स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में गठन : आधार

स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में गठन : आधार

स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में गठन : आधार

1. परिचय
एक औपनिवेशिक भारत के रूप में हमारे देश को अंग्रेजों ने विश्व में इसकी एक अलग पहचान देने की भरसक कोशिश की। फिर भी भारत एक राष्ट्र के रूप में स्वतंत्रता के बाद अपनी उन हजारों सालों की सभ्यता और संस्कृति को नहीं भूल पाया था तथा अपनी विविधता तथा राष्ट्रवाद की प्रवृत्ति के साथ उभरा तथा स्वतंत्रता संघर्ष की ताजी तथा जहरी अनुभूतियों के साथ अपने महान गठन की ओर बढ़ चला।
बहुत बड़े स्तर पर अपनी संस्कृतियों की विविधता के साथ तथा सभी विरासत के साथ भारत ने अनेक उपलब्धियां हासिल की थी। इन्हीं विरासत के द्वारा भारत को अनेकता में एकता को गढ़ने का बल मिला तथा सहिष्णुता तथा मतभेद को मनभेद में न बदलने का साहस भी मिला। कुछ इतिहासकारों के द्वारा यह बात लिखी गई है कि राजनीतिक और प्रशासनिक एकता के तत्व तो मुगलों के अधीन विकसित हुए थे परंतु अगर प्राचीन भारत की बात करने पर यह एकता मौर्यकाल में भी देखने को मिली है।
एक उपनिवेश के तौर पर भारत की पहचान के पहले यानी मध्यकाल में भी भारत में यातायात तथा संचार के व्यापक साधनों के अभाव के बावजूद भारत में व्यापार, उत्पादन तथा अधिशेष कृषि की अवधारणा महान तौर पर विकसित होने की भी काफी स्तर पर कही जाती है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के महान तत्व को हम इस तरह रेखांकित करते हैं कि हमारी इस व्यवस्था में ग्रामीण स्तर पर सभी संस्कृति की विरासत तथा 'आपसी निर्भरता' की जटिलता बहुत बड़े स्तर पर विकसित थी। इस व्यवस्था ने एक सभ्य समाज तथा राष्ट्रीय एकता की जड़ को काफी मजबूत किया हुआ था। ब्रिटिशकाल में इसे बर्बाद करने की पुरजोर कांशिश करने के बावजूद इसकी भावना खत्म नहीं हुई थी।
ब्रिटिश उपनिवेशवाद की नकारात्मकता ने भारतीय समाज में एक महान जागरूकता पैदा की तथा बृहत् स्तर पर अन्य काफी आंदोलनों का जन्म हुआ तथा इन्हीं आंदोलनों के फलस्वरूप हमारी एक समान राजनीतिक पहचान तथा सांस्कृतिक निष्ठा का विकास हुआ तथा एक 'भारत राष्ट्र' की अवधारणा की बात आरंभ हुई।
राष्ट्रीय आंदोलन की प्रवृत्ति ने भारतीय समाज को एक राजनीतिक पहचान के साथ सामाजिक जागरूकता का भी बोध कराया। इतिहासकार विपिनचन्द्र लिखते हैं कि “भारत अपने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्र बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया से रू-ब-रू हुआ तथा एक लंबी छलांग लगाई। इसके अलावा, इस आंदोलन की गहराई, दीर्घ कालीनता और सामाजिक पैठ, एकता की इस भावना और राष्ट्रीयता को आम जनता के बीच ले गया। "
तत्कालीन आंदोलन के प्रणेताओं को अच्छी तरह पता था कि भारत अभी भी एक सुगठित राष्ट्र नहीं है तथा मात्र इसे बनने की प्रक्रिया पूरी हो रही है। तत्कालीन नेताओं को स्वतंत्रता पाने की मंजिल ही सामने नहीं थी वरण् उन्हें यह भी पता था कि स्वतंत्रता के बाद एकता, अखंडता तथा राष्ट्रीय समिता के लिए पुरजोर कोशिश करनी होगी। इस परिप्रेक्ष्य में जवाहर लाल नेहरू ने 1952 में यह कहा कि "सबसे महत्वपूर्ण पहलू, सर्वोच्च पहलू, भारत की एकता है।" इसके बाद लगातार नेहरू ने हरेक उपलक्ष्य में यह कहा कि "राष्ट्रीय एकता का पोषण हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता " इसके पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य था और वह उद्देश्य एक महान राष्ट्र का गठन था जो प्रासंगिक भी हो तथा विश्व स्तर पर स्वीकार्य भी है।
तत्कालीन स्थिति में भारत जैसे घोर जटिलता तथा विविधता वाले देश को एक समान आर्थिक योजना तथा सांस्कृतिक विभिन्नताओं में समान लक्ष्य रखना एक जटिल लक्ष्य था। इसके बावजूद स्वतंत्रता के बाद तत्कालीन सरकार ने विभिन्न भाषाओं धर्म तथा संस्कृति को एक सूत्र में गठने की कोशिश हुई इसी परिप्रेक्षय में सरकार ने 14 प्रमुख भाषाओं को पहचाना तथा 1961 की जनगणना में 1549 भाषाओं को मातृभाषा के रूप में दर्ज किया गया था।
