कृषि एवं भू-सुधार (भाग- II)
1. भू-दान आंदोलन
प्रसिद्ध गांधीवादी नेता तथा प्रखर समाज सेवी आचार्य विनोबा भावे अपने गांधीवादी ट्रस्टीशिप के विचारों तथा विभिन्न रचनात्मक गांधीवादी तकनीकों में से एक भू-दान आंदोलन को जनता के सामने 1950 के दशक में लाए ।
भू-दान आंदोलन को आरम्भ करने के पीछे बहुत सारे उद्देश्य थे। जैसे- भूमि का पुनर्विवरण एक आंदोलन के रूप में हो, कृषि में संस्थागत परिवर्तन हो पाए तथा समाज में ट्रस्टीशिप की गांधीवादी पद्धति का निर्माण हो।
विनोवा भावे ने सर्वोदय समाज को बढ़ावा देने के लिए सर्वोदय समाज की स्थापना की जो रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका महान उद्देश्य था- अहिंसात्मक तरीके से सामाजिक परिवर्तन रखना।
विनोवा भावे के अनुयायी और स्वयं भावे पदयात्राएं करके प्रत्येक गांव जाने लगे तथा जमीदारों को अपनी जमीन का कम से कम 1/6 हिस्सा भू-दान के रूप में भूमिहीनों और गरीबों के बीच बांटने का आग्रह करते थे।
इस आंदोलन के जो सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य थे:- 5 करोड़ एकड़ जमीन दाखिल करना जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक था। उसका 1/6 हिस्सा दिया जाता था।
विचार यह था कि औसत रूप से 5 सदस्यों का परिवार अपनी जमीन का 5 वां हिस्सा छोड़ दे या दान कर दे और भूमिहीन गरीब को अपने परिवार का सदस्य बना सके।
भू-दान आंदोलन की स्थिति का सरकार की सोच से कोई लेना-देना नहीं था। इसे कांग्रेस पार्टी की तरफ से सरकारी समर्थन हासिल था। कांग्रेस कमेटी ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि इस आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया जाए। कांग्रेस के अलावा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने भी भू-दान आंदोलन का महान समर्थन किया। इस पार्टी के नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण सक्रिय राजनीति छोड़कर 1953 में भू-दान आंदोलन में शामिल हो गए।
विनोबा भावे के आंदोलन को पहली सफलता 18 अप्रैल, 1951 को मिली जब आंध्र प्रदेश के तत्कालीन तेलंगाना क्षेत्र में पोचकल्ली ग्राम में पहला भू-दान हुआ। इस जगह कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सशस्त्र किसान विद्रोह काक प्रभाव भी महसूस किया जा रहा था। उन्होंने 3 महीनों तक इस क्षेत्र का दौरा किया और दान के रूप में 12,200 एकड़ भूमि पाई। इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में खासतौर से बिहार और उत्तर प्रदेश में फैल गया। आरम्भ के वर्षों में आंदोलन को काफी हद तक सफलता मिली। उसे मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से अधिक जमीन मिली। इसके बाद आंदोलन का जोर खत्म होने लगा और दान के रूप में बहुत कम जमीन मिलने लगी।
सबसे महत्वपूर्ण बात अब यह दिखने लगी कि जो भूमि दान में दी जाने लगी वो पतली या कर्ज वाली भूमि थी। इसके अलावा गरम जरुआ भूमि भी थी जो संदेह के आधार पर कभी भी किसी के द्वारा छीनी जा सकती थी। 1955 में इस आंदोलन की धारा बदल गयी। अब भू-दान के बदले ग्राम-दान की पद्धति काम करने लगी। इसका प्रेरणा स्रोत गांधी वादी विचार था। इसका अर्थ यह था कि- "सही भूमि गोपाल की"- इस 'गोपाल' का अर्थ भगवान कृष्ण के रूप में माना गया तथा यह कहा गया कि गांव में कोई भूमि किसी विशेष आदमी की न होकर भगवान की होगी तथा सभी ग्रामवासियों में बराबर रूप से बांटने की होगी। वह किसी एक व्यक्ति की नहीं मानी गयी। आंदोलन का आरम्भ उड़ीसा में हुआ और वहां वह बड़ा सफल रहा। 1960 के समय तक ग्रामदान गांवों की संख्या 4500 से अधिक हो चुकी थी।
इनमें से 1946 गांव उड़ीसा में थे, 603 गांव महाराष्ट्र में थे, 543 गांव केरल में थे, 483 गांव आंध्रप्रदेश में थे और 250 गांव मद्रास में थे। कहा जाता है कि इस आंदोलन ने उन्हीं गांवों में अधिक सहायता प्राप्त की जहां सामाजिक स्तर पर बहुत अधिक विभेद नहीं था। जहां जमीन का अंतर - लगभग नहीं के बराबर था। जैसे आदिवासी समुदायों की सामाजिक संरचना में। विनोबा भावे जी ने ग्राम्य स्थिति को चुनने के लिए इस बात का हमेशा ख्याल रखा।
इस आंदोलन के विकास में उत्परिवर्तन को महत्व नहीं दिया गया तथा इसे जैसे-तैसे जारी रखने की कोशिश की गई। सही रूप से यह भुला दिया गया कि ग्राम दान कर कितना महत्व है ?
भू-दान आंदोलन का उद्देश्य सबसे अधिक महान रूप से सामने आया पर इसके बिखरने से विभिन्न तरीके से बाद में अलग-अलग रूप में राज्य सरकारों ने संपत्ति के नियम तथा भू-दान समिति की समीक्षा कर इस आंदोलन को सिर्फ याद करने की कोशिश की।
भू-दान आंदोलन और उनकी संभावनाओं का उचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो पाया है। विभिन्न इतिहासकारों ने अपनी रुचि तथा अपने पसन्द की विचारधाराओं के द्वारा इस आंदोलन को रेखांकित करने की कोशिश की है। कभी-कभी तो इस आंदोलन पर किसान संघर्षों को रोकने के लिए आंदोलन की हर स्थिति पर कलंक लगाया गया। कभी इसे यूरो. पियन तो कभी इसे प्रतिक्रियावादी विचार बताया गया। लेकिन भारत में इसे आम तौर पर ले जाना चाहिए। क्योंकि यहां प्रत्येक अच्छे कदमों का खुलकर विरोध किया जाता है।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता भूमि सुधार की कोशिश करना था जो बिना किसी सरकारी सहायता के द्वारा किया गया। इसमें एक महान-दर्शन छिपा था जिसमें सभी भूमि को प्राकृतिक रूप से रख कर समान रूप से जमीन बंटवारे की बात की गई थी। इस आंदोलन में 'गांधीवादी दर्शन', 'ट्रस्ट्रीशिप', 'समाजवाद' तथा 'सामाजिक विभेद की समाप्ति' जैसे महान तत्व मौजूद थे। इसे बिना सरकार के प्रयास के कई महत्व की बातों को सामने रखकर प्रस्तुत किया गया था।
कांग्रेस की आंतरिक राजनीति और अच्छे कर्मों से टांग खींचने की प्रवृत्ति ने इस आंदोलन की धारा को कुचल दिया। एक इतिहासकर ने कहा कि विनोबा भावे के अलावा इस आंदोलन में कोई नेहरूवादी नेता होता तो इसे खुद सरकारी मदद दी जाती पर विनोबा भावे की शक्ति स्वयं द्वारा अर्जित थी।
दूसरी बात कि इसमें जयप्रकाश नारायण ने समर्थन दिया था जो नेहरू से खफा रहते थे। विभिन्न परिस्थितियों में इस आंदोलन को तथा इससे जुड़े नेताओं की लोकप्रियता से खबरदार होकर कांग्रेस ने बाद में चलकर इसे समर्थन देना मन से बंद कर दिया।
यह आंदोलन काल की आर्थिक असमानता कृषि के स्तर पर बचाने वाला था । भू-दान आंदोलन की प्रवृत्ति किसानों की स्थिति सुधारने के साथ ही गांव में भूमिहीन तबकों को स्वाभिमान की स्थिति में लाने की थी। भू-दान आंदोलन के बड़े तबकों ने इस बात को तरजीह नहीं दी कि इसका आयोजन क्यों किया जा रहा है।
भूमि सुधार तथा शहरीकरण
