विस्तार एवं संगठन– बाबर और हुमायूँ
> 1526 ई. के भारत की राजनीतिक स्थिति का विवरण
1526 ई. या सोलहवीं सदी के आरम्भ में भारत की जो राजनीतिक दशा थी, उसे निम्नलिखित शीर्षकों में बाँटा जा सकता है—
(i) केन्द्रीय सत्ता का दुर्बल होना.
(ii) उत्तरी भारत के राज्य.
(iii) दक्षिणी भारत के राज्य.
(i) केन्द्रीय सत्ता का दुर्बल होना — इस समय तक दिल्ली सल्तनत अपनी सत्ता की चमक खो चुकी थी तथा इसका एक बड़ा भाग अशान्त था तथा क्षेत्रीय शक्तियाँ अपने को स्वतन्त्र करने के लिए प्रयासरत थीं. अतः इस समय विद्रोहों और छिट-पुट संघर्षों का दौर चल रहा था. दिल्ली का राजसिंहासन निस्सन्देह प्रतिद्वन्द्वी गुटों के बीच उछाला जा रहा था.
इस समय प्रान्तों में कुछ संगठित राज्य भी थे, जोकि पर्याप्त रूप से सैनिक साधन सम्पन्न थे और व्यवस्थित रूप से प्रशासित थे. बंगाल, जौनपुर, मालवा, गुजरात आदि को हम ऐसे राज्यों में रख सकते हैं.
(ii) उत्तरी भारत के राज्य– बाबर के आक्रमण के समय उत्तरी भारत छोटे-छोटे अनेक राज्यों में विभक्त हो गया था और केन्द्रीय शक्ति इस समय क्षीण हो गई थी और इस समय उत्तरी भारत में निम्नलिखित प्रमुख राज्य थे-
(A) दिल्ली - इस समय दिल्ली उत्तरी भारत का सर्वप्रमुख राज्य था तथा दिल्ली का सुल्तान इब्राहीम लोदी एक विशाल साम्राज्य का स्वामी था, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उसका प्रभाव दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों तक ही था. उसके कठोर एवं मनमाने व्यवहार से उसके दरबारी एवं सैनिक अधिकारी तंग आ चुके थे तथा सभी उसके पतन के आकांक्षी थे. लाहौर के सूबेदार दौलत खाँ लोदी ने अपने आपको स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया था.
(B) मेवाड़ – मेवाड़ उत्तरी भारत का सर्वप्रमुख हिन्दू राज्य था. यहाँ का शासक राणा सांगा था, जोकि स्वयं दिल्ली सल्तनत पर अपना अधिकार करना चाहता था. इसका प्रभाव सम्पूर्ण राजपूताने पर था. बाबर ने स्वयं अपनी आत्मकथा में इस शासक का उल्लेख किया है.
(C) अन्य राज्य– बाबर के आक्रमण के समय पंजाब, खानदेश, उड़ीसा, कश्मीर एवं सिन्ध आदि अन्य स्वतन्त्र राज्य थे. इसमें पंजाब का शासक इब्राहीम लोदी का भाई दौलतखाँ लोदी था. उसने आपसी वैमनस्य के कारण बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया था.
> पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर की विजय के कारण (21 अप्रैल, 1526)
पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय और बाबर की विजय के निम्नलिखित कारण थे –
1. बाबर एक अनुभवी और महान् सेनानायक था. उसने रण-क्षेत्र में वह प्रत्येक चाल अपनाई जिससे शत्रु घबरा गया. लेनपूल के अनुसार "पानीपत के रणक्षेत्र में, मुगल सेनाओं ने घबराकर युद्ध आरम्भ किया, लेकिन उनके सम्राट की वैज्ञानिक योजना और अनोखी चालों ने उन्हें आत्मविश्वास और विजय प्रदान की."
2. बाबर की विजय में सर्वाधिक योगदान उसके शक्तिशाली तोपखाने ने दिया. इस युद्ध में लोंदी के पास कोई तोपखाना नहीं था और न ही उनके पास गोलाबारी की कोई विशेष सामग्री ही ऐसी स्थिति में बाबर के तोपखाने ने अफगान सेनाओं पर कहर बरपा दिया.
3. लोदी की पराजय का मुख्य कारण उसके सरदारों एवं सूबेदारों का उससे रुष्ट होना था. कुछ सरदारों ने केवल ऊपर से लोदी का साथ दिया तथा वे भीतर ही भीतर बाबर के सहयोगी बने रहे. स्वयं इब्राहीम के भाई व पंजाब के सूबेदार दौलतखाँ लोदी ने बाबर को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण भेजा था.
4. अफगानों का सैनिक संगठन मुगलों के सैनिक संगठन की तुलना में. बहुत अकुशल और दुर्बल था. लोदी के अधिकांश सैनिक किराये के थे तथा पहले उन्हें अपनी जान-माल की चिन्ता अधिक थी, जबकि मुगल सैनिक संख्या में कम होते भी हुए बहुत अच्छी तरह संगठित और व्यवस्थित थे तथा उनमें अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए जान देने की लगन थी.
5. बाबर की विजय में उसके द्वारा अपनाई गई 'तुलगमा नीति' (रिजर्व सेना) ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया. जब युद्ध अपनी चरमसीमा पर था और दोनों ओर के सैनिक युद्ध करते हुए थक गये थे, तब बाबर की सुरक्षित सेना ने पूरे जोश और स्फूर्ति के साथ युद्ध स्थल में प्रवेश किया और बाबर को विजयश्री दिलवा दी.
इस प्रकार स्पष्ट है कि पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर के कुशल नेतृत्व, उसकी सेना का अनुशासन एवं संगठन तथा तोपखाने आदि ने मिलकर बाबर को विजयी बनाया तथा दिल्ली सल्तनत का सदा के लिए अन्त हो गया.
