General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | छठी शताब्दी ई.पू. का भारत

महाजनपद का उदयः- आर्य जातियों के परस्पर विलानींकरण से जनपदों का विस्तार हुआ और महाजनपद बनें ।

General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | छठी शताब्दी ई.पू. का भारत

General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | छठी शताब्दी ई.पू. का भारत

महाजनपद का उदयः- आर्य जातियों के परस्पर विलानींकरण से जनपदों का विस्तार हुआ और महाजनपद बनें ।
6ठीं शताब्दी ई.पू. में 16 महाजनपद भारत में था इस बात की जानकारी हमें बौद्ध ग्रंथ "अंगुत्तर निकाय" महावस्तु एवं जैन ग्रंथ भगवती सूत्र में मिलता है। इसमें सबसे शक्तिशाली "मगध' महाजनपद थें ।
अश्मक एक ऐसा महाजनपद था जो दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के किनारे था ।
वज्जि एवं मल्ल में गणतंत्रात्मक व्यवस्था थी जबकि अन्य में राजतंत्रात्मक व्यवस्था का प्रचलन था ।
विश्व में पहला- गणतंत्र लिच्छवि के द्वारा वैशाली में स्थापित किया गया।
वैशाली का लिच्छवी गाणराज्य विश्व का प्रथम गणतंत्र माना जाता है जो वज्जि संघ की राजधानी हैं। इसका गठन 500 ई.पू. में हुआ था।
विश्व का सबसे प्राचीन वैभवशाली महानगर पाटलिपुत्र है ।
(1) काशी:-
इसकी राजधानी वाराणसी थी । "सोननंद जातक" से ज्ञात होता है कि मगध कोशल तथा अंग के उपर काशी का अधिकार था । :-
(2) कोशल:-
रामायणकालीन कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी । यह उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में सई नदी तक तथा पश्चिम लेकर पूर्व में गंडक नदी तक फैला था ।
(3) अंग:-
अंग की राजधानी प्रचीन काल में व्यापार-वाणिज्य के लिए प्रसिद्ध थी
(4) वज्जि:- 
यह आठ राज्यों का संघ का था। इसमें वज्जि के अतिरिक्त वैशाली के लिच्छवी, मिथिला के विदेह तथा कुण्डग्राम के ज्ञातृक विशेष रूप से प्रसिद्ध थें।
(5) चेदि:- 
महाभारत काल में यहाँ का शासक शिशुपाल था जिसका वध कृष्ण द्वारा किया गया ।
(6) वत्सः- 
इसकी राजधानी कौशांबी थी । बुद्धकाल में यहाँ पौरव वंश का शासन था जिसके राजा उदयन थें
(7) कुरू:- 
इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी । बुद्ध के समय यहाँ के राजा कौरव्य था ।
(8) शूरसेन:- 
इसकी राजधानी मथुरा थी । यहाँ के राजा बुद्धकाल में अवंतिपुत्र था जो बुद्ध के प्रमंख शिष्यों में एक था।
(9) अश्मकः-
इसकी राजधानी पोतन या पोटली थी जो कि दक्षिण भारत की एकमात्र जनपद थी ।
(10) गंधारः- 
इसकी राजधानी तक्षशिला थी । प्राचीन काल में तक्षशिला शिक्षा का एक प्रसिद्ध केंद्र था ।
(11) कंबोज:- 
इसकी राजधानी राजपुर अथवा हाटक थी। प्राचीन समय में यह जनपद अपने श्रेष्ठि घोड़ों के लिए विख्यात था ।
(12) मगध :-
मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह या गिरिब्रज थी कालांतर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र स्थानांतरित हुई ।
रज्जैन का प्राचीन नाम अवन्तिका है।

मगध

परिचयः

प्राचीन काल में मगध 16 महाजनपदों में सबसे शक्तिशाली था । इसका विस्तार मूलतः दक्षिण बिहार के क्षेत्र में था। इसके अंतर्गत आधुनिक पटना और गया जिला शामिल है।

भौगोलिक स्थितिः

इसके उत्तर में गंगा नदी, दक्षिण में विंध्य पर्वत, पूर्व में चंपा से पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत है ।

प्रमुख राजवंश

हर्यक वंश (544–412 ई.पू.)

