आजादी और 'राष्ट्रीय आंदोलन' का आत्मसातकरण

आजादी और 'राष्ट्रीय आंदोलन' का आत्मसातकरण

आजादी और 'राष्ट्रीय आंदोलन' का आत्मसातकरण

1. परिचय
भारत की स्वतंत्रता के बाद हुए परिवर्तनों ने उस समय के नेतृत्व के सामने दो महत्वपूर्ण विकल्प दिये- एक तो गरीबी को दूर करने के लिए कया किया जाए तथा दूसरा राष्ट्रीय आंदोलन से प्रेरित होकर कैसे भारत को एक सूत्र में बांधा जाए। इनमें सबसे बड़ी बात राष्ट्र निर्माण की अवधारणा थी, जो भविष्य के लिए अति आवश्यक थी। राष्ट्र निर्माण के लिए पूंजी के रूप में उस समय जो भारतीय नेतृत्व के सामने सबसे अमूल्य संसाधन थे, उसमें आजादी के पहले के राष्ट्रीय आंदोलन से मिली हुई सीखें थी। राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श, मूल्य, विचारधारा ने स्वतंत्र भारत को एक नया रास्ता दिया।
राष्ट्रीय आंदोलन ने स्वतंत्र भारत के सभी क्षेत्रों तथा सभी विचारों को एक नया रास्ता दिया। हमारे देश के पास उस समय राष्ट्रीय आंदोलन से उपजे हुए कार्यकर्ता थे तथा वह विचार थे जो देश को एक भविष्य की राह दिखा सकते थे। सही तौर पर माने तो वामपंथी या दक्षिणपंथी, उच्च वर्ग या मध्यम वर्ग सभी के पास राष्ट्रीय आंदोलन से प्रेरणा लेने की इच्छा थी तथा यह होता भी था ।
2. राष्ट्रीय आंदोलन के सिद्धांत तथा स्वतंत्र भारत की आकांक्षा
राष्ट्रीय आंदोलन की विशालता तथा प्रखरता ने इसके सिद्धांत को एक धार दी तथा उस काल में जन-जन तक उन आंदोलनों के विचार को पहुंचाया तथा ब्रिटिश सरकार से इन आंदोलनों के द्वारा जनता की तत्कालीन इच्छा को पूर्ण करने की मांग भी की। राष्ट्रीय आंदोलन ने अहिंसात्मक रूप में उन मांगों को रखा जो उस काल में सबसे अधिक आवश्यक भी था।
स्वतंत्रता के बाद सरकार को उन आंदोलनों से उपजे विचार तथा मांग ने अपने कर्त्तव्य का बोध करवाया तथा सर. कार ने इसे देखते हुए गरीबी के बावजूद मौलिक अधिकार तथा वयस्क मताधिकार को लागू किया। उस समय देश में सामाजिक एकता, शिक्षा तथा राजनीतिक इच्छा शक्ति की सबसे अधिक जरूरत थी तथा इन आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन का परिणाम एक लक्ष्य की ओर बढ़ने का सबसे प्रभावी माध्यम था।
आंदोलन के स्वरूप में सत्याग्रह तथा जन सहभागिता स्वतंत्र भारत की जनता के लिए एक अहम पूंजी का कार्य कर सकता था। उस काल में एक नये लोकतंत्र के लिए सहभागिता तथा सत्याग्रह की सीख एक अमृत की तरह थी जो एक सुनहरे लोकतंत्र की ओर ले जाने के लिए काफी थी।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जनता आंदोलनों के प्रति उत्साहित थी तथा जब आजादी मिली तो जनता की आकांक्षा 
उस आंदोलन से उपजे परिणाम की प्रासंगिकता को धरातल पर उतारने की थी। भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों ने जनता की आकांक्षा और राजनीतिक क्षमता पर पूर्ण विश्वास किया। उन्होंने एक स्वतंत्र भारत की नींव रखी जो राष्ट्रीय आंदोलन के कंधे पर बढ़ने को तैयार था।
3. आजाद भारत का नागरिक तथा राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत
राष्ट्रीय आंदोलन के केन्द्र में सबसे महत्वपूर्ण आयाम 'नागरिक' था। इसका अर्थ भारतीय नागरिक से है जिसकी अपनी इच्छा शक्ति तथा आकांक्षाएं थी। राष्ट्रीय आंदोलन इसी लिए पूर्ण रूप से प्रतिनिधि मूलक प्रजातंत्र तथा नागरिक स्वतंत्रता को सबसे आगे कर अपना कार्य करता था।
