BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भारत में राष्ट्रवाद

1919 के पश्चात् राष्ट्रीय आंदोलन नए इलाकों तक फैल गया था, उसमें नए सामाजिक समूह शामिल हो गए थे और संघर्ष की नयी पद्धतियाँ सामने आ रही थीं।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भारत में राष्ट्रवाद

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH HISTORY NOTES | भारत में राष्ट्रवाद

  • यूरोप में आधुनिक राष्ट्रवाद के साथ ही, राष्ट्र राज्यों का भी उदय हुआ। नए प्रतीकों और चिह्नों ने नए गीतों और विचारों ने नए संपर्क स्थापित किए और समुदायों की सीमाओं को दोबारा परिभाषित कर दिया।
  • वियतनाम और दूसरे उपनिवेशों की तरह भारत में भी आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय की परिघटना उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ गहरे तौर पर जुड़ी हुई थी। औपनिवेशिक शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान लोग आपसी एकता को पहचानने लगे थे।
  • उत्पीड़न और दमन के साझा भाव ने विभिन्न समूहों को एक-दूसरे से बाँध दिया था, लेकिन हर वर्ग और समूह पर उपनिवेशवाद का असर एक जैसा नहीं था। उनके अनुभव भी अलग थे और स्वतंत्रता के मायने भी भिन्न थे।
सविनय अवज्ञा की ओर
  • फ़रवरी 1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला कर लिया। उनको लगता था कि आंदोलन हिंसक होता जा रहा है और सत्याग्रहियों को व्यापक प्रशिक्षण की जरूरत है। कांग्रेस कुछ नेता इस तरह के जनसंघर्षो से थक चुके थे। वे 1919 के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के तहत गठित की गई प्रांतीय परिषदों के चुनाव में हिस्सा लेना चाहते थे।
  • परिषदों में रहते हुए ब्रिटिश नीतियों का विरोध करना, सुधारों की वकालत करना और यह दिखाना भी महत्त्वपूर्ण है कि ये परिषदें लोकतांत्रिक संस्था नहीं हैं।
  • सी. आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने परिषद् राजनीति में वापस लौटने के लिए कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी का गठन कर डाला।
  • जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे युवा नेता ज्यादा उग्र जनांदोलन और पूर्ण स्वतंत्रता के लिए दबाव बनाए हुए थे।
  • साइमन कमीशन के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने लाला लाजपत राय पर हमला किया। प्रदर्शन के दौरान मिले गहरे ज़ख्मों के कारण उन्होंने दम तोड़ दिया।
  • 1926 से कृषि उत्पादों की क़ीमतें गिरने लगी थीं और 1930 के बाद तो पूरी तरह धराशायी हो गई। कृषि उत्पादों की माँग गिरी और निर्यात कम होने लगा तो किसानों को अपनी उपज बेचना और लगान चुकाना भी भारी पड़ने लगा। 1930 तक ग्रामीण इलाक़े भारी उथल-पुथल से गुजरने लगे थे। इसी पृष्ठभूमि में ब्रिटेन की नयी टोरी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक वैधानिक आयोग का गठन कर दिया।
  • राष्ट्रवादी आंदोलन के जवाब में गठित किए गए इस आयोग को भारत में संवैधानिक व्यवस्था की कार्यशैली का अध्ययन करना था और उसके बारे में सुझाव देने थे। इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था सारे अंग्रेज़ थे।
  • 1928 में जब साइमन कमीशन भारत पहुँचा उसका स्वागत 'साइमन कमीशन वापस जाओ' (साइमन कमीशन गो बैक) के नारों से किया गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग, सभी पार्टियों ने प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।
  • इस विरोध को शांत करने के लिए वायसराय लॉर्ड इरविन ने अक्टूबर 1929 में भारत के लिए 'डोमीनियन स्टेटस' का गोलमोल सा ऐलान कर दिया। उन्होंने इस बारे में कोई समय सीमा भी नहीं बताई।
  • दिसंबर 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में 'पूर्ण स्वराज' की माँग को औपचारिक रूप से मान लिया गया। 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा और उस दिन लोग पूर्ण स्वराज के लिए संघर्ष की शपथ लेंगे।
नमक यात्रा और सविनय अवज्ञा आंदोलन
  • 31 जनवरी 1930 को महात्मा गांधी ने वायसराय इरविन को एक खत लिखा। इस खत में उन्होंने 11 माँगों का उल्लेख किया था। गांधीजी इन माँगों के ज़रिए समाज के सभी वर्गों को अपने साथ जोड़ना चाहते थे ताकि सभी उनके अभियान में शामिल हो सकें।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण माँग नमक कर को खत्म करने के बारे में थी। नमक का अमीर-गरीब, सभी इस्तेमाल करते थे। यह भोजन का एक अभिन्न हिस्सा था। इसीलिए नमक पर कर और उसके उत्पादन पर सरकारी इज़ारेदारी को महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन का सबसे दमनकारी पहलू बताया था।
  • महात्मा गांधी का यह पत्र एक अल्टीमेटम (चेतावनी) की तरह था। उन्होंने लिखा था कि अगर 11 मार्च तक उनकी माँगें नहीं मानी गई तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देगी । इरविन झुकने को तैयार नहीं थे।
