BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH HISTORY NOTES | नात्सीवाद और हिटलर का उदय
- नात्सीवाद सिर्फ इन इक्का-दुक्का घटनाओं का नाम नहीं है। यह दुनिया और राजनीति के बारे में एक संपूर्ण व्यवस्था, विचारों की एक पूरी संरचना का नाम है।
- मई 1945 में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के सामने समर्पण कर दिया। हिटलर को अंदाज़ा हो चुका था कि अब उसकी लड़ाई का क्या हश्र होने वाला है।
- हिटलर और उसके प्रचार मंत्री ग्योबल्स ने बर्लिन के एक बंकर में पूरे परिवार के साथ अप्रैल में ही आत्महत्या कर ली थी ।
- युद्ध खत्म होने के बाद न्यूरेम्बर्ग में एक अंतर्राष्ट्रीय सैनिक अदालत स्थापित की गई। इस अदालत को शांति के विरुद्ध किए गए अपराधों, मानवता के खिलाफ़ किए गए अपराधों और युद्ध अपराधों के लिए नात्सी युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाने का जिम्मा सौंपा गया था।
- युद्ध के दौरान जर्मनी के व्यवहार, खासतौर से इंसानियत के खिलाफ किए गए उसके अपराधों की वजह से कई गंभीर नैतिक सवाल खड़े हुए और उसके कृत्यों की दुनिया भर में निंदा की गई।
- दूसरे विश्वयुद्ध के साए में जर्मनी ने जनसंहार शुरू कर दिया जिसके तहत यूरोप में रहने वाले कुछ खास नस्ल के लोगों को सामूहिक रूप मारा जाने लगा। इस युद्ध में मारे गए लोगों में 60 लाख यहूदी, 2 लाख जिप्सी और 10 लाख पोलैंड के नागरिक थे।
- साथ ही मानसिक व शारीरिक रूप से अपंग घोषित किए गए 70,000 जर्मन नागरिक भी मार डाले गए। इनके अलावा न जाने कितने ही राजनीतिक विरोधियों को भी मौत की नींद सुला दिया गया।
- इतनी बड़ी तादाद में लोगों को मारने के लिए औषवित्स जैसे कत्लखाने बनाए गए जहाँ जहरीली गैस से हजारों लोगों को एक साथ मौत के घाट उतार दिया जाता था।
- न्यूरेम्बर्ग अदालत ने केवल 11 मुख्य नात्सियों को ही मौत की सजा दी। बाकी आरोपियों से बहुतों को उम्र कैद को सजा सुनाई गई।
- सजा तो मिली लेकिन नात्सियों को जो सजा दी गई वह उनकी बर्बरता और उनके जुल्मों के मुकाबले बहुत छोटी थी।
- मित्र राष्ट्र पराजित जर्मनी पर इस बार वैसा कठोर दंड नहीं थोपना चाहते थे जिस तरह का दंड पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर थोपा गया था।
- बहुत सारे लोगों का मानना था कि पहले विश्वयुद्ध के आखिर में जर्मनी के लोग जिस तरह के अनुभव से गुजरे उसने भी नात्सी जर्मनी के उदय में योगदान दिया था।
नात्सियों का विश्व दृष्टिकोण
- नात्सियों ने जो अपराध किए वे खास तरह की मूल्य मान्यताओं, एक खास तरह के व्यवहार से संबंधित थे। नात्सी विचारधारा हिटलर के विश्व दृष्टिकोण का पर्यायवाची थी। इस विश्व दृष्टिकोण में सभी समाजों को बराबरी का हक नहीं था, वे नस्ली आधार पर या तो बेहतर थे या कमतर थे।
- इस नज़रिये में ब्लॉन्ड, नीली आँखों वाले, नॉर्डिक जर्मन आर्य सबसे ऊपरी और यहूदी सबसे निचली पायदान पर आते थे। यहूदियों को नस्ल विरोधी, यानी आर्यों का क्रूर शत्रु माना जाता था। बाकी तमाम समाजों को उनके बाहरी रंग-रूप के हिसाब से जर्मन आर्यों और यहूदियों के बीच में रखा गया था।
- हिटलर की नस्ली सोच चार्ल्स डार्विन और हर्बर्ट स्पेंसर जैसे विचारकों के सिद्धांतों पर आधारित थी। डार्विन प्रकृति विज्ञानी थे जिन्होंने विकास और प्राकृतिक चयन की अवधारणा के ज़रिए पौधों और पशुओं की उत्पत्ति की व्याख्या का प्रयास किया था। बाद में हर्बर्ट स्पेंसर ने 'अति जीविता का सिद्धांत' (सरवाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट) - जो सबसे योग्य है, वही जिंदा बचेगा- यह विचार दिया।
- डार्विन ने चयन के सिद्धांत को एक विशुद्ध प्राकृतिक प्रक्रिया कहा था और उसमें इंसानी हस्तक्षेप की वकालत कभी नहीं की। लेकिन नस्लवादी विचारकों और राजनेताओं ने पराजित समाजों पर अपने साम्राज्यवादी शासन को सही ठहराने के लिए डार्विन के विचारों का सहारा लिया।
- नात्सियों की दलील बहुत सरल थी : जो नस्ल सबसे ताकतवर है वह जिंदा रहेगी; कमज़ोर नस्लें खत्म हो जाएँगी । आर्य नस्ल सर्वश्रेष्ठ है। उसे अपनी शुद्धता बनाए रखनी है, ताकत हासिल करनी है और दुनिया पर वर्चस्व कायम करना है।
- हिटलर की विचारधारा का दूसरा पहलू या जीवन-परिधि की भू-राजनीतिक अवधारणा से संबंधित था। वह मानता था कि अपने लोगों को बसाने के लिए ज्यादा से ज्यादा इलाकों पर कब्जा करना जरूरी है।
- इससे मातृ देश का क्षेत्रफल भी बढ़ेगा और नए इलाकों में जाकर बसने वालों को अपने जन्मस्थान के साथ गहरे संबंध बनाए रखने में मुश्किल भी पेश नहीं आएगी।
- हिटलर की नजर में इस तरह जर्मन राष्ट्र के लिए संसाधन और बेहिसाब शक्ति इकट्ठा की जा सकती थी।
- पूरब में हिटलर जर्मन सीमाओं को और फैलाना चाहता था ताकि सारे जर्मनों को भौगोलिक दृष्टि से एक ही जगह इकट्ठा किया जा सके। पोलैंड इस धारणा की पहली प्रयोगशाला बना।
नस्लवादी राज्य की स्थापना
