जनजाति
संथाल
महत्वपूर्ण बातें
> यह झारखण्ड की सर्वाधिक जनसंख्या (35 प्रतिशत) वाली जनजाति है।
> जनजातियों की कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत 35%* है।
> यह भारत की तीसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। (प्रथम भील तथा दूसरी गोंड )
> झारखण्ड आने से पूर्व इनका निवास प. बंगाल में था, जहाँ इन्हें 'साओतार' कहा जाता है।
> इनका सर्वाधिक संकेन्द्रण झारखण्ड के उत्तर- पूर्वी क्षेत्र में है जिसके कारण इस क्षेत्र को संथाल परगना कहा जाता है।
> संथाल परगना के अतिरिक्त हजारीबाग, बोकारो, चतरा, राँची, गिरिडीह, सिंहभूम, धनबाद, लातेहार तथा पलामू में भी यह जनजाति पायी जाती है।
> राजमहल पहाड़ी क्षेत्र में इनके निवास स्थान को 'दामिन-ए - कोह' कहा जाता है।
> संथाल जनजाति का संबंध प्रोटो-आस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है।
> प्रजातीय और भाषायी दृष्टि से संथाल जनजाति ऑस्ट्रो एशियाटिक समूह से साम्यता रखती है।
> यह जनजाति बसे हुए किसानों के समूह से संबंधित है।
> लुगु बुरू को संथालों का संस्थापक पिता माना जाता है।
> संथालों की प्रमुख भाषा संथाली है जिसे 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। इसके लिए संसद में 92वाँ संविधान संशोधन, 2003 पारित किया गया था।
> संथाली भाषा की लिपि 'ओलचिकी' है, जिसका आविष्कार रघुनाथ मुर्मू द्वारा किया गया था।
> समाज एवं संस्कृति
> संथालों को चार हडों (वर्ण/वर्ग) में विभाजित किया जाता है :
1. किस्कू हड (राजा)
2. मुरमू हड (पुजारी)
3. सोरेन हड (सिपाही)
4. मरूडी हड (कृषक)
> संथाल जनजाति में 12 गोत्र (किली) पाया जाता है। इन 12 गोत्रों के उप- गोत्रों (खूट) की कुल संख्या 144 है।
> संथाल एक अंतर्जातीय विवाही समूह है तथा इनके मध्य सगोत्रीय विवाह निषिद्ध होता है।
> संथाल जनजाति में बाल विवाह की प्रथा का प्रचलन नहीं है।
> संथाल जनजाति में विभिन्न प्रकार के विवाहों (बापला) का प्रचलन है
> किरिंग बापला – मध्यस्थ के माध्यम से विवाह तय होता है।
> गोलाइटी बापला – गोलट विवाह
> टुनकी दिपिल बापला गरीब परिवारों में प्रचलित कन्या को वर के घर लाकर सिंदूर दान करके
विवाह ।
> धरदी जांवाय बापला पड़ता है। विवाह के बाद दामाद को घर जंवाई बनके रहना पड़ता है।
> अपगिर बापला - लड़का-लड़की में प्रेम हो जाने के बाद पंचायत की सहमति से विवाह ।
> इतुत बापला पसंद के लड़के से विवाह की अनुमति नहीं मिलने पर लड़के द्वारा किसी अवसर पर लड़की को सिंदूर लगाकर विवाह । बाद में लड़की के घरवालों द्वारा स्वीकृति दे दी जाती है ।
> निर्बोलक बापला - लड़की द्वारा हठपूर्वक पसंद के लड़के के घर रहना तथा बाद में पंयाचत के माध्यम से विवाह ।
> बहादुर बापला लड़का-लड़की द्वारा जंगल में भागकर प्रेम विवाह |
> राजा-राजी बापला बापला गाँव की स्वीकृति से प्रेम विवाह ।
> सांगा बापला बापला - विधवा / तलाकशुदा स्त्री का विधुर/ परित्यक्त पुरूष से विवाह
> किरिंग जवाय बापला लड़की द्वारा शादी से पहले गर्भधारण कर लेने के बाद इच्छुक व्यक्ति से लड़की का विवाह ।
> किरिंग बाला सर्वाधिक प्रचलित विवाह है जिसके अंतर्गत माता-पिता द्वारा मध्यस्थ के माध्यम से विवाह तय किया जाता है।
> संथालों में विवाह के समय वर पक्ष द्वारा वधु पक्ष को वधु मूल्य दिया जाता है, जिसे पोन कहते हैं ।
> संथाल समाज में सर्वाधिक कठोर सजा बिटलाहा है। यह सजा तब दी जाती है जब कोई व्यक्ति निषिद्ध यौन संबंधों का दोषी पाया जाता है। यह एक प्रकार का सामाजिक बहिष्कार है।
> सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण:
युवागृह – घोटुल
विवाह – बापला
वधु मूल्य – पोन
गाँव – आतों
ग्राम प्रधान – माँझी
उप-ग्राम प्रधान – प्रानीक/प्रमाणिक
माँझी का सहायक – जोगमाँझी
गाँव का संदेशवाहक – गुड़ैत/गोड़ाइ
> ग्राम प्रधान अर्थात् माँझी के पास प्रशासनिक एवं न्यायिक अधिकार होते हैं।
> माँझीथान में संथाल गाँव की पंचायतें बैठती हैं।
> इस जनजाति में महिलाओं का माँझीथान में जाना वर्जित होता है।
> आषाढ़ माह में संथालों के त्योहार की शुरूआत होती है।
> बा - परब ( सरहुल), करमा, ऐरोक * ( (आषाढ़ माह में बीज बोते समय), बंधना, हरियाड (सावन माह में धान की हरियाली आने पर अच्छी फसल हेतु), जापाड, सोहराई (कार्तिक अमावस्या को पशुओं के सम्मान में), सकरात (पूस माह घर-परिवार की कुशलता हेतु), भागसिम (माघ माह में गांव के ओहदेदार को आगामी वर्ष हेतु ओहदे की स्वीकृति देने हेतु), बाहा (फागुन माह में शुद्ध जल से खेली जाने वाली होली) आदि संथालों के प्रमुख त्योहार हैं।
> संथाल जनजाति के लोग चित्रकारी के कार्य में अत्यंत निपुण होते हैं।
> संथाल जनजाति के लोग बुनाई के कार्य में अत्यंत कुशल होते हैं।
> इस जनजाति में एक विशेष चित्रकला पद्धति प्रचलित है, जिसे 'कॉम्ब-कट चित्रकला' (Comb-Cut Painting) कहा जाता है। इस चित्रकारी में विभिन्न प्रकार के बर्तनों का चित्र बनाया जाता है ।
> इस जनजाति में गोदना गोदवाने का प्रचलन पाया जाता है। पुरूषों के बांये हाथ पर सामान्यतः सिक्का का चित्र होता है तथा बिना सिक्का के चित्र वाले पुरूष के साथ कोई लड़की विवाह करना पसंद नहीं करती है ।
> इस जनजाति में माह को 'बोंगा' के नाम से जाता है तथा 'माग बोंगा' माह से वर्ष की शुरूआत मानी जाती है।
> आर्थिक व्यवस्था
> संथाल मूलतः खेतिहर हैं जिनका रूपान्तरण कृषकों के रूप में हो रहा है।
> संथाल चावल से बनने वाले शराब (स्थानीय मदिरा) का सेवन करते हैं जिसे 'हड़िया' * या 'पोचाई' कहा जाता है ।
> धार्मिक व्यवस्था
> संथालों का प्रधान देवता सिंगबोंगा या ठाकुर है जो सृष्टि का रचयिता माना जाता है।
> संथालों का दूसरा प्रमुख देवता मरांग बुरू है।
> संथालों का प्रधान ग्राम देवता जाहेर - एरा है जिसका निवास स्थान जाहेर थान (सखुआ या महुआ के पेड़ों के झुरमुट के बीच स्थित) कहलाता है।
> संथालों के गृह देवता को ओड़ाक बोंगा कहते हैं।
> संथाल गाँव के धार्मिक प्रधान को नायके कहा जाता है।
> जादू – टोने के मामले में संथाली स्त्रियाँ विशेषज्ञ मानी जाती हैं।
> संथालों में शव को जलाने तथा दफनाने दोनों प्रकार की प्रथा प्रचलित है।
> जनजाति
> उराँव
> महत्वपूर्ण बातें
> यह झारखण्ड की दूसरी तथा भारत की चौथी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है।
> जनजातियों की कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत 18.14%* है।
> इनका सर्वाधिक संकेंद्रण दक्षिणी छोटानागपुर एवं पलामू प्रमण्डल में है। झारखण्ड में 90% उराँव जनजाति का निवास इसी क्षेत्र में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त संथाल परगना, उत्तरी छोटानागपुर तथा कोल्हान प्रमण्डल में इनका निवास है।
> ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार उराँव जनाजाति का मूल निवास स्थान दक्कन माना जाता है।
> उराँव स्वयं को कुडुख कहते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ 'मनुष्य' है। उराँव कुडुख भाषा बोलते हैं। यह द्रविड़ परिवार की भाषा है।
> प्रजातीय एवं भाषायी दोनों विशेषताओं के आधार पर इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है।
> यह झारखण्ड की सबसे शिक्षित एवं जागरूक जनजाति है। यही कारण है कि झारखण्ड की जनजातियों में सर्वाधिक विकास उराँव जनजाति का हुआ है।
> समाज एवं संस्कृति
> उराँव जनजाति का प्रथम वैज्ञानिक अध्ययन शरच्चंद्र राय ने किया तथा इनके अनुसार उराँव जनजाति में 68 गोत्र पाये जाते हैं।
> उराँव जनजाति को मुख्यतः 14 गोत्रों (किली) में विभाजित किया जाता है।
> उराँव जनजाति के प्रमुख गोत्र एवं उनके प्रतीक
> इनमें गोदना (Tatoo) प्रथा प्रचलित है। महिलाओं में गोदना को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है।
> उराँव जनजाति में समगोत्रीय विवाह निषिद्ध है।
> इस जनजाति में आयोजित विवाह सर्वाधिक प्रचलित है जिसमें वर पक्ष को वधु मूल्य देना पड़ता है।
> इस जनजाति में सेवा विवाह की प्रथा प्रचलित है जिसके अंतर्गत भावी वर कुछ समय तक भावी वधु के परिवार की सेवा करता है।
> इस जनजाति में विधवा विवाह का भी प्रचलन है।
> इस जनजाति में एक ही गाँव के लड़का-लड़की के बीच शादी नहीं किया जाता है।
> इस जनजाति में आपस में नाता स्थापित करने हेतु सहिया का चुनाव किया जाता है, जिसे 'सहियारो' कहा जाता है। प्रत्येक तीन वर्षों की धनकटनी के बाद 'सहिया चयन समारोह का आयोजन किया जाता है।
> इस जनजाति में आपसी मित्रता की जाती है। लड़कियाँ इस प्रकार बने मित्र को 'गोई' या 'करमडार' तथा लड़के 'लार' या 'संगी' कहते हैं। विवाह के उपरांत लड़कों की पत्नियाँ आपस में एक-दूसरे को 'लारिन' या 'संगिनी' बुलाती हैं। इस जनजाति में परिवार की संपत्ति पर केवल पुरुषों का अधिकार होता है।
> सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण:
युवागृह – घुमकुरिया
ग्राम प्रधान – महतो (मुखिया)
पंचायत – पंचोरा
नाच का मैदान – अखाड़ा
> इस जनजाति में त्योहार के समय पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र केरया तथा महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र खनरिया कहलाता है।
> उराँव जनजाति पितृसत्तात्मक तथा पितृवंशीय है।
> उराँव जनजाति के प्रमुख नृत्य को 'यदुर' * कहते हैं।
