गांधी काल (1920-47 ई.)

गांधी काल (1920-47 ई.)

गांधी काल (1920-47 ई.)

> भारतीय राजनीति में गांधी का प्रवेश
अफ्रीका से भारत लौटने के बाद गांधीजी ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों का अत्यधिक सहयोग किया तथा इसी युद्ध के दौरान गांधीजी ने पूरे देश का भ्रमण कर देश की वास्तविक स्थिति का पता लगाया.
इस समय गांधीजी उदारवादी थे और अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास करते थे. 1917 ई. में बिहार प्रान्त के चम्पारण जिले में निलहों के अत्याचार से किसानों को बचाने के लिए गांधीजी ने ‘कर नहीं दो आन्दोलन' चलाया और वे इसमें सफल रहे. अहमदाबाद में मजदूरों की वेतन वृद्धि के लिए आमरण अनशन किया तथा इसमें भी वे सफल रहे. इससे गांधीजी के 'सत्याग्रह' के विचार को काफी जनसमर्थन मिला और यह असहाय तथा निरीह भारतीयों के लिए एक सबल और कारगर अस्त्र बन गया. इस प्रकार गांधीजी की लोकप्रियता दिन-रात बढ़ने लगी. इसका लाभ उठाकर गांधीजी ने 1919 ई. के अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन में मोण्ट फोर्ड योजना को पास करवा दिया.
1919 ई. में देश में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई, जिससे अंग्रेजों के सहयोगी गांधीजी उनके सबसे बड़े शत्रु बन गए, जिसके निम्नलिखित कारण थे—
(1) रोलेट ऐक्ट – 1918 ई. में सर सिडनी रोलेट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर यह जाँच का कार्य सौंपा गया कि भारत में किस प्रकार से क्रान्तिकारी षड्यन्त्र फैले हुए हैं तथा उनका दमन किस प्रकार से किया जाए. सर सिडनी रोलेट की सिफारिश पर 6 फरवरी, 1919 ई. को बिल पारित करके 'रोलेट एक्ट' बना और यह तीन वर्षों के लिए लागू किया गया.
इस कानून के अनुसार, किसी भी व्यक्ति पर सरकार बिना मुकदमा चलाए नजरबन्द करके उसके मुकदमे का फैसला कर सकती है. इसे 'काला कानून' की संज्ञा दी गई गैर इसके विरोध में सर्वत्र प्रदर्शन हुए.
इस पर गांधीजी ने इस कानून का विरोध करने का निश्चय किया और जनता को सत्य और अहिंसा के आधार पर इसका विरोध करने को कहा. अंग्रेजी सरकार ने गांधीजी को दिल्ली एवं पंजाब में हो रहे प्रदर्शनों के कारण उनके वहाँ प्रवेश पर रोक लगा दी, फिर भी गांधीजी दिल्ली गए जिस पर उन्हें पलवल स्टेशन पर गिरफ्तार कर बम्बई भेज दिया गया. इससे जनता में उत्तेजना फैल गई तथा कई स्थानों पर दंगे हो गए. इस कानून के तहत पंजाब में डॉ. सैफुद्दीन किचलू तथा डॉ. सत्यपाल मलिक को गिरफ्तार कर कहीं अन्यत्र भेज दिया गया. इससे समूचे पंजाब में प्रदर्शन हुआ.
(2) जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड-13 अप्रैल, 1919 ई. के दिन पंजाब के अमृतसर नगर में जलियाँवाला बाग में रोलेट एक्ट के तहत् गिरफ्तार किचलू व डॉ. सत्यपाल की रिहाई के लिए जनता एकत्र होकर सभा कर रही थी. जनरल डायर ने लगभग 100 भारतीय सिपाहियों के साथ इस सभास्थल में प्रवेश किया तथा सिपाहियों को बिना किसी पूर्व चेतावनी के सभा पर गोली चलाने का आदेश दे दिया. इससे अनेक स्त्री, बच्चे व पुरुष मारे गए. सरकारी आँकड़ों के अनुसार, लगभग 1,650 फायर किए गए और 379 लोग मारे गए. जनरल डायर के अनुसार, यह कार्य समूचे पंजाब में खौफ फैलाने के लिए किया गया था. पंजाब के इस भीषण हत्याकाण्ड की प्रत्येक जगह प्रतिक्रिया हुई. महात्मा गांधी ने इस हत्याकाण्ड पर अंग्रेजी सरकार के शासन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि “अंग्रेज का शासन शैतान का शासन है, अब इससे किसी भी प्रकार का सहयोग सम्भव नहीं.” उन्होंने अपनी ‘केसर-ए-हिन्द' की उपाधि अंग्रेजी सरकार को वापस लौटा दी. उनकी ही राह पर चलते हुए रबीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी 'सर' की उपाधि वापस कर दी.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि गांधीजी जो अंग्रेजी सरकार के प्रबल समर्थक थे, परिस्थितियों के कारण अंग्रेजी सरकार के सबसे बड़े शत्रु बन गए.
> असहयोग आन्दोलन गांधीजी द्वारा क्यों प्रारम्भ किया गया ? आन्दोलन के स्वरूप व उसके परिणामों की व्याख्या कीजिए.
कारण – असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद से ही बननी प्रारम्भ हो गई थी, क्योंकि इस युद्ध में आत्म-निर्णय के सिद्धान्त (Principal of self determination) का प्रतिपादन हुआ था. इस आधार पर कांग्रेस ने जो इस युद्ध में अंग्रेज सरकार की सहायक रही थी, ने भी आत्म निर्णय के अधिकार की माँग की जिसे सरकार द्वारा ठुकरा दिया जाने पर कांग्रेस के पास आन्दोलन के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रहा. इस आन्दोलन को प्रारम्भ करने के पीछे विश्व युद्ध के दौरान उपजा आर्थिक असन्तोष भी एक उल्लेखनीय कारण था. अनेक उपयोगी और आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया तथा चोरबाजारी बढ़ गई. सरकार ने उसे रोकने के कोई उपाय नहीं किए. इसके साथ ही हैजा, प्लेग जैसी महामारियों के फैलने से जनता की दशा और अधिक दयनीय हो गई.
इन कारणों के अतिरिक्त मोण्ट फोर्ड सुधार की अपर्याप्तता, रोलेट एक्ट एवं जलियाँवाला बाग जैसे कारण असहयोग आन्दोलन के लिए उत्तरदायी थे.
कार्यक्रम – असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम में तीन प्रमुख बातें थीं – 
(1) कौंसिलों का बहिष्कार,
(2) न्यायालयों का बहिष्कार,
(3) विद्यालयों का बहिष्कार.
इन प्रमुख तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस आन्दोलन में निम्नलिखित बातों पर जोर दिया गया -
1. सरकारी उपाधियों का त्याग एवं अवैतनिक पदों का बहिष्कार.
2. स्थानीय संस्थाओं के मनोनीत सदस्यों द्वारा त्यागपत्र. 
3. सरकारी मीटिगों व उत्सवों का बहिष्कार.
4. वकीलों एवं बैरिस्टरों द्वारा अदालतों का बहिष्कार.
5. भारतीय मजदूरों एवं सैनिकों द्वारा इराक तथा अन्य स्थानों पर काम करने की अस्वीकृति.
6. सुधार के बाद सीमित व्यवस्थापिका सभाओं का बहिष्कार.
7. विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार.
इस कार्यक्रम के अतिरिक्त इसमें निम्नलिखित रचनात्मक कार्यक्रम भी सम्मिलित थे – 
1. स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं उनका प्रचार.
2. राष्ट्रीय स्कूलों एवं कॉलेजों की स्थापना एवं उनमें शिक्षा प्राप्ति.
पंचायतों की स्थापना और पारस्परिक मुकदमों को सरकारी अदालतों में न ले जाकर पंचायतों में ले जाना.
4. हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा अस्पृश्यता के निवारण का प्रयास.
सितम्बर 1920 ई. में इलाहाबाद की बैठक में खिला फत कमेटी व कांग्रेस ने मिलकर इस आन्दोलन को करने का निश्चय किया गया. एनी बेसेण्ट ने इसका विरोध किया, फिर भी दिसम्बर 1920 ई. के नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने इसे स्वीकृति प्रदान कर दी.
