पंचायती राज
भारत में 'पंचायती राज' शब्द का अभिप्राय ग्रामीण स्थानीय स्वशासन पद्धति से है। यह भारत के सभी राज्यों में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के निर्माण हेतु राज्य विधानसभाओं द्वारा स्थापित किया गया है।

पंचायती राज
पंचायती राज का विकास
- तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना-गांव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। ये तीनों स्तर आपस में अप्रत्यक्ष चुनाव द्वारा गठन जुड़े होने चाहिये।
- ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा होना चाहिए, जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए।
- सभी योजना और विकास के कार्य इन निकायों को सौंपे जाने चाहिए।
- पंचायत समिति को कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद को सलाहकारी, समन्वयकारी और पर्यवेक्षण निकाय होना चाहिए।
- जिला परिषद का अध्यक्ष, जिलाधिकारी होना चाहिए।
- इन लोकतांत्रिक निकायों में शक्ति तथा उत्तरदायित्व का वास्तविक स्थानांतरण होना चाहिए।
- इन निकायों को पर्याप्त स्रोत मिलने चाहिए ताकि ये अपने कार्यों और जिम्मेदारियों को संपादित करने में समर्थ हो सकें।
- भविष्य में अधिकारों के और अधिक प्रत्यायन के लिए एक पद्धति विकसित की जानी चाहिए।
- त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में बदलना चाहिए। जिला परिषद जिला स्तर पर, और उससे नीचे मंडल पंचायत में 15000 से 20,000 जनसंख्या वाले गांवों के समूह होने चाहिए।
- राज्य स्तर से नीचे लोक निरीक्षण में विकेंद्रीकरण के लिए जिला ही प्रथम बिंदु होना चाहिए।
- जिला परिषद कार्यकारी निकाय होना चाहिए और वह राज्य स्तर पर योजना और विकास के लिए जिम्मेदार बनाया जाए।
- पंचायती चुनावों में सभी स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की आधिकारिक भागीदारी हो।
- अपने आर्थिक स्रोतों के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पास कराधान की अनिवार्य शक्ति हो।
- जिला स्तर के अभिकरण और विधायिकों से बनी समिति द्वारा संस्था का नियमित सामाजिक लेखा परीक्षण होना चाहिए ताकि यह ज्ञात हो सके कि सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सुभेद्य समूहों के लिए आवंटित राशि उन तक पहुंच रही है अथवा नहीं।
- राज्य सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थाओं का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए। आवश्यक अधिक्रमण करने की दशा में अधिक्रमण के छह महीने के भीतर चुनाव हो जाने चाहिए।
- 'न्याय पंचायत' को विकास पंचायत से अलग निकाय के रूप में रखा जाना चाहिए। एक योग्य न्यायाधीश द्वारा इनका सभापतित्व किया जाना चाहिए।
- राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त के परामर्श से पंचायती राज चुनाव कराए जाने चाहिए।
- विकास के कार्य जिला परिषद को स्थानांतरित होने चाहिए और सभी विकास कर्मचारी इसके नियंत्रण और देखरेख में होने चाहिए।
- पंचायती राज के समर्थन में लोगों को प्रेरित करने में स्वैच्छिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका होना चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं के मामलों की देखरेख के लिए राज्य मंत्रिपरिषद में एक मंत्री की नियुक्ति होनी चाहिए।
- उनकी जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए स्थान आरक्षित होना चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए। इससे उन्हें उपयुक्त हैसियत (पवित्रता एवं महत्ता) के साथ ही सतत् सक्रियता का आश्वासन मिलेगा।
