General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | प्रचीन भारत में धार्मिक आंदोलन
⇒ 6ठी शताब्दी ई.पू. ब्राह्मण धर्म के खिलाफ कुल 62 सम्प्रदाय का उदय हुआ जिसमें वौद्ध और जैनधर्म सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ ।
जैन धर्म
⇒ जैन शब्द संस्कृत के "जिन" शब्द से बना है जिसका अर्थ विजेता होता है ।
⇒ जैन धर्म में कुल 24 तीर्थकर यानी पथ-प्रदर्शक का विवरण मिलता है जिसमें दो तीर्थकर को ऐतिहासिकता प्राप्त है जो है-
23वाँ तीर्थकर - पार्श्वनाथ
24वाँ तीर्थकर - महावीर
⇒ स्वामी जैन धर्म की स्थापना का श्रेय जैनियों के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव या आदिनाथ को जाता है ।
⇒प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव और 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
पार्श्वनाथ (23वाँ)
⇒ पार्श्वनाथ काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन का पुत्र था । इनके अनुयायियों को निग्रोथ कहा जाता था।
⇒ पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म की स्थापना किया जो इस प्रकार है:- (1) सत्य (2) अहिंसा (3) असतेय (4) अपरिग्रह
⇒ पार्श्वनाथ ने नदियों को भी अपने धर्म में प्रवेश दिया क्योंकि जैन ग्रंथ में स्त्री संघ की अध्यक्ष्ता "पुष्पचूला" का विवरण मिलता है ।
⇒ पारसनाथ की पहाड़ी जैन धर्म से संबंधित है
⇒ पार्श्वनाथ को झारखंड के गिरीडीह जिले में सम्मेद पारसनाथ पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ ।
⇒ ऐसा माना जाता है कि पार्श्वनाथ की शिष्यता महावीर के माता-पिता ने ग्रहण किया था ।
महावीर स्वामी (24वाँ )
⇒ जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक एवं 24वें व अंतिम तीर्थकर के रूप में महावीर स्वामी का विवरण मिलता है।
⇒ महावीर का शाब्दिक अर्थ पराकर्मी या विजेता होता है।
जीवन परिचयः
- जन्म:- 540 ई.पू. कुण्डग्राम (वैशाली) बिहार
- पिता:- सिद्धार्थ (वज्जि संघ के ज्ञातृक कुल के प्रधान)
- माता:- त्रिशला ( लिच्छवी शासक चेटक की बहन )
- पत्नी:- यशोदा (कुंडिंय गोत्र की कन्या)
- पुत्री:- प्रियदर्शनी (अनोज्जा)
- दमादः - जामालि (प्रथम शिष्य )
- गृहत्याग:- 30 वर्ष की आयु में बड़े भाई नंदीवर्धन के आज्ञा से ।
ज्ञान प्राप्ति:-
12 वर्ष के कठोर तपस्या के पश्चात 42 वर्ष की आयु में वैशाली के जान्भिक ग्राम में साल वृक्ष के नीचे ऋजुपालिका नदी के तट पर हुआ। तब से वर्द्धमान (बचपन का नाम), महावीर अर्थात पराकर्मी, जीन अर्थात विजेता, कैवल्य अर्थात इन्द्रियों को जीतने वाला कहलाया ।
मृत्यु (निर्वाण ) :- ( 72 वर्ष की अवस्था )
468 ई.पू. राजगीर के पावापूरी में मल्ल राजा सृस्तिपाल के दरबार में हुआ।
⇒ जैन धर्म में सर्वाधिक बल अहिंसा पर दिया गया जिस कारण जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित है, क्योंकि दोनों में जीवों की हिंसा होती है ।
