चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास जीवन परिचय | Chandragupta Maurya History in hindi
प्राचीन भारत के सबसे शक्तिशाली शासकों में इन्हें गिना जाता हैं. 137 वर्षों तक मौर्य वंश ने भारत पर शासन किया. छोटे छोटे राज्यों में बंटे भारत को पहली बार एकजुट कर शासन चलाने का गौरव चन्द्रगुप्त मौर्य को ही मिलता हैं.

सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupta Maurya) अपनी गुरु विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य की सहायता से नंद वंश के अंतिम शासक धनानंद को हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। मगध के राज सिंहासन पर बैठकर चंद्रगुप्त मौर्य ने एक ऐसे साम्राज्य की नीव डाली जो संपूर्ण भारत में फैला था चंद्रगुप्त के विषय में जस्टिन का कथन है की उसने (चंद्रगुप्त ने) छः लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया।
चंद्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी-पश्चिमी भारत को सिकंदर के उत्तराधिकारियों से मुक्त कर नंदो का उन्मूलन कर सेल्यूकस को पराजित कर संघ के लिए विवश कर जिस साम्राज्य की स्थापना की उसकी सीमाएं उत्तर पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्त उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सोपारा तक सुराष्ट्र तक फैली हुई थी महावंश की टीका में उसे शकल जम्बूदीप का शासक कहा गया है।
रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त का साम्राज्य विस्तर पश्चिमी भारत में भी था इसी में चंद्रगुप्त के गवर्नर पुष्यगुप्त का वर्णन है| जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया था महाराष्ट्र के थाने जिले में सोपारा में स्थित अशोक के शिलालेख से यह पता चलता है| की चंद्रगुप्त ने सौराष्ट्र की सीमाओं से परे पश्चिमी भारत की अपनी विजय से कोकण तक विस्तार किया था।
चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी – Chandragupta Maurya in Hindi
चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी | |
जन्म | 340 ईसा पूर्व |
जन्मस्थान | पाटलीपुत्र, बिहार |
मृत्यु | 297 ईसा पूर्व |
मृत्युस्थल | श्रवणबेलगोला, चंद्रागिरी की पहाङियाँ (कर्नाटक) |
माता | मुरा मौर्य |
पिता | सर्वार्थसिद्धि मौर्य |
पत्नी | दुर्धरा व हेलेना |
बेटा | बिंदुसार |
पौत्र | अशोक, विताशोक, सुसिम |
गुरु | आचार्य चाणक्य |
उपलब्धियां | मौर्य साम्राज्य के संस्थापक, अखंड भारत के निर्माता |
शासनकाल | 321 ई.पू. – 297 ई.पू. |
शासनकाल का समय | 23 वर्ष |
जाति | मौर्य |
चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म
इनका जन्म 340 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र (बिहार) में हुआ था।
चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन के बारे में अलग-अलग मत है। कुछ लोगों की मान्यता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य मौर्य शासक के परिवार के थे, ये क्षत्रीय थे।
इनके पिता सर्वार्थसिद्धि मौर्य थे तथा माता मुरा थी।
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त के पिता मौर्य वंश के प्रधान थे। जब चन्द्रगुप्त अपनी माता के गर्भ में था, तभी एक अन्य राजा ने मोरियों पर आक्रमण करके उनके राजा को मार डाला। इस पर चन्द्रगुप्त की विधवा माता सुरक्षित स्थान की खोज में अपने भाई के पास पुष्पपुर (पाटलिपुत्र) चली गई। यहीं चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ। बालक को शत्रुओं की दृष्टि से सुरक्षित रखने के लिए एक गोशाला में छोङ दिया गया, जहाँ एक गोपालक ने उसका पालन-पोषण किया। कुछ समय बाद उस गोपालक ने चन्द्रगुप्त को एक शिकारी के हाथ बेच दिया।
ब्राह्मण साहित्य के अनुसार, ’’चन्द्रगुप्त मौर्य शूद्र थे। मुद्राराक्षस में इनको वृषल (शूद्र) बताया गया है अर्थात् नीच कुल का।
पुराण में चन्द्रगुप्त मौर्य को मुरा नामक स्त्री से उत्पन्न शूद्र बताया गया है।
बौद्ध साहित्य के अनुसार, ’’चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय थे। बौद्ध ग्रंथ ’महावंश’ में इनको क्षत्रिय बताया गया है। ’दिव्यावदान’ में भी क्षत्रिय बताया गया है।
जैन साहित्य के अनुसार, ’’चन्द्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय थे। जैन ग्रंथ ’परिशिष्टपर्वन’ में इनको ’मोरपालक का पुत्र’ बताया गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य शुरूआती जीवन (Early Life) –
चन्द्रगुप्त मौर्य के परिवार की कही भी बहुत सही जानकारी नहीं मिलती है, कहा जाता है वे राजा नंदा व उनकी पत्नी मुरा के बेटे थे. कुछ लोग कहते है वे मौर्य शासक के परिवार के थे, जो क्षत्रीय थे. कहते है चन्द्रगुप्त मौर्य के दादा की दो पत्नियाँ थी, एक से उन्हें 9 बेटे थे, जिन्हें नवनादास कहते थे, दूसरी पत्नी से उन्हें चन्द्रगुप्त मौर्य के पिता बस थे, जिन्हें नंदा कहते थे. नवनादास अपने सौतले भाई से जलते थे, जिसके चलते वे नंदा को मारने की कोशिश करते थे. नंदा के चन्द्रगुप्त मौर्य मिला कर 100 पुत्र थे, जिन्हें नवनादास मार डालते है बस चन्द्रगुप्त मौर्य किसी तरह बच जाते है और मगध के साम्राज्य में रहने लगते है. यही पर उनकी मुलाकात चाणक्य से हुई. इसके बाद से उनका जीवन बदल गया. चाणक्य ने उनके गुणों को पहचाना और तकशिला विद्यालय ले गए, जहाँ वे पढ़ाया करते थे. चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य को अपने अनुसार सारी शिक्षा दी, उन्हें ज्ञानी, बुद्धिमानी, समझदार महापुरुष बनाया, उन्हें एक शासक के सारे गुण सिखाये.
