BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 10TH POLITICAL SCIENCE NOTES | लोकतंत्र और विविधता

सामाजिक भेदभाव की उत्पत्ति सामाजिक विभाजन अधिकांशतः जन्म पर आधारित होता है। सामान्य तौर पर अपना समुदाय चुनना हमारे वश में नहीं होता। सिर्फ इस आधार पर किसी खास समुदाय के सदस्य हो जाते हैं कि हमारा जन्म उस समुदाय के एक परिवार में हुआ होता है।

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राजनीतिक दल

राजनीतिक दल की ज़रूरत
  • किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की संस्थाओं में राजनीतिक दल अलग से दिखाई देते हैं। अधिकतर आम नागरिकों के लिए लोकतंत्र का मतलब राजनीतिक दल ही है।
  • अगर देश के दूर-दराज के और ग्रामीण इलाकों में जाएँ और कम पढ़े-लिखे लोगों से बात करें तो संभव है कि आपको ऐसे के लोग मिलें जिन्हें संविधान के बारे में या सरकार के स्वरू बारे में कुछ भी मालूम न हो। बहरहाल, राजनीतिक दलों के बारे में उन्हें ज़रूर कुछ न कुछ मालूम होता है, लेकिन पार्टियों के बारे में हर कोई कुछ न कुछ जानता है तो इसका मतलब यह नहीं कि पार्टियाँ बहुत लोकप्रिय हैं।
  • अधिकतर लोग आम तौर पर दलों के बारे में खराब राय रखते हैं। अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीतिक जीवन की हर बुराई के लिए वे दलों को ही ज़िम्मेवार मानते हैं।
  • राजनीतिक दल का अर्थ राजनीतिक दल को लोगों के एक ऐसे संगठित समूह के रूप में समझा जा सकता है जो चुनाव लड़ने और सरकार में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से काम करता है।
  • समाज के सामूहिक हित को ध्यान में रखकर यह समूह कुछ नीतियाँ और कार्यक्रम तय करता है। सामूहिक हित एक विवादास्पद विचार है। इसे लेकर सबकी राय अलग-अलग होती है। इसी आधार पर दल लोगों को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि उनकी नीतियाँ औरों से बेहतर हैं।
  • वे लोगों का समर्थन पाकर चुनाव जीतने के बाद उन नीतियों को लागू करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार दल किसी समाज के बुनियादी राजनीतिक विभाजन को भी दर्शाते हैं।
  • पार्टी समाज के किसी एक हिस्से से संबंधित होती है इसलिए उसका नज़रिया समाज के उस वर्ग/समुदाय विशेष की तरफ झुका होता है। किसी दल की पहचान उसकी नीतियों और उसके सामाजिक आधार से तय होती है।
  • अगर दल न हों तो सारे उम्मीदवार स्वतंत्र या निर्दलीय होंगे। तब, इनमें से कोई भी बड़े नीतिगत बदलाव के बारे में लोगों से चुनावी वायदे करने की स्थिति में नहीं होगा। सरकार बन जाएगी पर उसकी उपयोगिता संदिग्ध होगी।
  • निर्वाचित प्रतिनिधि सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्रों में किए गए कामों के लिए जवाबदेह होंगे। लेकिन देश कैसे चले इसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं होगा।
  • गैर- दलीय आधार पर होने वाले पंचायत चुनावों का उदाहरण सामने रखकर भी इस बात की परख कर सकते हैं। हालाँकि इन चुनावों में दल औपचारिक रूप से अपने उम्मीदवार नहीं खड़े करते लेकिन हम पाते हैं कि चुनाव के अवसर पर पूरा गाँव कई खेमों में बँट जाता है और हर खेमा सभी पदों के लिए अपने उम्मीदवारों का 'पैनल' उतारता है।
  • राजनीतिक दल भी ठीक यही काम करते हैं। यही कारण है कि हमें दुनिया के लगभग सभी देशों में राजनीतिक दल नज़र आते हैं- चाहे वह देश बड़ा हो या छोटा, नया हो या पुराना, विकसित हो या विकासशील ।
  • राजनीतिक दलों का उदय प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के उभार के साथ जुड़ा है। बड़े समाजों के लिए प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र की ज़रूरत होती है। 
  • जब समाज बड़े और जटिल हो जाते हैं तब उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग विचारों को समेटने और सरकार की नजर में लाने के लिए किसी माध्यम या एजेंसी की ज़रूरत होती है।
  • विभिन्न जगहों से आए प्रतिनिधियों को साथ करने की ज़रूरत होती है ताकि एक जिम्मेवार सरकार का गठन हो सके। उन्हें सरकार का समर्थन करने या उस पर अंकुश रखने, नीतियाँ बनवाने और नीतियों का समर्थन अथवा विरोध करने के लिए उपकरणों की ज़रूरत होती है।
  • प्रत्येक प्रतिनिधि- सरकार की ऐसी जो भी ज़रूरतें होती हैं, राजनीतिक दल उनको पूरा करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दल लोकतंत्र की एक अनिवार्य शर्त है।
राजनैतिक दल का अर्थ
  • राजनैतिक दल लोगों का एक समूह है जो शासन में राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने तथा उसे बनाये रखने के लिए कार्य करता है, यह समान विचारधारा वाले लोगों का एक संगठन है।
  • दल शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- विभाजन, अर्थात जब भी समाज में परस्पर विरोधी मतों (विचारों) के व्यक्तियों के मध्य स्वयं की स्वतंत्र पहचान स्थापित करने के लिए संघर्ष होता है तो इस संघर्ष के परिणामस्वरूप राजनैतिक दलों का जन्म होता है।
  • जिस प्रकार विद्यालय में एक समान रूचि वाले छात्र/छात्राएं अपना एक गुट बना लेते हैं, उसी प्रकार राजनीति में एक समान विचारधारा व सिद्धांत में विश्वास रखने वाले लोग अपना एक दल बना लेते हैं, क्योंकि वे चाहते हैं कि देश के व्यवस्था उनके विचारों व सिद्धांतों अनुसार चले।
  • किसी भी राजनैतिक दल के तीन मुख्य तत्त्व होते हैं
  • नेता जो चुनाव लड़ते हैं।
  • सक्रिय सदस्य जो चुनाव नहीं लड़ते हैं लेकिन पार्टी के कार्यों में सक्रियता से भाग लेते हैं।
  • समर्थक, जो पार्टी से बाहर रहकर पार्टी का समर्थन करते हैं और प्रायः पार्टी के स्थायी वोटर होते हैं।
राजनैतिक दलों की परिभाषा
  • विभिन्न लोगों ने राजनैतिक दलों की परिभाषा दी है जिनमे से एडमंड बर्क के अनुसार- राजनैतिक दल व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जिसके सदस्य सामान्य सिद्धांत पर चलते हुए अपने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा राष्ट्रीय हित का परिवर्तन करने के लिए एकता के सूत्र में बंधे होते है ।
राजनैतिक दलों की आवश्यकता क्यों
  • किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के सफल संचालन के लिए राजनैतिक दलों का होना अनिवार्य है क्योंकि इनके अभाव में प्रत्येक उम्मीदवार स्वतंत्र होगा जिस कारण वह कोई बड़े राजनैतिक बदलाव के लिए वायदे करने की स्थिति में नहीं होगा, लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए राजनैतिक दलों का होना अनिवार्य है।

राजनीतिक दल के कार्य

मूलत: राजनीतिक दल राजनीतिक पदों को भरते हैं और राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हैं। दल इस काम को कई तरीके से करते हैं
  1. चुनाव लड़ना : अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में चुनाव राजनीतिक दलों द्वारा खड़ा किए गए उम्मीदवारों के बीच लड़ा जाता है। राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव कई तरीकों से करते हैं। अमरीका जैसे कुछ देशों में उम्मीदवार का चुनाव दल के सदस्य और समर्थक करते हैं। अब इस तरह से उम्मीदवार चुनने वाले देशों की संख्या बढ़ती जा रही है। अन्य देशों, जैसे भारत में, दलों के नेता ही उम्मीदवार चुनते हैं।
