BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | भारत की भौतिक स्थिति

कठोर एवं स्थिर प्रायद्वीपीय खंड के विपरीत हिमालय और अतिरिक्त-प्रायद्वीपीय पर्वतमालाओं की भूवैज्ञानिक संरचना तरूण, दुर्बल और लचीली है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | भारत की भौतिक स्थिति

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH GEOGRAPHY NOTES | भारत की भौतिक स्थिति

हिमालय और अन्य अतिरिक्त प्रायद्वीपीय

पर्वतमालाएँ
  • कठोर एवं स्थिर प्रायद्वीपीय खंड के विपरीत हिमालय और अतिरिक्त-प्रायद्वीपीय पर्वतमालाओं की भूवैज्ञानिक संरचना तरूण, दुर्बल और लचीली है।

  • इन पर्वतों की उत्पत्ति विवर्तनिक हलचलों से जुड़ी हैं। तेज बहाव वाली नदियों से अपरदित ये पर्वत अभी भी युवा अवस्था में हैं।
  • गॉर्ज, V-आकार घाटियाँ, क्षिप्रिकाएँ व जल प्रपात इत्यादि इसका प्रमाण हैं।
सिंधु - गंगा - बह्मपुत्र मैदान
  • भारत का तृतीय भूवैज्ञानिक खंड सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र नदियों का मैदान है। मूलत: यह एक भू-अभिनति गर्त है जिसका निर्माण मुख्य रूप से हिमालय पर्वतमाला निर्माण प्रक्रिया के तीसरे चरण में लगभग 6.4 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। तब से इसे हिमालय और प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ लाए हुए अवसादों से पाट रही हैं। इन मैदानों में जलोढ़ की औसत गहराई 1000 से 2000 मीटर है।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में भूवैज्ञानिक और भूआकृतिक प्रक्रियाओं का यहाँ की भूआकृति एवं उच्चावच पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पाया जाता है।
भू-आकृति
  • किसी स्थान की भू-आकृति, उसकी संरचना, प्रक्रिया और विकास की अवस्था का परिणाम है। भारत में धरातलीय विभिन्नताएँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं |
  • इसके उत्तर में एक बड़े क्षेत्र में ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृति है। इसमें हिमालय पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, जिसमें अनेकों चोटियाँ, सुंदर घाटियाँ व महाखड्ड हैं।
  • दक्षिण भारत एक स्थिर परंतु कटा-फटा पठार है जहाँ अपरदित चट्टान खंड और कगारों की भरमार है। इन दोनों के बीच उत्तर भारत का विशाल मैदान है।
  • भारत को निम्नलिखित भू-आकृतिक खंडों में बाँटा जा सकता है।
    (1) उत्तर तथा उत्तरी - पूर्वी पर्वतमाला;
    (2) उत्तरी भारत का मैदान;
    (3) प्रायद्वीपीय पठार;
    (4) भारतीय मरुस्थल;
    (5) तटीय मैदान;
    (6) द्वीप समूह
उत्तर तथा उत्तरी पूर्वी पर्वतमाला
  • उत्तर तथा उत्तरी-पूर्वी पर्वतमाला में हिमालय पर्वत और उत्तरी-पूर्वी पहाड़ियाँ शामिल हैं। हिमालय में कई समानांतर पर्वत श्रृंखलाएँ हैं।
  • भारत की उत्तरी सीमा पर विस्तृत हिमालय भूगर्भीय रूप से युवा एवं बनावट के दृष्टिकोण से वलित पर्वत श्रृंखला है। ये पर्वत श्रृंखलाएं पश्चिम पूर्व दिशा में सिंधु से लेकर बह्मपुत्र तक फैली है।
  • हिमालय विश्व की सबसे ऊँची पर्वत श्रेणी है और एक अत्यधिक असम अवरोधों में से एक है। ये 2400 किमी. की लंबाई में फैले एक अर्द्धवृत का निर्माण करते हैं। इसमें पार हिमालय बृहत हिमालय, शृंखलाएँ, मध्य हिमालय और शिवालिक प्रमुख श्रेणियाँ हैं।
  • भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में हिमालय की ये श्रेणियाँ उत्तर-पश्चिम दिशा से दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर फैली हैं।
  • दार्जिलिंग और सिक्किम क्षेत्रों में ये श्रेणियाँ पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली हैं जबकि अरुणाचल प्रदेश में ये दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पश्चिम की ओर घूम जाती हैं। मिजोरम, नागालैंड और मणिपुर में ये पहाड़ियाँ उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हैं।
  • बृहत हिमालय श्रृंखला, जिसे केंद्रीय अक्षीय श्रेणी भी कहा जाता है, की पूर्व-पश्चिम लंबाई लगभग 2,500 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण इसकी चौड़ाई 160 से 400 किलोमीटर है।
  • हिमाद्रि के दक्षिण में स्थित श्रृंखला सबसे अधिक असम है एवं हिमाचल या निम्न हिमालय के नाम से जानी जाती है।
  • इनश्रृंखलाओं का निर्माण मुख्यतः अत्याधिक संपीडित तथा परिवर्तित शैलों से हुआ हैं। इनकी ऊँचाई 3,700 मीटर से 4,500 मीटर के बीच तथा औसत चौड़ाई 50 किलोमीटर है।
  • मध्य हिमालय में पीर पंजाल शृंखला सबसे लंबी तथा सबसे महत्त्वपूर्ण श्रृंखला है, धौलाधर एवं महाभारत शृंखलाएँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इसी शृंखला में कश्मीर की घाटी तथा हिमाचल के कांगड़ा एवं कुल्लू की घाटियाँ स्थित हैं। इस क्षेत्र को पहाड़ी नगरों के लिए जाना जाता है।
  • हिमालय की सबसे बाहरी श्रृंखला को शिवालिक कहा जाता है। इनकी चौड़ाई 10 से 50 किमी. तथा ऊँचाई 900 से 1,100 मीटर के बीच है। ये श्रृंखलाएँ, उत्तर में स्थित मुख्य हिमालय की शृंखलाओं से नदियों द्वारा लायी गयी असंपीडित अवसादों से बनी है।
