> हर्षयुगीन इतिहास से सम्बन्धित स्रोत
हर्षचरित—हर्ष के समय के महत्त्वपूर्ण विद्वान् बाणभट्ट द्वारा रचित गद्य रचना है जो आठ उच्छावासों में विभक्त है. भाषा संस्कृत है, जहाँ प्रथम तीन उच्छावासों में बाणभट्ट की आत्मकथा वर्णित है वहीं शेष पाँच उच्छावासों में हर्षवर्द्धन के जीवन चरित व उपलब्धियों के साथ-साथ हर्ष के पूर्वजों के विषय में भी जानकारी सन्निहित है. विशेषकर प्रभाकर वर्द्धन के विषय में अनेक अतिशयोक्तिपूर्ण एवं अनैतिहासिक साक्ष्यों के बावजूद यह ग्रन्थ तत्कालीन भारत की राजनीतिक स्थिति एवं संस्कृति के विवेचन की दृष्टि से उल्लेखनीय कृति है.
कादम्बरी—बाणभट्ट द्वारा विरचित संस्कृत साहित्य की उत्कृष्ट गद्य रचना जिसके दो भाग पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध हैं. प्रथम भाग बाणभट्ट ने लिखा है, जो सम्पूर्ण ग्रन्थ का 2/3 भाग है तथा दूसरा ‘पुलिन्द भट्ट' द्वारा विरचित इस ग्रन्थ में ‘चन्द्रापीड’ तथा ‘कादम्बरी' की प्रणय कथा के साथ-साथ ‘पुण्डरीक’, महाश्वेता, वैश्वम्पायन आदि की कथाएँ भी वर्णित हैं. जाबाल मुनि के आश्रम, प्रकृति के मनोरम दृश्यों के चित्रण के साथ-साथ अलंकारों का सुन्दर संयोजन भी दृष्टव्य है.
आर्य मंजूश्रीमूल कल्प- महायान से सम्बन्धित प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ जिसमें एक हजार श्लोक हैं, इसका सर्वप्रथम प्रकाशन 1925 ई. में ‘गणपति शास्त्री' ने किया. इस ग्रन्थ में सातवीं शताब्दी ई. पू. से लेकर 8वीं शदी तक का इतिहास वर्णित है. हर्ष युगीन इतिहास से सम्बन्धित कुछ घटनाओं/ तथ्यों की जानकारी भी इसमें विहित है, लेकिन उल्लेखनीय है कि हर्ष के लिए केवल 'ह' शब्द प्रयुक्त किया है. अनेक अनैतिहासिक साक्ष्यों के समावेश के बावजूद प्राचीन भारत के विभिन्न शासकों से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण तथ्य इसमें उपलब्ध हैं.
हर्ष की रचनाएँ—(1) रत्नावली— चार अंकों में विभक्त इस नाटक में सिंहल देश की राजकुमारी और 'वत्सराज उदयन' की प्रणयकथा और अन्ततोगत्वा विवाह सम्बन्धी साक्ष्य उल्लिखित हैं.
(2) नागानन्द —5 अंकों में विभक्त इस नाटक में विद्याधर कुमार जीमूतवाहन और सिकृद कन्या 'मलयवन्ति' का प्रणय-वर्णन और द्वितीय भाग में सर्पों की रक्षा हेतु जीमूतवाहन द्वारा स्वयं को गरुड़ के समकक्ष खाने हेतु अर्पित करने की कथा विवेचित है.
(3) प्रियदर्शिका – चार अंकों में विभक्त इस नाटक में वत्सराज उदयन और उदयवर्मा की कन्या प्रियदर्शिका की प्रेमकथा विवेचित है.
ह्वेनसांग और उसका ग्रंथ सी यू- की – ह्वेनसांग के मित्र 'हु-ली' द्वारा विरचित ग्रन्थ 'ह्वेनसांग की जीवनी’ जिसका सर्वप्रथम अंग्रेजी अनुवाद Beal द्वारा प्रस्तुत किया गया. इस ग्रन्थ में हर्षकालीन इतिहास से सम्बन्धित कई महत्वपूर्ण तथ्य विवेचित हैं, क्योंकि यह ग्रन्थ स्वयं ह्वेनसांग द्वारा सुनाए गए संस्मरणों पर आधारित था.
इत्सिंग (671-695 A.D.) — यह एक चीनी यात्री था जिसका मूल ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन अंग्रेजी अनुवाद जापांनी बौद्ध विद्वान् 'तक्कसू’ द्वारा ‘ए रिकॉर्ड ऑफ दी बुद्धिष्ट रिलिजन' नाम से किया गया है.