राष्ट्रीय आंदोलन के चिंतन में नागरिक स्वतंत्रता की अवधारणा सबसे अधिक प्रबल थी। राष्ट्रीय आंदोलन ने जनप्रिय विचारों तथा आम जनता के पक्ष में बनाए गए उन संस्थानों को आत्मसात करने का प्रयास किया जो नागरिक के प्रति संवेदनशील हो। इसीलिए उस राष्ट्रीय आंदोलन ने जितना ध्यान प्रेस की आजादी पर दिया उतना ही विदेश तथा आर्थिक नीति पर। इन आंदोलनों ने वैध राजनीतिक कदमों पर तथा उन गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित किया जो नागरिक स्वतंत्रता को धरातल पर उतार सके। 1937 ई० में स्थापित कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने विभिन्न आंदोलनकर्त्ताओं, किसानों, मजदूरों तथा यहां तक कि वामपंथी दलों को भी नागरिक अधिकार का लाभ बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराया। यही स्वतंत्रता के बाद एक बृहत् अवधारणा के रूप में सामने आया।
कांग्रेस ने अपने स्थापना काल से ही नागरिकों की इच्छा को अपने चुनिदा विचारों में जगह दी। अपने सिद्धांतों में लोकतांत्रिक पद्धति को सर्वप्रमुख स्थान देकर विभिन्न प्रस्तावों को नागरिक की इच्छा के आधार पर पारित करता था। उदाहरणस्वरूप 1920 में अहसयोग आंदोलन की बात हो या 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रस्ताव हो । असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव तो 1886 मतों से पारित किया गया था। इसमें विरोध के पक्ष में 884 मत पड़े थे। इसी तरह सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रस्ताव की बात हुई थी तो गांधी जी ने यह कहा कि सर्वप्रथम क्रांतिकारी गतिविधियां जो हिंसात्मक हुई थीं उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया जाए। उदाहरणस्वरूप 1929 के लाहौर अधिवेशन में 'इस अधिवेशन में वायसराय के ट्रेन पर बम फेंकने की घटना के विरोध में निंदा प्रस्ताव 942 मतों के पक्ष से पारित हुआ था। इसके विरोध में 794 मत मिले थे। इसी तरह कांग्रेस ने 1942 में गांधीजी के द्वारा लाया गया यह प्रस्ताव कि अंग्रेजों को विश्वयुद्ध में मदद की जाए, का पूर्ण रूपेण विरोध कर दिया था। इस प्रस्ताव का एक स्वर से अस्वीकार कर दिया गया था।
कांग्रेस ने आरम्भ से ही विभिन्न प्रस्तावों में यह जताने की कोशिश की कि नागरिक की इच्छा तथा अकांक्षा सर्वोपरि है तथा इसका विरोध नहीं किया जा सकता। यह कह देना उचित है कि राष्ट्रीय आंदोलन में नागरिक की इच्छा को सर्वोपरि रखना सिर्फ कांग्रेस की ही प्राथमिकता नहीं थी बल्कि उस समय के विभिन्न राजनीतिक संगठन जैसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी जनहित संगठन, ट्रेड यूनियन, किसान सभा, वामपंथी दल, हिन्दू महासभा, महिला संगठन इत्यादि ने भी जनवादी नियमों या नागरिक प्राथमिकता के स्तर पर ही अपने विभिन्न कार्य किया करते थे।
राष्ट्रीय आंदोलन के अधिकतर नेताओं ने नागरिक स्वतंत्रता का बड़े स्तर पर समर्थन दिया। एक बार बाल गांगाधर तिलक ने प्रेस की स्वतंत्रता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा तथा उन्होंने कहा कि "प्रेस की स्वतंत्रता और बोलने की स्वतंत्रता ही एक राष्ट्र को जन्म देती है और इसका पालन-पोषण करती है। इसी तरह गांधी जी ने बार-बार नागरिक अधिकारों की मांग कर ब्रिटिश सरकार को पीछे हटने पर बाध्य किया। 1939 में महात्मा ने कहा “अहिंसा पालन के साथ ही नागरिकों को विभिन्न अधिकार दिया जाना भी स्वराज की दिशा में पहला कदम हो सकता है। नागरिक अधि कार के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता । " इसी तरह एक बार 1936 में भी गांधी जी ने कहा कि “यदि नागरिक अधिकारों का दमन होता है, तो एक राष्ट्र अपनी जीवंतता खो देता है और किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए अक्षम हो जाता है।
कांग्रेस ने 1931 के कराची अधिवेशन को नागरिकों के मौलिक अधिकार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए ही समर्पित कर दिया था। इसी परिप्रेक्ष्य में विभिन्न क्रांतिकारी गतिविधियों का भी समर्थन किया गया था।
