BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | विनिर्माण उद्योग
कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में परिवर्तित कर अधिक मात्रा में वस्तुओं के उत्पादन को विनिर्माण या वस्तु निर्माण कहा जाता है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH GEOGRAPHY NOTES | विनिर्माण उद्योग
- कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में परिवर्तित कर अधिक मात्रा में वस्तुओं के उत्पादन को विनिर्माण या वस्तु निर्माण कहा जाता है।
- द्वितीयक कार्यों में लगे व्यक्ति कच्चे माल को परिष्कृत वस्तुओं में परिवर्तित करते हैं। स्टील, कार, कपड़ा उद्योग, बेकरी तथा पेय पदार्थों संबंधी उद्योगों में लगे श्रमिक इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं। कुछ व्यक्ति सेवाएँ प्रदान करने में रोजगार पाते हैं।
- विनिर्माण उद्योग सामान्यतः विकास की तथा विशेषतः आर्थिक विकास की रीढ़ समझे जाते हैं, क्योंकि-
- विनिर्माण उद्योग न केवल कृषि के आधुनिकीकरण में सहायक हैं वरन् द्वितीयक व तृतीयक सेवाओं में रोजगार उपलब्ध कराकर कृषि पर हमारी निर्भरता को कम करते हैं।
- देश में औद्योगिक विकास बेरोजगारी तथा गरीबी उन्मूलन की एक आवश्यक शर्त है। भारत में सार्वजनिक तथा संयुक्त क्षेत्र में लगे उद्योग इसी विचार पर आधारित थे। जनजातीय तथा पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना का उद्देश्य क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना था।
- निर्मित वस्तुओं का निर्यात वाणिज्य व्यापार को बढ़ाता है जिससे अपेक्षित विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है।
- वे देश ही विकसित हैं जो कच्चेमाल को विभिन्न तथा अधिक मूल्यवान तैयार माल में विनिर्मित करते हैं। भारत का विकास विविध व शीघ्र औद्योगिक विकास में निहित हैं।
- कृषि तथा उद्योग एक दूसरे से पृथक नहीं हैं ये एक दूसरे के पूरक हैं। उदाहरणार्थ, भारत में कृषि पर आधारित उद्योगों ने कृषि पैदावार बढ़ोतरी को प्रोत्साहित किया है।
- ये उद्योग कच्चेमाल के लिए कृषि पर निर्भर हैं तथा इनके द्वारा निर्मित उत्पाद जैसे सिंचाई के लिए पंप, उर्वरक, कीटनाशक दवाएँ, प्लास्टिक पाइष, मशीनें व कृषि औजार आदि पर किसान निर्भर हैं। इसलिए विनिर्माण उद्योग के विकास तथा स्पर्धा से न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिला है, अपितु उत्पादन प्रक्रिया भी सक्षम हुई है।
- आज वैश्वीकरण के युग में हमारे उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धी तथा सक्षम होने की आवश्यकता है।
- केवल आत्मनिर्भरता ही काफी नहीं है। हमारी वस्तुएँ गुणवत्ता में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हों तभी हम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा कर पाएँगे।
- पिछले दो दशकों से सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण उद्योग का योगदान 27 प्रतिशत में से 17 प्रतिशत ही है। क्योंकि 10 प्रतिशत भाग खनिज खनन, गैस तथा विद्युत ऊर्जा का योगदान है।
- भारत की अपेक्षा अन्य पूर्वी एशियाई देशों में विनिर्माण का योगदान सकल घरेलू उत्पाद का 25 से 35 प्रतिशत है। पिछले एक दशक भारतीय विनिर्माण क्षेत्र 7 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ोतरी हुई है।
- बढ़ोतरी की यह दर अगले दशक में 12 प्रतिशत अपेक्षित है। वर्ष 2003 विनिर्माण क्षेत्र का विकास 9 से 10 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर हुआ है।
