General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | मौर्योत्तर काल

पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. में मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके शुंग वंश की स्थापना की ।

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General Competition | History | (प्राचीन भारत का इतिहास) | मौर्योत्तर काल

शुंग वंश (185 ई.पू.- 75 ई.पू.)

  • संस्थापक - पुष्यमित्र शुंग (ब्राह्मण जाति)
पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. में मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या करके शुंग वंश की स्थापना की ।
बार्णभट्ट ने हर्ष चरित में पुष्यमित्र को "अनार्य" कहा है। पुष्यमित्र कट्टर ब्राह्मणवादी था

⇒ धनदेव के अयोध्या अभिलेख के अनंसार पुष्यमित्र ने दो अश्वमेघ यज्ञ करवाया। पतंजलि उनके लिए यह यज्ञ करवाया ।
पतंजलि पुष्यमित्र के राजपुरोहित थें ।
संभवतः पुज्यमित्र बौद्ध विरोधी था, लेकिन भरहुत स्तूप बनाने का श्रेय पुष्यमित्र शुंग को ही दिया जाता है ।
विजय अभियानः
(1) विदर्भ (बरार ) :- 
विदर्भ का शासक यज्ञशेन था । यज्ञसेन को शुंगों का "स्वाभाविक शत्रु' बताया गया है । पुष्यमित्र के आदेश से अग्निमित्र ने विदर्भ पर आक्रमण कर यज्ञसेन को पराजित कर विदर्भ को अपने साम्राज्य में मिलाया । 
(2) यवन आक्रमण:-
पुष्यमित्र शुंग के समय में यवन आक्रमण हुआ था । इस यवन आक्रमण को पुष्यमित्र शुंग ने अपने पुत्र अग्निमित्र के नेतृत्व में विफल किया ।
डेमेट्रियस (दिमित्र) यवन राजा था जो पुष्यमित्र था जो पुष्यमित्र का समकालीन था ।
(3) खारवेल से युद्ध:-
मौर्यकाल के अंतिम दिनों में कलिंग भी स्वतंत्र हो गया था ।
कलिंग का राजा खारवेल था। खारवेल ने मगध पर आक्रमण कर पुष्यमित्र शुंग को पराजित किया । (हाथीगुफा अभिलेख)
पुष्यमित्र शुंग के समय हुए यवन आक्रमण, विदर्भ विजय वृतांत तथा यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका और अग्निमित्र के प्रेम कहानी के विषय में जानकारी हमें कालिदास के प्रसिद्ध नाटक “मालविकाग्निमित्रा” से मिलती है।
पुष्यमित्र शुंग की दो राजधानी थी-
(1) राजनीतिक राजधानी - पाटलिपुत्र
(2) सांस्कृतिक राजधानी - विदिशा (मध्यप्रदेश)
इण्डो-यूनानी (हिन्द यवन) को पुष्यमित्र शुंग ने पराजित किया ।
पतंजलि ने संस्कृत भाषा की प्रथम पुस्तक पाणिनी के अष्टाध्यायी पर नामक टीका लिखा है | 
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी-
पुष्यमित्र के मृत्यू के बाद उसका पुत्र अग्निमित्र शासक बना।
पुष्यमित्र के शासनकाल में अग्निमित्र विदिशा का गोप्ता (उपराजा ) था ।
अग्निमित्र के बाद क्रमशः वसुज्यष्ठ, वसुमित्र, आध्रंक, पुलिदंक, घोष, वज्रमित्र, भागवत तथा देवभूति का विवरण मिलता है ।
शुंग वंश के 9वें शासक के रूप में भागभद्र या भागवत का विवरण मिलता है इन्होनें भागवत धर्म को अपनाया था ।
भागभद्र के दरबार में यवन राजदूत हेलियोडोरस भारत की यात्रा पर आया जो भागवत धर्म को अपना लिया तथा भगवान विष्णु के सम्मान में विदिशा या वेसनगर (मध्यप्रदेश) गरूड़ स्तंभ लेख का निर्माण करवाया। उस पर भगवान विष्णु के लिए देवदेवस्य शब्द का प्रयोग किया | 
⇒ इस वंश का अंतिम शासक देवभूति था इसके मंत्री वासुदेव ने इसकी हत्या कर शुंग वंश के स्थान पर कण्व वंश के शासन की नींव डाली।
नोट - (1) शुंग काल में ही संस्कृत भाषा तथा हिंदु धर्म का पुनरूत्थान हुआ । इनके उत्थान में पतंजलि का विशेष योगदान था।
(2) मनुस्मृति के वर्तमान स्वरूप की रचना इसी काल में हुई है ।
(3) शुंग राजाओं का काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म का पुर्नजागरण काल माना जाता है।
(4) इस काल में ही भागवत धर्म का उदय व विकास हुआ तथा वासुदेव विष्णु की उपासना प्रारंभ हुई।
(5) मौर्यकाल में स्तूप कच्ची ईटों और मिट्टी की सहायता से बनते थें, परंतु शुंग काल में उनके निर्माण में पाषाण का प्रयोग हुआ।

कण्व वंश (75 ई.पू - 30 ई.पू.)

