स्वातंत्र्योत्तर राष्ट्र के रूप में भारत (गठन की प्रक्रिया का संवैधानिक तथा नैतिक आधार)
1. परिचय
स्वतंत्रता के बाद भारत एक देश के रूप में अपने भविष्य की लकीर खींच रहा था तथा इसके लिए उन सभी आधारों को प्रमुखता देने की आवश्यकता थी जो भारतीय संवैधानिक प्रावधानों तथा उन नीतियों से बने थे जिनकी जरूरत भारतीय जनता के विकास के लिए आवश्यक थी।
भारत की स्वतंत्रता के बाद जो ज्वलंत समस्याओं से अवगत होना पड़ा उसमें सिर्फ विभाजन तथा साम्प्रदायिक झंझावात ही नहीं थे बल्कि नीतिगत तथा संवैधानिक स्तर की भी बातें थीं जो भविष्य के भारत के लिए मायने रखती थीं। इनमें प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित थे
2. भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का मुद्दा
स्वतंत्रता के बाद बृहत् स्तर पर राज्यों के पुनर्गठन के मामले में 'भाषा का आधार' एक प्रमुख मुद्दा बन गया। यह मामला उठना स्वाभाविक था क्योंकि अंग्रेजों ने अपनी सहूलियत के अनुसार जो भारतीय प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं बनायी थीं। वह अस्वाभाविक तो थी ही पर अप्राकृतिक भी थीं। अंग्रेजों ने भारतीय प्रदेशों के सीमांकन में भाषा तथा संस्कृति की समरूपता पर कोई ध्यान नहीं दिया था। इस कारण अधिकतर राज्य बहुसांस्कृतिक तथा बहुभाषी थे।
जो भी प्रशासनिक तंत्र भाषाई प्रांतों पर आधारित थे उसकी विश्वसनीयता काफी अधिक थी। इसके पीछे कारण यह था कि भाषा और संस्कृति एक दूसरे से गहरी तौर पर जुड़ी होती है और इसका प्रभाव अंदर तक लोगों के जेहन में होता है। हम अपनी शिक्षा तथा दैनिक जीवन में भी सबसे अधिक मातृभाषा का ही प्रयोग करते हैं। विपीन चंद्रा अपनी पुस्तक 'आजादी के बाद भारत' में कहते हैं कि "आम जनता के लिए जनवाद भी तभी यथार्थ बन सकता है जबकि राजनीति और प्रशासन उस भाषा के माध्यम से संचालित हो जिसे वे ठीक से समझ सकते हों। प्रशासन किसी भाषा के माध्यम से चलाया जा रहा है, यही वह निर्धारित करता है कि आम आदमी की प्रशासन, राजनीतिक सत्ता और रोजगार तक कोई पैठ है भी या नहीं "। परंतु शिक्षा, प्रशासन और अदालतों की भाषा कोई मातृभाषा तब तक नहीं बन सकती जब तक कि प्रदेशों का गठन उसकी प्रमुख भाषा के आधार पर न किया जाए। "
कांग्रेस उपर्युक्त तथ्यों से पहले ही अवगत हो चुकी थी। 1921 में कांग्रेस ने अपने संविधान में संशोधन किया और अपनी क्षेत्रीय शाखाओं को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया। उस समय कांग्रेस का यह सोचना था कि भाषाई आधार पर प्रादेशिक सीमाओं के पुनर्निधारण की बात जायज है। बापू भी इस बात पर सहमति रखते थे कि प्रांतों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन अनिवार्य है। उन्होंने एक समय यह भी कहा था कि “यदि प्रांतीय भाषाओं को अपनी पूर्ण रूपेण उन्नति करनी है तो भाषा के आधार पर प्रांतों का बनना आवश्यक है। इसलिए यह स्वीकार कर लिया गया था कि स्वतंत्र भारत अपनी प्रशासनिक इकाइयों के सीमा निर्धारण को भाषाई सिद्धांत पर आधारित करेगा। "
स्वतंत्रता मिलने के बाद बहुत सारी सोच एक नये ढर्रे में सोची जाने लगी। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण अस. हनीय विभाजन था। इस विभाजन ने बहुत सारी नई समस्याओं को जन्म दिया था। इन समस्याओं की प्रकृति प्रशासनिक,
आर्थिक और राजनीतिक भी थीं। इसके अलावा अर्थव्यवस्था कमजोरी तथा पाकिस्तान की दुष्टता के भी कम खतरे नहीं थे। विभाजन का परिणाम यह था कि उस समय सरकार के शीर्ष नेतृत्व तथा कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी सबसे आवश्यक ‘राष्ट्रीय एकता' को बनाए रखना अपनी जिम्मेदारी समझता था। उस समय के शीर्ष नेतृत्व ने यह स्वीकार किया कि अभी किसी भी तरह का आंतरिक पुनर्निधारण एक विद्रोह तथा जटिलता को जन्म देगा। यह कदम क्षेत्रीय एवं भाषायी आधार पर नई दुश्मनी को जन्म दे सकता है तथा प्रशासनिक तथा आर्थिक विकास को ठप्प कर सकता है। इसके अलावा इसके परिणाम में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को गंभीर क्षति पहुँच सकती है। इस कारण नेहरू ने 1947 के नवम्बर महीने में 'भाषा का महत्व' विषय पर बोलते हुए यह कहा कि “पहली चीज सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण है कि, 'भारत की सुरक्षा और स्थायित्व' को सर्वप्रमुखता देना।" उन्होंने भाषायी आधार पर प्रांतों के गठन को निम्न प्रमुखता दी तथा यह भी कहा कि यह विषय इंतजार कर सकता है।
संविधान सभा में भाषाई पुनर्गठन के आधार पर काफी बहस हो चुकी थी। 1948 में संविधान सभा ने एस. के. दर के नेतृत्व में भाषाई राज्य आयोग की नियुक्ति भी की थी। इस आलोचना से भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की वांछनीयता का मूल्यांकन करने को कहा गया। एस. के. दर आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को एक सिरे से नकार दिया। दर आयोग ने यह कहा कि भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन भारतीय प्रशासनिक संरचना के लिए अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा होगा । यही कारण था कि संविधान सभा ने संविधान के अंतर्गत भाषाई सिद्धांत को सम्मिलित नहीं करने का निर्णय लिया। इसका भी परिणाम यह हुआ कि जनता की भावना इसके खिलाफ हो गयी । दक्षिण भारत में यह एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। कांग्रेस को दक्षिण भारत में अपनी राजनीतिक जमीन भी बचानी थी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1948 में एक समिति की नियुक्ति कर दी तथा इसके सदस्य जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष पट्टाभि सीता रमैया बने। इस समिति का लक्ष्य पहले से ही निर्धारित था। समिति ने भाषाई राज्य के प्रश्न को फिर से 'विचारणीय' बताया। इसके बावजूद भी इस समिति ने यह सलाह दी कि “तत्काल कोई भी राज्य का पुनर्गठन ‘भाषा' के आधार पर नहीं होना चाहिए। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि "अभी सबसे अधिक आवश्यक देश की सुरक्षा, एकता, और आर्थिक विकास के लिए प्रयास करना है और अगर अभी हमने प्रांतीय पुनर्गठन को प्रमुखता देने की कोशिश की तो यह भारतीय एकीकरण के खिलाफ जा सकता है तथा हम स्वयं विखण्डनकारी शक्तियों को सदा के लिए दाना-पानी मुहैया करा देंगे।" जे.वी.पी. रिपोर्ट में यह बात भी कही गई थी कि अगर भाषा के आधार पर प्रांतों की माँग हिंसात्मक अवस्था में पहुँच जाए तो उस क्षेत्र से जुड़े दूसरे भाषाई समूह के लोग इस मांग से सहमत हों तो वहाँ भाषा पर आधारित नए राज्यों की स्थापना की जा सकती है।