चन्द्रगुप्त मौर्य की पहली पत्नी दुर्धरा थी, जिनसे उन्हें बिंदुसार नाम का बेटा हुआ, इसके अलावा दूसरी पत्नी देवी हेलना थी, जिनसे उन्हें जस्टिन नाम के पुत्र हुआ. कहते है चन्द्रगुप्त मौर्य की दुश्मन से रक्षा करने के लिए आचार्य चाणक्य उन्हें रोज खाने में थोडा थोडा जहर मिलाकर देते थे, जिससे उनके शरीर मे प्रतिरोधक छमता आ जाये और उनके शत्रु उन्हें किसी तरह का जहर न दे पाए. यह खाना चन्द्रगुप्त अपनी पत्नी के साथ दुर्धरा बाटते थे , लेकिन एक दिन उनके शत्रु ने वही जहर ज्यादा मात्रा मे उनके खाने मे मिला दिया, उस समय उनकी पत्नी गर्भवती थी, दुर्धरा इसे सहन नहीं कर पाती है और मर जाती है, लेकिन चाणक्य समय पर पहुँच कर उनके बेटे को बचा लेते है. बिंदुसार को आज भी उनके बेटे अशोका के लिए याद किया जाता है, जो एक महान राजा था.
चंद्रगुप्त मौर्य का वैवाहिक जीवन
धनानंद से युद्ध जीतने के बाद चंद्रगुप्त भारत के राजा बने गए थे और उन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
चंद्रगुप्त मौर्य की दो पत्नियां थी दुर्धरा और हेलेना। इन दोनों की अलग-अलग कहानियां है।
पहली पत्नी – दुर्धरा
धनानंद से युद्ध करने से पहले धनानंद की पुत्री दुर्धरा ने चंद्रगुप्त को देखा। और पहली नजर में ही दुर्धरा को चंद्रगुप्त से मोहब्बत हो गई। चंद्रगुप्त ने धनानंद से युद्ध जीतने के बाद, दुर्धरा को अपनी धर्मपत्नी बना लिया।
दुर्धरा को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम बिंदुसार था। कुछ इतिहासकार यह बताते हैं कि लगभग 2 साल पहले बिंदुसार के जन्म लेने से पहले दुर्धरा को एक और पुत्र की प्राप्ति हुई थी जिसका नाम केशनाक था। और इस बच्चे की मृत्यु, जन्म के कुछ ही घंटों के बाद हो गई थी।
दुर्धरा से उत्पन्न बच्चा बिंदुसार मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। परंतु विधाता की अनहोनी को कौन टाल सकता था? बिंदुसार को जन्म देने के बाद उसकी माता दुर्धरा का देहांत हो गया।
चंद्रगुप्त ने दुर्धरा के चले जाने के बाद वर्षों तक शादी नहीं की। क्योंकि उन्हें दुर्धरा से बहुत ज्यादा मोहब्बत थी।
दूसरी पत्नी – हेलेना
जब सेल्यूकस निकेटर ने भारत पर आक्रमण किया था तब चंद्रगुप्त ने उसे हरा दिया और हराने के बाद आचार्य चाणक्य की शर्तों के मुताबिक सेल्यूकस को अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त से करना था।
इस तरह से चंद्रगुप्त का दूसरा विवाह हुआ और उनकी दूसरी पत्नी का नाम हेलेना था जो कि एक ग्रीक थी।
इतिहासकारों के मुताबिक हेलेना को कोई भी संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी। चंद्रगुप्त ने जब राजकार्य बिंदुसार को सौंप दिया था तब हेलेना अपने मायके चली गई।
और चंद्रगुप्त सन्यासी का रूप धारण करके चंद्रावली की पहाड़ियों में चले गए। इस तथ्य की बात हमने आर्टिकल के अंत में गहराई से बात की है।
चंद्रगुप्त की गुरुदेव चाणक्य से भेंट
जब चंद्रगुप्त एक दिन अपने ग्वाले साथियों के साथ शाही कोर्ट का एक नकली खेल खेल रहा था, तब चाणक्य ने चंद्रगुप्त को दूसरे बच्चों को आदेश देते हुए देखा।
और उस समय चाणक्य ने चंद्रगुप्त को अपना शिष्य बना लिया और उसे तक्षशिला विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाया। उसे शास्त्र, धर्म, वेद, सैन्य कलाओं, अर्थ, कानून इत्यादि का ज्ञान दिया
तक्षशिला के बाद दोनों गुरु और शिष्य पाटलिपुत्र की ओर बढ़ गए। जो उस समय में मगध की राजधानी हुआ करता था वहां वे राजा धनानंद से मिले। तो आचार्य चाणक्य ने धनानंद की बेइज्जती कर दी।
