BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | वन एवं वन्य जीव संसाधन

वन्य जीवन और कृषि फसल उपजातियों में अत्यधिक जैव विविध ताएं पाई जाती हैं यह आकार और कार्य में विभिन्न हैं परंतु अंतर्भिरताओं के ज़टिल जाल द्वारा एक तंत्र में गुंथी हुई है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | वन एवं वन्य जीव संसाधन

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | वन एवं वन्य जीव संसाधन

  • मानव और दूसरे जीवधारी एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसका हम मात्र एक हिस्सा हैं और अपने अस्तित्व के लिए इसके विभिन्न तत्त्वों पर निर्भर करते हैं। उदाहरणतया, वायु जिसमें हम साँस लेते हैं, जल जिसे हम पीते हैं और मृदा जो अनाज पैदा करती है, जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते; पौधे, पशु और सूक्ष्मजीवी इनका पुनः सृजन करते हैं।
  • वन पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि ये प्राथमिक उत्पादक हैं जिन पर दूसरे सभी जीव निर्भर करते हैं।
  • वन्य जीवन और कृषि फसल उपजातियों में अत्यधिक जैव विविध ताएं पाई जाती हैं यह आकार और कार्य में विभिन्न हैं परंतु अंतर्भिरताओं के ज़टिल जाल द्वारा एक तंत्र में गुंथी हुई है।

वन एवं वन्यजीव

  • भारत में वनों को सबसे बड़ा नुकसान उपनिवेश काल में रेल लाइन, कृषि, व्यवसाय, वाणिज्य वानिकी और खनन क्रियाओं में वृद्धि से हुआ।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वन संसाधनों के सिकुड़ने से कृषि का फैलाव महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक रहा है।
  • अधिकतर जनजातीय क्षेत्रों, विशेषकर पूर्वोत्तर और मध्य भारत में स्थानांतरी (झूम) खेती अथवा 'स्लैश और बर्न' खेती के चलते वनों की कटाई या निम्नीकरण हुआ है।
  • बड़ी विकास परियोजनाओं ने भी वनों को बहुत नुकसान पहुँचाया है। 1952 से नदी घाटी परियोजनाओं के कारण 5000 वर्ग कि.मी. से अधिक वन क्षेत्रों को साफ करना पड़ा है।
  • यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और मध्य प्रदेश में 4,00,000 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र नर्मदा सागर परियोजना के पूर्ण हो जाने से जलमग्न हो जाएगा।
  • वनों की बर्बादी में खनन ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पश्चिम बंगाल में बक्सा टाईगर रिजर्व (reserve), डोलोमाइट के खनन के कारण गंभीर खतरे में है।
  • इसने कई प्रजातियों के प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुँचाया है और कई जातियों जिसमें भारतीय हाथी भी शामिल हैं, के आवागमन मार्ग को बाधित किया है।
  • बहुत से वन अधिकारी और पर्यावरणविद् यह मानते हैं कि वन संसाधनों की बर्बादी में पशुचारण और ईंधन के लिए लकड़ी कटाई मुख्य भूमिका निभाते हैं।
  • वन पारिस्थिकी तंत्र देश के मूल्यवान वन पदार्थों, खनिजों और अन्य संसाधनों के संचय कोष हैं जो तेजी से विकसित होती औद्योगिक शहरी अर्थव्यवस्था की माँग की पूर्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
  • ये आरक्षित क्षेत्र अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखते हैं और विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष के लिए कूल परिस्थितियाँ पैदा करते हैं।
हिमालय यव (Yew) संकट में
  • हिमालयन यव (चीड़ के प्रकार का सदाबहार वृक्ष) एक औषधीय पौधा है जो हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश के कई क्षेत्रों में पाया जाता है।