> पानीपत के प्रथम युद्ध का परिणाम एवं महत्व
इस युद्ध के परिणाम एवं महत्व के विषय में डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि, “इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक युद्ध के बाद लोदी वंश की सत्ता टूटकर नष्ट हो गई और हिन्दुस्तान का प्रभुत्व चुगताई वंश के तुर्कों के हाथों में चला गया.” इस युद्ध के महत्वपूर्ण परिणाम निम्नलिखित थे
1. इस युद्ध ने सल्तनतकाल के अन्तिम वंश लोदी वंश का नाश कर भारत में एक नये मुगल अध्याय का सूत्रपात किया.
2. इस युद्ध के बाद बाबर की एक नई मंजिल तय हो गई और उसे उत्तरी भारत पर बहुमूल्य अधिकार मिल गया. दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार करने के बाद उसे अब भविष्य में राज्य विस्तार के लिए युद्धों की योजनाएँ ही बनानी थीं.
3. बाबर को दिल्ली, आगरा और अन्य स्थानों पर अपार धन-दौलत प्राप्त हुई. विख्यात कोहिनूर हीरा भी उसे आगरा के खजाने से प्राप्त हुआ.
4. मुगल साम्राज्य की स्थापना से राजपूतों द्वारा दिल्ली को जीतकर सारे भारत में हिन्दू शासन की स्थापना के स्वप्न मिट्टी में मिल गये. बाबर की इस विजय से मुसलमानों का डगमगाता साम्राज्य दुबारा से जम गया.
5. बाबर की युद्ध नीति और मुगल शासन की स्थापना से भारत में एक नई युद्ध-प्रणाली विकसित हुई और तोपखाने का रिवाज प्रारम्भ हो गया.
> पानीपत के युद्ध के बाद बाबर की कठिनाइयाँ
पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर की विजय ने उसे
दिल्ली और आगरा का शासक बना दिया, लेकिन उसके सामने शासक बनते ही अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो गईं. जिनका विवरण निम्नलिखित है
1. बाबर ने जब आगरा में सत्ता सम्हाली, तब उसका अधिकार क्षेत्र बहुत सीमित था. अभी उसे उत्तरी भारत का राजा तक नहीं माना जा सकता था. अतः उसे अपने अधीन क्षेत्र को विस्तारित करना था.
2. भारतीय जनता में पूर्ववर्ती अन्य लुटेरों की भाँति मुगलों के प्रति भी भय और अविश्वास की भावना घर कर गई थी. लोगों ने नगरों को छोड़ दिया था तथा नगर के फाटकों को बन्द करके लोग सुरक्षा व्यवस्था में लगे हुए थे. लोगों में मुगलों के प्रति घृणा थी. अतः बाबर को अपने भारतीय साम्राज्य में स्थायित्व लाने के लिए इन परिस्थितियों को बदलना आवश्यक था.
3. दिल्ली का राज्य सिंहासन बाबर के लिए अभी पूर्णतया असुरक्षित था. मध्यवर्ती भारत के विद्रोही सरदार बाबर की शक्ति को चुनौती दिये हुए थे. शक्तिशाली और वीर राजपूत राणा सांगा के नेतृत्व में बाबर के प्रबल शत्रु थे.
4. इब्राहीम लोदी की मृत्यु के बाद अफगान सरदार इधरउधर स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने में लगे थे. कासिम खाँ ने सम्भल, हसन खाँ ने मेवात तथा निजाम खाँ ने बयाना पर अधिकार कर लिया था. इसी तरह बंगाल व बिहार में भी अफगानों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी. बाबर भारत में तब तक सुरक्षित नहीं था, जब तक कि वह अफगानों को समाप्त न कर देता.
5. बाबर के स्वयं के सैनिक एवं सरदार बाबर के लिए परेशानी का एक बड़ा कारण बने हुए थे, क्योंकि वे सभी भारत से वापिस अपने देश लौटना चाह रहे थे. बाबर को अपने सैनिकों को इस बात के लिए तैयार करना था कि वे भारत में रहकर उसके मुगल साम्राज्य की स्थापना के उद्देश्य को सफल बनायें.
बाबर ने अपनी युद्ध-नीति, कूटनीति, धैर्य और से उपर्युक्त सभी समस्याओं पर धीरे-धीरे नियन्त्रण पा लिया.
> खानवा का युद्ध (16 मार्च, 1527)
पानीपत के युद्ध के बाद बाबर द्वारा भारत में लड़े गये युद्धों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण खानवा का युद्ध था. जहाँ पानीपत के युद्ध में विजय के बाद बाबर को दिल्ली एवं आगरा का शासक बना दिया. मुगल राज्य की नींव भारत में रख दी. वहीं खानवा के युद्ध ने बाबर के प्रबलतम शत्रु राणा सांगा का अन्त कर बाबर की विजयों को स्थायित्व प्रदान किया. बाबर व राणा के मध्य युद्ध के निम्नलिखित कारण थे –
1. राणा सांगा के पास एक बहुत बड़ी सेना एवं युद्ध सामग्री थी. कर्नल टॉड के अनुसार, अस्सी हजार घुड़सवार, 7 बड़े-बड़े नरेश, 9 राव और 104 रावल तथा रावल हर समय उसके इशारे पर चलने के लिए तैयार रहते थे. उसकी यही शक्ति बाबर के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बनी.
2. राणा सांगा यह समझता था कि बाबर भी अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों की तरह ही लूटपाट कर भारत से चला जायेगा, लेकिन जब उसने देखा कि बाबर ने भारत में रहने का निश्चय कर लिया है, तब उसका बाबर से टकराना निश्चित हो गया था.
