BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भूमंडलीकृत, विश्वजीविकाए अर्थव्यवस्था एवं समाज
भूमंडलीकृत विश्व के बनने की प्रक्रिया - व्यापार का काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते लोगों का, पूँजी व बहुत सारी चीजों की वैश्विक आवाजाही का - एक लंबा इतिहास रहा है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भूमंडलीकृत, विश्वजीविकाए अर्थव्यवस्था एवं समाज
- भूमंडलीकृत विश्व के बनने की प्रक्रिया - व्यापार का काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते लोगों का, पूँजी व बहुत सारी चीजों की वैश्विक आवाजाही का - एक लंबा इतिहास रहा है।
- प्राचीन काल से ही यात्री, व्यापारी, पुजारी और तीर्थयात्री ज्ञान, अवसरों और आध्यात्मिक शांति के लिए या उत्पीड़न / यातनापूर्ण जीवन से बचने के लिए दूर-दूर की यात्राओं पर जाते रहे हैं।
- अपनी यात्राओं में ये लोग तरह-तरह की चीजें, पैसा, मूल्य मान्यताएँ, हुनर, विचार, आविष्कार और यहाँ तक कि कीटाणु और बीमारियाँ भी साथ लेकर चलते रहे हैं।
- 3,000 ईसा पूर्व में समुद्री तटों पर होने वाले व्यापार के माध्यम से सिंधु घाटी की सभ्यता उस इलाके से भी जुड़ी हुई थी जिसे आज हम पश्चिमी एशिया के नाम से जानते हैं।
- पहला महायुद्ध मुख्य रूप से यूरोप में ही लड़ा गया। लेकिन उसके असर सारी दुनिया में महसूस किए गए। इस युद्ध ने विश्व अर्थव्यवस्था को एक ऐसे संकट में ढकेल दिया जिससे उबरने में दुनिया को तीन दशक से भी ज्यादा समय लग गया।
- इस दौरान पुरी दुनिया में चौतरफा आर्थिक एवं राजनीतिक अस्थिरता बनी रही और अंत में मानवता एक और विनाशकारी महायुद्ध के नीचे कराहने लगी।
- पहला विश्वयुद्ध दो खेमों के बीच लड़ा गया था। एक पाले में मित्र राष्ट्र यानी ब्रिटेन, फ्रांस और रूस थे तो दूसरे पाले में केंद्रीय शक्तियाँ यानी जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और ऑटोमन तुर्की थे।
- अगस्त 1914 में जब युद्ध शुरू हुआ तो उस समय बहुत सारी सरकारों को यही लगता था कि यह युद्ध ज्यादा से ज्यादा क्रिसमस तक खत्म हो जाएगा। पर यह युद्ध चार साल से भी ज्यादा समय तक चलता रहा।
- मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसा भीषण युद्ध पहले कभी नहीं हुआ था। इस युद्ध में दुनिया के सबसे अगुआ औद्योगिक राष्ट्र एक-दूसरे से जूझ रहे थे और शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए उनके पास बेहिसाब आधुनिक औद्योगिक शक्ति इकट्ठा हो चुकी थी।
- यह पहला आधुनिक औद्योगिक युद्ध था। इस युद्ध में मशीनगनों, टैंकों, हवाई जहाज़ों और रासायनिक हथियारों का भयानक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया।
- ये सभी चीजें आधुनिक विशाल उद्योगों की देन थीं। युद्ध के लिए दुनिया भर से असंख्य सिपाहियों की भर्ती की जानी थी और उन्हें विशाल जलपोतों व रेलगाड़ियों में भर कर युद्ध के मोर्चों पर ले जाया जाना था।
- इस युद्ध ने मौत और विनाश की जैसी विभिषिका रची उसकी औद्योगिक युग से पहले और औद्योगिक शक्ति के बिना कल्पना नहीं की जा सकती थी। युद्ध में 90 लाख से ज्यादा लोग मारे गए और 2 करोड़ घायल हुए।
- युद्ध के कारण दुनिया की कुछ सबसे शक्तिशाली आर्थिक ताकतों के बीच आर्थिक संबंध टूट गए। अब वे देश एक-दूसरे से बदला लेने पर उतारू थे। इस युद्ध के लिए ब्रिटेन को अमेरिकी बैंकों और अमेरिकी जनता से भारी कर्ज़ा लेना पड़ा।
- युद्ध के बाद आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने का रास्ता काफी मुश्किल साबित हुआ। युद्ध से पहले ब्रिटेन दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था।
- युद्ध के बाद सबसे लंबा संकट उसे ही झेलना पड़ा। जिस समय ब्रिटेन युद्ध से जूझ रहा था, उसी समय भारत और जापान में उद्योग विकसित होने लगे थे।
- युद्ध के बाद भारतीय बाजार में पहले वाली वर्चस्वशाली स्थिति प्राप्त करना ब्रिटेन के लिए बहुत मुश्किल हो गया था। अब उसे जापान से भी मुकाबला करना था, सो अलग।
- युद्ध के खर्चे की भरपाई करने के लिए ब्रिटेन ने अमेरिका से जम कर कर्ज़े लिए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि युद्ध खत्म होने तक ब्रिटेन भारी विदेशी कर्जों में दब चुका था।
- युद्ध के कारण आर्थिक उत्साह का माहौल पैदा हो गया था क्योंकि माँग, उत्पादन और रोजगारों में भारी इजाफा हुआ था। पर जब युद्ध के कारण पैदा हुआ उत्साह शांत होने लगा तो उत्पादन गिरने लगा और बेरोजगारी बढ़ने लगी।
- दूसरी ओर सरकार ने भारी-भ -भरकम युद्ध संबंधी व्यय में भी कटौती शुरू कर दी ताकि शांतिकालीन करों के सहारे ही उनकी भरपाई की जा सके।
- इन सारे प्रयासों से रोज़गार भारी तादाद में खत्म हुए। 1921 में हर पाँच में से एक ब्रिटिश मजदूर के पास काम नहीं था। रोज़गार के बारे में बेचैनी और अनिश्चितता युद्धोत्तर वातावरण का अंग बन गई थी।
- अमेरिका में सुधार की गति तेज रही। युद्ध से अमेरिका की अर्थव्यवस्था को कितना फायदा पहुँचा था। युद्ध के बाद कुछ समय के लिए तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी झटका लगा लेकिन बीस के दशक के शुरुआती सालों से ही अमेरिकी अर्थव्यवस्था तेजी से तरक्की के रास्ते पर बढ़ने लगी।
- 1920 के दशक की अमेरिकी अर्थव्यवस्था की एक बड़ी खासियत थी बृहत उत्पादन (Mass Production) का चलन । बृहत उत्पादन की ओर बढ़ने का सिलसिला तो 19वीं सदी के आखिर में ही शुरू हो चुका था लेकिन 1920 के दशक में तो यह अमेरिकी औद्योगिक उत्पादन की विशेषता ही बन गया था।
- कार निर्माता हेनरी फोर्ड बृहत उत्पादन के विख्यात प्रणेता थे। उन्होंने शिकागो के एक बूचड़खाने की असेंबली लाइन की तर्ज़ पर डेट्रॉयट के अपने कार कारखाने में भी आधुनिक असेंबली लाइन स्थापित की थी।
