“राजनीति में सत्ता पक्ष तथा विपक्षी पार्टियों की भूमिका"

“राजनीति में सत्ता पक्ष तथा विपक्षी पार्टियों की भूमिका"

“राजनीति में सत्ता पक्ष तथा विपक्षी पार्टियों की भूमिका"

1. स्वतंत्रता से लेकर अब तक पक्ष-विपक्ष की भूमिका (संसदीय भारत में पक्ष तथा विपक्ष 1947-2014)
स्वतंत्रता के बाद भारत एक लोकतांत्रिक देश के रूप में अपनी संसदीय परम्परा को एक अनुशासित सिपाही की तरह निभाता रहा है। हमारी संसदीय प्रणाली की सरकार ने अपने संसद के प्रति जवाबदेही को अक्षुण्ण रखा है। सही तौर पर किसी भी संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दल का योगदान सबसे अहम होता है।
साधारण रूप में कोई भी लोकतांत्रिक देश बिना राजनीतिक दल के प्रासंगिक नहीं हो सकता। भारत के संसदीय इतिहास से लेकर अभी तक विभिन्न राजनीतिक दलों ने भारत के विकास में अभिन्न योगदान दिया है। इन राजनीतिक दलों ने अपने सिद्धांतवादी रवैये से भारतीय लोकतंत्र को एक महान लोकतंत्र कहलाने में हर संभव मदद की है। हम इस खंड में स्वतंत्रता के बाद पक्षीय और विपक्षी पार्टियों की भूमिका के बारे में ऐतिहासिक रूप से विभिन्न बिन्दुओं को परखेंगे।
2. कांग्रेस (Congress)
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय वैसे तो कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन में इसका एक अहम योगदान था। वैसे इस पार्टी की स्थापना 1885 में किसी चुनाव लड़ने या सत्ता प्राप्त करने के लिए नहीं हुई थी। कांग्रेस ही सिर्फ स्वतंत्रता के बाद सत्ता की स्वाभाविक पार्टी थी फिर भी उस समय और भी राजनीतिक दल देश में थे:- 'समाजवादी पार्टी’, ‘कम्यूनिस्ट पार्टी', 'किसान मजदूर पार्टी' और 'भारतीय जनसंघ' जैसी पार्टियां भी संसदीय व्यवस्था की शोभा बढ़ा रही थी। विशेष रूप से प्रथम आम चुनाव में इन पार्टियों ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी।
ये सभी प्रमुख राजनीतिक दल अपनी प्रकृति से अखिल भारतीय थे | उपरोक्त पार्टियों का दबदबा किसी विशेष क्षेत्र में जरूर था लेकिन अपने सिद्धांत तथा सोचने की शैली से इनका स्तर अखिल भारतीय स्तर का था। इनका नेतृत्व भी संपूर्ण भारत के लोगो के समूह के द्वारा ही होता था और इस तथ्य में देखा जाए तो इनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक लक्ष्य भारत के आधार पर होते थे न कि विशेष क्षेत्र पर।
अगर संसदीय सीटों पर विधान सभा की सीटों के लिहाज में उस समय ही पार्टियों की गणना की जाए तो कांग्रेस के सामने जितने भी विपक्षी दल थे वे काफी कमजोर थे। परन्तु इस आधार पर हम उन्हें कमजोर नहीं कर सकते। रा. जनीतिक रूप में ये दल अति सक्रियता से सशक्तता से अपनी भूमिकाएं निभाते थे। इनके पास बहुत सारे सोच और एक विशेष आर्थिक तथा सामाजिक मुद्दों पर अच्छे विकल्प भी होते थे।
कांग्रेस की स्थिति 1951-52, 1957 तथा 1982 में यह थी कि उस समय के आम चुनावों में इतने वोट आए कि सभी विपक्षी पार्टियों के सामूहिक तौर पर कांग्रेस से अधिक आ गए। 1952 में विपक्षी पार्टियों को 26% सीट लोकसभा को मिलीं तो 1957 में 25% तथा 1962 के लोकसभा में 28% सीट पर अपना अधिकार जमा लिया। राज्यों की विध ान सभा में उनकी स्थिति और भी बेहतर थी । 1952 32% 1957 में 35% तथा 1962 के चुनावों में 40% सीटों पर उन्होंने अना कब्जा जमाया।
विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस पर अपना दबाव जमाया तथा कांग्रेस की सभी सरकारों को निरंतर आलोचनाओं में बांधे रखा। व्यवहार में जन-नीतियों के निर्धारण में उनका काफी प्रभाव बना रहता था। सच्चाई तो यह है कि विपक्षी दलों का प्रभाव उनके आकार के अनुपात में कहीं ज्यादा हुआ करता था।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि फिर भी कांग्रेस सत्ता में क्यों थी? इसका सही जवाब है विपक्षी पार्टियों की आपसी खींचतान। क्योंकि विपक्षी पार्टियों की आपसी जांच तथा सिद्धांत आपस में नहीं मिलते थे। कभी-कभी औसतन कह लें कि विपक्षी पार्टियों से कुछ पार्टियों की सोच कांग्रेस से अधिक मिलती थी अपेक्षाकृत विपक्ष की किसी अपनी साथी पार्टी से यह स्वाभाविक ही था क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस को बहुत सारी पार्टियों का साथ मिला था तथा साथ में ही आपस में समन्वयता से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते थे। कुछ पार्टियां जो जाति के आधार पर या किसी विशेष सम्प्रदाय के आधार पर थी वामपंथी और दक्षिणपंथी पार्टियां जब एक साथ हुई तो 1977 और 1989 में कांग्रेस की जबरदस्त हार हुई। स्वतंत्रता के साथ कांग्रेस को खत्म करने की बात गांधी जी ने अनौपचारिक रूप से की थी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को राजनैतिक संगठन बनाकर रखा गया तथा उसके बाद भी कांग्रेस एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संगठन था। दरअसल कांग्रेस पार्टी का नेहरू युग में देश के हर गांव तथा हर कोने में विकल्प नहीं था । वास्तव में कांग्रेस की स्थिति एक जनआंदोलन करने वाले समूह की थी लेकिन पार्टी के रूप में उसके सदस्य राजनीतिक थे। सरदार पटेल की पहल पर एक प्रावधान बनाया कि कोई भी ऐसा व्यक्ति सरकार का सदस्य नहीं हो सकता जो किसी ऐसी राजनीतिक पार्टी का समूह का सदस्य हो, जिसका अपना-अपना संविधान और संगठनिक ढांचा मौजूद हो। गांधी जी भी इस बात के लिए इसलिए सहमत थे कि कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के तौर पर नहीं आना चाहिए क्योंकि 1947 से पहले कुछ दलों को कांग्रेस के सदस्य का भी रूतबा मिला हुआ था।
पटेल की बात को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने गलत तरीके से लिया। उन्होंने कांग्रेस को अब पूंजीवादी तथा अपने को एक दक्षिणपंथी विचार की तरफ ले जाने वाला दल बताया। नेहरू एक व्यापक स्तर पर कांग्रेस को बनाकर रखते थे। उनका कहना था कि कांग्रेस के बिना देश की एकता संभव नहीं है तथा न सामाजिक-आर्थिक विकास संभव है इसलिए वे कांग्रेस को वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच विभाजित नहीं करना चाहते थे।
नेहरू के कारण कांग्रेस की वामपंथी सुरक्षा बढ़ी तथा बहुत ही बुद्धिमता से भारत की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों से कांग्रेस की नजदीकी बढ़ाने की कोशिश की।
परन्तु यह बात गौर करने योग्य है कि कांग्रेस एक दल के रूप में सत्ता प्राप्त करने के लिए लड़ना अपना कर्त्तव्य समझती थी परन्तु अपने स्वतन्त्रता पूर्व के सिद्धान्तों पर वह पूरी तरह कठोर न रह सकी। इसके लचीलेपन का विस्तार अधिक हुआ तथा आंतरिक अनुशासन में अस्पष्टता आई, मगर इसकी फैसले लेने की प्रक्रिया फिर भी लोकतांत्रिक बनी रही। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व तथा प्रान्तीय या जिला कार्यालय पूरी तरह सक्रिय था।
कांग्रेस विभिन्न और विपरीत परिस्थिति में उत्पन्न वर्ग, सामुदायिक तथा क्षेत्रीय हितों के बीच तालमेल तथा समझौता और सहमति के साथ माध्यम के रूप में उसी तरह काम करती रही जैसा कि वह पहले सम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के दौरान कर चुकी थी। परन्तु अपने मतभेद खत्म करने तथा दो विपरीत विचारों में मतेक्यता लाने की संवेदशीलता भी बढ़ रही थी। कांग्रेस पूंजीपति वर्गो तथा गरीबों दोनों वर्गों के बीच अपनी उपस्थिति तथा महत्व को दर्शाने की भरपूर कोशिश करती रही इसने विभिन्न तबके तथा विभिन्न राजनीतिक सांस्कृतिक तत्वों को अपने अंदर जगह देने में भी यह सफल रहा। चूंकि खासतौर पर वामपंथ दल उन्हें प्रतिनिधित्व देने में आंदोलन करने में असफल रहे, इसलिए हर बात का महत्व बढ़ जाता है।