  • ये घाटियाँ बजरी तथा जलोढ़ की मोटी परत से ढंकी हुई हैं। निम्न हिमाचल तथा शिवालिक के बीच में स्थित लंबवत् घाटी को दून के नाम से जाना जाता है। कुछ प्रसिद्ध दून हैं- देहरादून, कोटलीदून एवं पाटलीदून।
  • हिमालय, भारतीय उपमहाद्वीप तथा मध्य एवं पूर्वी एशिया के देशों के बीच एक मजबूत लंबी दीवार के रूप खड़ा है।
  • उत्तर-दक्षिण के अतिरिक्त हिमालय को पश्चिम से पूर्व तक स्थित क्षेत्रों के आधार पर भी विभाजित किया गया है। इन वर्गीकरणों का आधार नदी घाटियों की सीमाएं उदाहरण के लिए, सतलुज एवं सिंधु के बीच स्थित हिमालय के भाग को 'पंजाब हिमालय' के नाम से जाना जाता है। पश्चिम से पूर्व तक क्रमश: इसे 'कश्मीर तथा हिमाचल हिमालय' के नाम से भी जाना जाता है।
  • सतलुज तथा काली नदियों के बीच स्थित हिमालय के भाग को 'कुमाँऊ हिमालय' के नाम से भी जाना जाता है। काली तथा तीस्ता नदियाँ, नेपाल हिमालय का एवं तीस्ता तथा दिहांग नदियाँ असम हिमालय का सीमांकन करती है।
  • ब्रह्मपुत्र हिमालय की सबसे पूर्वी सीमा बनाती है। दिहांग महाखड्ड (गार्ज) के बाद हिमालय दक्षिण की ओर एक तीखा मोड़ बनाते हुए भारत की पूर्वी सीमा के साथ फैल जाता है। इन्हें पूर्वांचल या पूर्वी पहाड़ियों की पर्वत श्रृंखलाओं के नाम से जाना जाता है।
  • ये पहाड़ियाँ उत्तर-पूर्वी राज्यों से होकर गुजरती हैं तथा मजबूत बलुआ पत्थरों, जो अवसादी शैल है, से बनी है। ये घने जंगलों से ढकी हैं। तथा अधिकतर समानांतर शृंखलाओं एवं घाटियों के रूप में फैली हैं। पूर्वांचल में पटकाई, नागा, मिजो तथा मणिपुर पहाड़ियाँ शामिल हैं।
  • हिमालय एक प्राकृतिक रोधक ही नहीं अपितु जलवायु, अपवाह और सांस्कृतिक विभाजक भी है।
  • हिमालय पर्वतमाला में भी अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ हैं। उच्चावच, पर्वत श्रेणियों के संरेखण और दूसरी भू-आकृतियों के आधार पर हिमालय को निम्नलिखित उपखंडों में विभाजित किया जा सकता है।
    (i) कश्मीर या उत्तरी - पश्चिमी हिमालय;
    (ii) हिमाचल और उत्तरांचल हिमालय;
    (iii) दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय;
    (iv) अरुणाचल हिमालय;
    (v) पूर्वी पहाड़ियाँ और पर्वत
कश्मीर या उत्तरी - पश्चिमी हिमालय
  • कश्मीर हिमालय में अनेक पर्वत श्रेणियाँ हैं, जैसे- कराकोरम लद्दाख, जास्कर और पीरपंजाल। कश्मीर हिमालय का उत्तरी-पूर्वी भाग, जो बृहत हिमालय और कराकोरम श्रेणियों के बीच स्थित है, एक ठंडा मरुस्थल है।
  • बृहत हिमालय और पीरपंजाल के बीच विश्व प्रसिद्ध कश्मीर घाटी और डल झील हैं। दक्षिण एशिया की महत्त्वपूर्ण हिमानी नदियाँ बलटोरो और सियाचिन इसी प्रदेश में हैं।
  • कश्मीर हिमालय करेवा (karewa) के लिए भी प्रसिद्ध है, जहाँ जाफरान (केसर) की खेती की जाती है। बृहत हिमालय में जोजीला, पीर पंजाल में बानिहाल, जास्कर श्रेणी में फोटुला और लद्दाख श्रेणी में खर्दुगला जैसे महत्त्वपूर्ण दरें स्थित हैं। महत्त्वपूर्ण अलवण जल की झीलें, जैसे- डल और वुलर तथा लवणजल झीलें, जैसे- पाँगाँग सो (Pangongtso) और सोमुरीरी ( Tsomuriri) भी इसी क्षेत्र में पाई जाती हैं। सिंधु तथा इसकी सहायक नदियाँ, झेलम और चेनाब, इस क्षेत्र को अपवाहित करती हैं।
  • कश्मीर और उत्तर-पश्चिमी हिमालय विलक्षण सौंदर्य और खूबसूरत दृश्य स्थलों के लिए जाना जाता है। वैष्णो देवी, अमरनाथ गुफा और चरार-ए-शरीफ भी यहीं स्थित है।
  • जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर झेलम नदी के किनारे स्थित है। श्रीनगर में डल झील एक रोचक प्राकृतिक स्थल है। कश्मीर घाटी में झेलम नदी युवा अवस्था में बहती है तथापि नदीय स्थलरूप के विकास में प्रौढ़ावस्था में निर्मित होने वाली विशिष्ट आकृति विसप का निर्माण करती है।
  • प्रदेश के दक्षिणी भाग में अनुदैर्ध्य (longitudinal) घाटियाँ पाई जाती है जिन्हें दून कहा जाता है। इनमें जम्मू-दून और पठानकोट- दून प्रमुख हैं।
हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय
  • हिमालय का यह हिस्सा पश्चिम में रावी नदी और पूर्व में काली (घाघरा की सहायक नदी) के बीच स्थित है। यह भारत की दो मुख्य नदी तंत्रों, सिंधु और गंगा द्वारा अपवाहित है। इस प्रदेश के अंदर बहने वाली नदियाँ रावी, ब्यास और सतलुज और और घाघरा हैं। 
  • हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्तार है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है।

  • हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत शृंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय (जिन्हें हिमाचल में धौलाधर और उत्तराखण्ड में नागटीब्बा कहा जाता है) और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं।
  • लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण पर्वत नगर, जैसेधर्मशाला, मसूरी, कासौली, अलमोड़ा, लैंसडाउन और रानीखेत इसी क्षेत्र में स्थित हैं।
  • इस क्षेत्र की दो महत्त्वपूर्ण स्थलाकृतियाँ शिवालिक और दून हैं। यहाँ स्थित कुछ महत्त्वपूर्ण दून, चंडीगढ़ - कालका का दून, नालागढ़ दून, देहरादून, हरीके दून तथा कोटा दून शामिल हैं। इनमें देहरादून सबसे बड़ी घाटी है, जिसकी लंबाई 35 से 45 किलोमीटर और चौड़ाई 22 से 25 किलोमीटर है।