• संस्थापक:- बिम्बिसार
• राजधानीः- राजगृह या गिरिब्रज ( पाटलिपुत्र )
प्रमुख शासकः
बिम्बिसार (544-492 ईपू.):- बिम्बिसार इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था । इसे मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है । ( 15 वर्ष की आयु में राजा बना)
जैन साहित्य में इसे " श्रेणिक" के नाम से जाना जाता है ।
बिम्बिसार वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने राज्य की सीमा को विस्तार किया-
(1) पहली पत्नी महाकोशला थी जो कोशल राज्य की पुत्री थी और प्रसनजित की बहन थी । इनके साथ दहेज में काशी प्रांत मिला जिससे एक लाख की वार्षिक आय आती थी ।
(2) दूसरी पत्नी वैशाली की लिच्छवी राजकुमारी चेल्लना थी, जिससे अजातशत्रु का जन्म हुआ ।
(3) तीसरी पत्नी क्षेमा थी जो पंजाब के मद्र कुल की राजकुमारी थी।
(4) चौथी पत्नी आम्रपाली थी जो वैशाली की गणिका थी ।
बिम्बिसार अंग को जीतकर उसे अपने साम्राज्य में मिलाया । यहाँ के शासक ब्रह्मदत्त था । परंतु मगध में मिलाने के पश्चात् अजातशत्रु को वहाँ का शासक बनाया गया ।
बिम्बिसार को सेनिया अर्थात नियमित तथा स्थायी सेना रखने वाला भी कहा जाता है ।
बिम्बिसार ने अवन्ति के शासक चंडप्राद्योत से मित्रता कर लिया तथा अपने राजवैद्य जीवक को उसके ईलाज के लिए भेजा ।
बिम्बिसार बौद्ध धर्म का अनुयायी था ।
बिम्बिसार की हत्या उसके पुत्र अजातशत्रु ने 492 ईपू. में कर दिया।
अजातशत्रु (492 ईपू . - 460ई.पू.)
इसका उपनाम कुणिक था । यह प्रारंभ में जैन धर्म का अनुयायी था ।
अजातशत्रु के समय में ही राजगृह के सप्तपणी गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ जिसमें प्रसेनजित की हार हुई परंतु बाद में दोनों में समझौता हो गया ।
प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से किया। इससे अजातशत्रु को काशी प्राप्त हुआ ।
अजातशत्रु अपने कूटनीतिक मित्र वर्षकार की सहायता से वैशाली पर आक्रमण कर इसे जीतकर अपने साम्राज्य मिलाया। इस युद्ध में अजातशत्रु ने रथमशल तथा महाशिलाकंटक नामक हथियार का प्रयोग किया। में
अजातशत्रु अपने पिता की हत्या कर गद्दी प्राप्त किया जिस कारण इसे पितृहत्या भी कहा जाता है।
अजातशत्रु अपने पिता की हत्या कर गद्दी प्राप्त किया बदले में अपने पुत्र के द्वारा मारा गया, यानी इसकी हत्या इसके पुत्र उदायिन ने किया ।
अजातशत्रु को वैशाली को जीतने में 16 वर्ष का समय लगा।
राजगीर पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ है।
उदायिन (460 ई.पू. - 444 ई.पू.)
पुराणों एवं जैन ग्रंथों के अनुसार उदायिन ने गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र (कुसुमपुर) नामक नगर की स्थापना किया। 
इन्होनें अपनी राजधान थे की बनाया।
ये जैन धर्म को मानते थें ।
हर्यक वंश का अंतिम शासक उदायिन का पुत्र नागदशक था जिसे उसे अमात्य (मंत्री) शिशुनाग ने हत्या कर हर्यक वंश के स्थान पर शिशुनाग वंश की स्थापना किया।

शिशुनाग वंश (412-344 ईपू.)

शिशुनागः-
इस वंश का संस्थापक शिशुनाग को माना जाता है। इसी के नाम पर इस वंश का नाम शिशुनाग पड़ा।
इन्होने अवंति तथा वत्स राज्य पर अधिकार कर उसे मगध साम्राज्य में मिलाया ।
इन्होने वैशाली को अपनी राजधानी बनाया ।
इसके शासन के समय मगध साम्राज्य के अंतर्गत बंगाल से लेकर मालवा तक का भू-भाग शामिल था ।
महावंश के अनुसार शिशु नाग की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कालाशोक गद्दी पर बैठा ।

कालाशोक (394-366 ई.पू.)

इसका नाम पुराण तथा दिव्यावदान में काकवर्ण मिलता है।
इसने वैशाली के सथान पर पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।
इसी के शासन काल में द्वितीय बौद्ध सम्मेलन आयोजित हुआ ।
बाणभट्टं द्वारा रचित हर्षचरित के अनुसार काकवर्ण को अपने राजधानी पाटलिपुत्र में घुमते समय महापदमनंद नामक व्यक्ति ने चाकू मारकर हत्या कर दी थी ।
महाबोधिवंश के अनुसार कालाशोक का दस पुत्र था जिसने कालाशोक के निधन के पश्चात 20 वर्ष तक शासन किया ।
इस वंश के अंतिम शासक के रूप में नंदिवर्द्धन का विवरण मिलता है। 1

नंद वंश (344-323- ई.पू.)

पुराणों के अनुसार इस वंश के संस्थापक महापदम्नंद एक शुद्र था ।
इसने सर्वक्षत्रातंक (क्षत्रियों का नाश करने वाला) तथा भार्गव (दूसरे परशुराम का अवतार) की उपाधि धारण किया। महापदम्नंद ने कलिंग को जीतकर मगध सम्राज्य में मिलाया ।
इसने एक विशाल सम्राज्य की स्थापना किया तथा "एकाराट" और "एकक्षत्र" की उपाधि धारण किया ।
महापदम्नंद के आठ पुत्र थें । घनानंद भी इसका पुत्र था जो नंद वंश का अंतिम शासक था ।
घनानंद को उग्रसेन यानी बड़ी सेना का स्वामी कहा जाता है ।
घनानंदः-
यह सिकंदर का समकालीन था। इसके समय में 326 ई.पू. में सिकंदर भारत पर आक्रमण किया। यूनानी लेखक ने इसे अग्रमीज कहा है।
घनानंद के दरबार में चाणक्य आया था जिसे घनानंद ने अपमानित किया था । कलांतर में बदले की भावना से चाणक्य अपने शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य की मदद से घनानंद की हत्या कर मौर्य वंश की नींव रखी।
अभिलेखीय साक्ष्य से प्रकट होता है कि नंद राजा के आदेश से एक नहर कलिंग में खोदी गई ।
गृहपति का अर्थ किसान होता है।
महाजनपद काल में श्रेणियों के संचालक को श्रेष्ठिन कहा जाता था ।