- सत्ता में पहुँचते ही नात्सियों ने 'शुद्ध' जर्मनों के विशिष्ट नस्ली समुदाय की स्थापना के सपने को लागू करना शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने विस्तारित जर्मन साम्राज्य में मौजूद उन समाजों या नस्लों को खत्म करना शुरू किया जिन्हें वे 'अवांछित' मानते थे।
- नात्सी 'शुद्ध और स्वस्थ नॉर्डिक आर्यों का समाज बनाना चाहते थे। उनकी नज़र में केवल ऐसे लोग ही 'वाछित' थे।। केवल ये ही लोग थे जिन्हें तरक्की और वंश - विस्तार के योग्य माना जा सकता था।
- बाकी सब 'अवांछित' थे। इसका मतलब यह निकला कि ऐसे जर्मनों को भी जिंदा रहने का कोई हक नहीं है जिन्हें नात्सी अशुद्ध या असामान्य मानते थे।
- यूथनेसिया (दया मृत्यु) कार्यक्रम के तहत बाकी नात्सी अफ़सरों के साथ-साथ हेलमुट के पिता ने भी असंख्य ऐसे जर्मनों को मौत के घाट उतारा था जिन्हें वह मानसिक या शारीरिक रूप से अयोग्य मानते थे।
- केवल यहूदी ही नहीं थे जिन्हें 'अवाछितों' की श्रेणी में रखा गया था। इनके अलावा भी कई नस्लें थीं जो इसी नियति के लिए अभिशप्त थीं।
- जर्मनी में रहने वाले जिप्सियों और अश्वेतों की पहले तो जर्मन नागरिकता छीन ली गई और बाद में उन्हें मार दिया गया।
- रूसी और पोलिश मूल के लोगों को भी मनुष्य से कमतर माना गया।
- जब जर्मनी ने पोलैंड और रूस के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया तो स्थानीय लोगों को भयानक परिस्थितियों में . गुलामों की तरह काम पर झोंक दिया गया। उन्हें इंसानी बर्ताव के लायक नहीं माना जाता था। उनमें से बहुत सारे बेहिसाब काम के बोझ और भूख से ही मर गए ।
- नात्सी जर्मनी में सबसे बुरा हाल यहूदियों का हुआ यहूदियों के प्रति नात्सियों की दुश्मनी का एक आधार यहूदियों के प्रति ईसाई धर्म में मौजूद परंपरागत घृणा भी थी।
- ईसाइयों का आरोप था कि ईसा मसीह को यहूदियों ने ही मारा था।
- ईसाइयों की नज़र में यहूदी आदतन हत्यारे और सूदखोर थे । मध्यकाल तक यहूदियों को ज़मीन का मालिक बनने की मनाही थी।
- ये लोग मुख्य रूप से व्यापार और धन उधार देने का धंधा करके अपना गुजारा चलाते थे। वे बाकी समाज से अलग बस्तियों में रहते थे जिन्हें घेटो (Ghettoes) यानी दड़बा कहा जाता था।
- नस्ल-संहार के ज़रिए ईसाई बार - बार उनका सप या करते रहते थे। उनके खिलाफ़ जब-तब संगठित हिंसा की जाती थी और उन्हें उनकी बस्तियों से खदेड़ दिया जाता था। लेकिन ईसाइयत ने उन्हें बचने का एक रास्ता फिर भी दिया हुआ था।
- यह धर्म परिवर्तन का रास्ता था । आधुनिक काल में बहुत सारे यहूदियों ने ईसाई धर्म अपना लिया और जानते-बूझते हुए जर्मन संस्कृति में ढल गए।
- लेकिन यहूदियों के प्रति हिटलर की घृणा तो नस्ल के छद्म वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी।
- इस नफ़रत में 'यहूदी समस्या का हल धर्मांतरण से नहीं निकल सकता था।
- हिटलर की 'दृष्टि' में इस समस्या का सिर्फ एक ही हल था कि यहूदियों को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए।
- सन् 1933 से 1938 तक नात्सियों ने यहूदियों को तरह-तरह से आतंकित किया, उन्हें दरिद्र कर आजीविका के साधनों से हीन कर दिया और उन्हें शेष समाज से अलग-थलग कर डाला। यहूदी देश छोड़कर जाने लगे।
- 1939-45 के दूसरे दौर में यहूदियों को कुछ खास इलाकों में करने और अंतत: पोलैंड में बनाए गए गैस चेंबरों इकट्ठा में ले जाकर मार देने की रणनीति अपनाई गई।
नस्ली कल्पनालोक ( यूटोपिया)
- युद्ध के साए में नात्सी अपने नस्लवादी कल्पनालोक या आदर्श विश्व के निर्माण में लग गए। जनसंहार और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए। पराजित पोलैंड को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया।
- उत्तर-पश्चिमी पोलैंड का ज्यादातर हिस्सा जर्मनी में मिला लिया गया। पोलैंड के लोगों को अपने घर और माल - असबाब छोड़कर भागने के लिए मजबूर किया गया ताकि जर्मनी के कब्ज़े वाले यूरोप में रहने वाले जर्मनों को वहाँ लाकर बसाया जा सके।
- इसके बाद पोलैंडवासियों को मवेशियों की तरह खदेड़ कर जनरल गवर्नमेंट नामक दूसरे हिस्से में पहुँचा दिया गया। जर्मन साम्राज्य में मौजूद तमाम अवांछित तत्त्वों को जनरल गवर्नमेंट नामक इसी इलाके में लाकर रखा जाता था। पोलैंड के बुद्धिजीवियों को बड़े पैमाने पर मौत के घाट उतारा गया।
- यह पूरे पोलैंड के समाज को बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर २. पर गुलाम बना लेने की चाल थी। आर्य जैसे लगने वाले पोलैंड के बच्चों को उनके माँ-बाप से छीन कर जाँच के लिए 'नस्ल विशेषज्ञों' के पास पहुँचा दिया गया।
- अगर वे नस्ली जाँच में कामयाब हो जाते तो उन्हें जर्मन परिवारों में पाला जाता और अगर ऐसा नहीं होता तो उन्हें अनाथाश्रमों में डाल दिया जाता जहाँ उनमें से ज्यादातर मर जाते थे।
- जनरल गवर्नमेंट में कुछ विशालतम घेटो और गैस चेंबर भी थे इसलिए यहाँ यहूदियों को बड़े पैमाने पर मारा जाता था।
नात्सी जर्मनी में युवाओं की स्थिति
