राजभाषा

संविधान के भाग XVII में अनुच्छेद 343 से 351 राजभाषा से संबंधित हैं। इनके उपबंधों को चार शीर्षकों में विभाजित किया गया है संघ की भाषा, क्षेत्रीय भाषाएं, न्यायपालिका और विधि के पाठ भाषा एवं अन्य विशेष निर्देशों की भाषा ।

राजभाषा

राजभाषा

संविधान के भाग XVII में अनुच्छेद 343 से 351 राजभाषा से संबंधित हैं। इनके उपबंधों को चार शीर्षकों में विभाजित किया गया है संघ की भाषा, क्षेत्रीय भाषाएं, न्यायपालिका और विधि के पाठ भाषा एवं अन्य विशेष निर्देशों की भाषा ।

संघ की भाषा

संघ की भाषा के संबंध में संविधान में निम्नलिखित उपबंध हैं:
  1. देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी संघ की है परंतु संघ द्वारा आधिकारिक रूप से प्रयोग की जाने वाली संख्याओं का रूप अंतर्राष्ट्रीय होगा, न कि देवनागरी ।
  2. हालांकि संविधान प्रारंभ होने के 15 वर्षों (1950 से 1965 तक) अंग्रेजी का प्रयोग आधिकारिक रूप उन प्रयोजनों के लिए जारी रहेगा जिनके लिए 1950 से पूर्व इसका उपयोग में होता था।
  3. पंद्रह वर्षों के उपरांत भी संघ प्रयोजन विशेष के लिए अंग्रेजी का प्रयोग कर सकता है।
  4. संविधान लागू होने के पांच वर्ष पश्चात् व पुनः दस वर्ष के पश्चात राष्ट्रपति एक आयोग की स्थापना करेगा जो हिंदी भाषा प्रगामी प्रयोग के संबंध में अंग्रेजी के प्रयोग को सीमित करने व अन्य संबंधित मामलों में सिफारिश करेगा।
  5. आयोग की सिफारिशों के अध्ययन व राष्ट्रपति को इस संबंध में अपने विचार देने के लिए एक संसदीय समिति गठित की जाएगी।
इसके अनुसार, 1955 में राष्ट्रपति ने बी. जी. खेर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। आयोग ने 1956 में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को प्रस्तुत की। 1957 में पंडित गोविंद वल्लभ पंत की अध्यक्षता में बनी संसदीय समिति ने इस रिपोर्ट की समीक्षा की। हालांकि 1960 में दूसरे आयोग (जिसकी कल्पना संविधान में की गई थी) का गठन नहीं किया गया।
इसके परिणामस्वरूप, संसद ने राजभाषा अधिनियम (1963) को अधिनियामित कर दिया। इस में संघ के सभी सरकारी कार्यों व संसद की कार्यवाही में, अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने (1965 के बाद भी) के साथ ही हिंदी के प्रयोग का उपबंध किया गया। ध्यान देने योग्य बात इस में यह थी कि इसमें अंग्रेजी के प्रयोग के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई। सन 1967 में कुछ विशिष्ट मामलों में हिन्दी के साथ अंग्रेजी का प्रयोग अनिवार्य करने के लिए इसमें संशोधन किया गया।

