अधीनस्थ न्यायालय
संविधान के भाग VI में अनुच्छेद 233 से 237 तक इन न्यायालयों के संगठन एवं कार्यपालिका से स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले उपबंधों का वर्णन किया गया है।

अधीनस्थ न्यायालय
संवैधानिक उपबंध
संरचना एवं अधिकार क्षेत्र
राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण'
- अर्ह व्यक्तियों को मुफ्त एवं सक्षम कानूनी सेवाएं उपलब्ध कराना।
- विवादां के सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटारे के लिए लोक अदालतें आयोजित करना ।
- ग्रामीण क्षेत्रों में कानूनी जागरूकता शिविरों का आयोजन करना।
- अदालती फीस, प्रोसेस फीस तथा अन्य सभी शुल्कों आदि का भुगतान जो कानूनी कार्यवाहियों में खर्च होते हैं।
- कानूनी कार्यवाहियों में अधिवक्ताओं (वकीलों) की सेवाएं उपलब्ध कराना।
- कानूनी कार्यवाहियों से सम्बन्धित आदेशों को प्रभावित प्रतियां तथा अन्य दस्तावेज प्राप्त करना एवं वितरित करना।
- अपील, पेपर बुक आदि की तैयारी, जिसमें दस्तावेजों का मुद्रण एवं अनुवाद भी शामिल है।
- महिलाएं एवं बच्चे।
- अनुसूचित जाति/जनजाति के सदस्य ।
- औद्योगिक मजदूर
- सामूहिक विपदा, हिंसा, बाढ़, सूखा, भूकम्प, औद्योगिक आपदा आदि के शिकार व्यक्ति।
- दिव्यांग व्यक्ति।
- हिरासत में लिए गए व्यक्ति।
- वे व्यक्ति जिनकी वार्षिक आय एक लाख रुपये से अधिक नहीं है (सर्वोच्च न्यायालय में कानूनी सहायता समिति के लिए यह सीमा ₹1,25,000/- है)।
- मानव तस्करी के शिकार व्यक्ति तथा भिखारी।
लोक अदालत
- राज्य वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण या जिला वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण, या सर्वोच्च न्यायालय वैधानिक सेवाएं प्राधि करण अथवा उच्च न्यायालय वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण लोक अदालतों का आयोजन ऐसे समयान्तरण का अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए ऐसे स्थानों पर कर सकता है जिसे यह भी उपयुक्त समझता है।
- किसी इलाके के लिए आयोजित प्रत्येक लोक अदालत में उतनी संख्या में सेवारत अथवा सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों तथा उस इलाके के अन्य व्यक्ति शामिल होंगे जितनी कि लोक अदालत का आयोजन करने वाली ऐजेंसी निर्दिष्ट करे। साधारण एक लोक अदालत में अध्यक्ष के रूप में एक न्यायिक अधिकारी तथा एक वकील व सामाजिक कार्यकर्ता सदस्यों के रूप में होते हैं।
- लोक अदालत को यह अधिकार होगा कि वह निम्नलिखित विवादों में दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का निश्चिय करें:
- कोई भी मामला जो किसी न्यायालय में लंबित हो या
- कोई मामला जो किसी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता हो लोक अदालत के समक्ष नहीं लाया जाएगा।