  2. नीतियों एवं कार्यक्रमों को जनता के सम्मुख रखना: देश के लिए कौन-सी नीतियाँ ठीक हैं- इस बारे में हममें से सभी की राय अलग-अलग हो सकती है। पर कोई भी सरकार इतने अलग-अलग विचारों को एक साथ लेकर नहीं चल सकती। लोकतंत्र में समान या मिलते-जुलते विचारों को एक साथ लाना होता है ताकि सरकार की नीतियों को एक दिशा दी जा सके। पार्टियाँ यही काम करती हैं। पार्टियाँ तरह-तरह के विचारों को कुछ बुनियादी राय तक समेट लाती हैं जिनका वे समर्थन करती हैं। सरकार प्राय: शासक दल की राय के अनुरूप अपनी नीतियाँ तय करती है।
  3. कानून बनाना : पार्टियाँ देश के कानून निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। कानूनों पर औपचारिक बहस होती है और उन्हें विधायिका में पास करवाना पड़ता है लेकिन विधायिका के अधिकतर सदस्य किसी न किसी दल के सदस्य होते हैं। इस कारण वे अपने दल के नेता के निर्देश पर फ़ैसला करते हैं।
  4. निर्णयन : नीतियों और बड़े फ़ैसलों के मामले में निर्णय राजनेता ही लेते हैं और ये नेता विभिन्न दलों के होते हैं। पार्टियाँ नेता चुनती हैं, उनको प्रशिक्षित करती हैं और फिर पार्टी के सिद्धांतों और कार्यक्रम के अनुसार फ़ैसले करने के लिए उन्हें मंत्री बनाती हैं ताकि वे पार्टी की इच्छा के अनुसार सरकार चला सकें। 
  5. विरोधी पक्ष की भूमिका सरकार की गलत नीतियों और असफलताओं की आलोचना करने के साथ वह अपनी अलग राय भी रखते हैं। विपक्षी दल सरकार के खिलाफ़ आम जनता को भी लामबंद करते हैं।
  6. जनमत तैयार करना : विभिन्न दलों के लाखों कार्यकर्ता देश-भर में बिखरे होते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में उनके मित्र संगठन या दबाव समूह भी काम करते रहते हैं। दल कई दफ़े लोगों की समस्याओं को लेकर आंदोलन भी करते हैं। अक्सर विभिन्न दलों द्वारा रखी जाने वाली राय के इर्द-गिर्द ही समाज के लोगों की राय बनती जाती है।
  7. कार्यक्रमों का क्रियान्वयन : दल ही सरकारी मशीनरी और सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कल्याण कार्यक्रमों तक लोगों की पहुँच बनाते हैं। एक साधारण नागरिक के लिए किसी सरकारी अधिकारी की तुलना में किसी राजनीतिक कार्यकर्ता से जान-पहचान बनाना, उससे संपर्क साधना आसान होता है।
  8. प्रतिनिधित्व करना : राजनीतिक दलों का उदय प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के उभार के साथ जुड़ा है। बड़े समाजों के लिए प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र की ज़रूरत होती है।
  • जब समाज बड़े और जटिल हो जाते हैं तब उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग विचारों को समेटने और सरकार की नज़र में लाने के लिए किसी माध्यम या एजेंसी की ज़रूरत होती है।
  • विभिन्न जगहों से आए प्रतिनिधियों को साथ करने की ज़रूरत होती है ताकि एक ज़िम्मेदारी सरकार का गठन हो सके। उन्हें सरकार का समर्थन करने या उस पर अंकुश रखने, नीतियाँ बनवाने और नीतियों का समर्थन अथवा विरोध करने के लिए उपकरणों की ज़रूरत होती है ।
  • प्रत्येक प्रतिनिधि- सरकार की ऐसी जो भी ज़रूरतें होती हैं, राजनीतिक दल उनको पूरा करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दल लोकतंत्र की एक अनिवार्य शर्त हैं।
कितने राजनीतिक दल?
  • लोकतंत्र में नागरिकों का कोई भी समूह राजनीतिक दल बना सकता है। इस औपचारिक अर्थ में सभी देशों में बहुत से राजनीतिक दल हैं।
  • भारत में ही चुनाव आयोग में नाम पंजीकृत कराने वाले दलों की संख्या 750 से ज्यादा है। लेकिन, हर दल चुनाव में गंभीर चुनौती देने की स्थिति में नहीं होता।
  • चुनाव जीतने और सरकार बनाने की होड़ में आमतौर पर कुछेक पार्टियाँ ही सक्रिय होती हैं। कई देशों में सिर्फ एक ही दल को सरकार बनाने और चलाने की अनुमति है। इस कारण उन्हें एकदलीय शासन-व्यवस्था कहा जाता है।
  • चीन में सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी को शासन करने की अनुमति है। हालाँकि कानूनी रूप से वहाँ भी लोगों को राजनीतिक दल बनाने की आज़ादी है पर वहाँ की चुनाव प्रणाली सत्ता के लिए स्वतंत्र प्रतिद्वंद्विता की अनुमति नहीं देती इसलिए लोगों को ना राजनीतिक दल बनाने का कोई लाभ नहीं दिखता और इस कोई नया दल नहीं बन पाता ।
  • हम एकदलीय व्यवस्था को अच्छा विकल्प नहीं मान सकते क्योंकि यह लोकतांत्रिक विकल्प नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कम से कम दो दलों को राजनीतिक सत्ता के लिए चुनाव में प्रतिद्वंद्विता करने की अनुमति तो होनी ही चाहिए। साथ ही उन्हें सत्ता में आ सकने का पर्याप्त अवसर भी रहना चाहिए।
  • कुछ देशों में सत्ता आमतौर पर दो मुख्य दलों के बीच ही बदलती रहती है। वहाँ अनेक दूसरी पार्टियाँ हो सकती हैं, वे भी चुनाव लड़कर कुछ सीटें जीत सकती हैं पर सिर्फ दो ही दल बहुमत पाने और सरकार बनाने के प्रबल दावेदार होते हैं। अमरीका और ब्रिटेन में ऐसी ही दो दलीय व्यवस्था है।
  • जब अनेक दल सत्ता के लिए होड़ में हों और दो दलों से ज्यादा के लिए अपने दम पर या दूसरों से गठबंधन करके सत्ता में आने का ठीक-ठाक अवसर हो तो इसे बहुदलीय व्यवस्था कहते हैं। भारत में भी ऐसी ही बहुदलीय व्यवस्था है। इस व्यवस्था में कई दल गठबंधन बनाकर भी सरकार बना सकते हैं।
  • जब किसी बहुदलीय व्यवस्था में अनेक पार्टियाँ चुनाव लड़ने और सत्ता में आने के लिए आपस में हाथ मिला लेती हैं तो इसे गठबंधन या मोर्चा कहा जाता है। जैसे, 2004 के संसदीय चुनाव में भारत में ऐसे तीन प्रमुख गठबंधन थे: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और वाम मोर्चा |
  • अक्सर बहुदलीय व्यवस्था बहुत घालमेल वाली लगती है और देश को राजनीतिक अस्थिरता की तरफ़ ले जाती पर इसके साथ ही इस प्रणाली में विभिन्न हितों और विचारों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
  • दलीय व्यवस्था का चुनाव करना किसी मुल्क के हाथ में नहीं है। यह एक लंबे दौर के कामकाज के बाद खुद विकसित होती है और इसमें समाज की प्रकृति, इसके राजनीतिक विभाजन, राजनीति का इतिहास और इसकी चुनाव प्रणाली सभी चीजें अपनी भूमिका निभाती हैं।
  • इसे बहुत जल्दी बदला नहीं जा सकता। हर देश अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप दलीय व्यवस्था विकसित करता है। जैसे, अगर भारत में बहुदलीय व्यवस्था है तो उसका कारण यह है कि दो-तीन पार्टियाँ इतने बड़े मुल्क की सारी सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं को समेट पाने में अक्षम हैं। हर मुल्क और हर स्थिति में कोई एक ही आदर्श प्रणाली चले यह संभव नहीं है।
राजनीतिक दलों में जन-भागीदारी
  • वर्तमान में राजनीतिक दल संकट से गुज़र रहे हैं क्योंकि जनता उन्हें सम्मान की नज़र से नहीं देखती। उपलब्ध प्रमाण बताते कि यह बात आंशिक रूप से ही सही है।
  • बड़े नमूनों पर आधारित और कई दशकों तक चले सर्वेक्षण के तथ्य बताते हैं कि : दक्षिण एशिया की जनता राजनीतिक दलों पर बहुत भरोसा नहीं करती।