3. राणा सांगा ने बाबर को उखाड़ फेंकने के लिए इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी, हसनखाँ मेवाती से गठजोड़ कर लिया. यह स्थिति बाबर के लिए और भी खतरनाक थी.
4. यह भी कहा जाता है कि बाबर और सांगा में पहले यह सन्धि हुई थी कि बाबर एक ओर से और सांगा दूसरी ओर से इब्राहीम लोदी पर आक्रमण करेंगे, लेकिन जब बाबर ने भारत में रहने का निश्चय कर लिया तब राणा ने बाबर का साथ न देने का निश्चय कर लिया.
5. बाबर और राणा सांगा के मध्य युद्ध का तात्कालिक कारण यह था कि बाबर ने बयाना के दुर्ग पर अधिकार कर लिया. बयाना का दुर्ग सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था और राणा सांगा उसे अपने अधीन समझता था. अतः दोनों में टक्कर होना अवश्यंभावी हो गया.
> युद्ध
राणा सांगा ने बाबर पर आक्रमण करने के पूर्व अपनी स्थिति सुदृढ़ की. उसकी सहायता के लिए हसन खाँ मेवाती, महमूद लोदी तथा अनेक राजपूत सरदार उसकी सहायता के लिए अपनी-अपनी सेना के साथ पहुँचे, इससे राणा का हौसला बढ़ गया तथा वह आगरा पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा और बयाना में मुगल ख्वाजा मेंहदी को हराकर उस पर अधिकार कर लिया. सीकरी के पास आरम्भिक मुठभेड़ में भी मुगलों को पराजित होना पड़ा. इन आरम्भिक विफलताओं से मुगल सैनिक आतंकित हो गये और उनका मनोबल गिर गया, यह एक कठिन परिस्थिति थी. बाबर ने धैर्यपूर्वक स्थिति का मुकाबला किया और अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए उसने 'जिहाद' की घोषणा की. उसने शराब नहीं पीने की कसम खाई तथा मुसलमानों पर से 'तमगा' कर हटा दिया. उसने अपनी सेना को यह आश्वासन दिया कि युद्ध के बाद जो सैनिक अपने घर जाना चाहेंगे उन्हें वापस अपने घर लौटने दिया जायेगा. इससे बाबर के सैनिकों का उत्साह बढ़ गया.
बाबर ने राणा सांगा का मुकाबला करने के लिए सीकरी के निकट खानवा नामक स्थान पर डेरा लगाया तथा उसने जिस तरह पानीपत के मैदान में युद्ध के लिए रणनीति बनाई थी. यहाँ भी बनाई. गाड़ियाँ खड़ी कर तथा खाइयाँ खुदवाकर रक्षा पंक्ति को सुदृढ़ कर दिया गया. बाबर के अनुसार सांगा. की सेना में 2 लाख से अधिक सैनिक थे. 18 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में दोनों सेनाओं में भयंकर संघर्ष हुआ. राजपूत अत्यन्त वीरता से लड़े, लेकिन बाबर के 'तोपखाने' और उसकी युद्ध की 'तुलगमा नीति' ने राजपूतों को पराजित कर दिया. राणा सांगा स्वयं गम्भीर रूप से घायल हो गया तथा युद्ध क्षेत्र से भाग गया, ताकि वह पुनः बाबर से युद्ध कर सके, परन्तु उसके सामन्तों ने उसे विष देकर मार डाला. इस युद्ध के बाद बाबर ने 'गाजी' की उपाधि ग्रहण की. यह उसकी महान् विजय थी.
> खानवा के युद्ध का महत्व
> खानवा के युद्ध के परिणाम पानीपत के युद्ध से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं निर्णायक सिद्ध हुए. पानीपत के पश्चात् भी बाबर की स्थिति निरापद नहीं थी, परन्तु खानवा के युद्ध के बाद उसे राज्य खोने का भय नहीं रहा और उसकी स्थिति सुदृढ़ हो गई तथा राजपूतों का भारत में हिन्दू राज्य स्थापित करने का स्वप्न समाप्त हो गया और बाबर की स्थिति अधिक सुरक्षित हो गई. रशब्रुक विलियम ने ठीक ही लिखा है कि, “यद्यपि बाबर को अभी अनेक युद्ध करने थे, परन्तु ये युद्ध राज्य विस्तार के लिए थे न कि गद्दी के लिए.
राजनीतिक क्षेत्र से राजपूतों का स्वतन्त्र प्रभुत्व हमेशा के लिए समाप्त हो गया, किन्तु मुगल सम्राटों के संरक्षण में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान मिला और भारत में भविष्य के लिए मुगल साम्राज्य के लिए आधार स्तम्भ बन गये.
> राजपूतों के हार के कारण
महि खानवा के युद्ध में राजपूतों के शक्तिशाली होते हुए भी उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा. इसके निम्नलिखित कारण रहे थे-
1. बाबर के पास एक विशाल तोपखाना था जिसका सामना करने में राजपूत असफल रहे. वे केवल तलवार और भाले के बल पर लड़ना जानते थे.
2. बाबर का सैन्य संचालन और व्यूह रचना राजपूत सैन्य संगठन से उत्तम था. हालांकि राणा सांगा भी एक महान् योद्धा था और उसकी रणनीति भी श्रेष्ठ थी, लेकिन मुगल रणनीति उसके लिए एकदम नई थी.
3. बाबर की सेना संख्या में राजपूतों से कम होते हुए भी बहुत अधिक प्रशिक्षित एवं अनुशासित थी.
