मुगल प्रशासन

मुगल प्रशासन

मुगल प्रशासन

> मुगल प्रशासन ( Mughal Administration) 
> केन्द्रीय शासन (Central Administration)
मुगल शासन व्यवस्था की उत्पत्ति का आधार सैन्य व्यवस्था थी और अपने आधार की इस विशेषता ने उसे अन्त तक स्थिर रखा, किन्तु इस सैनिक आधार में प्रजा की भलाई एवं उन्नति को भी शामिल किया गया था. बाबर ने ‘बादशाह’ की उपाधि धारण कर मुगलों को खलीफा के नाममात्र के आधिपत्य से भी मुफ्त कर दिया. अकबर ने स्वयं को इस्लाम के कानूनों के विषय में अन्तिम निर्णायक घोषित करके बादशाह की स्थिति को और भी श्रेष्ठ बना दिया. मुगल बादशाहों ने अपनी प्रजा के दैनिक जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं किया.
मुगल बादशाहों ने निःसन्देह बादशाह के दो कर्त्तव्य स्वीकार किए थे, (1) जहाँ बानी – राज्य की रक्षा व (2) जहाँगीरी—अन्य राज्यों पर अधिकार. मुगल बादशाह अपने राज्य का सर्वेसर्वा था. वह राज्य का अन्तिम कानून निर्माता, शासन-व्यवस्थापक, न्यायाधीश एवं सेनापति था. बादशाह के मन्त्री, सरदार, सलाहकार आदि केवल उसे सलाह दे सकते थे, किन्तु उनकी सलाह उसके लिए बाध्यकारी नहीं थी. अकबर के समय में बादशाह को ईश्वर का प्रतिनिधि स्वीकार किया जाने लगा. इस प्रकार मुगल बादशाह सम्पूर्ण शक्तियों को अपने में केन्द्रित कर और देवत्व के अंश को अपने में मानकर वह पूर्णतया निरंकुश हो गया, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से मुगल बादशाहों के अधिकार कुछ सीमित थे. डॉ. ताराचन्द मुगल शासन को 'कुलीनों का शासन' (Rule of Aristocracy) कहते हैं. प्रशासन में अपनी सहायता के लिए बादशाह विभिन्न मन्त्रियों की नियुक्ति करता था, वे अपनेअपने विभागों के प्रधान होते थे तथा विस्तृत शासन की देखभाल करते थे. इस कार्य को पूर्णतया सम्पादित करने के लिए प्रत्येक मन्त्री के अपने विभाग होते थे और अनेक कर्मचारी उसकी सहायता करते थे. अकबर के समय में दीवान, वकील, बजीर, मीरबख्शी और सद्र-उल-सुदूर यह चार मन्त्री पद होते थे. बाद में वकील एवं वजीर का पद एक ही व्यक्ति को दिया जाने लगा तथा वह राज्य का प्रधानमन्त्री 'वकील-ए--मुतलक' कहलाया. बाद में खान-ए-समा, मुख्य काजी और मुहतसिब के पदों को भी मन्त्री पद प्रदान किया गया. इसके अतिरिक्त मीर-ए-आतिश, दरोगा-ए-डाक चौकी माने जाने लगे थे. के पद मन्त्री पद न होते हुए भी शासन के महत्वपूर्ण पद
(1) प्रधानमन्त्री या ( वकील-ए-मुतलक, वजीर, दीवान) —  अकबर के समय यह पद बैरम खाँ को दिया गया था. इस दृष्टि से वह राज्य का संरक्षक, सभी मन्त्रियों का प्रधान तथा उन्हें हटाने व नियुक्त करने का अधिकारी था, किन्तु बैरम खाँ के बाद पूरे मुगल राज्य में ऐसे अधिकार किसी भी अन्य व्यक्ति को नहीं दिए गए. प्रधानमन्त्री को दीवान के कार्य दे दिए गए तथा बाद में दीवान ही राज्य का वजीर एवं प्रधानमन्त्री होने लगा.
दीवान होने की दृष्टि से उसका मुख्य कार्य आय एवं व्यय की देखभाल करना था. वह बादशाह एवं अन्य अधिकारियों के बीच की कड़ी था. इस प्रकार शासन में बादशाह के बाद प्रधानमन्त्री का द्वितीय स्थान था. वह सभी विभागों पर नियन्त्रण रखता था, सूबे से सूचनाएँ प्राप्त करता था, बादशाह के आदेशों को सूबों में भेजता था. उसकी सहायता के लिए अनेक अधिकारी थे जिनमें निम्नलिखित 5 प्रमुख थे - 
(i) दीवान-ए-खालसा — शाही भूमि की देखभाल करने वाला अधिकारी.
