BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | निर्धनता : एक चुनौती

गाँवों के भूमिहीन श्रमिक भी हो सकते हैं और शहरों की भीड़ भरी झुग्गियों में रहने वाले लोग भी। वे निर्माण स्थलों के दैनिक वेतनभोगी श्रमिक भी हो सकते हैं और ढाबों में काम करने वाले वास्तव में, देश का हर चौथा व्यक्ति निर्धन है।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | निर्धनता : एक चुनौती

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | निर्धनता : एक चुनौती

सामाजिक वैज्ञानिकों की दृष्टि में निर्धनता

  • चूंकि निर्धनता के अनेक पहलू हैं, सामाजिक वैज्ञानिक उसे अनेक सूचकों के माध्यम से देखते हैं। सामान्यतया प्रयोग किए जाने वाले सूचक वे हैं, जो आय और उपभोग के स्तर से संबंधित हैं, लेकिन अब निर्धनता को निरक्षरता स्तर, कुपोषण के कारण रोग प्रतिरोधी क्षमता की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, रोज़गार के अवसरों की कमी, सुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता तक पहुँच की कमी आदि जैसे अन्य सामाजिक सूचकों के माध्यम से भी देखा जाता है।
  • सामाजिक अपवर्जन और असुरक्षा पर आधारित निर्धनता का विश्लेषण अब बहुत सामान्य होता जा रहा है।
सामाजिक अपवर्जन
  • इस अवधारणा के अनुसार निर्धनता को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि निर्धनों को बेहतर माहौल और अधिक अच्छे वातावरण में रहने वाले संपन्न लोगों की सामाजिक समता से अपवर्जित रहकर केवल निकृष्ट वातावरण में दूसरे निर्धनों के साथ रहना पड़ता है।
  • सामान्य अर्थ में सामाजिक अपवर्जन निर्धनता का एक कारण और परिणाम दोनों हो सकता है। मोटे तौर पर यह एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से व्यक्ति या समूह उन सुविधाओं, लाभों और अवसरों से अपवर्जित रहते हैं, जिनका उपभोग दूसरे ( उनसे 'अधिक अच्छे') करते हैं।
  • इसका एक विशिष्ट उदाहरण भारत में जाति व्यवस्था की कार्य-शैली है, जिसमें कुछ जातियों के लोगों को समान अवसरों से अपवर्जित रखा जाता है। इस प्रकार, सामाजिक अपवर्जन लोगों की आय ही बहुत कम नहीं करता बल्कि यह इससे भी कहीं अधिक क्षति पहुँचा सकता है।
असुरक्षा
  • निर्धनता के प्रति असुरक्षा एक माप है जो कुछ विशेष समुदायों (जैसे किसी पिछड़ी जाति के सदस्य) या व्यक्तियों (जैसे कोई विधवा या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति) के भावी वर्षों में निर्धन होने या निर्धन बने रहने की अधिक संभावना जताता है।
  • असुरक्षा का निर्धारण परिसंपत्तियों, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के अवसरों के रूप में जीविका खोजने के लिए विभिन्न समुदायों के पास उपलब्ध विकल्पों से होता है।
  • इसके अलावा, इसका विश्लेषण प्राकृतिक आपदाओं (भूकंप, सुनामी), आतंकवाद आदि मामलों में इन समूहों के समक्ष विद्यमान बड़े जोखिमों के आधार पर किया जाता है। अतिरिक्त विश्लेषण इन जोखिमों से निपटने की उनकी सामाजिक और आर्थिक क्षमता के आधार पर किया जाता है।
  • वास्तव में, जब सभी लोगों के लिए बुरा समय आता है, चाहे कोई बाढ़ हो या भूकंप या फिर नौकरियों की उपलब्धता में कमी, दूसरे लोगों की तुलना में अधिक प्रभावित होने की बड़ी संभावना का निरूपण ही असुरक्षा है।

निर्धनता रेखा