क्षेत्रीय भाषाएं

संविधान में राज्यों के लिए किसी विशेष का उल्लेख नहीं है। इस संबंध में कुछ निम्नलिखित उपबंध हैं:
  1. किसी राज्य की विधायिका उस राज्य के रूप में किसी एक या एक से अधिक भाषा अथवा हिंदी का चुनाव कर सकती है। जब तक यह न हो उस राज्य की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी होगी। इस उपबंध अंतर्गत अधिकांश राज्यों ने मुख्य क्षेत्रीय भाषा को अपनी औपचारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश ने तेलुगू, केरल मलयालम, असम- असमिया, प. बंगाल- बंगाली, ओडिशा-ओडिया को अपनाया। नौ उत्तरी राज्यों हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान ने हिंदी को अपनाया। गुजरात ने गुजराती के अतिरिक्त हिन्दी को अपनाया है। उसी प्रकार गोवा ने कोंकणी के अतिरिक्त मराठी व गुजराती को अपनाया। जम्मू व कश्मीर ने उर्दू (कश्मीरी नहीं) को अपनाया। दूसरी ओर कुछ उत्तर-पूर्वी राज्यों, जैसे-मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड ने अंग्रेजी को स्वीकार किया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि राज्यों द्वारा भाषा का चुनाव संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं तक ही सीमित नहीं है।
  2. कुछ समय के लिए केंद्र व राज्यों के मध्य तथा विभिन्न राज्यों के मध्य संपर्क भाषा के रूप में संघ की राजभाषा अर्थात् अंग्रेजी का प्रयोग होगा परंतु दो या दो से अधिक राज्य, परस्पर संवाद के लिए हिंदी के प्रयोग (अंग्रेजी के स्थान पर) के लिए स्वतंत्र होंगे। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व बिहार ने ऐसे समझौते किए। राजभाषा अधिनियम (1963) के अनुसार, संघ व गैर-हिंदी भाषी राज्यों (वे राज्य जहां हिंदी नहीं है) के मध्य अंग्रेजी संपर्क भाषा होगी। इसके अतिरिक्त, जहां हिंदी व गैर-हिंदी राज्यों के बीच संपर्क भाषा हिंदी है, वहां पर ऐसे संवाद अंग्रेजी में भी अनुवादित किए जाएंगे।
  3. जब राष्ट्रपति (यदि मांग की जाए) इस बात पर संतुष्ट हो कि किसी राज्य की जनसंख्या का अधिकतर भाग उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा को राज्य द्वारा मान्यता चाहता हो, तो वह ऐसी भाषा को राज्य की औपचारिक भाषा के रूप में मान्यता देने का निर्देश दे सकता है। इस उपबंध का उद्देश्य राज्य के अल्पसंख्यकों के भाषायी हितों की सुरक्षा करना है।

न्यायपालिका की भाषा एवं विधि पाठ

संविधान में न्यायपालिका एवं विधायिका की भाषा के संबंध में किए गए उपबंध निम्नलिखित हैं:
  1. जब तक संसद अन्यथा यह व्यवस्था न दे, निम्नलिखित कार्य केवल अंग्रेजी भाषा में होंगे:
    1. उच्चतम न्यायालय व प्रत्येक उच्च न्यायालय की कार्यवाही।
    2. केंद्र व राज्य स्तर पर सभी विधेयक, अधिनियम, अध्यादेश, आदेश, नियमों व उप- नियमों के आधिकारिक पाठ।
  2. हालांकि, किसी राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से हिंदी अथवा किसी राज्य की किसी अन्य राजभाषा को उच्च न्यायालय की कार्यवाही की भाषा का दर्जा दे सकता है परंतु यह न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों, आज्ञाओं व इसके द्वारा पारित आदेशों पर लागू नहीं होगा। अन्य शब्दों में, न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय, आज्ञा अथवा आदेश केवल अंग्रेजी में ही होंगे (जब तक संसद अन्यथा व्यवस्था न दे ) ।
  3. इसी प्रकार राज्य विधानसभा भी विधेयकों, अधिनियमों अध्यादेशों, आदेशों, नियमों, व्यवस्थाओं व उप-नियमों के संबंधों में, किसी भी भाषा का प्रयोग (अंग्रेजी के अतिरिक्त) को निर्धारित कर सकती है परंतु सबका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित करना होगा।
    राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार, राष्ट्रपति के प्राधिकार से प्रकाशित अधिनियम, अध्यादेश, आदेश, नियम व उप-नियमों के हिंदी में अनुवाद, आधिकारिक लेख माने जाएंगे। इसके अतिरिक्त संसद में प्रस्तुत प्रत्येक विधेयक के साथ इसका हिंदी अनुवाद होना आवश्यक है। इसी प्रकार कुछ मामलों में राज्य के अधिनियमों व अध्यादेशों का भी हिन्दी अनुवाद होगा।
यह अधिनियम राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि वह राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसलों, निर्णयों, पारित आदेशों में हिंदी अथवा राज्य की किसी अन्य भाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है परंतु इसके साथ ही इसका अंग्रेजी में अनुवाद भी संलग्न करना होगा। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार व राजस्थान में इस उद्देश्य के लिए हिंदी का प्रयोग होता है।
हालांकि संसद ने उच्चतम न्यायालय में हिंदी के प्रयोग के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है। अतः उच्चतम न्यायालय केवल उन्हीं याचिकाओं को सुनता है, जो केवल अंग्रेजी में हों। सन् 1971 में एक याचिकाकर्ता द्वारा हिंदी में बहस के लिए एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत की गयी। परंतु न्यायालय ने उस में याचिका को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि वह अंग्रेजी में नहीं है तथा हिंदी का प्रयोग असंवैधानिक है।
प्राधिकृत अनुवाद (केन्द्रीय विधि) अधिनिमय, 1973 के अनुसार किसी भी केन्द्रीय अधिनियम, अध्यादेश, आदेश, नियम, विनियम तथा नियमावली, जो कि राष्ट्रपति के अधिकार के तहत राजपत्र में प्रकाशित है, का अनुवाद यदि संविधान की आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी क्षेत्रीय भाषा (हिन्दी छोड़कर) में हुआ है तो उसे संबंधित भाषा का में प्राधिकृत पाठ माना जाएगा।