(ii) दीवान-ए-तन – वेतन एवं जागीरों के देखभाल करने वाला.
(iii) मुस्तौफी – आय-व्यय का निरीक्षण करने वाला. 
(iv) वाकिया-ए-नवीस – पत्र व्यवहार एवं घटनाओं का रिकॉर्ड रखने वाला. 
(v) मुशरिफ – दफ्तर की देखभाल करने वाला.
(2) मीर बख्शी – यह सैन्य विभाग का प्रधान था तथा अवसर पड़ने पर यह सेनापति भी बनाया जा सकता था. इसका मुख्य कार्य सेना की भर्ती, उसका हुलिया रखना, घोड़ों एवं हाथियों को दागना, सैनिकों के शस्त्रों, वस्त्रों, शिक्षा एवं रसद आदि की व्यवस्था करना था.
(3) सद्र उस तुदूर – यह धार्मिक विभाग का प्रमुख था. दान-पुण्य की व्यवस्था, धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था, विद्वानों को जागीरें प्रदान करना और इस्लाम के कानूनों की समुचित व्यवस्था को देखना आदि उसके प्रमुख कार्य थे. कभी-कभी इसे मुख्य काजी द्वारा भी नियुक्त किया जाता था. वह सूबों के सद्रों की नियुक्ति में बादशाह को सलाह भी दिया करता था.
(4) मुख्य काजी—मुगल बादशाह स्वयं राज्य का सबसे बड़ा न्यायाधीश था तथा प्रत्येक बुधवार को स्वयं न्याय के लिए बैठता था, परन्तु बादशाह सभी मुकदमों का निर्णय नहीं कर सकता था. इसी कारण से उसकी सहायता के लिए राजधानी में एक मुख्य काजी हुआ करता था, जो मुस्लिम कानून के अनुसार न्याय का कार्य करता था. उसकी सहायता के लिए मुफ्ती होते थे, जो कानून की व्याख्या करते थे, जिनके आधार पर काजी निर्णय सुनता था. वह प्रान्त, जिले तथा नगरों में अन्य काजियों की नियुक्ति करता था तथा उनके कार्यों की देखभाल करता था.
(5) मुहतरिष—प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करने के लिए और मुख्यतया यह देखने के लिए कि प्रजा इस्लाम के कानूनों के अनुसार आचरण करती है अथवा नहीं, एक मुहतसिद हुआ करता था. मादक द्रव्यों के प्रयोग, जुआ खेलने से रोकना और स्त्री-पुरुषों के अनैतिक सम्बन्धों को रोकना उसका कार्य था.
कभी-कभी उसे नाप-तौल के पैमानों की देखभाल और वस्तुओं के मूल्यों को निश्चित करने का उत्तरदायित्व भी उसे दिया जाता था. औरंगजेब के समय उसे हिन्दू मन्दिरों और पाठशालाओं को नष्ट कराने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था. उसकी सहायता के लिए प्रान्तों में भी मुहतसिदों की नियुक्ति की गई थी.
(6) खान-ए- समा – अकबर के समय यह पद मन्त्री स्तर का नहीं था, परन्तु बाद के बादशाहों ने इसे मन्त्री पद का दर्जा दे दिया था. यह बादशाह के परिवार, उसके महल और उसकी व्यक्तिगत तथा दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की देखभाल करता था. वह शाही भोजन, भण्डार, खजाना, उपहार, नजराने आदि की भी देखभाल करता था. उसका मुख्य उत्तरदायित्व शाही कारखानों की देखभाल करना था, जहाँ विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन होता था तथा ये राज्य की आय के एक बड़े साधन थे.
(7) मीर-ए-आतिश– 'मीर-ए-आतिश' या 'दरोगा-एतोपंखाना' का पद मन्त्री स्तर का न होते हुए भी अत्यधिक महत्वपूर्ण था. शाही तोपखाना उसके अधीन था. तोपों को बनवाना, किलों में उनकी व्यवस्था करना और बन्दूकों का निर्माण आदि उसकी देख-रेख में था. अधिकांशतः यह पद किसी तुर्क अथवा ईरानी को दिया जाता था.
(8) दारोगा-ए-डाक-चौकी– इसके अधीन अन्य राज्य के गुप्तचर और संवादवाहक थे. प्रान्तों से सूचनाएँ प्राप्त करना तथा 'वाकिया-ए-नवीस' और 'मुफिया-ए-नवीस' की नियुक्ति तथा उनसे प्राप्त सूचनाओं को बादशाह तक पहुँचाना उसका प्रमुख कर्त्तव्य था. गुप्तचर विभाग का प्रधान होने के कारण शासन में उसका बहुत अधिक महत्व था.