  • फलस्वरूप, महात्मा गांधी ने अपने 78 विश्वस्त वॉलंटियरों के साथ नमक यात्रा शुरू कर दी। यह यात्रा साबरमती में गांध जी के आश्रम से 240 किलोमीटर दूर दांडी नामक गुजराती तटीय क़स्बे में जाकर खत्म होनी थी। गांधीजी की टोली ने 24 दिन तक हर रोज़ लगभग 10 मील का सफ़र तय किया।
  • गांधीजी जहाँ भी रुकते हज़ारों लोग उन्हें सुनने आते। इन सभाओं में गांधीजी ने स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया और आह्वान किया कि लोग अंग्रेजों की शांतिपूर्वक अवज्ञा करें यानी अंग्रेज़ों का कहा न मानें।
  • 6 अप्रैल को वह दांडी पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाना शुरू कर दिया। यह कानून का उल्लंघन था। यहीं से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होता है।
  • इस बार लोगों को न केवल अंग्रेज़ों का सहयोग न करने के लिए बल्कि औपनिवेशिक कानूनों का उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया जाने लगा। देश के विभिन्न भागों में हज़ारों लोगों ने नमक कानून तोड़ा, और सरकारी नमक कारखानों के सामने प्रदर्शन किए।
  • आंदोलन फैला तो विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाने लगा। शराब की दुकानों की पिकेटिंग होने लगी। किसानों ने लगान और चौकीदारी कर चुकाने से इनकार कर दिया। गाँवों में तैनात कर्मचारी इस्तीफ़े देने लगे।
  • बहुत सारे स्थानों पर जंगलों में रहने वाले वन क़ानूनों का उल्लंघन करने लगे। वे लकड़ी बीनने और मवेशियों को चराने के लिए आरक्षित वनों में घुसने लगे।
  • इन घटनाओं से चिंतित औपनिवेशिक सरकार कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करने लगी। बहुत सारे स्थानों पर हिंसक टकराव हुए।
  • अप्रैल 1930 में जब महात्मा गांधी के समर्पित साथी अब्दुल गफ्फार खान को गिरफ्तार किया गया तो गुस्साई भीड़ सशस्त्र बख़्तरबंद गाड़ियों और पुलिस की गोलियों का सामना करते हुए सड़कों पर उतर आई । बहुत सारे लोग मारे गए।
  • महात्मा गांधी ने एक बार फिर आंदोलन वापस ले लिया। 5 मार्च 1931 को उन्होंने इरविन के साथ एक समझौते पर दस्तखत कर दिए।
  • गांधी-इरविन समझौते के ज़रिए गांधीजी ने लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी ( पहले गोलमेज़ सम्मेलन का कांग्रेस बहिष्कार कर चुकी थी ) । इसके बदले सरकार राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई।
  • दिसंबर 1931 में सम्मेलन के लिए गांधीजी लंदन गए। यह वार्ता बीच में ही टूट गई और उन्हें निराश वापस लौटना पड़ा। यहाँ आकर उन्होंने पाया कि सरकार ने नए सिरे से दमन शुरू कर दिया है। गफ्फ़ार ख़ान और जवाहरलाल नेहरू, दोनों जेल में थे। कांग्रेस को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया था।
  • सभाओं, प्रदर्शनों और बहिष्कार जैसी गतिविधियों को रोकने. के लिए सख्त कदम उठाए जा रहे थे। भारी आशंकाओं के बीच महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन दोबारा शुरू कर दिया। साल भर तक आंदोलन चला लेकिन 1934 तक आते-आते उसकी गति मंद पड़ने लगी थी।
लोगों ने आंदोलन को कैसे लिया
  • गाँवों में संपन्न किसान समुदाय - जैसे गुजरात के पटीदार और उत्तर प्रदेश के जाट आंदोलन में सक्रिय थे । व्यावसायिक फसलों की खेती करने के कारण व्यापार में मंदी और गिरती क़ीमतों से वे बहुत परेशान थे।
  • जब उनकी नकद आय खत्म होने लगी तो उनके लिए सरकारी लगान चुकाना नामुमकिन हो गया। सरकार लगान कम करने को तैयार नहीं थी। चारों तरफ़ असंतोष था।
  • संपन्न किसानों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का बढ़-चढ़ कर समर्थन किया। उन्होंने अपने समुदायों को एकजुट किया और कई बार अनिच्छुक सदस्यों को बहिष्कार के लिए मजबूर किया।
  • उनके लिए स्वराज की लड़ाई भारी लगान के ख़िलाफ़ लड़ाई थी। लेकिन जब 1931 में लगानों के घटे बिना आंदोलन वापस ले लिया गया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। फलस्वरूप, जब 1932 में आंदोलन दुबारा शुरू हुआ तो उनमें से बहुतों ने उसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया।
  • गरीब किसान केवल लगान में कमी नहीं चाहते थे। उनमें से बहुत सारे किसान जमींदारों से पट्टे पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे ।
  • महामंदी लंबी खिंची और नकद आमदनी गिरने लगी तो छोटे पट्टेदारों के लिए ज़मीन का किराया चुकाना भी मुश्किल हो गया। वे चाहते थे कि उन्हें ज़मींदारों को जो भाड़ा चुकाना था उसे माफ़ कर दिया जाए।
  • अमीर किसानों और ज़मींदारों की नाराज़गी के भय से कांग्रेस 'भाड़ा विरोधी' आंदोलनों को समर्थन देने में प्रायः हिचकिचाती थी। इसी कारण ग़रीब किसानों और कांग्रेस के बीच संबंध अनिश्चित बने रहे।
  • व्यापारियों ने अपने कारोबार को फैलाने के लिए औपनिवेशिक नीतियों का विरोध किया जिनके कारण उनकी व्यावसायिक गतिविधियों में रुकावट आती थी। वे विदेशी वस्तुओं के आयात से सुरक्षा चाहते थे और रुपया- स्टर्लिंग विदेशी विनिमय अनुपात में बदलाव चाहते थे जिससे आयात में कमी आ जाए।
