इंदिरा गांधी युग ( 1966–1984 ) (1971 का युद्ध आपातकाल तथा पंजाब की समस्या)

इंदिरा गांधी युग ( 1966–1984 ) (1971 का युद्ध आपातकाल तथा पंजाब की समस्या)

इंदिरा गांधी युग ( 1966–1984 ) (1971 का युद्ध आपातकाल तथा पंजाब की समस्या)

1. इंदिरा गांधी युग (1966-1984) (1971 का युद्ध, आपातकाल तथा पंजाब समस्या) 
जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु मई 1964 में होने के बाद कांग्रेस के सामने उनके उत्तराधिकारी को चुनने की बात आयी। कांग्रेस के पास दो महत्वपूर्ण विकल्प थे : ( 1 ) मोरारजी भाई (2) लाल बहादुर शास्त्री | जहां मोरारजी भाई एक कड़े स्वभाव तथा दक्षिणपंथी विचारधारा के पोषक थे वहीं शास्त्री जी बहुत ही इमानदार तथा मृदभाषी स्वभाव के थे। दोनों नेताओं में सिंडिकेट ने (जिसके अध्यक्ष के. नारायाण थे) शास्त्री जी का नाम प्रधानमंत्री के लिए अनुमोदित किया। सिंडिकेट ने शास्त्री जी के उत्तराधिकारी हक को इसलिए आगे बढ़ाया कि उनकी पार्टी में कोई गुटबाजी नहीं थी और दूसरा कि सिंडिकेट उन्हें अपना खतरा नहीं मानता था। उन्हें यह लगता था कि शास्त्री जी का व्यक्तित्व एक उदार व्य.ि क्तत्व है और किसी भी तरह उन्हें प्रेरित किया जा सकता है। इसके अलावा सिंटिकेट को यह भी लगता था कि शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी प्रकार का असंतोष नहीं पनपेगा। देसाई (मोरारजी) भाई को भी शास्त्री से कोई परेशानी नहीं थी। निर्विरोध लाल बहादुर शास्त्री को 2 जून 1964 को प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी गई।
शास्त्री जी के प्रधानमंत्री काल में कई समस्याओं का समाधान करना पड़ा। एक तरफ अर्थव्यवस्था काफी व्यथित थी तो सूखे की समस्या विस्तरित थी। खाद्दानों का आपातकालीन भंडार खतरनाक सीमा तक कम हो गया था। समस्याओं से पार पाना आसान नहीं था। जनवरी 1965 में सरकार ने राज्य खाद्द व्यापार निगम का गठन किया । हरित क्रांति की शुरूआत की पर इसका परिणाम एक दो महीने में आना असंभव था।
उपरोक्त समस्याओं से निपटने की रणनीति का विश्वसनीय होना अब सवालों के घेरे में आ गया था तथा शास्त्री जी को कुछ समूहों के द्वारा एक कमजोर प्रधानमंत्री भी कहना आरंभ कर दिया गया था। परंतु धीरे-धीरे शास्त्री जी का व्यक्तित्व सामने आने लगा तथा वह स्वयं स्वायत्त रूप से निर्णय लेने लगे। सिंडिकेट की शिकायत आने लगी कि शास्त्री जी अब सिंडिकेट से कोई सलाह नहीं लेते। अब तो प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्री जी वियतनाम पर अमेरिकी कार्यवाही का विरोध आरंभ हुआ शास्त्री जी ही पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने सचिवालय बनाया जो बाद में चलकर पी.एम.ओ. बन गया। शास्त्री जी की व्यक्तिगत मजबूती तथा पूर्ण इच्छा शक्ति के बारे में जनता को भारत-पाक युद्ध के समय पता चला। कश्मीर मुद्दे को लेकर पाकिस्तान भारत को लगातार भड़काने की कोशिश कर रहा था। 1965 में शेख अब्दुल्ला के अनुया. यियों एवम अन्य कश्मीरी नेताओं ने कश्मीर में अशांति पैदा करने की कोशिश की। पाकिस्तान शेख अब्दुल्लाह की नीति को लेकर काफी उत्साह में आ गया तथा अमेरिका से सैन्य उपकरण लगातार मिलने से वह अति आत्मविश्वास में था।
1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद से ही पाकिस्तान भारत को कम आंकने की गलती कर रहा था। पाकिस्तान ने अप्रैल 1965 में कच्छ के रण में एक उकसाने वाली कारवाई की तथा भारत ने शांति के लिए कोई आक्रामक जवाब नहीं दिया। ब्रिटेन के हस्तक्षेप से दोनों देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसका समाधान करने पर सहमत हो गए। यह एपिसोड भारत के विरुद्ध गया तथा पाकिस्तान को लगा कि भारत अभी कमजोर है तथा सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है। 
अगस्त 1965 में पाक ने कश्मीर घाटी में घुसपैठियों को भेजना शुरू किया। ये घुसपैठिये प्रशिक्षित थे तथा कश्मीर में भयंकर विद्रोह के लिए भेजे गए थे। भारतीय प्रधानमंत्री को जब यह पता चला तो उन्होंने सेना को यह आदेश दिया कि वह युद्ध विराम रेखा को पार कर जाए तथा उन रास्तों को ध्वस्त कर दे जिनके सहारे घुसपैठिये आकर कारगिल, उटी, हाजीपीर जैसी सामरिक चौकियों पर अपना अधिकार जमाना चाहते थे। इसके साथ ही 1962 से बिल्कुल अलग पूरा देश सरकार के समर्थन में आ गया।
1 सितंबर 1965 को पाकिस्तान ने जब (कश्मीर) सैक्टर पर टैंक से हमला किया तब शास्त्री जी ने सेना को सियालकोट तथा लाहौर तक बढ़ने का आदेश दे दिया। इस प्रकार भारत-पाक एक अघोषित युद्ध में कूद पड़े। चीन ने भारत को आक्रमणकारी घोषित कर दिया तथा धमकी देने लगा। ब्रिटेन और अमेरिका ने मानवीय सहायता देना बंद कर दिया। रूस ने चीन को पाकिस्तान की मदद करने से रोकने की कोशिश की।
सुरक्षा परिषद् की मदद से दोनों देश (25 सितंबर 1965) युद्ध विराम पर आ गए (23 सितंबर 1965) कश्मीर में घुसपैठ को नाकाम कर दिया गया। भारतीय सेना का 1962 में खोया उत्साह फिर से वापस आ गया। भारत राजनीतिक रूप से मजबूत होकर उभरा। शास्त्री जी एक राष्ट्रीय हीरो के रूप में उभरे।
4 जनवरी 1966 को सोवियत संघ के ताशकंद में भारत-पाकिस्तान के बीच सोवियत संघ की मध्यस्थता से बैठक हुई। इसमें पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान तथा प्रधानमंत्री (भारत) शास्त्री जी शामिल हुए। ताशकंद घोषण पत्र में दोनों देशों को एक दूसरे की हथियाई जमीन वापस करने को राजी किया गया। भारत के संदर्भ में इसका एक गलत संदेश गया। अब सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हाजी पीर दर्रा से पीछे हटना था जिसके द्वारा पाकिस्तान से उग्रवादी फिर भारत आ सकते थे। शास्त्री जी युद्ध के बदले इसी को पसंद कर पाए । सोवियत संघ का भी समर्थन आवश्यक था। 10 जनवरी 1965 को भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु ताशकंद में ही रहस्मयी हृदयाघात से हो गयी।
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद एक बार फिर उत्तराधिकार के नाम पर कांग्रेस में एक विवाद खड़ा हो गया। मोरारजी देसाई फिर एक बार मेंदान में थे। देसाई के नाम पर सिंडिकेट अभी भी राजी नहीं था तथा उन्होंने ऐसे उम्मीदवार की खोज आरंभ की जो मोरारजी भाई के सामने स्वीकार्य हो तथा सिंडिकेट के अंदर भी रह सके। सिंडिकेट को ये सारी खूबिया इंदिरा गांधी में नजर आईं तथा इन्होंने इंदिरा जी को सामने कर दिया।
इंदिरा गांधी की अपनी विरासत थी तथा वह नेहरू जी की बेटी थी तथा एक प्रगतिशील सोच की धनी थी। सही इंदिरा किसी भी जाति, धर्म, राज्य या विशेष समूह की प्रतिनिधि नहीं थी। सिंडिकेट इंदिरा जी को इसलिए भी पसंद करता था कि यह एक गैर अनुभवी, युवा, महिला एवम् पार्टी के अंदर कोई अधिक पकड़ नहीं रखती थी। 14 मुख्यमंत्रियों में से 12 मुख्यमंत्रियों ने इंदिरा गांधी जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अध्यक्ष को पत्र लिखा । इन्हें लग रहा था कि राज्यों में आम विधान सभा के चुनावों में इसका फायदा मिलेगा।
मोरारजी देसाई चुनावी प्रक्रिया के तहत चुनाव कराने पर जोर दे रहे थे। उन्हें यह विश्वास था कि अपनी वास्तिकता से तथा सर्वमान्य से चुनाव वही जीतेंगे। लेकिन इंदिरा जी को एक बच्ची कहना उनके लिए ठीक नहीं हुआ। कांग्रेस संसदीय दल की बैठक हुई तथा 19 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी ने 169 के बदले 323 मतों से मोरारजी भाई को हरा दिया। भारत में एक महिला के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया।
प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी के सामने बहुत सारी समस्याएं थी। आर्थिक स्थिति खराब थी। औद्योगिक उत्पादन कम था। सूखा पड़ा था। नागा और मिजो विवाद चरम पर थे। पंजाब की समस्या तो एक अलग तरह रही थी । आरंभ में तो इंदिरा गांधी की अनुभवहीनता से लगता था कि प्रधानमंत्री पद कैसे संभालेगी। एक साल पहले देश ने एक एक युद्ध भी झेला था।