> उराँव जनजाति के लोग प्रत्येक वर्ष वैशाख में विसू सेंदरा, फागुन में फागु सेंदरा तथा वर्षा ऋतु के प्रारंभ होने पर जेठ शिकार करते हैं। उराँवों द्वारा किए जाने वाले अनौपचारिक शिकार को दौराहा शिकार कहा जाता है।
> उराँव इस जनजाति का प्रमुख त्योहार करमा (भादो माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को) सरहुल, खद्दी (चैत माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को), जतरा (जेठ, अगहन व कार्तिक माह में धर्मेश देवता के सम्मान में), सोहराय (कार्तिक अमावस्या को पशुओं के सम्मान में), फागु पर्व (फागुन माह में होली के समरूप) आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> यह जनजाति स्थायी कृषक बन गयी है।
> प्रारंभ में छोटानागपुर क्षेत्र में आने के बाद उराँव जनजाति ने जंगलों को साफ करके कृषि कार्य करना प्रारंभ किया। ऐसे उरांवों को 'भुइँहर' कहा गया था इनकी भूमि को ‘भुइँहर भूमि' व गाँव को 'भुईहर गाँव' कहा गया। बाद में आने वाले उराँवों को 'रैयत' या 'जेठ रैयत' कहा गया।
> उरांवों में ‘पसरी’ नामक एक विशेष प्रथा पायी जिसके जाती है जिसके अंतर्गत -बैल देकर आपस में मेहनत का विनिमय किया जाता है या किसी को हलउससे खेत को जोतने व कोड़ने में सहायता ली जाती है।
> इस जनजाति का प्रमुख भोजन चावल, जंगली पक्षी तथा फल है।
> यह जनजाति बंदर का मांस नहीं खाती है।
> हड़िया इनका प्रिय पेय है।
> धार्मिक व्यवस्था
> उराँव जनजाति का प्रमुख देवता धर्मेश या धर्मी है जिन्हें जीवन तथा प्रकाश देने में सूर्य के समान माना जाता है।
> इस जनजाति के अन्य प्रमुख दवी-देवता हैं:
मरांग बुरू – पहाड़ देवता
ठाकुर देव – ग्राम देवता
डीहवार – सीमांत देवता
पूर्वजात्मा – कुल देवता
> इस जनजाति में फसल की रोपनी के समय 'भेलवा पूजा' तथा गाँव के कल्याण के लिए वर्ष में एक बार 'गोरेया पूजा' का आयोजन किया जाता है।
> उराँव गाँव का धार्मिक प्रधान पाहन तथा उसका सहयोगी पुजार कहलाता है।
> उराँव का मुख्य पूजा स्थल सरना कहलाता है।
> इनके पूर्वजों की आत्मा के निवास स्थान को सासन कहते हैं।
> इस जनजाति में जनवरी में 'हड़बोरा' संस्कार का आयोजन किया जाता है जिसमें साल भर में मरे गोत्र के सभी लोगों की हड्डियों को नदी में निक्षेपित किया जाता है। इसे ‘गोत्र-खुदी' कहा जाता है।
> मान्यता है कि हड़बोरा संस्कार के बाद उनकी आत्मा पूर्वजों की आत्मा से मिलती है, जिसे ‘कोहाबेंजा' कहा जाता है।
> उराँव तांत्रिक एवं जादुई विद्या में विश्वास करते हैं।
> इस जनजाति में जादू-टोना करने वाले व्यक्ति को माटी कहा जाता है।
> उराँव जनजाति में शवों का सामान्यतः दाह संस्कार किया जाता है।
> इसाई उराँव के शव को अनिवार्यतः दफनाया जाता है तथा इनके सभी क्रिया-कर्म इसाई परंपरा के अनुसार किये जाते हैं।
> घुमकुरिया
> घुमकुरिया एक युवागृह है जिसमें युवक-युवतियों को जनजातीय रीति-रिवाजों एवं परंपराओं का प्रशिक्षण दिया जाता है।
> इसमें 10-11 वर्ष की आयु में प्रवेश मिलता है तथा विवाह होते ही इसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है।
> घुमकुरिया में प्रायः सरहुल के समय 3 वर्ष में एक बार प्रवेश मिलता है। इसके लिए एक दीक्षा समारोह का आयोजन किया जाता है।
> घुमकुरिया में प्रवेश करने वाले सदस्यों की तीन श्रेणियाँ होती हैं- पूना जोखर (प्रवेश करने वाले नये सदस्य), माँझ जोखर (3 वर्ष बाद) तथा कोहा
जोखर ।
> इसमें युवकों के लिए जोख-एड़पा तथा युवतियों के लिए पेल-एड़पा नामक अलग-अलग प्रबंध होता है। जोंख का अर्थ कुँवारा होता है।
> जोंख एड़पा को धांगर कुड़िया भी कहा जाता है जिसके मुखिया को धांगर या महतो कहते हैं। इसके सहायक को कोतवार कहा जाता है।
> पेल-एड़पा की देखभाल करने वाली महिला को बड़की धांगरिन कहा जाता है।
> घुमकुरिया के अधिकारियों को 3 वर्ष पर बदल दिया जाता है। इसके लिए 'मुखिया हंडी' (हड़िया पीना) नामक एक समारोह का आयोजन किया जाता है।
> जनजाति
> मुण्डा
> महत्वपूर्ण बातें
> इस जनजाति को कोल के नाम से भी जाना जाता है।
> मुण्डा झारखण्ड की तीसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है।
> जनजातियों की कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत 14.56%* है।
> मुण्डा शब्द का सामान्य अर्थ विशिष्ट व्यक्ति तथा विशिष्ट अर्थ गाँव का राजनीतिक प्रमुख होता है।
> मुण्डा जनजाति का संबंध प्रोटो-आस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है।
> मुण्डा लोग मुण्डारी भाषा का प्रयोग करते हैं तथा भाषायी विशेषताओं के आधार पर इनका संबंध ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से है।
> मुण्डा स्वयं को होड़ोको तथा अपनी भाषा को होड़ो जगर कहते हैं।
> मुण्डा जनजाति परंपरागत रूप से एक जगह से दूसरी जगह पर प्रवास करती रही है। आर्यों के आक्रमण के बाद यह जनजाति आजिमगढ़ (आजमगढ़, उत्तर प्रदेश) में बस गई। कालांतर में मुंडा जनजाति का प्रवास कालंजर, गढ़चित्र, गढ़- नगरवार, गढ़-धारवाड़, गढ़-पाली, गढ़ - पिपरा, मांडर पहर, बिजनागढ़, हरदिनागढ़, लकनौगढ़, नंदनगढ़ (बेतिया, बिहार), रिजगढ़ (राजगीर, बिहार ) * तथा रूईदासगढ़ में होता रहा है। रूईदासगढ़ से यह जनजाति दक्षिण की तरफ प्रवासित हुई तथा ओमेडंडा (बुरमु, झारखण्ड) में आकर बस गयी।
> झारखण्ड में इस जनजाति का आगमन लगभग 600 ई. पू. हुआ।
> झारखण्ड में मुण्डा जनजाति का सर्वाधिक संक्रेंदण राँची जिला में है। इसके अतिरिक्त यह जनजाति गुमला, सिमडेगा, प० सिंहभूम तथा सरायकेला-खरसावा में भी निवास करती है।
> तमाड़ क्षेत्र में रहने वाले मुण्डाओं को तमाड़ी मुण्डा या पातर मुण्डा कहा जाता है।
> यह जनजाति केवल झारखण्ड में ही पायी जाती है। वर्तमान समय में संचार साधनों के विकास के कारण यह जनजाति झारखण्ड से संलग्न राज्यों में भी कमोबेश संख्या में निवास करती हैं।
> मुण्डाओं द्वारा निर्मित भूमि को 'खूँटकट्टी भूमि' कहा जाता है।
> इनकी प्रशासनिक व्यवस्था में खूँट का आशय परिवार से है
> यह जनजाति मूलतः झारखण्ड में ही पायी जाती है।
> समाज एवं संस्कृति
> सामाजिक स्तरीकरण की दृष्टि से मुण्डा समाज ठाकुर, मानकी, मुण्डा, बाबू भंडारी एवं पातर में विभक्त है।
> मुण्डा जनजाति में सगोत्रीय विवाह वर्जित है।
> मुण्डाओं में विवाह का सर्वाधिक प्रचलित रूप आयोजित विवाह है।
> विवाह के अन्य रूप निम्न हैं:-
राजी खुशी विवाह – वर-वधु की इच्छा सर्वोपरि।
हरण विवाह – पसंद की लड़की का हरण करके विवाह ।
सेवा विवाह – ससुर के घर सेवा द्वारा वधु मूल्य चुकाया जाना
हठ विवाह – वधु द्वारा विवाह होने तक वर के यहाँ बलात् प्रवेश करके रहना।
> सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण:
युवागृह – गितिओड़ा
विवाह–अरण्डी
विधवा विवाह–सगाई
वधु मूल्य–गोनोंग टका (कुरी गोनोंग)
ग्राम प्रधान–मुण्डा
ग्राम पंचायत–हातू
ग्राम पंचायत प्रधान–हातू मुण्डा
कई गाँवों से मिलकर बनी पंचायत–परहा/पड़हा
पंचायत स्थल– अखड़ा
पड़हा पंचायत प्रधान–मानकी
वंशकुल– खूंट
> यदि स्त्री तलाक देती है तो उसे वधु मूल्य ( गोनोंग टाका) लौटाना पड़ता है।
> इस जनजाति में तलाक को साकमचारी के नाम से जाना जाता है।
> अधिकांश मुण्डा परिवारों में एकल परिवार पाया जाता है।
> मुण्डा परिवार पितृसत्तात्मक तथा पितृवंशीय होता है।
> इस जनजाति में वंशकुल की परंपरा को खूँट के नाम से जाना जाता है।
> इस जनजाति में गोत्र को कीली * के नाम से जाना जाता है।
> रिजले द्वारा मुण्डा जनजाति के 340 गोत्र बताये गये हैं।
> मुण्डा जनजाति के प्रमुख गोत्र एवं उनके प्रतीक
> सोमा सिंह मुण्डा ने मुण्डा जनजाति को 13 उपशाखाओं में विभाजित किया है जिसमें महली मुण्डा तथा कंपाट मुण्डा सर्वप्रमुख हैं।
> सोसो बोंगा (यह एक प्रकार का बैलेट) मुण्डा जनजाति की प्रसिद्ध लोककथा है जो इनकी परंपरा एवं विकासक्रम पर प्रकाश डालता है।
> इस जनजाति में महिलाओं द्वारा धान की बुआई करना, महिलाओं के छप्पर कर चढ़ना तथा महिलाओं का दाह संस्कार में भाग लेने हेतु श्मशान घाट जाना वर्जित होता है।
> इस जनजाति में गांव की बेटियों द्वारा सरहुल का प्रसाद ग्रहण करना वर्जित है।
> इस जनजाति में पुरूषों द्वारा धारण किये जाने वाले वस्त्र को बटोई या केरवा तथा महिला द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र को परेया कहा जाता है।
> इस जनजाति के प्रमुख पर्व सरहुल / बा पर्व (चैत माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को बसंतोत्सव के रूप में), करमा ( भादो माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को), सोहराई (कार्तिक अमावस्या को पशुओं के सम्मान में), रोआपुना (धान बुआई के समय), बतौली (आषाढ़ में खेत जुताई से पूर्व छोटा सरहुल के रूप में) बुरू पर्व ( दिसंबर माह में मनाया जाता है) *, मागे पर्व, फागु पर्व (होली के समरूप), जतरा, जोमनवा आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> मुण्डा कृषि व पशुपालन करते हैं ।
> पशु पूजा हेतु आयोजित त्योहार को सोहराय * कहा जाता है।
> मुण्डा सभी अनुष्ठानों में हड़िया एवं रान का प्रयोग करते हैं।
> आर्थिक उपयोगिता के आधार पर इनकी भूमि तीन प्रकार की होती है:–
पंकु–हमेशा उपज देने वाली भूमि
नागरा–औसत उपज वाली भूमि
खिरसी–बालू युक्त भूमि
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति का सर्वप्रमुख देवता सिंगबोंगा (सूर्य का प्रतिरूप) है।सिंगबोंगा पर मुण्डाओं द्वारा सफेद रंग के फूल, सफेद भोग पदार्थ या सफेद की ब चढ़ाने का प्रचलन है।