- जिला स्तरीय निकाय, अर्थात् जिला परिषद को लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिये। यह कहा गया कि "नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला है तथा जिला परिषद को उन सभी विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए मुख्य निकाय बनाया जाना चाहिये, जो उस स्तर पर संचालित किए जा सकते हैं। "
- जिला एवं स्थानीय स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं को विकास कार्यों के नियोजन, क्रियान्वयन एवं निगरानी में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की जानी चाहिये ।
- प्रभावी जिला नियोजन विकेंद्रीकरण के लिये राज्य स्तर के कुछ नियोजन कार्यों को जिला स्तर पर हस्तांतरित किया जाना चाहिये।
- एक जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन किया जाना चाहिये। इसे जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिए तथा उसे जिला स्तर के सभी विकास विभागों का प्रभारी होना चाहिये।
- पंचायती राज संस्थानों में नियमित निर्वाचन होने चाहिये। यह पाया गया कि ।। राज्यों में एक अथवा अधिक स्तरों के लिए ये चुनाव समय से संपन्न नहीं कराये गए हैं।
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने और उनके संरक्षण की आवश्यकता है। इस कार्य के लिये भारत के संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाये। इससे उनकी पहचान और विश्वसनीयता अनुलंघनीय होने में महत्वपूर्ण मदद मिलेगी। इसने पंचायती राज निकास के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के संवैधानिक उपबंध की सलाह भी दी।
- गांवों के समूह के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना की जाये।
- ग्राम पंचायतों को ज्यादा व्यवहार बनाने के लिए गांवों का पुनर्गठन किया जाना। इसने ग्राम सभा की महत्ता पर भी जोर दिया तथा इसे प्रत्यक्ष लोकतंत्र की मूर्ति बताया।
- गांव की पंचायतों को ज्यादा आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिये।
- पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव, उनके विघटन एवं उनके कार्यों से संबंधित जो भी विवाद उत्पन्न होते हैं, उनके निस्तारण के लिये न्यायिक अधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिये।
- पंचायती राज्य संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्राप्त होनी चाहिए।
- गांव प्रखंड तथा जिला स्तरों पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज |
- जिला परिषद को पंचायती राज व्यवस्था की धुरी होना चाहिए। इसे जिले में योजना निर्माण एवं विकास की ऐजेंसी के रूप में कार्य करना चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं का पांच वर्ष का निश्चित कार्यकाल होनी चाहिए।
- एक संस्था के सुपर सत्र की अधिकतम अवधि छह माह होनी चाहिए।
- राज्य स्तर पर योजना मंत्री की अध्यक्षता में एक योजना निर्माण तथा समन्वय समिति गठित होनी चाहिए।
- पंचायती राज पर केंद्रित विषयों की एक विस्तृत सूची तैयार करनी चाहिए तथा उसे संविधान में समाहित करना चाहिए।
- पंचायती राज के तीनों स्तरों पर जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण होना चाहिए। महिलाओं के लिए भी आरक्षण होनी चाहिए।
- हर राज्य में एक राज्य वित्त आयोग का गठन होना चाहिए। यह आयोग पंचायती राज संस्थाओं को वित्त के वितरण के पात्रता - बिंदु तथा विधियां तय करेगा।
- जिला परिषद का मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी जिले का कलक्टर होगा।
- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।