इस प्रकार लोक अदालत केवल न्यायालय में लंबित मामलों को ही नहीं बल्कि उन मामलों का भी निपटारा कर सकती है जो न्यायालय में अभी नहीं पहुंचे।अनेक प्रकार के विवाह सम्बन्धी/पारिवारिक विवाद, आपराधिक मामले (Compoundable offences), भूमि अधिग्रहण, सम्बन्धी मामले, श्रम विवाद, कर्मचारी क्षतिपूर्ति के मामले, बैंक वसूली के मामले, पेंशन मामले, आवास बोर्ड एवं मलिन बस्ती क्लियरेंस सम्बन्धी मामले, आवास वित्त सम्बन्धी मामले, उपभोक्ता शिकायतों के मामले, बिजली, टेलीफोन बिल सम्बन्धी मामले, नगरपालिका सम्बन्धी मामले, मकान कर सहित सेल्युलर कम्पनियों से सम्बन्धित विवाद आदि मामले लोक अदालतें द्वारा हाथ में लिए जा रहे हैं।लेकिन लोक अदालतों का उन मामलों में कोई न्याय अधि कार नहीं होगा जो किसी किसी ऐसे अपराध से जुड़े हैं जो किसी के अंतर्गत समाधेय (Compoundable) नहीं कानून हैं। दूसरे शब्दों में, बीते अपराध जो गैर-समाधेय (noncompoundable) हैं, किसी भी ऐसे कानून के तहत इस अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते।
- अदालत के समक्ष लम्बित कोई भी मामला लोक अदालत को संदर्भित किया जा सकता है, यदि:
- यदि वाद को पक्ष विवाद का समाधान लोक अदालत में करना चाहते हैं, या
- वादियों में से कोई एक न्यायालय में मामले को लोक अदालत को संदर्भित करने के लिए आवेदन देता है, या
- यदि न्यायालय संतुष्ट है कि मामला लोक अदालत के संज्ञान में लाए जाने के उपयुक्त है।
मुकदमा दायर किए जाने के पहले के किसी विवाद के मामले को लोक अदालत आयोजित करने वाली ऐजेंसी द्वारा समाधान के लिए लोक अदालत को संदर्भित किया जा सकता है अगर सम्बन्धित राज्यों में से किसी एक का इस आशय का आवेदन प्राप्त होता है।
- लोक अदालतों को वही शक्तियां प्राप्त होती हैं, जो कि सिविल कोर्ट को कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर (1908) के अंतर्गत प्राप्त होती हैं, जबकि निम्नलिखित मामलों में मुकदमा चलना हो:
- किसी गवाह को सम्मान भेजकर बुलाना और शपथ दिलवाकर उसकी परीक्षा लेना,
- किसी दस्तावेज को प्राप्त एवं प्रस्तुत करना,
- शपथ-पत्रों पर साक्ष्यों की प्राप्ति,
- किसी भी अदालत या कार्यालय से सार्वजनिक अभिलेख अथवा सामग्री की मांग करना, तथा;
- अन्य विनिर्दिष्ट सामग्री।
पुनः एक लोक अदालत को अपने समक्ष प्रस्तुत किए गए मामले के निस्तारण की आपकी पद्धति विनिर्दिष्ट करने की समुचित शक्ति होगी। साथ ही लोक अदालत में प्रस्तुत चली कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC 1860) में निर्धारित अर्थों में अदालती कार्यवाही माना जाएगा तथा प्रत्येक लोक अदालत आपराधिक प्रक्रिया संहिता (1973) के उद्देश्य से एक सिविल कोर्ट माना जाएगा।
- लोक अदालत का निर्णय सिविल कोर्ट के हुकमनामें अथवा किसी भी अन्य अदालत के किसी भी आदेश की तरह अन्य होगा। लोक अदालत द्वारा दिया गया फैसला अंतिम तथा सभी पक्षों पर बाध्यकारी होगा और लोक अदालत के फैसले के विरुद्ध किसी अदालत में कोई अपील नहीं होगी।
- इसमें कोई अदालती फीस (court-fee) नहीं लगती और अगर अदालती फीस का भुगतान कर दिया गया हो तो लोक अदालत में मामला निपटने के बाद राशि लौटा दी जाएगी।
- लोक अदालत की प्रमुख विशेषताएं हैं- लचीली प्रक्रिया तथा विवादों की त्वरित सुनवाई । लोक अदालत में दावों का आकलन करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता तथा साक्ष्य अधिनियम जैसे पद्धति मूलक कानूनों के सख्त उपयोग की जरूरत नहीं पड़ती।
- यहां सभी पक्ष अपने वकीलों के माध्यम से न्यायाधीश से सीधे संवाद कर सकते हैं, जो कि नियमित न्यायालयों में संभव नहीं है।
- लोक अदालत पर निर्णय सम्बद्ध पक्षों पर बाध्यकारी होता है और इसकी हैसियत सिविल कोर्ट के निर्णय के बराबर होती है, साथ ही गैर-अपीलीय होता है जिससे विवाद के अंतिम समाधान में निलंब नहीं होता।