इस रिपोर्ट के बाद राज्यों के पुनर्गठन के लिए व्यापक जनांदोलन आरम्भ हुए तथा यह अलग-अलग क्षेत्रों में 1960 तक चलता रहा। इसके उदाहरण में आंध्र प्रदेश की माँग भी कही जाती है जो 50 वर्षों से चली आ रही थी और इसके पक्ष में सभी राजनीतिक धरा भी सहमत थे ।
जे.वी.पी. रिपोर्ट में भी इसका समर्थन किया गया था और कहा गया था कि मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग काटकर एक आंध्र राज्य के गज का तर्क काफी मजबूत है क्योंकि तमिलनाडु का नेतृत्व भी इस जाल के लिए सहमत है। फिर भी जे.वी.पी. आयोग ने इस बात को नहीं माना क्योंकि 'मद्रास शहर किसे मिलेगा', यह विषय विवादित हो गया था। आश्चर्य. जनक यह था कि तमिल भाषी बहुलता तथा तमिल संस्कृति प्रमुख मद्रास की मांग आंध्र नेतृत्व द्वारा की जा रही थी ।
उपरोक्त झंझावातों के बीच 19 अक्टूबर 1952 को एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी पोही श्री रामालु ने अलग आंध्र राज्य की मांग पर अनशन शुरू कर दिया तथा लगातार 58 दिनों तक अंतिम सांस तक वह अनशन पर ही रहे। उनकी मृत्यु अनशन के कारण होना दुर्भाग्यपूर्ण था। उनकी मृत्यु आंध्र प्रदेश की मांग का क्लाईमैक्स था। हिंसा, प्रदर्शन और हड़तालें आरम्भ हो गईं। पुलिस की गोली से कई लोगों ने अपनी जान गंवा दीं। सरकार तुरंत झुक गई और आंध्र राज्य की मांग को स्वीकार कर लिया। अक्टूबर 1953 में सरकार ने आंध्र प्रदेश की गठन की अधिसूचना जारी कर दी। इसके साथ ही तमिलनाडु भी अस्तित्व में आ गया।
इस राज्य की गठन की सफलता का प्रभाव देश के अन्य क्षेत्रों में भी पड़ा तथा कई और राज्यों की मांग भाषा के आधार पर होने लगी। नेहरू इस बात से काफी चिंतित थे कि बराबर भारत की आंतरिक प्रशासनिक संरचना को बदलना भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा। इसके बावजूद इन मार्गों को रोकना या किसी भी ऐसे आंदोलन को कुचलना ठीक नहीं था। इसके साथ नेहरू यह भी सोचते थे कि किसी भी ऐसे राज्य की मांग जो भाषा के आधार पर संभव है, को रोका जा सकता है परंतु कुचला नहीं जा सकता है। नेहरू ने इन मांगों के जवाब में कुछ ऐसे कदम उठाए जो स्वीकार्य भी हों और कोई झंझावात भी पैदा न हो। अगस्त 1953 में नेहरू ने एक और राज्य पुनर्गठन आयोग नियुक्त किया जिसके सदस्य क्रमशः (1) न्यायाधीश फजल अली, (2) न्यायाधीश के. एम. पन्निकर तथा (3) हृदयनाथ कुंजान बनाए गए।
सरकार ने इस आयोग को यह सलाह दी कि बृहत् परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता को आधार मानते हुए संघ के सभी राज्यों के पुनर्गठन से संबंधित प्रश्नों की जांच की जाए। इस आयोग का कार्यकाल लगभग 2 वर्षों का रहा तथा इन दो सालों में इस आयोग को कितने ही रुकावटें, जैसे- भूख हड़ताल, प्रदर्शन तथा विभिन्न मुद्दों का सामना करना पड़ा। विभिन्न भाषाई समूह इस बीच आपसी टकराहट से माहौल को काफी अशांत कर चुके थे।
इस आयोग ने एक संक्षिप्त टिप्पणी में अपनी बात रखी जो काफी दुखी करने वाला था- उन्होंने टिप्पणी की - "हमें यह देखकर बहुत कष्ट पहुँचा है कि कुछ क्षेत्रों में स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले प्रतिष्ठित समुदाय की आपस की लड़ाई और विवाद में पड़कर एक युद्ध जैसी स्थिति बना दी है। इन्होंने अपनी वाणी से साम्प्रदायिक तथा उन्माद से रंजित वातावरण का निर्माण कर दिया है तथा इससे एक प्रकार का ऐसा उन्माद पैदा हो गया है जो सिर्फ यह सोचता है कि अगर किसी खास भाषा समूह को प्रशासनिक इकाई नहीं बनाया गया तो उसका नैतिक और भौतिक पतन हो जाएगा।"
उपरोक्त टिप्पणी स्वयं बहुत कुछ देती है। 1955 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी। इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि “प्रशासनिक और आर्थिक पहलुओं को समुचित महत्व देते हुए भी भाषाई आधार पर अधिक जोर देना चाहिए। इसी आधार पर राज्यों की सीमाओं को पुनर्निधारित करने के लिए आयोग ने अपनी संस्तुतियां सौंप दी। आयोग ने बंबई और पंजाब को भाषाई आधार पर बांटने का विरोध किया। इस रिपोर्ट पर देश के कई भागों में नकारात्मक प्रतिक्रियाओं ने जोर पकड़ा फिर भी सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया तथा कुछ संशोधन के साथ शीघ्र लागू हो जाने की मंशा जाहिर की।
नवम्बर 1956 में भारतीय संसद ने राज्य पुनर्गठन विधेयक को पास कर दिया। इस विधेयक में 14 राज्य एवं 6 केंद्र शासित प्रदेशों की व्यवस्था की । इस विधेयक के द्वारा जो व्यवस्था की गई थी, वह निम्न प्रकार से थीं
केरल ट्राबनकोर + कोचीन + मालाबार = केरल
बंबई (कुछ भाग), मद्रास (कुछ भाग), हैदराबाद (कुछ भाग), कुर्ग, कन्नड़ का भाग = मैसूर
कच्छ + सौराष्ट्र + हैदराबाद (मराठी भाषी भाग) बंबई राज्य में मिलाया गया।
महाराष्ट्र जैसे राज्य में इस आयोग को कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। महराष्ट्र में बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे और जनवरी 1956 में पुलिस फायरिंग में अकेले बंबई शहर में 80 लोग मारे गये। छात्रों, किसानों, मजदूरों, कलाकारों, व्यापारियों की भावना के आधार पर विपक्षी दलों ने एक शक्तिशाली विरोध आंदोलन खड़ा कर दिया। यहाँ की जनता का कहना था कि हमारी आवाज को दबाया जा रहा है। सरकार ने दबाव में यह निर्णय लिया कि (जून 1956 में) बंबई राज्य को दो हिस्सों में बांटकर दो भाषाई राज्य महाराष्ट्र और गुजरात बनाए जाएंगे तथा बंबई केंद्र शासित प्रदेश बन जाएगा। महाराष्ट्र में फिर इसका विरोध किया गया। नेहरू अब अपने निर्णय पर सोचने लगे। उन्होंने फिर अपने निर्णय को बदलते हुए ग्रेटर बंबई नामक द्विभाजी राज्य बना दिया। फिर भी इस कदम का विरोध महाराष्ट्र और गुजरात दोनों ही जगह हुआ।