अकाल से निपटने में इंदिरा गांधी को सफलता मिली तथा खाद्दानों का वितरण अब अधिक होने लगा तथा मानव क्षति में कमी हुई। यह प्रधानमंत्री के रूप में यह इंदिरा गांधी का पहला काम था।
इंदिरा गांधी के द्वारा आर्थिक स्थिति को ठीक करने के परिणाम उल्टा साबित हुए तथा उनके निर्यात को अधिक सफलता मिली। इंदिरा जी ने पैसे के अवमूल्यन का फैसला लिया। इसके पीछे बहुत से कारण थे। इसके पीछे निर्यात की कमी, अमेरिका से चर 480 खाद्य सुरक्षा का अमेरिका का आयात । इसके अलावा विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से फिर से सहायता लेने की आवश्यकता थी । विश्व बैंक तथा प्डथ् की भी इच्छा थी कि पैसे का अवमूल्यन हो । भारत सरकार ने 6 जून 1966 को रूपये में 35.5 प्रतिशत का अवमूल्यन किया।
अवमूल्यन का भारी विरोध हुआ तथा हर प्रकार के राजनीतिक विचार रखने वालों ने इस कदम का विरोध किया। वामपंथी दलों ने इसका विरोध किया। बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। सिंडिकेट (वामदल) ने इस पर कड़ी प्रतिक्रया व्यक्त की तथा कहा कि हमसे कोई सलाह नहीं ली गई। सरकार पर भी व्यापक असंतोष था तथा कहा गया कि सरकार विदेशी शक्तियों के प्रभाव में आ गयी।
अक्टूबर तक कोई बड़ा नतीजा सामने नहीं आया तथा यह कहा जा सकता है कि खाद्द पदार्थ तथा विदेशी सहायता के मामले में कोई विशेष सकारात्मकता नहीं दिखायी दी। इधर अमेरिका से आने वाले खाद्द पदार्थ भी वादे से कम आने लगे। अमेरिका वियतनाम के मुद्दे पर भारत की नीति बदलने का दबाव डालने लगा।
इंदिरा गांधी वियतनाम के मामले पर अमेरिका का खुला विरोध करने लगी तथा सोवियत संघ के साथ उन्होंने संयुक्त सहमति की। तत्काल दोनों देशों के द्वारा अमेरिका की कारवाई को “ साम्राज्यवाद आक्रमण" कहा गया। इंदिरा गांधी ने अब पूरी तरह से 'गुटनिरपेक्षता' की नीति पालन करने पर जोर दिया। इन्होंने मिस्र के नासिर तथा टीटो के साथ निकट के संबंध बनाए तथा राजनीतिक तथा अधिक सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया तथा नव उपनिवेशवाद का विरोध करना अब प्राथमिकताओं में शामिल हो गया। इसके अलावा सोवियत संघ के साथ मित्रता बढ़ाने पर भी इन्होंने काफी जोर दिया तथा चीन के साथ बातचीत आरंभ करने की कोशिश की।
जिस समय इंदिरा जी प्रधानमंत्री बनीं, देश में अब आंदोलन, हड़ताल, धरना अधिक देखने को मिल रहे थे। सरकारी कर्मचारियों की अपनी अलग समस्याएं थी | बहुत सारे लोग अपनी इच्छाओं के कारण विरोध कह रहे थे। कई जगह ये विरोध तथा आंदोलन हिंसक हो गए। कई जगह तो स्थिति नियंत्रण के लिए सेना को बुलाना पड़ा। प्रशासन एवम सत्ताधारी राजनीतिक नेतृत्व में जनता का विश्वास घटता ही जा रहा था।
जनसंघ जैसे विपक्षी दल तथा वामपंथी दल ऐसे आंदोलन के कारण मजबूत हो रहे थे। उन्होंने बंद, हड़ताल तथा अन्य प्रकार के आंदोलन का अधिक समर्थन किया जनसंघ ने अपनी विचारधारा को प्रचारित करने की भी कोशिश की। जनसंघ ने गौहत्या के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन चलाने का फैसला किया तथा सरकार के विरोध में उग्र हो चला था। 7 नवंबर 1966 को हजारों नागा साधुओं ने तलवार, भाला, त्रिशूल लिए संसद भवन में प्रवेश करने की कोशिश की। उन्होंने कामराज के घर को घेर लिया। एक पुलिस कर्मी और 6 साधु मारे गए। गृहमंत्री गुलजारी नंदा से श्रीमति गांधी ने त्यागपत्र मांगा। यह एक क्षणिक विरोध था।
श्रीमति गांधी को कई बार संसद में भी व्यक्तिगत विरोध का सामना करना पड़ता था। उन्हें लैटिन की "गुंगी गुड़िया " कहते थे। पार्टी के अंदर तो श्रीमति गांधी की स्थिति एक लाचार व्यक्ति की थी। प्रधानमंत्री के बाद उन्हें महत्वपूर्ण विभ ागों पर भी कोई परिवर्तन करने का मौका नहीं मिला था। सिंडिकेट प्रधानमंत्री को एक सीमा में बांध कर रखना चाहता था। इंदिरा गांधी 1967 के कारण कुछ बोल नहीं पाती थी। उन्हें यह लगता था कि चुनाव वर्ष में जनता के सामने कोई असंतोष पर कलह की बात अभी तक जानी चहिए। ऊपर से उनमें कोई अपनी प्रभावशीलता नहीं थी।
1967 के आमचुनाव हुए। विधान सभाओं के भी चुनाव साथ में हुए । चुनाव परिणाम कांग्रेस की उम्मीद के अनुसार नहीं आए। बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट मिले पर तुलनात्मक रूप से 1961 से बहुत कम मिले। कई राज्यों में तो गठबंधन की ओर कांग्रेस को कदम बढ़ाने पड़े । यह परिणाम कांग्रेस के अंदर की गुटबाजी तथा कलह का भी एक नतीजा था।
1967 के चुनाव के नतीजों ने जनसंघ, समाजवादी, स्वतंत्र पार्टी को साथ आने का अवसर मिला। उधर दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडू में सी. बी. एम. तथा मुस्लिम लीग ने हाथ मिलाया। पंजाब में तो जनसंघ अकाली और सी.बी. एस. भी साथ में थे
कांग्रेस को 520 में से 284 सीटें हासिल हुई तथा कांग्रेस ने 8 राज्यों में अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस के लिए लोगों का मोह भंग होना राजनीति को एक नयी दिशा देने वाला साबित हुआ। इस चुनाव में गठबंधन सरकारों तथा दलबदल की राजनीति का आरंभ हुआ। सबसे बड़ी बात थी कि कांग्रेस के विकल्प में छोटी-छोटी पार्टियों को सामने देखा गया। पंजाब, बिहार, और उत्तर प्रदेश में विलय की सरकारों का आना एक अहम प्रक्रिया थी 1967 के आम चुनावों से 1970 के अंत तक बिहार में सात सरकारें, उत्तर प्रदेश में चार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पंजाब और बंगाल में तीन-तीन और केरल दल में दो सरकारे बदली। इस दौरान सात राज्यों में राष्ट्रपति शासन के आठ दौर आए। नई सकारों के गठन और पुरानी सरकारों को गिराने के खेल में छोटी पार्टियों और निर्दलीय की भूमिका बहुत बड़ी हो गयी ।
अब ऐसा समय आ गया जब राजनीतिक पाटियों तथा विभिन्न अखबारों ने कांग्रेस के अंत की शुरूआत को एक मुद्दा बताया। परंतु यह सही नहीं था। कांग्रेस को अभी भी बहुमत प्राप्त था कोई मजबूत विपक्ष बड़े स्तर पर अभी भी नहीं था। राज्यों में भी अल्पमत के बावजूद भी वह सबसे बड़ी पार्टी थी।
1967 के चुनावों में सिंडिकेट की स्थिति खराब हो गयी । के. कामराज स्वयं हार गए । केन्द्र सरकार के गठन में इनकी स्थिति अब 1961-66 वाली नहीं रही। इंदिरा गांधी इस घटनाक्रम से मजबूत ही हुई तथा कांग्रेस संसदीय दल में उनका वर्चस्व हो गया। मोरारजी भाई भी अब उतने बड़े प्रतिद्वंदी नहीं रह गए थे । इंदिरा गांधी के सामने उन्होंने उप-प्रधानमंत्री पद पाने की मांग की तथा इंदिरा गांधी ने भी उनका समर्थन किया। लेकिन यह पद सिर्फ कहने के लिए था क्योकि वित्त मंत्री के अलावा उनके पास कोई भी अधिकार नही दिया गया था। 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया तथा इसी साल चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति खराब हो गयी। 1969 के बाद स्थिति बदल गयी थी। 1969 में ही इंदिरा गांधी को पद से हटा देने के लिए कई साजिशें की गई। सिंडिकेट इन पर दबाव लगा तथा मई 1969 में राष्ट्रपति ( जाकिर हुसैन) की मृत्यु के बाद जो नीलम संजीव रेड्डी तथा वि.वी. गिरी एपिसोड हुआ उसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके है। अब इंदिरा जी की पार्टी 'कांग्रेस आर' हो गई तथा सिंडिकेट की 'कांग्रेस ओ'। इंदिरा गांधी अब कांग्रेस आर की स्वतंत्र तथा सबसे निर्विघ्न नेता चुन ली गई तथा उन्हें टक्कर देने वाला कोई नहीं रहा। अब कांग्रेस आर ही असली कांग्रेस बन गयी थी।
देश 1970 के अंत में आम चुनाव के लिए फिर से तैयार हो गया। इस चुनाव में कई ऐसी पार्टियां ने गठबंधन किया जो पूर्वनियोजित नहीं लगे थे। जैसे- कांग्रेस (ओ.) जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर एक गठबंधन बनाया जिसे ष्टळतंदक | ससपंदबमष्ठ कहा गया। इनके पास कोई एक विचार धारा या एजेण्डा नहीं था। किन्तु इनके पास एक ही एजेण्डा था :- "इंदिरा हटाओ " ।
इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत प्रचार से अधिक ज्वलंत मुद्दों पर ध्यान देना था। इन्होंने अपने प्रचार करने के विषयों से संबंधित रखा। सामाजिक परिवर्तन, जनवाद, धर्म निरपेक्षता तथा समाजवाद जैसे मुद्दों को आगे कर उन्होंने प्रचार यात्रा आरंभ की। अधिकतर प्रचारों में उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र का विकास, ग्रामीण भूमि और शहरी संपत्तियों संबंधी हदबंदी लागू की जाने तथा गरीबी हटाओ जैसे नारों के साथ सामाजिक विषमता उन्मूलन की भी चर्चा की। उन्होंने जनसंघ को साम्प्रादायिक तथा वामपंथ को हिंसावादी बताकर जनता को अपने तरफ करने का प्रयास किया। उन्होंने गरीबों, मध्यमवर्गो तथा युवकों को संबोधित करने का प्रयास किया। इसके अलावा निजी क्षेत्रों को अर्थव्यवस्था में जगह देने की घोषणा की।
चुनावी परिणाम इंदिरा जी के पक्ष में आया तथा 518 सीटों में से 352 स्थान से उनकी पार्टी कांग्रेस (आर.) को जीत मिली। ग्रैंड एलायंस तथा दक्षिण पंथ को करारी हार का सामना करना पड़ा। अब कांग्रेस पार्टी फिर से भारतीय संसदीय तंत्र की एक वर्चस्ववादी पार्टी बन गई।
इंदिरा गांधी को अब वो जनादेश मिल गया था जिनकी इच्छा वो कर रही थी । इंदिरा जी अब कांग्रेस की सर्वोच्च नेता तथा स्वीकार्य रूप से शक्तिशाली प्रधानमंत्री बन गयी थी। उन्होंने जो वादा किया वो विशाल था तथा अब उन्हें वही हरा सकता था जो स्वयं इंदिरा थी।
2. 1971 का युद्ध (बंगलादेश)
1971 के आम चुनाव में विशाल जीत मिलने के बाद इंदिरा गांधी के सामने अपने वादों की पोटरी खोलने तथा उसे निभाने की चुनौती भी सामने थी। इंदिरा गांधी अपनी विभिन्न योजनाओं को मूर्त रूप दे रहीं थी तब पूर्वी पाकिस्तान यानी (अब की बंगलादेश) में एक राजनैतिक संकट खड़ा हो गया। भारत को अपनी सुरक्षा के कारण इस परिस्थिति में हस्तक्षेप करना पड़ा तथा भारत पाक युद्ध आरंभ हो गया।
पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार पर क्षणिक आवेश में कर लिया गया था परंतु अलग-अलग संस्कृतियों को धर्म के आधार पर एक रूप में ही संयुक्त कर देना असंभव था। पश्चिमी - पाकिस्तान की संस्कृति पूर्वी पाकिस्तान की संस्कृति से बिल्कुल अलग थी। एक पंजाबी भाषा तथा दूसरी तरफ बंगाली बोलने वाले लोगों के बीच बिना कोई भौगो. लिक जुड़ाव के एक साथ रखना सिर्फ धर्म के ही वश की बात नहीं थी। पश्चिमी पाकिस्तान के लोग पाकिस्तान की राजनीतिक, प्रशासनिक, सामरिक, आर्थिक प्रशासन पर कब्जा किए हुए थे तथा पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को दोयम दर्जे का अधिकार मिला हुआ था। अतः पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की स्थिति दयनीय थी। धीरे-धीरे अपनी स्वायतत्ता की मांग के लिए उन्होंने कई प्रयास किए तथा एक शक्तिशाली आंदोलन विकसित होने लगा। पूर्वी पाकिस्तान के आंदोलन को पश्चिमी पाकिस्तानी शक्ति ने समझौते के टेबल पर लाकर कुचलने की कोशिश की तथा इसी कदम ने पूर्वी पाकिस्तान में आजादी के आंदोलन की रूप रेखा बना दी।
दिसंबर 1970 में पाकिस्तान में सैनिक शासन था। तानाशाह जनरल याह्या खान ने स्वतंत्र चुनाव करवाए। इस चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान में मुजीवुर रहमान की आवामी पार्टी को पूर्वी पाकिस्तान की 99 प्रतिशत सीटें मिल गई। पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में उनको बहुमत प्राप्त हो गया।
लेकिन पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह ने शेख मुजिबुर रहमान को सरकार नहीं बनाने दी तथा जुल्फीकार अली भुट्टो को अपना समर्थन दिया शेख मुजीबुर रहमान ने इसका विरोध सविनय अवज्ञा आंदोलन देकर किया तब 25 मार्च 1971 को याहया खान ने सैनिक कारवाई का आदेश दे दिया। मुजिबुर रहमान को गिरफ्तार कर पश्चिमी पाकिस्तान में कही अज्ञात स्थान पर बंद कर दिया गया। पश्चिमी पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में आतंक राज आरंभ कर दिया तथा कहीं किसी भी पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों का दमन करने लगी। पूर्वी पाकिस्तान के अर्द्धसैनिक बल तथा पुलिस ने अपनी पहली प्रतिक्रिया दी। आवामी लीग के कुछ गिने-चुने नेता जो कलकत्ता में यात्रा कर रहे थे उन्होंने मुक्तिवाहिनी संगठन की शुरूआत की तथा निर्वासित बांग्लादेश सरकार का गठन किया।
पाकिस्तान सेना ने पूर्वी पाकिस्तान यानी पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं पर दमन आरंभ किया। इसके अलावा इसाइयों, तथा बौद्धों को भी पश्चिम बंगाल, आसाम, मेघालय में शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। नवंबर 1971 तक पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थी की संख्या 1 करोड़ तक पहुंच चुकी थी। इंदिरा गांधी के पास युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं था। परंतु इतने घटनाक्रम घट जाने के बाद भी कोई आक्रामक बयान नहीं दे रही थी तथा सभी मुद्दों को गौर से देख रही थी। वह पाकिस्तान के पाले में कोई अवसर ऐसा नहीं देना चाहती थीं जिससे कि पाकिस्तान वैश्विक समुदाय को यह कहे कि आजादी के लिए आंदोलन नहीं वरण भारत की एक साजिश हैं। वह कुछ ऐसा नहीं करना चाहती थी जो भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी कानून को न पालन करने का आरोप लगे। युद्ध के लिए तैयारी भी आवश्यक थी तथा भारत में वर्षा ऋतु के समय संचार की गतिविधियों में कमी हो जाती हैं। सर्दियों में चीन को पाकिस्तान की मदद करने में परेशानी होती। इसके अलावा मुक्तिवाहिनी संगठन को तैयारी करने का मौका भी मिल जाता।
इंदिरा गांधी हर कदम ठंडे दिमाग से रख रही थी। उन्होंने यह महसूस किया कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बांग्लादेश की स्वीकार्यता को पहले बढ़ाया जाए तथा शरणार्थियों की समस्या को भी सुलझाने की योग्यता हो क्योंकि इसमें भारत के आर्थिक और राजनीतिक स्थायित्व पर बोझ बन सकता था। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शरणार्थियों को बिना किसी देरी के भारत से चले जाना चाहिए लेकिन पूर्वी पाकिस्तान को प्रशासनिक दिक्कतें थी। शरणार्थी उसी समय लौट सकते थे जब पूर्वी पाकिस्तान में शांति व्यवस्था कायम हो । 
इंदिरा गांधी की सरकार ने बांग्लादेश की निर्वासित सरकार को प्रश्रय दिया तथा मुक्तिवाहिनी संगठन को प्रशिक्षण देना आरंभ किया। इसके अलावा शरणार्थियों को भी भोजन, वस्त्र, आवास चिकित्सा देने की व्यवस्था की गई। भारत के इस कदम का पश्चिमी देशों का भारी समर्थन मिला तथा बाद में उधर की सरकारें भी समर्थन देने लगी। अमेरिका और चीन अभी भी पाकिस्तान के पक्ष में थे। अमेरिका पाकिस्तान को लगातार हथियार मुहैया करवा रहा था। चीन भी पाकिस्तान को भारी मदद कर रहा था।
9 अगस्त 1971 को भारत- सोवियत संघ के बीच एक सामरिक संधि हुई जिसे 20 साल के लिए हस्ताक्षरित किया गया। इस संधि में यह कहा गया था कि किसी देश में सैनिक खतरें के उपस्थित होने पर तत्काल ही आपसी सलाह मशविरा तथा यथोचित कारवाई करने के लिए सहयोग किया जाएगा। भारत का मनोबल काफी बढ़ गया।
इंदिरा गांधी यह मानकर चल रही थी कि बांगलादेश के मुद्दे और शरणार्थियों की समस्या पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध अवश्य होगा। सेना तैयार थी तथा 4 दिसंबर को बांग्लादेश की मुक्ति के लिए सीधी कारवाई करने की योजना बन गयी थी पर यह काम तो पहले पाकिस्तान के शासक याहिया खान ने ही शुरू कर दिया। याहिया खान को लगा कि पहले हमला कर लाभ मिल जाएगा। 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान वायुसेना ने पश्चिमी भारत के 8 सैनिक हवाई अड्डों पर हमला कर दिया। वे उम्मीद कर रहे थे कि भारतीय वायु सेना को संभलने का अवसर नहीं मिलेगा। इसके अलावा पाकिस्तान का यह उद्देश्य भी था कि यह समस्या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो जाएगी। परंतु पाकिस्तान के दोनों उद्देश्य असफल रहे। भारतीय वायुसेना पहले से ही चौकन्नी थी।
भारत ने बांगलादेश को मान्यता देकर कठोर सैनिक जवाब देना आरंभ किया। भारत पाकिस्तान को पश्चिमी सैक्टर में उलझा कर रखना चाहता था तथा पूर्व में तेजी से पाकिस्तानी सेना को आत्म समर्पण करवाना चाहता था।
