सूफी एवं भक्ति आन्दोलन
> सूफी सम्प्रदाय (The Sufism)
> परिचय
सल्तनतकाल में धर्म क्षेत्र में सबसे प्रमुख घटना ‘सूफीवाद’ या ‘सूफी सम्प्रदाय' का उदय थी. 'सूफी' शब्द की उत्पत्ति अत्यन्त विवाद का विषय है. प्रारम्भ में 'सूफी' उन लोगों को कहा जाता था जो ऊनी ( सफ) वस्त्र पहनते थे. बाद में शुद्ध आचरण (सफा) करने वालों को सूफी कहा गया. कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार सूफी अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'चटाई'. अतः सूफी उन लोगों को कहा गया जो चटाई पर बैठकर ईश्वर की उपासना किया करते थे. एक अन्य विचारधारा के अनुसार, मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई गई मस्जिद के बाहर 'सफा', जो मक्का में एक पहाड़ी थी, जिस पर लोगों ने शरणं ली और ईश्वर की आराधना में मगन रहे. उन्हें सूफी कहा गया. सूफीवाद का विकास ईरान में 10वीं सदी में हुआ और 13-14वीं सदी में भारत में इसका इस्लाम के साथ-साथ व्यापक रूप से प्रचलन हो गया था.
> सूफी दर्शन की व्याख्या (Philosophy or Theory of Sufism)
सूफीवाद दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित था, जिसे हम इस्लाम का रहस्यवाद कह सकते हैं. ये लोग इस्लाम के कट्टरवाद तथा कर्मकाण्डों के विरोधी थे, लेकिन फिर भी इसके मूल में मुहम्मद साहब के ही विचार थे, सूफियों का मानना था कि ईश्वर एक है और सभी कुछ ईश्वर में है तथा उसके बाहर कुछ भी नहीं. सभी कुछ त्यागकर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है और प्रत्येक सूफी का उद्देश्य अपनी आत्मा का परमेश्वर में विलीनीकरण करना है. इसके लिए सूफी दर्शन में पाँच सोपान माने गये हैं—
1. ईश्वर की आराधना जो उसकी आज्ञानुसार हो.
2. भक्ति अर्थात् ईश्वर के प्रति आत्मा का समर्पण.
3. एकान्त में ईश्वर का ध्यान.
4. ज्ञान अथवा ईश्वर के गुणादि का दार्शनिक विचार.
5. भावोद्रेक अर्थात् ईश्वरीय शक्ति और प्रेम के पूर्ण ज्ञान के प्राप्त हो जाने पर शरीर का भान न रह जाना.
सूफियों का यह विश्वास था कि ईश्वर अपने समस्त पुत्रों को उससे मिल जाने की क्षमता दी है तथा यह क्षमता मानव शरीर के अन्दर छिपी हुई है. इस क्षमता को एक पथप्रदर्शक, जो ईश्वरीय स्पर्श एवं ज्योति के द्वारा प्रबुद्ध हो गया हो और जिसमें ईश्वरीय रहस्यों को लोगों के सन्मुख प्रकट करने की योग्यता हो, की सहायता से विकसित किया जा सकता है.
सूफी सन्तों ने ईश्वर से मिलने के लिए निम्नलिखित चरणों को बताया
(i) नासूत – इस अवस्था में इस्लाम के नियम पथप्रदर्शक रहते हैं.
(ii) मलाकूत – इस अवस्था में मनुष्य फरिश्ता का रूप धारण कर लेता है तथा पवित्र हो जाता है.
(iii) जबारूत – इस अवस्था में मनुष्य में ईश्वरीय शक्तियों का अवतरण होता है.
(iv) लाहत – इस अवस्था में मनुष्य को पूर्ण सत्य का ज्ञान हो जाता है तथा अन्त में वह देवत्व में मिल जाता है.
इन चारों अवस्थाओं को पार करने के लिए ‘शिष्य’ या ‘मुरीद' को 'धिक्र' की अवस्था से गुजरना पड़ता है. धिक्र एक ऐसा कर्मकाण्ड है, जिसमें मुरीद को अपनी प्रत्येक श्वास के साथ अल्लाह के नाम को स्मरण करना पड़ता है और हमेशा करते रहने से कभी-कभी वह संज्ञाहीन होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है और उसे 'आहक' अर्थात् ईश्वर का दर्शन या मिलन हो जाता है.
सूफियों के लिए सभी धर्म समान थे तथा गृहस्थ लोग भी इस मार्ग पर चल सकते थे. इसी कारण यह भारत में अधिक लोकप्रिय हो सका.
सूफी सन्तों का मूल निवास स्थान 'खानकाह' कहलाता था, जहाँ साधारणजन और मौलवी लोग दोनों ही इसके सदस्य होते थे. खानकाह प्रायः प्रवर्तक की कब्र पर बनवाये जाते थे; जैसे—निजामुद्दीन औलिया की (खानकाही ) दिल्ली.
भारतवर्ष के सूफियों में धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवादिता का अभाव था तथा उन्होंने अपने मत में भारतीय कर्मकाण्डों एवं सिद्धान्तों को अपने मत में सम्मिलित किया. वे सादगी, प्रेम, दयालुता के साथ आडम्बर रहित होकर अपने मत का प्रचार करते थे.
> प्रमुख सूफी सन्त : परिचय एवं शिक्षाएँ
(1) ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती – सूफी सन्तों में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का नाम विशेष प्रसिद्ध है. ये मध्य एशिया के निवासी थे. इनका ध्यान ईश्वर की ओर बाल्यकाल से ही आकृष्ट हो गया था. इन्होंने मध्य एशिया के पवित्र स्थानों का भ्रमण किया था तथा अपनी प्रतिभा के बल पर ये चिश्ती सम्प्रदाय के अध्यक्ष बन गये. 1160 ई. में आप भारत आये तथा 1166 ई. से स्थायी रूप से अजमेर में बस गये.
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का मुख्य सिद्धान्त और उपदेश यह था कि संसार के समस्त धर्मों का मूल स्रोत एक है, भगवान् एक है और विभिन्न धर्म उसकी प्राप्ति के केवल साधन मात्र हैं. 1236 ई. में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की मृत्यु हो गई. उनके नाम पर अजमेर में एक दरगाह है, जहाँ प्रतिवर्ष लाखों हिन्दू एवं मुसलमान आते हैं. यही कारण है कि यहाँ अजमेर में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती उर्स लगता है.