कांग्रेस के पास तीन बहुत जरूरी मुद्दे थे तथा यह एक बहुत बड़ी शक्ति भी उस पार्टी को प्रदान करती थी:-
1. आजादी की विरासत 
2. शक्तिशाली नेतृत्व तथा
3. नेहरू की राष्ट्रीय एकीकरण, जनवाद और सामाजिक परिवर्तन संबंधी धारणा।
नेहरू के काल में लोग कहते थे कि कांग्रेस और वामपंथी विचारधारा के बीच काफी समानता है। दूसरे शब्दों में कह लें तो कांग्रेस उस काम में मध्यमार्गी वामपंथी दल की तरह भूमिका निभाता था। वैसे इस पार्टी के अन्दर वामपंथी तथा दक्षिणपंथी दोनो प्रकार के दलों की विचारधारा पनप रही थी। इसका अर्थ यह है कि उस समय कांग्रेस की जो विचारधारा सामने दिख रही थी उसमें, राष्ट्रवाद, आर्थिक न्याय, सामाजिक समानता, संपदा पुनर्वितरण, अवसरों की समता को समाजवादी तरीके से लागू करने की इच्छा थी।
अधिकतर इतिहासकारों ने कांग्रेस को मध्यमार्गी पार्टी बनाया था। सही तौर पर देखें तो ऐसा कहने के लिए कई माध्यम उपस्थित थे जैसे: - 
1. साम्प्रदायिक दलों को छोड़कर सभी विपक्षी दल इसकी नीतियों को अपने आंदोलनों अथवा कांगेस के अन्दर अपने समान विचार वाले लोगों के माध्यम से प्रभावित करने में सक्षम बने हुए थे। क्योंकि इस पार्टी के अंदर अनेक ऐसे गुट बने हुए थे जो उन विपक्षी दलों के विचारों को प्रतिबिंबित करते थे।
2. इस समझौतावादी रवैये के कारण विपक्षी दल हमेशा कांगेस के अंदर समाहित होने के लिए जाने लायक बने रहे। इसके अलावा, विपक्षी दलों के कार्यक्रमों और नीतियों को अपनाकर उनके जनाधारों और सामाजिक आधार को भी अपने अधीन ले जाते थे। विभिन्न प्रकार की छूट और सहमति के माध्यम से उग्र जन आंदोलनों को शांत करने तथा उनके नेतृत्व को अपने प्रभाव के अन्दर ले जाने में इस पार्टी ने सफलता प्राप्त कर ली थी।
3. वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही प्रकार की राजनीतिक शक्तियां अपने कैडरों को बचाने और अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक अतिवादी रुख अख्तियार करती चली गई। कई बार उन्हें अपने नेताओं को भी कांग्रेस द्वारा आत्मसात करने से बचाने के लिए ऐसा करना पड़ा।
इन तीनों बिन्दुओं को इतिहास विपीनचन्द्रा ने उदाहण देकर समझाया है। उदाहरण के लिए जब भी कम्यूनिस्ट पार्टी तथा सोयशलिस्ट पार्टी यथार्थवादी मांग और कांग्रेस के प्रति गैर शत्रुतापूर्ण रूझान स्पष्ट करती तो उनके दलों में यह संकट उत्पन्न हो जाता था। परन्तु इन दोनों तरह की पार्टियों के लिए अतिवादी रूझानों के भी नकारात्मक परिणाम हुए, क्योंकि उसके कारण वे जनता के विचारों से दूर होती चली गई और कई बार उनके अन्दर आंतरिक विभाजन भी हुआ।
विपीनचन्द्रा या रामचन्द्र गुहा के विचार से या फिर विभिन्न कांग्रेस नेताओं की स्वीकारोक्ति में यह स्पष्ट है कि कांग्रेस पार्टी की उलझन का सबसे बड़ा स्त्रोत पार्टी नेतृत्व तथा सरकार के नेतृत्व के बीच संबंधों का कोई सही सुलझाव भरा रवैया न होना था। नवम्बर 1946 में नेहरू जब सरकार ( अंतरिम) में आए तो पार्टी के अध्यक्ष से इस्तीफा दे दिया। उनका मानना था कि एक साथ दोनों पद के साथ चलना मुश्किल होगा कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनके उत्तराधिकारी जेवी. कृपलानी ने इसके बाद यह मांग रखी कि पार्टी अध्यक्ष और दसवीं कार्यसमिति की सरकार के नीति निर्माण में प्रत्यक्ष भूमिका होनी चाहिए और सभी सरकारी निर्णय उनके साथ मशविरे के बाद ही लेना चाहिए। "
कृपलानी के अध्यक्ष के रूप में यह व्यक्तिगत मांग थी। सही तौर पर देखा जाए तो सरकार में शामिल जो भी नेता थे जिसमें नेहरू भी शामिल थे उन्होंने कृपलानी की उपरोक्त मांग का विरोध किया पर उन्होंने दलील दी कि सरकारी कार्य तथा कारवाई किसी पार्टी से कहीं ऊपर होती हैं सरकार से बाहर किसी भी व्यक्ति को उन्हें प्रकट होने नहीं देना चाहिए। तथा यह एकदम सही नहीं होगा कि प्रशासनिक कार्यो का लेखा-जोखा बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप के अन्तर्गत लाया जाए। उनके विचार के अनुसार सरकार सांसदों तथा लोकसभा के प्रति जिम्मेदार है न कि कांग्रेस अध्यक्ष के प्रति वैसे यह बिन्दु 2004-2014 के काल में कैसे प्रासंगिक हुई, यह विचार करने का विषय हैं आगे इस पर थोड़ा प्रकाश डाला जाएगा। लेकिन नेहरू ने इस बात पर अपनी इच्छा जाहिर की कि संसदीय विचार तथा संसदीय अक्षुणता पार्टी के स्तर से कहीं ऊपर की चीज होती है।
कृपलानी अपने स्तर से यह पूर्ण प्रयास करते रहे कि सरकार पार्टी के सामने झुके तथा पार्टी को कभी-कभी या हमेशा यह एहसास न हो कि सरकार के अधीन है कई मुद्दों पर उनसे सलाह न लिए जाने के विरोध में उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। कृपालानी के बाद राजेन्द्र प्रसाद अध्यक्ष बने तथा उनके बाद पट्टाभी रमैया । इन दोनो की छवि एक सीधे इंसान की थी तथा महात्वाकांक्षा भी नहीं थी। इन्होंने काफी प्रयास किया कि सरकार और पार्टी के बीच कोई विवाद न हो इन्होंने कई मुद्दे सुलझाए। लेकिन इस काल के बाद नेहरू तथा पटेल के बीच कुछ मुद्दों पर विवाद हो गया। पटेल ने सही रूप में कांग्रेस को एक पार्टी के रूप में शक्तिशाली करने के लिए महान कोशिशें की। पटेल कांग्रेस के अन्दर दक्षिपंथी गुटों के निर्वाद रूप से नेता थे। मगर दुर्भाग्य यह था कि दक्षिणपंथ के बारे में उनकी सोच को एक बहुत बड़ी जाल- साजिश के तहत गलत तरीके से पेश करने की कोशिश की गई। पटेल किसी भी मुद्दे को बहुत साफ तरीके से रखते थे। धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी सोच विस्तृत थी उनका कहना था कि धर्मनिरपेक्षता की प्रतिबद्धता भारत के विकास का द्योतक होगा हमें पाकिस्तान नहीं बनना है। भारत में रह रहे मुसलमानों को सुरक्षित काम होगा तथा पूर्ण रूप से हम उनके साथ उन्हें यह महसूस कराने में सहयोग करें कि वो भारतीय हैं तथा अगर हम यह नहीं करा सके तो हम भारत के ही काबिल न होंगे।
पटेल ने छद्म धर्मनिरपेक्षता को एक मुद्दा बताया तथा किसी भी मुद्दे को टाल-मटोल की नीति के उलट सीधा और सुलझे तरीके से पेश किया। पटेल भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद के सख्त खिलाफ थे। इनके बारे में कहा जाता है कि पटेल उद्योगपतियों से तथा पूंजीपति से राष्ट्रीय आंदोलन के लिए चंदा लिया करते थे तथा सहायता भी। पर एक भी उद्योगपति या पूंजीपति उनको परिवार तथा व्यक्तिगत कार्य के लिए पैसे नहीं दे सकता था। नेहरू और पटेल के बीच संबंध काफी जटिल था आमतौर पर राजनीतिक शास्त्रियों तथा इतिहास के पंडितों ने इनके मतभेद को ही अधिक उभारा है। लेकिन दोनों के बीच जो देश के विकास के लिए समान दृष्टि थी, उनको हमेशा नकारा है।
अगर नेहरू और पटेल के बीच विभिन्न वैचारिक मताभिन्नता की बात की जाए तो कुछ महत्वपूर्ण बिन्दू सामने आते हैं जैसे: - 
1. प्रधानमंत्री की भूमिका
2. 1947 के विभाजन के बाद उपजे दंगों से निपटने की भूमिका
3. पाकिस्तान नीति इत्यादि
लेकिन अगर तत्कालिक रूप से देखा जाए तो इनके वैचारिक संघर्ष को पुरूषोत्तम दास टंडन के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद 1950 में धार मिल गया। नेहरू ने पटेल के इस विचार को नजर अंदाज किया कि मौलिक अधिकार में संपत्ति के अधिकार को शामिल करना चाहिए। कभी-कभी तो इनके बीच इतना मतभेद बढ़ जाता था कि ये दोनों अपने इस्तीफे की पेशकश पर जा पहुंचते थे ।
