स्वातंत्र्योत्तर लोकतांत्रिक उपलब्धियाँ

स्वातंत्र्योत्तर लोकतांत्रिक उपलब्धियाँ

स्वातंत्र्योत्तर लोकतांत्रिक उपलब्धियाँ

1. स्वतंत्रता के बाद की ऐतिहासिक उपलब्धियां (1947-2018) 'लोकतांत्रिक'
21वीं सदी को एशिया की सदी कहा जाता है सही मानें तो यह सदी भारत की सदी होगी। 1947 के बाद भारत आज लगभग 72 सालों से गणतंत्र में अपने भविष्य की ओर देख रहा है। इन 72 सालों में भारत में भारत की जो उप. लब्धियां रही हैं, वो ऐतिहासिक रही है।
भारत जब स्वतंत्र हो रहा था जब अंग्रेजों ने यह कहकर खिल्ली उड़ायी थी कि ब्रिटिश सरकार के जाने के बाद भारतीयों के दस वर्ष भी नहीं लगेंगे जब वो आपसी मूर्खता के कारण टुकड़ों में बिखर जाएंगे पर ऐसा नहीं हुआ।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत को एक आधुनिक भारत बनाने की बात कही। उन्होंने भारत के विकास के लिए तीन मंत्र दिए जैसे: - 
1. आत्म विश्वास
2. उच्च आकांक्षा
3. सकारात्मकता
नेहरू ने यह कहा कि इन तीन मंत्रों से हम अपने सपनों को पूरा करेंगे तथा एक ऐसा भारत बनाएंगे जो:- 
1. आत्मनिर्भर हो ।
2. आधुनिक हो ।
3. सामाजिक तौर पर सशक्त हो ।
4. शक्तिशाली हो ।
5. आर्थिक रूप से सबल हो ।
6. ऊर्जावान हो ।
इन उपरोक्त सपनों को वास्तविकता में बदलने के लिए कई कार्यक्रम आरम्भ किए गए। नेहरू बहुउद्देश्यीय परिया. `जनाओं, पंचवर्षीय योजना तथा केन्द्र राज्य संबंध के विकास के जरिए भारत को एक महान संघ बनाने की ओर उन्मुख हुए।
1947-64 तक भारत अपनी गरीबी तथा पिछड़ेपन से लड़ते हुए एक सबल राष्ट्र बनने की चाहत में था। प्रथम तथा द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं ने भारत में कृषि तथा उद्योग के विकास के लिए कई प्रयास हुए। वहीं चौथी और पांचवीं पंचवर्षीय योजनाओं को गरीबी हटाओ तथा आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के अस्तित्व को मजबूती देने के लिए लाया गया। योजनागत नीतियों तथा कई कदमों ने भारतीय जनता के हितों को काफी प्रासंगिक बनाया तथा सरकार को हरेक बजट में कुछ न कुछ विशेष सामाजिक आर्थिक योजनाओं को लाकर राज्यों के साथ काम करने की आवश्यकता महसूस हुई।
वास्तविक रूप में 1952 के बाद भारत की गणतांत्रिक पद्धति फली - फूली तथा सत्ता का हस्तांतरण बहुत ही शानदार लोकतांत्रिक तरीकों में हुआ या होता रहा है। विभिन्न तरह की नीतियों, कार्यक्रमों तथा अलग-अलग सरकारों की कोशिशों ने भारतीय लोकतंत्र को एक महान लोकतंत्र बनाने की स्थिति में ला खड़ा किया।
विभिन्न उपलब्धियों को अगर एक सारांश के रूप में बिंदूवार देखें तो निम्न प्रकार की उपलब्धियां उल्लेखित होंगीं: - 
1. राष्ट्रीय एकता
2. लोकतांत्रिक पद्धति की सफलता
3. चुनावी लोकतंत्र को महान सफलता
4. हरित क्रांति
5. सफलतम संघवाद की अभिव्यक्ति
6. संवैधानिक तंत्र में विश्वास की लगातार बढ़ोतरी
7. संसदीय व्यवस्था में जन-मन का विश्वास
8. राजनीतिक दलों के बीच वैचारिक दुश्मनी ही सिर्फ प्रासंगिक ।
9. एक प्रतिष्ठित न्यायपालिका।
10. एक संघात्मक गणतंत्र की सफलतम अवस्था ।
11. राज्यों के बीच आपसी सामंजस्य |
12. रक्तहीन सत्ता हस्तांतरण की परम्परा ।