  • पेड़ की छाल, पत्तियों, टहनियों और जड़ों से टकसोल (taxol) नामक रसायन निकाला जाता है तथा इसे कुछ कैंसर रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • इससे बनाई गई दवाई विश्व में सबसे अधिक बिकने वाली कैंसर औषधि हैं। इसके अत्याधिक निष्कासन से इस वनस्पति जाति को खतरा पैदा हो गया है।
  • पिछले एक दशक में हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में विभिन्न क्षेत्रों में यव के हजारों पेड़ सूख गए हैं।
  • भारत में जैव-विविधता को कम करने वाले कारकों में वन्य जीव के आवास का विनाश, जंगली जानवरों को मारना व आखेटन, पर्यावरण गीय प्रदूषण व विषाक्तिकरण और दावानल आदि शामिल हैं।
  • पर्यावरण विनाश के अन्य मुख्य कारकों में संसाधनों का असमान बंटवारा व उनका असमान उपभोग और पर्यावरण के रख-रखाव की जिम्मेदारी में असमानता शामिल हैं।
  • भारत के आधे अधिक प्राकृतिक वन लगभग खत्म हो चुके हैं? एक-तिहाई जलमग्न भूमि (wetland) सूख चुकी है, 70 प्रतिशत धरातलीय जल क्षेत्र (water bodies) प्रदूषित हैं, 40 प्रतिशत मैंग्रोव क्षेत्र लुप्त हो चुका है और जंगली जानवरों के शिकार और व्यापार तथा वाणिज्य की दृष्टि से कीमती पेड़-पौधों की कटाई के कारण हजारों वनस्पति और वन्य जीव जातियाँ लुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं।
  • आमतौर पर विकासशील देशों में पर्यावरण विनाश का मुख्य दोषी अत्यधिक जनसंख्या को माना जाता है।
  • वनों और वन्य जीवन का विनाश मात्र जीव विज्ञान का विषय ही नहीं है। जैव संसाधनों का विनाश सांस्कृतिक विविधता के विनाश से जुड़ा हुआ है। 
  • जैव विनाश के कारण कई मूल जातियाँ और वनों पर आधारित समुदाय निर्धन होते जा रहे हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर पहुँच गए हैं। यह समुदाय खाने, पीने, औषधि, संस्कृति, अध्यात्म इत्यादि के लिए वनों और वन्य जीवों पर निर्भर हैं। गरीब वर्ग में भी महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित हैं।
  • कई समाजों में खाना, चारा, जल और अन्य आवश्यकता की वस्तुओं को इकट्ठा करने की मुख्य जिम्मेदारी महिलाओं की ही होती है। जैसे ही इन संसाधनों की कमी होती जा रही है, महिलाओं पर कार्य भार बढ़ता जा रहा है।
  • इससे उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ झेलनी पड़ती हैं, काम का समय बढ़ने के कारण घर और बच्चों की उपेक्षा होती है जिसके गंभीर सामाजिक दुष्परिणाम हो सकते हैं।
  • वन कटाई के परोक्ष परिणाम जैसे सूखा और बाढ़ भी गरीब तबके को सबसे अधिक प्रभावित करता है। इस स्थिति में गरीबी, पर्यावरण निम्नीकरण का सीधा परिणाम होता है।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में वन और वन्य जीवन मानव जीवन के लिए बहुत कल्याणकारी है। अतः यह आवश्यक है वन और वन्य जीवन के संरक्षण के लिए सही नीति अपनाई जाए।
भारत में वन और वन्य जीवन का संरक्षण
  • वन्य जीवन और वनों में तेज गति से हो रहे ह्रास के कारण इनका संरक्षण बहुत आवश्यक हो गया है।
  • यह विभिन्न जातियों में बेहतर जनन के लिए वनस्पति और पशुओं में जींस (genetic) विविधता को संरक्षित करती है। उदाहरण के तौर पर हम कृषि में अभी भी पारंपरिक फसलों पर निर्भर हैं। जलीय जैव विविधता मोटे तौर पर मछली पालन बनाए रखने पर निर्भर है।
  • 1960 और 1970 के दशकों के दौरान, पर्यावरण संरक्षकों ने राष्ट्रीय वन्यजीवन सुरक्षा कार्यक्रम की पुरजोर माँग की। भारतीय वन्यजीवन (रक्षण) अधिनियम, 1972 में लागू किया गया जिसमें वन्य जीवों के आवास रक्षण के अनेक प्रावधान थे।