कुछ तथ्य यह कहते हैं कि चंद्रगुप्त ने धनानंद की सेना का कमांडर बनकर विद्रोह कर दिया था। इस घटना के बाद चंद्रगुप्त और चाणक्य दोनों वहां से भाग निकले क्योंकि नंद की सेना उनके पीछे लग चुकी थी।
आचार्य चाणक्य का अपमान और प्रतिशोध की ज्वाला
जब चंद्रगुप्त चाणक्य से नहीं मिले थे उससे पहले चाणक्य मगध के राजा धनानंद के यहां गए हुए थे। वहां पर बहुत सारे लोग और अन्य पंडित आए हुए थे। तो धनानंद ने आचार्य चाणक्य को भरी सभा से बाहर निकाल दिया।
आचार्य चाणक्य के गिरते ही उनकी शिखा (चोटी) खुल गई थी। यह देखते ही आचार्य चाणक्य ने भरी सभा के अंदर शपथ ली और कहा कि धनानंद, मैं तुम्हारे इस राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकूंगा। और जब तक यह नहीं हो जाता तब तक मैं अपनी शिखा नहीं बांधूगा।
आचार्य चाणक्य के इस प्रचंड क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला ने उन्हें एहसास करवाया कि उन्हें एक अच्छे इंसान की जरूरत है जो धनानंद के मरने के बाद राजा बन सके। और अखंड भारत का निर्माण कर सकें जहां पर हर व्यक्ति का मान सम्मान किया जाएगा।
मौर्य साम्राज्य की स्थापना
इतिहास में महान मौर्य साम्राज्य को खड़ा करने और सम्पूर्ण भारत को एक करने का श्रेय कौटिल्य अर्थात चन्द्रगुप्त के गुरु प्रधानमंत्री चाणक्य को ही जाता हैं.
वे एक बुद्धिमान शिक्षक और कूटनीतिज्ञ थे. उस समय की बात है जब अलेक्जेंडर अर्थात् सिकंदर अपने विश्व विजयी अभियान को लेकर भारत की ओर बढ़ रहा था. अब उसका अगला लक्ष्य भारत था.
उधर नंदा राजगद्दी के असली हकदार चन्द्रगुप्त अन्यायपूर्ण तरीके से सत्ता से बेदखल किये जा चुके थे. गुरु चाणक्य ने दोनों जिम्मेदारियां उठाई.
उन्होंने चन्द्रगुप्त को वचन दिया कि वे उन्हें अंखड भारत का सम्राट बनाएगे साथ ही सिकन्दर समेत विदेशी आक्रान्ताओं से भारत भूमि के रक्षा करेगे.
सिकन्दर के भारत आगमन के समय ही उसकी विशाल सेना के आगे अधिकतर छोटे छोटे राज्यों ने समर्पण कर दिया जिनमें मगध भी एक था.
पंजाब के शासक पर्वतेश्वर ने प्रतिकार किया मगर विशाल सेना के सामने उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा. चाणक्य ने कई राज्यों से बात की और साथ मिलकर लड़ने का प्रस्ताव रखा मगर बात न बन सकी.
चन्द्रगुप्त मौर्य की सिकंदर पर जीत (Chandragupta Maurya Fight with Alexander)
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के शुरूआती जीवन और राजगद्दी पाने तक का विवरण इतिहास में अस्पष्ट हैं, इसे कई तरीको से लिखा गया हैं जिसके चलते किसी एक मत को सत्य मानना या दूसरे को नकारना जटिल हैं.
मान्यता यह भी है कि चन्द्रगुप्त ने सिंकदर महान को युद्ध में पराजित किया था तथा वह भारत विजय के अधूरे सपने को लेकर लौट रहा था और काबुल के पास उसकी मृत्यु हो गई.
एक अन्य मत के अनुसार पंजाब के राजा पोरस के साथ चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने मिलकर सिकन्दर की सेना को हराया था. इस मत के समर्थन में काफी स्पष्ट तथ्य है जब सिकन्दर 325-326 ई पू में सिन्धु पार कर रहा था उस समय उसका सहयोग तक्षशिला के राजा अम्भी उसका सहयोगी बना था,
यह राजा पोरस का प्रतिद्वंद्वी था और सिकन्दर का संधि प्रस्ताव लेकर पंजाब भी गया था. कहते है पांच हजार की सेना के साथ गये अम्भी को जान बचाकर लौटना पड़ा था. सम्भवत इस कारण सिकंदर ने वापस लौटने का निश्चय किया हो.
