BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | भारत में खाद्य सुरक्षा

खाद्य सुरक्षा का अर्थ है, सभी लोगों के लिए सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुँच और उसे प्राप्त करने का सामर्थ्य। जब भी अनाज के उत्पादन या उसके वितरण की समस्या आती है, तो सहज ही निर्धन परिवार इससे अधिक प्रभावित होते हैं।

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | भारत में खाद्य सुरक्षा

BPSC TRE 2.0 SOCIAL SCIENCE CLASS 9TH ECONOMY NOTES | भारत में खाद्य सुरक्षा

  • खाद्य सुरक्षा का अर्थ है, सभी लोगों के लिए सदैव भोजन की उपलब्धता, पहुँच और उसे प्राप्त करने का सामर्थ्य। जब भी अनाज के उत्पादन या उसके वितरण की समस्या आती है, तो सहज ही निर्धन परिवार इससे अधिक प्रभावित होते हैं।
  • खाद्य सुरक्षा सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शासकीय सतर्कता और खाद्य सुरक्षा के खतरे की स्थिति में सरकार द्वारा की गई कार्यवाही पर निर्भर करती है।

बफर स्टॉक

  • बफर स्टॉक भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.) के माध्यम से सरकार द्वारा अधिप्राप्त अनाज, गेहूँ और चावल का भंडार है। भारतीय खाद्य निगम अधिशेष उत्पादन वाले राज्यों में किसानों से गेहूँ और चावल खरीदता है ।
  • किसानों को उनकी फसल के लिए पहले से घोषित कीमतें दी जाती हैं। इस मूल्य को न्यूनतम समर्थित कीमत कहा जाता है। इन फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से बुआई के मौसम से पहले सरकार न्यूनतम समर्थित कीमत की घोषणा करती है।
  • खरीदे हुए अनाज खाद्य भंडारों में रखे जाते हैं। ऐसा कमी वाले क्षेत्रों में और समाज के गरीब वर्गों में बाज़ार कीमत से कम कीमत पर अनाज के वितरण के लिए किया जाता है।
  • इस कीमत को निर्गम कीमत भी कहते हैं। यह खराब मौसम में या फिर आपदा काल में अनाज की कमी की समस्या हल करने में भी मदद करता है ।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  • भारतीय खाद्य निगम द्वारा अधिप्राप्त अनाज को सरकार विनियमित राशन दुकानों के माध्यम से समाज के गरीब वर्गों में वितरित करती है। इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी. एस.) कहते हैं। अब अधिकांश क्षेत्रों, गाँवों, कस्बों और शहरों में राशन की दुकानें हैं।
  • देश भर में लगभग 4.6 लाख राशन की दुकानें हैं। राशन की दुकानों में, जिन्हें उचित दर वाली दुकानें कहा जाता है, चीनी खाद्यान्न और खाना पकाने के लिए मिली के तेल का भंडार होता है। ये सब बाज़ार कीमत से कम कीमत पर लोगों को बेचा जाता है।
  • राशन कार्ड रखने वाला कोई भी परिवार प्रतिमाह इनकी एक अनुबंधित मात्रा (जैसे- 35 किलोग्राम अनाज, 5 लीटर मिली का तेल, 5 किलोग्राम चीनी आदि) निकटवर्ती राशन की दुकान से खरीद सकता है।
राशन कार्ड तीन प्रकार के होते हैं:
  1. निर्धनों में भी निर्धन लोगों के लिए अंत्योदय कार्ड,
  2. निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के लिए बी पी एल कार्ड और
  3. अन्य लोगों के लिए ए पी एल कार्ड |
  • भारत में राशन व्यवस्था की शुरुआत बंगाल के अकाल की पृष्ठभूमि में 1940 के दशक में हुई। हरित क्रांति से पूर्व भारी खाद्य संकट के कारण 60 के दशक के दौरान राशन प्रणाली पुनर्जीवित की गई।
  • गरीबी के उच्च स्तरों को ध्यान में रखते हुए 70 के दशक के मध्य एन.एस.एस.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार खाद्य संबंधी तीन महत्त्वपूर्ण अंतःक्षेप कार्यक्रम प्रारंभ किए गए: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (जो पहले से ही थी, लेकिन उसे और मज़बूत किया गया), एकीकृत बाल विकास सेवाएँ (आई.सी.डी.एस., जो प्रायोगिक आधार पर 1975 में शुरू की गई ) और काम के बदले अनाज (एफ. एफ.डब्ल्यू., 1977-78 में प्रारंभ ) ।
  • इन वर्षों में कई नए कार्यक्रम शुरू किए गए हैं और कार्यक्रमों को चलाने के बढ़ते अनुभवों के आधार पर अन्य कार्यक्रमों का पुनर्गठन किया गया।
  • वर्तमान में अनेक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम (पी.ए.पी.) चल रहे हैं जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। इनमें स्पष्ट रूप से घटक खाद्य भी है, जहाँ सार्वजनिक वितरण प्रणाली, दोपहर का भोजन आदि विशेष रूप से खाद्य की दृष्टि से सुरक्षा के कार्यक्रम हैं।
  • अधिकतर पी.ए.पी. भी खाद्य सुरक्षा बढ़ाते हैं, रोजगार कार्यक्रम गरीबों की आय में बढ़ोतरी कर खाद्य सुरक्षा में करते हैं । बड़ा योगदान
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान स्थिति
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में भारत सरकार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम है। में यह प्रणाली सबके लिए थी और निर्धनों और गैर-निर्धनों के बीच कोई भेद नहीं किया जाता था।
  • बाद के वर्षों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक दक्ष और अधिक लक्षित बनाने के लिए संशोधित किया गया। 1992 में देश के 1700 ब्लॉकों में संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली ( आर. पी.डी.एस.) शुरू की गई। इसका लक्ष्य दूर-दराज़ और पिछड़े क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लाभ पहुँचाना था।
राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम
  • राष्ट्रीय काम के बदले अनाज कार्यक्रम 14 नवंबर 2004 को पूरक श्रम रोज़गार के सृजन को तीव्र करने के उद्देश्य से देश के 150 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में प्रारंभ किया गया था।
  • यह कार्यक्रम उन समस्त ग्रामीण गरीबों के लिए है, जिन्हें वेतन रोजगार की आवश्यकता है और जो अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक हैं।
  • इसे शत-प्रतिशत केंद्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के रूप में लागू किया गया और राज्यों को निःशुल्क अनाज मुहैया कराया जाता रहा है।
  • जिला स्तर पर कलक्टर शीर्ष अधिकारी है और उन पर इस कार्यक्रम की योजना बनाने कार्यान्वयन, समन्वयन और पर्यवेक्षण की जिम्मेदारी है।
  • वर्ष 2004-05 में इस कार्यक्रम के लिए 20 लाख टन अनाज के अतिरिक्त 2,020 करोड़ रुपये नियत किए गए हैं।
  • जून 1997 से 'सभी क्षेत्रों में गरीबों' को लक्षित करने के सिद्धांत को अपनाने के लिए लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी. पी.डी.एस.) प्रारंभ की गई।
  • यह पहला मौका था जब निर्धनों और गैर-निर्धनों के लिए विभेदक कीमत नीति अपनाई गई। इसके अलावा, 2000 में विशेष योजनाएँ - अंत्योदय अन्न योजना और अन्नपूर्णा योजना प्रारंभ की गईं।
  • ये योजनाएँ क्रमश: 'गरीबों में भी सर्वाधिक गरीब' और 'दीन वरिष्ठ नागरिक' समूहों पर लक्षित हैं। इन दोनों योजनाओं का संचालन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के वर्तमान नेटवर्क से जोड़ दिया गया है।
  • इन वर्षों के दौरान सार्वजनिक वितरण प्रणाली मूल्यों को स्थिर बनाने और सामर्थ्य अनुसार कीमतों पर उपभोक्ताओं को • खाद्यान्न उपलब्ध कराने की सरकार की नीति में सर्वाधिक प्रभावी साधन सिद्ध हुई है।
  • इसने देश के अनाज की अधिशेष क्षेत्र से कमी वाले क्षेत्रों में खाद्य पूर्ति के माध्यम से अकाल और भुखमरी की व्यापकता को रोकने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त, आमतौर पर निर्धन परिवारों के पक्ष में कीमतों का संशोधन होता रहा है।
  • न्यूनतम समर्थित कीमत और अधिप्राप्ति ने खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि में योगदान दिया है तथा कुछ क्षेत्रों में किसानों को आय सुरक्षा प्रदान की है । तथापि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अनेक आधारों पर कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है।
  • अनाजों से भरे अन्न भंडारों के बावजूद भुखमरी की घटनाएँ हो रही हैं। एफ.सी.आई. के भंडार अनाज से भरे हैं। कहीं अनाज सड़ रहा हैं तो कुछ स्थानों पर चूहे अनाज खा रहे हैं।
  • सरकार द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाओं के अधीन खाद्यान्नों के वितरण के द्वारा स्थिति में सुधार हुआ । अनाज वितरण से हालात सुधरे। इस बात पर आम सहमति है कि बफर स्टॉक का उच्च स्तर बेहद अवांछनीय है और यह बर्बादी भी है।
  • विशाल खाद्य स्टॉक का भंडारण बर्बादी और अनाज की गुणवत्ता में ह्रास के अतिरिक्त उच्च रख-रखाव लागत के लिए भी ज़िम्मेदार है। न्यूनतम समर्थित कीमत को कुछ वर्ष के लिए स्थिर रखने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
अंत्योदय अन्न योजना
  • अंत्योदय अन्न योजना दिसंबर 2000 में शुरू की गई थी।
  • इस योजना के अंतर्गत लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आने वाले निर्धनता रेखा से नीचे के परिवारों में से एक करोड़ लोगों की पहचान की गई।
  • संबंधित राज्य के ग्रामीण विकास विभागों ने गरीबी रेखा से नीचे के गरीब परिवारों को सर्वेक्षण के द्वारा चुना।
  • 2 रुपये प्रति किलोग्राम गेहूँ और 3 रुपये प्रति किलोग्राम की अत्यधिक आर्थिक सहायता प्राप्त दर पर प्रत्येक पात्र परिवार को 25 किलोग्राम अनाज उपलब्ध कराया गया।
  • अनाज की यह मात्रा अप्रैल 2002 में 25 किलोग्राम से बढ़ा कर 35 किलोग्राम कर दी गई। 
  • जून 2003 और अगस्त 2004 में इसमें 50-50 लाख अतिरिक्त बी. पी. एल. परिवार दो बार जोड़े गए। इससे इस योजना में आने वाले परिवारों की संख्या 2 करोड़ हो गई।
  • वर्धित न्यूनतम समर्थित कीमत पर अनाज की अधिक खरीदारी प्रमुख अनाज उत्पादक राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश की ओर से डाले गए दबावों का नतीजा है।