> इनके अन्य प्रमुख देवी-देवता
हातू बोंगा–ग्राम देवता
देशाउली–गाँव की सबसे बड़ी देवी
खूँटहँकार/ओड़ा बोंगा–कुल देवता
इकिर बोंगा– जल देवता
बुरु बोंगा–पहाड़ देवता
> मुण्डा पूजास्थल को सरना कहते हैं।
> मुण्डा गाँव का धार्मिक प्रधान पाहन कहलाता है जिसका सहायक पुजार/ पनभरा होता है।
> इस जनजाति में ग्रामीण पुजारी को डेहरी कहा जाता है।
> मुण्डा तांत्रिक एवं जादुई विद्या में विश्वास करते हैं तथा झाड़-फूंक करने वाले को देवड़ा कहा जाता है।
> मुण्डा समाज में शवों को जलाने तथा दफनाने दोनों प्रकार की प्रथाएँ विद्यमान हैं। परन्तु दफनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है।
> जिस स्थान पर मुण्डा जनजाति के पूर्वजों की हड्डिया दबी होती हैं, उसे सासन कहा जाता है।
> सासन में पूर्वज / मृतक की स्मृति में शिलाखण्ड रखा जाता है जिसे सासन दिरि या हड़गड़ी कहा जाता है।
> जनजाति
> हो
> महत्वपूर्ण बातें
> यह झारखण्ड की चौथी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है।
> हो जनजाति का संबंध प्रोटो-आस्ट्रेलायड समूह से है।
> इस जनजाति का सर्वाधिक संकेन्द्रण कोल्हान प्रमण्डल में है।
> हो जनजाति की भाषा का नाम भी हो है जो मुण्डारी (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) परिवार की है।
> हो जनजाति द्वारा अपनी भाषा हेतु 'बारङचित्ति' नामक लिपि का विकास किया गया है। इस लिपि का आविष्कार 'लाको बोदरा' द्वारा किया गया है।
> समाज एवं संस्कृति
> हो समाज पूर्व में मातृसत्तात्मक था जो अब पितृसत्तात्मक हो गया है।
> इस जनजाति में किली (गोत्र) के आधार पर परिवार का गठन होता है।
> हो जनजाति 80 से अधिक गोत्रों में विभक्त है।
> हो जनजाति में सगोत्रीय विवाह निषिद्ध है।
> हो जनजाति में ममेरे भाई तथा बहन से शादी को प्राथमिकता दी जाती है।
> हो जनजाति में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित है।
> इस जनजाति में आदि विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है। आदि विवाह में वर विवाह का प्रस्ताव लेकर स्वयं किसी परिचित के माध्यम से वधु के घर जाता है। विवाह के अन्य रूप हैं:
> दिक्कू आदि विवाह– हिन्दू प्रभाव तथा हिन्दू बहुल गाँवो में रह रहे परिवारों में प्रचलित
> अंडी / ओपोरतीपि विवाह– वर द्वारा कन्या का हरण करके विवाह
> राजी-खुशी विवाह– वर-कन्या की मर्जी से विवाह
> आदेर विवाह– वधु द्वारा विवाह होने तक वर के यहाँ बलात् प्रवेश करके रहना
> सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण:
युवागृह–गोतिआरा
गोनोंग/गोनोम या पोन–वधु मूल्य
गाँव के बीच में बसा अखरा–एटे तुरतुड
ग्राम प्रधान–मुण्डा
मुण्डा का सहायक–डाकुआ
सात से बारह गाँवों का समूह– पीर / पड़हा
पड़हा का प्रधान– मानकी
पड़हा का न्यायिक प्रधान– पीरपंच
> मुंडा-मानकी प्रशासन हो जनजाति की पारंपरिक जातीय शासन प्रणाली है जिसमें लघु प्रजातंत्र की झलक देखने को मिलती है।
> इस जनजाति में महिलाओं का हल एवं तीर-धनुष को चलाना व छूना वर्जित है।
> सामान्यत: हो जनजाति के लोगों की मूंछ एवं दाढ़ी नहीं होती है।
> इस जनजाति के प्रिय एवं पवित्र पेय पदार्थ को 'इली' कहा जाता है, जिसका प्रयोग देवी-देवताओं पर चढ़ाने हेतु भी किया जाता है।
> इस जनजाति के प्रमुख पर्व माघे, बाहा, उमुरी, होरो, जोमनना, कोलोम आदि हैं। इनमें से अधिकांश पर्व का संबंध कृषि कार्य से है।
> आर्थिक व्यवस्था
> हो जनजाति का मुख्य पेशा कृषि है।
> इस जनजाति में भूमि की तीन श्रेणियाँ हैं
> बेड़ो - निम्न एवं उपजाऊ भूमि "
> वादी – धान की खेती की जाने वाली भूमि
> गोड़ा - मोटे अनाज की खेती हेतु कम उपजाऊ भूमि मद्यपान इनका प्रिय शौक है।
> धार्मिक व्यवस्था
> हो जनजाति का सर्वप्रमुख देवता सिंगबोंगा है।
> अन्य प्रमुख देवी-देवता हैं:–
> पाहुई बोंगा –नागे देवता
> ओटी बोड़ोम–पृथ्वी देवता
> मरांग बुरू–पहाड़ देवता
> ग्राम देवता–नाग देवता
> दसाउली बोंगा–वर्षा देवता
> इस जनजाति की रसोईघर के एक कोने में पूर्वजों का पवित्र स्थान होता है जिसे 'अदिग' कहा जाता है।
> दिउरी (पुरोहित) धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करवाता है।
> हो लोग भूत-प्रेत, जादू-टोना आदि में विश्वास करते हैं।
> इस जनजाति में शवों को जलाने तथा दफनाने दोनों की प्रथाएँ विद्यमान हैं।
> जनजाति
> खरवार / खेरवार
> महत्वपूर्ण बातें
> यह झारखण्ड की पाँचवी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है।
> इनका मुख्य संकेंद्रण पलामू प्रमण्डल में है। इसके अलावा हजारीबाग, चतरा, रांची, लोहरदगा, संथाल परगना तथा सिंहभूम में भी खरवार जनजाति पायी जाती है।
> खेरीझार से आने के कारण इनका नामकरण खेरवार हुआ।
> पलामू एवं लातेहार जिला में इस जनजाति को 'अठारह हजारी' भी कहा जात है तथा ये स्वयं को सूर्यवंशी राजपूत हरिशचन्द्र रोहिताश्व का वंशज मानते हैं।
> यह एक बहादुर मार्शल (लड़ाकू) जनजाति है।
> सत्य बोलने के अपने गुण के कारण इस जनजाति की विशेष पहचान है। यह जनजाति सत्य हेतु अपना सभी कुछ बलिदान करने के लिए प्रसिद्ध है।
> खरवार जनजाति का संबंध द्रविड़ प्रजाति समूह से है।
> इस जनजाति की भाषा खेरवारी है जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से संबंधित है।
> समाज एवं संस्कृति
> संडर के अनुसार खरवार की छः प्रमुख उपजातियाँ हैं- मझिया, गंझू, दौलतबंदी, घटबंदी, सूर्यवंशी तथा खेरी।
> खरवारों में सामाजिक स्तर का मुख्य निर्धारक तत्व भू-संपदा है।
> खरवारों में घुमकुरिया (युवा गृह) जैसी संस्था नहीं पायी जाती है।
> इस जनजाति का परिवार पितृसत्तात्मक तथा पितृवंशीय होता है।
> खरवार जनजाति में बाल विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है।
> सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण:
विधवा पुनर्विवाह– सगाई
ग्राम पंचायत– बैठकी
ग्राम पंचायत प्रमुख– मुखिया या बैगा
चार गाँव की पंचायत– चट्टी
पांच गाँव की पंचायत– पचौरा
सात गाँव की पंचायत– सतौरा
> इस जनजाति के पुरूष सदस्य सामान्यतः घुटने तक धोती, बंडी एवं सिर पर पगड़ी पहनते हैं तथा महिलाएँ साड़ी पहनती हैं।
> इस जनजाति के प्रमुख पर्व सरहुल, करमा, नवाखानी सोहराई, जितिया, दुर्गापूजा, दीपावली, रामनवमी, फागू आदि हैं।
> इस जनजाति में सुबह के खाना को 'लुकमा', दोपहर के भोजन को 'बियारी' तथा रात के खाने को 'कलेबा ' कहा जाता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> खरवार जनजाति का मुख्य पेशा कृषि है।
> इनका परंपरागत पेशा खैर वृक्ष से कत्था बनाना था।
> धार्मिक व्यवस्था
> खरवार जनजाति के सर्वप्रमुख देवता सिंगबोंगा हैं।
> खरवार जनजाति में पाहन या बैगा (धार्मिक प्रधान) की सहायता से बलि चढ़ाई जाती है।
> घोर संकट या बीमारी के समय यह जनजाति ओझा या मति की सहायता लेती है। इस जनजाति में जादू-टोना करने वाले व्यक्ति को माटी कहा जाता है।
> जनजाति
> खड़िया
> महत्वपूर्ण बातें
> खड़खड़िया (पालकी) ढोने के कारण इस जनजाति का नाम खड़िया पड़ा।
> यह जनजाति प्रोटो-आस्ट्रेलायड समूह से संबंधित है।
> इस जनजाति की भाषा का नाम भी खड़िया है जो मुण्डारी (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) समूह की भाषा है।
> झारखण्ड में इनका मुख्य निवास गुमला, सिमडेगा, राँची, लातेहार, सिंहभूम और हजारीबाग में है।
> झारखण्ड से बाहर यह जनजाति उड़ीसा, मध्य प्रदेश, असम एवं बंगाल में पायी जाती है।
> समाज एवं संस्कृति
> यह जनजाति तीन वर्गों में विभाजित है- पहाड़ी खड़िया सर्वाधिक पिछड़े, लकी खड़िया तथा दूध खड़िया
> आर्थिक संपन्नता के आधार पर इनका क्रम (अधिक संपन्नता से कम संपन्न) इस प्रकार है- दूध खड़िया ढेलकी खड़िया → पहाड़ी खड़िया
> इन तीनों वर्गों में आपस में विवाह नहीं होता है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'गिनिंग तह' कहा जाता है।
> खड़िया परिवार पितृसत्तात्मक तथा पितृवंशीय होता है।
> खड़िया समाज में बहुविवाह प्रचलित है।
> इस जनजाति में सर्वाधिक प्रचलित विवाह का रूप ओलोलदाय है जिसे असल विवाह भी कहा जाता है।
> विवाह के अन्य रूप हैं:
उधरा-उधारी–सह पलायन विवाह
ढुकु चोलकी–अनाहूत विवाह
तापा या तनिला–अपहरण विवाह
राजी खुशी–प्रेम विवाह
सगाई–विधवा / विधुर विवाह
> सामाजिक व्यवस्था से संबंधित विभिन्न नामकरण:
युवागृह– गितिओ
ग्राम प्रधान– महतो
ग्राम प्रधान का सहायक–नेगी
संदेशवाहक–गेड़ा
जातीय पंचायत–धीरा
जातीय पंचायत प्रमुख–ददिया
> खड़िया जनजाति के प्रमुख पर्व जकोर (बसंतोत्सव के रूप में), बंदई (कार्तिक पूर्णिमा को), करमा, कदलेटा, बंगारी, जोओडेम (नवाखानी), जिमतङ (गोशाला पूजा), गिडिड पूजा, पोनोमोसोर पूजा, भडनदा पूजा, दोरहो डुबोओ पूजा, पितरू पूजा आदि हैं।
> इस जनजाति में सभी लोगों द्वारा 'फागु शिकार' मनाते हैं तथा इस अवसर पर ‘पाट’ और ‘बोराम' की पूजा की जाती है तथा सरना में बलि चढ़ाई जाती है। यह जनजाति बीजारोपण के समय 'बा बिडि', नया अन्न ग्रहण करने से पूर्व ‘नयोदेम' या ‘धाननुआ खिया' पर्व मनाते हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> यह जनजाति कृषि कार्य तथा शिकार द्वारा अपना जीवन यापन करते हैं।
> पहाड़ी खड़िया आदिम तरीके से जीवन यापन करते हैं।
> इनका प्रमुख भोजन चावल है।