- युवाओं में हिटलर की दिलचस्पी जुनून की हद तक पहुँच चुकी थी। उसका मानना था कि एक शक्तिशाली नात्सी समाज की स्थापना के लिए बच्चों को नात्सी विचारधारा की घुट्टी पिलाना बहुत ज़रूरी है। इसके लिए स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगह बच्चों पर पूरा नियंत्रण आवश्यक था।
- तमाम स्कूलों में सफ़ाए और शुद्धीकरण की मुहिम चलाई गई। यहूदी या 'राजनीतिक रूप से अविश्वसनीय' दिखाई देने वाले शिक्षकों को पहले नौकरी से हटाया गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया गया।
- बच्चों को अलग-अलग बिठाया जाने लगा। जर्मन और यहूदी बच्चे एक साथ न तो बैठ सकते थे और न खेल-कूद सकते थे।
- बाद में 'अवांछित बच्चों को यानी यहूदियों, जिप्सियों के बच्चों और विकलांग बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया। चालीस के दशक में तो उन्हें भी गैस चेंबरों में झोंक दिया गया।
- 'अच्छे जर्मन' बच्चों को नात्सी शिक्षा प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। यह विचारधारात्मक प्रशिक्षण की एक लंबी प्रक्रिया थी । स्कूली पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखा गया।
- बच्चों को सिखाया गया कि वे वफ़ादार व आज्ञाकारी बनें, यहूदियों से नफ़रत और हिटलर की पूजा करें। खेल-कूद के ज़रिए भी बच्चों में हिंसा और आक्रामकता की भावना पैदा की जाती थी।
- हिटलर का मानना था कि मुक्केबाज़ी का प्रशिक्षण बच्चों को फ़ौलादी दिल वाला, ताकतवर और मर्दाना बना सकता है।
- जर्मन बच्चों और युवाओं को 'राष्ट्रीय समाजवाद की भावना' से लैस करने की ज़िम्मेदारी युवा संगठनों को सौंपी गई। 10 साल की उम्र के बच्चों को युंगफ़ोक में दाखिल करा दिया जाता था। 14 साल की उम्र में सभी लड़कों को नात्सियों के युवा संगठन - हिटलर यूथ की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
- इस संगठन में वे युद्ध की उपासना, आक्रामकता व हिंसा, लोकतंत्र की निंदा और यहूदियों, कम्युनिस्टों, जिप्सियों व अन्य ‘अवांछितों' से घृणा का सबक सीखते थे।
- गहन विचारधारात्मक और शारीरिक प्रशिक्षण के बाद लगभग 18 साल की उम्र में वे लेबर सर्विस ( श्रम सेवा) में शामिल हो जाते थे। इसके बाद उन्हें सेना में काम करना पड़ता था और किसी नात्सी संगठन की सदस्यता लेनी पड़ती थी।
मातृत्व की नात्सी सोच
- नात्सी जर्मनी में प्रत्येक बच्चे को बार-बार यह बताया जाता था कि औरतें बुनियादी तौर पर मर्दों से भिन्न होती हैं। उन्हें समझाया जाता था कि औरत-मर्द के लिए समान अधिकारों का संघर्ष गलत है। यह समाज को नष्ट कर देगा।
- इसी आधार पर लड़कों को आक्रामक, मर्दाना और पत्थरदिल होना सिखाया जाता था जबकि लड़कियों को यह कहा जाता था कि उनका फ़र्ज़ एक अच्छी माँ बनना और शुद्ध आर्य रक्त वाले बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण करना है।
- नस्ल की शुद्धता बनाए रखने, यहूदियों से दूर रहने, घर संभालने और बच्चों को नात्सी मूल्य मान्यताओं की शिक्षा देने का दायित्व उन्हें ही सौंपा गया था। आर्य संस्कृति और नस्ल की ध्वजवाहक वही थीं।
- 1933 में हिटलर ने कहा था : 'मेरे राज्य की सबसे महत्त्वपूर्ण नागरिक माँ है।' लेकिन नात्सी जर्मनी में सारी माताओं के साथ भी एक जैसा बर्ताव नहीं होता था।
- जो औरतें नस्ली तौर पर अवांछित बच्चों को जन्म देती थीं उन्हें दंडित किया जाता था जबकि नस्ली तौर पर वांछित दिखने वाले बच्चों को जन्म देने वाली माताओं को इनाम दिए जाते थे।
- ऐसी माताओं को अस्पताल में विशेष सुविधाएँ दी जाती थीं, दुकानों में उन्हें ज़्यादा छूट मिलती थी और थियेटर व रेलगाड़ी के टिकट उन्हें सस्ते में मिलते थे।
- हिटलर ने खूब सारे बच्चों को जन्म देने वाली माताओं के लिए वैसे ही तमगे देने का इंतज़ाम किया था जिस तरह के तमगे सिपाहियों को दिए जाते थे।
- चार बच्चे पैदा करने वाली माँ को काँसे का, छः बच्चे पैदा करने वाली माँ को चाँदी का और आठ या उससे ज्यादा बच्चे पैदा करने वाली माँ को सोने का तमगा दिया जाता था।
- निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करने वाली 'आर्य' औरतों की सार्वजनिक रूप से निंदा की जाती थी और उन्हें कड़ा दंड दिया जाता था।
- बहुत सारी औरतों को गंजा करके, मुँह पर कालिख पोत कर और उनके गले में तख्ती लटका कर पूरे शहर में घुमाया जाता था। उनके गले में लटकी तख्ती पर लिखा होता था 'मैंने राष्ट्र के सम्मान को मलिन किया है। '
- इस आपराधिक कृत्य के लिए बहुत सारी औरतों को न केवल जेल की सज़ा दी गई बल्कि उनसे तमाम नागरिक सम्मान और उनके पति व परिवार भी छीन लिए गए।
प्रचार की कला
- नात्सी शासन ने भाषा और मीडिया का बड़ी होशियारी से इस्तेमाल किया और उसका ज़बर्दस्त फायदा उठाया। उन्होंने अपने तौर-तरीकों को बयान करने के लिए जो शब्द ईजाद किए थे वे न केवल भ्रामक बल्कि दिल दहला देने वाले शब्द थे ।
- नात्सियों ने अपने अधिकृत दस्तावेजों में 'हत्या' या 'मौत' जैसे शब्दों का कभी इस्तेमाल नहीं किया। सामूहिक हत्याओं को विशेष व्यवहार, अंतिम समाधान (यहूदियों के संदर्भ में), यूथनेजिया (विकलांगों के लिए), चयन और संक्रमण मुक्ति आदि शब्दों से व्यक्त किया जाता था।