  • इसके अलावा, चूँकि खरीदारी कुछ समृद्ध क्षेत्रों (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और कुछ सीमा तक पश्चिम बंगाल) में मुख्यतः दो फसलों- गेहूँ और चावल तक सीमित है, न्यूनतम समर्थित कीमत में वृद्धि ने विशेषतया > खाद्यान्नों के अधिशेष वाले राज्यों के किसानों को अपनी भूमि पर मोटे अनाजों की खेती समाप्त कर धान और गेहूँ उपजाने के लिए प्रेरित किया है, जबकि मोटे अनाज गरीबों का प्रमुख भोजन है।
  • धान की खेती के लिए सघन सिंचाई से पर्यावरण और जल स्तर में गिरावट भी आई है, जिससे इन राज्यों में कृषिगत विकास को बनाए रखने में खतरा पैदा हो गया है।
  • चिंता का एक और प्रमुख कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विफलता रही है, जो इस तथ्य से स्पष्ट है कि अखिल भारतीय स्तर पर पी.डी.एस. खाद्यान्नों की औसत उपभोग मात्रा 1 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह है।
    • न्यूनतम समर्थित कीमतों के बढ़ने से सरकार की खाद्यान्नों की वसूली अनुरक्षण लागत बढ़ गई है।
    • एफ.सी.आई. की बढ़ती परिवहन और भंडारण लागत ने इसे और बढ़ा दिया है।
  • बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में प्रतिव्यक्ति उपभोग का आँकड़ा 300 ग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह से भी कम है। इसके विपरीत केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे- अधिकतर दक्षिणी राज्यों में और हिमाचल प्रदेश में औसत उपभोग 3-4 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के बीच है।
  • फलस्वरूप, निर्धनों को अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए राशन दुकान के बजाय बाज़ार पर निर्भर होना पड़ता है। मध्य प्रदेश में निर्धनों द्वारा गेहूँ और चावल के उपभोग का मात्र 5 प्रतिशत राशन की दुकानों के माध्यम से पूरा होता है। उत्तर प्रदेश और बिहार में यह प्रतिशत और भी कम है।
  • पी.डी.एस. डीलर अधिक लाभ कमाने के लिए अनाज को खुले बाज़ार में बेचना, राशन दुकानों में घटिया अनाज बेचना, दुकान कभी-कभार खोलना जैसे कदाचार करते हैं।
  • राशन दुकानों में घटिया किस्म के अनाज का पड़ा रहना आम बात है, जो बिक नहीं पाता। यह एक बड़ी समस्या साबित हो रही है। जब राशन की दुकानें इन अनाजों को बेच नहीं पातीं, तो एफ.सी.आई. के गोदामों में अनाज का विशाल स्टॉक जमा हो जाता है।
  • हाल के वर्षों में एक और कारण से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गिरावट आई है। पहले प्रत्येक परिवार के पास निर्धन या गैर-निर्धन राशन कार्ड था जिसमें चावल, गेहूँ, चीनी आदि वस्तुओं का एक निश्चित कोटा होता था। ये प्रत्येक परिवार को एक समान निम्न कीमत पर बेचे जाते थे।
  • बड़ी संख्या में परिवार राशन की दुकानों से अनाज खरीद सकते थे। हाँ, उनका कोटा निश्चित था। इनमें निम्न आय वर्ग के परिवार शामिल थे, जिनकी आय निर्धनता रेखा से नीचे के परिवार की आय से थोड़ी ही अधिक थी।
  • अब 3 भिन्न कीमतों वाले टी.पी. डी. एस. की व्यवस्था में निर्धनता रेखा से ऊपर वाले किसी भी परिवार को राशन दुकान पर बहुत कम छूट मिलती है। ए.पी.एल. परिवारों के लिए कीमतें लगभग उतनी ही ऊँची हैं जितनी खुले बाज़ार में, इसलिए राशन की दुकान से इन चीज़ों की खरीदारी के लिए उनको बहुत कम प्रोत्साहन प्राप्त है।
  • सहकारी समितियों की खाद्य सुरक्षा में भूमिका भारत में विशेषकर देश के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में सहकारी समितियाँ भी खाद्य सुरक्षा में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।
  • सहकारी समितियाँ निर्धन लोगों को खाद्यान्न की बिक्री के लिए कम कीमत वाली दुकानें खोलती हैं। उदाहरणार्थ, तमिलनाडु में जितनी राशन की दुकानें है, उनमें से करीब 94 प्रतिशत सहकारी समितियों के माध्यम से चलाई जा रही हैं।
सब्सिडी क्या है?
  • सरकार द्वारा जरूरी वस्तुओं और सेवाओं के समाज के सभी जरूरतमंद लोगों तक रियायती दर पर पहुँच को सुनिश्चित करने के लिए उस वस्तु या सेवा के आर्थिक लागत और रियायती दर के अंतराल को भरने के लिए जो सहायता (आर्थिकी) दी जाती है, उसे ही सब्सिडी कहा जाता है।
  • OECD के अनुसार “सब्सिडी वह उपाय है जो उपभोक्ताओं के लिए कीमत को बाजार कीमत से नीचे कर देता है और उत्पादको के लिए कीमत को बाजार दर से ऊपर रखता है। " सब्सिडी का अर्थ बहुत सरल होता है। जब किसी वस्तु या सेवा की कीमत उसकी उत्पादन लागत से कम ली जाती है तो उस अंतर को सब्सिडी कहते हैं।
  • सरकार द्वारा जरूरी वस्तुओं और सेवाओं की समाज के वंचितों एवं मुख्यधारा से कटे लोगों तक रियायती दर पर पहुंच सुनिश्चित के करने के लिए उस वस्तु या सेवा के आर्थिक लागत और रियायती दरों के अंतराल को भरने के लिए जो सहायता दी जाती है।
  • सब्सिडी पारंपरिक रूप से कुछ प्रकार के बोझ को हटाने के लिए दी जाती है और इसे अक्सर आम लोगों के समग्र हित | में समझा जाता है, जो किसी सामाजिक भलाई या आर्थिक नीति को बढ़ावा देने के लिए दी जाती है।
  • सब्सिडी व्यक्ति विशेषों या कंपनियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है और आम तौर पर सरकार से नकदी भुगतान या एक लक्षित कर कटौती के रूप में होती है। आर्थिक सिद्धांत में सब्सिडी का उपयोग बाजार की विफलताओं की क्षतिपूर्ति के लिए और बेहतर आर्थिक दक्षता हासिल करने के लिए किया जाता है।
  • बजटरी-सब्सिडी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध की जाने वाली निजी वस्तुओं व सेवाओं के बिना वसूल की जाने वाली लागत होती है, जिस पर साधनों का एक महत्त्वपूर्ण अंश लग जाता है, लेकिन व छिपा ही रह जाता है, क्योंकि उसका एक छोटा सा अंश ही बजट के प्रपत्रों में सब्सिडी के रूप में स्पष्टतया दर्शाया जाता है।
सब्सिडी को समझना
  • सब्सिडी को वित्तीय सहायता के एक विशेषाधिकार प्रकार के रूप में देखा जाता है क्योंकि वे रिसीवर पर पहले लगाए गए लेवी से जुड़े बोझ को कम कर देती है या वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के जरिए एक विशिष्ट कदम को बढ़ावा देती है।
  • सब्सिडी सामान्यत: देश की अर्थव्यवस्था के विशेष सेक्टरों की सहायता करती है। यह संघर्ष कर रहे उद्योगों पर बोझ को कम करने के जरिये उनकी सहायता कर सकती है या उनके प्रयासों के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के माध्यम से नए डेवलपमेंट के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर सकती है।
  • अक्सर इन क्षेत्रों की सामान्य अर्थव्यवस्था द्वारा प्रभावी रूप से सहायता नहीं की जाती है या प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की गतिविधियों द्वारा उनमें कमी की जाती है। प्रत्यक्ष सब्सिडी वह होती है जिनमें किसी विशिष्ट व्यक्ति, समूह या उद्योग की दिशा में फंडों का वास्तविक भुगतान शामिल होता है जबकि अप्रत्यक्ष सब्सिडी में ऐसा नहीं होता।
क्यों दी जाती है सब्सिडी
  • सरकार द्वारा सब्सिडी लोगों पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ को कम करने के मकसद से दी जाती है और इसे अक्सर सामाजिक, आर्थिक या आर्थिक नीतियों को बढ़ावा देने के लिए दिया जाता है।
  • अधिकतर सब्सिडी सरकार द्वारा कमजोर उद्योग के क्षेत्रों की मदद करने के लिए दी जाती है। अगर किसी क्षेत्र में काफी नुकसान हो रहा है, तो सरकार उस क्षेत्र की वित्तीय मदद कर, उसमें सुधार लाने की कोशिश करती है। अगर किसी वस्तु की कीमत अधिक बढ़ जाती है तो सरकार लोगों को सब्सिडी देकर उस वस्तु की कीमत को कम कर देती है।
सब्सिडी देने का औचित्य
  • चाहे खाद्यान्न हो, उर्वरक हो, पेट्रोल व पेट्रोलियक पदार्थ, सिंचाई, बिजली, पेयजल, शिक्षा आदि की उत्पादन लागत अधिक होती है जो जन समाज की पहुंच से बाहर होते है, अतः कल्याण कारी राज्य के सरकार सब्सिडी देकर वस्तु व सेवाओं को जनसामान्य तक पहुंच को सुनिश्चित करती है।
  • गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से निवारण के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से खाद्य पदार्थों पर सरकार द्वारा सब्सिडी दी जाती है।
  • सरकार कृषिगत उत्पादन, औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा देने तथा इनके उत्पादन के लिए अनुकूल माहौल निर्मित करने के लिए सरकार सब्सिडी देती है ताकि खाद्य सुरक्षा एवं रोजगार संवर्धन हो सके। जैसे- KCC
  • सरकार कृषि और संबंधित क्षेत्र में इनपुट कॉस्ट (सिंचाई, उर्वरक, साख आदि) व आउटपुट दोनों पर सब्सिडी देकर कृषकों को राहत पहुंचाती है तथा निर्यात के लिए वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित कर रही है।
  • भारत में केंद्र द्वारा खाद्य, उर्वरक, पेट्रोलियम, आदि पर प्रति वर्ष काफी सब्सिडी दी जाती है। राज्य सरकारें भी सिंचाई, विद्युत, शिक्षा, आदि पर सब्सिडी देती है।
  • कुल मिलाकर सब्सिडी का अर्थव्यवस्था पर काफी भार पड़ता है। भारत में सब्सिडी या अनुदान अथवा आर्थिक सहायता की समस्या काफी पुरानी है, लेकिन इसका उचित समाधान व हल न होने से यह उत्तरोत्तर अधिक गंभीर होती गई है और प्रमुखतया राजनीतिक कारणों से इसका हल भी नहीं हो पा रहा है।
कैसे दी जाती है सब्सिडी
  • सब्सिडी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में दी जाती है। जब भी कोई सब्सिडी नकद भुगतान तौर पर प्रदान की जाती है, तो वो विशेष रूप से प्रत्यक्ष सब्सिडी मानी जाती है। वहीं कोई भी गैर-नकद लाभ की सहायता को अप्रत्यक्ष सब्सिडी माना जाता है, जैसे कि कर में छूट कम ऋण में ब्याज देना और आदि। 
सब्सिडी की गणना कैसे की जाती है?