इस वंश के संस्थापक के रूप में वासुदेव का विवरण मिलता है ।
इस वंश के कुल 4 शासक हुए जो है -
(1) वासुदेव
(2) भूमिमित्र
(3) नारायण
(4) सुशमा
इस वंश के अंतिम शासक के रूप में सुशमा का विवरण मिलता है। इसकी हत्या सिमुक ने कर दी तथा इस वंश के स्थान पर आन्ध्र सातवाहन वंश के शासन की नींव डाली।

आन्ध्र सातवाहन वंश (30 ई.पू - 250 ए.डी.)

सातवाहन वंश का संस्थापक सिमुक था ।
सातवाहन वंश का शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश तथा कर्नाटक था ।
पुराणों में इन्हें आंध्रभृत्य तथा अभिलेखों में सातवाहन कहा गया है।
इस राजवंश की राजधानी प्रतिष्ठान / पैठान थी ।
सातवाहन की राजकीय भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी थी।
सातवाहन वंश किसी न किसी रूप में लगभग तीन शताब्दियों तक बना रहा, जो प्राचीन भारत में किसी एक वंश का सर्वाधिक कार्यकाल है ।
सातवाहन वंश के प्रमुख शासकः
  • शातकर्णी प्रथमः- यह सातवाहन वंश का पहला महान शासक था । इनके विषय में जानकारी नानाघाट अभिलेख (पुणे) से मिलती है जिसकी रचना उसकी पत्नी नयनिका ने की है ।
शातकर्णी प्रथम ने दक्षिणा पथपति तथा अप्रतिहतचक्र की उपाधि धारण किया।
शातकर्णी प्रथम ने अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्राएँ चलाया । 
हाल :-
इस वंश के 17वें शासक के रूप हाल का विवरण मिलता है विद्वान शासक था ।
⇒ हाल ने प्राकृत भाषा में "गाथा सप्तशती" की रचना किया।
⇒ इनकी राजभाषा में बृहत्कथा के रचयिता गुणाद्य तथा कातंत्र नामक संस्कृत व्याकरण के रचयिता सर्ववर्मन रहता था ।
गौतमीपुत्र सातकर्णी ( 106 - 130 ई):- 
यह इस वंश का सबसे महान शासक था। इनके विषय में जानकारी इनकी माता गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख से मिलती है। इस अभिलेख के अनुसार उसके घोड़ो ने तीन समुद्रों का पानी पिया था ।
इनका संघर्ष शक शासक नहपान के साथ वेनुगंगा नदी के तट हुआ जिसमें गौतमीपुत्र शातकर्णी विजयी रहें ।
इन्होने बौद्ध संघ को "आजकालकिय" तथा कार्ले के भिक्षुसंघ को करजक" नामक ग्राम दान में दियें ।
नासिक के जोगलथंबी से चाँदी का सिक्का मिला है। जिनमें एक तरफ नहपान तथा दूसरी तरफ गौतमी पुत्र शातकर्णी नाम है।
वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी ( 130 - 154 ई):-
इन्होने आंध्रप्रदेश पर विजय प्राप्त किया तत्पश्चात् प्रथम आंध्र सम्राट की उपाधि धारण किया ।
पुलुमावी ने अमरावती स्थित बौद्ध स्तूप का किलाबंदी करवाया ।
पुलुमावी का संघर्ष शक शासक रूद्रदामन के साथ हुआ जिसमें पुलुमावी की हार हुई परंतु वैवाहिक संबंध होने के कारण सातपाहन राज्य को क्षति नहीं पहुँचाया ।
अंतिम महान शासक के रूप में यज्ञश्री शातकर्णी (174-203 ई.) का विवरण मिलता है । इनके सिक्का पर जलपोत या सिक्का का आकृति मिलता है।
नोट- सातवाहन राज्य ने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच सेतु का काम किया।
प्रशासनिक व्यवस्थाः-
भारत में सामंती प्रथा का जनक सातवाहन शासकों को माना जाता है। साथ ही साथ इस काल में सामंतो की तीन श्रेणियाँ थी जो है- 
(1) राजा (2) महाभौज (3) सेनापति
इस काल में जिला को "आहार" कहा जाता था। 
इस काल में अधिकारी को "अमात्य" और "महामात्य" कहा जाता था ।
इस काल में ग्रामीण क्षेत्रों के प्रशासक को गौल्मिक कहा जाता था ।
गौल्मिक एक सैनिक टुकड़ी का प्रधान होता था जिसमें नौ रथ, नौ हाथी, पच्चीस घोड़े और पैंतालिस पैदल सैनिक होते थें । 
आर्थिक व्यवस्था एवं मुद्राएँ:-
राजा कृषकों के उपज का 1/6 भाग के रूप में प्राप्त करता था ।
व्यवसायों एवं शिल्पियों के श्रेणियों के प्रधान को "श्रेष्ठिन" कहा जाता था।
सातवाहनों ने ही सर्वप्रथम सीसा के सिक्का का प्रचलन किया ।
सोना- सुवर्ण, चाँदी - कार्पाषण 
सामाजिक संगठनः-
इस काल में महिलाओं की स्थिति अच्छी थी। इस काल में प्रदा प्रथा का प्रचलन नहीं था ।
राजपरिवार की महिलाएँ बौद्ध धर्म को पक्षय देती थी जबकि पुरूष वैदिक धर्मो को ।
राजाओं के नाम मातृप्रधान है किंतु सातवाहन समाज पितृसत्तात्मक था क्योकिं राज सिंहासन का उत्तराधिकारी पुत्र ही होता था ।
समाज में अंतर्जातीय विवाह होता था ।
ब्राह्मनों को कर मुक्ति भूमि अनुदान देने की प्रथा की शुरूआत सर्वप्रथम सातवाहनों ने ही किया है।
सातवाहनों की महत्वपूर्ण स्थापत्य कला है- कार्त का चैत्य व अमरावती का स्तूप
सातवाहनों ने पहले स्थानीय अधिकारी के रूप में मौर्य के अधीन काम किया था ।
सातवाहन के सनाव में सर्वाधिक सीसा के मुद्रा का प्रचलन था।
सातवाहनों ने आरंभिक दिनों में अपना शासन आंध्र से शुरू किया।
मौर्या के बाद दक्षिण भारत में सबसे प्रभावशाली राज्य सातवाहन था ।
इस समय गोदावरी डेल्टा की भूमि काफी ऊपजाऊँ थी जिसके विषय में यह कहा जाता था कि भूमि पर एक व्यक्ति के सालभर के अनाज का उत्पादन होता था । 