> इस जनजाति में फागो पर्व * के द्वारा इनकी आर्थिक स्थिति का पता लगाया
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता बेला भगवान या ठाकुर हैं जो सूर्य का प्रतिरूप हैं।
> अन्य प्रमुख देवी-देवता हैं
> पारदूबो – पहाड़ देवता
> बोराम – वन देवता
> गुमी – सरना देवी
> इस जनजाति के लोग अपनी भाषा में भगवान को गिरिंग बेरी या धर्मराजा कहते हैं।
> इस जनजाति का धार्मिक प्रधान कालो या पाहन कहलाता है।
> पहाड़ी खड़िया का धार्मिक प्रधान दिहुरी व ढेलकी तथा दूध खड़िया का धार्मिक प्रधान पाहन कहलाता है।
> इस जनजाति में धर्म व जादुगरी का विशेष महत्व है।
> जनजाति
> लोहरा/लोहारा
> महत्वपूर्ण बातें
> इस जनजाति की प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रेलायड है।
> ये असुर के वंशज माने जाते हैं ।
> झारखण्ड में इस जनजाति का निवास राँची, गुमला, सिमडेगा, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां, पलामू व संथाल परगना क्षेत्र में है।
> इनकी भाषा सदानी है ।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति के सात गोत्र (सोन, साठ, तुतली, तिर्की, धान, मगहिया एवं कछुआ) हैं।
> इनकी सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक तथा पितृवंशीय है।
> इनके प्रमुख त्योहार विश्वकर्मा पूजा, सोहराय, फगुआ आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा लौह उपकरण बनाना है। ये मुख्यतः कृषि संबंधी उपकरण बनाते हैं।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सिंगबोंगा तथा धरती माई हैं।
> जनजाति
> भूमिज
> महत्वपूर्ण बातें
> झारखण्ड के हजारीबाग, राँची व धनबाद जिलों में इनका सर्वाधिक संकेन्द्रण पाया जाता है।
> इस जनजाति की प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रेलायड है।
> इनको 'धनबाद के सरदार' के नाम से भी जाना जाता है।
> घने जंगलों में रहने के कारण भुगल काल में भूमिज को चुहाड़ उपनाम से जाना जाता था।
> इनकी भाषा मुण्डारी (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) है तथा इनकी भाषा पर बांग्ला व सदानी भाषा का प्रभाव है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति का समाज पितृसत्तात्मक होता है।
> इस जनजाति में कुल चार गोत्र (पत्ती, जेयोला, गुल्गु, हेम्ब्रोम) पाए जाते हैं।
> इस जनजाति में सगोत्रीय विवाह निषिद्ध होता है।
> भूमिज जनजाति के 4 गोत्र एवं उनके प्रतीक
> इस जनजाति में सर्वाधिक प्रचलित विवाह आयोजित विवाह है। इसके अतिरिक्त इनमें अपहरण विवाह, गोलट विवाह, सेवा विवाह, राजी-खुशी विवाह आदि भी प्रचलित हैं।
> इस जनजाति में तलाक की प्रथा पायी जाती है तथा पति द्वारा पत्ते को फाड़कर टुकड़े करने पर तलाक हो जाता है।
> इस जनजाति की जातीय पंचायत का मुखिया प्रधान कहलाता है।
> इनके प्रमुख त्योहार धुला पूजा, चैत पूजा, काली पूजा, गोराई ठाकुर पूजा, ग्राम ठाकुर पूजा, करम पूजा आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का प्रमुख पेशा कृषि कार्य है।
> यह जनजाति अच्छी काश्तकार है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके सर्वोच्च देवता ग्राम ठाकुर और गोराई ठाकुर हैं।
> इनके धार्मिक प्रधान को लाया कहा जाता है।
> इस जनजाति में श्राद्ध संस्कारों को 'कमावत' कहा जाता है।
> जनजाति
> माहली
> महत्वपूर्ण बातें
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ परिवार से है।
> इस जनजाति का झारखण्ड में संकेन्द्रण मुख्यतः सिंहभूम क्षेत्र, राँची, गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद व संथाल परगना क्षेत्र में है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति की नातेदारी व्यवस्था हिन्दू समाज के समान है।
> इस जनजाति की सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है।
> इस जनजाति में कुल 16 गोत्र पाये जाते हैं।
> रिजले द्वारा माहली जनजाति को निम्न पांच उपजातियों में विभक्त किया गया है:
बांस फोड़ माहली – बांस से टोकरी बनाने वाले (तुरी जनजाति भी टोकरी बनाने का कार्य करती है)
पातर माहली – खेती कार्य (तमाड़ क्षेत्र में संकेन्द्रण)
तांती माहली – पालकी ढोने वाले
सुलंकी माहली – मजदूरी व खेती कार्य
माहली मुण्डा – मजदूरी व खेती कार्य
> इनका विवाह टोटमवादी वंशों में होता है।
> माहली जनजाति में बाल विवाह प्रचलित है ।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को पोन टका * तथा जातीय पंचायत को परगनैत कहा जाता है।
> इनके प्रमुख त्योहार सूरजी देवी पूजा, मनसा पूजा, टुसू पर्व, दीवाली आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> यह एक शिल्पी जनजाति है जो बांस कला में पारंगत है।
> यह जनजाति बांस की टोकरी व ढोल बनाने में पारंगत है।
> इस जनजाति को सरल कारीगर / शिल्पकार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनकी मुख्य देवी सूरजी देवी है। बड़ पहाड़ी तथा मनसा देवी इनके अन्य देवता हैं।
> इस जनजाति के लोग पुरखों की पूजा गोड़म साकी (बूढ़ा - बूढ़ी पर्व) के रूप में करते हैं।
> सिल्ली क्षेत्र में इस जनजाति द्वारा की जाने वाली विशेष पूजा को 'उलूर पूजा' कहा जाता है।
> जनजाति
> करमाली
> महत्वपूर्ण बातें
> यह जनजाति झारखण्ड के सदान समुदाय की जनजाति है।
> इस जनजाति का संबंध प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड समूह से है।
> इस जनजाति की मातृभाषा खोरठा है तथा बोलचाल हेतु करमाली भाषा (ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार से संबंधित) का प्रयोग किया जाता है।
> झारखण्ड में इनका निवास मुख्यत: हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, गिरिडीह, राँची, सिंहभूम व संथाल परगना में पाया जाता है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति की नातेदारी व्यवस्था हिन्दू समाज के समान है।
> यह जनजाति सात गोत्रों (कछुवार, कैथवार, संढवार, खालखोहार, करहर, तिर्की व सोना) में विभाजित है।
> करमाली जनजाति के 7 गोत्र एवं उनके प्रतीक
> इस जनजाति में आयोजित विवाह, गोलट विवाह, विनिमय विवाह, राजी-गी विवाह, ढुकू विवाह आदि अत्यंत प्रचलित हैं।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'पोन' या 'हदुआ' कहा जाता है।
> इनके पंचायत के प्रमुख को मालिक कहा जाता है।
> इस जनजाति में टूसु पर्व (अन्य नाम- मीठा परब या बड़का परब) प्रमुखता से मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त ये सरहुल, करमा, सोहराई, नवाखनी आदि पर्व मनाते हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> यह एक दस्तकार या शिल्पकार जनजाति है तथा इनका परंपरागत पेशा लोहा गलाना और औजार बनाना है।
> अस्त्र - शस्त्र के निर्माण में यह जनजाति अत्यंत दक्ष होती है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सिंगबोंगा हैं।
> इनके पुजारी को पाहन या नाया कहा जाता है।
> इस जनजाति में ओझा भी पाया जाता है जिसके पवित्र स्थान को 'देउकरी' कहा जाता है।
> इस जनजाति के लोग दामोदर नदी को अत्यंत पवित्र मानते हैं।
> जनजाति
> बैगा
> महत्वपूर्ण बातें
> बैगा झारखण्ड की एक उपेक्षित जनजाति है।
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ परिवार से है।
> इनका संकेन्द्रण मुख्यतः पलामू प्रमण्डल, राँची, हजारीबाग व सिंहभूम क्षेत्र में है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति के रीति-रिवाज खरवार जनजाति के समान हैं।
> इनमें संयुक्त परिवार की व्यवस्था पायी जाती है।
> बैगा की सामुदायिक पंचायत का मुखिया मुकद्दम कहलाता है।
> करमा नृत्य इस जनजाति का प्रमुख नृत्य है। झरपुट, विमला आदि अन्य नृत्य हैं। इस जनजाति में पुरुषों द्वारा 'दशन' या 'सैला' नृत्य तथा स्त्रियों द्वारा 'रोना' नृत्य भी किया जाता है।
> इनके वर्ष का प्रथम पर्व 'चरेता' है, जो बच्चों को बाल भोज देकर मनाया जाता है।
> इस जनजाति में 9 वर्षो पर 'रसनावा' नामक पर्व का आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त सरहुल, दशहरा, दीवाली, होली आदि पर्व भी प्रचलित है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा वैद्य कार्य तथा तंत्र मंत्र है। इसके अतिरिक्त ये खाद्य संग्रह व मजदूरी का कार्य भी करते हैं।
> ये पेड़ - पौधों के अच्छे जानकार होते हैं।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति का प्रधान देवता बड़ा देव है जिसका निवास साल वृक्ष में माना जाता है।
> यह जनजाति बाघ को पवित्र पशु मानती है।
> जनजाति
> खोंड
> महत्वपूर्ण बातें
> खोंड झारखण्ड की एक अल्पसंख्यक जनजाति है।
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है। (Source - Britannica Encyclopaedia)
> यह झारखण्ड के संथाल परगना क्षेत्र में प्रमुखता से पाए जाते हैं। इसके अलावा उत्तरी व दक्षिणी छोटानागपुर, पलामू तथा कोल्हान प्रमण्डल में भी इनका निवास है।
> इस जनजाति की भाषा कोंधी है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति में वरमाला की प्रथा प्रचलित है।
> इनके ग्राम संगठन का मुखिया गौटिया कहलाता है।
> इनके प्रमुख पर्व-त्योहार सरहुल, सोहराई, करमा, दशहरा, दीपावली, रामनवमी, नबानंद आदि है। नबानंद त्योहर में नये चावल को पकाया जाता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य तथा मजदूरी करना है।