भारतीया सेना जनरल जे. एस. अरोड़ा के विलक्षण नेतृत्व में मुक्तिवाहिनी के साथ मिलकर पूर्वी बंगाल की राजधानी ढाका में 11 दिन ही कुच कर गयी तथा पाकिस्तानी आर्मी छावनी को घेर लिया। अमेरिका ने पाकिस्तान के पक्ष में हस्तक्षेप की कोशिश की। भारत को आक्रमणकारी देश घोषित कर दिया तथा सभी आर्थिक मदद बंद कर दी। परंतु में युद्ध विराम के प्रस्ताव को सोवियत संघ के द्वारा वीटो कर दिया गया। ब्रिटेन और फ्रांस ने भी मतदान नहीं किया। चीन सिर्फ जुबानी निंदा करते रहा। अमेरिका राष्ट्रपति निक्सन ने अपने सातवें बेडे को यूज करने का आदेश दिया तथा वायुयान वाहक यू.एस. एस एंटरप्राइज को नेतृत्व करने भेजा। भारत पर दबाव डालने को पाकिस्तान के तरफ से बंगाल की खाड़ी में रवाना किया गया। ताकि ढाका के पतन को थोड़ा टाला जा सके। परंतु इंदिरा गांधी ने इस दबाव को नजर अंदाज कर दिया तथा जनरल मानेक शॉ को यह कहा कि सैनिक गतिविधि नहीं रोकना चाहिए। 13 दिसंबर को भारतीय सेनाओं ने ढाका को चारों तरफ से घेर लिया तथा पराजित हुए 93000 पाकिस्तानी सैनिकों को 16 दिसंबर 1971 को आत्म समर्पण करने को मजबूर कर दिया।
17 दिसंबर को भारत सरकार ने पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध विराम की घोषणा कर दी। यह वैश्विक समुदाय के सामने न्याय प्रिय दिखने के लिए एक स्वाभाविक प्रयास था। दूसरी तरफ युद्ध की आग को भारत भी स्वाभाविक रूप से पसंद नहीं करता था।
पूर्व में सेना को हीरो बताया गया तथा पश्चिमी छोर पर भी सेना की प्रशंसा हुई। पाकिस्तान ने तुरंत युद्ध विराम को सहज स्वीकार कर लिया तथा मुजीबुर्ररहमान को रिहा कर दिया गया जो 12 जनवरी 1972 को सत्तारूढ़ हुए। भारत अब दक्षिण एशिया की सर्वोच्च शक्ति बन गया। भारत की 1962 में जो प्रतिष्ठा कम हुई थी वह लौट गयी। भारत ने न केवल अपने एक मुश्किल पड़ोसी को पराजित किया बल्कि अपनी विदेश नीति की ठसक को विश्व समुदाय के सामने प्रस्तुत भी किया। पाकिस्तान की नैतिकता तथा जिला का द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत अब फेल हो चुका था। अब भारत के मुसलमानों को यह एहसास हो चुका था कि पाकिस्तान ने पूर्वी बंगाल के लोगों के साथ कैसा बर्ताव किया था।
इंदिरा गांधी की लोकप्रियता इस युद्ध के बाद उच्चतम हो गई। उनकी नेतृत्व शक्ति अब सहर्ष स्वीकार हो गयी । भारत की जनता ने उन्हें एक शक्ति के रूप में देखा तथा संसद में विपक्षी पार्टी के नेताओं ने खासकर अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने दलीय सीमा से उठकर उनकी प्रशंसा की। भारत में जनरल मानेक शॉ को भी हीरो बना दिया गया। उन्हें फील्ड मार्शल (प्रथम) बना दिया गया।
युद्ध समाप्त हो गया तथा अभी भी पाकिस्तान के 90,000 युद्ध बंदी भारत के कब्जे में थे। पाकिस्तानी भू-भाग का 9,000 वर्ग कि.मी भी हमारे ही कब्जे में था। इंदिरा गांधी ने भारत पाक के बीच इन्हीं सब मुद्दों के लिए समझौता के स्तर तक जाना चाहती थी। पाकिस्तान ने अभी तक बांग्लादेश को एक देश के रूप में मान्यता भी नहीं दी थी। इंदिरा गांधी पाकिस्तान को कोई भी अवसर नहीं देना चाहती थी जो इस महाद्वीप की समस्याओं का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर सके। इसी के उद्देश्य से जून 1972 में पाकिस्त के नये प्रधानमंत्री जुल्फीकार भुट्टो तथा इंदिराजी के बीच शिमला में एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया। शिमला में दोनों पक्षों ने काफी - रस्साकसी के बाद एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जो शिमला समझौता के तौर पर जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार भारत पाक की हथियाई गई धरती को वापस करने पर राजी हो गया। बदले में पाकिस्तान कश्मीर में नियंत्रण रेखा का आदर करने पर राजी हो गया। दोनों पक्षों ने आपसी बातचीत कर समस्या के समाधान की बात कही तथा बिना मध्यस्थता के सभी मसले सुलझाने की भी हामी भरी।
इसके अलावा भारत पाक युद्ध बंदियों को छोड़ने पर भी राजी हो गया। परंतु भारत ने इसे पाकिस्तान-बंग्लादेश समझौता के तहत करना प्रारंभ किया। पाकिस्तान को अपने 90,000 सैनिकों के बदले बांग्लादेश को अगस्त 1973 में मान्यता देनी पड़ी।
भारत अपनी स्वतंत्रता के 25वें साल में सहस्त्र रूप से एक क्षेत्रीय शक्ति बनने की दहलीज पर खड़ा था। भारतीय लोकतंत्र सफल था तथा देश में दो-तिहाई बहुमत की सरकार कार्य कर रही थी।
अब कांग्रेस के पास एक ही लक्ष्य था कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सभी राज्यों में सरकार की नीतियां पहुंचे। इसलिए मार्च 1972 में उत्तर प्रदेश, तमिलनाडू केरल तथा उड़ीसा को छोड़कर देश के सभी राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव कराए गए तथा सभी राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी। इन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें इंदिरा गांधी के ही इच्छा के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में ही बनी।
इंदिरा गांधी ने कुछ ऐसे नीतिगत कार्य करना आरंभ किया जो भविष्य के लिए निर्णायक होता । बीमा को राष्ट्रीयकारण करना, कोयला उद्योग को राष्ट्रीयकृत करना तथा शहरी भूमि स्वामित्व पर हदबंदी लागू कर देना इत्यादि । इसके अलावा सरकार ने दो महत्वपूर्ण संवैधानिक संशोधन कराए 1971 में 24वें संवैधानिक संशोधन लाए गए जो संसद को मौलिक अधिकार के मामले में संशोधन के अधिकार से संबंधित थे | 25वें संशोधन में संसद को यह अधिकर दिया गया कि वह भविष्य के उद्देश्यों से किसी भी निजी संपत्ति का अधिग्रहण करने के मामले में मुआवजे की रकम को उसकी अदायगी के तरीकों का निर्णय करने का अधिकारी है। अब सुप्रीम कोर्ट यह नहीं कह सकता था कि मुआवजा कितना होना चाहिए।
18 मई 1974 को भारत ने पोखरण में परमाणु विस्फोट किया। परंतु यह घोषणा की गई कि हमने अपनी क्षमता दिखायी है पर हम बनाने नहीं जा रहे । हमारा उद्देश्य आक्रामक नहीं शांतिपूर्ण है। यह भारत को तकनीक के मामले में आत्मनिर्भर बनाने का एक रास्ता है। भारत को सामरिक रूप से आत्म निर्भर बनाने का एक रास्ता है।
3. आपातकाल
1971 के बंग्लादेश प्रकरण के बाद इंदिरा गांधी की क्षमता को स्वीकार कर लिया गया था। उन्हें भरपूर लोकप्रियता भी मिली तथा उन्हें राज्यों में बहुमत मिला पर 1973 आते ही सब गलत होने लगा। उनकी निरंकुश शैली अब चर्चा में आने लगी। उनकी लोकप्रियता घटले लगी। इस लोकप्रियता के घटने के पीछे का कारण तात्कालिक आर्थिक परिस्थि, तियों में गिरावट को माना जा सकता है।
युद्ध के बाद की यह समस्याएं एक साथ सामने नजर आने लगी। इनमें प्रमुख थे:- आर्थिक मंदी, बेरोजगारी, महंगाई तथा खाद्द पदार्थों की कमी। खाद्द वस्तुओं की महंगाई तो चरम पर पहुंच गई। खाद्द तेल की महंगाई तो इतनी बढ़ गई कि गाँव में लोग यह नारा देने लगे “देखो - देखो इंदिरा का खेल 16 रूपये सरसों का तेल "। अधिक दिक्कत शरणार्थियों के कारण हुई जिसने भारतीय संसाधन को समेंट लिया । हमारा विदेशी मुद्र भंडार खाली हो गया था तथा देश में भयंकर सूखा पड़ गया। 1973 में कच्चे तेल की कीमत बढ़ गयी तथा इसका प्रभाव देश में डीजल, पेट्रोल की कीमतों पर भी पड़ा। अब हड़तालों का सिलसिला जारी हुआ तथा 1974 में रेलवे की हड़ताल 22 दिनों तक चली। मजदूर पक्ष भी काफी निराश हो गया। उपर से भ्रष्टाचार की बढ़ोतरी अधिक हो गई। इंदिरा जी पर भी छींटे पड़ना आरंभ हुई जब संजय गांधी की बेतरतीब-लाइसेंस मारूति उद्योग के लिए दिए जाने लगे। अब गरीब, धनी पूँजीपति, विपक्ष सभी तबकों के मन में भारी असंतोष भर रहा था।
विपक्ष के पास अब एक विकल्प था कि किन किन असंतोषों को अपने पक्ष में कैसे प्रासंगिक बनाया जाए। विपक्ष के पास कांग्रेस विरोध के रूप में एक बड़े संगठन को एक करने का हथियार था। अब वे एक हो रहे थे तथा अपनी आपसी उलझनों तथा खींचतान को “कांग्रेस-इंदिरा विरोध" के नाम पर तिलांजनी देने के लिए तैयार थे।