विशाल स्तर पर संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात जनता परिषद राज्य के दो हिस्सों में अलग-अलग आंदोलनों का नेतृत्व कर रही थी। महाराष्ट्र में भी बहुत स्तर पर कांग्रेस ने भी बंबई राजधानी वाली एक भाषी महाराष्ट्र की मांग का समर्थन किया। केंद्रीय मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री सी.डी. देशमुख ने इस सवाल पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। दूसरी तरफ गुजरातियों को लग रहा था कि नए राज्य में वे एक अल्पसंख्यक बनकर रह जाएंगे। वे बंबई सिटी भी महाराष्ट्र को देने के लिए तैयार नहीं थे। अब हिंसा और आगजनी अहमदाबाद और गुजरात के अन्य हिस्सों में फैल गई। पुलिस फायरिंग में 16 आदमी मारे गए और 200 घायल हुए । बंबई शहर पर मतभेदों को नजरअंदाज करने का सरकार ने मन बना लिया था और नवम्बर 1956 में राज्य पुनर्गठन विधेयक पास कर दिया गया। 1957 में आम चुनाव में कांग्रेस जीती तो जनमत का अंतर काफी कम हो गया था। कांग्रेस की अध्यक्ष इस समय नेहरू जी की बेटी इंदिरा गाँधी जी थीं। कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से इंदिरा गाँधी ने इस सवाल को फिर से उठाया। इसमें उन्हें राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन का भी समर्थन प्राप्त था। अंतत: 1960 में सरकार बंबई राज्य को महाराष्ट्र तथा गुजरात में बांटने के लिए तैयार हो गई, जिसमें बंबई सिटी महाराष्ट्र को मिला तथा गुजरात की राजधानी अहमदाबाद हो गई।
अब एक पंजाब बचा था जिसका गठन भाषाई आधार पर नहीं हुआ था। 1956 में पेपसु (Pepsu) राज्यों को पंजाब में मिला दिया गया था, जिनमें पहले से ही तीन भाषाई समूह - पंजाबी, हिंदी और पहाड़ी रहते थे। राज्य की बहुलता पंजाबी भाषा बोलने वाले लोग थे । इनकी मांग पंजाबी भाषा राज्य बनाने की थी। दुर्भाग्य यह था कि यह मांग साम्प्रदा. यिकता के माथा-मोह में उलझ गयी । एक तरफ हिन्दूवादी नेताओं ने पंजाबी सूबा की मांग का विरोध किया वहीं सिखों के नेतृत्व में पंजाबी तथा गुरुमुखी के आधार पर सिख राज्य की मांग की। इसका समर्थन वामपंथी दल तथा कांग्रेस का एक समूह भी दे रहा था। नेहरू इस मांग को “साम्प्रदायिक " चश्मे से देख रहे थे तथा धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर राज्य के निर्माण के एकदम खिलाफ थे। राज्य पुनर्गठन आयोग ने तो एकदम इसे अस्वीकार ही कर दिया था तथा कह दिया था कि न तो इससे पंजाब की भाषा समस्या का समाधान होगा, न ही सांप्रदायिक समस्या का। फिर भी कुछ समय बीतने के बाद जब इंदिरा जी प्रधानमंत्री बनीं तो 1966 में उन्होंने पंजाबी और हिंदी भाषी दो राज्यों में पंजाब के विभाजन के लिए तैयार हो गईं। पंजाब और हरियाणा दो अलग-अलग राज्य बना दिए गए तथा पहाड़ी क्षेत्र जैसे कांगड़ा और होशियारपुर के कुछ जिले के भाग को मिलाकर हिमाचल प्रदेश प्रदेश में मिला लिया गया या हिमाचल प्रदेश बनाया गया। संयुक्त पंजाब की राजधानी और नवनिर्मित शहर चंडीगढ़ केंद्रशासित बना दिया गया। चंडीगढ़ अभी भी पंजाब और हरियाणा दोनों की साझा राजधानी है। पंजाब के बनने तथा हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की स्थापना के बाद भारत का भाषाई पुनर्गठन लगभग पूर्ण हो गया।
बहुत सारे विद्वान राज्यों के भाषाई आधार पर पुनर्गठन को "राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक आधार बनाने" की संज्ञा देते हैं। इसके बाद 'भाषा' राजनीति के केन्द्र से सदा के लिए हट गई ।
यह कहना महत्वपूर्ण है कि भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने देश के ढांचे को और मजबूत किया। राज्य-केंद्र के बीच आर्थिक विकास तथा विभिन्न योजनाओं के संदर्भ में एक सहयोगात्मक रवैया सामने आया तथा संघीय ढांचे को एक नया रूप मिला। राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को मजबूत दर किया तथा उस काम में इसको लेकर आशंका जाहिर करने वाले नेताओं को गलत साबित कर दिया।
इसको लेकर रजनी कोठारी ने यह कहा कि “राज्यों के पुनर्गठन के बाद भारत के राजनीतिक मानचित्र को तर्कसंगत बनाया गया। इससे ऐसी समरूप राजनीतिक इकाईयों का जन्म हुआ जिन पर बहुसंख्यक जनता को समझ में आने वाली भाषा के माध्यम से प्रशासन चलाया जा सकता था। अतीत का मूल्यांकन करते हुए अब यह निश्चित ही कहा जा सकता है कि विभाजन वाली शक्ति साबित होने के बदले यह 'एकता' और 'समन्वय' के लिए साधन ही बनी।”
इन सभी अच्छी बातों के बावजूद कहानी खत्म अभी नहीं हुई थी। अभी यह नहीं कह सकते थे कि सभी विवादों तथा समस्याओं का समाधान राज्यों के पुनर्गठन के साथ ही खत्म हो गया था। अब भी कुछ ऐसे मुद्दे थे जो ज्वलंत और प्रासंगिक दोनो थे -
1. सीमा विवाद (राज्यों के बाद)
2. भाषाई अल्पसंख्यकों की समस्या
3. नदी जल बंटवारा
4. खाद्यान्न तथा ऊर्जा से संबंधित समस्याएँ इत्यादि ।
परंतु, उपरोक्त समस्याओं के समाधान में राज्य पुनर्गठन विधेयक के कुछ प्रावधान ही मदद कर सकते थे। इस विधेयक में पांच क्षेत्रीय परिषद की स्थापना का प्रावधान था जिसका अध्यक्ष गृहमंत्री को बनाने का प्रस्ताव बनाया गया। यह परिषद एक सलाहकारी संस्था के रूप में काम करता तथा दो राज्यों के बीच तथा उससे अधिक राज्यों के बीच केन्द्र सरकार मध्यस्थता करती। अभी भी यह परिषद बहुत ही सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है।
भाषा से संबंधित समस्याओं में एक समस्या अल्प-संघटकों की भाषा से भी संबंधित मुद्दे थे। चाहे जिस भी तरह राज्यों को दूसरे एक से भौगोलिक रूप से विभाजित किया जाए, एकभाषी राज्यों का निर्माण असंभव था। भाषाई पुनर्गठन वाले राज्यों में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी थे जो वहां की राजभाषा या भाषा नहीं जानते थे। भाषाई अल्पसंख्यक कहलाते थे क्योंकि इनकी आबादी करीब 18 प्रतिशत थी। 1971 की जनगणना के अनुसार कुल आबादी में भाषाई अल्पसंख्यकों का अनुपात केरल में 4 प्रतिशत से लेकर कर्नाटक में 34.5% तथा असम में 39% से लेकर जम्मू कश्मीर में 44.5% तक है।
स्वतंत्रता के बाद से ही राज्यों में इन अल्पसंख्यकों के अधिकारों और हैसियत का निर्धारण, एक महत्वपूर्ण बिन्दु बना रहा। एक तरफ तो उनकी सुरक्षा की समस्या थी क्योंकि हमेशा इस बात का खतरा बना हुआ था कि उनके साथ अनुचित व्यवहार किया जा सकता है, दूसरी तरफ उन्हें राज्य के प्रमुख भाषा समुदाय के साथ एकीकरण को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता थी। एक बात और भी जरूरी थी कि अल्पसंख्यकों को यह भी आत्मविश्वास प्रदान करना आवश्यक था कि उनके साथ बहुसंख्यकों के सामने कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और इतना ही नहीं, बल्कि उनकी भाषा तथा संस्कृति को विकसित करने में सहायता की जाएगी। बहुसंख्यकों के साथ कैसे समन्वय बैठाकर भाषाई अल्पसंख्यकों की मांग को माना जाए, इस पर भी कार्य करने की आवश्यकता थी।