  • जो लोग दलों पर 'एकदम भरोसा नहीं' 'बहुत भरोसा नहीं' के पक्ष में बोले उनका अनुपात 'कुछ भरोसा' या 'पूरा भरोसा' बताने वालों से काफ़ी ज़्यादा था।
  • यही बात ज्यादातर लोकतंत्रों पर लागू होती है। पूरी दुनिया में राजनीतिक दल ही एक ऐसी संस्था है जिस पर लोग सबसे कम भरोसा करते हैं। बहरहाल, राजनीतिक दलों के कामकाज में लोगों की भागीदारी का स्तर काफी ऊँचा है।
  • खुद को किसी राजनीतिक दल का सदस्य बताने वाले भारतीयों का अनुपात कनाडा, जापान, स्पेन और दक्षिण कोरिया जैसे विकसित देशों से भी ज्यादा है। पिछले तीन दशकों के दौरान भारत में राजनीतिक दलों की सदस्यता का अनुपात धीरे-धीरे बढ़ता गया है। खुद को किसी राजनीतिक दल का करीबी बताने वालों का अनुपात भी इस अवधि में बढ़ता गया है।
राष्ट्रीय राजनीतिक दल
  • विश्व के संघीय व्यवस्था वाले लोकतंत्रों में दो तरह के राजनीतिक दल हैं: संघीय इकाईयों में से सिर्फ एक इकाई में अस्तित्व रखने वाले दल और अनेक या संघ की सभी इकाईयों में अस्तित्व रखने वाले दल ।
  • भारत भी यही स्थिति है। कई पार्टियाँ पूरे देश में फैली हुई हैं और उन्हें राष्ट्रीय पार्टी कहा जाता है। इन दलों की विभिन्न राज्यों में इकाइयाँ हैं। पर कुल मिलाकर देखें तो ये सारी इकाइयाँ राष्ट्रीय स्तर पर तय होने वाली नीतियों, कार्यक्रमों और रणनीतियों को ही मानती हैं।
  • देश की हर पार्टी को चुनाव आयोग में अपना पंजीकरण कराना पड़ता है। आयोग सभी दलों को समान मानता है पर यह बड़े और स्थापित दलों को कुछ विशेष सुविधाएँ देता है। इन्हें अलग चुनाव चिह्न दिया जाता है जिसका प्रयोग पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार ही कर सकता है। इस विशेषाधिकार और कुछ अन्य लाभ पाने वाली पार्टियों को 'मान्यता प्राप्त दल कहते हैं ।
  • चुनाव आयोग ने स्पष्ट नियम बनाए हैं कि कोई दल कितने प्रतिशत वोट और सीट जीतकर 'मान्यता प्राप्त ' दल बन सकता है।
  • जब कोई पार्टी राज्य विधानसभा के चुनाव में पड़े कुल मतों का 6 फ़ीसदी या उससे अधिक हासिल करती है और कम से कम दो सीटों पर जीत दर्ज करती है तो उसे अपने राज्य के राजनीतिक दल के रूप में मान्यता मिल जाती है।
  • अगर कोई दल लोकसभा चुनाव में पड़े कुल वोट का अथवा चार राज्यों के विधान सभाई चुनाव में पड़े कुल वोटों का 6 प्रतिशत हासिल करता है और लोकसभा के चुनाव में कम से कम चार सीटों पर जीत दर्ज करता है तो उसे राष्ट्रीय दल की मान्यता मिलती है। देश के राष्ट्रीय दल निम्नलिखित हैं :
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: इसे आमतौर पर कांग्रेस पार्टी कहा जाता है और यह दुनिया के सबसे पुराने दलों में से एक है। 1885 में गठित इस दल में कई बार विभाजन हुए हैं। आज़ादी के बाद राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर अनेक दशकों तक इसने प्रमुख भूमिका निभाई है। जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में इस दल ने भारत को एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने का प्रयास किया।
  • 1971 तक लगातार और फिर 1980 से 1989 तक इसने देश पर शासन किया। 1989 के बाद से इस दल के जन-समर्थन में कमी आई पर अभी यह पूरे देश और समाज के सभी वर्गों में अपना आधार बनाए हुए है।
  • अपने वैचारिक रुझान में मध्यमार्गी (न वामपंथी न दक्षिणपंथी ) इस दल ने धर्मनिरपेक्षता और कमज़ोर वर्गों तथा अल्पसंख्यक समुदायों के हितों को अपना मुख्य अजेंडा बनाया है।
  • यह दल नयी आर्थिक नीतियों का समर्थक है पर इस बात को लेकर भी सचेत है कि इन नीतियों का गरीब और कमज़ोर वर्गों पर बुरा असर न पड़े।
  • भारतीय जनता पार्टी : पुराने भारतीय जनसंघ को पुनर्जीवित करके 1980 में यह पार्टी बनी। भारत की प्राचीन संस्कृति और मूल्यों से प्रेरणा लेकर मज़बूत और आधुनिक भारत बनाने का लक्ष्य; भारतीय राष्ट्रवाद और राजनीति की इसकी अवधारणा में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (या हिंदुत्व ) एक प्रमुख तत्त्व है।
  • बहुजन समाज पार्टी : स्व. कांशीराम के नेतृत्व में 1984 में गठन। बहुजन समाज जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियाँ और धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हैं, के लिए राजनीतिक सत्ता पाने का प्रयास और उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा ।
  • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी - मार्क्सवादी (सीपीआई-एम ) : 1964 में स्थापित; मार्क्सवाद- लेनिनवाद में आस्था । समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की समर्थक तथा साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता की विरोधी । 
  • यह पार्टी भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय का लक्ष्य साधने में लोकतांत्रिक चुनावों के सहायक और उपयोगी मानती है। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में बहुत मज़बूत आधार । गरीबों, कारखाना मज़दूरों, खेतिहर मज़दूरों और बुद्धिजीवियों के बीच अच्छी पकड़। यह पार्टी देश में पूँजी और सामानों की मुक्त आवाजाही की अनुमति देने वाली नयी आर्थिक नीतियों की आलोचक है।
  • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में गठित। मार्क्सवाद-लेनिनवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र में आस्था । अलगाववादी और सांप्रदायिक ताकतों की विरोधी । यह पार्टी संसदीय लोकतंत्र को मज़दूर वर्ग, किसानों और गरीबों हित को आगे बढ़ाने का एक उपकरण मानती है।
  • 1964 की फूट (जिसमें माकपा इससे अलग हुई ) के बाद इसका जनाधार सिकुड़ता चला गया लेकिन केरल, पश्चिम बंगाल, पंजाब, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अभी भी स्थिति ठीक है।
  • राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी : कांग्रेस पार्टी में विभाजन के बाद 1999 में यह पार्टी बनी। लोकतंत्र, गांधीवादी धर्मनिरपेक्षता, समता, सामाजिक न्याय और संघवाद में आस्था ।
  • यह पार्टी सरकार के प्रमुख पदों को सिर्फ भारत में जन्में नागरिकों के लिए आरक्षित करना चाहती है। महाराष्ट्र में प्रमुख ताकत होने के साथ ही यह मेघालय, मणिपुर और असम में भी ताकतवर है ।
राष्ट्रीय राजनैतिक दल : 
भारत में कुल पंजीकृत दल 7 हैं जो निम्न प्रकार हैं
क्र राजनैतिक दल संक्षिप्त नाम प्रतीक स्थापना वर्ष
1. भारतीय जनता पार्टी BJP कमल 1980
2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस INC हाथ 1885
3. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी CPI (M) हसिया और हथौड़ा 1964
4. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी CPI बाली और हसिया 1925
5. बहुजन समाज पार्टी बसपा हाथी 1984
6. राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी NCP घड़ी 1999
7. तृणमूल कांग्रेस TMC फूल व घास 1998
8. नेशनल पीपुल्स पार्टी NPP किताब 2013

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतियाँ

  • आम जनता की नाराज़गी और आलोचना राजनीतिक दलों के कामकाज के चार पहलुओं पर ही केंद्रित रही है। लोकतंत्र का प्रभावी उपकरण बने रहने के लिए राजनीतिक दलों को इन चुनौतियों का सामना करना चाहिए और इन पर जीत हासिल करनी चाहिए।
