भारतीय राजनीति का संक्रमण काल

भारतीय राजनीति का संक्रमण काल

भारतीय राजनीति का संक्रमण काल

1. भारतीय राजनीति का संक्रमण काल ( प्रथम चरण) (1989-1991)
1998 का आम चुनाव कई मायनों में बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हुआ। कहा जाए तो यह एक तरफ कांग्रेस की हार ही नहीं वरण् नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों में से किसी की दूसरी सबसे बड़ी हार होने वाली थी। इंदिरा जी की 1977 में हार के बाद उनके बेटे राजीव गांधी को हार का सामना करना पड़ा। यह ऐसी हार हुई जिसके बाद कभी प्रत्यक्ष गांधी परिवार का कोई भी सदस्य प्रधानमंत्री नहीं बना।
चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए एक जबरदस्त धक्का था । एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी यानि 197 सीटें जीतने के बाद भी राजीव गांधी को सरकार में जाने की दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि उन्हें पथ मिल गया था कि एक तरफ वामपंथी जो 52 सीटें जीत गये थे तथा दूसरी तरफ भाजपा जो 86 सीटें जीती थी, वो दोनों विपरीत ध्रुव वी.पी. सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे का समर्थन करेंगे जो 146 सीटें जीती थी।
अब गेंद विपक्षियों के कोर्ट में थी। वी.पी. सिंह को सबसे अधिक उपयुक्त उम्मीदवार माना गया तथा भाजपा उन्हें समर्थन को भी लगभग तैयार हो गई। चन्द्र शेखर जी वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के सख्त खिलाफ थे तथा देव. केलाल उपप्रधानमंत्री पद से कम पर मानने को तैयार नहीं थे। राष्ट्रीय मोर्चा जिसमें अधिकतर कांग्रेस में रूठे तथा असंतुष्ट महत्वकांक्षी नेताओं की ही भीड़ थी ने एक विकल्प तो पेश किया था लेकिन ये सर्वसम्मत भाव कभी आपस में नहीं रख पाए।
काफी दौर की बैठको तथा समझौते के बाद वी. पी. सिंह के नेतृत्व में 2 दिसम्बर 1989 को पी.वी सिंह ने शपथ ली तथा देवीलाल जी को उपप्रधानमंत्री बनाया गया जो एक किसान नेता के तौर पर हरियाणा क्षेत्र में अपना स्थान रखते थे। देवीलाल की महत्वकांक्षा बहुत अधिक थी फिर भी उन्हें मंत्री पद की शपथ दिलायी गयी परन्तु उपप्रधानमंत्री के तौर पर परिचय किया गया।
वी.पी. सिंह की सरकार चल पड़ी तथा अपनी आदत के अनुसार बहुत ही बड़े स्तर पर कार्य शुरू किया। उन्होंने यह कोशिश की कि एक सुरक्षा घेरे में रहने वाने प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें न माना जाए। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की नीतियों को हम जड़ से बदल देंगे तथा समान रूप से अब कुछ नहीं रहने वाला। उन्होंने स्वर्ण मंदिर की यात्रा की तथा यह दिखाने की कोशिश की कि समर्थन तथा सहमति से ही हमारी सरकार चलेगी।
तो वी.पी. सिंह की सरकार के कार्यकाल को भारतीय राजनीति के संक्रमण काल की शुरूआत ही कहा जा सकता है। ऐसी कुछ घटनाएँ उसी के आस पास आरम्भ हुई जो अभी तक भारत की सरकार के सामने कई चुनौतियां बनके पेश हो रही हैं। सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटना तो कश्मीर में घटित हुई। वी. पी. सिंह ने जॉर्ज फर्नांडीस को कश्मीर मामलों का अध्यक्ष बना दिया। लेकिन उन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद तथा अरूण नेहरू को उसके साथ सहयोग करने का भी अभिप्रमाण तथा आदेश भी दे दिया।