  • निर्धनता पर चर्चा के केंद्र में सामान्यतया 'निर्धनता रेखा' की अवधारणा होती है। निर्धनता के आकलन की एक सर्वमान्य सामान्य विधि आय अथवा उपभोग स्तरों पर आधारित है।
  • यदि उसकी आय या उपभोग स्तर किसी ऐसे 'न्यूनतम स्तर ' से नीचे गिर जाए जो मूल आवश्यकताओं के एक दिए हुए समूह को पूर्ण करने के लिए आवश्यक है।
  • मूल आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए आवश्यक वस्तुएँ विभिन्न कालों एवं विभिन्न देशों में भिन्न हैं। अतः काल एवं स्थान के अनुसार निर्धनता रेखा भिन्न हो सकती है।
  • प्रत्येक देश एक काल्पनिक रेखा का प्रयोग करता है, जिसे विकास एवं उसके स्वीकृत न्यूनतम सामाजिक मानदंडों के • वर्तमान स्तर अनुरूप माना जाता है। 
    • उदाहरण के लिए, अमेरिका में उस आदमी को निर्धन माना जाता है जिसके पास कार नहीं है, जबकि भारत में अब भी कार रखना विलासिता मानी जाती है।
  • भारत में निर्धनता रेखा का निर्धारण करते समय जीवन निर्वाह के लिए खाद्य आवश्यकता, कपड़ों, जूतों, ईंधन और प्रकाश, , शैक्षिक एवं चिकित्सा संबंधी आवश्यकताओं आदि पर विचार किया जाता है। इन भौतिक मात्राओं को रुपयों में उनकी कीमतों से गुणा कर दिया जाता है।
  • निर्धनता रेखा का आकलन करते समय खाद्य आवश्यकता के लिए वर्तमान सूत्र वांछित कैलोरी आवश्यकताओं पर आधारित है।
  • खाद्य वस्तुएँ जैसे- अनाज, दालें, सब्ज़ियाँ, दूध, तेल, चीनी आदि मिलकर इस आवश्यक कैलोरी की पूर्ति करती हैं। आयु, लिंग, काम करने की प्रकृति आदि के आधार पर कैलोरी आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं।
  • भारत में स्वीकृत कैलोरी आवश्यकता ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन एवं नगरीय क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है। चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग अधिक शारीरिक कार्य करते हैं, अतः ग्रामीण क्षेत्रों में कैलोरी आवश्यकता शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक मानी गई है।
  • अनाज आदि के रूप में इन कैलोरी आवश्यकताओं को खरीदने के लिए प्रतिव्यक्ति मौद्रिक व्यय को, कीमतों में वृद्धि को कम कैलोरी की आवश्यकता के बावजूद शहरी क्षेत्रों के लिए उच्च राशि निश्चित की गई, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में अनेक आवश्यक • वस्तुओं की कीमतें अधिक होती हैं।
  • इस प्रकार, वर्ष 2000 में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाला 5 सदस्यों का परिवार निर्धनता रेखा के नीचे होगा, यदि उसकी आय •. लगभग 1,640 रुपये प्रतिमाह से कम है।
  • इसी तरह के परिवार को शहरी क्षेत्रों में अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरा करने के लिए कम से कम 2,270 रुपये प्रतिमाह की आवश्यकता होगी।
  • निर्धनता रेखा का आकलन समय-समय पर (सामान्यतः हर 5 वर्ष पर) प्रतिदर्श सर्वेक्षण के माध्यम से किया जाता है। यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन अर्थात् नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइज़ेशन (एन.एस.एस.ओ.) द्वारा कराए जाते हैं, तथापि विकासशील देशों के बीच तुलना करने के लिए विश्व बैंक जैसे अनेक अंतर्राष्ट्रीय संगठन निर्धनता रेखा के लिए एक समान मानक का प्रयोग करते हैं, जैसे एक डॉलर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के समतुल्य न्यूनतम उपलब्धता के आधार पर।
निर्धनता के अनुमान