बाँसखेड़ा ताम्रपत्र – हर्ष से सम्बन्धित ताम्रपत्र जो 1894 ई. में उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले में स्थित बाँसखेड़ा नामक स्थान से मिला जिसमें हर्ष सम्वत् 22 (628A.D.) तिथि अंकित है. इससे ज्ञात होता है कि हर्ष ने ‘अहिछत्र भुक्ति' के अंग विषय के मर्कत सागर को बालचन्द्र और भट्टस्वामी नामक दो भाइयों को दान में दिया. इसी अभिलेख में हर्ष के पूर्वजों के साथ राज्यवर्द्धन द्वारा मालवराज देवगुप्त पर विजय तथा गौड़ शासक शशांक द्वारा उसकी हत्या की जानकारी मिलती है.
मधुबन ताम्रपत्र – उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की घोषी तहसील में स्थित स्थल जहाँ से हर्ष संवत् 25 (631A.D.) से अंकित ताम्रपत्र मिला है, जिसमें हर्ष द्वारा श्रावस्ती भुक्ति के सोमकुण्डा ग्राम को दान देने का उल्लेख है, जबकि अन्य तथ्य बाँसखेड़ा ताम्रपत्र के सदृश ही हैं. उल्लेखनीय है कि बाँसखेड़ा ताम्रपत्र हर्ष के हस्ताक्षर युक्त है. वे साक्ष्य जो कालान्तर में हर्ष की बौद्ध धर्म के प्रति निष्ठा के परिचायक हैं
1. कन्नौज के धार्मिक सम्मेलन में बुद्ध प्रतिमा को शोभा यात्रा के अवसर पर न केवल सबसे आगे रखा गया है, बल्कि यहाँ हुए वाद-विवाद में बौद्ध धर्म के प्रति यहाँ हुआ रुझान दृष्टिगत होता है.
2. कश्मीर के शासक से बलपूर्वक बुद्ध के दाँत के अवशेष प्राप्त करना.
3. ह्वेनसांग द्वारा इस तथ्य का उल्लेख कि हर्ष ने गंगा के तट पर हजारों स्तूपों का निर्माण करवाया था.
4. प्रयाग की महामोक्ष परिषद् ने सर्वोच्च स्थान बौद्ध धर्म और उसके अनुयायियों को दिया.
5. नालन्दा विश्वविद्यालय जैसा महत्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र हर्ष द्वारा प्रदत्त दान से चलता था, जो बौद्ध शिक्षा की दृष्टि से अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण था.
> कन्नौज का धार्मिक सम्मेलन ( अधिवेशन )
हर्ष के शासनकाल की महत्वपूर्ण घटना थी जिसका आयोजन 643 A.D. में किया गया. इस महती धर्म-सम्मेलन में 18 देशों के राजा, 3 हजार महायानी व हीनयानी भिक्षु, 300 ब्राह्मण एवं निर्गंथ एवं एक हजार नालन्दा विहार के भिक्षु उपस्थित थे. अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य विभिन्न धार्मिक मतावलम्बियों के मध्य पारस्परिक संवाद था, जिसमें महायान की उत्कृष्टता स्वीकार की गई. महायान की ओर से प्रमुख वक्ता के रूप में ह्वेनसांग ने भाग लिया था जिसे विजयी घोषित किया गया और साथ ही 'महायान देव' तथा ‘महामोक्ष देव' की उपाधि से अलंकृत किया गया.
> प्रयाग की महामोक्ष परिषद्
ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि हर्ष ने अपने शासन के प्रति 5वें वर्ष में प्रयाग में एक विशाल सम्मेलन आयोजित करता था जिसे महामोक्ष परिषद् कहा गया है. ह्वेनसांग जिस सम्मेलन में उपस्थित हुआ वह हर्ष के शासनकाल का छठा सम्मेलन था, जो गंगा-यमुना के संगम पर 644 A.D. में आयोजित किया गया. इस सम्मेलन में दक्षिण भारतीय शासक ध्रुव भट्ट और असम के भास्करवर्मन के साथ-साथ अन्य अनेक शाही लोग भी उपस्थित थे. इस सम्मेलन में उपस्थित लगभग 5,00,000 लोगों में श्रमण, साधु, नीरग्रन्थी, गरीब, अनाथ, असहाय लोग सम्मिलित थे. इस सम्मेलन के दौरान दान-दक्षिणा का कार्यक्रम 75 दिन गंगा के मैदान में चला.