संविधान सभा में इस मुद्दे पर काफी बहस हुई तथा संविधान में भाषाई अल्पसंख्यकों को कुछ मौलिक अधिकार प्रदान कर दिए गए। संविधान का अनुच्छेद 30 इसका उदाहरण है। इसके अलावा अनुच्छेद 347 में यह प्रावधान किया गया है कि अल्पसंख्यकों द्वारा मांग किए जाने पर राष्ट्रपति उस भाषा को किसी भी राज्य के लिए अधिकारिक रूप से उसे जारी कर सकता है अल्पसंख्यक भाषाओं के लिए बहुत सारे संशोधन भी किए गए। भाषाई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए भाषाई अल्पसंख्यक आयुक्तों की भी नियुक्ति की गई। भाषाई अल्पसंख्यक आयुक्तों ने अपनी रिपोर्टों में स्कूली शिक्षा, तकनीकि तथा मेडिकल संस्थाओं में नामांकन तथा प्रादेशिक लोक सेवा आयोगों द्वारा प्रस्तुत रोजगार के अवसरों में प्रादेशिक राजभाषा में दक्षता नहीं होने के कारण भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव के विषय में लगातार सूचनाएं दी हैं।
अल्पसंख्यक भाषाओं में उर्दू एक खास भाषा है। भारत की यह सबसे बड़ी अल्पसंख्यक भाषा है। 1951 में करीब 2 करोड़ 33 लाख लोग उर्दू बोलते थे। वहीं अब लगभग 20 करोड़ उर्दू बोलते हैं।
जहाँ भारत की सभी प्रमुख भाषाएं एक न एक राज्य की राज्यभाषा है, वहीं उर्दू जम्मू कश्मीर के राज्य के अलावा कहीं की राजभाषा नहीं है। कश्मीर में भी मातृभाषा डोगरी, कश्मीरी तथा लद्दाखी है। बिहार जैसे राज्य में तो यह द्वितीय राजभाषा के रूप में मान्य है। हिन्दी और उर्दू का साथ होना भारतीय एकता की मिसाल के तौर पर देखा जा सकता है।
अल्पसंख्यकों के बाद जो मुद्दे सबसे अधिक चर्चित थे, वह थे - जनजातीय लोगों की स्थिति तथा इनका राष्ट्र निर्माण में योगदान। स्वतंत्रता के बाद जनजातीय लोगों को मुख्यधारा में लाना एक महत्वपूर्ण कार्य था। यह कार्य कठिन भी था क्योंकि इनकी परिस्थितियां अलग-अलग थीं। वे अलग-अलग भाषाएं बोलते थे, अपनी अलग-अलग संस्कृतियां थी। उनकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी एक जनजाति से दूसरे में भिन्न-भिन्न थी। इनकी अर्थव्यवस्था का आधार कृषि तथा शिकार था। इनका सबसे अधिक घनत्व मध्य प्रदेश, बिहार ( अब झारखण्ड ), उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आदतें, गुजरात, राजस्थान और पूर्वोत्तर प्रांतों में है। पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी आबादी बहुसंख्यक रही है। इनकी परम्परा, जीवनशैली देश के साधारण लोगों से अलग रही है। ये देश की जनता से सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक स्तर पर सबसे अलग रहे हैं।
देश के अधिकतर हिस्से में ब्रिटिशकाल से ही इनका मौलिक परिवर्तन अलग प्रकार से हुआ है। उनके समाज में पूँजीवाद का प्रवेश देश की बहुसंख्यक जनता से जुड़ाव का एक पुल बना जिसने कहीं न कहीं इनमें उत्प्रेरक का कार्य किया। औपनिवेशिक काल में बड़ी संख्या में महाजन, व्यापारी, मालगुजार तथा दलाल इनके जीवन में हस्तक्षेप करने लगे तथा उन्होंने इनकी पारंपरिकता को ठेस पहुँचाने की कोशिश की। आदिवासी कर्ज के व्यूह में फंसते गए तथा अपने जंगल, जानवर जगह खोते रहे ।
धीरे-धीरे आदिवासी की स्थिति एक मजदूर की रह गई । स्वतंत्रता के बाद एक कानून बनाकर आदिवासियों की जमीन किसी बाहरी व्यक्ति को बेचने पर रोक लगाने की कोशिश हुई परंतु सफलता हाथ नहीं लगी। व्यापारी और ठेकेदार के द्वारा इन पर लगातार शोषण जारी रहा। तथा इनकी गरीबी तथा लाचारी सदा के लिए बनी रही।
आबादी बढ़ने से खेती का विस्तार होने लगा। इसके कारण जंगल कटते गए तथा आदिवासियों की संस्कृति घायल होती चली गई। जमीन की हानि, कर्ज का कारण, दलालों का शोषण, वन तथा वन उत्पाद तक पहुँच से रोक तथा पुलिस, वन अधिकारी और अन्य सरकारी मुलाजिमों द्वारा शोषण तथा लूट 19वीं तथा 20वीं सदी में कई विद्रोहों को जन्म दे चुका था।
स्वतंत्रता के बाद से ही भारत सरकार के सामने जनजातीय लोगों को शेष भारतीय जनता के साथ घुलाने-मिलाने की चुनौती थी। यह काम आदिवासियों की संस्कृति तथा परंपरा को हानि पहुँचाए बिना करने की आवश्यकता थी। नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद जनजाति समुदाय के लिए अपने संबोधन में कहा था कि “जनजातियों के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उनमें आत्मविश्वास का संचार करना है तथा उन्हें यह महसूस कराना है कि वे भारत के एक अंग है तथा यह देश उनका भी है। "
नेहरू जी ने कहा कि “आदिवासी के लिए भारत सिर्फ सुरक्षाकारी शक्ति ही नहीं बल्कि मुक्तिदायी शक्ति का भी प्रतीक होना चाहिए। उन्होंने कहा भारतीय तंत्र में राष्ट्र के लिए सोचने वाले समूह में एक 'जनजाति' समुदाय का भी नाम आना चाहिए। फिर भी उस काल यह प्रश्न सबके जेहन में था कि भारतीय समाज एवं राजनीति में जनजाति के लिए कैसा स्थान होगा? एक तो सोच यह थी कि उन्हें हस्तक्षेपित न करके उनकी पारंपरिकता तथा संस्कृति को अछूत मानकर छोड़ दिया जाए। दूसरी तरफ यह सोच अधिक स्वीकार्य थी कि जनजाति समुदाय को जल्द से जल्द भारत की मुख्यधारा में लाया जाए तथा उसे एक जगह दी जाए और उन्हें प्रशिक्षण दिया जाए कि मुख्यधारा में कैसे रहा जाता है ?
जवाहर लाल नेहरू ने इन दोनों पक्षों की बात को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उन्हें अपने हाल पर छोड़ा नहीं जा सकता तथा उन्हें भारतीय तंत्र में समेटना आवश्यक है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम उन्हें भूल जाएं। दूसरी तरफ उन्हें यह भी नहीं कहा जा सकता या उनके साथ यह भी नहीं किया जा सकता कि भारत के मुख्य समाज में आकर वह विलिन हो जाएं। इससे जनजातीय संस्कृति तथा सभ्यता नष्ट हो जाएगी। उन्होंने यह रेखांकित किया कि यदि उन्हें सामान्य तंत्र में मिलाने की कोशिश हुई तो बाहरी भ्रष्टाचारी उनकी संस्कृति, सभ्यता, जमीन, संघ सभी को नष्ट कर देंगे।
फिर भी नेहरू आदिवासियों को भारतीय समाज में शामिल तथा एकीकृत करने की स्थिति को सही मानते थे। नेहरू जनजातीय सभ्यता तथा संस्कृति को अछूत रखते हुए भी भारतीय संस्कृति को साथ में रखने के समर्थक थे।
> नेहरू की जनजाति-नीति के कुछ मुख्य अंश निम्न प्रकार के थे -
1. जनजातीय क्षेत्रों का विकास हो
2. उनके विकास उनके ही बताए रास्ते से हो।
3. उनकी संस्कृति तथा परंपरा अक्षुण्ण रहे।
4. भारतीय शेष समाज को आदिवासियों का सम्मान करना चाहिए।
5. जनजातीय समूह को निर्णय का अधिकार
6. जनजातीय भाषाओं को सम्मान और विकास देना चाहिए ।
उपरोक्त तथ्यों के अलावा यह एक और बात महत्वपूर्ण थी कि प्रशासन की जिम्मेदारी स्वयं जनजातीय लोगों को देना चाहिए। इसके लिए प्रशासकों की भर्ती उन्हीं लोगों के बीच से कर, उन्हें यह काम दिया जाना चाहिए। अगर बाहरी लोगों को भेजा भी जाए तो वैसे लोगों को ही जो आदिवासी के प्रति सहानुभूतिपूर्वक विचार रखता है ।