कृषि सुधार तथा भूमि के समान वितरण में सहकारिता के महत्व को कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व ने महत्व दिया। महात्मा गांधी से लेकर नेहरू खेती की विकसित अवस्था को प्राप्त करने के लिए सहकारिता को आवश्यक समझा। सहकारिता के महत्व को सर्वसम्मति से समाजवादी नेताओं से लेकर वामपंथी नेताओं ने भी समझा तथा इसे गरीबों की भलाई का सबसे बड़ा साधन माना।
सहकारिता के मामले में यह आम सहमति थी कि कोई भी कदम बिना सोचे समझे नहीं उठाया जाएगा। इसमें किसानों की सहमति तथा सदभाव से स्वीकारोक्ति को बहुत महत्व दिया गया तथा सहकारिता पद्धति को बलपूर्वक चलाने की गुंजाइश नहीं रखी गयी।
कांग्रेस की कृषि सुधार समिति ने 1949 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इस समिति के अध्यक्ष श्री कुमारप्पा थे तथा उन्हीं के नाम से यह समिति जानी जाती थी। इस समिति के द्वारा सुझाव दिए गए थे। समिति के अनुसार कृषि के विभिन्न स्तरों के अनुरूप विभिन्न सहकारों को लागू करवाने के अधिकार सौपे जाने चाहिए। इस प्रकार यह कहा गया कि जहां पारिवारिक किसान को 'बाजार में बेचने', कर्जे तथा अन्य मामलों में बहुमुखी सहकारी संस्था का प्रयोग करना पड़ेगा, वहीं अनुत्पादक किसान को अपना खेत दूसरों के साथ मिलकर जोतना होगा।
इस समिति में रिपोर्ट में सहाकारिता लागू करने के लिए दबाव का प्रयोग करने का सुझाव दिया। समिति ने यह कहा कि अगर सही तौर पर यह एक सही रणनीति के तहत सहकारिता को प्रशिक्षित कार्यकर्ता के द्वारा लागू करवाया जाए तो किसानों की सोच बढ़ायी जाएगी तथा मनोवैज्ञानिक स्तर पर सहकारिता के लिए तैयार हो जाएगी। परन्तु इसमें एक मनोवैज्ञानिक दबाव की बात की गई थी तथा यही हुआ। यह सही रूप में जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय था।
प्रथम पंचवर्षीय योजना में सहकारिता से जुड़ी हुई बिन्दुओं को अच्छे से सोचा गया तथा इसमें छोटे और मध्यम जोतो को कृषि सहकारी संस्थाओं के रूप में साथ आने के लिए प्रोत्साहित करने और इसमें उनकी सहायता करने की भी बात की गई। योजना में इन्हें लागू करवाने के अधिकारों से जुड़ी हुई बातें नहीं की गयी। इसमें यह कहा गया कि गांव में बहुमत के आधार पर किसी भी जमींदार की जमीन को सहकारिता में शामिल किया जाना चाहिए। यह निर्णय पूरे गांव पर लागू किए जाने चाहिए।
1952 में आरम्भ सामुदायिक विकास कार्यक्रम की रूपरेखा को सहकारिता तथा भूमि सुधार के लिए एक आशय माना गया तथा कहा गया कि सामुदायिक विकास कार्यक्रम के प्रशिक्षित कार्यकर्ता भारतीय कृषि में संस्थागत परिवर्तन ला सकेंगे। क्या वे सामुदायिक कार्य के लिए स्वैच्छिक श्रम के संगठन में सहकारी की स्थापना में मदद करके भूमि सुधार लागू करवा सकेंगे। आरम्भ में ऐसे संगठनों से काफी अपेक्षाएं थीं। तथा ऐसी आशा की जा रही थी कि संस्थाएं खासकर सहकारिताएं कृषि में निवेश का स्थान ले पाएंगी। और कृषि उत्पादन में तेजी से वृद्धि को योजनाबद्ध तरीके से हासिल कर सकेगी।
इस योजना की स्थिति तथा प्रभाव ऐसी दूसरी योजना में भी देखने को मिलता है। उसमें कहा गया कि द्वितीय पंचवर्षीय योजना के दौरान मुख्य जिम्मेदारी सहकारी खेती जैसे कदमों के लिए ठोस आधार तैयार करना है जिससे लगभग 10 वर्षों तक खेती की जमीन के काफी बड़े हिस्से पर सहकारी तरीके से खेती की जा सके। इधर दूसरे देशों अर्थात् चीन जैसे साम्यवादी देशों में सहकारीपूर्ण कृषि में वृद्धि की स्थिति आने लगी। लेकिन कुछ दिनों में इस पद्धति से विकास दर में कमी आने लगी। यहां तक कि 1974 में भारत में कृषि का विकास 2.5 की दर से बढ़ रहा था वहीं चीन में मात्र यह 2 प्रतिशत था।
1956 के मध्य में भारत सरकार द्वारा सहकारी कृषि के अध्ययन के लिए दो प्रतिनिधि मंडल को चीन भेजा गया। इसमें एक प्रतिनिधि मंडल आयोग (योजना) तथा दूसरा खाद्य एवं कृषि मंत्रालय का था। इसके अलावा इस प्रतिनिधिमंडल में सहकारी आंदोलन के नेता, सांसद, सहकारिता पदाधिकारी, तकनीकी विशेषता तथा योजना कर शामिल थे। इन दोनों प्रतिनिधिमंडलों का उद्देश्य चीन में सहकारों के संगठनों के अध्यनकाल और कृषि उत्पाद में वृद्धि के तरीकों से अवगत होना था। इन यात्राओं के मूल में यह भावना काम कर रही थी कि द्वितीय योजना द्वारा तथा किए गए कृषि विकास के उद्देश्य सम्मिलित थे। इसलिए इन उद्देश्य को बढ़ाया जाना चाहिए। समझा गया कि इसमें चीनी अनुभव लाभदायक होंगे और वे यह बता पाएंगे कि बिना अधिक कुछ खर्च किए उद्देश्य तक कैसे पहुंचा जा सकता है।
इन दोनों प्रतिनिधिमंडल ने एक तरह की रिपोर्ट दी जिसमें चीन के कृषि विकास के पीछे सहकारिता का हाथ बताया गया तथा यह कहा गया कि भारत में सहकारी कृषि में तेजी से विकास किया जाए।
कांग्रेस के 1959 जनवरी में नागपुर प्रस्ताव में यह कहा गया था कि गांव का संगठन पंचायतों एवं ग्राम सहकारों दोनों पर आधारित होना चाहिए। इन दोनों ही को अपने कार्य संपादित करने के पर्याप्त अधिकार और स्रोत मिलना चा. हिए। इस प्रस्ताव में यह कहा गया कि भविष्य में कृषि का स्वरूप सहकारी संयुक्त खेती होना चाहिए। इसके अन्तर्गत मिलजुलकर जोतने के लिए भूमि को इकट्ठा किया जाना चाहिए। किसानों के स्वामित्व के अधिकार बरकरार रहेंगे, और उन्हें अपनी जमीन के अनुपात में उत्पाद का हिस्सा मिलेगा। इसके अलावा, जो काम करेंगे, उन्हें संयुक्त फार्म में काम के अनुपात में हिस्सा मिलेगा।
रिपोर्ट में इस बात का अधिक जिक्र था कि तीन वर्षों के अन्दर देश में सहकारिता सेवा गठित की जानी चाहिए। यह चरण तीन वर्षों में पूरा किया जाना चाहिए। नागपुर प्रस्ताव में तीन वर्षों के अन्दर सहकारी कृषि के लवण को हासिल करने की बात कही गयी थी। संसद का अधिवेशन नागपुर प्रस्ताव के बाद हो गया। संसद के अधिवेशन में यह कहा गया कि सहकारी कृषि का विकास चीन की देखा देखी के तौर पर किया जा रहा है। यह अपने आप में वामपंथी के पीछे लगने की एक सूत्रीय पहल है। इसका भारी विरोध आरम्भ हो गया। कांग्रेस के प्रमुख नेताओं जैसे:- सी० राजगोपालाचारी, एन०जी० रंगा तथा चरण सिंह जैसे
अन्य ने इन कदमों का पार्टी के अन्दर और बाहर खुलकर विरोध किया। इनका भी आरोप था कि देश पर एकाधि कार वादी कम्युनिस्ट कार्यक्रम को थोपा जा रहा था। स्थिति ऐसी आ गयी कि पार्टी में विभाजन जैसी गंभीर समस्या को देखते हुए नेहरू ने सुलह की कोशिश की। उन्होंने फरवरी 1959 में संसद में यह कहा कि सहकारिता में ‘बलपूर्वक' जैसी कोई बात उचित नहीं है तथा दबाव बनाने की स्थिति को समर्थन करने वाली कोई विधि या एक्ट संसद के द्वारा सहकारिता के लिए नहीं बनाया जाएगा। नेहरू ने यह कहा कि मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि सहकारी कृषि ऐच्छिक है तथा सही भी है तथा यह किसानों को समझाने की आवश्यकता है तथा उन पर दबाव डालने वाली कोई बात भी नहीं है।