- शिकागो के बूचड़खाने में मरे हुए जानवरों को एक कन्वेयर बेल्ट पर रख दिया जाता था और उसके दूसरे सिरे पर खड़े मांस विक्रेता अपने हिस्से का मांस उठा कर निकलते जाते थे।
- असेंबली लाइन पर मजदूरों को एक ही काम- जैसे, कार के किसी खास पुर्जे को ही लगाते रहना- मशीनी ढंग से बार-बार करते रहना होता था।
- काम की रफ्तार इस बात से तय होती थी कि कन्वेयर बेल्ट किस रफ्तार से चलती है। यह काम की गति बढ़ाकर प्रत्येक मजदूर की उत्पादकता बढ़ाने वाला तरीका था।
- कन्वेयर बेल्ट के साथ खड़े होने के बाद कोई मजदूर अपने काम में ढील करने या कुछ पल के लिए भी अवकाश लेने का जोखिम नहीं उठा सकता था और तो और, इस व्यवस्था में मजदूर अपने साथियों के साथ बातचीत भी नहीं कर सकते थे।
- हेनरी फोर्ड के कारखाने की असेंबली लाइन से हर तीन मिनट में एक कार तैयार होकर निकलने लगी। इससे पहले की पद्धतियों के मुकाबले यह रफ्तार कई गुना ज्यादा थी। टी-मॉडल नामक कार बृहत उत्पादन पद्धति से बनी पहली कार थी।
- शुरुआत में फोर्ड फैक्ट्री के मजदूरों को असेंबली लाइन पर पैदा होने वाली थकान झेलने में काफी मुश्किल महसूस हुई क्योंकि वे उसकी रफ्तार को किसी भी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते थे। बहुत सारे मजदूरों ने काम छोड़ दिया।
- इस चुनौती से निपटने के लिए फोर्ड ने हताश होकर जनवरी 1914 से वेतन दोगुना यानी 5 डॉलर प्रतिदिन कर दिया। साथ ही उन्होंने अपने कारखानों में ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर भी पाबंदी लगा दी।
- तनख्वाह बढ़ाने से हेनरी फोर्ड के मुनाफे में जो कमी आई थी उसकी भरपाई करने के लिए वे अपनी असेंबली लाइन की रफ्तार बार-बार बढ़ाने लगे। उनके मजदूरों पर काम का बोझ लगातार बढ़ता रहता था।
- अपने इस फ़ैसले से फोर्ड बहुत संतुष्ट थे। कुछ समय बाद उन्होंने कहा था कि ‘लागत कम करने के लिए अपनी जिंदगी में उन्होंने इससे अच्छा फैसला कभी नहीं लिया।
- 1919 में अमेरिका में 20 लाख कारों का उत्पादन होता था, जो 1929 में बढ़कर 50 लाख कार प्रतिवर्ष से भी ऊपर जा पहुँचा।
- इसके साथ ही बहुत सारे लोग फ्रिज, वॉशिंग मशीन, रेडियो, ग्रामोफोन प्लेयर्स आदि भी खरीदने लगे। ये सब चीजें ‘हायर-परचेज़’ व्यवस्था के तहत खरीदी जाती थीं। यानी लोग ये सारी चीजें कर्जे पर खरीदते थे और उनकी कीमत साप्ताहिक या मासिक किस्तों में चुकाई जाती थी।
- 1920 के दशक में आवास एवं निर्माण क्षेत्र में आए उछाल से अमेरिकी संपन्नता का आधार पैदा हो चुका था। मकानों के निर्माण और घरेलू जरूरत की चीजों में निवेश से रोजगार और माँग बढ़ती थी तो दूसरी और उपभोग भी बढ़ता था। बढ़ते उपभोग के लिए ओर ज्यादा निवेश की जरूरत थी जिससे और नए रोजगार व आमदनी में वृद्धि होने लगती थी।
- 1923 में अमेरिका शेष विश्व को पूँजी का निर्यात दोबारा करने लगा और वह दुनिया में सबसे बड़ा कर्जदाता देश बन गया। अमेरिका द्वारा आयात और पूँजी निर्यात ने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को भी संकट से उबरने में मदद दी। अगले छह साल में विश्व व्यापार व आय वृद्धि दर में काफी सुधार आया।
- यह स्थिति लंबे समय तक कायम नहीं रह पाई। 1929 तक आते-आते दुनिया एक ऐसे आर्थिक संकट में फँस गई जिसका दुनिया ने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
- आर्थिक महामंदी की शुरुआत 1929 से हुई और यह संकट तीस के दशक के मध्य तक बना रहा। इस दौरान दुनिया के ज्यादातर हिस्सों के उत्पादन, रोजगार, आय और व्यापार में भयानक गिरावट दर्ज की गई।
- इस मंदी का समय और असर सब देशों में एक जैसा नहीं था लेकिन आमतौर पर ऐसा माना जा सकता है कि कृषि क्षेत्रों और समुदायों पर इसका सबसे बुरा असर पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि औद्योगिक उत्पादों की तुलना में खेतिहर उत्पादों की कीमतों में ज्यादा भारी और ज्यादा समय तक कमी बनी रही।
- इस महामंदी के कई कारण थे। पहला कारण: यह कृषि क्षेत्र में अति उत्पादन की समस्या बनी हुई थी । कृषि उत्पादों की गिरती कीमतों के कारण स्थिति और खराब हो गई थी ।
- कीमतें गिरीं और किसानों की आय घटने लगी तो आमदनी बढ़ाने के लिए किसान उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करने लगे ताकि कम कीमत पर ही सही लेकिन ज्यादा माल पैदा करके वे अपना आय स्तर बनाए रख सकें।
- फलस्वरूप, बाज़ार में कृषि उत्पादों की आमद और भी बढ़ गई। जाहिर है, कीमतें और नीचे चली गई। खरीदारों के अभाव में कृषि उपज पड़ी पड़ी सड़ने लगी ।
- दूसरा कारण: 1920 के दशक के मध्य बहुत सारे देशों ने अमेरिका से कर्ज़े लेकर अपनी निवेश संबंधी ज़रूरतों को पूरा किया था। जब हालात अच्छे थे तो अमेरिका से कर्ज़ा जुटाना बहुत आसान था लेकिन संकट का संकेत मिलते ही अमेरिकी उद्यमियों के होश उड़ गए।
- 1928 के पहले छह माह तक विदेशों में अमेरिका का कर्जा एक अरब डॉलर था। साल भर के भीतर यह कर्ज़ा घटकर केवल चौथाई रह गया था। जो देश अमेरिकी कर्ज़े पर सबसे ज्यादा निर्भर थे उनके सामने गहरा संकट आ खड़ा हुआ।
- यूरोप में कई बड़े बैंक धराशायी हो गए। कई देशों की मुद्रा की कीमत बुरी तरह गिर गई।
- इस झटके से ब्रिटिश पाउंड भी नहीं बच पाया। लैटिन अमेरिका और अन्य स्थानों पर कृषि एवं कच्चे मालों की कीमतें तेज़ी से लुढ़कने लगीं।
- अमेरिकी सरकार इस महामंदी से अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आयातित पदार्थों पर दो गुना सीमा शुल्क वसूल करने लगी। इस फैसले ने तो विश्व व्यापार की कमर ही तोड़ दी।
- औद्योगिक देशों में भी मंदी का सबसे बुरा असर अमेरिका को ही झेलना पड़ा। कीमतों में कमी और मंदी की आशंका को देखते हुए, अमेरिकी बैंकों ने घरेलू कर्जे देना बंद कर दिया। जो कर्जे दिए जा चुके थे, उनकी वसूली तेज़ कर दी गई ।
- किसान उपज नहीं बेच पा रहे थे, परिवार तबाह हो गए, कारोबार ठप पड़ गए। आमदनी में गिरावट आने पर अमेरिका के बहुत सारे परिवार कर्ज़ चुकाने में नाकामयाब हो गए, जिसके चलते उनके मकान, कार और सारी ज़रूरी चीजें कुर्क कर ली गईं।