इसके अलावा यह बात भी आम सहमति की ओर बढ़ी कि जनजातीय क्षेत्रों में कभी भी प्रशासनिक ताम-झाम कर दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए यह प्रयास की आवश्यक है कि उन पर प्रशासन और उनका विकास जनजातीय सामाजिक और सांस्कृतिक विचारों एवं संस्थाओं के माध्यम से ही अधिक हो । नेहरू के ये सारे विचार उन राष्ट्रवादी नीतियों पर आधारित थे जिन्हें 1920 के दशक से ही जनजातियों के प्रति इस आंदोलन ने अपनाया था। गांधी ने जब इस काल में ही जनजातीय क्षेत्रों में आश्रम ही स्थापना और रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहन देना आरंभ किया था। आजादी के बाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद एवं अन्य प्रमुख नेताओं द्वारा इस नीति का समर्थन किया गया था। नेहरू की नीतियों का पालन करते हुए केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों ने जनजातीय लोगों के विकास के साथ-साथ उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक स्वायत्तता की सुरक्षा के लिए एक के बाद एक कदम उठाए।
संविधान के स्तर पर जनजातीय क्षेत्रों तथा आदिवासियों के लिए कई प्रावधान किए गए। अनुच्छेद 46 के तहत नीति-निदेशक तत्व में यह कहा गया कि राज्यों को जनजातीय लोगों के शैक्षणिक तथा आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए तथा शोषण एवं सामाजिक अन्याय से उनकी सुरक्षा के लिए विशेष कानून बनाना चाहिए । जनजातीय क्षेत्र वाले राज्यों के राज्यपालों से यह खास विनती की गई थी कि आदिवासी हितों की रक्षा की जाए तथा राज्य के कानूनों को जनजातीय क्षेत्रों में थोड़ा फेरबदल के साथ लागू किए जाएं। इसके अलावा आदिवासियों की भूमि को सुरक्षित रखने तथा सूदखोर से उनको बचाने के लिए एक कानून भी पास किया गया था । संविधान द्वारा जनजातीय लोगों को पूर्ण राजनीतिक अधिकार प्रदान किया गया। इसी उद्देश्य से मौलिक अधिकारों को लागू करने संबंधी प्रावधानों में संशोधन किया । संविधान में जनजातीय कल्याण के लिए प्रत्येक राज्य में जनजातीय सलाहकार परिषद् की स्थापना का प्रावधान भी इसमें निहित है। राष्ट्रपति ने भी अपनी तरफ से अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की ताकि हमेशा इस बात को ध्यान दिया जाए कि इन लोगों के लिए सुरक्षा के जो प्रावधान बने हैं, उनका पालन हो रहा है या नहीं।
राज्य सरकारों द्वारा कानूनी और प्रशासनिक कदम उठाए गए तथा जनजातीय लोगों को सुरक्षित रखने के कई कदम उठाए गए। केन्द्र एवं राज्य सरकार दोनों तरफ से उनके लिए विशेष सुविधा प्रदान की गई ताकि जनजातीय क्षेत्रों के विकास खासकर वहाँ ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग के तहत रोजगार के अवसर प्रदान किए जा सके। इसके लिए योजनाओं से भारी-भरकम राशियां रखी गई और भारी खर्च भी हुआ। 1971 के बाद विशेष रूप से जनजातीय क्षेत्रों में कल्याण योजनाओं पर खर्च काफी बढ़ा है।
परंतु संविधान की व्यवस्था तथा केन्द्र एवं राज्य सरकारों की कोशिश के बाद भी जनजातीय लोगों की समस्याएँ रह ही गईं तथा उनकी विकास की रफ्तार धीमी ही रही ।
अभी भी एक अध्ययन के अनुसार मध्य प्रदेश से लेकर झारखंड तक आदिवासियों की स्थिति असंतोषजनक तथा पीड़ादायक है। पूर्वोत्तर भारत में जनजातीय लोगों की स्थिति थोड़ी सुधरी है । संविधान में प्रावधान के बावजूद उसे लागू करने में व्यावहारिक तौर पर प्रशासनिक दिक्कतें आई हैं। इसके लिए कई बार केन्द्र और राज्य सरकार की जनजातीय नीतियों में भी काफी अंतर देखा जा सकता है क्योंकि राज्य सरकारें कई मामलों में जनजातीय हितों के प्रति बहुत उदासीन पाई गई हैं। जनजातीय तरीकों को हस्तक्षेप किए बिना शिक्षा के स्तर तथा रहन-सहन में सुधार करने की कोशिश लगातार जारी रही है परंतु यह भी कहना सही होगा कि उनके सामाजिक ढांचों का बनाए रखना भी उतना ही आवश्यक है। सरकार ने शुरू से ही यह प्रयास किया कि उनके विकास तथा शिक्षा के लिए आरक्षण तथा राजनीतिक तथा आर्थिक अवसर प्रदान किए जाए।
बृहत् स्तर पर देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद जनजातीय क्षेत्रों में कई खतों के कई विकास कार्य भी किये गये परंतु फिर भी खतरे के संकेत मौजूद है। जनजातीय अधिकारों तथा हितों की रक्षा के लिए सरकार ने आरक्षण से लेकर पंचायती राज तथा चेतना जागृत करने के लिए कई संसाधनों को भी बल प्रदान किया। संसद में इनके स्थान सुरक्षित है तथा विभिन्न स्तर पर इनकी स्थिति पहले से सुधरी है।
जहां तक पूर्वोत्तर भारत की बात है, जनजातीय लोगों के पक्ष में वहाँ की स्थिति थोड़ी अलग है। करीब 100 जनजातीय समूहों में बंटे और कई प्रकार की भाषा बोलने वाले आसाम के पहाड़ी इलाकों में बसे जनजातीय लोगों की विशिष्टताएं और समस्याएं बाकी देशों के जनजातीय लोगों से बहुत भिन्न भी नहीं है। परंतु इन इलाकों में ये लोग बहु. संख्यक हैं। गैर-जनजातीय लोग किसी महत्वपूर्ण स्तर तक इस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाए थे। लंबे समय से जनजातीय और गैर- जनजातीय लोगों के बीच आर्थिक संबंध विकसित होते रहे।
वैसे देखा जाए तो 19वीं सदी के आधा समय बीतने के बाद लगभग 1857 के बाद अंग्रेजों ने जनजातीय क्षेत्रों पर अपना अधिकार कायम किया तथा खास तौर से गैर-जनजातीय मैदानी लोगों को यहाँ जमीन खरीदने की इजाजत नहीं थी। प्रशासन के स्तर पर भी इस बात के लिए काफी सावधानी बरती गई थी।
एक बात जो महत्वपूर्ण थी कि अंग्रेजी सरकार ने इसाई मिशनरियों को जनजातीय क्षेत्रों में पहुँचने के लिए काफी प्रोत्साहित किया। स्कूल, चर्च, अस्पताल इत्यादि जो अंग्रेज के द्वारा खोले गए थे, वह बहुत तेजी से धर्म परिवर्तन करवाने लगीं। इस प्रकार, जनजातीय युवकों के एक समूह में एक प्रकार का नया दृष्टिकोण विकसित हुआ। इसके बदले में इसाई मिशनरियों ने अंग्रेजी सरकार को अपनी मदद पहुँचाता रहा। जनजातीय क्षेत्रों में इन मिशनरियों ने राष्ट्रवादी प्रभावों को दूर रखने का काम किया। इन्होंने जनजातीय लोगों को आसाम और शेष भारत की आबादी से दूरी बनाए रखने के लिए प्रोत्साहन दिया। स्वतंत्रता मिलने के ठीक बाद कुछ मिशनरियों और विदेशियों ने पूर्वी भारत में अलगाववाद भड़काने का प्रयास भी किया।
एक बात और जो बहुत महत्वपूर्ण कही जा सकती है कि पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय लोगों के शेष भारत से जीवन-संपर्क उस समय नहीं था। भारत का एक राष्ट्र के रूप में गठन के पीछे औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बनाया गया बंधन था जो साम्राज्यवाद के विरोध में बना था। 1952 में नेहरू ने यह कहा कि "संपूर्ण पूर्वोत्तर सीमा क्षेत्र हमारे विशेष के ध्यान की मांग करता है, जिस पर सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि पूरी भारतीय जनता के ध्यान की आवश्यकता है। उनके साथ हमारे संबंधों से उन्हें भी लाभ होगा और हमें भी। यह भारत की शक्ति, विभिन्नता और सांस्कृतिक समृद्धि को बढ़ाएगा।
