BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | जल संसाधन

विश्व में जल के कुल आयतन का 96-5 प्रतिशत भाग महासागरों में पाया जाता है और केवल 2-5 प्रतिशत अलवणीय जल है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | जल संसाधन

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | जल संसाधन

  • तीन-चौथाई धरातल जल से ढका हुआ है, परंतु इसमें प्रयोग में लाने योग्य अलवणीय जल का अनुपात बहुत कम है।
  • यह अलवणीय जल हमें सतही अपवाह और भौमजल स्रोत से प्राप्त होता है। जिनका लगातार नवीकरण और पुनर्भरण जलीय चक्र द्वारा होता रहता है। सारा जल जलीय चक्र में गतिशील रहता है जिससे जल नवीकरण सुनिश्चित होता है।
  • पृथ्वी तीन-चौथाई भाग जल से घिरा है और जल एक नवीकरण योग्य संसाधन है।
  • विश्व में जल के कुल आयतन का 96-5 प्रतिशत भाग महासागरों में पाया जाता है और केवल 2-5 प्रतिशत अलवणीय जल है।
  • विश्व में अलवणीय जल का लगभग 70 प्रतिशत भाग अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड और पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादरों और हिमनदों के रूप में मिलता है, जबकि 30 प्रतिशत से थोड़ा-सा कम भौमजल के जलभृत (aquifer) के रूप में पाया जाता है।
  • भारत विश्व की वृष्टि का 4 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त करता है और • प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष जल उपलब्धता के संदर्भ में विश्व में इसका 133 वाँ स्थान है।
  • भारत में कुल नवीकरण योग्य जल संसाधन 1,897 वर्ग किमीप्रति वर्ष अनुमानित है। भविष्यवाणी है कि 2025 तक भारत का एक बड़ा हिस्सा विश्व के अन्य देशों और क्षेत्रों की तरह जल की नितांत कमी महसूस करेगा।

वर्षा जल संग्रहण

  • बहुउद्देशीय परियोजनाओं के अलाभप्रद असर और उन पर उठे विवादों के चलते वर्षा जल संग्रहण तंत्र इनके सामाजिक-आर्थिक और पारिस्थितिक तौर पर व्यवहार्थ विकल्प हो सकते हैं।
  • प्राचीन भारत में उत्कृष्ट जलीय निर्माणों के साथ-साथ जल संग्रहण ढाँचे भी पाए जाते थे। लोगों को वर्षा पद्धति और मृदा के गुणों के बारे में गहरा ज्ञान था। उन्होंने स्थानीय पारिस्थितिकीय परिस्थितियों और उनकी जल आवश्यकतानुसार वर्षाजलं, भौमजल, नदी जल और बाढ़ जल संग्रहण के अनेक तरीके विकसित कर लिए थे।
  • पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में लोगों ने 'गुल' अथवा 'कुल' (पश्चिमी हिमालय) जैसी वाहिकाएँ, नदी की धारा का रास्ता बदलकर खेतों में सिंचाई के लिए बॅनाई हैं।
  • पश्चिमी भारत, विशेषकर राजस्थान में पीने का जल एकत्रित करने के लिए छत वर्षा जल संग्रहण का तरीका आम था।
  • पश्चिम बंगाल में बाढ़ के मैदान में लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए बाढ़ जल वाहिकाएँ बनाते थे।
  • शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में खेतों में वर्षा जल एकत्रित करने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे ताकि मृदा को सिंचित किया जा सके और संरक्षित जल को खेती के लिए उपयोग में लाया जा सके।
  • राजस्थान के जिले जैसलमेर में खादीन और अन्य क्षेत्रों में जोहड़ इसके उदाहरण हैं।
    • पी वी सी पाइप का इस्तेमाल करके छत का वर्षाजल एकत्रित किया जाता है।
    • रेत और ईंट प्रयोग करके जल का छनन (filter) किया जाता है।
    • भूमिगत पाइप के द्वारा जल हौज तक ले जाया जाता है जहाँ से इसे तुरंत प्रयोग किया जा सकता है।
    • हौज से अतिरिक्त जल कुएँ तक ले जाया जाता है।
    • कुएँ का जल भूमिगत जल का पुनर्भरण करता है।
    • बाद में इस जल का उपयोग किया जा सकता है।