  • व्यावसायिक हितों को संगठित करने के लिए उन्होंने 1920 में भारतीय औद्योगिक एवं व्यावसायिक कांग्रेस (इंडियन इंडस्ट्रियल एंड कमर्शियल कांग्रेस) और 1927 में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग परिसंघ (फेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री-फिक्की) का गठन किया।
  • पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और जी. डी. बिड़ला जैसे जाने-माने उद्योगपतियों के नेतृत्व में उद्योगपतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक नियंत्रण का विरोध किया और पहले सिविल नाफरमानी आंदोलन का समर्थन किया।
  • गोलमेज़ सम्मेलन की विफलता के बाद व्यावसायिक संगठनों का उत्साह भी मंद पड़ गया था। उन्हें उग्र गतिविधियों का भय था। वे लंबी अशांति की आशंका और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से डरे हुए थे।
  • औद्योगिक श्रमिक वर्ग ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में नागपुर के अलावा और कहीं भी बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा नहीं लिया। जैसे-जैसे उद्योगपति कांग्रेस के नज़दीक आ रहे थे, मजदूर कांग्रेस से छिटकने लगे थे।
  • कुछ मजदूरों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार जैसे कुछ गांधीवादी विचारों को कम वेतन व खराब कार्यस्थितियों के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई से जोड़ लिया था।
  • 1930 में रेलवे कामगारों की और 1932 में गोदी कामगारों की हड़ताल हुई। 1930 में छोटा नागपुर की टिन खानों के हज़ारों मजदूरों ने गांधी टोपी पहनकर रैलियों और बहिष्कार अभियानों में हिस्सा लिया।
  • कांग्रेस अपने कार्यक्रम में मजदूरों की माँगों को समाहित करने में हिचकिचा रही थी। कांग्रेस को लगता था कि इससे उद्योगपति आंदोलन से दूर चले जाएँगे और साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों फूट पड़ेगी।
  • सिविल नाफरमानी आंदोलन में औरतों ने बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया। गांधीजी के नमक सत्याग्रह के दौरान हज़ारों औरतें उनकी बात सुनने के लिए घर से बाहर आ जाती थीं। उन्होंने जुलूसों में हिस्सा लिया, नमक बनाया, विदेशी कपड़ों व शराब की दुकानों की पिकेटिंग की । बहुत सारी महिलाएँ जेल भी गई।
  • शहरी इलाकों में ज्यादातर ऊँची जातियों की महिलाएँ सक्रिय थीं जबकि ग्रामीण इलाकों में संपन्न किसान परिवारों की महिलाएँ आंदोलन में हिस्सा ले रही थीं।
  • गांधीजी के आह्वान बाद औरतों को राष्ट्र की सेवा करना अपना पवित्र दायित्व दिखाई देने लगा था। लेकिन सार्वजनिक भूमिका में इस इजाफ़े का मतलब यह नहीं था कि औरतों की स्थिति में कोई भारी बदलाव आने वाला था।
  • गांधीजी का मानना था कि घर चलाना, चूल्हा-चौका सँभालना. अच्छी माँ व अच्छी पत्नी की भूमिकाओं का निर्वाह करना हो औरत का असली कर्त्तव्य है। इसीलिए लंबे समय तक कांग्रेस संगठन में किसी भी महत्त्वपूर्ण पद पर औरतों को जगह देने से हिचकिचाती रही। कांग्रेस को उनकी प्रतीकात्मक उपस्थिति में ही दिलचस्पी थी।

कुछ महत्त्वपूर्ण तिथियाँ

1918-19 बाबा रामचंद्र उत्तर प्रदेश के किसानों को संगठित करना।
अप्रैल 1919 रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ गांधीवादी हड़ताल; जलियाँवाला बाग हत्याकांड।
जनवरी 1920 असहयोग और खिलाफत आंदोलन शुरू।
फरवरी 1922 चौरी चौरा; गांधीजी असहयोग आंदोलन वापस ले लेते हैं।
मई 1924 अल्लूरी सीताराम राजू की गिरफ्तारी; दो वर्ष से चला आ रहा हथियारबंद आदिवासी संघर्ष समाप्त।
दिसंबर 1929 लाहौर अधिवेशन; कांग्रेस 'पूर्ण स्वराज' की माँग को स्वीकार कर लेती है।
1930 अंबेडकर दमित वर्ग एसोसिएशन की स्थापना करते हैं।
मार्च 1930 गांधीजी दांडी में नमक कानून का उल्लंघन करके सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करते हैं।
मार्च 1931 गांधीजी सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लेते हैं।
दिसंबर 1931  दूसरा गोलमेज़ सम्मेलन ।
1932  सविनय अवज्ञा आंदोलन पुनः प्रारंभ ।
सविनय अवज्ञा की सीमाएँ
  • सभी सामाजिक समूह स्वराज की अमूर्त अवधारणा से प्रभावित नहीं थे। ऐसा ही एक समूह राष्ट्र के 'अछूतों' का था। वे 1930 के बाद खुद को दलित या उत्पीड़ित कहने लगे थे।
  • कांग्रेस ने लंबे समय तक दलितों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि कांग्रेस रूढ़िवादी सवर्ण हिंदू सनातनपंथियों से डरी हुई थी। लेकिन महात्मा गांधी ने ऐलान किया कि अस्पृश्यता (छुआछूत) को खत्म किए बिना सौ साल तक भी स्वराज की स्थापना नहीं की जा सकती।
  • उन्होंने 'अछूतों' को हरिजन यानी ईश्वर की संतान बताया। उन्हें मंदिरों, सार्वजनिक तालाबों, सड़कों और कुओं पर समान अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह किया।