औपनिवेशिक शासन ने सबसे अधिक करारा प्रहार नागरिक स्वतंत्रता तथा अधिकार पर ही किया था। नागरिकों के लिए अंग्रेजी सरकार भयंकर निरंकुश थी। राष्ट्रीय आंदोलन ने अपने कदमों से लोक सम्प्रभुता, प्रतिनिधित्व तथा नागरिक अधिकार की अवधारणा को देश के सामने रखा। अंग्रेज तो बार-बार यही कहते थे कि भारत में नागरिकों की एकता तथा स्वतंत्रता असम्भव है क्योंकि विविधता से भरे देश में नागरिक इसके योग्य ही नहीं पर राष्ट्रवादी तथा जन सहभागी आंदोलन ने इसे झुठला दिया। उन्होंने यह विचार प्रेषित किया कि भारतीय परम्परा में ही गणतंत्र की अवधारणा है तथा जन सहभागिता इसके केंद्र में है। धीरे-धीरे अंग्रेजों को भी यह समझ में आ गया कि राष्ट्रीय आंदोलन बिना एकता तथा नागरिक की सहभागिता के जोर नहीं पकड़ सकता।
4. राष्ट्रीय आंदोलन ने आजाद भारत की अर्थव्यवस्था को कैसे प्रेरित किया ?
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने उस समय की ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की नकारात्मक प्रवृत्तियों को उजागर कर ‘भारत के पिछड़ते अर्थ तंत्र' को एक अहम मुद्दा बनाया तथा एक व्यापक रणनीति का निर्माण किया। इस महत्वपूर्ण िकदम ने आजाद भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक मजबूत आधार का कार्य किया।
राष्ट्रीय आंदोलन ने एक ऐसे भारत की मांग की जो स्वतंत्र तथा आत्मनिर्भर हो । इसका सार यह है कि विश्व के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था न कि किसी के अधीन रहने वाली अर्थव्यवस्था । वि. भन्न नेताओं ने उस समय ब्रिटिश अधीनता वाली अर्थव्यवस्था को भारत की समस्याओं की जड़ बताया तथा इसे एक नये रूप में सामने लाए।
स्वतंत्रता के समय नेहरू जी (जवाहर लाल नेहरू) ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक भविष्य की राह दिखाते हुए कहा था कि हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार के खिलाफ नहीं है और हम इसके प्रोत्साहन के लिए भी समर्थन में है। परन्तु हमारी मंशा आर्थिक साम्राज्यवाद से सुरक्षा के लिए अधिक सजगता दिखाने की है। राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न चरणों में साम्राज्यवाद के प्रति काफी सजगता रखी गई। आर्थिक रूप से भारत को कमजोर करने में औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का हाथ होने को सबसे अधिक प्रमुख बनाया गया। इसके साथ ही राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्र भारत के लिए आधुनिक कृषि तथा उद्योगों के विकास को एक सबसे प्रमुख लक्ष्यों में शामिल करने की वकालत की जो विभिन्न मांगों में शुरू से ही शामिल था तथा संरचनात्मक आंदोलनों का आधार भी।
गांधी जी ने विभिन्न संरचानात्मक कार्य के जरिये यह बताने का प्रयास किया कि भारत को औद्योगिकरण अपनाना ही होगा अन्यथा देश की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो जाएगी। इसके साथ ही उद्योग और कृषि दोनों को स्वदेशी तरीके से आगे बढ़ना होगा तभी हम साम्राज्यवाद के दिए हुए देश को समाप्त कर सकते हैं। गांधी जी आरम्भ से ही ग्रामीण विकास को सर्वोपरि मानते थे तथा इसके लिए विभिन्न उद्योगों के विकास को एक आधार के रूप में देखते थे। आंदोलन कर्त्ताओं ने बेरोजगारी के मुद्दे को औद्योगीकरण से जोड़ा तथा मशीनीकरण के सीमित प्रयोग का समर्थन किया । रोजगार को बढ़ाने के लिए लघु एवम् कुटीर उद्योगों को प्राथमिकता दी गयी।
राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी तरीके से भारतीय उद्योग के विकास के लिए कार्य करने की वकालत की। वे कहा करते थे कि परतंत्र भारत में विदेशी पूंजी के आगमन से भारत कभी स्वतंत्र नहीं होगा। अगर आजादी मिल जाती है तो सीमित पूंजी निवेश किया जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद इसीलिए विभिन्न भारी उद्योगों के विकास में विदेशी सहायता ली गई।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद भारतीय नेताओं ने कृषि - ढांचे को पुनर्संगठित करने के लक्ष्य पर अधिक ध्यान दिया तथा कृषि को उसके स्वामी के अधीन करने की वकालत की। इसमें सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था जमींदार और बिचौलियों को कृषि के लायक खेतों से दूर करना ।
राष्ट्रीय आंदोलन के केंद्र में राज्य की लोक कल्याणकारी आर्थिक नीतियां बनाने का कर्त्तव्य' निहित था। आंदोलनकर्त्ताओं ने यह कहा कि तीव्र औद्योगीकरण तथा कृषि का विकास राजकीय हस्तक्षेप से ही संभव है तथा इसके लिए एक व्यापक नीति की आवश्यकता है। 1938 में राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया गया तथा इस समिति ने आर्थिक विकास के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के तीव्र विकास को सबसे अधिक आवश्यक माना था। इस समिति के द्वारा ही स्वतंत्र भारत में आधारभूत उद्योग, ऊर्जा, सिंचाई, सड़क, जन आपूर्ति के विकास की रूपरेखा तैयार की गई । 
1931 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पारित आर्थिक कार्यक्रम में यह घोषणा कर दी गई कि "राज्य आधारभूत उद्योगों और सेवाओं जैसे कि रेलवे, सार्वजनिक यातायात, जहाजरानी, जलमार्गों इत्यादि का स्वामी तथा नियंता होगा। 1943 में गठित भारतीय पूंजीपतियों की 'बम्बई योजना' ने भी इस बात का समर्थन दिया था।
राष्ट्रीय आंदोलन ने सार रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था को निम्न आयाम दिए:-
1. राज्य को हस्तक्षेप कर अर्थव्यवस्था को मजबूत करना ।
2. मानव श्रम को विस्थापित करने वाले सभी कदमों का विरोध |
3. आधारभूत उद्योगों का विकास।
4. सार्वजनिक हित के लिए उद्योगों का पुरजोर विकास ।
5. कृषि ढांचे को बेहतर बनाने के लिए कदम बढ़ाना।
6. सार्वजनिक क्षेत्र को विकसित कर लोक कल्याण के लिए आधारभूत संरचना का निर्माण करना। 
7. स्वतंत्र भारत में सीमित विदेशी पूंजी को लाना जिसमें आधुनिक उद्योग का विकास हो सके। 
8. आर्थिक विकास के केन्द्र में ग्रामीण विकास तथा कुटीर उद्योगों को प्राथमिकता देकर रोजगार विकसित करना।
5. राष्ट्रीय आंदोलन तथा गरीबी दूर करने की इच्छा शक्ति
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन आरम्भ से ही गरीबी को 'उपनिवेशवाद' के कारण ही उत्पन्न समस्या मान रहा था। दादाभाई नौरोजी अपने प्रत्येक भाषण तथा लेख में भारतीय जनता की गरीबी का सबसे बड़ा शत्रु ब्रिटिश उपनिवेशवाद को ही मानते थे। इसके बाद गांधी जी के विचार भी राष्ट्रीय आंदोलन में गरीबी उन्मूलन को प्रमुखता देने की थी।
असहयोग आंदोलन के बाद कांग्रेस के युवा नेता जैसे:- नेहरू, बोस तथा अन्य वामपंथी झुकाव वाले आंदोलनकर्त्ताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक समाजवादी समाज की ओर ले जाने के गंभीर प्रयास किए तथा यह कहा गया कि स्वतंत्र भारत में समाजवाद रास्ते पर ही चलकर गरीबी दूर की जाएगी।
