स्वातंत्र्योत्तर समस्याएं एवं समाधान का प्रयास
1. परिचय
सदियों की गुलामी तथा शोषण के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली। वह दिन देश के जनमानस में अदम्य खुशियां तथा साहस लेकर आया जिससे नई ऊर्जा का संचार हुआ क्योंकि स्वतंत्र मन ही इच्छा को जन्म देता है। इसके साथ एक और सच यह भी था कि देश का विभाजन भी हो गया।
स्वतंत्रता और विभाजन के बाद सबसे कठिन परिणाम यह देखने को मिला कि हमारे देश का एक बहुत ही बड़ा हिस्सा साम्प्रदायिक दंगे की चपेट में आ गया। साम्प्रदायिक दंगे के दो-तीन बड़े कारण थे- (1) नए देश में विशाल जन समूह का पलायन, (2) नए देश से विशाल जनसमूह का पलायन, (3) दैनिक जीवन की वस्तुओं का अभाव, (4) प्रशासनिक व्यवस्था का भ्रम, (5) छूट की स्थिति में नए तंत्र के निर्माण में देरी इत्यादि ।
जवाहरलाल नेहरू ने तो स्वतंत्रता के अवसर पर अपने औपचारिक भाषण में यह कह ही दिया था कि हमें स्वतंत्रता के साथ जो सबसे महत्वपूर्ण चीज मिली है, वह है 'अवसर' इस अवसर का उपयोग हम उन अपार समस्याओं के समाधान में करेंगे जो मुंह फैलाये हमारे देश के सामने खड़ी है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि हमारा भविष्य आसान नहीं बल्कि संघर्ष से भरा है। हमें उन सभी वादों को पूरा करना होगा जिस पर हमें जनता से स्वतंत्रता के लिए समर्थन मिला है।
स्वतंत्रता के बाद के नेतृत्व के सामने तात्कालिक समस्याएं थी उनमें प्रमुख समस्याओं का सारांश हम निम्न रूप में देख सकते हैं:
1. विभाजन के साथ साम्प्रदायिक दंगों पर नियंत्रण
2. देशी राजवाड़ों का विषय
3. क्षेत्रीय स्तर पर प्रशासनिक एकीकरण
4. लाखों शरणार्थियों ( पाकिस्तान से आए) का पुनर्वास।
5. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा
6. पाकिस्तान से युद्ध में विजय
7. वामपंथी आंदोलनों पर नियंत्रण
8. राजनैतिक स्थिरता को प्राप्त करना ।
9. कानून व्यवस्था बनाना।
10. सेना तथा प्रशासनिक स्तर पर धार्मिक विभाजन को सदा के लिए समाप्त करना ।
11. प्रशासनिक तथा आर्थिक सुदृढ़ीकरण ।
12. भारत की सुरक्षा तथा स्थायित्व
13. संवैधानिक व्यवस्था लागू करना ।
14. नागरिक स्वतंत्रता का अधिकार स्थापित करना ।
15. भूमि सुधार
16. लोकतांत्रिक सरकारों की स्थापना इत्यादि ।
इन तात्कालिक समस्याओं के साथ बहुत सारी ऐसी भी समस्याएं थीं जिन्हें हम दीर्घकालीन समस्याएं कह सकते है। इन्हें प्राप्त करना या इनका समाधान करना सिर्फ एक साल या दो साल के साथ नहीं वरन् एक दीर्घकालीन योजना के साथ ही हो सकता था।
2. दीर्घकालीन समस्याएं
1. गरीबी उन्मूलन,
2. भारत को एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाना,
3. आर्थिक विकास तेज गति से करना
4. नियोजन प्रक्रिया को आगे बढ़ाना,
5. सामाजिक न्याय को प्राप्त करना,
6. सामाजिक समानता तथा आर्थिक अवसर प्रदान करना,
7. एक मजबूत विदेश नीति की स्थापना करना और
8. हर कीमत पर भारत की स्वतंत्रता की रक्षा करना इत्यादि ।
यह कह देना आवश्यक है कि दीर्घकालीन समस्याओं को हम उच्च स्तर पर एक लक्षित कार्य भी कह सकते हैं। जिसे कोई भी नेतृत्व टाल नहीं सकता था। यह समझ लेना आवश्यक है कि इन समस्याओं का समाधान करना जितना आवश्यक था, उससे भी अधिक यह आवश्यक था कि समस्याओं का समाधान का रास्ता वही हो या वही बातें अपनाकर हो, जो राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य हो तथा राष्ट्रीय आंदोलन के द्वारा बनाए गए मूल्यों पर टिका हो ।