  • मैला ढोनेवालों के काम को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए वे खुद शौचालय साफ़ करने लगे। उन्होंने ऊँची जातियों का आह्वान किया कि वे अपना हृदय परिवर्तन करें और अस्पृश्यता के पाप' को छोड़ें। 
  • बहुत सारे दलित नेता अपने समुदाय की समस्याओं का अलग राजनीतिक हल ढूँढ़ना चाहते थे। वे खुद को संगठित करने लगे।
  • उन्होंने शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के लिए आवाज़ उठाई और अलग निर्वाचन क्षेत्रों की बात कही ताकि वहाँ से विधायी परिषदों के लिए केवल दलितों को ही चुनकर भेजा जा सके।
  • उनकी सामाजिक अपंगता केवल राजनीतिक सशक्तीकरण से ही दूर हो सकती है। इसलिए सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलितों की हिस्सेदारी काफी सीमित थी।
  • महाराष्ट्र और नागपुर क्षेत्र में यह बात खासतौर से दिखाई देती थी जहाँ उनके संगठन काफी मज़बूत थे ।
  • डॉ. अंबेडकर ने 1930 में दलितों को दमित वर्ग एसोसिएशन (Depressed Classes Association) में संगठित किया। दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों के सवाल पर दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में महात्मा गांधी के साथ उनका काफी विवाद हुआ।
  • जब ब्रिटिश सरकार ने अंबेडकर की माँग मान ली तो गांधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए। उनका मत था कि दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था से समाज में उनके एकीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाएगी।
  • आखिरकार अंबेडकर ने गांधीजी की राय मान ली और सितंबर 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए। इससे दमित वर्गों (जिन्हें बाद में अनुसूचित जाति के नाम से जाना गया) को प्रांतीय एवं केंद्रीय विधायी परिषदों में आरक्षित सीटें मिल गई हालाँकि उनके लिए मतदान सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में ही होता था। फिर भी, दलित आंदोलन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन को शंका की दृष्टि से ही देखता रहा।
  • भारत के कुछ मुस्लिम राजनीतिक संगठनों ने भी सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति कोई खास उत्साह नहीं दिखाया। असहयोग - खिलाफत आंदोलन के शांत पड़ जाने के बाद मुसलमानों का एक बहुत बड़ा तबका कांग्रेस से कटा हुआ महसूस करने लगा था।
  • 1920 के दशक के मध्य से कांग्रेस हिंदू महासभा जैसे हिंदू धार्मिक राष्ट्रवादी संगठनों के काफी करीब दिखने लगी थी। जैसे-जैसे हिंदू-मुसलमानों के बीच संबंध खराब होते गए, दोनों समुदाय उग्र धार्मिक जुलूस निकालने लगे। इससे कई शहरों में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक टकराव व दंगे हुए। हर दंगे के साथ दोनों समुदायों के बीच फ़ासला बढ़ता गया।
  • कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक बार फिर गठबंधन का प्रयास किया | 1927 में ऐसा लगा भी कि अब एकता स्थापित हो ही जाएगी। सबसे महत्त्वपूर्ण मतभेद भावी विधान सभाओं में प्रतिनिधित्व के सवाल पर थे।
  • मुस्लिम लीग के नेताओं में से एक, मोहम्मद अली जिन्ना का कहना था कि अगर मुसलमानों को केंद्रीय सभा में आरक्षित सीटें दी जाएँ और मुस्लिम बहुल प्रांतों (बंगाल और पंजाब) में , मुसलमानों को आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए तो वे मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचिका की माँग छोड़ने के लिए तैयार हैं।
  • प्रतिनिधित्व के सवाल पर यह बहस चल ही रहा था कि 1928 में आयोजित किए गए सर्वदलीय सम्मेलन में हिंदू महासभा के एम. आर. जयकर ने इस समझौते के लिए किए जा रहे प्रयासों की खुलेआम निंदा शुरू कर दी जिससे इस मुद्दे के समाधान की सारी संभावनाएँ समाप्त हो गईं।
  • जब सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ उस समय समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास का माहौल बना हुआ था। कांग्रेस से कटे हुए मुसलमानों का बड़ा तबका किसी संयुक्त संघर्ष के लिए तैयार नहीं था।
  • बहुत सारे मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी भारत में अल्पसंख्यकों के रूप में मुसलमानों की हैसियत को लेकर चिंता जता रहे थे। उनको भय था कि हिंदू बहुसंख्या के वर्चस्व की स्थिति में अल्पसंख्यकों की संस्कृति और पहचान खो जाएगी।
  • 1930 में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सर मोहम्मद इकबाल ने मुसलमानों के लिए अल्पसंख्यक राजनीतिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से पृथक निर्वाचिका की ज़रूरत पर एक बार फिर जोर दिया।
  • बाद के सालों में पाकिस्तान की माँग के लिए जो आवाज़ उठी उसका बौद्धिक औचित्य उनके इसी बयान से उपजा था। उन्होंने कहा -