इसी बीच 1974 जनवरी में गुजरात में महंगाई के विरोध में भारी-आंदोलन फूट पड़ा। हड़ताल, दंगे, आगजनी की घटनाएं घटने लगी तथा विपक्ष भी इसका समर्थन करने लगा। पुलिस ने गोली चलाकर तथा हिंसा का सहारा लेकर इसकी संगठित इकाई को तोड़ने का प्रयास किया। इंदिरा गांधी ने गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगाने की राष्ट्रपति से सिफारिश की तथा विधानसभा को निलंबित कर दिया गया। मार्च 1975 में मोरारजी भाई ने भूख हड़ताल शुरू कर दी तथा उसके बाद इंदिरा गांधी ने विधानसभा भंग करवाकर वहां जून में चुनाव करने की घोषणा कर दी।
इधर मार्च 1974 में बिहार में भी छात्र आंदोलन आरंभ हो गया। 18 मार्च 1974 को छात्रों ने विधानसभा का घेराव किया तथा पुलिस के साथ मुठभेड़ में 6 दिनों के अंदर 27 लोगों की मृत्यू हो गई। इसके बाद सभी विपक्षी दलों ने छात्रों का समर्थन करते हुए इस आंदोलन में कूदने की घोषणा कर दी।
जय प्रकाश बाबु राजनीति से संन्यास ले चुके थे परंतु उन्होंने अपने फैसले को त्याग कर इस आंदोलन का नेतृत्व करने की घोषणा कर दी।
जे. पी. ने ‘संपूर्ण-क्रांति' का नारा दिया तथा इस क्रांति लक्ष्य को व्यवस्था कि विरुद्ध संघर्ष बताया जिसने हरेक तंत्र तथा व्यक्ति को भ्रष्ट हो जाने पर मजबूर कर दिया था। जे.पी. ने सरकार से यानी इंदिरा गांधी से यह मांग की कि तुरंत विधान सभा भंग की जाए तथा छात्रों को कहा कि सभी विधायकों को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया जाए। सरकार को ठप कर दिया जाए, सरकारी कार्यालयों का घेराव कर दें तथा विधानसभा को चलने न दें। समानांतर जन सरकार का आह्वान उन्होंने किया कोई 'कर' न देने की अपील भी उन्होंने की। इंदिरा जी विधानसभा भंग करने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थी।
जे.पी. ने पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरोध में आंदोलन को संगठित करने का निर्णय किया तथा इंदिरा गांधी को जनता की नजर में एक निरंकुश तथा भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने वाली प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने में वह सफल रहे। जे.पी. अब हिन्दी भाषी राज्यों में लोगों को संगठित करने लगे तथा छात्रों, मध्यवर्ग, व्यापारियों तथा बुद्धिजीवियों को व्यापक तौर पर संगठित भी कर लिया। गैर वामपंथी दलों के सभी संगठनों ने एक साथ होकर जे. पी को नेता मान लिया।
इंदिरा गांधी ने जे.पी. पर अराजकता फैलाने का आरोप लगाया तथा उन्हें 1976 के आम चुनाव में लोकप्रियता आंकने की चुनौति दी। जे.पी. ने इस चुनौति को स्वीकार कर सहयोग देने वाली समिति का ऐलान कर दिया। अब लोगों की इच्छा 1976 के आम चुनाव में दो-दो हाथ करने की ही रह गई थी।
इसी बीच एक अहम घटनाक्रम हुआ। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति के द्वारा दिए गए एक फैसले ने राजनीति को दूसरा ही रूप दे दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले में 'राजनारायण' द्वारा दी गई चुनाव याचिका को स्वीकार करते हुब श्रीमति गांधी को भ्रष्ट चुनाव आचरण में लिप्त होने का दोषी पाया गया। श्रीमति गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करने का फैसला सुनाया गया। अब अगले 6 वर्षों तक इंदिरा जी न कोई पद ले सकती थी और न कोई चुनाव लड़ सकती थी। अब उनका प्रधानमंत्री बने रहना संभव नहीं रह गया था।
इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया तथा सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की बात की। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अपील पर 14 जुलाई 1974 को सुनवाई के लिए तारीख भी दे दी थी। इसी बीच 24 जून को एक सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशकालीन न्यायमूर्ति ने यह फैसला देकर एक भ्रम पैदा कर दिया कि “सप्रीम कोर्ट के फैसले आने तक श्रीमति गांधी पद पर बनी रह सकती हैं, संसद में भाषण भी दे सकती हैं परंतु मत का प्रयोग नहीं कर सकती।”
इधर गुजरात विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस की करारी हार हुई तथा विपक्षी 'जनता मोर्चा' 87 स्थान प्राप्त कर चुनाव जीत गया। अब विपक्षी पार्टियां फिर से सक्रिय हो गई तथा सब मिलकर औपचारिक रूप से इंदिरा गांधी को त्यागपत्र देने के लिए दबाब बनाने लगे। 25 जून 1974 को दिल्ली में रामलीला में विपक्षी पार्टियों की एक महारैली आयोजित की गई तथा यह कहा गया कि 29 जून को व्यापक स्तर पर राष्ट्र व्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया जाएगा। इसमें जे.पी. ने यह आह्वाहन किया कि सरकारी कार्यों के चलना असंभव बना दे तथा शस्त्र सेना, पुलिस, सरकारी अधिकारी से अपील की कि वे किसी भी सरकारी आदेश को न माने तथा इन आदेशों को गैर-कानूनी कहें। श्रीमति गांधी ने इस रैली के बाद रात 12 बजे 26 जून आते ही आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी ।
इंदिरा गांधी ने आपात काल लागू करने के अपने फैसले को देश की आंतरिक सुरक्षा, राजनीतिक व्यवस्था तथा लोकतांत्रिक अखण्डता के स्थायित्व के लिए आवश्यक बताया। उन्होंने आपातकाल लागू कराने को मजबूर करने के लिए जे.पी. वाले विपक्षी नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराया तथा उन्होंने यह कहा कि सशस्त्र बल और पुलिस बल को विद्रोह करने के लिए उकसाया जा रहा था। इसके अलावा गरीबों के तीव्र आर्थिक विकास करने का भी हवाला दिया।
इंदिरा गांधी अपने परिवार की महान लोकतांत्रिक विरासत को अपातकाल लगाकर दांव पर दे चुकी थी। उनके पास जल्द से जल्द बरसात के बाद चुनाव करवाने का विकल्प था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। धारा-352 को देश में लगाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। अपातकाल लगते ही संघीय प्रावधानों को बर्खास्त कर दिया गया। सरकार ने प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी तथा सरकार के सभी विरोधियों पर पाबंदी लगा दी। 26 जून को सुबह-सुबह विपक्ष के सैकड़ों प्रमुख नेताओं को आंतरिक सुरक्षा प्रबंधन कानून (डौ ।) के तहत बंदी बना लिया गया। गिरफ्तार किए गए लोगों में जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेयी, मोरारजी भाई, चन्द्रशेखर, लालकृष्ण जैसे लोग भी थे जो देश के वरिष्ठ नेता थे। कई शिक्षा के बुद्धिजीवी, ट्रेड युनियन के नेता तथा छात्र नेताओं को भी जेल भेज दिया गया। जॉर्ज फर्नाडीस को यातनाएं दी गई तथा उनके परिवार को उच्च स्तर से धमकियां मिल रही थी। उन्हें बोरियों में डालकर जेल भेजा गया।
कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया जैसे:- आर. एस. एस., आनंदमार्ग, जमात-ए-इस्लामी, ब्च (डब) इत्यादि। जे.पी. और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे नेताओं को खराब स्वास्थ्य के कारण अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। आपातकाल के दौरान नेताओं, बुद्धिजीवियों, छात्र नेताओं तथा पत्रकारों की गिरफ्तारियां चलती रहीं। 19 महीनों में एक लाख से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया तथा गिरफ्तार किए गए नेताओं में ऐसे नेता भी थे जो बहुत सक्रिय भी नहीं रहा करते थे।
आपातकाल के दौरान संसद की प्रासंगिकता खत्म कर दी गई थी। विपक्ष के न पकड़े गए सांसदों को भाषण देने पर रोक लगा दी गई थी। राज्य सरकारों पर भी कड़ा नियंत्रण लगा दिया गया था। तमिलनाडु में डी. एम. के. तथा गुजरात में जनता पार्टी दोनों ही गैर-कांग्रेसी सरकारों को जनवरी तथा मार्च 1976 में बर्खास्त कर दिया गया। उत्तर प्रदेश और उड़ीसा में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को बर्खास्त कर दिया गया। कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त कर दिया गया। पार्टी के अंदर संजय गांधी के नेतृत्व में युवा नेतृत्व ही पार्टी का सबसे बड़ी आला कमान हो गयी थी।