- गांव, प्रखंड तथा जिला स्तर पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज होना चाहिए।
- पचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पांच वर्ष सुनिश्चित कर दिया जाए।
- पंचायत के सभी तीन स्तरों के सदस्यों का सीधा निर्वाचन होना चाहिए।
- अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षण होना चाहिए।
- पंचायती राज संस्थाओं की यह जिम्मेदारी होगी कि वे पंचायत क्षेत्र के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनाएंगे तथा उन्हें कार्यान्वित करेंगे।
- पंचायती राज संस्थाओं को कर (taxes) तथा (duties) लगाने, वसूलने तथा जमा करने का अधिकार होगा।
- एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना हो जो पंचायतों को वित्त का आवंटन करें
- एक राज्य चुनाव आयोग की स्थापना हो जो पंचायतों के चुनाव संपन्न करवाए।
1992 का 73 वां संशोधन अधिनियम
- राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचित होने के उद्देश्य से संबंधित राज्य में उस समय प्रभावी कानून के अंतर्गत, अथवा
- राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अंतर्गत लेकिन किसी भी व्यक्ति को इस बात पर अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा कि वे 25 वर्ष से कम आयु का है, यदि वह 21 वर्ष की आयु पूरा कर चुका है। अयोग्यता संबंधित सभी प्रश्न, राज्य विधान द्वारा निर्धारित प्राधिकारी को संदर्भित किए जाएंगे।
- आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को तैयार करने से।
- आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के सौंपे जाएं कार्यक्रमों को कार्यान्वित करना, जिसमें 11वीं अनुसूची के 29 मामलों के सूत्र भी सम्मिलित हैं।
- पंचायत को उपयुक्त कर चुंगी, शुल्क लगाने और उनके संग्रहण के लिए प्राधिकृत कर सकता है।
- राज्य विधानमंडल राज्य सरकार द्वारा आरोपित और संगृहीत कर, चुंगी, मार्ग कर और शुल्क पंचायतों को सौंपे जा सकते हैं।
- राज्य की समेकित निधि से पंचायतों को अनुदान सहातया देने के लिए उपबंध करता है।
- निधियों के गठन का उपबंध करेगा, जिसमें पंचायतों को दिया गया सारा धन जमा होगा।
- सिद्धांत जो नियंत्रित करेंगे:
- राज्य सरकार द्वारा लगाए गए कुल करो, चुंगी, मार्ग कर एवं एकत्रित शुल्कों का राज्य और पंचायतों के बंटवारा और सभी स्तरों पर पंचायतों के बीच शेयरों का आवंटन।
- करों, चुंगी, मार्ग कर और शुल्कों का निर्धारण, जो पंचायतों को सौंपे गए हैं।
- राज्य की समेकित निधि कोष से पंचायतों को दी जाने वाली अनुदान सहायता।
- पंचायतों की वित्तीय स्थिति के सुधार के लिए आवश्यक उपाय।
- राज्यपाल द्वारा आयोग को सौंपा जाने वाला कोई भी मामला जो पंचायतों के मजबूत वित्त के लिए हो।
- कृषि, जिसमें कृषि विस्तार सम्मिलित है।
- भूमि विकास, भूमि सुधार लागू करना, भूमि संगठन एवं भूमि संरक्षण।
- लघु सिंचाई, जल प्रबंधन और नदियों के मध्य भूमि विकास।
- पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय तथा मत्स्यपालन।
- मत्स्य उद्योग।
- वन- जीवन तथा कृषि खेती (वनों में)।
- लघु वन उत्पत्ति।
- लघु उद्योग, जिसमें खाद्य उद्योग सम्मिलित है।
- खादी, ग्राम एवं कुटीर उद्योग।
- ग्रामीण विकास
- पीने वाला पानी।
- ईंधन तथा पशु चारा।
- सड़कें, पुलों, तटों, जलमार्ग तथा अन्य संचार के साधन।
- ग्रामीण विद्युत जिसमें विघुत विभाजन समाहित है।
- गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत।
- गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
- प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा संबंधी विधालय |