उपर्युक्त विविधताओं के बाद भी ये अनेकता राष्ट्रीय एकता के रास्ते में बाधा नहीं बनी तथा राष्ट्र के निर्माण में एक महान नींव की शुरूआत यहीं से हुई। तत्कालीन नेताओं ने यह जरूर कोशिश की कि विविधता से राष्ट्र को लाभ होना चाहिए न कि एक बाधा बन जाए। विविधता को ही सबसे बड़ा हथियार मानकर सरकार ने भारत को एक राष्ट्र के गठन के रूप में विकसित करने की बात कही। तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व ने अपनी भाषा, संस्कृति, धर्म और विभिन्नताओं को अपनी शक्ति बनाकर सकारात्मक रूप से इसका उपयोग कर गणतंत्र भारत को एक महान देश के रूप में गठन करने की सोच बनायी।
हम यह नहीं कह सकते कि सिर्फ सोच बना देने से विविधाएं शक्ति की स्रोत बन गयी और यह तत्कालीन नेताओं को पूरी तरह ज्ञात था कि यह विविधताएं कमजोरी का स्रोत भी बन सकती थीं। ये विविधताओं को नकारात्मक रूप से प्रयोग कर कुछ तत्व साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषावाद और क्षेत्रीयतावाद को भी बड़े स्तर पर फैलाने की मंशा रखते थे। इसके अलावा एक बड़े परिवर्तन की ओर देश बढ़ रहा था और इसके परिणाम स्वरूप रोजगार, शिक्षा, सत्ता तथा सहभागिता के भी मुद्दे साझे थे।
1947 के बाद भारतीय तंत्र को एक राष्ट्र के रूप में सुदृढ़ीकरण एक व्यापक रणनीति के तहत किया गया जिसमें क्षेत्रीय एकीकरण, राजनीतिक और संस्थागत संसाधनों का संचालन, एकीकरण, अनुकूल सामाजिक ढांचे का विकास, सामाजिक न्याय को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां वीभव्य समानताओं का उन्मूलन और समान अवसर उपलब्ध करना शामिल था।
स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक शीर्ष नेतृत्व ने एक न बिखरने वाली राजनीतिक तथा संवैधानिक संस्था के ढाँचों के निर्माण में अपनी ताकत को झोकने का प्रयास किया। यह लक्ष्य रखा गया कि विकास और अखण्डता के लिए एक साथ प्रयास किए जाए। नेहरू ने बार-बार अपने संबोधन में यह बताने की कोशिश की कि जनतांत्रिक रवैये को आदर देते हुए विकास की तरफ बढ़ना होगा। उन्होंने कहा कि भारत में अगर राष्ट्रीय एकता रखनी है तो सिर्फ जनतांत्रिक तरीका ही ऐसा हैं जिसमें विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों को एक नया आयाम मिल सकता है।
हमारा संविधान जब बना तो इसकी आत्मा में ही 'राष्ट्रीय एकता' को बनाए रखने की प्रवृत्ति थी। इसने एक मजबूत केन्द्रीय संरचना के साथ राज्यों को भी काफी मात्रा में शक्तियां देकर एक " संतुलित विभाजन शक्ति का" कर दिया। संविधान ने राष्ट्रीय मजबूती के लिए विकेन्द्रीकरण और विखणन, 'केन्द्रीकरण तथा एकता' के बीच एक लक्ष्मण रेखा खींच दी जिसमें भारत एक महान राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर हो सके। संविधान ने राष्ट्र निर्माण की विचारधारा चुनावी लोकतंत्र के माध्यम से आगे बढ़ाने की कोशिश की तथा भारतीय लोकतंत्र को विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पद्धति बनने में मदद की।
चुनावी लोकतंत्र भारत में विभिन्न विचारों वाली राजनीतिक पार्टीयों के आपसी सामंजस्य को प्रासंगिक बनाने की कोशिश की तथा यह प्रयास किया कि अलग-अलग विचार रखना भी एक संविधान, एक राष्ट्र तथा एक लक्ष्य को रखकर आगे बड़ा जा सके। इसका परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन परिप्रेक्ष्य मे समाजवादी कम्यूनिस्ट, जनसंघ, कांग्रेस इत्यादि दल देश की एकता के लिए हमेशा प्रयासरत रहे ।
उपरोक्त राजनीतिक दलों ने प्रत्येक बार कहीं न कहीं राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के प्रयास किए। ये दल राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए काफी प्रयास करते थे। सभी दलों की विचारधारा अलग-अलग जरूर थी पर अखिल भारतीय स्तर पर एकता तथा अखण्डता के मुद्दे पर काफी समानताएं थीं। इन दलों के नेताओं की सोच तथा विचार राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता के मुद्दे पर पूर्ण रूप से एक समान ही थे। नेहरू, पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद जो सोचते थे वही सोच राष्ट्रीय एकता के प्रति जयप्रकाश नारायण जी, कृपलानी, राम मनोहर लोहिया तथा श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भी थी।