  • 'मुझे यह कहने में ज़रा सी भी हिचकिचाहट नहीं है कि अगर स्थायी सांप्रदायिक बंदोबस्त के तौर पर भारतीय मुसलमान को उसके अपने भारतीय होमलैंड में अपनी संस्कृति और परंपरा के अनुसार पूर्ण एवं स्वतंत्र विकास का अधिकार दिया जाए तो वह भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाएगा।
  • प्रत्येक समूह को अपने तरीके से स्वतंत्र विकास का अधिकार है। यह सिद्धांत किसी संकुचित सांप्रदायिकता की भावना से नहीं उपजा है। जो समुदाय अन्य समुदायों के प्रति दुर्भावना रखता है वह नीच और अधम है। मैं अन्य समुदायों के रीति-रिवाजों, धर्मों और सामाजिक संस्थानों का अगाध * सम्मान करता हूँ।
  • कुरान की हिदायतों के अनुसार यह मेरा दायित्व है कि अगर जरूरत हो तो मैं उनके उपासना स्थलों की भी रक्षा करूंगा। लेकिन मैं उस सांप्रदायिक समूह को प्रेम करता जो मेरे लिए जीवन और आचरण का स्रोत है, जिसने मुझे अपना धर्म अपना साहित्य अपने विचार अपनी संस्कृति देकर मुझे ऐसा बनाया है और इस प्रकार मेरी मौजूदा चेतना में अपने पूरे अतीत को एक सजीव कार्यात्मक तत्व के रूप में सम दिया है।
  • 'ऐसे में अपने उच्चतर आयाम में सांप्रदायिकता भारत जैसे देश के भीतर एक लयात्मक समुच्चय के निर्माण के लिए | अपरिहार्य है। यूरोपीय देशों की तरह भारतीय समाज की इकाइयाँ भूभागों में बँटी हुई नहीं हैं।
  • भारत के सामुदायिक समूहों को मान्यता दिए बिना यहाँ यूरोपीय लोकतंत्र के सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सकता। भारत के भीतर एक मुस्लिम भारत की स्थापना के लिए मुसलमानों की ओर से उठ रही माँग बिलकुल सही है।
  • हिंदू सोचता है कि पृथक निर्वाचिका का प्रस्ताव सच्चे राष्ट्रवाद की भावना के विपरीत है क्योंकि वह मानता है कि राष्ट्र शब्द का मतलब एक ऐसे सार्वभौमिक सम्मिश्रण से है जिसमें किसी भी सामुदायिक इकाई को अपनी निजी विशिष्टता बनाए रखने का अधिकार नहीं हो सकता। लेकिन हालात ऐसे नहीं हैं।
  • भारत नस्ली और धार्मिक विशिष्टताओं वाला देश है। इसी में आप यह तथ्य भी जोड़ दीजिए कि मुसलमान आर्थिक रूप से सामान्यतः कमजोर हैं, उन पर भारी कर्जे हैं, खासतौर से पंजाब में और कई प्रांतों में उनकी संख्या कम है।
सामूहिक अपनेपन का भाव
  • राष्ट्रवाद की भावना तब पनपती है जब लोग ये महसूस करने लगते हैं कि वे एक ही राष्ट्र के अंग हैं जब वे एक-दूसरे को एकता के सूत्र में बाँधने वाली कोई साझा बात ढूँढ़ लेते हैं। लेकिन सामूहिक अपनेपन की भावना आंशिक रूप से संयुक्त संघर्षों के चलते पैदा होती है।
  • राष्ट्र की पहचान सबसे ज्यादा किसी तसवीर में अंकित की जाती है। इससे लोगों को एक ऐसी छवि गढ़ने में मदद मिलती है जिसके जरिए वे राष्ट्र को पहचान सकते हैं।
  • 20वीं सदी में राष्ट्रवाद के विकास के साथ भारत की पहचान भी भारत माता की छवि का रूप लेने लगी। यह तसवीर पहली बार बकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने बनाई थी।
  • 1870 के दशक में उन्होंने मातृभूमि की स्तुति के रूप में 'वन्दे मातरम्' गीत लिखा था। बाद में इसे उन्होंने अपने उपन्यास आनन्दमठ में शामिल कर लिया। यह गीत बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन में खूब गाया गया।
  • स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणा से अबनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत माता की विख्यात छवि को चित्रित किया। इस पेंटिंग में भारत माता को एक संन्यासिनी के रूप में दर्शाया गया है। वह शांत, गंभीर, दैवी और अध्यात्मिक गुणों से युक्त दिखाई देती है।
  • राष्ट्रवाद का विचार भारतीय लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने के आंदोलन से भी मजबूत हुआ। 19वीं सदी के आखिर में राष्ट्रवादियों ने भाटों व चारणों द्वारा गाई सुनाई जाने वाली लोक कथाओं को दर्ज करना शुरू कर दिया।
  • वे लोक गीतों व जनश्रुतियों को इकट्ठा करने के लिए गाँव-गाँव घूमने लगे। उनका मानना था कि यही कहानियाँ हमारी उस परंपरागत संस्कृति की सही तसवीर पेश करती हैं जो बाहरी ताकतों के प्रभाव से भ्रष्ट और दूषित हो चुकी है।
  • अपनी राष्ट्रीय पहचान को ढूंढ़ने और अपने अतीत में गौरव का भाव पैदा करने के लिए इस लोक परंपरा को बचाकर रखना जरूरी था।
  • बगांल में खुद रबीन्द्रनाथ टैगोर भी लोक गाथा गीत, बाल गीत और मिथकों को इकट्ठा करने निकल पड़े। उन्होंने लोक परंपराओं को पुनर्जीवित करने वाले आंदोलन का नेतृत्व किया।
  • मद्रास में नटेसा शास्त्री ने द फोकलोर्स ऑफ़ सदर्न इंडिया के नाम से तमिल लोक कथाओं का विशाल संकलन चार खंडों में प्रकाशित किया। उनका मानना था कि लोक कथाएँ राष्ट्रीय साहित्य होती हैं यह 'लोगों के असली विचारों और विशिष्टताओं की सबसे विश्वसनीय अभिव्यक्ति' है। जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलन आगे बढ़ा, राष्ट्रवादी नेता लोगों को एकजुट करने और उनमें राष्ट्रवाद की भावना भरने के लिए इस तरह के चिह्नों और प्रतीकों के बारे में और ज्यादा जागरूक होते गए।
  • बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के दौरान एक तिरंगा झंडा (हरा, पीला, लाल) तैयार किया गया। इसमें ब्रिटिश भारत के आठ प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते कमल के आठ फूल और हिंदुओं व मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता एक अर्धचंद्र दर्शाया गया था।
  • 1921 तक गांधीजी ने भी स्वराज का झंडा तैयार कर लिया। था। यह भी तिरंगा (सफ़ेद, हरा और लाल) था। इसके मध्य में गांधीवादी प्रतीक चरखे को जगह दी गई थी जो स्वावलंबन का प्रतीक था। जुलूसों में यह झंडा थामे चलना शासन प्रति अवज्ञा का संकेत था।
  • इतिहास की पुनर्व्याख्या राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने का एक और साधन थी। 19वीं सदी के अंत तक आते-आते बहुत सारे भारतीय यह महसूस करने लगे थे कि राष्ट्र के प्रति गर्व का भाव जगाने के लिए भारतीय इतिहास को अलग ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए।
पहला विश्वयुद्ध, खिलाफत और असहयोग
  • 1919 के पश्चात् राष्ट्रीय आंदोलन नए इलाकों तक फैल गया था, उसमें नए सामाजिक समूह शामिल हो गए थे और संघर्ष की नयी पद्धतियाँ सामने आ रही थीं।
  • विश्वयुद्ध ने एक नयी आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पैदा कर दी थी। इसके कारण रक्षा व्यय में भारी इजाफा हुआ।
  • इस खर्चे की भरपाई करने के लिए युद्ध के नाम पर कर्जे लिए गए और करों में वृद्धि की गई। सीमा शुल्क बढ़ा दिया गया और आयकर शुरू किया गया। युद्ध के दौरान कीमतें तेज़ी से बढ़ रही थीं।
  • 1913 से 1918 के बीच कीमतें दोगुना हो चुकी थीं जिसके कारण आम लोगों की मुश्किलें बढ़ गई थीं। गाँवों में सिपाहियों को जबरन भर्ती किया गया जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में व्यापक गुस्सा था।
  • 1918-19 और 1920-21 में देश के बहुत सारे हिस्सों में फसल खराब हो गई जिसके कारण खाद्य पदार्थों का भारी अभाव पैदा हो गया। उसी समय फ्लू की महामारी फैल गई। 1921 की जनगणना के मुताबिक दुर्भिक्ष और महामारी के कारण 120-130 लाख लोग मारे गए।
सत्याग्रह का विचार
  • महात्मा गांधी जनवरी 1915 में भारत लौटे। इससे पहले वे दक्षिण अफ्रीका में थे। उन्होंने एक नए तरह के जनांदोलन के रास्ते पर चलते हुए वहाँ की नस्लभेदी सरकार से सफलतापूर्वक • लोहा लिया था। इस पद्धति को वे सत्याग्रह कहते थे ।
  • सत्याग्रह के विचार में सत्य की शक्ति पर आग्रह और सत्य की खोज पर ज़ोर दिया जाता था। इस अर्थ यह था कि अगर आपका उद्देश्य सच्चा है, यदि आपका संघर्ष अन्याय के खिलाफ है तो उत्पीड़क से मुक़ाबला करने के लिए आपको • किसी शारीरिक बल की आवश्यकता नहीं है।
  • प्रतिशोध की भावना या आक्रामकता का सहारा लिए बिना सत्याग्रही केवल अहिंसा के सहारे भी अपने संघर्ष में सफल हो सकता है।
  • दमनकारी शत्रु की चेतना को परिवर्तित चाहिए। उत्पीड़क शत्रु को ही नहीं बल्कि सभी लोगों को हिंसा के ज़रिए सत्य को स्वीकार करने पर विवश करने की बजाय सच्चाई को देखने और सहज भाव से स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इस संघर्ष में अंततः सत्य की ही जीत होती है।
  • गांधीजी का विश्वास था की अहिंसा का यह धर्म सभी भारतीयों को एकता के सूत्र में बाँध सकता है।
  • भारत आने के बाद गांधीजी ने कई स्थानों पर सत्याग्रह आंदोलन चलाया। 1916 में उन्होंने बिहार के चंपारन इलाके का दौरा किया और दमनकारी बागान व्यवस्था के खिलाफ किसानों को संघर्ष के लिए प्रेरित किया।
  • 1917 में उन्होंने गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की मदद के लिए सत्याग्रह का आयोजन किया। 1918 में गांधीजी सूती कपड़ा कारखानों के मजदूरों के बीच सत्याग्रह आंदोलन चलाने अहमदाबाद जा पहुँचे।
रॉलेट एक्ट
  • गांधीजी ने 1919 में प्रस्तावित रॉलेट एक्ट (1919) के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह आंदोलन चलाने का फ़ैसला लिया। भारतीय सदस्यों के भारी विरोध के बावजूद इस क़ानून को इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ने बहुत जल्दबाजी में पारित कर दिया था।
  • इस कानून के ज़रिए सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को कुचलने और राजनीतिक कैदियों को दो साल तक बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद रखने का अधिकार मिल गया था।
  • महात्मा गांधी ऐसे अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ अहिंसक ढंग से नागरिक अवज्ञा चाहते थे । इसे 6 अप्रैल को एक हड़ताल से शुरू होना था।
  • अमृतसर में बहुत सारे स्थानीय नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। गांधीजी के दिल्ली में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी गई। 10 अप्रैल को पुलिस ने अमृतसर में एक शांतिपूर्ण जुलूस ने पर गोली चला दी।