  • भारत में प्रदान की जाने वाली सब्सिडी काफी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मिलती है। इसमें ऋण की राशि, ब्याज दर, कुल लागत, उत्पाद, एवं सरकारी सम्बन्धी कार्यों में होने वाले व्यय को मिलाकर सरकार एक निश्चित फार्मूले के जरिए सब्सिडी की राशि तय करती है।
उपयोगिता के आधार पर भी सब्सिडी दो प्रकार की होती है
  • 1. Merit Subsidy ऐसी सब्सिडी जिसका लाभ व्यापक पैमाने पर समाज के अधिक से अधिक लोगों को मिलता है। जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा |
  • 2. Non-Merit- ऐसी सब्सिडी जिसका लाभ छोटे वर्ग को मिलता है। या जिसका लाभ समाज के अधिक जरूरतमंद लोगों को कम मिलता हो जैसे:- LPG सब्सिडी
  • दिल्ली में मदर डेयरी उपभोक्ताओं को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित नियंत्रित दरों पर दूध और सब्ज़ियाँ उपलब्ध कराने में तेज़ी से प्रगति कर रही है।
  • गुजरात दूध तथा दुग्ध उत्पादों में अमूल एक और सफल सहकारी समिति का उदाहरण है। इसने देश में श्वेत क्रांति ला दी हैं।
  • देश के विभिन्न भागों में कार्यरत सहकारी समितियों के और अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराई है।
  • इसी तरह, महाराष्ट्र में एकेडमी ऑफ डेवलपमेंट साइंस (ए.डी. एस.) ने विभिन्न क्षेत्रों में अनाज बैंकों की स्थापना के लिए गैर-सरकारी संगठनों के नेटवर्क में सहायता की है।
  • ए.डी.एस. गैर-सरकारी संगठनों के लिए खाद्य सुरक्षा के विषय में प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम संचालित करती है। अनाज बैंक अब धीरे-धीरे महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में खुलते जा रहे हैं।
  • अनाज बैंकों की स्थापना, गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से उन्हें फैलाने और खाद्य सुरक्षा पर सरकार की नीति को प्रभावित करने में ए. डी. एस. की कोशिश रंग ला रही है। ए. डी. एस. अनाज बैंक कार्यक्रम को एक सफल और नए प्रकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली है।
  • किसी देश की खाद्य सुरक्षा तब सुनिश्चित होती है, जब उसके सभी नागरिकों को पोषक भोजन उपलब्ध होता है। सभी व्यक्तियों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य खरीदने की सामर्थ्य होती है और भोजन तक पहुँचने में कोई अवरोध नहीं होता।
  • निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे लोग खाद्य की दृष्टि से सदैव ही असुरक्षित रह सकते हैं, जबकि संपन्न लोग भी आपदाओं के समय खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित हो सकते हैं।
  • यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य और पोषक तत्वों की असुरक्षा से ग्रस्त है, सबसे अधिक प्रभावित समूह ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन और गरीब परिवार, बहुत कम वेतन वाले कार्यों में लगे लोग और शहरी क्षेत्रों में मौसमी कार्यों में लगे अनियत श्रमिक हैं।
  • देश के कुछ क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की बड़ी संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक है जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में जहाँ बहुत अधिक गरीबी है, जनजातियों वाले व दूरस्थ क्षेत्रों में और ऐसे क्षेत्रों में जहाँ प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं।
  • समाज के सभी वर्गों के लिए खाद्य की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने सावधानीपूर्वक खाद्य सुरक्षा प्रणाली तैयार की है, जिसके दो घटक हैं:
    1. बफर स्टॉक और
    2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अतिरिक्त कई निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी शुरू किए गए, जिनमें खाद्य सुरक्षा का घटक भी शामिल था। इनमें से कुछ कार्यक्रम हैं: एकीकृत बाल विकास सेवाएँ, काम के बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अंत्योदय अन्न योजना आदि।
  • खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका के अतिरिक्त अनेक सहकारी समितियाँ और गैर-सरकारी संगठन भी हैं, जो इस दिशा में तेज़ी से काम कर रहे हैं।

अन्य रूप में सब्सिडी के तीन प्रकार

1. उत्पादन पर सब्सिडी-
  • यह सामान्यतः उत्पादन को बढ़ाने अथवा कोई नया प्लांट लगाने के उद्देश्य से दी जाती है ताकि इसका लाभ अंततः उपभोक्ताओं को मिले।
2. निर्यात सब्सिडी -
  • निर्यात को बढ़ावा देने के लिए।
3. सामाजिक सहायता-
  • इसके अंतर्गत विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए सब्सिडी दी जाती है।
  • भारत सरकार की सब्सिडी रिपोर्ट में इसके निम्न रूपों का उल्लेख किया गया था-
1. मेरिट 1 या वांछित श्रेणी 1 की सब्सिडी -
  • इसका संबंध उन वस्तुओं व सेवाओं से होता है जिनसे व्यक्तिगत लाभ के अलावा सामाजिक लाभ, मेरिट 2 क़ी सब्सिडी की तुलना में ज्यादा मात्रा में मिलता है; जैसे प्रारंभिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, गंदे पानी की निकासी, बीमारी पर रोक व नियंत्रण, सामाजिक कल्याण व पोषण भू व जल संरक्षण, पर्यावरण व परिवेश आदि । 
2. मेरिट 2 या वांछित श्रेणी 2 की सब्सिडी -
  • इस श्रेणी की वस्तुओं व सेवाओं में भी व्यक्तिगत लाभ की तुलना में सामाजिक लाभ अधिक मिलता है, लेकिन मेरिट 1 की तुलना में उसकी मात्रा कम होती है। इसलिए ये मेरिट सब्सिडी की श्रेणी में होते हुए भी मेरिट सब्सिडी 1 की तुलना में दूसरी श्रेणी में रखी गई है, जैसे प्रारंभिक शिक्षा के अलावा अन्य शिक्षा (सेकेण्ड्री व अन्य शिक्षा), शहरी विकास, लघु व कुटीर उद्योग, सड़क व पुल आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी ।
  • मेरिट 1 मेरिट 2 की वस्तुओं व सेवाओं पर दोनों में सब्सिडी में व्यक्तिगत लाभ से सामाजिक लाभ तो ज्यादा होता है, लेकिन इनमें सामाजिक लाभ की डिग्री या अंश को लेकर अंतर पा जाता है। स्पष्ट है कि मेरिट 1 की सब्सिडी में सामाजिक लाभ का अंश मेरिट 2 की तुलना में अधिक पाया जाता है।
  • शेष अन्य प्रकार की सब्सिडी गैर-मेरिट (अवांछित श्रेणी) की मानी जाती है। इनसे समस्त समाज लाभान्वित नहीं होता, केवल कुछ व्यक्ति ही लाभान्वित होते हैं। उदाहरण के लिए, उच्चस्तरीय शिक्षा, शहरों में दुग्ध वितरण स्कीम, कृषि व सहायक क्रियाओं, सिंचाई, विद्युत, उद्योग, परिवहन, आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी को इस श्रेणी में लिया जाता है।
  • इस प्रकार की सब्सिडी का लाभ एक वर्ग - विशेष है, इसीलिए इनको यथासंभव समाप्त किया जाना चाहिए और ऐसे वर्गों से चस्तु व सेवा की पूरी लागत वसूल की जानी चाहिए, क्योंकि वे उसको वहन करने में समर्थ या सक्षम होते हैं। लेकिन मेरिट व गैर-मेरिट सब्सिडी में भेद करने की कोई स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं होती, क्योंकि कई कम आय वाले प्रतिभावान छात्र भी उच्च शिक्षा का लाभ उठाते हैं तो उनके लिए सब्सिडी की व्यवस्था अवांछनीय नहीं मानी जा सकती।
  • फिर भी यदि कभी प्राथमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा में सीमित मात्रा में सब्सिडी की राशि को बांटने का सवाल उठे, तो प्राथमिक शिक्षा को ही वरीयता देना उचित माना जाएगा, क्योंकि को ही मिलता उससे समाज को ज्यादा लाभ मिल पाएगा।
  • सब्सिडी का एक भेद सामाजिक सेवाओं पर सब्सिडी तथा आर्थिक सेवाओं पर सब्सिडी के रूप में भी किया जाता है। सामाजिक सेवाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, जलल- आपूर्ति, स्वच्छता, आवास, शहरी विकास, श्रम व रोजगार आदि आते हैं एवं आर्थिक सेवाओं में कृषि, उद्योग, खनन, ऊर्जा, परिवहन ( रेलवे को छोड़कर, जिसे दोनों में शामिल माना जाता है), आदि आते हैं।
सब्सिडी के प्रतिकूल आर्थिक प्रभाव
  1. सब्सिडी के जारी रहने व बढ़ने से सरकार के राजकोषीय घाटे में वृद्धि होती है जिसकी पूर्ति के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है, जिससे ब्याज की देनदारी बढ़ती है और आगे चल कर राजस्व घाटा बढ़ता है।
  2. सब्सिडी का एक दुष्परिणाम यह भी होता है कि इससे अनावश्यक व व्यर्थ के उपभोगों को बढ़ावा मिलता है। जैसे किसान कम कीमत पर बिजली-पानी मिलने पर इनके उपभोग में आवश्यक किफायत नहीं बरतते और अनाप-शनाप पानी का उपयोग करके भूमि को दलदली बनाकर क्षति पहुंचाने लगते हैं। इससे मिट्टी क्षारीय भी हो सकती है।
  3. सब्सिडी पर अधिकांश राशि लग जाने से सरकार के पास इन्फ्रास्ट्रक्चर (सिंचाई, बिजली, सड़क, संचार, शिक्षा, चिकित्सा, आदि) के विकास के लिए साधन कम हो जाते हैं। भारत में अधिकांश अर्थशास्त्रियों का यह मत है कि सब्सिडी पर व्यय को सीमित करके इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर अधिक ध्यान देने से ग्रामीण विकास को अधिक सुदृढ़ किया जा सकता है, और इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दीर्घकालीन दृष्टि से अधिक लाभ पहुंचाया जा सकता है। स्वयं कृषक भी दीर्घकाल में ज्यादा लाभान्वित स्थिति प्राप्त कर सकते हैं।
  • इस प्रकार सब्सिडी की राशि पर नियंत्रण, विशेषतया गैर-मेरिट पर ऐसा करने से, आर्थिक साधनों का बेहतर उपयोग किया जा सकता है, सार्वजनिक वित्त की व्यवस्था को सुधारा जा सकता है और ग्रामीण विकास की प्रक्रिया को तेज किया जा सकता है। स्मरण रहे कि सब्सिडी एक बार जारी करने से आगे चलकर उसे बंद करना या कम करना कठिन होता है।