उपर्युक्त विभागों और उनके अन्तर्गत विभिन्न अधिकारियों के अतिरिक्त राज्य का अपना एक बड़ा सचिवालय था, जहाँ वजीर की अधीनता में अनेक अधिकारी कार्य करते थे और वहाँ सभी प्रान्तों की सूचनाएँ आती थीं.
> प्रान्तीय शासन (Provincial Administration)
सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य प्रान्तों अथवा सूबों में बँटा हुआ था. अकबर के समय मुगल सूबों की संख्या 15 थी और औरंगजेब के समय तक बढ़कर उनकी संख्या 21 हो गई थी. प्रत्येक सूबे की पृथक् राजधानी थी, जहाँ सूबे का शासक सूबेदार होता था. सूबेदार को निजाम, सिपाहसालार आदि नामों से भी जाना जाता था. प्रान्तीय शासन व्यवस्था का ढाँचा केन्द्रीय प्रशासन के समान था. प्रत्येक सूबे में प्रधान अधिकारी सूबेदार, दीवान, बक्शी सद्र, कोतवाल तथा वाकिंया नवीस होते थे.
किसी-किसी प्रान्त में दारोगा-ए-तोपखाना और मीर - बहर नामक अधिकारियों को भी नियुक्ति की जाती थी. अकबर ने अपने दीवान को विस्तृत अधिकार दिए थे और सूबों के सभी दीवान बजीर की प्रत्यक्ष अधीनता में थे. उसका उद्देश्य सूबेदार की शक्तियों को दीवान की शक्तियों से सन्तुलित कर सूबों में विद्रोह की आशंकाओं को समाप्त करना था, किन्तु बाद के बादशाह इस व्यवस्था को कायम न रख सके.
प्रत्येक सूबा जिलों में बँटा था जिसमें, 'फौजदार', ‘अमलगुजार', 'काजी', 'कोतवाल', 'वितिक्ची' एवं 'खजानदार' होते थे.
(1) फौजदार – यह एक सैनिक अधिकारी होता था, जिसका प्रमुख कार्य जिले में शान्ति व्यवस्था की स्थापना, लुटेरों एवं चोरों से प्रजा की रक्षा करना और राज्य की आज्ञाओं को प्रजा से मनवाना उसका मुख्य कर्त्तव्य था. उसकी नियुक्ति बादशाह द्वारा की जाती थी और उसे सूबेदार के अधीन कार्य करना होता था.
(2) अमलगुजार – जिले में लगान वसूल करना, कृषि की देखभाल करना व किसानों की सुरक्षा का मुख्य उत्तरदायित्व इसी पर था. यह जिले का वित्त अधिकारी था तथा खजाने की देखभाल करता था.
(3) बितिची - यह अमलगुजार के अधीन अधिकारी था. भूमि एवं लगान सम्बन्धी सभी कागज इसे ही तैयार करने होते थे. भूमि की किस्म, उसकी पैदावार और किस किसान के पास कितनी भूमि है, यह हिसाब भी कानूनगो की सहायता से वही रखता था.
(4) खजानदार – यह जिले का खजांची था तथा अमलगुजार की अधीनता में कार्य करता था. सरकारी खजाने की सुरक्षा का मुख्य उत्तरदायित्व इसी के पास था.
प्रत्येक जिला कई परगनों में बँटा होता था. शिकदार, आमिल, फौतदार, कानूनगो और कारकून परगने के प्रमुख अधिकारी होते थे.
(1) शिकदार – शिकदार परगने का प्रमुख अधिकारी था. इसका मुख्य कार्य परगने में शान्ति-व्यवस्था को स्थापित करना और लगान वसूल करने में सहायता देना था.
(2) आमिल – यह परगने का वित्त अधिकारी था. प्रमुख कार्य किसानों से लगान वसूल करना था. इसके लिए यह किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करता था.
(3) फौतदार – यह परगने का खजांची था और ख की सुरक्षा का कार्य करता था.
(4) कानूनगो – यह परगने के पटवारियों का प्रधान था. यह लगान, भूमि और कृषि सम्बन्धी सभी कागजों को देखता एवं तैयार करता था.
(5) कारकून — यह परगने का क्लर्क होता था, जो लिखा-पढ़ी का कार्य करता था.