(2) ख्वाजा कुतुबुद्दीन – इस सूफी सन्त ने मध्य एशिया से भारत आकर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को अपना गुरु बनाया. दिल्ली का सुल्तान इल्तुतमिश इनका बहुत आदर करता था और इनकी दैवी शक्ति में विश्वास करता था. 1235 ई. में इनकी मृत्यु हो गई. इन्होंने सदा यही उपदेश दिया था कि ईश्वर के लिए संयम की बहुत अधिक आवश्यकता है. मनुष्य को थोड़ा खाना, थोड़ा सोना, थोड़ा बोलना और सांसारिक धन्धों में थोड़ा फँसना चाहिए. जो व्यक्ति इन चार सिद्धान्तों को अपना लेगा, वह ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग पर चलने के योग्य बन सकेगा.
(3) शेख निजामुद्दीन औलिया — शेख निजामुद्दीन औलिया ग्यासुद्दीन और उसके पुत्र मुहम्मद तुगलक के समकालीन थे. इनके उपदेशों का जनता पर बहुत अधिक प्रभाव था. मुहम्मद बिन तुगलक पर इनकी विशेष कृपा थी. औलिया हिन्दू-मुसलमानों में किसी प्रकार का भेद नहीं करते थे. इनका निवास स्थान दिल्ली में था और यहीं इनकी मृत्यु हुई.
(4) बाबा फरीद — इनका जन्म काबुल के शाही घराने में हुआ था, परन्तु किसी कारणवश बाबा को काबुल छोड़कर मुल्तान में निवास करना पड़ा. सामाजिक दुःखों का अनुभव करके आपने संन्यास ले लिया तथा इसके साथ ही इन्होंने भ्रमण करना आरम्भ कर दिया. इन्होंने अपने उपदेशों में मानव प्रेम की शिक्षा दी है, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों बड़े प्रभावित हुए. इस प्रकार इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए बड़ा कार्य किया. इनकी मृत्यु 1265 ई. में हुई.
(5) शेख नूरुद्दीन – सन् 1375 ई. में जन्मे कश्मीर के इस प्रसिद्ध सूफी सन्त को बचपन से ही सांसारिक धन्धों में कोई रुचि न थी. अतः युवावस्था में घरबार छोड़कर ईश्वर की खोज में लग गये. अपने सरल, उच्च और पवित्र जीवन तथा आचरण के कारण वे जनता में लोकप्रिय हो गये. उनकी शिक्षाओं का सार यही है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए मनुष्य को अहंकार को त्याग देना चाहिए. लगभग 63 वर्ष की आयु में इस संत का देहान्त हो गया. उनकी समाधि उनके भक्तों के लिए कश्मीर में आज भी एक तीर्थस्थान के रूप में प्रसिद्ध है.
(6) महात्मा गैसूदराज — इनका जन्म 1321 ई में हुआ. इनका वास्तविक नाम ख्वाजा बन्देनवाजं था. जब गैसूदराज का ध्यान ईश्वर प्रेम की ओर आकर्षित हुआ तो वे दक्षिण में चले गये फिर उन्होंने उत्तरी तथा दक्षिणी भारत की मजारों का दौरा किया. अन्त में ये गुलबर्गा में रहने लगे जहाँ उनका देहान्त 1442 ई. में हो गया. इन्होंने 105 पुस्तकों की रचना की. इन्होंने भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किये.
> सूफी आन्दोलन / सम्प्रदाय का प्रभाव
मध्यकाल में हिन्दू धर्म में जिस प्रकार का महत्त्व भक्ति आन्दोलन का है ठीक उसी प्रकार इस्लाम में सूफी सम्प्रदाय का है. सूफियों ने इस्लाम को गतिशील एवं उदार बनाकर हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित किया.
जनसाधारण से सम्पर्क रखने, उनके कष्टों को समझने एवं दूर करने की प्रवृत्ति से सूफी सन्त हिन्दुओं और मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय बन गये. उन्होंने अपने विचारों एवं आचरण से समाज के अन्दर व्याप्त अनेक बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया. इन लोगों ने साहित्य, भाषा, दर्शन, और नृत्य संगीत के विकास को भी प्रभावित किया. प्रो. गिब ने लिखा है कि "सूफीवाद ने अपनी ओर उन तत्वों को आकृष्ट किया जो सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्ति के वाहक के रूप में उभरकर सामने आये. तुर्की आधिपत्य के काल में जब देश का जन-जीवन घुटन अनुभव कर रहा था, तब सूफी खानकाह ने सामाजिक संदेश फैलाने एवं सुधारवादी राजनीति का उन्माद पैदा करने का काम किया."
धार्मिक उदारता की भावना को बढ़ाने में सूफियों ने अपना उल्लेखनीय योगदान दिया था, इससे हिन्दू परम्परा के अनेक रीति-रिवाजों को इस्लाम में स्थान मिला. हिन्दू धर्म और दर्शन भी सूफीवाद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. इसने सामाजिक मेल-मिलाप को बढ़ावा दिया.
अधिकतर सूफी सन्तों में अपने को शासक वर्ग से पृथक् रखते हुए, आम जनता से सहानुभूति रखते थे. इन सन्तों ने आम लोगों के बीच समानता एवं बन्धुत्व का प्रसार किया और इसी नीति को आगे चलकर उदार शासकों द्वारा अपनाया गया.
सूफी सन्तों ने समाज सुधार के अनेक कार्य किये, इन्होंने जमाखोरी, कालाबाजारी, शराब-खोरी, वेश्यावृत्ति, दास प्रथा आदि की कड़ी आलोचना की तथा लोगों को इनसे दूर रहने की सलाह दी.
सूफी सन्तों ने अरबी, फारसी व हिन्दी भाषा के सम्मि श्रण से एक नई पर्क भाषा उर्दू का विकास किया और उर्दू में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की. इसके अलावा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी इन्होंने अपने साहित्य की रचना की, जैसे – पंजाबी, अवधी, ब्रजभाषा आदि.
सूफी सन्तों के प्रभाव से गीत-संगीत के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. उनके खानकाहों में नियमित से गीत, संगीत की संध्या का आयोजन होता था. इनके माध्यम से ईरान की राग-रागनियाँ भारत आयीं और भारतीय संगीत पर उनका प्रभाव पड़ा, सूफियों के द्वारा ही कव्वाली गायन की परम्परा का विकास हुआ.
भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार में सूफी सन्तों की उल्लेखनीय भूमिका रही. इन्होंने इस्लाम को एक नया रूप दिया जिसमें उनकी कट्टरता का नामोनिशान तक नहीं था. इससे उसे एक व्यापक आधार प्राप्त हुआ.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सूफी सन्तों ने धार्मिक उदारता के साथ-साथ साहित्य एवं बन्धुत्व की भावना का विकास करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.
> भक्ति आन्दोलन (The Bhakti Movement)
सल्तनतकाल में भारत के सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता है— 'भक्ति आन्दोलन का उदय'. इस काल में अनेक ऐसे सन्त एवं सूफी हुए जिन्होंने ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति और आडम्बरविहीन धर्म का प्रचार किया. इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता प्रयास किए तथा सामाजिक-धार्मिक तनाव को कम करने की चेष्टा की.