उपरोक्त संकल्पों के साथ उस समय की सरकार ने अपने नेतृत्व तथा जनता के बीच एक विश्वास तथा आशा की संचार मनोदशा की कोशिश की जिससे विभिन्न दीर्घकालीन तथा तत्कालीन समस्याओं का समाधान हो सके। यह कहना सही होगा कि स्वतंत्रता के बाद या 1947 ई० के बाद लगभग 15 साल तक (1962 तक) विभिन्न समस्याओं के समाध कान के लिए बहुत ही मनन से कार्य किए गए। 1962 में चीन के साथ युद्ध के कारण हमारे देश का विकास तथा 1947 के समय लिया गया संकल्प की रफ्तार थोड़ी धीमी हो गई ।
युद्ध के बाद जो एक भारत सरकार के लिए बुरा अनुभव था सरकार के मन में एक परिवर्तन आ गया। नेहरू जी ने यह विचार रखा कि हमें पहले तत्कालीन समस्याओं पर बहुत ही संकल्पित होकर कार्य करना चाहिए फिर दीर्घकालीन समस्याओं के बारे में सोचेंगे।
3. समस्याओं से पार पाने के लिए हमारे पास संसाधन क्या थे?
सही तौर पर जब हम संसाधनों की पर्याप्तता की चर्चा करेंगे तो हमें भूत में जाना होगा परन्तु अधिक चर्चा उनकी नहीं करके हमें तत्कालीन संसाधनों की पर्याप्तता पर ध्यान देना होगा। यह सही है कि अंग्रेजों ने भारत के उद्योग, कृषि तथा प्राकृतिक संसाधनों को बर्बाद कर दिया था। यह सही है कि भारत सरकार के पास संसाधन नहीं थे कि जिससे उच्चतम विकास हासिल हो परन्तु जहां तक तत्कालीन समस्याओं के समाधान की बात है, उसके लिए जो सबसे अधिक आवश्यक था, वह था आदर्श नेतृत्व तथा दृढ़ इच्छा शक्ति। अगर इन पर यदि विचार किया जाए तो हमारे पास एक अनुभवी तथा आदर्श नेतृत्व था। नेहरू ने अपनी सरकार में उन महान नेताओं को शामिल किया था जो ईमानदार होने के साथ दृढ़ इच्छा शक्ति रखने वाले व्यक्ति भी थे। उनमें महान नेता नेता सरदार पटेल जी, डॉ० बी० आर० अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, वी० के० कृष्णमेनन, डॉ० जाकिर हुसैन, अब्दुल कलाम आजाद, राजेन्द्र प्रसाद ( कुछ समय के लिए) इत्यादि थे।
उपप्रधानमंत्री के रूप में पटेल ने 1947 के बाद भारत को एक नया रूप दिया तथा यह सुचारू रूप में व्यवस्थित करने की कोशिश की कि भारत एक शक्तिशाली देश बने। पटेल एक महान नेता थे। उन्होंने हमेशा कांग्रेस के लिए धन जमा करने की कोशिश की फिर भी अपने को किसी भी दाग से बचाए रखा।
सरदार जी ने विभाजन के बाद भारत की एकता और अखण्डता को बनाए रखने तथा बिखरे हुए मोतियों को पिरोकर एक माला बनाने में अमूल्य योगदान दिया। ब्रिटिश शासन काल में जो रिसायतें तथा रजवाड़े बिखरे थे तथा विभाजन के बाद जो एक चुनौती बन गई थी कि इन समस्याओं का समाधान कैसे किया जाए, इसका समाधान पटेल ने बहुत ही महानता तथा तन्मयता से किया।
सरदार पटेल जी ने विभाजन के बाद देशी रियासतों को एक प्रशासन के अन्तर्गत लाने के लिए काफी पुरजोर सफल कोशिश की। मुख्य तौर पर औपनिवेशिक भारत में भूगोल भारत का 40% से भी अधिक विभिन्न रियासतों के कब्जे में था। आंकड़ों के अनुसार लगभग ऐसी 56 रियासतें थीं इन रियासतों के साथ अंग्रेजों ने सुरक्षा के नाम पर ब्लैकमेल कर ने वर्षों शोषण किया था।