पूर्वोतर भारत के छोटे-छोटे रजवाड़ों और गाणराज्यों का विलय धीरे-धीरे मगध सम्राज्य में हो गया। परंतु पश्चिमोत्तर भारत की स्थिति भिन्न थी । कंबोज, गंधार और मद्र आदि के राजा आपस में ही लड़ते थें तथा इस क्षेत्र में कोई भी मगध सम्राज्य जैसा शक्तिशाली नहीं था जो इन राजवंशों को संगठित कर सकें। इसी वजह से यह द्वोत्र अराजकता एवं अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त था । ऐसी स्थिति में विदेशी आक्रांताओं का ध्यान भारत के इस भू–भाग की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था । परिणामस्वरूप यह क्षेत्र विदेशी आक्रमणों का शिकार हुआ।
भारत पर सर्वप्रथम विदेशी आक्रमण ईरान के हखमनी वंश के (एशिया) राजाओं ने किया।
जिस समय मगध के राजा अपना क्षेत्र बढ़ा रहें थें उस समय ईरान के हखमनी शासक भी अपना राज्य का विसतार कर रहें थें ।

हखमनी साम्राज्य (ईरानी)

इस वंश की स्थापना 6ठीं शताब्दी ई. पू. में साइरस द्वितीय (558-529 ईपू.) ने किया ।
साइरस द्वितीय एक महत्वाकांक्षी शासक था । अतः थोड़े ही समय में वह पश्चिमी एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बन गया ।
प्लिनी के विवरण से पता चलता है कि साइरस द्वितीय ने कपिशा नगर को ध्वस्त किया ।
साइरस द्वितीय की मृत्यु कैस्पियन क्षेत्र में डरबाइक नामक एक पूर्वी जनजाति के विरूद्ध लड़ते हुए हुई तथा उसका पुत्र केम्बिसीज द्वितीय (529-522 ईपू.) शासक बना जो गृह युद्ध में उलझा रहा जिस कारण भारत की ओर कोई विस्तार नहीं हो सका ।

दारा प्रथम (डेरियस प्रथम) (522-486ईपू.)

  • भारत पर आक्रमण करने में प्रथम सफलता दारा प्रथम को 516 ई.पू. में मिला ।
दारा के यूनानी सेनापति स्काईलैक्स ने सिंधु से 516 ई.पू. में मिला । 
दारा प्रथम ने 516 ई. पू. में सर्वप्रथम गंधार को जीतकर फारसी साम्राज्य में शामिल किया ।
भारत का पश्चिमोत्तर भाग दारा के साम्राज्य का 20वाँ प्रांत था। यहाँ से इसे 360 टैलेन्ट सोना राजस्व के रूप में प्राप्त होता था ।
दारा प्रथम का अधिकार कंबोज एवं गंधार पर भी था ।

क्षयार्ष/जरक्सीज (486-465 ईपू )

  • यह दारा का पुत्र था । इन्होने अपनी फौज में भारतीयों का पुत्र था । इन्होनें अपनी फौज में भारतीयों को शामिल किया।
इस साम्राज्य का अंतिम शासक दारा तृतीय (360–330 ईपू) हुआ |
दारा तृतीय को यूनानी सिकंदर ने शासन समाप्ति हुई। श्री गोगामेला के ब ( 331 ईपू.) में पराजित किया इस प्रकार ईरानी
हखमनी वंश के शासनकाल में 28 प्रांत था ।
प्रभावः
(1) अभिलेख उत्कीर्ण करने की प्रथा प्रारंभ हुई।
(2) पश्चिमोत्तर भारत में खरोष्टी लिपि का विकास हुआ जो अरबी लिपि के तरह दाई सं बाईं लिखी जाती थी।
  • फारसी स्वर्ण मुदा:- डेरिक कही जाती थी ।
  • फारसी रजत मुदाः- सिगलोई कही जाती थी ।

यूनानी आक्रमण (326 ईपू.)

प्राचीन भारत में दूसरा विदेशी आक्रमण एवं पहला यूरोपीय आक्रमण यूनानियों के द्वारा किया गया।
भारत पर सर्वप्रथम यूनानीवासी सिंकदर ने 326 ई. पू. में आक्रमण किया ।