जैसे ही सिकन्दर की मौत का समाचार चाणक्य तक पंहुचा उन्होंने यूनानी सरदारों के खिलाफ भारतीय प्रजा के उभरे विरोध को पुनः जगाया और विरोधियो की सेना का सेनापति चन्द्रगुप्त को बनाकर छोटे छोटे क्षेत्रों को जीतना शुरू कर दिया.
जैसे जैसे उत्तरी पश्चिमी भारत में चन्द्रगुप्त की सेना क्षेत्रों को विजित करती गई उसकी सेना और अधिक शक्तिशाली होती गई. कहते है पोरस की मदद से ही उन्होंने मगध पर आक्रमण किया और म्हापद्मनाभ को पराजित कर मगध की सत्ता हासिल की.
इस तरह तक्षशिला से शुरू हुआ चन्द्रगुप्त का विजय अभियान समूचे उत्तर और पश्चिम भारत को अपने जद में लेता हुआ मगध और सम्पूर्ण पूर्वी भारत एक एकछत्र राज्य स्थापित किया.
सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त मौर्य
25 वर्ष की आयु में मगध के शासक बने चन्द्रगुप्त मौर्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती यूनानियों की थी. भले ही सिकन्दर की मृत्यु हो गई मगर उसका उत्तराधिकारी सेल्यूकस निकोटर अलेक्जेंडर के विजित क्षेत्रों अफगानिस्तान और बलूचिस्तान का प्रतिनिधि बनकर युद्ध लड़ने की तैयारियों में लगा था.
चन्द्रगुप्त ने भी अपनी सेना को युद्ध की तैयारी के आदेश दे दिया. जब दोनों सेनाएं आमने सामने हुई तो सेल्यूकस को भारतीयों की वीरता के बारे में जो पूर्वाग्रह था वह टूट गया.
एक तरह से चन्द्रगुप्त भारतीय सेना का नेतृत्व कर रहे थे, वीरों के साहस के आगे यूनानी अधिक समय तक टिक न सके और तेजी से आगे बढ़ती सेना से सेल्यूकस और उसकी सेना का आत्मविश्वास टूट गया और सेना ने हथियार डाल दिए और संधि के लिए राजी हो गया.
सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त के मध्य 303 ई पू में यह संधि हुई जिसकी शर्तों के अनुसार सेल्यूकस ने हेरात, काबुल, कंधार और मकरान मौर्य सम्राट को दे दिए चन्द्रगुप्त ने भी उपहार स्वरूप 500 हाथी भेंट किये.
यूनानी शासक ने भारत के साथ दीर्घकालीन शांतिपूर्ण रिश्ते के लिए अपनी बेटी हेलन का विवाह चन्द्रगुप्त के संग कर दिया.
चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियाँ
इस विषय में इतिहासकारों में मतभेद है कि चन्द्रगुप्त ने अपने साम्राज्य निर्माण की शुरुआत कहाँ से की। उसने पहले विदेशी यूनानियों को देश से बाहर किया। यह पहले नन्दराजा को परास्त कर मगध के राज्य पर अधिकार प्राप्त किया।
इसका निश्चित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। परन्तु बौद्ध साक्ष्यों एवं यूनानी विवरणों के सूक्ष्म अनुशीलन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रथमत: सीमान्त के छोटे-छोटे राज्यों के डाकू एवं वीर लोंगो को संगठित किया, जिसमें चाणक्य ने उसकी सहायता की।
(1) पंजाब पर विजय
सिकन्दर की मृत्यु (323 ई० पू०) के बाद सिन्ध तथा पंजाब के यूनानी शासक आपस में लड़ने लगे। यूनानियों की शक्ति क्षीण हो गयी। वहाँ स्थानीय जनता स्वन्त्रता के लिये छटपटाने लगी। चन्द्रगुप्त ने इन सभी परिस्थितियोँ का पूरा लाभ उठाया। यूनानी इतिहासकार लेखक जस्टिन के अनुसार, “सिकन्दर के बाद पश्चिमोत्तर भारत ने गुलामी को उतार फेंकने के लिये यूनानी शासकों का वध कर दिया। इस स्वन्त्रता संग्राम का नेता चन्द्रगुप्त था।” अत: 317 ई० पू० तक सिन्ध तथा पंजाब पर चन्द्रगुप्त ने विजय प्राप्त की।
(2) नन्दवंश का विनाश एवं मगध पर अधिकार
पंजाब और सिन्ध के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध को जीता। उसकी मगध विजय का विस्तृत विवरण अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाया है। अभी तक उपलब्ध समस्त भारतीय साक्ष्य यह तो स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि चाणक्य ने नन्दों का विनाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के सिंहासन पर बैठाया, परन्तु वे चन्द्रगुप्त के आक्रमण का ब्यौरा नहीं देते।