सम्मेलन के प्रथम दिन बुद्ध की दूसरे दिन सूर्य की और तीसरे दिन शिव की पूजा की गई और मुक्त हस्त से दान दिया गया. चौथे दिन केवल बौद्ध भिक्षुओं को दान दिया गया. अगले बीस दिन हर्ष द्वारा केवल ब्राह्मणों को दान दिया गया. उसके अगले दस दिन साधुओं को दान दिया गया. इन
साधुओं में जैन धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों के साधु थे. इसके पश्चात् भिखारियों, गरीबों, अनाथों एवं असहायों को दान दिया गया. इस सम्मेलन में हर्ष द्वारा दान इस हद तक दिया गया कि उसके राजसी वस्त्र तक दान में चले गए.
यह महामोक्ष परिषद् हर्ष की दानशीलता के लिए जानी जाती है.
> हर्ष के समय के प्रसिद्ध विद्वान्
बाणभट्ट, भूषण भट्ट, उद्योतकर एवं मयूर (सूर्यशतक एवं अष्टक) रचनाएँ हैं.
> नालन्दा विश्वविद्यालय
बिहार में राजगिरि से 10 किमी दूरी पर आज जहाँ बेड़गाँव है. वहीं प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण शिक्षण केन्द्र नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष मिले हैं. ह्वेनसांग ने इस विश्वविद्यालय के संस्थापक के रूप में शंकरादित्य ( कुमारगुप्त I) का उल्लेख किया है, लेकिन शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा हर्ष के समय में ज्ञात होती है. इस विश्वविद्यालय में चीन, कोरिया, तिब्बत, तुखार आदि से विद्यार्थी अध्ययन आते थे जिनकी शिक्षा की निःशुल्क व्यवस्था थी. ह्वेनसांग के समय यहाँ 10,000 विद्यार्थी तथा 1510 शिक्षक थे तथा उपकुलपति प्रसिद्ध विद्वान् आचार्य शीलभद्र थे. जीवनी के अनुसार यहाँ के पाठ्यक्रम में महायान के अतिरिक्त अन्य बौद्ध सम्प्रदायों, हेतु विद्या, शब्द विद्या, चिकित्सा, अथर्ववेद, सांख्य आदि का अध्ययन, अध्यापन शामिल था. विश्वविद्यालय में एक विशाल पुस्तकालय था जिसे 'धर्मयज्ञ' कहते थे, जिसके तीन भाग थे -
(i) रत्नोदधि.
(ii) रत्न सागर.
(iii) रत्नरंजक.
ह्वेनसांग नालन्दा विश्वविद्यालय में 637 ई. में पहुँचा, जहाँ उसने दो वर्ष तक अध्ययन किया. अध्ययन के प्रति उसकी निष्ठा के कारण वहाँ से जाने पर नालन्दा के भिक्षु 'प्रज्ञादेव' ने यहाँ के विद्यार्थियों की ओर से एक जोड़ी वस्त्र भी भिजवाए थे.
> नालन्दा विश्वविद्यालय के संरक्षक शासक
(i) नरसिंहगुप्त बालादित्य
(ii) कुमारगुप्त-II
(iii) वेन्यगुप्त
(iv) मौखरि शासक अवन्तिवर्मन
(v) हर्षवर्धन.
> हर्ष का साम्राज्य विस्तार
गुप्त साम्राज्य के बाद हुई राजनीतिक विशृंखलता एवं विखण्डन को समाप्त कर हर्ष ने उत्तरी भारत को पुनः एक सूत्र में आबद्ध करने का महती कार्य किया. जहाँ एहोल प्रशस्ति में उसे 'सकलोत्तरपथनाथ' कहा गया है वहीं हर्षचरित में ‘चतुः समुद्राधिपति' तथा 'सर्व चक्रवर्ती नाम धौरेय' से विभूषित किया गया है.
लेकिन स्पष्ट तथ्यों के अभाव में हर्ष साम्राज्य विस्तार का सही रेखांकन विवादास्पद है. जहाँ बी. एन. शर्मा ने अपने ग्रन्थ ‘हर्ष एण्ड हिज टाइम्स' में समग्र उत्तरी भारत जिसमें कश्मीर व नेपाल भी सम्मिलित थे उसके आधिपत्य में स्वीकार किया है, तो देवाहुति अपने ग्रन्थ 'Harsh a Political Study' में इससे सहमत नहीं हैं. अन्य इतिहासविदों ने भी इस सन्दर्भ में अलग-अलग मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं. अतः उसके साम्राज्य विस्तार का वास्तविक अंकन करने के लिए प्राप्त साक्ष्यों का सम्यक् विश्लेषण आवश्यक है.