कांग्रेस का सिद्धांत उदारवादी था और उसने इसी रवैये से ही स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विभिन्न राजनीतिक सिद्धांतों तथा विचारों को एक किया था। स्वतंत्रता के बाद भी कांग्रेस का यह उदारवादी रवैया बना रहा। इन्होंने विरोधी दलों तथा विरोधी विचारों को सुनने और प्रसन्न करने की कोशिश की । वामपंथी दलों की हिंसात्मक प्रवृत्ति के बावजूद नेहरू ने उन्हें एक जगह दी तथा हिंसा छोड़ने के बाद इन्हें सामाजिक तथा राजनीतिक भागीदारी देने की भरसक कोशिश भी की। प्रशासनिक ढांचों को अनुशासित तथा शक्तिशाली बनाने के भरसक प्रयास आरम्भ हुए तथा इन सेवाओं में जाति-धर्म से उठकर समाज के सभी वर्गों को प्रवेश की सुविधा प्रदान की गई। इन सेवाओं की प्रकृति संधीय थी और केन्द्र सरकार के प्रति अफसर अपनी निष्ठा रखते थे। इसके अलावा भारतीय सेना भी राष्ट्रीय स्तर की हुई तथा राजनीतिक दलों तथा एजेण्डों से प्रशासन और सेना को अछुता रखा गया।
इसके अलावा राष्ट्रीय एकता के लिए सामाजिक न्याय और व्यापक सामाजिक एवम् आर्थिक आजादी को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को आगे करने की कोशिश हुई। नेतृत्व ने राष्ट्रीय संरचना की कोशिश को गरीब जनता के पक्ष में सामाजिक तथा आर्थिक विकास से जोड़कर रखा । स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र के निर्माण की एक बहुत बड़ी शक्ति यही थी कि आम जनता को किस तरह एक बड़ी भूमिका दी जाए। इसके लिए सबसे आवश्यक यही था कि आर्थिक विकास एवम् राजनीतिक स्वतंत्रता का लाभ जन-जन तक पहुँचे।
आम जनता की सहभागिता को संविधान में काफी स्थान दिया गया। सामाजिक असमानता तथा राजनीतिक भूमिका को देखते हुए धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने के लिए संविधान में मौलिक अधिकार जोड़े गए। इसके अलावा समाज के पिछड़े, अनुसूचित तबकों को स्थान दिया गया। संविधान के अलावा भी कानून बनाकर कुछ सामाजिक समता के कार्य आरम्भ हुए जैसे: जमींदारी प्रथा समाप्त करना ।
भारत के नेतृत्व के सामने यह स्पष्ट था कि एक संयुक्त तंत्र के रूप में भारत का विकास किसी एक धर्म तथा सोच के आधार पर नहीं हो सकता है। विभाजन से जुड़े विभिन्न अशांति को झेलते हुए तत्कालीन नेतृत्व ने एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की नींव रखी। इस सिद्धांत ने अल्पसंख्यकों तथा साम्प्रदायिक सदभाव को सुरक्षा भी प्रदान करने में कार्य किया।
राष्ट्र के गठन के लिए सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ ही एक प्रखर विदेश नीति की भी आवश्यकता थी। नेहरू ने गुटनिर्पेक्षता और उपनिवेशवाद विरोधी सिद्धांत को भारतीय विदेश नीति का आधार बनाया तथा ऐसी स्थिति का निर्माण किया जिससे विश्व को यह लगे कि भारत किसी महाशक्ति के पक्ष में नहीं है।
भारत की बहुसांस्कृतिक विविधताओं से यह पा लेना अनिवार्य था कि हम इस देश को एक खास पक्ष या संस्कृति में नहीं रच सकते। इस देश में विभिन्न भाषाओं तथा विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण तैयार करना होगा। भाषा हमारे संविधान की एक प्रमुख धाराओं में रची गयी। इसमें अभी तक अस्टम अनुसूची ने 22 भाषाओं को जगह दी गई थी। संविधान में यह स्वीकार किया गया कि भाषा की विविधता को अपनाए बिना देश के हर कोने में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विकास का दीप नहीं जल सकता।
कुछ स्तर पर भाषा की विभिन्नता के कारण राष्ट्रीय एकता में कुछ रूकावट भी आयी। इन रूकावटों में जो महत्वपूर्ण बातें थीं, वह इस तरह से व्याख्यालत की जा सकती हैं।
1. संघ की राजभाषा क्या थी ?