वी.पी. सिंह ने जगमोहन को कश्मीर का यानी (जम्मू एवम् कश्मीर) का गवर्नर बना दिया। राज्यपाल शासन लाने के कारण कश्मीर के मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्लाह ने त्याग दे दिया। जगमोहन ने विधानसभा भंग कर दी तथा कई फैसले लिये जिसे वी.पी सिंह को पता हो, यह आवश्यक नहीं था। फलतः जगमोहन जी को दिल्ली वापस बुला लिया गया। वैसे जगमोहन ने कुछ अच्छे कार्य भी किए थे जिसमें अमरनाथ गुफा की यात्रा को आसान बनाना तथा खीर भवानी मंदिर का पुनुरुद्धार करना इत्यादि। सही तौर पर वी.पी. सिंह को यह लगा कि जगमोहन आंतरिक रूप से भाजपा के इशारे पर कार्य कर रहे थे तथा वह भाजपा के समर्थक के चलते जगमोहन का विरोध भी प्रत्यक्ष रूप नहीं में कर सकते थे। उन्होंने जगमोहन को बुलाकर राज्य सभा का सदस्य बना दिया तथा एक प्रकार से संतुलन बनाने की कोशिश की।
इसी बीच उग्रवादी घटनाएं जोर पकड़ने लगी तथा गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद का उग्रवादियों द्वारा अपहरण कर लिया गया बदले में कई उग्रवादियों को छोड़ना पड़ा। जम्मू कश्मीर की चर्चा विस्तार से एक अलग अध्याय में की जाएगी।
वी.पी. सिंह सरकार ने नेपाल के साथ संबंध बनाए। फिर से एक नये रूप में तथा श्रीलंका से अपनी सारी सेना वापस बुला ली। परंतु आंतरिक स्तर पर कश्मीर के अलावा भी ऐसी बहुत सारी समस्याएं थीं जिसे वी.पी. सिंह सरकार के लिए हल करना अति आवश्यक था। इसमें अयोध्या का मामला एक बड़ा मामला था। भाजपा की रणनीति के केन्द्र में राम मंदिर का मुद्दा था। इसके अलावा मंडल कमीशन को सामने लाकर वी.पी. सिंह की सरकार ने एक विवाद तथा बहस का रूप ले लिया।
वी.पी. सिंह जी को सरकार चलाने में दिक्कत हो रही थी क्योंकि राष्ट्रीय मोर्चे की आंतरिक समस्याओं को हल करने में ही उनकी शक्ति अधिक खर्च हो रही थी। हमने पहले ही चर्चा की थी कि वी.पी. सिंह के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में चन्द्रशेखर एक रूकावट थे। चन्द्रशेखर अवसर खोज रहे थे। फारूख अब्दुल्लाह का मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने का विरोध सार्वजनिक रूप से चन्द्रशेखर ने ही किया। इधर देवीलाल चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह को एकदम पसंद नहीं करते थे। देवीलाल को पूरे कैबिनेट में कोई पसंद नहीं करता था जबकि सिर्फ चन्द्रशेखर ही इनको एक पूर्ण रूपेण समर्थन करते थे। देवीलाल एक किसान नेता के रूप में प्रसिद्ध थे तथा हरियाणा के मुख्यमंत्री के तौर पर काफी लोकप्रिय थे। जब वह उपप्रधानमंत्री बने हरियाणा में उनके बेटे ओम प्रकाश चोटाला मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनाकर परिवारवाद को बढ़ाने का कलंक माथे पे लिया था। चोटाला के मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा में सदस्यता के लिए हुए उपचुनाव में उन पर धांधली का आरोप लगा। चुनाव आयोग ने चोटाला का चुनाव खारिज कर दिया। पूछताछ से पता चला कि चुनावों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी हुई। मुख्यमंत्री चोटाला को इस्पीफा देना पड़ा परंतु दो महीने बाद फिर से उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया।