⇒ भारत में सर्वाधिक व्यापारी वर्ग के लोगों ने इस वर्ग को स्वीकार किया।
⇒ महावीर ने अपने जीवनकाल में एक संघ की स्थापना किया जिसमें 11 अनुयायी था जिसे गणधर कहा गया।
⇒ जैन धर्म पुर्नजन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करता था । उनके अनुसार कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है।
जैन धर्म की प्रमुख शिक्षाएँ:
पंच महाव्रत / अणुव्रत
(1) अहिंसा:- जीव की हत्या ना करना ।
(2) सत्य:- सदा सत्य बोलना। (अमृषा)
(3) अपरिग्रहः- धन जमा ना करना ।
(4) अस्तेयः- चोरी ना करना । (अचौर्य)
(5) ब्रह्मचर्य:- इन्द्रियों को वश में करना ।
नोट- इन पाँच व्रतों में उपर के चार पार्श्वनाथ ने दिये थें, जबकि पाचवाँ व्रत "ब्रह्मचर्य" महावीर ने जोड़ा ।
त्रिरत्न:-
कर्मफल से मुक्ति कि लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है।
(1) सम्यक् दर्शन:- वास्तविक ज्ञान
(2) सम्यक् ज्ञानः- सत्य में विश्वास
(3) सम्यक् आचरणः- सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुखःदुख के प्रति समभाव
दर्शनः
• अनेकांतवादः- बहुरूपता का सिद्धांत
• सप्तभंगीय / स्यादवादः- सापेक्षता का सिद्धांत
नोट:- जैन धर्म में सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकार किया गया।
सल्लखनाः-
भूखे-प्यासे रहकर प्राण का त्याग करना ।
जैन साहित्यः-
जैन साहित्य को आगम कहा जाता था जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छंदसूत्र, 4 मूलसूत्र, आदि है। इन आगम ग्रंथों की रचना श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो ने किया ।
⇒ जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलता है। जबकि प्रारंभिक जैन साहित्य अर्द्ध मगधी भाषा में लिखा गया है !
- आचारांग सूत्र:- जैन भिक्षुओं के आचार नियम व विधि निषेधों का विवरण ।
- भगवती सूत्र:- महावीर के जीनव, 16 महाजनपद
- न्यायधम्मका सूत्र:- महावीर के शिक्षाओं का संग्रह
⇒ भद्रबाहु ने संस्कृत भाषा में कल्पसूत्र की रचना किया जिसमें तीर्थकरों का जीवन चरित्र है ।
नोट:- जैन धर्म में 18 पापों की कल्पना की गई है।
जैन संगीतियाँ:
- महावीर के समकालीन शासक थें- बिम्बिसार, चंडप्रद्योत, अजातशत्रु, उदायिन, दधिवाहन व चेटक ।
- जैन धर्म मानने वाले शासक:- चन्द्रगुप्त मौर्य, कलिंग नरेश खारवेल, अमाघवर्ष (राष्ट्रकूट), उदायिन, आदि ।
- प्रथम जैन सम्मेलन के दौरान पाटलिपुत्र के शासक चन्द्रगुप्त मौर्य था।
- उदयगिरी पहाड़ी में जैन भिक्षुओं के लिए एक गुफा का निर्माण करवाया।
- गंग वंश के राजा राजमल चतुर्थ का मंत्री व सेनापति चामुंड राय ने 974 ई. में गोमतेश्वर की मूर्ति का निर्माण कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में करवाया जहाँ प्रत्येक 12 वर्ष पर महामस्तकाभिषेक किया जाता है |
परिशिष्ट
- आजीवक संप्रदाय का संस्थापक मक्खलिपुत्र गोशाल था जो प्रारंभ में महावीर का शिष्य था । इनके मत को नियति वाद कहा जाता है, जिसके अनुसार संसार की प्रत्येक वस्तु भागय द्वारा पर्व नियंत्रित एवं संचालित होती है।