विशेष निर्देश

संविधान में भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा व हिंदी भाषा के उत्थान के लिए कुछ विशिष्ट निर्देश दिए गए हैं:
भाषायी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा
इस संबंध में संविधान में निम्नलिखित उपबंध हैं:
  1. प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को अपनी शिकायत निवारण हेतु संघ अथवा राज्य के किसी भी अधिकारी अथवा प्राधिकारी को राज्य संघ अथवा राज्य में जैसी भी स्थिति हो, प्रयोग की जाने वाली किसी भी भाषा में अम्भावेदन करने का अधिकार है। इसका अर्थ है कि किसी अभ्यावेदन को इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वह राजभाषा में नहीं है। 
  2. प्रत्येक राज्य अथवा स्थानीय प्राधिकरण को राज्य में भाषायी अल्पसंख्यक समूह के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर उनकी मातृभाषा में शिक्षा देने हेतु उपयुक्त सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए। राष्ट्रपति इस संदर्भ में आवश्यक निर्देश दे सकता है।
  3. भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए संविधान में किए गए प्रावधानों से संबंधित मामलों की जांच और उनकी रिपोर्ट के लिए राष्ट्रपति को एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति करनी चाहिए। राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट को संसद में प्रस्तुत करनी चाहिए तथा संबंधित राज्य सरकारों को भेजनी चाहिए।'
हिंदी भाषा का विकास
संविधान हिंदी के विस्तार व विकास के हेतु केंद्र के लिए कुछ कर्तव्य निर्धारित करता है ताकि यह भारत की विविध संस्कृति के बीच एक लोक भाषा बन सके।'
इसके अतिरिक्त केंद्र आठवीं अनुसूची में वर्णित हिन्दुस्तानी व अन्य भाषाओं के रूप, शैली व भावों को आत्मसात करके और इसके शब्दावली को मुख्यत: संस्कृत व गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द लेकर हिन्दी को समृद्ध करने के निर्देश देता है।
वर्तमान (2019) में आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं वर्णित (मूल रूप से 14) हैं। ये हैं - असमिया, बंगाली, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली मथिली (मैथिली), ओडिया', पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, डोगरी (डोंगरी), बोडो तथा संथाली । सिंधी भाषा को 21वें संविधान संशोधन विधेयक 1967 तथा कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को 71वें संविधान संशोधन विधेयक 1992 द्वारा जोड़ा गया। सन् 2003 के 92वें संशोधन अधिनियम द्वारा मैथिली, डोगरी, बोड़ो एवं संथाली भाषाओं को जोड़ा गया है ।
संविधान की आठवीं अनुसूची में उपरोक्त क्षेत्रीय भाषाओं को वर्णित करने के पीछे दो उद्देश्य हैं:
(अ) इन भाषाओं के सदस्यों को राजभाषा आयोग में प्रतिनिधित्व दिया जाए।
(ब) इन भाषाओं के रूप, शैली व भावों का प्रयोग हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए किया जाए।