13. शांति पूर्ण सैनिक व्यवस्था ।
14. मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार करने की पद्धति ।
15. विभिन्न अति आवश्यक तथा उच्च शैक्षणि संस्थानों का निर्माण तथा विकास।
16. राजनीतिक प्रक्रिया में जन भागीदारी की बढ़ोतरी ।
17. पंचायती राज व्यवस्था का संवैधानिक स्वरूप |
18. महिला सशक्तिकरण की कोशिश।
19. राजनीतिक विरोध के सारगर्भित रूप।
20. वैश्वीकरण की सकारात्मकता को ग्रहण करना।
21. विभिन्न आर्थिक उपलब्धियां।
22. निजीकरण का नियंत्रित रूप ग्रहण करना।
23. गरीबी उन्मूलन की सही दिशा ।
24. साक्षरता में बढ़ोतरी तथा विकास |
25. जीवन की गुणवत्ता बढ़ना।
26. वैश्विक स्तर पर भारतीय पक्ष की प्रतिष्ठा ।
उपरोक्त सभी उपलब्धियों के बारे में यह साफ कर देना अति आवश्यक है कि इनमें कुछ उपलब्धियों की सफलता को 100: नहीं माना जा सकता पर तुलनात्मक रूप से यह सही है कि 1950 के बाद इनमें उत्तरोत्तर सकारात्मक सुध र हुआ है।
सर्वप्रथम राष्ट्रीय एकता की बात करना अति आवश्यक है। जब इटली ने ब्रिटिश संसद में यह घोषणा की कि भारत को अब स्वतंत्र कर दिया जाएगा तो अधिकतर ब्रिटिश अफसर जिसमें तत्कालीन वायसराय भी थे जिन्होंने यह कहा था कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की विविधता इस देश के टुकड़े-टुकड़े कर देगी। परन्तु राष्ट्रीय जनमानस की अटूट अभिलाषा ने राष्ट्रीय एकता की स्थिति को सकारात्मक रूप से ग्रहित किया।
किसी नवोदित स्वतंत्र राष्ट्र के लिए उसकी एकता सबसे बड़ी प्राथमिकता होता है तथा उसमें भी भारत जैसे देशों में तो यह और भी आवश्यक था क्योंकि 1909, 1919, 1935 तथा 1946 की अंधकार पूर्ण अंग्रेजी तथा लीग की मनःस्थिति ने भारत की आत्मिक एकता को क्षति पहुंचाने की कोशिश की । परन्तु भारत जन-मानस में एकता के प्रति जो चेतना थी, वह कभी समाप्त नहीं हुई।
देश ने स्वतंत्रता के बाद 70 सालों में राजनीतिक, आर्थिक तथा भावनात्मक तौर पर एक होने की इच्छा को सर्वोपरी माना है तथा जनता ने सरकार की मदद से इसमें बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की है। देश ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में 70 साल से अपना पल-पल लगाया है। भारत की विशाल विविधता भी राष्ट्रीय एकता में कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं कर पाया है। लगभग हरेक दशक में कोई न कोई सामाजिक उथल-पुथल देश में होते रही है परन्तु इसके कारण तनाव के बावजूद भारतीय एकता खंडित नहीं हो सकी है।
यह सही है कि भारतीय एकता के सामने कई अवसरों पर कई प्रकार की चुनौतियां पेश हुई हैं पर इस पर सरकार की तथा जनता की उत्कट इच्छा विजय प्राप्त करती रही है। स्वतंत्रता के कुछ ही दिनों के बाद भाषा के आधार पर हुए उथल-पुथल तथा विभिन्न आंदोलनों ने कई प्रकार के संशय उत्पन्न किए पर सरकार ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बावजूद क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक पहचान को भारत की एकमुश्त पहचान के विरोध में जाने नहीं दिया। इसके अलावा आदिवासियों की समस्या को भी देखकर, समाधान कर भारत की मुख्य धारा में जोड़ने का प्रयास किया गया।