> नगर का शासन
नगर का प्रधान कोतवाल होता था और वह उन सभी कार्यों को करता था, जो आधुनिक समय में नगरपालिकाएँ और पुलिस अधिकारी मिलकर करते हैं. अपनी सहायता के लिए कोतवाल अनेक अधिकारियों की नियुक्ति करता था तथा नगर की सुरक्षा, स्वच्छता, बाजार और वस्तुओं के मूल्य पर नियन्त्रण आदि के साथ-साथ बाहर से आने वाले यात्रियों पर निगरानी और स्थानीय करों की वसूली का कार्य करता था.
> गाँव का शासन
मुगल शासकों ने ग्राम-शासन को अपने हाथ में नहीं लिया, अपितु परम्परागत ग्राम पंचायतें ही गाँव की सुरक्षा, सफाई, शिक्षा आदि की व्यवस्था करती थीं. गाँवों के अधिकांश झगड़ों का निपटारा भी ग्राम पंचायतें ही करती थीं. गाँव का पैतृक चौकीदार गाँव की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सँम्भालता था. गाँव में पटवारियों का पद भी पैतृक था. साधारणतया सरकारी कर्मचारी ग्राम-जीवन और शासन में हस्तक्षेप नहीं करते थे और न ही गाँव में किसी सरकारी कर्मचारी की नियुक्ति की जाती थी, परन्तु आवश्यकता पड़ने पर सरकारी कर्मचारी ग्रामवासियों की सहायता करते थे. गाँव के चौकीदार एवं पटवारियों पर जो सुरक्षा और लगान सम्बन्धी जिम्मेदारियाँ थीं, उनकी पूर्ति के लिए सरकारी कर्मचारी उनको बाध्य कर सकते थे. इस प्रकार सरकारी कर्मचारियों की अधीनता में ग्रामीण-शासन राज्य की स्वतन्त्र इकाई थी.
> मुगल काल में भू-राजस्व व्यवस्था (Land Revenue System)
मुगलकाल में राज्य की आय का सबसे बड़ा साधन भूमिकर था. बाबर के समय में सम्पूर्ण राज्य को अनेक जागीरों में बाँट दिया गया था. हुमायूँ ने अपने समय में कोई भी भूमि सम्बन्धी सुधार नहीं किए. शेरशाह के समय में भूराजस्व के लिए एक व्यवस्थित लगान-व्यवस्था को प्रारम्भ किया गया, लेकिन उसके पुत्र इस्लामशाह के समय उसकी व्यवस्था समाप्त हो गई और जब हुमायूँ ने पुनः दिल्ली की सत्ता सँभाली तब उसने पुनः परम्परागत व्यवस्था (जागीरदारी व्यवस्था) को लागू कर दिया.
मुगलकाल में अकबर एक ऐसा प्रथम बादशाह था, जिसने लगान-व्यवस्था को सुचारू रूप से स्थापित किया तथा मध्य-युग की श्रेष्ठतम लगान पद्धति का निर्माण किया. अकबर के समय विभिन्न लगान अधिकारियों तथा अर्थमन्त्रियों की नियुक्ति कर विभिन्न प्रकार के अन्वेषण किए गए. अन्त में टोडरमल की सहायता से अकबर ने जिस लगान-व्यवस्था को लागू किया उसे 'दहशाला पद्धति' के नाम से पुकारा गया और यही दहशाला पद्धति आगे भी मुगल राजस्व व्यवस्था का आधार स्तम्भ बनी. इसे 1580 ई. में लागू किया गया. इसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं - 
1. इस व्यवस्था में भूमि की नाप के लिए जरीब का प्रयोग किया गया, जो बाँस के टुकड़ों को लोहे की कड़ियों द्वारा जोड़कर बनाई जाती थी. इससे पूर्व रस्सी का प्रयोग किया जाता था, जो मौसम के प्रभाव के कारण बढ़ या घट जाती थी.
2. भूमि की नाप के लिए इकाई 'बीघा' निर्धारित किया गया जो 60 x 60 गज का होता था.
3. प्रारम्भ में भूमि की नाप के लिए 'गज-ए-सिकन्दरी' का प्रयोग होता था, परन्तु अब उसके स्थान पर नया पैमाना 'गज-ए-इलाही' अपनाया गया.
4. राज्य की समस्त भूमि को चार श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया -
(i) पोलज भूमि – इस प्रकार की भूमि में वर्ष भर खेती होती थी तथा यह सर्वाधिक उपजाऊ होती थी.
(ii) परोती भूमि – यह वह भूमि थी जिस पर एक वर्ष छोड़कर दूसरे वर्ष खेती की जाती थी.