  • सारे भारत में रक्षित जातियों की सूची भी प्रकाशित की गई। इस कार्यक्रम के तहत बची हुई संकटग्रस्त जातियों के बचाव पर, शिकार प्रतिबंधन पर, वन्यजीव आवासों का कानूनी रक्षण तथा जंगली जीवों के व्यापार पर रोक लगाने आदि पर प्रबल जोर दिया गया है।

  • केंद्रीय सरकार व कई राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय उद्यान और वन्य जीव पशुविहार ( sanctuary) स्थापित किए ।
  • केंद्रीय सरकार ने कई परियोजनाओं की भी घोषणा की जिनका उद्देश्य गंभीर खतरे में पड़े कुछ विशेष वन प्राणियों को रक्षण प्रदान करना था।
  • इन प्राणियों में बाघ, एक सींग वाला गैंडा, कश्मीरी हिरण अथवा हंगुल (hangul), तीन प्रकार के मगरमच्छ-स्वच्छ जल मगरमच्छ, लवणीय जल मगरमच्छ और घड़ियाल, एशियाई शेर और अन्य प्राणी शामिल हैं।
  • इसके अतिरिक्त, कुछ समय पहले भारतीय हाथी, काला हिरण, चिंकारा, भारतीय गोडावन (bustard) और हिम तेंदुओं आदि के शिकार और व्यापार पर संपूर्ण अथवा आंशिक प्रतिबंध लगाकर कानूनी रक्षण दिया है।
  • वन्य जीव अधिनियम, 1980 और 1986 के तहत् सैकड़ों तितलियों, पतंगों, भृगों और एक ड्रैगनफ्लाई को भी संरक्षित जातियों में शामिल किया गया है। 1991 में पौधों की भी 6 जातियाँ पहली बार इस सूची में रखी गई।
बाघ परियोजना
  • वन्यजीवन संरचना में बाघ (टाईगर) एक महत्त्वपूर्ण जंगली जाति है। 1973 में अधिकारियों ने पाया कि देश में 20वीं शताब्दी के आरंभ में बाघों की संख्या अनुमानित संख्या 55,000 से घटकर मात्र 1,827 रह गई है।
  • बाघों को मारकर उनको व्यापार के लिए, चोरी करना, आवासीय स्थलों का सिकुड़ना, भोजन के लिए आवश्यक जंगली उपजातियों की संख्या कम होना और जनसंख्या में वृद्धि बाघों की घटती संख्या के मुख्य कारण हैं।
  • बाघों की खाल का व्यापार और उनकी हड्डियों का एशियाई देशों में परंपरागत औषधियों में प्रयोग के कारण यह जाति विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई है। वर्ष 2018 के अनुसार यह संख्या 2967 है।
  • भारत और नेपाल दुनिया की दो-तिहाई बाघों को आवास उपलब्ध करवाते हैं, अतः ये देश ही शिकार, चोरी और गैर-कानूनी व्यापार करने वालों के मुख्य निशाने पर हैं।
  • 'प्रोजेक्ट टाईगर' विश्व की बेहतरीन वन्य जीव परियोजनाओं में से एक है और इसकी शुरुआत 1973 में हुई।
  • भारत में 32137.14 वर्ग किमी पर फैले हुए 39 बाघ रिजर्व (Tiger reserves) । * बाघ संरक्षण मात्र एक संकटग्रस्त जाति को बचाने का प्रयास नहीं है, अपितु इसका उद्देश्य बहुत बड़े आकार के जैवजाति को भी बचाना है।
  • उत्तराखण्ड में कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान, पश्चिम बंगाल में सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान, मध्य प्रदेश में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, राजस्थान में सरिस्का वन्य जीव पशुविहार (sanctuary), असम में मानस बाघ रिजर्व (reserve) और केरल में पेरियार बाघ रिजर्व (reserve) भारत में बाघ संरक्षण परियोजनाओं के उदाहरण हैं।
  • वन और वन्य जीव संसाधनों के प्रकार और वितरण यदि हम वन और वन्य जीव संसाधनों को संरक्षित करना चाहें, तो उनका प्रबंधन, नियंत्रण और विनियमन अपेक्षाकृत कठिन है।
  • भारत में अधिकतर वन और वन्य जीवन या तो प्रत्यक्ष रूप में सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं या वन विभाग अथवा अन्य विभागों के जरिये सरकार के प्रबंधन में है।
  • इन्हें निम्नलिखित वर्गों में बाँटा गया है
( क ) आरक्षित वन