2. क्या भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हो सकता है? या यह पुनर्गठन न्यायपूर्ण होगा ? हिन्दी के मुद्दे पर देश के विभिन्न राज्यों में एक विकट स्थिति उत्पन्न हो गई तथा यह मान लिया गया कि हिंदी और गैर हिंदी विवाद से एक 'राष्ट्रीय भाषा' की खोज का विवाद जुड़ा हुआ नहीं है। क्योंकि सही तौर पर एक विविध ता से भरे देश में किसी एक भाषा को 'राष्ट्रीय भाषा' बनाकर उसे आनिवार्य करने की प्रधानता को स्वीकार करना एक बहुत बड़ी गलती होगी। भारत एक बहुभाषी देश था और इसे ऐसा ही रहना था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने अपना राजनीतिक और विचारधारात्मक कार्य विभिन्न भाषाओं को स्वीकार करके ही किया। इस बात का परिणाम यह निकला कि अंग्रेजी के बदले भारतीय प्रशासन में सभी भाषाओं को तरजीह दी जाए जिससे सभी राज्यों तथा क्षेत्रों के लोगों को सहूलियत महसूस हो।
जवाहर लाल जी ने विभिन्न मंचों से इस बात को प्रमुखता दी कि “भारतीय जनता की अपनी भाषाएं उनकी संस्कृति से जुड़ी है तथा प्राचीन काल से ही समावेशी रही है। किसी भी समाज का सांस्कृतिक विकास सिर्फ अपनी भाषा के माध्यम से ही संभव है। इसीलिए सभी राज्यों की शिक्षा तथा काम-काज उनकी अपनी भाषाओं में ही होना चाहिए।"
उपरोक्त तथ्यों से विवाद की नकारत्मकता समाप्त हो गई पर विवाद बना ही रहा। यह विवाद इस स्तर पर बना रहा की आखिर अखिल भारतीय स्तर पर केन्द्रीय सरकार के द्वारा किसी एक भाषा में काम-काज किया जाए और यह विवाद दो ही भाषा के इर्द-गिर्द सिमट गया जिसमें हिन्दी और अंग्रेजी सम्मिलित थी। यही वह मुद्दा था जिस पर संविध ान सभा में काफी तीखी बहस हुई थी ।
राष्ट्रीय आंदोलन के समय इस बात पर सहमति थी कि स्वतंत्रता के बाद संचार की भाषा अंग्रेजी नहीं होगी। यह कह देना आवश्यक था कि अंग्रेजी के वैश्विक महत्व को कम करके नहीं देखा गया। इसी को एक माध्यम बनाकर भारत के लोग विज्ञान, खोज, पश्चिमी विचारों तक पहुँच सकते थे। परन्तु इस भाषा को भारत में नेतृत्व करने वाली भाषा के रूप में स्वीकार करने की प्रवृत्ति कम करके देखी गयी ।
राजभाषा के रूप में हिंदी की स्वीकारोक्ति में कोई खास अर्चन नहीं आई। इसके पीछे यह कारण था कि हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा थी। सभी विचारों के नेता हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करने के समर्थक थे। अपने अधिवेशनों और राजनीतिक कार्यों के दौरान राष्ट्रीय कांग्रेस अंग्रेजी की जगह हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं का उपयोग करती थी। 1925 में कांग्रेस ने अपनी संविधान की स्थिति में यह कहा कि “संभवतः भरसक रूप में कांग्रेस अपना कार्य हिन्दुस्तानी भाषा में ही चलाएगी।"
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