  • राजस्थान के अर्ध-शुष्क और शुष्क क्षेत्रों विशेषकर बीकानेर, फलोदी और बाड़मेर में लगभग हर घर में पीने का पानी संग्रहित करने के लिए भूमिगत टैक अधवा 'टौका' हुआ करता था। इसका आकार एक बड़े कमरे जितना हो सकता है।
  • फलोदी में एक घर में 6.1 मीटर गहरा, 4.27 मीटर लंबा और 2.44 मीटर चौड़ा टाँका था। टांका यहाँ सुविकसित छत वर्षाजल संग्रहण तंत्र का अभिन्न हिस्सा होता है जिसे मुख्य घर या आँगन में बनाया जाता था।

  • मेघालय की राजधानी शिलाग में छत वर्षाजल संग्रहण प्रचलित है। यह रोचक इसलिए है क्योंकि चेरापूँजी और मॉसिनराम जहाँ विश्व की सबसे अधिक वर्षा होती है, शिलांग से 55 किलोमीटर की दूरी पर ही स्थित है और यह शहर पीने के जल की कमी की गंभीर समस्या का सामना करता है।
  • शहर के लगभग हर घर छत वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था है। घरेलू जल आवश्यकता की कुल माँग के लगभग 15-25 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति छत जल संग्रहण व्यवस्था से ही होती है।
  • वे घरों की ढलवाँ छतों से पाइप द्वारा जुड़े हुए थे। छत से वर्षा का पानी इन नलों से होकर भूमिगत टाँका तक पहुँचता था जहाँ इसे एकत्रित किया जाता था।
  • वर्षा का पहला जल छत और नलों को साफ करने में प्रयोग होता था और उसे संग्रहित नहीं किया जाता था। इसके बाद होने वाली वर्षा का जल संग्रह किया जाता था।
  • टाँका में वर्षा जल अगली वर्षा ऋतु तक संग्रहित किया जा सकता है। यह इसे जल की कमी वाली ग्रीष्म ऋतु तक पीने का जल उपलब्ध करवाने वाला जल स्त्रोत बनाता है।
  • वर्षाजल अथवा 'पालर पानी' जैसा कि इसे इन क्षेत्रों में पुकारा जाता है, प्राकृतिक जल का शुद्धतम रूप समझा जाता है। कुछ घरों में तो टाँकों के साथ भूमिगत कमरे भी बनाए जाते हैं क्योंकि जल का यह स्त्रोत इन कमरों को भी ठंडा रखता था जिससे ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से राहत मिलती है।
  • आज पश्चिमी राजस्थान में छत वर्षाजल संग्रहण की रीति इंदिरा गांधी नहर से उपलब्ध बारहमासी पेयजल के कारण कम होती जा रही है।
  • हालांकि कुछ घरों में टौकों की सुविधा अभी भी है। क्योंकि उन्हें नल के पानी का स्वाद पसन्द नहीं है।
  • छतजल संग्रहण धार के सभी शहरों और ग्रामों में प्रचलित था। वर्षा जल जो कि घरों की ढालू छतों पर गिरता है, उसे पाइप द्वारा भूमिगत टाँका के अंदर ले जाते हैं ( भूमि में गोल छिद्र) जो मुख्य घर अथवा आँगन में बना होता है। ऊपर दिखाया गया चित्र दर्शाता है कि जल पड़ोसी की छत से एक लम्बे पाइप के द्वारा लाया जाता है।
  • यहाँ पड़ोसी की छत का उपयोग वर्षा जल को एकत्र करने के लिए किया गया है। चित्र में एक छेद दिखाया गया है जिसके द्वारा वर्षा जल भूमिगत टाँका में चला जाता है।
  • सौभाग्य से आज भी भारत के कई ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जल संरक्षण और संग्रहण का यह तरीका प्रयोग में लाया जा रहा है।
  • कर्नाटक के मैसूरु जिले में स्थित एक सूदूर गाँव गंडाथूर में ग्रामीणों ने अपने घर में जल आवश्यकता पूर्ति छत वर्षाजल संग्रहण की व्यवस्था की हुई है।
बाँस ड्रिप सिंचाई प्रणाली
  • मेघालय में नदियों व झरनों के जल को बाँस द्वारा बने पाइप द्वारा एकत्रित करके 200 वर्ष पुरानी विधि प्रचलित है। लगभग 18 से 20 लीटर सिंचाई पानी बाँस पाइप में आ जाता है तथा उसे सैकड़ों मीटर की दूरी तक ले जाया जाता है। अंत में पानी का बहाव 20 से 80 बूँद प्रति मिनट तक घटाकर पौधे पर छोड़ दिया जाता है। 
  • चित्र - 1: पहाड़ी शिखरों पर सदानीरा झरनों की दिशा परिवर्तित करने के लिए बाँस के पाइपों का उपयोग किया जाता है। इन पाइपों के माध्यम से गुरुत्वाकर्षण द्वारा जल पहाड़ के निचले स्थानों तक पहुँचाया जाता है।