  • सब्सिडी की मद का चुनाव बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए, उसे समयबद्ध ढंग से लागू करना चाहिए, उसकी समय-समय पर समीक्षा करते रहना चाहिए, तभी उसका पूरा लाभ मिल सकता है।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि अभी तक हमारे देश में सब्सिडी की व्यवस्था समानता (इक्विटी) व कार्यकुशलता (इफिशियन्सी) जैसे दोनों लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाई है। इसलिए सब्सिडी की संपूर्ण प्रणाली को नए ढंग से व्यवस्थित करना होगा और इसके लिए एक राष्ट्रीय सब्सिडी नीति का निर्माण करना अत्यावश्यक हो गया है।
सब्सिडी को नियंत्रित करने के विशिष्ट उपाय
  • सब्सिडी की समस्या काफी जटिल मानी गई है। इसको हल करने के लिए सर्वप्रथम एक स्पष्ट रणनीति तैयार करनी होगी, जिसके मुख्य तत्त्व इस प्रकार हो सकते हैं-
    1. गैर-सब्सिडी को कम करने पर सर्वाधिक बल देना चाहिए। समाज के हित में मेरिट सब्सिडी जारी रखी जा सकती है।
    2. सब्सिडी का उपयोग परिभाषित व निर्धारित आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही किया जाना चाहिए । 
    3. सब्सिडी अंतिम वस्तुओं व सेवाओं पर ही दी जानी चाहिए, मध्यवर्ती वस्तुओं व सेवाओं पर नहीं ।
    4. सब्सिडी की समय सीमा तय कर देनी चाहिए। 
    5. इनकी समय-समय पर समीक्षा भी की जानी चाहिए और उसमें आवश्यक परिवर्तन करने के लिए प्रशासन को तैयार रहना चाहिए।
प्रत्यक्ष नगद अंतरण
  • सरकार द्वारा जनता के विशेष वर्ग के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रावधान एवं वितरण के अलावा जब एक निश्चित नगद राशि का अंतरण अथवा भुगतान लाभार्थी के बैंक खाते, पोस्ट ऑफिस के खाते में या मोबाइल मनी हस्तांतरण मशीन के माध्यम से किया जाता है। तो इसे प्रत्यक्ष नगद भुगतान कहते हैं।
  • इसमें लाभार्थी को यह चुनाव का अधिकार मिलता है कि वो नगद को स्वयं के चुने हुए समय एवं स्थान पर खर्च कर सकता है। यह योजना सरकारी बजट के माध्यम से मूलभूत वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति एवं वितरण सुनिश्चित करने के बजाए उस वर्ग विशेष द्वारा स्वयं मांग करने की परिकल्पना पर निर्भर करती है।
  • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के लिए लाभार्थी की बायोमीट्रिक पहचान, कोई सर्वमान्य पंजीकरण संख्या, बैंक खाता या वित्तीय हस्तांतरण का माध्यम जैसे- स्मार्ट कार्ड, एटीएम तक लाभार्थी की पहुंच होना अत्यंत आवश्यक है ।
  • इसके साथ ही मूलभूत वस्तुओं वं सेवाओं की उपलब्धता लाभार्थी की पहुंच में होना भी आवश्यक है। ये दोनों ही बातें संभव बनाने के लिए प्रशासनिक मशीनरी व वित्तीय ढांचे को ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में प्रभावी क्रियाशीलता होना भी एक अनिवार्य आवश्यकता है।
  • समस्त विश्व की अधिकांश सरकारें वर्तमान समय में दो समान प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहीं हैं, एक तो बिगड़ते राजकोषीय संतुलन का एवं दूसरे, समाज कल्याण एवं सुरक्षा के लिए ज्यादा से ज्यादा बजटीय सहायता की मांग का।
  • भारत सरकार के लिए उपर्युक्त दबाव इसीलिए अधिक जटिल हो रहा है क्योंकि सामाजिक कल्याण के खर्चों पर भ्रष्टाचार के आरोपों में लगातार वृद्धि हो रही है और जनसंख्या के एक विशेष वर्ग के लिए न्यूनतम जीवन स्तर को कायम रखने में बाजार तंत्र मदद नहीं कर पा रहा है। सभी बातों के मद्देनजर भारत सरकार ने प्रत्यक्ष लाभ अंतरण का प्रावधान करने की पहल की है।
  • वर्ष 2013 का शुभारंभ प्रत्यक्ष लाभ अंतरण योजना के पहले चरण की घोषणा के साथ हुआ, जिसे देश के बीस जिलों में लागू किया गया है। फिलहाल इसमें सात कार्यक्रम शामिल किए गए है। इस कार्यक्रम की घोषणा से देश में एक जोरदार बहस इस योजना के प्रभाव और उसके अनेक आयामों के बारे में छिड़ गई है।
  • विश्व के अनेक देशों में यह योजना विभिन्न रूपों में लागू की जा चुकी है। ब्राजील में 'फैमीलिया बोसला', मेक्सिको में 'अपॉर्म्युनीडेड्स' और श्रीलंका में 'समृद्धि कोष' के नाम से इसी तरह की योजनाएं चल रही है ।
  • बांग्लादेश, ईरान, नामीबिया और एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों में भी मिलती-जुलती योजनाएं चलाई जा रही है। भारत में भी लाभों के नकद अंतरण की योजनाएं छात्रवृत्तियों और वृद्धावस्था पेंशन जैसी योजनाओं के रूप में पहले से ही चल रही है, जिसमें लाभार्थियों को नकद राशि का भुगतान किया जाता है।
  • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के रूप में उठाए गए इस कदम का महत्व इस तथ्य में निहित है कि सरकार ने पहली बार इसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को भ्रष्टाचार तथा अपव्यय से बचाने के इरादे से लागू करने का निर्णय लिया है।
  • भविष्य में लक्षित लोगों को धारणीय लाभ पहुंचाने की दृष्टि से यह एक आमूल परिवर्तन का सूचक है। यह कहना उचित नहीं होगा कि इस कार्यक्रम के कारण देश को अब सब्सिडी अर्थात् अनुदान के रूप में सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था को सहारा देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। समाज के एक बड़े वर्ग को लंबे समय तक सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता पड़ेगी।
  • लगभग 30 करोड़ लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे है जिन्हें विभिन्न रूपों में आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है। परंतु गरीबों की आर्थिक सुरक्षा से जुड़े विभिन्न सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को भ्रष्टाचार के कारण बड़ा खतरा पैदा हो गया है।
  • समावेशी विकास के माध्यम से लक्षित सामाजिक समूहों को स्वास्थ्य और शिक्षा के लाभ पहुंचाना कठिन हो रहा है। कथित भ्रष्टाचार और लीकेज के कारण संबंधित लोगों को लाभ नहीं मिल पा रहा है।
  • प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) योजना इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि इसने सामाजिक सुरक्षा संरचना की नयी परिभाषा रचने की चुनौती स्वीकार की है। न केवल इसकी परिकल्पना जोरदार है, बल्कि इसकी नीयत में ईमानदारी है और साथ ही इसमें व्यापक बदलाव की संभावनाएं भी छिपी हुई है।
  • यह मानना गलत होगा कि डीबीटी को अपनाने से लोक सेवाओं में कटौती हो जाएगी। इसके विपरीत, अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध होंगे जिनका उपयोग अन्य और बेहतर गुणवत्तापूर्ण लोक सेवाओं में किया जा सकेगा।
  • राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान (एनआईपीएफपी) का अनुमान है कि आधार को डीबीटी के साथ जोड़ने से मनरेगा, खाद्य और उर्वरक अनुदान, सर्वशिक्षा अभियान आदि जैसे सरकार के प्रमुख कार्यक्रमों में भारी बचत होगी जिसका उपयोग अन्य कार्यक्रमों के लिए किया जा सकेगा।
  • दक्षिणी अमेरिका में सशर्त नकद अंतरण का विद्यालय में विद्यार्थियों की भर्ती और बच्चों के टीकाकरण प्रतिशत जैसे सामाजिक संकेतकों में सुधार पर उल्लेखनीय प्रभाव देखा गया है।
  • ब्राजील में नकद अंतरण योजना से असमानता में उल्लेखनीय कमी आई है। परंतु किसी दूसरे देश को अंधानुकरण नुकसान भी पहुंचा सकता है।
  • प्रत्येक देश को अपनी विशिष्ट परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने कार्यक्रम तैयार करने चाहिए। भारत में इस कार्यक्रम के सतर्कतापूर्ण शुरूआत का यही कारण है।
  • आगे का सफर बहुत चुनौतीपूर्ण और लंबा है। प्रत्यक्ष लाभ अंतरण की सफलता मुख्य रूप से देश में बैंकिंग नेटवर्क के विस्तार पर निर्भर करेगी।
  • इस समस्या के हल के लिए बैंक प्रतिनिधियों की नियुक्ति, छोटी एटीएम मशीनों का उपयोग अथवा सामान्य सेवा केंद्रों के उपयोग की योजना तैयार की गयी है। विशिष्ट पहचान परियोजना अथवा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के अंतर्गत समूची जनसंख्या को तेजी से शामिल करना, इस पहल की सफलता के निर्णायक तत्व सिद्ध होंगे।
  • उर्वरक सब्सिडी के वितरण में प्रत्यक्ष लाभ अंतरण प्रणाली की भूमिका -
    • रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के अनुसार सरकार सभी राज्यों/केंद्रशासित प्रदशों में उर्वरक सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से लागू कर रही है।
    • सब्सिडी के तर्कसंगत बनाना रिसावों को कम करना प्रशासनिक लागतों को कम करना ।
    • DBT प्रणाली के अंतर्गत खुदरा उर्वरक विक्रेताओं द्वारा लाभार्थियों को की गई वास्तविक बिक्री के आधार पर विभिन्न श्रेणियों के उर्वरक पर उर्वरक कंपनियों को 100 प्रतिशत सब्सिडी जारी की जाती है।
    • किसानों को सभी प्रकार के उर्वरक सब्सिडी दर पर खुदरा दुकानों पर लगें Point of Sell (PoS) उपकरण के माध्यम से दिये जा रहे हैं। लाभार्थियों की पहचान आधार कार्ड KCC, मतदाता पहचान पत्र आदि से की जा रही है।
    • DBT योजना लागू करने हेतु प्रत्येक खुदरा विक्रेता के यहाँ POS उपकरण होना तथा Pos उपकरण संचालन के लिए खुदरा और थोक विक्रेताओं का प्रशिक्षण आवश्यक हो।
    • प्रमुख उर्वरक आपूर्तिकर्ताओं (LFS) ने देश भर में DBT लागू करने के पहले PoS तैनाती के हिस्से के रूप में 4630 प्रशिक्षण सत्र आयोजित किये हैं।
    • प्रमुख उर्वरक आपूर्तिकर्ताओं (LFS) द्वारा आयोजित प्रारंभिक प्रशिक्षण सत्र के दौरान लगभग 1.8 लाख खुदरा विक्रेताओं को संवेदी बनाया गया है।
क्रियान्वयन के समक्ष चुनौतियाँ
  • वर्तमान में LPG की तरह उर्वरक क्षेत्र में लाभार्थियों को सब्सिडी का प्रत्यक्ष अंतरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि लाभार्थी और उनके अधिकार स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है।
  • सब्सिडी वाले विभिन्न उत्पाद, यूरिया, फास्फेटिक तथा पोटाश वाले 21 प्रकार के उर्वरकों की सब्सिडी दरें अलग-अलग हैं।
  • विभिन्न उत्पादन प्रक्रिया, यंत्रों की उर्जा क्षमता, सफलता आदि के कारण यूरिया के मामले में सब्सिडी एक कंपनी से दूसरी कंपनी में अलग-अलग होती है।