- बीस के दशक में जो उपभोक्तावादी संपन्नता दिखाई दे रही थी, वह धूल के गुबार की तरह रातोंरात काफूर हो गई थी।
- बेरोजगारी बढ़ी तो लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे। आखिरकार अमेरिकी बैंकिंग व्यवस्था भी धराशायी हो गई।
- निवेश से अपेक्षित लाभ न पा सकने, कर्जे वसूल न कर पाने और जमाकर्ताओं की जमा पूँजी न लौटा पाने के कारण हज़ारों बैंक दिवालिया हो गए और बंद कर दिए गए।
- इस परिघटना से जुड़े आँकड़े सकते में डाल देने वाले हैं : 1933 तक 4,000 से ज्यादा बैंक बंद हो चुके थे और 1929 से 1932 के बीच तकरीबन 1,10,000 कंपनियाँ चौपट हो चुकी थीं।
- यद्यपि 1935 तक ज्यादातर औद्योगिक देशों में आर्थिक संकट से उबरने के संकेत दिखाई देने लगे थे लेकिन समाजों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और राजनीति तथा लोगों के दिलो-दिमाग़ पर उसकी जो छाप पड़ी वह जल्दी मिटने वाली नहीं थी।
- महामंदी से भारत पर क्या असर पड़ा तो इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि 20वीं सदी की शुरुआत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था कितनी एकीकृत हो चुकी थी। दुनिया के एक हिस्से में पैदा होने वाले संकट की कँपकँपाहट बाकी हिस्सों तक भी पहुँच जाती थी और उससे दुनिया भर में लोगों की जिंदगी, अर्थव्यवस्थाएँ और समाज प्रभावित हो उठते थे।
- औपनिवेशिक भारत कृषि वस्तुओं का निर्यातक और तैयार मालों का आयातक बन चुका था। महामंदी ने भारतीय व्यापार को फौरन प्रभावित किया।
- 1928 से 1934 के बीच देश के आयात-निर्यात घट कर लगभग आधे रह गए थे। जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें गिरने लगीं तो यहाँ भी कीमतें नीचे आ गई। 1928 से 1934 के बीच भारत में गेहूँ की कीमत 50 प्रतिशत गिर गई।
- शहरी निवासियों के मुकाबले किसानों और काश्तकारों को ज्यादा नुकसान हुआ। यद्यपि कृषि उत्पादों की कीमत तेज़ी से नीचे गिरी लेकिन सरकार ने लगान वसूली में छूट देने से साफ़ इनकार कर दिया। सबसे बुरी मार उन काश्तकारों पर पड़ी जो विश्व बाज़ार के लिए उपज पैदा करते थे।
- बंगाल के जूट/पटसन उत्पादक जो कच्चा पटसन उगाते थे, जिससे कारखानों में टाट की बोरियाँ बनाई जाती थीं। जब टाट का निर्यात बंद हो गया तो कच्चे पटसन की कीमतों में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरावट आ गई।
- जिन काश्तकारों ने दिन फिरने की उम्मीद में या बेहतर आमदनी के लिए उपज बढ़ाने के वास्ते कर्ज़े ले लिए थे, उनकी हालत भी उपज का सही मोल न मिलने के कारण खराब थी। वे दिनों-दिन और क़र्ज़ में डूबते जा रहे थे।
- पूरे देश में काश्तकार पहले से भी ज्यादा कर्ज़ में डूब गए। खर्चे पूरे करने के चक्कर में उनकी बचत खत्म हो चुकी थी, ज़मीन सूदखोरों के पास गिरवी पड़ी थी, घर में जो भी गहने- ज़ेवर थे, बिक चुके थे।
- मंदी के इन्हीं सालों में भारत कीमती धातुओं, खासतौर सोने का निर्यात करने लगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कीन्स का मानना था कि भारतीय सोने के निर्यात से भी वैश्विक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में काफी मदद मिली।
- इस निर्यात ने ब्रिटेन की आर्थिक दशा सुधारने में तो निश्चय ही मदद दी लेकिन भारतीय किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ।
- 1931 में मंदी अपने चरम पर थी और ग्रामीण भारत असंतोष व उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। उसी समस महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा (सिविल नाफरमानी) आंदोलन शुरू किया।
- यह मंदी शहरी भारत के लिए इतनी दुखदाई नहीं रही । कीमतें गिरते जाने के बावजूद शहरों में रहने वाले ऐसे लोगों की हालत ठीक रही जिनकी आय निश्चित थी। जैसे शहर में रहने वाले जमींदार जिन्हें अपनी जमीन पर बँधा-बँधाया भाड़ा मिलता था, या मध्यवर्गीय वेतनभोगी कर्मचारी राष्ट्रवादी खेमे के दबाव में उद्योगों की रक्षा के लिए सीमा शुल्क बढ़ा दिए गए थे, जिससे औद्योगिक क्षेत्र में भी निवेश में तेजी आई।
- पहला विश्व युद्ध खत्म होने के केवल दो दशक बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। यह युद्ध भी दो बड़े खेमों के बीच था। एक गुट में धुरी शक्तियाँ (मुख्य रूप से नात्सी जर्मनी, जापान और इटली) थीं, तो दूसरा खेमा मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और अमेरिका) के नाम से जाना जाता था। छह साल तक चला यह युद्ध जमीन, हवा और पानी में असंख्य मोर्चों पर लड़ा गया।
- इस युद्ध में मौत और तबाही की कोई हद बाकी नहीं बची थी। इस जंग के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करीब 6 करोड़ लोग मारे गए। यह 1939 की वैश्विक जनसंख्या का लगभग 3 प्रतिशत था। करोड़ों लोग घायल हुए।
- अब तक के युद्धों में मोर्चे पर मरने वालों की संख्या ज्यादा होती थी। इस युद्ध में ऐसे लोग ज्यादा मरे जो किसी मोर्चे पर लड़ नहीं रहे थे।
- यूरोप और एशिया के विशाल भू-भाग तबाह हुए। कई शहर हवाई बमबारी या लगातार गोलाबारी के कारण मिट्टी में मिल गए। इस युद्ध ने बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक तबाही को जन्म दिया। ऐसे हालात में पुनर्निर्माण का काम कठिन और लंबा साबित होने वाला था।
- युद्धोत्तर काल में पुनर्निर्माण का काम दो बड़े प्रभावों के साये में आगे बढ़ा। पश्चिमी विश्व में अमेरिका आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से एक वर्चस्वशाली ताकत बन चुका था। दूसरी ओर सोवियत संघ भी एक वर्चस्वशाली शक्ति के रूप में सामने आया।
- नात्सी जर्मनी को हराने के लिए सोवियत संघ की जनता ने भारी कुर्बानियाँ दी थीं। जिस समय पूँजीवादी दुनिया महामंदी से जूझ रही थी, उसी दौरान सोवियत संघ के लोगों ने अपने देश को एक पिछड़े खेतिहर देश की जगह एक विश्व शक्ति की हैसियत में ला खड़ा किया था।