  • बृहत हिमालय की घाटियों में भोटिया प्रजाति के लोग रहते हैं। ये खानाबदोश लोग हैं जो ग्रीष्म ऋतु में बुगयाल में चले जाते हैं और शरद ऋतु में घाटियों में लौट आते हैं। प्रसिद्ध 'फूलों की घाटी' भी इसी पर्वतीय क्षेत्र में स्थित है। गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब भी इसी इलाके में स्थित हैं।
  • शिवालिक शिवालिक शब्द की उत्पत्ति देहरादून के नजदीक शिवावाला में पाए जाने वाले भूगर्भिक रचनाओं से हुई है।
दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय
  • इसके पश्चिम में नेपाल हिमालय और पूर्व में भूटान हिमालय है। यह एक छोटा परंतु हिमालय का बहुत महत्त्वपूर्ण भाग है। यहाँ तेज बहाव वाली तीस्ता नदी बहती है और कंचनजंगा जैसी ऊँची चोटियाँ और गहरी घाटियाँ पाई जाती हैं। इन पर्वतों के ऊँचे शिखरों पर लेपचा जनजाति और दक्षिणी भाग में मिश्रित जनसंख्या, जिसमें नेपाली, बंगाली और मध्य भारत की जन-जातियाँ शामिल हैं, पाई जाती है।
अरुणाचल हिमालय
  • यह पर्वत क्षेत्र भूटान हिमालय से लेकर पूर्व में दिफू दरें तक फैला है। इस पर्वत श्रेणी की सामान्य दिशा दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पूर्व है। इस क्षेत्र की मुख्य चोटियों में काँगतु और नामचा बरवा शामिल है। ये पर्वत श्रेणियाँ उत्तर से दक्षिण दिशा में तेज बहती हुई और गहरे गॉर्ज बनाने वाली नदियों द्वारा विच्छेदित होती हैं। नामचा बरवा को पार करने के बाद बह्मपुत्र नदी एक गहरी गॉर्ज बनाती हैं।
  • कामँग, सुबनसरी, दिहांग, दिबांग और लोहित यहाँ को प्रमुख नदियाँ हैं। ये बारहमासी नदियाँ हैं और बहुत से जल-प्रपात बनाती हैं। इसलिए, यहाँ जल विद्युत उत्पादन को क्षमता काफी है। अरुणाचल हिमालय की एक मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ बहुत-सी जनजातियाँ निवास करती हैं।
  • इस क्षेत्र में पश्चिम से पूर्व में बसी कुछ जनजातियाँ इस प्रकार हैं- मोनपा, अबोर, मिशमी, निशी और नागा। इनमें से ज्यादातर जनजातियाँ झूम खेती करती हैं, जिसे स्थानांतरी कृषि या स्लैश और बर्न कृषि भी कहा जाता है। यह क्षेत्र जैव विविधता में धनी है जिसका संरक्षण देशज समुदायों ने किया।

पूर्वी पहाड़ियाँ और पर्वत

  • हिमालय पर्वत के इस भाग में पहाड़ियों की दिशा उत्तर से दक्षिण है। ये पहाड़ियाँ विभिन्न स्थानीय नामों से जानी जाती है। उत्तर ये पटकाई बूम, नागा पहाड़ियाँ, मणिपुर पहाड़ियाँ और दक्षिण में मिजो या लुसाई पहाड़ियों के नाम से जानी जाती है।
  • यह एक नीची पहाड़ियों का क्षेत्र है जहाँ अनेक जनजातियाँ ‘झूम' या स्थानांतरी खेती करती हैं यहाँ ज्यादातर पहाड़ियाँ, छोटे-बड़े नदी-नालों द्वारा अलग होती हैं। बराक मणिपुर और मिजोरम की एक मुख्य नदी है।
  • मणिपुर घाटी के मध्य एक झील स्थित है जिसे 'लोकाटक' झोल कहा जाता है और यह चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी है।
  • मिज़ोरम जिसे 'मोलेसिस बेसिन' भी कहा जाता है मृदुल और असंगठित चट्टानों से बना है। 

  • नागालैंड में बहने वाली ज्यादातर नदियाँ बह्मपुत्र नदी की सहायक नदियाँ हैं। मिज़ोरम और मणिपुर की दो नदियाँ बराक नदी की सहायक नदियाँ हैं, जो मेघना नदी की एक सहायक नदी है ।
  • मणिपुर के पूर्वी भाग में बहने वाली नदियाँ चिंदविन नदी की सहायक नदियाँ है जो कि म्यांमार में बहने वाली इरावदी नदी की एक सहायक नदी है।
उत्तरी भारत का मैदान
  • उत्तरी भारत का मैदान सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा बहाकर लाए गए जलोढ़ निक्षेप से बना है। लाखों वर्षों में हिमालय के गिरिपाद में स्थित बहुत बड़े बेसिन में जलोढ़ों का निक्षेप हुआ, जिससे उस उपजाऊ मैदान का निर्माण हुआ है।
  • इस मैदान की पूर्व से पश्चिम लंबाई लगभग 3200 किमी. है। इसकी औसत चौड़ाई 150 से 300 किलोमीटर है। जलोढ़ निक्षेप की अधिकतम गहराई 1000 से 2000 मीटर है।
  • समृद्ध मृदा आवरण, पर्याप्त पानी की उपलब्धता एवं अनुकूल जलवायु के कारण कृषि की दृष्टि से यह भारत का अत्यधिक उत्पादक क्षेत्र है।
  • ब्रह्मपुत्र नदी में स्थित मांजुली विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है। जहां लोगों का निवास है।
  • उत्तरी पर्वतों से आने वाली नदियाँ निक्षेपण कार्य में लगी हैं। नदी के निचले भागों में ढाल कम होने के कारण नदी की गति कम हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप नदी द्वीपों का निर्माण होता है।
  • 'दोआब' का अर्थ है, दो नदियों के बीच का भाग। 'दोआब' दो शब्दों से मिलकर बना है- दो तथा आब अर्थात् पानी। इसी प्रकार 'पंजाब' भी दो शब्दों से मिलकर बना है- पंज का अर्थ है पांच तथा आब का अर्थ है पानी ।
  • ये नदियाँ अपने निचले भाग में गाद एकत्र हो जाने के कारण बहुत-सी धाराओं में बँट जाती हैं। इन धाराओं को वितरिकाएँ कहा जाता है।
  • उत्तरी मैदान को मोटे तौर पर तीन उपवर्गों में विभाजित किया गया है। उत्तरी मैदान के पश्चिमी भाग को 'पंजाब का मैदान' कहा जाता है।
  • सिंधु तथा इसकी सहायक नदियों के द्वारा बनाये गए इस मैदान का बहुत बड़ा भाग पाकिस्तान में स्थित है।