न्यायपालिका की शक्तियों को भी नहीं छोड़ा गया। कानूनों विज्ञप्तियों के द्वारा नियंत्रण रखने के लिए न्यायपालिका की शक्ति को कम कर दिया गया। नागरिक अधिकारों को हानि पहुंचाने के लिए मीसा में संशोधन कर दिया गया। हद तो तब हो गई जब नवंबर 1976 में संविधान संशोधन के द्वारा आधारभूत नागरिक अधिकारवादी ढांचे को 42वें संविधान संशोधन के द्वारा बदलने की कोशिश की गई। इन संविधान संशोधनों में न्यायपालिका द्वारा पुनर्मूल्यांकन करने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया। अब यह कह दिया गया कि संविधान संशोधन करने के संसद के अधिकार पर कोई सीमा तय नहीं की जा सकती। मौलिक अधिकारों को अप्रत्यक्ष रूप से कमजोर करने के लिए उसे चालाकी से नीति-निदेशक तत्वों के सिद्धांतों के समानांतर करने का प्रयास किया गया था।
इंदिरा गांधी अपने इन कदमों से अपने आप को एक संवैधानिक सुरक्षा में डालना चाह रहीं थी। जनता ने आपातकाल पर प्रतिक्रिया कैसे व्यक्त की यह तो तत्काल दो-चार दिनों तक कोई पता नहीं चला क्योंकि 1975 में हमारी साक्षरता दर भी कम थी तथा लोग मीडिया के स्तर पर जागरूक भी नहीं थे। जब मीडिया पर सेंसरशिप लगा दिया गया था तो फिर जनता की क्या प्रतिक्रिया हो गयी, इस पर भी कहना मुश्किल है। प्रसिद्ध इतिहासकार विपीन चन्द्रा अपनी ने पुस्तक (आधुनिक भारत) में आपातकाल को जनता का मौन समर्थन बताया है परंतु यह बात उन्होंने अराजकता, हड़ताल, बन्द तथा झड़प के भाव को संबोधित कर कही थी। परंतु महंगाई होना, जी. डी. पी बढ़ना तथा शांति स्थापित होना, ये सब कारण इसके पीछे हो सकते हैं।
इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के समय ही 20 सूची मांगो के कार्यक्रम को घोषित कर दिया। इस कार्यक्रम ने भूमिहीन मजदूरों, छोटे किसानों तथा ग्रामीण जनता को कर्ज से राहत देने के लिए एक प्रयास किया। बीस सूची-लागू करने का प्रयास किया गया तथा इससे तीस लाख से अधिक मकान बनाकर दलित को सौपें गए। बंधुआ मजदूरी को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। खेतीहर मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ा दी गयी। भूमिहीनों को इससे विशेष लाभ मिला। विपीन चन्द्रा लिखते हैं कि “आपातकाल को जनता के द्वारा मौन समर्थन देने के पीछे इसका अल्प स्वरूप था। यह जनता के लिए लोकतंत्र के सामान्य नियमों तथा संस्थाओं का एक अल्पकालीन निलंबन था। इसे एक अंतरिम कदम के रूप में देखा जा रहा था। वे इसे लोकतंत्र के विकल्प तथा निरंकुश राजतंत्र के रूप में नहीं देख रहे थे। इंदिरा गांधी बार-बार दोहरा रही थी कि यह शांति को बनाए रखने के लिए है न कि निरंकुशता के लिए। 1976 के अक्टूबर आते-आते जनता में भारी-असंतोष चमकने लगा। इसके पीछे कई बड़े कारण थे।
आपतकाल के बाद आर्थिक विकास की रफ्तार जो थोड़ा ठीक हो गई थी, फिर वह खराब हो गई। कृषि की स्थिति भी खराब ही थी तथा मजदूर अपनी मजदूरी तथा महंगाई भत्ते पर रोक के अलावा हड़ताल करने के अधिकार पर रोक के खिलाफ थे। सरकार कर्मचारी और शिक्षक इस बात से असंतोष में थे कि उन्हें अपने कार्यालयों में अनुशासित किया जा रहा था।
बीस सूत्री कार्यक्रम को तथा विकास संबंधी कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने का जिम्मा उसी पुरानी भ्रष्ट एवम् असक्षम अफसरशाही एवम् चालबाज नेताओं को सौंप दिया गया था जहां तक सामान्य जनता की बात थी उन्हें कोई समाधान मिलता नहीं दिख रहा था। यहां तक कि लोगों में असुरक्षा तथा भय का वातावरण बहुत बड़े स्तर पर था। 
लोगों में भय तथा असुरक्षा की भावना का कारण पुलिस का कठोरपूर्ण व्यवहार तथा असरकारी रूप से अफसरशाही की भावना थी इनकी ताकत काफी बढ़ गई थी तथा जन आंदोलनों का दबाव और आलोचना का खतरा ही नहीं रह गया था। अफसर और पुलिस बल दोनों अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते थे। उत्तर भारत में पुलिस तथा अफसर के कठोरपूर्ण व्यवहार ने सामान्य जनता में एक भयंकर असुरक्षा की भावना का घर कर दिया था। इससे सभी प्रभावित हुए तथा यह असर सबसे अधिक गरीबों पर हुआ। यह प्रेस के कारण अधिक हुआ था। क्योंकि प्रेस के उपर सेंसरशिप होने के कारण सरकार पूरी तरह अनभिज्ञ हो गई थी कि देश में क्या कुछ हो रहा था। अब लोग आकाशवाणी पर विश्वास नही करते थे क्योंकि इनके समाचार सेंसर होते थे। अब वे अफवाहों पर अधिक विश्वास करने लगे थे और सरकार की कारवाईयों एवम उसकी मंशाओं के विषय में बद्तर चीजों को ही स्वीकार करने लगे।
आम लोगों को छोटे अधिकारियों द्वारा नागरिकों को आए दिन परेशान करना तथा घूस की मांग करना सामान्य बात हो गई थी। आपातकाल 19 महीने रहना कोई समान्य बात नहीं थी। इंदिरा गांधी ने संसदीय चुनाव को 1 साल टलवा दिया था। बुद्धिजीवी, स्थानीय पत्रकार, वकील इत्यादि ने लोकतंत्र की समाप्ति को एक मुद्दा बनाया तथा 42वें संविधान संशोधन की 1976 की अवधारणा संविधान के मौलिक ढांचे में बदलाव की मंशा को एक नकारात्मक दिशा दी।
वास्वत में इंदिरा गांधी की सरकार का शक्ति केन्द्र खुद इंदिरा गांधी नहीं थी। अब उनके छोटे बेटे संजय गांधी इस केन्द्र के स्वयं भू-केन्द्र थे। अब संजय गांधी ही समानांतर सत्ता के मालिक थे तथा प्रशासन के क्रिया-कलाप में अपने अनुसार ही हस्तक्षेप करते थे। केन्द्रीय मंत्री, वरिष्ठ नागरिक, मुख्यमंत्री, बड़े अफसर अब इंदिरा गांधी के समानान्तर संजय गांधी के ही इर्द-गिर्द रहने लगे।
संजय गांधी ने अपनी इच्छा को चार सूत्री कार्यक्रम में सार्वजनिक किया :- (1) विवाह के समय कोई दहेज न लें (2) परिवार नियोजन अपनाएं (3) परिवार को दो बच्चों तक सीमित रखें (4) वृक्ष लगाएं तथा साक्षरता बढ़ाए। संजय गांधी भारतीय शहर को झुग्गी-झोपड़ी से मुक्त कर सौंदर्यीकरण करना चाहते थे। वे वास्तविकता से एकदम दूर थे तथा संवैधानिकता को ताक पर रख चुके थे।
संजय गांधी की बात में आकर सरकार ने परिवार नियोजन को कठोरतापूर्वक लागू करने की शुरूआत कर दी। जबरदस्ती नसबंदी लागू की जाने लगी। सरकारी कर्मचारियों, स्कूल शिक्षकों और स्वास्थ्य कर्मचारियों का मनमाने तरीके से निश्चित कोटा आवंटित कर दिया गया जिन्हें उनको नसबंदी कराने के लिए प्रेरित करना था। इस कोटा को पूरा करने के लिए पुलिस और प्रशासन ने भी अपनी ताकत लगा दी। इससे सबसे अधिक प्रभावित ग्रामीण और शहरी गरीब लोग हो रहे थे जो भागने, छिपने और दंगा करने आदि से अपना विरोध दर्ज करते थे। इन सभी जबरदस्ती कारवाई की रिर्पोट जनता के बीच नहीं आ पाती थी। ना ही प्रेस में इससे संबंधित खबर छपती थी तथा सहायता ऐंजेंसी जो सरकार के द्व द्वारा संचालित थी वह सरकार के विरोध में जाकर कोई खबर नहीं छापती थी।
गरीबों की झुग्गी-झोपड़ी तथा कॉलोनी तोड़ने को परिवार नियोजन के अन्तर्गत ही चलाया जा रहा था। अब संजय गांधी के निर्देश पर चलाए जा रहे अत्याचारों ने जनता को त्राहि-त्राहि करने पर मजबूर कर दिया।
जनवरी 1977 को श्रीमति गांधी ने अचानक घोषणा की कि लोगसभा के चुनाव मार्च में कराए जाएंगे। उन्होंने रा. जनीतिक नेताओं को रिहा कर दिया। प्रेस को स्वतंत्रता दे दी तथा सभा करने की भी इजाजत दे दी।
1977 का चुनाव भारतीय इतिहास में एक अलग परिणाम के लिए जाना गया। इंदिरा जी और उनके बेटे संजय गांधी चुनाव हार गए । कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा।
4. जनता पार्टी का शासन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नवंबर 1977 के 10 महीने पहले ही चुनाव की घोषणा कर दी क्योंकि आपातकाल में एक साथ संसद के कार्यकाल को बढ़ा देना और अचानक फिर जनवरी 1977 में ही चुनाव की घोषणा करना आश्चर्यजनक था। विपक्षी दलों के सामने अब चुनाव था। जनवरी में सभी विपक्षी नेताओं को जेल से छुट्टी मिल गई थी। जेल से बाहर आने के बाद विपक्षी नेताओं ने जनसंघ, कांग्रेस (ओ.), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलकर जनता पार्टी के विलय की घोषणा कर दी। फिर जगजीवन राम, एच. एन. बहुगुणा तथा नंदिनी सत्यथी ने अचानक कांग्रेस त्यागपत्र देकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी का गठन किया तथा डी. एम. के. अकाली दल तथा सी.पी.एम. के साथ इन लोगों ने जनता पार्टी से मिलकर एक साझा मोर्च का गठन किया।