  • देश में आधे से अधिक वन क्षेत्र आरक्षित वन घोषित किए गए हैं। जहाँ तक वन और वन्य प्राणियों के संरक्षण की बात है, आरक्षित वनों को सर्वाधिक मूल्यवान माना जाता है।
( ख ) रक्षित वन
  • वन विभाग के अनुसार देश के कुल वन क्षेत्र का एक-तिहाई हिस्सा रक्षित है। इन वनों को और अधिक नष्ट होने से बचाने के लिए इनकी सुरक्षा की जाती है।
(ग) अवर्गीकृत वन 
  • अन्य सभी प्रकार के वन और बंजर भूमि जो सरकार, व्यक्तियों और समुदायों के स्वामित्व में होते हैं, अवर्गीकृत वन कहे जाते हैं।
  • आरक्षित और रक्षित वन ऐसे स्थायी वन क्षेत्र हैं जिनका रख-रखाव इमारती लकड़ी, अन्य वन पदार्थों और उनके बचाव के लिए किया जाता है।
  • मध्य प्रदेश में स्थायी वनों के अंतर्गत सर्वाधिक क्षेत्र है जोकि प्रदेश के कुल वन क्षेत्र का भी 75 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर, आंध्र प्रदेश, उत्तराखण्ड, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी कुल वनों में एक बड़ा अनुपात आरक्षित वनों का है। जबकि बिहार, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान में कुल वनों में रक्षित वनों का एक बड़ा अनुपात है।
  • पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में और गुजरात में अधिकतर वन क्षेत्र अवर्गीकृत वन हैं तथा स्थानीय समुदायों के प्रबंधन में हैं। 
समुदाय और वन संरक्षण
  • भारत के कुछ क्षेत्रों में तो स्थानीय समुदाय सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर अपने आवास स्थलों के संरक्षण में जुटे हैं। क्योंकि इसी से ही दीर्घकाल में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है।
  • सरिस्का बाघ रिजर्व में राजस्थान के गाँवों के लोग वन्य जीव रक्षण अधिनियम के तहत वहाँ से खनन कार्य बन्द करवाने के लिए संघर्षरत हैं।
  • कई क्षेत्रों में तो लोग स्वयं वन्य जीव आवासों की रक्षा कर रहे हैं और सरकार की ओर से हस्तक्षेप भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं।
  • राजस्थान के अलवर जिले में 5 गाँवों के लोगों ने 1,200 हेक्टेयर वन भूमि भैरोंदेव डाकव 'सेंचुरी' घोषित कर दी जिसके अपने ही नियम कानून हैं; जो शिकार वर्जित करते हैं तथा बाहरी लोगों की घुसपैठ से यहाँ के वन्य जीवन को बचाते हैं।
  • पवित्र पेड़ों के झुरमट: विविंध और दुर्लभ जातियों की संपत्ति
  • प्रकृति की पूजा सदियों पुराना जनजातीय विश्वास है, जिसका आधार प्रकृति के हर रूप की रक्षा करना है। इन्हीं विश्वासों ने विभिन्न वनों को मूल एवं कौमार्य रूप में बचाकर रखा है, जिन्हें पवित्र पेड़ों के झुरमुट ( देवी-देवताओं के वन) कहते हैं। 
  • वनों के इन भागों में या तो वनों के ऐसे बड़े भागों में स्थानीय लोग ही घुसते है न ही किसी और को छेड़छाड़ करने देते है।
  • छोटानागपुर क्षेत्र में मुंडा और संथाल जनजातियाँ महुआ और कदंब के पेड़ों की पूजा करते हैं। ओडिशा और बिहार की जनजातियाँ शादी के दौरान इमली और आम के पेड़ की पूजा करती हैं।
  • बहुत से व्यक्ति पीपल और वटवृक्ष को पवित्र मानते हैं। भारतीय समाज में अनेकों संस्कृतियाँ हैं और प्रत्येक संस्कृति में प्रकृति और इसकी कृतियों को संरक्षित करने के अपने पारंपरिक तरीके हैं।
  • आमतौर पर झरनों, पहाड़ी चोटियों, पेड़ों और पशुओं को पवित्र मानकर उनका संरक्षण किया जाता है। आप अनेक मंदिरों के आस पास बंदर और लंगूर पाएँगे। उपासक उन्हें खिलाते-पिलाते हैं और मंदिर के भक्तों में गिनते हैं।