- यांत्रिक प्रशिक्षण एवं व्यावसायिक शिक्षा
- वयस्क एवं गैर-वयस्क औपचारिक शिक्षा
- पुस्तकालय।
- सांस्कृतिक कार्य।
- बाजार एवं मेले ।
- स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्थाएं जिनमें अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा दवाखाने शामिल हैं।
- पारिवारिक समृद्धि ।
- महिला एवं बाल विकास।
- सामाजिक समृद्धि, जिसमें विकलांग व मानसिक रोगियों की समृद्धि निहित है।
- कमजोर वर्ग की समृद्धि, जिसमें विशेषकर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्ग शामिल हैं।
- लोक विभाजन पद्धति ।
- सार्वजनिक संपत्ति की देखरेख ।
अनिवार्य एवं स्वैच्छिक प्रावधान
- एक गांव या गांवों के समूह में ग्राम सभा का गठन।
- गांव स्तर पर पंचायतों, माध्यमिक स्तर एवं जिला स्तर पर पंचायतों की स्थापना।
- तीनों स्तरों पर सभी सीटों के लिये प्रत्यक्ष चुनाव।
- माध्यमिक और जिला स्तर के प्रमुखों के लिये अप्रत्यक्ष चुनाव।
- पंचायत के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों का मताधिकार ।
- पंचायतों में चुनाव लड़ने के लिये न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिये।
- सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों ( सदस्य एवं प्रमुख दोनों के लिये) के लिये आरक्षण ।
- सभी स्तरों पर ( सदस्य एवं प्रमुख दोनों के लिये) एक5-तिहाई पद महिलाओं के लिये आरक्षित।
- पंचायतों के साथ ही मध्यवर्ती एवं जिला निकायों का कार्यकाल पांच वर्ष होना चाहिये तथा किसी पंचायत का कार्यकाल समाप्त होने के छह माह की अवधि के भीतर नये चुनाव हो जाने चाहिये।
- पंचायती राज संस्थानों में चुनाव कराने के लिये राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना।
- पंचायतों की वित्तीय स्थिति का समीक्षा करने के लिये प्रत्येक पांच वर्ष बाद एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना की जानी चाहिये।
- ग्रामसभा को ग्राम स्तर पर शक्ति एवं प्रकार्यों से युक्त करना।
- ग्राम पंचायत के अध्यक्ष के निर्वाचन के तरीके को निर्धारित करना।
- ग्राम पंचायतों के अध्यक्षों को मध्यवर्ती पंचायतों में प्रतिनिधित्व देना, और जहां मध्यवर्ती पंचायतें नहीं हैं, वहां जिला पंचायतों में प्रतिनिधित्व देना।
- मध्यवर्ती पंचायतों के अध्यक्षों को जिला पंचायतों में प्रतिनिधित्व देना।
- विधानसभाओं एवं संसदीय के निर्वाचन क्षेत्र विशेष के अंतर्गत आने वाली सभी पंचायती राज संस्थाओं में संसद और विधानमण्डल (दोनों सदन) के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना ।
- पंचायत के किसी भी स्तर पर पिछड़े वर्ग के लिये (सदस्य एवं प्रमुख दोनों के लिये) स्थानों का आरक्षण।
- पंचायतें स्थानीय सरकार के रूप में कार्य कर सकें, इस हेतु उन्हें अधिकार एवं शक्तियां देना (संक्षेप में, इन्हें स्वायत्त निकाय बनाने के लिये ) ।
- पंचायतों को सामाजिक न्याय एवं आर्थिक विकास के लिये योजनाएं तैयार करने के लिए शक्तियों और दायित्वों का प्रत्यायन और संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची के 29 कार्यों में से सभी अथवा कुछ को संपन्न करना।
- पंचायतों को वित्तीय अधिकार देना, अर्थात् उन्हें उचित कर, पथकर और शुल्क आदि के आरोपण और संग्रहण के लिए प्राधिकृत करना ।
- राज्य सरकार द्वारा संगृहीत कर, शुल्क, पथकर, फीस आदि के लिए पंचायत को अधिकृत करना।
- राज्य की निधि से पंचायतों को अनुदान सहायता प्रदान करना।
- पंचायतों में निधि का गठन करना, जिसमें पंचायत का धन जमा किया जाए।