- यह कम खर्चीला है।
- इसमें कम समय लगता है।
- यह तकनीकी उलझनों से युक्त है - कानूनी न्यायालयों के मुकाबले ।
- सम्बद्ध पक्ष अपने वैचारिक मतभेदों पर खुलकर चर्चा करते हैं, बिना किसी खुलासे के व्यय के, जैसा कि कानूनी न्यायालयों में होता है।
- लोगों को यह अनुभूति होती है कि उनके बीच कोई विजयी या पराजित पक्ष नहीं है, तब भी उनकी शिकायत का निराकरण होता है और सम्बन्ध भी सुरक्षित रहते हैं।
स्थाई लोक अदालतें
- कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 पारित किया गया था ताकि एक मुक्त एवं सक्षम कानूनी सेवाएं प्रदान करने लिए वैधानिक (कानूनी) सेवा प्राधिकरणों की स्थापना की जा सके। यह प्रावधान समाज के गरीब एवं कमजोर वर्गों लिए इसलिए दिया गया यदि आर्थिक अथवा अन्य प्रकार की अशक्तता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न हो सके। लोक अदालतों का गठन यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया कि न्यायिक प्रणाली का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय के संवर्द्धन के लिए हो ।
- लोक अदालत, जो कि वैकल्पिक विवाद समाधान को नवाचारी प्रविधि है, न्यायालय के बाहर बातचीत एवं मध्यस्थता की भावना से विवाद समाधान की एक नवाचारी प्रविधि है।
- हालांकि उक्त अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालतों के प्रश्न की वर्तमान योजना की बड़ी कमी यह है कि लोक अदालतों की व्यवस्था प्रमुखत: समझौता अथवा पक्षों के बीच समाधान पर आधारित है। यदि दोनों पक्ष किसी समझौते या समधान तक नहीं पहुंच पाते तब मामला या तो न्यायालय को वापस भेज दिया जाता है जहां से वह यहां भेजा गया था या दोनों पक्षों को सलाह दी जाती है कि वे अपने विवाद को न्यायालयी प्रक्रिया द्वारा सुलझाएं (लोक अदालत में मुकदमा सीधे आने की स्थिति में ) । इससे न्याय प्राप्ति में अनावश्यक देरी होती है। यदि लोक अदालतों को यह शक्ति दे दी जाए कि वे दोनों पक्षों के किसी समझौते पर न पहुंच पाने की स्थिति में स्वयं विवाद का निर्णय करें तो यह समस्या काफी हद तक सुलझ जाएगी।
- पुनः जनोपयोगी सेवाओं, जैसे- एमटीएनएल, दिल्ली विद्युत बोर्ड, आदि; से सम्बन्धित विवादों को जल्दी निपटाना जरूरी होता है जिससे कि लोगों को बिना विलंब न्याय मिले, यहां तक कि वाद शुरू होने के भी पहले तो बहुत से गंभीर और क्षुद्र मामलों का निस्तारण हो जाएगा और नियमित न्यायालयों का बोझ कम होगा।
- इसी परिप्रेक्ष्य में वैधानिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 में संशोधन कर स्थाई लोक अदालतों को स्थापित करने की अनुशंसा की गई है ताकि जनोपयोगी सेवाओं से जुड़े मामलों के वाद- पूर्व निस्तारण की व्यवस्था बनाई जा सके, जो बातचीत और मध्यस्थता पर आधारित हो ।
- स्थाई लोक अदातल में एक अध्यक्ष या सभापति होगा जो कि जिला न्यायाधीश या अतिरिक्त जिला न्यायाधीश रहा हो अथवा जो जिला न्यायाधीश से भी उच्चतर श्रेणी की न्यायिक सेवा में रहा हो तथा दो अन्य व्यक्ति होंगे जिन्हें सार्वजनिक सेवाओं में पर्याप्त अनुभव हो ।