भारत में भक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख 'गीता' में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया और उसके बाद दक्षिण में 7वीं सदी से 13वीं सदी तक भक्ति का प्रचार अलवार व नयनार सन्तों ने किया. वास्तव में यहीं से भारत में भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ. इसके बाद रामानुजाचार्य द्वारा उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया जो 13वीं सदी से 16वीं सदी तक विकसित होता रहा. इसका मुख्य सम्बन्ध हिन्दू धर्म से था, जिसका स्वरूप उस समय इस्लाम द्वारा हिन्दू धर्म के समाप्त हो जाने के आसन्न खतरे से उत्तेजित, आन्दोलित और प्रभावित था.
> भक्ति आन्दोलन के उदय के कारण
भक्ति आन्दोलन के उदय के निम्नलिखित कारण थे
1. सल्तनतकाल में हिन्दू अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता खो चुके थे और उनके चारों ओर इस्लाम का शिकंजा कसा जा चुका था और इससे छुटकारा पाने का उन्हें कोई स्पष्ट मार्ग नहीं दिखाई दे रहा था. अतः लोगों को इस अन्धकारपूर्ण स्थिति ने ईश्वर की ओर बढ़ने के लिए तेजी से प्रेरित कर दिया.
2. सल्तनतकाल के मुस्लिम आक्रान्ताओं ने हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार किये. उन्होंने हिन्दुओं के मन्दिरों, मूर्तियों एवं तीर्थस्थानों को तोड़ा एवं भ्रष्ट कर दिया. इससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को भारी ठेस पहुँची. अतः हिन्दू जनता ने इस्लाम के आतंक से छायी उदासी को दूर करने के लिए अपने आपको ईश्वर के मार्ग पर डाल दिया.
3. सल्तनतकाल में भारतीय हिन्दू समाज में अत्यधिक जटिलता थी. इनमें ऊँच-नीच की भावना–छुआछूत आदि का व्यापक चलन था साथ ही निम्न वर्गों के साथ ब्राह्मण वर्ग का व्यवहार सतोषजनक नहीं था. इसलिए लोगों ने भक्ति मार्ग को चुना, क्योंकि इसमें इन बुराइयों का कोई स्थान नहीं था.
4. भक्ति मार्ग साधना के ज्ञान एवं कर्म मार्ग की अपेक्षा अधिक सरल होने के कारण लोगों में अधिक लोकप्रिय हो गया.
5. सल्तनतकाल में इस्लामी प्रभुत्व ने हिन्दुओं की उन्नति का मार्ग बन्द कर दिया. फलतः लोगों ने एक नये मार्ग की खोज में भगवत भजन और आत्मचिन्तन का मार्ग ढूँढ़ लिया और इस प्रकार भारी संख्या में हिन्दू इस मार्ग पर चल पड़े.
6. इस्लाम का प्रभाव – - इतिहासकारों का मानना है कि भक्ति आन्दोलन इस्लाम की सहजता एवं रचनात्मकता से अधिक प्रभावित हुआ. उसके एकेश्वरवादी स्वरूप, समानता एवं बन्धुत्व की भावना से हिन्दू धर्म सुधारक भी प्रभावित हुए और उन लोगों ने भी बाह्य आडम्बरों; जैसे – मन्दिर, मूर्ति पूजा एवं यज्ञ आदि को त्यागकर ईश्वर की भक्ति पर बल दिया.
> भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सिद्धान्त (Main Theories of Bhakti Movement)
भक्ति मार्ग के प्रमुख प्रणेताओं के उपदेशों एवं विचारों में पूर्ण समानता देखने को नहीं मिलती, फिर भी उनकी शिक्षाओं के मौलिक सिद्धान्त बहुत कुछ मिलते-जुलते थे. इस आन्दोलन के कुछ प्रमुख सिद्धान्त अग्रलिखित हैं -
1. भक्ति मार्ग के अनुयायियों का विश्वास था कि ईश्वर एक है जिसे लोग राम, रहीम या अल्लाह आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं. नानक, कबीर आदि सन्तों ने यही उपदेश दिया कि हिन्दुओं के ईश्वर और मुसलमानों के ख़ुदा को अलग-अलग विभाजित करना मूर्खता है, वे दोनों एक ही हैं.
2. भक्तिकाल के सन्तों ने ईश्वर की एकता के साथ-साथ उसकी भक्ति करने को कहा. उन्होंने लोगों में यह विश्वास उत्पन्न करने का प्रयास किया कि मोक्ष प्राप्ति के लिए उन्हें ईश्वर की भक्ति में लग जाना चाहिए.
3. इन सन्तों ने समर्पण का सिद्धान्त सामने रखा तथा भक्ति मार्ग के सभी सन्तों ने बताया कि ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने आपको उसके चरणों में पूर्ण रूप से समर्पित कर देना चाहिए अर्थात् मनुष्य को अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर विजय प्राप्त कर ईश्वर की भक्ति में रम जाना चाहिए.
4. भक्ति मार्ग के सन्तों ने गुरु की महिमा का बखान किया तथा यह कहा कि गुरु के बिना ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि गुरु ही ऐसा माध्यम है जो मनुष्य की सोई हुई आत्मा को जगा सकता है.
5. भक्ति मार्ग के सन्तों ने सभी प्रकार के भेदभावों को भुलाकर प्राणी मात्र की एकता पर बल दिया और कहा कि भेदभाव, जाति-पाँति की भावना ईश्वर भक्ति के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है.
6. इन सन्तों ने शुभ कर्म और पवित्र आचरण पर बहुत अधिक जोर दिया और कहा कि तीर्थयात्राओं और कोरी प्रार्थनाओं से मनुष्य महान् नहीं बनता. यदि ईश्वर को प्राप्त करना है तो अपने कर्म, मन, वचन की पवित्रता श्यक है.
7. इस काल के आन्दोलन के नेताओं में कुछ ने सगुण ईश्वर भक्ति तथा कुछ सन्तों ने निर्गुण भक्ति पर बल दिया.
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भक्ति मार्ग के सन्तों में विचारों में भिन्नता होते हुए भी सभी के मौलिक उपदेश एक ही थे.
> भक्ति आन्दोलन की शाखाएँ (Branches of Bhakti Movement)
भक्ति आन्दोलन की दो प्रमुख शाखाएँ थीं – (1) निर्गुण व (2) सगुण.