1996 का पैसा अधिनियम (विस्तार अधिनियम)
- संविधान के भाग 9 के पंचायतों से जुड़े प्रावधानों को जरूरी संशोधनों के साथ अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तारित करना ।
- जनजातीय जनसंख्या को स्वशासन प्रदान करना।
- सहयात्री लोकतंत्र के तहत ग्राम प्रशासन स्थापित करना तथा ग्राम सभा को सभी गतिविधियों का केन्द्र बनाना।
- पारंपरिक परिपाटियों की सुसंगतता में उपयुक्त प्रशासनिक ढांचा विकसित करना।
- जनजातीय समुदायों की परम्पराओं एवं रिवाजों की सुरक्षा तथा संरक्षण करना।
- जनजातीय लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप उपयुक्त. स्तरों पर पंचायतों को विशिष्ट शक्तियों से युक्त करना ।
- उच्च स्तर पर पंचायतों को निचले स्तर की ग्राम सभा की शक्तियों एवं अधिकारों के छिनने से रोकना।
- अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों पर राज्य विधायन वहां के प्रथागत कानूनों, सामाजिक एवं धार्मिक प्रचलनों तथा सामुदायिक संसाधनों के पारंपरिक प्रबंधन परिपाटियों के अनुरूप होगा।
- एक गाँव के अंतर्गत एक समुदाय का वास स्थल अथवा वास स्थलों का एक समूह अथवा एक टोला अथवा टोलों का समूह होगा, जहाँ वह समुदाय अपनी परंपराओं एवं रिवाजों के अनुसार अपना जीवनयापन कर रहा हो।
- प्रत्येक गाँव में एक ग्राम सभा होगी जिसमें ऐसे लोग होंगे जिनके नाम ग्राम स्तर पर पंचायत के लिए निर्वाचक सूची में दर्ज हों।
- प्रत्येक ग्राम सभा अपने लोगों की परंपराओं एवं प्रथाओं, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधन तथा विवाद निवारण के परंपरागत तरीकों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए सक्षम होगी।
- प्रत्येक ग्राम सभा:
- सामाजिक एवं आर्थिक विकास के कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं को स्वीकृति देगी, इसके पहले कि वे ग्राम स्तरीय पंचायत द्वारा कार्यान्वयन के लिए हाथ में लिए जाएं।
- गरीबी उन्मूलन एवं अन्य कार्यक्रमों के लाभार्थियों की पहचान के लिए जिम्मेदार होगी।
- प्रत्येक पंचायत उपरोक्त योजनाओं, कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं के लिए निधि में उपयोग संबंधी प्रमाण-पत्र ग्राम सभा से प्राप्त करेगी।
- प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित क्षेत्रों में सीटों का आरक्षण उन समुदायों की जनसंख्या के अनुपात में होगा, जिनके लिए संविधान भाग 9 में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। हालांकि अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण कुल सीटों के आधे (one-half) से कम नहीं होगा। इसके अतिरिक्त पंचायतों के हर स्तर पर अध्यक्षों की सभी सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगी।
- जिन अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व मध्यवर्ती स्तर की पंचायत या जिला स्तर की पंचायत में नहीं है उन्हें सरकार द्वारा नामित किया जाएगा। किन्तु नामित सदस्यों की संख्या पंचायत में निर्वाचित कुल सदस्यों की संख्या के 1/10 वें भाग से अधिक नहीं होगी।
- अनुसुचित क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के पहले अथवा अनुसूचित क्षेत्रों में इन परियोजनाओं से प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्स्थापन अथवा पुनर्वास के पहले ग्राम सभा अथवा उपयुक्त स्तर की पंचायत से सलाह की जाएगी। हालांकि परियोजनाओं की आयोजना एवं कार्यान्वयन अनुसूचित क्षेत्रों में राज्य स्तर पर समन्वीकृत किया जाएगा।
- अधिसूचित क्षेत्रों में लघु जल स्रोतों के लिए आयोजना एवं प्रबंधन की जिम्मेदारी उपयुक्त स्तर के पंचायत को दी जाएगी।