चेदि वंश/महामेघवाहन वंश

कलिंग के चंदि वंश के विषय में जानकारी का स्त्रोत खारवेल का हाथी गुम्फा अभिलेख है।
इस वंश की स्थापना महामेघवाहन ने किया।
इस वंश का सबसे महान शासक खारवेल था ।
सर्वप्रथम रोम के साथ तमिल एवं चेर शासकों ने व्यापार आरंभ किया।

मौर्योत्तर काल (185ई.पू. - 319ए.डी.)

मौर्योत्तर काल में भारत के उपर 4 विदेशी आक्रमण हुआ, जिसका क्रम निम्न है-
(1) हिन्द यूनानी
(2) शक
(3) पहलव
(4) कुषाण

हिन्द यूनानी

मौर्योत्तर काल में सर्वप्रथम हिन्द यूनानी शासकों ने आक्रमण किया जो वैक्टिरिया के रहने वाले थें जिस कारण इमे बैक्टिरियन आक्रमण भी कहा जाता है।
(हिन्द कुश)
हिन्द यवन शासक भारत में दो भाग में बँटकर शासन किया।
(1) डेमिट्रियस कुलः-
इस कुल के संस्थापक डेमिट्रियस थें इन्होनें अपनी राजधानी साकल (पंजाब) को बनाया, इस कुल के सबसे महान शासक के रूप में मिनार का वर्णन मिलता है। मिनार सभी हिन्द यूनानी शासकों में सबसे महान था । मिनार और बौद्ध भिक्षुक के बीच नागसेन से प्रश्न पूछ रहें थें इसका संकलन मिलिन्दपन्हो नामक ग्रंथ में मिलता है। इस ग्रंथ की रचना नागसेन ने किया है। मिना प्रथम विदेशी शासक था जो भारत आकर बौद्ध धर्म को अपनाया।
(2) युक्रेटाइडीज कुल:--
इस कुल के संस्थापक युक्रेटाइडीज थें इन्होनें अपनी राजधानी तक्षशिला को बनाया। इस वंश के सबसे महान शासक के रूप में आन्ती आल कीडरा का वर्णन मिलता है, इन्हीं का राजदूत बनकर हेलियोडोरस शुंग वंश के 9वें शासक भाग्यग्रद्र के दरबार में पहुँचा था । हेलियोडोरस ने मध्यप्रदेश के विदशा या वेगनगर में अपनी खर्चे से गरुड़ स्तंभ लेख का निर्माण करवाया जो कि एक निजी अभिलेख है ।
भारत में सर्वप्रथम लेख युक्त और चित्रयुक्त सोना का सिक्का हिन्दु यवन शासकों ने जारी किया था जिसें ड्रम कहा जाता था ।
सर्वप्रथम मिनांडर ने सोने के सिक्के जारी किए थे ।
नाटक के समय पर्दा गिराने की प्रथा अर्थात यवनीका की शुरूआत हिन्द यूनानी शासकों के द्वारा ही किया गया था।
हिन्द यवन शासकों को भारत का गोलमिर्च (कालीमिर्च) काफी पसंद था जिस कारण इसे यवन प्रिय कहा जाता था।
युक्रेटाइडिज कुल के अंतिम शासक- हर्मियस
बैक्ट्रिया में अंतिम हिन्द यवन शासक- हेलियोक्लीज था ।