राजभाषा पर संसदीय समिति

राजभाषा अधिनियम (1963) ने राजभाषा पर एक संसदीय समिति की व्यवस्था की थी जिसका काम था कि राज्य के अधिकारिक उद्देश्यों से हिंदी भाषा के व्यवहार (प्रयोग) में हुई प्रगति की समीक्षा की जाए। इस एक्ट के तहत उक्त समिति का गठन एक्ट को 26 जनवरी, 1965 को पारित होने के दस वर्ष बाद होना था। इस तरह 1976 में यह समिति गठित की गई। समिति में 30 संसद सदस्य हैं20 लोकसभा से तथा 10 राज्यसभा से।
समिति के गठन और प्रकार्य से संबंधित निम्नलिखित प्रावधान निम्नलिखित हैं:
  1. एक्ट के लागू होने की तिथि से लेकर दस वर्ष गुजर जाने के बाद एक राजभाषा समिति का गठन होगा। यह इस उद्देश्य से पेश प्रस्ताव जो संसद के किसी एक सदन में पेश होगा, जिसे राष्ट्रपति की पूर्वानुमति प्राप्त होगी और जो दोनों सदनों द्वारा पारित हो चुका होगा।
  2. समिति में तीस सदस्य होंगे। इनमें बीस लोकसभा के होंगे, दस राज्यसभा के। इनका चयन लोकसभा सदस्यों तथा राज्यसभा सदस्यों द्वारा एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से होगा।
  3. समिति का यह उत्तरदायित्य होगा कि केंद्र के प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए हिंदी के प्रयोग की दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा करें। तत्पश्चात् राष्ट्रपति को एक रिपोर्ट सौंपे, जिनमें अनुशंसाएं हों। राष्ट्रपति इस रिपोर्ट को संसद के पटल पर रखवाएंगे और सभी राज्य सरकारों को प्रेषित करेंगे।
  4. राष्ट्रपति रिर्पोट पर विचार के उपरांत और राज्य सरकारों के विचारों का गौर करने के बाद पूरी रिपोर्ट या उसके कुछ अंशों पर निर्देश जारी कर सकते हैं।
समिति के अध्यक्ष समिति के सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। परंपरा के अनुसार, केंद्रीय गृहमंत्री समय-समय पर समिति के अध्यक्ष चुने जाते रहे हैं।
समिति का काम है कि वह अपनी रिपोर्ट अपनी अनुशंसाओं सहित राष्ट्रपति को सौंप दें। ऐसा वह केंद्र सरकार के दफ्तरों में हिंदी के प्रयोग को परखने के बाद करेगी। वास्तविक स्थिति को परखने के लिए अन्य विधियों को अपनाने के अलावा समिति केंद्र सरकार के दफ्तरों का निरीक्षण करेगी जहां कई प्रकार की गतिविधियों द्वारा दफ्तरों को हिंदी के महत्तम प्रयोग के लिए प्रेरित किया जाए ताकि संविधान के उद्देश्य तथा राजभाषा अधिनियम के प्रावधान कार्यान्वित किये जा सकें। इस उद्देश्य से समिति ने तीन उप-समितियां गठित कीं। तीनों उप-समितियों से निरीक्षण करवाने के लिए कई मंत्रालय/ विभाग भी तीन भागों में बांट दिये गए।
इसके अलावा कई उद्देश्यों तथा अन्य सम्बद्ध मामलों में राजभाषा के प्रयोग का आकलन करने के लिए यह तय किया गया कि विविध क्षेत्रों से गणमान्य, जैसे- शिक्षा, न्यायालय, स्वयंसेवी संस्थाएं तथा मंत्रालयों/विभागों के सचिवों से मौखिक प्रमाण हासिल किए जाएं।
इस समिति द्वारा केंद्र सरकार के दफ्तरों में हिंदी के उत्तरोत्तर प्रयोग को संविधान द्वारा निर्दिष्ट राजभाषा संबंधी प्रावधानों की पृष्ठभूमि में समीक्षित किया जाए। इसके लिए राजभाषा अधिनियम, 1963 तथा उसमें उल्लिखित नियमों के आलोक में भी यह समीक्षा हो। एतद् विषयक सरकारी विज्ञप्तियों/निर्देशों को संज्ञान लिया जाए। समिति के संदर्भ पद ( terms of reference) व्यापक होने के चलते यह और भी प्रासंगिक आयामों का आकलन करती है। ये आयाम हैं- स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में शिक्षण का माध्यम, सरकारी सेवाओं में भर्ती का तरीका, विभागीय परीक्षाओं का माध्यम आदि। राजभाषा के अनेक पक्षों के विस्तार को संज्ञान में लेते हुए और वर्तमान स्थिति को भी ध्यान में रखते हुए समिति ने जून 1985 तथा अगस्त 1986 में हुई। अपनी बैठकों में फैसला किया कि वह राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट भागों (Parts) में पेश करेगी। रिपोर्ट का हर भाग राजभाषा नीति के खास पक्ष से संबद्ध होगा।
समिति के सचिव समिति सचिवालय के अध्यक्ष हैं। उनकी मदद के लिए अवर सचिव तथा अन्य अधिकारियों के स्तर के अधिकारी होते हैं। वे समिति के विभिन्न कार्यों के निष्पादन में हर संभव सहायता करते हैं। प्रशासनिक उद्देश्यों से यह कार्यालय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग के अधीन है।