4. राणा सांगा ने बाबर द्वारा बयाना पर कब्जा करने के बाद तुरन्त आगे बढ़कर बाबर पर हमला न करके बड़ी भारी भूल की. इससे बाबर को काफी अधिक समय मिल गया और उसने अपनी सेना को पानीपत के मैदान की तरह व्यवस्थित कर लिया.
इन्हीं सब कारणों का अन्तिम परिणाम यह रहा कि राजपूतों की सैनिक संख्या के अधिक होते हुए भी वह उसकी तोपों और तुलगमा नीति का मुकाबला न कर सके.
> बाबर के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए ?
जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर अपने समय का एक महत्वाकांक्षी शासक था. वह अपने बाल्यकाल से लेकर जीवनपर्यन्त तक निरन्तर युद्धों में संलग्न रहा तथा उसने भारत में अपने सैन्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया तथा उसने भारत में एक ऐसे साम्राज्य का निर्माण किया, जो उसके बाद भी सदियों तक चलता रहा.
बाबर की भारत विजय ने कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद पहली बार भारतीय साम्राज्य में काबुल और कांधार को सम्मिलित किया. इससे भारतीय विदेशी व्यापार को म मिली. अनेक विद्वान् बाबर को एक वीर विजेता मानते हैं, लेकिन साम्राज्य निर्माता नहीं लेनपूल के अनुसार, “बाबर केवल एक सैनिक था, साम्राज्य निर्माता नहीं." यह सच है, कि उसने भारत में मुगल वंश की नींव रखी. भारत में सिन्धु . से बिहार और हिमालय से लेकर ग्वालियर एवं चन्देरी तक विस्तृत राज्य की स्थापना की, परन्तु बाबर की यह विजय स्थायी न रही, बाबर अफगानों की शक्ति को पूरी तरह नहीं कुचल सका और उसकी मृत्यु के साथ अफगानों ने उसके पुत्र हुमायूँ को भारत से बाहर खदेड़ दिया.
बाबर अपने राज्य को स्थायित्व नहीं प्रदान कर सका. वह वीर विजेता था, प्रशासक नहीं, वह सदैव युद्धों में ही लगा रहा. रिस्कन लिखते हैं, बाबर ने जो कार्य किये उनसे अधिक महत्वपूर्ण कार्यों को वह नहीं कर सका. उसके राज्य में प्रशासनिक एकरूपता का अभाव था. प्रत्येक राज्य जिले, नगर एवं ग्राम के अपने-अपने कानून थे. राजकुमारों की उच्छृंखल प्रवृत्ति पर रोक लगाने, न्याय व्यवस्था सुदृढ़ करने, अधिकारियों को मनमानी करने एवं राज्य की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने का प्रयास बाबर ने नहीं किया. इसके विपरीत लगातार युद्धों एवं अपने सहयोगियों को उदारतापूर्वक दान देने से बाबर का कोष रिक्त हो गया. बाबर ने एक गलती और की उसने अपने राज्य को विभिन्न जागीरों में बाँटकर जागीरें विभिन्न जागीरदारों को सौंप दीं. ये जागीरदार बराबर अपनी शक्ति बढ़ाते रहते थे और विद्रोह करने के अवसर ढूँढ़ते रहते थे. इस प्रकार बाबर ने अपने पुत्र के लिए एक ऐसा स्वतन्त्र राज्य छोड़ा जो केवल युद्ध कालीन परिस्थितियों में ही सुसंगठित रह सकता था. शान्तिकाल के लिए तो यह निर्बल, अव्यवस्थित और बिना रीढ़ वाला था. इन सबके बावजूद भी बाबर के कार्यों का महत्व कम नहीं हो जाता. इसके लिए उसे अवसर ही नहीं मिल सका. वह भारत में 4 वर्षों तक रहा और इस दौरान उसने चार बड़े-बड़े युद्ध लड़े. इसके अतिरिक्त उसने सबसे बड़ा कार्य यह किया कि तुर्क व अफगानों द्वारा धारण की जाने वाली 'सुल्तान' उपाधि के स्थान पर 'पादशाही’ का विकास किया. उसने दैवीशक्ति के सिद्धान्त पर आधारित बादशाहत की स्थापना की. अब राजा का आधार प्रजा की इच्छा नहीं, बल्कि दैवीय इच्छा मानी जाने लगी.
यद्यपि बाबर ने राजनीतिक कारणों से प्रेरित होकर राणा सांगा के विरुद्ध हुए ‘खानवा' के युद्ध को 'जिहाद' की संज्ञा दी, तथापि उसे धर्मान्ध नहीं कहा जा सकता. कट्टर सुन्नी मुसलमान होते हुए. भी उसने शियाओं पर अत्याचार नहीं किये. इस प्रकार भारत विजय के बाद भी उसके द्वारा मन्दिर तोड़ने के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं.
बाबर में साहित्यिक एवं कलात्मक प्रतिभा भी थी. वह अरबी एवं फारसी भाषाओं का अच्छा ज्ञाता था. वह तुर्की भाषा के प्रसिद्ध लेखकों में से गिना जाता है. उसने अपनी आत्मकथा 'तुजुक-ए-बाबरी' तुर्की भाषा में ही लिखी. उसे फारसी में कविता की 'मुवाइयाँ' नामक एक नई शैली प्रचलित करने का श्रेय मिलता है.
अन्त में बाबर के विषय में हम कह सकते हैं कि उसका चरित्र और व्यक्तित्व महान् था. वह एक महान् योद्धा, कलाप्रेमी और साहित्यानुरागी था, परन्तु उसमें शेरशाह और अकबर जैसे प्रशासकीय गुणों का अभाव था.