- दो महायुद्धों के बीच मिले आर्थिक अनुभवों से अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों ने दो अहम सबक निकाले। पहला, बृहत उत्पादन पर आधारित किसी औद्योगिक समाज को व्यापक उपभोग के बिना कायम नहीं रखा जा सकता।
- व्यापक उपभोग को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि आमदनी काफी ज्यादा और स्थिर हो । यदि रोज़गार अस्थिर होंगे तो आय स्थिर नहीं हो सकती थी। स्थिर आय के लिए पूर्ण रोज़गार भी ज़रूरी था।
- बाज़ार पूर्ण रोजगार की गारंटी नहीं दे सकता। कीमत, उपज और रोज़गार में आने वाले उतार-चढ़ावों को नियंत्रित करने के लिए सरकार का दखल ज़रूरी था। आर्थिक स्थिरता केवल सरकारी हस्तक्षेप के ज़रिये ही सुनिश्चित की जा सकती थी।
- दूसरा सबक बाहरी दुनिया के साथ आर्थिक संबंधों के बारे में था। पूर्ण रोज़गार का लक्ष्य केवल तभी हासिल किया जा सकता है, जब सरकार के पास वस्तुओं, पूँजी और श्रम की आवाजाही को नियंत्रित करने की ताकत उपलब्ध हो ।
- संक्षेप में, युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह था कि औद्योगिक विश्व में आर्थिक स्थिरता एवं पूर्ण रोज़गार बनाए रखा जाए।
- इस फ़्रेमवर्क पर जुलाई 1944 में अमेरिका स्थित न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स नामक स्थान पर संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक एवं वित्तीय सम्मेलन में सहमति बनी थी।
- सदस्य देशों के विदेश व्यापार में लाभ और घाटे से निपटने के लिए ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई. एम.एफ.) की स्थापना की गई ।
- युद्धोत्तर पुनर्निर्माण के लिए पैसे का इंतजाम करने के वास्ते अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण एवं विकास बैंक (जिसे आम बोलचाल में विश्व बैंक कहा जाता है) का गठन किया गया।
- इसी लिए विश्व बैंक और आई.एम.एफ. को ब्रेटन वुड्स संस्थान या ब्रेटन वुड्स ट्विन (ब्रेटन वुड्स की जुड़वाँ संतान) भी कहा जाता है। इसी आधार पर युद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को अकसर ब्रेटन वुड्स व्यवस्था भी कहा जाता है।
- विश्व बैंक और आई.एम.एफ. ने 1947 में औपचारिक रूप से काम करना शुरू किया। इन संस्थानों की निर्णय प्रक्रिया पर पश्चिमी औद्योगिक देशों का नियंत्रण रहता है। अमेरिका विश्व बैंक और आई.एम.एफ. के किसी भी फ़ैसले को वीटो कर सकता है।
- अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था राष्ट्रीय मुद्राओं और मौद्रिक व्यवस्थाओं को एक-दूसरे से जोड़ने वाली व्यवस्था है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था निश्चित विनिमय दरों पर आधरित होती थी। इस व्यवस्था में राष्ट्रीय मुद्राएँ, जैसे भारतीय मुद्रा- रुपया - डॉलर के साथ एक निश्चित विनिमय दर से बँधा हुआ था।
- एक डॉलर के बदले में कितने रुपये देने होगें, यह स्थिर रहता था। डॉलर का मूल्य भी सोने से बँधा हुआ था। एक डॉलर की कीमत 35 औंस सोने के बराबर निर्धारित की गई थी।
- ब्रेटन वुड्स व्यवस्था ने पश्चिमी औद्योगिक राष्ट्रों और जापान के लिए व्यापार तथा आय में वृद्धि के एक अप्रतिम युग का सूत्रपात किया। 1950 से 1970 के बीच विश्व व्यापार की विकास दर सालाना 8 प्रतिशत से भी ज्यादा रही। इस दौरान वैश्विक आय में लगभग 5 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही थी।
- विकास दर भी कमोबेश स्थिर ही थी। उसमें ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं आए। इस दौरान ज्यादातर समय अधिकांश औद्योगिक देशों में बेरोज़गारी औसतन 5 प्रतिशत से भी कम ही रही। इन दशकों में तकनीक और उद्यम का विश्वव्यापी प्रसार हुआ।
- दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी दुनिया का एक बहुत बड़ा भाग यूरोपीय औपनिवेशिक शासन के अधीन था। अगले दो दशकों में एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर उपनिवेश स्वतंत्र, स्वाधीन राष्ट्र बन चुके थे।
- ये सभी देश गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे। उनकी अर्थव्यवस्थाएँ और समाज लंबे समय तक चले औपनिवेशिक शासन के कारण अस्त-व्यस्त हो चुके थे।
- आई.एम.एफ. और विश्व बैंक का गठन तो औद्योगिक देशों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही किया गया था। ये संस्थान भूतपूर्व उपनिवेशों में गरीबी की समस्या और विकास की कमी से निपटने में दक्ष नहीं थे।
- जिस प्रकार यूरोप और जापान ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं का पुनर्गठन किया था उसके कारण ये देश आई. एम. एफ. और विश्व बैंक पर बहुत निर्भर भी नहीं थे। इसी कारण पचास के दशक के आखिरी सालों में आकर ब्रेटन वुड्स संस्थान विकासशील देशों पर भी पहले से ज्यादा ध्यान देने लगे।
- दुनिया के अल्पविकसित भाग उपनिवेशों के रूप में पश्चिमी साम्राज्यों के अधीन रहे थे। विडंबना यह थी कि नवस्वाधीन राष्ट्रों के रूप में भी अपनी जनता को गरीबी और पिछड़ेपन की गर्त से बाहर निकालने के लिए उन्हें ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की मदद लेनी पड़ी जिन पर भूतपूर्व औपनिवेशिक शक्तियों का ही वर्चस्व था।
- दूसरी ओर ज्यादातर विकासशील देशों को पचास और स के दशक में पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की तेज प्रगति से कोई लाभ नहीं हुआ।
- इस समस्या को देखते हुए उन्होंने एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रणाली (New International Economic Order - NIEO) के लिए आवाज़ उठाई और समूह 77 (जी-77) के रूप में संगठित हो गए।