इस नीति की एक झलक हमें संविधान की छठी अनुसूची में देखने को मिलती है ये सिर्फ आसाम के जनजातीय क्षेत्रों पर लागू होता था। स्वायत्त जिलों तथा जिला एवं क्षेत्रीय परिषदों के गठन के माध्यम से संविधान की छठी-अनुसूची ने जनजातीय लोगों को समुचित सीमा तक स्वप्रशासन उपलब्ध कराया था। इन परिषदों को असम विधायिका और संसद के अधीन कुछ वैधानिक और न्यायिक क्रियाकलापों की छूट भी दी गई। छठी अनुसूची का उद्देश्य जनजातीय लोगों को अपनी इच्छा से जीवन बिताने के योग्य बनाया गया। इसके अलावा यह भी प्रयास किया गया कि जनजातीय क्षेत्रों की स्थिति में भी काफी सुधार करने के प्रयास किए जाएं।
स्वतंत्रता के बाद नेहरू की नीतियों को सबसे उम्दा तरीके से 'नेफा' में लागू किया गया। नेफा को आसाम से सीमावर्ती हिस्से से अलग कर 1948 में बनाया गया था। नेफा की स्थापना आसाम के कार्यक्षेत्र से बाहर केन्द्रशासित प्रदेश के रूप में हुई और इसे इस विरोध प्रशासन के तहत रखा गया।
आरम्भ से ही प्रशासन की जिम्मेदारी एक खास कैडर के अधिकारियों को यहां के लिए दी गई ताकि उनके विकास के रास्ते में उनकी संस्कृति व परंपरा को चोट न पहुँचे । नेफा को नये रूप में 1981 में एक राज्य बना दिया गया तथा अरुणाचल प्रदेश नाम दिया गया। जहां एक तरफ नेफा बहुत जल्द देश की मुख्यधारा में जुड़ गया वहीं दूसरे जनजातीय क्षेत्र जो प्रशासन से संबंधित थे वहाँ समस्याएं खड़ी हो गई। क्योंकि वहां आसामी और बंगाली जनता को पहाड़ी जनजाति से कोई सांस्कृतिक लगाव नहीं था। इन जनजातियों को असुरक्षा की भावना होने लगी तथा सरकार से भावनात्मक रूप से वह दूर भी होने लगी । खासतौर पर गैर - आदिवासी जो थे जिनमें प्रशासनिक स्तर के अफसर, व्यापारी, डॉक्टर इत्यादि अपने आप को आदिवासी से अधिक श्रेष्ठ समझते थे तथा इनका यही व्यवहार जनजाति समुदाय को एकदम नागवार गुजरता था। इसका परिणाम यह हुआ कि असम में एक असंतोष उभरा तथा 1950 के दशक मध्य में लगभग 1955-56 में एक अलग पहाड़ी राज्य की मांग होने लगी। केन्द्र सरकार असम के अलग होने की स्थिति में नहीं थी । स्वायत्तता के स्तर पर क्षेत्रीय भावना के पक्ष में जरूर थी।
1960 के समय आसाम के राजनीतिक शीर्ष नेतृत्व ने असमिया भाषा को राज्य की एकमात्र राजभाषा बनाने का कदम उठाया। 1960 में पहाड़ी क्षेत्रों की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने एकजुट होकर 'ऑल पार्टी हिल लीडर कांफ्रेंस' बनाया और भारतीय संघ के अन्दर अलग राज्य की मांग बताई। इसके बाद असम राजभाषा विधेयक को स्वीकृत कर दिया गया तथा असम को एकमात्र राज्य की राजभाषा बना दिया गया। 1962 के चुनाव में जनजातीय क्षेत्रों की असम विधानसभा
सीटों पर उन लोगों की भारी मतों से विजय हुई जिन्होंने अलग राज्य की वकालत की थी। कई आयोगों तथा समितियों ने इस मुद्दे की भरपूर जांच-पड़ताल की। अंतत: 1969 में एक संविधान संशोधन के माध्यम से “राज्य के अन्दर राज्य" के रूप में असम के अंदर मेघालय राज्य बनाया गया जिसे कानून और व्यवस्था को छोड़कर सभी स्वायत्तता प्रदान कर दी गई। इसके अलावा लोक सेवा आयोग, उच्च न्यायालय तथा राज्यपाल के पद के मामले में असम और मेघालय साथ रहे। 1972 में प्रांत पुनर्गठन के माध्यम से मेघालय को एक 'पूर्ण राज्य' बना दिया गया जिसके अन्दर मुख्य रूप से खासी, जयंतियां जनजातियाँ शामिल की गई। इसके अलावा मणिपुर, त्रिपुरा तथा अरुणाचल प्रदेश के संबंधित पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने का विषय भी हल हो गया। परंतु नागालैंड और मिजोरम के विषय में यह समस्या जस की तस बनी रही।
नागा समुदाय आसाम-बर्मा में लगी पूर्वोत्तर सीमा स्थित नागा पहाड़ियों के निवासी थे। 1961 में उनकी आबादी लगभग 5 लाख थी जो भारतीय आबादी के उस काल में 0.01% थे। इनके अंदर कई अलग-अलग सामुदायिक कबीले थे जो अपनी अलग भाषाएं बोलते थे। ब्रिटिश सरकार एक साजिश के तहत नागाओं को भारत की मुख्यधारा से अलग करके रखे हुए थी। सिर्फ ईसाई मिशनरियों को गतिविधियां चलाने की इजाजत दी गई थी, जिसके परिणामस्वरूप एक छोटा शिक्षित तबका विकसित हो चुका है।
स्वतंत्रता के बाद सरकार ने नागाओं को असम तथा शेष भारत से जोड़ने की नीति पर कार्य आरंभ किए। परंतु नागा नेतृत्व के एक तबके के रूप में शिक्षित लोगों ने इस एकीकरण का विरोध किया। अंग्रेजों के द्वारा इसाई बनाए गए 'ए. जेड. फिजो' इस मामले में एक नेता बनकर उभरे। इन्होंने नागालैंड को भारत से अलग करने की ही मांग कर डाली। सही तौर पर इनको ऊर्जा तत्काल इसाई मिशनरियों तथा अंग्रेज अधिकारियों से मिल रही थी। 1955 में इन अलगाववादी नागाओं ने स्वतंत्र सरकार के गठन की घोषणा कर दी और हिंसक विद्रोह आरम्भ कर दिया।
भारत सरकार ने इस उपरोक्त मामले में दो रास्ते अपनाने की नीति बनाई । एक, जिसमें जनजाति समूह के कल्याण के कार्य को त्वरित गति प्रदान करने की थी और दूसरा कि भारत की एकता और अखण्डता से कोई सौदा नहीं किया जा सकता है। सरकार ने यह साफ कर दिया कि नागा अगर हिंसा का रास्ता अपनाते हैं तो इनका दमन किया जाएगा तथा कोई संधि नहीं अपनाई जाएगी। 1956 में भारत सरकार ने वहां शांति तथा व्यवस्था को नियमित करने के उद्देश्य से सेना भेज दी।
नेहरू की यह नीति तात्कालिक थी लेकिन उनकी सोच दीर्घकालिक स्तर पर दूसरी थी। इनका लक्ष्य नागा नेताओं से दोस्ती बढ़ाकर कहीं-न-कहीं इस समस्या के पूर्ण समाधान का था। इस मामले में अधिक स्वायत्तता देने के पक्ष में थे। इसलिए बेनागाओं का विश्वास जीतने के लिए स्वायत्तता देने की बात थी। इसका यह परिणाम निकला कि उन्होंने ‘फिजो' को यह संदेश दिया कि हम उस समय तक बात नहीं करेंगे जब तक कि नागा नेतृत्व शस्त्र न रोक दे। इसके अलावा भारत सरकार ने नरमपंथी नागाओं से संधि वार्ता जारी रखी जो स्वायत्तता से अधिक कुछ नहीं चाहते थे। इन नेताओं को नेहरू पर अधिक विश्वास था । इनका विश्वास स्वायत्तता से अधिक कुछ नहीं था।
1957 के जून में नागा ने सशस्त्र विरोध की स्थिति शुरू की गई। सशस्त्र विद्रोह को खत्म कर दिया गया। इस विद्रोह के खत्म होने के बाद नरमपंथी नेतागण की स्थिति मजबूत हो गई तथा 'डॉ. इमकोनग्लिबा ओ' के नेतृत्व में शीर्ष नेता सामने आए। इन्होंने भारतीय संघ के अंदर राज्य नागालैंड की मांग को जायज मानते हुए समझौता किया। भारत सरकार ने इनकी मांग को स्वीकार किया तथा 1963 में नागालैंड की राज्य के रूप में स्वीकार किया गया।