> इस जनजाति में झूम खेती को पोड़चा कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सूर्य हैं जिन्हें बेंलापून कहा जाता है।
> इस जनजाति में नरबलि की प्रथा प्रचलित है, जिसे मरियाह के नाम से जाना जाता है।
> जनजाति
> बथुड़ी
> महत्वपूर्ण बातें
> बथुड़ी झारखण्ड की एक अल्पसंख्यक जनजाति है जो स्वयं को जनजाति / आदिवासी नहीं मानती है।
> ये स्वयं को बाहुतुली या बाहुबली कहते हैं जिसका अर्थ है- बाहुओं से तौलने वाला अर्थात् क्षत्रिय।
> इस जनजाति को भुईया का पूर्वज माना जाता है।
> यह जनजाति झारखण्ड के सिंहभूम क्षेत्र व ढालभूम की पहाड़ी क्षेत्र में निवास करती है।
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति की नातेदारी व्यवस्था हिन्दू समाज के समान ही है।
> इस जनजाति में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था प्रचलित है।
> इस जनजाति में पाँच गोत्र पाए जाते हैं।
> इस जनजाति में विवाह का सर्वाधिक प्रचलित रूप 'आयोजित विवाह' है ।
> इनके गांव का प्रमुख प्रधान कहलाता है।
> बथुड़ी जनजाति के लोग नृत्य संगीत के अत्यंत शौकीन होते हैं।
> इस जनजाति में कहंगु, वंशी, झाल और मांदर नामक वाद्य यंत्र अत्यंत प्रचलित है।
> इस जनजाति के लोग मुख्यतः आषाढ़ी पूजा, शीतला पूजा, वंदना पूजा, धूलिया पूजा, सरोल पूजा, रस पूर्णिमा, मकर सक्रांति आदि पर्व मनाते हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य, वनोत्पादों का संग्रह एवं मजदूरी कार्य है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता ग्राम देवता हैं।
> इनके गांव का पुजारी दिहुरी कहलाता है।
> जनजाति
> किसान
> महत्वपूर्ण बातें
> किसान जनजाति सदानों की एक जनजाति है जिन्हें नगेशर / नगेशिया भी कहा जाता है।
> यह जनजाति स्वयं को नागवंश का वंशज मानती है।
> डाल्टन ने इन्हें पांडवों का वंशज बताया है।
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है।
> इस जनजाति की भाषा मुण्डारी (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) है।
> इनका संकेन्द्रण मुख्यतः पलामू, लातेहार, गढ़वा, लोहरदगा, गुमला व सिमडेगा जिले में है।
> समाज एवं संस्कृति
> विवाह की दृष्टि से इस जनजाति के दो वर्ग हैं- सिंदुरिया तथा तेलिया | सिंदुरिया लोगों का विवाह सिंदुर दान से होता है जबकि तेलिया लोगों के विवाह में तेल का प्रयोग होता है।
> इस जनजाति में परीक्षा विवाह का प्रचलन है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'डाली' कहा जाता है।
> इनका प्रमुख त्योहार सोहराई, सरहुल, करमा, नवाखानी, जीतिया, फागुन, दीपावली आदि है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति के लोगों का प्रमुख पेशा कृषि कार्य तथा लकड़ी काटना है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके सर्वप्रमुख देवता सिंगबोंगा हैं।
> इनका धार्मिक प्रधान बैगा कहलाता है।
> जनजाति
> बंजारा
> महत्वपूर्ण बातें
> बंजारा झारखण्ड की एक घुमक्कड़ किस्म की अल्पसंख्यक जनजाति है जो छोटे-छोटे गिरोहों में घूमती रहती है। इनका कोई गांव नहीं होता है।
> 1956 ई. में इन्हें जनजाति का दर्जा प्रदान किया गया था।
> इस जनजाति का सर्वाधिक संकेंद्रण संथाल परगना क्षेत्र में है।
> यह जनजाति अपनी भाषा को 'लंबाड़ी' कहते हैं।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति का समाज पितृसत्तात्मक होता है।
> इनका परिवार नाभिकीय होता है जिसमें माता-पिता और अविवाहित बच्चे शामिल होते हैं।
> यह जनजाति चौहान, पवार, राठौर तथा उर्वा नामक चार वर्गों में विभाजित है।
> इस जनजाति में राय की उपाधि काफी प्रचलित है।
> इस जनजाति में विधवा विवाह को नियोग कहा जाता है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को हरजी कहा जाता है।
> इस जनजाति में विवाह पूर्व सगाई की रस्म प्रचलित है।
> इस जनजाति के लोग मुख्य रूप से होली, दशहरा, दीपावली, जन्माष्टमी, नाग पंचमी, रामनवमी आदि पर्व मनाते हैं।
> इस जनजाति में 'आल्हा उदल' की लोककथा काफी प्रचलित है तथा ये " 'आल्हा उदल' को वीर पुरूष मानते हैं।
> इस जनजाति के गीतों में पृथ्वीराज चौहान का उल्लेख मिलता है।
> इस जनजाति का लोक नृत्य 'दंड-खेलना' अत्यंत प्रचलित है।
> आर्थिक व्यवस्था
> पेशेगत दृष्टि से इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है, जिसमें गुलगुलिया (भिक्षुक वर्ग) एवं कंजर (आपराधिक वर्ग) प्रमुख हैं।
> यह जनजाति जड़ी-बूटी के अच्छे जानकार होते हैं।
> इस जनजाति के लोग संगीत प्रमी होते हैं तथा संगीत से जुड़ा हुआ पेशा भी अपनाते हैं।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनकी प्रमुख देवी बनजारी देवी है।
> जनजाति
> बिंझिया
> महत्वपूर्ण बातें
> बिंझिया जनजाति एक अल्पसंख्यक जनजाति है जो स्वयं को विंध्य निवासी कहती है।
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है।
> इनका सर्वाधिक संकेंद्रण राँची व सिमडेगा जिले में है।
> ये अपने को राजपूत मानते हैं तथा नाम के अंत में सिंह शब्द जोड़ते हैं।
> यह जनजाति ब्राह्मण तथा राजपूत को छोड़कर किसी के यहाँ भोजन नहीं करती है।
> इनकी भाषा सदानी है।
> समाज एवं संस्कृति
> यह जनजाति 7 गोत्रों में विभाजित है। इनका प्रमुख गोत्र कुलुमर्थी डाडुल, साहुल आदि है।
> इस जनजाति में सगोत्रीय विवाह निषिद्ध माना जाता है।
> इस जनजाति में गुलैची विवाह, ढुकु विवाह तथा सगाई संधा विवाह प्रचलित है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'डाली कटारी' कहा जाता है।
> इस जनजाति में तलाक को 'छोड़ा-छोड़ी' कहा जाता है।
> इस जनजाति में युवागृह जैसी संस्था नहीं पायी जाती है।
> इस जनजाति में हड़िया पीना वर्जित है।
> इस जनजाति का प्रमुख त्योहार सरहुल, करमा, सोहराय, जगन्नाथ पूजा आदि है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके सर्वाधिक प्रमुख देवता विंध्यवासिनी देवी हैं। इसके अतिरिक्त ये लोग चरदी देवी की पूजा करते हैं ।
> इस जनजाति में तुलसी पौधा को पूजनीय माना जाता है।
> ग्रामश्री इनकी ग्राम देवी है।
> इनके पुजारी को बैगा कहा जाता है।
> जनजाति
> गोंड
> महत्वपूर्ण बातें
> गोंड भारत की दूसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है तथा इनका मूल निवास मध्य प्रदेश व गोंडवाना क्षेत्र में है।
> झारखण्ड में इस जनजाति का मुख्य निवास क्षेत्र गुमला तथा सिमडेगा में है। इसके अतिरिक्त यह जनजाति राँची, पलामू व कोल्हान में भी निवास करती है।
> इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है।
> इस जनजाति की भाषा गोंडी है, किन्तु ये लोग बोलचाल में सादरी-नागपुरी का प्रयोग करते हैं ।
> समाज एवं संस्कृति
> यह जनजाति निम्न तीन वर्गों में विभाजित है:
राजगोंड – अभिजात्य वर्ग
धुरंगोंड – सामान्य वर्ग
कमिया – खेतिहर मजदूर
> गोंड लोग संयुक्त परिवार को भाई बंद तथा संयुक्त परिवार के विस्तृत रूप को भाई बिरादरी कहते हैं।
> यह जनजाति पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय है।
> इस जनजाति में युवागृह को गोटुल / घोटुल * कहा जाता है।
> इनका प्रमुख पर्व फरसा पेन, मतिया, बूढ़देव, करमा, सोहराय,सरहुल, जीतिया आदि है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का प्रमुख पेशा कृषि कार्य है ।
> इस जनजाति द्वारा झूम खेती को दीपा या बेवार कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता ठाकुर देव (अन्य नाम - बुढ़ा देव) एवं ठाकुर देई हैं। ठाकुर देव सूर्य के तथा ठाकुर देई धरती के प्रतीक हैं।
> गोंड जनजाति में प्रत्येक गोत्र द्वारा 'परसापन' नामक कुल देवता की पूजा की जाती है। कुल देवता की पूजा करने वाले व्यक्ति को 'फरदंग' कहते हैं।
> इस जनजाति में पुजारी को बैगा कहा जाता है तथा इसके सहायक को मति कहा जाता है।
> इस जनजाति में शवों के दफनाने के स्थान को 'मसना' के नाम से जाना जाता है।
> जनजाति
> चेरो
> महत्वपूर्ण बातें
> प्रजातीय दृष्टि से इस जनजाति का संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से है।
> इनका झारखण्ड में सर्वाधिक संकेन्द्रण पलामू व लातेहार जिले में है।
> यह जनजाति स्वयं को 'च्यवन ऋषि' का वंशज मानती है।
> यह जनजाति स्वयं को चौहान या राजपूत कहती है।
> यह झारखण्ड की एकमात्र जनजाति है जो जंगलों और पहाड़ों में रहना नहीं पसंद करती है।
> इनकी बोलचाल की भाषा सदानी है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका समाज पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय होता है।
> यह जनजाति दो उपसमूहों बारह हजारी / बारह हजारिया और तेरह हजारी / वीरबंधिया में विभक्त है। बारह हजारी स्वयं को श्रेष्ठ मानते हैं।
> यह जनजाति 7 गोत्रों (पारी) में विभाजित है। इनके प्रमुख गोत्र (पारी) छोटा मठआर, बड़ा मठआर, छोटा कुँवर, बड़ा कुँवर, सोनहैत आदि है।
> इस जनजाति में विवाह के दो प्रकार ढोला विवाह (लड़के के घर लड़की लाकर विवाह) व चढ़ा विवाह ( लड़की के घर बारात ले जाकर विवाह) हैं। ढोला विवाह सामान्यतः गरीबों के यहाँ देखा जाता है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'दस्तुरी' कहा जाता है।
> चेरो लोग गाँव को डीह कहते हैं।
> इस जनजाति का प्रमुख त्योहार सोहराय, काली पूजा, छठ पूजा, होली आदि है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति के धार्मिक प्रधान को बैगा कहा जाता है।