स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने समाजवाद को अपना लक्ष्य न मानकर भी समतावाद को अपना आदर्श मान लिया तथा ऐसे समाज की अवधारणा को प्रस्तुत किया जिसमें सभी नागरिकों को समान अवसर मिल सके तथा जीवन स्तर में वृद्धि हो सके। धीरे-धीरे स्वतंत्र भारत ने राष्ट्रीय आंदोलन के उन आदर्शों को अपना लिया जो सही मायने में भारत को एक नई राह दिखा सकता था, जैसे:- सामाजिक न्याय, सामाजिक अवसर, आर्थिक समानता प्राथमिक शिक्षा की आनिवार्यता, विभिन्न करों में कमी, किसानों को राहत, भूमि सुधार तथा न्यूनतम मजदूरी की गांरटी, इत्यादि ।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय गांधी जी ने यह घोषणा कर भारतीय सामाजिक स्तर पर एक छाप छोड़ दी कि "जमीन उसकी है जो उस पर काम करता है और किसी की भी नहीं।" इसके अलावा किसी भी प्रकार की असमानता का विरोध करने की प्रवृत्ति ने एक नये आयाम को जन्म दिया। राष्ट्रीय नेताओं ने आंदोलन के काल में ही सामाजिक असमानता, जातिगत भेदभाव, लिंग आधारित शोषण के विरोध में कई प्रस्ताव पास किए। इसके अलावा उन्होंने उस समय देश में चल रहे विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलन का भी साथ दिया और अपने में आत्मसात कर लिया।
6. राष्ट्रीय आंदोलन तथा सामाजिक समस्याएं
राष्ट्रीस आंदोलन से स्वतंत्र भारत की विभिन्न समस्याओं से छुटकारा पाने की जो प्रेरणा मिली उसमें सामाजिक संस्थाओं का एक अहम स्थान है। विभिन्न तरह के आंदोलनों ने इस काल में विभिन्न सामाजिक समस्याओं को सामने लाकर उसे दूर करने का प्रयास किया। उस काल में जो सामाजिक समस्याएं अधिक प्रबल थी वह निम्न है।
1. लिंग आधारित भेदभाव
2. जातिगत भेदभाव
3. महिला उत्पीड़न
4. सामाजिक शोषण
5. अनुसूचित जाति जनजाति के प्रति भेदभाव।
6. अस्पृश्यता की समस्या इत्यादि ।
राष्ट्रीय आंदोलन और उस समय के विभिन्न संगठनों के बीच सामाजिक समस्याओं के प्रति एक समान जगरुकता थी। विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलन ने अपने सुधारवादी कदमों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार के साथ उनकी शिक्षा तथा समान राजनीतिक अधिकार के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाए तथा विभिन्न संगठनों में उन्हें शामिल किया गया। इसके अलावा जातिगत असमानता और उत्पीड़न के विरोध में अनेक आंदोलन किए गए तथा अस्पृश्यता के खिलाफ असहयोग आंदोलन के बाद एक चरणबद्ध आंदोलन प्रारम्भ किया गया। 1920 के बाद तो अछूत प्रथा के उन्मूलन को एक सर्वोच्च प्राथमिक कार्यक्रम के तौर पर आंदोलनों में शामिल किया गया।
जाति प्रथा तथा जातिगत शोषण की पराकाष्ठा का ही परिणाम था कि स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए आरक्षण घोषित किए जाने के विरोध में संविधान सभा में शून्य मत पड़े थे। इसी तरह महिलाओं के पक्ष में भी कई फैसले लिए गए।
उपरोक्त तथ्यों के अलावा समाज में धर्म के नाम पर पक्षपात करने की संकल्पना प्रस्तुत हुई तथा 1920 से ही ‘धर्मनिरपेक्षता' को राष्ट्रीय आंदोलन का आधार मानकर कार्य शुरू किया गया। आंदोलनकर्ताओं ने धर्मनिरपेक्षता को भ. ारतीय परम्परा का आधार मानकर एक प्रेरणा बताया जो अभी तक भारतीय संस्कृति की वाहक है। राष्ट्रीय आंदोलन के सार में धर्म को निजी मसला मानने की संकल्पना थी इसीलिए गांधी जी ने भारतीय मुसलमानों को देश की बुनियाद में एक मजबुत प्रकरण बताया।
1931 के कराची अधिवेशन में मौलिक अधिकार पर चर्चा हुई तथा यह प्रस्ताव पास किया गया कि सभी नागरिकों को अपने अंतःकरण की आजादी और अपने धर्म को खुलकर मानने तथा अपने इष्ट की अराधना तथा उपासना करने की छूट दी जाएगी। इसके साथ ही यह भी प्रस्ताव पास किया गया कि सभी नागरिक कानून के सामने बराबर होंगे चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय या लिंग के हों। राज्य सभी धर्मों के मामले में तटस्था का पालन करेगा।