बाणभट्ट ने हर्ष द्वारा गौड शासक को पराजित करने की प्रतिज्ञा एवं विभिन्न अहंकारी शासकों के उन्मूलन की बात तो कही है, लेकिन किन राज्यों और शासकों को पराजित किया इसका उल्लेख नहीं किया. ह्वेनसांग, हर्ष की पूर्व की ओर बढ़कर पञ्चभारत की विजय और अविरत छः वर्षों तक युद्ध का उल्लेख तो करता है, लेकिन विभिन्न राज्यों का नाम तक नहीं लिखा है.
ऐसा प्रतीत होता है कि हर्ष 619 ई. तक शशांक को पराजित तक नहीं कर सका, क्योंकि इस समय के गंजाम अभिलेख में उसके पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ शासन करने का उल्लेख है. अतः सम्भावना यह है कि शशांक की के मृत्यु बाद उसके साम्राज्य के कांगोद तक के क्षेत्र हर्ष के साम्राज्य में आ गए जिसमें मगध और पश्चिमी बंगाल के भू-भाग भी सम्मिलित थे तथा पूर्वी भाग कामरूप के शासक 'भास्कर वर्मा' के अधिकार क्षेत्र में रहा.
मा-त्वान-लिन ने शिलादित्य की मगध राज की उपाधि का उल्लेख किया है जिससे भी मगध पर उसके अधिकार की पुष्टि होती है.
बाँसखेड़ा व मधुबन ताम्रपत्रों एवं सिक्कों की प्राप्ति के आधार पर अहिछत्र एवं श्रावस्ती के क्षेत्र उसके अधिकार में ज्ञात होते हैं, तो थानेश्वर एवं कन्नौज राज्याधिकार के साथ ही उसके साम्राज्य में सम्मिलित थे. ह्वेनसांग ने वल्लभी के शासक ‘ध्रुवसेन II’ की हर्ष द्वारा पराजय का उल्लेख किया है.
लेकिन बाद में अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिए. सम्भावना यह है कि 'पुलकेशिन II' एवं गुर्जर नरेश दद्दा II की प्रतिद्वन्द्विता के विरुद्ध यह एक कूटनीतिक कदम था.
इस समय दक्षिण भारत में चालुक्य शासक पुलकेशिन II का राज्य था. हर्ष द्वारा मध्य एवं पश्चिमी भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने के प्रयास में उसके साथ नर्मदा तट पर युद्ध किया और उसका राज्य दक्षिण में नर्मदा घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया.
इन साक्ष्यों के प्रकाश में हर्ष के साम्राज्य में 'थानेश्वर' (हरियाणा), दिल्ली, पंजाब, राजस्थान के कुछ भाग, कन्नौज, अहिछेत्र एवं श्रावस्ती ( रामनगर - बरेली), मगध, पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा में कांगोद तक का क्षेत्र सम्मिलित था. जिसकी दक्षिणी सीमा नर्मदा घाटी तक स्वीकार्य है.
> हर्ष का धर्म
ऐसा माना जाता है कि हर्ष के तीन पूर्वज शिव के उपासक थे. बाँसखेड़ा और मधुबन अभिलेखों में हर्ष ने स्वयं को परम महेश्वर और शिवभक्त कहा है. 631 ई. तक हर्ष शिवभक्त ही बना रहा बाद में ह्वेनसांग और बहन राजश्री के प्रभाव से बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुआ. कन्नौज असेम्बली में हर्ष ने बौद्ध भिक्षुओं के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया. हर्ष के बौद्ध धर्म के प्रचारक होने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं. उसने बौद्ध धर्म अपनाने के बावजूद सार्वजनिक स्थलों पर सूर्य और शिव की पूजा करना बरकरार रखा और ब्राह्मणों को मुक्त हस्त से दान दिया.
इससे स्पष्ट है कि हर्ष ने हालांकि बाद में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था, लेकिन उसने अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता की नीति अपनाए रखी थी.
> ह्वेनसांग की भारत यात्रा का विवरण
ह्वेनसांग चीनी बौद्ध यात्री था जो भारत में बुद्ध की लीला भूमि एवं अन्य बौद्ध तीर्थस्थलों के दर्शन करने तथा बौद्ध धर्म से सम्बन्धित मूल ग्रन्थों के अध्ययन करने व संगठन करने की इच्छा से 629 A.D. में भारत आया. इसका यात्रा विवरण 'सी-यू- की' हर्षयुगीन जीवन के विभिन्न पक्षों का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्रोत है.