- एन.आई.ई.ओ. से उनका आशय एक ऐसी व्यवस्था से था जिसमें उन्हें अपने संसाधनों पर सही मायनों में नियंत्रण मिल सके, जिसमें उन्हें विकास के लिए अधिक सहायता मिले, कच्चे माल के सही दाम मिलें, और अपने तैयार मालों को विकसित देशों के बाजारों में बेचने के लिए बेहतर पहुँच मिले।
- वर्षो की स्थिर और तेज़ वृद्धि के बावजूद युद्धोत्तर दुनिया में सब कुछ सही नहीं चल रहा था। साठ के दशक से ही विदेशों में अपनी गतिविधियों की भारी लागत ने अमेरिका की वित्तीय और प्रतिस्पर्धी क्षमता को कमज़ोर कर दिया था।
- अमेरिकी डॉलर अब दुनिया की प्रधान मुद्रा के रूप में पहले जितना सम्मानित और निर्विवाद नहीं रह गया था। सोने की तुलना में डॉलर की कीमत गिरने लगी थी। अंततः स्थिर विनिमय दर की व्यवस्था विफल हो गई और प्रवाहमयी या अस्थिर विनिमय दर की व्यवस्था शुरू की गई ।
- 70 के दशक के मध्य से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों में भी भारी बदलाव आ चुके थे। अब तक विकासशील देश कर्जे और विकास संबंधी सहायता के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की शरण ले सकते थे लेकिन अब उन्हें पश्चिम के व्यावसायिक बैंकों और निजी ऋणदाता संस्थानों से कर्ज़ न लेने के लिए बाध्य किया जाने लगा।
- औद्योगिक विश्व भी बेरोज़गारी की समस्या में फँसने लगा था। 70 के दशक के मध्य से बेरोज़गारी बढने लगी। 90 के दशक के प्रारंभिक वर्षों तक वहाँ काफी बेरोज़गारी रही।
- 70 के दशक के अंतिम वर्षो से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी एशिया के ऐसे देशों में उत्पादन केंद्रित करने लगीं जहाँ वेतन कम थे।
- चीन 1949 की क्रांति के बाद विश्व अर्थव्यवस्था से अलग-थलग ही था। परंतु चीन में नयी आर्थिक नीतियों और सोवियत खेमे के बिखराव तथा पूर्वी यूरोप में सोवियत शैली की व्यवस्था समाप्त हो जाने के पश्चात बहुत सारे देश दोबारा विश्व अर्थव्यवस्था का अंग बन गए।
- आधुनिक काल से पहले के युग में दुनिया के दूर-दूर स्थित भागों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्कों का सबसे जीवंत उदाहरण सिल्क मार्गों के रूप में दिखाई देता है।
- 'सिल्क मार्ग' नाम से पता चलता है कि इस मार्ग से पश्चिम को भेजे जाने वाले चीनी रेशम (सिल्क) का कितना महत्त्व था।
- इतिहासकारों ने बहुत सारे सिल्क मार्गों के बारे में बताया है। ज़मीन या समुद्र से होकर गुज़रने वाले ये रास्ते न केवल एशिया के विशाल क्षेत्रों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करते थे बल्कि एशिया को यूरोप और उत्तरी अफ्रीका से भी जोड़ेते थे।
- ऐसे मार्ग ईसा पूर्व के समय में ही सामने आ चुके थे और लगभग 15वीं शताब्दी तक अस्तित्व में थे। इसी रास्ते से चीनी पॉटरी जाती थी और इसी रास्ते से भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के कपड़े व मसाले दुनिया के दूसरे भागों में पहुचँते थे। वापसी में सोने - चाँदी जैसी कीमती धातुएँ यूरोप से एशिया पहुँचती थीं।
- व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान, दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती थीं। शुरुआती काल के ईसाई मिशनरी निश्चय ही इसी मार्ग से एशिया में आते होंगे।
- कुछ सदी बाद मुस्लिम धर्मोपदेशक भी इसी रास्ते से दुनिया में फैले। इससे भी बहुत पहले पूर्वी भारत में उपजा बौद्ध धर्म सिल्क मार्ग की विविध शाखाओं से ही कई दिशाओं में फैल चुका था।
- 16वीं सदी में जब यूरोपीय जहाज़ियों ने एशिया तक का समुद्री · रास्ता ढूँढ़ लिया और वे पश्चिमी सागर को पार करते हुए अमेरिका तक जा पहुँचे तो पूर्व- आधुनिक विश्व बहुत छोटा सा दिखाई देने लगा।
- कई सदियों से हिंद महासागर के पानी में फलता-फूलता व्यापार, तरह-तरह के सामान, लोग, ज्ञान और परंपराएँ एक जगह से दूसरी जगह आ-जा रही थीं।
- भारतीय उपमहाद्वीप इन प्रवाहों के रास्ते में एक अहम बिंदु था। पूरे नेटवर्क में इस इलाके का भारी महत्त्व था । यूरोपीयों के दाखिले से यह आवाजाही और बढ़ने लगी और इन प्रवाहों की दिशा यूरोप की तरफ़ भी मुड़ने लगी ।
- आज के पेरू और मैक्सिको में मौजूद खानों से निकलने वाली कीमती धातुओं, खासतौर से चाँदी ने भी यूरोप की संपदा को बढ़ाया और पश्चिम एशिया के साथ होने वाले उसके व्यापार को गति प्रदान की।
- 17वीं सदी के आते-आते पूरे यूरोप में दक्षिणी अमेरिका की धन-संपदा के बारे में तरह-तरह के क़िस्से बनने लगे थे। इन्हीं किंवदतियों की बदौलत वहाँ के लोग एल डोराडो को सोने का शहर मानने लगे और उसकी खोज में बहुत सारे खोजी अभियान शुरू किए गए।
- 16वीं सदी के मध्य तक आते-आते पुर्तगाली और स्पेनिश सेनाओं की विजय का सिलसिला शुरू हो चुका था। उन्होंने अमेरिका को उपनिवेश बनाना शुरू कर दिया था।
- यूरोपीय सेनाएँ केवल अपनी सैनिक ताकत के दम पर नहीं जीतती थीं। स्पेनिश विजेताओं के सबसे शक्तिशाली हथियारों में परंपरागत किस्म का सैनिक हथियार तो कोई था ही नहीं।
- यह हथियार तो चेचक जैसे कीटाणु थे जो स्पेनिश सैनिकों और अफ़सरों के साथ वहाँ जा पहुँचे थे। लाखों साल से दुनिया से अलग-थलग रहने के कारण अमेरिका के लोगों के शरीर में यूरोप से आने वाली इन बीमारियों से बचने की रोग प्रतिरोधी क्षमता नहीं थी।
- फलस्वरूप, इस नए स्थान पर चेचक बहुत मारक साबित हुई। एक बार संक्रमण शुरू होने के बाद तो यह बीमारी पूरे महाद्व प में फैल गई। जहाँ यूरोपीय लागे नहीं पहुँचे थे वहाँ के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे। इसने पूरे के पूरे समुदायों को खत्म कर डाला। इस तरह घुसपैठियों की जीत का रास्ता आसान होता चला गया।
- 19वीं सदी तक यूरोप में गरीबी और भूख का ही साम्राज्य था। शहरों में बेहिसाब भीड़ थी और बीमारियों का बोलबाला था। धार्मिक टकराव आम थे। धार्मिक असंतुष्टों को कड़ा दंड दिया जाता था।
- 18वीं सदी तक अमेरिका में अफ्रीका से पकड़ कर लाए गए गुलामों को काम में झोंक कर यूरोपीय बाज़ारों के लिए कपास और चीनी का उत्पादन किया जाने लगा था.