- उपयुक्त सरकारी नीतियों तथा औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी के नए प्रयासों से अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि विनिर्माण उद्योग अगले एक दशक में अपना लक्ष्य पूरा कर सकता है।
- इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय विनिर्माण प्रतिस्पर्धा परिषद् (National Manufacturing Competitiveness Council) की स्थापना की गयी है।
- उद्योगों की स्थापना स्वभावतः जटिल है। इनकी स्थापना कच्चे माल की उपलब्धता, श्रमिक, पूँजी, शक्ति के साधन तथा बाजार आदि की उपलब्धता से प्रभावित होती है।
- इन सभी कारकों का एक स्थान पर पाया जाना लगभग असंभव है। फलस्वरूप विनिर्माण उद्योग की स्थापना के लिए वही स्थान उपयुक्त हैं जहाँ ये कारक उपलब्ध हों अथवा जहाँ इन्हें कम कीमत पर उपलब्ध कराया जा सकता है।
- औद्योगिक प्रक्रिया के प्रारंभ होने के साथ-साथ नगरीकरण प्रारंभ होता है। कभी-कभी उद्योग शहरों में या उनके निकट लगाए जाते हैं। इस प्रकार औद्योगीकरण तथा नगरीकरण साथ-साथ चलते हैं।
- नगर उद्योगों को बाजार तथा सेवाएँ जैसे- बैंकिग, बीमा, परिवहन, श्रमिक तथा वित्तीय सलाह आदि उपलब्ध कराते हैं।
- नगर केंद्रों द्वारा दी गई सुविधाओं से लाभान्वित, कई बार बहुत से उद्योग नगरों के आस पास ही केंद्रित हो जाते हैं जिसे 'समूहन बचत' (Agglomeration economies) कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर धीरे-धीरे बड़ा औद्योगिक समूहन स्थापित हो जाता है।
- स्वतंत्रता से पहले अधिकतर विनिर्माण उद्योगों की स्थापना दूरस्थ देशों से व्यापार पर आधारित थी जैसे मुंबई कोलकाता व चेन्नई आदि । परिणामस्वरूप कुछ एक नगर औद्योगिक केंद्र के रूप में उभरे जो ग्रामीण कृषि पृष्ठप्रदेश (hinterland) घिरे थे।
- यद्यपि उद्योगों की भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि व विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है, तथापि इनके द्वारा बढ़ते भूमि, वायु, जल तथा पर्यावरण प्रदूषण को भी नकारा नहीं जा सकता। उद्योग चार प्रकार के प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं -
(क) वायु (ख) जल (ग) भूमि(घ) ध्वनि प्रदूषण करने वाले उद्योगों में ताप विद्युतगृह भी सम्मिलित हैं।
- अधिक अनुपात में अनचाही गैसों की उपस्थिति जैसे सल्फर डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड वायु प्रदूषण का कारण है।
- वायु में निलंबित कणनुमा पदार्थों में ठोस व द्रवीय दोनों ही प्रकार के कण होते हैं जैसे- धूल, स्प्रे, कुहासा तथा धुआँ ।
- रसायन व कागज उद्योग, ईंटों के भट्टों, तेल शोधनशालाएँ, प्रगलन उद्योग, जीवाश्म ईंधन दहन तथा छोटे-बड़े कारखाने प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन करते हुए धुआँ निष्कासित करते हैं।
- जहरीली गैसों का रिसाव बहुत भयानक तथा दूरगामी प्रभावों वाला हो सकता है। वायु प्रदूषण, मानव स्वास्थ्य, पशुओं, पौधों, इमारतों तथा पूरे पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डालते हैं।
- उद्योगों द्वारा कार्बनिक तथा अकार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों के नदी में छोड़ने से जल प्रदूषण फैलता हैं।
- जल प्रदूषण के प्रमुख कारक - कागज, लुग्दी, रसायन, वस्त्र, तथा रंगाई उद्योग, तेल शोधन शालाएँ, चमड़ा उद्योग तथा इलेक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग हैं जो रंग, अपमार्जक, अम्ल, लवण तथा भारी धातुएँ जैसे सीसा, पारा, कीटनाशक, उर्वरक, कार्बन, प्लास्टिक और रबर सहित कृत्रिम रसायन आदि जल में वाहित करते हैं।
