूह से संबंधित हों। दूसरे शब्दों में, यह कार्यक्रम पर आधारित हैं न कि क्षेत्र पर। इन्हें 'एकउद्देशीय', 'व्यापक उद्देशीय' या 'विशेष उद्देशीय इकाई' या 'स्थानीय कार्यकारी ईकाई' के रूप में जाना जाता है। कुछ तरह की इकाइयां इस प्रकार हैं:
  1. नगरीय सुधार न्यास
  2. शहरी सुधार प्राधिकरण
  3. जलापूर्ति एवं मल निकासी बोर्ड
  4. आवासीय बोर्ड
  5. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
  6. विद्युत आपूर्ति बोर्ड
  7. शहरी यातायात बोर्ड
यह कार्यकारी स्थानीय इकाईयां, सांविधिक इकाइयों के रूप में राज्य विधानमंडल या विभागों के अधिनियम द्वारा स्थापित की जाती हैं। यह स्वायत्त इकाई के रूप में कार्य करती हैं और स्थानीय शहरी प्रशासन द्वारा सौंपे कार्यों को स्वतंत्र रूप से करती हैं अर्थात् नगर निगम, नगरपालिकाएं आदि। अतः ये स्थानीय नगरपालिका इकाइयों के अधीनस्थ नहीं हैं।

नगरपालिका कर्मी

भारत में तीन प्रकार के नगरपालिका कार्मिक हैं। नगर सरकारों में कार्यरत कार्मिक इन तीनों में से किसी एक अथवा तीनों से संबंधित हो सकते हैं:
  1. पृथक् कार्मिक प्रणाली: इस प्रणाली में प्रत्येक स्थानीय निकाय अपने कार्मिकों की नियुक्ति प्रशासन एवं नियंत्रण स्वयं करता है। ये कार्मिक अन्य स्थानीय निकायों में स्थानांतरित नहीं किए जा सकते। यह व्यवस्था सबसे अधिक प्रचलित है। यह प्रणाली स्थानीय स्वायत्तता के सिद्धान्त को कायम रखती है तथा अविभक्त निष्ठा को प्रोत्साहित करती है।
  2. एकीकृत कार्मिक प्रणाली: इस प्रणाली में राज्य सरकार नगरपालिका कार्मिकों की नियुक्ति, प्रशासन तथा नियंत्रण करती है। दूसरे शब्दों में, सभी नगर निकायों के लिए राज्य स्तरीय सेवाएं (कैडर) सृजित की जाती हैं। इनमें कार्मिकों का विभिन्न स्थानीय निकायों में स्थानांतरण होता रहता है। यह व्यवस्था आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि में लागू है।
  3. समेकित कार्मिक प्रणाली: इस प्रणाली में राज्य सरकार के कार्मिक तथा स्थानीय निकायों के कार्मिक एक ही सेवा का गठन करते हैं। दूसरे शब्दों में, नगरपालिका कार्मिक राज्य सेवाओं के सदस्य होते है। इनका स्थानांतरण केवल स्थानीय निकायों में ही नहीं बल्कि राज्य सरकार के विभिन्न विभागों में भी हो सकता है। यह व्यवस्था ओडिशा, बिहार, कर्नाटक, पंजाब हरियाणा तथा अन्य राज्यों में लागू है। नगरपालिका कार्मिकों को प्रशिक्षण देने के लिए राष्ट्रीय स्तर के अनेक संस्थान कार्यरत हैं, जैसे:
    1. अखिल भारतीय स्थानीय स्वशासन संस्थान (All India Institute of local self Government, Mumbai)% इसकी स्थापना 1927 में हुई थी और यह एक निजी पंजीकृत सोसायटी है।
    2. नगरीय एवं पर्यावरणीय अध्ययन केन्द्र (Centre for Urban and Environmental studies, New Delhi): इसकी स्थापना 1967 में नगरपालिका कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए गठित नूरुद्दीन अहमद समिति (1963-65) की अनुशंसाओं पर की गई थी।
    3. क्षेत्रीय, नगरीय एवं पर्यावरणीय अध्ययन केन्द्र (Regional Centers for Urban and Environmental studies, Kolkata, Lucknow, Hyderabad and Mumbai): इसकी स्थापना 1968 में नगरपालिका कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए गठित नूरुद्दीन अहमद समिति (1963-65) की अनुशंसाओं पर की गई थी।
    4. नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ अर्बन अफेयर्स, 1976 में स्थापित।
    5. ह्यूमन सेट्लमेन्ट मैनेजमेन्ट इंस्टीट्यूट, 1985 में स्थापित।