  • कुछ उर्वरकों विशेषकर यूरिया के न्यूनतम खुदरा मूल्य से दोगुनी सब्सिडी होती है। इस विषय पर गहराई से विश्लेषण के लिए नीति आयोग ने हाल ही में एक समिति बनाई है, जो एक मॉडल की सिफारिश करेगी। जिसका इस्तेमाल किसानों को सब्सिडी के प्रत्यक्ष अंतरण में किया जाएगा।
एक नयी शुरूआ
  • सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक न्याय तथा सशक्तिकरण, छात्रवृत्ति, महिला तथा बाल कल्याण के लिए दी जाने वाली बजटीय सब्सिडी के बेहतर क्रियान्वयन व असर के लिए भारत सरकार ने 1 जनवरी, 2013 से देश के 6 राज्यों (दिल्ली, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब) तथा 3 केंद्र शासि राज्यों ( पुडुचेरी, चंडीगढ़ तथा दमन दीव) में से चुने हुए 20 जिलों में प्रत्यक्ष नगद भुगतान की शुरूआत की है।
  • अभी शुरूआत में सात केंद्र प्रायोजित योजनाओं को इसके लिए चुना गया है जिसमें लाभार्थी के खाते में सीधे बिना शर्त नगद जमा किया जाएगा। इसके लिए आधार को पहचान का आधार माना जाएगा।
  • इस प्रकार भारत सरकार ने एक सकारात्मक पहल करते हुए आगे की दिशा एवं लक्ष्य तय किए हैं। इस योजना से समाज के निर्धन तथा अक्षम वर्ग का न केवल वित्तीय समावेशन संभव हो सकेगा बल्कि उनके जीवन स्तर में सुधार हेतु उनके वित्तीय सक्षमता एवं सामाजिक सशक्तिकरण के स्तर में वृद्धि होगी।
वर्तमान स्थिति
  • कृषि-क्षेत्र में कुल सार्वजनिक व्यय 1993-94 में सकल घरेलू उत्पाद के 8.6 प्रतिशत के स्तर पर था। 2009-10 तक आते-आते यह कृषि GDP के 20.6 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गया। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कृषि क्षेत्र में संसाधनों का पर्याप्त प्रवाह हो रहा है।
  • आज समस्या कृषि क्षेत्र में संसाधनों के प्रवाह को लेकर नहीं है, समस्या है व्यय की संरचना को लेकर । भारतीय कृषि सार्वजनिक संसाधनों को सार्वजनिक निवेश की तुलना में सब्सिडी के रूप में कहीं अधिक प्राप्त कर रहा है।
  • आज कुल सार्वजनिक व्यय का 80 प्रतिशत इनपुट सब्सिडी के मद में खर्च हो रहा है, तो 20 प्रतिशत सार्वजनिक निवेश के रूप में। जबकि वास्तविकता यह है कि कृषि क्षेत्र में निवेश पर किया गया खर्च सब्सिडी पर किए जाने वाले खर्च की तुलना में पाँच से दस गुना ज्यादा लाभ (RETURN) देता है।
  • पिछले कुछ वर्षों के दौरान कृषि-सब्सिडी में वृद्धि की दर सार्वजनिक निवेश में वृद्धि दर की तुलना में कहीं अधिक तेज रही है।
  • 10वीं योजना के दौरान इस पर कुछ हद तक अंकुश लगाने की कोशिश की गई, परंतु ग्यारहवीं योजना के दौरान इसमें कहीं अधिक तेज वृद्धि हुई।
  • 10वीं योजना के दौरान कृषि बजट सब्सिडी कृषि GDP के 4.1 प्रतिशत के स्तर पर रही, लेकिन ग्यारहवीं योजना आरंभिक वर्षों के दौरान यह कृषि GDP के 8.2 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच गई।
  • 11वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज के अनुसार कृषि GDP के आलोक में कृषि में सार्वजनिक निवेश वर्ष 1980 और वर्ष 2002 के बीच घटकर आधा रह गया। 10वीं-11वीं योजना के दौरान कृषि में सार्वजनिक निवेश कृषि जीडीपी के तीन प्रतिशत से भी कम के स्तर पर था।
  • इसी आलोक में कृषि लागत और मूल्य आयोग ने एक विशेषज्ञ समिति की स्थापना का सुझाव दिया जो निम्न प्रश्नों पर विचार करते हुए उपयुक्त सुझाव दे :
    1. कैसे इनपुट सब्सिडी का यौक्तीकरण किया जाए।
    2. कैसे इस पर अंकुश लगाया जाए।
    3. इससे होने वाली बचत को कैसे कृषि निवेश को चैनलाइज किया जाए।
  • ध्यातव्य है कि वास्तविक कृषि सब्सिडी की मात्रा उससे कहीं अधिक है जितना इसे आँकड़ों में प्रदर्शित किया जाता है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) घरेलू यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी को औद्योगिक सब्सिडी के अंतर्गत गणना करता है। यह सब्सिडी घरेलू यूरिया उत्पादकों को दी जाती है।
  • कृषि क्षेत्र के द्वारा प्राप्त की गई विद्युत सब्सिडी के एक हिस्से को बजट में प्रदर्शित नहीं किया जाता है। तीसरी बात यह कि CSO के द्वारा खाद्यान्न सब्सिडी को कृषि सब्सिडी के अंतर्गत शामिल किया जाता है, जबकि इसे उपभोक्ता सब्सिडी के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाना चाहिए।
  • वर्तमान में सरकार DBT में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग विधियां प्रयोग में ला रही है। जैसे गैस सिलेंडर की सब्सिडी के लिए ग्राहकों के खातों में पैसा वापस भेजा जाता है। लेकिन अभी कृषि क्षेत्र के लिए सरकार ने आधार कार्ड का उपयोग कर सब्सिडी को दुकानदार के खाते में भेजने का निर्णय लिया है।
सब्सिडी क्षेत्र के दायरे को बढ़ाना
  • योजना के तहत फिलहाल रसोई गैस, केरोसीन तेल, उर्वरक व खाद्यान्न की सब्सिडी को शामिल नहीं किया गया है। लेकिन ये सर्वाधिक जरूरी और महत्त्वपूर्ण संसाधन है।
  • हमें इनके प्रति गंभीरता से सब्सिडी नीति तय करनी होगी। इन्हें सब्सिडी के दायरे में लाने के साथ ही इसकी कार्यकुशलता से क्रियान्वयन करने की जरूरत होगी।
  • इसके अलावा ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन्हें नगद सब्सिडी के दायरे में लाना जरूरी है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा आदि जरूरी चीजों को शामिल करने की जरूरत है।
  • खाद्यान्न सब्सिडी भी बेहद जरूरी है। यह न केवल खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लीकेज को रोकने में भी कारगर है।
  • दूसरी ओर एक अध्ययन के अनुसार खाद्यान्न व उर्वरक सब्सिडी का वित्तीय बोझ वर्तमान परिदृश्य के आधार पर अगले वर्ष तक करीब 2 लाख करोड़ तक होने वाला है।
  • यदि इसे नगद सब्सिडी के दायरे में लाया जाए तो यह बोझ 30 प्रतिशत तक घट सकता है। यह सरकार के राजकोषीय घाटे को कम करने में भी लाभप्रद है।
  • साथ ही इसमें बहुत सीमित योजनाओं का चुनाव किया गया है बल्कि राज्य सरकारें इसे अलग-अलग तरह से लागू करेंगी। उदाहरण के लिए दिल्ली तथा राजस्थान सरकार ने जननी सुरक्षा योजना तथा विधवा पेंशन को भी इसमें शामिल किया है जबकि पुडुचेरी में 15 योजनाओं को शामिल किया गया है।
  • आंध्र प्रदेश में पूरी योजना को 15 जनवरी तक टाल दिया गया जबकि राजस्थान, चंडीगढ़ में यह सिर्फ उन जिलों में शुरू की गयी है जहां बैंक खातों का पंजीयन शत-प्रतिशत पहले से ही हो चुका है।
  • हालांकि सरकार ने जिन सामाजिक कल्याण एवं सुरक्षा की योजनाओं का चयन प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के लिए किया है उसके पीछे अनेक उद्देश्य भी हैं।
  • चयनित योजनाओं में लाभार्थियों का चयन और उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना अपेक्षाकृत सबसे आसान है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से जागरूकता का स्तर और जीवन स्तर में सुधार के लिए मांग में वृद्धि साफ दिखती है ।
  • हालांकि इसके पीछे राजनीतिक लाभ व गणित भी काफी है लेकिन फिर भी यदि 12वीं पंचवर्षीय योजना के साथ केंद्र सरकार, केंद्र प्रायोजित योजनाओं को समाप्त करना चाहती है तो उसकी तरफ सरकार का यह पहला कदम है।
सरकार की कार्यकुशलता एवं भूमिका
  • सरकारी सेवाओं की व्यवस्था कहीं ना कहीं अकुशल रही है, गुणवत्ता लगातार घटती रही है और सर्वत्र राजकाज की जटिल समस्या है, यह एक सर्वमान्य तथ्य है लेकिन ध्यान रखना जरूरी है कि हमें उस प्रणाली की आवश्यकता है जिसमें समावेश व अपवर्जन की त्रुटि कम से कम हो ।
  • सब्सिडी की प्रमुख समस्या यह है कि लाभ अपात्र लोगों को मिल रहा है और सही पात्र न्यूनतम आवश्यकता नहीं पूरी कर पाने के कारण सब्सिडी का लाभ नहीं उठा पाता।
  • नगद हस्तांतरण से सरकार की भूमिका बहुत कम हो जाएगी ऐसी परिकल्पना व्यर्थ है क्योंकि जब तक आधार कार्ड की परियोजना पूरी नहीं हो जाती वर्तमान व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जा सकता।
  • जहां बैंकों की शाखाएं नहीं हैं वहीं यदि स्मार्ट कार्ड और एटीएम के लिए निजी बैंकों या वित्तीय संस्थाओं को जिम्मेदारी सौंपी भी जाए तो उसकी निगरानी के बिना गरीबों के शोषण की संभावना बनी रहेगी।
शिक्षा और जागरूकता
  • ग्रामीण भारत की अधिकांश जनता को अपने सामान्य नागरिक अधिकार तक पता नहीं होता जो भारतीय संविधान ने एक नागरिक होने के नाते उन्हें प्रदान किए हैं। तो फिर वित्तीय अधिकार तो दूर की बात है। अतः जरूरी है कि उनमें वित्तीय जागरुकता लाई जाए। इसके लिए उनमें वित्तीय साक्षरता प्रदान की जा सकती है।
  • जब देश के ग्रामीण नागरिक वित्तीय साक्षरता प्राप्त कर लेंगे तो उन्हें अपने वित्तीय निर्णय लेने में आसानी होगी। साथ ही वे संस्थागत ऋण के बारे 'जान सकेंगे और बैंकिंग की आदत देश में आर्थिक विकास दर को बढ़ाने में हमेशा सहयोग करता है।
  • जब लोगों में बैंकिंग की आदत बनी रहती है तो वे बचत करते है। हैं और यह बचत सकल घरेलू उत्पाद की दर को बढ़ाता है |
  • इसके अलावा वित्तीय समावेशन से सरकारी सब्सिडी को बिना किसी लीकेज के सीधे लाभार्थी के खाते में जमा की जा सकेगी। इससे भ्रष्टाचार को रोकने में भी काफी मदद मिल सकेगी।
  • वित्तीय सेवाओं तक पहुंच के अभाव का कारण हैं जागरूकता की कमी। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2005 में सभी बैंकों को निर्देश जारी किया कि वे गरीब जनता का खाता शून्य जमा पर खोलें।
  • देश के कुछ राष्ट्रीयकृत बैंकों के अलावा किसी बैंकों ने इस दिशा में प्रगति नहीं की है।
शांता कुमार समिति
  • शांता कुमार कमेटी का गठन भारतीय खाद्य निगम की कार्यप्रणाली व भूमिका को पुर्नपरिभाषित करने व इसकी संरचना को बेहतर बनाने के लिए किया गया। पैनल ने अपनी रिपोर्ट में निम्न बिन्दुओं को रेखाकिंत किया-