जैसा कि हमको मालूम हे कि नन्दों के पास एक विशाल सेना थी, नन्दों को सिंहासन से हटाने के लिये निश्चय ही भयंकर युद्ध लड़ा गया होगा। मुद्राराक्षस नाटक में जिस ढंग से षड्यंत्रों एवं गुप्त मन्त्रणाओँ को महत्व दिया गया, उससे भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस युद्ध में सैनिक शक्ति के साथ-साथ साम, दाम, दण्ड और भेद की कूटनीति की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी। मगध-विजय में चाणक्य का प्रमुख हाथ रहा।
(3) सेल्यूकस की पराजय और ईरान तक राज्य विस्तार
सिकनदर की मृत्यु के बाद उसके साम्राज्य पर अधिकार करने के लिये उसके प्रमुख सेनापतियों सेल्यूकस और एण्टिगोनस के मध्य एक गृह-युद्ध आरम्भ हुआ, जिसमें एक लम्बे युद्ध के बाद सेल्यूकस विजयी हुआ और वह बेबीलोन एवं बैक्ट्रिया सहित सम्पूर्ण एशियाई यूनानी साम्राज्य का अधिपति हो गया। इन क्षेत्रों में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद लगभग 306 ई० पू० में सेल्यूकस ने अपना राज्याभिषेक किया और ‘निकेटर’ (विजेता) की उपाधि धारण की।
इसके बाद उसने भारत विजय की योजना बनायी। इस समय भारत पर चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रभुत्व कायम हो चुका था। चन्द्रगुप्त अभी तक अविजित था और चाणक्य जैसा कूटनीतिज्ञ उसकी शासन व्यवस्था की बागडोर सँभाले हुए था। सेल्यूकस एवं चन्द्रगुप्त में संघर्ष हुआ, जिसमें सेल्यूकस पराजित हुआ। सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त से सन्धि कर ली जिसके अनुसार एरिया (हिरात), अराकोसिया (कंधार), पैरोपेनिसेडाई (काबुल) और जैड्रोसिया (बलूचिस्तान) के प्रदेश चन्द्रगुप्त को देने पड़े।
चन्द्रगुप्त ने इसके बदले में सेल्यूकस को 500 हाथी प्रदान किये। सन्धि को सुदृढ़ और स्थायी बनाने के लिये सेल्यूकस ने बदले में अपनी कन्या हेलना का विवाह भी चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस के राजदूत मेगस्थनीज की उपस्थिति इसी निर्णय का परिणाम थी। निश्चय ही चन्द्रगुप्त की सेल्यूकस पर विजय अपूर्व थी। इसके परिणामस्वरूप भारत की सीमायें ईरान से छूने लगी थी। पशचिमोत्तर इतिहास में पहली बार भारत ने अपनी प्राकृतिक सीमायें प्राप्त कीं और हिन्दूकुश पर्वत तक भारत का साम्राज्य फैल गया था।
(4) पश्चिमी भारत पर विजय
चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत पर विजय प्राप्त की थी, इसमें कोई संशय नहीं है। रुद्रदामन के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रान्तीय शासक पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र में प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। सौराष्ट्र की विजय के परिणामस्वरूप मालवा व उज्जैन पर भी उसका अधिकार हो गया था। मुम्बई के सोपारा नामक स्थान से प्राप्त अशोक के शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोपारा भी चन्द्रगुप्त के अधीन रहा था।
(5) दक्षिण विजय
चन्द्रगुप्त ने अपने शासन के अन्तिम दिनों में दक्षिण भारत पर विजय की थी, किन्तु डॉ० आयंकर दक्षिण विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त को नहीं वरन् बिन्दुसार को देते हैं। इतिहासिक साक्ष्यों जैसे मुद्राराक्षस चन्द्रगिरि अभिलेख, जैन ग्रन्थ तथा प्लूटार्क के विवरण से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर आक्रमण कर उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया था। प्लूटार्क के इस कथन में, “उसने छ: लाख सैनिकों की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को अपने अधीन कर लिया।
” चन्द्रगुप्त की दिग्विजय की ध्वनि सुनायी देती है, क्योंकि यह इतिहासिक सच्चाई है कि अशोक ने सिवाय कलिंग विजय के अलावा अन्य विजय प्राप्त नहीं की और बिन्दुसार की किसी विजय का उल्लेख नहीं मिलता है। जैन साक्ष्यों में भी चन्द्रगुप्त द्वारा अन्तिम दिनों में जैन धर्म स्वीकारने एवं भद्रबाहु के साथ दक्षिण में मैसूर राज्य के ‘श्रवणबेलागोला’ (कर्नाटक) में जाकर रहने के उल्लेख मिलते हैं।
निर्ष्कषत: यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य हिन्दूकुश से लेकर बंगाल तक और हिमालय से लेकर कर्नाटक तक विस्तृत था। इसके अन्तर्गत अफगानिस्तान और बलूचिस्तान के विशाल प्रदेश, पंजाब, सिन्धु, कश्मीर, नेपाल, गंगा-यमुना का दोआब, मगध, बंगाल, सौराष्ट्र, मालवा और दक्षिण भारत में कर्नाटक तक का प्रदेश सम्मिलित था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबन्ध
