General Competition | Geography | भारत की भूगर्भिक संरचना
भारतीय भूगर्भिक संरचना का विकास पैंजिया के अंगारालैंड (लॉरेंशिया) तथा गोंडवानालैंड के विभाजन से प्रारंभ होता है।

General Competition | Geography | भारत की भूगर्भिक संरचना
- पैंजिया और पैंथालासा : आज से करोड़ों वर्ष पूर्व विश्व के सभी महादेश अर्थात् सभी स्थलखण्ड आपस में एक-दूसरे के साथ सटे हुए थे। इस स्थलखण्ड को अल्फ्रेड वेगनर ने पैंजिया नाम दिया। पैंजिया के चारों तरफ जो जलीय / सागरीय / महासागरीय भाग था उसे पैंथालासा नाम दिया गया।
- भारतीय भूगर्भिक संरचना का विकास पैंजिया के अंगारालैंड (लॉरेंशिया) तथा गोंडवानालैंड के विभाजन से प्रारंभ होता है।
पैंजिया का विभाजन तथा विभिन्न स्थलखंडों का निर्माण
अंगारालैंड ( लॉरेंशिया ) : यूरोप, एशिया, उत्तरी अमेरिका, ग्रीनलैंड | गोंडवानालैंड : प्रायद्वीपीय भारत, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, मेडागास्कर |
भारत के भूगर्भिक संरचनाओं का समय मापक्रम
- समय के विभिन्न कालखंडों में गोंडवानालैंड के विभाजन तथा उसके एक भाग के उत्तर में प्रवाह के कारण भारतीय भूगर्भिक संरचना का विकास हुआ।
- किसी भी देश की भूगर्भिक संरचना के द्वारा, उस देश की विभिन्न भागों में मिलने वाली चट्टानों की प्रकृति एवं उसके स्वरूप की जानकारी प्राप्त होती हैं। भूगर्भिक संरचना की दृष्टि से भारत को तीन स्पष्ट भागों में विभाजित किया जा सकता है-
- दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार
- उत्तर की विशाल पर्वतमाला
- उत्तर भारत का विशाल मैदानी भाग
दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार
- यह गोंडवानालैंड का ही एक भाग है। प्री-कैम्ब्रियन काल के बाद से ही यह भाग कभी भी पूर्णत: समुद्र में नहीं डूबा। यह आर्कियन युग के आग्नेय चट्टानों से निर्मित है जो अब नीस व सिस्ट के रूप में अत्यधिक रूपांतरित हो चुकी हैं । प्रायद्वीपीय भारत की संरचना में चट्टानों के निम्न क्रम मिलते हैं-
- आर्कियन क्रम की चट्टानें: ये प्राचीनतम एवं प्राथमिक चट्टानें हैं जो नीस व सिस्ट के रूप में रूपांतरित हो चुकी हैं। बुंदेलखंड नीस व बेल्लारी नीस इनमें सबसे प्राचीन हैं। बंगाल नीस व नीलगिरि नीस भी इन्हीं चट्टानों के उदाहरण हैं। इनमें जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं।
- धारवाड़ क्रम की चट्टानें : ये आर्कियन क्रम की प्राथमिक चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से निर्मित परतदार चट्टानें हैं। ये अत्यधिक रूपांतरित हो चुकी हैं एवं इसमें जीवाश्म नहीं मिलते। कर्नाटक के धारवाड़ एवं बेल्लारी जिला, अराबली श्रेणियाँ, बालाघाट, रीवा, छोटानागपुर आदि क्षेत्रों में ये चट्टानें मिलती हैं। भारत की सर्वाधिक खनिज भंडार इसी क्रम के चट्टानों में मिलते हैं। लौह-अयस्क, तांबा और स्वर्ण इन चट्टानों में पाये जाने वाले महत्वपूर्ण खनिज हैं।
- कुड़प्पा क्रम की चट्टानें : इनका निर्माण धारबाड़ क्रम की चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से हुआ है। इस प्रकार ये भी परतदार चट्टानें हैं, जो अपेक्षाकृत कम रूपांतरित हैं परन्तु इनमें भी जीवाश्मों का अभाव मिलता हैं। कृष्णा घाटी, नल्लामलाई पहाड़ी क्षेत्र, पापाघानी व चेयार घाटी आदि में ये चट्टानें मिलती हैं।
- विंध्य क्रम की चट्टानें : कुडप्पा क्रम की चट्टानों के बाद ये चट्टानें निर्मित हुई हैं। इनका विस्तार राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से बिहार के सासाराम क्षेत्र तक है। विंध्य क्रम के परतदार चट्टानों में बलुआ पत्थर मिलते हैं। इन चट्टानों का एक बड़ा भाग दक्कन ट्रैप से ढँका है।