असहयोग आन्दोलन के प्रस्ताव की स्वीकृति मिलते ही गांधीजी ने इसे प्रारम्भ कर दिया. यह आन्दोलन अत्यन्त ही संगठित रूप से सत्य एवं अहिंसा के आधार पर चला. गांधीजी ने अपनी उपाधि 'केसर-ए-हिन्द' वायसराय को लौटा दी तथा सारे देश का दौरा कर असहयोग के कार्यक्रम का जनता में प्रचार किया.
स्वरूप - आन्दोलन के प्रारम्भ होते ही बहुत से विद्यार्थियों ने विद्यालयों का बहिष्कार कर दिया तथा राष्ट्रीय संस्थानों में प्रवेश ले लिया हजारों की संख्या में वकीलों एवं बैरिस्टरों ने वकालत छोड़ दी. इस आन्दोलन को मुसलमानों द्वारा भी भरपूर सहयोग मिला. इस आन्दोलन के दौरान इलाहाबाद में राष्ट्रीय महाविद्यालय, काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, तिलक महाविद्यापीठ जैसे संस्थानों की स्थापना हुई. विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर स्वदेशी सूती वस्त्र के लिए गाँवों में लोगों ने चरखा चलाना प्रारम्भ कर दिया. शराब की दुकानों पर स्त्रियों के द्वारा धरना दिया गया. व्यवस्थापिका सभाओं का बहिष्कार किया गया. 1921 ई. का कांग्रेस अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ, जिसमें महात्मा गांधी को इस आन्दोलन का एकमांत्र संचालक नियुक्त किया गया. इस आन्दोलन के फलस्वरूप आसाम में चाय बागान मजदूरों ने हड़ताल की तथा मिदनापुर के किसानों ने यूनियन बोर्ड को टैक्स देना बन्द कर दिया.
दमन – सरकार ने इस आन्दोलन की देखरेख कर इसे कुचलने के लिए हजारों की संख्या में राजनीतिक बन्दी बना लिए और मान्य एवं बड़े नेताओं को कारागार में डाल दिया. सार्वजनिक सभाओं पर कड़ी पाबन्दी लगा दी गई. राष्ट्रीय संस्थाओं को अवैध घोषित कर दिया गया.
इसी बीच 5 फरवरी, 1922 ई. को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरा-चौरी नामक स्थान पर उग्र भीड़ ने थानेदार व कई सिपाहियों की हत्या कर थाने में आग लगा दी. जब गांधीजी ने यह समाचार सुना, तो उन्हें बहुत अधिक दुःख हुआ और उन्हें यह लगा कि आन्दोलन अपना अहिंसक रूप खोता जा रहा है तथा हिंसात्मक होता जा रहा है, क्योंकि बम्बई तथा मालाबार में हिंसात्मक दंगे हो चुके थे. इस घटना से क्षुब्ध होकर गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन को 12 फरवरी, 1922 ई. को स्थगित करने की घोषणा कर दी तथा प्रायश्चित के रूप में 5 दिनों का उपवास रखा.
गांधीजी के इस आन्दोलन के स्थगित कर देने से बहुत से नेता उनसे क्षुब्ध हो गए. सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि "जिस समय जनता का जोश सबसे ऊँचे शिखर पर था, उस समय पीछे लौट आना राष्ट्रीय दुर्घटना से किसी भी प्रकार से कम नहीं. " सरकार द्वारा गांधीजी को 10 मार्च, 1922 ई. को गिरफ्तार कर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया तथा 6 वर्ष की सजा देकर उन्हें 'यरवदा' जेल भेज दिया गया.
असहयोग आन्दोलन का महत्त्व या मूल्यांकन – असहयोग आन्दोलन जब अपने चरम को प्राप्त करने वाला था, ठीक उससे पहले ही इसे स्थगित कर दिया गया जिससे लोगों में अत्यधिक निराशा की भावना पैदा हुई और उसे एक असफल आन्दोलन कहा गया, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं था. इस आन्दोलन के जरिए कांग्रेस, जो एक वैधानिक एवं बातचीत करने वाला दल था, अब एक क्रान्तिकारी संगठन में बदल गया था. इस आन्दोलन ने कांग्रेस को एक सम्पूर्ण राष्ट्रीय छवि प्रदान की. उसके नेतृत्व का असर समूचे राष्ट्र में दिखाई देने लगा. कांग्रेस की पहचान इसी समय में खादी बनी तथा देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी बने, इसका प्रस्ताव पास कर दिया गया.
वास्तविकता यह थी कि कांग्रेस के अनेक बड़े नेता गिरफ्तार हो चुके थे तथा योग्य नेतृत्व के अभाव में यह आन्दोलन अपनी राह से हट रहा था तथा जनता में प्रतिशोध की भावना बढ़ रही थी, इसलिए आन्दोलन का स्थगन उचित था.
इस आन्दोलन का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रथम एवं सम्पूर्ण जन-आन्दोलन था, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्मिलित हुए. इसी आन्दोलन ने अनेक राष्ट्रीय विद्यापीठों की स्थापना की.
> सविनय अवज्ञा आन्दोलन
कारण – सविनय अवज्ञा आन्दोलन के निम्नलिखित कारण थे—
1. अंग्रेज सरकार ने नेहरू रिपोर्ट जिसमें औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग की गई, को अस्वीकार कर दिया था. इस कारण से भारतीयों या कांग्रेस के पास संघर्ष या आन्दोलन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय शेष नहीं बचा था.
2. इस समय विश्व में आर्थिक मन्दी का दौर चल रहा था, इससे भारत भी प्रभावित हुआ और देश की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई.
3. औद्योगिक तथा व्यावसायिक वर्ग के लोग सरकार की नीति से असन्तुष्ट थे. कल कारखानों में हड़तालों का ताँता लग गया था. मजदूरों में इससे बड़ी उत्तेजना फैली हुई थी.
4. देश में चारों ओर असन्तोष की लहर फैली हुई थी और हिंसात्मक गतिविधियाँ तेज हो गई थीं. अतः 1930 ई. में फरवरी माह में कांग्रेस की कार्यकारिणी ने महात्मा गांधी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने का अधिकार प्रदान कर दिया.
आन्दोलन का सूत्रपात - 12 मार्च, 1930 ई. की गांधीजी ने 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारम्भ करने की घोषणा की तथा समुद्र तट पर स्थित दाण्डी नामक स्थान पर जाकर बमकू कानून को तोड़ने का निश्चय किया तथा अपने 78 साथियों के साथ दाण्डी के लिए रवाना हो गए. 6 अप्रैल, 1930 ई. को गांधीजी ने दाण्डी पहुँचकर नमक बनाया और नमक कानून को तोड़ दिया और इसी के साथ ही पूरे देश में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ हो गया तथा देश के प्रत्येक भाग में नमक कानून भंग करने का आन्दोलन चल पड़ा.
इसका दूसरा पक्ष यह था कि किसानों ने सरकार को कर देना बन्द कर दिया. इसमें हजारों की संख्या में स्त्रियों ने भाग लेकर स्थान-स्थान पर धरना दिया. बम्बई, कलकत्ता एवं दिल्ली में हड़तालें हुईं, व्यवसाइयों ने भी छः दिनों तक हड़ताल रखी.
सरकार ने इस आन्दोलन को दबाने के लिए हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया, जगह-जगह पर लाठी चार्ज, गोली चलाने का आदेश दिया गया तथा घोड़े दौड़ाए गए. 6 मई, 1930 ई. को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिए जाने से आन्दोलन में और अधिक उग्रता आ गई और पूरे राष्ट्र में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई.
इस आन्दोलन के समय में ही 1930 ई. में इंगलैण्ड के प्रधानमन्त्री मैक्डोनाल्ड की अध्यक्षता में लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन हुआ, जिसमें इस आन्दोलन के कारण कांग्रेस ने भाग नहीं लिया और यह सम्मेलन असफल हो गया.
गांधी-इरविन समझौता – सर तेज बहादुर सप्रू, डॉ. जयकर और श्रीनिवास शास्त्री के प्रयासों से गांधीजी व वायसराय लॉर्ड इरविन के मध्य एक समझौता हुआ, जिसमें निम्नलिखित बातें तय की गई—
1. कांग्रेस गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी.
2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन बन्द कर दिया जाएगा.
3. सभी राजनैतिक कैदी मुक्त कर दिए जाएँगे.
गांधीजी के प्रभाव के कारण इस समझौते को कांग्रेस ने अपने कराची अधिवेशन में स्वीकार कर लिया. हालांकि कांग्रेस के अनेक लोग इस समझौते से सन्तुष्ट नहीं थे और इससे कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि उसने अपना आन्दोलन, जो कि दिनों-दिन बढ़ रहा था, वापस लेना पड़ा.