- शासन के लिए समर्थन हासिल करने और नात्सी विश्व दृष्टिकोण को फैलाने के लिए मीडिया का बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल किया गया। नात्सी विचारों को फैलाने के लिए तस्वीरों, फ़िल्मों, रेडियो, पोस्टरों, आकर्षक नारों और इश्तहारी पर्चों का खूब सहारा लिया जाता था।
- पोस्टरों में जर्मनों के 'दुश्मनों' की रटी-रटाई छवियाँ दिखाई जाती थीं, उनका मजाक उड़ाया जाता था, उन्हें अपमानित किया जाता था, उन्हें शैतान के रूप में पेश किया जाता था।
- समाजवादियों और उदारवादियों को कमज़ोर और पथभ्रष्ट तत्त्वों के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। उन्हें विदेशी एजेंट कहकर बदनाम किया जाता था।
- प्रचार फ़िल्मों में यहूदियों के प्रति नफ़रत फैलाने पर जोर दिया जाता था। 'द एटर्नल ज्यू' (अक्षय यहूदी) इस सूची की सबसे कुख्यात फ़िल्म थी।
- परंपराप्रिय यहूदियों को खास तरह की छवियों में पेश किया जाता था। उन्हें दाढ़ी बढ़ाए और काफ्तान (चोगा) पहने दिखाया जाता था, जबकि वास्तव में जर्मन यहूदियों और बाकी जर्मनों के बीच कोई फ़र्क करना असंभव था क्योंकि दोनों समुदाय एक-दूसरे में काफ़ी घुले-मिले हुए थे।
- उन्हें केंचुआ, चूहा और कीड़ा जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता था। उनकी चाल-ढाल की तुलना कुतरने वाले छछूंदरी जीवों से की जाती थी।
- नात्सीवाद ने लोगों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डाला, उनकी भावनाओं को भड़का कर उनके गुस्से और नफ़रत को 'अवांछितों' पर केंद्रित कर दिया। इसी अभियान से नात्सीवाद का सामाजिक आधार पैदा हुआ।
- नात्सियों ने आबादी के सभी हिस्सों को आकर्षित करने के लिए प्रयास किए। पूरे समाज को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए उन्होंने लोगों को इस बात का अहसास कराया कि उनकी समस्याओं को सिर्फ नात्सी ही हल कर सकते हैं।
महाध्वंस (होलोकॉस्ट)
- नात्सी तौर-तरीकों की जानकारी नात्सी शासन के आखिरी सालों में रिस-रिस कर जर्मनी से बाहर जाने लगी थी। लेकिन, वहाँ कितना भीषण रक्तपात और बर्बर दमन हुआ था, इसका असली अंदाज़ा तो दुनिया को युद्ध खत्म होने और जर्मनी के हार जाने के बाद ही लग पाया।
- जर्मन समाज तो मलबे में दबे एक पराजित राष्ट्र के रूप में अपनी दुर्दशा से दुखी था ही, लेकिन यहूदी भी चाहते थे कि दुनिया उन भीषण अत्याचारों और पीड़ाओं को याद रखे जो उन्होंने नात्सी कत्लेआम में झेली थीं।
- इन्हीं कत्लेआमों को महाध्वंस (होलोकॉस्ट) भी कहा जाता है। जब दमनचक्र अपने शिखर पर था उन्हीं दिनों एक यहूदी टोले में रहने वाले एक आदमी ने अपने साथी से कहा था कि वह युद्ध के बाद सिर्फ आधा घंटा और जीना चाहता है।
- शायद वह दुनिया को यह बता कर जाना चाहता था कि नात्सी जर्मनी में क्या-क्या हो रहा था। जो कुछ हुआ उसकी गवाही देने और जो भी दस्तावेज़ हाथ आए उन्हें बचाए रखने की यह अदम्य चाह घेरों और कैंपों में नारकीय जीवन भोगने वालों में बहुत गहरे तौर पर देखी जा सकती है।
- उनमें से बहुतों ने डायरियाँ लिखीं, नोटबुक लिखीं और दस्तावेजों के संग्रह बनाए। इसके विपरीत, जब यह दिखाई देने लगा कि अब युद्ध में नात्सियों की पराजय तय ही है तो नात्सी नेतृत्व ने दफ्तरों में मौजूद तमाम सबूतों को नष्ट करने के लिए अपने कर्मचारियों को पेट्रोल बाँटना शुरू कर दिया।
- दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में स्मृति लेखों, साहित्य, वृत्तचित्रों, शायरी, स्मारकों और संग्रहालयों में इस महाध्वंस का इतिहास और स्मृति आज भी जिंदा है।
- ये सारी चीज़ें उन लोगों के लिए एक श्रद्धांजलि हैं जिन्होंने उन स्याह दिनों में भी प्रतिरोध का साहस दिखाया।
वाइमर गणराज्य का जन्म
- बीसवीं शताब्दी के शुरुआती सालों में जर्मनी एक ताकतवर साम्राज्य था। उसने ऑस्ट्रियाई साम्राज्य के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ्रांस और रूस) के खिलाफ पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) लड़ा था।
- दुनिया की सभी बड़ी शक्तियाँ यह सोच कर इस युद्ध में कूद पड़ी थीं कि उन्हें जल्दी ही विजय मिल जाएगी। सभी को किसी-न-किसी फ़ायदे की उम्मीद थी। उन्हें अंदाजा नहीं था कि यह युद्ध इतना लंबा खिंच जाएगा और पूरे यूरोप को आर्थिक दृष्टि से निचोड़ कर रख देगा।
- फ्रांस और बेल्जियम पर कब्जा करके जर्मनी ने शुरुआत में सफलताएँ हासिल कीं लेकिन 1917 में जब अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों में शामिल हो गया तो इस खेमे को काफ़ी ताकत मिली और आखिरकार, नवंबर 1918 में उन्होंने केंद्रीय शक्तियों को हराने के बाद जर्मनी को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।
- साम्राज्यवादी जर्मनी की पराजय और सम्राट के पदत्याग ने वहाँ की संसदीय पार्टियों को जर्मन राजनीतिक व्यवस्था को एक नए साँचे में ढालने का अच्छा मौका उपलब्ध कराया। इसी सिलसिले में वाइमर में एक राष्ट्रीय सभा की बैठक बुलाई गई और संघीय आधार पर एक लोकतांत्रिक संविधान पारित किया गया।