    • खाद्यान्न आपूर्ति श्रृखंला प्रबंधन के खरीद से विवरण तक सभी प्रक्रियाओं को कम्प्यूटरीकरण करने का सुझाव दिया।
    • समिति ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) से यह अपेक्षा की कि वह अपनी भूमिका को पुर्नपरिभाषित करते हुए खरीद से लेकर वितरण तक सभी चरणों में प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दे और साथ में खाद्य प्रबंधन व्यवस्था में नवोन्मेष को सुनिश्चित करें।
    • जिससे समग्र लागत को कम किया जा सके और लीकेज को रोका जा सके। जिससे बड़ी संख्या में किसान और उपभोक्ता को फायदा पहुँचाया जा सके।
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से संबंधित सिफारिशें कमेटी ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) नीति के साथ खरीद नीति कि विसंगतियों को दूर करने की सिफारिश की।
  • इसके अनुसार जहां गेहूँ की न्यूनतम समर्थन मूल्य मात्र 1400 रूपये प्रति क्विंटल है वहीं उच्च दक्षता के अभाव के कारण भारतीय खाद्य निगम (FCI) की आर्थिक लागत 220 रूपये प्रति क्विंटल हो जाती है।
  • यदि किसी राज्य सरकार के द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बोनस घोषणा की जाती है तो भारतीय खाद्य निगम (FCI) उस राज्य से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के आधार पर की गई खरीद को स्वीकार न करें।
  • साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के आधार पर की जाने वाली खरीद की गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए। इसके लिए पारदर्शी जांच प्रणाली के विकास को सुनिश्चित किया जाए।
अधिशेष खरीद के स्वतः तरलीकरण की व्यवस्था
  • समिति ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को व्यापार नीति से संबंध करते हुए खुले बाजार में अधिशेष बफर स्टॉक के स्वतः तरलीकरण का सुझाव दिया।
  • इसके अनुसार यदि भारतीय खाद्य निगम (FCI) के द्वारा जरूरत से ज्यादा अनाज की खरीद की जाती है तो खाद्य मंत्रालय उसके निर्यात या फिर स्थानीय बाजार में उसकी बिक्री का तुरंत निर्णय ले।
  • खरीद गतिविधियों से संबंधित सिफारिशें समिति ने यह सुझाव. दिया कि पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा में भारतीय खाद्य निगम (FCI) गेहूं और चावल की खरीद की जिम्मेवारी राज्य सरकारों को सौपें क्योंकि उनके पास पर्याप्त अनुभव है और वहां पर खरीद और अवसंरचना विकसित हो चुकी है।
  • सीमित के अनुसार बेहतर और बेहतर अवसरंचना वाले इन राज्यों में भारतीय खाद्य निगम (FCI) अपनी भूमिका सीमित करते हुए वहां की पीडीएस संबंधी जरूरतों को समायोजित करने के बाद केवल अधिशेष अनाज की खरीद करें।
  • ताकि इन्हें घाटे वाले राज्यों तक पहुंचाया जा सके इसकी जगह पर भारतीय खाद्य निगम (FCI) को पूर्वी भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में खरीद एवं खरीद ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनका कुल खाद्यान्न उत्पादन में 40 प्रतिशत योगदान है।
भंडार क्षमता का विस्तार और निजी क्षेत्र की भूमिका
  • समिति ने खरीद की प्रक्रिया में राज्य एजेंसियों के अलावा निजी क्षेत्र की भूमिका को प्रोत्साहित करने की बात कही । समिति ने भारतीय खाद्य निगम (FCI) से यह अपेक्षा की वह निजी क्षेत्र एवं अन्य एजेसियों की सहायता से नए बड़े अनाज गोदामों को बनाना पुराने अनाज गोदामों के सिलोज में तब्दील करने जिसकी सामरिक बफर रिर्जव क्षमता 5 मीट्रिक टन हो और अनाज आपूर्ति श्रृंखला के उन्नयन ध्यान केंद्रित करे ताकि खुले में भंडारण पर रोक लगे और स्टोरेज व्यवस्था का आधुनिकीकरण हो ।
  • खाद्यान्नों की ढुलाई इस प्रक्रिया को आधुनिकीकरण एवं मशीनीकरण की आवश्यकताओं पर बल देते हुए इसमें कन्टेन द्वारा ढुलाई और मशीनों द्वारा अपलोडिंग और डाउनलोडिंग का सुझाव दिया।
  • पीडीएस एवं खाद्य सुरक्षा का सन्दर्भ इसने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के अधिनियम के प्रति प्रतिबद्धता एवं क्रियान्वयन पर पुर्नविचार का सुझाव दिया।
भारत की रणनीति:
  • जुलाई, 2017 में भारत ने कृषि-सब्सिडी में कटौती की दिशा में की गई पहलों से अवगत करवाते हुए माँग की कि प्रस्तावित सम्मलेन में कृषि और खाद्य सुरक्षा पर विकृत रियायत के अनसुलझे मसले पर अंतिम निर्णय लिए जाएँ, लेकिन इस क्रम में यह सुनिश्चित किया जाये कि निर्णय प्रक्रिया में ज्यादातर सदस्य- देशों की भागीदारी हो ।
  • इसके मद्देनजर भारत ने नैरोबी सम्मलेन, 2015 से सबक लेते हुए निर्णय प्रक्रिया की पारदर्शिता को सुनिश्चित किये जाने की माँग की, ताकि नैरोबी की उन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो जिसके कारण ज्यादातर देश निर्णय प्रक्रिया से बाहर रह गए थे।
  • साथ ही, सीमा रेखा पर गहरे तनाव के बावजूद इस मसले पर भारत एवं चीन एकजुट हैं और व्यापार एवं सब्सिडी के मसले पर साझे प्रस्ताव को अंतिम रूप देने में लगे हैं।
  • जुलाई, 2017 में भारत और चीन ने कृषि-सब्सिडी के आकलन (AGGREGATE MEASUREMENT SUPPORT) से सम्बंधित इस साझा प्रस्ताव को अंतिम रूप दिया, जिसमें कहा गया है कि कृषि-सब्सिडी के आकलन (AMS) को हटाने के मसले पर कोई समझौता नहीं हो सकता है। इसकी कीमत पर कृषि एवं खाद्य सुरक्षा सब्सिडी पर विद्यमान गतिरोध तोड़ने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए ।
  • ध्यातव्य है कि यह आकलन विकृत सब्सिडी में खाद, बिजली, सिंचाई, कृषि कर्ज और न्यूनतम समर्थन मूल्य से गुणित विश्व बाजार की कीमतों एवं घरेलू बाजार की कीमतों को शामिल करता है।
  • भारत रणनीति के तहत एक कदम पीछे हटकर सब्सिडी - कसौटी की रणनीति के जरिये बड़े बाजार वाले विकसित देशों को सब्सिडी कम करने के लिए बाध्य करना चाहता है, लेकिन डर है कि या रणनीति कहीं आत्मघाती साबित नहीं हो।
वाधवा समिति
  • पीडीएस सुधारों के प्रश्न पर गठित वाधवा समिति ने सरकार की। मंशा पर प्रश्न खडा करते हुए कहा “राज्य सरकारें पीडीएस रिफॉर्म के लिए बिल्कुल ही गंभीर नहीं है। ऐसा लगता है कि केंद्र सरक सब्सिडी बाँटकर खुश है और राज्य सरकारें राशन की दुकानें खोलवाकर । "
  • तमिलनाडु के पीडीएस सुधारों का हवाला देते हुए इसके कहा “तमिलनाडु में सार्वभौम पीडीएस व्यवस्था लागू करने से वहाँ रिसाव को रोकने में कामयाबी मिली है। " इस समिति ने पीडीएस व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए निम्न सुझाव दिए:
1. पीडीएस डीलरों की नियुक्ति :
  • उचित मूल्य के दुकानों (FPS) हेतु समिति ने डीलरों के चयन की प्रक्रिया को स्पष्ट और पारदर्शी बनाने का सुझाव दिया। साथ ही, चयन की प्रक्रिया को 56 दिनों की बजाय 42 दिनों में पूरी करने की भी अनुशंसा की।
  • साथ डीलर के रूप में उसी व्यक्ति को लाइसेंस जारी किया जाना चाहिए। जो तत्संबंधी सर्किल का निवासी है, ही नयी रिक्तियों हेतु आबंटन में सहकारी समितियों एवं महिला स्वयं सहायता समूहों को प्राथमिकता दिए जाने की बात की गई है।
  • विभिन्न उचित मूल्य के दुकानों के बीच संबद्ध कार्डों की संख्या को लेकर विद्यमान विसंगति को दूर करते हुए नये लाइसेंस उसी स्थिति में जारी करने की अनुशंसा की गई जब उस दुकान से संबद्ध करने के लिए 1000 राशन कार्ड उपलब्ध हो ।
2. उचित मूल्य के दुकानों की आर्थिक वहनीयताः
  • लंबे समय से लाइसेंस धारकों के द्वारा कमीशन में वृद्धि की माँग की जा रही है। इस आलोक में समिति ने कमीशन के दर में वृद्धि की बजाए एफपीएस के आर्थिक वहनीयता में सुधार के लिए अन्य उपलब्ध विकल्पों पर गौर किए जाने का सुझाव दिया।
  • इसने निर्दिष्ट खाद्यान्नों की परिवहन लागत को वास्तविक लागत पर आधारित बनाये जाने का सुझाव दिया। इसने यह भी सुझाव दिया कि परिवहन प्रबंधन की जिम्मेवारी राज्य नागरिक आपूर्ति निगम के बाजार विभागों को सौंपी जाए और इसके लिए खुले टेंडर की व्यवस्था अपनाई जाए।
  • इसने पीडीएस स्टोरो से अन्य वस्तुओं की बिक्री को भी प्रोत्साहित करने का सुझाव दिया। साथ ही पीडीएस के दायरे में आने वाली वस्तुओं की डिलवरी में होने वाले विलंब के लिए जिम्मेवारी के निर्धारन की भी बात की। 
  • समिति ने यह भी सुझाव दिया कि पीडीएस स्टोरों के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित जगह मामूली किराये पर उपलब्ध करायी जाए।
  • साथ ही विद्यमान दिशा निर्देशों का सुदृढीकरण करते हुए उसे प्रचारित और प्रसारित भा किया जाए ताकि लाभान्वितों की पीडीएस संबंधी सूचनाओं तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सके।
3. शिकायत निवारण तंत्र और प्रभावी निगरानी व्यवस्था:
  • समिति ने स्थानीय स्तर पर विद्यमान निगरानी तंत्र को भंग कर हुए जिलावार निगरानी समिति के गठन का सुझाव दिया।
  • निगर समिति के सदस्यों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने की बात की गई और उनमें आम लोगों, अंशधारकों एवं पारिवारिक महिलाओं की व्यापक भागीदारी पर जोर दिया गया।
  • समिति ने निगरानी समिति में महिला सदस्यों की बहुलता एवं अनपचित जाति एवं जनजाति के प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की मौजदगी को सुनिश्चित किए जाने की बात की।
  • निगरानी समिति की नियमित बैठक पर जोर देते हुए कहा गया कि स्थानीय विधायकों के अनुपलब्धता के कारण निगरानी समिति की बैठक स्थगित न की जाए। ऐसी स्थिति में उस जिला के सहायक आयुक्त के द्वारा बैठक की अध्यक्षता की जा सकती है।
  • पीडीएस संबंधी शिकायतों के मद्देनजर टॉल फ्री हेल्पलाइन नम्बर उपलब्ध कराये जाने की अनुशंसा की गयी। उपभोक्ताओं की शिकायतों के निवारण के लिए स्वतंत्र निगरानी तंत्र के विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया।