यह सही है कि कुछ अलगाववादी समस्याएं तथा क्षेत्रीय असमानता राष्ट्र की अस्मिता को ठेस पहुंचाने की असफल कोशिश करती रही है परन्तु सरकार तथा जनता इस कारण राष्ट्रीय एकता को संभावित क्षति पहुंचाने के विरोध में एक होकर खड़ी रही है। विभिन्न राज्यों के बीच अंतर भी बना हुआ है परन्तु यह सही है कि कभी इस कारण भारत की एकता को खतरा नहीं पहुंचा है।
लेकिन यह सही है इसके पीछे राज्य प्रशासन की अपनी आंतरिक क्षमता अधिक है तथा यह किसी आंतरिक उप. निवेशवाद या अर्द्ध उपनिवेशवाद का नतीजा नहीं है जहां एक पिछड़े क्षेत्र का अधिक विकसित क्षेत्र या सारे देश द्वारा आर्थिक शोषण हो रहा हो । भारत सरकार ने राष्ट्रीय एकता बनाने के लिए संवैधानिक तथा वैधानिक दोनों तरह के ढाँचे खड़े किए हैं:
1. अंतर्राज्यीय परिषद
2. क्षेत्रीय परिषद
3. राष्ट्रीय एकता परिषद इत्यादि ।
इसमें अंतर्राज्यीय तथा क्षेत्रीय परिषद तो संवैधानिक है परन्तु राष्ट्रीय एकता परिषद नैतिक तथा वैधानिक है। इससे विभिन्न विचारों तथा संस्थाओं से एक मंच पर आकर राष्ट्रीय एकता के लिए काम करने की इच्छा को जोर देना रहा है।
इसके अलावा क्षेत्रीय आर्थिक तथा विकास संबंधी असमानताएं साम्प्रदायिक तथा जातीय विभाजन के साथ गंभीर समस्याएं खड़ी करना चाहती रही है। फिर भी सरकार की गंभीर कोशिशों ने इसे संतुलित कर रखा है। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय एकता में जो बाधाएं आती रही हैं उसमें आतंकवाद तथा साम्प्रदायिक दंगे रहे हैं। पंजाब की समस्या का अंत तथा आतंकवाद के विरुद्ध ठोस रणनीतिक की वर्तमान कोशिश का नतीजा अब इस विषय में एक सकारात्मक चिन्ह को निरूपित करता है।
1948, 1984 तथा 2002 के दंगों ने भारतीय एकता को ठेस पहुंचाने की कोशिश की है परन्तु जनता की कोशिश तथा न्याय क्षेत्र की सफलता तथा सरकार के संवैधानिक तंत्र में विश्वास ने इसके कारण राष्ट्रीय एकता टूटने नहीं दी है। निष्कर्षतः भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धि जो स्वतंत्रता के बाद सबसे कड़ी है उसे बिना किसी लाग-लपेट के 'राष्ट्रीय एकता' कहा जा सकता है।
राष्ट्रीय एकता के बाद लोकतांत्रिक पद्धति की सफलता को उल्लेख करने से पहले हमें भारत की लोकतांत्रिक तथा प्राचीन परम्परा से अवगत होना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही भारत में गणतंत्रात्मक शासन तथा लोकतंत्र की सफलता को अति महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र की सफलता इस बात में अधिक है कि किस तरह अपनी प्रशासनिक विकास की शक्ति तथा राजनीति दल पद्धति की परिपक्वता ने लोकतंत्र को भारत में सफल बनाया है।
कुछ बिन्दुओं की अभिव्यक्ति से हम भारत में लोकतांत्रिक पद्धति की सफलता के बारे में अधिक जान सकते हैं:
1. स्वतंत्रता के बाद निष्पक्ष चुनाव पद्धति का विकास। 
2. केन्द्रीय स्तर पर विकेन्द्रीकरण को सकारात्मक तरीके से पोषित करने की लोकतांत्रिक रूप से कोशिश।
3. संवैधानिक रूप से चुनाव आयोग का अस्तित्व।
4. एक स्वतंत्र तथा परिपक्व राजनीतिक दलीय पद्धति का विकास।
5. पंचायती राज को संवैधानिक कार्य देने की सफलता।