  • राजस्थान में बिश्नोई गाँवों के आस पास आप काले हिरण, चिंकारा, नीलगाय और मोरों के झुंड देख सकते हैं जो यहां के समुदाय का अभिन्न हिस्सा हैं और कोई उनको नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
  • हिमालय में प्रसिद्ध चिपको आंदोलन कई क्षेत्रों में वन कटाई रोकने में ही कामयाब नहीं रहा अपितु यह भी दिखाया कि स्थानीय पौधों की जातियों को प्रयोग करके सामुदायिक वनीकरण अभियान को सफल बनाया जा सकता है।
  • पारंपरिक संरक्षण तरीकों को पुनर्जीवित अथवा परिस्थिकी कृषि के नए तरीकों का विकास अब व्यापक हो गया है।
  • टिहरी में किसानों का बीज बचाओ आंदोलन ने दिखा दिया है कि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के बिना भी विविध फसल उत्पादन द्वारा आर्थिक रूप से व्यवहार्य कृषि उत्पादन संभव है।
  • भारत में संयुक्त वन प्रबंधन कार्यक्रम क्षरित वनों के प्रबंध और पुनर्निर्माण में स्थानीय समुदायों की भूमिका के महत्त्व को उजागर करते हैं ।
  • औपचारिक रूप में इन कार्यक्रमों की शुरुआत सन् 1988 में हुई जब ओड़िशा राज्य ने संयुक्त वन प्रबंधन का पहला प्रस्ताव पास किया।
  • वन विभाग के अंतर्गत संयुक्त वन प्रबंधन क्षरित वनों के बचाव के लिए कार्य करता है और इसमें गाँव के स्तर पर संस्थाएँ बनाई जाती हैं जिसमें ग्रामीण और वन विभाग के अधिकारी संयुक्त रूप में कार्य करते हैं।
  • इसके बदले ये समुदाय मध्य स्तरीय लाभ जैसे गैर-इमारती वन उत्पादों के हकदारी होते हैं तथा सफल संरक्षण से प्राप्त इमारती लकड़ी लाभ में भी भागीदार होते हैं।
  • भारत में पर्यावरण के विनाश और पुनर्निर्माण की क्रियाशीलताओं से सीख मिलती है कि स्थानीय समुदायों को हर जगह प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन में शामिल करना चाहिए।
भारत में वनस्पतिजात और प्राणिजात
  • भारत, जैव विविधता के संदर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है।
  • यहाँ विश्व की सारी जैव उपजातियों की 8 प्रतिशत संख्या (लगभग 16 लाख) पाई जाती है। ये अभी खोजी जाने वाली उपजातियों से दो या तीन गुणा हैं।
  • भारत में 10 प्रतिशत वन्य वनस्पतिजात और 20 प्रतिशत स्तनधारियों को लुप्त होने का खतरा है। इनमें से कई उपजातियाँ तो नाजुक अवस्था में हैं और कई लुप्त होने के कगार पर हैं।
  • इनमें चीता, गुलाबी सिर वाली बत्तख, पहाड़ी कोयल (Guail) और जंगली चित्तीदार उल्लू और मधुका इनसिगनिस (महुआ की जंगली किस्म) और हुबरड़िया हेप्टान्यूरोन (घास की प्रजाति) जैसे पौधे शामिल हैं।
  • आज हमारा ध्यान अधिक बड़े और दिखाई देने वाले प्राणियों और पौधे के लुप्त होने पर अधिक केंद्रित है परंतु छोटे प्राणी जैसे कीट और पौधे भी महत्त्वपूर्ण होते हैं।
  • भारत में बड़े प्राणियों में से स्तनधारियों की 79 जातियाँ, पक्षियों की 44 जातियाँ, सरीसृपों की 15 जातियाँ और जलस्थलचरों की। 3 जातियाँ लुप्त होने का खतरा बना हुआ है। लगभग 1500 पादप जातियों के भी लुप्त होने का खतरा है।
  • फूलदार वनस्पति और रीढ़धारी प्राणियों के लुप्त होने की दर लुप्त होने की प्राकृतिक दर से 50 से 100 गुणा ज्यादा है।
वन रिपोर्ट- 2019 से अद्यतन करें।
लुप्त वन
  • भारत में जिस पैमाने पर वन कटाई हो रही है, वह विचलित कर देने वाली बात है। देश में वन आवरण के अंतर्गत अनुमानित 78-92 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल है।
  • यह देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 24-01 प्रतिशत हिस्सा है। (सघन वन 12-24 प्रतिशत, खुला वन 8-99 प्रतिशत और मैंग्रोव 0-14 प्रतिशत) ।