चन्द्रगुप्त मौर्य एक महान् विजेता ही नहीं वरन् कुशल शासन-प्रबन्धक भी था। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’, यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखित ‘इण्डिकाֹ’ नामक पुस्तक से उसके शासन-प्रबन्ध की विस्तृत जानकारी मिलती है।
केन्द्रीय शासन
सम्राट की शक्ति अपार थी, सर्वोच्च सत्ता उसी में निहित थी। प्रान्तों के शासकों की नियुक्ति वही करता था। शासन की सर्वोच्च शक्तियाँ व्यवस्थापिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका उसी में विद्यमान थीं, परन्तु उसका शासन उदार-नरंकुशवाद पर आधारित था। स्वेच्छाचारी होते हुए भी धर्मशास्त्र नीतिशास्त्र एवं मन्त्रिपरिषद् की भावनों का वह आदर करता था।
- मन्त्रि-परिषद्— राजा को परामर्श देने के लिये एक मन्त्रि-परिषद् थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मन्त्रि-परिषद् में 18 मंत्री होते थे। केन्द्रीय शासन को 27 विभागों में विभक्त किया गया था। प्रत्येक विभाग का एक अलग विभागाध्यक्ष होता था, जिसकी नियुक्ति स्वयं सम्राट करता था। 3-4 प्रमुख अधिकारियों की एक सलाहकार समिति भी होती थी जो ‘मन्त्रिण:’ कहलाती थी। इसमें अमात्य, महासंधिविग्रहक, विदेशमन्त्री, कोषाध्यक्ष, दण्डपालक, आदि थे। प्रत्येक मन्त्रिण का वेतन 48,000 पण होता था।
- न्याय व्यवस्था— किसी भी राज्य की उन्नति एवं स्थायित्व उचित न्याय व्यवस्था पर आधारित होता है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने न्याय व्यवस्था की ओर समुचित ध्यान दिया। गाँवों के मामलों का फैसला ग्राम पंचायतें करती थीं। ग्रामों तथा नगरों के लिये अलग-अलग न्यायलय थे। न्यायलय के दो प्रकार के होते थे— फौजदारी एवं दीवानी। दण्ड व्यवस्था बहुत कठोर थी। आर्थिक दण्ड से लेकर अंग-भंग तथा प्राण दण्ड तक दिये जाते थे। फलत: समाज में अपराध प्राय: समाप्त हो गये। सम्राट सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था।
- सैनिक व्यवस्था— कोई भी राज्य बिना विशाल सेना के टिक नहीं सकता। चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये विशाल सेना का गठन किया। सैनिकों को केन्द्रीय सरकार की ओर से नकद नियमित वेतन मिलता था। मेगस्थनीज व अन्य साक्ष्यों के अनुसार चन्द्रगुप्त की सेना में 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी और 8 हजार रथ थे। सेना के प्रबन्ध के लिये एक सैनिक विभाग होता था, जो 6 समितियों में विभाजित था। ये समितियाँ, जल-सेना, पैदल-सेना, घुड़सवार-सेना, रथसेना, गजसेना तथा यातायात की देखभाल करती थीं और युद्ध सामग्री की व्यवस्था करती थीं। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
- गुप्तचर व्यवस्था— कौटिल्य के अनुसार गुप्तचर राजा के नेत्र होते हैं। राज्य की प्रत्येक घटना की जानकारी के लिये साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल फैला हुआ था। स्त्रियाँ भी गुप्तचर का काम करती थीं। ये गुप्तचर सरकारी कर्मचारियों के कार्यों एवं जनता के विचारों को राजा तक पहुँचाते थे। गुप्तचर दो वर्ग में होते थे— (1) संस्थिल, (2) सथारण। संस्थिल वर्ग के गुप्तचर एक स्थान पर रहते थे और संथारण गुप्तचर भ्रमण किया करते थे।
- अर्थव्यवस्था— चन्द्रगुप्त के राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत ही सुदृढ़ थी। राजकीय आय के अनेक स्रोत थे, परन्तु कृषिकर आय का मुख्य साधन था। उपज का 1/6 भाग कर के रूप में लिया जाता था। बिक्रीकर, जुर्माने, खानों, चरागाहों, जंगलों के कर आदि सभी से राज्य की आय होती थी।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि राज्य करों की आय का अधिकांश भाग जनता के हित के लिये खर्च किया करता था। चिकित्सालय, अनाथालय, विद्यालय, भवनों के निर्माण , वृद्धों एवं किसानों की सहायता, सेना तथा न्याय विभाग का व्यय, राज्य की ओर से किया जाता था। सिंचाई की व्यवस्था भी राजकीय कोष से होती थी।