1959 में तिब्बत के विवाद की स्थित को देखते हुए तथा दलाई लामा के निर्वासन के कारण चीन की कटूता तथा भारत के प्रति दुश्मनी की नीति ने भारत में चीन के प्रति तथा चीन की नीतियों के प्रति एक प्रकार का विरोध पनपने लगा तथा चीन के हरेक मॉडल को एक संदेह की नजर से देखा जाने लगा। कांग्रेस ने सारे देश में अगले तीन वर्षों में सेवाओं से संबंधित सहकारी संस्थाएं स्थापित करने का प्रस्ताव रखा । सहकारी फार्मों का विषय काफी हद तक अस्पष्ट छोड़ दिया गया। जहां कहीं अनुकूल परिस्थितियां हों, वहां स्वेच्छा से सहकारी फार्म स्थापित करने की बात की गई।
कांग्रेस को स्वयं पता था कि इन तीन वर्षों में सारे देश में सेवा सहकारी संस्थाएं स्थापित करना बहुत बड़ा काम था। कांग्रेस ने इस असंभव से दिखने वाले लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपने कार्यकर्ता को प्रशिक्षण देने की बात कही। ये प्रशिक्षिण कार्यकर्ता सेवा सहकारी संस्थाएं स्थापित करने में मुख्य भूमिका निभाने वाले थे। प्रादेशिक कांग्रेस समितियों को भी यही निर्देश दिया गया लेकिन प्रादेशिक समितियों ने इस निर्देश को पूरी तरह अनसुना कर दिया धीरे-धीरे इस योजना को ही छोड़ दिया गया।
तीसरी पंचवर्षीय योजना में सहकारिता के प्रति काफी विस्तृत रूप से ध्यान दिया गया। खेती के लिए प्रत्येक जिले में पायलट योजनाएं आरम्भ की गई। इसे सैद्धांतिक रूप से कृषि के विकास में एक अहम साधन माना गया तथा सही रूप से सामुदायिक विकास कार्यों, विक्रय वितरण और ग्रामीण उद्योग के विकास में भूमि सुधार की सफलता आवश्यक थी किंतु ये सभी एक विचार ही लगता था न कि कोई कार्य योजना ।
सहकारीकरण की कमियां :- सहकारी आंदोलन के उद्देश्यों को भारत में पूरा नहीं किया गया क्योंकि भूमि सुधार में. विभिन्न लक्ष्यों को पूरा अब तक नहीं किया गया था। यह 60 के दशक के अन्त की बात थी । इस समय दो प्रकार की सहकारी संस्थाएं थीं। एक इस प्रकार की थी जिसका मुख्य उद्देश्य भूमि सुधार से बचना तथा राज्य द्वारा दिए गए लाभ को उठाना था तथा इसका दूसरा उद्देश्य था प्रभावशाली जीमंदारों को बचाना। इसमें वे लोग शामिल थे जिनके पास बहुत पैसे थे तथा बहुत सारी जमीन थी। ये इस प्रकार की संस्थाओं में बोगस सदस्यों को प्रवेश करके रखते थे तथा इस तरह ये बोगस सदस्य खेतिहर मजदूर ही अधिक होते थे। इनको जमीन जोतने में इन प्रभावशाली जमींदारों के द्वारा लगाया जाता था, उनका मूल रूप से किराए के मजदूरों या काश्तकारों के रूप में ही इस्तेमाल होता था। इसके अलावा, इन सहकारी संस्थाओं को बनाने वालों को राज्य द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सहायता में काफी लाभ होता था। यह सहायता सब्सिडी, खाद, बेहतर बीज की किस्में, यहां तक कि ट्रेक्टर जैसी आसानी से न मिल सकने वाली खेती की वस्तुओं की प्राथमिक स्तर पर सहायता के रूप में होती थी।
दूसरे प्रकार की पायलट परियोजना के तौर पर राज्य सरकारों के द्वारा सहकारी फार्म भी चलाए गए। इसमें आमतौर पर पहले से न इस्तेमाल की गई पतली भूमि को भूमिहीनों, दलितों तथा विस्थापितों को दिया गया। पतली जमीन, सिंचाई की उचित व्यवस्था न होने, सही रूप से प्रेरित तथा खेतिहरों द्वारा वास्तविक रूप में सहकारिता के रूप में चलाए जाने के बजाए सरकारी कार्यक्रमों के रूप में चलाए जाने से ये संस्थाएं महंगी और असफल साबित हो गयी। सहकारी खेती में जो अपेक्षित उत्पादकता वृद्धि और व्यापकता के लाभ होने चाहिए, वे इन फार्मों में नहीं थे। सहकारी सेवा समिति कृषि के विकास में पूरी तरह विफल थी । सहकारी खेती बहुत ही कम विकसित हो पाई, और सरकारी योजनाओं तथा बोगस सहकारों से आगे नहीं बढ़ा पाई सेवा सहकारी संस्थाएं कृषि सहकारों से थोड़ी बेहतार स्थिति में थीं। लेकिन उसमें बड़ी कमियां थीं। उनमें न सिर्फ असमानाताएं उपस्थिति थी, बल्कि उन असमानाओं को बढ़ाने की कोशिश भी हो रही थी। तब सहकारी संस्थाओं के बारे में कहा जाता था कि यह एक परिवार की भी बपौती होती थी। बाप अध्यक्ष, बेटा कोषाध्यक्ष, बेटी सचिव इत्यादि। ऐसे परिवार सिर्फ अपनी अथाह जमीन तथा संपत्ति को व्यापार तथा सूदखोरी के लिए इस्तेमाल करते थे। इस प्रकार ऐसे लोग सब्सिडी का प्रयोग कर रहे थे, जिनके लिए यह नहीं थी, और उसका प्रयोग निजी निवेश के लिए कर रहे थे। जहां कहीं समान उद्देश्यों वाले राजनीतिक संगठनों जैसे- कांग्रेस, वामपंथी दलों, समाजवादी तथा अन्य ने पंचायत स्तरों पर अपने राजनीतिक प्रभाव का उपयोग नहीं किया।
इन राजनीतिक दलों ने ग्रामीण स्तर पर सामुदायिक विकास कार्यक्रम को बढ़ावा नहीं दिया तथा दूसरे के प्रति अनुप तिस्थत चेतना रखी इसलिए पंचायत स्तर पर तथा ग्रामीण स्तर पर गांव के ही प्रभावशाली लोगों का नियंत्रण हो गया। तब इनका प्रयोग उन्होंने अपने आर्थिक एवं राजनीतिक हितों में किया।
आरम्भ के वर्षों में ग्रामीण गरीबों, भूमिहीनों को ऐसी संस्थाओं से बहुत बड़ा लाभ हुआ। इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है कि रिसर्व बैंक ने 1954 में विस्तृत सलाह लागू करने से इनकार कर दिया। इसके अनुसार ग्रामीण सहकारी समितियां फसल के उत्पादक से कार्य दे, न कि भूमि के मालिक को। लेकिन सहकारी संस्थाओं ने फसल कर्जा या फसल होने की उम्मीद में कर्जा देने से इनकार कर दिया। उन्होंने वादे में भूमि जमानत के रूप में मांगी। इसका मतलब यह हुआ कि भूमिहीन को इस योजना से मौलिक रूप से अलग रखा गया। 1969 में रिजर्व बैंक ने नोट किया कि कान. नकार किसानों, खेतिहर मजदूरों तथा अन्य को बांटे गए कुल कर्जे में से केवल 4 से 6 प्रतिशत के बीच मिला। प्रसिद्ध इतिहासकार विपीन चन्द्रा कहते हैं कि “अखिल भारतीय ऋण शिक्षा समितिः 1969 की रिपोर्ट तथा कृषि संबंधी राष्ट्रीय कमिशन 1971 के अनुसार छोटे सीमांत किसानों के लिए ऋण सेवा संबंधी आंतरिक रिपोर्ट में भूमिहीन को इस प्रकार से पूरी तरह से अलग रखने की पुष्टि की। उनमें यह भी कहा गया कि छोटे एवं सीमांत किसान भी राष्ट्रीयकृत बैंकों एवं सहकारी संस्थाओं से कर्जा पाने में अलग रखे गए। "
सहकारी आंदोलन एक आंदोलन के रूप में न विकसित होकर एक विशाल सहकारी भवन बन गया। जिसमें अफसर, क्लर्क, इंस्पेक्टर आदि जैसे पद प्रखर, जिला, अनुमंडल और राज्य स्तरों पर निर्मित हो गए। ये सब एक विशाल आंदोलन के सिद्धांतों के साथ नहीं थे। उन पर अक्सर ही स्थानीय निहित स्वार्थों का दबाव रहता। ऐसे अफसरवादी सहकारों को विकसित करने का एरिया बनने के बजाए उसके रास्ते में बाधा बन गई। फिर भी कुल मिलाकर सेवा सहकारों खासकर ऋण सहकारों ने भारतीय कृषि में विशेष भूमिका अदा की।