(1) निर्गुण – इस सर्वोच्चता में विश्वास शाखा के सन्त निराकार ईश्वर की करते थे. ये लोग हिन्दू धर्म ग्रन्थ 'उपनिषद्' से अधिक प्रभावित थे तथा इन्होंने बाह्य साधना पर अधिक बल दिया. निर्गुण सन्त अपने विचारों में अधिक प्रगतिशील थे तथा इन्होंने ईश्वर की एकता के आधार पर हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता व समानता स्थापित करने का प्रयास किया. इस निर्गुण परम्परा का उदय ब्राह्मणों की जातिगत एवं कर्मकाण्डी आधिपत्य तथा ज्ञानमार्गियों की शुष्क एवं नीरस तार्किकता के विरुद्ध 'विद्रोह की भावना' से हुआ. निर्गुण विचारधारा वाले सन्तों का आम जनता में व्यापक असर हुआ. निर्गुण सन्तों में कबीर, नानक एवं रैदास के नाम उल्लेखनीय हैं.
(2) सगुण – इस शाखा के अनुयायी ईश्वर के साकार रूप की आराधना करते थे तथा ईश्वर को राम या कृष्ण के नाम से पुकारते थे. सगुण सन्त अवतारवाद से प्रेरित थे तथा से भगवान् विष्णु के 10 अवतारों में विश्वास करते थे. इन्होंने ब्रह्म साधना; जैसे – मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन उपासना आदि पर बल दिया. इस सम्प्रदाय के प्रमुख सन्त रामानुज, चैतन्य, माधवाचार्य, मीरा आदि थे.
> भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त
भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त निम्नलिखित हैं
> रामानुज
इनका जन्म दक्षिण में चेन्नई के पास तिरुपति में 12वीं सदी के प्रारम्भ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. ये भक्ति आन्दोलन के प्रारम्भिक सन्त थे तथा दक्षिण भारत से उत्तर भारत में आकर इन्होंने भक्ति का प्रचार-प्रसार किया.
रामानुज सगुण भक्ति के उपासक थे तथा ईश्वर के समक्ष सभी को समान मानते थे. इन्होंने आचरण की शुद्धता पर अत्यधिक बल दिया. रामानुज ने सगुण वैष्णव के नाम उन्होंने कहा कि आत्मा पर एकेश्वरवाद का उपदेश दिया था. और परमात्मा परस्पर भिन्न हैं. यद्यपि आत्मा का उदय परमात्मा से ही होता है. इनका कहना था कि ईश्वर के समक्ष सब कुछ समर्पित कर देने से व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी बन जाता है, चाहे वह शूद्र ही क्यों न हो. उनका यह संदेश सामाजिक असमानता के उस युग में बहुत बड़ा महत्व रखता है. इसमें लाखों शूद्रों ने उनके द्वारा बताए मार्ग को अपनाया.
> रामानन्द
रामानन्द का जन्म प्रयाग में एक ब्राह्मण परिवार में 14वीं सदी में हुआ था तथा उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन को आगे इन्होंने ही बढ़ाया. रामानन्द राम और सीता की उपासना पर बल देते थे और लोगों को नैतिक और सामाजिक मर्यादा का आदर्श राम और सीता को बताते थे.
रामानन्द ने अपने उपदेशों का प्रचार हिन्दी भाषा में किया जिससे उनके उपदेशों को सेर्वसाधारण ने बड़ी आसानी से समझकर स्वीकारा. इससे हिन्दी साहित्य के विकास को भी प्रोत्साहन मिला.
रामानन्द ने जाति प्रथा का जोरदार खण्डन किया. सभी वर्गों तथा जातियों को अपना शिष्य बनाया. इनके शिष्यों में नाई, मोची और मुसलमान भी थे. इन्होंने ईश्वर के समक्ष सबको समान मानते हुए कहा कि “जाति-पाँति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई. '
रामानन्द ने स्त्रियों की दशा पर भी दुःख व्यक्त किया तथा अपने शिष्यों को नारी जाति का जीवन स्तर उठाने के लिए प्रेरित किया.
रामानन्द ने दोहरे व्यक्तित्व को प्रश्रय दिया था. एक ओर वे वर्णाश्रम धर्म के बन्धन को स्वीकार करते थे वहीं वे दूसरी ओर साधु-सन्तों के प्रति चाहे वे किसी भी जाति-धर्म के हों, समानता का भाव रखते थे. इसी कारण उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्य दो वर्गों में विभाजित हो गये. प्रथम वर्ग में वे थे जो वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक थे, जैसेतुलसीदास एवं नाभादास, जबकि दूसरा वर्ग जो वर्णव्यवस्था एवं वेद आदि को नहीं मानता था इनमें कबीर का नाम उल्लेखनीय है.
> मधवाचार्य
मधवाचार्य 12वीं सदी के सन्त थे तथा भागवत् दर्शन से विशेष लगाव रखते थे. इन्होंने कहा कि दुःख और सुख चक्रानुसार जीवन में आते रहते हैं. अतः इनका अनुभव सभी के लिए आवश्यक है. व्यक्ति को चाहिए कि चाहे वह सुख में हो या दुःख में उसे ईश्वर को सदैव याद करते रहना चाहिए और निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए तथा उसी को स्मरण करते हुए अपने समस्त कर्म अर्पित कर देने चाहिए.
> वल्लभाचार्य
वल्लभाचार्य 15वीं सदी के कृष्णमार्गी शाखा के एक प्रमुख सन्त थे. इन्होंने शारीरिक यातना, वैराग्य और संसार त्याग का उपदेश दिया और परमात्मा के साथ अपनी आत्मा और विश्व के एकीकरण पर बल दिया और मानव जीवन का उद्देश्य ज्ञान और भक्ति के द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर मोक्ष पाना है.
> चैतन्य महाप्रभु : टिप्पणी
में चैतन्य महाप्रभु का जन्म बंगाल में 1485 ई में बंगाल महान् इनका एक अन्य नाम 'गौरांग थ था जो इनके गौर वर्ण होने के 1485 में ." ये भक्ति आन्दोलन के . हुआ था. कारण पड़ा था.
चैतन्य ने जाति-पाँति के बन्धनों को ठुकराते हुए यह उपदेश दिया कि भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला है, भक्ति के मार्ग में ऊँच-नीच और भेदभाव का कोई स्थान नहीं. इन्हीं के प्रभाव के कारण आज भी जगन्नाथपुरी में सभी धर्मों के लोग एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं.
चैतन्य ने भक्ति को सरल, आडम्बर रहित तथा प्रेम भाव से परिपूर्ण किया. उन्होंने कृष्ण भक्ति का उपदेश दिया तथा कहा कि कृष्ण की भक्ति ही भक्ति है और यह भक्ति ज्ञान, कर्म, वैराग्य और अभिलाषा से शून्य होनी चाहिए.
