भारत की विदेश नीति

भारत की विदेश नीति

भारत की विदेश नीति

> भारतीय विदेश नीति को निर्धारित करने वाले तत्व
विश्व शान्ति, गुटनिरपेक्षता, निःशस्त्रीकरण का समर्थन, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व नस्लवाद का विरोध अफ्रोएशियाई एकता का आह्वान और संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्तों में आस्था भारतीय विदेश नीति की नींव के पत्थर समझे जा सकते हैं. ये सभी सिद्धान्त आपस में गुँथे हुए थे और दूरदर्शी थे. विदेशी-नीति निर्धारण सम्बन्धी उत्तरदायी प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं—
(1) विश्व शान्ति – विश्व शान्ति में नेहरू की आस्था इसलिए थी कि वे अत्यन्त साहसी व्यक्ति थे. विश्व-शान्ति के प्रति उनका आकर्षण व्यक्तिगत अनुभव था, जिसमें उन्होंने यूरोप के देशों को युद्ध की आग में बर्बाद होते देखा था. इसलिए भारत के आजाद होते ही उन्होंने विश्व शान्ति के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण रखा. नेहरू यूरोप में महायुद्ध तथा एफ्रो-एशियाई देशों में गृहयुद्ध के अपने निजी अनुभव से यह बात भली-भाँति समझते थे कि युद्ध का दबाव अन्य सभी सामाजिक प्राथमिकताओं को पीछे ढकेल देता है. इसीलिए नेहरूजी ने अपनी विदेश नीति नियोजन में विश्वशान्ति को प्राथमिकता दी.
(2) गुटनिरपेक्षता – विश्व शान्ति के लिये गुटनिरपेक्षता की अवधारणा महत्त्वपूर्ण पहल थी. द्वितीय महायुद्ध के बाद युद्ध - विराम के हो जाने के पश्चात् भी शान्ति नहीं लौट पायी थी. अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति तनावपूर्ण एवं जोखिम भरी हो गयी थी. नेहरूजी ने नवोदित राष्ट्रों को गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने का सुझाव रखा. इस नीति का अर्थ निष्क्रिय उदासीनता, तटस्थता या अवसरवादिता नहीं था, वरन् राष्ट्रीय हित के अनुकूल विकल्प चुनना ही असली गुटनिरपेक्षता थी. नेहरूजी का इरादा भारत को महाशक्तियों के दंगल से बचाकर रखने का था.
(3) निःशस्त्रीकरण – जिस तरह गुटनिरपेक्षता विश्वशान्ति से जुड़ी हुई थी, उसी तरह निःशस्त्रीकरण का मुद्दा गुट-निरेपेक्षता से गुँथा हुआ था, जब तक शस्त्रों की दौड़ जारी रहेगी, विश्व-शान्ति की कल्पना नहीं की जा सकती. नेहरूजी ने अन्तर्राष्ट्रीय मंच से निःशस्त्रीकरण का संदेश प्रसारित किया. इसके लिए वे आत्मीय मित्रों से भी टकरा गये, जिसका उदाहरण बेलग्रेड शिखर सम्मेलन (1961) में उनकी सुकार्तो के साथ मुठभेड़ थी.
(4) साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व रंगभेद का विरोधविश्व शान्ति, गुटनिरपेक्षता व निःशस्त्रीकरण की पक्षधरता के बावजूद नेहरूजी द्वारा निर्धारित भारतीय विदेश नीति के सिद्धान्तों में साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व नस्ल भेद का कट्टर विरोध सम्मिलित था. सतही दृष्टि से इसमें विरोधाभास जान पड़ता है परन्तु ऐसा नहीं था. नेहरूजी के अनुसार विश्व शान्ति में ये सबसे बड़े बाधक कारण हैं.
(5) एफ्रो-एशियाई एकता— नेहरूजी ने यह बात अच्छी तरह गाँठ बाँध ली थी कि सभी विपन्न और वंचित राष्ट्रों व समाजों के हित एकसमान हैं. इस प्रकार नेहरूजी द्वारा एफ्रोएशियाई भाई-चारे की बात उठाना कोरा भावावेश नहीं, बल्कि एक तर्कसंगत कदम था.
(6) संयुक्त राष्ट्र संघ में आस्था – नेहरूजी का इस संस्था के प्रति आकर्षण आदर्शवाद नादानी से प्रेरित न होकर, बल्कि उपर्युक्त अन्तर्सम्बंधित सिद्धान्तों के व्यवहार में रूपान्तरण की सम्भावना के कारण उपजा था. उनके अनुसार इस संस्था का उपयोग विश्व शान्ति की स्थापना निःशस्त्रीकरण के प्रसार व साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष के लिए पर्याप्त रूप से किया जा सकता है.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता के बाद भारतीय प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने विश्वशान्ति बनाये रखने के आधार पर अपनी विदेश-नीति सम्बन्धी प्राथमिकता कायम की. उनकी वही नीतियाँ कमोवेश आज भी राष्ट्र का पथ-प्रदर्शक बनी हुई हैं.
> भारत की विदेश नीति (1947–64) का मूल्यांकन
अथवा
नेहरूजी की विदेश नीति का मूल्यांकन