सिकन्दर

⇒ फिलिप द्वितीय जो सिंकदर का पिता था, 359 ई. पू. में यूनान के छोटे से प्रांत मकदूनिया या मेसीडोनिया का शासक बना। इसकी हत्या 329 ई. पू. में कर दी गई।
  • माँ:- ओलंपिसस
  • पत्नी:- रूखसान
♦ सिकन्दर - अरस्तु - प्लेटो- सुकरात
पिता के मृत्यु के पश्चात सिकन्दर सत्तारूद हुआ।
सिकन्दर का जन्म 356 ई. पू में हुआ। सिकंदर को एलेक्जेंडर के नाम से भी जाना जाता है । वह अरस्तु का शिष्य था।
सिकंदर का मुख्य सेनापति सेल्यूकस निकेटर था ।
सिकंदर का जल सेनापति निर्याकस था ।
सिकंदर का प्रिय घोड़ा बऊकेफला था जो झेलम के युद्ध में मारा गया। इसी के याद में सिकंदर भारत से लौटते वक्त झेलम नदी के तट पर बऊकेफला नामक नगर की स्थापना किया ।
सिकंदर सर्वप्रथम न सिर्फ एशिया माइनर (तुर्की) और इराक को बल्कि ईरान को भी जीत लिया। ईरान से वह भारत की ओर बढ़ा ।
इतिहास के पिता कहे जाने वाले हेरोडोटस और अन्य यूनानी लेखकों ने भारत का वर्णन अपार संपत्ति वाले देश के रूप में किया था। सिकंदर भारत की अपार संपत्ति पर ललचाया था। इसी कारण उन्होने भारत पर आक्रमण किया । 
सिकंदर को विश्व विजेता इस कारण कहा जाता है क्योकि सिकंदर वैसे सभी क्षेत्रो को जीत लिया जिसकी जानकारी ग्रीक लोगों को थी । 
♦ उदाहरण:- ईरान, सीरिया, मिस्र, मेसोपोटामिया, भारत, आदि...
ईरान पर विजय पा लेन के बाद सिकन्दर काबुल की ओर बढ़ा जहाँ से हिंदुकुश पर्वत (खैबर दर्रा) पार करते हुए 326 ई.पू. में भारत आया । सिन्धु नदी तक पहुँचने में उन्हें 5 महीना लगा। सिकंदर 19 महिना तक भारत में रूका था।
तक्षशिला के शासक आम्भी सिकंदर के सामने घुटने टेक दिया और उसे सहयोग का वचन दिया।
झेलम / वितस्ता/ हाइडेस्पीज का युद्धः-
यह युद्ध पंजाब के शासक पोरस और सिकंदर के बीच हुआ जिसमें पोरस की हार हुई।
सिकंदर की सेना व्यास नदी को पार करने से इंकार कर दिया ।
सिकंदर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में निकैया नामक नगर की स्थापना किया।
सिकंदर 325 ई. पू. में स्थलमार्ग से भारत से वापस लौट गया।
सिकंदर की मृत्यु 323 ईपू. में ईराक के बेबीलोन में मात्र 33 वर्ष की अवस्था में हो गया।
सिकंदर के साथ आने वाले इतिहासकार निर्याकस आनेसिक्रिटस तथा अरिस्टोबुलस था ।
सिकंदर के काल में भारत में बढईगिरी सबसे उन्नत दस्तकारी थी। बढ़ई रथ, नाव और जहाज बनाते थें I
इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने लिखा है कि सिकंदर आँधी की तरह आया और चला गया परंतु भारत अपरिवर्तित रहा ।
सिकंदर द्वारा स्थापित नगरः
(1) निकैया ( विजयनगर )
(2) बुकेफला (झेलम के तट)
(3) सिकन्दरिया (काबुल एवं सिंघ)
19 माह तक भारत में रहने के बाद सिकंदर की सेनाओं ने व्यास नदी के आगे बढ़ने से इंकार कर दिया । फलस्वरूप उसे वापस लौटना पड़ा। उसने अपने संपुर्ण विजित क्षेत्र को चार प्रशासनिक ईकाइयों में बाँट दिया-
(1) प्रथम प्रांत :- सिंधु नदी के उत्तर तथा पश्चिमी भागों में बनाया गया तथा यह क्षेत्र फिलिप के अधीन कर दिया गया।
(2) दूसरा प्रांत:- सिंधु तथा झेलम के बीच के भू-भाग को बनाया गया तथा यहाँ का शासन आम्भी के अधीन कर दिया गया।
(3) तीसरा प्रांत:- झेलम - व्यास - पोरस
(4) चौथा प्रांतः- सिंधु नदी के निचले भाग शासन - पिथोन
सिकंदर को वापस लौटते समय अनेक गणराज्य के विरोध का सामना करना पड़ा जिसमें सबसे प्रबल विरोध मालवा तथा क्षुद्रक गणों के संघ का था। इस संघर्ष में सिकंदर घायल हुआ। अंततः मालवा पराजित हुआ और अनेक राज्य के सभी नर-नारी तथा बच्चे मौत के घाट उतार दिए गए।
सिंधु नदी के मुहाने पर पहुँचकर सिकंदर ने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त कर दिया। सेना के एक टुकड़ी को जलमार्ग द्वारा निर्याकस के नेतृत्व में भेज दिया एवं स्वयं स्थल मार्ग से अपने देश की ओर लौटा ।
> प्रश्नः भारत में सिकंदर के सफलता के क्या-क्या कारण थें ?
(1) उस भारत में कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी ।
(2) उसकी फौज बेहतर थी ।
(3) उसे देशद्रोही (आम्भी ) शासको से सहायता मिली।
सिकंदर के आक्रमण के समय अश्वक एक सीमांत गणराज्य था जिसकी राजधानी मस्सग थी। यूनानी लेखकों के अनुसार सिकंदर के विरूद्ध हुए युद्ध में बड़ी संख्या में पुरूष सैनिकों के मारे जाने के पश्चात् यहाँ की स्त्रियों ने शस्त्र धारण किया था ।

मौर्य साम्राज्य (322-185 ईपू.)

मौर्य वंश (जानकारी का स्त्रोत)

साहित्य साक्ष्यः
कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र विशाखदत्त कृत्त मुद्राराक्षस सोमदेव कृत बृहत्कथामंजरी तथा पतंजलि के महाभाष्य आदि से जानकारी मिलती है।
बौद्ध ग्रंथ में दीपवंश, महावंश, दिव्यावदान आदि प्रमुख है।
जैन ग्रंथ में भद्रबाहु का कल्पसूत्र एवं हेमचंद का परिशिष्ट पर्वन।
नोट- इन सभी ग्रंथों में सबसे महत्वपूर्ण अर्थशास्त्र है जो मौर्य प्रशासन के अतिरिक्त चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन पर भी प्रकाश डालता है ।
विदेशी विवरणः
विदेशी विवरण में मेगास्थनीज की इंडिका मौर्य इतिहास की जानकारी उपलब्ध कराने का प्रमुख स्त्रोत है।
जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों ने चंद्रगुप्त मौर्य को "सैंड्रोकोट्टस" कहा है। जबकि प्लूटार्क ने एण्ड्रोकोटस कहकर पुकारा ।
सर्वप्रथम विलियम जोन्स ने ही सेंड्रोकोटस की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से की है ।
जस्टिन चंद्रगुप्त और सिकंदर के बीच हुई मुलाकात का वर्णन करता है 1
मेगास्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था जो चद्रगुप्त मौर्य के दरबार में पाटलिपुत्र में रहता था। इन्होनें इण्डिका में पाटलिपुत्र का विस्तार से वर्णन किया।
पुरातात्विक साक्ष्यः
इस काल के पुरातात्विक साक्ष्यों में अशोक का अभिलेख अत्यधिक महत्वपूर्ण है।,
अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त शक महाक्षत्रप रूद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख भी गौर्य इतिहास के विषय में जानकारी प्रदान करता है।
मौर्यकालीन इतिहास की जानकारी काली पॉलिश वाले मृदभांड तथा चाँदी व ताँबे के पंचमार्क (आहत सिक्के) से भी मिलती है ।

