नेहरू युग (1951-1964)

नेहरू युग (1951-1964)

नेहरू युग (1951-1964)

1. “एक प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के योगदान की समीक्षा"
(नेहरू युग की गाथा - 1951-1964)
जवाहर लाल नेहरू एक व्यक्ति के रूप में तथा एक नेता के रूप में अलग-अलग तौर पर भारतीय इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। परन्तु आजाद भारत में अगर नेहरू की चर्चा होती है तो अधिकतर दो कारणों से ही होती है। एक तो राष्ट्रीय आंदोलन में स्वतंत्रता के लिए इनका योगदान अहम है और दूसरा कि स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में इन्होंने भारत को आधुनिक तथा विकसित बनाने के लिए नीवें (ठेंम) रखीं।
अगर गणतांत्रिक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू युग को व्याख्ययित किया जाता है तो इसमें 13 साल यानी (1951-1964) उनकी मृत्यु तक के कार्यकाल को रेखांकित किया जाता है नेहरू जब 1951 के आम चुनाव के बाद भारत के पहले स्व संवैधानिक प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने स्वतंत्रता की रात्रि में अपने दिए गए भाषण को दोहराया तथा तीन प्रमुख शब्दों पर काफी जोर दिया। (1) उम्मीद (2) आकांक्षा (3) आत्मविश्वास
इसमें उम्मीद नये भारत की तथा आकांक्षा विकास की तेजी की तथा आत्म-विश्वास इस विकास को पाने से जुड़ा हुआ है। अप्रैल 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक देश के नाम संबोधन में कहा था - " मैं उस समय तक आराम से नहीं बैठ सकता जब तक कि इस देश की महिलाएं, व्यक्ति, बच्चे को न्यूनतम जीवन स्तर तथा उचित व्यवस्था की सुविधा न मिलेगी। आपको धैर्य रखना होगा तथा यह सोचना होगा कि हमारा यह लक्ष्य सिर्फ 5 साल में संभव नहीं है।
इसमें कम से कम 15 साल लगेंगे। "
नेहरू बार-बार अपने भाषण में यह कहते थे कि "हमारा आत्मविश्वास अतुलनीय है तथा कभी-कभी उन मुसीबतों को लगता है कि हम जीत गए हैं लेकिन देश में जो उम्मीद का वातावरण है, भविष्य के प्रति देश में जो विश्वास है तथा अपने सिद्धांत के प्रति आस्था जो है उसमें एक नयी सुबह आयी है तथा इस नयी सुबह की रोशनी से इतिहास में एक नए नये युग का सूत्रपात हो रहा है। "
भारत में उस समय एक नयी उम्मीद का उफान था। आम जनता के मन में नये विचारों को एक घर मिल रहा था। नागरिक अधिकार, प्रजातंत्र, आर्थिक विकास, समाजवाद, योजना आयोग, नियोजन, वैज्ञानिक विकास की शुरूआत, औद्योगिक विकास की शुरूआत तथा धर्मनिरपेक्षता के एक नये आयाम से लोगों में आम भावना की एक नयी लहर दौड़ रही थी।
परन्तु कहानी का एक पक्ष यह भी था कि गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, विकास की धीमी रफ्तार तथा भूमिसुधार की समस्या जैसे मुद्दे अभी भी मुह बाए खड़े थे तथा इस बात को लेकर विशेष रूप से शिक्षित वर्ग में काफी नाराजगी बढ़ रही थी।
नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने विभिन्न कार्यों से भारत की इतिहास की परिधि में अपना एक अलग स्थान बनाया। उनके कार्य के सागर में न जाकर कुछ विशेष मुद्दों पर ही चर्चा करना सही होगा।
नेहरू ने निम्न रूप में भारत की प्रगति के लिए अहम खांका खींचाः
1. आर्थिक नियोजन की शुरूआत
2. स्वतंत्र विदेश नीति का विकास
3. चुनावी प्रक्रिया का ईमानदारी से आरम्भ
4. जनतांत्रिक तंत्र को प्रगाढ़ बनाने की चेष्टा
5. एक महान प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना
6. लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में भारत की पहचान की कोशिश
7. विज्ञान एवम् तकनीक का विकास
8. भाषा तथा जनजाति के मुद्दे का समाधान
9. सबसे बड़े लोकतंत्र की अवधारणा का विकास
नेहरू ने सर्वप्रथम भारत में एक जनवादी सरकार की स्थापना पर जोर दिया। वैसे उन्होंने 1947 से ही जनवादी सरकार के लिए एक जनहित वाले संविधान की प्रक्रियागत विकास का कार्य आरम्भ कर दिया था। तथा इसके शीर्ष नेतृत्व में गांधी जी भी शामिल थे। 1951-52 के दौरान हुए चुनाव में एक जनवाद की उच्च भावना का उदय हुआ। यह आजाद भारत के महान जनतंत्र के लिए किया गया प्रथम महान संवैधानिक प्रयास था । यह चुनाव वयस्क मताधिकार के तौर पर करवाए गए 21 वर्ष से ऊपर के सभी समान नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया गया। मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 30 लाख थी। इसमें अधिकांश लोग गरीब, अनपढ़ तथा ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे।
नेहरू ने चुनावी व्यवस्था को एक ऐसे सिद्धांत के रूप में विकसित करने की वकालत की जो भारतीय जनतंत्र के लिए कार्य कर सके। मतदाताओं की कुल संख्या 1951 में 17 करोड़ 30 लाख थी। 224,000 मतदान केन्द्र बनाए गए थे। आबादी करीब 1 हजार पर एक मतदान केन्द्र बनाया गया था। करीब 10 लाख अधिकारियों को चुनाव के संचालन की जिम्मेवारी दी गयी थी।
इस चुनाव में कुल मिलाकर 14 राष्ट्रीय दल तथा 63 क्षेत्रीय पार्टियों के उम्मीदवारों को सामने रखा गया। इसके अलावा भारी संख्या में स्वतंत्र उम्मीदवार 489 लोकसभा सीटों और 3,283 राज्य विधान सभी सीटों के लिए चुनाव मैदान में उतरे इनमें से लोकसभा की 98 सीटों और विधानसभाओं की 669 सीटें ब्धै के लिए आरक्षित थी। इसके अलावा लगभग 17,500 उम्मीदवार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के संपूर्ण चुनाव खड़े हुए। चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से लेकर 21 फरवरी 1952 तक 4 महीने चलते रहे।
इस चुनाव में जवाहर लाल नेहरू ने एक शक्तिशाली चुनाव अभियान की शुरूआत की। नेहरू ने करीब 40,000 किलोमीटर की यात्रा की और 7.5 करोड़ लोगों को यानी भारत की आबादी के दसवें हिस्से को अपने चुनावी दौरों में संबोधित किया सही तौर पर माना जाए तो नेहरू उस चुनाव के केन्द्र में थे।
खास तौर पर उन्होंने ‘सांप्रदायिकता' को अपने इस अभियान का प्रमुख मुद्दा बनाया। उन्होंने अपने हरेक चुनावी भाषण में यह कहा कि अब सबसे बड़ा खतरा साम्प्रदायिक ताकतों की बढ़ती विचारधारा है, धर्मनिरपेक्षता हमारी पूंजी है अगर हम साम्प्रदायिक ताकतों को न तोड़ पाए तो यह भारत को तोड़ डालेंगे।
चुनाव बहुत ही स्वतंत्र, निष्पक्ष और व्यवस्थित ढंग से बिना अधिक हिंसा के सम्पन्न हो गया इस बात की उस समय विश्व भर में व्यापक सराहना हो गयी पहले चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन को कई एशिया में और अफ्रीकी देशों में चुनावों के लिए विशेष सलाहकार की हैसियत से आमंत्रित किया गया। मई 1950 में गणराज्य के राष्ट्रपति के रूप में डॉराजेन्द्र प्रसाद और उपराष्ट्रपति के रूप में डॉ. एस. राधाकृष्णन को चुन लिए जाने के साथ ही चुनाव प्रक्रिया पूरी हो गयी।
कुल लोकसभा सीट -  484, कुल राज्य विधान सभाओं की जीती गई सीट:- 3279
सूची में के. एम. पी. पी का मतलब किसान मजदूर पार्टी तथा आर. आर. पी राम राज्य परिषद्