- उत्तरप्रदेश का कौशाम्बी नगर बौद्ध एवं जैन दोनों का तीर्थस्थली है ।
- "समाधि मरण" जैन धर्मा से संबंधित है ।
- जैन धर्म में पूर्ण ज्ञान के लिए "कैवल्य" शब्द का प्रयोग किया जाता है ।
- जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना एवं पालन-पोषण सार्वभौमिक विधान से हुआ |
- जैन धर्म के अनुसार संसार नित्य और शाश्वत है यानी इसमें किसी समय प्रलय नहीं होगा जबकि उत्थान और पतन का दौर चलता रहेगा ।
- यापनीय जैन धर्म का एक सम्प्रदाय था जिसकी उत्पत्ति दिगंबर संप्रदाय से हुई थी।
- जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित है, क्योंकि दानों में जीवों की हत्या होती है ।
- बौद्धों की तरह जैन लोग भी आत्म में मूर्तिपूजक नहीं था। बाद में वे महावीरों और तीर्थकरों की पूजा करने लगें । इसके लिए सुन्दर और विशाल पत्थर की प्रतिमाएँ कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश से निर्मित हुई ।
- कर्नाटक में स्थापित जैन मठ को बसाद कहा जाता है ।
- कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार चन्द्रगुप्त मौर्य ने किया |
- 'जियो और जीने दो' महावीर स्वामी ने कहा था ।
- महावीर ने जैन स्वामी की स्थापना पावापुरी में करवाया ।
- महावीर के निधन के पश्चात् जैन संघ का अध्यक्ष आर्य सुधर्मन हुआ ।
- परिशिष्ट पर्व- हेमचंद्र
- 16 महाजनपद का उल्लेख भगवतीसुत्र में मिलता है।
- जैन धर्म को अंतिम राजकीय संरक्षक गुजराज के चालुक्य वंश के राजाओं ने दिया था।
- महावीर ने पहला उपदेश राजगीर में दिया ।
- ऋषभदेव का संबंध आयोध्या से था ।
- महावीर के अध्यात्मिक गुरू पार्श्वनाथ थें। (R.S. शर्मा)
- महावीर के परिवार का संबंध मगध के राजपरिवार से था क्योंकि उनकी माता त्रिशला लिच्छिवी नरेश चेतक की बहन थी। चेतक मगध नरेश बिम्बिसार के ससुर थें ।
- महावीर एक गाँव में एक दिन से अधिक तथा एक शहर में 5 दिन से अधिक ना टिकते थें।
बौद्ध धर्म
⇒ बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध थें । बुद्ध का अर्थ "प्रकाशमान" अथवा "जगत" होता है। इन्हें एशिया का ज्योतिपुंज (Light of Asia) कहा जाता है ।
गौतम बुद्धः जीवन परिचयः
- जन्मः- 563 ई.पू. कपिलवस्तु के लुम्बिनी नेपाल (अशोक के रूम्मिदेई स्तंभ लेख)
- बचपन का नामः– सिद्धार्थ (गोत्र-गौतम)
- पिता का नामः- शुद्धोधन (कपिल वस्तु के शाक्य गण के प्रधान)
- माता का नाम:- महामाया (कोलिय गणराज्य की कन्या)
- पालन - पोषणः- मौसी प्रजापति गौतमी
- पत्नीः- यशोधरा ( अन्य नाम - गोपा, बिम्बा, भदकच्छना)
- पुत्रः- राहुल
- घोड़ाः– कथक
- सारथी:- चाण
- मृत्यु:- 483 ई.पू. (मल्लों की राजधानी कुशीनगर, देवरिया, उत्तरप्रदेश) जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा जाता है।
⇒ गौतम बुद्ध का अन्य नाम शाक्यमुनि, कनकमुनि और तथागत था।