- नई व्यवस्था में जर्मन संसद यानी राइख़स्टाम के लिए जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाने लगा। प्रतिनिधियों के निर्वाचन के लिए औरतों सहित सभी वयस्क नागरिकों को समान और सार्वभौमिक मताधिकार प्रदान किया गया।
- यह नया गणराज्य खुद जर्मनी के ही बहुत सारे लोगों को रास नहीं आ रहा था। इसकी एक वजह तो यही थी कि पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की भाजय के बाद विजयी देशों ने उस पर बहुत कठोर शर्तें घोप दी थी।
- मित्र राष्ट्रों के साथ वसांय (Versailles) में हुई शांति-संधि जर्मनी की जनता के लिए बहुत कठोर और अपमानजनक थी।
- इस संधि की वजह से जर्मनी को अपने सारे उपनिवेश, तकरीबन 10 प्रतिशत आबादी 13 प्रतिशत भूभाग 75 प्रतिशत लौह भंडार और 26 प्रतिशत कोयला भंडार फ्रांस, पोलैंड, डेनमार्क और लिथुआनिया के हवाले करने पड़े।
- जर्मनी की रही-सही ताकत खत्म करने के लिए मित्र राष्ट्रों ने उसकी सेना भी भंग कर दी। युद्ध अपराधबोध अनुच्छेद (War Guilt Clause) के तहत युद्ध के कारण हुई सारी तबाही के लिए जर्मनी को जिम्मेदार ठहराया गया। इसके एवज में उस पर छ: अरब पौंड का जुर्माना लगाया गया।
- खनिज संसाधनों वाले राईनलैंड पर भी बीस के दशक में ज्यादातर मित्र राष्ट्रों का ही कृष्णा रहा। बहुत सारे जर्मनों ने न केवल इस हार के लिए बल्कि क्सय में हुए इस अपमान के लिए भी वाइमर गणराज्य को ही जिम्मेदार ठहराया।
युद्ध का असर
- इस बुद्ध ने पूरे महाद्वीप को मनोवैज्ञानिक और आर्थिक, दोनों ही स्तरों पर तोड़ कर रख दिया। यूरोप कल तक कर्ज देने वालों का महाद्वीप कहलाता था जो युद्ध खत्म होते-होते कर्जदारों का महाद्वीप बन गया।
- विडंबना यह थी कि पुराने साम्राज्य द्वारा किए गए अपराधों का हर्जाना नवजात वाइमर गणराज्य से वसूल किया जा रहा था।
- इस गणराज्य को युद्ध में पराजय के अपराधबोध और राष्ट्रीय अपमान का बोझ तो होना ही पड़ा, हर्जाना चुकाने की वजह से आर्थिक स्तर पर भी वह अपंग हो चुका था।
- वाइमर गणराज्य के हिमायतियों में मुख्य रूप से समाजवादी, कैथलिक और डेमोक्रेट खेमे के लोग थे। रूढ़िवादी पुरातनपंथी राष्ट्रवादी मिथकों की आहु में उन्हें तरह-तरह के हमलों का निशाना बनाया जाने लगा।
- ‘नवंबर के अपराधी' कहकर उनका खुलेआम मजाक उड़ाया गया। इस मनोदशा का तीस के दशक के शुरुआती राजनीतिक घटनाक्रम पर गहरा असर पड़ा।
- पहले महायुद्ध ने यूरोपीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी। सिपाहियों को आम नागरिकों के मुकाबले ज्यादा सम्मान दिया जाने लगा।
- राजनेता और प्रचारक इस बात पर जोर देने लगे कि पुरुषों को आक्रामक ताकतवर और मर्दाना गुणों वाला होना चाहिए।
- मीडिया में खंदकों की जिंदगी का महिमामंडन किया जा रहा था। लेकिन सच्चाई यह थी कि सिपाही इन खंदकों में बड़ी दयनीय जिंदगी जी रहे थे।
- वे लाशों को खाने वाले चूहों से घिरे रहते। वे जहरीली गैस और दुश्मनों की गोलाबारी का बहादुरी से सामना करते हुए भी अपने साथियों को पल-पल मस्ते देखते थे।
- सार्वजनिक जीवन में आक्रामक फ़ौजी प्रचार और राष्ट्रीय सम्मान व प्रतिष्ठा की चाह के सामने बाकी सारी चीजें गौण हो गई जबकि हाल ही में सत्ता में आए रूढ़िवादी तानाशाहों को व्यापक जनसमर्थन मिलने लगा।
- उस वक्त लोकतंत्र एक नया और बहुत नाजुक विचार था जो दोनों महायुद्धों के बीच पूरे यूरोप में फैली अस्थिरता का सामना नहीं कर सकता था।
राजनीतिक रैडिकलवाद ( आमूल परिवर्तनवाद) और आर्थिक संकट
- जिस समय वाइमर गणराज्य की स्थापना हुई उसी समय रूस में हुई बोल्शेविक क्रांति की तर्ज पर जर्मनी में भी स्पार्टकिस्ट लीग अपने क्रांतिकारी विद्रोह की योजनाओं को अंजाम देने लगी। बहुत सारे शहरों में मज़दूरों और नाविकों की सोवियतें बनाई गईं।
- बर्लिन के राजनीतिक माहौल में सोवियत किस्म की शासन व्यवस्था की हिमायत के नारे गँजू रहे थे। इसीलिए समाजवादियों, डेमोक्रैट्स और कैथलिक गुटों ने वाइमर में इकट्ठा होकर इस प्रकार की शासन व्यवस्था के विरोध में एक लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना का फ़ैसला लिया और आखिरकार वाइमर गणराज्य ने पुराने सैनिकों के फ्री कोर नामक संगठन की मदद से इस विद्रोह को कुचल दिया।
- इस पूरे घटनाक्रम के बाद स्पार्टकिस्टों ने जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव डाली। इसके बाद कम्युनिस्ट (साम्यवादी) और समाजवादी एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हो गए और हिटलर के खिलाफ़ कभी भी साझा मोर्चा नहीं खोल सके। क्रांतिकारी और उग्र राष्ट्रवादी, दोनों ही खेमे रैडिकल समाधानों के लिए आवाज़ें उठाने लगे।
- राजनीतिक रैडिकलवादी विचारों को 1923 ई. के आर्थिक संकट से और बल मिला । जर्मनी ने पहला विश्वयुद्ध मोटे तौर पर कर्ज़ लेकर लड़ा था और युद्ध के बाद तो उसे स्वर्ण मुद्रा में हर्जाना भी भरना पड़ा। इस दोहरे बोझ से जर्मनी के स्वर्ण भंडार लगभग समाप्त होने की स्थिति में पहुँच गए थे।