  • चित्र - 2 तथा 3 बाँस से निर्मित चैनल से पौधे के स्थान तक जल का बहाव परिवर्तित किया जाता है। पौधे तक बाँस पाइप से बनाई व बिछाई गई विभिन्न जल शाखाओं में जल वितरित किया जाता है। पाइपों में जल प्रवाह इनकी स्थितियों में परिवर्तन करके नियंत्रित किया जाता है।

  • चित्र - 4: यदि पाइपों को सड़क पार ले जाना हो तो उन्हें भूमि पर ऊंचाई से ले जाया जाता है।

  • चित्र - 5 व 6: संकुचित किये हुए चैनल सेक्शन और पथांतरण इकाई जल सिंचाई के अंतिम चरण में प्रयुक्त की जाती है। अंतिम चैनल सेक्शन से पौधे की जड़ों के निकट जल गिराया जाता है।
  • गाँव के लगभग 200 घरों में यह व्यवस्था है और इस गाँव ने वर्षा जल संपन्न गाँव की ख्याति अर्जित की है।
  • तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जहां पूरे राज्य में हर घर में छत वर्षाजल संग्रहण ढांचों का बनाना आवश्यक कर दिया गया है। इस संदर्भ में दोषी व्यक्तियों पर कानूनी कार्यवाही हो सकती है।