⇒ गौतम बुद्ध को 4 दृश्य ने गृह त्याग को विवश किया था जो है— (1) वृद्ध व्यक्ति (2) बीमार व्यक्ति (3) मृत व्यक्ति (4) सन्यासी (प्रसन्न मुद्रा में)
घटना |
प्रतीक |
जन्म |
कमल व साँड |
गृह त्याग |
घोड़ा |
ज्ञान |
पीपल (बोधि) वृक्ष |
निर्वाण |
पद चिन्ह |
मृत्यु (महापरिनिर्वाण ) |
स्तूप |
⇒ सिद्धार्थ 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया जिसे बौद्ध धर्म में "महापरिनिष्क्रण" कहा गया है। तत्पश्चात् सिद्धार्थ वैशाली के समीप सांख्य दर्शन के आचार्य आलारकलाम तथा राजगृह के समीप रूद्रक रामपुत्र से मिले जो बुद्ध के प्रारंभिक गुरू थें ।
⇒ 6 वर्ष के कठिन तपस्या के पश्चात् 35 वर्ष की आयु में निरंजना (पुन - पुन ) नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा की राज सिद्धाथ को ज्ञान की प्राप्ति हुई तत्पश्चात् सिद्धाथ बुद्ध कहलाएँ और वह स्थान बोधगया कहलाया। बौद्ध धर्म में इस घटना को निर्वाण / सम्बोधि कहा जाता है।
⇒ बुद्ध का शाब्दिक अर्थ ज्ञान ज्ञान की प्राप्ति होता है ।
⇒ बुद्ध ने अना प्रथम उपदेश सारनाथ (ऋषिपतनम्, उत्तरप्रदेश) के मृगदाव वन में अपने 5 ब्राह्मण साथियों को पाली भाषा में दिया जिसे बौद्ध धर्म में महाधर्म चक्रप्रवर्तन कहते हैं ।
⇒ बुद्ध ने सर्वप्रथम “तपस्सु" तथा "भल्लिक" नामक दो शूद्रों को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाया ।
⇒ उन्होनें मगध को अपना प्रचार केन्द्र बनाया।
⇒ बुद्ध के राजगृह पहुँचने पर बिम्बिसार ने उनका स्वागत किया और वेणुवन विहार दान में दिया। राजगृह में ही मोगदलायम्, उपाली, अभय आदि इनके शिष्य बनें ।
⇒ अपने प्रिय शिष्य आनंद के कहने पर बुद्ध ने वैशाली में महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी ।
⇒ बौद्ध धर्म अपनाने वाली प्रथम महिला प्रजापति गौतमी है।
⇒ ज्ञान प्राप्ति के 20वें वर्ष बुद्ध श्रावस्ती पहुँचे तथा वहाँ अंगुलिमाल नामक डाकू को अपना शिष्य बनाया।
⇒ बौद्ध धर्म ने महिलाओं और शूद्रों को जोड़कर समाज के उपर गहरा प्रभाव छोड़ा।
नोट- बुद्ध ने अपने जीवन के सर्वाधिक उपदेश कोशल की राजधानी श्रावस्ती में दिया ।
⇒ गौतम बुद्ध ने अंतिम उपदेश कुशीनगर में सुभद्द को दिया ।
महापरिनिर्वाणः
बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में हिरण्यवती नदी के तट पर अपने शिष्य चुंद के यहाँ सुकरमाद्दव भोज्य सामग्री खाई और अतिसार रोग से पीड़ित हो गए । तत्पश्चात् यही पर 80 वर्ष की अवस्था में 483 ई. में बुद्ध का निधन हो गया जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण के नाम से जाना जाता है ।
⇒ महापरिनिर्वाण के बाद बुद्ध के अस्थि अवशेष को 8 जगह - मगध, वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्प, रामग्राम, पावा, कुशीनगार और वेथादीप भेजा गया । इन्ही आठ क्षेत्रों में स्तूप बनाया गया ।
शिक्षाएँ एवं सिद्धांतः
⇒ त्रिरत्न:- (1) बुद्ध (2) धम्म (3) संघ