- आखिरकार 1923 ई. में जर्मनी ने कर्ज़ और हर्जाना चुकाने से इनकार कर दिया। इसके जवाब में फ्रांसीसियों ने जर्मनी के मुख्य औद्योगिक इलाके रूर पर कब्ज़ा कर लिया। यह जर्मनी के विशाल कोयला भंडारों वाला इलाका था।
- जर्मनी ने फ्रांस के विरुद्ध निष्क्रिय प्रतिरोध के रूप में बड़े पैमाने पर कागज़ी मुद्रा छापना शुरू कर दिया। जर्मन सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर मुद्रा छाप दी कि उसकी मुद्रा मार्क का मूल्य तेज़ी से गिरने लगा।
- अप्रैल में एक अमेरिकी डॉलर की कीमत 24,000 मार्क के बराबर थी जो जुलाई में 353,000 मार्क, अगस्त में 46,21,000 मार्क तथा दिसंबर में 9,88,60,000 मार्क हो गई।
- इस तरह एक डॉलर में खरबों मार्क मिलने लगे। जैसे-जैसे मार्क की कीमत गिरती गई, ज़रूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छूने लगीं।
- जर्मन समाज दुनिया भर में हमदर्दी का पात्र बन कर रह गया। इस संकट को बाद में अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया गया। जब कीमतें बेहिसाब बढ़ जाती हैं तो उस स्थिति को अति-मुद्रास्फीति का नाम दिया जाता है।
- जर्मनी को इस संकट से निकालने के लिए अमेरिकी सरकार ने हस्तक्षेप किया। इसके लिए अमेरिका ने डॉव्स योजना बनाई। इस योजना में जर्मनी के आर्थिक संकट को दूर करने के लिए हर्जाने की शर्तों को दोबारा तय किया गया।
मंदी के सा
- सन् 1924 से 1928 तक जर्मनी कुछ स्थिरता रही। लेकिन यह स्थिरता मानो रेत के ढेर पर खड़ी थी। जर्मन निवेश और औद्योगिक गतिविधियों में सुधार मुख्यतः अमेरिका से लिए गए अल्पकालिक कर्जों पर आश्रित था।
- जब 1929 में वॉल स्ट्रीट एक्सचेंज (शेयर बाजार) धराशायी हो गया तो जर्मनी को मिल रही यह मदद भी रातों-रात बंद हो गई।
- कीमतों में गिरावट की आशंका को देखते हुए लोग धड़ाधड़ अपने शेयर बेचने लगे। 24 अक्तूबर को केवल एक दिन में 1.3 करोड़ शेयर बेच दिए गए।
- यह आर्थिक महामंदी की शुरुआत थी। 1929 से 1932 तक के अगले तीन सालों में अमेरिका की राष्ट्रीय आय केवल आधी रह गई।
- फैक्ट्रियाँ बंद हो गई थीं, निर्यात गिरता जा रहा था, किसानों की हालत खराब थी और निवेशक बाजार से पैसा खींचते जा रहे थे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई इस मंदी का असर दुनिया भर में महसूस किया गया।
- इस मंदी का सबसे बुरा प्रभाव जर्मन अर्थव्यवस्था पर पड़ा। 1932 में जर्मनी का औद्योगिक उत्पादन 1929 के मुकाबले केवल चालीस प्रतिशत रह गया था।
- मज़दूर या तो बेरोज़गार होते जा रहे थे या उनके वेतन काफ़ी गिर चुके थे। बेरोजगारों की संख्या 60 लाख तक जा पहुँची।
- जर्मनी की सड़कों पर ऐसे लोग बड़ी तादाद में दिखाई देने लगे जो–‘मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ'- लिखी तख्ती गले में लटकाये खड़े रहते थे।
- बेरोज़गार नौजवान या तो ताश खेलते पाए जाते थे, नुक्कड़ों पर झुंड लगाए रहते थे या फिर रोज़गार दफ्तरों के बाहर लंबी-लंबी कतार में खड़े पाए जाते थे। जैसे-जैसे रोज़गार खत्म हो रहे थे, युवा वर्ग आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होता जा रहा था। चारों तरफ़ गहरी हताशा का माहौल था।
- आर्थिक संकट ने लोगों में गहरी बेचैनी और डर पैदा कर दिया था। जैसे-जैसे मुद्रा का अवमूल्यन होता जा रहा था; मध्यवर्ग, खासतौर से वेतनभोगी कर्मचारी और पेंशनधारियों की बचत भी सिकुड़ती जा रही थी।
- कारोबार ठप्प हो जाने से छोटे-मोटे व्यवसायी, स्वरोजगार में लगे लोग और खुदरा व्यापारियों की हालत भी खराब होती जा रही थी।
- समाज के इन तबकों को सर्वहाराकरण का भय सता रहा था। उन्हें डर था कि अगर यही ढर्रा रहा तो वे भी एक दिन मज़दूर बनकर रह जाएँगे या हो सकता है कि उनके पास कोई रोज़गार ही न रह जाए।
- अब सिर्फ संगठित मजदूर ही थे जिनकी हिम्मत टूटी नहीं थी । लेकिन बेरोजगारों की बढ़ती फ़ौज उनकी मोल-भाव क्षमता को भी चोट पहुँचा रही थी। बड़े व्यवसाय संकट में थे।
- किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि उत्पादों की कीमतों में बेहिसाब गिरावट की वजह से परेशान था।
- युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा था। अपने बच्चों का पेट भर पाने में असफल औरतों के दिल भी डूब रहे थे।
- राजनीतिक स्तर पर वाइमर गणराज्य एक नाजुक दौर से गुज़र रहा था। वाइमर संविधान में कुछ ऐसी कमियाँ थीं जिनकी वजह से गणराज्य कभी भी अस्थिरता और तानाशाही का शिकार बन सकता था। इनमें से एक कमी आनुपातिक प्रतिनिधित्व से संबंधित थी।
- दूसरी समस्या अनुच्छेद 48 की वजह से थी जिसमें राष्ट्रपति को आपातकाल लागू करने, नागरिक अधिकार रद्द करने और अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का अधिकार दिया गया था।
- अपने छोटे से जीवन काल में वाइमर गणराज्य का शासन 20 मंत्रिमंडलों के हाथों में रहा और उनकी औसत अवधि 239 दिन से ज्यादा नहीं रही। इस दौरान अनुच्छेद 48 का भी जमकर इस्तेमाल किया गया। पर इन सारे नुस्खों के बावजूद संकट दूर नहीं हो पाया।
- लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में लोगों का विश्वास खत्म होने लगा क्योंकि वह उनके लिए कोई समाधान नहीं खोज पा रही थी ।
हिटलर का उदय
- अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज में गहराते जा रहे इस संकट ने हिटलर के सत्ता में पहुँचने का रास्ता साफ़ कर दिया। 1889 में ऑस्ट्रिया में जन्में हिटलर की युवावस्था बेहद गरीबी में गुजरी थी।
- रोज़ी-रोटी का कोई ज़रिया न होने के कारण पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत में उसने भी अपना नाम फ़ौजी भर्ती के लिए लिखवा दिया था।
- भर्ती के बाद उसने अग्रिम मोर्चे पर संदेशवाहक का काम किया, कॉर्पोरल बना और बहादुरी के लिए उसने कुछ तमगे भी हासिल किए। जर्मन सेना की पराजय ने तो उसे हिला दिया था, लेकिन वर्साय की संधि ने तो उसे आग-बबूला ही कर दिया।
- 1919 ई. में उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी नामक एक छोटे से समूह की सदस्यता ले ली। धीरे-धीरे उसने इस संगठन पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया और उसे नेशनल सोशलिस्ट पार्टी का नया नाम दिया। इसी पार्टी को बाद में नात्सी पार्टी के नाम से जाना गया।
- 1923 ई. में ही हिटलर ने बवेरिया पर कब्ज़ा करने, बर्लिन पर चढ़ाई करने और सत्ता पर कब्ज़ा करने की योजना बना ली थी। इन दुस्साहसिक योजनाओं में वह असफल रहा। उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर देशद्रोह का मुकदमा भी चला लेकिन कुछ समय बाद उसे रिहा कर दिया गया।
- नात्सी राजनीतिक खेमा 1930 के दशक के शुरुआती सालों तक जनता को बड़े पैमाने पर अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पाया। लेकिन महामंदी के दौरान नात्सीवाद ने एक जन आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया।
- नात्सी प्रोपेगैंडा में लोगों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थी। 1929 में नात्सी पार्टी को जर्मन संसद - राइख़स्टाग- के लिए हुए चुनावों में महज़ 2.6 फ़ीसदी वोट मिले थे। 1932 तक आते-आते यह देश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी थी और उसे 37 फ़ीसदी वोट मिले।
- हिटलर ज़बर्दस्त वक्ता था। उसका जोश और उसके शब्द लोगों को हिलाकर रख देते थे। वह अपने भाषणों में एक शक्तिशाली राष्ट्र की स्थापना, वर्साय संधि में हुई नाइंसाफ़ी के प्रतिशोध और जर्मन समाज को खोई हुई प्रतिष्ठा वापस दिलाने का आश्वासन देता था।
- उसका वादा था कि वह बेरोज़गारों को रोज़गार और नौजवानों को एक सुरक्षित भविष्य देगा। उसने आश्वासन दिया कि वह देश को विदेशी प्रभाव से मुक्त कराएगा और तमाम विदेशी 'साज़िशों' का मुँहतोड़ जवाब देगा।
- हिटलर ने राजनीति की एक नई शैली रची थी । वह लोगों को गोलबंद करने के लिए आडंबर और प्रदर्शन की अहमियत समझता था।
- हिटलर के प्रति भारी समर्थन दर्शाने और लोगों में परस्पर एकता का भाव पैदा करने के लिए नात्सियों ने बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जनसभाएँ आयोजित कीं।
- स्वस्तिक छपे लाल झंडे, नात्सी सैल्यूट और भाषणों के बाद खास अंदाज़ में तालियों की गड़गड़ाहटये सारी चीजें शक्ति प्रदर्शन का हिस्सा थीं।
लोकतंत्र का ध्वंस
- 30 जनवरी 1933 को राष्ट्रपति हिंडनबर्ग ने हिटलर को चां का पद - भार संभालने का न्यौता दिया। यह मंत्रिमंडल में सबसे शक्तिशाली पद था। तब तक नात्सी पार्टी रूढ़िवादियों को भी अपने उद्देश्यों से जोड़ चुकी थी ।
- सत्ता हासिल करने के बाद हिटलर ने लोकतांत्रिक शासन की संरचना और संस्थानों को भंग करना शुरू कर दिया।
- फरवरी माह में जर्मन संसद भवन में हुए रहस्यमय अग्निकांड से उसका रास्ता और आसान हो गया।
- 28 फरवरी 1933 को जारी किए गए अग्नि अध्यादेश (फायर डिक्री) के ज़रिए अभिव्यक्ति, प्रेस एवं सभा करने की आज़ादी जैसे नागरिक अधिकारों को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर दिया गया।
- वाइमर संविधान में इन अधिकारों को काफी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसके बाद हिटलर ने अपने कर शत्रु कम्युनिस्टों पर निशाना साधा। ज्यादातर कम्युनिस्टों को रातों-रात कंसन्ट्रेशन कैंपों में बंद कर दिया गया।
- कम्युनिस्टों का बर्बर दमन किया गया। लगभग पाँच लाख की आबादी वाले ड्युस्सलडॉर्फ शहर में गिरफ्तार किए गए लोगों की बची-खुची 6,808 फ़ाइलों में से 1,440 सिर्फ कम्युनिस्टों की थीं ।
- नात्सियों ने सिर्फ कम्युनिस्टों का ही सफ़ाया नहीं किया। नात्सी शासन ने कुल 52 किस्म के लोगों को अपने दमन का निशाना बनाया था।
- 3 मार्च 1933 को प्रसिद्ध विशेषाधिकार अधिनियम (इनेबलिंग ऐक्ट) पारित किया गया। इस कानून के ज़रिए जर्मनी में बाकायदा तानाशाही स्थापित कर दी गई।
- इस कानून ने हिटलर को संसद को हाशिए पर धकेलने और केवल अध्यादेशों के ज़रिए शासन चलाने का निरंकुश अधिकार प्रदान कर दिया।