  • सिंधु तथा इसकी सहायक नदियाँ झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास तथा सतलुज हिमालय से निकलती हैं।
  • मैदान के इस भाग में दोआबों की संख्या बहुत अधिक है। गंगा के मैदान का विस्तार घग्घर तथा तीस्ता नदियों के बीच है।
  • यह उत्तरी भारत के राज्यों हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड के कुछ भाग तथा पश्चिम बंगाल में फैला है। ब्रह्मपुत्र का मैदान इसके पश्चिम विशेषकर असम में स्थित है।
  • उत्तरी मैदानों की व्याख्या सामान्यत: इसके उच्चावचों में बिना किसी विविधता वाले समतल स्थल के रूप में की जाती है। यह सही नहीं है। इन विस्तृत मैदानों की भौगोलिक आकृतियों में भी विविधता है।
  • उत्तर से दक्षिण दिशा में इन मैदानों को तीन भागों में बाँट सकते हैं भाभर, तराई और जलोढ़ मैदान। जलोढ़ मैदान को आगे दो भागों में बाँटा जाता है - खादर और बाँगर । 
  • भाबर 8 से 10 किलोमीटर चौड़ाई की पतली पट्टी है जो शिवालिक गिरिपाद के समानांतर फैली हुई है। उसके परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत श्रेणियों से बाहर निकलती नदियाँ यहाँ पर भारी जल-भार, जैसे- बड़े शैल और गोलाश्म जमा कर देती हैं और कभी-कभी स्वयं इसी में लुप्त हो जाती हैं।
  • भाबर के दक्षिण में तराई क्षेत्र है जिसकी चौड़ाई 10 से 20 किलोमीटर है। भाभर क्षेत्र में लुप्त नदियाँ इस प्रदेश में धरातल पर निकल कर प्रकट होती हैं और क्योंकि इनकी निश्चित वाहिकाएँ नहीं होती. ये क्षेत्र अनूप बन जाता है, जिसे तराई कहते हैं।
  • यह क्षेत्र प्राकृतिक वनस्पति से ढका रहता है और विभिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों का घर है।
  • तराई से दक्षिण में मैदान है जो पुराने और नए जलोढ़ से बना होने के कारण बांगर और खादर कहलाता है।
  • उत्तरी मैदान का सबसे विशालतम भाग पुराने जलोढ़ का बना है। वे नदियों के बाढ़ वाले मैदान के ऊपर स्थित हैं तथा वेदिका जैसी आकृति प्रदर्शित करते हैं। इस भाग को 'बांगर' के नाम से जाना जाता है।
  • इस क्षेत्र की मृदा में चूनेदार निक्षेप पाए जाते हैं, जिसे स्थानीय भाषा में कंकडू कहा जाता है। बाढ़ वाले मैदानों के नये तथा युवा निक्षेपों को खादर कहा जाता है। इनका लगभग प्रत्येक वर्ष पुननिर्माण होता है, इसलिए ये उपजाऊ होते हैं तथा गहन खेती के लिए आदर्श होते हैं।
  • इस मैदान में नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाली अपरदनी और निक्षेपण स्थलाकृतियाँ, जैसे- बालू- रोधिका, विसर्प, गोखुर झीलें और गुफित नदियाँ पाई जाती हैं।
  • ब्रह्मपुत्र घाटी का मैदान नदीय द्वीप और बालू-रोधिकाओं की उपस्थिति के लिए जाना जाता है। यहाँ ज़्यादातर क्षेत्र में समय-समय पर बाढ़ आती रहती है और नदियाँ अपना रास्ता बदल कर गुंफित वाहिकाएँ बनाती रहती हैं।
  • उत्तर भारत के मैदान में बहने वाली विशाल नदियाँ अपने मुहाने पर विश्व के बड़े-बड़े डेल्टाओं का निर्माण करती हैं, जैसे- सुंदर वन डेल्टा।
  • सामान्य तौर पर यह एक सपाट मैदान है जिसकी समुद्र तल से औसत ऊंचाई 50 से 100 मीटर है। हरियाणा और दिल्ली राज्य सिंधु और गंगा नदी तंत्रों के बीच जल-विभाजक है।
  • ब्रह्मपुत्र नदी अपनी घाटी में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती है। परंतु बांग्लादेश में प्रवेश करने से पहले धुबरी के समीप यह नदी दक्षिण की ओर 90° मुड़ जाती है। ये मैदान उपजाऊं जलोढ़ मिट्टी से बने हैं। जहाँ कई प्रकार की फसलें, जैसे- गेहूँ, चावल, गन्ना और जूट उगाई जाती हैं। अतः यहाँ जनसंख्या का घनत्व ज्यादा है।
प्रायद्वीपीय पठार
  • प्रायद्वीपीय पठार पुराने क्रिस्टलीय, आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों से बना है। यह गोंडवाना भूमि के टूटने एवं अपवाह के कारण बना था तथा यही कारण है कि यह प्राचीनतम भू-भाग का एक हिस्सा है।
  • इस पठारी भाग में चौड़ी तथा छिछली घाटियाँ एवं गोलाकार पहाड़ियाँ हैं। इस पठार के दो मुख्य भाग हैं- 'मध्य उच्चभूमि' तथा 'दक्कन का पठार'।
  • नर्मदा नदी के उत्तर में प्रायद्वीपीय पठार का वह भाग जो कि मालवा के पठार के अधिकतर भागों पर फैला है उसे मध्य उच्चभूमि के नाम से जाना जाता है।
  • विंध्य श्रृंखला दक्षिण में मध्य उच्चभूमि तथा उत्तर पश्चिम में अरावली से घिरी है। पश्चिम में यह धीरे-धीरे राजस्थान के बलुई तथा पथरीले मरुस्थल से मिल जाता है।
  • इस क्षेत्र में बहने वाली नदियाँ, चंबल, सिंध, बेतवा तथा केन दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की तरफ बहती हैं, इस प्रकार वे इस क्षेत्र के ढाल को दर्शाती हैं।
  • मध्य उच्च भूमि पश्चिम में चौड़ी लेकिन पूर्व में संकीर्ण है। इस पठार के पूर्वी विस्तार को स्थानीय रूप से बुंदेलखंड तथा बघेलखंड के नाम जाना जाता है। इसके और पूर्व के विस्तार को दामोदर नदी द्वारा अपवाहित छोटा नागपुर पठार दर्शाता है।
  • दक्षिण का पठार एक त्रिभुजाकार भू-भाग है, जो नर्मदा नदी के दक्षिण में स्थित है। उत्तर में इसके चौड़े आधार पर सतपुड़ा की शृंखला है, जबकि महादेव, कैमूर की पहाड़ी तथा मैकाल शृंखला इसके पूर्वी विस्तार हैं। दक्षिण का पठार पश्चिम में ऊँचा एवं पूर्व की ओर कम ढाल वाला है।