> हुमायूँ की कठिनाइयाँ
हुमायूँ ने बाबर की मृत्यु के बाद जो राज्य प्राप्त किया. वास्तव में उसके लिए वह काँटों का ताज था. उसके समय की राजनीतिक और आन्तरिक परिस्थितियाँ उसके प्रतिकूल थीं, लेकिन अपनी समस्याओं के लिए वह स्वयं भी कम जिम्मेदार नहीं है. लेनपूल ने कहा है, "हुमायूँ जीवन भर ठोकर खाता रहा और ठोकर खा-खाकर ही उसके जीवन का अन्त हुआ." उसकी कठिनाइयों को दो भागों में बाँटा जा सकता है—(1) विरासत में प्राप्त कठिनाइयाँ व ( 2 ) हुमायूँ द्वारा स्वयं पैदा की गई समस्याएँ.
(1) विरासत में प्राप्त कठिनाइयाँ- बाबर ने भारत में अपने राज्य विस्तार के लिए अनेक युद्ध लड़े थे. इस कारण उसके अनेक शत्रु थे. अतः बाबर की मृत्यु के बाद वे सभी हुमायूँ के स्वभाविक दुश्मन थे. इसके अतिरिक्त मुगलों में उत्तराधिकार के कोई निश्चित नियम नहीं थे. यही कारण था कि बाबर द्वारा हुमायूँ को मनोनीत करने के बाद भी उसके प्रधानमन्त्री ने ख्वाजा मेंहदी को शासक बनाने का षड्यन्त्र रचा, जो विफल हो गया.
हुमायूँ की एक बड़ी समस्या धन की कमी थी. बाबर ने अपना सम्पूर्ण खजाना सैनिक अभियानों एवं अपने सैनिकों और अमीरों को प्रसन्न करने में खर्च कर डाला था. हुमायूँ का प्रशासनिक संगठन अभी नवजात अवस्था में था. इस कारण राजस्व की वसूली भी ठीक से नहीं हो पा रही थी.
बाबर ने अपने अमीरों को जागीरें प्रदान कर रखी थीं. उसकी मृत्यु के बाद ये अमीर अपने क्षेत्रों में अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में लगे थे. हुमायूँ के सम्बन्धी जिन्हें मिर्जा कहा जाता था और भी अधिक शक्तिशाली थे और ये लोग राज्य पर अपना अधिकार समझते थे तथा हुमायूँ को विशेष महत्व देने को तैयार नहीं थे. इनमें मुहम्मद जमाल मिर्जा, मुहम्मद सुल्तान एवं मेंहदी ख्वाजा आदि प्रमुख थे.
बाबर की मृत्यु से पूर्व उसकी सेना बड़ी ही अनुशासित एवं संगठित थी, परन्तु युद्ध में लूट के माल का अधिकांश हिस्सा बाबर ने अपने अमीरों में बाँट दिया था, जिससे सैनिकों में असन्तोष उभरने लगा और उसकी मृत्यु के बाद यह असन्तोष और अधिक बढ़ गया. हुमायूँ में इतनी अधिक कूटनीतिज्ञता नहीं थी कि वह सेना के सभी वर्गों को प्रसन्न रख सके.
बाबर ने मरते समय हुमायूँ से कहा था कि वह अपने भाइयों के प्रति उदारता का व्यवहार करे. अतः बाबर की मृत्यु के बाद उसने अपने राज्य का विभाजन अपने भाइयों में कर दिया, लेकिन उसके भाइयों ने सदा ही हुमायूँ के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया और विपत्ति के समय हुमायूँ की कोई सहायता नहीं की.
इसी प्रकार बाबर द्वारा अफगानों की शक्ति को पूर्णतया न कुचल पाने के कारण वे उसके लिए जीवन भर सरदर्द बने रहे और उन्होंने हुमायूँ को भारत से बाहर निर्वासित कर में सफलता प्राप्त की.
इन सबके अतिरिक्त हुमायूँ में अनेक चारित्रिक दुर्बलताएँ भी थीं. उसमें दृढ़ इच्छा शक्ति, राजनीतिक दूरदर्शिता एवं सैन्य रण कौशल का अत्यन्त अभाव था. वह शीघ्र ही निर्णय नहीं ले पाता था तथा एक कार्य को पूरा किये बिना ही उसे छोड़कर दूसरा करना प्रारम्भ कर देता था. इन सबके परिणामस्वरूप उसने अपने जीवन में भयंकर भूलें कीं, जिसके कारण उसे 15 वर्षों तक निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा.
(2) हुमायूँ द्वारा स्वयं पैदा की गई समस्याएँ—यद्यपि बाबर ने हुमायूँ के लिए विरासत में काँटों का ताज छोड़ा था, तथापि यदि हुमायूँ राजनीतिक सूझ-बूझ, दृढ़ संकल्प एवं इच्छा शक्ति का प्रयोग करता तो आसानी से अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकता था. उसने अपने जीवन के प्रत्येक कदम पर भूलें कीं जिसके कारण उसे भारत से बाहर निर्वासन की अवधि से गुजरना पड़ा. वास्तव में वह स्वयं ही अपना शत्रु साबित हुआ. उसके द्वारा स्वयं उत्पन्न की गई समस्याएँ निम्नलिखित हैं -
उसने शासन सत्ता सम्हालते ही अपने भाइयों कामरान, हिन्दाल और अस्करी के मध्य राज्य का विभाजन कर बहुत बड़ी राजनीतिक भूल की. चाहिए तो यह था कि हुमायूँ पूरे राज्य पर नियन्त्रण कायम कर उसे संगठित करता, लेकिन उसने महत्वपूर्ण प्रदेश अपने भाइयों को सौंप दिया, कामरान के पास काबुल और पंजाब चले जाने से उसे इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण सामरिक स्थल नहीं मिल सके.