1951-52 में जहां प्राथमिक कृषि ऋण समितियों ने जो ग्राम स्तरीय सहकारी समितियों के रूप में, 23 करोड़ का कर्जा दिया था 1960-61 में उन्होंने दो अरब रुपए कर्ज के दिए 1992-93 आते-आते यह आंकड़ा 49 अरब रुपये तक पहुंच गया। (आभार-विपीनचन्द्र)
परन्तु इन सबके बावजूद ग्रामीण भारत में सहकारी सेवा ने ग्रामीण भारत की तस्वीर को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी किसानों के अधिक व्यापक तबको को अधिक सस्ते कर्ज उपलब्ध कराने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। इससे किसान न केवल बेहतर बीज, आधुनिक औजार, सस्ती खाद इत्यादि खरीद पाए बल्कि उन तक पहुंचने के रास्ते भी खुल गए। कई जगह यह देखा गया कि किसान अपना उत्पाद बाजार में बेच पाए । वास्तव में इन सबके कारण 60 के दशक के अंत में हरित क्रांति की सफलता के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न हुई। यह क्रांति कृषि आधुनिक आवश्यक वस्तुओं के गठन प्रयोग पर आधारित थी। मई 1971 में विश्व बैंक के वार्षिक नोट में यह टिप्पणी की गई की इन सहकारी समिति से लाखों किसानों को फायदा पहुंचा है। उनके बिना ग्रामीण भारत की कल्पना नहीं की जा सकती।
2. दुग्ध उत्पादन में सहकारी सेवा की सफलता
सहकारी सेवा ने दुग्ध उत्पादन तथा सफेद क्रान्ति में अहम भूमिका निभायी है। सफेद क्रान्ति की शुरूआत गुजरात के खेड़ा जिले में हुई। इसके अलावा गुजरात के आनंद जिले में यह परवान चढ़कर देश के लिए एक उदाहरण बन गया। खेड़ा जिले के किसान अपना दुग्ध बम्बई आपूर्ति करते थे तथा उन्हें दुग्ध व्यवस्था रिपोर्ट के मनमानेपन का सामना करना पड़ता था। इन समस्याओं को लेकर किसानों से सरदार पटेल जी के मृत्यु के कुछ ही दिन पहले उनसे मिलकर अपनी समस्या बतायी तथा पटेल जी ने मोरारजी देसाई से इस बात पर चर्चा कर किसानों से इस मामले में एक यूनियन बनाने की सलाह दी। वे एक 'दूध हड़ताल' के जरिए बंबई सरकार पर दबाव डालने और उनकी यूनियन से सीधे दूध खरीदने पर मजबूर करने में सफल हुए। इस प्रकार, कैरा जिला सहकारी दूध उत्पादक संघ लि० का जन्म हुआ।
सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लि० का पंजीयन दिसम्बर 1946 में हुआ और उसने आनंद नामक स्थान में एक साधारण सी शुरूआत की। अब किसान यहां प्रतिदिन 250 लीटर दूध आपूर्ति करने लगे। डॉ० वर्गीज कुरियन केरला के एक बहुत ही प्रतिभाशाली अभियंता थे। वे कैरा के किसानों के बीच काफी लोकप्रिय थे। वे 1950 से 1973 के बीच यूनियन के सी०ई०ओ० रहे तथा सफेद क्रान्ति के जनक बन गए। इस यूनियन का आरम्भ मात्र दो ग्राम सहकारी संस्थाओं से हुआ था जिनसे प्रत्येक में से 100 सदस्य से भी कम सदस्य थे। 1995 में आते-आते संस्थाओं की संख्या 954 को गई और कुल सदस्यता 5,37,000 दूध का कारोबार 250 लीटर प्रतिदिन से बढ़कर 10 लाख लीटर प्रतिदिन हो गया। संस्थाओं का वार्षिक कारोबार 3 अरब 44 करोड़ तक आ गया। यूनियन की गतिविधियों में बहुत बड़ी तेजी आयी। 1955 में उसने दूध पाउडर तथा मक्खन बनाने की फैक्ट्री लगाई। इसका एक कारण यह था कि मौसम में दूध अधिक होने से यह बेचा नहीं जा सकता था। 1955 में ही संघ ने अपने प्रोडक्ट के नामकरण के बारे में सोचा तथा इसका नाम 'अमूल' कर दिया। यह अमूल विश्व का सबसे शुद्धतम दुग्ध ब्राण्ड बन गया तथा घरेलू तौर पर अमूल को दूध का पर्याय माना जाने लगा। अमूल के अलावा इस यूनियन ने ग्रामीण स्तर पर सभी महिलाओं को शिक्षित तथा प्रशिक्षित करने में अपनी ऊर्जा लगाने की सोची। आनन्द 'इन्स्टीट्यूट ऑफ स्टाफ मैनेजमेंट' की स्थापना की गई तथा इसका उद्देश्य ग्रामीण विकास के लिए प्रशिक्षत समूहों का उपयोग करना बन गया।
1974 में आनन्द में गुजराज सहकारी दुग्ध व्यापार संघ लि० की स्थापना की गई जो जिले में सहकारों के उत्पाद बेचने के लिए सबसे गुणी संस्था थी। इस सहकारी प्रयास के कारण कैरा जिले की ग्रामीण आबादी का जीवन स्तर काफी सुधर गया तथा गरीब तथा भूमिहीन किसानों की भी स्थिति ठीक हो गई। एक अध्ययन के अनुसार सहकारों की गतिविधियों के कारण हाल के वर्षों में कैरा जिले के ग्रामीण परिवारों की आय का करीब 48 प्रतिशत डेयरी उद्योग से आने लगा। सहकारों की आय का कुछ भाग गांव से सामाजिक आर्थिक विकास के लिए अभी तक लगाया जाता है।
आनन्द मॉडल की विभिन्न विशेषताओं में इनके लोकतांत्रिक पद्धति के साथ प्रत्यक्ष उत्पादन तथा नियोजन की पद्धति के साथ प्रत्यक्ष उत्पादन तथा नियोजन की पद्धति भी शामिल रही। सभी दूध उत्पादक सेंटर में लाइन लगाकर अपना दूध दे आते थे तथा उनके खाते में पैसा देना आरम्भ किया गया। इसमें किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं किया गया। सरकार ने आनन्द मॉडल से सीख लेते हुए 'राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड' का निर्माण किया। यह निर्माण 1965 में किया गया। वर्गीज कुरियन की क्षमता से यह साबित हो गया था कि वे अपनी योग्यता से इसमें क्रांति ला सकते हैं।
तत्कालीन लाल बहादुरशास्त्री सरकार ने वर्गीज कुरियन को 'राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड' का अध्यक्ष बनाया। कुरियन बिना वेतन के इसकी अध्यक्षता को तैयार हो गए। कुरियन ने इस डेयरी विकास बोर्ड का मुख्यालय 'आनंद' में स्थापित करने का आग्रह की।
डेयरी विकास संघ की स्थापना से भारत में दुग्ध उत्पादन के मामले में बड़ी क्रान्ति आयी। यह कहा जा सकता है कि गरीब किसानों तथा पशुपालकों का एक बड़ा सहारा निकल गया तथा अपनी स्थिति को वह आर्थिक रूप से सुधार सके। आज भारत में दुग्ध उत्पादन विश्व में सबसे अधिक है।
सहकारिता ने भारत में मिला-जुला प्रभाव छोड़ा है परन्तु आज 60-70 दशक के बाद इसमें एक नयी शुरूआत को देखा जा सकता है। यह तय समय में पूरा न होने की स्थिति को दर्शाता है पर ग्रामीण भारत को बदलने में इसका अहम योगदान रहा है।
हरित क्रान्ति (Green Revolution)
आजादी के बाद हरित क्रान्ति के बारे में यही कहा जाता है कि भारत की गरीब जनता को अन्न का दाना मुहैया कराने में तथा भारत को खाद्य के मामले में आत्म-निर्भर बनाने की प्रतिबद्धता में इस क्रान्ति ने महान योगदान दिया है। हरित क्रान्ति की सफलता के पीछे सबसे अहम कारक है, महत्वपूर्ण कृषि तकनीकी सुधार जिनसे कृषि को एक नयी दिशा मिलने की स्थिति उत्पन्न हो गई। कृषि के विकास के स्वरूप, विभिन्न कृषि वर्गों की स्थिति, खासतौर पर गरीबों और सरकार के वर्गीय संतुलन जैसे मुद्दों पर तीव्र चर्चाएं हुई। परिणामस्वरूप कृषि में एक महान परिवर्तन हुआ तथा भारत अनाज के मामले में आत्म निर्भर हो गया।
वैसे तो जब योजना आयोग की स्थापना 1950 को हुई तो सबको लगा कि प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि का विकास एक महत्वपूर्ण लक्ष्य होगा और ऐसा हुआ भी तथा यह कहने में कोई हिचक नहीं कि कृषि का लक्ष्य रखा गया तथा खेती पर योजनाओं का 30 से 31 प्रतिशत तक खर्च किया जिसमें सिंचाई भी शामिल था।