> इस जनजाति में जादू-टोना करने वाले व्यक्ति को माटी कहा जाता है।
> जनजाति
> चीक बड़ाइक
> महत्वपूर्ण बातें
> चीक बडाइक झारखण्ड की एक बुनकर जनजाति है जो झारखण्ड के लगभग सभी जिलों में पायी जाती है।
> हालांकि इस जनजाति का सर्वाधिक संकेंद्रण गुमला- सिमडेगा क्षेत्र में पाया जाता है।
> इनकी भाषा नागपुरी है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका समाज पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय होता है।
> यह जनजाति बड़ गोहड़ी (बड़ जात) तथा छोट गोहड़ी (छोट जात) नामक दो वर्गों में विभाजित है।
> इस जनजाति के प्रमुख गोत्र तनरिया, खम्बा एवं तजना हैं ।
> इस जनजाति में अन्य जनजातियों की तरह अखरा (नृत्य स्थल) तथा पंचायत व्यवस्था नहीं मिलती है।
> इस जनजाति में पुनर्विवाह को सगाई कहा जाता है।
> इनका प्रमुख त्योहार सरहुल, नवाखानी, करमा, जितिया बड़ पहाड़ी, सूर्याही पूजा, देवी माय, देवठान, होली, दीपावली आदि है। इस जनजाति में पहले नर बलि की प्रथा प्रचलित थी, जो अब समाप्त हो गया है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका मुख्य पेशा कपड़ा बुनना है जिसके कारण इन्हें 'हाथ से बने कपड़ों का जनक' भी कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति के प्रमुख देवता सिंगबोंगा हैं।
> देवी माई इनकी प्रमुख देवी है।
> इस जनजाति में शवों के दफनाने के स्थान को 'मसना' कहा जाता है।
> जनजाति
> बेदिया
> महत्वपूर्ण बातें
> यह जनजाति एक अल्पसंख्यक जनजाति है।
> प्रजातीय दृष्टि से यह जनजाति द्रविड़ समूह से संबंधित है।
> यह अपने को वेद निवस या वेदवाणी कहते हैं।
> इस जनजाति के लोग स्वयं को उच्च हिन्दू मानते हैं।
> अपने नाम के साथ ये लोग बेदिया और माँझी की उपाधि धारण करते हैं।
> इस जनजाति का संकेन्द्रण मुख्यतः राँची, हजारीबाग व बोकारो जिले में है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'डाली टका' के नाम से जाना जाता है।
> इनके गांव के मुखिया को प्रधान कहा जाता है। इसे महतो या ओहदार भी कहते हैं।
> इनके नाच के मैदान को अखड़ा कहते हैं।
> बेदिया जनजाति के प्रमुख गोत्र एवं उनके प्रतीक
> इस जनजाति में सबसे प्रचलित विवाह आयोजित विवाह है।
> इनमें विजातीय विवाह को 'ठुकुर ठेनी' कहा जाता है तथा यह सामाजिक रूप से निषिद्ध होता है।
> इस जनजाति में पुरूषों का परंपरागत वस्त्र केरया, काच्छा/भगवा है जबकि महिलाओं का परंपरागत वस्त्र ठेठी और पाचन है।
> इस जनजाति में दशहरा, दीपावली, छठ, सोहराई, करमा आदि पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति के प्रमुख देवता सूर्य हैं तथा इनमें सूर्याही पूजा का प्रचलन है।
> इस जनजाति के धार्मिक स्थल को सरना कहा जाता है।
> जनजाति
> गोड़ाइत
> महत्वपूर्ण बातें
> गोड़ाइत झारखण्ड की एक अल्पसंख्यक जनजाति है जो प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड समूह से संबंधित है। (Source- www.jharenvis.nic.in)
> झारखण्ड में मुख्यतः राँची, पलामू, हजारीबाग, धनबाद, लोहरगा, संथाल परगना व सिंहभूम क्षेत्र में यह जनजाति निवास करती है।
> इस जनजाति के लोग सदानी भाषा का प्रयोग करते
हैं ।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था पायी जाती है।
> इस जनजाति में सगोत्र विवाह तथा विधवा विवाह निषिद्ध है।
> इस जनजाति के प्रमुख त्योहार देवी माय, पुरूबिया, मति आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> यह जनजाति मुख्यतः कृषि कार्य में संलग्न है।
> प्राचीन समय में गोड़ाइत जनजाति के लोग पहरेदारी का कार्य करते थे।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति के लोग पुरूबिया तथा देवी माई की पूजा करते हैं।
> पुरूबिया एक जनजातीय भूतात्मा है, जिसे वर्ष में एक बार बकरे की बलि दी जाती है।
> इनके पुजारी को बैगा कहते हैं।
> इस जनजाति में जादू-टोना करने वाले व्यक्ति को माटी कहा जाता है।
> जनजाति
> कोरा
> महत्वपूर्ण बातें
> कोरा जनजाति प्रजातीय दृष्टि से प्रोटो-आस्ट्रेलायड समूह से संबंधित हैं परन्तु रिजले ने इन्हें द्रविड़ प्रजाति समूह में वर्गीकृत किया है।
> इस जनजाति को कई स्थानों पर 'दांगर' भी कहा जाता है ।
> इस जनजाति की बोली का नाम भी कोरा है जो मुण्डारी परिवार (ऑस्ट्रो-एशियाटिक) से संबंधित है।
> इस जनजाति का संकेन्द्रण मुख्यतः हजारीबाग, धनबाद, बोकारो, सिंहभूम एवं संथाल परगना क्षेत्र में है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति का परिवार पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय होता है।
> रिजले के अनुसार इस जनजाति की 7 उपजातियाँ हैं।
> यह जनजाति मुख्यतः ठोलो, मोलो, सिखरिया और बदमिया नामक वर्गों में विभाजित है।
> कोरा लोग अपने घर को ओड़ा तथा गोत्र को गुष्टी कहते हैं ।
> इस जनजाति के युवागृह को 'गितिओड़ा' कहा जाता है ।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'पोन' कहा जाता है।
> इस जनजाति में समगोत्रीय विवाह निषिद्ध माना जाता है।
> इस जनजाति में गोदना की प्रथा पायी जाती है तथा ये गोदना को स्वर्ग या नरक में अपने संबंधियों को पहचानने हेतु आवश्यक चिह्न मानते हैं ।
> इनके गांव के प्रधान को महतो कहा जाता है।
> कोग जनजाति के प्रमुख गोत्र एवं उनके प्रतीक
> इनके गोत्रों में सबसे ऊपर 'कच' तथा सबसे नीचे 'बुटकोई' हैं।
> इस जनजाति के प्रमुख त्योहार सवा लाख की पूजा (सवा लाख देवी-देवताओं की पूजा), नवाखानी, भगवती दाय, काली माय पूजा, बागेश्वर पूजा, सोहराय आदि हैं।
> इस जनजाति के प्रमुख नृत्य खेमटा, गोलवारी, दोहरी, झिंगफुलिया आदि हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का परंपरागत पेशा मिट्टी कोड़ना था, जिसके कारण ही इनका नाम 'कोड़ा' पड़ा।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके पुजारी को बैगा कहा जाता है।
> जनजाति
> कवर
> महत्वपूर्ण बातें
> यह जनजाति कौरवों के वंशज हैं।
> इस जनजाति का संबंध प्रोटो-आस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से है।
> इनकी भाषा कवराती (कवरासी) या सादरी है।
> कवर झारखण्ड की 31वीं जनजाति है जिसे भारत सरकार ने 8 जनवरी, 2003 में जनजाति की श्रेणी में शामिल किया है।
> यह जनजाति पलामू, गुमला व सिमडेगा जिले में निवास करती है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका परिवार पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय होता है।
> इस जनजाति में कुल 7 गोत्र पाए जाते हैं, जिनके नाम प्रह्लाद, अभिआर्य, शुकदेव, तुण्डक, वशिष्ठ, विश्वामित्र व पराशर हैं ।
> इनका समाज बहिर्विवाही होता है। अर्थात् विवाह हेतु अपने वंश या गोत्र के बाहर की कन्या को ढूंढा जाता है, जिसे 'कुटमैती प्रथा' कहते हैं।
> इस जनजाति में चार प्रकार के विवाह प्रचलित हैं जिसमें क्रय विवाह सर्वाधिक प्रचलित है। इसके अतिरिक्त इनमें सेवा विवाह, ढुकू विवाह व जिया विवाह का प्रचलन पाया जाता है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को सुक-दाम कहा जाता है। वधु मूल्य रूप में नकद के अतिरिक्त 10 खंडी चावल दिये जाने पर इसे 'सुक - मोल' कहा जाता है।
> इस जनजाति का पंचायत प्रधान सयान कहलाता है तथा इनकी ग्राम पंचायत का संचालन प्रधान या पटेल करता है।
> इस जनजाति के लोग मुख्यतः करम, तीज, जयाखानी, हरेली, पर्व मनाते हैं। पितर-पूजा आदि
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का प्रमुख पेशा कृषि कार्य है।
> धार्मिक व्यवस्था
> कवर सरना धर्मावलंबी हैं तथा इस जनजाति का सर्वोच्च देवता भगवान है, जो सूर्य का प्रतिरूप है।
> इनके ग्राम देवता को खूँट देवता कहा जाता है।
> इनके गांव का पुजारी पाहन या बैगा कहलाता है।
> जनजाति
> कोल
> महत्वपूर्ण बातें
> यह जनजाति प्रोटो- आस्ट्रेलायड समूह से संबंधित है।
> इनकी भाषा का नाम भी कोल है तथा भाषायी रूप से इनका संबंध कोलेरियन समूह से है।
> कोल झारखण्ड की 32वीं जनजाति है जिसे भारत सरकार ने 2003 में जनजाति की श्रेणी में शामिल किया है।
> झारखण्ड में इस जनजाति का संकेन्द्रण मुख्यत: देवघर, दुमका व गिरिडीह जिले में है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका परिवार पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय होता है।
> यह जनजाति 12 गोत्रों में विभक्त है, जिनके नाम हांसदा, सोरेन, किस्कू, मरांडी, हेम्ब्रम, बेसरा, मुर्मू, टुडू, चाउंडे, बास्के, चुनिआर व किसनोव हैं।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'पोटे' कहा जाता है।
> इनके गांव के प्रधान को माँझी कहा जाता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का परंपरागत पेशा लोहा गलाना तथा उनसे सामान बनाना है।
> वर्तमान में इस जनजाति के लोग तीव्रता से कृषि को अपना व्यवसाय बना रहे हैं।
> धार्मिक व्यवस्था
> कोल जनजाति के लोग सरना धर्म के अनुयायी हैं तथा इनका प्रमुख देवता सिंगबोंगा है।
> इस जनजाति में शंकर भगवान, बजरंगबली, दुर्गा एवं काली की भी पूजा की जाती है।
> इस जनजाति पर हिन्दू धर्म का सर्वाधिक प्रभाव है।
> जनजाति
> माल पहाड़िया
> महत्वपूर्ण बातें
> माल पहाड़िया एक आदिम जनजाति है जिनका संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से है।
> रिजले के अनुसार इस जनजाति का संबंध द्रविड़ समूह से है