  • पार्टियों के पास न सदस्यों की खुली सूची होती है, न नियमित रूप से सांगठनिक बैठकें होती हैं। इनके आंतरिक चुनाव भी नहीं होते। कार्यकर्ताओं से वे सूचनाओं का साझा भी नहीं करते ।
  • सामान्य कार्यकर्ता अनजान ही रहता है कि पार्टी के अंदर क्या चल रहा है। उसके पास न तो नेताओं से जुड़कर फ़ैसलों को प्रभावित करने की ताकत होती है न ही कोई और माध्यम ।
  • परिणामस्वरूप पार्टी के नाम पर सारे फैसले लेने का अधिकार उस पार्टी के नेता हथिया लेते हैं। चूँकि कुछेक नेताओं के पास ही असली ताकत होती है इसलिए जो उनसे असहमत होते हैं उनका पार्टी में टिके रह पाना मुश्किल हो जाता है। पार्टी के सिद्धांतों और नीतियों से निष्ठा की जगह नेता से निष्ठा ही ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन जाती है।
  • दूसरी चुनौती पहली चुनौती से ही जुड़ी है- यह है वंशवाद की चुनौती। चूँकि अधिकांश दल अपना कामकाज पारदर्शी तरीके से नहीं करते इसलिए सामान्य कार्यकर्ता के नेता बनने और ऊपर आने की गुंजाइश काफ़ी कम होती है। जो लोग नेता होते हैं वे अनुचित लाभ लेते हुए अपने नज़दीकी लोगों और यहाँ तक कि अपने ही परिवार के लोगों को आगे बढ़ाते हैं।
  • अनेक दलों में शीर्ष पद पर हमेशा एक ही परिवार के लोग आते हैं। यह दल के अन्य सदस्यों के साथ अन्याय है। यह बात लोकतंत्र के लिए भी अच्छी नहीं है क्योंकि इससे अनुभवहीन और बिना जनाधार वाले लोग ताकत वाले पदों पर पहुँच जाते हैं। यह प्रवृत्ति कुछ प्राचीन लोकतांत्रिक देशों सहित कमोबेश पूरी दुनिया में दिखाई देती है।
  • तीसरी चुनौती दलों में, (खासकर चुनाव के समय) पैसा और अपराधी तत्त्वों की बढ़ती घुसपैठ की है। चूँकि पार्टियों की सारी चिंता चुनाव जीतने की होती है अतः इसके लिए कोई भी जायज - नाजायज तरीका अपनाने से वे परहेज नहीं करतीं। वे ऐसे ही उम्मीदवार उतारती हैं जिनके पास काफ़ी पैसा हो या जो पैसे जुटा सकें।
  • किसी पार्टी को ज़्यादा धन देने वाली कंपनियाँ और अमीर लोग उस पार्टी की नीतियों और फ़ैसलों को भी प्रभावित करते हैं। कई बार पार्टियाँ चुनाव जीत सकने वाले अपराधियों का समर्थन करती हैं या उनकी मदद लेती हैं।
  • दुनिया भर में लोकतंत्र के समर्थक लोकतांत्रिक राजनीति में अमीर लोग और बड़ी कंपनियों की बढ़ती भूमिका को लेकर चिंतित हैं।
  • चौथी चुनौती पार्टियों के बीच विकल्पहीनता की स्थिति की है। सार्थक विकल्प का मतलब होता है कि विभिन्न पार्टियों की नीतियों और कार्यक्रमों में महत्त्वपूर्ण अंतर हो। हाल के वर्षों में दलों के बीच वैचारिक अंतर कम होता गया है और यह प्रवृत्ति दुनिया भर में दिखती है। जैसे, ब्रिटेन की लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के बीच अब बड़ा कम अंतर रह गया है।
  • दोनों दल बुनियादी मसलों पर सहमत हैं और उनके बीच बस ब्यौरों का रह गया है कि नीतियाँ कैसे बनाई जाएँ और उन्हें कैसे लागू किया जाए। देश में भी सभी बड़ी पार्टियों के बीच आर्थिक मसलों पर बड़ा कम अंतर रह गया है। 
  • जो लोग इससे अलग नीतियाँ चाहते हैं उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। कई बार लोगों के पास एकदम नया नेता चुनने का विकल्प भी नहीं होता क्योंकि वही थोड़े से नेता हर दल में आते-जाते रहते हैं ।
प्रांतीय दल
  • उपर्युक्त पार्टियों के अलावा अन्य सभी प्रमुख दलों को चुनाव आयोग ने 'प्रांतीय दल' के रूप में मान्यता दी है। आमतौर पर इन्हें क्षेत्रीय दल कहा जाता है पर यह जरूरी नहीं है कि अपनी विचारधारा या नजरिए में ये पार्टियों क्षेत्रीय ही हों। इनमें से कुछ अखिल भारतीय दल हैं पर उन्हें कुछ प्रांतों में ही सफलता मिल पाई है।
  • समाजवादी पार्टी, समता पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल का राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संगठन है और इनकी कई राज्यों में इकाइयाँ हैं। बीजू जनता दल, सिक्किम लोकतांत्रिक मोर्चा और मिजो नेशनल फ्रंट जैसी पार्टियाँ अपनी क्षेत्रीय पहचान को लेकर सचेत हैं।
  • परिणामस्वरूप राष्ट्रीय दल प्रांतीय दलों के साथ गठबंधन करने को मजबूर हुए हैं। 1996 के बाद से लगभग प्रत्येक प्रांतीय दल को एक या दूसरी राष्ट्रीय स्तर की गठबंधन सरकार का हिस्सा बनने का अवसर मिला है।
(b) क्षेत्रीय राजनैतिक दल :
  • उपरोक्त राष्ट्रीय राजनैतिक दलों के अलावा बहुत सारे क्षेत्रीय राजनैतिक दल भी हैं जिनका अलग अलग राज्यों में पूर्ण प्रभाव है, जिनमें से कुछ प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दल निम्न हैं।
राजनैतिक दलों का पंजीकरण:
  • भारत में राजनैतिक दलों को मान्यता देने का कार्य चुनाव आयोग करता है। चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 में की गयी थी। चुनाव आयोग ही राजनैतिक दलों को चुनाव चिन्ह आवंटित करता है।

दलों को कैसे सुधारा जा सकता है?

  • दुनिया भर के नागरिक इन सवालों को लेकर परेशान हैं। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब आसान नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम फैसला राजनेता ही करते हैं जो विभिन्न राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोग उनको बदल सकते हैं पर उनकी जगह फिर नए नेता ही लेते हैं।
  • विधायकों और सांसदों को दल-बदल करने से रोकने के लिए संविधान में संशोधन किया गया। निर्वाचित प्रतिनिधियों के मंत्रीपद या पैसे के लोभ में दल-बदल करने में आई तेजी को देखते हुए ऐसा किया गया।
  • नए कानून के अनुसार अपना दल-बदलने वाले सांसद या विधायक को अपनी सीट भी गँवानी होगी। इस नए कानून से दल-बदल में कमी आई है पर इससे पार्टी में विरोध का कोई स्वर उठाना और भी मुश्किल हो गया है पार्टी नेतृत्व जो कोई फैसला करता है, सांसद और विधायक को उसे मानना ही होता है।
  • दल-बदल कानून 8वें लोकसभा चुनाव के बाद 24 जनवरी, 1985 को 52 वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिये लोकसभा में पेश किया था, यह 30 जनवरी को लोकसभा और 31 जनवरी को राज्य सभा में पारित हुआ और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद अधिनियम अस्तित्व में आया, संविधान की दसवीं अनुसूची को ही दल-बदल कानून के तौर पर जाना जाता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने पैसे और अपराधियों का प्रभाव कम करने के लिए एक आदेश जारी किया है। इस आदेश के द्वारा चुनाव लड़ने वाले हर उम्मीदवार को अपनी संपत्ति का और अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का ब्यौरा एक शपथपत्र के माध्यम से देना अनिवार्य कर दिया गया है।
  • इस नयी व्यवस्था से लोगों को अपने उम्मीदवारों के बारे में बहुत सी पक्की सूचनाएँ उपलब्ध होने लगी हैं, पर उम्मीदवार द्वारा दी गई सूचनाएँ सही हैं या नहीं, यह जाँच करने की कोई स्वस्था नहीं है।
  • चुनाव आयोग ने एक आदेश के जरिए सभी दलों के लिए सांगठनिक चुनाव कराना और आयकर का रिटर्न भरना जरूरी बना दिया है। दलों ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है, पर कई बार ऐसा सिर्फ दिखावा करने के लिए होता है।