⇒ चार आर्य सत्यः- (1) दुःख (2) दुःख समुदाय (3) दुःख निरोध (4) दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा
⇒ बुद्ध " समस्त विश्व दुःखों से भरा है" का सिद्धांत उपनिषद से लिया ।
⇒ दुःख का कारण बुद्ध ने तृष्णा (इच्छा) को बताया जो अज्ञानता के कारण उत्पन्न होता है ।
⇒ इन सांसारिक दुःखों से मुक्ति हेतु गौतम बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग का पालन करने को कहा है-
(1) सम्यक् दृष्टिः- वस्तु के वास्तविक स्वरूप की समझ
(2) सम्यक् संकल्पः- लोभ, द्वेष व हिंसा से मुकत विचार
(3) सम्यक् वाक्:- अप्रिय वचना का त्याग
(4) सम्यक् कर्मान्तः– सही कामों का अनुसरण
(5) सम्यक् आजीविका :- सदाचार युक्त आजीविका
(6) सम्यक् व्यायाम :- मानसिक / शारिरीक स्वास्थ्य
(7) सम्यक् स्मृतिः - सही भाव / सात्विक भाव
(8) सम्यक् समाधिः- एकग्रता
⇒ बुद्ध के अनुसार आष्टांगिक मार्गो का पालन करने से तृष्णा नष्ट हो जाती है और तीन से निर्वाण की प्राप्ति हो जाता है।
दस शीलः
(1) सत्य
(2) अहिंसा
(3) अस्तेय
(4) अपरिग्रह
(5) मद्य सेवन ना करना
(6) असमय भोजन ना करना
(7) सुखप्रद विस्तर पर ना सोना
(8) आभूषणों का त्याग
(9) स्त्रियों से दूर रहना
(10) नृत्यगान से दूर रहना
⇒ बुद्ध ने अपना उपदेश जनसाधारण की भाषा पालि में दिया।
⇒ निर्वाण का अर्थ है " दीपक का बुण जाना' यानी जीवन - मरण चक्र से मुक्त हो जाना ।
⇒ बुद्ध ने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया।
दर्शनः
(1) अनेश्वरवादः - यानी ईश्वर की सत्ता को मानने से अंकार कर दिया ।
(2) शून्यतावादः- संसार की समस्त पुए या पदार्थ सत्ताहीन है ।
(3) क्षणिकवादः- संसार में भी चीज स्थायी नहीं है ।
⇒ बौद्ध धर्म में पुर्नजन्म को मान्यता हैं I
⇒ बुद्ध ने जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार किया है ।
संघ एवं कार्य प्रणाली:
- संघ में प्रविष्ट को उपसम्पदा कहा जाता था जबकि शपथ ग्रहण को प्रवज्जा कहा जाता था ।
- संघ में अल्पवयस्क, चोर, हत्यारा, ऋणी व्यक्ति, दास तथा रोगी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था ।
- बौद्ध संघ की संरचना गणतंत्र प्रणाली पर आधारित थी ।
- बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था एवं जाति प्रथा का विरोध किया ।
- संघ की बैठक प्रत्येक आमावस्या या पूर्णिमा को होता था जिसमें निर्णय जनतांत्रिक ढंग से लिया जाता था।
- बौद्धो के लिए महीने का चार दिन- आमावस्या, पूर्णिमा और दो चतुर्थी दिवस उपवास के दिन होते थें।
- वर्षा ऋतु के दौरान मठों में प्रवास के दौरान भिक्षओं द्वारा जो अपराध स्वीकारोक्ति समारोह होता था उसे "पवरत्न" कहा जाता था ।
- बौद्धो का सबसे पवित्र त्योहार वैशाख की पूर्णिमा है जिसे बुद्ध पूर्णिमा भी कहा जाता है।
- बौद्ध धर्म के अनुयायी दो भागों में विभाजित थें- (1) भिक्षुक (2) उपासक
स्तूपः- स्तूप का शाब्दिक अर्थ होता है किसी वस्तु का देर ।