चीन से प्रस्थान के बाद मार्ग में विभिन्न कठिनाइयों एवं बाधाओं का साहस के साथ सामना करते हुए यह चीनी यात्री तुर्फान कूचा, समरकन्द, काबुल, पेशावर और कश्मीर होते हुए पंजाब के मार्ग से थानेश्वर पहुँचा, जहाँ जयगुप्त नामक बौद्ध विद्वान् से बौद्ध धर्म का अनुशीलन किया. बाद में थानेश्वर से मथुरा होता हुआ कन्नौज पहुँचा, जहाँ उसका हर्ष ने स्वागत किया.
कन्नौज से अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, वाराणसी, सारनाथ एवं वैशाली होता हुआ पाटलिपुत्र पहुँचा, उसके विवरण से ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र का प्राचीन गौरव एवं वैभव लुप्तप्रायः हो चुका था. यहाँ से वह बौद्धगया गया. वहाँ से ह्वेनसांग ने नालन्दा की ओर प्रस्थान किया जो इस समय शिक्षण केन्द्र के रूप में सुविज्ञ था.
उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में न केवल अध्ययन किया, बल्कि जागरूक अध्येता के रूप में उसकी ख्याति सुस्थापित हुई. नालन्दा से कामरूप ताम्रलिप्ति, उड़ीसा होता हुआ दक्षिणी भारत में कांचीपुरम् पहुँचा जो उस समय शिक्षा का अन्य महत्वपूर्ण केन्द्र था. उसने कुछ समय वहाँ अध्ययन भी किया. बाद में उसने कन्नौज एवं प्रयाग के सम्मेलनों में भाग लिया. 644 A.D. में हर्ष से आज्ञा लेकर जालन्धर के शासक ‘उदित' की सहायता से भारतीय सीमा पार कर गया, जहाँ से गजनी, काशगर, खोतान होता हुआ चीन पहुँचा, लौटते समय अपने साथ 657 हस्तलिखित बौद्ध ग्रन्थ, 150 बुद्ध के अवशेष एवं प्रतिमाएँ ले गया.
> ह्वेनसांग द्वारा विवेचित तत्कालीन भारत का विवरण
ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा के विविध स्थलों के अतिरिक्त विवेचन प्रस्तुत तत्कालीन जीवन के विभिन्न पक्षों का किया है. राजनीतिक जीवन के सन्दर्भ में उसने यहाँ के शासक के रूप में हर्ष ( शीलादित्य) का उल्लेख किया है तथा उसके शासन की अत्यधिक प्रशंसा की है. वह लिखता है कि सम्राट स्वयं परिश्रमी था जो समय-समय पर राज्य के विभिन्न भागों का दौरा करते हुए शासन कार्य को देखता था. प्रजा के हित के लिए तत्पर तथा करीब 2/3 समय धार्मिक कार्यों में व्यतीत करता था.
दिलचस्प बात यह है कि वह राज्य में विद्रोह एवं आपराधिक कार्यों का अभाव बताता है, जबकि स्वयं दो बार लूट लिया गया था. राज्य के विरुद्ध विद्रोह की स्थिति में मृत्युदण्ड अथवा राज्य निर्वासन का उल्लेख है. अंग-भंग के साथ-साथ अपराधों को स्वीकार करने के लिए दिव्य की परम्परा को उल्लिखित किया है. राज्य की आय मुख्यतः धार्मिक, राजकीय विद्वानों की सहायता एवं दान-पुण्यों के कार्यों में खर्च होती थी. सेना में स्थाई सैनिक 6 लाख, हाथी, 60,000 हजार व अश्वसेना एक लाख थी.