नेहरू ने आधुनिक कृषि तथा विभिन्न कृषि अनुसंधान प्रयोगशालाएं खोलने पर जोर दिया। तथा इनके विचार में कृषि का वैज्ञानिक विकास बहुत आवश्यक था पर उस समय सबसे अधिक आवश्यक भूमि सुधार था। नेहरू ने खेती के तकनीकी विकास पर और भी अधिक जोर देना आरम्भ कर दिया। नेहरू जी की दूरदृष्टि ने गहन कृषि जिला कार्यक्रम की शुरूआत की तथा प्रत्येक राज्य में एक जिले के हिसाब से 15 ऐसे जिले चुने जो एक नए कृषि कार्यक्रम के लिए प्राकृतिक दृष्टि से अनुकूल थे।
1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद बहुत सारी वैज्ञानिक तकनीकों की खोज की गई ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई जिसने नवोन्मुखी कृषि रणनीति को सही आकार देना प्रारम्भ कर दिया। स्वतंत्रता के बाद 10 सालों तक कृषि में विकास चलता रहा था। 60 के दशक में खाद्यान की सख्त कमी हुई क्योंकि आबादी बढ़ी तथा कृषि का विकास रुक गया। भारतीय कृषि पर बोझ बढ़ने लगा तथा भोजन की मांग बढ़ने लगी जिसे भारतीय बाजार पूरा नहीं कर पाता था। 50 के दशक के मध्य में खाद्यान के दामों को भी बढ़ता देखा जाने लगा। अब भारतीय जरूरतें पूरी करने के लिए खाद्यान का आयात करने की बात की गई तथा अमेरिका के साथ चर 480 जैसे दुर्भाग्यपूर्ण समझौते करने पड़े। 1956 में गेहूं का आयात आरम्भ किया गया। पहले ही वर्ष इस योजना के तहत करीब 30 लाख टन खाद्यान आयात आरम्भ किए गए तथा आयात की मात्रा बढ़ती चली गई। और 1963 में वह 45 लाख टन तक पहुंच गयी।
इन्हीं सब स्थितियों में चीन (1962) और पाकिस्तान (1965) के साथ दो युद्ध लड़ने पड़े। साथ ही 1965-66 में लगातार दो बार अकाल पड़ा। अकाल का दुर्भाग्यपूर्ण प्रभाव कृषि पर पड़ा । उत्पादन में 17 प्रतिशत तथा खाद्यान उत्पादन में 20 प्रतिशत की कमी हुई। खाद्यानों की कीमतें बढ़ने लगी। 1966 में भारत को लगभग 1 करोड़ टन से अधिक खाद्यान आयात कम पड़ा। इन्हीं परिस्थितियों में जब देश के विभिन्न भागों खासकर बिहार एवं यू०पी० में अकाल की परिस्थितियां पैदा हो रही थी। अमेरिका ने भारत को खाद्यान के निर्यात पर रोक लगाने की धमकी दी।
अमेरिका को गुमान हो गया कि खाद्यान के मामलों को लेकर भारत को अपनी उंगली पर नचाया जा सकता है। ऐसे में भारत सरकार ने कृषि विकास को नवोन्मुखी तरीके से करने की सोची जिनसे कृषि के मामले में खाद्यान रूप से भारत आत्म निर्भर हो सके।
लाल बहादुरशास्त्री जी के महान नेतृत्व में नयी कृषि नीति बनाने की प्रभावी कोशिश की तथा खाद्य मंत्री सी० सुब्रमण्यम ने अच्छी फसल की किस्मों के बीज, रसायनिक खाद और कीटनाशक दवाएं, सुविधाएं तथा कृषि शिक्षा कार्यक्रम को जोर देकर इसके लिए प्रयास करना आरम्भ किया। 3 करोड़ 20 लाख एकड़ जमीन अर्थात् कुल जोती गई जमीन का 10 प्रतिशत इस प्रकार से कार्यक्रम लागू करने के लिए आरम्भ की गई।
1965 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की गई। इसकी कोशिश यह रही कि किसान के लिए निरंतर उत्पादक मूल्य के जरिए बाजार की गारंटी दी जाए। कृषि के क्षेत्र में एकल पूंजी बढ़ने लगी तथा इसमें संस्थागत निवेशक का विश्वास भी बढ़ा तथा किसानों द्वारा निजी निवेश के मुनाफे की क्षमता बढ़ गई । सिंचाई के क्षेत्र में वृद्धि दिखाई देने लगी तथा यह 25 लाख टन हेक्टेयर प्रति वर्ष तक जा पहुंची।
इस नये प्रयास ने भारतीय कृषि की स्थिति को बढ़ा डाला। 1967-68 तथा 1970-71 के बीच खाद्यानों का उत्पादन 35 प्रतिशत बढ़ गया। इसके अतिरिक्त 1964-65 तथा 1971-72 के बीच कुल अनाज उत्पादन 8 करोड़ 90 लाख टन से बढ़कर 11 करोड़ 20 लाख टन हो गया। यह वृद्धि लगभग 10 प्रतिशत की थी। वास्तविक अनाज आयात में भी गुणात्मक रूप में से कमी आ गई, जहां यह 1966 में एक करोड़ तीस लाख टन था वहीं 1970 में यह 36 लाख टन पर आ गया। इस अवधि में अनाज की उपलब्धि 7 करोड़ 35 लाख से बढ़कर 9 करोड़ 95 लाख टन हो गई। यह अनुमान लगाया गया है कि खाद्यान के मामले में भारत एक भिक्षुक के बदले एक दानी देश बन गया।
खाद्यान की उपलब्धि तेजी से बढ़ती चली गयी और वह 1978 में 11 करोड़ 2 लाख 50 हजार टन तथा 1984 में 12 करोड़ 88 लाख टन हो गई। भारत 1987 और 1998 में आए अकालों का सामना मजबूती से किया तथा बिना किसी भेदभाव के विदेशों में सहायता भी पहुंचायी।
हरित क्रांति ने भारत की स्थिति बदल दी। 1967-68 तथा 1989-90 के बीच कृषि उत्पादन के करीब 80 प्रतिशत उत्पादन में वृद्धि हुई। यह वृद्धि 2.5 प्रतिशत प्रति वर्ष थी। खेती के क्षेत्रफल में मात्र 0.26 प्रतिवर्ष की वृद्धि हुई। और वह सिर्फ 20 प्रतिशत विकास के लिए जिम्मेदार था । वास्तव में लाभ के वर्षों में करीब-करीब सभी उत्पादन वृद्धि उतनी ही जमीन पर खेती में वृद्धि के कारण हुई है. और खेती में काम करने वाली जमीन का क्षेत्रफल ज्यो का त्यो बना हुआ है, यहां तक कि कम भी हुआ है।
हरित क्रांति ने कृषि में विकास के साथ अधिशेष उत्पादन को बाजार में विक्रय योग्य भी बनाया तथा इसमें बहुत वृद्धि की। इस पहलू पर पर्याप्त ध्यान बाद में दिया गया। क्योंकि इसका प्रभाव सबसे अधिक पंजाब जैसे प्रांत में ही हुआ। यहां पर उत्पादन में वृद्धि प्रति एकड़ जमीन पर हुई न कि अधिक जमीन पर खेती करने से। इससे उत्पादन की प्रति इकाई बीज के लिए अनाज की आवश्यकता में कमी आई।
हरित क्रांति के फलस्वरूप बेचे जाने वाले अधिक खाद्यान के कारण सरकार अधिक अनाज खरीदकर भंडारण करने लगी तथा औद्योगिक विकास, शहरीकरण, बढ़ती आबादी और खाद्यान की कमी वाले क्षेत्रों की आवश्यकता को अब पूरी करने के लिए पूरी तरह तैयार थी। अब भारत ने चस्ख480 जैसे आयात को समाप्त कर दिया तथा एक ऐसा देश बन गया जो अपने आप में खाद्यान के उत्पादन के मामले में महान साबित होने लगा।
1965-73 के बीच हरित क्रांति मुख्यतः पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बीच फैली यहां गेहूं के उत्पादन का रिकॉर्ड बनने लगा तथा पंजाब में बहुत अधिक खाद्यान उत्पादन में वृद्धि हुई। 1970-73 से 1980-83 के दूसरे चरण में उच्च उत्पादन वाले बीजों की तकनीक के सहारे गेहूं की जगह धान के उत्पादन पर जोर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हरित क्रांति देश के अन्य भागों में तटीय क्षेत्रों, तमिलनाडु इत्यादि में पहुंच गई। अब पश्चिमी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात तथा आंध्र प्रदेश जैसे तटीय राज्यों में विकास दर की रफ्तार बहुत आगे बढ़ गई।