उपरोक्त जटिलताओं के बावजूद कभी पटेल नेहरू एक दूसरे से अलग नहीं हुए। ऐसा इसलिए हुआ कि उन दोनों को जो चीज जोड़ती थी वह अलग करने वाले से कहीं अधिक मजबूत और महत्वपूर्ण थी । इतना ही नहीं, वे कई मायने में एक दूसरे के पूरक थे । एक महान संगठन कर्ता और सुशासक था, दूसरा महान समाजवादी था।
नेहरू और पटेल के बीच आपस में अगाध आदर की भावना थी। दोनों एक दूसरे से अंदर तक जुड़े थे। गांधी की मृत्यु के बाद पटेल ने नेहरू को "महात्मा गांधी का उचित उत्तराधिकारी " बताया तो नेहरू ने पटेल को "शक्ति का स्तर" बताया। 
जब नेहरू और पटेल के बीच किसी बात पर मतैक्यता नहीं होती थी तो दोनों एक दूसरे के सामने इस बात को रखते थे। टंडन के अध्यक्ष चुने जाने के समय नेहरू इन्हें पसंद नहीं करते थे। 29 अगस्त 1950 को फिर भी टंडन जीत गए। इससे एक खास वर्ग नाराज हो गया तथा किसान मजदूर प्रजा पार्टी की स्थापना हुई।
नेहरू ने 15 दिसंबर 1950 के बाद ( सरदार की मृत्यु के बाद) कांग्रेस की कार्यसमिति पर अधिक से अधिक हस्तक्षेप करना आरम्भ किया वह एकता बढ़ावा कर तथा दक्षिण पंथी वर्चस्व को खत्म करना चाहते थे। 1951 में टंडन ने इस्तीफा दे दिया। नेहरू पार्टी अध्यक्ष चुने गए। अब वह अपने प्रधानमंत्री पद पर भी थे और अध्यक्ष पद पर भी। अब नेहरू पार्टी के निर्विवाद नेता बन गए तथा 1964 तक बने रहे। नेहरू के पार्टी अध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री दोनों पद पर रहने के बाद एक परम्परा बन गई तथा इसी समय से अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री रहे नहीं तो कोई चमचा ही प्रधानमंत्री का कांग्रेस अध्यक्ष रहा। 2004 ई. में आकर यह धारणा बदली जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को गंभीरता से लिया जाने लगा था।
3. कांग्रेस का वैचारिक पतन
गांधी जी स्वतंत्रता के बाद अपने विभिन्न भाषणों में यह कहा करते थे कि कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के रूप में सत्ता प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करना चाहिए क्योंकि इसका लक्ष्य 'स्वतंत्रता' था, वे प्राप्त हो गई। लेकिन नेहरू जी ने कहा कि देश कि एकता, अखण्डता तथा संदभावना के लिए 'कांग्रेस' का अस्तित्व आवश्यक है।
गांधी जी कांग्रेस खत्म करने की बात इसकी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए कह रहे थे। गांधी जी का मानना था कि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की विरासत को एक संग्रह के तौर पर देख सके। अगर-कांग्रेस राजनीतिक पार्टी के तौर-पर सत्ता की प्रतियोगिता में शामिल होगी तो निश्चित तौर पर समय के साथ विभिन्न मुद्दों के ऊपर कांग्रेस को औरों का सामना करना पड़ेगा तथा इसकी विरासत अक्षुण्ण नहीं रह पाएगी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी जी की बात अंशतः सच साबित होने लगी। लेकिन कुछेक वर्षो में पतन का स्तर बहुत अधिक स्तर बढ़ गया था तथा पार्टी के मूल्यों में भयंकर गिरावट आ गई थी । इतिहासकार विपीन चन्द्रा अपनी किताब 'आजादी के बाद भारत' में एक राजनीतिक विश्लेषण के कथन को इन शब्दों में अंकित करते है:- “कांग्रेस के अन्दर भ्रष्टाचार, मोहभंग और गरिमा का स्तर बढ़ता ही जा रहा था।" इसके अलावा नेहरू ने यह स्वीकार किया था कि हमारा बनाया आदर्श और नैतिकता का ढांचा लगातार ढहता जा रहा है।
गांधी जी का डर सच होता दिख रहा था। पंचायत स्तर पर वोट बैंक तथा दलाली की बात जोर पकड़ रही थी। अब कांग्रेस में निचले पर गुटबाजी, षडयंत्र तथा वैमनस्यता फैलने लगी। धीरे-धीरे राज्यों के नेतृत्व स्तर पर गुटबाजी बढ़ने लगी। मंत्री पद कार्यसमिति अध्यक्ष पद के लिए आपसी संघर्ष लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि कंग्रेस का आम जनता के साथ संपर्क बढ़ने के बदले उलट घटने लगा। अब बुद्धिजीवी तथा युवा समूह आपसी प्रक्रिया के तहत सोचने विचारने लगे। ये लोग अब कांग्रेस की गुटबाजी तथा संघर्ष को नापसंद करने लगे थे। अब अधिकतर युवा समूह कांग्रेस से अधिक विपक्षी दलों में जाना पसंद करने लगे। कांग्रेस को अपनी अगली पीढ़ी के लिए जो संवे शीलता दिखानी चाहिए थी नहीं दिखाई ऐसा नहीं था कि नेहरू को यह मालूम नहीं था। नेहरू तो बार-बार अपने भाषण में कांग्रेस को एक संगठन के तौर पर कमजोरी से अवगत कराते थे। 1957 में तो उन्होंने खुलकर कहा कि कांग्रेस की स्थिति एक कमजोर तथा लाचार संगठन ही बन गयी है तथा अपने अतीत से कुछ सीखी नहीं है। अगर हम अभी भी नहीं सुधरे तो हमारा भविष्य अंधकारमय है।
कांग्रेस से सोशलिस्टों का निकलना भी इस नकारात्मकता के लिए एक कारण माना जा रहा था। नेहरू यह जानते थे कि समाजवादियों से कांग्रेस की दूरी कांग्रेस में कटता को बढ़ा रही है तथा एक प्रकार की असंवेदनशीलता पार्टी में घर कर रही है। उन्होंने यानी नेहरू ने समाजवादियों के प्रति अपना परम्परागत आदर दिखाया तथा जय प्रकाश नारायण जैसे नेताओं को तो भाई कहकर बहुत अधिक ही महत्व दिया 1948 से ही नेहरू चाहते थे कि समाजवादी कांग्रेस साथ हो जाए। पर जय प्रकाश नारायण की नाराजगी कांग्रेस से बहुत अधिक थी जय प्रकाश नारायण ने उदारता के लिए दिसम्बर 1948 में नेहरू को एक पत्र लिखा और यह कहा कि “आप कहने के लिए समाजवादी हो जाते हैं और करने के लिए पूंजीपती" इसके अलावा उन्होंने हड़तालों पर प्रतिबंध के कानून को फासीवादी तक करार दे दिया नेहरू ने इन झंझावतों के बाद अपना मन बदल लिया तथा कहा कि सोशलिस्ट " गैर जिम्मेदार है तथा गैर रचनात्मक भी " 
जय प्रकाश नारायण एक खुले दिल के नेता थे उन्होंने अनी वाणी से भारतीय राजनीति को एक नया रास्ता प्रदान किया था। जय प्रकाश नारयण नेहरू के प्रखर विरोधी थे। वे नेहरू की नीति और नियंता को फसीवादी बताते थे। उन्होंने नेहरू ने सरकार की 'मजदूर विरोधी' नीतियों को 'हिटलरशाही' कहा।
1952 के आम चुनाव के बाद नेहरू ने समाजवादियों के साथ काम करने का सबसे गंभीर प्रयास किया उन्हें उम्मीद थी कि आर्थिक विकास को सुदृढ़ करने और अपनी कांग्रेस के अंदर वामपंथी नीति तथा सोच को मजबूत करने के लिए एक व्यापक मोर्चा बनाया जा सकता है। 1957 में उन्होंने समाजवादियों को कांग्रेस के साथ सहयोग करने की अपील की। उनके 14 सूत्रीय कार्यक्रम में कुछ विशिष्ट संवैधानिक सुधार, प्रशासनिक और भूमि सुधार तथा बैंको और बीमा क्षेत्र के राष्ट्रकरण के मुद्दे शामिल थे।
नेहरू जयप्रकाश नारायण के कई मुद्दों से बिल्कुल सहमत थे, परंतु वे इसके लिए पहले से किसी वादे के खिलाफ थे। यदि वे स्वयं ऐसा कार्यक्रम अपनी पार्टी से स्वीकार और लागू करवा सकते तो फिर उन्हें सोशलिस्टों की जरूरत क्यों पड़ती।उन्हें इस सहयोग की जरूरत दरअसल इसलिए थी क्योंकि कांग्रेस के अंध वामपंथी घटक को मजबूत करने के बाद ही वे ऐसा करने में सफल हो सकते थे। बात सीधी थी कि रेडिकल कार्यक्रम सामाजवादी के कांग्रेस में शामिल होने का परिणाम होता । धीरे-धीरे कांग्रेस और सोशलिस्टों के बीच नफरत बढ़ी क्योंकि जयप्रकाश नारायण अपनी शर्तों से हटे ही नहीं तथा नेहरू को भी अपनी पार्टी से दबाव था।
अब नेहरू यह सोचने लगे कि कांग्रेस समाजवादी कार्यक्रम बिना सोशलिस्टों के बीच आगे बढ़े। उन्होंने इसके लिए कांग्रेस के अंदर की वामपंथी ताकतों को ही आवश्यक बताया विपीन चन्द्रा अपनी पुस्तक में दोहराते हैं कि सोशलिस्ट एक शैतान से भी अंधिक कांग्रेस से नफरत करते थे। नेहरू ने 1951 में जय प्रकाश नारायण को एक पत्र लिखा जिसमें उनकी मांग को 'वाहियात' करार दिया। था जयप्रकाश नारायण पर साम्प्रदायिक दलों की गोदी में खेलने का आरोप लगाया। जवाब में जयप्रकाश नारायण ने नेहरू पर एक राष्ट्रीय नेता से एक संकुचित पक्षपाती नेता होने का आरोप लगा दिया। 