- नात्सी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों के अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों पर पाबंदी लगा दी गई । अर्थव्यवस्था, मीडिया, सेना और न्यायपालिका पर राज्य का पूरा नियंत्रण स्थापित हो गया।
- पूरे समाज को नात्सियों के हिसाब से नियंत्रित और व्यवस्थित करने के लिए विशेष निगरानी और सुरक्षा दस्ते गठित किए गए।
- पहले से मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टॉर्म ट्र्पर्स (एसए) के अलावा गेस्तापो ( गुप्तचर राज्य पुलिस), एसएस (अपराध नियंत्रण पुलिस) और सुरक्षा सेवा (एसडी) का भी गठन किया गया।
- इन नवगठित दस्तों को बेहिसाब असंवैधानिक अधिकार दिए गए और इन्हीं की वजह से नात्सी राज्य को एक खूंखार आपराधिक राज्य की छवि प्राप्त हुई ।
- गेस्तापो के यंत्रणा गृहों में किसी को भी बंद किया जा सकता था। ये नए दस्ते किसी को भी यातना गृहों में भेज सकते थे, किसी को भी बिना कानूनी कार्रवाई के देश निकाला दिया जा सकता था या गिरफ्तार किया जा सकता था।
- दंड की आशंका से मुक्त पुलिस बलों ने निरंकुश और निरपेक्ष शासन का अधिकार प्राप्त कर लिया था।
पुनर्निर्माण
- हिटलर ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की ज़िम्मेदारी अर्थशास्त्री ह्यालमार शाख़्त को सौंपी। शाख़्त ने सबसे पहले सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले रोज़गार संवर्धन कार्यक्रम के ज़रिए सौ फीसदी उत्पादन और सौ फीसदी रोज़गार उपलब्ध कराने का लक्ष्य तय किया। मशहूर जर्मन सुपर हाइवे और जनता की कार-फ़ॉक्सवैगन-इस परियोजना की देन थी।
- विदेश नीति के मोर्चे पर भी हिटलर को फ़ौरन कामयाबियाँ मिलीं। 1933 में उसने 'लीग ऑफ नेशंस' से पल्ला झाड़ लिया।
- 1936 में राईनलैंड पर दोबारा कब्ज़ा किया और एक जन, एक साम्राज्य, एक नेता के नारे की आड़ में 1938 में ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिला लिया।
- इसके बाद उसने चेकोस्लोवाकिया के क़ब्ज़े वाले जर्मनभाषी सुडेंटनलैंड प्रांत पर कब्ज़ा किया और फिर पूरे चेकोस्लोवाकिया को हड़प लिया।
- इस दौरान उसे इंग्लैंड का भी खामोश समर्थन मिल रहा था क्योंकि इंग्लैंड की नज़र में वर्साय की संधि के नाम पर जर्मनी के साथ बड़ी नाइंसाफ़ी हुई थी।
- घरेलू और विदेशी मोर्चे पर त्वरित मिली इन कामयाबियों से ऐसा लगा कि देश की नियति अब पलटने वाली है। लेकिन हिटलर यहीं नहीं रुका । शाख़्त ने हिटलर को सलाह दी थी कि सेना और हथियारों पर ज्यादा पैसा खर्च न किया जाए क्योंकि सरकारी बजट अभी भी घाटे में ही चल रहा था। लेकिन नात्सी जर्मनी में एहतियात पसंद लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी।
- शाख़्त को उनके पद से हटा दिया गया। हिटलर ने आर्थिक संकट से निकलने के लिए युद्ध का विकल्प चुना। वह राष्ट्रीय सीमाओं का विस्तार करते हुए ज्यादा से ज्यादा संसाधन इकट्ठा करना चाहता था।
- इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए सितंबर 1939 में उसने पोलैंड पर हमला कर दिया। इसकी वजह से फ्रांस और इंग्लैंड के साथ भी उसका युद्ध शुरू हो गया ।
- सितंबर 1940 में जर्मनी ने इटली और जापान के साथ एक त्रिपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हिटलर का दावा और मज़बूत हो गया।
- यूरोप के ज़्यादातर देशों में नात्सी जर्मनी का समर्थन करने वाली कठपुतली सरकारें बिठा दी गईं। 1940 के अंत में हिटलर अपनी ताकत के शिखर पर था ।
- अब हिटलर ने अपना सारा ध्यान पूर्वी यूरोप को जीतने के दीर्घकालिक सपने पर केंद्रित कर दिया। वह जर्मन जनता के लिए संसाधन और रहने की जगह (Living Space) का इंतज़ाम करना चाहता था। जून 1941 में उसने सोवियत संघ पर हमला किया।
- यह हिटलर की एक ऐतिहासिक भूल थी । इस आक्रमण से जर्मन पश्चिमी मोर्चा ब्रिटिश वायुसैनिकों के बमबारी की चपेट में आ गया जबकि पूर्वी मोर्चे पर सोवियत सेनाएँ जर्मनों को नाकों चने चबवा रही थीं।
- सोवियत लाल सेना ने स्तालिनग्राद में जर्मन सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। सोवियत लाल सैनिकों ने पीछे हटते जर्मन सिपाहियों का आखिर तक पीछा किया और अंत में वे बलिर्न के बीचोंबीच जा पहुँचे।
- इस घटनाक्रम ने अगली आधी सदी के लिए समूचे पूर्वी यूरोप पर सोवियत वर्चस्व स्थापित कर दिया।
- अमेरिका इस युद्ध में फँसने से लगातार बचता रहा। अमेरिका पहले विश्वयुद्ध की वजह से पैदा हुई आर्थिक समस्याओं को दोबारा नहीं झेलना चाहता था। लेकिन वह लंबे समय तक युद्ध से दूर भी नहीं रह सकता था।
- पूरब में जापान की ताकत फैलती जा रही थी। उसने फ्रेंच-इंडो-चाइना पर कब्ज़ा कर लिया था और प्रशांत महासागर में अमेरिकी नौसैनिक ठिकानों पर हमले की पूरी योजना बना ली थी।
- जब जापान ने हिटलर को समर्थन दिया और पर्ल हार्बर पर अमेरिकी ठिकानों को बमबारी का निशाना बनाया तो अमेरिका भी दूसरे विश्वयुद्ध में कूद पड़ा।
- यह युद्ध मई 1945 में हिटलर की पराजय और जापान के हिरोशिमा शहर पर अमेरिकी परमाणु बम गिराने के साथ खत्म हुआ।
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