इस आम चुनाव के द्वारा प्रारंभ की गई राजनीतिक व्यवस्था को कई राजनीति शास्त्रियों ने एक दलीय प्रधान व्यवस्था की शुरूआत माना है। सही तौर पर यह बहुदलीय व्यवस्था का आरम्भ था इसमें कांग्रेस को इस व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग और स्थिरता की गारंटी करने वाली ताकत का विशेष स्थान प्राप्त था परन्तु संसद के अन्दर विपक्ष को अत्यंत प्रभावी तौर पर प्रदर्शन करते देखा गया।
एक ओर प्रगति हुई। इस प्रगति में ट्रेड यूनियन किसान सभा, हड़ताल बंद और प्रदर्शन जैसी अन्य राजनीतिक भागीदारी के उपायों के उपलब्ध रहते हुए भी अब मध्यवर्ग, संगठित मजदूर वर्ग, समृद्ध और मध्यम किसान आदि दलों के लिए चुनाव की प्रत्यक्ष राजीतिक भागीदारी का ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सबसे बड़ा माध्यम बन गया।
पहले आम चुनावों के दौरान भी हम कुछ विकास से विमुख नाकारात्मक ताकतों पर प्रवृत्तियों को देख सकते हैं जिसमें कांग्रेस के अंदर टिकट लेने के लिए असंतोष, वोट बैंक की धारणा तथा धनाढ्य लोगों की पहुँच इत्यादि है।
नेहरू के काल में तीन आम चुनाव हुए। 1952, 1957 तथा 1962', इसमें लगातार मतदाताओं की भागीदारी बढ़ती गयी। जहां 1951 में 40% मतदान हुआ वही 1957 में 47% तथा 1962 में तो करीब 54% ले गया। इन दोनों चुनाव में कंग्रेस को भारी विजय प्राप्त हुई। और कम्यूनिस्ट तथा जनसंघ की हार हो गयी। 1957 के काल में वामपंथी की सरकार बनी। जहां जनता के द्वारा चुनी गई दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार थी।
नेहरू ने जनवाद को मजबूत बनाने की कोशिश के साथ ही नागरिकों के विभिन्न अधिकारों की बात की तथा प्रेस की आबादी तथा न्ययालय की आदरणीय स्थिति को कायम किया गया। नेहरू संसद को सर्वोच्च मानते हुए उनमें विपक्षी नेताओं को बोलते देने के पक्ष में रहते थे। विपक्ष को जो संसद में स्थान मिला, उसका लाभ विपक्ष ने पूर्ण रूप से लिया तथा उसके प्रमुख नेताओं ने काफी मुद्दों पर सरकार को घेरा।
2. नेहरू की केबिनेट
नेहरू जी ने अपने तरीके से अपना मंत्रिमंडल बनाया था। इस ‘अपने तरीके' का अर्थ लोकतांत्रिक प्रणाली तथा स्वस्थ मानसिकता से है। यह प्रयास किया गया कि मंत्रिमंडल को सामूहिक रूप से चलाया जाए तथा कोई भी फैसले समूह के बहुमत से ही लिए जाएं। नेहरू जी के व्यवहार से उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी बहुत अधिक प्रसन्न रहते थे। सी. डी. देशमुख एक वित्तमन्त्री के रूप में बहुत अधिक विद्वान थे तथा नेहरू के बहुत ही अच्छे मित्र थे नेहरू युग के दौरान मंत्रिमंडल ने संविधानों में दिए गए विभिन्न प्रावधानों के तहत लोकतांत्रिक तथा लोक कल्याणकारी फैसले लेने के लिए बहुत अधिक प्रयास किया।
नेहरू ने संघवाद को मजबूत बनाने के लिए राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया तथा राज्यों की स्वतंत्रता का आदर करते हुए नेहरू कभी भी राज्य सरकार पर अपना निर्णय नहीं थोपते थे और ना ही उनके निर्णय में हस्तक्षेप करते थे। नेहरू की नीतियों में यह खास बात थी कि उनमें नेहरू का अपना चिंतन भी समाहित रहता था लेकिन वह किसी नीति को राज्य पर थोपने की कोशिश नहीं करते थे। इसका उदाहरण नेहरू की भूमिसुधार की नीति को हम देख सकते हैं। हम कह सकते हैं कि भूमि सुधार के लिए उन्होंने एक भी राज्य पर दबाव नहीं डाला क्योंकि वह जानते थे कि राज्यों की शक्ति तथा अधिकार सीमा में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति नहीं रखना चाहिए। कुछ मायनों में राज्यों के शक्ति में हस्तक्षेप नहीं करने का कारण भारत की एकता को मजबूत करना भी रहा होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके युग में राज्यों में भी कांग्रेस की सरकारे फिर भी राज्यों के नेतृत्व को अपना नेता चुनने का महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त था।
नेहरू के प्रधानमंत्री काल सेना पर नागरिक की श्रेष्ठता पूरी तरह से स्थापति हो गयी। सेना पूरी तरह से 'अराजनी. तिक' हो गई नागरिकों में सेना तथा सरकार पर पूरा भरोसा था। नेहरू के मन में अवश्य आता था कि सेना राजनीति में दिलचस्पी ना लेने लगे, इसलिए उन्होंने सैनिक बलों के आकार को छोटा कारना चाहा तथा पाकिस्तान के द्वारा अपनी सेना बढ़ाने के लिए अमेरिका से सहयोग लेने की बातों को भी उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। सैन्यबल पर खर्च भी काफी कम रखा गया जो राष्ट्रीय आय के 2% से भी कम था।
3. नेहरू की प्रशासनिक व्यवस्था
नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय नागरिक सेवा (ICS) जो अंग्रेजो के द्वारा बदली गयी थी, वहीं थी। लेकिन अब उसे पूरी तरह बदलने की जिम्मेवारी थी। इस सवाल पर पहले नेहरू और पटेल के बीच मतभेद था पटेल गृहमंत्री होने के कारण प्रशासन पर नियंत्रण रखने में नेहरू छै और पूरी नौकरशाही के विरोध में थे। उनका कहना था कि कठोरता छै में भरी पड़ी हैं। 1946 में उन्होंने मौजूदा प्रशासनिक ढांचे का वर्णन करते हुए कहा कि यह राज्य का जहाज है जो एकदम बेकार और टूट गया है इसे हटाकर अब नया कुछ बनाना पड़ेगा इसकी तरफ पटेल यह सोच रखते थे कि प्रशासनिक तंत्र बनाए रखना अति आवश्यक है क्योंकि इस देश की आंतरिक सुरक्षा खतरे में है तथा अराजकता का वातावरण घर कर रहा था पटेल ने कहा कि इसकी कठोरता के कारण इसका करना भारत की आंतरिक सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करना होगा।
इससे· प्रशासनिक शून्यता कायम हो जाएगी जो ठीक नहीं है। उन्होंने 1948 में अखिल भारतीय सेवा की संविधान सभा में यह कहकर प्रशंसा की कि अगर अखिल भारतीय सेवा को आप हटा देंगे तो निश्चित यह माना जाए कि पूरे देश में अराजकता के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला है। उन्होंने यह भी कहा कि 1947 के समय विभाजन की परछाई में अगर सिविल सेवकों ने ठीक से काम नहीं किया होता तो यह संघ कब का टूट गया होता नेहरू पटेल की बातों को न मानने के मूड में थे लेकिन अराजकता तथा आंतरिक सुरक्षा की बिनाह पर बाद में तैयार हो गए तथा धीरे-धीरे प्रशासनिक सेवाओं को उन्होंने स्वीकार किया। काफी समय होने के बाद वे प्रशासनिक सेवक की तारीफ कर थकते नहीं थे। क्योंकि एक निरक्षर तथा गरीब भारत में सुयोग्य प्रशासनिक अफसरों का होना एक लाभ की बात थी। तथा सेवाओं को नागरिक कल्याण के लिए पहुंचाना भी एक अहम बात थी । प्रशासनिक व्यवस्था की मदद से भारत की सामाजिक कल्याणकारी तथा आर्थिक विकास की योजनाएं लागू करना प्राथमिकताओं में था।