शक

शक मुलतः मध्य एशिया के रहने वाले थें जो यूची काबिला से पराजित होकर भारत आया था ।
शक शासक अपने को क्षत्रक कहकर पुकारा करता था । शकों ने भारत में 4 शाखाओं में बँटकर शासन किया ।
(1 ) तक्षशिला का क्षत्रकः- इसके संस्थापक मेऊस था ।
(2) मथुरा का क्षत्रकः- इसके संस्थापक राजुल / राजबुल था । 
(3) नासिक का क्षत्रकः- इसके संस्थापक भूमक थें । इस वंश के सबसे महान शासक नहपान था जिसका संघर्ष सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णी के साथ वेन गंगा नदी के तट पर हुआ जिसमें नहपान मारा गया। तत्पश्चात् नासिक के शक शासित क्षेत्रों को गौतमीपुत्र सातकर्णी न अपने साम्राज्य में मिला लिया ।
(4) उज्जैन का क्षत्रकः- इस वंश के संस्थापक चाष्टान था जबकि इस वंश के सबसे महान शासक रूद्रदामन था । रूद्रदामन का संघर्ष सातवाहन शासक विशिष्ट पुत्र पुलुमावी के साथ हुआ जिसमें पुलुमावी का पराजय का सामना करना पड़ा इसके बावजूद रुद्रदामन सातवाहन राज्यों को (130 - 150 ए.डी.) क्षति नहीं पहुँचाया। संस्कृत भाषा में रूद्रदामन ने पहला अभिलेख जारी किया था जो जूनागढ़ अभिलेख है । अंतिम शक शासक के रूप में रूद्र सिंह तृतीय का वर्णन मिलता है जिसे चुद्रगुप्त विक्रमादित्य पराजित कर शकों का अंतिम रूप से उन्मूलन किया ।
रूद्रदामन ने सुदर्शन झील (गुजरात) का पुर्नर्निमाण करवाया । (गर्वनर -- सुविशाख)
विक्रम संवत् - 57 ई.पू. ।

पहलव

शक के पश्चात भारत के उपर पहलवों ने आक्रमण किया जो मुलतः परसिया अर्थात ईरान का रहने वाला था । पहलव वंश के संस्थापक मिथ्रेडेट्सन था जबकि इस वंश के सबसे महान ( 171-130 ई.पू.) शासक के रूप में गोन्डोफार्निस का विवरण मिलता है इन्होनें अपनी राजधानी पेशावर (पाकिस्तान) को बनाया । गोन्डोफर्निस का एक अभिलेख तख्त–ए–बही पाकिस्तान से खरोष्ठी लिपि में मिलता है । गोन्डोफर्निस (20 ई. - 41 ई.) के शासनकाल में ईसाई धर्म प्रचारक सेंट थॉमस (पुर्तगाल) भारत के यात्रा पर आया था ।

कुषाण (यूची / तोखरी)

प्रश्न: कुषाण वंश के शासकों का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तरः कुषाण वंश के संस्थापक फुजुल कडंफिसस था जो बौद्ध धर्म को मानता था । इसके उत्तराधिकारी के रूप में मेंबिम कडफिसस का वर्णन मिलता है जो शैव धर्म को मानता था । कुषाण शासकों में सर्वप्रथम सोने का सिक्का बिम कडफिसस ने जारी किया था। इसके उत्तराधिकारी के रूप में कनिष्क का वर्णन मिलता है जो कि कुषाण वंश का तीसरा शासक था । कनिष्क 78 ई. में गद्दी पर बैठा और उन्होनें राजसिंघासन ग्रहण करते ही 78 ई. में शक् संवत् का शुरूआत किया ।
विक्रमादित्य के तरह राम के शासक "सीजर" की उपाधि धारण करता था ।
प्रश्नः कनिष्क का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें।
उत्तरः कनिष्क कुषाण शासकों में सबसे महान शासक था । कुषाण वंश के तीसरें और सबसे महान शासक के रूप में वर्णन मिलता है जो कि 78 ई. में गद्दी प्राप्त किया और उन्होनें 78 ई. में एक संवत् की शुरूआत की जिसे शक् संवत् कहा जाता है। भारत का राष्ट्रीय पांचांग इसी संवत् पर आधारित है। कनिष्क की दो राजधानी थी-
(1) सांस्कृतिक राजधानीः- इसकी सांस्कृतिक राजधानी मथुरा थी ।
(2) राजनीतिक राजधानी:- पुरूषपुर या पेशावर ( पाकिस्तान ) थी ।
प्रश्नः कनिष्क की राजधानी थी ?
(क) मथुरा (ख) पाटलिपुत्र (ग) पेशावर (घ) उज्जैन
भारत का सबसे शुद्धतम सोना का सिक्का कुषाण शासकों के द्वारा खासकर कनिष्क के द्वारा जारी किया गया । कनिष्क खुद को देवपुत्र कहकर पुकारा करता था । कनिष्क चीन के उपर आक्रमण किया । कनिष्क बौद्ध धर्म को मानता था। इसके शासन काल में ही 102 ई. में चतुर्थ बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया कुण्डल वन कश्मीर में। जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने किया जबकि उपाध्यक्ष पाटलिपुत्र निवासी अश्वघोष बनें । इसी सम्मेलन के दौरान बौद्ध धर्म दो भागों में हीनयान और महायान में बँट गया । कनिष्क बौद्ध धर्म के महायान शाखा को मानता था ।
प्रश्नः कनिष्क के दरबार की शोभा कौन-कौन थें ?
उत्तरः वसुमित्र, असुघोष, चरक, नागार्जुन, पार्श्व इत्यादि कनिष्क के दरबार के शोभा थें। वसुमित्र ने महाविमाषसुत्र नामक ग्रंथ की रचना किया जबकि अश्वघोष ने बुद्ध चरित्रनम् नामक ग्रंथ की रचना किया है । चरक कनिष्क के दरबार का राजवैद्य था जो चरक संहिता का रचना किया। जबकि नागार्जुन ने भारत में शुन्यवाद का विकास किया जिस कारण उसे भारत का आइंस्टीन कहा जाता है। नागार्जुन ने माध्यमिक सुत्र नामक ग्रंथ की रचना किया जिसमें सापेक्षता के सिद्धांत को प्रस्तुत किया है |
कनिष्क का निधन 105 ई. में हो गया और छोटे-छोटे अयोग्य उत्तराधिकारी के कारण कुषाण वंश का पतन हो गया। इस वंश के अंतिम शासक के रूप में वासुदेव का वर्णन मिलता है।
कनिष्क को द्वितीय अशोक कहा जाता है ।