चैत्यः- बौद्धो का पूजा स्थल
विहार : - वौद्धो का निवास स्थल
प्रसिद्ध बौद्ध स्थलः- महाबोधि मंदिर (बिहार), महापरिनिर्वाण मंदिर (उत्तरप्रदेश), धमेख स्तूप (उत्तरप्रदेश)
⇒ बुद्ध की प्रथम मुर्ति संभवतः मथुरा कला में बनी थी। जबकि बुद्ध की सर्वाधिक मूर्ति गंधार शैली में बनी है।
भागवत धर्म
⇒ भागवत् धर्म के संस्थापक के रूप में कुष्ण को जाना जाता है। कृष्ण की चर्चा दो रूपों में की गई है-
⇒ कृष्ण के इन दोनों रूप की चर्चा का विरण छांदोग्य उपनिषद से मिलती है।
⇒ जैन परंपरा के अनुसार वासुदेव कृष्ण जैन धर्म के 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमी के समकालीन थें।
⇒ भागवत धर्म के सिद्धांत श्रीमद्भागवत् गीता में निहित है । भागवत गीता के रचनाकार वेदव्यास है ।
श्रीमद्भागवत् गीता में मोक्ष के साधना के रूप में जन्म, कर्म तथा भक्ति को सामान महत्व दिया है। भागवत गीता की मुख्य शिक्षा निष्काय कर्मयोग (कर्म करों, फल की चिंता मत करों) को भागवत बतलाया गया है ।
⇒ भागवत धर्म का उदय मौर्योतर ल में हुआ माना जाता है। इस धर्म के विषय में प्रारंभिक जानकारी उपनिषदों से मिलती है। परंतु 'इंडिका ग्रंथ' के रचयिता में मेगास्थनीज का मानना है कि मौर्यकाल में भी भागवत धर्म का प्रचलन था। उन्होनें इंडिका में लिखा शुरसेन यानि मथुरा के लोग हेराक्लीज कुष्ण का युनानी रूपान्तरण है।
⇒ मैर्योतर काल में शुंग वंश के संस्थापक के रूप में पुष्यमित्र शुंग का विवरण मिलता है। शुंग वंश में कुल 10 शासक हुए थें। शुंग वंश के 9वें शासक रूप में भागभद्र था। भागभद्र के दरबार में 'हेलियोडोटस' आया। हेलियोडोटस ने भागवत धर्म को अपना लिया और भगवान विष्णु के सम्मान में इन्होने मध्यप्रदेश के विदिशा (वेसनगर) में एक स्तंभलेख का निर्माण किया जिसे गरूड़ लेख स्तंभ कहा जाता है। इस गरूड़ लेख स्तंभ पर हेलियोडोटस ने "ओम नमों भगवते वासुदेवाय नमः" अंकित करवाया। यह स्तंभलेख सबसे प्राचीन अभिलेख है जो हमें वैष्णव / भागवत धर्म की जानकारी प्रदान करता है।
⇒ वैष्णव धर्म का सर्वाधिक विकास गुप्तकाल में हुआ । परम् भागवत की उपाधि धारण करने वाला गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था। इनके दरबार 9 विद्वान रहा करता था जिसे नवरत्न कहा गया। इन्हीं नवरत्न में से एक कालिदास नामक विद्वान थें जिसकी रचना "रघुवंशम' में भगवान विष्णु को शेष सेया का लेटे हुए चित्रण किया है।
गुप्तवंश के शासक स्कंदगुप्त के जुनागढ़ अभिलेख की शुरूआत भगवान विष्णु के स्तुति से होती है।
⇒ देवगढ़ के दशावतार मंदिर का निर्माण गुप्तकाल में भगवान विष्णु के सम्मान में किया गया।
⇒ गुप्तकाल में भगवान विष्णु का सबसे लोकप्रिय अवतार वराह अवतार था ।
वैष्णव धर्म के सिद्धांतः
(1) अवतारवादः - भगवान विष्णु के 10 अवतार की जानकारी मिलती है।
(2) वीरपूजा:- कालांतर में वैष्णव धर्म के कृष्ण के अतिरिक्त उनके वंश के चार अन्य देवताओं की पूजा की जाने लगी जिसे वीरपूजा कहा गया तथा इन पाँचों देवताओं को पंचवीर कहा गया है। ये पंचवीर निम्न हैं-