> रसेल और हीरालाल के अनुसार यह जनजाति पहाड़ों में रहने वाले सकरा जाति के वंशज हैं।
> बुचानन हैमिल्टन ने इस जनजाति का संबंध मलेर से बताया है।
> इनका संकेंद्रण मुख्यत संथाल परगना क्षेत्र में पाया जाता है, परन्तु यह जनजाति संथाल क्षेत्र के साहेबगंज को छोड़कर शेष क्षेत्रों में पायी जाती है।
> इनकी भाषा मालतो है जो द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति में पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय सामाजिक व्यवस्था पायी जाती है।
> इस जनजाति में गोत्र नहीं होता है ।
> इस जनजाति में अंतर्विवाह की व्यवस्था पायी जाती है।
> इस जनजाति में वधु - मूल्य ( पोन या बंदी ) के रूप मे सूअर देने की प्रथा है क्योंकि सूअर इनके आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है।
> इस जनजाति में अगुवा (विवाह हेतु कन्या ढूंढने वाला व्यक्ति) को 'सिथू या सिथूदार' कहा जाता है।
> इस जनजाति में वर द्वारा सभी वैवाहिक खर्चों का भुगतान किया जाता है।
> इनके गांव का मुखिया माँझी कहलाता है, जो ग्राम पंचायत का प्रधान भी होता है।
> इस जनजाति ने माघ माह में माघी पूजा तथा अगहन माह में घंघरा पूजा की जाती है।
> यह जनजाति कृषि कार्य के दौरान खेतों में बीज बोते समय बीचे आड़या नामक पूजा (ज्येष्ठ माह में) तथा फसल की कटाई के समय गांगी आड़या पूजा करती है। बाजरा के फसल की कटाई के समय पुनु आड़या पूजा की जाती है।
> करमा, फागु व नवाखानी इस जनजाति के प्रमुख त्योहार हैं ।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका मुख्य पेशा झूम कृषि, खाद्य संग्रहण एवं शिकार करना है।
> इस जनजाति मे झूम खेती को कुरवा कहा जाता है।
> इस जनजाति में भूमि को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। ये हैं- सेम.भूमि (सर्वाधिक उपजाऊ), टिकुर भूमि (सबसे कम उपजाऊ), डेम भूमि (सेम
व टिकुर के बीच) तथा बाड़ी भूमि (सब्जी उगाने हेतु प्रयुक्त ) ।
> इस जनजाति में उपजाऊ भूमि को सेम कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सूर्य एवं धरती गोरासी गोंसाई हैं।
> धरती गोरासी गोंसाई को वसुमति गोंसाई या वीरू गोंसाई भी कहा जाता है।
> इस जनजाति में पूर्वजों की पूजा को विशेष महत्व दिया जाता है।
> इनके गांव का पुजारी देहरी कहलाता है।
> जनजाति
> सौरिया पहाड़िया
> महत्वपूर्ण बातें
> सौरिया पहाड़िया प्रोटो-ऑस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से संबंधित है।
> इन्हें संथाल परगना का आदि निवासी माना जाता है।
> इनका प्रमुख संकेन्द्रण राजमहल क्षेत्र के 'दामिन-ए-कोह' में है।
> इस जनजाति ने अंग्रेजी शासन के पूर्व कभी भी अपनी स्वतंत्रता को मुगलों या मराठों के हाथ में नहीं सौंपा।
> यह जनजाति स्वयं को मलेर कहती है।
> इनकी भाषा मालतो है जो द्रविड़ भाषा परिवार से संबंधित है।
> यह जनजाति बोलचाल हेतु बांग्ला भाषा का भी प्रयोग करती है।
> समाज एवं संस्कृति
> यह जनजाति मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है तथा इनके आवास को 'अड्डा' कहा जाता है।
> इस जनजाति की सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है।
> इस जनजाति में विवाह में लड़की की सहमति आवश्यक मानी जाती है।
> इस जनजाति में आयोजित विवाह सर्वाधिक प्रचलित विवाह है।
> इनमें विवाह संस्कार संपन्न कराने वाले व्यक्ति को 'वेद सीढू' कहा जाता है।
> इनमें बहिर्जातीय विवाह निषिद्ध है।
> इस जनजाति में विवाह विच्छेद तथा पुनर्विवाह की प्रथा पायी जाती है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'पोन' कहा जाता है।
> इस जनजाति के युवागृह को 'कोड़वाह' कहा जाता है। युवकों के युवागृह को ‘मर्समक कोड़वाह' तथा युवतियों के युवागृह को 'पेलमक कोड़वाह' कहा जाता है।
> इस जनजाति में गोत्र नहीं पाया जाता है।
> इनके गांव का मुखिया व पुजारी माँझी कहलाता है। यह ग्राम पंचायत की अध्यक्षता भी करता है ।
> इनके गांव के प्रमुख अधिकारी सियनार (मुखिया), भंडारी ( संदेशवाहक), गिरि तथा कोतवार हैं।
> इस जनजाति के प्रमुख त्योहार फसलों पर आधारित होते हैं जिसे आड़या कहा जाता है। इनके प्रमुख त्योहार निम्न हैं:–
गांगी आड़या – भादो में नई फसल कटने पर
ओसरा आड़या – कार्तिक में घघरा फसल कटने पर
पुनु आड़या – पूस में बाजरे की फसल कटने पर
सलियानी पूजा – माघ या चैत में होती है
> इस जनजाति में पिता की मृत्यु हो जाने पर बड़ा पुत्र का संपत्ति पर अधिकार होता है। यदि कोई पुत्र नहीं है तो संपत्ति पर परिवार के साथ रहने वाले घर जमाई का अधिकार होता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> ललित प्रसाद विद्यार्थी के वर्गीकरण के अनुसार इस जनजाति द्वारा स्थानांतरणशील कृषि किया जाता है, जिसे कुरवा कहा जाता है। (ललित प्रसाद विद्यार्थी ने सांस्कृतिक आधार पर झारखण्ड की जनजातियों का वर्गीकरण किया है।)
> पहाड़ी ढाल पर रहने वाले लोग जोत को कोड़कर कृषि कार्य करते हैं, जिसे 'भीठा' या 'धामी' कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति के प्रमुख देवता 'लैहू गोंसाई' हैं।
> इस जनजाति में सूर्य देवता को 'बैरू गोसाई' *, चांद देवता को 'विल्प गा. ¨साई', काल देवता को 'काल गोंसाई', राजमार्ग देवता को 'पो गोंसाई', सत्य देवता को 'दरमारे गोंसाई', जन्म देवता को 'जरमात्रे गोंसाई' तथा शिकार के देवता को 'औटगा' कहा जाता है।
> इस जनजाति में पूर्वज पूजा का विशेष महत्व है।
> धार्मिक कार्यों का संपादन 'कान्दो माँझी' द्वारा किया जाता है तथा इसके सहायक को ‘कोतवार' व ‘चालवे' कहा जाता है।
> रिजले के अनुसार इस जनजाति का धार्मिक संबंध 'जीववाद' से है।
> जनजाति
> असुर
> महत्वपूर्ण बातें
> असुर जनजाति झारखण्ड की प्राचीनतम एवं आदिम जनजाति है जिनका प्रजातीय संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से है।
> इस जनजाति को 'पूर्वादेवा' भी कहा जाता है।
> इस जनजाति को सिंधु घाटी सभ्यता का प्रतिष्ठापक माना जाता है।
> झारखण्ड में इस जनजाति का प्रवेश मध्य प्रदेश से हुआ था ।
> इनकी भाषा असुरी है जो आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा समूह से संबंधित है।
> इनकी भाषा को मालेय भाषा भी कहा जाता है।
> इस जनजाति का उल्लेख ऋगवेद, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रंथों मे मिलता है। ऋगवेद में इनका वर्णन निम्न नामों से किया गया है :
अनासहः – चिपटी नाक वाले
अव्रत – भिन्न आचरण करने वाले
मृर्ध: वाचः – अस्पष्ट बोलने वाले
सुदृढ़ – लौह दुर्ग अथवा अटूट दुर्ग निवासी
> झारखण्ड में इनका संकेन्द्रण मुख्यतः लातेहार ( नेतरहाट के पाट क्षेत्र में सर्वाधिक), गुमला तथा लोहरदगा जिले में है।
> समाज एवं संस्कृति
> यह जनजाति वीर, बिरजिया तथा अगारिया नामक तीन उपजातियों में विभाजित है।
> असुर गोत्र को पारस कहते हैं। इनके युवागृह को 'गितिओड़ा' कहा जाता है।
> इस जनजाति में बहिर्गोत्रीय विवाह का प्रचलन पाया जाता है ।
> असुर जनजाति के प्रमुख गोत्र एवं उनके प्रतीक
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'डाली टका' कहा जाता है।
> इस जनजाति में 'इदी मी' नामक एक विशेष परंपरा है, जिसके तहत बिना विवाह किए लड़का-लड़की पति-पत्नी की भांति साथ में रहते हैं। परंतु इन्हें कभी-न-कभी आपस में विवाह करना अनिवार्य होता है।
> इनका परिवार मातृसत्तात्मक होता है तथा इनमें संयुक्त परिवार की प्रणाली पायी जाती है।
> इस जनजाति में कुंवारे लड़के या लड़कियों द्वारा केले का पौधा लगाना वर्जित होता है।
> इस जनजाति में गर्भवती स्त्री द्वारा ग्रहण देखना निषिद्ध है।
> इस जनजाति में सुरक्षा हेतु बच्चे को चमड़े का धागा पहनाने की परंपरा है, जो विवाह के समय खोला धाता है। इसे 'चामबंदी संस्कार' कहा जाता है।
> इस जनजाति में दिन के भोजन को 'लोलोघेटू जोमेंकू' तथा रात के भोजन को 'छोटू जोमेंकू' कहा जाता है।
> हड़िया इनका प्रमुख पेय है जिसे 'बोथा' या 'झरनुई' भी कहा जाता है।
> इनके प्रमुख त्योहार सरहुल, सोहराई, कथडेली, सरही, कुटसी (लोहा गलाने के उद्योग की उन्नति हेतु), नवाखानी आदि हैं।
> इनकी संस्कृति को ‘मय संस्कृति' कहा जाता है।
> इनके नृत्य स्थल को अखरा कहा जाता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का प्रमुख पेशा परंपरागत रूप से लोहा गलाना है।
> वर्तमान समय में यह जनजाति स्थायी कृषि भी करने लगी है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इस जनजाति के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा हैं तथा इनके धार्मिक प्रधान को बैगा कहा जाता है।
> बैगा का सहायक 'सुबारी' कहलाता है ।
> इस जनजाति में जादू- टोना करने वाले व्यक्ति को माटी कहा जाता है।
> जनजाति
> बिरजिया
> महत्वपूर्ण बातें
> बिरजिया जनजाति सदान समुदाय की आदिम जनजाति है जिनका प्रजातीय संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से है ।
> इस जनजाति के लोग स्वयं को पुंडरिक नाग के वंशज मानते हैं।
> इस जनजाति को असुर जनजाति का ही हिस्सा माना जाता है।
> झारखण्ड के लातेहार, गुमला व लोहरदगा जिले में इस जनजाति का सर्वाधिक संकेंद्रण है।
> बिरजिया शब्द का अर्थ 'जंगल की मछली' (बिरहोर का अर्थ - जंगल का आदमी) होता है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका परिवार पितृसत्तात्मक पितृवंशीय होता है।