गुप्त साम्राज्य (319–550 ए.डी.)

पृष्ठभूमि:-
चौथी सदी ई. के प्रारंभ में कोई बड़ा संगठित राज्य अस्तिव में नहीं था । यद्यपि कुषाण एवं शक शासकों का शासन चौथी सदी ई. तक जारी रहा लेकिन उनकी शक्ति काफी कमजोर हो गई थी और सातवाहन वंश का शासन तृतीय सदी ई. के मध्य से पहले ही समाप्त हो गया था । ऐसी राजनीतिक स्थिति में गुप्त राजवंश का उदय हुआ ।
गुप्त वंश का आरंभिक राज्य उत्तरप्रदेश और बिहार में था । गुप्त शासकों के लिए बिहार की अपेक्षा उत्तरप्रदेश अधिक महत्व वाला प्रांत था, क्योकिं आरंभिक गुप्त मुद्राएँ और अभिलेख मुख्यतः उत्तरप्रदेश से ही पाए गए हैं |
गुप्त संभवतः वैश्य थें तथा कुषाणों के सामंत थें ।
गुप्त राजवंश के इतिहास के रूत्रोतः-
गुप्त राजवंश का इतिहास जानने के निम्नलिखित स्त्रोत है।
(1) साहित्यिक स्त्रोत (2) पुरातात्विक स्त्रोत (3) विदेशी यात्रियों का विवरण
साहित्यिक रूत्रोतः-
विशाखदत्त के नाटक देवीचंद्रगुप्तम से गुप्त शासक रामगुप्त एवं चंद्रगुप्त द्वितीय के बारे में जानकारी मिलती है।
• इसके अलावे कालीदास की रचनाएँ जैसे- ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, मेघदूतम्, मालविकाग्निमित्रम्, अभिज्ञान शाकुतंलम् तथा शूद्रक कृत मृच्छकटिकम् और वात्स्यायन कृत "कामसुत्र" से भी गुप्त राजवंश के विषय में जानकारी मिलती है ।
पुरातात्विक स्त्रोतः- 
पुरातात्विक स्त्रोत में अभिलेखों, सिक्को तथा स्मारकों से गुप्त राजवंश के विषय में जानकारी मिलती है।
समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख से उसके बारें में जानकारी मिलती है।
स्कन्दगुप्त के भीतरी स्तंभ लेख से हूण आक्रमण के बारें में जानकारी मिलती है, जबकि स्कंदगुप्त के " जूनागढ़” अभिलेख से इस बात की जानकारी प्राप्त होती है कि उसने सुदर्शन झील का पुर्ननिर्माण करवाया ।
गुप्तकालीन राजाओं के सिक्के प्राप्त हुए हैं। इस काल में सोने के सिक्को को "दीनार", चाँदी के सिक्के को "रूपक" अथवा "रूष्क" तथा ताँबे के सिक्को को "माषक" कहा जाता था ।
गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर राजस्थान प्रांत के "बयाना" से प्राप्त हुआ था ।
अजंता एवं बाघ की गुफाओं के कुछ चित्र भी गुप्तकालीन माने जाते हैं ।
विदेशी यात्रियों के विवरण:
• फाहियानः-
यह चीनी यात्री था और चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आया था। इसने मध्यप्रदेश का वर्णन किया है।
• हवेनसांगः-
इसने कुमारगुप्त प्रथम बुधगुप्त आदि गुप्त शासको का उल्लेख किया है। इसके विवरण से ही यह पता चलता है कि कुमारगुप्त ने नालंदा महाविहार की स्था करवाई थी। 
प्रमुख शासकः
• श्रीगुप्तः-
गुप्तवंश का संस्थापक श्रीगुप्त था। जिसने "महाराज" की उपाधि धारण की थी । महाराज सामंतों की उपाधि होती थी जिससे पता चलता है कि वह किसी शासक के अधीन शासन करता था। (280-319 ई.) का विवरण मिलता है। इसके उत्तराधिकारी के रूप में उसके पुत्र घटोत्कच (280-319 ई.) का विवरण मिलता है।
• चंद्रगुप्त प्रथम (319-334 ई):- 
घटोत्कच के बाद उसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम राजा बना।
चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का प्रथम प्रभावशाली शासक हुआ जिस कारण इस गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
गुप्त वंश के प्रथम शासक चंद्रगुप्त प्रथम हुए जिन्होनें महाराजाधिराज की उपाधि प्रदान किया।
चंद्रगुप्त प्रथम 319-20 ई. में अपने राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में एक संवत् चलाया जिसे गुप्त संवत् कहा जाता है।
प्रश्न: गुप्त वंश और शक् संवत् में कितना वर्ष का अंतर है ?
उत्तरः 241 वर्ष
चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया जो संभवतः नेपाल की रहने वाली थी।
गुप्त वंश के शासकों में चंद्रगु "थम पहला शासक हुआ जिसने सिक्के जारी कियें।
चंद्रगुप्त प्रथम कुमारदेवी से विवाह के उपलक्ष्य में सोना का सिक्का जारी किया जिसके एक तरफ चंद्रगुप्त प्रथम और कुमारदेवी का चित्र अंकित था जबकि दूसरे तरफ सिंहवाहिनी दुर्गा देवी का चित्र अंकित था । इस सिक्का को राजा रानी प्रकार, कुमार देवी प्रकार, लिच्छवी प्रकार या सिंहवाहिनी प्रकारका सिक्का कहा जाता है।
• समुद्रगुप्त ( 335–380):-
चंद्रगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र समुद्रगुप्त हुआ । इनकी माता लिच्छवी की थी जिस कारण इन्हें लिच्छवी द्रौहित ( लिच्छवी का नाती) कहा जाता है।
समुद्रगुप्त के बचपन का नाम लाँच था ।
समुद्रगुप्त के विषय में विस्तारपूर्वक जानकारी हमें प्रयाग प्रशस्ति या इलाहाबाद अभिलेख से मिलती है जिसकी रचना उसके दरबारी कार्य हरिषेन ने संस्कृत भाषा में किया है।
अगर प्रयाग प्रशस्ति लेख पर विश्वास करते हैं तो यह देखा जाता है कि समुद्रगुप्त को अपने जीवन में कभी भी हार का सामना नहीं करना पड़ा। इन्होनें "धरणीबद्ध, पार्थिवप्रथमवीर" की उपाधि धारण किया ।
अशोक निर्मित प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख मूलतः कौशाम्बी में स्थित था जिसे अकबर ने इलाहाबाद में स्थापित करवाया। इस स्तंभ पर जहाँगीर तथा बीरबल का भी उल्लेख मिलता है। (अशोक - समुद्रगुप्त - अकबर-बीरबल - जहाँगीर)
समुद्रगुप्त अशोक का विपरीत था । अशोक शांति और अनाक्रमण की नीति में विश्वास करता था, तो समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में आनंद पाता था । जी.ए
यदि हम इलाहाबाद के प्रशस्ति पर विश्वास करें तो प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त आर्यावर्त्त के 9 राज्य और दक्षिणावर्त्त के 12 राज्यों को जीतकर अपने राज्यों में मिलाया और यह भी प्रतीत होता है कि उन्हें कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा। उसे अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल के कारण इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने भारत के नेपोलियन की संज्ञा दिया ।
चंद्रगुप्त प्रथम ने ही सर्वप्रथम "परमभागवत" की उपाधि धारण किया ।
समुद्रगुप्त की प्रतिष्ठा और प्रभाव भारत के बाहर भी फैला। एक चीनी स्त्रोत के अनुसार श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने गया में बुद्ध का मंदिर बनवाने की अनुमति प्राप्त करने के लिए समुद्रगुप्त के पास दूत भेजा था। अनुमति दी गई और यह मंदिर विशाल बौद्ध विहार के रूप में विकसित हो गया ।
समुद्रगुप्त की कुल 6 मुद्राएँ हमें प्राप्त होती है। मुद्राएँ उनके जीवन और कार्य पर प्रकाश डालती है।
(1) गरूड़ प्रकार 
(2) धनुर्धारी प्रकार 
(3) परशु प्रकार
(4) अश्वमेघ प्रकार
(5) व्याघ्रनन प्रकार 
(6) वीणावादन प्रकार
समुद्रगुप्त को उसके सिक्के पर वीणावादन करते हुए दिखाया गया है जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि समुद्रगुप्त वीणा बजाते थें ।
समुद्रगुप्त ने "कृष्णचरित्र" नामक ग्रंथ की रचना किया जिस कारण उसे कविराज कहा जाता है।
समुद्रगुप्त विष्णु का उपासक था । ताम्रपत्र में समुद्रगुप्त को "परम भागवत" की उपाधि मिली है।
समुद्रगुप्त ने बौद्ध भिक्षु वसुबंधु को संरक्षण दिया था ।
समुद्रगुप्त अपनी विजय के पश्चात् अश्वमेघ यज्ञ किया तथा "अश्वमेघ पराक्रम' की उपाधि धारण की।
नोट- चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त के पूना अभिलेख में समुद्रगुप्त को अनेक अश्वमेघ यज्ञ करने वाला कहा गया है ।
चंद्रगुप्त द्वितीय "विक्रमादित्य" ( 380-412):-