1980-83 तथा 1992-95 के बीच का समय हरित क्रांति का सबसे बड़ा तकनीकी चरण रहा। इस चरण में हरित क्रांति भारत के सबसे गरीब राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार जैसे राज्यों में फैल गयी। पश्चिम बंगाल में 5.39 प्रतिशत प्रति वर्ष कृषि विकास दर की स्थिति आयी तथा धान सफल रूप में पैदावारी की स्थिति में पहुंच गयी। अब इस स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिला जब मध्य प्रदेश तथा राजस्थान जैसे राज्यों में गेहूं तथा तेलहन की फसलें होने लगीं। तीसरे चरण में विभिन्न राज्यों के बीच उत्पादन विकास स्तरों एवं प्रति हेक्टेयर उत्पादन के बीच अंतरों का गुणात्मक पिछले दशकों की तुलना में काफी कम था। इस दौर में सारे देश के पैमाने पर कृषि उत्पादन की वृद्धि तेज हो गई तथा 3.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष के गंभीर आंकड़ों तक पहुंच गया।
हरित क्रांति के शुरूआती चरण में यह देखने को मिला कि ग्रामीण स्तर पर जमीनदारों की स्थिति पहले से कहीं अधिक मजबूत होने लगी तथा इस मजबूती का आधार ग्रामीण खेतिहर मजदूरों का खून-पसीना था। इससे वर्ग विभेद में बढ़ोत्तरी हुई तथा जमींदारों के लोभ बढ़ने से मजदूरों का पलायन होने लगा क्योंकि अब खेती तकनीकि तौर पर अधिक मजबूत हो गयी। हरित क्रांति ने यह वर्ग विभेद कर आंशिक तौर पर नक्सलवाद की ओर भी बढ़ने को मजबूर कर दिया।
लेकिन सरकार ने विभिन्न सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम को लाकर गरीबी कम करने की कोशिश की पर नक्सलवाद को प्रसारित होने से रोकना संभव नहीं लग रहा था। हरित क्रांति में खामियां नहीं थी परन्तु अभी भूमि सुधार को सौ प्रतिशत सफल नहीं माना जा सकता था परन्तु किसानों को इस क्रांति ने भूमिहीन होने से भी बचाया। तथा फसलों की पैदावार से इनकी आर्थिक स्थिति जीवन-यापन योग्य होती रही।
सिर्फ काश्तकार और बटाईदार ही घाटे में रहे जिन्हें सुरक्षा नहीं मिली। भू-किराया और भूमि का मूल्य हरित क्रांति के इलाकों में बढ़ने के साथ इन तबकों पर दबाव बढ़ने लगा। साथ ही इन क्षेत्रों में जमीन के मालिक भाड़े के मजदूरों को रखकर ही खेती कराने लगे।
देश के विभिन्न राज्यों में हरित क्रांन्ति का सबसे बड़ा आर्थिक प्रभाव यह रहा कि इसने खेती में रोजगार तथा शहरी रोजगार उत्पन्न किए हैं। इनके द्वारा कृषि उद्योगों, व्यापार, कृषि उत्पादों का भंडारण, खाद, कीटनाशक दवाओं, इत्यादि के उत्पादन, यातायात उद्योग में विकास, खेती के औजारों एवं इको टैक्टरों, बिजली और डीजल पंखों तथा अन्य प्रकार के सामानों, मशीनों इत्यादि में विकास की स्थिति पैदा की।
इस उपरोक्त विकास से और हरित क्रांति के प्रभाव से शहरी औद्योगिकीकरण की रफ्तार तेज हुई तथा ग्रामीण आय में वृद्धि हुई। इसके साथ छोटे शहरों में मिस्त्रियों, बढ़ईयों, दर्जियों, बुनकरों इत्यादि की मांग बढ़ गई। इसके अलावा फैक. टूरी में होने वाले उत्पादन तथा उपभोक्ता सामग्री जैसे:- पंखों, टी०वी०, वाशिंग मशीन, सिलाई मशीन, घड़ियां, साइकिलों इत्यादि की मांग बहुत बढ़ने लगी। इनमें से कुछ वस्तुओं की मांग शहरों से अधिक गांव में होने लगी। पंजाब में ग्रामीण स्तर पर रोजगार में भारी वृद्धि हुई।
हरित क्रांति ने अवश्य ही ग्रामीण क्षेत्रों में असमानता बढ़ा दी। लेकिन गरीबों को भी लाभ ही पहुंचा। पंजाब तथा हरियाणा में कहीं अधिक छोटे किसानों एवं भूमिहीन खेतिहर मजदूरों समेत गरीबों को लाभ भी पहुंचा है। हरित क्रांति के प्रसार के साथ-साथ खेतिहर मजदूरों का वास्तविक वेतन भी इस क्षेत्र में बढ़ा। इन राज्यों में बिहार तथा उत्तर प्रदेश से आए मजदूरों के कारण विकास के साथ थोड़ा बोझ भी बढ़ा । इसे हरित क्रांति में 'श्रम के प्रवास' के तौर पर जाना गया। संक्षेप में कहा जा सकता है कि हरित क्रांति का ग्रामीण गरीबी पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इन प्रभावों में खाद्यानों की अधिक उपलब्धि भोजन की तुलनात्मक कीमतों में कमी, कृषि तथा गैर कृषि रोजगार उत्पन्न करने, वेतनों में वृद्धि, इत्यादि के लाभ दीख पड़ता है।
भारतीय आबादी की बहुसहायक जनता दो तिहाई से भी अधिक खेती पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में गरीबी विरोधी कदम के रूप में हरित क्रांति किस्म के विकास का महत्व विस्तारित तौर पर स्वीकार किया गया है। इसी कारण हाल के वर्षों में सिंचाई तथा अन्य मूल योजनाओं में सार्वजनिक निवेश में कमी की आलोचना की गई है, क्योंकि वह तेज कृषि विकास के लिए आवश्यक है। परन्तु 2014 के बाद सिंचाई परियोजनाओं में सरकारी खर्च में अधिकता बढ़ी है। व्यापक रूप से देखें तो हरित क्रांति का प्रभाव हमेशा से रहा है। सरकार ने अपनी नीतियों में क्रांति को बढ़ाने की कोशिश की है पर कभी-कभी विभिन्न राजनीति ढांचे में को चुनाव जीतने के लिए मुक्त बिजली परोसने की आदत तथा बिना सोचे समझे कर्ज का माफी का विरोध नकारात्मक रूप से सरकारी खजाने पर बोझ डालता है। हाल के सालों में पर्यावरण और कृषि विकास को बनाए रखने में समस्याएं आई हैं। रसायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों की स्थिति इनती खराब को गई है कि पंजाब में मिट्टी की उर्वरता एक दम कम हो गई है। नवोन्मुख तकनीक तथा एक तरफा विकास की कमी से कहीं-न-कहीं कृषि के विकास में रुकावट आयी है। तकनीकी विकास प्रयोगजनित कृषि ने किसानों को भयावह स्थिति का सामना करने की ओर बढ़ाया है।
सरकार ने जैव उर्वरकों तथा जैव तकनीकी की खोज को कृषि के विकास में योगदान की सबसे महत्वपूर्ण विधि माना है। जैव तकनीक के प्रयोग तथा समावेशी विकास तथा सतत विकास की सोच ने दूसरी हरित क्रांति की इच्छा जता दी है जो आने वाली पीढ़ी के लिए महान उपयोगी होगा।
सरकार ने कृषि के विकास तथा सिंचाई की विधि में बहुत बड़ा निवेश किया है तथा 2014 के बाद सिंचाई प. रियोजना की विभिन्न फाइलों को खोलकर उन पर कार्य आरम्भ कर दिया है। अगर सही रूप से जैव उर्वरक तकनीक तथा सिंचाई की सुविधा नवोन्मुख तरीके से हो तो कृषि का विकास बृहत स्तर पर हो सकता है। जो पर्यावरण तथा आने वाली पीढ़ी के लिए भी उपयोगी होगा।
3. स्वतंत्रता के बाद कृषिगत आंदोलन
स्वतंत्रता के बाद विभिन्न प्रकार के किसान आंदोलन की चर्चा देखने को मिलती है। जो निम्न रूप से वर्णित है:
1. तेलंगाना किसान आंदोलन
2. पेप्सू काश्तकार आंदोलन
3. नक्सलपंथी या माओवादी आंदोलन
4. बिहार में खाडवाड़ आंदोलन
5. महाराष्ट्र में भीलों का आंदोलन
6. काश्तकार संघटन द्वारा वर्ली संघर्ष
7. पटियाला मुजारा आंदोलन
8. माया किसान आंदोलन
मध्य प्रदेश और बिहार में 1957-58 में खाड़वाड आदिवासी आंदोलन, महाराष्ट्र के धुलिया में 1967-75 का भीलों का आंदोलन, 1978 में मार्क्सवादी जेसुइट प्रदीप प्रभु के नेतृत्व में काश्तकार संघटना द्वारा चलाया गया। वर्ली संघर्ष इत्यादि । सब की उतनी लोकप्रिय नहीं रही पर तेलंगाना, पेप्सू तथा नक्सलपंथी आंदोलन बहुत अधिक चर्चा में रहा ।