निगम राजस्व

शहरी स्थानीय निकायों के आपके पांच साधन हैं। वे साधन इस प्रकार हैं:
  1. कर राजस्व: स्थानीय करों से प्राप्त राजस्व के अंतर्गत संपत्ति कर, मनोरंजन कर, विज्ञापन कर, पेशा कर, जलकर, , मवेशी कर, प्रकाश कर, तीर्थ कर, बाजार कर, नये पुलों पर मार्ग कर, चुंगी तथा अन्य कर आते हैं। साथ ही, निगम के निकाय कई प्रकार के शुल्क, जैसे- पुस्तकालय शुल्क शिक्षा शुल्क, शिक्षा शुल्क आदि लगाते हैं। चुंगी जो स्थानीय क्षेत्र में आने वाली चीजों पर लगाया कर है जो उनके इस्तेमाल तथा बिक्री पर भी लगती है। ये चुगियां कई राज्यों में हटा दी गई हैं। संपत्ति कर कर राजस्व में सर्वाधिक महत्व का है।
  2. गैर-कर राजस्वः इस स्रोत के अंतर्गत आते हैं- निगम संपत्ति, फीस, जुर्माना, रॉयल्टी लाभ, लाभांश, ब्याज, उपयोग फीस तथा अन्य अदायगियां । जन-सुविधा शुल्क, जैसे-जल, स्वच्छता, मलवाहन (swerage) फीस तथा अन्य।
  3. अनुदानः इनमें केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा निगम निकायों को कई विकास परियोजनाओं संरचना परियोजना, शहरी सुधार प्रक्रम तथा अन्य योजनाएं संचालित करने हेतु केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले विभिन्न अनुदान शामिल हैं।
  4. हस्तांतरण: इसके अंतर्गत आता है-राज्य सरकार से शहरी स्थानीय निकायों को निधि का हस्तांतरण । यह हस्तांतरण राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर होता है।
  5. कर्ज: शहरी स्थानीय निकाय अपने व्यय के लिए राज्य सरकार तथा वित्तीय संस्थानों से भी कर्ज लेते हैं। पर वे राज्य सरकार की अनुमति से ही वित्तीय संस्थानों या अन्य संस्थाओं से कर्ज ले सकते हैं।

स्थानीय सरकार की केन्द्रीय परिषद्

इसकी स्थापना राष्ट्रपति के आदेश से भारत के संविधान के अनुच्छेद 263 के अंतर्गत की गई थी। मूल रूप से इसे सेण्ट्रल काउंसिल ऑफ लोकल सेल्फ गवर्मेन्ट कहा जाता था। हालांकि बाद में सेल्फ गवर्मेन्ट (स्वशासन) को गवर्मेन्ट (शासन) से 1980 में प्रतिस्थापित कर दिया गया। 1958 तक इसका संबंध नगर सरकारों के साथ ही ग्रामीण स्थानीय सरकारों के साथ भी था, लेकिन 1958 में बाद यह केवल नगरीय स्थानीय सरकारों के मामलों को ही देखता है।
परिषद एक परामर्शदात्री निकाय है। इसमें भारत सरकार के नगर विकास मंत्री तथा राज्यों के स्थानीय स्वशासन के प्रभारी मंत्री सदस्य होते हैं। केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् में अध्यक्ष होते हैं।
परिषद के स्थानीय सरकार से संबंधित निम्नलिखित कार्य हैं:
  1. नीतिगत मामलों पर विचार करना तथा अनुशंसाएं देना।
  2. विधायन के लिए प्रस्ताव तैयार करना ।
  3. केन्द्र तथा राज्यों के बीच सहयोग की संभावना तलाश करना।
  4. कार्यवाही के लिए साझे कार्यक्रम का खाका तैयार करना। 
  5. केन्द्रीय वित्तीय सहयोग के लिए अनुशंसा करना।
  6. केन्द्रीय वित्तीय सहयोग से पूरा किए गए कार्यों की समीक्षा करना।
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