- स्थाई लोक अदालत के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक या अधिक जनोपयोगी सेवाएं होंगी, जिसे यात्री अथवा माल परिवहन (हवाई, जल या थल); डाक, टेलीग्राफ या टेलीफोन सेवाएं, किसी संस्थान द्वारा जनता को बिजली, प्रकाश या पानी की आपूर्ति, स्वच्छता, अस्पतालों- डिस्पेंसरियों में सेवाएं; तथा बीमा सेवाएं।
- स्थाई लोक अदालतों का वित्तीय क्षेत्राधिकार दस लाख रुपये तक का होगा हालांकि केंन्द्रीय सरकार इसे समय-समय पर बढ़ा सकती है।
- स्थाई लोक अदालत का उन मामलों में कोई क्षेत्राधिकार नहीं होगा जो ऐसे अपराध से जुड़े हैं जो कानून के अंतर्गत समाधेय नहीं है।
- किसी विवाद को न्यायालय के समक्ष लाने के पहले कोई भी पक्ष उसके समाधान के लिए स्थाई लोक अदालत को आवेदन कर सकता है। आवेदन स्थाई लोक अदालत को प्रस्तुत करने के बाद उस आवेदन का कोई भी पक्ष उसी वाद में किसी न्यायालय में समाधान के लिए नहीं जाएगा।
- जब कभी स्थाई लोक अदालत को ऐसा प्रतीत हो कि किसी वाद में समाधान के तत्व मौजूद हैं जो सम्बन्धित पक्षों को स्वीकार्य हो सकते हैं तब वह संभावित समाधान का एक सूत्र दे सकती है और उसे सम्बन्धित पक्षों के समक्ष रख सकती है ताकि वे भी उसे देख समझ लें। यदि इसके बाद वादी एक समाधान तक पहुंच जाते हैं तो लोक अदालत उस आशय का फैसला सुना सकती है। यदि वादी समझौते के लिए तैयार नहीं हो पाते तब लोक अदालत वाद के गुण-दोष के आधार पर फैसला सुना सकती है।
- स्थाई लोक अदालत द्वारा दिया गया प्रत्येक न्याय निर्णय अंतिम होगा और वादियों एवं समस्त पक्षों पर बाध्यकारी होगा और वह लोक अदालत के गठन में शामिल व्यक्तियों के बहुमत के आधार पर पारित होगा।
परिवार न्यायालय
- कुछ महिला संगठन, अन्य संस्थाएं एवं नागरिकों के समय-समय पर पारिवारिक विवादों के हल के लिए परिवार न्यायालय के गठन पर जोर देते रहे हैं जहां बल समझौते एवं सामाजिक रूप से वांछनीय परिणामों पर दिया जाना चाहिए। वहीं प्रक्रिया एवं साक्ष्य सम्बन्धी रूढ़ नियमों को दरकिनार कर दिया जाना चाहिए।
- विधि आयोग ने अपनी 59वीं रिपोर्ट (1974) में इस बात पर जोर दिया है कि परिवार सम्बन्धी विवादों में न्यायालय को साधारण सिविल मामलों में अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि मुकदमा चलने के पहले ही समझौता हो जाए। नागरिक प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure) को 1976 में संबोधित किया गया ताकि परिवार से सम्बन्धित मामलों में याचिका एवं अदालती कार्यवाही के लिए विशेष प्रक्रिया अपनाई जाए।
- हालांकि, अब भी न्यायालयों द्वारा पारिवारिक वादों के समाधान के लिए मध्यस्थता या समझौताकारी उपायों का यथेष्ट उपयोग नहीं किया जाता और इन मामलों को सामान्य सिविल मामलों की तरह ही देखा और बरता जाता है, जिसमें 'विरोधी-दृष्टिकोण' ही हावी रहता है। इसलिए जनहित में इस बात की आवश्यकता अनुभव की गई पारिवारिक विवादों के समाधान के लिए परिवार न्यायालय स्थापित किए जाएं।
- एक विशेषीकृत न्यायालय का सृजन करना, जो केवल पारिवारिक मामले ही देखेगा जिससे कि ऐसे न्यायालय को ऐसे ही मामलों में त्वरित निष्पादन की आवश्यक विशेषज्ञता प्राप्त हो जाए। इस प्रकार विशेषज्ञता तथा त्वरित निस्तारण - ये दो प्रमुख कारक हैं ऐसे न्यायालयों को स्थापित करने के।
- परिवार से सम्बन्धित विवादों के लिए समझौते की प्रक्रिया को संस्थापित करना ।
- यह कम खर्चीला हल प्रस्तुत करना, तथा,