चोटाला का मुख्यमंत्री फिर से बननां राष्ट्रीय मोर्चा के सदस्यों को नागवार गुजरा। आरिफ मुहम्मद खान तथा अरूण नेहरू पूर्ण रूप से इस बात पर खफा कि चोटाला को जिस प्रकार मुख्यमंत्री बनाया गया वह न्यायसंगत नहीं है। आरिफ मुहम्मद खान तथा अरूण नेहरू ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अब वी.पी. सिंह ने भी यह कहकर त्यागपत्र ने की पेशकश की कि चोटाला को मुख्यमंत्री होना न्यायसंगत नहीं है। अब मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चोटाला ने इस्तीफा देनो की बात कही तथा वी.पी. ने अपना इस्तीफा वापस लिया। देवीलाल जी भयंकर पुत्र मोह में थे। अब देवीलाल दूसरी चाल चलने लगे। उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेस बुलाकर आरिफ मुहम्मद खान और अरूण जेटली पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया तथा यह कहा कि वी. पी. सिंह का लिखा हुआ 1987 का एक पत्र है जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति को यह संदेश दिया है कि नेहरू और खान दोनों बोफोर्स घोटाले में शामिल है। यह सीमा का पूर्ण उल्लंघन था। वी.पी. के अनुसार उन्होंने ऐसा कोई पत्र राष्ट्रपति को लिखा ही नहीं था। यह एक उपप्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे व्यक्ति के प्रतिष्ठा के पूर्ण खिलाफ था। वी.पी. सिंह ने 1 अगस्त 1990 को देवीलाल को बर्खास्त कर दिया।
देवीलाल को अपनी बर्खास्तगी बर्दाश्त नहीं हुई। उन्होंने अपनी ताकत दिखाने का फैसला किया। 9 अगस्त 1990 को दिल्ली में उन्होनें एक खिलाफ रैली का आयोजन किया। यह रैली एक प्रदर्शन था जो राजनीति में अपना वर्चस्व दिखाने का तथा केन्द्र सरकार को धमकी देने का एक रास्ता भी था।
वी.पी. सिंह सरकार तो दूसरे ही लक्ष्य की ओर जा रही थी। उन्होंने 7 अगस्त 1990 को जनता पार्टी सरकार (1977-79) में नियुक्त मंडल कमीशन रिपोर्ट को संसद में पेश किया। मंडल की सिफारिशों के अन्तर्गत सरकारी नौकरी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में 27 फीसदी आरक्षण पिछड़ी जातियों के लिए रखा गया है। इस प्रकार आरक्षित श्रेणी 22.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 49.5 फीसदी हो गई। 22.5 प्रतिशत तो अब तक सिर्फ SC/ST के लिए ही था। कमीशन के द्वारा आरक्षण की कई सिफारिश दो स्तर की थी। दूसरे में शैक्षणिक संस्थानों तथा पदोन्नति के लिए था। मंडल कमीशन तात्कालीन भारतीय सामाजिक राजनीतिक परिदृश्यों में एक बवंडर आने लगा इस कमीशन की सिफारिशों को मानने के विरोध में प्रतिक्रियाएं कड़ी हुई। वी.पी. सिंह की तरफ से यह एक ऐसी रणनीति थी जो समाज के पिछड़े तबकों को आकर्षित कर सकती थी परंतु समाज के और स्तरों के बीच एक कुपोषित वातावरण भी उत्पन्न कर सकती थी। वी.पी. सिंह की सरकार के अंदर भी कुछ ऐसे लोग थे जो इस बात से खुश नहीं थे कि आम सम्मति क्यों बनायी गयी। बीजू पटनायक, रामकृष्ण तथा यशवन्त सिन्हा कुछ ऐसे नेता थे जो मंत्रिमंडल में रहने के बावजूद वी.पी. सिंह के इस कदम को मनमाना समझ रहे थे।
इधर भाजपा और वामपंथी पार्टियां जो सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थीं, काफी नाराज थीं। इनसे भी कोई सलाह मशविरा नहीं किया गया था। चन्द्रशेखर ने बड़े स्तर पर वी.पी. सिंह के इस कार्य को मनमाना बताया। इसके समय को लेकर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा किया गया इनके अलावा पिछड़ी जातियों की पहचान का गलत तरीका तथा समाज में विभाजन की शंका जैसे मुद्दों को लेकर चन्द्रशेखर जैसे नेताओं ने इस पर बड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