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए गांधीजी इंगलैण्ड गए तथा इस सम्मेलन में गांधीजी ने पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की, जिसे सरकार ने ठुकरा दिया.
इसके साथ ही सरकार ने मुसलमानों, सिखों एवं दलितों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर साम्प्रदायिक समस्या को अत्यन्त जटिल बना दिया गया. इससे गांधीजी असफल होकर भारत वापस लौट आए.
भारत आकर गांधीजी ने 1 जनवरी, 1932 ई. को सविनय अवज्ञा आन्दोलन पुनः चालू कर दिया. इस पर 4 जनवरी, 1932 ई. को गांधीजी को कैद कर लिया गया.
1932 ई. में लन्दन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन हुआ, जिसमें कांग्रेस ने भाग नहीं लिया, इसके बावजूद भी इसमें भारत में शासन-सम्बन्धी परिवर्तन पर विचार हुआ और 1933 ई. में सरकार ने एक 'श्वेत-पत्र' जारी किया. इसका देश में विरोध हुआ. मई 1934 तक आते-आते यह आन्दोलन अत्यधिक कमजोर हो गया, अतः कांग्रेस कार्यकारिणी ने आन्दोलन को बन्द कर दिया.
परिणाम एवं महत्त्व – इस आन्दोलन का सर्वाधिक महत्त्व इस बात में है कि सवज्ञा आन्दोलन ने जनता में आत्मविश्वास पैदा किया और स्वतन्त्रता के लिए लोगों को मर मिटने के लिए तैयार कर दिया. इस प्रकार इस आन्दोलन ने भारत में राष्ट्रीयता की भावना को अत्यन्त बलवती बना दिया.
> 1942 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन 
कारण – 1942 ई. की क्रान्ति या भारत छोड़ो आन्दोलन के निम्नलिखित कारण थे
1. भारत की उस समय की समस्या के समाधान के लिए जो क्रिप्स मिशन इंगलैण्ड से यहाँ भेजा गया था, उसकी पूरी तरह से असफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि ब्रिटिश सरकार भारतीय समस्या का समाधान नहीं करना चाहती है.
2. प्रारम्भ में 1942 ई. के आसपास ब्रिटिश सरकार जापान के विरुद्ध द्वितीय महायुद्ध में पूरी तरह से असफल रही तथा जापान द्वारा भारत पर आक्रमण का खतरा मँडराने लगा, तब भारतीयों को लगा कि अंग्रेज उनकी रक्षा नहीं कर सकते.
3. इस महायुद्ध के दौरान चोरबाजारी एवं लूट का बाजार देश में गर्म था. इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की थी कि भारत को युद्ध का अड्डा बनाया जाएगा. इससे भारतीय जनता बहुत ज्यादा क्षुब्ध थी तथा अंग्रेजों को अब भारत से निकालने के लिए पूरी तैयारी हो चुकी थी.
4. 14 जुलाई, 1942 को कांग्रेस ने वर्धा में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अनुसार अंग्रेजों को भारत छोड़ देना था तथा इसमें यह भी कहा गया कि अब ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं, जिसका समाधान केवल ब्रिटिश शासन का अन्त है और इसके लिए शीघ्र ही एक आन्दोलन छेड़ा जाएगा. इस पर इलाहाबाद अधिवेशन में पं. नेहरू ने कहा कि “हम आग से खेलने जा रहे हैं, हम दुधारी तलवार प्रयुक्त करने जा रहे हैं, जिसकी चोट उल्टे हमारे ऊपर भी पड़ सकती है, लेकिन हम विवश हैं."
5. 7 व 8 अगस्त, 1942 ई. को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव पारित कर दिया गया तथा 8 अगस्त, 1942 ई. को बम्बई के अगस्त क्रान्ति मैदान में गांधीजी ने 70 मिनट तक भाषण दिया और उन्होंने कहा कि “भारत में ब्रिटिश शासकों का रहना जापान को भारत पर आक्रमण के लिए आमन्त्रण देना है, उनके भारत छोड़ने पर यह आक्रमण हट जाएगा. भारत को ईश्वर के हाथों में छोड़ दो अथवा प्रचलित भाषा में अराजकता पर भारत को छोड़ दो. तदन्तर सभी दल आपस में या तो कुत्तों की तरह लड़ेंगे या वास्तविक दायित्व आने पर तब कोई न्यायोचित समझौता कर लेंगे. मैं जिन्ना के हृदय परिवर्तन या स्वतन्त्रता की बात नहीं जोड़ सकता. यह मेरे जीवन का अन्तिम संघर्ष है." इस प्रकार गांधीजी ने लोगों को ‘करो या मरो' का नारा देकर आन्दोलन के लिए आह्वान किया.
9 अगस्त को अंग्रेज सरकार ने गांधीजी के साथ-साथ अनेक बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया तथा कांग्रेस को अवैध घोषित कर दिया गया. उसके कार्यालयों पर पुलिस का पहरा लगा दिया गया.
आन्दोलन का विस्तार – अनेक नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से आन्दोलन अनियन्त्रित हो गया तथा सरकार विरोधी प्रदर्शन, हड़तालें, सभाएँ और जुलूस आदि बड़े पैमाने पर होने लगे. सारे देश में आतंक छा गया. सरकार के प्रति घृणा और रोष का वातावरण बन गया और जनता हिंसक हो उठी. अग्निकाण्ड, हत्या, तोड़फोड़ के कारण रेल, डाक, तार आदि व्यवस्थाएँ धराशायी हो गईं. स्कूल, कॉलेज बन्द हो गए. देश के बलिया, बंगाल में मिदनापुर, महाराष्ट्र में सतारा आदि जगहों पर ब्रिटिश शासन का अन्त करके समानान्तर सरकारें बैठा दी गईं. जेलों पर आक्रमण करके कैदियों को जनता ने भगा दिया.
दमन – आन्दोलन की भयंकरता को देखकर ब्रिटिश सरकार ने उतनी ही अधिक पाशविक नीति का सहारा इस आन्दोलन को दबाने में लिया. सारे देश में फौजी दस्तों द्वारा जनता पर गोलियों की बौछार की गई. धूप में खड़ा कर लोगों पर गोली चलाना, नंगा कर पेड़ों पर उल्टे लटका देना, कोड़े मारना, औरतों को नंगा कर उनके गुप्तांगों में लाल मिर्च भर देना आदि अनेक अमानुषिक तरीके जनता को आतंकित करने के लिए अपनाए गए.
सरकार के इस व्यवहार से गांधीजी अत्यन्त दुःखी हो गए तथा इस पर उन्होंने 10 फरवरी, 1943 ई. से 21 दिनों का उपवास प्रारम्भ कर दिया. वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों ने गांधीजी से प्रभावित होकर इस्तीफा दे दिया तथा सरकार से अपील की कि वह गांधीजी को रिहा कर दें. 2 मार्च, 1943 को गांधीजी का अनशन समाप्त हो गया तथा 1944 ई. में बीमार हो जाने पर गांधीजी को 6 मई, 1944 ई. को रिहा कर दिया गया और आन्दोलन समाप्त हो गया.
परिणाम–1942 ई. का वर्ष 'भारत छोड़ो आन्दोलन' या 'अगस्त क्रान्ति' के कारण भारतीय इतिहास में यह अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखतां है. यह आन्दोलन यद्यपि सफल नहीं हो सका, तथापि इसका महत्व कम नहीं है. इस आन्दोलन ने यह प्रमाणित कर दिया कि भारत अब और अधिक दिनों तक अंग्रेजों की गुलामी सहन नहीं कर सकता. सरकार को यह पता चल गया कि जनता में उसके विरुद्ध व्यापक असन्तोष है तथा अब यहाँ शासन बनाए रखने के लिए ब्रिटिश फौज के अतिरिक्त अन्य किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि इस आन्दोलन ने भारतीय स्वतन्त्रता की सम्पूर्ण पृष्ठभूमि का निर्माण कर दिया.
> भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में गांधीजी की भूमिका पर एक लेख लिखिए.
भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गांधी का स्थान सबसे ऊपर है, क्योंकि भारतीय स्वतन्त्रता उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का ही परिणाम है. उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक नए वंश और युग का निर्माण किया. वे अपने जीवन की अन्तिम श्वास तक देश सेवा में लगे रहे और अन्त में भारत को स्वतन्त्र कराने में सफल हुए. उनके इसी योगदान के कारण आज हम उन्हें श्रद्धा से 'राष्ट्रपिता' के नाम से पुकारते हैं.