- भारत के मुख्य अपशिष्ट पदार्थों में फ्लाई एश, फोस्फो-जिप्सम तथा लोहा-इस्पात की अशुद्धियाँ (Slag) हैं।
- जब कारखानों तथा तापवरों से गर्म जल को बिना ठंडा किए ही नदियों तथा तालाबों में छोड़ दिया जाता है, तो जल में तापीय प्रदूषण होता है।
- परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के अपशिष्ट व परमाणु शस्त्र उत्पादक कारखानों से कैंसर, जन्मजात विकार तथा अकाल प्रसव जैसी बीमारियाँ होती हैं।
- मृदा व जल प्रदूषण आपस में संबंधित हैं। मलबे का ढेर विशेषकर काँच, हानिकारक रसायन, औद्योगिक बहाव, पैकिंग, लवण तथा कूड़ा-कर्कट मृदा को अनुपजाऊ बनाता है। वर्षा जल के साथ ये प्रदूषक जमीन से रिसते हुए भूमिगत जल तक पहुँच कर उसे भी प्रदूषित कर देते हैं।
- ध्वनि प्रदूषण से खिन्नता तथा उत्तेजना ही नहीं वरन् श्रवण असक्षमता, हृदय गति, रक्त चाप तथा अन्य कायिक व्यथाएँ भी बढ़ती हैं।
- अनचाही ध्वनि, उत्तेजना व मानसिक चिंता का स्रोत है। औद्योगिक तथा निर्माण कार्य, कारखानों के उपकरण, जेनरेटर, लकड़ी चीरने के कारखाने, गैस यांत्रिकी तथा विद्युत ड्रिल (Drill) भी अधिक ध्वनि उत्पन्न करते हैं।
- कारखानों द्वारा निष्कासित एक लिटर अपशिष्ट से लगभग आठ गुणा स्वच्छ जल दूषित होता है।
- औद्योगिक प्रदूषण से स्वच्छ जल को कैसे बचाया जा सकता है, इसके कुछ निम्न सुझाव हैं-
(क) विभिन्न प्रक्रियाओं में जल का न्यूनतम उपयोग तथा जल का दो या अधिक उत्तरोत्तर अवस्थाओं में पुनर्चक्रण द्वारा पुन: उपयोग।(ख) जल की आवश्यकता पूर्ति हेतु वर्षा जल संग्रहण |(ग) नदियों व तालाबों में गर्म जल तथा अपशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित करने से पहले उनका शोधन करना। औद्योगिक अपशिष्ट का शोधन तीन चरणों में किया जा सकता है-(अ) यांत्रिक साधनों द्वारा प्राथमिक शोधन- इसमें अपशिष्ट पदार्थों की छंटाई, उनके छोटे-छोटे टुकड़े करना, ढकना तथा तलछट जमाव आदि सम्मिलित हैं।(ब) जैविक प्रक्रियाओं द्वारा द्वितयीक शोधन।
- जैविक, रासायनिक तथा भौतिक प्रक्रियाओं द्वारा तृतीयक शोधन- इसमें अपशिष्ट जल को पुनर्चक्रण द्वारा पुनः प्रयोग योग्य बनाया जाता है।
- जहाँ भूमिगत जल का स्तर कम है, वहाँ उद्योगों द्वारा इसके अधिक निष्कासन पर कानूनी प्रतिबंध होना चाहिये।
- वायु में निलंबित प्रदूषण को कम करने के लिए कारखानों में ऊँची चिमनियाँ, चिमनियों में इलेक्ट्रोस्टैटिक अवक्षेपण (eletrostatic precipitators), स्क्रबर उपकरण तथा गैसीय प्रदूषक पदार्थों को जड़त्वीय रूप से पृथक करने के लिए उपकरण होना चाहिये। कारखानों में कोयले की अपेक्षा तेल व गैस के प्रयोग से धुएँ के निष्कासन में कमी लायी जा सकती है।
- मशीनों व उपकरणों का उपयोग किया जा सकता है तथा जेनरेटरों में साइलेंसर (Silencers) लगाया जा सकता है। ऐसी मशीनरी का प्रयोग किया जाए जो ऊर्जा सक्षम हों तथा कम ध्वनि प्रदूषण करे।
- भारत में राष्ट्रीय ताप विद्युतगृह कॉर्पोरेशन विद्युत प्रदान करने वाली मुख्य निगम है। इसके पास पर्यावरण प्रबंधन तंत्र (EMS) 14001 के लिए आई एस ओ (ISO) प्रमाण पत्र है।
राष्ट्रीय ताप विद्युतग्रह (एनटीपीसी) द्वारा दिखाया गया मार्ग |
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- यह निगम प्राकृतिक पर्यावरण और संसाधन जैसे जल, खनिज तेल, गैस तथा ईंधन संरक्षण नीति का हिमायती है तथा इन्हें ध्यान में रखकर ही विद्युत संयंत्रों की स्थापना करता है। ऐसा निम्न उपायों द्वारा संभव है-