वामपंथी पार्टियां जिसमें सी. पी. एल आगे थी, ने कहा कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए न कि सामाजिक । इसके अलावा प्रमुख समाज शास्त्रियों का यह मत था कि मंडल कमीशन में स्वतंत्रता के बाद हुए सामाजिक परिवर्तन को ध्यान में नहीं रखा गया है। इनके अनुसार रिपोर्ट में जिन्हें पिछड़ा कहा गया वह भूमि सुधार तथा हरित क्रान्ति के बाद जबरदस्त रूप से सकारात्मक स्तर पर विकसित हुए। उन्होंने कहा कि सामाजिक स्तर पर पिछड़ों की पहचान करने में सावधानी बरतने की आवश्यकता थी जो एक संवेदनशील मुद्दा था।
मंडल कमीशन को स्वीकार करने के विरोध में प्रतिक्रिया का गुबार छात्र समूह के स्तर तक पहुंच गया। छात्रों के एक समूह जो कि सामान्य वर्ग के थे ने भर्ती प्रक्रिया में इतनी सीटों के प्रतिशत को आरक्षित किए जाने का विरोध किया। छात्रों ने हिंसक विद्रोह आरम्भ कर दिया कई बसें जला दी गई, चक्का जाम किया गया तथा घेराव किया गया। दिल्ली, वाराण ासी, कानपुर, इत्यादि जैसे स्थानों में गोली कांड हुए। विरोध प्रदर्शन की स्थिति में पिछड़ता देख कुछ छात्रों ने सितम्बर के मध्य में आत्मदाह की कोशिश की। एक छात्र बच नहीं सका जो बिहार का था जहां राष्ट्रीय मोर्चा अच्छी स्थिति में था। स्थिति बहुत ही विषम हो गई। सामाजिक तौर पर तो अधिक ही विषैला वातावरण बनता चला गया। बिहार जैसे राज्य में तो स्थिति अधिक सामाजिक स्तर पर इसलिए खराब हुई कि वहां मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जी ने सार्वजनिक मंच से अग्रण जाति के विरोध में मुहावरों का प्रयोग किया था। प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने बहुत बड़ी अपील की पर प्रभाव अधिक नहीं हुआ। कॉलेज, छात्रावास, चिकित्सा महाविद्यालय तथा इंजीनियरिंग सेक्शन यहां तक कि कार्यालयों में जातिवाद की प्रवृत्ति बढ़ गयी तथा 'अगड़ा-पिछड़ा चैलसनउ (वर्ग) ' के रूप में लोग इकट्ठे होने लगे। ये संस्थाएं इसलिए तैयार हुई थी कि ये जातिय स्तर की स्थिति से जनता को उपर उठाएंगे पर यही पर जातिवाद को हवा देना दुर्भाग्यपूर्ण था। 1 अक्टूबर 1990 को मंडल कमीशन की रिर्पोट को लागू करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी तो मामला शान्त हो गया। को बाहर से समर्थक दे रही सबसे बड़ी पार्टी ठश्रच अपनी रणनीति को आगे बढ़ा रही थी। मंडल इधर वी.पी. सिंह आयोग ने उसे यह सक्रिय मौका दे दिया मंडल कमीशन का व्यापक विरोध देखकर भाजपा ने अपना समर्थन वापस लेने की बात कह दी।
भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष तथा हिन्दुत्व के सबसे बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी 25 सितम्बर 1990 को सोमनाथ से अयोध्या तक 6000 बीघा लम्बी राम रथ यात्रा लेकर चल पडे। उन्होंने अपना लक्ष्य अयोध्या पहुंच कर राम मंदिर की आधारशिला रखने की बात की। उनकी यात्रा लगभग 28 दिन बिना बाधा के चली। 