(iii) चच्छर भूमि – इस प्रकार की भूमि पर तीन या चार वर्ष तक खेती नहीं की जाती थी.
(iv) बंजर भूमि – इस प्रकार की भूमि पर 5 वर्ष या इससे अधिक वर्षों तक खेती नहीं की जा सकती थी.
5. प्रत्येक प्रकार की भूमि की पिछले 10 वर्षों की पैदावार का पता लगाकर उस भूमि की औसत पैदावार (Average yield) का पता लगाया जाता था और इस औसत पैदावार को लगान निश्चित करने का आधार मानकर अगले 10 वर्षों तक के लिए किसानों पर लगान निश्चित किया जाता था.
6. लगान की दर कुल औसत उपज का 1/3 निर्धारित थी.
7. किसानों से राजस्व वसूली नकद की जाती थी और इसके लिए अलग-अलग क्षेत्रों में गल्ले की अलग-अलग कीमतें निर्धारित की जाती थीं.
8. सरकारी कर्मचारी भूमि की किस्म, उसका क्षेत्रफल, पैदावार, गल्ले की कीमत आदि का हिसाब प्रत्येक वर्ष तैयार करते थे, क्योंकि उसी के आधार पर भविष्य का प्रबन्ध निर्भर करता था, परन्तु किसानों को प्रत्येक वर्ष लगान निश्चित करने की और प्रत्येक वर्ष गल्ले की कीमतें निश्चित करने की आवश्यकता नहीं रही.
9. जो भूमि जागीरों के रूप में दी गई थी उसकी लगानव्यवस्था का प्रबन्ध भी केन्द्रीय अधिकारी किया करते थे.
10. दान आदि में दी गई 500 बीघा या उससे अधिक भूमि के मालिकों को बादशाह के सम्मुख उपस्थित होने की आज्ञा दी गई थी, जो बादशाह के सम्मुख उपस्थिति नहीं हुए अथवा जिनके अधिकारों को वैध नहीं माना गया उनसे उनकी भूमि छीन ली गई.
11. अकबर ने किसानों को भूमि का स्वामी माना तथा उनसे सीधा सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास किया.
12. लगान के लिए किसानों को पट्टे दिए जाते थे, जिस पर उनकी भूमि का विवरण तथा लगान लिखा रहता था. किसानों से उनकी स्वीकृति (कबूलियत पत्र ) भी ली जाती थी.
13. किसानों को भूमि सुधार हेतु प्रोत्साहन देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था और समय-समय पर उनको सहायता दी जाती थी. आपत्तिकाल में लगान कम या माफ कर दिया जाता था.
14. 'दहशाला प्रबन्ध' पूरे राज्य में लागू नहीं किया गया था, बल्कि लगान को निश्चित करने के लिए अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग प्रणालियों का प्रयोग किया जाता था. गल्ला बक्सी अथवा बँटाई का तरीका सिन्ध तथा काबुल के क्षेत्रों में लागू किया गया था. ‘नस्क' एवं 'कनकूत' का तरीका बंगाल, गुजरात एवं काठियावाड़ के क्षेत्रों में लागू किया गया था. 'जाब्ती' अथवा 'नकदी' का तरीका बिहार, इलाहाबाद, मालवा, अवध, दिल्ली और लाहौर में लागू था. ये वह सूबे थे जहाँ दहशाला-व्यवस्था लागू थी.
जहाँगीर के समय लगान-व्यवस्था का मूल स्वरूप अकबर की राजस्व व्यवस्था के ही समान था, परन्तु उसका प्रबन्ध शिथिल हो गया था. जहाँगीर ने बंगाल एवं गुजरात में भी दहशाला-पद्धति को लागू करने का प्रयत्न किया. उसके शासनकाल में जागीरदारों के अधिकारों में वृद्धि हुई. इससे किसानों के साथ ही राजकोष की भी हानि हुई. शाहजहाँ के समय इस व्यवस्था में और गिरावट आई और उसने किसानों के करों में वृद्धि कर 33% से बढ़ाकर 50% कर दिया. उसके समय में लगान वसूलने के लिए भूमि को ठेकेदारों को दिया जाना भी प्रारम्भ हो गया. औरंगजेब के समय में लगान व्यवस्था में केवल वे सम्पूर्ण दोष रहे जो शाहजहाँ के समय में उत्पन्न हुए थे, बल्कि राज्य की आर्थिक कठिनाइयों के कारण अधिक दबाव डाला गया.