गांधीजी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई. को गुजरात के पोरबन्दर नामक स्थान पर एक वैश्य परिवार में हुआ था. उनके पिता करमचन्द गांधी राजकोट रियासत के दीवान थे. गांधीजी का नाम इसी से, मोहनदास करमचन्द गांधी था. उनका विवाह 13 वर्ष की अवस्था में कस्तूरबा से हुआ तथा प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा राजकोट में हुई.
मैट्रिक पास करने के बाद गांधीजी ने इंगलैण्ड से बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा स्वदेश लौटकर वकालत प्रारम्भ की. अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी के एक मुकदमे के सिलसिले में गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा, जहाँ उन्होंने भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध सत्याग्रह किया. उनका यह प्रयोग वहाँ सफल रहा. वे 1914 ई. में वापस स्वदेश लौट आए.
स्वदेश लौटने के बाद गांधीजी ने साबरमती नदी के किनारे अहमदाबाद में एक आश्रम की स्थापना की. 191718 ई. में बिहार के ‘चम्पारण' व गुजरात के 'खेड़ा' के किसानों के लिए सत्याग्रह कर उन्हें हक दिलवाया,
इसके बाद गांधीजी पूरे देश में लोकप्रिय हो गए और कांग्रेस के कर्णधार हो गए. 1919 ई. में रोलेट एक्ट तथा जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के कारण गांधीजी का अंग्रेजों से विश्वास उठ गया और अब वे उनके शत्रु बन गए. 1920 ई. में गांधीजी ने 'असहयोग आन्दोलन' चलाकर कांग्रेस को राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतीक बना दिया तथा देश में प्रबल राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न कर दी. महात्मा गांधी का अटूट विश्वास था कि जनता की शक्ति संसार की प्रबल शक्ति है, जो बड़े-बड़े राज्यों की नींव हिला सकती है. भारतीय जनता ने उनके प्रत्येक कार्य में सत्य एवं अहिंसा के प्रयोग को देखते हुए ‘महात्मा' की उपाधि दी.
गांधीजी हिंसा एवं हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विरोधी थे तथा सदा दोनों पक्षों में एकता पर बल देते थे. गांधीजी एक व्यावहारिक एवं आदर्शवादी व्यक्ति थे, इसी कारण से वह आतंकवादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के राष्ट्रहित में होते हुए भी उसके विरोधी थे. 1930 में 'सविनय अवज्ञा' आन्दोलन व 1942 ई. में 'भारत छोड़ो आन्दोलन' चलाकर गांधीजी ने विदेशी अंग्रेज सरकार के विरुद्ध जबर्दस्त आन्दोलन किया. इन आन्दोलनों के कारण उन्हें अनेक बार जेल भी जाना पड़ा.
1946 ई. में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग को दोहराते हुए 'सीधी कार्यवाही' कर बंगाल में लूटमार एवं साम्प्रदायिक हिंसा फैला दी, तब गांधीजी उपद्रवग्रस्त स्थान नौआखाली गए तथा हिन्दुओं को ढाँढ़स बँधाया. 1947 ई. में माउण्टबेटेन योजना के अनुसार भारत व पाकिस्तान दो स्वतन्त्र राष्ट्रों का निर्माण किया गया, जिससे पूरे राष्ट्र में साम्प्रदायिक दंगे फैल गए. अतः इन दंगों को समाप्त करने के लिए गांधीजी ने पैदल घूम-घूमकर इसे समाप्त करने की कोशिश की, परन्तु 30 जनवरी, 1948 के दिन नाथूराम गोडसे नामक एक सिरफिरे व्यक्ति ने बिड़ला भवन (नई दिल्ली) में प्रार्थना सभा में जाते समय इनकी गोली मारकर हत्या कर दी.
महात्मा गांधी विश्वकल्याणकारी एवं मानवतावादी राजनीतिक नेता थे. ऊँच-नीच, गरीब-अमीर के भेदभाव को मिटाकर देश में 'सर्वोदय समाज' की स्थापना करना चाहते थे. उन्होंने अछूतोद्धार के लिए हरिजन सुधार आन्दोलन चलाया.
देश की आर्थिक स्थिति को व्यवस्थित एवं सुदृढ़ बनाने के लिए उन्होंने गृह उद्योग, लघु उद्योग, सरकारी-पद्धति तथा ग्राम पंचायत, ग्राम स्वावलम्बी आदि का समर्थन किया तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन चलाया. शिक्षा के लिए उन्होंने 'बेसिक शिक्षा योजना प्रस्तुत की, ताकि देश में स्वावलम्बी नागरिक तैयार हो सकें व उनका सम्पूर्ण विकास हो सके.
इस प्रकार महात्मा गांधी का न केवल भारत को स्वतन्त्र कराने में ही योगदान है, अपितु उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को मानवता और सत्य तथा अहिंसा का संदेश दिया. इसके साथ ही उन्होंने नवीन विचारधारा प्रस्तुत कर राष्ट्र को एक नई दिशा प्रदान की.
> जस्टिस पार्टी (न्याय दल) की विचारधारा तथा कार्यक्रम
1917 ई. में श्री पी. त्यागराज तथा डॉ. टी. एम. नैयर ने प्रथम इत्तर ब्राह्मण संस्था गठित की, जिसका नाम दक्षिण भारतीय उदारवादी संघ था, जिसे कालान्तर में प्रायः न्याय दल (जस्टिस पार्टी) कहने लगे. 1937 ई. में रामास्वामी नैयर इस दल के अध्यक्ष चुने गए. नैयर सामाजिक समानता के लिए एक बड़े नेता थे. इन्होंने अस्पृश्यता जैसे अन्याय के विरुद्ध अभियान चलाया तथा हिन्दू धर्म की आलोचना की. इन्होंने कहा कि यह ब्राह्मणों के नियन्त्रणों का एक साधन है. इन्होंने मनु के विधान को अमानुषी, पुराणों को परियों की कथाओं की संज्ञा दी. इसके साथ ही उन्होंने हिन्दू देवीदेवताओं की आलोचना की और यह कहा कि “कुछ ऐसे तत्व होते हैं जिनका सुधार नहीं हो सकता, उनका केवल अन्त करना होता है. ब्राह्मणीय हिन्दू धर्म एक ऐसा ही तत्त्व है." नैयर ने धर्म को केवल अन्धविश्वास माना और हिन्दू भाषा को द्रविड़ों पर थोपने का विरोध किया. नैयर ने होटलों के नामपट्टों पर जातिवाचक शब्दों को तारकोल से मिटाने का प्रयत्न किया. ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत को तोड़ा तथा देवी देवताओं की मूर्तियों को चप्पल से पीटकर तोड़ दिया. इसके अनुयायी इसे तनते (पिता) तथा पेरियार (महान् आत्मा) के नाम से पुकारते थे.
नैयर के अनुयायी तथा मित्र श्री. सी. एन. अन्नादुरई ने इस दल के आन्दोलन को आगे बढ़ाया. अन्ना काँचीपुरम के एक जुलाहा जाति से थे. 1944 ई. में न्याय दल का नाम बदलकर द्रविड़ कणगम कर दिया गया. सितम्बर 1949 ई. में इस दल में विभाजन हो गया और अन्ना ने अपने दल का नाम 'द्रविड़ मुनेत्र कणगम' रख दिया. 1962 ई. में अन्ना राज्य सभा के लिए चुने गए.
अन्ना भारतीय एकता के विरोधी नहीं थे, परन्तु वे राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता के पक्षधर थे. अन्ना का नाम तमिलनाडु के बनाने वाले के रूप में सदैव स्मरणीय रहेगा.
> वामपंथी राजनीति
दक्षिण और वाम शब्दों का प्रयोग प्रथम बार फ्रांसीसी क्रान्ति के समय किया गया. राजा के समर्थकों को दक्षिणपंथी और विरोधियों को वामपंथी कहा गया. कालान्तर में समाजवाद और साम्यवाद के उत्थान के बाद वामपंथी शब्द का प्रयोग इनके लिए होने लगा.
> भारत में वामपंथी आन्दोलन
भारत में मार्क्सवाद के विषय में जानकारी तथा उसका फैलना रूसी क्रान्ति के कुछ समय बाद ही आरम्भ हो गया. 1918-22 ई. से कामगार असन्तोष ने साम्यवाद के विचारों को पनपने का अवसर दिया. बम्बई, कलकत्ता, कानपुर आदि स्थानों में साम्यवाद सभाएँ बननी आरम्भ हो गईं.