- आधुनिकतम तकनीकों पर आधारित उपकरणों का सही उपयोग करके तथा विद्यमान उपकरणों में सुधार।
- अधिकतम राख का इस्तेमाल कर अपशिष्ट पदार्थों का न्यून उत्पादन।
- पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने के लिए हरित क्षेत्र की सुरक्षा तथा वृक्षारोपण के लिए प्रेरित करना ।
- तरल अपशिष्ट प्रबंधन, राख युक्त जलीय पुनर्चक्रण तथा राख- संग्रह (Ash pond) प्रबंधन द्वारा पर्यावरण प्रदूषण को कम करना।
- रोजमर्रा के इस्तेमाल की विभिन्न औद्योगिक उत्पादों की सूची बनाएं जैसे- ट्रांजिस्टर, बिजली का बल्ब, वनस्पति तेल, सीमेंट, कांच का सामान, पैट्रोल, माचिस, स्कूटर, वाहन, दवाईयां आदि ।
- यदि हम विशेष मापदंडों के आधार पर विभिन्न उद्योगों का वर्गीकरण करते हैं जो निम्न हैं-
- कृषि आधारित सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, पटसन, रेशम वस्त्र, रबर, चीनी, चाय, काफी तथा वनस्पति तेल उद्योग |
- खनिज आधारित लोहा तथा इस्पात, सीमेंट, एल्यूमिनियम, मशीन, औजार तथा पेट्रोरासायन उद्योग ।
- आधारभूत उद्योग- जिनके उत्पादन या कच्चे माल पर दूसरे उद्योग निर्भर हैं जैसे-लोहा इस्पात, ताँबा प्रगलन व एल्यूमिनियम प्रगलन उद्योग।
- उपभोक्ता उद्योग - जो उत्पादन उपभोक्ताओं के सीधे उपयोग हेतु करते हैं जैसे - चीनी, दंतमंजन, कागज, पंखे, सिलाई मशीन आदि ।
- एक लघु उद्योग को परिसंपत्ति की एक इकाई पर अधिकतम निवेश मूल्य के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया जाता है।
- यह निवेश सीमा, समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। अधिकतम स्वीकार्य निवेश के आधार पर की जाती है।
- सार्वजनिक क्षेत्र में लगी, सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रबंधित तथा सरकार द्वारा संचालित उद्योग जैसे भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (BHEL) तथा स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) आदि।
- निजी क्षेत्र के उद्योग जिनका एक व्यक्ति के स्वामित्व में और उसके द्वारा संचालित अथवा लोगों के स्वामित्व में या उनके द्वारा संचालित है। टिस्को, बजाज ऑटो लिमिटेड, डाबर उद्योग आदि।
- संयुक्त उद्योग - वैसे उद्योग जो राज्य सरकार और निजी क्षेत्र के संयुक्त प्रयास से चलाये जाते हैं। जैसे ऑयल इंडिया लिमिटेड (OIL)।
- सहकारी उद्योग- जिनका स्वामित्व कच्चे माल की पूर्ति करने वाले उत्पादकों, श्रमिकों या दोनों के हाथों में होता है।
- संसाधनों का कोष संयुक्त होता है तथा लाभ-हानि का विभाजन भी अनुपातिक होता है जैसे महाराष्ट्र के चीनी उद्योग, केरल के नारियल पर आधारित उद्योग।
- भारी उद्योग जैसे लोहा तथा इस्पात आदि। हल्के उद्योग जो कम भार वाले कच्चे काल का प्रयोग कर हल्के तैयार माल का उत्पादन करते हें जैसे- विद्युतीय उद्योग |
- सूती वस्त्र, पटसन, रेशम, ऊनी वस्त्र, चीनी तथा वनस्पति तेल आदि उद्योग कृषि से प्राप्त कच्चे माल पर आधारित है।
- भारतीय अर्थव्यवस्था में वस्त्र उद्योग का अपना अलग महत्व है। यह कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा, रोजगार प्रदान करने वाला उद्योग है जो देश के औद्योगिक उत्पादन का 14%, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4%, कुल विनिर्मित औद्योगिक उत्पाद के 20% व कुल निर्यातों के 24.6% की आपूर्ति करता है।
- देश का यह अकेला उद्योग है जो कच्चे माल से उच्चतम अतिरिक्त मूल्य उत्पाद तक की श्रृंखला में परिपूर्ण तथा आत्मनिर्भर है।