  • यह बात अभी नहीं कही जा सकती कि इससे राजनीतिक दलों में अंदरूनी लोकतंत्र मज़बूत हुआ है। इनके अलावा राजनीतिक दलों में सुधार के लिए अक्सर कई कदम सुझाए जाते हैं:
  • राजनीतिक दलों के आंतरिक कामकाज को व्यवस्थित करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। सभी दल अपने सदस्यों की सूची रखें, अपने संविधान का पालन करें, पार्टी में विवाद की स्थिति में एक स्वतंत्र प्राधिकारी को पंच बनाएँ और सबसे बड़े पदों के लिए खुला चुनाव कराएँ - यह व्यवस्था अनिवार्य की जानी चाहिए।
  • राजनीतिक दल महिलाओं को एक खास न्यूनतम अनुपात में (करीब एक तिहाई) जरूर टिकट दें। इसी प्रकार दल के प्रमुख पदों पर भी औरतों के लिए आरक्षण होना चाहिए।
  • चुनाव का खर्च सरकार उठाए । सरकार दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन दे। यह मदद पेट्रोल, कागज़, फ़ोन वगैरह के रूप में भी हो सकती है या फिर पिछले चुनाव में मिले मतों के अनुपात में नकद पैसा दिया जा सकता है।
  • राजनीतिक दलों ने अभी तक इन सुझावों को नहीं माना है। अगर इन्हें मान लिया गया तो संभव है कि इनसे कुछ सुधार हो, लेकिन हर राजनीतिक समस्या के लिए महज़ कानूनी समाधान की बात करते हुए हमें सावधान रहना चाहिए ।
  • दलों को ज़रूरत से ज्यादा नियमों से जकड़ना नुकसानदेह भी हो सकता है। इससे सभी दल कानून को दरकिनार करने का तरीका ढूँढ़ने लगेंगे। इसके अलावा राजनीतिक दल खुद भी ऐसा कानून पास करने पर सहमत नहीं होंगे जिसे वे पसंद नहीं करते। दो और तरीके हैं जिनसे राजनीतिक दलों को सुधारा जा सकता है।
  • पहला तरीका है राजनीतिक दलों पर लोगों द्वारा दबाव बनाने का। यह काम चिट्ठियाँ लिखने, प्रचार करने और आंदोलनों के जरिये किया जा सकता है।
  • आम नागरिक दबाव समूह, आंदोलन और मीडिया के माध्यम से यह काम किया जा सकता है। अगर दलों को लगे कि सुधार न करने से उनका जनाधार गिरने लगेगा या उनकी छवि खराब होगी तो इसे लेकर वे गंभीर होने लगेंगे।
  • सुधार का दूसरा तरीका है सुधार की इच्छा रखने वालों का खुद राजनीतिक दलों में शामिल होना । लोकतंत्र की गुणवत्ता लोकतंत्र में लोगों की भागीदारी से तय होती है। अगर आम नागरिक खुद राजनीति में हिस्सा न लें और बाहर से ही बातें करते रहें तो सुधार मुश्किल है।

समानताएँ, असमानताएँ और विभाजन

  • सामाजिक भेदभाव की उत्पत्ति सामाजिक विभाजन अधिकांशतः जन्म पर आधारित होता है। सामान्य तौर पर अपना समुदाय चुनना हमारे वश में नहीं होता। सिर्फ इस आधार पर किसी खास समुदाय के सदस्य हो जाते हैं कि हमारा जन्म उस समुदाय के एक परिवार में हुआ होता है।
  • जन्म पर आधारित सामाजिक विभाजन अपने आस-पास देखते हैं चाहे कोई स्त्री हो या पुरुष, लंबा हो या छोटा-सबकी चमड़ी का रंग अलग-अलग है, उनकी शारीरिक क्षमताएँ या अक्षमताएँ अलग-अलग हैं।
  • सभी किस्म के सामाजिक विभाजन सिर्फ जन्म पर आधारित नहीं होते। कुछ चीजें हमारी पसंद या चुनाव के आधार पर भी तय होती हैं। कई लोग अपने माँ बाप और परिवार से अलग अपनी पसंद का भी धर्म चुन लेते हैं।
  • प्रत्येक सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती। सामाजिक विभिन्नताएँ लोगों के बीच बँटवारे का एक बड़ा कारण होती ज़रूर हैं लेकिन यही विभिन्नताएँ कई बार अलग-अलग तरह के लोगों के बीच पुल का काम भी करती हैं ।
सामाजिक विभाजनों की राजनीति
  • पहली नज़र में तो राजनीति और सामाजिक विभाजनों का मेल बहुत खतरनाक और विस्फोटक लगता है। लोकतंत्र में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच प्रतिद्वंद्विता का माहौल होता है। इस प्रतिद्वंद्विता के कारण कोई भी समाज फूट का शिकार बन सकता है।
  • अगर राजनीतिक दल समाज में मौजूद विभाजनों के हिसाब से राजनीतिक होड़ करने लगे तो इससे सामाजिक विभाजन राजनीतिक विभाजन में बदल सकता है और ऐसे में देश विखंडन की तरफ़ जा सकता है। ऐसा कई देशों में हो चुका है।

जाति, धर्म और लैंगिक मसल

लैंगिक मसले और राजनीति
  • लैंगिक असमानता को स्वाभाविक या कहें कि प्राकृतिक और अपरिवर्तनीय मान लिया जाता है लेकिन, लैंगिक असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की जैविक बनावट नहीं बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ हैं।
निजी और सार्वजनिक का विभाजन
  • लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता उनके मन में बैठा दी जाती है कि औरतों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने की है। यह चीज अधिकतर परिवारों के श्रम के लैंगिक विभाजन से झलकती है।
  • औरतें घर के अंदर का सारा काम काज, जैसे- खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना और बच्चों की देखरेख करना आदि करती हैं जबकि पुरुष घर के बाहर का काम करते हैं।
  • शहरों में भी कोई गरीब स्त्री किसी मध्यमवर्गीय परिवार में नौकरानी का काम कर रही है और मध्यमवर्गीय स्त्री काम करने के लिए दफ्तर जा रही है ।
  • सच्चाई यह है कि अधिकतर महिलाएँ अपने घरेलू काम के अतिरिक्त अपनी आमदनी के लिए कुछ न कुछ काम करती हैं लेकिन उनके काम को ज्यादा मूल्यवान नहीं माना जाता और उन्हें दिन रात काम करके भी उसका श्रेय नहीं मिलता।
  • श्रम के इस तरह के विभाजन का नतीजा यह हुआ है कि औरत तो घर की चारदीवारी में सिमट के रह गई है और बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्ज़े में आ गया है।
  • मनुष्य जाति की आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में, खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य ही है। यह बात अधिकतर समाजों पर लागू होती है।
  • दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में औरतों ने अपने संगठन बनाए और बराबरी के अधिकार हासिल करने के लिए आंदोलन किए । विभिन्न देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार प्रदान करने के लिए आंदोलन हुए।
  • इन आंदोलनों में महिलाओं के राजनीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने और उनके लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने की माँग की गई मूलगामी बदलाव की माँग करने वाले महिला आंदोलनों ने औरतों के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग उठाई। इन आंदोलनों को नारीवादी आंदोलन कहा जाता है।
  • लैंगिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति और इस सवाल पर राजनीतिक लामबंदी ने सार्वजनिक जीवन में औरत की भूमिका को बढ़ाने में मदद की।
  • आज वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे पेशों में बहुत सी औरतों को पाते हैं जबकि पहले इन कामों को महिलाओं के लायक नहीं माना जाता था। दुनिया के कुछ हिस्सों, जैसे स्वीडन, नार्वे और फिनलैंड जैसे स्कैंडिनेवियाई देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफ़ी ऊँचा है।
  • हमारे देश में आज़ादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है पर वे अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव होते हैं, उनका दमन होता है-
  • महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 54 फीसदी है जबकि पुरुषों में 76 फीसदी । इसी प्रकार स्कूल पास करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती हैं।