परन्तु नेहरू प्रशासनिक सेवाओं के नकारात्मक रवैय से भी काफी चिंतित रहते थे। उन्होंने 1951 में एक भाषण में कहा कि हम पूरी तरह अधिकारिक सेवाओं तथा एजेसियों पर निर्भर होते जा रहे है तथा ये पूरी तरह अपनी ऐसी नीति लागू करना चाहते हैं जिसका आम जनता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। नेहरू ने इन सेवाओं को बदलने की सोची। उनका मत दो बातों का था, एक तो 'पुनः प्रशिक्षण' तथा दूसरा "नये लोगों को नियुक्ति", कोई भी मत उन्होंने लागू नहीं किया भारतीय प्रशासनिक सेवा को आई. सी. एस. के ही तर्ज पर बनाया गया। नेहरू ने इन मुद्दों पर अधिक ध्यान नहीं दिया प्रशासनिक अफसरों की कठोरता तथा जनवादी विचारधारा को इस व्यवस्था में शामिल नहीं किए जाने का प्रयास तथा आधुनिक कार्य संस्कृति ना लाए जाने को लेकर नेहरू की आलोचना की जा सकती हैं क्योंकि प्रशासन समय के साथ बेहतरी के बदले बद्तर होता गया तथा यह आम नागरिक से दूर भी हो गया। इसमें 'नौकरशाही' और ‘भ्रष्टाचार' दो शब्दों की विशेषता महकने लगी। पदों में चोरी, घूसखोरी लाइसेंसराज, कोटा प्रणाली के कारण यह तंत्र और भी जटिल हो गया था। यह नैतिकता को लेकर प्रश्न था पर इसे ठीक करने के लिए कोई विशेष पहल नहीं की गई। यदि समय पर कठोर फैसले लिए गए तो युद्ध कालीन भ्रष्ट पथों को रोका जा सकता था और इस व्यवस्था के पतन को उत्थान की ओर मोड़ा जा सकता था।
प्रशासनिक व्यवस्था की आंतरिक गड़बडियों में सबसे अधिक वृद्धि परमिट राज तथा आर्थिक विकास है इसका कारण यह था कि सरकार के विकास संबंधी क्रिया-कलापों में इस परमिट राज का बढ़ना जारी रहा तथा इनके तंत्र में भ्रष्टाचार का बोल-बाला हो गया इसे एक नये तौर पर राजनीतिक - प्रशासनिक भ्रष्टाचार के बढ़ने के कई उदाहरण मिल सकते हैं। यह सही है कि प्रयास होते तो गांधीवादी - नैतिकता की बात कर इन कुकृत्यों को आंका जा सकता था। नेहरू लोक प्रशासन की इन समस्याओं से परिचित थे। नेहरू ने 1963 में मुख्यमंत्रियों को अपने लिखे अंतिम पत्र में "सरकारी तंत्र को मजबूत करने और अक्षमता तथा भ्रष्टाचार के खिलाफ अनवरत संघर्ष" करने की आवश्यकता की तरफ इशारा किया।
'आजादी के बाद भारत' जैसी पुस्तक लिखने के वाले विपीन चन्द्रा नेहरू की उस उक्ति का विवरण देते हैं जिसमें नेहरू ने कहा था कि "भ्रष्टाचार विषय में बहुत चर्चाएं हो रही हैं। मुझे लगता है कि इस बारे में काफी बढ़ा-चढ़ा कर बातें कहीं जा रही हैं। परंतु फिर भी हमें महसूस करना चाहिए कि ऐसा सच में है और हमें अपने मजबूत इरादे और इच्छा शक्ति के साथ इसका सामना करने के लिए तैयार होना चाहिए। हमारा सरकारी तंत्र बहुत धीमी रफ्तार से चलता है और इसमें बहुत सारे अवरोध जो हमारे मन में आने वाली हर साहसिक योजना के रास्ते में आ खड़े होते हैं। मैं आप लोगों को इस बारे में इसलिए लिख रहा हूं कि हमें अपने सार्वजनिक जीवन को अवश्य स्वच्छ बना देना चाहिए।"
परंतु नेहरू के बारे में यह कहना कि उन्होंने सिर्फ अपनी बात कहकर जाने दिया तो गलत होगा। क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ कदम भी उठाए गए लेकिन सबसे अधिक इस बात के लिए उनकी आलोचना होती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्होंने कोई योजना या मुहिम नहीं चलायी । उनको यह महसूस होता था कि भारतीयों में इस से एक अफवाह घर कर जाएगी तथा अधिकारी तथा एजेंसी कोई भी रिस्क देने से घबराने लगेंगे।
4. नेहरू और वैज्ञानिक अनुसंधान तथा तकनीकि शिक्षा
नेहरू एक ऐसे नेता थे जिनका यह मानना था कि कोई भी देश विज्ञान तथा तकनीक के बिना अपना विकास नहीं कर सकता। 1938 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस को दिए अपने संदेश में नेहरू ने कहा कि विज्ञान एकमात्र ऐसा साधन है जो अकेला गरीबी, गदंगी और भूख में लड़ सकता है। इसके साथ ही विज्ञान की मदद से हम अशिक्षा, अंधविश्वास, संसाधनों की बर्बादी तथा 'अपनी संस्कृति' के प्रति निरूत्साह को खत्म कर सकते हैं।
नेहरू काल में विज्ञान एवम् तकनीक के क्षेत्रों में बहुत अधिक मात्रा में प्रयास किए गए। 1952 में भारत में पहला I. I. T खड़गपुर में खोला गया तथा इसके बाद मद्रास, मुबंई (बॉम्बे) तथा कानपुर और दिल्ली में भी खोला गया। इस प्रकार नेहरू के युग में इंजीनियरिंग तथा तकनीकी शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों की संख्या हजारों में पहुंच गयी। इसके बावजूद वैज्ञानिक अनुसंधान कमजोरी से पूर्ण था। क्योंकि वैज्ञानिक संस्थानों का विकास अफसर के हाथ में था। इस कारण नौकरशाही-तथा अफसरशाही के कारण इन संस्थानों में पैरवी अधिक मैरिट कम चलने लगी जिनसे परेशानी बढ़ने लगी तथा प्रतिभा पलायन होने लगा।
नेहरू ने परमाणु ऊर्जा के महत्व को समझते हुए कुछ बड़े कदम की घोषणा की उनका कदम था कि परमाणु ऊर्जा दुनिया के सामाजिक अधिक और राजनीति जीवन में एक क्रांति लाएगी तथा साथ ही देश की सुरक्षा क्षमता को प्रभावित भी करेगी। 1948 के आरम्भ में उन्होंने परमाणु ऊर्जा के प्रति अपनी सोच को इन शब्दों में जारी किया “भविष्य उनका होगा जो परमाणु ऊर्जा पैदा कर सकेंगे। यह भविष्य की सर्वप्रथम ऊर्जा बनकर रहेगा। स्वाभाविक रूप से सैनिक सुरक्षा भी इससे जुड़ी हुई है।"
औपचारिक रूप से 1948 में भारत सरकार ने परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना की, जिसका अध्यक्ष ‘डॉ. होमी जहांगीर भाभा' को बनाया गया। यह आयोग भारतीय आयोग के तौर पर शांतिपूर्ण ऊर्जा बनाने तथा विज्ञान अनुसंधान को बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान विभाग के तहत ही बनाया गया था जो सीधे प्रधानमंत्रीके दिशा-निर्देश में ही कार्य करता था।
1954 में भारत सरकार ने परमाणु विभाग को प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ही गठित किया जिसका अध्यक्ष होमी जहांगीर भाभा को ही बनाया गया। भारत का पहला परमाणु रिएक्टर, जो एशिया का भी पहला रिएक्टर था, ने बंबई में अगस्त 1956 में काम करना शुरू कर दिया था। भारत के आधुनिक और विकसित परमाणु कार्यक्रम में बहुत सारे परमाणु रिएक्टरों की स्थापना का लक्ष्य रखा गया था जो कुछ ही वर्षो में बिजली का भारी उत्पादन करने लगी हालांकि भारत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के प्रति समर्पित था, परंतु इस क्षमता का उपयोग आसानी से परमाणु बम बनाने के लिए भी किया जा सकता था।
भारत सरकार की सिर्फ परमाणु ऊर्जा-नीति ही लक्षित नहीं थी बल्कि अंतरिक्ष के क्षेत्र में भी इन्होंने बहुत अधिक मात्रा में प्रयास करना आरम्भ किया 1962 में प्दकपंद छंजपवदंस ब्वउउपजजमम वित चबम त्मेमंतबी की स्थापना की गई तथा थुंबा में रॉकेट लॉचिंग फैसिलीटी स्थापित की गई। सैन्य साज- समान के उत्पादन की क्षमता का विस्तार करने के लिए कई कदम उठाए गए ताकि भारत रक्षा आवश्यकता की आत्मनिर्भरता को आगे ले जा सके। भारत ने रूपए की दशमलव प्रणाली तथा मापतोल की मीट्रिक प्रणाली को भी इस दौर में स्वीकार किया। हालांकि इस बात की चेतावनी भी दी जा रही थी कि अशिक्षा के कारण इसकी सफलता संदिग्ध है। वैज्ञानिक अनुसंधान एवम् तकनीक की ऐसी नींव पड़ी जिसमें परमाणु, तकनीक, रक्षा, अंतरिक्ष सभी कुछ शामिल थे जो भारत के भविष्य के लिए अति आवश्यक थे। 
नेहरू युग तथा सामाजिक क्षेत्र