मौर्य साम्राज्य

स्थापनाः
मौर्य साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त ने अपने गुरू चाणक्य की मदद से नंद वंश के शासक घनानंद को पराजित कर दिया। इन्होने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र को बनाया |
चंद्रगुप्त मौर्य की माता का नाम मूर था जिसका संस्कृत में अर्थ मौर्य होता है, इसलिए इस वंश का नाम मौर्य वंश पड़ा। चंद्रगुप्त मूल रूप से उत्तरप्रदेश के पीपली वन का रहने वाला था ।
मौर्य वंश के शासक "क्षत्रिय" के थें ।
विशाखदत्त ने चंद्रगुप्त के लिए वृषल शब्द का प्रयोग किया यानी निम्न कुल का बताया ।
प्रमुख शासकः
  • चंन्द्रगुप्त मौर्य ( 322-298 ई.पू.)
चंद्रगुप्त मौर्य एक महान विजेता साम्राज्य निर्माता तथा कुशल प्रशासक था । 
चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान (फारस ) से लेकर पूर्व में बंगाल, उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कर्नाटक (मैसूर) तक फैला था । अतः हम कह सकते हैं कि प्रथम भारतीय साम्राज्य की स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने किया था ।
संभवतः 305 ई.पू. में यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच युद्ध हुआ जिसमें चंद्रगुप्त की जीत हुई। तत्पश्चात् संधि शर्तों के अनुसार सेल्यूकस 500 हाथी लेकर बदले में एरिया (हेरित) अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया (ब्लुचिस्तान ) एवं पेरीपेनिसदाई ( काबूल) का क्षेत्र चंद्रगुप्त को सौंप दिया साथ ही साथ अपनी पुत्री हेलिना का विवाह चंद्रगुप्त से कर दिया। इस बात का उल्लेख सिर्फ एप्पियानस नामक यूनानी ही देता है।
सेल्युकस ने अपने राजदूत मेगास्थनीज को चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा ! यूनानी लेखक पाटलिपुत्र को "पोलिब्रोथा” कहकर पुकारता था।
बंगाल पर चंद्रगुप्त मौर्य की विजय के बारे में जानकारी महास्थान अभिलेख से मिलती है।
मालवा, गुजरात, महाराष्ट्र को जीतकर सर्वप्रथम अपने साम्राज्य में मिलाया। साथ ही साथ दक्कन के क्षेत्र को भी जीतने का श्रेय सर्वप्रथम चंद्रगुप्त को ही जाता है |
चंद्रगुप्त मौर्य के दक्षिण विजय के विषय में जानकारी हमें तमिल ग्रंथ अहनानर एवं मुरनानर तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है।
सोहगौरा (ताम्रपत्र, गोरखपुर) तथा महास्थान अभिलेख (बांग्लादेश के बोगरा जिला ) चंन्द्रगुप्त मौर्य से संबंधित है। ये अभिलेख अकाल के समय किए जाने वाले राहत कार्यों के संबंध में विवरण देता है ।
रूद्रदामन के गिरनार अभिलेख से ज्ञात होता है कि चंद्रगु मौर्य ने पश्चिम भारत में सौराष्ट्र का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अधीन कर लिया। इस प्रदेश में पुष्यगुप्त जो चंद्रगुप्त का राज्यपाल था, इन्होनें सुदर्शन झील का निर्माण करवाया ।
जैन ग्रंथ राजावली कथा के उल्लेख मिलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य अपने पुत्र बिन्दुसार को गद्दी सौंपा ।
चंद्रगुप्त का महल लकड़ी का बना था ।
परिशिष्ट पर्व नामक जैन ग्रंथ यह उल्लेख करता है कि चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म को अपने जीवन के अंतिम चरण में अपनाया ।
चंद्रगुप्त जैन मुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा लिया ।
चंद्रगुप्त मौर्य अपने जीवन का अंतिम समय कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में बिताया तथा 298 ई.पू. में उपवास द्वारा शरीर त्याग दिया जिसे जैन धर्म में सल्लेखना या संथारा कहा जाता है। 
प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने 6 लाख की सेना लेकर चाणक्य संपुर्ण भारत को रौंद डाला ।
चाणक्य को कौटिल्य एवं विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है।
चाणक्य के बचपन का नाम विष्णुगुप्त था । 
चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री था।
महावंश टीका में उल्लेख मिलता है कि चाणक्य तक्षशिला का एक ब्राह्मण था ।
बृहत्कथाकोष के अनुसार चाणक्य की पत्नी का नाम यशोमति था ।
चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना किया। अर्थशास्त्र से हमें मौर्य साम्राज्य के राजनीतिक गतिविधी की जानकारी मिलती है । 
कौटिल्य के अर्थशास्त्र की तुलना मैकियावेली के प्रिंस से की जाती है।
जब राजा दरबार में बैठा हो तो उसे प्रजा से बाहर प्रतीक्षा नहीं करवानी चाहिए- कौटिल्य
प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है और प्रजा के हित में उसका हित है- कौटिल्य
अर्थशास्त्र में 15 अभिकरण और 180 प्रकरण है ।
सप्तांग सिद्धांत के अनुसार राज्य का सातवाँ अंग मित्र है।
विशाखदत्त मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त मौर्य की चर्चा विस्तार पूर्वक की गई है। इस ग्रंथ में चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र माना गया तथा उसे वृषल यानी निम्न कुल का बताया गया है।
कुम्रहार से पाटलीपुत्र के प्राचीन अवशेष मिलता है।
बुलंदीबाग, पाटलिपुत्र का प्राचीन नगर था । यहाँ से लकड़ी का विशाल भवन मिला। इन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय स्नूपर महोदय को है ।
कौटिल्य का संबंध तक्षशिला विद्या केंद्र से था। मौर्य काल में शिक्षा का सबसे प्रमुख केंद्र तक्षशिला को माना जाता है ।