1920 ई. में एम. एन. रॉय तथा कुछ अन्य लोगों ने ताशकंद में भारतीय साम्यवादी दल बनाने की घोषणा की. 1924 ई. कानपुर षड्यन्त्र मुकदमे का अन्त होते ही सत्य भक्त ने साम्यवादी दल बनाने की घोषणा कर दी तथा स्वयं इसका सचिव बन गया. भारतीय साम्यवादी आन्दोलन को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है –
(1) 1920 से 1928 ई. तक – इस काल में साम्यवादी दल ने तीन षड्यन्त्रों में सम्बन्धित होने के कारण विशेष ध्यान आकर्षित किया. यह थे - पेशावर, कानपुर, मेरठ मुकदमा कांग्रेस कार्यकारिणी ने इनके मुकदमों के लिए एक केन्द्रीय सुरक्षा समिति का गठन किया इनकी ओर से जवाहरलाल नेहरू, कैलाशनाथ काटजू तथा डॉ. एफ. एच. अंसारी जैसे लोग पेश हुए. गांधीजी अपराधियों से मिलने जेल गए.
साम्यवादियों को केन्द्रीय विधान सभा में कांग्रेसी सदस्यों का समर्थन मिला और सरकार द्वारा प्रस्तुत सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक जो साम्यवादियों के विरुद्ध था, पारित नहीं होने दिया गया.
(2) 1928-1936 ई. तक - कांग्रेस ने जब साइमन कमीशन (1928) का विरोध किया, पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया तथा द्वितीय सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया, उस समय साम्यवादियों को अपनी विचारधारा एवं संगठन के कारण बहुत हानि उठानी पड़ी, क्योंकि इन लोगों ने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन से संकेत प्राप्त कर राष्ट्रीय कांग्रेस के वामपंथी अंगों पर प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया और कांग्रेस को साम्राज्यवादी अंग्रेजों के समान ही शोषक बताया. इससे साम्यवादी दल राष्ट्र की मुख्य धारा (राजनैतिक) से अलगथलग पड़ गया.
(3) 1935 से 1939 ई. तक – इस काल में साम्यवादी संगठन का मुख्य ध्येय यह था कि वे कांग्रेस में सम्मिलित होकर उसके संगठन का प्रयोग अपने आधार को विस्तृत बनाने में करें. साम्यवादियों, कांग्रेस समाजवादियों और व्यापार संघों ने मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की सोची, परन्तु इसमें साम्यवादियों को सफलता नहीं मिल सकी.
(4) विश्व युद्ध द्वितीय के दौरान - जब विश्व युद्ध प्रारम्भ हुआ, तो कांग्रेस की अस्पष्ट नीति के कारण साम्यवादी संगठन ने तुरन्त इस युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध कहना प्रारम्भ कर दिया, परन्तु जब जर्मनी ने 1942 ई. में साम्यवादी रू पर आक्रमण किया तब साम्यवादियों ने अपने विचारों के विपरीत इस युद्ध को लोक युद्ध (People War) की संज्ञा दी तथा अंग्रेज सरकार का साथ देने लगे. इससे सरकार ने इनके दल को वैध घोषित कर दिया.
कांग्रेस ने जब 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया, तब साम्यवादियों ने इसका विरोध किया और अंग्रेजों की ओर से भेदियों की भूमिका निभाई. उनकी इस नीति के कारण इन्हें राष्ट्रवादियों की कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा.
(5) 1942-1947 ई. तक – इस समय साम्यवादियों ने कांग्रेस व मुस्लिम लीग के मध्य मतभेदों को और अधिक हवा देने के लिए मुसलमानों का समर्थन करना प्रारम्भ कर दिया तथा पृथकतावादी भावनाओं को बढ़ावा देना प्रारम्भ किया. इनका प्रयास था कि देश को आजादी तो मिले, परन्तु वह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँट जाए. इसके बाद इन राज्यों पर साम्यवाद का प्रभाव बढ़ाया जाए. मुस्लिम लीग ने साम्यवादी कार्यक्रम पर विश्वास न कर इनसे हाथ मिलाने से इन्कार कर दिया. फलतः यह दल एक कलंकित संस्था बन गया.
इन्होंने भारत को केबिनेट मिशन के सम्मुख देश के 17 स्वतन्त्र भागों में बाँटने का प्रस्ताव 1942 ई. में रखा. इससे लोगों में इस दल के प्रति घृणा फैल गई और 1947 ई. तक यह छिन्न-भिन्न हो गया.
> दलित वर्ग का आन्दोलन
आधुनिक भारत में दलित वर्ग के उत्थान एवं निम्न जातीय लोगों के लिए किए गए आन्दोलनों की संक्षिप्त रूपरेखा
मध्ययुगीन भारतीय धार्मिक सुधारकों के अनुयायी प्रायः निम्न जातियों से थे, परन्तु आधुनिक युग में अस्पृश्यता जैसी बुराई को दूर करने के लिए उच्चवर्णीय हिन्दुओं ने भी प्रयास किए, परन्तु उन्हें पूर्णरूप से सफलता नहीं मिल सकी. इसी समय कुछ घटनाएँ ऐसी घटी कि निम्न जातीय लोगों ने अपने उत्थान का भार स्वयं अपने कन्धों पर ले लिया और निम्न जातियों में ऐसे नेता उभरे, जिन्होंने समानता के आन्दोलनों को चलाया. इनमें निम्नलिखित प्रमुख नेता थे -
1. नारायण गुरु.
2. ज्योतिबा फुले.
3. डॉ. भीमराव अम्बेडकर.
उपर्युक्त नेताओं द्वारा चलाए गए आन्दोलनों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है –
(1) नारायण गुरु– नारायण गुरु केरल के प्रमुख एझवा जाति के नेता थे. इन्होंने केरल तथा केरल से बाहर के कई स्थानों पर एस. एन. डी. पी. (श्री नारायण धर्म परिपालन योगम) नाम की एक संस्था स्थापित की. इन्होंने एझवा वर्ग के उत्थान के लिए दो बिन्दु का कार्यक्रम बनाया – 
1. अपने से नीची जातियों के प्रति अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त करना.
2. सभी वर्गों के लिए मन्दिरों का निर्माण.
इन्होंने विवाह-संस्कार, धार्मिक पूजा तथा अंत्येष्टि आदि के कर्मकाण्डों को सरल बना दिया. नारायण गुरु को अस्पृश्य जातियों को पिछड़ी जातियों में परिवर्तित करने में विशेष सफलता मिली. इन्होंने महात्मा गांधी की इस आधार पर आलोचना की कि वह निम्न जातियों के प्रति मौखिक सहानुभूति रखते हैं. उन्होंने गांधीजी की चतुवर्णीय व्यवस्था में विश्वास की भावना की आलोचना की. नारायण गुरु ने एक नया नारा 'मानव के लिए एक धर्म, एक जाति तथा एक ईश्वर' दिया.
(2) ज्योतिबा फुले तथा सत्यशोधक समाज– पश्चिमी भारत में ज्योतिराव, गोविन्दराव फुले ने निम्न जाति के लिए संघर्ष किया. इनका जन्म पुणे में एक माली के घर में हुआ था.
ज्योतिराव को ब्राह्मण के डर की कुछ घटनाओं ने इनके जीवन का सारा दृष्टिकोण ही बदल दिया. एक ब्राह्मण ने इनका अपमान इसलिए किया, क्योंकि इन्होंने एक ब्राह्मण मित्र की बारात में सम्मिलित होने की धृष्टता की थी. ब्राह्मणों ने इनका विरोध इस कारण से भी किया, क्योंकि यह स्त्रियों तथा निम्न जातियों के लिए एक पाठशाला चला रहे थे. ब्राह्मणों के दबाव के कारण इन्हें अपनी पाठशाला बन्द करनी पड़ी.
1873 ई. में ज्योतिराव ने 'सत्यशोधक सभा' बनाई जिसका उद्देश्य था कि यह सभा समाज के कमजोर वर्ग को सामाजिक न्याय दिला सके. इन्होंने सभी वर्णों के अनाथों तथा स्त्रियों के लिए अनेक पाठशालाएँ एवं अनाथालय खोले. इन्हें 1876 ई. पुणे नगरपालिका का सदस्य चुना गया.
ज्योतिबा के प्रकाशनों में 'धर्म तृतीय रत्न' (पुराणों का भण्डाफोड़), इशारा (एक चेतावनी), शिवाजी की जवानी इत्यादि सम्मिलित है. 1888 ई. में ज्योतिबा को महात्मा कहने लगे.