नेहरूजी की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धान्त स्वाधीनता संग्राम के दिनों में ही सुनिश्चित हो गये थे. व्यावहारिक रूप में इनको औपचारिक रूप से पंचशील के नाम से परिभाषित किया गया. भले ही भारत व चीन के मध्य पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर अप्रैल 1954 ई. में किये गये, परन्तु 1947 ई. से लेकर 1954 ई. तक भारत के अन्तर्राष्ट्रीय क्रियाकलाप इसी आधार पर संचालित एवं समायोजित होते रहे.
पंचशील के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं – 
1. सभी राष्ट्र एक-दूसरे की प्रादेशिक अखण्डता व सम्प्रभुता का सम्मान करेंगे.
2. एक राज्य दूसरे राज्य पर आक्रमण न करे और दूसरों की राष्ट्रीय सीमाओं का अतिक्रमण न करे.
3. कोई राज्य किसी दूसरे राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे.
4. प्रत्येक राज्य एक-दूसरे के साथ समानता का व्यवहार करे तथा पारस्परिक हित में सहयोग प्रदान करे.
5. सभी राष्ट्र शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धान्त में विश्वास करें तथा इसी सिद्धान्त के आधार पर एक दूसरे के साथ शान्तिपूर्वक रहें तथा अपनी पृथक् सत्ता व स्वतन्त्रता बनाये रखें.
आलोचकों के अनुसार पंचशील योजना नेहरूजी की आदर्शवादी सोच थी. इसके अतिरिक्त कुछ नहीं, परन्तु इस बात की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि पंचशील की राजनयिक रणनीति राष्ट्रीय हितों की यथार्थवादी कसौटी पर खरी उतरती है.
आजादी के बाद पाकिस्तानी शासकों ने कश्मीर को हथियाने के लालच में भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया चीन ने 1950 ई. में तिब्बत को मुक्त कराने का प्रयास प्रारम्भ किया. हिमालयी सीमान्त प्रदेश विवादास्पद बन गया. ऐसी स्थिति में यदि नेहरूजी ने राष्ट्रों को सम्प्रभुता की रक्षा व भौगोलिक सीमाओं के सम्मान से बचने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय जनमत तैयार करने का प्रयास किया तो इसे आदर्शवादी कैसे कहा जा सकता है ?
लोर्ड काविक और नेविल मैक्सवेल जैसे लेखकों ने इसे धूर्ततापूर्ण पाखण्ड कहा है, जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत को सैनिक ताकत बनाने के लिए कुछ मोहलत जुटाना था. इन बातों में कोई बुनियादी अन्तर्विरोध नहीं है. आर्थिक व सैनिक उपकरणों के अभाव में यदि बाण्डुग सम्मेलन के अवसर पर यदि नेहरूजी ने भारत को प्रतिष्ठा दिलाई थी तो इसके पीछे पंचशील की ही प्रमुख भूमिका थी.
बाण्डुग सम्मेलन की प्रमुख बात यह थी कि एफ्रोएशियाई देशों के इस सम्मेलन का आयोजन भारत के सुझाव पर नहीं किया गया था. कोलम्बो परियोजना में सम्मिलित पश्चिमी देशों के पक्षधर राष्ट्रों ने इसकी पहल की थी परन्तु नेहरू व मेनन ने इसे नवोदित राष्ट्रों की स्वतन्त्रता और गुटनिरपेक्षता का प्रतीक बना दिया.
नेहरूजी ने शीत युद्ध के संकट में जिस तरह सैनिक संगठनों को असफल करने का प्रयास किया वह प्रशंसनीय था. बाण्डुग सम्मेलन से पहले कोरिया में अपनी निष्पक्ष मध्यस्थता और हिन्द-चीन युद्ध में युद्ध विराम के लिए भारत ने अपनी पात्रता सिद्ध कर दी थी.
नेहरूजी की कमजोरी यह थी कि वे अपनी पसन्द और नापसन्द को छिपाकर नहीं रख पाते थे. वे समाजवादी जनतन्त्रवादी थे तथा सैनिक शासन व सामन्तवाद को प्रतिक्रियावादी समझते थे. इसी कारण नेपाल तथा पाकिस्तान के साथ उनका व्यवहार कभी सहज नहीं हो सका.
नेहरूजी की कथनी एवं करनी में कई जगह स्पष्टतया अन्तर देखने को मिलता है; जैसे— गोआ की मुक्ति के लिए बल प्रयोग शान्तिपूर्ण निपटारे की बात करके जनमत संग्रह के अपने आश्वासन को कश्मीर में निरन्तर टालते रहे. 
महाशक्ति और पड़ोसियों के साथ 1947-64 तक भारत के राजनयिक सम्बन्धों के उतार-चढ़ाव में उनका तनाव स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित होता है.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नेहरूजी एक सिद्धान्तवादी एवं आदर्शवादी व्यक्ति थे परन्तु उनके व्यवहार में हमें कई जगह अन्तर भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है अतः यह कहना उचित होगा कि नेहरूजी ने नवोदित भारत को जिस विदेश नीति का स्पष्ट दिशा-निर्देश दिया, उसी के आधार पर देश के भविष्य की नीतियाँ निर्धारित होती रहीं.
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