अपनी अदूरदर्शिता एवं सही समय पर आक्रमण न करना हुमायूँ के लिए विनाशकारी सिद्ध हुए. राज्यारोहण के बाद हुमायूँ द्वारा अपने विरोधियों का तुरन्त ध्यान न करना तथा उनको अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर देना हुमायूँ की एक बड़ी गलती थी तथा यही गलती उसके लिए आगे चलकर बड़ी समस्या बनी.
चुनार के प्रथम घेरे के समय यदि वह शेरशाह की बातों में न आता और समझौते के स्थान पर उसका पूर्णतया दमन कर देता तो शेरखाँ कभी भी शेरशाह न बन पाता. बंगाल में भी उसने अपना समय अनावश्यक रूप से गँवाया तथा चौसा और कन्नौज में लड़ी गई लड़ाइयों में तुरन्त आक्रमण न कर शत्रु को पर्याप्त समय देकर बड़ी भारी भूल की. ठीक इसी प्रकार मालवा एवं गुजरात विजय करने के बाद तुरन्त यदि बहादुरशाह के विरुद्ध कार्यवाही कर देता तो यह काँटा उसके लिए सदा के लिए निकल जाता, परन्तु वह माण्डू में भोगविलास में डूबा रहा.
हुमायूँ को उत्सव मनाने, इनाम देने तथा भोग-विलास करने का बहुत अधिक शौक था. इसके लिए उसने अपना बहुत-सा धन बर्बाद कर दिया. उसका खजाना पहले से ही खाली था. अतः इन शौकों ने उसकी आर्थिक स्थिति को और अधिक लचर बना दिया.
हुमायूँ के कोई भी सैनिक अभियान योजनाबद्ध नहीं थे. एक तरफ तो वह बहादुरशाह पर आक्रमण करता और उसे पूरी तरह नष्ट किये वगैर ही वह दूसरी तरफ बढ़कर शेरखाँ पर आक्रमण कर देता था. वह यह भी नहीं समझ पाया कि शेरखाँ से बंगाल अथवा बिहार में कहाँ निबटा जाये.
इस प्रकार स्पष्ट है कि हुमायूँ वीर एवं साहसी होते हुए भी असफल रहा, क्योंकि वह एक उदार, क्षमाशील व्यक्ति होने के कारण तथा समय पर सही निर्णय न लेने की वजह से उसे असफल होना पड़ा तथा यह भी कि उसे एक समय में दो प्रबल प्रतिद्वन्द्वियों, जोकि विपरीत दिशा में थे, उलझना पड़ा और आवागमन के साधनों की कमी व भौगोलिक कठिनाइयों ने उसके कार्य को और अधिक कठिन बना दिया.
> हुमायूँ और शेरखाँ
हुमायूँ का सबसे बड़ा शत्रु शेरखाँ था, जो बंगाल और बिहार का शासक था. अतः हुमायूँ ने शासन सत्ता सम्हालते ही शेरखाँ और अफगानों की शक्ति को दमन करने के उद्देश्य से चुनार के किले को घेर लिया. इस पर शेरखाँ ने ने हुमायूँ को अपनी बातों में फँसाकर उसकी अधीनता स्वीकार करने का नाटक किया. इस पर हुमायूँ चुनार का किला उसे ही सौंपकर वापस लौट गया और जब हुमायूँ 1533-36 ई. तक मालवा एवं गुजरात को जीतने तथा अपने आन्तरिक विद्रोहों का दमन करने में व्यस्त था, तब शेरखाँ ने अपनी शक्ति बढ़ा ली तथा उसने अपने लिए एक विशाल एवंं मजबूत सेना एकत्र कर ली. वह अब भारत में अफगानों का सर्वमान्य नेता माना जाने लगा तथा 'हजरत-ए-आला' की उपाधि धारण की. गुप्त रूप से गुजरात के शासक बहादुरशाह की मदद करने लगा तथा हुमायूँ को कर देना बन्द कर दिया. अब शेरखाँ ने बंगाल पर आक्रमण करके तेलियागढ़ी पर अधिकार कर लिया और वहाँ से काफी मात्रा में धन वसूला.
इन सबसे हुमायूँ ने हिन्दूबेग को शेरखाँ के विरुद्ध भेजा, लेकिन शेरखाँ ने हिन्दूबेग को अपनी ओर मिला लिया तथा हिन्दूबेग ने हुमायूँ को यह खबर भेजी कि शेरखाँ मुंगलों के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर रहा है. इस पर हुमायूँ शीघ्र कोई कार्यवाही न कर सका और शेरखाँ को अधिक शक्तिशाली होने का अवसर मिल गया. अब शेरखाँ ने दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण कर दिया और उसे जीत लिया. तब हुमायूँ ने शेरखाँ के विरुद्ध कार्यवाही करने का फैसला कर लिया.
जुलाई 1937 में हुमायूँ ने चुनार के किले को घेर लिया, लेकिन शेरशाह ने इस किले से रसद एवं सैनिक साजो - सामान पहले ही हटा चुका था तथा 6 माह के घेरे के बाद हुमायूँ इस पर कब्जा करने में सफल रहा, लेकिन इससे हुमायूँ को कोई लाभ नहीं हुआ.
जिस समय हुमायूँ ने चुनार का घेरा डाला उसी समय शेरखाँ ने रोहतासगढ़ के दुर्ग तथा बंगाल की राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया. शेरखाँ को बंगाल में बहुत बड़ी मात्रा में सम्पत्ति हाथ लगी. अब हुमायूँ बंगाल की तरफ आगे बढ़ने लगा और निर्विरोध गौड़ पहुँच गया, बंगाल में उसने प्रशासनिक व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया तथा गौड़ का नाम हुमायूँ ने 'जन्नताबाद' रख दिया. इस समय बंगाल में बरसात बरसात आरम्भ हो चुकी थी. अतः वह बंगाल में ही रुक गया.