  • साथ ही राज्य स्तरीय निगरानी समिति में खाद्यान्न आपूर्ति और उपभोक्ता मामले से संबद्ध विभाग के आयुक्त को संयोजक सदस्य के रूप में शामिल करने का सुझाव दिया। यह समिति जिला स्तरीय निगरानी समिति के तिमाही समीक्षा करेगी।
4. स्पष्टता और पारदर्शिताः
  • समिति ने पीडीएस व्यवस्था के पूर्ण कंप्यूटरीकरण पर बल दिया है, ताकि सूचना प्रौद्योगिकी आधारित पूर्णत: स्वचालित प्रणाली को लागू किया जा सके और मानवीय हस्तक्षेप की संभावनाओं को न्यूनीकृत किया जा सके।
  • जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक के लिए कूपन व्यवस्था को लागू किया जाए। फर्जी राशन कार्डों के मद्देनजर वास्तविक लाभान्वितों के डाटाबेस को तैयार करने की आवश्यकता पर बल दिया गया ताकि समावेशन एवं बहिष्करण संबंधी विसंगतियों को दूर किया जा सके। इसके लिए विश्वसनीय स्वतंत्र एजेन्सी के माध्यम से राशन कार्ड धारकों के दरवाजे पर जाकर सत्यापन का सुझाव दिया गया।
  • समिति ने फर्जी राशन कार्ड धारकों के लिए दंडरहित राशन कार्ड सुपुर्दगी योजना का सुझाव दिया ताकि वे स्वेच्छा से अपने फर्जी राशन कार्डों का समर्पण कर सके।
  • इसके द्वारा निर्धारित अवधि के बीत जाने की स्थिति में फर्जी राशन कार्ड पाये जाने पर राशन कार्ड धारकों के साथ-साथ उसे जारी करने वाले आधिकारियों के खिलाफ सख्त कारवाई की अनुशंसा की गयी है।
5. रिसाव और विचलनः
  • समिति ने रिसाव और विचलन के मद्देनजर उचित मूल्य की दुकानों के राष्ट्रीयकरण का सझाव दिया। इसने पीडीएस व्यवसथा के अंतर्गत एफपीएस के नियंत्रण की जिम्मेवारी सरकार के हाथों सौंपे जाने और उसके संचालन की जिम्मेवारी निजी व्यक्ति को सौंपे के बजाए राज्य स्तरीय निगमों, सहकारी समितियों और महिला सहायता समूहों को सौंपे जाने की अनुशंसा की।
  • इसने एपीएल, बीपीएल विभाजन को समाप्त करते हुए एपीएल सब्सिडी की व्यवस्था समाप्त करने की अनुशंसा की । यदि ऐसा करना संभव नहीं है तो खाद्य सब्सिडी के दायरे को एक लाख या इससे कम आय समूह के लोगों तक सीमित किया जाए।
6. अन्य सुझावः
  • समिति ने एफपीएस के द्वारा भुगतान के लिए ई-बैंकिंग की व्यवस्था को अपनाएं जाने का सुझाव दिया साथ ही पीडीएस प्रचालनों को मजबूती प्रदान करने के लिए मोबाइल एफपीएस की व्यवस्था उन क्षेत्रों के लिए सुनिश्चित करने की बात की गयी जहाँ पर्याप्त मात्रा में राशन कार्ड उपलब्ध नहीं है ।
  • इसके लिए योजना आयोग फड उपलब्ध कराये। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ एफपीएस के लिए गोदाम नहीं है वहाँ सरकार या निगमों से अपेक्षा की गयी की वह एटीएम, डेयरी या डाकघर के तर्ज पर उसका निर्माण करें।
पीडीएस सुधार और राज्य
  • पिछले दशक के दौरान राज्यों द्वारा पीडीएस सुधारों की दिशा में की गई विकेन्द्रीकृत पहलों ने पीडीएस व्यवस्था के पुनरोद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • कुछ राज्यों ने बीपीएल परिवारों की पहचान की विश्वसनीय तरीके के अभाव, व्यापक स्तर पर बहिष्करण त्रुटियाँ और विभाजनकारी लक्ष्यीकरण की समस्याओं के मद्देनजर एपीएल और बीपीएल विभाजन को समाप्त करते हुए पीडीएस व्यवस्था के सार्वभौमीकरण की दिशा में पहल की ताकि उसे अधिक समावेशी पीडीएस का रूप दिया जा सके।
  • तमिलनाडु की सरकार ने अपने नागरिकों के लिए प्रतिमाह प्रति परिवार 20 किलोग्राम चावल मुफ्त में उपलब्ध करवाने की दिशा में पहल की।
  • आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, केरल, उड़ीसा और राजस्थान ने भी पीडीएस व्यवस्था के लगभग सार्वभौमीकरण की दिशा में पहल करते हुए एक ओर बहिष्करण त्रुटियों को समाप्त करने की कोशिश की दूसरी ओर पीडीएस व्यवस्था की प्रभावशीलता को भी बढ़ाने का काम किया।
  • आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक केरल, मध्यप्रदेश, उडीसा, राजस्थान और तमिलनाडु ने पीडीएस कीमतों में कमी लाते हुए उसे अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया।
  • आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु ने यदि दलहन को पीडीएस के दायरे में लाया तो छत्तीसगढ़ को छोड़कर इन तीनों राज्यों ने खाद्य तेल को भी।
  • इसके अतिरिक्त पीडीएस व्यवसथा में पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए या तो पीडीएस खाद्यान्नों को एफपीएस दुकानों तक पहुँचाने वाले ट्रकों को ग्लोबल पोजिसनिंग सिस्टम से लैश किया गया या फिर उन ट्रकों को पीले रंग से रंगा गया ताकि आसानी से दूर से ही उनकी पहचान पींडीएस खाद्यान्न ढोने वाले ट्रक के रूप में किया जा सके।
  • सार्वजनिक और निजी स्थलों पर लाभार्थियों के नामों का प्रदर्शन किया गया ताकि फर्जीवाड़े को रोका जा सके।
परीक्षोपयोगी तथ्य
  • किसी देश की खाद्य सुरक्षा तब सुनिश्चित होती है, जब उसके सभी नागरिकों को पोषक भोजन उपलब्ध होता है।
  • सभी व्यक्तियों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य खरीदने की सामर्थ्य होती है और भोजन तक पहुँचने में कोई अवरोध नहीं होता।
  • निर्धनता रेखा से नीचे रह रहे लोग खाद्य की दृष्टि से सदैव ही असुरक्षित रह सकते हैं, जबकि संपन्न लोग भी आपदाओं के समय खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित हो सकते हैं।
  • यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य और पोषक तत्वों की असुरक्षा से ग्रस्त है, सबसे अधिक प्रभावित समूह ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन और गरीब परिवार, बहुत कम वेतन वाले कार्यों में लगे लोगं और शहरी क्षेत्रों में मौसमी कार्यों में लगे अनियत श्रमिक हैं।
  • देश के कुछ क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की बड़ी संख्या तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक है जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में जहाँ बहुत अधिक गरीबी है, जनजातियों वाले व दूरस्थ क्षेत्रों में और ऐसे क्षेत्रों में जहाँ प्राकृतिक आपदाएँ आती रहती हैं।
  • समाज के सभी वर्गों के लिए खाद्य की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भारत सरकार ने सावधानीपूर्वक खाद्य सुरक्षा प्रणाली तैयार की है, जिसके दो घटक हैं:
  1. बफर स्टॉक और
  2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अतिरिक्त कई निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी शुरू किए गए, जिनमें खाद्य सुरक्षा का घटक भी शामिल था।
  • इनमें से कुछ कार्यक्रम हैं: एकीकृत बाल विकास सेवाएँ, काम के बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अंत्योदय अन्न योजना आदि।
  • खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका के अतिरिक्त अनेक सहकारी समितियाँ और गैर-सरकारी संगठन भी हैं, जो इस दिशा में तेज़ी से काम कर रहे हैं ।

खाद्य सुरक्षा

  • जीवन के लिए भोजन उतना ही आवश्यक है जितना कि साँस लेने के लिए वायु। खाद्य सुरक्षा मात्र दो जून की रोटी पाना नहीं है, बल्कि उससे कहीं अधिक है। खाद्य सुरक्षा के निम्नलिखित आयाम हैं:
  1. खाद्य उपलब्धता का तात्पर्य देश में खाद्य उत्पादन, खाद्य आयात और सरकारी अनाज भंडारों में संचित पिछले वर्षों के स्टॉक से है।
  2. पहुँच का अर्थ है कि खाद्य प्रत्येक व्यक्ति को मिलता रहे।
  3. सामर्थ्य का अर्थ है कि लोगों के पास अपनी भोजन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक भोजन खरीदने के लिए धन उपलब्ध हो । किसी देश में खाद्य सुरक्षा केवल तभी सुनिश्चित होती है जब
    1. सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाद्य उपलब्ध हो,
    2. सभी लोगों के पास स्वीकार्य गुणवत्ता के खाद्य-पदार्थ खरीदने की क्षमता हो और
    3. खाद्य की उपलब्धता में कोई बाधा नहीं हो ।
खाद्य सुरक्षा क्यों?
  • समाज का अधिक गरीब वर्ग तो हर समय खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकता है परंतु जब देश भूकंप, सूखा, बाढ़, सुनामी, फसलों के खराब होने से पैदा हुए अकाल आदि राष्ट्रीय आपदाओं से गुज़र रहा हो, तो निर्धनता रेखा से ऊपर के लोग भी खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त हो सकते हैं।
  • किसी प्राकृतिक आपदा जैसे, सूखे के कारण खाद्यान्न की कुल उपज में गिरावट आती है। इससे प्रभावित क्षेत्र में खाद्य की कमी हो जाती है। खाद्य की कमी के कारण कीमतें बढ़ जाती हैं।
  • कुछ लोग ऊँची कीमतों पर खाद्य पदार्थ नहीं खरीद सकते । अगर यह आपदा अधिक विस्तृत क्षेत्र में आती है या अधिक लंबे समय तक बनी रहती है, तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है। व्यापक भुखमरी से अकाल की स्थिति बन सकती है ।
  • अकाल के दौरान बड़े पैमाने पर मौतें होती हैं जो भुखमरी तथा विवश होकर दूषित जल या सड़े भोजन के प्रयोग से फैलने वाली महामारियों तथा भुखमरी से उत्पन्न कमज़ोरी से रोगों के प्रति शरीर की प्रतिरोधी क्षमता में गिरावट के कारण होती है।
  • भारत में जो सबसे भयानक अकाल पड़ा था, वह 1943 का बंगाल का अकाल था । इस अकाल में भारत के बंगाल प्रांत में तीस लाख लोग मारे गए थे।
  • भारत में बंगाल जैसा अकाल पुनः कभी नहीं पड़ा। लेकिन यह चिंता का विषय है कि आज भी उड़ीसा में कालाहांडी तथा काशीपुर जैसे स्थान हैं, जहाँ अकाल जैसी दशाएँ अनेक वर्षों से बनी हुई हैं और ऐसी भी सूचना मिली है कि वहाँ भूख के कारण कुछ लोगों की मृत्यु भी हुई है।
  • हाल के कुछ वर्षों में राजस्थान के बारन ज़िले, झारखंड के पालामू ज़िले तथा अन्य सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भूख के कारण लोगों की मृत्यु की सूचना मिली है। अतः किसी भी देश में खाद्य सुरक्षा आवश्यक होती है ताकि सदैव खाद्य की उपलब्ध सुनिश्चित की जा सके।
खाद्य असुरक्षित कौन हैं?