6. सरकार को लोककल्याणकारी होने की प्रेरणा मिलना तथा जनभागीदारी बढ़ाना।
उपरोक्त कथनों से इस परिणाम को रेखांकित किया जा सकता है कि भारत की लोकतांत्रिक पद्धति उत्थान क्रम में तथा विकसित अवस्था में आगे बढ़ती आ रही है।
2. चुनावी लोकतंत्र की महान सफलता
1951 के बाद यह कहना गर्व की बात है कि अभी तक 17 लोकसभा के चुनाव हो गए हैं तथा यह वास्तविकता है कि 17 में से 13 लोकसभा ने अपने पूर्ण कार्यकाल को प्राप्त किया है। सिर्फ 7 लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी. उसमें भी सिर्फ कारण समर्थन की कमी रही न कि कोई रक्त-रजित घटनाएं।
हरेक चुनाव के बाद सारगर्भित तरीके से सत्ता का हस्तांतरण हुआ है तथा चुनावी परिणाम में बड़े स्तर पर सबको विश्वास रहा है। प्रत्येक लोकसभा में चुनावी सफलता की कहानी गढ़ी रही है। चुनावी लोकतंत्र की सफलता भारत को सिर्फ संसद के स्तर पर केंद्रीय रूप में देखने को नहीं मिलती वरन् यह सही है कि इतने सालों में सरकार की कोशिश तथा जनसहभागिता ने चुनावी लोकतंत्र को पंचायत स्तर पर भी विकसित करने का प्रावधान किया है। इसमें कोई शक नहीं कि अब चुनावी लोकतंत्र के विकास ने भारत ने एक महान उड़ान को प्राप्त कर लिया है जो सही तरीके से चलने की कोशिश करता रहा है। संविधान में पंचायत स्तर पर चुनाव को विस्तृत किया गया है तथा इसके लिए वित्त भी मुहैया कराता रहा है।
3. हरित क्रांति
हरित क्रांति के बारे में पहले के अध्याय में बृहत् स्तर पर उल्लेख किया गया है। सही रूप में 1960 के अन्त में एम. एस. स्वामीनाथन की महान कोशिश ने भारत को भुखमरी तथा अकाल से बाहर निकाला था। अब द्वितीय हरित क्रांति की भी बात चल रही है।
4. सफलतम संघवाद की अभिव्यक्ति
वैसे तो संविधान निर्माताओं ने एकात्मक व्यवस्था लाकर सफल रूप में संघवाद की प्रासंगिकता को उजागर किया था परंतु इसमें कोई शक नहीं कि संविधान के इतर भी राज्य केंद्र के बीच एक अच्छा तालमेल देखने को मिलता रहा है। आपातकाल के उस संक्षिप्त काल को छोड़ दिया जाए तथा 356 धारा की छिटपुट प्रयोग को हटाकर देखा जाए तो व्यवहारिक रूप में केंद्र राज्य सरकार के अलग-अलग विचार ने भी एक साथ काम करने को तरजीह दी है। 
संघवाद के विकास के लिए प्रशासनिक तथा राजनीतिक स्तर पर भी संविधान से लेकर सरकार के प्रयास ने 70 सालों में एक महान विकास को संप्रेषित किया है। अलग-अलग समय पर राष्ट्रीय विकास परिषद्, अंतरराज्यीय परिषद्, क्षेत्रीय परिषद् तथा संवैधानिक धाराओं ने केंद्र-राज्य के बीच उठी विभिन्न समस्याओं को समाधान रूप देने की कोशिश की है।
70 सालों में राज्य केंद्र संबंध के कारण संघवाद की सफलता को रेखांकित किया जा सकता है। इसमें प्रशासनिक, राजनैतिक, वित्तीय संबंधों की संवैधानिक पद्धति ने अहम भूमिका निभाई है।
5. संवैधानिक तंत्र को स्वीकार करना
सवैधानिक तंत्र को स्वीकार करना भारतीय लोकतांत्रिक पद्धति की अहम विशेषता रही है। 70 सालों में संविधान के तहत आने वाली सभी संस्थाओं तथा संसदीय तंत्र को बहुत ही सम्मानपूर्वक देखा गया है। इसमें कई ऐसे भी मोड़ आए जिसने सकारात्मक रूप से संविधान की तंत्रीय पद्धति को मजबूत ही किया।