1947 के बाद अधिकतर लोगों के मन में यह विचार था कि अब देशी रियासतों के साथ क्या होगा? कुछ रियासतों के नेता या 'ड्राइविंग फोर्स' कह लें, इन्होंने तो एक आजाद रियासत या 'स्वत्रंत रियासत' का सपना भी देखना आरम्भ कर दिया था। विभिन्न रियासतों ने यह दावा किया कि भारत या पाकिस्तान को पारामाउंटसी हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। तत्कालीन प्रधानमंत्री एटली ने भी फरवरी 1947 में यह कह दिया था कि भारत या पाकिस्तान को पारामाउंटसी सौंपने का कोई विचार नहीं है ।
जिन्ना अपने भाषणों में इस बात के लिए रियासतों के नेतृत्व को भटकारते थे तथा उन्हें स्वतंत्र समझने के लिए उत्साहित भी करते थे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने 20 फरवरी, 1947 के वक्तव्य को संशोधित करते हुए 18 जून 1947 को कहा कि “पारामाउंटसी की समाप्ति के बाद सभी रियासत स्वतंत्र संप्रभुसम्पन्न राज्य होंगे और वे यदि चाहें तो स्वतंत्र भी होगी। परन्तु ब्रिटिश सरकार को यह आशा थी कि सभी रियासतें कुछ ही समय के अंतराल पर धीरे-धीरे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के एक या दूसरे डोमिनियन के अंदर अपना उचित स्थान तलाश लेंगी।
भारतीय नेतृत्व को यह कतई मंजूर नहीं था कि रियासतों को स्वतंत्र भारत में एक स्वायत्त राज्य के रूप में जाना जाए। सरदार पटेल ने यह कहा कि रियासतों की जनता ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया है तथा भारत को ही एक राष्ट्र के रूप में माना है तथा इन्हें एक बिन्दु पर आकर विकल्प तलाशना ही होगा कि अपनी जनता की इच्छा के अनुरूप वह या तो भारत में रहें या पाकिस्तान में।
सरदार पटेल की विद्वता तथा राजनयिक महानता से सैकड़ों रजवाड़ों तथा रियासतों का भारतीय संघ में दो चरणों में विलय सफर हो पाया।
ट्रावणकोर भोपाल और हैदराबाद के राजाओं ने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया कि वे स्वतंत्र दर्जो का दावा पेश करना चाहते हैं। पटेल ने उन्हें यह कहा कि अपनी सुरक्षा, विदेश नीति तथा संचार के स्तर पर रियासतों को भारतीय संघ में जुड़ जाना चाहिए। पटेल की कठोरता तथा ख्याति से उन्हें विकल्प के रूप में कुछ खास नहीं करना था सिवाय भारतीय संघ में शामिल होने के। 15 अगस्त 1947 तक सभी रजवाड़ों तथा रियासत शामिल हो गए। जुनागढ़ कश्मीर तथा हैदराबाद ने 1948 में हाँ कर दिया । जुनागढ़ के राजा की बात को अनसुनी कर वहां की जनता ने विद्रोह कर दिया तथा भारत में ही रहने की इच्छा जाहिर की। जुनागढ़ का राजा पाकिस्तान भाग गया। यहीं पर नेहरू जी के एक निर्णय पर विरोधाभास का स्वर सुनायी देता है कि उन्होंने कश्मीर में भी जनमत संग्रह की बात स्वीकार कर ली जैसे कि जुनागढ़ में भी हुआ था। नेहरू ने यह समझा कि जिस तरह जुनागढ़ की जनता अपने नवाब शाहनवाज मुद्दों के खिलाफ थी उसी तरह कश्मीर में लोग भारत के साथ होंगे। बेनजीर भुट्टों के दादा ने यह नहीं समझा कि जुनागढ़ में 70% से अधिक हिन्दू है और नेहरू ने यह नहीं विचार किया कि कश्मीर के बहुसंख्यक मुस्लिम है।