सोशलिस्ट पार्टी की यह विचारधारा कांग्रेस विरोध के आधार पर अधिक टिकी थी राजनीति ने सोशलिस्ट पार्टी को काफी कमजोर करार दिया स्वयं वह पार्टी विभाजन की शिकार हुई तथा अधिक रूप से सोशलिस्ट कांग्रेस में शामिल होते चले गए।
जब नेहरू को लगा कि सोशलिस्ट कांग्रेस का मिलन नहीं होने वाला है तो कांग्रेस के समाजवादी पक्ष को वह उभार देने लगे। 1953 में भूमि सुधार लागू करने तथा 1955 में अवाड़ी कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने नियोजन के लक्ष्य को समाजवाद से जोड़ने की बात कहीं तथा राष्ट्रीय संसाधन को समानता के आधार पर बाँटने की बात कही। इसके अलावा विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं ने सामाजिक परिवर्तन के लिए अधिक प्रतिबद्धता से कार्य करने को संकल्पित दिखने की इच्छा जाहिर की। नेहरू ने योजनाओं के जरिए यह कोशिश कि सामाजिक समरूपता को जमीनी स्तर पर प्राप्त किया जाए तथा सही सही संधान (संसाधन) का वितरण हो ।
कांग्रेस की नजदीकी नेहरू ने वामपंथी धारा से बढ़ाने की कोशिश की तथा कई प्रयास भी किए। वास्तव में विभिन्न अधिवेशनों तथा प्रस्तावों में कांग्रेस- वामपंथ के बीच की दूरी को मिटाकर एक नयी राह पर नेहरू जाना चाहते थे। उन्होंने कृषि में वामपंथी विचार को शामिल करते हुए सहकारी कृषि की भी अवधारणा सामने लाने का प्रयास किया। नेहरू को दक्षिणपंथी दलों से सख्त नफरत थी। उनकी यह दूरी कभी मिटी भी नहीं पर वामपंथी दलों की नजदीकी के बावजूद वह आलोचना भी करते थे।
समाजवाद के प्रति अपनापन तथा संकल्प से भी कांग्रेस के वैचारिक पतन को रोका नहीं जा सकता उनकी देश में आलोचना बढ़ने लगी जनता में कांग्रेस की छवि नकारात्मक रूप से बढ़ने लगी तथा पार्टी के अंदर भी बहुत तनाव होने लगे कांग्रेस कार्यकर्त्ता में लोभ-लालच की लालसा पैदा होने लगी। निचले स्तर पर भी कार्यकर्ता अब पद के भूखे हो गए थे। अब कांग्रेस संरक्षणवादी हो चली थी। अब विपक्षी पार्टी जीतने लगी तथा नेहरू के उत्तराधिकारी की बात की जाने लगी। उस समय के मद्रास के मुख्यमंत्री (के. कामराज) ने कांग्रेस में नयी जान फूंकने के लिए कामराज योजना पर भी कार्य किया। तथा इस योजना के तहत 1963 के कांग्रेस कार्य समिति में यह प्रस्ताव पेश किया गया कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल तथा राज्यों के मुख्यमंत्री अपने पदों को अपनी इच्छा से त्याग दे तथा पार्टी के विकास के लिए कार्य आरम्भ कर दे।
कामराज योजना के तहत सभी मुख्यमंत्री तथा केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया तथा नेहरू पर छोड़ दिया गया कि उन्हें किसका त्यागपत्र स्वीकार और आस्वीकार था नेहरू ने 6 केन्द्रिय मंत्रियों के इस्तीफे को स्वीकार कर लिया। इनमें लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी भाई, एस. के. पातीक, जगजीवन राम, बी. गोपाल रेडड्ी, के. एल. श्रीमाली इत्यादि थे।
कामराज योजना बहुत देर से आई। 1964 में जनवरी में कामराज को ही कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया था कामराज के अध्यक्ष बनने के बाद भी कांग्रेस की स्थिति नहीं सुधरी तथा प्रदेश स्तर तक मोह लालच की क्षमता बढ़ने लग गयी। कहा गया कि कामराज योजना मोरारजी देसाई के व्यक्तिगत विरोध में थी। सन 1964 में कांग्रेस का पतन उस समय भी चल रहा था जब नेहरू की मृत्यु हो गयी।
शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने । शास्त्री जी के छोटे से कार्यक्रम में कोई बड़ा उलट फेर कांग्रेस में नहीं हुआ 1960 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के सामने एक अधिक मजबूत विपक्ष था। सही तौर पर अब कांग्रेस को समाजवादी, जनसंघ तथा सी. पी. एस जैसे सदस्यों से प्रतियोगिता करने की सीख लेनी थी।
1966 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी के अंदर की मुसीबतों का समाना करना पड़ा इस समय एक ऐसी कांग्रेस थी जिसकी जनता अब उससे रूठ चुकी थी। पार्टी का पतन भी लगभग था हो गया तथा अब कांग्रेस निष्क्रिय होती जा रही थी। अब कांग्रेस की समितियां गुटबाजी का अडड्डा़ बन गयी थी। हरेक राज्यों में असंतोष का सामनना करना पड़ रहा था। श्रीमति गांधी का कांग्रेस के अंदर कोई बड़ा नहीं था। जब उनका मंत्रिमण्डल बना तो एक प्रधानमंत्री के अलावा कुछ नहीं बदला। पार्टी के अध्यक्ष कामराज एवम् सिंडिकेट लगातार प्रधानमंत्री की तुलना में संगठन की महत्ता को अधिक महत्व देते थे। वे पार्टी के नीति निर्धारण को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहुंच से दूर रखना चाहते थे। जिसके आम चुनाव को देखते ही इंदिरा गांधी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तथा उनका अनुभव भी इसकी इजाजत नहीं देता था।
1967 के आम चुनाव के बाद कांग्रेस अपना जनादेश खो चुकी थी। लोग अब कांग्रेस के नेताओं की भोगवादी संस्कृति से तंग आ चुके थे। अब जनता अंधेरी रात की तरह सुबह की प्रतीक्षा में लगी थी क्योंकि कोई विपक्ष में भी नहीं था जो विकल्प बन सके। अब लोगों में जागरूकता आ गई थी। कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व प्रदेश के मुख्य गुट को समर्थन देने लगा। अब गुटबाजी कोई असहनीय बात नहीं रही।
1967 के चुनाव में संयुक्त विपक्ष दल अब दक्षिणपंथी पार्टियों को भी विपक्षी पार्टियां स्वीकार करने लगी। तमिलनाडु में स्वतंत्र, सी. वी. एम मुस्लिम लीग तथा जाति आधारवादी डी. में. के सहयोगी बन गए। केरल में सी. पी. एम. फिर एक हो गए तथा पंजाब में अकाली दल - जनसंघ - सी. पी. एम. थे।
1967 के चुनाव परिणाम में कांग्रेस को 284 सीटें मिली तथा कांग्रेस ने 8 राज्यों, बिहार, यू. पी, राजस्थान, पंज. ब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, मद्रास में अपना बहुमत भी गंवा कर दिया। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा में जनसंघ, उड़ीसा, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और गुजरात में स्वतंत्र पार्टी तथा बिहार में. एस. एस. पी. एवम् पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट मुख्यविपक्षी दल बन गया।
1967 के चुनावों में अल्प तरीके से गठबंधन बना तथा दल बदल का आरम्भ हो गया। अब छोटे-छोटे दलों की स्थिति अच्छी होने लगी तथा तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों में गठबंधन की सरकार बनी । कांग्रेस भी कई राज्यों में गठबंधन में शामिल थी। अब सरकारों का 5 साल तक चलना अवश्यंभावी नहीं रह गया था। अब बड़े मंत्रिमंडल बदलाव तक राष्ट्रपति शासन का दौर चलने लगा।
1967 के चुनावों के बाद सिंडिकेट जो कांग्रेस का प्रभावी समूह था उसे धक्का लगा। इस बार इनके सभी नेता चुनाव हार गए तथा अब इनकी नियंत्रक वाली मुहिम खत्म हो गयी अब इंदिरा गांधी की कांग्रेस में स्वीकार्यता बढ़ गयी तथा एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी मोरारजी भाई के अलावा कोई नहीं था। अब मोरारजी भाई को कांग्रेस में एक प्रभुत्व वाला मानने के लिए उप प्रधानमंत्री पद दिया गया। 1969 में कांग्रेस का विभाजन भी हुआ। 1969 में सिंडिकेट इंदिरा गांधी को प्रध ानमंत्री पद से हटाने की मुहिम चलाने लगे। इंदिरा गांधी अधिक स्तर पर जनता से जुड़ा रहना चाहती थी तथा जनमत को अपनी तरफ करना चाहती थी अब वह हरेक विपरीत परिस्थिति के लिए तैयार थी ।