गुप्त वंशावली में समुद्रगुप्त के पश्चात् चंद्रगुप्त द्वितीय का नाम आता है, परंतु दोनों शासको के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है ।
रामगुप्त शकों से पराजित हो गया था तथा उन्होनें अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकों को देने के लिए तैयार हो गया था ।
रामगुप्त ने ताँबा का सिक्का चलाया था।
रामगुप्त का छोटा भाई चंद्रगुप्त द्वितीय था जिन्होनें शकों को पराजित कर रामगुप्त की विधवा पत्नी से विवाह कर लिया ।
चंद्रगुप्त द्वितीय के विषय में जानकारी हमें दिल्ली में कुतुबमीनार के पास खड़े लौह स्तंभ पर खुदे हुए अभिलेखसे मिलता है जिसे महरौली स्तंभ लेख या चंद्र स्तंभ लेख के नाम से भी जाना जाता है, जो आज भी वैज्ञनिकों के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदु बना हुआ है क्योंकि इसमें जिस धातु का प्रयोग किया गया है उसमें आज भी जंग नहीं लगा है |
उदय गिरी गुहा अभिलेख में भी चंद्रगुप्त द्वितीय की विजयों का उल्लेख मिलता है |
चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में कालक्रम की दृष्टि से मथुरा का स्तंभ लेख पहला प्रमाणिक गुप्त लेख है, जिसमें तिथी का उल्लेख हुआ है ।
वैवाहिक संबंध तथा साम्राज्य विस्तारः-
चंद्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंध और विजय दोनों तरह से अपनी साम्राज्य का विस्तार किया ।
चंद्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेरनागा के साथ विवाह करके नाग वंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये और बाद में अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वकाटक वंश के राजा रूद्रसेन द्वितीय के साथ किया। इन्होनें अपने पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब शासक काकुत्सवर्मन की पुत्री से किया था।
वैवाहिक संबंध के फलस्वरूप मध्य भारत स्थित वकाटक राज्य पर रूप से अपना प्रभाव जमाकर चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व स्थापित कर लिय इस विजय से चंद्रगुप्त द्वितीय को पश्चिमी समुद्र तट मिल गया जो व्यापार वाणिज्य के लिए प्रसिद्ध था। इससे मालवा एवं उसका मुख्य नगर उज्जैन समृद्ध हुआ ।
उज्जैन को चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपनी द्वितीय राजधानी बनाया जबकि पहली राजधानी पाटलिपुत्र थी ।
चंद्रगुप्त द्वितीय एवं शक:-
चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन के अंतिम शक शासक रूद्रसिंह तृतीय को पराजित किया। संभवतः शकों पर विजय के उपरांत ही चंद्रगुप्त द्वितीय ने "विक्रमादित्य” की उपाधि धारण किया था ।
विक्रमादित्य का अर्थ होता है- पराक्रम का सूर्य
भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य की संख्या 14 है, जिसमें सर्वाधिक लोकप्रिय विक्रमादित्य चंद्रगुप्त द्वितीय है ।
भारतीय अनुश्रुतियों में चंद्रगुप्त द्वितीय को शकारि अर्थात शकों के विजेता के रूप में जाना जाता है !
चंद्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के उपलक्ष्य में मालवा क्षेत्र में व्याघ्र शैली के चाँदी के सिक्के चलाए ।
अन्य नाम एवं उपाधियाँ चंद्रगुप्त द्वितीय काः
• अन्य नामः-
देवगुप्त, देवराज एवं देवश्री
• उपाधिः- 
विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत ।
कला एवं साहित्यः-
चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल का स्मरण युद्धो के कारण नहीं बल्कि कला एवं साहित्य के प्रति उसके अगाध अनुराग के कारण किया जाता है !
चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौ विद्वानों की मंडली निवास करती थी, जिसे नवरत्न कहा गया है। जिसमें अमरसिंह, कालीदास, शंगु, घटकपर, वररुचि, वराहमिहीर, धनवन्तरि, क्षपणक, वेतालभट्टथा।