शेरखाँ ने हुमायूँ को बंगाल में रुका देखकर चुनार, बनारस, जौनपुर, कन्नौज, पटना, इत्यादि स्थानों पर अधिकार कर लिया. इसी बीच उसके भाई हिन्दाल व कामरान ने विद्रोह कर दिया तथा हिन्दाल ने अपने को बादशाह घोषित कर आगरा पर अधिकार कर लिया. इससे हुमायूँ बड़ा चिन्तित हुआ और अब उसने आगरा लौटने का निश्चय कर लिया.
> चौसा का युद्ध
बंगाल से वापस लौटते हुए हुमायूँ ने अनेक गलतियाँ कीं. हुमायूँ को उसके सैन्य सलाहकरों ने सुझाव दिया था कि वह गंगा के उत्तरी किनारे से चलता हुआ जौनपुर पहुँचे और गंगा पार कर शेरखाँ पर आक्रमण करे, परन्तु वह उनकी बात न मानकर गंगा पार कर दक्षिणी मार्ग से चला. यह मार्ग शेरखाँ के नियन्त्रण में था. चौसा नामक स्थान पर उसे शेरखाँ की उपस्थिति का पता चला और अब यहीं वह नदी पार कर शेरखाँ पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन शेरखाँ ने उसे शान्ति वार्ता में उलझाये रखा और स्वयं युद्ध की तैयारी करता रहा. हुमायूँ उसकी चाल को न समझ सका और तीन माह का समय उसने बातचीत में ही बर्बाद कर दिया.
वर्षा के प्रारम्भ होते ही शेरखाँ ने आक्रमण की योजना बनाई और 26 जून, 1539 की रात्रि में शेरखाँ ने मुगल शिविर पर अचानक आक्रमण कर दिया. इस अचानक आक्रमण के कारण मुगल सैनिक घबरा गये और प्राण बचाने की खातिर गंगा नदी कूद पड़े. हुमायूँ स्वयं गंगा में कूद पड़ा तथा निजाम नामक भिस्ती की सहायता से वह अपने जीवन की रक्षा कर सका तथा अपने कुछ विश्वस्त लोगों की सहायता से वह आगरा पहुँचा. इस समय तक उसकी पूरी सेना नष्ट हो चुकी थी तथा अब उसका पतन निश्चित हो गया था. शेरखाँ ने अब शेरशाह की उपाधि ग्रहण कर ली तथा अपने नाम से उसने खुतबा पढ़वाया और सिक्के ढलवाये. उसने जलाल खाँ को बंगाल पर अधिकार करने के लिए भेज दिया तथा स्वयं बनारस, जौनपुर तथा लखनऊ होता हुआ कन्नौज जा पहुँचा.
> कन्नौज तथा बिलग्राम का युद्ध
हुमायूँ ने आगरा पहुँचकर अपने विद्रोही भाइयों कामरान व हिन्दाल को क्षमा कर दिया, लेकिन उसके भाइयों ने उसकी कोई सहायता नहीं की. कामरान अपनी सेना सहित लाहौर चला गया तथा अन्य भाइयों ने अपने को तटस्थ रखा. अतः हुमायूँ ने अकेले अपने दम पर सेना एकत्र की और अप्रैल 1540 ई. में कन्नौज आकर गंगा किनारे अपना पड़ाव डाल दिया. यहाँ भी हुमायूँ ने शेरशाह पर तुरन्त आक्रमण नहीं कर पहले वाली भूल दोहराई तथा वार्ता में संलग्न हो गया तथा शेरशाह की अनुमति लेकर हुमायूँ ने गंगा पार की और बिलग्राम के निकट एक नीची जगह पर अपना शिविर लगा दिया और इसी बीच मुगल सेना में हताशा व्याप्त हो गई, क्योंकि हुमायूँ शेरशाह पर आक्रमण करने में आवश्यकता से अधिक विलम्ब कर रहा था. ऐसी स्थिति में मुगल सरदार और सैनिक हुमायूँ का साथ छोड़कर चले गये और भीषण वर्षा के कारण मुगल शिविर में पानी भर गया.
शेरशाह ने परिस्थितियों का लाभ उठाया और 17 मई, 1540 को हुमायूँ पर अचानक आक्रमण कर दिया. हुमायूँ अपने दो भाइयों अस्करी और हिन्दाल के साथ वीरता से लड़ा, लेकिन वह पराजित हो गया और आगरा भाग गया. शेरशाह ने हुमायूँ का पीछा किया, लेकिन हुमायूँ अपने भाई कामरान के पास लाहौर चला गया. यहाँ कामरान ने हुमायूँ की हत्या का षड्यन्त्र रचा तथा उसके बदख्शाँ जाने के मार्ग में रोड़े अटकाये. इस बीच शेरशाह का पंजाब पर अधिकार हो गया, अतः कामरान, हिन्दाल और अस्करी ने हुमायूँ का साथ छोड़कर काबुल-कान्धार के लिए रवाना हो गये. हुमायूँ ने 1543 ई. तक भारत में ही रहकर सत्ता प्राप्ति का प्रयास जारी रखा, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली और अन्त में वह ईरान चला गया. इस समय फरीद से शेरखाँ होते हुए शेरशाह ने सूर साम्राज्य की भारत में नींव रखी.