भारती कम्यूनिस्ट पार्टी ने 1968 में मोगा में प्रथम राष्ट्रीय स्तर का खेत मजदूर संगठन, भारतीय खेत मजदूर यूनियन स्थापित किया। तंजोर में स्थापित काश्तकारी आंदोलन तथा केरल के और भागों में तथा देश के और भागों में काश्तकारों के आंदोलन ने अपना ध्यान खींचा। हम यहां बहुत ही लोकप्रिय तथा चर्चित आंदोलन की चर्चा करेंगे। इन आंदोलनों की चर्चा विभिन्न मुद्दों तथा अलग-अलग समय पर अभी भी की जाती है।
4. तेलंगाना किसान संघर्ष
हैदराबाद राज्य में निजाम के शासन तथा राज्य के कांग्रेसी, तेलुगु भाषा-भाषी तथा आंध्र प्रदेश के आंध्र भाषा सभा जैसे महान राष्ट्रवादी संगठनों के बीच 1930 के आस-पास तथा 1940 के समय राजनीतिक तौर पर मतभेद उभर रहे थे। देखा जाए तो 1940 के समय इस क्षेत्र में वामपंथी दल महत्वपूर्ण शक्ति यहां बन गए थे। जब अंग्रेजों ने 1942 में सी०पी०आई० पर लगी पाबंदी को युद्ध समर्थक नीति के कारण हटा लिया तो उन्होंने अपना प्रभाव तेजी से फैलाया और आंध्र महासभा पर अपना नियंत्रण कायम किया। तेलंगाना के किसानों को भागीदारों और देश मुखों के हाथों चरम सामंती किस्म के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था। इनमें से कुछ जागीदार तो हजारों एकड़ के स्वामी हुआ करते थे। वामपंथी ने सरकार द्वारा लादी गई घृणित और अनाज लेवी तथा बेठ बेगारी या जमींदारों एवं अफसरों द्वारा जबर्दस्ती मजदूरी की व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष आरम्भ किया। कई ऐसी घटनाएं घटी जिनमें वामपंथियों ने गरीब किसानों की रक्षा की। परिण म स्वरूप 1945 से किसान आंदोलन तेजी से फैलने लगा।
हैदराबाद का निजाम उन कुछ ही शसकों में से था जिन्होंने आजादी के बाद भारतीय संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया। वह पाकिस्तान और कुछ ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा प्रोत्साहित होकर अपनी भूमि तथा राज्य को भारत से अलग रखने की फिराक में था।
वामपंथी दलों ने सरकार द्वारा लादी गई घृणित और एकतरफा अनाज लगान तथा बंधुआ बेगार मजदूरी से तंग आकर संघर्ष आरम्भ कर दिया। यह संघर्ष वामपंथी दलों की तरफ से प्रोत्साहित था । फलस्वरूप 1945 से किसान आंदोलन तेजी से फैलने लगा।
इधर निजाम की कलुषित मानसिकता से तंग आकर किसानों ने अपनी क्षमता से तथा कांग्रेस ने अपने कार्यकर्ता के द्व रा अलग-अलग आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। कांग्रेस ने राज्य में हैदराबाद के एकीकरण के लिए आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। महाराष्ट्र के साथ हैदराबाद की सीमाओं, समुद्री तटवर्ती क्षेत्रों इत्यादि में कैंप स्थापित किए गए। मुस्लिम मिलीशिया के हथियारबंद दस्तों से लड़ने वालों के लिए हथियार भेजे जाने लगे। ये दस्ते हिन्दू जनसंख्या पर हमले करते थे। वामपंथियों ने निजाम विरोधी और एकीकरण के समर्थन में चल रहे आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया।
अगस्त 1947 से सितंबर, 1948 के इसी दौर में जब वे निजाम-विरोधी और भारत समर्थक आंदोलन में भाग ले रहे थे। कम्यूनिस्टों को सबसे अधिक सफला मिली। इन वामपंथियों ने वारंगल, खमम तथा नालगोंडा जिलों में बहुत अधिक जनलोकप्रियता हासिल कर ली। जो जमींदार तथा भू-स्वामी थे उनमें से अधिकत शहर में जाकर बसने लगे। वामपंथियों ने किसानों की विभिन्न सभाओं की स्थापना की तथा विभिन्न छापामार दस्ते तथा 'दलम' बनाए तथा रक्षाकार केम्पों पर हमला करके गांवों की रक्षा की। इनके पास हमले करने के लिए अधिकतर लाठियां, गुलेल तथा पत्थर और कभी-कभी देसी कट्टा भी होता था। इन छापामार दस्तों ने लगभग 300 से ऊपर से गांवों को अपने अधिकार में कर लिया था। उन्हें इसे एक रास्ता बनाकर भूमि संबंधों को पुनर्गठित करने की कोशिश की। 1930 के आस-पस भू-स्वामियों तथा जमींदारों ने कई जमीन को हड़प लिया था। ये जमीने उनके असली मालिकों को लौटा दी गई। सरकार के स्वामित्व वाली बंजर और जंगल की जमीनें भूमिहीनों को बांट दी गई, खेतिहर मजदूरों के वेतन बढ़ाए गए।
जमींदारों की जमीनों पर हदबंदी आरम्भ की गई। पहले तो 500 एकड़ की फिर 100 एकड़ की और फाजिल जमीन भूमिहीनों तथा गरीब किसानों के बीच बांटी गई। अब जनता के सामने भू-स्वामी द्वारा जमीन कब्जा की गई जमीन को वापस लेने का लक्ष्य सबसे अधिक था। इसके अलावा पंजा जमीन तथा परती जमीन को सरकार को सुपुर्द करने की भी स्थिति पैदा करने की कोशिश हुई।
किसानों ने अपनी कब्जा की हुई जमीन को वापस लेने के लिए काफी प्रयास किए यहां तक कि उस जमीन को भी जो बंजर थी। किसानों की इच्छा थी कि अवसर को देखते हुए जमीन को वापस लिया जाए चाहे जो जोत योग्य हो या नहीं। सही स्तर पर आंदोलन समाप्त होने के बाद किसान अधिकतर इन जमीनों को ले गए लेकिन अतिरिक्त जमीनों को नहीं।'
13 दिसम्बर 1958 को हैदराबाद में सेना में प्रवेश किया तथा लोगों ने सेना का एक मुक्ति सेना के तौर पर स्वागत किया। निजाम की सेना ने कुछ ही दिनों के अंदर आत्म समर्पण कर दिया। इसके बाद फौजों का ग्रामीण स्तर पर फैलाव हो गया। ये फौजें रजाकरों को खत्म करने लगीं। किसानों ने भी फौजों का उत्साहवर्द्धक स्वागत किया। लेकिन इस बीच कम्युनिस्टों ने सशस्त्र संघर्ष जारी रखने का फैसला किया। उन्होंने अपने छापमार दस्ते खत्म नहीं किए। अपनी समझ के अनुसार उन्होंने साम्राज्यवाद समर्थक पूंजीवादी भू-स्वामी नेहरू सरकार के खिलाफ मुक्ति युद्ध चलाने का फैसला किया। इस नीति पर चलते हुए 'दलम' या छापामार के सदस्यों को जंगल में छिपकर भारतीय फौजों पर उसी तरह हमले का आदेश दिया गया जैसा कि वे रजाकरों पर किया करते थे।
कृषि एवं भू-सुधार (भाग-II) वामपंथी दलों ने इस पर अधिक नहीं सोचा कि भारतीय फौज एक अधिक ही तैयार फौज थी। जिसमें वह उत्साह था जो मध्ययुगीन हथियारों वाले घृणित रजाकरों में नहीं था । फलस्वरूप, एक अनावश्यक युद्ध आरम्भ हो गया। इसका परिणाम बहुत बुरा हुआ। इसके कारण फौजों ने कुछ ही महीनों में गांवों में कार्यकर्ता को निकाल बाहर किया। लेकिन इसके दौरान हजारों आम किसानों को बड़े कस्बे का सामना करना पड़ा। जंगलों में छिपे वामपंथी कार्यकर्ता वहां के आदिवासियों के बीच नया जनाधार बनाने की कोशिशें करते रहे, लेकिन इसमें उन्हें निरंतर कमतर सफलता मिलती गई। औपचारिक रूप से आंदोलन 1951 में ही वापस ले लिया गया। यह पार्टी के अंदर अंतहीन बहसों और वामपंथी के द्व रा रूस से बात-चीत के बाद हुआ। तब तक जंगलों में बहुत कम ही साथी बचे रह गए थे। कई जा चुके थे, शायद 500 के आस-पास और करीब 10,000 जेलों में बंद थे।