वैसे तो भारतीय संविधान में भारतीय समाज के विकास के लिए अहम रास्ते बताए गए थे फिर भी नेहरू ने अपने स्तर से ‘सामाजिक कल्याण' के लिए विभिन्न प्रयास किये तथा, 'समाज के समाजवादी प्रारूप' को सबके सामने प्रस्तुत किया। ‘सामाजिक विकास' को नेहरू ने पंचवर्षीय योजना में शामिल किया ता उन्होंने 'सामाजिक सुधार कार्यक्रम' बड़े स्तर पर चलाने की कोशिश की। सामाजिक सुधार कार्यक्रम के तहत तीन कार्यों को बड़े स्तर पर लाने की कोशिश हुई। जैसे:- (1) भूमि-सुधार कार्यक्रम, (2) नियोजिक आर्थिक विकास, (3) सार्वजनिक क्षेत्र का तीव्र विकास। इसके अलावा मजदूरों के अधिकार और ट्रेड यूनियनों के विभिन्न अधिकार जैसे :- रोजगार की सुरक्षा, स्वास्थ्य, दुर्घटना बीमा का प्रावधान तथा हड़ताल करने का अधिकार शामिल है। संपत्ति के अधिक समतापूर्ण वितरण की दिशा में प्रयास किये गये। इस उद्देश्य को आयकर की ऊंची दर तथा आबकारी कर की नीति लागू की गई। शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सुविधाओं का आमतौर पर विस्तार किया गया। नेहरू की सबसे बड़ी इच्छा समाज में सकारात्मक परिवर्तन की थी। 
नेहरू की सरकार ने सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से काफी प्रयास भी किए। 1955 में अस्पृश्यता विरोधी अधिनियम पास किया गया। जिससे किसी भी छुआछूत को अपराध बना दिया गया था। इसके अलावा सरकार ने विभिन्न संस्थानों में सामाजिक आरक्षण लागू करने की कोशिश की। सरकार ने ब्धै को समाज में ऊंचा स्थान प्राप्त करने के लिए वित्तीय सहायता तथा कानूनी सहायता पहुंचाने की भरसक कोशिश की।
विभिन्न योजनाओं के माध्यम से समाज में अनुसूचित जाति तथा जनजाति के विकास के लिए काफी प्रयास हुए। इसमें छात्रवृत्ति, स्वास्थ्य, आवास, ग्रामीण विकास इत्यादि से संबंधित योजनाओं की चर्चा की जा सकती है जातीय असमानता तथा शोषण को खत्म करने के लिए काफी जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए गए।
नेहरू ने महिलाओं के योगदान के लिए काफी प्रयास किए। महिला के अधिकार तथा देश में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 1951 में हिन्दु कोड बिल प्रस्ताव लाने का प्रयास किया। इस प्रस्ताव का विपक्षी पार्टी खासकर जनसंघ ने काफी विरोध किया नेहरू ने इस कारण इस बिल को लागू करने पर रोक लगा दी गई क्योंकि इसे वह आम सहमति से लागू करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने 1951-52 के आम चुनाव में इसे एक मुद्दा बनाया।
1952 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू ने हिन्दू कोड बिल को विस्तारित रूप से कानून बनाकर लागू किया।
1. विवाह अधिनियम
2. तालाक प्रावधान
3. विवाह की उम्र सीमा
4. संपत्ति अधिनियम
इस प्रकार महिलाओं के अधिकार के लिए काफी महान कदम उठाए गए। लेकिन इन सब कानूनों में एक बहुत बड़ी कमजोरी तथा अभी तक जो समस्या है, उसकी जड़-छुपी थी कि यह कानून सभी धर्मो पर लागू नहीं किया गया उन्होंने ऐसे किसी बड़े कदम के खिलाफ आवाज बुलंद की जो अल्पसंख्यकों को इस देश में असुरक्षित महसूस करा सके। ऐसा नहीं है कि वह नहीं चाहते थे कि मुसलमान भी इस कानून में शामिल न हो परन्तु इस बात के लिए वह मुस्लिमों की इच्छा को प्रधानता देते थे। 
सामाजिक विकास में शिक्षा का योगदान एक महत्वपूर्ण पक्ष होता है। 1951 में कुल जनसंख्या का मात्र 16.6% ही लोग साक्षर थे। ग्रामीण जनसंख्या में यह भाग 6 प्रतिशत ही था । संविधान में यह निर्देश दिया गया था कि 1961 तक सरकार द्वारा 14 वर्ष की उम्र तक के प्रत्येक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाए। बाद में इसे समय के अनुसार 1966 तक कर दिया गया था। 1951-52 में सरकार ने शिक्षा पर खर्च की सीमा 19.80 करोड़ की थी वहीं यह 1964-65 तक बढ़कर 146.27 करोड़ हो गई। शिक्षा को राज्य सूची का विषय बनाया गया था इसलिए इसमें किसी भी वित्तीय कठिनाई को कम करने की बात की गई थी। कहा गया कि अगर वित्तीय दिक्कत शिक्षा के विकास में आए तो पूरी तरह से इसे औद्योगिक विकास के खर्च से कुछ कटौती कर पूरा कर लिया जाए ।
नेहरू ने बाल शिक्षा खासकर लड़कियों की शिक्षा में बहुत अधिक मात्रा में कार्य किया उनकी योजना को हम इस आधार पर सफल कह सकते हैं कि जहां 1950-51 में चौथी कक्षा तक के छात्रों की संख्या 1.37 करोड़ थी वहीं 1965-66 में वह 3.21 करोड़ हो गई। छात्रों की संख्या इसमें दो गुनी हो गई थी। माध्यमिक स्तर भी परिवर्तन काफी हुआ जहां 1951 में 10 लाख छात्र इस स्तर पर थे वहीं 1964 में 40 लाख हो गए। छात्राओं की संख्या तो 1.9 लाख से बढ़कर 10.2 लाख तक हो गई। इस दौरान माध्यमिक विद्यालय की संख्या 7,288 से बढ़कर 24,477 हुई। प्राथमिक एवम् माध्यमिक शिक्षा के बाद अगर उच्च शिक्षा की बात की जाए तो इसमें भी प्रगति दिखायी पड़ती है।
स्वतंत्रता के समय देश में सिर्फ 18 विश्वविद्यालय थे जबकि करीब उच्च शिक्षा में 3 लाख छात्र थे। 1964 तक विश्वविद्यालयों की संख्या 54 और कॉलेजों की संख्या 2,500 हो गई। स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों की संख्या 6.13 लाख हो चुकी थी। छात्राओं की संख्या 6 गुणा बढ़कर 22 प्रतिशत के करीब हो गयी थी। लेकिन प्राथमिक शिक्षा में प्रगति कम थी क्योंकि जनसंख्या का विस्तार अधिक हो रहा था।
प्राथमिक शिक्षा में अनिवार्य शिक्षा के लक्ष्य वर्ष 1966 के दौरान 6 से 14 वर्ष के बच्चे सिर्फ 61 प्रतिशत ही विद्यालय जा रहे थे। जिनमें छात्राओं की संख्या 43 प्रतिशत की थी।
सही तौर पर देखा जाए तो 1965 में ग्रामीण क्षेत्र में आबादी के आधार पर सिर्फ 95% के पास ही किसी स्कूल की उपलब्धता थी परन्तु अधिकतर स्कूल खुले आकाश में थे। इसके आलावा जो सबसे बड़ी समस्या थी, वह समस्या थी बीच में ही स्कूल छोड़ने वालों की अधिक संख्या पहली कक्षा में नाम लिखाने वाले 50% बच्चे स्कूल की चौथी क्लास एक जाते-जाते स्कूल छोड़ देते थे। फिर वापस निरक्षरता के घेरे में पहुंच जाते थे। पढ़ाई छोड़ने वालों में लड़कियों की संख्या लड़कों से बहुत अधिक थी। इसका अर्थ यह समझने में देर नहीं करना होगा कि शिक्षा का समान अवसर सबको प्राप्त नहीं हो रहा था। ग्रामीण लोगों की बहुसंख्यक आबादी इस लाभ से वंचित रहती थी। समय के साथ शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं होने के कारण और भी समस्याएं पैदा होने लगीं।
नेहरू के जेहन में यह बात थी कि शिक्षा की प्रगति असंतोष जनक है तथा इसे भरसक कोशिश कर सुधारने का प्रयास होना चाहिए नेहरू की यह उक्ति काफी लोकप्रिय है कि " अंतिम विश्लेषण में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सही शिक्षा की उपलब्धि हमारी सभी मौलिक समस्याओं का समाधान" है। उन्होंने यह भी कहा कि औद्योगिक विकास को हम कुछ दिनों के लिए तो रोक सकते हैं लेकिन निचले स्तर पर शिक्षा का प्रसार हम रोक नहीं सकते जबकि उद्योगों के विकास की तीव्र इच्छा हमारे मस्तिष्क में है।
5. नेहरू जी तथा पंचायती राज की अवधारणा