  • यद्यपि भारत में लोगों का एक बड़ा वर्ग खाद्य एवं पोषण की दृष्टि से असुरक्षित है, परंतु इससे सर्वाधिक प्रभावित वर्गों में निम्नलिखित शामिल हैं: भूमिहीन जो थोड़ी बहुत अथवा नगण्य भूमि पर निर्भर हैं, पारंपरिक दस्तकार, पारंपरिक सेवाएँ प्रदान करने वाले लोग, अपना छोटा-मोटा काम करने वाले कामगार और निराश्रित तथा भिखारी।
  • शहरी क्षेत्रों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित वे परिवार हैं जिनके कामकाजी सदस्य प्रायः कम वेतन वाले व्यवसायों और अनियत श्रम - बाज़ार में काम करते हैं। ये कामगार अधिकतर मौसमी कार्यों में लगे हैं और उनको इतनी कम मज़दूरी दी जाती है कि वे मात्र जीवित रह सकते हैं।
  • खाद्य पदार्थ खरीदने में असर्मथता के साथ सामाजिक संरचना भी खांद्य की दृष्टि से असुरक्षा में भूमिका निभाती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ वर्गों (इनमें से निचली जातियाँ) का या तो भूमि का आधार कमज़ोर होता है या फिर उनकी भूमि की उत्पादकता बहुत कम होती है, वे खाद्य की दृष्टि से शीघ्र असुरक्षित हो जाते हैं।
  • वे लोग भी खाद्य की दृष्टि से सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं, जो प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित हैं और जिन्हें काम की तलाश में दूसरी जगह जाना पड़ता है।
  • कुपोषण से सबसे अधिक महिलाएँ प्रभावित होती हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि इससे अजन्मे बच्चों को भी कुपोषण का खतरा रहता है ।
  • खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त आबादी का बड़ा भाग र्भवती तथा दूध पिला रही महिलाओं तथा पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का है।
  • देश के कुछ क्षेत्रों, जैसे, आर्थिक रूप से पिछड़े राज्य जहाँ गरीबी अधिक है, आदिवासी और सुदूर क्षेत्र, प्राकृतिक आपदाओं से बार-बार प्रभावित होने वाले क्षेत्र आदि में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की संख्या आनुपातिक रूप से बहुत अधिक है।
  • वास्तव में, उत्तर प्रदेश (पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी हिस्से), बिहार, झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ भागों में खाद्य की दृष्टि से असुरक्षित लोगों की सर्वाधिक संख्या है।
  • भुखमरी खाद्य की दृष्टि से असुरक्षा को इंगित करने वाला एक दूसरा पहलू है। भुखमरी गरीबी की एक अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, यह गरीबी लाती है। इस तरह खाद्य की दृष्टि से सुरक्षित होने से वर्तमान में भुखमरी समाप्त हो जाती है और भविष्य में भुखमरी का खतरा कम हो जाता है।
  • भुखमरी के दीर्घकालिक और मौसमी आयाम होते हैं। दीर्घकालिक भुखमरी मात्रा एवं/ या गुणवत्ता के आधार पर अपर्याप्त आहार ग्रहण करने के कारण होती है।
  • गरीब लोग अपनी अत्यंत निम्न आय और जीवित रहने के लिए खाद्य पदार्थ खरीदने में अक्षमता के कारण दीर्घकालिक भुखमरी से ग्रस्त होते हैं। मौसमी भुखमरी फसल उपजाने और काटने के चक्र से संबद्ध है।
  • यह ग्रामीण क्षेत्रों की कृषि क्रियाओं की मौसमी प्रकृति के कारण तथा नगरीय क्षेत्रों में अनियमित श्रम के कारण होती है। जैसे, बरसात के मौसम में अनियत निर्माण श्रमिक को कम काम रहता है। इस तरह की भुखमरी तब होती है। जब कोई व्यक्ति पूरे वर्ष काम पाने में अक्षम रहता है।
स्वतंत्रता के बाद खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर होना भारत का लक्ष्य-
  • स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय नीति-निर्माताओं ने खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के सभी उपाय किए। भारत ने कृषि में एक नयी रणनीति अपनाई, जिसकी परिणति हरित क्रांति में हुई, विशेषकर गेहूँ और चावल के उत्पादन में ।
  • तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जुलाई, 1968 में 'गेहूँ क्रांति' शीर्षक से एक विशेष डाक टिकट जारी कर कृषि के क्षेत्र में हरित क्रांति की प्रभावशाली प्रगति को आधिकारिक रूप से दर्ज किया। गेहूँ की सफलता के बाद चावल के क्षेत्र में इस सफलता की पुनरावृत्ति हुई। बहरहाल, अनाज की उपज में वृद्धि समानुपातिक नहीं थी ।
  • पंजाब और हरियाणा में सर्वाधिक वृद्धि दर दर्ज की गई, जहाँ अनाजों का उत्पादन 1964-65 के 72.3 लाख टन की तुलना में बढ़कर कर 1995-96 में 3.03 करोड़ टन पर पहुँच गया, जो अब तक का सर्वाधिक ऊँचा रिकार्ड था।
  • महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और पूर्वोत्तर राज्यों में उत्पादन का स्तर पिछड़ता रहा। दूसरी तरफ, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में चावल के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
भारत में खाद्य सुरक्षा
  • 70 के दशक के प्रारंभ में हरित क्रांति के आने के बाद से मौसम की विपरीत दशाओं के दौरान भी देश में अकाल नहीं पड़ा है।
  • देश भर में उपजाई जाने वाली विविध फसलों के कारण भारत पिछले 30 वर्षों के दौरान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है।
  • सरकार द्वारा सावधानीपूर्वक तैयार की गई खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के कारण देश में (खराब मौसम स्थितियों के बावजूद अथवा किसी अन्य कारण से) अनाज की उपलब्धता और भी सुनिश्चित हो गई। इस व्यवस्था के दो घटक हैं:
    1. बफर स्टॉक और
    2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
खाद्य अनुदान
  • सरकार द्वारा चलाये जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों जैसे अन्नपूर्णा योजना अन्त्योदय योजना आदि में कम मूल्य पर अनाज उपलब्ध कराये जाते हैं जबकि अनाज का क्रय अधिक मूल्य पर किया जाता है। इस प्रकार इन योजनाओं में जिस लागत (मूल्य) पर अनाज उपलब्ध कराया जाता है उससे इसकी आर्थिक लागत अधिक हो जाती है जिसे सरकार स्वयं वहन करती हैं। इसे Food- Subsidy के नाम से जाना जाता हैं। .
  • वास्तव में, एक उत्तरदायी सरकार की यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वह सभी लोगों के लिए भोजन उपलब्ध करा सके। इसकी तुलना अन्य महत्त्वपूर्ण मदों जैसे- रक्षा-व्यय के साथ करनी चाहिए। यह तब तक उचित है जब तक की सभी लोग बाजार मूल्य पर क्रय करने में सक्षम न हो जायें।
  • देश में खाद्य-सब्सिडी को कम करने के लिए निम्न उपाय किए जा सकते हैं:-
  1. भारत के खाद्य निगम के घाटों को कम किया जाना चाहिए, इसके लिए खरीद, संग्रहण, वितरण, स्टॉक आदि में कार्य कुशलता बढ़ायी जानी चाहिए।
  2. वसूली मूल्यों में वृद्धि सीमित की जानी चाहिए।
  3. फूड-कूपन (खाद्य - कूपन) जारी किए जा सकते हैं, जिनका उपयोग करके बीपीएल परिवार राशन की दुकान पर एपीएल वालों के समान कीमत देकर, अंशत: नकद व अंशत: कूपन देकर अपनी खरीद कर सकते हैं, इससे भ्रष्टाचार व वितरण के रिसाव मे कमी आएगी। लेकिन यहां भी बीपीएल परिवारों की सही सूची तैयार करने की समस्या तो रहेगी ही। देश में यूनिक पहचान संख्या के जारी हो जाने पर सब्सिडी की प्रत्यक्ष नकद-सहायता प्रणाली को लागू करना संभव हो सकेगा।
  4. लक्षित परिवारों के बैंक खातों में सीधे सब्सिडी की राशि जमा करा दी जाये जिसे जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल कर सकें। इससे बैंकर की उस परिवार पर निगाह भी रहेगी और लोगों को सब्सिडी का अधिक सही लाभ मिल पाएगा। सब्सिडी कम करने के लिए ऐसे कई नए प्रयोग करने का समय आ गया है। लेकिन अन्ततोगत्वा खाद्यान्नों की बाजार प्रणाली व निजी व्यापारियों की सेवाओं के उपयोग पर भी ध्यान देना उचित होगा। इसके लिए कृषिगत लागतों व कीमतों के आयोग (सीएसीपी) के अध्यक्ष डॉ. अशोक गुलाटी ने भी समर्थन किया है, ताकि न्यूनतम समर्थन मूल्यों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए निजी क्षेत्र का सहयोग किया जा सके।
कृषि अनुदान
  • कृषि-क्षेत्र को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए सरकार की ओर से जो वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है, उसे ही कृषि सब्सिडी की संज्ञा दी जाती है। वर्तमान में कृषि-सब्सिडी की नीति कीमतों पर आधारित है। इसके अंतर्गत सरकार सब्सिडी देकर कृषि उत्पादों के लागत मूल्य को नियंत्रित करती है।
  • इससे एक ओर किसानों को उत्पादन हेतु प्रोत्साहन मिलता है, तो दूसरी ओर उपभोक्ताओं के लिए भी अपेक्षाकृत कम और उचित कीमत पर कृषि उत्पादों की उपलब्धता संभव हो पाती है।
  • कृषि-सब्सिडी देने की यह परिपाटी भारत तक सीमित नहीं है, वरन् यह विश्वव्यापी प्रक्रिया रूप में सामने आती है।
  • विशेष रूप से अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों द्वारा भारी मात्रा में कृषि-सब्सिडी प्रदान की जाती है। भारत में कृषि-सब्सिडी प्रत्यक्ष तरीके से भी दी जाती है और अप्रत्यक्ष तरीके से भी। 
प्रत्यक्ष सब्सिडी
  • प्रत्यक्ष सब्सिडी के लिए बजट में अलग से प्रावधान किया जाता है। खाद्यान्न सब्सिडी और उर्वरक सब्सिडी को इसके अंतर्गत रखा जाता है। खाद्यान्न सब्सिडी जहाँ उपभोक्ताओं के लिए दी जाती है, वहीं उर्वरक सब्सिडी उत्पादकों के लिए। लेकिन, उर्वरक सब्सिडी सीधे किसानों को न देकर उर्वरक - उत्पादक कंपनियों को दी जाती है।
  • इसके विपरीत अप्रत्यक्ष सब्सिडी के लिए अलग से बजटीय प्रावधान नहीं होते हैं। परोक्षतः इसके लाभ को किसानों तक पहुँचाया जाता है। इसके अंतर्गत सिंचाई और विद्युत सब्सिडी को रखा जा सकता है। सरकार विद्युत सब्सिडी के संदर्भ में क्रॉस-सब्सिडी का भी सहारा लेती है।
  • इसके तहत् किसानों को रियायती दर पर उपलब्ध करायी जाने वाली बिजली से विद्युत उत्पादकों को नुकसान की भरपाई गैर-कृषक जनसंख्या से अपेक्षाकृत अधिक दरों को वसूल कर की जाती है।
अप्रत्यक्ष सब्सिडी
  • सिंचाई और विद्युत सब्सिडी इसके दायरे में आते हैं। अपनी प्रकृति में इस प्रकार की सब्सिडियाँ प्रतिगामी होती हैं क्योंकि इसका लाभ धनी और समृद्ध किसानों को अधिक मिल रहा है और छोटे व सीमांत किसानों को नहीं के बराबर।
  • इसके परिणामस्वरूप न केवल इनके अति उपयोग को बढ़ावा मिल रहा है, वरन् उपलब्ध सेवाओं की मात्रा और गुणवत्ता पर भी इनका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। जब संसाधनों पर इसके प्रतिकूल प्रभावों की चर्चा पहले ही विस्तार से की जा चुकी है।
  • इस आलोक में यह सुझाव दिया जाता है कि अप्रत्यक्ष सब्सिडी पर रोक लगायी जाये और इसके लिए स्पष्ट बजटीय प्रावधान किया जाए। साथ ही, सार्वभौमिक मीटरिंग प्रणाली को लागू किया जाए।
  • इस संदर्भ में यह भी सुझाव दिया जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उपयोग और गैर-कृषि उपयोग के लिए अलग विद्युत फीडरों की व्यवस्था की जाए और कृषि उपयोग से सम्बद्ध विद्युत फीडरों में एक निश्चित समय पर ही 6 से 8 घंटे विद्युत की आपूर्ति की जाए।
  • इससे विद्युत के अति उपयोग पर भी अंकुश लगाया जा सकना संभव हो सकेगा और भूमिगत जल के अति दोहन की समस्या से निबटते हुए जल संसाधन संरक्षण को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा।
  • इसके अतिरिक्त सब्सिडी का घटता हुआ दबाव ग्रामीण कृषि अवसंरचना (ग्रामीण सड़क, विद्युत, सिंचाई, भंडारण आदि) में सार्वजनिक निवेश को भी बढ़ाया जा सकना संभव हो सकेगा।
  • यद्यपि इनमें सड़क, विद्युत और सिंचाई को भारत निर्माण योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है लेकिन इन क्षेत्रों में निवेश हेतु अपेक्षाकृत अधिक मात्रा संसाधनों की जरूरत और अपने हिस्से के खर्च को उठा पाने में राज्य सरकार की अक्षमता के कारण अपेक्षित निवेश नहीं हो पा रहा है।
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