कश्मीर की सीमा भारत और पाकिस्तान दोनो में मिलती थी। कश्मीर का राजा हरि सिंह न भारत और न ही पा.कस्तान में कश्मीर का विलय करना चाहता था। हरिसिंह जी मध्य मार्ग अपनाना चाहते थे। वह न तो लोकतंत्र चाहते थे और न ही सम्प्रदायिक तौर पर निर्मित देश के साथ रहना चाहते थे। फिर भी कश्मीर के कुछ राजनीतिक समूह जिसमें नेशनल कांफ्रोस शेख अब्दुल्लाह थे वो उस समय कश्मीर का विलय भारत में चाहते थे। भारतीय नेताओं ने सही रूप में कश्मीर के लिए कोई विशेष नीति नहीं बनायी थी। नेहरू के बारे में तो पहले ही यह उल्लेख कर दिया गया कि वो जम्मू-कश्मीर का संग्रह से फैसला करना चाहते थे। महात्मा गांधी जी ने भी सितम्बर 1947 में कश्मीर की जनता को अपने मन के अनुसार फैसला करने के की आग्रह किया परन्तु पाकिस्तान कुछ और चाहता था। वह जुनागढ और हैदराबाद में भी जनमत संग्रह के खिलाफ था। भारत भी पाकिस्तान के कारण कश्मीर मामले में भ्रम में आ गया। 22 अक्टूबर 1947 को सर्दियों के आरम्भ में गैर कानूनी रूप से पाकिस्तान के आर्मी के कई पठान कबीलाइयों ने कश्मीर की सीमा अवैध रूप से पार करके श्रीनगर की ओर बढ़ने लगें। हरि सिंह की सेना पाकिस्तानी आर्मी का सामना करने में सक्षम नहीं थी। 24 अक्टूबर को हरि सिंह ने मजबूरी वश भारत से सैनिक सहायता की अपील की। पर फिर भी पता नहीं क्यों नेहरू जी बिना कश्मीर में जनमत संग्रह कश्मीर को भारत में विलय हो जाने के पक्ष में नहीं थे परन्तु भला हो उस मांउट बेटन की आत्मा का जिन्होंने यह कहा कि अंतर्राष्ट्रय कानूनों के तहत भारत अपनी सेवाएं कश्मीर तभी भेज सकता है जब राज्य का औपचाकि तौर पर भारत में विलय हो चुका हो । सरदार पटेल और शेख अब्दुल्लाह पूरी तरह कश्मीर का विलय भारत में करने के पक्ष में थे, आखिर नेहरू ने विलय के लिए मजबूरी में हाँ कर दी तथा 26 अक्टूबर को कश्मीर भारत में विलय हो गया तथा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्लाह को कश्मीर के प्रशासनिक प्रमुख के रूप में स्वीकार करने को हाँ कर दिया।
पिछले तीन दशकों का आतंकवादी घटनाओं तथा कश्मीर के लिए भारत की असीम शक्ति के खर्च को देखते हुए यह दुर्भाग्य ही था कि उस समय महाराज हरि सिंह तथा शेख अब्दुल्लाह ने कहने पर भी भारत में कश्मीर का स्थायी विलय नहीं किया बल्कि यह घोषणा की कि शांति तथा कानून और व्यवस्था बहाल करने या होने के बाद विलय के निर्णय पर जनमत संग्रह किया जाएगा। कुछ इतिहास कार इसे मूल नहीं वरण् सरकार की जन प्रतिबंद्धता तथा माउंटबेटन की सलाह को मोल देना मानते हैं। अगर इन बातों को मान भी लिया जाए तो क्या यह कहना उचित नहीं कि उस समय तो न पाकिस्तान, न हरि सिंह और न ही शेख अब्दुल्लाह जनमत संग्रह को बहुत महत्व देते थे। आखिर भारत के तत्काल. ीन प्रधानमंत्री की छोर सिद्धांतवादी नीति का यह सबसे दुखदायी पक्ष ही था कि अभी तक हमारा देश इसे भोग रहा है।
जो भी हो उस समय की बात करते हैं, 26 अक्टूबर, 1947 के विलय के बाद केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने सेनाओं को आदेश दिया कि हवाई जहाज से सेनाओं को श्रीनगर पहुंचाया जाए। गांधी जी ने कहा कि किसी भी कीमत पर कश्मीर में शैतानों के आगे समर्पण नहीं करना चाहिए और आक्रमणकारियों को निकाल बाहर करना चाहिए। 27 अक्टूबर को दोपहर तक 100 हवाई जहाजों में सैनिक और हथियार श्रीनगर पहुंचाए गए और युद्ध की चुनौती स्वीकार की गई। सेना ने श्रीनगर को सबसे पहले आक्रमणकारियों से छुड़ाया फिर राज्य के कई हिस्सों को स्वतंत्र करवाया । महिनों तक सेना ने इस पर कार्य किया तथा कई मुठभेड़ होते रहे।