  • भारत में निर्धनता अनुपात में वर्ष 1973 में लगभग 55 प्रतिशत से वर्ष 1993 में 36 प्रतिशत तक महत्त्वपूर्ण गिरावट आई है। वर्ष 2000 में निर्धनता रेखा के नीचे के निर्धनों का अनुपात और भी गिर कर 26 प्रतिशत पर आ गया।
  • यदि यही प्रवृत्ति रही तो अगले कुछ वर्षों में निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से भी नीचे आ जाएगी।
  • यद्यपि निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत पूर्व के दो दशकों (1973-93) में गिरा है, निर्धन लोगों की संख्या 32 करोड़ के लगभग काफी समय तक स्थिर रही । नवीनतम अनुमान, निर्धनों की संख्या में कमी, लगभग 26 करोड़ उल्लेखनीय गिरावट का संकेत देते हैं।
असुरक्षित समूह
  • निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों का अनुपात भी भारत में सभी सामाजिक समूहों और आर्थिक वर्गों में एक समान नहीं है। जो सामाजिक समूह निर्धनता के प्रति सर्वाधिक असुरक्षित हैं, वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार हैं। इसी प्रकार, आर्थिक समूहों में सर्वाधिक असुरक्षित समूह, ग्र कृषि श्रमिक परिवार और नगरीय अनियत मज़दूर परिवार हैं। 
  • निर्धनता रेखा के नीचे के लोगों का औसत भारत में सभी समूहों के लिए 26 है, अनुसूचित जनजातियों के 100 में से 51 लोग अपनी मूल आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हैं।
  • इसी तरह नगरीय क्षेत्रों में 50 प्रतिशत अनियत मज़दूर निर्धनता रेखा के नीचे हैं। लगभग 50 प्रतिशत भूमिहीन कृषि श्रमिक और 43 प्रतिशत अनुसूचित जातियाँ भी निर्धन हैं।
  • अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सामाजिक रूप से सुविधावंचित सामाजिक समूहों का भूमिहीन अनियत दिहाड़ी श्रमिक होना उनकी दोहरी असुविधा की समस्या की गंभीरता को दिखाता है।
  • हाल के अध्ययनों के अनुसार 1990 के दशक के दौरान अनुसूचित जनजाति परिवारों को छोड़ कर अन्य सभी तीनों समूहों (अनुसूचित जाति, ग्रामीण कृषि श्रमिक और शहरी अनियमित मज़दूर परिवार) में निर्धनता में कमी आई है। इन सामाजिक समूहों के अतिरिक्त परिवारों में भी आय असमानता है।
  • निर्धन परिवारों में सभी लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन कुछ लोग दूसरों से अधिक कठिनाइयों का सामना करते हैं ।
  • महिलाओं, वृद्ध लोगों और बच्चियों को सुव्यवस्थित ढंग से परिवार के उपलब्ध संसाधनों तक पहुँच से वंचित किया जाता है। इसलिए महिलाएँ, शिशु (विशेषकर बच्चियाँ) और वृद्ध निर्धनों में भी निर्धन होते है।
अंतर्राज्यीय असमानताएँ
  • भारत में निर्धनता का एक और पहलू या आयाम है। प्रत्येक राज्य में निर्धन लोगों का अनुपात एक समान नहीं है। यद्यपि 1970 के दशक के प्रारंभ से राज्य स्तरीय निर्धनता में सुदीर्घकालिक कमी हुई है, निर्धनता कम करने में सफलता की दर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है।
  • हाल के अनुमान के अनुसार 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में निर्धनता अनुपात राष्ट्रीय औसत से कम है। दूसरी ओर, निर्धनता अब भी उड़ीसा, बिहार, असम, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश में एक गंभीर समस्या है।
  • उड़ीसा और बिहार क्रमशः 47 और 43 प्रतिशत निर्धनता औसत के साथ दो सर्वाधिक निर्धन राज्य बने हुए हैं। उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में ग्रामीण निर्धनता के साथ नगरीय निर्धनता भी अधिक है।