(3) डॉ. भीमराव अम्बेडकर – भीमराव अम्बेडकर निम्न जातियों के उत्थान के लिए एक अन्य अग्रणी नेता थे. इनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई. को 'महार कुल' में 'महु' में हुआ था.
अम्बेडकर ने बम्बई के एल्फिन्सन कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की, फिर एम. ए. तथा पी-एच. डी. की परीक्षाएँ कोलम्बिया विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण कीं. 1923 ई. में वे बैरिस्टर बन गए. जुलाई 1924 में अम्बेडकर ने बम्बई में एक संस्था 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' बनाई जिसका उद्देश्य अस्पृश्य लोगों को नैतिक तथा भौतिक उन्नति करना था. इन्होंने आन्दोलन की नीति अपनाई तथा अछूतों के लिए मन्दिरों में प्रवेश तथा जनसाधारण के लिए कुओं से पानी भरने के नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने का प्रयास किया.
1930 ई. में अम्बेडकर ने राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश किया तथा अछूतों के लिए मताधिकार की माँग की. अम्बेडकर ने लन्दन में हुई तीनों गोलमेज सम्मेलनों में अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया.
17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने साम्प्रदायिक निर्णय दिया तो उसमें दलित वर्गों के लिए अलग निर्वाचन-मण्डलों का प्रावधान किया गया, जिससे गांधीजी बहुत दुःखी हुए और इसे हटाने के लिए आमरण अनशन पर बैठ गए. अन्त में अम्बेडकर और गांधीजी के मध्य पूना समझौता (24 सितम्बर, 1932) हुआ. जिसमें दलित वर्गों के लिए साधारण वर्ग में ही सीटों का आरक्षण किया गया.
हताश होकर अम्बेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्वतन्त्रता की माँग का विरोध किया और कहा कि अंग्रेजी साम्राज्य बना रहे, ताकि दलित वर्ग के हितों की रक्षा हो सके. अप्रैल 1942 ई. में अनुसूचित जातीय संघ का एक अखिल भारतीय दल के रूप में गठन किया और घोषणा की कि अनुसूचित जातियाँ हिन्दू धर्म को पूर्णरूप से त्याग देगी और वे स्वयं अपने बहुत से साथियों के साथ बौद्ध बन गए.
स्वतन्त्रता की पूर्व संध्या पर कांग्रेस ने अम्बेडकर को संविधान सभा का सदस्य मनोनीत किया. उनका योगदान भारतीय संविधान के बनाने तथा उसका संविधान सभा में मार्गदर्शन के लिए तथा हिन्दू कोड विधेयक को पारित करने में अविस्मरणीय है. आज अम्बेडकर को निम्न जातियों के उद्धारक के रूप में याद किया जाता है.
पाकिस्तान की उत्पत्ति
> पाकिस्तान की माँग के कारणों की समीक्षा 
कांग्रेस व मुस्लिम लीग के मध्य 1916 ई. में लखनऊ समझौता हुआ, जिसके तहत् कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की माँग को स्वीकार कर लिया. इससे कांग्रेस व लीग मिलकर काम करने लगी तथा खिलाफत आन्दोलन के समय दोनों दलों के मध्य चरम सीमा तक एकता कायम रही, लेकिन यह शीघ्र ही समाप्त हो गई तथा देश में साम्प्रदायिकता का विकास अत्यन्त तीव्रगति से हुआ. 1936 ई. में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र 'रहमतुल्ला' ने पाकिस्तान शब्द का निर्माण पंजाब, कश्मीर, सिन्ध, ब्लूचिस्तान आदि राज्यों के अक्षरों को मिलाकर किया तथा 1938 ई. में लीग में एक नया सिद्धान्त 'द्वि-राष्ट्र का सिद्धान्त प्रस्तुत कर पाकिस्तान की माँग की, जिसके पीछे निम्नलिखित प्रमुख कारण थे—
1. मुस्लिम लीग के पास जितनी भी माँगें जैसे—पृथक् निर्वाचन क्षेत्र आदि थीं, वे सभी 1937 ई. से पूर्व तक पूरी हो जाने के कारण उनके पास अब ऐसा कोई कार्यक्रम शेष नहीं बचा था, जिससे कि वह मुसलमानों को अपने प्रभाव में रख सके.
2. मुस्लिम लीग ने अपने आपको मुसलमानों का हितैषी साबित करने के लिए 'मुसलमानों पर हिन्दुओं द्वारा अत्याचार' का दुष्प्रभाव प्रारम्भ कर दिया. इससे मुसलमानों की धार्मिक भावनाएँ भड़कने लगीं.
3. भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का बीज अंग्रेजों ने ही बोया था तथा समय-समय पर वह उसे भड़काते रहते थे. उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के मध्य मतभेद की खाई को उतना चौड़ा कर दिया कि उसे पाटना असम्भव हो गया. अंग्रेजों ने पाकिस्तान की माँग के प्रति काफी उत्साह दिखाया. भारत सचिव एमरी ने कहा था कि “भारतीय स्वतन्त्रता के भावी कगार पर कई भवनों के स्थान हैं."
4. अंग्रेजों की भेदभावपूर्ण नीति एवं मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विकास के कारण कुछ कट्टर हिन्दू नेताओं ने एक प्रबल हिन्दू संगठन की आवश्यकता पर बल दिया, जिससे 1922 ई. में 'हिन्दू महासभा' की स्थापना की गई. इस दल के नेताओं ने सार्वजनिक रूप से हिन्दू राष्ट्र का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया. इन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग सम्प्रदाय हैं. इस कारण से जिन्ना ने इसी को आधार बनाकर अपना प्रसिद्ध 'द्वि-राष्ट्र का सिद्धान्त' रखा.
5. पाकिस्तान की माँग का सबसे बड़ा एवं उल्लेखनीय आधार 1937 ई. के चुनावों ने तैयार किया. इन चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी असफलता का सामना करना पड़ा. मुस्लिम बहुसंख्यक राज्यों जैसे असम एवं सिन्ध में भी लीग के मन्त्रिमण्डल का गठन नहीं हो सका और इससे लीग को लगा कि, यदि भारत संयुक्त रहा तो इसमें मुसलमानों के हितों का संरक्षण नहीं हो सकता. अतः अब वे जोर-शोर से पाकिस्तान की माँग करने लगे तथा कांग्रेस को लीग की तरफ से हिन्दू संगठन घोषित कर दिया गया.
6. मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना ने 1940 ई. के लाहौर अधिवेशन में कहा कि "राष्ट्र की किसी भी परिभाषा के अनुसार, मुसलमान एक राष्ट्र है. अतः उनकी अपनी निवास भूमि, अपना प्रदेश और अपना राज्य होना चाहिए." इस आधार पर धीरे-धीरे पाकिस्तान की माँग अत्यन्त बलवती होती गई. इसी अधिवेशन के बाद मुस्लिम लीग अपने प्रत्येक अधिवेशन में पाकिस्तान के गठन पर जोर देती थी.
इस प्रकार स्पष्ट है कि पाकिस्तान के निर्माण में मुस्लिम लीग के पास कार्यक्रमों का अभाव, हिन्दू साम्प्रदायिकता, अंग्रेजों को फूट डालने की नीति तथा 1937 ई. के चुनावों के बाद से लीग में फैली निराशा आदि प्रमुख कारण थे.
> क्रिप्स प्रस्ताव क्या थे? इसे कांग्रेस व मुस्लिम लीग ने स्वीकार करने से क्यों मना कर दिया था ?
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ हो जाने के बाद भारत के राजनीतिक घटनाक्रम में तेजी से बदलाव आए. कांग्रेस की ओर से गांधीजी 'व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन' चला रहे थे, उधर मुस्लिम लीग अपने पाकिस्तान की माँग पर अड़ी हुई थी. 1942 ई. का वर्ष आते-आते जापान ने ब्रिटेन व अमरीका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर बर्मा तक अधिकार कर लिया था. इस -पुरस्थिति में ब्रिटिश सरकार गम्भीर स्थिति में फँस गई थी. अतः अब उसका भारतीयों से सहयोग लेना अनिवार्य हो गया था.