इसी बीच लगभग 30 दिसम्बर 1947 को नेहरू जी ने माउंटबेटन की सलाह पर कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भेजने को तैयार हो गई जिसमें पाकिस्तान द्वारा अतिक्रमण किए गए क्षेत्रों को खाली करवाने का आग्रह किया गया था नेहरू जी से यही बड़ी गलती हो गई क्योंकि उन्हें यह महसूस हुआ था कि संयुक्त राष्ट्र तटस्थ होकर फैसला करेगा लेकिन उन्हें यह क्या पता कि न्छ० ब्रिटेन और अमेरिका की शह पर पाकिस्तान का पक्ष लेने लेगा।
संयुक्त राष्ट्र ने "कश्मीर समस्या को भारत पाकिस्तान विवाद का रूप दे दिया तथा इस को मजबूत करने के लिए कई प्रस्ताव भी पारित कर दिए। इन्हीं प्रस्तावों में एक प्रस्ताव के तहत 31 दिसम्बर 1948 को युद्ध विराम कर लिया गया तथा राज्य कश्मीर का विभाजन युद्ध विराम रेखा के तहत कर दिया गया। नेहरू इस प्रगति से काफी दुःखी थे नेहरू इस सभी प्रगति के पीछे ब्रिटेन की साजिश को समझते थे परन्तु शायद उन्हें आत्मनिरीक्षण का यह अवसर नहीं मिला कि उन्होंने कश्मीर प्रस्ताव को न्छैब में ले जाने का फैसला एक ब्रिटिश के कहने पर ही लिया था।
1951 ई० में न्छ० ने एक और प्रस्ताव पास किया जिसके तहत च्ज्ञ (पाक अधिकृत कश्मीर) से सेना हटने के बाद जनमत संग्रह का प्रस्ताव था परन्तु पाकिस्तान ने च्ज्ञ से सेना बुलाने से इनकार कर दिया। यह सही है कि भारत ने अभी तक कश्मीर में अपने को प्रतिरोधात्मक स्तर पर ही बनाए रखा है। परन्तु पाकिस्तान 1980 के बाद परोक्ष युद्ध को आरम्भ कर हमारी सेना को चुनौती देता रहा है।
कश्मीर के इतर हैदराबाद भी स्वतंत्रता के बाद एक महत्वपूर्ण समस्या बना जिसे पटेल ने अपनी विलक्षण बुद्धिमता से हल किया। हैदराबाद के निजाम ने स्वतंत्रता के बाद भारत में विलय को स्वीकर नहीं किया तथा एक स्वतंत्र राज्य के तौर पर अपने को पेश किया।
मांउंटबेटन इस मामले में मध्यस्थता करने को उत्सुक रहते भी चुप था। यह सही है कि निजाम पाकिस्तान में शामिल होने को तैयार नहीं था। पटेल इस बात को जानते थे तथा समय का इंतजार कर रहे थे। ब्रिटेन हैदराबाद को ड्रोमिनियन स्टेट का दर्जा देने को तैयार नहीं थे। पटेल ने सार्वजनिक रूप से यह कह दिया कि भारत सरकार को यह कभी मंजूर नहीं होगा कि उसके क्षेत्र में ऐसी कोई जगह रह जाए जो हमारे संघ को बर्बाद कर दे।
नवम्बर 1947 में भारत सरकार ने निजाम के साथ एक संधि की इसमें यह कहा गया कि निजाम अपनी रियासत में एक ऐसी प्रतिनिधि मूलक सरकार का निर्माण करेगा जो आगे चलकर भारत में विलय को असान बनाएगी। इसके साथ यह भी तय हुआ कि संधि वार्ता जारी रहेगी। निजाम संधि वार्त्ता को लंबी खीच कर अपनी सैनिक शक्ति को मजबूत करने की नीति पर कार्य कर रहा था। इसी बीच हैदराबाद में कांग्रेस के द्वारा एक जनवादी आंदोलन की शुरूआत हो गई तथा तेलंगाना क्षेत्र में वामपंथी आंदोलन बनने लगे। निजाम इसमें उलझने में शक्ति लगाने की पुरजोर कोशिश करने लगा।
जून 1948 में सरदार पटेल ने नेहरू को अस्पताल के बेड से ही एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने यह लिखा कि हमें अब और इंतजार नहीं करना चाहिए तथा हैदराबाद के निजाम को कह देना चाहिए कि विलय से कुछ मंजूर नहीं है। और वह भी बिना शर्त । निजाम फिर भी नहीं माना तथा 13 सितंम्बर 1948 में सेना अंतत: हैदराबाद में प्रवेश कर गई। तीन दिनों के बाद निजाम ने आत्मसमर्थन कर दिया तथा नवम्बर 1948 में भारत में विलय को स्वीकार कर लिया। भारत सरकार ने निजामों को सजा नहीं दी तथा उसे एक औपचारिक राज्य प्रमुख के तौर पर बहाल रखा तथा 50 लाख रूपये प्रत्येक साल देने की बात की तथा कोई भी संपत्ति लेने से इनकार कर दिया।
