स्वातंत्र्योत्तर भारत : औपनिवेशिक विरासत

स्वातंत्र्योत्तर भारत : औपनिवेशिक विरासत

स्वातंत्र्योत्तर भारत : औपनिवेशिक विरासत

1. परिचय

15 अगस्त 1947 को भारत एक स्वतंत्र देश के तौर पर विश्व बिरादरी में शामिल हुआ। भारत की यह स्वतंत्रता वर्षों की गुलामी और प्रखर राष्ट्रीय चेतना से उत्पन्न आंदोलन के बाद प्राप्त हुई थी।
सैकड़ों वर्ष में एक उपनिवेश के तौर पर भारत की पहचान में दीर्घकालिक परिवर्तन हो गया था। मुख्य रूप से प्राचीन काल में जो भारत अपनी एक पृथक स्थिति समृद्धता तथा आत्मनिर्भरता के लिए जाना जाता था, परन्तु मध्यकाल में एक संक्रमण का उत्पन्न होना तथा ब्रिटिश गुलामी के बाद यह स्थिति बदल गयी ।

2. आखिर ब्रिटिश शासन से भारत में क्या बदलाव हुए ?

यह सत्य है कि अंग्रेजी शासन से भारतीय बुनियादी संरचना में सकारात्मक परिवर्तन हुए, परन्तु यह परिवर्तन मानवीय तथा कल्याणकारी न होकर व्यापारिक ही थे । ब्रिटिश शासन से भारतीय तंत्र पूरी तरह बदल गया । अंग्रेजों ने भारतीय तंत्र में जो भी परिवर्तन किए उसने कहीं-न-कहीं पिछड़ेपन को ही जन्म दिया। ये पिछड़ापन बहुआयामी था। प्रत्येक क्षेत्र इससे प्रभावित हुआ। कृषि, उद्योग, वित्त, नागरिक, शिक्षा, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र इत्यादि क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार के द्वारा असंख्य क्षति पहुँचाई गई। विभिन्न क्षेत्रों में जो क्षति पहुंचाई गई उसका भयंकर परिणाम मिला और वह था एक गुलाम अर्थव्यवस्था तथा अकाल से उत्पन्न गरीबी की मार ।

3. भारतीय कृषि पर उपनिवेश का प्रभाव

औपनिवेशिक शासन में सबसे नकारात्मक प्रभाव कृषि पर पड़ा । अंग्रेजी सरकार ने अपने लाभ के लिए भारतीय कृषि की पारम्परिक सहजीविता को समाप्त कर दिया तथा धीरे-धीरे कृषि अनुशासन शून्य हो गया।
निम्नांकित पहलुओं से हम कृषि पर औपनिवेशक प्रभाव को समझ सकते है:
  1. 20वीं सदी के आरम्भ में जो कृषि उत्पादन की व्यवस्था थी वह 1940 के दशक में आते-आते 14 प्रतिशत की गिरावट के साथ उत्पादित होने लगी। इसमें प्रति व्यक्ति की स्थिति तो और भी खराब हो गई। जहां 1901 में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन अधिशेष में था वह 1940 के बाद 24 प्रतिशत की कमी के रूप में दर्ज होने लगा।
  2. कृषि क्षेत्रों में सामंतीकरण और उपसामंतीकरण की अवधारणा उत्पन्न होने लगी। इसमें बटाईदारी तथा अधीनस्थ काश्तकारी प्रथा को बल मिला । स्वतंत्रता के पहले दशक में लगभग 70 प्रतिशत भूमि पर जमीदारों का कब्जा हो चुका था।
  3. महाजन पद्धति की पहचान औपनिवेशिक शासन के लिए एक पर्याय बन गया। औपनिवेशन महाजन गठजोड़ से कृषि उत्पादन का लगभग 50% चट कर जाता था।
  4. औपनिवेशिक शासन की संकल्पना कृषि विकास के लिए शून्य थी। यह शासन सिर्फ लगान वसूलने में दिलचस्पी रखता था। कृषि के उत्पादन के लिए अंग्रेजी सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया।
  5. भूमिहीन खेतिहिर मजदूरों की संख्या अत्याधिक हो गई तथा जहां 1875 ई० में कृषक आबादी का सिर्फ 15 प्रतिशत भूमिहीन मजदूर थे, वहीं 1951 में यह लगभग 28% हो गया।
  6. कृषिगत भूमि के छोटे होने से कृषि हानि का व्यापार हो गया। अधीनस्थ काशतकारी ने इसे काफी आगे बढ़ाया।
  7. कृषि में व्यावसाधिक उत्पादन का आरम्भ तो हुआ तथा भारत की खेती विश्व के बाजारों से जुड़ गई परन्तु पूंजीवादी खेती के साथ तकनीकी विकास नहीं हो पाया तथा योग्य भूमि को व्यापारिक फसलों के लिए प्रयोग किया जाने लगा।
  8. कृषि के लिए ब्रिटिश सरकार ने कोई दीर्घकालिक नीति का निर्माण नहीं किया तथा प्रशिक्षण की मात्रा नगण्य ही रही। जिससे खेती का आधुनिकीकरण नहीं हो पाया। जो भी कृषिगत औजार थे वह सदियों से बदले नहीं गए थे। स्वतंत्रता के पहले अधिकतर मुगलकालीन हल ही प्रयोग में आता था।
  9. कृषि को आपदा से बचाने के लिए कोई प्रखर योजना नहीं थी तथा कृषि अनुसांधन के लिए कोई संस्था भी नहीं थी। सही तौर पर देखें तो 1946 तक देश में सिर्फ 9 कृषि महाविद्यालय थे।