  • मार्शल लॉ लागू कर दिया गया और जनरल डायर ने कमान सँभाल ली। 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ। उस दिन अमृतसर में बहुत सारे गाँव वाले सालाना वैसाखी मेले में शिरकत करने के लिए जलियाँवाला बाग मैदान में जमा हुए थे।
  • जनरल डायर हथियारबंद सैनिकों के साथ वहाँ पहुँचा और जाते ही उसने मैदान से बाहर निकलने के सारे रास्तों को बंद कर दिया। इसके बाद उसके सिपाहियों ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चला दीं। सैंकड़ों लोग मारे गए। जैसे-जैसे जलियाँवाला बाग की खबर फैली, उत्तर भारत के बहुत सारे शहरों में लोग सड़कों पर उतरने लगे।
  • महात्मा गांधी पूरे भारत में और भी ज्यादा जनाधार वाला आंदोलन खड़ा करना चाहते थे। लेकिन उनका मानना था कि हिंदू-मुसलमानों को एक-दूसरे के नज़दीक लाए बिना ऐसा कोई आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। उन्हें लगता था कि खिलाफत का मुद्दा उठाकर वे दोनों समुदायों को नज़दीक ला सकते हैं।
  • प्रथम विश्वयुद्ध में ऑटोमन तुर्की की हार हो चुकी थी। इस आशय की अफवाहें फैली हुई थीं कि इस्लामिक विश्व के आध्यात्मिक नेता (ख़लीफ़ा) ऑटोमन सम्राट पर एक बहुत सख्त शांति संधि थोपी जाएगी। ख़लीफ़ा की तात्कालिक शक्तियों की रक्षा के लिए मार्च 1919 में बंबई में एक खिलाफत समिति का गठन किया गया था।
  • सितंबर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भी दूसरे नेताओं को इस बात पर राजी कर लिया कि खिलाफत आंदोलन के समर्थन और स्वराज के लिए एक असहयोग आंदोलन शुरू किया जाना चाहिए।
असहयोग
  • अपनी प्रसिद्ध पुस्तक हिंद स्वराज (1909) में महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग से ही स्थापित हुआ था और यह शासन इसी सहयोग के कारण चल पा रहा है। अगर भारत के लोग अपना सहयोग वापस ले लें तो साल भर के भीतर ब्रिटिश शासन ढह जाएगा और स्वराज की स्थापना हो जाएगी।
  • गांधीजी का सुझाव था कि यह आंदोलन चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ना चाहिए। सबसे पहले लोगों को सरकार द्वारा दी गई पदवियाँ लौटा देनी चाहिए और सरकारी नौकरियों, सेना, पुलिस, अदालतों, विधायी परिषदों, स्कूलों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए। अगर सरकार दमन का रास्ता अपनाती है तो व्यापक सविनय अवज्ञा अभियान भी शुरू किया जाए। 1920 में गांधीजी और शौकत अली आंदोलन के लिए समर्थन जुटाते हुए देश भर में यात्राएँ करते रहे। 
  • कांग्रेस में बहुत सारे लोग इन प्रस्तावों पर सशंकित थे। वे नवंबर 1920 में विधायी परिषद के लिए होने वाले चुनावों का बहिष्कार करने में हिचकिचा रहे थे। उन्हें भय था कि इस आंदोलन में लोग हिंसा कर सकते हैं। सितंबर से दिसंबर तक कांग्रेस में भारी खींचतान चलती रही।
बहिष्कार : किसी के साथ संपर्क रखने और जुड़ने से इनकार करना या गतिविधियों में हिस्सेदारी, चीजों की खरीद व इस्तेमाल से इनकार करना। आमतौर पर यह विरोध का एक रूप होता है।

आंदोलन के भीतर अलग-अलग धाराएँ

  • असहयोग - खिलाफत आंदोलन 1920 में शुरू हुआ। इस आंदोलन में विभिन्न सामाजिक समूहों ने हिस्सा लिया लेकिन प्रत्येक की अपनी-अपनी आकांक्षाएँ थीं। सभी ने स्वराज के आह्वान को स्वीकार तो किया लेकिन उनके लिए उसके अर्थ अलग-अलग थे।
शहरों में आंदोलन
  • आंदोलन की शुरुआत शहरी मध्यवर्ग की हिस्सेदारी के साथ हुई। हज़ारों विद्यार्थियों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए । हेडमास्टरों और शिक्षकों ने इस्तीफे सौंप दिए। वकीलों ने मुक़दमे लड़ना बंद कर दिया। मद्रास के अलावा ज्यादातर प्रांतों में परिषद् चुनावों का बहिष्कार किया गया।
  • मद्रास में गैर-ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई जस्टिस पार्टी का मानना था कि काउंसिल में प्रवेश के ज़रिए उन्हें वे अधिकार मिल सकते हैं जो सामान्य रूप से केवल ब्राह्मणों को मिल पाते हैं इसलिए इस पार्टी ने चुनावों का बहिष्कार नहीं किया।
  • आर्थिक मोर्चे पर असहयोग का असर और भी ज्यादा नाटकीय रहा। विदेशी सामानों का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों की धरना प्रदर्शन की गई, और विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाने लगी। 1921 से 1922 के बीच विदेशी कपड़ों का आयात आधा रह गया था।
  • बहुत सारे स्थानों पर व्यापारियों ने विदेशी चीजों का व्यापार करने या विदेशी व्यापार में पैसा लगाने से इनकार कर दिया। जब बहिष्कार आंदोलन फैला और लोग आयातित कपड़े को छोड़कर केवल भारतीय कपड़े पहनने लगे तो भारतीय कपड़ा मिलों और हथकरघों का उत्पादन भी बढ़ने लगा।
  • कुछ समय बाद शहरों में यह आंदोलन धीमा पड़ने लगा। इसके कई कारण थे। खादी का कपड़ा मिलों में भारी पैमाने पर बनने वाले कपड़ों के मुक़ाबले प्रायः मँहगा होता था और ग़रीब उसे नहीं खरीद सकते थे।
  • आंदोलन की कामयाबी के लिए वैकल्पिक भारतीय संस्थानों की स्थापना ज़रूरी थी ताकि ब्रिटिश संस्थानों के स्थान पर उनका प्रयोग किया जा सके। लेकिन वैकल्पिक संस्थानों की स्थापना की प्रक्रिया बहुत धीमी थी।