1969 मई में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद कांग्रेस के अन्दर विभाजन की रूपरेखा एक घटनाक्रम में बढ़ी। अब सिंडिकेट ऐसा राष्ट्रपति बनाना चाह रहा था जो उसके इशारे को महत्व दे। 12 से 13 जुलाई के बीच बैंगलोर पार्टी अधिवेशन ने इंदिरा गांधी का विरोध करते हुए नीलम संजीव रोडड्ी को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के तौर पर खड़ा किया।
अब इंदिरा गांधी के सामने दो ही विकल्प थे कि सभी घटनाओं का चुपचाप समर्थन करते रहे तथा दूसरी तरह बिना किसी से डरे वह सोचते रहे कि प्रधानमंत्री पद एक शक्तिशाली पद है और जिस पर में विराजमान हूँ। उन्होंने यही सोचा तथा विपक्षी गुट को अपने विकास की रणनीति से पीछे कर देने की बात कही उन्होंने अक्रामक विकास का रास्ता बनाया तथा मोरारजी भाई को वित्तमंत्री से इस्तीफा दिलवा दिया। उन्होंने अपना वित्तमंत्री खुद को चुना तथा 1969 के 21 जुलाई को अध्यादेश लाकर 'राष्ट्रीयकरण बैंक विधेयक' को पारित करवा लिया। इसमें 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। आम जनता और वामपंथ ने उनकी इस घोषणा का स्वागत किया।
अब इंदिरा गांधी अधिक लोकप्रिय हो गई थी। इंदिरा गांधी अब नीलम संजीव रेडी के बदले वी. वी. गिरी को अपना समर्थन देना चाहती थी। अब उनके पास एक अंश था कि औपचारिक रूप से किस प्रत्याशी के लिए नामांकन दाखिल किया है, उसका विरोध कैसे किया जाए? इस स्थिति में सिंडिकेट एक भयानक गलती थी। अब सिंडिकेट स्वतंत्रता पार्टी से यह आग्रह किया वह रेडी के पक्ष में मतदान करें अब इंदिरा गाँधी को अवसर मिल गया तथा साम्प्रदायिकता के नाम पर वह सिंडिकेंट का विरोध करने लगी। उन्होंने यह कहा कि रेडी के लिए जनसंघ तथा स्वतंत्रता पार्टी की तरफ से एक समर्थन का पक्ष देना असहनीय होगा। श्रीमति गांधी अब खुलकर वी. वी गिरि का समर्थन करने लगी। और रेडड्डी़ के लिए जारी करने में इनकार कर दिया। उन्होंने सदस्यों को स्वतंत्र तथा विवेक से मतदान करने के लिए अपील की। चुनाव में करीब एक-तिहाई कांग्रेसियों ने अपने सांगठनिक नेतृत्व की अवहेलना करते हुए वी. वी. गिरी को वोट दिया जो बहुत ही कम वोट से जीत गए।
अब इंदिरा गांधी और सिंडिकेट के बीच का अलगाव खुलकर सामने आ गया था। इंदिरा गांधी कांग्रेस के दो पक्ष को रेखांकित करती थी। उनका कहना था कि कांग्रेस का एक समूह साम्प्रदायिकता को प्रमुखता दे रहा है। तथा उधर सिंडिकेट ने भी इंदिरा गांधी पर पाखण्ड का आरोप लगाया तथा यह कहा कि इंदिरा गांधी वामपंथी तानाशाही की तरफ बढ़ रही है।
अब सिंडिकेट ने इंदिरा गांधी को ही अनुशासनहीनता के कारण कांग्रेस से निकाल दिया। पार्टी विभाजित हो गई तथा इंदिरा गांधी ने एक अलग पार्टी की स्थापना की जिसे कांग्रेस (आर) यानी रिक्विजशनिष्ट कहा गया। सिंडिकेट के प्रमुख वाली कांग्रेस का नाम कांग्रेस (ओ) कहा गया। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति में 705 सदस्यों में से 446 इंदिरा गांधी के साथ थे।
कांग्रेस (R) एक बहुस्तरीय पार्टी बन गई। अब इंदिरा गांधी पार्टी और कांग्रेस की सर्वमान्य नेता बन चुकी थी। अब कांग्रेस में इंदिरा गांधी के सामने कोई बड़ा नेता नहीं था।
1970 में ही इंदिरा गांधी जी ने लोकसभा को भंग कर दिया फरवरी 1972 के अपने नियत कार्यकाल में 1 वर्ष पहले ही चुनाव कराने का निर्णय सोच समझकर लिया गया था। अब कांग्रेस, जनसंघ तथा सोशलिस्ट पार्टी उनके सामने विपक्ष में थी। इंदिरा हटाओ का नारा बना तथा व्यक्तिगत रूप से लांछन लगाने के प्रचार के लिए चुनाव को याद किया गया। उधर इंदिरा गांधी विभिन्न मुद्दों पर भाषण देती रही तथा विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को जनता के सामने रखती गई। उन्होंने ‘गरीबी हटाओं' का नारा दिया वे चुनाव जीत गई तथा 518 में 352 स्थान कांग्रेस (ओ) ने प्राप्त किया फिर 1979 के चुनाव में कांग्रेस को इंदिरा गांधी के काल में ही चुनाव का काल का भयंकर रूप से देखना पड़ा 1980 में कांग्रेस फिर सत्ता में आई लेकिन 1984 में कांग्रेस को इंदिरा गांधी की हत्या से धक्का लगा। अब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तथा कांग्रेस राजीव गांधी की हो गई। 1984 में कांग्रेस को चुनाव में भयानक जीत मिली। 543 सीटों में से कांग्रेस को 415 सीटें मिली। राजीव अमेठी से चुनाव जीत गए 1989 में कांग्रेस को बोफोर्स का मुद्दे ने हरा दिया तथा वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने। 1991 में राजीव गांधी की निर्ममता पूर्वक हत्या के बाद कांगेस की स्थिति दूसरी हो गई अब पी. वी नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने तथा अध्यक्ष भी। 1996 में कांग्रेस की हार के कारण सीता राम केसरी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना पड़ा तथा 1998 में सोनिया गांधी के इस राजनीति में पदार्पण के बाद उन्हें जबरन त्यागपत्र देना पड़ा। 1998 से सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रही तथा 2004 में कांग्रेस को वामपंथी दल के समर्थन से सरकार बनाने में उनको सफलता मिली। 2004-2011 तक अब कांग्रेस में अध्यक्ष की प्रतिष्ठा को प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा (मनमोहन सिंह) से ऊपर आंका जाने लगा तथा विपक्षी पार्टियां प्रधानमंत्री को कठपुतली प्रधानमंत्री तक कहने से नहीं चूक रही थी। 2014 तक कांग्रेस का क्षय हो गया था तथा बुरी तरह कांग्रेस को हार मिली या ये कहलें कि इतिहास की सबसे बुरी हार। अब 2017 में सोनिया-राजीव के बेटे राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तथा कांग्रेस लगातार विपक्षी पार्टी के रूप में अपना कार्य कर रही है।
कांग्रेस की हालत सही रूप में नेहरू के समय की निर्विवाद रूप में लोकप्रिय थी। इनके अलावा कोई भी नेतृत्व नेहरू की विरासत को उनके समान विवाद नहीं रह सकता।
4. विपक्ष (Opposition)
भारतय स्वतंत्रता के बाद संसदीय इतिहास में कांग्रेस के प्रभुत्वशाली आधिपत्य को कड़ा मुकाबला करने के लिए विपक्ष के ऐसे भी दाव थे जो अपनी लोकप्रियता तथा सिद्धांत से उस समय से लेकर वर्तमान तक अपनी छाप छोड़ चुके हैं। नेहरू जी के समय काम की बात की जाए कि जयप्रकाश नारायण बाबू एक महान विपक्षीय नेता थे तथा नेहरू के समानान्तर एक व्यक्तित्व के तौर पर जयप्रकाश बाबु को देखा जाता था।
स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद विपक्षी दलों के प्रभाव की व्याख्या करने में सबसे पहले हमें सोशलिस्ट पार्टी की चर्चा करनी आवश्यक है। स्वतंत्रता के बाद विपक्षी दलों में से सोशलिस्ट पार्टी के प्रति ही जनता की काफी उम्मीदें थी। इस पार्टी के पास देश के महान नेता सर्वश्री जयप्रकाश नारायण थे। इनके अलावा इस पार्टी में और भी लोकप्रिय नेता थे जैसे:आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, डॉ. राममनोहर लोहिया और एस. एस. एम जोशी इत्यादि। सोशलिस्ट पार्टी के सामने एक प्रकार की दुविधा रही कुछ जीवंत पत्रकारों ने सोशलिस्ट पार्टी के बारे में यह बार-बार लिखा कि अगर सोशलिस्ट पार्टी के कांग्रेस से संबंधो की सुविधा अगर नहीं होती तो सोशलिस्ट पार्टी 1950 से ही कही अधिक प्रखर रहती। उनका कहना सही भी था। इस पार्टी का जन्म 1934 में हुआ और उस समय से वह कांग्रेस का अंग बनकर साथ रही। लेकिन इस पार्टी का उस समय भी अपना एक अलग संविधान, अलग सदस्यता तथा अपनी विचारधाराएं थी।
सोशलिस्ट कुछ मुद्दों पर साफ थीं। इन्होंने संविधान समय का बहिष्कार किया तथा कैबिनेट मिशन का भी बहिष्कार किया।
सोशलिस्ट ने अंतरिम सरकार में कोई रूचि नहीं दिखाई तथा कांग्रेस कार्य समिति में जाने से भी इनकार किया। सोशलिस्ट पार्टी ने भारत विभाजन को आक्रमकता के साथ अस्वीकार किया तथा ये स्वतंत्रता के बाद भारत को एक समाजवादी देश के रूप में देखना चाह रहे थे। उन्होंने नेहरू को एक 'दक्षिणपंथी बुर्जुआ पार्टी' वाली कांग्रेस का प्रध नमंत्री कहा।