> मुगलकाल में मनसबदारी व्यवस्था (Mansabdari System in Mughal Period) 
मुगलकाल की सैन्य विशेषता उसकी 'मनसबदारी' व्यवस्था थी, इसे अकबर के शासनकाल में लागू किया गया था तथा अन्य मुगल बादशाहों ने इसमें थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ इसे यथावत् रखा. यद्यपि यह व्यवस्था उत्तरकालीन मुगलों के समय निष्प्राण हो गई थी. इस व्यवस्था का मुख्य आधार 'दशमलव प्रणाली' थी. इसी आधार पर अधिकारियों के पदों का विभाजन किया था. यह व्यवस्था भारत के लिए पूर्णतया नई नहीं थी. बलबन तथा इस्लामशाह के समय में ऐसी ही व्यवस्था लागू की गई थी.
साधारणतया मनसब का अर्थ पद से था. विभिन्न अंकों की संख्या, जो ( 10 से विभाजित हो सकती थी) अधिकारियों के पदों को निश्चित करने के लिए प्रयोग में लाई गई थी. इसका प्रयोग अधिकारियों के वेतन एवं भत्तों को निश्चित करने के लिए भी किया जाता था. अकबर ने अपने समय में 10 से लेकर 10,000 और बाद में 12,000 की संख्या के मनसब रखे थे. जब अकबर के समय में 10,000 का मनसब सबसे बड़ा था. उस समय 5,000 की ऊपर की संख्या का मनसब केवल शहजादों को दिया जाता था, किन्तु जब से बड़ा मनसब 12,000 हो गया तब 7,000 से ऊपर के मनसब को शहजादों के लिए सुरक्षित कर दिया गया. अकबर ने अपने समय में सम्पूर्ण मनसब को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया था.
जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने अपने सरदारों को 8,000 तक के मनसब एवं ‘शहजादों को 40,000 तक के मनसब प्रदान किये. 500 से नीचे के मनसबदार 'मनसबदार' ही कहलाते थे. 500 से 2500 के मनसबदारों को 'अमीर' पुकारा जाता था. 2500 से ऊपर के मनसबदारों को 'अमीर-ए-आजम' कहा जाता था. सैनिक अधिकारियों में प्रतिष्ठा का पद ‘खान-ए-जमान’ का और उसके बाद 'खान-ए-खाना' का था. काजियों एवं सद्रों को इस व्यवस्था में शामिल नहीं किया गया था.
मनसबदारों को अपने मनसब की संख्या के बराबर सैनिक रखने के लिए बाध्य नहीं किया जाता था और सामान्यतया मनसब से कम संख्या में ही सैनिक रखे जाते थे. मनसबदारों की पदोन्नति एवं नियुक्ति का कोई नियम नहीं था. मनसबदारों को नकद वेतन दिया जाता था. उन्हें जागीरें भी दी गई थीं, लेकिन लगान वसूलने का कार्य केन्द्रीय कर्मचारी ही करते थे. मनसबदारों को अपनी जागीर से प्राप्त आय मिल जाती थी. अतः उनका वेतन कम कर दिया गया.
अकबर ने अपने अन्तिम वर्षों में 'जात एवं सवार' के नये पदों का प्रारम्भ मनसबदारी व्यवस्था में किया. प्रत्येक मनसबदार को एक जात एवं सवार के पद उसने प्रदान किये. जात एवं सवार पद को आरम्भ करने के साथ ही अकबर ने अपने 5000 और उससे कम संख्या के मनसबदारों की श्रेणियों में से प्रत्येक श्रेणी को तीन भागों में बाँटा.
यदि एक मनसबदार को जात एवं सवार का पद समान संख्या को दिया जाता था तो वह अपनी श्रेणी के मनसबदारों में प्रथम श्रेणी का मनसबदार कहलाता था. यदि किसी मनसबदार की उसके जात पद से कम संख्या का परन्तु आधे से अधिक होने पर वह द्वितीय श्रेणी का और इसी प्रकार यदि सवार पद जात संख्या के आधे से कम होता, तो वह तृतीय श्रेणी का मनसबदार कहलाता था.
मनसबदारों को अपने वेतन और पद के अनुसार ही हाथी, घोड़े, ऊँट और सैनिक रखने पड़ते थे तथा उनकी संख्या सम्राट द्वारा निश्चित कर दी जाती थी, लेकिन धीरेधीरे यह नियम शिथिल पड़ गया. मनसबदारों के सैनिकों तथा घोड़ों का क्रमशः 'हुलिया' रखना और 'दागना' अनिवार्य हो गया.