हैदराबाद के विलय के साथ ही भारत सरकार का यह कठिन विलय का कार्य सम्पन्न हुआ तथा पटेल को महान नेता के तौर पर स्थापित भी किया। पटेल ने इतने बड़े देश को एक शासन में लाने के लिए सिर्फ एक साल खर्च किया तथा सफल रहे।
अब भारत के क्षेत्र में दो ऐसे प्रांत थे जो अभी भी विदेशियों के कब्जे में थे। ये थे पांडिचेरी तथा गोवा। 1954 मे फ्रांसीसियों ने भारत को यह राज्य (पांडिचेरी) सौंप दिया तथा कोई हिंसा भी नहीं हुई।
गोवा का मामला दूसरा था । पुर्तगाली यहां से जाने को तैयार नहीं थे। ब्रिटेन और अमेरिका पुर्तगाल को उकसा रहे थे। भारत अपनी सीमा विवाद को शांति पूर्ण तरीके से सुलझा लेने के प्रति समर्पित था। गोवा की जनता काफी आंदोलित हो गई तथा उसने एक आंदोलन आरम्भ कर दिया। 17 दिसंबर 1961 को रात में सेना को नेहरू ने गोवा में प्रवेश करने का आदेश दे दिया। गोवा के गवर्नर जनरल ने बिना युद्ध के ही समर्पण कर दिया तथा भारत को संघ तथा एक सम्प्रभु के रूप में उसी दिन से पहचान मिली।
4. विभाजन से जन्म लेने वाले तत्कालीन समस्याओं में प्रमुख थे:
1. शरणार्थियों की समस्या
2. पुनर्वास
3. साम्प्रदायिकता
4. महामारी
5. पाकिस्तान की दुष्टता
विभाजन के बाद लगभग 60 लाख शरणार्थियों की देखभाल तथा पुनर्वास एक अहम समस्या थी सांप्रदायिकता भी इसके साथ एक अहम समस्या थी। सबसे बड़ी बात साम्प्रदायिकता का जहर जो पश्चिमी भारत से पूर्वी भारत तक फैल गया था। साम्प्रदायिकता को तो प्रलय भी कहा जा सकता है। प्रलय कहने का मतलब यह है कि साम्प्रदायिक हिंसा में उस समय लगभग 5 लाख लोग मार डाले गए, इसके आलावा अरबों लोगों की संपत्ति भी बर्बाद हो गई या लूट ली गई। साम्प्रदायिक हिंसा ने समाज के जड़ चेतन को समाप्त कर दिया। इसी कारण तत्कालीन सरकार को इन महान संकटों का सामना करना पड़ा सरकार को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि उस साम्प्रदायिक झंझावात की लत देश को नहीं लगने नहीं दी तथा एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में भारत की स्थापना की।
भारत ने सेना की मदद से बहुत जल्दी तत्कालीन स्थिति पर काबू कर लिया तथा साम्प्रदायिक हिंसा की कमर तोड़ दी गई। सबसे अधिक महत्व इस बात का है कि सरकार मुस्लिम अल्पसंख्यकों को सुरक्षित रखने में सफल रही। इसी कारण भारत में लगभग साढ़े चार करोड़ मुसलमानों ने भारत में ही रहना पसंद किया । धीरे-धीरे भारत की छवि एक महान धर्मनिरपेक्ष देश की बन गई। इसी के साथ एक धर्मनिरपेक्ष संविधान का निर्माण भी आरम्भ हो गया।
यह सही है कि साम्प्रदायिकता को नियंत्रित कर दिया गया था पर पूर्णत: समाप्त नहीं किया गया था। क्योंकि परिस्थि तियां अनुकूल उतनी नहीं थी जितनी आवश्यक थी। नेहरू ने मुस्लिम लीग के विरोध के साथ हिंदुओं के बीच फासीवादी विचारधारा की 'उत्पत्ति' को भी एक चिंतनीय स्थिति का दर्जा दिया तथा यह कहा कि अभी भी हमें अपनी विचारधारा को भटकाव से बचाने की आवश्यकता है। नेहरू भारत में एक 'साम्प्रदायिक संस्कृति' विकसित होने से रोकने को काफी कोशिश करने की बात करते थे। 'भारत एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष राज्य हो' इसके लिए नेहरू काफी प्रयासरत रहते थे।