4. उपनिवेशवाद का भारतीय उद्योग पर प्रभाव

प्राचीन तथा मध्यकाल में भारतीय उद्योग विशेषकर हस्तशिल्प तथा दस्तकारी उद्योग अतुल्य था। 19वीं सदी में दस्तकारी उद्योग का पतन अधिक तेजी से हुआ क्योंकि ब्रिटेन से सस्ते औद्योगिक वस्तुओं कर आयात अधिक मात्रा में होता था।
उद्योग पर उपनिवेशवाद के प्रभाव
  1. भारतीय उद्योग अपनी परम्परागत तथा अंतर्संबंधीय तंत्र के कारण काफी तेजी से विकसित हुआ था। आरम्भ से ही यूरोप तथा मध्य एशिया से भारतीय माल की मांग सर्वाधिक रहती थी। परन्तु अंग्रेजों ने मुक्त व्यापार की नीति लागू कर भारतीय औद्योगिक तंत्र की कमर तोड़ दी।
  2. ब्रिटेन से सस्ते औद्योगिक वस्तुओं के आयात होने से दस्तकारी तथा शिल्प उद्योग चौपट हो गया तथा कृषि पर इसका विपरीत बोझ पड़ गया।
  3. औद्योगिक विकास पूरी तरह से ठप्प पड़ गया था तथा जो भी विकास हो रहा था वह चाय, कपास, तथा जूट उद्योग तक ही सीमित था। इससे धीरे-धीरे जनसंख्यात्मक बोझ बढ़ गया था। स्वतंत्रता के तुरंत बाद आधुनिक उद्योगों से प्राप्त कुल राष्ट्रीय आय का मात्र 7.5% था।
  4. भारतीय उद्योग को ब्रिटिश सरकार ने पूरी तरह परजीवी बना दिया था। 1950 ई० में भारत ने अपनी आवश्यकता की 90 प्रतिशत मशीनों का आयात किया था।
  5. उद्योगों की पतनशील स्थिति का पता इसी से लगया जा सकता है। कि जब 1901 में मात्र 63.7% लोग खेती पर आश्रित थे वहीं 1941 ई० तक आते-आते यह संख्या 70 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। दूसरी तरफ विभिन्न उद्योगों जैसे:- निर्माण उद्योग में जहां 1902 ई० में 1 करोड़ 40 लाख लोग कार्यरत थे वहीं 1951 में सिर्फ 88 लाख लोग हैं कार्यरत थे।
  6. 1940 ई० तक भारतीय औद्योगिक तंत्र में विदेशी पूंजी का वर्चस्व हो गया था। विदेशियों ने भारतीय उद्योग की विभिन्न शाखाओं पर कब्जा कर रखा था। अधिकतर कंपनियां जैसे:- बैंकिंग, बीमा, चाय, कोयला, कॉफी यहां तक कि जहाजरानी जैसे उद्योग ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए थे।
  7. भारतीय औद्योगिक तंत्र के गलत नेतृत्व का खामियाजा असमान क्षेत्रीय विकास के रूप में देखने को मिला। देश के कम ही क्षेत्रों में अधिक मात्रा में उद्योग लगे हुए थे। इससे क्षेत्रीय स्तर पर आय की असमानता फैली तथा एकता पर बुरा प्रभाव पड़ा।