शास्त्रीय भाषा का दर्जा

2004 में भारत सरकार ने एक नए भाषा वर्ग शास्त्रीय भाषाएं को बनाने का फैसला किया। 2006 में इसने शास्त्रीय भाषाएं का दर्जा देने के मानदंड तय किए।
लाभ
एक बार यदि कोई भाषा शास्त्रीय भाषा (classical language) घोषित हो गई, तो उसे एक उत्कृष्टता केंद्र स्थापित करने के लिए वित्तीय सहायता मिलती है, जहां उस भाषा की पढ़ाई होती है और इसके अलावा गणमान्य विद्वानों को दो बड़े पुरस्कार दिए जाने का रास्ता तैयार हो जाता है। इसके अलावा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अनुरोध किया जा सकता है कि वह कम-से-कम शुरूआत में केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शास्त्रीय भाषाओं के लिए एक निश्चित संख्या में पेशेवर पीठ स्थापित करे जिन पर उक्त भाषा के गणमान्य विद्वान स्थापित हो । 
मानदंड
किसी भाषा को शास्त्री घोषित करने का आधार है-1500-2000 वर्ष पुराने इसके प्रारंभिक ग्रंथों में दर्ज इतिहास की पौराणिकता हो प्राचीन साहित्य / ग्रंथ राशि जिसे वक्ताओं की पीढ़ी-दर-पीढ़ी बेशकीमती माने तथा एक साहित्यिक परंपरा हो जो कि मौलिक हो तथा दूसरे भाषा भाषी से उधार न ली गई हो। चूँकि शास्त्री भाषा और समुदाय साहित्य आज से भिन्न है, तो क्लासिकी भाषा और इससे व्युत्पन्न रूप के बीच एक फर्क है।"
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