  • भारत में औसतन एक स्त्री एक पुरुष इन महापुरुषों के प्रयासों और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के चलते आधुनिक भारत में जाति की संरचना और जाति व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। आर्थिक विकास, शहरीकरण, साक्षरता और शिक्षा के विकास, पेशा चुनने की आज़ादी और गाँवों में ज़मींदारी व्यवस्था के कमज़ोर पड़ने से जाति व्यवस्था के पुराने स्वरूप और वर्ण है। व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में बदलाव आ रहा है।
राजनीति में जाति
  • सांप्रदायिकता की तरह जातिवाद भी इस मान्यता पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है।
  • इस चिंतन पद्धति के अनुसार एक जाति के लोग एक स्वाभाविक सामाजिक समुदाय का निर्माण करते हैं और उनके हित एक जैसे होते हैं तथा दूसरी जाति के लोगों से उनके हितों का कोई मेल नहीं होता।
  • राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है - जब पार्टियाँ चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम तय करती हैं तो चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की जातियों का हिसाब ध्यान में रखती हैं ताकि उन्हें चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी वोट मिल जाए। 
  • जब सरकार का गठन किया जाता है तो राजनीतिक दल इस बात का ध्यान रखते हैं कि उसमें विभिन्न जातियों और कबीलों के लोगों को उचित जगह दी जाए।
  • राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत भावनाओं को उकसाते हैं। कुछ दलों को कुछ जातियों के मददगार और प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है।
  • सार्वभौम वयस्क मताधिकार और एक व्यक्ति - एक वोट की व्यवस्था ने राजनीतिक दलों को विवश किया कि वे राजनीतिक समर्थन पाने और लोगों को लामबंद करने के लिए सक्रिय हों। इससे उन जातियों के लोगों में नयी चेतना पैदा हुई जिन्हें अभी तक छोटा और नीच माना जाता था।
  • देश के किसी भी एक संसदीय चुनाव क्षेत्र में किसी एक जाति के लोगों का बहुमत नहीं है इसलिए हर पार्टी और उम्मीदवार को चुनाव जीतने के लिए एक जाति और एक समुदाय से ज्यादा लोगों का भरोसा हासिल करना पड़ता है।
  • अगर किसी चुनाव क्षेत्र में एक जाति के लोगों का प्रभुत्व माना जा रहा हो तो अनेक पार्टियों को उसी जाति का उम्मीदवार खड़ा करने से कोई रोक नहीं सकता।
  • ऐसे में कुछ मतदाताओं के सामने उनकी जाति के एक से ज्यादा उम्मीदवार होते हैं तो किसी-किसी जाति के मतदाताओं के सामने उनकी जाति का एक भी उम्मीदवार नहीं होता।
  • हमारे देश में सत्तारूढ़ दल, वर्तमान सांसदों और विधायकों को अक्सर हार का सामना करना पड़ता है। अगर जातियों और समुदायों की राजनीतिक पसंद एक ही होती तो ऐसा संभव नहीं हो पाता। मतदाता अपनी जातियों से जितना जुड़ाव रखते हैं अक्सर उससे ज्यादा गहरा जुड़ाव राजनीतिक दलों से रखते हैं। एक जाति या समुदाय के भीतर भी अमीर और गरीब लोगों के हित अलग-अलग होते हैं।
  • एक ही समुदाय के अमीर और गरीब लोग अक्सर अलग-अलग पार्टियों को वोट देते हैं। सरकार के कामकाज के बारे में लोगों की राय और नेताओं की लोकप्रियता का चुनावों पर अक्सर निर्णायक असर होता है।
  • जाति के अंदर राजनीति अभी तक हमने इसी चीज पर गौर किया है कि राजनीति में जाति की क्या भूमिका होती है। पर, इसका यह मतलब नहीं है कि जाति और राजनीति के बीच सिर्फ़ एकतरफ़ा संबंध होता है।
  • राजनीति भी जातियों को राजनीति के अखाड़े में लाकर जाति व्यवस्था और जातिगत पहचान को प्रभावित करती है। इस तरह, सिर्फ़ राजनीति ही जातिग्रस्त नहीं होती जाति भी राजनीतिग्रस्त हो जाती है। राजनीति में नए किस्म की जातिगत लामबंदी भी हुई हैं, जैसे 'अगड़ा' और 'पिछड़ा'। इस प्रकार जाति राजनीति में कई तरह की भूमिकाएँ निभाती है और एक तरह से यही चीजें दुनिया भर की राजनीति में चलती हैं। दुनिया भर में राजनीतिक पार्टियाँ वोट पाने के लिए सामाजिक समूहों और समुदायों को लामबंद करने का प्रयास करती हैं।
  • कुछ खास स्थितियों में राजनीति में जातिगत विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमज़ोर समुदायों के लिए अपनी बातें . आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुंजाइश भी पैदा करती हैं।
  • इस अर्थ में जातिगत राजनीति ने दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए सत्ता तक पहुँचने तथा निर्णय प्रक्रिया को बेहतर ढंग से प्रभावित करने की स्थिति भी पैदा की है।
जन-संघर्ष और आंदोलन
  • सत्ताधारी स्वच्छंद नहीं हैं। अपने ऊपर पड़ने वाले प्रभाव और दबाव से वे मुक्त नहीं रह सकते । लोकतंत्र में अमूमन हितों और नज़रियों का टकराव चलते रहता है ।
  • हितों और नज़रियों के इस द्वंद्व की अभिव्यक्ति संगठित तरीके से होती है। जिनके पास सत्ता होती है उन्हें परस्पर विरोधी माँगों और दबावों में संतुलन बैठाना पड़ता है।
नेपाल में लोकतंत्र का आंदोलन
  • सन् 2006 के अप्रैल माह में नेपाल में एक विलक्षण जन-आंदोलन उठ खड़ा हुआ । नेपाल लोकतंत्र की 'तीसरी लहर' के देशों में एक है जहाँ लोकतंत्र 1990 के दशक में कायम हुआ।
  • नेपाल में राजा औपचारिक रूप से राज्य का प्रधान बना रहा लेकिन वास्तविक सत्ता का प्रयोग जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में था। आत्यंतिक राजतंत्र से संवैधानिक राजतंत्र के इस संक्रमण को राजा वीरेन्द्र ने स्वीकार कर लिया था। नेपाल के नए राजा ज्ञानेंद्र लोकतांत्रिक शासन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार की अलोकप्रियता और कमज़ोरी का उन्होंने फ़ायदा उठाया।
  • सन् 2005 की फ़रवरी में राजा ज्ञानेंद्र ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को अपदस्थ करके जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को भंग कर दिया। 2006 की अप्रैल में जो आंदोलन उठ खड़ा हुआ उसका लक्ष्य शासन की बागडोर राजा के हाथ से लेकर दोबारा जनता के हाथों में सौंपना था।
  • संसद की सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने एक 'सेवेन पार्टी अलायंस' (सप्तदलीय गठबंधन - एस. पी.ए.) बनाया और नेपाल की राजधानी काठमांडू में चार दिन के 'बंद' का आह्वान किया।
  • संसद फिर बहाल हुई और इसने अपनी बैठक में कानून पारित किए। इन कानूनों के सहारे राजा की अधिकांश शक्तियाँ वापस ले ली गईं ।
  • नयी संविधान सभा के निर्वाचन के तौर-तरीकों पर एस. पी. ए. और माओवादियों के बीच सहमति बनी। इस संघर्ष को नेपाल का 'लोकतंत्र के लिए दूसरा आंदोलन' कहा गया । नेपाल के लोगों का यह संघर्ष पूरे विश्व के लोकतंत्र - प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
बोलिविया का जल युद्ध
  • नेपाल अथवा पोलैंड की कथाएँ लोकतंत्र की स्थापना अथवा उसके पुनरुद्धार की बातें बताती हैं। लेकिन, जन-संघर्ष की भूमिका लोकतंत्र की स्थापना के साथ खत्म नहीं हो जाती ।
  • बोलिविया में लोगों ने पानी के निजीकरण के खिलाफ़ एक सफल संघर्ष चलाया। इससे पता चलता है कि लोकतंत्र की जीवंतता से जन-संघर्ष का अंदरूनी रिश्ता है।