गांधी जी तो साम्प्रदायिकता के इतने खिलाफ थे कि 'स्वतंत्रता के अवसर' को वह मातम के तौर पर ले रहे थे। उनकी अंतिम सांस भी साम्प्रदायिकता के विरोध में ही थी।
साम्प्रदायिकता के अलावा जो शरणार्थियों की समस्या थी, उसमें बंगाल से आने वाले शरणार्थियों की समस्या सबसे अधिक थी। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि वहां से हिंदूओं का आना सालों तक लगातार जारी रहा। जहां पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले सभी हिंदू और सिख सामूहिक तौर पर 1947 में ही भाग कर आ गए। वहीं पूर्वी बंगाल में हिन्दू बहुत दिनों तक रूके रहे जब भी पूर्वी बंगाल में दंगा भड़कता था वहां से कुछ टुकड़े में हिन्दू आने लगे या आते गए। यह रफ्तार 1971 तक लगातार जारी रही। जहां पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थी पंजाब, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में बस गए वहीं पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को असम या पश्चिमी बंगाल में बसाया गया। इसके अलावा त्रिपुरा में बसाया गया पर शरणार्थियों की संख्या अधिक होने के कारण एक तो घनत्व बढ़ गया वहीं निम्न मध्यवर्गीय शहरी जनसंख्या में असमान वृद्धि हो गई। पूर्वी भारत विशेषकर बंगाल और असम में अभी तक शरणार्थियों की समस्या देखने को मिल रही है।
पाकिस्तान की कुटनीतिक तथा दुष्टतापूर्ण चाल को मात देने की भी समस्या स्वतंत्रता के बाद सबसे अधिक सरकार के लिए चिंता की बात थी। विपीन चन्द्रा के अनुसार "जनवरी 1948 में भारत सरकार ने गांधी जी द्वारा अनशन के बाद विभाजित संपत्ति के रूप में 55 करोड़ रूपए पाकिस्तान को अदा कर दिए। हालांकि यह डर बना हुआ था कि इस पैसे का कश्मीर में सैनिक कार्रवाईयों को वित्तीय मदद देने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।" फिर भी पाकिस्तान सरकार कश्मीर मुद्दे को तनाव का केन्द्र मानता रहा तथा पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं को सताने का सिलसिला जारी रहा। नेहरूजी ने पाकिस्तान को यह बार-बार कहा कि वह हिन्दुओं की सुरक्षा का ख्याल रखे। एक बार तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देकर निजी व्यक्ति के तौर पर पूर्वी बंगाल जाने का निर्णय भी कर लिया।
8 अप्रैल 1950 ई० को नेहरू लियाकत समझौते में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी गई। इसके अलावा भी पाकिस्तान के साथ कई और समझौते हुए।
पाकिस्तानी समस्याओं से इतर स्वतंत्रता के बाद की सरकार के सामने की वामपंथ की समस्याओं का भी वर्णन जरूरी है। सी० पी० आई० की कई गतिविधियों की नेहरू कड़ी निन्दा करते थे। फिर भी उन्होंने कभी उन्हें देश के लिए खतरा नहीं कहा। उन्होंने वामपंथी दलों को 'एक आर्थिक सामाजिक विचारधारा' बताया।
संक्षेप रूप से कहा जाए तो सरकार की प्राथमिकताएं विभिन्न समस्याओं के मंचन से ही निकाली थी जो तत्काल रूप में समाधान चाहती थी। सरकार ने पुरजोर प्रयास किए तथा कुछ हद तक सफल भी रही।
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