  • इसकी तुलना में केरल, जम्मू-कश्मीर, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और पश्चिम बंगाल में निर्धनता में उल्लेखनीय गिरावट आई है।
  • पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य उच्च कृषि वृद्धि दर से निर्धनता कम करने में पारंपरिक रूप से सफल रहे हैं। केरल ने मानव संसाधन विकास पर अधिक ध्यान दिया है।
  • पश्चिम बंगाल में भूमि सुधार उपायों से निर्धनता कम करने में सहायता मिली है। आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अनाज का सार्वजनिक वितरण इसमें सुधार का कारण हो सकता है।
वैश्विक निर्धनता परिदृश्य
  • विकासशील देशों में अत्यंत आर्थिक निर्धनता (विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार प्रतिदिन 1 डॉलर से कम पर जीवन निर्वाह करना) में रहने वाले लोगों का अनुपात 1990 के 28 प्रतिशत से गिरकर 2001 में 21 प्रतिशत हो गया है।
  • तीव्र आर्थिक प्रगति और मानव संसाधन विकास में वृहत निवेश के कारण चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में निर्धनता में विशेष कमी आई है।
  • चीन में निर्धनों की संख्या 1981 के 60.6 करोड़ से घटकर 2001 में 21.2 करोड़ हो गई है। दक्षिण एशिया के देशों ( भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल, बाँग्ला देश, भूटान) में निर्धनों की संख्या में गिरावट इतनी तीव्र नहीं है।
  • निर्धनों के प्रतिशत में गिरावट के बावजूद निर्धनों की संख्या में थोड़ी ही कमी जो 1981 में 47.5 करोड़ से घट कर 2001 में 42.8 करोड़ रह गई है ।
  • भिन्न निर्धनता रेखा परिभाषा के कारण भारत में भी निर्धनता राष्ट्रीय अनुमान से अधिक है। सब-सहारा अफ्रीका में निर्धनता वास्तव में 1981 के 41 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 46 प्रतिशत हो गई है।
  • लैटिन अमेरिका में निर्धनता का अनुपात वही रहा है। रूस जैसे पूर्व समाजवादी देशों में भी निर्धनता पुनः व्याप्त हो गई, जहाँ पहले आधिकारिक रूप से कोई निर्धनता थी ही नहीं।
  • अंतर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा (अर्थात् 1 डॉलर प्रतिदिन से नीचे की जनसंख्या) की परिभाषा के अनुसार विभिन्न देशों में निर्धनता के नीचे रहने वाले लोगों का अनुपात दर्शाती है।
  • संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों ने 1 डॉलर प्रतिदिन से कम पर जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या को वर्ष 2015 तक वर्ष 1990 के स्तर के आधे पर ले जाने की घोषणा है।
निर्धनता के कारण
  • भारत में व्यापक निर्धनता के अनेक कारण हैं। एक ऐतिहासिक कारण ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन के दौरान आर्थिक विकास का निम्न स्तर है।
  • औपनिवेशिक सरकार की नीतियों ने पारंपरिक हस्तशिल्पकारी को नष्ट कर दिया और वस्त्र जैसे उद्योगों के विकास को हतोत्साहित किया।
  • विकास की धीमी दर 1980 के दशक तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप रोज़गार के अवसर घटे और आय की वृद्धि दर गिरी। इसके साथ-साथ जनसंख्या में उच्च दर से वृद्धि हुई। इन दोनों ने प्रतिव्यक्ति आय की संवृद्धि दर को बहुत कम कर दिया।
  • आर्थिक प्रगति को बढ़ावा और जनसंख्या नियंत्रण, दोनों मोर्चों पर असफलता के कारण निर्धनता का चक्र बना रहा। सिंचाई और हरित क्रांति के प्रसार से कृषि क्षेत्रक में रोज़गार के अनेक अवसर सृजित हुए। लेकिन इनका प्रभाव भारत के कुछ भागों तक ही सीमित रहा।
  • सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रकों ने कुछ रोज़गार उपलब्ध कराए। लेकिन ये रोज़गार तलाश करने वाले सभी लोगों के लिए पर्याप्त नहीं हो सके।
  • शहरों में उपयुक्त नौकरी पाने में असफल अनेक लोग रिक्शा चालक, विक्रेता, गृह निर्माण श्रमिक, घरेलू नौकर आदि के रूप में कार्य करने लगे।
  • अनियमित और कम आय के कारण ये लोग महँगे मकानों में नहीं रह सकते थे। वे शहरों से बाहर झुग्गियों में रहने लगे और निर्धनता की समस्याएँ जो मुख्य रूप से एक ग्रामीण परिघटना थी, नगरीय क्षेत्र की भी एक विशषेता बन गई।
  • उच्च निर्धनता दर की एक और विशेषता आय असमानता रही है। इसका एक प्रमुख कारण भूमि और अन्य संसाधनों का असमान वितरण है। अनेक नीतियों के बावजूद, हम किसी सार्थक ढंग से इस मुद्दे से नहीं निपट सके हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में परिसंपत्तियों के पुनर्वितरण पर लक्षित भूमि सुधार जैसी प्रमुख नीति- पहल को ज्यादातर राज्य सरकारों ने प्रभावी ढंग से कार्यान्वित नहीं किया। चूँकि भारत में भूमि संसाधनों की कमी निर्धनता का एक प्रमुख कारण रही है, इस नीति का उचित कार्यान्वयन करोड़ों ग्रामीण निर्धनों का जीवन सुधार सकता था।
  • अनेक अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारक भी निर्धनता के लिए उत्तरदायी हैं। अति निर्धनों सहित भारत में लोग सामाजिक दायित्वों और धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन में बहुत पैसा खर्च करते हैं। छोटे किसानों को बीज, उर्वरक, कीटनाशकों जैसे कृषि आगतों की खरीदारी के लिए धनराशि की ज़रूरत होती है।
  • चूँकि निर्धन कठिनाई से ही कोई बचत कर पाते हैं, वे इनके लिए कर्ज़ लेते हैं। निर्धनता के चलते पुनः भुगतान करने में असमर्थता के कारण वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं। अतः अत्यधिक ऋणग्रस्तता निर्धनता का कारण और परिणाम दोनों है।
निर्धनता-निरोधी उपाय
  • निर्धनता उन्मूलन भारत की विकास रणनीति का एक प्रमुख उद्देश्य रहा है। सरकार की वर्तमान निर्धनता-निरोधी रणनीति मोटे तौर पर दो कारकों
    1. आर्थिक संवृद्धि को प्रोत्साहन और
    2. लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रमों पर निर्भर है।
  • 1980 के दशक के आरंभ तक समाप्त हुए 30 वर्ष की अवधि के दौरान प्रतिव्यक्ति आय में कोई वृद्धि नहीं हुई और निर्धनता में भी अधिक कमी नहीं आई।
  • 1950 के दशक के आरंभ में आधिकारिक निर्धनता अनुमान 45 प्रतिशत का था और 1980 के दशक के आरंभ में भी वही बना रहा। 1980 के दशक से भारत की आर्थिक संवृद्धि दर विश्व में सबसे अधिक रही। 
  • संवृद्धि दर 1970 के दशक के करीब 3.5 प्रतिशत के औसत से बढ़कर 1980 और 1990 के दशक में 6 प्रतिशत के करीब पहुँच गई। विकास की उच्च दर ने निर्धनता को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक संवृद्धि और निर्धनता उन्मूलन के बीच एक घनिष्ठ संबंध है।
  • आर्थिक संवृद्धि अवसरों को व्यापक बना देती है और मानव विकास में निवेश के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराती है।
  • यह शिक्षा में निवेश से अधिक आर्थिक प्रतिफल पाने की आशा में लोगों को अपने बच्चों लड़कियों सहित स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करती है। तथापि, यह संभव है कि आर्थिक विकास से सृजित अवसरों से निर्धन लोग प्रत्यक्ष लाभ नहीं उठा सके। 