धार्मिक स्थिति के सन्दर्भ में उल्लेख किया है कि हर्ष बौद्ध धर्म का कट्टर समर्थक एवं अनुयायी था, लेकिन हिन्दू धर्म अधिक लोकप्रिय था. उसने भारत को ब्राह्मणों का देश कहा है. ब्राह्मण धर्म के अन्तर्गत यज्ञ, अनुष्ठान, मूर्तिपूजा, मन्दिर निर्माण आदि की परम्परा प्रचलित थी. बौद्ध धर्म अपेक्षाकृत पतनोन्मुख था. लेकिन मठ और विहार उसकी सक्रियता के केन्द्र थे. जैन धर्म भी पतनोन्मुख था यद्यपि वैशाली और पुण्ड्रवर्धन तथा समतट में इसका विशेष प्रचलन था. आर्थिक दृष्टि से वह देश की समृद्ध बताता है. सोनेचाँदी के सिक्कों का प्रचलन था, लेकिन सामान्यतः विनिमय में कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था. कृषि विकसित स्थिति में थी. विभिन्न प्रकार के फल, अन्न, सब्जियों का पर्याप्त उत्पादन होता था. रेशम, ऊन एवं सूती वस्त्र निर्माण भी आर्थिक जीवन का उल्लेखनीय पक्ष था, हाथीदाँत और रत्नों के साथ-साथ आभूषण निर्माण के लिए यह मोती, माणिक व हीरों के प्रयोग की बात करता है. प्राचीन नगर व उनकी समृद्धि धूमिल हो गई थी और पाटलिपुत्र का स्थान कन्नौज ने ले लिया था, जिसके विषय में वह लिखता है कि उसके भवन, ऊँचे, सुन्दर उद्यान एवं तालाब स्वच्छ हैं और सभी दुर्लभ वस्तुएँ यहाँ प्राप्त हैं. 'ताम्रलिप्ति' एवं ‘कपीसा’ जैसे बन्दरगाहों का उल्लेख किया है, जहाँ से विदेशों के साथ व्यापार होता था.
कपड़ा, चन्दन की लकड़ी, जड़ी-बूटी, गर्म मसाले, मोती एवं हाथीदाँत की वस्तुएँ निर्यात होती थीं और सोना, चाँदी, हींग, घोड़े एवं धूप आदि का आयात होता था. सामाजिक व्यवस्था के प्रसंग में उसने बताया कि कि मध्य प्रदेश में चार वर्ग थे ब्राह्मण जो पवित्र आचार-विचार वाले थे.
क्षत्रिय – जो युगों से शासन कर रहे थे, वैश्य-व्यापार एवं व्यवसाय से सम्बन्धित थे. ह्वेनसांग ने इनकी दानशीलता एवं उदारता की प्रशंसा की है. चौथा वर्ग शूद्रों का था जो कृषि कार्यों से सम्बन्धित था. कठोर वर्ण-व्यवस्था और जनसामान्य का जीवन सात्विक एवं सरल था. मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन का परहेज था तथा इसका सेवन करने वाले को नगर से बाहर रहना पड़ता था. लोगों का नैतिक जीवन उच्च था.
> हर्ष का प्रशासन
हर्ष ने गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद न केवल उत्तरी भारत को एक सूत्र में आबद्ध करने का महती कार्य किया, अपितु साम्राज्य के सफल संचालन हेतु कुशल प्रशासन तंत्र की भी स्थापना की.
हर्ष का शासन जनहित के आदर्श एवं लक्ष्य से अनुप्राणित था. ह्वेनसांग ने हर्ष का उल्लेख एक आदर्श एवं लोकोपकारी शासक के रूप में किया है. जहाँ वह न केवल स्वयं राज्य के विभिन्न भागों का दौरा कर जन-समस्याओं के समाधान का प्रयास करता था, बल्कि उसके लिए समर्पित भी था. प्रयाग की 'महामोक्ष परिषद्' उसकी दानशीलता का महत्वपूर्ण प्रमाण है.
साम्राज्य का केन्द्र बिन्दु स्वयं सम्राट था, जो महाराजाधिराज, एकाधिराज, परमभट्टारक, चक्रवर्ती, परमेश्वर आदि कई उपाधियों को धारण करता था. विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति, सैन्य संचालन, न्याय व विविध विभागों की देखभाल उसका मुख्य दायित्व था. उसके अधीन राजा, महाराजा अथवा महासामन्त होते थे, जो समय-समय पर उसकी राज्यसभा एवं समारोहों में सम्मिलित होते थे तथा अवसर पड़ने पर उसकी सहायता करते थे.
शासन-कार्य में उसकी सहायता हेतु मन्त्रिपरिषद् होती थी. ह्वेनसांग के अनुसार पोनी के नेतृत्व में कन्नौज के मन्त्रियों एवं राजनीतिज्ञों ने हर्ष को कन्नौज का राजमुकुट धारण करने के लिए आमन्त्रित किया था. सुविधा के लिए शासन कई विभागों में बँटा था, जिसके अलग-अलग पदाधिकारी होते थे—
(i) संधिविग्रहिक—युद्ध, संधि एवं विदेश विभाग.
(ii) अक्षयपटलिक– सरकारी कागज-पत्रों की देखभाल करने वाला.
(iii) सेनापति – सेना का प्रधान.
(iv) मीमांशक – न्यायाधीश अथवा कानून की व्याख्या करने वाला.
(v) महाप्रतिहार – राजप्रसाद की रक्षा करने वाला.