> यह जनजाति सिंदुरिया तथा तेलिया नामक वर्गों में विभाजित है। विवाह के दौरान 'सिंदुरिया' द्वारा सिंदुर का तथा 'तेलिया' द्वारा तेल का प्रयोग किया जाता है।
> तेलिया वर्ग पुनः दूध बिरजिया तथा रस बिरजिया नामक उपवर्गों में विभाजित हैं। दूध बिरजिया गाय का दूध पीते हैं व मांस नहीं खाते हैं जबकि रस बिरजिया दूध पीन के साथ-साथ मांस भी खाते हैं।
> इस जनजाति में बहुविवाह की प्रथा पायी जाती है।
> इस जनजाति में सुबह के खाना को 'लुकमा', दोपहर के भोजन को 'बियारी' तथा रात के खाने को 'कलेबा ' कहा जाता है।
> इनके प्रमुख त्योहार सरहुल, सोहराई, आषाढ़ी पूजा, करम, फगुआ आदि हैं। इनके पंचायत का प्रमुख बैगा कहलाता है ।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य है।
> पाट क्षेत्र में रहने वाले बिरजिया स्थानांतरणशील कृषि करते हैं।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सिंगबोंगा, मरांङ बुरू आदि हैं।
> जनजाति
> परहिया
> महत्वपूर्ण बातें
> परहिया जनजाति का संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड प्रजातीय समूह से है।
> रिजले ने इस जनजाति को लघु द्रविड़ जनजाति कहा है।
> ये मूलत: पलामू प्रमण्डल में निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त राँची, चतरा. हजारीबाग व संथाल परगना क्षेत्र में भी ये निवास करते हैं ।
> समाज एवं संस्कृति
> इस जनजाति में नातेदारी प्रथा बिल्कुल हिन्दुओं की तरह है।
> इस जनजाति में नातेदारी की व्यवस्था 'धैयानिया' तथा 'सनाही' में विभाजित होता है। ‘धैयानिया’ जन्म से जुड़ा नातेदारी संबंध है जिसके सदस्य को 'कुल कुटुंब' कहा जाता है जबकि 'सनाही' विवाह द्वारा जुड़ा संबंध है जिसके सदस्य को ‘हित कुटुंब' कहा जाता है।
> इस जनजाति में गोत्र नहीं पाया जाता है।
> इस जनजाति में साक्षी प्रथा का प्रचलन पाया जाता है।
> इस जनजाति में माँ के वंशज को प्राथमिकता दी जाती है।
> इस जनजाति में 'आयोजित विवाह' सर्वाधिक प्रचलित है।
> इनके घर को 'सासन' के नाम से जाना जाता है तथा इनके द्वारा निर्मित झोपड़ीनुमा घर को 'झाला' कहा जाता है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'डाली' कहा जाता है।
> इनमें परिवार की गिनती कुराला (चूल्हे) से होती है।
> इनकी पंचायत को भैयारी या जातिगोढ़ तथा ग्राम पंचायत का मुखिया महतो/ प्रधान कहलाता है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'डाली' के नाम से जाना जाता है।
> इनका प्रमुख त्योहार सरहुल, करमा, धरती पूजा, सोहराय आदि है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का मुख्य पेशा बांस की टोकरी बनाना तथा ढोल बनाना है।
> पारंपरिक रूप से यह जनजाति स्थानांतरणशील कृषि करती थी जिसे 'बिथोड़ा ' या 'झूम' कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके सर्वाधिक प्रमुख देवता 'धरती' हैं।
> इस जनजाति में 'मुआ पूजा' (पूर्वजों की पूजा) का सर्वाधिक महत्व है।
> इस जनजाति में अलौकिक शक्तियों पर अत्यधिक बल दिया जाता है।
> इनके धार्मिक प्रधान को 'दिहुरी' कहा जाता है।
> जनजाति
> बिरहोर
> महत्वपूर्ण बातें
> बिरहोर जनजाति घूमन्तू जीवन व्यतीत करते हैं।
> प्रजातीय रूप से यह जनजाति प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से संबंधित है, जबकि भाषायी रूप से इनका संबंध ऑस्ट्रो एशियाटिक समूह से है। इनकी भाषा बिरहारी है।
> यह जनजाति स्वयं को सूर्यवंशी मानती है।
> यह जनजाति मूलतः झारखण्ड राज्य में ही पायी जाती है।
> झारखण्ड में इनका संकेंद्रण मुख्यतः हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, बोकारो, धनबाद गिरिडीह, राँची, गुमला, सिमडेगा, लोहरदगा, गढ़वा, पलामू, लातेहार व सिंहभूम क्षेत्र में है।
> बिरहोर शब्द की उत्पत्ति मुण्डारी भाषा से हुयी है जिसका शाब्दिक अर्थ 'जंगल का आदमी' होता है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका परिवार पितृसत्तात्मक व पितृवंशीय होता है।
> इनके बस्ती/निवास स्थान को टंडा तथा इनकी झोपड़ी को कुम्बा / कुरहर कहा जाता है। इसमें भी बड़ी झोपड़ी को 'ओड़ा कुम्बा' व छोटी झोपड़ी को 'चू कुम्बा' कहा जाता है।
> इस जनजाति में 13 गोत्र पाए जाते हैं।
> इस जनजाति में युवागृह को 'गितिजोरी, गत्योरा या गितिओड़ा' कहा जाता है। लड़कों के गितिओड़ा को 'डोंडा कांठा' तथा लड़कियों के गितिओड़ा को 'डींडी कुंडी' कहा जाता है।
> इस जनजाति में 10 प्रकार के विवाहों का प्रचलन है।
> क्रय विवाह इस जनजाति में सर्वाधिक प्रचलित विवाह है, जिसे 'सदर बापला ' कहा जाता है।
> इनमें सेवा विवाह को 'किरिंग जवाई बापला', पलायन विवाह को 'उदरा उदरी बापला', विनिमय विवाह को 'गुआ बापला', हठ विवाह को 'बोलो बापला' तथा विधवा विवाह को 'सांगा बापला' कहा जाता है।
> इनका प्रमुख त्योहार करमा, सोहराई, नवाजोम, जीतिया, दलई आदि है।
> इस जनजाति में डांग लागरी तथा मुतकर नामक नृत्य अत्यंत प्रचलित हैं।
> तुमदा (मांदर या ढोल), तमक (नगाड़ा) तथा तिरियों (बांस की बांसुरी) इनके प्रमुख वाद्ययंत्र हैं।
> आर्थिक व्यवस्था
> इस जनजाति का प्रमुख पेशा लकड़ी काटना, शिकार करना एवं खाद्य संग्रहण करना है।
> घूमन्तू जीवन जीने वाले बिरहोरों को उलथू या भुलियास तथा स्थायी जीवन जीने वाले बिरहोरों को जांघी या थानिया कहा जाता है।
> इनकी भूमि को तीन प्रकारों में विभाजित किया जाता है। नीची भूमि को 'बेरा', बीच की भूमि को ‘बाद' तथा उच्च भूमि को 'गोड़ा' कहा जाता है।
> इस जनजाति में भूमि को सामुदायिक संपत्ति माना जाता है जिसे बेचना निषिद्ध होता है।
> बिरहोर जनजाति के लोग पीतल, तांबे व कांसे के कार्य में दक्ष होते हैं।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सिंगबोंगा, ओरा बोंगा, कांदो बोंगा, होपरोम बोंगा, टण्डा बोंगा एवं देवी माई हैं।
> इनके धार्मिक प्रधान को 'नाये' कहते हैं ।
> जनजाति
> कोरवा
> महत्वपूर्ण बातें
> इस जनजाति को कोलेरियन जनजाति समूह का जनक माना जाता है।
> यह जनजाति प्रजातीय दृष्टि से प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से तथा भाषायी दृष्टि से आस्ट्रो एशियाटिक समूह से संबंधित है।
> इन्हें झारखण्ड सरकार द्वारा शिकारी - संग्रहकर्त्ता माना जाता है।
> यह जनजाति मूलत: पलामू प्रमण्डल में पायी जाती है तथा झारखण्ड में इनका आगमन मध्य प्रदेश से हुआ था।
> समाज एवं संस्कृति
> इनकी दो उपजातियाँ पहाड़ी कोरवा ( पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले) तथा डीहा/ डिहारिया कोरवा (नीचे गाँव में रहने वाले) है।
> इस जनजाति में 6 गोत्र पाए जाते हैं। जो हुटरटियें, खरपो, सूइया, कासी, कोकट तथा बुचुंग है।
> इस जनजाति में एकल विवाह का प्रचलन है तथा सगोत्र विवाह निषिद्ध है।
> इस जनजाति में चढ़के विवाह में कन्या के यहाँ तथा डोला विवाह में वर के यहाँ विवाह होता है।
> इनका प्रमुख त्योहार करमा है।
> इस जनजाति में सर्प पूजा का विशेष महत्व है।
> इस जनजाति में विधवा विवाह को मैयारी कहा जाता है।
> आर्थिक व्यवस्था
> यह जनजाति कृषि, शिकार, पशुपालन, शिल्प निर्माण, मजदूरी आदि आर्थिक क्रियाकलाप करते हैं।
> इस जनजाति में स्थानांतरणशील कृषि को 'बियोड़ा' कहा जाता है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता सिंगबाँगा, ग्रामरक्षक देवता 'गर्मल्ह' तथा पशुरक्षक देवता 'रक्सेल' हैं।
> इनके पुजारी को बैगा कहा जाता है।
> जनजाति
> सबर
> महत्वपूर्ण बातें
> सबर जनजाति का संबंध प्रोटो ऑस्ट्रेलायड समूह से है।
> इनका संबंध मुण्डा जनजातीय समूह से है।
> यह झारखण्ड की अल्पसंख्यक आदिम जनजाति है।
> इस जनजाति के अस्तित्व का पहला उल्लेख त्रेता युग में मिलता है। इसके अलावा इनका उल्लेख महाभारत महाकाव्य में भी मिलता है।
> इनकी तीन प्रमुख शाखाएँ है- झारा, बासु एवं जायतापति। इसमें से केवल झारा सबर झारखण्ड में पायी जाती है, शेष सबर उड़ीसा में पाये जाते हैं।
> ब्रिटिश शासन काल में 'आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871' के तहत इन्हें आपराधिक जनजातियों में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
> प्रसिद्ध साहित्यकार महाश्वेता देवी ने विशेष रूप से सबर जनजाति पर काम किया है।
> झारखण्ड में इनका संकेंद्रण मुख्यतः सिंहभूम क्षेत्र में है। इसके अतिरिक्त यह जनजाति राँची, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद, गिरिडीह, पलामू तथा संथाल परगना में भी निवास करती है।
> इनकी भाषा उड़िया, बांग्ला तथा हिन्दी है।
> समाज एवं संस्कृति
> इनका समाज पितृसत्तात्मक होता है।
> इस जनजाति में गोत्र एवं बहुविवाह की प्रथा नहीं पायी जाती है।
> इस जनजाति में वधु मूल्य को 'पोटे' कहा जाता है।
> इस जनजाति में युवागृह नहीं पाया जाता है।
> इस जनजाति में डोमकच तथा पंता साल्या नृत्य लोकप्रिय है।
> इनके परंपरागत पंचायत का प्रमुख 'प्रधान' कहलाता है।
> इनका प्रमुख त्योहार मनसा पूजा, दुर्गा पूजा, काली पूजा आदि है।
> आर्थिक व्यवस्था
> इनका प्रमुख पेशा कृषि कार्य, वनोत्पादों का संग्रह तथा मजदूरी है।
> धार्मिक व्यवस्था
> इनके प्रमुख देवता काली हैं।
> इस जनजाति में पूर्वज पूजा का विशेष महत्व है।
> मृत पूर्वज को 'मसीहमान' या 'बूढ़ा बूढ़ी' कहा जाता है तथा इन्हें मुर्गा की बलि चढ़ाई जाती है।
> इनके गांव का पुजारी दिहुरी कहलाता हैं
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..