  • इसके अतिरिक्त कृषि क्षेत्रक में संवृद्धि अपेक्षा से बहुत कम रही। निर्धनता पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा क्योंकि निर्धन लोगों का एक बड़ा भाग गाँव में रहता है और कृषि पर आश्रित है।
  • इन परिस्थितियों में लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रमों की स्पष्ट आवश्यकता है। यद्यपि ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जिनको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्धनता कम करने के लिए बनाया गया, उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ करना आवश्यक है।
  • राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005 (एन.आरई. जी.ए.) को सितंबर 2005 में पारित किया गया। यह विधेयक प्रत्येक वर्ष देश के 200 जिलों में प्रत्येक ग्रामीण परिवार को 100 दिन के सुनिश्चित रोज़गार का प्रावधान करता है। बाद में इस योजना का विस्तार 600 जिलों में किया जाएगा।
  • प्रस्तावित रोज़गारों का एक तिहाई रोज़गार महिलाओं के लिए आरक्षित है। केंद्र सरकार राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी कोष भी स्थापित करेगी। इसी तरह राज्य सरकारें भी योजना के कार्यान्वयन के लिए राज्य रोज़गार गारंटी कोष की स्थापना करेंगी।
  • कार्यक्रम के अंतर्गत अगर आवेदक को 15 दिन के अंदर रोज़गार उपलब्ध नहीं कराया गया तो वह दैनिक बेरोज़गार भत्ते का हकदार होगा।
  • एक और महत्त्वपूर्ण योजना राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम है जिसे 2004 में देश के सबसे पिछड़े 150 जिलों में लागू किया गया था। यह कार्यक्रम उन सभी ग्रामीण निर्धनों के लिए है, जिन्हें मज़दूरी पर रोज़गार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक काम करने के इच्छुक हैं।
  • इसका कार्यान्वयन शत-प्रतिशत केंद्रीय वित्तपोषित कार्यक्रम के रूप में किया गया है और राज्यों को खाद्यान्न निःशुल्क उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
  • एक बार एन.आर.ई.जी.ए. लागू हो जाए तो काम के बदले अनाज (एन.एफ.डब्ल्यू.पी.) का राष्ट्रीय कार्यक्रम भी इस कार्यक्रम के अंतर्गत आ जाएगा।
  • प्रधानमंत्री रोज़गार योजना एक अन्य योजना है, जिसे 1993 में आरंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं के लिए स्वरोजगार के अवसर सृजित करना है। उन्हें लघु व्यवसाय और उद्योग स्थापित करने में उनकी सहायता दी जाती है।
  • ग्रामीण रोजगार सृजन कार्यक्रम का आरंभ 1995 में किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों में स्वरोजगार के अवसर सृजित करना है।
  • 10वीं पंचवर्षीय योजना में इस कार्यक्रम के अंतर्गत 25 लाख नए रोज़गार के अवसर सृजित करने का लक्ष्य रखा गया है। स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना का आरंभ 1999 में किया गया।
  • इस कार्यक्रम का उद्देश्य सहायता - प्राप्त निर्धन परिवारों को स्वयंसहायता समूहों में संगठित कर बैंक ऋण और सरकारी > सहायिकी के संयोजन द्वारा निर्धनता रेखा से ऊपर लाना है।
  • प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना ( 2000 में आरंभ) के अंर्तगत प्राथमिक स्वास्थ्य प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण आश्रय ग्रामीण पेयजल और ग्रामीण विद्युतीकरण जैसी मूल सुविधाओं के लिए राज्यों को अतिरिक्त केंद्रीय सहायता प्रदान की जाती है। एक और महत्त्वपूर्ण योजना अंत्योदय अन्न योजना है।