सरकार ने आंदोलन के कारणों पर ध्यान दिया तथा 1949 ही जागीरदारी उन्मूलन तैयार किया गया। 1950 में हैदारा. बाद काश्तकारी और कृषि भूमि एक्ट पास किया गया। 6 लाख से भी अधिक काश्तकारों को संरक्षित काश्तकार घोषित किया गया। उन्हें आसान शर्तों पर जमीन खरीदने का अधिकार प्रदान किया गया। काश्तकारों की यह संख्या कुल जोते जाने वाली जमीन के एक चौथाई पर खेती पर रही थी। 50 के दशक पर भूमि हदबंदी लागू की गई। भू-स्वामी अपनी आदत से बाज़ नहीं आए तथा अपनी जमीनें कम दामों पर बेच दी। ये आंदोलन निजाम विरोधी आंदोलन से किया गया। यह रास्ता वामपंथी और राष्ट्रवादी दोनों के लिए मिला जुला रहा। किसानों की मांग तथा वामपंथी ने साथ माना ये दोनों कभी भी गलत प्रभाव डालने के लिए प्रयासरत नहीं हुए।
पटियाला मुजारा आंदोलन
पटियाला में मुजारा काश्तकार आंदोलन चल रहा था। पटियाला पंजाब का एक रजवाड़ा था। पर अपने जुल्मी महाराज के लिए प्रसिद्ध रजवाड़ा था। यहां एक आंदोलन 1939 में आरम्भ हुआ तथा 1945 में इसने मुजारा और विस्वेदारों के बीच खुले टकराव का रूप ले लिया। राज्य सिर्फ बटाई और व्यक्तियों पर हमले संबंधी केस दर्ज किया करता। कई जगहों पर सशस्त्र झगड़े हुए। ये झगड़े कहीं कस्बे को लेकर कहीं बटाई को लेकर होते रहे । प्रजा- मंडल ने वृषमान के प्रभाव में महाराज विरोधी जनतंत्रिक आंदोलन का नेतृत्व किया। वृषमान कम्युनिस्टों एवं काश्तकारों के हमदर्द थे। प्रजा-मंगल को कांग्रेस का समर्थन मिलने से काश्तकारों को काम मिला।
आजादी हुई तथा पटियाला भारत में आ गया। लेकिन एक लोकतंत्रिक सरकार बनाने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। महाराजा सभी राजनीतिक दलों से अलग-थलग पड़ गए। उन्होंने मुजारों का दमन आरम्भ कर दिया। दिल्ली तक शिकायत पहुंची। गृहयुद्ध जैसी स्थिति बन गई। हथियारबंद स्वयं सेवक दल का निर्माण 1948 में तोजा सिंह के नेतृत्व में किया गया। यह दल पंजाब में वामपंथी से अलग था।
इस प्रकार 1948 के अंत तक हथियार बंद लोगों का दस्ता तैयार हो गया। इसकी ड्यूटी थी मुजारा की मदद करना जिन्हें विस्वेदारों और उनके संगठित दस्तों के लिए खतरा रहता था। 1951 में कांग्रेस के मंत्रिमंडल बनने के बाद सभी कुछ बदल गया। कृषि संबंधी सुझाव देने के लिए एक जांच समिति बनायी गयी। तथा कम्यूनिटों का संघर्ष चलता रहा। या कोई अभाव वाली बात अब नहीं रही।
5. नक्सली आंदोलन
1967 में पश्चिम बंगाल में गैर-कांग्रेसी सरकार आ गयी। इससे सी.पी.एम. सी. पी. आइ. + बंगला कांग्रेस आ गयी। इस सरकार ने भूमि सुधार को लागू करने का प्रण लिया। हरे कृष्ण कोणार नामक नेता ने भूमिहीनों को भूमि बांटने की बात की तथा किसानों को इसके लिए लाभबंद करने की कोशिश की। इससे गरीब किसानों की इच्छा जाग गई तथा छोटे तथा मध्यम जमींदार डर गए।
भूमि के मामलों में अधिकतर कानूनी झगड़े थे। सरकार में आए लोग इसे अच्छी तरह जानते थे। विपक्ष में रहने के बाद जो स्थिति थी वो सत्ता में आने के बाद बदल सी गयी। असलियत को लोग नहीं समझता चाहते थे क्या इसमें सबसे जिद्दी नक्सलवादी ग्रुप के लोग थे।
ये ग्रुप पांचवे दशक से ही दार्जिलिंग के नक्सलवादी में बटाईदारों और चाय बगानों के मजदूरों को संगठित करते आ रहे थे। ये लोग अधिकतर संथालो, औराओं तथा राजवंशी समुदाय के थे। ये जोतदार हाल तथा बीज अपराध कराते थे तथा बदले में फसलों में इनको हिस्सा मिलता था। हिस्सों के बारे में विवाद होता था तथा यह कई बार होता था। चाय बागान के मजदूर अक्सर ही चाय बागान के मालिकों के धान की खेती या काश्तकारों के रूप में काम किया करते थे।
इन जमीनों को हदबंदी से बचाने के लिए चाय बगानों के रूप में दर्ज किया जाता था। 'चरण मजूमदार' इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण नेता थे। इनका विचार मार्क्सवादी था। वे कानूनी तरीके से भूमि सुधार लागू करने पर विश्वास नहीं करते थे। वह कहते थे कि ऐसा रास्ता किसानों को पीछे कर देगा।
मजूमदार ने कहा कि हथियार के बल पर जमीन हासिल करो। 1967 तक गांव-गांव संगठित हो गया था। जल्दी ही हजारों कार्यकर्ता तैयार हो गए। उन्होंने जमीन पर कब्जा कर लिया तथा घृणित भू-स्वामियों को फांसी पर लटका दिया। भूमि संबंधी रिकॉर्ड जला दिए तथा कर्ज माफ कर दिए। नकसल बाड़ी पुलिस थाने के अन्तर्गत घाटी गिया, साड़ी बाड़ी थाने के तहत बुटागंज और फांसी देवा पुलिस थाने के तहत चौपुखुलिया विद्रोहियों के केन्द्र बन गए।
सी०पी०एम० इसका समर्थन नहीं कार सकता था क्योंकि वह सत्ता में था। बाद में चलकर इसकी विचार धारा से जुड़े लोगों कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की स्थापना की। नक्सलवादी रूप में शहरों तक तत्कालीन रूप से समिति हो गया।
नए किसान आंदोलन
स्थान- नासिक
वर्ष 1980
नेता - शरद जोशी
मुद्दे - व्यास और ईख खेती के अधिक दाम की मांग की गयी। शरद जोशी ने भारत बनाम इंडिया का नाम दिया तथा शहरी औद्योगिक कृषि का भारत का भी नारा दिया। इस आंदोलन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत भी जुड़ गए। टिकैत ने उत्तर प्रदेश में इसी तरह का आंदोलन चलाया।
तमिलनाडु में विवसईगल कर्नाटक में राज्य रापड् संघ, पंजाब में यूनियन, गुजरात में खेडुत ने ऐसे ही आंदोलन चलाए। इस आंदोलन का आधार था कीमतों का बढ़ना तथा किसानों की साहुलियत । कृषि उत्पाद के कीमतों की कमी को इस नेता ने एक बड़ा मुद्दा बनाया तथा नए किसानों के आंदोलन ने मीडिया और राजनीतिज्ञों का काफी ध्यान आकर्षित किया। वैसे किसान हरित क्रांति के बाद हुए उत्पादों को कीमतों के मामलों में सही स्तर देने की मांग करते रहे। 1980 के दशक से उत्पाद की सही कीमत के लिए सरकार पर लगातार दबाव बनाया जा रहा है। इन आंदोलनों को नया कहा गया तथा इसमें पर्यावरण तथा महिलाओं की समस्या को भी जोड़ दिया गया।
ऐसा नहीं है कि एकदम नया आंदोलन था पर मांग की स्थिति तथा किसानों की भी परिस्थितियों में ये एक नये रूप में आया। ये आंदोलन किसी भी राजनीतिक पार्टी से संबंधित नहीं थे। इनमें जितने भी संगठन थे, कोई भी किसी राजनीतिक पार्टी से संबंधित नहीं था। सही तौर पर हम देखें तो समय के साथ ये राजनीति के साथ जुड़ते चले गए।
टिकैत जहां राजनीतिक रूप से पहले कांग्रेस विरोधी थे पर जोशी के वी.पी. सिंह के नजदीक आने के बाद वह कांग्रेस के विरोधी हो गये तथा भाजपा के समर्थन राम मंदिर के लिए देने लगे। धीरे-धीरे जोशी और टिकैत का रास्ता अलग-अलग हो गया। जोशी जहां कृषि में उदारीकरण के भक्त हो गए वहीं टिकैत पारम्परिक कृषि की स्थिति को आगे बढ़ाने की बात करते रहे। उपरोक्त आंदोलन ने किसानों के दिल छू लिए पर सही रूप में विभाजन के शिकार हो गए।
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