शक्तिशाली सत्ता तंत्र हो या मजबूत से मजबूत संस्था ही क्यूं न हो, भारत की संवैधानिक पद्धति तथा परम्परा के खिलाफ जाने की कोशिश कभी किसी ने नहीं की है। अगर आपातकाल में ऐसी कोशिश की भी गई तो सफल नहीं हो सकी।
6. संसदीय व्यवस्था में जन-मन का विश्वास
भारतीय संसदीय परंपरा में विश्वास को स्वतंत्रता के बाद की महान उपलब्धियों में गिना जाता है। पिछले 70 सालों में संसदीय तंत्र की सफलता ने भारतीय राजनीति पद्धति को परिपक्व बनाया है। संसदीय तरीकों से सरकार की अभिव्यक्ति तथा लोकतंत्र की प्रासंगिकता ने इसे और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। भारतीय संसदीय व्यवस्था को स्वयं भू तथा क्रम रूप में विकसित होने की प्रकृति वाली व्यवस्था कहा जाता रहा है। इस व्यवस्था में जनता की इच्छा को सर्वोपरी माना गया है तथा संविधान तथा न्यायपालिका इसका रक्षण करती रही है। 
संसदीय परम्परा की ही शक्ति रही है कि भारत में एक प्रकार से ही बार-बार लोककल्याणकारी सरकारों का निव. चिन होता रहा है।
7. राजनीतिक दलों के बीच सिर्फ वैचारिक स्तर पर ही दुश्मनी की प्रासंगिकता
भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की अपनी विशेषता रही है। इन दलों की अपनी वैचारिक शक्ति होती है तथा सिद्धांत होता है। यह वैचारिक सिद्धांत दूसरे दलों को एक से अलग करता है। भारत में राजनीतिक दलों के बीच सिर्फ मतभेद होते हैं, मनभेद नहीं। अलग-अलग दलों के बीच सिर्फ राजनीतिक स्तर पर मत विभिन्नता ने लोकतंत्र को लगातार परिपक्व बनाया है।
भारत में वामपंथी दलों की भी प्रासंगिकता रही है तथा दक्षिणपंथी दल भी सत्ता में रहे हैं तथा कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी का भी अस्तित्व रहा है। भले ही इनके सिद्धांत एक-दूसरे के धुर विरोधी हों लेकिन राजनीति स्तर पर एक दूसरे के विरोध के आगे ये पार्टियाँ एक दूसरे का अहित नहीं सोचती क्योंकि भारतीय लोकतांत्रिक पद्धति की यह विशेषता है कि 'मतभेद का अर्थ मनभेद' कतई नहीं हो सकता।
8. एक प्रतिष्ठित न्यायपालिका
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय जनमानस में अपनी न्यायपालिका के प्रति गहरा विश्वास रहा है जो अभी तक कायम है। न्यायपालिका का स्वतंत्र रहना तथा निष्पक्ष रहना भारतीय तंत्र की अनुपम विशेषता है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय की बुद्धिमत्ता तथा विशेष सक्रियता ने देश की एकता तथा न्यायप्रियता समृद्ध ही किया है।
अलग - अलग समय पर न्यायपालिका की प्रासंगिकता ने सरकार को एक अच्छा रास्ता ही दिखाया है तथा कभी-कभी आत्म-निरीक्षण भी कराया है। स्वतंत्रता के बाद धीरे-धीरे भारतीय न्यायपालिका की पद्धति ने अपनी इच्छाशक्ति तथा संवैधानिक विश्वास से जन-जन के मन में जगह बनायी है।
9. एक संघात्मक गणतंत्र की अवधारणा
1950 के बाद से ही भारत की गणतांत्रिक शक्ति ने लोकतंत्र को सफल रूप में संचालित किया है। गणतंत्र के रूप में भारत को 69 साल होने के बाद इसके प्रति विश्वास और भी बढ़ा है। कभी भी किसी ने भारत की गणतंत्रात्मक पद्धति को चुनौती देने का प्रयास नहीं किया है। बार-बार भारत की जनता ने अपनी इच्छा से अपने अध्यक्ष को चुना तथा बड़े-से-बड़े सत्ताधारितयों को पद से हटाया भी है।