  • बोलिविया लातिनी अमरीका का एक गरीब देश है। विश्व बैंक ने यहाँ की सरकार पर नगरपालिका द्वारा की जा रही जलापूर्ति से अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए दबाव डाला।
  • सरकार ने कोचबंबा शहर में जलापूर्ति के अधिकार एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेच दिए। इस कंपनी ने आनन-फानन में पानी की कीमत में चार गुना इज़ाफ़ा कर दिया।
  • सन् 2000 की जनवरी में श्रमिकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा सामुदायिक नेताओं के बीच एक गठबंधन ने आकार ग्रहण किया और इस गठबंधन ने शहर में चार दिनों की कामयाब आम हड़ताल की।
  • सरकार बातचीत के लिए राजी हुई और हड़ताल वापस ले ली गई। फिर भी, कुछ हाथ नहीं लगा। फ़रवरी में फिर आंदोलन शुरू हुआ लेकिन इस बार पुलिस ने बर्बरतापूर्वक दमन किया। अप्रैल में एक और हड़ताल हुई और सरकार ने 'मार्शल लॉ' लगा दिया।
  • जनता की ताकत के आगे बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारियों को शहर छोड़कर भागना पड़ा। सरकार को आंदोलनकारियों की सारी माँगें माननी पड़ी।
  • बहुराष्ट्रीय कंपनी के साथ किया गया करार रद्द कर दिया गया और जलापूर्ति दोबारा नगरपालिका को सौंपकर पुरानी दरें कायम कर दी गईं। इस आंदोलन को 'बोलिविया के जलयुद्ध' के नाम से जाना गया।
लोकतंत्र और जन-संघर्ष
  • नेपाल में चले आंदोलन का लक्ष्य लोकतंत्र को स्थापित करना था जबकि बोलिविया के जन-संघर्ष में एक निर्वाचित और लोकतांत्रिक सरकार को जनता की माँग मानने के लिए बाध्य किया गया। बोलिविया का जन-संघर्ष सरकार की एक विशेष नीति के खिलाफ़ था जबकि नेपाल में चले आंदोलन ने यह तय किया कि देश की राजनीति की नींव क्या होगी। ये दोनों ही संघर्ष सफल रहे लेकिन इनके प्रभाव के स्तर अलग-अलग थे।
  • इन अंतरों के बावजूद दोनों ही कथाओं कुछ ऐसी बातें हैं जो लोकतंत्र के अतीत और भविष्य के लिए प्रासंगिक हैं। ये दो कथाएँ राजनीतिक संघर्ष का उदाहरण हैं।
  • जन- समर्थन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति ने विवाद को उसके परिणाम तक पहुँचाया। इसके साथ-साथ हम यह भी देखते हैं कि दोनों ही घटनाओं में राजनीतिक संगठनों की भूमिका निर्णायक रही। पूरे विश्व में लोकतंत्र का विकास ऐसे ही हुआ है।
  • लोकतंत्र का जन-संघर्ष के जरिए विकास होता है। यह भी संभव है कि कुछ महत्वपूर्ण फैसले आम सहमति से हो जाएँ और ऐसे फ़ैसलों के पीछे किसी तरह का संघर्ष न हो। फिर भी, इसे अपवाद ही कहा जाएगा। लोकतंत्र की निर्णायक घड़ी अमूमन वही होती है जब सत्ताधारियों और सत्ता में हिस्सेदारी चाहने वालों के बीच संघर्ष होता है। लोकतांत्रिक संघर्ष का समाधान जनता की व्यापक लामबंदी के जरिए होता है।
  • कभी-कभी इस संघर्ष का समाधान मौजूदा संस्थाओं मसलन संसद अथवा न्यायपालिका के जरिए हो जाय। लेकिन, जब विवाद ज़्यादा गहन होता है तो ये संस्थाएँ स्वयं उस विवाद का हिस्सा बन जाती है। ऐसे में समाधान इन संस्थाओं के जरिए नहीं बल्कि उनके बाहर यानी जनता के माध्यम से होता है ।
  • ऐसे संघर्ष और लामबंदियों का आधार राजनीतिक संगठन होते हैं। यह बात सच है कि ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं में स्वतः स्फूर्त होने का भाव भी कहीं न कहीं ज़रूर मौजूद होता है लेकिन जनता की स्वतःस्फूर्त सार्वजनिक भागीदारी संगठित राजनीति के ज़रिए कारगर हो पाती है।
  • संगठित राजनीति के कई माध्यम हो सकते हैं। ऐसे माध्यमों में राजनीतिक दल, दबाव-समूह और आंदोलनकारी समूह शामिल हैं।
दबावव-समूह और आंदोलन
  • बतौर संगठन दबाव-समूह सरकार की नीतियों को प्रभावित करने करते हैं। लेकिन, राजनीतिक पार्टियों के समान की कोशिश दबाव समूह का लक्ष्य सत्ता पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करने अथवा उसमें हिस्सेदारी करने का नहीं होता।
  • दबाव-समूह का निर्माण तब होता है जब समान पेशे, हित, आकांक्षा अथवा मत के लोग एक समान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकजुट होते हैं। नेपाल में हुए जन-संघर्ष को 'लोकतंत्र के लिए दूसरा आंदोलन' कहा गया था।
  • हम अक्सर कई तरह की सामूहिक कार्रवाइयों के लिए जन-आंदोलन जैसा शब्द व्यवहार होता सुनते हैं, जैसे-नर्मदा बचाओ आंदोलन, सूचना के अधिकार का आंदोलन, शराब-विरोधी आंदोलन, महिला आंदोलन तथा पर्यावरण आंदोलन।
  • दबाव-समूह के समान आंदोलन भी चुनावी मुकाबले में सीधे भागीदारी करने के बजाय राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन, दबाव-समूहों के विपरीत आंदोलनों में संगठन ढीला-ढाला होता है।
  • आंदोलनों में फ़ैसले अनौपचारिक ढंग से लिए जाते हैं और ये फ़ैसले लचीले भी होते हैं। आंदोलन जनता की स्वतःस्फूर्त भागीदारी पर निर्भर होते हैं न कि दबाव-समूह पर ।
वर्ग विशेष के हित-समूह और जन-सामान्य के हित-समूह
  • हित-समूह अमूमन समाज के किसी ख़ास हिस्से अथवा समूह के हितों को बढ़ावा देना चाहते हैं। 
  • मज़दूर संगठन, व्यावसायिक संघ और पेशेवरों (वकील, डॉक्टर, शिक्षक आदि) के निकाय इस तरह के दबाव समूह के उदाहरण हैं। ये दबाव-समूह वर्ग - विशेषी होते हैं क्योंकि ये समाज के किसी खास तबके मसलन मज़दूर, कर्मचारी, व्यवसायी, उद्योगपति, धर्म-विशेष के अनुयायी अथवा किसी खास जाति आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे दबाव समूह का मुख्य सरोकार पूरे समाज का नहीं बल्कि अपने सदस्यों की बेहतरी और कल्याण करना होता है।
  • कुछ संगठन समाज के किसी एक तबके के ही हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। ये संगठन सर्व सामान्य हितों की नुमाइंदगी करते हैं जिनकी रक्षा ज़रूरी होती है ।
  • संभव है, ऐसा संगठन जिस उद्देश्य को पाना चाहता हो उससे इसके सदस्यों को कोई लाभ न हो। बोलिविया का 'फेडेकोर' (FEDECOR) नाम का संगठन ऐसे ही संगठन का उदाहरण है। नेपाल के मामले में हमने देखा कि वहाँ मानवाधिकार के संगठनों ने भी भागीदारी की थी।
  • इन दूसरे किस्म के संगठनों को जन-सामान्य के हित- समूह अथवा लोक कल्याणकारी समूह कहते हैं। ऐसे संगठन किसी खास हित के बजाय सामूहिक हित का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • कुछ मामलों में संभव है कि जन-सामान्य के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह ऐसे उद्देश्य को साधने के लिए आगे आएँ जिससे बाकियों के साथ-साथ उन्हें भी फायदा होता हो । उदाहरण के लिए ‘बामसेफ' (बैकवर्ड एंड मायनॉरिटी कम्युनिटी एम्पलाइज फेडरेशन-BAMCEF) का नाम लिया जा सकता है। यह मुख्यतया सरकारी कर्मचारियों का सगं ठन है जो जातिगत भदे भाव के खिलाफ अभियान चलाता है।
  • यह संगठन जातिगत भेदभाव के शिकार अपने सदस्यों की समस्याओं को देखता है लेकिन इसका मुख्य सरोकार सामाजिक न्याय और पूरे समाज के लिए सामाजिक समानता को हासिल करना है।
आंदोलनकारी समूह
  • दबाव-समूह के समान किसी आंदोलन में कई तरह के समूह शामिल रहते हैं। जिससे इनकी एक साधारण विशेषता का संकेत मिलता है। अधिकतर आंदोलन किसी खास मुद्दे पर केंद्रित होते हैं।