- 18वीं शताब्दी का काफी समय बीत जाने के बाद भी चीन और भारत को दुनिया के सबसे धनी देशों में गिना जाता था। एशियाई व्यापार में भी उन्हीं का दबदबा था। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि 15वीं सदी से चीन ने दूसरे देशों के साथ अपने संबंध कम करना शुरू कर दिए और वह दुनिया से अलग-थलग पड़ने लगा।
- चीन की घटती भूमिका और अमेरिका के बढ़ते महत्त्व के चलते विश्व व्यापार को केंद्र पश्चिम की ओर खिसकने लगा। अब यूरोप ही विश्व व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र बन गया।
- 19वीं सदी में दुनिया तेजी से बदलने लगी। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी कारकों ने पूरे के पूरे समाजों की कायापलट कर दी और विदेश संबंधों को नए ढरें में ढ़ाल दिया।
- अर्थशास्त्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक विनिमय में तीन तरह की गतियों या 'प्रवाहों' का उल्लेख किया है। इनमें पहला प्रवाह व्यापार का होता है जो 19वीं सदी में मुख्य रूप से वस्तुओं (जैसे कपड़ा या गेहूँ आदि) के व्यापार तक ही सीमित था।
- दूसरा, श्रम का प्रवाह होता है। इसमें लोग काम या रोजगार की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। तीसरा प्रवाह पूँजी का होता है जिसे अल्प या दीर्घ अवधि के लिए दूर-दराज के इलाकों में निवेश कर दिया जाता है।
- ये तीनों तरह के प्रवाह एक-दूसरे से जुड़े हुए थे और लोगों के जीवन को प्रभावित करते थे। कभी-कभी इन कारकों के बीच मौजूद संबंध टूट भी जाते थे। उदाहरण के लिए, वस्तुओं या पूँजी की आवाजाही के मुकाबले श्रमिकों की आवाजाही पर प्रायः ज्यादा शर्तें और बंदिशें लगाई जाती थीं।
- सामान्य रूप से सभी देश भोजन के मामले में आत्मनिर्भर होने का प्रयास करते रहे हैं। लेकिन 19वीं सदी के ब्रिटेन की बात अलग थी।
- 18वीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटेन की आबादी तेज़ी से बढ़ने लगी थी। नतीजा, देश में भोजन की माँग भी बढ़ी। जैसे-जैसे शहर फैले और उद्योग बढ़ने लगे, कृषि उत्पादों की माँग भी बढ़ने लगी।
- कृषि उत्पाद मँहगे होने लगे। दूसरी तरफ बड़े भूस्वामियों के दबाव में सरकार ने मक्का के आयात पर भी पाबंदी लगा दी थी। जिन कानूनों के सहारे सरकार ने यह पाबंदी लागू की थी उन्हें 'कॉर्न लॉ' कहा जाता था।
- खाद्य पदार्थों की ऊँची कीमतों से परेशान उद्योगपतियों और शहरी बाशिंदों ने सरकार को मजबूर कर दिया कि वह कॉर्न लॉ को फौरन समाप्त कर दे।
- कॉर्न लॉ के निरस्त हो जाने के बाद बहुत कम कीमत पर खाद्य पदार्थों का आयात किया जाने लगा। आयातित खाद्य पदार्थों की लागत ब्रिटेन में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों से भी कम थी।
- फलस्वरूप, ब्रिटिश किसानों की हालत बिगड़ने लगी क्योंकि वे आयातित माल की कीमत का मुक़ाबला नहीं कर सकते थे। विशाल भूभागों पर खेती बंद हो गई। हजारों लोग बेरोज़गार हो गए। गाँवों से उजड़ कर वे या तो शहरों में या दूसरे देशों में जाने लगे।
- जब खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट आई तो ब्रिटेन में उपभोग का स्तर बढ़ गया। 19वीं सदी के मध्य ब्रिटेन की औद्योगिक प्रगति काफी तेज रही जिससे लोगों की आय में वृद्धि हुई। इससे लोगों की जरूरतें बढ़ीं।
- खाद्य पदार्थों का और भी ज्यादा मात्रा में आयात होने लगा। पूर्वी यूरोप, रूस, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, दुनिया के हर हिस्से में ब्रिटेन का पेट भरने के लिए जमीनों को साफ़ करके खेती की जाने लगी।
- खेती के लिए जमीन को साफ़ कर देना ही काफी नहीं था। खेतिहर इलाकों को बंदरगाहों से जोड़ने के लिए रेलवे की भी जरूरत थी। ज्यादा तादाद में माल ढुलाई के लिए नयी गोदियाँ बनाना और पुरानी गोदियों को फैलाना जरूरी था।
- नयी जमीनों पर खेती करने के लिए यह आवश्यक था कि दूसरे इलाकों के लोग वहाँ आकर बसें ।
- 19वीं सदी में यूरोप के लगभग पाँच करोड़ लोग अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में जाकर बस गए। माना जाता है कि पूरी दुनिया में लगभग पंद्रह करोड़ लोग बेहतर भविष्य की चाह में अपने घर-बार छोड़कर दूर-दूर के देशों में जाकर काम करने लगे थे।
- 1890 तक एक वैश्विक कृषि अर्थव्यवस्था सामने आ चुकी थी। इस घटनाक्रम के साथ श्रम विस्थापन रुझानों, पूँजी प्रवाह, पारिस्थितिकी और तकनीक में गहरे बदलाव आ चुके थे।
- भोजन किसी आसपास के गांव या क़स्बे से नहीं बल्कि हजारों मील दूर से आने लगा था। अब अपने खेतों पर खुद काम करने वाले किसान ही खाद्य पदार्थ पैदा नहीं कर रहे थे।
- खाद्य पदार्थों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने के लिए रेलवे का इस्तेमाल किया जाता था। रेल का नेटवर्क इसी काम के लिए बिछाया गया था।
- पानी के जहाजों से इसे दूसरे देशों में पहुँचाया जाता था। इन जहाजों पर दक्षिण यूरोप, एशिया, अफ्रीका और कैरीबियाई द्वीपसमूह के मजदूरों से बहुत कम वेतन पर काम करवाया जाता था।
- बहुत छोटे पैमाने पर ही सही लेकिन इसी तरह के नाटकीय बदलाव हम अपने यहाँ पंजाब में भी देख सकते हैं। यहाँ ब्रिटिश भारतीय सरकार ने अर्द्ध- रेगिस्तानी परती जमीनों को उपजाऊ बनाने के लिए नहरों का जाल बिछा दिया ताकि निर्यात के लिए गेहूँ और कपास की खेती की जा सके।
- नयी नहरों की सिंचाई वाले इलाकों में पंजाब के अन्य स्थानों के लोगों को लाकर बसाया गया। उनकी बस्तियों को केनाल कॉलोनी (नहर बस्ती) कहा जाता था।
- रबड़ की कहानी भी इससे अलग नहीं है। विभिन्न चीजों के उत्पादन में विभिन्न इलाकों ने इतनी महारत हासिल कर ली थी कि 1820 से 1914 के बीच विश्व व्यापार में 25 से 40 गुना वृद्धि हो चुकी थी।
- व्यापार में लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा 'प्राथमिक उत्पादों' यानी गेहूँ और कपास जैसे कृषि उत्पादों तथा कोयले जैसे खनिज पदार्थों का था।
- 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में व्यापार बढ़ा और बाज़ार तेज़ी से फैलने लगे। यह केवल फैलते व्यापार और संपन्नता का ही दौर नहीं था।
- व्यापार में इज़ाफ़े और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ निकटता का एक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के बहुत सारे भागों में स्वतंत्रता और आजीविका के साधन छिनने लगे।