- वासुदेवः - देवकीपुत्र
- संकर्षणः- वासुदेव और रोहिणी से उत्पन्न पुत्र
- प्रधम्नः - कृष्ण और रूक्मिणी से उत्पन्न पुत्र
- अनिरूद्धः - प्रधम्न के पुत्र
- साम्ब:- कृष्ण और जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र
(3) चतुर्व्यूहः- भागवत धर्म में पाँच वीरो की पूजा का विधान था । पाँचवे वीर साम्ब को ईरानी सूर्य संप्रदाय से संबंध हो जाने के कारण अलग कर दिया गया। जिस कारण वैष्णव धर्म में अब चार वीरों की पूजा होती है जिसे चतुर्व्यूह कहा जाता है ।
⇒ वैष्णव धर्म का विकास दक्षिण भारत में हुआ । दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म को मानने वाले को अलवार कहा गया । दक्षिण भारत में 12 अलवार संतों का विवरण देखने को मिलता है। जिनमें से एक महिला स्मंत है।
शैव धर्म
⇒ शिव के उपासक शैव कहलाए तथा इससे संबंधित धर्म को शैव धर्म कहा जाता है। भारत के प्राचीनतम धर्मो में एक धर्म शैव धर्म है।
हड़प्पा सभ्यता के अंतर्गत एक स्थल मोजनजोदड़ो की खुदाई हुई, मोजनजोदड़ो से मूर्ति मिली जो एक पत्थर पर सन्यासी ध्यान की मुदा में बैठा हुआ था और इस सन्यासी की पहचान शिव से की गई। इससे जानकारी मिलती है। कि शैव धर्म की उत्पत्ति हड़प्पा काल में भी हुई थी। हड़प्पा सभ्यता में शिव के दो रूप की पूजा होती थी-
(1) शिव
(2) शिव लिंग
लिंग पूजा की शुरूआत हड़प्पा काल से ही मानी जाती है। लिंग पूजा के विषय में जानकारी देने वाला ग्रंथ मतस्य पुराण है।
⇒ भारत की दुसरी सभ्यता वैदिक सभ्यता है। वैदिक सभ्यता के विषय में जानकारी हमें वैदिक साहित्य से मिलती है। वैदिक साहित्य के अंतर्गत- वेद, ब्रह्मण ग्रंथ, अरण्यक, उपनिषद आते हैं ।
⇒ ऋग्वेद में भगवान शिव के लिए रूद्र शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में रूद्र को अंतरिक्ष का देवता बताया गया है ।
⇒ उत्तरवैदिक काल में भगवान शिव की पहचान शिव से की गई है।
⇒ रूद्र की पत्नी के रूप में पार्वती की चर्चा की गई है। इसकी जानकारी हमें तैतरीय अरण्यक में देखने को मिलता है ।
⇒ भगवान शिव की प्राचीनतम मूर्ति पहली शताब्दी ई. में मद्रास के निकट रेनीगुटां में "सिद्ध मुडिभल्लम लिंग” के रूप में प्राप्त हुई ।
⇒ शैव धर्म के सिद्धांत:-
शैव धर्म के अनुसार सृष्टि अथवा जगत के तीन रत्न है-
(1) शिव - यह कर्ता है |
( 2 ) शक्ति - यह कारण है।
(3) बिन्दु - यह अपादान है I
⇒ शिव स्वयंभू है, अतः इनका अवतार नहीं होता है । वायुपुराण यह उल्लेख करता है कि शिव ने लकुलिश नामक ब्रह्मचारी के रूप में जन्म लिया ।
⇒ वामन पुराण हमें यह जानकारी देता है कि शैव धर्म के 4 सम्प्रदाय है-
(1) पाशुपत सम्प्रदाय
(2) कापालिक सम्प्रदाय
(3) कालामुख सम्प्रदाय
(4) लिंगायत सम्प्रदाय
(1) पाशुपत संम्प्रदायः-