चैतन्य ने गुरु को अत्यधिक महत्व दिया और लोगों को बताया कि के मार्गदर्शन और कृपा से ईश्वर को कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है. इसके बावजूद भी उन्होंने नये सम्प्रदाय की स्थापना अपने जीवन में नहीं की.
चैतन्य के विचार सरल और हृदयग्राही होने के कारण जनता में शीघ्रता से लोकप्रिय हो गये. उनके प्रयास यह थे कि हिन्दू जनता रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों से मुक्त हो तथा जाति-पाँति के बन्धन समाप्त हों और जीवन में समानता एवं समरसता का संचार हो.
> कबीर
कबीर के जन्म के विषय में विवाद है. कहा जाता है कि 1440 ई. में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए, जिसने लज्जावश इन्हें बनारस के एक तालाब के पास डाल दिया, जिसे नीरू नामक जुलाहे ने घर ले जाकर लालन-पालन किया. बड़े होने पर कबीर रामानन्द के शिष्य हो गये.
कबीर भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्तों में से एक थे तथा इन्होंने राम और रहीम को एक बताते हुए हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए उल्लेखनीय प्रयास किये. इन्होंने बड़ी ही कड़ी वाणी में हिन्दू और मुसलमानों के बाह्य आडम्बरों पर प्रहार किया. इन्होंने प्रेम का उपदेश दिया, जिसका उद्देश्य सभी सम्प्रदायों में एकता का विकास करना था.
सन्त कबीर ने मूर्ति पूजा और कर्मकाण्ड का घोर विरोध किया तथा जाति प्रथा को व्यर्थ बताया. इन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि ईश्वर के सामने छोटे-बड़े, ऊँचे-नीचे, हिन्दू-मुसलमान आदि सभी एकसमान हैं तथा विभिन्न धर्मों का मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाता है. कबीर अगाध भक्ति और ईश्वर के भजन को ही मोक्ष का साधन मानते थे. इन्होंने ब्रह्म के निराकार स्वरूप में अपना विश्वास प्रकट किया तथा एकेश्वरवाद पर जोर दिया.
कबीर अपने समय के महान् क्रान्तिकारी सन्त थे, जिन्हें हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रूप से मानते थे. इसी कारण उनकी मृत्यु के समय मुसलमानों ने उनके शव को दफनाना चाहा तथा हिन्दुओं ने जलाना, लेकिन उनका शव विलीन हो गया और कफन के नीचे थोड़े से फूल शेष रह गये, जिसे दोनों ने आपस में बाँटकर अपने-अपने धर्मों के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार किया.
कबीर के बाद नानक, दादूदयाल, रज्जब, रैदास, धन्ना आदि ने उनकी परम्परा को और आगे बढ़ाया.
> दादूदयाल
भक्ति आन्दोलन के सन्तों में दादूदयाल का नाम अग्रणी है. इन्होंने भी अन्य सन्तों की भाँति मूर्ति-पूजा, जाति-बन्धन तीर्थ, व्रत, अवतार आदि के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की. विभिन्न विरोधी सम्प्रदायों को भ्रातृत्व और प्रेम में बाँधकर एक करने का इन्होंने महती प्रयास किया और 'दादू पंथ' नामक एक नवीन सम्प्रदाय चलाया. इन्होंने धार्मिक ग्रन्थों की प्रभुता और प्रामाणिकता की अपेक्षा ईश्वर के साक्षात्कार पर अधिक बल दिया. इसलिए दादू ने सन्देश दिया कि मनुष्य को पूर्णतया अपने आपको ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिए.
> भक्ति आन्दोलन का प्रभाव (Impact of Bhakti Movement)
भक्ति आन्दोलन एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन था. जिसने जनसाधारण को अत्यधिक प्रभावित किया. भक्ति आन्दोलन के सन्तों एवं सुधारकों ने भारत में चेतना की एक नई लहर पैदा कर दी और सम्पूर्ण देश में एक नये वातावरण का सृजन हुआ.
जब भारत में भक्ति आन्दोलन चला, उस समय भारत की जनता अपने राजनीतिक अधिकार खोकर मुस्लिम आक्रमणकारियों से भयाक्रान्त थी. उनके द्वारा यहाँ की जनता का मान-सम्मान लूटा जा रहा था, ऐसे में भक्ति आन्दोलन ने जनता को सहारा दिया.
भक्ति आन्दोलन ने देश में एकता को बढ़ावा दिया क्योंकि इस आन्दोलन से सद्भावना की एक ऐसी लहर उठी जो सम्पूर्ण देश में छा गई. नानक और कबीर जैसे सन्तों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सराहनीय प्रयास किये.
भक्ति आन्दोलन से निम्न जातियों के उत्थान का मार्ग खुला, क्योंकि इसके सन्तों ने सभी जातियों एवं धर्मों के लोगों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया तथा ईश्वर के समक्ष सभी प्राणियों को समान बताकर प्राणी मात्र की समानता पर बल दिया.
भक्ति आन्दोलन के कारण मूर्ति पूजा, अन्धविश्वास, बाल हत्या, सती प्रथा, दासता, धार्मिक कर्मकाण्ड आदि का प्रमुखता से खण्डन हुआ जिससे समाज को एक नया बल मिला.
भक्ति आन्दोलन के प्रभाव के कारण ही मराठा और सिख जैसी सैनिक जातियों का उदय हुआ, जिन्होंने मुगलों का सामना किया. इसी भक्ति आन्दोलन के सन्तों का सहारा पाकर विजयनगर जैसे हिन्दू साम्राज्य का उदय हुआ.
भक्ति आन्दोलन ने क्षेत्रीय भाषा और साहित्य को समृद्ध किया बंगला, गुजराती, मराठी, हिन्दी, राजस्थानी, आदि क्षेत्रीय भाषाओं में खूब साहित्य का सृजन हुआ.
भक्ति आन्दोलन का सर्वाधिक उल्लेखनीय योगदान हिन्दू जाति को मध्यकाल में हताशा से बाहर निकालने का है.. इसने सामाजिक कुरीतियों का नाश कर, समाज को संगठित और दृढ़ बनाया. इस प्रकार कहा जा सकता है कि भक्ति आन्दोलन ने तुर्की आधिपत्य के काल में उत्तरी भारत की घायल हिन्दू जनता के हृदय पर मरहम लगाने का कार्य किया.
> सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक
पंजाब के तलबण्डी (वर्तमान ननकाना ) ग्राम में सन् 1469 ई में खत्री परिवार में गुरु नानक का जन्म हुआ था. इन्होंने उपनिषद् के विशुद्ध एकेश्वरवाद के सिद्धान्त को पुनः जाग्रत करने का प्रयास किया. कबीर के समान ही इन्होंने मूर्ति पूजा, बहुदेववाद का विरोध किया तथा हिन्दू और मुसलमानों के कर्मकाण्डों का प्रतिरोध किया. वास्तव में गुरु नानक एक समन्वयकारी सन्त थे जिनका उद्देश्य विभिन्न धर्मों के आपसी संघर्ष का अन्त करना था.