- प्राचीन भारत में सूती वस्त्र हाथ से कताई और हथकरघा बुनाई तकनीकों से बनाये जाते थे। अठारहवीं शताब्दी के बाद विद्युतीय करघों का उपयोग होने लगा।
- औपनिवेशिक काल के दौरान हमारे परंपरागत उद्योगों को बहुत हानि हुई क्योंकि हमारे उद्योग इंग्लैंड के मशीन निर्मित वस्त्रों से स्पर्धा नहीं कर पाये।
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- आरंभिक वर्षों में सूती वस्त्र उद्योग महाराष्ट्र तथा गुजरात के कपास उत्पादन क्षेत्रों तक ही सीमित थे।
- कपास की उपलब्धता, बाजार, परिवहन, पत्तनों की समीपता, श्रम, नमीयुक्त जलवायु आदि कारकों ने इसके स्थानीयकरण को बढ़ावा दिया।
- इस उद्योग का कृषि से निकट का संबंध है और कृषकों, कपास चुनने वालों, गाँठ बनाने वालों, कताई करने वालों, रंगाई करने वालों, डिजाइन बनाने वालों, पैकेट बनाने वालों और सिलाई करने वालों को यह जीविका प्रदान करता है।
- इस उद्योग के कारण रसायन रंजक मिल-स्टोर तथा पैकेजिंग सामग्री और इंजीनियरिंग उद्योग की माँग बढ़ती है। फलस्वरूप इन उद्योगों का विकास होता है।
- यद्यपि कताई कार्य महाराष्ट्र, गुजरात तथा तमिलनाडु में केंद्रित है लेकिन सूती रेशम, जरी कशीदाकारी आदि में बुनाई के परंपरागत कौशल और डिजाइन देने के लिए बुनाई अत्यधिक विकेंद्रीकृत है।
- भारत में कताई उत्पादन विश्व स्तर का है लेकिन बुना वस्त्र कम गुणवत्ता वाला है क्योंकि यह देश में उत्पादित उच्च स्तरीय धागे का अधिक प्रयोग नहीं कर पाता। बुनाई का कार्य हथकरघों, विद्युतकरघों व मिलों में होता है।
- हाथ से बुनी खादी कुटीर उद्योग के रूप में बुनकरों को उनके घरों में बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान कराता है।
- भारत जापान को सूत का निर्यात करता है। भारत में बने सूती वस्त्र के अन्य आयातक देश संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, फ्रांस, पूर्वी यूरोपीय देश, नेपाल, सिंगापुर, श्रीलंका तथा अफ्रीका के देश हैं।
- इस क्षेत्र में कुछ ही बड़े और आधुनिक कारखाने हैं तथा अधिकतर छोटी व बिखरी हुई इकाइयाँ ही है जिसका उत्पादन स्थानीय बाजार की माँग को ही पूरा कर पाता है।
- यह इस उद्योग की एक बड़ी कमी है जिसके परिणामस्वरूप हमारे बहुत से कताई करने वाले सूती धागे का निर्यात करते हैं जबकि परिधान निर्माताओं को कपड़ा आयात करना पड़ता है।
- विशेषतः बुनाई व अन्य संबंधित क्षेत्रों में अनियमित विद्युत आपूर्ति को दूर करने तथा नई मशीनरी के उपयोग की आवश्यकता है। अन्य समस्याओं में कम श्रमिक उत्पादकता तथा कृत्रिम वस्त्र उद्योग से प्रतिस्पर्धा आदि हैं।
- अधिकांश उद्योग पश्चिम बंगाल में हुगली नदी तट पर 98 किमी. लंबी तथा 3 किमी. चौड़ी - एक संकरी मेखला में स्थित है।
- हुगली नदी तट पर इनके स्थित होने के निम्न कारण हैं पटसन उत्पादक क्षेत्रों की निकटता, सस्ता जल परिवहन, सड़क, रेल व जल परिवहन का जाल, कच्चे माल का मिलों तक जाने में सहायक → होना, कच्चे पटसन को संसाधित करने में प्रचुर जल, पश्चिम बंगाल तथा समीपवर्ती राज्य उड़ीसा, बिहार व उत्तर प्रदेश से सस्ता श्रमिक उपलब्ध होना, कोलकाता का एक बड़े नगरीय केंद्र के रूप बैंकिंग, बीमा और जूट के सामान के निर्यात के लिए पत्तन की सुविधाएँ प्रदान करना आदि सम्मिलित हैं।
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- यद्यपि पटसन पैकिंग की अनिवार्य प्रयोग की सरकारी नीति के कारण इसकी घरेलू माँग बढ़ी है तथापि माँग बढ़ाने हेतु उत्पाद में विविध ता भी आवश्यक है।