> हुमायूँ द्वारा पुनः सत्ता प्राप्ति
शेरशाह के हाथों चौसा और कन्नौज के युद्धों में पराजय के बाद हुमायूँ का मुगल साम्राज्य भारत में समाप्त हो गया. तब हुमायूँ ने पुनः सत्ता प्राप्ति के लिए 1543 ई. तक भारत में रहकर प्रयास किया, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली. इस पर वह दिसम्बर 1543 ई. में ईरान के शाह के पास सहायता के लिए रवाना हुआ और फरवरी 1544 ई. में ईरान के शाह से मिला. ईरान के शाह ने हुमायूँ को शिया मत स्वीकार करने तथा कान्धार को शाह को सौंपने के बदले 14,000 सैनिकों की सहायता तथा अपने भाइयों के प्रति सावधान रहने की सलाह दी.
ईरान के शाह से सैनिक सहायता पाकर हुमायूँ ने सर्वप्रथम कान्धार पर आक्रमण कर अपने भाई अस्करी जोकि कामरान का प्रतिनिधि था को हराकर, 1545 ई. सितम्बर माह में अधिकार कर लिया और इसे ईरान के शाह को सौंप दिया.
इस समय काबुल पर कामरान का अधिकार था. अतः हुमायूँ ने काबुल पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया तथा कामरान गजनी भाग गया. हुमायूँ ने 15 नवम्बर, 1545 को काबुल पर अपना पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया और इसके बाद उसने बदख्शाँ पर भी अपना अधिकार जमा लिया, लेकिन कामरान ने बार-बार 1545 ई. से लेकर 1549-50 ई. तक हुमायूँ पर आक्रमण किया तथा उसे प्रत्येक बार हुमायूँ के द्वारा पराजित होना पड़ा. अन्त में कामरान ने दिल्ली के सूर शासक इस्लामशाह की सहायता से हुमायूँ को हराने का प्रयास किया, लेकिन उसकी कोई सहायता नहीं की और वापस काबुल लौटते हुए उसे पकड़कर हुमायूँ के पास भेज दिया गया जहाँ हुमायूँ ने इसे अन्धा करके मक्का भेज दिया. इसी बीच अस्करी भी मक्का भाग गया तथा हिन्दाल भी एक युद्ध में मारा गया. आन्तरिक इस प्रकार हुमायूँ ने 1553 ई. तक अपने समस्त विरोधियों पर विजय प्राप्त कर ली तथा इस समय वह काबुल, कान्धार, गजनी, बदख्शाँ आदि पर अपनी सत्ता स्थापित कर चुका था और अब वह भारत विजय के लिए आगे बढ़ा.
> पंजाब पर अधिकार
1553 ई. में सूर शासक इस्लामशाह की मृत्यु हो गई इससे सूर साम्राज्य में अनेक उत्तराधिकारी उठ खड़े हुए. हुमायूँ के लिए भारत पर आक्रमण करने का यह सर्वाधिक उपयुक्त अवसर था, अतः हुमायूँ ने 1554 ई. में लाहौर पर बिना किसी प्रतिरोध के अधिकार कर लिया और लाहौर पर अधिकार करने के बाद हुमायूँ ने सरहिन्द, हिसार और दीपालपुर पर भी अधिकार कर लिया. इस प्रकार पूरे पंजाब पर हुमायूँ का बिना किसी विशेष संघर्ष के अधिकार हो गया.
> मच्छीवाड़ा का युद्ध और अफगानों की पराजय
हुमायूँ द्वारा पंजाब पर अधिकार करने की सूचना मिलते ही सिकन्दर सूर ने अपने योग्यतम सेनापतियों तातार खाँ और हैबत खाँ को एक बड़ी सेना के साथ मुगलों के विरुद्ध भेजा. लुधियाना के निकट 'मच्छीवाड़ा' नामक स्थान पर मुगलों एवं अफगानों के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें हुमायूँ को विजय मिली और इस विजय के साथ ही हुमायूँ ने पूरे पंजाब, सरहिन्द, हिसार, फिरोजा और दिल्ली के कुछ समीपवर्ती भागों पर अधिकार कर लिया.
> सरहिन्द का युद्ध
मच्छीवाड़ा में पराजय के बाद सिकन्दर सूर ने स्वयं एक बड़ी सेना के साथ सरहिन्द पर अधिकार करने के लिए रवाना हुआ. 22 जून, 1555 को सरहिन्द के निकट मुगलों एवं अफगानों के मध्य हुए इस संघर्ष में अफगान बुरी तरह पराजित हो गये. सिकन्दर सूर भाग गया तथा इस युद्ध के बाद अफगानों की सत्ता समाप्त हो गई. उल्लेखनीय है कि इस युद्ध में हुमायूँ के साथ बैरमखाँ और उसके अल्पायु पुत्र अकबर ने भी भाग लिया था.
23 जुलाई, 1555 ई. को हुमायूँ ने एक विजेता की तरह दिल्ली में प्रवेश किया जहाँ उसका पुनः अभिषेक कराया गया, खुतबा पढ़ा गया और सिक्के ढलवाये गये व मुगल अमीरों में पुरस्कार वितरित किए गए.
हुमायूँ ने बहुत कठिन परिस्थितियों और विपत्तियों से संघर्ष करते हुए पुनः सत्ता प्राप्त की और भारत में मुगलों के शासन का मार्ग प्रशस्त कर दिया, लेकिन उसके दुर्भाग्य का अन्त यहीं नहीं हुआ. 24 जनवरी 1556 ई. को हुमायूँ अपने पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिर पड़ा तथा घायल हो गया और 26 जनवरी, 1556 ई. को उसकी मृत्यु हो गई. इस पर इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है कि, “हुमायूँ जीवन भर ठोकरें खाता रहा और ठोकर खाकर ही मर गया. "
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