- गोंडवाना क्रम की चट्टानें : ऊपरी कार्बोनीफेरस युग से लेकर जुरैसिक युग तक इन चट्टानों का निर्माण अधिक हुआ है। ये चट्टानें कोयले के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। भारत का 98% कोयला गोंडवाना क्रम की चट्टानों में मिलता है। ये परतदार चट्टानें हैं एवं इनमें मछलियों व रेंगनेवाले जीवों के अवशेष मिलते हैं। दामोदर, महानदी, गोदावरी व उसकी सहायक नदियों में इन चट्टानों का सर्वोत्तम रूप मिलता है।
- दक्कन ट्रैप : इसका निर्माण मेसोजोइक महाकल्प के क्रिटैशियस कल्प में हुआ था। इस समय विदर्भ क्षेत्र में ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन से लावा का वृहद उद्गार हुआ वं लगभग : वर्ग किमी. का क्षेत्र इससे आच्छादित हो गया। ला इस क्षेत्र में 600 से 1500 मी. एवं कहीं-कहीं तो 3000 मी. की मोटाई तक बेसाल्टिक लावा का जमाव मिलता है। यह प्रदेश दकन ट्रैप कहलाता है। राजमहल ट्रैप का निर्माण इससे भी पहले जुरैसिक कल्प में हो गया था ।
उत्तर की विशाल पर्वतमाला
भारत के उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत का निर्माण एक लम्बे भू-गर्भिक ऐतिहासिक काल से गुजरकर सम्पन्न हुआ है। इसके निर्माण के संबंध में कोबर का भू-सन्नति सिद्धान्त (Geo- Syncine Theory) एवं मोर्गन और आइजैक का प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत सर्वाधिक मान्य हैं। कोबर ने भू-सन्नतियों को पर्वतों का पालना (Cradle of Mountains) कहा है। ये भूसन्नतियाँ लंबे, संकरे व छिछले जलीय भाग है। उनके अनुसार आज से 7 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय के स्थान पर टेथिस (Tethys) भू-सन्नति थी जो उत्तर के अंगारालैंड को दक्षिण के गोंडवानालैंड से पृथक करती इन दोनों भूमि के अवसाद टेथिस भू-सन्नति में क्रमिक रूप से जमा होते रहे एवं इन अवसादों का क्रमशः अवतलन होता रहा, जिसके परिणामस्वरूप दोनों संलग्न अग्रभूमियों में दबाव जनित भू-संचलन उत्पन्न हुआ जिससे क्युनलुन एवं हिमालय - काराकोरम श्रेणियों का निर्माण हुआ। वलन से अप्रभावित या अल्प प्रभावित मध्यवर्ती क्षेत्र तिब्बत का के नाम से जाना गया।
वर्तमान में मोर्गन और आइजैक के द्वारा प्रतिपादित प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत हिमालय की उत्पत्ति की उपयुक्त व्याख्या करता है। इसके अनुसार लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट उत्तर-- - पूर्वी दिशा में स्थित यूरेशियन प्लेट की ओर गतिशील हुई। दो से तीन करोड़ वर्ष पूर्व ये भू-भाग अत्यधिक निकट आ गए, जिनसे टेथिस के अवसादों में वलन पड़ने लगा एवं हिमालय का उत्थान प्रारम्भ हो गया। सेनोजोइक महाकल्प के इयोसीन व ओलीगोसीन कल्प में वृहद हिमालय का निर्माण हुआ, मायोसीन कल्प में पोटवार क्षेत्र के अवसादों के वलन से लघु हिमालय बना। शिवालिक का निर्माण इन दोनों श्रेणियों के द्वारा लाए गए. अवसादों के वलन से प्लायोसीन कल्प में हुआ । क्वार्टरनरी अर्थात् नियोजोइक महाकल्प के प्लीस्टोसीन व होलोसीन कल्प में भी इसका निर्माण होता रहा है। हिमालय एक युवा पर्वत हैं, जिसका उत्थान अभी भी जारी है। हिमालय के क्षेत्र में आने वाले वाले भूकम्प, हिमालयी नदियों के निरन्तर होते मार्ग परिवर्तन एवं पीरपंजाल श्रेणी में 1500 से 1850 मीटर की ऊँचाई पर मिलने वाले झील निक्षेप करेवा हिमालय के उत्थान के अभी भी जारी रहने की ओर संकेत करते हैं।
उत्तर भारत का विशाल मैदानी भाग
- इनका निर्माण क्वार्टनरी या नियोजोइक महाकल्प के प्लीस्टोसीन एवं होलोसीन कल्प में हुआ है। यह भारत की नवीनतम भूगर्भिक संरचना है। टेथिस भू-सन्नति के निरन्तर संकरा व छिछला होने एवं हिमालयी व दक्षिणी भारतीय नदियों द्वारा लाए गए अवसादों के जमाव से यह मैदानी भाग निर्मित हुआ है। इसके पुराने जलोढ़ बांगर एवं नए जलोढ खादर कहलाते हैं। इस मैदानी भाग में प्राचीन वन प्रदेशों के दब जाने से कोयला और पेट्रोलियम के क्षेत्र मिलते हैं।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उत्तर
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