(vi) भौगिक – उपज का. राजकीय भाग वसूलने वाला.
(vii) कर्णिक – लेखा-जोखा रखने वाला.
(viii) दीर्घाध्वज —–तीव्रगामी सन्देशवाहक.
> पुलिस विभाग से सम्बन्धित अधिकारियों में ‘दण्डपाशिक', 'चौरोद्धर्णिक' एवं 'दण्डिक' ज्ञातव्य है.
हर्ष के प्रशासन में ग्राम प्रशासन का विशेष उल्लेख हुआ है, जहाँ विभिन्न ग्राम अधिकारियों का उल्लेख मिलता है.
(i) शौकिक – चुंगी या शुल्क वसूल करने वाला.
(ii) गौनिक – वनों-उपवनों की देखभाल करने वाला.
(iii) अंग्रहारिक – ब्राह्मणों को दान में दिए गए गाँवों की देखभाल करने वाला.
(iv) ध्रुवाधिकरण – भूमिकर का अध्यक्ष.
(v) तलवक— गाँव का लेखा-जोखा रखने वाला.
ये विभिन्न अधिकारी गाँवों की भूमि के क्रय-विक्रय अधिकार, हस्तान्तरण, आय, दान आदि के निरीक्षण, प्रबन्धन एवं लेखा-जोखा के लिए उत्तरदायी थे.
> हर्ष प्राचीन भारत का अन्तिम महान् हिन्दू सम्राट
गुप्त साम्राज्य के विघटन के बाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर छोटे-छोटे राज्यों का आविर्भाव एवं अभ्युदय दृष्टिगत होता है. जिन्हें पुष्यभूति राजवंश ( अभिलेखों में वर्द्धन) के महत्वपूर्ण शासक हर्षवर्द्धन ने पराजित कर उत्तरी भारत को एक सूत्र में आबद्ध करने का महती कार्य किया. पुलकेशियन II की एहौल प्रशस्ति में उसे 'सकलोतरपथनाथ' तथा बाणभट्ट के हर्षचरित में 'चतुः समुद्धाधिपति' के रूप में विहित किया गया है.
यह सत्य है कि जिस समय हर्ष सिंहासन पर आसीन हुआ, अल्पायु था और साथ ही विभिन्न विपत्तियों से घिरा भी हूणों आक्रमण का खतरा, अनुभवी प्रभाकर वर्धन की मृत्यु, गृहवर्मा की हत्या, राज्यश्री का वैधव्य, अपने अग्रज राज्यवर्धन की छदम् हत्या एवं शशांक के आक्रमण की आशंका आदि ने उसके लिए विकट एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ . उत्पन्न कर दी थीं.
लेकिन हर्ष ने धैर्य, साहस एवं योग्यता का परिचय देते हुए न केवल अपने पैतृक राज्य की रक्षा की, अपितु उसे एक विस्तृत साम्राज्य के रूप में परिवर्तित एवं प्रतिष्ठित किया, जिसमें हरियाणा, पंजाब, राजस्थान के कुछ भू-क्षेत्रों के अतिरिक्त, उत्तर प्रदेश, बिहार, प. बंगाल एवं उड़ीसा में कांगोद तक के क्षेत्र के साथ-साथ दक्षिण में नर्मदा घाटी तक इसका विस्तार था. श्री कंठ 'जनपद' के एक छोटे से राज्य का यह विस्तार उसे महान् विजेता के रूप में प्रस्तुत करता है. यह सही है कि उसे चालुक्य शासक पुलकेशिन II से पराजित होना पड़ा, लेकिन इस पराजय से उसे कोई राजनीतिक क्षति नहीं हुई, चाहे दक्षिण में राज्य विस्तार सम्भव नहीं हो पाया.
प्रशासनिक प्रतिभा एवं जनसामान्य के हित व कल्याण के लिए उसका समर्पण, कामरूप के शासक भास्कर वर्मा तथा वल्लभी शासक ध्रुवसेन II के साथ मैत्री सम्बन्धों में कूटनीतिक दक्षता, साहित्यकारों को प्रश्रय, रत्नावली, नागानन्द, प्रियदर्शिका जैसे नाटकों का सृजन, बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किए गए प्रयास, लेकिन अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुतापूर्ण नीति, सचमुच ही में हर्ष की महानता के प्रतीक हैं.
उसने गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्पन्न राजनीतिक अराजकता एवं अव्यवस्था (विशृंखलता) का अन्त कर देश के राजनीतिक एकीकरण के साथ-साथ देश के सांस्कृतिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त किया.