  • इन कार्यक्रमों के मिले-जुले परिणाम हुए हैं। उनके कम प्रभावी होने का एक मुख्य कारण उचित कार्यान्वयन और सही लक्ष्य निश्चित करने की कमी है। इसके अतिरिक्त, कुछ योजनाएँ परस्पर-व्यापी भी हैं।
  • अच्छी नीयत के बावजूद इन योजनाओं के लाभ उनके पात्र, निर्धनों को पूरी तरह नहीं मिल पाए। इसलिए, हाल के वर्षों में निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के उचित परिवीक्षण पर अधिक बल दिया गया है।
भावी चुनौतियाँ
  • भारत में निर्धनता में निश्चित रूप से गिरावट आई है, लेकिन प्रगति के बावजूद निर्धनता उन्मूलन भारत की एक सबसे बाध्यकारी चुनौती है।
  • ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों और विभिन्न राज्यों में निर्धनता में व्यापक असमानता है। कुछ सामाजिक और आर्थिक समूह निर्धनता के प्रति अधिक असुरक्षित हैं।
  • आशा की जा रही है कि निर्धनता उन्मूलन में अगले 10 से 15 वर्षों में अधिक प्रगति होगी।
  • यह मुख्यत: उच्च आर्थिक संवृद्धि, सर्वजनीन निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा पर ज़ोर, जनसंख्या विकास में गिरावट, महिलाओं और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बढ़ते सशक्तीकरण के कारण संभव हो सकेगा।
  • लोगों के लिए निर्धनता की आधिकारिक परिभाषा उनके केवल एक सीमित भाग पर लागू होती है। यह न्यूनतम जीवन निर्वाह के 'उचित' स्तर की अपेक्षा जीवन निर्वाह के 'न्यूनतम स्तर के विषय में है।
  • निर्धनता उन्मूलन हमेशा एक गतिशील लक्ष्य है। आशा है कि अगले दशक के अंत तक सभी लोगों को केवल आय के संदर्भ में, न्यूनतम आवश्यक आय उपलब्ध करा सकेंगे।
  • सभी को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोज़गार सुरक्षा उपलब्ध कराना, लैंगिक समता तथा निर्धनों का सम्मान जैसी बड़ी चुनौतियाँ हमारे लक्ष्य होंगे। ये और भी बड़े काम होंगे।
परिचय
  • गाँवों के भूमिहीन श्रमिक भी हो सकते हैं और शहरों की भीड़ भरी झुग्गियों में रहने वाले लोग भी। वे निर्माण स्थलों के दैनिक वेतनभोगी श्रमिक भी हो सकते हैं और ढाबों में काम करने वाले वास्तव में, देश का हर चौथा व्यक्ति निर्धन है।
  • इसका अर्थ यह है कि भारत में मोटे तौर 26 करोड़ लोग निर्धनता में जीते हैं। इसका यह भी अर्थ है कि विश्व में भारत में सबसे अधिक निर्धनों का संकेंद्रण है। यह इस चुनौती की गंभीरता को दर्शाता है।
  • निर्धनता का अर्थ स्वच्छ जल और सफाई सुविधाओं का अभाव भी है। इसका अर्थ नियमित रोज़गार की कमी भी है तथा न्यूनतम शालीनता स्तर का अभाव भी है। अंततः इसका अर्थ है असहायता की भावना के साथ जीना।
  • निर्धन लोग ऐसी स्थिति में रहते हैं जिसमें उनके साथ खेतों, कारखानों, सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों और लगभग सभी स्थानों पर दुर्व्यवहार होता है। स्पष्ट है कि कोई भी निर्धनता में जीना नहीं चाहता।
  • अपने करोड़ों लोगों को दयनीय निर्धनता से बाहर निकालना स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रही है।
  • महात्मा गांधी हमेशा इस पर बल दिया करते थे कि भारत सही अर्थों में तभी स्वतंत्र होगा, जब यहाँ का सबसे निर्धन व्यक्ति भी मानवीय व्यथा से मुक्त होगा।
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