1948 में कांग्रेस ने यह नियम बनाया कि किसी दूसरी विचारधारा वाले सदस्य कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य नहीं हो सकते। अतः 1948 में सोशलिस्टों ने कांग्रेस को छोड़ दिया। सोशलिस्टों द्वारा कांग्रेस छोड़ कर बाहर निकलना उनके लिए एक ऐतिहासिक गलती साबित हुई। सही तौर पर देखा जाए तो इस पार्टी की विचारधारा इस बात पर टिकी थी कि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस अपनी स्थिति को सोशलिस्टों से जोड़ना चाहती है तो गैर समाजवादियों से संबंध तोड़े। शलिस्ट पार्टी द्वारा कांग्रेस समर्थित नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस में शामिल होने से इनकार करने पर सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष हरिहरन शास्त्री ने शोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र देते हुआ कहा:- राष्ट्रीय क्रान्ति का अधूरा कार्यभार यह मांग करता है कि कांग्रेस और सोशलिस्ट सहित देश के सभी प्रगतिशील समूह जनता के सभी लक्ष्य के प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित हो ।
कांग्रेस में दक्षिणपंथी धारा का विरोध समाजवादी धारा ने यह कहते हुए जो किनारा कर लिया कि कांग्रेस दक्षिणपंथ के चंगुल में फंसते हुए चली जा रही है। दक्षिणपंथी धारा के इतने विरोध होने के बावजूद वह कांग्रेस से नहीं निकली। 
कांग्रेस से सोशलिस्ट के निकलने के बाद कांग्रेस के अंदर वामपंथी विचारधारा को कमजोर कर दिया। इसका परिणम यह हुआ कि नेहरू कठोर नेताओं के साथ अपनी योजना को मूर्त रूप देने लगे। इस प्रकार अब वामपंथी विचारधारा कमजोर होने लगी। सोशलिस्ट अपनी अच्छी नेतृत्व शक्ति तथा महान लक्ष्य के बावजूद भी अपने विनाश की तरफ बढ़ गयी क्योंकि कांग्रेस से निकलने के बाद इस पार्टी की दुविधा अधिक बढ़ गयी ।
1951-52 के चुनाव में सोशलिस्टों की पार्टी ने 12 सींटे हासिल की तथा सबसे बड़ी बात कि इस पार्टी के बड़े-बड़े नेता हार गए। इसे सिर्फ 10.6% मत प्राप्त हुए।
5. किसान मजदूर प्रजा पार्टी
जून 1951 में किसान मजदूर पार्टी की स्थापना हुई तथा जे. वी. कृपलानी ने इस पार्टी की स्थापना कांग्रेस से बागी होकर की थी। गांधीवादी होने का दावा करते हुए कांग्रेस के कार्यक्रम और नीतियों से सहमत होते हुए इस पार्टी ने उन्हीं कार्यक्रमों को असलियत में लागू करने का वादा किया। इसके दो नेता पी. वी घोष तथा टी. प्रकाशन पश्चिम बंगाल और मद्रास की कांग्रेस सरकारों के मुख्यमंत्री रह चुके थे। जबकि कृपलानी 1950 तक कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे। और अभी-अभी अपने पुनर्वाचन का दाव हार चुके थे। इन लोगों के कांग्रेस छोड़ने का कारण व्यक्तिगत ही था और जे. वी कृपलानी का कांग्रेस छोड़ने का कारण मात्र इस तरह से व्यक्तिगत ही था न कि कोई वैचारिक पक्ष।
किसान मजदूर प्रजा पार्टी ने भी आम चुनाव में बहुत उम्मीद से भाग लिया परन्तु इसके परिणाम भी सोशलिस्ट पार्टी से अधिक ही खराब थे। इसने 9 सीटे लोकसभा में प्राप्त की तथा इसे 5.8% मत प्राप्त थे। इस पार्टी ने राज्य विधानस. भाओं में 77 मत प्राप्त किए।
चुनाव के बाद सोशलिस्ट पार्टी तथा किसान मजदूर पार्टी दोनों ने आपस में विचार कर राजनीति करने का फैसला किया। इन दोनों दलों को महसूस हुआ कि उनके बीच कोई विचारधारात्मक मतभेद नहीं है। कृपलानी की इच्छा तथा उचित रूप से एक जातिविहीन, वर्ग विहीन समाज बनाने की थी। जिसमें कोई सामाजिक, राजनीतिक समाज कहते थे और कृपलानी इसे सर्वोदय समाज कहते थे।
दोनों पार्टियों के विलय के बाद पुन: सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गई। जिसके अध्यक्ष कृपलानी और महासचिव अशोक मेहता बनाए गए। यह पार्टी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन गई जो कांग्रेस का सबसे बड़ा विकल्प बनकर उभरी। इस पार्टी को बहुत दिनों तक अपनी एकजूटता बनाकर रखना असंभव लगा तथा नियमित रूप से इनके कार्यकर्ता अलग रहे। इसके अधिकतर नेता काफी मात्रा में इस पार्टी से निकाले गए।
आरम्भ से ही इनकी अपनी भूमिका एक विपक्ष के रूप में क्या हो? इस पर काफी दुविधा थी। सबसे अधिक क्षति इस पार्टी को इस कारण पहुंची जिसकी चर्चा हमने आरम्भ में की। कांग्रेस के प्रति क्यो रवैया अपनाना चाहिए? इस पर कोई ठोस सिद्धांत नहीं अपनाने से इस पार्टी को विभाजित कर दिया।
सोशलिस्ट पार्टी में लोहिया जैसे व्यक्तित्व भी थे। जो कांग्रेस के प्रखर विरोध के पक्ष में थे, इन्होंने कहा कांग्रेस और वामपंथी दोनों से हमें समान दूरी बनाकर रखनी चाहिए तथा पार्टी को उग्र विरोध का रास्ता अपनाना चाहिए। लोहिया ने जनता के पक्ष के लिए उग्रविरोध में किसी सीमा के पक्ष में नहीं थे। लोहिया दुविधापूर्ण राजनीति से बहुत खुश नहीं होते थे। लोहिया संसद अंदर अपने ओजस्वी भाषण से नेहरू को जवाब देने पर मजबूर कर दिया करते थे। सही तौर पर देखा जाए तो लोहिया के पास कोई पृष्ठभूमि शक्तिशाली पार्टी के तौर पर नहीं होने के कारण इनके नेतृत्व का मार्ग दर्शन भारत की जनता को उनके सत्ता में नहीं आने के कारण से नहीं मिल सका। सोशलिस्ट पार्टी भी कमजोर होती चली गई। 1955 के अन्त में लोहिया और उनके समर्थन पार्टी से निकल गए तथा 1956 में आचार्य नरेन्द्र देव की मृत्यु हो गई। 1954 में तो जयप्रकाश बाबु राजनीति को ही अलविदा कर चुके थे। 1957 के आम चुनावों के बाद उन्होंने राजनीति से पूरी तरह सन्यास ले लिया और यह घोषणा की कि पार्टी आधारित राजनीति भारत के लिए उचित नहीं है। जयप्रकाश बाबु ने पार्टी छोड़ी 1971 तक तो आधी से अधिक पार्टी ही कांग्रेस में जा मिली सबसे बड़े नेता लोहिया जो 1967 में स्वर्ग को प्राप्त हो गए तथा 1971 में लोहियावादी सोशलिस्टों का भी चुनाव में पतन हो गया।
6. भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी
भाजपा को तो 1936 तक कांग्रेस का ही एक भाग माना जा सकता था। कांग्रेस की कार्यशैली को न पसंद करने के कारण 1945 में कांग्रेस को छोड़ दिया गया। स्वतंत्रता के बाद भाजपा ने एक नयी शुरूआत की। हजारों की संख्या में इसके समर्थनक थे। इसके पास कई योग्य नेता और हजारों की संख्या में समर्पित अनुशासित नेता थे जो काफी सक्रिय थे। इनकी पहुंच भारत के किसानों, मजदूरों के पास तक थी तथा यह सर्वहारा वर्ग की एक पार्टी बन गई थी। फिर भी पार्टी के अन्दर असंतोष तथा गुटबंदी का दौर उत्पन्न हो गया तथा 1964 आते-आते भाजपा दो टुकड़ो में बँट गयी भाजपा ने पहले भारत की स्वतंत्रता को स्वीकार किया तथा बाद में सोवियत संघ के निर्देश पर कह दिया कि ये स्वतंत्रता तो झूठी है अब तो 15 अगस्त उनके लिए स्वतंत्रता दिवस नहीं वरन् गद्दारी दिवस हो गया था। उनका कहना था कि नेहरू साम्राज्यवादी शक्तियों के पिठु हैं। अब भाजपा धीरे-धीरे सशस्त्र किसान संघर्ष का समर्थन करने लगी। पार्टी उग्रवादी रवैये में चलती जा रही थी तथा कई राज्यों में इस पार्टी को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा।