विपक्षी दलों ने लोकतंत्र को खत्म करने का आरोप लगाते हुए इंदिरा हटाओ का एजेण्डा बनाया तथा 'आपातकाल को जनता के मन में एक ऐसे विचार के रूप में पेश किया जिससे जनता के मन में इंदिरा गांधी के प्रति नकारात्मक भावना को जन्म ले। चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए बहुत ही बुरा रहा। जनता पार्टी और इसके सहयोगी दल 542 में से 330 सींटों पर विजय हुए। कांग्रेस मात्र 154 सीटें लेकर काफी पीछे रही और इसकी सहयोगी सी.पी.आई. को मात्रा 7 एवम ए.आ.डी. एम. के. को 21 सीटें हासिल हुई। वस्तुतः उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया। दक्षिण भारत में अपातकाल का प्रभाव काफी कम था। दक्षिण भारत में कांग्रेस का अच्छा प्रदर्शन हुआ।
जनता पार्टी की जीत के बाद प्रधानमंत्री के लिए तीन उम्मीदवार बनें :- (1) मोरारजी देसाई (2) चरण सिंह (3) जगजीवन राम, जय प्रकाश नारायण तथा जे.पी. कृपलानी ने मोरारजी देसाई के लिए अपना मत दिया। वे 23 मई 1977 को प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई ने नौ कांग्रेस शासित सरकारों को बर्खास्त कर उनकी विधानसभाओं के लिए ताजा चुनाव के आदेश दे दिए।
संसद एवम् विधानसभा दोनों के ऊपर पूर्ण नियंत्रण पा लेने के कारण जनता पार्टी अपने उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को संघ के राष्ट्रपति के रूप में जुलाई 1977 में निर्विरोध चुनाव करवा सकी। संविधान के 44 वें संशोधन के माध्यम से मोरारजी सरकार में 42 वे संशोधन के फैसले को बदला 144 वें संविधान के द्वारा विकृत करने वाले प्रावध ानों को वापस ले लिया गया। सर्वोच्च न्यायालय एवम् उच्च न्यायालय को केन्द्र एवम् राज्य द्वारा बनाए गए काननों की वैधता को परखने के लिए संबंधित अधिकार भी वापस दे दिया गया।
1977 से 1979 तक तो सरकार ठीक से चली तथा कुछ अच्छे काम भी किये लेकिन एक विभिन्न विचारों वाले नेताओं वाली पार्टी को एक साथ सुगठित रखना मुश्किल हो रहा था। जनता पार्टी की सरकार के सामने हजारों मुद्दे थे तथा बहुत सारे नेता थे जो मंत्रिमंडल में थे परन्तु देश की इच्छा काफी बड़ी थी। ग्रामीण क्षेत्रों में जो अगडा - पिछड़ा समाज की जो संरचना थी वह विषम हो गयी थी। 1977 में कई जगहों पर हरिजनो को जिंदा जलाने की भी सूचना मिलती थी।
1979 में तो हड़तालों तथा विद्रोहों की वही घटनाएं होने लगी जो 1974 में देखने को मिली थी। तत्कालीन जनता सरकार ने नेहरू तथा इंदिरा की नियोजन वाली व्यवस्था को पूरी तरह बदलने की शुरूआत कर दी तथा देखा जाए तो यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी। क्योंकि इस आर्थिक विकल्प का कोई साधन जनता सरकार सामने नही रख पायीं।
जनता शासन का पहला वर्ष पूरा करने के बाद ही अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी और कृषि एवम् उद्योग दोनों ही निम्न विकास दर अथवा रूकावट दिखाने लगे। 1978-79 में आए गंभीर सूखा कई राज्यों में बाढ़ आने से कृषि उत्पाद बर्बाद हो गया। वित्तमंत्री, चौधरी चरण सिंह के द्वारा 1979 में जो बजट पेश किया वह भारी बजट घाटा तथा मुद्रास्फिती के प्रभाव को दिखाने वाला था। 1979 में केरोसिन तेल एवम् दैनिक उपभोग की वस्तुओं की कमी बढ़ने लगी। मुद्रा स्फीति 20% से भी ऊपर जा चुकी थी।
जनता सरकार का कार्यक्रम एक बात के लिए जो सबसे अधिक याद किया जाता है, वह है उसकी विदेश नीति अटल जी को विदेश मंत्री के द्वारा एक महान ख्याति मिली तथा उन्होंने जब्तपहपदंस छवद. | ससपंदबम की बात की जिसमें प्राकृतिक रूप से सोवियत संघ के साथ मित्रता रखते हुए अमेरिका और ब्रिटेन के तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाया। उनहोंने UNO में हिन्दी में भाषण देकर भारत के महत्तव को रेखांकित कर दिया था तथा पाकिस्तान से एक व्यावहारिक संबंध कायम करने की पूरी कोशिश की थी। मगर सरकार के आंतरिक कलहों के कारण इसकी प्रासंगिकता वहीं खत्म हो गई ।
जनता पार्टी के नेताओं का सबसे बड़ा काम अपनी पार्टी को एक करके रखना था। 1977 के अंत तक खण्डन की शुरूआत हो चुकी थी। जनसंघ की वैचारिक शक्ति जनता पार्टी को दबाव में ला रही थी तथा इसके कारण कांग्रेस (ओ) के नेताओं को इसमें परेशानी हो रही थी। अपनी डफली अपना राग लिये हुए नेता धीरे-धीरे एक दूसरे से दूर होते गए तथा एक सर्वमान्य नेता की कमी खलने लगी जे. पी की मृत्यु भी 1979 में हो गयी थी।
5. इंदिरा की वापसी तथा पंजाब की समस्या
जनता पार्टी के पतन से इंदिरा गांधी की स्थिति राजनैतिक रूप से धीरे-धीरे सुधरने लगी। 1978 में चिकमंगकुर उपचुनाव में उन्होंने जॉर्ज फर्नाडीस को पराजित किया तथा जनता पार्टी की सरकार ने एक विशेषाधिकार लाकर उनको संसद से निष्कासित कर दियां तथा एक सप्ताह के लिए जेल की सजा दी। इंदिरा गांधी ने इसका लाभ उठाया तथा चरण सिंह के नेतृत्व में एक सरकार को उन्होंने समर्थन दे दिया। विश्वास मत पर मतदान के पहले ही इंदिरा गांधी ने समर्थन वापस ले लिया था। चरण सिंह ने लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी ।
1980 में चुनाव हुए तथा कांग्रेस (आई) को भारी बहुमत मिला। 529 में से 353 सीटें कांग्रेस को मिलीं । चुनाव के बाद 1989 में जनसंघ के नेता अटल बिहारी बाजपेयी ने भारतीय जनता पार्टी बनायी तथा जगजीवन राम कांग्रेस में शामिल हो गए।
लगभग 3 साल तक सत्ता से बाहर रही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनी तथा 9 विपक्ष शासित राज्यों को भंग कर दिया।
इंदिरा गांधी की वापसी कांग्रेस के लिए जनता में अपनी कार्यता को दिखना एक वास्तविकता थी। लगभग 10 साल बाद इंदिरा गांधी को फिर जनता ने स्वीकार कर लिया था। वापस आने के बाद इंदिरा गांधी जी के सामने बहुत सारी समस्याएं थीं जिनमें कुछ तो अचानक सामने आयीं तथा भारत की एकता-अखण्डता को सामने से चुनौती मिलने लगी इन समस्याओं से हम पंजाब की समस्या का उदाहरण दे सकते है।
1980 में पंजाब अलगाववाद की आग में झुलसने लगा। धीरे-धीरे यह आतंक के एक अभियान में बदल गया। यह भारतीय राष्ट्रीय सम्प्रभुता तथा शांति के लिए एक चुनौती बन गया। वह 1947 के बाद से लेकर अब तक के घटना क्रम की प्रवृत्ति थी। धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक व्यवस्था के आदर्श से इनकार करते हुए अवासियों ने इस बात पर बल दिया कि धर्म और राजनीति को अलग-अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि सीख राजनीति तथा धर्म दोनों में है। सिख पंथ को धर्म तथा सभी सिखों के राजनीतिक एवम् अन्य धर्मेत्तर हितों के लिए एक सम्मिश्रण के रूप में परिभाषित किया गया।
अकालियों ने हिन्दुओं पर आरोप लगाया कि वे सिखों के ऊपर हुकूमत करना चाहते है तथा ब्राह्मणवादी - रवैया लादकर सिख संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। 1940 के समय में ही सिख बहुल अकालियों ने अपने पंथ को एक मुद्दा बना लिया इसके आलावा सरकारी सेवाओं में सिखों की कमी का जिक्र किया। 1961 में नेहरू ने एक कमिटी भी बनायी जिसमें यह रिपोर्ट आई कि सेवाओं से लेकर सेना में सिखों की भूमिका बहुत अधिक है।
अकालियों ने गुरूद्वारा प्रबंधक कमिटी तथा स्वर्ण मंदिर के जत्थे को अपनी मांगों के लिए प्रयोग करना आरम्भ किया नेहरू अपने जीवन काल में सिखों की विभिन्न उचित मांगो को मानने की प्रक्रिया में लगे रहे। यह काम बड़ी बात रही थी। नेहरू की मांग मान लेने जाने के बावजूद साम्पद्रायिकता का जोर पंजाब में बंद नहीं हुआ तथा मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो को साम्प्रदायिकता को कुचलने के लिए नैतिक समर्थन दिया। 1966 के आस-पास वामपंथी दलों तथा अकाली दल के बीच चुनाव के लिए गठबंधन हुआ जिसमें अकाली दल की राजनीति की मुख्य धारा में आने की स्थिति बनी।