  • इस पठार का एक भाग उत्तर-पूर्व में भी देखा जाता है, जिसे स्थानीय रूप से 'मेघालय', 'कार्बी एंगलौंग पठार' तथा 'उत्तर कछार पहाड़ी' के नाम से जाना जाता है। यह एक भ्रंश के द्वारा छोटा नागपुर पठार से अलग हो गया है।
  • पश्चिम से पूर्व की ओर तीन महत्त्वपूर्ण श्रृंखलाएँ गारो, खासी तथ जयंतिया हैं।
  • दक्षिण के पठार के पूर्वी एवं पश्चिमी सिरे पर क्रमश: पूर्वी तथा पश्चिमी घाट स्थित हैं।
  • पश्चिमी घाट, पश्चिमी तट के समानांतर स्थित है।
  • वह सतत् हैं तथा उन्हें केवल दरों के द्वारा ही पार किया जा सकता है।
  • पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट की अपेक्षा ऊँचे हैं। पूर्वी घाट के 600 मीटर की औसत ऊँचाई की तुलना में पश्चिमी घाट की ऊँचाई 900 से 1,600 मीटर है।
  • पूर्वी घाट का विस्तार महानदी घाटी से दक्षिण में नीलगिरी तक है। पूर्वी घाट का विस्तार सतत् नहीं है। ये अनियमित हैं। तथा बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियों ने इसे काट दिया है।
  • पश्चिमी घाट में पर्वतीय वर्षा होती है। यह वर्षा घाट के पश्चिमी ढाल पर आर्द्र हवा के टकराकर ऊपर उठने के कारण होती है। पश्चिमी घाट को विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है।
  • पश्चिमी घाट की ऊँचाई उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती है। इस भाग से शिखर ऊँचे हैं, जैसे- अनाईमुडी (2,695 मी) तथा दोडाबेट्टा बेटा (2,633 मी ) ।
  • पूर्वी घाट का सबसे ऊँचा शिखर महेंद्रगिरी (1,500 मी) है। पूर्वी घाट के दक्षिण-पश्चिम में शेवराय तथा जावेदी की पहाड़ियाँ स्थित हैं।
  • प्रायद्वीपीय पठार की एक विशेषता यहाँ पायी जाने वाली काली मृदा है, जिसे 'दक्कन टैप' के नाम से भी जाना जाता है। इसकी उत्पत्ति ज्वालामुखी से हुई है, इसलिए इसके शैल आग्नेय हैं।
  • वास्तव में इन शैलों का समय के साथ अपरदन हुआ है, जिनसे काली मृदा का निर्माण हुआ है।
  • अरावली की पहाड़ियाँ प्रायद्वीपीय पठार के पश्चिमी एवं उत्तर-पश्चिमी किनारे पर स्थित है।
  • यह बहुत अधिक अपरदित एवं खंडित पहाड़ियाँ हैं।
  • यह गुजरात से लेकर दिल्ली तक दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व दिशा में फैली हैं।
  • नदियों के मैदान से 150 मीटर ऊँचाई से ऊपर उठता हुआ प्रायद्वीपीय पठार तिकोने आकार वाला कटा-फटा भूखंड है, जिसकी ऊँचाई 600 से 900 मीटर है।
  • उत्तर पश्चिम में दिल्ली, कटक (अरावली विस्तार), पूर्व में राजमहल पहाड़ियाँ, पश्चिम में गिर पहाड़ियाँ और दक्षिण में इलायची (कार्डामम) पहाड़ियाँ, प्रायद्वीप पठार की सीमाएँ निर्धारित करती हैं। उत्तर-पूर्व में शिलांग तथा कार्बी-ऐंगलोंग पठार भी इसी भूखंड का विस्तार है।
  • प्रायद्वीपीय भारत अनेक पठारों से मिलकर बना है, जैसे- हजारीबाग पठार, पालामू पठार, रांची पठार, मालवा पठार, कोयम्बटूर पठार और कर्नाटक पठार। यह भारत के प्राचीनतम और स्थिर भू-भागों में से एक है।
  • सामान्य तौर पर प्रायद्वीप की ऊँचाई पश्चिम से पूर्व की ओर कम होती चली जाती है, जिसका प्रमाण यहाँ की नदियों के बहाव की दिशा से भी मिलता है।
  • प्रायद्वीपीय पठार के अनेक हिस्से भू-उत्थान व निमज्जन, भ्रंश तथा विभंग निर्माण प्रक्रिया के अनेक पुनरावर्ती दौर से गुजरे हैं। अपनी पुनरावर्ती भूकंपीय क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नता के कारण ही प्रायद्वीपीय पठार पर धरातलीय विविधताएँ पाई जाती हैं। इस पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग नदी खड्ड और महाखड्ड इसके धरातल को जटिल बनाते हैं। चंबल, भिंड और मुरैना खड्ड इसके उदाहरण हैं।
  • मुख्य उच्चावच लक्षणों के अनुसार प्रायद्वीपीय पठार को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।
    (i) दक्कन का पठार;
    (ii) मध्य उच्च भू-भाग;
    (iii) उत्तरी-पूर्वी पठार
दक्कन का पठार
  • इसके पश्चिम में पश्चिमी घाट, पूर्व में पूर्वी घाट और उत्तर में सतपुड़ा, मैकाल और महादेव पहाड़ियाँ हैं।
  • पश्चिमी घाट को स्थानीय तौर पर अनेक नाम दिए गए हैं, जैसेमहाराष्ट्र में सहयाद्रि, कर्नाटक और तमिलनाडु में नीलगिरि और केरल में अनामलाई और इलायची (कार्डामम) पहाड़ियाँ |
  • पूर्वी घाट की तुलना में पश्चिमी घाट ऊँचे और अविरत हैं। इनकी औसत ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है, जो कि उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ती चली जाती है।
  • प्रायद्वीपीय पठार की सबसे ऊँची चोटी 'अनाईमुडी' (2695 मीटर) है, जो पश्चिमी घाट की अनामलाई पहाड़ियों में स्थित है। दूसरी सबसे ऊँची चोटी 'डोडाबेटा' है और यह नीलगिरी पहाड़ियों में है। ज़्यादातर प्रायद्वीपीय नदियों की उत्पत्ति पश्चिमी घाट से है।
  • पूर्वी घाट अविरत नहीं है और महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों द्वारा अपरदित हैं। यहाँ की कुछ मुख्य श्रेणियाँ जावादी पहाड़ियाँ, पालकोण्डा श्रेणी, नल्लामाला पहाड़ियाँ और महेंद्रगिरि पहाड़ियाँ हैं।
  • पूर्वी और पश्चिमी घाट नीलगिरी पहाड़ियों में आपस में मिलते हैं।
मध्य उच्च भू-भ भाग