5. उपनिवेशवाद का बुनियादी संरचना पर प्रभाव

ब्रिटिश सरकार के द्वारा किया गया यही एक ऐसा क्षेत्र है जो कहीं-न-कहीं सकारात्मकता को आत्मसात करता है। स्वतंत्रता के बाद पहले की बुनियादी संरचना ने एक आधार का कार्य किया तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार तत्व के रूप में इसके द्वारा प्रारम्भ जोन बनाया गया। देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद लगभग 1948 में भारत के पास लगभग 66000 मील पक्की सड़क और करीब 42,000 मील रेलवे लाईन मौजूद थी। सड़क और रेल ने देश के विभिन्न क्षेत्रों की दूरी कम करने के साथ एकता को भी बढ़ावा दिया।
विभिन्न स्तर पर विश्लेषण से यह पता चलता है। कि बुनियादी संरचना के विकास का लाभ भारतीयों को एकता बढ़ाने के अलावा कुछ खास नहीं मिला क्योंकि बुनियादी संरचना के विकास के साथ उस तेजी से उद्योगों का विकास नहीं हो रहा था जिससे कि भारत की जनता को लाभ हो।
इसके उलट ब्रिटिश सरकार को बहुत लाभ हुआ क्योंकि रेलवे विकास से कच्चा माल बंदरगाह तक आसानी से और तेजी से जा सकता था जिससे कि आयातित वस्तुओं का प्रसार भारत में आसानी से हो सके। रेल का विकास आंतरिक व्यापार की दृष्टि से नहीं किया गया था। भारत में इससे इस्पात तथा मशीन उद्योग पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा।

6. उपनिवेशवाद का शिक्षा पर प्रभाव

ऐसे तो स्वतंत्रता के समय शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीय लोगों का छोटा ही सही परन्तु एक बुद्धिजीवी वर्ग तैयार हो गया था परन्तु अंग्रेजो ने शिक्षा के तंत्र को 'ब्रिटिश जटिलता' का शिकार बना दिया। मैकाले ने ब्रिटेन के लाभ के मकसद से भारतीय शिक्षा तंत्र का विकास किया। परन्तु पूरे भारत में एक समान शिक्षा प्रणाली लागू करने का लाभ हुआ। इससे एक उच्च शिक्षित बुद्धिजीवियों का विशाल वर्ग तैयार हुआ जिसने उपनिवेशवाद के नकारात्मक पहलुओं को जनता के सामने लाकर रख दिया। फिर भी अंग्रेजों ने उस शिक्षा पद्धति के माध्यम से ऐसी नीति लागू की जिससे भारतीय भाषाओं का पूर्ण विकास नहीं हो पाया। अंग्रेजों ने 'याद आधारित ' प्रतियोगिता आरम्भ कर एक पुराने ढर्रे को ही आगे बढ़ाया। इससे साक्षरता का स्तर बढ़ नहीं पाया।
1951 में करीब 84% लोग निरक्षर थे तथा औरतों में तो सिर्फ 8.10 ही साक्षरता की दर थी। देश में स्वतंत्रता के बाद 13,590 माध्यमिक स्कूल तथा 7,288 हाई स्कूल थे।
अंग्रेजों ने वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा के प्रसार को जानकर रोके रखा तथा शोषण को आगे बढ़ाया। 1947 में भारत में सिर्फ 7 इंजीनियर कॉलेज थे जिनमें सिर्फ 2500 छात्र ही पढ़ रहे थे।