नानक कबीर की तरह ही जाति -प्रथा के विरोधी थे. उनका कहना था कि ईश्वर का प्रकाश सभी व्यक्तियों में है और उसके यहाँ कोई जाति भेद नहीं है.
नानक ने ईमानदारी, विश्वासपात्रता, सत्यनिष्ठा, दान, दया, मद्यनिषेध आदि श्रेष्ठ आदर्शों का पालन करके जीवन को उच्च बनाने पर बल दिया. उन्होंने 'मरदाना' नामक एक शिष्य को साथ लेकर मक्का एवं मदीना के अलावा कुछ अन्य मुस्लिम देशों का भ्रमण किया और अपने अनेक अनुयायी बनाये. ईश्वर की सर्वव्यापकता का उपदेश इन्होंने दिया और ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण की भावना को इन्होंने मोक्ष का साधन बताया. नानक ने कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों को स्वीकार किया.
नानक के शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे और ये अनुयायी बाद में 'सिख' कहलाये और उन्होंने नानक के सिद्धान्तों को गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित किया.
> गुरु नानक के उत्तराधिकारी :
> सिखों का उत्थान एक सैनिक शक्ति के रूप में कैसे ?
नानक के बाद अंगद, अमरदास और रामदास का जीवन साधुओं की तरह ही था. यद्यपि ये सभी लोग गृहस्थ थे और सांसारिक ऐश्वर्य की ओर ध्यान न देकर अपनी आत्म उन्नति की साधना में लीन रहे, लेकिन रामदास के समय तक इनके पास धन आने लगा था. रामदास को मुगल सम्राट् अकबर ने 500 बीघा जमीन दान की जिस पर इन्होंने अमृतसर नामक एक तालाब और मन्दिर का निर्माण करवाया. यही मन्दिर आगे चलकर स्वर्ण मन्दिर कहलाने लगा. रामदास ने अपने पुत्र अर्जुनदेव को अपना उत्तराधिकारी बनाकर सिखों के गुरु पद को वंशानुगत बना दिया.
गुरु अर्जुनदेव अपने व्यक्तित्व और धार्मिकता के कारण बहुत प्रसिद्ध हो गये और उनके अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक हो गई. अपने शिष्यों को गुरु ने सही रास्ते पर चलने के लिए एक ग्रन्थ 'आदिग्रन्थ' तैयार किया जिसमें उन्होंने सभी गुरुओं तथा कुछ अन्य महात्माओं की वाणियाँ संकलित कीं और इसी ग्रन्थ में उन्होंने अपनी स्वयं की रचनाएँ भी सम्मिलित कीं.
गुरु अर्जुन ने साधुता का वेश त्याग दिया तथा राजसी वस्त्र धारण करने लगे तथा उन्होंने अपने अनुयायी सिखों से एक प्रकार का धार्मिक कर वसूलना प्रारम्भ कर दिया, उन्होंने व्यापार द्वारा भी बहुत-सा धन एकत्र कर लिया. 1606 ई. में खुसरो ने जब विद्रोह किया तब अर्जुनदेव ने उसकी सहायता की. इस पर मुगल सम्राट् जहाँगीर ने रुष्ट होकर उनकी हत्या करवा दी. इससे सिखों और मुगलों में वैमनस्य उत्पन्न हो गया और सिख अब बदला लेने के लिए संगठित होने लगे.
गुरु अर्जुनदेव के बाद सिखों ने उनके पुत्र हरगोविन्द को अपना गुरु चुना. इनकी प्रकृति राजसी भाव की थी. अतः इन्होंने सिखों को सैनिक शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया. इनका भी मुगलों से छुट-पुट संघर्ष चलता रहा, लेकिन अन्त में लेनी की
हरगोविन्द ने अपने पुत्र हर राय को अपना उत्तरा- थे. धिकारी बनाया, जो कि एक शान्त स्वभाव के व्यक्ति इनकी मृत्यु के बाद इनका भाई हरकिशन गुरु स्वीकार कर लिया गया, लेकिन इनकी शीघ्र ही मृत्यु हो जाने पर तेग बहादुर को इनकी गद्दी का वारिस माना गया.
गुरु तेग बहादुर (1664-76 ई.) ने अपने को 'सच्चा पादशाह' की उपाधि से विभूषित किया और शाही अन्दाज में जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया. इस पर मुगल सम्राट् ने उन्हें बन्दी बना लिया और इस्लाम धर्म स्वीकार न करने के कारण उनकी हत्या करवा दी. इससे सिखों में स्वाभावतः अत्यन्त रोष उत्पन्न हो गया और इस रोष को मुगलों के गोविन्दसिंह ने अपना विरुद्ध अगले 10वें और अन्तिम नेतृत्व प्रदान किया.
> गुरु गोविन्दसिंह (1676-1708 ई.)
गुरु तेगबहादुर की मृत्यु के बाद बाद उनके एकमात्र पुत्र गोविन्दसिंह को सिखों ने अपना गुरु माना और मुगल सम्राट् के भय से कि कहीं वह इनकी भी हत्या न करवा दे, छिपा दिया. गुरु गोविन्दसिंह ने इस अवधि का उपयोग तैयारी में किया और फारसी, संस्कृत भाषा के अध्ययन के साथ-साथ देवी दुर्गा की उपासना की और सिखों के पुनर्गठन की रूपरेखा तैयार की तथा उन्होंने सिखों के लिए कुछ नियम बनाये, जो इस प्रकार हैं
1. पाँच 'क' कार को धारण करना अर्थात् केश, कंघा,. कच्छा, कृपाण और कड़ा.
2. जाति-पाँति के भेद को भुलाकर आपस में सबके साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने को उद्यत रहना.
3. हिन्दू-मुसलमानों के संस्कारों को न मानकर केवल गुरु के आदेश को मानना.
4. अपने नाम के अन्त में 'सिंह' शब्द जोड़ना और धर्म की रक्षा में 'सिंहवत' निर्भीक रहना.
5. तम्बाकू न पीना और केवल झटके वाला मांस खाना.