10. राज्यों के बीच आपसी सामंजस्य
स्वतंत्रता के बाद भारत के अनेक राज्य एक हुए तथा अलग-अलग भी भौगोलिक आधार पर हुए परंतु किसी बड़े स्तर पर एक दूसरे से अलगाव की मानसिकता नहीं पाली । यह सही है कि संसाधनों के बँटवारे तथा जल-विवाद जैसेमुद्दों ने कुछ स्तर पर मन-मुटाव की प्रवृत्ति कभी-कभार प्रांसगिक हुए हैं परंतु सही अर्थों में यह कहा जा सकता है कि दो- राज्यों ने आपस में समन्वय तथा मदद की संरचना को स्वीकार किया तथा एक संघीय व्यवस्था में आपसी विश्वास को कायम करते रहे हैं ।
11. रक्तहीन सत्ता हस्तांतरण की परंपरा
हो गए हैं तथा हजारों 2019 में भारत के 17वें लोकसभा के चुनाव सम्पन्न होने तक लगभग 17 बार आम चुनाव बार अलग-अलग राज्यों के विधान सभा के चुनाव भी हो गए हैं। इन सभी चुनावों में जीत-हार कुछ भी हो, सत्ता का हस्तांतरण हमेशा सारगर्भित तरीके से होता आ रहा है। यह भारतीय लोकतांत्रिक पद्धति की पहचान बन गयी है तथा विश्व के लिए एक अनुपम उदाहरण भी।
12. शांतिपूर्ण सैनिक व्यवस्था
भारत की सेना विश्व की चौथी सबसे शक्तिशाली सेना है। इसके आंतरिक अनुशासन तथा संतुलित व्यवस्था ने इसे बहुत ही मजबूत बनाया है। भारत की सैन्य व्यवस्था ने अपनी सीमा कभी नहीं लांघी है तथा इसने कभी भी अपनी विचारधारा को सरकार की नीतियों पर नहीं थोपा है।
भारत की सेना सरकार संविधान तथा लोकतंत्र में प्रखर विश्वास रखती रही है तथा भारतीय परंपरा को सारगर्भित तरीके से मानती रही है। 
13. मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्वीकार्यता
स्वतंत्रता के बाद भारतीय लोककल्याण के लिए एक संतुलित अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ तथा इसे मिश्रित कहा गया। परंतु 1991 में उदारीकरण के बाद विशाल रूप में इस प्रकार की अर्थव्यवस्था ने भारत की वैश्विक भागीदारी बढ़ाई है तथा सरकार की मानसिकता को भी सकारात्मक तरीके से बदला है। अब सरकार समावेशी, पोषणीय तथा वैश्विक विकास के लक्ष्य की तरफ बढ़ रही है।
स्वतंत्रता के बाद भारत के विभिन्न प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों का विकास होता रहा है जिसमें चिकित्सा, अभियािं त्रकी, प्रबंधक तथा विधि एवं वैज्ञानिक खोज के विषय के समाहित किये गये हैं। इसके कारण वैश्विक स्तर पर भारत की बौद्धिक परंपरा को स्वीकार किया गया है। इसमें उन सभी संस्थानों को रखा गया है जो भारत को विकसित बना सके।
उपरोक्त तथ्यों के अलावा राजनीतिक जनभागीदारी तथा महिला सशक्तिकरण को अधिक महत्व दिया गया है। पंचायती राज का विकास तथा ग्राम विकास की कोशिश ने भारत को विकास के मार्ग पर बढ़ाया है। जनभागीदारी भारत की विशालता तथा विविधता को सारगर्भित रूप प्रदान करती है। यह सही है कि अभी भी गरीबी, साक्षरता तथा चिकित्सा सुविधाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है परंतु पिछले 70 सालों ने देश को एक नयी दिशा प्रदान की है।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here