1951-52 के आम चुनाव में भाजपा को 61 सींटो पर चुनाव लड़ने के बाद 23 सीटें मिलीं वहीं 1957 में 27 सीटें मिली तथा केरल में विधानसभा में बहुमत भी प्राप्त किया। 1962 में 29 लोकसभा सीटें मिली। भाजपा कई परिवर्त्तनों से गुजरी 1953 में उन्होंने स्वीकार किया कि भारत एक स्वतंत्र विदेश नीति को मान रही है तथा 1956 में यह भी स्वीकार किया कि भारत अब सही तौर पर स्वतंत्र हो चुका है। तथा एक सम्प्रभु राज्य है परन्तु नेहरू सरकार पूंजीवादी है तथा हमें एक जनवादी भूमिका अदा करनी है। 1958 के अमृतसर अधिवेशन में घोषणा हुई कि सामंतवाद को प्रेरित करना सिर्फ संसदीय रास्ते से ही संभव है जब भाजपा को बहुमत मिलेगा तो संपूर्ण नागरिक अधिकार की प्राप्ति होगी। 1961 के विजयवाड़ा अधिवेशन में तो यह प्रस्ताव पारित किया गया कि कांग्रेस के अच्छे कामों का समर्थन किया जाएगा।
परन्तु 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय भाजपा की रणनीति क्या हो? इस मुद्दे पर पार्टी के अन्दर काफी मतभेद उत्पन्न हो गया। पार्टी के एक धड़े ने भारत सरकार का समर्थन किया तथा दूसरे धड़ा नेहरू सरकार की कमजोरी के आधार पर विरोध करता रहा। चीन के प्रति सहानुभूति भाजपा में हमेशा रही तथा चीन ने भी भाजपा को उसकी आंतरिक नीतियों में हस्तक्षेपित किया।
1964 में भाजपा टूट गई। एक भाग दक्षिणपंथी का था तो दूसरा वर्ग वामपंथी रुझान का था । वामपंथी रूझान वाला हिस्सा मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के तौर पर जानी गई यह विभाजन सैद्धांतिक आधार पर भी था।
भाजपा के अनुसार भारतीय सत्ता तंत्र एक पूंजीपति वर्ग का समूह है जो विदेशी पूंजी के साथ लगातार सहयोग करतेजा रहे हैं। चूंकि कांग्रेस वर्गीय शासन का सबसे प्रमुख हथियार है, इसलिए उसे नष्ट किया जाना तय किया गया। भाजपा तो संविधान को ही जन विरोधी बताती थी लेकिन अपने संघर्ष को संविधान के अनुरूप ही चलाने को संकल्पित थी। भाजपा ने सशस्त्र विरोध की बात कही तथा यह भी कहा कि सामंतवाद विरोध के लिए शस्त्र उठाना उचित है।
भाजपा कई टूट के बाद त्रिपुरा की तरह पश्चिम बंगाल में सरकार बना पाई तथा त्रिपुरा, बंगाल में तो लगभग 28 वर्षो तक शासन भी किया। सही तौर पर माने तो कम्यूनिस्ट पार्टी 1996 के सरकार में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल भी हुई लेकिन भाजपा ने दूरी बना ली। ज्योति वसु की तरफ से 'न' कहा गया परन्तु बाद में पोलित ब्युरो की तरफ से खेद भी व्यक्त किया गया।
7. भारतीय जनसंघ
भारतीय जनसंघ की स्थापना औपचारिक रूप से 1951 में की गई थी। एक दक्षिणपंथी पार्टी के तौर पर इसके विकास तथा निर्माण की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक जंघ की धारणा को रेखांकित किया जा सकता है जिसकी स्थापना 1925 में की गई थी। जनसंघ की संगठनात्मक शक्ति का स्त्रोत आर. एस. एस. ही रहा। भारतीय विचारक भारतीय जनसंघ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनैतिक शपथ के तौर पर ही कहते रहे है।
भारतीय जनसंघ के नेताओं को उच्च प्रशिक्षित तथा कड़े तौर पर अनुशासित करने का कार्य आर. एस. द्व मूल एसरा ही होता था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हिन्दुस्तान की अवधारणा पर की गई थी। इन्होंने भारत के नागरिकों की रक्षा मतलब हिन्दूओं की रक्षा को महत्व दिया तथा अपने आपको हिन्दू तथा समानता संस्कृति का रक्षक बताया। इसलिए आरम्भ में ही आर. एस. एस के नेता इस संगठन को एक सांस्कृतिक संगठन कहते हैं।
विपक्षी नेताओं की बात की जाए तो इन्होंने यह कहा कि जनसंघ की पहचान एक साम्प्रदायिक पार्टी की है। तथा इस ने साम्राज्यवाद का विरोध न करके अपना चेहरा तथा परियच दे दिया है। 1947 के विभाजन के तुरंत बाद जनसंख्या की लोकप्रियता काफी स्तर पर बढ़ी क्योंकि हिन्दू का एक बड़ा समूह जनसंघ में अपनी सुरक्षा को देखने लगा। गांधी जी की हत्या के बाद आर. एस. एस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
हालांकि यहां पर यह कह देना उचित है कि गांधी जी की हत्या से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कोई मतलब नहीं था। परन्तु अपनी विचारधारा में यह संघ गांधीजी की पाकिस्तान नीति का विरोध किया करता था। जैसे कि 1947 में तत्कालीन संघ चालक गोलवरकर ने गांधी जी पर सभी हिन्दूओं को मुसलमान बनाने की साजिश करने का आरोप लगाया तथा कांग्रेस को मुसलमान परस्त पार्टी बताया। उन्होंने कांग्रेस की यह कहकर निंदा की कि मुसलमान की करतूतों को कांग्रेस शांति-अहिंसा के मुखौटे छिपा देना चाहती है।
1948 में आर. एस. एस के उपर लगे प्रतिबंध को उठाने के लिए 1949 में काफी प्रयास किया गया। 1949 में आर. एस. एस के नेताओं ने यह शपथ ली कि राजनीति में भागीदारी नहीं की जाएगी। अब जनसंघ की स्थापना 1981 में इसी के विकल्प को भरने के लिए की गई। जनसंघ को आर. एस. एस. के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए कहा गया। तथा ‘मुखौटा संगठन' के तौर पर जनसंघ को बार-बार यह कहा गया कि आर. एस. एस अपनी विचारधारा जनसंघ के द्वारा ही सामने रखने का प्रयास करता रहा है ।
1951 में जनसंघ की स्थापना के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से मिलने के बावजूद आर. एस. एस का किसी भी तत्कालीन चालक ने प्रत्यक्ष रूप से जनसंघ में हस्तक्षेप करने की कोशिश नहीं की। 1951 में जनसंघ के अध्यक्ष डॉ. श्यामा मुखर्जी हुए तथा थोड़ी स्वतंत्रता भी इस पार्टी को एजेण्डे के स्तर पर प्राप्त हुई। 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद जनसंघ का एक नया रूप देखने को मिला। 1954 में इस पार्टी के तत्कालीन नेता और अध्यक्ष मौली चन्द्र शर्मा ने पार्टी और है की वर्चस्व संबंधी बातों को लेकर त्याग पत्र दे दिया। इसके बाद से जनसंघ का है से संबंध खुलकर सामने आ गया। जनसंघ ने अपने विचार को मिश्रित अर्थव्यवस्था, नियोजन तथा सार्वजनिक नीतियों के आधार पर ही रूप दे दिया। इस पार्टी ने जमींदारी उन्मूलन, भूमि हदबंदी तथा किसानों के प्रति सहायक नीतयों का औपचारिक समर्थन किया। इसने अपने आर्थिक कार्यक्रम में खेतिहर मजदूरों, जमीन जोतने वाले किसानों, श्रमिकों, उद्योगों तथा आधारभूत उद्योगो की पहचान को अपने आर्थिक नीति में प्रश्न दिया।
जनसंघ ने अपने आपको सभी भारतीयों के पक्ष के लिए एक पार्टी बनाया तथा मुसलमानों को भी अपनी पार्टी में जगह दी। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि हमें हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना है। बल्कि भारत राष्ट्र का निर्माण करना है। जनसंघ नियमित रूप से दूसरी पार्टियों पर तुष्टीकरण का आरोप लगाती रही है। डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी नेहरू को मुसलमानों के तुष्टीकरण करने से हमेशा सावधान करते रहे। जनसंघ ने आगे चलकर "सांस्कृतिक राष्ट्रवाद" की बात कही तथा गैर हिन्दुओं को भी भारतीय संस्कृति में विश्वास करने की इच्छा उत्पन्न करने की कोशिश करने की योजना बनायी गयी।
1971 के युद्ध के समय जनसंघ में 'अखण्ड भारत' का नारा दिया तथा पाकिस्तान के प्रति एक व्यवहारी नीति को अपनाया 1977 में जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हो गया तथा अटल बिहारी वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री बने तथा पाकिस्तान के लिए एक अनुशासित तथा सौम्य नीति की रूपरेखा बनायी गयी।
जनसंघ ने भारतीय संस्कृति तथा भारतीय राष्ट्रवाद की स्थापना के दौर से प्रचारित करने की कोशिश कि भारतीय संस्कृति को महान बताकर समान नागरिक संहिता तथा धारा 370 के खत्म की घोषणा अपने एजेण्डे में लेकर जनसंघ ने अपना प्रचार आरम्भ किया।
1952 में जनसंघ को लोकसभा की 3 सीटें मिली तथा 1957 में 4 सीटें मिली 1962 में जनसंघ को 14 सीटें मिली 1967 में यह 35 सीटें तक पहुंच गयी। 1971 में 22 सीटें मिली।