गुरु गोविन्दसिंह ने अपने सिख अनुयायियों को सैनिक रूप में इसलिए गठित किया कि जब संगठित राजसत्ता द्वारा धर्म के ऊपर अत्याचार किये जा रहे हों, तब उसका मुकाबला करने के लिए संगठित सैनिक शक्ति का होना आवश्यक है और राजनीतिक सत्ता प्राप्ति करने पर ही धर्म की रक्षा सम्भव है. M
इस कार्य हेतु गुरु गोविन्दसिंह ने आनन्दपुर साहब को अपना निवास स्थान बनाया और पहाड़ी क्षेत्र तथा कश्मीर के छोटे-छोटे सामंतों को मुगल सम्राट् के विरुद्ध भड़काना प्रारम्भ कर दिया. उनकी इस आज्ञा को जिसने भी स्वीकार नहीं उन्होंने लिया. राजनीतिक शक्ति में वृद्धि हुई. इससे उनकी सैनिक और
मुगलों ने गुरु गोविन्दसिंह के प्रति विरोध करना प्रारम्भ किया और सम्राट् औरंगजेब ने उन्हें कई जगह शिकस्त दी, लेकिन वह उन्हें अन्तिम रूप से दबा न सका.
नोट— औरंगजेब और सिख सम्बन्ध की विवेचना औरंगजेब और सिख विद्रोह के अन्तर्गत की गई है.
> वैष्णव धर्म की उत्पत्ति तथा विकास को समझाइये ?
भागवत धर्म से ही वैष्णव धर्म का विकास हुआ. इसके प्रवर्तक वृष्णि (सात्वत) वंशी कृष्ण थे. जिन्हें वासुदेव का पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहा जाता है. छान्दोग्य उपनिषद् में उन्हें देवकी पुत्र और अंगिरस ऋषि का शिष्य कहा गया है. कृष्ण के अनुयायी उन्हें पूज्य (भगवत्) कहते थे. इसी कारण उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म को 'भागवत्' कहा गया है, महाभारत काल में कृष्ण का समीकरण विष्णु से किया गया है, जिससे भागवत धर्म 'वैष्णव धर्म' बन गया. विष्णु ऋग्वैदिककालीन देवता हैं तथा वे सूर्य के क्रियाशील रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनका महत्त्व इसलिए है कि उन्होंने तीन पगों में ही सम्पूर्ण त्रिलोक को नाप दिया था. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार वे यज्ञों के प्रतिनिधि हैं. ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें ‘सर्वोच्च देवता' माना गया है. पतंजलि ने भी वासुदेव को विष्णु का रूप बताया है. विष्णु पुराण में वासुदेव विष्णु का एक नाम बताया गया है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन भागवत धर्म ही वैष्णव धर्म बन गया.
वैष्णव धर्म या भागवत धर्म का प्रधान केन्द्र मथुरा था और यह यहीं से धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में फैला. मौर्यकाल में यह धर्म पश्चिम भारत में बहुत अधिक लोकप्रिय था. उसके बाद में यह धीरे-धीरे मध्यदेश में फैला. इस धर्म से सम्बन्धित प्रथम स्मारक हेलियोडोरस का बेसनगर विदिशा का गरुड़ स्तम्भ है. राजस्थान के घोसुण्डी से भी वैष्णव धर्म से सम्बन्धित अति प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं. वैष्णव धर्म ने धीरे-धीरे विकास करते हुए गुप्तकाल आतेआते भारत में अपनी प्रधानता स्थापित कर ली और अब उसकी स्थिति सर्वोच्च हो गई. अधिकांश गुप्त सम्राट् इस धर्म के उपासक थे. गुप्तों के बाद हर्ष के समय में भी इस धर्म की प्रधानता रही, लेकिन इसका और अधिक प्रचार राजपूत काल में हुआ. राजपूतों के अभिलेख विष्णु स्तुति से अक्सर प्रारम्भ होते थे तथा उन्होंने इस काल में अनेक विष्णु मन्दिरों का निर्माण कराकर विष्णु के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की.
उत्तरी भारत के समान ही दक्षिण में 'आलवार' सन्तों ने विष्णु के प्रति भक्ति का प्रचार किया, आलवार सन्तों की संख्या बारह बताई जाती है तथा इनमें से एकमात्र महिला साध्वी 'आण्डाल' है जो दक्षिण की 'मीरा' के नाम से प्रसिद्ध है.
आलवार सन्त सच्चे विष्णु भक्त थे. उन्होंने भजनकीर्तन, नामोच्चारण, मूर्ति दर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया. इनके उपदेशों में धार्मिक जटिलता नहीं थी. इनका कहना था कि मोक्ष के लिए ज्ञान की नहीं अपितु विष्णु की भक्ति की आवश्यकता है. दक्षिण के पल्लव, चालुक्य आदि वंशों के राजाओं ने इन्हीं आलवार सन्तों के प्रभाव में आकर वैष्णव धर्म को अपना राजधर्म बना लिया जबकि चोल शासकों के शासनकाल में शैव धर्म की प्रमुखता रही, परन्तु उनकी सहिष्णुता की नीति के कारण वैष्णव धर्म का भी विकास हुआ. इस काल में आलवार सन्तों के स्थान पर आचार्यों ने वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार किया प्रसिद्ध वैष्णव धर्म आचार्य इसी समय में हुए और उन्होंने इस धर्म का खूब प्रचार दक्षिण में किया.
> वैष्णव धर्म के सिद्धान्त
इस धर्म के अनुसार, ईश्वर की भक्ति द्वारा मोक्ष को होकर भक्त को अपनी शरण में ले लेते हैं. गीता में स्वयं प्राप्त किया जा सकता है. भक्ति से विष्णु भगवान् प्रसन्न भगवान कृष्ण कहते हैं कि “सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूँगा."
इस धर्म में अवतारवाद का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है. इसमें कहा गया है कि समय-समय पर ईश्वर पृथ्वी पर धरती के लोगों का उद्धार करने के लिए अवतार लेते हैं. पुराणों के अनुसार विष्णु के अभी तक 10 अवतार हैं, जिसमें 9 प्रकट हो चुके हैं तथा 10 होना अभी शेष हैं. ये हैं -
(1) मत्स्य, (2) कूर्म, (3) वराह, (4) नृसिंह, (5) वामन, (6) परशुराम, (7) रामावतार, (8) कृष्णावतार, ( 9 ) बुद्ध, (10) कल्कि, अभी होना शेष है.
इस धर्म में मूर्ति-पूजा तथा मन्दिरों आदि का महत्वपूर्ण स्थान है. मूर्ति को प्रत्यक्ष ईश्वर का रूप माना गया है तथा भक्त मन्दिर में जाकर पूजा करते हैं. दशहरा, दीपावली, जन्माष्टमी, आदि इनके प्रमुख पर्व हैं. रामानुज, बल्लभ, चैतन्य आदि दे का नाम इस धर्म के प्रचारकों में विशेष उल्लेखनीय है. बाद में विष्णु के रामावतार का प्रचार अधिक हो गया और मध्यकाल में तुलसी ने ‘रामचरितमानस' को लिखकर देश में राम के करोड़ों की संख्या में भक्त बना दिये. ama F10
> शैव धर्म
भगवान शिव के उपासक 'शैव' कहलाते हैं. इस धर्म की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल से मानी जाती है. सैंधव सभ्यता से ही इस धर्म के अवशेष ‘पशुपति शिव’ के रूप में मिले हैं.