जहाँगीर के शासनकाल में अकबर द्वारा चलाई गई मनसबदारी-व्यवस्था अपने मूल रूप में चलती रही. उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया. जहाँगीर ने केवल मनसबदारी-व्यवस्था में सवार पद के साथ 'सिह अस्पा दुअस्पा' को जोड़ा. इसका तात्पर्य यह था कि मनसबदारों के वेतन में वृद्धि किये बिना ही उनके सवारों में वृद्धि की जाये. ‘सिह अस्पा दुअस्पा' पाने वाले मनसबदार को अपनी सवार संख्या से दोगुने को कोतल घुड़सवार रखने पड़ते थे.
शाहजहाँ के समय में मनसबदारी व्यवस्था – मुगल साम्राज्य की समस्त सैनिक और असैनिक व्यवस्था का मूल आधार मनसबदारी व्यवस्था थी, लेकिन नियमों- उपनियमों का अनुशासन एकदम उसके काल तक ढीला पड़ चुका था. शाहजहाँ के समय में पदाधिकारियों को लाभान्वित करने के लिए प्रारम्भ में अनुचित उदारता बरती. अतः इस व्यवस्था में पेचीदगी उत्पन्न हो गई और सरकारी व्यय बढ़ गया. इसके अतिरिक्त मनसबदार द्वारा पोषित वास्तविक सैनिकों एवं हो गई. शाहजहाँ को यह व्यवस्था असह्य हो गई. अतः उसे पदानुसार घोषित सैनिकों के अनुपात में भी गड़बड़ी उत्पन्न अपनी साम्राज्यवादी लालसा की पूर्ति के लिए उसे सुसंगठित और सुसज्जित सेना की आवश्यकता थी और वह राजकोष पर भार और व्यय भी कम करना चाहता था. अतः अपने उसने अनुपात पर बल दिया और यह आज्ञा जारी की कि शासनकाल के 20वें वर्ष में उसने कुछ नियम बनाये. सर्वप्रथम उस मनसबदार को जिसकी जागीर भारत में होगी, अपनी जात और सवार पद की एक-तिहाई संख्या में सवार रखने पड़ेंगे. जैसे कि 3000 जात और 300 सवार वाले मनसबदार को दाग के लिए 1,000 (एक हजार ) सवार लाना होगा. यदि उसकी नियुक्ति भारत से बाहर किसी अन्य क्षेत्र में होगी, तो उसका एक-चौथाई लाना होगा. बल्ख के अभियान के समय यह भाग 5वाँ कर दिया गया था. इसके अतिरिक्त शाहजहाँ ने जात के पद के वेतन में भी भारी कटौती की. इस प्रकार शाहजहाँ ने सैन्य व्यवस्था में कुछ सुधार कर अपने सैनिक अभियानों को संचालित किया.
औरंगजेब के समय मनसबदारी व्यवस्था — सर जदुनाथ सरकार के अनुसार औरंगजेब के समय मुगल साम्राज्य का शासन-प्रबन्ध तथा सारी सैनिक व्यवस्था ऐसे अधिकारियों द्वारा होती थी, जिनके नाम मुगल सेना के मनसबदारों की सूची में उनके मनसब के अनुसार लिखे रहते थे, इस सूची में नाममात्र के बीस हजार घुड़सवारों के मनसब से लेकर केवल बीस घुड़सवारों तक के मनसब वालों के नाम थे. इनमें से 3 हजारी से अधिक के मनसब वालों को 'उमरा-इ-आजम' के नाम से जाना जाता था तथा इससे कम वाले केवल 'मनसबदार' कहलाते थे. जहाँ 1556 ई. में उमरा एवं मनसबदार सब मिलाकर 1803 थे, वही 1690 ई. में यह संख्या 14449 हो गई. इस प्रकार औरंगजेब के समय में मनसबदारों की सूची बहुत अधिक लम्बी हो गई. इससे उसकी सम्पूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था में शिथिलता आ गई.
मनसबदारी-व्यवस्था के दोष—मनसबदारी-व्यवस्था में कुछ मौलिक दोष निहित थे. अतः कालान्तर में यह प्रथा मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बनी और अन्त में नष्ट हो गई. वैसे भी अकबर के शासनकाल में ही मनसबदार अधिक धन-सम्पन्नता के कारण विलासी हो गये थे और जाति-प्रथा ने उनकी विलासिता में और वृद्धि की
मनसबदारों में यह विचार बल पकड़ता गया कि राज्य के लिए सम्पत्ति छोड़ देने की अपेक्षा तो यह अच्छा है कि उस सम्पत्ति का उपभोग वे अपने जीवनकाल में ही कर लें. अकबर के उत्तराधिकारियों के समय मनसबदार अधिकाधिक विलासी, इन्द्रिय-लोलुप और व्यसनी हो गये. इसके अतिरिक्त मनसबदारी प्रथा के नियमों की भी उपेक्षा होने लगी. जाँचपड़ताल, हुलिया और दाग-प्रणाली की अवहेलना की गई और सम्राट मनसबदारों कीं गतिविधियों की ओर से उदासीनता बरतने लगे. इन सभी कारणों से मनसबदारी प्रथा में अनेका नेक दोष उत्पन्न हो गये और कालान्तर में यह असफल हो गई.