- अधिसूचित क्षेत्रों में छोटे स्तर पर खनिजों का खनन संबंधी लाइसेंस अथवा खनन पट्टा प्राप्त करने के लिए ग्राम सभा अथवा उपयुक्त स्तर की पंचायत की अनुशंसा प्राप्त करना अनिवार्य होगा।
- छोटे स्तर पर खनिजों की नीलामी द्वारा दोहन के लिए रियायत प्राप्त करने के लिए ग्राम सभा अथवा उपयुक्त स्तर की पंचायत की पूर्व अनुशंसा अनिवार्य होगी।
- जबकि अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने के लिए अधिभार सम्पन्न बनाया जा रहा है, राज्य विधायिका यह सुनिश्चित करेगी कि उपयुक्त स्तर पर पंचायत तथा ग्राम सभा कोः
- किसी नशीले पदार्थ की बिक्री अथवा उपयोग को रोकने अथवा नियमित करने अथवा प्रतिबंधित करने का अधिकार होगा।
- छोटे स्तर पर वन उपज पर स्वामित्व होगा।
- अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि से अलगाव को रोकने की शक्ति होगी। साथ ही किसी अनुसूचित जनजाति की गैर-कानूनी ढंग से बेदखली के पश्चात् वापस भूमि प्राप्त करने के लिए आवश्यक कार्रवाई का अधिकार होगा।
- ग्रामीण हाट-बाजारों के प्रबंधन की शक्ति होगी।
- अनुसूचित जनजातियों को पैसा उधार देने के मामले में नियंत्रण रखने की शक्ति होगी।
- सभी सामाजिक क्षेत्रों में कार्यरत संस्थाओं एवं पदाधिकारियों पर नियंत्रण रखने की शक्ति होगी।
- स्थानीय आयोजनाओं तथा ऐसी आयोजनाओं, जिनमें जनजातीय उप-आयोजनाएं शामिल हैं, पर नियंत्रण की शक्ति होगी।
- राज्य विधायन के अन्तर्गत ऐसी व्यवस्था होगी जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि उच्च स्तर की पंचायतें निचले स्तर की किसी पंचायत या ग्राम सभा के अधिकारों का हनन अथवा उपयोग नहीं कर रही हैं।
- अनुसूचित क्षेत्रों में जिला स्तर पर प्रशासकीय व्यवस्था बनाते समय राज्य विधायिका संविधान की छठी अनुसूची का अनुसरण करेगी।
- अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों से संबंधित किसी कानून का कोई प्रावधान यदि इस अधिनियम की संगति में नहीं है तो वह राष्ट्रपति द्वारा इस अधिनियम की स्वीकृति प्राप्त होने की तिथि के एक वर्ष की समाप्ति के पश्चात् लागू होने से रह जाएगा। हालांकि उक्त तिथि के तत्काल पहले अस्तित्व में रहीं सभी पंचायतें अपने कार्यकाल की समाप्ति तक चलती रहेंगी बशर्ते कि उन्हें राज्य विधायिका द्वारा पहले ही भंग न कर दिया जाए।
पंचायती राज के वित्तीय स्रोत
- संविधान के चौथे खंड का बड़ा हिस्सा पंचायती राज संस्थाओं के संरचनात्मक सशक्तीकरण के बारे में है। लेकिन स्वायत्तता तथा अपने ऊपर निर्भर संस्थाओं की कार्यकुशलता उनकी वित्तीय स्थिति पर निर्भर करती है। उनके अपने संसाधन जुटाने की क्षमता पर भी निर्भर करती है। साधारणतः हमारे देश में पंचायतें निम्नलिखित तरीकों में राजस्व एकत्र करती हैं:
- संविधान की धारा 280 के आधार पर केंद्रीय वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार केंद्र सरकार से प्राप्त अनुदान ।
- संविधान धारा 243-1 के अनुसार राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।
- राज्य सरकार से प्राप्त कर्ज/ अनुदान
- केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं तथा अतिरिक्त केंद्रीय मदद के नाम पर कार्यक्रम- केंद्रित आवंटन
- आंतरिक (स्थानीय स्तर) पर संसाधन निर्माण (कर तथा गैर-कर ) ।
- देशभर में राज्यों ने पंचायतों के वित्तीय सशक्तीकरण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। पंचायतों के अपने संसाधन अत्यल्प है। करेल, कर्नाटक तथा तमिलनाडु वे राज्य हैं जिन्हें पंचायत सशक्तीकरण के मामले में अग्रणी समझा जाता है। लेकिन वहां भी पंचायतें सरकारी अनुदान पर अत्यधिक निर्भर हैं। इनके बारे में कोई निम्नलिखित निष्कर्ष निकाल सकता है:
- पंचायतें आंतरिक संसाधन जुटाने में कमजोर हैं। यह एक हद तक एक क्षीण कर (कवउंपद) के कारण तो है ही, लेकिन यह पंचायतों के कर-संग्रहण में
- पंचायतें अनुदान के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों पर अत्यधिक निर्भर हैं।
- केंद्र और राज्य सरकारों से प्राप्त अनुदानों का बहुलांश विशेष योजना पर केंद्रित है। पंचायत को सीमित अधिकार है। व्यय के मामले में भी उन्हें सीमित अधिकार हैं।
- राज्यों की गंभीर वित्तीय स्थिति के कारण राज्य सरकारों को पंचायतों को वित्त आवंटित करने में अनिच्छा हो रही है।
- ग्यारहवीं अनुसूची के अहम विषयों प्राथमिक शिक्षा स्वास्थ्य सेवा, जलापूर्ति, स्वच्छता तथा लघु सिंचाई आदि से संबंधित योजनाओं तथा उन पर होने वाले व्यय पर आज भी राज्य सरकारें ही सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं।
- कुल मिलाकर, स्थिति यह है कि पंचायतों के पास जिम्मेदारी बहुत है पर संसाधन बेहद कम ।
- हालांकि केंद्र / राज्य सरकारों द्वारा हस्तांतरित वित्त पंचायत को प्राप्त होने वाली राशि का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है, परंतु पंचायती राज संस्थाओं द्वारा स्वयं द्वारा संगृहीत संसाधन उनके वित्तीय आधार का मूल है। प्रश्न केवल संसाधनों का नहीं है, स्थानीय कर व्यवस्था की मौजूदगी इस चुनी गई संस्था में जन- भागीदारी सुनिश्चित करती है। इससे पंचायती राज संस्था नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनती है।
- अपने संसाधनों के संग्रहण के मामले में, ग्राम पंचायतें तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में हैं क्योंकि उनकी अपनी भी कर व्यवस्था है। जबकि पंचायती राज के दो अन्य स्तर अपने संसाधन जुटाने के मामले में पूरी तरह से टोल करोंए फीस तथा गैर- र-कर राजस्व पर निर्भर है।
- राज्य पंचायती राज अधिनियम ने ग्राम पंचायतों को अधिकांश कराधान के अधिकार दे रखे हैं। माध्यमिक तथा जिला पंचायतों की कर व्यवस्था (कर तथा गैर-कर, दोनों) काफी लघु रखी गई है जो कि द्वितीयक क्षेत्रों में जैसे कि ( ferry services), बाजार, जल तथा संरक्षण सेवाएँ, वाहनों का पंजीकरण, स्टैंप, ड्यूटी पर (cess) तथा अन्य तक सीमित होते हैं।
- कई राज्यों के विधायनों के अध्ययन से संकेत मिलता है कि कई तरह के कर, शुल्क मार्गकर तथा फीस ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। इनमें अन्य चीजों के अलावा चुंगी, संपत्ति/आवास कर, पेशाकार, भूमि करके, वाहनों पर लगने वाले कर/मार्गकर, मनोरंजन कर/पीस, लाइसेन्स फीस गैर-कृषि भूमि पर कर, मवेशी पंजीकरण फीस, स्वच्छता/ जल निवास / संरक्षण कर दे, जल कर, प्रकाश कर, शिक्षा शुल्क तथा मेलों, त्यौहारों पर कर आते हैं।
अप्रभावी निष्पादन के कारण
- पर्याप्त हस्तांतरण का अभाव: अधिकतर राज्यों ने कार्य, फंड तथा कार्यकारियों के हस्तारण के पर्याप्त उपाय नहीं किये हैं ताकि पंचायती राज संस्थाएं अपनी संविधान निर्धारित प्रकार्य संपन्न कर सकें। आगे यह जरूरी है कि पंचायतों के पास अपनी जिम्मेदारियों का पूरा करने लायक संसाधन हों। जहां एक ओर राज्य वित्त आयोगों ने अपनी अनुशंसाएं भेज दी हैं। वहीं दूसरी ओर बहुत कम ही राज्यों ने पंचायती राज संस्थाओं की वित्तीय व्यवहार्यता को सुनिश्चित करने के कदम उठाए।