  • ऐसे आंदोलन एक सीमित समय-सीमा के भीतर किसी एक लक्ष्य को पाना चाहते हैं। कुछ आंदोलन ज्यादा सार्वभौम प्रकृति के होते हैं और एक व्यापक लक्ष्य को बहुत बड़ी समयावधि में हासिल करना चाहते हैं।
  • नेपाल में उठे लोकतंत्र के आंदोलन का विशिष्ट उद्देश्य था राजा को अपने आदेशों को वापस लेने के लिए बाध्य करना। इन आदेशों के द्वारा राजा ने लोकतंत्र को समाप्त कर दिया था।
  • भारत में नर्मदा बचाओ आंदोलन ऐसे आंदोलन का अच्छा उदाहरण है। नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे सरदार सरोवर बाँध के कारण लोग विस्थापित हुए।
  • यह आंदोलन इसी खास मुद्दे को लेकर शुरू हुआ। इसका उद्देश्य बाँध को बनने से रोकना था। धीरे-धीरे इस आंदोलन ने व्यापक रूप धारण किया। इसने सभी बड़े बाँधों और विकास के उस मॉडल पर सवाल उठाए जिसमें बड़े बाँधों को अनिवार्य साबित किया जाता है। ऐसे आंदोलनों में नेतृत्व बड़ा स्पष्ट होता है और उनका संगठन भी होता है लेकिन ऐसे आंदोलन बहुत थोड़े समय तक ही सक्रिय रह पाते हैं।
  • किसी एक मुद्दे पर आधारित ऐसे आंदोलनों के बरक्स उन आंदोलनों को रखा जा सकता है जो लंबे समय तक चलते हैं और जिनमें एक से ज़्यादा मुद्दे होते हैं। पर्यावरण के आंदोलन तथा महिला आंदोलन ठेठ ऐसे ही आंदोलनों की मिसाल हैं। 
  • ऐसे आंदोलनों के नियंत्रण अथवा दिशा-निर्देश के लिए कोई एक संगठन नहीं होता। पर्यावरण आंदोलन के अंतर्गत अनेक संगठन तथा खास-खास मुद्दे पर आधारित आंदोलन शामिल हैं।
  • इनके सबके संगठन अलग-अलग हैं नेतृत्व भी अलहदा है और नीतिगत मामलों पर अक्सर इनकी राय अलग-अलग होती है। इसके बावजूद एक व्यापक उद्देश्य के ये साझीदार हैं और इनका दृष्टिकोण एक जैसा है। इसी वजह से इन्हें एक आंदोलन यानी पर्यावरण आंदोलन का नाम दिया जाता है।
  • कभी-कभी ऐसे व्यापक आंदोलनों का एक ढीला-ढाला सा सर्व-समावेशी संगठन होता है। मिसाल के लिए नेशनल अलायंस फॉर पीपल्स मूवमेंट (NAPM) ऐसा ही संगठनों का संगठन है।
  • विभिन्न मुद्दों पर संघर्ष कर रहे अनेक आंदोलनकारी समूह इस संगठन के घटक हैं। यह संगठन अपने देश में अनेक जनांदोलनों की गतिविधियों में तालमेल बैठाने का काम करता है।
  • दबाव-समूह और आंदोलन राजनीति पर कई तरह से असर डालते हैं: दबाव-समूह और आंदोलन अपने लक्ष्य तथा गतिविधियों के लिए जनता का समर्थन और सहानुभूति हासिल करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए सूचना अभियान चलाना, बैठक आयोजित करना अथवा अर्जी दायर करने जैसे तरीकों का सहारा लिया जाता है।
  • ऐसे अधिकतर समूह मीडिया को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं ताकि उनके मसलों पर मीडिया ज्यादा ध्यान दे।
  • ऐसे समूह अक्सर हड़ताल अथवा सरकारी कामकाज में बाधा पहुँचाने जैसे उपायों का सहारा लेते हैं। मज़दूर संगठन, कर्मचारी संघ तथा अधिकतर आंदोलनकारी समूह अक्सर ऐसी युक्तियों का इस्तेमाल करते हैं कि सरकार उनकी माँगों की तरफ ध्यान देने के लिए बाध्य हो।
  • व्यवसाय - समूह अक्सर पेशेवर 'लॉबिस्ट' नियुक्त करते हैं अथवा महँगे विज्ञापनों को प्रायोजित करते हैं। दबाव-समूह अथवा आंदोलनकारी समूह के कुछ व्यक्ति सरकार को सलाह देने वाली समितियों और आधिकारिक निकायों में शिरकत कर सकते हैं।
  • हालाँकि दबाव-समूह और आंदोलन दलीय राजनीति में सीधे भाग नहीं लेते लेकिन वे राजनीतिक दलों पर असर डालना चाहते हैं।
  • अधिकतर आंदोलन किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं होते लेकिन उनका एक राजनीतिक पक्ष होता है। आंदोलनों की राजनीतिक विचारधारा होती है और बड़े मुद्दों पर उनका राजनीतिक पक्ष होता है। राजनीतिक दल और दबाव-समूह के बीच का रिश्ता कई रूप धारण कर सकता है जिसमें कुछ प्रत्यक्ष होते हैं तो कुछ अप्रत्यक्ष।
  • कुछ मामलों में दबाव-समूह राजनीतिक दलों द्वारा ही बनाए गए होते हैं अथवा उनका नेतृत्व राजनीतिक दल के नेता करते हैं। कुछ दबाव-समूह राजनीतिक दल की एक शाखा के रूप में काम करते हैं। उदाहरण के लिए भारत के अधिकतर मज़दूर संगठन और छात्र संगठन या तो बड़े राजनीतिक दलों द्वारा बनाए गए हैं अथवा उनकी संबद्धता राजनीतिक दलों से है।
  • ऐसे दबाव-समूहों के अधिकतर नेता अमूमन किसी न किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता और नेता होते हैं। कभी-कभी आंदोलन राजनीतिक दल का रूप अख्तियार कर लेते हैं। उदाहरण के लिए 'विदेशी' लोगों के विरुद्ध छात्रों ने 'असम आंदोलन' चलाया और जब इस आंदोलन की समाप्ति हुई तो इस आंदोलन ने 'असम गण परिषद्' का रूप ले लिया।
  • सन् 1930 और 1940 के दशक में तमिलनाडु में समाज-सुधार आंदोलन चले थे। अधिकांशतया दबाव-समूह और आंदोलन का राजनीतिक दलों से प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। दोनों परस्पर विरोधी पक्ष लेते हैं। फिर भी, इनके बीच संवाद कायम रहता है और सुलह की बातचीत चलती रहती है।
  • आंदोलनकारी समूहों ने नए-नए मुद्दे उठाए हैं और राजनीतिक दलों ने इन मुद्दों को आगे बढ़ाया है। राजनीतिक दलों के अधिकतर नए नेता दबाव-समूह अथवा आंदोलनकारी समूहों से आते हैं।
क्या दबाव-समूह और आंदोलन के प्रभाव सकारात्मक हैं?
  • शुरुआती तौर पर लग सकता है कि किसी एक ही तबके के हितों की नुमाइंदगी करने वाले दबाव-समूह लोकतंत्र के लिए हितकर नहीं हैं। लोकतंत्र में किसी एक तबके के नहीं बल्कि सबके हितों की रक्षा होनी चाहिए।
  • यह भी लग सकता है कि ऐसे समूह सत्ता का इस्तेमाल तो करना चाहते हैं लेकिन ज़िम्मेदारी से बचना चाहते हैं। राजनीतिक दलों को चुनाव के समय जनता का सामना करना पड़ता है लेकिन ये समूह जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होते।
  • संभव है कि दबाव-समूहों और आंदोलनों को जनता से समर्थन अथवा धन न मिले। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि दबाव-समूहों को बहुत कम लोगों का समर्थन प्राप्त हो लेकिन उनके पास धन ज़्यादा हो और इसके बूते अपने संकुचित एजेंडे पर वे सार्वजनिक बहस का रुख मोड़ने में सफल हो जाएँ।
  • लेकिन थोड़ा संतुलित नज़रिया अपनाएँ तो स्पष्ट होगा कि दबाव-समूहों और आंदोलनों के कारण लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत हुई हैं। शासकों के ऊपर दबाव डालना लोकतंत्र में कोई अहितकर गतिविधि नहीं बशर्ते इसका अवसर सबको प्राप्त हो ।
  • सरकारें अक्सर थोड़े से धनी और ताकतवर लोगों के अनुचित दबाव में आ जाती हैं। जन-साधारण के हित-समूह तथा आंदोलन 
  • इस अनुचित दबाव के प्रतिकार में उपयोगी भूमिका निभाते हैं और आम नागरिक की ज़रूरतों तथा सरोकारों से सरकार को अवगत कराते हैं। वर्ग - विशेषी हित-समूह भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब विभिन्न समूह सक्रिय हों तो कोई एक समूह समाज के ऊपर प्रभुत्व कायम नहीं कर सकता।
  • यदि कोई एक समूह सरकार के ऊपर अपने हित में नीति बनाने के लिए दबाव डालता है तो दूसरा समूह इसके प्रतिकार में दबाव डालेगा कि नीतियाँ उस तरह से न बनाई जाएँ ।
  • सरकार को भी ऐसे में पता चलता रहता है कि समाज के विभिन्न तबके क्या चाहते हैं। इससे परस्पर विरोधी हितों के बीच सामंजस्य बैठाना तथा शक्ति संतुलन करना संभव होता है।
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