- सन् 2005 में राष्ट्रीय पटसन नीति अपनाई गई जिसका मुख्य उद्देश्य पटसन का उत्पादन बढ़ाना, गुणवत्ता में सुधार, पटसन उत्पादक किसानों को अच्छा मूल्य दिलाना तथा प्रति हैक्टेयर उत्पादकता को बढ़ाना था।
- पटसन के प्रमुख खरीददार अमेरिका, कनाडा, रूस, अरब देश, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया हैं। बढ़ते वैश्विक पर्यावरण अनुकूलन, जैव-निम्नीकरणीय पदार्थों के लिए विश्व की बढ़ती जागरूकता पुनः जूट उत्पादों के लिए अवसर प्रदान किया है।
- भारत का चीनी उत्पादन में विश्व दूसरा स्थान है जबकि चीनी की खपत में पहला स्थान है। भारत का चीनी उत्पादन में महाराष्ट्र का प्रथम स्थान है।
- इस उद्योग में प्रयुक्त कच्चा माल भारी होता है तथा ढुलाई में इसके सूक्रोस की मात्रा घट जाती है।
- पिछले कुछ वर्षों से इन मिलों की संख्या दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में विशेषकर महाराष्ट्र में बढ़ी है। इसका मुख्य कारण यहाँ के गन्ने में अधिक सूक्रोस की मात्रा है। अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु भी गुणकारी है। इसके अतिरिक्त इन राज्यों में सहकारी समितियाँ भी सफल रही हैं।
- इस उद्योग की प्रमुख चुनौतियाँ इस प्रकार हैं- इस उद्योग का अल्पकालिक होना, पुरानी व असक्षम तकनीक का इस्तेमाल, परिवहन असक्षमता से गन्ने का समय पर कारखानों में न पहुँचना तथा खोई (Baggasse) का अधिकतम इस्तेमाल न कर पाना।
- वे उद्योग जो खनिज व धातुओं को कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं, खनिज आधारित उद्योग कहलाते हैं।
- लोहा तथा इस्पात उद्योग एक आधारभूत (basic) उद्योग है। क्योंकि अन्य सभी भारी, हल्के और मध्यम उद्योग इनसे बनी मशीनरी पर निर्भर हैं। विविध प्रकार के इंजीनियरिंग सामान, निर्माण सामग्री, रक्षा, चिकित्सा, टेलीफोन वैज्ञानिक उपकरण और विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के लिए इस्पात की आवश्यकता होती है।
- इस्पात के उत्पादन तथा खपत को प्राय: एक देश के विकास का पैमाना माना जाता है।
- लोहा तथा इस्पात एक भारी उद्योग है क्योंकि इसमें प्रयुक्त कच्चा तथा तैयार माल दोनों ही भारी और स्थूल होते हैं और इसके लिए अधिक परिवहन लागत की आवश्यकता होती है।
- इस उद्योग के लिए लौह अयस्क, कोकिंग कोल तथा चूना पत्थर का अनुपात लगभग 4:2:1 का है।
- इस्पात को कठोर बनाने के लिए इसमें मैंगनीज की कुछ मात्रा की भी आवश्यकता होती है।
- वर्ष 2007 भारत 101.4 मिलियन तट कच्चे इस्पात का उत्पादन कर भारत विश्व में इस्पात उत्पादन के मामले में तीसरे स्थान पर है। यह उद्योग 5 लाख से अधिक लोगों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है।
- सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग सभी उपक्रम अपने इस्पात को स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL) के माध्यम से बेचते हैं।
- 1950 के दशक में भारत तथा चीन ने लगभग एक समान मात्रा में इस्पात उत्पादित किया था।
- आज चीन इस्पात का सबसे बड़ा उत्पादक है। वर्ष 2017 में 831.7 मिलियन टन कच्चे इस्पात का उत्पादन हुआ।
- छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्र में अधिकांश लोहा तथा इस्पात उद्योग संकेंद्रित हैं। इस प्रदेश में इस उद्योग के विकास के लिए अधिक अनुकूल सापेक्षिक परिस्थितियाँ हैं।
- इनमें लौह अयस्क की कम लागत, उच्च कोटि के कच्चे माल की निकटता, सस्ते श्रमिक और स्थानीय बाजार में इनके माँग की विशाल संभाव्यता सम्मिलित है।