प्रान्तीय शासन
सम्भवतया शासन की सुविधा के लिये समस्त राज्य को छ: प्रान्तों में विभक्त किया गया था। यह विभाजन निम्न प्रकार से था।—
- उत्तरापथ, इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
- सेल्यूकस से प्राप्त प्रदेश, इसकी राजधानी कपिला थी।
- सौराष्ट्र, इसकी राजधानी गिरनार थी।
- दक्षिणापथ (कर्नाटक), इसकी राजधानी स्वर्णगिरि थी।
- अवन्ति (मालवा) इसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
- मगध एवं निकटवर्ती प्रदेश, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। सम्राट स्वयं यहाँ का शासन चलाता था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का नगर व्यवस्था
मेगस्थनीज के अनुसार राजधानी पाटलिपुत्र बहुत बड़ा नगर था, जिसकी व्यवस्था जनतन्त्रीय प्रणाली से होती थी। सोन व गंगा के तट पर बसा नगर पाटलिपुत्र लगभग 16 किमी लम्बा एवं 3 किमी चौड़ा था। नगर की सुरक्षा के लिये चारों ओर 600 फुट चौड़ी तथा 60 फुट गहरी खाई थी जो शहर की गन्दगी बहाने के भी काम आती थी।
नगर के चारों ओर लकड़ी की प्राचीर थी, जिसमें 570 मीनारें एवं 64 द्वार बने हुए थे। पटना के निकट कुम्हार गाँव में प्राचीन पाटलिपुत्र के अवशेष प्राप्त हुए हैं। सुन्दरता तथा रमणीयता में चन्द्रगुप्त के राजभवन ईरान के राजप्रासादों से भी अधिक सुन्दर थे। पाटलिपुत्र की व्यवस्था के लिये निम्नलिखित छ: समितियाँ कार्य करती थीं—
- शिल्पकला समिति— यह समिति औद्योगिक वस्तुओं की शुद्धता, निरीक्षण, पारिश्रमिक निर्माण तथा शिल्पियों एवं कलाकारों के हितों की रक्षा करती थ। शिल्पी को अपाहिज एवं बेकार करने वाले को राज्य प्राण दण्ड देता था।
- वैदेशिक समिति— यह समिति विदेशी यात्रियों की गतिविधियों का पूरा ध्यान रखती थी। राज्य की ओर से ठहरने की व्यवस्था एवं इनकी सुरक्षा तथा चिकित्सा का प्रबन्ध भी यह समिति ही करती थी। मृत्यु होने पर राजकीय व्यय से अन्त्येष्टि की जाती थी और उसकी सम्पत्ति उनके उत्तराधिकायों को लौटा दी जाती थी।
- जनसंख्या समिति— यह समिति नगर में जन्म-मरण का लेखा-जोखा करती थी। इससे कर निर्धारण में सुविधा रहती थी। यह कार्य आजकल की नगरपालिका भी करती है।
- वाणिज्यिक समिति— इस समिति का काम नाप-तौल की जाँच करना, वस्तुओं के भाव निश्चित करना तथा तौलने के बाँटों का निरन्तर निरीक्षण करना था।
- औद्य़ोगिक समिति— यह समिति कारखानों में तैयार माल की जाँच करना, उसकी बिक्री के लिये बाजार तैयार करना तथा नयी-पुरानी वस्तुओं का अलग-अलग मूल्य निर्धारण का काम करती थी। मिलावट करने वाले को राज्य की ओर से प्राण-दण्ड दिया जाता था।
- कर समिति— वस्तुओं पर विक्रय कर यही समिति लेती थी। मूल्य पर दस प्रतिशत कर लिया जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कर समिति के कार्यों का विशद् वर्णन है। नगर का अधिकारी ‘नागरिक’ कहलाता था। ‘गोप’ और ‘स्थानिक’ उसकी सहायता करते थे। सार्वजनिक कार्यों के लिये सभी समितियाँ मिलकर काम करती थीं।
चन्द्रगुप्त मौर्य का ग्राम प्रशासन
ग्राम, शासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्रामों का शासन पंचायतें चलाती थीं जिनके सदस्यों का चुनाव गाँव के लोग करते थे। इन पंचायतों के प्रमुख ग्रामिक की नियुक्ति राज्य द्वारा की जाती थी। इसको राज्य की ओर से वेतन भी दिया जाता था। ग्राम पंचायतें गाँव के विकास के लिये अपनी योजना बनाती थीं. गाँव में सिंचाई की व्यवस्था करना तथा यातायात प्रबन्ध करना इन्हीं का काम था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का व्यक्तित्व
सम्राट चन्द्रगुप्त महत्वाकांक्षी शासक था। उसका जीवन भी शान-शौकत का था। वह सुन्दर पालकी में बैठता था। केवल चार अवसरों पर ही जनता को राजा के दर्शनों का अवसर मिलता था। ये अवसर थे—युद्ध, यात्रा, यज्ञानुष्ठान और न्यायालय में।
आखेट के समय राजा की सुरक्षा के लिये कड़े प्रबन्ध किये जाते थे। महिला अंगरक्षक रखी जाती थी तथा सुरक्षा की दृष्टि से शयन का कमरा प्रति रात्रि बदला जाता था। राजा अपना अधिकांश समय राजकाज में ही लगाता था। उसे आखेट, घुड़दौड़, पशुओँ की लड़ाई तथा मल्ल-युद्ध देखने का बहुत शौक था।