1977 में जनता पार्टी में विलय के बाद जनता सरकार में भी जनसंघ के लोग शरीक हुए। अटल जी विदेश मंत्री तथा आडवाणी जी भी मंत्रिमण्डल में थे। 1980 में अटल बिहारी बाजपेयी तथा आडवाणी जी ने जनसंघ को नया रूप दिया तथा बम्बई में 6 अप्रैल 1980 को 'भारतीय जनता पार्टी' की स्थापना की। इन्होंने 'हिन्दुत्व' की अवधारणा को विस्तृत रूप देने की बात कही तथा अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष बने ।
1984 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ 2 सीटें मिली अटल जी भी चुनाव हार गए तथा भाजपा की यह नई पार्टी आत्म मंथन के दौर में चली गयी। 1984 का चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ था। कांग्रेस को सहानुभूति लहर का फायदा मिला। भाजपा अपनी 2 सीटों से आगे बढ़ी तथा आडवाणी बाद में भाजपा के अध्यक्ष बने। 1987-88 में राम मंदिर के मुद्दे ने जोर पकड़ लिया तथा भाजपा इसे एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाने लगी। मुरली मनोहर जोशी की यात्रा तथा आडवाणी के भारत भ्रमण से एक माहौल भाजपा के पक्ष में बना तथा 1989 के आम चुनाव में भाजपा को 89 सीटें मिली अटल जी तथा अन्य नेता चुनाव जीत गए। वी. पी सिंह की सरकार इन्होंने सम भी दिया। 1990 में आडवाणी के राम रथ यात्रा ने वी.पी. सिंह सरकार को अस्थिर कर दिया तथा चन्द्रशेखर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने। आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। जनता में भाजपा के प्रति एक नया जुड़ाव उत्पन्न हुआ। 1991 में आम चुनाव हुए तथा भाजपा को 119 सीटें लोकसभा में प्राप्त हुई। उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, दिल्ली तथा मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें बनीं। आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता बने। 1991-92 भारत की राजनीति में एक अहम स्थान रखता हैं 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी ढांचा गिरा देने से एक नया माहौल बना तथा भारतीय जनता पार्टी राजनीति के केन्द्र में आ गयी।
1992 के बाद भारतीय जनता पार्टी को अधिकतर समूह सत्ता के लिए एक मुख्य विकल्प के तौर पर देखने लगे। 1995 में बंम्बई अधिवेशन में आडवाणी ने अटल जी को भाजपा के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताया तथा 1996 के चुनाव में भाजपा की पहली बार ने केंद्र में 13 दिन की सरकार बनी। भाजपा को 161 सीटें मिली। अब भाजपा को गठबंधन साथी भी मिल गया था। भाजपा अपने कुछ एजेण्डे जैसे धारा 370, नागरिक संहिता को होल्ड करने की भी बात इस काल में की क्योंकि संक्रमण काल में गठबंधन की मजबूरी भाजपा को पता थी। अस्थिर राजनीतिक स्थिति के कारण 1998 में भारतीय जनता पार्टी को 181 सीटें लोकसभा चुनाव में मिली तथा वह गठबंधन सहयोगियों के साथ फिर सत्ता में आयी।
अटल जी फिर मार्च 1998 भारत के प्रधानमंत्री बने। 1999 के मई में ए. आर. डी. एम. के (जयललिता) की पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया तथा जून में कारगिल युद्ध आरम्भ हो गया। अक्टूबर 1999 में फिर आम चुनाव हुए तथा भाजपा को अपने सहयोगियों के साथ बहुमत मिला। इस बार भाजपा अटल जी के नेतृत्व में ष्टछक । ष्ठ बनकर गयी थी। जनता ने इस गठबंधन को समर्थन दिया। अटल जी के नेतृत्व में भाजपा ने 5 साल स्थिर सरकार दी तथा पहली बार भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन सरकार पुरे 5 साल भारत में चली।
2004 में ‘भारत उदय' अभियान के फेल होने के कारण भाजपा को हार का सामना करना पड़ा तथा सही तौर पर यह देखने को मिला कि कांग्रेस को बिना अधिक प्रयास किए वामपंथी दलों के सहयोगी सरकार में आने का मौका मिल गया। 
2009 के चुनाव में भाजपा को आडवाणी के नेतृत्व में फिर हार का मुंह देखना पड़ा। अब सही तौर पर एक नये नेतृत्व तथा दूसरी पीढ़ी को सामने लाने की बात कही गयी ।
2013 में भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तथा अपने चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष भी। 2014 के आम चुनाव में भाजपा को अकेले बहुमत मिल गया। 282 सीटें भाजपा को मिली तथा गठबंधन के रूप में छक। को 335 सीटें मिलीं। कांग्रेस को स्वतंत्रता के बाद सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटें मिली।
2017 में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में भी काफी सफलता मिली देश के हरेक कोने में भाजपा को विस्तार मिला है परन्तु सही तौर पर अभी भी यह कहा जाता है कि 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' की नीति भाजपा के द्वारा ही फलीभूत होती है लेकिन यह सर्वविदित है कि जनता में भाजपा के प्रति विश्वास बढ़ा है तथा 30 साल बाद 2014 में भारत की जनता ने एक बहुमत की सरकार भाजपा के नेतृत्व को ही प्रदान किया।
भाजपा के अलावा क्षेत्रीय दलों का भी विस्तार हुआ है। 60 के दशक के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य में क्षेत्रीय दलों का विस्तार हुआ। तमिलनाडु में तथा आंध्र प्रदेश में डी. एम. के तथा अन्ना डी. एम. के. या तेलुगु देश की स्थापना क्षेत्रीय दलों के विस्तार की प्रक्रिया का सूचक है। दक्षिण के दो बड़े राज्यों में क्षेत्रीय दलों के विस्तार तो लगातार रहा है। ये दो राज्य जैसे तमिलनाडु तथा आंध्र प्रदेश में अधिकतर क्षेत्रीय दलों की ही सरकारें रहीं। कांग्रेस के कमजोर होने से हिन्दी भाषी राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों का विस्तार हुआ । उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य में समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी की भी सरकारें बनी तथा बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की तथा जनता दल (यूनाइटेड) की सरकारें लगातार रही हैं।
क्षेत्रीय दलों का विस्तार क्षेत्रीय तथा स्थानीय विकास के लिए सकारात्मक भी माना जाता है परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर एजेण्डा लागू करने तथा केन्द्र सरकार की स्थिरता के लिए क्षेत्रीय दलों की भूमिका विवाद में भी रही है।
1996 में क्षेत्रीय दलों का संयुक्त मोर्चा भी सरकार में रहा तथा राष्ट्रीय दलों को पहली बार सत्ता से बाहर रहना पड़ा सही तौर पर देखें तो क्षेत्रीय दलों के अपने स्थानीय तथा राज्य स्तरीय लक्ष्य होते है तथा केन्द्रीय स्तर के अधिक विस्तारित लक्ष्य पर ये दल अधिक ध्यान नहीं देते रहे हैं।
1990 के दशक से राष्ट्रीय पार्टियां खुलकर क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने लगीं तथा साथ में सफल सरकार चलाने लगे। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना की सरकार तथा बिहार में भाजपा-जदयू की सरकार का उदाहरण दिया जा सकता है।
1996 के बाद दोनों राष्ट्रीय दल जैसे भाजपा और कांग्रेस ने विभिन्न क्षेत्रीय दलों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने का चलन आरम्भ किया। यह माना जाना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी की अवधारणा गठबंधन से ही आगे बढ़ी तथा कांग्रेस को भी क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन को मजबूर होना पड़ा।
यह सही तथ्य है कि क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। तथा एक बड़े स्तर पर भारतीय संसदीय राजनीति में ऐसे दलों की आवश्यकता है। वर्तमान काल में भारतीय राजनीति में सत्ता दल तथा विपक्षी दलों की आर्थिक नीति एक समान ही है तथा भारत के विकास के लिए लगभग एक ही नीति का सभी दल अनुसरण करते हैं।
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