मेगास्थनीज 

यह सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था जो चंद्रगुप्त के पाटलिपुत्र दरबार में आया था |
इन्होने इंडिका नामक ग्रंथ की रचना किया जिससे हमें मौर्य प्रशासन के विषय में जानकारी मिलता है।
मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को 7 वर्गो में विभाजित किया था-
(1) दार्शनिक (2) किसान (3) अहीर (4) सैनिक (5) कारीगर (6) निरीक्षक (7) सभासद
इनमें सर्वाधिक संख्या किसानों की थी । 
भारतीय लिखने की कला को नहीं जानते थें यह मेगास्थनीज की उक्ति है ।

बिन्दुसार (298–273 ई.पू.)

⇒ चंद्रगुप्त मौर्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बिन्दुसार हुआ। जो 298 ई.पू. में मगध की राजगद्दी पर बैठा। इनकी माता दुर्रधरा थी ।
बिन्दुसार आजीवक सम्प्रदाय को मानता था । इस संप्रदाय की स्थापना मक्खलिपुत्र गोशाल ने किया था।
बिंदुसार को अमित्रद्यात यानी शत्रु विनाशक के नाम से भी जाना जाता है।
बिंदुसार को वायूपुराण में भद्रसार / वारिसार कहा गया है जबकि जैन ग्रंथ में सिंहसेन कहा गया है।
स्ट्रैबो के अनुसार, सीरिया का शासक एंटियोकस प्रथम ने डाइमेकस नामक एक राजदुत बिंदुसार के दरबार में भेजा था, जिसे मेगास्थनीज का उत्तराधिकारी माना जाता है।
बिंदुसार सीरिया के शासक एण्टिओकस प्रथम से सखी अंजीर, अंगूरी मदिरा एवं एक दार्शनिक की माँग किया था। सीरियाई सम्राट ने दो चीजें अंजीर और मदिरा भेज दिया परंतु दार्शनिक के संबंध में कहा की यूनानी कानून के अनुसार दार्शनिकों का विक्रय नहीं किया जा सकता ह ।
मिस्र के शासक टॉलमी तृतीय फिलाडेल्फस ने "डायनोसिस' नामक राजदूत बिंदुसार के दरबार में भेजा ।
बिंदुसार के शासनकाल में दो विद्रोह तक्षशिला में हुआ था । इसे दबाने के लिए पहले सुसीम को भेजा गया बाद में अशोक को ।
बिन्दुसार के काल में भी चाणक्य ही प्रधानमंत्री था ।
दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि उसकी राज्यसभा में आजीवक संप्रदाय का एक ज्योतिषी पिंगलवत्स निवास करता था ।

अशोक (273–232 ई.पू.)

अशोक का जन्म 304 ई. पू. में पाटलिपुत्र में हुआ था ।
इनकी माता का नाम सुभद्रांगी था जिसे धर्मा के नाम से भी जाना जाता है। जबकि अशोक के पिता बिन्दुसार थें । 
अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ। इससे पहले अशोक उज्जैन का राज्यपाल था ।
सभी मौर्य शासकों में सबसे महान अशोक था।
सिंहली अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने 99 भइयों की हत्या कर सिंहासन प्राप्त किया ।
अशोक के उसके अभिलेखों में सामान्यतः देवनाम, प्रियदर्शनी (देवों का प्यारा) कहा गया है।
अशोक नाम का उल्लेख मध्यप्रदेश के गुर्जरा तथा कर्नाटक के मास्की, नेट्टूर तथा उदेगोलम अभिलेखमें मिलता है।
पुराणों में उसे अशोकवर्धन तथा दीपवंश में करमोली कहा गया है।
राज्याभिषेक से संबंधित मास्की के लघु शिलालेख में अशोक ने स्वयं को बुद्ध शाक्य कहा है।
अशोक की 5 पत्नी असंधिता, देवी, कारूवाकी, पद्मावती तथा तिष्यारक्षा थी जिसे अशोक के उपर सर्वाधिक प्रभाव कारुवाकी का पड़ा ।
भाब्र/वैराट (राजस्थान) अभिलेख में अशोक के लिए मगध सम्राट नाम आया है।
असम से अशोककालोन कोई भी साक्ष्य नहीं मिला है जिस आधार पर हम कह सकते हैं कि यह क्षेत्र अशोक के साम्राज्य से बाहर था ।
अशोक पहला भारतीय राजा हुआ जिसने अपने अभिलेखों के सहारे सीधे अपनी प्रजा को संबोधितकिया ।
नोट- अशोक के शिलालेख की खोज 1750 ई में पाद्रेटी फैन्येलर ने सबसे पहले दिल्ली में अशोक के स्तम्भ से लगाया किन्तु अशोक के अभिलेखों को सर्वप्रथथम जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई में पढ़ा।
भारत में शिलालेख का प्रचलन सर्वप्रथम अशोक ने किया ।