ग्रामीण इलाकों में विद्रोह
  • शहरों से बढ़कर असहयोग आंदोलन देहात में भी फैल गया था। युद्ध के बाद देश के विभिन्न भागों में चले किसानों व आदिवासियों के संघर्ष भी इस आंदोलन में समा गए।
  • अवध में संन्यासी बाबा रामचंद्र किसानों का नेतृत्व कर रहे थे। बाबा रामचंद्र इससे पहले फिजी में गिरमिटिया मजदूर के तौर पर काम कर चुके थे। उनका आंदोलन तालुक़दारों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ था जो किसानों से भारी-भरकम लगान और तरह-तरह के कर वसूल कर रहे थे ।
  • किसानों को बेगार करनी पड़ती थी। पट्टेदार के तौर पर उनके पट्टे निश्चित नहीं होते थे। उन्हें बार-बार पट्टे की जमीन से हटा दिया जाता था ताकि जमीन पर उनका कोई अधिकार स्थापित न हो सके।
  • बेगार ख़त्म किसानों की माँग थी कि लगान कम किया जाए, हो और दमनकारी ज़मींदारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए। बहुत सारे स्थानों पर ज़मींदारों को नाई- धोबी की सुविधाओं से भी वंचित करने के लिए पंचायतों ने नाई- धोबी बंद का फैसला लिया।
  • जून 1920 में जवाहर लाल नेहरू ने अवध के गाँवों का दौरा किया, गाँववालों से बातचीत की और उनकी व्यथा समझने का प्रयास किया। अक्टूबर तक जवाहर लाल नेहरू, बाबा रामचंद्र तथा कुछ अन्य लोगों के नेतृत्व में अवध किसान सभा का गठन कर लिया गया।
  • महीने भर में इस पूरे इलाके के गाँवों में संगठन की 300 से ज्यादा शाखाएँ बन चुकी थीं। अगले साल जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो कांग्रेस ने अवध के किसान संघर्ष को इस आंदोलन में शामिल करने का प्रयास किया लेकिन किसानों के आंदोलन में ऐसे स्वरूप विकसित हो चुके थे जिनसे कांग्रेस का नेतृत्व खुश नहीं था।
  • 1921 में जब आंदोलन फैला तो तालुक़दारों और व्यापारियों के मकानों पर हमले होने लगे, बाज़ारों में लूटपाट होने लगी और अनाज के गोदामों पर कब्ज़ा कर लिया गया।
  • आदिवासी किसानों ने महात्मा गांधी के संदेश और स्वराज के विचार का कुछ और ही मतलब निकाला । उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश की गूडेम पहाड़ियों में 1920 के दशक की शुरुआत में एक उग्र गुरिल्ला आंदोलन फैल गया।
  • कांग्रेस इस तरह के संघर्ष को कभी स्वीकार नहीं कर सकती थी। अन्य वन क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अंग्रेजी सरकार ने बड़े-बड़े जंगलों में लोगों के दाखिल होने पर पाबंदी लगा दी थी।
  • जब सरकार ने उन्हें सड़कों के निर्माण के लिए बेगार करने पर मजबूर किया तो लोगों ने बगावत कर दी । उनका नेतृत्व करने वाले अल्लूरी सीताराम राजू एक दिलचस्प व्यक्ति थे।
  • राजू महात्मा गांधी की महानता के गुण गाते थे। उनका कहना था कि वह असहयोग आंदोलन से प्रेरित हैं। उन्होंने लोगों को खादी पहनने तथा शराब छोड़ने के लिए प्रेरित किया। साथ ही उन्होंने यह दावा भी किया कि भारत अहिंसा के बल पर नहीं बल्कि केवल बलप्रयोग के ज़रिए ही आजाद हो सकता है।
  • गूडेम विद्रोहियों ने पुलिस थानों पर हमले किए, ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की कोशिश की और स्वराज प्राप्ति के लिए गुरिल्ला युद्ध चलाते रहे। 1924 में राजू को फाँसी दे दी गई। राजू अपने लोगों के बीच लोकनायक बन चुके ।
बागानों में स्वराज
  • महात्मा गांधी के विचारों और स्वराज की अवधारणा के बारे में मजदूरों की अपनी समझ थी। असम के बागानी मजदूरों के लिए आज़ादी का मतलब यह था कि वे उन चारदीवारियों से जब चाहे आ-जा सकते हैं जिनमें उनको बंद करके रखा गया था। उनके लिए आज़ादी का मतलब था कि वे अपने गाँवों से संपर्क रख पाएँगे।
  • 1859 के 'इनलैंड इमिग्रेशन एक्ट के तहत बागानों में काम करने वाले मजदूरों को बिना इजाज़त बागान से बाहर जाने की छूट नहीं होती थी और यह इजाज़त उन्हें विरले ही कभी मिलती थी। उन्होंने बागान छोड़ दिए और अपने घर को चल दिए। उनको लगता था कि अब गांधी राज आ रहा है इसलिए अब तो हरेक को गाँव में ज़मीन मिल जाएगी। लेकिन वे अपनी मंज़िल पर नहीं पहुँच पाए। रेलवे और स्टीमरों की हड़ताल के कारण वे रास्ते में ही फँसे रह गए।
  • इन स्थानीय आंदोलनों की अपेक्षाओं और दृष्टियों को कांग्रेस के कार्यक्रम में परिभाषित नहीं किया गया था। उन्होंने तो स्वराज शब्द का अपने-अपने हिसाब से अर्थ निकाल लिया था। उनके लिए यह एक ऐसे युग का द्योतक था जब सारे कष्ट और सारी मुसीबतें खत्म हो जाएँगी ।
  • फिर भी, जब आदिवासियों ने गांधीजी के नाम का नारा लगाया और 'स्वतंत्र भारत' की हुंकार भरी वे एक अखिल भारतीय आंदोलन से भी भावनात्मक स्तर पर जुड़े हुए थे।
  • जब वे महात्मा गांधी का नाम लेकर काम करते थे या अपने आंदोलन को कांग्रेस के आंदोलन से जोड़कर देखते थे तो वास्तव में एक ऐसे आंदोलन का अंग बन जाते थे जो उनके इलाके तक ही सीमित नहीं था।
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