- 19वीं सदी के आखिरी दशकों में यूरोपीयों की विजयों से बहुत सारे कष्टदायक आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय परिवर्तन आए और औपनिवेशिक समाजों को विश्व अर्थव्यवस्था में समाहित कर लिया गया।
- अफ्रीका पर क़ब्ज़े की कोशिश में लगी प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय ताकतों ने अपने-अपने इलाके बाँटने के लिए प्रायः इसी तरीके का सहारा लिया था।
- 1885 में यूरोप के ताकतवर देशों की बर्लिन में एक बैठक हुई जिसमें अफ्रीका के नक्शे पर इसी तरह लकीरें खींचकर उसको आपस में बाँट लिया गया था।
- 19वीं सदी के आखिर में ब्रिटेन और फ्रांस ने अपने शासन वाले विदेशी क्षेत्रफल में भारी वृद्धि कर ली थी। बेल्जियम और जर्मनी नयी औपनिवेशिक ताकतों के रूप में सामने आए।
- पहले स्पेन के कब्ज़े में रह चुके कुछ उपनिवेशों पर कब्ज़ा करके 1890 के दशक के आखिरी वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका भी औपनिवेशिक ताक़त बन गया।
- अफ्रीका में 1890 के दशक में रिंडरपेस्ट नामक बीमारी बहुत तेज़ी से फैल गई। मवेशियों में प्लेग की तरह फैलने वाली इस बीमारी से लोगों की आजीविका और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा।
- औपनिवेशिक समाजों पर यूरोपीय साम्राज्यवादी ताकतों के प्रभाव से बड़े पैमाने पर क्या असर पड़े।
- प्राचीन काल से ही अफ्रीका में ज़मीन की कभी कोई कमी नहीं रही जबकि वहाँ की आबादी बहुत कम थी। सदियों तक अफ़्रीकियों की ज़िंदगी व कामकाज ज़मीन और पालतू पशुओं के सहारे ही चलता रहा है। वहाँ पैसे या वेतन पर काम करने का चलन नहीं था।
- 19वीं सदी के आखिर में अफ्रीका में ऐसे उपभोक्ता सामान बहुत कम थे जिन्हें वेतन के पैसे से खरीदा जा सकता था।
- 19वीं सदी के आखिर में यूरोपीय ताक़तें अफ्रीका के विशाल भूक्षेत्र और खनिज भंडारों को देखकर इस महाद्वीप की ओर. आकर्षित हुई थीं।
- यूरोपीय लोग अफ्रीका में बागानी खेती करने और खदानों का दोहन करना चाहते थे ताकि उन्हें वापस यूरोप भेजा जा सके। लेकिन वहाँ एक ऐसी समस्या पेश आई जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी । वहाँ के लोग तनख्वाह पर काम नहीं करना चाहते थे।
- मजदूरों की भर्ती और उन्हें अपने पास रोके रखने के लिए मालिकों ने बहुत सारे हथकंडे आज़मा कर देख लिए लेकिन बात नहीं बनी। उन पर भारी भरकम कर लाद दिए गए जिनका भुगतान केवल तभी किया जा सकता था जब करदाता बागानों या खदानों में काम करता हो ।
- काश्तकारों को उनकी ज़मीन से हटाने के लिए उत्तराधिकार कानून भी बदल दिए गए। नए कानून में यह व्यवस्था कर दी गई कि अब परिवार के केवल एक ही सदस्य को पैतृक संपत्ति मिलेगी ।
- इस कानून के ज़रिए परिवार के बाकी लोगों को बाज़ार में ढकेलने का प्रयास किया जाने लगा। खानकर्मियों को बाड़ों में बंद कर दिया गया। उनके खुलेआम घूमने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई। (विषाणु जनित संक्रामक रोग) तभी वहाँ रिंडरपेस्ट नामक विनाशकारी पशु रोग फैल गया।
- अफ्रीका में रिंडरपेस्ट नाम की बीमारी सबसे पहले 1880 के दशक के आखिरी सालों में दिखाई दी। उस समय पूर्वी अफ्रीका में एरिट्रिया पर हमला कर रहे इतालवी सैनिकों का पेट भरने के लिए एशियाई देशों से जानवर लाए जाते थे।
- यह बीमारी ब्रिटिश अधिपत्य वाले एशियाई देशों से आए उन्हीं जानवरों के ज़रिए यहाँ पहुँची थी। अफ्रीका के पूर्वी हिस्से से महाद्वीप में दाखिल होने वाली यह बीमारी 'जंगल की आग' की तरह पश्चिमी अफ्रीका की तरफ बढ़ने लगी।
- 1892 में यह अफ्रीका के अटलांटिक तट तक जा पहुँची। पाँच साल बाद यह केप ( अफ्रीका का धुर दक्षिणी हिस्सा) तक भी पहुँच गई। रिंडरपेस्ट ने अपने रास्ते में आने वाले 90 प्रतिशत मवेशियों को मौत की नींद सुला दिया।
- पशुओं के खत्म हो जाने से तो अफ़्रीकियों के रोज़ी-रोटी के साधन ही खत्म हो गए। अपनी सत्ता को और मज़बूत करने तथा अफ़्रीकियों को श्रम बाज़ार में ढकेलने के लिए वहाँ के बागान मालिकों, खान मालिकों और औपनिवेशिक सरकारों ने बचे-खुचे पशु भी अपने कब्जे में ले लिए। बचे-खुचे पशु संसाधनों पर क़ब्ज़े से यूरोपीय उपनिवेशकारों को पूरे अफ्रीका को जीतने व गुलाम बना लेने का बेहतरीन मौका हाथ लग गया था।
- भारत से अनुबंधित (गिरमिटिया) श्रमिकों को ले जाया जाना भी 19वीं सदी की दुनिया की विविधता को प्रतिबिंबित करता है।
- 19वीं सदी में भारत और चीन के लाखों मजदूरों को बागानों, खदानों और सड़क व रेलवे निर्माण परियोजनाओं में काम करने के लिए दूर-दूर के देशों में ले जाया जाता था।
- भारत के ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक मौजूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य भारत और तमिलनाडु के सूखे इलाकों से जाते थे।
- 19वीं सदी के मध्य में इन इलाकों में भारी बदलाव आने लगे थे।
- कुटीर उद्योग खत्म हो रहे थे, ज़मीन का भाड़ा बढ़ गया था, खानों और बागानों के लिए ज़मीनों को साफ़ किया जा रहा था। इन परिवर्तनों से गरीबों के जीवन पर गहरा असर पड़ा।
- भारतीय अनुबंधित श्रमिकों को मुख्य रूप से कैरीबियाई द्वीप समूह (मुख्यतः त्रिनिदाद, गुयाना और सुरीनाम), मॉरिशस व फ़िजी जाया जाता था।
- तमिल आप्रवासी सीलोन और मलाया जाकर काम करते थे। बहुत सारे अनुबंधित श्रमिकों को असम के चाय बागानों में काम करवाने के लिए भी ले जाया जाता था।
- मजदूरों की भर्ती का काम मालिकों के एजेंट किया करते थे। एजेंटों को कमीशन मिलता था। बहुत सारे आप्रवासी अपने गाँव में होने वाले उत्पीड़न और गरीबी से बचने के लिए भी इन अनुबंधों को मान लेते थे।
- 19वीं सदी की इस अनुबंध व्यवस्था को बहुत सारे लोगों ने नयी दास प्रथा' का भी नाम दिया है। बागानों में या कार्यस्थल पर पहुँचने के बाद मजदूरों को पता चलता था कि वे जैसी उम्मीद कर रहे थे यहाँ वैसे हालात नहीं हैं।
- नयी जगह की जीवन एवं कार्य स्थितियाँ कठोर थीं और मजदूरों के पास कानूनी अधिकार कहने भर को भी नहीं थे। इसके बावजूद मजदूरों ने भी जिंदगी बसर करने के अपने तरीके ढूँढ़ निकाले ।