  • पश्चिम में अरावली पर्वत इसकी सीमा बनाते हैं। इसके दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत उच्छिष्ट पठार की श्रेणियों से बना हैं जिनकी समुद्रतल से ऊँचाई 600 से 900 मीटर है।
  • यह दक्कन पठार की उत्तरी सीमा बनाते हैं। ये अवशिष्ट पर्वतों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो कि काफी हद तक अपरदित हैं और इनकी श्रृंखला टूटी हुई है।
  • प्रायद्वीपीय पठार के इस भाग का विस्तार जैसलमेर तक है जहाँ यह अनुदैर्ध्य रेत के टिब्बों और चापाकार (बरखान) रेतीले टिब्बों से ढके हैं। अपने भूगर्भीय इतिहास में यह क्षेत्र कायांतरित प्रक्रियाओं से गुजर चुका है और कायांतरित चट्टानों, जैसे- संगमरमर, स्लेट और नाइस की उपस्थिति इसका प्रमाण है।
  • समुद्र तल से मध्य उच्च भू-भाग की ऊँचाई 700 से 1000 मीटर के बीच है और उत्तर तथा उत्तर-पूर्व दिशा में इसकी ऊँचाई कम होती चली जाती है।
  • यमुना की अधिकतर सहायक नदियाँ विंध्याचल और कैमूर श्रेणियों से निकलती हैं। बनास, चंबल की एकमात्र मुख्य सहायक नदी है, जो पश्चिम में अरावली से निकलती है।
  • मध्य उच्च भू-भाग का पूर्वी विस्तार राजमहल की पहाड़ियों तक है जिसके दक्षिण में स्थित छोटा नागपुर पठार खनिज पदार्थों का भंडार है।
उत्तर-पूर्व पठार 
  • वास्तव यह प्रायद्वीपीय पठार का ही एक विस्तारित भाग है। हिमालय उत्पत्ति के समय इंडियन प्लेट के उत्तर-पूर्व दिशा में खिसकने के कारण, राजमहल पहाड़ियों और मेघालय के पठार के बीच भ्रंश घाटी बनने यह अलग हो गया था।
  • आज मेघालय और कार्बी ऐंगलोंग पठार इसी कारण से मुख्य प्रायद्वीपीय पठार से अलग-थलग हैं।
  • इसमें आवास करने वाली जनजातियों के नाम के आधार पर मेघालय के पठार को तीन भागों में बाँटा गया है-
    (i) गारो पहाड़ियाँ
    (ii) खासी पहाड़ियाँ
    (iii) जयंतिया पहाड़ियाँ। असम की कार्बी ऐंगलोंग पहाड़ियाँ भी इसी का विस्तार है।
  • इस क्षेत्र में अधिकतर वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होती है। परिणामस्वरूप, मेघालय का पठार एक अति अपरदित भूतल है ।
भारतीय मरुस्थल
  • विशाल भारतीय मरुस्थल अरावली पहाड़ियों से उत्तर-पूर्व में स्थित है। यह एक ऊबड़-खाबड़ भूतल है जिस पर बहुत से अनुदैर्ध्य रेतीले टीले और बरखान (अर्धचंद्राकार बालू का टीला) पाए जाते हैं। यह बालू के टिब्बों से ढका एक तरंगित मैदान है।
  • यहाँ पर वार्षिक वर्षा 150 मिलीमीटर से कम होती है और परिणामस्वरूप यह एक शुष्क और वनस्पति रहित क्षेत्र है। इन्ही स्थलाकृतिक गुणों के कारण इसे 'मरुस्थली' के नाम से जाना जाता है। यहां वर्षा ऋतु में कुछ सरिताएं दिखती हैं और उसके बाद वे बालू में विलीन हो जाती है।
  • पर्याप्त जल न मिलने के कारण वे समुद्र तक नहीं पहुँच पाती है। लूनी इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है ।
  • यद्यपि इस क्षेत्र की भूगर्भिक चट्टान संरचना प्रायद्वीपीय पठार का विस्तार है, तथापि अत्यंत शुष्क दशाओं के कारण इसकी धरातलीय आकृतियाँ भौतिक अपक्षय और पवन क्रिया द्वारा निर्मित हैं। यहाँ की प्रमुख स्थलाकृतियाँ स्थानांतरी रेतीले टीले, छत्रक चट्टानें और मरुउद्यान हैं।
  • ढाल के आधार पर मरुस्थल को दो भागों में बाँटा जा सकता हैसिंध की ओर ढाल वाला उत्तरी भाग और कच्छ के रन की ओर ढाल वाला दक्षिणी भाग । यहाँ की अधिकतर नदियाँ अल्पकालिक हैं।
  • मरुस्थल के दक्षिणी भाग में बहने वाली लूनी नदी महत्त्वपूर्ण है। अल्प वृष्टि और बहुत अधिक वाष्पीकरण की वजह से इस प्रदेश में हमेशा जल की कमी रहती है।
  • कुछ नदियाँ तो थोड़ी दूरी तय करने के बाद ही मरुस्थल में लुप्त हो जाती हैं। यह अंत: स्थलीय अपवाह का उदाहरण है जहाँ नदियाँ झील या प्लाया में मिल जाती हैं। इन प्लाया झीलों का जल खारा होता है जिससे नमक बनाया जाता है।
तटीय मैदान
  • प्रायद्वीपीय पठार के किनारों संकीर्ण तटीय पट्टियों का विस्तार है। यह पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत है।
  • पश्चिमी तट पश्चिमी घाट तथा अरब सागर के बीच स्थित एक संकीर्ण मैदान है। इस मैदान तीन भाग हैं। तट के उत्तरी भाग को कोंकण (मुंबई तथा गोवा), मध्य भाग को कन्नड़ मैदान एवं दक्षिणी भाग को मालाबार तट कहा जाता हैं।
  • बंगाल की खाड़ी के साथ विस्तृत मैदान चौड़ा एवं समतल है। उत्तरी भाग में इसे 'उत्तरी सरकार' कहा जाता है। जबकि दक्षिणी भाग 'कोरोमंडल' तट के नाम से जाना जाता है।
  • बड़ी नदियाँ, जैसे- महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी इस तट पर विशाल डेल्टा का निर्माण करती हैं। चिल्का झील पूर्वी तट पर स्थित एक महत्त्वपूर्ण भू-लक्षण है।
    • चिल्का झील भारत में खारे पानी की सबसे बड़ी झील है। यह उड़ीसा में महानदी डेल्टा के दक्षिण में स्थित है।
  • स्थिति और सक्रिय भू-आकृतिक प्रक्रियाओं के आधार पर तटीय मैदानों को भागों में बाँटा जा सकता है (i) पश्चिमी तटीय मैदान (ii) पूर्वी तटीय मैदान।
  • पश्चिमी तटीय मैदान जलमग्न तटीय मैदानों के उदाहरण हैं। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक शहर द्वारका, जो किसी समय पश्चिमी तट पर मुख्य भूमि पर स्थित था, अब पानी में डूबा हुआ है।