जल दुर्लभता और जल संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्यकता

  • वर्षा में वार्षिक और मौसमी परिवर्तन के कारण जल संसाधनों की उपलब्धता में समय और स्थान के अनुसार विभिन्नता है।
  • परंतु अधिकतया जल की कमी इसके अतिशोषण, अत्यधिक प्रयोग और समाज के विभिन्न वर्गों में जल के असमान वितरण के कारण होती है।
  • अतः जल दुर्लभता अत्यधिक और बढ़ती जनसंख्या और उसके परिण मस्वरूप जल की बढ़ती माँग और उसके असमान वितरण का परिण नाम भी हो सकता है।
  • जल, अधिक जनसंख्या के लिए घरेलू उपयोग में ही नहीं बल्कि अधिक अनाज उगाने के लिए भी चाहिए।
  • स्वीडेन के एक विशेषज्ञ, फाल्कनमार्क के अनुसार जल की कमी तब होती है जब प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिवर्ष 1000 से 1600 घन मीटर के बीच जल उपलब्ध होता है।
  • अतः अनाज का उत्पादन बढ़ाने के लिए जल संसाधनों का अतिशोषण करके ही सिंचित क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है और शुष्क ऋतु में भी खेती की जा सकती है।
  • स्वतंत्रता के बाद भारत में तेजी से औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ और विकास के अवसर प्राप्त हुए। आजकल हर जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ (MNCs) बड़े औद्योगिक घरानों के रूप में फैली हुई हैं।
  • उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण अलवणीय जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। उद्योगों को अत्यधिक जल के अलावा उनको चलाने के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है और इसकी काफी हद तक पूर्ति जल विद्युत से होती है।
  • वर्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22 प्रतिशत भाग जल विद्युत से प्राप्त होता है।
  • इसके अलावा शहरों की बढ़ती संख्या और जनसंख्या तथा शहरी जीवन शैली के कारण न केवल जल और ऊर्जा की आवश्यकता में बढ़ोत्तरी हुई है अपितु इनसे संबंधित समस्याएँ और भी गहरी हुई हैं।
  • शहरी आवास समितियों या कालोनियों अंदर जल पूर्ति के लिए नलकूप स्थापित किए गए हैं। किन्तु फिर भी शहरों में जल संसाधनों का अति शोषण हो रहा है और इनकी कमी होती जा रही है।
  • भारत की नदियां विशेषकर छोटी सरिताएं, जहरीली धाराओं में परिवर्तित हो गई हैं और बड़ी नदियां जैसे गंगा और यमुना कोई भी शुद्ध नहीं है।
  • बढ़ती जनसंख्या, कृषि आधुनिकीकरण, नगरीकरण और औद्योगीकरण का भारत की नदियों पर अत्यधिक दुष्प्रभाव है और हर दिन गहराता जा रहा है, इससे संपूर्ण जीवन खतरे में है।
  • यह जल दुर्लभता के मात्रात्मक पहलू का विषय है। जो जल की खराब गुणवत्ता के कारण हो सकती है। लोगों की आवश्यकता के लिए प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध होने के बावजूद यह घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों, रसायनों, कीटनाशकों और कृषि में प्रयुक्त उर्वरकों द्वारा प्रदूषित है और मानव उपयोग के लिए खतरनाक है।
  • समय की माँग है कि हम अपने जल संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करें, स्वयं को स्वास्थ्य संबंधी खतरों से बचाएँ, खाद्यान्न सुरक्षा, अपनी आजीविका और उत्पादक क्रियाओं की निरंतरता को सुनिश्चित करें, और हमारे प्राकृतिक पारितंत्रों को निम्नीकृत ( degradation) होने से बचाएँ ।
  • जल संसाधनों के अतिशोषण और कुप्रबंधन से इन संसाधनों का ह्रास हो सकता है और पारिस्थितिकी संकट की समस्या पैदा हो सकती है जिसका हमारे जीवन पर गंभीर प्रभाव हो सकता है।
बहु-उद्देशीय नदी परियोजनाएँ और समन्वित जल संसाधन प्रबंधन
  • पुरातत्त्व वैज्ञानिक और ऐतिहासिक अभिलेख/दस्तावेज (record) बताते हैं कि हमने प्राचीन काल से सिंचाई के लिए पत्थरों और मलबे से बाँध, जलाशय अथवा झीलों के तटबंध और नहरों जैसी उत्कृष्ट जलीय कृतियाँ बनाई हैं।
  • हमने यह परिपाटी आधुनिक भारत में भी जारी रखी है और अधि कतर नदियों के बेसिनों में बाँध बनाए हैं।
प्राचीन भारत में जलीय कृतियाँ
  • ईसा से एक शताब्दी पहले इलाहाबाद के नजदीक भिगवेरा में गंगा नदी की बाढ़ के जल को संरक्षित करने के लिए एक उत्कृष्ट जल संग्रहण तंत्र बनाया गया था।
  • चन्द्रगुप्त मौर्य के समय बृहत् स्तर पर बाँध झील और सिंचाई तंत्रों का निर्माण करवाया गया।
  • कलिंग (ओडिशा), नागार्जुनकोंडा (आंध्र प्रदेश) बेन्नूर (कर्नाटक) और कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में उत्कृष्ट सिचाई तंत्र होने के सबूत मिलते हैं।
  • अपने समय की सबसे बड़ी कृत्रिम झीलों में से एक. भोपाल झील, 11वीं शताब्दी में बनाई गई। 
  • 14वीं शताब्दी में इल्तुतमिश ने दिल्ली में सिरी फोर्ट क्षेत्र में जल की सप्लाई के लिए हौज खास (एक विशिष्ट तालाब) बनवाया।
  • स्रोत - डाईंग विजडम, सी एस ई. 1997
  • परम्परागत बाँध, नदियों और वर्षा जल को इकट्ठा करके बाद में उसे खेतों की सिंचाई के लिए उपलब्ध करवाते थे।