संविधान सभा ने उपरोक्त सभी प्रस्तावों को संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में दर्ज किया तथा इसके साथ ही एक नया भारत बनाने की आधार नींव तैयार हो गई। स्पष्ट रूप से देखा जाए तो राष्ट्रीय आंदोलन की आत्मा समानता, स्वंतत्रता तथा धार्मिक आजादी में ही बसती थी। गांधी जी ने बार-बार यह कहा कि ब्रिटिश सरकार और हमारे में यही फर्क है कि वह धार्मिक आधार पर देश को तोड़ना चाहती है। परन्तु भारत के नेतागण सभी धार्मिक आधार पर आंदोलन में शामिल होने की अपील नहीं करते हैं और न ही करेंगे। नेहरू जी तो एक कदम आगे चलकर साम्प्रदायिकता के विरोध में भावावेश में आकर भाषाण देते थे। कभी भी उन्होंने यह नहीं कहा कि ब्रिटिश सरकार ईसाईकरण कर रही है। चाहे वह यह अच्छी तरह से जानते हों कि ब्रिटिश समूह ईसाईकरण करना चाहता है। भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश सरकार की आलोचना राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्तर पर की।
उपरोक्त तथ्यों के कुछ नकारात्मक परिणाम भी निकले और यह परिणाम देश का विभाजन ही था क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन के पुरोधाओं ने साम्प्रदायिकता के विरोध के लिए कोई प्रतिरोधात्मक पंक्ति खड़ी करने की कोशिश कभी नहीं की। परंतु यह भी कहना सही होगा कि यह आंदोलन की धर्मनिरपेक्ष शक्ति की मजबूती ही थी कि 1946-47 में विभाजन के समय उन्मादी दंगों के बावजूद भारत एक धर्मनिरपेक्ष, संवैधानिक, सम्प्रभु तथा लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में उभरा।
7. राष्ट्रीय आंदोलन तथा स्वतंत्र भारत की विदेश नीति
1857 के विद्रोह के बाद ही उस समय के राष्ट्रीय नेताओं ने यह समझ लिया था कि फासीवाद तथा सामंतवादी ताकतों का विरोध करके ही भारत स्वतंत्र रह सकता है या हो सकता है। काल बीतने के बाद यही सोच एक अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर विकसित हो गई। आज हमारी विदेश नीति स्वतंत्र विकसित, समानता तथा विश्व बन्धुत्व पर आधारित है। कहीं-न-कहीं इसकी नींव राष्ट्रीय आंदोलन के काल में ही पड़ गयी थी। 1930 के बाद भारतीय नेताओं ने फासीवाद के विरुद्ध जबरदस्त तरीके से आवाज उठाई।
गांधी जी ने 1940 के काल में पहली बार हिंसा को प्रतिरोध का जरिया मानकर हिटलर की सनक का विरोध किया। गांधी जी ने हिटलर द्वारा यहूदियों के निर्मम नरसंहार के बारे में यह कहा "यदि विश्व को मानवता बचाने के लिए युद्ध करना पड़े तो बिल्कुल उचित होगा । "
गुटनिरपेक्षता तथा स्वतंत्र विदेश नीति का आधार तो नेहरू ने 1935 के बाद ही रख दिया था जब उन्हें लगा था कि अब साम्राज्यवाद अपने अंतिम चरण में है। उन्हें यह अभास हो गया था कि भारत तभी विकास कर सकता है जब अपनी नीति में बराबर रूप में फासीवादी और साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध खड़ा रहे ।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन विदेशियों के प्रति काफी सहिष्णु रवैया अपनाता रहा। ब्रिटिश सरकार के प्रखर नस्लवादी दुराचार के बाबजूद भारतीय नेताओं ने कभी भी अपनी नीति में नस्लवाद के प्रतिरोध में कोई नीति नहीं बनायी। राष्ट्रीय नेताओं ने यह बार-बार कहा कि भारत अपनी संस्कृति तथा परम्परा में विश्व बंधुत्व को सबसे अहम बिन्दु मानता रहेगा। नेताओं ने अपने कार्यकर्ताओं को हमेशा इस तरह प्रशिक्षित किया कि अंग्रेजों के खिलाफ वह व्यक्तिगत कटुता से बचे। सार रूप में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने स्वतंत्र भारत के लिए निम्न प्रेरक तत्वों को प्रेषित कियाः
1. धर्मनिरपेक्षता
2. सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक अवसर
3. स्वतंत्र विदेश नीति
4. समाजवाद की अवधारणा
5. सामाजिक, आर्थिक समानता
6. धार्मिक स्वतंत्रता
7. अनुशासन
8. आर्थिक अवधारणा
9. लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा
10. देश को विकसित करने की इच्छाशक्ति
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