  • जलमग्न होने के कारण पश्चिमी तटीय मैदान एक संकीर्ण पट्टी मात्र है और पत्तनों एवं बंदरगाह विकास के लिए प्राकृतिक परिस्थितियाँ प्रदान करता है। यहाँ पर स्थित प्राकृतिक बंदरगाहों में कांडला, मझगाँव, जे एल एन न्हावा शेवा, मर्मागाओ, मैंगलौर, कोचीन शामिल हैं।
  • उत्तर में गुजरात तट से, दक्षिण में केरल तट तक फैले पश्चिमी तटीय मैदान को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है- गुजरात का कच्छ और काठियावाड़ तट, महाराष्ट्र का कोंकण तट और गोवा तट, कर्नाटक तथा केरल के क्रमश: मालाबार तट ।
  • पश्चिमी तटीय मैदान मध्य में संकीर्ण है परंतु उत्तर और दक्षिण में चौड़े हो जाते हैं। इस तटीय मैदान में बहने वाली नदियाँ डेल्टा नहीं बनाती हैं।
  • मालाबार तट की विशेष स्थलाकृति 'कयाल' जिसे मछली पकड़ने और अंतःस्थलीय नौकायन के लिए प्रयोग किया जाता है और पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है।
  • केरल में हर वर्ष प्रसिद्ध 'नेहरू ट्राफी वलामकाली' (नौका दौड़) का आयोजन 'पुन्नामदा कयाल' में किया जाता है।
  • भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह के बैरेन द्वीग' पर स्थित है।
  • पश्चिमी तटीय मैदान की तुलना में पूर्वी तटीय मैदान चौड़ा है और उभरे हुए तट का उदाहरण है। पूर्व की ओर बहने वाली और बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ यहाँ लम्बे चौड़े डेल्टा बनाती है। इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी का डेल्टा शामिल है।
द्वीप समूह
  • भारत में दो प्रमुख द्वीप समूह है एक बंगाल की खाड़ी में और दूसरा अरब सागर में।
  • बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूह में लगभग 572 द्वीप हैं। ये द्वीप 6° उत्तर से 14° उत्तर और 92° पूर्व से 94° पूर्व के बीच स्थित हैं। रीची द्वीप समूह और लबरीन्थ द्वीप, यहाँ के दो प्रमुख द्व प समूह हैं।
  • बंगाल की खाड़ी के द्वीपों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता हैउत्तर में अंडमान और दक्षिण में निकोबार ये द्वीप समुद्र में जलमग्न पवर्ती का हिस्सा है।
  • कुछ छोटे द्वीपों की उत्पत्ति ज्वालामुखी से भी जुड़ी है। बैरन आइलैंड नामक भारत का एकमात्र जीवंत ज्वालामुखी भी निकोबार द्वीपसमूह में स्थित है। यह द्वीप असंगठित कंकड़, पत्थरों और गोलाश्मों से बना हुआ है।
  • यह द्वीप समूह देश की सुरक्षा के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन द्वीप समूहों में पाए जाने वाले पादप एवं जंतुओं में बहुत अधिक विविधता है। ये द्वीप विषुवत् वृत समीप स्थित हैं एवं यहाँ की जलवायु विषुवतीय है तथा यह घने जंगलों से आच्छादित है।
  • पश्चिमी तट साथ कुछ प्रवाल निक्षेप तथा खूबसूरत पुलिन हैं। यहाँ स्थित द्वीपों पर संवहनी वर्षा होती है और भूमध्यरेखीय प्रकार की वनस्पति उगती है।
इस द्वीप समूह की सबसे ऊंची चोटी में सैडल चोटी (उत्तरी अंडमान- 738 मीटर)
  • अरब सागर के द्वीपों में लक्षद्वीप और मिनिकॉय शामिल हैं। पहले इनको लकाद्वीव, मिनिकॉय तथा एमीनदीव के नाम से जाना जाता है। 1973 में इनका नाम लक्षद्वीप रखा गया यह 32 वर्ग किमी. छोटे क्षेत्र में फैला है।
  • कावारती द्वीप लक्षद्वीप का प्रशासनिक मुख्यालय है। ये द्वीप 80° उत्तर से 12° उत्तर और 71° पूर्व से 74° पूर्व के बीच बिखरे हुए हैं। ये केरल तट से 280 किलोमीटर से 480 किलोमीटर दूर स्थित है। पूरा द्वीप समूह प्रवाल निक्षेप से बना है। यहाँ 36 द्वीप हैं और इनमें से 11 पर मानव आवास है। पिटली द्वीप पर मानव निवास नहीं है यहां पर एक पक्षी अभयारण्य है। मिनिकॉय सबसे बड़ा द्वीप है जिसका क्षेत्रफल 453 वर्ग किलोमीटर है।
  • पूरा द्वीप समूह 11 डिग्री चैनल द्वारा दो भागों में बाँटा गया है, उत्तर में अमीनी द्वीप और दक्षिण में कनानोरे द्वीप।

संरचना तथा भूआकृति विज्ञान

  • पृथ्वी के धरातल पर चट्टानों व मिट्टियों में भिन्नता धरातलीय स्वरूप के अनुसार पाई जाती है।
  • पृथ्वी की आयु लगभग 46 करोड़ वर्ष है। इतने लम्बे समय में अंतर्जात व बहिर्जात बलों से अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन बलों की पृथ्वी की धरातलीय व अधःस्थलीय आकृतियों की रूपरेखा निर्धारण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

  • यहाँ विभिन्न प्रकार की शैलें पायी जाती हैं, जिनमें से कुछ संगमरमर की तरह कठोर होती हैं, जिसका प्रयोग ताजमहल के निर्माण में हुआ है एवं कुछ सेलखड़ी की तरह मुलायम होती हैं, जिसका प्रयोग टेल्कम पाउडर बनाने होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर मृदा के रंगों में भिन्नता पायी जाती है क्योंकि मृदा विभिन्न प्रकार की शैलों से बनी होती हैं।
  • भारत एक विशाल भू-भाग वाला देश है। इसका निर्माण विभिन्न भूगर्भीय कालों के दौरान हुआ है, जिसने इसके उच्चावचों को प्रभावित किया है।
  • भूगर्भीय निर्माणों के अतिरिक्त कई अन्य प्रक्रियाओं, जैसे-अपक्षय, अपरदन तथा निक्षेपण के द्वारा वर्तमान उच्चावचों का निर्माण तथा संशोधन हुआ है।