1966 के बाद पंजाबी और हिन्दी पर विवाद होने लगा गुरूमुखी लिपि तथा देवनागरी लिपि के बीच इस विवाद को अकालियों ने एक नया रूप दिया जिसमें उन्होंने यह मांग की कि गुरूमुखी लिपि को ही सिर्फ पंजाब के लिए लिपि के रूप में इस्तेमाल किया जाए। हिंदू साम्प्रदायिक संगठनों ने इस बात पर जोर दिया कि गुरूमुखी के साथ-साथ देवनागरी का उपयोग किया जाना चाहिए इस मुद्दे को सिख और हिन्दू दोनों प्रकार के सम्प्रदायवादियों द्वारा शक्तिशाली रूप से साम्प्रदायिक रंग दिया गया।
दूसरा जो मुद्दा था वह पंजाब राज्य को लेकर था। 1955 में पंजाब के राजनीतिज्ञों ने भाषा के आधार पर पंजाब की स्थापना की मांग की पर आयोग ने यह कहा कि पंजाबी और हिन्दी में अधिक अंतर नहीं है। 1956 में पंजाबी और पेपसू का विलय कर अकाली दल को शांत रखने की पुरजोर कोशिश भी हुई।
मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व में अकाली दल ने पंजाब की मांग भाषा के आधार पर करने के आंदोलन का बिगुल बजा लिया तथा एक महाशक्तिशाली आंदोलन आरम्भ हो गया सीधे तौर पर अकाली दल ने इसे सिखों के अस्तित्व की कहानी से जोड़ दिया हिन्दू संस्कृति को अपना आधार बनाने वाले दलों से कड़ी प्रतिक्रिया आई तथा हिन्दूओं को कहा कि अपनी भाषा हिन्दी लिखो ऐसे उनकी भी भाषा मातृ रूप में पंजाबी ही थी ।
संत फतह सिंह के नेतृत्व में पंजाब राज्य की मांग का आंदोलन शांतिपूर्वक शुरू हुआ। मास्टर तारा सिंह को निकाल दिया गया तथा कहा गया कि पंजाब की मांग सिर्फ भाषा के आधार पर ही की जा रही है। इसमें साम्प्रदायिकता का कोई स्थान नहीं है। हरियाणा क्षेत्र में हिन्दी भाषी राज्य की मांग भी जोर पकड़ने लगी जब कांगड़ा के लोगों ने हिमाचल प्रदेश में हिमाचल कांगड़ा विलय की मांग की। इंदिरा गांधी ने 1966 में पंजाब का दो राज्यों में विभाजन कर दिया। पंजाबी भाषा के साथ पंजाब, हिन्दी भाषी हरियाणा तथा कांगड़ा का हिमाचल प्रदेश के साथ विलय।
1980 में अकाली दल को चुनाव में हार मिली। इस हार के बाद लोगों में साम्प्रदायिक रंग भरने के लिए पंजाब के अकाली समर्थक कुछ नेताओं ने अपना कार्य शुरू कर दिया। यह कहा नहीं जा सकता कि अकाली दल के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से इस बार समर्थन था या नहीं।
1981 में संत लोंगोवाल के नेतृत्व में मुख्य अकाली दल ने प्रधानमंत्री को धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक 45 मांगों एवम् शिकायतों का मांग पत्र सौंपा। जिसमें पंजाब को चंडीगढ़ देने की मांग भी शामिल थी। अब अकालियों की तरफ से खुले रूप में साम्प्रदायिक आंदोलन शुरू कर दिये गए। गुरुद्वारों को इस आंदोलन का अडडा बना दिया गया।
अकाली उग्रवाद ने 1981 में आतंकवाद का रुख ले लिया तथा कांग्रेस की नीति फेल हो गयी। सतही तौर पर 1970 के दशक में कांग्रेस की लुंज- पुज नीति ने ही लोगों को विशेषकर अकालियों को प्रश्रय दिया | भिंडरावाला के पहले कांग्रेस नेता ज्ञानी जैल सिंह का मौन समर्थन रहता था जो इसे अकाली के विकल्प के रूप में देखते थे। परंतु भिंडरावाला तो खलनायक ही निकला भिंडरावाला तथा अमरीक सिंह के नेतृत्व में आतंकवादियों ने 24 अप्रैल, 1980 को निरंकारी गुरू की हत्या कर दी।
इसके बाद तो हत्याओं का दौर चल पड़ा। अधिकारीगण, कांग्रेसी तथा कई नेताओं को मार दिया गया। ज्ञानी जैल सिंह एक गृहमंत्री के तौर पर भिंडरावाला को बचाते रहें। अपने को सुरक्षित करने के लिए भिंडरावाला ने जुलाई 1982 में स्वर्ण मंदिर के अहाते में एक भवन गुरू नानक निवास में रहने लगे। वहां से पंजाब में आतंकवादी अभियान को संचालित करने लगे। अब पंजाब में भिंडरावाला ही चर्चा के केन्द्र में थे। 1983 में असीमित मात्रा में हिन्दूओं की हत्याएं होने लगी। भारत सरकार आतंकवाद के विरुद्ध कारवाई में हिचक रही थी। भिंडरावाला तो जहां-तहां विस्फोट भी करवाने . लगे, गुट की भी सदस्यता बढ़ने लगी।
दिसम्बर 1983 में गिरफ्तारी के डर से भिंडरावाला स्वर्ण मंदिर के अन्दर स्वर्ग की तरह सुरक्षित अकाल तख्त के अंदर चले गए और उसे अपना मुख्यालय, शस्त्रागार तथा अपने आतंकवादी अनुयायों के लिए शरण स्थान बना दिया। आतंकवादियों में तस्कर भी शामिल थे। स्वर्ण मंदिर के अन्दर आधुनिक हथियार, हथगोले तथा बन्दूकें जमा कर ली गयी। मंदिर के अहाते हथियारों की छोटी निर्माण इकाई भी बना ली गयी।
आतंकवादियों की तरफ अकाली नेतृत्व का रवैया दोहरी था। एक तरह वे उनके साथ शामिल नहीं थे और यहां तक कि अकाली आतंकवादियों के खिलाफ कोई रवैया नहीं अपनाते थे। वे सरकार द्वारा भिंडरावाला के खिलाफ कारवाई में सरकार का विरोध करते थे। 1981 में लोंगोवाल ने कहा कि संपूर्ण सिख समुदाय भिंडरावाला का समर्थन करता है।' अकालियों ने इन आतंकवादी घटनाओं के लिए भारत सरकार को जिम्मेवार ठहराया तथा भिंडरावाला से संबंध बनाकर रखने की कोशिश करते रहे। आंतरिक रूप में अकालियों को भिंडनवाला से राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता भी थी।
इंदिरा गांधी 1975 के बाद अपनी कठोरतम भूमिका से परहेज कर रही थी सही तौर पर देखा जाए तो वह अल. पसंख्यक-बहुसंख्यक संकल्पना में राजीतिक दृष्टिकोण को संतुलित करने का प्रयास करती रहीं 1981 से 1984 तक तो भिंडरावाला की करतूतों का तो रक्षात्मक जवाब ही उनके द्वारा दिया गया।
इंदिरा जी के द्वारा प्रकाश सिंह बदाल एच. एस. लोंगोवाल तथा जी. एस तोहरा के बीच बातचीत लगातार बिना कोई हत्या के चलती रही तथा अकालियों को तत्कालिक रूप से तथा लचर रूप से भी शांत करने की कोशिश की जाती रही।
1983 में एक कोशिश भी की गई जिसमें अटवाल की हत्या कर दी गई तथा इससे पंजाब के लोगों में असंतोष तथा क्रोध की भावना भी भड़की 1984 में तो पाकिस्तान का हस्तक्षेप बढ़ गया तथा उसने पंजाबी उग्रवादियों को सहायता देना भी शुरू कर दिया मई 1984 के अंत में अब सरकार की तरफ से यह इशारा दिया गया कि अब इसके खिलाफ कारवाई को टाला नहीं जा सकता है। सरकार ने सैनिक कारवाई का मन बना लिया तथा 'इसे जव्चमतंजपवद ठसनम जंत कहा गया इस ऑपरेशन की योजना बहुत जल्दी बना दी गयी 3 जून को सेना ने स्वर्ण मंदिर को घेर लिया और 5 जून को वहां प्रवेश कर गई। आश्चर्यजनक था कि मंदिर के अंदर हथियारों का जखीरा उम्मीद से कहीं अधिक था सेना को टैंक का प्रयोग करना पड़ा। करीब एक हजार भक्त मंदिर कर्मचारी अंदर थे कई दोनों तरफ की गोलीबाजी में मारे गए। मंदिर परिसर के कर्म भवन बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए तथा और अकाल तख्त भी बर्बाद हो गया। हर मंदिर सहित जो सिख धर्म सबसे बड़ा पवित्र स्थल था उस पर गोलियों के सैकड़ो दाग थे। मारे गए लोगों में भिंडरावाला तथा उसके अनेक शागिर्द थे।
ऑपरेशन “ ब्लू स्टार" ने पूरे देश में सिखों की भावना को आहत किया तथा सिखों में गहरी नाराजगी पैदा थी। इसे धर्म विरोधी बताया गया हालांकि सरकार के पास मंदिर को निशाना बनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इस ऑपरेशन के बाद आतंकवादियों ने इंदिरा गांधी और उनके परिवार के खिलाफ स्वर्ण मंदिर को अपवित्र करने का पाप करने के लिए बदला लेने की बात कही गयी। 31 अक्टूबर 1984 की सुबह इंदिरा गांधी की अपने सुरक्षा गार्डो ने ही जिसमें दोनों सिख थे ने हत्या कर दी। उन्होंने यह सलाह ठुकरा दी थी कि सिख गार्डों को हटा दिया जाए।
इंदिरा गांधी ने यह साबित कर दिया था कि एक महिला अपनी इच्छा शक्ति से भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में राजनीतिक कौशल से शासन कर सकती है। उनकी इच्छा शक्ति विलक्षण थी। एक मजबूत कठोर नेता के तौर पर निर्णय लेने की उनकी क्षमता अतुलनीय थी।
इंदिरा जी को 1971 के बंग्लादेश निर्माण, 1975 के आपातकाल, 1969 के बैंको के राष्ट्रीयकरण, गरीबी हटाओ नारों, न्यायपालिका से विवाद तथा ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए हमेंशा याद किया जाता है। इंदिरा जी भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक अमिट स्थान रखती है तथा अभी देश के तीन सफलतम प्रधानमंत्रियों में नेहरू और अटल जी के साथ इनका नाम लिया जाता है।
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