- नौकरशाही का अत्यधिक नियंत्रण: कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों को अधीनस्थ स्थान दे दिया गया हो इसलिए ग्राम पंचायत के सरपंचों को आश्चर्यजनक रूप में अधिक समय प्रखंड कार्यालयों में फंड और/या तकनीकी अनुमोदन के लिए जाना पड़ता है। प्रखंड कार्यालय के कर्मचारियों के साथ काम करने से चुने गए प्रतिनिधि के रूप में सरपंचों की भूमिका पर आँच आती है।
- फंडों की प्रकृतिः इसके दो निहितार्थ हैं। कुछ परियोजनाओं के अंतर्गत निर्धारित गतिविधियां या कार्य जिले के सभी हिस्सों के लिए अनुकूल नहीं हैं। इसका नतीजा होता हैगैर जरूरी कार्यान्वयन या निधि राशि का अधूरा व्यय ।
- सरकारी निधि पर अत्यधिक निर्भरताः प्राप्त निधि तथा स्व-संगृहीत निधि की समीक्षा से देखा गया है कि पंचायतें सरकारी निधि व्यवस्था पर लगभग पूरी तरह निर्भर हैं। जब संसाधन स्वयं संगृहीत नहीं करतीं, आत्मनिर्भर नहीं होतीं और बाहर से निधि प्राप्त करती हैं तो जनता निधि व्यय के सामाजिक अंकेक्षण के लिए नहीं करेगी।
- वित्तीय अधिकारों के प्रयोग की अनिच्छाः एक महत्वपूर्ण शक्ति जो ग्राम पंचायतों को हस्तांतरित की गई है, वह है- संपत्ति पर कर लगाने की शक्ति, व्यापार, बाजार, मेला और अन्य उपलब्ध सेवाओं के लिए भी कराधान, जैसे-सड़कों पर प्रकाश व्यवस्था, सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था। बहुत कम ही पंचायतें कर लगाने तथा वसूलने के अपने वित्तीय अधिकारों का प्रयोग करती हैं। पंचायतें यह तर्क पेश करती हैं कि जब आप खुद लोगों की बीच रहते हैं तो उनसे कर वसूलना कठिन काम है।
- ग्राम सभा की स्थितिः ग्राम सभाओं का सशक्तीकरण, पारदर्शिता, जवाबदेही तथा वंचित समूहों की भागीदारी के मामले में एक सशक्त प्रभावकारी हथियार है। लेकिन कई राज्यों के एक्ट ग्राम सभाओं के अधिकारों को स्पष्ट नहीं कर पाए हैं, न ही इन सभाओं के प्रकार्यों की निर्दिष्ट कार्यविधियों को स्पष्ट किया गया। अधिकारियों को दंड देने की व्यवस्था के बारे में भी स्पष्टता नहीं है।
- समांतर निकायों का गठनः प्राय: समांतर निकायों को त्वरित कार्यान्वयन तथा बेहतर जवाबदेही की आशा में गठित किया जाता है। हालांकि न के बराबर प्रमाण हैं कि ऐसी समांतर निकायें स्वयं को विकृतियों, यथा- पक्षपाती राजनीति, लूट की बंदरबांट, भ्रष्टाचार तथा संभ्रान्तों द्वारा कब्जे आदि से मुक्त रख पाई हैं। खास-खास अभियान (missions), जो मुख्य-मुख्य कार्यक्रमों या कार्य योजनाओं की अनदेखी कर देते हैं, वर्तमान ढांचे तथा उसके प्रकार्यों और नव-निर्मित ढांचों तथा इसके प्रकार्यों के बीच मेल नहीं बनने देतीं। समांतर निकाय, पंचायती राज संस्थाओं के वैध क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं क्योंकि उनके पास श्रेष्ठतर संसाधन बंदोबस्त होते हैं।
- कमजोर संरचना: देश में अनेकों ग्राम पंचायतों में पूर्णकालिक सचिव नहीं होते। लगभग 25% ग्राम पंचायतों के पास अपने कार्यालय भवन नहीं होते। अनेकों के पास नियोजन, निगरानी आदि के लिए आंकड़े या तथ्य संग्रह नहीं होते।
निर्वाचित पंचायती संस्थाओं के अधिकतर सदस्य अर्द्ध-शिक्षित हैं इसलिए ने अपने भूमिका जिम्मेदारी, कार्ययोजना, कार्यप्रणाली तथा व्यवस्था के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं। प्रायः सक्षम, आवश्यक तथा आवधिक प्रशिक्षण की कमी के कारण अपने प्रकार्यों का सही निष्पादन नहीं करते हैं ।हालांकि सभी जिला-स्तरीय तथा मध्यवर्ती पंचायतें कंप्यूटरों से संपृक्त हैं परंतु केवल 20% ग्रा पंचायतें ऐसी हैं जहां कंप्यूटर पर काम करने की व्यवस्था है। कुछ राज्यों में ग्राम पंचायतों के पास कंप्यूटर की कोई व्यवस्था नहीं है।
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