23 अक्टूबर 1990 को बिहार में समस्तीपुर में लालू जी की सरकार के द्वारा उनकी गिरफ्तारी हुई। बिहार में अडवाणी जी की गिरफ्तारी की भी कहानी अलग है। अभी के वर्तमान उर्जामंत्री तथा पूर्व गृह सचिव राज कुमार सिंह तत्कालीन एस. पी. समस्तीपुर थे। लालू जी ने इन्हें आदेश दिया कि वह आडवाणी जी को गिरफ्तार करें। उन्होंने आडवाणी जी को गिरफ्तार कर लिया था। एक राष्ट्रीय नेता जिसके द्वारा केन्द्र सरकार में समर्थन दिया जा रहा था तथा जनता दल के पीछे राज्य सरकार के द्वारा अडवाणी को गिरफ्तार करना एक बहुत बड़ी बात थी। बिहार के मुख्यमंत्री (तत्कालीन) लालु यादव इस गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में चर्चा के विषय बन गए। इधर भाजपा ने वी. पी. सरकार से समर्थन वापसी की औपचारिक घोषणा कर दी। वी. पी. सरकार की भाजपा के समर्थन का एक बहुत महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी।
परन्तु वी. पी. सिंह सरकार ने अपने दल को ही अधिक महत्व दिया तथा भाजपा को मनाने की कोशिश नहीं की। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे। वो यादव जनता दल की तरफ से ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वी. पी. सिंह का नियंत्रण मुलायम सिंह पर अत्यधिक रूप से था। मुलायम सिंह ने 30 अक्टूबर को अयोध्या कारस. `वकों पर गोली चलाने का दिया जो आडवाणी का इंतजार कर रहे थे। ये सभी कारसेवक अयोध्या के मंदिर के शिलान्यास का इंतजार कर रहे थे। इन सभी घटनाओं का सामूहिक मिश्रण परिणाम यह था कि एक बार तो उत्तर प्रदेश में कुछ जगहों पर साम्प्रदायिक भावनाएं भड़कीं वहीं दूसरी तरफ 5 नवम्बर को जनता दल खुद फूट पड़ गयी। लगभग 58 सांसदों ने विद्रोह कर दिया तथा 7 नवम्बर को इन सांसदों ने चन्द्रशेखर को अपना नेता बना दिया। यह एक दुर्भाग्य ही था कि राजनीतिक अस्थिरता भारत की विकास दर को अपनी जकडन में खींच रही थी।
10 नवम्बर 1990 को चन्द्रशेखर जी कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने । चन्द्रशेखर का प्रधानमंत्री बनना एक बहुत बड़ी घटना नहीं थी। चन्द्रशेखर ने यह नहीं कहा कि प्रधानमंत्री बनकर मुझे भारत के सपनों को पूरा करना है। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि “मेरे सपने थे कि एक मध्यमवर्गीय परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री बने और इसलिए मुझे खुशी हो रही है" कांग्रेस को वी. पी. सिंह की सरकार जाने के बाद एक अवसर मिल गया था जिससे कांग्रेस फिर मुख्य भूमिका में आ जाए । कांग्रेस चाहती थी कि कुछ दिन एक कमजोर सरकार बनाकर समर्थन वापस लेकर चुनाव करवाया जाए। 5 मार्च 1991 को कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। चुनाव की घोषणा 19 मई को की गई। दो साल के अन्दर भारत को दूसरे आम चुनाव की ओर जाना पड़ रहा था।
मतदान का एक राउण्ड पूरा हो गया था चुनाव प्रचार बहुत ही तेजी से चल रहा था। इसी बीच एक भयावह घटना घट गयी। 21 मई 1991 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को मद्रास के पास पेरूमबुदुर में एक जनसभा कार्यक्रम में एक महिला बम ने आत्मघाती हमले से ( राजीव जी को) उड़ा दिया। राजीव गांधी के टुकडे-टुकडे हो गए। उनकी हत्या एक भयानक घटना थी। यह स्पज्ज्म की तरफ से हमला था।
चुनाव के अगले राउण्ड पूरे हुए तथा परिणाम में कांग्रेस को 232 सीटें मिली तथा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उनकी जीत हुई। नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने।
1989-91 एक प्रकार से ऐसे काल के रूप में गिना या आंका जाता है जिसमें आम जनमानस में संक्रमण कार्य या बाधा होती है। यह कार्य साम्प्रदायिकता, हत्या, राम जन्म भूमि तथा अस्थिरता का पर्याय है।
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