लेकिन यह कहना तर्कसंगत नहीं है कि वह प्राचीन भारत का अन्तिम महान् सम्राट था उसके बाद भी प्रतिहार शासक मिहिरभोज एवं महेन्द्रपाल, चोल शासक राजराज-I, राजेन्द्र प्रथम ने न केवल विस्तृत साम्राज्यों का निर्माण किया, बल्कि सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से उनका महत्व हर्ष से कम नहीं था.
> प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति
जहाँ तक प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति का प्रश्न है समय-समय पर परिवर्तित होती रही है. साथ ही तत्कालीन साहित्य में उसके महत्व एवं समाज व्यवस्था में उसकी अपरिहार्यता को लेकर विरोधी विचार एवं दृष्टिकोण अभिव्यक्त हुआ है. जहाँ एक ओर ‘शतपथ ब्राह्मण' में उसके बिना पुरुष को अपूर्ण एवं अधूरा समझा गया है. महाभारत में स्नेह एवं सन्तान से ही उसकी पूर्णता मानी गई है और वृहत् संहिता में उसको श्री तथा लक्ष्मी के रूप में मानव जीवन का सुख-समृद्धि से दीप्ति करने वाली कहा गया है, तो दूसरी ओर महाभारत में ही उल्लिखित है कि यदि कोई व्यक्ति स्त्रियों के दोषों को सौ वर्षों तक सौ जिह्वाओं से भी गिनाता रहे, तो वह उसके दोषों का बखान पूरा किए बिना ही मर जाएगा. बुद्ध तक ने यह स्वीकार किया है कि जिस प्रकार पाला पड़ने से फसल नष्ट हो जाती है उसी प्रकार स्त्रियों के प्रवेश से धर्म नष्ट हो जाता है.
ये कथन समाज-व्यवस्था में उसकी परिवर्तित स्थिति को इंगित करते हैं. वस्तुतः वैदिक युग से लेकर पूर्व मध्य युग तक उसकी स्थिति में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे और उसके अधिकारों में तद्नुरूप परिवर्तन भी होता रहा. वैदिक युग में अपेक्षाकृत उसकी स्थिति उन्नत और परिष्कृत थी. न केवल उसके स्वतन्त्रतापूर्वक शिक्षा प्राप्ति और विचरण का उल्लेख ज्ञातव्य है, बल्कि पारिवारिक, सामाजिक एवं याज्ञिक कार्यों की सम्पन्नता में उसकी सहभागिता दृष्टिगत होती है, लेकिन कालान्तर में कर्मकाण्डों की जटिलता, याज्ञिक शुद्धता और पवित्रता, इनके लिए पुत्र की अपरिहार्यता के कारण इसकी स्थिति दयनीय होती गई.
स्त्रियों की इस दयनीय स्थिति के स्वर सूत्रों एवं स्मृतियों में मुखर हुए हैं. उन्हें निःसहाय, निर्बल और परतन्त्र माना गया, उन पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध भी लगा दिए गए. स्त्री धर्म को छोड़कर उनके साम्पत्तिक अधिकार भी अस्वीकार्य हुए. मनुस्मृति में उल्लेख है कि कन्या, पत्नि एवं माता जैसी स्थिति में वे क्रमशः पिता, पति और पुत्र द्वारा नियन्त्रित एवं संरक्षित है .
गुप्त युग में बृहस्पति एवं कात्यायान स्मृति में अंशतः उसके साम्पत्तिक अधिकार को स्वीकार किया गया. शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा एवं शाक्त धर्म के प्रभाव के कारण गौरी व भवानी के रूप में उसके महत्व सम्बन्धी साक्ष्यों के वाबजूद व्यवहार में उसकी दयनीय स्थिति का संकेत मिलता है. पिता उसके प्रति दायित्व भाव से बोझिल एवं संतृस्त होता रहा. हर्षचरित में उल्लेखित है कि कन्या किसी अनागत वर की धरोहर है, जिसको उसे प्रत्यर्पित करना है. साथ ही सती प्रथा, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा जैसी प्रथाएँ भी उसकी दयनीय स्थिति की 'परिचायक' हैं.
पूर्वमध्य काल तक आते-आते उस पर नियन्त्रण और कठोर हो गये तथा उस पर पुरुष का पूर्ण एकाधिकार मान लिया गया. धर्म और समाज की रक्षा के नाम पर स्त्रियों को सुरक्षित रखने के लिए अनेक ऐसी व्यवस्थाओं का नियमन हुआ जिसके बन्धन में उसका व्यक्तित्व सिमट कर रह गया.
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