- यद्यपि भारत संसार का एक महत्त्वपूर्ण लौह-इस्पात उत्पादक देश है तथापि हम इनके पूर्ण संभाव्य का विकास नहीं कर पाए हैं। इसके निम्न कारण हैं
(क) उच्च लागत तथा कोकिंग कोयले की सीमित उपलब्धता,(ख) कम श्रमिक उत्पादकता,(ग) ऊर्जा की अनियमित पूर्ति तथा(घ) अविकसित अवसंरचना आदि ।
- निजी क्षेत्र में उद्यमियों के प्रयत्न से तथा उदारीकरण व प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ने इस उद्योग को प्रोत्साहन दिया है।
- इस्पात उद्योग को अधिक स्पर्धावान बनाने के लिए अनुसंधान और विकास के संसाधनों को नियत करने की आवश्यकता है।
- भारत में एल्यूमिनियम प्रगलन दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धातु शोधन उद्योग है। यह हल्का, जंग अवरोधी ऊष्मा का सुचालक, लचीला तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से अधिक कठोर बनाया जा सकता है।
- हवाई जहाज बनाने में बर्तन तथा तार बनाने में इसका प्रयोग किया जाता है। कई उद्योगों में इसका महत्त्व इस्पात, ताँबा, जस्ता व सोसे के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होने से बढ़ा है।
- देश के एल्यूमिनियम प्रगलन संयंत्र ओडिशा, पश्चिम बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र व तमिलनाडु राज्यों में स्थित है। वर्ष 2008-09 में भारत में 15.24 लाख टन से अधिक एल्यूमिनियम का उत्पादन किया गया।
- प्रगालकों (Smelters) में बॉक्साइट का कच्चे पदार्थ के रूप में (जो भारी, गहरे लाल रंग की चट्टान जैसा होता है) प्रयोग किया जाता है। इस उद्योग की स्थापना की दो महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं- नियमित ऊर्जा की पूर्ति तथा कम कीमत पर कच्चे माल की सुनिश्चित उपलब्धता ।
एल्यूमिनियम तथा अयस्क का अनुपात
4 से 6 टन बॉक्साइट →2 टन एल्यूमिना → 1 टन एल्यूमिनियम
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- भारत में रसायन उद्योग तेजी से विकसित हो रहा तथा फैल रहा है।
- इसमें लघु तथा बृहत् दोनों प्रकार की विनिर्माण इकाइयाँ सम्मिलित हैं। अकार्बनिक और कार्बनिक दोनों क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई है।
- अकार्बनिक रसायनों में सलफ्यूरिक अम्ल (उर्वरक, कृत्रिम वस्त्र, प्लास्टिक, गोंद, रंग-रोगन, डाई आदि के निर्माण में प्रयुक्त), नाइट्रिक अम्ल, क्षार, सोडा ऐश (soda ash), (काँच, साबुन, शोधक या अपमार्जक, कागज में प्रयुक्त होने वाले रसायन) तथा कास्टिक सोडा आदि शामिल हैं।
- कार्बनिक रसायनों में पेट्रोरसायन शामिल हैं जो कृत्रिम वस्त्र, कृत्रिम रबर, प्लास्टिक, रंजक पदार्थ, दवाईयाँ, औषध रसायनों के बनाने में प्रयोग किये जाते हैं। ये उद्योग तेल शोधन शालाओं या पेट्रोरसायन संयंत्रों के समीप स्थापित हैं।
- रसायन उद्योग अपने आप में एक बड़ा उपभोक्ता भी है। आधारभूत रसायन एक प्रक्रिया द्वारा अन्य रसायन उत्पन्न करते हैं जिनका उपयोग औद्योगिक अनुप्रयोग, कृषि अथवा उपभोक्ता बाजारों के लिए किया जाता है।
- उर्वरक उद्योग नाइट्रोजनी उर्वरक (मुख्यत: यूरिया), फास्फेटिक उर्वरक (DAP) तथा अमोनियम फास्फेट और मिश्रित उर्वरक जिसमें तीन मुख्य पोषक उर्वरक-नाइट्रोजन, फास्फेट व पोटाश शामिल हैं, के उत्पादन क्षेत्रों के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं।
- पोटाश पूर्णत: आयात किया जाता है क्योंकि हमारे देश में वाणिज्यिक रूप से या किसी भी रूप में प्रयुक्त होने वाला पोटाश या पोटाशियम यौगिकों के भंडार नहीं है।