- बहुतों ने अपनी पुरानी और नयी संस्कृतियों का सम्मिश्रण करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक आत्माभिव्यक्ति के नए रूप खोज लिए । त्रिनिदाद में मुहर्रम के सालाना जुलूस को एक विशाल उत्सवी मेले का रूप दे दिया गया। इस मेले को 'हासे' (इमाम हुसैन के नाम पर) नाम दिया गया। उसमें सभी धर्मों व नस्लों के मजदूर हिस्सा लेते थे।
- इसी प्रकार रास्ताफारियानवाद (Rastafarianism) नामक विद्रोही धर्म (जिसे जमैका के रैगे गायक बॉब मार्ले ने ख्याति के शिखर पर पहुँचा दिया) में भी भारतीय आप्रवासियों और कैरीबियाई द्वीपसमूह के बीच इन संबंधों की झलक देखी जा सकती है।
- त्रिनिदाद और गुयाना में मशहूर 'चटनी म्यूज़िक भारतीय आप्रवासियों के वहाँ पहुँचने के बाद सामने आई रचनात्मक अभिव्यक्तियों का ही उदाहरण है।
- सांस्कृतिक समागम के ये स्वरूप एक नयी वैश्विक दुनिया के उदय की प्रक्रिया का अंग़ थे। यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें अलग-अलग स्थानों की चीजें आपस में घुल-मिल जाती थीं, उनकी मूल पहचान और विशिष्टताएँ गुम हो जाती थीं और बिलकुल नया रूप सामने आता था। ज्यादातर अनुबंधित श्रमिक अनुबंध समाप्त हो जाने के बाद भी वापस नहीं लौटे। जो वापस लौटे उनमें से भी अधिकांश केवल कुछ समय यहाँ बिता कर फिर अपने नए ठिकानों पर वापस चले गए।
- 20वीं सदी के शुरुआती सालों से ही हमारे देश के राष्ट्रवादी नेता इस प्रथा का विरोध करने लगे थे। उनकी राय में यह बहुत अपमानजनक और क्रूर व्यवस्था थी। इसी दबाव के कारण 1921 में इसे खत्म कर दिया गया। लेकिन इसके बाद भी कई दशक तक भारतीय अनुबंधित मजदूरों के वंशज कैरीबियाई द्वीप समूह में बेचैन अल्पसंख्यकों का जीवन जीते रहे।
- वहाँ के लोग उन्हें 'कुली' मानते थे और उनके साथ कुलियों जैसा बर्ताव करते थे। नायपॉल के कुछ प्रारंभिक उपन्यासों में विछोह और परायेपन के इस अहसास को खूब देखा जा सकता है।
- विश्व बाज़ार के लिए खाद्य पदार्थ व फ़सलें उगाने के वास्ते पूँजी की आवश्यकता थी। बड़े बागानों के लिए तो बाज़ार और बैंकों से पैसा लिया जा सकता था।
- यहीं से देशी साहूकार और महाजन दृश्य में आते हैं। ये उन बहुत सारे बैंकरों और व्यापारियों में से थे जो मध्य एवं दक्षिण पूर्व एशिया में निर्यातोन्मुखी खेती के लिए कर्जे देते थे।
- इसके लिए वे या तो अपनी जेब से पैसा लगाते थे या यूरोपीय बैंकों से कर्ज़े लेते थे। उनके पास दूर-दूर तक पैसे पहुँचाने की एक व्यवस्थित पद्धति होती थी। यहाँ तक कि उन्होंने व्यावसायिक संगठनों और क्रियाकलापों के देशी स्वरूप भी विकसित कर लिए थे।
- अफ्रीका में यूरोपीय उपनिवेशकारों के पीछे-पीछे भारतीय व्यापारी और महाजन भी जा पहुँचे । हैदराबादी सिंधी व्यापारी तो यूरोपीय उपनिवेशों से भी आगे तक जा निकले।
- 1860 के दशक से उन्होंने दुनिया भर के बंदरगाहों पर अपने बड़े-बड़े एम्पोरियम खोल दिए। इन दुकानों में सैलानियों को आकर्षक स्थानीय और विदेशी चीजें मिलती थीं।
- भारत में पैदा होने वाली महीन कपास का यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता था। औद्योगीकरण के बाद ब्रिटेन में भी कपास का उत्पादन बढ़ने लगा था। इसी कारण वहाँ के उद्योगपतियों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह कपास के आयात पर रोक लगाए और स्थानीय उद्योगों की रक्षा करे।
- फलस्वरूप, ब्रिटेन में आयातित कपड़ों पर सीमा शुल्क थोप दिए गए। वहाँ महीन भारतीय कपास का आयात कम होने लगा।
- 19वीं शताब्दी की शुरुआत से ही ब्रिटिश कपड़ा उत्पादक दूसरे देशों में भी अपने कपड़े के लिए नए-नए बाज़ार ढूँढ़ने लगे थे।
- सीमा शुल्क की व्यवस्था के कारण ब्रिटिश बाज़ारों से बेदखल हो जाने के बाद भारतीय कपड़ों को दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी भारी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा।
- यदि भारतीय निर्यात के आँकड़ों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि सूती कपड़े के निर्यात में लगातार गिरावट का ही रुझान दिखाई देता है।
- सन् 1800 के आसपास निर्यात में सूती कपड़े का प्रतिशत 30 था जो 1815 में घट कर 15 प्रतिशत रह गया। 1870 तक तो यह अनुपात केवल 3 प्रतिशत रह गया था।
- तो फिर भारत ने किन चीज़ों का निर्यात किया? आँकड़ों के माध्यम से फिर एक नाटकीय कहानी सामने आती है। निर्मित वस्तुओं का निर्यात घटता जा रहा था और उतनी ही तेज़ी से कच्चे मालों का निर्यात बढ़ता जा रहा था।
- 1812 से 1871 के बीच कच्चे कपास का निर्यात 5 प्रतिशत से बढ़ कर 35 प्रतिशत तक पहुँच गया था।
- कपड़ों की रँगाई के लिए इस्तेमाल होने वाले नील का भी कई दशक तक बड़े पैमाने पर निर्यात होता रहा।
- कुछ समय तक तो भारतीय निर्यात में अफीम का हिस्सा ही सबसे ज्यादा रहा। ब्रिटेन की सरकार भारत में अफीम की खेती करवाती थी और उसे चीन को निर्यात कर देती थी। अफीम के निर्यात से जो पैसा मिलता था उसके बदले चीन से ही चाय और दूसरे पदार्थों का आयात किया जाता था।
- 19वीं शताब्दी में भारतीय बाजारों में ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों की बाढ़ ही आ गई थी।
- भारत से ब्रिटेन और शेष विश्व को भेजे जाने वाले खाद्यान्न व कच्चे मालों के नियार्त में इज़ाफ़ा हुआ।
- ब्रिटेने से जो माल भारत भेजा जाता था उसकी कीमत भारत से ब्रिटेन भेजे जाने वाले माल की कीमत से बहुत ज्यादा होती थी।
- भारत के साथ ब्रिटेन हमेशा 'व्यापार अधिशेष' की अवस्था में रहता था। इसका मतलब है कि आपसी व्यापार में हमेशा ब्रिटेन को ही फायदा रहता था। ब्रिटेन इस मुनाफ़े के सहारे दूसरे देशों के साथ होने वाले व्यापारिक घाटे की भरपाई कर लेता था।
- बहुपक्षीय बंदोबस्त ऐसे ही काम करता है। इसमें एक देश के मुकाबले दूसरे देश को होने वाले घाटे की भरपाई किसी तीसरे देश के साथ व्यापार में मुनाफा कमा कर की जाती है।
- ब्रिटेन के घाटे की भरपाई में मदद देते हुए भारत ने 19वीं · सदी की विश्व अर्थव्यवस्था का रूप तय करने में एक अहम भूमिका अदा की थी।
- ब्रिटेन के व्यापार से जो अधिशेष हासिल होता था उससे तथाकथित 'होम चार्जेज' (देसी खर्चे) का निबटारा होता था।
- इसके तहत ब्रितानी अफसरों और व्यापारियों द्वारा अपने घर में भेजी गई निजी रकम, भारतीय बाहरी कर्जे पर ब्याज आरै भारत में काम कर चुके ब्रितानी अफसरों की पेंशन शामिल थी।
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here