प्रधानमंत्री नेहरू ने 1952 में पंचायती राज के महत्व को समझते हुए 'सामुदायिक विकास कार्यक्रम' आरम्भ किया। इसके प्रयास यानी सामुदायिक विकास कार्यक्रम की मिली-जुली प्रतिक्रिया के बाद 1959 में पंचायती राज का विकास किया गया। इस कार्यक्रम ने गांवों में कल्याणकारी राज्य का आधार तैयार करने की बात कही थी। प्रमुख रूप से इस कार्य के तहत गांवों के लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने की बात कही थी।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952 में आरम्भ हुआ। इनमें 55 विकास खण्ड चुने गए। प्रत्येक खण्ड में 100 गांव और करीब 60 से 70 हजार की आबादी थी। 1959 तक प्रखण्डों के स्तर पर 6000 से अधिक पदाधिकारी तथा करीब 6,00,000 तक ग्राम सेवक अपने कार्य में लगे थे। इस कार्यक्रम में शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, कृषि सभी क्षेत्रों पर ध्यान देने की बात कही गई थी। इसमें सबसे अधिक जोर जनता को विकास कार्यक्रम में नीचे के स्तर तक जोड़ना था। इसका सबसे बड़ा लक्ष्य गांवों के लोगों को व्यापक अर्थो में देश के विकास में सम्मिलित करना था। इस कार्यक्रम में ग्रामीण तबकों को जीवन स्तर पर ऊंचा उठाने तथा अवसर की समता को परखने की बात कही गई थी। सामुदायिक विकास कार्यक्रम का विस्तार करने में कई सफलताएं प्राप्त थीं। जैसे :- बेहतर बीज, खाद आदि होने के परिणाम स्वरूप आम तौर पर खेती का विकास तेज हुआ और खाद्य उत्पादन बढ़ा। इसके अलावा सड़क, तालाब, कुआं, स्कूल तथा प्राथमिक चिकित्सक केन्द्र आदि का निर्माण शिक्षा तथा चिकित्सा स्तर पर काफी अधिक मात्रा में हुआ।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम की कमजोरी का जिक्र 1957 में काफी स्पष्ट हो चुका था। 'बलबंत राय मेहता समिति' को इस कार्यक्रम के मूल्यांकन को कहा गया था। इस समिति ने इस कार्यक्रम के नौकरशाही के चंगुल में फंसने और लागों की भागीदारी के अभाव की जमकर आलोचना की। इस समिति ने यह सिफारिश भी की, कि ग्राम पंचायत को स्वशासित तरीके से विस्तारित किया जाए तथा इसे त्रि-स्तरीय बनाया जाए। नेहरू ने इनकी सिफारिशों को माना तथा 1959 में नागौर से पंचायती राज की शुरूआत कर दी। इसके साथ सामुदायिक विकास कार्यक्रम को जोड़ दिया गया तथा यह अवधारणा बनायी गयी कि सहकारिता को इसके सहयोग के लिए विकसित किया जाएगा।
इसमें हजारों सहकारी संस्थाओं का जाल बुन दिया गया, सहकारी बैंक, भूमि विकास बैंक, बाजार सहकारी समिति इत्यादि को इसमें जोड़ा गया ये सभी संस्थाएं स्वायत्त थी क्योंकि इसका संचालन चुनाव के आधार पर बनी संस्थाओं द्वारा किया जाता था। ग्रामीण विकास में पंचायती राज का योगदान बढ़ रहा था। इसके परिणाम अच्छे भी आए परन्तु अभी भी इसकी संवैधानिकता तथा जनता के बीच अहम भागीदारी बाकी थी।
6. नेहरू की विदेश नीति
वर्तमान काल में नेहरू की जिन नीतियों की चर्चा सबसे अधिक होती है उसमें विदेश नीति सबसे अधिक है। नेहरू ने अपने तरीके से विदेश नीति का आधार तैयार किया था। उन्होंने भारतीय नीति को एक 'स्वतंत्र विदेश नीति' के तौर पर विकसित किया। इनकी अपनी सोच थी और यह सोच एक ही दिन में विकसित नहीं हो गयी थी। सबसे पहले इन्होंने भारतीय विदेश नीति को एक स्वतंत्र विदेश नीति क्यों कहा इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
नेहरू कदापि नहीं चाहते थे कि भारत की महान सभ्यता अपनी आवाज किसी 200 वर्ष के उपनिवेश के तौर पर विश्व के सामने रखे। इसके लिए उन्होंने यह कोशिश की कि एक महादेश के रूप में भारत को विश्व के सामने अपनी आवाज निडरता से और आँख में आँख मिलाकर रखनी चाहिए। इसलिए उन्होंने कहा कि हमारी स्वतंत्रता एक आवश्यकता है।
7. नेहरू की विदेशनीति तथा गुटनिरपेक्षता की बातें:-
नेहरू ने ‘गुटनिरपेक्षता' की भावना को एक संगठन रूप प्रदान किया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का सही रूप में अर्थ यह है कि भारत जैसे देशों को किसी महान शक्ति के सैन्य गुटों का हिस्सा नहीं होना चाहिए। क्योंकि हमारी समस्याएं? महाशक्ति की समस्या से अलग हैं उनके गुटों के हिस्से बनकर हमारी अपनी समस्या गौण हो जाएगी नेहरू ने यह जोर देकर कहा कि जिस देश ने नवस्वतंत्रता की सुबह देखी है, उनकी आवश्यकता गरीबी, निरक्षरता, बीमारी, बुनियादी रचना की कमी जैसी समस्याएं है। ऐसे देशों का किसी सैनिक गुटों में शामिल होना अपनी आत्म हत्या करने के समान होगा। नेहरू ने अपनी विदेश नीति में दो शब्दों को भारत और विश्व के लिए अति आवश्यक बताया तथा यह कहा कि 'शांति' तथा ‘शांतिपूर्ण-वातावरण' विश्व के लिए भविष्य के लिए जनता के लिए अति आवश्यक है।
नेहरू की गुटनिरपेक्षता का मतलब उन्हीं के शब्दों में था:
1. वैश्विक मुद्दे पर स्वतंत्रतापूर्वक अपना विचार रखना।
2. स्वयं पहचान करना सही क्या है, गलत क्या है?
3. लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए कार्य करना
4. उपनिवेशवाद, रंगभेद तथा फासिज्म का विरोध करना ।
5. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भवना विकसित करना।
6. विश्व को एक परिवार समझना।
7. निःशस्त्रीकरण का प्रयास करना
गुटनिरपेक्ष भारत तथा अन्य ऐसे देश जो तुरंत स्वतंत्र हुए थे के लिए अपनी आजादी बरकरार रखने तथा उपनिवेशक देश के जुल्मों का विरोध करने का महान चिन्ह था। गुटनिरपेक्षता ने विश्व संबंधो के लोकतांत्रिकरण में मदद दी। उप. निवेशवाद के विरोध तथा पूर्व औपनिवेशिक देशो की सहायता के कारण भारत की गुटनिरपेक्षता नीति काफी अहम थी। नेहरू ने परमाणु युद्ध के विरोध में काफी संघर्ष किया तथा नेहरू ने गांधी की अहिंसा की नीति को अपनी विदेश नीति में सहमति के तौर पर समाहित करने के लिए विश्व भर से प्रशंसा पायी। नेहरू ने परमाणु निःशस्त्रीकरण की विचारध रा को अपने सामने एक महान मुद्दे के तौर पर रखा तथा भारत के महान उद्देश्य के तौर पर इसको रेखांकित भी किया।
नेहरू ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए पंचशील सिद्धांत को पेश किया। विभिन्न लेखकों ने पंचशील सिद्धांत को सिर्फ चीन से जोड़कर देखा है लेकिन सही तौर पर यह भारत की नेहरूवादी दृष्टिकोण का स्मारक है।
8. पंचशील के 5 सिद्धान्त
1. परस्पर सम्प्रभुता का सम्मान।
2. एक-दूसरे पर पहले हमला न करने की नीति ।
3. एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें।
4. समानता तथा आपसी लाभ के लिए सहयोग | 
5. शांतिपूर्ण सह अस्तित्व।
नेहरू ने अपनी विदेश नीति के कारण विश्व में एक आदरणीय नेता की छवि बनायी। 1 मार्च 1947 में जब भारत को औपचारिक आजादी नहीं मिली थी तब ही इनके प्रयास से 'एशियाई देशों' का सम्मेलन हुआ था। यह सम्मेलन दिल्ली में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में 20 से अधिक देशों ने भाग लिया। अगला सम्मेलन दिसम्बर 1948 में हॉलैंड की इण्डोनेशिया पर नापाक कोशिश के विरुद्ध बुलाया गया था। इसमें नेहरू ने हिन्द महासागर से जुड़े देशों को बुलाया। इसमें अधिकतर एशियाई तथा ऑस्ट्रेलिया के देश शामिल हुए। यह कोशिश रंग लायी तथा न्छ० ने तय किया कि हॉलैण्ड को अपना दावा छोड़ना पड़ेगा। अतः हमें यह कहने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि नेहरू एक वैश्विक नेता के तौर पर पहचान बना रहे थे।