भारतीयों से सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का प्रस्ताव लेकर क्रिप्स मिशन मार्च 1942 ई. में भारत आया और उसने दो योजनाएँ कांग्रेस व लीग के सम्मुख रखीं – (i) सुदूरकालीन योजना, जो युद्ध के बाद क्रियान्वित की जाती. (ii) तत्कालीन योजना, जिसके अनुसार केन्द्र में अस्थायी सरकार का गठन करना था. प्रथम योजना के अनुसार एक संविधान सभा बनती, जिसके अधिकांश सदस्य प्रान्तों के विधानमण्डल द्वारा चुने जाते तथा कुछ सदस्य देशी नरेशों द्वारा यह सभा भारत के संविधान का निर्माण करती किन्तु इस संविधान को मानना या न मानना प्रान्तों की मर्जी पर निर्भर करता. दूसरी योजना के अनुसार, केन्द्रीय शासन के सभी विभागों पर ब्रिटिश सरकार का ही नियन्त्रण रहता क्योंकि युद्ध के समय भारत की सुरक्षा का दायित्व ब्रिटिश सरकार पर ही था.
11 अप्रैल, 1942 ई. को कांग्रेस ने इसे निम्नलिखित कारणों से अस्वीकार कर दिया -
1. सुरक्षा विभाग ब्रिटिश सरकार के पास था, जबकि कांग्रेस यह विभाग स्वयं अपने पास रखना चाहती थी.
2. प्रान्तों को संविधान के मानने या न मानने का अधिकार दे देना, इससे भारत के कई टुकड़े हो जाने की सम्भावना थी.
3. देशी राज्यों के प्रतिनिधियों को देशी नरेशों द्वारा चुनना, गांधीजी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा कि "क्रिप्स प्रस्ताव एक दिवालिया बैंक का पोस्ट डेटेड चेक है." लीग ने भी इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि इसमें कहीं भी स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के निर्माण की बात नहीं कही गई थी.
> क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद भारतपाकिस्तान के निर्माण के लिए बनी योजनाएँ
(1) 1944 ई. में अंग्रेज सरकार द्वारा गांधीजी के रिहा कर दिए जाने के बाद गांधीजी ने कांग्रेस व मुस्लिम लीग के मध्य समझौता कराने के उदेश्य से ‘राजगोपालाचारी योजना’ को स्वीकृति प्रदान कर दी. इस योजना में निम्नलिखित बातें सम्मिलित थीं – 
1. मुस्लिम लीग द्वारा भारत की स्वतन्त्रता की माँग का समर्थन करना.
2. अन्तरिम सरकार में लीग द्वारा कांग्रेस को सहयोग देना.
3. युद्ध के समाप्त होने के बाद भारत के उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व के उन क्षेत्रों में जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक हैं, एक आयोग द्वारा इस क्षेत्र को स्पष्ट करना.
4. इस क्षेत्र में जनमत संग्रह द्वारा यह तय करना कि इस क्षेत्र की जनता भारत में रहना चाहती है अथवा पाकिस्तान में.
5. बँटवारे के बाद प्रतिरक्षा, संचार, आवागमन एवं जनसंख्या का आदान-प्रदान एक समझौते द्वारा तय किया जाएगा.
ये सभी शर्तें तभी लागू होनी थीं, जब अंग्रेजों द्वारा भारत को सत्ता सौंप दी जाती.
जिन्ना इस बँटवारे को सत्ता के हस्तान्तरण से पहले चाहते थे, जबकि गांधीजी उसके बाद, फलतः यह योजना असफल हो गई.
(2) वेबल योजना – 1945 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद इंगलैण्ड में चुनाव होने वाले थे. अतः अंग्रेज सरकार ने भारत में संवैधानिक सुधारों के नाम पर लिनलिथगो के स्थान पर लॉर्ड वेबल को भारत का वायसराय नियुक्त कर भेजा.
वेवेल ने 25 जून, 1945 ई. को सभी राजनैतिक दलों के 'प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन शिमला में बुलाया' इस सम्मेलन का उद्देश्य साम्प्रदायिक समस्या का निराकरण कर संवैधानिक गतिरोध दूर करना एवं वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् का नए सिरे से गठन करना था.
लेकिन इस योजना को जिन्ना की हठधर्मी एवं वेबल की अदूरदर्शिता के कारण सफलता नहीं मिली और 14 जुलाई, 1945 ई. को यह सम्मेलन असफल हो गया.
(3) केबिनेट मिशन योजना – 24 मार्च, 1946 ई. को केबिनेट मिशन भारतीय समस्या का निराकरण करने के उद्देश्य से भारत आया. इसके सदस्य लोरेंस, स्टेफोर्ड क्रिप्स एवं बी. एलेक्जेण्डर थे. इस मिशन का उद्देश्य था भारतीय नेताओं से मिलकर भारत में पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति को जल्दी सम्भव बनाना. इसके लिए ये लोग राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों से तीन सप्ताहों तक मिलते रहे और 16 मई, 1946 ई. को इन्होंने अपनी योजना प्रस्तुत की. इस योजना में निम्नलिखित प्रमुख तथ्य सम्मिलित थे – 
1. भारत के भावी संविधान के सम्बन्ध में प्रस्ताव.
2. संविधान सभा का निर्माण करना.
3. देशी रियासतों में अंग्रेजी प्रभुसत्ता का भारतीय संविधान के लागू हो जाने के बाद समाप्त हो जाना.
4. ब्रिटेन के साथ संविधान सभा द्वारा सन्धि.
5. अन्तरिम सरकार का गठन.
6. पाकिस्तान की माँग को व्यावहारिक कठिनाइयों के चलते ठुकरा दिया जाना.
इस योजना को पहले कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया. इस पर मुस्लिम लीग ने यह दावा किया कि वह कांग्रेस की सहायता के बिना ही अन्तरिम सरकार का गठन कर लेगी, जिसे वायसराय ने ठुकरा दिया. इससे जिन्ना ने पाकिस्तान की माँग को खटाई में पड़ते देखा और 16 अगस्त, 1946 ई. को 'प्रत्यक्ष कार्यवाही की घोषणा कर दी. 
अब कांग्रेस ने अन्तरिम सरकार के गठन का फैसला करके 24 अगस्त, 1946 को अन्तरिम सरकार का गठन कर लिया और 2 सितम्बर को कार्यभार ग्रहण कर लिया. पं. जवाहरलाल नेहरू इस सरकार के प्रधानमन्त्री बनाए गए. बाद में लीग भी अक्टूबर 1946 ई. में इस सरकार में शामिल हो गई.
मुस्लिम लीग ने सरकार में घुसकर कांग्रेस की नीतियों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया, इससे दोनों दलों का साथ-साथ काम करना कठिन हो गया.
(4) लन्दन कान्फ्रेंस – मुस्लिम लीग एवं कांग्रेस के मध्य अन्तरिम सरकार के गतिरोध को दूर करने के लिए 3 से 6 दिसम्बर, 1946 ई. को लन्दन में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें नेहरू, जिन्ना, एटली एवं वेबल ने भाग लिया, परन्तु संविधान सभा के प्रश्न पर दोनों में मतभेद बना रहा और यह कॉन्फ्रेंस असफल हो गई.
(5) एटली की घोषणा – 20 फरवरी, 1947 को इंगलैण्ड के प्रधानमन्त्री एटली ने यह घोषणा की कि जून 1948 ई. के पूर्व अंग्रेज सरकार भारतीयों को सत्ता का हस्तान्तरण कर देगी. सत्ता के हस्तान्तरण के लिए लॉर्ड वेबल के स्थान पर लॉर्ड माउण्टबेटन को वायसराय बनाकर भारत भेजा गया.
(6) माउण्टबेटन योजना – 24 मार्च, 1947 ई. को माउण्टबेटन ने वायसराय का पद ग्रहण कर विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श कर 3 जून, 1947 ई. को अपनी योजना प्रकाशित की, जिसमें निम्नलिखित बातें सम्मिलित थीं—
1. भारत का विभाजन भारतीय संघ एवं पाकिस्तान संघ में कर दिया जाए.
2. राज्यों की सीमा निश्चित करने से पूर्व पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रदेश और असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह कराया जाए और सिन्ध विधान सभा में वोट द्वारा यह निश्चित किया जाए कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं.
3. बंगाल एवं पंजाब में हिन्दू तथा मुसलमान बहुसंख्यक जिलों के प्रान्तीय विधान सभा के सदस्यों की अलगअलग बैठक बुलाई जाए. उनमें से यदि कोई भी पक्ष प्रान्त का विभाजन चाहेगा, तो विभाजन कर दिया जाएगा.
4. संविधान सभा को दो भागों में बाँट दिया जाएगा और वे स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने देश के लिए संविधान का निर्माण करेंगी.