> अकबर के काल में जागीर-प्रथा
अकबर के काल में राजस्व वसूली का कार्य करने वाले चार वर्ग थे, इनमें से जागीरदार भी एक थे. सरकारी कर्म चारियों द्वारा कर वसूलने के बाद का स्थान मुगल-व्यवस्था में इन्हीं का था.
बाबर के समय में सैनिक नेताओं को अविजित एवं अर्द्ध-विजित क्षेत्र जागीर के रूप दिये जाते थे और वहाँ पर ये लोग प्रायः उपशासकों की तरह व्यवहार करते थे. उनके आन्तरिक शासन में सम्राट का कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं रहता था. हुमायूँ के समय में भी प्रायः यही दशा रही. शेरशाह तथा इस्लामशाह ने जागीरों को कम करने का प्रयास किया, लेकिन उनके उत्तराधिकारियों के काल में यह व्यवस्था पुनः जोर पकड़ने लगी.
अकबर ने अपने शासन के प्रारम्भ में ही जागीरों पर नियन्त्रण बढ़ाने का प्रयास किया और 1564 ई. में उसने खालसा ( राजकीय भूमि) का विस्तार करने और उस पर अनाधिकृत अधिकार रोकने का आदेश दिया और इसी समय से उसने वेतन के बदले जागीर देनी प्रारम्भ की तथा प्रत्येक व्यक्ति को जगीर का सही हिसाब रखने को कहा और उसको सैनिकों के व्यय के लिए भी जब जागीरें दी जाने लगीं, तब सैनिकों पर बख्शी का नियन्त्रण बढ़ा दिया गया. यदि उसकी आय उसके खर्च से अधिक होती, तो उसे उस आय को राजकोष में जमा करना पड़ता था.
अकबर के प्रारम्भिक वर्षों में जागीर माँगने वालों की संख्या बहुत अधिक थी तथा उस बड़ी संख्या के अनुसार राज्य का विस्तार नहीं हुआ था. इसलिए सन्तुलन बनाने के लिए वित्त विभाग ने जागीरों की आय को बढ़ा-चढ़ाकर लिख दिया. इस प्रकार कम जागीरों से अधिक लोगों को सन्तुष्ट करने का प्रयास किया, परन्तु जब वे वहाँ जाते तो उतनी उनकी आय न होती और उनका अर्थ-विभाग से झगड़ा हो जाता. इस पर अकबर ने कानूनगो के खातों की दुबारा जाँच करवाई और नये सिरे से जागीरों की आय को 1566 ई. में लिखा गया इससे बहुत-सा असन्तोष मिट गया. चूँकि पुनः निर्धारण में भी पूरी सतर्कता का प्रयोग न होने के कारण 1573 ई. में पुनः अव्यवस्था उत्पन्न हो गई. इस पर अकबर ने सभी जगीरदारों को नकद वेतन देना प्रारम्भ कर दिया और उनकी जागीरों को खालसा करके राजस्व वसूली के लिए सभी जगह 'करोड़ी' की नियुक्ति कर दी गई. 1579–80 ई. में आय के पिछले 10 वर्षों के आधार पर नवीन विवरण तैयार किये गये, जिससे एक बार पुनः जागीर-व्यवस्था का प्रचलन बढ़ गया. सम्भवतः इसका कारण राजस्व वसूली में करोड़ी लोगों की असफलता तथा सैनिक अधिकारियों द्वारा जागीर को अधिक पसन्द करना था.
जागीरदार अपनी जागीर के मालिक नहीं होते थे. वे केवल सम्राट की आज्ञानुसार कर वसूल करते हुए अपने प्रयोग में लाने के अधिकारी थे. इस आय-व्यय का हिसाब उन्हें दीवान के कार्यालय को देना पड़ता था. सम्राट ने जब 'दहशाला पद्धति' को लागू किया तब जागीरदारों को भी इस व्यवस्था के अनुसार कर उगाहने का आदेश दिया गया और जिस-जिस प्रान्तों में इस प्रथा को लागू किया गया था, उनउन प्रान्तों में इसका चलन हो गया.
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