1955 में उपनिवेशवाद के विरोध में बाडुंग सम्मेलन इण्डोनेशिया में हुआ। यह सम्मेलन भारत तथा अन्य कोलंबो शक्तियों ने बुलाया था। इस सम्मेलन में विश्व शांति और निःशस्त्रीकरण की विचारधारा पेश की गई। फिर 1961 में बेलग्रेड शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ जिनमें मिस्र के नासिक, युगोस्लाविया के टीटो के साथ मिलकर नेहरू ने परमाणु निःशस्त्रीकरण तथा शांतिपूर्ण विश्व की अवधारणा रखी।
नेहरू की विदेश नीति का एक अहम पड़ाव भारत के आर्थिक हितों को आगे बढ़ाना था। तथा उस रास्ते को मजबूत करना था जो उसने चुना था । गुटनिरपेक्षता की बात को आगे बढ़ाने का सबसे बड़ा लाभ था कि दोनों पक्ष के देशों के साथ आर्थिक संबंध बढ़ाने की कोशिश रंग ला रही थी । आवश्यकता पड़ने पर उसे पूँजी, तकनीके, मशीने, एवम् अनाज पश्चिमी देशों से मिले। खासतौर पर 1954 के बाद अपना सार्वजनिक क्षेत्र विकसित करने के लिए उसने सोवियत संघ का सहारा किया।
अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत ने हर तरफ के देशों से तकनीकी मदद लेने की कोशिश की। उदाहरण के लिए एयर फोर्स के लिए नेहरू काल में ही उसने वायु सेना के लिए फ्रांस से 104 तुफानी हवाई जहाज, इंगलैंण्ड से 182 हंटर और 80 कैनबरा, फ्रांस से 110 मिन्टर्स, सोवियत संघ से 16 ए. एन - 12 और 26 एम. आई 4 तथा अमेरिका से 55 फेयर-चाइल्ड पैकेट खरीदे।
सिर्फ रक्षा खरीद की ही कोशिश नहीं की गई बल्कि रक्षा उत्पादन के मामले में भी कोशिशें की गई। इस प्रकार विभिन्न देशों से रक्षा साजो-समान बनाने के लिए लाइसेंस लिये गए जैसे:- ब्रिटेन जेनैट इंटरसेप्टर जहाज, ब्रिटेन से बी. एच. एस. 748 माल वाहक जहाज, फ्रांस से अफूते हेलीकॉप्टर सोवियत संघ से मीग हेलीकॉप्टर, स्वीडन से एल. 70 विमान-भेदी-तोपें, ब्रिटेन से विजयंता टैंक, जर्मनी से ट्रक, स्वीडेन से एफ. 70, फ्रांस से मोटरि से इत्यादि।
एक स्वतंत्र देश जो गरीब था उसकी प्रतिरक्षा की कोशिशों को नकारा नहीं जा सकता। यह सबसे बड़ी बात थी कि इस खरीद से विभिन्न देशों के साथ संबंध बने । सोवियत संघ और भारत के बीच 1963 में एक महत्वपूर्ण हथियार संधि आरम्भ हुई। अगस्त 1964 अगस्त 1965 तथा नवम्बर 1965 में संधियों पर हस्ताक्षर किए गए भारत सोवियत संघ का यह संबंध कई मायने में उदाहरणीय था। ऐसा नहीं कि सिर्फ सोवियत के साथ ही पर अमेरिका के साथ भी हमारा बहुआयामी संबंध था कृषि निवास के उपकरण तथा विभिन्न रक्षा तकनीक भी अमेरिका से आती थी। कई बार तो अमे. रिका और रूस ने रूपयों में ही भुगतान लिया जिससे भारत की विदेशी मुद्रा बचायी जा सके।
ये संस्थाएं भारत की वैश्विक समस्या को समझकर इसे एक महान स्थान देती थीं। नेहरू ने इन संस्थाओं के महत्व को समझकर ही राष्ट्रमंडल में रहने का फैसला किया। इस कदम का देश में विरोध भी हुआ लेकिन नेहरू ने कहा कि आजाद भारत पर ब्रिटेन का कोई अधिकार नहीं था। बहुराष्ट्रीय संस्था में बने रहने का भारत को बहुत लाभ होने वाला है। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता एक सुरक्षा के तौर पर भी थी क्योंकि उस समय की परिस्थिति में मित्र और दुश्मन की बात तथा तथ्य का पता ही नहीं चलता था।
विश्व भर के अलग-अलग देशों में UNO की शांति सेना के तौर पर भारत ने एक सक्रिय भूमिका निभायी। सही तौर पर नेहरू की गुटनिरपेक्षता नीति के कारण उस समय के आलोक में भारतीय नेतृत्व को एक वैश्विक पहचान दिलायी।
9. नेहरू तथा उनके नेतृत्व में विश्व के प्रमुख देशों के साथ संबंध: - 
9.1 चीन के साथ संबंध
नेहरू के मन में चीन के प्रति एक अतुलनीय भाव था । साम्राज्यवाद के विरोध में चीन की लड़ाई के कारण नेहरू की दृढ़ता चीन के साथ संबंध बढ़ाने की हो गई। चीन पर जापान द्वारा कब्जा करने के विरोध में जापानी वस्तुओं के बहिष्कार का नारा भी दिया था। चीनी जनतंत्र को 1 जनवरी 1950 को मान्यता देने वाला भारत प्रथम देश था। नेहरू की सोच में यह भावना थी कि चीन के साथ मिलकर गरीबी जैसे समस्याओं से लड़ा जा सकता है। ये दोनों देश मिलकर एशिया को विश्व में अपना उचित स्थान दिला सकते है नेहरू ने सुरक्षा परिषद में चीन को स्थान दिलाने का प्रयत्न भी किया। जब 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो भारत की आपत्ति इस बात पर थी कि उसे विश्वास में नहीं लिया गया।
परन्तु यह आपत्ति सिर्फ विश्वास में नहीं लिये जाने के कारण थी इस आधार पर नहीं कि चीन ने तिब्बत पर कब्जा क्यो किया भारत का पक्ष था कि इतिहास में ऐसे कई अवसर आए जब तिब्बत पर चीन का कब्जा रहा। 1954 में भारत और चीन ने एक संधि पर समझौता किया जिसके तहत भारत ने तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया।
भारत और चीन के आपसी संबंधो को पंचशील के आधार पर तय करने की बात कही गई। सही तौर पर देखें तो सीमा विवाद के रहने के बावजूद एक कोशिश की गयी। चीन से संबंध गहरे भी हुए। वैश्विक मंच पर नेहरू ने बार-बार चीन की प्रशंसा भी की। 1959 में तिब्बत में बड़ा विद्रोह हुआ तथा दलाई लामा अपने हजारों अनुयायियों के साथ तिब्बत से भाग निकले चीन इससे बहुत दुःखी हुआ। भारत फिर भी कोशिश करता रहा नेहरू ने दलाई लामा को शरण तो दी लेकिन किसी भी सरकारी या राजनैतिक कदम चलाने की सख्त मनाही कर दी। चीन फिर भी नाराज था। चीन के इस गुस्से का नतीजा लद्दाख में देखने को मिला जब हमारे 5 भारतीय सुरक्षा बल के जवानों को मार दिया गया। चाऊ-एन-लाई को बातचीत के लिए अप्रैल 1960 में दिल्ली बुलाया गया। लेकिन कोई परिणाम नहीं आया। इसलिए अधिकारी स्तर पर बातचीत का रास्ता अपनाया गया।
1962 का विश्वास घात
चीनी विश्वासघात का आरम्भ 8 सितम्बर 1962 को ही हो गया जब थागला पर हमला कर भारतीय फौजों को हटा दिया गया लेकिन भारत इसे अधिक तूल देने की स्थिति में समय नहीं बर्बाद करना चाहता था। नेहरू की विदेश यात्रा चल रही थी जब चीनी फौज ने फिर से एक बड़े स्तर पर हमला कर दिया।
उस समय के नेफा (अरूणाचल प्रदेश) पर भारतीय चौकियों पर कब्जा कर लिया गया तथा भारतीय कमांडर को भगा दिया गया। चीनी अंदर घुस गए। 20 अक्टूबर 1962 को चीनियों ने गल्वान घाटी में तेरह सीमावर्ती चौकियों पर कब्जा कर लिया चुशुल हवाई अडडे पर खतरा बढ़ गया। चीन के इस कदम का भारत में कड़ा प्रतिवाद हुआ तथा नेहरू ने अमेरिका के राष्ट्रपति (कैनेडी) को पत्र लिखे। उन्होंने अमेरिका से सेन्य सहायता की मांग की। उन्होंने ब्रिटेन से भी सहायता मांगी।
24 घंटो में चीन ने स्वतः वापस जाने की एकतरफा घोषणा कर दी। चीनी जिस तरीके से अंदर आए थे, उसी प्रकार चले भी गए परन्तु नेहरू तथा देश के प्रति जो विश्वास घात का घाव छोड़ गए वह भरना मुश्किल था।
नेहरू को अपने प्रियतम की इस करतूत पर बहुत की बुरा लगा। उनके मस्तिष्क में चीन के प्रति एक अटूट विश्वास था जो टूट गया। आंतरिक स्तर पर नेहरू की आलोचना होने लगी। इसी कारण नेहरू के सपनों का भारत के लिए जो बजट था उसमें से कटौती कर अब रक्षा पर खर्च किए जाने की बात शुरू हुई। रक्षा मंत्री कृष्णमेनन को जाना पड़ा तथा कांग्रेस संसदीय उपचुनाव में हार गई।