7. उपनिवेशवाद तथा भारतीय लोकनीति

ऐसे तो इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों का चुना जाना 1919 के बाद से आरंभ हो गया परन्तु असली सत्ता का नियंत्रण ब्रिटिश के हाथ में होने से लोकनीति का निर्माण सामंतकारी ही रहा। अधिकतर नीतियां तो ब्रिटेन में ही बनती थी। ऐसे नीति निर्माण में योगदान देने वाले भारतीय अफसर भी अधिकतर अंग्रेजों के ही चमचे हुआ करते थे। इससे किसी लोक-कल्याणकारी नीति निर्माण का सपना देखना असंभव ही था। कोई सामाजिक-आर्थिक नीति जनता की भलाई के लिए लागू नहीं थी। जो भी नीतियां बनती थी वह जनता के शोषण के लिए ही थी तथा अंग्रेजों के काम के लिए ही थी। सही तौर पर देखा जाए तो लोकनीति का निर्माण होता तो था परन्तु वह अंग्रेजी जनता के कल्याण के लिए ।

8. उपनिवेशवाद तथा भारतीय जनता के स्वास्थ्य की समस्याएं

स्वास्थ्य का हाल तो इसी बात से लग सकता है कि 1943 ई० में देश में सिर्फ 10 मेडिकल कॉलेज थे तथा सिर्फ 1000 डॉक्टर थे। लगभग 7500 स्वास्थ्य कर्मचारी थे। 1951 में देखा गया तो 180000 डॉक्टर थे तथा अस्पतालों की
संख्या सिर्फ 1915 थी। इसके अलावा 6,589 डिसपेंसरी थी। अधिकतर भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं से पूरी तरह वंचित थे परन्तु धनी लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवा की सहुलियत थी।

9. औपनिवेशिक शासन तथा नागरिक अधिकार

औपनिवेशक सरकार ने वैसे तो नागरिक अधिकार को लागू कर रखा था परन्तु जन आंदोलनों के डर से इस पर बार-बार प्रतिबंध भी लगा दिया जाता था। 1900 ई० तक आते-आते प्रेस आजादी तथा बोलने की आजादी पर कई बार रोक लगाने की कोशिश की गई।
विधान मंडल में भारतीयों का प्रवेश आरम्भ हुआ परन्तु कोई शक्ति नहीं दी गई जिससे कि नागरिक को कोई लाभ मिल सके। 1919 में मात्र 3% ही मताधिकार का प्रयोग कर सकते थे। 1935 के बाद 15% ही इसका प्रयोग कर सकते थे। विभिन्न राष्ट्रवादियों ने नागरिक अधिकारों का प्रयोग उपनिवेशवाद का विरोध करने में किया तथा इसका प्रभाव भी बृहत् स्तर पर हुआ।
न्याय तंत्र की एक बात अच्छी थी कि नागरिकों से जाति और लिंग के आधार पर पक्षपात नहीं किया जाता था। परन्तु यूरोपीय तथा भारतीय इन दो स्तरों पर न्यायालयों का फैसला पक्षतापूर्ण हो जाता था।

10. निष्कर्ष

निष्कर्षतः हमें उपनिवेशवाद से जो स्वतंत्र भारत को मिला उसे निम्नांकित बिन्दुओं में प्रकाशित कर सकते है:
  1. गरीबी तथा अकाल 
  2. पिछड़ापन (आर्थिक) तथा दरिद्रता 
  3. भारतीय औद्योगिक तंत्र बर्बाद हो गया। 
  4. कृषि पर बोझ के बढ़ने से आय की दर कम हो गई। 
  5. धन का निष्कासन बृहत् मात्रा में हुआ। 
  6. भारतीय कर ढांचा का विनाश हो गया। 
  7. जनता का जीवन स्तर निम्नतम हो गया। 
  8. भारतीय प्रशासनिक तंत्र ब्रिटिश प्रभाव में चला गया। 
  9. भारतीय भाषा का विकास अवरुद्ध हो गया। 
  10. असमान क्षेत्रीय विकास के होने से अर्थव्यवस्था का विकास ठीक से नहीं हो पाया।
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