चंद्रगुप्त ने अपनाई अर्थशास्त्र में लिखी बातें
आचार्य चाणक्य ने शासन को कैसे चलाया जाए, इस पर एक किताब लिखी जिसका नाम अर्थशास्त्र था।
यह किताब निम्नलिखित विषयों पर बातें करती है –
- राज्य में संपन्न लोगों से ही कर लेना और गरीबों को फ्री में खाना देना।
- हर गांव, घर, शहर को किस तरह से बनाया जाए कि शत्रु से बचा जा सके।
- राजा के भवन को किस तरह से बनाया जाए।
- हर एक व्यक्ति को खेती में सम्मिलित किया जाए।
- किसी भी किए गए दुष्कर्म के लिए कठोर सजा सुनाई जाए।
- राजा को किस तरह से अपना समय गुजारना चाहिए।
- जनता के लिए त्योहारों और मेलों का आयोजन करवाया जाए।
- राज्य की सेना व मंत्रियों के घरों में गुप्तचरों को रखा जाए।
- कर एकत्र करने वाले लोगों व जनता के बीच में भी गुप्तचर रखे जाएं।
- राजा के नियमों का अनुसरण न करने वाले व्यक्ति को सजा दी जाए।
- दूसरे देश के राजा की मानसिकता को अपने गुप्त चरो के माध्यम से जाना जाए।
- सरकारी कार्यों में ऑडिट लगाया जाए ताकि भ्रष्टाचारी कम हो।
- राज्य की सीमा पर अपने जासूसों को रखा जाए।
इस पुस्तक में बहुत सारी बातें बताई गई है एक देश को सफल बनाने के लिए। आचार्य चाणक्य ने अपनी कुशाग्र बुद्धि से प्राचीन भारत को एक अर्थ संपन्न देश बना दिया जहां पर हर व्यक्ति का जीवन स्तर अच्छा हो गया था।
आचार्य चाणक्य चंद्रगुप्त की सुरक्षा के लिए बहुत चिंतित रहते थे। तो उन्होंने चंद्रगुप्त के लिए कई महलों व उनमें कई तरह के कक्ष बनाए जहां से चंद्रगुप्त गुप्त तरीकों से आ जा सकते थे।
चंद्रगुप्त के भ्रमण करने के लिए विशेष तरह के बगीचे व वन तैयार किए गए जहां पर दांत टूटे हुए शेर व कुछ बिना हानिकारक जीवो को रखा जाता था। आम लोगों को इन जंगलों व बगीचों में जाने के लिए मनाही की गई थी।
उनके लिए अलग वन व बगीचों का प्रबंध किया गया था। वहां एक आम इंसान भी शिकार व भ्रमण कर सकता था।
आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त के महलों के चारों तरफ गहरी व चौड़ी खाई खुदाई। इन खाइयों के अंदर पानी भर के मगरमच्छों को छोड़ दिया जाता था ताकि शत्रु इनको पार करके अंदर रह ना सके।
एक मजबूत प्राचीन भारत और अर्थव्यवस्था
चंद्रगुप्त ने आचार्य चाणक्य नीति के अनुसार राज्य में लोगों को अर्थ संपन्न बना दिया। अब आम व्यक्ति का जीवन स्तर ऊंचा हो चुका था क्योंकि हर एक इंसान कमाई कर रहा था और टैक्स भर रहा था।
राज्य में एकत्रित हुआ टैक्स का पैसा लोगों की आधारभूत सुविधाओं जैसे कि पानी, सिंचाई, व्यापार, कृषि, आवागमन के साधनों, सड़कों पर खर्च किया जाता।
देश में शिक्षा, शास्त्र इत्यादि पर भी बहुत ज्यादा जोर दिया गया और तक्षशिला विश्वविद्यालय को उभार गया। जिससे बाहरी देशों के विद्यार्थी भी यहां पढ़ने आते। क्योंकि अब देश में शांति और अच्छी तरह के नियम आ गए थे जिसकी वजह से दूसरे देश के विद्यार्थियों का विश्वास बढ़ा।
चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्म की ओर झुकाव व म्रत्यु (Death) –
चन्द्रगुप्त मौर्य जब 50 साल के थे, तब उनका झुकाव जैन धर्म की तरफ हुआ, उनके गुरु भी जैन धर्म के थे जिनका नाम भद्रबाहु था. 298 BCE में उन्होंने अपना साम्राज्य बेटे बिंदुसरा को देकर कर्नाटक चले गए, जहाँ उन्होंने 5 हफ़्तों तक बिना खाए पिए ध्यान किया, जिसे संथारा कहते है. ये तब तक करते है जब तक आप मर ना जाओ. यही चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्राण त्याग दिए.
चन्द्रगुप्त मौर्य के जाने के बाद उनके बेटे ने साम्राज्य आगे बढाया, जिनका साथ चाणक्य ने दिया. चन्द्रगुप्त मौर्य व चाणक्य ने मिल कर अपनी सूझबूझ से इतना बड़ा एम्पायर खड़ा किया था. वे कई बार हारे भी, लेकिन वे अपनी हार से भी कुछ सीखकर आगे बढ़ते थे. चाणक्य कूटनीति के चलते ही चन्द्रगुप्त मौर्य ने इतना बड़ा एम्पायर खड़ा किया था, जिसे आगे जाकर उनके पोते अशोका ने एक नए मुकाम पर पहुँचाया था.
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here