भारत की विपक्षी पार्टीयों ने नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति को असफल बताया तथा उनकी नीति के लिए उन्हें जी भर कोसा। नेहरू अपने आपको समाजवादी कहते थे तथा सबसे बड़े समाजवादी देश ने ही उन के नेतृत्व वाले भारत पर हमला कर दिया।
अमेरिका और ब्रिटेन का रूख सकारात्मक रहा लेकिन पाकिस्तान के करने में ये देश कश्मीर के मामले में भारत पर दवाब बनाते गये। अमेरिका ने तो सैनिक सहायता के प्रयोग का भी संकेत दे दिया नेहरू किसी दबाव में नहीं आए। सोवियत संघ से रिश्ता बनाना आरंभ तो था ही। दीर्घकालीन विश्वास की इमारत खड़ी करने की कोशिश होने लगी। इधर चीन पाकिस्तान के तरफ दोस्ती बढ़ाने लगा।
9.2 पाकिस्तान के साथ संबंध
जवाहर लाल नेहरू ने यह जरूर कहा था कि अगर विभाजन से भी शत्रुता समाप्त होती है तो वह भी सही है। लेकिन उन्हें यह सोचने का अवसर नहीं मिला कि यह शत्रुता अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो चुकी है। अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान के नापाक कश्मीर में हमले में जो प्रक्रिया आयी वह लगातार चलती रही भारत ने कश्मीर का विलय जबरदस्ती नहीं करवाया था। पाकिस्तान ने कश्मीर के प्रति लोभ को कभी जाने नहीं दिया नेहरू के युग में अमेरिका और ब्रिटेन तो पूरी तरह पाकिस्तान के पक्ष में थे।
नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाने तथा जनमत संग्रह स्वीकार करने की बात कही जिसकी आज भी हरेक चर्चा में आलोचना होती है। यदि भारत न्छ० में नहीं जाता तो पाकिस्तान जाता और तब संघ जनमत संग्रह के लिए कहता UNO ने जनमत संग्रह की शर्ते 20 रखी कि पाकिस्तान को कश्मीर से अपनी फौज हटानी होगी। पाकिस्तान ने ऐसा नहीं किया इधर कश्मीर ने संविधान सभा के चुनावों में भाग लिया और भारत में शामिल होने के लिए वोट दिया भारत सरकार ने यह स्थिति अपनाई कि संविधान का वोट जनमत संग्रह के बराबर ही है कश्मीर में आम चुनाव हुए भारत के साथ तथा जमानत संबंधी संग्रह का मुद्दा गौण हो गया।
1956 के बाद सोवियत संघ भारत को कश्मीर के मुद्दे पर समर्थन करने लगा तथा सुरक्षा परिषद में भारत पर आने वाले दबाव को वीटो कर देता था। 1962 में पाकिस्तान ने चीन का साथ दिया तथा 1965 में भारत को घिरा देख हमला कर दिया।
भारत-पाकिस्तान संबंधों की कटुता नेहरू तथा सभी भारतीयों के लिए दुख एवम् उदासी का स्त्रोत रहा दोनों ही देशों का इतिहास भूगोल संस्कृति के लिए 1953 में पाकिस्तान का दौरा भी किया सिंधु नदी जल समझौते में उन्होंने महान उदारता दिखलायी। सही तौर पर नेहरू पाकिस्तान की इन गीदड़ चालाकी को बचपना ही समझते थे। 
9.3 अमेरिका के साथ संबंध
भारत की नीति आरंभ से ही अमेरिका के साथ मित्रता की रही। भारत ने अमेरिका को यह साफ कर दिया कि नेहरू की गुटनिरपेक्षता किसी देश के खिलाफ नहीं वरण यह उपनिवेशवाद तथा गुटबंदी के विरोध में है।
भारत ने अमेरिका के साथ संबंधो को बहुत महत्व दिया नेहरू यह भली भांति जानते थे कि भारत के विकास में अमेरिका का अहम योगदान हो सकता है। भारत को अमेरिका की भयंकर आवश्यकता थी। अनाज, मशीन तथा विकास के लिए सहायता यह सभी अमेरिका के द्वारा ही हो सकता था।
कश्मीर संबंधी अमेरिका की नीति ने भारत-अमेरिका संबंध को जमा (तमेमतअम) के रखा अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में नेहरू काल में हमेशा पाकिस्तान का पक्ष रखा।
भारत में भूखमरी की स्थिति थी। अमेरिका भारत की अनाज भेजने की मांग तथा अनुरोध को चुप होकर सिर्फ सुनता रहा लेकिन जब चीन और सोवियत संघ ने सदस्यता आरंभ की तो अनाज से भरे जहाज आने लग गए।
अमेरिका के मन में भारत के प्रति सबसे बड़ी कटूता चीन के मामले को लेकर थी । अमेरिका ने भारत की चीन को दी मान्यता को पसंद नहीं किया। और इससे भी बड़ी बात थी कि नेहरू जी के न्छ० में चीन की सदस्यता की पुरजोर मांग की इससे USA और भी क्रोधित था।
भारत भी अमेरिका के कुछ फैसलों का विरोध करता था जैसे पाकिस्तान को सहायता उपलब्ध करना तथा पाकिस्तान को सेंटो, सिएटो में शामिल करना भी कम खतरनाक नहीं था। भारत की सबसे बड़ी आपत्ति इस बात को लेकर थी कि अमेरिका वैश्विक मंच पर 'गुटनिरपेक्षता' की नीति को अनैतिक बताता था । दूसरी बात गोवा को लेकर भी थी जिसमें अमेरिका खुले तौर पर गोवा को पुर्त्तगाल का भाग बताता था। 1961 में भारत की गोवा पर विजय की भी आलोचना अमेरिका ने की।
अमेरिका और भारत विश्व के सबसे बड़े दो लोकतंत्र हैं। लेकिन उस समय जो सबसे बड़ा दोनों में आलगाव कर जो स्त्रोत था वह था “शीतयुद्ध के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण " नेहरू का विचार इस विश्व को लेकर बहुरंगी था वही अमेरिका के अपने विचार थे जिसमें पूँजीवाद शक्ति बढ़ाना शामिल था अमेरिका का मानना था कि साम्यवादी विच. ार को तरजीह देने वाला स्त्रोत अनैतिक है। भारत, एशिया और अफ्रीका के देशों को गुटनिरपेक्षता की प्रेरणा देता रहा।
अमेरिका की नाराजगी का कारण ब्रिटिश चरण था ब्रिटेन के लोगों को भारत की स्वतंत्रता अंदर से पसंद नहीं। चीन? कांग्रेस के प्रति उनकी सोच नकारात्मक थी। यही सोच अमेरिका को भी प्रभावित करती थी। अमेरिका भी ब्रिटेन की तरह मानता था कि 'भारत तेरे टुकड़े होंगे। इसके अलावा अमेरिका उपनिवेश का भी समर्थन करता था। वह भूल गया था कि 200 साल पहले वह भी उपनिवेश का विरोध कर ही स्वतंत्र हुआ है।
सोवियत संघ से भारत की बढ़ती दोस्ती ने अमेरिका के मन में थोड़ा परिवर्तन कर दिया। भारत की स्थिति सुध री तथा अमेरिका ने 1961 में एक नयी शुरूआत की जब नेहरू के मित्र गॉलब्रेथ को भारत में राजदूत बनाकर भेजा। 
9.4 सोवियत संघ के साथ संबंध
भारत की स्वतंत्रता के समय सोवियत संघ भारत को साम्राज्यवाद के प्रभाव में रहने वाला देश समझता था। कांग्रेस के नेताओं की साम्यवाद के प्रति संदेहवादी दृष्टिकोण से रूस असहमत था। भारत जब राष्ट्रीमण्डल में सम्मिलित हुआ तो रूस ने इस पर मुहर लगा दी कि भारत अब भी साम्राज्यवाद के गोद में खेलेगा।
मगर नेहरू सोवियत संघ के प्रति मित्रता का भाव रखते थे। 1927 में वह रूस की यात्रा पर भी गए थे। इसके अलावा उन्होंने अपने आप को समाजवादी भी कहा था। नेहरू ने राजकीय संबंध बनाने के लिए अपनी बहन विजय लक्ष्मी पंडित को राजदूत बनाकर रूस भी भेजा।