- हरित क्रांति के पश्चात् यह उद्योग देश के अन्य अनेक भागों में भी फैल गया।
- गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, पंजाब और केरल राज्य कुल उर्वरक उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक राज्य आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गोआ, दिल्ली, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक हैं। असम,
- निर्माण कार्यों जैसे- घर, कारखाने, पुल, सड़कें, हवाई अड्डा, बाँध तथा अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठानों के निर्माण में सीमेंट आवश्यक है।
- इस उद्योग को भारी व स्थूल कच्चे माल जैसे चूनापलिका, एल्यूमिना और जिप्सम की आवश्यकता होती है। रेल परिवहन के अतिरिक्त इसमें कोयला तथा विद्युत ऊर्जा भी आवश्यक है।
- पहला सीमेंट उद्योग सन् 1904 में चेन्नई में लगाया गया था। स्वतंत्रता के पश्चात् इस उद्योग का प्रसार हुआ। सन् 1989 से मूल्य व वितरण में नियंत्रण समाप्ति तथा अन्य नीतिगत सुधारों से सीमेंट उद्योग ने क्षमता, प्रक्रिया व प्रौद्योगिकी व उत्पादन में अत्यधिक तरक्की की है।
- गुणवत्ता में सुधार के कारण, भारत की बड़ी घरेलू माँग के अतिरिक्त, पूर्वी एशिया, मध्यपूर्व, अफ्रीका तथा दक्षिण एशिया के बाजारों में माँग बढ़ी है।
- यह उद्योग उत्पादन तथा निर्यात दोनों ही रूपों में प्रगति पर है। इस उद्योग को बनाये रखने के लिए पर्याप्त घरेलू माँग और पूर्ति में वृद्धि करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
- मोटरगाड़ी यात्रियों तथा सामान के तीव्र परिवहन के साधन हैं। भारत में विभिन्न केंद्रों पर ट्रक, बसें, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर, तिपहिया तथा बहुउपयोगी वाहन निर्मित किये जाते हैं।
- उदारीकरण के पश्चात्, नए और आधुनिक मॉडल के वाहनों का बाजार तथा वाहनों की माँग बढ़ी है, जिससे इस उद्योग में विशेषकर कार, दोपहिया तथा तिपहिया वाहनों में अपार वृद्धि हुई है।
- यह उद्योग दिल्ली, गुरुग्राम, मुंबई, पुणे, चेन्नई, कोलकाता, लखनऊ, इंदौर, हैदराबाद, जमशेदपुर तथा बेंगलुरु के आस पास स्थित हैं।
- इलेक्ट्रॉनिक उद्योग के अंतर्गत आने वाले उत्पादों में ट्रांजिस्टर से लेकर टेलीविजन, टेलीफोन, सेल्यूलर टेलीकॉम, टेलीफोन एक्सचेंज, पेजर, राडार, कंप्यूटर तथा दूरसंचार उद्योग के लिए उपयोगी अनेक अन्य उपकरण तक बनाये जाते हैं।
- बेंगलुरु भारत की इलेक्ट्रॉनिक राजधानी के रूप में उभरा है। इलेक्ट्रॉनिक सामान के अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक केंद्र मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई, कोलकाता तथा लखनऊ हैं।
- वर्ष 2010-11 तक सॉफ्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क ऑफ इंडिया (STPI) देश के 46 स्थानों पर स्थापित हो चुके थे यद्यपि इस उद्योग का सर्वाधिक संकेंद्रण बेंगलुरु, नोएडा, मुम्बई, चेन्नई, हैदारबाद और पुणे में है।
- इस क्षेत्र में रोजगार पाए व्यक्तियों में लगभग 30 प्रतिशत महिलाएँ हैं।
- पिछले दो या तीन वर्षों से यह उद्योग विदेशी मुद्रा प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है ।
- जिसका कारण तेजी से बढ़ता व्यवसाय प्रक्रिया बाह्यस्रोतीकरण (Business Processes Outsourcing - BPO) है। भारत में सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के सफल होने का कारण हार्डवेयर व साफ्टवेयर का निरंतर विकास है।
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