नागालैंड जैसी तो नहीं पर कुछ एक समस्या पूर्वोत्तर के मिजो स्वायत्त जिले में विद्रोह देखे गए। यहां तो 1947 में ही अंग्रेज अधिकारियों के सिखाने पर कुछ मांग शुरू हो गई थी। परंतु इस मिजो नेतृत्व को कोई समर्थन नहीं मिल पाया था। यह युवा नेतृत्व उस समय मिजो समाज के जनवादी कारण, आर्थिक विकास और असम विधान सभा में समुचित मिजो प्रतिनिधित्व जैसे विषयों को सामने ला रहा था। परंतु 1959 में अकाल के आने से परिस्थितियां असंतोष में बदल गयीं तथा 1961 में आसाम राजभाषा विधेयक का अनुमोदन किए जाने के कारण वहां लालडेंगा की अध्यक्षता में मिजो नेशनल फ्रंट का गठन हुआ।
मिजो नेशनल फ्रंट ने अपनी उल विकसित की तथा इसे प्रशिक्षण पूर्वी पाकिस्तान में मिलने लगा। मार्च 1966 को मिजो नेशनल फ्रंट ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इन्होंने भारतीय सैनिक ठिकानों पर हमले आरम्भ कर दिए। भारत सरकार ने त्वरित गति से इस विद्रोह को कुचल दिया। मिजो फ्रंट का शीर्ष नेतृत्व पूर्वी पाकिस्तान भाग गया।
1973 में मिजो नेताओं की मांग बदल गयी । इनकी मांगों में स्वतंत्रता की मांग को हटा लिया गया। भारत संघ के अंदर अलग मिजोरम राज्य की मांग स्वीकार करने की बात की गई तथा मिजो जिलों को असम से अलग कर मिजोरम को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। 1970 के दशक के बाद छिटपुट विद्रोह चलते रहे तथा 1986 में एक समझौता हुआ। लालडेंगा और मिजो नेशनल फ्रंट अपनी विद्रोहगत गतिविधियों को छोड़ने के लिए तैयार हो गए। भारत सरकार मिजोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा देने को तैयार हो गई तथा उसे अपनी संस्कृति को बनाकर रखने की छूट प्रदान कर दी गई। संधि में यह शामिल था कि मुख्यमंत्री लालडेंगा होंगे तथा अंततः फरवरी 1987 में मिजोरम नामक एक राज्य का गठन सर्वसम्मति से संपन्न हो गया।
पूर्वोत्तर के बाद जो स्थिति दिखी उनमें छोटा नागपुर तथा संथाल परगना के बारे में चर्चा करना आवश्यक हो गया है। इस क्षेत्र में विभिन्न आदिवासी समुदाय जैसे संथाल, उरांव, मुंडा रहे हैं। इन जनजातियों की स्थिति विकराल थी। इनकी आरम्भ से ही मांग झारखंड बनाने की रही है। 1951 में झारखंड क्षेत्र का लगभग दो तिहाई भाग की आबादी में इनकी जनसंख्या थी । शिक्षा के प्रसार के कारण झारखंड नाम से अलग जनजातीय राज्य बनाने के लिए आंदोलन 1930 और 1940 के दशक में खड़ा होने लगा था। इसके अंतर्गत दक्षिण बिहार के छोटा नागपुर और संथाल परगना तथा उनके साथ मिलने वाले उड़ीसा पश्चिम संथाल के कुछ क्षेत्रों को भी शामिल किया गया था।
इनकी मांग थी कि झारखण्ड राज्य की स्थापना हो तथा गैर-जनजातीय लोगों का प्रभुत्व यहां समाप्त हो । 1950 में इस मांग के कारण जयपाल सिंह के नेतृत्व में झारखण्ड पार्टी की स्थापना की गई। 1952 के चुनावों में पार्टी को भारी सफलता मिली और छोटा नागपुर की 32 सीटों पर इसने जीत हासिल की। उस चुनाव में वह बिहार विधान सभा का प्रमुख विपक्षी दल बन गया। 1957 के चुनाव में इन्हें 25 सीटें प्राप्त थी। परंतु झारखंड पार्टी को गैर-जनजातीय लोगों का भी मत मिलता था। इसके लिए इस पार्टी ने गैर-जनजातीय लोगों को भी अपनी पार्टी में आने का प्रवेश दे दिया। फिर भी ये पार्टी जनजाति की शक्ति तथा अधिकार के लिए लड़ती रही। 1955 के राज्य पुनर्गठन आयोग ने इस राज्य की मांग अस्वीकार कर दी क्योंकि इस राज्य की कोई संयुक्त भाषा नहीं थी। भारत सरकार भी इसका समर्थन नहीं कर सकी क्योंकि जनजातीय लोग यहां बहुसंख्यक आबादी के तौर पर नहीं थे।
1960 के दशक में झारखंड पार्टी का पतन हो गया तथा 1963 में जयपाल सिंह कांग्रेस में शामिल हो गये। इसी क्रम में 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना हुई तथा उसमें नई बातों को प्रमुखता दी गई। उसने इस बात को स्वीकार किया कि यहां आदिवासी से अधिक गैर-आदिवासी हैं। इसलिए उन्होंने बिहार के उत्तरी सीमा से तुलना आरम्भ कर दी तथा कहा कि बिहार के लोग झारखंड पर अपना प्रभुत्व कायम करके रखते रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा की मांग को एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखा गया तथा इसे आदिवासी - गैर-आदिवासी के मुद्दे से अलग बिहार-झारखंड के मुद्दे के तौर पर देखा जाने लगा। शिबु सोरेन नाम के नेता इस पार्टी के तौर पर काफी लोकप्रिय हो गए। काफी उठा-पटक तथा विरोध-अवरोध के बाद 15 नवम्बर 2000 को अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार ने झारखंड राज्य को स्थापित कर दिया तथा एक नये राज्य की स्थापना हुई।
3. क्षेत्रीय विकास बनाम क्षेत्रवाद
स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार के सामने भारत को एक राष्ट्र के रूप में गठित करने के लिए 'क्षेत्रीयता तथा क्षेत्रवाद' की भावना की भी चर्चा करने की परिस्थिति उभरी। क्योंकि भारत जैसे विविधता से भरे देश में क्षेत्रीय विकास की अवधारणा को विस्तृत करना सही नहीं था । स्वतंत्रता आंदोलन में क्षेत्रीय विकास की बात तो कही गई परंतु यह भी कहा गया कि क्षेत्रीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान के विरोध में प्रयोग नहीं किया जा सकता। इस परिप्रेक्ष्य में यह स्वीकार कर लिया गया था कि सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा की स्थिति में सुधार की मांग को क्षेत्रवाद के रूप में नहीं देखा जाएगा। यहाँ तक कि इस प्रकार के सकारात्मक लक्षणों की प्राप्ति पर आधारित थोड़ी अंर्तक्षेत्रीय प्रतियोगिता काफी अच्छी चीज हो सकती है। दरअसल हम लोगों में यह जितनी होनी चाहिए वह काफी कम है। बल्कि मातृभूमि से प्रेम लोगों को जाति या धार्मिक समुदायों के प्रति खतरनाक वफादारी से अलग हटाकर एक सकारात्मक भूमिका निभाने में सहायक हो सकती है।
इसके साथ यह भी कहा गया कि संविधान की संघीय ढांचे की परंपरा को क्षेत्रवाद के रूप में व्यक्त नहीं करना चाहिए। इसके अलावा यह विदित किया गया कि कहीं भी विकेंद्रीकरण की मांग या विकास की मांग इस स्तर पर अगर हो तो यह जरूर कहा जा सकता है कि यह मांग व्यावहारिक है न कि इससे क्षेत्रवाद उभरता है। क्षेत्रीयतावाद का मामला तब हमारे सामने आता है जब एक राज्य अथवा क्षेत्र के हितों को पूरे देश या दूसरे क्षेत्रों या राज्यों के विरोध में पेश करने की कोशिश की जाती है तथा इस आधार पर एक क्षेत्र की जनता को भड़काया जाता है।