रूस की सकारात्मक प्रतिक्रिया उस समय आई जब 1951-52 में कोरिया संकट के समय भारत ने साम्राज्यवाद विरोध किया सोवियत संघ ने भारत को खाद्य सहायता देनी आरम्भ कर दी। उस समय रूस में भारत के राजदूत एस. राधा कृष्ण कान से स्टालिन की मुलाकात हुई तथा स्टालिन ने भारत के साथ मित्रता का प्रस्ताव भी रखा। न्छ० में सोवियत संघ ने कश्मीर का साथ दिया तथा भाजपा को नेहरू के विरोध को कम करने की सलाह दी गई। पाकिस्तान को अमेरिका के द्वारा 'सीटो' और 'सेटो' में शामिल करने के बाद 1954 में भारत को सोवियत संघ की तरफ से सैनिक सहायता की पेशकश भी आयी। 1958 में नेहरू ने सोवियत संघ की यात्रा की। उसी समय खुश्चेव और बुल्गानिन उतनी ही सफल यात्रा पर भारत आए। 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं अधिवेशन ने गैर स्तालिनीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी साथ ही उसने विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं वाले देशों के साथ मिलकर शीतयुद्ध के नकारात्मक प्रभाव को कम करने की कोशिश आरम्भ कर दी। अब साम्यवाद में मार्क्सवाद जड़ गया तथा भारत- सोवियत संघ की सहयोग की नीति बाधा रहित हो गयी। 1956 से सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद में भारत के हित को हमेशा तरजीह देना शुरू किया। इसके अलावा UNO में गोवा के मुद्दे को भारत का समर्थन किया गया है।
आर्थिक क्षेत्र में भी भारत सरकार की सार्वजनिक उपक्रम नीति ने रूस को काफी प्रभावित किया तथा भारत को भिलाई इस्पात कारखाने में 1956 में भारी मदद की।
1962 में चीनी हमले के समय रूस निष्पक्ष रहा क्योंकि क्यूबा संकट भी उस समय समानांतर तैर रहे थे। लेकिन दिसम्बर 1962 में सोवियत नेता 'सुस्लोव' (नेसवअ) ने इसके लिए चीन को पूरी तरह जिम्मेदार बताया। तब से लेकर अब तक भारत-सोवियत संघ (रूस) की मित्रता प्रगाढ़ ही होती आयी है।
9.5 कोरियाई युद्ध में नेहरू की भूमिका
भारतीय तंत्र के लिए कोरियाई युद्ध 1950 एक अवसर साबित हुआ जिसके द्वारा भारत ने अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति को प्रासंगिक बताया। के. पी. एस. मेनन कोरिया संबंधी न्छ० के कमीशन के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने न्छ० को अपनी रिपोर्ट में महाशक्तियों से कोरिया को "एक रहने दो" की अपील की थी। उन्होंने चेतावनी दी कि कोरिया में भयंकर विस्फोट होगा। परन्तु इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। युद्ध छिड़ जाने पर भारत ने सुरक्षा परिषद में साउथ कोरिया का समर्थन किया तथा उत्तर कोरिया को हमलावर बताते हुए युद्ध बंदी की अपील की। संयुक्त सैनिक विमान के मुद्दे पर भारत ने किसी पक्ष में मतदान नहीं किया। नेहरू किसी बाहरी देश का हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझते थे। नेहरू की बात में स्टालिन सहमत थे।
अमेरिका ने उत्तर कोरिया में अपनी सैन्य क्षमता को बहाल कर दिया। चीन ने भारतीय राजदूत के माध्यम से पश्चिमी देशों को चेतावनी भेजी। चीन और अमेरिका दोनों पक्षों को भारी नुकसान हुआ। चीन को न्छ० ने हमलावर घोषित कर दिया। भारत ने चीन का साथ दिया। और कहा कि चीन हमलावर नहीं था। भारत की कोशिशों को सफलता मिली तथा 1953 में समझौता हुआ। युद्धबंदी की अदला बदली का सूत्र तैयार हुआ। कृष्ण मेनन को जिन्होंने एक प्रस्ताव तैयार किया तथा निष्पक्ष देशों का रिहाइ कमीशन बनाया गया जिसके अध्यक्ष भारत के जनरल मिथैय्या थे।
भारत कोरियाई संकट के काल में एक ऐसा देश बना जो गुटनिरपेक्षता के सूत्र में विश्व को शांति दे सकता था। चीन और सोवियत संघ का मन भी बदला तथा भारत की भूमिका एक शांतिपूर्ण देश के रूप में स्वीकार्य हुई।
देखा जाए तो नेहरू की सिद्धांत की पराकाष्ठा ने भारत को एक नया रास्ता दिखाया। आज के परिप्रेक्ष्य में विवाद कई हो सकते हैं। इसके साथ भारत को एक "शांतिपूर्ण सह अस्तित्व वाला देश " के रूप में विश्व स्तर पर स्वीकार किया गया। सही रूप में माने तो विश्व की मंशा में “भारत एक समझदार देश है" का रास्ता नेहरू ने ही बनाया था। नेहरू को धोखा मिला परन्तु यह कहा जा सकता है कि नेहरू की विरासत एक वैश्विक भारत के रूप में है।
10. नेहरू का व्यक्तित्व एवम् कुछ तत्कालीन राष्ट्रीय मुद्दे:
10.1 राष्ट्रीय एकता
विभाजन तथा साम्प्रदायिकता से स्वतंत्र भारत की एकता खतरे में थी। भारत को एक मजबूत राष्ट्र के रूप में देखने की नेहरू की प्रबल इच्छा ने राष्ट्रीय एकता को प्राथमिक विषय बना दिया। नेहरू ने राष्ट्रीय एकता को स्वतंत्रता के साथ जोड़कर देखा तथा इसके लिए बार-बार यही कहा कि “अगर हमें अपनी आजादी कायम रखनी है तो 'राष्ट्रीय एकता' पर ध्यान देना होगा।"
10.2 नागरिक अधिकार तथा जनतंत्र
नेहरू के मन में नागरिक अधिकारों के लिए काफी समर्पण भाव था । सामाजिक सुधार कार्यक्रम को उन्होंने नागरिक अधिकार से जोड़कर देखा तथा यह कहा कि जनवाद में नागरिक कल्याण के लिए सामाजिक आर्थिक परिवर्तन होना नितांत आवश्यक है। उनकी सोचने की प्रणाली ही जनवादी थी।
नेहरू ने नागरिकों की वैचारिक स्वतंत्रता को सबसे ऊपर रखा तथा सरकार की योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने की अपनी योजना का भी खुलासा किया। उन्होंने कहा कि जनतांत्रिक विधि को छोड़ने का मतलब होगा, विखण्डन को न्योता देना।
नेहरू ने सामाजिक आर्थिक विकास को शोषण के विरुद्ध एक हथियार माना तथा नियोजन का सिद्धांत लाकर नागरिक सहभागिता बढ़ाने की भरसक कोशिश की। उन्होंने नागरिकों के राजनीतिक अधिकार के लिए स्थानीय शासन की नींव रखी तथा पंचायती राज को विकसित करने की घोषणा की।
10.3 नेहरू तथा समाजवाद
नेहरू की सोच देश के विकास के लिए विभिन्न स्त्रोतों से संबंधित थी। नेहरू विकास के स्त्रोत के लिए पूंजीवाद पर विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने भारतीय समाज को बदलने के लिए समाजवाद को एक सर्वोत्तम विकल्प के रूप में पेश किया तथा समाजवाद के द्वारा देश के कोने-कोने तक विकास का आधार तैयार कराया।
नेहरू के समाजवाद विषय को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बहुत ही साधारण रूप में समझने की आवश्यकता है। नेहरू के द्वारा समाजवाद का जो अर्थ दिया गया वह निम्न शब्दों या भावों से हम अच्छी तरह समझ सकते हैं
1. आर्थिक समानता
2. सामाजिक न्याय
3. आधुनिक विज्ञान के प्रति खोज की परम्परा
4. समान वितरण
5. सामाजिक असमानता का अंत 
6. सामाजिक सुधार के लिए वैज्ञानिक दृष्टिाकेण 
7. सहकारिता
8. मध्यवर्गीय उत्थान
9. गरीबी को दूर करना इत्यादि ।
नेहरू ने अपनी समाजवाद की नीति को देश के सामाजिक रूपांतरण तथा आर्थिक विकास के लिए आवश्यक बताया। नेहरू ने विशाल आबादी को एक लक्ष्य 'विकास' की ओर ले चलने में समाजवाद को सबसे अच्छा विकल्प समझा उन्होंने समाजवादी समाज की स्थापना को अहिंसा तथा शांति के लिए भी उपयोगी बताया। साधन तथा साधन के बीच एक सामंजस्य पैदा करने की एक अहम कड़ी समाजवाद ही था। गांधी जी भी कुछ स्तर पर समाजवाद को मानने लगे तथा साधन और साधन की अविभाज्यता को उन्होंने एक पूजा बताया।
नेहरू ने ऐसे रूप में भारत को बनाने की कोशिश की जिसको विश्व एक धर्मनिरपेक्ष विकसित तथा शांतिपूर्ण देश के रूप में देखे। उन्होंने हरेक वो काम किया जिससे भारत आत्मनिर्भर स्वतंत्र तथा उपयुक्त हो सके। भारत का एक राष्ट्र के रूप में सुदृढ़ीकरण करने के लिए नेहरू का योगदान इतिहास में अमर है।
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