ऋग्वेद में भी शिव के विषय में विवरण है, जिन्हें इसमें रुद्र कहा गया है तथा इसमें कहा गया है कि क्रुद्ध होने पर मानव तथा पशु जाति का संहार करते थे और महामारी फैला देते थे. अतः इस काल में लोग रुद्र की उपासना उनके क्रोध से बचने के लिए करते थे. वस्तुतः रुद्र में विनाशकारी और मंगलकारी दोनों ही प्रकार की शक्तियाँ निहित थीं. शिव पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति उन्हें नहीं मानते हैं वे उनको छिन्न-भिन्न कर डालते हैं तथा उनकी उपसना करने वाले भक्तों के प्रति वे अत्यन्त मंगलकारी हैं, इसलिए उन्हें ‘शिव' कहा गया है. भक्ति द्वारा वे आसानी से प्रसन्न किये जा सकते हैं. वे प्राणियों के रक्षक तथा संसार के स्वामी हैं.
ऋग्वेद के बाद वाजसनेयी में शिव को समस्त लोकों का स्वामी कहा गया है. अथर्ववेद में उन्हें भव, पशुपति, भूपति आदि कहा गया है, उन्हें ब्रह्माण्ड का भी life स्वामी कहा गया है. ब्राह्मण ग्रन्थों में रुद्र की गणना सर्वप्रमुख देवता के रूप में की गई है. उपनिषद्काल में रुद्र की प्रतिष्ठा में और अधिक वृद्धि हुई तथा महाभारत काल में शैव धर्म को व्यापक जनाधार प्राप्त हो गया. शिव की उपासना उत्तर भारत के साथ-साथ इस समय दक्षिण भारत में और यहाँ तक कि श्रीलंका में भी होती थी. महाभारत में कहा गया है कि स्वयं भगवान् कृष्ण और अर्जुन शिव से उनका अस्त्र पाशुपत प्राप्त करने के लिए हिमालय जाकर तपस्या की थी. यूनानी राजदूत मैगस्थनीज भी मौर्यकाल में शिव पूजा का उल्लेख 'डायनोसस' नाम से करता है. अर्थशास्त्र भी शिव पूजा का उल्लेख है.
गुप्तकाल में वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म की भी लोकप्रियता में वृद्धि हुई तथा शिव की आराधना हेतु इस काल में अनेक मन्दिरों का निर्माण किया गया. उदयगिरि का गुहालेख शिव स्तुति से ही प्रारम्भ होता है. कालिदास स्वयं शिव के एक बहुत बड़े भक्त थे.
हर्ष के समय में भी शैव धर्म की उन्नति हुई. बाणभट्ट, एवं ह्वेनसांग इस धर्म का उल्लेख करते हैं. हर्ष का समकालीन शासक शशांक कट्टर शैव था.
राजपूतकाल तक आते-आते धर्म काफी लोकप्रिय हो चुका था. इसी काल में चन्देल शासकों ने खजुराहो का विश्व प्रसिद्ध कन्दरिया महादेव मन्दिर का निर्माण करवाया.
उत्तरी भारत की तरह ही दक्षिण में पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट एवं चोल शासकों ने शैव धर्म को प्रश्रय दिया. राष्ट्रकूट शासकों ने शिव के प्रति शृद्धा प्रकट कर कैलाश नाथ (एलोरा) का विश्व प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया. चोलों के समय शैव धर्म राज धर्म हो गया था तथा उन्होंने शिव के प्रति अपनी श्रद्धा अनेकों, भव्य एवं विशाल मन्दिरों का निर्माण करके प्रकट की. 200
दक्षिण में शैव धर्म का प्रचार 'नयनार' सन्तों ने किया जिनकी संख्या 63 बताई गई है.
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में शिव आराधना कि तक प्रागैतिहासिक काल से प्रारम्भ होकर प्राचीनकाल के निरन्तर विकसित होती रही तथा इसको हिन्दू धर्म में एक प्रमुख स्थान मिला.
> शैव धर्म : प्रमुख सम्प्रदाय
शैव धर्म से सम्बन्धित निम्नलिखित सम्प्रदाय हैं
(1) पाशुपत - यह शैव धर्म का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है, जिसकी स्थापना 'लकुलीश' ने की थी. इन्हें स्वयं शिव का अवतार माना जाता है. इस सम्प्रदाय के अनुयायी अपने हाथ में एक 'लगुड' (दण्ड ) धारण करते हैं, जो शिव का प्रतीक समझा जाता है. इसके अनुयायी अपने मस्तक पर भस्म लगाते हैं तथा रुद्राक्ष की माला धारण करते हैं.
महेश्वर कृत 'पाशुपत सूत्र' में इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का विवरण मिलता है.
(2) कापालिक – इस मत के उपासक भैरव को शिव का अवतार मानकर उनकी उपासना करते हैं तथा सुरा व सुन्दरी का पान करते हैं. जटा-जूट रखते हैं, मांस खाते हैं, की भस्म अपने शरीर पर लगाते हैं तथा हाथ में नरमुण्ड धारण करते हैं. श्मसान
(3) लिंगायत सम्प्रदाय – इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु तथा उनके शिष्य वीर बासव हैं. इसका प्रचार दक्षिण शिवलिंग को चाँदी के सम्पुट में बन्द कर उसे गले में धारण भारत में मुख्य रूप से हुआ. इस सम्प्रदाय के अनुयायी करते हैं.
(4) कश्मीरी शैव मत – यह शुद्ध ज्ञानमार्गी शैव मत है तथा ज्ञान को ही परमात्मा की प्राप्ति का इसमें साधना माना गया है. इस मत में शिव के अद्वैत रूप को स्वीकार किया गया है, शिव सर्वव्यापी हैं तथा संसार इन्हीं का रूप है. शक्ति के साथ मिलकर शिव सृष्टि की रचना करते हैं. इसके अनुसार व्यक्ति के अज्ञान का आवरण हटते ही उसे वास्तविकता का बोध होता है और यही मोक्ष है.
(5) इन चार सम्प्रदायों के अतिरिक्त मत्स्येन्द्रनाथ ने 'नाथ सम्प्रदाय' का प्रवर्तन किया, जिनकी क्रियाएँ और आचार बौद्धों से मिलती-जुलती हैं. इनकी साधना में नारी का प्रमुख स्थान है, बाद में 10-11वीं सदी में बाबा गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार किया.
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