- अदालती कार्यवाही के दौरान लचीलापन एवं अनौपचारिक वातावरण बनाए रखना।
- यह राज्य सरकारों द्वारा उच्च न्यायालयों की सहमति से परिवार न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान करता है।
- यह राज्य सरकारों के लिए एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रत्येक नगर में एक परिवार न्यायालय की स्थापना को बाध्यकारी बनाता है।
- यह राज्य सरकारों को अन्य क्षेत्रों में भी परिवार न्यायालय स्थापित करने में समर्थ बनाता है।
- यह परिवार न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत विशेष रूप केवल निम्नलिखित मामलों का प्रावधान करता है:
- विवाह सम्बन्धी राहत, विवाह की अमान्यता, न्यायिक विलगाव, तलाक, वैवाहिक अधिकारों की बहाली या पुनः प्रतिष्ठापन अथवा विवाह की वैधता की घोषणा, अथवा
- दम्पत्ति या उनमें से एक की सम्पत्ति
- किसी व्यक्ति का औसतता (legitimacy) सम्बन्धी
- किसी व्यक्ति का अभिभावक अथवा किसी नाबालिग का संरक्षक।
- पत्नी, बच्चों एवं माता-पिता का गुजारा भत्ता ।
- परिवार न्यायालय के लिए यह अनिवार्य है कि वह प्रथमत: किसी पारिवारिक विवाद में सम्बन्धित पक्षों के बीच मेल-मिलाप या समझौते का प्रयास करे। इस चरण में कार्यवाही बिल्कुल अनौपचारिक होगी और रूढ़ नियमों का पालन नहीं किया जाएगा।
- यह समझौता वाले चरण में समाज कल्याण ऐजेन्सियों तथा सलाहकारों के साथ ही चिकित्सकीय एवं कल्याण विशेषज्ञों के सहयोग का भी प्रावधान करता है।
- यह प्रावधान करता है कि परिवार न्यायालय के समक्ष उपस्थित किसी विवाद से सम्बन्धित पक्षों का एक अधिकार के रूप में, विधि अभ्यासी द्वारा प्रतिनिधित्व नहीं किया जाएगा। हालांकि न्यायालय न्याय के हित में किसी विधि विशेषज्ञ की सहायता ले सकता है - न्यायमित्र के रूप में।
- यह साक्ष्य तथा प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों को सरलीकृत बना देता है।
- यह केवल एक अपील का अधिकार देता है जो उच्च न्यायालय में ही की जा सकती है।
ग्राम न्यायालय
- गरीबों एवं साधनहीनों तक न्याय सुलभ कराना अब तक विश्व स्तर पर एक गंभीर समस्या है, भले ही इसके लिए अनेक प्रकार के प्रयास किए गए और समितियां अमल में लाई गईं। हमारे देश में संविधान का अनुच्छेद 39A राज्य को निदेशित करता है कि यह सुनिश्चित करे कि समानता के आधार पर देश में वैधानिक प्रणाली लाभ को बढ़ावा देती है। इस अनुच्छेद के अनुसार न्याय प्राप्त करने के अवसर से कोई नागरिक आर्थिक या अन्य आवश्यकताओं के कारण वंचित न रह जाए, इसके लिए राज्य है। नागरिकों के लिए पृथक कानूनी सहायता उपलब्ध कराएगा।
- हाल के वर्षों में सरकार ने न्यायिक प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए कई उपाय किए हैं। पद्धतिमूलक कानूनों का सरलीकरण वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रियाओं को, जैसे- दिवायन, समझौता तथा मध्यस्थता का समावेश, लोक अदालतों का संचालन आदि ऐसे ही उपाय हैं।
- भारत के विधि आयोग ने अपनी 114वीं रिपोर्ट जो ग्राम न्यायालय पद है, में ग्राम न्यायालयों की स्थापना का सुझाव दिया है जिससे कि सस्ता एवं समुचित न्याय आम नागरिक को सुलभ कराया जा सके। ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 मोटे तौर पर विधि आयोग की अनुशंसाओं पर आधारित है।