उपरोक्त तथ्यों के बाद यह सही तौर पर साफ हो गया कि 1947 की स्वतंत्रता के बाद कम से कम क्षेत्रवाद की भावना नहीं उभरी परंतु हरेक विषय में एक अपवाद अवश्य होता है । इस अपवाद के तौर पर 'द्रविड़ मुनेत्र कडगम' द्व ारा 1950 और 1960 के दशकों में तमिलनाडु में चलाई गई राजनीति को माना जा सकता है। फिर भी इसकी राजनीति पूर्ण रूप से अलगाव पर कभी आधारित नहीं रही।
क्षेत्रीयतावाद भारत में विस्तारित उसी समय हो सकता था जब किसी विशेष क्षेत्र के लोगों को लगे कि उसके ऊपर कोई सांस्कृतिक या भेदभाव आरोपित करने की कोई कोशिश कर रहा है ।
अगर आजादी के बाद क्षेत्रवाद को विषम तरीके से देखा जाए तो अधिक से अधिक दो राज्यों के बीच संसाधनों के बंटवारे से अधिक यह भावना और अधिक विषम नहीं हुई है। नदी जल बंटवारे को लेकर कई राज्यों के बीच तीखा विवाद बार-बार देखा जा चुका है। उदाहरण के लिए - (1) तमिलनाडु / कर्नाटक (2) कर्नाटक / आंध्र (3) पंजाब/हरियाण TI/ राजस्थान इत्यादि। इसके अलावा छिटपुट जगह भाषाओं को लेकर छोटे स्तर पर इस विवाद ने जन्म लिया फिर खत्म हो गया।
अगर क्षेत्रीय विकास की बात की जाए तो स्वतंत्रता के बाद गंभीर समस्याओं तथा आर्थिक क्षेत्रों के बीच जो एक समन्वय होना चाहिए था वह नहीं हो पाया। इस कारण यह मानना पड़ा कि कुछ राज्य पिछड़े है लेकिन इस पिछड़ेपन ने कभी भी क्षेत्रवाद की भावना का विकास नहीं किया।
अभी भी पूर्वी राज्य और पश्चिमी राज्य में काफी अन्तर है। सही तौर पर देखा जाए तो बंदरगाह तथा समुद्री सीमा से जुड़े हुए राज्य अधिक विकास कर सके परंतु इसका मलाल पिछड़े राज्य को नहीं रहा। एक विशेष दर्जे से मांग के ऊपर कोई भी विषय नहीं उभरा।
स्वतंत्रता के बाद से ही आर्थिक विषमताओं की गंभीरता को सरकार ने पहचाना तथा एक योजना बनाकर यह कोशिश की गई कि सभी राज्यों का समान रूप में विकास हो सके तथा सभी भागों में आर्थिक संतुलन स्थापित हो सके। 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में भारत सरकार ने जोर देकर कहा कि "प्रत्येक क्षेत्र में संतुलित और समन्वित औद्योगिक और कृषक अर्थव्यवस्था को सभी तौर पर विकसित करके ही पूरा देश जीवन स्तर प्राप्त कर सकता है।
1961 में यह अस्वीकार किया गया कि देश के पिछले क्षेत्रों के तीव्र विकास को राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय योजनाओं में ध्यान देना चाहिए जिसमें दिए गए समय में सभी राज्य न्यूनतम विकास स्तर को प्राप्त कर सके।
आरम्भ में सरकार ने एक ऐसी नीति बनायी जिसमें यह प्रयास किया गया कि गरीबी उन्मूलन हो तथा पिछड़े क्षेत्रों का विकास किया जा सके। इसके लिए संविधान में वित्त आयोग की भी व्यवस्था की गई जिसमें केन्द्रीय करो तथा वित्तीय संसाधन का बंटवारा राज्यों के बीच किया जा सके।
केंद्र और राज्यों के बीच भी आर्थिक स्थिति संतुलित करने का प्रयास किया गया उसमें 'नियोजन' की संकल्पना को महत्ता प्रदान की गई। नियोजन के द्वारा यह प्रयास किया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर विकास हो जिसमें कृषि, उद्योग, शिक्षा, मानव संसाधन सभी सम्मिलित हो। इसलिए यहाँ 15 मार्च 1950 को योजना आयोग की स्थापना कर 1951 में प्रथम योजना में कृषि को तथा द्वितीय योजना 1956 में उद्योग को प्रमुखता दी गई ।
योजना आयोग अपनी नीतियों से राज्यों के बीच संसाधन के बंटवारे में लगी रही तथा 2014 तक (नीति आयोग के बनने तक (2015) यह विभिन्न राज्यों के बीच संसाधनों का बंटवारा करती रही)
इसके अलावा क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने के लिए सार्वजनिक निवेश को भी बढ़ावा देने का प्रयास आजादी के बाद होने लगा तथा झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को इसका लाभ मिल सका। 1969 में आते ही यह महसूस किया गया कि वित्तीय क्षेत्र में क्षेत्रीय विकास को बढ़ाने के लिए बैंकों के राष्ट्रीयकरण की नीति बनायी गयी। इसके अलावा सरकार के द्वारा हरेक दशक में अनेक योजनाओं का निर्माण किया गया।
क्षेत्रीयतावाद का एक विशेष भाव कुछ विशेष विषयों से ही आजादी के बाद से अवगत होता रहा है। जिसमें 'स्थ. नीय/बाहरी', अल्पसंख्यक भाषाई / बहुसंख्यक भाषाई, मूल जनता / पलायित जनता इत्यादि।
हमेशा से देखा गया कि रोजगार तथा शिक्षा के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य लोग जाते रहे हैं। धीरे-धीरे वहाँ उनकी आबादी बढ़ने लगी तथा मूल लोगों से संघर्ष भाव का जन्म होने लगा। उदाहरण के लिए 1961 के दौरान बंबई में मराठी भाषी मात्र 42.8% थे । बंगलौर में कन्नड़ बोलने वाले 25% से कम हो गए थे। कलकत्ता में भी बंगाली बोलने वालों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी ।
1950 के दशक में जनसंख्या में बड़ा बदलाव आया तथा शिक्षा का प्रसार आरम्भ हुआ। लोगों को नौकरियां मिलने लगी तथा लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने-आने लगे। इससे बाहरी - भीतरी लोगों की संकल्पना बनी तथा ‘प्रवासी' शब्द चर्चा में आ गया। प्रवासी के मामले में खुलकर संविधान तो कुछ नहीं कहता है, परंतु यह जरूर कहता है कि ‘धर्म', जाति, नस्ल, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भेद भाव पर प्रतिबंध होना चाहिए।" (अनुच्छेद 15)
अनुच्छेद 16 में यह कहा गया कि किसी भी राज्य के अधीन नौकरियों या किसी पद के आधार पर नियुक्ति के लिए वंश, जन्म अथवा निवास स्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। 1960 के दशक में महाराष्ट्र में बाला साहब ठाकरे के नेतृत्व में यह देखा गया कि मराठी बनाम अन्य के नाम पर राजनीति शुरू हुई “महाराष्ट्र मराठियों के लिए" एक नारा दिया गया तथा यह कहा गया कि तमिलों को मराठी क्षेत्र से जाना चाहिए ।
1970 के समय यह आंदोलन हिंसक भी हो गया तथा आगे चलकर शिवसेना का यह बर्ताव 'हिन्दू-सम्प्रदायवाद' से जोड़कर देखा जाने लगा।
उपरोक्त तथ्यों के साथ न्याय करना न करना उस समय सही कहलाएंगे जब यह कहेंगे कि इन बातों तथा घटनाओं के बाद भी भारत की अखंडता अक्षुण्ण रही। विभिन्न विवादों के बाद भी भारत एक संघ के रूप में अपना काम करता रहा ।
क्षेत्रीय विषमता तथा असंतोष के राजनैतिक पक्ष तो उभरे लेकिन इस असंतोष ने अपनी मांग को राजनैतिक तथा समन्वयकारी ही बनाकर रखा। हम यह गर्व से कह सकते हैं कि आजादी के 75 साल होने तक हम एक महान लोकतंत्र में केंद्र-राज्य को साथ कार्य करते हुए देख सकते हैं।
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