5. देशी राज्यों को स्वतन्त्र रहने या संघों में से किसी एक संघ में मिलने की स्वतन्त्रता होगी.
इस योजना को ब्रिटिश संसद ने 16 जुलाई, 1947 ई. को पास कर दिया. इसके बाद लीग व कांग्रेस ने भी इसे पास कर दिया. इस अधिनियम के पास हो जाने के बाद 14 अगस्त, 1947 ई. को पाकिस्तान का निर्णय हो गया और मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान के गवर्नर जनरल एवं लियाकत अली प्रधानमन्त्री बने.
इस प्रकार स्पष्ट है कि अनेक चरणों से गुजरने के बाद पाकिस्तान का निर्माण सम्भव हो सका.
> भारत के विभाजन का उत्तरदायित्व
भारत के विभाजन के लिए उत्तरदायित्व का निर्धारण करना अत्यन्त विवादास्पद है. इतिहासकारों ने अपने-अपने तर्कों के माध्यम से कांग्रेस, मुस्लिम लीग एवं अंग्रेज सरकार तीनों को ही उत्तरदायी ठहराया है, परन्तु यह निश्चित है कि भारत के विभाजन की प्रक्रिया का प्रारम्भ अंग्रेजों ने ही किया था.
1909 ई. के मिण्टो-मार्ले सुधारों ने प्रथम बार देश की राजनीति में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने तथा मुसलमानों को राजनैतिक बढ़ावा देने का प्रयास किया. उन्होंने मुसलमानों को पृथक् निर्वाचन क्षेत्र प्रदान किए, फिर भी 1921 ई. तक असहयोग और खिलाफत आन्दोलन के समय तक दोनों ही दलों में अत्यन्त मधुर सम्बन्ध बने रहे. 1921 ई. में जिन्ना कांग्रेस से अलग हो गए तथा उसकी कार्यवाही को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे.
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद से ही भारत के विभाजन की माँग बढ़ने लगी तथा गांधीजी ने मुसलमानों को सन्तुष्ट कर भारत की अखण्डता को बचाए रखने के प्रयास में 1940 ई. के रामगढ़ के कांग्रेस अधिवेशन में बँटवारे के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया, परन्तु उनके अनुसार विभाजन ठीक उसी प्रकार से होना चाहिए जिस प्रकार से संयुक्त परिवार में विभाजन होता है. गांधीजी यह चाहते थे कि मुसलमानों को यह अधिकार मिले कि वह स्वयं यह निश्चित कर सकें कि वे संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में रहना चाहते हैं अथवा अलग.
अंग्रेज वायसराय लिनलिथगो ने जिन्ना को इस बात का आश्वासन दिया कि अल्पसंख्यकों की स्वीकृति के बिना सरकार किसी भी संवैधानिक परिवर्तन को लागू नहीं करेगी और न ही शक्ति के द्वारा उन अल्पसंख्यकों को दबाएगी. इससे जिन्ना के हाथों में 'वीटो' (Veto) का अधिकार आ गया.
भारत के विभाजन में 1941 ई. में राजगोपालाचारी ने भी योगदान इस रूप में दिया कि सर्वप्रथम भारत के विभाजन की योजना को कांग्रेस द्वारा स्वीकार करवा लिया.
इसी प्रकार नेहरूजी ने भी अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान की माँग को स्वीकार कर लिया था. इधर गांधीजी ने जिन्ना से बात कर उन्हें राजगोपालाचारी योजना स्वीकार करने को कहा, लेकिन जिन्ना ने इसे स्वीकार नहीं किया. वस्तुतः गांधीजी द्वारा जिन्ना से बात किए जाने से उसका राजनैतिक कद बहुत अधिक बढ़ गया और पाकिस्तान के निर्माण में वह एकदम और आगे बढ़ गया.
भारत के विभाजन के लिए पटेल, नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद भी किसी हद तक जिम्मेदार थे. गांधीजी की सहमति के बिना ही तीनों ने मार्च 1947 ई. में जिन्ना के ‘दो राष्ट्र के सिद्धान्त' (Two Nation Theory) को स्वीकृति देकर पंजाब के हिन्दू एवं मुस्लिम बहुल इलाकों में विभाजन करने का प्रस्ताव कांग्रेस कार्यसमिति में रखा. कांग्रेस के इन महत्त्वपूर्ण नेताओं के मनोभावों का अन्दाज लगाकर ही लॉर्ड माउण्टबेटन ने भारत के विभाजन की पूरी योजना तैयार की इस योजना को पटेल ने स्वीकार कर लिया, और माउण्टबेटन को अपना पूरा समर्थन दिया. नेहरू ने भी इसे स्वीकार कर लिया. अबुल कलाम आजाद और गांधीजी इसका विरोध करते रहे, परन्तु नेहरू व पटेल के लिए गांधीजी का अब कोई उपयोग नहीं था और वे लोग अब तुरन्त स्वतन्त्रता के आकांक्षी थे. इन्होंने गांधीजी को भी समझाया कि भारत का विभाजन अवश्यम्भावी है. अतः 3 जून को माउण्टबेटन योजना पर विचार किया गया तथा गांधीजी के द्वारा इसे स्वीकार कर लिया गया. 4 जून, 1947 ई. को गोविन्द बल्लभ पन्त ने इस स्वीकृति प्रस्ताव को प्रस्तुत किया. नेहरू और पटेल ने भी प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि आजाद और अन्य सदस्यों के विरोध के कारण मत-विभाजन हो गया. प्रस्ताव के पक्ष में 29 तथा विपक्ष में 15 मत पड़े. इस प्रकार केवल 14 मतों के अन्तर से कांग्रेस ने भारत के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि भारत के विभाजन में कांग्रेस, मुस्लिम लीग व अंग्रेजों की संयुक्त भूमिका उत्तरदायी थी. इसमें किसी एक पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता है. 
भारतीय राज्यों का एकीकरण (Integration of Indian States)
> स्वतन्त्रता के बाद भारतीय राज्यों का एकीकरण
15 अगस्त, 1947 ई. को भारत के अंग्रेजी दासता से स्वतन्त्र होते ही उसके सम्मुख देशी राज्यों के एकीकरण समस्या आ खड़ी हुई, क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें भारत में या पाकिस्तान में अथवा स्वतन्त्र रहने की छूट दे रखी थी. इस समय देश में कुल 562 देशी रियासतें थीं जिनके कारण गृहयुद्ध भड़क उठने का अंदेशा था. ऐसे में सरदार बल्लभभाई पटेल ने असाधारण धैर्य व साहस का परिचय दिया.
पटेल ने देशी राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियाँ, उनकी आर्थिक स्थिति तथा जनता की इच्छा को ध्यान में रखकर राजाओं को यह आश्वासन दिया कि कांग्रेस उनकी दुश्मन नहीं है और यह प्रजा के हितों की रक्षक है. इसका देशी नरेशों पर अच्छा प्रभाव पड़ा और 15 अगस्त, 1947 ई. से पूर्व जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर के अतिरिक्त सभी रियासतों को भारतीय संघ में सम्मिलित होने के लिए तैयार | कर लिया. इन राज्यों ने 'इन्स्ट्रूमेण्ट ऑफ एक्सेसन' (Instrument of Accession) और 'स्टेण्ड स्टिल एग्रीमेण्ट' (Stand Still Agreement) पर हस्ताक्षर कर भारतीय संघ में प्रवेश किया.
जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में मिलने का इच्छुक था, परन्तु जन असन्तोष के कारण उसे पाकिस्तान भाग जाना पड़ा. इसी प्रकार हैदराबाद का शासक स्वतन्त्र रहना चाहता था, परन्तु वहाँ की जनता भारतीय संघ में मिलता चाहती थी. फलतः भारत ने बल प्रयोग किया और 1948 ई. में निजाम ने भारतीय विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए.
स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद कश्मीर जो स्वतन्त्र रहना चाहता था, पर पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया जिससे वहाँ के राजा हरि सिंह ने भारत में मिलने की इच्छा प्रकट कर सहायता की माँग की. फलतः भारत ने सैन्य कार्यवाही की और कश्मीर भारत का अंग बन गया. 
अनेक छोटी रियासतों को बड़ी-बड़ी रियासतों में मिलाकर प्रान्तों का गठन किया गया.
इस प्रकार स्पष्ट है कि सरदार पटेल की सूझ-बूझ से बिना किसी विशेष झंझट और सैनिक कार्यवाही के भारत का एकीकरण सम्पन्न हो गया.
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here