- गरीबों को उनके दरवाजे पर ही न्याय सुलभ हो, यह गरीब आदमी का सपना है। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्राम न्यायालयों की स्थापना से ग्रामीण लोगों को त्वरित, सस्ता व समुचित न्याय सुलभ हो सकेगा।
- ग्राम न्यायालय प्रथम श्रेणी के दंडाधिकारी (Magistrate) की अदालत होगा तथा इसके न्यायाधिकारी (Presiding Officer) की नियुक्ति उच्च न्यायालय की सहमति से राज्य सरकार करेगी।
- ग्राम न्यायालय प्रत्येक पंचायत के लिए स्थापित किया जाएगा। जिले में मध्यवर्ती स्तर पर अथवा मध्यवर्ती स्तर पंचायतों के एक समूह के लिए अथवा जिस राज्य में मध्यवर्ती स्तर पर कोई पंचायत नहीं हो, वहां पंचायतों के सशक्त समूह के लिए।
- न्यायाधिकारी जो इन ग्राम न्यायालयों की अध्यक्षता करेंगे, अनिवार्य रूप से न्यायिक अधिकारी होंगे और उतना ही वेतन प्राप्त करेंगे और उन्हें उतनी ही शक्ति प्राप्त होंगी। जितनी कि एक प्रथम श्रेणी के दंडाधिकारी को, जो उच्च न्यायालयों के अधीन कार्य करते हैं।
- ग्राम न्यायालय एक चलंत न्यायालय (Mobile Court) होगा और यह फौजदारी और और दीवानी दोनों न्यायालयों की शक्ति का उपभोग करेगा।
- ग्राम न्यायालय की पीठ मध्यवर्ती पायत मुख्यालय पर स्थापित होगी, वे गांवों में जाएंगे, कार्य करेंगे और मामलों का निस्तारण करेंगे।
- ग्राम न्यायालय में आपराधिक मामलों, दीवानी मुकदमों, दावों एवं वादों पर अदालती कार्यवाही चलेगी जैसा कि अधिनियम की पहली एवं दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट है।
- केन्द्र एवं राज्य सरकारों को प्रथम एवं द्वित्तीय अनुसूची को संशोधित करने का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत प्रदान किया गया है, उनकी अपनी विधायी शक्ति के अनुसार।
- ग्राम न्यायालय फौजदारी मुकदमों में संक्षितप प्रक्रिया का अनुसरण करेगा।
- ग्राम न्यायालय सिविल न्यायालय की शक्तियों का कुछ संशोधनों के साथ उपयोग करेगा और अधिनियम में उल्लिखित विशेष प्रक्रिया का अनुसरण करेगा।
- ग्राम न्यायालय उच्च पक्षों के बीच समझौता करने का हर संभव प्रयास करेगा ताकि विवाद का समाधान सौहार्दपूर्ण तरीके से हो जाए और इस उद्देश्य के लिए मध्यस्थों की भी नियुक्ति करेगा।
- ग्राम न्यायालय द्वारा पारित आदेश की हैसियत हुक्मरानों के बराबर होगी और इसके कार्यान्वयन के विलम्ब को रोकने के लिए ग्राम न्यायालय संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुसरण करेगा।
- ग्राम न्यायालय भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के प्रावधानिक साक्ष्य की नियमावली से बंधा नहीं होगा, बल्क यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों से निर्देशित होगा, अगर उच्च न्यायालय द्वारा ऐसा कोई नियम नहीं बनाया गया है।
- फौजदारी मामलों में अपील सत्राधीन न्यायालय में प्रस्तुत होगी जिसकी सुनवाई और निस्तारण अपील दाखिल होने के छह माह की अवधि के अंदर किया जाएगा।
- दीवानी मामलों में अपील जिला न्यायालय में दाखिल होगी जिसकी सुनवाई और निस्तारण अपील दाखिल होने के छह माह की अवधि के अंदर किया जाएगा।
- एक आरोपित व्यक्ति अपराध दंड को कम या अधिक करने के लिए आवेदन दाखिल कर सकता है।
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