  • स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट (2013) के अनुसार वर्ष 2013 से सघन वनों के क्षेत्र में 3,775 वर्ग कि.मी. की वृद्धि हुई है। परंतु वन क्षेत्र में यह वृद्धि वन संरक्षण उपायों, प्रबंधन की भागीदारी तथा वृक्षारोपण से हुई है।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण और प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (IUCN) के अनुसार इनको निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।
सामान्य जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या जीवित रहने के लिए सामान्य मानी जाती है, जैसे पशु, साल, चीड़ और कृन्तक (रोडेंट्स) इत्यादि। -
संकटग्रस्त जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जिनके लुप्त होने का खतरा है। जिन विषम परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या कम हुई है, यदि वे जारी रहती हैं तो इन जातियों का जीवित रहना कठिन है।
  • काला हिरण, मगरमच्छ, भारतीय जंगली गधा, गैंडा, शेर-पूंछ वाला बंदर, संगाई ( मणिपुरी हिरण) इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।
सुभेद्य (Vulnerable) जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जिनकी संख्या घट रही है। यदि इनकी संख्या पर विपरीत प्रभाव डालने वाली परिस्थितियाँ नहीं बदली जाती और इनकी संख्या घटती रहती है तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगी। नीली भेड़, एशियाई हाथी, गंगा नदी की डॉल्फिन इत्यादि इस प्रकार की जातियों के उदाहरण हैं।
दुर्लभ जातियाँ
  • इन जातियों की संख्या बहुत कम या सुभेद्य हैं और यदि इनको प्रभावित करने वाली विषम परिस्थितियाँ नहीं परिवर्तित होती तो यह संकटग्रस्त जातियों की श्रेणी में आ सकती हैं।
स्थानिक जातियाँ
  • प्राकृतिक या भौगोलिक सीमाओं से अलग विशेष क्षेत्रों में पाई जाने वाली जातियाँ अंडमानी टील (teal), निकोबारी कबूतर, अंडमानी जंगली सुअर और अरुणाचल के मिथुन इन जातियों के उदाहरण हैं।
लुप्त जातियाँ
  • ये वे जातियाँ हैं जो इनके रहने के आवासों में खोज करने पर अनुपस्थित पाई गई हैं। ये उपजातियाँ स्थानीय क्षेत्र, प्रदेश, देश, महाद्वीप या पूरी पृथ्वी से ही लुप्त हो गई हैं।
  • ऐसी उपजातियों में एशियाई चीता और गुलाबी सिरवाली बत्तख शामिल हैं।
एशियाई चीता
  • भूमि पर रहने वाला दुनिया का सबसे तेज स्तनधारी प्राणी, चीता, बिल्ली परिवार का एक अजूबा और विशिष्ट सदस्य है जो 112 कि.मी. प्रति घंटा की गति से दौड़ सकता है। लोगों को आमतौर पर भ्रम रहता है कि चीता एक तेंदुआ होता है।
  • चीते की विशेष पहचान उसकी आँख के कोने से मुँह तक नाक के दोनों ओर फैली आँसुओं के लकीरनुमा निशान हैं।
  • 20वीं शताब्दी से पहले चीते अफ्रीका और एशिया में दूर-दूर तक फैले हुए थे। परंतु इसके आवासीय क्षेत्र और शिकार की उपलब्धता कम होने से लगभग लुप्त हो चुके हैं।
  • भारत में तो यह जाति बहुत पहले, 1952 में लुप्त घोषित कर दी गई थी।
  • हमारे कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार भारत के कई क्षेत्रों में ‘संवर्द्धन (enrichment) वृक्षारोपण' अर्थात् वाणिज्य की दृष्टि से कुछ या एकल वृक्ष जातियों के बड़े पैमाने पर रोपण करने से पेड़ों को दूसरी जातििायाँ खत्म हो गई।
  • उदाहरण के तौर पर सागवान एकल रोपण से दक्षिण भारत में अन्य प्राकृतिक वन बर्बाद हो गए और हिमालय में चीड़ पाईन के रोपण से हिमालयन ओक और रोडोडेंड्रोन (rhododendron) वनों का नुकसान हुआ।
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