  • आज कल बाँध सिर्फ सिंचाई के लिए नहीं बनाए जाते अपितु उनका उद्देश्य विद्युत उत्पादन, घरेलू और औद्योगिक उपयोग, जल आपूर्ति, बाढ़ नियंत्रण, मनोरंजन, आंतरिक नौचालन और मछली पालन भी है।
  • इसलिए बाँधों को बहुउद्देशीय परियोजनाएँ भी कहा जाता है जहाँ एकत्रित जल के अनेकों उपयोग समन्वित होते हैं। उदाहरण के तौर पर सतलुज-ब्यास बेसिन में भाखड़ा-नांगल परियोजना जल विद्युत उत्पादन और सिंचाई दोनों के काम में आती है।
  • बाँध बहते जल को रोकने, दिशा देने या बहाव कम करने के लिए खड़ी की गई बाधा है जो आमतौर पर जलाशय, झील अथवा जलभरण बनाती हैं। बाँध का अर्थ जलाशय से लिया जाता है न कि इसके ढाँचे से |
  • अधिकतर बाँधों में एक ढलवाँ हिस्सा होता है जिसके ऊपर से या अन्दर से जल रुक-रुक कर या लगातार बहता है।
  • बाँधों का वर्गीकरण उनकी संरचना और उद्देश्य या ऊँचाई अनुसार किया जाता है।
  • संरचना और उनमें प्रयुक्त पदार्थों के आधार पर बाँधों को लकड़ी के बाँध, तटबंध बाँध या पक्का बाँध के अलावा कई उपवर्गों में बाँटा जा सकता है।
  • ऊँचाई के अनुसार बाँधों को बड़े बाँध और मुख्य बाँध या नीचे बाँध, मध्यम बाँध और उच्च बाँधों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
  • इसी प्रकार महानदी बेसिन में हीराकुंड परियोजना जलसंरक्षण और बाढ़ नियंत्रण का समन्वय है।
  • स्वतंत्रता के बाद शुरू की गई समन्वित जल संसाधन प्रबंधन उपागम पर आधारित बहुउद्देशीय परियोजनाओं को उपनिवेशन काल में बनी बाधाओं को पार करते हुए देश को विकास और समृद्धि के रास्ते पर ले जाने वाले वाहन के रूप में देखा गया।
  • जवाहरलाल नेहरू गर्व से बाँधों को 'आधुनिक भारत के मंदिर' कहा करते थे। उनका मानना था कि इन परियोजनाओं के चलते कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था, औद्योगीकरण और नगरीय अर्थव्यवस्था समन्वित रूप से विकास करेगी।
  • पिछले कुछ वर्षों में बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध कई कारणों से परिनिरीक्षण और विरोध के विषय बन गए हैं।
  • नदियों पर बाँध बनाने और उनका बहाव नियंत्रित करने से उनका प्राकृतिक बहाव अवरुद्ध होता है, जिसके कारण तलछट बहाव कम हो जाता है और अत्यधिक तलछट जलाशय की तली पर जमा होता रहता है जिससे का तल अधिक चट्टानी हो जाता है और नदी जलीय जीव-आवासों में भोजन की कमी हो जाती है।
  • बाँध नदियों को टुकड़ों में बाँट देते हैं जिससे विशेषकर अंडे देने की ऋतु में जलीय जीवों का नदियों में स्थानांतरण अवरुद्ध हो जाता है।
  • बाढ़ के मैदान में बनाए जाने वाले जलाशयों द्वारा वहाँ मौजूद वनस्पति और मिट्टियाँ जल में डूब जाती हैं जो कालांतर में अपघटित हो जाती है।
  • बहुउद्देशीय परियोजनाएँ और बड़े बाँध नए सामाजिक आंदोलनों जैसे- नर्मदा बचाओ आंदोलन और टिहरी बाँध आंदोलन के कारण भी बन गए हैं। 
  • इन परियोजनाओं का विरोध मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों के वृहद स्तर पर विस्थापन के कारण है।
  • आमतौर पर स्थानीय लोगों को उनकी जमीन, आजीविका और संसाधनों से लगाव एवं नियंत्रण देश की बेहतरी के लिए कुर्बान करना पड़ता है।
  • सिंचाई ने कई क्षेत्रों में फसल प्रारूप परिवर्तित कर दिया है जहाँ किसान जलगहन और वाणिज्य फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इससे मृदाओं के लवणीकरण जैसे गंभीर पारिस्थितिकीय परिणाम हो सकते हैं।
  • गुजरात में साबरमती बेसिन में सूखे के दौरान नगरीय क्षेत्रों में अधिक जल आपूर्ति देने पर परेशान किसान उपद्रव पर उतारू हो गए।
  • बहुद्देशीय परियोजनाओं के लागत और लाभ के बँटवारे को लेकर अंतर्राज्यीय झगड़े आम होते जा रहे हैं। नदी परियोजनाओं पर उठी अधिकतर आपत्तियाँ उनके उद्देश्यों में विफल हो जाने पर हैं।
  • यह एक विडंबना ही है कि जो बाँध बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए जाते हैं उनके जलाशयों में तलछट जमा होने से वे बाढ़ आने का कारण बन जाते हैं।
  • अत्यधिक वर्षा होने की दशा में तो बड़े बाँध भी कई बार बाढ़ नियंत्रण में असफल रहते हैं। वर्ष 2006 में महाराष्ट्र और गुजरात में भारी वर्षा के दौरान बाँधों से छोड़े गए जल की वजह बाढ़ की स्थिति और भी विकट हो गई।
  • इन बाढ़ों से न केवल जान और माल का नुकसान हुआ अपितु बृहद स्तर पर मृदा अपरदन भी हुआ।
  • बाँध के जलाशय पर तलछट जमा होने का अर्थ यह भी है कि यह तलछट जो कि एक प्राकृतिक उर्वरक है बाढ़ के मैदानों तक नहीं पहुँचती जिसके कारण भूमि निम्नीकरण की समस्याएँ बढ़ती हैं।
  • बहुउद्देशीय योजनाओं के कारण भूकंप आने की संभावना भी बढ़ जाती है और अत्यधिक जल के उपयोग से जल-जनित बीमारियाँ, फसलों में कीटाणु-जनित बीमारियाँ और प्रदूषण फैलते हैं।

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