  • करोड़ों वर्ष पहले ‘इंडियन प्लेट' भूमध्य रेखा के दक्षिण में स्थित थी। यह आकार में काफी विशाल थी और 'आस्ट्रेलियन प्लेट' इसी का हिस्सा थी । कालांतर में यह प्लेट काफी हिस्सों में टूट गई और आस्ट्रेलियन प्लेट दक्षिण-पूर्व तथा इंडियन प्लेट उत्तर दिशा में खिसकने लगी।
  • प्लेटों की गति के कारण प्लेटों के अंदर एवं ऊपर की ओर स्थित महाद्वीपीय शैलों में दबाव उत्पन्न होता है। इसके परिणामस्वरूप वलन, भ्रंशीकरण तथा ज्वालामुखीय क्रियाएँ होती हैं।
  • सामान्य तौर पर इन प्लेटों की गतियों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। कुछ प्लेटें एक-दूसरे के करीब आती हैं और अभिसारित परिसीमा का निर्माण करती हैं। जबकि कुछ प्लेट एक दूसरे से दूर जाती हैं और अपसारित परिसीमा का निर्माण करती हैं।

  • जब दो प्लेट एक-दूसरे के करीब आती हैं, तब या तो वे टकराकर टूट सकती हैं या एक प्लेट फिसल कर दूसरी प्लेट के नीचे जा सकती है। कभी-कभी वे एक-दूसरे के साथ क्षैतिज दिशा में भी गति कर सकती हैं और रूपांतर परिसीमा का निर्माण करती हैं।
  • इन प्लेटों में लाखों वर्षों से हो रही गति के कारण महाद्वीपों की स्थिति तथा आकार में परिवर्तन आया है।
  • भारत की वर्तमान स्थलाकृति का विकास भी इस प्रकार की गतियों से प्रभावित हुआ है।
  • विश्व के अधिकतर ज्वालामुखी एवं भूकंप संभावी क्षेत्र, प्लेट के किनारों पर स्थित है।
  • लेकिन कुछ प्लेट के अंदर भी पाये जाते हैं।
  • भारत का सबसे प्राचीन भू-भाग (अर्थात् प्रायद्वीपीय भाग) गोंडवाना भूमि का एक हिस्सा था। गोंडवाना भू-भाग के विशाल क्षेत्र में भारत आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका तथा अंटार्कटिक के क्षेत्र शामिल थे।
  • संवहनीय धाराओं ने भू-पर्पटी को अनेक टुकड़ों में विभाजित कर दिया और इस प्रकार भारत-आस्ट्रेलिया की प्लेट गोंडवाना भूमि से अलग होने के बाद उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होने लगी।
  • गोंडवाना भूमि: ये प्राचीन विशाल महाद्वीप पैंजिया का दक्षिणतम भाग है, जिसके उत्तर में अंगारा भूमि है।
  • उत्तर दिशा की ओर प्रवाह के परिणामस्वरूप ये प्लेट अपने से अधिक विशाल प्लेट, यूरेशियन प्लेट से टकरायी। इस टकराव के कारण इन दोनो प्लेटों के बीच स्थित 'टेथिस' भू-सन्नति के अवसादी चट्टान, वलित होकर हिमालय तथा पश्चिम एशिया की पर्वतीय श्रृंखला के रूप में विकसित हो गये।
  • 'टेथिस' के हिमालय के रूप में ऊपर उठने तथा प्रायद्वीपीय पठार के उत्तरी किनारे के नीचे धँसने के परिणामस्वरूप एक बहुत बड़ी द्रोणी का निर्माण हुआ।
  • समय के साथ-साथ यह बेसिन उत्तर के पर्वतों एवं दक्षिण के प्रायद्वीपीय पठारों से बहने वाली नदियों के अवसादी निक्षेपों द्वारा धीरे-धीरे भर गया।
  • इस प्रकार जलोढ़ निक्षेपों से निर्मित एक विस्तृत समतल भू-भाग भारत के उत्तरी मैदान के रूप में विकसित हो गया।
  • भारत की भूमि बहुत अधिक भौतिक विभिन्नताओं को दर्शाती है। भूगर्भीय तौर पर प्रायद्वीपीय पठार पृथ्वी की सतह का प्राचीनतम भाग है। इसे भूमि का एक बहुत ही स्थिर भाग माना जाता था।

  • हिमालय की पूरी पर्वत श्रृंखला एक युवा स्थलाकृति को दर्शाती है, जिसमें ऊँचे शिखर, गहरी घाटियाँ तथा तेज बहने वाली नदियाँ हैं। उत्तरी मैदान जलोढ़ निक्षेपों से बने हैं।
  • प्रायद्वीपीय पठार आग्नेय तथा रूपांतरित शैलों वाली कम ऊँची पहाड़ियों एवं चौड़ी घाटियों से बना है।
  • भूवैज्ञानिक संरचना व शैल समूह की भिन्नता के आधार पर भारत को तीन भूवैज्ञानिक खंडों में विभाजित किया जाता है जो भौतिक लक्षणों पर आधारित हैं -
    (क) प्रायद्वीपीय खंड
    (ख) हिमालय और अन्य अतिरिक्त प्रायद्वीपीय पर्वत मालाएँ
    (ग) सिंधु-गंगा - ब्रह्मपुत्र मैदान
प्रायद्वीपीय खंड
  • प्रायद्वीप खंड की उत्तरी सीमा कटी-फटी है, जो कच्छ से आरंभ होकर अरावली पहाड़ियों के पश्चिम से गुजरती हुई दिल्ली तक और फिर यमुना व गंगा नदी के समानांतर राजमहल की पहाड़ियों व गंगा डेल्टा तक जाती है।
  • उत्तर-पूर्व में कर्बी ऐंगलॉग (Karbi Anglong ) व मेघालय का पठार तथा पश्चिम में राजस्थान भी इसी खंड के विस्तार हैं ।
  • पश्चिम बंगाल में मालदा भ्रंश उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित मेघालय व कर्बी ऐंगलॉग पठार को छोटा नागपुर पठार से अलग करता है।
  • राजस्थान में यह प्रायद्वीपीय खंड मरुस्थल व मरुस्थल सदृश्य स्थलाकृतियों से ढका हुआ है। प्रायद्वीप मुख्यतः प्राचीन नाइस व ग्रेनाइट से बना है।
  • इंडो-आस्ट्रेलियन प्लेट का हिस्सा होने के कारण यह उर्ध्वाधर हलचलों व खंड भ्रंश से प्रभावित है। नर्मदा, तापी और महानदी की रिफ्ट घाटियाँ और सतपुड़ा ब्लॉक पर्वत इसके उदाहरण हैं।
  • प्रायद्वीप में मुख्यतः अवशिष्ट पहाड़ियाँ शामिल हैं, जैसे- अरावली, नल्लामलाई, जावादी, वेलीकोण्डा, पालकोण्डा श्रेणी और महेंद्रगिरी पहाड़ियाँ आदि । यहाँ की नदी घाटियाँ उथली और उनकी प्रवणता कम होती है।
  • पूर्व की ओर बहने वाली अधिकांश नदियाँ बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले डेल्टा निर्माण करती हैं। महानदी, गोदावरी और कृष्णा द्वारा निर्मित डेल्टा इसके उदाहरण हैं।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here