अशोककालीन प्रांत

प्रांत राजधानी
उत्तरापथ तक्षशिला
अवंति उज्जयिनी
कलिंग तोसली
दक्षिणापथ सुवर्ण गिरी
प्राची (मध्यप्रांत)  पाटलिपुत्र
अशोक का मूल्यांकनः
प्राचीन भारत के इतिहास में अशोक को महानतम सम्राटो में सबसे आगे रखा जाता है। अशोक के शासनकाल में भारतवर्ष ने अभूतपूर्व राजनीतिक एकता एवं स्थायित्व प्राप्त किया। सही अर्थों में अशोक प्रथम राष्ट्रीय सम्राट था, जिसने विश्व इतिहास में भारत का नाम दर्ज कराया ।
अशोक के उत्तराधिकारी:
अशोक का निधन 232 ई. पू. में पाटलिपुत्र में हो गया। उसका पुत्र कुणाल हुआ ।
अशोक के पौत्र दशरथ ने 8 वर्षो तक शासन किया तथा अशोक की भाँति उन्होनें देवनाम प्रिय की उपाधि धारण किया तथा आजीवक संप्रदाय के साधुओं के लिए गया जिले में नागार्जुनी पहाड़ी पर तीन गुफाएँ निर्मित करवाया ।
मौर्य वंश के अंतिम शासक के रूप में बृहद्रथ का विवरण मिलता है। उसका सेनापति पुष्यमित्र शुंग था । पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई.पू. में बृहद्रथ को सेना का निरीक्षण करते समय धोखा से उसकी हत्या कर दी। बृहद्रथ की हत्या के साथ ही मौर्य वंश का अंत हो गया ।

मौर्यकालीन प्रांत

चंद्रगुप्त मौर्य के समय प्रांतों की संख्या 4 थी जबकि अशोक के समय प्रांत 5 हो गई ।
मौर्य काल में प्रांत को चक्र कहा जाता था। प्रांतों का शासन राजवंशीय कुमार या आर्यपुत्र नामक पदाधिकारी द्वारा चलाया जाता था ।
सैन्य व्यवस्थाः
मौर्य राजाओं की सेना बहुत संगठित तथा बड़े आकार में व्यवस्थित थी ।
मेगास्थनीज के अनुसार मौर्यो के पास नंदो से तीन गुनी अधिक सेना थी।
जस्टिन चंद्रगुप्त की सेना को "डाकुओं का गिरोह' कहता था ।
कौटिल्य ने सेना को तीन श्रेणियों में विभाजित किया ।
(1) पुश्तैनी सेना
(2) भाटक सेना
(3) नगरपालिका सेना
न्याय व्यवस्थाः
मौर्यकाल में सम्राट सर्वोच्च तथा अंतिम न्यायालय एवं न्यायाधिश था। ग्राम सभा सबसे छोटा न्यायालय था जहाँ वृद्धजन अपना निर्णय देते थें । 1
अर्थशास्त्र में दो तरह के न्यायालयों की चर्चा की गई है-
(1) धर्मस्थीयः-
इसके अनुसार दीवानी अर्थात स्त्रीधन तथा विवाह संबंधी विवादों का निपटारा होता था।
(2) कंटक शोधन:-
इसके द्वारा फौजदारी मामला अर्थात हत्या तथा मारपीट जैसी समस्याओं का निपटारा होता था ।
गुप्तचर व्यवस्थाः
गुप्तचर से संबंधित विभागों को "महामात्यासर्फ” कहा जाता था।
अर्थशास्त्र में गुप्तचरों को गदपुरूष तथा इसके प्रमुख अधिकारी को "सर्पमहामात्य" कहा जाता था ।
संस्थाः
जो एक जगह संगठित होकर गुप्तचरी करता था उसे संस्था कहा जाता था।
संचारः
जो जगह-जगह जाकर गुप्तचरी करता था उसे संचार कहा जाता था ।
गुप्तचर के अलावा शांति व्यवस्था बनाए रखने तथा अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस भी थी जिसे अर्थशास्त्र में रक्षिण कहा गया है । 
सामाजिक व्यवस्थाः
मौर्य काल में दास प्रथा का प्रचलन था ।
स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। स्त्रियाँ पुनर्विवाह कर सकती थी यानी विधवा विवाह का प्रचलन था ।
कुछ विधवाएँ स्वतंत्र रूप से जीवन यापन करती थी, जिन्हें छंदवासिनी कहा गया ।
समाज में वेश्यावृत्ति का प्रचलन था तथा उसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था।
संभ्रांत घर की स्त्रियाँ प्रायः घरों में रहती थी । कौटिल्य ने ऐसे स्त्रियों को अनिष्कासिनी कहा है।
सत्ती प्रथा का प्रचलन नहीं था ।
स्त्री और पुरूष दोनों को मोक्ष (तलाक) लेने का अधिकार प्राप्त था । कौटिल्य ने मोक्ष शब्द तलाक के लिए प्रयुक्त किया है। 
मेगास्थनीज ने धार्मिक व्यवस्था में डायोनिसस एवं हेराक्लीज की चर्चा की है, जिसकी पहचान क्रमशः शिव एवं विष्णु से की गई है।
मौर्यकालीन अथर्वव्यवस्था:
मौर्यकाल की अर्थव्यवस्था के तीन स्तंभ थें, जिन्हें सम्मिलित रूप से वार्ता (वृत्तिका साधन) कहा जाता था ।
(1) कृषि (2) पशुपालन (3) वाणिज्य या व्यापार
कुषिः -
मौर्यकाल मुख्यतः कृषि प्रधान था । भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार होता था ।
राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी सीताध्यक्ष कहलाता था ।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कृष्ट-जुती हुई भूमि, आकृष्ट- बिना जुती हुई भूमि, स्थल - ऊँची भूमि का उल्लेख किया है ।
अदेवमातृक भूमि - वैसी भूमि जहाँ बिना वर्षा के भी अच्छी खेती होती थी ।
राज्य में आय का प्रमुख स्त्रोत भूमिकर था । यह मुख्यतः उपज का 1/6 भाग होता था । भूमिकर दो प्रकार का होता था ।
(1) सेतुकर कर (2) वनकर संबंधित विषय