सभी विद्वानों में सबसे महान कालीदास था जिसे "भारत का सेक्सपियर" कहा जाता था ।
चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में चीनी यात्री फाहियान ( 399-414) भारत आया था।
फाहियानः
फाहियान चीन मध्य एशिया पेशावर के स्थल मार्ग से 399 ई. में भारत आया व ताम्रलिप्ति से श्रलंका तथा पूर्वी द्वीपों से होते हुए समुद्री मार्ग से 414 ई. में स्वदेश लौटा।
वर्णनः
इन्होनें कहा मध्यदेश ब्राह्मणों का देश था । यहाँ लोगों को मृत्युदंड नहीं दिया जाता था केवल आर्थिक दंड का प्रावधान था। मध्यदेश के लोग किसी जीवित प्राणी की हत्या नहीं करते थें ।
मध्यदेश के लोग क्रय-विक्रय में कौड़ियो का प्रयोग करता था ।
फाहियान ने पवित्र बौद्ध स्थानों का भ्रमण किया । इनहोने पाटलिपुत्र में अशोक ला राजमहल देखा तथा उससे इतना प्रभावित हुआ कि उसे देवताओं द्वारा निर्मित बताया !
नोट- चीनी ग्रंथों में भारत को "यिन- तू" कहा गया है।
चंद्रगुप्त द्वितीय के समय पाटलिपुत्र एवं उज्जैन विद्या के प्रमुख केंद्र था ।
चंद्रगुप्त द्वितीय का सचिव "वीरसेन" शैव धर्मानुयायी था और सेनापति "आम्रकार्दव" बैद्ध अनुयायी था ।
चंद्रगुप्त द्वितीय का काल ब्राह्मण धर्म के चरमोत्कर्ष का काल था ।
कुमारगुप्त प्रथम या महेन्द्रादित्यः-
चंद्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम हुआ परंतु कुमारगुप्त प्रथम के पूर्व एक और शासक का विवरण मिलता है, वह ध्रुव देवी का पुत्र गोविन्दगुप्त था । यह विवादस्पद है ।
कुमारगुप्त के बिलसड़ अभिलेख, मंदसौर अभिलेख, करमदंडा अभिलेख आदि से उसके शासनकाल की जानकारी मिलती है।
कुमारगुप्त प्रथम के समय के सर्वाधिक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुए हैं।
मंदसौर अभिलेख एक प्रशस्ति के रूप में है जिसकी रचना " वत्सभार्ट" ने की ।
कुमारगुप्त प्रथम ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना किया। 
मध्य भारत में रजत सिक्के का प्रचलन इसी के काल में हुआ ।
कुमारगुप्त ने मुद्राओं पर गरुड़ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण करवाया ।
कुमारगुप्त प्रथम ने महेन्द्ररदित्य, श्री महेन्द्र तथा महेन्द्र अश्वमेघ इत्यादि उपाधि धारण किया ।
नालंदा विश्वविद्यालय को "आक्सफोर्ड ऑफ महायान" कहा जाता है।
स्कंदगुप्त (455-467 ई ):-
कुमारगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी स्कंदगुप्त हुआ ।
भीतरी स्तंभ लेख के अनुसार प्रथम हूण आक्रमण इसी के समय में हुआ था।
जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने हूणों के आक्रमण को विफल कर दिया। 
जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को " म्लेच्छ" कहा गया है।
हूण:-
हूण राज्य फारस से खेतान तक फैला हुआ था, जिसकी मुख्य राजधानी अफगानिस्तान में बामियान थी ।
प्रथम हूण आक्रमण "खुशनवाज" के नेतृत्व में स्कंदगुप्त के समय हुआ ।
तोरमान और मिहिरकुल प्रसिद्ध हूण शासक हुए।
मिहिरकुल को बौद्ध धर्म से घृणा करनेवाला और मूर्तिभंजक कहा गया है।
जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील के पुनरूद्धार का कार्य सौराष्ट्र के गर्वनर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौपा था ।
स्कंदगुप्त ने झील के किनारें एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था ।
सुदर्शन झील
शासक गर्वनर
चंद्रगुप्त मौर्य (निर्माण) पुष्यमित्र वैश्य
अशोक (पुर्ननिर्माण) तुसास्प
रूद्रदामन (पुर्ननिर्माण) सुविशाख
स्कंदगुप्त (पुर्ननिर्माण) पर्णदत्त
स्कंदगुप्त ने वृषभशैली के नए सिक्के जारी कियें ।
स्कंदगुप्त ने 466 ई. में चीनी सम्राट साँग के दरबार में एक राजदूत भेजा ।
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