शैव धर्म का सबसे प्रचीनतम संप्रदाय पाशुपत संप्रदाय है इसके संस्थापक " लकुलिश" है। पाशुपत संप्रदाय के अनुयायी को पंचार्थिक कहा जाता था। इस संप्रदाय का प्रापंत्र ग्रंथ "पाशुपत सूत्र" है।
(2) कापालिक संप्रदायः-
कापालिकों के ईष्टदेव भैरव थे जो शंकर का अवतार माना जाता है। इस संप्रदाय का मुख्य केंद्र श्रीशैल नामक स्थान था जिसका प्रमाण भवभूति के "मालती माधव' नामक ग्रंथ से मिलती है। यह संप्रदाय अत्संत भयंकर और आसुर प्रकृति का था इसमें भैरव को सुरा और नरवली प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता था ।
(3) कालामुखः-
इस संप्रदाय के अनुयायी कापालिक वर्ग के ही थें। किन्तु वे उनसे भी अतिवादी थें। शिवपुराण में इन्हें महाव्रतधर कहा गया है। इस संप्रदाय के अनुयायी नर कपाल में भोजन, जल तथा सुरापन करते थें और शरीर में भस्म लगाते थें ।
(4) लिंगायत संप्रदायः-
शैव धर्म का विस्तार दक्षिण भारत में भी हुआ है । इस धर्म के उपासक दक्षिण भारत में लिंगायत या जंगम कहे जाते थें। वसब पुराण में इस संप्रदाय के प्रवर्तक अल्लव प्रभू एवं उनके शिष्य सम्पादने लिंगायतो का मुख्य धार्मिक केंद्र था ।
♦ दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार नयनारों संतो ने लिया ! नयनार संतों की संख्या 63 थी। इनके श्लोकों के संग्रह को तीरुमुड़े कहा जाता है। इसका संकलन नाम्बि - अण्डला - नाम्बि ने किया है।
दक्षिण भारत में शैव धर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव एवं चोलों के समय लोकप्रिय रहा ।
महाराष्ट्र के एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकुटवंशी शासक कृष्ण प्रथम ने करवाया। यह मंदिर वेसरशैली में निर्मित है जो भगवान शिव को समर्पित है।
चोल शासक राजराज प्रथम ने अपनी राजधानी तंजौर में एक शिव मंदिर का निर्माण किया जिसे राजराजेश्वर मंदिर या वृहदेश्वर शिव मंदिर कहा जाता है।
नोट- (1) पशुपति नाथ का मंदिर नेपाल की राजधानी काठमांडु में स्थित है जो भगवान शिव को समर्पित है। ये मंदिर पैगोड़ा शैली में निर्मित है।
(2) कुषाण शासकों का मुदा पर शिव एवं नंदी दोनों का अंकन एक साथ है।
महाजनपदों के उदय के कारणः
6वीं शताब्दी ई. पू. में पूर्वी उत्तरप्रदेश और पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक प्रयोग होने से बड़े-बड़े प्रादेशिक या जनपद राज्यों के निर्माण के लिए उपर्युक्त परिस्थितियाँ बनी
लोहे के बने खेती के नए औजारों और उपकरणों की मदद से किसान आवश्यकता से अधिक अनाज पैजा करने लगें, असीलिए राजा अपने सैनिको के लिए और प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए इस अनाज को जमा कर सकता था।
इन भौतिक लाभों के कारण किसानों को अपनी जमीन से लगाव होना स्वाभाविक था, साथ ही वे अपने पड़ोस के क्षेत्रों में भी जमीन हड़प कर फैलने लगें। लोगों जनें प्रबल निष्ठा अपने जन या कबीले के प्रति थी, वह अब अपने जनपद या स्वसंबंध भू-भाग के प्रति हो गई ।
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