परिशिष्ट

साम्राज्य में मुख्यमंत्री एवं पुरोहित की नियुक्ति के पूर्व इनके चरित्र को काफी जाँचा - परखा जाता था, जिसे उपधा परीक्षण कहा जाता था।
प्रशासकों में सबसे छोटा गोप था, जो दस ग्रामों का शासन संभालता था ।
अशोक के समय जनपदीय न्यायालय के न्यायाधीश को राजुक कहा जाता था।
नंदवंश को विनाश करने में चंद्रगुप्त मौर्य ने कश्मीर के राजा प्रवर्त्तक से सहायता प्राप्त की थी ।
अशोक ऐसा शासक था जो अपने बड़े भाई सुसीम की हत्या कर गद्दी प्राप्त किया ।
साँची बौद्ध कला व मूर्तिकला का निरूपन करता है।
पाटलिपुत्र के प्रशासन का वर्णन इण्डिका में है।
साँची का स्तूप अशोक ने बनवाया।
अशोक के साम्राज्य में श्रीलंका शामिल नहीं था ।
पाटलिपुत्र में अशोक का शिलालेख नहीं मिला है।
सहिष्णुता, उदारता और करूणा के त्रिविध आधार पर राजवंश की स्थापना अशोक ने किया ।
सम्राट अशोक प्रायः जनता के संपर्क में रहता था ।
अर्थशास्त्र में शुद्रो के लिए "आर्य" शब्द का प्रयोग हुआ है |
अशोक का समकालीन तुरमय मिस्त्र का राजा था।
कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र 15 अधिकरण और 180 प्रकरण में विभाजित है ।
स्तम्भ मौर्य काल का सबसे अच्छा नमूना है ।
6ठें शिलालेख में अशोक घोषणा करता है कि "किसी भी समय, चाहे मैं खाता रहूँ या रानी के साथ विश्राम करता रहुँ या अपने अतःशाला में रहुँ, मैं जहाँ भी रहुँ, मेरे महामात्य मुझे सार्वजनिक कार्य के लिए संपर्क कर सकते हैं।
अत्यंत पॉलिश किये गयें एकाश्म अशोक स्तंभ जिस पाण्डुरंजित बालुकाश्म के एकल टुकड़ों में तक्षित किये गयें हैं, वह मिर्जापुर के समीप चुनार से निकाला गया है।
विशाखदत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस चंद्रगुप्त मौर्य के समय में राजदरबार की दुरभिसंधियों के बारे में बताता है।
तिस्स नामक श्रीलंकाई शासक अपने आप को मौर्य सम्राट अशोक के आदर्शो के अनुरूप ढ़ालने की कोशिश किया।
मौर्यो कर राजकीय वर्ष आषाढ़ (जुलाई) से आरंभ होता था।
अशोक की गृह और विदेश नीति बौद्ध धर्म के आदर्शो से प्रेरित है।
अपने साम्राज्य के भीतर अशोक एक तरह के अधिकारियों की नियुक्ति की जो राजूक कहलाते थें और इन्हें प्रजा को न केवल पुरस्कार ही, बल्कि दंड देने का भी अधिकार सौपा गया। (न्यायिक कार्य करने के लिए)
ईसा पूर्व दूसरी और पहली सदियों के ब्राह्मी अभिलेख श्रीलंका में मिले हैं।
अशोक ने नारी सहित समाज के विभिन्न वर्गों के बीच धर्म का प्रचार करने के लिए धम्म महामात्र बहाल किए ।
अशोक ने पशु-पक्षियों की हिंसा पर रोक लगा दिया और अपनी राजधानी में तो प्राणी को मारना पूर्णतः निषिद्ध कर दिया ।
अशोक ने लोगों को "जियों और जीने दो' का पाठ पढाया ।
मिस्र में अखनातून ने ई.पू. चौदहवी सदी में शांतिवादी नीति को अपनाया था।
भारत का प्रथम अस्पताल एवं औषधि बाग का निर्माण अशोक ने करवाया था ।
अशोक ने बौद्ध होते हुए भी हिंदु धर्म में आस्था नहीं छोड़ी। इसका प्रमाण उसकी "देवनामप्रिय की उपाधि" है।
सिंहली अनुभुति - दीपवंश और महावंश के अनुसार अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुई ।
⇒व मौर्य शासको में अशोक और उसका पौत्र दशरथ बौद्ध धर्म का अनुयायी था ।
रज्जुक मौर्य शासन में अधिकारी था इसकी स्थिति आधुनिक जिलाधिकारी जैसी थी, जिसे राजस्व तथा न्याय दोनों क्षेत्रों में अधिकार प्राप्त था ।
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